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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार- साधु को वसति दान देने से लाभ प्रांगण में कल्पद्रुम बोने की विधि की है, इच्छित वस्तु को देने वाली दिव्य कामधेनु गाय का ग्रहण करना, हाथ में चिंतामणी को धारण करना, और श्रेष्ठ रत्नाकर को अपने भवन के आंगन में ही लाने की विधि की है। धर्म की प्याऊ का दान, अमृत का पान, श्रेष्ठ विधि का स्वीकार करना, सब सुखों को आमंत्रण करना और विजय ध्वजा को ग्रहण करना, तथा सर्व कामना को पूर्ण करने वाली कामित विद्या, मंत्रों की परम साधना का और विवेक सहित गुणज्ञता का स्पष्टीकरण किया ऐसा समझना चाहिए। तथा उसके उपाश्रय ( वसति) में रहे हुए गुण समृद्ध साधुओं के चरणों के पास आकर लोग धर्म श्रवण करते हैं, और श्रवण करने से चेतना प्रकट होती है, इससे भव्य जीव हमेशा उस विविध धर्म क्रिया में रक्त बनते हैं, तथा विरोधी हो तो भी वह भद्रिक भाव वाला बनता है, भद्रिक हो तो वह दयावान बनता है, और यथाशक्ति मांस, मदिरा आदि के नियमों को धारण करता है, तथा कोई सम्यक्त्व प्राप्त करता है। जो सम्यक्त्व वाला हो वह परम भक्ति वाला बनकर मनोहर श्री जिनमंदिर और जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा में, पूजा में, जिनमंदिर की तीर्थयात्रा में तथा महोत्सव में सदा प्रवृत्ति करता है और अन्य भी जीव श्री जिनशासन की प्रभावना के कार्यों में उद्यम करता है, कई ग्लान साधु, साधर्मिक आदि के कार्यों में उद्यम करते हैं, और कोई जिनागम की पुस्तक लिखवाने में, कोई देश विरति को, कोई सर्व विरति को स्वीकार करता है, कोई विविध तपस्या कर्म करने में उद्यम करता है, इस तरह उनके द्वारा जो-जो धर्म कार्य होता है उन सब पुण्य का हेतुभूत का मूल कारण साधु को उपाश्रय देने वाला है। ऐसा कहा है ।। २२७७।। वही सचमुच राजा है, वही राजाओं के मस्तक की मणि है, और वही स्थिर राज्य वाला है कि जिसके राज्य में साधु पुरुष अप्रतिहत विहार करते निर्विघ्नता पूर्वक विचरते हैं, और सर्व देशों के मुकुट तुल्य वही देश आर्यता को धारण करता है, और वही आर्य देश है कि जहाँ उत्तम साधु विचरते हैं। और देश में भी वह नगर ही अन्य सब नगरों के मुकुट समान और पवित्र है कि जहाँ गुण के भंडार महामुनि नित्य विचरण करते हैं, नगर में भी वह गली, मौहल्ला पाप का नाश करने वाला है कि जहाँ साधु पुरुष रहते हैं, वही स्थान धन्य है, पवित्र है, और बाकी सब स्थान शून्य हैं। ऐसा में मानता हूँ। उस मौहल्ले में भी जहाँ गीतार्थ सुविहित साधुओं का निवास होता है, वही एक घर को मैं निश्चय पूर्ण लक्षण वाला मानता हूँ। उसी घर में लक्ष्मी का वास है, वह घर श्रेष्ठ रत्नों की वृष्टि के लिए योग्य है, पृथ्वी में वास्तविक पुरुष वही दाता है और उसका ही परमार्थ से उदय है अन्यथा संयम रूपी लक्ष्मी को क्रीड़ा करने की भूमि समान जिनवचन के रागी महामुनियों का वहाँ निवास भी कैसे हो? और उस घर में सिद्धान्त का स्वाध्याय करने से उसकी ध्वनि के प्रभाव से क्षुद्र उपद्रव आदि दोष नहीं रहते हैं, और अभ्युदय आदि गुण होते हैं। रोग, अग्नि, पिशाच तथा ग्रह आदि क्षुद्र देवों का दोष तथा क्रूर मनुष्य-तिर्यंचों के पाप भी पाप प्रबल योग से प्रकट होते हैं, उस पाप का प्रतिपक्षी श्री जिनेश्वर का दक्ष धर्म जानना, और जहाँ उस धर्म की प्रवृत्ति हो, वहाँ पाप का विकार भी कहाँ से हो सकता है? सूर्य बिम्ब के प्रभाव से अंधकार के समूह के समान स्वपक्ष बलवान हो तो प्रायः प्रतिपक्ष की संभावना नहीं होती है, वैसे मोक्ष की साधना में सफल कारणभूत ज्ञान, दर्शन सहित जो विविध तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, अध्ययन, ध्यान आदि सद्धर्म चारित्र का गुण भी, अपनी वसति में रहने वाले साधुओं के परम उपकार को सम्यग् मानने वाले गुणों के सेवक, राजा अथवा मन्त्री, सेठ, सार्थवाह धनपति की अथवा अन्य भी किसी वसती में रहते साधुओं को बाधारहित आराधना होती हैं, और उनके रहने से उस वस्ती में होते धर्म की महिमा से ही वसति दाता को पापोदय से होने वाले दोष नहीं होते हैं और सद्धर्म से होने वाले विविध प्रकार के महान् उपकार होते हैं, जैसे कि अत्यन्त अनुराग वाली पत्नी, पुत्र सपूत, परिवार अच्छा विनीत आदि बनता है तथा चतुरंग सेना आदि, उस 100 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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