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समाधि लाभ द्वार-परिग्रह पापस्थानक द्वार-लोभानंदी और जिनदास का प्रबंध
श्री संवेगरंगशाला पर भी अल्प पुण्य वाला यदि बहुत धन की इच्छा करता है वह अपने हाथ द्वारा आकाश तल को पकड़ने की इच्छा करता है। यदि निर्भागी भी इस पृथ्वी तल में राज्य आदि इच्छित पदार्थ को प्राप्त कर सकता हो तो कभी भी कोई भी किसी स्थान पर दुःखी नहीं दिखेगा। यदि मणि, सुवर्ण और रत्नों से भरा हुआ समग्र जगत को भी किस तरह प्राप्त करे फिर भी निश्चय अक्षीण इच्छा वाला बिचारा जीव अकृतार्थ अपूर्ण ही रहता है। पुण्य से रहित होने पर भी यदि मूढात्मा धन की इच्छा करता है वह इसी तरह अधूरे मनोरथ से ही मरता है। जैसे इस जगत में वायु से थैला भरा नहीं जा सकता वैसे आत्मा को भी धन से कभी पूर्ण संतुष्ट नहीं किया जा सकता। इसलिए इच्छा के विच्छेद के लिए संतोष को ही स्वीकार करना सर्वोत्तम है। संतोषी निश्चय से सुखी है और असंतोषी को अनेक दुःख होते हैं। पाँचवें पाप स्थानक में आसक्त और उससे निवृत्ति वाले को दोष और गुण लोभानंदी और जिनदास श्रावक के समान जानना ।। ५८८७ ।। उसकी कथा इस प्रकार है :
लोभानंदी और जिनदास का प्रबंध
पाटली पुत्र नगर में अनेक युद्धों में विजय प्राप्त करने से विस्तृत यशस्वी अनेक गुणों से युक्त जयसेन नामक राजा था। उस नगर में कुबेर धन समूह को भी तिरस्कार करता महा धनिक नंद आदि व्यापारी और जिनदास आदि उत्तम श्रावक रहते थे। एक समय समुद्रदत्त नाम के व्यापारी अति प्राचीन एक सरोवर को खुदाने लगा। उसे खोदने वाले मनुष्यों को पूर्व में वहाँ रखे हुए बहुत काल के कारण मलिन बने हुए सुवर्ण सिक्के मिले। फिर लोहा समझकर वे व्यापारी के पास ले गये और जिनदास ने लोहा समझकर उसमें से दो सिक्के लिए, बाद में सम्यग् रूप से देखते सुवर्ण के जानकर उसने परिग्रह परिमाण का उल्लंघन होने के भय से उस सिक्के को श्री जिनमंदिर में अर्पण कर दिये और दूसरे नहीं लिये, परंतु उसे सुवर्ण जानकर नंद ने अधिक मूल्य देकर उसे लेने लगा और उनको कहने लगा कि अब लोहे के सिक्कों को अन्य व्यापारी को मत देना, मैं तुम्हें इच्छित मूल्य दूँगा, उन्होंने वह स्वीकार किया।
दूसरे दिन उसका मित्र उसे जबरदस्ती भोजन के लिए अपने घर ले गया, उस समय अपने पुत्र को कहा कि-सिक्के जितने मिलें वह जितना मूल्य माँगे उतना देकर ग्रहण करना, पुत्र ने वह स्वीकार किया और स्वयं मित्र के घर भोजन करने गया । और वह अत्यंत व्याकुल चित्त से खाकर वापिस घर की ओर चला। इधर परमार्थ नहीं जानने के कारण उस पुत्र ने बहुत मूल्य जानकर सिक्के नहीं लिये, और गुस्से में आकर वे अन्य स्थान पर चले गये। फिर इधर-उधर घूमते किसी तरह मैल दूर होने से एक सिक्के का सुवर्ण प्रकट हुआ इससे राजपुरुषों ने उनको पकड़कर राजा को सौंपा, राजा ने पूछा कि अन्य सिक्के कहाँ बेचे हैं उसे कहो ! ।। ५९०० ।। उन्होंने कहाहे राजन्! दो सिक्के जिनदास सेठ को दिये हैं और शेष सब नंद व्यापारी को दिये हैं। इस तरह कहने पर राजा ने जिनदास को बुलाकर पूछा, उसने अपना सारा वृत्तांत यथास्थित सुनाया। तब राजा ने सन्मान करके उसे अपने घर भेजा। इधर नंद अपनी दूकान पर आया और पुत्र से पूछा कि - अरे ! क्यों सिक्के लिये या नहीं लिये? उसने कहा—पिताजी! बहुत मूल्य होने से वह नहीं लिये। इससे छाती कूट ली- 'हाय ! मैं लूटा गया ।' ऐसा बोलते नंद ने 'इन पैरों का दोष है कि जिसके द्वारा मैं पर घर गया।' ऐसा मानकर सिक्कों से अपने पैरों को तोड़ा। उसके बाद राज सैनिको द्वारा पकड़ा गया और राजा ने उसका वध करने की आज्ञा दी और उसका सर्व धन लूट लिया, इत्यादि इच्छा की विरति बिना के जीवों को बहुत दोष लगते हैं, इसलिए हे तपस्वी ! परिग्रह में मन को जरा भी लगाना नहीं। देखते ही क्षण में नाश होने वाला वह है इसलिए धीर पुरुष उसकी इच्छा कैसे करे ?
इस तरह परिग्रह विषयक पांचवाँ पाप स्थानक कहा। अब क्रोध का स्वरूप कहते हैं । वह इस प्रकार
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