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श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार-अभयकुमार की कथा वमन करता है ।।७२०० ।। सदाचरण में बलरहित और पाप के आश्रव में सशक्त पापी, अपनी आत्मा को विषय के कारण दुःखी प्राण रहित करता है।
जो विषयों की गद्धि करता है वह पापी दृष्टि विष सर्प के पास खडा रहता है और उससे मर जाता है। तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलता है, तलवार के बने पिंजरे में क्रीड़ा करता है, भाले की नोंक पर शयन करता है, और अग्नि को वस्त्र में बंध करता है। तथा वह मूढ़ अपने मस्तक से पर्वत को तोड़ता है, भयंकर अग्नि ज्वालाओं से आलिंगन करता है और जीने के लिए जहर को खाता है। और वह भूखे सिंह, क्रोधित सर्प के पास जाता है तथा बहुत मक्खी युक्त मधपुड़े पर प्रहार करता है। अथवा जिसको विषयों में गृद्धि है, उसके मुख में जहर है, कंधे पर अति तीक्ष्ण तलवार है, सामने ही खाई है, गोद में ही काला नाग और पास में ही यम स्थिर है। उसके हृदय में ही प्रलय की अग्नि जल रही है तथा मूल में कलह छुपा है। अथवा निश्चय उसने मृत्यु को अपने वस्त्र की गांठ से बांधकर रखा है, और वह अशक्त शरीरवाला काँपती दीवार और आंगनवाले मकान में सोया है। अर्थात् मौत की तैयारी वाला है। और जो विषयों में गृद्धि करता है, वह शूली के ऊपर बैठता है, जलते लाख के घर में प्रवेश करता है और भाले की नोंक पर नाचता है। अथवा ये सारी बातें कही हैं, दृष्टि विष सर्प आदि तो इस भव में ही नाश करने वाले हैं और धिक्कार पात्र विषय तो अनंत भव तक दारुण दुःख देने वाले हैं। अथवा दृष्टि विष सर्प आदि सब तो मंत्र, तंत्र या देव आदि के प्रयोग से स्तंभित-वश करने पर इस भव में भी भयजनक नहीं बनते हैं और विषय तो अनेक भवों तक दुःखदायी होते हैं। जड़ पुरुष काम पीड़ा के दुःख को उपशांत करने के लिए विषय भोगता है, परंतु घी से जैसे अग्नि बढ़ती है, वैसे उस विषय से पीड़ा अति गाढ़ बढ़ती है। जो विषय में गृद्ध है वह शूरवीर होते हुए भी अबला के मुख को देखता है। जो उस विषय से विरागी होता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। मोह महाग्रह के वश हुआ विषयाधीन जीव अरति से युक्त है और धर्म राग से मुक्त होकर मन, वचन, काया को अविषय में भी जोड़ता है और विषयों के सामने युद्ध भूमि में जुड़ी हुई दुर्जन इन्द्रिय रूपी हाथियों के समूह, शत्रु रूप शब्द आदि विषयों को देखकर मन, वचन, काया से विलास करता है अर्थात् जो इन्द्रिय विषय को जीतने के लिए है वह उसी में फंस जाता है।
विषयासक्ति का त्यागी और अपनी बुद्धि में उस प्रकार के निर्मल विवेक को धारण करने वाला पुरुष भी युवती वर्ग में सद्भाव, विश्वास, स्नेह और राग से परिचय करते अल्पकाल में ही तप, शील और व्रत का नाश करता है। क्योंकि-जैसे-जैसे परिचय करने में आता है, वैसे-वैसे क्षण-क्षण में उसका राग बढ़ता जाता है,
और थोड़ा राग भी बढ़ जाता है फिर उसे रोकने में जीव को संतोष नहीं होता है अर्थात् उसे रोकने में समर्थ नहीं होता है, और इस तरह असंतोष-आसक्ति बढ़ जाने से निर्लज्ज बन जाता है, फिर अकार्य करने की इच्छा वाला बनता है और अंगीकार किये व्रत, नियम आदि सुकृत कार्यों से मुक्त बनकर वह पापी शीघ्र उस विषय सेवन को करता है। स्वयं चारों तरफ से डरता हुआ विषयासक्त पुरुष, चारों तरफ से डरती हुई विषयासक्त स्त्री के साथ जब गुप्त रीति से विषय क्रीड़ा करता है, तब भयभीत होकर भी यदि वह सुखी हो तो इस विश्व में दुःखी कौन?
विषयाधीन मनुष्य दुर्लभ चारित्र रत्न को किसी समय केवल एक बार ही खंडित कर फिर जिंदगी तक सारे लोक में तिरस्कार का पात्र बनता है। केवल प्रारंभ में कुछ अल्प माना हुआ सुख देनेवाला है, परंतु भविष्य में अनेक जन्मों का निमित्त होने से सत्पुरुषों को सेवन करने के समय भी विषय दुःखदायक होता है। हा! धिक्कार है! कि सड़ा हुआ, बीभत्स और दुर्गंछापात्र स्त्री के गुस अंग में कृमि जीव के समान दुःख को भी सुख मानता जीव खुश रहता है। फिर उस विषय के लिए आरंभ और महा परिग्रहमय बनकर जीव सैंकड़ों दुःखों का 1. जह जह कीरइ संगो, तह तह पसरो खणे खणे होइ। थोवो वि होइ बहुओ, न य लहइ धिई निरुंभंतो ||७२१७||
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