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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान उत्सर्ग का विषय नहीं हो उसे अपवाद सहायता से सिद्ध करता है। मार्ग को जानने वाला भी कारणवश उजड़ मार्ग में दौड़ने वाला क्या पैर से नहीं चलता है? अथवा तीक्ष्ण कठोर क्रिया को सहन नहीं करने वाला, सामान्य क्रिया करने वाला, वह क्या क्रिया नहीं करता है? जैसे ऊँचे की अपेक्षा से नीचा और नीचे की अपेक्षा ऊँचे की प्रसिद्धि है, वैसे एक-दूसरे की प्रसिद्धि प्राप्त करते उत्सर्ग और अपवाद मार्ग दोनों भी बराबर हैं। कहा है कि 'जितने उत्सर्ग हैं उतने ही अपवाद हैं और जितने अपवाद हैं उतने ही उत्सर्ग मार्ग हैं।'1 ये उत्सर्ग और अपवाद मार्ग दोनों अपने-अपने स्थान पर बलवान हैं, और हितकर बनते हैं, और स्वस्थान परस्थान का वे विभाग करते हैं। वह उस वस्तु से अर्थात् वह उस द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुषादि की अपेक्षा निर्णीत होता है। उत्सर्ग से निर्वाह कर सके, उसके लिए उत्सर्ग रूप विधान किया है, वह उसके लिए स्वस्थान और निर्बल को वह उत्सर्ग विधान परस्थान कहलाता है। इस तरह अपने अपने स्वस्थान अथवा परस्थान कोई भी द्रव्यादि वस्तु कारण बिना निरपेक्ष नहीं होती है। अपवाद भी ऐसा वैसा नहीं है। परंतु जो स्थिर वास रहता है और उसे भी निश्चय गीतार्थ ने पुष्ट गाढ़ कारण बतलाया है। इस विषय पर अधिक कहने से क्या? अब प्रस्तुत विषय को कहते हैं। शुद्ध वस्त्र आदि की प्राप्ति होती हो तब पूर्व में गाढ़ कारण से अशुद्ध लिये हो उसका विधिपूर्वक त्याग करें (परठ दे), निरोगी होने के पश्चात् बिमारी आदि के कारण भी जो-जो अन्न, औषध आदि अशुद्ध का उपयोग किया हो, उसका प्रायश्चित्त स्वीकार करें। ६. साध्वी द्वार : इस तरह साधु द्वार कहा है, उसी तरह साध्वी द्वार भी जान लेना। केवल स्त्रीत्व होने से उनको अपाय बहुत होते हैं। आर्याएँ परिपक्व स्वादिष्ट फलों से भरे हुई बेर वृक्ष समान हैं, इसलिए वह गुप्ति रूपी वाड़ द्वारा रक्षित घिरी हुई भी स्वभाव से ही सर्वभोग होती है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक हमेशा सर्व प्रकार से रक्षण करने योग्य है, यदि उनका किसी शत्रु द्वारा अथवा दुराचारी व्यक्तियों से अनर्थ होता हो तब अपना सामर्थ्य न हो तो साधारण द्रव्य का खर्च करके भी संयम में विघ्न करनेवाले निमित्त का सम्यग् नाश करना चाहिए और उनकी रक्षा करनी चाहिए ।।२८६१।। इस तरह साध्वी द्वार कहा। अब श्रावक द्वार कहते हैं :७. श्रावक द्वार : इसमें श्रावक यदि धर्म में अनुरागी चित्तवाला हो, धर्म अनुष्ठानों में तल्लीन रहता हो और श्रेष्ठ गुणवाला होते हुए भी यदि किसी तरह आजीविका में मुश्किल होती हो, तो उसमें व्यापार कला हो तथा यदि वह धन का गलत कार्यों में नाश करने वाला न हो, तो कोई भी व्यवस्था करके साधारण द्रव्य से भी व्यापार के लिए उसे मूल राशि दे, और वह व्यापार की कला से रहित हो, तो भी उसे आवश्यकता से आधा या चौथा भाग आदि आजीविका के लिए दे, अथवा यदि वह व्यसनी, झगड़े करने वाला अथवा चुगलखोर न हो, चोर या लंपट आदि अवगुण न हो, शुद्ध, स्वीकार की हुई बात को पालन करने वाला, दाक्षिण्य गुण वाला और विनयरूपी धनवाला विनीत हो तो उसे ही नौकर के कार्य में अथवा अन्य किसी स्थान पर रखवाना चाहिए। समान धर्मी अर्थात् साधर्मिक भी निश्चय ही उन गणों से रहित हो अथवा विपरीत अवगुणी हो तो, उसे रखने से अवश्य ही लोग में अपनी और शासन की भी निन्दा होने का संभव है। ८. श्राविका द्वार : श्रावक द्वार के समान श्राविका द्वार भी इसी तरह जानना। केवल आर्याओं के समान उनकी भी चिंता 1. जावइया उस्सग्गा तावइया चेव होंति अववाया। जावइया अववाया, उस्सग्गा तत्तिया चेव ।।२८५३।। 124 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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