Book Title: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth
Author(s): Nathmal Tatia, Dev Kothari
Publisher: Kesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/012044/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्यवाधिकारस्ते मा कारस्ते मा फलेषु कदाचन लाहिवासे वि सुव्वया' प्रति एगेहि भिक्खुहिं गारत्था संजमुत कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराग जे कम्मे सुराते धम्मे सूराः भिनन्दन ग्रन्थ elain Education International For Priyale & Personal use only jainel Drary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M 2AMAY SIN कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परामर्श-मण्डल डॉ० दौलतसिंह जी कोठारी स्व. श्री देवीलाल जी सामर श्री अगरचन्द जी नाहटा श्री ताराचन्द जी सेठिया डॉ० आत्माराम जी श्री श्रीचन्द जी रामपुरिया श्री तोलाराम जी दूगड श्री अक्षयकुमार जी जैन सम्पादक-मण्डल प्रधान सम्पादक डॉ० नथमल टांटिया सम्पादक डॉ0 देव कोठारी सह सम्पादक प्रो० दानवीरचन्द भण्डारी श्री मनोहर सी० भारतीय श्री महेन्द्रकुमार बांठिया डॉ० महावीर राज गेलड़ा डॉ० महेन्द्र भानावत प्रो० लूणकरण 'विद्यार्थी' प्रबन्ध सम्पादक प्रो० एस० सी० तेला प्रमुख संयोजक प्रो० बी० एल० धाकड़ সকাছাক कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समिति, राणावास (राजस्थान) वीर निर्वाण संवत् २५०८ शक संवत्-१६०३ विक्रम संवत्-२०३६ ईस्वी सन-१९८२ मूल्य : एक मौ एक म्पया मात्र मुद्रक श्रीचन्द सुराना 'सरस' के निर्देशन में दिनेश प्रिन्टर्स एवं शैल प्रिंटर्स, आगरा में मुद्रित । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mok 3 7 Karmayogi Shri Kesrimalji Surana Abhinandana Grantha Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Advisory Board Dr. Daulat Singhji Kothari Late Shri Devi Lalji Samar Shri Agar Chandji Nahta Shri Tara Chandji Sethiya Dr. Atma Ramji Shri Shri Chandji Rampuria Shri Tola Ramji Dugar Shri Akshaya Kumarji Jain EDITORIAL BOARD Chief Editor Dr. Nath Ma! Tatiya Editor Dr. Dev Kothari Co-Editor Prof. Danveer Chand Bhandari Dr. Mahaveer Raj Gelta Shri Manohar C. Bhartiya Dr. Mahendra Bhanawat Shri Mahendra Kumar Banthiya Prof. Loon Karan ‘Vidyarathi' Managing Editor Prof. S. C. Tela Chief Convenor Prof. B. L. Dhakar Publisher Karmayogi Shri Kesarimalji Surana Abhinandana Grantha Prakashan Samiti, RANAWAS (Rajasthan) Veer Nirvan Samvat-2508 Shaka Samvat-1903 Vikarm Samvat-2039 Ishvi Sana-1982 Price-Rs. One Hundred one only Designed and prepared under the supervision of : Shri Chand Surana 'Saras' Printers : Dinesh Printers & Shail Printers, Agra Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CURad 步步步步姿势张华张学举步控告学类荣誉 步步进步姿势类 然举許券类资 *********** ************ * ***** ** विमोचन :westerest ******* ****** 张张朵朵券华张张张张张张张华张张卷饼 ACLE अणुव्रत - अनुशास्ता, युगप्रधान आ चार्य श्री तु ल सी के कर - कमलों द्वारा समर्पण पद्मविभूषण माननीय डा० दौलतसिंह जी कोठारी चांसलर-जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली दारा दिनांक ३१ अक्टूबर, १९८२ विद्या भूमि, राणावास Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्त श्रद्धा के केन्द्र dain Education international अणुव्रत अनुशास्ता युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ·零令零零零零零零 प्राक्कथन आचार्य विनोबा के शब्दों में- "ज्ञान ही कर्म और कर्म ही भक्ति है ।" भगवद्गीता का साम्ययोग प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ की मूल भित्ति है । जीवन की सफलता एक साधारण कसौटी है । कतिपय बिरले ही होते हैं जो जीवन की वास्तविक उपादेयता की और सोचते हैं और सोचकर ऐसे मार्ग की और अग्रसर होते हैं जिसका मूल्यांकन सदा-सर्वदा स्थायित्व लिये होता है । भारतीय संस्कृति में महापुरुषों का मार्ग कंटकाकीर्ण रहा है और उसी में उत्तीर्ण होकर जन-जन को पथ-प्रदर्शन किया है। इसी मार्ग के अनुगामी हम सबके श्रद्धेय कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा हैं । आपके जीवन की कहानी एक खुली पुस्तक है । किस परिवार और कहाँ जन्म लेकर एक निर्जन स्थान, राणावास को देश के मानचित्र पर लाकर रख दिया, यह एक अद्वितीय कार्य है जो निस्सन्देह सत्य है। शिक्षा जगत की महान उपलब्धि के पीछे मानवी शक्ति की पराकाष्ठा परिलक्षित होती है। न तो इस प्रकार का पारिवारिक वातावरण, न आप विशेष शिक्षित, व्यवसाय आपका मुख्य जीवनयापन होते हुए, तथापि आपकी अन्तरआत्मा की आवाज ने जीवन को सच्ची व सही दिशा की और प्रेरित किया । वह प्रेरणा उत्तरोतर वृद्धि के साथ आपकी चिर संगिनी बन गई । आप दृढ़ आत्म-संकल्प के साथ शिक्षा सेवा में जुट पड़े । पाँच बच्चों की प्राथमिक शिक्षा से महाविद्यालय स्तर में परिणित कर देना आपकी सतत कर्मठ साधना का प्रतिफल है । आपके लिये कल्पनातीत था, पर मार्गस्वयं प्रशस्त नहीं होता, असीम सत्यनिष्ठा सेवा मार्ग को आगे की ओर प्रशस्त करती रहती है । यह आपके जीवन के लिये भी चरितार्थ होता है । सफलता ऐसे व्यक्तियों के ही चरण चूमती है जो अपने लक्षित मार्ग से किन्हीं परिस्थितियों में विचलित नहीं होते हैं। एक युग की त्याग-तपस्या युगों-युगों तक फल प्रदान करती रहती है । राणावास का जैन श्वेताम्बर तेरापन्थ मानव हितकारी संघ की ३८ वर्ष पूर्व स्थापना और उसके सुयोग्य तत्वावधान में देश-व्यापी सहयोग द्वारा संस्थान का वर्तमान स्वरूप हमारे चरित्रनायक के अलौकिक मानवीय गुणों का अवलोकन कराता है। उसी दृष्टि से यह ग्रन्थ सार्वजनिक परिप्रेक्ष्य से रचित किया गया है ताकि आपके गुणों को उजागर किया जा सके। हम सबका यह प्रयास श्रद्धय सुराणा जी का हार्दिक अभिनन्दन है | For Private Personal Use Only 煱 *零零零零零公 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्था और व्यक्ति के बीच गहन सम्बन्ध है। संस्था व्यक्ति के साथ ही चला करती है। उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि व्यक्ति जब संस्था बन जाता है तो संस्था पल्लवित और पुष्पित होती रहती है। यह मान्यता हमारे चरित्रनायक के लिये शत प्रतिशत सही उतरती है। कांठा प्रदेश के अविकसित क्षेत्र में जिस बोज का पाँच संस्थापक सदस्यों ने वपन किया, जिसमें स्व० श्री बस्तीमलजी छाजेड़ प्रमुख थे, वह आज वटवृक्ष के रूप में अवतरित है। श्री सुराणाजी ने सर्वस्व समपर्ण कर अपने आपको समर्पित किया और जूझ पड़े। देश की तेरापन्थ समाज की भूमिका पर संस्था-निर्माण के विकास को अविरल रखा। प्राथमिकशाला, माध्यमिकविद्यालय को पूर्णतया स्थायित्व प्रदान किया। साथ में आदर्श निकेतन छात्रावास की सुन्दरतम व्यवस्था स्थापित की। क्रमशः परिसर (Campus) भवनों से आलोकित होने लगा। संस्था के संचालन का मूल हार्द चरित्रनिमार्ण रहा ताकि बालकों का जीवन निमार्ण सही दिशा में होकर संस्कारी बन सके। इस सन्दर्भ में आध्यत्मिक पुट सदा बना रहा । गुड़ा रामसिंह माध्यमिक शाला व वहाँ का औषधालय मानव हितकारी संघ द्वारा ही संचालित हैं जो ग्रामीण जीवन में शिक्षा सेवा उपलब्ध करते हैं। कुछ वर्षों पूर्व धर्म संघ के आचार्य श्री की मनोभावना को हृदयंगम करते हुए आपने अपने मन में महाविद्यालय निर्माण का निश्चय किया। इस स्वप्न को साकार करना एक भगीरथ प्रयत्न था। दस वर्षों की अल्प अवधि में पच्चास लाख रुपयों का अनुदान प्राप्त किया। उदारमना श्री भन्साली परिवार एवं श्री सेठिया परिवार ने आपके मनोरथ की पूर्ति हेतु महाविद्यालयी भवनों के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाई। फिर तो भव्य छात्रावास भवन के ११० कमरों के निर्माण में देशव्यापी सहयोग उपलब्ध हुआ। पता नहीं, आपकी जिह्वा सदा फलित होती है। सामने वाला आपकी सतत् कर्मठ सेवा के आगे झुक जाता है, यही महापुरुषों के गुण है, श्रद्धय सुराणाजी भी इसी श्रेणी में आते हैं। विशाल प्रांगण भव्य अट्टालिकाओं सहित प्रतिदिन समीप ही रेलयात्रियों को तो आकर्षित करता ही है वरन् चयन के लिये विद्वान जब आते हैं तो वे इसको मिनि-विश्वविद्यालय का रूप देते हैं। इन मब के फलस्वरूप राणावास स्टेशन कोलोनी नवीनतम भवनों के निर्माण से मुह बोलने लग गयी है। 31 संस्था को खड़ी करना एक बात है और उसका सफल संचालन करना तथा उत्तरोत्तर विकास के मार्ग पर प्रशस्त करना दूसरी बात है। दूसरी बात अधिक दुष्कर है। प्रारम्भ में तो अधिकतर व्यक्ति जुट जाते हैं, किन्तु वे अधिक समय तक साथ नहीं दे पाते, बहुधा यही देखा जाता है। हमारे चरित्रनायक जिस कार्य को उठा लेते हैं उसको परिसम्पन्न करने में ही विश्वास करते हैं। एकनिष्ठ रूप से संलग्न हो जाना आपकी अद्भुत प्रतिभा है। उसके लिये जो भी विसर्जन करना पड़े, उससे पीछे नहीं हठते हैं। Charity begins at Home को चरितार्थ करने के लिये आपने सपत्नीक इस संस्था की सेवा में वर्ष के ३६५ दिन ही समर्पित कर दिये हैं। साधु वेशभूषा धारण की एवं न्यूनतम आवश्यकताओं को अंगीकार किया। प्रतिदिन संस्था की व्यवस्था जैसे-शिक्षण-प्रशिक्षण, छात्रावास तथा भोजनालय की देखरेख, सम्पूर्ण प्रबन्ध का निर्देशन आपके जीवन के मुख्य अंग बन गये। वित्तीय अनुशासन पर आपका मद व पूरा अधिकार रहा अर्थात् चन्दा राशि का सर्वोत्तम उपयोग कभी आपके मस्तिष्क से ओझल नहीं रहा। यही कारण है कि आज तक सम्पूर्ण समाज का अटूट विश्वास बना रहा। यह मूल भित्ति है, जिसके कारण चन्दा राशि का प्रवाह अविरल गति से होता रहा। चन्दा प्राप्ति के लिये वर्ष में अधिकतम समय तक आपका बाहर आवागमन होता रहता था। कितने ही उपालम्भ व अपमान सहे। परिषहों को पीते रहे और अदम्य उत्साह से आगे की ओर बढ़ते रहे । यह आत्मिक साहस का एक ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत होता है। देश के नौनिहालों को माता-पिता आपके भरोसे छोड़ देते हैं और आप उनकी शिक्षा-दीक्षा, आवास, भोजन सुविधा, संस्कार-निर्माण आदि पर व्यक्तिशः देखभाल करते हैं। इसलिये प्रत्येक छात्र-वर्तमान व भूतपूर्व-आपके चरणों में नतमस्तक होते हैं। वात्सल्य और अनुशासन दोनों के आप समान हामी है। आदर्श निकेतन एवं महाविद्यालय छात्रावास के पाँच सौ छात्रों में पूर्ण अनुशासन है। यह एक असाधारण कीर्तिमान स्थापित करता है। महान् शिक्षाविद् डॉ० डी० एस० कोठारी के शब्दों में "संकड़ों छात्रों को एक साथ प्रतिदिन प्रातः सामूहिक प्रार्थना, Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त शिक्षा जगत के लिए अनुपम एवं गौरवपूर्ण है।" संस्था के प्रांगण में सारी व्यवस्था स्वावलम्बी है। वह निर्विरोध स्वत: संचालित होती रहती है। इस संदर्भ में श्री जब्बरमल जी भण्डारी (जोधपुर) का मंत्री व अध्यक्ष के रूप में एक चौथाई शताब्दी तक आपको सहयोग मिला है, जिनका संघ ने गतवर्ष अभिनन्दन किया है, वह विशेष उल्लेखनीय है। संस्था वही है जिसका योगदान व्यापक व चिर स्थायी रहे। इस परिप्रेक्ष्य में इस संस्था का बेजोड़ स्थान है। जो छात्र यहाँ से शिक्षा ग्रहण करके गया है वह इसको जीवन पर्यन्त अपनी मातृ संस्था Almamater मानता है। उसको गौरव होता है कि वह राणावास के सुमति शिक्षा सदन माध्यमिक विद्यालय तथा आदर्श निकेतन छात्रावास का छात्र रहा है। छात्र का जीवन प्राचीन गुरुकुल आश्रम की परम्परा से ओतप्रोत रहता है। श्रद्धास्पद चरित्र आत्माओं के दर्शन यदि उपलब्ध हो तो, छात्र जीवन का प्रमुख अंग है। प्रातः ४-३० बजे से रात्रि के १० बजे तक नियमित दिनचर्या से हर एक छात्र को अनिवार्य गुजरना पड़ता है। अनावश्यक आधुनिकता को प्रोत्साहन नहीं दिया गया है। छात्र का जीवन अधिकांशतः प्राकृतिक वातावरण से युक्त है। ऐसा भी कहा जाता है कि जिस छात्र को सुधारना है उसे राणावास भेज देना चाहिये । प्रतिद्वन्द्वात्मक वातावरण की अपेक्षा स्वस्थ सौहार्दपूर्ण वातावरण को प्रोत्साहन मिला है और वह व्याप्त रहा है, जिससे मानवी संस्कारों को बल मिल सके । यहाँ शिक्षाध्ययन के लिये कांठा प्रदेश, मारवाड़, थलो प्रदेश, मेवाड़, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मद्रास, कलकत्ता, आसाम, गुजरात, हरियाणा और नेपाल तक के दूर-दूर के छात्र बराबर आते रहते हैं। अस्तु वे आज सर्वत्र हैं। व्यवसाय के मार्ग में तो आगे है ही किन्तु अब सेवा मार्ग की ओर भी यहाँ की प्रतिभायें विखरती जा रही हैं। नियमित जीवन से परीक्षा परिणाम भी सदा अच्छे रहे हैं। 李李李李李李李李李李李卒中空 李李李李李李李李李李李李李李李李李李李李李李李 राणावास की भूमि अब एक विद्याभूमि में परिवर्तित हो गई है। सार्वजनिक रूप से छात्रों को विद्यालय एवं छात्रावास में प्रवेश मिलता रहा है। जैन-अजैन सबको समान रूप से देखा जाता है। यहाँ तक कि एक तिहाई तो राजपूत जाति के छात्र सम्भवतः लाभान्वित होते हैं। आपकी यह मूल धारणा है कि प्रत्येक समाज व संस्था का कर्तव्य है कि सबको समान रूप से देख कर समान सुविधायें उपलब्ध कराई जाना चाहिए। इस विशाल हष्टिकोण में आपके व्यक्तित्व की अमिट छाप है। 李容容李李李李李李李李李李李个空中李李李李李李李 विद्याभूमि राणावास में स्थानीय मरुधरकेसरी उच्च माध्यमिक विद्यालय ने स्वस्थ स्पर्द्धा तथा प्रगतिशील वातावरण उपस्थित किया हैं । अखिल भारतीय जन महिला शिक्षा संघ के माध्यमिक विद्यालय में सैकड़ों छात्रायें अध्ययन करती है। जैन समाज के सब ही अंगों का समन्वयात्मक साम्राज्य दृष्टिगोचर होता है। नारी शिक्षा ने समाजसुधार व संस्कार-निर्माण में अपूर्व योगदान दिया है। इस पावन धरा में शिक्षा और संस्कार-निर्माण का साम्य योग पल्लवित हुआ है, इसके पीछे श्री सुराणा जी की शक्ति ही काम कर रही है। किसी भी महान् कार्य की गरिमा के पीछे सम्बद्ध जीवनदानी कार्यकर्ता का उज्ज्वल व्यक्तित्व समाविष्ट रहता है । हमारे ग्रन्थ नायक एक कर्मठ व्यक्ति ही नहीं वरन् पूर्ण साधक हैं। मानव हितकारी संघ तथा महिला शिक्षण संघ दोनों की प्रवृत्तियों के नियमित समय देने के उपरान्त शेष सारा समय साधना में बीतता है। निद्रा आपकी दो या तीन घन्टे की मुश्किल से होती है। कभी-कभी तो निद्रा से भी वंचित रह जाना पड़ता है जब बैठकों में भाग लेना पड़ता है अथवा बाहर यात्रा में होते हैं । फिर भी प्रातः आप तरोताजा है। मैंने स्वयं देखा है। आपके सोने का समय रात्रि के ८-३० से ११ बजे तक है । तदुपरान्त सारी रात साधना में गुजारते हैं। यह साधना आपकी शक्ति का सम्बल है। निश्चित समय में ही आपको बोलना होता है। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दर बाई पति सेवा में सद। जागरूक रहती है और भारतीय संस्कृति का अनुपम आदर्श प्रस्तुत करती है। माँ कस्तूरबा की तरह श्रीमती सुन्दरबाई ने अपने निजत्व को भुलाकर पति में विस्मृत होकर पग-पग पर सदा साथ और सम्बल दिया है, जो स्तुत्य व अभिनन्दनीय है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुराणा परिवार की विशिष्ट परम्परा है। आपके एक भाई श्री मिश्रीलालजी सुराणा जो गांधीवादी विचारधारा के सार्वजनिक कार्यकर्ता हैं व साधक है, उनका जीवन बेमिसाल है। स्थानीय सर्वोदय छात्रावास के संस्था पक-संचालक है । आपके दूसरे भाई श्री भंवरलाल जी आपको पिता तुल्य समझते हैं और आपके प्रति समर्पित हैं । इन्होंने ग्रन्थ के ग्राहक बनाने में विशेष योगदान दिया है। श्रद्धय चरित्र आत्माओं के हमारे ग्रन्थनायक परम भक्त है और आपका निवास स्थान एक धर्म स्थान-सा ही है। प्रतिवर्ष चातुर्मास में आपकी धर्म साधना उच्चतम शिखर पर पहुँच जाती है । तेरापंथ धर्मसंघ के आदि पुरुष व प्रेणता भिक्षु स्वामी आपकी शक्ति के अमोघ सम्बल हैं । इस दैविक शक्ति के फलस्वरूप आपको “विजयश्री' उपलब्ध होती हैं। जीवन-पर्यन्त स्नान नहीं करना, अति सूक्ष्म आय से जीवन यापन करना, संस्था का पानी तक नहीं पीना आदि आपके विरले आदर्श है जिनको हर परिस्थिति में आप निभाते हैं। इसलिए आप जन-जन के पुजनीक हैं और समस्त समाज आपको "काकासा" नाम से सम्बोधन करता है। आपकी असीम त्याग व तपस्या ने लाखों लोगों के विश्वास का अर्जन किया है। अपने जीवन के चार दशक में स्वयं के प्रभाव व प्रेरणा से लगभग एक करोड़ रुपये का चन्दा प्राप्त किया है, जिसमे से पचास लाख तो कुछ ही वर्षों में प्राप्त किये हैं। इस दृष्टि से आप राजस्थान के महामना पंडित मदनमोहन मालवीय है। आपके इस कार्य ने रचनात्मक प्रवृत्ति को सारे समाज में इतनी बलवती बनाया है कि अब सर्वत्र यह क्रमशः प्रस्फुटित हो रही है। जैन श्वे० तेरापन्थ धर्मसंघ की प्रतिष्ठा में रचनोत्मक दृष्टि से आपका अनूठा योगदान रहा है, जो कभी विस्मरणीय नहीं किया जा सकेगा। यह शीर्षस्थ संस्थान है। समाज भी आपकी सेवाओं का हृदय से मूल्यांकन करता है। शिक्षा जगत के मनीषीगण सुव्यवस्थित व सुसंचालन के कारण मंत्रमुग्ध है। जबकि उच्छृखलता सारे देश में सीमा का उल्लंघन कर गई है और देश को झकझोर दिया है लेकिन इधर रामराज्य-सा वातावरण है, यह सब कर्मठ सेवा तथा उत्कृष्ट साधना का प्रतिबिम्ब है, जिसको नकारा नहीं जा सकता है। 伞伞伞伞伞伞伞伞伞李李李李 李个个个李李李李李李李李李李李李李李李李李李李 空空李李李李李李李李李李李李李个中李个个个平李李 हर प्रदेश अपने भौगोलिक परिवेश तथा ऐतिहासिक परम्पराओं के आधार पर संचालित माना जाता है । इस प्रदेश के बढ़ते चरण में आपकी कर्मठ साधना अन्तनिहित है। जहां आप शैक्षिक जगत के एक मजग प्रहरी है वहां दूसरी ओर धार्मिक तथा सांस्कृतिक जगत की आप अनमोल थाती है। एक सुधारवादी होने के नाते आपने जोवन में स्पन्दन पैदा किया है । हर मोड़पर समाज की परम्परागत जीर्ण-शीर्ण रुढ़ियों से सदा लोहा लिया है। आदों को डींग न हांककर स्वयम् को उनके अनुरूप ढाला है । अस्तु, यह पुनीत स्थान समाज परिवर्तन की गतिविधियों का स्थल-सा बन गया है । इस परिसर में ज्ञान,ध्यान और विसर्जन का अजस्र श्रोत प्रवाहित होता रहता है । निराश्रित छात्रों को मानवीय जीवन-यापन करने का अवसर प्रदान किया जाता है और वे कई छात्रवृतियों से लाभाविन्त होते हैं । भग्न हृदय में आशा का संचार होता है। आप एक कुशल व कठोर प्रशासक के साथ एक निर्धान्त कर्मठ सेवक हैं । यह संस्था आपकी अक्षय कीति का स्मारक है जिसको राष्ट्रीय स्तर तक प्रतिष्ठापित किया है। आपकी जैसी अलौकिक प्रतिभा व लगन के व्यक्ति युगों में अवतरित होते हैं। वास्तव में आप राजस्थान के गौरव हैं। नैतिकता धर्म और संस्कृति की उपज है और उसकी पुनर्प्रतिष्ठा का काम तो समाज द्वारा ही कर सकते हैं, जिन्हें सत्ता से नहीं समाज से प्रेम है। निस्पृह कर्मशील चेतना के प्रति आस्था रखना अमोघ शक्ति मूलक है। आप नीतिनिष्ठ श्रावक तथा चिन्तन के धनी हैं। सामाजिक आर्थिक, धार्मिक व शैक्षणिक प्रवृत्तियों के एक अग्रदूत मनीषी है। विकृत पाश्चात्य सभ्यता के प्रति आपके विचारों में कोई स्थान नहीं है। आपको हद धारणा है कि बालकों में सद्वृत्तियों का विकास और भावी विपत्तियों का सामना करने के लिये तैयार करना है । जातीय भावना व क्षेत्रीय संकीर्णता को प्रश्रय नहीं देकर बालक देश का एक भावी नागरिक बने । प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के शब्दों Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मठ कर्मयोगी Bharat श्रीयुत केसरीमल जी सुराणा गन्थ नागक Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में-"देश का भविष्य बच्चों के सही विकास में है। केवल गरीबी दूर करके देश को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता अपितु प्राचीन संस्कृति देशवासियों के लिये अमूल्य निधि है। उन मूल्यों की स्थापना तथा अभिवृद्धि समाज के मूल तत्वों के पतन को रोकने में समर्थ हो सकेगी।" हर युग में ज्ञान-विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में आदर्श व्यवहार में समन्वय बनाकर एक निश्चित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये मर्यादायें बनती हैं। संचालन में मूल दृष्टि कोण विकास मूलक रहा । युग की धारा में संघ आगे बढ़ता रहा । सुधार मूलक प्रवृत्तियों में संघ की प्रत्यक्ष भूमिका बनी रही। नारी समाज नानारूढ़ियों व बन्धनों से मुक्ति की ओर अग्रसर रहा। संस्कृति मानव की निधि है, आत्मा एक है, विविधता में भारतीय दर्शन की समरूपता है, भाषा, आचार-विचार में एकता है। महावीर वाणी-"जीओ और जीने दो" सम्पूर्ण संस्था निर्माण व संचालन में शिक्षा व संस्कृति का सामंजस्य उपस्थित कर इस आदर्श का निर्वाह किया है। __ आप सदा आत्मविश्वास व साहस के अदम्य प्रतिमूर्ति बने रहे। विविध संघर्षों और विवादास्पद परि-. स्थितियों में कभी मानसिक संतुलन नहीं खोया। गान्धीजी द्वारा प्रदत्त "ट्रस्टीशिप” मान्यता को सही रूप में निभाया। मानवीय दृष्टिकोण और निश्छल सेवावृत्ति आपके अन्तर्मन को अद्भुत आनन्द का प्रतिक्षण दिग्दर्शन कराती है। इसलिये आपके मुख पर व वाणी में ओज है। संस्था का स्वस्थ नियमन व अभूतपूर्व संचालन ने कई प्रतिभाओं को पल्लवित व पोषित किया है । यही संस्था को परिणति और स्थायित्व में फलित हुई है। 李个个穿个个本空空空空空空 李李李个卒卒中李李李李李李李李李李李李李李寧个个 अभिनन्दन ग्रन्थ का चिन्तन व आंशिक प्रयास विगत कुछ वर्षों से था। उसी क्रम में संघ की कार्यकारिणी तथा साधारण सभा ने जनवरी १९७८ में विधिवत इस कार्य को ठोस रूप दिया। जिसका दिग्दर्शन ग्रन्थ से प्रकटित है । अब अभिनन्दन ग्रन्थ अणुव्रत अनुशास्ता युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी के श्री चरणों में सादर भेंट हैं तथा समाज व देश के सम्मुख प्रस्तुत है। जिन-जिन महानुभावों का इस विशाल कार्य में सक्रिय सहयोग मिला उनके नाम यथा स्थान उल्लखित है । उच्च परामर्शक मण्डल की गरिमा, मूधय॑ साहित्यकार डा० नथमलजी टाटिया का सुप्रवर्चस्व उदीयमान लेखक, डा० देव कोठारी का विद्वतापूर्ण सम्पादन, योग्य एवं अनुभवी शिक्षाविद प्रो० एस० सी० तेला की सतत् निष्ठा एवं प्रो० डी० सी० भण्डारी के हार्दिक सहयोग का इस ग्रन्थ में विशिष्ट स्थान है, जिन्होंने मेरे संवेदनशील संयोजन कार्य में निरन्तर सामंजस्य बनाये रखा। ये अपने-अपने कार्य में कार्यरत रहते हुए अपने समय व शक्ति की सीमा के साथ यथासम्भव गति प्रदान करते रहे । तथापि धीमी गति के लिये अवश्य ही उसके लिये हम सब विद्वानों लेखकों व ग्रन्थ के ग्राहकों के प्रति विनम्र क्षमा प्रार्थी है। 本中李李李李李李李李李李李李李李李李李李李李李 किसी भी महापुरुष की कीर्ति को स्थायी बनाये रखने के लिये अभिनन्दन ग्रन्थ एक उपयोगी और श्रेष्ठ, माध्यम है। प्रस्तुत ग्रन्थ धार्मिक, सामाजिक सांस्कृतिक एवं साहित्यिक जगत में अनुपम स्थान बनाये, ऐसी कृति है। अभिनन्दन ग्रन्थ जहाँ गणों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है वहाँ जन-जीवन को एक नई प्रेरणा देता है। गुणों की * पूजा ही गुणों में वृद्धि करती है। काँठा प्रदेश बहुरत्न प्रसविनी है। जिस प्रकार सिद्धसेन दिवाकर ने जैनधर्म को लोकधर्म के रूप में प्रस्तुत किया उसी प्रकार तेरापन्थ धर्मसंघ की पृष्ठभूमि पर रचनात्मक प्रवृत्ति द्वारा आपने लोक चेतना जाग्रत की। अणुव्रत अनुशास्ता युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी का पावन संदेश 'निज पर शासन फिर अनुशासन' को साक्षात चरितार्थ किया। कर्मयोगी श्री सुराणा जी ने जिस इतिहास का सृजन किया, वह स्वर्णाक्षरों में सदा अंकित रहेगा। मानव-पीड़ा की अनुभूति नये प्रयोग की प्रेरक शक्ति बन गई। जो इनके रास्ते में काँटे बने वे आज फूल बनकर मुस्करा उठे हैं। आप एक निर्भीक, निर्लेप, कर्मठ तथा रचनात्मक कार्यकर्ता व साधक सदा बने रहे। कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा । आपने कल का ही नहीं, युगों का चिन्तन किया। अपनी जीवन रश्मियों को समस्त समाज में बिखेर दी। जिसके आलोक से प्रदेश का न सिर्फ लोक जीवन वरन् खेत और खलिहान भी प्रकाशमान है । आप Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक इतिहास पुरुष कांठा की धरती के लिये चिरस्मरणीय रहेंगे। आपकी निष्काम सेवा-साधना के सौरभ से सारा लोक-जीवन मुरभित रहेगा। स्वप्न दृष्टा अभिनन्दनीय श्री काकासा को शत्-शत् प्रणाम । वे चिरंजीवी बने और चिदानन्द प्राप्त करें। ग्रन्थ समर्पण के साथ अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन एवं समारोह महासमिति के सदस्यों की ओर से हादिक मंगल कामनाएँ समर्पित है। -बी० एल० धाकड़ दिनांक प्रमुख संयोजक व अध्यक्ष ६ अप्रेल १९८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा सार्वजनिक अभिनन्दन एवं ग्रन्थ प्रकाशन समिति, राणावास 中个个个个空中伞伞伞伞伞个个个空空空空本本空中华 中牢牢牢卒中个个令李李李李李李小卒卒卒卒卒空中 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञा-प्रदीप युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी ( मनि श्री नथमल जी स्वामी) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय संत ज्ञानेश्वर का कथन है-आत्म-दर्शन का एक ही उपाय है-हृदय शुद्धि और निकटवर्ती जीव सृष्टि की सेवा । ___ शुद्ध हृदय से जन सेवा करने वाले पुरुष बिरले ही होते हैं। निस्वार्थ जनसेवा की महत्ता निर्विवाद है। सभी प्रकार के स्वार्थों से एवं भेदभावों से परे रह कर जन-जन के प्रति सेवा की भावना अपनाकर ही कल्याणकारी समाज की स्थापना की जा सकती है। आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में "सेवा शाश्वतिको धर्मः, सेवा भेदविवर्जनम् । .. सेवा समर्पणं सेव्ये, सेवा ज्ञान-फलं महत् ॥" सेवा शाश्वत धर्म है। सेवा 'यह मेरा है, यह तेरा है,' इस भेद का विसर्जन करती है। सेवा सेव्य में विलीन होकर ही की जा सकती है। सेवा ज्ञान की उत्कृष्ट उपलब्धि है। श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानवहितकारी संघ के मानद् मंत्रीजी माननीय कर्मयोगी श्री केसरीमल जी सुराणा उन विरले महान पुरुषों में से हैं जिन्होंने समाज हित के लिए अपना तन-मन-धन, सर्वस्व एकनिष्ठ भाव से अर्पण कर दिया है। श्रीयुत सुराणा साहब ने समाज सेवा का सर्वोत्तम धरातल सच्ची शिक्षा के प्रचार-प्रसार में पाया । ___ वस्तुतः शिक्षा वह सोपान है, जिस पर आरूढ़ होकर मनुष्य सृजनात्मक शक्ति को प्राप्त करता है। सृजनात्मकता उन विशिष्ट गुणों में से एक अति महत्वपूर्ण गुण है, जो मनुष्य को पशु से पृथक करता है। समाज के सुगढ़ गठन एवं उत्थान हेतु व्यक्तियों की सृजन शक्ति को विकसित एवं दृढ़ करना परम आवश्यक है और इसका एकमात्र आधार शिक्षा है। श्रद्धेय सुराणा जी ने इस मर्म को हृदयंगम किया है, परन्तु साथ ही उन्होंने यह भी मौलिक चितन किया कि कोरा पुस्तकीय ज्ञान शिक्षा का सही स्वरूप नहीं हो सकता। उन की दृष्टि में कोरा पुस्तकीय ज्ञान व्यक्ति को मात्र 'साक्षर' बनाता है, शिक्षित नहीं। अतः आपने शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ नैतिकता, अनुशासन चरित्र-निर्माण आदि को जोड़कर मणि-कांचन-संयोग प्रस्तुत किया है। वास्तव में शिक्षा का मूल उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करना, उसे भावी नागरिक, स्रष्टा और उत्पादक बनाना है। 100 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) शिक्षा सेवा को एक मौलिक भाव-भूमि, एक रचनात्मक धरातल प्रदान करने हेतु आज से सैतीस वर्ष पूर्व राणावास में श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ की स्थापना की गई और उसके संचालन, उद्देश्य पूर्ति का उत्तरदायित्व ग्रहण किया श्रद्ध य सुराणा साहबने। ३७ वर्ष पूर्व संघ के तत्वावधान में प्राथमिक स्तर की शिक्ष, का जो बीजवपन हुआ, आज वह उनके सैंतीस वर्षों के अथक परिश्रम, दृढ़ संकल्प, कर्मठता, त्याग एवं साधना से सिंचित होकर उच्च प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक एवं महाविद्यालय स्तर तक की शिक्षा के रूप में प्रस्फुटित होकर वट-वृक्ष की भांति लहलहा रहा है। श्रीयुत सुराणा साहब के निर्देशन में शिक्षा के सही स्वरूप के प्रचार-प्रसार में मंघ का अनूठा योगदान रहा है। वस्तुतः माननीय सुराणा साहब ने समाज सेवा के जिम पुनीत यज्ञ का शुभारम्भ किया, उसमें आप स्वयं आहुति बन गए। विगत सैंतीस वर्ष से श्रीयुत सुराणा साहब निःस्पृह भाव से शिक्षा प्रचार-प्रसार, विद्यार्थियों के सद्चरित्र निर्माण द्वारा राष्ट्र एवं समाज की अनुपम सेवा में रत है। ऐसे प्रतिभा सम्पन्न, प्रेरक महापुरुष की कर्मठता, साधना एवं अनुपम समाज-सेवा को दृष्टि में रखते हुए संघ द्वारा श्रद्धय सुराणा साहब का अभिनन्दन करने का उचित एवं सामयिक निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया। अभिनन्दन समारोह के सुअवसर पर श्रद्धय सुराणा साहब को एक थैली एवं अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने की योजना निर्धारित की गई। सन् १९७८ में इस कार्य में गति आई । थैली हेतु धन संग्रह एवं अभिनन्दन ग्रन्थ के मुद्रण कार्य के सफल संचालन के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया। अभिनन्दन समारोह के संचालन समिति के मंत्री पद एवं अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन कार्य हेतु प्रबन्ध सम्पादक का उत्तरदायित्व मुझे दिया गया। अभिनन्दन समारोह की समग्र रूपरेखा के निर्धारण हेतु संचालन समिति के सदस्यों की बैठक आमंत्रित की गई और विभिन्न पहलुओं पर प्रयास प्रारम्भ हुए। अर्थ संग्रह हेतु अभिनन्दन ग्रन्थ का मूल्य निर्धारित कर ग्रन्थ के ग्राहक सदस्य बनाने का विचार स्वीकार किया गया। ग्रन्थ के माननीय ग्राहक बनाने का अभियान चलाया गया । इस अभियान में श्री पुखराजजी कटारिया, श्री भंवरलाल जी सुराणा, श्री सिरेमलजी डोसी, श्री भूपेन्द्रजी मूथा, श्री मनोहरलालजी आच्छा आदि का प्रशंसनीय व सक्रिय सहयोग रहा। मैं इन सभी महानुभावों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ। अभिनन्दन ग्रन्थ के सम्बन्ध में प्रारम्भ से ही यह दृष्टिकोण रहा कि यह ग्रन्थ मात्र श्रद्धय सुराणा साहब का जीवन वृत्त ही बनकर न रहे, वरन् समाज को अमर संदेश देने वाली एक उच्चकोटि की साहित्यिक उपलब्धि प्रमाणित हो। इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए अभिनन्दन ग्रन्थ की प्रस्तावित रूपरेखा बनाई गई। ग्रन्थ को विभिन्न विषय-बिन्दुओं के आधार पर खण्डों में विभाजित किया गया और प्रकाशन सामग्री को एकत्र करने के लिए अथक प्रयास किये गए । विभिन्न विषय बिन्दुओं के मर्मज्ञ एवं प्रामाणिक लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान लेखकों तथा धर्मसंघ के संत श्रा व साध्वी श्री समुदाय से सम्पर्क स्थापित किया गया। सामग्री को एकत्र करने में अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । निरंतर पत्र-व्यवहार चलता रहा। व्यक्तिगत रूप से भी सम्पर्क किए गए । राष्ट्र के गणमान्य नागरिक महानुभावों से संदेश एवं शुभकामनाओं की प्राप्ति हेतु भी निरन्तर प्रयास करने पड़े। इन निरन्तर प्रयामों का सफल भी सामने आया, उच्चकोटि की प्रकाशन सामग्री प्राप्त करने में हम सफल रहे। प्रकाशन सामग्री के एकत्र होने के पश्चात रचनाओं की चयन प्रक्रिया एवं सम्पादन कार्य प्रारम्भ हुआ और इसके साथ ही ग्रन्थ के मुद्रण कार्य हेतु भी प्रयास प्रारम्भ हुए। विभिन्न मुद्रणालयों से सम्पर्क किया गया। अंतत: आगरा में कार्यरत अनुभवी प्रकाशक, स्वयं सफल साहित्यकार श्री श्रीचन्द जी सुराणा 'सरस' से व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क किया गया। सम्पूर्ण प्रकाशन योजना उनके सामने रखी गई और उन्होंने मुद्रण कार्य का भार ग्रहण किया। आज ग्रन्थ का प्रकाश कीय लिखते हुए मुझे अपार हर्ष हो रहा है। अथक प्रयासों का सुपरिणाम सम्मुख आ रहा है । अभिनन्दन समारोह के सम्पूर्ण कार्यकलापों और विशेषतः ग्रन्थ प्रकाशन के वृहद कार्य के प्राणवान प्रेरक Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती-श्रेष्ठ साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभाजी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहे हैं आदरणीय प्रो० बी० एल० धाकड़ साहब । आप ही कि निरन्तर सरेरणा व सद्प्रयासों से यह कार्य सम्पन्न हो पाया है। प्रो० धाकड़ साहब द्वारा उदयपुर से निरंतर पत्र-व्यवहार समय-समय पर राणावास पधार कर विचार विमर्श एवं मार्गदर्शन, रचनाओं हेतु विज्ञ लेखकों से व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क । आपकी इस कर्मठता से ही इस कार्य का धरातल निर्मित हो सका । मैं प्रो०धाकड़ साहब के प्रति शब्दों में अपना आभार व्यक्त करने में सर्वथा असमर्थ है । वस्तुतः ग्रन्थ उनकी प्राणवान प्रेरक शक्ति का सुफल है। सम्पादन कार्य का भार विद्वान अनुभवी बंधु डा० देव कोठारी ने ग्रहण किया। उनकी सम्पादन कला ने ग्रन्थ को आकार दिया। डा. कोठारी का सहयोग अत्यंत श्लाघनीय रहा है। मैं उनके प्रति हादिर्क आभार व्यक्त करता हूँ। . अभिनंदन ग्रन्थ में प्रकाशित विभिन्न रचनाओं के विद्वान रचयिताओं के प्रति मैं अपनी हादिर्क कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिनके अमूल्य सहयोग से यह ग्रन्थ साहित्यिक उपलब्धि सिद्ध हो सका है। अभिनंदन ग्रन्थ के प्रथम खंड एवं द्वितीय खंड की सामग्री के संकलन में महाविद्यालय में कार्यरत मेरे सहयोगी प्राध्यापकों का प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष विशेष योगदान रहा। प्रो० डी० सी० भंडारी आदि के प्रति मैं आभारी हूँ। प्रो० वी० सी० श्रीवास्तव एवं प्रो० बी० एल० धाकड़ के प्रति मैं बड़ा आभारी हूँ जिन्होंने अंग्रेजी भाषा को सामग्री के आकलन में अपना योगदान दिया। संघ के इतिहास सम्बन्धी सामग्री के आकलन में श्री तख्तमलजी इन्द्रावत एवं विभिन्न मानचित्रों के निर्माण में श्री शांतिलाल वैष्णव एवं श्री बी० एल० कोठारी का प्रशंसनीय योगदान रहा, इनके प्रति भी मैं आभारी हूँ। श्री भंवरलाल जी आच्छा एवं श्री अवतारचन्द जी भंडारी के प्रति मैं आभारी हूँ जिन्होंने क्रमश: समाज, धर्म संघ के गणमान्य सज्जनों एवं संघ के विशिष्ट भूतपूर्व छात्रों के परिचय से सम्बन्धित सामग्री का संकलन किया। ग्रन्थ प्रकाशन कार्य में श्री कशलराज जी जैन का विभिन्न पहलुओं से प्रशंसनीय योगदान रहा, उनके प्रति भी मैं आभारी हूँ। ग्रन्थ के मुद्रण का भार श्री श्रीचन्दजी सुराणा ने ग्रहण किया और उसके सफल निर्वाह में सक्षम रहे हैं। मुद्रण कार्य में कागज, टाइप आदि से सम्बन्धित आदि अनेक बाधाएँ आई, जिन का निराकरण श्री सुराणाजी ने अत्यन्त विवेक के साथ किया । मैं उनके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता है। 卒个容卒卒卒卒卒卒个个个个伞伞伞伞伞伞伞伞伞李李 प्रो० डी० मी० भंडारी के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ, जो मेरे सम्पूर्ण कार्य में मेरे सबसे निकट के महयोगी रहे हैं। उन्होंने ग्रन्थ के सह-सम्पादक के कार्य में सक्रिय सहयोग दिया और इसके अतिरिक्त अभिनन्दन ममारोह के प्रधान कार्यालय के सम्पूर्ण कार्यभार को वह्न किया। ... . . . अन्त में मैं पुनः महासमिति, संचालन समिति एवं प्रकाशन समिति के माननीय सदस्यों के प्रति जिनका मार्गदर्शन प्राप्त हुआ तथा उन सभी महानुभावों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिन्होंने प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष मुझे इस कार्य में अपना अमूल्य सहयोग प्रदान किया। एस0 सी0 तेला (प्रबन्धक सम्पादक) ६ अप्रेल, १९८२ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय मानव अपने जीवन का अधिकांश भाग यही सोचते-विचारते व्यतीत कर देता है कि अब मैं जीवन को नष्ट होने से बचाऊँगा, इसका परिणाम यह होता है कि जीवन तो नष्ट हो जाता है और हम जीवित रहने के उपक्रम में व्यस्त होकर रह जाते हैं। इसलिये महत्व इस बात का नहीं है कि हम कितने अधिक जीवित रहते हैं, अपितु महत्व इस बात का है कि हम कैसे जीवित रहते हैं क्योंकि यह दुर्लभ मानव जीवन बिजली की चमक-दमक की तरह चंचल है। जैन आगम साहित्य के प्रथम उपांग औपपातिक सूत्र में कहा गया है कि "जलबुब्बुयसमाणं कुसग्गजलबिंदुचंचलं जीवियं” अर्थात् जीवन जल के बुलबुले के सदृश एवं कुशा के अग्रभाग पर स्थित जल बिन्दु के समान है। जीने की इस कला को जो जान लेता है, उस महापुरुष का व्यक्तित्व और कृतित्व मानव मन व मस्तिष्क पर गहनता व सघनता का प्रकाशज परिव्याप्त कर देता है, उसे विस्मरण करना सम्भव नहीं हो पाता, ज्यों-ज्यों उसे विस्मरण करने की चेष्टा करते हैं, त्यों-त्यों वह चेतना की कालजयी प्राणधारा का सार्थक सिंचन करता है। 个空空空李李李李李李李李个中空空空李李李李李李 中李李李李李李李李李李李李李 भारतीय सभ्यता के सांस्कृतिक जागरण में ऐसे ही एक महापुरुष कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा ने अपनी अमृतोपासक अन्तरात्मा से कांठा क्षेत्र के एक लघु अंचल राणावास में देश के विद्या-पिपासु नौनिहालों के लिये भारतीय सरस्वती का जयघोष किया है। इस घोर कलिकाल में जब समाज और राष्ट्र किकर्तव्यविमूढ़ है, मानव का अपराजित आत्म-विश्वास, अद्वितीय आत्मशक्ति एवं मंगलमय विवेक का ह्रास होता चला जा रहा है, इस त्रस्त व संतप्त समय चक्र में आपने अपने भौतिक सुखों का परित्याग कर और कालकूट का स्वयं पान कर भावी पीढ़ी के लिये दिव्य-सुधा का दिशाबोध दिया है। आपने सस्ती कीति, चमकते हुए आडम्बर और अहोरूपम् अहोध्वनि से दूर रहकर 'सरस्वती देवयन्तो हवन्ते' की सजीव प्रतिमूर्ति के रूप में अपने जीवन की सर्वतोमुखी प्रतिभा के मंगलदीप संजोये हैं। भारत के कोने-कोने में ऐसे सैकड़ों-हजारों मंगलदीप विकीर्ण होकर प्राणवल्लभ माँ भारती के नवोन्मेष का शाश्वत यशोगान करने में निमग्न है। ऐसे महामानव, उद्बोधक, शिक्षासुधानिधि और "काकोसा" की अभिधा मे सार्वजनिक रूप से सम्बोधित कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व एवं कृतित्व को सम्मानित करने के परम पुनीत लक्ष्य से इस अभिनन्दन ग्रन्थ का सम्पादन व प्रकाशन अपने आप में एक प्रेरणा स्रोत है, असद् से सद् की ओर तथा अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला अमृतशोल है। यह सम्पादन मूल में उनके जीवन के आदर्शों को, त्याग, सेवा-भावना और लोकसंग्रही उदार मानवतावादी दृष्टिकोण को मुखर करता है। शिक्षा, समाज, धर्म और राष्ट्र के लिये इनका व्यक्तित्व व कृतित्व वास्तव में एक अनूठा समर्पण है, सृष्टि मंगल की आराधना है। राणावास का एक नन्हा पुष्प किस प्रकार समूचे देश को सुरभित कर सकता है ऐसा दिग्सूचक है, मानव जीवात्मा का अटल विश्वास और संजीवन है। अतः भारतीय इतिवृत्त में उनका समर्पण न केवल आंचलिक अपितु सार्वदेशिक जन कल्याण व जनचैतन्य का चतुर्मुखी उद्घोष है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही इस अभिनन्दन ग्रन्थ की सामग्री को बहु आयामी स्वरूप देने की विनम्र चेष्टा की गई है। ग्रन्थ का प्रथम खण्ड अभिनन्दनीय जीवनवृत्त से सम्बन्धित है। कर्मयोगी श्री केसरीमल जी सुराणा की जीवन ज्योति को इस खण्ड में संयोजित व रूपायित किया गया है। उनकी जीवन-रेखा के क्रम में, उनके जीवन से सम्बन्धित विभिन्न संस्मरण युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी, युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी, साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभाजी एवं अन्य सन्त-मुनिराजों के आशीर्वचन, गणमान्य सज्जन शिरोमणियों के श्रद्धा सुमन, काव्याञ्जलि और कर्मयोगी सराणाजी को प्रदत्त विभिन्न अभिनन्दन पत्रों के आलोक में उनके जीवन के कर्मयोगी स्वरूप से साक्षात्कार करने का प्रयास किया गया है। 中空空中牵空中中中中中空李李 द्वितीय खण्ड सुराणाजी के कृतित्व को उद्घाटित करता है। इसमें सुराणाजी के सान्निध्य व सदप्रयासों से संस्थापित श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ, राणावास का क्रमबद्ध इतिहास व उसके द्वारा संचालित विभिन्न प्रवृत्तियों को प्रस्तुत किया गया है और यह ध्यान रखा गया है कि किस प्रकार एक सामान्य सा प्राथमिक विद्यालय आगे चलकर महाविद्यालयी स्वरूप ग्रहण करता है और बीज से बरगद की कहावत को चरितार्थ करता है। इस प्रस्तुतीकरण में प्रत्येक प्रवृत्ति का परिचय सर्वांगीण रूप से संवारने का उपक्रम है। 李李李李李李李李李李李李李李李李李李李李李李李 李李中华李个个李李李李李李李 तृतीय खण्ड शिक्षा व समाज-सेवा की वर्तमान गति-प्रगति को दर्शाता है। चूंकि कर्मयोगी काकोसा का समूचा जीवन शिक्षा के प्रचार-प्रसार में समर्पित रहा है, अतः इस खण्ड में विभिन्न शिक्षाविदों व विद्वान लेखकों ने अपने अनुभवों के आधार पर शिक्षा की वर्तमान व भावी स्थिति और समाज-सेवा को भूमिका व महत्ता पर प्रकाश डालने की चेष्टा की है। चतुर्थ खण्ड जैन धर्म, दर्शन एवं साधना से सम्बन्धित है। यद्यपि इन तीनों शीर्षकों के अन्तर्गत अब तक जैनविद्या मनीषियों ने प्रभूत परिमाण में लिखा है किन्तु इस खण्ड की प्रस्तुत सामग्री में फिर भी कुछ नयापन है। कुछ आलेख ऐसे भी हैं जो प्रथम बार नूतन जानकारी उपलब्ध कराते हैं। ऐसे लेखों की उपयोगिता एवं महत्ता स्वयं सिद्ध है। ग्रन्थ का पंचम खण्ड जैन साहित्य की सुदीर्घ व समृद्ध परम्परा को प्रस्थापित करता है। इस प्रयास में यह खण्ड अपेक्षाकृत कुछ अधिक विस्तृत कलेवर वाला हो गया है। लेकिन प्राप्त लेखों के स्वरूप को देखते हुए यह अपरिहार्य था। प्रयास यह भी किया गया है जैन धर्म, व दर्शन से सम्बन्धित आभिजात्य साहित्य के लेखों के साथ साथ लाक्षणिक, तकनीकी एवं वैज्ञानिक साहित्य के बारे में भी अधिकृत आलेख दिये जायं । इस क्रम में कछ लेख वास्तव में ग्रन्थ की उपलब्धि है। षष्ठ खण्ड जैन धर्म के इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति से सम्बन्धित है। इन तीनों शीर्षकों से सम्बधित विभिन्न लेख जैन धर्म की प्राचीनता व उसके सार्वदेशिक स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। तथा उनके विभिन्न पक्षों का सम्यक् उद्घाटन करते हैं। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) सप्तम व अन्तिम खण्ड में आंग्ल भाषा में प्राप्त विभिन्न आंग्लभाषा में होने के फलस्वरूप पाठकीय सुविधा को ध्यान किये हैं । ग्रन्थ के अन्त में परिशिष्ट के रूप में कतिपय विशिष्ट सेवाओं में संलग्न भूतपूर्व छात्रों के परिचय (जो प्राप्त हो सके हैं) प्रस्तुत किये गये हैं। साथ ही दानदाताओं, ग्राहकों आदि की नामावलियां भी दी गई है। ग्रन्थ के प्रत्येक खण्ड में लेख चयन की दृष्टि से संकीर्ण दृष्टिकोण की अपेक्षा व्यापक दृष्टिकोण अपनाया गया है । लेखों में अभिव्यक्त भाव विचार व विषय वस्तु में उदात्त स्वरूप को प्राथमिकता दी गई है। निंदारपक सामग्री से बचने का प्रयास किया गया है, विभिन्न धार्मिक मान्यताओं के खण्डन - मण्डन की दूषित प्रवृति को प्रश्रय नहीं दिया गया है । ग्रन्थ का कलेवर बड़ा इस कारण हो गया है कि ग्रन्थ की सामग्री संकलन प्रयास में जो सामग्री प्राप्त हुई, उसमें से कोई स्तरीय सामग्री छूट नहीं पाये और अधिक से अधिक विद्वानों का प्रतिनिधित्व हो सके । विषयों से सम्बन्धित लेख संकलित है, किन्तु में रखते हुए इन्हें अलग खण्ड में प्रस्तुत इस अभिनन्दन ग्रन्थ की सामग्री संकलन व सम्पादन का गुरुतर दायित्व मुझे सोंपा गया, यह कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा सार्वजनिक अभिनन्दन समारोह एवं ग्रन्थ प्रकाशन समिति, राणावास तथा उसके प्रमुख संयोजक व अध्यक्ष श्रद्धय प्रो० बी० एल० धाकड़ साहब का मेरे प्रति स्नेह विश्वास एवं अनुराग को प्रकट करता है, जिसके लिये मैं समिति व प्रो० धाकड़ साहब का हृदय से अत्यन्त आभारी हूँ । श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ द्वारा संचालित श्री सुमति शिक्षा सदन का एक भूतपूर्व छात्र होने के नाते श्रद्वय कर्मयोगी काकासा को मुझे निकट से देखने व समझने का अवसर मिला है, उनके व्यक्तित्व व कृतित्व की भव्यता के अनुरूप इस ग्रन्थ को तदनुरूप कलेवर व स्तर प्रदान करने एवं सामग्री के संग्रहण, संयोजन और व्यवस्था को समुचित रूप में प्रस्तुत करने का मैंने भरसक प्रयास किया है, इसका मुझे पूर्ण संतोष है एवं पूर्ण विश्वास है कि पूर्व निर्धारित आदर्शो एवं आयोजनाओं के अनुरूप प्रत्य का स्वरूप प्रकट हुआ है, इसका नीर-क्षीर विवेक से सुधीजन ही निर्णय कर सकेंगे । अन्त में इस ग्रन्थ के मनीषी लेखकों के प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने मेरे अनुरोध पर सद्भावनापूर्वक हार्दिक सहयोग प्रदान कर इस ग्रन्थ को यह स्वरूप प्रदान करने में हर संभव प्रयास किया। महावीर जयंति ६१२२ Cook -डॉ० देव कोठारी (सम्पादक) . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जै० श्वे० ते० मा० हि० संघ के संस्थापक : श्री जै० श्वे० ते मा० हि० संघ के वर्तमान अध्यक्ष : Jain Education Intemational स्व० श्री बस्तीमल जी छाजेड सिरियारी-आपके द्वारा ही संघ का बीजारोपण-संघ के प्रति एकनिष्ठ समर्पण-धर्मप्रेमी सुश्रावक रत्न । प्रो० बी० एल० धाकड़ एम. ए. (अर्थशास्त्र) भू० पू० मेजर, एन. सी. सी. उदयपुर—संघ के प्रति अनुपम सत्यनिष्ठा, लब्धप्रतिष्ठ अर्थशास्त्री एवं शिक्षाविद, कर्मठ समाजसेवी, श्री तुलसी निकेतन छात्रावास, उदयपुर के संस्थापक एवं संचालक, अभिनन्दन ग्रन्थ के प्राणवान एवं आधारभूत संयोजक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान सम्पादक सम्पादक डा० नथमल जी टांटिया, निदेशक श्री जैन विश्वभारती लाडन—जैन दर्शन के विश्वविख्यात मर्मज्ञ डा० देवजी कोठारी एम. ए. (हिन्दी, प्राकृत) पी.एच.डी उपनिदेशक, साहित्य संस्थान, उदयपुर, ख्यातिप्राप्त लेखक * अभिनन्दन ग्रन्थ : सम्पादक मण्डल ** सह-सम्पादक प्रबन्ध सम्पादक प्रो० डी० सी० भण्डारी, एम. ए. (हिन्दी) _जोधपुर, प्राध्यापक-हिन्दी विभाग, श्री जैन तेरापंथ, महाविद्यालय, राणावास प्रो० एस० सी० तेला, एम. ए. (अर्थशास्त्र) एल-एल. बी., अजमेर भू० पू० प्राचार्य, श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय, राणावास प्रख्यात शिक्षाविद्, लब्धप्रतिष्ठ, अर्थशास्त्री एवं कुशल प्रशासक Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश शुभकामना मुझे ज्ञात हुआ है कि श्री केसरीमल जी सुराणा के अभिनन्दन हेतु एक अभिनन्दन ग्रन्थ तैयार करने की योजना है। अभिनन्दन व्यक्ति का नहीं, वरन् उसके गुणों का २: . होता है । व्यक्ति अपने त्याग, तपश्चर्या, साधना से शिक्षा क्षेत्र में सर्वत्र सुपरिचित महारथी एवं श्रुतस्वयं समष्टि बन जाता है, संस्था बन जाता है। वस्तुतः देवता के महान उपासक श्री केसरीमल जी का संघ अभिऐसे व्यक्ति का अभिनन्दन समाज एवं संस्था के लिए गौरव नन्दन कर रहा है यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता है। श्री का विषय होता है। राणावास के वयोवृद्ध, कर्मठ कार्यकर्ता केसरीमल जी जैसे परखे हुए शिक्षासेवियों का अभिनन्दन श्री केसरीमल जी सुराणा ऐसे ही अभिनन्दनीय व्यक्ति हैं। समाज की जागृत ज्ञान चेतना का प्रतीक है। यह अभिश्री सुराणा जी गृहस्थ-संन्यासी, कर्मशील कार्यकर्ता एवं नन्दन उनकी ज्ञान-साधना एवं शासन-सेवा का अभिनन्दन कुशल प्रशासक हैं। उनके जीवन में जहाँ एक और तो है ही साथ ही शिक्षा क्षेत्र के पथ पर अवतरित होने विरक्ति मुखरित हुई है, वहाँ दूसरी ओर अद्भुत कार्य- वाले नये कार्यकर्ताओं एवं शिक्षाप्रेमियों के लिए प्रेरणा क्षमता एवं निःस्वार्थ भावना मूर्त हुई है । मैं श्री केसरीमल स्रोत भी है। जी के भावी जीवन में उनकी साधना की उत्कृष्टता की अनन्त ज्ञान के देवाधिदेव महाप्रभु महावीर के चरणों शुभ कामना करता हुआ आशा करता हूँ कि उनका जीवन में अभिनन्दन समारोह की यशस्वी सफलता के हेतु हार्दिक समाज के लिए उपयोगी एवं प्रेरक बनेगा। अभ्यर्थना । श्री केसरीमल जी अपने निर्धारित साधना पथ -आचार्य तुलसी पर निरन्तर गतिशील रहें एवं उनके द्वारा किये जाने वाले महान कार्य सफलता के शिखर पर पहुँचते रहें यह मुनिहृदय की हार्दिक शुभाशंसा है। -उपाध्याय अमरमुनि केसरीमलजी मुराणा एक दृढ़ मनोबली व्यक्ति है। वे व्यक्ति है, उससे अधिक स्वयं में एक संस्था है। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में बहत कार्य किया है। कर्म और धर्म के . क्षेत्र में एक अद्भुत समन्वय स्थापित किया है। समाज 'काकामा" के नाम से विख्यात थी केसरीमल जी द्वारा उनका अभिनन्दन हो रहा है। यह एक समाज सेवी सराणा सुराणा एक ऐसे श्रावक हैं, जिन्होंने धर्म व कर्म की का अभिनन्दन है, जिसने समाज को बहुत दिया है, युगपत् उपासना की है। उन्होंने उपासक प्रतिमा की लिया कम है। विशिष्ट साधना कर इस युग में कीर्तिमान स्थापित किया है। उनका जीवन सादा है, श्रमशील है, सात्विक है। जीवन विकास के अन्तर्मुखी अभियान के साथ उन्होंने शिक्षा के प्रचार-प्रसार का अभियान भी चलाया है। उनका सार्वजनिक अभिनन्दन करने का निर्णय लिया गया है । यह उनके गुणों, त्याग एवं साधना का अभिनन्दन है। मेरी शुभाशंसा है कि उनका उत्कृष्ट जीवन समाज का प्रेरक बने। -साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश शुभकामना भारत के उपराष्ट्रपति के सचिव अधिकतर लोगों का दूसरों के समक्ष परिचय देने की नई देहली आवश्यकता होती है। किन्तु महान त्यागी और स्थिर २३, नवम्बर १९७६ योगी श्री केसरीमलजी सुराणा का जीवन स्वयं बोलता Secretary है। उसके थोड़े से सम्पर्क से ही उनका परिचय स्वतः To The Vice-President of India. प्राप्त हो जाता है। सेवा के साथ संयम, अनुशासन और New Delhi प्रामाणिकता का जो आदर्श उन्होंने रखा है, वह दुर्लभ है। ___उप-राष्ट्रपति जी को यह जानकर प्रसन्नता है कि आप उनकी सहज श्रद्धा और निष्ठा से सभी प्रभावित होते हैं, श्री केसरीमलजी सराणा के सम्मान में एक अभिनन्दन जिससे उनके हाथों असम्भव काम भी सम्भव हो जाते हैं। ग्रन्थ प्रकाशित कर उन्हें भेंट करने जा रहे हैं। इसकी श्री सुराणा जी गृहस्थ साध है। उनके बाहरी सफलता के लिए वह अपनी शुभकामनाएँ भेजते हैं। व्यक्तित्व और रहन-सहन में जिस प्रकार सामान्य गृहस्थ -अमरनाथ ओबराय व्यक्तित्व से भिन्नता प्रतीत होती है, उसी प्रकार वह आन्तरिक जीवन में भी अध्यात्म परायण रहने का। ध्यान रखते हैं। राजस्थान सरकार लोग कहते हैं, राणावास में विशाल भवन उनके राज्यपाल सचिवालय संरक्षण में बने हैं। किन्तु समाज के हजारों विद्यार्थियों के राजभवन जोवन मन्दिर का जो निर्माण उनके द्वारा हुआ है, उसका जयपुर महत्व उसकी तुलना में बहुत अधिक है। आज देश में दिनांक : १८, जनवरी १९८० सभा संस्थाओं की बाढ़ आ रही है। किन्तु थोड़े समय के मुझे प्रसन्नता है कि कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा पश्चात ही उनका स्वरूप धूमिल हो जाता है। पर, अभिनन्दन ग्रन्थ समिति, राणावास की ओर से एक राणावास स्थित श्री सुमति शिक्षा सदन का आदर्श और सार्वजनिक अभिनन्दन समारोह आयोजित किया जा रहा गौरवशाली चित्र हमें इतने वर्षों बाद भी दृष्टिगोचर पर है एवं इस अवसर पर श्री केसरीमलजी सुराणा को अभिहोता है, उसका श्रेय 'काकासा' श्री केसरीमल जी नन्दन ग्रन्थ भेंट किया जायगा । सुराणा को है। मुझे आशा है श्री जैन श्वेताम्बर मानव हितकारी संघ किसी के दो उत्तराधिकारी होते हैं, किसी के चार। जिस प्रकार विगत पैतीस वर्षों से राणावास ग्राम में किन्तु श्री सुराणा जो के हजारों उत्तराधिकारी गाँव-गाँव शिक्षा एवं ज्ञान के क्षेत्र में अपने चरम लक्ष्य की ओर में फैले हुए हैं। उनके द्वारा जलाई हुई यह ज्योति युग- अग्रसर होता रहा है, भविष्य में इसी प्रकार समाज की युग तक समाज के ऊँचे संस्कार और विचार का आलोक सेवा करता रहेगा। दिखाती रहेगी। अभिनन्दन समारोह एवं इस अवसर पर प्रकाशित -मुनि राकेश कुमार अभिनन्दन ग्रन्थ की सफलता के लिये मैं अपनी समस्त शुभ कामनायें प्रेषित करता हूँ। -रघुकुल तिलक Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश - शुभकामना योजना मंत्री तथा उपाध्यक्ष आज हमारे सामने उच्च माध्यमिक एवं महाविद्यालय योजना आयोग एवं अखिल भारतीय महिला शिक्षण संघ के रूप में कार्य नई दिल्ली-११०००१ करते दिखाई दे रहे हैं। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों, ढोंग व बाह्याडम्बरों का हमेशा विरोध किया है और मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि श्री जैन अस्पृश्यता, पर्दा और दहेज आदि प्रथाओं को समाप्त श्वेताम्बर तेरापन्थी मानव हितकारी संघ, राणावास करने के लिए सदैव कटिबद्ध रहे हैं और क्रान्तिकारी कदम पाली-मारवाड़ के अवैतनिक मंत्री श्री केसरीमलजी सुराणा उठाकर अपने साहस का परिचय दिया है। उनका साधनाके व्यक्तित्व से संदर्भित एक अभिनन्दन-ग्रन्थ तनिमित्त मय जीवन उनके सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के लिए गठित समिति द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। प्रेरणादायक सिद्ध हुआ है। _श्री सुराणा जी अपनी ३५ वर्ष की आयु में समाज- मैं समिति के इस सद्प्रयास की सफलता की कामना सेवा में जुट गये और बालकों के चारित्रिक-विकास और करता हूँ और आशा करता हूँ कि यह अभिनन्दन-ग्रन्थ महिला समाज के उत्थान को प्राथमिक आवश्यकता हमारी वर्तमान व भावी पीढ़ियों के लिए उपयोगी एवं मानते हुए उन्होंने अपने अथक व सतत प्रयासों द्वारा प्रेरणादायक सिद्ध होगा। प्राथमिक विद्यालय एवं नारी संस्था की स्थापना की जो -शंकरराव चव्हाण पैट्रोलियम, रसायन और उर्वरक मंत्री भारत सरकार नई दिल्ली-११०००१ ५ नबम्बर, १९८१ आपका पत्र दिनांक २५ अक्टूबर, १९८१ का प्राप्त हुआ, धन्यवाद । यह जानकर प्रसन्नता हुई कि कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा का अभिनन्दन किया जा रहा है तथा उन्हें एक अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जायेगा। श्री केसरीमलजी सुराणा जैसे क्रियाशील, संघर्षशील एवं परिश्रमी व्यक्ति का जीवन भावी पीढ़ी के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण है। मैं अभिनन्दन ग्रन्थ एवं आपके इस प्रयास की पूर्ण सफलता की कामना करता हूँ। -प्रकाशचन्द्र सेठी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश -शुभकामना All India Congress Committee 24, Akbar road New Delhi-1100011 Vasantrao Patil, M. P. - General Secretary ४ नवम्बर, १९८० . हमें यह जानकर अत्यन्त हर्ष हुआ कि आप कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के नैतिक एवं सामाजिक कार्यों को एक माध्यम मानकर अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित करने जा रहे हैं। आज समाज तथा राष्ट्र के हित के लिये नैतिक भावनाओं को फैलाने, समाज को छोटी-बड़ी सभी कुरीतियों को दूर करने, तथा साम्प्रदायिकता एवं पृथकतावादी, तत्वों को शान्ति और एकता के रूप में प्रमारित करने व राष्ट्र सेवा मर्वोपरि की भावना पूरे हिन्दुस्तान में जगाने की प्रबल आवश्यकता है। यह तभी सम्भव है जब हम महावीर, महात्मा गाँधी जैसे प्रेरणादायक सन्तों की अमुल्य नैतिक धरोहर को समझें। आशा है यह ग्रन्थ नैतिकता और राष्ट्रीय विचारों के अनुरूप प्रकाशित होगा। मैं श्री केसरीमलजी के मामाजिक कार्यों की अत्यन्त सराहना करता हूँ। इस अभिनन्दन ग्रन्थ की कामयाबी के लिए मेरी शुभकामनाएँ। -वसंतराव पाटिल मोहनलाल सुखाड़िया ३, मुनहरी बाग रोड, नई दिल्ली। मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई है कि कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सराणा का मार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा है एवं इस सुअवसर पर उन्हें एक अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जायगा। श्री मुराणाजी के त्याग, तप एवं माधना का ही प्रतिफल है कि राणावास "विद्याभूमि' बन मका एवं राजस्थान में शिक्षा के क्षेत्र में एक आदर्श अनुटा उदाहरण बनने में मक्षम रहा है। प्रभ में मेरी कामना है कि श्री केसरीभलजी चिरायु हों और उनके जीवन से हमें लाभ मिलता रहे। अभिनन्दन समारोह की सफलता के प्रति हार्दिक शुभकामनाओं महित । -मोहनलाल सुखाड़िया ११ मुख्यमंत्री, राजस्थान जयपुर १० नवम्बर, १९८१ मुझं यह जानकर प्रसन्नता है कि कर्मयोगी श्री केसरीमल जी सुराणा के जीवन वृत्त पर एक अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है। कर्मयोगी श्री केसरीमल जी सुराणा जिस अनासक्त भाव से शिक्षा की मृजनात्मक प्रवृति का समाज में प्रसार करने के लिए लगे हुए हैं, वह निश्चित ही स्तुत्य और अनुकरणीय है । मुझे आशा है कि कर्मयोगी श्री केसरीमल जी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ न केवल संदर्भ सामग्री के रूप में उपयोगी सिद्ध होगी, बल्कि आने वाली पीढियों के लिये राष्ट्र तथा समाज की सेवा में संलग्न रहने की प्रेरणा का स्रोत भी होगा। मैं इस अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन की सफलता की कामना करता हूँ। -शिवचरण माथुर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश - -शुभकामना (भु०पू०) मुख्य मंत्री, राजस्थान जयपूर (EX.) CHIEF MINISTER OF RAJASTHAN, JAIPUR. १५ नवम्बर, १९७६ मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ द्वारा श्री केसरीमलजी सुराणा का सार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा है तथा इस अवसर पर उन्हें एक अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया जायेगा। श्री सुराणाजी के त्याग एवं उनकी निःस्वार्थ सेवा भावना किसी से छिपी नहीं है। उन्होंने राणावास को शिक्षा के आदर्श केन्द्र के रूप में ख्याति प्राप्त स्थान दिलाने में अविस्मरणीय योगदान किया है। ऐसी विभूति का सार्वजनिक अभिनन्दन किया जाना स्तुत्य है। मैं अभिनन्दन समारोह और अभिनन्दन ग्रन्थ दोनों ही की हृदय से सफलता चाहता हूँ। -भैरोंसिंह शेखावत चन्दनमल बंद वित्त व शिक्षा मंत्री, राजस्थान जयपुर दिसम्बर १९८१ श्री केसरीमलजी सुराणा ने अपनी सारी जिन्दगी शिक्षा की उन्नति में लगा दी है। श्री सुराणाजी राणावास जैसे ग्राम में जहाँ प्राथमिक विद्यालय चलाना बड़ा मुश्किल था, प्राथमिक विद्यालय से लेकर महाविद्यालय तक चला रहे हैं । साधारण शिक्षा के साथ इन विद्यालयों में नैतिक शिक्षा भी दी जा रही है, उससे निश्चित रूप से बच्चों में सद्विचारों का प्रादुर्भाव होता है। श्री केसरीमलजी सुराणा ने इस संस्था को तन, मन एवं धन से सींचा है, वह प्रशंसनीय है। देश में छात्रों के चरित्र-निर्माण की दिशा में श्री सुराणा साहब का एक बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है । भगवान से मेरी यही प्रार्थना है कि श्री केसरीमलजी साहब शतायु हों और लम्बे समय तक देश की निरन्तर सेवा करते रहें। . -चन्दनमल बंद शीशराम ओला एम० एल० ए० ५-चिड़ावा अरड़ावता जिला झुन्झुनू राजस्थान दिनांक ३-११-८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ के शुभ अवसर पर मैं अपनी शुभकामनाएँ भेजते हुए ईश्वर से कामना करता हूँ कि हमारे प्रान्त और समाज में इस प्रकार के अनेकों सज्जन समाज की सेवा के लिए सामने आयें और कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के पद-चिन्हों पर चलकर समाज की सेवा करें तो निश्चित रूप से समाज एवं हमारा प्रान्त तथा राष्ट्र विकास की ओर अग्रसर हो सकेगा। इस प्रकार के अभिनन्दन से न केवल आप कर्मयोगी श्री केसरीमलजो को ही सम्मानित कर रहे हैं बल्कि दूसरे उत्साही एवं लगनशील समाज के कार्यकर्ताओं को भी इससे बल मिलेगा और उत्साह बढ़ेगा। __मैं पुनः कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा सार्वजनिक अभिनन्दन समारोह की सफलता की ईश्वर से कामना करता हूँ। -शीशराम ओला Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश शुभकामना १७ मूलचन्द डागा, सभापति संसद सदस्य अधीनस्थ विधान सम्बन्धी समिति लोक सभा-नई दिल्ली विरले लोग होते हैं जो अपने जीवन में अपना भौतिक सुख छोड़कर समाज सेवा के लिए अपने आपको समर्पित करते हैं। उनमें से श्रीमान केसरीमलजी सुराणा एक हैं । उनके अथक प्रयास, अन्दर की लगन और दृढ़ निश्चय के कारण आज राणावास में शिक्षा का एक अद्वितीय केन्द्र बन गया है। उनका निखरा हुआ जीवन सबके लिए उदाहरण है। ऐसे सेवाभावी के लिए जितना भी लिखा जाय उतना थोड़ा है। भगवान उन्हें कई वर्षों तक समाज की सेवा करने के लिए लम्बी आयु दें। --मूलचन्द डागा "सरस्वती देवयन्तो हवन्ते" राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर पीठ अधिकरण जनार्दनराय नागर उदयपुर-३१३००१ संस्थापक-उपकुलपति दिनांक २२-२-८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा की शिक्षा तथा संस्कृति के निमित्त की गई सेवायें निस्संदेह बृहद जनतंत्रीय राजस्थान के समाज एवं राज्य के लिये सदैव श्लाघ्य रहेगी । सच तो यह है कि जनतंत्रीय समाज तथा राज्य के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक तथा शैक्षिक विकास के लिये श्रीमान केसरीमलजी सुराणा जैसे तपस्वी कर्मयोगियों की शिलान्यासवत् आवश्यकता है तथा यह आवश्यकता सदैव ही बनी रहेगी। राजस्थान राज्य की जनता के जनतंत्रीय सामाजिक विकास के लिये प्रगतिशील शिक्षा कार्य की आज तो संजीवनीवत् आवश्यकता है। आज जब सार्वजनिक शिक्षा कार्य और सार्वजनिक शिक्षा संस्था का समूचा भविष्य ही अधिकार ग्रसित है और राजस्थान के राष्ट्रीय शिक्षा, संस्कृति, साहित्य, अध्यात्म, जनकल्याण आदि समूचे रचनात्मक निर्माण का कोई भी भाग्य नजर नहीं आ रहा है। तब कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा का व्यक्तित्व हमें आशा प्रदान करता है। श्रीमान केसरीमलजी सुराणा से हमारे जैसे राष्ट्रीय कार्यकर्ता सदैव प्रेरणा पाते रहेंगे। समाज के ऐसे ही आप्रकाय पुरुष ही हम जैसे निरीह, आसक्त तथा संघर्ष से निराश होते रहने वाले कार्यकर्ताओं के लिये भविष्य का धैर्य बँधाते हैं। राजस्थान की सार्वजनिक शिक्षा संस्थाओं के भाग्य के इस अंधकारपूर्ण समय में कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के अभिनन्दन का यह समारोह समाज को नया चैतन्य प्रदान तथा सरकार को सद्बुद्धि देगा, ऐसा मेरा विश्वास है। जहाँ तक सार्वजनिक संस्थाओं के कार्यकर्ताओं का सम्बन्ध है, श्री केसरीमलजी सुराणा सदैव एक स्मरणीय उदाहरण हो गये हैं। - जनार्दनराय नागर केसरीलाल बोदिया अध्यक्ष, विद्याभवन सोसायटी, उदयपुर भू० पू० अध्यक्ष, माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान। शिक्षा का मूल उद्देश्य यह है कि विद्यार्थी सच्चरित्र बने । चरित्र निर्माण के लिये अध्ययन का विषयवस्तु गौण है। मुख्यत: शिक्षक के चरित्र और व्यक्तित्व का विद्यार्थी के मानस पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इसी से विद्यार्थी का चरित्र बनता है, बिगड़ता है। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द का निम्न विवेचन उल्लेखनीय है। 卐 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश -शभकामना "मेरी राय में शिक्षा के लिये गुरुगृहवास आवश्यक है। शिक्षक के व्यक्तिगत जीवन का शिष्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है । हमारे देश में शिक्षा का दायित्व त्यागियों ने वहन किया है । इस युग में भी शिक्षक यदि त्यागी और चरित्रवान हो तभी वह शिष्यों के चरित्र निर्माण में सफल हो सकता है। शिक्षक को धर्मशास्त्रों की आन्तरिक भावना को आत्मसात् करना है । शिक्षक को धर्मशास्त्रों की आन्तरिक भावना को आत्मसात करना होगा। वैसे तो सभी नागरिक वेद, उपनिषद, बाइबल, कुरान आदि धर्मग्रन्थों का पाठ करते हैं। परन्तु शब्द-पाठ तो धर्म की सुखी हड्डियों के समान है। जो शिक्षक शास्त्रों की भाषा में उलझ जाता है, उनके यांत्रिक एवं शाब्दिक पाठ मैं ही लगा रहता है, वह उनकी मूल भावना को खो देता है। दूसरी बात यह है कि शिक्षक का अपना जीवन निष्पाप होना चाहिये । उसका हृदय शुद्ध एवं पवित्र होना • चाहिये। शिक्षक को अध्यापन कार्य, ज्ञान-दान किसी भी प्रकार की स्वार्थ भावना से नहीं करना चाहिये । विद्यार्थी के प्रति शुद्ध स्नेह से प्रेरित होकर शिक्षा दी जानी चाहिये। आज के युग में ऐसे शिक्षक-ऐसे गुरु बिरले ही मिलते हैं। श्रद्धेय श्री केसरीमलजी सुराणा, जिन्होंने राणावास महाविद्यालय में आधुनिक उच्चशिक्षा के साथ गुरुकुल के आदर्शों का सुन्दर समन्वय स्थापित करने का भरसक प्रयत्न किया है ऐसे गुरु हैं, जिनमें ये गुण मुखरित हुए हैं। उनके अभिनन्दन के द्वारा हम शिक्षा के प्राचीन सात्विक आदर्शों के प्रति अपनी आस्था अभिव्यक्त करेंगे जिनकी आज के युग में बड़ी आवश्यकता है। ऐसे समारोह शिक्षक समुदाय की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने में भी सहायक होते हैं। मैं श्री सुराणाजी का सादर अभिवादन करता हूँ। -केसरीलाल बोदिया १६ देवीलाल सामर डायरेक्टर भारतीय लोक-कला मण्डल उदयपुर, राजस्थान दिनांक-२२ नवम्बर, ७६ यह जानकर प्रसन्नता हुई कि प्रमुख शिक्षासेवी श्री केसरीमलजी सुराणा का सार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा है और इस अवसर पर अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन की योजना कार्यान्वित की जा रही है, जिसमें परामर्श मण्डल में आपने मेरा नाम भी प्रस्तावित किया है। वस्तुतः यह हम सबके लिये गौरव की बात है कि हमें सुराणाजी जैसा आत्मधनी कार्यकर्ता मिला जिसने सुसंस्कारी शिक्षा के अधिकाधिक साधन उपलब्ध कराने का आजीवन व्रत ले लिया और राणावास को इसका केन्द्र बनाकर जो प्रवृत्तियाँ प्रारम्भ कर दी उससे आज राजस्थान तथा अन्य प्रान्तों का शिक्षा क्षेत्र भी गौरवान्वित है। वे कुछ ही व्यक्ति होते हैं जो अपना काम करते हुए समाज को इतना कुछ दे पाते हैं कि उसका गाँव तथा आसपास का क्षेत्र ही उनके नाम तथा उनको यश-गन्ध लिये जाना जाता है । मेवाड़ में तो अभी मुझे ऐसे दो ही नाम याद आ रहे हैं । एक है, कानोड़ तथा दूसरा है राणावास । कानोड़ में जैसे पण्डित उदय जैन ने अपने जवाहर विद्यापीठ के माध्यम से जो शिक्षा-सेवा की वह आने वाली कई पीढ़ियों के लिये अनुकरणीय और चिरस्मरणीय होगी। ___ 'काकासा' केसरीमलजी ने भी राणावास जैसे नहीं कुछ स्थान को अपनी कर्मस्थली बनाकर शिक्षा-दीक्षा का जो कार्य प्रारम्भ किया उसे आज देखकर विश्वास नहीं किया जा सकता कि यह सारा ऐसे क्षीणकाय व्यक्तित्वहोन व्यक्ति का अन्तःउजास है। हम सब लोगों को सुराणाजी जैसे उदात्तमना व्यक्तियों से प्रेरणा लेनी चाहिये कि हम भी अपना अधिकाधिक जीवन-समय समाज व देश की ऐसी उपयोगी प्रवृत्तियों में लगायें। —देवीलाल सामर Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश UER शुभकामना शंकर सदन आदिनाथ मार्ग जयपुर-४ दिनांक-२२-३-८० श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ द्वारा राणावास में जो शैक्षणिक कार्य गत तीस वर्षों में निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसित किया जा रहा है उसको जानकर अत्यन्त प्रसन्नता होती है। सभी जाति और धर्म वालों के लिए यहाँ की संस्थाएँ द्वार खुले रखती हैं। और शहरी वातावरण से दूर अरावली पर्वतमाला की मनोरम उपत्यका में संस्था के विशाल भवन एवं विद्वान शिक्षकगण बड़ी उपयोगी भूमिका शिक्षा के क्षेत्र में निभा रहे हैं। इस शैक्षणिक समाज सेवा के लिए अपने को न्यौछावर कर देने वाले त्यागमूर्ति एवं कर्मठ समाजसेवी सुराणा साहब केसरीमलजी को मैं हादिक बधाई देता हूँ और उनके सुस्वास्थ्य, दीर्य एवं उपयोगी जीवन के लिए भगवान से प्रार्थना करता हूँ। –लक्ष्मीलाल जोशी २१ जगन्नाथसिंह मेहता, ४-चेतक मार्ग, जयपुर-४ १७ दिसम्बर, १९७६ यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा का शिक्षा के क्षेत्र में उनकी अभूतपूर्व सेवाओं के लिए अभिनन्दन किया जा रहा है। मैंने पूर्व में ही अपने विचार व लेख आपको भेज दिये थे। आशा है आपको मिल गये होंगे। श्री सुराणा जैसे त्यागी, तपस्वी, साधुपुरुष, कर्मठ व समाज-समर्पित व्यक्ति विरले ही मिलते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने जो ठोस सेवा की है, वह चिरस्मरणीय रहेगी और अन्य व्यक्तियों के लिए सदैव अनुकरणीय उदाहरण बन कर मार्ग प्रशस्त करती रहेगी। ऐसे महापुरुष का जितना अभिनन्दन किया जाय उतना ही कम है। मैं श्री सुराणाजी की दीर्घायु एवं सुस्वास्थ्य की कामना करते हुए अपनी शुभकामनाएँ अर्पित करता हूँ ताकि वे समाज को और अधिक समय तक सेवा करते रहे । -जगन्नासिंह मेहता एल. पी. वैश को-आर्डिनेटर, महाविद्यालय विकास परिषद्, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर । मुझे यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नतः है कि श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ द्वारा कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित किया जा रहा है । स्वनामधन्य श्री केसरीमल जी सुराणा देश के उन इने-गिने कर्मठ कर्मयोगी परोपकार में सदा लीन पुरुषों में है जो अपना जीवन ही नहीं, जीवन का सर्वस्व भी परोपकार में लगा देते हैं । मुझे श्री जैन श्वेताम्बर महाविद्यालय, राणावास देखने का शुभावसर मिला। जिस सात्विक, नैतिक और सांस्कृतिक स्तर पर संस्था का संचालन किया जाता है वह देश की अन्य संस्थाओं के लिए अनुकरणीय है और यह सब कर्मठयोगी श्री सुराणाजी की अभूतपूर्व देन है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि श्री सुराणाजी का जीवन शिक्षा तथा समाजप्रेमियों के लिए अनुकरणीय उदाहरण सिद्ध होगा। -एल. पी. वैश Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश शुभकामना २३ डा० राजनाथसिंह (भू. पू.) कुलपति उदयपुर विश्वविद्यालय उदयपुर-३१३००१ यह प्रसन्नता की बात है कि आप कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा का सार्वजनिक अभिनन्दन करने जा रहे हैं । सुराणा साहब से मेरा व्यक्तिगत परिचय तो नहीं है, किन्तु जो जानकारी मिली है उससे ज्ञात होता है कि उन्होने राणावास में शिक्षा के प्रचार-प्रसार में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की है। अपनी निस्पृह सेवा कार्य के लिये उन्होंने शिक्षा को प्रमुख स्थान दिया, यह उनकी दूरदर्शिता का प्रमाण है । ऐसे कर्मठ और परहितकारी व्यक्ति का अभिनन्दन वस्तुतः मानवीय मूलभूत मूल्यों का अभिनन्दन है । इस कार्य की सफलता के लिये मेरी हार्दिक शुभकामनायें हैं । श्रीमान सुराणा साहब के सुदीर्घ व स्वस्थ जीवन के लिये मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ। इस अवसर पर आप "सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ' भी प्रकाशित कर रहे हैं । इसकी मुझे प्रसन्नता है। यह एक शुभ प्रयास है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन द्वारा जैन विद्या के कई पक्षों पर नवीन प्रकाश पड़ेगा, ऐसी मुझे आशा है। सुराणा साहब के अभिनन्दन समारोह को यह ग्रन्थ चिरस्थायी बनायेगा । इसी प्रकार श्रीमान सुराणा साहब के नाम से राजस्थान के विश्वविद्यालयों में जैन विद्या के अध्ययन के लिये यदि आप शोध छात्रवृत्ति आदि प्रदान करने की व्यवस्था करें तो अभिनन्दन के कार्य को एक नयी दिशा मिलेगी। शिक्षा जगत् में इसका समादर होगा। -राजनाथसिंह २४ A. B. Mathur, (Ex.) Director of Education. JAIPUR 8 December 1980 The growth of higher education owes in no small measure to the munificence of the opulent section of the Rajasthani people. Shri Jain Terapanth Mahavidyalaya is a living example of the efforts made by Shri Kesari Malji Surana. Living a spartan life but devoting all their energies and resources to building up a number of education institutions, Shri Surana has set a glorious example. I hope and trust Shri Surana ji will continue to look after the institution and see them grow to greater heights. -A. B. MATHUR २५ गोपीनाथ 'अमन' ४७, दरियागंज नई दिल्ली दि. ३१-१०-१९८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के अभिनन्दन ग्रन्थ के लिये संदेश भेजते हुए मुझे हादिक प्रसन्नता हो रही है । काकाजी ने भले ही साधुवेश धारण न किया हो मगर आप साधुपुरुष है। अपने समर्पित व्यक्तित्व द्वारा आपने समाज की बहुत सेवा की है। शिक्षा क्षेत्र में नैतिक क्रान्ति लाने का जो प्रयास काकाजी ने किया वह सराहनीय है। आज नैतिक क्षेत्र में तेजस्विता की कमी अनुभव हो रही है । इसी कमी का आपने अनुभव किया, परिणामस्वरूप ३५ वर्ष पूर्व राणावास में प्राथमिक विद्यालय आरम्भ हुआ जो आज महाविद्यालय का रूप ले चुका है। यह आपके त्याग, तपस्या, लगन का परिणाम है । मैं तो यही प्रार्थना करता हूँ"तुम सलामत रहो हजार बरस" -गोपीनाथ 'अमन' Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश -शुभकामना शिवनाथसिंह निदेशक, कॉलेज शिक्षा राजस्थान, जयपुर आत्माराम दि० २७-३-१९८२ नई दिल्ली मुझे यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि श्री जै० श्वे० दि० ३१-१०-८० ते. मा० हि० संघ के मानद मंत्रीजी श्री केसरीमलजी श्री केसरीमलजी सुराणा से साक्षात्कार होने का तो सुराणा का सार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा है । मैं इस अन अवसर मुझे नहीं मिला, परन्तु जो कुछ भी मुझे उनकी संस्थान से सुपरिचित हूँ। श्रीमान सुराणाजी के निर्देशन में समाज सेवाओं के विषय में ज्ञात हुआ, उससे मैं बहुत प्रभा पर यह संस्थान शिक्षा के प्रचार-प्रसार का अभूतपूर्व कार्य वित हुआ । आज की दुनिया में ऐसे निःस्वार्थी व निष्ठावान सम्पन्न कर रहा है। समाजसेवक गिने-चुने ही रह गये हैं। यह बड़ी उत्तम बात मैं समारोह की सफलता हेतु हार्दिक शुभकामनाएं है कि उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया जा रहा है, और प्रेषित करता हूँ एवं उनकी दीर्घायु की मंगल कामना इस अवसर पर अभिनन्दन ग्रन्थ उनकों भेंट किया जावेगा। करता हूँ। -शिवनाथसिंह इस समारोह की सफलता के लिये मैं हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित करता हूँ। -आत्माराम २८ जैनेन्द्रकुमार पूर्वोदय प्रकाशन ७/८-दरियागज, नई दिल्ली दि. ३१-१०-८० कर्म और धर्म का अभिन्न सम्बन्ध है । लेकिन कर्म से व्यक्ति जितना जागरूक रहता है, उतना ही वह धर्म से अछूता अथवा ऊपर-ऊपर में छाया रहता है। लेकिन श्री केसरीमलजी सुराणा इसके अपवाद हैं। सुराणाजी जितने कर्मयोगी हैं, उतने ही धर्म से ओत-प्रोत एवं चरित्र के धनी हैं। कर्म से भी अपने लिये नहीं दूसरों के लिए समर्पित है। इसलिए वे अनासक्त योग के साधक है। सुराणाजी के मन में आध्यात्मिक एवं नैतिक समाज की एक कल्पना है । एक स्वप्न है। इसके लिए वे जीते व सदैव कर्मशील रहते हैं । इस दृष्टि से उनके द्वारा राणावास में संस्थापित सुमति शिक्षा सदन एवं उसके इर्द-गिर्द विविध शिक्षण संस्थान नव शिक्षा संस्थाओं के लिए समर्पित जीवन का उदाहरण हैं। अभिनन्दन के इस अवसर पर कृपया मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ स्वीकार करें। मुझे आशा ही नहीं विश्वास है, उनका सेवा, साधना और त्याग से संचित व्यक्तित्व समाज को आध्यात्मिक प्रेरणा एवं सम्बल प्रदान करता रहेगा। -जैनेन्द्रकुमार Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश -शभकामना २६ यशपाल जैन सस्ता साहित्य मंडल, कनाट सर्कस, नई दिल्ली दि०१-६-८० शिक्षा के क्षेत्र में आज विविध प्रयोग हो रहे हैं। लेकिन भारत की स्वतंत्रता के ३३ वर्ष बाद भी शिक्षा में भारतीयकरण का अभाव दिखाई दे रहा है । इस दृष्टि से राजस्थान की पुनीत भूमि राणावास में श्री केमरीमलजी सुराणा के द्वारा शिक्षा की बहुमुखी प्रवृत्तियों के साथ युवापीढ़ी में आध्यात्मिक एवं नैतिक संस्कारों के आविर्भाव का जो प्रयत्न किया जा रहा है, वह अभिनन्दनीय है। .. राणावास जैसे छोटे से ग्राम को शिक्षण की विभिन्न इकाइयों से सुयोजित कर विद्याभूमि के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। इसका सर्वाधिक श्रेय त्याग और साधना के धनी श्री केसरीमलजी सुराणा को है। उनके अभिनन्दन के इस सुअवसर पर मेरी ओर से हार्दिक शुभकामना अर्पित हैं। मुझे विश्वास है, उनका अभिनन्दन समाज की धार्मिक तथा नैतिक परम्परा को आगे बढ़ाने में सहायक होगा। —यशपाल जैन ३० देवेन्द्र सत्यार्थी ५/सी/४६ न्यू रोहतक रोड नई दिल्ली दि० ३१-१०-८० राजस्थान में कर्मयोगी श्री केसरीमलजी द्वारा राणावास में स्थापित शिक्षा-संस्थान, जहां गत पांच साल से कॉलिज भी चल रहा है, एक दिन विश्वविद्यालय के स्तर तक भी विकसित हो सकता है। हमारे देश को हमारे शिक्षा-संस्थान ही विवेकशील दिशा-बोध में सहायक हो सकते हैं। राजस्थान का लोक साहित्य महान है । मैंने अपनी लोकयान यात्रा के दौरान राजस्थान से बहुत कुछ सीखा। "फोक-लोर" के लिए "लोकयौन" शब्द प्रचलन होना चाहिये----“महायान और हीनयान' की शैली में यदि आप का संस्थान "लोकयान' को मान्यता दे सके तो यह एक महान कार्य होगा। -देवेन्द्र सत्यार्थी ३१ जयप्रकाश भारती संपादक-नन्दन हिन्दुस्तान टाइम्स हाउस, १८-२० कस्तूरबा गांधी मार्ग नई दिल्ली ८ जुलाई, १९८० यह जानकर प्रसन्नता हुई कि जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ ने केसरीमलजी सुराणा का अभिनन्दन करने का निश्चय किया है । शिक्षा के प्रचार-प्रसार का कार्य बड़ा महत्वपूर्ण है और ज्ञान का प्रचार ही सही अर्थों में रचनात्मक सेवा है । सुराणाजी ने बड़ी निष्ठा के साथ लम्बे समय तक इस कार्य को किया है। उनका अभिनन्दन होना ही चाहिये । कर्मयोगी सुराणाजी को मेरी हार्दिक बधाई और नमन । -जयप्रकाश भारती Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश शुभकामना ૩૨ राजेन्द्र बंद संपादक-सिलीगुडी समाचार सिलीगुड़ी दि० १३-२-८० श्री केसरीमलजी साहब कर्मठ समाज-सेवी, प्रेरणा के स्रोत, क्रान्तिकारी सुधारक और अनुकरणीय युगपुरुष हैं, उनके जीवन प्रसंगों को एक अभिनन्दन ग्रन्थ में संदर्भित करने का कार्य निश्चय ही प्रसंशीय एवं अनुकरणीय है। मनुष्य-मात्र के प्रति प्यार, दयालुता, उदारता श्री सुराणाजी के जन्मजात गुण हैं। उन्होंने राणावास की उर्वर भूमि पर अपने क्रान्तिकारी विचारों का बीजारोपण करके समाज एवं राष्ट्र को एक नई दिशा दी है। उनकी महान शिक्षा है कि धर्म कर्म-कांडों एवं परम्पराओं में नहीं, बल्कि मनुष्य मात्र की सेवा में लगे रहने में है। ऐसे महान व्यक्तित्व को मेरे सादर प्रणाम और उनके कार्यों के प्रति मेरी कोटिशः शुभकामनाएँ। -राजेन्द्र बैद डॉ० लालताप्रसाद सक्सेना एम. ए. पी. एच. डी. प्रोफेसर, हिन्दी विभाग राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर दिनांक १५-१२-२६ कर्मयोगी श्रीयुत केसरीमलजी सुराणा की महत्ता सर्वविदित है। उनकी निस्पृह समाज-सेवा अभिनन्दनीय है, और उनका त्याग, विराग और देशानुराग अनुकरणीय । उनके व्यक्तित्व में धार्मिकता, समाज-निष्ठा और सेवाशीलता की त्रिवेणी का पावन संगम है। जिसमें अवगाहन करके व्यक्ति निष्कलुष हो जाता है। शिक्षा-जगत में उनके प्रयासों से अनेक संस्थाओं का आविर्भाव हुआ, और उनके सम्पर्क में आकर उनकी आध्यात्मिक ज्ञान-गरिमा से कण-कण आलोकित हो उठा । ऐसे महान व्यक्ति का अभिनन्दन करके आप स्वयं ही गौरवान्वित होंगे। मेरी हार्दिक मंगल-कामनाएँ एवं शतशः बधाइयाँ । -डॉ. लालताप्रसाद सक्सेना ३४ रतनसिंह शांडिल्य संगठन मंत्री अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति कार्यालय-कन्झावला दिल्ली दिनांक २१-१२-८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा की त्यागमय तथा संयमी जाज्वल्यमान जीवन हमारे युवा वर्ग के लिये सदा के लिये प्रेरणा का स्रोत रहेगा। आपने स्वयं के लिये उपलब्ध तथा उपार्जित समस्त सांसारिक सुखों को समाज को समर्पित कर भावी पीढ़ी के लिये अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। ऐसे व्यक्ति ही समाज को एक नया वांछित मोड़ दे सकते हैं । वास्तव में श्री सुराणाजी का अभिनन्दन त्याग तथा समाज सेवा का अभिनन्दन है। कृपया इस शुभ कार्य के लिये मेरी ओर से हार्दिक बधाई स्वीकार करें। -रतनसिंह शाण्डिल्य Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश शुभकामना ३५ मोहनलाल कठोतिया अखिल भारतीय अणुव्रत न्यास दीनदयाल उपाध्याय मार्ग नई दिल्ली दि० ३१-१०.८० कर्मयोगी केसरीमलजी सुराणा का अभिनन्दन एक ऐसे व्यक्तित्व का अभिनन्दन है जिन्होंने अपना समस्त जीवन न सिर्फ समाज को समर्पित कर दिया है, वरन अपनी सेवा, साधना और त्याग से शिक्षा का एक ऐसा उदाहरण उपस्थित किया है, जो समाज के नवनिर्माण एवं चारित्रिक विकास के लिए अनुकरणीय है। सुराणाजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में प्राचीन युग के उन ऋषि-मुनियों की झलक है,, जो अपने लिए नहीं दूसरों के लिये जीते हैं। उनका जीवन एक ऐसा दर्पण है, जिसमें कर्म और धर्म दोनों के समान दर्शन होते हैं। धार्मिक वृत्तियां उनके स्वभाव में कूट-कूट कर भरी हुई है। चरित्र उनका धवल है। कर्म से वे ओत-प्रोत है। इसलिए वे अपने लक्ष्य में महती भावना एवं आकांक्षा लिये हुए महान है। ऐसे त्यागशील एवं कर्मवीर व्यक्ति का अभिनन्दन आध्यात्मिक एवं नैतिक समाज-संरचना की दिशा में एक गुरुतर एवं महत्तर कदम हैं । जिसके लिए मेरी समस्त शुभकामनाएँ एवं वधाई स्वीकार करें। मेरी समस्त कामनाएँ आपके व समिति के साथ हैं। -मोहनलाल कठोतिया ३६ पारसदास जैन जनरल सेक्रेट्री, संयुक्त सदाचार समिति, केन्द्रीय कार्यालय, देहली प्रदेश २२, सरदार पटेल माग _ नई दिल्ली - दि० १६-१०-८० यह जानकर हार्दिक प्रसन्नता हुई कि मानव हितकारी संघ, राणावास ने संघ के कर्मठ अवैतनिक मन्त्री श्री केसरीमलजी सुराणा का अभिनन्दन करने का निश्चय किया है। सुराणाजी का अभिनन्दन समाज समर्पित व्यक्तित्व का अभिनन्दन है और संघ इस सुनिर्णय के लिये बधाई का पात्र है। श्री सुराणाजी के नेतृत्व में राणावास सुशिक्षा तथा चरित्र-निर्माण का केन्द्र बन गया है । और केन्द्र द्वारा तैयार किये गये हजारों व्यक्ति देश के विभिन्न भागों में महत्वपूर्ण स्थानों पर आसीन हैं तथा समाज सेवा के कार्य में रत हैं। समारोह की सफलता तथा सुराणाजी के दीर्घ जीवन की कामना करते हुए। -पारसदास जैन Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश शुभकामना श्रेयांस प्रसाद जैन 'निर्मल' ३री मंजिल नरीमन पोइन्ट, बम्बई, ४०००२१ दिनांक ३ जुलाई, १९८० मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि श्री केसरीमलजी सुराणा का सार्वजनिक अभिनन्दन समारोह आयोजित किया जा रहा है। इस समारोह के अवसर पर अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन की योजना प्रशंसनीय है। श्री केसरीमलजी सुराणा का जीवन समाज-सेवा में समर्पित रहा है । प्रारम्भ से ही उन्होंने अपने आप को समाज के सर्वांगीण उत्थान के लिए कार्य किया । वस्तुतः यह सकल्प उसके द्वारा की गई निःस्वार्थ सेवाओं का परिचायक है। सेवाभावी पुरुषों का सम्मान करना एक नया सोपान है । नयी पीढ़ी ऐसे प्रेरक व्यक्तित्व से बहुत कुछ सीख सकती है और अपना जीवन सार्थक बना सकती है। मुझे आशा है, समाज के लोग श्री सुराणाजी द्वारा किये गये कार्यों से बहुत कुछ ग्रहण करेंगे। श्री सुराणाजी के यशस्वी जीवन के लिये मैं अपनी शुभकामनाएँ भेजता हूँ और भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वे दीर्घकाल तक हमारे बीच रहें और समाज का मार्गदर्शन करते रहें। वैसे जिन संस्थाओं से वे सम्बद्ध हैं, उनका आशीर्वाद तो प्राप्त है ही। ग्रन्थ के सफल प्रकाशन के लिए मेरी शुभ कामनाएँ हैं। -श्रयांसप्रसाद जैन ३८ सम्पतकुमार गधया कलकत्ता २१-१-८० माननीय सुराणाजी के अभिनन्दन का सोच रहे हैं सो सराहनीय है। यह कार्य तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था। आदरणीय सुराणाजी उन व्यक्तियों में से है जो समाज में कभी-कभी जन्म लेते हैं। उनकी एकनिष्ठा, लगन व समाजसेवा सिर्फ प्रशंसनीय व अनुकरणीय ही नहीं हैं परन्तु दुर्लभ भी हैं । उन्होंने जो कुछ किया है व कर रहे हैं वह इतिहाल में सदा अमर रहेगा। अनेकों को उनसे जीवन मिला है, प्रेरणा मिली है। अनेकों संस्थाएँ उनके जन्म से जन्मी हैं। वे खुद एक बड़ी संस्था है। श्री सुराणाजी के नियम कठोर व जीवन सरल है । वे ऊपर से जितने कड़े हैं अन्दर से उतने ही मृदु है। सत्य के पक्षधर व असत्य के दुश्मन हैं। श्री सुराणाजी का जीवन एक मिशन है । बहुजन हिताय बहुजन सुखाय उनका जीवन न्यौछावर है। हमें गर्व है कि ऐसे सन्त पुरुष के समय में हम जन्मे हैं, साथ काम किया है और आज उनका अभिनन्दन करने का सौभाग्य मिल रहा है। -सम्पतकुमार गधया - Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश -शुभकामना ३६ निर्मलकुमार बाबूलाल भंसाली बम्बई १८-१-८० आदरणीय श्रीमान केसरीमलजी सुराणा साहब का मैं अभिनन्दन किन शब्दों में करूं यह मेरी समझ से परे है । श्रीमान काका साहब ने अथक प्रयास कर राणावास की मरुभूमि को विद्याभूमि में परिणत कर दिया है। यह राणावास की विद्याभूमि आपके खून पसीने से सींची गई है जो अब फलद्रप हो रही है। प्राथमिक विद्यालय जो सिर्फ पाँच छात्रों से संवत् २००१ में शुरू हुआ था, प्राथमिक विद्यालय का यह बीजापन आज उच्च प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक एवं महाविद्यालय वटवृक्ष के रूप में राजस्थान की भूमि में स्थापित हो चुका है। अब तक आपने सम्पूर्ण देश का भ्रमण करते हुए जो ६० लाख रुपये चन्दे के रूप में एकत्रित किये हैं, यह आपके जीवन का एक अनूठा उदाहरण है। चन्दा प्राप्त करने की आपकी कला में शायद ही कोई मुकाबला कर सके। आपकी अमृतवाणी से कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता है, आपका जीवन समाज-सेवा करते हुए भी एक पूर्ण साधु की तरह हैं । एक दिन रात में आप १७ सामायिक १७.३० घंटे मौन २.३० घण्टे रात्रि शयन, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन, रात्रि आहार-पानी का त्याग तथा सात्त्विक आहार करते हैं। हम आपका हार्दिक अभिनन्दन करते हुए यह मंगल मामना करते हैं कि आप युग-युग तक जियें और आपके इंगित पर समाज उत्तरोत्तर प्रगति करता जाये। -निर्मलकुमार बाबूलाल भंसाली ४० तोलाराम दुगड़ अध्यक्ष, श्री जैन श्वे. ते० महासभा "दुगड़ निवास" मेन रोड, पो० बॉ० नं० ४०, विराटनगर (नेपाल) मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के सार्वजनिक अभिनन्दन की आयोजना के साथ, उसी उपलक्ष में एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी प्रकाशित कर विमोचन करने जा रहे हैं। श्री सुराणाजी ऐसे न्यायमूर्ति, सामाजिक सेवक की यह अभ्यर्थना समीचीन है। उनके प्रति समाज की श्रद्धा की अभिव्यक्ति उनका व्यक्तिगत सम्मान ही नहीं, प्रत्युत समाज के आभार की प्रस्तुति के साथ स्वयं समाज को भी पुरस्कृत करता है और प्रेरणादायक प्रसंग बनता है । कर्मयोगी किसी कामना के साथ काम नहीं करता, उसको न तो फल की प्रत्याशा रहती है, न पुरस्कार का प्रलोभन । वह तो कर्मोद्यत होता है अपनी सहज स्वाभाविक मानसिक प्रवृत्ति की प्रेरणा पर किन्तु यह प्रवृत्ति साधना की बुनियाद पर ही बनती है जब मनुष्य अपने स्वभाव को त्याग कर देता है। सामायिक तो स्वधर्मानुयायी सभी करते हैं किन्तु इसकी गहराई तक कितने पहुँच पाये हैं। जो पहुँचे पाते हैं वही तपः पूत होते हैं। क्योंकि कहा गया है : Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश -शुभकामना समता मर्वभुतेषु संयमः शुभ भावना । आत-रौद्र परित्यागस्तादि सामायिकब्रतम् ।। त्यागत सुराणाजी ने सामायिक के इस गहन उत्तरदायित्व को समझ लिया है और इसलिये वह आज वरेण्य हैं, बन्दनीय हैं व ऐसे प्रकाश पुज हैं जो प्रत्येक समाजसेवी को प्रेरणा की रश्मि बिकिरण करते रहेंगे और कर्तव्य पथ पर अग्रसर होने वालों के लिए आदर्श बने रहेंगे। एक ऐसे प्रदेश में जहाँ शिक्षा प्राप्ति का कोई साधन नहीं था वहाँ उन्होंने शिक्षा की ज्योति जलाकर नवजीवन का संचार कराया है। सप्त दशक पूर्ति पर अपनी आन्तरिक अभ्यर्थना व्यक्त करते हुए उनकी प्रेरणापूर्ण जीवन की दीर्घायु की कामना करता हूँ जिससे हमारे समाज को आपकी सेवा परायणता द्वारा आगे बढ़ने का अवसर मिलता रहे। -तोलाराम दुगड़ बी० माणकचन्द नाहर एम० ए० मद्रास मुझे जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि राजस्थान में जैन शिक्षा, संस्कृति के उन्नायक सजग-प्रचारक, सरस प्रसारक, निःस्वार्थ साधक श्री केसरीमलजी साहब सुराणा को आप अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट कर रहे हैं । मैं समारोह की सफलता की कामना करता हूँ, साथ ही प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि श्री सुराणा शतायु हों और इसी प्रकार समाज का मार्गदर्शन करते रहें। अभिनन्दन ग्रन्थ जैन वाड. मय का उज्ज्वल कीर्तिस्तम्भ बने, इसी सद्भाव सहित । -माणकचन्द नाहर ४२ संस्कार निर्माण समिति प्र० कार्यालय-सरदार शहर राजस्थान दिनांक १६ दिसम्बर, १९८० श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास (राज.) के अवैतनिक मंत्री श्री केसरीमल जी सुराणा गत ३६ वर्षों से राजस्थान के कांठा अंचल की विद्याभूमि में राणावास में शिक्षा प्रसार तथा बालकबालिकाओं में सुसंस्कार निर्माण के कार्य में रत हैं। वास्तव में राणावास श्री सुराणाजी के नेतृत्व में सुशिक्षित, सुयोग्य तथा चरित्रवान नागरिक तैयार करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है और बधाई का पात्र है। श्री सूराणाजी आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में एक साधु-पुरुष हैं, अभिनन्दनीय हैं। वे शतायु हों तथा युवा-पीढ़ी को मार्गदर्शन देते रहें। -मोहनलाल जैन Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश -शुभकामना ४३ प्रभूदयाल डाबड़ीवाल ८, डॉक्टर लेन, नई दिल्ली ४ नवम्बर, १९८० राजस्थान के पाली जिला में कांठा प्रान्त में स्थित राणावास शिक्षा की दृष्टि से एक पिछड़ा हुआ क्षेत्र था, किन्तु उस क्षेत्र में भी श्री केसरीमलजी सुराणा जैसे कर्मठ व्यक्ति उत्पन्न हुए । उन्होंने अपनी कर्मठ साधना व सेवा के फलस्वरूप समस्त तेरापंथ जगत का विश्वास अर्जन किया। फलस्वरूप पिछले सैंतीस वर्षों में लाखों रुपयों का आर्थिक अनुदान प्राप्त किया। प्राथमिक शिक्षा से प्रारम्भ कर माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षा-व्यवस्था के उपरान्त गत ५-६ वर्षों में महाविद्यालयी शिक्षा प्रदान की जाने लगी। साथ में सैकड़ों छात्र छात्रावास में प्रतिवर्ष निवास कर योग्य एव संस्कारी बने हैं। समस्त देश में इस शिक्षण संस्थान के छात्र फैले हुये हैं और कई मायनों में समाज को बड़ी सेवायें दे रहे हैं। ___संस्कार निर्माण व चरित्र उत्थान इस शिक्षण संस्थान का मुख्य उद्देश्य रहता है । यह एक अद्वितीय कार्य है, जिसको कर्मठ सुराणा साहब ने मूर्तरूप प्रदान किया है, इनकी समर्पित सेवाओं का ही प्रतिफल है । श्री सुराणाजी दीर्घजीवी बनकर शिक्षा जगत में अमुल्य सेवा देते रहें, यही मेरी हादिक शुभ कामना है। -प्रभुदयाल डाबड़ीवाल लाला बिहारीलाल जैन अदम्य उत्साह, अटूट निष्ठा, आत्मविश्वास एवं दृढ़ संकल्प शक्ति मानव की सफलता एवं कार्य सिद्धि के मूल स्तम्भ होते हैं। इन गुणों के सहारे ही मानव महामानव की श्रेणी में पहुँचता है । जन्म और मृत्यु प्रत्येक शरीर का स्वभाव है । इसके मध्यवर्ती काल याने जीवन में जो कुछ मनुष्य कर जाता है, उसी से उसके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के महत्त्व को आंका जाता है । इस दृष्टि से कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा महामानवों की श्रेणी में आते हैं। आपके कर्मठ व सफल कृतित्व ने राणावास जैसे छोटे से नगण्य स्थान में अनेक महत्त्वपूर्ण शिक्षण संस्थान स्थापित कर नया कीर्तिमान स्थापित किया है । वस्तुतः वे ही शिक्षण संस्था व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के लिए प्रेरणास्पद बनते हैं, जिनका उद्देश्य होता है--सम्यक् ज्ञान का विकास करना, सुसंस्कारों का निर्माण करना, जीने की सात्त्विक पद्धति सिखाना और उन्नति के नये-नये आयामों को निर्मित करना । श्री सुराणाजी द्वारा स्थापित शिक्षण संस्थान इन्हीं प्रवृत्तियों को साकार रूप देने में प्रयत्नशील हैं। इस रूप में आप समाज व राष्ट्र की बहुत महत्त्वपूर्ण सेवा कर रहे हैं । सशिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु आपने अपना सब कुछ तन-मन-धन समर्पित कर दिया है । आपकी सेवाओं के लिये समाज आपका चिरऋणी रहेगा। आपका जीवन सादा और सरलता के साथ-साथ धार्मिकता से भी ओत-प्रोत है । समग्रतः आपका व्यक्तित्व एवं कृतित्व सराहनीय, स्तुत्य एवं अनुकरणीय है। हमारी यही मंगल कामना है कि ऐसे महान व्यक्तित्व का योगदान व मार्गदर्शन समाज को सदैव मिलता रहे । -लाला बिहारीलाल जैन Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्देश 5 VIJAY SINGH SURANA ४६ उत्तमचन्द सेठिया अध्यक्ष, श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा श्रीमान काका साहब श्री केसरीमल जी सुराणा का सार्वजनिक अभिनन्दन करने का निर्णय लिया लिखा, पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। आपके जैसा पुरुषार्थी कर्म योगी पुरुष समाज में विरले ही हैं। आपकी तपस्या एवं अभूतपूर्व स्थान का उदाहरण बेजोड़ है मैं परमेश्वर से आपके चिरायु होने की कामना करता हुआ आता करता हूँ कि अपका सान्निध्य एवं मार्गदर्शन हम सबको एवं विद्याभूमि को वर्षों तक मिलता रहेगा । 1 - विजयसिंह सुराणा - शुभकामना 81, Southern Avenue Calcutta 21-3-1980 मिलाप भवन, जयपुर २१-१२-७९ यह ज्ञात करके एक असीम आनन्द का अनुभव कर रहा हूँ कि श्रीयुत केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन समारोह समिति कर्मयोगी, कर्मठ और कर्मनिष्ठ सामाजिक कार्यकर्त्ता का अभिनन्दन करने जा रही है। जिस कथनी में नहीं करनी में विश्वास हो जिसमें कार्य करने की मिशनरी भावना हो समाज ऐसे समाजरत्न की जितनी भूरि-भूरि प्रशंसा करे उतनी ही थोड़ी है । यह एक अत्यन्त उपयुक्त निर्णय है और समाज ने ऐसे कर्तव्यनिष्ठ समाजसेवी की सेवाओं का जो मूल्यांकन किया है उसे मैं साधुवाद दिये बिना नहीं रह सकता । जिस समाज में ऐसे निःस्वार्थ समाजसेवी रत्न हों वह समाज निरन्तर अपनी सेवाओं से लोगों को लाभान्वित कर सकता है। ऐसे बेजोड़ समाजसेवी की मैं हृदय से मंगल कामना करते हुए ईश्वर से करवद्ध प्रार्थना करता हूँ कि यह उन्हें दीर्घायु करे ताकि समाज उनकी अमूल्य सेवाओं से उपकृत होता रहे । -- उत्तमचन्द सेठिया 卐 . Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केशरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ विषय-वर्गीकरण सूची प्रथम खण्ड [व्यक्तित्व, कृतित्व, संस्मरण तथा काव्याञ्जलि डा० देव कोठरी (उदयपुर) पं० जोशी प्यारेलाल शर्मा, (राणावास) aur प्रो० मनोहरलाल आच्छा, (राणावास) m कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीवन परिचय ग्रहों का गणित : काकासा का फलित संस्मरण संस्मरणों की सौरभ- शादी और भंग की मिठाई, जब बीड़ी के बजाय अंगुली जली मौसर की राशि भवन निर्माण में पशुबलि बन्द करवा दी संकट मोचक आचार्य भिक्षु काला सांप और लोगस्स पाठ दैत्याकार प्राणी का उपसर्ग तमाचा भी : चन्दा भी डाकू भी परास्त हो गये चन्दा प्राप्त करने की कला __ भवितव्य का पूर्वाभास मेरे सर्वस्व : मेरे भाई साहबसिगरेट अरोगिये, मेरी आँखे खुल गई, वात्सल्य की वर्षा, संस्था के प्रति लगन खीर वापस कर दो मरना एक बार है जब पैर में काँटा चुभ गया कौन कहता है सुराणाजी कठोर हैं ? ___ अटल नियम : पौरुष के खिलाड़ी मंत्र की शक्ति। ये सब हमारी सन्ताने हैं काकासा की विनम्रता साक्षात् राजा मोहजीत वेदनीय कर्म समता से काटूगा अरे ये तो साधु हैं नानकशाही डण्डा हाथ में ले लो श्री भंवरलाल सुराणा, (बोलारम) mm मुनिश्री जसकरण (सुजान) मुनिश्री पूनमचन्द मुनिश्री अगरचन्द साध्वीश्री सूर्यकुमारो (सरदार शहर) साध्वीश्री विनयवती (हाँसी) श्री अशोककुमार भण्डारी, पेटलावद श्री हीरालाल गांधी 'निर्मल', (व्यावर) साध्वीश्री कंचनकुमारी, (लाडनू) mm mr mm mr साध्वीश्री सिरेकुमारी (सरदारशहर) साध्वीश्री अशोकश्री mmm Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) पैसे का हिसाब जब घड़ी पुरस्कार में दी वृथा आपको दोषी क्यों बनाऊँ मुझे लड मारो जब गाड़ी का ब्रेक फैल हो गया और धूमपान छूट गया । उनके शब्दों की शक्ति कर्म के साथ धर्म का समन्वय हरिजन रसोइया, दिल कोमल ए गुलाब सा आशीर्वचन विरल विशेषताओं के धनी समाज के नररत्न धर्म और कर्म के युगपत् उपासक स्वाध्यायप्रिय श्रावक आगमिक श्रावक परम्परा के रत्न सेवाभावी श्रावक कमल से निस्पृह कलयुग के शिवशंकर जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा, कर्मशील योगी, अजब गजब रा श्रावक संयम की साकार मूर्ति ब्रह्मचारी साधक नव-समाज के निर्माता अनासक्त योगी कंटिली झाड़ियों में मुस्कराता फूल व्यक्तित्व व कृतित्व की पूजा पड़िमाधारी श्रावक निर्लिप्त जीवन शासनसेवी : शासनभक्त नवीन प्रेरणाओं के उद्घाटक शिक्षा के प्रेरक मणिकांचन सुयोग धर्म और कर्म के संगम त्याग का नवीन आदर्श मुनिश्री छत्रमस्त श्री पुखराज पुरोहित, (राणावास) साध्वीश्री चांदकंवर, ( मोमासर ) श्री ताराचन्द लूकड़ (राणावास) प्रकाश के अन्वेषक समय के सूक्ष्म अन्वेषक आस्थाओं के सिंहासन पर आरूढ़ विसर्जन के पुनीत प्रतीक मुनिधी प्रसनकुमार, (दिवेर) प्रो० शिवप्रकाश गांधी (राणावास) युगप्रधान आचारंभी तुलती मुवाचार्य महाप्रज्ञ साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभा साध्वीश्री संघमित्रा साध्वीश्री कंचनकुमारी, (लाडनू ) साध्वीश्री सिरेकुमारी ( सरदार शहर ) साध्वी इन्दुजी, (लाडनू ) साडीधी रेखा मुनिश्री विनयकुमार 'आलोक' साध्वीश्री लब्धिश्री मुनिश्री अगरचन्द साध्वीश्री राजीमती साध्वीश्री राजवती मुनिश्री रवीन्द्रकुमार साध्वीश्री सोहनकुमारी, ( राजलदेसर ) साध्वीश्री अशोकश्री मुनिश्री सोहनलाल, ( लूणकरणसर ) साबोधी यशोधरा मुनिश्री सोहनलाल (डूंगरगढ़) साध्वीश्री कमलाकुमारी, (उज्जैन) साध्वीश्री प्रियंवदा साध्वीश्री विद्यावती साध्वीश्री विजयभी मुनिश्री सुमेरमल, ( लाडनूं) साध्वी श्माकुमारी (मोहर) साध्वीश्री मोहनकुमारी (तारानगर) साध्वीश्री नीतिश्री साध्वीची राजीमती साध्वीश्री निर्मलाबी (सरदारशहर) 1 ३७ ३८ ३८ ३६ ३० ४० ४१ ४२ ४२ ४३ ४४ ४४ ४६ ४६ ४६ ४८ ४८ ४८ ४६ ४६ ४६ ५० ५१ ५१ ५२ ५२ ५२ ५३ ५३ ५४ ५४ ૪ ५५ ५५ ५५ . Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 李李李李李李李李李李个个个李李李李李李李李李李李 विवेकानन्द की याद साध्वीश्री सुबोधकुमारी बेजोड़ संचालक मुनिश्री कन्हैयालाल कर्मशक्ति का अनूठा उदाहरण साध्वीश्री सुमंगला सजग प्रहरी साध्वीश्री विनयश्री, (डूंगरगढ़) प्राणों के प्रतिष्ठापक साध्वीश्री आनन्दश्री ___अनुशासनप्रिय मुनिश्री प्रसन्नकुमार व्यक्ति नहीं, संस्था साध्वीश्री कंचनमाला साधना के सजग प्रहरी साध्वीश्री गुणवतो गांधी और करतूरबा साध्वीश्री पानकुमारी, (लाडनू) त्रिरत्न : ओजस्वी वक्ता साध्वीश्री धनकुमारी उत्कृष्ट सेवक साध्वीश्री रतनकुवर, (लाडनू) जागरूक साधक मुनिश्री सोहनलाल, (राजगढ़) साधना का त्रिवेणी संगम साध्वीश्री चांदकंवर, (मोमासर) निस्पृह कार्यकर्ता साध्वीश्री नगीना फलदार वृक्ष साध्वीश्री कंचनकुमारी (राजनगर) युवा हृदय ज्ञानपुञ्ज साध्वीश्री जयमाला गुणवान् पूज्यते मुनिश्री देवेन्द्रकुमार तपस्वियों के ताज साध्वीश्री पानकुमारी, (डूंगरगढ़) जीवन की जागती मशाल साध्वीश्री कमलश्री मेढिभूअ श्रावक साध्वीश्री ज्योतिप्रभा श्रद्धा-सुमन संस्था के प्राण श्री जबरमल भण्डारी, (जोधपुर) एक युग द्रष्टा, एक युग गौरव प्रो० बी० एल० धाकड़, (उदयपुर) पुरुषार्थ की प्रतिमूर्ति श्री राणमल जीरावला, (कोघल) संस्कार-सर्जन श्री मोतीलाल एच० रांका, (कोयम्बटूर) अहम् विजेता लोह पुरुष श्री मन्नालाल सुराणा, (जयपुर) एक अद्भुत शक्ति पुञ्ज प्रो० के० के० महर्षि, (उदयपुर) नरश्रेष्ठ योगी डा० दयालसिंह, गहलौत, (व्यावर) तेरापंथ जगत के प्रथम मालवीय श्री देवेन्द्रकुमार कर्णावट, (राजसमन्द) अद्भुत व्यवस्थाशक्ति के प्रतीक श्री रिखबराज कर्णावट, (जोधपुर) व्यक्ति नहीं, एक संस्था श्री अरविन्दकुमार नाहर, (मद्रास) श्रमण परम्परा के सूर्य ___ आचार्य राजकुमार जैन, (नई दिल्ली) मानवता के उन्नायक डा० भागचन्द जैन 'भागेन्दु', (दमोह (म.प्र.)) निवृत्ति और प्रवृत्ति के अद्भुत संयोजक श्री चन्दनमल 'चान्द', (बम्बई) अनुकरणीय आदर्श व्यक्तित्व वैद्य सुन्दरलाल जैन, (इटारसी) राणावास का गांधी प्रो० भंवरलाल पारख, (अजमेर) एकता व समन्वय के प्रतीक प्रो० चांदमल कर्णावट, (उदयपुर) त्याग के मूर्तिमान रूप प्रो० रामप्रसाद शर्मा, (कानोड) A Princely Beggar Prof. G. L. Mathur, Jodhpur. सूर्य की चाल की तरह नियमित श्री गजमल सिंघवी, (जोधपुर) 卒卒卒卒卒夺李李李李李中华李空空中空空李李李李李 李李李李李李李李李李李李李李 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ मारवाड़ का गरिमा पूर्ण नक्षत्र जैन समाज के उज्ज्वल नक्षत्र एकनिष्ठ सेवक नवयुग का भागीरथ सूझ-बूझ की त्रिवेणी उच्चकोटि के शिक्षाशास्त्री आत्म-साधना के धनी तेरापंथ के सूफी संत स्वभावसिद्ध गुणों के आकर एक दुर्लभ विभूति युगपुरुष : नररत्न सर्वस्व त्यागी महापुरुष समर्पित व्यक्तित्व समाज के गौरव प्रेम के पुजारी निःस्वार्थ सन्त-पुरुष गण एवं गणपति के प्रति समर्पित नये मानव के निर्माता एक प्रखर व्यक्तित्व अविस्मरणीय कर्मयोगी मानव सेवा के मन्त्रदाता छात्रों के प्राण त्यागलोक की दिव्य आत्मा कार्यकुशलता के जीवन्त प्रमाण प्रथम अग्रे सर दीपक संकल्पों के साधक जितने कठोर, उतने कोमल कलात्मक जीवन के उद्घोषक संघर्ष में सुमेरुसम अटल सन्त या समाज-सेवक सफल समाज सुधारक समुद्र की तरह गहरे विश्वासपात्र विभूति समय की कसौटी पर खरे अवर्णनीय गौरव गाथा प्रतिभा सम्पन्न व प्रेरक अंध परम्पराओं के विरोधी सच्चे छात्र हितैषी जैनमासन के ज्योति पुज ) ७८ श्री देवेन्द्रकुमार हिरण, (गंगपुर ) ७६ ७६ το श्री भीकमचन्द कोठारी, 'भ्रमर', (टाडगढ़) ७८ श्री अगरचन्द नाहटा, (बीकानेर) श्री सोहनराज कोठारी, (जयपुर) श्री कनकमल जैन, (बोक (नेर ) श्री महेन्द्रवीरसिंह गहलौत ( राणावास ) श्री श्यामसुन्दर जैन, (उदयपुर) प्रो० देवेन्द्रदत्त शर्मा, (बीकानेर) डा० बी० एन० वशिष्ठ, ( राणावास ) श्री भंवरलाल आच्छा, (राण वास ) स्व० श्री उदय जैन, ( कानोड़) श्री रणजीतसिह बंद, (जयपुर) श्री चांदमल दुगड़, (आसिन्द) श्री सागरमल कावड़िया श्रीमती भंवरीदेवी मुराणा श्री बाबूलाल चुन्नीलाल भंसाली, श्री ततमल इन्द्रावत, (राणायास) श्री फूलचन्द बाफना, (मी) प्रो० एम० एल० अच्छा (राणावास) श्री मांगीलाल छाजेड, (बंगलोर) श्री अशोककुमार भण्डारी, (पेटलावद ) श्री सोहनलाल कातरेला (बंगलौर) श्री अशोक भाई संघवी 'जन' (बाय) डा० बी० जुगर ज सेठिया, (कंटालिया) श्री गणेशलाल चोरड़िया श्री रतनसिंह सुराणा, (बंगलौर) श्री कान्ति संघवी 'जैन', (बाब श्री महालचन्द बड़ श्री मांगीलाल सुराणा श्री भंवरलाल सांखला , श्री गजराज के रोमानी (रानी) श्री उगमराज के० धोका (रानी) श्री भंवरलाल धींग, (रोछेंड) श्री सोहनलाल बोहरा, (केला) श्री अनूप जैन, (कलकत्ता) श्री लाल नहर (दिगेर) भाग्यवती धोका श्री हिम्मतलाल कोठारी, (टाडगढ़) श्री मनोहरमल लोढ़ा (जोधपुर) το ८ १ ८१ ८२ ८३ ८४ ८४ ८५ ८५ ८५ ८६ ८६ ८७ ८७ ८७ ८८ पर्द ६० ६ १ ६१ ६२ ६२ ६३ ६३ ६३ ६४ ६४ ६४ ६५ ६५ ६५ ६६ . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा ० . ० ० १०३ १०४ ० ० ० ० ० GMcK WWW ० ० ० ० १०६ १०६ १०७ विवादों से मुक्त श्री मनोहर यन्द्रावत, (राणावास) निर्धन के धन श्री प्रतापसिंह बैद, (कलकत्ता) काव्यांजलियां सेवा रो इतिहास प्रो० देवकर्णसिंह रूपाहेली, (उदयपुर) श्याम देह बापू सी प्रो० मनोहर छाजेड़, 'भारतीय', (मसूर) शत-शत वन्दन श्री देवेन्द्रकुमार हिरण, (गंगापुर) काकासा की अलख कहानी मुनिश्री रोशनलाल ___ भुल्या कदे न जाय मुनिश्री अगरचन्द हर मधुपान के पश्चात् भी मुनिश्री मोहनलाल, (आमेट) प्रणाम श्री गौतमचन्द छाजेड (बंगलौर) कुण्डलिया श्री भेरूलाल बाफना, (लावा सरदारगढ़) तुम्हारे कर्म की गाथा 'साध्वीश्री धर्मप्रभा, (राजगढ़) जनम सुधारयो ओ श्री वी० प्रेमराज भंसाली, (बंगलौर) नव इतिहास सुनाएँ साध्वीश्री सिरेकुमारी, (सरदारशहर) उभरा है व्यक्तित्व एक मुनिश्री विजयकुमार कोटि-कोटि अभिनन्दन श्री हीरालाल गांधी, 'निर्मल', (व्यावर) युगों-युगों तक कई करेंगे याद श्री मांगीलाल सुराणा कर्मठ काको केसरी साध्वीश्री भीखाजी, (लाडनू) रंग अनूठो ल्यावं मुनिश्री विजयराज एक विभुति श्रीमती स्वरूप जैन, (व्यावर) लौह पुरुष श्री जयचन्द गोलछा सहन, (सिरसा) अभिनन्दन श्री गौतमचन्द छाजेड़ (बंगलौर) श्रेय पथ पर साध्वीश्री भीखाजी (नोहर) तेरे ही गुण गायें हैं कु० प्रतिभा गांधी, (व्यावर) यह जीवन लुटायो है श्री प्रेमचन्द रावल, निरंकुश अलबेला साधक साध्वीश्री मधुमती, (टमकोर) त्याग का उत्कर्ष मुनिश्री मानमल जुग जुग जीयो श्री मनोहरलाल लोढ़ा, (जोधपुर) ऋषि केसरी साध्वीश्री जयश्री (नोहर) आस्थावान श्रावक साध्वीश्री जतनकुमारी, (राजगढ़) काम कमाल कर्यो साध्वीश्री सोहनकुमारी, (राजलदेसर) श्रम सूफल्यो बगीचो सारो साध्वीश्री ज्योतिप्रभा, (भादरा) भक्तों में जिनका नाम है मुनिश्री संजयकुमार शासन भक्त श्रावक साध्वीश्री सूर्यकुमारी, (टभकोर) कृपापात्र गुरुवर के साध्वीश्री लाडाजी मारवाड़ रत्न साध्वीश्री सुबोधकुमारी __ दो मुक्तक साध्वीश्री चन्द्रकला सच्चा केसरी कहलाया साध्वीश्री विनयश्री हे मानव के मसीहा श्री डूंगरमल जैन, (पचपदरासिट.) 李李李李卒卒中令李李李李李李寧容中李李李李李李李 ० ० १०८ ० ० ० . ० ११० ० ० १११ ११२ ११३ ११३ ११४ ११४ ११५ ११५ ११६ ११६ ११६ ११७ ११७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ as a २१७ G M ( ४० ) प्रणतांजलि: डा० शक्तिकुमार शकुन्त, (चकेरी) ११८ योग्य व्यक्तित्व मुनिश्री हरीश ११८ अभिनन्दन पत्र (विविध) ११६-१४६ नारीरत्न श्रीमती सुन्दरदेवी सुराणा (माताजी) श्री भूपेन्द्रकुमार मूथा, (नीमली) १४७ द्वितीय खण्ड [श्री जैन श्वेताम्बर मानव हितकारी संघ, (राणावास) और उसकी प्रवत्तियाँ 'कांटा' का भौगोलिक और सांस्कृतिक परिवेश डा० देव कोठारी, (उदयपुर) १५१ कांठा के तेरापंथी तीर्थ : १५७ (१) भिक्षुजन्मस्थली-कंटालिया श्री शान्तिलाल वैष्णव, राणावास १५७ (२) अभिनिष्क्रमणस्थलो-बगड़ी श्री प्रभूसिंह सोलंकी, गुड़ा सुरसिंह (३) निर्वाण स्थली-सिरियारी श्री समुद्रलाल संचेती, (राणावास) १६१ (४) विद्याभूमि-राणावास प्रो० पी० एम० जैन, (राणावास) श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संव श्री तख्तमल इन्द्रावत, (राणावास) १७० राणावास का इतिहास उच्च शिक्षा का अनुपम स्थल प्रो० दानवीरचन्द भण्डारी, (राणावास) महाविद्यालयीय छात्रों का आवासीय केन्द्र प्रो० पी० एम० जैन, राणावास सर्वाङ्गीण शिक्षा का सिंह द्वार श्री तख्तमल इन्द्रावत, राणावास २२१ प्राथमिक-माध्यमिक छात्रों का आवास स्थल- श्री भैरूलाल बाफना, राणावास आदर्श निकेतन छात्रावास, राणावास, छात्र चिकित्सा केन्द्र सेठश्री मोतीलाल बॅगाणी डा० प्रेमचन्द रावल, राणावास औषधालय, राणावास, ग्रामीण चिकित्सा केन्द्र-श्री हस्तीमल घीसूलाल डा० प्रेमचन्द रावल, राणावास गादिया औषधालय, रामसिंह का गुड़ा, श्री पी० एच० रूपचन्द डोसी जैन उच्च प्राथमिक श्री विजयसिंह पंवार, राणावास २५४ व माध्यमिक विद्यालय, गुड़ा रामसिंह संघ की विशाल ऐतिहासिक यात्रा प्रो० बी० एल० धाकड़, २५६ श्री अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ, २६८ राणावास - विभिन्न प्रवृत्तियाँ : संक्षिप्त परिचय तृतीय खण्ड [शिक्षा एवं समाज सेवा] शिक्षा एवं सामाजिक परिवर्तन श्री भवानीशंकर गर्ग, उदयपुर शिक्षा का उद्देश्य डा० प्रभु शर्मा, आमेट शिक्षा और छात्र मनोविज्ञान डा० जी० सी० राय, उदयपुर हमारे शिक्षालय और लोकोत्सव पद्मश्री देवीलाल सामर, उदयपुर 'लोकधर्मी प्रदर्शनकारी कलाओं की शैक्षिक उपयोगिता डा० महेन्द्र भानावत, उदयपुर शिक्षा और संचार साधनों की भूमिका प्रो० दुर्गाप्रसाद अग्रवाल, सिरोही अनौपचारिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप डा० शिवचरण मेनारिया, उदयपुर ३ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) 李李李李李李李李李李李李李李 माध्यमिक शिक्षा और सरकारी दृष्टि श्रीमती सुषमा अरोड़ा, उदयपुर शिक्षण में सृजनात्मकता प्रो० भगवतीलाल व्यास, डबोक (उदयपुर) ३८ इम्तिहान पर क्षण भर डा० विश्वम्भर व्यास, उदयपुर शिक्षा और बेरोजगारी डा० जी० एल० चपलोत, नारनोल (हरियाणा) छात्र असन्तोष क्यों? श्री बी० पी० जोशी, उदयपुर बच्चों में चरित्र निर्माण : दिशा और दायित्व श्री उदय जारोलो, नीमच छात्रों में संस्कार निर्माण : घर, समाज व शिक्षक की भूमिका श्री भंवरलाल आच्छा, राणावास छात्र, छात्रावास और संस्कार मुनि श्री सुखलाल बच्चों का चरित्र-निर्माण श्रीमती कुमुद गुप्ता, नीमच अभिभावकों का दायित्व साध्वीश्री जयमाला, नोहर छात्र-अध्यापक सम्बन्ध साध्वीश्री गुणितप्रभा क्या धार्मिक शिक्षा उपयोगी है ? . साध्वीश्री रमाकुमारी नैतिक शिक्षा की व्यावहारिकता साध्वीश्री ललितप्रभा विभिन्न छात्रवृत्तियाँ : महत्व और प्रकार श्री रणजीतसिंह भण्डारी, (उदयपुर) नारी शिक्षा का लक्ष्य एवं स्वरूप डा० श्रीमती विद्या बिन्दुसिंह, इलाहाबाद नारी-शिक्षा का महत्व साध्वीश्री जयश्री सेवा : आत्म कल्याणक भी, लोक कल्याणक भी डा. नरेन्द्र भानावात, जयपुर सेवा : अर्थ और सही समझ साध्वीश्री यशोधरा समाज-सेवा में नारी की भूमिका श्रीमती मालती शर्मा, पूना समाज के विकास में नारी का योगदान साध्वीश्री मंजुला जैन विश्वभारती लाड : एक परिचय डा० कमलेशकुमार जैन, लाडनूं जनसारक्षरता और राष्ट्र निर्माण प्रो० बी० एल० धाकड़ उदयपुर - चतुर्थ खण्ड जैन धर्म, दर्शन एव साधना नमस्कार महामंत्र : एक विश्लेषण युवाचार्य श्री महाप्रज्ञजी जैन धर्म : सर्व प्राचीन धर्मपरम्परा डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ जैन प्रमाणशास्त्र : एक अनुचिन्तन डा० दरबारीलाल कोठिया, वाराणसौ जैन आचार दर्शन : एक मूल्यांकन डा० सागरमल जैन, भोपाल विभिन्न दर्शनों में योगजन्य शक्तियों का स्वरूप साध्वीश्री संघमित्रा भारतीय योग और जैन चिन्तनधारा डा० छगनलाल शास्त्री, सरदारशहर शब्द-अर्थ सम्बन्ध : जैन दार्शनिकों की दृष्टि में डा० हेमलता बोलिया, उदयपुर १७४ ब्रह्माण्ड, आधुनिक विज्ञान और जैन दर्शन श्री बी० एल० कोठारी, उदयपुर जैन धर्म और लोकतन्त्र प्रो० चन्द्रसिंह नेनावटी, उदयपुर जैन रहस्यवाद डा० पुष्पलता जैन, नागपुर १६५ जैन दर्शन और ईश्वर की परिकल्पना डा० महावीर सरन जैन, जबलपुर २०६ आत्म-स्वरूप-विवेचन श्री राजेन्द्र मुनि । २१२ जैन धर्म में कर्म-सिद्धान्त साध्वीश्री जतनकुमारी २२० संलेखना : स्वरूप और महत्व श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री २२७ १०५ '中中中中中中中中卒中中中个个个个中空李个空中 李李李李李李李李李李李李李李空空中李李李李李李李 १०७ ११२ له الله الله १५६ १८० १८७ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) समाधिमरण तप एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान जैन परम्परा में संघीय साधना का महत्व द्रव्य : एक अनुचिन्तन जैन धर्म का प्राण - स्याद्वाद अपरिग्रहवाद : आर्थिक समता का आधार अनुयोग और उनके विभाग जैन धर्म के मूल तत्व : एक परिचय उपाध्याय पद : स्वरूप और दर्शन जैन मुनि और वस्त्र-परम्परा दशकालिक और जीवन का व्यावहारिक दृष्टिकोण श्रमण चर्या विषय कुन्दकुन्द की दृष्टि पडिमाधारी श्रावक : एक परिचय तेरापंथ-दर्शन श्री चन्दनमुनि मुनिश्री सुमेरमल, लाडनूं साधी कंचनकुमारी, लाडनूं वैद्यश्री राजेन्द्रकुमार जैन, वाराणसी डा० महावीरसिंह मुडिया, उदयपुर डा० फूलचन्द जैन 'प्रेमी', लाडनू' मुनिश्री किसनलाल श्रीस्वरूपसिंह चुण्डावत, उदयपुर श्री रमेश मुनि शास्त्री मुनिश्री श्रीचन्द्र 'कमल' साध्वीश्री कनकश्री डा० रमेशचन्द्र जैन, बिजनौर साध्वीश्री जतनकुमारी मुनिश्री उदितकुमार मुनिश्री सुमेरमल, लाडनूं श्री सतीशचन्द्र जैन, कमल, अहमदाबाद श्री रतनलाल कामड़, चंगेड़ी (उदयपुर) श्री सोहनराज कोठारी, जयपुर पंचम खण्ड तेरापंथ और अनुशासन अणुव्रत और अनुप्रत आन्दोलन जैन दर्शन में मानववादी चिन्तन स्वानुभूति की ओर अन्तर्यात्रा : [जैन साहित्य एवं संस्कृति] तेरापंथी जैन व्याकरण साहित्य संस्कृत - जैन- व्याकरण परम्परा जैन आयुर्वेद परम्परा और साहित्य जैन मंत्र शास्त्रों को परम्परा और स्वरूप जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा जैन गणित : परम्परा और साहित्य जैन साहित्य में कोश परम्परा जैन छन्द शास्त्र परम्परा तेरापंथ में संस्कृत का विकास राजस्थान का जैन संस्कृत साहित्य राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार धूर्ताख्यान पार्यन्तिक व्यंग्य-काव्य कथा प्राकृत कथा साहित्य का महत्व प्राकृत : विभिन्न भेद और लक्षण अपभ्रंश साहित्य-परम्परा अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य अपभ्रंश साहित्य में रामकथा अपभ्रंश चरिउ काव्यों की भाषिक संरचनाएँ साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभा २४२ २४५ २५१ २५५ २५६ २६५ २६६ २७५ २७६ २८४ २८७ २६७ ३०३ ३०५ ३०६ ३१२ ३१६ ३२७ ३३१ ३६३ डा० हरीलाल शर्मा, लोहारिया (बांसवाड़ा) २४३ डा० राजेन्द्रप्रसाद भटनागर, उदयपुर श्री सोहनलाल गौ० देबोतलोहारिया डा० राजेन्द्रप्रसाद भटनागर वैद्य सावित्रीदेवी, उदयपुर श्रीविद्यासागर राय, जोधपुर श्री नरोत्तमनारायण गौतम, उदयपुर मुनिश्री विमलकुमार डा० प्रेमचन्द रांवका, मनोहरपुर ( जयपुर ) डा० शक्तिकुमार शर्मा, शकुन्त, उदयपुर प्रो० डा० श्री रंजनदेव, पटना डा० उदयचन्द्र जैन, उदयपुर श्री सुभाष कोठारी, उदयपुर डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, नीमच डा० हरियाल चुन्नीलाल भायाणी डा० देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर डा० कृष्णकुमार शर्मा, उदयपुर ३७४ ३६२ ४१४ ४१६ ४३४ ४३८ ४४२ ४४७ ४६२ ४६६ ४७२ ४८० ४८७ ४६७ ५०२ * कोकोको →→→→→→→→→→→→→→ . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ ५२६ ५४५ ५५६ ५७७ ५८३ ५८६ ६०१ wr भ ६१७ ६२५ ६३२ ६४२ ६४७ 9 . अपभ्रश के प्रबन्ध काव्य ___डा० प्रेम सुमन जैन, उदयपुर राजस्थानी जैन साहित्य की रूप परम्परा डा० मनमोहनस्वरूप माथुर, पानीपत तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य मुनिश्री दुलहराज राजस्थानी दिगम्बर जैन गद्यकार ___ डा० हुकमचन्द भारिल्ल, जयपुर राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित मुनिश्री गुलाबचन्द्र निमोही महाकवि धनपाल : व्यक्तित्व और कृतित्व श्री मानमल कुदाल, उदयपुर आचार्य नेमिचन्द्र सूरि और उनके ग्रन्थ श्री हुकमचन्द जैन, उदयपुर आचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र एवं उनका नाट्य दर्पण डा० कमलेशकुमार जैन, लाडनू अभयसोमसुन्दर कृत विक्रम चौबोली चउपि डा० मदनराज डी० मेहता, जोधपुर महान साहित्यकार तथा प्रतिभाशाली - साध्वीश्री भोकांजी नोहर श्री मज्जयाचार्य आचार्य तुलसी : एक साहित्यिक मूल्यांकन डा० भंवर सुराणा, जयपुर आगम-पाठ संशोधन : एक समस्या, एक समाधान मुनिश्री दुलहराज तेरापंथ सम्प्रदाय और नई कविता प्रो० बी० एल० आच्छा, बड़नगर जैन भक्ति साहित्य प्रो० महेन्द्र रायजादा, सीकर रयणसेहरी कहा एवं जायसी का पद्मावत कु० सुधा खाव्या, उदयपुर जैन कथा साहित्य में नारी डा० श्रीमती सुशीला जैन, उज्जैन हिन्दी जैन गीतिकाव्य में कर्म-सिद्धान्त स्व० प्रो० श्रीचन्द्र जैन, उज्जैन जैन कवियों के ब्रज भाषा प्रबन्ध काव्य डा० लालचन्द जैन, वनस्थली हिन्दी के नाटकों में तीर्थकर महावीर डा० लक्ष्मीनारायण दुबे षष्टम खण्ड [इतिहास और पुरातत्व वैशाली गणतन्त्र का इतिहास श्री राजमल जैन, नई दिल्ली __ओसियां की प्राचीनता प्रो० देवेन्द्र हाण्डा, चण्डीगढ़ विदेशों में जैन धर्म डा० भागचन्द जैन 'भास्कर', नागपुर मेवाड़ के शासक एवं जैन धर्म श्री जसवन्तलाल मेहता, उदयपुर नयचन्द्र सूरिकृत-हम्मीर महाकाव्य और सैन्य व्यवस्था डा० गोपीनाथ शर्मा, जयपुर , गोड़वाड़ के जैन शिलालेख श्री रामवल्लभ सोमानी, जयपुर नागौर के जैन मन्दिर और दादा बाड़ी श्री भंवरलाल नाहटा, बीकानेर सिरोही जिले में जैन धर्म डा० सोहनलाल पाटनी, सिरोही तमिलनाडू में जैन धर्म और जैन संस्कार मुनिश्री सुमेर मल 'सुमन' जैन जातियों का उद्भव एवं विकास डा० कैलाशचन्द्र जैन, उज्जैन जैन जाति और उसके गोत्र श्री बलवन्तसिंह महता, उदयपुर भट्टारक परम्परा डा० बिहारीलाल जैन, उदयपुर जैन यति परम्परा श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर तेरापंथ की अग्रणी साध्वियाँ साध्वीश्री मधुस्मिता माण्डू के जावड़ शाह ___डॉ० सी० सी० काउझे (अनु०) डा० सत्यव्रत तेरापंथ के दृढ़धर्मी श्रावक : अर्जुनलालजी पोरवाल मुनिश्री बुद्धमल्ल तेरापंथ के महान श्रावक मुनिश्री विजयकुमार 李李李李李李李李李李李李李李李李中李李李李李李李 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ १२६ १३४ १४४ १५० १५३ १६३ १७१ १७४ १७६ १८६ बलिदान और शौर्य की विभूति भामाशाह डा० देवीलाल पालीवाल, उदयपुर जोधपुर के जैन वीरों सम्बन्धी ऐतिहासिक काव्य श्री सौभाग्यसिंह शेखावत, जोधपुर अहमदाबाद युद्ध के जैन यौद्धा श्री विक्रमसिंह गुन्दोज, जोधपुर मेवाड़ के जैन वीर श्री शम्भूसिंह 'मधु', उदयपुर जैन संस्कृति की विशेषतायें डा० राममूर्ति त्रिपाठी, उज्जैन जैन मूर्तिकला की परम्परा डा० मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी जैन कला : विकास और परम्परा डा० शिवकुमार नामदेव, होशंगाबाद राजस्थान की जैन कला श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर राजस्थान जैन चित्रकला : कुछ अप्रकाशित साक्ष्य श्री ब्रजमोहनसिंह परमार, जोधपुर मेवाड़ की प्राचीन जैन चित्रांकन-परम्परा डा. राधाकृष्ण वशिष्ठ, जयपुर जैन धर्म और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान आचार्य राजकुमार जैन, नई दिल्ली राजस्थान : स्वातन्त्र्य संघर्ष और जैन समाज प्रो० तेजसिंह तरुण उदयपुर सप्तम खण्ड आंग्ल भाषा Jainism as a Faith Shree Chand Rampuria Jain Literature as a Source of Social Dr. G. N. Sharma and Cultural Life of Medieval Rajasthan (1400-1800 A.D.) Rightness of Action and Jaina Ethics Dr. K. C. Sogani Mahavira and Ahimsa Dr. D. S. Kothari The Concept of Ahimsa in the Dr. Veena Aggarwal Acaranga Jinasena and his Political Philosophy Raj Mal Jain Jaina Path of Education B. K. Khadabadi A short sketch of Early Education, S. Mookerjee Art and Iconography under Jainism Jewellery in Jain Literature of (Mrs.) Kusum Mehta Rajasthan Scouting in Educational Perspective J S. Mehta Education in Economic Perspective B.L. Dhakar Community Education in National (Mrs.) Kailash Mehta Perspective Social Justice to Mankind (Mrs.) Pushpa Kothari Ryle's Concept of the Category Jagat Pal Mistake The Saint of Ranawas S. C. Tela परिशिष्ट १. अभिनन्दन समारोह एवं ग्रन्थ प्रकाशन महासमिति २. अभिनन्दन ग्रन्थ के माननीय ग्राहक सदस्य Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Boयी कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ व्यक्तित्व, कृतित्व, संस्मरण तथा काव्यांजलि... . खण्ड Education Intemallonial For Private 3. Personal use only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी चुराणा : जीवन परिचय 0 डा० देव कोठारी भारत महापुरुषों की धरती है। इसके कण-कण में महापुरुषों का प्रभामण्डल परिव्याप्त है। इन अभिनन्दनीय आत्माओं का अतुलनीय व्यक्तित्व और कृतित्व भारत के गौरव एवं गरिमा की अजस्र धारा है। उनकी कीर्ति गाथाएँ मानव मात्र को प्रेरणा प्रदान करती हैं । श्री केसरीमलजी सुराणा ऐसे ही एक कीर्तिपुरुष हैं । आप ओसवाल जाति की सुराणा गोत्र के कुल-दीपक हैं। एक जन-श्रुति के अनुसार सुराणा गोत्र की उत्पत्ति का इतिवृत्त लगभग नौ शताब्दी पुराना है। 'सुराणा' गोत्र की उत्पत्ति अन्हिलवाड़ा' (गुजरात) में सिद्धराज जयसिंह सोलंकी (१०६४-११४३ ई०) का राज्य था। इनके यहाँ पर जगदेव नामक सामंत प्रतिहारी के दायित्व पर नियुक्त था। जगदेव अत्यन्त वीर, पराक्रमी एवं निर्भीक स्वभाव का हृष्ट-पुष्ट पुरुष था। उसे प्रतिहारी के दायित्व के उपहारस्वरूप सिद्धराज जयसिंह की ओर से एक लाख स्वर्णमुद्राएँ प्रतिवर्ष प्रदान की जाती थीं। जगदेव के सात पुत्र थे, यथा-सूरजी, संखजी, सांवलजी, सामदेवजी, रामदेवजी, छारदजी आदि । सातों पुत्र अपने पिता की तरह ही शूरवीर थे। एक रात्रि को जगदेव प्रतिहारी का दायित्व निभा रहे थे। कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की अर्द्धरात्रि थी। घनघोर अंधेरा व्याप्त था। उस समय दूर जंगल में हृदय को प्रकम्पित कर देने वाली किलकारियों एवं अट्टहासों की कर्णभेदी ध्वनि से सिद्धराज जयसिंह की निद्रा उचट गई। उसने जगदेव से कहा, 'ये डरावनी ध्वनियाँ कहाँ से आ रही हैं ? मेरी स्वयं की निद्रा खुल गई है तो नगर की प्रजा का क्या हाल होगा ? तुम जाओ और कारण का पता लगाकर आओ।' जगदेव 'जो आज्ञा' कहकर उसी समय वहाँ से निकल पड़ा। जिधर से आवाजें आ रही थीं, उधर ही जंगल में जब वह पहुँचा तो देखता है कि देवी कालिका, बड़े-बड़े बेताल एवं चौंसठ जोगिनियाँ एकत्रित होकर गा रही हैं, नाच रही हैं तथा किलकारियां व अट्टहास कर रही हैं। जगदेव उनके समीप पहुँचा और बोला, 'तुम सब कौन हो? क्यों सबकी नींद हराम कर रखी है ?' जोगिनियाँ बोलीं, 'सिद्धराज जयसिंह ने अपने राज में पशुबलि बन्द कर दी है । भैसे और बकरे अब हमें नहीं चढ़ाये जा रहे हैं । हम भूखी हैं। हमारे कोप से सिद्धराज जयसिंह अब एक माह के भीतर ही भीतर मरने वाला है, इसलिए हम उसका उत्सव मना रही हैं।' यह सुनते ही जगदेव चौंका, किन्तु हिम्मत करके बोला, 'उसकी मृत्यु कैसे होगी?' जोगिनियों ने उत्तर दिया, 'कुछ समय बाद एक म्लेच्छ की सेना यहाँ आकर आक्रमण करेगी। उससे हजारों सैनिक मारे जावेंगे, हमारे खप्पर रक्त से भरेंगे, हम मुण्डमालाएँ धारण करेंगी। इस युद्ध में हम सब जोगिनियाँ तथा क्षेत्रपाल वीर मिलकर ऐसी स्थिति पैदा करेंगे कि दुश्मन के हाथों १ अन्हिलवाड़ा को अन्हिलपुर पाटन भी कहते हैं। सिद्धराज जयसिंह यहाँ का अत्यन्त प्रभावशाली शासक था, उसके नाम से इसे सिद्धपुर पाटन भी कहा जाता है । वर्तमान में यह पाटन के नाम से जाना जाता है। २ सातवें पुत्र का नाम उपलब्ध नहीं होता है। ३ ग्रन्थों में महमूद गजनवी के आक्रमण की बात लिखी है, किन्तु गुजरात पर उसका आक्रमण बहुत पहले ही भीमदेव प्रथम के काल में हो गया था। यह संभवतः किसी दूसरे आक्रमण का संकेत होगा। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड .. . . . . . .........................................0.0.0.0.0.0.0.0.0.0.. सिद्धराज जयसिंह मारा जावेगा और पशुबलि बन्द करने से हमारा जो अपमान हुआ, उसका इस तरह बदला लेंगे।' जगदेव ने फिर प्रश्न किया, 'ऐसा कोई रास्ता बताओ जिससे सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु नहीं हो।' जोगिनियों ने कहा कि 'बत्तीस लक्षणों से युक्त पुरुष का अगर तुम हमारे सामने बलिदान करो तो हम इस युद्ध में तटस्थ हो जायेंगी।' इस पर जगदेव स्वयं अपना सिर इन जोगिनियों को चढ़ाने के लिए उद्यत हुआ । उसने कहा, 'मैं तैयार हूँ किन्तु सिद्धराज जयसिंह को लम्बी उम्र दो, उस पर कृपा रखो।' जोगिनियों ने जगदेव की परीक्षा लेनी चाही, बोलीं, 'तुम वास्तव में बत्तीस लक्षणों से युक्त पुरुष हो और शूरवीर भी हो । तुम्हारे बलिदान से हम प्रसन्न हो जायेंगी।' यह सुनते ही जगदेव ने अपनी म्यान से चमचमाती तलवार निकाली और अपनी गर्दन काटने के लिये ज्योंही उसने तलवार चलाई, उसका हाथ जोगिनियों ने पकड़ लिया। उन्होंने जगदेव का जय-जयकार किया। वे बोलीं, 'तुम्हारे साहस को देखकर हम प्रसन्न हैं। तुम लम्बी उम्र प्राप्त करो किन्तु शत्रु की सेना का आक्रमण अवश्य होगा, जाओ और उसके बचाव की तैयारी करो। सिद्धराज जयसिंह का कुछ भी नहीं बिगड़ेगा।' यह आश्वासन प्राप्त कर जगदेव वहाँ से लौट आग। अशा महलों में लौटकर उसने सिद्धराज जयसिंह को उपर्युक्त सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया, किन्तु अपना मस्तक भेंट चढ़ाने की बात उसने नहीं बताई । युद्ध की तैयारी होने लगी। उन्हीं दिनों हेमसूरि महाराज सिद्धपुर पाटन में आये । इनकी कीर्ति सुनकर जगदेव तथा उनके सातों पुत्र भी हेमसूरि महाराज के दर्शनार्थ आने-जाने लगे। जोगिनियों की भविष्यवाणी के अनुसार म्लेच्छों की सेना सिद्धपुर पाटन पर चढ़ आई सिद्धराज की सेना पहले से ही तैयार थी । जगदेव के सबसे बड़े पुत्र सूरजी को मुख्य सेनापति बनाया गया । युद्ध के लिए प्रस्थान से पूर्व सूरजी, हेमसूरि महाराज के दर्शन के लिये गये, और युद्ध में विजयी होकर लौटने का आशीर्वाद माँगा। इस पर हेमसूरि बोले कि 'हम जैन साधु हैं, सावद्य कृत्य में हम स्वीकृति नहीं दे सकते, लेकिन यदि तुम जैनधर्म अंगीकार कर लेते हो तो मैं अपना प्रयास करूंगा।' सूरजी हेमसूरि से प्रभावित तो पहले ही थे इस पर सुरजी ने कहा कि 'यदि युद्ध में हमारी विजय होगी तो आपके आदेश की तत्काल पालना करूंगा।' हेमसूरि महाराज ने जैनधर्म स्वीकार करने का आश्वासन मिलने पर 'विजय पताका यन्त्र' बनाकर उसकी भुजा पर बाँध दिया । वहाँ से सूरजी युद्ध के मैदान में गये, घमासान लड़ाई के बाद म्लेच्छ सेना भाग खड़ी हुई । सूरजी के नेतृत्व में सेना विजयी होकर लौटी। सूरजी सिद्धराज जयसिंह की राजसभा में . आये। सिद्धराज जयसिंह ने सूरजी की योग्यता की भरपूर प्रशंसा की और कहा कि तुम वास्तव में 'सूररणा' हो । 'सूररणा' के इस सम्बोधन से सूरजी के वंशज आगे चलकर 'सूररणा' से 'सुराणा' कहलाए। हेमसूरि महाराज को युद्ध में प्रस्थान से पूर्व दिये गये वचन के अनुसार जगदेव के सातों पुत्रों ने मूर्तिपूजक जैनधर्म स्वीकार कर लिया । लोकाशाह ने मूर्तिपूजा के विरोध में जब क्रान्ति का बिगुल बजाया तो उसके बाद सुराणा गोत्र के उनके कुछ वंशज स्थानकवासी बन गये और जब आचार्य भिक्षु के नेतृत्व में तेरापंथ का अभ्युदय हुआ तो उसके बाद कुछ सुराणा परिवारों ने तेरापंथी धर्म स्वीकार कर लिया। सुराणा गोत्र की कुलदेवियाँ, क्रमशः सुसाणी, लोसल और मोरखाणा बताई जाती हैं। वंश-परम्परा सुराणा गोत्र के मूलपुरुष सूरजी द्वारा जैनधर्म स्वीकार कर लेने के बाद इस वंश की हर तरह से बढ़ोतरी हुई । धन-सम्पत्ति और राज-परिवार की दृष्टि से तो इसकी प्रतिष्ठा बढ़ी ही, पारिवारिक प्रसार भी खूब हुआ। धीरे-धीरे इस वंश के लोगों ने वाणिज्य-व्यवसाय अपना लिया और इस हेतु गुजरात से मुख्यतः राजस्थान एवं अन्य प्रान्तों में जाकर बसने लगे। राजस्थान में सुराणा गोत्र के परिवार बीकानेर, चूरू, जोधपुर, पाली, सोजत, नागोर, उदयपुर, जयपुर आदि स्थानों पर बसे हुए हैं। श्री केसरीमलजी सुराणा के वंशज राणावास में आकर कब बसे तथा सुराणा गोत्र के मूलपुरुष सूरजी के बाद इनके परिवार की वंश-परम्परा कैसे चली, इस बारे में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती, किन्तु एक मान्यता के अनुसार सुराणा परिवार राणावास गाँव में पाली जिले के आऊवा गाँव से आकर बसा तथा यहाँ पर व्यापार-वाणिज्य आरम्भ किया। इनके पूर्वजों की जानकारी श्री मोतीलालजी सुराणा से प्राप्त होती है, इस जानकारी का वंश-वृक्ष सामने पृष्ठ पर छपे अनुसार है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा: जीवन परिचय .. .......... .. .. .. .. .. ..... ....... .