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महासेन राजा की कथा
महासेन राजा की कथा
धन-धान्य से परिपूर्ण बहुत नगरों और गाँवों के समूह से रमणीय, रमणीय रूप और लावण्य वाली युवतियों से सर्व दिशाओं में शोभायमान तथा सर्व दिशाओं में से आये हुए व्यापारी जहाँ विविध प्रकार के बड़ेबड़े व्यापार करते हैं और व्यापार से धनाढ्य बने हैं। बहुत धनाढ्यों ने जहाँ श्रेष्ठ देव मंदिर बनाये हैं। उन देव मंदिरों के ऊँचें शिखरों के अंतिम विभाग में उड़ती हुई श्वेत ध्वजाओं के समूह से आकाश भी जहाँ ढक गया है तथा आकाश में रहे विद्याधरों ने जिनकी सुन्दर गुण समूह से प्रशंसा की है तथा रमणीय गुण के समूह से प्रसन्न हुए मुसाफिरों ने जिस देश में आकर निवास करने की इच्छा की है, ऐसे इस जम्बू द्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में कच्छ नाम का देश है। भारत में तो गोविंद अर्थात् वासुदेव एक ही है, हली अर्थात् बलदेव भी एक है और अर्जुन भी एक ही है, जब कि यह देश सैंकड़ों गोविंद अर्थात् गाय समूह से युक्त है, हली अर्थात् किसान भी सैंकड़ों हैं और अर्जुन नामक वृक्ष की कोई संख्या नहीं है, इसी तरह यह देश भारत की महत्ता की भी उपेक्षा करता है । वहीँ युवा स्त्री जैसे वस्त्र से अंगोंपांग लपेटकर रखती है वैसे यह नगर किल्ले से युक्त था, सूर्य का बिम्ब जैसे अत्यन्त प्रभा से युक्त होता है, वैसे नगर बहुत मार्गों से युक्त था और विभक्ति वर्ण, नाम आदि से युक्त प्रत्यक्ष मानों शब्द विद्या व्याकरण हो वैसे सुन्दर अलग-अलग वर्ण के नाम वाले भिन्न-भिन्न मोहल्लें-गली आदि थें, और वह नगर बड़ी खाई के पानी से व्याप्त और गोलाकार किल्ले से घिरा हुआ होने से मानो लवण समुद्र की जगत से घिरा हुआ जम्बू द्वीप की समानता की स्पर्धा को करता था तथा हमेशा चलते विस्तृत नाटक और मधुर गीतों से प्रजाजन को सदा आनन्द की वृद्धि कराता था, और परचक्र के भय से रहित होने से कृतयुग अर्थात् सुषमा काल के प्रभाव को भी जो विडम्बना करता था, महान विशाल ऋद्धि के विस्तार से युक्त बड़े धनाढ्य मनुष्य वहाँ हमेशा दान देते थें, इससे मैं मानता हूँ कि वैश्रमण - कुबेर भी उनके सामने साधु के समान धन रहित दिखता था अर्थात् कुबेर सदृश धनिक दातार वहाँ निवास करते थें और हिमालय समान उज्ज्वल और विशाल मकानों से सभी दिशायें ढक गयी थीं, इस तरह देवनगरी के समान उस देश में श्रीमाल नामक नगर था ।
उस नगर के अन्दर के भाग में पद्म समान मुख वाली सुन्दर स्तन वाली विकसित कमल के समान नेत्र वाली स्त्रियाँ थीं वैसे बाहर विभाग में ऐसी ही बावडियाँ थीं। उनमें भी पद्म रूप मुख सदृश मधुर जल भरा हुआ था और नेत्ररूपी विकासी कमल थें। उस नगर के अन्दर के भाग में बहुत सामन्तों वाले और प्रसिद्ध कवियों के समूह से शोभित उद्यान की श्रेणियाँ थीं और बाहर के विभाग में बहुत वृक्षों वालीं और बन्दरों के समूह से शोभित प्रसिद्ध वन-पंक्तियाँ थीं। इस तरह गुण-श्रेणी से शोभित होने पर भी उस नगर 'एक महान् दोष था कि जहाँ धार्मिकजन याचक को अपने सन्मुख आकर्षण करते थें। 1इस नगर में रहने वाले लोगों को धन का लोभ नहीं था परन्तु निर्मल यश प्राप्ति करने का लोभ था । मित्रता साधुओं से थी। राग श्रुतज्ञान में था । चिन्ता नित्यमेव धर्म क्रिया में थी। वात्सल्य साधर्मिकों के प्रति था। रक्षा दुःख से पीड़ित प्राणियों की करते थें और तृष्णा सद्गुण में थी ।। ९९ ।।
उस नगर का पालन करने वाला महासेन नाम का राजा राज्य करता था। उस राजा की महिमा ऐसी थी कि नमस्कार करते राजाओं के मणि जड़ित मुकुट से राजा की पादपीठ (पैर रखने का स्थान) घिसकर, मुलायम 1. यहाँ विरोधाभास अलंकार इस प्रकार घटाया है कि-मार्गण यानि बाण तो फेंकने के बाद फेंकने वाले से विपरीत मुखकर दूर जाता है और यहाँ मार्गण - याचक धर्मियों के सन्मुख आते हैं।
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श्री संवेगरंगशाला
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