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श्री संवेगरंगशाला
परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-परगण संक्रमण विधि है, तब तो देश खत्म हो जाता है। हे गच्छाधिपति! बल रहित वृद्धावस्था से जर्जरित और पड़े हुए दाँत की पंक्ति वाले भी विचरते हुए विद्यमान आप स्वामी से आज भी साधु समुदाय सनाथ है। सर्वस्व देने वाला, सुख-दुःख से समान और निश्चल उत्तम गुरु का जो वियोग वह निश्चय दुःख को सहने के लिए है अर्थात् दुःखद रूप है।
इस तरह कुनय रूपी मृग को वश करने में जाल के समान और यम के साथ युद्ध करने में जय पताका प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत इस संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वार गण संक्रम नामक दूसरे द्वार में अनुशासित नाम का यह तीसरा अंतर द्वार कहा है।
इस तरह हित-शिक्षा देने पर भी अपने गच्छ में रहने से आचार्य की समाधि न रहे तो अब परगण में संक्रमण करने की विधि का चौथा अंतर द्वार कहा जाता है। परगण संक्रमण चौथा विधि द्वार :
(गवेषणा द्वार) इसके बाद पूर्व कहे अनुसार वह महान् आत्मा आचार्य श्री पूर्व की हित-शिक्षा के अनुसार हितकर कार्यों में तत्पर अपने नये आचार्य और गच्छ को फिर बुलाकर चंद्र किरणों के प्रवाह समान शीतल और आनंद को देने वाली वाणी द्वारा इस प्रकार से कहे-भो महानुभावों! अब मैं 'सूत्र दान करना' इत्यादि तुम्हारे कार्यों को सम्यग् रूप से पूर्ण करने से सर्व कार्यों में कृत-कृत्य हुआ हूँ, इसलिए उपयोग वाले भी तुम्हारे संबंध में अन्य अति अल्प भी तुमको कहने योग्य एक कार्य मुझे ध्यान में आता है। अतः अब मैंने जो हित-शिक्षा दी है इससे भी पहले मेरी आराधना की निर्विघ्न सिद्धि के लिए मुझे परगण में संक्रमण (प्रवेश) करने के लिए सम्यग् अनुमति दो। और गुरु के प्रति अतीव भक्ति वाले विनीत तुम्हें भी मेरा बार-बार मिच्छा मि दुक्कडं हो। इस तरह गुरुदेव के वचन सुनकर शोक के भार से अति ग्लान और अफसोस से भरे हुए गले वाले तथा सतत् गिरते हुए आँसू की बिंदु के समूह से भरे नेत्रवाले शिष्य सूरिजी के चरणकमल रूपी गोद में मस्तक रखकर गद्गद् स्वर से कहें कि-हे भगवंत! कान के शल्य समान और अत्यंत दुःसह आप यह क्या बोल रहे हो? जो कि हम सर्वथा आपका ऐसा उपकार करने वाले हैं, ऐसे बुद्धिमान नहीं हैं, ऐसे गीतार्थ नहीं हैं, आपके चरणकमल की सेवा के योग्य नहीं है तथा अंत समय की कही हुई संलेखना आदि की विधि में कुशल भी नहीं हैं, फिर भी हे भगवंत! एकान्त में परहित में तत्पर एक चित्त वाले. पर को अनग्रह करने में श्रेष्ठ और प्रार्थना का भंग नहीं करने वाले ।।४६०० ।। आप श्री हमें छोड़ देना चाहते हैं वह उचित नहीं है। क्योंकि-आज भी बीच में बैठे आपके चरण-कमल से (आपश्री द्वारा) यह गच्छ शोभा दे रहा है। इसलिए हमारे सुख के लिए कालचक्र गिरने के समान ऐसे वचन आपके बोलने से और चिंतन करने से क्या लाभ है? शिष्यों के इस तरह कहने पर गुरु महाराज भी मधुर वाणी से कहते हैं कि :
श्री अरिहंत परमात्मा के वचनों से वासित बने हुए और अपनी बुद्धि रूपी धन से योग्यायोग्य को समझने वाले, हे महानुभावों! तुम्हें मन से ऐसा चिंतन करना भी योग्य नहीं है और बोलना तो सर्वथा योग्य नहीं है। कौन बुद्धिशाली उचित कार्य में भी रोके? अथवा क्या श्री अरिहंत कथित शास्त्रों में इसकी अनुमति नहीं दी है? अथवा पूर्व पुरुषों ने इसका आचरण नहीं किया? क्या तुमने ऐसा किसी स्थान पर नहीं देखा? और भयंकर वायु से आन्दोलित ध्वजापट समान चंचल मेरे इस जीवन को तुम नहीं देखते! कि जिससे अमर्यादित अति असद् आग्रह के आधीन बनकर ऐसा बोल रहे हो? अतः मेरे प्रस्तुत कार्य को सर्व प्रकार से भी प्रतिकूल न बनों। इत्यादि गुरुदेव की वाणी सुनकर शिष्यादि पुनः इस तरह उनको विनती करते हैं कि-हे भगवंत! यदि ऐसा ही है तो भी अन्य गच्छ में जाने से क्या प्रयोजन है? यहाँ अपने गच्छ में ही इच्छित प्रयोजन की सिद्धि करो, क्योंकि-यहाँ 196
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