________________
श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म विधि द्वार-संलेखना नामक पन्द्रहवाँ प्रतिद्वार स्वीकार की जाती है, यही इसकी विशिष्टता है। यह अंतिम तपस्या भी अति लम्बे काल के लिए दुःसाध्य है, इसलिए व्याधि उपसर्ग में चारित्र रूपी धन को विनाश करने वाले कोई अन्य कारण में, अथवा कान आदि किसी इन्द्रिय का विषय विनाश हआ हो. अथवा भयंकर दष्काल पडा हो, तब यह संलेखना धीर साध और श्रावक के करने योग्य है। क्योंकि इस संसार में आनंदादि महासत्त्व वाले श्रावकों ने अति लम्बे काल तक निर्मल श्रावक धर्म को पालकर अंत में आगम कथित विधिपर्वक सम्यक संलेखनाकर उग्र क्रिया की आराधना कर क्रमशः श्रेष्ठ
और महान् कल्याण परंपरा को प्राप्त किया है। और पूर्व के महापुरुष ऋषियों ने भी दीक्षा से लेकर जीवन तक निश्चय दुश्चर चारित्र का भी चिरकाल पालन कर क्लिष्ट तपकर अंतकाल में पुनः विशेष तपस्या से दिव्य शरीर
और भाव की अर्थात् कषाय आदि की संलेखनापूर्वक कालकर सिद्धि पद प्राप्त किया है, ऐसा सुना जाता है। और श्री ऋषभ स्वामी आदि तीर्थंकर थें। तीन जगत के तिलक समान थें। देवों से पूजनीय थे। अप्रतिहत केवल ज्ञान के किरणों द्वारा जगत का उद्योत करने वाले थे, और वे अवश्यमेव सिद्धि पद प्राप्त करने वाले थे। फिर भी
काल में निश्चय सविशेष तप करने में परायण थें। श्री ऋषभ देव परमात्मा ने निर्वाण के समय अर्थात अंतिम क्रिया में चौदह भक्त अर्थात् छह उपवास, श्री वीर परमात्मा ने षष्ठ भक्त-दो उपवास और शेष बाईस भगवानों ने एक मासिक तप किया था। इसलिए तप का पक्षपात करने वाले, मोक्ष प्राप्त की इच्छा वाले एवं भवभीरु अन्य आत्माओं को भी उन पूर्व पुरुषों के क्रमानुसार संलेखना करना योग्य है। किन्तु तपस्या बिना प्रायः शरीर पुष्ट मांस रुधिर की पुष्टिता को नहीं छोड़ेगा, इसलिए प्रथम यह तप करना चाहिए ।।४००० ।। क्योंकि पुष्ट मांस रुधिर वाले को मोह अनुकूल होने के कारण किसी कारण से अशुभ प्रवृत्ति में प्रबल कारण रूप मोह का उदय होता है और उसके उदय होने से यदि विवेकी भी दीर्घ दृष्टि बिना का हो जाता है तो फिर, तप नहीं करने वाले के लिए तो पूछना ही क्या? इस कारण से जैसे शरीर को पीड़ा न हो, मांस-रुधिर की पुष्टि भी न हो और धर्म ध्यान की वृद्धि हो। इस तरह संलेखनाकर-शरीर को गलाना चाहिए।
यह संलेखना उत्कृष्ट और जघन्य इस तरह दो प्रकार की है। इसमें उत्कृष्ट बारह वर्ष की और जघन्य छह महीने की है। अथवा द्रव्य से और भाव से भी दो प्रकार की है। उसमें द्रव्य से शरीर की कृशता और भाव से इन्द्रियों की और कषायों की कृशता जानना अर्थात् हल्का करना। इसमें जो उत्कृष्ट संलेखना काल के बारह वर्ष कहे हैं. उसे द्रव्य से. सत्रानसार से यहाँ कछ कहता हूँ-विविध अभिग्रह सहित चौथ भक्त, छट्ठ, अट्ठम आदि विविध तप करके सर्व रस और कस वाली विगइयों से पारणा करते तपस्वी प्रथम चार वर्ष पूर्ण करें, पुनः चार वर्ष विचित्र-विविध तप से संपूर्ण करें, केवल उसमें विगई का उपयोग नहीं करें। उसके पश्चात् दो वर्ष पारणे में आयंबिल पूर्वक एकान्तर उपवास का तप करें, इस तरह दस वर्ष संपूर्ण हुए। ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महीने में अति विकृष्ट अर्थात् चार उपवासादि उग्र तप न करे और पारणे में परिमित आहार से आयंबिल करे। फिर अंतिम छह महीने में अट्ठम, चार उपवास आदि विक्लिष्ट तप कर देह को टिकाने के लिए पारणा आयंबिल से इच्छानुसार भोजन करें। इस तरह ग्यारह वर्ष पूर्ण करके, बारहवाँ वर्ष कोटि सहित-लगातार आयंबिल तप कर पूर्ण करें, केवल बारहवें वर्ष के अंतिम चार महीने में एकान्तर मुख में तेल का कुल्ला चिरकाल भरकर रखें, फिर उसके क्षार को प्याले में परठकर मुख साफ करें। ऐसा करने का क्या कारण है? उसका उत्तर देते हैं-ऐसा करने से उसका मुख वायु से बन्ध नहीं होता है, मृत्यु काल में भी वह महात्मा स्वयं श्री नवकार महामंत्र का स्मरण कष्ट बिना कर सकता है। यह मैंने द्रव्य से उत्कृष्ट संलेखना कही है, यही संलेखना यदि आयुष्य के अंतिम छह महीने तक अथवा चार महीने तक करें तो वह जघन्य कहलाती है।
170
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org