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________________ मुझे इस ग्रंथ की हिन्दी अनुवाद की पुस्तक देखने में आयी अतीव सुंदर आत्मोपकारक लगी और पुनः प्रकाशित करने की इच्छा हुई। जहां-जहां पूर्व प्रकाशित में अशुद्धियाँ दृष्टिगोचर हुई उसे सुधारने का उपयोग किया है। फिर भी भूले रह गयी हो और पाठकवर्ग के ध्यान में आवे तो संपादक को सूचित करने की कृपा करें। इस ग्रंथ में निम्न बातें हैं जिसमें इसके बाद रचे गये ग्रंथों में वृद्धि हुई है। जैसे वंकचूल की कथा में उसे युद्ध में रोग की बात लिखी है अन्य कथाओं में कौए से बोटा हुआ पानी पीने से रोग होने की बात आयी है। रानी द्वारा मुझ पर बलात्कार किया ऐसा राजा को कहने का वर्णन है। पृ. ४३-५२ आर्य महागिरि की कथा स्थूल भद्रजी के वर्णन में उपकोशा के घर चातुर्मास का वर्णन है जब कि अन्य कथाओं में कोशा के घर का वर्णन आता है। पृ. १६६ आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति सूरि में सांभोगिकपना पृथक होने का वर्णन अन्य कथानकों में आता है इसमें नहीं है । पृ. १६९ अर्णिका पुत्र आचार्य के वर्णन में अन्य ग्रंथों में नदी में गिराने पर शूलि पर लेने का एवं खून के बिन्दू जल में गिरने पर चिंतन का वर्णन आता है जो इसमें नहीं है । पृ. २२८. वसुराजा की कथा में पाठक द्वारा परिक्षा का वर्णन इसमें नहीं है। नारद का शिष्यों को पढ़ाने का वर्णन अन्य कथानकों में नहीं है। पृ. २४४ बाहुबली की कथा इन्द्र द्वारा दोनों भाईयों को समझाने का वर्णन इसमें नहीं है। इसमें दंडरत्न हाथ में आने का वर्णन है जब कि अन्य कथानकों में चक्ररत्न को याद करने का एवं फेंकने का वर्णन है। पृ. २५४ स्थूलभद्र सूरि की कथा में यहां तीन पुत्रियों के स्मरण शक्ति की बात है। अन्य कथाओं में सातों बहनों के स्मरण शक्ति की बात है । पृ. २८५ दृढ़प्रहारी की कथा में अन्य कथाओं में चार हत्या की बात है। इसमें तीन की बात है । पृ. २८८ इस प्रकार कथाओं में परिवर्तन हुआ है। यह ग्रंथ नामानुसार आत्मा में संवेगरंग को उत्पन्न करने वाला, वृद्धि करने वाला और इसके उपदेश द्वारा स्व पर कल्याण करने वाला उत्कृष्टतम ग्रंथ है। आराधक आत्मा को इस ग्रंथ का वांचन, मनन, चिंतन एवं इस पर आचरण कर ग्रंथकार के परिश्रम को सफल बनाकर स्व कल्याण करना चाहिए। ताडपत्र पर इस ग्रंथ को लिखवाने वाले की जो प्रशस्ति दी है। इससे ऐसा लगता है कि उस समय ज्ञान लिखवाने वाले अति अल्प होंगे। जिससे लिखवाने वाले की ऐसी प्रशस्ति लिखी गयी है। उसने लिखवाने की उदारता की तभी यह ग्रंथ हमको उपलब्ध हुआ है। पाठक गण इसे पढ़कर आत्म कल्याण साधे । यही । जालोर, वि.सं. २०६४ अषाड सुद १४ दि. २९/७/२००७ Jain Education International For Personal & Private Use Only - जयानंद iii = www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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