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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार - अणसण प्रतिपति द्वार नाश करने में तीक्ष्ण शस्त्र समान है। वे आश्रव को रोककर तपरूप धन बढ़ानेवाले हैं। क्रिया में अत्यंत आदर वाले शाश्वत सुखरूप मोक्ष के लिए सतत् सम्यग् उद्यम को करते हैं, इसलिए मेरा वह दिन कब आयेगा? कि जब मैं गीतार्थ गुरु के पास चारित्र को स्वीकार कर मोक्षार्थ उद्यम करूँगा । मोक्षार्थ को साधन करने हेतु अन्य सर्व सामग्री प्राप्त होने पर भी सर्व विरति बिना शाश्वत सुख वाला मोक्ष कैसे प्राप्त होगा? इसलिए अब जब तक मेरे आयुष्य मास वर्ष आदि विद्यमान हैं, तब तक सर्व राग का त्यागकर मोक्ष मार्ग का अनुसरण करूँ। अथवा लम्बा आयुष्य दूर रहे ! निश्चय समभाव में प्रवृत्ति करते मुझे एक मुहूर्त भी यदि प्रव्रज्या के परिणाम हो जाए अर्थात् सर्वविरित गुण स्पर्श हो जाए तो क्या प्राप्त न हो? ऐसे परिणाम से युक्त बना भावपूर्वक बढ़ते तीव्र संवेगवाला श्री गुरुदेव के पास जाकर शुद्ध भाव से कहता है कि - हे भगवंत ! करुणारूपी अमृत के झरने से श्रेष्ठ आपने मुझे जो कहा था कि- 'आलोचनादि पूर्वक दीक्षा आदि स्वीकार कर ।' और मैंने भी 'इच्छामि' ऐसा कहकर जो स्वीकार किया था। अतः अब मैं जितना आयुष्य शेष है, तब तक वैसा करना चाहता हूँ। हे पूज्यपुरुष! रूपी अति प्रशस्त नाव में बैठकर परम तारक आपश्री की सहायता से संसार समुद्र को तरना चाहता हूँ।
प्रव्रज्या
उसके बाद अत्यंत भक्ति भाव से नमे हुए मस्तक वाले उसे गुरु महाराज भी विधिपूर्वक निरवद्य प्रव्रज्या (दीक्षा) दे। और यदि वह देशविरति और सम्यक्त्व का रागी तथा जैन धर्म में रागी हो, तो उसे अति विशुद्ध अणुव्रतों को उच्चारणपूर्वक दे। फिर बाह्य इच्छा रहित उदार मनवाला और हर्ष से विकसित रोमांचित शरीर वाला, वह भक्तिपूर्वक गुरु महाराज का और साधर्मिकादि संघ की पूजा करें और अपने धन को नये श्री जिनमंदिर, श्री जिनबिंब, और उसकी उत्तम प्रतिष्ठा में, तथा प्रशस्त ज्ञान की पुस्तकों में, उत्तम तीर्थों में, तथा श्री तीर्थंकर देव की पूजा में खर्च करें । परंतु किसी तरह वह सर्वविरति में युक्त अनुराग वाला हो, विशुद्ध बुद्धि और काया वाला, स्वजनों के राग से मुक्त और विषय रूपी विष से यदि विरागी हो, तो सर्व पाप को त्याग करने में उत्साही संयमरूपी श्रेष्ठ राज्य के रसवाला वह महात्मा संस्तारक दीक्षा को भी स्वीकार करें। उसमें यदि अणुव्रतधारी और केवल संथारारूप श्रमण दीक्षा को प्राप्त करता हो, वह संलेखनापूर्वक अंतःकाल में अनशन अर्थात् चारों आहार का त्याग करें। इस तरह गृहस्थ का अनशनपूर्वक संस्तारक दीक्षा की प्राप्ति नामक आठवाँ द्वार कहा है, ऐसा कहने से गृहस्थ के परिणाम को कहा ।। ३३४६।।
अब समग्र गुणमणि के निधान स्वरूप श्री मुनियों के विषय में परिणाम कहते हैं, वह परिणाम इस तरह चिंतन द्वारा शुभ होते हैं।
मध्यरात्री में धर्म जागरण करते हुए चढ़ते परिणाम वाला मुनि विचार करें कि - अहो ! यह संसार समुद्र रोग और जरा रूपी मगरों से भरा हुआ है। हमेशा होनेवाले जन्म मृत्यु रूपी पानी वाला, द्रव्य क्षेत्र आदि की चार प्रकार की आपत्तियों से भरा हुआ, अनादि सतत् उत्पन्न होते विकल्परूपी तरंगों द्वारा हमेशा जीवों का नाश करता रौद्र और तीक्ष्ण दुःखों का कारण है। उसमें अति दुर्लभ मनुष्य जन्म को महा मुश्किल से प्राप्त करके भी जीव अति दुर्लभ श्री जिन कथित धर्म सामग्री को प्राप्त कर सकता है। उसे प्राप्त करके भी अविरतिरूपी पिशाचनी के बंधन में पड़े हुए जीवों को असामान्य गुणों से श्रेष्ठ साधुत्व प्राप्त करना तो परम दुर्लभ ही है। कई दुर्लभ भी साधु जीवन को प्राप्त करके थके हुए और सुखशील कीचड़ में फँसने से बड़े हाथी के समान दुःखी होते हैं। जैसे कांकिणी (एक रुपये का अस्सीवाँ भाग) के लिए कोई महामूल्य करोड़ों रत्नों को गँवा देता है, वैसे संसार के सुख
गाढ़
आसक्त जीव मुक्ति के सुख को हार जाता है। अरे! यह शरीर, जीवन, यौवन, लक्ष्मी, प्रिय संयोग, और उसका सुख भी अनित्य परिणाम वाला, असार और नाश वाला है, इसलिए अति दुर्लभ मनुष्य जीवन और श्री जिन
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