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .. .... .. .... .. .. .. ... शेषमलजी जड़ावबाई गणेशमलजी (बचपन में ही देहावसाने) हिम्मतमलजी सुन्दरबाई श-वक्ष गुलाबचन्दजी ततगजर मोहनलालजी सुमेरमलजी भंवरलालजी मोतीलालजी सुराणा चतुरभुजजी जवानलजी जुगराजजी अमोलकचन्दजी (ोद आये। अमोलकचन्दजी (जवाजमलजी । का गादगये। वरदूदाई MODER मेघराजनी श्रीमलजी शैथपणजी केसरीमलजी तेजराजजी । (निःसन्तान) केसरीमलजी को गोद लिया प्रतापमलजी हजारीमलजी बख्तावरमलजी Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ olgoigo कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड इस वंश-परम्परा के आधार पर श्री मोतीलालजी सुराणा के एक पुत्र श्री चतुरभुजजी हुए। चतुरभुजजी के कुल सात पुत्र हुए। उनमें श्री शेषमलजी सुराणा इनके पाँचवें पुत्र थे। जन्म एवं परिवार हमारे अभिनन्दनीय श्री केसरीमलजी सुराणा इन्हीं श्री शेषमलजी सुराणा के सबसे बड़े पुत्र हैं । आपकी मातुश्री का नाम श्रीमती छगनीदेवी था आपका जन्म वि० सं० १९६६ की फाल्गुन कृष्णा सप्तमी, गुरुवार तदनुसार ४ मार्च सन् १६१० को पाली जिले के गाँव राणावास में हुआ । जन्म के समय ज्येष्ठा नक्षत्र, मकर लग्न तथा बुध की गजदशा थी । आपके दो भाई और थे- श्री अमोलकचन्दजी एवं श्री भँवरलालजी । अमोलकचन्दजी अपने चाचा श्री जवानमलजी के गोद ले गये। इनका विवाह पनोता निवासी श्री भानीरामजी के यहाँ पर हुआ। इनके एक पुत्र श्री जवरीलाल एवं एक पुत्री सुशीला हुई थी भँवरलालजी सबसे छोटे भाई हैं इनका विवाह रामसिंहगुड़ा निवासी श्री सुमेरमलजी सेठिया की सबसे बड़ी पुत्री सुगनीदेवी के साथ सम्पन्न हुआ। श्री भँवरलालजी के तीन पुत्रियाँ हुईंदमयन्ती, विमला और पुष्पा । दमयन्ती देवी को ग्रन्थ के नायक श्री केसरीमलजी ने गोद ले लिया । बाल्यकाल एवं शिक्षा आपके बाल्यकाल का अधिकांश समय अपने ननिहाल गाँव राणावास में श्री नवलजी आच्छा के यहाँ पर व्यतीत हुआ । शेष समय अपने घर पर ही बीता । प्रारम्भिक शिक्षा राणावास में ही प्रसिद्ध शिक्षक स्व० श्री फाऊलालजी के सान्निध्य में सम्पन्न हुई। उसके बाद आपने हैदराबाद में मैट्रिक तक अध्ययन किया । - छात्र जीवन में आप बड़े नटखट थे एवं खेलने की ओर रुचि ज्यादा थी। एक बार की घटना है कि सुबह भोजन करने के बाद स्कूल जाने के लिए घर से निकले, रास्ते में कुछ लड़के गोलियाँ खेल रहे थे । आप भी उस खेल की ओर आकर्षित हो गये और उनके साथ ही गोलियाँ खेलने में इतने व्यस्त हो गये कि शाम को भोजन के समय वर पर पहुँचे । संयोग से उसी दिन रात्रि को बाजार में पिताजी का मिलना मास्टरजी से हो गया। पिताजी ने पूछा, 'बच्चा कैसा है, पढ़ता है या नहीं ?' मास्टरजी ने हकीकत बता दी कि वह आज दिन भर स्कूल में नहीं आया । पिताजी सुनकर गुस्सा हुए घर पर आते ही पूछा कि दिन भर कहाँ थे? बालक केसरीमलजी ने वस्तुस्थिति बता दी। पिताजी के क्रोध की सीमा नहीं रही। उन्होंने आव देखा न ताव, दोनों पैरों के मध्य एक लकड़ी का डण्डा फँसाकर पैरों को रस्सी से बाँध दिया और दो-चार लातें-घूसे मारकर वापस बाजार में चल दिये। उस समय माँ घर पर नहीं थी, जब वह आई तो स्थिति देखकर उन्होंने भी पूछताछ की। बालहृदय केसरमलजी ने फिर दिन भर की हकीकत माँ के सामने बयान कर दी। माँ ने भी सारी स्थिति सुनकर और मारा। रात्रि को लगभग ग्यारह बजे पिताजी घर पर आये तब उन्होंने पूछा कि 'बोल, अब और ऐसा करेगा ? स्कूल नहीं जायेगा ?' केसरीमलजी ने ऐसी गलती पुनः नहीं करने का आश्वासन दिया और स्कूल नहीं जाने की गलती के लिए क्षमा माँगी, तब कहीं जाकर इस सजा से मुक्ति मिली। बालक केसरीमल के कोमल मस्तिष्क पर इस घटना का बहुत प्रभाव पड़ा, उन्होंने प्रतिज्ञा कर ली कि नियमित स्कूल पढ़ने जाना, पढ़कर सीधे घर आना और घर पर भी पढ़ना या घर के काम में हाथ बँटाना । विवाह एवं सन्तान वि० सं० १९८० की आषाढ़ कृष्णा १३ को केवल १४ वर्ष की अल्प आयु में आपका विवाह निमली निवासी श्री समरथमलजी सिसोदिया की सुपुत्री सरलप्रकृति और उदारहृदया सुन्दरदेवी के साथ हुआ श्री समरथमलजी का व्यापार आन्ध्र प्रदेश के जयाराम गाँव में था। बारात बुलारम से जयाराम गाँव बैलगाड़ी में गयी। उस समय यातायात के साधन इतने विकसित नहीं थे । बारात में कुल १०० बाराती थे। शादी बड़ी धूमधाम से की गयी। शादी के कुछ महीनों बाद 'मुकलावा' नाम की रस्म का रिवाज था । छः माह बाद इस रस्म की पूर्ति करने के लिए आप ससुराल गये। उन दिनों जंवाई के आने पर गालियां गाने का रिवाज था । जयाराम गाँव में समाज के घर नहीं थे, अतः ससुराल वालों ने चार-पांच मील दूर-दूर से गालियाँ माने हेतु औरतें बुलवायें आप भोजन करने बैठे तो उसी समय औरतों ने भी सामूहिक स्वर में और गीतों की शैली में गालियाँ गानी शुरू कीं । गालियों की स्वर Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष श्रेष्ठ श्रीमान शेषमल जी सुराणा ( ग्रन्थ नायक के पिताश्री Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीवन परिचय ५ ..................................................................... .... लहरियां आपके कानों में पड़ी, आपका प्रगतिशील हृदय विरोध करने के लिए फुफकार उठा, 'मैं गालियाँ खाने नहीं, भोजन करने आया हूँ; दो-चार दिन रहने और पत्नी को लेने आया हूँ, आपको गालियाँ ही देना आता है तो दीजिये, मैं भोजन नहीं करूगा तथा अभी वापस लौट जाऊँगा।' आपके ऐसे कड़े रुख को देखकर उसी समय औरतों ने गालियाँ गाना बन्द कर दिया। आपके केवल एक ही लड़की हुई। बादामबाई उसका नाम रखा गया। वह बहुत चंचल एवं होनहार थी। बहुत पुण्यवान थी। जब उसका जन्म हुआ तो उसके सिर के पीछे के हिस्से में एक छोटी सी लकीर थी, ललाट सात अंगुल की थी, हाथों की अंगुलियाँ बड़ी-बड़ी थीं। वह केवल डेढ़ वर्ष जीवित रही, किन्तु उस अवधि में उसने बिस्तर में कभी टट्टी-पेशाब नहीं किया । उसके जन्म के बाद घर में धन की पर्याप्त वृद्धि हुई। किन्तु भाग्य में कुछ और ही लिखा था, वह अभी डेढ़ वर्ष की ही हुई कि अचानक मामूली बुखार आया और उसका देहान्त हो गया। इसका आपको गहरा आघात लगा किन्तु कर्मों की गति मानकर आपने सन्तोष कर लिया। उसके बाद आपको सन्तानसुख प्राप्त नहीं हुआ। अपने लधु भ्राता श्री भंवरलालजी सुराणा की पुत्री दमयन्ती को आपने गोद ले लिया। छोटे से बड़ी भी आपने ही की। विवाह वि० सं० २०१० में श्री विरदीचन्दजी गादिया के साथ अत्यन्त सादगी एवं प्रगतिशील तरीके से कराया। सगाई के समय ही २५ बातें ठहरा दी गयीं। उनमें से कुछ मुख्य बातें ये थीं-बारात में २५ से अधिक बाराती नहीं होंगे, बारात को एक समय भोजन कराकर सीख दे दी जायेगी, विवाह में कोई आडम्बर व दिखावा नहीं किया जावेगा, खाने-पीने में १०० रुपयों से ज्यादा खर्च नहीं किये जायेंगे, मेवा नहीं बाँटा जावेगा फदिया (एक रस्म) बेचते हुए नहीं आवेंगे, बैण्ड बाजे में ज्यादा धन खर्च नहीं किया जावेगा, गालियाँ नहीं गायी जावेंगी खुले मुह जैन विधि से विवाह होगा, आदि-आदि। उस काल में यह एक प्रकार से आदर्श विवाह था। शादी सुमति शिक्षा सदन के प्रधानाध्यापक डॉ० दयालसिंहजी गहलोत ने करायी। शादी में जोधन खर्च नहीं हुआ, वह संस्था में चन्दे के रूप में दे दिया गया । माता-पिता का स्वर्गवास वि० सं० १९७४ में जब आपकी उम्र केवल आठ वर्ष की थी और आपके लघु भ्राता श्री भंवरलालजी केवल १६ दिन के थे, तब ३२ वर्ष की अल्पवय में ही मातुश्री छगनीदेवी इस असार-संसार को छोड़कर चल बसीं। यह सम्पूर्ण परिवार पर एक तरह से वज्रपात था। मातुश्री के निधन के आठ वर्ष बाद अर्थात् जब आप सोलह वर्ष के हुए, आपके पिताश्री बुलारम में ही गम्भीर रूप से बीमार हो गये, उस समय आप मैट्रिक में पढ़ रहे थे, किन्तु पिताजी की रुग्णावस्था को देखकर पढ़ाई छोड़नी पड़ी। एक दिन आप पिताश्री की रुग्णशया के पास बैठे थे, तब पिताजी ने कहा, 'बेटे ! इस दुनिया में पैसे का बड़ा महत्त्व है। एक रुपया कमाओ तो उसमें से चार आने जमीन-जायदाद में लगाओ, चार आने का सोना-चाँदी खरीदो, चार आने व्यापार में लगाओ और चार आने को खर्च करो।' युवा केसरीमलजी के हृदय पर इस बात का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने इसको अपने जीवन में उतार लिया, जब तक व्यापार-वाणिज्य किया और उसके बाद भी आज तक पिताजी के इस उपदेश का आप अक्षरशः पालन कर रहे हैं। पिताजी की रुग्णावस्था बढ़ती गयी और कुछ दिनों के बाद ही उनका भी स्वर्गवास हो गया, कोन जानता था कि पिताजी की उपर्युक्त अन्तिम सीख उन पर पड़ने वाली पारिवारिक एवं व्यवसाय सम्बन्धी जिम्मेदारियों में यह अमृत की तरह काम करेगी। परिवार और व्यवसाय की जिम्मेदारी पिताश्री के देहावसान के समय अपने परिवार में आप ही सबसे बड़े थे। सोलह वर्ष की उम्र भी कोई बड़ी उम्र नहीं थी। मैट्रिक का अध्ययन छोड़कर पारिवारिक एवं व्यावसायिक जिम्मेदारियों को वहन करने के लिए आपने कमर कस ली। माता-पिता का साया उठ जाने के गम को भुलाने का यही एक मात्र तरीका था कि उनके अधूरे कामों को पूरा करके ही मातृ-पितृ ऋण से उऋण हुआ जाय । बुलारम में पिताश्री का व्यवसाय था। दुकान की पेढ़ी का नाम 'हजारीमल शेषमल' था। अनाज, ब्याज, एवं गिरवी का मुख्य धन्धा था। दूकान पर कुल पाँच हजार रुपये का माल पोते था और पैतीस हजार रुपये लोगों को देने निकल रहे थे। रहने के दो मकान और करीब सौ तोला सोना पास में था। आपको चिन्ता हई, कर्ज की इस Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड ..................................................................... स्थिति में कैसे काम चलेगा? दूकान की देनदारियों में अधिकतर राशि पिताजी के मित्रों की थी । एक दिन उन्होंने आपस में बैठकर तय किया कि मित्र तो गुजर गया, केसरीमल अभी बालक है, अत: उसे ढांढस बंधाकर परिवार व व्यापार को बिखरने से बचाना है, ऐसा सोचकर आगामी पाँच वर्ष तक अपनी रकम माँगने नहीं जाने का उन्होंने निश्चय कर लिया। __मित्रों के इस निर्णय का अच्छा परिणाम निकला और भाग्य ने भी साथ दिया। पिताश्री के दिवंगत होने के बाद सिर्फ दो वर्ष के भीतर-भीतर सारा कर्जा उतर गया। युवा केसरीमल की लगन, परिश्रम एवं निष्ठा ने व्यवसाय को जमा दिया। अब पेढ़ी का नाम बदलकर 'हजारीमल शेषमल' की जगह 'शेषमल केसरीमल सुराणा' कर दिया। इधर केसरीमलजी ने पारिवारिक जिम्मेदारियों को उसी लगन और दूरदर्शिता से निभाया । धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरदेवी ने भी प्राणप्रण से उनके हर काम में मदद की। भाई भंवरलाल बहुत छोटे थे, वे उन्हें हरदम अपने पास रखते कहीं पर अकेला नहीं छोड़ते, ससुराल भी जाते तो उन्हें साथ ले जाते । अपनी एकमात्र पुत्री के अल्पवय में ही आकस्मिक निधन के पश्चात् तो लघुभ्राता पर आपका विशेष स्नेह उमड़ पड़ा। पढ़ाने-लिखाने की खूब चेष्टा की, किन्तु अधिक प्यार के कारण भाई भंवरलालजी पाँचवीं से ज्यादा नहीं पढ़ सके । जब छोटे भाई की उम्र पन्द्रह-सोलह वर्ष की हुई तो बड़ी धूम-धाम के साथ शादी करा दी । जब से आपके कन्धों पर घर और व्यापार की जिम्मेदारी आ पड़ी, तब से आपने दुकान को एक मिनट भी खाली नहीं छोड़ा, जमकर बैठते तथा धन्धा करते किन्तु जब छोटे भाई की शादी करानी थी तो डेढ़ मास तक दुकान बन्द करके राणावास आ गये और पूर्ण उत्साह के साथ शादी कराई । भाई के प्रति ऐसे ममत्व का उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। 'वंश-परम्परा' तालिका के अन्तर्गत हम यह देख चुके हैं कि आपके पिताश्री के बड़े भाई श्री तेजराजजी सुराणा ने आपको गोद लिया था। उनकी तीन दुकानें चलती थीं। श्री तेजराजजी का दत्तक पुत्र होने के नाते आपको तीनों दुकानों से अपने हिस्से की लाभ-हानि मिलनी चाहिए थी। यह तय भी किया गया था कि जब आपकी उम्र अठारह वर्ष की हो जाय तब तक आपको दो आनी हिस्सा दिया जाय एवं उसके बाद इन दुकानों से अपना हिस्सा निकालकर अलग से व्यापार आरम्भ करें, किन्तु पिताश्री के निधन के बाद इस निर्णय की उपेक्षा कर दी गई, अपने हिस्से की बहुत कम धनराशि इन्हें दी गई। उस समय आपने उन्हें कहा कि या तो मुझे पूरा हिस्सा दिया जाय अथवा मैं आपसे माँगूगा नहीं, मेरे भुजबल में इतनी शक्ति है कि मैं उससे पैदा कर लूगा।' हुआ भी यही, आपको अपने भुजबल पर ही भरोसा करना पड़ा और दत्तक पुत्र के रूप में नियमानुसार तीनों पेढ़ियों से जो मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। सारा मामला आपसी था, इसलिये आपने दूरदर्शिता से काम लिया और मामला आगे नहीं बढ़ाया । मृत्युभोज की राशि स्कूल भवन को उन दिनों मृत्युभोज की प्रथा सर्वत्र प्रचलित थी। आपके माता-पिता गुजरने का मृत्युभोज भी आपने नहीं किया था। बड़े पिताजी व बड़ी माताजी गुजर गई थीं, उनका मृत्युभोज भी करना बाकी था। सगे-सम्बन्धियों ने मृत्युभोज करने के लिए आप पर दबाव डाला, किन्तु आप इस प्रथा के कट्टर विरोधी थे। पक्के सिद्धान्तवादी और प्रगतिशील विचारधारा के हिमायती थे । आपने समस्त दबावों को दृढ़ता के साथ टाल दिया और कहा, 'मैं यह काम हरगिज नहीं करूंगा और इसमें जितनी राशि खर्च होगी, उतनी स्कूल के भवन के लिये दान दे दूंगा।' उन दिनों मौसर में तीन हजार रुपये खर्च होते थे । आपने उन तीन हजार रुपयों से वि० सं० १९६५-६६ में एक भवन खरीदकर स्कूल के लिये भेंट दे दिया। केसरीमलजी जब तक बुलारम में रहे, इस भवन में चलने वाला स्कूल अच्छी तरह चलता रहा, उसके बाद बन्द हो गया । चूंकि मकान आपके नाम से ही खरीदकर स्कूल को दिया गया था, अतः आपने उसे वि० सं० २००३ में वहाँ के समाज को भेंट में दे दिया। अब यह तेरापंथी सभा भवन के रूप में विद्यमान है । साधु-साध्वियों के चातुर्मास भी अब इसी में होते हैं। प्रथम प्रतिज्ञा वि०सं० १९८६ में मुनिश्री घासीरामजी का चातुर्मास बुलारम में था। उस समय आपके विचारों में एक हलचल Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीनव परिचय .................................................................... ७ ..... सी मच रही थी। अब तक का जीवन संघर्षों में ही गुजरा था, कर्म के बन्धनों की लीला भी बड़ी विचित्र है । इस भव में जो कर्मबन्ध हो रहे हैं उनका छुटकारा कब होगा? सम्पत्ति के परिग्रह में भगवान महावीर ने धर्म नहीं कहा है। आपके उद्वेलित मन ने संयम और अपरिग्रह के महत्त्व को समझा। मुनिश्री घासीरामजी के पास जाकर एक दिन आपने कहा, 'पूज्य माईतां ! मुझे परिग्रह की प्रतिज्ञा करा दीजिये' और सचमुच आपने यह प्रतिज्ञा ले ली कि 'जिस दिन पास में एक लाख रुपया नकद हो जायेगा, एक लाख रुपये का सोना-चाँदी हो जायेगा, एक लाख के मकानात हो जायेंगे और एक लाख रुपये हाथ से खर्च हो जायेंगे, उसके बाद व्यापार नहीं करूंगा।' धर्म और आत्म-कल्याण की ओर आपके रुझान की इस प्रथम बड़ी प्रतिज्ञा से आगे चलकर आपका जीवन क्रम ही बदल गया। आपकी यह प्रतिज्ञा वि० सं० २००० में पूरी हो गई आपके छोटे भाई भँवरलालजी सुराणा अब तक दुकान के काम में आपकी छोटी-मोटी मदद करते थे । एक दिन आपने उन्हें अपने पास बुलाकर कहा, 'अब मेरी प्रतिज्ञा पूरी होगई है, अब मैं व्यापार नहीं कर सकता, यह सम्पूर्ण धन्धा अब तुम सम्हालो।' राम के आदेश के सामने भरत को नतमस्तक होना पड़ा । भंवरलालजी ने धन्धा सम्हाला और आपने प्रतिज्ञा के सन्दर्भ में पच्चीस हजार रुपये नकद, पाँच सौ तोला सोना, पाँच हजार तोला चाँदी और राणावास में दो मकान रखकर बाकी समस्त सम्पत्ति अपने छोटे भाई के नाम कर दी। श्री जीवनमलजी स्वामी का चातुर्मास वि० सं० २००१ में युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने महती कृपा करके मुनिश्री जीवनमलजी स्वामी ठा. ३ का चातुर्मास राणावास गाँव में फरमाया। श्री जीवनमलजी स्वामी की धर्म-प्रभावना अच्छी थी। व्याख्यान में बहुत भीड़ रहती थी, लोगों में भी अपूर्व उत्साह था। तेरापंथ सम्प्रदाय के सन्तों का गाँव में यह द्वितीय चातुर्मास था, इस कारण राणावास के आस-पड़ोस के गांवों के तेरापंथी भाई-बहन भी प्रायः दर्शनार्थ आते रहते थे। गाँव में अच्छी-खासी चहल-पहल रहती थी। गाँव में जैन समाज का एक स्कूल पहले से ही चलता था। चातुर्मास काल में इस स्कूल की व्यवस्था, छात्रों के प्रवेश और श्री गजसिंहजी अध्यापक को लेकर यहाँ के तीनों सम्प्रदायों में विवाद पैदा हो गया। स्थानकवासी व मूर्तिपूजक समाज एक तरफ थे और तेरापंथ समाज एक ओर था। बहुत प्रयास करने के बाद भी विवाद सुलझ नहीं रहा था। स्थिति यहाँ तक आ गई कि अध्यापक श्री गजसिंहजी को इस स्कूल की सेवाओं से ही मुक्त कर दिया गया। ऐसी स्थिति में ग्रन्थनायक श्री केसरीमलजी के चचेरे भाई श्री मिश्रीमलजी सुराणा ने गाँव में ही एक दूसरा स्कूल खोल दिया। श्री गजसिंह की नियुक्ति इस स्कूल में अध्यापक के रूप में कर दी गई । पूर्व स्कूल में जितने भी तेरापंथी छात्र थे, वे सब इस स्कूल में आकर भर्ती हो गये । स्कूल विधिवत् चलने लगा। विद्यालय की स्थापना इसी चातुर्मास काल में सिरियारीनिवासी श्री बस्तीमलजी छाजेड़ मुनिश्री जीवनमलजी के दर्शनार्थ राणावास गाँव में आये। उन्होंने गाँव के गणमान्य लोगों की एक बैठक में तेरापंथ समाज की ओर से एक अच्छे स्कूल की स्थापना पर जोर दिया, इस बैठक में श्री केसरीमलजी सुराणा भी मौजूद थे। सर्वसम्मति से ऐसे स्कूल की स्थापना करने का निर्णय हुआ। बैठक में ही इस कार्य हेतु चन्दा भी एकत्रित किया गया। श्री बस्तीमलजी छाजेड़ ने अपना जीवन इस स्कूल को समर्पित करने का निश्चय किया। वि० सं० २००१ की आश्विन शुक्ला १० को मिसरू खाँ पठान का मकान किराये पर लेकर पांच छात्रों से विद्यालय व छात्रावास के रूप में एक शिक्षा केन्द्र आरम्भ किया गया। बीज से बरगद बनाम विद्याभूमि उपर्युक्त निर्णय के बाद श्री केसरीमलजी अपने परिवार सहित वापस बुलारम चले गये। इधर श्री बस्तीमल जी छाजेड़ भी अचानक बंगलौर चले गये और छः माह तक लौटकर नहीं आये । वि० सं० २००१ का मर्यादा महोत्सव सुजानगढ़ में था। इस अवसर पर ग्रन्थनायक श्री केसरीमलजी अपने चचेरे भाई श्री मिश्रीमलजी के साथ सुजानगढ़ आचार्य प्रवर के दर्शनार्थ आये । यहाँ आने पर दोनों का विचार हुआ कि मारवाड़ में आ गये हैं तो राणावास चलकर Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड विद्यालय की गति-प्रगति देखना चाहिए। दोनों इस उद्देश्य से राणावास आये किन्तु उन्हें निराशा हाथ लगी । विद्यालय की स्थिति ठीक नहीं थी। आपने सोचा कि तेरापंथ समाज का शिक्षा-प्रसार के क्षेत्र में यह पहला प्रयोग है, अगर इसमें असफल हो गये तो मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। उसी समय श्री केसरीमलजी ने निश्चित कर लिया कि विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्था अब मुझे अपने हाथ में ले लेनी चाहिए। व्यापार करना तो आपने पहले ही छोड़ दिया था, इसलिए वि० सं० २००१ की माघ पूर्णिमा से जीवन का शेष समय इसी काम में लगाने का दृढ़ निश्चय कर लिया और इस समय से ही आपके जीवन के दो लक्ष्य हो गये--आत्म-कल्याण और संस्था का विकास। कहा जाता है कि पारस जब लोहे को स्पर्श करता है तो लोहा भी स्वर्ण में बदल जाता है। पाँच छात्रों से आरम्भ हुई तेरापंथ समाज की यह प्रथम शिक्षण संस्था प्राथमिक शाला से उच्च प्राथमिक, सैकण्डरी, हायर सैकण्डरी और कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय के रूप में पारसरूपी सुराणाजी के स्पर्श से जैन जगत् की स्वर्णिम धरोहर बन गयी है। कभी जो संस्था किराये के भवन में चलती थी, वह अब अपनी ही विशाल धरती पर भव्य अट्टालिकाओं में सुसंचालित है। स्कूल व कालेज के अलग-अलग भवन, छात्रावास, सभाभवन, भोजनशालाएँ, अतिथि भवन, औषधालय, स्टाफ क्वार्टर्स, कार्यालय, भण्डारगृह, उद्यान, खेल के मैदान, कूएँ, पानी के होज, बिजली, गाड़ी आदि से सम्पन्न यह संस्था 'श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ, राणावास' के नाम से भारत भर में प्रख्यात है । संस्था का बीज से बरगद के रूप में यह प्रसार ग्रन्थनायक के कर्मठ जीवन का परिपुष्ट प्रमाण है। __ संस्था के सौम्य और अनुशासित वातावरण को देखकर सहसा रवीन्द्रनाथ टैगोर के शान्ति निकेतन का स्मरण हो आता है वस्तुतः सुराणाजी का यह प्रयास शान्ति निकेतन से कम भी नहीं है । नारी शिक्षा के प्रसार-प्रचार में भी आप अग्रणी रहे । आपकी सुलझी दृष्टि ने आपकी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरदेवी को अखिल भारतीय महिला शिक्षण संघ की स्थापना के लिए प्रेरित किया। राणावास की यह संस्था भी अब मील का पत्थर बन चुकी है। राणावास जैसे छोटे से गाँव में विद्या की यह वल्लरी शिक्षा केन्द्र के रूप में इस तरह विकसित होकर फली-फूली कि मरुभूमि राणावास विद्याभूमि राणावास की अभिधा से अलंकृत हो गया। इसका एकमात्र श्रेय श्री सुराणाजी को ही है। इस सन्दर्भ में इसी ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में संस्था का विस्तृत इतिवृत्त द्रष्टव्य है। जगत-काकासा ___संस्था के विकास-कार्यों में आपकी सूक्ष्म पकड़ जन-जन को आपकी ओर आकर्षित करने के लिए पर्याप्त थी। आप संस्था के कार्य से जहाँ भी गये, वहाँ आप परिवार के वरिष्ठ सदस्य के रूप में घुल-मिल गये । संस्था के छात्र समुदाय के मध्य तो आप एक पिता और संरक्षक के रूप में समादृत एवं प्रिय बन गये। आपकी इसी लोकप्रियता ने आपको काकासा (Uncle) सम्बोधन प्रदान कर दिया । आप जन-जन और जगत् के काकासा हो गये। काकासा शब्द केसरीमलजी सुराणा का पर्यायवाची शब्द बन गया । राणावास गाँव ही नहीं और समस्त तेरापंथ ही नहीं अपितु इतर सम्प्रदायों व समाजों में भी आप काकासा के रूप में जाने-पहचाने जाते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो आपको नाम से नहीं अपितु काकासा सम्बोधन से जानते हैं । यह शब्द उच्चारित करते ही हमारे नयनों में श्री केसरीमलजी सुराणा की एक निश्चित वेशभूषायुक्त आकृति उभर कर आ जाती है । अर्थ-संग्रह : मरुभूमि के मालवीय विद्याभूमि राणावास में आज जो शैक्षणिक संसाधन और भव्य अट्टालिकायें आलोकित होती हैं, उसमें काकासा केसरीमलजी सुराणा के अनमोल स्वेद-कणों का बिम्ब प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। ये उत्तग भवन अचानक या एक दो साल में ही नहीं झुक गये। वि० सं० २००१ से आज तक आपने मदनमोहन मालवीय की तरह घर-घर जाकर पैसों की भीख मांगी है । एक-एक पैसे को एक-एक स्वर्ण मोहर मानकर प्राप्त किया है और खर्च किया है । आज इतनी विशाल इमारतें बन जाने के साथ-साथ संस्था का लगभग २२ लाख रुपयों का जो स्थायी कोष है, उसे संस्थापित करने में आपने लगभग एक लाख मील की यात्रा की है। महीनों राणावास से दूर रहकर कश्मीर से कन्याकुमारी और राजस्थान से आसाम तक को आपने स्पर्श किया है। इस हेतु आपको पद यात्रा भी करनी पड़ी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीवन परिचय ............................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-... तो आप घबराये नहीं, बीहड़ जंगलों में हिंसक जानवरों से सामना करना पड़ा तो आप डरे नहीं, कभी गाड़ी बीच रास्ते में ही खराब हो गयी तो हिम्मत नहीं हारे और समय पर भोजन नहीं मिला तो भूख से तिलमिलाये नहीं, अपने लक्ष्य की ओर सतत सक्रिय रहना आपका एकमात्र ध्येय था। महाभारत काल में द्रोणाचार्य धनुर्विद्या में जब अर्जुन की परीक्षा ले रहे थे तब उन्होंने अर्जुन से पूछा कि तुम्हें क्या-क्या दिखाई दे रहा है तो अर्जुन ने बताया कि मुझे केवल चिड़िया की आँख नजर आ रही है, ठीक यही स्थिति अर्थ-संग्रह के समय सुराणाजी की रहती है। उन्हें केवल अपने लक्ष्य का ही ध्यान रहता है । शारीरिक कष्ट, सगे-सम्बन्धी सब गौण हो जाते हैं। वि०सं० २००८ में जब आप चन्दा करने बम्बई गये हुए थे, वहीं आपको समाचार मिला कि आपके भाई श्री अमोलकचन्दजी सुराणा, जो आपके चाचा श्री जवानमलजी सुराणा के गोद चले गये थे, उनका देहान्त हो गया है तो आपने उसी समय एक साथ चोला (चार उपवास) पचक्ख लिए और वहीं से सीधे मद्रास के लिए रवाना हो गये । अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण का ऐसा उदाहरण और कहाँ मिलेगा? वास्तव में चन्दा प्राप्त करना भी एक कला है । इस कला में आपका सानी कोई दूसरा नहीं है, जहाँ से जो भी मिला आपने उसे चन्दे के रूप में ग्रहण कर लिया किसी ने गालियाँ दी तो उसे भी आपने बड़े स्नेह से संवारा, किसी ने आपका तिरस्कार किया या अपमान किया अथवा गाल पर तमाचा रख दिया तो भी आपके चेहरे पर शिकन नहीं आई और अपने स्नेहपूर्ण व्यवहार से उसका हृदय जीतकर उससे चन्दा प्राप्त कर ही लिया । ऐसे भी अवसर आये जब आपको चन्दा स्वेच्छा से, सहर्ष और जबरदस्ती दिया गया। चन्दा वसूल करने की इस कला ने आपको मरुभूमि के मालवीय के रूप में ख्यात कर दिया । खानदेश की घटना है, एक व्यक्ति के यहाँ पर जब आप चन्दा लेने पहुचे तो उसने ५०१)रु० तत्काल सहर्ष प्रदान कर दिये । ये पैसे देकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और सोचने लगा कि आज मैंने एक अच्छे काम के लिए चन्दा दिया है, यह मेरा अहोभाग्य है, मैं धन्य हो गया। सुराणाजी को जब चन्दादाता के इन भावों का पता चला तो आपने कहा कि 'भाई ! पैसे देने से न तो पुण्य होता है और न पाप होता है, यह तो सांसारिक कर्तव्य है।' चन्दा देने वाले ने काकासा के जब ये विचार सुने तो उसने कहा, 'मुझे मेरे पैसे वापस लौटा दीजियेगा, जहाँ पैसा देने से धर्म नहीं होता वहाँ मुझे पैसे नहीं देने।' यह सुनकर ग्रन्थनायक काकासा ने ५०१)रु० तुरन्त उसे लौटा दिये । जब आप रवाना होने लगे तो कुछ क्षण के लिए रुककर चन्दादाता बोला-'मैंने आपका बहुत समय लिया, क्षमा प्रार्थी हूँ, और यह कहते-कहते उसने ५०१)रु० के बजाय ७५१)रु० काकासा के सामने बढ़ा दिये भौर बोला, 'लीजिये तथा रसीद काटकर दीजिये।' इसी प्रकार एक बार आप मेवाड़ क्षेत्र में चन्दा लेने पहुंचे । विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते हुए आप गोगुन्दा भी गये । वहाँ से भी आपको एक अच्छी रकम चन्दे में मिली और जब आप चन्दे का काम पूरा करके आगे के पड़ाव के लिए रवाना होगये तो एक युवक आपके पीछे दौड़ता हुआ आया एवं रास्ता रोककर बोला, 'आप मेरी जन्मभूमि में पधारे और मुझे पता भी नहीं,' यह कहकर उसने ५१)रु० चन्दे के रूप में काकासा की ओर बढ़ा दिये। यह उसकी बचत के पैसे थे। उस युवक के बारे में जानकारी प्राप्त करने पर उसने बताया कि 'मैं राणावास में पढ़ चुका हूँ, मेरा जीवन जिस संस्था ने बनाया, उसका कर्ज उतारने के लिये अभी मेरे पास इतने ही रुपये हैं।' आखिर यह क्या जादू है, लोग चन्दा माँगने जाते हैं तो उन्हें मिलता नहीं और आपको लोग चन्दा चलाकर देते हैं । इसका रहस्य उनका निःस्वार्थ एवं कर्मठ व्यक्तित्व है । चन्दा प्राप्त करने की आपकी इस अपूर्व क्षमता और कला के सामने आज सब नतमस्तक हैं। वि०सं० २००१ में जब से आपने संस्था का काम अपने हाथ में लिया तब से ही संस्था के विकास हेतु अर्थसंग्रह के लिये वर्ष में छः माह तक आप राणावास से बाहर रहते थे। यह क्रम वि०सं० २०१४ तक निरन्तर और नियमित चलता रहा। अब तक विद्यालय, छात्रावास एवं इन दोनों के संचालन हेतु इतना धन संचय हो गया कि समस्त व्यय की पूर्ति सहज ही हो जाती थी। ऐसी स्थिति में आपने वि०सं० २०१४ से वि०सं० २०२६ तक विश्राम किया और केवल संस्था के प्रशासनिक कार्यों को ही देखते रहे। वि०सं० २०२७ में कालेज खोलने का निर्णय हुआ। कालेज, छात्रावास आदि नये भवनों के निर्माण तथा विभिन्न खर्चों की पूर्ति हेतु विपुल धन राशि की आवश्यकता अनुभव Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड r e s s ..... ... ........... ............. हुई । अब तक का जो स्थायी कोष विद्यमान था, आपने उसे इस कार्य में व्यय करना उचित नहीं समझा, ऐसी स्थिति में आप पुन: अर्थ-संग्रह के कार्य में संलग्न हो गये। एक वर्ष में एक माह तक राणावास से बाहर रहकर अर्थ-संग्रह करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। वि०सं० २०३१ में कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय तथा छात्रावास विधिवत् नये भवनों में आरम्भ हो गये किन्तु अर्थसंग्रह का काम अविरल गतिमान रहा। वि०सं० २०३६ में युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी का चातुर्मास लुधियाना (पंजाब) में हुआ। इस अवसर पर आपने संस्था के छात्रों के साथ लुधियाना आचार्य प्रवर के दर्शन किये और कश्मीर भ्रमण के पश्चात् राणावास लौटने पर आपने अर्थ-संग्रह हेतु राणावास से बाहर यात्रा नहीं करने का संकल्प ग्रहण कर लिया । इस प्रकार वि०सं० २००१ से वि०सं० २०३६ तक आपने कुल ८४ लाख रुपये चन्दे के रूप में एकत्र किये । इतने विशाल भवनों के निर्माण के बाद भी २२ लाख रुपये स्थायी कोष के रूप में आज संस्था के पास सुरक्षित हैं । यद्यपि कालेज के संचालन हेतु अभी तक राजकीय अनुदान नहीं मिल रहा है फिर भी उसके आवर्तक एवं अनावर्तक व्यय में कहीं कोई रुकावट अनुभव नहीं हो रही है । इसके मूल में स्थायी कोषनिर्माण की आपकी सूक्ष्म दृष्टि है । इस दूर दृष्टि ने संस्था को आत्मनिर्भर ही नहीं बनाया अपितु संस्था के भावी विकास की सुदृढ़ आधारशिला का संतुलित शिलान्यास भी आपके करकमलों द्वारा सम्पन्न हो गया। मर्यादा महोत्सव तेरापंथ धर्मसंघ में प्रति वर्ष माघ शुक्ला सप्तमी को आयोजित होने वाला मर्यादा महोत्सव अनुशासन के आधारस्तम्भ के रूप में सुख्यात है। इस अवसर पर संघ के समस्त साधु-साध्वी एकत्रित होते हैं और यहीं से आगामी चातुर्मास के लिए प्रस्थान भी करते हैं । श्रावक-श्राविकाओं का विशाल जन समूह भी इस अवसर पर उमड़ पड़ता है। आयोजन की व्यवस्था चातुर्मास की व्यवस्था से कम नहीं होती । राणावास इस दृष्टि से बहुत छोटा गाँव है किन्तु आपके अप्रतिम साहस ने इस विद्याभूमि को यह सुअवसर भी प्रदान किया। वि०सं० २०१० का मर्यादा महोत्सव यहीं पर आयोजित हुआ । इस अवसर पर संघ के लगभग चार सौ तीन साधु-साध्वी एकत्र हुए। आगन्तुकों की आवासव्यवस्था के लिए तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य श्री भिक्षु की पावन-स्मृति में भिक्षुनगर के नाम से एक उपनगर बसाया गया जिसमें कुल ७५० कोटड़िया निवास हेतु निर्मित की गई । विद्युत व्यवस्था एवं नलों द्वारा जल प्रदाय का उत्तम आयोजन किया गया । आपके अथक श्रम से राणावास का यह प्रथम मर्यादा महोत्सव अत्यन्त सफल एवं सराहनीय रहा। दिन-चर्या आपकी दिनचर्या अत्यन्त व्यस्त एवं नियमित है। दिन-रात चौबीस घण्टों में से एक क्षण भी आप व्यर्थ नष्ट नहीं करते। शरीर पर आलस्य का सर्वथा अभाव अहर्निश दृष्टिगोचर होता है। वार्धक्य आपकी दिनचर्या में बाधा नहीं डालता। कभी कोई मीटिंग, समारोह आदि कार्यक्रम हुए और उनमें आपकी उपस्थिति अनिवार्य हुई तो ऐसी स्थिति में आप दिनचर्या को तदनुसार योजित कर लेते हैं, किन्तु इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि दैनिक साधना में कहीं कोई व्यवधान नहीं आये। रात्रि-शयन से लेकर दूसरे दिन की सम्पूर्ण दिनचर्या का क्रम इस प्रकार रहता है (१) रात्रि आठ बजे से साढ़े दस बजे तक शयन । (२) रात्रि १०-३० बजे से प्रातः लगभग ७-३० बजे तक कुल ग्यारह सामायिक । (३) प्रातः साढ़े सात बजे से आठ बजे तक नित्य-कर्म शोचादि एवं तत्पश्चात् प्रातःकालीन नास्ते में केवल दूध ग्रहण करते हैं। (४) प्रातः आठ बजे से ग्यारह बजे तक संस्था कार्यालय में संस्था सम्बन्धी दैनिक कार्य । (५) ग्यारह बजे से साढ़े ग्यारह बजे तक भोजन एवं विश्राम । (६) प्रात: साढ़े ग्यारह बजे से सायं पांच बजे तक सात सामायिक । (७) पाँच बजे सन्ध्याकालीन भोजन । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीवन परिचय ११ (८) भोजनोपरान्त सायं साढ़े छः बजे तक कन्या विद्यालय का कार्य । (९) सायं साढ़े छः बजे से रात्रि आठ बजे तक दो सामायिक और उसके बाद शयन । साधनामय जीवन Vउपर्युक्त दिनचर्या से परिलक्षित होता है कि आपका सम्पूर्ण जीवन साधना का अपूर्व तीर्थ है। आप गृहस्थों में ऐसे गृहस्थ हैं जो नितान्त निस्पृह एवं अन्तर्मुख हैं। श्रावकत्व में साधुत्व की यह गंगा आप में प्रतिपल प्रवाहित होती रहती है। हर क्षण कर्मों के बन्धन को क्षय करने की क्षुधा आपकी वाणी एवं व्यवहार से प्रकट होती है । आगमों में सामायिक को साधुत्व का अल्प स्वरूप कहा गया है। आप एक दिन-रात में ऐसी उन्नीस सामायिक करते हैं । सामायिक में बारह हजार गाथाओं का नित्य चिन्तन करते हैं तथा माला फेरते हैं । सत्रह घण्टों की मौन साधना, प्रातः व सायं नियमित प्रतिक्रमण, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन, रात्रि में आहार एवं पानी का त्याग, आपके संयममय जीवन को रूपायित करते हैं। आहार में भी कुल सात द्रव्य यथा-पानी, रोटी, साग, दूध, पापड़, चावल आदि ही ग्रहण करते हैं। पानी उबला हुआ, दिन में भोजन के समय के अतिरिक्त दो बार से अधिक नहीं पीते हैं । यात्रा अथवा प्रवासकाल में भी यही क्रम चलता है किन्तु सामायिक की संख्या परिस्थितिवश उतनी नहीं रहती है फिर भी कम से कम दो सामायिक करना अनिवार्य कर रखा है। आप स्वाध्यायप्रिय हैं । सैकड़ों गीतिकायें, भजन, दार्शनिक बोल, थोकड़े आदि कंठस्थ हैं। आप नित्य नंगे पाँव ही चलते-फिरते हैं। तीन गर्मी या सर्दी भी आपको अपने पथ से विचलित नहीं कर सकती है। वेशभूषा अत्यन्त सरल व सामान्य धारण करते हैं । सिले-सिलाये कपड़े संवत् २०१२ से नहीं पहनते हैं । सफेद चोल-पट्टा, पछेवड़ी एवं हाथ में मुंहपट्टी (रूमाल) से युक्त साधु सदृश वेश-भूषा में आप सन्त-महात्मा दृष्टिगोचर होते हैं। वर्ष भर में पच्चीस मीटर से अधिक कपड़े का प्रयोग पहनने, ओढ़ने, बिछाने में नहीं करते । शरीर, परिवार, धन-सम्पत्ति, मकान, समाज आदि का कोई ममत्व नहीं, मान-अपमान से अनासक्त, पूर्ण अपरिग्रही, अणुव्रती व आत्मदमन में आपका विलक्षण जीवन जैन जगत की अमूल्य निधि है । वस्त्र-सीमा, खाद्यसीमा, समय-सीमा और अर्थ-सीमा आपके साधनामय जीवन के जीवन्त और जागृत लक्षण हैं। आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में आप सन्त हैं, ऋषि हैं और गृहस्थ-साधु हैं । त्याग व तपस्या साधनामय जीवन में त्याग व तपस्या का आपका आधारभूत अवलम्बन सबको आश्चर्यान्वित करने वाला है । क्या कोई मानव अपनी आवश्यकताओं, इच्छाओं और भावनाओं के उद्रेक को इस प्रकार दमित व शमित कर सकता है, जैसा ग्रन्थनायक श्री सुराणाजी ने किया है । जिसने भी आपकी साधना व संयममय जीवन के बारे में सुना, उसने उसे अविश्वसनीय बताया; परन्तु प्रत्यक्ष अवलोकन करके वे अवाक् रह गये । यहाँ आप द्वारा भिन्न-भिन्न अवसरों पर एवं क्रमशः किये गये त्याग, पच्चक्खाण एवं तपस्या के कतिपय उपलब्ध आँकड़े प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिससे आत्मोत्थान के प्रति आपकी ललक का लालित्य अनुभव किया जा सके । (१) वि० सं० १९८८ ज्येष्ठ में तेरापंथ के अष्टम आचार्य श्री कालूगणी से केवल सात हरी सब्जी व फल यथा-तरोई, भिण्डी, आलू, मोसम्मी, सेव, अंगूर, और पान को छोड़कर शेष समस्त हरी सब्जियां व फल खाने के त्याग ग्रहण कर लिये । नाटक व सिनेमा देखने और जुआ खेलने के भी त्याग ले लिये । (२) वि० सं० १९८६ कार्तिक शुक्ला १३ को बुलारम में आचार्य श्री कालूगणी के शिष्य घासीरामजी महाराज से इस बात के त्याग ले लिये कि जब पास में एक लाख रुपये नकद, एक लाख का सोना-चाँदी, एक लाख का मकान और एक लाख रुपये हाथ से खर्च हो जायेंगे, उसके बाद व्यापार बन्द कर दूंगा। (३) वि० सं० २००१ भाद्रपद शुक्ला १२ को राणावास में श्री जीवनमलजी स्वामी से निम्न बातों के त्याग ले लिये -हिलते-चलते प्राणियों को मारने की इच्छा से नहीं मारना । -स्वयं के लिए पांच बीघा से अधिक जमीन में खेती नहीं करना । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड -किसी प्रकार की झूठी गवाही नहीं देना। -चोरी नहीं करना। - वर्ष में ग्यारह माह तक ब्रह्मचारी रहना । -पच्चीस हजार रुपये नकद, चार सौ तोला सोना, चार मकान और दो हजार तोला चाँदी से ज्यादा परिग्रह नहीं करना । -चारों दिशाओं में एक साथ १५०० मील से ज्यादा यात्रा नहीं करना । -पन्द्रह कर्मादान व्यापार के त्याग । -प्रतिदिन सात सामायिक करना । -पाँच वर्ष तक प्रतिवर्ष वर्ष में दो माह की तपस्या करना। -एक वर्ष में छः पौषध करना। -शुद्ध साधु को सूझता आहार-पानी देना। -व्यापार करने का जीवनपर्यन्त त्याग । -स्नान करने में दस सेर से ज्यादा पानी काम में नहीं लेना। -पाँच वर्ष तक अष्टमी, ग्यारस और चतुर्दशी को उपवास करना। -एक माह में एक ही बार स्नान करना । -किसी भी जीमणवार में जीमने नहीं जाना। -ससुराल पक्ष में कभी कोई सीख ग्रहण नहीं करना । (४) वि० सं० २००१ माघ शुक्ला ३-सुजानगढ़ मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्य श्री तुलसी से निम्न त्याग लिए-जीवनपर्यन्त पैरों में जूते नहीं पहनना । -साधु जैसा भोजन करना। -प्रतिदिन आठ द्रव्यों से अधिक नहीं खाना । -एक साल में बारह बार बाल कटवाना । -वि० सं० २०१२ तक प्रतिवर्ष ७२ दिन की तपस्या करना। -पच्चीस हजार रुपये अपने लघु भ्राता भाई भँवरलालजी को जमाबन्दी के रूप में दे रखे थे, उनके ब्याज में प्रतिमाह १५० रुपये ही घर खर्च हेतु मँगाना और इसी से घर का खर्च चलाना। -जीवनपर्यन्त चौविहार करना । यात्रा में भी यही क्रम रखना। -दूसरी पडिमा (प्रतिमा) का जीवन पर्यन्त संकल्प । -स्वयं के लिए मकान नहीं बनाना। -प्रतिदिन केवल एक विगय ही खाना। -दिन में तीन बार से ज्यादा भोजन नहीं करना । --एक दिन में भोजन के अलावा दो बार से ज्यादा पानी नहीं पीना। -जीवन भर वायुयान से यात्रा नहीं करना । -तपस्या के उपलक्ष में किसी प्रकार का लेन-देन नहीं करना । -बाजार से खरीदी गई मिठाई का त्याग । -तीन हरी चीजें यथा-तोरमी, मौसम्मी और आम ही खाने । --एक दिन में दस सेर से ज्यादा पानी उपयोग में नहीं लेना। (५) वि० सं० २००२ भाद्रपद शुक्ला ३-राणावास में मुनिश्री जशकरणजी से निम्न त्याग लिये -चातुर्मास काल में सात वर्ष तक एकान्तर करना। - Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -+-+-+-+-++ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा जीवन परिचय १३ - प्रथा के रूप में रोना-धोना नहीं करना और न ही किसी के देहान्त होने पर प्रथा के अनुसार मिलने जाना, केवल मिलने के उद्देश्य से मिलने जाना । - धूम्रपान न तो करना और न ही कराना । -राणावास में रहते हुए प्रतिदिन नौ सामायिक करना । - पाँच वर्ष तक वर्ष में एक थोकड़ा सीखना । (६) वि० सं० २००३ भाद्रपद शुक्ला ५ - मुनिश्री जयचन्दलाल जी से निम्न त्याग लिये- राणावास में रहते हुए प्रतिदिन दस सामायिक करना । - स्नान करने में आठ सेर से अधिक पानी काम में नहीं लेना । - वर्ष में पच्चीस दिन के अतिरिक्त ब्रह्मचर्य का पालन करना । - भोजन करने बैठते समय साधु-साध्वी को आहार देने की भावना भानी । (७) वि० सं० २००४ भाद्रपद शुक्ला ६ मुनिश्री पूनमचन्दजी से निम्न त्याग लिये - राणावास में रहते हुए प्रतिदिन ११ सामायिक करना किन्तु माह में तीन दिन तक मीटिंग आदि के कारण आगार रखना । - स्नान करने में पाँच सेर से ज्यादा पानी काम में नहीं लेना । - प्रतिदिन चार घण्टे मौन रखना । -वर्ष में बीस दिन के अलावा ब्रह्मचर्य का पालन करना । (5) वि सं० २००५ भाद्रपद शुक्ला १० - मुनिश्री सोहनलालजी से निम्न त्याग लिये- राणावास में रहते हुए प्रतिदिन १२ सामायिक करना । - स्नान करने में तीन सेर से अधिक पानी काम में नहीं लेना । -वर्ष में दस दिन के अतिरिक्त ब्रह्मचर्य का पालन करना । (६) वि० सं २००८ श्रावण कृष्णा १४ - मुनिश्री भोमराजजी से निम्न त्याग ग्रहण किये - भाई श्री भँवरलाल सुराणा एवं श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा के अलावा कहीं भी मिष्ठान्न भोजन नहीं करना । - अछाया में नहीं सोना । - एक वर्ष में तीन बार से ज्यादा स्नान नहीं करना । (१०) वि० सं० २००६ पौष शुक्ला १९ को आचार्य श्री तुलसी से सरदारशहर में निम्न त्याग लिये — जीवनपर्यन्त स्नान नहीं करना । - वर्ष में केवल बारह बार दस तोला पानी से शरीर साफ करना । -आठ वर्ष तक साठ द्रव्यों से अधिक नहीं खाना । - खाट ढोलिये पर सोने का त्याग । - जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करना । - ओढ़ने-बिछाने का त्याग (११) वि० सं० २०१० फाल्गुन शुक्ला ११ को पाली में मुनिश्री अमोलकचन्दजी से इस प्रकार त्याग लिये - जीवनपर्यन्त स्वस्थ अवस्था में सामायिक प्रतिक्रमण करना । - सूर्यास्त के पश्चात् केवल रेलगाड़ी से ही यात्रा करनी, अन्य किसी वाहन से नहीं करनी । - विशिष्ट अणुव्रती के नियमों का पालन करना । (१२) वि० सं० २०१२ भाद्रपद शुक्ला १० - आचार्य श्री तुलसी से निम्न प्रकार के त्याग लिये -पांच वर्ष तक खुले मुंह नहीं बोलना । पाँच वर्ष तक सिले सिलाए कपड़े नहीं पहनना। · - 6666 . Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड D oo sra... .......................................................... -वर्षेभर में एक माह से ज्यादा यात्रा नहीं करनी किन्तु साधु-सन्तों के साथ विहार एवं पारिवारिक कारणों से आगार। (१३) वि० सं० २०१२ कार्तिक शुक्ला ५ को आचार्य श्री तुलसी से ही पुनः निम्नानुसार त्याग लिये -घर में १०० रुपये से ज्यादा नहीं रखना। -घर में चाँदी-सोने के बर्तन नहीं रखना। -एक वर्ष में पचास गज से ज्यादा वस्त्र नहीं पहनना। -दिन में ढाई घण्टे से अधिक खाने-पीने में व्यतीत नहीं करना । (१४) वि० सं० २०१४ कार्तिक शुक्ला १३ को राणावास में मुनिश्री गणेशमलजी से इस प्रकार त्याग लिये -जीवनपर्यन्त परिग्रह का त्याग । -भाई से १०० रुपये से अधिक खर्च हेतु नहीं मँगाना। -दिन में चौदह सामायिक करना । (१५) वि० सं० २०१४ मृगसर शुक्ला ११-साध्वी श्री विरदाजी से ग्यारहवीं पडिमा प्रारम्भ की। (१६) वि० सं० २०१५ कार्तिक कृष्णा ३ को कानपुर में आचार्य श्री तुलसी से निम्न प्रकार से त्याग लिये -स्थावर अथवा हिलते-चलते प्राणी की एक करण एक योग से हिंसा नहीं करना। -प्रतिदिन पन्द्रह सामायिक करना। -प्रतिदिन एक बार कपड़ों का पलेवण करना। -प्रतिदिन दो घण्टे से अधिक समय भोजन करने में नहीं लगाना । (१७) वि० सं० २०२६ माघ शुक्ला ११-हैदराबाद में आचार्य श्री तुलसी से निम्न त्याग ग्रहण किये -एक वर्ष में २५ मीटर से अधिक कपड़े का प्रयोग नहीं करना । -किसी की निन्दा न तो करना और न ही सुनना । -चौदह नियम का प्रतिदिन स्मरण करना। (१८) वि० सं० २०३५ फाल्गुन शुक्ला ३-छापर गाँव में आचार्य श्री तुलसी से यह प्रतिज्ञा ग्रहण की कि भविष्य में एक भी नया मकान नहीं बनाएँगे। (१९) वि० सं० २०३६ मृगसर कृष्णा ७-राणावास में साध्वीश्री सिरहकंवरजी से निम्न प्रतिज्ञा ली -जीवनपर्यन्त संस्था के लिए अर्थसंग्रह हेतु बाहर नहीं जायेंगे। आपने अपने जीवन को किस प्रकार शनैः-शनैः संयम और साधना की ओर प्रवृत्त किया, यह त्याग और प्रत्याख्यान के उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है। इन त्याग प्रत्याख्यानों के साथ-साथ तपस्या की लौ भी निरन्तर प्रज्वलित रही है। वि० सं० २००२ से वि० सं० २०२२ तक प्रतिवर्ष चातुर्मासकाल में आपने एकान्तर उपवास किये और प्रतिवर्ष चोला का एक थोकड़ा एक से दस तक किया । वि० सं० २०२२ से आप प्रतिमाह बारह एकासन कर रहे हैं। एकासन हर माह के कृष्ण और शुक्ल पक्ष की द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, ग्यारस एवं चतुर्दशी के कुल दस एवं एक-एक अमावस्या और पूर्णिमा का करते हैं । इनके अतिरिक्त औसत १०-१२ उपवास प्रतिवर्ष कर लेते हैं । समय-समय पर आपने और तपस्याएँ भी की हैं, जिनके आँकड़े प्रयास करने पर भी उपलब्ध नहीं हो सके । वि० सं० २००५ में जब आपकी बहिन श्रीमती सुन्दरबाई कटारिया का दुःखद अवसान हो गया तो आपने उसी समय आत्म-शुद्धि करने व मोहनीय कर्मों के क्षय हेतु आगामी छ: माह तक एकान्तर करने का संकल्प ले लिया। उस एकान्तर काल में आप जब उपवास का पारणा करते तो उसमें पाँच द्रव्यों से अधिक सेवन नहीं करते । इसी प्रकार आपके लधु भ्राता श्री अमोलकचन्दजी सुराणा का वि० सं २००८ में देहान्त हो गया तो उस समय भी आपने एक साथ चार उपवास (चोला) पचक्ख लिये एवं तत्पश्चात् छः माह तक एकान्तर करते रहे । त्याग व तपस्या के इस संक्षिप्त विवरण से जाहिर है कि आत्मोत्थान में आपने साधना और तपश्चर्या का कितना अनूठा, आकर्षक एवं अद्वितीय समन्वय किया है। 0 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीवन परिचय १५ पडिमाधारी श्रावक । आगम ग्रन्थों में पडिमाधारी (प्रतिमाधारी) श्रावकों के उल्लेख आते हैं किन्तु इस पंचम आरे में ऐसे श्रावक विरले ही मिलते हैं। क्योंकि यह आत्मोत्थान की एक क्लिष्ट और समय खपाने वाली क्रिया है। इसमें विशेष त्याग व अभिग्रह के माध्यम से साधु सदृश जीवन जीना होता है। ऐसी कुल ग्यारह पडिमाएँ (प्रतिमाएं) होती है। यथादर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, पौषध प्रतिमा, कायोत्सर्ग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, सचित्त प्रतिमा, आरम्भ प्रतिमा, प्रेष्य प्रतिमा, उद्दिष्ट वर्जक प्रतिमा और श्रमणभूत प्रतिमा। इन प्रतिमाओं को पूरा करने में साड़ेपाँच वर्ष का समय लगता है । आपने ये प्रतिमाएँ वि० सं० २००८ में आरम्भ की और वि० सं० २०१४ में समाप्त की। इन प्रतिमाओं को पूरा करने में आपको अनेक बाधाओं, उपसर्गों एवं कष्टों का सामना करना पड़ा है । तेरापंथ धर्मसंघ ही नहीं अपितु समस्त जैन संघ में ऐसे पडिमाधारी श्रावकों की संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक है, उनमें से एक पडिमाधारी श्रावक हमारे अभिनन्दनीय श्री केसरीमलजी सुराणा हैं।। संघ व संघपति में निष्ठा आपका समूचा जीवन धर्म की अतुल धरोहर है । धर्म आपके प्राणों का स्पन्दन है, धर्म आपकी निष्ठा का प्रतिबिम्ब है और धर्म आपके समर्पण का सौहार्द है। अहिंसा, करुणा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य आपके दैनिक जीवन के लक्षण हैं। यद्यपि सर्वधर्म-समभाव आपके विमल विश्वास का अजस्र स्रोत है। किन्तु आत्म-कल्याण के पथ प्रदर्शक और गुरु आपके आचार्य श्री तुलसी हैं । तेरापंथ धर्म संघ के प्रति आपका समूचा जीवन समर्पित है । आचार्यप्रवर के दर्शनों के लिए आप सदा लालायित रहते हैं । जब भी समय की अनुकूलता होती है, आप आचार्यप्रवर के दर्शनों का लाभ अवश्य उठाते हैं । यही स्थिति संघ के प्रति है। संघ की श्रीवृद्धि में आप सर्वस्व समर्पण हेतु सदा तत्पर रहते हैं । राणावास में चातुर्मास काल में साधु-साध्वियों की सेवा में समय का सर्वाधिक सदुपयोग करते हैं । साधु-सन्तों को किसी तरह का कष्ट न हो, दैहिक उपसर्ग की पीड़ा न हो, शुद्ध आहार पाने की तकलीफ न होइस हेतु आप सदैव सक्रिय रहते हैं। "मावीतां" और "मोटा पुरुषां" के विनम्र सम्बोधन द्वारा आप समय-समय पर विराजित साधु-साध्वियों की कुशल-क्षम पूछते रहते हैं। तेरापंथ के आद्य आचार्य, आचार्यश्री भिक्ष का नाम तो आपके प्रत्येक श्वासोच्छ्वास के साथ जुड़ा हुआ है । भिक्षु स्वामी आपके इष्टदेव हैं, परमाराध्य हैं, आपके घट के वासी हैं और आपको भवसागर से तारने वाले हैं। प्रगतिशील विचारों क पोषक आप समाज में व्याप्त कुरीतियों, ढोंग एवं बाह्याडम्बरों के प्रारम्भ से ही विरोधी रहे हैं। जन्म, विवाह, मृत्यु आदि सामाजिक अवसरों पर आपश्री ने अनेक बार क्रांतिकारी कदम उठाकर अपने साहस का परिचय दिया है। छुआछूत, दहेज प्रथा, पर्दा प्रथा आदि को समूल नष्ट करने में सदैव तत्पर रहे हैं । समय-समय पर आपने अपने इन विचारों का पोषण भी किया है । अपने परिजनों के देहावसान के समय घर में आपने कभी रोना-धोना नहीं होने दिया जो इस प्रकार के रीति-रिवाज के प्रदर्शन का प्रयास भी करते थे तो आप उन्हें इन कर्मों के बन्धन बाँधने के बजाय उपवास रखकर कर्मों को क्षय करने का उपदेश देते । मृत्युभोज आपने कभी न तो किया और न कभी खाया । वि० सं० १९६५-६६ में आपके माता-पिता का मृत्युभोज करने का परिजनों का दबाव भी पड़ा लेकिन आप अटल रहे और मृत्युभोज में खर्च होने वाली सम्भावित राशि एक स्कूल के भवन को खरीदने हेतु बुलारम में दान दे दी। आपने अपने ससुराल में गालियाँ गाने के रिवाज का कड़ा विरोध कर उसे बन्द करा दिया । अपनी धर्मपुत्री श्रीमती दमयन्ती देवी का विवाह प्रगतिशील रीति से करके एक आदर्श विवाह का समाज में सूत्रपात किया। सहृदय भ्रातृ हितैषी परिवार में आपने अपने भाई-बन्धुओं के साथ हमेशा सहृदयता तथा स्नेह एवं सौहार्द का व्यवहार रखा। भाई चाहे सगा हो अथवा चचेरा आपने उन्हें कभी पराया नहीं समझा। श्री मिश्रीमलज़ी सुराणा प्रारम्भ से ही आपके सहयोगी एवं परामर्शक के रूप में रहे हैं । आपने उन्हें सदा आदर व सम्मान दिया । अपने लघु भ्राता श्री भंवरलालजी सुराणा जब उन्नीस दिन के थे तब माँ गुजर गई तथा आठ वर्ष की अवस्था में पिताश्री का भी निधन हो गया, किन्तु Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड आपने अपने छोटे भाई को पिता एवं पुत्र का प्यार दिया, कभी यह अनुभव नहीं होने दिया कि उनके माता-पिता नहीं हैं । वि० सं० २००१ में जब आपने अपना शेष जीवन संस्था के निर्माण में समर्पित करने का निश्चय कर लिया तो अपने व्यापार का सम्पूर्ण भार अपने छोटे भाई भँवरलालजी सुराणा के कन्धों पर डाल दिया। भंवरलालजी व्यापार को सम्भाल नहीं सके, इसलिए व्यापार में काफी नुकसान हो गया लेकिन आपने अपने भाई को कभी आँख उठाकर यह नहीं कहा कि नुकसान कैसे हुआ? न कभी हिसाब ही पूछा और न क्रोध ही किया, उल्टा आपने ढाढस बँधाते हुए कहा-जो हो गया उसे भूल जाओ, आगे ध्यान रखो और जो कुछ है उसे सम्भाल कर रखो। इसके बाद आपके छोटे भाई भंवरलालजी में आत्मविश्वास पैदा हुआ और व्यापार को धीरे-धीरे अच्छा जमा लिया किन्तु दुर्योग से वि० सं० २००७-८ में एक-डेढ़ लाख रुपये का व्यापार में फिर घाटा हो गया। आपको जब इसके समाचार मिले तो आप राणावास से चलकर तुरन्त बुलारम गये और बहुत से आभूषण अपने लघु भ्राता को थमाते हुए बोले कि इन्हें बेचकर नुकसान की पूर्ति करो और आगे का ध्यान रखो लेकिन आपने अपने छोटे भाई से कभी यह नहीं पूछा कि नुकसान कैसे हो गया ? एक भाई का दूसरे भाई के प्रति इतना वात्सल्य, इतनी सहृदयता और ऐसा स्नेह व हितैषी व्यवहार राम और लक्ष्मण की पौराणिक जोड़ी की स्मृति पुनः नयनों में उभार देता है। आदर्श पति गृहस्थाश्रम में आप एक आदर्श पति के समस्त गुणों के सम्पन्न व्यक्ति के रूप में समाज में प्रतिष्ठित हैं । सोलह वर्ष की उम्र में ही आपके कन्धों पर घर की समस्त जिम्मेदारियाँ आ पड़ीं, इससे दो वर्ष पूर्व ही आपका विवाह हुआ था। परिवार में माता-पिता का इस लघु वय में जो अंकुश होना चाहिए वह नहीं था फिर भी आपने पारिवारिक जिम्मेदारियों को वहन करते हुए जिस रूप में गृहस्थाश्रम चलाया वह आपके आदर्श पति के रूप को उजागर करता है । आपने श्रीमती सुन्दरदेवी को कभी यह नहीं अनुभव होने दिया कि वह परिवार में एकाकी है या घर के दायित्वों का सारा भार केवल उसे ही उठाना पड़ रहा है । आपने सरल व उदारमना सुन्दरदेवी को घर की लक्ष्मी के रूप में प्रस्थापित किया और उनमें आत्मविश्वास पैदा किया, घर के दायित्वों के प्रति सतर्क किया एवं सामा जिक व्यवहार में समयानुकूल परामर्श दिया । कभी किसी छोटी-मोटी बात को लेकर पति-पत्नी में बोलचाल हो गयी हो ऐसा कभी नहीं हुआ। विवाह के बाद जो स्नेहसूत्र प्रगाढ़ हुए वे भविष्य में क्रमश: प्रगाढ़ होते ही गये । आप स्वयं यदाकदा संकेत देते रहते हैं कि माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् हर छोटे-बड़े, मुसीबत के काम में जिस दृढ़ता, मजबूती एवं समर्पण भाव से पत्नी ने साथ दिया वैसा और किसी ने नहीं दिया। श्रीमती सुन्दरदेवी ने भी पति को परमेश्वर मानकर आपके श्रीचरणों अपने आप को समर्पित कर दिया । वे धुप के साथ छाया की तरह आपके साथ जुड़ी रहीं। घर का काम हो या आपकी साधना, संस्था काम हो या अर्थ-संग्रह की यात्रा-आप हमेशा इनके साथ रहीं और प्रत्येक काम में पूर्ण उत्साह व मनोयोग के साथ हाथ बँटाया। आप दोनों के इस सुखी दाम्पत्य जीवन को देखकर लोगों में आप राम व सीता की जोड़ी की तरह चचित हैं। मितव्ययी कम से कम पैसे का अधिकतम उपयोग करना आपके स्वभाव की विशेषता है। वि० सं २०१४ में आपने घर खर्च में सौ रुपये से अधिक व्यय नहीं करने की प्रतिज्ञा की, उसको आज इस महंगाई के युग में भी आप बराबर निर्वाह कर रहे हैं, यह एक तथ्य ही आपके मितव्ययी स्वरूप को प्रमाणित करने के लिए काफी है। इन सौ रुपये में पति-पत्नी दोनों एक माह तक का रसोड़े का खर्च चलाते हैं तथा अन्य दैनिक व्यय की पूर्ति भी करते हैं । यदि किसी का आतिथ्य करना पड़ा तो उस स्थिति में आप अपने खान-पान में कटौती करके सौ रुपये के बजट को व्यवस्थित रखते हैं । आपकी मितव्ययिता की यह दृष्टि संस्था के निर्माण में भी देखी जा सकती है। विशाल भवनों का निर्माण कम से कम बजट में हुआ है । कोई भी उस भवन को देखकर और उसमें खर्च होने वाली राशि को सुनकर यह विश्वास नहीं कर सकता है कि इतनी कम रकम में इतना बड़ा भवन क्या कभी निर्मित हो सकता है ? आप मितव्ययी केवल अर्थ के मामले में ही नही हैं अपितु आप मितभाषी भी हैं। दिन में अधिकतम समय सामायिक व मौन में चला जाता है। शेष अवधि में भी आप कम से कम बोलते हैं जिससे संस्था के किसी व्यक्ति के साथ आपकी कभी कोई बोल-चाल नहीं होती। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीवन परिचय १७ ............................000000000000000 निःस्वार्थ सेवा वि०सं० २००१ से ही आप संस्था की निःस्वार्थ सेवा कर रहे हैं । इस सेवा के बदले आपने संस्था से कोई लाभ प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया । न तो कभी एक पैसा संस्था से वेतन के रूप में आपने उठाया और न ही किसी कर्मचारी की सेवा आपने अपने घर के लिये प्राप्त की तथा न ही संस्था का फर्नीचर या अन्य छोटी-मोटी वस्तु अपने घर के उपयोग के लिये मँगवायी । यहाँ तक कि जब तक कि आप संस्था में रहते हैं, तब तक आप संस्था का भोजन या नाश्ता करना तो दूर संस्था का पानी तक नहीं पीते हैं । निःस्वार्थ सेवा का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि संस्था से कुछ लेना तो दूर उलटा आपने अपनी सम्पत्ति का बहुत बड़ा हिस्सा संस्था को दानस्वरूप दे दिया है। दान की यह राशि लगभग ६७ हजार रुपये होती है। आपकी यह मान्यता है कि वह व्यक्ति कभी संस्था को खड़ी नहीं कर सकता और न ही उसे सुदृढ़ आधार प्रदान कर उसे विकसित कर सकता है, जो संस्था से वेतन पाता है या पारिश्रमिक पाता है। आपका कहना है कि जिस संस्थापक, संचालक के आर्थिक हित संस्था से जुड़ जाते हैं तो उस संस्था में स्वच्छ प्रशासन व अनुशासन कायम रह ही नहीं सकता । यही कारण है कि मरुभूमि की इस विद्याभूमि के इस वटवृक्ष को आय-व्यय को लेकर आपके प्रति कभी किसी ने कोई सन्देह व्यक्त नहीं किया । आपकी इस निःस्वार्थ सेवा भावना के प्रति समस्त जैन समुदाय नतमस्तक है। प्रबुद्ध प्रशासक आप जितने सौम्य, सहृदय और सरल हैं, प्रशासन की आपकी पकड़ उतनी ही पुष्ट है । आपने कभी कोई सरकारी या कल-कारखाने की नौकरी नहीं की किन्तु प्रशासन में आपकी जो प्रबुद्धता है वह बेजोड़ है। संस्था का कलेवर दिन प्रतिदिन विस्तार पाता जा रहा है । बजट से लेकर कर्मचारियों की संख्या तक बढ़ रही है लेकिन आप अकेले संस्था की हर गतिविधि को गहराई से देखते हैं । छोटी-छोटी घटना की आपको जानकारी रहती है। कौन-सी वस्तु कब खरीदी गई और अब कहाँ है, उसकी खोज-खबर आपको है। संस्था का एक भी पत्र अथवा पत्रावली आपके पास नहीं रहती लेकिन आपको यह ज्ञात है कि अनुक पत्र का कब व क्या उत्तर प्रोषित किया था। संस्था के किस विद्यालय या उसके अनुभाग अथवा कार्यालय में कितने कर्मचारी हैं, उनका व्यवहार छात्रों के प्रति कैसा है, कैसा पढ़ाते हैं, उनका वेतन क्या है और कितना काम करते हैं, संस्था के प्रति वफादारी की स्थिति क्या है, आपके मनमस्तिष्क में उनका लेखा-जोखा है । विद्यालय का वार्षिक परीक्षा परिणाम क्या रहा ? कौन असफल रहा? क्यों रहा? कोई व्यक्ति संस्था-सेवा से मुक्त होकर अन्यत्र चला गया तो क्यों चला गया ? यहाँ उसे क्या कमी अनुभव हुई, किस कारण उसने संस्था छोड़ दी, आपकी पंनी दृष्टि इन सब पर रहती है । आप संस्था के किसी भी कर्मचारी के चयन में कभी हस्तक्षेप नहीं करते लेकिन शिक्षा जगत् में प्रतिष्ठित, प्रतिभावान और प्रबन्धकुशल व्यक्ति को संस्था सेवा में लाने में भी नहीं चूकते । आपका मानना है कि ऐसे व्यक्तियों के चयन से संस्था सुदृढ़ होती है, नींव मजबूत होती है, संस्था की प्रतिष्ठा प्रसरित होती है। कभी किसी कर्मचारी या अध्यापक ने भावावेश में आकर कोई गलती कर दी तो आप उसे बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से बताकर उसे अपनी गलती का स्वतः ही अहसास करा देते हैं। आप प्रतिदिन प्रातः आठ बजे संस्था के प्रधान कार्यालय में आकर दिन प्रतिदिन के कार्यालय कार्य को निपटाते हैं । ग्यारह बजे तक इस काम में ही एकाग्र रहते हैं । आपके लिए कभी कोई छुट्टी नहीं रहती। सर्दी-गर्मीवर्षा कोई भी इस नियमितता में रुकावट नहीं डाल सकती । आप राणावास में हैं तो संस्था में आकर संस्था का काम देखेंगे ही। घर पर सस्था का कोई काम नहीं देखते । घर पर तो साधना चलती है। कार्यालय में आने वाले प्रत्येक पत्न को आप स्वयं पढ़ते हैं, स्वयं ही उत्तर लिखवाते हैं, कोई भी पत्र पेंडिंग रखना आपके स्वभाव में नहीं है। आज का काम आज और आज का काम अभी आपके कार्य की मुख्य तकनीक है। दैनिक आय-व्यय का हिसाब स्वयं देखते हैं और जाँचते हैं। बिना आपकी स्वीकृति के एक पैसा भी इधर-उधर नहीं हो सकता । हिसाब-किताब के समम्त आँकड़े, बाजार में वस्तुओं के भाव, व्यक्तियों, कार्यालयों और व्यापारिक फर्मों के पते सब आपको मुह पर याद रहते हैं । संस्था के कार्य से सम्बन्धित प्रत्येक बैठक, सभा या मीटिंग में आप भोग लेते हैं । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड ... .................................................................. बैठक में सबकी सुनते हैं किन्तु संस्था के सिद्धान्त व रीति-नीति के विपरीत कभी कोई समझौता नहीं करते। संस्था का एक पैसा भी व्यर्थ में बरबाद न हो, इस बात की प्राणपण से चेष्टा करते हैं। छात्रावास में छात्रों की क्या स्थिति है, कौन पढ़ता है, कौन नहीं पढ़ता है, कौन बीमार है, और कोन साफ-सुथरा नहीं रहता, आप इन सब बातों की व्यक्तिगत जानकारी लेते हैं । आप प्रतिदिन नियमित भोजन व नाश्ते की जांच करते हैं । भोजन बनाने में कोई गड़बड़ी तो नहीं हुई, भोजन कम तो नहीं पड़ता, भोजन के कच्चे सामान को किसी ने इधर-उधर तो नहीं किया, इन बातों की आकस्मिक जाँच करते हैं। छात्रावास में छात्रों को भोजन व नाश्ता घर की तरह मिले, इस बात का भी विशेष ध्यान रखते हैं, क्योंकि छात्रों के स्वास्थ्य व अध्ययन पर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है । आपकी प्रबन्धपटुता और प्रशासन की प्रबुद्धता का ही यह पुण्य प्रताप है कि आज भी श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ तथा उसके द्वारा संचालित प्रवृत्तियाँ उत्तरोत्तर विकासमान हैं । कर्मयोगी : कांठा के कंठहार आपके व्यक्तित्व और कर्तृत्व की कर्मठता का कर्मयोगी रूप उपयुक्त अवलोकन से स्वयं स्पष्ट है । कर्म के प्रति आपकी निष्ठा आपके नस-नस में व्याप्त है । जो काम हाथ में लेते हैं, उसे पूर्ण किये बिना आपको चैन नहीं, काम के प्रति ईमानदारी आपके स्वभाव की प्रमुख विशेषता है। 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' आपके जीवन का ध्येय वाक्य है । आपकी कर्मठता के आगे असफलता स्वयं असफल हो जाती है। यही कारण है कि आप वट वृक्ष रूपी इतनी विशाल संस्था के कार्य को सहज रूप से सम्पन्न करते हुए भी आप समाज और विभिन्न संस्थाओं के अनेक पदों का दायित्व सफलतापूर्वक निभा रहे हैं । आपने अपने जीवन के ७०वें बसन्त की समाप्ति पर वर्ष में छः माह जैन विश्व भारती लाडनू को समर्पित करने की घोषणा की है। आपके कार्य की इसी शैली ने, एकाग्रता और तल्लीनता ने आपको कर्मयोगी बनाया ऐसे कर्मयोगी काकासा कांठा क्षेत्र के कण्ठहार हैं। कांठा अंचल आप जैसे पुण्यपुरुष को पाकर धन्य है । आचार्य भिक्षु और मुनि हेमराज के बाद जन-जन को काकासा की कर्मठता ने ही सर्वाधिक प्रभावित किया है। शत-शत अभिनन्दन - भगवान महावीर ने कहा है कि "कम्मुणा उवाही जायइ" (आचारांग १-३-१) अर्थात् कर्म से समस्त उपाधियाँ उत्पन्न होती हैं लेकिन ग्रन्थनायक श्री केसरीमलजी सुराणा को कोन सी उपाधि दें, कितनी उपाधियाँ दें, उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व की भव्यता के समक्ष किसी एक उपाधि से आभूषित करना दिनकर को दीपक दिखाना है, लेकिन आपके इस तेजस्वी तथा प्रेरणास्पद व्यक्तित्व के फलस्वरूप समाज को जो स्फूर्ति और तेज मिला है, उसके ऋण से उऋण होना असम्भव है । आप सचमुच में महामना है, कर्मयोगी हैं, तपोपूत, नरपुगव और कांठा क्षेत्र के लाडले सपूत हैं । आपका आडम्बरहीन, निष्कपट एवं बहुमुखी व्यक्तित्व अन्यत्र दुर्लभ है। आपकी सेवायें निःसन्देह सराहनीय और श्लाघनीय हैं । उनका जितना भी अभिनन्दन किया जाय उतना अल्प है। अब तो स्थिति यह हो गयी है कि आप राणावास से बाहर जहाँ भी जाते हैं वहाँ आपके अभिनन्दन का आलोक परिव्याप्त हो जाता है। राणावास में तो आपके सार्वजनिक अभिनन्दन एकाधिक बार हुए ही हैं किन्तु मद्रास, जयपुर, बंगलौर, लाडनू आदि स्थानों पर भी आपका अभिनन्दन किया गया है। राजस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर की पच्चीस सौवी (२५०० वीं) निर्वाण महोत्सव समिति द्वारा आपको 'समाज सेवक' की उपाधि से अलंकृत किया गया है। अखिल भारतीय भारत जैन महामण्डल की ओर से आपको 'समाज सेवी' सम्बोधन से समुच्चरित किया गया है । युवामंच बम्बई ने आपको 'मरुधर गौरव' की अभिधा से अभिनन्दित किया है । युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी आपको गृहस्थ साधु, ऋषि, सन्त आदि सम्बोधनों से सम्बोधित करते हैं। ऐसे महापुरुष, महामानव, एवं मानव जाति के मसीहे का अभिनन्दन करना हम सबका अहोभाग्य है, हम धन्य हैं कि हमें इस जीवन में यह सौरभ, सौभाग्य और यह सुअवसर मिला। आप दीर्घायु हों और इसी तरह संस्था, समाज और समस्त मानवजाति क मार्गदर्शन करते रहें, यहीं अन्तः स्तल की मंगल कामना है। 00 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहों का गणित :काकासा का फलित पं० जोशी प्यारेलाल शर्मा ज्योतिष कार्यालय, राणावास (मारवाड़) राणावास के शिरोमणी, महान त्यागी, धर्मप्रेमी, काका साहब केसरीमलजी सुराणा का जन्म संवत् १९६६ शाके १८३१ प्रवर्त्तमाने फाल्गुन मासे कृष्ण पक्षे तिथौ ७ वार गुरी ज्येष्ठा नक्षत्र मकर लग्ने तद् अनुसार तारीख ४ मार्च सन् १९१० के रोज ब्रह्ममुहूर्त रात्री यामे प्रातःकाल ४ बजे २४ मिनट पर बुध की गज दशा के अन्दर हुआ। जन्म दिन सप्तमी माना जायेगा, क्योंकि सूर्य उदय के बाद तिथि का परिवर्तन होता है। तारीख रात्रि के १२ बजे बाद बदलती है। काका साहब का जन्म चक्र व चलित चक्र इस प्रकार है । चलित कुण्डलि | जन्म कुण्डलि ६ दशा विंशो बुध बुध म.११बु /च० भक्त भाग्य. o १ फाल्गुन मास का जन्म परोपकारी कुशलो बयालुर्बलान्वितः कोमल-कायशाली। विलासिनी-केलि-विधानशीलो, यः फाल्गुने फल्गुवचोः विलासः ॥ अर्थात् फाल्गुन मास के अन्दर जन्म लेने वाले व्यक्ति में प्रायः परोपकार, दयालुता, कोमल कठोर शब्द बोलने की प्रवृत्ति रहती है। सप्तमी को ब्रह्म मुहूर्त में जन्म ज्ञानी गुणको हि विशालनेत्रः सत्पात्र-वे वार्चनचित्तवृत्तिः। कन्या-प्रजो वै परवित्तहर्ता, स्यात्सप्तमी मनुजोऽरिहंता ॥ अर्थात् सप्तमी ब्रह्ममुहूर्त में जन्म लेने वाला व्यक्ति ज्ञानी, गुणवान्, जनप्रिय, धर्म का पुजारी, कन्या (बालिका), सन्तान (बालक) इनको पनपाने वाला, पराया धन अर्जित करने वाला, शव ओं पर विजय प्राप्त करता है। पराया धन अजित करना यानी जनता से चन्दा एकत्रित करना यह योग इसी में घटित होता है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड ज्येष्ठा नक्षत्र का जन्म सत्कांतिकीतिविभूति-समेतो, वित्तान्वितोऽत्यंतलसत्प्रतापः । श्रेष्ठ प्रतिष्ठो वदतां वरिष्ठो, ज्येष्ठोद्भवः स्यात्पुरुषो विशेषात् ॥ अर्थात् ज्येष्ठा नक्षत्र के अन्दर जन्म लेने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ, प्रभावशाली, कीतिवान्, वैभवयुक्त, धनवान्, प्रतापी, श्रेष्ठवक्ता, कंट्रोल पावर से युक्त और साहसी होता है । लग्न तथा ग्रहों पर फलित इस प्रकार है मकर लग्न कठिनमूर्तिरतीवशठ-पुमान्निजमनोगतकृद् बहुसंततिः । सुचतुरोऽपि च लुब्धतरोवरो, यदि नरो मकरोदयसंभवः ।। अर्थात् मकर लग्न वाला व्यक्ति दिल का कठोर, लग्नेश का मालिक शनि, लग्न पर बृहस्पति की पूर्ण दृष्टि, शनि बृहस्पति परस्पर दृष्टि सम्बन्ध बना। यह श्रेष्ठ योग, शनि कठोर, बृहस्पति कोमल, शनि के प्रभाव से हृदय कठोर, अत्यन्त शठ याने अपनी मर्जी का काम करने वाला, अधिक चतुर-अपने कार्य के अन्दर निपुण, बहुत पुत्रों वाला, अधिक लोभी, बृहस्पति पूर्ण दृष्टि से सन्तान घर को देख रहा है, राहु सन्तान घर के अन्दर है यह स्व-सन्तान को ब्रक लगाता है, बृहस्पति की दृष्टि यही शिक्षा केन्द्र स्थापित करवाना, छात्रावास बहु सन्तान योग घटित हो रहा है। "वृषभ मकर कन्या कर्क सस्थे च राजे भवति विपुल लक्ष्मी ।" ___ अर्थात्-वृषभ का राहु बुद्धि घर के अन्दर, विपुल लक्ष्मी संग्रह तो होती है मगर बुद्धि घर के अन्दर राहु दिमाग के अन्दर तेजी लाकर अस्थिरता पैदा करता है । सूर्य धन भवन में धनसुतोत्तमवाहनवजितो, हतमतिः सुजनोज्झितसौहृदः। परग्रहोपगतो हि नरो भवेत्, दिनमणिद्रविणे यदि संस्थितः ।। अर्थात्-अष्टमेश का मालिक होकर सूर्य का धन भवन के अन्दर बैठना खुद के कोष से ममता हटाता है, धन, पुत्र, वाहन से रहित, क्रोध से बुद्धि को चलायमान करता है, मित्रता से परे यह सूर्य धन भवन में अन्दर अपना प्रभाव रखता है। चन्द्र एकादश स्थान में सम्मान नाना धन वाहनाप्तिः कीति-श्वसद्भोगगुणोपलब्धिः । प्रसन्नानो लाभविराजमानो, ताराधिराजे मनुजस्य नूनम् ॥ अर्थात् चन्द्र स्त्री घर का मालिक लाभ भवन के अन्दर केतु के साथ ग्रहण योग वह चन्द्र नीच घर का स्त्री का आराम रखता है मगर गृहस्थ से विरक्त चन्द्र ने केमुद्रम योग भी बनाया है, यही कारण है कि आप रूप में रह रहे हैं, चन्द्र लाभस्थान के अन्दर अनेक प्रकार के बालक, धन, वाहन का उपयोग करने का योग, यश, श्रेष्ठ वातावरण, गुणवान् सदैव प्रसनचित्त रखता है। भौम चतुर्थ भाव के अन्दर :: “दुःखं सुहृद्वाहनतो प्रवासी, कलेवरे दग्बलताबलत्वम् । प्रसूतिकाले किल मंगलाख्ये, रसातलस्थे फलमुक्तमायें । (दशमे अंगारको यस्य स जातो कुलदीपकः).. . दशवें घर के अन्दर मंगल बैठना तथा दृष्टि डालना श्रेष्ठ माना है। यह अपने कुल के अन्दर दीपक के समान कुल वंश को उज्ज्वल करने का योग है। ०० Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रहों का गणित : काकासा का फलित २१ . (पापो व्योम गतोश्वव पितुद्रव्यं न भुज्यते) मंगल क्रूर ग्रह है । इनकी दृष्टि पिता की प्रोपर्टी से मन को विरक्त करती है। मित्रों व वाहनों से विरक्त, परदेश में प्रवास करने वाला, सहनशक्ति कम, पित्तप्रधान, यह मंगल अपना प्रभाव करता है। धन भवन में बुध सूर्य के साथ विमल-शील-युतो गुरुवत्सलः कुशलताकलितार्थमहत्सुखः। विपुल-कांति-समुन्नति-संयुतो, धननिकेतनगे शशिनन्दने । अर्थात्-बुध धर्म घर का व शत्रु घर का मालिक है और सूर्य के साथ है, बुध वैश्य ग्रह है, निर्मल शील धारण करने वाला, जनप्रिय, अपने कार्य में दक्ष, सुखी जीवन, उन्नति के साथ ख्याति प्राप्त करवाता है, धर्म के अन्दर रुचि, यह बुध का प्रभाव है। सूर्य बुध का शामिल बैठना प्रियवचाः सचिवो बहुसेवयाजितधनश्रवकलाकुशलो भवेत् । श्रुतपटुहि नरो नलिनीपतौ, कुमुदिनीप्रतिसूनु समन्विते ॥ अर्थात्-सूर्य बुध का एक स्थान में शामिल बैठना अच्छा रहता है, क्योंकि दोनों ग्रहों की प्रायः एक ही गति रहती है, मीठों शब्दों द्वारा अपना कार्य करवाने में कुशल, मैत्री, सेवा का भाव रखना, धन एकत्र करना, कलाओं में प्रवीण और शास्त्र का जानकार, चतुर । बृहस्पति भाग्य भवन में नरपतेर्सचिवः सुकृतीवकृती-सकलशास्त्रकलाकलनादरः । व्रतकरो हि नरो द्विजतत्परः, सुरपुरोधसि वै तपसि स्थिते ॥ अर्थात्-बृहस्पति पराक्रम एवं व्यय भाव का अधिपति होकर भाग्यभवन के अन्दर, यही स्थान धर्मस्थान भी रहता है, बृहस्पति पूर्ण दृष्टि से लग्न को, अपने पराक्रम घर को, बुद्धि भवन को देख रहा है, यह उत्तम योग माना गया है । अपने प्रभाव के अन्दर ऋद्धि, बुद्धि, तेज, स्मरण शक्ति अच्छी, अपनी प्रशंसा प्यारी, अहंपत धर्म के अन्दर लगन यह बृहस्पति का स्वभाव है, राज्य मंत्रितुल्यमान प्राप्त, श्रेष्ठ कार्य करने में सदैव रुचि, चतुरता, सर्व शास्त्रों की जिज्ञासा, एकाग्रह, गुरुभक्ति, धर्म करते समय प्राण विसर्जन हों, ऐसा बृहस्पति का प्रभाव रहेगा। भृगु लग्न में बहुकलाकुशलो विमलोक्तिकृत, सुवदना मवनानुभव: पुमान् । अवनिनायक मानधनान्वितो, भृगुसुते तनुभावगते सति ॥ अर्थात्-शुक्र कर्मश एवं पंचमेश शुक्र लग्न में है वह श्रेष्ठ योग, केन्द्र त्रिकोण का मालिक होना, राजयोग, शुक्र म्लेच्छग्रह होने से कथनी और करनी में कभी-कभी अन्तर पैदा करता है। शुक्र का केन्द्र में एको शुक्रो जननसमये लाभसंस्थे च केन्द्र जातो, वै जन्मराशौ यदि सहजगते प्राप्यते व त्रिकोणे । विद्याविज्ञानयुक्तो भवति नरपतिविश्वविख्यात कीतिः, दानी मानी च शूरो हयगणसहितः सद्गजर्सेव्यमानः ॥ अर्थात्-इसी के प्रभाव से शिक्षा विज्ञान पर रुचि, दृढ़ विचार, विश्व के अन्दर कीति फैलाता है इसको राजयोग कहते हैं। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्रीकेसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड अन्य प्रमाण दशम भवनाथै केन्द्रकोणे धनस्थेऽवनिपतिबलयाने शक्तिसिंहासनेषु। स भवति नरनाथो विश्वविख्यातकीतिः मदगलितकपोल: सद्गर्सेव्यमानः । अर्थात-दशम भवन का मालिक शुक्र, लग्न के अन्दर आपकी कुण्डली के अन्दर शुक्र ही प्रबल बलिष्ठ बना है, राजयोग पूर्ण बना है, यही योग मान-पत्र दिलवाने में पहल करता है, परिपूर्ण जीवन तक यश कीति कायम रहेगी। शनि पराक्रम भवन में राजमान्यशुभवाहनयुक्तो, ग्रामयोबहुपराक्रमशाली। पालको भवति भूरिजनानां, मानवोहि रविजे सहजस्थे । अर्थात्-शनि लग्न एवं धन भवन का मालिक पराक्रम स्थान के अन्दर, शुभ शनि का तृतीय भवन में बैठना शुभ सूचक, अपनी स्वमर्जी का कार्य ही शनि करवाता है, आत्मबल प्रबल बनाता है । जन समूह का भरण-पोषण, अपनी धुन का धनी, दीर्घायु, वाद (हठ) यह शनि का प्रभाव रहता है, शनि क्रूर ग्रह है। दीर्घ आयु लग्नस्याधिपति व्ययारि निधने, तत्काल रिष्टप्रदं लग्नस्याधिपतिः बलौ च शुभगे लामोऽथवा पंचमे। जीवो वा शितपंचमे च नवमे पूर्ण गुरु दृश्यते, बालो जीवति निश्चितं मुनिकथं आयुर्बलं दीर्घकम् ॥ अर्थात्-कुण्डली के योगायोग से सुराणाजी परिपूर्ण दीर्घायु प्राप्त करेंगे, स्वस्थ अवस्था के अन्दर ही निधन योग बना है, गुरु के बल को देखते हुए अस्सी (८०) पार कर लेंगे ऐसा विश्वास है । उक्त विचार से यह स्पष्ट है कि काका साहब के ग्रह राजयोग बनाते हैं। धर्मस्थान में स्थित गुरु ने इनका ध्यान विद्या एवं धर्म की ओर आकर्षित करवाया। चतुर्थ भाव के मंगल ने प्रवासी, सप्तमी तिथि एवं ज्येष्ठा नक्षत्र ने कोति, वैभव एवं धन प्रदान करवाया। दूसरी ओर केमद्रुम योग ने इन्हें लक्ष्मी से विरक्त बना दिया । फलतः व्यक्तिगत जीवन को सादगी एवं सरलता से व्यतीत करने के उपरान्त भी इन्हें शिक्षा, धर्म एवं सामाजिक कार्य के लिये अर्थाभाव सता नहीं सकेगा। ___ आपका स्वभाव कभी कठोर तो कभी मृदु रहेगा, किन्तु धुन के धनी एवं अभीप्सित कार्य में दृढ़ता एवं कठोरता का परिचय देते रहेंगे। कीति, वैभव, अध्यात्म के अर्जन में आप निरन्तर क्रियाशील रहेंगे। 0000 0 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ संस्मरण Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरणों की सौरभ - प्रो० मनोहरलाल आच्छा (राणावास) V परम अद्धय काकासा श्री केसरीमलजी सूराणा का उनको सारा घर घूमता हुआ नजर आता। आपस में स्नेह मुझे बचपन से ही मिलता रहा है। उनके सानिध्य हंसी-मसखरी काफी देर तक चलती रही। काफी समय में रहकर मुझे उन्हें निकट से देखने व परखने का बहुत बाद श्री सुराणाजी को ध्यान आया कि वे नशे में हैं। यह बार सुअवसर मिला है। उनके जीवन से सम्बन्धित सब देखकर उनको अपने आप से ग्लानि होने लगी। यह संस्मरण आज भी मेरे स्मृति-पटल पर तरोताजा है। इन तो ठीक नहीं हुआ। शादी के मण्डप में भी यदि यही संस्मरणों को जब-जब भी स्मरण करता है काकासा के हालत रही तो ठीक नहीं होगा। उन्होंने तत्काल ४-५ विराट एवं भव्य व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धा के साथ मस्तक लोटे पानी मंगाया। सारा पानी पी गये। अब उन्हें सहज ही झुक जाता है क्योंकि श्रद्धा किसी व्यक्ति विशेष उल्टियां होने लगीं। सारी नशीली भंग उल्टियों में निकल के प्रति नहीं बल्कि उसके गुणों के प्रति होती है। गुणों गई। थोड़ी देर बाद आपके पिताजी को यह सारी बात के कारण ही व्यक्ति श्रद्धालु बनता है। गुणों के आकर मालूम हुई। उन्हें मन ही मन दुःख हुआ। अपने पुत्र के ऐसे काकासा के महान व्यक्तित्व को उजागर करने वाले किये पर क्रोध भा आया। पिताश्री न था सुराणाजा को कतिपय संस्मरणों को यहाँ पर प्रस्तुत कर रहा हूँ उलाहना देते हुए कहा-'ओ के करयो, फेरा रे माय की हो जातो तो मारी इज्जत रा टक्का कर देतो।' पिताजी १. शादी और भंग की मिठाई की बात का श्री सुराणाजी पर बहुत असर हुआ। वे अपने बात शादी के पूर्व की है। जब उनकी बारात सज- किये पर पछता रहे थे। आपको आत्मग्लानि हुई । मैंने धजकर शादी के लिए जा रही थी। श्री सुराणाजी दूल्हा यह क्यों किया जिससे मेरे पिताजी को इतना कष्ट हुआ। थे। उनका सामान अलग से रखा गया। दूल्हा राजा तत्काल उन्होने आजीवन इस प्रकार की नशीली वस्तुओं होता है । किसी मित्र ने शोक या मजाक में श्री सुराणाजी के त्याग कर दिये । भोग की प्रथम देहली पर ही त्याग की पेटी में मिठाई का एक डिब्बा रख दिया । मिठाई में का मार्ग प्रशस्त हो गया। इस प्रकार श्री सुराणाजी ने भंग की मात्रा अधिक थी। श्री सुराणाजी को इसके बारे जीवन में त्याग और व्रतों के माध्यम से परिष्कार लाने में मालूम नहीं था । बारात जब गन्तव्य स्थान पर पहुंची में कोई कमी नहीं रखी । तो श्री सुराणाजी के बड़े भाई श्री सुमेरमलजी ने मिठाई का डिब्बा निकाला, खोला और खाने लग गये। उन्होंने र २. जब बीड़ी के बजाय अंगुली जली श्री सुराणाजी से कहा-'दूल्हे राजा आओ मिठाई खाओ।' एक बार की बात है। कर्मयोगी श्री सुराणा साहब श्री सुराणाजी ने मिठाई बड़े चाव से खाई । लगभग चार- अपने ससुराल जा रहे थे। मार्ग में आपका परिचय एक पाँच चक्कियाँ खाई होंगी। मिठाई में भंग थी। धीरे-धीरे व्यक्ति से हुआ। वह व्यक्ति किसी सम्भ्रान्त परिवार का दोनों पर भंग असर करने लगी। दोनों पर नशा छाये नजर आता था। दोनों की बातचीत के पश्चात यह जा रहा था। दोनों एक दूसरे को देखकर हंस रहे थे। मालूम हुआ कि वह व्यक्ति भी उसी गाँव अपने ससुराल खिल-खिला रहे थे। शाम को तोरण के समय से कुछ जा रहा था। ससुराल दोनों ही पैदल ही जा रहे थे। पहले श्री सुकनराजजी बोहरा तिलक लगाने के लिए श्री सुराणाजी व नवपरिचित दोनों ही सजधजकर अपने आये । उन्होंने भी भंग जमा रखी थी। वे भी नशे में थे। गन्तव्य की ओर बढ़े जा रहे थे। रास्ते में नवपरिचित तीनों नशेबाज मिल गये। बहकी-बहकी बातें करने लगे। ने अपनी आदत के अनुसार बीड़ी पीना प्रारम्भ किया। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ कर्मयोग कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड श्री सुराणाजी ने बड़े आश्चर्य के साथ पूछा, यह क्या लगभग उतना हो राशि से एक भवन बनवाकर समाज को भाई ? बीड़ी की चुस्की लेते हुए नवपरिचित ने कहा- समर्पित कर दिया। उस समय में ऐसा क्रान्तिकारी कदम अरे तुम यह भी नहीं जानते ? ससुराल जा रहे हो। उठा लेना कोई कम बात नहीं थी। यह उनकी प्रगतिजमाई बनकर जा रहे हो। धूम्रपान तो जमाई के लिए शीलता का ही परिचायक है। बहुत जरूरी बात है। यह तो चार व्यक्तियों के बीच में ४. पशु-बलि बन्द करवा दी बैठकर अपनी शान जमाने की एक रामबाण औषधि है। बात बहुत पुरानी है । हैदराबाद में हर वर्ष प्लेग का श्री सुराणाजी नवपरिचित की बातों से फिसल गये और प्रकोप रहता था। उन्हीं दिनों वहाँ पर एक स्थानकवासी उसके साथ उसी क्षण धूम्रपान करने लग गये। धूम्रपान खद्दरधारी सन्त विराज रहे थे । उनका नाम था मुनि श्री श्री सुराणाजी को भी बहुत अच्छा लगा। उन्हें यह महसूस । गणेशमलजी । हैदराबाद में बुलारम क्षेत्र में देवी माता होने लगा कि उन्होंने कोई नयी उपलब्धि हासिल कर ली के कई मन्दिर हैं। देवी माता के मन्दिरों पर पूजा के है। अपने आप में फूले नहीं समा रहे थे । ससुराल पहुंचे। लिए काफी मात्रा में नरबलि व पशुबलि होती थी । ससुराल में ठाट-बाट के साथ आपका स्वागत हुआ। मुनिश्री गणेशमलजी ने फरमाया कि यदि यह नरबलि व स्नानादि करके भोजन किया। रात्रि में शयनकक्ष में प्रवेश पशुबलि बन्द हो जाय तो प्लेग नहीं आयेगा। अपने गुरु करते ही अपनी नवविवाहिता पत्नी से कहा कि यह धूम्र के निर्दिष्ट के अनुसार वहाँ के श्रावकों ने बहुत पानलशाका जला दो। श्रीमती सुन्दरबाई ने मना कर प्रयास किये लेकिन नरबलि व पशुबलि के इस क्रम में दिया । वह मन ही मन में सोचने लगी कि कैसी बुरी लत कोई अन्तर नहीं आ पाया बल्कि हुआ यह कि यह बीमारी है यह ! परन्तु श्री सुराणाजी को नया चस्का लगा ही था। बढ़ती ही गई। वधिकों ने महाजनों की दुकानों में खून वे इसे कैसे छोड़ सकते थे? स्वयं उठे । चिमनी के पास की बाल्टियाँ ला-लाकर डाल दीं। सभी श्रावक लोग गये । बीड़ी सुलगाई। धूम्रपान नया-नया सीखा था। निराश हो गये । स्थिति और बिगड़ती ही गयी। श्रावक बीड़ी सुलगाते-सुलगाते अपनी अंगुली ही जला बैठे। सब मिलकर मुनिश्री गणेशमलजी के पास गये और मुनिश्री अंगुली जलने के साथ ही श्रीमती सुन्दरबाई बोल पड़ी, से निवेदन किया-गुरुदेव ! यह हमारे वश की बात बहुत अच्छा हुआ, थोड़ी अंगुली और जल जाती तो नहीं है । जितने हमने प्रयास किए उससे नरबलि बन्द बहुत अच्छा होता । श्री सुराणाजी श्रीमतीजी की व्यंगभरी होना तो दूर रहा यह तो और भी ज्यादा बढ़ती जा बात छू गई। श्री सुराणाजी ने तत्काल उस धूम्रपानशलाका रही है। मुनिश्री भी काफी चिन्तित हुए और बोलेको फेंक दिया और जीवनपर्यन्त धूम्रपान न करने के केसरीमलजी कहाँ हैं ? श्रावकों ने बताया कि केसरी त्याग कर दिये । यदि श्रीमती सुन्दरबाई का कहना पहले मलजी मद्रास गये हुए हैं । मद्रास में उनकी काकी साहिबा ही मान लिया होता तो अंगुली तो नहीं जलती। लेकिन बीमार हैं। मुनिश्री गणेशमलजी ने फरमाया कि यदि यदि सुबह का भूला शाम को भी घर आ जावे तो उसे भूला नहीं कहना चाहिए । इसी एक घटना से उनके केसरीमलजी यहाँ होते तो अवश्य ही वे इस नरबलि व जीवन में ऐसा परिवर्तन आया कि भविष्य में वे कभी पशुबलि को समाप्त कराने में सफल होते । जब भी बुराई की ओर फटके ही नहीं। केसरीमलजी मद्रास से लौटे तो, उन्हें दर्शन करने के लिए कहिएगा। कुछ दिनों बाद श्री सुराणाजी मद्रास से ३. मौसर को राशि भवन-निर्माण में लौटे । लौटते ही उन्होंने मुनिश्री के दर्शन किये । मुनिश्री बात पुरानी है जब आपके एक अत्यन्त निकट सम्बन्धी ने सुराणाजी को सारी बात बताई और कहा कि केसरीकी मृत्यु हो गयी। प्रचलित रीति-रिवाज के अनुसार मलजी तुम्हें इसके लिए काम करना चाहिए। तुम इस मृत्यु-भोज करना अनिवार्य था। सभी रिश्तेदार-नातेदार बलि को रोकने में सक्षम हो। सफल हो सकते हो। श्री इस बात पर आमादा थे कि मौसर तो करना ही होगा। सुराणाजी को मुनिश्री की बात छू गई। मन में ठान ली परन्तु श्री सुराणाजी अपने मन में दृढ़ निश्चय कर चुके थे, इस अमानुषिक हत्या को बन्द कराने की । देवी माता की मैं इस रूढ़ि का निर्वाह नहीं करूंगा, चाहे लोग कुछ भी पूजा के समय से ६ माह से पहले आपने सारा काम-काज कहें । श्री सुराणाजी ने मौसर में खर्च करने की जगह छोड़ दिया और इस कार्य में जुट गये। प्रातः तीन बजे Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण २५ उठते । घर-घर जाते। नाना प्रकार से लोगों को सम- कोई बात नहीं हम अभी गाड़ी ठीक कर देंगे। सभी झाते । उनकी कठिनाइयाँ सुनते और रात्रि के १२ बजे व्यक्तियों ने गाड़ी को एक साथ धक्का मारा। गाड़ी चल तक इसी कार्य में जुटे रहते । विद्वानों के भाषण करवाते। पड़ी। कुछ ही समय में श्री सुराणाजी अपने साथियों इस हिंसा को बन्द कराने के लिए दिन-रात एक कर सहित गन्तव्य स्थान पर पहुँच गये। यह सब परम दिया। छ: माह तक धुआधार प्रचार किया। कई तरह आराध्य आचार्य भिक्षु के पुण्य प्रताप से ही सम्भव हो की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। एक व्यक्ति ने पाया । श्री सुराणाजी को कहा कि सेठ, तुम ब्याज खाना बन्द ऐसी ही एक घटना और है जो आचार्य भिक्षु के कर दो, हम हत्या करना बन्द कर देंगे । बात बड़ी पते स्मरण मात्र से टल गयी । एक बार त्यागमूर्ति श्री सुराणा की थी। श्री सुराणाजी पशोपेश में पड़ गये । ब्याज छूटना जी श्री ताराचन्दजी छाजेड़, श्री रूपचन्दजी भंसाली व कोई आसान बात नहीं थी। श्री सुराणाजी को एक नया श्री चांदमलजी के साथ अर्थ-संग्रह हेतु कर्नाटक पधारे । तर्क उपजा । श्री सुराणाजी ने कहा--भाई ! ब्याज तो हम सिमाली गांव का कार्य करके आपको चिगेड़ी जाना था । तब लेते हैं जब तुम्हें रुपया चाहिये । तुम वध करना चिगेड़ी सिमाली से २१ मील दूर बताया गया । सभी ने छोड़ दो। तुम्हें भंसा खरीदना ही नहीं पड़ेगा और न ही सोचा कि सूर्यास्त पहले-पहले पहुँच जायेंगे । अतः चिंगेड़ी तुम्हें ब्याज पर उधार की आवश्यकता पड़ेगी। यह बात के लिए रवाना हो गये । लेकिन हुआ कुछ अजीब ही । उस व्यक्ति की समझ में आ गयी। धीरे-धीरे सभी ने चिगेड़ी सिमाली से २१ मील के स्थान पर ७० मील दूर हत्यायें न करने का संकल्प लिया। इसके बाद देवी के निकला । ४८ मील पार किये कि सूर्यास्त हो गया। आगे कोई बलि नहीं चढ़ी। धीरे-धीरे प्लेग भी बन्द हो सूर्यास्त के पश्चात् अछाया में चलने के श्री सुराणाजी के गया । गणेशमलजी महाराज तथा श्री सुराणाजी के प्रयास त्याग हैं । अतः श्री सुराणाजी वहीं पर जंगल में एक झोंपड़े सफल हए। उस समय श्री सुराणाजी की उम्र २८-२९ में ठहर गये । रात्रि में उसी झोंपड़े में सामायिक, संवर, वर्ष की रही होगी । अहिंसा के प्रति उनका यह अनुराग प्रतिक्रमण आदि क्रियाओं में तल्लीन रहकर धर्म की लो सराहनीय था। 0 प्रज्वलित की। प्रातः वहाँ से पैदल ही चल पड़े। रास्ता ५. संकटमोचक आचार्य भिक्ष डरावना था । थोड़ी ही दूर पर एक शेर के दहाड़ने की आवाज आई । सभी घबरा गये । नर-केसरी काका साहब एक बार की बात है श्री सुराणाजी कुछ व्यक्तियों के ने मजबूती रखी। सभी को ढांढस बँधाया कि कुछ नहीं साथ खानदेश के दौरे पर थे। घने जंगलों को पार करते । होगा। श्री सुराणाजी जंगल में ही एक जगह बैठकर हुए उनकी कार अपने गन्तव्य की ओर द्रुत गति से बढ़ी . आचार्य भिक्षु के जाप में लीन हो गये । थोड़ी ही देर में जा रही थी कि अचानक कार उस बीहड़ पथ में रुक गई। वह शेर न मालूम कहाँ गायब हो गया । आचार्य भिक्षु रुकी तो ऐसी रुकी कि वापस हिलना तक सम्भव नहीं स्वामी के पुण्य प्रताप से एक नवजीवन सबको मिल गया। हआ। ऐसा लगा कि कार में कोई यान्त्रिक खराबी हो अन्यथा सभी को काल का ग्रास बनना पडता। गयी है । खूब प्रयास किये। धक्के लगाये। पर कार का चक्का जाम हो चुका था। स्थान एकदम डरावना एवं ६. काला साँप और लोगस्स पाठ ५ निर्जन था । जंगली जानवरों का भय भयभीत किये जा रहा जब काकासा ग्यारहवीं पडिमा कर रहे थे अर्थात् एक था। साथ वाले भी घबरा गये, पर श्री सुराणाजी ऐसी निश्चित अवधि के लिए पूर्ण साधु का-सा जीवन व्यतीत स्थिति में भी विलित नहीं हुए। वे एक स्थान पर कर रहे थे। भिक्षा को जाते और भोजन लाते । सुबह शाम आसन लगाकर भिक्षु स्वामी का जाप जपने लगे। जाप या दिन में आने वाले भाई-बहिनों को व्याख्यान देते । में एकदम ऐसे तल्लीन हो गये कि उन्हें इर्द-गिर्द क्या हो पूर्ण साधु का-सा जीवन था आपका। एक दिन सायंकाल रहा है इसका कुछ मालूम भी नहीं पड़ा। कुछ देर बाद प्रतिक्रमण करने के पश्चात् बाहर पधारे तो पाया कि उस निर्जन स्थान पर एक साथ १२ व्यक्ति आते दिखाई मकान की फाटक पर मार्ग में एक काला सांप पुफकार रहा दिये। उन्होंने पूछा-क्या आप की गाड़ी खराब हो गई था । दृश्य अत्यन्त भयावना था। कोई साधारण व्यक्ति हो है ? उन्होंने अत्यन्त सेवा-भाव से कहा कि घबराने की तो वहीं बेहोश हो जाये । लेकिन श्री सुराणाजी घबराये Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : प्रथम खण्ड .... . ................................................................... नहीं । सांप को देखते ही वे वापस अन्दर लौट गये। हुए। वे परीक्षा में खरे उतरे । घटना को सुनते ही मुझे ध्यानमग्न हो गये। लोगस्स मन्त्र का उच्चारण करने कवि की निम्न पंक्तियाँ स्मरण हो आई - लगे । लगभग पूरे एक घण्टे तक आपने जाप किया होगा। टपकाते हैं राल भेड़िये खाने को मुंह बाये हैं, फिर बाहर आये। देखा तो साँप बिल्कुल शान्त अवस्था घोर नाद करते है नाले नद विस्तार बढ़ाए हैं । में था। थोड़ी देर बाद आपकी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरबाई पर साहसी पथिक निर्भय हो अपने पथ पर जाता है। सुराणा बाहर से लौटी । आपने संकेत किया मार्ग में देख श्री सुराणाजी निर्भीक होकर के साधना पथ पर एक कर चलना चाहिए। श्रीमती सुन्दरबाईजी ने चारों ओर विमल एवं स्थिर प्रज्ञा वाले पुरुष की तरह बढ़ते रहे हैं । देखा परन्तु सर्प उन्हें दिखाई ही नहीं दिया। कहीं अदृश्य हो गया। यह सब श्री सुराणाजी की तपस्या, साधना और उपासक अवस्था में कामदेव श्रावक की कहानी भी मन्त्रोच्चारण का ही प्रतिफल है। कुछ ऐसी ही है । सामुद्रिक यात्रा के दौरान नौका में बैठे हुए कामदेव के साथ भी ऐसा ही कुछ घटित हुआ। इस ऐसे उपसर्ग श्री सुराणाजी की साधना में कई बार धर्म-नाव को छोड़ने की धमकी दैत्य ने दी। दैत्य ने कहाआये हैं पर वे कभी अधीर नहीं हुए। महान् पुरुष जो इस नाव को छोड़ दो वरना तुम्हीं क्या तुम्हारे साथ होते हैं वे न तो अनुकूल परिस्थिति में इतराते हैं और न सैकड़ों व्यक्ति मारे जायेंगे। उसके बीभत्स रूप और हृदयही प्रतिकूल परिस्थिति में घबराते हैं । विदारक ललकार को सुनकर नौका में बैठे सारे यात्री ७. दैत्याकार प्राणी का उपसर्ग काँप उठे । जीवन का भय उन्हें खाये जा रहा था । स्वजनअर्द्ध रात्रि का नीरव समय । सामायिक पट्ट पर परिजन एवं दोस्तों ने प्राणों की भीख मांगी-आयुष्मान आसीन काका साहब धर्म जागरण की लौ प्रज्वलित कर कामदेव ! कुछ समय के लिए धर्म को तिलांजलि दे दो। रहे थे। उसे बुझाने उठा एक भयंकर तूफान, दैत्याकार जिन्दे रहे तो धर्म और कर सकेंगे। ऐसा धर्म क्या काम एक भीमकाय प्राणी, लपलपाती लम्बी जीभ, लम्बे-लम्बे का जो जीवन को ही ले ले। नुकीले दांत, डरावनी आँखें, रूप इतना बीभत्स कि देखें डूबती-तैरती नाव तूफान में लड़खड़ा रही थी। तो कलेजा बैठ जाय । आते ही उस दैत्य ने सुराणाजी को कामदेव ने कहा-आप विचलित नहीं होइये । धर्म में ललकारा-अरे ! सामायिक छोड़ दे अन्यथा खत्म कर विश्वास रखिये। दूंगा। और टूट पड़ा भूखे भेड़िये की तरह, जैसे अभी कच्चा , ही चबा जायेगा। काकासाहब यह सब देखकर स्तब्ध रह विपत्ति जब आती है कायर को ही दहलाती है, गये । आश्चर्य ! महान् आश्चर्य ! इतने में दैत्य बोला--- सूरमा नहीं धीरज खोते क्षण एक नहीं विचलित होते, अबे ! क्या बहरा हो गया है ? सुनता नहीं ? बैठा है कष्टों को गले लगाते हैं कांटों में राह बनाते हैं। ध्यान की मुद्रा में । देखता हूँ तेरे ध्यान को । कैसे ध्यान धर्म का प्रताप बड़ा तेज होता है। धर्म को छोड़ने लगाता है ? और एक ही झपाटे में धम से काकासा को वालों को आज तक कभी सुख नहीं मिला है । कामदेव गिरा दिया । काकासाहब कुछ क्षणों के लिए घबरा गये। ने आगे कहा-शरीर के कपड़े उतार कर फेंके जा सकते किसी तरह अपना होश सम्भाला और पुन: पट्ट पर बैठ हैं, धर्म को नहीं। धर्म कोई थोपी हुई वस्तु नहीं गये । बैठे ही थे कि पुनः धड़ाम से जमीन पर गिर पड़े फिर है । धर्म मेरे शरीर की रग-रग में समाहित है। धर्म फिर सम्भले । फिर गिरा दिया । एक बार, दो बार नहीं, को छोड़ने की बात सोची भी नहीं जा सकती । आखिर सात बार उसने उठाया और पटका । साधनाशील सुराणाजी कामदेव की विजय हुई। देवता उसकी दृढ़ आस्था से हर बार ध्यानमग्न रहे। उन्होंने तत्काल एक संकल्प अभिभूत हो जाता है और क्षमाप्रार्थी बन क्षमा मांगता है। लिया कि यदि मैं इस उपसर्ग से बच गया तो चौविहार श्री सुराणाजी का उपसर्ग हमें कामदेव के उपसर्ग तेला करूंगा। और यदि इसी समय प्राण निकल गये तो की याद दिला देता है। सामायिक न छोड़ने का दृढ़ सागारिक अनशन में स्थित हूँ ही। प्राणों का व्यामोह संकल्प जैसे इतिहास की पुनरावृत्ति है। अर्द्ध-रात्रि में उन्हें अपने पथ से विचलित नहीं कर सका। ऐसे भयंकर आया दैत्य न जाने कहाँ अदृश्य हो गया। श्री सुराणाजी संकट में भी श्री सुराणाजी अपने पथ से विचलित नहीं भी कामदेव की तरह धर्म की कसौटी पर खरे उतरे। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण २७ ८. तमाचा भी : चन्दा भी सारे समाज का काम है । सारे देश का काम है । हम कोई साधु-सन्त तो हैं नहीं। आखिर जिस समाज में हम रहते एक बार की बात है आप अर्थ-संग्रह के लिए दक्षिण हैं उसके लिए भी तो हमें सोचना होगा। यदि साधु के के दौरे पर थे। मद्रास में एक धनी एवं सम्भ्रान्त व्यक्ति दृष्टिकोण से ही सोचें तो स्वामीजी ने कब कहा था तुम्हें की दुकान पर पधारे। दुकानदार दुकान पर नहीं था। मकान बनाने के लिए? स्वामीजी ने कब तुम्हें ब्याह करने पूछताछ से पता लगा कि वह कहीं होटल पर नाश्ते के की सलाह दी थी? क्या स्वामीजी ने ही तुम्हें सांसारिक लिए गया हुआ था। बुलाने के लिए भेजा गया। जब दल-दल में फंसने की सलाह दी थी? काका साहब की उसे पता लगा कि श्री सुराणाजी आये हुए हैं । चन्दा लेने बातों के आगे वह व्यक्ति अब निरुत्तर था। नतमस्तक के लिए आये हैं। वह आग-बबूला हो उठा। वहीं से गाली-गलौज करता हुआ अपनी दुकान की ओर बढ़ा। होकर काका साहब के चरणों में गिर पड़ा। फूट-फूटकर रोने लगा। अपने किये हुए पर बहुत पछता रहा था । बहुत होटल से दुकान तक के रास्ते में उसने अनेक हल्के शब्दों का प्रयोग श्री सुराणाजी के लिए किया । वह दुकान पर अनुनय-विनय की क्षमा करने के लिए। काका साहब ने पहुँचा । पहुँचते ही उसने श्री सुराणाजी के मुंह पर एक उसे गले लगा लिया और कहा-भाई ! यह तुम्हारा दोष नहीं है। तुमने जिस समय यह कार्य किया उस समय तमाचा मार दिया । किसी के घर संस्था के चंदे पर जाना और फिर आव-भगत में यदि कोई तमाचा मार दे तुम्हारा आदमी सोया हुआ था। तुम में शैतान निवास कर तो कोन व्यक्ति धैर्य रख सकता है ? ऐसा सामाजिक रहा था । पर वह व्यक्ति अपने किये का कोई प्रायश्चित्त कार्य कौन करेगा ? श्री सुराणाजी ने यह सब धैर्यपूर्वक नहीं खोज पा रहा था। उसने काका साहब से हाथ जोड़सहन किया। यह सब देखकर श्री सुराणाजी के साथ वाले कर अपना चन्दा स्वीकार करने के लिए अत्यन्त प्रार्थना लोग भी हक्के-बक्के रह गये। उनसे यह बात सहन नहीं की। जब काका साहब ने यह देखा कि अब यह व्यक्ति हो सकी। साथ वाले भी अच्छे सामाजिक कार्यकर्ता थे बदल चुका है । चन्दा स्वीकार नहीं किया तो यह व्यक्ति पर इस प्रकार के दुस्साहस की यह पहली घटना थी। आत्म-ग्लानि में कुछ भी कर सकता है। अतः ऐसी स्थिति प्रमुख रूप से श्री जसवंतमलजी सेठिया (समाजसेवी) व ' में उसका चन्दा स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर समझा। श्री जुगराजजी सेठिया साथ में थे। जैसे ही दुकानदार ने ऐसी ही एक घटना एक अन्य शहर की और है जहाँ श्री सुराणाजी की ओर हाथ बढ़ाया, इन दोनों सज्जनों पर काका साहब को इसी प्रकार से तिरस्कार व अपमान को बहुत गुस्सा आया और वे तुरन्त उस व्यक्ति को अच्छा सहन करना पड़ा। परन्तु काका साहब ने संस्था के काम खासा सबक सिखाना चाहते थे। परन्तु श्री सुराणाजी में अपने को कभी तिरस्कृत नहीं समझा। यह तो सम्पूर्ण ने उनको रोका और मौन रहने को कहा। लेकिन वह मानव जाति का कार्य है। निष्ठुर व्यक्ति फिर भी गाली-गलौज करता ही गया । यहाँ ६. डाकू भी परास्त हो गये तक कि परम पूज्य गुरुदेव आचार्यश्री तुलसी के बारे में संवत् २०१२ का चातुर्मास ! साध्वी श्री आशाजी न मालूम क्या-क्या कह दिया । श्री सुराणाजी को जो बातें आदि ठाणा ६ विराज रहे थे। एक दिन अचानक सम्पूर्ण उसने कहीं वे अत्यन्त घटिया किस्म की थीं। उसने कहा राणावास स्टेशन बस्ती पर सन्नाटा छा गया। सभी लोग यह सब पाखण्ड है, क्यों पापाचार करते हो? जैनधर्म भयभीत हो उठे। स्वयं काका साहब केसरीमलजी सुराणा में आडम्बर का कहाँ स्थान है ? क्या इससे कर्म नहीं भी सभी को हक्का-बक्का देखकर अवाक् रह गये। यह बँधते ? जैनधर्म चन्दा एकत्रित करने के लिए कहता है क्या ? सभी मौन ! चेहरे सभी के चिन्ता में डूबे हुए। क्या? आदि-आदि; न मालूम कितने ही प्रश्नों की झड़ी उसने इतने में आपकी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा ने लगा दी। काका साहब श्री सुराणाजी यह सब सुनते रहे, आकर हॉफते-हांफते बताया कि गजब हो गया। अब क्या पर एक शब्द भी नहीं बोले । जब थोड़ी देर बाद देखा होगा? स्टेशन पर चौदह डाकू आये हैं । अब क्या होगा? कि अब इसका गुस्सा कुछ कम हुआ है तो उसे बड़ी लूट मचायेंगे। काका साहब ने कहा कि घबराने की विनम्रता से समझाने लगे-अरे भाई ! जरा सोचो, हम आवश्यकता नहीं। तुम स्कूल चली जाओ और मैं सामाकोई अपने लिए तो इकट्ठा नहीं कर रहे हैं। यह तो यिक लेकर बैठ जाता हूँ । श्रीमती सुन्दरबाईजी ने - . . Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड - - - - - - - - - - - - - - -- - -. .. - --.-.-.. - - -- - - - - - - - - - - कहा--आप क्या कह रहे हैं ? इस दुविधा की घड़ी में लगती। सोने के गहने उन्हें पीतल के लगते । चाँदी की आपको सामायिक लेना सूझा है। मेरी तो जान पर आ वस्तु उन्हें कतीर की नजर आती । डाकुओं ने प्रत्येक पड़ी है । आप सामायिक छोड़कर मेरे साथ स्कूल पधारो। आभूषण को हाथ में लेकर देख-देखकर इधर-उधर फेंक पत्नी की मनोदशा देखकर काका साहब स्कूल पधार गये। दिया । यदि वे सारी सामग्री ले जाते तो सारा घर खाली स्कूल जाकर पहले सभी बच्चों को इकट्ठा किया। सारी हो जाता। पर पूज्य गुरुदेव भिक्षु स्वामी के प्रताप से बात उनको बताई और आदेश दिया कि सभी बच्चे तीसरी डाकू भी परास्त हो गये। वे अपनी बुद्धि खो चुके थे । मंजिल की छत पर पहुंचे। बच्चों ने वैसा ही किया । काका आँखें होते हुए भी अन्धे थे। डाकू सभी सामग्री छोड़कर साहब ने सभी बच्चों को घेरे में बिठाया और स्वयं बीच में चले गये। कुछ समय पश्चात राणावास गांव से काका बैठ गये । अब आपने आचार्य भिक्ष का जाप प्रारम्भ कर साहब के मामा श्री धनराजजी आछा आये। उन्होंने सारे दिया। बड़ी तन्मयता एवं तल्लीनता के साथ लगभग घर को बिखरा हुआ देखा। वे भी घबरा गये। पर जब २ घण्टे तक आप जाप करते रहे । आपका आत्मविश्वास यह देखा कि डाकू जेवरात को ले जाने के बजाय यहीं । आचार्य भिक्षु के प्रति श्रद्धा अनन्त थी । डाकुओं इधर-उधर बिखेर गये हैं तो उन्हें कुछ हिम्मत बँधी। का भय न मालूम कहां गायब हो चुका था। मन ही मन काका साहब के भाग्य को सराहा और सारी सामग्री एकत्रित कर ली एवं उसे सुरक्षित रख दिया। . इधर डाकू कब चूकने वाले थे। उन्होंने घर में प्रवेश थोड़ी ही देर बाद स्कूल से श्रीमती सुन्दरबाईजी एवं किया । जोर से आवाज लगाई पर उन्हें कोई उत्तर नहीं श्री सुराणाजी पधारे। उन्होंने सोचा था कि आज तो घर मिला। साध्वीजी अन्दर विराज रही थीं। जब डाकू जोर खाली हो चुका होगा । माल सब डाकू ले जा चुके होंगे। से आवाज देते रहे तो भीतर से साध्वी श्री चांदकंवरजी ने पर जब मामा साहब धनराजजी आछा ने सारी स्थिति जवाब दिया हम खालना नहा ह । उत्तर मडाकून कहा- बताई तो अपने आपको भाग्यशाली माना । काका साहब ने रंडी खोल वरना जान से मार दूंगा । साध्वी श्री चांदकंवर कहा कि यह सब आचार्य श्री भिक्षु का ही तो पुण्य प्रताप ही जी बड़ी निडर साध्वी थीं। आपने डाकू से कहा, मुंह है कि डाकू आये पर कुछ नहीं ले जा सके । सिर्फ पाँच-सात सम्भालकर बोलिए। हम साधु हैं। दरवाजा खोलना सौ का माल ले गये होंगे। शेष लगभग पेंतीस हजार रुपये हमारे नियम में नहीं है । डाकुओं को और ज्यादा क्रोध के आभूषण वहीं छोड़कर चले गए। उस समय के पैतीस आया और एक डाकू ने जोर से दरवाजे को लात मारी । हजार रुपये आज के हिसाब से पांच-सात लाख रुपये से कम दरवाजा खुल गया। प्रवेश करते ही डाकुओं ने साध्वीश्री नहीं । लगभग पांच सौ तोला सोना था और पांच हजार का सामान टटोलना प्रारम्भ कर दिया। माध्वीश्री चाँद तोला चाँदी थी। श्री सुराणाजी ने दूसरे दिन ही सारे आभूकंवरजी ने डाकुओं से कहा-इस तरह बिखेरिए मत । षणों को बाजार में बेच दिया और 'आभूषणों के विक्रय से इसमें तुम्हारे काम की कोई चीज नहीं है। यदि देखना प्राप्त सम्पूर्ण राशि श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव ही है तो हम बता देंगे। जसे ही साध्वी ने एक-एक वस्तु हितकारी संघ को प्रदान कर दी । देखिये श्री सुराणाजी का को बताना प्रारम्भ किया डाकू देख-देखकर बीच-बीच में त्याग ! कैसा था संस्था के प्रति अनुराग ! इतनी विशाल बोले-रहने दे । अच्छा बन्द कर। आगे चल आदि शब्द सम्पत्ति से एकाएक सम्बन्ध विच्छेद कर लेना कोई हँसीकहकर अन्दर के दरवाजे को खटखटाया। कोई उत्तर खेल नहीं। उसके लिए चाहिए हृदय की विशालता और अन्दर से न मिलने पर दरवाजे को फिर जोर से लात त्याग की भावना । इस त्याग के बल पर ही श्री सुराणाजी मारी । दरवाजा खुल गया। डाकू अन्दर घुस गये। अब आज जन-जन के आकर्षण के केन्द्र बन पाये हैं। धन्य है क्या था ? सारा माल, सोना-चाँदी, जेवरात, कपड़े, बर्तन इस लाड़ले सपूत को जिसने सारा घर समाज के लिए फूक एवं सब घर का सामान डाकुओं के कब्जे में था। पर धर्म दिया एवं तन, मन, धन से आज भी संस्था की सेवा में बड़ी चीज है । श्रद्धा बलवान है । आचार्य श्री भिक्षु का प्रताप यहाँ भी काम आ रहा था । डाकुओं की बुद्धि फिर गई थी। मानों उनकी बुद्धि पर पाला पड़ गया १०. चन्दा प्राप्त करने की कला था। जो भी वस्तु वे उठाते, उन्हें वह अच्छी नहीं जितने भी व्यक्ति कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण २६ के सम्पर्क में आये, वे आपके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए रोम में बसे हुए हैं। घटना कुछ इस प्रकार की है कि श्री बिना नहीं रहे । यह आपके व्यक्तित्व की एक विशिष्ट सुराणाजी को कालेज हेतु अर्थ-संग्रह यात्रा के लिए विशेषता है। इतना ही नहीं, आपके जीवन को देखकर प्रस्थान करना था। आपने राणावास से श्री पुखराजजी व्यक्ति सहज ही में आपके प्रति श्रद्धालु बन जाता है तथा कटारिया को बुलवाया और कहा कि उन्हें चन्दे की आपके कार्य में तन, मन, धन से हाथ बंटाने के लिए यात्रा में साथ चलना है । इस पर श्री कटारियाजी ने अपनी तत्पर हो जाता है। एक बार की बात है कोपलनिवासी असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि मेरे दुकानदारी का श्रीमान राणमलजी जीरावला की पत्नी श्रीमती संतोष- काम है। अभी कमाई का सीजन है । अतः आपका साथ देवी राणावास आयी हई थी। श्री सुराणाजी ने उन्हें नहीं दे पाऊँगा। श्री सुराणाजी में व्यक्ति को समझाने व कन्या विद्यालय के काम की रोज देख-रेख के लिए प्रेरित मनाने की कला बेजोड़ है। आपने श्री कटारियाजी से किया तथा उनसे आग्रह किया कि शाला के लिए वे कुछ कहा कि अब की यात्रा उड़ीसा तक की है तथा काफी आर्थिक सहयोग प्रदान करें। श्रीमती संतोषदेवी ने सहर्ष दूर-दूर तक जायेंगे। आते समय अपनी दुकान के लिए श्री सुराणाजी के इशारे पर इच्छित राशि प्रदान कर दी। कुछ सामान ले आना। सीजन की सारी कसर निकल कुछ दिनों बाद श्री राणमलजी का राणावास आगमन जायेगी। इस पर श्री कटारियाजी ने यात्रा में साथ चलने हुआ। उन्हें जब यह मालूम हुआ तो इस पर उन्होंने श्री के लिए अपनी सहमति दे दी। मुहूर्त के अनुसार श्री सुराणाजी को उपालम्भ दिया कि उन्हें इस प्रकार चन्दा सुराणाजी ने उन्हें बताया कि फाल्गुन शुक्ला तृतीया को नहीं लेना चाहिए था। श्री राणमलजी की बातों को सुन- प्रस्थान करना है। श्री कटारियाजी को फाल्गुन शुक्ला कर श्री सुराणाजी मौन रहे और हँभकर बात टाल दी। नवमी की एक शादी में अनिवार्यतः रहना था । धुन के धनी धीरे-धीरे कुछ ही दिनों में श्री राणमल जीरावला भी। श्री सुराणाजी कहाँ रुकने वाले थे ? उन्होंने श्री कटारियाजी श्री सुराणाजी से अत्यन्त प्रभावित हो गये और जिस चन्दे से कहा कि आप शादी से निवृत होकर आ जाना और लापरलेले नाराज थे उसी खला में स्वयं श्री सुराणाजी ने निश्चित तिथि के दिन ही प्रस्थान कदम और आगे जाकर स्वयं ने उन्हें बड़ी मात्रा में चन्दा किया । फाल्गुन शुक्ला १२ को नागपुर से श्री पुखराजजी प्रदान किया। श्री राणमलजी जीरावला से ही उस भवन कटारिया को तार द्वारा सूचित किया कि वे अब शीघ्र का उद्घाटन करवाया। यह है श्री सुराणाजी के व्यक्तित्व रवाना होकर आ जायँ । श्री कटारियाजी तार प्राप्त होते का जादू । लोग नहीं चाहकर भी चाहने लग जाते हैं। ही फाल्गुन शुक्ला १३ को रवाना होकर पूर्णिमा के रोज आखिर औरों के लिये निष्काम बनकर अनासक्त भाव सायं आठ बजे नागपुर पहुंचे। नागपुर शहर में काफी से जो अपना जीवन जी रहे हैं, उनकी त्याग, तपस्या, घूम-घूमकर पूछताछ की और पता चला कि श्री सुराणाजी साधना और लोक-कल्याण की भावना हर किसी को आज ही वहाँ से रायपुर पधारे हैं। श्री कटारियाजी आकर्षित किये बिना नहीं रहती। नागपुर से रायपुर गये । वहाँ पहुंचने पर पता चला कि वे वहाँ से प्रस्थान कर हैदराबाद पहुँच ११. भवितव्य का पूर्वाभास गये हैं। श्री कटारियाजी हिम्मत करके हैदराबाद पहुँचे । जब भी श्री सुराणाजी अर्थ-संग्रह की यात्रा पर जाते हैदराबाद में पता किया। आखिर बुलारम में आपसे हैं, यह देखने में आया है कि श्री पुखराजजी कटारिया व मिलना हुआ । तीन दिन तक हैदराबाद में कार्य किया। श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा सदैव यात्रा में साथ रहते हैं। तीन दिन के पश्चात श्री सुराणाजी ने कहा कि अब राम व सीता की यह जोड़ी तो जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्धों वापस राणावास चलना है। श्री कटारियाजी को बड़ा से है पर साथ में श्री कटारियाजी के रूप में यह लक्ष्मण अटपटा लगा और कहा कि यदि तीन बाद ही वापस नया ही है । श्री कटारियाजी व श्री सुराणाजी का सम्पर्क चलना था तो फिर मुझे बुलाने का क्या प्रयोजन था? बहुत पुराना नहीं है। वैसे श्री कटारियाजी काका साहब मैं आठ दिन रेल यात्रा करके आपके पास पहुंचा हूँ और से परिचित तो थे पर मामूली रूप में। केवल एक प्रसंग तीन दिन में ही वापस चलने का क्या औचित्य है ? श्री ने ही श्री कटारियाजी को श्री सुराणाजी के इतना नज- सुराणाजी ने कहा कि बस अब ज्यादा यहाँ ठहरना ठीक दीक ला दिया कि अब श्री सुराणाजी कटारियाजी के रोम- नहीं है तथा न ही आगे और कहीं जाना ठीक है। अतः Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड तुरन्त वापस चलना ही ठीक है। श्री सुराणाजी की बात कटारियाजी भी घबराये, डाक्टर को लाए। डाक्टर ने कब्ज सुनकर श्री कटारियाजी ने निवेदन किया कि अच्छा, बताया। एनिमा आदि दिया । ज्यों-त्यों बड़ी मुश्किल से आप राणावास पधारें पर मुझे तो यहाँ से मद्रास जाने रात निकाली। दूसरे दिन सुबह कार में जोधपुर ले की स्वीकृति दिरावें । अब आया हूँ तो कुछ न कुछ काम गये । वहाँ तत्काल डाक्टर ने उन्हें अस्पताल में दाखिल तो मैं करके ही लौटूगा । श्री सुराणाजी ने कहा पहले कर लिया। हालत बड़ी नाजुक थी । ग्लूकोज दिया । खून आप मुझे राणावास पहुंचा दीजिए यदि मद्रास का कार्य देने की भी जरूरत पड़ी। उनकी पत्नी ने मना कियाकरना है तो राणावास से पुनः आ जाना। श्री सुराणाजी तुम कमजोर हो, खून मत देना फिर भी श्री कटारियाजी ने ऐसा शायद किसी पूर्वाभास के आधार पर कहा होगा। अपना खून देने को तैयार थे किन्तु खून का नम्बर खैर, तीन दिन पश्चात ही श्री कटारियाजी ने भी श्री नहीं मिला । अन्य जगह से प्रबन्ध हुआ। सभी तरह के सुराणाजी के साथ राणावास के लिए प्रस्थान किया। प्रयत्न किये गये पर विधाता को कुछ और ही मंजूर चैत्र शुक्ला ६ को जोजावर पहुँचे । मार्ग में फुलाद पर था। रात्रि में ११.३० बजे श्री कटारियाजी की धर्मपत्नी स्वयं श्री सुराणाजी ने श्री कटारियाजी से कहा कि आज परलोक सिधार चुकी थीं। जोधपुर से मृत शरीर को राणावास चलकर भोजन आपके यहाँ करेंगे। यह सुनकर रात्रि में ३ बजे राणावास लाया गया। सुबह दाह संस्कार श्री कटारियाजी ने अपने भाग्य को सराहा और कहा कि हुआ । श्री कटारियाजी की मनोदशा बिल्कुल भिन्न थी। यह तो मुझ पर बहुत बड़ी कृपा होगी। कार सीधी श्री एक ओर जहाँ वे पत्नीशोक में मग्न थे, वहीं दूसरी ओर कटारियाजी के घर पर जाकर रुकी। पहले श्री सुराणाजी वे श्री सुराणाजी के प्रति अत्यन्त आभार मान रहे थे। ने कटारियाजी के घर में प्रवेश किया और अन्दर जाकर उनके कहने से ही वे तीन दिन पश्चात ही हैदराबाद से उनकी धर्मपत्नी से कहा कि आज मैं भोजन आपके यहाँ पुनः लौट आये थे, अन्यथा वे तो एक माह का कार्यक्रम करूंगा । बारह बजे वापस आऊँगा। आप भोजन तैयार लेकर गये थे। मरने से पहले पत्नी से मिल तो सके । रखें। कटारियाजी की श्रीमतीजी भी बहुत प्रसन्न हुई उसको बीमारी में सम्भाल तो सके । अन्यथा यह वियोग और बहुत उल्लासपूर्वक श्री सुराणाजी के लिए भोजन जीवन भर खलता। श्री सुराणाजी के कहने से वे लौटे बनाने के कार्य में जुट गई । ठीक समय पर भोजन तैयार और लौटकर पत्नी से मिल पाये, इस बात ने श्री कटाहो गया। इधर श्री सुराणाजी भी ठीक बारह बजे पधार रियाजी के मन में श्री सुराणाजी के प्रति अगाध श्रद्धा गये । साथ में श्री दयालसिंहजी गहलोत, श्री ताराचन्दजी उत्पन्न कर दी। वे अब श्री सुराणाजी के पक्के भक्त बन लूकड़, श्री चौथमलजी कटारिया आदि भी थे। सभी चुके थे। उन्हें तो बस श्री सुराणाजी के एक इशारे की लोगों ने श्री कटारियाजी के यहाँ भोजन किया। शाम जरूरत थी। उनके मन में श्री सुराणाजी के प्रति अगाध को अचानक श्री कटारियाजी की श्रीमती जी की तबियत श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। धीरे-धीरे उन्होंने श्री सुराणाजी के खराब हो गयी। जब श्री कटारियाजी घर में आये तो जीवन से बहुत कुछ सीखा। अपने जीवन में त्याग, उनकी पत्नी कुछ खिन्न होकर बोली कि मैं तो मरी जा रही तपस्या और व्रतों को अपनाया। आज श्री कटारियाजी हैं और आप बाहर कहाँ थे? श्री कटारियाजी ने कहा कोई बहुत ही सात्त्विक, एवं समाज-सेवी बन गये हैं। यह सब गोली ले लो ठीक हो जाओगी। इस पर उनकी पत्नी ने उत्तर श्री सुराणाजी के ही व्यक्तित्व का असर है । व्यक्ति निर्माण दिया, अब मैं बचने की नहीं हूँ मेरा काल आ गया है । श्री का ऐसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है । 00 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण ३१ मेरे सर्वस्व: मेरे भाई साहब 1 श्री भंवरलाल सुराणा, (बोलारम) मैं जब केवल उन्नीस दिन का शिशु था, मेरी माताजी ३. वात्सल्य की वर्षा स्वर्ग सिधार गईं। छः-सात वर्ष की उम्र हुई कि पूज्य 4 मेरे भाई साहब श्री केसरीमलजी सुराणा मेरे से पिताजी का साया भी मेरे सिर से उठ गया। मेरी जीवन पर शुरू से ही बड़ा प्रेम रखते आये हैं । वे एक क्षण के नौका को पार लगाने के लिए मेरे बड़े भाई साहब श्री लिये भी मुझे आँखों से ओझल नहीं होने देते । जब मैं केसरीमलजी सुराणा का ही तब से वरद हस्त मेरे पर है। मैं जो कुछ आज हूँ, वह सब उनके वात्सल्य एवं : बड़ा हो गया तो मुझे व्यापार के काम से कभी बाहर नहीं भेजते । एक बार की बात है जब मैंने भी व्यापार अनुशासन के कारण ही हूँ, वे मेरे लिये जितने सहज एवं में उनका हाथ बँटाने का निवेदन किया तो भाई साहब ने स्नेहपूर्ण थे, मेरे जीवन को बनाने के लिये उतने ही कठोर भी थे । मेरे लिये तो वे पिता, बड़े भाई, गुरु, आराध्य मुझे पूरना (हैदराबाद) में कुछ सामान की खरीददारी के लिए भेज दिया । मुझे पूरना से वापस दूसरे दिन रात सब कुछ वे ही हैं । आदरणीया भाभीजी सुन्दरदेवी ने तो को आठ बजे बोलारम पहुंचना था, लेकिन दैवयोग से मुझे माँ जैसा स्नेह दिया । आप दोनों ने मेरा जीवन कैसे । गाड़ी खराब हो गयी और रात को ढाई बजे गाड़ी बोलाबनाया, उसके कुछ संस्मरण याद आ रहे हैं, उन्हें यहाँ रम स्टेशन पर पहुंची, उस समय देखता क्या हूँ कि भाई व्यक्त कर रहा हूँ: साहब यात्रियों की भीड़ में बड़ी उत्सुकता से किसी को १. सिगरेट आरोगिये हूँढ रहे हैं, ज्योंही मैं उन्हें नजर आया उन्होंने दौड़कर मैंने एक बार बुरी संगत से सिगरेट पीना सीख मुझें छाती से लगा लिया, उनकी आँखों में आँसू भर आये। लिया । न जाने छुपाने पर भी भाई साहब को कैसे पता राम-भरत के मिलाप का दृश्य पैदा हो गया । रुधे गले चला, पर उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा से बोले-गाड़ी नहीं आने से मेरे मन में तरह-तरह के विराजिये । मैं समझ गया आज कोई पेशी का जवाब देना विचार आ रहे थे । घर पर समय नहीं कट रहा था। पड़ेगा । फिर नौकर सैयद से कहा एक सिगरेट लाना तो, एक-एक क्षण एक-एक वर्ष की तरह लग रहा था, इसीलिए जब सिगरेट आ गई तो मेरे हाथ में थमाते हुए कहा- स्टेशन पर आगया। जब हम स्टेशन से घर आये तो मेरी आरोगिये, इसी में ही तो आपको आनन्द आता है न! पूजनीया भाभीजी से उन्होंने कहा-इसे बहुत भूख लगी उसके साथ ही कसकर दो-चार चाँटे जमाये। जिसकी होगी, इसे चावल प्रिय हैं । इसे चावल बनाकर खिलाओ, चोट आज तक भी मुझे याद आती है, इसके साथ ही मेरा तब सोने दो और हुआ यही, उन्होंने मुझे बड़े प्रेम से चावल सिगरेट पीना भी छूट गया। 0 खिलाकर सुलाया। २. मेरी आँखें खुल गई मेरे प्रति उनका कितना अनुराग था, इसकी एक ___ जब मैं छोटा था, मेरा पढ़ने में मन नहीं लगता था, घटना और याद आ रही है। उस समय राणावास में इसलिए समवयस्कों के साथ कहीं भी खेलने निकल जाता। धनराजजी स्वामी विराज रहे थे और मांडा गाँव में एक दिन भाई साहब श्री केसरीमलजी सुराणा को पता साध्वी रुक्माजी विराज रही थीं। साध्वी रुक्माजी के चला तो उन्होंने मुझे एक भारी काठ के बक्से के साथ साधुजीवन में कुछ शिथिलाचार आ गया था । आचार्य श्री बाँध दिया। दुकान से घर तक जाना होता तो पेटी को तुलसी का आदेश आया कि रुक्माजी को समझाया जावे हाथ में लेकर बंधे पैर से ही जाना पड़ता था। यों सात और कहा जावे कि या तो वे तेरापंथ धर्मसंघ की मर्यादा दिन तक कैदी की तरह रहने पर मेरी आँख खुल गई पालें अथवा संघ से अलग हो जायें । मैं, धनराजजी स्वामी और अक्ल ठिकाने आगई । वे मुझे एक पल भी आँखों से और श्री बस्तीमलजी छाजेड़ उन्हें समझाने मांडा गये । दूर नहीं रखना चाहते और न ही मेरी जिन्दगी बर्बाद उन्हें काफी समझाया लेकिन वे नहीं मानीं। जब हम होना उन्हें मंजूर था। आज जो कुछ मैं हूँ, वह सब उनके वापस राणावास लौटे तो रास्ते में पानी का एक नाला पुण्य प्रताप और कठोर अनुशासन के कारण ही हूँ। 0 पड़ता है, उसमें पानी बहुत था, उसे पार करना उचित -0 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड . ...... ........................................................... .... नहीं समझा। हम सिरियारी में ही रुक गये। जब मैं समय वास्तव में मेरे बड़े भाई मेरे भाई ही नहीं मेरे पिता पर राणावास नहीं पहुंचा तो भाई साहब बहुत चिन्तित तुल्य भी हैं । हो गये । उन्होंने सब ओर पूछताछ की, किसी ने वता ४. संस्था के प्रति लगन दिया कि उनके छोटे भाई मांडा से कल ही रवाना हो एक बार की बात है कि मैं बीमार हो गया । गये हैं तो उनकी चिंता और बढ़ी। उन्होंने डॉ० वी० सारे घर वाले चिन्तित थे। भाई साहब को मालूम होते एन० वशिष्ठ, रूपजी माली आदि को मुझे ढूंढ़ने भेजा। ही तुरन्त पधारे । आपके असीम वात्सल्य और भ्रातृ-प्रेम रूपजी माली मुझे ढूंढते हुए सिरियारी आये, मुझे देखकर पर मैं श्रद्धानत हुए बिना नहीं रह सका। मेरी भावना थी सारी स्थिति बताई और कहा कि आप राणावास नहीं कि मुझे आप शीघ्रातिशीघ्र आचार्यश्री के दर्शन करवाएँ। पहुंचे, इस चिन्ता से आपके भाई साहब को बुखार आ आपने मेरी भावना का आदर करते हुए कहा-एक बार गया है, और दस्तें भी लगनी शुरू हो गई हैं। मैं तत्काल तो मुझे संस्था के किसी विशेष कार्य के लिए जाना होगा। रूपजी के साथ रवाना होकर राणावास पहुँचा । तब कहीं क्योंकि मैं चन्दे का संकल्प लेकर चला हूँ। करीब दो माह जाकर भाई साहब को शान्ति हुई। राम सदृश ऐसे बड़े के बाद वापस आकर मुझे दर्शन करवाए। यह है संस्था भाई को पाकर कोन छोटा भाई गर्व नहीं अनुभव करेगा। के प्रति रही उनकी लगन का एक उदाहरण ! खीर वापस कर दो 0 मुनि श्री जसकरण (सुजान) वि० सं० २००२ की हमारे राणावास पावस प्रवास बोडिंग से । केसरीमलजी ने कहा-खबरदार ! बोडिंग की की घटना है, एक दिन केसरीमल ने गोचरी की अरज कोई भी चीज नहीं लेनी चाहिये, वरना लोग कहेंगे की । भण्डारीजी के मकान में हमारा चातुर्मास था। केसरीमलजी तो बोडिंग के माल-मसाले खाते हैं । सन्तों ठीक उसके सामने ही केसरीमलजी और उनकी धर्मपत्नी के सामने ही अपनी पत्नी को डांटने-फटकारने लगे और रहते थे । मैं गोचरी के लिए गया, उन्होंने अपने हाथ से कहा-यह खीर तत्काल वापस लौटा दो, भविष्य में कोई सन्तों को आहार बहाया और अपनी पत्नी से कहा भी चीज बोडिंग की मत लेना । मैंने सोचा, ऐसे निःस्वार्थ और क्या है ? उन्होंने कहा, खीर है। केसरीमलजी ने व्यक्ति ही संस्था के काम को सुचारु रूप से चला पूछा-खीर कहाँ से आई ? प्रत्युतर में धर्मपत्नी ने कहा, सकते हैं । मरना एक बार है 0 मुनि श्री पूनमचन्द भगवान महावीर ने भगवती में स्थान-स्थान पर यही सच्ची स्थायी दवाई है। वैसे ही हुआ मन के मनोरथ श्रावकों के वर्णन में श्रावकों को प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी आदि पूरे हुए। विशेषणों से सम्बोधित किया है। जिन-शासन में आज भी दूसरा चातुर्मास सं० २०२६ में मेरा हुआ। तब भी ऐसे अनेक श्रावक हैं, उनमें एक श्री केसरीमलजी सुराणा उनकी सहनशीलता का संस्मरण स्मृति-पटल पर है। प्रसिद्ध हैं। देवेन्द्रमुनि को साथ ले जोजावर बाल मुनि से मिलने के लिए गया । तब आप एवं दूसरे अनेक भाई भी पैदल सेवा वि० सं० २००४ के चातुर्मास में सतरंगी तपस्या में साथ थे । वापस लौटते समय रास्ते में गर्मी के कारण प्रारम्भ हुई, जिसमें केसरीमलजी ने भी योगदान दिया। आपको वमन होने लग गई। शाम का समय था, सबने शायद तेले की तपस्या में रात्रि को अचानक शारीरिक आग्रह किया कि गाड़ी में चढ़ जायें, किन्तु नहीं चढ़े। तकलीफ हो गयी, डाक्टर ने इंजेक्शन लेना जरूरी पदल सेवा में ही धीरे-धीरे चलते रहे और राणावास बताया किन्तु आपने दृढ़ता का परिचय देते हुए कहा, पैदल ही चलकर आये। उनका कहना था, वेदनीय कर्मों मरना एक बार है। मन इच्छित तपस्या करके रहूँगा, के बन्ध हैं, घबराने से आत्मकल्याण कैसे होगा? . Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण ३३. .......................................................................... जब पर में कांटा चुभवाया मुनि श्री अगरचन्द वि० सं० २०१५ की बात है, उन दिनों केसरीमलजी जो भी कांटे की उस तकलीफ को देखता दांतों तले सुराणा ग्यारहवीं पडिमा कर रहे थे । पडिमाधारी अंगुली दबा लेता। वे उनके कष्ट को देखकर कांटे को श्रावक बहुत कम होते हैं। इसमें समस्त कष्टों को सम- निकालना भी चाहते, लेकिन वे दृढ़ता के साथ मना कर भाव से सहन करना होता है । श्री सुराणाजी ने यही सोच देते । काफी दिन तक समभाव से यह कष्ट सहन किया। कर अपने पैर में एक काँटा चुभवाया। उस कांटे को पैर उनकी इस आत्म-शक्ति ने ही उन्हें साधु पुरुष के रूप में ही चुभा हुआ रहने दिया । चलने-फिरने में बहुत कष्ट में प्रतिस्थापित किया है । होता था। किन्तु केसरीमलजी ने उफ् तक नहीं किया, कौन कहता है सुराणाजी कठोर हैं ? 0 साध्वी श्री सूर्यकुमारी (सरदारशहर) वि. सं २०१६ में जब हम राणावास पहुंचे तो बस, फिर देखो, सारी बाधायें वहीं समाप्त हो जायेंगीं। हमारे मन में डर का भूत सवार हो रहा था, क्योंकि दूसरी बात यह है कि भारतीय संस्कृति में मर्यादा का हमने सुन रखा था कि सुराणाजी बहुत कठोर स्वभाव के बहुत महत्त्व है। छोटी-छोटी मर्यादाएँ भी बहुत बड़ा हैं, उनके सामने किसी का भी टिकना बहुत मुश्किल की राजपथ पकड़ा सकती हैं। आप अभी बालक हैं। इन बात है, लेकिन जब हमने प्रत्यक्ष में उनका व्यवहार बातों का ध्यान रखना; आपका जीवन चमकेगा। देखा तो आँखों को विश्वास ही नहीं हुआ। . ये दोनों बातें आज भी मुझे याद हैं। साधु जीवन एक दिन उन्होंने मुझे कहा, साध्वी सूर्यकुमारीजी ! में इन दोनों बातों का बड़ा महत्त्व है । तेरापंथ मैं आपको दो बातें बता रहा है, उनमें से पहली बात तो धर्म संघ की तो मूल भित्ति ही ये दोनों बातें हैं। अब है विनय ! विनय को ही परम कर्तव्य समझो ! कोई मैं सोचती हूँ कि सुराणाजी कठोर कहाँ हैं, वे तो एकदम, भी कुछ भी कहे तो आप हाथ जोड़कर स्वीकार कर लो। विनम्र हैं। वे स्वयं विनय व मर्यादा की खान हैं। 00 अटल नियम : पौरुष के खिलाड़ी 0 साध्वी विनयवतीजी (झांसी) V सूश्रावक केसरीमलजी सुराणा का जीवन नियमों की बारे में पूछताछ की तो बताया गया-यहाँ से चिनगारी भित्ति पर टिका है। नियम ही आपके जीवन के बहुमूल्य चालीस मील के लगभग है। निर्धारित कार्यक्रम के अन. आभूषण हैं । एक भी नियम लेना और उसका सम्यक् सार कार रवाना हुई और ठीक चालीस मील का रास्ता रूपेण पालन करना जहाँ आज के बुद्धिजीवियों के लिए तय कर चुकने के बाद गाड़ी एक झोपडी के पास आकर अपनी शक्ति के बाहर हो गया है। वहाँ आपका सारा रुको क्योंकि सूर्य अस्त होने वाला था और आपके कालोकाल जीवन नियमों से ओत-प्रोत है। सामायिक प्रतिक्रमण करने का नियम है, आप गाड़ी से एक बार की बात है कि संस्था निर्माण हेतु चन्दा नीचे उतरे और झोंपड़ी के मालिक से अन्दर आने की एकत्र करने के लिए आप अपने कुछ साथियों सहित आज्ञा पा सामायिक-प्रतिक्रमण में लीन हो गये। सामायिक दक्षिण यात्रा पर थे। यात्रा के दौरान एक दिन आप आने के पश्चात आगे का रास्ता तय करने की सोची. सभी लोग सीमोगा पहुंचे। वहाँ के कार्य से निवृत होकर लेकिन कैसे तय करें? रात्रि में कार में सफर करना आपको चिनगारी जाना था। वहां के लोगों से मार्ग के नहीं था, यह भी आपके नियम है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०३४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड 1000... .. ... ... .. . . . . . ...... . . ... . . . ........ . .. उस झौंपड़ी से चिनगारी इक्कीस मील और बाकी बात नहीं है, सभी अपनी-अपनी टार्च सम्भालो और थी। अतः चिनगारी पहुँचना भी जरूरी था, इसलिए जपना शुरू करो हमारे आराध्य देव भिक्षु स्वामी का आपने पैदल चलने का निर्णय लिया और पैदल यात्रा जाप । सभी ने तन्मय होकर स्वामी को जपना प्रारम्भ शुरू की। आपके इस अटूट साहस को देखकर साथ किया कि कुछ ही क्षणों में आवाज गायब थी और शेर न वाले सभी साथी पैदल चलने लगे। भिक्ष स्वामी का मालूम कौन से रास्ते का राही हो गया। नाम आपके होठों पर मुखरित था । ये हैं आपके अटल नियम और दृढ़ आस्था के अचानक शेर के दहाड़ने की कर्णभेदी आवाजें सुनाई परिचायक सूत्र ! एक बजे के लगभग आप सकुशल साथियों देने लगीं। यामिनी के नीरव वातावरण में ऐसा लग रहा सहित इक्कीस मील की यात्रा कर चिनगारी पहुंचे। था, मानो शेर कहीं बिल्कुल नजदीक में ही है। सभी आप अपनी शक्ति में विश्वास रखते हैं और अपने पौरुष के हृदय भय से प्रकंपित थे, उपस्थित सभी साथी एक से खेलते हैं, किसी भी कार्य को इसलिए नहीं छोड़ देते कि दूसरे की तरफ निहारते हुए सोचने लगे, अब क्या होगा? यह दुरूह है । असाध्य को साध्य करने के संस्कार आपको पैरों की गति मंथर पड़ने लगी। जन्म से प्राप्त हैं। तब सबको सावधान करते हुए कहा-डरने की कोई 00 मन्त्र की शक्ति - श्री अशोककुमार भण्डारी, पेटलावद पांच दिसम्बर सन् १९६७ को दिन के ठीक १ बजे परिस्थिति आये तो इस मन्त्र को याद करना, सभी खाना खाकर छात्रावास के सभी विद्यार्थी आराम कर रहे कठिनाइयों का समाधान हो जावेगा । इस मन्त्र को थे। उस वक्त मेरी उम्र करीबन १७ वर्ष की थी कि सभी विद्यार्थियों ने याद किया, मन्त्र इस प्रकार थाअचानक छात्रावास की घण्टी बजी और यह आवाज सुनाई अरिहन्ते सिद्ध धम्म सरणम् सु पवज्जामी। दी कि सभी विद्यार्थी सभा-भवन में एकत्रित होइए । लगभग विघ्न हरण मंगलमय तेरा स्मरण सदा अन्तर्यामी । १५ मिनट के दौरान सभी छात्र अपनी कक्षा के अनुसार आज यह मन्त्र मेरी हरेक तकलीफ का एकमात्र क्रमबद्ध एवं अनुशासनपूर्वक कतार में बैठ गये। सभा समाधान है। भवन के मुख्य स्टेज पर भाव-पूर्ण मुद्रा में निडर एवम् साहसी व्यक्ति आदरणीय काका साहब बैठे हुए थे। कुछ ये सब हमारी सन्तानें हैं देर पश्चात् काका साहब ने कहा-आज मैं बगीचे (जहां सन् १९६८ में जब श्री केसरीमलजी सुराणा पंजाब में पर आदर्श निकेतन का छात्रावास का खेत एवं बगीचा है) चन्दा लेने के लिये गये तब एक भाई ने उनसे पूछा-सुराणा से आ रहा था। मेरे साथ भेरुलालजी जैन गृहपति भी साहब आपके कितने सन्तानें हैं । तब सुराणा साहब एवं थे। दिन के ठीक १२ बज चुके थे कि जंगल में नदी के माताजी ने कहा-श्रीमान् हमारे तीन सौ पचास पुत्र एवं किनारे हमें कुछ डरावनी आवाजें सुनाई दीं । उस वक्त १६८ पुत्रियाँ हैं जो कि छात्रावास में पढ़ रहे हैं । ये सब मैंने एक मन्त्र का जाप करना शुरू किया और थोड़ी हमारी ही तो सन्तान हैं । आपका बच्चों पर कितना स्नेह, ही देर में हम उन डरावनी परिस्थितियों से मुक्त हुए और कितना अपनत्व और माताजी की कितनी ममता हम आपने वह मन्त्र हम सभी विद्यार्थियों को उसी वक्त लोगों पर थी जो आज तक हमारी स्मृति-पटल पर विद्यमान सिखाया और कहा, किसी वक्त कभी भी कोई बुरी है। 00 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . संस्मरण - - - - काकासा की विनम्रता । श्री हीरालाल गांधी 'निर्मल' (ब्यावर) जब भी मैं राणावास जाता हूँ, काका साहब श्रीमान् और मेरी ओर देखकर सोचने लगे। मैंने पुनः कहाकेसरीमलजी सुराणा के दर्शन अवश्य करता हैं। मुझे आप उसी तरह आशीर्वाद दें जैसे मेरे पिताजी कहा उनके जीवन में महात्मा गांधी की झलक दिखाई देती करते थे-जीते रहो, फलो-फूलो, सुखी रहो आदि । है-वही धोती, वही सादा जीवन, वही सरलता, वही सदा गम्भीर रहने वाले काका साहब मुस्कराकर दृढ़ता, एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार । मुझे उनके दर्शन कर साधु- मेरी ओर देखने लगे । मुझे उनकी मुस्कराहट में स्वीकृति सन्तों जैसी आत्म-शक्ति का अनुभव होता है। की झलक दिखाई दी। दूसरे दिन मैं फिर काका साहब एक बार मुझे वहाँ कुछ दिन रहना पड़ा । मैं सायं- से मिला। काल श्री अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ के काका साहब प्रणाम-मैंने कहा । कार्यालय में उनके दर्शन हेतु गया। नत-मस्तक हो मैंने "प्रणाम'-काका साहब का उत्तर था। काका साहब को कहा-"प्रणाम" मुझे झटका-सा लगा, क्योंकि मैं इस आशा में था प्रत्युत्तर में काका साहब बोले-"प्रणाम" कि आज वे आशीर्वाद के वचन अवश्य कहेंगे। मैं उनकी काका साहब के सामने मैं उनके पुत्र के बराबर था। ओर एकटक देखने लगा। काका साहब को भी इसका काका साहब के मुख से अनेकों बार 'प्रणाम' का प्रत्युत्तर आभास हुआ। वे मेरी ओर देखकर मुस्करा दिये । उनकी 'प्रणाम' सुन-सुनकर मैं पूरी तरह तृप्त हो चुका था। आँखें तथा मुस्कान यह स्पष्ट कह रहे थे कि क्या आपने वचन मनना चाहता था। करूं प्रणाम के उत्तर में प्रणाम कहना मेरा स्वभाव बन आखिर हिम्मत कर मैंने कह ही दिया-"आप हमेशा चुका है। प्रणाम का उत्तर प्रणाम से देते हैं, मैं आपसे आशीर्वाद - जब मैंने मेरी पत्नी श्रीमती स्वरूप जैन, जो कि वहाँ लेने को आता है। मेरी यह आकांक्षा पूरी नहीं होती। गहमाता एवं अध्यापिका के रूप में कार्यरत थी, से कहा आपके मुंह से 'प्रणाम' सुनकर मैं स्वयं लज्जा का अनुभव तो उन्होंने भी कहा कि उनके साथ भी यही होता है । करता है कि पिता द्वारा पुत्र को प्रणाम कैसे ? ....पुत्र तब से मैं उनके प्रणाम शब्द को आशीर्वाद-वचन के तब क्या करे और क्या कहे ?" रूप में ग्रहण करता हूँ। वे अपने हाथ के पत्रों को देखते हुए तनिक रुके ऐसी है-काका साहब की विनम्रता ! In साक्षात् राजा मोहजीत - साध्वी श्री कंचनकुमारीजी (लाडनू) एक बार श्रावक केसरीमलजी किसी कार्यवश बम्बई हुआ। अन्तिम समय में बहन सुन्दरबाई अपने भाई गये। अचानक तार द्वारा अनुज भाई की मृत्यु का केसरीमलजी के गोड़े पर सिर रखकर लेटी हुई थी। संवाद प्राप्त हुआ । तत्काल भाई की स्मृति में चौले की भाई केसरीमलजी अपनी बहन को धर्माराधना करा रहे तपस्या पचक्ख ली । आकस्मिक निधन पर संवेदन न करना, थे। निकट में विराजित मुनिश्री से प्रार्थना कर मंगल आँखों से आंसू न बहाना सचमुच ही आत ध्यान व रौद्र पाठ सुनाया। महामन्त्र नवकार का पाठ सुनाते-सुनाते ध्यान की ग्रन्थियों पर विजय पाना है । बहन का स्वर्गवास हो गया। एक अनहोनी, अकल्पित दुसरा प्रसंग है आपकी प्रिय भगिनी की जुदाई का। हृदय को कचोटने वाली इस घटना पर उनकी आँखों से प्रिय बहन सुन्दरबाई राणावास में अचानक बीमार हो एक आँसू तक नहीं निकला। रोना-पीटना बन्द करा गयी। उपचार भी बहुत किया गया पर कोई असर नहीं दिया गया। रस्म को अदा करने गली-मुहल्ले की बहन Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड रोती हुई केसरीमलजी के सदन में आईं। केसरीमलजी वेदनीय कर्म समता से कागा सुराणा ने कहा-अगर आपको ज्यादा दुःख है तो आप एक बार श्रावक केसरीमलजी अचानक बीमार हो सभी बहनें आज उपवास पचक्ख लें। सारी बहनें चली गये । सभी लोग चिन्तित हो गये । पर उनके मुह से कभी गई। इस घटना-प्रसंग से साक्षात् राजा मोहजित का हाय या उफ् शब्द नहीं निकला। किसी के पूछने पर यही उदाहरण जीवित हो जाता है । आँगन में प्रिय बहन का कहते कि भाई ! वेदनीय कर्म के बन्धन हैं। मैंने बाँधे हैं, निर्जीव शरीर रखा हुआ है और आपने सामायिक ले ली। तो मुझे ही काटने होंगे। समता से काटूगा तो और नये साम्ययोग का ऐसा सुन्दर उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है। कर्म नहीं बंधेगे। केसरीमलजी का आत्मबल, मनोबल, संयोग और वियोग सदा जीवन के साथ रहते हैं। इसमें संकल्प व श्रद्धा बहुत ही दृढ़ है जिसके कारण शीघ्र ही फूलना और मुझना भूल है। केसरीमलजी सुराणा ने स्वस्थ हो गये। अस्वस्थ अवस्था में भी सामायिक, प्रतिबहन की याद में छ. मास का एकांतर तप किया और क्रमण, जप, स्वाध्याय आदि अनुष्ठान में बहुत ही सावधान पारणे में पांच द्रव्यों से अधिक का प्रयोग नहीं करते। एवं जागृत रहते हैं । ऐसे साधनाशील श्रावकों के जीवनवृत्त 0 प्रेरक एवं उपादेय हैं । अरे ! ये तो साधु हैं - साध्वी श्री सिरेकुमारी (सरदारशहर) "मनस्येक वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्" मन, वचन और कर्म में सामंजस्य होना साधु पुरुष का सूचक है। जीवन-साधक श्रावक केसरीमलजी ने इस सूक्ति को अपने जीवन में यथाशक्य ढालने का प्रयत्न किया है। एक बार की घटना है श्रावक श्री केसरीमलजी सुराणा बैंगलौर जा रहे थे। रास्ते में चित्तलदुर्ग में महाराष्ट्र और आन्ध्र प्रदेश का प्रान्तीय आन्दोलन चल रहा था। सुराणा साहब की मोटर पर नम्बर महाराष्ट्र के थे। तत्काल विद्यार्थियों ने घेर लिया। श्रावक केसरीमल जी सुराणा नीचे उतरे । उतरते ही उनकी वेषभूषा को देखकर विद्यार्थियों ने कहा-अरे ! ये तो साध लोग हैं। इनको कुछ नहीं कहना है। इन्हें रोको मत, जाने दो। वास्तव में केसरीमलजी अन्तर में साधु और वेषभषा से भी साधु प्रतीत होते हैं। समीप क्षेत्रों में रहने वाले आबाल-वृद्ध सभी काकासा या साधु पुरुष कहते हैं। नानकशाही डण्डा हाथ में ले लो 0 साध्वीश्री अशोकश्री एक बार ये संस्था संचालन हित चन्दा लेने सरदार- युक्त हैं। अतः मैं आपको एक नया पैसा क्या एक कौड़ी शहर में एक गणमान्य सज्जन के यहाँ पहुँचे। उन्हें देखते भी नहीं दूंगा । इस प्रकार पौन घण्टे तक अण्ट-सण्ट ही उनका खून खौल उठा, भौहें तन गई, आँखों में चाहे जैसे वे बोलते रहे। पर आचारांग सूत्र का वह लाली और वाणी मुखरित हो गई। विवेक सो गया मधुर वाक्य स्मृति पटल उभर आता है कि-"अस्थि और क्रोध का काला नाग जाग उठा। तड़कते-भड़कते सत्येण परंपरं नत्थि असत्येण परंपर" अर्थात् शस्त्र से से बोले कि आपके हाथ में झोली तो है ही एक नानक- शस्त्र परम्परा चलती है पर अशस्त्र से शस्त्र की परम्परा शाही हंडा और ले लें ताकि आपका जीवन स्वरूप और नहीं चलती। जब आप अमृत की प्यालीवत् उन गालियों अधिक निखर उठे। भिक्षु स्वामी ने तो भवन-निर्माण में को पीते गये, तब उनकी वाचाल वाणी हतप्रभ सी होकर एकान्त पाप बताया है और आपकी समस्त प्रवृत्तियाँ पाप- मौन हो गई । आँखें शर्मा गईं और मस्तक झुक गया। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण ३७ उन्होंने अपनी पगड़ी को चरणों में रखकर अकरणीय आप तेरापंथ का नाम हटा दें तो मैं मनचाहा चन्दा व्यवहार पर अत्यधिक अनुताप किया। उन्होंने चिरपोषित दे सकता हूँ अन्यथा नहीं। लेकिन यह शर्त इन्हें कब मनोगत शंकाओं का समाधान किया। यह इनकी तोव मंजूर थी ? बिना कुछ लिये ही उल्टे पांव लौट गये । तितिक्षा और अनहद समता का ही परिणाम था कि वे कभी हितों सात मिर कुछ ही दिनों बाद किसी उद्घाटन के उपलक्ष में जिस उद्देश्य से आये थे उस उद्देश्य में वे सहयोगी बन सोहनलालजी दगड खिमाडा ग्राम में पहुंचे। आदर्श गये । इसी सन्दर्भ को परिपुष्ट करती हुई द्वितीय घटना कितन-निरीक्षण के लिये ये राणावास में पहुँच गये । भी अपनी अनुपम विलक्षणता लिए हुए है उन्होंने स्कूल का सर्वांगीण निरीक्षण करके केसरीमलजी गोपीचन्दजी चोपड़ा, मोतीलालजी नाहटा, केसरीमलजी के चरणों में पगड़ी रखकर क्षमा माँगी और अपने कहे आदि पांच-सात वरिष्ठ व्यक्ति मिलकर कलकत्ता में हुए कटु शब्दों को वापस लिया। इस तरह इनके जीवन में फतेहपुरनिवासी सोहनलालजी दूगड़ के सन्निकट चन्दा अगणित अभद्र व्यवहार हुए पर ये अपने लक्ष्य से इंच मात्र लेने पहुंचे। आपकी रसीद में तेरापंथ का नाम बृहत् भी इधर-उधर नहीं खिसके । लक्ष्य पर मर मिटना इनके अक्षरों में छपा हुआ था। तेरापंथ का नाम पढ़ते ही जीवन का व्रत रहा है। सोहनलालजी क्रोध में तमतमा उठे और बोले कि यदि 00 पैसे-पैसे का हिसाब 0 मुनिश्री छत्रमल्ल वि०सं २०२४ में हमारा चातुर्मास प्रवास राणावास कर दिया करती है। मैं मेरी ओर से कुछ दूं या न हूँ, में था। वहाँ मुझे बताया गया, यहाँ की एक संगीत यह मेरी मर्जी है। अध्यापिका-श्रीमती निर्मला जैन जो कुशल अध्या न जा कुशल अध्या- दर्शक विस्मित थे। किसी भी सार्वजनिक संस्था का पिका थी, उसने अथक परिश्रम से अनेक बालिकाओं को प्रहरी इतना हो सजग होना चाहिए जो पैसे-पैसे का पूरा संगीत में तैयार किया। वह स्वयं भी यहीं पढ़ी थी। लेखा जोखा-रखे । पर इतना अवश्य है उसके हाथ में वहीं अध्यापिका बन गई । उसका अभी विवाह हुआ था। चाकू और मलहम दोनों होने चाहिए। जब वह ससुराल जाने लगी तब यहाँ की सेवा से निवृत्ति चाही । काकासा (केसरीमलजी) ने उसका सारा हिसाब जब घड़ी पुरस्कार में दी करके रकम उसके हाथ में दे दी। पर हिसाब करते समय उसी वर्ष काकासा ने छात्रावास के छात्रों के लिए शादी के दिनों को डेढ़ दिन की छुट्टी अधिक पड़ रही घोषणा की कि जो छात्र सात दिनों में अर्थ सहित श्रावक थी। उसके उन्होंने पैसे काट लिये। काकासा का यह प्रतिक्रमण कंठस्थ करके सुनायेगा उसे सौ रुपयों की घड़ी व्यवहार उसे, उसके अभिभावकों, दर्शकों तथा संरक्षकों को का पुरस्कार मिलेगा । सात लड़कों ने सात दिनों में अर्थ बहुत ही अखरा । कोई कुछ कह सके-ऐसी स्थिति तो थी सहित प्रतिक्रमण कंठस्थ कर लिया। जिनमें 'गंगादान' नहीं। क्योंकि नियम के विपरीत कुछ था नहीं। नाम के पुरोहित ने तो मात्र तीन दिन में ही अर्थ सहित दूसरे दिन श्रीमती निर्मला भारी मन लिये जब विदा प्रतिक्रमण कंठस्थ कर लिया। चौथे दिन मध्याह्न में वह होने लगी तब प्रणाम करने के लिए काकासा के पास गई। मुझे सुनाने के लिए आया । मैं सुनने लगा तब पास बैठे श्री केसरीमलजी ने अपनी अलमारी में से निकाल कर सौ श्री केसरीमलजी ने मेरे हाथ से पुस्तक लेकर उससे रुपये की घड़ी उसे देते हुए कहा-बेटी ! संस्था का काम कहा--ला मुझे सुना । वह बिना किसी झेंप और झिझक संस्था के हिसाब से रहता है। वहाँ अनेक व्यक्तियों को के सुनाने लगा और सुनाता ही चला गया। श्री केसरीमल संभालना पड़ता है। नियम में थोड़ी सी गड़बड़ भी अनर्थ जी ने कभी क्रम से, कभी व्यतिक्रम से, कभी आगे से Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड कभी पीछे से, पाठ और अर्थ पूछा । वह तो नया ही था, मैं पास बैठा मन ही मन उस बच्चे के साहस की पर वर्षों से पुराना पढ़ा हुआ हो तो भी चूक सकता था। सराहना कर रहा था, वहां यह चिन्तन भी चल रहा थापर वह शत-प्रतिशत सफल रहा। केसरीमलजी बहुत निरीक्षक, परीक्षक और समीक्षक भले ही ऊपर से बादाम प्रसन्न हुए, उसे घड़ी इनाम में दी। घड़ी के अतिरिक्त की तरह कठोर दीखते हो, पर लेने वाला उस कठोरता भी उसने पुरस्कार प्राप्त किया। को भेद कर भी सही वस्तु प्राप्त कर ही लेता है । वृथा आपको दोषी क्यों बनाऊँ? श्री पुखराज पुरोहित, राणावास मुझे राणावास में आज दूसरा दिन था। अकस्मात आ रहा हूँ, वृथा आपके वाहन का उपयोग करके आपको प्रधानाध्यापकजी ने मेरे हाथ में एक फाइल थमाते हुए दोषी क्यों बनाऊं?' अधिकारो ने निरुत्तर हो चालक आज्ञा दी-आज दो बजे सुमति शिक्षा सदन में स्कूल से गाड़ी आगे बढ़ाने का इशारा किया । कम्पलेक्स की बैठक है, मैं कार्य में व्यस्त हूँ, आप ही हो विद्यालय पहुँचकर मेरे आश्चर्य की सीमा न रही आइये । मैं फाईल लेकर चौराहे तक आया और सोचने कि जिन महापुरुष से मैंने विद्यालय का मार्ग पूछा और लगा अब किधर मुड़ इतन म पाछ घूमकर रखता जो पहिले मिलन में ही एक मुश जैसे साधारण अध्यापक तो सफेद चादर ओढ़े हुए, नीची पर सजग दृष्टि किये हुए हा के साथ इतने स्नेह से बात करते आ रहे थे, वे ही इस एक महापुरुष मेरी ओर ही आ रहे हैं । मैं अपरिचित । विद्यानगरी की आधारशिला हैं और वहाँ जुड़ी सारी सभा अवस्था में ही अभिवादन करते हुए, पूछ बैठा, श्रीमान इन्हीं महापुरुष की सभापति के रूप में प्रतीक्षा कर रही जी ! समति शिक्षा सदन जाने के लिये किस ओर जाना थी। मैं जाकर थी। मैं जाकर यथास्थान पर बैठ गया परन्तु मुझे एकदम होगा? महापुरुष ने मुझे सन्निकट बुलाते हुए बड़े प्रेम से ईश्वरचन्द विद्य ईश्वरचन्द विद्यासागर वाली कहानी स्मरण हो आई। कहा-आइये, मैं वहीं जा रहा हूँ। साथ ही उनके ये शब्द 'वृथा आपके वाहन का उपयोग राह में आपने स्नेहवश मुझ से वार्तालाप का श्रीगणेश करके आपको दोषी क्यों बनाऊ ?' अब भी मेरे कानों में किया ही था कि सरसर्राहट करती हुई एक जीप गाड़ी गूंजते रहते हैं और सोचता हूँ कि काश ! यह भावना हमारे पास आकर एकदम रुकी । उस में एक अधिकारी, जो हमारे आज के सारे अधिकारी वर्ग में हो जावे तो उन्हें आगे ही विराजमान थे बोल उठे 'पधारिए, विद्यालय नाहक युवा पीढ़ी द्वारा 'धेराव' का शिकार न होना तक', महापुरुष ने सविनय उत्तर दिया 'नहीं, श्रीमान्जी! पड़े। आप पधारो, मैं तो मास्टर साहिब से बात करता हुआ 00 मुझे लठ मारो साध्वीश्री चांवकवर (मोमासर) कुछ वर्षों पूर्व की बात है परम श्रद्वय आचार्यश्री के पर नहीं थे। मध्याह्न के समय जब वे घर लौटे और उन्हें निर्देशानुसार मैं राणावास प्रवास कर रही थी। उन दिनों स्थिति का पता चला तो वे बिना कुछ कहे उस व्यक्ति के वहाँ के विद्यालय का एक कर्मचारी नशे में धुत्त होकर सामने जाकर खड़े हो गये और बोले-भाई ! क्या चाहता और हाथ में एक बड़ी सी लाठी लेकर केसरीमलजी सुराणा है, मुझे मारना? लो यह सिर तुम्हारे सामने है, तुम के निवास वाली गली में इधर-उधर घूम रहा था एवं मुह चाहो जैसे लठ मारो, किन्तु यह याद रखो जब तक तुम से अनर्गल प्रलाप कर रहा था। वह कह रहा था कि अपनी आदत नहीं बदलोगे, तुम्हें यहाँ से कुछ नहीं मिलने कहां पर हैं केसरीमलजी ? कहां हैं मंत्रीजी? आज मैं का। केसरीमलजी की ऐसी बातें सुनकर वह बिना बोले इस लाठी से उनका सिर फोड़ दूंगा । नशे से युक्त उस ही वहाँ से चल दिया। मैं सोचती रही, आखिर केसरीमल व्यक्ति की ऐसी बातें सुनकर सब घबराने लगे कि पता जी में ऐसा क्या जादू है जो उनके सामने आते ही सब नहीं यह आज क्या कर बैटेगा? उस समय सुराणाजी घर शान्त हो जाते हैं। 