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________________ परिकर्म द्वार-सुस्थि घटना द्वार श्री संवेगरंगशाला निश्चय से जो धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ को युवा अवस्था में कर सकता है, वही पुरुषार्थ बड़ी उम्र वाले को पर्वत के समान कठोर बन जाता है। इसलिए जिनवचन द्वारा तत्त्व के जानकार पुरुष को सर्व क्रियाओं में अपने पास बल बल का समह हो तब ही धर्म का उद्यम कर लेना चाहिए। वीर्य से साध्य तप भी केवल शरीर द्वारा सिद्ध नहीं होता, उसमें बल, वीर्य, पराक्रम होना चाहिए। पर्वत को वज्र ही तोड़ सकता है, मिट्टी का टुकड़ा कभी भी नहीं तोड़ सकता है। वैसे सामर्थ्य रहित मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता है। अतः बल-वीर्य वाला हूँ, तब तक बुद्धि को धर्म में लगाना चाहता हूँ। तथा वही विद्वान है, वही बुद्धि का उत्कृष्ट है और बल सामर्थ्य भी वही है कि जो एकान्त से आत्महित में ही उपयोगी बना है। इसलिए हे पुत्र! मेरे मनोवांछित कार्य में अनुमति देकर, तूं भी स्वयं धर्म महोत्सव को करते, इस लोक के कार्यों को कर। क्योंकि-धीर पुरुष सद्धर्म क्रिया से रहित एक क्षण भी जाये तब प्रमादरूपी मजबूत दण्ड वाले लुटेरों से अपने को लटा हुआ मानता है। जब तक अभी भी जीवन दीर्घ है, समर्थ है, तब तक बुद्धि को सद्धर्म में लगा देना चाहिए, यह जीवन अल्प होने के बाद क्या कर सकता है? अतः धर्म कार्य में उद्यम ही करना चाहिए, उसमें प्रमाद न करें, क्योंकि मनुष्य यदि सद्धर्म में रक्त हो तो उसका जीवन सफल होता है। जो नित्य धर्म में रक्त है वह मनुष्य मरा हुआ भी जगत में जीता ही है, परंतु जो पाप के पक्षवाला है, वह जीता हुआ भी मरे हुए के समान मानना। अतः हे पुत्र! जन्म, जरा और मृत्यु का नाश करने वाला धर्मरूपी रसायण सदा पीना चाहिए, कि जिसको पीने से मन को परम शांति मिलती है। इसलिए हे पुत्र! प्रयत्नपूर्वक धर्म ध्यान से मन को, उसके आचरण से मनुष्य जन्म को और प्रशम प्राप्त कर श्रुत ज्ञान को प्रशंसनीय बना! इत्यादि वचनों से प्रतिबोध देकर पुत्र पिता को परलोक के हित की प्रवृत्ति के लिए आज्ञा दे। इस तरह पुत्र प्रतिबोध नामक चौथा अंतर द्वार कहा। अब सुस्थित घटना अर्थात् सदाचारी मुनियों की प्राप्ति नामक पाँचवां अंतर द्वार कहते हैं ।।२९८३।। सुस्थित घटना इसके पश्चात् महा मुश्किल से अनिच्छा से पुत्र ने आज्ञा दी। फिर प्रति समय उत्तरोत्तर बढ़ते विशुद्ध परिणाम वाला और 'अब हमारा नाश करेगा' ऐसी अपनी विनाश की शंका से राग द्वेष शत्रुओं ने छोड़ दिया, तथा योग्य समझकर शीघ्र प्रशम से स्मरण करते, पूर्व में बंध किये हुए कर्मरूपी कुल पर्वतों को चकनाचूर करने में वज्र समान सर्व विरति रूपी महा चारित्र की आराधना के लिए उद्यमशील, चित्त से प्रार्थना करते अर्थात् चारित्र के लिए उत्साही चित्तवाला, संसार में उत्पन्न होती समस्त वस्तुओं की विगुणता का विचार करते तथा कर्म की लघुता होने से शुभ स्वप्नों को देखता है। जैसे कि 'निश्चय आज मैंने पवित्र फल, फूल और शीतल छाया वाला श्रेष्ठ वृक्ष को प्राप्त किया, और उसकी छाया आदि से मैंने अति आश्वासन प्राप्त किया तथा किसी महापुरुष ने मुझे स्वभाव से ही भयंकर अपार समुद्र में से हाथ का सहारा देकर पार उतारा, इत्यादि स्वप्न देखने से हर्षित रोमांचित वाला वह अधिगत पुरुष आश्चर्यपूर्वक जागकर इस प्रकार चिंतन करें कि-ऐसा स्वप्न मैंने कभी देखा नहीं, सुना नहीं और अनुभव भी नहीं किया है, इससे मैं मानता हूँ कि अब मेरा कुछ कल्याण होगा, उसके बाद कालक्रम से विचरते हुए किसी भी भव के उसके पुण्य प्रकर्ष से आकर्षित होकर आये हो वैसे, पूर्व में जिनकी खोज करता था वैसे सुस्थित-सुविहित आचार्य महाराज आये हुए हैं, ऐसा सुनकर वह विचार करता है किउनके आने से निश्चय अब मेरा क्या-क्या कल्याण नहीं होगा? अथवा सिद्धांत के कौन से रहस्यों को मैं नहीं सुनूँगा? और पूर्व में सुने हुए तत्त्वों को भी अब में स्थिर परिचित करूँगा। ऐसा चिंतन करते हर्ष के भार से परिपूर्ण अंगवाला गुरु महाराज के पास जाये और आनंद के आँसू से भरे नेत्रों की दृष्टिवाला, ऐसी दृष्टि से दर्शन - 129 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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