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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-काल परिज्ञान द्वार-मृत्यु काल जानने के ग्यारह उपाय चले तो पाँच दिन और इकत्तीस दिन चले तो तीन दिन जीता है, यदि बत्तीस दिन चले तो दो दिन और तैंतीस दिन चले तो एक ही दिन जीता रहेगा। अब अन्य भी प्रसंगानुसार कुछ और भी संक्षेप में कहता हूँ । समग्र एक दिन लगातार सूर्यनाड़ी चलती हो तो मनुष्य को कुछ उत्पात का सूचक है, और दो दिन चलती रहे तो घर गोत्र के भय को अवगत कराता है। यदि सूर्यनाड़ी तीन दिन लगातार चले तो उस गाँव में और गोत्र में भय बतलाने वाला है, और चार दिन सूर्यनाड़ी बहे तो निश्चय स्वस्थ अवस्था वाला भी योगी के प्राण संदेह को कहता है। और यदि पाँच दिन सूर्यनाड़ी सतत् चले तो निश्चय योगी की मृत्यु होती है, और छह दिन तक सदा सूर्यनाड़ी चले तो राजा को कष्टकारी व्याधि होगी, सात अहोरात्री सूर्यनाड़ी चलती है तो निश्चित राजा या घोड़ों का क्षय होगा, और आठ दिन हमेशा चले तो अन्तःपुर में भयजनक कहा है। और नौ दिन नित्य सूर्यनाड़ी चलती हो तो राजा को महाक्लेश होगा । इस तरह दस दिन तक चलती रहे तो राजा के मरण का सूचन है, और ग्यारह दिन बहती रहे तो देश, राष्ट्र के भय को बतलाता है। बारह और तेरह दिन सतत् चलती रहे तो क्रमशः अमात्य और मंत्री के भय को कहता है। चौदह दिन तक सूर्यनाड़ी चले तो सामान्य राजा का नाश करता है, और पन्द्रह दिन तक सूर्यनाड़ी बहती रहे तो सूर्यलोक में महाभय उत्पन्न होगा, ऐसा सूचक है। यह सारा सूर्यनाड़ी के विषय में कहा है। चंद्रनाड़ी यदि इसी तरह चले, तो भी वैसे ही जानना । और जिसको सूर्यनाड़ी चलने के कारण बिना भी निश्चय बाह्य अभ्यंतर पदार्थों में प्रकृति की ऐसी विपरीतता होती है जैसे कि समुद्र में अत्यन्त तूफान आते उससे दिव्य दैवी शब्द सुनाई दे, किसी के आक्रोश के शब्द सुनकर प्रसन्न हो, और मित्र के सुखकर शब्द सुनकर भी हर्ष न हो । नासिका चतुर होने पर भी बुझे हुए दीपक की गंध नहीं जान सके, उष्णता शीतलता की बुद्धि और शीतल में उष्णता का प्रतीत होना । नील कांतिवाली मक्खियों की श्रेणियों से यदि सारा शरीर ढ़क जाए और जिसका मन अकस्मात् डरावना-बेकाबू बन जाए, इत्यादि । सूर्यनाड़ी चलती हो उस समय उसे अन्य भी कोई प्रकृति की विपरीतता हो जाए उसकी अवश्य ही शीघ्र मृत्यु होती है। इसी तरह चंद्रनाड़ी चलते भी यदि प्रकृति की विपरीतता का अनुभव हो तो निश्चित उद्वेग, रोग, शोक, मुख्य मनुष्य अथवा स्वयं को भय होता है और मानहानि आदि भी होती है ।। ३१५२ ।। इस तरह नाड़ीद्वार कहा । ६. निमित्त द्वार : - पृथ्वी विकार आदि आठ प्रकार के श्रेष्ठ निमित्त द्वार को भी सामान्य रूप से कहता हूँ। जिसको चलते, खड़े रहते, बैठते अथवा सोते निमित्त बिना भी उस भूमि में दुर्गंधमय या ज्वालाएँ दिखें अथवा भूमि फटे, चकनाचूर हो अथवा करुण आक्रंद का, रुदन का शब्द सुनाई दे इत्यादि सहसा अन्य भी कोई भूमि विकार दिखे तो छह महीने में मृत्यु होती है। अपनी दृष्टि भ्रम से जो अन्य के केश में धुआँ या अग्नि का तिनका यदि प्रकट हुआ देखे तो देखने वाला शीघ्र मर जाता है। और कुत्ते की हड्डी या मृतक के अवयव को घर में रखे तो भी मरण होता है। और इस ग्रंथ में पूर्व में उद्यत विहार में राजा को भी आराधक रूप बतलाया है, इससे उसके निमित्त को भी कई उत्पातों से कहा है। यदि बाजे बजाये बिना भी शब्द हो, अथवा बजाने पर भी शब्द न हो, पानी में और हरे फलों के गर्भ में अग्नि प्रकट हो अथवा बिना बादल वृष्टि हो तो राजा का मरण होगा, ऐसा जानना । इन्द्र ध्वज, राज्य ध्वज, तोरण द्वार, महल का दरवाजा, स्तंभ या दरवाजे का अवयव आदि यदि सहसा टूटे-गिरे तो वह भी राजा की मृत्यु बतलाता है। यदि सुंदर वृक्षों में अकाल में फल-फूल प्रकट हुए दिखें अथवा वह वृक्ष ज्वाला और धुआँ छोड़े, ऐसा दिखे तो शीघ्र राजा का वध होने वाला है। यदि बादल रहित निर्मल आकाश में रात्री या दिन में इन्द्र धनुष्य को देखे तो लम्बा आयुष्य नहीं है, आकाश में गीत का शब्द सुना जाये तो रोग 136 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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