5 . . Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब गाड़ी का ब्रेक फेल हो गया श्री ताराचन्द लूंकड़, राणावास रात्रि का समय था । मालानी क्षेत्र से चन्दा वसूल करके लौटते समय पाली व लूनी के बीच रोहट के नजदीक जीप के ब्र ेक अचानक फेल हो जाने के कारण जीप खड्डे में गिर गई, परन्तु इंजिन बन्द हो जाने से गाड़ी उल्टी नहीं हुई। हम भाग्यशाली रहे कि गाड़ी का आधा भाग हो बहने में गिरा। गाड़ी में मैं काकासाहब व श्री भंवरलालजी डागा थे श्रीमान् दामाजी व मैं नव-विवाहित थे । इस दुर्घटना से काकासाहब के दिल को बहुत आघात पहुँचा क्योंकि आपके साथ होने से हमारी जिम्मेदारी आपकी थी और कोई अप्रिय घटना घटित होती तो आपको बहुत दुःख होता । आपको अपनी चिन्ता के साथ दूसरों की कहीं अधिक चिन्ता रहती है। आपका वास्तव में पर-हिषी व्यक्तित्व है उस दिन के पश्चात् आपने संकल्प ले लिया कि रात्रि में किसी वाहन का उपयोग नहीं करेंगे, पाली पहुंचने पर मुनिश्री अमोलकचन्दजी स्वामी के सामने आपने इसी आशय का संकल्प लिया और तब से आज तक लगभग बीस वर्ष बीत चुके हैं आपने रात्रि में किसी वाहन में यात्रा नहीं की है। कितना भी जरूरी कार्य क्यों न हो, रात में आप उसे स्थगित कर देंगे । O संस्मरण ३६ ++++ और धूम्रपान छूट गया घटना लगभग बीस वर्ष पहले की है, मुझे माननीय काका साहब के साथ मालानी क्षेत्र में समदड़ी, बालोतरा, जसोल, पचपदरा आदि स्थानों पर चन्दा प्राप्ति हेतु जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । हमारे साथ आदर्श निकेतन छात्रावास के भूतपूर्व गृहपति श्री भंवरलालजी डागा भी जीप में थे। मालानी क्षेत्र में प्रवेश के पहले लूनी पर हमने विश्राम किया । सबेरे के समय काका साहब शौच आदि से निवृत्त होने पधारे हुए थे। मैं और डागाजी पीछे अकेले थे । मुझे धूम्रपान की लत थी। मैंने सिगरेट पीना शुरू किया। कुछ समय पश्चात् काका साहब को सामने आते देखकर मुझे अपने दिल में भय का अनुभव हुआ । एक तरफ तो महान् संयमी आत्मा का सादा व संयममय जीवन और दूसरी तरफ मेरे जैसा व्यक्ति जिसको धूम्रपान का व्यसन | मेरी अन्तरात्मा पुकार उठी कि आपके जीवन से निश्चित रूप से मुझे प्रेरणा लेनी होगी, व्यसन का त्यागकर सदाचारी बनना होगा। मैंने उसी दिन से धूम्रपान को सदा के लिए त्यागने का संकल्प ले लिया । अब जब भी जीवन में उस घटना की याद आती है तब इसी बात की मधुर अनुभूति होती है कि काकासाहब का जीवन मेरे लिए हमेशा एक प्रेरणा का स्रोत रहेगा । 00 उनके शब्दों की शक्ति O मुनिश्री प्रसन्नकुमारजी (दिवेर) बद्धानिष्ठ सुधावक श्री केसरीमलजी सुराणा का से मिले, उन्हें विभिन्न पहलुओं से समझाने का सफल निकट से मेरा परिचय श्रद्धेय मुनिश्री सोहनलालजी स्वामी प्रयत्न किया । फलस्वरूप मेरे संसारपक्षीय अभिभावकगण के द्वारा हुआ। मुनिश्री से जब सुराणाजी को पता लगा मेरी दीक्षा के लिए अनुमति देने को तैयार हो गये । कि मेरी भावना कई वर्षों से चारित्र ग्रहण करने की है; किन्तु अभिभावकों की आज्ञा न मिलने के कारण मेरा चारित्रिक अभियान रुका हुआ है। पता लगते ही सुराणा जी ने मेरे से बात की। मुझे टटोला संयम की दृष्टि से मेरी योग्यता का अपने ढंग से उन्होंने परीक्षण किया। उन्हें मेरी दृढ़ भावना का आभास मिल गया और वे आश्वस्त हो गये तो वे जुट गये । प्रतिदिन अपनी कठोर उपासना के बावजूद वे इस पवित्र कार्य के लिए स्वयं चलकर मेरे संसार - पक्षीय गाँव दिवेर पहुँचे । अभिभावकों 1 मुझे कल्पना भी नहीं थी कि मेरे परिवार वाले इतनी मी मुझे दीक्षा लेने की अनुमति देने को तैयार हो जायेंगे और मेरा एकासन तपस्या का अभिग्रह नौ महीने मात्र के समय में ही पूरा हो जायेगा। यह सब सुराणाजी की प्रेरणा से हुआ। उनके शब्दों में शक्ति है। दूसरे व्यक्ति को अपने विचारों के अनुकूल बनाने की उनमें अपार क्षमता है । यह मैंने प्रत्यक्षतः देखा। मेरी भगवती दीक्षा दिलाने में सबसे प्रमुख भूमिका अगर किसी की रही तो वह सुराणामी की ही माननी होगी । .० . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड कर्म के साथ धर्मका समन्वय प्रो० शिवप्रकाश गाँधी, राणावास सत्र १९७६-८० के शीतकालीन अवकाश में श्री जैन दय छात्रावास में पधारते हैं। भाईसा के विनम्र आग्रह तेरापंथ महाविद्यालय राणावास के छात्रों द्वारा राष्ट्रीय को मानकर पिछले कुछ वर्षों से सर्वोदय संस्था की वार्षिक सेवा योजना के अन्तर्गत दस दिवसीय विशेष शिविर का साधारण सभा की अध्यक्षता भी करते हैं। सत्र १९७७आयोजन किया गया । इस शिविर में राणावास के मुख्य ७८ के अन्त में होने वाली वार्षिक साधारण सभा मे भाई बाजार और महाविद्यालय पथ में सड़क निर्माण के कार्य साहब ने यह विचार रखा कि सत्र १९७८-७६ से ही को प्राथमिकता दी गई। प्रारम्भ में सभी को यह लग रहा सर्वोदय छात्रावास में हरिजन रसोइया नियुक्त करने का था कि यह कार्य बहुत लम्बा और दुरूह है और हो सकता विचार है और हरिजन छात्रों को सम्पूर्ण सुविधायें निःशुल्क है कि छात्र इसे अल्प अवधि में पूरा न कर पायें । परन्तु देने का भी विचार है। लगभग सभी माननीय सदस्यों का समय के साथ सारी शंकायें निर्मूल सिद्ध होती गई। यह विचार था कि भाई साहब का प्रथम प्रस्ताव काकासा छात्रों ने मेहनत, लगन और शालीनता से न केवल निर्धा- को जॅचने वाला नहीं और हो सकता है कि उसका प्रतिरित कार्य पूरा कर लिया वरन् राणावास वासियों के कार करें परन्तु अपनी शान्त मुद्रा को तोड़कर काकासा हृदयों में विशेष स्थान बना लिया । येन केन प्रकारेण इस मुखरित हए-भाई साहब यदि यह आपकी विचारधारा से प्रगति की सूचना दिन प्रतिदिन काकासा के पास पहुँच प्रेरित है और आपके विचारों और उद्देश्यों को छात्रों एवं जाती थी तथा उनकी प्रसन्नता और सन्तोष के समाचार समाज में जागृत करने का सुगम माध्यम है तो जरूर अपभी कार्यक्रम अधिकारियों के पास पहुँच जाते थे। शिविर नाइये। इससे किसको और भला क्या आपत्ति हो सकती का अन्तिम दिन था सभी के चेहरों पर शिविर की सफलता है ? काकासा के विस्तृत दृष्टिकोण और व्यापक चिन्तन का विशेष उत्साह और उमंग थी । इस खुशी में छात्रों को सुनकर सब आश्चर्य चकित रह गये । अपनी माँ की द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम काकासा के निवास स्थान भंवर पूजा तो सभी करते हैं परन्तु दूसरों की माँ का भी आदर निवास पर आयोजित किया गया जिसमें ग्राम के प्रतिष्ठित तो करना ही चाहिये । मुझे ऐसा लगा जैसे काकासा के सज्जनों को भी आमन्त्रित किया गया। कार्यक्रम की रूप में दूसरा महात्मा (गाँधी) हमारे बीच में विद्यमान है। समाप्ति पर साध्वीश्री के वंदन एवं दर्शनार्थ ज्यों ही मैं दिल कोमल एक गुलाब सा भंवर निवास के अन्दर गया तो काकासा कहने लगे जितना काकासा के लघु भ्राता श्री मिश्रीमलजी सुराणा ने और जिस सुन्दरता के साथ गाँधीजी और मनोहर जी राणावास निवास हेतु पधारने के बाद १५ मार्च १९७३ से (कार्यक्रम अधिकारी) ने कार्य किया है और विद्यार्थियों ८ माह के लिये संन्यास धारण किया। भाई साहब ने से करवाया है उतना ही अनुराग यदि वे धर्म के प्रति रखें एकान्त निवास हेतु महावीर कन्या विद्यालय की दूसरी तो इनका कल्याण निश्चित है। इस छोटे से मामिक मंजिल पर स्थित एक कमरे का उपयोग किया तथा मुनियों वाक्य से मुझे लगा एक ओर काकासा.जहाँ सफलता की की तरह ही दिनचर्या का पालन किया । भाईसा गोचरी बधाई दे रहे हैं वहीं दूसरी ओर जीवन कल्याण का मार्ग हेतु काकासा एवं अन्य श्रद्धालु सज्जनों के घर पर जाते थे। दिखा रहे हैं । कर्म और धर्म का यह समन्वय मेरे हृदय एक दिन भाईसा जब काकासा के घर गोचरी हेतु की अतुल गहराइयों को छू गया और मैं सहज ही अभिभूत नहीं पधारे तब काकासा का कोमल हृदय द्रवित हो उठा। हो नतमस्तक हो गया। 0 आप तुरन्त कन्याविद्यालय गये तथा उनकी सुखसाता पूछहरिजन रसोइया. कर गोचरी हेतु घर पधारने के लिये निवेदन किया परन्तु काकासा के लघु भ्राता 'भाई साहब' के नाम से भाईसा ने जब उन्हें बताया कि उन्होंने किन्हीं अन्य सज्जन विख्यात सुप्रसिद्ध सर्वोदयी कार्यकर्ता और गांधीवादी के यहाँ से आहार प्राप्त कर लिया है तब कहीं उन्हें संतोष चिन्तक श्री मिश्रीमल जी सा० सुराणा अपनी विचारधारा हुआ। परन्तु उसके बाद शेष अवधि में काकासा ने भाईसा के अनुरूप मुख्यतः दलित वर्ग की सुविधार्थ राणावास में मिलने और सुखसाता पूछने का नियमित क्रम बना लिया। सर्वोदय छात्रावास का संचालन कर रहे हैं । काकासा भाईसा का साधु हृदय भी इस श्रावक शिरोमणि की करुण अपने व्यस्त जीवन में से समय निकालकर यदा-कदा सर्वो- भक्ति और सेवा पाकर अभिभूत हुए बिना न रह सका। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजीसुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ आशीर्वचन Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............................. विरल विशेषताओं के धनी । युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी अभिनन्दनीय व्यक्ति के अभिनन्दन का कोई भी उपक्रम संस्थान के रूप में विश्रत हो चुका है, केसरीमलजो के उस समाज या संस्था के लिए गौरव का विषय होता पुरुषार्थ का प्रतीक है। उस शिक्षण-संस्थान के कारण है। क्योंकि वह अभिनन्दन किसी व्यक्ति का नहीं पर आज वह क्षेत्र विद्याभूमि के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर उसकी विशेषताओं का होता है। राणावास के वयोवृद्ध, चका है। विद्याभूमि की सबसे बड़ी विशेषता है-पुस्तकीय कर्मठ कार्यकर्ता श्री केसरीमलेजी सुराणा समाज के ज्ञान के साथ जीवन-निर्माण के संस्कारों का पल्लवन । ) वरिष्ठ व्यक्तियों में हैं । मैंने सुना कि इनके अभिनन्दन हेतु आज के अनुशासनहीन युग में राणावास में शिक्षा प्राप्त एक ग्रन्थ तैयार करने की योजना है। मैंने उस योजना को करने वाले छात्रों का अनुशासनयुक्त जीवन एक उदाहरण देखा और केसरीमलजी के जीवन की कुछ विरल विशेषताएँ है। इसमें केसरीमलजी की प्रशासन क्षमता बहुत बड़ा मेरी आँखों के सामने आ गई । उनमें मैंने उनके दो रूपों निमित्त है। यद्यपि इन्हें अपने कठोर अनुशासन के लिए को विशेष रूप से आँका है। बहुत लोगों से बहुत कुछ सुनना पड़ता है, फिर भी इनकी उनका पहला रूप है एक गृहस्थ संन्यासी का। कार्यक्षमता और निःस्वार्थ सेवा-भावना के आगे कोई साधु और श्रावक के मध्य तीसरी उपासक श्रेणी की प्रश्नचिन्ह नहीं है। मेरी जो कल्पना है, उसका मूर्त रूप केसरीमलजी में केसरीमलजी का जीवन आदर्श जीवन है । ऐसे देखने को मिलता है। इनका त्याग, वैराग्य और साधना श्रावकों को देखकर प्रसन्नता होती है। इनकी साधना और सामान्य व्यक्ति को रोमांचित कर देती है । चौबीस घण्टों समाज-सेवा में इनकी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरदेवी बरा. में ढाई घण्टे सोना, उन्नीस सामायिक करना और खाद्य- बर सहयोगिनी रही हैं। वह भी जिस संयम, सादगी और संयम के विशेष प्रयोग करते रहना क्या साधारण बात कुशलता के साथ अपनी गृहस्थी का संचालन कर रही है ? मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि विरक्ति इनके जीवन हैं, उल्लेखनीय है । में स्वयं मुखर हो रही है। ऐसे व्यक्ति समाज के गौरव मैं केसरीमलजी के भावी जीवन में उनकी साधना होते हैं । इनके त्यागमय जीवन से बहुत कुछ सीखा जा की उत्कृष्टता के लिए शुभाशंसा करता हूँ और आशा सकता है। करता हूँ कि उनका अवशेष जीवन भी समाज के लिए और केसरीमलजी का दूसरा रूप है एक कर्मशील अधिक उपयोगी तथा प्रेरक बनेगा।। कार्यकर्ता का । राणावास, जो आज एक विशिष्ट शिक्षण Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ४२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड ..-.- -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. समाज के नर-रत्न 0 युवाचार्य महाप्रज्ञ केसरीमलजी सुराणा का जीवन एक विशाल ग्रन्थ है समर्पण के भाव समाज के प्रत्येक श्रावक के लिए अनुऔर वह ग्रन्थ है जिसका हर पृष्ठ प्रेरणा का पृष्ठ है। करणीय हैं। आपने जिस साहस और लगन-निष्ठा से वैयक्तिक साधना के उत्कर्ष पर चलने वाला व्यक्ति समाज राणावास में शिक्षा का कल्पवृक्ष खड़ा किया है, वह के लिए कितना योग दे सकता है, उसका यह एक आपके जीवन्त व्यक्तित्व का अनूठा प्रतीक है। सुराणाजी उदाहरण है। के व्यक्तित्व को देखकर कोई यह कल्पना भी नहीं कर श्री सुराणाजी समाज के उन नर-रत्नों में से हैं सकता कि इस व्यक्ति की मेधा इतनी उर्वर होगी और जिन्होंने अपने जीवन का उत्कृष्ट समय समाज के विकास यह समाज गौरव की अभिवृद्धि करने वाला इतना विशाल एवं संवर्द्धन में समर्पित किया है । नैतिक और सांसारिक शिक्षा केन्द्र स्थापित कर देगा। समाज में सुराणाजी जैसे शिक्षा के प्रचार-प्रसार के क्षेत्र में आपकी अमूल्य सेवायें चार-पांच व्यक्ति और हों तो समाज के कायाकल्प को तेरापंथ जगत में सदा स्वर्णाक्षरों में लिखी जायेंगी। कोई अवरुद्ध नहीं कर सकता। साधु-सी वेशभूषा, सरल प्रकृति और संघ व संघपति के प्रति • धर्म और कर्म के युगपत् उपासक 0 साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभा संस्कार एक प्रवाह है । वह बहता रहता है। व्यक्ति समर्पित करते हैं, वे स्वयं ही उभरकर युग के सामने उस बहाव के साथ गुजर जाता है। पीछे क्या कुछ बचता आ जाते हैं। 'काकासा' के नाम से श्री केसरीमलजी है ? यह देखने का काम भावी पीढ़ी करती है। वर्तमान में सुराणा एक ऐसे ही श्रावक हैं, जिन्होंने धर्म व कर्म की किसी भी व्यक्ति के कर्तृत्व का अंकन बहुत कम होता युगपत् उपासना की है। कुछ व्यक्ति धार्मिक क्षेत्र में गति है। किन्तु कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जो अपने चिन्तन व करते हैं, उनका कार्यक्षेत्र सीमित हो जाता है। वे अपने कर्म से वर्तमान पर भी हावी हो जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों आपको केन्द्र मानकर चलते हैं। उनकी परिधि में जितना को बीहड़ मार्ग से गुजरना पड़ता है। कुछ आ जाए, वही पर्याप्त होता है। दो राही एक ही दिशा की ओर गतिशील हुए। दूसरी श्रेणी के व्यक्ति कर्म को अपने जीवन का उनका लक्ष्य भी एक ही था। एक राही ने बनी-बनाई प्रमुख अंग मानते हैं। सोते-जागते, खाते-पीते उनके पगडंडी पर चलना शुरू किया व दूसरा व्यक्ति ऊबड़- मस्तिष्क में कर्म के संस्कार परिक्रमा करते रहते हैं। खाबड़, कांटों भरे बीहड़-पथ पर चलने लगा। दोनों कर्म करने में उन्हें सुख मिलता है, पर धर्म उनके जीवन व्यक्ति मंजिल पर आ गये । एक व्यक्ति मुस्करा रहा था से छूट जाता है । धर्म व कर्म का अद्भुत सामंजस्य जिस व दूसरा काँटों की चुभन से कराह रहा था । कराहने व्यक्ति के जीवन में होता है, वह कितना विलक्षण होता वाले ने पीछे लौटकर देखा, उसके छोड़े हुए पदचिह्नों है ? शब्दों से व्यक्त नहीं हो सकता। पर एक विशाल जन-समूह जय-जयकार करता हुआ बढ़ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में केसरीमल रहा था और जब पहले ने देखा, उसका बना-बनाया पथ जी सराणा 'श्रावक समाज के रूप हैं।' कितने सौभाग्यनीरव तथा निर्जन था। पहले व्यक्ति की मुस्कान कहीं शाली होते हैं वे व्यक्ति, जिनके लिए गुरु के मुखारविन्द खो गई, पर दूसरे व्यक्ति की पीड़ा युग-चेतना में प्रति- से ऐसे शब्द निकलते हैं। सचमुच ही सुराणाजी ने अपने बिम्बित हो गई। जीवन की उस रूप में प्रस्तुति दी है। उनकी धार्मिकता जो व्यक्ति युग की पीड़ा को समझते हैं, युग की अपेक्षा की पहचान रूढ़ता नहीं है, कोरे क्रियाकाण्ड नहीं हैं, को समझते हैं, और उसकी पूर्ति के लिए अपना जीवन जागृत जीवन है। धर्माराधना के छोटे-छोटे प्रयोगों के Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन ४३ साथ उन्होंने उपासक प्रतिभा की विशिष्ट साधना कर प्राथमिक स्कूल शुरू किया जो आज उच्चतर विद्यालय से इस युग में एक कीर्तिमान स्थापित किया है। उनका आगे बढ़कर महाविद्यालय तक की यात्रा कर चुका है। जीवन सादा है, श्रमशील है, सात्त्विक है। जीवन-विकास अब तक यहाँ हजारों विद्यार्थी अध्ययन कर चुके हैं। के इस अन्तर्मुखी अभियान के साथ-साथ उन्होंने एक उस शिक्षा केन्द्र का उद्देश्य विद्यार्जन के साथ-साथ अच्छे दूसरा अभियान भी चलाया जिसका लक्ष्य है-शिक्षा केन्द्र संस्कारों को अजित कराना है और अपने इस उद्देश्य में राणावास । वहाँ उन्होंने पाँच विद्यार्थियों से छोटा-सा वे एक सीमा तक सफल भी रहे हैं। 00 स्वाध्यायप्रिय श्रावक D साध्वी श्री संघमित्रा केसरीमलजी सुराणा बहुमुखी व्यक्तित्व एवं कृतित्व सज्झायसज्झाणरयस्स ताइणो, के धनी हैं। वे धन के पक्के एवं कर्मठ समाजसेवी हैं । अपावभावस्स तवे रयस्स उनके प्रबल पुरुषार्थ ने अनेक सेवाएँ समाज को प्रदान विसुज्झई जं सि मलं पुरेकडं, की हैं। विद्याभूमि राणावास में प्राथमिक शिक्षा से समीरियं रुप्पमलं व जोइणा ॥ लेकर महाविद्यालय तक की शैक्षणिक प्रवृत्तियों को -जो साधक निरन्तर स्वाध्याय ध्यान में निरत रहता संचालित करने का श्रेय उनकी दृढ़ संकल्प शक्तियों का है वह कर्मावरण को हटाकर निर्मल चेतना का जागरण परिणाम है। उन्होंने ३५ वर्ष की अवस्था में समाज-सेवा करता है । के लिए अपने को समर्पित कर दिया था। यह समय केसरीमलजी सुराणा के जीवन में स्वाध्याय प्रवृत्ति वि० सं २००१ का था। एक ओर उनके जीवन में का गुण विशेष भाव से जागृत हुआ है। उन्हें सैकड़ों सामाजिक स्तर पर अनेक गुणों का विकास हआ। आध्यात्मिक पद्य कंठस्थ हैं। उनका पुनरावर्तन करते दूसरी ओर उनका जीवन अध्यात्म-साधना-सरिता में रहते हैं। सम्भवतः सहस्रों पद्यों की स्वाध्याय सामायिकभी विशेष भाव से रमण करता रहा है। वे प्रतिदिन लगभग साधना में उनके हो जाती है । १६ सामायिक करते हैं। वर्षों से वे ब्रह्मचर्य की साधना सत्साहित्य के पठन से उनकी साहित्य साधना महान् में रत हैं। सूर्यास्त के पश्चात् वे किसी प्रकार का अन्न- प्रेरक बनी हुई है। जल ग्रहण नहीं करते। दिन में भी भोजन करने का वे आधनिक व प्राचीन सभी प्रकार के सत्साहित्य समय मर्यादित है। संख्या की दृष्टि से भी वे अल्प द्रव्य का अध्ययन करने में रुचि रखते हैं। ग्रहण करते हैं। सुराणाजी अवस्था से वृद्ध हैं पर उनमें युवक-सा जनदर्शन में स्वाध्याय साधना को अध्यात्म साधना उत्साह है। मैंने राणावास चातुर्मास में उनकी जीवनका विशिष्ट अंग माना है। बारह प्रकार की तपस्याओं चर्या को निकटता से पढ़ा, लगा-इतना कर्मशील व्यक्ति में स्वाध्याय अन्तरंग तप भी है । पुस्तकों का पठन मात्र ही सहस्रों में एक मिलता होगा। स्वाध्याय नहीं है। आत्मा के चिन्तन-मनन और निदि- कर्म-साधना व धर्म-साधना का समन्वित रूप सुराणाजी ध्यासन का नाम ही स्वाध्याय है । के व्यक्तित्व में है । अनेक प्रकार की प्रवृत्तियों में आगम ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर स्वाध्याय प्रवृत्ति व्यस्त होते हुए भी उनकी स्वाध्यायप्रियता आज के युग को प्रबल समर्थन दिया गया है। दशवकालिक सूत्र में में श्रावक समाज के लिए विशेष प्रेरणासूत्र है । कहा है 00 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lo .0 ૪૪ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड आगमिक श्रावक परम्परा के रत्न साध्वी श्री कंचनकुमारी (लालू) जैन आगमों में धावक जीवन की सम्पूर्ण जीवन झाँकी का मार्मिक वर्णन उपलब्ध होता है । उपासकदशांग में श्रावकों के त्यागमय जीवन, संयममयी साधना, ज्ञानाराधना, धर्मजागरण, पापभीरुता, निर्भयता, संकल्पबद्धता, निविप्तता, सहिष्णुता, दृढनिष्ठता और शालीनता का विशिष्ट उल्लेख प्राप्त है । आगमकालीन श्रावक बहुत बड़े परिवार के साथ रहकर भी निर्ममत्व रहते थे और धन, धान्य, जायदाद आदि से परिसम्पन्न होकर भी मर्यादाओं का अतिक्रमण नहीं करते थे । यह विदेह साधना का प्रतीक और भेद-विज्ञान का द्योतक है । वस्तुतः उनका अन्तर्मानस जागृत था । वे समय-समय पर घर का उत्तरदायित्व अपने पुत्रों को सौंपकर श्रावक - प्रतिमा स्वीकार कर धर्म- जागरण करते थे । जीवन के तीसरे भाग में गृहस्थाश्रम से सर्वथा मुक्त होकर संलेखना व अनशन से आत्मा को भावित करते थे। श्रावकों गृहस्थ श्रावक केसरीमलजी सुराणा ने प्राचीन के जीवन इतिहास को पुनजीवित कर दिया जीवन में विविध तपस्याएँ तपकर इन्द्रियों पर विजय पाना कठिन ही नहीं, कठिनतम है अमीरी जीवन को सात्त्विकता में परिवर्तन कर परिवार के प्रति, धन के प्रति, अपने शरीर के प्रति निस्पृह हो गये । श्रावक प्रतिमा की साधना में शारीरिक कष्ट व देवकृत उपसर्ग उन्हें विचलित करने अनेक अनुकूल प्रतिकूल चित्र सामने आते रहे, पर उनकी मन:स्थिति सम रही तप और संयम में निमग्न रहे। "मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम्" मन, वचन और कर्म में सामंजस्य होना साधु पुरुष का सूचक है। जीवन-साधक श्रावक केसरीमलजी ने इस सूक्त को अपने जीवन में यथाशक्य ढालने का प्रयत्न किया है। मन, वचन और क्रिया से पवित्र एवं निर्मल हैं। बाह्य पवित्रता के साथ-साथ आभ्यन्तर पवित्रता से अभिपूरित हैं। शारीरिक और मानसिक तनाव से मुक्त हैं। सादा भगवान महावीर ने ठाणं सूत्र में मुक्त और अमुक्तता को चार भागों में विभक्त किया है मुत्त नाममेगे मुत्ते, मुत्ते नाममेगे अमुत्त । अमु नाममेगे मुख, अमुल नाममे अमुतं । प्रथम श्रेणी के व्यक्ति द्रव्य और भावों से मुक्त होते है और अध्यात्म की । गहराई तक पहुंचे हुए होते हैं। वे उद्विग्न और निसंग होते हैं। दूसरी कोटि के व्यक्ति अनासक्त कम और लिप्त अधिक होते हैं। तीसरी श्रेणी की संख्या उनकी है जो संसार में रहते हुए अनुबन्ध से सर्वथा मुक्त तो नहीं होते किन्तु अनासक्त एवं विरक्त जीवन जीते हैं। चौथी श्रेणी के व्यक्ति के अन्तरंग और बहिरंग दोनों पक्ष आसक्त होते हैं । श्रावक केसरीमलजी सुराणा की गणना तीसरी श्रेणी में होती है । इनकी हृदय-तन्त्री से राग में विराग और भोग में त्याग का स्वर मुखरित होता है । अनित्य, अशरण भावनाओं से आत्मा भावित है। मंत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य भावनाओं का पर्याप्त विकास है । समाज अभ्युदय के लिए स्कूल छात्रावास, कालेज आदि का निर्माण करके भी आचार्य भिक्षु के शब्दों में, अन्तरर्गत न्यारा रहे, ज्यू धाय रमावे बाल । आप समदृष्टि जीव संसार में रहते हुए भी उस नलिनीदल की भाँति सदा उपरत रहते हैं । 00 सेवाभावी श्रावक साध्वी श्री सिरेकुमारी ( सरदारशहर) जीवन उच्च विचार है। सचमुच ही उनका साधु वेष साधुत्व का सूचक है। तेरापंथ धर्मसंघ का इतिहास एक स्वर्णिम पृष्ठभूमि है। संघ का वर्चस्व बढ़ाने में और नये-नये उन्मेष प्रदान करने में श्रावक समाज का योगदान समय-समय पर अतिशय सराहनीय रहा है। श्रद्धासिक्त श्रावकों में राणावास के परम उपासक केसरीमलजी सुराणा श्रृंखला की एक कड़ी हैं। . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन समाज और धर्मशासन की सेवा में अग्रणी रहकर तुल्य हैं एवं पिता के समान संरक्षक हैं। राणावास में अपने जीवन को लगाया, तपाया और खपाया है । गुरु- प्रायः उनके निजी आवास में ही साधु-साध्वियों का प्रवास दृष्टि और गुरुभक्ति की आराधना में अपने को समर्पित होता है । साधु-साध्वियों के प्रति सहज भक्ति एवं बहुमान किया है । आप शासन और शासनपति के प्रति पूर्ण श्रद्धा- की भावना है । साधु-साध्वियों को देखकर तत्काल आसन नत हैं । आराध्यदेव के हृदय में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान से उठकर अभिवादन करते हैं और प्रतिदिन साधु-साध्वियों है । जो भक्त अपने भगवान के हृदय में अपना स्थान बनाले, से पूछताछ करते हैं-"बापजी, गोचरी हो गई ? आहार यह बहुत ही गौरव का विषय है। पूरा आया या नहीं ?" उत्कट भावनाओं से दान देते हैं । इनकी कर्मभूमि, भावभूमि और मनोभूमि को आगम की भाषा में जिसे 'अडलक' दान कहा है। स्वयं के पढ़ने से लगा कि ये साधनाक्षत्र में सतत जागरूक हैं एवं खाद्य एवं पेय पदार्थों में ऊनोदरी कर बहुत ही विवेक एवं गतिशील हैं। "सजमायम्मि रओ सया" सदा स्वाध्याय में उपयोगपूर्वक कल्पनीय दान देने में श्रीमती सुन्दरदेवी और लीन रहते हैं। स्वाध्याय इनके जीवन का टॉनिक है। श्री केसरीमलजी दोनों ही बहुत आह्लादित व उत्फुल्ल जब कभी देखते हैं, माला हाथ में ही रहती है। लगभग होते हैं । साधु-साध्वियों के बहुत ही गुणगान करते हैं। एक मास में तीन लाख साठ हजार जप (स्वाध्याय) हो प्रायः मुख से निकलता है-'धन्य है आपको, हमारे पर जाती हैं । मानो स्वाध्याय यज्ञ में अपना जीवन आहूत कर भारी कृपा की, दिन भर सारा अव्रत में जाता है थोड़ी सी दिया। सैकड़ों स्तवन कण्ठस्थ हैं । आप स्वाध्याय के बड़े ही वस्तु सन्तों के पात्र में पड़ती है, बस वही व्रत में आती रसिक हैं। सचमुच ही आप एक धर्मनिष्ठ, आत्मनिष्ठ, है। इसमें ही जीवन की सार्थकता है।' इन दोनों की संघनिष्ठ श्रावक हैं। इनकी दैनिक चर्या अन्य श्रावकों के सेवाभावना और उत्कट परिणामों से दान देने की भावना लिए दिशाबोध देने वाली है। / को देखकर प्राचीन श्रावकों का इतिहास मुखरित हो जाता इन्होंने स्वयं को आत्म-उपासना में लगा रखा है। हैं। आध्यात्मिक यात्रा में श्रीमती सुन्दरदेवी का महान त्याग के प्रति सहज सजगता है। व्यवहारकुशल किन्तु पाप- सहयोग मिलता है । दाम्पत्य जीवन में ऐसा आध्यात्मिक भीरू हैं। उनका जीवन समता-रस में धुला-मिला है, भाव दुर्लभ है। श्रीमती सुन्दरदेवी पति के प्रति पूर्ण ओजस्वी है, मृदु है, गम्भीर है और 'सत्यं, शिवं, सुन्दर' समर्पित और श्रद्धानत हैं। का प्रतीक है । तेज होकर तितिक्षु हैं, कठोर होकर सरल आपका दिमाग बड़ा उर्वर है। स्मरण शक्ति विलक्षण हैं, प्राचीन होकर नवीन हैं । अकड़ना भी आता है तो ढलना है। कार्य करने की क्षमता अद्भुत है । जिस किसी कार्य भी आता है। अधिकारी होने के नाते गलती पर कहना को अपने हाथ में लिया, चाहे धार्मिक तथा सामाजिक, पड़ता है किन्तु तत्काल क्षमायाचना कर लेते हैं। बहुत ही सभी कार्यों को बहुत ही आत्मबल एवं दृढ़निष्ठा से करने ऋजु हैं, स्नेहिल हैं। ठाणांग सूत्र में श्रावकों के चार में शत-प्रतिशत सफल रहे हैं । विघ्न-बाधाओं के अनेक प्रकारों का वर्णन उपलब्ध होता है-चत्तारि समणोवासगा तूफान आने पर भी निश्चल होकर अपने लक्ष्य की ओर पण्णता तं जहा--अम्मपि समाणे, भाई समाणे, मित्त समाणे आगे बढ़ते रहे । आत्मविश्वासी बड़ी से बड़ी कठिनाइयाँ सवति समाणे। पार कर जाते हैं। सचमुच ऐसे श्रावकों पर समाज को __इन चार कोटि के श्रावकों में श्रावक केसरीमलजी नाज है। प्रथम कोटि के श्रावक हैं । साधु-साध्वियों के लिए पिता 0 . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड - - - - - -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. कमल से निस्पह - साध्वी श्री इन्दुजी, (लाडनू) श्री केसरीमलजी सुराणा साधना की साकार मूर्ति अनुकरणीय है। आप संयम और साधना की दीपिका हैं । साधना का प्रतिबिम्ब आपके जीवन-दर्पण में प्रति- प्रज्वलित कर कर्मरूप सधन तप के शिलाखण्डों को चीरने बिम्बित होता हुआ देखा जा सकता है । 'संयमः खलु जीव- के सत्कार्य में सतत जागरूक रहकर जीवन का सार खींच नम्' का उद्घोष आपके जीवन में काफी अंशों में उतरा हुआ रहे हैं, जैसा कि कवि ने कितना मार्मिक कहा हैहै। वस्त्र व अर्थ का स्वल्पीकरण साधनारत जीवन के जिन्दगी न केवल जीने का बहाना, ऐसे पहलू हैं जो जीवन पक्ष को अत्यधिक उजागर करते जिन्दगी न केवल सांसों का खजाना । है। गृहस्थ-जीवन में साधु का-सा जीवन जीना वास्तव में वह सिन्दूर है पूर्व दिशा का, सरोवर में खिले कमल की निस्पृहता का ज्वलन्त उदाहरण उसका काम है सूरज उगाना ॥ है । श्रावकत्व व साधुत्व का ऐसा सम्मिश्रण सबके लिए कलयग के शिवशंकर 0 साध्वी श्री ध्रु वरेखाजी युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी व उनके अनुयायी साधु- वीर पुरुष के पुरुषार्थ के आगे स्वयमेव निरस्त हो जाती साध्वियाँ तो स्व-परहित कल्याणार्थ कार्यरत हैं ही परन्तु है। उनका पथ निर्विघ्न व निर्विवाद हो जाता है। कर्मवीर आचार्य तुलसी का श्रावक समाज भी अपनी कार्यकुशलता काका साहब का लक्ष्य बन गया 'बच्चे अध्ययन के साथसे जन-जन का आदरणीय बन गया है। साथ सुसंस्कारी व सदाचारी बनें।' उनके चरण बढ़ चले काका साहब श्रावक श्री केसरीमलजी सुराणा भी एक अपने गन्तव्य की ओरहैं, जिनकी कर्त त्व-शक्ति का लाभ आज तेरापंथ को ही मनुज दुग्ध से दनुज रक्त से, देव सुधा से जीते हैं। नहीं अपितु जैन-अजैन सभी को मिल रहा है। किन्तु हलाहल भव सागर का, शिवशंकर ही पीते हैं । बहादुर कब किसी का आसरा अहसान लेते हैं। काकासा ने अशिक्षा का हलाहल पीकर युवा पीढ़ी को उसी को कर गुजरते हैं जो दिल में ठान लेते हैं। शिक्षा का अमृत पान कराया और वे कलयुग के शिवशंकर कर्मवीर पुरुष का जो लक्ष्य बन जाता है उस पर बन गये। निर्भीक होकर बढ़ने लगता है। बाधाएँ व आपत्तियाँ कर्म । जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा 0 मुनि श्री विनयकुमार 'आलोक' मनुष्य जीवन तक पहुँचने के लिए इस जीव ने कितने करने वाले हैं कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा । वे कर्मपड़ाव किये होंगे? आना और जाना यह क्रम अविरल गति योगी हैं, कर्मठ सेवाभावी है और उनका जीवन त्याग और से चल रहा है। आने व जाने के बीच में जो समय है संयम की सच्ची मिसाल पेश करता है। उसका सदुपयोग बहुत कम व्यक्ति कर पाते हैं। भगवान् संसार में जन्म लेना एक बात है और उसमें से सार महावीर ने एक सूक्त में कहा-'समयं गोयम मा पमायए' खींचना अलग बात है। अध्यात्म-साधक केसरीमलजी समय मात्र भी प्रमाद मत करो। इस सूक्त को चरितार्थ दूसरी कोटि के पुरुषों में है। उन्होंने साधना की ज्योति से Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन ४७ . अपने आपको प्रकाशित किया है। उनका जीवन __ सागरमलजी का बम्बई पद-यात्रा के बीच राणावास पधावर्तमान पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत है। वे जितने रना हुआ। मन में लम्बे समय से राणावास देखने की संयमी हैं उससे कहीं अधिक मितव्ययी भी। उन्होंने इच्छा थी, वह आज साकार हो गई। मैंने वहाँ देखा भौतिक सम्पदाओं को ठुकराया है। वे ऐसे त्यागी जिस राणावास की गरिमा, हम दूर से सुन रहे थे, हैं जो सब कुछ होते हुए भी उसमें लुभाए नहीं, उसमें उससे कहीं अधिक देखने को मिली। विद्या के साथ उन्होंने अपने आप को फंसाया नहीं। लगता है आचारांग अध्यात्म को जोड़कर माननीय श्री सुराणाजी ने देश की का सूक्त 'बई पि लधुन निहे परिगहाओ अप्पाणं अव- एक बहुत बड़ी कमी को पूरा करने का प्रयत्न किया है। सक्किज्जा' उनके जीवन में मूर्त हो उठा है। मनुष्य आव- विद्याथा ज्य आव. विद्यार्थी समाज में जितनी उच्छृखलता और अनुशासनश्यकता से अधिक संग्रह करे जितनी उसकी अपेक्षा है। हीनता पनप रही है, देश के कर्णधारों के सामने प्रश्न-चिह्न क्योंकि जितनी-जितनी आवश्यकताएँ बढ़ती हैं उतना ही उपास्थत कर दिया है। मुझे यह जानकर आर भा प्रसन्नता असन्तोष बढ़ता है। असन्तोष व्यक्ति को जीते जी जलाता हुई कि पैंतीस वर्षों के इतिहास में वहाँ एक बार भी है। मरने पर तो सब ही को जलाया जाता है पर हड़ताल नहीं हुई। सचमुच यह सारा श्रेय सुराणाजी को असन्तोषी अपने आपको प्रतिक्षण जलाता रहता है। परि- जाता है, जिन्होंने अपने अथक परिश्रम से विद्यार्थी समाज ग्रही व्यक्ति को अनेक चिन्ताएँ रहती हैं। शायद ही कोई को नया मोड़ दिया है। आज वहाँ हजारों छात्र ज्ञानार्जन दिन ऐसा जाए जब वह शान्ति से खा सके, सुख से सो में लगे हैं। सके और आराम से बैठ सके। केसरीमलजी सुराणा ने राणावास में उनकी कर्मशक्ति उजागर है। देखने पर अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण किया और एक ऐसा आदर्श अनेक प्रश्न मन में उत्पन्न होने लगे- क्या एक व्यक्ति प्रस्तुत किया है कि वर्तमान मॅहगाई के युग में भी सौ इतना महत्त्व का काम कर सकता है, क्या एक व्यक्ति रुपयों में अपना काम आसानी से चला लेते हैं । वे सात्त्विक, नब्बे लाख रुपए एकत्रित कर सकता है, पर यथार्थ को सरल और निरभिमान व्यक्तित्व के धनी हैं। कैसे झुठलाया जा सकता है। सचमुच वे कर्मवीर हैं। शिक्षा वह संजीवनी बूटी है जो चलती-फिरती लाशों भगवान महावीर ने कहा है-'जे कम्मे सूरा ते धम्मे में भी नवचेतना का प्राण स्पन्दन करती है। आपकी यह दृढ़ सूरा।' जो कर्म में शूर होता है वही धर्म में। सुराणाजी धारणा है कि जब तक शिक्षा के साथ-साथ चैतन्य स्फूर्त कर्म के क्षेत्र में ही शूरवीर नहीं हैं वे उससे कहीं अधिक नहीं किया जायेगा तब तक शिक्षा, शिक्षा नहीं होगी। धर्म के क्षेत्र में । एक दिन में १६ सामायिक करना, १७॥ ऐसी शिक्षा, बिना आत्मा का शरीर है । आपने इतिहास को घण्टा मौन रखना उनके आध्यात्मिक भाव का परिचायक पलटा है, युगबोध को नए-नए आयामों से भरा है, इसका है। इतना सब कुछ करते हुए बचे समय में इतना कार्य जीता-जागता उदाहरण है-विद्याभूमि राणावास । किया है। उनकी कार्यजा शक्ति पर हर किसी को ईर्ष्या हो तो __ मैंने राणावास के बारे में बहुत सुन रखा था पर मन यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। सुराणाजी की मिलनसारिता, में विश्वास नहीं होता था। विश्वास हो भी कैसे, जब मैंने निष्कपट व्यवहार, रौबीला स्वभाव सहज ही अपनी ओर शान्तिनिकेतन को देख लिया, वनस्थली विद्यापीठ भी, प्रभावित कर लेता है। मैंने एक दिन में पाया सहज पिलानी इंस्टीट्यूट और भी देश के उन विद्यालयों, महा- साधुत्व एवं श्रावकत्व का अद्भुत सम्मिश्रण । विद्यालयों और विश्वविद्यालयों को देखा, फिर राणावास अध्यात्म के क्षेत्र में वे प्रगति करते रहें, इसी मंगलमें इससे अधिक और क्या होगा ? ६ मार्च, ७६ को मुनिश्री भाव के साथ । 00 कस New -0 . SIT Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ :प्रथम खण्ड कर्मशील योगी साध्वी श्री लब्धिश्री सुराणाजी का व्यक्तित्व वास्तव में प्रेरणास्पद व्यक्तित्व विकास दृष्टिगत नहीं होता है। उसका कारण क्या है ? है और उन्होंने इस व्यक्तित्व का निर्माण किया है अपने ही एक ही राज नजर आता है-जीवनदानी कार्यकर्ताओं की कार्यबल के आधार पर, निरन्तर श्रमशीलता के आधार पर, कमी । बहुत बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाते हैं। लेकिन उनको आन्तरिक कर्तव्यनिष्ठा के आधार पर । नाम रोशन करने क्रियान्विति देने वाले विरले ही होते हैं, इसीलिए वे बने के लिए कार्य करने वाले बहुत मिलेंगे पर बिना किसी नाम बनाये प्लान डायरी में ही रह जाते हैं, संस्थानों का की भूख से, बिना किसी स्वार्थ के प्रलोभन से काम करने विकास अवरुद्ध हो जाता है। लेकिन आज श्री तेरापंथ वाले निःस्वार्थ सेवा प्रदान करने वाले सुराणाजी जैसे विरले मानव हितकारी संघ जो सक्रिय दिखाई दे रहा है और ही मिलेंगे। वास्तव में आप एक कर्मशील योगी हैं। महाविद्यालय का जो प्रारूप दृष्टिगत होता है उनमें महान् आपकी सतत कर्मशीलता का ही प्रतिफल है श्री तेरापंथ योग रहा श्री सुराणाजी का। किसी ने बहुत सुन्दर मानव हितकारी संघ । जिसको प्राणप्रिय समझकर तन की कहा हैपरवाह न करते हुए अपने अमुल्य श्रम सीकरों से सतत बातों से कुछ नहीं होता काम करने वाले बढ़ते हैं, सिंचन दिया और इस फुलवारी को पुष्पित, फलित और / खड़े रहने से कुछ नहीं आगे चलने वाले शिखर चढ़ते हैं। विकसित किया। नाम का यह संक्रामक रोग बहुतों को ग्रसित कर बैठा, हम देखते हैं अनेक संस्थानों को, पर उनका सम्यक् विरले ही बचे जो अरमानों को सही ढाँचे में मंढ़ते हैं । 00 अजब गजब रा श्रावक मुनि श्री अगरचन्द करीब सात बरस पहेलां री बात है एक दिन पाछली सब दुकानदारी छोड़ कर एक धुन राणावास में विद्यालय रात संतांरी सभा में आचार्य श्री फरमायो के अगरचन्दजी के माध्यम स्यु बच्चा में धार्मिक संस्कार फैलावा रो काम थारे कांठा रा संत किता है, जद म्हें कह्यो आचार्यप्रवर कर रह्या है सो बोत ही सराहणीय हैं। साथ में उणारी संत तो है जका है ही पिण कांठे में श्रावक केसरीमलजी धर्मपली सुन्दरबाई जो के सैकड़ों तोला सोनो पहरणे वाला सुराणा बोत काम कर रह्या है तब आचार्य श्री फुरमायो व बूंघट निकालने वाला हा सब त्यागर सादगीरे साथे के केसरीमलजी तो एक अजब गजब रा श्रावक है। रेवण लाग गया। केसरीमलजी री सादगी त्याग आज केसरीमलजी सुराणा जिसा श्रावक बोत थोड़ा मिले है। समाज रे वास्ते अनुकरणीय है। वास्तव में केसरीमलजी सुराणा करीब ३५ वरसां स्यु आपरी 00 संयम को साकार मूर्ति - साध्वी श्री राजीमती श्री केसरीमलजी सुराणा का मन और शरीर दोनों वृत्तियाँ रचनात्मक हो गई है। भौतिकवाद की चकाचौंध स्वस्थ हैं । इसका मुख्य कारण उनका संयममय जीवन है। उन्हें प्रभावित नहीं कर पाई, कोई सा प्रलोभन उन्हें झुका खान-पान का संयम, वेशभूषा का संयम, धन का संयम, नहीं पाया, किसी तरह का कष्ट उन्हें पराजित नहीं कर वाणी का संयम और व्यवहार में संयम, सर्वत्र उनका संयम सका। वे तेरापंथ धर्मसंघ के महानतम श्रावक हैं। दर्शनीय है । इस संयममय दैनिक-चर्या के फलस्वरूप उनकी 00 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस प्रकार जन-समुदाय अथवा समाज की समुचित व्यवस्था के लिए संविधान की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार व्यक्तिगत जीवन की व्यवस्था हेतु आत्म-साधना की आवश्यकता होती है । वरिष्ठ श्रावक केसरीमलजी का जीवन आत्म-साधना का उदाहरण है । भगवान ने चारित्र साधना के दो प्रकार प्रस्तुत किये हैं - ( १ ) देशविरति साधना, (२) सर्वविरति साधना । श्रावक केसरीमलजी सर्वविरति साधक नहीं बन पाये किन्तु उन्होंने देशविरति साधना भी उत्कृष्ट कोटि की साधना की है और कर रहे हैं । उदाहरणस्वरूप उन्होंने तीस वर्षों की यौवनावस्था में यावज्जीवन ब्रह्मचर्य को धारण किया । ब्रह्मचारी साधक साध्वी श्री राजवती . समाज के साथ मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जहाँ उसका घनिष्ट सम्बन्ध होता है वहाँ समाज के प्रति उसके कुछ कर्तव्य भी होते है। यदि उन कर्तव्यों का पालन निष्ठा एवं उत्साहपूर्वक किया जाता है तो व्यक्ति एवं समाज प्रगति के शिखर पर पहुँचकर युग-युग तक संसार में पावन प्रेरणा का स्रोत बन जाता है। दोनों का इतिहास गरिमायुक्त सेवाओं से समृद्ध बनता है। समाज के दर्पण व्यक्ति होते हैं। जैसे व्यक्ति होंगे वैसी ही समाज की रचना होगी । 0 नव-समाज के निर्माता मुनि श्री रवीन्द्रकुमार जीवन जी लेना एक साधारण बात है एवं आदर्शजीवन जीना विशेष । 'काकोपि जीवति चिराय बलि च भुवते' बलि भक्षण कर काक (कौआ) भी चिरकाल जीता है । लेकिन निष्क्रिय जीवन का उतना महत्त्व नहीं जितना कि आदर्श एवं सयि जीवन का है। ब्रह्मचर्य व्रत की व्याख्या देते हुए भगवान ने कहा'उगमहस्वयं वयं धारयेवं सुदुक्करे ।' अर्थात् ब्रह्मचर्य व्रत को पालन करना बहुत कठिन है । यदि इस व्रत का तन-मन से पालन किया जाये तो इससे अन्तर्निहित शक्ति का प्रादुर्भाव होता है जो हर साधना क्षेत्र में उपयोगी सिद्ध होती है । भावक सरीमलजी ने आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन में जो आश्चर्यजनक कार्य किया है और कर रहे हैं, इसका एक कारण यही हो सकता है कि ब्रह्मचर्य व्रत से जागृत अन्तर्निहित शक्ति ही उनमें काम कर रही है। अनासक्त योगी D साध्वी श्री सोहनकुमारी (राजलदेसर ) आशीर्वचन ૪૨ संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसमें कोई न कोई विशेषता न हो कुछ व्यक्ति विरल विशेषताओं से । सम्पन्न होते हैं । उनका जीवन समाज के लिए वरदान बन जाता है । समाज ऐसे व्यक्तियों से गौरवान्वित होता है । ऐसे विरले व्यक्तियों में श्री केसरीमलजी सुराणा का व्यक्तित्व भी अनूठा है। उन्होंने अपना जीवन पर - कल्याणार्थ समर्पित कर रखा है। समाज के निर्माण में उन्होंने अपने आप को होम दिया है। सही मायने में उन्होंने नव-समाज के निर्माण में अपने आपको तिल-तिल करके जलाया है । अरस्तू के शब्दों में " Life is movement" सक्रि यता ही जीवन है। सक्रिय यानी पुरुषार्थी व्यक्ति साधना के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच सकता है जबकि निष्क्रिय साधना से लड़खड़ाता हुआ एक दिन पतन के गर्त में गिर जाता है। सजीव बीज वट-वृक्ष का रूप धारण कर शत . Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0. ५० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड शाखी बन लहलहाता रहता है जबकि निर्जीव बीज धरातल के गर्त में जाकर स्वयं का अस्तित्व ही समाप्त कर देता है । अतः साधनामय आदर्श जीवनचर्या की जीवन में महती आवश्यकता है । यह जगमगाती दीपशिखा प्रमाद और अज्ञान तिमिर की काली रेखा को चीर डालती है। यह संजीवनी शक्ति आक्सीजन है जड़ता की कार्बन को हटा जीवन को गतिमान बना देती है । इसका ज्वलन्त उदाहरण हैं- कर्तव्यपरायण, पुन के धनी, साधना- निष्ठ, त्याग तपस्या की साकार मूर्ति, सहज शिक्षक, राणावास संस्था के संचालक, तेरापंथ संघ के श्रद्धानिष्ठ धावक केसरीमलजी सुराणा । इस भौतिक वाद की चकाचौंध में भी अनासक्त भरत एवं योगी की भौति किस प्रकार अपनी दैनिक जीवनचर्या को रोमांचकारी कठोर साधना के सांचे में ढाले हुए चल रहे हैं । गांधीजी ने कहा- " त्याग एक सात्त्विक आनन्द है, 00 कँटीली झाड़ियों में उन्हीं व्यक्तियों के जीवन पर लेखनी चलती है जिनके जीवन का कण-कण स्व-पर के उत्थान के लिए त्याग एवं बलिदान की आहूति में होम दिया जाता है या वार्त मानिक क्षणों में भी होमा जा रहा है। ऐसे अनेक श्रद्धाशील भावकों का जीवन इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर आज भी मुखरित हो रहा है । उन आदर्शमय श्रावकों की कड़ी में धीमान् केशरीमलजी सुराणा का जीवन जोड़ा जाये तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इनके जीवन की एक विरल विशेषता है कि ये अपने प्रण के पक्के हैं । जिस कार्य को करने का निर्णय ले लिया उसे सम्पन्न करके ही विराम लेते हैं, बीच में नहीं । एक कवि के शब्दों में त्याग बिना मनुष्य का विकास नहीं हो सकता ।" सुराणाजी इस सात्त्विक आनन्द का रसास्वादन करते हुए सहस्रों सहस्रों व्यक्तियों को भी आत्म-विकासरूपी अनुपम अमृत का अनुपान अनवरत कराते आ रहे हैं । साधना एवं विकास की सुरसरिता में स्वयं स्नान करते हुए सैकड़ों या सहस्रों छात्र-छात्राओं कई तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी, उनका जीवन-निर्माण कर रहे हैं । योगवाशिष्ठ में कहा है- उसी व्यक्ति का जीवन सुशोभित है जिसके दर्शन, श्रवण एवं स्मरण मात्र से प्राणियों को आनन्दानुभूति होती हो, यथा 1 यस्मिन् भूति पचा पाते दृष्टे स्मृतिमुपागते। आनन्दं यान्ति भूतानि जीवितं तस्य शोभितं ॥ " और थी केसरीमलजी मुराणा का जीवन इसी तरह सुशोभित हो रहा है । प्रण के पक्के कर्मठ मानव जिस पथ पर बढ़ जाते हैं । एक बार तो रौरव को भी, स्वर्ग बना दिखलाते हैं । अभिप्रेत मंजिल प्राप्त के लिए बृहत्तर कठिनाइयों की पटाने भी क्यों न चोरनी पड़े, आये दिन ज्वलन्त । साध्वी श्री अशोकधी मुस्कराता फूल संघर्ष के तीव्र तूफानों से क्यों न मुकाबला करना पड़े, लेकिन जो करना है वह विकट से विकटतम स्थिति में भी करना है। कर्मठ राही को साथी की परवाह नहीं होती, अकेला ही वह अपने निर्णीत साध्य बिन्दु पर पहुंच जाता है । उसका अटूट मनोबल कभी कायरता के दर्पण में नहीं झाँकता । यथा बिछे हों शूल पग-पग पर खड़े हों विघ्न मग-मग पर । कठिन हो पाँव धरना मी व संभव छाँह गहना भी न कोई संग साथी हो, अकेला लक्ष्य पालूंगा सतत अभ्यास मेरा है ॥ वीर हृदय किसी भी परिस्थिति के सामने अपने घुटने नहीं टेकता, बल्कि परिस्थिति उनके चरण स्वयं घूमती है। श्री सुराणाजी अपने लक्ष्य के प्रति इसी प्रकार समर्पित हैं। वे कँटीली झाड़ियों में मुस्कराते फूल हैं। वीर शिरोमणि और वीरों के अवतार हैं । . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन ५१ .. .. .... .... ....... . -.-. -. -. व्यक्तित्व व कृतित्व की पूजा ] मुनि श्री सोहनलाल (लूणकरनसर) श्री केसरीमलजी सुराणा से मैं तीस वर्षों से परि- है। यह हर किसी व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। मैं चित हूँ। कोई भी व्यक्ति पूजा नहीं जाता है, उसका अपेक्षा करता हूँ, अन्य व्यक्ति भी श्री सुराणाजी के जीवन व्यक्तित्व एवं कृतित्व पूजा जाता है। सुराणाजी इसमें से प्रेरणा लेकर अपने आपको इस योग्य बनावें। इसमें खरे उतरे हैं । यह सुराणाजी का सम्मान नहीं है, उनके श्री संघ एवं धर्म की जय-विजय है। श्री सुराणाजी के त्याग एवं धर्म के प्रति श्रद्धा तथा सेवा की भावनाओं का जीवन की तस्वीर को स्पष्ट करने के लिए ये पंक्तियाँ सम्मान है। आप राणावास के शिक्षा केन्द्र का कार्यभार प्रस्तुत कर रहा हूंस्वार्थविहीन होकर सम्भाल रहे हैं। यह इस भौतिक आसमान की शोभा शून्य से नहीं सितारों से है, युग में कम बात नहीं है। सबसे बड़ी विशेषता यह रही देश की शोभा गद्दारों से नहीं वफादारों से है। है कि आपने स्वयं का चरित्र उज्ज्वल कोटि का बनाकर इन्सान को शोभा रंग और रूप से नहीं, उसके अनुरूप छात्रों का जीवन बनाने का प्रयास किया उसके ऊंचे चरित्र और सद्व्यवहारों से है ।। 00 पडिमाधारी श्रावक 0 साध्वी श्री यशोधरा 'जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा' कर्मशीलता और धर्म- में तो ऐसा उपसर्ग हुआ कि सौ से भी अधिक बार शौच शीलता का संगमस्थल है सुराणाजी का जीवन । कर्मक्षेत्र जाना पड़ा । पर जो भय की रात ही नहीं जन्मा, उसे भय में उतरे तो एक नया कीर्तिमान स्थापित कर दिया। कैसे भयभीत करता? पौरुष में अपराजेय शक्ति जो है। अकेला व्यक्ति क्या कर सकता है ? इस नैराश्य भरे चिन्तन आखिर उसी को जीत अवश्यंभाविनी थी। प्रतिमा के को कड़ी चुनौती दी, श्री केसरीमलजी सुराणा ने मात्र अनन्तर आपने अपनी ड्रेस को नहीं बदला। साधु-सा वाणी से नहीं प्रत्युत कर्म से भी। वेष, रात्रि में उसी तरह की चर्या, सीमित साधनों से जिस प्रकार कर्मक्षेत्र में अगुआ बनकर आए, धर्मक्षेत्र जीवनयापन, प्रतिदिन उन्नीस सामायिक, सत्रह घण्टा में भी प्रथम श्रेणी में अपना नाम लिखाया है । श्रावक की मौन, पर्युषण में मौन और एकान्तवास, हजारों गाथाओं ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख शास्त्रों में पढ़ते आये हैं, का स्वाध्याय इत्यादि प्रक्रियाएँ उनके आध्यात्मिक जागरण पर इसकी क्रियान्वित करने वाले श्रावक विरल ही होते के प्रतीक हैं। हैं। ग्यारह प्रतिमाओं में ग्यारहवीं प्रतिमा है-श्रमणभूत 'जंति वीरा महाजणं' वीर महापथ के पथिक होते प्रतिमा । इस प्रतिमा में साधु-सा जीवन यापन करना हैं। महापंथ पर जिसके चरण गतिशील हैं, अप्रमत्तता होता है। कभी-कभी ऐसे भी उपसर्ग आते हैं कि साधारण की साधना जिसका जीवन लक्ष्य है, उस यायावर की मनुष्य को तो सुनते ही पसीना छूटने लगता है। प्रतिमाकाल सन्निकट भविष्य में ही मंजिल की दूरी कट जाए, इसी में केसरीमलजी को अनेक उपसर्गों से जूझना पड़ा। एक रात्रि शुभाशंसा के साथ .... १ प्रतिमा पल ही होने का स्वाध्याय -0. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-... -. -.-. . -.-... -...-. -. -. -.-.-. -. -. निर्लिप्त जीवन मुनि श्री सोहनलाल (श्रीडूंगरगढ़) दृढ़धर्मी, प्रियधर्मी श्रावक केसरीमलजी का जीवन बहुत इन्होंने अपने जीवन में चरितार्थ किया है । इनका रहनस्यागमय है। इनका संयममय जीवन देखने वालों को सहन, सादगी, और वैराग्य भावना प्रशंसनीय है। समाज आकृष्ट किये बिना नहीं रहता। दिन में, रात्रि में सेवा और शासन की सेवा बहुत की है और कर रहे हैं। अधिकाधिक समय धर्म-जागरण में व्यतीत करते हैं। ये छोटे-बड़े सभी साधुओं का समान रूप से विनयनिद्रा बहुत कम लेते हैं। संस्था का भार संभालते हुए भी सेवा करते हैं। अतिथिसंविभाग श्रावक का बारहवाँ व्रत दिमाग पर भार महसूस नहीं करते, यह इनकी विस्मृति है। ग्यारह व्रत श्रावक स्वयं कर सकते हैं। बारहवां व्रत साधना का सुफल है। इनका जीवन इस दोहे के अनुरूप तो चारित्रात्माओं की कृपा से ही संभव है । आप बड़े नम्र शब्दों में अर्ज करते हैं-"माईता तारो कृपा करावो" जे समदृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल। बड़े चढ़ते भावों से दान देकर व्रत निपजाते हैं । भगवान अंतरगत न्यारा रहे, ज्यू धाय खिलावे बाल ॥ ने मोक्ष के चार मार्ग बतलाये हैं-दान, शील, तप और ये अपना जीवन निलिप्त रखते हैं । भमेवान महावीर भावना । केसरीमलजी इन चारों की अच्छी आराधना ने श्रावकों के गुणों के विषय में उववाई सूत्र में कहा है- करते हैं। "अप्पिछा, अप्पारंमा, अपरिग्गहा।" यह आगम पाठ शासन-सेवी : शासन-भक्त साध्वी श्री कमलाकुमारी (उज्जैन) आत्मा की शुद्धि त्यागरूपी त्रिवेणी में नहाने से ही धारी बने, देवकृत उपसर्ग भी सहे । जो कायर थे वे संभव है। महाव्रत और अणुव्रतरूपी नौका पर चढ़कर साधना से विचलित हो गये, परन्तु आनन्द, कामदेव जैसे ही भवसागर से पार हो सकते हैं। पूर्णत्यागी और अपूर्ण- वीर साधना शिखर पर चढ़ गये। त्यागी दो प्रकार के मनुष्य होते हैं । पूर्णत्यागी तो संयमी आज भी स्वामी भीखणजी के शासन में ऐसे श्रावक पुरुष ही हो सकते हैं। उनका जीवन अहर्निश संयम के श्री केसरीमलजी सुराणा हैं जो शासन-सेवी, परमभक्त, पथ पर समर्पित होता है। अपूर्णव्रती देशव्रती श्रावक होते धर्मनिष्ठ, श्रद्धाशील, कर्त्तव्यपरायण, त्याग की त्रिवेणी हैं । वे अपनी शक्ति के अनुसार क्रिया करते हैं । भगवान् में रमण करते हैं। आपका नाम व काम दोनों ही महावीर ने श्रावकों को भी ऊँचा माना है। उपासक- शासन में प्रसिद्ध हैं। दशांग सूत्र में १० श्रावकों का वर्णन आया है। वे पडिमा 00 नवीन प्रेरणाओं के उद्घाटक 0 साध्वी श्री प्रियंवदा भारतीय संस्कृति में मानव की नहीं बल्कि मानवता सिर्फ तेरापंथ समाज के ही नहीं अपितु समस्त जैन समाज की एवं साधक की नहीं बल्कि साधकता की पूजा होती के लिए एक आधारस्तम्भ हैं, क्योंकि वे धुन के धनी आयी है। सुराणाजी भी एक ऐसे ही गुणवान् व्यक्ति हैं, एवं पक्के हैं। उन्होंने इसी प्रकार अनेक धुनों के प्रवाह इसीलिए उनके व्यक्तित्व की उन्मुक्त, सुखद एवं वास्तविक में प्रवाहित होकर समाज को नयी-नयी प्रेरणाएँ एवं चर्चाएँ जन-जन के श्रुतिपटों में गुजित हो रही हैं। वे नये-नये चिन्तन दिये हैं तथा उन प्रेरणाओं व चिन्तनों Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन ५३ -. - . - . - . -. -. - . -. - . -. - . - . - . - . -. - . -. - . - . - . के माध्यम से समाज में विभिन्न प्रकार के आयाम भूख देखते हैं न प्यास और उसी प्रबल पुरुषार्थ के फलस्वरूप उद्घाटित हुए हैं और हो रहे हैं। उन अद्वितीय धूनी उनका मन इच्छित कार्य शीघ्र ही सफलता के चरण के मानस में जब किसी कार्य की क्रियान्विति करने की चूम लेता है। वास्तव में धुन एक ऐसा गुण है जो अभिलाषा जागृत होती है तब उनके सम्मुख सिर्फ कायर को कायरता से हटाकर साहस के मार्ग पर ले एक ही लक्ष्य रहता है जाता है। प्रमादी को प्रमाद से हटाकर कर्मठ बनने "प्राणों की परवाह नहीं है, प्रण को अटल निभायेंगे।" की प्रेरणा देता है तथा दुष्कर कार्य को भी सुकर बना इसीलिए उन क्षणों में वे न दिन देखते हैं न रात, न देता है। 00 साध्वी श्री विद्यावती सशिक्षा के प्रेरक इस विराट भारत देश में राणावास एक ऐसा शिक्षण संस्थान चलाये जायें तो निःसन्देह राष्ट्र का अनूठा शिक्षा केन्द्र है जिसमें बच्चों में सद्संस्कारों को विकास एवं उत्थान संभव है। वस्तुतः ऐसे शिक्षा केन्द्र निर्माण करने की ज्योति, उच्च जीवन जीने की कला, को चलाकर सुराणाजी ने विश्व के सामने शिक्षा के आध्यात्मिकता की गहराई में उतरने की शक्ति एवं व्याव- सही उद्देश्य को प्रकट किया है। उन्होंने अपने अथक हारिक दैनिक चर्या का अत्यन्त सरल, सुबोध एवं कल्याण- परिश्रम एवं कुशाग्र बुद्धि के द्वारा एक ऐसी दिव्य प्रद उद्बोधन दिया जाता है। इसका सारा श्रेय संस्कारों लो प्रज्वलित की है कि जिसकी लो से सहस्रास्र बालकों के निर्माता श्री सुराणाजी को ही है। ऐसा लगता है का जीवन-निर्माण हुआ है और हो रहा है। कि अगर स्थान-स्थान पर ऐसी संस्थायें हों एवं ऐसे 00 मणि-कांचन सुयोग 0 साध्वी श्री विजयश्री जैनधर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर ने कहा- इसका प्रत्यक्ष दर्शन श्री सुराणाजी के जीवन में दिखायी 'संगाम सीसे जह नागराय'-जैसे नागराज (हाथी) जब देता है। ये मितभोजी, मितभाषी एवं मितव्ययी हैं। रणक्षेत्र में अपने मोर्चे पर जा डटता है, तब भले ही इनकी वेशभूषा सादी, खादी की और सफेद होती है भालों के घाव लगें, चाहे गोलियों की बौछार होवे, और साधु-प्रवृत्ति जैसी होती है। जब ये संस्था के लिए वह मरना मंजूर कर लेगा पर वहाँ से भागेगा नहीं। अर्थ-संग्रह हेतु यात्रा पर निकलते हैं, तब अनेक स्थानों वैसे ही बलिदानी व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पर मान-अपमान, लाभ-अलाभ, प्रशंसा-निन्दा आदि की डट जाते हैं, समर्पित हो जाते हैं। वे शरीर का परित्याग अनेक घाटियों को पार करते हुए निरन्तर आगे बढ़ते करके भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सजग रहते हैं। रहे हैं। शायद ही तेरापंथ संघ का कोई ऐसा ग्राम ___श्री केसरीमलजी सुराणा भी इन्हीं बलिदानी व या शहर या प्रान्त बचा हो जहाँ ये नहीं पहुंचे हों। ये कर्मठ व्यक्तियों में से एक हैं। ये जिस कार्य को प्रारम्भ सदैव अपनी धन में "चरैवेति चरैवेति" का मन्त्र कर देते हैं फिर उसकी पूर्ति तक विश्राम नहीं लेते। अपनाते हैं। बीच में कितनी ही बाधाएँ आयें, चाहे कितने ही संघर्षों प्रायः यह देखा जाता है कि जो व्यक्ति धार्मिक क्रियाके तूफान मचल उठे पर कोई इनके मेरु की भाँति कलापों में अधिक रस लेता है, वह सामाजिक कार्यों में अडिग विचारों को हिला नहीं सकते। ये अपने जीवन उतना रस नहीं लेता है और जो व्यक्ति सामाजिक कार्यों में "कर्तव्यं या मत्त व्यं" का सिद्धान्त लेकर चलते हैं। में अधिक रस लेता है, वह धार्मिक क्रिया-कलापों में सफलता इनके चरण चूमती है। उतनी रुचि नहीं लेता। पर यहाँ तो सामाजिक और युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी का प्रमुख उद्घोष धार्मिक दोनों कार्यों का 'मणि-कांचन' और 'सोने में है कि "संयमः खलु जीवनम्"-संयम ही जीवन है। सुगन्ध' का सुयोग है। OO Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Joyo ५४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड धर्म और कर्म के संगम D मुनि श्री सुमेरमल (लाडनूं) प्रायः देखा जाता है जिनमें सामाजिक कार्य की रुचि होती है, वे अधिकतर उसमें ही रचे-पचे रहते हैं, वे लोग धार्मिक उपासना का समय कम ही निकाल पाते हैं, रुचि भी प्रायः कम देखने में आती है, इस सन्दर्भ में कभी-कभी ऐसा भी सुनने को मिल जाता है-"हम कार्यकर्ता हैं, श्रावक नहीं हैं ।" किन्तु श्रावक केसरीमलजी अमेरिका के लिंकन ने समाज की नींव को सुदृढ़ बनाने हेतु अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया था। वैसे ही श्रीवीर भिक्षु की जन्मस्थली कांठा प्रदेश में विद्या का विस्तार करने हेतु श्री सुराणाजी ने अपना तन-मन-धन समाज हितकारी प्रवृत्तियों में समर्पित कर श्रावक समाज में त्याग का एक नवीन आदर्श उपस्थित किया है। छात्रछात्राओं को शिक्षा के साथ-साथ सद्संस्कारी बनाने में जो अपना योगदान दे रहे हैं, यह भी समाज हितकारी प्रवृत्तियों के अन्तर्गत ही आ जाता है। किसी कवि ने कहा है आदर्श त्याग का नवीन आव [1] साध्वी श्री रमाकुमारी (नोहर ) सुराणा में यह अद्भुत संयोग देखने में आया, वे सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता हैं, उनके द्वारा समाज को जो रचनात्मक देन मिली है, उसे समाज कभी भूल नहीं सकता। साथ ही साथ वे वरिष्ठतम श्रावक भी हैं। श्रावक की चर्या बहुत ही सजगता से निभा रहे हैं । 1 इस अवनीतल पर प्रतिदिन प्रतिक्षण अनेक प्राणी जन्म लेते हैं और सदा के लिए मृत्यु की गोद में सो जाते हैं । वे कौन थे ? कब जन्मे ? कहाँ और कब मरे ? जन्म और मरण के मध्यकाल में कहाँ रहे? कैसे रहे? इतिहास के पृष्ठों पर इसका कोई लेखा-जोखा नहीं रहता। उनकी कोई स्मृतियाँ शेष नहीं रहतीं और रह भी नहीं सकतीं । उन्हें चिन्ता है, फिकर है, तो केवल अपने सुख की, अपने हित की और अपने स्वार्थ की वे केवल अपनी ही कारा में बन्द हैं। दूसरों के दुःख-सुख को उन्हें कोई चिन्ता नहीं । इसलिए किसी के मन पर उनकी स्मृतियों के चिह्न शेष नहीं रहते । "अयोग्यः पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभः" कोई भी व्यक्ति अयोग्य नहीं होता, उसे सही दिशादर्शन देने वाला अगर कोई मिल जाता है, तो उसके भविष्य का सही निर्माण हो जाता है । ये छात्र ही समाज के भावी कर्णधार बनेंगे। राणावास की भूमि को तो उन्होंने मानी वाराणसी का ही रूप दे दिया है। श्रम से व्यक्ति क्या नहीं प्राप्त कर सकता, सब कुछ पा सकता है। इनका जीवन कर्मठ एवं धमशील है। जितनी शिक्षा जीवन से मिल सकती है, उतनी पुस्तकों से नहीं । धर्म भी इनके कण-कण में समाहित हो रहा है। 00 प्रकाश के अन्वेषक साध्वी श्री मोहनकुमारी (तारानगर) इसके विपरीत कुछ महान् आत्माएँ ऐसी आती है, जो इस भौतिक जीवन के समाप्त होने के बाद भी नहीं मरतीं । काल का गहरा परदा भी उनकी जीवन-गाथाओं को धुंधला नहीं बना सकता। वे आते हैं, इसलिए कि दुनिया को प्रकाश दे सकें। वे प्रकाश के अन्वेषक हैं । वे अन्धकार से लड़ते हैं और अन्धकार से लड़ना ही उनका कार्य है । तिल-तिल जलना और समाज की अनवरत सेवा करना ही उनके जीवन का मुख्य लक्ष्य होता है। श्री केसरीमलजी सुराणा भी इसी प्रकार के व्यक्ति हैं। वे तेरापंथी जैन समाज की एक विशिष्ट विभूति हैं। उनके व्यक्तित्व का आकर्षण अदभुत है। 00 . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन ५५ -. - . -. - . -. -. -. - . - . - . - . -. - . - . -. -. -. -. समय के सूक्ष्म अन्वेषक साध्वी श्री नीतिश्री धावक केसरीमलजी ने अपने जीवन काल में अनेकानेक क्षणशः कणशश्चेव विद्यामर्थ च चिन्तयेत् । उतार-चढ़ाव देखे-लोगों को बनते-बिगड़ते देखे, गिरते- क्षणत्यागात् कुतो विद्या कणत्यागात् कुतो धनम् ।। उठते देखे । परन्तु सुराणाजी अनुकूल और प्रतिकूल परि- क्षण-क्षण का मूल्य समझने वाला विद्वान् बन जाता है स्थितियों में भी अपने संकल्पों पर दृढ़ रहे। यही कारण और क्षण-क्षण को व्यर्थ गमाने वाला मूर्ख ही रह जाता है; रहा कि मुश्किल शब्द उनके शब्दकोष में स्थान प्राप्त न कण-कण का संग्रह करने वाला धनाढ्य बन जाता है और कर सका। नहीं करने वाला दरिद्र ही रह जाता है। श्री सुराणाजी श्रावक केसरीमलजी समय के मूल्य को आँकने वाले ने इस उक्ति को चरितार्थ किया है । जिस संस्था का हैं-अपनी साधना में सतत जागरूक रहकर प्रत्येक कार्य अभ्युदय केसरीमलजी द्वारा हुआ, उसका भार केसरीमलजी को सूक्ष्म अन्वेषण से पूर्ण करने में विश्वास रखते हैं। जैसे सशक्त व्यक्ति के कन्धों पर होने से इसकी प्रगति किसी कवि ने ठीक कहा है दिनोंदिन हो रही है। 00 आस्थाओं के सिंहासन पर आरूढ़ 0 साध्वी श्री राजीमती किसी भी युग में किसी व्यक्ति विशेष को इसलिए वह महान् है जिसने विवेक-जल से भरी संयम-सरिता का महान् नहीं माना जाता कि वह श्रीसम्पन्न है, शिक्षित अवगाहन करके स्वयं को धोया है और उसके साथ ही है तथा अन्य ऐसे ही किसी कारण से विश्व-मंच पर अपना अपने प्रिय पार्थिव शरीर को समाजहित में बलिदान प्रभुत्व स्थापित कर सका है । इतिहास इस बात का किया है। प्रमाण है कि जो व्यक्ति पदारूढ़, राष्ट्र-सेवा और श्री सुराणाजी को समाज-विशेष की आस्थाओं के साहित्य-निर्माण को प्राप्त हुआ है, वह मात्र बाह्य एवं सिंहासन पर आरूढ़ होने का जो गौरवपूर्ण अधिकार अल्पकालीन सुयश का हेतु है । त्याग और भोग, स्वार्थ मिला है, वह इसी तपोसाधना और चिरस्मरणीय और परमार्थ, अध्यात्म और विषय-भोग इन दोनों सेवाओं का परिणाम है। मैंने देखा कि इस व्यक्ति में विपरीत-पक्षों में से अक्षत गुजरने की क्षमता न सत्ता से एक सीमा तक सत्य से लगाव है और असत्य से भयंकर प्राप्त होती है और न अर्थ-विस्तार से। इसके लिए विद्रोह है। जो समाज और अध्यात्म दोनों को क्षति चाहिए सत्य की गहराइयों को छूने वाली सूक्ष्म-दृष्टि पहुंचाए बिना पूरा जीवन जी लेता है, वह सामाजिक क्षेत्र और स्वस्थ-चिन्तन । प्राचीन अध्यात्म-परम्परा के अनुसार में 'प्रमाण-पुरुष' हो सकता है। विसर्जन के पुनीत प्रतीक 10 साध्वी श्री निर्मलाश्री (सरदारशहर) विसर्जन श्रावक की प्रथम भूमिका है । समाज की का संयम । दान में मान-सम्मान और पूजा-प्रतिष्ठा की स्वस्थता का प्रथम सूत्र और अध्यात्ममार्ग का प्रथम आकांक्षा बनी रहती है और विसर्जन में अनासक्ति व सोपान है । विसर्जन का अर्थ केवल देना व छोड़ना ही विरक्ति के भाव भरे रहते हैं। अर्जन और विसर्जन के नहीं है। विसर्जन का अर्थ है-पदार्थ से जुड़ा ममत्व क्रम को न समझने के कारण ही आज समाज विशृखलित और आसक्ति से पूर्ण अलगाव तथा व्यक्तिगत स्वामित्व होता जा रहा है । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .० 0 ० ५६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड दीपक एक ओर स्नेह ग्रहण करता है तो दूसरी ओर प्रकाश व कज्जल के रूप में विसर्जन करता है । इस आदान और प्रदान की प्रक्रिया से ही लौ सदा प्रज्वलित रहती है। फूल अपनी सौरभ लुटाकर ही खिलता है, मेहदी पिसकर ही रंग लाती है। मनुष्य जीवन भी अर्जनविसर्जन से अभिपूरित है। विसर्जन में आनन्द की अनुभूति होती है, आत्मसन्तोष मिलता है । अर्जन में दुःख हैं, सरदर्द है, पीड़ा है। श्रावक केसरीमलजी ने विसर्जन की परिभाषा को केवल समझा ही नहीं बल्कि विसर्जन सूत्र को प्राणवान भी किया है । आपने अपने अमूल्य समय का विसर्जन कर समाज की भावी सन्तति को प्रबुद्ध एवं जैन संस्कारों से 00 सरोवर के शान्त जल में सोया हुआ कमल सूर्योदय के अरुण प्रकाश में स्वतः जागृत होकर अपनी पंखुड़ियों के दरवाजे खोल लेता है। लगता है श्री केसरीमलजी सुराणा ने भी अपने पुरुषार्थ के बल पर मारवाड़ की शुष्क धरा को सरसब्ज बना दिया है। आज उसकी गूँज चारों ओर सुनाई दे रही है। उनके जीवन का घोष है 'सादा जीवन, उच्च विचार; मानव जीवन का शृंगार ।' एक बार स्वामी विवेकानन्द जब विदेश गये हुए थे, संस्कारित करने का एक अच्छा उपक्रम किया है। ज्ञानदान वितरण कर कर्म निर्जरा करते हैं। हजारों विद्यार्थी आपकी सन्निधि में तत्त्वबोध पाकर अपने आपको धन्यधन्य मानते हैं। आपने सत्य का विसर्जन किया है, नींव का विसर्जन कर प्रतिक्षण धर्माराधना करते हैं, इसके साथ-साथ आसन - विजयी बने हैं। एक आसन पर छः घण्टे एक साथ बैठकर शारीरिक प्रवृत्तियों का निरोध कर निवृत्ति की ओर बढ़े हैं। कषायों का विसर्जन कर शारी रिक तथा मानसिक तनाव से मुक्त हैं । इन्द्रियाँ और मन नियन्त्रित हैं। अर्जित सम्पत्ति को विसर्जित कर अनासक्त पुरुष बने हैं । वस्तुतः श्री सुराणाजी विसर्जन के पुनीत प्रतीक हैं । विवेकानन्द की याद D साध्वी श्री सुबोधकुमारी संस्था को फलवान, दृढ़, मजबूत और शक्तिशाली बनाने का सारा श्रेय सुराणाजी को है । प्रारम्भ से लेकर आज तक उन्होंने इस संस्था का उत्तरदायित्व जिस संस नता व दक्षता से सँभाला है, वह बेजोड़ है। अनेक वर्षों तक अवैतनिक मन्त्री पद पर रहकर निःस्वार्थ भाव से कार्य करते रहे हैं। परित्रनिष्ठ कार्यनिष्ठ, धर्मनिष्ठ, शासन उनका रहन-सहन देखकर किसी ने पूछा "आप कौन है ?" उन्होंने उत्तर दिया, "मैं विवेकानन्द हूँ ।" सुनने वाला आश्चर्यचकित हो गया । उसकी भाव-भंगिमा को देखकर स्वामीजी बोले – “तुम्हारी शोभा वस्त्रों में है, मेरी शोभा मेरा चरित्र है ।" आज के युग में सुराणाजी भी विवेकानन्द की याद दिला रहे हैं। बेजोड़ संचालक O मुनि श्री कन्हैयालाल निष्ठ आदि विभिन्न विशेषताओं से उनका जीवन ओतप्रोत है । संस्था के कार्यक्रमों के साथ-साथ वे घण्टों स्वाध्याय व ध्यान के महासरोवर में स्नान करते रहते हैं । सामायिक आदि नित्य नियम किये बिना पानी भी नहीं पीते हैं । समाजसेवी हैं । स्पष्टवादी - स्पष्टभाषी हैं । कर्मवीर है। 00 . Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन कर्मशक्ति का अनूठा उदाहरण 0 साध्वी श्री सुमंगला निरुत्साही व्यक्ति कुछ करने के लिए अवसर की अनन्त सागर है। आवश्यकता होती है, उन विकीण प्रतीक्षा में रहता है, किन्तु इसके विपरीत कर्मठ एवं शक्तियों को केन्द्रित कर कुछ कर गुजरने की। जिसकी साहस-सम्पन्न ब्यक्ति हर परिस्थिति को अवसर बनाकर शक्तियाँ जागृत हैं, उसके लिए कुछ भी अलभ्य एवं कुछ कर गुजरने की क्षमता रखता है। असंभव नहीं हैं। जो पूर्ण निष्ठा एवं साहस के साथ तेरापंथ समाज के बलिदानी, कर्मठ एवं समाज सेवी कर्मयात्री होगा वह ब्रह्माण्ड की बहुत-सी शक्तियाँ अपने कार्यकर्ता श्री सुराणाजी का जीवन एक जलता दीपक है। में समाहित करने की क्षमता रखेगा। जो कर्मण्यता की अनवरत लौ बिखेरता हुआ समाज को श्री सुराणाजी का जीवन कर्म-शक्ति का अनूठा रोशनी प्रदान कर रहा है। उनकी त्याग, बलिदान, उदाहरण है । वे अपनी धुन के धनी हैं। जिस कार्य में जिस निःस्वार्थ सेवा, निष्ठा एवं कर्तव्य के प्रति जागरूकता दीपक निष्ठा के साथ जुट जाते हैं। वे उसे पूर्ण करने का भी दृढ़ का पतिबिम्ब है जो कम का कुरुक्षेत्र बनकर हर क्षण संकल्प रखते हैं क्योंकि "प्रारब्धमुत्तमजनाः न परित्यजन्ति" सतर्कता का सन्देश दे रहा है। का सिद्धान्त उनका जीवन व्रत बन चुका है। सही माने में मानव गर्जतो, उछलती शक्तियों का []0 सजग प्रहरी 0 साध्वी श्री विनयश्री (डूंगरगढ़) मानस-सागर में लहराते विचारों की ऊर्मियों को महापुरुष जगत को अपने ज्ञान, आचार, विचार सत्वर ही अमिट क्रियान्विति का रूप देने में सुराणाजी से ज्योतित करना चाहते हैं, उसमें आसक्त होकर नहीं, भूल नहीं करते हैं । तरुण जैसा ओज, युवक जैसा उत्साह, यश-पिपासा से नहीं परन्तु पावन कर्तव्य मानकर समाज वृद्ध जैसा अनुभव इस त्रिवेणी संगम से प्रवहमान सरिता के लिए खपते हैं, तपते हैं। सहस्रों मूच्छित प्राणों में चेतना का संचार कर रही है। श्री सुराणाजी आत्म जागृति के सजग प्रहरी है । जिन कार्यक्षमता का दर्शन कण-कण में टपक रहा है। हर घड़ियों में संसार के साधारण प्राणी सुख-शय्या में सोकर क्षण कार्य के प्रति समर्पित रहना, इनकी सहज रुचि है। शारीरिक पोषणता को बढ़ाते हैं, उन घड़ियों में सुराणाजी ये जागरूकता के सजग प्रहरी हैं । इन्होंने कांठा क्षेत्र के इस बहुत जल्दी निद्रा देवी को छोड़ मोक्ष देवी को प्राप्त करने छोटे से गांव को ज्ञान-पिपासुओं का निवासस्थान बना का प्रयत्न करते हैं, परमार्थ पराग लूटते हैं। दिया है। प्राणों के प्रतिष्ठापक 0 साध्वी श्री आनन्दश्री एक राजा ने अपने राज्य में अनेकों विद्यालय प्रारम्भ जानना चाहा। ऋषि ने विद्यालयों की व्यवस्था दिखलाने किये । सम्यक् प्रकार की व्यवस्था होने के बावजूद भी के लिए कहा। विद्यारूपी रथ के चक्र अबाध गति से न बढ़ सके। राजा ने ऋषि को एक सुन्दर भवन के समक्ष ला राजा चिन्तित था, उसने एक ऋषि से इसका कारण खड़ा किया। बाहर से जितना भव्य, भीतर से उतना ही Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड सम्पन्न । साहित्य कक्ष, कला कक्ष, संगीत कक्ष, विज्ञान की निर्बाध गति चाहते हो, तुम्हारी आशावादिता धन्य कक्ष, यन्त्र ज्ञान कक्ष, भूगोल कक्ष आदि देखकर ऋषि है। इससे अधिक मैं क्या कहूँ ?' गद्-गद् हो उठे। आज यही नियति हमारे देश की है । वास्तव में राष्ट्र देखो, राजा ने गवं मिश्रित वाणी में कहा। .. के अधिकांश शिक्षा-स्थल उपयुक्त अभावों से असफल रहे परन्तु दो बातें स्पष्ट नहीं हुईं, ऋषि बोले । पहली हैं, पर राणावास का शिक्षा केन्द्र हमारे समाज में सर्वाधिक बात तो यह है कि विद्यालय के द्वार से जो निर्धन-सा सफल है, उसका प्रमुख श्रेय श्री केसरीमलजी सुराणा को व्यक्ति हमारे साथ था, वह कौन है ? और विद्यालय में है। उन्होंने अपने चिन्तन से शिक्षा में अध्यात्म पक्ष को धर्माचरण की शिक्षा का कक्ष कहाँ है ? समन्वित किया । जिससे शिक्षा के साथ-साथ समाज की राजा ने बताया, जो सज्जन हमारे साथ थे, वे भावी पीढ़ी में आध्यात्मिक संस्कारों का बीजारोपण हुआ । विद्यालय के आचार्य हैं, और धर्माचरण की शिक्षा का राणावास शिक्षा केन्द्र प्रगति के क्षेत्र में आगे बढ़ा। दायित्व हमारा न होने से उसकी कोई व्यवस्था हमने अदम्य उत्साह व अटूट निष्ठा उनके जीवन सूत्र रहे नहीं की है। हैं। समाज उनके द्वारा प्रदत्त इस देन के लिए युग-युग ___'राजन्' ऋषि बोले, 'तुम्हारे विद्यालय में प्राणों की आभारी रहेगा। वे एक निष्काम समाजसेवी के रूप में प्रतिष्ठा नहीं है। इतने पर भी तुम विद्यारूपी रथ विख्यात हैं। 00 " ह हा काह। अनुशासनप्रिय 0 मुनि श्री प्रसन्नकुमार अनुशासनमय दृष्टि सुराणाजी को विरासत में मिली बड़े शिक्षण संस्थान का समुचित रूप से संचालन हो रहा है। तेरापंथ धर्मसंघ की अनुशासनप्रियता सुराणाजी के है। इसका कारण सुराणाजी की अनुशासनप्रियता ही है। जीवन में गहरी समा गयी है। आप बचपन से ही धर्म- उन्होंने शिक्षण संस्थान में अनुशासनहीनता को कभी नहीं निष्ठ और अपने धर्मसंघ के प्रति समर्पित रहे हैं । इस पनपने दिया । चाहे कोई अध्यापक हो या कोई विद्यार्थी कारण तेरापंथ-धर्मसंघ को अनुशासनबद्धता आपके जीवन हो। जहाँ कहीं भी अनुशासनहीनता लक्षित हुई, उसका का अंग बन गयी । आप अपने कार्यक्षेत्र में भी स्वयं तत्काल प्रतिकार किया। उसी का सुपरिणाम है कि शिक्षण अनुशासित हैं और दूसरों को अनुशासित रखते हैं। इतने संस्थान का सारा कार्य व्यवस्थित चल रहा है। व्यक्ति नहीं संस्था 0 साध्वी श्री कंचनमाला अपना चरित्रनिष्ठ, कर्तव्यपरायण एवं यश की भावना से सुराणाजी का व्यावहारिक जीवन भी बहुत सरस निलिप्त समाज-सेवा के लिए अर्पित सुराणाजी का जीवन एवं मधुर है। इनका आत्मीय स्नेह हर आगन्तुक को समाज के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है। अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। लगता है सुराणाजी कोई एक व्यक्ति नहीं संस्था श्री केसरीमलजी का बहरंगी व्यक्तित्व तेरापंथी हैं। इनमें कार्य करने की अद्भुत क्षमता है, अदम्य समाज का एक गौरव है। उत्साह है और साथ ही श्रम के प्रति अटूट आस्था है। 00 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन ५६ साधना के सजग प्रहरी 0 साध्वी श्री गुणवती भगवान् महावीर ने दो प्रकार का धर्म बताया है- को खपाने वाले, दृढ़ श्रद्धालु आदि-आदि । उसी कोटि में १. आगारधर्म और २. अणगारधर्म । गृहस्थधर्म और साधु आते हैं आचार्य श्री तुलसी के श्रावक केसरीमलजी सुराणा। धर्म या अणुव्रत और महाव्रत । साधु पूर्णरूप से त्यागी उनकी जीवनचर्या देखने से लगता है कि वे अपने होते हैं । महाव्रतों का पालन करते हुए प्रतिदिन त्याग जीवन का बहुत भाग साधना व धर्म जागृति में बिताते और संयम से ही जीवनयापन करना उनका जीवन व्रत है। शास्त्रों में तो हम थावकों की विशेषताएं पढ़ते हैं, है । मगर गृहस्थ यथाशक्य अणुव्रतों का पालन करता लेकिन उनका जीवन खुली किताब है। धर्म कार्य में है । गृह-कार्य में लगा हुआ भी अनावश्यक हिंसा से बचता आलस्य नाम का तत्त्व उनके पास नहीं फटकता। वे है। भगवान् महावीर के अनेकों श्रावक हुए-जीवाजीव- साधना के सजग प्रहरी हैं। वादी, तत्त्वों के जानकार, पडिमाधारी, साधना में जीवन गाँधी और कस्तूरबा साध्वी श्री पानकुमारी (लाडनू) साधु जैसा वेश, सादा खाना, अल्पव्यय, रात-दिन अटल अनुशासन की तह में भरपूर एकता और प्रेम का सामायिक, शुभ चिन्तन, संत-सेवा तथा अध्यात्म-रस में शिलान्यास रहा है। उनकी कर्तव्यपरायणता बेजोड़ है। तल्लीन रहना, साधुत्व साधना का द्योतक है फिर भी जिस उन्हें और उनकी पत्नी को इस महान अभियान में देखकर लक्ष्य को वे साध रहे हैं मेरी दृष्टि से दो प्रकार लाभ मुझे गांधीजी और कस्तूरबा के जीवन की याद आने लग उठा रहे हैं-त्यागी जीवन का और समाज के निर्योगात्मक जाती है। उन्होंने सत्य के लिए संघर्ष सहे, विरोध सहे, उपकार का। तेरापंथ समाज ही नहीं बल्कि सुराणाजी से मगर वज्र से कलेजे के बल से एक समर्पित सेवा का सारा जैन एवं जैनेतर समाज भी काफी उपकृत है । उनके आदर्श दुनिया के सामने रख दिया।7 00 त्रिरत्न: ओजस्वी वक्ता साध्वी श्री धनकुमारी एक वकील के यहाँ कुछ मेहमान आए। ठीक उसी वह आग अच्छी है जो मुहुर्त भर ही जले। धुएँ से वक्त पड़ोसी सेठ के यहाँ से आवाज आयी, बचाओ! परिपूर्ण धीरे-धीरे बहुत देर तक सुलगने वाली अग्नि बचाओ ! बचाओ !! आगन्तुक अतिथियों में परस्पर चर्चा निरर्थक है । वह जीवन सर्वश्रेष्ठ होता है, जो निरन्तर हुई-कोई व्यक्ति संकट में हैं, चलो उसे बचायें। वकील ने ज्योतिर्मय रहे। श्री सुराणाजी के जीवन में सजगता का इस बात को स्पष्ट करते हुए कहा-'इस बचाओ' में एक दीप जलता रहता है । ज्ञान तथा विवेक का भास्कर उदित राज छिपा हुआ है, प्रथम 'बचाओ' का तात्पर्य है आलस्य है। संयम की अमिट लो प्रज्वलित है। से समय को बचाओ ! दूसरे 'बचाओ' का भावार्थ है असंयम यद्यपि आपसे मेरा परिचय अधिक नहीं है किन्तु से शक्ति को बचाओ और तीसरे का भावार्थ है अपव्यय से सुमनों की सौरभ फैलाने की आवश्यकता नहीं होती। धन को बचाओ। ये तीन बहुमूल्य रत्न हैं-ये तीनों रत्न अनुकूल पवन के संयोग से स्वतः ही उसकी महक सर्वत्र श्री सुराणाजी के जीवन में देखने को मिलते हैं। अतः फैल जाती है। देवगढ़ चातुर्मास से कुछ पहले साध्वी श्री उनका जीवन पवित्र एवं आदर्शमय है। यशोधराजी के साथ आप वहाँ आये। मैंने आपका भाषण जीते सब हैं । परन्तु जीने की भी एक ली होती है। सुना। वाणी में साधना मुखरित हो रही थी, वचन का जिसे सम्यक् प्रकार से जीने का ढंग आ गया उसे सब कुछ प्रयोग, जबान पर पाबन्द, कहाँ, कैसे, कब और कितना हासिल हो गया । महाभारत में कहा है बोलना चाहिए। यही आपकी विवेकपूर्ण ओजस्वी वाणी मुहूर्त ज्वलितं श्रेयो न तु धूमायितं चिरम् । बतला रही थी। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड करना .-.-.-. -.-.-. -. -. -. उत्कृष्ट सेवक साध्वी श्री रतनकंवर (लाडनू) श्रावक श्री केसरीमलजी ने 'जिनशासन' की जो पर नाचते देखे जाते हैं, लेकिन आपके चरणों की सेवा सेवाएँ की हैं और वर्तमान में कर रहे हैं, वे इतिहास के देव भी नहीं कर सकते। वैराग्य-शतक में भर्तृहरि ने पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य हैं । उनका त्यागमय कहाजीवन किस सज्जन का दिल नहीं लुभाता? वे व्यक्ति नहीं “सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः' अपने आप में एक सुदृढ़ संस्था हैं। सेवाधर्म योगी जनों के लिए भी अगम्य कहा है । सेवा मेरा इनसे ज्यादा सम्पर्क नहीं रहा किन्तु विक्रम संवत् का फल त्यागमय पानी से पल्लवित होता है। अत: आज २०१४ का चातुर्मास करने के लिए मैं उदयपुर जा रही थी, उनके हाथों से लगायी हुई ज्ञानवाटिका कितनी प्रफुल्लित तब राणावास में उनके मकान में ठहरना हुआ। उन्होंने दीख रही है। इनकी उत्कृष्ट सेवा का यही ज्वलन्त मेरी सेवा की, तब निकट से परखने का मौका मिला। उदाहरण है। उनसे वार्तालाप करके मैं आत्म-विभोर हो गयी । त्यागमय आज के युग में सेवा के नाम पर अपना घर भरने जीवन देखकर मेरे याश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । इतना वाले आपको बहुत मिलेंगे किन्तु अपने स्वार्थों का परित्याग सेवामय जीवन बिना त्याग नहीं हो सकता। वास्तव में करने वाले विरले ही व्यक्ति होते हैं। उनमें श्री सेवा त्याग माँगती है । अध्यात्म-योगी आनन्दघन चौदहवें केसरीमलजी सुराणा का नाम शीर्षस्थ रहेगा। जब मैंने तीर्थकर अनन्तनाथजी की स्तुति करते हुए कह रहे हैं- राणावास-छात्रावास का अथ से इति तक वृत्तान्त सुना धार तरवारनी सोहली, तब मेरे मन में सहसा आया कि मदन मोहन मालवीयजी दोहली चवदमा जिन तणी चरण सेवा । की कृति हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस और केसरीमलजी धार पर देखिए नाच बाजीगरा, सुराणा की कृति छात्रावास, राणावास में परस्पर बहुत चरणनी सेव पर रहे न देवा ॥ साम्य है। दोनों व्यक्तियों का जीवन त्याग की अग्नि में तलवार की धार पर चलना सहज है, किन्तु सेवाव्रत तपा हुआ सोना है। पर चलना कठिन है। बाजीगर तलवार की तीक्ष्ण-धार जागरूक साधक - मुनि श्री सोहनलाल (राजगढ़) भगवान् महावीर ने कहा है उसी जागरणमूलक साधना में संलग्न हैं। वे सत्यवादी जय चरे जयं चिट्ठे, जयं मासे जयं सए। धर्मनिष्ठ एवं दृढ़ संकल्पी हैं। वे माया, ममता रहित सुलझे जयं भुजन्तो भासन्तो, पावकम्म न बन्धइ॥ हुए विचारों के धनी हैं तथा धर्म संस्कार एवं विद्या के साधक जागरूकता से दैनिक जीवनचर्या का पालन प्रचार में संलग्न हैं। करता हुआ पापों से लिप्त नहीं होता। केसरीमलजी भी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन साधना का त्रिवेणी संगम 0 साध्वी श्री चांदकंवर (मोमासर) श्री केसरीमलजी सुराणा एक निष्काम सेवी, कर्मठ बल पर ही सुराणाजी ने अपने संघर्षमय जीवन में सफलता साधक एवं निस्पृह समाज-सेवक है। इनका जीवन धर्म- पाई है। साधना के मार्ग पर बढ़ने के लिए -(१) आत्मसंघ एवं समाज के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित है। ये सच्चे ज्ञान, (२) आत्मविश्वास और (३) आत्म संयम एवं कठोर साधक के रूप में समाज में ख्यात हैं। साधना इन तीनों गुणों को समझना जरूरी है। आत्मज्ञान से का रहस्य क्या है, यह जानना हो तो हमारे सामने 'माया' ग्रन्थि को समझे, आत्मविश्वास से उन पर सुराणाजी का जीवन एक खुली पुस्तक के रूप में उपस्थित विश्वास करे और आत्मसंयम से माया ग्रन्थि का छेदन है। सचमुच में इनका जीवन साधनारत है। आनन्द, कर साधक सिद्धि को पा सकता है। कामदेव, शकडाल आदि श्रावकों को जो देवकृत उपसर्ग हुए, ये तीनों गुण सुराणाजी के जीवन का अभिन्न अंग उन सबको सहन करते हुए उन्होंने साधना में सफलता पाई हैं । इस त्रिवेणी संगम से उनका जीवन निखार पाया है । थी, ठीक उसी प्रकार के कष्टों का सामना कर साधना के 00 निस्पृह कार्यकर्ता 9 साध्वी श्री नगीना व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। समाज में जन्मता है सुराणाजी की । कर्तव्य की चेतना, सेवा की दिव्यता, है, बढ़ता है, फलता व फूलता है। समाज से बहुत कुछ उनके व्यक्तित्व की प्रत्यक्ष अनुभूति है । सुराणाजी भरेप्राप्त करता है। उसकी कार्यक्षमता की अभिव्यक्ति का पूरे, समृद्ध परिवार में जन्म लेकर भी केवल परिवार आधार भी समाज ही है । समाज के विशाल कक्ष में बैठ- के सीमित घेरे में बँधे नहीं। भूमि के अणु-अणु को सरसब्ज कर व्यक्ति अपनी क्षमता का खुलकर उपयोग कर सकता बनाने वाली उन्मुक्त सरिता कब तक एक जगह रुक है। जो व्यक्ति अपने लिए औरों के हितों की उपेक्षा कर सकती है? देता है, वह दुर्बलता से ग्रस्त होता है। ऐसे व्यक्ति सादे भेष में लिपटा सादा जीवन, कर्तव्य की रेखाओं विरल होते हैं जो औरों के लिए अपने हितों की उपेक्षा से अंकित जीवन, परहित में निरत जीवन, परोपकार की कर दें । स्वत्व को ममत्व में रूपान्तरित कर उस ममत्व बलिवेदो पर समर्पित जीवन, किसके लिए अनुकरणीय की तूलिका से समाज को विकासशील रेखाओं व सुनहरे नहीं होता ? ऐसे साहसी, वीर, कर्मनिष्ठाशील, निस्पृह रंगों से रंगीन बना दें। ऐसे व्यक्तित्वों में एक कड़ी जुड़ती कार्यकर्ता पर समाज को गर्व होना स्वाभाविक है। 10 फलदार वृक्ष साध्वी श्री कंचनकुमारी (राजनगर) ठाणं स्थान ४ सूत्र २८ में उपकार पद में कहा गया है प्रकार के होते हैं-१. पत्तों वाले, २. पुष्पों वाले, ३. तथा व्यक्ति की वृक्ष से तुलना की गई है जैसे 'तओ रुक्खा फलों वाले । इसी प्रकार पुरुष भी तीन प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा-पत्तोबगे, पुष्फोवगे, फलोवगे । एवा तओ हैं-१. कुछ पुरुष पत्तों वाले वृक्षों के समान अल्प उपपुरिसजाता पण्णता, तं जहा पत्तो वा रुक्ख समाणे, पुप्फो कारी २. कुछ पुरुष पुष्पों वाले वृक्ष के समान 'विशिष्ट वा रुक्ख समाणे, फलो वा रुक्ख समाणे । अर्थात् वृक्ष तीन उपकारी' ३. कुछ पुरुष फलों वाले वक्ष के समान 'विशिष्ट Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. ૬૨ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड तर उपकारी' । अगर एक ही वृक्ष में पत्ते, पुष्प व फल तीनों होते हैं तो वह वृक्ष उन्नत कहलाता है उसी प्रकार जिस मानव में भी तीन गुण - १. चमक, २. महक एवं ३. सरसता पाये जाते हैं वही संसार को कुछ दे सकता है, भला कर सकता है और अपने स्वार्थ को त्याग सकता वास्तव में जिनको जीना आ गया, उनको सब कुछ आ गया । वैसे जीते सभी हैं, किन्तु विवेकयुक्त जीवन जीना परमकला है । उनके लिए अन्य कलाएँ गौण हैं । सुराणानी वृद्ध होते हुए भी बड़े परिश्रमशील हैं। समय को व्यर्थ नहीं जाने देते, आलस्य तो आपको छू तक नहीं पाया। आपका आत्मविश्वास अडिग है । जिस कार्य को हाथ में लिया उसे सम्पूर्ण करके ही विश्राम लेते हैं । निराशा और अनास्था के भाव आपके जीवन में टिक नहीं पाये । साहस और आधुनिक विचारों की दृष्टि से एक नौजवान जैसे प्रतीत होते हैं, वे युवा हृदयों ज्ञान हैं। सुराणाजी अपने पथ पर आचार्यप्रवर के आशीर्वाद युवा हृदय ज्ञान पुंज साध्वी श्री जयमाला है तथा विसर्जन कर सकता है। श्री केसरीमलजी सुराणा इन तीनों गुणों से सम्पन्न हैं, वे आत्मकल्याण में भी लीन हैं, पर कल्याण में भी व्यस्त हैं और इन दोनों के माध्यम से समाज के सम्मुख ऐसा उदाहरण भी रख रहे हैं, जिससे भावी पीढ़ी को प्रेरणा व प्रोत्साहन मिले । व्यक्ति व्यक्ति की नहीं, गुणों की पूजा होती है। चला जाता है, पर उसके गुण संसार में विद्यमान रहते हैं । गुणों से ही व्यक्ति संसार में अमर बन जाता है हर व्यक्ति में कोई न कोई विशेषता होती है। वह जनता के समक्ष किस रूप में विकसित होकर आती है, यह उसकी कार्यदक्षता पर निर्भर करती है । से विकास करते हुए बढ़ते चले जा रहे हैं और अपने संजोये हुए सपनों को साकार रूप देते हुए जनता के सामने प्रस्तुत हो रहे हैं। वर्तमान परिस्थितियों में सुराणाजी जैसे कर्मयोगी निस्पृह समाज के सेवक पुरुष अन्यत्र मिलने मुश्किल हैं। सुराणाजी की हर प्रवृत्ति सजगता लिए हुए है। आध्यात्मिक एवं सामाजिक क्षेत्र में आपने जो कान्ति की है, वह निःसन्देह सराहनीय एवं अनुकरणीय है । इसीलिए यह पद्य सुराणाजी के जीवन के अनुरूप ही है । तुम्हारे जीवन का इतिहास, करेगा जन-जन आत्मविकास मिलेगा एक नया आभास, भरेगा हर क्षण में उल्लास ॥ 130 गुणवान् पूज्यते [ मुनि श्री देवेन्द्रकुमार कुछ मानव अपने स्वार्थ के लिए दौड़ते है, पर जो अपने स्वार्थ को छोड़कर समाज सेवा में तन, मन, धन समर्पित करते हैं, वे व्यक्ति ही संसार में पूजे जाते हैं। जनता के हृदय में स्थान पा सकते हैं। राणावास के निवासी केसरीमलजी सुराणा ऐसी अनेक विशेषताओं के धनी हैं। . Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपस्वियों के ताज साध्वी श्री पानकुमारी (हूंगरगढ़) काकासा केसरीमलजी सुराणा ने अपने जीवन में तपस्या को भी बहुत महत्त्व दिया है । निरन्तर एक टाइम खाना, नियमित द्रव्यों में रहना, रात्रि भोजन नहीं करना, उपवास आदि भी करते रहते हैं सबसे बड़ी तपस्या तो ब्रह्मचर्य की साधना आपके जीवन में उतरी हुई है। जैसे भगवान ने बताया कि "तवे सु उत्तमं बंभचेरं" स्वामी भीखणजी के शासन को प्रारम्भ हुए शताब्दियों से ऊपर हो गया। इस गण में तपस्वी, सेवाभावी, सरलमना, गुरु आज्ञा के उपासक अनेक साधुसाध्वियों है, जो आज भी पूर्व आचार्यों के साथ ही स्मरणीय हैं। न जाने संघ की शुरुआत किस शुभ मूहूर्त में हुई कि जिसने भी गण का सहारा लिया उसने संघ के नाम को उज्ज्वल किया है। इसमें साधु-साध्वियों ही नहीं धावकों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। श्री केसरीमलजी सुराणा उनमें से एक हैं। उन्होंने अपना सारा वैभव, तन और मन भी एक ऐसी संस्था के लिए लगा दिया है, जहाँ बाल्यकाल से ही अध्यात्म-संस्कार बालक और बालिकाओं में आये। अपने जीवन को भूलकर दूसरों को उपदेश, व्यवस्था देने वाले फिर भी सुलभ हैं किन्तु जिनका मन इतना एकाग्र और संयमित हो कि संसार में रहते हुए भी नितान्त निस्पृह और अनासक्त रहें ऐसे व्यक्तियों के लिए भी लोग सोच जीवन की जागती मशाल साध्वी श्री कमलक्षी आशीर्वचन तपस्या में उत्तम तपस्या ब्रह्मचर्य है। सुराणाजी उसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं, वे तपस्वियों के ताज हैं । दान आपके जीवन की चमकती हुई मशाल है। स्वयं ज्ञानाराधना करते हुए दूसरों के जीवन में ज्ञान और विद्या का विकास देखने के लिए आपने बहुत बड़ी प्रयोगशालाएँ बना रखी हैं। आपकी जीवन जड़ी है ६३ लेते हैं कि क्या उन्हें आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी चीज का भान रहता है पर केसरीमलजी सुराणा को मैंने ऐसा ही देखा । उनकी 'योग' साधना बहुत ही सफल है अपने अध्यात्म-प्रयोगों में तो है ही अत्यन्त व्यस्त रहते हुए भी सारे दिनरात वे स्व-पर-कल्याण में लगे रहते हैं । एक क्षण भी विश्राम का तो काम ही क्या ? दो बोडिंगों को दो टाइम सँभालने की अतिसूक्ष्म उनको पकड़ वस्तुतः 'योग' का ही फलित है । बालकों के लिए बनाये गये भोजन का सलक्ष्य परीक्षण, बालक-बालिकाओं के स्वास्थ्य एवं दवा के बारे में प्रतिदिन का समय कर्मचारियों गृहपति गृहमाताओं और अध्यापकों की जिम्मेदारियों का सूक्ष्म निरीक्षण तथा उनकी अच्छी सेवालों के लिए पुरस्कार तथा गैरजिम्मेदारी के लिए यथोचित उलाहना आदि उनके जीवन की जागृत मशाल का प्रतीक है। 666 O . Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ६४ कर्मयोगी श्री केसरी मलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड ...... .................................................. श्रावक साध्वी श्री ज्योतिप्रभा आज मरुधर की शुष्क धरा पर विद्या का चमन स्तन स्थापित कर बैल बाँध देता है और तब बैल उस लहलहा रहा है। राणावास का नाम विद्याभूमि के रूप स्तम्भ के इर्द-गिर्द घूमते हुए अनाज के छिलकों को में परिवर्तित हो चुका है। यह सब केसरीमलजी सुराणा पृथक्-पृथक् कर देता है। बैलों के घूमने एवं छिलकों व का जादुई करिश्मा है। अनाज के पृथक्करण का साधन मेख। (मेढि) है, वैसे ही यह अनुभवसिद्ध बात है कि श्री केसरीमलजी आचार्य लौकिक और लोकोत्तर धर्म को पृथक् समझाने की भिक्ष के सिद्धान्त और तेरापंथ के एकाचार-विचार की योग्यता वाला श्रावक मेढि अ के उपनाम से उपमित व्यवस्थित परम्परा का प्रचार-प्रसार मानव हितकारी हो सकता है। वि० सं० २०३५ का हमारा चातुर्मास संघ के माध्यम से कर रहे हैं, वह अपने आप में अनूठा विद्याभूमि राणावास में था। इस चातुर्मास काल में है, अनुपम है, अद्वितीय है और आकर्षक है। सचमुच में सुराणाजी के विचारों को हमने समझा एवं सूक्ष्मता से केसरीमलजी मेढिभूअ श्रावक हैं। उनका निरीक्षण किया तो आपका व्यक्तित्व ठीक मेढिभूष मेढिभूअ अर्थात् आधारभूत । जैसे किसान अनाज जैसा ही लगा। काटकर खलियान में रख देता है। खलियान के मध्य में CIGAROO Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ अभिनन्दनीय अक्षाकृत Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी भी संस्था का इतिहास अवलोकन किया जाय तो पायेंगे कि उस इतिहास में एक पुरुष का कर्तत्व सन्निहित है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के साथ महामना मदनमोहन मालवीय, शान्तिनिकेतन के साथ महर्षि रवीन्द्रनाथ टैगोर, हन्डी के साथ हरिभाऊ उपा ध्याय का नाम ऐसा जुड़ा हुआ है कि उन महानुभावों का इतिहास उस संस्था का इतिहास और संस्था का इतिहास उनका जीवनवृत्त बन गया है। जो महापुरुष संस्था के प्रारम्भ से अपने खून-पसीने से उसका सिंचन करते हैं, वे ही संस्था के जन्मदाता हैं, वे ही संस्था के प्राण हैं-आधार हैं । जब तक संस्था का संचालन मुख्यतया एक व्यक्ति के हाथ में होता है, संस्था का विकास एवं प्रगति अच्छी होती है । यदि संचालन कार्य कई व्यक्तियों के हाथ में होता है तो राजनीति पनप जाती है और आपसी खींचातानी प्रारम्भ हो जाती है । भाई साहब केसरीमलजी साहब सुराणा श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ ( पूर्व का नाम श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी शिक्षण संघ) के जन्म से जुड़े हुए हैं। संघ में कई अध्यक्ष और कई मन्त्री बने परन्तु सतत सींचन खून-पसीने का संघ की जड़ों में भाईसाहब द्वारा ही हुआ । जो संस्था ३० वर्ष पूर्व पाँच छात्र - विद्यार्थी एवं एक अध्यापक से प्रारम्भ हुई थी, वह वटवृक्ष की तरह फैलाव प्राप्त कर चुकी है । विद्यार्थियों एवं छात्रों के चारित्रिक विकास की ओर भाई साहब का पर्याप्त ध्यान रहता है । दिन-रात उनका यही प्रयास रहता है कि छात्रों एवं विद्यार्थियों के जीवन में किसी प्रकार के अवगुण प्रवेश नहीं करें और स्कूली शिक्षा के साथ-साथ उनके जीवन में नैतिक एवं आध्यात्मिक पुट लगता रहे ताकि उनका भावी जीवन भारत के सुनागरिक रूप में बीते । ++++++ संस्था के प्राण श्री जबरमल भण्डारी, जोधपुर श्री केसरीमलजी एक गृहस्थ साधु हैं। उन्होंने अपना सर्वस्व देकर, एकनिष्ठ कार्यकर्ता के रूप में शिक्षा क्षेत्र में अवतरण किया । मारवाड़ कांठा प्रान्त को, जो शिक्षा में पिछड़ा क्षेत्र था, उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र चुना। आपने तेरापंथ शिक्षण संघ के अलावा बालिकाओं के शिक्षण के लिये राणावास में अखिल भारतीय महिला शिक्षण संप भी स्थापित किया। इस तरह आपने यहाँ स्त्री-शिक्षा के अभाव को दूर किया । आप असाम्प्रदायिक विचारों के हैं, आपने जैनों के तीनों सम्प्रदायों से सहयोग प्राप्त कर स्त्रीशिक्षा का केन्द्र स्थापित कर दिया है । आज राणावास भाई साहब केसरीमलजी साहब के प्रयासों से ही 'विद्याभूमि' वन गया है। भाई साहब डिगरियाँ प्राप्त विद्वान नहीं है, परन्तु वे अपने कृतित्व के द्वारा अनुभवों के आधार पर एक वरिष्ठ शिक्षा - शास्त्री के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आप जब कभी किसी सभा, बैठक आदि में अपने विचार रखते हैं तो मालूम होता है कि कोई विशेषज्ञ बोल रहा है। आपके स्वयं के विकास का कारण आपके स्वयं का चारित्रिक बल है । आप एक त्यागी कर्मयोगी हैं । एक दिन में १७ सामायिक करते हैं, बारह घन्टे मोन करते हैं। दोनों समय प्रतिक्रमण करते हैं। खाने-पीने का पूरा संयम रखते हैं। उनकी दिनचर्या बड़ी नियमित है । वे तेरापंथ श्रावक समाज के विशिष्ट श्रावक हैं । आप श्रावक प्रतिमा भी धार चुके हैं। वे तेरापंथ शासन एवं शासनपति के प्रति समर्पित हैं, आस्थावान हैं । समय-समय पर वे पूज्य शासनपति का सान्निध्य प्राप्त करते रहते हैं और स्वयं के भावी जीवन के लिए बुराक प्राप्त करते रहते हैं और अपने विचार पूज्य गुरु चरणों में निवेदन भी करते रहते हैं । साधु-सतियों के सिवा राणावास चातुर्मास करते हैं उनके . Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड मुख से भाई साहब की चारित्रात्माओं के प्रति भक्ति एवं भाई साहब ने करीब एक करोड़ रुपया दान-दाताओं से श्रद्धा का वर्णन सुन कौन रोमांचित नहीं होता है । भाई प्राप्त किया है । दानदाता भी सहर्ष देते हैं क्योंकि उन्हें साहब साधु-साध्वियों के दास हैं। विदित है कि उनका दिया हुआ पैसा फिजूल खर्च नहीं स्वयं के आत्मोत्थान के लक्ष्य के साथ-साथ आपका किया जायगा। लक्ष्य, बालकों के चरित्र-निर्माण का भी है। मानव हित- मैंने करीब १३ वर्ष लगातार भाई साहब के साथ संघ कारी संघ की शैक्षणिक प्रवृत्तियों के साथ दूसरी मानव के मन्त्री पद एवं अध्यक्ष पद पर रहते काम किया। उनकी हितकारी प्रवृत्तियों का भी भाई साहब के दिल में ख्याल बना जैसी आत्मीयता मैंने विरले ही पायी। वे बड़े सहृदय हैं। रहता है । वर्तमान में मानव हितकारी संघ द्वारा एक औष लोगों को मैंने कहते सुना है कि वे कठोर हैं, परन्तु मैंने धालय रामसिंहजी के गुढ़ा में आरम्भ किया गया है। उनमें पायी कठोरता जहाँ कठोरता की आवश्यकता थी भाई साहब के पास महानुभावों से संघ के लिए पैसा और कोमलता जहाँ कोमलता की आवश्यकता है । संचालन निकलवाने की अजब-गजब की तरकीब है। वे कहते हैं करने वाले को केवल कोमलता से काम नहीं चल सकता, 'मैं समाज का भिखारी हूँ, मुझे संघ के लिये पैसा मांगने मौकों-मौकों पर उसे कठोर भी रहना पड़ता है। यह भी में लाज नहीं आती।' कोई महानुभाव चन्दा देने से इनकार सुनने को मुझे मिलता था कि केसरीमलजी अपनी बात को भी कर दे तो भी भाई साहब उसका पीछा नहीं छोड़ते हैं, नहीं छोड़ते, मगर मेरा अनुभव है कि जब मैंने उन्हें धैर्य से उसे राजी कर पर्याप्त मात्रा में चन्दा ले ही लेते हैं। कई सब पहलुओं पर समझाया, हानि-लाभ की ओर उनका बार गालियाँ भी सुनने को मिलीं परन्तु आप हताश नहीं ध्यान दिलाया, उन्होंने फौरन अपनी बात छोड़ दी। वे हुए । आप हताश होना जानते ही नहीं । गालियाँ देने वाले संस्था के पैसे को किसी सूरत में बरबाद नहीं होने देते । गालियां देते हैं---आप हंसते रहते हैं, हाथ फैलाया रखते हैं वे कभी भी स्वयं के लिए संस्था का पैसा खर्च नहीं करते। उस गाली देने वाले से कुछ न कुछ लेकर ही उठते हैं। जिसका प्रभाव अन्य कार्यकर्ताओं पर पड़ता है और सब आपने भारत के कोने-कोने में जहाँ तेरापंथी श्रावक हैं, नैतिकता से काम करते हैं और इसी कारण संस्था का दौरा किया है और सहयोग प्राप्त किया है। आज तक आर्थिक पहलू सुदृढ़ है । 0000 एक युग-द्रष्टा, एक युग-गौरव । प्रो० बी० एल० धाकड़, उदयपुर श्रद्धेय श्री सुराणाजी ने दृढ़ संकल्प होकर सर्वस्व ने शिक्षा-जगत की सेवा में निरन्तर बल दिया। यही जनहित कार्य के लिये समर्पण किया। व्यावसायिक वर्ग में आपके जीवन की सफलता की सच्ची कहानी है। जन्म लेकर जो समर्पण-भावना आपने प्रस्तुत की, उसके शिक्षा-सेवा के स्वरूप को अपने मस्तिष्क में चिन्तनअनुरूप अपनी सम्पत्ति को जनहित के दृष्टिकोण से शिक्षा- मनन कर निष्कर्ष निकाला कि बालकों में चारित्रिक धराकार्य में भेंट किया । सिर्फ सम्पत्ति ही नहीं, अपना अमूल्य तल के निर्माण को सर्वप्रथम प्राथमिकता देनी चाहिये । जीवन अपने संकल्प की साधना में जुटा दिया। आपकी आपने राणावास की भूमि का तीन दशाब्दी पूर्व चयन दृष्टि में सर्वोच्च सेवा सच्ची शिक्षा में ही निहित है। जब किया, वहाँ पर माध्यमिक विद्यालय के साथ छात्रावास कोई व्यक्ति निर्धारित लक्ष्य के मार्ग पर कटिबद्ध होकर का निर्माण किया । वह छात्रावास आपके जीवन का केन्द्रआगे बढ़ता जाता है तो अन्ततोगत्वा उसका मार्ग आगे की बिन्दु बना और वह निरन्तर प्रगति करता गया । आज के ओर प्रशस्त होता जाता है। प्रारम्भिक बाधायें अपने आप नवयुवकों को धर्म-प्ररित अनुशासन में ढाला । सैकड़ों टलती जाती हैं और सफलता उनके चरण को स्पर्श करती विद्यार्थी इस वातावरण में पल कर निकले हैं और उनके है । आपकी तथा आपकी श्रीमतीजी की एक ही विचारधारा जीवन पर आपकी तथा संस्था की स्थायी छाप भी पड़ी Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन ६७. है । आदर्श निकेतन के आदर्श युवक बने । वे देश में सर्वत्र अपनी रचनात्मक भावना का प्रतीक मानता है। सब ही बिखरे हैं जो राणावास की संस्था की गौरव-गरिमा को भागों से बालक इस संस्था में आकर शिक्षा ग्रहण करने की बढ़ाते हैं। इस माने में श्री सुराणा जी युगद्रष्टा हैं, एक रुचि रखते हैं क्योंकि छात्रावास में अतिनियमित व्यवस्था युग-सर्जक और युग-गौरव हैं। विद्यमान है। ऐसे उदाहरण कहीं-कहीं पर ही मिलते हैं। ___ शिक्षा का कार्य पाठ्यक्रम को पढ़ाकर परीक्षा में उत्तीर्ण विभिन्न परिवारों से राणावास का एक सीधा सम्बन्ध हो कराना ही नहीं है अपितु छात्रों के जीवन मूल्यों को गया है। शृगारित करना है । अतः आश्रम की भांति भोर से रात्रि श्री केसरोमलजी सुराणा जिनको 'काका साहव' के तक विद्यार्थियों का जीवन क्रम-बद्ध ढले, उनका सदा नाम से पुकारते हैं, वे एक त्याग मूर्ति हैं, उनकी वेश-भूषा प्रयास रहा है और वह पूर्णतया सफल रहा है । धार्मिक भी वैसी ही है। आज भी उनकी सामायिक उपासना कई जीवन की उपासना, आराधना एवं गण और गणि के प्रति घण्टों तक नियमित चलती है। भोजन में वस्तुएँ सीमित आस्था का सदा विशेष ध्यान रखा गया है। तेरापंथ में लेते हैं । आपकी कल्पना है कि जीवनपर्यन्त शिक्षा गुरु-भक्ति सर्वोत्तम है। साधना में कार्यरत रहें। आप दीर्घायु हों और समाज देश के किसी भी भाग में निवास तथा प्रवास करने को अपने ही क्षेत्र में अमूल्य सेवायें प्रदान करें। वाला तेरापंथ-अनुयायी राणावास की शिक्षण संस्था को 00 पुरुषार्थ की प्रतिमति - श्री राणमल जोरावला, कोपल जब मैं राणावास के ज्ञानमन्दिर में प्रवेश करता हूँ तो करने के लिए हजारों माता-पिता अपनी सन्तानों को राणामैं वहाँ एक ऐसी दिव्य-ज्योति का आलोक विकीर्ण पाता वास विद्यामन्दिर में जीवन निर्माणकारी शिक्षा प्राप्त हूँ, जिसने हजारों अबोध बालक-बालिकाओं को प्रकाश करने हेतु भेजने को लालायित रहते हैं। निःस्वार्थभाव से देकर सन्मार्ग की ओर उन्मुख किया है। जब मैं संस्थान के ४० वर्षों से निरन्तर आपने समाज को अपनी अमूल्य चारों ओर फैले भवनों की ओर दृष्टिपात करता हैं तो सेवाएं अर्पित की हैं, जिसे समाज कभी भूल नहीं सकेगा। सुनता हूं उनकी दीवारों और कोनों से निकलती हुई उस आपके व्यक्तित्व में एक अनूठा जादू है जिसके प्रभाव कर्मनिष्ठ कलाकार के अनूठे कौशल की गुणगाथाएँ । से आपके पास जो भी आया, प्रभावित हुआ और आपका ज्योंही आगे बढ़ता हूँ मुझे दर्शन होते हैं अध्यात्म-रस में बन गया। आपने अपने हाथों से अनेक कार्यकर्ताओं का लीन, लोक-कल्याण की मंगल भावना को संजोये एक निर्माण किया है। समाज की उभरती युवापीढ़ी को युगीन विराट् व्यक्तित्व के जो अपना तन, मन और धन संस्थान परिस्थितियों के अनुसार ढालने की आपकी कला अनुपम को समर्पित कर निस्पृह भाव से उसी की सेवा में साधनारत और अनुकरणीय है। आप तेरापंथ धर्मसंघ के लब्धप्रतिष्ठ है । दृढ़ आस्था और संकल्प का धनी, वह महापुरुष है- श्रावक हैं । आपमें संघ व संघपति के प्रति अटूट श्रद्धा सम्माननीय श्री केसरीमलजी सुराणा । आपके महान् त्याग है। गुरुदृष्टि का आराधन करना ही आपके जीवन का व बलिदान का प्रतिफल है-राणावास का स्कूल, महाविद्या- परम लक्ष्य है। इस अनन्यभाव के कारण ही आचार्य श्री लय, बालिका विद्यालय, छात्रावास आदि संस्थाएँ। के दिल में आपका विशिष्ट स्थान है । कहा जाता है कि आपने अपने श्रम-सीकरों से राणावास की धरती को सफलता की प्रथम सोपान है-संघर्षों का शुभागमन । सिंचित कर सरस और उर्वर बनाया, उसमें शिक्षा के बीज दुनियां का कोई ऐसा महापुरुष नहीं है जिसने संघर्षों का बोये, जो बीज कर्त्तव्यनिष्ठा और सतत जागरूकता का स्वागत किये बिना महानता उपलब्ध की हो । श्रीमान् खाद-पानी पाकर अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित सुराणाजी का जीवन भी जीता-जागता संघर्षों का उदाहरण होकर आज लहलहा रहे हैं जिसके फलों का रसास्वादन है। मैंने अपनी आँखों से देखा है और मेरा निजी अनुभव Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड .. - - - -. -. -. -. -. -. -. -. -.-.-.-. -.-. -. -. -. -.-.-. -. -. .. .. .. ...... .. ....... भी है कि सामाजिक क्षेत्र में उतरने वाले व्यक्ति को जिस स्थिति में हूँ उसका सारा श्रेय एक मात्र आपको ही कठिनाइयों और परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है । आपके है यदि ऐसा कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आपके इस समक्ष भी कोई कम बाधाएँ नहीं आई, किन्तु इन विकट अमूल्य सहयोग को मैं जिन्दगीभर नहीं भुला सकता। क्षणों में आपकी सफलता का राज था-अटूट आत्म- यद्यपि आपकी इच्छा थी कि राणावास विद्यालय की विश्वास और सतत गतिशीलता, जो आपके जीवन के व्यवस्था का भार सम्भालू । आपकी भावना और अनुग्रह अभिन्न सत्र हैं, जिन्होंने आपको सफलता की मंजिल तक का आदर करते हुए इसके लिए मैंने अपने आपको तैयार का आदर करते टा दमके पहुँचा दिया है। भी कर लिया था पर समाज ने मुझे पारमार्थिक शिक्षण ___ मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि मुझे बचपन से ही संस्था का भार सौंप दिया, इसलिए मैं अपनी सेवाएँ आपका सान्निध्य मिलता रहा है। सामाजिक और व्यावहा- राणावास केन्द्र को देने से वंचित रहा। फिर भी मुझे रिक क्षेत्रों में कार्य करने के संस्कार की उपलब्धि के पीछे विश्वास है कि मैं जहाँ भी रहूँगा, जो भी करूंगा, उन समय-समय पर आपके द्वारा मिलने वाला प्रशिक्षण ही सबमें आपके द्वारा किये गये अनुभवों की रेखाएं मुखरित प्रेरक बनकर मेरा मार्ग प्रशस्त कर रहा है। आज मैं होती रहेंगी। संस्कार-सर्जक D श्री मोतीलाल एच० रांका, कोयम्बटूर लगभग दो दशक या इससे कुछ अधिक पूर्व, जो सम्पूर्ति के लिए कृतसंकल्प हो यह व्यक्ति न केवल आगे स्थान एक जंगल से अधिक कुछ नहीं था और यदि कुछ ही आया, बल्कि एक गृहस्थयोगी की तरह, जो इस था तो एक छोटा-सा देहात । वही स्थान एक दिन लक्ष्य के प्रति समर्पित हो गया। उल्लेखनीय यह भी है बहदाकार शिक्षोपवन बन जायेगा, जिस किसी ने भी कि इन्हें इस लक्ष्य की सम्पूर्ति में अपनी धर्मशीला सहउस स्थान को उस समय देखा है, कभी यह कल्पना भी धर्मिणी का भी महद् योग मिला। नहीं की होगी। जो कल्पना में भी नहीं था, वह आज वहाँ यह सर्वसामान्य तथ्य है कि ऐसा कोई भी प्रयोग या साकार है। उस दिन जितना उस क्षेत्र का विकास संकल्प तब तक सफल नहीं हो पाता, जब तक उस यज्ञ अज्ञात था, उतना ही अज्ञात यह भी था कि कौन ऐसा में अपना सर्वस्व आहूत न कर दे, श्रद्धेय श्री केसरीमलजी शिल्पी सर्व सामान्य को उस क्षेत्र में सुलभ हो सकेगा कि ने वही किया। अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं के सम्पूर्त्यर्थ, जो एक दिन इस छोटे से क्षेत्र को “विद्या-भूमि" के रूप जितना आवश्यक था, उसके अतिरिक्त अपनी सारी में विकसित कर, एक आदर्श संस्कार-क्षेत्र बना देगा। सम्पदा का, संस्थान के हित में त्याग, कितना उक्त कल्पना को मूर्तरूप प्रदान करने वाले हैं, अप्रतिम उदाहरण इन्होंने समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया हमारे अभिनन्दनीय वरिष्ठ बन्धु केसरीमलजी सुराणा, है। परिमाणतः देश के हर क्षेत्र में जहाँ भी ये गये, जिनके कि अभिनन्दन का सुयोग पाकर, हम अपने को हर बन्धु ने स्वेच्छा से अपना योगदान इस शिक्षण धन्य एवं गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। संस्थान के लिए प्रदान करने की पहल की। राणावास के ही जो जन्मजात हैं। अपने यौवन में, देश के हर क्षेत्र से प्राप्त योगदान से, यह शिक्षा इस क्षेत्र से सुदूर आन्ध्र प्रदेश के जो एक कुशल व्यव- एवं संस्कार केन्द्र उत्तरोत्तर जो विस्तार पा सका, आज सायी रहे । कितना बृहद् परिवर्तन एवं परिवर्द्धन जीवन यह संस्थान देश के बहकाय संस्थानों में एक महाका; यह मानना चाहिए कि वह व्यक्ति अपने व्यापार- विद्यालयस्तरीय शिक्षालय एवं सैकड़ों बालकों की बहल जीवन से, सहसा मुक्त होकर, अपने जीवन का आवास व्यवस्था से युक्त एक आदर्श संस्कार केन्द्र के यह सर्वोपरि लक्ष्य बना सका कि हमारी भावी पीढ़ी रूप में विकसित हो सका। सुशिक्षित एवं सुसंस्कारी बने । उस पुनीत लक्ष्य की श्रद्धय सुराणाजी से मेरा सम्पर्क उस समय से है, - . Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब से इस संस्थान का शुभारम्भ हुआ है। वैसे इस संस्थान के मूल में श्री सुराणाजी तो प्रधानतः हैं ही। स्व० श्री बस्तीमलजी छाजेड, श्री जसवन्ती सेडिया, श्री जबरमलजी भण्डारी, स्व० श्री डूंगरमलजी सांखला, श्री मिश्रीमलजी सुराना आदि-आदि समाज के वरिष्ठजन इसके प्रारम्भ से सम्पोषक रहे हैं । श्रद्धय समाजभूषण स्व० श्री छोगमलजी चोपडा का मार्गदर्शन इसमें मुख्यतः प्रेरक रहा। इन सब दिग्गज समाजसेवियों के मध्य, यदि मेरा अपना कहीं सांलग्न्य रहा है तो उसे मैं, श्री राम के लंका-प्रयाण के समय समुद्र पर बाँधे जाने वाले पुल में प्रदत्त गिलहरी - सहयोग से अधिक नहीं मानता। फिर भी मैं अपनी इस यत्किंचित संलग्नता को अपने लिए कम महत्त्वपूर्ण नहीं मानता एक युवक कार्यकर्ता के रूप में जो मेरे से अपेक्षित था, उसका उपयोग, बड़े ही वत्सलता भाव से सुराणाजी ने किया । यही वजह है कि मुझमें आज भी उनके प्रति अत्युच्च श्रद्धा का भाव विद्यमान है और संस्थान से भी उसी अनुपात में आज भी सांलग्न्य है । श्रद्धय सुराणाजी का जितना यह शैक्षिक पक्ष प्रशस्त है, उससे भी अधिक प्रशस्त इनका अध्यात्म पक्ष भी है । अनेक विधि त्याग प्रवाश्यानों से अपने को संवृत रखते हुए, दैनन्दिन चर्या में लौकिक प्रवृत्तियों से अपने को जितना निवृत एवं परिसीमित कर रक्खा है, उससे ऐसा कहा जा सकता है कि जो गृहस्थ के रूप में वस्तुतः एक 00 सुराणा परिवार के ही एक त्यागी पुरुष केसरीमलजी सुराणा को जब मैंने निकटता से जाना और देखा तो मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। सुनने मात्र से तो मुझे पूरा सन्तोष नहीं हुआ, लेकिन जब प्रत्यक्ष एवं निकटता से मुझे उनके दर्शन हुए तो मैं फूला नहीं समाया । अक्सर सुनने मात्र से मैंने बहुत त्यागियों के सेवाधियों के तपस्वियों के नाम सुने हैं। इनका भी नाम सुना था। सुनकर सहज उपेक्षा कर दी थी कि क्या कोरे इतने आदर्शों की बड़ी-बड़ी बातें आचरण में लाई जा सकती हैं ? वस्तुतः इस ओर ध्यान नहीं खींचा गया। साध्वीची राजीमतीजी का चातुर्मास श्रमण-का-सा जीवन जी रहे हैं । अभी कुछ वर्षों पूर्व इसी अनुक्रम में धावकों के लिए निर्धारित पडिमा विशेष की भी आपने आराधना की थी। इस प्रकार की संयतावस्था को अक्षुण्ण रखते हुए, शिक्षा संस्थान को उत्तरोत्तर विकासोन्मुख बनाने में अपने समय व शक्ति का जिस भांति नियोजन कर रहे हैं. यह हर समाज सेवी के लिए अनुकरणीय तो है ही, श्लाघनीय भी है । कन्या शिक्षा के प्रति भी आपके मन में उतनी ही तड़फ है। बावजूद विद्या- भूमि के बृहद् दायित्वों के उक्त महिला संस्थान जो कि समग्र जैन सम्प्रदायों द्वारा संचालित है, को भी प्रमुख कार्यदर्शी के रूप में उसी उत्कृष्ट भावना से अपनी सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं। एक श्रद्धालु श्रावक के रूप में तेरापंथ धर्मशासन एवं शास्ता के प्रति सदा से जो प्रगाढ़ आस्थावान रहे हैं । एक सुसंस्कारी एवं धर्मवत्सल उपासक के रूप में महामहिम आचार्य तुलसी की दृष्टि में आपका एक वरद स्थान सदा से रहा है । अविजेता लोहपुरुष श्री मन्नालाल सुराणा, जयपुर श्रद्धा-सुमन ६६ सुराणाजी के उत्सर्गप्रधान जीवन को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि वे न केवल तेरापंथ धर्मसंघ या जैन समाज के ही विशिष्ट सेवी के रूप में हमें उपलब्ध हैं, बल्कि वे एक ऐसे सेवानिष्ठ भारतीय हैं जिनका जीवन एक संस्कार सर्जक के रूप में सदा-सदा अभिनन्दनीय रहेगा। जब राणावास में हुआ, उसके तीन वर्षों पहले उनका विचरण हमारे जयपुर में रहा। इधर केसरीमलजी सुराणा भी अनेकों बार मुझे साग्रह बुला रहे थे। दोनों अवसर थे। मैं अपने परिवार एवं कई साथियों के साथ राणावास गया। मुझे खुद ही आश्चर्य होने लगा - एक त्यागी के यहाँ अतिथि होने का असंभावित अवसर मुझे मिला। खैर ! बाहर की आवभगत तो प्रत्येक व्यक्ति कर देता है किन्तु उनका आन्तरिक संकल्प देखकर तो मैं गद्गद् हो गया। अकेला एकमात्र लोहपुरुष किस तरह अपनी अध्यात्म वर्मा को सुरक्षित रखता हुआ बाहरी - . Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : प्रथम खण्ड व्यवस्थाओं का निर्वहन कर सकता है । कितना आश्चर्य भावना से प्रोत्साहित कर रहा है ? है, किसी दिन कार्य भी अधिक करना पड़े, आधा घण्टा सब कुछ थोड़े शब्दों से कहा नहीं जाता । विशेष नींद की अपेक्षा धूप-सर्दी आदि सहना पड़े तो शरीर बात और वह है 'चन्दा लाना' । यह कला उनमें बेजोड़ है अपनी शिकायत कर देता है, लेकिन सुराणाजी में यह और कला से भी अधिक त्याग और सार्वजनिक मानव बात लेशमात्र भी नहीं थी। बालक-बालिकाओं में संस्कार हितकारिणी भावना है। कुल मिलाकर मैं तो उनके अहंसर्जन कला का विकास, उत्साह, अनुशासन देखते ही विजेता व लोहपुरुष व्यक्तित्व एवं सौहार्द भाव को अन्तिम सुराणाजी का जीवन सामने आ जाता है। एक पुरानी क्षणों तक भी नहीं भूल सकता। परम्परा का व्यक्ति नये युग के अनुरूप सबको किस विशाल 00 एक अद्भुत शक्तिपज - प्रो० के० के० महर्षि, उदयपुर श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ का मानव हितकारी संघ राणावास को समर्पित कर कार्यसाक्षात् अनुभव तब हुआ, जब मैं सन् १९७५ में राजस्थान क्षेत्र में कूद पड़े। कठिनतम समस्याओं को झेलते हए एक सरकार की ओर से महाविद्यालय की अस्थायी मान्यता की संघर्षशील व्यक्तित्व का परिचय दिया, जिसका प्रत्यक्ष दृष्टि से वहाँ निरीक्षण करने गया। उस विशाल प्रांगण में फल वर्तमान का विकसित शिक्षा केन्द्र है। जाकर मैंने पाया कि सम्पूर्ण संस्था के वातावरण में इस संस्थान व संघ की विशेषता शिक्षा-दान के साथ विनम्रता तथा अनुशासन व्याप्त था । शिक्षक-वृन्द एवं साथ संस्कार निर्माण पर भी उतना ही बल दिया जाना है. छात्रगण में पारस्परिक सौहार्दता एवं कर्तव्य-परायणता अनुशासनबद्ध छात्र-जीवन एक अनुपम उदाहरण उपस्थित विद्यमान थी। संस्था के सभी वर्ग संस्था के हित में करना है । ऐसा लगता है मानो प्राचीन गुरुकुल आश्रम समर्पित थे। समान दृश्य है । पाँच सौ छात्र छात्रावास में निवास करते विशाल परिसर में भव्य भवन खड़े थे। वाणिज्य हैं। आतिथ्य का द्वार सदा खुला रहता है जिसमें बड़ी एवं कला संकायों के नवनिर्मित भवनों के साथ छात्रा- आत्मीयता है। आगन्तुक शिक्षाविद् प्रभावित हुए बिना वास ब्लाक तथा सभा भवन की अन्य इमारतें खड़ी देखीं। नहीं रहते । वर्षों के सफल संचालन ने इस संस्थान की बड़ा सुन्दर सा दृश्य था जो स्वाभाविक रूप से मन को प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि की है । अत: आज इसका स्थान आकर्षित करता था। उच्च माध्यमिक शिक्षण संस्था तथा राज्य के शिक्षा जगत में गरिमामय है। आदर्श निकेतन छात्रावास की पूर्व की इमारतें अपना श्री सुराणाजी के व्यक्तित्व में अद्भुत वर्चस्व है, विशिष्ट स्थान लिये हुए थी। खेल के मैदान, भोजनालय जिनका दृढ़ संकल्प व निर्देशन शत प्रतिशत मान्य होता है। एवं बगीचा चार-दीवारी में स्थित थे। सब इनके चरणों में स्वत: नतमस्तक हो जाते हैं। इसमें इन सबके पीछे ऐसे कौन से व्यक्ति की शक्ति छिपी हुई अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि यह कहें कि परिसर मिनीथी जिसने इस विशाल परिसर को खड़ा किया और उसकी विश्वविद्यालय के समदृश सा है। ऐसे महान तथा कर्मठ साधना और सेवा ने अनेकों दानवीरों को आकर्षित किया। व्यक्तित्व का अभिनन्दन मानवीय गुणों के आदर्श को वह है त्याग मूर्ति श्री केसरीमलजी सुराणा साधुवेष में, जो उजागर करना है । आज देश में सहस्रों लोग व छात्र इस शिक्षा अभियान में जुटे हुए हैं। जिन्होंने कांठा प्रान्त इनके कार्य से प्रभावित हैं, जो स्तुत्य है । इनके दीर्घ के एक निर्जन स्थान, अपनी जन्मभूमि में ३५ वर्ष पूर्व जीवन की शुभकामना के साथ..... संकल्प लिया था। तब से ही अपनी समस्त सम्पत्ति को 00 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन ७१ " - . -. -. -. -. -. नर श्रेष्ठ योगी डा० दयालसिंह गहलौत, ब्यावर यह योगी आगे बढ़ना ही जानता है, पीछे हटना अनोखी परिणति हम हमारे चरित्र नायक में पाते नही । जो निश्चय कर लेता है उसे पूरा करके ही छोड़ता हैं। इतना बड़ा कार्य वे किसके लिए कर रहे हैं ? उनकी है, पहले नहीं । दूसरों को दीखने वाला बाधा-बहुल मार्ग इसमें कोई रुचि नहीं है कि उनके इस कार्य से उनके भी इसके लिए, पुष्प पराग वेष्टित ऐसा सरल मार्ग बन अपने परिवार को क्या मिलेगा। वह तो यथाशकति पानी जाता है जो अन्यों के लिए ईर्ष्या का विषय बन जाता भी संस्था का नहीं पीना चाहते । बालकों से उनकी है। इसी से यह धारणा बन जाना स्वाभाविक सी है कि एक ही आशा रहती है कि वे चरित्रवान बनें और देश, इस नरपुंगव के हाथ डाल देते ही चाहे जैसे असम्भव जाति व धर्म के उद्धार से भी अधिक अपना उद्धार करें। दीखने वाले कार्य आधे तो सम्पन्न हो ही गए समझो। उनको बड़ी बातें बनाने में विश्वास नहीं है वह तो जो उनकी पूर्णता प्रायः पूर्णरूप से निश्चित सी है । राणावास करना है उसे कर डालना ही कर्तव्य मानते हैं । की विद्या नगरी इसका एक जीता-जागता ज्वलंत जौहर ऐसे नरश्रेष्ठ योगी को प्राप्त करना हमारे सौभाग्य है जो मुख्य रूप से अकेले ही की देन कहा जाय तो की बात है। हमारी कामना है कि यह महामानव अत्युक्ति नहीं है । निःस्वार्थ सेवा, जिसे गीता की भाषा में चिरायु हो जिससे विश्व में चरित्र निर्माण की भावना का निष्काम कर्म की संज्ञा दी जा सकती है, की भी कितनी अधिकाधिक प्रसार हो । 00 तेरापंथ जगत् के प्रथम मालवीय 0 श्री देवेन्द्रकुमार कर्णावट, राजसमन्द न सिर्फ शिक्षा-जगत् वरन भारत की लोक आस्था के तम शिक्षण संस्थान खड़ा कर दिया है, जो उनके जीवन का प्रतीक महामना पं. मदनमोहन मालवीय को कितने सर्ग- बोलता हुआ इतिहास है। आज इस संस्थान में प्राथमिक उपसर्ग में से गुजरना पड़ा, जिससे कि वाराणसी के शिक्षा से लेकर महाविद्यालय तक का ऐसा जाज्वल्यमान सुप्रसिद्ध "हिन्दू विश्वविद्यालय" का निर्माण हुआ। वह प्रारूप निर्मित हो चला है, जिसका उदाहरण तेरापंथ भी ब्रिटिश साम्राज्य की दासता एवं पराधीनता के युग में समाज में तो क्या जैन जगत् में भी कहीं-कहीं देखने को जबकि भारतीय गौरव-गरिमा को लेकर विशालतम मिलता है । इतिहास साक्षी है कि तेरापंथ में शिक्षाशिक्षण संस्थान का संस्थापन एवं संचालन सर्वथा कठिन दान की प्रवृत्ति नहीं के समान थी। उसमें बृहत् रूप से था लेकिन भीषणतम संधर्षों एवं कठिनाइयों से गुजरकर सामाजिक जागृति एवं विसर्जन की भावना जाग्रत कर भी मालवीयजी ने एक महानतम एवं स्वतन्त्र शिक्षण जहाँ संस्था के लिए लाखों की राशि एकत्रित की, वहाँ संस्थान का जो आदर्श उपस्थित किया है, वह भारतीय स्वावलम्बनता से सुदृढ़ कर संस्था को सुयोजित दिशा इतिहास का एक ऐसा अविस्मरणीय उदाहरण है, जिसके दी। तेरापंथ समाज में शैक्षणिक प्रवृत्ति के सुसंचालन और समक्ष न सिर्फ भारतीय जनता नतमस्तक है वरन् उससे छात्रों के नैतिक अनुशासन का यह एक ऐसा भव्य संस्थान भारतीय स्वाधीनता भी प्रकाशमान है। है, जिससे सारा समाज चकाचौंध हो उठा है। निःसंदेह ठीक उसी तरह श्री केसरीमलजी सुराणा तेरापंथ की यह सुराणाजी के त्याग और बलिदान की ही नहीं वरन् शिक्षा-जगत के प्रथम मालवीय हैं, जिन्होंने तेरापंथ की उनके कर्मयोग की जीवित कहानी है। परम्परागत जटिलताओं, रूढ़ियों और संघर्षों को सहकर राणावास की परिधि को देखें तो एक छोटा-सा "सुमति शिक्षा सदन" और उसके इर्द-गिर्द ऐसा विशाल- नगर और आधुनिकतम सुविधाओं से दूर, जहाँ केवल Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड +0+0+0+0+0+0+ रेल की सुविधाओं को छोड़कर कुछ नहीं था। बिजली भी मुश्किल से वहाँ २० वर्ष के अनवरत प्रयत्न के बाद अब पहुँच सकी है । ऐसी स्थिति में सुमति शिक्षा सदन का प्राथमिक एवं उच्च प्राथमिक विद्यालय, आर्टस एवं कामर्स महाविद्यालय, विशालतम छात्रावास, पुस्तकालय वाचनालय, गौशाला, कृषि-वाटिका, बाल- मन्दिर एवं कन्या माध्यमिक विद्यालय उनके जीवन-संघर्ष की अद्विती देन हैं। इसके लिए उनको न जाने कितनी तपस्या करनी पड़ी है और कितनी आलोच्य स्थिति से अपनी पटरी को पार करनी पड़ी है। निश्चित रूप से संस्था के पीछे सर्वस्व त्याग कर सका साधना ही सुराणाजी की सफलता का मूल कारण है, जिससे यह संस्था समाज की काका साहब ( सुराणाजी का लोकप्रिय नाम) ने अपने जीवन का अधिकांश भाग राणावास में उन नन्हें बच्चों के जीवन-निर्माण में लगाया है जो भावी समाज के निर्माता हैं । राणावास जैसे छोटे-से ग्राम ( वह भी ग्राम से दूर रेलवे स्टेशन पर ) विद्या प्रचार हेतु एक आदर्श विद्यालय व छात्रावास तेरापंथ समाज मानव हितकारी संघ की संरक्षता में कायम किया जिसमें सहस्रों छात्र सुशिक्षा प्राप्त कर अपने जीवनोपयोगी काम में लगे हैं और देश, समाज व परिवार की सेवा में अपना योगदान दे रहे हैं । सुराणाजी ने केवल छात्रों की शिक्षा से ही सन्तोष नहीं किया अपितु अखिल भारतीय महिला शिक्षण संघ की स्थापना कर छात्राओं के लिए कन्या विद्यालय व छात्रावास का निर्माण कराया। इस विद्यालय व छात्रावास की सेवा में केवल सुराणाजी ही नहीं अपितु उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरदेवी सुराणा दिन-रात लगी रहती हैं। छात्राओं की शिक्षा समस्त जैन समाज के दृष्टिकोण से दी जाती है और संस्था समस्त जैन समाज की संर 0.0 एकनिष्ठ श्रद्धा का प्रतीक बन गई हैं । सुराणाजी द्वारा प्रज्वलित शिक्षा की ज्योति से राणावास में और संस्थाओं का अभ्युदय भी हुआ है, उसमें मरुधर विद्यापीठ, सर्वोदय छात्रावास एवं कन्या- शिक्षणसंस्थान मुख्य हैं। इससे राणावास का नाम आज शिक्षाजगत् में उभरकर राजस्थान की एक छोटी-सी शिक्षा-नगरी के रूप में विश्वस्त हो चला है निःसन्देह यह काका साहब (श्री केसरीमलजी सुराणा ) की अनवरत शिक्षा सेवा एवं तदर्थ तपस्या का उच्चतम कीर्तिस्तम्भ है। श्री केसरीमल सुराणा की यह शैक्षणिक देन तेरापंथ जगत् के लिए एक ऐसी उपलब्धि है जो तेरापंथ के सामाजिक इतिहास में सदैव जाज्वल्यमान एवं प्रकाशमान रहेगी । 00 अदभुत व्यवस्था-शक्ति के प्रतीक श्री रिखबराज कर्णावट, जोधपुर क्षता में चलती है । सुराणाजी की ही सूझ-बूझ है कि जैन समाज के सभी सम्प्रदायों के आचार, क्रिया व मान्यताओं का सामंजस्य वहाँ प्रकट हुआ है । जैन समाज के सभी सम्प्रदायों का कभी विलीनीकरण होकर वे एक सूत्र में समान प्रकट होंगे तो इस संस्था को प्रथम कड़ी कहलाने का सौभाग्य प्राप्त होगा और सुराणाजी व उनके इस काम में सहयोगी गौरवान्त्रित होंगे । सुराणाजी का सारा जीवन शिक्षा प्रसार हेतु समर्पित रहा है। उनमें अद्भुत व्यवस्था शक्ति है । व्यवस्थापक के नाते उनको अनेक बार कठोर रुख अपनाना पड़ता है. फिर भी उनकी हार्दिक सरलता व अन्तरंग बेलाग प्रेम के कारण कोई विरला व्यक्ति ही होगा जो लम्बे समय तक उनसे नाराज रहा हो। सुराणाजी का व्यक्तिगत जीवन अत्यन्त त्याग एवं तपोमय है । संयम साधना में वे सतत लगे हुए हैं। प्रत्यक्ष में देखने पर वेशभूषा व आचरण से वे साधु, सन्त अथवा यति की तरह लगते हैं । वास्तव में वे गृहस्थ रूप में यति जीवन ही जी रहे हैं। ये धन्य हैं। . Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन ७३ . व्यक्ति नहीं, एक संस्था 0 श्री अरविन्दकुमार नाहर, मद्रास श्री सुराणाजी अपने आप में व्यक्ति ही नहीं, संस्था वजह से वे अपने अर्थ-संग्रह के लक्ष्य में आशातीतत हैं । जिस लगन, निष्ठा एवं नीति से सुराणाजी विद्याभूमि सफल हए एवं उनका यह अभियान आज भी जारी है। राणावास के शिक्षा केन्द्रों की देखभाल एवं सेवा कर रहे अपनी ही उनकी सूझ-बुझ है और अलग ही उनका अपना हैं, वह वास्तव में ही अद्वितीय है। मुझे तो ऐसा लगता ढंग है। शिक्षा केन्द्रों के सभी छात्र-छात्राओं को अपनी है-सम्भवतः उनका जन्म ही राणावास के शिक्षण केन्द्रों सन्तान समझ, वैसा ही प्यार देना उनकी सहज वृत्ति है । की स्थापना, विकास एवं संवर्द्धन के लिए हुआ है। त्यागी पति को भोगी पत्नी अथवा भोगी पति को चन्दा वसूल करना भी अपने आप में एक विशेष कला त्यागी पत्नी मिले तो मामला कुछ कठिनाई से जम पाता है। इस कला में सुराणाजी से अधिक निष्णात व्यक्ति है। यदि सहिष्णुता की कमी रहे तो मामला बिगड़ भी मुझे आज तक देखने को नहीं मिला । याद आ रही है- जाता है। श्री सुराणाजी इस सन्दर्भ में भी बहुत ही कुछ वर्ष पूर्व गंगाशहर में आचार्य प्रवर विराज रहे भाग्यशाली हैं जिन्हें उनकी त्याग-वृत्ति के अनुरूप ही थे। मेरा उनसे लगभग तीन वर्ष बाद साक्षात्कार हुआ। एक ऐसी धर्म-पत्नी मिली जो स्वयं त्याग, सादगी एवं उन्हें देखते ही मैं उनके करीब पहुंचा। यह पूछने के सेवा-भावना की साकार मूर्ति हैं। यह लिखना अतिपहले ही कि मेरे क्या हाल-चाल हैं, मेरी प्रेक्टिस कैसी शयोक्ति नहीं होगा कि उनके सहयोग के अभाव में है ? उन्होंने चन्दे से ही मेरे से बातचीत प्रारम्भ की और सुराणाजी साधना की वर्तमान मंजिल पर बहुत ही स्वीकृति प्रदान करने के बाद में ही मुझे उनका साथ कठिनाई से पहुंच पाते । धन्य है इस युगल को जो समाजछोड़ने की अनुमति मिली। सोते-उठते, जागते-बैठते सेवा का रस-पान करते हए साधनामय जीवन जी रहे हैं। उनकी यह धुन कम ही विश्राम करती है और इसी श्रमण परम्परा के सूर्य - आचार्य राजकुमार जैन, नई दिल्ली श्री सुराणाजी उदार दृष्टिकोण वाले, सरलस्वभावी, आपके साधु-जीवन की पूर्ण झांकी परिलक्षित होती है। उदारचेता एक ऐसे कर्मयोगी सन्त हैं जो निलिप्त, आप अपने जीवन में अहिंसा का आचरण इतनी सूक्ष्मता निःस्वार्थ, निर्लोभ और अपरिग्रहभाव से समाज के हित- एवं सावधानी से करते हैं कि उसे देखकर लोगों को साधन में तत्पर हैं। आप समताभाव की एक जीती- आश्चर्य होता है। आप व्रत-नियम आदि का पालन जागती मूर्ति और समन्वयवादी महान् सन्त पुरुष हैं । आप भी कठोरतापूर्वक करते हैं। यही कारण है कि आपके श्रमण परम्परा के एक ऐसे सूर्य हैं, जिसने समाज को अनुकरणीय आदर्श-जीवन से लोग प्रेरणा लेते हैं। आपका आलोक दिया और प्रगति-पथ पर अग्रसर होने की जीवन तप्त कंचन की भाँति पवित्र और निर्मल है। प्रेरणा दी। समाज में शिक्षा-प्रचार के माध्यम से अज्ञान समाज के लिए वह प्रेरणाप्रद होने से बहुमूल्य है। का नाश करने का आपने जो बीड़ा उठाया उसे पूरी निष्ठा ऐसी दिव्य विभूति हमारे लिए सदा सर्वदा वन्दएवं तत्परता के साथ पूर्ण किया। आपश्री का जीवन नीय है। इतना संयत, सदाचारपूर्ण एवं आडम्बर-विहीन है कि उसमें . - 0 . 00 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. मानवता के उन्नायक - श्री भागचन्द जंन 'भागेन्दु', दमोह (म०प्र०) 'योगः कर्मसु कौशलम्'-सिद्धान्त सूत्र को अपने उन्होंने मानवता के उत्कर्ष के लिए उच्चकोटि के कार्य किये जीवन में उतारकर उसकी सुरभि से दिग्-दिगन्त को सुवा- हैं-अथ च अनवरत कर रहे हैं। हमारी दृष्टि में सित कर रहे माननीय श्री केसरीमलजी सुराणा और उनके श्री सुराणाजी वही सब कर रहे हैं, जो महामना पं० मदन द्वारा विहित परोपकारपूर्ण प्रवृत्तियों का शतशः सादर मोहन मालवीय एवं प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद पं० गणेशस्मरण कर श्री सुराणाजी का कोटिशः अभिवादन-अभि- प्रसादजी वर्णी महाराज ने किया। नन्दन करता हूँ। कर्मयोगी श्री सुराणाजी ज्ञानयज्ञ के प्रवर्तन, कुरूढ़ियों श्री सुराणाजी व्यक्ति नहीं, संस्था है। उनकी उप- के उन्मूलन, मानवता के संरक्षण-उन्नयन एवं अध्यात्म-पथ लब्धियाँ संस्थागत उपलब्धियों से भी अधिक महत्तर हैं। के सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त करने में सतत सन्नद्ध हैं । 00 निवृत्ति और प्रवृत्ति के अद्भुत संयोजक 0 श्री चन्दनमल 'चाँद' (बम्बई) V जीवन निवृत्ति और प्रवृत्ति दो धाराओं के बीच सन्तु- की ओर प्रवृत्ति उनके पौरुषमय जीवन का लक्ष्य है। लित बहने का ही नाम है । कर्म जीवन को प्रेरणा देता है श्री सुराणाजी उन विरल जैन श्रावकों में से एक हैं और विरक्ति विश्राम । वैराग्य अथवा विरक्ति का जीवन जिन्होंने धर्म को जीवन में उतार कर पलायन के रूप में में स्पर्श होते ही अधिकांशत: व्यक्ति पूर्ण निवृत्ति की ओर नहीं बल्कि संघ और समाज के लिये पौरुष का प्रतीक अग्रसर हो जाता है। इसी प्रकार जो कर्म-क्षेत्र में अधिक बनाकर प्रस्तुत किया है । राणावास में छात्रों को रुचि रखते हैं, वे पूर्णतया प्रवृत्तियों में संलग्न हो जाते हैं। शिक्षा के साथ संस्कार देने का जो महान् प्रयास वर्षों इन दोनों स्थितियों के बीच एक गृहस्थ संन्यासी की स्थिति से चल रहा है उसकी प्राण-प्रतिष्ठा का आधार श्री भी हो सकती है । यह मूर्तरूप श्री केसरीमलजी सुराणा में सूराणाजी ही हैं। संस्थाओं से व्यक्ति नहीं बनते बल्कि दृष्टिगत होता है। व्यक्तियों से संस्थाओं का निर्माण होता है। श्री सुराणाजी श्री सुराणाजी से मेरा निकटतम परिचय है, ऐसा तो के लिये यदि कहा जाय कि ये तेरापंथ समाज के अत्यन्त मैं दावा नहीं करता किन्तु जितना मैंने उन्हें जाना, समझा विश्वसनीय सेवाभावी कार्यकर्ता है तो मैं समझता हूँ कि उसके आधार पर उनके व्यक्तित्व को प्रवृत्ति और निवृत्ति इनके साथ अन्याय होगा। श्री सुराणाजी एक परम्परा में दोनों संगमों का केन्द्र कह सकता है। श्री सुराणाजी अटूट श्रद्धा रखते हुए भी संकीर्णता से परे, शुद्ध धार्मिक व्यक्तिगत कामनाओं, आकांक्षाओं और वासनाओं से लग- जीवन जीने वाले व्यक्ति हैं। भग निवृत्त हैं। उनका जीवन एक आदर्श श्रावक का मूर्त- उनका अभिनन्दन समाज की सेवाओं के लिये स्वयं रूप है। प्रत्येक क्षण का निर्बाध उपयोग करना उनकी समाज का अभिनन्दन है। मान और अपमान की भावनाओं जीवनदृष्टि है। जीवन में संयम और त्याग का अद्भुत से दूर रहने वाला सच्चा धार्मिक अनासक्तभाव से गालियों मिश्रण इस प्रकार एक ओर तो वे निवृत्त से हैं किन्तु की तरह ही प्रशंसा भी सहजता से सुन सकता है। मेरी उनकी निवृत्ति अकर्मण्यता की द्योतक नहीं। वे निवृत्ति में शुभ कामना है कि श्री सुराणाजी इसी प्रकार निवृत्तिमय भी प्रवृत्ति की ओर संलग्न हैं । असद् से निवृत्ति और सद् प्रवृत्ति का आदर्श प्रस्तुत करते रहें। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन ७५ . .... ........ ........-. -.-.-. -.-. -.-.-.-. -. --.