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________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-सुस्थित गवेषणा द्वार पाँचवां सुस्थित गवेषणा द्वार : उसके बाद सिद्धांत में प्रसिद्ध कही हुई विधि द्वारा अपने गच्छ को छोड़ने वाला और समाधि को चाहने वाला वह आचार्य, राजा बिना की एकत्रित हुई सेना युद्ध में कुशल महान् सेनानायक की जैसे खोज करती है, वैसे सार्थवाह बिना का अतिदूर नगर में प्रस्थान करने वाला व्यक्ति सार्थवाह (साथीदार) को खोजता है, वैसे क्षपक परगण के चारित्र आदि बड़े गुणों की खान के समान गुरु बिना का जानकर, क्षेत्र की अपेक्षा से छह सौ, सात सौ योजन तक खोज करें और काल की अपेक्षा बारह वर्ष तक निर्यामक आचार्य श्री की खोज करें। वह किस तरह आचार्य श्री की खोज करे? उसे कहते हैं। सुस्थित का स्वरूप :- चारित्र द्वारा प्रधान-श्रेष्ठ, शरणागत वत्सल, स्थिर, सौम्य, गंभीर, अपने कर्त्तव्य में दृढ़ अभ्यासी। इन बातों से प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले और महासात्त्विक इस तरह सामान्य गुण सहज स्वभाव से होते हैं। और इसके अतिरिक्त-१. आचारवान्, २. आधारवान्, ३. व्यवहारवान्, ४. लज्जा को दूर कराने वाले, ५. शुद्धि करने वाले, ६. निर्वाह करने वाले-निर्यामक, ७. अपाय दर्शक, और ८. अपरिश्रावी। ये आठ विशेष गुण वाले की खोज करें। १. आचारवान् :- जो ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्रचार. तपाचार और वीर्याचार पंच विध आचार का अतिचार रहित पालन करें, दूसरे को पंचाचार पालन करावे और यथोक्त-शास्त्रानुसार उपदेश दे, उसे आचारवान कहते हैं। आचेलक्य आदि दस प्रकार के स्थित कल्प में जो अति रागी हैं और अष्ट प्रवचन माता में उपयोग वाला होता है, वह आचारवान् कहलाता है। इस प्रकार आचार के अर्थी आचार्य, साधु के दोषों को छुड़वाकर गुण में स्थिर करें, इससे आचार का अर्थी आचार्य निर्यामक होता है। २. आधारवान् :- महाबुद्धिमान जो चौदह, दस अथवा नौ पूर्वी हो, सागर के समान गंभीर हो और कल्प तथा व्यवहार आदि सूत्र को धारण करने वाला ज्ञाता हो, वह आधारवान् कहलाता है। अगीतार्थ आचार्य, लोक में श्रेष्ठ अंगभूत (मनुष्यत्व, धर्म श्रवण, श्रद्धा एवं संयम में उद्यमशीलता) इन क्षपक के चार अंगों का नाश करें और इन चार अंगों का नाश होने पर अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य सुलभ्य नहीं बनते हैं। क्योंकि महा भयंकर दुःख रूपी पानी वाले और अनंत जन्मों वाले इस संसार समुद्र में परिभ्रमण करते जीव को मनुष्य जन्म प्राप्त करना महामुश्किल है। उस मनुष्य जीवन में भी श्री जिनेश्वर परमात्मा के वचन का श्रवण निश्चय ही अति मुश्किल से मिलता है, उससे भी श्रद्धा होना अतीव दुर्लभ है और श्रद्धा से भी संयम का उद्यम करना दुर्लभतम है। ऐसा सुंदर संयम मिलने पर भी आधार देने में असमर्थ निर्यामक के पास से मरणकाल में संवेगजनक उपदेश का श्रवण नहीं मिलने से संयम से गिरता है। और आहार से अपना शरीर पोषण करने वाला, आहारमय जीव किसी स्थान पर कहीं पर भी आहार के विरह या अभाव वाला, अर्थात् कभी तपस्या नहीं करने वाला, आर्त्त-रौद्र ध्यान से पीड़ित, प्रशस्त तप संयम रूपी उद्यान में क्रीड़ा नहीं कर सकता है। परंतु कई भूखप्यास से पीड़ित भी श्री जिनवचन के श्रवण रूपी अमृत के पान से और श्रेष्ठ हितशिक्षा के वचनों से ध्यान में एकाग्र बन जाते हैं। प्रथम प्यास से अथवा दूसरी भूख से पीड़ित उस तपस्वी को अगीतार्थ द्वारा समाधिकारक उपदेश आदि नहीं देना चाहिए, क्योंकि उस कारणवश प्यास आदि से पीड़ित वह कर्मवश किसी समय पर दीनता धारण करें अथवा करुणाजनक याचना या एकत्व को धारण करें। अथवा सहसा बड़ी आवाज से चिल्लायें या भाग जावें, अथवा शासन की अपभ्राजना (निंदा) करें, मिथ्यात्व प्राप्त करें, अथवा असमाधि मरण से मृत्यु प्राप्त 1. १. आचेलक्य, २. औद्देशिक, ३. शय्यातर, ४. राजपिंड, ५. कृतिकर्म, ६. व्रत, ७. ज्येष्ठ, ८. प्रतिक्रमण, ६. मासकल्प, १०. पर्युषणाकल्प। 198 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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