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________________ समाधि लाभ द्वार-प्रतिपति नामक दूसरा द्वार श्री संवेगरंगशाला उन सबकी मैं आलोचना करता हूँ और प्रायश्चित्त को स्वीकार करता हूँ। भयंकर संसार अटवी में परिभ्रमण करते मैंने विविध जन्मों में, जिसका जो भी अपराध किया हो, उन प्रत्येक को भी मैं खमाता हूँ। माता, पिता को, सर्व स्वजन वर्ग को और मित्र वर्ग को भी मैं खमाता हूँ। तथा शत्रु वर्ग को तो सविशेषतया मैं खमाता हूँ। फिर उपकारी वर्ग को और अनुपकारी वर्ग को भी मैं खमाता हूँ तथा दृष्ट प्रत्यक्ष वर्ग को मैं खमाता हूँ और अदृष्ट परोक्ष वर्ग को भी खमाता हूँ। सूने हुए या नहीं सूने हुए, जाने हुए या अनजान को, कल्पित या सत्य को, अयथार्थ या यथार्थ को तथा परिचित अथवा अपरिचित को और दीन, अनाथ आदि समग्र प्राणी वर्ग को भी मैं प्रयत्न से आदरपूर्वक खमाता हूँ, क्योंकि यह मेरा खामना का समय है। धर्मी वर्ग को और अधर्मी वर्ग के समूह को भी मैं सम्यक् खमाता हूँ तथा साधार्मिक वर्ग को और असाधार्मिक वर्ग को भी खमाता हूँ। और क्षमा याचना में तत्पर बना मैं सन्मार्ग में रहे मार्गानुसारी वर्ग तथा उन्मार्ग में चलने वालों को भी खमाता हूँ, क्योंकि हमारा अब यह खामना का समय है। परमाधामी जीवन को प्राप्त कर और नरक में नारकी जीव बनकर मैंने परस्पर नारकी जीवों को जो पीड़ा की हो उसकी मैं खामना करता हूँ। तथा तिर्यंच योनि में एकेन्द्रिय योनि आदि में उत्पन्न होकर मैंने एकेन्द्रिय आदि जीवों का तथा जलचर, स्थलचर, खेचर के भवों को प्राप्त कर मैंने जलचर आदि को भी किसी प्रकार मन, वचन, काया से यदि कुछ अल्प भी अनिष्ट किया हो उसकी मैं निंदा करता हूँ। तथा मनुष्य के जन्मों में भी मैंने राग से, द्वेष से, मोह से, भय या हास्य से, शोक या क्रोध से, मान से, माया से या लोभ से भी इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में यदि मन से दुष्ट मनोभाव, वचन से तिरस्कार-हाँसी से और काया से तर्जना ताड़न बंधन या मारना इस प्रकार अन्य जीवों को शरीर की, मन की यदि अनेक प्रकार से पीड़ा दी हो, इसी तरह कुछ किया हो, करवाया हो, या अनुमोदन किया हो उसे भी मैं त्रिविध निंदा करता हूँ। एवं मंत्र आदि के बल से देवों को किसी व्यक्ति या पात्र में उतारा हो, सरकाया हो, स्तंभित या किल्ली में बांधा हो, अथवा खेल तमाशा आदि करवाया हो, यदि किसी तरह भी अपराध किया हो, अथवा तिर्यंच योनि को प्राप्त कर मैंने यदि किसी तिर्यंच, मनुष्य और देवों को तथा मनुष्य योनि प्राप्त कर मैंने यदि किसी तिर्यंच, मनुष्य और देवों को और देव बनकर मैंने नारकी, तिर्यंच, मनुष्य या देवों को यदि किसी प्रकार भी शारीरिक, या मानसिक अनिष्ट किया हो उस समस्त को भी मैं त्रिविध-त्रिविध सम्यक् खमाता हूँ और मैं स्वयं भी उनको क्षमा करता हूँ। क्योंकि यह मेरा क्षमापना का समय है ।।९३७६ ।। पाप बुद्धि से शिकार आदि पाप किया हो उसे खमाता हूँ इसके अतिरिक्त धर्म बुद्धि से भी यदि पापानुबंधी पाप किया हो, तथा यदि बछड़े का विवाह किया हो, यज्ञ कर्म किया हो, अग्नि पूजा की हो, प्याऊ का दान, हल जोड़े हों, गाय और पृथ्वी का दान तथा यदि लोहे सुवर्ण या तिल की बनी गाय का दान, अथवा अन्य किसी धातु आदि और गाय का दान दिया हो, अथवा इस जन्म में यदि कुण्ड, कुएँ, रहट, बावड़ी और तलाब खुदवाया आदि की क्रिया की हो, गाय, पृथ्वी, वृक्षों का पूजन अथवा वंदन किया हो या रूई आदि का दान दिया हो, इत्यादि धर्मबुद्धि से भी यदि किसी पाप को किया हो। यदि देव में अदेव बुद्धि और अदेव में देव बुद्धि की हो, अगुरु में भी गुरुबुद्धि और सुगुरु में अगुरु बुद्धि की, तथा यदि तत्त्व में अतत्त्व बुद्धि और अतत्त्व में तत्त्व बुद्धि की अथवा किसी प्रकार भी कभी भी करवाई हो अथवा अनुमोदन किया हो उन सब को मिथ्यात्व के कारणों को यत्नपूर्वक समझकर मैं सम्यग् आलोचना करता हूँ, और उसके प्रायश्चित्त को स्वीकार करता हूँ। तथा मिथ्यात्व में मूढ़ बुद्धि वाले मैंने संसार में मिथ्या दर्शन को प्रारंभ किया हो और मोक्ष मार्ग का अपलाप करके यदि मिथ्या मार्ग का उपदेश दिया हो एवं मैंने जीवों को दुराग्रह प्रकट कराने वाले और मिथ्यात्व मार्ग में प्रेरणा 389 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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