-. अनुकरणीय आदर्श व्यक्तित्व [] वैद्य सुन्दरलाल जैन, इटारसी समाज सेवा के लिए समर्पित जीवन वाले कर्मयोगी श्री भौतिकवादी विलासितामय जीवन-निर्वाह को खुली चुनौती सुराणाजी की अद्भुत कार्यक्षमता लोगों को आश्चर्यचकित है। यही कारण है कि आपका जीवन उच्चता और महानता किये बिना नहीं रहती, क्योंकि निःस्वार्थ भाव से लोको- के शिखर पर आरूढ़ है जो हम जैसे क्षुद्र मनुष्यों को चकित पकार की भावना के वशीभूत होकर समाज के लिए जीवन कर रहा है। कर्मयोग को आपने अपने जीवन में मूर्त रूप अर्पण कर देना अतिदुःसाध्य कार्य है। जो व्यक्ति ऐसा देकर जो अद्भुत आदर्श प्रस्तुत किया है, वह समाज के लिए करते हैं वे विरले ही होते हैं। श्री सुराणाजी इन्हीं विरले अनुकरणीय है। कर्मयोगी के रूप में आपके विलक्षण व्यक्तियों में से एक हैं। उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग कर व्यक्तित्व एवं असाधारण क्षमता का सदैव स्मरण किया जाता केवल लोकोपकार को ही अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य रहेगा । आपने इस जीवन में अपना कुछ नहीं समझा और बनाकर उसी पथ का अनुसरण किया। अतः निश्चय ही स्वयं तक को समाज के लिए समर्पित कर दिया। यह समाज के साधुवाद के पात्र हैं। आपकी सेवाओं का आपकी उदारता, उच्चता और महानता की पराकाष्ठा मूल्यांकन किया जाना समाज का परम पुनीत कर्तव्य है। है। आपका साधुवत् आचरण समाज के लिए प्रेरणाप्रद एवं आप केवल समाज की ही नहीं, अपितु देश की महान अनुकरणीय है । आचरण की शुद्धता, विचारों की परिष्कृ- विभूति हैं । समाज आप की सेवाओं से उपकृत है। आपने तता, हृदय की निर्मलता आपकी साधुवृत्ति के ही परिचायक समाज को जो कुछ दिया है वह अकल्पनीय है। आप जैसे हैं । आपका सीमित व्यय में जीवन निर्वाह आपकी निर्लोभ- साधु पुरुष समाज के लिए अनुकरणीय आदर्श हैं । वृत्ति एवं अपरिग्रही जीवन का द्योतक है जो वर्तमान 00 राणावास का गांधी 0प्रो० भंवरलाल पारख, अजमेर गत दशक से यद्यपि राणावास में स्थापित शिक्षण कथनी और करनी में अन्तर नहीं है, जो अपने मृदु व्यवसंस्थाओं के विषय में कुछ सुनने को मिला, परन्तु जुलाई हार, मधुरवाणी एवं सौम्य आचरण द्वारा सदैव मानव १९७७ से पूर्व मैं इसकी कभी कल्पना भी नहीं कर सकता समाज के लिये प्रेरणा स्रोत बने रहते हैं। पूज्य काकासा था कि छोटे से गाँव राणावास में इतना भव्य, विशाल की वाणी में जो प्रभाव एवं मुखमण्डल पर जो तेज है, एवं सुन्दर शिक्षण-परिसर स्थापित हो सकता है। जुलाई वह उनके त्याग, तपस्या एवं सादे जीवन का ही प्रतिफल १९७७ में प्राध्यापकों के चयन में विश्वविद्यालय के प्रति- है। आज के इस भौतिक युग में ऐसा व्यक्तित्व प्रायः निधि के रूप में जब मैंने राणावास में प्रवेश किया और दुर्लभ है, जिन्होंने सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य के मेरे गुरु एवं अग्रज प्राचार्य श्री तेलासा० ने जब मेरा परि. सिद्धान्तों को इस प्रकार से अपने जीवन में आत्मसात् कर चय एक साधु-मूर्ति पुरुष से करवाया, तो प्रथम दृष्टि में लिया हो । ही मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैं महात्मा गांधी की प्रतिमूर्ति आज जब समस्त मानव-जाति विनाश के कगार पर के दर्शन कर रहा हूँ, पूज्य काका साहब के चेहरे पर जो खड़ी प्रतीत होती है, मानव मानव का शोषण एवं संहार आलोक एवं विश्वास प्रफुल्लित हो रहा था, उससे मैं करने को आतुर है, मनुष्य को जीवन में सन्तोष एवं अत्यधिक प्रभावित हुआ । उसके बाद भी मतिमान श्री तृप्ति का अनुभव नहीं हो रहा है-ऐसे समय में काका काका साहब के दर्शन के दो अवसर मिले। मेरी यह साहब जैसे साधु पुरुष के जीवन से हमें दिशा-बोध एवं धारणा उत्तरोत्तर सबल होती गयी कि यह व्यक्ति भी सन्मार्ग की प्रेरणा मिलती है । महात्मा गांधी एवं उन विभूतियों की तरह है, जिनकी 00 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ७६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड एकता और समन्वय के प्रतीक प्रो० चांदमल कर्णावट, उदयपुर शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र राणावास मेरी भी वह धर्मसाधना का अन्य स्थान जहाँ अन्य बालिकाएं कर्मभूमि रहा, भले ही एक वर्ष के अल्पकाल के लिए ही। अपनी-अपनी मान्यतानुसार धर्माराधना करती हैं। यहाँ इस स्वल्पकाल में ही सेवामूर्ति, निःस्वार्थ समाजसेवी एवं दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक, तेरापंथी सभी शिक्षा के दूत श्रद्धेय श्री केसरीमलजी सुराणा के सम्पर्क में बालिकाएँ चार साल की अल्पायु से लेकर १५-१६ वर्ष आकर कई स्मृतियाँ स्थायी बन गई। वे सदा स्मरणीय की किशोर बालिकाएँ साथ-साथ रहतीं और अध्ययन रहेंगी। करती हैं । आवास, निवास, खान-पान एवं रहन-सहन की जनसामान्य की यह धारणा होगी कि श्री सुराणाजो समस्त सुविधाओं से युक्त यह शिक्षण संघ केवल धार्मिक एक कट्टर तेरापंथी श्रावक है, परन्तु यह उनके लिए एक और आध्यात्मिक शिक्षण के लिए ही नहीं अपितु व्यावआश्चर्य की बात होगी कि श्री सुराणाजी के प्रयत्नों से हारिक शिक्षण का कार्य कर रहा है। एक सुविशाल निर्मित सम्पूर्ण जैन समाज की एकता और समन्वय का भवन में एक स्थायी कोष से युक्त यह संघ जैन प्रतीक एक महिला शिक्षण संघ स्थित है राणावास में। एकता और समन्वय का एक सुदृढ़ उदाहरण है। संभवतः देश में ऐसा अन्य उदाहरण दुर्लभ ही होगा, जहाँ इस महान प्रयत्न के पीछे श्रम लगा है, मुख्यतः सुराणासमस्त जैन समाज का ऐसा सुसंगठित एकता के प्रतीक- दम्पति का । इस महिला शिक्षण का संचालन सँभालती स्वरूप जैन महिला शिक्षण संघ कार्यरत हो, जैसा शिक्षा हैं श्रीमती सुन्दरबाईजी सुराणा, जिनमें वस्तुतः मातृ-हृदय नगरी राणावास में है । शिक्षण संघ में प्रवेश करते ही बांई के दर्शन होते हैं। उनका जीवन सचमुच उनके नाम को और निर्मित एक मन्दिर जिसमें विश्वास रखने वाली सार्थक बना रहा है । वीतराग वाणी के अनुसार यह संघ बालिकाएं पूजन किया करती हैं, फिर आगे बढ़कर देखिये प्रगति के शिखरों पर आरूढ़ हो, यही हादिक कामना है। त्याग के मुर्तिमान रूप प्रो० रामप्रसाद शर्मा, कानोड़ काका साहब के जीवन पर कुछ लिखना या उनके करते हैं। यह है आपकी सम्पूर्ण त्यागशीलता का पालन अलौकिक गुणों को प्रदर्शित कर पाना मुझ जैसे साधारण जिसके सामने बड़े-बड़े सेठ सिर नवाते हैं और श्रद्धा से व्यक्ति के लिए कठिन है पर जैसा मैंने उन्हें देखा और आपके प्रति विनीत रहते हैं। आपको जो लाखों रुपयों का पाया वही चित्र पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास चन्दा प्राप्त होता है उसके पीछे आपकी यही तपस्या कर रहा हूँ। बलवती है। काका साहब का व्यक्तित्व और चरित्र महान है। काका साहब हृदय के कोमल व मधुर हैं, पर संस्था गाँधीजी की तरह दुर्बल शरीर, पर दृढ़ संकल्प और श्रेष्ठ के हित-चिन्तन और अनुशासन में वज्र से भी कठोर हैं। चरित्र के धनी काका साहब अपनी धुन के धनी हैं। वे यही श्रेष्ठ पुरुष की पहचान है। कार्यों का निरीक्षण त्याग के मूर्तिमान रूप और वीतराग हैं। वर्षों से वान- करते हुए और उचित आदेश देकर उनका पालन कराते प्रस्थ होते हुए भी पंच महाव्रत के व्रती हैं और कठोरता हुए देखा है । जिस श्रद्धा और विश्वास से समाज इनको से पालन करने वाले हैं। आपकी दिनचर्या एक आदर्श लाखों रुपये का दान देता है और इनकी मनचाही मांग सन्त की तरह है । १७ सामायिक करना आपका नित्य को पूरा करता है, उसी तरह काका साहब भी समाज की नियम है । केवल ७ वस्तुओं का भोजन करना, बाकी सब इस धरोहर के श्रेष्ठतम ट्रस्टी हैं। उसके एक-एक पैसे का त्याग है। वर्ष भर में २० मीटर कपड़े में अपनी सारी के सजग प्रहरी हैं। उसका व्यय उचित और सही ढंग से आवश्यकताओं को पूरा करते हैं और ऐसी भयंकर मंहगाई हो इसकी प्राणपण से चेष्टा करते हैं और ध्यान रखते हैं। के समय भी मात्र १०० रु० में अपना जीवन-यापन Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन ७७ . - . - . -. -. -. - . A PRINCELY BEGGAR o Prof. G. L. Mathur, Jodhpur Visibly austere, strikingly simple, kind to look of a small township like Pilani or Vanasthe core, penetratingly intelligent, painstakingly thali. laborious, transparently religious, like Caesar's Again, as coincidence would have it; like wife, always above suspicion, Sri Kesrimal late pandit Malviya, Kakasa is also a deeply Surana, affectionately called 'Kakasa', has be- religious man. In this age of science and techcome a legendary figure in his own life-time. nology, when the time-honoured values are Though unschooled in the conventional sense of fast vanishing from the Indian horizon, it is the term, has, by his ceaseless endeavour, heartening to note that there are some, if not raised a magnificent educational complex at many, stalwarts, some giants among men like Ranawas, the like of which is nowhere to be Kakasa who not only uphold and cherish the seen for miles. For this monumental edifice ancient Indian values but also do all they can this princely beggar has trudged, like the late to germinate the same into the young and imPandit Madan Mohan Malviya of sacred memo- pressional minds of the present generation. ry, miles and of unhospitable territory at great The writer of these lines sincerely hopes and personal inconvenience spreading his hand be- prays that under the judicious supervision and fore people of all denominations for money so inspiring guidance of long live Kakasa', both that the same could be ploughed back in crea- the teacher and the taught would make ever ting diverse temple of learning which are fast increasing conquests in the domain of learning, coming up here and which give this campus the "LIVES OF GREAT MEN ALL REMIND US, WE CAN MAKE OUR LIVES SUBLIME." 00 सूर्य की चाल की तरह नियमित 0 श्री गजमल सिंघवी, जोधपुर उनका दैनिक कार्यक्रम सूर्य की नियमित चालों के समय के बड़े ही पाबंद हैं । छात्र-छात्राओं में धार्मिक रुचि अनुसार समयबद्ध, क्रमबद्ध व नियमित है। वे आज का पैदा करना, उनमें सुसंस्कार डालना, उनका व्यक्तित्व काम कल पर नहीं छोड़ते। शीघ्र निर्णय ले पाने की निखारने की दिल में जबरदस्त तड़पन रहती है और उसकी विशेषता के कारण ही वे संस्था के सभी कागजात तुरन्त क्रियान्विति में वे हमेशा ब्याकुल, तल्लीन, आतुर रहते हैं। ही निपटा लेते हैं। ये त्यागी पुरुष हैं जिन्होंने अपना लोगों का इनमें अटूट विश्वास होने से ही यह हजारों अधिकांश जीवन शिक्षा-प्रसार, विकास व समाज सेवा में लाखों रुपये एकत्रित कर पाते हैं। संस्थाओं के हिसाबसमर्पित किया है । ये संयमी, मितव्ययी व सादा जीवन किताब इनके मुख पर तैयार रहते हैं इतनी तीव्र स्मरण व व्यतीत करने वाले हैं। गणना शक्ति । जिस काम को करने की ठान लेते हैं उसे राणावास को विद्याभूमि क्षेत्र बनाने में इनके बड़ी तत्परता से सम्पन्न कर ही चैन लेते हैं । इतना त्यागी, प्रयास स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जायेंगे । संस्थाओं के काम- सेवाभावी, संयमी, शिक्षा व समाजसेवा में अपने आप को काज तत्परता व नियमित रूप से निपटाने के बाद दिन-रात होम देने वाला व्यक्ति राणावास में मिलना जो समय उन्हें मिलता है वे साधु-संतों की सेवा में व दुर्लभ ही है। अपने जीवन की आध्यात्मिक उन्नति में लगाते हैं । ये 10 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड मारवाड़ का गरिमापूर्ण नक्षत्र देवेन्द्र कुमार हिरण, गंगापुर धुन के धनी, मारवाड़ के गरिमापूर्ण नक्षत्र श्री केसरीमलजी सुराणा का नाम सबकी जबान पर है । जिनके मानस में उठी कल्पना, कल्पना नहीं रही, साकार हो गई । अपने द्वारा वपन किया बीज, मारवाड़ की शुष्क भूमि में भी पल्लवित हो गया, पुष्पित हो गया एवं फलित हो गया । स्वयं श्री सुराणाजी के मन में भी यह कल्पना नहीं होगी कि राणावास की यह मरुभूमि एक दिन कर्मभूमि होगी, विद्या-भूमि होगी और प्रेरणा भूमि होगी । माननीय केसरीमलजी सा० सुराणा को कौन नहीं जानता ? वे जैन समाज के उन उज्ज्वल नक्षत्रों में एक हैं जिन पर समाज गौरवान्वित है । अपना सब कुछ समर्पित कर स्वयं समाज के लिए समर्पित हो जाने वाले सुराणाजी जैसे व्यक्ति अन्य दुर्लभ ही होगे । बेसरीमलजी साहब ने समाज में शैक्षणिक प्रगति के लिए उस समय प्रयत्न संजोये जब जैन समाज को शिक्षा की दृष्टि से पोषित किया जाना अत्यावश्यक था। राणावास जो आज विद्यानगर के रूप में उभर रहा है इसके श्रेयोभाक् एक मात्र सुराणाजी हैं । सुराणाजी रचनात्मकता की प्रतिमूर्ति हैं; बातों में उनका विश्वास कम है और कार्य में अधिक है। राणावास में कालेज की बात चली, लोग उसकी सम्भावनाओं-असम्भाव नाओं पर बैठे चर्चा ही कर रहे थे कि कालेज भवन की निसन्देह, मानव हितकारी संघ राणावास का जन्म एक शुभ नक्षत्र में हुआ । शुभ बेला में किये काम पूर्ण सफलता की ओर अग्रसर होते हैं । एक पौधा आज वट वृक्ष के रूप में हमारे सामने विद्यमान है। संस्था का विस्तृत स्वरूप है। सुमति शिक्षा सदन से लेकर आज महाविद्यालय का विराट प्रारूप हमारे समक्ष है । यहाँ का परिणाम राजस्थान में अपना गरिमापूर्ण स्थान रखता है । यहाँ से शिक्षा प्राप्त संकड़ों छात्र गरिमापूर्ण पदों पर हैं । जैन समाज के उज्ज्वल नक्षत्र [] श्री भीकमचन्द कोठारी, 'भ्रमर', टाडगढ़ मंजिलें भी खड़ी हो गईं, यह कोई साधारण बात नहीं । सुराणाजी साधना और सादगी के प्रतीक हैं । प्रतिदिन कुछ घण्टे छोड़कर उनका अधिकांश समय सामायिक चर्या में व्यतीत होता है, वे जैन श्रावकाचार की उच्च भूमिका निभा रहे हैं। आँखों पर एक साधारण चश्मा, धोती और छोटी-सी चद्दर में लिपटा हुआ उनका तन मन जितना कर्मशील है, सोचा नहीं जा सकता । सुराणाजी अकेले ही नहीं उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को भी समाजसेविका के रूप में प्रस्तुत कर महान् कार्य किया है, वे भी कुछ संस्थाओं का सुन्दर संचालन करती हैं । अक्सर समाजसेवियों की पत्नियाँ अपने पतियों से खीझी रहती हैं, मगर सुराणाजी इस मामले में जीत में हैं । २००० 000000000 . Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकनिष्ठ सेवक → श्री अगरचन्द नाहटा, बीकानेर अभी तक राणावास जाने का तो मुझे सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ, पर गुराणाजी से मिलने और बात-चीत करने का अवसर अवश्य मिला है। एक बार रेल में कुछ घण्टों को मुसाफिरी साथ ही की थी । वैसे उत्सवों, व्याख्यान आदि में कई बार मिले हैं। उनके संयम और त्यागमय जीवन से प्रभावित हुआ हूँ और उनको एक आदर्श श्रावक मानता हूँ । उनका जीवन सराहनीय एवं अनुकरणीय है । राणावास की संस्था से बहुत से अच्छे-अच्छे व्यक्ति तैयार हुए हैं और हो रहे हैं, पर उनके जैसी संस्था की सेवा निष्ठा व लगन से करने वाले श्रद्धेय श्री केसरीमलजी सुराणा इस देश के उन बिरले व्यक्तियों में से हैं, जिन्होंने अपने उत्कट त्याग, मूक सेवाभावना एवं सतत क्रियाशीलता से सारे समाज में सहज ही एक विशिष्ट एवं अविस्मरणीय स्थान बना लिया है। दशाब्दियों पूर्व एक साधारण एवं बिना किसी विशेष शिक्षा प्राप्त व्यक्ति ने, एक छोटे से ग्राम में शिक्षा संस्थान की स्थापना कर, समाज में सुसंस्कारों का बीजारोपण करने व आदर्श व्यक्तियों के निर्माण करने का संकल्प लिया और उसको क्रियान्वित करने का आरम्भ किया । अपनी सहस्रों की सम्पत्ति को उस आहुति में होम कर स्वल्प वस्त्र पहने, जैन श्रावक की सर्वोत्कृष्ट चर्या का निर्वाह करने वाले व्यक्तियों के अनुपम पारखी, वृद्धावस्था में भी व्यवस्थित कार्य करने की तड़फ और नन्हे-मुन्ने देश के भावी कर्णधारों को नवयुग का भगीरथ श्री सोहनराज कोठारी, जयपुर श्रद्धा-सुमन ७६ और कितने तैयार हुए ? यह मैं नहीं कह सकता । वास्तव में उनका अभिनन्दन व्यक्ति का अभिनन्दन नहीं विशिष्ट कार्य का अभिनन्दन है। इसका उद्देश्य तभी सफल हो सकता है, जब इनके जीवन से प्रेरणा लेकर और भी कई लोग सामने आयें, उनके कार्य में हाथ बटावें । व्यक्ति तो कोई अमर नहीं रहता, पर उनका कार्य लम्बे समय तक समाज और देश को लाभ पहुँचाता रहता है। श्री केसरीमलजी सुराणा ने ऐसा ही कुछ कर दिखाया है। ++++ अनुशासन परिधि में अक्षुण्ण रखते, प्रेम और अनुग्रह लुटाते हुए श्री सुराणाजी को देखकर अनायास ही हर व्यक्ति, प्रथम दृष्टि में ही उनके त्याग व निश्छल व्यवहार से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता । युगों-युगों पूर्व महाराज भगीरथ की घोर तपस्या के फलस्वरूप भारत भूमि पर गंगा अवतरित हुई और उससे राष्ट्र की धरती नानाविधि प्रकारों से लाभान्वित हुई व देश की उज्ज्वल सभ्यता व संस्कृति का वह आधार बन गयी, उसी प्रकार का गुरुतर कार्य श्री सुराणाजी ने किया है, जिन्होंने शिक्षा के पिछड़े क्षेत्रों में, आदर्श जीवन का निर्माण करने वाली शिक्षा की महास्रोतस्विनी बहाकर, सहस्रों व्यक्तियों को परिष्कृत जीवन बनाने का वरदान दिया, व इस नवोदित राष्ट्र के अभिनव उत्थान हेतु प्रामाणिक व्यक्तियों का निर्माण किया । . Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐॐ ८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ प्रथम खण्ड सूझ-बूझ की त्रिवेणी श्री कनकमल जैन, बीकानेर शिक्षा की दृष्टि से इस संस्था ने द्रुत गति से विकास किया है। पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक शिक्षा से लेकर यहाँ आज स्नातक स्तर की शिक्षा की व्यवस्था उच्च कोटि की है। अधिकतर छात्र बाहर से आते हैं। उनके लिए आवास निवास व भोजन की व्यवस्था बड़ी सुन्दर एवं सात्त्विक है । एक प्रकार से सभी विद्यालय आवासीय ही हैं। यहाँ आवास हेतु कई विशाल छात्रावास भवन हैं । यहाँ सदा छात्रों के विकास पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिया जाता है। इस हेतु योग्य गृहपति रखे जाते हैं । सेवा इस संस्था का प्रमुख लक्ष्य रहा है । समाज में सैकड़ों प्रतिभावान छात्र हैं जो आर्थिक कमजोरी के कारण उच्च शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते। ऐसे प्रतिभावान एवं योग्य छात्रों को शिक्षा प्राप्त करने हेतु उन्हें निःशुल्क शिक्षा दी जाती है एवं उनके आवास व भोजन की भी निःशुल्क व्यवस्था कर उनके जीवन को उन्नत एवं समाजोपयोगी बना इस संस्था ने सदा सेवा का कीर्तिमान स्थापित किया है । आप एक चितक हैं, साथ ही अध्यवसायी भी । यह कहने में भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आप एक उच्चकोटि के शिक्षा शास्त्री भी हैं। विद्यार्थी वर्ग के प्रति काकासा का अपना दृष्टिकोण है । विद्यार्थियों की सहायता करने के लिये अपने व्यक्तिगत प्रभाव का उपयोग करना भी आपको अखरता नहीं है। किसी भी विद्यार्थी का किसी भी रूप में भला करना आप अपना कर्तव्य समझते हैं । विशेषता यह है कि किसी का कुछ कल्याण करके वे उसे जताने की कभी चेष्टा नहीं करते । यहाँ तक कि 1 उच्चकोटि के शिक्षाशास्त्री [] श्री महेन्द्रवीर सिंह गहलोत, राणावास शोध की दृष्टि से यह संस्था स्वयं एक प्रयोगशाला ही बन गयी है जीवन का बहुमुखी विकास सर्वागीण विकास यहाँ का उद्देश्य है । प्रत्येक बालक की मनःस्थिति, उसकी व्यक्तिगत समस्याओं का अध्ययन कर उस बालक के विकास हेतु प्रयास किया जाना यहाँ का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। यहाँ देश के कौने-कौने से बालक आते हैं । उनमें कई बालक समस्यामूलक या पिछड़े हुए भी होते हैं । अतः यहाँ एक वैज्ञानिक की भाँति उनका अध्ययन कर उपचार किया जाकर उनका विकास किया जाता है । उन्हें योग्य सामाजिक प्राणी बना सुनागरिक बनाया जाना इस संस्था की प्रमुख विशेषता है । वास्तव में यह संस्था ज्ञान, दर्शन, चारित्र की त्रिवेणी है जहाँ बालक अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर मानव जीवन में सफलता प्राप्त करता है। इसका समस्त श्रेय काकासा श्री केसरीमलजी की है। उनकी सूझबूझ की इस त्रिवेणी के कारण ही यह संस्था उत्तरोत्तर प्रगति कर रही है। O , अपने द्वारा की गई सेवा का विद्यार्थी को वे आभास भी नहीं होने देते । अपने छात्र को उसके जीवन में खूब प्रगति करते हुए, फलते-फूलते और सफल होते देखकर काकासा का मन प्रसन्न हो उठता है । एक शिक्षण संस्थान के कुलपति के लिए इससे बड़ा सौभाग्य और कोनसा हो सकता है ? अपने छात्र की सफलता और उन्नति को ही काकासा सच्ची गुरु-दक्षिणा मानते हैं। यही तो है वह सनातनी भाव जिसके लिये हम आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन ८१ . -.-.-.-. -.-.-.-. -.-.-. -.-...-.-.-. -.-.-. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -.-.-. -.-.-. -.. आत्म-साधना के धनी 0 श्री श्यामसुन्दर जैन (उदयपुर) आज श्री सुराणाजी का समाज में वही स्थान है जो कुशल प्रशासक के रूप में आप में यह गुण देखने को मिलता एक जहाज के कप्तान का होता है। आप आत्मविश्वास है। आप कभी यह नहीं सोचते कि 'मैं ही संस्था के प्राण के धनी हैं तथा आत्मविश्वास को सफलता की कुजी है, बल्कि वे अपने आपको भी एक सहयोगी के रूप में मानते मानते हैं। ऐसा लगता है आत्मविश्वास आपकी आत्मा हैं। कई बार मैंने यह भी अनुभव किया है कि सुराणाजी में कूट-कूट कर भरा है। इसी आत्मविश्वास के बल पर अपने साथियों से विचारों का विरोधाभास अनुभव करने आपने कई संस्थाओं के संचालन का कार्य अपने सुविशाल पर सभी विचारों पर गम्भीरता एवं सहानुभूति से चिन्तन कन्धों पर ले रखा है। करते हैं तथा अपनी नीति प्रजातंत्रीय ढंग से निर्धारित ____ आप में सहयोग की प्रवृत्ति कूट-कूटकर भरी है । आप करते हैं। ऐसा लगता है कि आपने प्रजातन्त्र को अपने इस बात को समझते हैं कि अगर एक को एक का आचरण का ही एक अंग बना लिया है। सहयोग मिल जावे तो ग्यारह हो जाते हैं। अत: एक 00 तेरापंथ के सूफी संत प्रो० देवेन्द्रदत्त शर्मा (बीकानेर) जिस मनुष्य ने गुरु से तवज्जह की धार लेके अपने रास्ता पहुंचता है। रास्ता भले ही पृथक् हो सूफियों का हृदय के सारे विकारों को दूर करने का व्रत लिया हो, उसे लेकिन मस्ती व बेहोशी जैन सम्प्रदाय के पहुंचे हुए श्रावकों शुद्ध व निर्मल बना लेने के लिए कटिबद्ध हो गया हो- जैसी ही मिलती है। काकासा इस रूहानी मरहलों के वही सूफी है। काका साहब का दिल भी मल व विक्षेपों वासी हैं अतः आनन्द बिखेरती इनकी आँखें, मधुरता से परे हो जाने को अंगड़ाइयाँ ले रहा है। बिना भेद-भाव लिए इनकी वाणी, जिस किसी को कुछ क्षण काकासा के के काका साहब की सन्तों की-सी भोली-भाली बातें-जो सम्पर्क में आने को मिले वह प्रभावित हुए बिना नहीं रह सम्पर्क में आता है उसे ही मोह लेती हैं। काकासा का सका। दिल दर्पण की तरह साफ है, सरोवर में ठहरे जल की सूफियों के यहाँ दो तरह के कायदे बतलाये गये हैं। तरह निर्मल है, जिसमें कि एक अशान्त दिल को डुबकी एक के जरिये खुदा के नूर से सीधा सम्पर्क कर रूहानी लगा लेने से ईश्वरीय आनन्द की अनुभूति होना फैज की मदिरा को पी मस्त होना है। दूसरे के जरिये स्वाभाविक है। किसी वसीले की सहायता से खुदा की खुदाई को दिल में सफी सम्प्रदाय का कहना है कि जो अपने मुरशीद में भरना है। इसे तवज्जह रूहानी कहा गया है। ये दोनों ही मन लगा देता है उसे संसार व ईश्वर दोनों उपलब्ध होते रास्ते साथ-साथ तय कर लेने से मकसद जल्द हासिल हो हैं। काकासा में इसी सिद्धान्तानुसार सांसारिक व्यक्तियों हो जाता है । काकासा दोनों ही रास्तों का समन्वय कर को प्रभावित करने की शक्तियों का उजागर होना तथा उस अन्तिम मंजिल की चढ़ाई के अवरोही हैं। जैन तेरारूहानी शक्तियों का निखरना सम्भव हो सका है। एक पंथ भी इन दोनों रास्तों का अलग-अलग बखान करते हुए सच्चे सन्त की तरह सूफियों का-सा प्रेम जैन श्रावकों में भी दोनों को मिलाकर उस पर श्रावक को चलने की अपने इष्ट के प्रति पाया जाना एक बड़ी उपलब्धि कही इजाजत देता है। सूफी गुरु को साकी, मुरशीद आदि के जायगी। दया का उमड़ता सागर, ज्ञान की रश्मियों का नाम से पुकारते हैं । जैन तेरापंथ में आचार्य व तीर्थंकर शब्द लरजते-गरजते बहना जहाँ जैन श्रावकों को आनन्द के प्रचलित हैं। लोक में ले जाता है वहीं सूफी लोगों के फनानफिल का अपने साकी के चरणों में सब कुछ लुटा देने वाला Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड ................................................... ...-.-.-.-.-... सूफी निर्भय हो किसी भी काम को पूरा करने का बीड़ा १. गुस्से के वक्त सब से काम लेना-काकासा के उठा सकता है । वैसे ही काकासा आचार्य प्रवर तुलसी के जीवन में गुस्से का तो स्थान है, लेकिन गुस्से से प्रीति चरणों में सर्वस्व सौंप अपने को फूल-सा हल्का महसूस नहीं है। गुस्सा सिर्फ कार्य को संवारने व हिदायती तौर करते हैं । सांसारिक कार्यों में व्यस्त सूफी सन्तों की तरह पर ही करते रहे हैं । एक गृहस्थ सन्त हैं । जैन तेरापंथ की मर्यादाएं काकासा २. तंगी में बख्शीस देना-काकासा ने अपना सर्वस्व के जीवन की प्रथम आवश्यकताएँ है। हर समय इष्ट का देकर तंगी को बुलावा दिया है और अब तंगी की अवस्था चिन्तन जैन तेरापंथ का सजीव संवाद है । सफियों के यहाँ में भी बख्शीस देते रहते हैं। इसे होश-हरदम के नाम से पुकारा जाता है। ३. काबू पाने पर माफ करना-काकासा ने सूफी काकासा का जीवन त्यागमय तो है ही, लेकिन इस संतों की तरह लोगों की गलतियों पर भी उन्हें माफ किया त्याग के बदले जन्मे अहं को नष्ट करने की शक्ति इष्ट- है। संस्था के कुछ अधिकारियों द्वारा यह कहे जाने पर भी चिन्तन प्रदान करता है। ऊँचे मरहलों पर चढ़ने वाले कि अपराधी आदत से बाज नहीं आ रहे हैं, काकासा ने श्रावकों में मल-विक्षेप व अहंकार के गरूर हो आना क्षमादान दिया। जैन सम्प्रदाय के क्षमायाचना दिवस स्वाभाविक है। सूफियों के यहाँ इन कटीली घाटियों पर (संवत्सरी) की महत्ता सूफियों की तरह ही जैन श्रावकों चढ़ते समय साकी के द्वारा साधक की आँखों पर पट्टी बाँध को ऊँचा उठा देती है। दी जाती है जिससे उसमें त्याग का अहंकार जन्म न ले सके। काकासा का आहार सदैव ही सीमित रहता है। जैन सम्प्रदाय में इन अहंकारों को इष्टदेव के चरणों में जैनधर्म में उपवासों को विशेष ही महत्व दिया गया घुला देना होता है। है । सूफियों का कहना है कि जिनका आहार सादा व ___सूफियों के यहाँ अपने साकी के हाथ बिक जाना होता पाक होता है, वही खुदा की रहमत के अधिकारी है। अपने मन को गुरु के मन में लय कर देना होता है। होते हैं। तेरापंथ सम्प्रदाय में भी ऐसा ही कुछ है । एक सच्चे सूफी काकासा का व्यक्तित्व जैन श्रावक के रूप में सभी के दिल से निकलता उद्गार कहता है-"जब मैं था तब ने देखा है। हमने काकासा को एक सूफी सन्त के रूप गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाहिं । प्रेम गली अति में जाना है । आचार्य तुलसी का सब धर्मों के प्रति आदर, सांकड़ी जा में दो न समाहिं ।" काकासा भी अपने को अपने इष्ट के चरणों में लुट जाना, आचार्य तुलसी का गुरु-चरणों में लय कर देने में ही लगाये रहते हैं। एक सूफी सन्त होने का प्रमाण है और आचार्य तुलसी सूफी सन्त हजरत इदरीस ने फरमाया कि नेकी के से ही सम्बन्धित काका साहब हैं अतः इनका भी सूफी सन्त सिर तीन बातें हैं होना स्पष्ट है। 00 स्वभावसिद्ध गुणों के आकर डा० वी० एन० वशिष्ठ (राणावास) हृदयं मानवसमतां धत्ते सामान्यदेहमर्यादम् । स्पष्टतः अनुभव हम सब को समय-समय पर होता आर्ते यत्तद् द्रवितं मेघाज्जलघेरिव गम्भीरम ॥ रहा है । जो भी उनके निकट सम्पर्क में आये हैं, वह उनके अर्थात् "उन महापुरुषों का हृदय सामान्य देह में रखा कोमल हृदय और दृढ़ चरित्र से प्रभावित हुए बिना हुआ, ऊपर से सामान्य मनुष्यों के समान दृष्टिगत होता नहीं रह सके हैं। है परन्तु जब दुःखी, करुणायोग्य व्यक्ति पर कृपा और आज से लगभग ३७ वर्ष पूर्व मैंने अपने औषधालय प्रेमवश होकर द्रवित होने लगता है, तो अपार सुख-सम्पदा की स्थापना की थी, उसके पीछे उनके प्रोत्साहन का ही के रूप में मेघ से भी बढ़ जाता है और गम्भीरता में हाथ था। दवाखाना के लिए उनके उत्साह का गर्भस्थ समुद्र को भी मात कर देता है।" यह बात आदरणीय भाव मानव-कल्याण की भावना थी क्योंकि उस सुराणाजी के लिए निःसंकोच कही जा सकती है। इसका समय राणावास में चिकित्सा एवं शिक्षा की व्यवस्था Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिल्कुल नहीं थी। मैं स्वयं भी उनकी इस भावना से अभिभूत हुआ और मानव हित का कार्य चिकित्सा के रूप में इस तरह प्रारम्भ हुआ। आपने अपना सम्पूर्ण जीवन शिक्षा के लिए अर्पण किया। विद्यालय के संचालन के लिए सुराणाजी का सम्पूर्ण जीवन समर्पित है । सबसे मुख्य बात यह है कि उन्होंने उसे अपना व्यवसाय नहीं बनाया है । विद्यालय के कोष का मात्र एक पैसा भी उनके लिए पाप है । जब भी अवसर आया है तन और मन के साथ-साथ धन भी विद्यालय हेतु लगाया है। इस कारण सुराणाजी के लिए यह स्पष्टतः कहा जा सकता है राणावास को लोग कांठा प्रान्त का नन्दन वन कहते हैं । प्रशंसाभाव में भरकर इसकी तुलना प्राचीन भारत के तक्षशिला और नालन्दा विद्यापीठों से करते हैं । वैसे इस शिक्षण संस्थान का नाम 'श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ' विद्याभूमि राणावास है । मेवाड़ मारवाड़ की सीमा पर एक छोटा स्टेशन फुलाद और इससे आगे का स्टेशन राणावास है, जो अब विद्याभूमि के नाम से मशहूर है। यह मलसाबावड़ी सरहद में हैं जिसकी वक्ष पर कभी य-तत्र बल व खेजड़े के वृक्ष थे, उसी पर आज ज्ञान-गढ़ खड़े हैं। स्टेशन के अहाते से बाहर निकलते ही आधे फल भर की दूरी पर विद्याभूमि की इमारतें दीखने लग जाती हैं। जरा समीप जाने पर हम देखते हैं- सुन्दर विशाल भवन, हरे भरे वृक्ष, कुंज, फूलों की क्यारियाँ, विशाल सभा स्थल और कार्य व्यस्त कार्यकर्ता एवं जिज्ञासु छात्र | इन सब के बीच घूम रहा होता है एक व्यक्ति दीर्घ एक दुर्लभ विभूति श्री भंवरलाल आच्छा ( रागावास ) Mara INSTAMOS & श्रद्धा-सुमन सत्यं, दाक्ष्यं, बुद्धिः सत्पात्रत्वं जनस्य विश्वासः । व्यापारेषु पटुत्वं धर्मे निष्ठा गुणाः सहजाः ॥ , सत्यता, चतुरता, बुद्धि, सत्पात्रता और जनता का विश्वास होता, व्यापार-व्यवहारों में कौशल धर्म में अतुल निष्ठा आदि सभी गुण आप में स्वभावसिद्ध रूप से विराजते हैं। आपके व्यवहार में सच्चाई है और कार्य में नियम है। ८३ सुराणाजी के अनुसार यदि सत्य चला गया तो शेष सब निरर्थक है । मानवता के इस उच्च आदर्श पर पहुँचने के लिए सामाजिक या व्यक्तिगत जो भी प्रयास होते हैं, उनमें आपका पूर्ण सहयोग है । ++++ , काया, धवल वस्त्र, हाथ में मुँह पर रखने को छोटा सा श्वेत वस्त्र का टुकड़ा, आंखों पर चश्मा, उसकी आँखों से विद्याभूमि के एक-एक ईंट के लिए ममत्व बरसता रहता है। देखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्राचीन काल का कोई महर्षि कुलपति चला आ रहा हो । ये हैं श्री केसरीमलजी सुराणा, जो स्वयं त्यागी, वैरागी होते हुए भी जनता के ऐहिक अभ्युदय के लिए सारा जीवन अर्पित कर दिया है। अपना कीमती समय समाज व राष्ट्र की तरक्की इसकी बहबुदी के लिए लगाते हैं । श्री सुराणाजी गृहरुवों में भी संन्यासी हैं, सदाचार एवं मानवीय मूल्यों का उपासक हैं । अथक परिश्रमी, कर्तव्यपरायण, सच्चे ग्रामवासी हैं। आप आज भी हजारों सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओं को आदर्श निष्ठा और कर्त्तव्य परायणता का व्यावहारिक पाठ पढ़ा रहे हैं। वास्तव में आप समाज की दुर्लभ विभूति हैं । . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड पुण्य-पुरुष नर-रत्न 9 (स्व०) श्री उदय जैन (कानोड़) श्री केसरीमलजी सुराणा को मैंने शिक्षा एवं चरित्र एवं विचारानुग, समयज्ञ एवं सुज्ञ श्रावक हैं । ये स्वयं के के क्षेत्र में जीवन व धन समर्पण करने वाले समाज के एक परिग्रह एवं समय का विसर्जन कर एक शिक्षा केन्द्र के पुण्य-पुरुष के रूप में पाया। जैसा मैंने पाया वस्तुत: वे केन्द्र-बिन्दु और समाज के श्रद्धय श्रावक बन गये हैं। उससे भी कहीं बढ़कर हैं। राणावास का छोटा-सा गांव इस समय विद्या-तीर्थ बन श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी समाज के ये मानव-रत्न गया है और अब होड़ा-होड़ में शिक्षा-धाम बन गया है। हैं और अहर्निश आत्म-प्रगति तथा शिक्षा-प्रसार कर रहे ये एक ऐसे पुण्य-पुरुष हैं जो स्वयं बढ़ रहे हैं और हैं । समाज ने इनको मान दिया । जहाँ भी ये गये समाज इनको देख दूसरे भी प्रगति कर रहे हैं । इस मानव-केसरी ने लाखों का द्रव्य समर्पण कर इनके प्रति भक्ति का ने छात्र एवं छात्राओं के जीवन-निर्माण में अपने आपको प्रदर्शन किया। ऐसे नररत्न को धन्य है । भी न्यौछावर कर दिया है। इन्हें धन्य है। आप युगप्रधान आचार्य श्री तुलसीगणी के परम भक्त 00 सर्वस्व त्यागी महापुरुष श्री रणजीतसिंह बैद (जयपुर) राणावास का व श्री केसरीमलजी सुराणा का नाम बहुत खर्च चलाना, अठारह घण्टे स्वाध्याय करना, डेढ़ घण्टे सुना था और हमारे थली में तो यह प्रसिद्ध है कि टाबर विश्राम करना, संस्था के प्रति इतना मोह कि उसके लिए बोछरड़ा हो तो राणावास भेज दो। वहाँ शैतान से शैतान अपना सब कुछ त्याग कर देना वास्तव में यह किसी महाबच्चा भी सुधर जाता है । आश्चर्य होता था कि आज के पुरुष के लिए ही संभव है। किसी साधारण मनुष्य के लिये इस आधुनिक युग में जहाँ विद्यार्थी अपने शिक्षक का पूरा तो यह कल्पना से भी परे है। आदर भी नहीं करता है वहाँ राणावास में बच्चे इतने कुछ लोग कहते हैं कि सुराणाजी में चन्दा लेने की अनुशासित कैसे हो जाते हैं। बहुत बड़ी कला है। मैं कहता हूँ कि चन्दा तो वहाँ व्यक्ति एक बार मुझे श्री मन्नालालजी सुराणा के साथ अपने आप ही आकर देते हैं। जब वे उनकी संस्था के प्रति राणावास जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहाँ मैंने श्री लगन, उत्साह और त्याग देखते हैं तो आदमी अपने आप ही केसरीमलजी सुराणा के दर्शन किये, उनका आचार-विचार, चन्दा देने को प्रेरित हो जाता है। यही कारण है कि उस उनका सब के प्रति एक-सा स्नेह और आत्मीयता को देख- बंजर भूमि में भी आज एक संस्था खड़ी है जो समाज में कर उनके प्रति मेरा मन श्रद्धा से भर गया । इस मॅहगाई एक अनुकरणीय उदाहरण है और जिसका कोई मुकाबला से युग में सौ रुपये महीने में अपना व पत्नी का सारा घर- नहीं है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन ८५ - . - . -. - . -. - . -. -. -. -. - . -. -. - . समपित व्यक्तित्व । श्री चांदमल दुग्गड़, (आसिन्द) श्रद्धय केसरीमलजी सुराणा का समूचा जीवन धर्म ज्ञान फिर क्रिया । इसी लक्ष्य को लेकर श्रद्धय सुराणाजी संघ एवं समाज के लिए समर्पित है। ने राणावास को शिक्षाभूमि का रूप प्रदान किया है । आप में अनेकों ऐसे गुण हैं, जो हर व्यक्ति में पाना सैकड़ों-हजारों बालक-बालिकाओं में शिक्षा के साथ-साथ कठिन है । जिस कार्य को आप अपने हाथ में लेते हैं, उसे संस्कार निर्माण का कार्य आज राणावास में हो रहा है। वहाँ उसी धुन के साथ पूरा करते हैं। आप में दृढ़-निश्चय, रहने वाले छात्र-छात्राओं को सुराणाजी का जो वात्सल्यमिलनसारिता एवं कर्तव्यपरायणता निराली है। प्रिय अनुशासन, कुशल नेतृत्व प्रदान होता है, वह प्रशंसनीय मानव-जीवन को सर्वांगीण बनाने में शिक्षा का मुख्य है। राणावास की यह शिक्षा संस्था एवं छात्रावास बेजोड़ योगदान रहता है । "तमसो मा ज्योतिर्गमय" का उद्घोष हैं। सारे देश की आँखें आज राणावास की ओर लगी हुई यही व्यक्त करता है कि अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़े हैं। इसके पीछे सुराणाजी ने अपना तन-मन-धन और सब प्रकाश की ओर ले जाना ज्ञान का कार्य है। तभी तो कुछ अर्पण कर रक्खा है । निःसन्देह सुराणाजी का जीवन भगवान महावीर ने कहा-“पढमं नाणं तओ दया"--पहले स्वर्ण-अक्षरों में लिखा जाएगा। समाज के गौरव 0 श्री सागरमल कावड़िया राजस्थान के मरुप्रदेश में कांठा प्रान्त में एक विराट समाज गौरवान्वित है। जन-जन के मन-मस्तिष्क में व्यक्तित्व अवतरित हुआ, जिसके रोम-रोम में त्याग एवं सत्य अपके तपोमय-जीवन की छाप अंकित है। का आलोक आज भी प्रस्फुटित हो रहा है जिसकी गति में आपकी परिकल्पना है कि आप राणावास को सारे तेज एवं वाणी में ओज है एवं जिसकी प्रत्येक क्रिया देश में शिक्षा के क्षेत्र में शीर्षस्थ स्थान पर पहुंचा दें वैराग्य-रस से सिक्त है। ऐसे व्यक्तित्व को जिसे स्वयं तथा छात्रवर्ग की रग-रग में भगवान् महावीर के आदर्शों युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने 'साधु पुरुष' की संज्ञा एवं आचार्य भिक्ष की मर्यादाओं का संचार करें। ऐसे दी है वह है कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा। विराट् व्यक्तित्व ने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज को ___खरे, दबंग, निष्कपट एवं निर्लोभी श्री सुराणाजी न्यौछावर कर दिया है । आप विचक्षणता, दूर-दशिता, अदम्य प्रारम्भ से ही सूर्य की तरह अखण्ड कर्मयोगी रहे हैं। साहस, निर्भीकता तथा गहरी साधना के धनी और त्यागआप जैसे मनीषी, प्रबुद्ध चिन्तक एवं कर्मयोगी को पाकर मूर्ति है । यह हम सबके लिए गौरव का विषय है । प्रेम के पुजारी । श्रीमती भंवरीदेवी सुराणा श्री केसरीमलजी सुराणा को त्याग, तपस्या, निःस्वार्थ मुझे तो उससे पहले यह संभावना भी नहीं थी कि इनके सेवा करते-करते वर्षों गुजर गये, आज स्वयं ही सारा हृदय में भावभीने स्नेह का जो स्रोत उमड़ता है वह समाज उन्हें हार्दिक सम्मान देता है। मैं सोचती हूँ क्या हमें भी द्रवित कर देगा। कभी अध्यात्म की गहराई नापने वाला सब के प्रति वहाँ जाने वाले सभी ने कुछ न कुछ आनन्द माना अनुरक्त रह सकता है ? उसे सबसे क्या प्रयोजन ? और होगा, मगर मेरे मन में तो हर प्रोग्राम, हर व्यस्तता --0 0 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .८६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : प्रथम खण्ड और हर चहल-पहल में एक ही बात घूमती थी कि क्या यह यह सब क्यों न हो, उनका स्नेह, गुरु-श्रद्धा, त्याग तथा देव पुरुष है ? क्या मनुष्य इतना बड़ा प्रेम का पुजारी अपना बलिदान तो है ही, पर स्वामीजी के क्षेत्र भी होता है ? फिर सोचा, बिना प्रेम के इस ऊषर भूमि में उनके चारों ओर घिरे हुए हों, क्यों न उनका आशीर्वाद उर्वरता भी कैसे आती ? इन्होंने स्नेह का अमृत सींचा उन्हें रात-दिन मिलता है। इधर जन्मभूमि कंटालिया तभी तो इस धरा पर, जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव फिर उसके एक तरफ क्रान्ति-भूमि 'सुधरी' फिर एक तरफ हितकारी संघ का जन्म हो गया। यह शून्य भूमि अनोखी चरम-भूमि सिरियारी एवं अन्य भी विहरण क्षेत्र स्वामी चहल-पहल की रौनक पाने लगी । फिर ध्यान में आया भीखणजी के राणावास के चारों ओर घिरे हैं। 00 निःस्वाथ सन्त पुरुष श्री बाबूलाल चुन्नीलाल भंसाली (बम्बई) श्रीमान् के सरीमलजी सुराणा एक कर्मयोगी महान पुरुष कर रहे हैं । युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में आप हैं । आपके गुणों का वर्णन लेखनी द्वारा दर्शाना अतिशयोक्ति संत पुरुष हैं । आपका जीवन समाज के लिए एक उदाहरण ही है । इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज-सुधार में स्वरूप है। लगा दिया है। राणावास की मरुभूमि में आपने ज्ञान हमारी हार्दिक कामना है कि आप जैसे निःस्वार्थी रूपी सूर्य आलोकित किया है, जिसके फलस्वरूप सैकड़ों कर्मयोगी संतपुरुषों से हमारा समाज पूर्ण रूपेण विकसित अज्ञानी पुरुषों को मार्ग-दर्शन प्राप्त हुआ है । संसार में हो और ज्ञानरूपी सूर्य सदैव प्रकाशित रहे । रहते हुए भी आप एक संत-पुरुष के समान जीवन यापन 00 गण एवं गणपति के प्रति समर्पित 0 श्री तख्तमल इन्द्रावत, (राणावास) श्री सुराणाजी शरीर पर खादी का चोलपट्टा सर्वस्व अर्पण कर देते हैं । और पछेवड़ी, हाथ में रूमाल, आँखों पर चश्मा, नंगे पैर श्री सुराणाजी में जहाँ पाप के प्रति भीरुता, संयम और नंगे सिर रहते हैं। इनका वदन गठीला, कद लम्बा के प्रति जागरूकता और साधना के प्रति दृढ़ और मुद्रा गम्भीर है । ये त्याग-तपस्या के साधक, बौद्धिक- निष्ठा है, वहाँ समाज और राष्ट्र सेवा के प्रति भी पूर्ण आध्यात्मिक शिक्षा के प्रेमी एवं संघर्षमय जीवन के तल्लीनता । (१) श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानवहितकारी धनी व्यक्ति हैं। संघ, (२) अखिल भारतीय महिला जैन शिक्षण संघ और ये तेरापंथ सम्प्रदाय के विशिष्ट श्रावक हैं। युग- (३) तेरापंथ स्मारक समिति राणवास आदि इनकी मूर्तिमान प्रधान आचार्य श्री तुलसी के सच्चे अनुयायी हैं। आचार- जाज्वल्य संस्थाएं हैं। जिनके माध्यम से प्रतिवर्ष सैकड़ों विचार के कुशल व्यक्ति हैं। ये स्वभाव से बड़े सरल । छात्र-छात्राएँ अपनी मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक एवं पापभीर हैं । अपना पल-पल आत्म-कल्याण में अपित शिक्षा की त्रिवेणी में अवगाहन कर रहे हैं । इनके संचालन करते हैं। इनके कार्य में इनकी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरबाई में ये अपना तन-मन और धन ही अर्पण नहीं करते बल्कि का सुन्दर सहयोग है। मणिकांचन का योग है। दोनों दोनों पति-पत्नी अपना स्वेद और रक्त भी बलिदान का प्रसन्न एव सन्तुष्ट जीवन है । करते हैं। श्री सुराणाजी तेरापंथी सम्प्रदाय की उन्नति, सुरक्षा धन्य है ऐसे त्यागी, कर्मठ एवं चरित्रवान व्यक्ति एवं समृद्धि में सदैव संलग्न रहते हैं। चाहे वह संत- को। व्यक्ति, समाज और राष्ट्र ऐसे देश-सेवक के कार्य सतियों की सेवा और दर्शन हो या गणपति की सेवा और और सेवा की महत्ता को समझे और उसका उचित दर्शन हो या संघ का कोई आपतकालीन और संघर्षमय सम्मान करें। कार्य, ये तन-मन और धन से उसमें लीन हो जाते हैं और 00 ० ० Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन ८७. नये मानव के निर्माता V D श्री फूलचन्द बाफणा (विद्यावाड़ी, रानी) बीज यदि चाहता है कि अनेकों बीजों को अस्तित्व पड़ता है। कुम्भकार व कलाकार की तरह सतत सावधान में लावे तो उसे अपने आप की गला देना होगा। संस्था रहना पड़ता है। बीज को गलना ही पड़ता है। यह की स्थापना व निर्माण करना सहज है किन्तु नये मानव सब क्या श्री केसरीमलजी साहब सुराणा के लागू नहीं का निर्माण करके उसे प्रतिदिन उत्कर्ष की ओर अग्रसर होता? वास्तव में श्री केसरीमलजी सुराणा ने शिक्षा के करना दुष्कर है। इसके लिए जीवन खपाना पड़ता है- लिए अपने आपको समर्पित किया है और आज राणावास अपने आप को समर्पित करना होता है। ओत-प्रोत होना एक शिक्षा नगर बन गया है । 00 एक प्रखर व्यक्तित्व प्रो० एम० एल० आच्छा (राणावास) आज सारा संसार स्वार्थ-लिप्सा में ओत-प्रोत है, किताबी ज्ञान की शिक्षा दिलाना नहीं चाहते, बल्कि आप जिधर देखें, उधर ही भ्रष्टाचार, बेईमानी, स्वार्थलिप्सा एवं यह भी चाहते हैं कि बालक देश का ईमानदार नागरिक घूसखोरी देखने को मिलती है। भला ऐसी परिस्थितियों बने । में फोन व्यक्ति अपने काम को इन कृत्यों से बचा सकता श्री सुराणाजी का एक ही लक्ष्य रहता है कि जो काम है ? हर व्यक्ति यही चाहता है कि वह सुख से जिये, मौज वे हाथ में ले लेते हैं, जब तक उसे पूरा नहीं कर लेते हैं, जब से जिए, सारे सुख-वैभव की वस्तुएँ उसे उपलब्ध हों, और तक उन्हें चैन नहीं पड़ता। वे उस कार्य को पूरा करने के अपने जीवन में समस्त इच्छाएं पूर्ण कर ले, लेकिन कुछ लिये अपना सर्वस्व न्योछावर करने को सदैव उद्यत रहते व्यक्ति ऐसे भी संसार में हैं, जो अपना सारा जीवन जनहित हैं। सुराणाजी का ही एक ऐसा अनोखा व्यक्तित्व है जिसके में, समाज-कल्याण में, राष्ट्रोत्थान में, धर्म निरपेक्षता में कारण उन्हें हमेशा आशाओं की किरण ही हाथ लगती लगाते हैं, जिन्हें न अपने घर की चिन्ता है, न अपने शरीर है। आपका दृष्टिकोण हमेशा आशावादी रहा है, आपके की और न सुख-वैभव की--उन व्यक्तियों में जिनको मैंने दिल में इतनी तड़फ है कि संस्था का एक नया पैसा भी अपनी नजरों से, दिल की गहराइयों में झाँक कर देखा व्यर्थ व्यय न हो, समस्त पैसा समाज के इस वट-वृक्ष है-उनमें एक श्री केसरमलजी सुराणा भी हैं। को सींचने में ही लगे। यही कारण है कि आपके इस श्री सुराणाजी के विचार धर्म के प्रति अट श्रद्धा से निःस्वार्थ सेवाभाव, उज्ज्वल चरित्र से प्रभावित होकर भरे हुए हैं । चूंकि क्षमा, विनय, विवेक द्वारा ही मनुष्यता दानदाता लाखों की थैलियाँ आपकी श्वेत झोली में डाल का सृजन होता है, अतः शिक्षा के साथ-साथ आपने धर्म देते हैं । को भी प्रमुख पहलू रखा। आप बालकों को केवल मात्र 00 अविस्मरणीय कर्मयोगी 7 श्री मांगीलाल छाजेर (बंगलौर) धरती के इस विशाल प्रांगण में अनेकानेक प्राणी उनको समाज या दुनिया से विशेष सरोकार नहीं तो दुनिया अपना जन्म ग्रहण करते हैं और फिर से इसी धरा-धूलि में को भी उनसे विशेष दिलचस्पी नहीं। उनकी दुनिया छोटी निस्तब्ध होकर सो जाते हैं । उनका जीवन, उनका उठना- और सीमित होती है। वक्त के साथ वे विस्मृत भी कर बैठना, उनकी भाग-दौड़ अपने निजी स्वार्थों के लिये होती दिये जाते हैं। किन्तु जिन्होंने अपना जीवन स्वदेश, जाति, है । ऐसे लोग जीते हैं तो अपने लिये, अपने ही दायरे में। धर्म, समाज, शिक्षा के लिए समर्पित कर दिया है, उन्हें Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : प्रथम खण्ड ........................................................................... कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। ऐसा ही एक सुविधाओं की इच्छा, सेवा और मात्र सेवा, सेवाभाव से, व्यक्तित्व है-जिन्हें जनमानस प्यार से 'काका साहब' नि:स्वार्थवृत्ति से, सम्पूर्ण समर्पण की भावना से । कहता है और जिनका पूरा नाम है-श्री केसरीमलजी आप गाली दीजिये कोई चिन्ता नहीं, ताने कसिये, सुराणा। उलाहना दीजिये उन्हें इन बातों की कोई चिन्ता नहीं, वे महात्मा गांधी की सेवाओं को, उनके प्यार को देखकर तो अपने धुन के धनी हैं : काम हाथ में ले लिया तो उसे जन-मानस ने उन्हें 'बापू' कहा और सुराणाजी की सेवाओं पूरा करना है ही, कहने वाले तो बुरा-भला कहते ही को देखते हुए जनता ने, दिद्यार्थियों ने प्यार से उन्हें 'काका रहेंगे। ऐसा साहस बहुत कम लोगों में देखने को मिलता साहेब' कहा । दोनों में बड़ी समानता है। है। फिर साहस के साथ उनकी सफलता का रहस्य है अपने वही महात्मा गाँधी-सा व्यक्तित्व, वैसी ही चश्मे से काम के प्रति सम्पूर्ण समर्पण के साथ निष्ठा व विश्वास । झांकती हुई प्यार, स्नेहपूर्ण वात्सल्यमयी आँखें, वही रंग, अपनी सेवाओं के कारण वे अभिनन्दनीय हैं, अनुकरवैसी ही वेश-भूषा, त्याग व संयममय जीवन, सरलता, णीय हैं। वर्षों तक विद्यार्थी के रूप में व उसके बाद मुझे सादगी। उनकी निकटता का सौभाग्य मिला है। मैं तो इतना ही ___स्वार्थवृत्ति से तो काम करने वाले मिल सकते हैं व्यक्त कर सकता हूँ कि वे सच्चे अर्थों में निःस्वार्थ कर्मयोगी हजारों, किन्तु निःस्वार्थ वृत्ति से एक भी कठिनाई से। हैं, कर्म ही उनकी आत्मा है, कर्म ही उनकी प्रसन्नता, कर्म काका साहब को न नाम की चिन्ता, न प्रतिष्ठा की भूख, ही उनका जीवन और कर्म ही उनका धर्म । उनका जीवन न मीठे चापलूसीपूर्ण शब्द की चाह, न अर्थ व अन्य सुख- भी पूर्ण सादगी से भरा है। मानव सेवा के मन्त्रदाता 0 श्री अशोककुमार भण्डारी (पेटलावद) अथर्ववेद (२/११/२) में कहा गया है कि सुख-दुःख, हानि-लाभ, सफलता-असफलता आदि का सामना दुनिया के लोगो याद रखो, पुरुषार्थवान धीरज वाले करना पड़ा, लेकिन कर्मयोगी अपने कदमों को हमेशा आगे व्यक्ति अपने सरल और निष्कपट स्वभाव के कारण अग्र- बढ़ाते रहे क्योंकि लक्ष्य जितना बड़ा होगा, विपदाएँ भी गामी होकर अपने संकट मिटा डालते हैं और हर क्षेत्र में, उसी अनुपात में आगे आयेंगी। जीवन में न जाने कितने हर कार्य में पूर्ण और निश्चित सफलता प्राप्त करते हैं। अवसर आते हैं जब मनुष्य को कड़वे घुट पीने पड़ते हैं। ऐसे ही महामानव कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा हैं। आपके जीवन से हम नव-युवकों को तो काफी कुछ मुझे भी इस संस्था में रहकर उन्हें बहुत नजदीक से देखने सीखना है। यदि हम नवयुवक जीवन में आई विपरीत का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । आपकी नजर में समस्त मानव परिस्थितियों से हार बैठे या अपनी भावनाओं के प्रतिकूल जाति एक है। सभी एक पिता की सन्तान स्वयं सभी की घटनाओं से निराश हो बैठे तो फिर हमारे उद्धार का एक माता वसुन्धरा का सिद्धान्त बहुत ही भला लगा जो आपने ही रास्ता है-एक ही मार्ग है-आओ और जीवन-पथ अपनाया है। सभी परिवारी, स्वजन व कुटुम्बी हैं यह की कठोरता को स्वीकार कर आगे बढ़ो तभी हम सब भावना प्रबल रूप से देखने को मेरे अध्ययन काल में मिली उस मंजिल तक पहुंच सकते हैं, जिस पर हमें पहुंचना है। है। आपके जीवन का मुल मन्त्र है मानव-सेवा। हम युवकों को जीवन ऐसा बनाना है कि मंजिल हमारा संघर्षमय जीवन-पथ पर आगे बढ़ते समय आपको इन्तजार करे न कि हम मंजिल का। अपनी मंजिल तक कई बार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करना पहुंचने के लिए प्रतीक के रूप में हैं कर्मयोगी श्री केसरीपड़ा है। रात और दिन, धूप-छांह, सर्दी-गर्मी की तरह मलजी साहब सुराणा । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्धा-सुमन ८६ छात्रों के प्राण - श्री सोहनलाल कातरेला (बंगलौर) राणावास का यह शिक्षा केन्द्र आपका जीवन एवं हम छात्र भी आपका पितृवत् प्यार पाकर फूले नहीं छात्र आपके प्राण रहे हैं । छात्रावास एवं छात्रों की प्रत्येक समाते हैं । आपको जब भी और जहाँ भी देखते, विनयवत् गतिविधि पर आपका खयाल रहा है। छात्रों को हमेशा आपके चरणों में गिरकर आनन्द का अनुभव करते । आपने अपना पुत्र मान उन्हें पिता का प्यार, वात्सल्य एवं जहाँ काका साहब श्री केसरीमलजी से पिता का प्यार अनुराग दिया है। छात्रों की उन्नतिमय गतिविधियों को पाया वहाँ छात्रों ने आपकी धर्मपत्नी (श्रीमती सुन्दरबाई देख आप फूले नहीं समाते हैं । समय-समय पर प्रगतिशील सुराणा) में माता का दुलार पाया। आप समय-समय पर छात्रों को पारितोषिक इत्यादि देकर औरों को प्रगति के छात्रावास की गतिविधियों, भोजनालय इत्यादि की देखलिए प्रोत्साहित करते रहे हैं। आप विनीत एवं उत्साही भाल किया करती हैं। जिससे मनुष्यों द्वारा संचालित इस छात्रों के प्रति जहाँ मृदु हैं, वहाँ उच्छखल एवं अविनीत पाकशाला में किसी प्रकार की कमी नहीं रह पाती । आपने छानों के प्रति वज्र से भी कठोर हैं। आपकी यह कठोरता अपने घरों से दूर आये छात्रों को प्यार-दुलार देकर किसी उन्हें सही राह पर लाने के लिए होती है। कवि ने प्रकार की कमी महसूस नहीं होने दी। हम छात्र भी कहा है आपको ममतामय "माताजी" के नाम से ही सम्बोधित "स्वर्ण विघर्षण से ज्यों, करते सत्य निखरता संघर्षों के द्वारा" आप दोनों का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे उक्त कथनानुसार आप पथ-भूले राही को मृदुता से, जाने योग्य है। समाज एवं छात्र हमेशा ऐसे पुरुषों का प्यार एवं दुलार से एवं अन्त में कठोरता से राह पर लाने ऋणी रहेगा जिन्होंने अपना जीवन समाज के कर्णधारों का अथक प्रयास करते हैं । के जीवन निर्माण के लिए समर्पित किया। त्यागलोक को दिव्य आत्मा 7 श्री अशोकभाई संघवी 'जैन' (बाव) आपको मैंने उस पदयात्रा में अविरल गति से चलते में था भाभर क्षेत्र । जहाँ पर साध्वीश्री किस्तुरांजी विराज देखा था, जब पूज्य जीवनतन्त्री के तार हृदयसम्राट् युग- रहे थे। मेरा सद्भाग्य था, मुझे भी अच्छा अवसर मिला प्रधान गुरुदेव दक्षिण के पावन अंचल को छूकर अपनी मातृ- उनके साथ यात्रा करने का ।। भूमि की पवित्र गोद की पग ओर बढ़ा रहे थे । मैं भी उस वह चित्र की झाँकियाँ आज भी मेरे नयनों के समक्ष समय साथ में था, तब सेवा में मैंने उनकी समता को देखा, ऐसे ही ताजी हैं, जैसे मुस्कराता हुआ ताजा फूल । हम उनके जीवन को सादगी को परखा और......"मेरे दिल में सुबह की पावन वेला में बाव से चलकर भाभर आये और भावना जगी उस दिव्यव्यक्ति को अन्तर् से जानने की। आपने साध्वीश्री के दर्शन कर आपकी दर्शनों की भावना मैंने देखा उनका दैनिक नित्यकर्म जैसे वह यहां पहुंचे, सफल बनायी और हम वहाँ से चले कच्छ की ओर । प्रायः सूर्य अस्ताचल की ओर ढल रहा था, सन्ध्या का कच्छ की सीमा में प्रवेश किया एवं सर्वप्रथम 'रायर' पवित्र वातावरण था और आप उसी वक्त सामायिक में क्षेत्र में गये जहाँ पर पूज्य साध्वीश्री विनयश्रीजी बैठ गये और इसके पश्चात् ही क्षेत्र के सब सज्जनों से विराजती थीं। वहाँ के लोगों ने श्रीमान् सुराणाजी साहब उन्होंने मिलना प्रारम्भ किया। उनके दिल में अपार को देखकर ही उनकी जबान से वे शब्द निकल पड़े कि आनन्द था बाव क्षेत्र को देखकर । और यहाँ से कुछ चन्दा सचमुच ही एक दिव्य आत्मा हमारे गाँव में आयी है, हम प्राप्त कर आप कच्छ की धरती पर जाना चाहते थे । बीच आपकी भावनाओं का आदर व सम्मान करेंगे:....."और Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड इसी प्रवाह में विसर्जन का स्रोत बहा एवं धारणा न थी वात्सल्य का स्रोत बहाया उस यात्रा के बीच, सचमुच कि शायद रायर जैसे छोटे क्षेत्र में लोग अपनी उदारता का हमारे जीवन की सद्भागी घड़ियाँ वह थीं। मानों हम परिचय देंगे, किन्तु जो कुछ अच्छा दृश्य वहाँ देखा वह उनके साथ एक 'त्यागलोक की दिव्य आत्मा' के साथ घूम था श्रीमान् सुराणाजी के व्यक्तित्व व सुन्दर प्रतिभा का रहे थे। प्रभाव। सूर्यास्त होता, आप कहीं भी स्थान मिले, रुक जाते, हम कच्छ के अन्य क्षेत्र भुज, गांधीधाम आदि क्षेत्रों में कितना गहरा त्याग, सीमित द्रव्यों का भोजन, नंगे पैरों से गये, वहाँ भी हमने देखा आपके प्रति लोगों का समर्पण- चलना, त्यागवृत्ति, समय-समय पर समता की भावना और भाव, विनयभाव व सम्मान-भरी भावनाएँ। पल-पल अप्रमादमय वृत्तियाँ, मैंने देखीं इनके जीवन में । ___मैं स्वयं आश्चर्यमय था इस परमार्थी त्यागी आदमी हम शासन व शासनपति के लिए अपना सर्वस्व अर्पण को देखकर । तीन दिन तक इनके साथ यात्रा में जो कुछ करने को भी तैयार रहें, मानवहित व शिक्षा के लिए जानने का व अनुभव का मौका मिला। प्रवास में थकान जीवन-भर काम करते रहें व जो कुछ कार्य करें वह के बावजूद आपका वही संयममय जीवन, सामायिक, बिल्कुल अप्रमत्तभाव से करें व संयममय जीवन से अपने समतामय-वृत्ति, द्रव्यों का संयम आदि बराबर ही अबाध जीवन को महान् बनावें, कितने महान् व ऊँचे विचार हैं गति से चलता रहा। हमारे लिये आपने जो प्रेम व आपके । 00 कार्यकुशलता का जीवंत प्रमाण डा० बी० जुगराज सेठिया (कन्टालिया) काकाजी को विशेषणों से विभूषित करना उनकी उप- सेवा-भावना का परिचायक है। निरन्तर सामायिक लब्धियों को विशृखलित करना है। उन्हें शब्दों में समाहित स्वाध्याय में अनुरंजित रहने पर भी सारे सामाजिक व करना उनके व्यक्तित्व को प्रच्छन्न करना है। श्री जैन संघीय उत्तरदायित्वों का भलीभाँति निर्वाह कर लेना श्वेताम्बर तेरापन्थी मानव हितकारी संघ के संस्थापक, आपकी धर्मनिष्ठा, कार्यकुशलता व अनुशासित जीवन का संरक्षक व सर्वेसर्वा के परिवेश में उनका विशाल व्यक्तित्व, जीवन्त प्रमाण है। उनकी अद्भुत कार्यक्षमता, लगन व सेवा-भावना प्रतिपल श्री सुराणाजी की इस विजय-यात्रा में उनकी सहप्रतिबुद्ध होती है। सादगी से ओत-प्रोत श्री सुराणाजी के गामिनी श्रीमती सुन्दरबाई ने जो आलम्बन प्रतिपद दिया है बहुमूल्य योगदान व सहयोग से कांठा-मही का शिक्षण संघ वह सराहनीय है । काकाजी अपने लक्ष्य की ओर जिस गति पल्लवित हुआ है। से आगे बढ़े हैं उसमें निस्सन्देह श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा लगभग प्रति वर्ष राणावास विद्याभूमि में साधु- का योगदान अतुलनीय रहा है। साध्वियों का चातुर्मास श्री सुराणाजी की गुरु-भक्ति व 00 प्रथम अग्रेसर दोपक ॥ श्री गणेशलाल चोरड़िया (पुर) मेरा व्यक्तिगत सम्पर्क आदरणीय सुराणाजी से नहीं यदि आपका अनुसरण समस्त समृद्धिशाली व्यक्ति करें हुआ, किन्तु किसी महान व्यक्तित्व के बारे में परोक्ष रूप और आचार्यप्रवर के इंगित के अनुसार विसर्जन को अपना से ज्ञात बातें साक्षात्कार से भी अधिक महत्त्व की होती हैं। लें तो विश्व में नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना में सहस्रगुणित कौन नहीं जानता इस नर-केसरी को, जिसके हृदय में वृद्धि हो सकती है। किन्तु किसी ने सत्य कहा है कि दीपक समाज के नव-निर्माण हेतु नई पौध में संस्कारों के बीज की लम्बी बाती का केवल एक ही छोर अपने को तिलवपन करने की नियमित तड़प हो, जिसके अपने जीवन का तिल जलाकर संसार को प्रकाश दिखाता है तो उससे अधिकांश भाग समाजरूपी भवन के नव-निर्माण में खपा सैकड़ों दीपक जल सकते हैं, ऐसी हालत में महत्त्व तो प्रथम हो। ऐसे बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी श्री केसरीमलजी अग्रेसर दीपक को ही मिलता है। सुराणाजी के प्रति सिर सहज ही झुक जाता है। 00 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन .... ........ ...... .. -. -.-.-. -. -.-.-. -.-.-. -.-.-. संकल्पों के साधक - श्री रतनसिंह सुराणा (बंगलौर) भाई साहब श्रीमान् केसरीमलजी सुराणा का सम्पूर्ण अपनी उम्र के ३५वें वर्ष में प्रवेश होने तक एक अच्छे जीवन ही एक धुनमय माना जा सकता है । आपका वैभवशाली प्रतिष्ठित धनाढ्य सेठों की शृखला में आ ननिहाल राणावास में ही है। आपके मामाजी श्री गये थे। शेषमलजी आच्छा का स्नेह आपके ऊपर अधिक था। यही श्रीमान् सुराणाजी का विवाह हुए अब तक २० वर्ष कारण है कि आप बाल्यावस्था में ननिहाल में अधिक रहे बोत चुके थे किन्तु उन्हें कोई सन्तान प्राप्त नहीं हुई थीथे। आपके समय का पाठ्यक्रम पुस्तकीय ज्ञान नहीं था। सर्वसुखसम्पन्न होते हए भी, पूत्र की कमी निःसन्दह हा मारवाड़ के प्रत्येक क्षेत्र में उन दिनों स्लेट-पाटियों एवं पति-पत्नी के दिल में महान् अशान्ति का विषय बना हुआ लकड़ी की पाटियों पर पाहडे, तमाम प्रकार से गणित था। संयोग की बात थी कि उसी समय में राणावास में विद्या पूर्णरूप से मौखिक कण्ठस्थ कराये जाते थे। श्री स्कूल खोला गया था और श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ शिक्षण सुराणाजी अपने समय के साथी छात्रों में अग्रगण्य विलक्षण संघ की स्थापना की गई थी। श्री सुराणाजी का दिल बुद्धि वाले माने जाते थे। आपके जीवन में इस राजस्थानी यकायक व्यवसाय से उचट गया और तन-मन-धन से पढ़ाई का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा और आप यहाँ से इस शिक्षण संघ की सेवा करने की दिल में ठान ली । अपने पढ़ाई पूर्ण कराकर हैदराबाद चले गये, वहाँ स्कूली शिक्षा लघु भ्राता श्री भंवरलालजी सुराणा बोलारमनिवासी में मैट्रिक तक की परीक्षा पास की। इसी बीच आपका को अपना व्यवसाय सिपुर्द करके एकदम वैराग्य वृत्ति से अल्पायु में ही विवाह हो गया और आपने जब १६ वर्ष की वहाँ से चलकर सपत्नी राणावास में पधार गये । राणावास आयु में प्रवेश किया ही था कि आपको आपके पिताश्री के पधारकर श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी शिक्षण संघ का पूरा वियोग का बहुत बड़ा झटका, सदमा पहुँचा । घर की सारी कार्य आपने संभाला। आपने सवप्रथम संघ का जिम्मेदारियाँ स्वयं पर आ पड़ी थीं। अतः आपने बड़ी स्थिति को मजबूत बनाने का दृढ़ संकल्प लिया था। अतः कुशलता से इस जिम्मेदारी को धैर्यपूर्वक निभाया। अब समस्त मारवाड़-बीकानेर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र, आपको एकमात्र धुन लग गई थी कि दुनिया में रुपये-पैसे मैसूर, तमिलनाडु इत्यादि प्रान्तों का आपने दौरा करके की पूछ है और बगैर पैसे के आदमी की कोई कदर नहीं संघ की वित्तीय स्थिति को अत्यन्त सुदृढ़ बना दिया । चन्दा होती-अत: आप अपने व्यवसाय में तन्मयता से जुट गये। मंडवाने की कला में सुराणाजी एकदम माहिर माने जाते आपको अपना व्यवसाय वरदान सिद्ध हआ और इसमें हैं। आज श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ आपको दिन-प्रतिदिन अच्छी सफलता मिली। थोड़े समय की स्थिति आपके सामने मौजूद है, वह एकमात्र श्री में ही आपने अपनी धुन के मुताबिक इच्छापूर्ति वाली सुराणाजी के निःस्वार्थ श्रम का ही परिणाम है । वास्तव लक्ष्मी को अपने अनुकूल बना दिया। इतना ही नहीं आप में आप संकल्पों के साधक हैं। 00 जितने कठोर, उतने कोमल 0 श्री कान्ति संघवो "जैन" (बाव) श्री केसरीमलजी सुराणा से मेरा बहुत वर्षों से निकट- छात्र-छात्राओं के सच्चे माता-पिता के रूप में आप सम्मातम सम्बन्ध रहा है, कार्यकर्ताओं के प्रति उनका जो नित हैं। वहाँ अध्ययन करने वाले विभिन्न सम्प्रदायों के अप्रतिम स्नेह एवं वात्सल्य होना चाहिए वह मैंने उनमें पाया जैसे तेरापंथ, स्थानकवासी, मूर्तिपूजक सभी समाज के छात्रहै, उनके आदर्श-जीवन से बहुत प्रेरणा प्राप्त होती है। छात्राएँ हैं, जो अपने-अपने ढंग से वहाँ आते हैं । चंचलमना, राणावास के विभिन्न शिक्षा-प्रतिष्ठानों में अध्ययनरत उन्मादी, व्यसनी व लड़ाकू प्रकृति के छात्र-छात्राओं का Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड वहाँ आना वास्तव में वहाँ की उच्च शिक्षा, एकता, समा- नहीं कर सकते । वहाँ का व्यवहार एवं नैतिक प्रशिक्षण नता एवं अनुशासन से अच्छे सुसंस्कारों से कायापलट होने ऐसा है कि एक डॉट सुराणाजी की लग जाती है का प्रमाण है, ऐसे छान यहाँ आकर विनय, विवेक एवं तो फिर दुबारा सिर ऊँचा उठाने की ताकत किसी की वात्सल्य भाव का प्रसार करने वाले हो जाते हैं। नहीं रहती। सुराणाजी अपने श्रम एवं जिम्मेदारी के साथ सुराणाजी जितने कठोर स्वभाव के हैं उतने ही कोमल शिक्षा के माध्यम से बच्चों के उज्ज्वल भविष्य को देखना हैं, वह किसी की भी तनिक सी भी गलती को बर्दाश्त चाहते हैं। कलात्मक जीवन के उदघोषक श्री महालचन्द खटेड जीवन क्या है ? मृत्यु से अमरत्व की ओर, अन्धकार से है। चरित्र-निर्माण, विद्यादान और तात्त्विक ज्ञान का जो प्रकाश की ओर, असद् से सद् की ओर, अधोगति से प्रगति बीजारोपण किया है, वह आज लहलहाते वृक्ष के रूप में की ओर प्रयाण करने का ही नाम जीवन है । केवल जीना पुष्पित हो रहा है । चतुमुखी प्रगति कर रहा है। संस्था ही जीवन नहीं, कलापूर्वक जीना ही जीवन है केसरीमलजी और समाज को आप जैसे रत्न पर बड़ा गर्व है। का जीवन एक कलात्मक जीवन है। उनका जीवन अनेक सामाजिक कार्यों के साथ-साथ आप अपनी आत्मकलाओं की सुन्दर प्रयोगशाला है। वे जीने की विद्या साधना में अनवरत संलग्न हैं और सदा जागरूक एवं को जानते हैं। उनके कलात्मक जीवन ने अनेक ऊबड़- अप्रमत्त हैं । आपकी निष्काम सेवा, सद्भावना, प्रसन्नमना खाबड़ मार्गों को समतल व प्रशस्त किया है। और साधना की विमलज्योति समाज के वृद्ध, तरुण और वरिष्ठ श्रावक केसरीमलजी ने राणावास की संस्था को बालवर्ग में चिर युग तक स्मृतियों में तैरती रहेगी। अपनी अनमोल सेवाएँ देकर एक कीर्तिमान स्थापित किया 00 संघर्ष में सुमेरु-सम अटल " श्री मांगीलाल सुराणा श्री केसरीमलजी सुराणा लोहपुरुष और निर्भीक हैं, बड़े अपना आत्मकल्याण करते हुए समाज-सेवा में ये जुटे हुए तेजस्वी एवं फुर्तीले हैं। राणावास के शिक्षा संस्थानों की हैं। समाज-सेवी और भी हैं किन्तु कोई कुछ घण्टे, कुछ उन्नति में आपका खून-पसीना बहा है । अनेकों संघर्ष आपके दिन, कुछ महीने या कुछ वर्ष समाज-सेवा में देते हैं किन्तु जीवन में आये लेकिन किसी भी संघर्ष में जरा भी नहीं पूरा जीवन व तन-मन-धन समाज-सेवा में लगाने वाले घबराये । संघर्ष में सदा सुमेरुसम अटल रहे । सफलता विरले ही मिलते हैं। समाज के ऋणी तो सभी व्यक्ति इनके चरण चूमती रही । यदि कोई विरोधी बनकर इनके होते हैं किन्तु आप ऐसे व्यक्तियों में से हैं जिनका समाज सामने आया भी तो वह इनकी निःस्वार्थ सेवा के आगे ऋणी है। जो भी काम आप हाथ में लेते हैं, उसे पूरा अपने विरोध को भूल गया। सुख में, दुःख में, प्रशंसा में करके ही छोड़ते हैं और जो-जो संस्थान आपने चालू किये व विरोध में ये सदा दृढ़ रहे और समाज-सेवा के कार्य उनकी नींव भी आपने पक्की कर दी। ये संस्थान युगको, सिवाय धावक पडिमा के समय के, कभी नहीं छोड़ा। युगों तक चलते रहेंगे, ऐसा सबको दृढ़ विश्वास है। 00 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन संत या समाज-सेवक श्री भंवरलाल सांखला करीब नौ वर्ष के दीर्घ-काल तक मुझे पूज्य काका पवित्र और महत्त्वपूर्ण व्यवसाय है, जिसे सदा गौरवशाली साहब के संसर्ग में रहने का अवसर मिला । मेरे खयाल से बनाये रखना प्रत्येक शिक्षक का कर्तव्य है । अपने व्यावकिसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को परखकर इसका अपने पर सायिक दायित्वों की अनुपालना, मैं पूज्य काका साहब की प्रभाव पड़ जाने हेतु उक्त अवधि पर्याप्त होती है । मैं काका प्रेरणा से अल्पांश मात्रा में ग्रहण कर पाया है । आशा है साहब द्वारा संचालित श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्य- ईश्वर मुझे उन्हें पूरा करने की शक्ति प्रदान करेगा। मिक विद्यालय में एक अध्यापक के पद पर कार्यरत था। समाज-कल्याण में कार्यरत काका साहब आत्म-कल्याण यह मेरा सौभाग्य था कि मुझे उक्त संस्था में एक बहुत में किसी संत से पीछे नहीं है। एक संन्यासी की तरह पूर्ण लम्बे समय तक सेवा करने का अवसर मिला। यहाँ की त्यागमय जीवन यापन करते हुए समाज की भी बड़ी भारी चिर-स्मरणीय उपलब्धियाँ मेरे जीवन में सदा रहेंगी शिक्षक सेवा कर रहे हैं । अत: मैं प्रायः यह सोचा करता हूँ कि के गौरव को बढ़ा देने वाली अनेक बातें मुझे इस महापुरुष यह महापुरुष एक संत है या समाज-सेवक ? की प्रेरणा से सीखने को मिलीं। अध्यापन-व्यवसाय एक सफल समाज-सुधारक " श्री गजराज के० सेमलानी (रानी) आपको समाज-सुधारक कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नारी-शिक्षा के आप पक्ष में हैं। आज हमारे समाज नहीं होगी। आज आप समाज में व्याप्त कुप्रथाओं में नारी-शिक्षा की भारी कमी है। यह कहकर स्कूल छुड़वा और कुरीतियों को दूर करने की और स्वच्छ दिया जाता है कि आखिर लड़की को बड़ा होकर चूल्हा समाज की स्थापना की मशाल हाथ में थामे हुए हैं । बाल फूंकना है। इस कारण आज कई लड़कियाँ अज्ञानता विवाह, अशिक्षा, पर्दाप्रथा, मृत्यु-भोज और दहेज-प्रथा का की अंधेरी कोठरियाँ में ही भटक रही हैं। उन्हें ज्ञान व आज मानव में रेगिस्तान की तरह फैलाव हो रहा है। उच्च शिक्षा का प्रकाश चाहिए। आप ऐसा प्रकाश दिलाने आप इन्हें समूल नष्ट करने के लिये कृतसंकल्प हैं। इसके की कोशिश में लगे हैं । आपकी वजह से राणावास में आज लिये आपने अपने आपको व अपने परिवार को उदाहरण छात्राओं की शाला और छात्रावास में काफी विकास के लिए प्रस्तुत किया है। अर्थात् इन कुरीतियों को दूर हुआ है। करने की शुरुआत आपने अपने घर से की है। 00 समुद्र की तरह गहरे श्री उगमराज के० धोका (रानी) श्री सुराणाजी महान् समाज-सुधारक के गुणों से ही समाज-सेवी एवं दानदाताओं को आकर्षित करने की क्षमता परिपूर्ण नहीं है अपितु बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी भी हैं। है। आपकी मधुर वाणी रससिक्त है। पत्थर का हृदय भी आपका हृदय अथाह समुद्र की भाँति गहरा है। आपका मोम बनके रह जाता है और परिणाम यह होता है कि स्वभाव बड़ा ही सरल है। आपकी मधुर वाणी में लाखों आपकी बात को तत्काल स्वीकार करना पड़ता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड विश्वासपात्र विभूति 0 श्री भंवरलाल धींग (रीछेड़) देश के अनेक क्षेत्रों में अनेक तरह से अपनी योग्यता- मनमाना चन्दा लेकर आते हैं। क्या ऐसा व्यक्तित्व लाखों नुसार कार्य करने वाले कार्यकर्ता हैं । अक्सर हर-एक कार्य- में भी मिल सकता है ? आपने सेवाभाव से लाखों का कर्ता का अपना व्यक्तित्व होता है । ___ चन्दा किया और उसका आपने क्या किया? यह कभी परम आदरणीय केसरीमलजी साहब सुराणा, जिनसे किसी को पूछने का साहस तक नहीं हुआ होगा? क्योंकि मेरा वर्षों से सम्पर्क रहा है, आप एक निष्ठाशील, परिश्रमी, आपने अपने क्रिया-कलापों एवं व्यवहारों द्वारा उसे जगनिर्भीक, निःस्वार्थी, दूरदर्शी, निष्पक्ष, गुरु के प्रति समर्पित जाहिर कर रखा है। भावना वाले, निरभिमानी, सादगीपूर्ण, त्यागमूर्ति एवं महान् आज जन-जन के मन में आपके प्रति अगाध श्रद्धा है विश्वासपात्र विभूति हैं। जिसका स्वर्णिम परिणाम असंख्य छात्रों का भविष्य निर्माण आपका नाम केसरीमलजी है। जैसे केसरी निर्भीक करने वाला, लाखों की लागत से बना हआ छात्रावास बता होता है, जंगल में अपनी मनमानी करता है वैसे ही आप रहा है । निर्भीक होकर जिस क्षेत्र में पधारते हैं वहाँ से आप अपना 30 समय की कसौटी पर खरे श्री सोहनलाल बोहरा (केलवा) तेरापंथ का इतिहास अनेक ऐतिहासिक एवं धार्मिक किया ऐसा अवसर किसी सौभाग्यशाली को ही प्राप्त समर्पण की कड़ियों से परिपूर्ण है । जिसको श्रमण-श्रमणियों होता है। श्रद्धय सुराणा सा० का जीवन विविध आयामों ने अथक श्रम से संवारा है, तो दूसरी ओर श्रावक समाज को संजोये हुए हैं। गृहस्थ-जीवन में साधुत्व का जीवन का योगदान भी इतिहास निखारने में पीछे नहीं रहा । वह विरले ही यापन कर सकते हैं। जिस धन एवं सम्पदा के समय की कसौटी पर खरा उतरा है। जयाचार्य से लिए संघर्ष चलते हैं, अपने-पराये के रिश्ते समाप्त कर भण्डारीजी ने शासन-भक्ति का परिचय देकर चातुर्मास की अकरणीय कार्य होते देखे गये हैं। भौतिकवाद के इस युग बक्षीश प्राप्त की तो वर्तमान में श्रद्ध य केसरीमलजी ने भी में ऐश्वर्य को ठोकर मारकर समाजहित में स्वयं एवं शासन-भक्ति से आचार्यप्रवर को प्रभावित कर जब चाहे परिवार को समर्पण कर आपने जो उदाहरण प्रस्तुत किया राणावास के आस-पास चातुर्मास का आशीर्वाद प्राप्त वह एक चुनौती है। अवर्णनीय गौरव गाथा श्री अनूप जैन (कलकत्ता) महापुरुषों के जीवन-चरित्र पर लेखनी नहीं चल मान-अपमान त्यागकर सम्पूर्ण जीवन और जीवन के पाती। हमारा चुना हुआ प्रत्येक शब्द तुलना में न्याय कर प्रत्येक क्षण को जिस प्रकार मानव-सेवा में खपाया है, वह पायेगा अथवा नहीं, यह एक विचारणीय प्रश्न है। अगर समस्त जैन समाज ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव-जाति के लेखनी चल भी गई तो इनके जीवन का मात्र एक पहलू गौरव में चार चांद लगाता है। काश, ऐसे आठ-दस व्यक्ति ही हम छू पायेंगे, यह भी उनके प्रति न्याय नहीं हुआ। ठीक और मिल जायें तो आज के शिक्षा-जगत् की बहुत-सी ऐसा ही काकासा श्री केसरीमलजी सुराणा के बारे में समस्याएं स्वत: ही हल हो जायें। निःसन्देह उनकी गौरव अनुभव हो रहा है। गाथा को लिपिबद्ध करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। इस कलियुग में काकासा जैसे व्यक्तित्व विरले ही वह अवर्णनीय है। मिलते हैं। उन्होंने अपना सुख-दुःख, परिवार, व्यापार, Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा-सुमन १५ प्रतिभासम्पन्न व प्रेरक श्री भेरूलाल नाहर (दिवेर) भव्य भाल, गम्भीर एवं गहरी पेठने वाली दृष्टि, मलजी सुराणा के जीवन पर दृष्टिपात करते हुए मन में सहज मुस्कान, स्वच्छ लुगी-नुमा धोती, ऋषियों की-सी विचार आता है कि आपने समस्त सांसारिक सुखों को गरिमा, दर्पण-सा स्वच्छ हृदय, धीर-गम्भीर गति, सन्तों समाज को समर्पित कर भावी पीढ़ी के लिए अनुकरणीय की सी निरीहता एवं मानवीयता इन सबका संयुक्त नाम है उदाहरण प्रस्तुत किया है। आत्म-साधना में सतत तल्लीन कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा । रहना भौतिक इच्छाओं को दमन करते हुए आपने शिक्षा आकार के अनुरूप बुद्धि और बुद्धि जैसा ज्ञान तथा की रचनात्मक प्रवृत्तियों के चतुर्मुखी विकास का श्रीगणेश समाज-सेवा के अनुकूल आपके विचार, मानव-जाति की किया है। गौरव गरिमा को बढ़ाने वाले हैं। ऐसे प्रतिभासम्पन्न तथा प्ररक महापुरुष का जीवन त्यागमूर्ति तथा कर्मठ समाज-सेवी कर्मयोगी श्री केसरी- प्रसंग समाज के व्यापक परिवेश में अभिनन्दनीय है। 10 अंध-परम्पराओं के विरोधी 0 श्री भाग्यवती धोका जीवनदानी, श्रमनिष्ठ, आत्मनिष्ठ, शिक्षा-प्रमी, बहनों को घूघट-मुक्त बनाया है और भी अनेक अन्धत्यागी, तपस्वी श्रीमान् केसरीमलजी सुराणा का जीवन परम्पराओं को समाप्त किया है, जैसे-मृत्यु-भोज, मृतक एक खिलता हुआ पुष्प है और आप द्वारा किये गये के पीछे घरों में कृत्रिम रोना, लड़कियों की शिक्षा में बाधक शैक्षणिक प्रयोग उसकी मधुर सौरभ है। आप शिक्षा का बनना आदि। हम बहनें आपकी युगों-युगों तक आभारी उद्देश्य केवल ज्ञानार्जन ही नहीं मानते, बल्कि साथ में रहेंगी। आपने जिस प्रकार हमारे पिछड़े हुए महिला समाज "विवेगे धम्ममाहिये" सूक्ति का अनुकरण भी करते हैं। को आगे बढ़ाने में हाथ बंटाया है, हमारी शब्दावली एवं विद्या के साथ-साथ विनय और विवेक का संयोग स्वर्ण- लेखनी उसका स्वागत करने में अक्षम है। हृदय की श्रद्धा सुगन्धि सुयोग है । कुप्रथाओं को दूर करने में आप सिद्धहस्त ही सच्चा अभिनन्दन है। हैं । पर्दा-प्रथा जीवन के लिये अभिशाप समझकर बहुत-सी सच्चे छात्र-हितैषी 0 श्री हिम्मतलाल कोठारी (टाडगढ़) आपने जिस वृक्ष का बीजारोपण किया, वह आपकी को सहज अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है । विद्यार्थियों के लगन एवं सूझ-बूझ से आज विशाल वटवृक्ष का रूप धारण आप प्रेरणा-स्रोत हैं। छात्र-हित को आप सर्वोपरि मानते कर रहा है । आपका सारा जीवन समाज के लिए समर्पित हैं। उनकी हर इच्छा का खयाल रखते हैं। उनके भोजन, है। नियमित दिनचर्या में अपना अधिकांश समय व्यतीत नाश्ते आदि का आप व्यक्तिगत ध्यान रखते हैं। कोई छात्र करते हैं। समाज के विकास में आपकी तड़फ है। अगर बीमार हो जाता है तो आप उसकी माँ-बाप की विद्यार्थी आपकी संरक्षणता प्राप्त कर घर को भूल जाता तरह सेवा करते हैं, उसे उसी तरह का लाड़-प्यार देते हैं । है। आपका सद्व्यवहार एवं संस्कारी जीवन विद्यार्थियों दीर्घ आयुष्य की कामना के साथ.... O0 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड जैनशासन के ज्योति श्री मनोहरमल लोढा (जोधपुर) आप जैसे कर्तव्यनिष्ठ हैं, वैसे ही चरित्रवान भी आपका चरित्र अनेक गुणों का संगम है । 'सादा जीवन, उच्च विचार' को अपनाकर समाज के सामने आपने एक आदर्श प्रस्तुत किया। सेवा, त्याग एवं संयम आपके चरित्र की गुणात्मक विशेषताएं हैं आपने कम से कम नियमित संग्रह से अपना जीवन व्यतीत कर एक और आदर्श प्रस्तुत किया । जहाँ भावना एवं परिश्रम का समन्वय हो वहाँ सफलता निश्चित होती है । अपने आपको सफल होते एवं अपनी मनोकामना फलीभूत होते देख जहाँ प्रसन्नता है, वहीं श्री केसरीमलजी साहब जैसे कर्मठ कार्यकर्ता को पाकर सारा समाज भी स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है । जनशासन के अटूट प्रेमी एवं जैन समाज के इस ज्योतिषु ज का नाम जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखने योग्य है । 00 विवादों से मुक्त श्री मनोहर इन्द्रावत ( राणावास) व्यक्ति की आकृति को कागज पर उतारने में जितनी कठिनाइयाँ होती हैं, उससे कहीं अधिक उसके व्यक्तित्व को कागज पर उतारने में होती है। आकृति सरूप होती है, उसे किसी एक ही क्षेत्र और काल के आधार पर चित्रांकित करना पर्याप्त हो सकता है परन्तु व्यक्तित्व । अरूप होता है, साथ ही व्यक्ति के सम्पूर्ण क्षेत्र और काल में व्याप्त रहता है। इसलिये उसे शब्दांकित करने में अपेक्षाकृत दुरूहता है । वह व्यक्तित्व यदि किसी महापुरुष का हो तो दुरूहता और भी अधिक बढ़ जाती है। मैं ठीक ऐसा ही अनुभव कर रहा हूँ, श्री सुराणाजी के प्रति । प्रिय वस्तु मिलने पर मनुष्य प्रसन्न बने यह उसका स्वभाव है । अप्रिय का योग मिलने पर वह अप्रसन्न बन जाये, यह भी मनुष्य का स्वभाव है, पर जीवन की कला नहीं । जीवन की कला क्या है ? यह प्रश्न चिरन्तन काल से चर्चा जाता रहा है। इसका समाधान न तर्क विद्याभूमि राणावास में आज जो कुछ दिखाई दे रहा है वह श्री केसरीमलजी सुराणा के सदकमों का प्रतीक है। आपने राणावास को ऐसा शिक्षा केन्द्र बनाया है, जहाँ अमीर से अमीर और गरीब से गरीब छात्र भी अध्ययन कर सकता है । गरीब और प्रतिभाशाली छात्रों को प्रोत्सा के बाण दे सके, न बुद्धिवाद की नुकीली धार दे सकी, न शास्त्र दे सके और न शास्त्रों का मन्थन करने वाले पण्डित दे सके । इसका समाधान उन व्यक्तियों के जीवन में से मिला, जिनके तर्कबाण ने अपने आपको बींधा, बुद्धिवाद की नुकीली धार से अपनी शल्य चिकित्सा की अपनी । आत्मा को शास्त्र बनाया और अपनी आत्मा के आलोक में शास्त्रों को पढ़ा। आदरणीय केसरीमलजी साहब उन्हीं व्यक्तियों में से एक हैं। उनका जीवन आलोक है । जो आलोक होता है, वही दूसरे को आलोकित कर सकता है । प्रसन्नमन, सहज ऋजुता, सबके प्रति समभाव, आत्मीयता की तीव्र अनुभूति, विशाल चिन्तन, विरोधी के प्रति अनुद्विग्न, जातीय प्रान्तीय साम्प्रदायिक और भाषायी विवादों से मुक्त, यह है भी सुराणा साहब का महान् व्यक्तित्व जो अदृश्य होकर भी समय-समय पर दृश्य बन जाता है। निर्धन के धन श्री प्रतापसिंह बंद (कलकत्ता) हन प्रदान करने के लिये आपने अनेक योजनाएँ आरम्भ कर रखी हैं। आपका हरदम यही प्रयास रहता है कि कोई भी निर्धन छात्र राणावास में आकर निराश होकर पुन: लौटे नहीं, इसके लिये वे प्राणप्रण से जुटे रहते हैं। सचमुच में सुराणाजी निर्धनों के धन है। 0000 . Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ काट्याजलियां Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा से इतिहास [ प्रो० देवकर्णसिंह रूपाहेली (उदयपुर) कथी न कथनी केसरी, करम आखरां मांडियो देव द्रव्य परकाज हित, मरुधर महजन केसरी, सतकरमा रो यो वणज आप कर्यो अद्भुत । कयो ध्रुवों धन केसरी, ज्ञान यज्ञ आहूत || ३ || लखा-गुणां जग मोखला, यांरी बीजी गल्ल । जन सेवा रो कीरथंब, थप्यो केसरीमल्ल ||४|| 1 बिरथ गमावण सांस । सेवा रो इतिहास ||१|| करी फकीरी प्रीत । राखी भामा रीत ॥ २ ॥ सुरराणी राजी करी करने अविद्या नाश । सुराणे राणावास घर, करियो सुरसत वास ||५|| समायां पाले सदा, सुराणो सागेह । तेरापंथी केसरी, मनखपथी आगेह ||६|| fer विष अभिनन्दन करूँ, सुराणा धारोह । तं अखरां रो बांटयों, आखर तव वारोह ||७|| 1000 DISC १. हे तपोनिष्ठ व्यक्तित्व केसरीमल सुराणा ! तुमने कोरी बातों में ही अपने जीवन को नहीं बिताया अपितु कर्मरूपी अक्षरों में अपनी सेवाओं का इतिहास अंकित किया है । २. हे मरु- प्रदेश ( राजस्थान) के महाजन केसरीमल ! तुमने अपने पुरुषार्थ से अर्जित सम्पूर्ण द्रव्य परमार्थहित अर्पित करके स्वेच्छा से फकीरी अंगीकार की है और इस प्रकार तुम्हारा यह युगानुरूप त्याग इतिहास प्रसिद्ध मेवाड़ के महान देशभक्त दानवीर भामाशाह की परम्परा का ही अनुसरण है । ३. हे श्रेष्ठिपुत्र सुराणा ! तुमने यह कैसा अनूठा व्यापार किया है कि अपने धन की, ज्ञान यज्ञ में आहुति देकर उसका धुआँ कर दिया । ४. विश्व में जहाँ-तहाँ निर्मित अनेक कीर्तिस्तम्भ देखे सुने गये हैं, पर हे केसरीमल ! तुमने अपनी जन्मभूमि राणावास में लोकसेवार्थ एक अनूठा कीर्तिस्तम्भ स्थापित करके अक्षय यश कमाया है । ५. हे सुराणा केसरीमल ! तुमने अपनी महती शिक्षण संस्था द्वारा अविद्या का नाश करके 'सुरराणी' (सरस्वती) को प्रसन्न किया है और यही कारण है कि तुम्हारी साधना से राणावास में आज सरस्वती का निवास हो गया है । ६. हे केसरीमल ! तुम एक धर्मनिष्ठ व्यक्तित्व के रूप में धर्म-कर्म का पालन तो नियमित रूप से करते ही हो पर इन सारी बातों से परे तुम में मनुष्यता कूट-कूट कर भरी है और यों तुम एक महामानव के रूप में सदा अभिनन्दित हो । ७. हे सुराणा ! तुम जैसे परमहंस व्यक्तित्व का कैसे अभिनन्दन किया जाय । वस्तुत: तुमने अक्षर बाँटकर विद्यादान किया है अतः मैं तुम्हारी अर्चनार्थ ये अपने विनम्र अक्षर तुम्हारे पर न्यौछावर करके आह्लादित हूँ । 81816 . O . Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्य: प्रथम खण्ड श्याम देह बापू-सी 0 प्रोमनोहर छाजेर 'भारतीय' (बैंगलूर) चश्मे से झांकती सरल सादगी से शोभित, दो अनुभवी, शृंगारित जीवन । स्नेही, मन से समर्पित, वात्सल्यमयी, तन से समर्पित, अनुरागी धन से समर्पित, आँखें। शिक्षा-हित, दुबला शरीर जन-हित, सबल मनोबल, निःस्वार्थ वृत्ति से, मरुथल की स्वर्ण-किरणों में, बढ़ता जाता, अविराम श्रम से, करता जाता, कुछ नव्य प्रयोग। श्याम देह मरुधर में बापू सी! वह पौध लगाता, अर्ध नग्न बदन, पानी देता, कुछ नंगा, निष्ठा से कुछ लिपटा, शस्य श्यामला, धुधले से, द्रुम-दल शोभिता, श्वेत वस्त्र में पुष्प-फलों से सज्जिता, स्वस्थ शरीर, आज वही मरुस्थल । स्वस्थ मनोबल, परिणाम, स्वस्थ खान-पान-व्यवहार, यह सब? नियमित, मर्यादित जीवन । एक ही व्यक्ति के श्रम का है, सरल मना, उसकी निरन्तर साधना का है, सरल तना, निष्ठा का है, विश्वास का है। शत-शत वंदन 0 श्री देवेन्द्र कुमार हिरण (गंगापुर) सात दशक पूर्व गृहस्थ जीवन की गाड़ी मारवाड़ की धरती पर गतिशीलता की ओर थीएक शिशु आया कि, अचानक प्रारम्भिक शिक्षा पा, जीवन में एक नया मोड़ आया गृहस्थी संचालन के लिये भावनाओं में बदलाव हुआ व्यापारी बन चल पड़ा। चिन्तन की परिणति दक्षिण भारत की ओर ! जीवन निर्माण की सही दिशा की ओर प्रेरित हुई। हैदराबाद को चुना अपना कर्मक्षेत्रव्यापार चल पड़ा, और और ! शल व्यापारी की ख्याति अर्जित की। वह कर्मशील व्यापारी Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काभ्याम्बलि -.-. -. -.-. -. -.-. -.-. •-. -.-.-.-.-. -. -. -. -. -.-.-.-.-. -.- . - -... कर्मयोगी बनने फिर लौट आयाअपनी कृतित्व धरा पर। भावनाओं की अलख जगाई, और आखिरी मंजिल के लियेलक्ष्य की ओर बढ़ता गया। और ! सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्व के निर्वाहन हेतुशिक्षा का क्षेत्र चुना कार्य का प्रारम्भसुमति शिक्षा सदन की शुरुआत के साथसंस्कार निर्माणचारित्रिक निष्ठानैतिक गतिशीलतास्नेहपूर्ण व्यवहार की शृखला में लक्ष्य गतिशील हुआ। फलस्वरूप ! मरुभूमि में लगाया गया वह छोटा-सा पौधा विराट वट वृक्ष बन गयातेरापंथ जगत का यह "रवीन्द्रनाथ टैगोर" हमारा अपना सबका बन गया। धुन के धनीइस लोह पुरुष केअभिनन्दन के अवसर पर समाज सेवी से समाजभूषण से अलंकृत मरुधरा के इस कर्मयोगी कोशत शत वन्दन ! वह कर्मयोगी गाँव-गाँव धूमा, कठिन परिश्रम किया 00 (लय-आई बिरखा बीनणी) ज्ञानी-ध्यानी, जीवनदानी, काकासा की अलख कहानी । देती सबको प्रेरणा हो. प्रेरणा हो, प्रेरणा हो। काकासा की अलख कहानी करते हैं निःस्वार्थ भाव से सेवाएँ दिन-रात । सार संभाल सदा करते हैं बड़ी लगन के साथ । परम यशस्वी, हैं वर्चस्वी, परपीड़ा निज सम पहचानी ॥ (२) त्याग और वैराग भाव से जीवन ओत-प्रोत । जीवन के कण-कण में बहता समता-रस का स्रोत । चाहें जब ही देखो कबही खुली किताब बड़ी बलिदानी ॥ मुनि श्री रोशनलाल (सरदारशहर) माताजी का मिला साथ में मणि-कांचन का योग । किसी भाग्यशाली को मिलता ऐसा शुभ संयोग । सुन्दरदेवी शासनसेवी, धर्मनिष्ठ है बड़ी सयानी ।। रमी हुई है रग-रग में स्वामीजी की श्रद्धान । गुरु तुलसी की दृष्टि पर न्योछावर करते प्राण । है दृढधर्मी, ये शुभकर्मी, कथा रसीली जानी-मानी।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lolololo U १०० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड भुल्या कदे न जाय मुनि श्री अगरचन्द दोहा तेरापंथ में चालसी, श्रावकां रो इतिहास जिण में केसरीमलजी सुराणा भी खास ||१|| जनम्या राणावास में, कांठा बिच में गाम । दोय कोसरे आंतरे, भीखण बाबे की धाम ॥ २ ॥ व्यापार करता बोलारम में जोरदार थो नाम । जागी अन्तर् आत्मा, छोड़ दियो सब काम ||३|| सेर-सेर सोनो पहरती, घूंघट तो भरपूर । सुन्दरबाई धाविका, चटके कर दियो दूर ॥४॥ अंधरूड़ियां छोड़ दीं छोड्यो सोने को बनी सहयोगी श्राविका, जोड़ो मिलग्यो त्याग तपस्या सांतरी, सामायक अणपार । अगर लिखूं विस्तार सुं, तो ग्रन्थ बने एक प्यार || ६ || हाड़ हाड़ नी मीज्यों, रंगी धर्म रे माय । सरधा तेरापंथ में, दृढ़ विश्वास लगाय ॥७॥ कृपा-पात्र गणी तुलसी का, अरज करी स्वयमेव । चातुर्मास राणावास में हुक्म लियो ततखेव ||८|| , खाणो पीणो सादगी ज्यादा समय त्याग में, रहणो संयम माय । बाकी बोडिंग माय ॥ ॥ मोह । ओह ||५|| जमकर राणावास में संस्कार छात्रों में भरे, नहीं नाम री भावना, तन मन धन सुं दोनों ही मुनि 'अगर' ने गौरव है, श्रावक चमक्या जोर का, । पकड़यो छात्रावास । जैनधर्म का खास ॥१०॥ निःस्वार्थ री सेव । जीवन लगा दियो शेष ॥ ११ ॥ जन्म भूमि रे पास। तेरापंथ में खास || १२ || होया ने होसी घणा, इण शासण रे माय । पिण सुराणा केसरी भुल्या कदे न याद करसी पोखलो, सारा ही तेरापंथ समाज तो, मानेला OO जाय ॥ १३ ॥ नर-नार । उपगार ||१४|| . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -+-+-+@+ मालवीय, एक फिर पैदा हुए, गंगा यमुना के गलियारे में नहीं, मरुधर की धरती पर कि जिन्होंने, घर फूंक, साधना की धूनी रमा बाल-बोध के लिए भिक्षा पात्र कर में थामा, पूर-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण महलों के फकीर वे काकासा जिधर भी चल पड़े चल पड़ी आँधी झड़ पड़े नोटों के आम हर मधुपान के पश्चात भी.... मुनि श्री मोहनलाल (आमेट) करोड़ के करीब पहुँचकर भी नहीं हुआ है पूर्ण विराम निर्माण वस्तु का व्यक्ति का. आवास का, विश्वास का बहुत कुछ हुआ है-पास विद्याभूमि बन गया है आज राणावास प्रणाम श्री गौतमचन्द छाजेड़ (बंगलोर) OO अद्वितीय अनुपम त्याग व्यक्तिशः उनका सुख का सुविधा का जीवन की हर भोगप्रधान विधा का और यही विसर्जन बना है अनगिन के लिए सर्जन, इस सब में भी मौन, मूक नींव का पत्थर बनी है माला सुन्दरबाई कि उसकी कौन करेगा भरपाई अभिनन्दन ! काव्याञ्जलि आज उनका उन्हीं से, समान से शब्द नहीं अर्थ माँगता है कि आज की सुरक्षा के लिए कल का व्यक्तित्व माँगता है और मांगता है सोने में सौरभ के लिए व्यक्ति, व्यवस्था में विकास कि हर मधुपान के पश्चात भी जीवित रहे प्यास । धवल वस्त्र आँखों का वह सुन्दर ओज मुख से झरती मिठास जिनकी है सब पर एक अमिट छाप ऐसे महापुरुष को हम सबका प्रणाम ! O १०१ . Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड कुण्डलियाँ श्री भैरूलाल बापना (लावा सरदारगढ़) (१) तेरापंथ समाज में जनमा रतन महान् । तन मन धन का मोह तज, किया जगत कल्यान । किया जगत कल्यान, बने तुम मौन तपस्वी। भेद भावना भूल, बन गये महा यशस्वी ॥ कह भैरव कविराय, स्वार्थ का मिटा अँधेरा। कहता है दिनरात, प्रभु जो कुछ है तेरा ॥ (२) काका तेरी भक्ति लख, है केहरी भी दंग। दृढ़ विश्वासी कर्मठ योगी, साहस बड़ा दबंग ॥ साहस बड़ा दबंग, विपद में नहीं घबराये। कंटक बन कांठा भूमि में, सुमन खिलाये ॥ कह भैरव कविराय, नहीं कोई तुमसा बांका। किस मुंह से मैं करूँ, वन्दना, तेरी काका ॥ काकाजी श्रीकृष्ण, राधिका यह बैठी है काकी। श्री श्याम रंग थे कृष्ण, राधिका गौरवर्ण थी झांकी। राधिका गौरवर्ण थी झांकी, दोनों सेवा करें निरन्तर। जहाँ जाते हैं सब वश हो जाते, है कोई जादू-मन्तर ॥ कह भैरव कविराय, दे कान सुनो आकाजी। इस कर्मयोगी की रात, कोई नहीं जनमा काकाजी ।। जल में कमल पनपता, लेकिन रहता जल से दूर। बन्धनमुक्त साधना जिसकी, सेवा से भरपूर ॥ सेवा से भरपूर एक आदर्श यशस्वी। रात दिवस जन सेवक बनकर बना तपस्वी ॥ आज भैरू का प्यारा है अनुराग तुम्हारा। जोवन का आदर्श बन गया त्याग तुम्हारा॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हारे कर्म की गाथा साध्वी श्री धर्मप्रभा (राजगढ़) तुम्हारे कर्म की गाथा, युगों-युगों तक विश्व गायेगा । साधना त्याग संयम से, प्रेरणा नित्य पायेगा | तुम्हारी साधना उज्ज्वल, तुम्हारी भावना निर्मल । धो रहे त्याग तप-जल से, प्रतिपल कर्म का कलिमल | फूल से सुरभिमय मानस में, श्रद्धा का अमल परिमल । बहुत दुर्लभ है मिलना, मेरु सा सुदृढ़ मनोबल ॥ 'विद्याभूमि' जणाय रे काका, नाम रोशन किनो ओ ॥ २ ॥ केशरी त्यागी, तपस्वी थां सा काका, देख्या नहीं जग मांही ओ, ग्याराव्रत धारी ने बाबा, नामी नाम दीपायो ओ ॥ ३॥ केशरी झाड़ लगायो 'सुमति सदन' सहस्रां फूल खिलग्या ओ सहस्रां ही खिलरया हैं काका, सहस्रां ही खिलजासी ओ ||४|| केशरी कालेजां पर कालेजां बणायरे, लाखां रुपिया बटोर्या ओ, नहीं देवण वालो भी धरे ने, नतमस्तक हुई देईग्यो ओ ||५|| केशरी 'नारी शिक्षा' री थी जरूरत, वा भी पूरी कीनी ओ, काव्यान्जलि प्रेरणाय गृहीजीवन, संघ महिमा बढ़ायेगा । तुम्हारे कर्म की गाथा, युगों-युगों तक विश्व गायेगा || तुम्हारा धन्य है जीवन, तुम्हारा सफल है क्षण-क्षण | कर दिया है सकल अर्पण, छात्र संस्था को तन-मन-धन ॥ तोड़कर मोह के बन्धन, कर रहे आत्म-संशोधन । शुद्ध संस्कार का सर्जन, छात्रगण में प्रफुल्लित मन ॥ प्रवाहित ज्ञान की गंगा, यहाँ स्नातक नहायेगा । तुम्हारे कर्म की गाथा, युगों-युगों तक विश्व गायेगा ॥ शुष्क धरणी हुई धन्या, पुण्यस्थली आज बन पाई। देश में आज अच्छी ख्याति, विद्याभूमि ने पाई ॥ तुम्हारा सुयश कण-कण में, बज रही विजय शहनाई । तुम्हारे श्रम का पा सिंचन, यह मरुधर भूमि सरसाई ॥ लगाया बीज जो तुमने, विटप बन लहलहायेगा । तुम्हारे कर्म की गाथा, युगों-युगों तक विश्व गायेगा ॥ 00 केशरीमलसा थां ने ओ, म्हें भूलाला नहीं जुग-जुग ओ, ज्ञान री ज्योत जगाय रे काका, म्हांरो जनम सुधार्यो हो || १ || केशरी 'राणावास' बसायो राणामाली, थां रा पगल्या पड्या ओ, ठाटदार स्कूल बगीचो, छात्रावास भी 'सर्व-धर्म- समन्वय' काका, सच्चे दिल सुं कट्टर 'तेरापंथी' होयर, 'मन्दिर' सुन्दर अभिनन्दन री इण वेला पर, 'प्रेम' री अर्जी सुणज्यो ओ, जुग-जुग तक जीवी ने काका, 'स्कूल' री सेवा करज्यो ओ ||८|| केशरी C बणायो ओ ||६|| केशरी धारय ओ, बणायो ओ ॥७॥ | केशरी For Private Personal Use Only १०३ O श्री वी० प्रेमराज भंसाली (बंगलोर) जनम सुधा ओ Tootoo Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड काकासा के जीवन का हम नव इतिहास सुनाएँ । ओ श्रावकजी के जीवन का हम नव इतिहास सुनाएँ ॥ नव इतिहास सुनाएँ श्रावक के गुण बतलाएँ ॥धू व । । सांसारिक जीवन में जो साधु-सा जीवन जीते । आंधी और तूफानों में भी खिले फूल ज्यों रहते ॥ ये धुन के धनी महान जी, इस हस्ती पर अभिमान जी । गौरव है मरुधर भूमि का, ऐसे श्रावक पाए ओ ॥ १ ॥ संस्था के ये प्राण, इन्हें संस्था प्राणों से प्यारी । रहते हैं निर्लिप्त कमल ज्यूँ खिली धर्म की क्यारी ॥ श्रावक गुण रत्न निधान जी, कांठे की अनुपम शान जी । रात-दिवस सामायिक में ही अपना समय बिताएँ ॥ २ ॥ "समयं गोयम मा पमाय" का सूत्र आपने धारा । सतत प्रवाहित है जीवन में समता - रस की धारा ॥ स्वाध्याय में तल्लीन जी, कर रहे कर्मों को क्षीण जी । महावीर के आनन्द ज्यों, तुलसी के आप कहाए || ३ || साधु-सन्तों की सेवा यह बड़ी लगन से करते । कर निरवद दलाली सद्गुण से जीवन घट भरते ॥ हैं विनय भक्ति में लीन जी, रहे सेवा में तल्लीन जी । मात-पिता की उपमा को साकार आप कर पाये ||४|| उभरा है व्यक्तित्व एक मुनि श्री विजयकुमार 00 भावों में है गुरुता जिनके और सादगी जीवन में 1 उभरा है व्यक्तित्व एक ऐसा समाज के दर्पण में || नाम केसरी गोत्र सुराणा से जो हुए जगत विख्यात । जिनके उज्ज्वल जीवन का चहुं दिशि में फैला यश अवदात || धन वैभव को छोड़ा, मौज मानते ये फक्कड़पन में ॥१॥ नव इतिहास सुनाएं [] साध्वी श्री सिरेकुमारी ( सरदारशहर) नहीं धर्म कथनी में केवल, जिया सदा व्यवहारों में । धैर्य और साहस नहीं त्यागा, कभी चढ़ाव उतारों में ॥ कर लूँ इस तन से कुछ सेवा, ठानी है अपने मन में ॥२॥ होती है साकार जहाँ सच्चे मानव की परिभाषा । बच्चों को उन्नत संस्कार मिलें, जिनकी है अभिलाषा ॥ कठोरता कोमलता दोनों जिनके अनुशासन में ||३|| For Private लगते हों चाहे ये गृहस्थ पर योगी सम इनका वर्तन | हैं कर्मशील धुन के पक्के संयम में करते सदा रमण ॥ ऐसे ही मानव बनते 'विजयी' जीवन समरांगण में ॥४॥ 05 Personal Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्याञ्जलि १०५ .......................................................... ........ ...... कोटि-कोटि अभिनन्दन 88888888888888888888 - श्री हीरालाल गांधी 'निर्मल' (ब्यावर) V कोटि-कोटि अभिनन्दन हो, तुझे सहस्रों वन्दन हो, शत-शत पूजन-अर्चन होहे कर्मयोगी, हे धर्मयोगी, हे त्यागमूर्ति, वैराग्यमूर्ति - तू समाज सेवक है !....तू महान् प्रेरक है !! आत्म-साधना में रत होकर, सभी सुखों का त्याग किया। विद्याभूमि राणावास में विद्या से अनुराग किया। प्राथमिक विद्यालय से ले महाविद्यालय तक शिक्षाका प्रकाश-स्तम्भ लगाया और स्वयं धारी दीक्षा॥ कोटि-कोटि अभिनन्दन हो,........ दृढ़-संकल्पी, कर्मठ, धुन का धनी, तेरा व्यक्तित्व महान् । 'साधु-पुरुष' कहा तुलसी ने जो युग के आचार्य प्रधान ॥ स्वयमेव हो एक संस्था, करने मानव का उत्थान'गांधी' जैसी ठानी तूने, सेवा में हैं, तेरे प्राण ।। ___ कोटि-कोटि अभिनन्दन हो,........ तुम समाज के महासुधारक और क्रान्तिकारी हो। हे आदर्श गहस्थ व श्रावक बारहव्रत के धारी हो । निर्धन के धन, निरभिमानी, प्रतिमाओं के धनी बने । एक सहज व्यक्तित्व तुम्हारा, तुम सबको लगते अपने ॥ कोटि-कोटि अभिनन्दन हो, ....... बड़े तपस्वी, छात्र-हितैषी, संस्कार-निर्माता हो। अनुकरणीय विभूति तुम हो, दुखियों के दुःख-त्राता हो। हे उदार-प्रकृति पुरुष तुम जन्म-जात पर-उपकारी । युगनिर्माता, और साधना-संयममय जीवनधारी ।। कोटि-कोटि अभिनन्दन हो,........ अविस्मरणीय, श्रद्धास्पद, गहस्थी हो पर संन्यासी । निस्पृह एवं अनासक्त हो, मोक्ष-मार्ग के तुम राही ।। काका साहब श्री केसरीमलजी साहब सुराणा। जन-जन के तुम हृदय-हार हो 'निर्मल' वन्दन अपनाना ।। कोटि-कोटि अभिनन्दन हो,........ 00 कावि Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड (१) वीरान सी इस भूमि को, किया किसने आबाद, राणावास इतना पहले, किसको था याद ? किसके श्रम से वह विद्याभूमि, बन गया है आज, सोच-समझकर उत्तर का, लगाना आप अन्दाज । युगों-युगों छाजेड़जी की प्ररणा का, बीड़ा किसने उठाया, तन-मन-धन सारा दे, काम किसने कराया ? धनिकों से चन्दे में, कौन धन वहाँ लाया, उत्तर सोच-समझकर देना, सम्प्रति या बाद । (३) भिक्षक सा वेश पहने, फिरा कौन घर-घर, कष्टों से नहीं घबराया, है कौन वह निडर ? जीवन-दानी वह कहलाता, किसको नहीं खबर सही व सच्ची बताना, हैं आप सभी आजाद । तक कई करेंगे धारे-धीरे शिक्षण क्षेत्र, किसने इतना बढ़ा दिया, महाविद्यालय स्तर तक, किसने उसको चढ़ा दिया ? शान्ति निकेतन सा स्वरूप, किस 'टैगोर' ने ला दिया, गुरु तुलसी महती कृपा का, किस पर ऐसा हाथ । याद - श्री मांगीलाल सुराणा श्री 'केसरी सुराणा' उसका तो नाम है, हाथ जोड़कर हमारा उनको प्रणाम है। बड़ी-बड़ी संस्थाओं का, उनके पास काम है, युगों-युगों तक 'काका' को, कई करेंगे याद ॥ कर्मठ काको केसरी 0 साध्वी श्री भीखाँजी (लाडनू) कट्टर मन्दिरमार्गी, काको हो विख्यात । कट्टर तेरापंथ रो श्रावक अब साक्षात् ॥१॥ कर्मठ काको केसरी वण्यो केसरी सिंह। संस्था संचालन करे वण काको निर्वीह ॥२॥ कठिन साधना कर रह्यो कठिन त्याग-व्रत-नेम । त्याग-तपस्या स्यूं मिल्यो जन जन हार्दिक प्रेम ॥३॥ शिक्षा शान्त सुधा सरस पिवे पिलावे मिष्ट । साध्वी "भीखाँ" तप्त है, लख कर जीवन शिष्ट ॥४॥ . Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रंग अनूठो ल्यावे मुनि श्री विजय 'राज' ( कुण्डलियाँ) काव्याञ्जलि सुराणा परिवार में मल्ल केसरी नाम | जनम्यां राणावास में, सुशिक्षित अभिराम ॥ सुशिक्षित अभिराम कुशल कर्तृत्व दिखायो । राणावास ने केन्द्र बणाकर, शिक्षा बिगुल बजायो || कहे 'विजय' नव पीढ़ी रो निर्माण सनूरो सपनो । वाह काकासा, सेवाभावी जीवन झोंक्यो अपणो ॥ १ ॥ समाज री अनमोल धरोहर काम उठायो भारी । छोटो सो अंकुर पनपायो बणग्यो बड़लो भारी ॥ arrot बड़लो भारी, फल-फूलांरी अजब बहारी । फलगी आज्ञा काकासा री, लोग सरावे भारी || कहें 'विजय' गुरु तुलसी माथे हाथ जिणारे राखे । वह कर्मठ काकासा, 'पोबारा पचीस' फल चाखे ||३|| १०७ घर का पूत कुंवारा फिरे, पाड़ोस्यां रा फेरा । इ उक्ति झेल चुनौति, पहली खुद ने हेर्या ॥ पहली खुद ने हेऱ्या, जीवन अपणो खूब सजायो । त्याग तपस्या संयम सादगी, स्यूं मोल बढ़ायो ॥ कहें 'विजय' पहली खुद सुधरे वो नर छाप लगावे । वो ही शिक्षा से अधिकारी, श्रद्धा पात्र कहावे ||२|| For Private Personal Use Only +++++++ उदीयमान प्रतिभावां ने बढ़णे रो मोको आयो । मदनमोहन मालवीय बण देश भ्रमण व्रत राख्यो । देश भ्रमण व्रत राख्यो, त्यागी हे चरणां लक्ष्मी झुक जावे । पाई रो लोभी रुपयो देकर भी मोद मनावे ॥ 'विजय' कहे के जादू फेरे पत्थर दिल पिघलावे । काकासा री करामात, वाणी व्यवहार रिझावे ||४|| मर जावूं मांगूं नहीं, अपने कुल के काज । परमारथ रे कारणे, मुझे न आवे लाज ॥ मुझे न आवे लाज, निस्वारथ सेवा मन भावे । सत्यं शिवं सुन्दरं रो बालक ने पाठ पढ़ावे ॥ 'विजय' कहे अनुशासन करड़ो, सब संकोच दिखावे । काकासारी वच्छलता भी रंग अनूठो ल्यावे ॥ ५ ॥ ध्यानी, मौनी, कर्मशील बण, अपणो फर्ज निभावे । धर्मयोग और कर्मयोग से सामंजस दिखलावे ॥ सामंजस दिखलावे गण-गणपति री गरिमा गावे । शिक्षा संस्कारी दिक्षा रो, जबरो पाठ पढ़ावे ॥ 'विजय' कहे सहयोग सनूरो सुन्दरदेवी छाजे । वाह, समाजसेवी कर्मठ तुलसी तेरापंथ गाजे ॥६॥ भ .0 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड एक विभूति तू समाज का सच्चा सेवक, कर्मयोगी, नरपुंगव है। तपोपूत और बड़ा लाड़ला, कांठा का महामानव है ।। तू तेजस्वी, तू है प्ररक, अभिनन्दन होता तेरा। किया स्वयं को समाज-अर्पण, तुझको शत-शत वन्दन है। तू समाज का महासुधारक, बड़ा क्रान्तिकारी है। ढोंग और आडम्बर को टक्कर तूने दे मारी है। छआछ त, पर्दा, दहेज की रूहें तुझ से कांप रहीं। जन्म, विवाह, मृत्यु कुरीतियां तुझ से ही तो हारी हैं। श्रावक हो तुम या साधु हो, या दोनों का मिश्रण हो। जो कुछ भी हो तुम महान् हो, एक विभूति अनुपम हो । त्यागी और तपस्वी संयम और साधना तुम ही हो। आत्म-उन्नति के रास्ते पर चलने वाले मानव हो। सामायिक के तुम प्रतीक हो, मौन तुम्हारा साथी है। क्रमशः यह उन्नीस, व सत्रह घण्टे की हो जाती है। ढाई घण्टे सोते हो तुम, ब्रह्मचर्य के पालक हो। साधु-सा है तेरा जीवन, यह धरती गुण गाती है । अखिल भारतीय महिला शिक्षण-संघ तूने बना दिया। नारी-जाति की उन्नति के लिए काम क्या-क्या न किया। ज्ञान-प्रभा की इन किरणों से नारी आगे बढ़ गई। पिछड़ेपन से उसे उबारा, महिला को सद्ज्ञान दिया ।। 0 श्रीमती स्वरूप जैन, ब्यावर 00 लोह पुरुष - श्री जयचन्द गोलछा 'सहन' (सिरसा) वीर केसरी तू इस युग का, करता है जग तेरा मान । राणाजी की तपो-भूमि कातू अनुदानी सन्त महान । लोह-पुरुष बन धर्म-संघ काकिया है तूने अनुपम काम । राणावास की मरु-धरा कोबना दिया है विद्या-धाम । जैन-जगत के स्वर्ण-पृष्ठ परहोगा अंकित तेरा नाम । कर्मठता की गौरव-गाथागायेंगे नर आठों याम । बन कर साधक निष्ठाओं कापाया तूने अद्भुत मोड़। 'सहन' विश्व के रंग-मंच परकौन करेगा तेरी होड़। 00 , Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्याञ्जलि १०६ .................................................................. ...... विद्या का मूर्तरूप आँखों में जगमगाया धर्म को जोड़ा जीवन से कर्मठता का पाठ पढ़ाया जिसने, श्रम शक्ति से जंगल को मंगलमय, जड़ को चेतनमय, अमूर्त को मूर्त रूप देकर एक नया संसार बसाया भगवत ऐसी शक्ति दो हमको जिससे, इस श्रम सूत्र के मीठे झरने का जल पान कर सकें। अभिनन्दन ॥ श्री गौतमचन्द छाजेड़ (बंगलौर) स्फूतिमय प्रकाशपुज जगमगाये। यही हमारा अभिनन्दन है सहृदयता के धनी उस साधु पुरुष का जिसके रग-रग में सरलता व सहजता धर्म और कर्म समाया कर्मठता और जीवटता से जो काका कहलाया। श्रय पथ पर 0 साध्वी श्री भीखाजो (नोहर) धर्मनिष्ठ परिवार है, शेषमल्लजी तात । पुत्रोद्भव भी भाग्य से, केसरीमल विख्यात ॥१॥ देखो फूल गुलाब की, विस्तृत सदा सुवास । जनगण को जागृत किया, जलता दीप प्रकाश ॥२॥ संयमी सदश निस्पही, धवल अमल परिवेश । पापभीरुता सजगता, मानस अभय विशेष ।।३।। भैक्षव गण पाया सुखद, श्रावक श्रद्धानिष्ठ । त्याग भावना से सना, वर वैराग्य विशिष्ट ॥४॥ जितेन्द्रिय औं मितव्ययी, श्री तुलसी का भक्त । निष्कलंक, जीवन बना, सेवा में अनुरक्त ॥५॥ गृहिणी सुन्दरदेवी भी, सरल स्वभाव उदार । हृदय सादगी संपुरित, है शालीन विचार ॥६॥ पैंतीस वर्ष से कर रहे, सतत श्रम जी तोड़। भव्य सुमति शिक्षा सदन, इतिवृत्त बेजोड़ ॥७॥ राणावास की भूमि में. विद्या का विस्तार। तूने छात्र समूह में, भर दिये सद्संस्कार ॥८॥ संयम तप जप साधना, है जीवन का सार । बढ़ श्रेय पथ पर सतत, यही श्रेष्ठ आधार ॥00 JI Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड - . - . - . - . - . -. - . - . -. -. - . -. पिताजी तुम लगते प्यारे, हमारी आँखों के तारे । विद्यालय में विद्या पढ़ते, हम बच्चे सारे ।। तुमने अपना सब कुछ देकर, विद्यालय खुलवाये हैं। जिन में विद्या पढ़ने को हम बच्चे तेरे आये हैं BEBESEREESENSESENSEEDEBEDEO धन्य-धन्य है त्याग तुम्हारा, धन्य तुम्हारा जीवन है। तुमने न्यौछावर कर डाला, अपना सब तन-मन-धन है ।' चमकते ज्यों नभ में तारे। कु० प्रतिभा गांधी, (ब्यावर) पिताजी तुम लगते प्यारे ।। सूरज-सा है तेज तुम्हारा जो जग को चमकाता है। BSEBEISESENDEBEIDOESENDENDER चन्दा की शीतलता लेकर यश तेरा सरसाता है ।। फूलों की खुशबू को लेकर महक रहा तेरा जीवन । करती सरस्वती क्रीड़ाएँ, ज्ञान-प्रभामय ये आंगन ।। अविद्या-तम तुमसे हारे । पिताजी तुम लगते प्यारे॥ तुमने ज्ञान वृक्ष को रोपा, सींचा उसको बड़ा किया। इसकी छाया में रहकर है लाखों ने विश्राम किया। इसके फल-फूलों सम कितने छात्र बड़े बन पाये हैं। इस धरती के कण-कण ने बस तेरे ही गुण गाये हैं ।। 00 यह जीवन लुटायो है 0 श्री प्रेमचन्द रावल 'निरंकुश' काका तेरी महिमा को कैसे मैं बखान करू, कारज की बरखा के कीचड़ में धायो है। के ते नर-तन पाय, भूल गये धर्म-कर्म, सबको समान जान, मार्ग दर्सायो है। रीझ गई धरती की हरियाली फूलों जैसी, मन में दया को धर्म धन ही लुटायो है। लख तेरी लीलायें, यह जन-जन जाग उठ्यो, जीव दया सत्य को ही प्राण में बसायो है ॥ केसरी सो आत्मबल ! सत्य के पुजारी तुम ! मानव हितकारी संघ, खूब ही बणायो है। अहिंसा का आदि रूप, धन्य है यह 'तेरापंथ', देख-देख स्वर्ग को विधान भी लजायो है ।। युग-युग जीवें, यही प्रभु से पुकार करें, शिक्षा की ज्योति से राणावास चमकायो है। धरती पे स्वर्ग को उतार लियो तुम ही ने, काका के स्वरूप आगे-गांधी भी लजायो है। मोहन मुरारी कहूँ ? श्याम गिरधारी कहूँ ? बुद्ध, महावीर कहूँ? तेज कैसो पायो है ? कृष्ण बलवीर कहूँ ? ईसा अवतार कहूँ? आत्म-ज्योति पुज देख, स्वर्ग ही लजायो है ।। दर्शन से आत्मशान्ति, चरण पवित्र धूल, मानव की सेवा में, यह जीवन लुटायो है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यांजलि १११ 외 외의 외 सम्यक्त्व की पहचान है, श्रावक गुण इक्कीस । रत हैं देव-गुरु-धर्म में, श्रद्धा विश्वावीस ॥१॥ दृढ़धर्मी श्रावक केसरी, है लाखों में एक । कृपापात्र गुरुदेव रा, समयज्ञ सुविवेक ॥२॥ मरुधर रो धोरी श्रावक, करे साधना अलबेली। धर्मसंघ री बढ़ी प्रभा वना, शासन सुषमा फैली ॥३॥ भेद-विज्ञान अति निर्मल, ज्यं धाय रमावै बाल । अनासक्त निलिप्त हो, करे आत्म-संभाल ॥४॥ एक करण एक योग से, हिंसा-करण रा त्याग। उभय टक प्रतिक्रमण करे, जगा आत्मा-विराग ॥५।। अप्पभासी मियासणी, जप-तप में अनुरक्त। सेवा, समर्पण, आत्मीयता, अनुशासन है सशक्त ॥६॥ कर्तव्यनिष्ठ व्यवहारकुशल, परीक्षक नम्बर वन । समाज सेवा करण में, लगा है तन-मन-धन ॥७॥ राणावास विद्याभूमि बणी, काका नाम प्रसिद्ध । फलित ओ परिश्रम रो, हयो काम सब सिद्ध ॥६॥ खिला गुलशन ज्ञान का, बोधि लाभ संयोग। विद्यार्जन के साथ में, मणि कांचन संयोग ।।६।। साध्वी श्री मधुमती (टमकोर) 00 त्याग का उत्कर्ष - मुनि श्री मानमल त्याग-तपस्यामय भारत का बना हुआ है शुभ इतिहास । तीव्र साधना का बहुतों ने सतत किया है सफल प्रयास । जैनधर्म में संवर-तप की प्रबल प्रेरणा है साक्षात । प्रेरित हैं पुष्कल मुनि श्रावक त्याग-सलिल में जो हैं स्नात ॥११॥ श्रमणोपासक स्वर्ण शृखला दृग्गोचर होती है आज । एक कड़ी चमकीली जिस पर श्रद्धान्वित है सकल समाज । नाम केसरीमल सुराणा जन्मभूमि है राणावास । बाह्याभ्यन्तर कठिन तपस्या करते पाने शिव आवास ॥२॥ एकादश श्रावक पडिमाएँ करके दिखलाया आदर्श। सामायिक स्वाध्याय ध्यान का जीवन में उज्ज्वल उत्कर्ष । जागरूक है आत्मरमण में अव्रत का पुष्कल अवसान । निज भावों की तन्मयता में नहीं आता किंचित व्यवधान ॥३॥ जड़ासक्ति का निज जीवन में निधन किया संयूत वैराग्य । आत्मवृत्ति व्यक्ति का जग में साधक कहते हैं अहोभाग्य ॥ शिव पत्तन का पथिक मनुज नहीं चाहता है भौतिक आराम । आत्मभाव में दक्षजनों का जीवन होता है निष्काम ॥४॥ भैक्षव शासन संघनायकों में जिनका पूरा विश्वास। आत्मनिष्ठता से तोड़ेंगे त्वरित गति से सब अघपाश ।। सहचरी सुन्दरदेवी का जिनको है सुन्दर सहयोग । सुकृत संचय से इनका है मणिकांचन सम सुखद संयोग ॥५॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड ............ ............. - . - . -. -. -. - . - . - . -. -. -.. जुग जुग जीयो० 0 श्री मनोहरमल लोढ़ा (जोधपुर) है अभिनन्दन "श्री केसरी" तेरा, सही पथ पर चलने वाले । सद्गुण समृद्ध जीवन तेरा, वट वृक्ष समान फलने वाले । हे कुलदीपक, हे विद्याप्रमी है कर्मठ कर्ता जन की पुकार यही । पुरुषार्थ प्रबल है स्वाभिमान, तेरी उन्नति इनसे ही हो रही ।। सद्गुण से सम्पन्न युक्त, दुर्व्यसन से हरदम दूर रहने वाले ॥१॥ है अभिनन्दन"" पत्नी संग संघ का भार संभाल, यश पताका शिखर चढ़ाया। हर कार्य सोच समझ कर दुनिया में भारी सूयश कमाया ।। पर उपकार में जीवन लगा, अपना सर्वस्व समाज में लगने वाले ॥२॥ है अभिनन्दन"" विद्या दी जीवन कला समझ बच्चों में शिक्षा का संचार किया। राणावास शिक्षा केन्द्र बनाकर जगमगाता दीप जलाया ॥ मजबूत तुम्हारे कन्धों पर स्कूल का सकल भार ढोने वाले ॥३॥ है अभिनन्दन.... है आशीर्वाद ब्रह्म तुलसी गुरु का फिर क्यूँ न सफलता पाया है। इसी भावना से आगे बढ़, राणावास में शिक्षा कुसुम विकसाया है। अनेक कष्टों को झेलकर यह नूतन वृक्ष लगाने वाले ॥४॥ है अभिनन्दन... बच्चों के नस-नस रग-रग में तेरी अनोखी सेवा प्यारी है। दोनों का परस्पर स्नेह लता से जनता खुशहाली है। गुलशन में हर फूल खिले, रहते रहना इसको पिलाने वाले ॥५॥ है अभिनन्दन जहाँ भी रहो मुस्कराते रहो, दीप की तरह जगमगाते रहो। आपदायें कितनी ही आयें, तनिक भी परवाह न करते रहो॥ अपनी खुशियों की सौरभ जन-जन में फैलाने वाले ॥६॥ है अभिनन्दन... DOGGESESERSO 08888888888BB 88888888 छात्र-छात्रा पुत्र-पुत्री सा बतावे तेरा, सब को मोहने वाला। शिक्षक, शिक्षकों के संग, प्रेम से रह, मान सबका बढ़ाने वाला॥ . सादा जीवन उच्च विचार से जन-जन को लुभाने वाले ॥७॥ है अभिनन्दन जैन समाज हार्दिक अभिनन्दन कर तेरा, हर्ष मनाती अपार। तन-मन-धन अर्पण करने वाले क्या दें हम तुम्हें उपहार ?॥ जुग जुग जीयो "श्री केसरी" समाजसेवी कहलाने वाले ॥८॥ है अभिनन्दन"" 00 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यांजलि ११५ . - . - . - . - . -. - . - . - . - . -.. ..........-.-.-.-.-. -.-. -.-.-.-.-.-. -.-.-. -.-. ऋषि केशरी 0 साध्वी श्री जयश्री (नोहर) (तर्ज-तेजो) निरभिमानता सेवा भावना, श्रावक जी री अद्भुत हो कर्मठ गुणग्राही जीवन आपरो॥७॥ भौतिक युग में जीवन ने थे दियो मोड़ उत्कर्ष हो पायो इण तन रो सच्चो सार है ॥१॥ छोटी वय में शील व्रत स्वीकारयो मन वैराग हो मिलसी थांस्यूं दूजां ने प्रेरणा ॥२॥ नहीं करणो जल स्नान बिल्कुल, स्वाद विजय है अनूठो हो जागृतिमय क्षण-क्षण सारी जा रही ॥३॥ दोय बार भोजन प्रति दिन में जल दो बार ही लेणो हो मुश्किल लागे सबने आ साधना ॥४॥ साधु वृत्ति सम बण गई सारी जीवन री दिनचर्या हो सत्रह सामायिक करणी रोज री ॥५।। भिक्षु प्रतिमा ग्यारहवीं में करयो देव उपसर्ग हो किंचित् विचलित नहीं हआ रोंगटा ॥६।। स्वावलम्बी है जीवन थांरो, निश्छल सद्व्यवहारी हो करणो प्रति दिन आलोचन पापरो ॥७॥ राणावास री भूमि मानों ज्यों वाराणसी बणगी हो स्कूलां कालेजां खुलगी सांतरी ॥८॥ श्रावकजी रो कठिन परिश्रम आज बण्यो शतशाखी हो ज्ञान री अद्भुत सरिता बह रही ॥६॥ शासनसेवी ऋषि केसरी, श्री तुलसी रा भक्त हो आंरे जिसा श्रावक विरला मिले ॥१०॥ "साध्वी जयश्री" जी रो कहणो संयम तप जप धारो हो मानव जीवन रो ओ शृंगार है ॥१२॥ निरभिमान गुरु-भक्ति में, रहते हरदम लीन । श्रावक केसरीमलजी, समता में तल्लीन ॥१॥ त्याग तपस्या में सजग, साधुव्रत दिन रात । श्रावक केसरीमलजी, देख्या मैं साक्षात् ।।२।। संघ संघपति धर्म में, आस्थावान प्रवीण । नवयुवक सो हृदय में, है उत्साह नवीन ।।३।। सुन्दरदेवी सी मिली, सहयोगी अनुकूल । सावचेत हर कार्य में, करे न कब ही भूल ॥४॥ दाम्पत्य जीवन में खिल्यो, ब्रह्मचर्य को रंग। संयम, समता, सादगी, व्यापी उनके अंग ॥५॥ O साध्वी श्री जतनकुमारी (राजगढ़) आस्थावान श्रावक Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : प्रथम खण्ड काम कमाल कर्यो - साध्वी श्री सोहनकुमारी (राजलदेसर) (तर्ज-बाजरे की रोटी) सिंह केसरी सिंह केसरी बणकर काम कमाल कर्यो। राणावास-संघ संचालन-गुरुतर खंधा भार धर्यो ।टेर।। साधनामय घृत स्यू सींची नींव सांतरी संस्थारी। सुखकर शिक्षा शान्त सुधा पा, भूख मिटावे आत्मारी। अलबेलो योगी सो लागे, जीवन सात्त्विक प्यार भर्यो ॥१॥ ध्यान रखें संस्थारो प्रतिपल, खान-पान परवाह नहीं। धार्मिक संस्कारों में ढाले, बच्चा ने दृढ़ लगन सही। विद्यार्थी जीवन उन्नायक, जग में अनुपम सुयश वर्यो॥२॥ मन्दिरमार्गी कट्टर पहलां, अब कट्टर तेरापंथी। सार निकाले जैन शास्त्र, तेरापंथ तत्त्वाने मंथी। मितभाषी स्वाध्याय भवन में तन्मय बणकर ध्यान धर्यो ॥३॥ शिक्षक वीक्षक सेवक श्रावक, नायक छात्रावासां रो। कर्मठ मन्त्री कार्य कुशल वाह ! स्वागत इक-इक सां-सां रो। 'सोहनी' गुण सुण विस्मय पाई, राणी में संगीत करयो॥४॥ श्रम स्यू फल्यो बगीचो सारो साध्वी श्री ज्योतिप्रभा (भादरा) (तर्ज-स्वामी भीखणजी रो नाम) जीवन काकासा रो संघ ने समर्पित सारो। बण्यो प्रेरणा रो स्रोत ओ है अनुभव म्हारो ॥(आंकड़ी)। सीमित खाणो सीमित पीणो, प्रतिमाधारी श्रावक लखिणो । झीणो ज्ञान रस पीणो, निशि दिन काम थांरो ॥१॥ छात्रावास रा प्रमुख आप है, धर्म संघ में गहरी छाप है। साँची श्रद्धा रो सबूत, रहण सहण थाँरो ॥२॥ टाबरियाँ ने खूब पढ़ाया, लाड़ लड़ाया आगे बढ़ाया। बण्यो भारी लाभकारी सहवास थारो ॥३॥ अच्छे संस्कारों में पले हैं, थारे इशारे पर छात्र चले हैं। राजस्थान ने प्रसिद्ध ओ विद्यालय थारो ॥४॥ तेरापंथ हित खूब खप्या थें, गाल्यां सही पण नहीं रुक्या थे, थारे श्रम स्यूं फल्यो है ओ बगीचो सारो ॥५॥ 00 - O Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तों में जिनका नाम है मुनि श्री संजयकुमार ( गीतक छन्द) धुन के पक्के हैं ये कर्मठ कार्यकर्ता आज के । सत्यनिष्ठ दृढधर्मी श्रावक शिरोमणि समाज के ॥ भिक्षु शासन के अनन्य भक्तों में जिनका नाम है । संत सतियों की सदा सेवा करे निष्काम हैं ॥ हर घड़ी गुरुदेव के इंगित का पूरा ध्यान है । युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी के ये हनुमान हैं । केसरी सिंह तुल्य गूंजे करके धर्मोपासना । खूब धर्म प्रभावना करते रहो श्रमणोपासक केसरीमलजी ये राणावास के । देख जिनका त्याग बोयें बीज आत्मविकास के ॥ खाद्य, निद्रा, वचन संयम इनका करलो अनुकरण 1 सिर्फ प्रशस्तियों से इनका हो न सकता अभिनन्दन ॥ शुभ कामना || 00 the काव्यांजलि *** **** ************ शासन भक्त श्रावक साध्वी श्री सूर्यकुमारी (टमकोर ) श्रावकरत्न श्री केसरी, हैं शासन रा भक्त । सामायिक स्वाध्याय में रहते हैं अनुरक्त ॥१॥ For Private Personal Use Only पापभीरू पग-पग सजग, खरी-खरी कहै साफ । दाव घाव दिल में नहीं, नहीं कोई पेटे पाप ॥ २॥ +0+0+0+0+ दो हजार अरु तीस में, रहे केसरी धाम । देखी कार्य कुशलता, नहीं आलस को काम ||३॥ मैं उस वक्त अस्वस्थ थी, रखते पूरा ध्यान । निर्वद्य दलाली कर स्वयं लेते लाभ महान ॥४॥ साधु-सतियों के प्रति, माता-पिता सो प्यार । त्रुटी देख कहते तुरन्त है उत्तम आचार ||५|| ११५ -0 Q Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड .-. -.-.-.-.-. -.-...-...-.-.-.-.-.-. -.-.-. -.-.-.-. कृपापात्र गुरुवर के मारवाड़ रत्न । साध्वी श्री लाड़ाजी साध्वी श्री सुबोधकुमारी श्रावक तुम संजोर श्रावकाचार निभाते। (दोहे) त्याग और वैराग्य भावना खूब बढ़ाते ॥१॥ कर्मठ श्रावक केसरी, नीति निपुण निष्णात । आस्था और प्रतीति तुम्हारी संघ पर भारी।। मारवाड़ का रत्न है, संयम तप साक्षात ॥१॥ हो स्वर्णिम इतिहास भावना मेरी प्यारी ॥२॥ संघ संघपति के प्रति, सदा समर्पित भाव । लघु रत्नों की माल श्रावक प्रभुवर वाणी। हर क्षण जागृति में रहे, उनका सहज स्वभाव ॥२॥ त्याग तितिक्षा भाव बढ़ाओ कहते ज्ञानी ॥३॥ अनुशासन में दक्ष है, गुरुभक्ति अनुरक्त। राणावास सुगाँव तुम्हारे से है विकसित। संयम जीवन जी रहे, मुश्किल ऐसा भक्त ॥३॥ छात्रावास का काम श्रवण करके मैं पुलकित ॥४॥ सुन्दरदेवी का पति, धुन का पक्का धीर । कृपापात्र गुरुवर के तुम सदा से भारी।। देवों के भी सामने, डरा नहीं वह वीर ॥४॥ बढ़े ज्ञान और ध्यान साधना सारी॥५॥ 00 दो मुक्तक D साध्वी श्री चन्द्रकला श्रावक केसरीमलजी उन्नत उच्चाचार। धार्मिक और विवेकयुत निर्मल जीवन सार॥ निर्मल जीवन सार साधना अच्छी करते। श्रावक विधि अनुसार कार्य में रत रहते ॥ न्याय-नीतिमय भाव प्रतिपल बढ़ते । पग-पग पापभीरुता सब में भरते रहते ॥ (२) श्रावक रूप चंद की भांति है तव सुन्दर जीवन । संघ संघपति के प्रति श्रद्धामय तल्लीन । श्रद्धामय तल्लीन बने रहते हैं हरदम । श्रमजीवी संतोष कौन है तुम सम ॥ गुरु की कृपा अपार तुमने जीवन में पायी। बढ़ो द्रौपदी चीर गुणों की लडियाँ विकसायी॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . काव्यांजलि ११७ ...............................................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. सच्चा केसरी कहलाया साध्वी श्री विनयश्री क्या उजड़ सचमुच पथ नहीं बन जाता। क्या जंगल सचमुच शहर नहीं बस जाता ॥ देखो कुशल कलाकार की सृजन शक्ति को तुम । क्या शैतान भी भगवान नहीं बन जाता ॥१॥ आवश्यकता हुई तो आविष्कार बना। बीमारियाँ हुई तो उपचार बना ॥ इन्सान की प्रतिभा का चमत्कार है अद्भुत । सायं सायं करता जंगल भी राणावास बना ॥२॥ आसमान में चाँद आया तो काली रात में प्रकाश छाया। पावस में मेघ मंडराया तो धरती का कण-कण विकसाया ।। जीवनदानी कर्मठ कार्यकर्ता के श्रम में भरा क्या जादू ? उच्छं खल बच्चों का जीवन चमत्कृत सितारा बन आया ॥३॥ मरुधर का वीर केशरी, सच्चा केसरी कहलाया। तेरापंथी श्रमण-उपासक सच्चा वही कहलाया। श्रद्धा, निष्ठा और तितिक्षा के बल पर देखो। सुप्त वृत्तियों को जगा, शिक्षा का सुवर्ण इतिहास बन आया॥ 00 हे मानव के मसीहा श्री डूंगरमल जैन (पचपदरासिटी) हे मानव के मसीहा उर्जा के सुन्दर उपवन में तुम त्यागी हो, वैरागी हो, विद्या का क्रमशः विकास किया। मानवता के भौतिकता की प्रचंड ज्वार में अनुरागी हो। तुम कठोर चट्टान बन अडिग रहे, तृष्णा की धधकती ज्वालाओं को नैतिकता की वसुंधरा पर तुमने शीतल दान दिया, अविचल राही बन अटल रहे। चरित्र नव निर्माण की बच्चों के नवनिर्माता अडोल नींव पर तुम ! राष्ट्र के भाग्य विधाता हो, विश्व-बन्धुत्व का पैगाम दिया। तेरे शत शत अभिनन्दन की वेला में अकल्पनीय को कल्पित कर चिरायु की शुभ-कामना हो। क्रान्ति का शंखनाद किया, 00 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड D+++++++++++ प्रणतांजलिः डॉ० शक्तिकुमार 'शकुन्त' (चकेरी) राजस्थान सुराज्ये च पाली सुमण्डलान्तरे । राणावासाभिधे ग्रामे पिता यस्य उवास सः ॥ १ ॥ शेषमलाभिधः श्रीमान् सुराणा गौत्रधारकः । तद्भार्या छगनीबाई पुत्रोऽसौ केसरीमलः ॥ २॥ श्री केसरीमल श्रीमान् कर्मयोगी उदारधीः । फाउलाल गुरुश्र ेष्ठः तच्छिष्येष्वयमग्रणी ॥३॥ वेदांग वेदांग रसे च चन्द्र े, वर्षे गते विक्रमराज्यतोऽयम् । जन्म च लेभे शुचिमासि फाल्गुने, बलक्षपक्षे शुभ चाष्टमी तिथी ||४|| व्यापारकर्माणि विहाय सोऽयं, त्यक्त्वा च मोहं वसुकाम्वनानाम् । आराधना तत्पर शारदाया: मल्लोsयमाभाति सुशिक्षणे सः ॥ ५ ॥ संस्थापितो ये हितावहारच, विद्यालयाः छात्रकृतेनिवासाः । त्यागैस्तपैः याजित ज्ञानयज्ञः, समाजसेवामयजीवनैश्च ||६|| अर्था ( भिक्षा) नं येन कृतं परार्थ, यः दमः यापित जीवनं स्वम् । कुरीति पाखण्डविखण्डनाय, तस्मै भवन्तु प्रणताञ्जलीयम् ॥७॥ सप्ततिवर्षदेशीयकर्म योगयुतात्मने । सेक्काय समाजस्य तस्मा इदं प्रणताञ्जलिः ||८|| 00 योग्य व्यक्तित्व मुनि श्री हरीश कर्मशील जीवन है जिसका, वहीं कार्य कर्तृत्व | तन मन सर्वस्व समर्पण, वहीं योग्य व्यक्तित्व ॥ १॥ व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व बड़ा, जाति नहीं कर्तृत्व । ज्ञान नहीं सत्कर्म बड़ा बात नहीं वक्तृत्व ॥२॥ 00 For Private Personal Use Only +0+0+0+0 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ अभिनन्दन पत्र Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. -. -. - . -. -. -. - . -. -. -. - . -. संयमः खलु जीवनम् श्री जैन श्वेताम्बर तरापंथी शिक्षण संघ, राणावास के प्रबल पोषक श्री केसरीमलजी सुराणा की पुनीत सेवा में अभिनन्दन-पत्र संघ के स्वजन! संघ को आज जो रूप प्राप्त है उसका श्रेय आपकी अनन्य सेवा को ही है। यदि संघ को एक संस्था और आपको उसका सदस्य, कार्यकर्ता या पदाधिकारी मानना चाहें तो उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। आपकी अपार अथक सेवाओं से तो यही सिद्ध होता है कि संघ एक परिवार है और उसकी प्रतिपालना में संलग्न आप उसके मूल अंग हैं । सच्चे स्वयंसेवक ! प्रायः सेवा-कार्य के लिए कार्यकर्ताओं की खोज करनी पड़ती है और ऐसे खोजे हुए कार्यकर्ता कार्य में निरन्तर प्रोत्साहित नहीं रहते । विरले ही होते हैं जो अधिक समय तक जोश के साथ कार्य में डटे रह सकें। परन्तु आप तो स्वेच्छा से संघ का भार सदा अपने ऊपर लेने में गौरव मानते रहे हैं और पुरस्कार एवं तिरस्कार की परवाह न कर अपने कार्य में निरन्तर आगे बढ़ते रहे हैं । निःस्वार्थ सेवक! निःस्वार्थ सेवा सदा सराहनीय है पर निःस्वार्थ सेवा के साथ आप व आपकी सहयोगिनी श्रीमती सुन्दरबाई ने समय-समय पर जो अर्थ साहाय्य किया वह भी अनुकरणीय है। कार्यक्षेत्र में विरोध भी होता है, परन्तु आपने अपनी सहनशीलता से विरोध को जीत लिया एवं अविचलित चित्त से सहन किया। ऐसे निःस्वार्थ सेवी विरले होते हैं। धर्मानुरागी! ___ समाज-सेवा के साथ-साथ आप में धर्म के प्रति अनुराग है। आपके जीवन में सदा से आध्यात्मिकता ही आदर्श रहा है। संघ की स्थापना युवक व बालकों में आध्यात्मिकता का विकास करने के हेतु हुई। इससे आप इस ओर आकृष्ट हुए और आदर्श निकेतन के छात्रों पर धार्मिकता की अमिट छाप आप अपनी धार्मिक रुचि में बैठाते रहे । कर्मवीर! आप कर्मोपार्जन में बड़े बीर रहे थे तो अब कर्म क्षय करने में भी उससे अधिक वीर हैं । आपने जिस कार्य को हाथ में लिया उसको पूरा करके ही छोड़ा । आपमें कर्तव्यनिष्ठा का एक महान् गुण है जो छात्रों के लिए ही नहीं अपितु सर्व-साधारण के लिए अनुकरणीय है । आपने अपनी कार्य तत्परता एवं पुरुषार्थ से संघ के स्वप्नों को साकार कर भावी कार्यकर्ताओं के मार्ग को प्रशस्त कर दिया है एवं संघ की नींव को सुदृढ़ बना दिया है। आप सच्चे अर्थ में कर्मवीर हैं। आपने जो-जो सेवाएँ दी हैं वे संघ के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। हम आपका सहर्ष अभिनन्दन करते हुए कामना करते हैं कि आप अपनी आध्यात्मिक साधना में उत्तरोत्तर अग्रसर होते हुए अपने जीवन को सफल बनायें और संघ को अधिकाधिक आध्यात्मिक एवं नैतिक प्रेरणा देते रहें। आदर्श निकेतन हम हैं आपके सदैव शुभैषी सदस्यगण राणावास श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी शिक्षण संघ २६-६-५७ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १२० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड .......................................................................... ॥धी। सदशिक्षा के उपासक, दुष्कर ब्रह्मचर्यव्रत के साधक, सुश्रावक, संतोषव्रत के प्रतिपालक, सद्गुणनिधान, राणावास के नररत्न श्री केसरीमलजी सुराणा के कर-कमलों में सादर समर्पित अभिनन्दन-पत्र सशिक्षा के उपासक ! अर्वाचीन शिक्षा पद्धति में धार्मिक संस्कारों के अभाव से उत्पन्न अनेक दुष्परिणामों से आपके अन्तर् में व्याप्त आन्दोलन के परिणामस्वरूप आध्यात्मिक सशिक्षा का जो बीजारोपण राणावास मे हुआ वह आपकी कर्तव्यनिष्ठा, अनुपम लगन एवं अदम्य उत्साह से आज "आदर्श शिक्षा सदन" बनकर राष्ट्र के सुयोग्य व सुसंस्कृत नागरिकों की उपलब्धि में अपूर्व योग दे रहा है । आप नारी समाज का सर्वांगीण विकास करने के निमित जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं। "कांठा महिला शिक्षण संघ" के संस्थापक के रूप में आप नारी समाज को जो अभ्युदय की ओर अग्रसर कर रहे हैं, वह प्रशंसनीय है। दुष्कर ब्रह्मचर्यवत के साधक ! भौतिकता की चकाचौंध में गुमराह बना हुआ आज का मानव जहाँ विलासमय कर्दम में फंसा हुआ है, वहाँ आप पंकज के समान उस हेय कर्दम से अलिप्त रहकर अपने जीवन को ब्रह्मचर्य की अलौकिक अलख से देदीप्यमान कर समाजोत्थान के इतिहास में अपनी सेवाओं का एक नूतन अध्याय जोड़ रहे हैं। सुश्रावक ! . संसार की नश्वरता से परिचित आपका मानस सदा आध्यात्मिक प्रवृत्तियों में निमग्न रहता है। भगवान महावीर का वह अमूल्य उपदेश “समय मात्र प्रमाद मत करो" आपके जीवन का प्रमुख अंग बन गया है । आपने श्रावक की ग्यारह पडिमाओं को सोत्साह व सहिष्णुता से सम्पन्न कर अपनी आध्यात्मिक अभिरुचि का परिचय दिया है। सामाजिक प्रवृत्तियों में व्यस्तता के बावजूद आप प्रतिदिन पन्द्रह सामायिक करके एवं खुले मुह किसी से सम्भाषण न करके जो आदर्शमय उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं वह श्लाघनीय व अनुकरणीय है । संतोषव्रत के प्रतिपालक ! आज जहाँ अर्थोपार्जन की होड़ में विश्व का वातावरण अशान्त एवं भयावह बना हुआ है, वहाँ आपने स्वेच्छा से आज से बीस वर्ष पहले अपने "बुलारम" के समुन्नत व्यवसाय का परित्याग करके परिग्रह के प्रति अनासक्ति का परिचय दिया है इतना ही नहीं, अपनी लाखों रुपयों की चल-सम्पत्ति में करीबन सात हजार के अलावा शेष सम्पत्ति का समाज कल्याणार्थ दान कर देना आपकी महान संतोष साधना का ज्वलन्त उदाहरण है। सद्गुण निधान ! आपका जीवन विशिष्ट अणुव्रतों के नियमों से विभूषित सादा तथा विचार उच्च व निर्मल है। आपको वाणी में निष्ठता व सरलता टपकती रहती है। आपका निष्कपटपूर्ण सरल एवं मिष्ट व्यवहार जन-जन के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है । स्वदेश में निर्मित खादी के वस्त्रों का उपयोग आपकी देश-भक्ति का परिचायक है। आचार्य श्री तुलसी द्वारा प्रतिपादित "नया मोड़” के सिद्धान्तों को अपने जीवन में विशेष स्थान देते हुए जन-जन में इसको लोकप्रिय बनाने में योगदान प्रदान कर रहे हैं। हे राणावास के नर-रत्न ! हम आपका अभिनन्दन करते हैं तथा आपके साधनामय जीवन की अखण्डता की शुभकामनाएँ करते हैं। तेरापंथी सभा भवन, मद्रास-१ हम हैं आपके शुभाकांक्षी ६-१२-६३ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा (मद्रास) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनों का आलोक कर्मठ कार्यकर्ता श्रद्धय काकासाहब! श्री केसरीमलजी साहब सुराणा के पवित्र चरणों में अभिनंदन-पत्र श्रद्धय काका साहब ! 1 जीवन के उषाकाल में आशा और उत्साह से हमने आपकी चरण-रज मस्तक पर चढ़ाई थी अपनी जीवन रूपी कुसुमकालिका को ज्ञान के आलोक से आलोकित करने के लिए आशा की सुमनोहर झांकी झिलमिला उठी। भगवान भुवन भास्कर क्षितिज पर मुस्करा उठे, प्रसन्न -पुष्प-पंक्ति विहँस कर उठी, प्रमोद से प्रमुदित पक्षी समूह आनन्द कल्लोल करने लगे। ज्ञान के पुनीत प्रकाश से हमारी अन्तरात्मा आलोकित होने लगी । सदय ! १२१ आपकी हमारे साथ क्रियात्मक सहानुभूति, शिष्टता और व्यवस्था शक्ति ने हमको आपके प्रति अनन्य श्रद्धा के साथ आत्म-विभोर बना दिया है। यह श्रद्धा और भक्ति पवित्र धरोहर के रूप में हमारे हृदयों में एक दिव्य ज्योति जगाती रहेगी। हम कहीं भी हों आपकी स्मृति हमारे दिल व दिमाग में पुनीत आशीर्वाद के लिए भक्तिनम्र होकर आपकी ओर सतत उन्मुख रहेगी। आदर्श पुरुष ! आपने अपनी महती योग्यता के साथ निरभिमानिता, सादगी एवं सदाचारी जीवन व ब्रह्मचर्य का पुनीत पाठ जीवन में क्रियात्मक रूप से दर्शाते हुए हमारे हृदयों पर गहरी छाप डाली है। हमारे जीवन को यह ज्योति हमेशा प्रकाशित करती रहेगी। जीवन ज्योति ! आपने राष्ट्र के लिए चरित्र को उज्ज्वल भावना से अपने आप को ओतप्रोत रक्खा। गाँधी व जवाहर के आदर्शों की अनुपम कृति आप हैं। भगवान महावीर और भगवान गौतम बुद्ध के सच्चे श्रावक आप हैं । आचार्य श्री तुलसी के अणुव्रत आन्दोलन के प्रेरणादायक महाव्रत रूप प्रत्यक्ष दर्शन आप हैं। आपने अपने जीवन के प्रकाश से हमारे जीवन को विकसित किया है। हमारा रोम-रोम आपका कृतज्ञ रहेगा तथा आपके अनिर्वचनीय गुणों को सदा याद करता रहेगा । साहसी संचालक ! आपने हम बालकों को बचपन से उँगली पकड़कर चलना सिखाया, पीठ थपथपा कर दौड़ना सिखाया तथा उत्साहयुक्त प्रेरक वचन से संसार में स्थिर रहना सिखाया, झंझावातों के झकोरों से बचाकर इस संस्था रूपी वृक्ष को प्रेमरूपी जल से सींचकर संस्था की सुमति और प्रगति को आगे बढ़ाने के आपके निरन्तर प्रयत्न से हमारे हृदय की आशालता को खिलाकर मन में मोद भर रहे हैं। उस साहस, कठोर परिश्रम और सहृदयता के गुणों की एक किरण हम में प्रकट हो, आशीर्वाद दें । .o . Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड श्रय काका साहब ! आपके चरण-कमलों के समीप समासीन होकर हमने केवल पुस्तक का पाठ ही नहीं अपितु हृदय की साक्षी में जीवन का पाठ पढ़ा। जीवन की अबोध अवस्था में तोतली वाणी बोलते हुए हम आपकी शरण में आये थे, आपने अबोध को सुबोध व प्रबोध बनाने का मनयोगपूर्वक जो प्रयत्न किया उसका किन शब्दों में हम आपका आभार माने । अथवा आपकी अमूल्य कृपा को आभार के मूल्य में चुकाकर कृतघ्नता के भागी क्यों बने ? अमरबेल के समान अमर बनी रहे यह आपकी कृपा और बरसता रहे सदा आपका आशीर्वाद । जिससे प्रेरणा का स्रोत अजस्र व अनवरत प्रवाहित होता रहे। आदरणीय! आज जिन सुन्दर शब्दों में और हृदय की सद्-भावनाओं के साथ आप हमें बिछुड़ने की इस बेला में हमारे हृदय के साभार को भार रूप बना रहे हैं उससे हमारा हृदय मनोवेदना से आकुल-व्याकुल हो रहा है, नेत्रों से बरबस आँसू उमड़ने की तैयारी कर रहे हैं। अन्त में हम आप से यह प्रार्थना करते हैं कि आपका आशीर्वाद व वरदहस्त हमारे सिर पर सदा बना रहे जिससे हम भविष्य में उन्नति के मार्ग में चलने में उत्साहित बने रहें। हम हैं आपके कृपाकांक्षी, विनम्र, आज्ञाकारी शिष्य सन १९६७-६८ आदर्श निकेतन के दशम कक्षा के छात्र Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनों का आलोक १२३ . कर्मठ कार्यकर्ता, नीतिविज्ञ परम श्रद्धय पूज्य पिताजी श्री केसरीमलजी सुराणा वात्सल्यम ति ममतामयी माताजी श्री सुन्दरबाई सुराणा के चरण-कमलों में ___ सादर समर्पित अभिनंदन-पत्र परम श्रद्धय पूजनीय ! आपका स्नेहरंजित पितृतुल्य प्रेमपूर्ण संरक्षण जो कि हमने विगत इतने वर्षों से प्राप्त किया है तथा जिससे कि हमें भावी जीवन के लिये अपूर्व मार्गदर्शन एवं लाभ प्राप्त हुआ है उसके लिए हम सब बालिकाएँ जीवनपर्यन्त आपकी ऋणी रहेंगी। साथ ही आपके आदर्शों एवं धर्मप्रियता ने हम सब पर जो अमिट छाप डाली है वह आज चाहे अंकुर रूप में क्यों न हो, भविष्य में अवश्य ही वृक्ष रूप में परिणत होगी। परमत्यागी-तपस्वी ! आप दोनों अपूर्व त्यागी हैं । आप जिस कार्य में भी जुटते हैं उसे तन, मन व धन ही नहीं अपितु सर्वस्व अर्पण करके भी पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। आपकी इसी सर्वस्व अर्पण की त्यागमय भावना ने ही महावीर कन्या विद्यालय रूपी इस संस्था को खून एवं पसीने से सींचकर जिस वट-वृक्ष का रूप प्रदान किया है वह निश्चय ही सराहनीय एवं अनुकरणीय है। सच्चे पथ-प्रदर्शक ! आपने हम बालिकाओं को जीवन के उषाकाल से ही अंगुली पकड़कर चलना सिखाया, पीठ थप-थपाकर दौड़ना सिखाया तथा उत्साहयुक्त, प्रेरणादायक सच्चे पथ-प्रदर्शन से संसार में स्थिर रहना सिखाया। संसार के झंझावातों के झकोरों से बचाकर इस संस्थारूपी नाव को सच्चे नाविक की भाँति संचालित करके आप अपने निरन्तर प्रयासों से प्रगति की ओर अग्रसर कर रहे हैं। कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता ! हम जैसी नन्हीं-नन्हीं बालिकाओं को सच्ची शिक्षा प्रदान कर उसके माध्यम से योग्य महिलाएं बनाकर समाज के समक्ष एक नवीन आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं । इस प्रकार से आप समाज की ही नहीं अपितु समस्त राष्ट्र की सच्ची सेवा कर रहे हैं । इस प्रकार के कर्मठ, निस्वार्थ सेवी विरले ही होते हैं। आपकी यह समाज-सेवा चिरस्मरणीय रहेगी एवं अन्य समाज-सेवकों को सदा प्रेरणा देती रहेगी। धर्मानुरागी ! आप सच्चे धर्म-प्रेमी आदर्श नर-नारी हैं । आपकी धर्मप्रियता सभी प्रकार की संकीर्णताओं को लाँघ चुकी है। हमारी यह महिला शिक्षण संस्था भी इसी व्यापकता का एक ज्वलन्त उदाहरण है । सामायिक, पौषध, तपस्या आदि Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 .० १२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड धार्मिक कृत्यों द्वारा आपने अपनी आत्मा को अत्यन्त ही उज्जवल रूप प्रदान किया है, साथ ही हमें भी इसी मार्ग का अनुकरण करने की निरन्तर प्रेरणा दी है। श्रद्धय पूज्य 'माताजी एवं पिताजी ! आपके मातृ-पितृतुल्य प्रेम के संरक्षण में हमने केवल पुस्तकीय पाठ ही नहीं अपितु सच्चे हृदय की साक्षी में आदर्शमय जीवन का पाठ भी पड़ा है। आपने हम अवोध बालिकाओं को सुबोध एवं प्रवोध बनाने का जो अपूर्व प्रयत्न किया उसका किन शब्दों में आभार प्रदर्शन करें। आपका प्रेम अमरबेल के समान अमर बना रहे एवं आपकी कृपा कोर सदा बरसती रहे जिससे कि हम भावी जीवन में भली-भांति आगे बढ़ सकें । आज जिन हृदय की सद्भावनाओं के साथ इन सुन्दर क्षणों में हम आपसे बिछुड़ रही हैं उससे हमारा हृदय अत्यन्त ही वेदना से आकुल-व्याकुल हो रहा है । अन्त में हम आपसे यह प्रार्थना करती हैं कि आपका शुभ आशीर्वाद हमारे सिर पर सदा बना रहे जिससे कि हम भविष्य में उन्नति के मार्ग पर तीव्रगति से अग्रसर होती रहें । हम हैं आपकी विनम्र एवं आज्ञाकारिणी श्री अखिल भारतीय महिला शिक्षण संघ द्वारा संचालित श्री महावीर कन्या विद्यालय की दशम कक्षा की छात्राएँ सत्र १६६८-६६ . Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनों का आलोक .-. -. -.-.-. -.-. -.-.-. -.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-. -. -. -. -. -.-. -.-.-. -. -. -.-. -.-.. 09888888888 अभिनंदन-पत्र SONGSEBERRESERESERO सेवा में, कर्मठ व माननीय काका साहब श्री केसरीमलजी साहब सुराणा आदर्श निकेतन छात्रावास के दशम कक्षा के विद्यार्थी परम विनीत भाव से श्रद्धापूर्वक आपके कर-कमलों में आज इस अभिनन्दन पत्र को समर्पित करते हुए अत्यन्त गौरव का अनुभव कर रहे हैं। आपका आशीर्वाद लेकर परीक्षा देने हेतु हम विदाई ले रहे हैं अत: आपके चरणों की सामीप्य सुविधा के कारण जिस प्रसन्नता व सुख की उपलब्धि रही वह तो अब स्वप्नवत् ही होने जा रही है। परन्तु मान्यवर ! हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारे हृदयों पर आपके त्यागमय, निःस्वार्थ सेवाभावी व धर्मानुरागी जीवन की जो छाप संजोई है, वह अमिट बनी रहेगी। महानुभाव! सादा जीवन की प्रतीक आपकी वेशभूषा, प्रेम से ओत-प्रोत प्रसन्न मुखमुद्रा, अचूक व अविलम्बित निर्णय प्रवृत्ति हम सदा स्मरण रखेंगे और जो पाठ आपकी स्पष्ट जीवन-प्रणाली से स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुए हैं उन्हें अपने जीवन में सोत्साह उतारने में ही अपना कल्याण समझेंगे। इन अबोध बालकों को 'प्रिय छात्रो' ऐसे शब्दों द्वारा सम्बोधन करते हुए सुबोध व प्रबोध करने हेतु कष्ट उठाकर भी आपने हृदय में प्रसन्नता ही अनुभव की है। सादगी व उच्चता का अनुभवी जीवन निश्चय ही 'सरल स्वभाव छुआ छल नाही' का सुन्दर व सजीव चित्र ही है। परम श्रद्धय काका साहब ! विश्व वंद्य परम पूज्यनीय, अणुव्रत शास्ता, आचार्य तुलसी गणी के चरणों की कृपा से चातुर्मास में विद्वान् चारित्र आत्माओं की छत्रछाया का आनन्द जो हमको मिला है वह भी आप ही की तपस्या का फल ही तो है । परम आदरणीय ! आपके अगणित गुणों की गिनती जीवन भर हम करते ही रहेंगे परन्तु पार नहीं पा सकेंगे। शेष में, इस वियोग बेला में हमारे नेत्र तरल हो रहे हैं, हृदयों में जो अनुभव हो रहा है वह शब्दों में व्यक्त करने में असमर्थ हैं। क्षमाशील काका साहब ! हम क्षुद्र बालक हैं, चंचल स्वभाव वाले हैं, त्रुटियों के पुतले हैं, अज्ञानी हैं, अपने छात्रवासी जीवन में नाना प्रकार की भूलें, उच्छृखलताएँ हमसे हुई हैं उसके लिए हम विनम्र भाव से नतमस्तक आपसे क्षमायाचना करते हैं । महान् आत्मा ! हमें आपका आशीर्वाद प्राप्त हो, हम बालकों पर कृपा बनी रहे यह है हमारी प्रार्थना, जो हम सब आज हाथ जोड़कर करते हैं, हमें पूर्ण विश्वास है यह स्वीकार होगी। आपका वरदहस्त हमारे नत मस्तकों पर हम सदा अनुभव करते रहें, आप पूर्ण स्वास्थ्यपूर्वक चिरायु रहें इस कामना के साथ विदाई मांगते हुए हम पुनः आपकी चरणरज शिरोधार्य करते हैं। आपके कृपाभिलाषी दशम कक्षा के छात्रगण सत्र १९६९-७० 00 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PE कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड ..... ... .............................................................. कर्मठ नर-रत्न श्रद्धय काकासाहब केसरीमलजी सुराणा के पवित्र चरणों में समर्पित अभिनंदन पत्र मान्यवर! हम आदर्श निकेतन के कक्षा दशम एवं एकादशम के छात्र परम विनीत भाव से श्रद्धापूर्वक आपके चरणों में 'पत्रं पुष्पं फलं' के रूप में यह अभिनन्दन-पत्र अर्पित करते हुए अत्यन्त प्रसन्नता एवं गौरव का अनुभव करते हैं। अब हम आपका आशीर्वाद प्राप्त कर अपनी परीक्षाएँ देने हेतु आपसे विदाई ले रहे हैं। इतने दिन तक आपके श्रीचरणों में रहकर आचार-विचार द्वारा चरित्र निर्माण में जो प्रसन्नता एवं सुख की उपलब्धि होती थी वह तो स्वप्नवत् ही होगी परन्तु आपके त्यागमय जीवन, निःस्वार्थ प्रेम, सेवाभावी वृत्ति और धर्मानुरागमय जीवन की ज्योति सदैव हमारे मानस-पटल पर चमत्कृत रहेगी। महानुभाव! आपके जीवन की सादी वेश-भूषा, प्रेम से परिपूर्ण प्रसन्न मुद्रा, शीघ्र निर्णय की शक्ति, कठोर अनुशासन की क्षमता और दुष्कर ब्रह्मचर्य व्रत साधना हमारे जीवन में भी सदैव स्मरण रहेंगे और 'प्रकाश स्तम्भ' का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे। श्रद्धय काका साहब ! आपकी संयम वृत्ति, सन्तोषी प्रकृति, सतत अध्ययनशीलता, आध्यात्मिक रुचि और कठोर तपश्चर्या का ही यह पुण्य प्रताप है कि हम राणावास जैसे छोटे से स्थान में विश्ववंद्य, अणुव्रत आन्दोलन के अनुशास्ता युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी की असीम कृपा से प्रतिवर्ष चारित्र-आत्माओं के चातुर्मास एवं शेषकाल में सद्संगति और प्रवचनों का लाभ उठाते रहे और ज्ञान-दर्शन-चारित्र की त्रिवेणी में स्नान करते रहे हैं। परम क्षमाशील ! हम छोटे-छोटे बालक हैं । चंचल स्वभाव के हैं और त्रुटियों से भरे पड़े हैं, इस कारण अपने छात्रावासी जीवन में नाना प्रकार के दोषों से आपके मानस को हम संतप्त करते रहे हैं। इसके लिए हम विनम्र भाव से नतमस्तक होकर हाथ जोड़कर क्षमायाचना करते हैं। महान् नर-रत्न! हम शत-शत शुभकामना करते हैं कि आप स्वस्थ रहकर दीर्घायु प्राप्त करें तथा अपनी साधनामय जीवन की सौरभ अधिकाधिक प्रसारित करें और यहाँ महाविद्यालय की स्थापना करें। जिससे आपके श्रीचरणों में रहने का पुनः सुअवसर हम प्राप्त कर सकें। आदर्श निकेतन हम हैं आपके कृपापात्र राणावास कक्षा दशम एवं एकादशम के छात्रगण दिनांक १-३-७१ सत्र १९७०-७१ . