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________________ हमें परिकर्म द्वार-साधारण द्रव्य खर्च के दस स्थान 'श्री संवेगरंगशाला विशेषतया करनी चाहिए। इस तरह करने से धीर उस श्रावक ने श्री जिनशासन का अविच्छेदन रूप रक्षण के लिए परम प्रयत्न किया है, ऐसा मानना चाहिए। अथवा ऐसा करने से उसको सम्यक्त्वादि गुणों का पक्षपाती माना जाता है और उसके द्वारा ही सर्वज्ञ शासन भी प्रभावित हुआ गिना जायगा। इस द्वार में प्रसंग अनुसार साधर्मिक के प्रति कैसा व्यवहार करना उसे कहते हैं। साधर्मिक के प्रति व्यवहार :- स्वजन परजन के विचार बिना समान जातिवाला या उपकारी आदि की अपेक्षा बिना ही 'साथ में धर्म करनेवाला होने से यह मेरा धर्म बन्धु है।' इस तरह नित्य विचार करते श्रावक धर्म, आराधना की समाप्ति, पुत्र जन्म, विवाह आदि के समय पर साधर्मिक बंधुओं का संस्मरण करें, आमंत्रण देकर स्वामि-वात्सल्य करें, उनको देखते ही सकुशल वार्तादि सम्भाषण करें और सुपारी आदि फलों से सत्कार सन्मान करें। रोगादि में औषधादि से प्रतिकार कर सेवा करें, मार्ग में चलने से थक जाने से अंग मर्दन आदि करें, विश्रान्ति दे, उनके सुख में अपने को सुखी मानें, उनके गुणों की प्रशंसा करें, उनके अपराध-दोष को छिपावे, व्यापार में कमजोर हो, उसे अधिक लाभ हो, ऐसे व्यापार में जोड़ दे, धर्म कार्यों का स्मरण करवाये, दोषों का सेवन करते रोके, अति मधुर वचनों द्वारा सत्कार्यों की प्रेरणा दे और यदि नहीं माने तो कठोर वचनों से बार-बार निश्चयपूर्वक प्रेरणा करें। अपने में सामर्थ्य हो तो आजीविका की मश्किल वाले को सहायता दे. अत्यन्त संक गिरे हुए का उद्धार करें, सारे धर्म कार्यों में उद्यम करने वाले को हमेशा सहायता करें तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्र में रहनेवाले को सम्यक् स्थिर करें। इस तरह अनेक प्रकार से साधर्मिक वात्सल्य करते श्रावक अवश्यमेव इस जगत में शासन की सम्यग् वृद्धि-प्रभावना को करनेवाला होता है। इस तरह श्रावक द्वार के साथ प्रसंगोपात श्राविका द्वार को अर्थ युक्त कहकर अब पौषधशाला द्वार को कहते हैं :९. पौषधशाला द्वार : राजा आदि उत्तम मालिक के अधिकार में रही हुई तथा उत्तम सदाचारी मनुष्यों से समृद्धशाली गाँव, नगर आदि में पौषधशाला यदि जर्जरित हो गयी हो और वहाँ भवभीरु महासत्त्व वाले हमेशा षड्विध आवश्यकादि सद्धर्म क्रिया के रागी श्रावक रहते हों, फिर भी तथाविध लाभांतराय कर्मोदय के दोष से उद्यमी होने पर भी जीवन निर्वाह कष्ट रूप महा मुश्किल से चलता हो, जैसे दीपक में गिरी हुई जली हुई पंख वाली तितलियाँ अपना उद्धार करने में शक्तिमान नहीं होती हैं, वैसे पौषधशाला के उद्धार की इच्छा वाले भी उसका उद्धार करने में शक्तिमान नहीं हों तो, स्वयं समर्थ हो, तो स्वयं अन्यथा उपदेश देकर अन्य द्वारा उद्धार करवा दे और इन दोनों में असमर्थ हो तो साधारण द्रव्य से भी उस पौषधशाला का उद्धार करा सकता है। इस विधि से पौषधशाला का उद्धार कराने वाला वह धन्य पुरुष अवश्य ही दूसरों की सत्प्रवृत्ति का कारणभूत बनता है।।२८८५ ।। उसमें डांस, मच्छर आदि को भी कुछ नहीं गिनते, उसका रक्षण करते हैं। पौषध-सामायिक में रहे संवेग से वासित, बुद्धिमान संवेगी आत्मा को ध्यान अध्ययन करते देखकर कई जीवों को बोधिबीज की प्राप्ति होती है और अन्य लघुकर्मी इससे ही सम्यग् बोध को प्राप्त करते हैं। पौषधशाला का उद्धार कराने से उसने तीर्थ प्रभावना की, गुणरागी को गुण प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति करवायी, धर्म आराधना की, रक्षा और लोक में अभयदान की घोषणा करवायी। क्योंकि इससे जो प्रतिबोध प्राप्त करेंगे. वे अवश्य मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। इससे उनके द्वारा होने वाली हिंसा से अन्य जीव का रक्षण होता है। यद्यपि उपासक दशांग आदि शास्त्रों में पुरुषसिंह आनन्द, श्रावक आदि प्रत्येक को अपने-अपने घर में पौषधशालाएँ थीं ऐसा कहा हैं, तो भी अनेकों की साधारण एक पौषधशाला कहने में दोष नहीं है। क्योंकि बहुत जन मिलने से परस्पर विनयादि आचरण करने से सद्गुण - 125 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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