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________________ परिकर्म द्वार- अणसण प्रतिपति द्वार श्री संवेगरंगशाला न दिखे तो ग्यारह दिन और यदि हृदय में छिद्र दिखाई दे तो सात दिन में मृत्यु होगी और यदि दो छायाएँ दिखाई तो समझ लेना कि अब मृत्यु बहुत ही निकट है। (यही वर्णन योगशास्त्र प्रकाश. ५ श्लोक २०८ से २१५ तक आया है ।) स्नान करने के बाद यदि मनुष्य के कान आदि अंग शीघ्र सूख जाएँ तो पूर्व कहे यंत्र प्रयोग की विधि अनुसार उतने वर्ष, महीने और दिनों में अवश्य मरता है। इस प्रकार आयुष्य को जानने के लिए उपायभूत यंत्र प्रयोग द्वार कहा है अब ग्यारहवाँ अंतिम विद्या द्वार कहते हैं । । ३३११ ।। ११. विद्या द्वार :- अब विद्यामंत्र से भी काल ज्ञान हो सकता है, इससे कुतूहल वाले आराधक अथवा अन्य पुरुष इसी तरह स्व और पर के मृत्युकाल को सम्यग् जान सकता है। उस प्रकार से कहते हैं-अति पवित्र बना हुआ और एकाग्र चित्तवाला पुरुष चोटी में 'स्वा' मस्तक में 'ॐ' दोनों आँखों में 'क्षि' हृदय में 'प' और नाभि में 'हा' अक्षरों का स्थापन करके, फिर ॐ जुसः, ॐ मृत्युं जयाय, ॐ वज्रपाणिने, शूलपाणिने, हर हर, दह दह स्वरूपं दर्शय दर्शय हूँ फट् फट् ।। इस विद्या से १०८ बार अपने दोनों नेत्रों को मंत्रित कर फिर अरुणोदय के समय अपनी छाया को उसी तरह मंत्रित करके सूर्योदय के समय सूर्य को पीठ करके पश्चिम 'मुख रखकर निश्चल शरीरवाला अपने और दूसरे के लिए अपनी और दूसरे की छाया को सम्यग् रूप से मंत्रित कर परम उपयोगपूर्वक उस छाया को देखना चाहिए। यदि वह छाया संपूर्ण रूप में दिखाई दे तो एक वर्ष तक मृत्यु नहीं होगी । छाया में पैर, जंघा और घुटना दिखाई न देने पर क्रमशः तीन, दो और एक वर्ष में मृत्यु होगी । अरु (पिण्डली) न दिखाई दे तो दस महीने में, कम दिखाई न दे तो आठ-नौ महीने में, और पेट दिखाई न दे तो पाँच-छह महीने में मृत्यु होती है। यदि गर्दन दिखाई न दे तो चार, तीन, अथवा एक महीने में मृत्यु होती है। यदि बगल दिखाई न दे तो पन्द्रह दिन में और भुजा दिखाई न दे तो दस दिन में मृत्यु होती है। यदि कंधा दिखाई न दे तो आठ दिन में, हृदय में छिद्र दिखाई न दे तो चार मास में, योगशास्त्र में यदि हृदय दिखाई न दे तो चार प्रहर का काल बतलाया है और मस्तक दिखाई न दे तो दो प्रहर में ही मृत्यु होगी तथा किसी कारण से उस पुरुष को छाया यदि सर्वथा दिखाई न दे तत्काल ही मृत्यु होती है। (इसी प्रकार का वर्णन योगशास्त्र में प्रकाश ५ श्लोक २१७ से २२३ में आया है। यद्यपि आयुष्य को जानने के लिए इसके अतिरिक्त अनेक उपाय शास्त्रों में कहे हैं फिर भी यहाँ वह अल्पमात्र कहा है। योगशास्त्र पाँचवें प्रकाश में कई मतान्तर बतलाएँ हैं ।) इस तरह मूल परिकर्म द्वार का नौवाँ परिणाम अंतर द्वार में भी सातवाँ आयुष्य ज्ञान द्वार नाम का अंतर द्वार सुंदर रूप से कहा है। अब 'अनशन सहित संस्तारक दीक्षा का स्वीकार' इस नाम के आठवें द्वार को मैं कहता हूँ । । ३३२३ ।। ८. अणसण प्रतिपत्ति नामक आठवाँ द्वार : पूर्व में कहीं हुई विधि से मृत्युकाल नजदीक जानकर अंतिम आराधना की विधि को जानकर संपूर्ण आराधना की इच्छा वाला जन्म-मरण, जरा से भयंकर दीर्घ संसारवास से भयभीत बना, श्री जिनवचन के श्रवण करने से प्रकट हुआ तीव्र संवेग श्रद्धा वाला और अप्रमादादि गुणरूप समृद्धिवाले उत्तम श्रावक के चित्त में निश्चि स्वभाव से ही नित्य ऐसी भावना होती है। अरे रे ! मुझे परम अमृत सदृश जिनवचन की श्रद्धा होने पर भी अभी भी पापों का घररूप इस गृहवास में रहना किस तरह योग्य है? अर्थात् सर्वथा अयोग्य है। इन्द्रियों के विषयों में आसक्त और परमार्थ से वैरी भी पत्नी आदि परिवार में गाढ़ रागवाला अनार्य ऐसे मुझे धिक्कार हो ! उन साधुओं को धन्य है कि जो मोहरूपी योद्धा को जीतनेवाले हैं। जितेन्द्रिय, सौम्य, राग-द्वेष से विमुक्त, संसाररूपी वृक्ष का 143 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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