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनों का आलोक १२७ समाज-सेवी, त्याग समर्पण के धनी, वज्र पुरुष, राणावास की संस्था के प्राण, कर्मठ व्यक्तित्व, सम्माननीय काका साहब श्रीमान् केसरीमलजी सुराणा __की सेवा में सादर समर्पित अभिनंदन पत्र समाज-सेवी! जीवन के कुछ वर्ष, वर्षों के कुछ महिने, महिनों के कुछ दिन, दिनों के कुछ घण्टे समाज के लिये देने वाले सेवी तो यदा-कदा मिल ही जाते हैं, किन्तु आपने अपना सम्पूर्ण जीवन ही समाज-सेवा में समर्पित कर दिया है। आपके अथक परिश्रम एवं ठोस कार्य को देखकर लगता है समाज स्वयं आप में समाहित हो गया है। अपने आप में एक संस्थान ! आपने संस्थान के कार्य में अपने आपको घोल दिया। आपके व्यक्तित्व को देखते ही राणावास के संस्थान दीखने लगते हैं । वे सारे संस्थान आपके नाम के पर्याय बन चुके हैं । शिक्षासेवी! शिक्षा की उपयोगिता पर व्याख्यान देने वाले बहुत मिलेंगे, पर उसके लिये अपने आपको खपा देने वाले बहुत कम । पुरुष-शिक्षा हो या नारी-शिक्षा-दोनों क्षेत्रों में आपने शिक्षा-जगत को महत्त्वपूर्ण सेवायें प्रदान की हैं और निरन्तर किये जा रहे हैं। त्यागी! सादगी से परिपूर्णता के साथ-साथ आपका जीवन व्यवहार सरलता, नम्रता एवं मृदुता से ओत-प्रोत है। अल्प परिग्रही, त्याग, तपस्या एवं साधनायुक्त जीवन, सब कुछ होने पर भी आप अहं से दूर हैं। वज्र-पुरुष! सामाजिक कार्य विष मिश्रित मधु की तरह है जिसे आप जैसे वज्र पुरुष ही पी सकते हैं। अन्यान्य आक्षेप, उपालंभ, प्रताड़नायें इस तरह सह लेते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो । निरन्तर निर्भीकता से समाज-सेवा में लगे हैं। राणावास की संस्था के प्राण ! आपको पाकर राणावास अपने क्षेत्र का एवं सम्पूर्ण तेरापंथ समाज का प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र बना। वहाँ हर पत्थर, मिट्टी का कण गौरवान्वित है आपकी बदौलत । किन्तु इसको भी नकारा नहीं जा सकता कि आपने अपनी योग्यता को निखारा है तो केवल माताजी श्रीमती सुन्दरबाई के पूर्ण सहयोग से। बापू को कस्तूरबा की तरह आपको भी सुयोग्य पत्नी प्राप्त हुई । आप दोनों चिरायु हों। इसी शुभकामनाओं के साथ कर्मठ व्यक्तित्व का सादर अभिनन्दन करते हैं। विनीत -श्री जैन श्वे० ते० सभा, बैंगलूर -तेरापंथ युवक परिषद, बैंगलूर -अणुव्रत महिला परिषद, बैंगलूर Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड .. .. ........ .. ........ .......... .. .... - . -. -. -. -. -. -. - . -. -. -. -. -. त्यागमूर्ति परम श्रद्धय काका साहब यह आप ही के त्याग, तपश्चर्या, दृढ़ निश्चय एवं सदप्रयत्नों का फल है कि राणावास की भूमि विद्याभूमि के अलंकार से अलंकृत हुई है । विगत बत्तीस वर्ष से आप निरन्तर अपने रक्त से सींचकर जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ को जो उज्ज्वल एवं सुदृढ़ प्रारूप दे रहे हैं, वहीं जैन समाज एवं शिक्षा जगत को देदीप्यमान नक्षत्र की भाँति दीप्त करता रहा है और भविष्य में भी सदैव करता रहेगा। आपके सुपुष्ट दिग्दर्शन में संघ निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है। संघ के विशाल प्रांगण के एक-एक अणु में आपकी ही आत्मा निवास कर रही है। आपने राणावास में महाविद्यालय की स्थापना कर जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया है एवं उच्च शिक्षा के प्रसार में जो योगदान दिया है, उसको कभी नहीं भुलाया जा सकेगा। राणावास में और इसके आसपास के क्षेत्र में उच्च माध्यमिक स्तर के विद्यालय तो अनेक हैं, परन्तु उच्च शिक्षा हेतु महाविद्यालय का अभाव था, जिसकी पूर्ति श्रीमन् आपने ही की है। आप सदैव संस्था के हित-चिन्तन में चितनशील रहते हैं। समय-समय पर अनेक कष्टों का सामना करते हुए संघ की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाने के लिए अर्थ-संग्रह हेतु सुदूर प्रान्तों में प्रस्थान करते रहते हैं, आज की आपकी शुभ यात्रा भी उसी की एक कड़ी है और आपके इस प्रवास काल के उपलक्ष में यह आयोजन किया गया है। महाविद्यालय परिवार इस अवसर पर आपके श्रीचरणों में रुपये ११५१) की तुच्छ भेंट अगाध विश्वास एवं श्रद्धा के साथ समर्पित कर रहा है। आपके त्याग एवं लगन को देखकर दानवीर समाज-सेवी लाखों रुपये आप पर बरसाते आये हैं, उनकी तुलना में हमारी यह भेंट तुच्छ ही है, परन्तु आप हमारी इस तुच्छ भेंट को हमारी श्रद्धा एवं विश्वास के प्रतीक के रूप में स्वीकार करने की कृपा करें। हम आपको यह विश्वास दिलाते हैं कि आपके प्रवास काल में महाविद्यालय परिवार आप द्वारा दिग्दर्शित पथ पर अग्रसर होता रहेगा और अपनी व्यवस्था को आपकी आशा के अनुरूप बनाये रखेगा। महाविद्यालय परिवार आपकी इस शुभ यात्रा के लिए मंगलमय भावनाएँ व्यक्त करता है तथा जिनेश्वर देव से प्रार्थना करता है कि आप, माता जानकी की भाँति सदैव आपका साथ देने वाली आदरणीय माताजी एवं भ्राता लक्ष्मण की भाँति आपको सहयोग देने वाले श्रीमान् पुखराज जी साहब कटारिया स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रहें तथा सफलता आपका वरण करे। दिनांक ६-१२-७६ हम हैं आपके चरणानुगामी, महाविद्यालय परिवार के सदस्य Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्वनों का आलोक १२६ ..................................................................... मरुधर भूमि के नर-रत्न, आदर्श शिक्षाप्रेमी श्रीमान केसरीमलजी सुराणा की सेवा में सादर अभिनंदन समादरणीय काका साहब ! राजस्थान की पुण्यभूमि एवं तेरापंथ के बोधिस्थल राजसमन्द में आज आपका स्वागत तथा अभिनन्दन करते हुए हमें अत्यन्त आनन्द एवं हर्ष का अनुभव हो रहा है, आपका अध्यात्म से परिपूर्ण जीवन न सिर्फ समाज वरन् राष्ट्र के लिए एक ऐसी प्रज्वलित मशाल है जिसका भारतीय लोक-जीवन में दूसरा उदाहरण मिलना कठिनतम है। निस्सन्देह निःस्वार्थ, परमार्थ भावना से प्रेरित धर्म एवं कर्म शक्ति का एक समन्वित और साकार रूप आपने अपने उज्ज्वल चरित्र से प्रस्फुटित किया है, यह गौरवपूर्ण है। आदर्श शिक्षा-प्रेमी! स्वतन्त्रता प्राप्ति एवं गणतन्त्र के अभ्युदय के साथ भारत में अनेक शिक्षण संस्थाओं का प्रादुर्भाव हुआ लेकिन आपके कर-कमलों से मेवाड़ एवं मारवाड़ के प्राकृतिक सुरम्य तट पर संस्थापित 'सुमति शिक्षा सदन' आपके महानतम जीवन की एक ऐसी उपलब्धि है, जिसमें कर्मबोध के साथ धर्म की मुख्य पृष्ठभूमि है। देश और काल के साथ जहाँ ज्ञान की त्रिवेणी प्रवाहित होती है, वहाँ अध्यात्म एवं दर्शन की सरिता भी बहती है। शिक्षा-जगत के लिए यह न सिर्फ आश्चर्य है वरन् दार्शनिकों के लिए भी आत्म-तुष्टि एवं प्रेरणा का केन्द्रबिन्दु है, जिस ओर समस्त समाज की दृष्टि है। मरुधर के नर-रत्न ! अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में आपके जीवन-रक्त से सिंचित राणावास का यह विद्यालय भारतीय एवं जैन संस्कृति के आदर्शों से प्लवित एक ऐसा गुरुकुल है, जहाँ न सिर्फ ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित होती है वरन् वहाँ के लोक-वातावरण में आत्म-दर्शन की झांकी भी मिलती है। यह एक आत्म-साधना है और यह साधना आपके जीवन की है, जिससे कि राणावास का यह विद्यालय आज प्राथमिक शिक्षा से उत्तरोत्तर विकास करता हुआ महाविद्यालय के स्तर तक पहुंच गया है। यहाँ नहीं, वरन् वहाँ के आसपास की भूमिका भी एक के साथ अनेक शिक्षादीपों से प्रज्वलित होकर आज राणावास की यह छोटी सी नगरी विद्या नगरी के रूप में परिणत हो गई है। यह आपके आत्मस्थ जीवन की न सिर्फ गौरवपूर्ण वरन् महानतम् देन है, जिससे मरुधर एवं मेवाड़ की यह भूमि आप जैसे व्यक्तित्व से शिक्षा के इस पिछड़े क्षेत्र में प्रकाशमान एवं धन्य हो उठी है । उदारमना समाजसेवी ! शिक्षा और आदर्श शिक्षा प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित कर महामना स्व० मदनमोहन मालवीय की भांति तेरापंथ समाज के लिए आपने एक ऐसा शानदार उदाहरण प्रस्तुत किया है, जिसकी ज्योति से तेरापंथ एवं जैन समाज सदैव प्रकाशमान रहेगा और इतिहास आपकी इस महानतम शिक्षा-सेवा के लिए सदैव ऋणी रहेगा। ऋषि शब्दों में कहा है-सभी दानों में विद्यादान एक श्रेष्ठ दान है और फिर श्रेष्ठता के रूप में आपका आत्मरूप शैक्षणिक संस्थान है, जिसको पाकर हम सब गौरवान्वित है। अन्त में हम सब आपके दीर्घ जीवन की शुभ-कामना करते हुए यह आशा करते हैं कि आपके द्वारा प्रज्वलित ज्ञान की यह ज्योति सदा-सदा जलती रहे और वह कोटि-कोटि भारतीयों को अपनी सांस्कृतिक थाती का उद्बोध कराती रहे। तमसो मा ज्योतिर्गमय भिक्षु बोधिस्थल हम हैं आपके, राजसमन्द १५-१-७६ भिक्षु बोधिस्थल के सदस्य एवं सहयात्री Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड जय भिक्षु जय तुलसी श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा, लावासरदारगढ़ की तरफ से श्रीमान् समाजसेवी सर्वगुणसम्पन्न श्रावक श्री केसरीमलजी साहब सुराणा को __सादर समर्पित अभिनंदन पत्र काका केशर सुन्दर काकी है यह जुगती जोड़। सतत सेवा करते रहो, तपो दिवाली कोड़। मान्यवर सुराणा साहब! हम आपका क्या अभिनन्दन करें सारा समाज आपका हार्दिक अभिनन्दन कर रहा है। आपने युवावस्था में ही सपत्नी ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी जो साधना प्रारम्भ की यह एक अनूठा उदाहरण है। आपकी तेरापंथ शासन एवं शासनपति के प्रति प्रारम्भ से दृढ़ श्रद्धा है। कांठा प्रान्त मर्यादा पुरुषोत्तम आचार्य भिक्षु का जन्म, दीक्षा, अनशन, समाधि एवं प्रमुख विहार क्षेत्र है। इसमें राणावास, मेवाड़-मारवाड़ के मध्य का स्थान है। जिसको उपयुक्त चुनकर यहाँ आपने लगभग पैतीस वर्ष पूर्व तेरापंथ धर्मसंघ की ओर से जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ की स्थापना की। इस संस्था के प्रति आपका तन, मन, धन एवं सर्वस्व समर्पित है और आप इस कार्य में जी-जान से जुटे हुए हैं एवं चिरकाल तक जुटे रहेंगे। आपके त्यागमय ओजपूर्ण व्यक्तित्व से धनराशि भी एक एकत्रित होने में कोई कमी नहीं रही। अब पाँच वर्ष से महाविद्यालय भी चल रहा है । इसी संस्था के अन्तर्गत प्राथमिक, माध्यमिक, छात्रावास की भव्य अट्टालिकाएँ, एवं निकट बना बगीचा, खेतीबाड़ी, गौशाला, अतिथिगृह, औषधालय आदि सभी आपकी सूझ-बूझ एवं दूरदर्शिता का ही सुपरिणाम है। अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ की देख-रेख आप द्वारा ही होती है । यहाँ विद्याध्ययन के साथ-साथ चरित्र-विकास एवं आज्ञा-अनुशासन पर विशेष बल दिया जाता है। प्रतिवर्ष विद्वान चारित्रात्माओं के चातु स हो रहे हैं। आचार्य प्रवर का मर्यादा महोत्सव वि० सं० २०१० में हुआ था और निकट भविष्य में आचार्य प्रवर का चातुर्मास भी होगा और जरूर होगा। यह सब आपके निरन्तर प्रयासों का सुफल है। राणावास की इस विद्याभूमि में प्रायः सभी प्रान्तों के विद्यार्थी विद्या-अर्जत हेतु आते हैं। यहाँ का परीक्षा परिणाम भी सुन्दर रहता है । आपको अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सुन्दरदेवी का सदा सहयोग मिलता रहा है । आपकी संयम, सादगी, तपस्या का लेखा बहुत लम्बा है जिसे लिखने में हमारी लेखनी असमर्थ है। हम सभी आपका हार्दिक अभिनन्दन करते हुए यही कामना करते हैं कि यह काका-काकी की जोड़ी अमर रहे। त्रुटि के लिए क्षमा ! आपका दिनांक १६ जनवरी, सन् १९७६ आपका नानालाल बाबेल बहादरमल कछारा अध्यक्ष मन्त्री श्री जैन श्वे. ते० सभा श्री जैन श्वे. ते० समा (लावासरदारगढ़) (लावासरदारगढ़) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनों का आलोक त्यागम ति श्रीयुत केसरीमलजी साहब सुराणा (काका साहब) के ७०वें जन्मोत्सव के उपलक्ष में सादर समर्पित अभिनन्दन-पत्र व्यक्ति नहीं, उसका कर्म सत्य है। जन हित में निरत कर्म-शिव है और उसका विस्तार ही सुन्दर है । सत्यंशिव-सुन्दरं की इस त्रिवेणी का तटवर्ती जीवन व्यतीत कर रहे आपके तीर्थोपम व्यक्तित्व का हार्दिक अभिनन्दन करना प्रत्येक के लिए गौरव का विषय है। अनासक्त कर्मवीर ! दूसरों के लिए जीने वाले, जीने को शाश्वत बनाने वाले व्यक्ति का व्यक्तित्व महान और असाधारण होता है। ऐसे महापुरुषों की दृष्टि में जीवन स्वयं एक साधना बन जाता है। आपश्री एक ऐसे ही असाधारण व्यक्तित्व के धनी महापुरुष हैं, जिनके लिए कर्म ही अथ और इति है। गीता के निष्काम कर्म का व्यावहारिक रूपायन आपके जीवन में हुआ है । शिक्षा, धर्म, समाज सुधार, दान आदि के विविध क्षेत्रों में आपकी तपःपूत कर्मण्यता की शोभाश्री दृष्टिगत होती है । जीवन को कर्म का वरदान देने के कारण ही विभिन्न विभूतियों द्वारा आपको 'नरकेसरी' के विशेषण से विभूषित किया गया है । वस्तुतः आप कमल की भांति अनासक्त कर्मयोगी हैं। त्यागी एवं तपस्वी ! अनासक्त कर्मयोगी महापुरुषों का जीवन प्रायः आत्मोन्मुख ही होता है । आसक्ति में उनकी किंचित् भी आस्था नहीं होती। आपका जीवन इसका एक अनुपम उदाहरण है । वि. सं. २००१ में वैभव-सम्पन्न अपने व्यावसायिक जीवन का परित्याग कर आप भोगी से योगी बन गये। समष्टि-सुख के लिए आपने व्यक्तिगत सुखों का होम कर दिया । जहाँ एक ओर आपने अपना सर्वस्व समाज को अर्पित कर दिया, वहाँ दूसरी ओर आत्म-साधना में लीन रहकर आपने अपनी भौतिक इच्छाओं का परित्याग कर दिया। साधु न होते हुए भी जीवन को साधुतामय रखना आपके जीवन की अलोकिक विशेषता है । खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार आदि प्रत्येक स्तर पर आपका जीवन त्याग और तपश्चर्या की प्राणवान परिभाषा से तराशा हुआ प्रतीत होता है आत्मोत्थान में लीन आपकी दिनचर्या, आपका जीवन स्वयमेव एक तपश्चर्या है । एक दिन-रात में १६ सामायिक, १६३ घण्टे मोन, चंद घण्टे मात्र रात्रि-शयन, रात्रि-आहार व पानी का त्याग, उपवास, एकासन, आयम्बिल आदि का यथासमय पालन, मात्र सो रुपये मासिक व्यय में पति-पत्नी दोनों के जीबन-निर्वाह का व्रत और इस सीमा बन्धन के बाद भी अतिथि-सत्कार कर आत्मिक प्रफुल्लता की अनुभूति आदि निश्चय ही आपके त्याग और तप, साध्य दिनचर्या तथा जीवन के अद्भुत उदाहरण हैं । आपके साधुत्व, संयमित एवं साधनामय जीवन को ही लक्ष्य कर युग प्रधान आचार्य प्रवर श्री तुलसी ने आपको साधु-पुरुष की संज्ञा से विभूषित किया है। सादगी की प्रतिमूर्ति ! वस्त्र-सीमा, खाद्य-सीमा, अर्थ-सीमा और समय-सीमा जहाँ एक ओर आपके साधनामय जीवन को व्यक्त करती हैं, वहाँ दूसरी ओर आपके सादे जीवन को भी प्रकट करती है । श्वेत परिधान के विशिष्ट परिवेश से युक्त आपका संयमित व्यक्तित्व किसी महामनीषी ऋषि-मुनि के व्यक्तित्व के सदृश दृष्टिगत होता है। वस्तुत: आप 'सादा जीवन उच्च विचार' के मूर्त स्वरूप हैं। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड श्रावक श्रेष्ठ! जैनधर्म, तेरापंथ शासन, आचार्य प्रवर श्री तुलसी के प्रति आपका निष्ठापूर्वक समर्पित साधु-जीवन श्रावक समाज के लिए प्रकाश-स्तम्भ है । साधु-साध्वी श्रीवर्ग के प्रति आपकी भक्ति अनुपम है। प्रति चातुर्मास-अवधि में अपने सद्प्रयत्नों से विद्वान् संत श्री एवं विदुषी साध्वी श्री के सुसान्निध्य का सौभाग्य राणावासवासियों एवं अन्य को उपलब्ध करवाना आपके श्रावक-धर्म के अनुपम आदर्श को प्रस्तुत करता है। वस्तुतः आपके जीवन में साधुत्व और श्रावकत्व का जो अद्भुत समन्वय है वह अन्यत्र उपलब्ध होना कठिन है। तेरापंथ के गांधी ! तेरापंथ शासन की मान और मर्यादा के आप महात्मा गांधी की भाँति सजग प्रहरी हैं। 'अणुव्रत आन्दोलन' के प्रचार-प्रसार द्वारा आपने समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाकर उन्हें 'चरित्र-धन' प्रदान किया है। आचार्य तुलसी के उद्घोष 'अपने से अपना अनुशासन' को आपने अपने जीवन में साकार किया है। सरस्वती के पुजारी ! __एक व्यक्ति को शिक्षित करना, एक तीर्थयात्रा के समान है । महामना आपने राणावास को एक शैक्षणिक तीर्थ बनाने का गुरुतर कार्य किया है । अनेक बाधाओं का अविचलित सामना करते हुए आपने महाविद्यालय-स्तर की उच्च शिक्षा का शंख-नाद कर माँ भारती को पुलकित किया है । नारी-शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु आप द्वारा संस्थापित 'अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ' महिला-समाज के उत्थान हेतु मील का एक पत्थर बन चुका है। निर्धन छात्र-छात्राओं को शुरुक मुक्ति एवं आर्थिक सहायता प्रदानकर आप उनके प्रगति मार्ग को प्रशस्त बनाते रहते हैं। पुस्तकीय ज्ञान के साथ चरित्र-निर्माण का मणि-कांचन संयोग आपके ही सद्प्रयासों से प्रस्तुत हुआ है । आपने विद्यार्थी वर्ग को मात्र साक्षर ही नहीं, वरन् 'शिक्षित' बनने की दिशा में अग्रसर किया है । शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु आपने अपना सब कुछ समाज को समर्पित कर दिया और झोली लेकर घर-घर, गांव-गांव, शहर-शहर घूमकर संस्था के लिए अस्सी लाख से अधिक की धनराशि एकत्र की है । निश्चय ही आप राजस्थान के मदन मोहन मालवीय हैं । राणावास की भूमि को विद्याभूमि के अलंकार से अलंकृत करने का श्रेय आप ही को है। समाजसेवी और सुधारक ! समाजसेवा का सर्वोच्च धरातल आपने सच्ची शिक्षा के प्रचार-प्रसार में पाया । समाज-सेवा के इस पुनीत यज्ञ में आप स्वयं आहुति बन गये । आपकी यह धारणा रही है कि सही शिक्षा के माध्यम से ही समाज उन्नति कर सकता है । सं. २००१ में आपके नेतृत्व में जिस बीज को बोया गया, आज वह प्रस्फुटित होकर विशाल वट-वृक्ष के रूप में खड़ा है। समाज में व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन हेतु आप प्रारम्भ से ही प्रयत्नशील रहे हैं । जन्म, विवाह, मृत्यु से संबद्ध निःसत्त्व कुरीतियों से प्रदूषित सामाजिक परिवेश के शुद्धिकरण हेतु आपने समय-समय पर क्रांतिकारी कदम उठाए। छूआछूत, दहेज व पर्दाप्रथा की लज्जास्पद विसंगतियों से भी समाज को मुक्त कराने के लिए आपने अविस्मरणीय प्रयास किये हैं, क्योंकि आपकी मान्यता रही है कि कुरीतियों और रूढ़ियों से मुक्त समाज ही प्रगति कर सकता है । भगवान महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दी की प्रांतीय समिति ने आपको 'समाज-सेवक' की उपाधि से विभूषित किया है। भवन निर्माता! राणावास में शिक्षा के अनुरूप साज-सज्जा से युक्त परिसर निर्मित करने में आपका कठोर परिश्रम अमूल्य है। विद्यालय एवं महाविद्यालय के भव्य परिसर दर्शनीय स्थल का रूप धारण कर चुके हैं । आपके संचालन में निर्मित महाविद्यालय, ११० कक्षों वाले छात्रावास, बृहद सभा स्थल, अतिथिगृह, औषधालय आदि के विशाल एवं भव्य भवनों से घिरे महाविद्यालय-परिसर को देखकर यहाँ आने वाले ख्यातिप्राप्त शिक्षा-शास्त्री, समाज-सेवी, गणमान्य नागरिक आदि सभी ने इसे 'शांति निकेतन' और 'वनस्थली' के समकक्ष मानकर इसकी सराहना करते हैं। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनों का आलोक ..-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-.-. -.-.-.-. -. -. -. -. -. -. दृढ़ संकल्पी एवं धुन के धनी ! प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक के सोपान निर्मित कर आपने प्रगति का जो दृढ़ धरातल प्रदान किया है, वह आपकी दृढ़ संकल्प शक्ति एवं धुन का ही सुपरिणाम है । आपने जो बीड़ा उठाया, उसे पूरा कर दिखाया नेपोलियन की भाँति आपके शब्दकोष में 'असम्भव' शब्द नहीं है। महाविद्यालय का सुसज्जित, भव्य एवं विशाल परिसर तथा इसके हेतु आप द्वारा अब तक करीब सैतालिस लाख रुपयों की धनराशि का एकत्र करना आपके दृढ़ संकल्प एवं जीवट के ही प्रतीक हैं। यहाँ का कण-कण आपके ही रक्त से रक्ताभ है, आपकी ही शक्ति से प्राणवान है। वस्तुतः आप स्वयं अपने आप में एक संस्था हैं। कुशल प्रशासक! भारत की इस विशाल एवं ख्याति प्राप्त संस्था के सुव्यवस्थित संचालन की बागडोर आप जैसे दृढ़ संकल्पी कुशल प्रशासक के शक्तिशाली हाथ ही थाम सकते हैं। सिंह की मांद में रहना हँसी-खेल नहीं होता। आप जैसे 'नरकेसरी' के नेतृत्व में भी कार्य करना आसान नहीं है । निश्चय ही आपका व्यक्तित्व अनुकरणीय है, अभिनन्दनीय है। कर्म, धर्म, सेवा शिक्षा, समाज-सुधार आदि प्रत्येक दिशा में आपने यौगिक तन्मयता और औदात्य के शाश्वत आदर्ण स्थापित किये हैं । आपका जीवन एक ऐसी खुली पुस्तक है, जिसका प्रत्येक पृष्ठ जीवन के उच्च मूल्यों के स्वर्णाक्षरों से युक्त है । इस विकासोन्मुख समाज का चराचर आपके दीर्घ जीवन एवं आत्मोन्नयन की शुभकामना करता है । हम आपके हैं, आप हमारे हैं, सम्पूर्ण समाज के हैं । आप शत-शत वर्षों तक हमारा मार्ग दर्शन करते रहें, हमें प्रेरणा देते रहें, यही हमारी शुभकामना और प्रभु से प्रार्थना है राणावास २१-२-१९७६ हम हैं आपके आज्ञाकारीश्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय परिवार के सदस्य (श्री सी. आर. जे. बी. एन. भंसाली वाणिज्य संकाय एवं श्री सी. जे. सेठिया कला संकाय) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सराणा अभिनन्दन प्रन्थ: प्रथम खण्ड कर्मयोगी श्रीयुत केसरीमलजी साहब सुराणा (काका साहब) ७०वें जन्म दिवस पर सादर समर्पित मान-पत्र जीवन है दीपक, और कर्म बाती, साधु-पुरुष औं' गृहस्थ संन्यासी, जन को समर्पित प्राण चेतनमय, काका का जीवन, अहा! वीतरागी! कर्मयोगी सुराणाजी! सार्थक जीवन की प्राणवान परिभाषा ! कर्म का एक चेतन मन्दिर !! समाज के कोटि-कोटि प्राण इस चेतन मन्दिर की देहरी पर नत शिर हैं । कर्मठता, परोपकार, संघर्ष, आत्मदृढ़ता आदि सभी पक्ष आप जैसे कर्मयोगी पुरुष की श्वेत चादर के धागों में गुथे हुए हैं । आपके लिए कर्म ही तपस्या है। गरीबी व अशिक्षा जैसे अभिशप्त सामाजिक पक्षों को आपके पारस-धर्मा कर्म ने स्वर्णिम वरदान देकर कर्मयोग को एक अनुकरणीय आयाम प्रदान किया है। साधु-पुरुष ! आचार्य श्री तुलसी ने सुराणाजी के जीवन को “साधु-पुरुष" के विशेषण से विभूषित किया है। आपने संयम, सदाचरण, आत्मचिंतन आदि साधनों से स्वयं को तराशा है। अपने आप में साधु-पुरुष को प्रत्यक्ष कराया है। आपकी सार-ग्राहिणी साधु-वृत्ति से प्रभावित होकर ही समाज ने आपको 'तेरापंथ के गांधी' कहकर सम्मानित किया। अहंकार से दूर आपके त्यागमय व्यक्तित्व-दर्शन में तपोवन की-सी शांति एवं पवित्रता का आह्लाद मिलता है। उत्कट विद्यानुरागी ! शिक्षा भी एक तपस्या है जो मानव-व्यक्तित्व का संवर्द्धन करती है। आपने सम्पूर्ण राणावास को विद्यामन्दिर का वरदान दिया है। शिक्षा-शिक्षक-शिक्षार्थी में समन्वय रहे......"इस त्रिकोण के इर्द-गिर्द चारित्रिक आलोक के वलय प्रदीप्त रहें-यहो आपका सर्वोपरि लक्ष्य रहा है। आप स्वतन्त्र भारत के मदन मोहन मालवीय हैं। शिक्षा के यज्ञ में अपने जीवन की पल-पल की आहुति देने वाले आप विद्यावीर के रूप में अनन्त काल तक यशोदीप्त रहेंगे। गृहस्थ-संन्यासी ! समस्त राजसिक व तामसिक कर्मों को छोड़कर आपने एक गृहस्थ-संन्यासी का आदर्श प्रस्तुत किया है। सात्विक कर्मों से ही आप सद्गृहस्थ हैं और उनमें भी अनासक्त रहने के कारण आप समाज के लिए श्रद्धास्पद हैं । भोग पर योग की विजय इनके गार्हस्थ्य-जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है । संयम, त्याग, सेवाभाव, अनासक्ति, उदारता, परोपकार आदि की 'सीढ़ियाँ' चढ़कर 'हम जिस' घर पहुंच सकते हैं वह घर आप जैसे-एक गृहस्थ-संन्यासी का है। अनुकरणीय विभूति ! आपका व्यक्तित्व समय की शिला पर अमिट हस्ताक्षर बनकर चिरकाल तक रहेगा । आपका व्यक्तित्व 'अमृत Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलश' है; जिसे पाने के लिए सांसारिक व्यक्ति लालायित रहता है। एक योगी, समाज-सुधारक, विद्या-वीर और गृहस्थ संन्यासी के रूप में आपका जीवन अनुकरणीय है । सुबह की लाली, हे मानवता के स्मारक ! आपके यश में घुल जाय, दोपहर का तेज, हे शिक्षा जगत के प्रकाश स्तम्भ ! आपको और अधिक तेजोदीष्ट करे तथा सुधाकर का अमृत आप जैसे तपःपूत योगी के व्यक्तित्व को अतिशय सुधामय करता रहे और आप शत-शत वर्षों तक हमारे प्रेरणा स्रोत बनते रहें - यही हमारी शुभकामना और जिनेश्वर देव से प्रार्थना है। श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय - (श्री सी. आर. जे. बी. एन. भंसाली वाणिज्य संकाय एवं श्री सी. जे. सेठिया कला संकाय) राणावास २१-१२-१६७९ अभिनन्दनों का आलोक १३५ हम हैं आपके ही अपने श्री रामचन्द छोगालाल भंसाली छात्रावास के अधीक्षक एवं पात्र - Colombo to o .0 . Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड .............................................................. जय भिक्षु जय तुलसी कर्मठ नर-रत्न, कर्मयोगी श्रद्धय काका साहब श्रीमान केसरीमलजी सुराणा पवित्र चरणों में समर्पित RSSESESEDESESESEBEDES अभिनन्दन-पत्र 889RESESESENSESERES मान्यवर ! हम आदर्श निकेतन के छात्र परम विनीत भाव से श्रद्धापूर्वक आपके कर-कमलों में इस अभिनन्दन पत्र को समर्पित करते हुए अत्यन्त गौरव का अनुभव कर रहे हैं । आपका अध्यात्म से परिपूर्ण जीवन न सिर्फ समाज वरन् राष्ट्र के लिए एक ऐसी प्रज्वलित मशाल है जिसका भारतीय लोक-जीवन में दूसरा उदाहरण मिलना कठिनतम है। महानुभाव ! सादा जीवन की प्रतीक आपकी वेशभूषा, प्रेम से आतप्रोत प्रसन्न मुख, अचूक व अविलम्बित निर्णय प्रवृत्ति हमको आपकी स्पष्ट जीवन-प्रणाली से स्वाभाविक प्राप्त हुए हैं। उन्हें अपने जीवन में सोत्साह उतारने में ही अपना कल्याण समझेंगे। इन अबोध बालकों का 'प्रिय छात्रो' ऐसे शब्दों द्वारा संबोधन करते हुए सुबोध व प्रबोध करने हेतु कष्ट उठाकर भी आपने हृदय में प्रसन्नता ही अनुभव की है। श्रद्धेय काका साहब ! आपकी संयम वृत्ति, सन्तोषी प्रकृति, सतत अध्ययनशीलता, आध्यात्मिक रुचि और कठोर तपश्चर्या का ही यह पुण्यप्रताप है कि हम राणावास, जैसे छोटे से स्थान में विश्व वंद्य, अणुव्रत आन्दोलन के अनुशास्ता, युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी की असीम कृपा से प्रतिवर्ष चारित्रात्माओं के चातुसि एवं शेष काल में सद् संगति और प्रवचनों का लाभ उठाते रहे हैं और ज्ञान-दर्शन-चारित्र की त्रिवेणी में स्नान करते रहे हैं । शिक्षा एवं समाजसेवी ! __राणावास जैसा छोटा स्थान विद्यानगरी बना है, जिस राणावास को कोई नहीं जानता था उसे सारा भारतवर्ष जानने लग गया है यह सब निरन्तर आपके प्रयासों का सुफल है । आपने शिक्षा-जगत में जो योग दिया है वह अद्वितीय स्थान रखता है । इन सब कार्यों में आपकी धर्मपत्नी परम श्रद्धे या श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है अतः हम सभी छात्र उनके बड़े आभारी हैं। कर्मठ लोह पुरुष ! आप अपनी बात के व धुन के धनी हैं । आपने जिस काम को हाथ में लिया उसे पूरा करके ही दम लिया। . Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनों का आलोक १३७. .................................................................. . ...... वेशभूषा में व कर्तव्यपरायणता में गांधीजी के समान, शिक्षा क्षेत्र में मदन मोहन मालवीय के समान हैं। अभी-अभी आपने इस वृद्धावस्था में मेवाड़ यात्रा कर जो धन-संग्रह अजित किया है, उसका लोहा सभी ने स्वीकार कर लिया है। परम क्षमाशील ! हम छोटे बालक हैं, चंचल स्वभाव के हैं और त्रुटियों से भरे पड़े हैं। इस कारण अपने छात्रावासी जीवन में नाना प्रकार के दोषों से आपके मानस को हम सन्तप्त करते रहे हैं । उसके लिए हम विनम्र भाव से नतमस्तक होकर हाथ जोड़कर क्षमायाचना करते हैं। महान नर-रल! आज आपका ७०वा जन्म दिवस मनाने का चिरकाल से अवसर मिला है। समाज में आप एक महान विभूति हैं । हम आपके गुणों का कहाँ तक वर्णन करें । सागर को गागर में नहीं भर सकते हैं । आपके अपने जन्मदिवस के इस शुभ अवसर पर हम शत शत शुभकामना करते हैं। आप स्वस्थ रहकर दीर्घायु प्राप्त करें, तथा अपने साधनामय जीवन की सौरभ अधिकाधिक प्रसारित करें। आपका वरद हस्त हमारे नत मस्तकों पर हम सदा अनुभव करते रहें, इसी आशा के साथ स्थान : आदर्श निकेतन छात्रावास विद्याभूमि, राणावास दिनांक २१-२-७६ बुधवार कृपाभिलाषी : अधीक्षक (१) श्री मूलसिंह चुण्डावत (२) श्री भैरूलाल बाफना (३) श्री लालसिंह चौहान हम हैं आपके कृपाभिलाषी आदर्श निकेतन छात्रावास के समस्त छात्र सत्र १९७८-७६ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : प्रथम खण्ड ॥ओम्।। श्रीयुत केसरीमलजी सुराणा को सादर समर्पित OSSERO अभिनंदन-पत्र OBSERESO SSESEBERRORESERSO परम श्रद्धास्पद! __ आज आपके सत्तरखें जन्म-दिवस के पुनीत सम्मान समारोह के शुभ अवसर पर हम आपका सादर अभिनन्दन करते हुए परम प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं । हमारे हृदय उल्लास से ओत-प्रोत होकर गद्गद् हो रहे हैं। आप पैतीस वर्षों से मानव हितकारी संघ का दृढ़ निष्ठा, असीम साहस और निःस्वार्थ भावना से कुशल संचालन कर रहे हैं। उसी के फलस्वरूप इस विद्यालय ने न केवल राजस्थान में बल्कि सारे भारतवर्ष में सम्मानजनक और गौरवशाली स्थान प्राप्त किया है, इसके लिए हम हृदय से आपके आभारी हैं। शिक्षा-प्रेमी! आपकी कर्तव्यनिष्ठा, प्रबन्धपटुता और अनुशासनप्रियता का ही यह परिणाम है कि विद्यालय एक ओर शैक्षिक और भौतिक विकास की ओर अग्रसर है, दूसरी और नैतिक और चारित्रिक शिक्षा के लिए भी सतत प्रयत्नशोल है। उसी के फलस्वरूप माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान में अपने परीक्षा परिणाम जिले में उच्चतर एवं उच्चतम स्तर के रहे हैं । आपके नेतृत्व में कला, वाणिज्य, विज्ञान, साहित्यिक व सांस्कृतिक शिक्षण की भी अभीष्ट अभिवृद्धि हो रही है। यह सब आपके स्वेद और रक्त से सिंचित शक्ति और प्रयत्न का ही प्रतिफल है जो सराहनीय है। उदारचेता! ____ आपने समय-समय पर धार्मिक एवं राष्ट्रीय समारोहों पर अपनी प्रभावोत्पादक वाणी में हमको अध्ययन, अध्यापन तथा कार्य संचालन के लिये उद्बोधन तथा प्रेरणा प्रदान कर हमारे चरित्र-निर्माण का जो पथ प्रशस्त किया है तथा पारितोषिक एवं पुरस्कार से लाभान्वित कर हमारे हृदय में जो उत्साह, उमंग और साहस की त्रिवेणी प्रवाहित की है, उसके लिए हम सब सच्चे हृदय से आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं और कृतज्ञता अनुभव करते हैं। संयम और साधना के धनी ! ___ आपका अपने आराध्यदेव युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी के प्रति पूर्ण श्रद्धाभाव, सरल व सादा रहन-सहन, संयमित और अनुशासित आचरण, मृदुल और स्नेहशील व्यवहार, दिवस और रात्रि में पन्द्रह घण्टों की धर्म जागरणा, सात्त्विक और मर्यादित आहार, अतिथि सत्कार, चारित्रात्माओं की सेवा-सुश्रूषा आदि विशिष्ट गुणों से युक्त जीवन भारतीय संस्कृति के अपूर्व सामंजस्य का प्रतिबिम्ब हमारे मानस पटल पर अंकित होकर हमारा पथ प्रदर्शन करता है जिससे हममें भी इस संस्कृति के प्रति निष्ठा जागृत होगी ऐसा पूर्ण विश्वास है। कुशल प्रशासक! आपके उत्तरदायित्व ग्रहण करने के समय ये यह विद्यालय प्राथमिक स्तर से उच्च माध्यमिक स्तर तक Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनों का आलोक १३६ -.-.-.-.-.-............................................................... क्रमोन्नत हुआ है, जिससे विद्यार्थियों, अध्यापकों और कर्मचारियों की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि हो रही है। आपके प्रबन्धकौशल, अर्थसंग्रहपटुता और दूरदर्शिता के ही ये प्रतिफल हैं जो आपके शिक्षा-प्रेम और राष्ट्र-निर्माण के संकल्प को उद्घोषित करते हैं । आप विद्यालय के प्राण हैं, राष्ट्र की आदर्श विभूति हैं एवं हम सब के लिए परम आदरणीय हैं । हम आशा करते हैं कि आपके कुशल नेतृत्व में यह विद्यालय दिन दूनी व रात चौगुनी अभिवृद्धि करते हुए राष्ट्र की समृद्धि में सदैव चार चांद लगाता रहेगा। मंगल कामना ! आपके पुनीत आचरण, त्यागवृत्ति एवं समाज-सेवा की छत्रछाया में हम जिनेश्वरदेव से प्रार्थना करते हुए मंगल-कामना करते हैं कि आप स्वस्थ एवं चिरायु होवें । आपकी कीर्ति-पताका चहुँ दिशि में फहराती रहे । आप राष्ट्रनिर्माण में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहें एवं जन-जन में ज्ञान गंगा प्रवाहित कर "प्रकाश स्तम्भ" स्वरूप हमारा मार्ग दर्शन करते रहें। राणावास दिनांक २१ फरवरी, १९७६ हम हैं आपके श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय परिवार के सदस्यगण Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड ॥ अर्हम ।। ... त्यागमूर्ति, कर्मयोगी, शिक्षा-प्रेमी, समाजसेवी श्रीमान काका साहब श्रीयुत केसरीमलजी सुराणा को सादर समर्पित अभिनन्दन-पत्र श्रद्धय । औषधालय भवन के उद्घाटन के इस शुभ अवसर पर आपका सादर अभिनन्दन करते हुए हमें परम हर्ष का अनुभव हो रहा है। हम गौरवान्वित हैं कि आपके कर-कमलों द्वारा इस औषधालय भवन का उद्घाटन हो रहा समाजसेवी! आपने अपना सारा जीवन समाजसेवा में अर्पित किया है । भारत के इतिहास में आप जैसे व्यक्ति बिरले ही मिलेंगे जिन्होंने अपना तन, मन व धन सभी कुछ समाजसेवा में समर्पित कर दिया हो। सामाजिक कुरीतियों के निवारण हेतु आप सदैव आगे रहे हैं। राजस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर पच्चीस सौवीं निर्वाण महोत्सव समिति द्वारा आपको 'समाज सेवक' की उपाधि से अलंकृत किया गया है, जिसके आप सच्चे अधिकारी हैं। शिक्षा-प्रेमी! आप शिक्षा जगत के एक उज्ज्वल नक्षत्र हैं, एक प्राथमिक विद्यालय से आपने महाविद्यालय स्तर तक निजी क्षेत्र में विस्तार कर राणावास का नाम शिक्षा जगत में सारे भारत में रोशन किया है तथा इसको विद्याभूमि के नाम से अलंकृत कराने का श्रेय आपको ही है । आपने महिला शिक्षण के लिये अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ जैसी संस्था प्रारम्भ की जो महिला समाज के लिए मील का पत्थर बन चुका है । आप सरस्वती के पुजारी हैं और विद्याभूमि राणाबास से निकले हुए एक नहीं अनेकों विद्यार्थी देश में सितारों की तरह चमक रहे हैं जिन पर सारे समाज को गर्व है । स्कूल व कालेज के छात्रावास में विद्यार्थियों को जो संस्कार मिल रहे हैं उसकी कोई मिशाल नहीं है। डा० डी० एस० कोठारी जैसे शिक्षाविद ने भी इस संस्था के संस्कार-निर्माण की भूरि-भूरि प्रशंसा की है और साथ में यह छोटा सा गाँव भी आपके स्नेह तथा मार्गदर्शन से वंचित नहीं रहा। श्री पी० एच० रूपचन्द डोसी जैन माध्यमिक विद्यालय इसका उदाहरण है, जिसको आपने पौधे के रूप में यहाँ लगाया है। यह पौधा आपकी स्मृतियाँ हमें सदैव याद कराता रहेगा। त्यागी एवं तपस्वी! जहाँ मनुष्य धन को केन्द्रित रख उसके चारों ओर घूमता है वहीं आप स्वयं केन्द्रित रहे और कर्म को प्रेरणा देते रहे । कर्म और तपस्या, त्याग और गरिमा, स्नेह और समता की आप प्रतिमूर्ति हैं । यही नहीं आपने अपना सारा व्यवसाय एवं सम्पत्ति को तृणवत् त्याग कर आपने जीवन की आवश्यकताओं को न्यूनतम कर लिया, यह एक . Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनों का आलोक १४१ . ................................................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-... प्रशंसनीय ही नहीं अपितु अनुकरणीय उदाहरण है। आपकी दिनचर्या सम्पूर्ण रूप से एक साधक की दिनचर्या है तथा दिन-रात के २४ घन्टों में अधिकतम समय स्वाध्याय, मौन एवं चिंतन में व्यतीत होता है। कुशल प्रशासक व शिल्पी ! __जहाँ आपने संस्कार युक्त चरित्र का निर्माण किया है वहाँ आपने अपनी संस्था के विशाल क्षेत्र में अपनी कल्पना एवं शिक्षा की गरिमा के अनुरूप सुन्दर भवनों का निर्माण भी किया है, जिससे जिज्ञासु एवं शिक्षा-प्रेमी छात्र आपके मार्गदर्शन में विद्यालाभ ही नहीं अपितु जीवन का निर्माण कर रहे हैं। इतनी बड़ी संस्था को जो कि अपने आप में सम्पूर्ण है आप जैसे व्यक्ति ही उसको संचालित कर सकते हैं । अर्थ का इतना बड़ा संकलन और समुचित उपयोग कोई साधारण कार्य नहीं है । अनासक्त कर्मवीर ! आप अपने लिये नहीं जिये अपितु आपका जीवन दूसरों के लिए है। कर्मफल की साध आपने कभी नहीं की। आपके लिये कर्म ही इति है तथा आपके जीवन में त्याग, तप व कर्म की त्रिवेणी के दर्शन होते हैं । अतः आपको 'नर केसरी' से विभूषित किया जाना सर्वथा आपकी गरिमा के अनुरूप है। अन्त में हम आपके दीर्घ एवं शतायु जीवन की परमपिता प्रभु से कामना करते हैं और आशा करते हैं कि आपका स्नेह पूरित मार्गदर्शन हमें सदैव मिलता रहेगा। रामसिंह का गुड़ा जिला-पाली (राजस्थान) १ फरवरी, १९८० हम हैं आपके रामसिंह का गुड़ा के निवासी - 0 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · .O १४२ DISION कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड समाजसेवी श्री केसरीमलजी सराणा राणावास को श्री मेवाड़ जैन श्वेताम्बर तेरापंथी कान्फ्रेन्स द्वारा समर्पित अभिनंदन - पत्र केसरीमलजी सुराणा, काका सा० हमारे हैं और हम सभी आपके हैं । मारवाड़ में रहते हुए जब कभी मेवाड़ की इस वीरभोग्या वसुन्धरा ने याद किया ये कर्मयोगी सेवा और सहायता के लिये इस तरह चले आये, जैसे इन्द्रकोप के समय कृष्ण गोकुलवासियों के लिये दौड गये। फिर हम कैसे कहें कि श्री सुराणा जी हमारे नहीं है । शक्ति के प्रतीक काका सा० की शक्ति, ऐसा कौन सा क्षेत्र है जिसमें नहीं लगी है । जन-जन को अज्ञानान्धकार से उबारने में आपने जीवनपर्यन्त कितनी शक्ति शिक्षा के क्षेत्र में लगाई है, जिसका मूर्त स्वरूप है राणावास में स्थापित शिक्षा केन्द्र "सुमति शिक्षा सदन"। इससे प्रकट होता है कि आप शिक्षा में रुचि रखने वाले ही नहीं वरन् लोक शिक्षण के प्रचेता के रूप ज्ञान के प्रकाश को दिगदिगन्त में फैलाने वाले हैं । रीति तो भारतीय संस्कृति की यह रही है कि जो अपने आप में समा गया, अपने कर्म में कर्ममय हो गया वह घुन का पक्का सदा सर्वदा परिवार व समाज में वर्चस्वी रहता आया है । काका सा० को भी हम उसी घुन के धनी व्यक्ति के रूप में पाकर बहुत-बहुत अनुगृहीत है कि चाहे आपको सहयोग मिला या असहयोग आपका विरोध किया गया हो या पीठ थपथपाई गई हो, पर आप सदा सर्वदा अपनी राह पर लाख संघर्षों के बावजूद निर्बाध रूप से गतिमान रहे । ममता और समता के ओ साधक ! आपसे हम मेवाड़वासियों ने सदा सर्वदा माँ जैसी ममता एवं साधु जैसी समता पाई। ऐसे कई अवसर आए जब आपका वात्सल्य एवं स्नेह हम सभी के लिए उमड़ पड़ा । लगन अगर आपमें हमने कोई देखी तो वह एक मात्र है समाज सेवा की । हमारे पास शब्द नहीं भाव हैं । हमने देखा कि आप अपना सब कुछ छोड़ त्यागी हो गये । गृहस्थ योगी और रम गये समाज सेवा की साधना में । हमें आपकी समाज सेवा से महान प्रेरणा व शक्ति मिलती है। , 1 सुमति के धनी आप पहले परमार्थ में नगे और फिर आत्मार्थ में यही कारण है कि सुमति शिक्षा सदन के लिये एक करोड़ का कोष बना आप एक मात्र आत्म-साधना में लीन होने जा रहे हैं। आपकी समाज सेवा ने जहाँ हमें प्रकाश दिया वहाँ निस्पृह साधक के रूप में आपकी आत्म-साधना भी हमारे लिये नये कीर्तिमान स्थापित करेगी, ऐसा हमारा विश्वास है । राममय बनकर ओ काका सा० ! जीवन में अगर आपने किसी की साधना की तो वह तेरापंथ शासन एवं शासनपति रूपी शिव की। जिसकी साधना कर राम लंका विजय के लिये निकल पड़े और आप आत्म-विजय के लिये । ओ शासन-निष्ठ आप शतायु हों । नाम लिया तो उसी का लिया जिसके आप हो गये, और काम किया तो उसी का किया जो आपके हो गये । आप समाज के हो गये, समाज आपका हो गया, आप संस्थाओं के हो गये, संस्थाएँ आपकी हो गई । और यों आप हम सभी फूलों में सुगन्ध ज्यों हो गये । आपकी यह फूल जैसी सुगन्ध, मुस्कान और सुन्दरता धरती माँ के कण कण में बिखरे, फैले और सुगन्धमय हो जाय वसुन्धरा । लो स्वीकारो हमारा सबका शत्-शत् अभिनन्दन समारोह स्थल गोमती चौराहा हम है आपके समस्त मेवाड़वासी . Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवीर काका साहब श्री केसरीमलजी संरक्षक संचालक आदर्श निकेतन की विदाई के उपलक्ष में अभिनन्दन पत्र अभिनन्दनों का आलोक पूज्यवर ! आपके स्वर्णिम संरक्षण का हम बालकगण को लगभग तेरह वर्षों से जो अपूर्व लाभ मिलता रहा है व जिसके द्वारा हम सबका जो मृदुल मार्गदर्शन होता रहा है वह वर्णनातीत है। आपके महान आदर्शो की हम पर स्थायी छाप पड़ी है और हममें धर्मानुरागिता के अंकुर प्रस्फुटित होने लगे हैं। त्यागवीर ! आपकी स्यागवृत्ति हमें तो विचित्र सी लगती है जिस संस्थारूपी पौधे को आपने तेरह वर्ष की लम्बी अवधि तक अपने खून और पसीने से सींचा, क्या उसे छिटका देना सर्वसाधारण की शक्ति में हो सकता है ? नहीं, पर आप तो इसको इस तरह त्याग रहे हैं जैसे कि आपका इससे कभी सम्बन्ध ही नहीं रहा । आपकी विदाई की कल्पना से ही हमें रोमांच हो जाता है । समाज-सेवक ! १४३ आपने शिक्षण संघ के माध्यम से समाज सेवा का एक अनुकरणीय आदर्श रखा है। आदर्श निकेतन सुमति शिक्षा सदन का आज का विकसित रूप आप ही की देन है। इस प्रकार निःस्वार्थ सेवा देने वाले विरले ही होते हैं । आपकी समाज सेवा चिरस्मरणीय रहेगी और समाज-सेवकों को सदा बल प्रदान करती रहेगी । स्पष्टवादी ! स्पष्टवादिता तो आपकी नस-नस में व्याप्त है । 'साफ कहना और सुखी रहना' के आप प्रबल पोषक हैं । आपने लल्लू चप्पू करना तो सीखा ही नहीं । इसी कारण आप हमेशा स्पष्ट रूप से हमारे दोषों को दिखाया करते थे । धन्य है आपके इस अलौकिक गुण को ! धर्मवीर ! आपने जब से व्यवसाय छोड़ा तभी से आप धर्म - साधना में लग गये । सामायिक, पौषध, तपस्या आदि धार्मिक कृत्यों द्वारा अपने आपको काफी हल्का बना लिया है । हम आज आपकी विदाई के अवसर पर बहुत दुःखी हैं। आपका सम्मान करते हुए हम आपसे एक विनय करते हैं। आप अपनी साधना में बाधा न डालते हुए एक बार नित्य यहाँ पदार्पण करें और अपनी अमूल्य हितशिक्षा हमें प्रदान किया करें। हम आपकी साधना की सफलता व दीर्घायु की कामना करते हैं । आशा है आप हम बालकों की इच्छा को उसी प्रकार पूर्ण करेंगे जिस प्रकार आज त करते रहे हैं । 0000 हम हैं आपके चरणरज श्री जैन श्वे० ते० छात्रावास के छात्र .0 . Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड श्री जिनेश्वरदेवाय नमः श्री भिक्षु गुरुभ्योनमः श्री तुलसी गुरुभ्योनमः अभिनंदन-पत्र परम आदरणीय, त्यागमूर्ति, समाजसेवी, शिक्षाप्रेमी, कर्मठ कार्यकर्ता, कर्मवीर काकासाहब श्री केसरीमलजी साहब सुराणा, मन्त्री श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ राणावास की सेवा में। आचार्य श्री तुलसी के श्रेष्ठ श्रावक ! आप आचार्य श्री तुलसी के श्रेष्ठ श्रावक हैं । आचार्य श्री द्वारा निर्दिष्ट श्रावकों हेतु आवश्यक गुणों के आप साक्षात ज्वलन्त प्रतीक हैं । साधु न होते हुए भी जीवन को साधुतामय रखना आपके जीवन की अलौकिक विशेषता है। युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी ने आपको 'ऋषि' साधु पुरुष की संज्ञा से विभूषित किया है । त्यागमूर्ति ! आपका जीवन त्याग से परिपूर्ण है । आप साक्षात त्यागमूर्ति हैं । त्याग और तपश्चर्या के द्वारा आत्मोत्थान हेतु आप निरन्तर नियमबद्ध रूप से धार्मिक क्रिया-कलापों में लीन रहते हैं। नियमित सत्रह सामायिक व मौनव्रत, ब्रह्मचर्य का पालन, अत्यन्त सात्त्विक व शुद्ध आहार का प्रयोग, आहार-पानी का रात्रि में त्याग आदि आपकी कठोर साधना के प्रतीक हैं। श्वेत परिधान के विशिष्ट परिवेश में आपका व्यक्तित्व किसी महा मनीषी ऋषि-मुनि सदश दृष्टिगत होता है। समाजसेवी! आपने अपना समग्र जीवन समाज को समर्पित कर दिया है। आप तन, मन व धन से सेवाकार्य में रत हैं । सामाजिक कुरीतियों के निराकरण हेतु आप सदैव तत्पर रहे हैं। राजस्थान प्रान्तीय भगवान महावीर पच्चीच सौवीं निर्वाण महोत्सव समिति द्वारा आपको 'समाज सेवक' की उपाधि से अलंकृत किया गया है। शिक्षाप्रेमी! आप पिछले ३५ वर्षों से श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ के माध्यम से राणावास में शिक्षा प्रसार कार्य में रत हैं । राणावास को 'विद्याभूमि' के नाम से अलंकृत करने का श्रेय आपको ही है । कांठा प्रान्त के मदन मोहन ! राजस्थान के ग्रामीण काँठा प्रान्त में 'शिक्षा यज' द्वारा ज्ञान ज्योति की किरणों को नि:स्पृह भाव से विकीर्ण कर राष्ट्र एवं समाज की अद्वितीय सेवा में आप पिछले पैतीस वर्षों से रत हैं। राणावास में प्राथमिक षिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा हेतु महाविद्यालय की स्थापना कर आपने इस क्षेत्र को जो शिक्षा सुविधाएँ उपलब्ध की हैं वे आपके दृढ़ संकल्प व कर्मठता की प्रतीक हैं । इसके साथ ही गुडारामसिंह में माध्यमिक विद्यालय की स्थापना आप ही के कर-कमलों द्वारा हुई है । आप इस क्षेत्र के लिए मदन मोहन मालवीय सिद्ध हुए हैं। स्त्री शिक्षा के पक्षधर ! -- 1.-.... समाज में स्त्रियों की दयनीय दशा व पिछड़ेपन का एकमात्र कारण स्त्री-शिक्षा के अभाव को पाकर Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनों का आलोक १४५ आपने राणावास में अखिल भारतीय महिला शिक्षण संघ की स्थापना की। इस पुनीत कार्य में आपकी सहधर्मिणी श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा का अद्वितीय सहयोग रहा है। इस शिक्षण संघ के अन्तर्गत बाल मन्दिर, माध्यमिक कन्या विद्यालय व बालिका छात्रावास आप ही के मार्गदर्शन में संचालित हैं। धार्मिक व नैतिक शिक्षा के हामी! अणुव्रत-अनुशास्ता युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी के सन्देश को आप अणुव्रत व धार्मिक परीक्षाओं तथा संत सतियों के प्रवचन आदि माध्यमों के द्वारा पहुंचा रहे हैं । प्रचलित शिक्षा के साथ ही बालक-बालिकाओं में चारित्रिक गुणों का विकास हो यह आपके जीवन का लक्ष्य रहा है। आपका अनमोल जीवन शिक्षण संघ की प्रगति के लिए आगामी कई वर्षों तक प्रेरणा प्रदान करता रहे, यही कामना है । आप चिरायु हों, जिनेश्वरदेव से यही प्रार्थना है। हम है आपके अध्यापक व छात्रगण श्री पी. एच. रूपचन्द डोसी जैन माध्यमिक विद्यालय गुडा रामसिंह (पाली) 02. GAANOPS Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११११७० १४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : प्रथम खण्ड त्यागमति, समाजसेवी, शिक्षाप्रेमी, संयमी C को श्रीयुत केसरीमलजी सुराणा सादर समर्पित अभिनंदन पत्र परम श्रद्धेय काका सा० ! आज हम सुमति शिक्षा सदन प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक आपके इकोतरवें जन्म दिवस के पुनीत अवसर पर सम्मानित करते हुए हर्ष अनुभव करते हैं और साथ ही साथ सादर अभिनन्दन करते हैं । हम सभी शिक्षक प्रसन्नता एवं उल्लासपूर्ण हृदय से परमपिता जिनेश्वर से प्रार्थना करते हैं कि आप जैसे कर्मयोगी, समाजसेवी एवं शिक्षाप्र ेमी मानव को सदा दीर्घायु एवं स्वस्थ जीवनयापन करने का अवसर प्रदार करें, जिससे कि आप विद्याभूमि की प्रगति में अधिकाधिक सेवा दे सकें । आप गौरवशाली महान आत्मा हैं, मानवता के श्रेष्ठ गुण आपमें विद्यमान हैं। सच्चे मानव एवं पुण्य आत्मा होने के नाते आप वन्दनीय एवं पूज्यनीय हैं । त्यागमूर्ति ! +10 संसार में ऐसी कम आत्मा हैं जो पृथ्वी पर अवतरित होकर सांसारिक मोह बन्धन में न फँसी हों । मगर आप पूर्व संचित कर्मों के प्रभाव से इस भूतल पर अवतरित होकर कम उम्र में ही इस बन्धन से दूर रहे । काम, क्रोध और मोह का लवलेश तक नहीं । साधन सम्पन्न परिवार में जन्म लेकर आपने समाजसेवा - हित सर्वस्व त्याग दिया । इन्द्रियाँ द्वारा त्याग करना सच्चा त्याग माना जाता है । आप ऐसे ही सच्चे त्यागी हैं, जिन्हें महापुरुष की संज्ञा से सुशोभित करना कोई बड़ी बात नहीं है । संयमी ! आपका संयम सराहनीय है। आप पर गुरु की कृपा है जिससे आप में आत्मिक बोध जागृत हुआ और पूर्ण संयमी बनकर ईश्वर प्राप्ति हेतु सक्रिय बने । जो सभी के लिये पथ-प्रदर्शन है । अमूल्य सेवा ! आपने अपना अमूल्य समय इस विद्यालय के कार्य में दिया तथा अथक परिश्रम कर इस नगरी को विद्याभूमि बनाया। रवि रश्मि की भाँति चहुं ओर प्रकाशित होकर अपना तेज बिखेरने में अग्रगणीय हैं । मंगल कामना ! आपके जन्म दिवस के पुनीत अवसर पर जिनेश्वर भगवान से प्रार्थना करते हैं कि हमारे काकासा दीर्घायु हों। आपकी सेवा का बिगुल बजता रहे । जनहित कार्य में कीर्तिमान स्थान प्राप्त कर मार्ग-दर्शन दें । For Private חוח Personal Use Only समुद्रलाल संचेती प्रधानाध्यापक Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी रत्न श्रीमती सुन्दर बाई जी सुराणा (ग्रन्थ नायक की धर्मपत्नी ye Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी रत्न श्रीमती सुन्दरदेवी सुराणा ( माताजी) श्री भूपेन्द्रकुमार मूया (उपमंत्री श्री जैन श्वेताम्बर मानव हितकारी संघ) • पति के लिये वरित्र, संतान के लिये ममता, समाज के लिये शील, विश्व के लिये दया तथा जीवमात्र के लिये करुणा संजोने वाली महाप्रकृति का नाम ही नारी है। ईश्वर के पश्चात् हम सर्वाधिक ऋणी इस नारी के ही हैं, प्रथम तो इसलिये कि वह जीवनदाती है, पुनश्च उस जीवन को जीने योग्य बनाने के लिये । महान पाश्चात्य विचारक लामार टाइन ने इसी कारण कहा है कि सम्पूर्ण महान वस्तुओं के मूल में नारी को ही प्रेरणा होती है इसी बात को एक अन्य विचारक विक्टर मोने इस प्रकार अभिव्यक्त किया है कि पुरुषों में दृष्टि होती है और नारियों में जन् दृष्टि । श्रीमती सुन्दरदेवी सुराणा ऐसी ही एक नारी रत्न हैं जिस पर सम्पूर्ण जैन समाज या कांठा क्षेत्र को ही नहीं अपितु पूरी मानव-जाति को गर्व और गौरव है । उनका सम्पूर्ण जीवन सेवा, स्पष्ट सौकार्य है। वे सर्व "माताजी" के सम्बोधन से ख्यात एवं प्रख्यात है माताजी हैं। माँ की ममता से मण्डित महिमामय उनका जीवन महिला जगत का आदर्श है । समर्पण, सौहार्द और शुचिता का स्वयं सम्बोधन के अनुरूप वस्तुतः आप जगत् ऐसी माताजी का जन्म वि० सं० १९६६ की वैशाख शुक्ला नवमी, मंगलवार को आन्ध्र प्रदेश के जयाराम नामक कस्बे में हुआ। आपके पूज्य पिताजी समरथमलजी सिसोदिया मूलतः कांठा क्षेत्र के ही नीमली गाँव के रहने वाले थे किन्तु व्यापार वाणिज्य की दृष्टि से जयाराम में आकर बस गये थे । माताजी का जन्म होते ही जैसे घर में लक्ष्मी का आगमन हो गया। यों आपका पितृ-परिवार पहले ही काफी सम्पन्न था किन्तु आपके जन्म के बाद लक्ष्मी की ऐसी कृपा हुई कि श्रीसम्पन्नता सुन्दर स्वरूप में श्रीवृद्धि प्राप्त करने लगी। बचपन बड़े लाड़-दुलार से व्यतीत हुआ। परिवार के समस्त सदस्य आपकी बालसुलभ चंचलता को निहारकर भावविभोर हो जाते यद्यपि आप परिवार में आठ भाई और तीन बहनों में सबसे छोटी थी किन्तु 'पूत के पाँव पालने में ही नजर आ जाते हैं' वाली उक्ति के साथ आपके भावी जीवन की स्वर्ण रेखाएँ बचपन में ही स्वयं उद्भूत थीं। यह सब होते हुए भी आपको भाईबहनों का सुख नहीं मिला। आपके कहने को तो आठ भाई थे लेकिन वे एक-एक कर बचपन में ही स्वर्ग सिधार गये । आपकी एक बड़ी बहन का शुभ विवाह रतनगढ़ निवासी श्री रूपचन्दजी बोथरा के यहाँ पर हुआ किन्तु उन्होंने मृत्यु को वरण कर लिया। आपकी अन्य बड़ी बहन भी बचपन में ही इस असार संसार से उठ गई । इस प्रकार लम्बे व भरे-पूरे परिवार में जन्म धारण करके भी भाई-बहनों के स्नेह से आपको वंचित रहना पड़ा। भी आपकी शिक्षा-दीक्षा जयाराम में ही सामान्य रूप से हुई। उस काल में महिलाओं में पढ़ाई-लिखाई का उतना प्रचलन नहीं था फिर भी आपको सामान्य शिक्षा अवश्य दी गई, लेकिन डिग्रीधारी शिक्षा आप ग्रहण नहीं कर सकीं क्योंकि १४ वर्ष की अल्प आयु में ही आपका विवाह राणावास निवासी श्रीमान् शेषमलजी सुराणा के ज्येष्ठ पुत्र और ग्रन्थनायक कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के साथ वि० सं० १९८० आषाढ़ कृष्णा त्रयोदशी को सम्पन्न हो गया । ससुराल में आने के बाद नववधू के रूप में पारस्परिक स्नेह व सौहार्द के साथ समय व्यतीत होने लगा किन्तु अल्प समय में ही आप पर उच्च प्रहार हुआ। आपके श्वसुर श्री शेषमलजी सुराणा का वि० सं० १९८२ में देहावसान हो गया । आपकी सासुजी श्रीमती छगनीदेवी का स्वर्गवास आपके विवाह के पूर्व वि०सं० १९७४ में ही हो चुका था । . Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 -0 .0 १४८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ प्रथम खण्ड ससुराल में बुजुर्गों का साया आपसे उठ गया । यह वज्रपात कम नहीं था, आपकी उम्र भी बहुत कम थी किन्तु आपके देवतातुल्य पतिदेव कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के कुशल व दूरदर्शी मार्ग-दर्शन में आपने गृहस्थाश्रम का भार बड़ी लगन, तन्मयता व परिश्रम के साथ उठाया । ससुराल में आते ही छः वर्षीय देवर श्री भंवरलालजी सुराणा के वात्य-जीवन को सजाने-संवारने का महत्त्वपूर्ण जिम्मा भी आपके सबल कंधों पर ही था। आपने अपने देवर को मातृवात्सल्य ही प्रदान नहीं किया अपितु उन्हें उनकी माँ की कमी कभी अखरने नहीं दी अल्पवय में आपकी यह कार्यकुशलता आपके व्यक्तित्व की विराटता को प्रभावित करती है। पन्द्रह-सोलह वर्ष की उम्र में ही आपके देवर श्री भंवरलालजी सुराणा का विवाह कर दिया गया। विवाह में माताजी ने जिस परिश्रम के साथ सम्पूर्ण दायित्व निभाए, वह भी आपकी गृहस्थाश्रम में पकड़ को स्पष्ट करती है। अब परिवार में दो महिलाएं हो गई माताजी एवं देवर की धर्मपत्नी अर्थात् जेठानी व देवरानी । धीरे-धीरे दोनों में ऐसा स्नेह विकसित हुआ कि उन्हें देखकर कोई यह नहीं कह सकता कि ये जेठानी व देवरानी है, दोनों बहनों की तरह रहती और उसी तरह काम में जुटी रहतीं। वे अभाव अगर कहीं पर था तो यह कि आपको सन्तान सुख नहीं मिला। एक मात्र पुत्री बदाम बाई के निधन के बाद जब आपके कोई सन्तान नहीं हुई तो अपने देवर की पुत्री दमयन्ती देवी को आपने गोद ले लिया । दमयन्ती देवी की उम्र उस समय मात्र छः माह की ही थी, किन्तु आपने उसे मातृ-स्नेह प्रदान कर अत्यन्त वात्सल्य भाव से पाल-पोसकर बड़ा किया और वि०सं० २०१० में खिवाड़ानिवासी श्री अमीचन्दजी गादिया के सुपुत्र श्री विरदीचन्दजी गादिया के साथ विवाह करा दिया । श्रीमती सुन्दरदेवी अपने पति के साथ धूप और छाया की तरह सदा से ही रही है। पति के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख मानकर आपने अपना जीवन पतिमय बना दिया। कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा ने जब वि० सं० २००० में व्यापार-धन्धा बन्द कर दिया और शेष जीवन अध्यात्म साधना में लगाने का निश्चय किया तो आपने उसका कोई विरोध नहीं किया, यह भी नहीं सोचा कि भविष्य का गुजारा कैसे होगा, बल्कि वे पतिदेव की साधना में स्वयं साधिका बनकर जुट गई। पतिदेव व्यापार वाणिज्य छोड़कर और उसका सम्पूर्ण दायित्व अपने लघु प्राता भंवरलालजी को प्रदान कर बोलारम (आन्ध्र प्रदेश) से जब राणावास आ गये और राणावासस्थित सुमति शिक्षा सदन विद्यालयरूपी अंकुरित पौधे को सींचकर वट वृक्ष के रूप में विकसित करने का जिम्मा जब उन्होंने ग्रहण कर लिया तो माताजी ने भी अपने पति की इस इच्छा को पूरी करने में शेष जीवन खपा देने का निश्चय कर लिया । पतिदेव जब व्रत-उपवास कर रहे हों या पडिमाधारी श्रावक की तपस्या अथवा साधना कर रहे हों या संस्था का कार्य, वे उनके प्रत्येक कार्य में सहयोग देने लगीं। वे सती सावित्री की तरह पति की सेवा में लग गई । न तो रात देखी और न ही दिन, समय पर भोजन बनाना, घर का समस्त काम-काज करना, पतिदेव की इच्छा व कार्य का ध्यान रखकर तदनुकूल समय पर व्यवस्था करना आपके जीवन की नियमित दिनचर्या बन गई । पतिदेव जब भी चन्दा प्राप्त करने राणावास से बाहर प्रवास पर निकलते, आप उनके साथ रहकर सहयोग करतीं । तात्पर्य यह कि आपने अपने आपको पति के साथ इस तरह एकाकार कर लिया कि एक आत्मा और दो शरीर की लोकोक्ति को जग में प्रकाशित प्रदीप्त कर दिया। - -आपका स्वयं का जीवन आध्यात्मिक साधना का तेजोमय पुंज है घर-गृहस्थी के कार्य से निवृत्त होकर सामायिक लेकर बैठ जाना और सामायिक में स्वाध्याय करना आफ्नो दैनिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। व्रत और उपवास तो आप करती ही रहती है, किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि व्रत-उपवास तपस्या आदि में भी वह पर-गृहस्थी के कार्य में तथा अपने पतिदेव की साधना में कभी डील नहीं आने देती हैं। आपके व्यक्तित्व की यह महान् विशेषता नारी के समर्पण भाव को उजागर करती है । माताजी स्वभाव से अत्यन्त मृदु है। शरीर पर अहंकार तो मानो खु ही नहीं गया है। सादा जीवन और उच्च विचार आपके जीवन का मूलमंत्र है। आपके चेहरे पर कभी किसी ने क्रोध नहीं देखा । एक शान्त और पवित्र . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ-नायक के पारिवारिक सदस्य लघु भ्राता श्री भंवरलाल जी सुराणा के साथ ग्रन्थनायक ग्रंथनायक के साथ-दामाद श्री वरदीचन्द जो गदैया एवं दत्तक पुत्री श्रीमती दमयन्तो देवी जी श्री केसरीमल जी सूराणा एवं उनकी धर्मपत्नीश्रीमती सुन्दरबाई जी सुराणा के साथ परिवार के सदस्य ग्रंथनायक की दत्तक पुत्री श्रीमती दमयन्तीदेवी जी एवं उनके पति श्री वरदीचन्द जी गदैया के साथ बाएँ से (खड़े) श्री बाबूजी, श्री राजेन्द्रबाबू, श्री शान्तीबाई, श्री किशोर, श्री विकास, श्री चन्दनमल FFEN श्री केसरीमल जी सुराणा अपने दौहित्र श्री राजेन्द्रकुमार ग्रंथनायक अपने दौहित्र श्री राजेन्द्रकुमार के शुभ विवाह के शुभ विवाह के अवसर पर परिवार के सदस्यों के साथ के सूअबसर पर अपने पारिवारिक सदस्यों एवं शुभचिन्तकों के साथ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री केसरीमल जी सुराणा की विभिन्न मुद्राएँ . Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनों का आलोक १४६ -. - . -. - . - . -. - . - . - . - . -. -. -. -. - -. . -. -. - . .. -. -. -. - . ... ........ .......... .... . ..... आभा सदा सर्वदा आपके मुखमण्डल पर झलकती रहती है । झगड़ा क्या होता है, यह आप नहीं जानतीं। महिलाओं के साथ बैठकर भी आप अपनी-पराई बातों में विश्वास नहीं करतीं। अधिकांश खाली समय अपने यहाँ पर विराजित साधु-सन्तों की सेवा में व्यतीत करती हैं । मन में पाप नहीं, वाणी में कटुता नहीं, कथनी व करनी में अन्तर नहीं और ईर्ष्या-द्वेष-अभिमान आदि से कोसों दूर ऐसी नारी-रत्न माताजी गार्गी एवं मैत्रेयी जैसी प्राचीन ऋषि-पत्नियों का सहज स्मरण करा देती हैं । ___माताजी अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ राणावास की संस्थापिका है। जिस प्रकार कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा ने श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास की स्थापना व विकास में अपने आपको समर्पित कर दिया, इसी क्रम में माताजी श्रीमती सुन्दरदेवी सुराणा ने महिला समाज में व्याप्त अशिक्षा, अंधविश्वास, कुरीतियाँ आदि को दूर करने तथा महिलाओं के शोषण को दूर करने के लिये वि० सं० २०१८ की कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को महावीर कन्या विद्यालय, राणावास की स्थापना के साथ ही अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ राणावास की स्थापना करके इसके विकास व संवर्द्धन में अपने आपको समपित कर दिया। गृहस्थ-जीवन के समस्त दायित्वों के निर्वाह के साथ-साथ एक अलग से संस्था खड़ी कर देना, आपकी प्रतिभा व क्षमता की द्योतक है। माताजी प्रत्येक बालक-बालिका की माँ हैं और प्रत्येक बालक-बालिका को मां की ममता, वात्सल्य, स्नेह तथा पथ-प्रदर्शन आप प्रदान करती रहती हैं। आप जब भी महिला शिक्षण संघ या मानव हितकारी संघ में जाती हैं तो बालक-बालिकाएं आपको देखते ही "माताजी प्रणाम," "माताजी प्रणाम" की हर्षध्वनि के साथ आकर उनके चरण स्पर्श करने लगते हैं। आप स्वयं भी कहती हैं कि ईश्वर ने मुझे सन्तान नहीं दी तो क्या हुआ ये इतने सारे बालक-बालिकाएं मेरे पुत्र-पुत्रियाँ ही तो हैं। सचमुच, वे तदनुरूप आचरण कर बालक-बालिकाओं के दिल भी जीतती हैं। आप नारी-समाज में व्याप्त कुरीतियों की प्रबल विरोधी हैं । जब भी समय मिलता है आप इनका डटकर विरोध करती हैं। अपनी दत्तक पुत्री श्रीमती दमयन्तीदेवी का सादगीपूर्ण विवाह इसका उत्तम प्रमाण है । आप पर्दा प्रथा में विश्वास नहीं करती। न तो स्वयं पर्दा करती हैं और न ही किसी को प्रोत्साहन देती हैं। वि० सं० २००६ से ही आपने घूघट निकालना छोड़ दिया है। सचमुच ही आप हृदय से विशाल और स्वभाव से उदार हैं । त्याग, सेवाभाव, क्षमाशीलता और विनम्रता आपके स्वभाव के गुण हैं। संयम, कर्तव्यपरायणता, ईमानदारी, सत्यवादिता, धैर्यता, कर्मठता, लगन और आध्यात्मिकता आप में कूट-कूटकर भरी है। आप सद्गुणों को आकर हैं। आदर्श महिला और नारी-रत्न हैं। हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध महाकवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कामायनी की निम्न पंक्तियां आपके व्यक्तित्व को देखकर सहज ही स्मरण हो आती हैं नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत-नग पगतल में । पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . -. -. -. -. -. -. RSSSSSSSSSSSSESकर्तव्य-बोधERRIES RSS निज आत्मा का हित सधे, हो न किसी को कष्ट । कार्य वही कर्तव्य है, जिससे दुगुण नष्ट ॥१॥ अन्त भले का है भला, करो भला दिन-रात। अन्त बुरे का है बुरा, देखो हाथों-हाथ ॥२॥ जीवन में यदि हो गया, एक बार दुष्कर्म । मन को वश करके करो, फिर न कभी वह कर्म ॥३॥ मानव का कर्तव्य है, करना क्षमा-प्रदान । पनपाता जो शत्रुता, वह दानव पहचान ॥४॥ सबके प्रति सम-भावना, गुणि-जन से अनुराग। पीड़ित जीवों पर दया, हितकर भोग विराग ॥५॥ मानव का कर्तव्य है, करना निज-उत्थान । चले पतन के पंथ पर, पशु-सम वह पहचान ॥६॥ जन-रंजन के हेतु जो, तजता धर्माचार । स्तुत्य न होता वह कभी, ज्यों वेश्या-शृगार ॥७॥ सदाचार से पुरुष को, मिलता है सम्मान । राजपुरोहित की कथा, सूनलो देकर ध्यान ॥८॥ अहित न अरि का भी करें, देखे अपने दोष । "मुनि गणेश" ईर्ष्या तजे, करे न निन्दा-रोष ॥६॥ RDERSERDESSESENDENCESCERESERDERDESEBEDESESEXDESESEDEDESSESDESESENSEISED. 88999ESESERESENSERESERREDEPRESS8EBERRENESEB89. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ खण्ड Sood श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ For Private Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कांठा' का भौगोलिक और सांस्कृतिक परिवेश डॉ० देव कोठारी ( उपनिदेशक, साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर) वर्तमान राजस्थान विभिन्न भौगोलिक इकाइयों के समूह का एकीकृत नाम है। मारवाड़, मेवाड़, ढूंढाढ़, मेवात, हाड़ौती, वागड़ आदि ऐसे ही क्षेत्रीय नाम हैं । भाषा, भूगोल व सांस्कृतिक विशेषताओं की दृष्टि से ये विभिन्न भूभाग अपनी अलग पहचान आज भी रखते हैं । इन भू-भागों के और भी क्षेत्रीय उपविभाग परम्परा से विद्यमान हैं । इसी क्रम में मारवाड़ भी विभिन्न छोटे-छोटे उपविभागों में विभक्त था । गोड़वाड़, कांठा, माड़ आदि ऐसे ही उपविभाग हैं । इस निबन्ध में अध्ययन की सीमा कांठा क्षेत्र तक ही सीमित है । कांठा की सीमा मारवाड़ या जोधपुर राज्य के दक्षिण-पूर्व में तत्कालीन सोजत परगने में स्थित ३०० वर्गमील का क्षेत्र कांठा के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में यह पाली जिले का एक समृद्धिशाली क्षेत्र है। इस क्षेत्र की सीमा-रेखा उत्तर में पाली जिले का कंटालिया गाँव है । दक्षिण में खिमाड़ी, धनला गाँव तथा गोड़वाड़ का क्षेत्र है । पूर्व में सारण, सिरियारी और पश्चिम में जारण गाधागा व मारवाड़ जंक्शन (खारची) है। इस प्रकार यह मारवाड़ (जोधपुर) राज्य के दक्षिण-पूर्व में जहाँ मेवाड़ राज्य की सीमा मिलती है, उस सीमा रेखा पर अरावली पर्वतमाला की तलहटी में बसा हुआ है । इस पर्वतमाला से निकलने वाली नदी कांठा क्षेत्र के ठीक मध्य में होकर बहती है। इस प्रकार पाली जिले की खारची तहसील का अधिकांश भाग कांठा क्षेत्र में सम्मिलित है । (देखें, पाली जिला एवं खारची तहसील का मानचित्र पृष्ठ १५२ पर)। कांठा का नामकरण कांठा शब्द संस्कृत के 'उपकण्ठ' शब्द से बना है । उपकण्ठ का अर्थ पास, निकट, समीप, नजदीक आदि है । उपकण्ठ में 'उप' शब्द का लोप होकर 'कण्ठ' के 'कं' तथा 'ठ' दोनों अक्षरों में 'आ' का आगम होने से कं + आकां तथा ठ + आ = ठा अर्थात् कांठा शब्द बना है और अर्थ में परिवर्तन नहीं हुआ है। इस प्रकार उपकण्ठ व कांठा दोनों शब्दों का अर्थ पास, समीप, निकट, नजदीक, किनारा, तट आदि ही है । मारवाड़ी या राजस्थानी में यह शब्द कांठे, कांठी ओर कांठैलिये रूपों में मिलता है। कांठे व कांठी दोनों का अर्थ पास, नजदीक, समीप आदि सन्दर्भ में मिलता है। उदाहरणार्थ, इन्दरसिंघ राठौड़ से सम्बन्धित गीत में कां शब्द इस प्रकार आया है भाखर कांठे बाघ भड़ाला, डाकर सुण मेवास डरे । इसी तरह इसी अर्थ में कांठे शब्द का प्रयोग कविराजा बांकीदास ने इस प्रकार किया है सुतौ थाहर नींद सुख, सादुलो बलवंत । वन कांठे मारग वह, पग पग हौल पड़ंत ॥ . Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 A JN HORT MAYA w PAN १५२ पाली जिला || खारची तहसील नागोर जिला माता जैतारण - मेमाण जोधपुर - जिला HAND जाडन Pint सो ज त में शिवना de itt it रायपु सोज त सोजत G कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : द्वितीय खण्ड रामपुर. HAIHITtHtmak arettttt भजन ज JAATOR पाली ESS जालोर जि आमोद विया भूमि राणावास मद विद्याभूमि राणावा श्रीवासिया Ham.NPARKary PREM ORATHI उपमपुरके संकेतर Oभुम्यालय • तमिल मुख्यालम या कॉलेज समैकाणी / स्कूल |गल / समान छानियाभूमि गाणायाम माRAN दयपुर Tutions रेले सावन रहीम मार्ग का रेप संकेत लाइन देमरी . Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कांठा' का भौगोलिक और सांस्कृतिक परिवेश __ कांठो शब्द का प्रयोग पास, समीप, निकट आदि अर्थ के साथ-साथ सरहद, सीमा, किनारा, नदी का तट आदि के सन्दर्भ में भी हुआ है। प्रो. नरोत्तमदास स्वामी द्वारा सम्पादित राजस्थानी साहित्य संग्रह, भाग एक, में कांठ शब्द का प्रयोग द्रष्टव्य है "उर गजराज रेवा नदी र कांठौ, दुह ऊपर पांच से हाथी रे हलके लीजा मोड़ी खबर करी नै रहोआ छ ।" राजस्थानी में "काठ लियो" शब्द का अर्थ पहाड़ों के निकट रहने वाली एक जाति के व्यक्ति के सन्दर्भ में किया जाता है। भावसाम्य की दृष्टि से कांठ व कांठलियो शब्दों में ज्यादा अन्तर नहीं है । निकटता का मूल भाव इसमें भी है। उपयुक्त सन्दर्भो में कांठा शब्द का अर्थ भी कांठ या कांठौ शब्द से भिन्न नहीं है। कांठा का अर्थ भी वही है ने कांठ अथवा कांठो का है। कांठा क्षेत्र का नामकरण 'कांठा' भी इस दृष्टि से सार्थक है। यह अरावली पर्वतः ला के समीप का क्षेत्र भी है और सूकड़ी नदी के पास का अथवा इस नदी के किनारे या तट का भी है । यह नदी कांठा के लगभग मध्य में होकर बहती है, इस कारण नदी के दोनों ओर का क्षेत्र नदी के तट का या समीप का क्षेत्र है । यह मेवाड़ राज्य की सीमा के समीप का क्षेत्र मारवाड़ राज्य की दृष्टि से है, इस कारण भी यह नाम सार्थक है। नामकरण की यह परम्परा राजस्थान से बाहर भी है। बनासकांठा व साबरकांठा नाम इसके अच्छे उदाहरण हैं । जलवायु, पानी व भूमि कांठा क्षेत्र का जलवायु स्वास्थ्यवर्द्धक है किन्तु ग्रीष्म ऋतु में तेज गर्मी पड़ती है और तापक्रम भी काफी ऊँचा रहता है । सर्दी में बहुत तेज सर्दी और तापक्रम काफी नीचे रहता है। वर्षा दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से होती है । वर्षा का वार्षिक औसत २० से ४० से.मी. है। इस क्षेत्र में कुओं की गहराई अधिक नहीं है। बीस फीट से ४० फीट की गहराई तक पर्याप्त पानी मिल जाता है। पानी मीठा और सुपाच्य है। मरुस्थल का दक्षिणी छोर होने पर भी यहाँ पानी की कमी नहीं है । मिट्टी मटमैली, उपजाऊ तथा इसकी तह काफी गहरी है। बंजर भूमि नहीं के बराबर है। यहाँ की मिट्टी अरावली शृखला की देन है। तलहटी का क्षेत्र होने से मिट्टी रेगिस्तानी बालू की तरह नहीं है। इतिहास इस क्षेत्र का अलग से कोई लिखित इतिहास उपलब्ध नहीं होता लेकिन जनश्रुतियों के आधार पर पता चलता है कि कांठा क्षेत्र का इतिहास बहुत प्राचीन है । सिरियारी व उसके आस-पास के क्षेत्र के बारे में जो दन्तकथाएँ प्रचलित हैं और वहाँ पर जिस रूप में प्राचीन खण्डहर आदि मिलते हैं, उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र पौराणिक काल से प्रसिद्ध था। ऐसी मान्यता है कि भक्त प्रहलाद को ईश्वर के अस्तित्व के प्रति एक प्रमाण सिरियारी गाँव में भी मिला था। बताया जाता है कि यहाँ पर सिरियारी (श्रिया) नाम की एक कुम्हारी रहती थी। वह परम ईश्वरभक्त थी। एक दिन उसके घर पर मिट्टी के बर्तन पकाये गये, किन्तु बर्तन पकाने के लिये नेवों में जब आग दी गई तो उसके बाद पता चला कि मिट्टी के एक बर्तन में बिल्ली के छोटे बच्चे हैं, लेकिन आग पूरे वेग पर थी, ऐसी हालत में बच्चों का बचाना कठिन था। सिरिया ने ईश्वर की आराधना आरम्भ की और जब आग शान्त हो गई और पके हुए बर्तन छाँटे जाने लगे तो यह देखकर आश्चर्य हुआ कि जिस बर्तन में बिल्ली के बच्चे थे, वह बर्तन अभी कच्चा ही है तथा उसमें समस्त बच्चे जीवित हैं। भक्त प्रहलाद भी उस समय वहीं था। उसने भी यह घटना देखी और ईश्वर के इस चमत्कार को देखकर ईश्वर के प्रति प्रहलाद का विश्वास पहले से ज्यादा हो गया। उसी सिरिया देवी के नाम से इस गाँव का नाम सिरियारी पड़ा । सिरियादेवी का मन्दिर आज भी गांव में विद्यमान है। सिरियारी के आस-पास विशाल क्षेत्र में फैले खण्डहर भी किसी प्राचीन सभ्यता की ओर संकेत करते हैं । वह सभ्यता कौनसी व कैसी थी, इसकी प्रामाणिक जानकारी तो पुरातत्त्व विभाग द्वारा खुदाई करने पर ही ज्ञात हो सकती है। लेकिन ऐसी मान्यता है कि राजा हिरण्यकश्यप के साम्राज्रयह एक हिस्सा था । यहाँ पर चौरासी डटन गाँव थे। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्य : द्वितीय खण्ड MOS. पास की पहाड़ी पर नाथ सम्प्रदाय के गोरमनाथ व उनके शिष्य घारमनाथ रहते थे। गोरमनाथ के श्राप से ये चौरासी डटन गाँव नष्ट हो गये । गोरमनाथ का निवास क्षेत्र होने के कारण ही यह पहाड़ी गोरमघाट कहलाती है। इस पहाड़ी की तलहटी में नाथों की अनेक समाधियाँ मिलती हैं। काजलवास आज भी उसका प्रमाण है। सिरियारी के पास सारण गांव में भी गोरखनाथी साधुओं की बहुत सी समाधियाँ मिलती हैं। बताया जाता है कि गोरखनाथी साधुओं को सारण सहित १२ गाँव जागीर में दिये गये थे । आज भी इनका यहाँ एक प्रसिद्ध मठ है । यह कांठा क्षेत्र कभी स्वतन्त्र राज्य नहीं रहा । इस क्षेत्र पर सैन्धव राजपूतों, पडिहारों, सोढों, मीणों और रावतों का आधिपत्य रहा । मण्डोर व उसके बाद जोधपुर पर राठौड़ शासकों का स्थायी राज्य कायम हुआ तो यह क्षेत्र भी मारवाड़ राज्य का अंग बन गया तथा कूपावत व चांपावत राठौड़ों की जागीर में इस क्षेत्र के अनेक गाँव रहे। ___ कंटालिया, बगड़ी, आऊआ आदि ऐसी ही जागीरें थीं। इस क्षेत्र के अनेक गाँव सोजत परगने में और चण्डावल के पट्टे में थे। देश के स्वतन्त्रता संग्राम में भी इस क्षेत्र के आऊआ तथा खरवा के ठिकानों ने जो योगदान दिया, वह कांठा क्षेत्र के गौरव की पर्याप्त अभिवृद्धि करता है। स्थान सीमा के कारण उन सब बातों का यहाँ पर वर्णन करना संभव नहीं है। क BOB विभिन्न गाँव, जातियां और आबादी कांठा क्षेत्र मुख्यत: गाँवों और कस्बों का क्षेत्र है। इस क्षेत्र में कुल २७५ गाँव सम्मिलित हैं। कोई बड़ा शहर नहीं है । इस क्षेत्र से जुड़ा हुआ बड़ा शहर पाली है। राणावास, कंटालिया, बगड़ी, माण्डा, वोपारी, सारण, सिरियारी, नीमली, गाधाणा, जोजावर, रामसिंहजी का गुड़ा, खींवाड़ा, फुलाद, खारची, धनला, आऊआ आदि इस क्षेत्र के प्रमुख गाँव व कस्बे हैं। कांठा क्षेत्र में गुड़ा के नाम से आरम्भ होने वाले गाँवों की एक लम्बी परम्परा मिलती है, यथा-गुड़ा अजबा, गुड़ा दुरजण, गुड़ा भोपत, गुड़ा भोप, गुड़ा मोखमसिंह, गुड़ा केसरसिंह, गुड़ा रामसिंह, गुड़ा शूरसिंह, गुड़ा रघुनाथसिंह, गुड़ा प्रेमसिंह, गुड़ा महकरण, गुड़ा दुर्गा आदि । ऐसी सम्भावना है कि ये गांव जिन राजपूतों को सामन्त काल में जागीर में मिले, उन्हीं राजपूत वीरों के नाम से इन गांवों का नामकरण हो गया। ___ इन गांवों में राजस्थान में निवास करने वाली प्रायः समस्त जातियाँ मिल जाती हैं, जिनमें ओसवाल -महाजन, राजपूत (अधिकतर-कू पावत, राठोड़), चांपावत, चौधरी, कारीगर, श्रीमाली, माली, ढोली, राईका, रेबारी, गाड़ी लोहार, सोनी, कुम्हार, तेली, गाँछी, धोबी, साधु, मुसलमान, नाथ, देशांतरी, बावरी, भांबी, कामड़, हरिजन, सरगड़े, कलाल, लखारा, खटीक, नाई, मोची, वारी, जटिया, कायस्थ, ब्राह्मण आदि मुख्य हैं।। इस क्षेत्र की आबादी मुख्यतः गांवों में ही निवास करती है । कुल आबादी लगभग ढाई लाख के आसपास है। धर्म, तीर्थ व मेले कांठा क्षेत्र में मुख्यतः हिन्दू धर्म के अनुयायी निवास करते हैं तथा इस धर्म के अधिकांश उप-सम्प्रदायों का प्रभाव यहाँ पर पाया जाता है । सनातन, वैष्णव व शिव उपासक भी यहाँ पर बहुत हैं । नाथ सम्प्रदाय का प्रभाव भी यहाँ पाया जाता है। रामदेव बाबा को मानने वाले भी यहाँ पर बहुत हैं । महादेव, हनुमान, गणेश, चारभुजा, रामदेव के मन्दिर प्रायः हर गाँव में मिल जाते हैं। जैनधर्म के श्वेताम्बर स्थानकवासी, तेरापंथ व मूर्तिपूजक सम्प्रदायों के अनुयायी इस क्षेत्र में बहुतायत से हैं । तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु का तो यह प्रमुख विचरण क्षेत्र रहा है। उनकी जन्मस्थली, दीक्षा-भूमि, अभिनिष्क्रमण व निर्वाण-भूमि होने का श्रेय इसी कांठा क्षेत्र को प्राप्त है। आचार्य भिक्षु ने अपने जीवनकाल में कुल १६ चातुर्मास इसी कांठा क्षेत्र में व्यतीत किये एवं शेष काल में भी विचरणकर धर्म-प्रभावना की। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कांठा' का भौगोलिक और सांस्कृतिक परिवेश १५५ १ इस प्रकार यह तेरापंथ धर्म की प्रमुख तीर्थ-भूमि है। स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रुघनाथजी की परम्परा का भी यहाँ प्रभाव है । मूर्तिपूजकों की संख्या कम है । अधिकतर खरतरगच्छ व तपागच्छ के अनुयायी हैं। ऋषभदेव, शान्तिनाथ, पारसनाथ, महावीर स्वामी के मन्दिर भी गांवों में मिलते हैं। मुसलमान धर्म के अनुयायी भी यहां निवास करते हैं। कांठा क्षेत्र की इस पवित्र भूमि में कुछ तीर्थस्थान भी हैं जो इस क्षेत्र की धार्मिक व सांस्कृतिक रुचिसम्पन्नता को स्पष्ट करते हैं । ऐसे तीर्थस्थानों में निम्न मुख्य हैं 006 MOREA SAX . . HAO . CO १. गोरमघाट-यहाँ ऊँची पहाड़ी पर गोरमनाथ का मन्दिर है। २. जोगमण्डी-शिवमन्दिर, पानी का झरना व गुफा है। ३. पर्वतसिंहजी की धूणी-फुलाद से दो मील उत्तर-पूर्व में बासनी निवासी पर्वतसिंहजी का आश्रम है। ४. काजलवास-नाथों की समाधियाँ, शिवमन्दिर, पानी की बहुतायत है । ५. सारण-निर्मलापीर की छत्री, गोरखनाथी साधुओं का गढ़ है।। ६. तीतलेश्वर महादेव-फुलाद से कामलीघाट के रास्ते में काली घाटी की तलहटी में शिवजी का मन्दिर है। ७. राकाणा यक्ष-राकाणा गाँव में अर्जुनसिंह पडिहार युद्ध में काम आया और वह यक्ष के रूप में प्रकट हआ, उसका स्मृतितीर्थ है । ८. रामसिंह का गुड़ा-भूत बावजी का स्थान, पूजा व बोलमा के लिये प्रसिद्ध है। है. कंटालिया-तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्ष की जन्मस्थली है। धारेश्वर महादेव का एक रमणीय स्थल भी है। १०. बगड़ी-आचार्य भिक्ष की दीक्षा व अभिनिष्क्रमण भूमि है। ११. सिरियारी-आचार्य भिक्ष की निर्वाणस्थली है। १२. वायण-भेरूजी का मन्दिर वचनसिद्धि के लिए प्रसिद्ध है। १३. राणावास-विद्याभूमि के रूप में प्रसिद्ध कांठा क्षेत्र का सबसे बड़ा शिक्षाकेन्द्र है । ये समस्त तीर्थस्थान कांठा क्षेत्र की प्राकृतिक सुषमा से भी समृद्ध हैं तथा पिकनिक, भ्रमण एवं यात्रा के लिये श्रेष्ठ हैं। कांठा क्षेत्र में विभिन्न अवसरों पर मेले भी आयोजित होते हैं। जहाँ पर इस क्षेत्र के निवासी बड़े उत्साह से भाग लेते हैं । इन मेलों में व्यापार, वाणिज्य, मनोरंजन आदि के लिये अनेक तरह की दुकानें लगती हैं। प्रसिद्ध मेलों का विवरण इस प्रकार हैगाँव मेले का नाम समय . SA OM avAU १. राणावास स्टेशन २. कंटालिया ३. राकाणा ४. आऊआ ५. धनला ६. जोजावर ७. मेवी ८. केसरसिंह का गुड़ा ६. कंटालिया १०. प्रेमसिंह का गुड़ा हनुमानजी का मेला शीतला माता का मेला यक्ष का मेला गणगौर का मेला महादेव का मेला महादेव का मेला महादेव का मेला गोरखनाथ का मेला नाथजी का मेला रामदेव का मेला चैत्र विद ५ चंत्र विद ७ चैत्र विद चैत्र सुद १० चैत्र पूर्णिमा शिवरात्रि चैत्र पूर्णिमा वैशाख विद ७ भादवा सुद २ भादवा सुद ११ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १५६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड ११. राणावास गांव रामदेव का मेला १२. काजलवास गोरमनाथ का मेला १३. वायड़ भेरूजी का मेला १४. धनला व रामसिंहजी का गुड़ा में भी मेले भरते हैं। भादवा की पूर्णिमा सम्पूर्ण भादवा मास फागुन सुदी ११ कृषि व व्यवसाय कृषि यहाँ का मुख्य व्यवसाय है । अन्य व्यवसाय भी कृषि उपज पर ही निर्भर हैं। कृषि मानसन पर अवलम्बित होने के कारण कुओं द्वारा सिंचाई करनी पड़ती है। फुलाद, डिगोर व सारण के तालाबों से भी सिंचाई होती है। सिंचाई की सुविधा के अनुसार लगभग रबी व खरीफ की दोनों फसलें यहाँ होती है। गेहूँ, जौ, मक्का, ज्वार-बाजरा, तिलहन, चना, कपास, अरण्डी, शकरकन्द, ईसबगोल यहाँ की मुख्य फसलें हैं। शकरकन्द व ईसबगोल की उपज इतनी प्रचुर मात्रा में होती हैं कि इन्हें देश के विभिन्न भागों में भेजा जाता है। चमड़े की रंगाई व चमडे का अन्तर्देशीय व्यापार भी यहाँ होता है। सूत कातना व रेजा बुनना भी कुटीर उद्योग के रूप में यहाँ पर प्रचलित है । व्यापार की मुख्य बागडोर महाजनों के हाथ में है । अधिकतर महाजनों का व्यापार-धन्धा राजस्थान से बाहर और प्रायः दक्षिण भारत में है, जिससे कांठा क्षेत्र लक्ष्मीपुत्रों के सुदृढ़ दुर्ग के रूप में पाली जिले में प्रसिद्ध है । यातायात के साधन कांठा क्षेत्र यातायात की दृष्टि से काफी पिछड़ा हुआ है। मारवाड़ जंकशन से उदयपुर मेवाड़ जाने वाली रेलवे लाईन इस क्षेत्र में से होकर गुजरती है, जिस पर मारवाड़, राणावास, फुलाद, व गोरमघाट के तीन रेलवे स्टेशन हैं । पक्की सड़कें नगण्य हैं । राज्य परिवहन बसें भी नहीं चलती हैं। कच्ची सड़कों द्वारा गांव एक-दूसरे से जड़े हुए हैं । उन कच्ची सड़कों पर प्राइवेट बसें चलती हैं । वर्षा ऋतु में अनियमित भी हो जाती हैं। चिकित्सा व स्वास्थ्य इस दृष्टि से भी यह क्षेत्र विकसित नहीं है । आयुर्वेद व एलोपैथी के कुछ चिकित्सालय अवश्य बड़े गाँवों में खुले हुए हैं। कुछ स्थानों पर प्राइवेट औषधालय भी हैं । ज्यादातर ग्रामीण देशी इलाज कराते हैं और झाड़ा-फंका, बोलमा आदि में विश्वास करते हैं। इसके लिए रामसिंहजी का गुड़ा का भूत बाबा, वायड़ का भेरूजी का मन्दिर, राकाणा-यक्ष, सारण का निर्मला पीर तथा मलसा बावड़ी का झूठलापीर स्थान मुख्य हैं, जहाँ ग्रामीण लोग बीमारी दूर कराने के लिए झाड़ा-फूका व बोलमा के लिये जाते रहते हैं। प्रसूतिगृह व चिकित्सालय पूरे क्षेत्र में कहीं पर नहीं है। राणावास गाँव में ऐसा चिकित्सालय खोलने की अब योजना बनी है। शिक्षा-सुविधा पूरे कांठा प्रदेश में शिक्षा सुविधा की सन्तोषजनक स्थिति है। गाँवों में पंचायत समिति द्वारा संचालित प्राथमिक विद्यालय तथा शिक्षा विभाग के उच्च प्राथमिक, माध्यमिक विद्यालय खुले हुए हैं। कन्या पाठशालाएँ भी एक दो स्थानों पर हैं। अधिकतर स्थानों पर सहशिक्षा ही दी जाती है। शिक्षा सुविधा की दृष्टि से अकेला राणावास पूरे कांठा प्रदेश का प्रतिनिधित्व करता है। यहां पर प्राथमिक विद्यालय से लेकर डिग्री कालेज तक के शिक्षा संस्थान हैं। सम्पूर्ण कांठा क्षेत्र में एक मात्र डिग्री कालेज राणावास में ही है। यहाँ महिला शिक्षा का माध्यमिक स्कूल भी है। उद्योग-शिक्षा की सुविधा भी उपलब्ध है। अनेक छात्रावास भी बने हुए हैं। श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास ने शिक्षा के क्षेत्र में कांठा में अभूतपूर्व क्रान्ति की है । विस्तार से इसका परिचय आगे के पृष्ठों में दिया जा रहा है। DOOD Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कांठा के तेरापंथी तीर्थ (१) भिक्ष जन्मस्थली-कंटालिया - श्री शान्तिलाल वैष्णव 'योगेश', एम० काम०, एम. एड०, सी० लिब. एस-सी. (पुस्तकालयाध्यक्ष--श्री सुमति शिक्षा सदन, उ० मा० विद्यालय, राणावास) मध्य-पश्चिम अरावली की सुरम्य उपत्यकाओं में बसा एक छोटा लेकिन आत्मनिर्भर पाली जिले में सोजत रोड से १० मील पूर्व में स्थित श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ सम्प्रदाय के आद्य प्रवर्तक आचार्य श्री भिक्षु की जन्मस्थली कंटालिया तेरापंथ सम्प्रदाय के प्रमुख तीर्थों में से एक तीर्थ के रूप में जोधपुर रियासत का एक कस्बा है। तेरापंथ का शीर्षस्थ तीर्थ होने के नाते इसके ऐतिहासिक महत्त्व के साथ-साथ आध्यात्मिक महत्व भी सवाया हो जाता है। एक जनश्रुति से उसके महत्त्व एवं ऐतिहासिकता की प्रामाणिकता स्पष्टतः सिद्ध हो जाती है कांठा में कंटालियो, मारवाड़ में पाली। गोडवाड़ में घाणेराव, आड़बले में बाली ॥ कंटालिया ग्राम समय विशेष के साथ-साथ घटित घटनानुसार भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है, जैसेकंटालिया, नाथजी का खेड़ा, कंचनपुरी एवं भिक्ष नगर । स्थापना एवं ऐतिहासिक मलक कंटालिया ग्राम की स्थापना आज से लगभग १२०० वर्ष पूर्व संवत् ८३५ में राजसिंह हरियाहूल ने की। प्रारम्भ में यहाँ नाथों की जागीरी थी। जिसे नाथजी का खेड़ा नाम से जाना जाता था। उस समय इन नाथों पर तुर्कों ने हमला कर दिया । इन तुर्कों का मुकाबला नाथों एवं हल जाति, जो उस समय की खूखार एवं युद्धप्रिय राजपूत जाति के रूप में मशहूर थी, दोनों ने मिलकर किया। फिर भी तुकं इन दोनों की शक्ति से कहीं ज्यादा ताकतवर थे । देखते ही देखते तुर्कों ने नाथों एवं हूलों को मौत के घाट उतारना प्रारम्भ कर दिया । जनश्रुति के अनुसार नाथों के स्वामी एवं इष्टगुरु नाथजी ने अपने आध्यात्मिक एवं आत्मिक बल से भवानी माता की आराधना कर उसे प्रसन्न किया अतः उसने भंवर मक्खियों (मारवाड़ी में भवानियों) के रूप में क्रुद्ध होकर तुर्कों को अपने जहरीले डंक-बाणों से त्रस्त कर युद्धस्थली से बाहर भाग खड़े हो जाने को मजबूर कर दिया। जहरीली मक्खियों के जहरीले डंक-बाणों का जहर शान्त करने के लिए युद्धस्थली से कुछ ही दूर स्थित एक पानी के नाडे में गिर-गिरकर अपने आपको समाप्त कर दिया । उसी नाडी को आज तुर्क-नाडी के नाम से जाना जाता है। अन्ततः नाथों एवं इलों की विजय हुई । नाथजी ने राजसिंह नाम के हरियाहूल राजपूत को उसकी युद्धपराणयता एवं दक्षता से प्रभावित होकर नाथजी के खेड़े का राजा घोषित कर दिया। हरियाहूल राजसिंह ने गद्दी पर बैठते ही नाथजी के खेड़े का नाम बदलकर कंटालिया रख दिया। तत्पश्चात् कंटालिया गुर्जरों, उदावतों, माघावतों एवं कूपावतों के शासनाधीन रहा । यहाँ के ठाकुर कूपावत राठौड़ हैं । ये जोधपुर राज्य के संस्थापक राव जोधा के भाई अखेराज के वंशज हैं। कंटालिया की यह जागीर जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह प्रथम ने वि० सं० १७०२ में भावसिंह राठौड़ को दी थी । भावसिंह से वर्तमान ठाकुर दसवीं पीढ़ी में हैं । आजादी के पूर्व इस ठिकाने के अन्तर्गत १२ गाँव जागीर में थे। आसोप और चण्डावल के ठिकानों से इस ठिकाने का भाईपा है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र १५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ । द्वितीय खण्ड भौगोलिक स्थिति ___ गाँव कटालिया (भिक्ष नगर) दिल्ली-अहमदाबाद रेलवे लाईन के मशहूर स्टेशन सोजत-रोड से १० मील पूर्व में मारवाड़ की जोधपुर रियासत एवं वर्तमान में पाली जिले की खारची तहसील एवं पंचायत समिति का एक सरसब्ज कस्बा है जो २५.८ उत्तरी अक्षांश एवं ७३.८ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। मध्य-पश्चिम अरावली शृखला से एक मील पश्चिम की तरफ जिसका आकार एक चौकोर पतंग या रेखागणितीय आकृति विषम कोण समचतुर्भुज के समान है । पूर्व में एक तालाब, पश्चिम में राजाओं की छतरियाँ (स्मारक) उत्तर में लीलड़ी नदी जो कि लूनी की सहायक है, स्थित है। यहाँ की मिट्टी मटमैली व उपजाऊ है, जहाँ दोनों फसलें ली जाती हैं । जलवायु मानसूनी होने के साथसाथ शोत, ग्रीष्म एवं वर्षा तीनों ऋतुओं का परिक्रमण प्रवाहमान है। पानी यहाँ का मीठा एवं स्वास्थ्यवर्द्धक है। पानी की गहराई १० से १५ फुट औसतन है । मुख्य रूप से यहाँ दो फसलें ली जाती हैं खरीफ की फसल-जिसे स्थानीय लहजे में कातीसरे की फसल कहा जाता है-बाजरा, मूग, मोंठ, चंवला, ग्वार, मक्का, तिल-तिल्ली की पैदावार पर्याप्त मात्रा में होती है। रबी की फसल-जिसे यहाँ उनाली फसल कहा जाता है, जिसमें गेहूँ, जो, सरसों, जीरा, मेथी, रायरा इत्यादि होते हैं। सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक चेतना की बाबत जोधपुर संभाग में प्रसिद्ध यह कस्बा धर्म, नैतिकता एवं अनुशासन के क्षेत्र में अतिप्राचीन समय से ही अग्रणी तथा उद्योग एवं शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही पिछड़ा हुआ है। यहाँ प्राचीन वर्ण परम्परानुसार सभी प्रकार की जातियों के लोग परस्पर भ्रातृत्व भावना एवं सहयोग के आरोह-अवरोह में भिक्षु-नगर के चहुंमुखी विकास के लिए कृतसंकल्प हैं । यहाँ सर्वाधिक रावत राजपूतों की बस्ती है। इसके अलावा चौधरी, जैन, माली, मेघवालों के घर हैं। करीबन ६० घर मुसलमानों के हैं । भिक्षु नगर में तेरापंथ सम्प्रदाय के ३५, स्थानकवासी सम्प्रदाय के ३० घर हैं। यहां की कुल आबादी ७००० के करीब है।। यहाँ सभी धर्मानुयायियों के अपने-अपने अलग-अलग करीब २० छोटे-मोटे मन्दिर हैं। एक मस्जिद एवं उपासरे भी हैं। मुख्य तौर से जैन-मन्दिर, चारभुजाजी, श्री हनुमानजी, महादेवजी, रामेश्वरजी के मन्दिर गांव की शोभा में चार चांद लगाते हैं। यहाँ धारेश्वर महादेव का एक बहुत ही सुरम्य एवं रमणीक स्थल है जहाँ की विशेषता है कि वहाँ प्रतिष्ठापित शिवजी की मूर्ति पर प्राकृतिक झरने की बूदें लगातार बारह मास गिरती रहती है । आज तक यह विस्मय एवं आश्चर्यजनक सत्य है कि इसका पानी आखिर कहाँ से और कैसे Perpetual Dreaping करता रहता है। यहाँ दूरदूर के पर्यटक देखने के लिए आते हैं। सांस्कृतिक जीवन के दो मुख्य आकर्षण यहाँ साल में दो मर्तबा लगने वाले मेले (हाट) हैं-(१) शीतला माता का मेला जो चैत्र कृष्णा सप्तमी को एवं (२) नाथजी का मेला जो भादवा सुद बीज को भरा जाता है। जहाँ १५-२० हजार जनसमूह आस-पास के गांवों से इकट्ठा होता है । यहाँ मुख्य रूप से होली, दीपावली, रक्षाबन्धन, रामनवमी एवं संवत्सरी के त्योहार इस विकट एवं दम तोड़ती महंगाई के जमाने में भी प्रेम, उल्लास एवं अगाढ़ उत्साह से मनाते हैं। यहां एक सेकेण्डरी स्कूल व एक प्राथमिक स्कूल हैं । आचार्य भिक्ष राजकीय उ० मा० विद्यालय का भवन भी बन चुका है जिसमें लगभग ५ लाख रुपये व्यय हुए हैं। पांचवीं कक्षा तक की कन्या पाठशाला भी है । अन्य सरकारी Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिक्षु जन्मस्थली - कंटालिया कार्यालयों में पोस्ट आफिस, पुलिस चौकी, टेलिफोन केन्द्र, वन विभाग, पटवारी, ग्रामसेवक, मलेरिया आदि के कार्या लय व उपकार्यालय हैं। चिकित्सा के रूप में श्री कंकूबाई जंवतराज राजकीय आयुर्वेदिक औषधालय है । उद्योग-धन्धों की दृष्टि से पारम्परिक क्षेत्र है। मेघवाल रेजा बुनते हैं और जटिया लोग चमड़ा रंगते हैं। मुख्य व्यवसाय कृषि है । यातायात नगण्य है । सोजत से मारवाड़ जंक्शन बाई पास कंटालिया होकर दिन में दो बार बसें मिलती हैं । यहाँ एक नवयुवक मण्डल भी है जो विकास कार्यों के लिए बड़ा जागरूक है । कंटालिया एवं तेरापंथ सम्प्रदाय कंटालिया की ऐतिहासिकता व आध्यात्मिकता की प्रसिद्धि एवं तेरापंथ के पीछे एक ऐसी महान आत्मा के अथक प्रयास एवं सुयोग का ही परिणाम है परिधि में ही समाहित है। कंटालिया गाँव के इतिहास में वि० सं० क्षरों से उल्लिखित वर्ष माना जायेगा । इसी वर्ष वि० सं० १७५३ तेरापंथ सम्प्रदाय के आद्यप्रवर्तक आचार्यश्री भिक्षु ने जन्म लिया । ही इनको आचार्य भिक्षु के नाम से प्रसिद्धि मिली। आप ओसवाल जाति के सकलेचा गोत्र में उत्पन्न हुए। आपके पिताजी का नाम शाह बलूजी एवं माताजी का नाम दीपाबाई था। दोनों पति-पत्नी भद्र, शान्त एवं सात्त्विक स्वभाव तथा धार्मिक प्रवृत्ति के थे। ऐसे माता-पिता की सन्तान इतनी महान्, धर्माधिकारी, धर्मनिष्ठ, सत्यशोधक एवं सम्प्रदायविशेष का आद्यप्रवर्तक हो, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । सम्प्रदाय की स्थापना एवं विकास जो इस भिक्षु-नगर नामकरण की १७८३ का वर्ष बड़ा ही सौभाग्यशाली एवं स्वर्णाकी आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को श्री जैन श्वेताम्बर आपका जन्म नाम भीखणजी था। भीखणजी से १५६ आप बचपन से ही बड़े निपुण और कुशाग्रबुद्धि थे । बाल्यावस्था में जहाँ उन्हें अन्य अनेक गुणों की अतिशयता प्राप्त थी, वहाँ स्वाभिमान भी उसी अनुपात में विद्यमान था । आपका विवाह छोटी अवस्था में ही हो जाने के उपरान्त भी आपका जीवन वैराग्य-भावना से ओत-प्रोत रहा । आपकी पत्नी भी धर्म-परायणा थी । आपके एक पुत्री भी हुई। भीखणजी के दो भाई थे । एक बार आपका सम्पर्क स्थानकवासी सम्प्रदाय शाखा के आचार्य श्री रुघनाथजी हुआ और वे उनके अनुयायी बने । रघुनाथजी से प्रभावित होकर अनेकों बाधाओं एवं विरोध के बावजूद कंटालिया से चलकर बगड़ी शहर में आये एवं वहाँ संवत् १८०० मृगशिर कृष्णा द्वादशी के दिन आचार्यश्री रघुनाथजी के हाथ से दीक्षा ग्रहण की। उस वक्त आप २५ वर्ष के थे। राजनगर मेवाड़ में चातुर्मास करने के बाद मान्यताओं को लेकर आचार्य रघुनाथजी से आपका मतभेद हो गया, उस सन्दर्भ में तेरापंथ की स्थापना आपकी ही अमूल्य देन है । तेरापंथ का नामकरण एक कवि हृदय व्यक्ति के सकारण निकले हुए उद्गारों के आधार पर जोधपुर में हुआ । भक्ष कल्याण केन्द्र कंटालिया गाँव के ठीक मध्य में तेरापंथ के आद्यप्रवर्तक आचार्यश्री भिक्षु का अपना निजी मकान है। जिसका जीर्णोद्वार कर वहां के धनकुबेरों एवं धर्म-प्रेमियों द्वारा एक नया रूप प्रदान कर आचार्य भिक्षु के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाओं के भित्तिचित्र एवं शिलालेख लगाकर दर्शनार्थ बनाया जा रहा है। ठीक भिक्षु जन्म-स्थली के सामने २५००वीं निर्वाण सदी में कार्तिक शुक्ला दशमी गुरुवार ता० १३ नव० १६७५ को तत्कालीन वित्तमन्त्री माननीय श्री चन्दनमलजी वेद के करकमलों से भिक्षु कल्याण केन्द्र की नींव रखी गई, जो अब बनकर तैयार हो चुका है । उस भिक्षु, कल्याण केन्द्र का निर्माण वहाँ के दानदाता सेठों द्वारा करीब तीन लाख रुपयों की लागत से करवाया गया है जो हमेशा के लिए दिग्दिगन्त में तेरापंथ एवं आचार्य श्री भिक्षु की स्मृति अनन्तकाल तक ताजा किये रहेगा । इतना ही नहीं जैन श्वेताम्बर तेरापंथ सम्प्रदाय के लिए कंटालिया का महत्त्व सर्वोपरि है। यहाँ आचार्यश्री भिक्षु ने जन्म लिया । अतएव जैन श्वेताम्बर तेरापंथ एवं इसके आद्यप्रवर्तक जन्मदाता दोनों की ही जन्मस्थली है । अतः कंटालिया ( भिक्षुनगर) सम्पूर्ण समाज के लिए तेरापंथ तीर्थ शिरोमणि के समतुल्य रहेगा । 0000 . Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० कल तक सजा कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड अभिनिष्क्रमण - स्थली - बगड़ी श्री प्रभूसिंह सोलंकी (गुड़ा सूरसिंह, जिला - पाली) वर्तमान में यह कस्बा दो रेलवे स्टेशनों से जुड़ा हुआ है-बगड़ी एवं बगड़ी सज्जनपुर । बगड़ी सज्जनपुर बगड़ी कस्बे के ठाकुर श्री सज्जनसिंहजी के नाम से बगड़ी सज्जनपुर कहलाया । यह मारवाड़ जंक्शन से दिल्ली जाने वाली रेलवे लाईन पर बसा हुआ है । सोजतरोड से करीब है । बिलाड़ा जाने वाली बस सोजतरोड से बगड़ी होती हुई प्रतिदिन आती-जाती है। कांठा के तेरापंथी तीर्थ (२) यह मारवाड़ व मेवाड़ के सन्धि-स्थल से चार मील पश्चिम की ओर अरावली पहाड़ की तराई में बसा हुआ है। बगड़ी दोनों ओर से जलधारा के प्रवाह से घिरा हुआ है। उत्तर और दक्षिण की ओर दो जलधाराएं लीलड़ी व सुकड़ी नदियों की है वर्षाकाल में जब ये नदियाँ अपनी चरम सीमा पर बहती है तो यह नगर तैरते हुए जलपोत के समान सुशोभित होता है । 1 सिन्धलों के द्वारा गढ़ का जैतसिंह के वंशज जैता प्राचीनकाल में इस नगर में सिन्धल राजपूतों का पूर्णतया आधिपत्य था । निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ तो बाद में राठौड़ ठाकुर श्री सिंह के वंशजों ने सम्पूर्ण किया मत कहलाये। इतिहास में भी जैतसिंह का नाम प्रसिद्ध रहा है। ये जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के भाई अराज के पोते थे । राव जोधा ने वि० सं० १५१८ में यह जागीर अखेराज को इनायत की थी। पहले बगड़ी में सिन्धल राजपूतों का राज्य था । सिन्धलों से अखेराज व उसके वंशजों को संघर्ष कर यहाँ अपना आधिपत्य मजबूत करना पड़ा। कहा जाता है कि इस संघर्ष में कई सिन्धल वीर बड़ी बहादुरी से लड़े मगर उन्हें पराजित होना पड़ा। यह भी कहा जाता है कि एक वीर का सिर काटकर गढ़ के दरवाजे पर लटकाया गया । सिन्धलों में एक वीर धड़ से लड़ाई में लड़ा और कई राठोड़ राजपूतों को मारकर मरा, जिससे उसके महल में आज भी भय बना हुआ है । उससे सम्बन्धित महल में किसी को भी जाने की हिम्मत नहीं होती । हमेशा के लिए महल बन्द करा दिया गया है। वहाँ कोई भी नहीं जाता । सिन्धलों के बाद जैतावतों का आधिपत्य हो गया जो आज भी मौजूद है। वर्तमान में जैतावतों की ग्यारहवीं पीढ़ी चल रही है। आजादी से पूर्व इस जागर के अन्तर्गत कुल ७ गाँव थे । जैतसिंह की छतरी बगड़ी के बाहर जैतसिंह की छतरी बनी हुई है जो उनकी स्मृति दिलाती है। इस छतरी के पास अन्य छतरियाँ भी बनी हुई हैं । वर्तमान में इसके चारों ओर पक्का परकोटा तेरापंथ समाज के प्रतिष्ठित महानुभावों द्वारा बनाया गया है। छतरी का जीर्णोद्धार तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह के अवसर पर तेरापंथ प्रवर्तक आचार्य श्री भिक्षु के जीवन से सम्बन्धित स्थानों के जीर्णोद्धार की योजना के अनुसार कराया गया। आचार्य श्री भिक्षु के जीवन से सम्बन्धित स्थानों के जीर्णोद्धार की योजना इसी शताब्दी के अवसर पर बनी । इस योजना के अन्तर्गत कंटालिया, सिरियारी ओर बगड़ी में जो स्थान स्वामीजी के जीवन से सम्बन्धित हैं, उनके जीर्णोद्वार का भार बगहीनिवासी श्री मोहताजी, श्री मिश्रीमलजी, श्री मोतीलालजी रांका, श्री कुन्दनमलजी सेठिया ने उठाया । इनके साथ श्री सम्पतकुमारजी गधेया, श्री मन्नालालजी बरड़िया, श्री रामचन्द्रजी सोनी ( रोजत रोड), श्री बस्तीमलजी छाजेड़ ( सिरियारी), समाजप्रेमी श्री जम्बरमलजी भण्डारी तथा राणावास निवासी कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा का नाम उल्लेखनीय है। बगड़ी नगर का भाग्योदय तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य श्री भिक्षु का बगड़ी से बड़ा आध्यात्मिक सम्बन्ध रहा है । यही वह स्थल है जहाँ पर आकर २५ वर्ष की आयु में स्थानकवासी सम्प्रदाय के तत्कालीन आचार्य श्री रुघनाथजी के हाथों आपने वि० सं० १८०८ की मार्गशीर्ष कृष्णा १२ को दीक्षा ली थी तथा राजनगर मेवाड़ के चातुर्मास काल में जब . Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कांठा के तेरापंथी तीर्थ (३) आपको बोधि प्राप्त हुई और उसके बाद आप आचार्य रुघनाथजी से मिले और अपने मतभेदों के बारे में विचारविमर्श हुआ लेकिन जब समझौते की कोई स्थिति नहीं देखी तो इसी बगड़ी से आपने अभिनिष्क्रमण वि० सं० १५१७ की चैत्र शुक्ला नवमी को किया और सर्वप्रथम अपने शिष्यों के साथ ठाकुर जैतसिंहजी की छतरी में आकर ठहरे। बगड़ी से आचार्य भिक्ष के अभिनिष्क्रमण के बाद उसे 'सुधरी' नाम से भी पुकारा जाता है। क्योंकि यहाँ से आचार्य भिक्षु ने अभिनिष्क्रमण कर जैनधर्म में सुधार का शंख फूंका था। इस कारण इसे बगड़ी नहीं सुधरी कहा जाने लगा । बगड़ी कांठा क्षेत्र का एक अच्छा करना है। वहाँ पर जैनियों के घरों की काफी संख्या है। माध्यमिक विद्यालय, कन्या विद्यालय आदि बने हुए हैं। पारसनाथ का जैन मन्दिर है। मोतीलालजी रांका ने एक अतिथि भवन भी बना रखा है। निर्वाण स्थली - सिरियारी OOOO १६१ निर्वाण स्थली - सिरियारी [] श्री समुद्रलाल संचेती ( प्रधानाध्यापक - श्री सुमति शिक्षा सदन, प्राथमिकशाला, राणावास ) सिरियारी नवकोटी मारवाड़ एवं वीरभूमि मेवाड़ के सन्धिस्थल में अरावली पहाड़ की तलहटी और कांठा क्षेत्र में बसा हुआ गाँव है । यह नगर चारों ओर पर्वतों से परिवेष्ठित है । उत्तर की ओर सिरियारी की नदी बहती है। इसी नदी के तट पर तथा पर्वतों की तलहटी में एक प्राचीन बावड़ी है। पहले कभी तिरियारी गाँव चारों ओर चार दरवाजों से घिरा था । उत्तर में सोजत का दरवाजा, पूर्व में देवगढ़, पश्चिम में पाली तथा दक्षिण में बाली का दरवाजा था । अब इनके अवशेष मात्र ही विद्यमान हैं । यह भूमि बहुत प्राचीन है सिरियारी के बारे में जो लोक-कथाएँ प्रचलित हैं, उनके अनुसार इस सिरियारी का इतिहास पौराणिक काल की सीमा तक चला जाता है। जनश्रुति के अनुसार यहाँ कभी हिरण्यकश्यप का राज्य था । उसका पुत्र प्रहलाद परम भगवद् भक्त था। इसी गाँव में एक कुम्हार की लड़की भी थी। उसका नाम सिरिया ( श्रेया ) था । भक्त प्रहलाद को भगवान पर विश्वास इसी सिरिया नाम की कुम्हारी ने कराया था । उक्त कुम्हारी का पिता यहाँ मिट्टी के मटके पका रहा था, किन्तु एक मटके में बिल्ली के बच्चे रह गये । सिरिया को जब इसका पता चला तो वह बहुत चिन्तित हुई, किन्तु नेवों में आग धधक रही थी। उस आग में बिल्ली के बच्चों वाला मटका ढूँढ़ना असम्भव था । भगवान को याद करने के अलावा और कोई चारा नहीं था । सिरिया इन बच्चों की जान बचाने के लिए भगवान से प्रार्थना करने लगी। सिरिया सती-साध्वी एवं सन्त नारी के रूप में उस समय तक प्रख्यात हो चुकी थी । आखिर भगवान ने सिरिया की प्रार्थना सुन ली । नेवे जब पक गये और पके हुए बर्तन निकाले तो बिल्ली के बच्चों वाला मटका कच्चा ही था । बच्चे जीवित थे। इस घटना को प्रहलाद ने अपनी आँखों से देखा । तब से प्रहलाद के हृदय में भगवान के प्रति विश्वास और बढ़ गया। इसके बाद की घटनाएँ सुख्यात हैं किन्तु सिरिया नाम की इस कुम्हारी ने ईश्वरभक्ति नहीं छोड़ी। उसने वहीं एक मन्दिर बनवाया। गाँव में ही उसका वह मन्दिर परिवर्तित रूप में आज भी विद्यमान है। इसी सिरियादेवी के नाम से इस गांव का नाम सिरियारी पड़ा । सिरियारी गाँव में सिरियादेवी के पिता द्वारा नेवे पकाना, बिल्ली के बच्चों का जीवित निकलना और प्रहलाद को बोध होना, इस . Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AA BOe १६२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड MINS COM . OLO घटना के रंगीन चित्र छपे हए आज घर-घर में टंगे मिलेंगे। चित्र काल्पनिक अवश्य हैं किन्तु इस जनश्रुति के प्रमाण में यह चित्र सहायक अवश्य हैं। सिरियारी के आस-पास बहुत से खण्डहर मिलते हैं । अब ये भूमिसात जरूर हो गये हैं ; किन्तु किंवदन्ती है कि ये खण्डहर पाटन नगर के हैं । पाटन कौन सा और कैसा नगर था, यह इतिहास व पुरातत्त्व का विषय है, लेकिन कभी समृद्ध रहा होगा, यह खण्डहरों को देखने से कहा जा सकता है । सिरियारी के पूर्व में अरावली पहाड़ है। इसकी एक ऊँची चोटी गोरम की चोटी कहलाती है। इसे गोरमघाट भी कहते हैं । इस चोटी पर गोरमनाथ का एक मन्दिर बना हुआ है । इतनी ऊँची चोटी पर मन्दिर व कुआ कैसे बना होगा, यह आश्चर्य का विषय है । पहाड़ी के नीचे तलहटी में गोरमनाथजी की धूणी आई हुई है। इसके पास ही काजलवास है। यहाँ पर आश्रम व बावड़ी है। सम्प्रदाय का यह क्षेत्र कभी बड़ा केन्द्र था । काजलवास में बनी विभिन्न नाथों की समाधियां इसका प्रमाण हैं। प्राचीन काल में यहाँ मालूमसिंहजी ठाकुर थे जो बड़े वीर और पराक्रमी थे। जोधपुरनरेश के यहाँ पर किन्हीं सिंघवीजी का बड़ा प्रभाव था लेकिन किसी कारणवश दरबार के साथ उनकी अनबन होने से उन्हें वहाँ से देशनिकाला दे दिया गया तथा वे मेवाड़ की ओर रवाना हो गये। रास्ते में सिरियारी ग्राम होते हुए जा रहे थे कि अचानक उन्हें ठाकुर मालूमसिंहजी की बहादुरी का ध्यान आया और वे सीधे ठाकुर से मिलने गये । बातचीत में असलियत का पता लगा और ठाकुर मालूमसिंह ने सिंघवीजी को शरण दे दी। इसकी खबर जोधपुर दरबार तक पहुँची। जोधपुरनरेश ने दूत भेजा और कहलाया कि सिंघवीजी को शरण न दें, यदि शरण दी तो फिर लड़ाई के लिए तैयार हो जायें । खबर सुनते ही ठाकुर को क्रोध आया और कहलाया कि मैंने तो शरण दे दी, आप चाहे जैसा करें। सच्चे राजपूत शरण देकर उसकी रक्षा करने के लिये हर वक्त तैयार रहते हैं । मैंने अपना कर्तव्य किया है । यह खबर दरबार के पास पहुंची । जोधपुर से सेना तैयार कर सिरियारी पर चढ़ाई की गई । उस समय REE घर ओसवालों के थे । यह नगर सिरियारी गढ़ के नाम से प्रसिद्ध था । यहाँ की आबादी काफी अधिक थी। नगर के चारों ओर पहाड़ी आने से नगर पहाड़ों के बीच में अदृश्य सा लगता था। सेना के आने पर चारों ओर के दरवाजे बन्द कर दिये गये तथा बुों पर तोपें लगा दी गई । सिर्फ पूर्व की ओर का दरवाजा जो देवगढ़ दरवाजा कहलाता था, रसद के लिये खुला था । जोधपुर की सेना कई दिनों तक रही, मगर नगर में प्रवेश नहीं पा सकी। किन्तु कहावत है कि 'घर का भेदी लंका ढावे'; इसके अनुसार पास के ही सिंचाणा गाँव के राजपूतों में से किसी ने नगर-प्रवेश का गुप्त रास्ता जोधपुर दरबार को बता दिया। फिर क्या था ? फौज सीधी देवगढ़ दरवाजे से प्रवेश पाने हेतु उधर मुड़ी। दरवाजा रसद आने-जाने के लिए खुला था। रातोंरात फौज उधर पहुंच गई। पहरेदारों के साथ घमासान युद्ध हुआ, मगर सेना अधिक थी। अत: नगर में प्रवेश पाना सरल था । इधर ठाकुर सा० मालूमसिंहजी को जब पता लगा तो वे फौरन केसरिया बाना पहनकर युद्ध के लिये तैयार हो गये। जोरदार युद्ध हुआ। कहते हैं कि मालूमसिंहजी का सिर बाजार के बीच जहाँ आचार्य भिक्षु का स्वर्गवास हुआ, उस स्थान पर गिरा। केवल धड़ ने सेना का नाश करते हुए सेना को पीछे खदेड़ दिया । देवगढ़ दरवाजे के बाहर सेना को निकालकर धड़ वहीं गिर पड़ा। वहाँ पर बनी उनकी छतरी इस घटना की आज भी याद दिलाती है तथा आज तक उस योद्धा की पूजा की जाती है। ऐसी वीरभूमि में आचार्य भिक्षु के सात चातुर्मास हुए और अन्तिम देह संस्कार इसी नगर में नदी के किनारे बावड़ी के पास सोजत दरवाजे के बाहर किया गया जिसकी याद में उत्तर में भव्य स्मारक बना हुआ शोभा पा रहा है। सिरियारी के पश्चिम की ओर दूर-दूर तक वीरगति पाये वीरों के चबूतरे बने हुए हैं जो इस भूमि की वीरता की याद दिलाते हैं । यहाँ पर कई युद्ध हुए हैं, अतः ओसवालों के ६६E के करीब जो घर थे, वे अन्यत्र जाकर बस गये । और वे नौ काछबलियों में बस गये । ये नौ काछबलियाँ-सिरियारी से करीब ही हैं। इस प्रकार अब केवल १५०-२०० की संख्या जैनियों की रह गई, जिसमें तेरापंथी समाज के ६०-७० घर आज मौजूद हैं। ये सभी धर्म पर बलिदान की भावना वाले हैं। क Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण-स्थली-सिरियारी १६३ Share VARAN STA सिरियारी का मार्ग वर्तमान में सिरियारी रेल तथा सड़क से दूर है। सिरियारी जाने के लिए रेल द्वारा मारवाड़ जंकशन से कामलीघाट जाने वाली रेलवे लाइन पर स्थित राणावास स्टेशन पर उतरकर पांच मील जाना होता है। राणावास से सिरियारी को कई बसें प्रतिदिन आती-जाती हैं। रास्ता कच्चा है। सोजतरोड से जोजावर जाने वाली मोटर सड़क भी है । इस तरह फुलाद, जोजावर आदि स्थानों पर जाने के लिये बस का साधन उपलब्ध है। सोजतरोड से सिरियारी १५ मील दूर है। स्वामीजी की जन्मभूमि कंटालिया सिरियारी के करीब ७ मील दूर उत्तर की और आया हुआ है। सकलेचों के कुलगुरुओं की एक शाखा जो कि स्वामीजी के वंश के कुलगुरु हैं, यही सिरियारी में रहते थे । वर्तमान में इनका एक घर अब भी मौजूद है । S BOB सिरियारी और तेरापंथ सिरियारी के साथ तेरापंथ का गहरा सम्बन्ध रहा है। आचार्य भिक्ष ने अपने तैयालीस चातुर्मासों में से सात चातुर्मास सिरियारी में किये और शेष काल में समय-समय पर पधार कर यहाँ के जन-मानस को पावन किया । स्वामीजी के चरम महोत्सव का श्रेय भी इसी नगरी को प्राप्त हुआ। उस समय यहाँ ६८१ परिवार ओसवालों के थे जिनमें से ७८१ परिवार आचार्यश्री भिक्ष की मान्यताओं में दृढ़ आस्था रखने वाले परिवार थे, ऐसी मान्यता है । स्वामीजी के सात चातुर्मास वि० सं० १८१६, १८२२, १८२६, १८३६, १८४२, १८५१ और १८६० में हुए। दस वर्ष से कम समय में यहाँ चातुर्मास होते गये जिससे इनकी मान्यता कितनी प्रबल थी, इस बात का पता चलता है । नगर के प्रमुख बाजार में हाटों के रूप में दुकानें थीं। उन्हीं हाटों की मेडी पर चातुर्मास होते थे। अब तो कई भवन निर्मित हो चुके हैं मगर अब भी अवशेष मौजूद हैं। स्वामीजी ने भीषण गर्मी में भी श्रमण संघ के साथ हवा रहित हाटों में धर्म-जागरण की रातें काटी। आज उस स्थल पर तेरापंथ समाज का भव्य भवन बना हुआ है, जहाँ औषधालय चलता है और जनता की सेवा का पूर्ण लाभ प्राप्त हो रहा है। यह लाभ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा एवं श्री बस्तीमलजी छाजेड़ के अथक परिश्रम द्वारा प्राप्त हो रहा है। आचार्यश्री भिक्षु का चरम या अन्तिम चातुर्मास वि० सं० १८६० में यहीं पर हुआ था, उस समय उनकी अवस्था ७७ वर्ष की थी। वृद्धावस्था होते हुए भी स्वामीजी आसन पर विराजकर तीनों समय उपदेशामृत से जनता का कल्याण करते रहे । किन्तु श्रावण महिने के पश्चात् स्वामीजी को साधारण दस्तों की बीमारी हो गई । उपचार से भी दस्त ठीक नहीं हुए । भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी को अचानक स्वामीजी को आभास होने लगा कि अब उनका आयुष्य निकट है । शरीर ढीला पड़ गया था । भाद्रपद शुक्ला पंचमी को संवत्सरी का उपवास किया। षष्ठी को स्वल्प आहार लिया। नवमी के दिन स्वामीजी ने आजीवन अनशन का विचार किया, किन्तु खेतसीजी स्वामी के अत्यन्त आग्रह करने पर उनके हाथ से स्वामीजी ने कुछ आहार लिया, दशमी के दिन फिर अनशन का विचार प्रकट किया किन्तु भारीमलजी स्वामी ने उस दिन भी अपने हाथ से कुछ आहार ग्रहण करने का निवेदन किया किन्तु एकादशी के दिन स्वामीजी ने पहले ही स्पष्ट कर दिया कि अब आहार लेने का उनका कोई इरादा नहीं है। दस्तों की बीमारी थी अतः आवश्यक दवा-पानी लेने के अलावा आहार का त्याग कर दिया। द्वादशी के दिन जल के अतिरिक्त तीनों आहार का त्याग कर दिया । मध्यान्ह काल में स्वामीजी कच्ची हाट से स्वयं चलकर पक्की हाट में आये। शिष्यों ने बिछौना कर दिया, उस पर विश्राम करने लगे । कुछ समय बाद भारीमलजी व खेतसीजी को बुलाकर अनशन पचख ही लिया । द्वादशी की रात्रि व्यतीत हुई। त्रयोदशी का दिन आया। यह दिन भो कोई डेढ़ प्रहर ही शेष था कि वि० सं० १८६० भाद्रपद शुक्ला १३ मंगलवार को स्वामीजी ने महाप्रयाण कर लिया। स्वामीजी का पार्थिव शरीर सोजत द्वार से होकर गांव के बाहर सिरियारी नदी के तट से होकर पूर्व दिशा की पहाड़ की तराई में १०० फुट पूर्व की ओर पहाड़ की ढाल में उस महामानव की चिता रची गई। अब उस स्थल पर 'x' का चबूतरा बनाया गया है । यह निर्वाण-स्थली का स्मारक अब तेरापंथ का तीर्थ बन चुका है। ASRAA SSC Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड सिरियारी नगर स्वामीजी का चरम संस्कार-स्थल होने से पूर्व भी स्वामीजी से काफी सम्बन्धित रहा है। स्वामीजी जब गृहस्थावस्था में थे तब उनका विवाह यहाँ के बांठिया परिवार में हुआ था। तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह के अवसर पर तेरापंथ प्रवर्तक आचार्य भिक्षु के जीवन से सम्बन्धित स्थानों के जीर्णोद्धार की एक विशाल योजना बनी । सिरियारी की वे हाटें, जिनमें आचार्य श्री भिक्षु ने सात चातुर्मास किये तथा संस्कार-स्थल के चबूतरे का जीर्णोद्धार योजना में था। समाज के मूक व प्रगतिशील युवक नेता श्री सम्पतकुमारजी गधैया इन स्थलों की खोज में सिरियारी आये । चबूतरे की खोज करना आसान काम नहीं था, कारण कि नदी के प्रवाह से चबूतरे के पत्थर अस्त-व्यस्त हो चले थे किन्तु गधयाजी निराश नहीं हुए। इस स्थल का पता लगाने की चाव बनी रही। इसी बीच यहाँ के एक कर्मठ कार्यकर्ता श्री बस्तीमली छाजेड़ मिले और अब ये लोग इस दुर्गम कार्य को करने की भावी योजना बनाने लगे। बगड़ी निवासी कुन्दनमलजी सेठिया, श्री मोतीलालजी राका आदि व्यक्तियों ने मिलकर निश्चय किया कि राणावासनिवासी काका साहब श्री केसरीमलजी सुराणा का सहयोग प्राप्त करना अति आवश्यक है । अतः ये सभी महानुभाव काका साहब के पास अपनी योजना लेकर आये । काका साहब को यह योजना सुन्दर प्रतीत हुई और इन्होंने अपना अमुल्य समय इस योजना में लगाया । भावी तैयारी के बाद स्मारक निर्माण समिति गठित की गई और इन स्थलों के जीर्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ किया गया । काका साहब व अन्यों के अथक परिश्रम के फल से गांव सिरियारी के बाहर नदी के तट पर पहाड़ की तराई में भिक्ष स्मारक रूपी भव्य भवन बनाया गया जो अब उस अतीत की याद दिला रहा है। अन्तेवासी शिष्य की जन्मभूमि आचार्य भिक्ष के प्रिय शिष्य मुनि श्री हेमराजजी का भी सिरियारी के साथ महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध रहा है। हेमराजजी स्वामी का जन्म सिरियारी में ही आछा ओसवाल वंश में हुआ। हेमराजजी स्वामी वृद्ध अवस्था में यहाँ पधारे। आपका शरीर अस्वस्थ हो गया तथा आपका भी यहीं समाधिपूर्वक स्वर्गवास हुआ। खोज से पता चलता है कि आपके प्रमुख श्रावक यहाँ पर थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह नगर तेरापंथ समाज का प्रमुख तीर्थ है । तेरापंथ समाज के साथ इस नगर का गहरा सम्बन्ध है और भविष्य में भी इसका सम्बन्ध अधिक बढ़ता रहेगा। 0000 कांठा के तेरापंथी तीर्थ (४) विद्याभूमि राणावास प्रो० पी० एम० जैन (इतिहास-विभाग, जैन तेरापंथ महाविद्यालय, राणावास) प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण, भौतिक वातावरण से परे, शहरों की चकाचौंध से दूर, वीर-भूमि राजस्थान के हृदय-स्थल में, मेवाड़-मारवाड़ की सीमा-रेखा पर कांठा प्रान्त में, अरावली पर्वतमाला के गोरम पहाड़ की तलहटी में प्राकृतिक छटा से सुशोभित, तेरापंथ के आद्य-प्रवर्तक आचार्यश्री भिक्ष स्वामी के निर्वाण-स्थल सिरियारी के समीपवर्ती विद्या-केन्द्र, शान्त वातावरण से युक्त, स्वास्थ्यानुकूल जलवायु से परिवेष्ठित मारवाड़ जंकशन-उदयपुर रेल मार्ग पर स्थित विद्यानगरी राणावास की ख्यातिरूपी कस्तूरी की सौरभ स्वतः विकीर्ण होती रही है। मरुभूमि में राणावास Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याभूमि राणावास १६५ . एक मरुद्यान की तरह शिक्षारूपी रश्मियों से शिक्षा-प्रेमियों के लिए श्रेष्ठ आकर्षण है। इस आकर्षण का आधार राणावास रेलवे स्टेशन पर स्थित आदर्श शिक्षण संस्थाएं हैं, जहां छात्रों के जीवन-प्रांगण में चरित्र का बीजारोपण किया जाता है। प्रारम्भिक गाँव राणावास से १ कि. मी. दूर विद्याभूमि राणावास रेलवे स्टेशन शिक्षा प्रसार के अतिरिक्त डाक-तार, बैंक आदि सुविधाओं से युक्त सतत चहुंमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है। राणावास : नामकरण व इतिहास राणावास गाँव के नामकरण के बारे में दो तरह के मत प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार इस गांव का राणावास नाम इसलिए पड़ा क्योंकि पहले कभी यह मेवाड़ के राणाओं की भूमि थी और मारवाड़ की ओर मेवाड़ [विद्याभूमि राणावास बली चि र पटिया मारवाड़ जंबान दीका मन्दिर admin HOLLL ठाकुरवास बिजलीघर निर्माणाधीन पात्राजात अर्थशामा महाबीर कलाnn dateLal_APP विधायम सिरियारी आनन्द ला वा स चिमिन्मालमLn. Engs अनजिपर मरुपयसरी वि.सचान ( मिमीना मारमा n 2 रारा . माध्यता नाम चारा गावाम उलाद ग्रामपंचायत मनमानी रागानासगांबतेव 1210 मलमाबाबा "ILad सपना - संकेत Ann नाकालेज रामानाम र हा वास गुड़ारामसिंह संकेत रेल्वादन ४ मावाइमा मड़का नमी मिदन मम माप किनमेगाव रकमान बैंक |3|ाकक्मार्म .सेसोसिभोवश्वालम *6 कार्यालय 7भोजनगलम आदर्श किया कुम जात्रावास Matसेजभवन +DC T - चिकित्साल्म - - Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड COM 809 के राणाओं के राज्य की अन्तिम सीमा थी, लेकिन इस तथ्य के बारे में कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता, केवल जनश्रुति के आधार पर ही विश्वास करना पड़ता है। द्वितीय मत के अनुसार बताया जाता है कि इस गाँव को बसाने का श्रेय राणामाली को है। इस सम्बन्ध में एक दन्तकथा भी प्रचलित है कि बहुत वर्षों पहले कछवाहा गोत्र का राणामाली जोधपुर में कोई अपराध करके इस क्षेत्र में आकर अज्ञातवास करने लगा। वर्तमान में जहाँ राणावास गांव बसा हुआ है, वहाँ उस समय झाड़-झंखाड़ बहुत थे। इन झाड़-झंखाड़ों के मध्य नाथपंथी साधुओं का जोगेश्वर मठ बना हुआ था। राणामाली ने इस मठ के नाथपंथी साधु के पास आकर शरण ली । साधु ने उसे अभयदान दिया। एक दिन रात्रि को मठ में कहीं से दो बकरे आ गये । कुछ समय बाद एक शेर भी आ गया, लेकिन शेर ने उन बकरों को नहीं मारा। इस पर नाथपंथी साधु ने अनुमान लगाकर राणामाली से कहा कि यह शरण का उपयुक्त व सुरक्षित स्थल है। तुम यहीं पर बस जाओ, धीरे-धीरे आबादी बढ़ जायेगी और गाँव बस जायेगा । अपने आश्रयदाता की बात मानकर राणामाली ने वहीं पर विधि-विधान से छड़ी रोपी और धीरे-धीरे यह स्थान आबाद होने लगा व वर्तमान स्थिति में एक बड़े कस्बे के रूप में बदल गया । राणामाली ने सर्वप्रथम इसे अपना निवास-स्थान बनाया, अतः राणामाली के वास के कारण यह राणावास कहलाने लगा। इस कथा का आधार राणामालियों के भाट मांगीलाल के पास सुरक्षित बही से ज्ञात होता है। मांगीलाल भाट वर्तमान में सोजत में रहता है । राणामाली के वंशज अब भी राणावास, सोजत, पाली तथा भदावतों का गुड़ा में रहते हैं। राणावास में रहने वाले ओसवालों में कटारिया व मूथा चण्डावल से, कुछ कटारिया सिरियारी से, सुराणा आऊआ से, गुगलिया मलसा बावड़ी से, सिंघवी लाम्बिया से तथा गाँधी विटोड़ा से आकर बसे हैं। राणावास गाँव चण्डावल ठिकाने की जागीर का गाँव है। चण्डावल की जागीर जोधपुर के महाराजा सूरसिंह ने वि० सं० १६५२ में कूपावत राठौड़ चाँदसिंह को इनायत की थी। गाँव में चण्डावल ठाकुर वर्ष में एक दो बार आकर रहते थे तथा लगान, कर आदि वसूल करते थे। इनका एक मकान गाँव के बीचोंबीच अब भी विद्यमान है। प्राकृतिक एवं भौगोलिक स्वरूप इसके पूर्व में मलसा बावड़ी, पश्चिम में राणावास ग्राम, उत्तर में ठाकुरवास, और दक्षिण में गुड़ा रघुनाथसिंह नामक गाँव स्थित हैं । इसकी समुद्र तल से ऊँचाई १०१६ फीट है। यह ७४° पूर्वी देशान्तर तथा २६° उत्तरी अक्षांश पर स्थित है। यहाँ की औसत वार्षिक वर्षा २५ से ३० से० मी० है । वार्षिक तापान्तर अधिक रहता है । मरुस्थल होने से गर्मी और सर्दी दोनों का आधिक्य रहता है। वर्षा दक्षिणी-पश्चिमी मानसून से होती है। यहाँ की जलवायु स्वास्थ्य के लिए अनुकूल है । यहाँ का जल शीतल, रुचिकर. मिष्ट एवं पाचक है । कुओं की गहराई २०-२५ फीट है । यहाँ पानी की कमी नहीं है । यहाँ मिट्टी अरावली पर्वत की देन होने से उर्वरी एवं मटमैली है। इसकी तह काफी गहरी होने से मिट्टी सोना उगलती है। आर्थिक स्थिति यहाँ रेलवे स्टेशन की स्थापना १९३५ में हुई । इसके बाद राणावास की बहुमुखी प्रगति की रूपरेखा तैयार होने लगी । पुराने समय से ही राणावास धनी-मानी व्यक्तियों का निवास रहा है। व्यापार का कार्य प्रमुखतः महाजन जाति का धनिक वर्ग करता है । राणावास में इन धनिकों ने बहुत आलीशान मकान बना रखे हैं, इनसे राणावास की शोभा को चार चांद लग गये हैं । इन्हीं लक्ष्मी-पुत्रों के सहयोग और उदारभावना तथा संकल्प से राणावास स्टेशन का रूप परिवर्तित होता जा रहा है। यहाँ की सीधी और चौड़ी सड़कें मन को लुभावनी लगती हैं और गुलाबी नगर जयपुर की याद को तरोताजा बना देती हैं । आस-पास के क्षेत्रों में कपास एवं अनाज पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न होते हैं । कृषि जीविका का प्रमुख साधन है। कृषि का आधार मानसून होते हुए भी यहाँ पर्याप्त मात्रा में कुएं हैं । इन कुओं से पशु-शक्ति एवं विद्युत से पानी निकाला जाता है । फुलाद, डींगोर तथा सारण के बांधों से कुछ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याभूमि राणावास १६७ - क्षेत्रों में सिंचाई होती है । रबी एवं खरीफ की फसलें यहाँ होती हैं । वर्षा की कमी के समय एक फसल हो पाती है। यहाँ गेहूँ, जौ, ज्वार-बाजरा, चना, तिल, कपास, अरण्डी, तिलहन, शकरकन्द, ईसबगोल की उपज पर्याप्त मात्रा में होती है । शकरकन्द और ईसबगोल को राणावास से निर्यात किया जाता है। यहाँ लकड़ी चीरने की दो मशीनें, एक बर्फ की फैक्ट्री, अनाज पीसने की चार चक्कियाँ, कपास ओटने की दो मशीनें हैं । चमड़े की रंगाई का उद्योग यहाँ विकसित है । जनसंख्या राणावास स्टेशन की जनसंख्या २५०० है । विद्याभूमि राणावास में स्त्रियों की तुलना में पुरुषों की संख्या अधिक है। राणावास गाँव की आबादी करीब ५००० है । यहाँ स्त्री-पुरुषों की संख्या का अनुपात लगभग समान है। शिक्षा को आधार-शिला : विविध आयाम मानव हितकारी संघ यह संस्था ही कई संस्थाओं की जननी है जिसके कारण आज राणावास का स्वरूप उभरा है। शिक्षा की उन्नति एवं चरित्रोन्नयन के लिए सन् १९४४ ई० में इस संघ की स्थापना हुई। इसका पूरा नाम श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ है । इसकी स्थापना का प्रमुख श्रेय सिरियारीनिवासी श्रीमान् बस्तीमलजी छाजेड़ को दिया जा सकता है और इसका विकास और उत्थान कर्मयोगी केसरीमलजी सुराणा के परिश्रम का परिणाम है। जैन तेरापंथ महाविद्यालय मानव हितकारी संघ द्वारा सन् १९७४ में स्थापित इस महाविद्यालय में प्रारम्भ में ५ विद्यार्थी अध्ययनरत थे । औसत रूप में अब तक विद्यार्थियों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है । पिछले वर्षों में परीक्षा परिणाम वहुत शानदार रहे हैं। महाविद्यालय राजस्थान विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है और राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त है। अब इसे स्थायी मान्यता मिल चुकी है। महाविद्यालय छात्रावास इसमें विद्यार्थियों को शुद्ध भोजन एवं आवास की सुविधा ही प्राप्त नहीं होतो अपितु प्रतिदिन एक घण्टा आध्यात्मिक चिन्तन का भी अवसर मिलता है। महाविद्यालय-छात्रावास भवन में ३३० विद्याथियों के आवास की सुविधा है। सुमति शिक्षा सदन मानव हितकारी संघ द्वारा स्थापित इस विद्यालय में उच्च माध्यमिक स्तर तक अध्ययन की सुविधा है। परीक्षा परिणाम की दृष्टि से इस विद्यालय ने पाली जिले में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया है। आदर्श निकेतन छात्रावास सुमति शिक्षा सदन के विद्यार्थियों के लिए निमित इस छात्रावास में आध्यात्मिक शिक्षा, चरित्र-निर्माण, स्वास्थ्यप्रद भोजन एवं सुविधाजनक भवन की व्यवस्था है । यह छात्रावास भी श्री मानव हितकारी संघ द्वारा चलाया जा रहा है। जैन तेरापंथ छात्रावास इसकी स्थापना सन् १९७६ में हुई । इसमें प्राथमिक स्तर के विद्यार्थियों के लिए आवास की उत्तम व्यवस्था है। यह छात्रावास आदर्श निकेतन छात्रावास का अभिन्न अंग है। श्री जैन श्वेताम्बर मानव हितकारी संघ द्वारा संचालित विद्यालय एवं महाविद्यालय छात्रावास की सबसे Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड 2 000- Mrses... - it. In 20-2000m-mem a ratram - term. .ma ratise or T Cam BHAS OAD बड़ी विशेषता यह है कि बहुत ही कम शुल्क में विद्यार्थियों को आवास की सम्पूर्ण सुविधाएं, सात्त्विक एवं सन्तुलित भोजन दिया जाता है। उदाहरणार्थ महाविद्यालय में मासिक शुल्क मात्र १२० रु० लिया जाता है । मेरी दृष्टि में ऐसी उत्तम एवं सस्ती व्यवस्था राजस्थान में किसी अन्य स्थान पर उपलब्ध नहीं है। __ भवन निर्माण की दृष्टि से मानव हितकारी संघ का प्रांगण अत्यन्त समृद्ध है। प्रांगण में स्थित विशाल एवं भव्य भवन वास्तव में किसी बड़े शहर की याद दिलाते हैं। सभागार, ओषधालय, अतिथिभवन, तेरापंथ महाविद्यालय, सुमति शिक्षा सदन, आदर्श निकेतन छात्रावास एवं महाविद्यालय-छात्रावास अपनी अलग ही छटा प्रस्तुत करते हैं। मरुधरकेसरी उच्च माध्यमिक विद्यालय इसकी स्थापना सन् १९७० में हुई । उच्च माध्यमिक स्तर पर वाणिज्य एवं कला विषयों के अध्ययन की यहाँ उत्तम व्यवस्था है। श्री थानचन्द मेहता क्राफ्ट महाविद्यालय __मरुधरकेसरी विद्यालय द्वारा स्थापित इस महाविद्यालय में विभिन्न वस्तुओं, जैसे-सोफासेट, अटैची, बेग, कुर्सियां आदि के निर्माण का व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके साथ ही चित्रकला एवं संगीत का भी प्रशिक्षण दिया जाता है । इस विद्यालय की स्थापना १९७३ ई० में हुई । वर्तमान स्थानकवासी छात्रावास मरुधरकेसरी विद्यालय में अध्ययनरत विद्यार्थियों के आवास एवं भोजन की उत्तम व्यवस्था है । यहाँ नियमित रूप से सदाचारी जीवन का निर्माण किया जाता है। राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय यह विद्यालय शिक्षा विभाग, पाली के अन्तर्गत कार्यरत है। इसकी स्थापना १९७४ में हुई। इस शाला का स्तर सदैव से प्रशंसनीय रहा है। अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ राणावास स्त्री-शिक्षा के प्रति भी पूर्ण जागरूक है । इस संघ की स्थापना श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा ने सन् १९६० में की। श्रद्धय केसरीमलजी सुराणा के सुसंचालन में संघ निरन्तर प्रगति करता हुआ बालिकाओं के चरित्रनिर्माण में संलग्न है । मैथलीशरण गुप्त के शब्दों में विद्या हमारी भी न तब तक काम में कुछ आयेगी। अर्धागियों को भी सुशिक्षा दी न जब तक जायेगी। संघ बालिकाओं में सद्गृहिणी के सुसंस्कार निर्मित कर समाज की नींव को सुदृढ़ बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहा है । संघ के अन्तर्गत निम्न इकाइयाँ कार्यरत हैं१. महावीर कन्या माध्यमिक विद्यालय इसकी स्थापना सन् १९६१ में हुई। इसमें माध्यमिक स्तर पर कला के विषयों का अध्ययन कराया जाता है। सिलाई, संगीत तथा गृह-विज्ञान का विशेष रूप से अध्ययन होता है। २. बाल मन्दिर ___ इसकी स्थापना सन् १९७३ में हुई । यहाँ पर प्राथमिक स्तर की नन्हीं बालिकाओं को अध्ययन एवं जीवननिर्माण की कला सिखाई जाती है । स SNOR kr Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्याभूमि राणावास ३. सर्वोदय छात्रावास राष्ट्रपिता गांधीजी के चरण चिह्नों पर चलने वाले वास्तविक सर्वोदयी विचारक एवं महात्मा गाँधी के प्रवक्ता श्रीयुत मिश्रीमलजी सुराणा ने सर्वजाति एवं सर्वधर्म समन्वय को भावना से प्रेरित होकर सन् १९७२ में इसकी स्थापना की। इस छात्रावास में विभिन्न विद्यालयों एवं महाविद्यालय के छात्र रहते हैं। अस्पृश्यता निवारण, प्रेमभाव एवं भाई-चारे का पाठ यहाँ पढ़ाया जाता है । यह संस्था स्वावलम्बन पर विशेष बल देती है । १६६ ४. चौधरी छात्रावास इस छात्रावास की स्थापना १९७६ में हुई । इसमें विभिन्न विद्यालयों एवं महाविद्यालय के छात्र आवास एवं भोजन की सुविधा प्राप्त करते हैं। इसका अपना दो मंजिला भवन है । ५. महावीर कन्या छात्रावास महिला शिक्षण संघ द्वारा संचालित इस छात्रावास की स्थापना १९६१ में हुई। इस छात्रावास की व्यवस्था बहुत सुन्दर है। इसमें कन्या विद्यालय व बाल मन्दिर की छात्राओं को प्रवेश दिया जाता है। ६. राजपूत छात्रावास इस छात्रावास की स्थापना का भी निर्णय ले लिया गया है तथा जमीन भी खरीद ली गई है । शीघ्र ही निर्माण कार्य शुरू होने वाला है । इन शिक्षण संस्थाओं के अतिरिक्त यहाँ राजकीय अस्पताल है, जहाँ रोगी अपना उपचार कराते हैं। एक शिशु रोग विशेषज्ञ ३२ वर्षों से यहाँ जन सेवा में संलग्न है। प्रसूति गृह का एक विशाल भवन निर्माणाधीन है। इन सबके अतिरिक्त पोस्ट आफिस, तारघर रेलवे स्टेशन, टेलीफोन तथा बैंक की सुविधा भी है। क्रय-विक्रय के लिए बाजार है। बिजली की कमी को राज्य सरकार ने पूरा कर दिया है। प्रतिवर्ष हनुमानजी का मेला लगता है । राणावास मारवाड़ जंक्शन, पाली, रानी, फुलाद, सोजत आदि कस्बों से जुड़ा है । इस प्रकार यह विद्याभूमि विकास की ओर उन्मुख है। यहाँ की सारी उन्नति का य यहाँ की शिक्षण संस्थाओं को है, जिनमें भारत के विभिन्न प्रान्तों से विद्यार्थी आकर अपना अध्ययन और चरित्र निर्माण करते हैं । वैसे शिक्षण संस्थाओं का देश में अभाव नहीं है, लेकिन चरित्र-निर्माण की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया । मानव हितकारी संघ का मुख्य उद्देश्य है- व्यावहारिक पढ़ाई के साथ-साथ आचार का सदुपयोग और नैतिकता का विकास करना । ऐसा अन्य शिक्षण संस्थाओं में ध्यान नहीं दिया जाता और यही कारण है कि आज युवा पीढ़ी दिशाहीन पंछी की तरह दिग्भ्रमित होकर रचनात्मक कार्यों की अपेक्षा विध्वंसात्मक कार्यों में अपनी शक्ति का नियोजन कर रही है। विद्याभूमि का निर्माण करने और शिक्षारूपी कस्तूरी की सुवास को जन-जन तक पहुँचाने में संघ के अवैतनिक मंत्री कर्मयोगी केशरीमलजी सुराणा का अत्यंत महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्हीं की लगन, दृढ़ निश्चय एवं संकल्प शक्ति से काम सफल हो पाया है। उनकी सेवाओं को राणावास युगों-युगों तक याद रखेगा । 00 . Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANEL YOAD 008 श्री जन श्वेताम्बर तरापंथी मानव हितकारी संघ, (राणावास) का इतिहास 0 श्री तख्तमल इन्द्रावत, साहित्यरत्न (अध्यापक, सुमति शिक्षा सदन, उ० मा० विद्यालय, राणावास) A ONAO हमारे देश में राजस्थान वीर-प्रसविनी भूमि के रूप में प्रख्यात है । इसके कण-कण में शौर्य, साहस, स्वतन्त्रता, त्याग, तपस्या एवं बलिदान की ओजस्वी कथाएँ व्याप्त हैं। कलाप्रेमी कुम्भा, स्वतन्त्रता सेनानी महाराणा प्रताप, दानवीर भामाशाह, स्वामिभक्त दुर्गादास राठौड़, पितृभक्त चूण्डा, शिल्पस्नेही महाराजा जयसिंह, साहित्य सरक्षक महाराजा अनूपसिंह, भक्तिमती मीरा, सन्तशिरोमणि दादू और क्रान्तिकारी आचार्य भिक्षु इस वन्दनीय वसुन्धरा के यश-गौरव हैं। __इसी पुण्य-भूमि राजस्थान के पश्चिम में मारवाड़ की महिमामण्डित धरा अपनी कीति गाथाओं को अंक में संजोये अवस्थित है। मारवाड़ के दक्षिणी-पूर्वी भाग का लगभग तीन सौ वर्गमील का क्षेत्र 'कांठा' के नाम से जनजन में लोकप्रिय है । कांठा क्षेत्र के मध्य अरावली पर्वतमाला के गोरम पहाड़ की तलहटी और समतल मैदान में मारवाड़ राणावास नामक रेलवे स्टेशन है । यह स्टेशन सन् १६३५ में स्थापित हुआ था और मारवाड़ जंक्शन से उदयपुर मेवाड़ जाने वाली पश्चिमी रेलवे लाइन का यह प्रथम स्टेशन है। स्टेशन के समीप ही एक छोटा सा उपनिवेश स्थापित हो गया है । इस उपनिवेश से एक मील की दूरी पर राणावास गांव स्थित है । यह समग्र क्षेत्र अब एक बहुत बड़े शिक्षा केन्द्र के रूप में राजस्थान के मानचित्र पर अंकित है जो अपर नाम विद्याभूमि के रूप में भारत भर में सूख्यात है। विद्याभूमि के रूप में इसके विकास का एक लम्बा किन्तु रोचक इतिहास है। मुनिश्री जीवनमलजी का चातुर्मास बात संवत् २००१ अर्थात् सन् १६४४ ई० की है । इस समय राणावास गाँव के प्रमुख श्रावक श्री मिश्रीमलजी सुराणा, श्री सुमेरमलजी सुराणा आदि चूरू के मर्यादा महोत्सव पर तेरापंथ के नवम् आवार्य श्री तुलसी गणी के दर्शन करने गये थे और अपने यहाँ चारित्रात्माओं के चातुर्मास कराने की विनती की । फलस्वरूप आचार्यदेव ने महती कृपा करके मुनिश्री जीवनमलजी स्वामी ठाणा ३ का चातुर्मास कराने का फरमाया । मुनिश्री बड़े ही विद्वान, गम्भीर एवं तत्त्वज्ञ थे जिससे चातुर्मास में यहाँ के श्रावक यथा--श्री जवानमलजी, श्री प्रतापमलजी, श्री मिश्रीमल जी, श्री सुमेरमलजी, श्री गणेशमलजी, श्री केसरीमलजी सुराणा, श्री धनराजजी आच्छा, श्री गणेशलालजी बरलोटा, श्री चौथमलजी कटारिया, श्री रूपचन्दजी भण्डारी आदि-आदि श्रावको तथा उनके परिवार वालों ने (कूल १६ घर) दर्शन, सेवा और भक्ति का पूरा-पूरा लाभ उठाया और तेरापंथ के सिद्धान्तों के विकास में अपना सहयोग प्रदान किया। उदभव के अंकुर ___ इसी चातुर्मास में सिरियारी ग्राम के श्री बस्तीनलजी छाजेड़ ने एक संघ रूप में आकर राणावास में मुनिश्री के दर्शन किये और सेवा का लाभ लिया। श्री छाजेड़जी एक समाजसेवी, शिक्षाप्रेमी और धर्म के प्रति Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास १७१ । निष्ठावान व्यक्ति थे। उनके हृदय में आचार्य भिक्ष के सिद्धान्त व्याप्त थे। वे यह चाहते थे कि जिस प्रकार कांठा क्षेत्र धन-धान्य से समृद्ध है, उसी प्रकार तेरापंथ के सिद्धान्तों में भी परिपूर्ण हो, लेकिन इस समय यहाँ अज्ञान एवं अशिक्षा व्याप्त है, जिससे अनेक कुरूढ़ियाँ एवं कुप्रथाएँ प्रचलित हैं और समाज जर्जरित है । अगर अभी भारत की भावी विभूति बालक समुदाय में सशिक्षा, सद्विवेक और सद् आचरण की त्रिवेणी प्रवाहित कर दी जावे तो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की विशेष समृद्धि होगी। साथ ही उन्हें जैनधर्म एवं तेरापंथ के सिद्धान्तों से परिचित किया जावे तो वे सुलभ-बोधि एवं सम्यक्त्वदर्शी बनेंगे और अपना तथा दूसरों का कल्याण कर सकेंगे। उनके हृदय में ये विचार इससे एक वर्ष पूर्व भी उत्पन्न हुए थे और कार्यान्वित करने के लिये समाज के कुछ प्रतिष्ठित व्यक्तियों को अवगत भी कराये थे लेकिन श्री छोगमलजी चोपड़ा, निवासी गंगाशहर के अलावा किसी का अनुमोदन नहीं प्राप्त हुआ जिससे वे योजना नहीं बना सके । फलतः अब उन्होंने अपने इन विचारों को राणावास के श्री प्रतापमलजी, श्री मिश्रीमल जी, श्री गणेशमलजी, श्री केसरीमलजी सुराणा आदि सज्जनों को अवगत कराये । सबके हार्दिक एवं आर्थिक आश्वासन देने पर एक छात्रावासी विद्यालय प्रारम्भ करने का निश्चय किया गया। श्री मिश्रीमलजी सुराणा, जो एक गांधीवादी व्यक्ति हैं और जिनमें समाज-सेवा और देश-सेवा की सर्वोदय भावना है तथा जो सादा जीवन, उच्च विचार के प्रतीक हैं, ने अपना तन, मन और धन देकर इस कार्य को मूर्त रूप देने का बीड़ा उठाया। श्री छाजेड़जी ने आर्थिक सहयोग के साथ शारीरिक सहयोग प्रदान करने का आश्वासन दिया, जिससे इस शिक्षारूपी महायज्ञ को प्रारम्भ करने का निर्णय हुआ। विद्यालय एवं छात्रावास का श्रीगणेश संवत् २००१ वि० की आश्विन शुक्ला १० (विजयादशमी) तदनुसार दि० २७ सितम्बर, १९४४ ई० के शुभ मुहूर्त में मारवाड़ राणावास स्टेशन पर श्री सुमति शिक्षा सदन विद्यालय एवं श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी छात्रावास रूपी वटवृक्ष का बीज वपन किया गया जिसके संचालन का भार श्री मिश्रीमलजी सुराणा और अध्यापन का भार श्री मूलसिंहजी राठौड़, निवासी सूरसिंह का गुड़ा को सौंपा गया । फलस्वरूप सर्वप्रथम ५ विद्यार्थी प्रविष्ट हुए (१) लालचन्द गादिया (खीमाड़ा), (२) वरदीचन्द गादिया (खीमाड़ा), (३) सुगनराज खाटेड (खीमाड़ा), (४) आसकरण (जोजावर), (५) जुगराज मूथा (सूरसिंह का गुड़ा)। विद्यालय एवं छात्रालय के लिए श्री चाँद खाँ मिश्रुखाँ पठान का मकान १००) एक सौ रुपये वार्षिक किराये पर लिया गया तथा १ से ३ तक की कक्षाएं प्रारम्भ की गई । श्री बस्तीमलजी छाजेड़ एवं श्री मिश्रीमलजी सुराणा आदि शिक्षाप्रेमी व्यक्तियों के हृदय में इस विद्यालय को अखिल भारतीय स्तर के एक विशाल संस्थान का रूप देने की भावना थी। इस कारण उन्होंने मारवाड़, मेवाड़, थली तथा दूर-दूर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को पत्र द्वारा अपने विचारों से अवगत कराया और दिनांक २७ जनवरी १६४५ ई० की सामूहिक बैठक में सम्मिलित होकर अपने सुझाव तथा सहयोग देने का निमन्त्रण दिया। श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी शिक्षण संघ की स्थापना दिनांक २७ जनवरी १६४५ ई० को राणावास में श्री केसरीमलजी सुराणा के निवासस्थान पर श्री छोगमलजी चोपड़ा की अध्यक्षता में एक बैठक का आयोजन किया गया, जिसमें उपस्थिति निम्न प्रकार थी (१) श्री छोगमलजी चोपड़ा (गंगाशहर) (२) श्री जसवन्तमलजी सेठिया (बलून्दा) (३) श्री केवलचन्दजी सेठिया (बलून्दा) (४) श्री डूंगरमलजी साँखला (ब्यावर) (५) श्री रूपचन्दजी भण्डारी (राणावास) (६) श्री जवानमलजी सुराणा (राणावास) Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १७२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड (७) श्री धनराजजी आच्छा (राणावास) (८) श्री गणेशमलजी बरलोटा (राणावास) (8) श्री पुखराजजी कटारिया (राणावास) (१०) श्री हस्तीमलजी आच्छा (राणावास) (११) श्री केसरीमलजी सुराणा (राणावास) (१२) श्री मिश्रीमलजी सुराणा (राणावास) (१३) श्री दलीचन्दजी सुराणा (राणादास) (१४) श्री देवेन्द्रकुमारजी कर्णावट (राजनगर) (१५) श्री मोतीलालजी रांका (बगड़ी) (१६) श्री चुनीलालजी बरलोटा (राणावास) (१७) श्री खेमराजजी बरलोटा (राणावास) (१८) श्री लालचन्दजी सुराणा (राणावास) (१९) श्री रामचन्दजी कटारिया (राणावास) (२०) श्री जीवराजजी भण्डारी (राणावास) (२१) श्री दलीचन्दजी भण्डारी (राणावास) बैठक में निम्न प्रस्ताव स्वीकार किये गये (अ) सर्वसम्मति से मारवाड़ राणावास स्टेशन पर 'श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी शिक्षण संघ' की स्थापना करने का निर्णय लिया गया और उसके निम्न उद्देश्य निर्धारित किये गये (१) तेरापंथ की मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए विद्यालय तथा छात्रावास खोलकर उनका संचालन करना । (२) तेरापंथ व अन्य समाज के छात्र-छात्राओं को नैतिक, धार्मिक, सांसारिक, व्यापारिक, वैज्ञानिक और शारीरिक शिक्षा देना। (३) जैन संस्कृति और परम्परा के अनुसार पुस्तकालय तथा वाचनालय का संचालन करना तथा पत्रपत्रिकाएँ और बुलेटीन को प्रकाशित करना। (आ) इस बैठक में श्री दलीचन्दजी सुराणा ने प्रस्ताव रखा कि श्री मिश्रीमलजी सुराणा, श्री बस्तीमलजी छाजेड़ और श्री चौथमलजी कटारिया आदि सज्जनों के प्रयत्नों से जो श्री सुमति शिक्षा सदन विद्यालय और छात्रालय संचालित हो रहे हैं, उन्हें अपने अधिकार में लिया जाय और आगे संचालित किया जाय। श्री जसवन्तमलजी सेठिया ने शिक्षा की उपयोगिता पर प्रकाश डालकर प्रस्ताव का समर्थन किया। फलस्वरूप सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि विद्यालय तथा छात्रालय की सारी व्यवस्था तथा सम्पत्ति को अपने अधिकार में लेकर उनका विधिवत् संचालन किया जावे । (इ) चालू सत्र के लिए निम्न प्रकार से पदाधिकारियों का चयन किया गया(१) अध्यक्ष श्री छोगमलजी चोपड़ा, गंगाशहर (२) मन्त्री श्री गणेशमलजी दक, ब्यावर (३) उपमन्त्री श्री मोतीलालजी रांका, बगड़ी श्री मिश्रीमलजी सुराणा, राणावास (५) ट्रस्टी श्री जसवन्तमलजी सेठिया, बलून्दा (६) कोषाध्यक्ष श्री जुगराजजी गादिया, रामसिंह का गुड़ा (७) सदस्य श्री डूंगरमलजी सांखला, ब्यावर आदि ३१ सदस्य । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास १७३ 108 ONGS SAO 04 (ई) सदस्यों द्वारा श्री जसवन्तमलजी सेठिया और डूंगरमल जी सांखला को निवेदन किया गया कि वे संघ के व्यवस्थित संचालन के लिए एक संविधान का निर्माण कराकर आगामी बैठक में प्रस्तुत करें और उसके अनुसार संघ का रजिस्ट्रेशन कराया जावे । (उ) संघ की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने तथा दैनिक व्यय को वहन करने के लिए उपस्थित महानुभावों से निवेदन किया गया तो सबने ही उदार हृदय से आर्थिक सहयोग देने आश्वासन दिया। (ऊ) राणावासवासियों ने उस दिन १००००) रु० दस हजार रुपये का चन्दा लिखकर कार्य का शुभारम्भ किया जिसमें २५००) रु० श्री प्रतापमलजी मिश्रीमल जी सुराणा, २५००) रु० श्री सुमेरमलजी गणेशमलजी सुराणा, २५००) रु० श्री केसरीमलजी भंवरलालजी सुराणा, १०००) रु० श्री गणेशमलजी बरलोटा की सहयोग भावना उल्लेखनीय थी। (ए) श्री जसवन्तमलजी सेठिया, श्री डूंगरमलजी सांखला, श्री ओकचन्दजी संचेती, श्री चुनीलाल जी सियाल आदि व्यक्तियों ने जोरावर, खीमाड़ा, जाणुन्दा और रामसिंह का गुड़ा आदि गांवों में जाकर करीब ६ माह में अनुमानत: ४०,०००) चालीस हजार रुपये का चन्दा मंडाया और संघ की स्थिति को सुदृढ़ किया । प्रगति की ओर अग्रसर श्री मिश्रीमलजी सुराणा, स्थानीय उपमंत्री की देख-रेख में बौद्धिक, आध्यात्मिक और चारित्रिक शिक्षण का यह अंकुर शनैःशनैः विकसित होता रहा । सत्र के अन्त में छात्रों की संख्या १४ तक और दूसरे वर्ष १९४५-४६ ई० में १०२ तक बढ़ गई । श्री जोधसिंह तलेसरा निवासी उदयपुर के प्रधानाध्यापक काल में कक्षा ४ और ५ भी खोल दी गई जिससे आस-पास के गांवों में संघ का नाम एवं प्रभाव व्याप्त हो गया। सन् १९४६ और १९४७ में क्रमश: कक्षा ६ और ७ भी प्रारम्भ कर दी गईं जिससे छात्रों की अधिक वृद्धि हुई । फलतः स्थान एवं कमरों की कमी हुई। इसके लिये श्री राजमलजी सुमेरमलजी सुराणा ने अपना बड़ा भवन ८ कमरों वाला विद्यालय के लिये वार्षिक ५००) रुपये किराये पर (प्रथम वर्ष का नहीं लिया) दिया एवं श्री हस्तीमलजी गादिया, निवासी रामसिंह का गुड़ा ने अपना बड़ा मकान एक वर्ष के लिये और बाद में श्री जुगराजजी गादिया, निवासी रामसिंह का गुड़ा ने अपना बड़ा मकान दो वर्ष तक छात्रालय के लिये निःशुल्क किराये पर दिया जिससे छात्रों के पढ़ने एवं रहने तथा भोजन को समुचित व्यवस्था और सुख-सुविधा उपलब्ध होती रही। इसी बीच श्री लादूलालजी मेहता, निवासी जोधपुर का प्रधानाध्यापक के रूप में कार्य सन्तोषप्रद रहा जिससे छात्रों की वृद्धि एवं संघ की कीर्ति बढ़ती रही। संघ के उन्नयन में अध्यक्ष श्री छोगमलजी चोपड़ा, श्री डूंगरमलजी सांखला, श्री हस्तीमलजी गादिया तथा मंत्री श्री मोतीलालजी रांका, श्री जबरमलजी भण्डारी एवं श्री केसरीमलजी सुराणा आदि अन्यान्य सज्जनों का सक्रिय सहयोग प्राप्त होता रहा । भूमि अधिग्रहण दिनांक २७-४-१९४६ ई० की बैठक में सदस्यों ने यह अनुभव किया कि संघ को स्थाई और विशाल संस्थान का रूप देने के लिये तथा विद्यालय व छात्रालय के भवनों के लिये लम्बी-चौड़ी भूमि की आवश्यकता है। इसके लिये श्री केसरीमलजी सुराणा, श्री जवानमलजी सुराणा एवं श्री रूपचन्दजी भण्डारी ने मलसा बावड़ी के ठाकुर श्री खुमाणासिंहजी राठौड़ से स्टेशन पर भूमि बेचने का निवेदन किया। उन्होंने २० बीघा भूमि २०००) दो हजार रुपयों में और २ बीघा भूमि अपनी ओर से निःशुल्क देकर बिक्रीनामा लिख दिया। यह भूमि रेलवे स्टेशन से २०० गज ही दूर पूर्व दिशा की ओर रेलवे लाइन की दक्षिण दिशा में है। शीघ्र ही इसके चारों ओर पक्की ईटों की दीवाल बनाकर कब्जा किया गया व नैऋत्यकोण में एक पक्के कुएं का निर्माण भी कराया जिसमें उस समय ५००० रुपये व्यय हुए। S RANA Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड mmmm. mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm...mm.me.mart इसी वर्ष संघ का संविधान स्वीकृत कर सरकार से रजिस्ट्रेशन संख्या १००/४६-४७ से कराया गया । अपूर्व योगदान १. श्री केसरीमलजी सुराणा ने अपने बुलारम के वाणिज्य-व्यवसाय का परित्याग कर संयमी एवं आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने के लिये सन् १९४७ में यहाँ पधारकर स्थायी निवास किया । इन्होंने अपना सारा समय सामायिक और धर्म-जागरणा करने तथा चारित्रात्माओं की सेवा करने में लगाने का निश्चय किया। साथ ही संघ की प्रवृत्तियों को सुसंचालित करने और उन्हें सुदृढ़ बनाने के लिए समय देना प्रारम्भ कर दिया। तब से अब तक इतना लम्बा समय हो गया है, फिर भी ये दिन दूनी और रात चौगुनी सुरुचि एवं उत्साह से संघ की उन्नति में भगीरथ प्रत्यन कर रहे हैं। २. श्री दयालसिंहजी गहलोत निवासी ब्यावर को दि० १४ नवम्बर, १९४७ ई० को प्रधानाध्यापक पद पर नियुक्ति की गई। ये संयमी तथा सदाचारी और गांधीवादी विचारों के व्यक्ति हैं । इनके १३ वर्ष के कार्यकाल में विद्यालय तथा छात्रालय दोनों की प्रवृत्तियों में अत्यधिक उन्नति हुई । इनके समय में कक्षा ८, ६ एवं १० प्रारम्भ की गईं । प्रथम बार सन् १९५७ में कक्षा १० के १६ छात्र बोर्ड की परीक्षा में बैठे और परिणाम ८४ प्रतिशत उत्तीर्ण का रहा । इसके पश्चात भी परिणाम उच्च स्तर पर ६८ प्रतिशत के रहे हैं। ३. श्री जसवन्तमलजी सेठिया, श्री डूंगरमलजी सांखला एवं श्री कुन्दनमलजी सेठिया ने मद्रास, बेंगलौर और कोलार आदि क्षेत्रों में चन्दा एकत्रित करने के लिए यात्राएं की जिनमें करीब एक लाख रुपये संग्रह किये । इस यात्रा में श्री अमोलकचन्दजी मूथा निवासी, बेंगलोर का आर्थिक सहयोग उल्लेखनीय था। आदर्श निकेतन छात्रावास का निर्माण दिनांक १४-८-४७ ई० को संघ का वार्षिकोत्सव श्री डूंगरमलजी सांखला की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। इसमें सर्व सदस्यों की यह सम्मति रही कि छात्रों को पढ़ाने, रखने एवं भोजन की समुचित व्यवस्था के लिये निजी भवन निर्मित किये जायें । फलस्वरूप सर्वसम्मति से विद्यालय, छात्रावास एवं भोजनालय के पक्के भवन बनाने की स्वीकृति प्रदान की गई । साथ ही कमरों पर नामांकन शिलालेख लगाकर धनराशि प्राप्त करना स्वीकृत किया गया। श्री जसवन्तमलजी सेठिया के निर्देशन में श्री डी० एम० रांका द्वारा निर्मित नक्शा स्वीकार किया गया । फलत: मिति वैशाख शुक्ला ३ (अक्षय तृतीया) संवत् २००५ के शुभ मुहूर्त में संघ के प्रधानमंत्री श्री जबरमलजी भण्डारी, जोधपुर के करकमलों द्वारा भवन का शिलान्यास किया गया। श्री मोतीलालजी रांका के नेतृत्व एवं श्री केसरीमलजी सुराणा के निरीक्षण में निर्माण कार्य द्रुत गति से प्रारम्भ हुआ। दो वर्ष के अल्पकाल में यह दो मंजिला भवन (२६ कमरे, आगे बरामदा, बीच में बड़ा हाल, दायें-बायें ऊपर चढ़ने की नाल) तैयार हो गया जिसमें उस समय १,५२,०००) एक लाख बावन हजार रुपये व्यय हुए, इसका उद्घाटन तेरापंथ समाज के प्रतिष्ठित श्रावक एवं समाजभूषण श्री छोगमलजी चोपड़ा नि० गंगाशहर के करकमलों द्वारा मिति आश्विन शुक्ला १० संवत् २००७ तदनुसार दि० २० अक्टूबर १९५० ई० को सम्पन्न हुआ। साथ ही भोजनालय में रसोईघर, भण्डारघर, जीमने का बड़ा हाल आदि भी निर्मित किये गये। भवन के छोटे कमरों पर २५००) रुपये और बड़े कमरों पर ५०००) रुपये देने वाले दानदाताओं के नाम के शिलालेख लगाये गये। नीचे के हाल पर सब मिलाकर २५०००) रुपये देने वाले श्री बस्तीमलजी छाजेड़ नि० सिरियारी और ऊपर के हाल पर सब मिलाकर १००००) रुपये देने वाले श्री राजमलजी सुमेरमलजी सुराणा के नाम के शिलालेख लगाये गये। विद्यालय के लिए पृथक नया भवन सन् १९५० ई० में आदर्श निकेतन भवन की पहली मंजिल में छात्रालय और ऊपर की मंजिल में विद्यालय प्रारम्भ कर दिये। श्री दयालसिंहजी गहलोत, प्रधानाध्यापक की देख-रेख में अमापन कक्षा १ से ८ तक निरन्तर चलता रहा। समाज के दानवीर सज्जनों के आर्थिक सहगोग, प्रबुद्ध व्यक्तियों की सप्रेरणा, श्री केसरीमलजी सुराणा के क्रियात्मक सहयोग से संघ की आर्थिक स्थिति मुढ़ होती रही, जिससे छात्रों की वृद्धि ३८५ हो गयी। 0--- Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास १७५. फलस्वरूप संघ ने विद्यालय भवन को छात्रालय से पृथक् रखने की उपयोगिता का अनुभव किया। ऐसे समय में श्री तिलोकचन्दजी सुराणा एवं श्री हणूतमलजी सुराणा, निवासी चूरू संवत् २०१० में वहाँ पधारे। संघ ने उन्हें अपनी उपरोक्त आवश्यकता की पूर्ति के लिये निवेदन किया। उन्होंने सहर्ष यह स्वीकृति प्रदान की कि अगर १३०००) रुपयों में विद्यालय का भवन बन जावे तो मैं देने को तैयार हूँ। उनकी स्वीकृति से छात्रावास के सामने के मैदान में ही कच्ची ईटों की दीवारों का १३ कमरों वाला व आगे बरामदों वाला तथा ऊपर टीन की चद्दरों से ढका एक भवन करीब ३ माह में तैयार करा लिया गया, जिसका उद्घाटन श्री तिलोकचन्दजी सुराणा के करकमलों द्वारा मिति माघ शुक्ला संवत् २०१० को सम्पन्न हुआ। संघ ने उन्हें हार्दिक धन्यवाद देकर अपना आभार प्रकट किया । भवन पर श्री तिलोकचन्द हणूतमल सुराणा के नाम का शिलालेख अंकित कर दिया गया। शीघ्र ही विद्यालय को उसमें स्थानान्तरित कर दिया; जिससे पाठन कार्य में सुविधा प्राप्त हा गयो । ८ आचार्य श्री तुलसी का मर्यादा महोत्सव आचार्य श्री तुलसी का संवत् २०१० वि० सं० का चातुर्मास जोधपुर में था । तब संघ के सदस्य, श्रद्धावान श्रावक एवं विद्यार्थी गुरुदेव के दर्शन करने वहाँ गये और नम्र शब्दों में आगामी मर्यादा महोत्सव राणावास में कराने की प्रार्थना की। उन्होंने यह स्थान मेवाड़ और मारवाड़ के मध्य में होने तथा रेल द्वारा यातायात की सुविधा होने का लाभ भी बताया। फलस्वरूप आचार्यश्री ने स्थिति की अनुकूलता को देखकर महती कृपा के साथ राणावास में महोत्सव करने की घोषणा प्रदान कर दी । इस शुभ अवसर पर श्री पारसभाई जैन, निवासी बुलारम की अध्यक्षता और श्री मिश्रीमलजी सुराणा के मन्त्रित्व में एक स्वागत समिति का गठन किया गया जिसने यात्रियों के लिए बिजली, पानी, बर्तन, खाद्य सामग्री तथा अन्य कार्यक्रमों की व्यवस्था की । निवास के लिये रेलवे स्टेशन के समीप समतल मैदान में घास-फूस एवं टीन की चद्दरों से निर्मित २०० कमरों (झोंपड़ियों) के एक 'भिक्षुनगर' का निर्माण कराया । आचार्य श्री तुलसी आदर्श निकेतन में विराजे तथा सामने हो मैदान में प्रवचन के लिए पाण्डाल की व्यवस्था थी । मेवाड़, मारवाड़ और थली आदि स्थानों से मर्यादा महोत्सव (माघ शुक्ला सप्तमी संवत् २०१०) पर करीब २० हजार यात्री और ५०५ साधुसाध्वी (७५ + ४३०) सम्मिलित हुए। २२ दिन तक कोठावासी तथा अन्य यात्रियों ने सेवा का पूरा-पूरा लाभ उठाया देश के सूत्र लेखक, पत्रकार, विद्वान् तथा समाज के धनी-मानी प्रतिष्ठित सज्जनों ने उपस्थित होकर समारोह को सफल बनाने में पूर्ण सहयोग प्रदान किया। तेरापंथ के इतिहास में गांव में होने वाला यह मर्यादा महोत्सव अभूतपूर्व था । इस मर्यादा महोत्सव के खर्च का भार राणावास स्टेशन और राणावास गाँव के श्रावकों ने वहन किया। जिसमें श्री हजारीमलजी प्रतापमलजी सुराणा, श्री राजमलजी सुमेरमलजी सुराणा, श्री केसरीमलजी भंवरलालजी सुराणा, श्री गुलाबचन्दजी चौथमलजी कटारिया ने यह आश्वासन दिया कि जितना भी खर्च होगा हम चार व्यक्ति बहन करेंगे, आप अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार आर्थिक सहयोग देवें । इसमें करीब एक लाख रुपयों का सामान भिक्षुनगर के निर्माण तथा अन्य कार्यों में लगा। पूँजी का सहयोग श्री प्रतापमलजी एवं केसरीमलजी ने दिया । मर्यादा महोत्सव के बाद सामग्री को वापस बेच देने से ८६०००) हजार रुपयों की प्राप्ति हुई। अतः कुल खर्चा १४०००) का हुआ। जिसके लिये राजावास वालों का सहयोग प्रशंसनीय एवं उल्लेखनीय रहा है। नाम परिवर्तन १८ मार्च, १९७० को संघ की बैठक आयोजित हुई। इस बैठक की अध्यक्षता, उपाध्यक्ष श्री अमरचन्दजी गादिया ने की। बैठक में यह अनुभव किया गया कि अनेक प्रशासनिक, आर्थिक व बदली हुई परिस्थितियों के कारण संघ के उद्देश्यों की पुनव्यख्या की जाय। इस पुनर्व्याख्या की स्वीकृति के बाद संघ के संविधान में वर्णित उद्देश्यों में परिवर्तन कर नये उद्देश्य इस प्रकार निर्धारित किये गये। - . Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १७६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड .. +2+me.mom.ammrse...mom. aru+Dream.m.me. mom...morc m -0rs (अ) असहाय, असमर्थ व जरूरतमन्दों को छात्रवृत्ति, अनुदान एवं परिवरिश आदि देना । (आ) अनपेक्षित प्रकृति प्रकोप से पीड़ित जनता को आर्थिक एवं अन्य प्रकार से सहयोग देना। (इ) राष्ट्रीय संकट के अवसर पर व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को अनुदान देना। (ई) योग्य विद्वानों को शोध कार्य हेतु ऋण देना। (उ) असमर्थों के लिये कुटीर उद्योग व छोटे कारखाने खोलना । (ऊ) संघ के लिये गोशाला व खेती के कार्य खोलना । (ए) जनता के लिये औषधालय एवं प्रसूतिगृह शुश्रूषा खोलना। संघ का अब तक 'श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी शिक्षण संघ, राणावास, नाम चल रहा था, किन्तु इसी बैठक में यह भी अनुभव किया गया कि इस नाम के बजाय कोई ऐसा नामकरण किया जाय जो व्यापक दृष्टि का प्रतिनिधित्व करता हो । इस दृष्टि से इसका नाम बदलकर 'श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास' किया गया। श्री सुमति शिक्षा सदन की क्रमोन्नति __ आवश्यक भवन एवं फर्नीचर, उपयोगी पाठन सामग्री, अनुभवी एवं चरित्रवान अध्यापकगण और संघ के आर्थिक सहयोग से विद्यालय सतत प्रगतिशील रहा । समय की मांग के अनुसार शिक्षण में उन्नति और विस्तार लाने के लिए संघ ने सन् १९५५ ई० में इसे उच्च विद्यालय (हाई स्कूल) का रूप प्रदान किया। सब ही अनिवार्य विषयों के साथ-साथ ऐच्छिक विषय-जिसमें पहला कला वर्ग में इतिहास, नागरिकशास्त्र और अर्थशास्त्र विषय तथा दूसरा वाणिज्य वर्ग में बहीखाता, व्यापार पद्धति, हिन्दी व अंग्रेजी टंकण कला, मुद्रा अधिकोषण (बँकिंग) विषय प्रारम्भ किये । तृतीय भाषा के रूप में संस्कृत और उद्योग के रूप में कताई-बुनाई विषय खोले गये। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अजमेर की वार्षिक परीक्षा सन् १९५७ ई० में प्रथम बार १६ विद्यार्थी सम्मिलित हुए और उत्तीर्ण परिणाम ८४ प्रतिशत रहा, जिसमें द्वितीय श्रेणी में १२ और तृतीय श्रेणी में ३ तथा पूरक परीक्षा में १ विद्यार्थी थे। इस अच्छे परीक्षा परिणाम के फलस्वरूप मेवाड़, मारवाड़ तथा थली और अन्य प्रान्तों के छात्र प्रतिवर्ष अधिक संख्या में प्रवेश लेते रहे और परीक्षा परिणाम निम्नतम ६० प्रतिशत व उच्चतम १८ प्रतिशत तक बढ़ते रहे। सन् १९६६ में विज्ञान वर्ग में भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र और ऐच्छिक गणित विषय भी प्रारम्भ कर दिये गये । इस बीच राजस्थान सरकार से माध्यमिक स्तर तक राजकीय अनुदान प्राप्त होता रहा जो ५० प्रतिशत से बढ़कर ८० प्रतिशत हो गया। इस कारण विद्यालय के लिए शिक्षण संघ के अन्तर्गत पृथक् रूप से श्री सुमति शिक्षण संस्था का गठन कर और संविधान का निर्माण कर रजिस्ट्रेशन कराया गया जो ८६।१९६८ दिनांक १४.८-१९६८ है। तत्पश्चात् १ जुलाई १९७० ई० से कक्षा ग्यारह (११) को भी प्रारम्भ कर उसे उच्च माध्यमिक विद्यालय (हायर सैकण्डरी) का रूप दे दिया और पिछले सभी वैकल्पिक विषय चालू रखे गये। संघ के आर्थिक सौजन्य, राजकीय अनुदान एवं शिक्षाधिकारियों के परामर्श और मार्गदर्शन से विद्यालय सदैव विकासोन्मुख रहा है । इस अवधि में निम्न प्रधानाध्यापकों का सहयोग रहा है जो प्रशंसनीय एवं उल्लेखनीय है १. श्री दयालसिंह गहलौत, १३ वर्ष, सन् १९४७ से १९६० तक २. श्री चन्द्रदीपसिंह चौहान, २ वर्ष, सन् १९६० से १९६२ तक ३. श्री गजमल सिंघवी, ११ वर्ष, १९६२ से १९७३ तक ४. श्री भंवरलाल आच्छा , ८ वर्ष, १९७३ से चालू । C MAA Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास १७७ __रामसिंह का गुड़ा में विद्यालय की स्थापना राणावास से ६ मील दूर गाँव रामसिंह का गुड़ा है। दहाँ तेरापंथी समाज के लगभग ६० परिवार निवास करते है जो कि समृद्धिशाली एवं उदार हैं । उन्होंने अपने यहाँ विद्यालय स्थापित करने की योजना बनाई, जिसके सूत्रधार श्री पारसमलजी डोसी हैं । समाज के सभी व्यक्तियों ने अपनी ओर से धनराशि प्रदानकर एक लाख रुपया एकत्रित किया और भवन निर्माण किया । भवन निर्माण हेतु २० बीघा भूमि राज्य सरकार से गाँव के पास नदी के किनारे आवंटित की गई। इसके लिये श्री चाँदमलजी सिंघवी का विशेष प्रयत्न रहा और संघ के नाम से रजिस्ट्रेशन कराया गया जिसमें तत्कालीन विकास अधिकारी श्री शेरनाथजी तहसीलदार का सहयोग सराहनीय रहा है। भवन का शिलान्यास सरपंच श्री हाथीसिंहजी राठौड़ ने किया । श्री पारसमलजी डोसी, श्री मुल्तानमलजी गुगलिया एवं योगेश्वर श्री प्रेमनाथजी की देखरेख में यह भवन ४ वर्ष में निर्मित हुआ। इस भवन में एक बड़ा हाल, १० कमरे (बड़े), ४ छोरे कमरे, सबके आगे बरामदा, मुख्य द्वार के दोनों ओर दो निवासगृह बनाये गये । भवन के आगे और पीछे खेल के मैदान हैं। पूर्वी भाग में एक कुआ भी खुदवाया गया है। वहाँ के निवासी निजी तौर पर विद्यालय चलाने की असमर्थता अनुभव कर रहे थे इसलिये उन्होंने इस भवन और भूमि को संघ को अर्पण कर उ० प्राथमिक विद्यालय का संचालन करने की प्रार्थना की। साथ ही मासिक खर्च के लिये ५१०००) इकावन हजार रुपयों की धनराशि संग्रह करके देने का वचन दिया ताकि इस पूजी के ब्याज से मासिक खर्च चल सके । संघ ने काफी विचार-विमर्श के पश्चात् इसे स्वीकार किया। सन् १९७० ई० में यहाँ श्री सुमति शिक्षा सदन, राणावास की एक शाखा के रूप में एक साथ कक्षा ६, ७ एवं ८ प्रारम्भ कर दी गई और प्रधानाध्यापक पद पर श्री विजयसिंह पंवार (स०अ० श्री सु०शि०स०) को स्थानातरीत किया। उनके ६ वर्ष के कार्यकाल में छात्रों की वृद्धि एवं चतुर्मुखी विकास हुआ । भवन का विधिवत् उद्घाटन दानवीर सेठ श्री पूनमचन्दजी कोठारी, निवासी राजनान्दगांव के कर-कमलों द्वारा दि० १० फरवरी १९७१ ई० की सानन्द सन्पन्न हुआ। दो वर्ष का समय व्यतीत हो जाने पर भी वहाँ के निवासियों ने उक्त धनराशि जमा नहीं कराई जिससे खर्चा चलाना मुश्किल हो गया। इस पर संघ के मन्त्री महोदय के सुझाव एवं अनुरोध पर श्री रूपचन्दजी सिरेमलजी डोसी ने अपनी ओर से ५११५१) रु० की धनराशि देना स्वीकार किया और विद्यालय पर श्री पी० एच० रूपचन्द डोसी जैन माध्यमिक विद्यालय का नामांकन कराया, जो संघ की बैठक में स्वीकार किया गया। सन् १९७५ ई० में इसमें कक्षा ९ व १० का शिक्षण भी प्राइवेट (स्वयंपाठी) के रूप देना प्रारम्भ कर दिया गया है। महाविद्यालय का प्रारम्भ सन् १९७१ ई० में छात्रावास के ३६० छात्र कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के नेतृत्व में आचार्य श्री तुलसी के दर्शनार्थ और चातुर्मास की विनती के लिये लाडनू गये और ६ दिवस ठहरकर सेवा का लाभ प्राप्त किया। आचार्यदेव ने श्री सुराणाजी को छात्रों में उच्चतम शिक्षा प्रदान कर आदर्श व चरित्रवान नागरिक बनाने की अमूल्य प्ररणाएँ दी जिससे उनके हृदय में ये विचाररूपी तरंगें सहस्रगुनी उद्वेलित होकर लहराने लगीं । फलतः उन्होंने अपने ये विचार मानव हितकारी संघ के सदस्यों के सम्मुख प्रस्तुत किये। सबने विचारों का समर्थन करते हुए उच्च माध्यमिक विद्यालय से बढ़ाकर महाविद्यालय स्तर की शिक्षा प्रारम्भ करने की स्वीकृति दी। इस विशालतम योजना को कार्यान्वित करने के लिये श्री सुराणा साहब तन, मन और धन से संलग्न हो गये और महाविद्यालय के Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सराणा अभिनन्दन प्रन्थ : द्वितीय खण्ड लिये भवन, फर्नीचर, स्थायी कोष, वार्षिक व्यय और छात्रालय-संचालन हेतु धनराशि संग्रह करने के लिये अपनी यात्राएं सन् १९७२ ई० से प्रारम्भ कर दी। ___ संघ ने अपनी १६ बीघा कृषि भूमि और ४०००) रुपये श्री धीसाजी तेजाजी चौधरी को देकर उसके बदले में आदर्श निकेतन भवन के पीछे उसकी १६ बीधा कृषि भूमि प्राप्त कर ली जिस पर महाविद्यालय के भवनों का निर्माण कराया गया। श्री सुराणाजी ने अपनी प्रथम यात्रा सन् १९७२ ई० में गुजरात और महाराष्ट्र प्रदेश की सम्पन्न की जिसमें १५ दिवस में करीब ६ लाख रुपये और द्वितीय यात्रा सन् १९७३-७४ ई० में मैसूर, मद्रास और खानदेश की की जिसमें ७६ दिवस में (नव) लाख रुपये की धनराशि संग्रह की । इससे भवन निर्माण कार्य द्रुतगति से प्रारम्भ हुआ। ____ संघ ने सन् १९७४ ई० की जुलाई में श्री सी. आर. जे. बाबूलाल निर्मलकुमार भंसाली वाणिज्य महाविद्यालय का श्रीगणेश कर दिया जिसमें श्री गोविन्दलालजी माथुर एम० ए०, एल-एल० बी० की प्राचार्य पद पर नियुक्ति की गई । इस वर्ष ५ विद्यार्थियों ने प्रवेश प्राप्त कर प्रथम वर्ष वाणिज्य का अध्ययन प्रारम्भ किया। सन् १९७५ ई० में इस महाविद्यालय के साथ-साथ श्री चांदमल जुगराज सेठिया कला महाविद्यालय को भी प्रारम्भ कर दिया जिसमें श्री आर० पी० शर्मा, एम० ए०, बी० टी० की प्राचार्य पद पर नियुक्ति की गई। दोनों महाविद्यालयों की प्रथम वर्ष की दोनों कक्षाओं में कुल ३३ छात्र परीक्षा में सम्मिलित हुए और परिणाम वाणिज्य वर्ग में १४ प्रतिशत व कला वर्ग में ६३ प्रतिशत रहे। इसी वर्ष राजस्थान विश्वविद्यालय से अस्थायी मान्यता भी प्राप्त हो गई। संघ ने दोनों महाविद्यालयों को पृथक-पृथक संचालन करने और व्यय की अधिकता को वहन करने की कठिनाइयों को अनुभव किया । फलस्वरूप १९७६ ई० में दोनों महाविद्यालयों को सम्मिलित कर एक महाविद्यालय श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय में परिवर्तन कर दिया और दोनों महाविद्यालयों को क्रमशः वाणिज्य संकाय और कला संकाय के रूप में स्थापित कर दिया। प्राचार्य के पद पर अनुभवी एवं राजकीय सेवा निवृत्त श्री सुगनचन्दजी तेला एम० ए०, एल-एल० बी० की नियुक्ति की गई। इसमें प्रथम व द्वितीय वर्ष की दोनों कक्षाएँ प्रारम्भ कर दीं। सर्वप्रथम कुल ६५ विद्यार्थी परीक्षा में सम्मिलित हुए और उत्तीर्ण परिणाम १०० प्रतिशत रहा। सन् १९७७ ई० में श्री तेला साहब के नेतृत्व में तृतीय वर्ष की कक्षाएं भी शुरू कर दी। विद्यार्थियों और प्रवक्ताओं के अध्ययन-अध्यापन से १०६ परीक्षार्थी सम्मिलित हुए और उत्तीर्ण परिणाम १०० प्रतिशत रहा । इसके बाद तो छात्रों में व लोगों में इस महाविद्यालय के प्रति लगाव काफी बढ़ा और वर्तमान में यह राजस्थान में परीक्षा परिणाम, अनुशासन व व्यवस्था की दृष्टि से सर्वोत्तम महाविद्यालय है । आचार्य श्री तुलसी का आध्यात्मिक योगदान छात्रों को प्रारम्भ से ही नैतिक, आध्यात्मिक और चारित्रिक ज्ञान प्रदान करने के लिये महामहिम युग प्रधान आचार्यश्री तुलसी का परम आशीर्वाद प्राप्त है । वे प्रतिवर्ष अपने विद्वान, तत्त्वज्ञ एवं आत्मार्थी साधु-साध्वियों को यहाँ चातुर्मास के लिये भेजते हैं। प्रतिदिन धार्मिक शिक्षण, व्याख्यान, गोष्ठी एवं सेवा का अमूल्य लाभ छात्रों को प्रदान करते हैं और उनमें जैनधर्म के सिद्धान्तों तथा तेरापंथ की मान्यताओं का बीजारोपण करते हैं जिससे वे आत्मकल्याण का सही मार्ग अपना सकें। वे तेरापंथी महासभा, कलकत्ता; अखिल भारतीय अणुव्रत समिति, नई दिल्ली जैन विश्व भारती, लाडनू द्वारा आयोजित परीक्षाओं के पाठ्यक्रम की भी शिक्षा देते हैं । अब तक राणावास में निम्न साधु-साध्वियों के चातुर्मास सम्पन्न हो चुके हैं Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास १७६ sa.naram.ars.es. 360 • UD.m..... .....0.0em.e.amom.aurat.me.a... सं० वि० संवत नाम सिघाडा الله الله الله الله سه م له سه ऋ० वर्ष नाम सिंघाड़ा वर्ष ठाणा . ऋ० ठाणा सं० वि० संवत् १. १६९२ मुनिश्री सागरमलजी, भिवानी ३ २१. २०१६ साध्वीश्री विजयश्रीजी, रतनगढ़ २. २००१ मुनिश्री जीवनमलजी, जसोल २२. २०२० मुनिश्री शुभकरणजी, सरदारशहर ३. २००२ मुनिश्री जसकरणजी, सुजानगढ़ २३. २०२१ साध्वीश्री दीपांजी, सिरसा ४. २००३ मुनिश्री उदयचन्दजी, सरदारशहर २४. २०२२ साध्वीश्री कानकंवरजी, सरदारशहर ५. २००४ मुनिश्री पूनमचन्दजी, गंगाशहर २५. २०२३ साध्वीश्री मोहनाजी, तारानगर ६. २००५ मुनिश्री सोहनलालजी, सुजानगढ़ २६. २०२४ मुनिश्री सोहनलालजी, चूरू ७. २००६ साध्वीश्री कमलूजी, राजलदेसर २७. २०२५८. २००७ मुनिश्री रावतमलजी, सुजानगढ़ २८. २०२६ मुनिश्री पूनमचन्दजी, गंगाशहर ६. २००८ मुनिश्री भोमराजजी, गंगाशहर २६. २०२७ साध्वीश्री कमलूजी, उज्जैन १०. २००६ मुनिश्री रंगलालजी, राजाजी का करेड़ा ४ ३०. २०२८ साध्वीश्री विनयश्रीजी, डूंगरगढ़ ११. २०१० मुनिश्री नथमलजी, बागोरवाला ३१. २०२६ साध्वीश्री कमलश्रीजी, टमकोर १२. २०११ मुनिश्री नोरतनमलजी, भोमासर ३ ३२. २०३० साध्वीश्री भीकांजी, लाडनू' १३. २०११ साध्वीश्री पानकंवरजी, सरदारशहर ३३. २०३१ साध्वीश्री राजीमतीजी, रतनगढ़ १४. २०१२ साध्वीश्री आशाजी, राजलदेसर ३४. २०३२ साध्वीश्री संघमित्राजी, डूंगरगढ़ १५. २०१३ मुनिश्री मांगीलालजी, गंगाशहर ३५. २०३३ मुनिश्री गणेशमलजी, गंगाशहर १६. २०१४ मुनिश्री गणेशमलजी, गंगाशहर ३६. २०३४ साध्वीश्री यशोधराजी, लाडनू १७. २०१५ मुनिश्री जंबरीमलजी, बीदासर ३७. २०३५ साध्वीश्री गुलाबांजी, भादरा १८. २०१६ साध्वीश्री मालूजी, डूंगरगढ़ ३८. २०३६ साध्वीश्री सिरेकंवरजी, सरदारशहर ५ १६. २०१७ साध्वीश्री केसरजी ३६. २०३७ मुनिश्री मोहनलालजी, आमेट । २ २०. २०१८ मुनिश्री धनराजजी, लाडनू ४०. २०३७ मुनिश्री रोशनलालजी, सरदारशहर । २ xrxxx Irxxxxx»ur or युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी ने भी वि० सं० २०१० तदनुसार सन् १९५४ का मर्यादा महोत्सव व समारोह यहाँ पर सम्पन्न कराया है। उन्होंने शेषकाल में भी सन् १९६०, १९६१ तथा १९६२ में यहाँ पधार कर राणावास की विद्याभूमि को पवित्र किया है एवं पावन सदुपदेशों का पान कराकर सबको लाभान्वित किया है। इसके अलावा यहाँ अध्ययनरत छात्रों के साथ संघ के पदाधिकारी आदि भी माननीय कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा के नेतृत्व में परम श्रद्धेय गुरुदेव के दर्शनार्थ विभिन्न स्थानों पर संघ रूप में गये हैं, उसका विवरण इस प्रकार है (१) १६४७ ई०, चुरू, (२) १६४६ ई०, जयपुर (३) १९५१ ई०, सरदारशहर (४) १६५३ ई०, जोधपुर (५) १९५७ ई०, सुजानगढ़ (६) १९६० ई०, राजसमन्द द्विशताब्दी समारोह पर (७) १९६१ ई०, गंगापुर (८) १९६१ ई०, गंगाशहर धवल समारोह पर, (९) १९६४ ई०, बीकानेर, (१०) १९६६, ७१ ई०, बीदासर, मर्यादा महोत्सव पर (११) १९७१ ई०, लाडनू, (१२) १९७५ ई०, जयपुर, (१३) १९७७ ई०, गंगाशहर, (१४) १९७६ ई०, लुधियाना। इन यात्राओं से शासन के प्रति निष्ठा और गुरुदेव के प्रति भक्ति की अभिवृद्धि तथा छात्रों में अध्यात्म के प्रति रुझान व संस्कार पैदा करने में बहुत सहायता मिली है। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड भूसम्पत्ति व भवनविस्तार संघ के पास ७५ बीघा जमीन राणावास में और २० बीघा जमीन रामसिंहजी का गुड़ा में है । इस जमीन तथा इस पर निर्मित विभिन्न भवनों का अंक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - क्र० सं० भवन का नाम विवरण लागत मूल्य १. आदर्श निकेतन छात्रावास २. भोजनालय ३. विद्यालय का कच्चा भवन ४. उच्च विद्यालय ५. वाणिज्य खण्ड ६. विज्ञानखण्ड ७. शिक्षक निवास ८. अतिथिगृह १. मुनीम क्वार्टर १०. केन्द्रीय कार्यालय ११. वाणिज्य महाविद्यालय १२. कला महाविद्यालय दो मंजिला भवन, ऊपर नीचे बड़ा हाल, मंच, २६ बड़े व २ छोटे कमरे, बरामदा दायें-बायें ऊपर चढ़ने की नाल २ बड़े व २ छोटे कोठारगृह, रसोईघर, जीमने का बड़ा हाल, दो तरफ जीमने के लिए बरामदा कच्ची ईंटों की दीवालों से बने व टीन की चहरों से ढके १५ बड़े कमरे, दो छोटे कमरे, आगे टीन से ढका बरामदा | दो मंजिला भवन, ऊपर नीचे ८ बड़े व ६ छोटे कक्ष, नीचे बरामदा दो मंजिला भवन, ऊपर-नीचे ८ बड़े व २ छोटे कक्ष, नीचे बरामदा व मंच प्रयोगशाला के तीन बड़े व दो छोटे कमरे, आगे बरामदा व मंच । ६ क्वार्टर, प्रत्येक में २ कमरे, रसोई, स्नान, शौचगृह, मध्य में पक्का कुआ । ३ बड़े कमरे, रसोई, स्नान व शौचगृह, आगे व पीछे बरामदा २ क्वार्टर, प्रत्येक में २ बड़े कमरे, रसोई, स्नान व शौचगृह, आगे बरामदा । दो मंजिला भवन, ऊपर-नीचे हाल, बायें 8 कमरे, आगे बरामदा । पुस्तकालय हाल ३० बड़े व तीन छोटे कमरे, बीच में बरामदा व प्रांगण । दो मंजिला भवन, वाचनालय - हाल, १८ बड़े व ४ छोटे कमरे, मध्य में बड़ा ढका हाल । १५२०००/ २५०००/ २१०००/ ७०,०००/ 10,0001 ४०,०००/ ३५,०००/ ३०,०००/ ३०,०००/ ५०,०००/ ३,५५,०००/ ३,५६,०००/ निर्माण सन् १६५० १६५० १६५४ १६५९ १९६१ १६६७ १९६१ १९६२ १९६३ १६६६ १६७३ १६७६ . Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास १८१ . १९७५ १९७५ १९७६ १९७८ १९७९ १३. महाविद्यालय छात्रावास तीन मंजिला भवन जिसके ५ खण्ड, कुल ११० कमरे, ३ हाल व सबके आगे बरामदा। १०,००,०००।१४. महाविद्यालय भोजनालय बड़ा हाल, ४ कोठारगृह, १ बड़ा रसोईघर, बीच में पक्का प्रांगण, जलकुण्ड । ७०,०००/१५. सभास्थल दो मंजिला भवन, नीचे १०.४७० फीट का प्रवचन हाल, आगे व बायें बरामदा, नीचे-ऊपर ४ कमरे, सामने मंच। ३,५०,०००।१६. अतिथिगृह एवं औषधालय दो मंजिला भवन, नीचे व ऊपर २८ कमरे, आगे बरामदा, शोच-स्नानगृह की सुविधा। २,००,०००/१७. तेरापंथ जैन छात्रावास दो मंजिला भवन, ऊपर-नीचे १२ बड़े व २ छोटे कमरे, आगे बरामदा, सामने पक्का प्रांगण, रसोईघर। ८,०,०००/१८. अन्य गृह चौकीदारकक्ष चार, प्याउएं चार, स्नानघर दस, शौचघर पन्द्रह, मूत्रालय पैंतीस, इंजन घर एक, मोटर-गेरेज एक।। २५०००/१६. बगीचा साग-सब्जी व अनाज के लिये १७ बीघा जमीन, बिजली से चलने वाला कुआ। १८०००/२०. कुआ इंजन तथा बिजली से चलने वाला कुआ, टीनशेड। १००००।२१. खेल के मैदान २ हाकी, १ फुटबाल, १ बास्केटबाल, ४ बालिबाल, २ रिंग, २ कबड्डी के मैदान । १५०००/२२. कुल भूमि करीब ७५ बीघा भूमि जिसके चारों ओर पत्थर की पक्की दीवाल । ४००००/२३. विद्यालय भवन रामसिंह का गुड़ा पक्का भवन, बीच में हाल, दायें-बायें १० बड़े व ४ छोटे कमरे, आगे बरामदा, कुआ, ३ खेल के मैदान, कुल २० बीघा जमीन । १०००००/२४. औषधालय भवन रामसिंह का गुड़ा ८ बड़े कमरे, आगे बरामदा समय-समय पर १६६६ १६४७ १९७० Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १२ कर्मयोगी बी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड ammer Tone - Ho..90.sammmmmmm m m.me.mame.esema.ne.me.m. nie नाम संघ के पदाधिकारी एवं सदस्य __ संघ के नियमित और सुव्यवस्थित संचालन के लिये प्रतिवर्ष वार्षिक अधिवेशन पर नयी कार्यकारिणी का चयन किया जाता रहा है, जिससे नयी प्रेरणा, स्फूर्ति और शक्ति प्राप्त होती रहे, अब तक गठित विभिन्न कार्यकारिणियों का विवरण इस प्रकार हैपद वर्ष अवधि अध्यक्ष श्री छोगलमलजी चौपड़ा, गंगाशहर ८ १९४५,५१ से ५७ श्री डूंगरमलजी सांखला, व्यावर ४ १६४६,४७,४६,५० श्री हस्तीमलजी गादिया, रामसिंह का गुड़ा १९४८ श्री मिश्रीमलजी मेहता, जोधपुर १६५८,५६ श्री सम्पतमलजी भण्डारी, १६६० व ६१ श्री धनपतमलजी लोढा, जोधपुर ३ १६६२ से ६४ श्री जगमलजी भण्डारी , १६६५ से ७३ श्री सम्पतकुमारजी गदैया, सरदारशहर ३ १९७३ से ७५ श्री भैरूलालजी धाकड़, उदयपुर ५ १९७५ से चालू मंत्री श्री जबरमलजी भण्डारी, जोधपुर १६ १९४६ से १९६१ श्रीमनोहरमलजी लोढा , १ १६६२ श्री चन्दनमलजी मेहता, , १६६४-७२ श्री केसरीमलजी सुराणा १६७२ से चालू स्थानीय उपमन्त्री १ श्री मिश्रीमलजी सुराणा २ श्री केसरीमलजी सुराणा ३ श्री चौथमलजी कटारिया ४ श्री मिश्रीमलजी लूकड़ ५ श्री ताराचन्दजी लूकड़ ६ श्री जीवराजजी भण्डारी ७ श्री भूपेन्द्र कुमारजी मूथा कोषाध्यक्ष १ श्री चौथमलजी कटारिया निरन्तर २ श्री पुखराजजी कटारिया धरोहरघारी श्री जसवन्तमलजी सेठिया, मद्रास निरन्तर सदस्य श्री गोकुलचन्दजी संचेती, श्री वृद्धिचन्दजी भंसाली, श्री ओखचन्दजी गादिया, श्री पारसमलजी डोसी श्री मांगीलालजी छाजेड़, श्री सोहनलालजी कटारिया श्री जुगराजजी गादिया, श्री मोतीलालजी रांका श्री रामचन्द्रजी सोनी, श्री धनराजजी नाहर श्री रामलालजी संचेती, मोतीलालजी धोका वर्तमान कार्यकारिणी संघ की १५ मार्च, १९८१ को साधारण सभा की बैठक सम्पन्न हुई, उसमें संघ की कार्यकारिणी के चनाव हए। उसके अनुसार वर्तमान कार्यकारिणी इस प्रकार चुनी गई Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद अध्यक्ष उपाध्यक्ष 77 " "1 37 31 मन्त्री उप मन्त्री 21 कोषाध्यक्ष व्यवस्थापक प्रधान सहायक ट्रस्टी 31 31 33 11 37 सदस्य " 31 11 " 31 27 " 21 " " 21 श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास नाम श्री भेरूलाल जी धाकड़ श्री गणपतमल जी भण्डारी श्री धर्मेश जी डांगी श्री डूंगरमल जी बम्बोली श्री अरविन्दकुमार जी नाहर श्री भँवरलाल जी कर्नावट श्री रामलाल जी संचेती श्री चम्पालाल जी मरलेचा श्री केसरीमल जी साहब सुराणा श्री भूपेन्द्र जी मूथा श्री जयप्रकाश जी गादिया श्री पुखराज जी कटारिया श्री तख्तमल जी इन्द्रावत श्री अमरचन्द जी गादिया श्री ताराचन्द जी लूं कड़ श्री विरदीचन्द जी चौपड़ा श्री मांगीलाल जी छाजेड़ श्री सिरेमल जी डोसी श्री पारसमल जी गादिया श्री जुगलराज जी सेठिया श्री जबरमल जी भण्डारी श्री जसवंतमल जी सेठिया आय-व्यय का लेखा-जोखा वर्तमान कार्यकारिणी प्रो० एस० सी० तेला श्री भँवरलाल जी आच्छा श्रीमती सुन्दरवाई जी सुराणा श्री कुशलराज जी समदड़िया श्री पारसमल जी वेदमूथा श्री मोतीलाल जी धोका श्री दानवीरचन्द जी भण्डारी श्री मांगीलाल जी सुराणा श्री जुगराज जी गादिया श्री मनोहरलाल जी आच्छा . १८३ निवास स्थान उदयपुर जोधपुर उदयपुर सोजत रोड मद्रास (राजसमंद) उदयपुर जोजावर मारवाड़ जंकशन राणावास नीम्बली चिकमगलूर राणावास राणावास पाली राणावास जोजावर बेंगलोर बेंगलोर बंगलोर मद्रास जोधपुर मद्रास संघ - बहुत ही सौभाग्यशाली है कि प्रारम्भ से अब तक समाज के किया है। आज संघ की आर्थिक स्थिति सुदृड है, इसका मुख्य धेय श्री सुराणा जी प्रतिवर्ष दो-तीन माह के लिए धन संग्रह हेतु यात्रा पर जाते रहे हैं । उन्होंने मेवाड़, मारवाड़, थली, राणावास राणावास राणावास जोधपुर हसन तमिलनाडु राणावास राणावास पाली राणावास दानदाताओं ने उदारतापूर्वक सहयोग प्रदान कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा को है। . Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ गुजरात, कर्नाटक, मद्रास, आन्ध्र, बंगाल, नेपाल, आदि स्थानों में गांव-गांव और घर-घर जाकर चन्दा प्राप्त किया है । अब तक उनके प्रयासों से ८६ लाख रुपयों का चन्दा हो चुका है । इसमें से अधिकांश रकम विभिन्न भवनों के निर्माण में व्यय हो चुकी है, किन्तु फिर भी इतनी रकम बैंकों में जमा है कि उसके ब्याज से और सरकारी अनुदान से संस्था का काम चल जाता है । महाविद्यालय की स्थापना का जब निश्चय हुआ तो उसमें धन की आवश्यकता अनुभव की गई, लेकिन कर्मयोगी श्री सुराणाजी कब पीछे हटने वाले थे । वे पुखराज जी कटारिया व श्रीमती सुन्दरदेवी को साथ लेकर धन संग्रह हेतु निकल पड़े। इस प्रवास में उन्होंने निम्नानुसार चन्दा प्राप्त किया, इसी से उनकी क्षमता का अनुमान लगाया जा सकता है १. प्रथम यात्रा, १६७२ २. द्वितीय यात्रा, १६७२ ३. तृतीय यात्रा, १९७३-७४ ४. चतुर्थ यात्रा, १९७३-७४ ५. पंचम यात्रा, १६७७-७८ ३. ४. कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड ५. ६ लाख रु० ६ लाख रु० ४ लाख रु० ३1⁄2 लाख रु० ३१ लाख रु० - बंगाल, आसाम, बिहार ३४ दिन - बिहार, नेपाल, कलकत्ता २१ दिन मेवाड़ ६. षष्ठ यात्रा, १६७८ ७६ २३ लाख रु० उपर्युक्त आठ वर्षों के इस चन्दा अभियान से ही स्पष्ट है कि संस्था को आर्थिक दृष्टि से कभी संकट नहीं उठाना पड़ा । चन्दा प्राप्त करने के लिए जिस तरह राशि प्राप्त की जाती है, सदस्य बनाये जाते हैं या अन्य तरीके से प्राप्त की जाती है, उसका स्वरूप निम्न विवरण से स्पष्ट हैक्रम सं० १. ६. ७. ८. ε. १०. सदस्य संरक्षक सदस्य आनुवंशिक सदस्य आजीवन सदस्य आजीवन सहायक सदस्य १६ दिन ७६ दिन सदस्य सिरावणी मिति फर्नीचर पर नामांकन गुजरात, बम्बई खानदेश, मेसूर, मद्रास - मध्यप्रदेश आन्ध्रप्रदेश छात्रवृत्ति हेतु विवाह तथा मांगलिक अवसर ---- धनराशि २५००१ या इससे अधिक प्रदानकर्ता ५००१ से २५००० तक प्रदानकर्ता ५०० से ५००० तक प्रदानकर्ता २५ रुपये वार्षिक या २५१ रुपये एक साथ प्रदानकर्ता ७ रुपये प्रति वर्ष प्रदानकर्ता १२१ रुपये नाता हेतु प्रदानकर्ता इच्छानुसार प्रदानकर्ता सदस्यगण कार्यकारिणी समिति, श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास - मारवाड़ (पाली - राजस्थान ) महानुभाव, " भवनों तथा कमरों पर नामांकन योजनानुसार प्रदानकर्ता वर्तमान में संघ की जो आर्थिक स्थिति है, वह चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट द्वारा अनुमोदित आय-व्यय तथा स्थिति विवरण के निम्न लेखों से ज्ञात हो जाती है دو बी० डी० गार्गीय एण्ड कम्पनी चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट्स ब्यावर, ५ जनवरी १६८१ आपके संघ के मिति कार्तिक कृष्णा अमावस्या संवत् २०३६ को समाप्त होने वाले वर्ष के हिसाबों का अंकेक्षण 'किया । इसके साथ हमारे द्वारा अंकेक्षित इस वर्ष के आय-व्यय पत्रक व स्थिति विवरण की ४ प्रतियाँ भिजवा रहे हैं । इन हिसाबों के बारे में हमारा प्रतिवेदन निम्न प्रकार है . Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास १८५. MAOBE AA C १-सुरक्षित जमा (मकान रहन पेटे)-रु. १०,०३१-६० (अ) निम्न साहूकारों को मकान रहन पेटे रकमें दी गयी हैं जिसका ब्याज उनके सामने दर्शायी गयी तारीखों के बाद का न तो आया है और न ही उनका जमा खर्च किया गया हैपार्टी का नाम बकाया रकम दिनांक से ब्याज बकाया १. श्री टी० एस० अम्बिका आमल ४,२५५-६४ १६-१०-१९६२ २. श्री एस० के० सवापति ३,५२५-६६ २२-६-१९६४ ३ श्री ए० टी० तीना बुर्कस २,२५०-०० १५-८-१९७१ . (ब) उपरोक्त के रहन के कागजात कोर्ट में जमा होने की वजह से हमें नहीं दिखाये गये हैं। इस हेतु उचित कार्यवाही की जावे। २-निम्न साहूकारों से ब्याज की वसूली नहीं हो रही है। ब्याज की वसूली के लिए समुचित कदम उठाये जावेंपार्टी का नाम रकम वर्ष का बकाया १. मै० सम्पतराज जंवरीलाल बरड़िया, आरकोनम ६,६८४-३७ २. मै० कनीराम नथमल खिंवसरा, आरकोनम २,४६६-३७ ३. मै० हस्तीमल अन्नराज मूथा, मद्रास २,८३६-३३ ४. मै० मिलाप कटपीस सैण्टर, बैंगलौर ६,६८४-३७ ५. मै० पन्ना इलेक्ट्रिक कं० गलौर ६,२४८-४३ ३-डूबत ऋण - इस वर्ष निम्न व्यक्तियों के बकाया रकम का २५ प्रतिशत ही प्राप्त हुआ अतः शेष रकम डुबत ऋण खाते नामे लिखे गये हैंनाम टोटल वसूल १. भंवरलाल महेन्द्रकुमार लोढ़ा, पाली १०,०००-०० २,५००.०० ७,५००.०० ३. लोढ़ा एन्टरप्राइजेज, पाली १०,०००-०० २,५००-०० ७,५००-०० २. पुखराज चैनराज संचेती, जालना १,७६२-१५ १,७६२-१५ पुराना rat60 CONOR PORN डूबत १६,७६२-१५ DA , ४-यात्रा खर्चे इसमें श्री छोगालाल जी मेहता के चन्दा एकत्रित करने का कमीशन रु० १५ प्रतिशत की दर से दिया गया है। इस पर आपकी पुष्टि चाहिये। ५-श्री राजकमल जी चौपड़ा एण्ड कम्पनी को रु० ५,०००-०० ब्याज पर दिये गये थे उनमें से रु० ३,२७५-०० प्राप्त हो चुके हैं। शेष रकम पर बैशाख बदी अमावस्या के बाद ब्याज नहीं जोड़ा गया है। इस पर आपकी पुष्टि चाहिए। ६-अध्यापक आवास भवन पिछले सालों से निर्माणाधीन है व इसके निर्माण में कोई प्रगति नहीं हो रही है। सधन्यवाद, भवदीय वास्ते मै० बी० डी० गार्गीय एण्ड कं० चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट्स संलग्न-उपरोक्तानुसार एम० सी० भण्डारी, एफ० सी० ए० भागीदार Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिन्दन ग्रन्थ द्वितीय खण्ड अंक गत वर्ष १३,५६,७३६-५३ १०,७३६-१४ २६,२८७ ६७ ५,०८१-४२ १-२० ८,२६४-८६ २६,८३६-१४ १,५०६-१६ १,७६०-०५ ५,५४०-६१ ३,२३७-७८ ७५६-०० १६,५१५-१६ ६०-५० ७,२२६-०६ १५५-६३ ७०१-६७ ६००-०० ३८,२००-०० 22,000-00 १,२०,४७६-२१ ६,६६,१६५-०६ ब्यावर, व्यय भोजन खर्च औषधालय खर्च रामसिंह का गुड़ा औषधालय खर्च व्यवस्था खर्च फल इत्यादि खर्च कपड़ा घुलाई खर्च बिजली एवं मरम्मत खर्च वेतन सफर खर्च कर्मचारी भविष्य निधि अंशदान स्टेशनरी व छपाई पोस्टेज व हुण्डावन टेलीफोन सर्च मकान मरम्मत छकड़ा मरम्मत मोटर कार मरम्मत अखबार समाचार पत्रिका फुटकर वर्ष विविध खर्च (इनाम खर्च ) कानूनी सलाह शुल्क ·0 $290 $22 G श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, आय-व्यय का हिसाब मिति कार्तिक कृष्णा सहायता श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय, राणावास, श्री पी० एच० रूपचन्द डोसी उ० मा० विद्यालय गुड़ा रामसिंह का श्री सुमति शिक्षण संस्था, राणावास दूत ऋण पिसाई दि० ५ जनवरी १९८१ आय का व्यय पर आधिक्य जो संलग्न स्थिति विवरण में हस्तान्तरित किया ५६,७००-०० १६,३००-०० 20,000-00 रकम रु० पै० ३. ८४, ०६६-५६ १२,८४४-४१ २,६६६-४१ २६,०२८-४४ ७,१०६-०६ ६४७७-०० १६,०८४-१२ ३१,६२४-१६ १,४६२-८५ २,३२०-४२ २,६६०-३७ ३, ११३-६६ ८६१-०० १५,३६७-६६ १३-५० ३,३१०-४८ ६७३-७० ४५१६-०१ १,७६६-१५ २००-०० 58,000-00 १६,७६२-१५ १.१७,०३४-०३ ३,२६५-२३ ७,५७,६६९-२३ . Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास १८७ -.-. -.-.-. -. .-.-. -.-. -. -. -. -. -. -. - . -.-.-. -. -. -. -.-. -.-. . -. -. -. -. -. . राणावास-मारवाड़ (जिला पाली) अमावस्या संवत् २०३६ का रकम अंक गत वर्ष आय रु० ० १,१७,६८४-०० ३३,७६१-७६ ९१६-०० १०५-०० सहायता व चन्दा वार्षिक चन्दा सदस्यता शुल्क १,७३५-०० ४६.०० १,७८४-०० २४,३१७-०० ३,५०,७५५-३२ १६,४३१-०० १०,६०६-७५ १५,९६०-२० १,२४४-०० ११२-२५ ३,८६६-०० १२,४८६-५० ४,५६८-१० ३२२-८४ छात्रालय शुल्क व आमद मकान किराया भोजन शुल्क व्यवस्था शुल्क औषधालय शुल्क बिजली व पिसाई शुल्क प्रवेश शुल्क फाईन जप्ती व जुर्माना फल शुल्क कपड़ा धुलाई व अन्य शुल्क बटाव खाता अन्य शुल्क २५,३४१-०० ३,५२,७६६-०० १७,०२२-५० १२,५४४-५५ १६,१०३-८० १,४८५-०० १,२६५-६० ४,६६६-०० ११,६६८-०० २,१३,२३४-६२ २६,५७७-५० १,६७,६११-१५ ४५-०० ८,६३६-५२ ३२०-०० २१०-०० अन्य आय ब्याज प्राप्त हुआ बाद-ब्याज दिया छकड़ा किराया खेती से आय चान्दनी व बिस्तर किराया विविध आय व्यय का आय से आधिक्य जो संलग्न स्थिति विवरण में हस्तान्तरित किया १,८६,६५७-४२ १४२-०० ४,८१३-३६ ३६०-०० ६,६२३-७० ६,६६,१६५-०६ ७,५७,६६९-२३ - . उपरोक्त हिसाब जाँचा और सही पाया। एम० सी० भण्डारी ___ भागीदार मै० बी० डी० गार्गीय एण्ड कं०, चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट्स, व्यावर Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड १e. . . .....mo m .0.0.00.m pa.ee. . .. . श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, संलग्न स्थिति विवरण मिति कातिक-कृष्णा रकम अंक गत वर्ष दायित्व ____ पै० २८,१४,६५७-३१ पूंजो गत वर्ष मुजब जोड़ा-आय-व्यय पर आधिक्य आयव्यय पत्रक मुजब २८,१४,६५७-३१ ३,२६५-२३ २८,१७,६२२-५४ अमर मिति सदस्य शुल्क गत वर्ष मुजब जोड़ा-इस वर्ष प्राप्त ३,७६,१३१-०० २५,८५२-०० ३,७६,१३१-०० ४,०१,९८३-०० मिष्ठान अमर मिति शुल्क गत वर्ष मुजब जोड़ा-इस वर्ष प्राप्त ६३,४५६-०० ४,७५५-०० ६३,४५६-०० ६८,२११-०० सिरावनी मिति शुल्क गत वर्ष मुजब जोड़ा-इस वर्ष प्राप्त १,०२,५६५-०० २०,४३०-०० १,०२,५६५-०० १,२३,०२५-०० १,६२,५५५-४५ विविध फन्ड खाते जमा (ब्याज पर) परिशिष्ट-'अ' के अनुसार औषधालय फण्ड २,४७,३८५-७५ २५,४१६-०० २,७२,८०४-७५ देना २-८८ . छात्रसंघ, राणावास ४२,८८४-६६ विद्यार्थी चालू खाता ३५,२२४-०० विद्यार्थी डिपोजिट २१,८५३-२४ कर्मचारियों का प्रोवीडेन्ट फण्ड ३,४५,६२२-७१ खर्च पेटे अन्य देना एवं कर्मचारियों का जमा २-८८ ७२,९४४-५४ ३६,५७७-०० २६,२०८-१६ २,६७,७०८-१३ ४,३६,४४०-७४ ३६,६४,९८२-५८ योग रुपये ४१,२०,३८७-०३ उपरोक्त हिसाब जाँचा और सही पाया। एम० सी० भण्डारी, एफ.सी.ए. मै० बी० डी० गार्गीय एन्ड कं०, चार्टर्ड अकाउन्टन्ट्स ब्यावर दि०५ जनवरी १९८१ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राणावास - मारवाड़ ( जिला पाली) अमावस्या संवत् २०३६ का अंक गत वर्ष २२,२०,८२२ ४८ ७६,३९१-०५ - २,६५,०००-०० २,८५,०००-०० १०,३९,६६५-१३ १०,०३१-६० १५,६७२-३२ ३,८७४-१५ २२,००० २१ २४६-७८ ४६,३६४-२६ ३,७६००० ५००-०० ७००-०० १,६२०-०० ३६,६४,६८२-५८ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास +61 + 3+ सम्पत्ति स्थायी सम्पति परिशिष्ट - 'ब' के अनुसार अन्तिम स्कन्ध भोजन एवं खेती व लकड़ी का सामान (बाजार मूल्य पर ) विनियोजन (अ) स्टेट बैंक आफ बीकानेर एम्ड जयपुर, मारवाड़ जं० मियादी जमा खाता (ब) दी बैंक आफ राजस्थान लि० राणावास, मियादी जमा खाता (स) स्टेट बैंक आफ बीकानेर एण्ड जयपुर, पाली मियादी जमा खाता असुरक्षित जमाबन्दी ( साहूकारों में ब्याज पर ) सुरक्षित जमाबन्दी ( साहूकारों में रहन पेटे ब्याज पर ) हस्तस्थ रोकड़ एवं अधिकोषों में श्री रोकड़ पोते बाकी स्टेट बैंक आफ बीकानेर एन्ड जयपुर मारवाड़ जं०, बचत खाता दी बैंक आफ राजस्थान लि०, राणावास बचत खाता चालू खाता मारवाड़ ग्रामीण बैंक, राणावास अन्य बकाया वसूल होने योग्य अन्य व स्टाक श्री सुमति शिक्षण संस्था संघ भारतीय पोस्ट एवं टेलीग्राफ डिपार्टमेंट ट्रककाल सिक्यूरिटी तहसीलदार खारची के पास राजस्थान स्टेट इलेक्ट्रोसिटी बोर्ड सिक्यूरिटी ३,८५,०००-०० ५,२०,०००-०० 40,000-00 १,२७४-३३ २५५-२५ ३०,८५८ - १५ १,४०५-२० २५१-३५ रु० रकम १८६ पं० २१,०७,७१२-१३ १,३७,२७०-८५ ६,५५,०००-०० ८,०२,२०१-२० १०,०३१-६० ३४, १२४-२८ ६७,०४६-६६ ५००-०० ७००-०० १,६२०-०० ४१,२०,३८७-०३ . Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास (जि. पाली-मारवाड़) परिशिष्ट (ब) संलग्न स्थिति विवरण मिति कार्तिक कृष्णा अमावस्या संवत् २०३६ कुल रकम शेष बढ़ोतरी इस बिक्री ट्रांसफर कुल योग घिसाई संवत् २०३५ वर्ष इस वर्ष इस वर्ष इस वर्ष विवरण __ शेष संवत् २०३६ १६० | कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड १-जमीन ३१,७५२-८३ ३१,७५२-८३ ३१,७५२-८३ २-इमारत १,८३,७६५-०० १,८३,७६५-०० ६,१६०-०० १,७४,६०५-०० ३-वाणिज्य महाविद्यालय भवन २,६२,७८०-०० २,६२,७८०-०० १३,१३६-०० २,४६,६४१-०० ४-कला महाविद्यालय भवन ३,२१,८६८-०० ३,२१,८६८-०० १६,०६५-०६ ३,०५,८०३-०० ५-महाविद्यालय सभा स्थल भवन २,४४,१७८-०० २,४४,१७८-०० १२,२०६-०० २,३१,६६६-०० ६-महाविद्यालय छात्रावास भवन ७,१२,९८७-०० ७,१२,९८७-०० ३५,६४६-०० ६,७७,३३८-०० ७-महाविद्यालय औषधालय भवन १,२१,६१६-०० १,२१,६१६-०० ६,०६६-०० १,१५,८२३-०० ८-रामसिंह का गुड़ा छात्रावास भवन ६४,३५७-१५ १,११५-७० ६५,४७२-८५ ३,२७३-८५ ६२,१६६-०० ह-छात्रावास भवन ७५,०५०-०६ ९१७-०० ७५,९६७-०० ३,७६६-०० ७२,१६८-०० १०-प्राइमरी स्कूल भवन ५७,०४३-०० ५७,०४३-०० २,८५२-०० ५४,१६१-०० ११-बिजली, पावर हाउस, इलैक्ट्रिक मोटर, एवं फिटिंग्स ३४,४५०.०० ३४,४५०-०० ३,४४५-०० ३१,००५-०० १२-फर्नीचर ५८,६०६-०० ५७,३२१-०० ५,७३२-०० १३-रेडियो एवं टेप रिकार्डर १,५२६-०० १,५२६-०० १५३-०० १,३७६-०० १४-पुस्तकालय २,४३८-०० २,४३८-०० २४४-०० २,१६४-०० १५-छकड़ा १,०१५-०० १,०१५-०० १०२-०० ११३-०० १६-मोटर कार ४,७१८-०० ४,७१८-०० ६४४-०० ३,७७४-०० १७-छात्रावास सामान ३५,००६-०० १,५३०-९८६३८-०० ३५,९०१-६८ ३,५८६-१८ ३२,३१२-०० १८-पानी पम्प २,६२८-०० १,७५०-०० ८७८-०० ८८-०० ७६०-०० १६-अध्यापक आवास भवन निर्माणाधीन ३,५१६-५० ........ .... .... .... .... ३,५१६-५० .... .... .... ३,५१६-५० २०-मवेशी ८५०-०० ८५०-०० २१-रामसिंह का गुड़ा औषधालय फनीचर व उपकरण .... .... .... ४,३३३-०० .... .... .... ४,३३३-२० ४३३-२०३,९००-०० योग रु०-२२,२०,८२२-४८ ११,५६१-८८ ७,६३८-०० २२,२४,७४६-३६ १.१७,०३४-०३ २१,०७,७१२-३३ पिछले वर्ष के अंक रु०--२१,७८,१२२-२० १,७३,२४६-०५ १०,०६६-५६ २३,४१,३०१-६६ १.२०,४७९-२१ २२,२०,८२२-४८ उपरोक्त हिसाब जांचा और सही पाया। हस्ताक्षर : एम. सी. भण्डारी, एफ.सी.ए. ब्यावर भागीदार दिनांक ५ जनवरी, १९८१ मैसर्स बी० डी० गार्गीय एण्ड कं०, चार्टर्ड अकाउन्टेण्ट्स ३.६६५-०० .... Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास ११.. बी० डी० गार्गीय एन्ड कं० चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट स ब्यावर-अजमेर-जयपुर श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास (राज.) सूची "अ" विविध फण्ड खाते जमा (ब्याज पर) अंक गत वर्ष इस वर्ष २७,२५०-०० श्री पूनमचन्द राजकंवर कोठारी ट्रस्ट राजनांदगांव २७,४३७-५० ३५,०००-०० श्री मोतीलाल बैगाणी चेरीटेबल ट्रस्ट कलकत्ता ४०,०००-०० ११,१५१-०० श्री बैगराज भंवरलाल चौरड़िया चेरीटेबिल ट्रस्ट ११,१५१-०० २५,०००-०० श्री रामचन्द छोगालाल भंसाली स्थायी फण्ड २५,०००-०० २,७७७-६५ श्री केसरीमल सुराणा स्थायी फण्ड ३,०४८-४५ २,५०८-२० सेठ जी श्री श्रीचन्द जी गणेशदास जी विरदीचन्द जी गधैया स्वागत फण्ड सभा, जयपुर २,५०८-२० १,४३७-०० श्री ताराचन्द जी औंकारचन्द जी गधैया स्थायी फण्ड १,४३७-०० ४,०५२-०० श्री आदर्श निकेतन छात्रावास फण्ड ४,०५२-०० २,७०२-०० श्री प्रकाशचन्द जी रांका, कलकत्ता २,७०२-०० १,०००-०० श्री दीपचन्द जी नाहटा, कलकत्ता १,०००-०० ५६५-६० श्री मूलचन्द जी सेठिया स्थायी फण्ड ५६५-६० ३६२-०० श्रीमती पतासीबाई स्थायी फण्ड ३६२-०० २,००१-०० श्री सहसमल जी चान्दमल जी सेठिया २,००१-०० ५,०००-०० श्री माणकचन्द जी माली देवी दूगड़ ५,०००-०० १५,०००-०० श्री मन्नालाल जी सुराणा चेरीटेबिल ट्रस्ट १५,०००-०० १४,०००-०० श्री रूपचन्द जी सिरेमल जी डोसी १७,०००.०० ५,०००-०० श्री प्रिंस टैक्सटाइल्स, पाली ५,०००-०० १५,०००.०० श्री तोलारामजी हुकमीचन्द जी किशनलाल जी दूगड़ १५,०००-०० ७,५००-०० सेठजी श्री मन्नालाल जी सुराणा मेमोरियल ट्रस्ट, कलकत्ता ७,५००.०० ५,०००-०० श्री भीकमीचन्द जी माणकचन्द जी बांठिया, कलकत्ता १०,०००-०० श्री उत्तमचन्द जी सेठिया, जयपुर ५,०००-०० श्री बिहारीलाल जी जैन चेरीटेबल ट्रस्ट, कलकत्ता श्री बस्तीमलजी, जेठमलजी कोठारी, शिमोगा ५०१-०० श्री जबरमल जी भण्डारी स्थायी फण्ड ३३,३७०-०० श्री अमीचन्द, गधैया व श्री केसरीमल जी सुराणा स्थायी फण्ड ३,५०१-०० ४,०००-०० मनोहर देवी माती श्री उत्तमचन्द जी सेठिया स्थायी फण्ड ४,०००-०० १,६२,५५५-०० योग रु० २,४७,३८५-७५ उपरोक्त हिसाब जाँचा और सही पाया। एम० सी० भण्डारी, एफ० सी० ए० व्यावर भागीदार दिनांक ५ जनवरी, १९८१ मैसर्स बी० डी० गार्गीय एण्ड कं० __ चार्टर्ड अकाउन्टेन्ट्स Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .0 १६२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड हार्दिक सम्मान संप अपने पदाधिकारियों, समाजसेवकों, शिक्षाधिकारियों, उत्साही दानवीरों तथा विशिष्ट अतिथियों को अपने प्रांगण में आमन्त्रित कर उनका हार्दिक सम्मान व भावभीना स्वागत करता रहा है, जिसकी सूची इस प्रकार हैक्र० सं० नाम निवास गरिमा १. श्री छोगमल जी चोपड़ा, अध्यक्ष मंत्री २. श्री केसरीमल जी सुराणा ३. श्री दयालसिंह जी गहलौत ४. श्री पूनमचन्द जी विश्नोई ५. श्री सोहनलाल जी दूगड़ ६. श्री मोहनलाल जी सुखाड़िया ७. श्री मथुरादास जी माथुर ८. श्री छोगालाल जी मेहता ६. श्री पूनमचन्द जी कोठारी १०. श्री शिवचरण जी माथुर ११. श्री बाबूलाल जी भंसाली १२. श्री खेमचन्द जी सेठिया १३. श्री जसवन्तमल जी सेठिया १४. श्री जुगराजजी सेठिया १५. श्री गजमल जी सिंघवी १६. श्री विजयसिंह जी सुराणा १७. श्री हनुमानमल जी बैगाणी १८. श्री जबरमलजी भण्डारी १९. श्री राणमल जी जीरावाला २०. श्री माणकचन्द जी बांठिया २१. श्री मिश्रीलाल जी संचेती २२. श्री उत्तमचन्द जी सेठिया २३. श्री नेमीचन्द जी सेठिया २४. श्री हीरालाल जी देपुरा २५. श्री खेतसिंह जी राठौड़ २६. श्री चांदमल जी सेठिया २७. श्री श्री जुगराज जी गाविया २८. श्री मन्नालाल जी सुराणा २६. श्री चन्दनमल जी वैद ३०. श्री लाला बिहारीलाल जी जन ३१. श्री तोलाराम जी दुगड़ ३२. श्री तख्तमल इन्द्रावत २३. श्री दौलतसिंह जी कोठारी ३४. श्री दीपचन्द जी नाहटा ३५. श्री केसरीमल जी सुराणा गंगाशहर राणावास 33 जयपुर फतेहपुर उदयपुर जोधपुर दिवेर राजनादगांव भीलवाड़ा जोजावर गंगाशहर मद्रास कंटालिया जोधपुर चरू लाडनूं जोधपुर कोप्पल बीदासर जोजावर भोमासर कंटालिया उदयपुर जोधपुर रामसिहगुड़ा जयपुर सरदारशहर दिल्ली नेपाल गोगुन्दा उदयपुर कलकत्ता राणावास प्रधानाध्यापक शिक्षामंत्री, राजस्थान दानवीर मुख्यमंत्री, राजस्थान वित्तमंत्री, राजस्थान मुनीम व्यवसायी व दानवीर जिजामंत्री, राजस्थान दानवीर दानवीर समाजभूषण शिक्षाशास्त्री प्रधानाध्यापक दानवीर. दानवीर अध्यक्ष समाजसेवी दानवीर दानवीर दानवीर दानवीर दानवीर विद्यतमंत्री, राज० शिक्षामंत्री, राज० दानवीर दानवीर दानवीर वित्तमंत्री राज० दानवीर दानवीर श्रेष्ठ शिक्षक शिक्षाशास्त्री दानवीर मंत्री वर्ष १६५१ १६५६ १६६० १६६१ १६६१ १६६१ १६७० १९७१ १६७१ १९७१ १६७२ १६७३ १६७३ १६७३ १६७३ १९७३ १६७३ १९७३ १९७३ १६७३ १९७३ १६७४ १६७४ १६७४ १९७४ १६७४ १९७४ १६७५ १६७६ १९७६ RE FEAF १६७८ TUE . Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी मानव हितकारी संघ, राणावास का इतिहास १६३ . उपसंहार भारतवर्ष में जिस प्रकार पं० मदनमोहन मालवीय द्वारा स्थापित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और विश्वकवि श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शान्ति निकेतन, बोलपुर प्रसिद्ध सस्थान है, उसी प्रकार राजस्थान में श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास का स्थान अपनी अनुपम प्रवृत्तियों के लिए विख्यात है। यह भारत की भावी विभूति विद्यार्थी वर्ग को शिक्षा प्रदान कर चरित्र-निर्माण का आदर्श वि० सं० २००१ से कर रहा है। इसमें अब तक हजारों छात्र शिक्षा ग्रहण कर भारत की समृद्धि में सहयोग प्रदान कर रहे हैं । वर्तमान में संस्था के विभिन्न स्कूलों व महाविद्यालय में लगभग १५०० छात्र शारीरिक, बौद्धिक, नैतिक और भौतिक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। छात्रावासों में ५०० छात्र सबल शरीर का निर्माण करते हुए चरित्र-निर्माण का आदर्श जीवन व्यतीत कर रहे हैं । इन सारे कार्यक्रमों के व्यवस्थित संचालन के लिए १२ प्रवक्ता, ३८ शिक्षक, ६ गृहपति, ७ लेखक, ५ मुनीम, १६ रसोईदार, ३ चौकीदार, ११ परिचारक, १४ अन्य व्यक्ति कुल १११ कर्मचारी अपना योगदान अर्पित कर रहे हैं । कुल मासिक खर्च लगभग ५०,००० रुपयों से अधिक का है जो पूजी के ब्याज, राजकीय अनुदान, विद्यार्थियों से पाठन शुल्क और दानदाताओं से आर्थिक सहयोग रूप में प्राप्त होता है। महामहिम युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी, युवाचार्य महाप्रज्ञजी, विद्वान साधु-साध्वीगण, तथा प्रबुद्ध विचारकों के सहयोग को भी प्राप्त किया जाता है। माला के मनकों को व्यवस्थित करने में जिस प्रकार सुदढ़ सूत्र की आवश्यकता है, उसी प्रकार संघ के इन सब आयामों को सुसंचालित करने के लिए संयमी, दृढनिश्चयी एवं समाजसेवी कर्मयोगी श्री केसरीमल जी सुराणा, मंत्री की पूर्ण उपयोगिता है, जो संघ के सारे परिवार में सुन्दर सुमन में सुगन्ध की तरह व्याप्त हैं। वे अपने तन, मन और धन के साथ स्वेद और रक्त का बलिदान देकर संघ की उन्नति में दिन-रात सचेष्ट एवं संलग्न हैं। संघ की विभिन्न प्रवृत्तियों का विस्तार से विवरण आगे के पृष्ठों में दिया जा रहा है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . 4 . ..-501 MAMANYonrrenoN Hom.m. .m.-.....0 00100 00- PDAT उच्च शिक्षा का अनुपम स्थल श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय, राणावास 0 दानवीरचन्द भण्डारी हिन्दी विभाग, श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय, राणावास मारवाड़-मेवाड़ की सीमा पर स्थित कांठा क्षेत्र का प्रमुख कस्बा राणावास शिक्षा की ज्योति-शिखा को सम्पूर्ण भारत में ज्योतिर्मय कर रहा है । वस्तुतः यह ज्ञान-पिपासुओं और मुमुक्षुओं का विश्रान्ति-स्थल है। यहाँ ज्ञान की पुण्य सलिला गंगा निष्काम व अविरल गति से बह रही है। मशीनों और काम के कोलाहल से दूर वह राजस्थान का शांति निकेतन बन गया है। विद्या-भूमि के रूप में ख्यात राणावास ज्ञानार्जन, चरित्र-निर्माण और जीवन-निर्माण का पवित्र मन्दिर (Secred Temple of Learning) बनकर मानवीय मूल्यों को आलोकित कर रहा है । आज जबकि सारे देश का अधिकांश युवा मानस हड़ताल, तोड़-फोड़, घेराव और विध्वंसकारी प्रवृत्तियों से संलग्न है, फैशन एवं भौतिक चकाचौंध में व्यस्त व अभ्यस्त बनता जा रहा है, उसके ठीक विपरीत इस विद्या-भूमि राणावास में अध्ययनरत छात्र अपने अमूल्य जीवन को रचनात्मक व सर्जनात्मक दिशा में अग्रसर करने के लिये पल-प्रति-पल का सफल उपयोग कर रहा है। इस विद्या साधना का सम्पूर्ण श्रेय राणावास स्थित श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ तथा उसके कर्मठ संथापक-संचालक कर्मयोगी श्री केसरीमल जी सुराणा को है। इस संघ ने सन् १९४४ में पाँच विद्यार्थियों से प्राथमिकशाला का शुभारम्भ किया था, वह धीरे-धीरे वट वृक्ष के रूप में फलता-फूलता गया। लेकिन कर्मयोगी श्री सुराणाजी को इतने पर भी संतोष कहाँ था, वे तो विद्या-भूमि को उच्च शिक्षा केन्द्र के रूप में प्रस्थापित करने का स्वप्न सँजोये हुए थे। श्री सुराणाजी की मान्यता रही है कि एक ही प्रकार के वातावरण में रहकर विद्याध्ययन का प्रारम्भ कर उसकी समाप्ति करने वाले क्षेत्र में जो संस्कार पैदा होते हैं, वैसे संस्कार बार-बार विद्यालय परिवर्तन से छात्र में पैदा नहीं होते हैं । राणावास में हायर सेकेन्डरी तक की शिक्षा तो प्रदान की जाती थी किन्तु उसके बाद उच्च शिक्षा के अध्ययन की वहाँ कोई सुविधा नहीं थी। कांठा के ग्रामीण युवक को उच्च माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद पाली या जोधपुर की ओर जाना पड़ता था। यह बहुत खर्चीला मामला था। शहरों में जाने के बाद महाविद्यालयीय शिक्षा की चकाचौंध से अब तक के सुसंस्कारी बालक में अनेक तरह के परिवर्तन आ सकते थे। शहरों में चरित्रनिर्माण का वैसे ही अभाव रहता है। यही अनुभव करके माननीय श्री सुराणाजी ने भगवान महावीर के २५सौवें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर समाज को एक महाविद्यालय समर्पित करने की उद्घोषणा की। समाज के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने महाविद्यालयों के तत्कालीन वातावरण को देखकर इस निर्णय की आलोचना की और यहाँ तक कहा कि काका ने भांग खाई है, पर इस विरोध ने श्रीयुत् सुराणाजी के निश्चय को और दृढ़ बना दिया तथा समाज के सामने एक आदर्श महाविद्यालय प्रस्तुत करने का विचार कार्यरूप में परिणत होने लगा । जहाँ भी यह मनीपी, प्रबुद्ध चिन्तक, कर्मयोगी और तपस्वी महाविद्यालय भवन-निर्माण हेतु अर्थ संग्रह के लिये गया, वहाँ के धन कुबेरों ने अपनी थैलियाँ खोल दी, परिणामस्वरूप एक ही यात्रा में दस लाख रुपये तक की विपुल धन राशि जुटा ली गई । इस कांठा क्षेत्र में एक-दूसरे मदनमोहन मालवीय की प्रतिमा साकार हो उठी जिसके चरणों में लोग पावन उद्देश्य के लिये सहज ही धन समर्पित कर रहे थे । धन संग्रह के साथ ही राज्य सरकार से . Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय, राणावास १६५ . स्वीकृति एवं राजस्थान विश्वविद्यालय से मान्यता प्राप्त करने के प्रयास शुरू हुए। अनेक प्रबुद्ध व्यक्तियों के अथक प्रयत्नों से महाविद्यालय के लिये राज्य सरकार से १९७४ में स्वीकृति प्राप्त हो गई परन्तु विश्वविद्यालय से सम्बद्धता (Affiliation) अनेक प्रयत्नों के बाबजूद भी १९७४ में प्राप्त न हो सकी; फिर भी १९७४ में महाविद्यालय का विधिवत शुभारम्भ कर दिया गया। इस वर्ष पाँच विद्यार्थी थे परन्तु केन्द्रीय संगठन मानव हितकारी संघ अपने पथ से विचलित हुए बिना विषम परिस्थितियों में घिरी नाव के नाविक की तरह सफलतापूर्वक इसका संचालन करता रहा । परीक्षा की घड़ी समाप्त हो चुकी थी और वह शुभ वर्ष आया जब १९७५ में राजस्थान विश्वविद्यालय से श्री सी० आर० जे० बी० एन० भंसाली वाणिज्य महाविद्यालय एवं श्री सी० जे० सेठिया कला महाविद्यालय के लिये मान्यता प्राप्त हुई। बाद में सन् १९७६ में अनेक तकनीकी कारणों, छात्रों की संख्या और विश्वविद्यालय द्वारा अनवरत आपत्तियों को देखते हुए दोनों महाविद्यालयों का संविलियन (Amalgamation) कर दिया गया तथा १९७६ से ही इसका नाम श्री जैन तेरापंथी महाविद्यालय राणावास कर दिया गया जिसके अन्तर्गत सी० आर० जे० बी० एन० भंसाली वाणिज्य संकाय और सी० जे० सेठिया कला संकाय का संचालन किया जा रहा है। अस्थायी सम्बद्धता के लगभग पांच वर्ष बाद अप्रेल, १९८० से राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा इस महाविद्यालय को स्थायी सम्बद्धता (Permanent affiliation) प्रदान कर दी गई है। इससे पूर्व सन् १९७७ में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (U. G. C.) द्वारा महाविद्यालय का पंजीकरण हो चुका था । इन उपलब्धियों से महाविद्यालय के विकास और उन्नति के नये मार्ग प्रशस्त हो गये हैं। महाविद्यालय को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सूची में स्थान मिल जाने से विभिन्न विकास कार्यों के बीज-वपन हेतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आर्थिक सहायता मिलनी प्रारम्भ होने वाली है । अब यह दिन दूर नहीं जब महाविद्यालय में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सहायता से विशाल पुस्तकालय भवन, गैर आवासीय छात्र केन्द्र, जैमनेजियम हाल, केंटिन, साइकिल स्टैण्ड आदि महाविद्यालय परिसर को सुशोभित करेंगे । सन् १९८१ से महाविद्यालय राजकीय अनुदान सूची में स्थान प्राप्त करने में सफल रहा है। राज्य सरकार ने सत्र १९८०-८१ के लिए रुपये ६५,००० की अनुदान राशि अस्थायी (Ad-hoc) रूप से स्वीकृत की तथा १ अप्रेल, १९८१ से महाविद्यालय को नियमित रूप से ५०% अनुदान प्रदान करना स्वीकार किया है। । वस्तुतः महाविद्यालय ने विगत पाँच वर्ष के अपने कार्यकाल में तीन ऐसी उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं, जो महाविद्यालय के प्रगति-पथ के इतिहास में मील के तीन पत्थर के रूप में चिर-स्मरणीय रहेंगी। ये उपलब्धियाँ हैंविश्वविद्यालय अनुदान आयोग से पंजीयन, राजस्थान विश्वविद्यालय से स्थायी सम्बद्धता एवं राजस्थान राज्य सरकार से नियमित अनुदान प्राप्ति । संभवतः यह पहला महाविद्यालय होगा, जो इतने अल्पकाल में शिक्षा जगत के मानचित्र में अपना एक स्थान बनाने में सक्षम रहा है। महाविद्यालय कार्यकारिणी महाविद्यालय के प्रशासन एवं प्रबन्ध के सुचारु संचालन हेतु प्रतिवर्ष कार्यकारिणी का गठन किया जाता है, जिसका स्वरूप निम्न प्रकार है१-अध्यक्ष-१, ४-व्यवस्थापक-१, २-उपाध्यक्ष-१, ५-सदस्यगण-५ से ६ तक । ३-मंत्री-१, कार्यकारिणी में कुल सदस्य संख्या नौ से लेकर १३ तक रहती है। विश्वविद्यालय के नियमों को दृष्टि में रखते हुए कार्यकारिणी में विश्वविद्यालय प्रतिनिधि, महाविद्यालय प्राचार्य एवं प्राध्यापक प्रतिनिधि को सदस्य के रूप में सम्मिलित किया जाता है। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केशरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड पद सत्र १९७५-१९७६ में गठित प्रथम कार्यकारिणी में निम्न सदस्य थेऋ० सं० नाम १. श्रीयुत सम्पतकुमार जी गदैया अध्यक्ष २. श्रीयुत केसरीमलजी सुराणा मन्त्री ३. श्रीयुत पारसमल जी दोसी सदस्य ४. श्रीयुत विरदीचन्द जी चौपड़ा सदस्य ५. श्रीयुत चांदमलजी शर्मा सदस्य (विश्वविद्यालय प्रतिनिधि) ६. श्रीयुत गोविन्दलाल जी माथुर सदस्य (प्राचार्य) ७. श्रीयुत दयालसिंह जी गहलौत सदस्य ८. श्रीयुत भंवरलाल जी आच्छा सदस्य ६. श्रीयुत छगनलाल जी कोठारी सदस्य (प्राध्यापक प्रतिनिधि) सत्र १९८१-८२ में गठित कार्यकारिणी के सदस्यक्र० सं० नाम पद १. श्रीमान भैरूलाल जी धाकड़ अध्यक्ष २. , गणपतमल जी भंडारी उपाध्यक्ष ३. . केसरीमल जी सुराणा मन्त्री जब्बरमल जी भंडारी सदस्य ५. , ताराचन्द जी लूँकड़ सदस्य , पुखराज जी कटारिया प्रो० आर० सी० भण्डारी सदस्य (विश्वविद्यालय प्रतिनिधि) ८. श्रीमान विरदीचन्द जी चौपड़ा सदस्य ६. , मोतीलाल जी धोका सदस्य १० , जयप्रकाश जी गादिया सदस्य ११. , भूपेन्द्र जी मूथा सदस्य १२. प्रो० एस० सी० तेला सदस्य (प्राचार्य) १३. श्रीमान मनोहरलाल जी आच्छा सदस्य (प्राध्यापक प्रतिनिधि) महाविद्यालय कर्मचारी वर्ग सदस्य किसी भी संस्था का निर्माण एवं विकास केवल बाह्य साधनों की सम्पन्नता पर निर्भर नहीं होता, उसके लिए निष्ठावान, कर्मठ एवं पूर्ण समर्पित कर्मचारी वर्ग चाहिये। यह गर्व के साथ कहा जा सकता है कि महाविद्यालय कर्मचारी वर्ग महाविद्यालय के विकास में जी-जान से जुटा रहता है। महाविद्यालय के प्राध्यापकों का चयन विश्वविद्यालय के नियमों के अनुरूप चयन-समितियों के द्वारा किया जाता है । अन्य कर्मचारियों का चयन भी साक्षात्कार द्वारा किया जाता है। प्राध्यापक-वर्ग के शैक्षिक-स्तर की उच्चता में अभिवृद्धि के लिए प्राध्यापकों को समय-समय पर संगोष्ठियों, सम्मेलनों, सेमिनार, कार्यशालाओं, रिफ्रेशर कोर्स, प्रशिक्षण कोर्स आदि में भाग लेने हेतु बाहर भेजा जाता है। सन् १९७४-७५ में महाविद्यालय को राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हुई थी, फिर भी Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय, राणावास १६७ संघ द्वारा महाविद्यालय के संचालन का गुरुतर दायित्व ग्रहण किया गया। इस वर्ष प्रो० जी० एल० माथुर को महाविद्यालय के प्राचार्य के रूप में तथा प्रो० डी० वी० सी० भण्डारी, सहित तीन व्याख्याताओं को नियुक्त किया गया । सन् १९७५ में राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा मान्यता मिलने पर कला महाविद्यालय के प्राचार्य के रूप में प्रो० आर० पी० शर्मा तथा चार अन्य व्याख्याताओं की और नियुक्ति की गई । जब जुलाई, १९७६ में कला महाविद्यालय तथा वाणिज्य महाविद्यालय को समन्वित करके श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय के रूप में इसका स्वरूप परिवर्तित किया गया तो नये प्राचार्य के रूप में जुलाई, १९७६ में प्रो० एस० सी० तेला ने कार्य भार सम्हाला। उसके बाद तो इस महाविद्यालय के स्टाफ में निरन्तर अभिवृद्धि हो रही है। वर्ततान में कला संकाय, वाणिज्य संकाय के प्राध्यापकों सहित पुस्तकालयाध्यक्ष, शारीरिक प्रशिक्षक, कार्यालय अधीक्षक एवं चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के रूप में बीस से अधिक व्यक्तियों का स्टाफ है। छात्र प्रवेश-महाविद्यालय के द्वार सभी के लिये खुले हैं। धर्म, जाति, वर्ग आदि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है। विद्यार्थियों को विश्वविद्यालय के नियमों के अनुसार प्रवेश दिया जाता है। प्रत्येक विद्यार्थी को प्रवेश आवेदन-पत्र प्रस्तुत करना होता है। प्रवेश से पूर्व प्रत्येक विद्यार्थी को प्रवेश-समिति एवं प्राचार्य जी के सम्मुख साक्षात्कार हेतु उपस्थित होना होता है। प्रवेश के समय विद्यार्थी के आचरण, चरित्र आदि पर विशेष ध्यान दिया जाता है । अवांछनीय विद्यार्थियों को प्रवेश से तुरन्त रोक दिया जाता है। इस महाविद्यालय की यह एक उल्लेखनीय विशेषता है कि वह संख्या से मोह नहीं रखता। विद्यार्थी भले ही कम हों, परन्तु जो भी हों वे शुद्ध आचरण वाले एवं चरित्रवान हों । महाविद्यालय प्रवेश संख्या में अभिवृद्ध हेतु प्रतिवर्ष प्रवेश-अभियान चलाया जाता है, समाचार पत्रों में प्रवेश-सूचना प्रकाशित कराई जाती है तथा एक मुद्रित प्रवेश-सूचना विज्ञप्ति भी आस-पास के क्षेत्र में प्रेषित की जाती है। छात्र संख्या कालेज कला संकाय वाणिज्य संकाय क्र० सत्र प्रथम द्वितीय तृतीय योग प्रथम द्वितीय तृतीय योग बहद योग दोनों सं० वर्ष वर्ष वर्ष । वर्ष संकाय १. १९७५-७६ १६ - - १६ १६ २. १९७६-७७ १२ १० - २२ ३१ १३ ३. १९७७-७८ १३ ०८ १० ३१ ४५ २६ १२ ८३ ११४ ४. १९७८-७६ २१ १४० ५. १६७६-८० ०३२३६७ ३६ १६ १२५ १४८ ६. १९८०-८१ १६ १५७ १८८ सत्र एवं समय महाविद्यालय में राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित तिथियों के अनुसार सत्र का प्रारम्भ और सत्र की परिसमाप्ति होती है। महाविद्यालय में एक ही पारी (शिफ्ट) का संचालन होता है, जिसका समप सामान्यत: प्रातः १०-३० बजे से सायं ४-३० बजे तक रहता है। महाविद्यालय के कार्य का प्रारम्भ प्रतिदिन प्रार्थना से होता है और उसमें सभी कक्षाओं के विद्यार्थी सम्मिलित होते हैं। संकाय एवं विषय महाविद्यालय में कला एवं वाणिज्य संकायों का संचालन होता है। दोनों संकायों में स्नातक स्तर की कक्षाओं के अध्ययन की सुविधाएं उपलब्ध हैं। वर्ष १६७ २ ४५ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड 4 amrpretaim.w.man .mywam-RD.me. pow. . . . कला संकाय के अन्तर्गत निम्न विषयों का अध्यापन होता हैक्र०सं० विषय १. सामान्य हिन्दी २. सामान्य अंग्रेजी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास ४. हिन्दी साहित्य ५. अर्थशास्त्र ६. राजनीतिशास्त्र ७.. इतिहास स्वरूप अनिवार्य अनिवार्य अनिवार्य एच्छिक एच्छिक एच्छिक एच्छिक कोर वाणिज्य संकाय के अन्तर्गत निम्न विषयों का अध्ययन होता है१.. सामान्य हिन्दी अनिवार्य २. सामान्य अंग्रेजी अनिवार्य ३. भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का इतिहास अथवा टंकण एवं णीघलिपि (हिन्दी) अनिवार्य ४. लेखाकर्म एवं व्यावसायिक सांख्यिकी कोर ५. व्यवसाय प्रशासन कोर ६.. आर्थिक प्रशासन एवं वित्तीय प्रबन्ध ७. लागत एवं परिमाणात्मक विधियाँ एच्छिक या श्रम सन्नियम एवम् औद्योगिक सम्बन्ध या टंकण एवम् शीघ्रलिपि (हिन्दी) विशेष बिन्दु-(१) टंकण एवम् शीघ्रलिपि विषय राजस्थान विश्वविद्यालय से सम्बद्ध महाविद्यालयों में से केवल बारह महाविद्यालयों में है, जिनमें हमारा महाविद्यालय भी एक है। (२) शिक्षा को व्यवसायोन्मुख बनाने के टाइप की विशेष कक्षाओं का भी आयोजन किया जाता है जिनमें कोई भी विद्यार्थी भाग ले सकता है। महाविद्यालय परीक्षा परिणाम किसी भी महाविद्यालय की प्रगति के मूल्यांकन का एक मापदण्ड उसके द्वारा प्रस्तुत किये गये विभिन्न परीक्षा परिणाम हैं । इस महाविद्यालय के परीक्षा परिणाम प्रारम्भ से ही परिमाण एवं योग्यता दोनों दृष्टियों से उत्तम इस महाविद्यालय का प्राध्यापक वर्ग विद्यार्थियों के शैक्षिक स्तर को ऊँचा उठाने एवं परीक्षाओं में उनके द्वारा कीर्तिमान स्थापित करने के प्रति प्रतिक्षण जागरूक रहता है । पूरक परीक्षा योग्य घोषित विद्यार्थियों के अध्ययन हेतु निःशुल्क कक्षाओं का आयोजन प्रतिवर्ष किया जाता है। इसके अतिरिक्त अनवरत अध्ययन-अध्यापन, निर्धारित अवधि में पाठ्यक्रम की समाप्ति एवं पुनः अभ्यास नियमित रूप से गृह कार्य, समय-समय पर गृह परीक्षाओं का आयोजन आदि वे महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं, जिनसे अंततोगत्वा महाविद्यालय के परीक्षा-परिणामों का उच्च स्तर उभर कर आता है। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र महाविद्यालय परीक्षा परिणाम वाणिज्य संकाय प्रथम वर्ष द्वितीय वर्ष तृतीय वर्ष लिया में बैठे उत्तीर्ण लिया में बैठे कक्षा में प्रवेश परीक्षा परीक्षा में प्रतिशत कक्षा में प्रवेश परीक्षा परीक्षा में प्रतिशत कक्षा में प्रवेश परीक्षा लिया में बैठे उत्तीर्ण १६ १६ १९७५-७६ १९७६-७७ ३१ ३१ ८३ १६७७-७८ ૪૫ ४५ १६७८-७९ ८४ १६७९-८० ७५ ६२ १६७५-७६ १६ १९७६-७७ १२ १६७७-७८ १३ १६७५-७६ १९७६-८० w x m x १२ १६ १२ १३ १२ १३ २० १८ ३० ४५ ६४% १७% १००% ७५ ६१% ५३ ५४८% १५ १२ १३ ११ १० ३% १००% १००% ९२% १००% १३ २६ ३५ ४२ १० ५ १० १३ २३ ३५ ३६ १३ १००% २३ १००% २८ 60% २२ ५६.४% कला संकाय १० १० १००% ७ १००% ४ ५७% १० १००% १० २१ १६ ८ ४ १० १६ १६ उत्तीर्ण I II III प्रतिशत १००% ३६ ७ ९१% ४ ९ ३ ८४२१% १००% 0x% २ ६६.७% श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय राणावास Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड -. -. -. . . -. - . -. -. - . -. . . . . . . . . . . . . परीक्षा परिणाम के उल्लेखनीय बिन्दु श्री लूण सिंह चारण कक्षा तृतीय वर्ष वाणिज्य ने सत्र १९७८-७६ की विश्वविद्यालय परीक्षा में पाली जिले में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर महाविद्यालय का नाम शिक्षा जगत में गौरवान्वित किया। इसके साथ ही उन्होंने सांख्यिकी विषयों में ६७ प्रतिशत अंक प्राप्त कर उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की। श्री मदनलाल जीरावला द्वितीय वर्ष वाणिज्य ने सत्र १९७८-७६ की विश्वविद्यालय परीक्षा में प्रश्नपत्र 'सांख्यिकीय विधियाँ' में ९५ प्रतिशत अंक प्राप्त कर उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की। श्री सतीश चन्द्र जैन कक्षा द्वितीय वर्ष वाणिज्य ने सत्र १९७८-७९ की विश्वविद्यालय परीक्षा में प्रश्न-पत्र 'परिमाणात्मक विधियाँ' में ६४ प्रतिशत अंक प्राप्त कर उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की। महाविद्यालय की विभिन्न प्रबृत्तियाँ महाविद्यालय योजनाबद्ध क्रम से प्रगति के मार्ग पर अग्रसर है। महाविद्यालय की विभिन्न प्रवृत्तियों के समुचित विकास एवं संचालन हेतु सभी प्रवृत्तियों को मूलतः दो भागों में विभाजित किया गया है। शैक्षिक गतिविधियाँ--विद्यार्थियों के शैक्षिक एवं बौद्धिक विकास हेतु इसके अन्तर्गत विभिन्न गतिविधियों का संचालन किया जाता है । इनका संचालन शैक्षिक अधिष्ठाता करता है। छात्र कल्याण सम्बन्धी गतिविधयाँ-छात्रों की विभिन्न व्यक्तिगत एवं सामूहिक समस्याओं के निराकरण, उनकी प्रगति के बाधक तत्त्वों के निवारण तथा विद्याथियों के मार्गदर्शन हेतु इसके अन्तर्गत छात्र कल्याण अधिष्ठाता विभिन्न गतिविधियों का संचालन करता है। शैक्षिक गतिविधियाँ (१) पाठ्यक्रम विभाजन-पाठ्यक्रम के सुचारु अध्यापन हेतु प्रत्येक प्राध्यापक एक डायरी अपने पास रखता है। जिसमें वह सम्पूर्ण पाठ्यक्रम को विभिन्न सत्रावधियों में बाँटते हुए प्रत्येक सत्रावधि के पाठ्यक्रम को माह एवं पाक्षिक रूप से बाँटता है। इसी योजना का परिणाम रहता है कि सभी विषयों के पाठ्यक्रम यथासमय सम्पन्न हो जाते हैं तथा करीब एक माह पाठ्यक्रमों के पुनः अवलोकन एवं विद्यार्थियों की कठिनाइयों को हल करने में तथा विगत विश्वविद्यालयी परीक्षाओं के प्रश्न-पत्रों के अवलोकन में लगाया जाता है। (२) आन्तरिक मूल्यांकन योजना-विद्यार्थियों के शैक्षिक स्तर को सुधारने हेतु महाविद्यालय समय-समय पर गृह-परीक्षाओं का आयोजन करता है। उन परीक्षाओं के प्रश्न-पत्र विद्यालयी परीक्षा प्रणाली के अनुसार बनाये जाते हैं। प्राध्यापकगण इन परीक्षाओं की उत्तर-पुस्तिकाओं की जाँच कर मात्र अंक ही प्रदान नहीं करते वरन् प्रत्येक प्रश्न में रही कमियों का उल्लेख भी करते हैं, ताकि छात्र यह जान सके कि वार्षिक परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने के लिए उन्हें अपने प्रश्नोत्तरों का स्तर कैसे सुधारना है। परीक्षा समाप्ति पर प्राध्यापक प्रश्न-पत्र के प्रश्नों का सामान्य विवेचन कक्षाओं में करते हैं । इन गृह-परीक्षाओं में विभिन्न कक्षाओं में अधिकतम अंक प्राप्तकर्ता विद्यार्थियों को पुरस्कृत भी किया जाता है। प्रत्येक परीक्षा की समाप्ति के पश्चात् प्रत्येक विद्यार्थी का प्रगति विवरण उनके अभिभावकों को प्रेषित किया जाता है । (३) गृह कार्य-विद्यार्थियों के शैक्षिक स्तर में निरंतर अभिवृद्धि हेतु, नियमित रूप से गृह कार्य करवाया जाता है, जिसे सम्बन्धित प्राध्यापक जाँच कर उत्तर में रही कमियों का उल्लेख भी करता है, ताकि प्रश्नोत्तरों का स्तर मुधर सके और अच्छे अंक प्राप्त किये जा सकें। गृह कार्य में छात्र द्वारा अनियमितता बरतने पर समय-समय पर उनके अभिभावकों को सूचित किया जाता है। (४) निःशुल्क विशेष कक्षाएं-विभिन्न परीक्षाओं में पूरक परीक्षाओं के योग्य घोषित विद्यार्थियों की सहाय Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय, राणावास s areas. ..... . . . .. . . .. तार्थ निःशुल्क विशेष कक्षाओं का आयोजन प्रतिवर्ष किया जाता है। अग्रेजी भाषा के स्तर को सुधारने हेतु भी अतिरिक्त कक्षाओं का प्रबन्ध किया जाता है। (५) विभिन्न परिषदें-विद्यार्थियों के शैक्षिक एवं बौद्धिक, उनकी विभिन्न प्रवृत्तियों तथा उनके व्यक्तित्व के विकास हेतु महाविद्यालय निम्न परिषदों का गठन करता है (क) छात्र कल्याण परिषद-छात्र कल्याण परिषद का प्रारम्भ कालेज के प्रारम्भ के साथ ही हुआ है। यहाँ छात्र प्रतिनिधियों का चुनाव द्वारा चयन नहीं किया जाता है वरन् शैक्षणिक उपलब्धि के आधार पर मनोनयन किया जाता है। प्रत्येक संकाय में से प्रति दूसरे वर्ष में अध्यक्ष के मनोनयन की प्रक्रिया की जाती है । अध्यक्ष वही छात्र होता है जो कक्षा द्वितीय वर्ष में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण होता है। अध्यक्ष को सहयोग प्रदान करने के लिए अन्य संकाय में द्वितीय वर्ष में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाला छात्र उपाध्यक्ष होता है। इसके अतिरिक्त छात्र संघ की कार्यकारिणी का चयन विभिन्न कक्षाओं में आंकिक योग्यता में छात्रों के आधार पर किया जाता है। छात्रसंघ को उनकी शैक्षणिक एवं सह-शैक्षणिक गतिविधियों में मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए व्याख्याता को परामर्शदाता नियुक्त किया जाता है । छात्रसंघ के तत्त्वावधान में अखिल भारतीय स्तर पर श्रीयुत श्री केसरीमलजी सुराणा हिन्दी वादविवाद प्रतियोगिता तथा अखिल राजस्थान स्तर पर श्रीयुत एम० बी० मोतीलाल धोका हिन्दी वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है । वार्षिकोत्सव एवं विदाई समारोह का आयोजन भी यही परिषद करती है। (ख) कला परिषद्-कक्षा में बैठकर मात्र पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना ही आज के विद्यार्थी के लिए पर्याप्त नहीं होता है । विद्यार्थी जीवन ही वह समय है जबकि प्रतिभा को विकसित कर व्यक्तित्व को निखारा जा सकता है। इसी तथ्य को दृष्टि में रखते हुए सह-शैक्षिक गतिविधियों के संचालन हेतु प्रति वर्ष कला-परिषद का गठन किया जाता है । कला-संकाय के व्याख्याता को इस परिषद का परामर्शदाता नियुक्त किया जाता है । इसके अन्तर्गत स्वरचितः कविता पाठ, वाद-विवाद प्रतियोगिता एवं निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है, जिसमें छात्र उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं। (ग) वाणिज्य परिषद-कला परिषद के उद्देश्यों के अनुरूप ही वाणिज्य परिषद का गठन किया जाता है। पदाधिकारियों के लिए छात्रों की योग्यता के आधार पर चयन किया जाता है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित प्रतियोगितायें सामान्यतया की जाती हैं १. सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता २. तत्काल भाषण प्रतियोगिता ३. वाद-विवाद प्रतियोगिता ४. श्रीयुत भंवरलाल जी सा० डागलिया अखिल भारतीय हिन्दी प्रतियोगिता। (घ) योजना मंच-विकासशील राष्ट्रों का विकास प्रत्येक स्तर पर सुविचारित योजनाओं पर ही निर्भर होता है। योजना मंच के द्वारा महाविद्यालय के प्राध्यापकों एवं छात्रों में तथा उनके माध्यम से जन-साधारण में राष्ट्रीय योजनाओं के निर्माण, क्रियान्वयन तथा सफलताओं के प्रति जागरूकता एवं जिज्ञासा उत्पन्न करना मंच का मूल उद्देश्य होता है। इतना ही नहीं, बल्कि जन-सामान्य को नियोजन-प्रक्रिया में सम्मिलित करने में भी मंच महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इस महाविद्यालय में योजना मंच के सुचारु संचालन हेतु विभिन्न पदों पर छात्र-प्रति निधियों का योग्यता के आधार पर चयन किया जाता है तथा इन छात्र प्रतिनिधियों के मार्गदर्शन हेतु अर्थशास्त्र विभाग या आर्थिक प्रशासन एवं वित्तीय प्रबन्ध विभाग के प्राध्यापक की परामर्शदाता के रूप में नियुक्ति की जाती है। योजना मंच के प्रमुख कार्यक्रम इस प्रकार हैं'१. विस्तार भाषण-किसी महत्त्वपूर्ण आथिक विषय पर उस विषय के मर्मज्ञ द्वारा विस्तार भाषण दिया .. जाता है। 0 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड "-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.... २. योजना सप्ताह-इसके अन्तर्गत एक सप्ताह तक विभिन्न कार्यक्रम चलते हैं, यथा(अ) राज्यस्तरीय प्रतियोगितायें-इसमें प्रथम 'सुगनी देवी सुराणा अखिल राजस्थान अन्तर्महाविद्यालय अंग्रेजी वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है तथा द्वितीय 'श्रीमती सुन्दर बाई सुराणा अखिल राजस्थान अन्तर्महाविद्यालय संगोष्ठी प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। (ब) स्थानीय प्रतियोगितायें-(१) सामान्य प्रतियोगिता (२) पत्रवाचन प्रतियोगिता (३) चार्ट प्रतियोगिता (४) हिन्दी निबन्ध प्रतियोगिता । सर्वेक्षण कार्यक्रम-मंच के तत्त्वाधान में प्रत्येक वर्ष शिक्षा निदेशालय द्वारा निर्देशित किसी विषय पर सर्वेक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। विभिन्न प्रतियोगितायें--(i) श्री जुगराज सेठिया शैक्षिक पुरस्कार--श्री जुगराज जी सेठिया की स्मृति में श्री ताराचन्द जी सेठिया द्वारा प्रदत्त राशि से प्रत्येक संकाय (Faculty) में प्रथम तीन स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को प्रतिवर्ष पदक से विभूषित किया जाता है। (ii) श्री सोहनलाल जी दूगड़ ट्रस्ट कलकत्ता विशेषक पदक-यह पदक प्रति कक्षा में सर्वोच्च अंक प्राप्तकर्ता विद्यार्थी को प्रदान किया जाता है । इसका शुभारम्भ सन् १९७६ से किया गया । (१) श्रीयुत केसरीमल जी सुराणा अखिल भारतीय अन्तर्महाविद्यालय हिन्दी वाद-विवाद प्रतियोगिता-इस प्रतियोगिता के संचालन के लिए त्यागमूर्ति कर्मयोगी श्रीयुत केसरीमलजी सुराणा ने १५५१-०० की धनराशि महाविद्यालय को भेंट की है। यह प्रतियोगिता प्रत्येक वर्ष छात्र कल्याण परिषद के तत्त्वाधान में आयोजित की जाती है। इसमें औसतन १५ प्रतियोगी दल भाग लेकर प्रतियोगिता को जीवंत बना देते हैं। (२) श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा अखिल राजस्थान अन्तर्महाविद्यालय संगोष्ठी प्रतियोगिता-इस प्रतियोगिता के आयोजन के लिए सुप्रसिद्ध समाजसेवी श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा ने महाविद्यालय को ११५१-०० की धनराशि भेंट की है । यह प्रतियोगिता योजना मंच के तत्वाधान में आयोजित की जाती है। इसमें औसतन ७ प्रतियोगी दल भाग लेते हैं। (३) श्रीमती सुगनीबाई सुराणा अखिल राजस्थान अन्तर्महाविद्यालय अंग्रेजी वाद-विवाद प्रतियोगिता-इस प्रतियोगिता के आयोजन के लिये विनम्र एवं धार्मिक विचारों से विभूषित श्रीमती सुगनीबाई सुराणा ने ११५१-०० की राशि महाविद्यालय को प्रदान की है। यह प्रतियोगिता योजना मंच के तत्वाधान में आयोजित की जाती है तथा इसमें औसतन ५ दल भाग लेते हैं। (४) श्री एम० बी० मोतीलाल धोका अखिल राजस्थान अन्तर्महाविद्यालय हिन्दी वाद-विवाद प्रतियोगिताइस प्रतियोगिता के लिए रु. ११५१-०० की धनराशि उत्साही एव मृदुभाषी कार्यकर्ता श्रीयुत मोतीलाल जी सा. धोका के द्वारा दी गई। इस प्रतियोगिता का आयोजन छात्र कल्याण परिषद के तत्त्वाधान में किया जाता है तथा राजस्थान के विभिन्न महाविद्यालयों के लगभग १० दल प्रतियोगिता हेतु भाग लेते हैं। (५) प्रो० बी० एल० धाकड़ जनरल चैम्पियनशिप-यह चैम्पियनशिप मानव हितकारी संघ राणावास के वर्तमान अध्यक्ष एवं शिक्षाविद अर्थशास्त्री प्रो० धाकड़ साहब द्वारा प्रदान की जाती है। इन्होंने इसके लिए महाविद्यालय को एक शिल्ड बनाकर भेंट की है जो प्रतिवर्ष जनरल चैम्पियन को दी जाती है। (६) मो० एस० सी० तेला सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी प्रतियोगिता-यह चैम्पियनशिप श्री तेरापंथ महाविद्यालय राणावास के वर्तमान प्राचार्य, कुशल प्रशासक एवं अर्थशास्त्री प्रो. तेला साहब द्वारा प्रदान की जाती है। इन्होंने Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन तेरापथ महाविद्यालय, राणावास २०३ - . -. -. - . -. -. - . - . -. - . -. - . - . - . -. - .. इसके लिए महाविद्यालय को एक शिल्ड बनाकर भेंट की है जो प्रतिवर्ष वार्षिकोत्सव पर सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी को दी जाती है। (७) श्री भंवरलाल जी डागलिया अखिल भारतीय हिन्दी निबन्ध प्रतियोगिता-उदयपुर निवासी प्रतिष्ठित व्यवसायी श्रीयुत भंवरलाल जी साहब डागलिया ने इस प्रतियोगिता हेतु १५५१-०० की धनराशि महाविद्यालय को भेंट की है। इस प्रतियोगिता का आयोजन वाणिज्य परिषद के तत्वाधान में किया जाता है। इसमें भारत के विभिन्न महाविद्यालयों में अध्ययनरत नियमित छात्रो से १० से १५ तक निबन्ध प्राप्त होते हैं। (८) श्री गणपतलाल जी मालगा 'महाविद्यालय श्री' प्रतियोगिता-उत्साही व्यवसायी एवं शालीन व्यक्तित्व के धनी श्रीयुत मादमाजी द्वारा इस प्रतियोगिता के सम्बन्ध में महाविद्यालय को एक चल वैजयन्ती एवं १५१-०० की राशि भेंट की गई। यह प्रतियोगिता इसी महाविद्यालय के छात्रों के लिए आयोजित की जाती है। जो छात्र 'महा विद्यालय श्री' चुना जाता है उसे वार्षिकोत्सव पर चल वैजयन्ती एवं पुरस्कार प्रदान किया जाता है। (६) सेठ खींवराजाजी गादिया अखिल भारतीय अंतर्महाविद्यालय प्रतियोगिता-महाविद्यालय द्वारा संचालित विभिन्न राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं का उच्च स्तर देखकर उदारमना प्रसिद्ध व्यवसायी एवं संघ के प्रधान ट्रस्टी श्रीयुत अमरचन्द जी गादिया ने अपने पिताश्री के सुनाम से अखिल भारतीय स्तर की एक प्रतियोगिता के श्रीगणेश हेतु रुपये १५५१-०० की राशि स्थायी कोष हेतु महाविद्यालय को सहर्ष प्रदान की। इस प्रतियोगिता का शुभारंभ सत्र १९८१-८२ से होगा। (१०) टी० ओकचन्द गादिया अखिल भारतीय अंतर्महाविद्यालय प्रतियोगिता-इसी प्रकार उदारहृदयी प्रसिद्ध व्यवसायी श्रीमान ओकचंद जी गादीया ने भी अखिल भारतीय स्तर की एक प्रतियोगिता के संचालन हेतु रुपये १५५१-०० की राशि स्थायी कोष हेतु महाविद्यालय को उदारतापूर्वक भेंट की। इस प्रतियोगिता का श्रीगणेश भी सत्र १९८१-८२ से होगा। जयंतियां व समारोह-छात्रों के सर्वांगीण विकास एव नैतिक उत्थान के लिए समय-समय पर विभिन्न समारोहों का आयोजन किया जाता है। कुछ प्रमुख समारोहों का विवरण निम्नानुसार है (क) पर्युषण महापर्व-प्रतिवर्ष भाद्रपद माह में महाविद्यालय में पर्युषण महापर्व उत्साह से मनाया जाता है। इनमें छात्र नियमानुसार जीवन व्यतीत करने का संकल्प लेते हैं। इस पर्व में अणुव्रत दिवस, स्वाध्याय दिवस तथा क्षमायाचना दिवस पर छात्र उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं । (ख) घटोत्सव दिवस-प्रतिवर्ष यह महोत्सव आचार्य तुलसी के आचार्य पद ग्रहण करने की स्मृति में भाद्रपद शुक्ला नवमी को मनाया जाता है। (ग) भिक्ष चरमोत्सव-इस समारोह का आयोजन प्रतिवर्ष भादवा सुद त्रयोदशी को किया जाता है तथा तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु की पावन स्मृति में मनाया जाता है। (घ) आचार्यश्री जन्म समारोह-प्रतिवर्ष आचार्य श्री तुलसी का जन्म समारोह कातिक सुदी द्वितीया को मनाया जाता है जिसमें छात्र आचार्य श्री का भावभीना अभिनन्दन करते हैं। (ड) मर्यादा महोत्सव-यह महोत्सव उन मर्यादाओं पर दृढ़ रहने की पुनः प्रतिष्ठा हेतु मनाया जाता है जो मर्यादाएँ तेरापंथ धर्म, संघ, चारित्र-आत्माओं एवं श्रावकों के लिए निर्धारित की गई हैं। इस समारोह का आयोजन प्रतिवर्ष माघ सुदी सप्तमी को किया जाता है। (च) काका सा० का जन्म समारोह-संस्था के प्राण काका सा० के श्री चरणों में बैठकर उनके त्यागपूर्ण जीवन से शिक्षा ग्रहण करने के लिए इस समारोह का आयोजन प्रतिवर्ष फाल्गुन कृष्णा अष्टमी को किया जाता है । दिनांक २१-२-७६ को माननीय सुराणा साहब के ७०वें जन्मोत्सव के शुभ अवसर पर महाविद्यालय परिवार की ओर से एक अभिनन्दन-पत्र भेंट किया गया। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड (छ) चारित्र-आत्माओं का स्वागत समारोह-प्रत्येक वर्ष चातुर्मास हेतु चारित्र-आत्माओं का राणावास में शुभ आगमन होता है। छात्रों द्वारा उनका स्वागत किया जाता है और वे उनके चरणों में बैठकर अध्यात्म का आनन्द प्राप्त करते हैं। (ज) संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस समारोह-महाविद्यालय में प्रतिवर्ष संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस का आयोजन किया जाता है तथा विश्व संस्था के उद्देश्य एवं उपलब्धियों का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत कर छात्रों को विश्व शांति हेतु प्रोत्साहित किया जाता है। (झ) १५ अगस्त, २६ जनवरी तथा २ अक्टूबर (गांधी जयंती) पर भी विशेष समारोह व विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। (ट) चारित्र आत्माओं का विदाई समारोह-चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् चारित्र-आत्माओं को भावभीनी विदाई देने के लिए इस समारोह का आयोजन किया जाता है। () वार्षिकोत्सव एवं पुरस्कार वितरण समारोह–प्रतिवर्ष महाविद्यालय में वार्षिकोत्सव का आयोजन किया जाता है। इस अवसर पर महाविद्यालय के छात्र कलाकारों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रस्तुतिकरण किया जाता है। वर्ष के दौरान विभिन्न शैक्षणिक एवं सह-शैक्षणिक गतिविधियों में वरिष्ठता प्राप्त करने वाले छात्रों को पुरस्कार से विभूषित किया जाता है। महाविद्यालय की आज तक की परम्परा के अनुसार लगभग प्रत्येक विद्यार्थी को किसी न किसी रचनात्मक गतिविधियों में भाग लेने के कारण अवश्य पुरस्कृत किया जाता है । (ड) विदाई समारोह-वार्षिकोत्सव एवं पुरस्कार वितरण समारोह के साथ ही अन्तिम वर्ष कला एवं वाणिज्य के छात्रों को विदाई समारोह का आयोजन किया जाता है। यह समारोह ऋषिकुल परम्परा के अनुसार अत्यन्त पावन वातावरण में मनाया जाता है। छात्रों को भावी परीक्षा के लिए शुभकामनाएँ और जीवन में सफलता के लिए आशीर्वाद के प्रतीकस्वरूप मांगलिक गुड़ दिया जाता है तथा तिलक लगाकर विदा दी जाती है। विदा लेने वाले छात्र उपस्थित गुरुजनों एवं सम्मानीय अतिथियों का चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। (ढ) दीक्षान्त समारोह-विदाई समारोह के साथ सत्र १९८०-८१ से इस समारोह का भी शुभारम्भ किया गया। इस परीक्षा केन्द्र से सन् १९७८ में सम्पन्न हुई बी० ए० एवं बी० कॉम की विश्वविद्यालयी परीक्षा में उत्तीर्ण परीक्षार्थियों को विश्वविद्यालय से प्राप्त उपाधियाँ इस समारोह के अन्तर्गत प्रदान की गई। इस समारोह का स्तर व रूपरेखा विश्वविद्यालय में आयोजित होने वाले दीक्षान्त समारोह के अनुरूष रखी गई । भविष्य में इसी प्रकार प्रतिवर्ष इसका आयोजन किया जाएगा। (ण) माननीय मंत्री जी को अर्थ संग्रह यात्रा के प्रति मंगल-कामना समारोह-प्रत्येक संस्था के सुचारु संचालन में उसकी सुदृढ़ आर्थिक स्थिति विशेष महत्त्व रखती है। संघ एवं महाविद्यालय के मानद मन्त्री महोदय माननीय केसरीमलजी सुराणा इसी दृष्टिकोण से प्रतिवर्ष अर्थ संग्रह हेतु यात्रा पर पधारते रहे हैं । सन् १९८० से पूर्व इस प्रकार की यात्राओं के सन्दर्भ में उनके प्रति मंगल-कामनाएँ व्यक्त करने हेतु महाविद्यालय एक समारोह का आयोजन करता रहा है और एक थैली उनके श्री चरणों में भेंट करता रहा है जिसका विवरण इस प्रकार है १. दिनांक ८-१२-७६ -रु०११५१-०० भेंट २. दिनांक १८-१२-७७-रु० ११५१-०० भेंट ३. दिनांक १६-१२-७८-रु० ११५१-०० भेट ४. सन् १९७९-८० से माननीय मन्त्री जी ने अर्थ संग्रह यात्रा हेतु बाहर न जाने का संकल्प ले लिया है। (त) दिनांक ३१-१-१९८० की माननीय श्रीयुत जब्बरमलजी भण्डारी भूतपूर्व अध्यक्ष श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ की उल्लेखनीय सेवाओं को दृष्टि में रखते हुए उनके सम्मान में उन्हें भेंट की गई थैली में महाविद्यालय परिवार की ओर से ५०१ रु० प्रदान किये गये। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन तेरापंच महाविद्यालय, राणावास महाविद्यालय पत्रिका 'अनुशीलन' - महाविद्यालय की विभिन्न प्रवृत्तियों में पत्रिका प्रकाशन की प्रवृत्ति एक विशेष महत्त्व रखती है । महाविद्यालय पत्रिका में जहाँ एक और विद्याथी वर्ग एवं अन्य कर्मचारी वर्ग की सृजन शक्ति प्रतिबिम्बित होती है, वहाँ दूसरी ओर विभिन्न गतिविधियों से सम्बन्धित उपलब्धियों की झलक भी दृष्टिगत होती है। २०५ वस्तुतः पत्रिका चिन्तन-मनन, पठन-पाठन, लेखन भाषण की ओर विद्यार्थी वर्ग को उन्मुख करने में श्लाघनीय योगदान देती है । यह हर्ष एवं गौरव का विषय है कि इस महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका 'अनुशीलन' का प्रकाशन - कार्य सदैव - सराहना का विषय रहा है । महाविद्यालय सत्र १९७६-७७ से पत्रिका का निरन्तर प्रकाशन कर रहा है। सत्र १६७६८० में इसका चतुर्थ अंक प्रकाशित हुआ है- पत्रिका में हिन्दी, राजस्थानी एवं अंग्रेजी भाषा में रचित रचनाओं को स्थान दिया जाता है। पत्रिका की सम्पूर्ण प्रकाशन सामग्री का क्रम विभाजन इस प्रकार है । (१) सम्पादकीय (२) संदेश, शुभकामनाएँ, सम्मतियां एवं प्राचार्य की कलम आदि से (आवश्यकतानुसार ) (३) हिन्दी अनुभाग, (४) चित्रावली, (५) अंग्रेजी अनुभाग, (६) प्रतिवेदन अनुभाग, (७) विज्ञापन अनुभाग । पत्रिका की प्रकाशन सामग्री के अन्तर्गत कुछ स्थायी स्तम्भ इस प्रकार हैं (१) वंदना, (२) आचार्य श्री तुलसी से सम्बन्धित रचना, (३) कर्मयोगी श्रीयुत केसरीमलजी सुराणा पर एक रचना, (४) राणावास से सम्बन्धित एक रचना (५) महाविद्यालय से सम्बन्धित एक रचना । पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं में विद्यार्थी वर्ग एवं अन्य कर्मचारियों द्वारा रचित रचनाओं में एक सन्तुलन रखा जाता है। विद्यार्थियों को अधिक से अधिक प्रोत्साहित करना उद्देश्य रहता है । हिन्दी अनुभाग एवं अंग्रेजी अनुभाग में प्रतिवर्ष १८ से २४ तक एवं ८ से १२ तक की संख्या में रचनाओं का क्रमशः समावेश किया जाता है, जिसमें कविता, निबन्ध, कहानी, हास्य कणिकाएँ आदि विभिन्न प्रकार की पठन सामग्री होती है । चित्रावली के अन्तर्गत आचार्य श्री तुलसी, अध्यक्ष जी, मन्त्री जी, कर्मयोगी श्रीयुत केसरीमलजी सुराणा एवं प्राचार्य जी, संकाय सदस्य आदि के चित्र प्रतिवर्ष दिये जाते हैं। शेष चित्र महाविद्यालय की विभिन्न गतिविधियों के होते हैं। प्रतिवेदन अनुभाग में प्राचार्य प्रतिवेदन एवं महाविद्यालय की समस्त प्रवृत्तियों के प्रतिवेदन प्रस्तुत किए जाते हैं। महाविद्यालय पत्रिका के प्रकाशन व्यय की पूर्ति की दृष्टि से विज्ञापन अनुभाग का विशेष महत्व है। विज्ञापन ही पत्रिका की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाते हैं। विज्ञापनों की प्राप्ति हेतु विभिन्न व्यावसायिक संस्थानों से सम्पर्क किया जाता है। विज्ञापन प्राप्ति में विभिन्न महानुभावों का भी सहयोग लिया जाता है। श्रीयुत पारसचन्द जी भण्डारी, बालोतरा, श्रीयुत रमेश जी तेला, बम्बई, श्रीयुत जयप्रकाश जी गादिया, रामसिंह जी का गुड़ा, श्रीयुत अमरसिंह कछवाहा, उप-पुलिस अधीक्षक नागौर, श्रीवृत नेमीचन्द जी टांक, राणावास आदि का इस सन्दर्भ में अब तक श्लाघनीय सहयोग रहा है। कुछ व्यावसायिक प्रतिष्ठान ऐसे भी हैं, जिन्होंने विज्ञापन हेतु स्थायी कोष निर्मित कर दिया है। इन प्रतिष्ठानों का विज्ञापन प्रतिवर्ष दिया जाता है। उल्लेखनीय बिन्दु - (१ ) पत्रिका का प्रकाशन प्रतिवर्ष सत्र की समाप्ति से पूर्व कर दिया जाता है । ग्रीष्मावकाश में विद्यार्थी अपने घर जाते समय पत्रिका प्राप्त कर लेता है । (२) हिन्दी व राजस्थानी भाषा में विद्यार्थियों द्वारा रचित रचनाओं की एक प्रतियोगिता का आयोजन होता ० . Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • २०६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराना अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड ................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. है। प्रथम तीन सर्वश्रेष्ठ रचनाओं के रचनाकारों को पुरस्कृत किया जाता है। इसी प्रकार अंग्रेजी भाषा में रचित प्रथम तीन सर्वश्रेष्ठ रचनाओं को भी पुरस्कृत किया जाता है। महाविद्यालय के छात्रों द्वारा बाहर प्रतिनिधित्व-इस महाविद्यालय के छात्र केवल स्थानीय प्रतियोगिताओं में ही भाग नहीं लेते, वरन् अन्य महाविद्यालयों द्वारा आयोजित वाद-विवाद प्रतियोगिताओं, निबन्ध एवं कहानी प्रतियोगिताओं आदि में भी भाग लेते हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं द्वारा आयोजित विभिन्न शैक्षिक प्रतियोगिताओं में भी यहाँ के विद्यार्थी भाग लेते हैं। इस प्रकार बाहर जाकर ये विद्यार्थी इस महाविद्यालय को विशिष्ट गौरव एवं लोकप्रियता प्रदान करते हैं तथा सराहनीय स्थान प्राप्त करते हैं । सत्र १९७८-७६ में एस०पी०यू० महाविद्यालय, फालना द्वारा आयोजित श्री छोटूलाल सुराणा अखिल भारतीय हिन्दी वाद-विवाद प्रतियोगिता में इस महाविद्यालय के छात्र-दल ने प्रथम स्थान प्राप्त कर चल वैजयन्ती से पुरस्कृत हुए। इसके अतिरिक्त अनेक विद्यार्थियों ने निबन्ध एवं कहानी प्रतियोगिताओं में द्वितीय एवं तृतीय स्थान प्राप्त किये । सत्र १९७६-८० में श्री भैरूसिंह कुंपावत ने श्री प्राज्ञ महाविद्यालय, विजयनगर द्वारा आयोजित निबन्ध प्रतियोगिता तथा पत्रिका 'प्रतियोगिता' दर्पण द्वारा आयोजित अ० भा० निबन्ध प्रतियोगिता दोनों में द्वितीय स्थान प्राप्त किये । इसी प्रकार श्री महेन्द्र भाटोतरा ने विजय नगर महाविद्यालय की निबन्ध प्रतियोगिताओं में तृतीय स्थान प्राप्त किया । सत्र १९८०-८१ में राजकीय महाविद्यालय जालोर द्वारा आयोजित अखिल राजस्थान अन्तर्महाविद्यालय हिन्दी वाद-विवाद प्रतियोगिता में इस महाविद्यालय के श्री घेवरचन्द एवं श्री शैतानसिंह ने महाविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया एवं प्रथम स्थान प्राप्त कर चल वैजयन्ती से विभूषित हुए। इसी प्रकार श्री दयानन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अजमेर द्वारा आयोजित अखिल राजस्थान अन्तमहाविद्यालय निबन्ध प्रतियोगिता में श्री गोकुलसिंह राजपुरोहित ने प्रथम स्थान, श्रीमती गोमतीदेवी महाविद्यालय बड़ागांव एवं राजकीय महाविद्यालय, जालोर द्वारा आयोजित अखिल राजस्थान अन्तर्महाविद्यालय निबन्ध प्रतियोगिताओं में श्री शांतिलाल कोठारी एवं श्री गोकुलसिंह राजपुरोहित ने क्रमश: प्रथम एवं द्वितीय स्थान प्राप्त किया। पुस्तकालय-शिक्षण-संस्थानों में पुस्तकालय का महत्त्व निर्विवाद है। इस महाविद्यालय में पुस्तकालय की व्यवस्था उत्तम है। पुस्तकालय सामान्यत: प्रातः १० बजे से सायं ५ बजे तक कार्य करता है। न्यूज पेपर स्टैण्ड, काउण्टर, मैगजीन रैक आदि से सुसज्जित पुस्तकालय कक्ष में ३० प्रतिशत विद्यार्थी एक साथ बैठकर अध्ययन कर सकते हैं। पुस्तकालय में कुल पुस्तकों की संख्या ४८६१ है, जिनकी विषयानुसार स्थिति इस प्रकार हैहिन्दी ६२८ लेखा एवं सांख्यिकी ४८६ धार्मिक पुस्तकें अंग्रेजी ३६० व्यावसायिक प्रशासन २३६ सन्दर्भ व अन्य इतिहास ३५० लागत एवं परिमाणात्मक अर्थशास्त्र ६१० विधियाँ ८५ राजनीतिशास्त्र ३४० ८०० ६०० अब तक महाविद्यालय पुस्तकों के क्रय में लगभग एक लाख रुपये व्यय कुर चुका है। पुस्तकालय के सुचारु संचालन हेतु उसे निम्न अनुभागों में बाँटा गया है-आगम-निर्गम अनुभाग, संदर्भ-सेवा अनुभाग, तकनीकी सेवा अनुभाग, धामिक कक्ष, बुक बैंक आदि। पुस्तकालय से प्रत्येक विद्यार्थी को तीन पुस्तकें १५ दिन के लिए अवदान की जाती है। लगभग ७० पुस्तकों का प्रतिदिन आदान-प्रदान होता है। निर्धन छात्रों की सहायतार्थ पुस्तकालय में बुक बैंक की भी व्यवस्था है। इस अनुभाग में ५१२ पुस्तकें हैं। ional Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे करीब-करीब महाविद्यालय के सभी विद्यार्थी लाभान्वित होते हैं इसके अन्तर्गत प्रत्येक विद्यार्थी को कम से कम तीन पुस्तकें तथा बहुत ही निर्धन एवं योग्य विद्यार्थी को पाठ्यक्रम की समस्त पुस्तकें वर्ष भर तक के लिए प्रदान की जाती है। पुस्तकालय का धार्मिक कक्ष काफी सम्पन्न एवं उपयोगी है। पुस्तकीय शिक्षा के साथ नैतिक शिक्षा का सराह -- नीय सामंजस्य प्रस्तुत कक्ष उपस्थित करता है। वाचनालय - वर्तमान युग में पत्र-पत्रिकाओं का विशेष महत्त्व है। आज के ज्ञान के द्रुत विकास एवं सामयिक तथ्यों से परिचित होना नितान्त आवश्यक है । वाचनालय अनुभाग पुस्तकालय कक्ष में ही स्थित है तथा १८ प्रतिशत विद्यार्थी, अध्यापक एवं अन्य कर्मचारी इसका उपयोग करते हैं महाविद्यालय पुस्तकालय में कुछ ४८ विभिन्न पत्रपत्रिकाएँ आती हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है। १. दैनिक समाचार पत्रिकाएँ २. साप्ताहिक पत्र-पत्रिकाएँ पालिक मासिक ५. हिमासिक ६. त्रैमासिक ७. वार्षिक छात्र कल्याणकारी गतिविधियां छात्र कल्याण अधिष्ठाता एवं उनके सहयोगी सामूहिक कठिनाइयों के समाधान हेतु सदा तत्पर रहे हैं। निम्नलिखित माध्यमों से जाती है १. क्रम संख्या २. ३. ४. ३. ५. ४. ६. (अ) विस्तार भाषण योजना - राणावास से बुद्धिजीवियों के सम्पर्क सूत्र बनाये रखने के उद्देश्य से महाविद्यालय में विस्तार भाषणों का आयोजन किया जाता है। इस योजना में बिना किसी शिक्षण संस्था के भेद के कोई भी व्यक्ति महत्त्वपूर्ण विषय पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत कर सकता है। सामान्यतया वक्ता का विषय पर अच्छा अधिकार होना चाहिए और विषय समसामयिक या अत्यन्त महत्त्व का होना चाहिए। अब तक इस श्रृंखला के अन्तर्गत निम्नांकित विस्तार भाषण का आयोजन हो चुका है। श्री जैन तेरापंथी महाविद्यालय, राजावास वक्ता का नाम श्री एस० पी० गांधी प्रो० एस० सी० तेला श्री रामजीलाल शर्मा श्री पी० एम० जैन श्री पी० एम० जैन श्री एस० पी० गांधी पद व्याख्याता, वाणिज्य प्राचार्य अध्यापक व्याख्याता, इतिहास व्याख्याता, इतिहास व्याख्याता लेखाकर्म एवं सांख्यिकी २०७ ८ ६ १४ २ १ छात्रों को व्यक्तिगत एवं छात्रों की सहायता की विषय भारतीय आयकर विधान में नवीनतम संशोधन भारत में आर्थिक विनियोजन शिक्षा में पर्यवेक्षण का महत्त्व भारतीय संविधान में ४२वां संविधान केन्द्र व राज्यों के सम्बन्ध ४५वें संविधान संशोधन के संदर्भ में आयकर दायित्व एवं [आय का विनियोजन -0 ० . Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड श्री डी० डी० शर्मा व्याख्याता, लेखाकर्म एवं सातवां वित्त आयोग सांख्यिकी नारायणलाल जी मिस्त्री प्र०अ० राजकीय प्राथमिक विकासबाद की समालोचना विद्यालय, राणावास श्री एम० एल० आच्छा व्याख्याता, अर्थशास्त्र केन्द्रीय वजट की आर्थिक समीक्षा श्री आर० एन० माथुर व्याख्याता, राजनीतिविज्ञान भारत व गुटनिरपेक्षता श्री एम० एल० आच्छा व्याख्याता,अर्थशास्त्र जनता सरकार की नवीन आर्थिक नीति श्री एम० के० मेहता व्याख्याता, अंग्रेजी प्रेस की स्वतन्त्रता श्री डी० डी० शर्मा व्याख्याता, आर्थिक प्रशासन वर्ष १९७८-७६ का केन्द्रीय बजट एवं वित्तीय प्रबन्ध श्री पी० एम० जैन व्याख्याता, इतिहास मध्यावधि चुनाव एवं राष्ट्रपति पर महाभियोग श्री आर. एन० माथुर व्याख्याता, राजनीति विज्ञान ईरान संक्रमण के दौर में (शाह के बाद) श्री एस० के० मेहता व्याख्याता, अंग्रेजी अफगानिस्तान, बदलते हुए परिवेश में श्री एस० पी० गांधी व्याख्याता, वाणिज्य उद्योगों का सामाजिक दायित्व : निष्पत्ति का अंकेक्षण डॉ० एम० पी० माथुर व्याख्याता, वाणिज्य भारत में श्रम समस्याएँ एवं उनका समाधान (आ) छात्रवृत्तियाँ, शुल्क, रियायत एवं अन्य सहायता महाविद्यालय में अध्ययनरत विद्यार्थियों को विभिन्न आधारों पर विभिन्न स्रोतों से आर्थिक सहायता प्राप्त होती है । प्रमुख इस प्रकार हैं - (१) छात्रवृत्तियाँ-छात्रवृत्तियाँ प्राप्त करने वाले छात्रों को मूलतः तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम वे छात्र जो कालेज शिक्षा निदेशालय, जयपुर द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्तियाँ प्राप्त करते हैं, द्वितीय वे जो समाज कल्याण विभाग, राजस्थान राज्य सरकार से प्राप्त करते हैं तथा तृतीय जो विद्यार्थी विभिन्न समाज-सेवी संस्थाओं से प्राप्त करते हैं। शिक्षा निदेशालय द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्तियों में प्रमुखत: राष्ट्रीय छात्रवृत्ति, राष्ट्रीय ऋण छात्रवृत्ति, योग्यता एवं आवश्यक छात्रवृत्ति, मृतक राज्यकर्मचारी छात्रवृत्ति आदि हैं । ___ समाज कल्याण विभाग द्वारा विभिन्न कक्षाओं में अध्ययनरत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के छात्रों को निर्धारित दरों से छात्रवृत्तियाँ प्रदान की जाती हैं। अन्य समाजसेवी संस्थाएँ निर्धन, परन्तु योग्य विद्यार्थियों को उनकी योग्यता के आधार पर आर्थिक सहायता प्रदान करती है। प्रतिवर्ष इस महाविद्यालय के लगभग १० छात्र शिक्षा निदेशालय द्वारा प्रदत्त विभिन्न छात्रवृत्तियाँ प्राप्त करते हैं, जिनका मुख्य आधार गत परीक्षा की आंकिक योग्यता एवं छात्र की पारिवारिक कुल आय होती है । सत्र १९८०८१ में श्री सोहनलाल मुणोत, तृतीय वर्ष वाणिज्य ने आवश्यक एवं योग्यता छात्रवृत्ति तथा श्री शैतानसिंह, द्वितीय Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन तेरापंथी महाविद्यालय, राणावास वर्ष वाणिज्य, श्री हरिशंकर शर्मा, प्रथम वर्ष वाणिज्य एवं श्री मोखमचन्द चोरड़िया, प्रथम वर्ष कला ने राष्ट्रीय छात्रवृत्ति प्राप्त कर एक उल्लेखनीय उपलब्धि प्राप्त की है। विभिन्न सत्रों में मिलने वाली छात्रवृत्तियों का विवरण इस प्रकार है सत्र शिक्षा निदेशालय से प्राप्त समाज कल्याण विभाग से प्राप्त अन्य समाज-सेवी संस्थाओं से योग १९७६-७७ १९७७-७८ १६७८-७९ १६७९-८० १६८०-७१ m. We उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि इस महाविद्यालय में विद्यार्थियों की बहुत ही अल्प संख्या होने पर भी छात्रवृत्तियों की प्राप्ति का अंक ऊँचा है। यह हमारे लिए गौरव का विषय है । उपर्युक्त सभी प्रकार की छात्रवृत्तियों के कार्य संचालन हेतु प्रायः छात्र कल्याण अधिष्ठाता प्रभारी के रूप में कार्य करता है। छात्रवृत्ति-कार्य प्रभारी विद्यार्थियों को विभिन्न प्रकार की छात्रवृत्तियों से सम्बन्धित सम्पूर्ण जानकारी से अवगत कराता है, छात्रवृत्ति प्राप्ति योग्य छात्रों से आवेदन-पत्र तैयार करवाता है तथा जाँच-पड़ताल कर आवश्यक कार्यवाही हेतु सम्बन्धित विभाग को प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त श्री चूनाराम, प्रथम वर्ष वाणिज्य को मुख्यमन्त्री सहायता कोष से एवं श्री शैतानसिंह, द्वितीय वर्ष वाणिज्य को रोटेरी क्लब, पाली से भी सहायतार्थ राशि प्राप्त हुई। (इ) शुल्क रियायत-महाविद्यालय में अध्ययनरत १० प्रतिशत छात्रों को उनके शिक्षण शुल्क में रियायत दी जाती है। इस रियायत के लिए योग्यता एवं आवश्यकता को ध्यान में रखा जाता है। निर्धन छात्रों को सुविधा प्रदान करने के लिए उन्हें विशिष्ट स्रोतों से आर्थिक अनुदान की व्यवस्था भी की जाती है। सत्र शुल्क रियायत प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या १९७५-७६ १९७६-७७ १९७७-७८ १६७८-७६ १९७९-८० १९८०-८१ निर्धन छात्र कोष-महाविद्यालय में एक निर्धन छात्र कोष है, जिसमें विभिन्न स्रोतों से राशि एकत्र होती है, इस राशि से प्रति वर्ष समय-समय निर्धन छात्रों को उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु राशि प्रदान की जाती है। यह राशि बहुत अधिक बड़ी नहीं होती। खेल-कूद-महाविद्यालय में एक पृथक खेल विभाग कार्यरत है। इसके इंचार्ज के लिए महाविद्यालय के एक व्याख्याता को इसका प्रभारी नियुक्त किया जाता है। उनके निर्देशन के अनुसार खेलों के सफल संचालन के लिए पी० टी० आई० नियुक्त किये गये हैं। वर्तमान में महाविद्यालय में ६ खेलों के लिए सुविधाएँ प्रदान की गई हैं। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड . - . -. -. . प्रत्येक रुचिशील विद्यार्थी इनमें भाग लेकर अपना खेल सम्बन्धी विकास कर सकता है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्रिकेट जैसे महंगे और खर्चीले खेल की भी यहाँ सुविधा उपलब्ध है । महाविद्यालय में टेबिल टेनिस की सुविधा भी उपलब्ध है जिसका श्रेय श्रीमान जयप्रकाश जी गादिया को है जिन्होंने उन्मुक्त भाव से टेबल टेनिस के लिए महाविद्यालय को अनुदान दिया । अन्तर्दलीय खेल-कूद प्रतियोगिता–सम्पूर्ण महाविद्यालय के श्रेष्ठतम खिलाड़ियों का चयन कर उन्हें दो दलों में विभक्त कर दिया जाता है और दोनों दलों के मध्य सभी प्रकार के खेलों के सम्बन्ध में अन्तर्दलीय प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। जो दल ज्यादा खेलों में विजेता रहता है उसे महाविद्यालय वार्षिकोत्सव के अवसर पर जनरल चैम्पियनशिप प्रदान की जाती है। दलों का चयन-विशिष्ट खेल में निपुणता के आधार पर छात्रों में सम्बन्धित खेल के लिए दल बनाया जाता है। इसके देख-रेख एवं परामर्श के लिए किसी व्याख्याता को प्रोफेसर इंचार्ज बनाया जाता है। चुने गये छात्रों में से विशिष्ट निपुणता एवं अब तक की उपलब्धियों, प्रमाण-पत्र इत्यादि के आधार पर दलनायक एवं उपदलनायक का चयन होता है। इसके लिए खेल परामर्शदात्री समिति की सभा होती है जिसका प्रत्येक व्याख्याता किसी . न किसी रूप में सदस्य होता है। खेल परामर्शदात्री समिति की सिफारिशों के आधार पर प्राचार्य अन्तिम निर्णय लेते हैं। वाधिक एथलिट दिवस-प्रत्येक वर्ष सामान्यतया २६ जनवरी के पावन पर्व पर महाविद्यालय वार्षिक एथलिट दिवस का आयोजन करता है । इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार की दौड़, कूद तथा थ्रोज का आयोजन किया जाता है। प्रत्येक रुचि रखने वाला विद्यार्थी इसमें आसानी से भाग ले सकता है। एथलिट दिवस पर छात्रों का उमंग, उत्साह देखते ही बनता है। जो छात्र सर्वाधिक सफलता प्राप्त करता है उसे सर्वश्रेष्ठ एथलिट के पद से विभूषित किया जाता है। सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी-इस सम्बन्ध में छात्रों से प्रार्थना-पत्र एक निर्धारित प्रपत्र में आमन्त्रित किये जाते हैं और क्रीड़ा समिति गम्भीर विचार विमर्श के पश्चात् यह निर्णय करती है कि किस खिलाड़ी को यह सम्मान दिया जाय । उपलब्धियाँ-सत्र १९७८-७६ में महाविद्यालय के हाकी दल ने नेहरू मैमोरियल कालेज, हनुमानगढ़ में आयोजित राजस्थान विश्वविद्यालय अन्तर्महाविद्यालय हाकी प्रतियोगिता में भाग लिया एवं प्रथम चक्र में राजकीय महाविद्यालय नसीराबाद को हराकर द्वितीय चक्र में प्रवेश किया। इसी सत्र में राजकीय महाविद्यालय आबरोड में आयोजित अन्तर्महाविद्यालय खो-खो प्रतियोगिता में भी महाविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया गया तथा महाविद्यालय के दल ने राजकीय महाविद्यालय बीकानेर को परास्त कर द्वितीय चक्र में प्रवेश किया। अल्प समय में ही महाविद्यालय द्वारा प्राप्त की गई ये उपलब्धियाँ गौरवपूर्ण हैं। इस महाविद्यालय की अंतिम वर्ष की कक्षाओं को उत्तीर्ण कर आगे के अध्ययन हेतु अन्य महाविद्यालयों में गये विद्यार्थियों में से चार विद्याथियों ने अपने-अपने महाविद्यालयों में विभिन्न खेलों की टीमों के प्रथम ग्यारह खिलाड़ियों में स्थान प्राप्त किया है। राष्ट्रीय सेवा योजना-महाविद्यालय के छात्रों की सेवा-भावना को प्रोत्साहित करने के लिए, महाविद्यालय में राष्ट्रीय सेवा योजना इकाई की स्थापना की गई है। इस योजना का शुभारम्भ महाविद्यालय में सत्र १९७६-७७ में ही हो गया था परन्तु राज्य सरकार द्वारा इस सम्बन्ध में अनुदान सत्र १९७७-७८ से मिलना प्रारम्भ हुआ। प्रारम्भ के वर्ष ५० छात्रों के लिए ५५ रुपये प्रति छात्र की दर से कुल २,७५० रुपये अनुदान राशि प्राप्त हुई परन्तु बाद वाले वर्षों में ७५ छात्रों के लिए ५५ रुपये प्रति छात्र की दर से कुल ४,१२५ रुपये अनुदान राशि प्रतिवर्ष प्राप्त हो रही है। इस राशि का उपयोग राष्ट्रीय सेवा योजना से सम्बन्धित गतिविधियों को सफलनापूर्वक संचालित करने के लिए किया जाता है। इस प्रवृत्ति के अन्तर्गत इस महाविद्यालय के छात्र अत्यन्त रुचिशील हैं। परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ग छात्रों की संख्या राज्य सरकार द्वारा अनुदान प्रदत्त छात्रों की संख्या से अधिक होती है। 0 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र १९७६-७७ १६७७-७८ १६७८-०६ १९७६-८० श्री जैन तेरापंथी महाविद्यालय, राणावास छात्रों की संख्या, सामान्य गतिविधियाँ ६२ ७५ ६६ ६७ विशेष शिविर ५१ ५६ २११ ७० विशेष शिविर - सामान्य कार्यक्रम के अतिरिक्त सत्र में एक बार शीतकालीन अवकाश में विशेष शिविर का आयोजन किया जाता है। इसमें छात्र गोद लिये गये ग्राम के समुन्नत विकास का कार्य अपने हाथ में लेते हैं । अब तक के विशिष्ट शिविरों में किये गये महत्त्वपूर्ण कार्य राणावास स्टेशन तथा मुख्य मार्गों की सड़क निर्माण का कार्य है जिसकी समाज के सभी वर्गों द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसा की गई। इसके अतिरिक्त इस इकाई द्वारा सत्र ११७७-०८ में आन्ध्रप्रदेश के तूफान पीड़ितों की सहायतार्थ १०११-०० रुपये का चन्दा एकत्रित किया तथा ६७ वस्त्रों का संग्रह किया गया। सामान्य गतिविधियां महाविद्यालय में आन्तरिक सड़क निर्माण तथा मैदानों के विकास के सम्पूर्ण कार्यक्र में श्रमदान राष्ट्रीय सेवा योजना इकाई के सदस्यों द्वारा ही किया गया है। अब तक दो बालीबाल फील्ड तथा महाविद्यालय के सामने वाले हाकी एवं फुटबाल फील्ड के विकास कार्य में सेवा योजना के छात्रों की अभूतपूर्व देन है। इसके अतिरिक्त महाविद्यालय भवन से छात्रावास भवन तथा छात्रावास भवन से मुख्य द्वार को जोड़ने वाली सड़क के निर्माण कार्य भी छात्रों द्वारा ही सम्पन्न किये गये। इसके अतिरिक्त राजकीय प्राथमिक पाठशाला के भवन की सफेदी का कार्य भी छात्रों द्वारा सम्पन्न किया गया । ग्रामीण वाचनालयों की स्थापना- प्रारम्भ में ग्राम राणावास तथा गुड़ा रामसिंह में छात्र कार्यकर्ताओं द्वारा ग्रामीण वाचनालयों का संचालन किया गया। ये वाचनालय जाति, वर्ण, सम्प्रदाय के भेद बिना सबके लिए खुले हैं । इनके अतिरिक्त दो दैनिक पत्र राष्ट्रीय एवं प्रान्तीय तथा ग्राम विकास सम्बन्धी पत्र-पत्रिकाओं के साथ साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग इत्यादि पत्रों की व्यवस्था की जाती है। इनका मुख्य उद्देश्य गाँवों में जागरूकता लाना है और उन्हें एक ऐसा मंच प्रदान करना है जहाँ आकर वे देश- विदेश की ताजा घटनाओं से जुड़ सके । वर्तमान में गुड़ा रामसिंह और सारण में महाविद्यालय राष्ट्रीय सेवा योजना इकाई द्वारा वाचनालयों का सफलतापूर्वक संचालन किया जा रहा है । राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी कार्यक्रम - सर्वप्रथम २४ दिसम्बर ७८ को राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी कार्यक्रम सम्बन्धी संगोष्ठी का आयोजन महाविद्यालय में किया गया। इसमें विभिन्न क्षेत्रों के आस-पास के विद्यालयों, कार्यक्रम अधिकारियों, समाजसेवियों तथा प्रबुद्ध ग्रामवासियों ने भाग लिया । सन १६७६ - ८० में श्री एस० पी० गांधी, कार्यक्रम अधिकारी राष्ट्रीय सेवा योजना ने राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा सम्बन्धी सेमिनार में भाग लिया । इस सत्र में ही महाविद्यालय के उत्साही कार्यकर्त्ताओं द्वारा जटियों के बास में २ माह के लिए प्रयोगात्मक स्तर पर प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र का संचालन किया । प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम को और अधिक गतिशील बनाने के लिए प्रो० बी० एल० धाकड़ का उपरोक्त विषय पर व्याख्यान रखा गया जो छात्रों एवं कार्यक्रम अधिकारियों के लिए अत्यन्त प्रेरणाप्रद रहा । अन्तर्महाविद्यालय कहानी प्रतियोगिता- इस योजना के अन्तर्गत राष्ट्रीय सेवा योजना के विभिन्न पहलुओं के अवलोकनार्थ अखिल राजस्थान अन्तर्महाविद्यालय कहानी प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। छात्र परामर्श केन्द्र-छात्रों को रोजगार सम्बन्धी अवसरों से अवगत कराने तथा प्रतिस्पर्धात्मक प्रतिभा के 66 . Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड सजन एवं विकास हेतु महाविद्यालय परिसर में छात्र परामर्श केन्द्र की स्थापना की गई है। इस सम्बन्ध में छात्रों को विभिन्न पदों की योग्यता सम्बन्धी जानकारी एवं चयन प्रक्रिया से अवगत किया जाता है। इस महाविद्यालय के विद्यार्थी बैंक, डाकतार विभाग, भू-राजस्व, एयर फोर्स तथा लोक सेवा आयोग के विभिन्न पदों पर अपनी योग्यतानुसार आवेदन करते हैं। अब तक इस योजना द्वारा लाभान्वित छात्रों की सूची निम्नानुसार है रोजगार प्राप्त छात्रों की विशेष विवरण सत्र संख्या १९७६-७७ १९७७-७८ १९४८-६ एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी श्री दाताराम ने सूचना सेवा का लाभ उठा कर पद प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की। एक छात्र ने डाकतार विभाग में टाइम स्केल क्लर्क का पद प्राप्त किया। इस वर्ष रिक्त स्थानों पर आवेदन हेतु निधन छात्रों को आर्थिक सहायता प्रदान की गई। दो छात्रों ने एयरफोर्स में पद प्राप्त किया तथा दो छात्रों ने टेलिफोन आपरेटर का पद भी प्राप्त किया। चार छात्रों ने डाक एवं तार विभाग में, एक छात्र ने ग्रामीण बैंक में पद प्राप्त किए । एक छात्र ने दरीबा माइन्स में पद प्राप्त किया। १६७९-८० १९८०-८१ शिक्षक-शिष्य-योजना-प्राचार्य महोदय प्रो० एस० सी० तेला के परामर्श से महाविद्यालय में शिक्षक-शिष्यवर्ग योजना का शुभारम्भ सत्र १९७६-७७ से किया गया। इस योजना का प्रारम्भिक उद्देश्य छात्रों और अध्यापकों के मध्य सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाना है। इस योजना का मुख्य विचार यह है कि अध्यापक छात्र के मित्र, दिग्दर्शक एवं सुसलाहकार का कार्य करें तथा उनके मध्य सम्बन्धों की खाई को इस हेतु से पाटा जा सके। इस योजना के अन्तर्गत सम्पूर्ण विद्यार्थियों को लगभग १० समूहों में विभक्त कर दिया जाता है और प्रत्येक समूह एक प्राध्यापक को सौंप दिया जाता है। इस वर्ग की सम्बन्धित प्राध्यापक के साथ वर्ष में दो-तीन बैठकें होती हैं जिनमें छात्रों की न केवल सामूहिक वरन् व्यक्तिगत समस्याओं के समाधान का गुरुतर कार्य किया जाता है। शिक्षक-शिष्य योजना की बैठकों से विद्यार्थी वर्ग की विभिन्न समस्याएँ उभर कर सम्मुख आती हैं, इन समस्याओं के निराकरण से विद्यार्थियों में संतोष की भावना उत्पन्न होती है, अन्यथा छोटी-छोटी समस्याएँ ही आगे चलकर एकत्र होने पर विस्फोटक रूप धारण कर सकती थीं। दल के सभी छात्रों का एक साथ बैटकर चिन्तन करने से वातावरण सौहार्दपूर्ण हो जाता है, जिसके लाभ का एक छोटा-सा उदाहरण यह है कि एक सत्र में किसी निर्धन छात्र के पास शुल्क जमा कराने के लिए रुपये नहीं थे जब उस ग्रुप के अन्य छात्रों में इस सम्बन्ध में चर्चा हुई तो उन्होंने तत्काल सहायता का बीड़ा उठाया और छात्र की शुल्क राशि जमा करा दी। यह भ्रातृत्व का अनुपम उदाहरण है, जो इस योजना से ही प्रस्फुटित हुआ है। इस योजना के साथ ही प्राचार्य महोदय प्रत्येक सत्रावधि के आरम्भ में छात्र प्रतिनिधियों को सम्बोधित करते Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन तेरापथी महाविद्यालय, राणावास २१३ . हैं तथा वर्ष के कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत कर उनके सुझाव तथा विचारों को आमन्त्रित करते हैं। इसी प्रकार छात्र प्रतिनिधियों की सभा सत्र के अन्त में बुलायी जाती है जिसमें प्राचार्य महोदय, व्याख्याता वर्ग एवं छात्र प्रतिनिधि भाग लेकर सम्पूर्ण सत्र के कार्यक्रमों में क्रियान्वयन एवं उपलब्धियों का मूल्यांकन करते हैं ताकि कमियाँ भविष्य में मार्गदर्शक का कार्य करें। अन्य प्रवृत्तिगत बिन्दु ___ महाविद्यालय की सम्पूर्ण प्रवृत्तियों का दो भागों में विभाजन-शैक्षिक गतिविधियाँ एवं छात्र-कल्याण सम्बन्धी गतिविधियाँ, एक वैज्ञानिक विभाजन है। इसी का प्रभाव है कि महाविद्यालय इतनी अल अवधि और वांछित साधनों के अभाव के बावजूद भी विभिन्न क्षेत्रों में एक साथ प्रगति करने में सक्षम सिद्ध हो सका है। कार्य प्रणाली की इस तर्कसम्मत एवं वैज्ञानिक विधि के क्रियान्वयन का श्रेय प्राचार्य जी प्रो० एस० सी० तेला साहब को है। वस्तुत प्रो० तेला साहब के कार्य भार ग्रहण करने के पश्चात् ही महाविद्यालय अपना श्री स्वरूप गठित करने में सफल हो पाया है। ___ महाविद्यालय द्वारा संचालित शैक्षिक एवं छात्र कल्याण सम्बन्धी गतिविधियों के अतिरिक्त कुछ अन्य गतिविधियाँ निम्न प्रकार हैं : (१) छात्र उपस्थिति-छात्र उपस्थिति में विश्वविद्यालय के नियमों का पालन किया जाता है। विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित न्यूतनम उपस्थिति के निर्वाह का पालन प्रत्येक विद्यार्थी को करना होता है। जिन विद्यार्थियों की उपस्थिति प्रत्येक सत्रावधि के अन्त में न्यूनतम उपस्थिति से कम पाई जाती है, इसकी सूचना उसके अभिभावकों को दी जाती है तथा सतर्कता बरतने हेतु विशेष निर्देश दिया जाता है। सामान्य रूप से प्रत्येक सत्रावधि के अन्त में सभी विद्यार्थियों के अभिभावकों को उनकी उपस्थिति की स्थिति से अवगत कराया जाता है। यदि कोई विद्यार्थी निरन्तर सात दिन तक किसी भी विषय में अनुपस्थित रहता है, तो उसकी सूचना प्राचार्य जी अथवा शैक्षिक अधिष्ठाता को दी जाती है और ऐसे विद्यार्थी के अभिभावक को पत्र लिखा जाता है । यह प्रसन्नता का विषय है कि उपस्थिति की न्यूनता के संदर्भ में किसी प्रकार की कोई गम्भीर स्थिति कभी उत्पन्न नहीं हुई। (२) अनुशासन-महाविद्यालय में अनुशासन की स्थापना विशेष महत्त्व रखती है। प्राचार्य जी समय-समय पर अनुशासन का महत्त्व बताते हैं। जो भी विद्यार्थी अनुशासन भंग करता है, उसके विरुद्ध कड़ी कार्यवाही की जाती है । अनुशासनहीनता के मामलों के निर्णय हेतु एक अनुशासन समिति (Proctorial Board) कार्यरत है, जिसमें समिति के अध्यक्ष के अतिरिक्त शैक्षिक अधिष्ठाता, छात्रकल्याण अधिष्ठाता एवं एक वरिष्ठ प्राध्यापक सदस्य के रूप में होते हैं । यह हर्ष का विषय है कि महाविद्यालय में अनुशासनहीनता की कोई अप्रिय एवं गम्भीर घटना घटित नहीं हुई है। हड़ताल, घेराव, तोड़फोड़ आदि यहाँ के लिए विदेशी शब्द हैं। इस दृष्टि से यह महाविद्यालय अन्य महाविद्यालयों से एक अलग कोटि का सिद्ध होता है। इस प्रकार से इस महाविद्यालय में अनुशासनहीनता का वातावरण किसी भी कोण से नहीं है, जिसका एकमात्र कारण महाविद्यालय प्रशासन एवं विद्यार्थी वर्ग का एक-दूसरे के प्रति विश्वास एवं श्रद्धा है। स्टाफ कौंसिल-महाविद्यालय की प्रगति श्रृंखला में अध्यापकों के अटूट एवं गहन सम्बन्ध को अनवरत बनाये रखने के लिए महाविद्यालय में अध्यापकों की एक वैधानिक परिषद का गठन किया गया है। यह परिषद महाविद्यालय के प्रशासन का महत्त्वपूर्ण अंग है जिसके अन्तर्गत न केवल आन्तरिक नीतियों का निर्धारण किया जाता है वरन नीतियों के क्रियान्वयन की रूपरेखा भी निर्धारित की जाती है। प्रतिवर्ष औसतन इसकी सात-आठ बैठकें होती हैं। प्रथम बैठक में परिषद के अध्यक्ष प्राचार्य महोदय सत्र के भावी कार्यक्रम की रूपरेखा बताकर सम्पूर्ण गतिविधियों का विभाजन करते हैं एवं उत्तरदायित्वों का निर्धारण करते हैं ताकि वर्ष भर का कार्यक्रम समय-बद्ध निरन्तर सफलतापूर्वक संचालित किया जा सके। वे बिन्दु जिन पर वर्ष के दौरान विचार-विमर्श होता है उनमें से प्रमुख बिन्दु निम्न हैं Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड ........... ...... १-आन्तरिक परीक्षा योजना की नीति एवं तिथियों को निर्धारित करना । २-छात्रों द्वारा गृहकार्य करने एवं अवलोकन सम्बन्धी मापदण्ड का निर्धारण । ३–छात्र उपस्थिति-नीति का निर्धारण एवं विशिष्ट परिस्थितियों में मार्गदर्शक बिन्दुओं पर विचार । ४-राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर को प्रतियोगिताओं के सफलतापूर्वक आयोजन के विभिन्न पहलुओं पर विचारविमर्श एवं प्रभावी निर्णयन । ५--महाविद्यालय प्रबन्ध समिति द्वारा लिये निर्णयों को अवगत कराना एवं परिणामों की उपलब्धि के लिए परिषद के सदस्यों के दायित्वों का निर्धारण । ६-खेलों के समुन्नत विकास एवं सफल संचालन के लिए नीति निर्धारण तथा प्रत्येक व्याख्याता को किसी महत्त्वपूर्ण खेल से सम्बन्धित दायित्व सौंपना एवं प्रगति का जायजा लेना। उस परिषद की सभा को सत्र में एक दो बार महाविद्यालय प्रबन्ध समिति के मन्त्री श्रद्धय केसरीमलजी सुराणा सम्बोधित करते हैं तथा महाविद्यालय की प्रगति की गति को बढ़ाने के लिए प्रेरित करते हैं। महाविद्यालय स्टाफ क्लब संकाय सदस्यों के मध्य एक क्लब का गठन किया गया है। प्राचार्य महोदय द्वारा एक प्राध्यापक को क्लब का सचिव नियुक्त किया जाता है । संकाय के समस्त सदस्य इस क्लब के सदस्य होते हैं एवं दिन में एक बार सभी एक साथ बैठकर जलपान लेते हैं। यह एक स्वस्थ परम्परा है । संकाय सदस्यों में परस्पर प्रेम और सौहार्द के सम्बन्ध रहते हैं। परस्पर प्रगतिशील विचारों का आदान-प्रदान होता है। महाविद्यालय प्रशासन प्रबन्ध व्यवस्था पर विचारविमर्श होता है। इसके अतिरिक्त क्लब बाहर से पधारे महानुभावों के स्वागत एवं सम्मान में भी अल्पाहार का आयोजन करता है। भूतपूर्व विद्यार्थी परिषद-भूतपूर्व छात्रों से महाविद्यालय का सम्पर्क बनाये रखने के लिए भूतपूर्व छात्र परिषद का गठन किया गया है। इसमें महाविद्यालय का प्रत्येक भूतपूर्व विद्यार्थी सदस्य हो सकता है। इन विद्यार्थियों को सदस्यता हेतु आवेदन-पत्र भरकर प्रस्तुत करना होता है और फीस के रूप में मात्र ५ रु० प्राप्त किये जाते हैं । भूतपूर्व छात्र से यह अपेक्षा की जाती है कि अपने भावी जीवन की उपलब्धियों की सूचना महाविद्यालय को निरन्तर भेजते रहेंगे जिसे उनके प्रपत्र में दर्ज किया जाता है। इस योजना का उद्देश्य न केवल महाविद्यालय एवं भूतपूर्व छात्रों के मध्य अनवरत सम्बन्ध बनाये रखना है वरन् भूतपूर्व छात्रों में आपसी मेलजोल को भी बढ़ाना है ताकि एक ही संस्था से निकले दो विद्यार्थी एक-दूसरे से लाभान्वित हो सकें । महाविद्यालय के भूतपूर्व विद्यार्थियों में से सात विद्यार्थी बम्बई में चार्टर्ड एकाउन्टेन्सी का कोर्स कर रहे हैं। कुछ निजी व्यवसाय में संलग्न हो गये हैं और कुछ राजस्थान के विभिन्न महाविद्यालयों में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम का अध्ययन कर रहे हैं। एक विद्यार्थी आई० सी० डब्ल्यू० ए० के कोर्स में संलग्न है। वार्षिक विवरण रजिस्टर-महाविद्यालय में सम्पन्न वर्ष भर की गतिविधियों को समावेशित करने के लिए एक रजिस्टर बनाया जाता है, जिसमें सभी प्रकार की गतिविधियों का वर्णन होता है। इस रजिस्टर का एक बार अवलोकन करने मात्र से महाविद्यालय की प्रगति की गति का दिग्दर्शन हो जाता है। सम्पत्ति रजिस्टर--इस रजिस्टर में महाविद्यालय में आने वाले विशिष्ट अतिथि महाविद्यालय का अवलोकन करने के पश्चात् महाविद्यालय की गतिविधियों के बारे में अपनी सम्मति अंकित करते हैं। दानदाताओं से सहयोग-महाविद्यायों में समय-समय पर अतिथि महानुभावों का शुभागमन होता रहता है। महाविद्यालय उनके सम्मान में सम्मान-समारोह आयोजित करता है। महाविद्यालय के स्वस्थ वातावरण, यहाँ की - . Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय, राणावास २१५. . . . . .. .. ..... .. ..... .. ... .... . ... .. . . .. .. . .... .... . .. . . ... प्रवृत्तियों एवं कार्य संचालन ने सदैव अतिथियों को प्रभावित किया है। अतिथि महोदय मुक्त कण्ठ से महाविद्यालय की सराहना करते हैं तथा महाविद्यालय की विभिन्न प्रवृत्तियों के विकास हेतु अनुदान कर अपना अमूल्य सहयोग प्रदान करते हैं । महाविद्यालय परिवार उन सबके प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता है एवं आशा करता है कि भविष्य में भी उनका उदार सहयोग इसी प्रकार मिलता रहेगा। उदार दानदाताओं की सूची निम्नानुसार है क्र० नाम उद्देश्य राशि १. श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा २. श्रीयुत केसरीमल जी सुराणा ३. श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा ४. श्रीयुत मोहनलाल जी सुराणा ५. श्रीमती गुलाबदेवी सेठिया ६. श्रीयुत गोकुलचन्द जी संचेती ७. श्रीयुत भंवरलाल जी संकलेचा ८. श्रीयुत मोतीलाल जी धोका ६. श्रीयुत मोहनलाल जी तातेड़ १०. श्रीयुत अमरचन्द जी गादिया ११. श्रीयुत ताराचन्द जी सेठिया १२. श्रीयुत ताराचन्द जी सेठिया १३. श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा १४. श्रीयुत उत्तमचन्द जी सेठिया १५. श्रीयुत तोलाराम जी दुगड़ १६. श्रीयुत तोलाराम जी दुगड़ १७. श्रीयुत तोलाराम जी दुगड़ १८. श्रीयुत मिश्रीमल जी भंसाली १६. श्रीयुत सुमेरमल जी साहब २०. श्रीयुत गुलेच्छा जी, नेपाल २१. श्रीयुत चोपड़ा जी, गंगानगर २२. श्रीयुत मोतीलाल जी, बगड़ीनगर २३. श्रीयुत डी० सी० भण्डारी २४. श्रीयुत एस० पी० गांधी २५. श्रीयुत पी० एम० जैन २६. श्रीयुत जी० पी० शर्मा २७. श्रीयुत मोतीलाल जी छाजेड़ २८. श्रीयुत मोतीलाल जी धोका २६. श्रीयुत बाबूखाँ जी साहब ३०. श्री चान्दमल जी सेठिया ३१. श्री टी० ओकचन्द गदैया फण्ड ३२. श्रीयुत जगप्रकाश जी गादिया योजना मंच संगोष्ठी प्रतियोगिता ११५१-०० राष्ट्रीय स्तर हिन्दी वाद-विवाद प्रतियोगिता १५५१-०० बुक बैंक के लिए १०००-०० योजना मंच के लिए ५५१-०० पुस्तकालय के लिए ११५१-०० बुक बैंक के लिए ५५१-०० विकास हेतु ११५१-०० वाद-विवाद प्रतियोगिता ११०१-०० पुस्तकालय के लिए ५५१-०० पुस्तकालय के लिए ५५१-०० संगीत वाद्य यन्त्र के लिए ५०१-०० विभिन्न पदकों के लिए ११५१-०० विकास के लिए ५०१०० विकास के लिए २५१-०० पुस्तकालय के लिए ६२६२-०० बुक बैंक के लिए ४३६-०० सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए ५५१-०० सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए २५१-०० खेल-कूद के लिए ५१-०० पुस्तकालय के लिए १५५१-०० पुस्तकालय के लिए १५५१-०० पुस्तकालय के लिए १५५१-०० पुस्तकालय के लिए ५०१-०० पुस्तकालय के लिए ५०१-०० विकास कार्य हेतु १२१-०० विकास कार्य हेतु १२१-०० पुस्तकालय हेतु २१५१-०० छात्र कल्याण परिषद ५००-०० राष्ट्रीय सेवा योजना ७००.०० छात्र कल्याण परिषद १०१-०० छात्र कल्याण परिषद १०१-०० खेल-कूद परिषद ५१-०० Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड .... ...... ३३. श्रीनती सुन्दरबाई सुराणा स्टेनो टाइपिंग कक्षाएँ एक हिन्दी टाइप राइटर ३४. श्रीयुत बाबूलाल जी भंसाली ३५. श्रीयुत बस्तीमल जी कोठारी ३६. श्रीयुत मोतीलाल जी धोका ३७. श्रीयुत बस्तीमल जी कोठारी महाविद्यालय विकास हेतु ३६५-०० ३८. श्री महाराष्ट्र आयल इन्डस्ट्रीज, धूलिया कहानी प्रतियोगिता हेतु १५५१-०० ३६. श्री टी० ओकचन्द गदैया टेबिल टेनिस हेतु ११५१-०० ४०. श्री बस्तीमल जी कोठारी राष्ट्रीय सेवा योजना ५००-०० ४१. श्रीयुत पारसमल जी डोसी राष्ट्रीय सेवा योजना १०१-०० ४२. श्रीयुत अमरचन्द जी गादिया । प्रतियोगिता हेतु १५५१-०० ४३. श्री टी. ओकचन्द गादिया प्रतियोगिता हेतु १५५१-०० प्रतियोगिता की शील्ड हेतु १०००-०० घोषित विशेष पारितोषक हेतु (खेल-कूद के संदर्भ में) १०२-०० ४४. श्रीयुत पारसमल जी भंवरलाल जी वेद मूथा प्रतियोगिता की शील्ड हेतु २५१-०० घोषित ४५. श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी खेल-कूद सामग्री हेतु १०००-०० मानव हितकारी संघ पुरस्कार हेतु १००-०० ४६. श्रीयुत राजेन्द्र सिंह जी कछवाह खेल सामग्री हेतु २५१-०० घोषित महाविद्यालय पत्रिका हेतु(विज्ञापन विभाग) १००१-०० घोषित ४७. श्रीयुत पारसमल जी गादिया पुरस्कार हेतु (वार्षिकोत्सव के संदर्भ में) २५१-०० घोषित महाविद्यालय के भावी चरण-लगभग सात वर्षों के अल्पकाल में महाविद्यालय की उपर्युक्त गति प्रगति से स्पष्ट है कि इस महाविद्यालय में भावी विकास की उत्साहवर्द्धक संभावनाएँ हैं तथा स्नातकोत्तर महाविद्यालय के रूप में प्रस्थापित होने के समस्त गुण प्रारम्भ से ही विद्यमान हैं। कुछ कमियाँ भी हैं, जिनकी पूर्ति निकट भविष्य में ही करने के अनवरत प्रयास चल रहे हैं, तत्सम्बन्धी कतिपय बिन्दु निम्न हैं - १-खेलों के मैदान के लिए स्टेडियम का निर्माण करना। २-विभिन्न प्रकार की सेवाओं के लिए विद्यार्थियों के निःशुल्क प्रशिक्षण की विशेष व्यवस्था करना । ३–निर्धन विद्यार्थियों के शिक्षण हेतु व्यवस्था करना। ४-विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय के प्राध्यापकों का Exchange of Teacher's Programme योजना के अन्तर्गत विस्तार भाषणों का आयोजन करना। ५-राज्य स्तर पर धार्मिक प्रतियोगिता का आयोजन करना। ६-यू० जी० सी० द्वारा प्रस्तावित रेमिडियल क्लासेज योजना को कार्यरूप में लागू करना । ७-यू० जी० सी० द्वारा विभिन्न मदों में अनुदान प्राप्त करना। ८-यू० जी० सी० से १० प्रौढ़ शिक्षा केन्द्रों के संचालन के लिए अनुदान प्राप्त करना। ६-एन० सी० सी० एयर विंग स्काउटिंग आदि प्रारम्भ करने हेतु प्रयास करना । १०-क्षेत्रीय स्तर पर खेल प्रतियोगिता का आयोजन । ११-नैतिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु विशेष प्रयास । . 0 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9.0.0.0.0.0.9 aa.se.se . . . . . ... . .. .....emeese+D.0.0.. महाविद्यालयो छात्रों का आवासीय केन्द्र श्री रायचन्द छोगालाल भंसाली महाविद्यालय छात्रावास, राणावास प्रो० पी० एम० जैन, अधीक्षक, छात्रावास श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय, राणावास का अपना अलग से एक छात्रावास है। यह महाविद्यालय भवन के पास ही एक आकर्षक एवं भव्य अट्टालिका के रूप में खड़ा हुआ है । कर्मयोगी काका साहब श्री केसरीमलजी सुराणा ने जब भगवान महावीर की पच्चीससौवीं निर्वाण शताब्दी के अवसर पर महाविद्यालय आरम्भ करने का संकल्प लिया तो उसके साथ ही महाविद्यालय के छात्रों के अनुरूप आधुनिक सुख-सुविधाओं से सम्पन्न इस महाविद्यालय छात्रावास के निर्माण का बीड़ा भी काका साहब ने उठाया। छात्रावास भवन का शिलान्यास चूरू निवासी दानवीर सेठ श्री विजयसिंह जी सुराणा के कर-कमलों द्वारा वि० सं० २०२६ माघ शुक्ला १३ गुरुवार दिनांक १५-२-१९७३ को प्रातः साढ़े आठ बजे सम्पन्न हुआ। भवन चार वर्षों में ही बन कर तैयार हो गया और इस नवनिर्मित भवन का उद्घाटन विराटनगर (नेपाल) निवासी प्रसिद्ध उद्योगपति श्री तोलारामजी दूगड़ द्वारा वि० सं० २०३३ मगसिर कृष्णा १२ दिनांक १८ नवम्बर, १९७६ को प्रात: ग्यारह बजे सम्पन्न हुआ। भवन क्षमता व सुख-सुविधा-लगभग दस लाख रुपये की लागत से निर्मित यह महाविद्यालय छात्रावास तीन मंजिला है और अंग्रेजी भाषा की E के आकार में बना हुआ है। छात्रावास में कुल पाँच विंग बने हुए हैं तथा उनमें ११० कमरे व ३ बड़े हाल हैं । प्रत्येक कमरे में तीन छात्र एक साथ रह सकें इस प्रकार की कमरे के आकार-प्रकार की व्यवस्था है। इस प्रकार यह छात्रावास ३३० लड़कों के रहने के लिए बनाया गया है। प्रत्येक कमरे में खाट (पलंग), टेबल, कुर्सी, अलमारी व बिजली की सुविधा संघ की ओर से उपलब्ध है। हवा, रोशनी हेतु प्रत्येक कमरे में खिड़कियाँ बनी हुई हैं । महाविद्यालय भवन के पीछे फ्लश की तारछे हैं तथा नहाने-धोने के लिए दो बड़ी टंकियाँ भी हैं । टंकियों में पानी पास ही के कुएँ से मशीन द्वारा चढ़ाया जाता है। छात्रावास में प्रवेश-छात्रावास के प्रवेश द्वार सभी के लिए खुले हुए हैं । जाति, धर्म, वर्ण आदि का कोई बन्धन नहीं है। जो छात्र महाविद्यालय में अध्ययन करता है, वह गृहपति (वार्डन) से सम्पर्क स्थापित कर छात्रावास में प्रवेश प्राप्त कर सकता है। इसके लिए छात्र को प्रवेश फार्म भरना होता है तथा आवश्यक शुल्क जमा कराना होता है लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि छात्र सुसंस्कारी है या नहीं और उसका पूर्व का रिकार्ड किस प्रकार का है ? असंतोष व अव्यवस्था फैलाने वाले छात्रों का प्रवेश निरस्त भी किया जा सकता है। छात्र संख्या-संख्या की दृष्टि से यह छात्रावास अभी शैशवावस्था में ही है किन्तु छात्र संख्या क्रमशः उसी अनुरूप में बढ़ती जा रही है, जिस रूप में महाविद्यालय में छात्रों की संख्या बढ़ रही है। छात्रावास में कला संकाय और वाणिज्य संकाय दोनों के छात्र निवास करते हैं। वर्ष के अनुसार तथा संकाय व कक्षा के अनुसार छात्र संख्या का विवरण इस प्रकार है - . Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड or orm xxx 0 049 arm x durd कला वाणिज्य कला एवं वाणिज्य संकाय संकाय संकाय का सं० वर्ष प्रथम वर्ष द्वितीय वर्ष तृतीय वर्ष प्रथम वर्ष द्वितीय वर्ष तृतीय वर्ष कुल योग १. १९७५-७६ २. १९७६-७७ ३. १९७७-७८ ४. १९७८-७९ ५. १९७९-८० ६. १९८०-८१ छात्रावास व्यवस्था-छात्रावास की सम्पूर्ण व्यवस्था एवं छात्रों की दैनिक गतिविधियों की देखरेख के लिए संघ की ओर से एक वार्डन (छात्रावास अधीक्षक) नियुक्त है। छात्रावास अधीक्षक महाविद्यालय का ही कोई व्याख्याता होता है। अधीक्षक का निवास भी छात्रावास के नजदीक ही बना हुआ है। छात्रावास में अनुशासन, सफाई, भोजन, अध्ययन, सौहार्द आदि का मुख्य जिम्मा वार्डन का ही रहता है। वार्डन एक तरह से छात्रों के अभिभावक के रूप में काम करता है। छात्रावास आरम्भ होने की तिथि से लेकर अब तक निम्न वार्डन (गृहपति) इस छात्रावास में वार्डन के पद पर अपनी सेवाएं प्रदान कर चुके हैंक्रम सं० सन् वार्डन का नाम १. १९७५-७६ श्री सी० एल० कोठारी १९७६-७७ श्री एच० सी० चौरड़िया १९७७-७८ श्री एच० सी० चौरड़िया १९७८-७६ श्री एच० सी० चौरड़िया एवं श्री पी० एम० जैन १९७९-८० श्री पी० एम० जैन १९८०-८१ श्री पी० एम० जैन एवं श्री एच० सी० चौरड़िया वार्डन के कार्य में सहयोग देने के लिए एक परिषद् एवं एक समिति भी प्रतिवर्ष बनाई जाती है। ये हैं(१) छात्रावास परिषद और (२) भोजन समिति । छात्रावास परिषद में कुल सात छात्र होते हैं। एक मुख्य छात्रनायक और शेष छः सदस्य होते हैं। मुख्य छात्रनायक के नेतृत्व में शेष छः सदस्य वार्डन की अनुपस्थिति में छात्रावास के समस्त दायित्व को वहन करते हैं । भोजन समिति में भी कुल सात सदस्य होते हैं। भोजन समिति का एक चेयरमैन मैरिट के अनुसार नियुक्त किया जाता है, शेष छः सदस्य होते हैं। यह समिति भोजन सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्य की देख-रेख करती है। उपर्युक्त परिषद व समिति महाविद्यालय के प्राचार्य की संरक्षता और वार्डन (गृहपति अधीक्षक) के नेतृत्व में स्थापित की जाती है। भोजन व्यवस्था-छात्रावास में आवासीय छात्रों के भोजन के लिए महाविद्यालय भवन तथा छात्रावास भवन के पास ही अलग से भोजनालय भवन बना हुआ है। इस भवन में रसोड़ा, कोठार, बड़े हाल एवं रसोइयों के निवास के कमरे बने हुए हैं । भोजन पूर्णतया शुद्ध तथा सात्त्विक दिया जाता है। दोनों समय चपाती, चावल, दाल या कड़ी तथा हरी सब्जी भोजन की मुख्य सामग्री होती है। भोजन में शुद्ध देशी घृत का प्रयोग किया जाता है। प्रति रविवार को विशिष्ट भोजन के रूप में मिठाई दी जाती है । प्रातःकालीन नाश्ते में दूध, घाट आदि दी जाती है । दोपहर को भी नाश्ता दिया जाता है। छात्रों को अपने कमरे में ही चाय बनाने के लिए अलग से दूध भी निर्धारित समय पर दिया जाता है। इस महँगाई के युग में भी भोजन शुल्क प्रतिमाह प्रति छात्र ६० (नब्बे) रुपये की दर से लिया जाता है। तीस रुपये प्रतिमाह प्रत्येक छात्र से धोबी, नाई, बिजली, कमरा आदि के निमित्त लिए जाते हैं। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजन बन जाने के बाद प्रातः सायं निर्धारित समय पर जब भोजन की घंटी बजती है तो समस्त छात्र अपनेअपने भोजन पात्र लेकर भोजनालय में पहुँच जाते हैं, जहाँ पंक्तिबद्ध छात्र बैठ जाते हैं। भोजन सबको एक साथ परोसा जाता है, उसके बाद भोजन पूर्व मन्त्र-गीत बोल कर भोजन सुरू होता है। भोजन के दौरान प्रत्येक छात्र मौन रहता है। भोजन परोसने का कार्य स्वयं अपनी-अपनी बारी से छात्र ही करते हैं। इसके लिए भोजन समिति भी बनी हुई है। भोजन करते समय छात्रावास वार्डन ( अधीक्षक) सब तरह की देख-रेख स्वयं उपस्थित रहकर करते हैं । भोजनोपरान्त छात्र अपने-अपने जूठे बर्तन स्वयं एक निश्चित स्थान पर जाकर साफ करते हैं। सूर्यास्त के बाद भोजन करना वांछनीय नहीं माना जाता है । १. प्रातः ५ बजे २. प्रातः ६ बजे ३. प्रातः ६-३० बजे ४. प्रातः ७-८ बजे ५. प्रातः ८-१० से ६ बजे ६. प्रातः ६-३० से १०-१० श्री रायचन्द छोगालाल भंसाली महाविद्यालय छात्रावास, राणावास छात्र दिनचर्या - छात्रावास में छात्र दिनचर्या छात्रों में नैतिक व आध्यात्मिक संस्कार पैदा करने, अनुशासन व पारस्परिक सौहाई की भावना विकसित करने, नित्यकर्म से निवृत्ति, अध्ययन, महाविद्यालय, भोजन, नाश्ता, भ्रमण आदि को ध्यान में रखकर निश्चित की गई है । दिनचर्या के समस्त कार्य नियमित व समय पर सम्पन्न हों तथा छात्रों में स्वावलम्बन की भावना पैदा हो इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है । दिनचर्या का क्रम इस प्रकार से निर्धारित है ७. प्रातः १०-२५ से २ बजे दोपहर ८. दोपहर २ बजे से २-३० बजे C. दोपहर २-३० बजे से ४-३० बजे अपराह्न १०. सायं ५-१५ से ६ बजे ११. सायं ६ बजे से ७ बजे तक १२. रात्रि ७ से ७-३० बजे १३. रात्रि ७-३० से १०-३० बजे १४. रात्रि १० - ३० बजे जागरण एवं बन्दना (प्रार्थना) शौचादि नित्य कर्म से निवृत्ति दूध-नाश्ता सफाई-स्नान आदि सामायिक व आध्यात्मिक स्वाध्याय भोजन महाविद्यालय में अध्ययन दोपहरी नाश्ता महाविद्यालय में अध्ययन सायंकालीन भोजन २१६ सायंकालीन भ्रमण सायंकालीन प्रार्थना अध्ययन, समाचार दर्शन आदि शयन उपर्युक्त दिनचर्या प्रारम्भ होने की सूचना छात्रावास में ही लगी घंटी से दी जाती है । समयानुसार निश्चित ध्वनि वाली घंटी बजा दी जाती है, जिसे सुनकर छात्र अपने-अपने काम में प्रवृत्त हो जाते हैं। जैसे लम्बी घंटीप्रातः उठने, भोजन, प्रार्थना आदि के लिए तीन घंटी दूध स्वयं के चाय बनाने के लिए, दो घंटी धोबी को कपड़े देने के लिए बजाई जाती हैं। इस प्रकार घंटी के प्रकार निर्धारित हैं, जिनकी ध्वनि सुनकर छात्र उस काम में संलग्न हो जाते हैं । - छात्रों की उपस्थिति का भी दिनचर्या में पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। दोनों समय जब प्रार्थना होती है, उस समय छात्रों की उपस्थिति विधि अनुसार ली जाती है। इसी प्रकार अगर किसी छात्र को छात्रावास एवं महाविद्यालय केम्पस से बाहर किसी कारणवश जाना होता है तो वह भ्रमण के समय जा सकता है, इसके अलावा प्रातः या दिन में कोई कार्य है, बस स्टेण्ड या रेलवे स्टेशन आदि जगह जाना है तो छात्र गृहपति ( वार्डन ) या छात्रनायक से आज्ञा लेकर ही केम्पस से बाहर जा सकता है । छात्रावास अनुशासन – यदि कोई छात्र छात्रावास के अनुशासन को किसी भी रूप में तोड़ता है तो पहले — . Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ २२० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड तो उसे समझाया जाता है, उसके बाद भी अनुशासन भंग करता है तो उस छात्र पर आर्थिक दण्ड किया जाता है एवं उसके बाद भी वह अपनी आदत को नहीं सुधारता है तो उसके अभिभावक को सूचित कर दिया जाता है अथवा उचित समझने पर छात्रावास से निष्कासित भी किया जा सकता है । निर्धन छात्रों को सहायता - निर्धन और असहाय छात्रों को छात्रावास में समुचित राहत दी जाती है। श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ का उद्देश्य मानव मात्र की सहायता करना है । गरीब, निर्धन और असहाय छात्र आर्थिक कमजोरी के कारण अध्ययन से विमुख न हों इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है और स्थिति के अनुसार ऐसे छात्रों को छात्रावास के भोजन शुल्क में पूर्ण अथवा अर्द्ध मुक्ति दी जाती है । अर्थ सुविधा छात्रावास में रहते हुए छात्रों के पास अर्थ अर्थात् रूपये-पैसे अपने पास रखने की स्वीकृति नियमान्तर्गत नहीं दी जाती है । हाथ खर्च के लिए संघ के केन्द्रीय कार्यालय में अपने नाम से रुपये प्रत्येक छात्र जमा करवा सकता है और उस धन में से वह आवश्यकतानुसार ले सकता है। कार्यालय में खाते में आवक-जावक का इन्द्राज होता रहता है। अगर कोई छात्र स्वयं के पास ही धन रखना चाहता है तो वह अपनी जोखिम और जिम्मेदारी पर ही रख सकता है । स्वास्थ्य सुरक्षा- छात्रों के स्वास्थ्य रक्षा की ओर छात्रावास में पूरा ध्यान रखा जाता है। छात्र के किसी भी कारण अस्वस्थ हो जाने पर संघ द्वारा संचालित श्री मोतीलाल बैगामी औषधालय के चिकित्सकों से पूरी सहायता ली जाती है । वहाँ भर्ती करने की भी व्यवस्था है । अस्वस्थता की हालत में डॉक्टर के परामर्शानुसार भोजन, फल-फूल, दूध आदि दिये जाते हैं विशेष बीमारी की हालत में छात्र के अभिभावकों को सूचित किया जाता है। छात्रावास के वार्डन बीमार छात्र की स्वयं अपने परिवार के सदस्य की भाँति देख-रेख करते हैं । अभिभावकों का आगमन — छात्रों के अभिभावक छात्रों के प्रवेश के समय अथवा उनसे मिलने या बीमारी की हालत सूचित करने पर प्रायः आते रहते हैं। छात्र जब अध्ययन में रुचि नहीं रखता, छात्रावास के नियमों पालन नहीं करता तब आवश्यकता अनुभव होने पर अभिभावकों को बुलाया जाता है। ऐसी हालत में अभिभावक यहाँ आते हैं, तो उनके आवास और भोजन की सम्पूर्ण व्यवस्था संघ द्वारा की जाती है । छात्रावास में मनोरंजन - छात्रावास में छात्रों के स्वस्थ मनोरंजन की दृष्टि से समय-समय पर विशेष आयोजन, बिना अध्ययन को नुकसान पहुँचाये, होते रहते हैं । ये आयोजन प्रायः रात्रि में होते हैं । सांस्कृतिक संध्या, कविता पाठ, हास्य प्रतियोगिता, अन्त्याक्षरी, एकाभिनय, विचित्र वेशभूषा, एकांकी, सामूहिक मान, आदि कार्यक्रम उनमें प्रमुख हैं। अवकाश के दिन प्रकृति-भ्रमण या किसी तीर्थ स्थान की पिकनिक का आयोजन भी किया जाता है। मनोरंजन के इन कार्यक्रमों का मुख्य उद्देश्य छात्रों में सांस्कृतिक अभिरुचि पैदा करने के साथ-साथ उन्हें बोरियत से छुटकारा दिलाना भी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह महाविद्यालयी छात्रावास विद्याभूमि राणावास की गौरव वृद्धि में सहायक है और स्वावलम्बी जीवनचर्या का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। O . Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . . .. . . . .. .. . . . .. .. . . .. . .. . . . . .. - . -. -. - . . - . - . -. - . -. -. -. सर्वांगीण शिक्षा का सिंहद्वार ति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास 0 श्री तख्तमल इन्द्रावत, अध्यापक, सुमति शिक्षा सदन श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास के अंकुर वि० सं० २००१ (सन् १९४४) में प्रस्फुटित हुए । श्री बस्तीमलजी छाजेड़, मिश्रीमलजी सुराणा, केसरीमलजी सुराणा आदि के सद्प्रयासों से आश्विन शुक्ला १० विजयादशमी तदनुसार २७ सितम्बर, १९४४ को शुभ मुहूर्त में कांठा क्षेत्र की ज्योतिशिखा इस विद्यालय का श्रीगणेश श्री सुमति शिक्षा सदन विद्यालय के रूप में हुआ। प्रारम्भ में इस विद्यालय में पाँच छात्र प्रविष्ट हुए और कक्षा १ से ३ तक की कक्षाएँ प्रारम्भ की गयीं। प्रथम अध्यापक के रूप में श्री मूलसिंह जी राठौड़ (सूरसिंह का गुड़ा) को नियुक्त किया गया और राणावास स्टेशन पर ही चाँदखाँ मिश्रु खाँ पठान का मकान किराये पर लेकर विद्यालय की अमृतशिला स्थापित हुई। वर्ष के अन्त में छात्रों की संख्या ५ से १४ तक हो गयी और दूसरे वर्ष १९४५-४६ के सत्र में यह संख्या बढ़कर १०२ तक पहुँच गयी। विद्यालय के प्रधानाध्यापक के रूप में उदयपुर (मेवाड़) निवासी श्री जोधसिंह जी तलेसरा की नियुक्ति होने पर कक्षा ४ व ५ भी खोल दी गयीं। विद्यालय की लोकप्रियता आस-पास के क्षेत्रों में बढ़ती गयी। छात्रों की संख्या भी उसी क्रम में विस्तार पाती गई। फलतः सन् १९४६-४७ के सत्र में कक्षा ६ और ७ को भी आरम्भ कर दिया गया। सन् १९४७ में ही मिडिल स्कूल के रूप में सुमति शिक्षा सदन विद्यालय प्रतिष्ठित हो गया। इसी वर्ष डॉ० दयालसिंह जी गहलौत (निवासी ब्यावर) प्रधानाध्यापक बनकर आये। इनके संयमी व प्रबुद्ध नेतृत्व में विद्यालय ने काफी प्रगति की। सन् १९५५ में हाईस्कूल के रूप में यह विद्यालय क्रमोन्नत हो गया। कला एवं वाणिज्य विषय विद्यालय में ऐच्छिक विषय के रूप में खुले । सर्वप्रथम १९५७ में कुल १६ छात्र बोर्ड की परीक्षा में बैठे। परीक्षा परिणाम ८४ प्रतिशत रहा। इतने आकर्षक परिणाम के फलस्वरूप इस विद्यालय की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। अब विद्यालय में ऐच्छिक विषय के रूप में विज्ञान वर्ग शुरू करने की मांग भी होने लगी। बढ़ती हुई मांग को देखते हुए सन् १९६६ में विज्ञान वर्ग के अन्तर्गत भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र और ऐच्छिक गणित विषय खोले गये। राजकीय अनुदान भी अब ५० प्रतिशत से बढ़कर ८० प्रतिशत तक हो गया। विकसित होते हुए विद्यालय को श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ के अन्तर्गत पृथक से श्री सुमति शिक्षण संस्था के रूप में गठन कर दिया गया। संविधान भी अलग से बनाया गया और नियमानुसार रजिस्ट्रेशन भी करा लिया गया। यह रजिस्ट्रेशन संख्या ८६/१९६८ दिनांक १४-८-१९६८ है। अब तक इस विद्यालय में कक्षा दस तक ही तीनों वर्गों में अध्ययन होता था, इस पर कक्षा ११ खोलने की माँग होने लगी। वस्तुतः यह आवश्यकता भी अनुभव की जा रही थी। इस पर १ जुलाई, १९७० से कक्षा ११ भी खोल दी गयी और श्री सुमति शिक्षा सदन माध्यमिक विद्यालय अब उच्च माध्यमिक विद्यालय में परिणत हो गया। इस अनवरत विकास का एकमात्र श्रेय माननीय कर्मयोगी श्री केसरीमल जी सुराणा की सूझ-बूझ, लगन एवं परिश्रम को है। ___ कार्यकारिणी-विद्यालय के संचालन एवं विभिन्न शैक्षिक, आर्थिक तथा विकासोन्मुख गतिविधियों की देख-रेख के लिए विधानानुसार विद्यालय की कार्यकारिणी गठित की जाती है। यह कार्यकारिणी विद्यालय के मार्ग-दर्शक के रूप में कार्य करती है। १५ मार्च, १९८१ को हुई साधारण सभा की बैठक में गठित कार्यकारिणी इस प्रकार है Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड १. प्रो० भैरूलालजी धाकड़ (उदयपुर) २. श्री गणपत जी भंडारी (जोधपुर) ३. श्री केसरीमलजी सुराणा ( राणावास ) ४. श्री भूपेन्द्रकुमार जी मुथा (नीमली ) ५. श्री जयचंद जी गादिया (जुड़ा रामसिंह ६. श्री जबरमल जी भंडारी (जोधपुर) ७. श्री ताराचंद जी लूक (राणावास) ८. श्री धर्मेश जी डांगी (कांकरोली) ६. श्री कुशलराजजी समदड़िया (जोधपुर) १०. श्री धीसूलाल जी नाहर (रवा) ११. डॉ० विनयकुमार जी वशिष्ठ (राणावास ) १२. श्री नेमीचंद जी पंवार ( राणावास ) १२. जिला शिक्षा अधिकारी जी (पाली) १४. श्री अवतारचंद जी भंडारी ( राणावास ) १५. श्री भंवरलालजी अच्छा (राणावास) स्थायी मान्यता व पाठ्य विषय १ – अनिवार्य विषय २ – उद्योग १३ – तृतीय भाषा ४ – कला वर्ग ५ – विज्ञान वर्ग ६ - वाणिज्य वर्ग राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर द्वारा हाईस्कूल एवं उच्च माध्यमिक विद्यालय के रूप में विभिन्न पाठ्य विषयों के अन्तर्गत स्थायी मान्यता मिली हुई है। हाईस्कूल के रूप में मान्यता बोर्ड के पत्रांक ७०४५-४६ दिनांक १६-१-१९६५ से मिली हुई है तथा सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय के रूप में निम्नलिखित विषयों में बोर्ड के पत्र संख्या मा० ६२ / २२६३७ दिनांक २०-०-१९७२ से स्थायी मान्यता मिली हुई है हिन्दी व अंग्रेजी कताई, बुनाई संस्कृत सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य (पूर्व विद्यार्थी प्रतिनिधि) (१) प्रधानाध्यापक - १ (३) तृतीय वेतन शृंखला अध्यापक- ७ (५) कनिष्ठ लिपिक-२ (७) लेब० असिसटेन्ट-१ अध्यक्ष उपाध्यक्ष मंत्री उपमंत्री व्यवस्थापक सदस्य सदस्य सदस्य (अभिभावक प्रतिनिधि) सदस्य (विभागीय प्रतिनिधि) सदस्य (अध्यापक प्रतिनिधि) सचिव (प्रधानाध्यापक ) अर्थशास्त्र, नागरिकशास्त्र, इतिहास भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, गणित बहीखाता, व्यापार पद्धति, हिन्दी व अंग्रेजी टंकण लिपि ७ - वाणिज्य वर्ग में ही बोर्ड के पत्र सं० मा० ६६।२०६।४४६६४ दिनांक २२-११-१६७३ द्वारा सन् १६७२ से प्रारम्भिक अर्थशास्त्र में भी स्थायी मान्यता मिल गई है । ८- इसी प्रकार वाणिज्य वर्ग में ही माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अजमेर के पत्र सं० मा० ६६८१०६ १६ दिनांक १-९-१९७७ के अनुसार प्रारम्भिक मुद्रा अधिकोषण तथा विनिमय विषय में भी स्वाई मान्यता प्राप्त हो गई है। विद्यालय स्टाफ – श्री निदेशक, प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा राजस्थान, बीकानेर से श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय को माध्यमिक स्तर तक निम्न स्टाफ केडर स्वीकृत है (२) द्वितीय वेतन श्रृंखला अध्यापक- १२ (४) वरिष्ठ लिपिक-१ (६) पुस्तकालय अध्यक्ष-१ (८) चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी- ७ . Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास २२३ उच्च माध्यमिक विद्यालय हेतु प्रथम वेतन शृंखला के वरिष्ठ अध्यापकों के पद अभी शिक्षा विभाग द्वारा स्वीकृत नहीं हुए हैं। पत्र-व्यवहार निरन्तर चालू है और विश्वास है कि ये पद भी शीघ्र ही स्वीकृत हो जायेंगे, किन्तु विद्यालय की प्रबन्ध समिति द्वारा वरिष्ठ अध्यापकों के अस्वीकृत पदों तथा अन्य पदों पर अस्थायी नियुक्तियाँ समय-समय पर भी की जाती है ताकि छात्रों को अध्ययन में किसी भी तरह का नुकसान नहीं हो। इस विद्यालय को हाईस्कूल के रूप में क्रमोन्नत होने से लेकर उच्च माध्यमिक विद्यालय बनने और वर्तमान चार प्रधानाध्यापकों यथाडॉ० दयालसिंह जी गहलौत, श्री चन्द्रदीपसिंह जी चौहान, श्री गजमल जी सिंघवी और श्री भंवरलाल जी आच्छा का कुशल मार्गदर्शन व नेतृत्व मिला है। श्री आच्छा जी वर्तमान में भी प्रधानाध्यापक के पद पर कार्य कर रहे हैं । ३० जून तक रहता है । ३१ से मार्च तक रहता है। विद्यालय का समय मौसम परिवर्तन के अनुसार बदलता रहता है । मोटे रूप में विद्यालय का समय १ अप्रेल से १५ अगस्त तक प्रातः ७ से १२ बजे तक रहता है और १६ अगस्त से ३१ मार्च तक प्रातः १०-३० बजे से सायं ४-३० बजे तक रहता है । विद्यालय सत्र व समय — विद्यालय का शैक्षणिक सत्र सामान्यतया १ जुलाई से सरकारी व विभागीय आदेश से तिथि में परिवर्तन भी संभव है। वित्तीय सत्र १ अप्रेल से प्रवेश नियम व शाला शुल्क - विद्यालय में छात्रों को प्रवेश बिना किसी धर्म, जाति, वर्ण और लिंग के भेदभाव से दिया जाता है। नये प्रवेश सामान्यतः जून के अन्तिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक प्रतिवर्ष निर्धारित तिथि के अनुसार दिये जाते हैं । स्थान सीमित होने पर अथवा विशेष कारण उपस्थित होने पर विद्यार्थी की योग्यता की जाँच कर प्रवेश दिया जाता है । शाला शुल्क कक्षा के अनुसार अलग-अलग निर्धारित हैं । कुल शुल्क दो किश्तों में देय है । प्रथम किश्त प्रवेश के समय जुलाई के प्रथम सप्ताह में और द्वितीय किश्त जनवरी माह में ली जाती है । समय पर शाला शुल्क जमा नहीं करने पर छात्र का नाम शाला से पृथक कर दिया जाता है जो नियमानुसार देय राशि, "अर्थदण्ड और एक रुपया पुनः प्रवेश शुल्क के जमा कराने पर ही पुनः प्रवेश दिया जा सकता है। शुल्क- मुक्ति और छात्रवृत्तियाँ - अध्ययनरत छात्रों में से उन छात्रों को जो निर्धन हैं, अनुसूचित जाति व जनजाति के हैं अथवा प्रतिभावना छात्र हैं तो ऐसे छात्रों को पाठनशुल्क मुक्ति दी जाती है और छात्रवृत्तियाँ भी प्रदान की जाती है । पाठन शुल्क से मुक्ति कक्षा की छात्र संख्या के दस प्रतिशत छात्रों को प्रतिवर्ष दी जाती है । निर्धन छात्रों को पाठन शुल्क के अलावा अन्य शुल्क निर्धन छात्र कोष से प्रदान किया जाता है । अनुसूचित जाति व जनजाति के छात्रों को राज्य सरकार के प्रावधानानुसार प्रतिवर्ष छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है। ग्रामीण प्रतिभावना छात्रवृत्ति योजना के अन्तर्गत कक्षा आठवीं उत्तीर्ण करने वाले प्रथम श्रेणी के छात्र को प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण करने पर घर पर रहकर अध्ययन करने वाले छात्र को पाँच सौ रुपया तथा छात्रावास में रहकर अध्ययन करने पर एक हजार रुपये प्रतिवर्ष के हिसाब से तीन वर्ष तक छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है । विज्ञान में प्रतिभावना छात्रों को भारत सरकार की ओर से राष्ट्रीय छात्रवृत्ति भी यहाँ के छात्रों को मिलती रही है । इसी प्रकार भारत सरकार की ओर से ऋण छात्रवृत्ति भी यहाँ के छात्रों को स्वीकृति हुई है। विद्यालय गणवेश – अध्ययनरत छात्रों के लिए गणवेश नियत है, जिसे निम्नानुसार पहनकर आना अनिवार्य है । १ - सोमवार से शुक्रवार तक खाकी हाफपेन्ट और सफेद कमीज / बुशर्ट पहनना होगा । २- सफेद मोजे और ब्राउन केनवास शूज का प्रयोग करना होगा । ३- शनिवार को गणवेश अनिवार्य नहीं है। ४ – कक्षा ९, १० व ११ के छात्र खाकी हाफपेन्ट के स्थान पर खाकी पेन्ट पहन सकते हैं । .0 ० . Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड ...... ........................... ........................................ उपस्थिति-वार्षिक परीक्षा में सम्मिलित होने हेतु छात्र की कक्षा में ७५ प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य है। यदि छात्र अनुपस्थित रहता है तो उसे पाँच पैसे प्रतिदिन अर्थदण्ड देना होता है। सात दिन से अधिक अनुपस्थित रहने पर छात्र का नाम रजिस्टर से पृथक किया जा सकता है। बीमारी अथवा अत्याज्य कारणों से अनुपस्थित रहने की स्थिति में छात्र को अवकाश प्रार्थना पत्र अपने अभिभावक के माध्यम से भेजने पर नियमानुसार अवकाश स्वीकृत किया जा सकता है। डाक्टरी परीक्षा-विद्यालय के छात्रों की स्वास्थ्य रक्षा, स्वास्थ्य सुधार एवं संक्रामक रोगों से बचाव की दृष्टि से प्रत्येक छात्र की कम से कम वर्ष में एक बार योग्य अनुभवी डाक्टर द्वारा स्वास्थ्य परीक्षा की जाती है तथा टीके आदि लगाये जाते हैं। अगर किसी छात्र के शरीर में कोई संक्रामक रोग पाया जाता है तो उसकी समय पर उसके अभिभावक को सूचना प्रेषित कर दी जाती है। वर्षानुसार छात्र संख्या-इस विद्यालय की स्थापना से लेकर अब तक कुछ अपवादों को छोड़कर प्रति वर्ष छात्रों की संख्या क्रमशः बढ़ती रही है। छात्रों की संख्या निरन्तर बढ़ते रहना इस बात का प्रमाण है कि इस विद्यालय की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है। यहाँ के उच्च परीक्षा परिणाम, चरित्र निर्माण, व्यवस्था एवं छात्रों के साथ अध्यापकों के आत्मीय सम्बन्धों के कारण कभी-कभी तो स्थिति यह हो जाती है कि स्थान की कमी अनुभव होने लगती है और प्रवेश के लिए मना करना पड़ता है। अब तक की वर्षानुसार छात्र संख्या दृष्टव्य है। वर्षानुसार छात्र संख्या (कक्षा १ से ११ तक) सत्र संख्या सत्र संख्या ५७० ५८५ ४८३ ६३६ ५५६ ५८५ प्रारम्भ १७-१०-४४ १९४४-४५ १९४५-४६ १९४६-४७ १६४७-४८ १९४८-४६ १९४६-५० १९५०-५१ १९५१-५२ . १९५२-५३ . १९५३-५४.. . १६५४-५५ १९५५-५६ १९५६-५७ १९५७-५८ १६५८-५६ १९५६-६० १९६०-६१ १९६१-६२ १९६२-६३ १९६३-६४ १६६४-६५ १९६५-६६ १६६६-६७ १९६७-६८ १९६८-६६ २४२ १९६९-७० २६६ १९७०-७१ १९७१-७२ ३३८ १९७२-७३ १६७३-७४ १९७४-७५ ४८७ १९७५-७६ १९७६-७७ ५४३ १९७७-७८ ५२६ १६७८-७६ १९७९-८० ४५२१६८०-८१ Mornmar ro-xx YOU WO WYSIS ५७१ ६६० ६५५ ५४३ ५४७ ५१६ ४३७ ५५६ ६४४ ८६० ६१६ ६२० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास २२५ वार्षिक परीक्षा परिणाम-श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास के वार्षिक परीक्षा परिणाम सम्पूर्ण राजस्थान में सदैव उल्लेखनीय एवं गौरवपूर्ण रहे हैं । अधिकतम परीक्षा परिणाम ६८ प्रतिशत तक और निम्नतम ६०.६ प्रतिशत तक रहे हैं । इन दोनों सीमाओं के बीच परीक्षा परिणाम प्रति वर्ष रहना इस विद्यालय की उत्कृष्टता का प्रबल प्रमाण है। यही नहीं, प्रतिवर्ष छात्रों ने इन परीक्षाओं में विशेष योग्यता भी प्राप्त की है और मेरिट में भी स्थान प्राप्त किया है। इस वर्ष सन् १९८० में भी बोर्ड द्वारा आयोजित विज्ञान वर्ग की सेकेण्डरी परीक्षा में विद्यालय के छात्र श्री बाबूलाल सोलंकी ने सम्पूर्ण राजस्थान की मेरिट लिस्ट में पांचवां स्थान प्राप्त किया है। इस प्रकार विद्यालय के वार्षिक परीक्षा परिणामों से विद्यालय के स्तर के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अब तक का बोर्ड का परीक्षा परिणाम कक्षा १० और ११ का वर्षानुसार इस प्रकार है कक्षा १० दशम (माध्यमिक परीक्षा) परिणाम उत्तीर्ण वर्ष कुल प्रविष्ट संख्या उत्तीर्ण प्रतिशत विशेष योग्यता पूरक उत्तीर्ण १२ ३ امیر س م ४ २०७ ا - ३१ لم ل ६२ له ७७.५ م ८६.४ له २५ १२ سه ८१८ ७८६ س ه १९५७ १६५८ १६५६ १६६० १९६१ १९६२ १९६३ १९६४ १६६५ १९६६ १६६७ १९६८ १९६६ १६७० १६७१ १९७२ १९७३ १६७४ १९७५ १९७६ १९७७ १९७८ १९७६ १६८० ७५.८ ८० ر ५२ ६२ ८० ه ه ७३.६ ७४.६ ر له م ८५१ ا ६४.४ ८०.२ २१ ३३ ر ६४.४ ८४.४ १२२ २३ و ५० سه Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड कक्षा ११ एकादशम् (उच्च माध्यमिक परीक्षा) परिणाम वर्ष D प्रविष्ट संख्या उत्तीर्ण उत्तीर्ण प्रतिशत विशेष योग्यता III पूरक उत्तीर्ण १९७१ १९७२ २२ १६७३ १६७४ 9our ur dur". ८७८ ७२.१ ७६१ | mmsxur ८७.६ १९७५ १९७६ १९७७ १९७८ १९७६ १९८० ८६.३ १६ २५ १० ३७ १८२७ ७४.७ " ७२.५ २८ . परीक्षा केन्द्र-विद्यालय में सन् १९५५ में उच्च विद्यालय की कक्षा ६ तथा १९५६ में कक्षा १० प्रारम्भ की गई, जिनकी परीक्षा सन् १६५७ में पाली परीक्षा केन्द्र पर हुई। छात्र प्रतिवर्ष वहाँ जाकर परीक्षा देने लगे। कुछ वर्षों के बाद यह परीक्षा केन्द्र सोजत सिटी रहा, उसके बाद यह केन्द्र सन् १९७१ में मारवाड़ जंकशन रहा किन्तु सन् १९७२ से राणावास का यह विद्यालय ही परीक्षा केन्द्र के रूप में मान्य कर लिया गया। इससे छात्रों को बहुत सुविधाएँ प्राप्त हो गई। यह केन्द्र बराबर प्रगति पर अग्रसर है। इस समय यहाँ पर जोजावर, खीमाड़ा, फुलाद, मरुधर केसरी उच्च माध्यमिक विद्यालय राणावास, महावीर कन्या माध्यमिक विद्यालय, राणावास तथा स्थानीय विद्यालयों के परीक्षार्थी इस केन्द्र द्वारा परीक्षा देते हैं। विद्यालय के सर्वोच्च छात्र-देश में सुसंस्कृत, जिम्मेदार, प्रतिभावान व योग्य नागरिक पैदा करने के लिए यह विद्यालय सतत् प्रयत्नशील है। इसके लिए प्रतिवर्ष कक्षा ९, १० और ११ के छात्रों को ऐसे नागरिक बनने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है तथा इन छात्रों में से प्रतिवर्ष एक सर्वोच्च छात्र का चयन कर उसे पुरस्कृत किया जाता है, एवं प्रमाण-पत्र दिया जाता है। यह योजना सत्र १९६४-६५ से आरम्भ की गई है। सर्वोत्तम छात्र का चयन करने के लिए एक मूल्यांकन विधि निश्चित है। इस मूल्यांकन विधि में जो सर्वाधिक अंक प्राप्त करता है उसे सर्वोत्तम छात्र घोषित किया जाता है। मूल्यांकन के बिन्दु और अंक इस प्रकार हैं - (१) परीक्षा परिणाम ३० अंक (२) अन्य परीक्षाएँ ५ अंक (३) कक्षा में स्थान ३ अंक (४) कक्षा में उपस्थिति ५ अंक (५) बाह्य प्रवृत्तियाँ २० अंक (६) उत्तरदायित्व के कार्य ५ अंक (७) कक्षा कार्य व गृह कार्य ५ अंक (८) आचरण (६) पुस्तकालय व सार लेखन ७ अंक (१०) स्वच्छता ३ अक (११) सुलेख हिन्दी व अंग्रेजी २ अक (१२) वार्षिक पत्रिका में योग ५ अंक उपर्युक्त बिन्दुओं में परीक्षा परिणाम व कक्षा की उपस्थिति दो वर्षों की तथा अन्य बिन्दुओं पर १ वर्ष की उपलब्धि में ६० प्रतिशत अंक प्राप्त करने पर ही सर्वोत्तम छात्र के रूप में चयन हो सकता है। यह प्रवृत्ति प्रारम्भ होने से लेकर अब तक चयनित सर्वोत्तम छात्रों का विवरण इस प्रकार है १० अंक Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास २२७ . .... ........................-.-.-. -.-.-.-.-.-. -.-. -. -.-.-.-.-. -. -.-...-.-. सत्र छात्र का नाम स्थान कक्षा प्राप्तांक | 외의 회 ११ १० अ पी - १६६४-६५ केवलचन्द फलफगर सोजत सिटी १६६५-६६ केवलचन्द फूलफगर सोजत सिटी १६६६-६७ लुम्बाराम गहलौत राणावास १९६७-६८ लुम्बाराम गहलोत राणावास १९६८-६६ बाबूलाल राव भैरूंदा १९६६-७० भगवानसिंह चंपावत सोवणिया १६७०-७१ भैरूलाल मूथा नीमली १९७१-७२ सुरेशकुमार नाहर दवेर १९७२-७३ मोतीलाल कोठारी चाणोद १९७३-७४ कोई नहीं १६७४-७५ बाबूलाल कोचर गोलाघाट १९७५-७६ मुरलीदास वैष्णव गागूड़ा १९७६-७७ गौतमचन्द मूथा राणावास १० अ १९७७-७८ चन्द्रकान्त मेहता मजेरा ११ अ १९७८-७९ शैतानसिंह राजपुरोहित खेरवा ११ ब १६७९-८० स्वरूपराम चौधरी प्रतापगढ़ १९८०-८१ अशोककुमार सुराणा राणावास ११ अ आन्तरिक मूल्यांकन __ कक्षा ६ से ११ तक के विद्यार्थी को पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ बाह्य प्रवृत्तियों में पारंगत करने के दो। क्षेत्र हैं(क) साहित्यिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र यथा-हिन्दी वाद-विवाद, रचनात्मक लेख, पद्य-पाठ संगीत, नाटक, आदि। (ख) खेल-कूद, दौड़ आदि । फुटबाल, बालीबाल, हाकी, बास्केटबाल, कबड्डी, टेबल टेनिस, स्काउटिंग, वाणिज्य क्लब, विज्ञान क्लब । विद्यार्थी को अपनी रुचि के अनुसार प्रत्येक क्षेत्र में एक-एक प्रवृत्ति का चयन करना होता है। इसके लिए प्रति सप्ताह एक दिन साहित्यिक क्षेत्र के लिए व स्कूल उपरान्त समय में दो दिन खेल कार्यक्रमों में भाग लेकर अपनी दक्षता को विकसित करना होता है। यह कार्यक्रम नियमित रूप से सम्पादित होता है। वर्ष के अन्त में प्रगति का उल्लेख उसके प्रगति पत्र और संचित अभिलेख में किया जाता है और बोर्ड की अंक सूची के साथ इसका भी प्रमाण पत्र दिया जाता है। इस योजना की सफल क्रियान्विति के उपलक्ष में सन् १९७७ में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान से प्रथम आने का प्रमाण पत्र भी इस विद्यालय को प्राप्त हुआ है। पुस्तकालय पुस्तकालय का विकास विद्यालय की गति के साथ-साथ बँधा है फिर भी पुस्तकालय को उसका सही रूप विद्यालय स्थापना के ग्यारह साल बाद १९५५ में मिला। उस वक्त पुस्तकालय में २५० पुस्तकें थीं जिसकी देख-रेख श्री मूलसिंह जी राठौड़ किया करते थे। उसके बाद १९६२ में प्रशिक्षित पुस्तकालयाध्यक्ष श्री महिपाल भंडारी Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ की देखरेख में ३५०० पुस्तकों का अच्छा संग्रह एकत्रित हुआ, फिर १९६०-६० में प्रशिक्षित पुस्तकाध्यक्ष श्री कन्हैया लाल दबे की नियुक्ति हुई, उस समय पुस्तकों की संख्या ६१४१ थी। उसके बाद पुस्तकों की संख्या सत्रानुसार निम्न प्रकार से थी। वर्तमान में १६७४-७५ से श्री शान्तिलाल वैष्णव पुस्तकालय प्रभारी पद पर कार्यशील है। १९६७ से १६८० तक पुस्तकों की संख्या सत्र १९६७-६८ १६६८-६६ ६६-७० ७०-७१ ७१-७२ ७३५१ ७२-७३ ७३-७४ ७४-७५ ७६६३ ७६६६ ८०७६ ७९-८० पुस्तक संख्या ६१४१ ७१४० ७४१६ ७४६० ७६-७७ ७७-७८ ६७१८ ७५-७६ सत्रपुस्तक संख्या ७८ ७६ -55०० ६८१३ १०३८३ १०२६० पुस्तकालय में विद्यार्थियों के अपने ज्ञान-विज्ञान एवं चहुँमुखी विकास तथा ज्ञानवर्धन के लिए सप्ताह में प्रति विद्यार्थी एक पुस्तक प्रदान की जाती है जिसके लिए प्रति कक्षा प्रति सप्ताह एक पीरियड समय विभाग चक्र के अनुसार तय है। समानुसार विद्यार्थियों में वितरित की गयी पुस्तकों का विवरण, प्रतिशत, औसत की तालिका निम्नानुसार है कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ द्वितीय खण्ड सत्र पुस्तकों की संख्या १६७४-७५ ८८३० १५७५-७६ ८६६५ १९७६-७७ ६२६७ १६७७-७८ ६७१८ १६७८ ७६ १०१६१ १६७६-८० १०३८३ १६८०-८१ १०६६३ १९७४-७५ से १९७६-८० तक सत्रानुसार पुस्तक आदान-प्रदान विवरण सदस्य पाठक प्रदत्त पुस्तकों प्रति पाठक पुस्तकों स्टाफ / छात्र की संख्या की संख्या ५६८ ५६५ ६५१ ६६५ ७८० ७६४५ ७५६६ १२ ५६८ १५ ६३८ १४ ५८० १६ ७५१ १८ ६४२ १६ ३७८ σε ५५५ पुस्तकालय में ३१ विषयों से सम्बन्धित पुस्तकें उपलब्ध हैं, जिनमें विज्ञान, वाणिज्य, कलावर्ग तथा सन्दर्भ साहित्य की पुस्तकें मुख्य हैं। चिकित्सा विज्ञान, कानून, धार्मिक व बाल-साहित्य की पुस्तक भी प्रचुर मात्रा में हैं । वाचनालय ७८२ ७६८ ७५६० EE४६ ६६८८ १११७२ ६७८१ प्रतिदिन औसत नवीन विवरण प्रदत्त पुस्तकें आगमन ६० ५४ ४८ " विद्यालय में पुस्तकालय के साथ-साथ वाचनालय का भी द्रुतगति से विकास हुआ है । विद्यार्थियों व अध्यापकों के ज्ञानवर्द्धन देश-विदेश की जानकारी तथा उनके चहुंमुखी विकास के लिए वाचनालय में दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक तथा त्रैमासिक पत्र-पत्रिकाएँ मँगायी जाती हैं। दैनिक पत्रों में राजस्थान पत्रिका, नवभारत टाइम्स तथा दि हिन्दुस्तान टाइम्स (अँग्रेजी) मुख्य हैं। साप्ताहिक पत्रों में धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान, इतवारी पत्रिका, रोजगार समाचार, आर्थिक जगत, जैन भारती; पाक्षिक पत्रों में सरिता, मुक्ता, चंपक, भू-भारती, अणुव्रत, तेरापंथ भारती, इन्द्रजाल मासिक में आरोग्य, कादम्बिनी, नवनीत, चन्दा मामा, पराग, नन्दन, गुड़िया, बालभारती, विज्ञान प्रगति, राजस्थान शिक्षक, शिविरा, आजकल, चंपक व चन्दामामा (अँग्रेजी) खेल-खिलाड़ी, प्रतियोगिता दर्पण, कम्पटिशन रिव्यू, कल्याण, राष्ट्रधर्म और त्रैमासिक में बोर्ड जर्नल, तुलसी प्रज्ञा, राजस्थान पुस्तकालय संघ पत्रिका प्रमुख हैं । वाचनालय विद्यालय समय में खुला रहता है तथा खाली समय में छात्र इसका लाभ उठाते हैं । संख्या -. नुसार पत्र-पत्रिकाओं का विवरण इस प्रकार है ५० ५८ ८४ ५२ . Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास २२६ योग ३ दैनिक पत्र साप्ताहिक पाक्षिक मासिक त्रैमासिक १० २८३ ५३ निर्धन छात्रकोष एवं बुक बैंक विद्यालय में निर्धन छात्र कोष की स्थापना १९६० में की गयी । अभावग्रस्त, गरीब, अनुसूचित जाति एवं प्रतिभावना विद्यार्थियों के लिए पाठ्य पुस्तके, गणवेश एवं अन्य पाठ्य सामग्री इस निर्धन कोष से मुफ्त सहायता के रूप में सुलभ करायी जाती है। १९६० में १११ पुस्तकें, ४५ विद्यार्थियों को सहायतार्थ दी गयीं। इस प्रकार प्रतिवर्ष उत्तरोत्तर निर्धन छात्र कोष में पाठ्य पुस्तकों की वृद्धि होती रही जो कि १९७४-७५ में १३१८ पुस्तकों तक पहुँच गयी । इस वर्ष ८३ निर्धन एवं जरूरतमंद विद्यार्थियों में इन पुस्तकों का वितरण सहायता के रूप में हुआ। १६७६ में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा आयोजित २० सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम के तहत विभागीय आदेशानुसार बुक बैंक की स्थापना की गयी जो कि निर्धन छात्र कोष का ही दूसरा नाम है। इस बुक बैंक कोष की स्थापना राणावास गाँव के प्रतिष्ठित नागरिक श्री मोइद्दीन जी आत्मज श्री बाबूखाँ जी सरपंच के कर कमलों से की गयी। प्रारम्भिक रूप में बुक बैंक के लिए उद्घाटनकर्ता श्री मोइद्दीन जी ने ५०१ रुपये की राशि भेंट स्वरूप प्रदान की। उसी वर्ष सत्र में जिले भर में सर्वाधिक राशि एकत्रित कर पुस्तके विद्यार्थियों को सहायतार्थ दी जाने के उपलक्ष में हमारा विद्यालय प्रथम रहा। इस अवसर पर प्रधानाध्यापक श्री भंवरलाल जी आच्छा को जिलाधीश महोदय जी ने रजत पदक एवं प्रशंसा पत्र से अलंकृत कर नागरिक सम्मान किया। सत्र १९७७-७८ में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान ने २४६ रु० बुक बैंक के लिए खर्च की गयी राशि पर अनुदान स्वरूप दिये। इसी तरह सत्र १९७८-७९ के खर्च एवं पुस्तक विवरण पर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने १९२ रुपये फिर अनुदानस्वरूप पुरस्कार सहायता प्रदान की। ३१ मार्च १९८० को बुक बैंक कोष का विवरण कुल पुस्तकें नवीन आगमन छात्र जो अनुसूचित एवं जनजाति माध्यमिक शिक्षा बोर्ड इस सत्र में लाभान्वित हुए छात्र जो लाभान्वित हुए द्वारा पुरस्कार स्वरूप __ अनुदान वर्ष रुपये १२८५ ५६६ पुस्तकें १६६ ४८ १९७७-७८ २४६-०० १३०० रु० की १९७८-७६ १९२-०० हस्तकला (उद्योग) विभाग श्री सुमति शिक्षा सदन के आदर्श वाक्य "सा विद्या या विमुक्तये" के अनुसार छात्र अपने भावी जीवन में स्वावलम्बी बन सकें व विद्यालयी जीवन में उनका शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास हो सके इसके लिए विद्यालय में हाथ कताई, बुनाई विभाग का प्रारम्भ सन् १९५० से किया गया। प्रारम्भ में छात्रों को हैण्डलूम पर कपड़ा, निवार बुनने व सिलाई का प्रशिक्षण देने की ही व्यवस्था थी। हाईस्कूल बनने पर यह ऐच्छिक विषय के रूप में रहा, जिसमें छात्र अच्छे अंक ही नहीं प्राप्त करते थे बल्कि विशेष योग्यता प्राप्त करके विद्यालय के नाम को गौरवान्वित करते थे। विद्यालय के सैकण्डरी व हायर सैकण्डरी के रूप में क्रमोन्नत होने पर यह विषय दसवीं कक्षा तक सभी छात्रों के लिए अनिवार्य विषय के रूप में है। वर्तमान में छात्रों को कपास बोने से लेकर कपास ओटने, रुई धुनने, पूनी Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड बनाने, सूत कातने, ताना बनाने, सूत रंगने, कपड़ा व निवार बुनने, चाक बनाने व जिल्दसाजी का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस कार्य के लिए १६ निवार लूम, ४ हैण्डलूम व एक ताना बनाने की मशीन उपलब्ध हैं। शिक्षा विभाग द्वारा सन् १९७२ में जिला स्तर पर हस्तकला एवं उद्योग प्रदर्शनी में विद्यालय में उत्पादित किये गये सामान निवार, टाट-पट्टी आदि के लिए प्रशंसा-पत्र भी दिया गया है। विद्यालय में निर्मित टाट-पट्टियाँ व चाके बाजार में बिकने वाली टाट-पट्टियों व चाकों के मुकाबले सस्ती, अच्छी व मजबूत होती हैं। छात्रों को उद्योग प्रशिक्षण के द्वारा चित्रकला का भी अभ्यास मिलता है, जिसमें छात्र रुचिपूर्वक भाग लेते हैं। बाहर से पधारने वाले महानुभावों ने यहाँ छात्रों द्वारा निर्मित टाट-पट्टियों, निवार व चाकों की सराहना की है। वर्तमान में इसके प्रभारी श्री विजयसिंह राजपुरोहित हैं जिन्हें इस कार्य का लगभग २८ वर्षों का अनुभव है। निर्मित सामग्री विधि के अनुसार बेच दी जाती है। टाइप कक्ष विद्यालय में ऐच्छिक विषय के रूप में वाणिज्य विषय सन् १९५५ से है। प्राय: छात्र यहाँ पर ऐच्छिक विषय वाणिज्य वर्ग के अन्तर्गत टंकण विषय लेना पसन्द करते हैं। इस विषय को लेने का उद्देश्य यही रहता है कि वे अच्छे व्यापारी के साथ-साथ अच्छे टाइपिस्ट बनें । वे इसके द्वारा अपनी आजीविका को भी सुचारु रूप से चला सकते हैं। वर्तमान में विद्यालय के पास १७ अंग्रेजी टाइप मशीन व १६ हिन्दी टाइप मशीनें हैं। वर्तमान में १६ हिन्दी मशीनों में ७ मशीनें पुराने की-बोर्ड की हैं वह मशीनें नये की-बोर्ड की हैं। अंग्रेजी मशीनों में ६ मशीनें रेमिंगटन की हैं व ८ मशीनें हाल्डा की हैं। आठ हिन्दी मशीनें रेमिंगटन की हैं व ८ मशीनें हाल्डा की हैं । वाणिज्य ऐच्छिक विषय के अन्तर्गत जब टंकण का पीरियड आता है, तब छात्र अपने ग्रुप के अनुसार टाईप कार्य सीखते हैं। विज्ञान प्रयोगशाला-समय की माँग को देखते हुए प्रबन्धक समिति ने शाला में वैकल्पिक विषय के अन्तर्गत विज्ञान विषय भी सत्र १९६६-६७ से प्रारम्भ किया । भौतिक विज्ञान व रसायन विज्ञान के प्रायोगिक कार्य हेतु प्रत्येक विषय के लिए अलग-अलग प्रयोगशाला बनाई गई है। इन प्रयोगशालाओं का शिलान्यास संघ के कर्मठ कार्यकर्ता शिक्षाप्रेमी श्री अमरचन्द जी गदैया के कर-कमलों द्वारा सन् १९६६ में सम्पन्न हुआ। छात्रों के प्रायोगिक कार्य हेतु तथा अध्यापन को प्रभावी बनाने के लिए उपकरणों की दृष्टि से ये प्रयोगशालाएँ पूर्णतया सक्षम हैं। प्रायोगिक कार्य का जब पीरियड आता है तब छात्र सम्बन्धित अध्यापक की देख-रेख व निर्देश के अनुसार प्रयोग कार्य सीखते हैं। संचयिका इस विद्यालय में वाणिज्य परिषद के अन्तर्गत संचयिका, जिसको बच्चों का बैंक कहते हैं, चलती है। इसकी स्थापना सत्र १९७२ में १५० सदस्यों से की गई थी। १५० सदस्यों ने ८००-०० रु० की राशि सत्र १६७२ के प्रारम्भ में जमा करवाई और सत्र के अन्त में ६००-०० रु० राशि पुन: सदस्यों ने ले ली । संचयिका में छात्र पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ बैंक में किस प्रकार धन जमा करवाया जाता है, कैसे निकाला जाता है, बैंक के साथ किस प्रकार व्यवहार होते हैं; आदि का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करता है। विद्यालय में संचयिका खुलने का समय मध्यान्तर (रेसेस) व स्कूल समय के पश्चात् ४-३० से ५-०० बजे तक का है। वाणिज्य परिषद के प्रत्येक सदस्य को संचयिका में खाता खोलना आवश्यक है। संचयिका में पदाधिकारियों की नियुक्तियाँ परामर्शदाता द्वारा की जाती हैं। परामर्शदाता वाणिज्य विषय का अध्यापक होता है। समय-समय पर परामर्शदाता पदाधिकारियों का मार्ग दर्शन करता है। संचयिका के सफल संचालन की दृष्टि से सत्र १९७३-७४ में इस विद्यालय ने १५०-०० रुपये का नकद पुरस्कार एवं प्रमाण-पत्र भी प्राप्त किया है जो प्रधानाध्यापक कक्ष में लगा हुआ है। सत्र १९७६-८० में संचयिका में १०० सदस्य थे, जिन्होंने सत्र के अन्त में अपने जमा धन ७०० रुपये में से ६५८ रुपये की राशि पुनः प्राप्त की। इस समय संचयिका में ४२ रुपये की राशि है जो डाकघर में जमा है। ----- ---- Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास शैक्षिक व व्यावसायिक निर्देशन कार्यक्रम मानवीय अन्तर्निहित क्षमताओं को प्रकाशित कर समाज को विकासोन्मुखी बनाने में निर्देशन प्राणवायु-तुल्य महत्ता रखता है। इसकी महत्ता को स्वीकार कर शिक्षा विभाग ने विद्यालयों में इस प्रवृत्ति को प्रभावी तौर से सन् १९७६ से लागू किया है। इस कार्यक्रम ने शैक्षिक व व्यावसायिक निर्देशन को लागू कर भावी पीढ़ी को पथविमुख होने से बचाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। शिक्षार्थी अपनी रुचि योग्यता एवं क्षमता जानकर अपने भावी जीवन को सही दिशा दे व सम्बन्धित क्षेत्र के महत्त्व व भविष्य को समझकर उसके अनुकूल प्रयासों में लीन हो सके, इसके लिए विभाग ने प्रशिक्षित केरियर मास्टर की व्यवस्था की है। इस शाला में यह प्रवृत्ति सक्रिय रूप से क्रियान्वित की जाती है और उन्हें सही निर्देशन दिया जाता है। छात्रों को विज्ञापित विभिन्न विभागों में रिक्त स्थान बताकर उन्हें फार्म भरवाना, नियुक्तियों की प्रक्रिया की जानकारी देना आदि में मार्ग प्रशस्त किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप सैकण्डरी अथवा हायर सैकण्डरी की योग्यता वाले छात्रों को राजस्व विभाग, विभिन्न कार्यालय लिपिक, तार टेलीफोन ओपरेटर्स, रेलवे विभाग में लिपिक, शिक्षा विभाग के विभिन्न पदों पर गत चार वर्षों के दौरान १०० से अधिक विद्यार्थियों को नियुक्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इस निर्देशन की उपयोगिता के कारण स्थानीय महाविद्यालय के विद्यार्थी भी समय-समय पर केरियर मास्टर से परामर्श लेते रहते हैं । इसी कारण अध्ययन के दौरान निर्देशन प्राप्त कर अनेक ने नियुक्तियां प्राप्त की हैं। प्रश्न पेटी के माध्यम से हर महीने औसत ४० विद्यार्थी शैक्षिक व व्यावसायिक निर्देशन प्राप्त करते हैं। वार्षिक परीक्षा की समाप्ति के बाद आठवीं के छात्रों को विषय चयन के साथ-साथ विभिन्न वर्गों की उपयोगिताओं, क्षमताओं, अभिरुचियों का ज्ञान कराकर उनका शैक्षिक निर्देशन प्रतिवर्ष किया जाता है । विभिन्न छात्रवृत्तियों का ज्ञान कराकर सम्बन्धित विद्यार्थीको फार्म भरवाने प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने हेतु तैयार करवाने में भी यह प्रवृत्ति योगदान करती है । केरियर कार्नर को सुसज्जित एवं विभिन्न रोजगारों की सूचियाँ तैयार कर आकर्षक बनाया जाता है। २३१: 'विवेक' बाकि पत्रिका छात्रों की लेखन कला की अभिव्यक्ति को विकसित करने तथा विद्यालय की गतिविधियों की जानकारी देने हेतु सन् १९५७ से वार्षिक पत्रिका का प्रकाशन किया जा रहा है। सन् १९६१ से इसका नामकरण 'विवेक' रखा गया है। पत्रिका ने सन् १६६६, १९६७ एवं १६६८-६६ ई० में पाली जिला स्तर पर प्रथम स्थान प्राप्त किया है । पत्रिका शुल्क की कमी एवं मुद्रण में व्यय की अधिकता से सन् १९६५-६६ ई० से इसे प्रति दो वर्ष में एक बार प्रकाशित किया जा रहा है। पत्रिका साहित्य की प्रत्येक विधा से विद्यार्थियों को उद्बोधन देती है और प्रकाश स्तम्भ का कार्य करती है । स्काउटिंग श्री सुमति शिक्षा सदन, राणावास की स्थापना में मुख्य लक्ष्य बालकों के चरित्र - विकास करने का रहा है । इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर विद्यालय में सन् १९५५ में तत्कालीन प्राधानाध्यापक डॉ० दयालसिंह गहलोत के संरक्षण में स्काउट मास्टर श्री भोपालसिंह राठौड़ के नेतृत्व में स्काउट ट्रंप प्रारम्भ किया गया। स्काउटिंग के कार्य में अपनी विशेष लगन व उत्साह के कारण श्री भोपालसिंह जी राठौड़ की नियुक्ति राजस्थान स्टेट भारत स्काउट्स बगाइड्स में सर्कल आर्गेनाइजर (सी. ओ०) के पद पर हो गई। आज भी वे पानी जिले के सी० ओ० के पद पर कार्य कर रहे हैं। जोधपुर डिविजन में इनका अपना विशिष्ट स्थान है। उनके बाद के स्काउट मास्टरों में श्री देवीलाल शर्मा की स्काउटिंग में विशेष अभिरुचि होने के कारण उनकी भी सी० ओ० के पद पर नियुक्ति हो गई। वर्तमान में ये भोपाल (मध्य प्रदेश) में सहायक राज्य आर्गेनाइजिंग कमिश्नर के पद पर कार्य कर रहे हैं । विद्यालय के स्काउट्स प्रतिवर्ष स्थानीय संघ मारवाड़ जंक्शन द्वारा आयोजित टोलीनायक प्रशिक्षण शिविर व समय-समय पर स्थानीय संघ व डिविजनल स्तर की रैलियों में भाग लेकर अच्छा नाम कमाते रहे हैं। विद्यालय . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड के स्काउट्स ने अखिल भारतीय जम्बूरी-जयपुर (१९५६), इलाहाबाद (१९६४) व कल्याणी बंगाल (१९६७) में भाग लिया था। सत्र १९७६-७७ में आयोजित जिला स्तरीय रैली सोजत में विद्यालय ट्रप को ८ उच्च स्तर व ८ स्तर के प्रमाण-पत्र प्राप्त हुए थे। सत्र १९७७-७८ में द्विसंघीय रैली वार्ता में ८ स्काउटों ने भाग लेकर उच्च स्तर प्राप्त किया था । स्थानीय ओसवाल समाज द्वारा जिला चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी जी के संरक्षण में पिछले पाँच वर्षों से आयोजित किये जाने वाले लघु शल्य-चिकित्सा शिविरों में विद्यालय के स्काउट्स रोगियों की सेवा-शुश्रूषा में अपना योगदान देते रहे हैं जिसके लिए स्काउट्स को प्रमाण-पत्र भी मिलते रहे हैं। स्काउट्स प्रतिवर्ष प्रकृति-निरीक्षण हेतु गोरमघाट, काजलवास, तीतलेश्वर महादेव आदि स्थानों में अपना भ्रमण का कार्यक्रम रखकर स्काउटिंग का आनन्द लेते हैं । प्रतिवर्ष सर्वश्रेष्ठ स्काउट का चुनाव 'स्काउट रत्न' के रूप में किया जाता रहा है। विद्यालय के अब तक के स्काउट रत्नों के नाम इस प्रकार है सत्र नाम १६६६ नेमीचन्द जैन १९७० महेन्द्रकुमार मेहता १९७१ गौतमचन्द सुराणा १९७२ मांगीलाल शर्मा १९७३ देवराज सेमलानी १६७४ सोहनराज धोका १९७५ बाबूलाल कोचर १९७६ गौतमचन्द सेठिया १९७७ नरपतसिंह राजपुरोहित १९७८ गणपतसिंह सोलंकी १९७६ श्री मनोहरसिंह राजपुरोहित १९८० श्री घेवरचन्द टेलर १९८१ श्री मोतीलाल सोनी यहाँ के स्काउट्स को राष्ट्रपति स्काउट्स के रूप में भी चयनित किया गया है व उन्हें राष्ट्रपति स्काउट्स बैज व पदक प्राप्त हुए हैं। विद्यालय को यह सौभाग्य तीन बार प्राप्त हुआ है और क्रमशः पाँच, तीन एवं पाँच स्काट्स को यह सम्मान निम्नानुसार मिला है संख्या राष्ट्रपति स्काउट्स १९६७ १९६६ नाम सम्मान-प्राप्त स्काउट्स भंवरलाल बागरेचा, उगमराज आच्छा, विजयराज समदड़िया, पारसमल गोलेच्छा, जोधाराम देवासी ढगलाराम चौधरी, भीमदास पीर, जगदीश लाल लोहार देवराज सेमलानी, बाबूलाल तेली, केवलचन्द बागरेचा, नरपतसिंह, किशनसिंह राजपुरोहित १९७३ . Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास २३३. वर्तमान में विद्यालय में इस प्रवृत्ति के प्रभारी श्री महेन्द्रवीर सिंह गहलौत हैं, जिन्हें इस क्षेत्र में लगभग २५ वर्षो का अनुभव है । विद्यालय छात्रसंघ 9 अनुशासनप्रियता विनम्रता व भ्रातृभाव इस संस्था के विद्यार्थियों के विशेष गुण रहे हैं। इस माला में प्रारम्भ से ही इन गुणों का समावेश करते हुए छात्र संघ की गतिविधियां संचालित होती रही हैं। सत्र १९७३-७४ तक छात्र संघ के चुनाव नियमानुसार करवाये जाकर विभिन्न कार्य-कलापों में विद्यार्थियों का सहयोग लिया जाता रहा है। छात्र संघ के चुनाव के समय विद्यार्थी वर्ग में विशेष चेतना व सक्रियता मुखरित होती है और कभी-कभी उग्र आक्रोश व अशिष्टता की झलक भी परिलक्षित हो जाती है। इस कारण सत्र १९७४-७५ से छात्र संघ का चुनाव न किया जाकर विभिन्न क्षेत्रों के मेधावी विद्यार्थियों का सहयोग शाला की विविध गतिविधियों में लिया जाता रहा है। अर्थात् मेरिट के आधार पर छात्रों का चयन कर उन्हें छात्र संघ के पदाधिकारियों के रूप में मनोनीत कर दिया जाता है। ए० सी० सी० शारीरिक शिक्षण शिक्षा विभाग राजस्थान ने माध्यमिक विद्यालयों में छात्रों को शारीरिक दृष्टि से सबल एवं सुदृढ़ बनाने की शिक्षा देने के लिए १९५४ ई० में ए० सी० सी० की शिक्षा प्रारम्भ की। इसके लिए (१) विजय सिंह चूण्डावत, (२) श्री भोपाल सिंह राठौड़, (३) श्री तख्तमल इन्द्रावत को ए० सी० सी० ट्रेनिंग केम्य पाली में भेजकर ट्रेण्ड कराया गया। इसके पश्चात् विद्यालय में ए० सी० सी० के ३ ग्रुप स्थापित किये गये जिनमें मार्च पास्ट, व्यायाम, खेल-कूद, दौड़, प्राथमिक चिकित्सा एवं शिविर आदि की विधाओं से छात्रों को प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया गया। इसी क्रम में १९६५ में एन० एफ० सी० का भी प्रशिक्षण अध्यापकों को दिलाया जाकर शिक्षण दिया जाने लगा। इस उपलक्ष में उन्हें ए० सी० सी० विभाग द्वारा मानदेय भी दिया जाता रहा। सन् १९६६ ई० में सरकार ने इस योजना को समाप्त कर इसके बजाय शारीरिक शिक्षण देने के लिए शारीरिक शिक्षक की नियुक्ति कर दी, जिस पर उस समय से अब तक श्री गुलाबचन्द शर्मा योग्यतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। शारीरिक शिक्षण के अन्तर्गत सामूहिक व्यायाम कराया जाता है, तत्सम्बन्धी सभी साधन उपलब्ध हैं। सिंगल बार, डबल बार, बाल्टिंग बाक्स, डम्बल्स, लेजिम, मोगरी आदि की व्यवस्था है । स्पोर्टस के समस्त साधन छात्रों को उपलब्ध कराये जाते हैं। समय-समय पर योगासन व संतुलित भोजन की जानकारी भी दी जाती है । खेल-कूद व उपलब्धियाँ - छात्रों में खेल-कूद के प्रति अभिरुचि पैदा करने का प्रयास सदा से ही रहा है। विद्यालय समय के पश्चात् अधिकांश छात्र विभिन्न खेलों में नियमित भाग लेते हैं। प्रत्येक खेल के लिए विद्यालय द्वारा अलग से मैदान की व्यवस्था की गयी है । सन् १९५५ में जब यह विद्यालय माध्यमिक विद्यालय बना, उस समय से ही फुटबाल, बालीबाल, बास्केट बाल, बेडमेन्टिन, कबड्डी और सभी प्रकार के स्पोर्टस मैदानों की व्यवस्था की गयी थी । सन् १९६७ में हाकी का खेल भी विद्यालय में प्रारम्भ किया गया तो उसके लिए भी अलग से मैदान निर्धारित किया गया। इसी तरह सन् १९६७ में ही टेबल टेनिस, सन् १९७० में वालीबाल के लिए एक और मैदान तथा सन् १९७३ में खो-खो के लिए भी मैदानों की व्यवस्था की गयी है । इन समस्त खेलों को शारीरिक शिक्षक की देख-रेख में खेलाया व सिखाया जाता है तथा खेलों से सम्बन्धित समस्त प्रकार की सामग्री प्रदान की जाती है। खेल-कूद की विभिन्न प्रतिस्पर्धाएँ विद्यालय स्तर पर आयोजित की जाती हैं और विजेता छात्र व टीम को पुरस्कार एवं प्रशंसा पत्र दिये जाते हैं। क्षेत्रीय और जिला स्तरीय खेलकूद की विभिन्न प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए भी छात्रों को उचित प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। यही कारण है कि जिला स्तर पर इस विद्यालय ने खेलकूद के सन्दर्भ में अपनी उत्कृष्ट धाक जमा रखी है और विभिन्न स्तर के पुरस्कार व शील्ड प्राप्त की हैं, जिसका उपलब्ध विवरण इस प्रकार है 0 . Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड ........................................................................... पाली जिला स्तरीय प्रतियोगिता में विद्यालय की उपलब्धियां संख्या वर्ष प्रवृत्ति का नाम सफलता का स्थान छात्र का नाम १९६९-७० उपविजेता द्वितीय सफेंक १९७०-७१ तृतीय बास्केट बाल १५०० मीटर दौड़ तश्तरी फेंक १५०० मीटर दौड़ ऊँची कूद हेमर फैंक हाकी फुटबाल १९७१-७२ १९७३-७४ हाकी द्वितीय तृतीय प्रथम उपविजेता उपविजेता उपविजेता द्वितीय प्रथम द्वितीय द्वितीय द्वितीय प्रथम प्रथम उपविजेता प्रथम विद्यालय मदनसिंह १० (ब) मगाराम चौधरी १० (अ) गमनाराम १० (अ) अर्जुनसिंह राजपूत १० (अ) समाराम विद्यालय विद्यालय विद्यालय भंवरसिंह परिहार १० (ब) भंवरसिंह परिहार १० (ब) युधिष्ठिरसिंह कछवाहा - नारायणसिंह राजपुरोहित ११ गौतमचन्द मूथा गौतमचन्द मूथा गौतमचन्द मूथा विद्यालय जगदीशसिंह ___ ११ (ब) २०० मीटर दौड़ भाला फेंक हेमर फैक बाधा दौड़ उछलकूद २०० मीटर दौड़ तश्तरी फैक बैडमिन्टन ११० मीटर बाधादौड़ ११० मीटर बाधा दौड़ चक्का फैक २०० मीटर दौड़ हाकी १९७४-७५ १९७६-७७ द्वितीय मीठालाल बाफणा १० (अ) ११ (ब) द्वितीय द्वितीय उपविजेता जगदीशसिंह गोपालप्रसाद गुप्ता विद्यालय २२. १९७९-८० साहित्यिक व सांस्कृतिक प्रतियोगितायें एवं उपलब्धियाँ समय-समय पर विद्यालय में साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं, जिनमें छात्रों को भाग लेने के लिए प्रेरित व प्रोत्साहित किया जाता है। ऐसे कार्यक्रमों से छात्रों का व्यक्तित्व निखरता है, उनमें आत्म-विश्वास जाग्रत होता है और रुचिसम्पन्नता बढ़ती है। साहित्यिक व सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में हिन्दी व अंग्रेजी वाद-विवाद, कविता पाठ, कहानी, निबन्ध आदि लिखना, एकाभिनय, विचित्र वेषभूषा, सुगम संगीत, हिन्दीअंग्रेजी सुलेख, चित्रकला, सामूहिक संगीत आदि सम्मिलित हैं । इनसे सम्बन्धित कार्यक्रम विभिन्न उत्सवों व समारोहों पर भी आयोजित किये जाते हैं तथा विद्यालयों में ही अन्तर्दलीय व्यवस्था के अनुसार विभिन्न दलों में प्रतियोगिताएँ आयोजित कर विजेताओं को पुरस्कार एवं प्रशंसा पत्र प्रदान किये जाते हैं । विद्यालय से चुने हुए छात्रों को क्षेत्रीय व जिला स्तर पर भी ऐसी प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए भेजा जाता है । पाली जिला स्तरीय प्रतियोगिताओं में विद्यालय के छात्रों ने समय-समय पर प्रदर्शन कर स्कूल का गौरव बढ़ाया है, उसका विवरण इस प्रकार है 0.............. . Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास २३५ पालो जिला स्तरीय प्रतियोगिता में साहित्यिक क्षेत्र की उपलब्धियो क्रम वर्ष प्रवृत्ति का नाम स्थान छात्र का नाम कक्षा १० (ब) १० (ब) प्रथम १. १९६५-६६ अंग्रेजी वाद-विवाद प्रतियोगिता पक्ष द्वितीय २. १९६५-६६ अंग्रेजी वाद-विवाद विपक्ष द्वितीय ३. १९६६-६७ विवेक पत्रिका प्रथम ४. १९६८-६६ विवेक पत्रिका प्रथम ५. १९६९-७० अंग्रेजी वाद-विवाद द्वितीय १९७०-७१ हिन्दी वाद-विवाद ७. १९७०-७१ अंग्रेजी निबन्ध द्वितीय ८. १९७१-७२ हिन्दी निबन्ध प्रथम ६. १९७१-७२ अंग्रेजी निबन्ध प्रथम १०. १९७१-७२ वार्षिक पत्रिका प्रथम ११. १९७२-७३ अंग्रेजी निबन्ध प्रथम १२. १९७३-७४ हिन्दी वाद-विवाद प्रथम १३. १९७४-७५ कविता पाठ प्रथम १४. १९७६-७७ अंग्रेजी निबन्ध प्रथम १५. १९७८-७६ हिन्दी वाद-विवाद द्वितीय १६. १९७८-७९ अंग्रेजी वाद-विवाद द्वितीय धनपतमल चौरडिया बाबूलाल मेहता विद्यालय विद्यालय करणीदान मूथा राजेन्द्र हर्ष हुक्मचन्द बाबूलाल कोठारी सुरेशकुमार नाहर विद्यालय गणपतचन्द कुम्हार १० (ब) १० (अ) १० (अ) घेवरचन्द सुराणा कमलकुमार बांठिया महेन्द्रकुमार इन्द्रावत शैतानसिंह राजपूत १० (अ) १० (अ) पाली जिला स्तरीय प्रतियोगिता में सांस्कृतिक क्षेत्र की उपलब्धियाँ १० (अ) १० (ब) १० (अ) १. १९६६-६७ एकाभिनय २. १९६९-७० सुगम संगीत ३. १९७०-७१ विचित्र वेषभूषा ४. १९७२-७३ पेंसिल कलर पेण्टिंग ५. १९७२-७३ कताई-बुनाई १९७५-७६ सामान्य ज्ञान ७. १९७६-७७ सामान्य ज्ञान ८. १९७८-७९ विचित्र वेशभूषा ६. १९७९-८० विचित्र वेशभूषा १०. १९७६-८० एकाभिनय ११. १९८०-८१ लोकनृत्य १२. १९८०-८१ कविता पाठ प्रथम प्रथम प्रथम प्रथम प्रथम द्वितीय द्वितीय द्वितीय द्वितीय द्वितीय द्वितीय द्वितीय बाबूलाल सिंघवी चम्पालाल दर्जी सुमेरसिंह गणपतलाल कुम्हार विद्यालय मुरलीदास वैष्णव गोकुलनाथ पदमसिंह चौधरी जगदीश कारीगर महेश व्यास विद्यालय भगीरथ (ब) १० (ब) १० १० (ब) १० (स) विद्यालय रत्न-खेल-कूद, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले छात्रों को उनकी सफलता के क्रम से यों तो पुरस्कार व प्रशंसा-प्रमाण पत्र दिये ही जाते हैं किन्तु उनमें से भी जो छात्र अपनी उत्कृष्टता के फलस्वरूप प्रभावित करता है, उसे और अधिक प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से विद्यालय द्वारा सम्बन्धित खेल या ----...---- 0 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड प्रवृत्ति के नाम से रत्न के रूप में सम्बोधन प्रदान किया जाता है यथा-फुटबाल रत्न, हाकी रत्न, बालीबाल रत्न, बेडमिन्टन रत्न, संगीत रत्न, भाषण रत्न, अध्ययन रत्न, स्काउट रत्न आदि । उत्सव समारोह-शिक्षा विभाग द्वारा निर्धारित स्वतन्त्रता दिवस, शिक्षक दिवस, गणतन्त्र दिवस, गांधी जयंती, बाल-दिवस, हिन्दी-दिवस, जन्माष्टमी, संवत्सरी, रामनवमी, महावीर जयन्ती आदि के उत्सव प्रतिवर्ष समारोहपूर्वक मनाये जाते हैं । इनमें प्रतिष्ठित नागरिकों के विचार, विद्वान मुनिजनों के प्रवचनों का लाभ छात्रों को प्रदान किया जाता है । इन अवसरों पर आयोजित प्रतियोगिताओं में सफल छात्रों को उचित पुरस्कार भी दिये जाते हैं। पन्द्रह अगस्त और गणतन्त्र दिवस को राणावास गाँव व स्टेशन पर सामूहिक पद संचलन तथा व्यायाम आदि का प्रदर्शन भी किया जाता है। इस अवसर पर सुराणा फण्ड की ओर से सभी छात्रों को मिष्ठान वितरण भी किया जाता है। विद्यालय का वार्षिक उत्सव प्रतिवर्ष विशेष उत्साह के साथ मनाया जाता है। इसी प्रकार आचार्य तुलसी जन्मोत्सव, पाटोत्सव, आचार्य भिक्षु चरमोत्सव आदि भी आयोजित किये जाते हैं। आर्थिक सहायता-सहयोग–विद्यालयों के छात्रों व अध्यापकों की यह प्रवृत्ति प्रारम्भ से ही रही है कि जबजब भी देश पर संकट आया अथवा देश के किसी प्रदेश में प्राकृतिक विपदा उपस्थित हुई, यहाँ के छात्रों व अध्यापकों ने अपनी ओर से तथा समाज से चन्दा आदि एकत्रित कर वहाँ भेजा है। चीन के आक्रमण के समय सन् १९६२ में, बंगला देश के शरणार्थियों को १९७१ में, बिहार बाढ़ पीड़ित सहायता कोष १९७६-७७ में तथा आन्ध्र प्रदेश बाढ़ पीड़ित सहायता कोष १९७८-७९ में इस प्रकार की आर्थिक सहायता आर्थिक रूप में व वस्तु रूप में भेजी गई। इसी तरह समय-समय पर रेडक्रास सोसायटी, राजस्थान शिक्षक कल्याण कोष, निर्धन छात्र कोष आदि में भी आर्थिक सहायता दी जाती है। विद्यालय में आगन्तुक अतिथियों द्वारा भी विद्यालय की प्रगति व व्यवस्था से प्रसन्न होकर समय-समय पर आर्थिक सहयोग प्रदान किया जाता है, जिसका उपयोग निर्धन छात्रों को सहायता देने, पुस्तकालय, वाचनालय तथा अन्य विकासमान प्रवृत्तियों में किया जाता है। विशिष्ट अतिथियों का पदार्पण--विद्यालय में समय-समय पर विशिष्ट अतिथियों का पदार्पण होता रहता है। भारत की अतिथि-परम्परा के अनुरूप उनका आदर-सम्मान व सत्कार किया जाता है तथा यथासम्भव समारोह, गोष्ठी आदि का आयोजन कर उनके अनुभवों से छात्रों को परिचित कराया जाता है। उनके विशेष प्रवचन आयोजित किये जाते हैं। __ छात्रों में नैतिक व आध्यात्मिक जागरण-सुमति शिक्षा सदन अपने नाम के अनुरूप छात्रों में नैतिक व आध्यात्मिक सुमति विकसित करने का वर्षभर प्रयास करता रहता है। उत्सव, समारोह, गोष्ठी, प्रवचन आदि के माध्यम से छात्रों में इस तरह के विचारों के अंकुर प्रस्फुटित किये जाते हैं। चरित्र विकास की भावना अनुशासन और बड़ों के प्रति आदर व श्रद्धा इस विद्यालय के छात्रों में कूट-कूट कर भरी जाती है। यही कारण है कि राणावास जैसे छोटे से गाँव में हजारों की संख्या में बाहर से आकर छात्र अध्ययन करते हैं किन्तु यहाँ पर जैसी शान्ति, अध्ययन के प्रति लगन और संयमित जीवन छात्रों में पाया जाता है, वह सम्पूर्ण देश के लिए एक उत्कृष्ट उदाहरण है, अनुकरणीय एवं दिग् सूचक है। युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के योग्य शिष्यों के चातुर्मास के दौरान छात्रों को जीवन निर्माण का पर्याप्त अवसर व सान्निध्य मिलता है। सचमुच में यह विद्यालय नैतिक व आध्यात्मिक जीवन की प्रेरणादायी प्रयोगशाला है। __विद्यालय शिक्षकों का सम्मान-छात्रों के जीवन निर्माण में इस विद्यालय के शिक्षकों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। विद्यालय में ऐसे शिक्षकों की ही नियुक्ति की जाती है जो अपनी जीविकोपार्जन के साथ-साथ छात्रों के जीवन निर्माण में भी समर्पण भाव रखते हैं। यही कारण है कि यहाँ के शिक्षकों की श्रम एवं कर्तव्यनिष्ठा को सरकार ने भी समय-समय पर अनुभव कर मान्यता प्रदान की है, ऐसे शिक्षकों का सम्मान किया है, उन्हें सम्मान-पत्र, प्रशंसा व सराहना पत्र एवं पुरस्कार प्रदान किये हैं, विवरण इस प्रकार है ०० Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास २३७ । D .a . . -. -. (अ) श्री गजमलजी सिंघवी, प्रधानाध्यापक को राजस्थान सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा उनकी सेवाओं का सम्मान करते हुए, राज्य स्तरीय पुरस्कार से सन् १९७१ ई० में सम्मानित किया गया एवं प्रमाण पत्र प्रदान किया गया। (आ) श्री गजमल जी सिंघवी, प्रधानाध्यापक को राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान परिषद (N. C. E. R. T.) दिल्ली द्वारा कक्षा नायक प्रशिक्षण (Training Monitor) एवं माध्यमिक विद्यालयों में वाणिज्य क्लब (Commerce Club in Secondary Schools) विषयों पर उच्चस्तरीय निबन्ध लिखने पर ७५०-७५० रुपयों के दो राष्ट्रीय पुरस्कार सन् १९७१ ई. में प्रदान किये हैं। (इ) श्री जमुनाप्रसाद जैन, वरिष्ठ अध्यापक को भी उपरोक्त परिषद द्वारा छात्र वाणिज्य बैक (Students Bank an Experimental Project) विषय पर उच्च स्तरीय निबन्ध लिखने पर ५०० रुपयों का राष्ट्रीय पुरस्कार सन् १९७३ ई० में प्रदान किया है। (ई) विद्यालय को पाली जिला शिक्षा अधिकारी द्वारा पाली जिले में सन् १९७५-७६ में बुक बैंक में सर्वाधिक धनराशि जमा कराने में प्रथम आने का प्रमाण-पत्र विद्यालय के प्रधानाध्यक श्री भंवरलाल आच्छा को दिया है। (उ) श्री तख्तमल इन्द्रावत सहायक अध्यापक को राजस्थान सरकार के पाली जिला शिक्षा अधिकारी द्वारा उनकी सेवाओं का सम्मान करते हुए "श्रेष्ठ शिक्षक" की उपाधि का प्रमाण-पत्र शिक्षक दिवस ५ सितम्बर सन् १९७६ को प्रदान किया गया। (ऊ) माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अजमेर द्वारा आयोजित परीक्षाओं के परिणाम उच्चतर रहने पर जिला शिक्षा अधिकारी पाली द्वारा विद्यालय के सम्बन्धित विषय के विभिन्न शिक्षकों को समय-समय पर सराहना-पत्र प्रदान किये जाते हैं। इस विद्यालय के शिक्षकों को ऐसे सराहना-पत्र प्राप्त होना आम व सामान्य बात हो गई है। इस तरह के सर्वाधिक सराहना-पत्र विद्यालय के १७ शिक्षकों को सन् १९७५-७६ में प्राप्त हुए हैं। (ए) श्रेष्ठ शिक्षकों को संस्था द्वारा भी समय-समय पर सम्मानित किया जाता है।। विद्यालय सम्मान एवं उपलब्धियाँ-विद्यालय के शिक्षकों को ही नहीं अपितु सामूहिक रूप से सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय को भी विभिन्न क्षेत्रों में सम्मान प्राप्त होते रहे हैं। इन सम्मानों के अतिरिक्त विद्यालय की अन्य क्षेत्रों में उल्लेखनीय व गौरवपूर्ण उपलब्धियाँ भी रही हैं, उन सबका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है - (१) सत्र १९७६-७७ में माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान अजमेर के उच्च माध्यमिक परीक्षा के विज्ञान वर्ग में राजस्थान के समस्त ग्रामीण विद्यालयों में से इस विद्यालय का परीक्षा परिणाम सर्वोच्च रहने से इसे श्री बी० पी० जोशी शील्ड प्राप्त हुई है। (२) विद्यालय को माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान द्वारा आन्तरिक मूल्यांकन योजना के कार्यान्वयन में प्रथम आने का प्रमाण-पत्र सन् १९७७ ई० में प्राप्त हुआ। (३) विद्यालय को माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान द्वारा ग्रामीण प्रतिभावना योजना के अन्तर्गत विज्ञान विषय में प्रथम आने से चल विजयोपहार सन् १९०७ ई० में प्राप्त हुआ। (४) विद्यालय को पाली जिला शिक्षा अधिकारी द्वारा बोर्ड की उच्च माध्यमिक परीक्षा १९७८ में पाली जिले की विद्यालयों में प्रथम आने का प्रमाण-पत्र प्राप्त हुआ। (५) क्षेत्रीय व पाली जिला स्तरीय खेल-कूद प्रतियोगिताओं में विद्यालय को जनरल चैम्पियनशिप तथा विभिन्न खेलों में विजेता व उपविजेता के पुरस्कार व सम्मान भी मिलते रहे हैं। (६) इसी तरह के सम्मान व पुरस्कार क्षेत्रीय व जिला स्तरीय साहित्यिक एवं सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में भी प्राप्त हुए हैं। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २३८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड (७) विद्यालय द्वारा प्रकाशित वार्षिक पत्रिका 'विवे' को छात्रों में स्तरीय रचनाएँ लिखने व प्रकाशित करने तथा पत्रिका के उत्तम मुद्रण व सज्जा को लेकर जिला स्तर पर तीन बार प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ है। (८) विद्यालय को पाली जिला शिक्षा अधिकारी द्वारा पाली जिले में सन् १९७५-७६ में सर्वाधिक धनराशि जमा कराने में प्रथम आने पर प्रमाण-पत्र दिया गया है। (8) विद्यालय के स्काउट्स ने जोधपुर में आयोजित स्कास्ट रैली तथा इलाहाबाद में आयोजित स्काउट्स व गाइड जम्बूरी में भाग लेकर पताकाएँ व प्रमाण-पत्र प्राप्त किये हैं। (१०) विद्यालय में पाली जिला के क्षेत्रीय स्तर के टूर्नामेन्ट सन् १९७३ तथा सन् १९७८ में दो बार सफलतापूर्वक आयोजित किये हैं, जिसमें आऊआ, जोजावर, धनला, मारवाड़ जंकशन, फुलाद, खीमाड़ा, मरुधर केसरी विद्यालय एवं सुमति शिक्षा सदन की टीमों ने भाग लिया। (११) माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अजमेर द्वारा ४ नवम्बर १९७४ से १० नवम्बर, १९७४ तक राज्य स्तरीय, हिन्दी वाक्पीठ योजना का आयोजन इस विद्यालय में किया गया, जिसमें प्रदेश के ४७ हिन्दी अध्यापकों ने भाग लिया। (१२) विद्याभवन शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, उदयपुर तथा महेश शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, जोधपुर के छात्राध्यापक दो-दो बार ब्लाक प्रेक्टिसिंग के लिए इस विद्यालय में आये हैं। (१३) सत्र १९७६-७७ में जिला स्तरीय विज्ञान मेला प्रदर्शनी पाली में इस विद्यालय के छात्रों ने इलेक्ट्रोनिक विन्यास उपकरण, टेलीफोन उपकरण, तथा गणितीय प्रमेय का उत्कृष्ट प्रदर्शन करने पर पुरस्कार प्राप्त किये हैं। इसी तरह का मेला सोजत में आयोजित हुआ और वहाँ भी पुरस्कार प्राप्त किये। (१४) विद्यालय के उद्योग विषय के अन्तर्गत निर्मित निवार व चाक अपने उत्तम शिल्प के कारण पाली जिले में विशेष रूप से प्रशंसनीय हैं। (१५) विद्यालय में अध्ययन कर निकले हुए भूतपूर्व छात्र सम्पूर्ण भारत में फैले हुए हैं। दक्षिणी भारत व उत्तरी-पूर्वी भारत में राजस्थान के बाद इनकी संख्या सर्वाधिक है। ये सेना, प्रशासनिक कार्य, कालेज, विश्वविद्यालय, सरकारी कार्यालय के अलावा उद्योग एवं व्यापार में भी अग्रणी हैं। विद्यालय की ये उपलब्धियाँ काफी महत्त्वपूर्ण हैं । ___ इस प्रकार सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय राणावास शिक्षा के सिंहद्वार के रूप में ख्यात है और इसका भविष्य काफी उज्ज्वल है। 0000 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श निकेतन छात्रावास भवन संघ परिसर एवं संचालित इकाईयां : [पुराना परिसर ] संघ - केन्द्रीय कार्यालय भवन [नवीन परिसर : ] श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय भवन श्री जैन तेरापंथ महाविद्यालय [श्री सी० आर० जे० बाबूलाल निर्मलकुमार भंसाली वाणिज्य संकाय भवन ] Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रामचन्द छोगालाल भंसाली छात्रावास भवन [महाविद्यालय ] संघ परिसर एवं अन्य संचालित इकाईयां : ( नवीन परिसर) נמוגוני This श्री जैन तेरापंथ महा विद्यालय [श्री सी. जे. सेठिया कला संकाय भवन] एवं शिक्षकप्रशिक्षण महाविद्यालय भवन श्री मोतीलाल हनुमानमल बैंगानी, सभा स्थल Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक माध्यमिक छात्रों का आवास स्थल आदर्श निकेतन छात्रावास, राणावास 0 भेरूलाल बाफणा, गृहपति, राणावास संवत् २००१ में संस्था के आरम्भ के साथ ही सुमति शिक्षा सदन में पढ़ने वाले छात्रों के लिए एक छात्रावास की स्थापना की गई है। प्रारम्भ में यह राणावास स्टेशन पर एक किराये के मकान में चलता था, उस समय इसमें निम्न पाँच गत्र थे (१) श्री लालचन्द गादिया, निवासी खिवाड़ा (२) श्री वरदीचन्द गादिया, निवासी खिंवाड़ा (३) श्री सुगनराज खटेड़, निवासी खिवाड़ा (४) श्री आसकरण, निवासी जोजावर (५) श्री जुगराज मूथा, निवासी गुड़ा सूरसिंघ । धीरे-धीरे छात्रावास में छात्रों की संख्या बढ़ती गई जिससे आवास व्यवस्था की कमी होने लगी। ग्रन्थनायक श्री केसरीमलजी सुराणा के सुदृढ़ प्रयासों से छात्रावास के लिए मलसा बावड़ी ठाकुर श्री खुमाणसिंहजी से बीस बीघा जमीन संवत् २००१ में खरीदी गई व एक विशाल छात्रावास भवन की निर्माण-रेखा खींची गई। काकासा के अथक प्रयासों से मोतीलालजी रांका बगड़ी सज्जनपुर के मार्गदर्शन में ढाई वर्षों में यह विशाल छात्रावास बनकर तैयार हो गया। छात्रावास का नाम आदर्श निकेतन छात्रावास रखा गया । आदर्श निकेतन से यहाँ के विद्यार्थी आदर्श विद्यार्थी बनकर निकलें, यही नामकरण रहने का एकमात्र उद्देश्य था। प्रारम्भ में आदर्श निकेतन छात्रावास के लिए एक ही भवन का निर्माण हुआ। यह भव्य भवन वास्तव में राणावास में एक विशेष इमारत है। इसका नक्शा सुन्दर है। इसके सामने छात्रावास के छात्रों के लिए सब्जी पैदा करने का बगीचा है। इसकी आवासीय व्यवस्था बहुत आरामदायक है। इस भवन में २६ कमरे हैं जिसमें २४ कमरों का नाप २०x१२' है व २ कमरों का नाप २०'४२१' है। एक बड़ा हाल है, जिसका नाप ४०' x २४' है । जहाँ प्रवचन, प्रार्थना आदि कार्यक्रम होते रहते हैं । इसी हॉल के प्रारम्भ में दोनों तरफ दो कमरे हैं जहाँ अधीक्षकों की बैठक है। हाल के अन्दर दोनों साइडों में पुस्तकालय है। इस भव्य भवन का शिलान्यास संवत् २००५ में अक्षय तृतीया के दिन श्रीमान् जबरमल जी साहब भण्डारी जोधपुर निवासी के कर-कमलों द्वारा हुआ। यथा शिलान्यास-संवत् २००५ अक्षयतृतीया शिलान्यासकर्ता-श्रीमान् जबरमल जी साहब भंडारी नक्शा निर्देशक-डी० एम० रांका, बगड़ी सज्जनपुर निर्माण संयोजक-श्री मोतीलालजी रांका, सुधरी निर्माण निरीक्षक-श्रीमान् केसरीमलजी सुराणा निर्माणकर्ता-मिस्त्री हजारीलाल कुमावत, पलसाना निर्माण व्यय-१,५२,००० रुपये उद्घाटनकर्ता-समाजभूषण श्रीमान् छोगमल जी चोपड़ा, बी० ए०, बी० एल०; विजय दशमी संवत् २००७ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड इस भवन में चार सदन हैं१. महावीर सदन २. अणुव्रत सदन ३. तुलसी सदन ४. भिक्षु सदन इन सदनों का नामकरण श्री मूलसिंहजी चुण्डावत के प्रयास से सन् १९६५ में किया गया था। इस अवधि में श्री चूण्डावतजी यहाँ मुख्य अधीक्षक थे। छात्रावास के उद्देश्य . छात्रावास का मुख्य उद्देश्य छात्रों में नैतिक शिक्षा देने का है जिससे छात्र राष्ट्र के सुन्दर नागरिक बने । देश के कर्णधार बनें । यद्यपि छात्रावास तेरापंथ समाज द्वारा संचालित किया जा रहा है फिर भी यहाँ किसी प्रकार की संकीर्णता नहीं है। यहाँ केवल जैनों को ही नहीं अपितु राजपूत, ब्राह्मण, चौधरी, पुरोहित, घांची, सिन्धी, पंजाबी आदि जातियों के छात्रों को भी प्रवेश दिया जाता है। छात्रावास की उत्तम व्यवस्था, सुन्दर देख-रेख शुद्ध खान-पान व सुन्दर परीक्षाफल से छात्रों की संख्या में दिनप्रतिदिन वृद्धि होने लगी। छात्रावास का विशाल भवन अब कम पड़ने लग गया। श्री केसरीमलजी सुराणा के सम्मुख यह एक और प्रश्न उभरकर आया है । सन् १६७१ में कक्षा ७ के लिए बाजार में एक मकान श्री चुन्नीलालजी तातेड़ का किराये पर लेना पड़ा। स्थिति को देखकर श्री सुराणाजी ने भोजनशाला के पास ही बगीचे की जमीन में एक नये भवन का निर्माण कराया जो दो-मंजिला। इसका निर्माण १९७१ में हुआ। इसमें दो बड़े हाल हैं जो छोटी कक्षाओं की देखरेख के लिए श्रेष्ठ है। इसके बगल में औषधालय के लिए दो कमरे बनाये गये जो बाद में चलकर केन्द्रीय कार्यालय के रूप में बदल दिये गये । कुछ समय बाद इसी भवन के नीचे के हाल को संस्था के केन्द्रीय कार्यालय के रूप में परिणत कर दिया गया है जो वर्तमान में विद्यमान है। ऊपर की मंजिल में कक्षा १ से ५ तक के लिए छात्रावास बना हुआ है जिसका नाम 'जय-सदन' दिया गया है। जय-सदन में एक बड़ा हाल व चार कमरे हैं । इसमें करीब पचास अलमारे लगे हुए हैं। छात्रों की लगातार वृद्धि में से ये दोनों भवन अपर्याप्त रहने लगे । अतः छात्रावास के तीसरे भवन का निर्माण सन् १९७६ में किया गया। तीसरा भवन जहाँ पर बना उस स्थान पर कई वर्षों तक गौशाला रही थी। इस गौशाला में अच्छी नस्ल की सुन्दर दुधारु गायें बालकों के दुग्ध के लिए रखी गई थीं। मगर कई वर्षों तक लगातार अकाल पड़ने से चारे का अभाव होने लगा और मजबूर होकर गौशाला को बन्द करना पड़ा। इसी स्थान पर एक नया भवन बनाया गया। इस भवन के लिए २११५१) रुपये जोजावर निवासी श्रीमान् गोकुलचन्दजी संचेती ने दिये अत: इस छात्रावास का नाम श्री गोकुलचन्दजी रामलालजी संचेती जैन तेरापंथ छात्रावास रखा गया। इस छात्रावास में भी दो सदन हैं । नीचे के सदन का नामकरण ग्रन्थनायक के नाम से केसरी सदन रखा गया व ऊपर के सदन का नाम युवाचार्य महाप्रज्ञ के नाम से महाप्रज्ञ सदन' रखा गया। इस भवन में दस कमरे हैं व साइड में दो छोटे-छोटे कमरे अधीक्षकों (गृहपतियों) के लिए हैं। छात्रावास में प्रवेश-सीमा अध्ययनशील छात्रों को इस छात्रावास में कक्षा एक से ग्यारह तक के छात्रों को प्रवेश दिया जाता है। छात्रावास के मुख्य भवन में २५० विद्यार्थियों के निवास की सुविधा है। प्रत्येक कमरे में आठ-आठ आलमारियाँ व दो बड़े कमरों में अठारह-अठारह आलमारी हैं। ऊपर के हाल में विद्यार्थियों का निवास है। जय सदन आदर्श निकेतन की दूसरी शाखा का नाम जय सदन है, जिसमें कक्षा १ से ५ तक की कक्षाओं के छात्र निवास करते हैं। यहाँ पिचहत्तर विद्यार्थियों के निवास की व्यवस्था है। छोटे- छात्रों के लिए यह भवन अत्यधिक उत्तम है। एक ही नजर में सभी विद्यार्थियों की देख-रेख सहज ही हो जाती है। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श निकेतन छात्रावास, राणावास २४१ गोकुलचन्दजी रामलालजी संचेती जैन तेरापन्थ छात्रावास इस भवन में भी दो सदन हैं जिनका नामकरण महाप्रज्ञ सदन व केसरी मदन किया गया है। इसमें दस कमरे हैं व इसमें १२५ विद्यार्थियों के निवास की व्यवस्था है। इस प्रकार कमशः २५०, ७५, १२५ कुल मिलाकर ४५० विद्यार्थियों के निवास स्थान की व्यवस्था है। इससे अधिक विद्यार्थी रख पाना असम्भव है और प्रति वर्ष ४५० से अधिक विद्यार्थी प्रवेश प्राप्त कर लेते हैं। बहुत से विद्यार्थियों को प्रवेश न मिलने से निराश होकर लौटना पड़ता है। इन सब भवनों में कक्षा १ से ११ तक की आवासीय व्यवस्था है। १. जय सदन कक्षा १ से कक्षा ५ तक २. गोकुलचन्दजी रामलालजी कक्षा ६ व ७ तक संचेती जैन तेरापंथ छात्रावास ३. आदर्श निकेतन कक्षा ८ से ११ तक (मुख्य भवन) छात्रावास की फीस प्रारम्भ में छात्रावास की भोजन फीस बहुत ही कम थी। मगर लगातार महंगाई के कारण समय-समय पर फीसों को बढ़ाना पड़ा। प्रारम्भ में भोजन फीस ६) रु० प्रतिमास थी जो क्रमशः ११), १५), १८), २१), २५), ३२), ३५), ४०), ४५), ५१), ५७), ६५) एवं ७०) तक बढ़ती गई। वर्तमान में कक्षा १ से ८ तक की भोजन फीस ६५) व अन्य ११) रु० कुल मिलाकर ७६) है। कक्षा से ११ तक ७०) रु० भोजन फीस तथा अन्य ११) रु. है। वर्तमान में छात्रावास की फीसें इस प्रकार हैंकक्षा १ से. तक कक्षा ६ से ११ तक भोजन ६५) ७०) व्यवस्था धोबी रोशनी २)५० फूट औषधि मकान किराया - वर्तमान सत्र १९८०-८१ में छात्रावास में कक्षानुसार संख्या इस प्रकार हैकक्षा १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ कुल छात्र ४ ११ १५ २३ २८ ५१ ४८ ४२ ६२ ६२ ५६ ४३२ छात्रावास से सुविधाएं छात्रावास की तरफ के छात्रों को काफी सुविधाएँ हैं। यद्यपि भोजन फीस के प्रति छात्र के १००) और १२५) मासिक से कम खर्च नहीं होता है फिर भी फीस क्रमश: ६५) व ७०) रु. मासिक ही है। यह भी इस युग में एक बहुत बड़ी सुविधा है। इस सुविधा के साथ-साथ अन्य कई सुविधाएँ हैं। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ कर्मयोगी श्री केसरीमसजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ द्वितीय खण्ड क्षौर कला केन्द्र छात्रावास की ओर से स्थाई रूप से क्षौर कला केन्द्र है । जहाँ पूरे दिनभर के लिए नाई रहता है । जहाँ पर छात्र के बाल कटिंग की उत्तम व्यवस्था है। यहाँ छात्रों को लम्बे-लम्बे बाल ( हिप्पीकट वास ) नहीं रखने दिये जाते हैं । बाल कटिंग के अलावा नाई की अन्य सेवाएँ भी हैं। किसी विद्यार्थी के चोट लगने पर, दुःखने पर मालिश व्यवस्था नाई करता है । साथ ही साथ बीमार छात्रों की सेवा एवं अतिथियों की सेवा, भोजन व नाश्ते का प्रबन्ध करता है । औषधालय छात्रावास की तरफ से एक बड़े अस्पताल का निर्माण भी किया गया है जहाँ २४ घंटे के लिए एक दक्ष डाक्टर और कम्पाउण्डर रहता है। उनका निवास भी औषधालय के भवन में ही है। किसी भी समय बीमारों की • सेवा, औषध-व्यस्था, खान-पान व्यवस्था के लिए उत्तम व्यवस्था है । डाक्टर के साथ एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हर समय रहता है जो बीमारों की सेवा में लगातार बना रहता है व बीमारों के पास सोया रहता है । १६ पलंग का एक औषधालय है। ३५ वर्षों से अनुभवी डाक्टर बी० एन० वशिष्ठ अपनी अमूल्य सेवा दे रहे हैं। धोबी छात्रावास की तरफ से दो धोबी नियुक्त हैं जो छात्रों के कपड़े धोने व प्रेस करने में लगे रहते हैं । यद्यपि छात्रावास की तरफ से प्रतिछात्र नियत कपड़ों के अलावा कोई विशेष कपड़े धुलाना चाहे तो उसके हाथ वर्ष खाते से पैसा दे दिया जाता है। स्नान व कपड़े धोने की व्यवस्था छात्रावास में छात्रों के नहाने की उत्तम व्यवस्था है। छात्रावास के दक्षिण में ५० फीट दूरी पर एक कुआँ - बना हुआ है जहाँ पम्पिंग सेट लगा हुआ है। इसी कुएँ के पास एक बड़ा हौज बना हुआ है एवं उसमें टोंटियाँ लगी हुई है । हौज के पास ही काफी भूमि पर पक्के पत्थरों का फर्श है जहाँ विद्यार्थी काफी संख्या में कपड़े धो सकते हैं। इसी हौज के पास एक खुला हौज बना दिया गया है जहाँ पानी का स्टाक कर लिया जाता है, जिससे काफी संख्या में छात्र स्नान कर सकते हैं तथा निवृत्त हो सकते हैं। इसी हौज के पास एक तरण-ताल बना हुआ है, जो छोटे बच्चों के स्नान के लिए व तैरना सीखने के लिए बड़ा उपयोगी है । अन्य सुविधायें छात्रावास की तरफ से प्रत्येक विद्यार्थी को उसके कमरे में एक खाट मिलता है व पुस्तकें, कापियां आदि सामान रखने के लिए आलमारी मिलती है जो प्रत्येक कमरे में स्थित है । सुविधा की दृष्टि से छात्रावास की तरफ से एक स्टोर है, जहाँ विद्यार्थियों को किताब, कापियाँ, पेन, स्याही, स्केल, साबुन, तेल, मंजन, गोली, बिस्कुट व उनके उपयोग का सारा सामान मिलता है। गृहपति से लिखित में आज्ञा प्राप्त कर विद्यार्थी वहाँ से अपनी इच्छित सामग्री प्राप्त करता है । गृहपति जिन चीजों को दिलाना वाजिब समझते हैं उन्हें वही सामान मिलता है। स्टोर में संस्थान की तरफ से एक कर्मचारी नियुक्त है, जो हर समय वहीं रहता है । वर्षानुसार छात्रों की संख्या सन् *૨** १६४५ १९४६ pero १९४८ छात्रसंख्या ५ २१ ३५ ४५ ६१ सन् १६४६ १९५० १६५१ १६५२ १६५३ छात्रसंख्या ७५ ८७ १०१ १२५ १४१ . Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श निकेतन छात्रावास, राणावास २४३ .mmm.0mm m mram .me .-.me .m.m.m.-..mrate.-.-.-.-.-. . .-. .-.mm .. १६५ ३०६ २७५ २८१ १८० २५६ २६५ २७१ २७६ २५४ २३६ ३२५ ३५० वर्ष १६४४ १९५४ १९६८ १९५५ १७५ १६५६ १६७० १९५७ १८५ १९७१ १९५८ १४६ १९७२ १९५६ २०५ १९७३ १९६० २२१ १६७४ १९६१ २३६ १९७५ १९६२ २४५ १९७६ १६६३ १६७७ १६६४ २३६ १९७८ १६६५ २२५ १९७६ १९६६ ३२५ १९८० १९६७ १९८१ इन छात्रावासों में अब तक जो वार्डन रहे, उनके नाम इस प्रकार हैं वार्डन का नाम श्री मिश्रीमल जी सुराणा १६४५ श्री चन्दूलालजी १६४६ १९४७ १६४८ १६४६ १९५०-५७ श्री दयालसिंह जी गहलोत १९५७-५६ श्री सोहनलालजी व घीसूलालजी कटारिया १६५६ श्री गुलाबचन्द जी बाबेल, उदयपुर १९६० श्री सरदारमलजी मेहता, उदयपुर १९६१ मांगीलालजी सुराणा १६६२ भंवरलालजी आच्छा १९६३ १९६४ १९६५ मूलसिंह जी चुण्डावत १९६६ १९६७ '१९६८ चांदमलजी सिंघवी १९६९-७० १६७१-७६ भैरूलालजी बाफना १९७६-७७ रोशनलालजी, उदयपुर १९७७-८० मूलसिंह चुण्डावत वर्तमान में मूलसिंहजी चुण्डावत मुख्य अधीक्षक के रूप में कार्य कर रहे हैं। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड दिनचर्या छात्रों की दिनचर्या बड़ी नियमित है। पूरे दिन की दिनचर्या का विभाजन इस प्रकार से किया गया हैप्रात: ४.३० से ५.१५ तक शौच, मंजन, स्नान व कमरे की सफाई ५-१५ से ७-०० अध्ययन ७-१५ से ७-३० व्यायाम, मुनिदर्शन ७-३० से ३-४५ दुग्धपान ७-४५ से ८-१५ अध्ययन ८-१५ से ६-०५ सामायिक ९-०५ से ६-३० स्नान ६-३० से १०-१५ भोजन १०-१५ से १०-३० कमरे की सफाई व स्कूल तैयारी १०-३० से २-०० विद्यालय में अध्ययन दोपहर २-०० से २-३० तक (अल्पाहार) दोपहरी वितरण २-३० से ५-०० तक विद्यालय में अध्ययन सायं ५-०० से ६-०० तक शौच, स्नान, खेल, औषधालय आदि ६-०० से ६-४५ भोजन ६-४५ से ७-१५ भ्रमण ७-१५ से ७-३० प्रार्थना व उपस्थिति ७-३० से ६-३० अध्ययन ९-३० से ४-३० तक शयन ऋतुओं के अनुसार समय में परिवर्तन किया जाता है। रात्रि भोजन व्यवस्था छात्रावास की भोजन व्यवस्था अत्यन्त सुन्दर है। विद्यार्थियों को प्रतिदिन सादा, स्वच्छ व देशी भोजन दिया जाता है । अत्यधिक मिर्च-मसाले का प्रयोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हर चीज ताजा ही काम में ली जाती है। देशी गेहूँ, शुद्ध घी, बगीचे की आयी हुई एकदम ताजा सब्जी छात्रों के स्वास्थ्य को बहुत लाभ पहुँचाती है। प्रात: नाश्ते में प्रतिदिन ७-३० बजे पावभर दूध एवं उसके साथ बिस्कुट, टोस्ट या ऋतु के अनुसार मक्की की घाट या खिचड़ी दूध के साथ दी जाती है। ठीक ६-३० बजे प्रातः को भोजन दिया जाता है। प्रात: भोजन में दाल व एक सब्जी व फुलके दिये जाते हैं। साथ में कभी-कभी पोदीने या धनिये की चटनी और नींबू दिया जाता है। दिन में ठीक दो बजे दोपहरी (अल्पाहार) दी जाती है, जिसमें क्रमशः इडली, उपमा, नमकीन, चावल, ककड़ी, पपीता, खजूर, मूंगफली व चने दिये जाते हैं। सायं ६-०० बजे सन्ध्या का भोजन दिया जाता है, जिसमें हरी सब्जी, दाल, फूलके व चावल प्रतिदिन दिये जाते हैं। इसके अलावा महिने में ४ बार मिष्ठान व नमकीन दिया जाता है। .. भोजन की व्यवस्था अच्छी है । केसरीमलजी सुराणा प्रतिदिन भोजन का स्वयं निरीक्षण करते हैं। इस सुन्दर व्यवस्था के कारण छात्रावास में छात्रों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। - - - Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श निकेतन छात्रावास, राणावास प्रारम्भ में एक ही भोजनशाला की व्यवस्था थी लेकिन छात्रों की संख्या वृद्धि के कारण बैठने की जगह कम पड़ने लगी । संख्या वृद्धि की बात ध्यान में रखते हुए व भोजन व्यवस्था को और सुन्दर बनाने के लिए एक की जगह तीन भोजनशालाएँ बनाने का निर्णय लिया गया जो सन् १६७६ से प्रारम्भ है । कक्षा १०-११ के लिए एक भोजनजाला कक्षा के लिए दूसरी भोजनशाला, कक्षा १-७ के लिए तीसरी भोजनशाला । कक्षा १ से ७ तक की भोजनशाला का निर्माण श्री गोकुलचन्द रामलालजी संचेती जैन तेरापंथ छात्रावास में किया गया है। २४५ प्रत्येक भोजनशाला में चार-चार रसोईदार व इन तीनों रसोड़ों में एक मुख्य रसोईदार नियुक्त किया गया है । भोजन करने के स्थान की स्वच्छता का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। वहां बैठने के लिए चटाइयाँ बिछा दी जाती हैं। भोजन स्थान को प्रतिदिन धोया जाता है। कभी-कभी सोड़े से भी साफ किया जाता है । विद्यार्थी भोजन के समय भोजन की घंटी लगते ही भोजनशाला के बाहर कतारबद्ध खड़े हो जाते हैं। फिर अधीक्षक महोदय की देखरेख में विद्यार्थी भोजन स्थान पर शान्ति के साथ बैठ जाते हैं। भोजन परोसने का काम स्वयं विद्यार्थी ही करते हैं, जिनको क्रमशः बारी दे दी जाती है । भोजनशाला में कोई विद्यार्थी चूँ की आवाज तक नहीं करता है । ऐसे संस्कार उनमें डाले जाते हैं। सभी विद्यार्थियों के बैठने पर भोजन परोसा जाता है । सभी विद्यार्थियों को पूरी भोजन सामग्री मिलने पर भोजन के समय वोली जाने वाली प्रार्थना एक साथ बोली जाती है। प्रार्थना की पंक्ति इस प्रकार है 'वन्दे वीरम्' 'वन्दे मातरम्' 'अपि जय भिक्षु देपेय' 'तेरापंथ पथाधिप जैन जगत आदेय' 'अयि जय भिक्षु दैपेय' आधे मिनट के ध्यान के बाद भोजन प्रारम्भ किया जाता है। इशारे पर ही परोसकारी दी जाती है। इस तरह बड़े सुन्दर ढंग से भोजनशाला में शान्त वातावरण बना रहता है। भोजनशाला में आधे से अधिक विद्यार्थियों के भोजन कर लेने के बाद बारी समाप्त करने का आदेश मिलता है । उस समय भोजन परोसने वाले 'महावीर स्वामी की जय बोलते हैं। इसका अर्थ है कि जो विद्यार्थी जीमने बाकी है वे अब आखिरी बार में जितना भोजन चाहें उतना प्राप्त कर लें ताकि कार्य समय पर निपट सके। इसके बाद परोसने वाले जीमने के लिए बैठते हैं । उनकी परोसकारी भी विद्यार्थी ही करते हैं, जो जीम चुके हैं । प्रतिदिन भोजनशाला में इसी तरह व्यवस्था बनी रहती है | इस प्रकार की व्यवस्था से भोजन में शान्ति बनाये रखने का संस्कार बालकों में स्वतः ही आ जाता है। इसके अलावा भोजन परोसने की कला का भी प्रशिक्षण सरलता से प्राप्त हो जाता है । यद्यपि छात्रावास में जूठन डालने का प्रचलन बिल्कुल नहीं है, मगर कारण विशेष से किसी विद्यार्थी के साथ ऐसा बन जाता है तो जूठे के लिए भोजनशाला के बाहर उसकी कुण्डी बनी हुई है, जिसमें यह जूठन डाल दिया जाता है । यह जठन बगीचे के लिए जो बैल हैं उनके काम आ जाता है । छात्रावास में अध्ययन समय सारिणी के अनुसार छात्रावास में छात्रों का विद्यालय समयोपरान्त सवा चार घण्टे अध्ययन के लिए मिलते हैं । नियमित रूप से सवा चार घण्टों के अलावा अध्ययन करने पर किसी भी विद्यार्थी को असफलता नहीं मिलती । प्रतिदिन सायं के बाद विशेषकर पदणित के लिए कोचिंग कक्षाओं की व्यवस्था की जाती है, जिनमें प्रायः विद्यालय के अध्यापक ही उन्हें उपरोक्त विषयों का अध्ययन कराते हैं और खास तौर से कमजोर विद्यार्थियों को कम रुपयों में अध्ययन की सुन्दर व्यवस्था का लाभ मिल जाता है। अपने आवासीय कमरों में एकदम जान्त वातावरण में होता है। पूर्ण प्रात: और सायं का अध्ययन व गृहकार्य शान्ति बनी रहे इसके लिए प्रत्येक सदन में एक . Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड .. m. .. m.m. अधीक्षक हर समय बना रहता है। अधीक्षक छात्रों के गृह-कार्य की देखरेख करता है ताकि वे नियमित रूप से गृहकार्य करते रहें। इस प्रकार की व्यवस्था के कारण प्रतिवर्ष यहाँ हर कक्षा का परीक्षाफल अत्युत्तम रहता है। विशेष तौर से बोर्ड की परीक्षाओं के परीक्षाफल सदैव उत्तम रहे हैं। आध्यात्मिक संस्कार छात्रावास के छात्रों को शैक्षणिक योग्यता देने के साथ-साथ आध्यात्मिक संस्कार भी दिये जाते हैं। अच्छी आदतों को डालने का प्रयास कराया जाता है। तेरापंथ के नवमाचार्य अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक युग-प्रधान आचार्य श्री तुलसी की इस छात्रावास पर सदैव अनुकम्पा रही है। नन्हे-नन्हे बालकों पर महान् कृपाकर पूज्य गुरुदेव प्रतिवर्ष यहाँ साधु या साध्वियों का चातुर्मास फरमाते हैं। चातुर्मास की अवधि में साधु या साध्वीवृन्द प्रतिदिन छात्रावास में पधारते हैं व धार्मिक शिक्षण देते हैं। विद्यार्थीवर्ग प्रतिदिन एक सामायिक करते हैं और उसी समय में चरित्रात्माएँ उन्हें धार्मिक बोध देते हैं। धामिक शिक्षण के साथ-साथ प्रति रविवार या अन्य अवकाश के दिन चारित्रात्माओं द्वारा व्याख्यान दिया जाता है, जो चरित्र एवं नैतिकता से परिपूर्ण होता है। नाना प्रकार की सुलघुकथाओं व मधुर संगीत द्वारा छात्रों के कोमल हृदय पर गहरा असर पड़ता है। खासतौर से यह शिक्षा दी जाती है कि हमें अपना जीवन किस प्रकार बिना किसी की आत्मा को कष्ट पहुँचाए जीना चाहिए। चरित्र और नैतिकता के धनी, त्यागवीर कर्मठ कार्यकर्ता श्री केसरीमलजी सुराणा क। छात्रों के बीच समय-समय पर उपदेश होता रहता है, उनके नाना प्रकार के उपदेशों से व उनके त्यागमय जीवन का असर छात्रों पर पड़े बिना नहीं रहता है। समय-समय पर यहाँ समाज के एवं अन्य विशिष्ट व्यक्तियों का आगमन होता रहता है, जिनसे भी व्याख्यान एवं विशिष्ट बातें सुनने का सुनहरा अवसर प्राप्त होता है। धार्मिक परीक्षाएँ जैन विश्व भारती द्वारा संचालित परीक्षाओं का राणावास सबसे प्रमुख केन्द्र स्थल है। प्रतिवर्ष वहाँ की परीक्षाएँ दी जाती हैं। प्रतिवर्ष अणुव्रत परीक्षाएँ भी होती हैं, जो नैतिकता से परिपूर्ण व जीवन-व्यवहार की शाद का परम सोपान है। ९ पुस्तकालय आदर्श निकेतन छात्रावास के पुस्तकालय में प्रायः धार्मिक व नैतिकता से परिपूर्ण पुस्तकों का संग्रह है। करीब दो हजार पुस्तकें पुस्तकालय में हैं। प्रतिदिन सुबह व सायं प्रार्थना के बाद अधीक्षकों द्वारा जीवन-व्यवहार की बातों, धार्मिक बातों, चरित्र और नैतिकता की बातों का उद्बोधन होता है। इस तरह विद्यार्थी को व्यावहारिक व धार्मिक संस्कार की बातें मिलती रहती हैं। बीमारी के समय छात्रों की देख-रेख छात्रावास में बीमार छात्रों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। जिस समय छात्र बीमार हो जाता है तो उसके इन्चार्ज अधीक्षक उसी समय दवाई दिलवाने हेतु औषधालय में भेज देते हैं और जब तक विद्यार्थी पूर्ण स्वस्थ न हो तब तक औषधालय में ही रहता है। विशेष रुग्ण होने पर छात्र को छात्रावास के किसी कर्मचारी के साथ घर भेज दिया जाता है या छात्र के घर पत्र, तार या टेलीफोन देकर उसके अभिभावक को बुला लिया जाता है। बीमारी की अवस्था में डाक्टर के कहे अनुसार ही उसके पथ्य की व्यवस्था की जाती है। बीमार छात्रों की देख-रेख औषधालय में स्थित डाक्टर करते Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श निकेतन छात्रावास, राणावास हैं। चतुर्थ श्रेणी का एक कर्मचारी यहाँ हर समय बना रहता है व इन्चार्ज अधीक्षक महोदय भी उसको स्वयं देखने जाते रहते हैं। छात्रावास में छात्रवृत्तियाँ छात्रावास में प्राय: समाज के गरीब छात्रों को छात्रवृत्तियाँ भी दी जाती हैं । अर्थात् उनकी पूर्ण भोजन फीस, अर्द्ध भोजन फीस माफ की जाती है। ये छात्रवृत्तियाँ तेरापंथी सभाओं के मान्यता देने पर या विशिष्ट व्यक्तियों के सिफारिश करने पर दी जाती है। गैर समाज के विद्यार्थियों को भी छात्रवृत्तियाँ दी जाती हैं। छात्रवृत्तियाँ गरीब छात्रों को ही देने का प्रावधान है । अभिभावकों के ठहरने की व्यवस्था इतने विशाल छात्रावास होने के नाते यहाँ प्रतिदिन ६-७ अभिभावक आ ही जाते हैं । अभिभावकों के ठहरने के लिए अलग से अतिथिगृह बना हुआ है जहाँ पाँच, छः कमरे हैं । अभिभावकों के खान-पान की व्यवस्था बालकों के भोजनालय में ही होती है । उन्हें भी वही भोजन कराया जाता है, जो छात्रों के लिए बनता है। अतिथिगृह में अतिथियों की सेवा के लिए अलग से दो कर्मचारी नियुक्त हैं । अतिथि के आगमन व गमन का रेकार्ड भी यहाँ अंकित किया जाता है । विद्यार्थियों की अर्थ-व्यवस्था का प्रबन्ध छात्रावास में प्रत्येक विद्यार्थी का भोजन खाता व वैयक्तिक लेन-देन का खाता अलग-अलग है । भोजन खाते में भोजन की फीस जमा की जाती है। दो माह की फीस डिपोजिट रखी जाती है जो सत्र के अन्तिम दो माह के लिए सुरक्षित रहती है। हर माह की पन्द्रह तारीख तक विद्यार्थी के चालू माह की फीस जमा रहनी चाहिए, अन्यथा पाँच पैसा प्रतिदिन के हिसाब से आर्थिक दण्ड लगता है। २४७ वैयक्तिक लेन-देन के लिए अलग से खाता है । इस खाते से विद्यार्थी को का प्रावधान है। नकदी रुपयों की जरूरत होने पर अधीक्षक महोदय की स्वीकृति लिखित में प्रार्थना-पत्र देना पड़ता है तभी उसके द्वारा इच्छित रुपये प्राप्त हो सकते हैं। नकदी रुपया पैसा नहीं रख सकता है। भोजन फीस व वैयक्तिक लेन-देन के रोकड़ व खातों का निरीक्षण प्रतिदिन संघ के कोषाध्यक्ष करते हैं। इस प्रकार के प्रबन्ध से विद्यार्थियों में मितव्ययिता की आदत पड़ती है। उन्हें पैसा कहाँ और किस प्रकार वर्ष करना चाहिए, की शिक्षा भी बार-बार दी जाती है। सांस्कृतिक कार्यक्रम छात्रावास में सांस्कृतिक कार्यक्रमों को भी कार्यक्रम रखा जाता है। इस कार्यक्रम की तैयारी के विद्यार्थी अपनी तैयारी करते हैं व क्रमशः प्रदर्शन करते हैं । आवश्यकता की चीजों को दिलाने लेनी पड़ती है व इसके लिए कोई भी विद्यार्थी अपने पास अनुशासन व दण्ड छात्रों के लिए पूर्ण निमन्त्रण में रहने के लिए आदेश निर्देश दिये जाते हैं। अनुशासन में रहने के लिए उन्हें प्रवेश के समय छात्रावास के नियम - उपनियमों से विदित किया जाता है। किसी विद्यार्थी के अनुशासन भंग करने पर उसे चेतावनी दी जाती है। नाना प्रकार से समझाया जाता है। मगर बार-बार अनुशासन भंग करने पर उसे व्यायाम के रूप में सजा दी जाती है। इसके बावजूद भी कोई विद्यार्थी नहीं मानता है तो उसे छात्रावास से पृथक् कर दिया जाता है । विशेष स्थान दिया जाता है । प्रत्येक शनिवार को सामूहिक लिए पहले से ही समय दे दिया जाता है। कमरों के अनुसार वर्ष में कई जैन पर्व और कई अन्य पर्व आते हैं । उसके लिए बहुत से छात्र स्वयं संगीत, भाषण व नाटक आदि की तैयारी करते हैं । कुछ छात्र अधीक्षक की देखरेख में तैयारी करते हैं । कुछ मेधावी छात्रों को इसके लिए प्रेरित .० . Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड .-. 0 . 0 . 0 . - - . s e .-.-.-.o mtaram.0.0 ..0.0.0.0.0.0.0.0.0.0.mms ... किया जाता है, तैयारियां समय-समय पर की जाती हैं। इतना विशाल संस्थान होने से यहाँ प्रतिवर्ष कई अतिथियों का आगमन होता है। उनके लिए भी तैयारियाँ करनी पड़ती हैं । अतः छात्रावास जीवन में रहने से विद्यार्थी का एक-दूसरे से सीखने का, समझने का व व्यावहारिक ढंग से रहने का अवसर मिलता है। सहनशीलता रखने का अवसर मिलता है। छात्रावास में अपना स्वयं का बैण्ड है। उसे भी काफी विद्यार्थियों को सिखाया जाता है। इसके अतिरिक्त आस-पास के प्राकृतिक स्थानों में भी छात्रों को वर्ष में एक-दो बार पिकनिक के लिए ले जाया जाता है। समय-समय पर पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री तुलसी के दर्शन करने हेतु भी ले जाया जाता है। समय-समय पर यहाँ के विद्यार्थी जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, गंगाशहर, बीदासर, लाडनूं, सुजानगढ़, चूरू, उदयपुर, भीलवाड़ा, राजसमन्द, लुधियाना आदि स्थानों पर आचार्य श्री दर्शनार्थ गये हैं। अब तक आचार्य श्री तुलसी के १४ बार दर्शन विभिन्न स्थानों पर किये हैं। छात्र-समितियां छात्रों की देख-रेख, अनुशासन व व्यवस्था के लिए छात्रावास में छात्रसमितियाँ भी हैं। उन समितियों के लिए यहाँ चुनाव प्रणाली नहीं है। जो विद्यार्थी कार्यक्षेत्र में रुचि रखते हैं, जिनमें सेवा की भावना है उन्हें अधीक्षक द्वारा उनकी रुचि का काम सौंप दिया जाता है। प्रत्येक कमरे का एक मानीटर होता है जिसे छात्रावास में दलमन्त्री के नाम से पुकारा जाता है (दल का अर्थ कमरा है)। उसके आदेश-निर्देश से उसके कमरे के विद्यार्थी समयचक्रानुसार कार्य करते हैं। प्रत्येक विद्यार्थी की रिपोर्ट देना दलमन्त्री का कर्तव्य है। इसी तरह सदन में एक सदनप्रधान मनोनीत किया जाता है, जो पूरे सदन पर नियन्त्रण रखता है व हर कार्य-क्रम में जागरूक रहने के लिए जागरूक करता रहता है। इसी तरह छात्रावास में योग्य विद्यार्थी को छात्रप्रमुख की उपाधि से सम्मानित किया जाता है। कुछ समितियों के प्रधान इस प्रकार हैं१. भोजन-प्रधान २. सदन-प्रधान ३. छात्र-प्रमुख, ४. व्यायाम-प्रधान, ५. सांस्कृतिक प्रधान, ६. धोबी-प्रधान । इस तरह काफी विद्याथियों को स्वयं अनुशासित रहने का व दूसरे से अनुशासन रखवाने का बड़ा सुन्दर अवसर मिलता है। स्वावलम्बी जीवन यहाँ के छात्रावास का जीवन पूर्ण स्वावलम्बी जीवन है । घर छोड़ने के पश्चात् विद्यार्थी को बहुत से कार्य अपने हाथों से करने पड़ते हैं। यद्यपि जिन कार्यों को उन्होंने घर पर कभी हाथ भी नहीं लगाया है वे उन्हें यहाँ करने पड़ते हैं। उन्हें तरह-तरह के कार्य सीखने का अवसर मिलता है। स्वावलम्बन के कार्यों का ब्यौरा इस प्रकार है (१) अपने स्वयं के कपड़ों की स्वच्छता, (२) अपने थाली, कटोरी, लोटा साफ करने का अवसर. (३) कमरे को साफ-सुथरा रखने की प्रवृत्ति, (४) फटे हुए कपड़ों को सीना व बटन लगाना, (५) अधीक्षकों द्वारा बताए हए छात्रावास के प्रांगण में श्रमदान करना, (६) बगीचे में कार्य करने का अवसर भी उन्हें मिलता है जिससे पेड़-पौधों की जानकारी का अवसर मिलता है, (७) अकेले यात्रा करने का अवसर । दैनिक उपस्थिति का तरीका प्रतिदिन ४५० विद्यार्थियों की उपस्थिति केवल दस मिनट के अन्दर ले ली जाती है। मुख्य गृहपति श्री मूलसिंह जी चूण्डावत इस कार्य को बड़ी आसानी से कर लेते हैं। उनकी देख-रेख में अन्य गृहपति भी इस कार्य में दक्ष हो गये हैं । घण्टी लगने पर सामूहिक रूप से दल के अनुसार बैठने की प्रवृत्ति शुरू से डाली जाती है। दलमन्त्री अपने दल की उपस्थिति लेकर क्रमशः अपनी रिपोर्ट दे देते हैं। इस प्रकार उपस्थिति का कार्य बहुत शीघ्र निपट जाता है । यह कार्य प्राय: सुबह और सायं की प्रार्थना के समय होता है। For Povate & Personal Use Only . Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श निकेतन छात्रावास, राणावास २४१ ड्यूटी गृहपति छात्रावास कार्यालय के बाहर हर समय एक गृहपति बना रहता है। उसे ड्यूटी गृहपति कहते हैं। प्रत्येक गृहपति को ऐसा मौका दिया जाता है। जिस दिन उसकी ड्यूटी होती है उस दिन छात्रावास के सामूहिक कार्यक्रम का मार्गनिर्देशन उसी के द्वारा प्राप्त होता है। सम्पूर्ण छात्रावास की सफाई पूरे छात्रावास की सफाई के लिए दो हरिजन हैं । वे पूरे छात्रावासों के बरामदों, सड़कों, स्नान-धरों, पेशाबघरों व शौचालयों की सफाई का कार्य करते हैं। दोनों के जिम्मे अलग-अलग कार्य बँटा हुआ है। एक दिन में सुबह, . दोपहर, सायं तीन बार सफाई करते हैं। रोशनी यद्यपि छात्रावास में बिजली की व्यवस्था है, मगर कभी-कभी बिजली बन्द हो जाती है। ऐसे समय के लिए छात्रावास में लालटेनों की व्यवस्था है। करीब ८० (अस्सी) लालटेन हैं । प्रत्येक रूम में लालटेन वितरण कर देते हैं। लालटेनों पर नम्बर डाले हुए हैं जिससे आसानी से वितरण किया जा सकता है। घासलेट दो सौ-तीन सौ लीटर हर समय स्टाक में रखा जाता है। लघुशंका स्थल छात्रावास के एरिये में चार जगह पेशाबघर बने हुए हैं, जो प्रत्येक छात्रावास के लिए अलग-अलग हैं । वैसे छात्र प्रातः व सायं शौच के लिए बाहर जाते हैं, परन्तु बीमार अवस्था में व बे-टाइम गड़बड़ होने की अवस्था में छात्रावास के पास ही पलैश सिस्टम लेटरीन बनी हुई हैं, इन सबकी सफाई हरिजन ही करते हैं। इन्हें फिनाइल आदि से भी साफ किया जाता है। खोई-पाई चीज का विवरण विशाल छात्रावास में कुछ न कुछ चीज कोई न कोई विद्यार्थी प्रतिदिन खो देता है। छात्रों को साफ-साफ निर्देश है कि खोई हुई चीज प्राप्त होते ही मुख्य कार्यालय में जमा करायें। प्रतिदिन सायं प्रार्थना में उन चीजों को सबके सामने बता दिया जाता है। जिसकी चीज होती है उसे प्राप्त हो जाती है। कपड़ों पर व बर्तनों पर प्रत्येक विद्यार्थी के नाम लिखने की व्यवस्था है, जिससे खोई हुई वस्तु आसानी से प्राप्त हो जाती है। फिर भी कोई न कोई सामान कभी-कभी बचा रह जाता है, उसे मुख्य कार्यालय में क्लर्क के पास जमा कर दिया जाता है जिसका रेकार्ड रखा जाता है । इस प्रकार बचे हुए सामान को ग्रीष्मावकाश में नीलाम कर दिया जाता है। विभिन्न प्रवृत्तियाँ उद्यान आदर्श-निकेतन छात्रावास के छात्रों के लिए सब्जी का बड़ा का उद्यान है। जहाँ विभिन्न प्रकार की सब्जियाँ होती हैं, जैसे-लौकी, भिण्डी, चिचिण्डा, गिलका, तोरू, टिण्डी, ग्वारफली, आरिया ककड़ी, तरककड़ी, काचरा, फूल गोभी, पत्ता-गोभी, गाँठ-गोभी, प्याज की पत्ती, पपीता, खीरा, पालक, चन्दलिया, चुकन्दर, शलगम, शिमला मिर्च गोल आदि-आदि । बगीचे में एक मुख्य बागवान हर समय रहता है, जिसके अधीन चार कर्मचारी रहते हैं। वर्तमान में १०० किलो सब्जी प्रतिदिन चाहिए। सब्जियों के अलावा नीबू, पोदीना व धनियाँ भी बगीचे में हर समय रहते हैं । बगीचे में दो बैल हल चलाने के लिए हैं व खेतों में खाद डालने हेतु एवं सामान ढोने के लिए छकड़ा (टायर गाड़ी) है। सिंचाई के लिए दो कुएँ हैं । एक पर पाँच होर्स पावर की मोटर लगी हई जो बगीचे के मध्य में स्थित है। दूसरा कुओं छात्रावास के मुख्य भवन के दक्षिण में ५० फीट दूर है, जहाँ ७१ हार्सपावर की मोटर लगी हुई है, उससे भी बगीचे की सिंचाई होती है। इसी कुएँ पर पावर का इंजन भी लगा हुआ है। जब कभी बिजली (करंट) नहीं आती है तो इंजन चालू कर समस्या का समाधान किया जाता है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6666 Meanin U २५० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड चौकीदार छात्रावास में चौकीदार की सेवाएँ भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । यहाँ दो चौकीदार नियत हैं, जिनकी दिन में ६ घण्टा व रात्रि में ६ घण्टा ड्यूटी क्रमशः होती है। यद्यपि छात्रावास के चारों तरफ पक्की दीवारें बनी हुई हैं फिर भी सतर्कता की दृष्टि से चौकीदार का होना महत्त्वपूर्ण है । कोई छात्र बिना आज्ञा के छात्रावास की चार दीवारी से बाहर नहीं जा सकता है । उसे मुख्य गृहपति या उपमुख्य गृहपति से लिखित स्लिप मिलेगी, उस स्लिप को दिखाने पर ही वह छात्रावास की चारदीवारी से बाहर जा सकता है। बाहर से आगन्तुक महानुभावों से परिचय पूछना और उन्हें जिनसे मिलना है वहाँ तक उनको मार्गदर्शन देना भी चौकीदार का कार्य है । छात्रावास कार्यालय मुख्य भवन के बीचों-बीच छात्रावास का कार्यालय है, जहाँ मुख्य अधीक्षक व एक क्लर्क हर समय रहते हैं । आगन्तुक सज्जन को सारी जानकारी यहीं से मिलती है। छात्रावास के अन्य गृहपत्तियों के लिए आदेश निर्देश यहाँ से प्राप्त होते हैं । लकड़ी का स्टाक भोजनशालाओं के लिए लकड़ी का स्टाक हर समय बना रहता है। इसके लिए छायादार टीनशेड व एक अलग से कमरा बना हुआ है । प्रायः लकड़ी या तो पास वाले गाँवों से ऊँटों द्वारा आती है या आरा मशीन मालिक से खरीद ली जाती है। राशन वितरण भोजनशालाओं के वितरण के लिए एक कोठारी नियुक्त है। छात्रसंख्या के अनुसार राशन देने का काम कोठारी करता है । छात्रों की संख्या के अनुसार निर्धारित राशन देने की व्यवस्था है । 000 . Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ परिसर एवं संचालित इकाईयां (नवीन परिसर) श्री मोतीलाल बैंगानी औषधालय एवं श्री मन्नालाल सुराणा मेमोरियल ट्रस्ट अतिथि गृह भवन श्री भीकमचन्द ठाकरचन्द पुनमिया भोजनालय भवन [महाविद्यालय छात्रावास] छात्र भोजन करते हुए साथ में खड़े हैं प्राचार्य जी एवं छात्रावास अधीक्षक जी गुड़ा रामसिंह : परिसर श्री पी० एच० रूपचन्द डोसी माध्यमिक विद्यालय भवन श्री हस्तीमल घीसूलाल गादिया औषधालय भवन Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धित अन्य चित्र श्री केसरीमल जी सुराणा का निवास स्थान श्री जैन तेरापंथ अध्यापक आवास भवन कर्मचारी आवास एवं सहकारी भण्डार भवन श्री केसरीमल जी सूराणा द्वारा संचालित श्री अखिल भारतीय महिला शिक्षण संघ, बालिका छात्रावास भवन i Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छात्र चिकित्सा केन्द्र सेठ श्री मोतीलाल बैंगाणी औषधालय, राणावास D डॉ. प्रेमचन्द रावल, चिकित्सक, औषधालय मनुष्य जितना स्वस्थ रहेगा, उसमें आगे बढ़ने और जीवन-निर्माण की क्षमता भी उतनी ही रहेगी, क्योंकि जिसके पास स्वास्थ्य है, उसके पास आशा है; और जिसके पास आशा है, उसके पास सब कुछ है। विद्यार्थी जीवन में तो यह लोकोक्ति और अधिक महत्वपूर्ण है । अगर उसका शरीर स्वस्थ रहेगा तो मन भी स्वस्थ रहेगा तथा अगर मन स्वस्थ है तो उसका अध्ययन भी स्वस्थ रहेगा। श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ राणावास के संस्थापक संचालक श्रद्धेय काका साहब कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा की यही दृष्टि संस्था के प्रारम्भ से रही है, क्योंकि विद्यालय के अध्ययनरत व छात्रावासों में रहने वाले विद्यार्थी अपने माता-पिता से बहुत दूर रहते हैं ऐसी स्थिति में उनके स्वास्थ्य की रक्षा का एकमेव भार संस्था पर आ पड़ता है । जब तक छात्रों को छात्रावासों में परिवार की आत्मीयता एवं वातावरण नहीं मिलेगा तब तक छात्रों को न तो संस्था से लगाव रहेगा और न ही छात्र यहाँ टिककर अध्ययन कर पायेंगे। माता-पिता अपने बच्चों को उस स्थिति में घर से दूर नहीं भेजेंगे, किन्तु राणावास की इस संस्था की स्थिति दूसरी है, यहाँ प्रतिवर्ष छात्रों की संख्या बढ़ती चली जा रही है। इसका श्रेय संस्था की उत्तम व्यवस्था, विद्यालयों का उत्कृष्ट अध्ययन और छात्रावासों का अनुशासित और आत्मीय वातावरण को तो है ही किन्तु छात्रों, अध्यापकों व यहाँ सेवारत कर्मचारियों के स्वास्थ्य की देखरेख के लिये संस्था द्वारा संचालित औषधालय को भी है। औषधालय की स्थापना-संस्था द्वारा विद्यालय व छात्रावास आरम्भ करने के समय से ही छात्रों के स्वास्थ्य की देखरेख की जाती थी और राणावास गाँव के प्रसिद्ध चिकित्सक डा० विनयकुमार जी वशिष्ठ इस महत्त्वपूर्ण दायित्व को तब से ही निभा रहे हैं। पहले डाक्टर साहब प्रतिदिन सायं छात्रों को देखने के लिये संस्था में ही पधारते थे, उसके बाद आदर्श निकेतन छात्रावास के पास ही मैदान में बने क्वार्टरों में से एक कक्ष औषधालय के रूप में निर्धारित कर दिया गया, जहां निर्धारित समय पर छात्र अपना इलाज कराते थे । इमरजेन्सी में डाक्टर वशिष्ठ साहब अपने निजी चिकित्सालय में हमेशा उपलब्ध रहते थे, किन्तु संस्था के विकास के साथ-साथ एक पूर्णकालिक अस्पताल की जरूरत महसूस की गई क्योंकि पहले तो विद्यालय पाँचवीं कक्षा तक ही था, फिर आठवीं, दसवीं और ग्यारहवीं तक क्रमोन्नत हुआ। अब तो महाविद्यालय भी यहाँ पर संस्थापित है। छात्रावासों एवं उसमें छात्रों की संख्या भी इसी अनुपात में निरन्तर बढ़ती रही है। ऐसी स्थिति में काका साहब ने आधुनिक चिकित्सा सुविधा से युक्त एक औषधालय एवं उसमें पूर्णकालिक योग्य स्टाफ की आवश्यकता अनुभव की और भगवान महावीर स्वामी की २५वीं निर्वाण . शताब्दी के अवसर पर इसकी स्थापना का संकल्प लिया। औषधालय भवन-काका साहब का संकल्प जादू की तरह पूर्ण होता है । भाद्रपद कृष्णा ३ मंगलवार वि० सं० २०३१ तदनुसार ६ अगस्त १६७४ को प्रातः ८-३० बजे प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवी दानवीर सेठ श्री मन्नालालजी सुराणा, जयपुर के कर-कमलों से औषधालय भवन का शिलान्यास करवा दिया गया। निर्माण कार्य पूरी गति के साथ आरम्भ हो गया और चार वर्षों में औषधालय भवन बनकर पूर्ण हो गया। इस औषधालय का नामकरण सेठ मोतीलाल बैगाणी औषधालय किया गया और वि० सं० २०३४ की फागुन शुक्ला ११ सोमवार तदनुसार २० मार्च, १९७८ को प्रातः ६-३० बजे नवनिमित औषधालय का उद्घाटन सरदारशहर निवासी और कलकत्ता के मुख्य व्यवसायी माननीय श्री दीपचन्द जी नाहटा के कर-कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड भवन की क्षमता - औषधालय भवन आवश्यक क्षमता के अनुरूप निर्मित है। इसमें एक कन्सलटेशन रूम बना हुआ है, जिसके साथ इजेक्शन व मेडिसन डिस्पेन्सरी भी जुड़ी हुई है। उसके बाद एक ड्रेसिंग रूम मय स्टोर के है। तीन बड़े-बड़े वार्ड बने हुए हैं, जिनमें लोहे के पलंग लगे हुए हैं। पलंग बिस्तर युक्त हैं। तीनों वार्डस में १६ बेड लगे हुए हैं, अर्थात् एक साथ सोलह छात्र तक यहाँ भर्ती रहकर इलाज करवा सकते हैं । सोलह बिस्तरों का कक्षानुसार वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है १. कक्षा १ से ७वीं कक्षा तक २. कक्षा ८ से ११वीं कक्षा तक ३. महाविद्यालय छात्रों के लिये ४. इनके अतिरिक्त एक आइसोलेशन वार्ड भी है, जिसमें संक्रामक रोगों से ग्रस्त छात्रों को भर्ती रखा जाता है । इस वार्ड में दो बिस्तर हैं । ६ विस्तर ६ बिस्तर ४ बिस्तर औषधालय स्टाफ औषधालय में दो डॉक्टर व एक वार्डबोय-कम-अटेण्डेण्ट नियुक्त हैं। डॉ० विनयकुमार वशिष्ठ प्रतिदिन सायंकाल एक घण्टा औषधालय में आते हैं। डॉ० प्रेमचन्द रावल औषधालय के इन्चार्ज व चिकित्सक के रूप में कार्य करते हैं । औषधालय समय के अलावा भी डॉ० रावल की सेवाएँ छात्रों को उपलब्ध रहती हैं । वार्डबोय-कम-अटेण्डेन्ट अस्पताल की सफाई से लेकर बीमार छात्र की सेवा-शुश्रूषा तक का कार्य करता है । औषधालय समय - औषधालय का समय छात्रों के अध्ययन व स्कूल एवं कालेज के समय को ध्यान में रखकर इस प्रकार निर्धारित किया गया है— १. गर्मियों में प्रातः ७-३० बजे से ९-३० बजे एवं सायं ४-३० से ६ बजे तक २. सर्दियों में प्रातः ८ बजे से १० बजे एवं सायं ४ से ५ बजे तक ३. इमरजेन्सी की स्थिति में औषधालय की सेवाएँ २४ घण्टे उपलब्ध रहती हैं। दवाइयाँ एवं साधन-सुविधाएं औषधालय में एलोपेथी पद्धति से चिकित्सा की जाती है तथा प्रायः समस्त प्रकार की आवश्यक एन्टिवायोटिक, दर्द दूर करने, बुखार उतारने व अन्य प्रकार की दवाइयां उपलब्ध रहती हैं। दवाइयों में इन्जेक्शन सीरप, केपसूल, टेबलेट्स, ओइन्टमेन्ट आदि हर समय स्टाक में रहते हैं। कभी कोई दवाई स्टाक में नहीं है तो उसे पानी, जोधपुर, जयपुर आदि से तत्काल मंगाने की भी व्यवस्था है। औषधालय में समस्त दवाइयाँ गोदरेज की अलमारी में रखी जाती है। इमरजेन्सी कबट की व्यवस्था अलग से है । एक्जामिनेशन टेबल, डिस्पेन्सिंग टेबल, ड्रेसिंग टेबल, बैड पान, यूरीनल आदि भी उपलब्ध हैं | सिरेंज, इन्जेक्शन नीडल्स व अन्य औजार उबालने के लिये इलैक्ट्रिक इस्ट्रालाइजर भी है । इन्द्रावीनस ड्रिप के पूर्ण साधन, रक्तचाप नापने की वी० पी० एपेरेटस, रोगियों को तौलने की वेट मशीन, चीर-फाड़ करने एवं टांके लगाने के औजार, रुई. बेन्डेज, पेशाब उतारने का रबड़ केथेटेर, नाक द्वारा भोजन देने का नेसल फीडिंग सामान, पेट साफ करने के साधन, ca आदि सामग्री से औषधालय सुसज्जित है । औषधालय में बाथरूम व लेट्रिन की व्यवस्था भी है । गंभीर बीमारी की स्थिति - औषधालय में सामान्यतया समस्त रोगों का इलाज बाह्य रोगी व अन्तरंग रोगी के रूप में किया जाता है। बीमारी लम्बी चलने या संक्रामक होने की स्थिति में वार्ड में रोगी को भर्ती कर लिया जाता है । इससे भी ज्यादा गंभीर बीमारी होने अथवा आपरेशन की स्थिति उत्पन्न होने की स्थिति में छात्र के अभिभावकों को तत्काल सूचित किया जाता है । माइनर आपरेशन अस्पताल में करने की सुविधा है । बीमार को भोजन - बाह्य रोगी को स्थिति के अनुसार भोजन की सलाह दी जाती है और विशेष भोजन देने की स्थिति में सम्बन्धित छात्रावास के अधीक्षक को सूचित कर दिया जाता है, जो भोजनालय में तदनुसार भोजन की व्यवस्था करते हैं, जो बीमार छात्र औषधालय के वार्ड में भर्ती हैं, उन्हें भोजन स्थिति अनुसार बनवाकर वार्ड में ही कराया जाता है। बीमारों को दूध, फल-फूल आदि देने की भी व्यवस्था है । . Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ श्री मोतीलाल बंगाणी औषधालय, राणावास २५३ . रोगियों की संख्या-औषधालय में मानव हितकारी संघ द्वारा संचालित सभी संस्थाओं के छात्रों व कर्मचारियों को जिनकी संख्या लगभग ७०० के करीब है, उन सबको चिकित्सा सेवा उपलब्ध है। गर्मियों में प्रतिदिन ५० से ६० तक एवं सर्दियों में ६० से १०० तक बीमार औषधालय में आकर इलाज करवाते हैं। जुलाई १९७८ से लेकर जून १९८० तक बाह्य रोगियों के रूप में २१८२१, अन्तरंग रोगी के रूप में ३८४ तथा माइनर आपरेशन १२१५ व्यक्ति (छात्र कर्मचारी) इस औषधालय से लाभ उठा चुके हैं । इन आंकड़ों से औषधालय की सार्थकता स्वयं सिद्ध है। अन्य सुविधायें-औषधालय द्वारा समय-समय पर मलेरिया निरोधक गोलियाँ वितरित की जाती हैं। आवश्यकता अनुभव होने पर टिटेनस के इंजेक्शन लगाये जाते हैं। चेचक के टीके लगाये जाते हैं और सर्प काटने का इलाज भी किया जाता है। ग्रामीण चिकित्सा केन्द्र श्री हस्तीमल घीसूलाल गादिया औषधालय, रामसिंहजी का गुड़ा यह औषधालय भी श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास द्वारा ही रामसिंह जी का गुड़ा गांव में संचालित किया जाता है। इसका शिलान्यास श्री शेरनाथजी ने किया । जब वे खारची में विकास अधिकारी थे तब यह जमीन आवंटित हई थी। इसका उद्घाटन ग्रन्थनायक कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा ने किया है । यह फरवरी १९८० से ही चालू हुआ है और अभी प्रारम्भिक अवस्था में है। उपर्युक्त मोतीलाल बैगाणी औषधालय के डाक्टर प्रेमचन्द रावल ही इस औषधालय का काम-काज देखते हैं । अभी यह प्रति सोमवार तथा शुक्रवार को ही सप्ताह में दो बार खुलता है और खुलने का समय सदियों में प्रातः ६ से १ बजे तक एवं गर्मियों में ८ से ११ बजे तक रहता है। प्राथमिक चिकित्सा की समस्त दवाइयाँ यहाँ पर उपलब्ध हैं । यह सार्वजनिक चिकित्सालय है, जिसमें गाँव का कोई भी व्यक्ति आकर मुफ्त में इलाज करा सकता है। अन्तरंग रोगी के रूप में बीमार को भर्ती करने की भी व्यवस्था है। इस हेतु औषधालय में अभी १३ बैड लगे हुए हैं। औषधालय जब खुलता है, उस अवधि के लिए एक पार्ट टाइम वार्डबोय भी नियुक्त किया हुआ है। औषधालय में अन्य सुविधाएँ भी जुटाई जा रही हैं । मानव हितकारी संघ का यह प्रयास है कि धीरे-धीरे इस औषधालय को ग्रामीण चिकित्सा के एक बृहत् चिकित्सालय के रूप में विकसित किया जाय । फरवरी १९८० से आरम्भ हुए इस औषधालय में प्रथम छ: माह में ही लग भग २३६१ रोगियों ने लाभ उठाया है, जिसमें माइनर आपरेशन के ६१ रोगी भी सम्मिलित हैं। इतने कम समय में रोगियों की इतनी अधिक संख्या को देखते हुए श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास इसका शीघ्र विस्तार करने से लिए उत्सुक है। एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इसके भवन के निर्माण के लिए श्री पारसमलजी गादिया ने इकत्तीस हजार रुपये प्रदान किये, अत: उनके पिताजी के नाम से इसका नामकरण किया गया । यह भी ज्ञातव्य है कि पहले इस भवन को यहाँ के स्कूल के छात्रावास के रूप में ही निर्मित किया गया था, किन्तु उस समय छात्रावास के स्थान पर गाँव में औषधालय की प्रबल आवश्यकता थी। गाँव तथा उसके आस-पास कोई भी चिकित्सालय नहीं था। ग्रन्थनायक काकासा ने इस बात को ध्यान में रखकर छात्रावास के स्थान पर इसे औषधालय के रूप में विकसित करने के विचार व्यक्त किये । श्री पारसमलजी गादिया ने इस हेतु अपनी सहर्ष स्वीकृति प्रदान कर दी तथा इस औषधालय के संचालन हेतु इकत्तीस हजार रुपये और देने की घोषणा की। इसका प्रारंभ अच्छे शकुन से हुआ है, अत: आर्थिक कठिनाई आने की संभावना नहीं है और आशा है, इसका विस्तार अवश्यंभावी है । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. . . -: - ser v erag.. . . .. . .. . . .. . . . . . . ... . .Ram.arya श्री पी० एच० रुपचन्द डोसी जैन उच्च प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालय, गुड़ा रामसिंह 0 बिजयसिंह पवार, एम० ए०, बी० एड०, भू० पू० प्रधानाध्यापक, गुड़ा रामसिंह भवन-निर्माण परिचय व इतिहास गुडारामसिंह गाँव राणावास से करीब १० कि. मी. दूर स्थित है, जहाँ तेरापन्थ जैन समाज के लगभग ८० परिवार निवास करते हैं, इनमें से अधिकांश लोग वर्तमान में अपने व्यापारिक उद्देश्यों की दृष्टि से दक्षिण भारत में निवास करते हैं । इन महानुभावों ने अपने गाँव में एक अच्छे विद्यालय की स्थापना की कल्पना की थी और उसे कार्यरूप में परिणत करने हेतु सबने मिलकर विचार-विमर्श कर करीब एक लाख रुपया एकत्र कर भवन-निर्माण करवाया। भवन-निर्माण हेतु भूमि जिलाधीश पाली के आज्ञा-पत्र संख्या रेवेन्यू १३४२ दि०१४-५-७० द्वारा आवंटित की गई। यह भूमि करीब २० बीघा है। यह पूर्व में खसरा सं० २५३, २५४ व २५५ के अन्तर्गत गोचर भूमि थी। विद्यालय भवन इस भूमि के मध्य बनाया गया है, जिसमें १५ कमरे व एक बड़ा हॉल है। मैदान इस भवन के चारों ओर बनाये गये हैं। इसी भूमि में एक कुआँ भी खुदवा दिया गया है तथा इसी भूमि में संघ ने एक औषधालय भी बनाकर चालू कर दिया गया है। प्रारम्भ में यह भवन राज्य सरकार को सौंपने की योजना थी, पर राज्य सरकार द्वारा साज-सज्जा हेतु राशि की मांग की गई जो करीब पन्द्रह बीस हजार होती थी, जिसे जुटाना तत्कालीन परिस्थितियों में सम्भव नहीं था। इसके अलावा राज्य सरकार केवल कक्षा ६ खोलती और इस प्रकार यह विद्यालय केवल उच्च प्राथमिक ही बन पाता ; जबकि स्थानीय लोगों की मांग यहाँ सैकण्डरी स्कूल बनाने की थी। __इस पर स्थानीय जैन समाज के लोगों ने एकत्र होकर विचार-विमर्श कर यह निर्णय लिया कि इस भवन को राणावास संस्था को सौंप दिया जाय ताकि संस्था यहाँ अपने विद्यालय खोल सके। समाज के गणमान्य व्यक्तियों के विशेष आग्रह व रामसिंह गुड़ा वासियों द्वारा पचास हजार की राशि प्रदान करने के स्पष्ट आश्वासन पर माननीय श्री केसरीमलजी सुराणा ने इसे स्वीकार किया। विद्यालय भवन का उद्घाटन विद्यालय भवन का विधिवत् उद्घाटन दिनांक १० फरवरी, १९७१ के दिन राजनान्द गाँव (मध्यप्रदेश) निवासी श्रीयुत पूनमचन्द जी कोठारी के कर-कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ, जिन्होंने अपने नाम से एक अच्छी राशि राणावास संस्था में भेंट स्वरूप प्रदान की थी। भवन-निर्माण श्रीमान् योगेश्वर प्रेमनाथजी, श्री मुल्तानमलजी गुगलिया व श्री पारसमलजी डोसी व अन्य स्थानीय प्रमुख लोगों की देख-रेख में हुआ । विद्यालय की स्थापना दिनांक एक जुलाई १९७० मिति आषाढ़ बदि तेरस संवत् २०२७ के दिन विद्यालय प्रारम्भ किया गया। यह विद्यालय श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च माध्यमिक विद्यालय, राणावास की शाखा स्कूल में रूप में खोला गया । इसका शुभारम्भ तत्कालीन सरपंच श्री हाथीसिंह जी राठौड़ के करकमलों द्वारा सम्पन्न हुआ। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पी. एच. रूपचन्द डोसी जैन""विद्यालय, गुड़ा रामसिंह २५५ श्री सुमति शिक्षा सदन उ० मा० वि० राणावास से निम्न तीन अध्यापकों को वहाँ कार्य करने हेतु स्थानान्तरित किया गया। १. श्री विजयसिंह पंवार २. श्री भंवरलाल साँखला ३. श्री नरेन्द्रकुमार जैन कार्यालय प्रभारी के रूप में श्री गणेशचन्द्र जी माथुर वरिष्ठ लिपिक श्री सु०शि० सदन उ० मा० विद्यालय राणावास को भेजा गया, जिन्होंने प्रवेश, शुल्क व अन्य कार्यालयीय रेकार्ड तैयार किया। वे दस दिनों पश्चात् वापस राणावास बुलवा लिये गये। ___ यह विद्यालय श्री सुमति शिक्षा सदन उ० प्राथमिक विद्यालय गुड़ा रामसिंह के नाम से खोला गया। प्रारम्भ में इसमें केवल साठ छात्र व तीन अध्यापक ही थे। कक्षा ६ से ८ तक के केवल तीन विभाग खोले गये, क्योंकि इस गांव में उस समय राजकीय प्राथमिक विद्यालय चालू था तथा इस विद्यालय में आगे चलकर कक्षा ९ व १० खोलकर इसे माध्यमिक विद्यालय के रूप में क्रमोन्नत भी करना था। शिक्षा विभाग द्वारा मान्यता श्री सुमति शिक्षा सदन उच्च प्राथमिक विद्यालय गुड़ा रामसिंह राज्य सरकार ने अपने पत्र-संख्या विनिपा/ १९७०-७१ दि० १६-१०-७० के अन्तर्गत मान्यता प्रदान की। यह मान्यता प्रारम्भ में अस्थाई थी पर विद्यालय के परीक्षा परिणाम, छात्रसंख्या व भवन की पर्याप्तता आदि बातों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने इसे स्थायी मान्यता प्रदान कर दी। माध्यमिक विद्यालय के रूप में क्रमोन्नति आस-पास के गांवों में सभी जगह उच्च प्राथमिक विद्यालय खुल चुके थे। स्थानीय ग्रामीण व जैन समाज की पुरजोर मांग तथा संस्था द्वारा निर्धारित अपने लक्ष्य और उद्देश्य की पूर्ति निमित्त सन् १९७५ में यहाँ नवम कक्षा खोल दी गयी। इस प्रकार यह विद्यालय उच्च प्राथमिक स्तर से क्रमोन्नत होकर माध्यमिक विद्यालय बन गया। संस्था के इस कार्य का सर्वत्र स्वागत किया गया, क्योंकि इसके कारण आस-पास के गांवों के छात्रों को राणावास व अन्य दूरस्थ स्थानों पर जाने की तकलीफ बन्द हो गयी और हायर सैकण्डरी उत्तीर्ण करने हेतु जहाँ तीन वर्षों तक अन्यत्र जाकर रहना पड़ता था वहाँ केवल एक वर्ष के लिए ही जाना पड़ता है। भावी योजना जुलाई १९७५ से अब तक यह विद्यालय माध्यमिक विद्यालय के रूप में चल रहा है। आगे चलकर इसे उच्च माध्यमिक विद्यालय के रूप में क्रमोन्नत करने की संस्था की योजना है। विद्यालय का नया नामकरण विद्यालय भवन को राणावास संस्था को सौंपते समय गुडावासियों ने पचास हजार की राशि विद्यालय संचालन हेतु देने का वायदा किया था, पर लगातार ३-४ वर्षों तक अथक प्रयास करने पर भी यह राशि प्राप्त नहीं हुई । संस्था के सामने वित्तीय भार था। इसे कम करने हेतु संस्था ने प्रस्ताव किया कि जो सज्जन इस संस्था के संचालन हेतु अधिकाधिक राशि प्रदान करेंगे तो इस विद्यालय का नामकरण उनके नाम से कर दिया जायेगा । श्री जुगराजजी सेठिया ने ३१००० रु०, बाद में श्री चान्दमलजी जुगराजजी सेठिया ने सम्मिलित रूप से ४१००० रु० की राशि भेंट करने की बात कही। फिर इन दोनों सज्जनों ने और आगे कदम बढ़ाकर राणावास में कालेज स्थापना हेतु सवा दो लाख रुपये का प्रस्ताव कर दिया। श्री सरेमल जी डोसी ने अपने पिता श्री रूपचन्दजी डोसी के नाम से ५१०००6० देने की घोषणा की । संस्था की कार्यकारिणी ने अपने प्रस्ताव संस्था १०, दिनांक १५ फरवरी, १९७३ के तहत यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। विद्यालय का नया नाम संस्था ने १ जुलाई, १९७३ से निम्नानुसार कर दिया श्री पी. एच. रूपचन्द डोसी जैन उच्च प्राथमिक विद्यालय, गुड़ारामसिंह (पाली) Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड PRONHSNA राज्य सरकार ने अपने पत्र संख्या जिशि अ०/पाली १७२३-२५ दिनांक २३-८-८० के अन्तर्गत नये नाम को स्वीकार कर लिया। यह नाम १-७-८० से प्रभावी हुआ। नये नाम की स्वीकृति के साथ ही यह विद्यालय एक स्वतन्त्र विद्यालय बन गया अर्थात् श्री सुमति शिक्षा सदन की शाखा के रूप में मान्यता समाप्त हो गयी। कार्यकारिणी यह विद्यालय श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ राणावास द्वारा स्थापित व संचालित है। संघ की कार्यकारिणी ही इस संस्था की कार्यकारिणी है। संस्थापक प्रधानाध्यापक श्री विजयसिंह पंवार (निवासी ग्राम शिवनाथपुर, वाया ब्यावर, जिला अजमेर) इस संस्था के संस्थापक थे। इन्होंने लगातार नौ वर्षों तक यहाँ रहकर सेवाकार्य किया। संस्था की स्थापना, प्रगति एवं विकास में इनका सहयोग सराहनीय रहा। १-७-७० से ३०-६-७६ तक नौ वर्षों की सेवा के पश्चात् उन्होंने अपना स्थानान्तरण वापस श्री सुमति शिक्षा सदन राणावास में करवा लिया। अपने सेवाकाल में इन्होंने संस्था की चहुंमुखी प्रगति की। परीक्षा परिणाम, खेल-कूद, अनुशासन आदि क्षेत्रों में विद्यालय के कीर्तिमान स्थापित किये। प्रवेश, पाठ्यक्रम व समय विभाग चक्र __सभी जातियों के छात्रों को बिना किसी ऊँच-नीच की भावना के प्रवेश दिया जाता जाता है। शिक्षा विभाग राजस्थान के पंचांग व पाठ्यक्रमानुसार अध्ययन-अध्यापन होता है। विद्यालय-समय व अवकाश नियम भी राज्य सरकार के नियमानुसार हैं। शुल्क विवरण यह विद्यालय राज्य सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त नहीं है। कुल मिलाकर शुल्क की दरें सन्तोषजनक हैं। राज्य सरकार के नियमानुसार पिछड़ी जातियों के छात्रों व निर्धन छात्रों को शुल्क से मुक्ति प्रदान की जाती है। निर्धारित शुल्क तीन किश्तों में प्राप्त किया जाता है। छात्र संख्या विवरण कक्षायें सत्र १९७०-७१ ७१-७२ ७२-७३ ७३-७४ ७४-७५ ७५-७६ ७६-७७ ७७-७८ २५ २२१४ १२८ ७८-७६ ३४ २०१६ १६ १३० ७९-८० ३० ३० २१ १६ १६७ ८०-८१ ७० ६५२५ २१ २० २०१ इस विद्यालय में गुड़ा रामसिंह के अलावा अन्य आस-पास के लगभग १० गाँवों के छात्र अध्ययन करने हेतु आते हैं। ३० २७ . Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्र १६७७ १६७८ १६७६ १६८० बोर्ड परीक्षा परिणाम राजस्थान बोर्ड की सैकण्डरी परीक्षा में स्वयंपाठी छात्रों के रूप में छात्रों को प्रविष्ट कराया जाता है, क्योंकि राज्य सरकार द्वारा अभी तक माध्यमिक स्तर की मान्यता प्राप्त नहीं हुई है । उत्तीर्ण अनुत्तीर्ण परिणाम प्रतिशत I ह १ ५ खेल-कूद फुल १८ १४ १६ १४ श्री पी. एच. रूपचन्द डोसी जैन विद्यालय, गुड़ा रामसिंह ह ६ ११ ५० ६५ ६६ ६४.२ विद्यालय की अन्य गतिविधियाँ एवं उपलब्धियाँ ५ ५ II III २५७ ५ ५ विद्यालय की इमारत खुले मैदान के बीचों-बीच बनी हुई है। इसके चारों ओर विभिन्न खेलों यथा-हाकी, फुटबाल, बालीबाल, बास्केटबाल व रिंग के मैदान बने हुए हैं। देशी खेलों यथा- कबड्डी, खो-खो के भी मैदान बने हुए हैं। इस विद्यालय में खेलकूद का स्तर अच्छा है। हर वर्ष क्षेत्रीय व जिलास्तरीय खेल-कूद प्रतियोगिताओं में इस विद्यालय के छात्र अग्रणी रहते हैं तथा विभिन्न पुरस्कार प्राप्त करते हैं । १९७६ में इस विद्यालय का खेल दल क्षेत्रीय स्तर पर जनरल चैम्पियन रहा तथा जिला स्तर पर फुटबाल में चैम्पियनशिप प्राप्त की। इसी वर्ष इस विद्यालय ने सर्वोत्तम अनुशासन की चल वैजयन्ती भी प्राप्त की। इस दल के इन्चार्ज अध्यापक श्री मूलसिंह राठौड़ थे । खेलकूद की इस ऊँचाई तक पहुँचने में विद्यालय के प्रधानाध्यापक श्री विजयसिंह पंवार का मार्गदर्शन व प्रेरणा प्रधान रही है जो कि स्वयं भी एक अच्छे खिलाड़ी हैं। छात्रसंघ छात्र संसद का गठन प्रतिवर्ष किया जाता है। छात्रों में प्रजातान्त्रिक भावना व मूल्यों का विकास करने व सहयोग - भावना पैदा करने हेतु यह आवश्यक भी होता है। छात्र संघ के पदाधिकारी छात्र अपने-अपने इन्चार्ज अध्यापकों के मार्गदर्शन में कार्य कर शाला - प्रशासन व व्यवस्था में योगदान प्रदान करते रहे हैं । स्काउटिंग सत्र ७०-७१ में विद्यालय खुलते ही स्काउटिंग ग्रुप खोला गया। प्रधानाध्यापक श्री विजयसिंह पंवार स्वयं प्रशिक्षित स्काउट मास्टर थे । उन्होंने इस सहगामी क्रिया को सुचारु रूप से चलाया और छात्रों को ट्रेण्ड किया । प्रतिवर्ष छात्र टोलीनायक प्रशिक्षण शिविर व फर्स्ट व सैकण्ड क्लास परीक्षा शिविरों में भाग लेकर सफलता प्राप्त करते रहे हैं। अब यह कार्य श्री महेन्द्रसिंह राठौड़ कर रहे हैं। स्काउटिंग के छात्रों ने विद्यालय प्रांगण में खड्डों को अपने श्रमदान से भरकर उसे समतल किया तथा करीब २० पेड़ लगाये । अणुव्रत समिति अणुव्रत समिति गुड़ा रामसिंह के नाम से एक संस्था ग्रामीण नवयुवकों एवं विद्यालय के सहयोग से स्थापित की गई। इसकी स्थापना व कार्य सफलता का श्रेय भाई श्री जयप्रकाश गादिया को है, जिसने अपना तन, मन व यथाशक्ति धन भी प्रदान किया । अणुव्रत व उसकी शिक्षाओं के प्रचार व प्रसार हेतु विभिन्न कार्यक्रम यथा सन्त-सतियों के प्रवचन, सांस्कृतिक कार्यक्रम, व शिविरों का आयोजन किया गया । चातुर्मास व अन्य अवसरों पर उपलब्ध सन्त-सतियों के प्रवचन विद्यालय में आयोजित किये जाते थे तथा छात्रों व अध्यापकों ने विभिन्न व्रत लेकर तदनुसार अपने आचरण को ढाला है। . Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड merasom.erere...... .. . . ....... ... a.se. stm..aarameters.e...ea. अणुव्रत परीक्षाएं अणुवत शिक्षा समिति नई दिल्ली के अन्तर्गत अखिल भारतीय स्तर पर होने वाली परीक्षाएं इस विद्यालय में भी आयोजित की जाती रही हैं । छात्रों ने विभिन्न परीक्षाएँ उत्तीर्ण की हैं। समारोह जयन्तियां व उत्सव १५ अगस्त, २६ जनवरी, गांधी व शास्त्री जयन्ती आदि राष्ट्रीय पर्व इस विद्यालय में बड़े ही शानदार समारोह के साथ मनाये जाते हैं । इन अवसरों पर छात्रों द्वारा सामूहिक व्यायाम व मार्चपास्ट, भाषण, गायन, कविता व अन्य कार्यक्रम बड़े ही अच्छे स्तर के प्रस्तुत करते हैं। पर्युषण पर्व के अन्तर्गत क्षमायाचना दिवस तथा शिक्षा विभाग द्वारा नियत अन्य समारोह व जयन्तियाँ भली प्रकार मनाई जाती हैं। ग्रामीण नवयुवक व अन्य सज्जन बड़ी संख्या में उपस्थित हुआ करते हैं । इन्हीं अवसरों पर अभिभावकों से सम्पर्क साधकर छात्रों की प्रगति आदि के बारे में वार्ता की जाती है। 'पुस्तकालय पुस्तकालय में करीब एक हजार पुस्तकें हैं। सभी विषयों की पाठ्य पुस्तकें, सहायक पुस्तके, चार्ट्स, मानचित्र आदि उपलब्ध हैं। वाचनालय वाचनालय में दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक पत्र-पत्रिकाएँ पर्याप्त संख्या में स्तरानुसार मँगवाये जाते हैं। प्रतिदिन समाचार-पत्रों से प्रमुख-प्रमुख समाचार प्रार्थना सभा में सुनाये जाते हैं तथा श्यामपटट पर लिखे ‘जाते हैं। श्री टी० ओकचन्द गादिया बुक बैंक प्रधानाध्यापकजी के विशेष प्रयत्नों से बुक बैंक की स्थापनार्थ श्री ओकचन्द जी गादिया ने ११५१/- (ग्यारह सौ इकावन रुपये) प्रदान किए। उनके नाम से बुक बैंक की स्थापना की गई। इससे निर्धन छात्रों को नि:शुल्क पुस्तकें, पाठन-सामग्री व अन्य सहायता प्रदान की जाती है । Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ द्वारा संचालित छात्रों के शैक्षणिक भ्रमण एवं परमाराध्य गुरुदेव प्रधान आचार्य श्री तुलसी के दर्शन के निमित्त समय-समय पर यात्रा करने की एक प्रमुख प्रवृत्ति संघ के प्रारम्भ काल से ही रही है। अब तक ऐसी अनेकों यात्राएँ सफलतापूर्वक आयोजित हो चुकी हैं। इसी क्रम में हाल ही में सम्पन्न लुधियाना, काश्मीर यात्रा का संघ के इतिहास में विशिष्ट महत्त्व है। इस यात्रा का संक्षिप्त इति वृत्त इस प्रकार है । परमाराध्य आचार्य प्रवर श्री तुलसा ने जयपुर चतुर्मास से राणावास चतुर्मास करने की घोषणा फरमाई तब से ही श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथ मानव हितकारी संघ के संस्थापक संचालक "काका साहब" केसरीमलजी सुराणा की प्रार्थना प्रति वर्ष बनी रही कि आचार्य प्रवर का एक चतुर्मास राणावास में हो। इस अवधि में चातुर्मासिक प्रवास की पृष्ठभूमि में संघ ने विशाल भवन व सभा भवन बनाकर पूरी तैयारी कर ली । लाडनूं व गंगाशहर चतुर्मास में भी पुरजोर की अर्ज की गई। छात्र व छात्राओं के संघ भी सेवा में पहुँचे । चातुर्मास की उपलब्धि बहुत सरल नहीं है, सतत निष्ठा अपेक्षित होती है। उसका परिचय पूरा दिया गया, किन्तु पर्याप्त प्रमाणित नहीं हो पाया। संघ की विशाल ऐतिहासिक याला प्रो० बी० एस० धाकड़, अध्यक्ष, श्री जै० श्वे० तेरापंथ मानव हितकारी संघ, राणावास चातुर्मास प्रवास की अर्ज को अधिक बलवती बनाने की दृष्टि से दिनांक ४ जुलाई, १९७६ को संघ की कार्यकारिणी में यह निर्णय लिया गया कि इस वर्ष छात्रावास के समस्त ५५० छात्रों का संघ लुधियाना ले जाया जाय और वहाँ से काश्मीर का भ्रमण भी किया जाय । इस यात्रा को शैक्षणिक भ्रमण की संज्ञा दी जाय । स्पेशल ट्रेन के लिए, पत्र-व्यवहार भी किया जाये और वह किया भी गया, किन्तु व्यावहारिकता की दृष्टि से बसें ले जाना अधिक -सुलभकारी समझा गया और छात्रों की संख्या भी आधी की गई, क्योंकि बहुत छोटे बच्चों के लिए इतनी विशाल यात्रा आसान नहीं समझी गई। दिनांक १० से २४ अक्टूबर, १६७६ अर्थात् १५ दिन का समय निर्धारित किया गया। छात्र संघ (१) संख्या- छात्र सुमति शिक्षा सदन २६०, महाविद्यालय ३०२९० । अन्य संघ के पदाधिकारीगण प्राचार्य, प्राध्यापक, गृहपति, शिक्षक, डाक्टर, रसोइया आदि। - (२) सामान — भोजन का कच्चा सामान, बर्तन, मिठाई । (३) वाहन - बसें ५, कार - १ - काकासा के निमित्त (रात्रि में उनके द्वारा यात्रा नहीं करने के कारण ) (४) कार्यक्रम - साध्वी श्री विजयवतीजी ने ४२ विभिन्न कार्यक्रम लुधियाना के लिए तैयार करवाये। आगन्तुक अतिथियों से अतिरिक्त (५) शुल्क — प्रत्येक छात्र से १५० १०, भोजन छात्रावास की ओर से ६० रु० प्रति व्यक्ति भोजन के लिए । (६) अग्रिम व्यवस्था - पत्र-व्यवहार के द्वारा ब्यावर, जयपुर, दिल्ली, लुधियाना, अमृतसर को सूचना दी गई। श्रीनगर की सूचना श्रीनगर पहुँचने पर । O . Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड A THA प्रारम्भ दिनांक १० अक्टूबर, ७६ बुधवार के दिन प्रातः ६ बजे साध्वी श्री सिरेकुमारी जी से मांगलिक सुन सारे संघ ने राणावास से प्रस्थान किया। कार में काकासा, माताजी, श्री पुखराज जी तथा मेरा स्थान अधिकांश प्रारम्भ से अन्त तक बना रहा। शेष सब यात्री पाँचों बसों में थे। प्रात: १० बजे ब्यावर-स्थानीय सभा द्वारा अल्पाहार का प्रबन्ध किया गया। मुनि श्री धनराज जी (सरसा) के दर्शन किये और संक्षिप्त प्रवचन का लाभ प्राप्त हुआ। शाम-५ बजे संघ जयपुर पहुँचा । गुजराती भवन में ठहराये गये, जहाँ खाने और आवास की व्यवस्था श्री मन्नालाल जी साहब, सुराणा की ओर से की गई । जयपुर के ग्रीन हाउस में साध्वी श्री सूरजकुमारी (जयपुर) के समक्ष सन्ध्या को कार्यक्रम रखे। प्रात: काकासा ने मुनि श्री जसकरणजी के दर्शन शहर में किये । दिनांक ११ अक्टूबर प्रात: जयपुर से रवाना हो शाम ५ बजे दिल्ली में श्री नजरबंवर धर्मशाला, सदरथाना पहुँचे । स्थानीय सभा की ओर से भोजन का प्रबन्ध था। रात्रि को साध्वी श्री किस्तूरांजी (लाडनूं) के समक्ष छात्रों ने कार्यक्रम प्रस्तुत किये, वे बड़े रोचक रहे । दिनांक १२ अक्टूबर को प्रात: साध्वीश्रीजी का मंगल सन्देश व आशीर्वाद प्राप्त किया। तत्पश्चात् दिल्ली के प्रमुख स्थानों को देखने निकल पड़े। छात्रों में बड़ा उत्साह झलक रहा था, कि इतने बड़े संघ के साथ राजधानी के मुख्य स्थल देखने का सुअवसर मिलेगा। सर्वप्रथम राजघाट पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि को देखा, जहाँ की अखण्ड ज्योति यात्रियों को जीवन प्रदान करती है। उसके बाद ऐतिहासिक लाल किले की ओर आये जो मुसलमान बादशाहों की देन है, मजबूत लाल पत्थर का का बना हुआ है और वह भारतीय शिल्प कला को वर्तमान में प्रदर्शित करता है। लाल किले से जहाँ पर पन्द्रह अगस्त के दिन राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है, छात्रों में उसके प्रति बहुत अधिक उत्सुकता थी। प्रधान मन्त्री जिस मंच से बोलते रहे हैं, उस स्थान को भी देखा। तत्पश्चात् नई दिल्ली में ब्रिटिश काल में निर्मित राष्ट्रपति भवन में प्रवेश किया। गाइड ने अशोक-हाल, दरबार हाल, डाइनिंग हाल आदि को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से वणित किया। छात्र इस राष्ट्रपति भवन को देखकर बड़े प्रभावित हुए । पार्लियामेण्ट (लोक सभा) हाउस में भी प्रवेश का आदेश मिल गया, वहाँ जाकर सबने दर्शक गैलरी में बैठने का आनन्द प्राप्त किया, जो जिज्ञासाएँ रखी गईं उनका स्पष्टीकरण वहाँ के गाइड ने किया। ... इसके बाद सबकी तीव्र इच्छा थी कि श्रीमती इन्दिरा गांधी से भेंट की जाय, वह भी सुलभता से पास ही उनके निवास स्थान पर ही पूरी हो गई। श्रीमती गांधी ने दस मिनट तक छात्रों को सम्बोधित किया और राष्ट्रीय भावना की ओर प्रेरित किया। उनके साय ही संजय गांधी भी दिख पड़े। इन दोनों में करिश्मा होने से छात्र आदि सबकी इच्छा पूरी हुई। बाद में बिरला मन्दिर को देखा। उसके देखने के बाद शाम को सदर थाना धर्मशाला में लौट आये। आज का दिन सबका बड़े उल्लास में बीता । मैं भी उनके साथ था। दिनांक १२ अक्टूबर रात्रि को श्रीनगर में इतने बड़े संघ को आवास की व्यवस्था की दृष्टि से डॉ० डी० एस. कोठारी साहेब ने प्रो० एल० आर० शाह, संयुक्तमन्त्री, एन० एस० एस० भारत सरकार को सिफारिश की। श्री शाह साहेब ने काश्मीर सरकार ने फोन से सम्पर्क कर अग्रिम व्यवस्था का यूथ होस्टल (Youth Hostel) श्रीनगर में निर्देश कर दिया। इन दोनों महानुभावों के हम आभारी हैं । रात्रि को ११ बजे दिल्ली से लुधियाना के लिए संघ रवाना हुआ। दिनांक १३-१७ अक्टूबर-लुधियाना, रातभर चलने के बाद प्रात: ६-३० बजे लुधियाना पहुँचे । काकसा कार से कल ही शाम को पहुँच गये। लुधियाना में हमारे लिए सिक्ख मन्दिर स्कूल में आवास की व्यवस्था की गई। प्रवचन सभा में दीक्षार्थी भाई-बहिनों का विदाई कार्यक्रम चल रहा था। विदाई में एक हृदय द्रावक दृश्य सामने आया। जब श्रीमती राजकुमारी ने अपने पति श्री चांदमल जी भूरा को दीक्षा ग्रहण करने के लिए उस सभा में विदाई दी। विदाई के शब्द-'भगवान्, आज ___ मैं इन हजारों लोगों के सामने अपने पतिदेव को दीक्षा के लिए सहर्ष अनुमति देती हूँ तथा उनके साथ वर्षों (दस वर्ष) A Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - चित्रावला :माननीया प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी जी के साथ माह अक्टूबर, १७E में संघ की राणावास-लुधियाना एवं काश्मीर प्रमण की विशाल ऐतिहासिक याता के दौरान नई दिल्ली में अपने निवास मान पर माननीया प्रधानमन्त्री जी विद्यार्थी समूह एवं कर्मचारियों को सम्बोधित करती हुई Ule Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ की विशाल ऐतिहासिक यात्रा I के सहवास में मेरी ओर से हुई भूलों के लिए क्षमा याचना करती हूँ आपके सफल मार्गदर्शन और निर्देशन में ये अपनी -मंजिल की ओर बढ़ते रहें। मेरे पास छः वर्षीया बच्ची है, उसके प्रति मेरा कुछ दायित्व है, यही सोचकर मन को आश्वस्त कर रही हूँ । वह दिन धन्य होगा, जिस दिन मैं भी संयम पथ पर अग्रसर होने का साहस जुटा सकूँगी ।" पण्डाल में दृश्य रोमांचकारी था । भारतीय दर्शन में वैराग्य का उत्कृष्ट उदाहरण सबके सम्मुख उपस्थित हुआ । दिन में दो से चार बजे तक एक किलोमीटर लम्बी शोभा यात्रा लुधियाना शहर के मुख्य मार्गों पर निकली। सबसे आगे राणावास के ३०० छात्र पंक्तिबद्ध कपड़े के पट्ट (बेनर) लिए हुए नारे लगाते हुए चल रहे थे । उनके पीछे दो दीक्षार्थी भाई व चार दीक्षार्थी बहिनों के जुलूस क्रम से अलग-अलग बैण्ड के साथ चल रहे थे, जुलूस इतना लम्बा व प्रभावशाली हो गया कि ऐसा धार्मिक जुलूस लुधियाना नगर के इतिहास में पहले कभी नहीं देखा व सुना गया। तेरापंथ धर्म संघ व श्री आचार्य प्रवर का प्रबल प्रताप है, जिसकी व्यापकता की छाप अमिट रहेगी। शहर के लोग कहने लगे कि, आचार्यजी को राजस्थान वापस लेने के लिए आ गये । इस समस्त वातावरण में राणावास संघ का मुख्य प्रभाव था। संघ के प्रत्येक सदस्य के बदन पर राणावास का स्वर्णिम केसरिया रंग का बैज लगा हुआ था, जिसे सर्वत्र राजस्थान का प्रतिनिधित्व करते देखा गया । २६१ राणावास की चातुर्मास की अर्ज को बुलन्द करने में विभिन्न रोचक कार्यक्रम क्रमशः तीनों समय प्रस्तुत किये गये, उन सबमें परमपूज्य गुरुदेव का सान्निध्य प्राप्त रहा। कितने ही भावपूर्ण सामूहिक गान, नृत्य तथा संवाद भी रखे गये। इस तरह दिनांक १७ अक्टूबर तक बराबर कार्यक्रम चलते रहे, क्योंकि साध्वी विनयवतीजी ने ४२ कार्यक्रम तैयार करवाये थे। श्री आचार्य प्रवर की महती कृपा का अनुभव हुआ । काका साहेब, प्रो० एस० सी० तेला साहब तथा मैंने अपनी विनती वक्तव्यों से की। श्री आचार्य प्रवर इस प्रकार की गहन व व्यापक विनती को देखकर असमंजस में पड़ गये कि राणावास के लिए कहा हुआ भी है और आखिर फरमाया कि पंजाब के भार से तो मैं हल्का हो गया हूँ, अब राणावास से हल्का होना ही है-— ये शब्द उस समय फरमाये, जब राणावास के प्रमुख कार्यकर्त्ता दिनांक १७ को दिन के २ बजे श्री आचार्य प्रवर की सेवा कर रहे थे। इससे हमें आशा की झलक मिली, क्योंकि हमारा एकमात्र ध्येय चातुर्मास का था इन्हीं दिनांक १३-१७ के पांच दिनों में स्थानीय स्कूलों के बालक-बालिकाओं ( ज्यों कक्षा तक ) की सांस्कृतिक प्रतियोगितायें रखी गयीं। वहाँ के बालक-बालिकाओं ने वेश-भूषा के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम बड़े ही रोचक दिये। चरित्र अंकन प्रतियोगिता बास वर्ष के उपलक्ष में रखी गयी पारितोषिक की घोषणा पंजाब के राज्यपाल माननीय जयसुखलाल जी हाथी की ओर से की गयी। बड़ी राशि थी । संगरूर के दो छोटे बालकों का संवाद - श्री आचार्य प्रवर द्वारा मर्यादा महोत्सव संगरूर प्रदान करने से सम्बन्धित बड़ा प्रभाव पूर्ण रहा। पारिमार्थिक शिक्षक संस्था की बहिनों ने भी कार्यक्रम दिये और उन्होंने जैन विश्व भारती लाडनू पधारने की प्रार्थना की। सरदार शहर की भी अर्ज सामने आयी । लुधियाना यह एक उद्यमी एवं कला कौशल का नगर है, ऊनी वस्त्रों का राष्ट्रीय बाजार है और घर-घर में ऊन का काम होता है । कोई भिखमंगा नहीं देखा गया। एक फेरीवाला भी दिन में ३५-४० रुपये कमा लेता है । 1 मौसमी का रस ५० पैसे सबने खूब पीया ऊनी कपड़े प्रत्येक ने खूब खरीदे, शायद ही चातुर्मास के चार महीनों में दर्शनार्थी यात्रियों ने हजारों-लाखों भागों का धन लुधियाना में आया। लुधियाना वासी बहुत - सब में अपने-अपने धर्म के प्रति आस्था है। भैंसें खूब पाली जाती हैं । दूध-दही खूब है । १ रुपये प्रति गिलास जगह-जगह पर मिलता है, कोई खाली हाथ लौटा हो । अनुमानित है कि इस रुपये के कपड़े खरीदें। इससे देश के विभिन्न . Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YO २६२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुरणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड प्रसन्न थे, क्योंकि व्यापार खब चला। उस क्षेत्र में तेरापंथ धर्म संघ का जड़ सुदृढ़ हो गयी जबकि तीस वर्ष पहले यहाँ इसका विपरीत वातावरण था । व्यवस्था में चार घर प्रमुख थे। श्री बंशीलालजी सुराणा अग्रणी देखे गये । उन्होंने अन्य जैन समाज की उपेक्षा पर भी साहस से कार्य किया और शान्ति व सौहार्द से व्यवस्था जुटा पाने में सफल रहे । श्री आचार्य प्रवर बड़े प्रसन्न रहे । लुधियाना नगर परिषद् के कमिश्नर महोदय ने 'नवलखा गार्डन कालोनी' के नाम को परिवर्तन कर उसका नाम आचार्य तुलसी कुंज' रख दिया । वहाँ जमीन खरीद ली गयी और एक भवननिर्माण का कार्य उठा लिया गया, जिसमें सहस्रों रुपये आगन्तुक गणमान्य सज्जनों ने देना घोषित किया और एक ट्रस्ट निर्मित किया गया, ताकि स्थायित्व बना रहे और उसका विधिवत् संचालन होता रहे । दिनांक १०-१२ अक्टूबर लुधियाना से प्रस्थान जम्मू के लिए पंचकुला में, जो बोडिंग के कारण वर्षों से समुचित व्यवस्था चली दिनांक १८ अक्टूबर, प्रातः ४ बजे बसें चण्डीगढ़ के लिए रवाना हुईं। प्रसिद्ध रहा है, प्रातःकालीन नाश्ते का प्रबन्ध रखा गया। विशाल प्रांगण में आ रही है। यह श्रा जैन मूर्तिपूजक संघ के तत्वावधान में है । वहाँ से चण्डीगढ के मुख्य मार्गों से बसें गुजरी और रोक गार्डन खासकर देखा, जो विशेष देखने योग्य है। विश्वविद्यालय तथा दूसरे गार्डन (garden) भी देखने योग्य हैं। चण्डीगढ़ का निर्माण आधुनिक ढंग से पश्चिमी शिल्प कला के आधार पर हुआ है। यह देश का सबसे नवीनतम आधुनिक नगर है । वहाँ से रवाना हो शाम तक भाखरा बांध पहुँचे । यह देश का महानतम बांध है । मानवीय तकनीकी विकास का उत्कर्ष नमूना है । सतलज नदी के पानी का उपयोग राष्ट्रीय हित में सर्वाधिक किया गया है । नांगल बांध कुछ नीचे की ओर है, जहाँ पर ऊर्जा ( Energy) सृजन की जाती है और पानी की नहरें निकलती हैं । इससे पंजाब और हरियाणा में सर्वत्र नहरों का जाल बिछा हुआ है। राजस्थान की मरुभूमि भी लाभान्वित हुई है | पंजाब हरियाणा का क्षेत्र देश का सबसे अधिक उर्वर क्षत्र है, जिससे प्रति व्यक्ति आय देश मैं सबसे अधिक है। लोग बड़े पुरुषार्थी हैं। मीलों तक चौड़ी सीधी कोलतार की सड़कें हैं, जिनके दोनों तरफ मीलों तक हरे-भरे खेत दिखायी देते हैं। भूजल स्तर काफी ऊँचा है और जगह-जगह पानी के पम्प लगे हुए हैं । बसें भाखरा देखकर तलवाड़ा होती हुई दिनांक १६ को प्रातः जैन धर्मशाला जम्मू में पहुँचीं । स्थानकवासी समाज द्वारा इस सुन्दर और बड़ी धर्मशाला की समुचित व्यवस्था की जाती है। कार जिसको दिन में सफर करना था वह तलवाड़ा के वैष्णव मन्दिर में रुकी। रात्रि विश्राम वहीं किया गया। यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था मन्दिर के साथ उपलब्ध करायी जाती है । प्रातः कालीन धार्मिक भजन माइक द्वारा भोर में सुनाये जाते हैं । सारे क्षेत्र की धार्मिक भावना सराहनीय है। कार पठानकोट होती हुई जम्मू दिन को १२ बजे पहुँची । बसें रातभर चली थीं । दिनांक १६ जम्मू से प्रस्थान श्रीनगर के लिए मिनी बसों की व्यवस्था हेतु प्रो० तेला साहब ने मालूम किया । इतने कम समय में तथा दूसरे दिन दीपमालिका होने से ६ बसों का प्रावधान होना सम्भव नहीं हो सका । डिवीजनल कमिश्नर महोदय की विशेष कृपा से श्रीनगर जाने के लिए हमारी ही बसों को परमिट दे दिया गया कमिश्नर महोदय ने विशेषाधिकार का प्रयोग कर हमें यह सुविधा प्रदान की, जो सम्भवतः वर्ष में एक बार ही किसी को विशेष परिस्थिति में दी जाती है, ऐसा आभास हुआ। हम उनके अनुग्रहीत हैं। डीजल का परमिट भी दिया गया, इसकी असुविधा जगह-जगह रही । जम्मू से वैष्णोदेवी १६ किमी० दूर है जो देखने योग्य स्थान है, किन्तु जा नहीं पाये । श्रीनगर के लिए रवाना - शाम को ४ बजे पांचों बसें व कार श्रीनगर के लिए रवाना हुईं। कार ६० कि०मी० दूर उधमपुर डाक बंगले में ठहरी। रानि विधाम नहीं किया। बसें १२० कि०मी० दूर बटोत जाकर रुकी, कुछ घण्टे उन्होंने विश्राम किया । दिनांक २० अक्टूबर श्रीनगर पहुँचना - बसों ने प्रातः अपनी यात्रा जारी रखी, कार भो अपनी गति से चल Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ की विशाल ऐतिहासिक यात्रा २६३ । रही थी। बसें दिन को १२ बजे श्रीनगर के बाहर क्रिकेट स्टेडियम पर रुकी, जब कि कार २ बजे पहुँच पाई । गन्तव्य स्थान पर पहुँचकर आवास की चिन्ता में लग गये। प्रो० तेला साहब ने कालेज, स्कूल, यूथ होस्टल व स्काउट कैम्प आदि को देखा। जम्मू श्रीनगर घाटी-इस घाटी की लम्बाई २६४ कि. मी० है, जो विश्व की सबसे लम्बी घाटी मानी जाती है। सड़क का रास्ता विकट है, उतार-चढ़ाव, घुमाव आदि बहुत हैं । जगह-जगह सावधानी के लिए पहाड़ी घाटियों पर वाक्य लिखे हुए हैं “यदि आपने शादी कर ली है, तो घर पर प्रतीक्षा कर रहे हैं।" "गति सीमा धीमी रखें, जीवन बहुत कीमती है।" "थोड़ी देरी में जीवन की सुरक्षा है।" आदि-आदि । घाटी में पहाड़ियों पर ऊँचे बिखरे हुए घर दिखाई देते हैं। उनका जीवन निर्वाह फलों के पौधों से होता है। पहाड़ी नदी कल-कल करती हुई मीलों तक देखी गई। पुलिया बनाकर सड़कों का घुमाव कम किया गया है । लम्बेलम्बे सनोवर, देवदार आदि दरख्तों से पहाड़ ढके पड़े हैं। घाटी में उधमपुर के पास मिलिटरी छावनी है। श्रीनगर तक मिलिटरी गाड़ियाँ काफी संख्या में आती-जाती मिलीं । सेवों से भरे ट्रक अनगिनत चलते हुए देखे गये । मिनी बसें, जो दिन को ही यात्रियों को लेकर जाती है, वे भी खूब मिलीं। एक बस में ३६ सीट होती हैं और एक टिकिट रु० १७-५० का होता है। बारह घण्टे में जम्मू श्रीनगर को जोड़ती है। रेल मार्ग सम्भव नहीं दिखाई देता है। रास्ते में पतनी, जो काफी ऊँची है, देखने योग्य है। उससे कुछ दूर मनोरम झील है। सम्पूर्ण घाटी में २०० कि०मी० तक प्रकृति का सुन्दर दृश्य बिखरा पड़ा है, वर्णनातीत है। बनिहाल के पास जवाहर सुरंग २३ किलो मीटर लम्बी है, आने-जाने के रास्ते अलग-अलग साथ में ही हैं। सुरंग में पानी बंद-बूंद टपकता रहता है। बसों को पार करने में ६ मिनिट लगते हैं । इसे बने हुए दस वर्ष हुए हैं और इसके बनने से ३५ किमी की दूरी की बचत हुई है। काश्मीर की घाटी श्रीनगर से ७० कि०मी० पहले से प्रारम्भ होती है। मैदानी भाग है, उसमें सेवों के बगीचे खूब हैं । निवासी अधिकांश मुसलमान हैं। भारतीय सभ्यता उनमें दृष्टिगोचर होती है। श्रीनगर-यहाँ पर आवास व्यवस्था श्रीनगर के मशहूर लाल चौक की सनातनधर्म धर्मशाला में की। उसमें ६ लेटरिन और ६०० उनमें जाने वाले, स्नानघर नाम मात्र के, फिर भी छात्रों ने बड़े ही अनुशासित जीवन का परिचय दिया। यह राणावास छात्रावास के कठिन अनुशासित जीवन-चर्या का परिचायक है। जिस किसी समय भी रात्रि आदि के भोजन की व्यवस्था बन पाती, खा लेते और जब चलने को कह देते, चल देते । मुख्य गृहपति श्री मूलसिंह जी का कमांड उनके सहयोगियों के साथ प्रशंसनीय रहा। सीटियों के इशारे पर सारा कार्य चलता था। श्री जै० ते० महाविद्यालय के विद्यार्थी वर्ग की अनुशासनप्रियता आज के वातावरण को देखते हुए सराहना का विषय रही । प्राचार्य प्रो० एस० सी० तेला एवं महाविद्यालय छात्रावास अधीक्षक प्रो० पी० एम० जैन का नेतृत्व श्लाघनीय रहा । इस दृष्टि से राणावास का संयमित जीवन एक आदर्श है। २१ अक्टूबर-श्री नगर के मुख्य स्थान __ आज का दिन श्रीनगर के प्रसिद्ध स्थान देखने के लिए निश्चित रखा गया। डल झील जो श्रीनगर से सटी हुई है, उसके किनारे चारों ओर विश्वविख्यात स्थान हैं, उनको देखने के लिए प्रतिवर्ष पर्यटक लोग लाखों की संख्या में आते हैं। राजभवन भी इसी झील के किनारे पर खड़ा है। शाही चश्मा-पानी अनवरत आता रहता है। पानी को रोगनाशक मानते हैं । एक बगीचा है। निशात बाग-शाहजहाँ ने बनवाया । बड़े-बड़े दरख्त व फूलों से बगीचा ढका हुआ है। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '२६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड शालीमार बाग-जहाँगीर ने बनाया। प्रतिदिन शाम को मुगल रोमांस की फिल्में दिखाई जाती हैं । ऐशोआराम से पूर्ण भवन निर्मित है। हरबंश बाग-इसके पीछे एक छोटा बाँध है। शंकराचार्य पहाड़ी-इसकी चोटी बहुत ऊँची है। विशाल शिवलिंग है। सीढ़ियों से भी बहुत चढ़ना पड़ता है। सैकड़ों यात्री चढ़ते हुए, हाँफते पाये गये। चोटी से देखने पर श्रीनगर के चारों ओर का दृश्य अति सुन्दर लगता है। भारत के लिए काश्मीर एक प्राकृतिक समृद्ध धरोहर है। खीर भवानी देवी-कुछ दूरी पर है। रास्ता सेवों के बगीचों से गुजरता है। जहाँ सेवों की पेटियां बड़ी संख्या में देश में भेजने के लिए भरी जाती हैं । बच्चे लोग सेव के टोकरे लिए सड़कों के किनारे खड़े रहते हैं। सेव का भाव १ रु० से २ रु० प्रति किलो तक पाया गया। यह देवी भगवान राम की इष्ट देवी मानी जाती है। हनुमान जी जब संजीवनी बूटी लेने आये तो यहाँ पर उन्होंने पैर रखा था। यह मूर्ति बड़ी चमत्कारिक मानी जाती है। इस स्थान पर फलों की खूब बिक्री होती है। औरतें भी बेचने का काम धड़ल्ले से करती हैं। श्रीनगर में जगह-जगह धार्मिक स्थान एक ट्रस्ट द्वारा संचालित होते हैं, उसके अध्यक्ष भू० पू० महाराजा डा० करणसिंह हैं। कमी इस बात की रही कि समयाभाव के कारण पहलगाँव, गुलमर्ग, सनमर्ग आदि दूर के स्थानों को नहीं देख पाये, वंचित रहे । संघ बहुत बड़ा भी था । श्रीनगर के निवासियों का व्यवसाय पर्यटकों पर अधिक निर्भर करता है। आवास व्यवस्था अत्यधिक महँगी व भोजन भी कम महँगा नहीं है। यात्री लोग हाउस बोट में भी ठहरते हैं, जो झेलम नदी के पानी पर है। उसमें ठहरने का किराया ३० रु० प्रति दिन है । होटल तो बहुत ही महंगे हैं। यदि साधु लोग और गरीब परिवार श्रीनगर पहुंच गये तो उनको शरण सनातनधर्म धर्मशाला देती है। हाउसबोटों में से मैला नदी में गिरने से नदी का पानी गन्दा पाया गया । झेलम नदी साँप की तरह मुड़ी हुई बहती है। वैसे शहर भी उतना सुन्दर नहीं लगा, जितना उसका नाम है। श्रीनगर में फल-सेव, अखरोट, बदाम आदि बड़ी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। भावों में उतार-चढ़ाव अधिक बताते हैं । वस्तुओं के गुण कीमतों से कम मेल खाते हैं । ऊनी शाल, वहाँ की बड़ी मशहूर है। अन्य ऊनी कपड़े भी काफी मात्रा में दुकानों में होते हैं। कीमतों की घटा-बढ़ी श्रीनगर में वैसी ही देखी जैसा मैंने जापान यात्रा के समय हांगकांग में अनुभव किया। कीमतों में लोच बहुत होने से सहज विश्वास नहीं किया जा सकता है। ठंड अक्टूबर में सिर्फ साधारण थी, जो सुबह के समय मालूम होती थी। शक्ति व सुरक्षा की दृष्टि से मिलिटरी व पुलिस के दबदबे का आभास प्रतीत होता है। संघ के काफी लोगों ने सूखे फल, कुछ कपड़े खरीदे, किन्तु बहुतों ने सेवों की पेटियां खरीदीं। एक रुपये में चार सेव अनुमानित पड़ी। मन की ममता, परिवार वालों के प्रति स्नेह, काश्मीर की याददाश्ती, रुपये का सस्ता सदुपयोग, मुफ्त की ढुलाई तथा देखी ने काका साहेब के आदेशों को उपेक्षित किया, होता है ऐसा । बसों में लौटते वक्त सेवों का वजन अधिक बढ़ गया, अपेक्षाकृत भोजन का कच्चा सामान कम घटा । रास्ते में ड्राइवर लोग भी सेव की पेटियाँ खरीदने की ममता से नहीं बचे। दिनांक २२ अक्टूबर-श्रीनगर से लौटना आज प्रात: ४ बजे सनातनधर्म धर्मशाला, लाल चौक से काश्मीर भ्रमण की अभिलाषा को पूरा कर बसों में संघ रवाना हुआ। कार ६ बजे प्रात: रवाना हुई। ७० कि० मी० तक समतल सड़क पर चलकर घाटी में फिर से प्रवेश किया। १० बजे बनिहाल (जवाहर) की लम्बी सुरंग को पार किया। उसके बाद घाटी का सुरम्य दृश्य प्रस्तुत हुआ, जिसकी प्राकृतिक छटा विस्मृत नहीं की जा सकती। वहाँ के पनीर के पकोड़े सबने खाये । लगातार यात्रा चलती रही। कार सबसे आगे थी, क्योंकि उसको दिन में ही चलना था और शाम तक जम्मू पहुँच जाना था । बसें आगे-पीछे चलती रहीं। . Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ की विशाल ऐतिहासिक यात्रा २६५ . दुर्घटना-राम वन के समीप, खूनी नाले के पास अकस्मात एक बस का ब्रेक फेल हो गया । यह बस सबसे पीछे थी। मुख्य गृहपति भी उसमें थे। ड्राइवर तत्काल 'सावधान' शब्द जोर से चिल्लाया। उसी क्षण बचने का दूसरा विकल्प नहीं देख, बस सीधी पहाड़ी से टकरा दी। सम्भवतः छात्रों ने हाथ अन्दर कर लिये हों। उसी क्षण अन्दर बैठे हुए सब यात्रियों के जीवन-मरण का प्रश्न था, हृदय कम्पित हुआ ही होगा। ईश्वर की कृपा से ड्राइवर की सूझ-बूझ ने मौत से रक्षा की, अन्यथा ४५० फीट गहरी घाटी में गिरने के अलावा दूसरा मार्ग नहीं था। बस उलट गई। ड्राइवर सिर पर हाथ रखकर एक तरफ बैठ गया। मुख्य गृहपति तथा अन्य जिम्मेदार व्यक्तियों ने बाहर निकल बच्चों को काँच की खिड़की से एक-एक को बाहर निकाला । देखा कि किसी के खास चोट नहीं आई। दो तीन के हाथ आदि में थोड़ी चोट लगी, जिसका उपचार आगे उधमपुर नगर अस्पताल में करवा लिया गया। इसी खूनी नाले के बारे में कहा जाता है कि गत १२ वर्ष में सैकड़ों दुर्घटनाएँ घटित हुई हैं। इन बारह वर्षों में यह दूसरी घटना है, जिसमें किसी को चोट नहीं आई, हताहत का तो प्रश्न ही नहीं था। इसके पीछे धर्म संघ का पुण्य प्रताप व काका साहब के त्याग व तपस्या का सुप्रतिफल रहा। घोर संकट टला अन्यथा इतिहास कोई दूसरा होता, कल्पनातीत है। कहा जाता है कि विस्मय से भयभीत हो खूनी नाले के वहाँ देवी का एक मन्दिर बनवा दिया गया । कुछ ही समय में सारा सामान उस बस से उतरवा लिया। बस का अगला हिस्सा क्षतिग्रस्त होने से बस वहीं रही । वहाँ से कब आई और कैसे आई पता नहीं। बसें पुराने माडल की थीं। जो रास्ते के लिए उपयुक्त भी नहीं थी। वैसे ये बसे जम्मू तक के लिए ही की गई थीं। अवसर की बात थी। काश्मीर के लिए जम्मू से दस हजार रु० अलावा दिये गये । जम्मू तक के लिए ३७,५०० रुपये तय किये गये थे। उसी समय मिलिटरी की गाड़ियों का काफिला जम्मू की तरफ जा रहा था। मुख्य गृहपति जी कुशल हैं। उन्होंने उन गाड़ियों के सहयोग से बस के छात्रों तथा सामान को उधमपुर तक पहुँवा दिया, जहाँ ब्रिगेड हेडक्वाटर्स हैं । इस घटनाक्रम की अवधि में हमारी कार नारवोटा चौकी तक पहुँची। वहाँ पर हमको रोक कर कहा गया कि हमारी एक बस दुर्घटनाग्रस्त हो गई है और हमारी कार को वापस लौटने के लिए कहा। उसी समय एक कार निकली उसके सिक्ख ड्राइवर से सूचना प्राप्त की, वह कार सर्वप्रथम दुर्घटना के बाद उधर से गुजरी थी। ड्राइवर ने कहा, बस उलट गई, किन्तु किसी को कोई चोट नहीं आई, सब ओ० के ० हैं । तब हमारे होश ठिकाने आये। कार उधमपुर तक लौटी । मुख्य गृहपति जी बस के यात्रियों व सामान को लेकर सड़क के किनारे पर खड़े थे। चारों बसें पीछे थीं । रात्रि को उधमपुर की जैन धर्मशाला में रुके । रात्रि के ११ बजे दूसरी बसें भी आ गईं। देश के इस उत्तरी भाग में धर्मशालाओं की सुविधा मिल जाया करती है । दिनांक २३ अक्टूबर-अमृतसर को प्रातः ६ बजे सबने एक साथ यात्रा प्रारम्भ की। दूसरी बस व ट्रक की व्यवस्था उधमपुर में नहीं हो सकी। मैदानी भाग भी आ गया । अत: पाच बसों के यात्री उनका सारा सामान चारों बसों में कर दिया गया । काका साहेब के आदेश में दृढ़ता पाई जाती है, वही हुआ। जम्मू के पास नहर बह रही थी। उसके किनारे सबने ठण्डी पूड़ियाँ, अचार से सफरी खाना खाया, बड़े मजे से, क्योंकि किसी जगह खाना बनाने व खिलाने में आधा दिन का समय लगता था । कार जम्मू से आगे हो गई और हम सूर्यास्त तक अमृतसर पहुँच गये। जम्मू में तेल (Oil) लेने के लिए बसों को रुकना पड़ा और बसें रात्रि को ११ बजे अमृतसर पहुँची। जैन भवन में हमने उनके खाने का प्रबन्ध किया। खाना-खिलाना रात्रि के २ बजे तक चलता रहा, तृप्ति अनुभव की । अमृतसर के श्री हेमराजजी, रामलालजी सुराणा तथा युवक कार्यकर्ताओं ने बड़े प्रेम से जिमाया। रात्रि विश्राम वहीं रहा । जलियाँ वाले बाग को रात्रि में देरी होने के कारण भीतर से नहीं देख सके, किन्तु अमृतसर के प्रसिद्ध गुरुद्वारे (स्वर्ण मन्दिर) को देखा, जिससे सब बड़े प्रभावित हुए। जलियाँवाला बाग-उसमें जाने के लिए एक संकड़ा रास्ता, भीतर चौक, अब ट्रस्ट ने पार्क बना दिया है। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड शहीदों का एक सुन्दर स्मारक है, पास में शहीद कुआँ, जिसमें सैकड़ों लोग मशीनगन से मरने के बजाय कूद पड़े थे। थे । सर्वप्रथम रोलेट एक्ट के खिलाफ अप्रेल, १६१६ में स्वतन्त्रता की बिगुल बजी थी। जनरल डायर ने जिस स्थान से मशीनगन चलाई थी, वह निर्दिष्ट स्थान भी बताया गया। शहीदों का एक सुन्दर व भव्य स्मारक बना हुआ है। प्रति वर्ष इसी बाग में शहीद दिवस मनाया जाता है। खून का बदला खून से श्री उधमसिंह ने लिया और उसने ब्रिटिश पालियामेण्ट हाउस में बैठे हुए जनरल डायर को गोली मार कर १६१६ का बदला लिया। तत्पश्चात् उस वीर ने अपने आपको ब्रिटिश सरकार को समर्पित कर दिया । बलिदानों से देश के इतिहास बनते हैं । हम सब शहीदों के प्रति नतमस्तक हैं । गुरुद्वारा सिक्ख मजहब का सबसे प्रमुख तीर्थस्थान है। विशाल प्रांगण में सफेद रंग का भवन बना हुआ है। मध्य में पानी के बीच में तीर्थस्थान है जहाँ 'गुरु ग्रन्थसाहब" रखे जाते हैं । बड़ा पुनीत स्थान है। महाराजा रणजीतसिंह जी ने इस पर सोना चढ़ाया था। उस परिवार में एक दुखभंजन बेल है, जो ५०७ वर्ष पुरानी है। सिक्खों की विनम्र सेवा--दर्शनार्थियों के जूते उठाने-रखने, से अत्यन्त प्रभावित हुए। सिक्ख मजहब मानव सेवा को ही प्रधानता देता है। साध्वीश्री मत्तुजी के नव निर्मित तेरापंथ सभा भवन में दर्शन किये । दि० २३ को उदयपुर के एक जैन समाज के यात्रियों की बस वहाँ आई। वह काश्मीर की ओर जा रही थी। अमृतसर शहर बड़ा सुन्दर लगा। २४ अक्टूबर-राणावास को लौटना प्रात: साध्वीश्री जी से मांगलिक सुना । कार व बसों के दो भिन्न रास्ते कर दिये गये। काकासाहब को लुधियाना जाना आवश्यक था । शेष चार बसें गगानगर, जोधपुर के रास्ते राणावास लौटीं। कार-कार में काकासा, माताजी, मैं व श्री पुखराज जी कटारिया थे। श्री कटारिया जी काकासाहब व संघ के एक निष्ठावान् शान्त कार्यकर्ता हैं और काकसा की सेवा में समर्पित हैं । दिन को ११ बजे पूज्य गुरुदेव के दर्शन किये । दि० २३ को जन्मोत्सव पर संगरूर मर्यादा महोत्सव फरमा दिया था। प्रवचन पण्डाल में श्री रामकुमार जी अग्रवाल (कलकत्ता) और श्री सिद्धराज जी भण्डारी (अहमदाबाद) ने १२०० रुपये प्रतिवर्ष छात्रवृत्ति के रूप में काकासाहब को देने स्वीकार किये और श्री मांगीलाल जी विनायकिया (अहमदाबाद) ने राणावास होस्टल (रामसिंह -गुड़ा) के उद्घाटन की स्वीकृति प्रदान की। दि० २४, रात्रि को करौनी (हरियाणा) वैष्णव मन्दिर में विश्राम किया, दि० २५ को हिसार, राजगढ़, चुरू, रतनगढ़, लाडनूं होते हुए जायल पंचायत समिति भवन में ठहरे । दि० २६ भोर में वृद्ध माताजी श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा के अन्धेरे में गिरने से मुंह पर चोट आयी। नाक से रक्त निकला तथा आँख पर भी तनिक चोट आयी। उनका उपचार आगे खेडापा अस्पताल में करवाया। श्रद्धेय काका सा० का हृदय भी द्रवित हुआ। जोधपुर में कार कुछ ठीक करवा दिन को ११ बजे पाली आये। वहां साध्वी श्री कमलाकुमारी जी (उज्जैन) के दर्शन किये। उन्हीं क्षणों में जमीन में दो बार धड़कन आयी। श्री अमरचन्दजी गादिया (ट्रस्टी) तथा राणावास गाँव में दोनों जगह खाना खाकर शाम को ६ बजे राणावास में साध्वी श्री सिरेकुमारीजी के दर्शन किये। बसे-दि० २४ प्रात: अमृतसर से रवाना हो रात्रि को १० बजे गगानगर पहुँची। वहाँ कालेज में विश्राम किया । दि० २५ को डीजल का प्रबन्ध कर सूरतगढ़ होकर बीकानेर का रास्ता लिया। राजस्थान नहर को देखा, जो विश्व की सबसे बड़ी नहर है, थार रेगिस्तान के लिए वरदान है। चारसौ करोड़ रुपये की परिकल्पना है, इससे राजस्थान की काया पलट हो जायेगी। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ को विशाल ऐतिहासिक यात्रा २६७ सूरतगढ़ के पास एक बस का पिछला पहिया चलते-चलते निकल गया। इस दूसरी दुर्घटना से भी बच ही गये। यन्त्रीकृत वाहनों में कभी न कभी कोई कारण हो ही जाया करते हैं। तीन घण्टे वहाँ रुके । इस बीच डाइवरों ने शराब का पान कर लिया। एक बस आ गयी। रातभर बसें चलती रहीं। बीकानेर, जोधपुर, पाली होते हुए बसें दि० २६ अक्टूबर को प्रात: १० बजे राणावास लौटीं, उनमें से आगे आने वाली बस प्रातः ३ बजे आ गयी थी। _अफवाह-दि० २२ की दुर्घटना का समाचार अखबारों में प्रकाशित हो गया था-राजस्थान रोडवेज की छात्रों की पाँच बसों में से एक बस उलट गयी । कोई हताहत नहीं हुआ, फिर भी अफवाहों ने छात्रों के माता-पिताओं को भारी चिन्ता में डाल दिया। कई जगह से राणावास फोन आये। राणावास का बाजार भी अफवाहों से गर्म था। जब सब छात्र मय सामान के सब सुरक्षित लौटे, तो सबको शान्ति मिली। वास्तव में साहस से परिपूर्ण भ्रमण था। विशाल संघ यात्रा-३०० छात्रों को लेकर गुरु-दर्शन को जाना, काश्मीर की यात्रा करना, किफायतशारी रखना, पहले से कहीं आगे का पूरा प्रबन्ध नहीं करना, छोटे-छोटे बच्चे साथ होना-एक बेमिसाल उदाहरण उपस्थित करता है। राणावास संघ का अनुशासन, निष्ठाशील कार्यकर्ताओं का सहयोग, एक अनुशासित जीवन को प्रतिबिम्बित करते हैं । ऐसा माना जाता है कि छात्रों का सख्त अनुशासित होना आगे के जीवन-निर्माण तथा विकास में बड़ा फलदायक होता है। संघर्ष से कभी नहीं घबराते, इसीलिए व्यावसायिक जगत में देश के दूर-दूर भागों में यहाँ से निकले हुए छात्र बड़े सफल रहे हैं—यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। श्रद्धेय काका साहब का एक जीवन प्रसंग महत्वपूर्ण संकल्प को जन्म देता है। भविष्य में वे ऐसी कोई यात्रा नहीं करेंगे। काकासा की आत्म-शक्ति का परिचायक है कि इतनी बड़ी विशाल यात्रा का कदम उठा सके । यह यात्रा जीवन से कभी विस्मृत नहीं की जा सकती। संघ के इतिहास में सदा इसका स्थान बना रहेगा और यह अति साहसी कदम आपके अभिनन्दन की महत्त्वपूर्ण कड़ी होगी। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ, राणावास विभिन्न प्रवत्तियां : संक्षिप्त परिचय अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ, राणावास एक स्वतन्त्र संस्था है। श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ, राणावास से इस संस्था का कोई सम्बन्ध नहीं है। देश में नारी समाज पर जो जुल्म हो रहे हैं, शोषण एवं अत्याचार हो रहे हैं, वह जिस प्रकार कुरीतियों व अन्धविश्वासों से ग्रस्त और त्रस्त है, उसका मूल कारण नारी-अशिक्षा है। वर्षों से यह अनुभव किया जा रहा था कि श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ जिस प्रकार छात्रों की शिक्षा-दीक्षा व उनमें सुसंस्कारों के निर्माण के लिए प्राणप्रथा से संलग्न है, उसी तरह का कोई संगठन छात्राओं के लिए भी होना चाहिए। अन्ततोगत्वा इसकी संस्थापना का बीड़ा कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा से प्रेरणा प्राप्त कर उनकी धर्म-पत्नी नारीरत्न श्रीमती सुन्दरदेवी सुराणा ने उठाया। उनके सद्प्रयासों से वि० सं० २०१८ कार्तिक शुक्ला, पूर्णिमा तदनुसार २२ नवम्बर, १९६१ को महावीर कन्या विद्यालय के शुभारम्भ के साथ ही श्री अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ, राणावास की स्थापना हुई तथा यह विद्यालय इस संघ की प्रथम प्रवृत्ति के रूप में आरम्भ हुआ। राणावास रेलवे स्टेशन से राणावास गाँव जाने वाली मुख्य सड़क के दायीं और १५ बीघा जमीन में इस संघ की विभिन्न प्रवृत्तियाँ संचालित हो रही हैं। इस संघ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह अखिल जैन समाज की संस्था है। इसमें जैन धर्म के किसी सम्प्रदाय विशेष का प्रभुत्व नहीं है तथा इसके प्रवेश-द्वार वर्ण, धर्म, जाति भेद के बिना समस्त छात्राओं के लिए खले हुए हैं। यद्यपि इस संघ की संस्थापना का मुख्य श्रेय श्रीमती सुन्दरदेवी सुराणा को है। किन्तु इसके संचालन और विकास में ग्रन्थनायक कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा का व्यक्तित्व जुड़ा है, इस प्रकार यह संघ भी श्री सुराणाजी के कृतित्व का स्मारक चिह्न है। अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ का अपना संविधान बना हुआ है तथा संविधानानुसार संघ व उसकी प्रवृत्तियों के सुसंचालन के लिए एक कार्यकारिणी समिति बनी हुई है। सन् १९८०-८१ की कार्यकारिणी समिति व ट्रस्ट-मण्डल के सदस्यों की सूची इस प्रकार है १. अध्यक्ष २. उपाध्यक्ष ३. मन्त्री ४. उपमन्त्री श्री चुन्नीलाल जी कटारिया श्री रिखबचन्द जी कर्णावट श्री चन्दनमल जी गुगलिया श्री केसरीमलजी सुराणा श्री प्रेमराज जी मूथा श्री भूपेन्द्र जी मूथा श्री पुखराज जी कटारिया श्री अमरचन्द जी गादिया ५. कोषाध्यक्ष ६. प्रधान ट्रस्टी Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवृत्तियाँ (खेल-कूद) श्री सुमति शिक्षा सदन उ०मा० विद्यालय के छात्रों द्वारा सामूहिक शारीरिक व्यायाम प्रदर्शन श्री सुमति शिक्षा सदन उ०मा० विद्यालय के छात्रों द्वारा मार्च-पास्ट-सलामी लेते हए डा. डी. एस. कोठारी श्री सुमति शिक्षा सदन उ०मा० विद्यालय का स्काउट दल श्री सुमति शिक्षा सदन उ० मा० विद्यालय के छात्रों द्वारा प्रस्तुत एक झांकी Jain Education Intemational | Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवृत्तियाँ- सांस्कृतिक सामूहिक सामायिक करता छात्र वर्ग महाविद्यालय के छात्रों द्वारा प्रस्तुत सर्प-नृत्य महाविद्यालय द्वारा आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम के सुअवसर पर दर्शकगण विद्यालय के छात्रों द्वारा प्रस्तुत सामूहिक नृत्य Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महिला शिक्षण संघ को विभिन्न प्रवृत्तियां : संक्षिप्त परिचय २६६. -७. सहायक ट्रस्टी ८. परामर्शदात्री ९. संरक्षक सदस्य श्री अमरचन्द जी पीतलिया श्री जयप्रकाश जी गादिया श्री राणमल जी जीरावाला श्री अमरचन्द जी मूथा श्रीमती सुन्दरबाई सुराणा श्री टी० ओकचन्द जी गादिया श्री नेमिचन्द जी सुराणा श्री मोहनलाल जी सुराणा श्री सिरेमल जी डोसी प्रो० एस० सी० तेला प्रो० दानवीरचन्द जी भण्डारी श्री ताराचन्द जी लूकड़ श्री महावीरकुमार जी श्री जबरमल जी मूथा श्री भंवरलाल जी सुराणा श्रीमती विजयादेवी सुराणा श्रीमती नीलम कृष्णन प्र०अ० १०. सदस्य इस संघ के अन्तर्गत वर्तमान में निम्न प्रवृत्तियाँ चल रही हैं (१) महावीर कन्या विद्यालय, (२) टी० ओकचन्द गादिया बाल निकेतन, (३) श्रीमती घीसीबाई डोसी बाल विद्या मन्दिर, (४) छात्रावास (५) औषधालय, (६) गौशाला सन् १९६१ में महावीर कन्या विद्यालय का प्रारम्भ श्रीमती सुन्दरदेवी सुराणा के कर-कमलों से हुआ उस समय उसमें बीस छात्राएँ थीं तथा कक्षा एक से तीन तक की छात्राएँ इसमें अध्ययन करती थीं। किन्तु दूसरे ही वर्ष चौथी व पांचवीं कक्षा भी प्रारम्भ कर दी गयी। सन् १९६६ में आठवीं कक्षा तक विद्यालय क्रमोन्नत हो गया और सन् १९७२ में शिक्षा विभाग राजस्थान, बीकानेर द्वारा कक्षा आठ तक मान्यता भी मिल गयी। किन्तु संस्था में क्रमश: छात्राओं की संख्या बढ़ती गयी, परीक्षा परिणाम भी श्रेष्ठ रहने लगा तो इसे सैकेण्डरी स्कूल बनाने की मांग होने लगी। अन्ततोगत्वा जुलाई, १९७२ से इस विद्यालय को बोर्ड ऑफ सैकेण्डरी ऐजकेशन राजस्थान, अजमेर से दसवीं कक्षा तक मान्यता प्राप्त हो गयी। इस सत्र में समस्त अनिवार्य विषयों के साथ कक्षा नौ में हिन्दी, संस्कृत व गृह विज्ञान ऐच्छिक विषय खोले गये। जुलाई १९८१ से अर्थशास्त्र व नागरिकशात्र के रूप में दो नये ऐच्छिक विषय और खोलने की स्वीकृति प्राप्त हो गयी है। विद्यालय का समय प्रात: १०-३० से सायं ४.३० बजे तक है। टी० ओकनन्द गादिया बाल निकेतन और श्रीमती घीसीबाई डोसी बाल मन्दिर में प्राथमिक और पूर्व प्राथमिक वर्ग की छात्राएँ अध्ययन करती हैं। माध्यमिक विद्यालय और प्राथमिक विद्यालय में कूल १५ अध्यापिकाओं का स्टाफ कार्यरत है। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी व लिपिक वर्ग अलग से है। विद्यालय में छात्राओं की संख्या लगातार बढ़ रही है, इसका मूल कारण यहाँ की उतम पढ़ाई व्यवस्था तथा उसके परिणामस्वरूप यहां का श्रेष्ठ परीक्षा परिणाम है। सैकेण्डरी स्कूल परीक्षा का परिणाम प्रतिवर्ष ६० प्रतिशत से १०० प्रतिशत तक रहता है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २७० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड -ra...mtur.ara.ma.me.mrs.em.o.em.m.arm.m.me.m.w.w.ms.10a.mam.3 सत्र १९८०-८१ में कन्या विद्यालय में अध्ययनरत छात्राओं की क्रमानुसार संख्या निम्न प्रकार हैकक्षा- १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० योग छात्राएँ-४० ४० ४० ४० ४० २२ १८ १८ १८ १० २८६ गरीब व निर्धन छात्राओं को पाठन शुल्क से पूर्ण और अर्द्ध मुक्ति स्थिति अनुसार दी जाती है। विद्यालय में सांस्कृतिक कार्यक्रम समय-समय पर बड़ी लगन से तैयार कर प्रस्तुत किये जाते हैं। साधु-साध्वियों के चातुर्मास के दौरान प्रति शुरुवार को नैतिक शिक्षा पर आधारित विशेष सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं । छात्राओं में नैतिक व आध्यात्मिक जागृति के लिए पाठ्यक्रम के अतिरिक्त तीन दिन तक नैतिक और तीन दिन तक आध्यात्मिक ज्ञान दिया जाता है। छात्राओं के सिलाई, बुनाई, कढ़ाई और अल्पना (रंगोली) मांडने का कार्य भी सिखाया जाता है। सिलाई के अन्तर्गत ब्लाउज, कुर्ता, पायजामा, जांघिया आदि की कटाई व सिलाई; बुनाई के अन्तर्गत स्वेटर, मौजा, वावासूट, टोपा, फ्राक आदि; कढ़ाई में मेजपोश, तकिया, गिलाफ, मेट्स आदि पर विभिन्न रंगों के टाँके, क्रास स्टिच, चेन स्टिच, साटन स्टिच, लेजी डेजी, बटन हाल स्टिच आदि तथा अल्पना में विभिन्न रंगों में रंगोली सजाने का काम सिखाया जाता है। इनमें सब सामग्री स्वयं छात्राओं को ही लानी होती है और तैयार होने पर वे उन्हें घर ले जाती हैं। विद्यालय में पुस्तकालय व वाचनालय भी है। पुस्तकालय में लगभग तीन हजार पुस्तकें हैं, और वाचनालय में दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक आदि १७ पत्र-पत्रिकाएँ आती हैं। छात्राओं के खेलकूद की ओर भी ध्यान दिया जाता है और इसके लिए पढ़ाई के अन्त में एक घण्टा अलग से नियत है, जिसमें वे बैडमिन्टन, रिंग, खो-खो, राउन्डर, डाजबाल, थ्रोबाल, लेजिम, डम्बल्स आदि खेल सकती हैं। इनके लिए अलग से मैदान व स्थान नियत है। पी० टी० भी करायी जाती है। - छात्राओं को शुद्ध दूध मिल सके, इसके लिए एक गौशाला भी है, जिसमें गायें, भैसें व बछड़े आदि हैं। इनकी देखरेख के लिए अलग से व्यक्ति नियत हैं। छात्राओं के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए प्रांगण में ही एक औषधालय है, जहाँ पर निर्धारित समय पर डॉक्टर आते हैं और बीमार छात्राओं की चिकित्सा करते हैं। एक कुआँ और एक बगीची भी है। बगीचे में हरी साग-भाजी बोयी जाती है, जो छात्राओं के भोजन के लिए काम आती है। अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ द्वारा संचालित विभिन्न प्रवृत्तियों के लिए अलग-अलग भवन बने या कालए अलग-अलग भवन बने हुए हैं; यथा-(१) महावीर कन्या विद्यालय भवन (२) टी० ओकचन्द गादिया बाल निकेतन (३) श्रीमती घीसीबाई डोसी बाल विद्या मन्दिर (४) छात्रावास (४) भोजनालय (६) केन्द्रीय कार्यालय (७) अतिथि भवन (5) औषधालय (९) गौशाला भवन (१०) स्टाफ क्वार्टर्स (११) जैन मन्दिर (१२) लेट्रिनस व बाथरूम । भवनों में बिजली की व्यवस्था है। मन्दिर में पूजा-पाठ की सुविधा है। संघ के मुख्य गेट पर चौकीदार हर समय रहता है, उसकी अनुमति के बिना प्रवेश निषेध है। संघ की परिधि में ही छात्राओं के लिए आवासीय छात्रावास बना हुआ है। इस छात्रावास का नाम श्री जैन बालिका छात्रावास है। इस जैन बालिका छात्रावास का शिलान्यास आषाढ़ शुक्ला १३ वि० सं० २०२४ तदनुसार दिनांक २४ जुलाई, १९६७ को श्रीमान बख्तावरमलजी गुगलिया के कर-कमलों द्वारा हुआ और उसका उद्घाटन आचार्य आनन्द ऋषिजी महाराज के सुश्रावक श्री हस्तीमलजी मुणोत, सिकन्दराबाद ने किया। इसके निर्माण में ५६ हजार रुपये व्यय हुए। यह छात्रावास १० बालिकाओं से शुरू किया गया । वर्तमान में इनकी संख्या ८० है। इस छात्रावास में करीब १५० छात्राएँ रह सकती हैं। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महिला शिक्षण संघ की विभिन्न प्रवृतियाँ संक्षिप्त परिचय सत्र १९८०-८१ में छात्रावास में निवास करने वाली छात्राओं की कक्षानुसार संख्या निम्न प्रकार है कक्षा १ २ ३ ५ ६ ह १० योग १० ०५ ह ०८ २ बराण्डे हैं। पानी के लिए कुए के पास स्नानघर बने हुए हैं। पंखे लगे हुए हैं व छोटे में दो पंखे लगे हुए हैं। प्रत्येक कमरे सामान रखने हेतु व एक खाट सोने के लिए व एक डेढ़ के लिए दी जाती है। पढ़ने-लिखने के लिए समय बँटा हुआ है। जागना, पढ़ना, लिखना, सोना आदि सभी कार्यों को छात्राएँ — १० ०५ ०७ १० छात्रावास में ५ बड़े हॉल, ६ छोटे कमरे, संडास की सुविधा है। हर बड़े हॉल में तीन में आलमारियाँ हैं । छात्राओं को दो-दो आलमारी समयानुसार करना आवश्यक है । यहाँ पर छात्राओं की देखरेख के लिए गृहमाता है। छात्रावास की दिनचर्या इस प्रकार हैं १. प्रातः ४-३० बजे जागरण २. प्रातः ४-३० से ४-४५ बजे तक प्रार्थना एवं हाजिरी ३. प्रातः ४-४५ से ६-०० बजे तक अध्ययन ४. प्रातः ६-०० से ६-३० बजे तक नित्य कर्म निवृत्ति ५. प्रातः ६३० से ७-३० बजे तक सामायिक व धार्मिक अध्ययन ६. प्रातः ७-३० से ८०० बजे तक नाश्ता ७. प्रातः ८०० से ६०० बजे तक नहाना-धोना ८. प्रातः ६०० से १०-०० बजे तक भोजन ६. प्रातः १०-०० से १०-१५ बजे तक स्कूल की तैयारी व प्रस्थान १०. प्रातः १०-१५ बजे तक स्कूल में उपस्थित होना ११. प्रातः १०-३० से सायं ४-३० बजे तक स्कूल में अध्ययन १२. सायं ४-३० से ५-०० बजे तक हाथ-मुँह धोना १३. सायं ५०० से ५-३० बजे तक भोजन १४. ५-३० से ६-०० बजे तक मुनि-दर्शन की तैयारी १५. ६-०० से ७-०० बजे तक मुनि-दर्शन के लिए जाना १६. रात्रि ७०० से ७-१५ बजे तक प्रार्थना व हाजिरी १७. रात्रि ७-३० से ६-३० बजे तक अध्ययन १५. रात्रि ९-३० बजे शयन करना । 67 ०८ ८ ०८ २७१ ८० प्रातः नाश्ते में प्रतिदिन पाव भर दूध एवं उसके साथ बिस्कुट, टोस्ट या मौसम के अनुसार मक्का की घाट या खिचड़ी दूध के साथ दी जाती है। ठीक ६-३० पर प्रातः का भोजन दिया जाता है। प्रातः भोजन में एक दाल एक हरी सब्जी व फुलके दिये जाते हैं। साथ में कभी-कभी पोदीने या धनिये की चटनी और निंबू भी दिया जाता है। दिन में ठीक २ बजे दोपहरी (अल्पाहार ) दी जाती है, जिसमें क्रमशः इडली, उपमां, नमकीन चावल, ककड़ी, पपीता आदि दिया जाता है। सायं ६ बजे संध्या का भोजन दिया जाता है जिसमें हरी सब्जी, दाल, फुलके व चावल प्रतिदिन दिये जाते हैं। इसके अलावा हर रविवार को मिठाई व नमकीन दिया जाता है। कुल मिलाकर भोजन की व्यवस्था अति सुन्दर है । भोजन करने के स्थान की स्वच्छता का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है। वहाँ बैठने के लिए चटाइयां बिछाई जाती हैं। भोजन-स्थान को प्रतिदिन धोया जाता है। छात्राएं भोजन के समय घंटी लगने पर पंक्तिबद्ध खड़ी हो जाती . Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : द्वितीय खण्ड हैं फिर गृहमाता की देख-रेख में छात्राएँ भोजन-स्थान पर शान्तिपूर्वक बैठ जाती हैं। भोजन परोसने का कार्य स्वयं छात्राएँ करती हैं जिनको क्रमश: बारी दे दी जाती है। भोजनशाला में किसी भी छात्रा को बोलने नहीं दिया जाता। सभी छात्राओं के बैठ जाने पर भोजन परोसा जाता है। सभी को भोजन सामग्री मिलने पर भोजन के समय बोली जाने वाली प्रार्थना बोली जाती है। उसके बाद आधे मिनट का मौन रखकर भोजन प्रारम्भ किया जाता है। भोजन करते समय सम्पूर्ण समय तक मौन रखा जाता है। संकेत पर परोसकारी की जाती है। इस तरह भोजनशाला में शान्त वातावरण बना रहता है। आधे से अधिक छात्राएँ जब भोजन कर लेती हैं तब बारी समाप्त करने का आदेश मिलता है। भोजन परोसने वाली बहनें ‘महावीर स्वामी की जय' बोलती हैं इसका अर्थ है जो छात्राएँ जी मने बाकी हैं वे अब आखरी बार में जितना भोजन चाहें उतना प्राप्त कर लें ताकि कार्य समय पर निपट सके। छात्रावास में जठन डालने का प्रचलन विस्कुल नहीं है। भोजन जीमने के बाद सभी छात्राएँ अपने-अपने बर्तन निश्चित स्थान पर स्वयं साफ करती हैं । भोजनशाला में बनने वाली हरी सब्जियाँ छात्रावास के बगीचे से आती हैं जो कि एकदम ताजी होती हैं । शुद्ध घी काम में लिया जाता है। समय सारिणी के अनुसार चार घंटे छात्राओं को अध्ययन के लिये मिलते हैं । प्रतिदिन सायं विशेषकर अंग्रेजी, गणित व विज्ञान के लिए कोचिंग कक्षाओं की व्यवस्था की जाती है। गृहमाता इस बात का पूरा ध्यान रखती है कि छात्राओं को अध्ययन करते समय किसी प्रकार का विघ्न न पड़े । गृहमाता नियमित रूप से छात्राओं के गृहकार्य की देख-रेख करती है ताकि वे नियमित रूप से गृहकार्य करें। कोचिंग कक्षाओं से खासकर कमजोर छात्राओं को बड़ी मदद मिलती है । अध्ययन की इतनी सुन्दर व्यवस्था होने की वजह से यहाँ का प्रतिवर्ष परीक्षा-फल उत्तम रहता है। छात्रावास में छात्राओं को शैक्षणिक योग्यता के साथ-साथ आध्यात्मिक शिक्षा भी दी जाती है। तेरापंथ के नवमाचार्य अणुव्रत आन्दोलन के प्रवर्तक युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी की राणावास के निवासियों व छात्रावासों पर सदैव कृपा रही है। गुरुदेव हर वर्ष साधु-साध्वियों का चातुर्मास फरमाते हैं । ये साधु या साध्वियाँ प्रतिदिन छात्रावास में पधारते हैं व धार्मिक शिक्षण देते हैं। छात्राएँ प्रतिदिन प्रातःकाल एक सामयिक करती हैं। उसी समय चारित्र-आत्माएँ उन्हें धामिक ज्ञान देती हैं खासतौर पर यह शिक्षा दी जाती है कि आगे जाकर उन्हें अपना जीवन किस प्रकार जीना चाहिए। ताकि छात्राएँ आगे जाकर कुशल गृहिणी बन सकें। उनमें नम्रता, सहनशीलता, सहृदयता व समभाव आ सके । समय-समय पर यहाँ समाज के अन्य विशिष्ट व्यक्तियों का आगमन होता है, जिनके प्रवचन छात्राओं को सुनने को मिलते हैं। छात्रावास में बीमार छात्राओं पर पूरा-पूरा ध्यान दिया जाता है। गृहमाता स्वयं उनकी देखभाल करती है। स्वयं उनको औषधि देती है व उनके खाने का प्रबन्ध करती है। प्रात:काल व सायंकाल डाक्टर साहब छात्रावास में आते हैं। छात्राओं को उन्हें दिखाया जाता है। किसी समय किसी छात्रा की अधिक तबियत खराब होने पर उसी समय फोन करके डाक्टर को बुलाया जाता है। बीमार के बीमारी अवस्था में डाक्टर के कहे अनुसार ही उसके पथ्य की व्यवस्था की जाती है । छात्रावास में प्राय: समाज की गरीब छात्राओं को छात्रवृत्तियाँ दी जाती हैं । अर्थात् उनकी पूर्ण भोजन फीस या अर्ध भोजन फीस माफ की जाती है । ये छात्रवृत्तियाँ अखिल भारतीय महिला शिक्षण संघ की ओर से दी जाती हैं । गैरसमाज की छात्राओं को भी छात्रवृत्तियां दी जाती हैं। छात्रवृत्तियाँ प्रायः गरीब छात्राओं को दी जाती हैं। छात्रावास होने के नाते यहाँ प्रतिदिन ६-७ अभिभावक आते रहते हैं । अभिभावकों के ठहरने के लिए अलग से अतिथिगृह बना हुआ है। यह एक बड़ा हॉल है। यहाँ पर अतिथियों के लिए बिस्तर लगे हुए हैं। अभिभावकों के खान-पान की व्यवस्था बालिकाओं के भोजनालय में ही होती है। . Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष-वृत्त आचार्य श्री तुलसी से वार्ता करते हुए श्री केसरीमल जी सुराणा एवं प्रो० बी० एल० धाकड़ MOST डॉ० डी० एस० कोठारी के उद्बोधन भाषण के सुअवसर पर श्रोतागण - आगे की पंक्ति में बैठे हैं ग्रन्थ नायक श्री केसरीमल जी सुराणा For Private Personal Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष वृत्त या लिया श्रीयुत केसरीमलजी सुराणा संघ के मुख्य पदाधि कारियों एवं अन्य सज्जनों सहित श्रीयुत केसरीमल जी सुराणा अपने माननीय कर्मठ सहयोगियों के साथ ग्रन्थ नायक श्री केसरीमल जी भू० पू० मन्त्री माननीय मथुरादास जी माथुर का आतिथ्य सत्कार करते हुए ग्रन्थ नायक संघ के केन्द्रीय कार्यालय में कायकर्ताओं के साथ . Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन महिला शिक्षण संघ की विभिन्न प्रवृत्तियाँ : संक्षिप्त परिचय २७३ छात्रावास में प्रत्येक छात्रा का भोजन खाता व वैयक्तिक लेनदेन का खाता अलग है। कोई भी छात्रा नकदी रुपया-पैसा नहीं रख सकती। वे छात्रावास के बाहर सामान आदि खरीदने नहीं जा सकती हैं। अगर उन्हें किसी भी वस्तु की आवश्यकता होती है तो गृहमाता लाकर देती है। उस स्थिति में पैसा उनके व्यक्तिगत खाते में से कट जाता है। छात्राओं को बाहर जाने की अनुमति सिर्फ अभिभावकों के साथ ही मिलती है। छात्राओं के लिए पूर्ण नियंत्रण में रहने के लिए आदेश व निर्देश दिये जाते हैं । प्रवेश के समय इन्हें नियम, उपनियम से परिचय कराया जाता है। किसी भी छात्रा के द्वारा अनुशासन के भंग करने पर चेतावनी दी जाती है। इसके उपरान्त भी अनुशासन भंग करने पर शारीरिक दण्ड दिया जाता है। प्रत्येक कमरे का एक मोनीटर होता है जो उस कमरे की सफाई सम्बन्धित व्यवस्था देखता है। दल में अनुशासन बनाये रखता है। उस कमरे से सम्बन्धित रिपोर्ट वह छात्रा गृहमाता को देती है। इस तरह से हर दल में या कमरे में एक मानीटर होता है। इसी प्रकार कुछ और बड़ी छात्राओं को मनोनीत किया जाता है, जो सभी छात्राओं को घन्टी लगने पर लाइन से भोजनशाला में ले जाने, कुए पर ले जाने का काम भी देखती हैं। यहाँ के छात्रावास का जीवन पूर्ण स्वावलम्बी जीवन है । घर छोड़ने के पश्चात् छात्राओं को बहुत से काय अपने हाथों से करने पड़ते हैं तथा सभी प्रकार के कार्य करने का अवसर मिलता है। स्वावलम्बन के कार्यों का ब्यौरा इस प्रकार हैं १-अपने स्वयं के कपड़ों की स्वच्छता । २-अपने बर्तन साफ करना। ३-कमरे को साफ-सुथरा रखने की प्रवृत्ति । ४-फटे कपड़े सीना, बटन आदि लगाना । ५-छात्रावास के प्रांगण में श्रमदान करना। ६-रविवार के दिन छात्राओं को कक्षावार भोजशाला में चपाती बनाने के लिए भेजा जाता है, जिससे वे रसोई से सम्बन्धित कार्य भी सीख जाती हैं। प्रतिदिन प्रात:काल व सायंकाल प्रार्थना के बाद उपस्थिति ली जाती है। उपस्थिति के बाद छात्राओं के द्वारा दिनभर में कोई अनुशासनहीनता की हो तो उसके लिए चेतावनी दी जाती है और दण्ड भी दिया जाता है। पूरे छात्रावास की सफाई के लिए दो चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी हैं। ये दोनों औरतें पूरे होस्टल की सफाई करती हैं। वहाँ के हर कमरे में झाड़ और पोचा लगाती हैं । वे ही छात्राओं के लिए पीने के पानी का प्रबन्ध करती हैं। भोजन कक्ष की सफाई का कार्य भी ये ही करती हैं। छोटी बालिकाओं को तैयार करना, स्नान करवाना, उनके बाल बनाना ये सब काम यहाँ की अन्य दो चतुर्थ श्रेणी की औरतें करती हैं। यद्यपि छात्रावास में बिजली व्यवस्था है, मगर कभी-कभी बिजली बन्द हो जाती है, ऐसे समय के लिए छात्रावास में लालटेनों की व्यवस्था है, करीब १५ लालटेन हैं। इस प्रकार उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण से अखिल भारतीय जैन महिला शिक्षण संघ व उसकी प्रवृत्तियों के आधार पर संघ का मूल्यांकन कर सकते हैं। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D शिक्षा जीवन-निर्माण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण घटक है। 0 अनुशासन शिक्षा का कारण और परिणाम दोनों है। 0 अनुशासनपूर्ण जीवन सभी प्रकार की सफलता का मूल मन्त्र है। 0 सफल व्यक्ति स्वयं भी स्वर्ण के समान चमकता है और सम्पर्क में आने वाले को भी पारस-स्पर्शवत् चमकाता है। 0 जीवन को अन्धकार से निकालकर स्वर्णिम प्रकाश से व्याप्त कर देना अमरत्व की ओर ले जाना शिक्षा का उद्देश्य है। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LUNA moteleit श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ शिक्षा एवं समाज सेवा खण्ड Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +0+0+0 शिक्षा एवं सामाजिक परिवर्तन श्री भवानीशंकर गर्ग (आचार्य, जनता कालेज, डबोक, एवं कुलप्रमुख, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर) सृष्टि की रचना के साथ ही समाज के क्रमिक विकास में मानव का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । व्यक्ति के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती और न ही समाज के बिना व्यक्ति का विकास ही संभव है। आदि मानव से लेकर आज तक के आधुनिक समाज का विकास विभिन्न क्षेत्रों, प्रान्तों एवं राष्ट्रों में विभिन्न कारणों, भौगोलिक तथा अन्य देशकाल और परिस्थितियों के कारण अलग-अलग संस्कृतियों एवं सभ्यताओं के विकास के रूप में हुआ है । संस्कृति यदि समाज की आत्मा है तो सभ्यता उसका व्यावहारिक आचरण है। मानव की जिज्ञासा, निरन्तर सीखने की प्रवृत्ति तथा अनवरत प्रयोगों के कारण आज विश्व विज्ञान, कला, साहित्य, सामाजिक जीवन, तकनीकी ज्ञान तथा रहने-सहने के उच्चतम शिखर पर पहुँच गया है तथा और आगे बढ़ने के अनवरत प्रयत्न चल रहे हैं। इन निरन्तर होने वाले परिवर्तनों के कारण आज का मानव आदिमानव से बिल्कुल भिन्न है। परिवर्तन के इस क्रम में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। विश्व की अनेक संस्कृतियों एवं सभ्यताओं में भारतीय संस्कृति प्राचीनतम मानी गई है। भारत जैसे विशाल देश में जहां खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल, रीति-रिवाज आदि क्षेत्रीयता के आधार पर बिल्कुल भिन्न है, वहां देश की भावात्मक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक एकता आज भी अक्षुण्ण है । इसका मुख्य कारण यहाँ की प्राचीनतम सांस्कृतिक धरोहर, शिक्षण का आध्यात्मिक आधार तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में लचीलापन है। सामाजिक परिवर्तन के इस कम में शिक्षा का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आधुनिक युग में सामाजिक परिवर्तन एवं शिक्षा के परस्पर सम्बन्ध की बहुत चर्चा होती रहती है। भारत जैसे विकासशील देश में तो यह चर्चा और भी अधिक महत्वपूर्ण है। सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्ति एवं विशेषताओं की जानकारी किये बिना शिक्षा एवं सामाजिक परिवर्तन की जो चर्चा की जाती है वह प्रायः अत्यन्त अस्पष्ट व छिछली ही रहती है । अत: इस सम्बन्ध में सर्वप्रथम सामाजिक परिवर्तन की समाजशास्त्रीय व्याख्या करना आवश्यक है। इसके बाद ही उसका एवं शिक्षा का पारस्परिक सम्बन्ध - विश्लेषण किया जा सकता है । सामाजिक परिवर्तन समाजशास्त्री किंगस्ले डेविन के अनुसार सामाजिक परिवर्तन से केवल वे ही परिवर्तन समझे जाते हैं जो कि सामाजिक संघटन अर्थात् समाज के ढांचे एवं कार्य में घटित होते हैं । अन्य समाजशास्त्रियों की परिभाषाओं का सार यह है कि सामाजिक परिवर्तन वह स्थिति है जिसमें समाज द्वारा स्वीकृत सम्बन्धों, प्रक्रियाओं, प्रतिमानों और संस्थाओं का रूप इस प्रकार से परिवर्तित हो जाता है कि उससे पुनः अनुकूलन करने की समस्या उत्पन्न हो जाती है । प्रत्येक समाजिक परिवर्तन में तीन तत्त्व अवश्य ही होते हैं— वस्तु, भिन्नता तथा समय । यह स्मरणीय है कि सामाजिक परिवर्तन वास्तव में सांस्कृतिक परिवर्तन का एक भाग ही होता है। क्योंकि सांस्कृतिक परिवर्तन में संस्कृति . Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड के किसी भी पक्ष या अंग में यथा--कला, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, दर्शन आदि में परिवर्तन व सामाजिक संगठन के स्वरूपों और नियमों में होने वाले परिवर्तन सम्मिलित होते हैं । सामाजिक परिवर्तन की महत्त्वपूर्ण विशेषतायें नील जे० स्मेलसर के अनुसार सामाजिक परिवर्तन की महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्न हैं१. आधुनिक समाजों में परिवर्तन की गति बहुत तीव्र होती है। २. परिवर्तन एक क्रम है। वे अचानक घटित होने वाली घटनायें नहीं हैं। ३. आधुनिक परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले प्रभाव विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। ४. प्रायः आधुनिक परिवर्तन नियोजित परिवर्तन होते हैं । लेकिन यह हो सकता है कि एक नियोजित परि वर्तन से कई और परिवर्तन समाज में आ जाएँ जिनकी पहले आशा भी नहीं की गयी हो । ५. सामाजिक विकास और नई तकनीकी प्रयोग के बढ़ने के साथ ही समाज में उसी अनुपात से और अधिक सामाजिक परिवर्तन होने लगते हैं । ६. सामाजिक परिवर्तन से न केवल व्यक्तिगत रूप से व्यक्ति प्रभावित होते हैं, अपितु सम्पूर्ण सामाजिक संरचना तथा व्यवस्था की कार्य पद्धति में परिवर्तन आ जाता है। सामाजिक परिवर्तन की प्रवृत्ति १. सामाजिक परिवर्तन को भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। कोई नहीं कह सकता कि समाज में कौन कौन से परिवर्तन होंगे और कब-कब ? २. सामाजिक परिवर्तन जटिल होते हैं। ३. सामाजिक परिवर्तन अनिवार्य रूप से होने वाली घटना है। ४. सामाजिक परिवर्तन सार्वभौमिक हैं। ५. सामाजिक परिवर्तन की गति तुलनात्मक है । सामाजिक परिवर्तन के कई कारण भौगोलिक, जैविकीय, जनसंख्यात्मक, प्रौद्योगिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, युद्ध और क्रान्ति आदि हैं। सामाजिक परिवर्तन के पाँच रूप--प्रक्रिया, विकास, प्रगति, सुधार तथा क्रान्ति हो सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन का विरोध __सुधारकों का यह अनुभव रहा है कि परिवर्तन लाने के लिए साधन, कार्यकर्ता जुटाने व कार्य करने से ही उन्हें सफलता नहीं मिलती; अपितु उन्हें कई कोनों से विरोध का सामना करना पड़ता है । उदाहरणार्थ, सरकारी कर्मचारी, न्यायालय, धार्मिक संस्थाएँ, प्रेस, समुदाय के नेता उनका विरोध कर सकते हैं और वे परिवर्तन के सामाजिक नियन्त्रणों के रूप में कार्य कर सकते हैं । वे परिवर्तन की प्रवृत्ति व दिशा को भी मोड़ सकते हैं। वे उसके प्रभाव की गति व मात्रा को भी बदल सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन और शिक्षा सामाजिक परिवर्तन और शिक्षा के परस्पर सम्बन्धों को हम निम्न रूपों में विश्लेषित कर सकते हैं--- (क) किसी देश में सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए अनिवार्य शर्त या आवश्यकता के रूप में शिक्षा । (ख) किसी देश में सामाजिक परिवर्तन लाने के साधन या अभिकर्ता के रूप में शिक्षा । (ग) एक देश में सामाजिक परिवर्तन के प्रभाव के रूप में शिक्षा । (घ) सामाजिक परिवर्तन के लिए आवश्यक शर्त के रूप में शिक्षा । . Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा एवं सामाजिक परिवर्तन ३ ......................DIDDDDDDDDDDDDDO. शिक्षा के समुचित आधार या प्रयास के बिना समाज में सामाजिक परिवर्तन लाना कटिन हो जाता है। कई विकासोन्मुख देशों में यह देखने में आया है कि वहाँ लगाये गये कीमती व उच्चस्तरीय यन्त्र, कल-कारखाने और अन्य उत्पादन केन्द्र वहाँ प्राय: अपना लाभ पूरा नहीं दे सकते हैं। क्योंकि उनके लिए उपलब्ध होने वाले कार्यकर्ताओं और श्रमिकों में या तो अशिक्षा ही व्यक्त होती है अथवा अल्प-शिक्षा। हम यह भी देख सकते हैं कि सामाजिक सुधार के कार्यक्रम भी तभी सफल हो सकते हैं जब जनता में शिक्षा का कोई न कोई स्तर कायम हो। भारत में ऐसे कई समाज सुधार के कानून बनाये तो गये परन्तु उन्हें वास्तविक रूप में शिक्षा के अभाव के कारण लागू नहीं किया जा सका या समाज ने उन्हें स्वीकार नहीं किया, जैसे-शारदा एक्ट, छूआछूत सम्बन्धी कानून आदि । अधिकतर भारतीय ग्रामीण जनता अशिक्षित है और वह इन प्रयासों के महत्त्व को नहीं समझ सकी है। इसी प्रकार स्वच्छ जीवन, उत्तम स्वास्थ्य, तर्कपूर्ण चिन्तन आदि के विकास में शिक्षा का अभाव अत्यन्त बाधक रहा है। भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में अशिक्षित पंचों, सरपंचों ने अपनी अशिक्षा के फलस्वरूप सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को बहुत अधिक सीमा तक बाधा पहुँचाई है । भारतीय समाज में अभी तक अनिवार्य नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था न हो पाने के कारण वांछित सामाजिक परिवर्तन नहीं हो पा रहा है। शिक्षा सामाजिक परिवर्तन के अभिकर्ता के रूप में सामाजिक परिवर्तन का इच्छुक समाज कई प्रकार के कारकों, संस्थाओं, संयन्त्रों अथवा अभिकर्ताओं को काम में लाता है। उनमें से एक महत्त्वपूर्ण संयन्त्र शिक्षा-व्यवस्था होती है। यह विश्वास किया जाता है कि शिक्षा के द्वारा योग्य एवं विशेषीकृत कार्यकर्ता तैयार किये जा सकेंगे जो उच्च स्तरीय शिक्षा संस्थानों, औद्योगिक एव व्यावसायिक प्रतिष्ठानों तथा अधिकारी तन्त्र में कार्य कर सकेंगे। लोगों में नये सामाजिक मूल्य विकसित किये जा सकेंगे तथा उनको परम्परागत मूल्यों की जकड़न से छुटकारा दिलवाना सम्भव होगा, लोगों के व्यक्तित्वों में परानुभूति, गतिशीलता, प्रबुद्धता तथा अध्यवसाय की आधुनिक विशेषतायें उत्पन्न की जा सकेंगी तथा पिछड़ेपन, संकुचितता तथा अज्ञान को नष्ट किया जा सकेगा। शिक्षा के द्वारा लोगों के सामान्य ज्ञान, जीवन स्तर, स्वच्छता, स्वास्थ्य, नैतिकता तथा नव परिवर्तन के प्रति प्रेरणा तथा जागरूकता के स्तरों को विकसित किया जा सकेगा तथा सामाजिक विभेदीकरण या स्तरण तथा शोषण को कम किया जा सकेगा। उपर्युक्त विचार के पक्ष और विपक्ष में कई बातें कही जा सकती हैं। यद्यपि शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण साधन बन सकती है तथापि भारतीय परिस्थितियों में अनेक जटिल कारणों के फलस्वरूप ऐसा साधन बनने में पूर्ण सफल नहीं हो पा रही है। सामाजिक परिवर्तन के परिणाम के रूप में शिक्षा सामाजिक परिवर्तन और शिक्षा के परस्पर सम्बन्ध को विश्लेषित करने का तीसरा उपक्रम यह हो सकता है कि शिक्षा को गठित हो चुके सामाजिक परिवर्तन के रूप में देखने का प्रयास किया जाय । भारतीय समाज में यह देखने में आता है कि गाँवों में डाकखाने, बैंक, सहकारी बैक, दुकानें तथा शहरों में बैंक, सुपरमार्केट, आयकर विभाग आदि अनेकानेक औपचारिक व जटिल कार्यालय खुल गये हैं। जिनसे अपना काम निकलवाने हेतु कई प्रपत्रों को भरना होता है, कई नियमों का पालन करना पड़ता है तथा कई अन्य औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं। अशिक्षितों को इसमें कई असुविधाएँ होती हैं । अत: उनमें यह भावना उत्पन्न होने लगी है कि बच्चों को अवश्य पढ़ाना चाहिए, हम चाहे न पढ़ सके हों। शहरों का जीवन देखकर, आधुनिक जीवन की लालसा तथा नौकरियाँ आदि प्राप्त करने के लिये भी पढ़ने के प्रति प्रवृत्ति बढ़ने लगी है। यही कारण है कि ग्रामीण समुदाय की सभी जातियों के निरक्षर लोग अपने बच्चों को पढ़ने भेजने लगे हैं। पाठशाला की भूमिका स्कूल का कार्यक्षेत्र आज के सन्दर्भ में बहुत विस्तृत है। संस्थाओं का प्रभाव समाज पर पड़ता है तथा समाज भी इन्हें निरन्तर प्रभावित करता रहता है। इस तरह स्कूल एवं समाज एक दूसरे के पूरक हैं। ain Education International Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड o r e... .................... ............. ....................... आधुनिक समाज में निरन्तर होने वाले क्रान्तिकारी परिवर्तनों के कारण सामाजिक मूल्यों एवं धारणाओं में भी भारी परिवर्तन हो रहे हैं । व्यक्ति इन परिवर्तनों के कारण यथास्थिति में नहीं रह सकता। शिक्षण संस्थाओं के प्रचार तथा प्रसार ने इस दिशा में काफी कार्य किया है । लेकिन सभी स्थानों एवं समाजों में शिक्षण संस्थाएँ एक तरह का प्रभाव नहीं डालतीं । देश, काल एवं परिस्थितियों के अनुकूल समाज में अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। इस प्रभाव में सारे समाज के लिये कोई एकरूपता नहीं है। संस्कृति का पोषण समाज के सन्दर्भ में शिक्षा का मुख्य उद्देश्य संस्कृति का पोषण है। प्रत्येक समाज की रचना, संगठन एवं विकास की अपनी विशेष संस्कृति और सभ्यता है। प्रत्येक व्यक्ति, जो उस समाज का मुख्य बिन्दु है, उस संस्कृति से पोषित एवं क्रमिक रूप से विकसित होता है। लेकिन उस व्यक्ति के जीवन में आधुनिक क्रान्तिकारी परिवर्तन के सन्दर्भ में जो भी विकास का क्रम बनता है, उसमें शिक्षण संस्थाओं का बहुत बड़ा योग रहता है। व्यक्ति को सीखने की क्षमता, शिक्षण की व्यवस्था, दूसरों तक ज्ञान पहुँचाने का क्रम तथा अजित ज्ञान का स्वयं के जीवन में उपयोग एवं उसके अनुकूल आचरण आदि सांस्कृतिक आधार हैं जो प्रत्येक समाज में अपनी विशेषताओं के साथ अवस्थित हैं। हर क्षेत्र के लिए संचित समाज के प्रत्येक व्यक्ति तक ज्ञान पहुँचाने का कार्य शिक्षा द्वारा ही किया जा सकता है। संस्कृति प्रत्येक क्षेत्र का संचित ज्ञान ही नहीं वरन् वह सामाजिक मूल्यों, विश्वासों और मान्यताओं का भी आधार है जो सदियों से उसे विरासत में मिला है। इन विशेषताओं को लेकर व्यक्ति का शिक्षा कार्य शिक्षण संस्थाओं द्वारा होता है। स्कूल का विस्तृत कार्यक्षेत्र ___अत: आधुनिक युग में शिक्षण संस्थाओं का कार्य बहुत ही विस्तृत हो गया है। वे केवल ज्ञान के नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन के प्रतीक सांस्कृतिक केन्द्र बन गयी हैं। उनका कार्यक्षेत्र केवल पाठ देने तक सीमित न रहकर समुदाय के माध्यम से सारा समाज है। व्यक्ति एवं स्कूल व्यक्ति का सम्बन्ध चूंकि मुख्यतया परिवार से है अत: परिवार आज भी उसके समाजीकरण की मुख्य धुरी है। परन्तु स्कूल उसे नये समाज के लिये तैयार करने में प्रभावशाली भूमिका निभाता है। वह उसे कार्य-क्षेत्र के लिये तैयार करता है। उसे नये सामाजिक मूल्य, तकनीकी ज्ञान आदि देता है । अत: उसका मुख्य सम्बन्ध सेवा का है। __ साथ ही परिवार के बहुत से कर्तव्यों को स्कूलों द्वारा ले लिया गया है। बच्चा अब घर में कम और स्कूल में ज्यादा समय देता है। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में उसका महत्त्व बढ़ गया है। इसके कारण परिवार के सदस्यों को अन्य सामाजिक कार्यों में सम्मिलित होने का अवसर मिल जाता है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि परिवार के समर्थन से ही स्कूल की उपयोगिता रहती है। अतः उसकी सफलता परिवार पर अवलम्बित है। राजनीति एवं स्कूल भारतीय समाज की जटिलता, सांस्कृतिक विभिन्नता, सामाजिक मान्यताओं, प्रजातन्त्रीय शासन व्यवस्था, समाजवादी समाज की रचना, धर्म निरपेक्षता के सन्दर्भ में स्कूल एवं राजनीति का सम्बन्ध महत्त्वपूर्ण बन गया है। उपर्युक्त सांस्कृतिक विभिन्नताओं के कारण समाज के परिवर्तन तथा देश के विकास के लिये प्रत्येक क्षेत्र में बुनियादी बातों पर कुछ आधारभूत एकता एवं कार्यक्रम होना आवश्यक है। इसके लिए राजनैतिक परिपक्वता अपेक्षित है। स्कूल इसके लिये अच्छा साधन है । स्थानीय, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बुनियादी बातों में एकरूपता लाने के लिये शिक्षा का बहुत महत्त्व है । भारत जैसे निरक्षरता-प्रधान देश में राजनैतिक परिपक्वता शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव है। अन्धविश्वास, सामाजिक बुराइयाँ, जातिवाद, छुआछूत आदि को दूर करने में भी शिक्षा महत्त्वपूर्ण योग देती है। ये प्रजातन्त्र के बड़े शत्रु हैं । नागरिक प्रशिक्षण आज के सन्दर्भ में अति आवश्यक है। . Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा एवं सामाजिक परिवर्तन ५ अर्थशास्त्र एवं स्कूल व्यक्ति की शिक्षा पर जो भी खर्च किया जाता है वह आर्थिक इनवेस्टमेन्ट है। शिक्षित होकर व्यक्ति न केवल अपनी आर्थिक स्थिति सुधारता है वरन् देश के आर्थिक विकास में भी बहुत बड़ा योगदान देता है। इंजीनियर, डॉक्टर, तकनीकी विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, साहित्यकार आदि इस विकास में सम्पूर्ण रूप से भागीदार हैं । अत: शिक्षा पर किया गया खर्च फिजूलखर्च न मानकर भविष्य के लिये उपयोगी माना जाना चाहिए। शिक्षण संस्थाओं में शिक्षित होकर ही विकास के हर क्षेत्र के कर्मचारी देश के आर्थिक विकास की धुरी की तरह कार्य करते हैं । इससे भी सामाजिक परिवर्तन में क्रान्तिकारी योगदान मिलता है। धर्म एवं शिक्षा प्राचीन काल में भारत में शिक्षा का आधार आध्यात्मिक ही था । आज भी इन संस्थाओं का समाज में पूर्ण प्रभाव है। भारत जैसे विभिन्नताओं वाले देश में धर्म निरपेक्षता समाज का आधारभूत बिन्दु है लेकिन विभिन्न आध्यात्मिक मान्यताओं का मौलिक चिन्तन, नैतिक विश्वास के लिये आवश्यक है। यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक संस्थाएँ समाजीकरण के लिये आज भी महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही हैं । लेकिन उनका दृष्टिकोण साम्प्रदायिकता के प्रसार के लिये नहीं वरन् देश में साम्प्रदायिक एकता एवं धर्म निरपेक्षता में योगदान के लिये होना चाहिये। शिक्षण संस्थाएं इसके लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती हैं। __समुदाय एवं स्कूल जैसा कि पहले बताया जा चुका है समुदाय एवं शिक्षा का सम्बन्ध गहरा है। भारतीय समाज के सन्दर्भ में यह और भी महत्त्वपूर्ण है। स्थान विशेष की आवश्यकताओं, सामाजिक मान्यताओं, भौगोलिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थिति के आधार पर ही अभ्यासक्रम आदि निर्धारित करना आवश्यक है। अतः आज का स्कूल अपने आपको केवल स्कूल की चारदीवारी तक सीमित नहीं रख सकता । उसे समुदाय के विकास को ध्यान में रखकर कार्य करना होगा। यही कारण है स्कूल-कम-कम्युनिटी सेन्टर की कल्पना से शिक्षा में कार्य करने की प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ रही है। अनौपचारिक एवं औपचारिक शिक्षा का समन्वय इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। समुदाय के बौद्धिक विकास की कार्यवाही शिक्षा के साथ-साथ यदि नहीं की गई तो यह शिक्षा असफल हो जायेगी तथा समाज उसकी उपेक्षा करेगा। समुदाय को शिक्षण संस्थाओं के आर्थिक विकास में आवश्यक मदद देनी चाहिये। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा सामाजिक परिवर्तन के लिये न केवल महत्त्वपूर्ण परन्तु आवश्यक आधार है। शिक्षा एवं सामाजिक परिवर्तन जब से सृष्टि की रचना हुई है तब से एक दूसरे के पूरक रहे हैं और आने वाली पीढ़ियों तक भी रहेंगे। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Alone onto o DISISIS 80+ ++++++++++ . शिक्षा का उद्देश्य D डॉ० प्रभु शर्मा (क० व्याख्याता, हिन्दी, रा० उ०मा० विद्यालय मेट, उदयपुर) किसी भी कार्य के उद्देश्यों में समय और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। शिक्षा को भी इसका अपवाद नहीं माना जा सकता। इसमें भी समय, स्थान एवं परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तन हुए हैं। प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य का सर्वागीण विकास रहा है। यूनानी दार्शनिकों ने शिक्षा के अन्तर्गत नैतिक, सामाजिक और बौद्धिक उद्देश्यों पर बल दिया है। प्राचीन रोम में शिक्षा का उद्देश्य राज्य का कल्याण रहा है। मध्यकालीन योरोप में शिक्षा का उद्देश्य मृत्यु के बाद जीवन की तैयारी रहा है। इसके विपरीत आधुनिक यूरोप शिक्षा के इस उद्देश्य में तनिक विश्वास नहीं करता । परतन्त्र भारत में मैकाले ने शिक्षा का उद्देश्य राज्य के सेवक का निर्माण बना दिया था । उद्देश्यों में परिवर्तन समाज विशेष की आवश्यकताओं के अनुरूप होता है। प्राचीन भारतीय समाज में क्षत्रिय वर्ण से सदैव रक्षा की अपेक्षा की गई है- 'क्षतात्किल त्रायत इत्युदग्र क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढ' (रघुवंश ) । अतः क्षत्रियों का समस्त जीवन-दर्शन ही युद्धमण्डित रहा है और तदनुरूप ही उनकी शिक्षा व्यवस्था रही है जिसमें शस्त्र संचालन को प्रमुखता प्राप्त थी। इसी प्रकार ब्राह्मणों की शिक्षा में भी धर्म की व्याख्या हेतु वेद एवं पुराणों के अध्ययन पर बल दिया जाता रहा है। सामाजिक आवश्यकता के अनुरूप शिक्षा के परिवर्तन को समझने हेतु अमेरिका का उदाहरण देना उचित रहेगा। प्रथम विश्वयुद्ध के समय थ्योडोर रूजवेल्ट (Theodore Roosevelt) ने शिक्षा के उद्देश्य बताये थे - शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक, आध्यात्मिक और नैतिक प्रशिक्षण देना; जबकि वर्तमान में वहां शिक्षा का उद्देश्य है व्यक्ति के व्यक्तित्व को विकसित करना उसे अवकाश का सदुपयोग करने के लिए तैयार करना और उसे भावी नागरिक और उत्पादक बनाना । 1 शिक्षा समाज की आधारशिला है अतः शिक्षा का औचित्य तभी है जबकि उसके उद्देश्य समाज के अनुकूल हों । सामाजिक अनुकूलता से तात्पर्य यही है कि वह समाज के 'सद्' एवं 'सम्पन्न' पक्ष को यथावत् अथवा उसे श्रेष्ठतर बनाते हुए 'असद्' एवं 'विपन्न' या अभाव पक्ष को सद् एवं सम्पन्न में परिवर्तित करने का प्रयास करे। प्राचीन आदर्शों को प्रस्तुत करना एवं वर्तमान समाज के अनुरूप उनकी शिक्षा प्रदान करना समाज के सद् पक्ष को बनाये रखने वाला पहलू है जबकि नैतिक शिक्षा देना समाज में व्याप्त असद् पक्ष को सद् में परिवर्तित करने का प्रयास है। सद् एवं असद् के समानान्तर ही है—सम्पन्नता एवं विपन्नता का पहलू यह पहलू भौतिक पक्ष से सम्बद्ध है। इसके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य होगा - समाज - विशेष की सम्पन्नता को बनाये हुए अथवा उसकी सम्पन्नता में वृद्धि करते हुए उसके अभाव या विपन्नता को कम करने का प्रयास करना। दूसरे रूप में इन पक्षों को संस्कृति एवं सभ्यता के पक्ष से भी देखा जा सकता है--- सद् को बनाये रखना अथवा श्रेष्ठतर बनाना संस्कृति-पक्ष है, जबकि भौतिक दृष्टि से सम्पन्नता का पक्ष सभ्यता -पक्ष है । वस्तुतः संस्कृति और सभ्यता मनुष्य के अन्तः और बाह्य पहलू हैं । अतः सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है और संस्कृति वह गुण है जो हममें व्याप्त है। समय एवं परिस्थिति के अनुरूप सद् का ग्रहण और असद् का परित्याग ही संस्कृति का नियम रहा है । अतः संस्कृति वह सूक्ष्म परिवर्तनशील प्रक्रिया है जो युगीन सर्वो . Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्ट तत्वों को ग्रहण कर अतिरिक्त एवं अनपेक्षित तत्वों को स्वागती हुई निरन्तर सम्बर्द्धनशील रहती है। शिक्षा में भी यही प्रक्रिया होनी चाहिए—सार सार की महि लहे, थोथा देहि उदाय' अर्थात्स का ग्रहण एवं असद् का परि त्याग । समाज विशेष की भौतिक परिस्थितियों के अनुरूप उसकी सम्पन्नता को बनाये रखना एवं विपन्नता अथवा अभाव को कम करने का उद्देश्य भौतिक पक्ष है जिसे सभ्यता-पक्ष भी कहा जा सकता है । इसमें समाज विशेष की प्रौद्योगिक प्रगति, आर्थिक दशाएँ आदि बिन्दु सन्निहित हैं । संस्कृति-पक्ष सार्वभौमिक मूल्यों एवं आदर्शों को लेकर चलता है जिसमें व्यक्ति के सामान्य विकास, उसकी संस्कृति की सुरक्षा एवं प्रगति पर बल होता है। अतः इसे आदर्श आधार भी कहा जा सकता है। सभ्यता या भौतिक पक्ष में सार्वभौमिक आधार न होकर समाज - विशेष की भौतिक परिस्थितियों का आधार होता है। समाज - विशेष की वस्तुस्थिति पर आधारित होने से इसे यथार्थवादी आधार भी कहा जा सकता है। भारत धर्म-प्रधान देश रहा है। यहाँ भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता को ही अधिक बल मिला है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भारत का भौतिक पक्ष दुर्वल रहा है। यदि ऐसा होता तो भारत कभी 'सोने की चिड़िया' नहीं होता । किन्तु भौतिक पक्ष पर भी नियन्त्रण आध्यात्मिक पक्ष का ही रहा है । अतः यहाँ की शिक्षा में चारित्रिक गुणों के विकास पर ही अधिक बल दिया गया है। धर्म का अनुसरण और तदनुरूप जीवन-यापन ही लक्ष्य रहा है। भारतीय समाज में जीवन को व्यवस्थित करने हेतु आश्रम व्यवस्था एवं समाज को व्यवस्थित करने हेतु वर्ण व्यवस्था थी। समाज के विभिन्न वर्णों एवं जीवन की विविध अवस्थाओं का सुन्दर सामंजस्य वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था के रूप में था । किन्तु आज का भारत प्राचीन भारत से बहुत कुछ बदला हुआ है अतः आज के युग में वर्ण एवं आश्रम व्यवस्था कल्पना के बिन्दु हैं। समाज एवं समय के परिवर्तन के अनुसार यह अवश्यंभावी ही था । पुरातन एवं नवीन का संघर्ष एक शाश्वत तथ्य है । यद्यपि भारत में पुरातन का आग्रह अधिक रहा है किन्तु वर्तमान भारत में वह आग्रह भी शिथिल पड़ गया है। एक लम्बी अवधि से पुरातन के आग्रह में सिमटे भारतीय युवक को पाश्चात्य समाज एवं संस्कृति की वैचारिक और आचारिक स्वतन्त्रता न केवल प्रभावित करती है वरन् उन्हें वह आदर्श सी जान पड़ती है । फलतः पाश्चात्य भौतिक चकाचौंध से प्रभावित तरुण वर्ग को भारतीय पुरातन व्यर्थ लगता है और वह उसकी सहज उपेक्षा कर देता है । किसी देश का इससे बढ़कर क्या दुर्भाग्य होगा कि उसके युवक के व्यक्तित्व का निर्माण विदेशी संस्कारों से ही शिक्षा के उद्देश्य स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में भौतिक सम्पन्नता को बढ़ाने हेतु तो प्रयास हुए पर वैचारिक या आत्मिक क्षेत्र में अपेक्षित प्रगति नहीं हुई । भारतीय पुरातन में से वर्तमान समाज की दृष्टि से अतिरिक्त एवं अनपेक्षित मान्यताओं, रूढ़ियों और व्यवस्थाओं को हटाया तो गया पर इनके स्थान पर पूरक की प्रतिष्ठा नहीं हो पायी है । इससे भौतिक और वैचारिक क्षेत्र में अत्यधिक असुन्तलन हो गया । स्पष्ट है कि यह असन्तुलन वैचारिक या आत्मिक पक्ष के अभाव से है। इसी से जीवन में निराशा और असन्तोष व्याप्त हो गया । 1 शिक्षा के सम्मुख सांस्कृतिक और भौतिक दोनों ही पक्ष हैं भारत का अतीत सांस्कृतिक प्रतिमा से सदैव गौरवान्वित रहा है। वर्तमान में वह प्रतिभा पाश्वात्य भौतिक चकबध से विलीन होती जा रही है। दूसरी ओर आधुनिक भौतिक युग में भारत को भी अपनी भौतिक प्रगति करनी है। सांस्कृतिक पक्ष के अन्तर्गत प्राचीन आद या वैचारिक मूल्यों को वर्तमान समाज के अनुरूप तथा भौतिक पक्ष को वर्तमान संसार के अनुरूप ढालना है। संक्षेप में भारतीय शिक्षा को अतीतकालीन सांस्कृतिक गरिमायुक्त भारत और बर्तमान भौतिकता के चरम की ओर अग्रे सित संसार के मध्य सेतुबन्धन करना है, उनका सामंजस्य करना है। यही भारतीय शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री हुमायूं कबीर के विचार भी इस सम्बन्ध में द्रष्टव्य है 'भारत में शिक्षा के द्वारा लोकतन्त्रीय चेतना, वैज्ञानिक खोज और दार्शनिक सहिष्णुता का निर्माण किया जाना चाहिये । केवल तभी हम उन परम्पराओं के उचित उत्तराधिकारी होंगे जिनका निर्माण देश के अतीत में हुआ है। केवल तभी हम उस आधुनिक विरासत में अपना भाग पाने के अधिकारी होंगे, जो विश्व के समस्त राष्ट्रों की विरासत . Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड Doraese. ................................................ को एक करने का प्रयत्त करती है।" शिक्षा आयोग के प्रतिवेदन में भी इसी तथ्य की पुष्टि है-'भारत में विज्ञान तथा आत्मा सम्बन्धी मूल्यों को निकट एवं संगति में लाने का प्रयास करना चाहिए तथा अन्त में जाकर एक ऐसे समाज के उदय के लिए मार्ग तैयार करना चाहिए जो सम्पूर्ण मानव आवश्यकताओं की पूर्ति करेगा, न कि उसके व्यक्तित्व के किसी खण्ड विशेष की।" मात्र भौतिक उन्नति उस पुष्प की भांति है जो सुन्दर तो है पर गन्धरहित है। उसकी पूर्णता के लिए सुन्दरता एवं गन्ध दोनों ही अनिवार्य हैं। अत: भौतिक और आत्मिक उन्नति क्रमश: पुष्प और उसकी गन्ध की भाँति है जो कि मिलकर ही पूर्णता को प्राप्त होती है। शिक्षा में इसी भौतिक और आत्मिक संतुलन को बनाये रखना है। शस्त्रास्त्रों का निर्माण करने वाले मानव की आत्मा में भी अहिंसा, करुणा और मानव-प्रेम की सरिता प्रवाहित होनी चाहिए और आत्मोन्नति में लीन मानस में भी भौतिक उन्नति के प्रति उपेक्षा का अभाव । डॉ० एस० राधाकृष्णन के शब्दों में--- "विज्ञान और प्रौद्योगिकी के इस युग में हमें यह याद रखना चाहिए कि जीवन का वृक्ष, लोहे के ढाँचे से बिल्कुल भिन्न है। यदि हम विज्ञान और प्रौद्योगिकी का प्रयोग करके निर्धनता को दूर करना चाहते हैं तो ललित कलाओं द्वारा मस्तिष्क की हीनता को भी दूर किया जाना चाहिए। केवल भौतिक दरिद्रता ही दुःख का कारण नहीं है। हमें समाज के शक्तिशाली हितों को ही नहीं वरन् मानव-हितों को भी सन्तुष्ट करना चाहिए, सौन्दर्यात्मक और आध्यात्मिक उत्कर्ष पूर्ण मानव के निर्माण में योग देता है।" यह अपेक्षा की जाती रही है कि शिक्षा व्यक्तियों को समाज के रचनात्मक सदस्यों के रूप में तैयार करे। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने भी इसी तथ्य को स्पष्ट किया है-शिक्षा-व्यवस्था को आदतों, दृष्टिकोणों और चरित्र के गुणों के विकास में योग देना पड़ेगा जिससे कि नागरिक जनतन्त्रीय नागरिकता के दायित्वों का योग्यता से निर्वाह कर सकें और उन ध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का विरोध कर सकें, जो राष्ट्रीय धर्म निरपेक्ष दृष्टिकोण के विकास में बाधक है। आज छात्र वर्ग में ध्वंसात्मक प्रवृत्ति फैली हुई है। अपने असन्तोष तथा भावी जीवन के प्रति हताशा आदि से प्रेरित हो छात्र ध्वंसात्मक प्रवृत्तियाँ अपनाते हैं। इसका कारण आत्मिक विकास का अभाव, आत्मा की निर्बलता, विवेकहीनता आदि हैं। प्लेटो के अनुसार विवेक का तिरस्कार करने की प्रवृत्ति मनुष्य का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण अभिशाप है। लेकिन भारतीय युवा वर्ग इसी अभिशाप से ग्रस्त है। छात्र विषयगत ज्ञान तो प्राप्त कर लेते हैं अर्थात् भौतिक ज्ञान तो प्राप्त कर लेते हैं पर आत्मिक उत्थान नहीं कर पाते । क्यों नहीं कर पाते ? क्योंकि उनके पाठ्यक्रम में ऐसा कुछ नहीं है। उनके वातावरण में ऐसा कुछ नही है। इन्जीनियर आदि की शिक्षा का मन एव आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है । मात्र विषयगत ज्ञान प्राप्त करते-करते उसकी भौतिक भूख इतनी बढ़ जाती है कि मानवीयता के मूल्य उसकी कल्पना में भी नहीं आते, 'बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।' यही कारण है कि अच्छी नौकरियाँ नहीं मिल पाती हैं तो असन्तुष्ट छात्रों द्वारा विश्वविद्यालयों की इमारतों पर पत्थर फेंके जाते हैं, शीशे फोड़े जाते हैं, कारें जलाई जाती हैं, बाजार बन्द किये जाते हैं, हड़ताल की जाती हैं। मात्र विषयगत ज्ञान को प्राप्त किये उन छात्रों के मानस में यह तथ्य कैसे उभरे कि बाजार बन्द से उन मजदूरों का क्या होगा जो आज दिन भर बाजार में इधर-उधर माल ढोकर उससे प्राप्त मजदूरी से शाम को पेट भरेंगे, नहीं तो उन्हें भूखा ही सोना पड़ेगा। कुल्फी बेचने वाले की सारी कमाई मारी जायगी। भौतिक उन्नति से आकर्षित हो कार खरीदने की लालसा रखने वाले डाक्टर से कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वह गरीबों से कम फीस ले । आज के युग में व्यक्ति में मानवीय गुणों के होने पर आश्चर्य होता है, नहीं होने पर कोई असामान्य बात नहीं। आज का वातावरण तो भौतिक लोभ के नौ नहीं हजारों द्वारों का पीजरा बना हुआ है जिनमें मानवीय गुणोंरूपी पवन-पक्षी के रहिबे को अचरज है, गये अचंभा कौन' ? मानवीय मूल्यो के समाज से विघटन के अनेक पक्ष हो सकते हैं पर शिक्षा में इन तत्त्वों का समुचित समावेश न होना एक प्रमुख कारण है । इसके अभाव में छात्र यदि विध्वंसात्मक दृष्टिकोण अपनाता है तो उसका कोई दोष नहीं। शिक्षा को डाक्टर की प्रतिमाएं नहीं गढ़नी है उनमें मानव-पीड़ाओं से स्पन्दित आत्मा का भी प्रवेश कराना है। प्रतिभाओं रूपी पुष्पों को मानवीय गुणों रूपी सुगन्ध से युक्त करना है । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C++ 6+8+8 शिक्षा और छात्र मनोविज्ञान डॉ० जी० सी० राय आधुनिक युग को प्रगतिशील बनाने में शिक्षा का महत्व सर्वोपरि है। शिक्षा वैयक्तिक तथा सामाजिक परिवर्तन का शिलाधार है। शिक्षा के द्वारा छात्रों के ज्ञान में वृद्धि होती है और उनकी मनोवृत्ति का विकास भी होता है। आचार-विचार बनते हैं। जीवन को लक्ष्य की ओर ले जाने में शिक्षा की भूमिका प्रमुख है। ( आचार्य, मनोविज्ञान विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर) भारत में स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद तैतीस वर्ष से अधिक हो चुके हैं। परन्तु हमने शिक्षा की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया और न उसका अर्थ ही स्पष्ट रूप से समझा है । अनेक लोग अभी भी शिक्षा का अर्थ पाठशाला में अध्यापन से लगाते हैं और शिक्षा का क्षेत्र विद्यालय की चारदीवारी तक ही सीमित रखते हैं । तदनुसार शिक्षा का संकुचित उद्देश्य छात्रों को परीक्षा में उत्तीर्ण कराने तथा उपाधि वितरित करने तक ही है। शिक्षा का वास्तविक अर्थ विद्यालय की शिक्षा से कहीं अधिक व्यापक है। शिक्षा का तात्पर्य छात्रों का सर्वागीण विकास करना है । हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा है : "By education, I mean all round drawing out the best in child and man-body, mind and spirit." इस प्रकार शिक्षा के बृहत् स्वरूप के अन्तर्गत छात्र का शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक विकास करना है । शिक्षा का उद्देश्य न केवल छात्रों को उपाधियाँ देना है बल्कि उन्हें अपने भावी जीवन व समाज में समायोजित होने में सहायता देना भी है। शिक्षा के क्षेत्र में आज का युग छात्र-युग कहा जाता है। यह आधुनिक शिक्षा की व्यापकता का द्योतक है। अब शिक्षा अध्यापक केन्द्रित न होकर छात्र केन्द्रित है आधुनिक शिक्षा, छात्रों की रुचियों, क्षमताओं, आवश्यकताओं तथा लक्ष्यों के अनुरूप दी जाती है, न कि अध्यापक की इच्छानुसार । इस तरह आज की शिक्षा लोकतान्त्रिक (Democratic) सिद्धान्त पर आधारित है । इस सिद्धान्त के अनुसार छात्रों को शिक्षा प्राप्त करने की समान सुविधा (Equality of opportunity) मिलना आवश्यक है परन्तु इस सुविधा का मनोवैज्ञानिक पक्ष समझना आवश्यक है। समान सुविधा का अर्थ सभी छात्रों को एक समान या एक प्रकार की शिक्षा मिलने से नहीं है बल्कि उनकी योग्यता के अनुसार ही शिक्षा प्राप्त करने का मौका देना है। उदाहरण के लिए, यदि छात्र में उच्च योग्यताएं होंगी तभी उसे उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा देना उचित है अन्यथा उच्च शिक्षा में वह व्यक्ति अपनी मानसिक शक्ति को नष्ट ही करेगा। फिर सभी छात्रों को विज्ञान कक्षाओं में प्रवेश देना (जिसकी कि अक्सर मांग होती है), उनके लिए सुविधाजनक नहीं होगा क्योंकि विभिन्न छात्रों में विभिन्न प्रकार की अभिक्षमताएं होती है। उदाहरण के लिए, किसी छात्र में विज्ञान की किसी में कला की, किसी में वाणिज्यशास्त्र की । वैज्ञानिक अभिक्षमता वाले छात्र को विज्ञान 7 में, कला - अभिक्षमता वाले छात्र को कला में तथा वाणिज्य-अभिक्षमता वाले छात्र को वाणिज्य में प्रवेश देना ही समान सुविधा देना है । . Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्य : तृतीय खण्ड ........................................................................... समाज मनोविज्ञान की दृष्टि से शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो कि शिक्षक तथा छात्र के बीच होती है । प्रमुख शिक्षाविशेषज्ञ एडम्स ने शिक्षा को द्विमुख-प्रक्रिया (Bipolar Process) कहा है। शिक्षा-क्रम में अध्यापक तथा छात्र के बीच जो अन्तक्रिया (Inter-action) होती है उसमें छात्र का पक्ष उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है जितना कि अध्यापक का। अध्यापक ज्ञान प्रसारित करता है तथा छात्र भी अपनी प्रक्रियाओं को देकर, अपनी कठिनाइयों को बताकर व अपने सुझावों को देकर पाठ के विस्तार में सतत सहयोग देता है। छात्र द्वारा दी गयी प्रतिपुष्टि (Feedback) से शिक्षक एक दिशा पाता है और अध्यापन में अधिक सफलता पा सकता है। फ्लैण्डर्स (Flanders) नामक प्रमुख शिक्षा-शास्त्री ने शिक्षा में इस प्रकार की प्रतिपुष्टि को अत्यन्त आवश्यक बताया है। हमारे भारतीय समाज में शैक्षिक, आर्थिक, व्यावसायिक तथा अन्य प्रकार की कमियाँ हैं, जिनके कारण शिक्षा-क्रम का समुचित ढंग से क्लाना कठिन हो जाता है। ऐसी कठिन स्थिति में शिक्षा कार्य करने में पर्याप्त धैर्य, उत्साह व सहानुभूति की आवश्यकता है। मेरे विचार से छात्र-मनोविज्ञान का मुख्य तत्त्व है छात्रों के प्रति सहानुभूति का दृष्टिकोण रखना । यदि अध्यापक, माता-पिता तथा शैक्षिक अधिकारी छात्रों की तथा उनकी समस्याओं की ओर सहानुभूति रखें तो छात्र शिक्षा प्राप्त करने में रुचि लेते हैं और कठिनाइयों का सहर्ष सामना कर लेते हैं। छात्रों को स्नेह देना एक दीपक में तेल देने के समान है जिसके आधार पर वह प्रज्वलित तथा प्रकाशित होता है । आजकल के छात्र बड़े संवेदनशील (Sensitive) होते हैं। यदि अध्यापकगण उन्हें सामाजिक व विद्यालय की कठिनाइयों और कमियों का समुचित प्रत्यक्षण करा दें तो छात्र उन कमियों के बावजूद भी सहर्ष कठिनाइयों का सामना करते हुए भी शिक्षाक्रम में लीन रह सकते हैं। अस्तु, छात्रों को प्रस्तुत कठिनाइयों की अनुभूति कराना आवश्यक है। इसके विपरीति यदि उन्हें सुविधा न देने का ठेठ जवाब दिया जाय या कार्य न करने के लिए उनका तिरस्कार किया जाय तो उन्हें ठेस पहुंचेगी तथा उनकी भावनाओं का दमन होगा और फायड के अनुसार इस प्रकार का दमन बालक के व्यक्तित्व के समुचित विकास में अवरोध उत्पन्न करेगा। आज हमारे विद्यालयों में छात्र-अध्यापक टकराव रहता है। बहुत से छात्र मन लगाकर नहीं पढ़ते हैं, बल्कि विध्वंसात्मक कार्यवाहियों में भाग लेते हैं जिससे कि विद्यालय में सुचारू रूप से शिक्षाक्रम नहीं चल पाता है। शिक्षा के क्षेत्र में यह प्रमुख समस्या है । इस समस्या का समाधान करने के लिए मनोवैज्ञानिक उपागम (Psychological approach) आवश्यक है। उसी के आधार पर प्रस्तुत लेखक के निम्नलिखित सुझाव हैं : १. छात्र सम्पूर्ण शिक्षाक्रम के केन्द्रबिन्दु हैं । अस्तु, शिक्षा उनकी रुचियों व क्षमताओं के आधार पर दी जाय तो शिक्षा-कार्यक्रम सुचारू रूप से चलेगा। २. छात्रों को शिक्षा-क्रम में प्रेरित करने के लिए पारितोषक आदि देने के अतिरिक्त अध्यापक अपने आदर्श जीवन से भी उन्हें प्रेरित करें तो प्रेरणा अधिक प्रभावशाली होगी। ३. आधुनिक मनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियों (Teaching Methods), जैसे-Demonstration Method, Project Method, Field-trip Method, Audio-Visual Method आदि का उपयोग करने से छात्र तीव्रता व कुशलता से शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। ४. अध्यापन की शिक्षण विधियों से भी अधिक आवश्यक छात्रों की अधिगम विधियाँ (Learning Methods) है, क्योंकि अध्यापक अच्छी विधि से शिक्षण दे, फिर भी यदि छात्र समुचित विधि से न सीखें तो अध्यापक का कार्य विफल हो जाता है। अस्तु, पाठ्य-सामग्री, छात्रों की अधिगम योग्यता आदि को ध्यान में रखकर उन्हें Whole Method, Part Method, Mass Method, Space Method, Fro rammed Learning Method आदि से सीखने के लिए समुचित कार्यक्रम बनाना आवश्यक है। ५ छात्रों की समस्याओं तथा कठिनाइयों पर सहानुभूति से तथा विशिष्ट वातावरण में विचार करने के लिए Joint Consultative Machinery का आयोजन हो जिसमें छात्र, अध्यापक, अधिकारी वर्ग तथा अभिभावक भाग लें। इससे समस्याओं को सुलझाने व उनका हल निकालने में सुविधा होगी। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और छात्र मनोविज्ञान ६. विद्यालय में पाठ्यक्रम के अतिरिक्त Co-curricular Activities जैसे खेल कूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम, साहित्यिक कार्यक्रम आदि का आयोजन होना चाहिए और हर एक छात्र को इनमें से कम से कम किसी एक में भाग लेना आवश्यक हो। इससे उनके सर्वांगीण विकास में सहायता मिलेगी । ११ ७. छात्रों को सामाजिक कार्यों में, जैसे सफाई, साक्षरता, खान-पान, कृषि तथा नई तकनीक का ज्ञान कराने का कार्यक्रम (विशेषकर गाँवों में ) चलाना आवश्यक है। इससे छात्रों को समाज के लोगों के वास्तविक जीवन तथा कठिनाइयों का स्वयं ज्ञान करने तथा अनुभव करने का मौका मिलेगा और तदनुसार विद्यालय शिक्षा प्राप्ति के बाद उन्हें समाज में कार्य करने तथा समाज से समायोजित होने में आसानी होगी। ८. छात्रों को वर्ष में कम से कम एक बार शैक्षिक पर्यटन ( Educational Tour ) में भाग लेने की सुविधा अवश्य दी जाय जिससे कि वे दूसरे अच्छे विद्यालयों, समस्याओं आदि का स्वयं निरीक्षण कर सकें और उन समस्याओं, कार्यक्रमों तथा अनुभवों से फायदा उठाकर अपने विद्यालय में भी सुधार लाने का प्रयत्न करें । ६. छात्रों की शैक्षिक, व्यावसायिक तथा व्यक्तिगत समस्याओं को हल करने के लिए विद्यालय में एक निर्देशन केन्द्र (Guidance Centre) होना आवश्यक है जिसमें एक मनोवैज्ञानिक हो और वह छात्रों की मानसिक तथा वैयक्तिक जांच करके उपयुक्त मार्ग निर्देशन करे। । १०. अधिकतर विद्यालय केवल सामान्य बालकों की शिक्षा-दीक्षा तथा सम्बन्धित समस्याओं पर ही ध्यान देते हैं । पर वे असामान्य, पिछड़े, अपराधी बालकों पर ध्यान नहीं देते । परिणामस्वरूप कक्षा का तथा विद्यालय का कार्य सुचारु रूप से नहीं चल पाता। इसलिए यह आवश्यक है कि मनोवैज्ञानिक तथा मनोचिकित्सक असामान्य बालकों का शीघ्रातिशीघ्र परीक्षण करके उनकी असामान्यता को दूर करने का प्रयास करे । विद्यालय में प्रत्येक मास में कम से कम एक बार मनोचिकित्सक आकर ऐसे छात्रों की जांच करे और चिकित्सा के लिए सुझाव दे । ११. छात्रों को अपनी शिक्षा प्राप्त करने के बाद उसके अनुकूल रोजगार की गारण्टी होनी चाहिए जिससे कि वे मन लगाकर पढ़ेंगे और परीक्षा में अच्छे अंक लाने का अधिक प्रयास करेंगे क्योंकि उन्हें अच्छे व्यवसाय में जाने की प्रेरणा मिलेगी और इससे छात्रों में अनुशासनहीनता की भी कमी होगी क्योंकि वे इधर-उधर की तोड़फोड़ की कार्यवाही में भाग न लेकर अपना समय अध्ययन की ओर ही अधिक लगायेंगे। " १२. छात्रों को पाठ्य पुस्तकों के अतिति अन्य विषयों का ज्ञान (जिन्हें उन्होंने नहीं लिया हो, जैसे-सामान्य ज्ञान, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, सामान्य विज्ञान, मनोविज्ञान, शरीर - विज्ञान आदि का भी आवश्यक है । इससे उनके ज्ञान का भंडार बढ़ता है तथा Synoptic Vision की भी वृद्धि होती है । अस्तु, पाठ्य विषय की पुस्तकों के अतिरिक्त उपर्युक्त प्रकार की पुस्तकें विद्यालय के वाचनालय से छात्रों को स्वाध्याय के लिए मिलनी चाहिए। इस प्रकार के स्वाध्याय पर भी परीक्षा में अंक देना आवश्यक है, इससे वे स्वाध्याय करने के लिए अधिक प्रेरित होंगे। १३. प्रत्येक छात्र के लिए नैतिक शिक्षा का विषय अनिवार्य होना चाहिए। इससे उन्हें विभिन्न धर्मो का नैतिकता के नियमों तथा सिद्धान्तों का ज्ञान होगा और वे नैतिक व परिश्वान बनने के लिए प्रेरित होंगे। उन्हें देश-विदेशों के वीरों की महान आत्माओं की तथा अध्यवसायी शिक्षकों तथा छात्रों की गावाएं भी बताई जायें। इससे छात्र अपने जीवन में उनके आदर्श को धारण करने के लिए प्रेरित होंगे। . Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड ..................-.-.-.-.-.-.-.-.-...-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. १४. शिक्षा के मूल्यांकन के पक्ष पर भी ध्यान देना आवश्यक है। आजकल हमारे विद्यालयों में परीक्षाओं में अंक देने में पक्षपातवाद की शिकायतें आती हैं। अस्तु, नवीन परीक्षण प्रणाली का उपयोग हमारे विद्यालयों की परीक्षाओं में आवश्यक है। इससे छात्र प्राप्तांकों से संतुष्ट रहेंगे और पक्षपात का उनका संशय दूर होगा और वे परीक्षण में अधिक रुचि से भाग लेंगे और परीक्षा-बहिष्कार भी कम होंगे। उपर्युक्त दिये गये कुछ सुझावों पर यदि छात्र, अध्यापक, अभिभावक तथा शिक्षा अधिकारी विचार करें और पालन करें तो छात्रों में शिक्षा के प्रति घनात्मक मनोवृत्ति बनेगी तथा वे शिक्षा कार्यक्रमों में रुचिपूर्वक भाग लेंगे। इससे हमारे छात्रों के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होगा और वे देश के भावी कर्णधार बनकर देश तथा समाज की समुचित सेवा कर सकेंगे। xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx xxxxx xxxxxxxxx मातेव का या सुखदा ? सुविद्या ! -माता के समान सुख देने वाली क्या है ? सुविद्या किमेधते दानवशात् ? सुविद्या -दान देने से बढ़ने वाली वस्तु क्या है ? सुविद्या ! -शंकर प्रश्नोत्तरी २५ Xxxxx xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx - ० Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे शिक्षालय और लोकोत्सव पद्मश्री देवीलाल सामर (संस्थापक संचालक, भारतीय लोककला मण्डल, उदयपुर) आज की पीढ़ी के बच्चे अपने देश, समाज और धर्म की अनेक परम्पराओं से अनभिज्ञ रहते हैं; क्योंकि उनके माता-पिता, अध्यापक, अध्यापिकाएँ, अभिभावक, हितैषी एवं सगे-सम्बन्धी स्वयं भी इतना बदला हुआ जीवन जीते हैं कि बच्चों को क्या दोष दिया जाय ? घर के सभी लोग पाश्चात्य सभ्यता में सराबोर हैं। घर का समस्त वातावरण पश्चिमी है और जो नया समाज उन्होंने बनाया है वह थोथा, दिखावटी एवं भौतिक सुख-उन्मुखी है । हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ, जो आज की पीढ़ी को केवल ढकोसला मात्र लगती है, किसी समय हमारी उन जड़ों के समान थीं, जिन पर हमारे जीवन के विशाल वृक्ष खड़े थे। आज जड़ें तो सड़ गई हैं और जिन परम्पराओं से हम ऊपर-ऊपर से चिपके हुए हैं, वे इन्हीं सूखे वृक्षों के समान हैं । हमारे फीके लोकोत्सव यों कहने के लिये तो हम होली, दीवाली भी मनाते हैं, रक्षाबन्धन का आयोजन भी करते हैं, स्त्रियाँ पीपलपूजा करती है, गणगौर उत्सव भी मनाया जाता है, तीज-त्यौहार भी होते हैं, हरियाली अमावस्या पर हजारों का जमघट जमा हो जाता है, दशहरा की छुट्टियाँ भी होती है शिवरात्रि कृष्ण जन्माष्टमी, नागपंचमी आदि सभी हमारी छुट्टियों के कलेण्डरों में महिमा प्राप्त हैं परन्तु हममें से कितने ऐसे हैं, जो इनके मर्म को समझकर इनका आनन्द लेते हैं। महापुरुषों की जयन्तियां, जन्म-मरण एवं स्मृति दिवस भी मनाये जाते हैं। वे सब केवल औपचारिक मात्र हैं। सार्वजनिक संस्थानों एवं विद्यालयों में इन छुट्टियों का मतलब यह है कि हम तत्सम्वन्धी साहित्य पढ़ें महापुरुषों की जीवनियों से कुछ सीखें, उनके जीवन के बड़े-बड़े प्रसंगों पर चर्चा करें, नाटक रचें, गीत गावें व उनके समाधि स्थलों एवं स्मृति-स्थानों पर जाकर कुछ क्षण चिन्तन-मनन करें, परन्तु वह सब कुछ नहीं होता । केवल नाम के लिये ये छुट्टियां हैं और नाम ही के लिए हम इन पारम्परिक उत्सव-त्यौहारों को मानते हैं । इन लोकोत्सवों का मतलब था कि हम तत्सम्बन्धी जानकारियाँ प्राप्त करें, सैकड़ों की तादाद में मिलकर एक दूसरे से स्नेह-सौहार्द बढ़ावें, एक दूसरे के दुःख-दर्द में काम आयें, मिलकर विचार-विनिमय करें, स्मृति-स्थलों को सजावे -संवारें । हमारे भारतीय जीवन में लोकोत्सवों का बड़ा महत्व रहा है। इन्हें मनाने के लिए हम चारों धाम की यात्रा करते थे । देश-देशान्तर देखते थे । भारतीय जीवन की विविधताओं में एकता के दर्शन करते थे । हमारे देश में अनेक संस्कृतियों का आगमन हुआ और वे सब मिलकर एक बन गई हमारे यहाँ अनेक ऐसे मन्दिर मकबरे मे उत्सव एवं पर्व है, जिनमें सर्वधर्म एवं जातीय मेल-जोल के दर्शन होते हैं। अजमेर शरीफ के ख्वाजा मोहिनुद्दीन चिश्ती की मजार पर हजारों हिन्दू भी जियारत के लिए जाते हैं । हिन्दुओं के अनेकों ऐसे पर्व, उत्सव और त्यौहार हैं, जिन्हें मुसलमान भी बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं राजस्थान के रामापीर को हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही मानते हैं। . Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DIDI १४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ तृतीय खण्ड हमारे नवीन लोकोत्सव ऐसे पारम्परिक एवं आस्थापरक अवसरों को भूलकर हम ऐसे अवसरों की खोज में हैं, जहाँ हम हजारों की तादाद में मिल सकें, एकनिष्ठ होकर कोई बात कह सकें, या अपनी श्रद्धा, स्नेह एवं आत्मीयता के सुमन बढ़ा सकें। हजार कोशिश करने पर भी हम अपने स्वातन्त्र्य एवं गणतन्त्र दिवस को राष्ट्रीय त्यौहारों की शक्ल नहीं दे सके । कारण इसका यह है कि हम अभी तक अपने जीवन में राष्ट्रीय भावना को सांस्कृतिक परिवेश प्रदान नहीं कर सके । गांधी, नेहरू को हम भूल गये। रवीन्द्रनाथ ठाकुर, स्वामी विवेकानन्द, रामकृष्ण तिलक, लाजपतराय ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, गुरु नानक, दादू, कबीर, तुलसी, मीरा, गालिब, अमीर खुसरो, अब्दुल रहीम खान खाना आदि अनगिनत हिन्दू-मुस्लिम सन्तों ने जो कुछ हमारे देश को दिया है उसे हम भूल गये। उम्र में जो बड़े हैं, या जो बूढ़े हो चुके हैं, या जिनमें अभी तक पुराने संस्कार शेष हैं, वे तो इस गरिमा से परिचित हैं । वे शास्त्र, इतिहास एवं अध्यात्म की किताबें पढ़ते हैं, पूजा-पाठ, इबादत एवं अध्ययन करते हैं, तथा यथासंभव उस तरह का जीवन भी जीते हैं। नित्य क्रम उनका व्यवस्थित है। चिन्तन, मनन एवं साधना में वे सदा ही लीन रहते हैं, लेकिन आज की पीढ़ी का क्या हाल है। इसे कभी हम सोचते हैं क्या ? केवल उनसे डेडी-मम्मी कहलाने मात्र से हम उनके माता-पिता बन जाते हैं क्या ? उनकी रोज की आवश्यकताएँ पूरी करने मात्र से हम अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं क्या ? सैंकड़ों की तादाद में स्कूल, कालेज खोल लेने मात्र से हमारे बच्चे पढ़-लिख जायेंगे और उन्हें अपने देश की थाती का ज्ञान हो जायेगा क्या ? और ज्ञान हो भी जायगा तो क्या वे उनके अनुकूल जीवन जी सकेंगे ? पाठ्य-पुस्तकों में अपने महापुरुषों की जीवनियों का समावेश करने मात्र से क्या वे अपनी संस्कृति से परिचय पा सकेंगे ? भारतीय संस्कृति भारतीय संस्कृति के प्रति आज समस्त विश्व की आंखें लगी हैं। उन्हें यह अनुभव हो गया है कि केवल धन जमा कर लेने तथा भौतिक सुखों पर आधारित रहने मात्र से सुख नहीं मिलता, अन्ततोगत्वा उन्हें उस अनुभव की आवश्यकता है जो उन्हें सच्चा सुख दे सके । धन-वैभव की उनके पास कमी नहीं है । साधन सुविधाएँ, पढ़ाई-लिखाई, रोजगार, मौज-मजे की उनके पास सुविधाएँ बहुत हैं, परन्तु फिर भी वे सुख-चैन की नींद नहीं सोते । वह भावना उनके पास कहाँ है, जो हमें यह बतलाती है कि जितना छोड़ेंगे जितना वैभव और भौतिक सुख के बोझ से हलके होंगे, उतनी ही चैन की नींद लेंगे और आनन्द से मृत्यु का आलिंगन करेंगे। हमारे देश में अमीरों ने जान-बूझकर इसी सुख के लिए गरीबी को आलिंगन किया है। कभी हमारे देश में त्यागी, तपस्वी तथा साधु-सन्त विद्वान आदर पाते थे, पर आज पैसे वाला, धनिक, सत्ताधारी आदर पाता है। एक वह समय था कि स्वामी हरिदास को अकबर ने अपने दरबार में बुलाया था तो सन्त हरिदास ने कह दिया कि अकबर को मेरे संगीत का आनन्द लेना हो तो मेरे पास आवे और सम्राट अकबर को पैदल हरिदास के पास जाना पड़ा। इसी आत्मिक सुख के लिए हमारे बड़े-बड़े सम्राट राज-पाट छोड़कर जंगलों में चले गये। इसी त्याग, तपस्या एवं अपरिग्रह भावना से हमें महावीर और बुद्ध जैसे महापुरुष प्राप्त हुए, जिन्होंने विश्व में जैन एवं बौद्ध संस्कृति के माध्यम से जीवनोत्कर्ष की बात कही। ऐसे ही महान मुनियों की देन से हमें ऐसे-ऐसे ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, जिन्हें पढ़कर आज समस्त विश्व आश्चर्यचकित है। उन्होंने जन्म, मरण एवं ब्रह्मज्ञान की बातों को खोलकर रख दिया। इस ज्ञान ने जीवन की उन बड़ी-बड़ी समस्याओं एवं प्रश्नों का हल प्रस्तुत किया है, जिन्हें सुलझाने के लिए वैज्ञानिक एवं तात्विक लोग आज भी पच रहे हैं। हमारी धरोहर का आभास क्या हम यह नहीं चाहेंगे कि हमारी आज की पीढ़ी को इस धरोहर का आभास नहीं कराया जाय ? क्या हमारे आज के शिक्षा क्रम में इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए कोई योजना है ? हमारे पारम्परिक साहित्य में जो ज्ञान छिपा है वह क्या बच्चों के सामने आता है ? . Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे शिक्षालय और लोकोत्सव १५ ..................................................................... ... हमारे लोक-जीवन में वे समस्त परम्पराएँ झलक रही हैं, जिनमें धर्म, अध्यात्म, जीवनोत्कर्ष की बड़ी-बड़ी बातें छिपी हैं । उनमें बड़े-बड़े शास्त्रों का सार छिपा है । क्या हम उनसे बच्चों को अवगत रखते हैं ? आज हमारे लोक-देवता तथा तत्सम्बन्धी चलने वाले गीतों एवं गाथाओं में हमारे जीवन का वह सार छिपा है, जो बड़े-बड़े शास्त्रों में उल्लिखित है। उन्हीं सब जीवनादर्शों को जीवित रखने के लिए हमारे पूर्वजों ने लोकोत्सवों की योजना पारित की है, जिन्हें मनाने के लिये हजारों-लाखों लोग दौड़ पड़ते हैं । वे उन्हें मनाने के लिए तर्क-वितर्क में नहीं पड़ते हैं। वे केवल उनके द्वारा अपने जीवन में आनन्द पूरना जानते हैं। इन्हीं अटूट आस्थाओं के कारण वे सुखी भी हैं। अभाव-ग्रस्त जीवन से वे दुःखी नहीं हैं । वे जो रात को कबीर, मीरा, दादू के गीत गाते हैं, उनमें जीवन का यह सार छिपा है--यह संसार कागद की पुड़िया है । सराय है, मुसाफिरखाना है । आज यहाँ कल वहाँ, चलते ही रहना है, तो फिर संसार का बोझ ढोकर अपने मन को बोझिल क्यों बनाया जाय ? क्या हमारे बच्चों में ये संस्कार भरने के लिये हमारे पास कुछ है ? संस्कार निर्माण छोटी उम्र में जो कुछ दिया जायगा, वही कायम रहेगा। बाद में जब बच्चे बड़े हो जायेंगे, उन्हें इस ज्ञान की आवश्यकता होगी, तब वे किताबें ढूंढेंगे। उस समय उन्हें यह ज्ञान ऊपर से थोपा हुआ नजर आयेगा। उनका मन उसे ग्रहण नहीं करेगा । आज अनेक विदेशी हमारे देश की सड़कों पर बैठे, घूमते-फिरते दीवाने से चलते-फिरते नजर आते हैं। वे अपने पास नशे की चीजें रखते हैं। मन को हलका रखने को वे उसका सेवन करते हैं। वे गरीब नहीं, भिखमंग नहीं । उनके माता-पिताओं के पास लाखों का धन है । वे केवल मानसिक रूप से दुःखी रहने के कारण हमारे देश में आये हैं। उन्होंने कभी पढ़ा था कि भारत की संस्कृति गंगा के किनारे, पहाड़ों पर, तथा गरीबी में निवास करती है। इसी सुख की तलाश में वे हिन्दुस्तान में आते हैं । वे लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति छोड़कर आये हैं। उन्हें इस देश में बंगलों की जरूरत नहीं, सड़क, गली, पहाड़ तथा चबूतरों पर साधारण प्राणियों की तरह जीना ही उन्हें अच्छा लगता है । उनका जीवन विकृत इसलिए है कि उनको बचपन से ही सम्भाला नहीं गया है । उनको अपने माता-पिताओं के जीवन से, सिवाय विकृतियों के और कुछ भी सीखने को नहीं मिला है। इसीलिये वे अपने माता-पिता से दुःखी हैं, और उनके माता-पिता उनसे। भगवान की दुआ है कि हमारे बच्चों में अभी तक ये विकृतियाँ प्रविष्ट नहीं हुई हैं, परन्तु जो कुछ भी हमें पश्चिमी सभ्यता की झूठी नकल से मिला है, उसमें विकृतियाँ आना लाजिमी है। पति-पत्नी एक दूसरे से असन्तुष्ट हैं। उन्हें गरीबी में सादगी से रहना नहीं आता, उनकी आदतें खराब हो गई हैं, परम्परा का उन्हें ज्ञान नहीं है, संस्कृति से वे कोसों दूर हैं । जीवन में उनके किसी प्रकार की आस्था नहीं है तो उनके बच्चे भी हिप्पी जैसा जीवन जीने लागेंगे । आज थोड़ा-बहुत शुरू भी ऐसा ही हुआ है। माता-पिता की बात बच्चे नहीं मानते । उनका उन पर काबू नहीं रहा और न बच्चों को कुछ संस्कार देने की उनमें क्षमता है। हमारी जिम्मेदारी अत: अब समस्त जिम्मेदारी हमारे विद्यालयों एवं शिक्षाक्रम पर आ जाती है । इन समस्याओं पर गहराई से सोचने का कार्य शिक्षाविदों पर है । अंग्रेजों के जमाने में हमें जो शिक्षा मिली थी, वह गुलामी की शिक्षा थी। हमारा देश आजाद हुआ। उसके बाद तो हमारी शिक्षा भारतीय संस्कृति एवं जीवन के अनुकूल होनी चाहिए थी। इस ओर प्रयास भी हुए हैं, परन्तु अभी तक निश्चित चित्र सामने नहीं आया है। बच्चों की पाठ्य-पुस्तकों में, शिक्षा क्रम में, तथा विद्यालयों के वातावरण में, हमारी इन थातियों के लिए पर्याप्त स्थान रहना चाहिए। जहाँ विश्व का ज्ञान उन्हें दिया जाय, वहाँ भारतीय संस्कृति से उन्हें सराबोर किया जाना भी बहुत आवश्यक है। उनकी इतिहास, भूगोल, विज्ञान, समाजविज्ञान, साहित्य की पुस्तकों में इस तरह की सामग्री के लिए आग्रह होना चाहिए। स्कूल जीवन में जो कोर्स की पढ़ाई से बाहर की प्रवृत्तियाँ पनपाई जा रही हैं, उनमें इनकी प्रधानता रहनी चाहिए। हर लोकोत्सव, लोकपर्व, त्यौहार, विद्यालयों में सही ढंग से मानाया जाना चाहिए। बच्चों को जहाँ पहाड़ों पर घूमने ले जाया जाता है, भूगोल, Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड ................-.-.-. विज्ञान एवं औद्योगिक स्थलों के दौरे कराये जाते हैं, वहां उन्हें मन्दिरों, मस्जिदों, तीर्थस्थलों, मेलों, पर्व-उत्सवों में भी ले जाना चाहिए, साधु-सन्तों को स्कूलों में बुलाना चाहिए। उनके प्रवचन कराना चाहिए। उन्हें ऐसे स्थलों पर ले जाना चाहिए जहाँ लोग स्वत: अपना वैभव त्यागकर सादगी एवं शान्ति का जीवन बिताते हों। विद्यालयों के पुस्तकालयों में ऐसी सरल एवं कथात्मक पुस्तके होनी चाहिए, जिन्हें बच्चे रुचिपूर्वक पढ़ सकें। स्कूल में किसी व्यक्ति विशेष के स्वागत, सम्मान एवं किसी विशिष्ट नेता, अफसर, मन्त्री, मिनिस्टर के स्वागत में जो उत्सव होते हैं, उनकी जगह हमारे बड़े-बड़े लोकोत्सव मनाये जाने चाहिए। जो मेले, नदियों के किनारों, मन्दिर, मठों के पास लगते हैं, वे स्कूलों के प्रांगण में भी लगने चाहिए। जो नाच, गान, नाटक, मेलों में होते हैं, वे सभी स्कूलों में लोकोत्सव के रूप में प्रस्तुत होने चाहिए। महापुरुषों, महाज्ञानियों, तपस्वियों, विद्वानों, महाकवियों, महान साहित्यकारों के जीवन पर प्रवचन, समारोह आदि स्कूलों में आयोजित होने चाहिए । इन सब के लिए पाठ्यक्रमों में स्थान होना आवश्यक है। बड़े-बड़े शिक्षाविद बैठकर चिन्तन करें। योजनाएँ बनावें, समस्त वर्ष का कलेण्डर तैयार करें, तथा पाठ्यक्रम में हमारी सांस्कृतिक परम्पराओं की कौन सी मूल-भूत बातें समाविष्ट हों और उनका कार्यान्वयन किस तरह हो, इस पर विचार होना लाजिमी है। कि कि न साधयति कल्पलतेव विद्या? -कल्पलता के समान विद्या क्या क्या काम सिद्ध नहीं करती ? अर्थात् सभी कार्य सफल करती है। -भोजप्रबन्ध ५ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकधर्मी प्रदर्शनकारी कलाओं की शैक्षणिक उपयोगिता डॉ० महेन्द्र भानावत (उप-निदेशक, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर-राजस्थान) ___ लोकधर्मी प्रदर्शनकारी कलाओं की शैक्षणिक उपयोगिता का प्रश्न हममें से कइयों को चौंका देने वाला है क्योंकि हमने इन कलाओं को, ये जिस रूप में हैं उसी रूप में देखा है। हमारा नजरिया इनके प्रति घोर पारम्परिक व रूढ़िवादिता से ग्रसित रहा इसलिए हमने कभी यह नहीं सोचा कि ये कलाएँ हमारे जीवन के शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। विशिष्ट वार-त्यौहारों, मंगल-उत्सवों तथा शुभ-संस्कारों पर इन कलाओं को मात्र प्रदर्शित कर ही हम अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते रहे, नतीजा यह हुआ कि ये कलाएँ धीरेधीरे एक खाना-पूर्ति और रस्म अदायगी तक सीमित हो गईं। इसलिए इनका चेतन जीवन रूप और सौन्दर्य फीका पड़ने लगा, फलत: बहुत सारी कलाएँ अपने मूल रूप को ही खो बैठीं। रह गया उनका टूटियाई रूप जिससे कभी-कभी तो उनकी असलियत का पता लगाना ही मुश्किल हो गया। कलाओं का पिछड़ापन इसका एक कारण तो यह था कि हमने इन कलाओं को पिछड़ी जातियों की धरोहर समझकर इन्हें हीन दृष्टि से देखना प्रारम्भ कर दिया। यद्यपि इनसे हम लोग मनोरंजित अवश्य होते रहे परन्तु इन्हें छूआछुत की वस्तु समझकर इनको कभी उचित सत्कार और आदर का दर्जा देने की भावना मन में नहीं लाये। इसलिए ये कलाएँ उन कलावंतों तक सीमित रह गई जिनका परिवार और पूरी गृहस्थी इनके साथ बँधी हुई थी और जिनके बलबूते पर उनकी पीढ़ियों का गुजर-बसर चला आ रहा था। विशिष्ट संस्कारों और वार-त्यौहारों पर अपने यजमान के घर जाते, प्रदर्शन करते और बदले में बंधा-बंधाया नेगचार प्राप्त कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझते । इसलिए इन लोगों ने अपनी कलाओं में इतनी दिलचस्पी और दक्षता प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं किया और न इन्हें इसकी आवश्यकता ही महसूस हुई। कलाओं के विविध रूप आजादी के बाद इन कलाओं एवं कलाकर्मियों के प्रति इन सबका नजरिया बदला। निम्न जातियों के उन्नयन एवं विकास के कई सोपान बने । समाजवादी विचारधारा ने बल पकड़ा, फलत: प्रदर्शनकारी कलाओं के विविध रूप भी लोगों की नजरों में आ समाये । इनके सर्वेक्षण-पर्यवेक्षण प्रारम्भ हुए। अनेक कलापिपासु, अनुसन्धित्सु और विद्वान इन कलाओं के अध्ययन-उपयोग हेतु जुट पड़े। उन्हें इन कला-रूपों में लोकमानसीय संस्कृति के ऐसे विराट रूप देखने की मिले जिनके आधार पर उनके लिए यह खोज निकालना आसान हो गया कि हमारे जीवन-संस्कारों के लिए इन कलाओं को कितनी शैक्षणिक उपयोगिता है और लोकजीवन के साथ इनका कितना गहरा तादात्म्य है। इन प्रदर्शनकारी कलाओं में मुख्यतः नृत्य, काबड़, पड़ तथा पुतलीकला के शैक्षणिक प्रयोग एवं उपयोग पर शिक्षाशास्त्रियों तथा कलाविदों के निकष कई एक महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। शैक्षणिक नृत्य हमारे देश में ऐसे बहुत से नृत्य हैं जिनका सामुदायिक शैक्षणिक उपयोग किया जा सकता है। यह प्रयोग For Private & Personal use only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड बच्चों की उम्र तथा उनकी शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक आवश्यकताओं के अनुरूप होना चाहिए। यूरोप के अनेक देशों में इस ओर अनेक प्रयोग हुए हैं। हमारे यहाँ भी विशिष्ट समारोहों एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए इस प्रकार के नृत्यों का समावेश प्रारम्भ होने लगा है। पिछले दिनों एक स्कूल में मैंने छोटे-छोटे बच्चों का एक सांस्कृतिक कार्यक्रम देखा जिसमें उन्होंने "Here we dancing dancing" गीत पर बड़ा ही मनोहारी नृत्य प्रस्तुत किया था। ये बच्चे आठ-आठ, दस-दस वर्ष से अधिक बड़े नहीं थे। इन सामुदायिक नृत्यों के साथ व्यायाम का पुट अत्यन्त आवश्यक है। इससे एक ओर जहां बच्चों के शारीरिक अवयव पुष्ट होंगे वहाँ उन्हें व्यर्थ की उछल-कूद से मुक्त होकर तालबद्ध संगीत में रहकर सार्थक क्रियाएँ करने में आनन्द की अनुभूति भी होगी। इसके लिए शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि वह इन सारी चीजों से भली प्रकार परिचित हो अन्यथा गलत नृत्य-संगीत और पदचापों से बच्चों का अंग-सौष्ठव बिगड़ जायगा । उनकी चाल-ढाल ठीक नहीं होने से उनमें गलत आदतों का समावेश होने लगेगा और उनकी भावनात्मक पृष्ठभूमि, कल्पना और रंगीनियों के शतदल की बजाय भौंडी और कंटीली झाड़ियों की तरह उलझन भरी नजर आने लगेगी। हमारे देश के विभिन्न राज्यों में प्रचलित ऐसे अनेक सामूहिक नृत्य हैं जो जनशिक्षण की दिशा में सहायक हो सकते हैं। इनमें राजस्थान का गेर, घूमर; गुजरात का गरबा, रास; उत्तर प्रदेश का कजरी; आन्ध्र का बणजारा; मणिपुर का लाहिरोबा तथा आदिवासियों के नृत्य मुख्य हैं। राजस्थान का घूमर नृत्य किसी समय राजघरानों की देहलीज तक सीमित था परन्तु अब यही नृत्य स्थान-स्थान पर सामूहिक रूप से मनाये जाने वाले गणतन्त्र दिवस की शोभा बना हुआ है। दिल्ली में हजारों-हजार नागरिकों के सन्मुख भी इस नृत्य ने अपनी विशिष्टताओं द्वारा राष्ट्र के रंग में कई अनोखे रंग भरे हैं। ये नृत्य जीवन की विषमताओं एवं संकीर्णताओं को दूरकर जनजीवन में स्वस्थ भावनाओं की वृष्टि करते हैं। शिक्षात्मक कावड़पाट कावड़ लकड़ी के विविध पाटों का बना एक चित्र-मन्दिर होता है। ये पाट एक दूसरे से जुड़े रहते हैं जो आवश्यकतानुसार खोल दिये जाते हैं अन्यथा पाटों को बन्द करने से एक छोटा सा पिटारा बन जाता है। इन पाटों के दोनों ओर विविध धार्मिक एवं प्रिक्षात्मक जीवनोपयोगी चित्र चित्रित होते हैं। कावडरक्षक कावड़िया भाट इसे अपनी बगल में दबाये एक गाँव से दूसरे गाँव जाता है और एक-एक पाट को खोलता हुआ तत्सम्बन्धी चित्र को बड़ी सुन्दर लयकारों में विवेचित करता है और बदले में धान-चून प्राप्त कर अपनी गृहस्थी चलाता है। अब तक इस कावड़ का केवल यही उपयोग था परन्तु अब बाल्य एवं प्रौढ़ शिक्षण में इसका उपयोग बड़ा लाभकारी सिद्ध हुआ है। इसके अनुसार प्रारम्भ में किसी विषय अथवा कथा-कहानी को ले लिया जाता है। उसके बाद उस कहानी के आधार पर कावड़पाट पर अच्छे खूबसूरत चित्र कोर लिये जाते हैं। आवश्यकता होने पर प्रत्येक चित्र के नीचे ही उसका संक्षिप्त विवरण भी लिखवा लिया जाता है और तब एक-एक पाट का समूह-वाचन दे दिया जाता है। इससे प्रत्येक विद्यार्थी को समझने-सुनने में बड़ी आसानी रहती है। साथ ही शिक्षक जो कुछ कहना चाहता है, वह, लड़के चित्रों के माध्यम से जब उसका साक्षात्कार कर पाते हैं तो उसका, उनके मन-मस्तिष्क में स्थाई रूप से असर बैठ जाता है और वह चीज जल्दी ही उनके समझ में आ जाती है। इस प्रकार एक कावड़ द्वारा कई कविताएँ तथा कहानियाँ पढ़ाई जा सकती हैं। इसका पठन-पाठन सरल तथा संवादमूलक भी हो सकता है। नाटक तथा काव्य खण्ड भी कावड़ के माध्यम से रोचक तथा सरलतापूर्वक पढ़ाने जैसे बनाये जा सकते हैं। पड़ का उपयोगी पक्ष कावड़ की ही तरह एक पड़-रूप और प्रचलित है जिसके माध्यम से भी शिक्षण का अच्छा प्रचार-प्रसार किया जा सकता है । इसके जरिये कावड़ से भी अधिक व्यक्ति एक साथ शिक्षित किये जा सकते हैं। यह पड़ एक लम्बा कपड़ा होता है, जिस पर किसी घटना-चरित्र से सम्बन्धित चित्र कोरे हुए होते हैं। पड़ वाँचने वाला भोपा दो Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकधर्मी प्रदर्शनकारी कलाओं को शैक्षणिक उपयोगिता १६ . बांसों के सहारे पड़ को जमीन से फैला देता है और उसमें चित्रित प्रत्येक चित्र का गाथा के साथ वाचन करता है। यह पड़ दो-ढाई मीटर चौड़ी से लेकर सात-आठ मीटर तक की लम्बाई लिए होती है। पाबूजी का भोपा इस पड़ को लेकर गांवों में अपने भक्त-श्रद्धालुओं के समक्ष रात-रात भर गाथा-गीतमय वाचन करता रहता है। सारा का सारा गाँव उसे सुनने के लिए उमड़ पड़ता है। भोपा अपनी प्रभावशाली गायकी में नृत्य कदम भरता हुआ इस पड़ के प्रत्येक चित्र को वाचित करता जाता है। भोपे के साथ उसकी पत्नी भोपिन रहती है जो उसे गायकी में सहायता करती है। इसके हाथ में एक दीवट रहती है जिसके माध्यम से वह रात्रि में सम्बन्धित पड़-चित्रों को उजास देती रहती है। यह पड़ दो तरह से उपयोगी है। एक तो उसका बड़ा रूप जिस पर किसी महापुरुष अथवा महाख्यान या किसी विशिष्ट चरित्र का समग्र चरित्र चित्रित कराया जा सकता है या फिर इसके छोटे-छोटे टुकड़ों में छोटे-छोटे कथानक, कहानी-किस्से, घटना-प्रसंग विषयक चित्र बनवाकर उन्हें शिक्षोपयोगी रूप दिया जा सकता है। भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण प्रसंग पर भीलवाड़ा के संगीत कलाकेन्द्र ने भगवान महावीर से सम्बन्धित एक पड़ का सुन्दर चित्रण-प्रदर्शन महावीर की शिक्षा-दीक्षा तथा उनके जीवनोपयोगी प्रेरक प्रसंगों से हजारों लोगों को परिचित, प्रेरित और शिक्षित कर बोधगम्य बनाया। कठपुतलियों द्वारा जनशिक्षण कठपुतलियाँ तो सर्वाधिक रूप में जनशिक्षण का सशक्त माध्यम रही हैं। यहाँ की कठपुतलियों के शैक्षणिक पक्ष को तब तक हमने नहीं पहचाना जब तक कि हमारे कुछ कठपुतली-विशेषज्ञ यूरोप के विविध देशों में होने वाले कठपुतली प्रयोगों को न देख आये। यूरोप और अमेरिका में कठपुतली अब केवल मनोरंजन की ही साधन नहीं रही, उसका उपयोग विविध शैक्षणिक स्तरों पर भी होने लगा है। हमारे देश में भी यद्यपि कठपुतलियाँ अब तक बच्चों के शिक्षण में सीधी प्रयुक्त नहीं हुई फिर भी समाजशिक्षण में और पुरातन संस्कृति के विशिष्ट तत्त्वों को जनता जनार्दन को हृदयंगम कराने में उपयोगी बनती रही हैं। विदेशों में पुतली-शिक्षण यूरोप में आज से पच्चीस वर्ष पूर्व बच्चों के शिक्षण में पुतलियों का प्रवेश सर्वप्रथम इंग्लैण्ड में हुआ। इसके नेता थे लंदन के श्री फिलपोट, जार्ज स्पिएट तथा इटली की श्रीमती मेरिया सिम्नोरली। इधर अमेरिका में डा० मार्जरी मेकफेलरल ने बच्चों की शिक्षा में पुतलियों का अच्छा प्रयोग किया । यूरोप के पूर्वी देशों में जिनमें, रूमानिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी, हंगरी, ग्रीक तथा रूस सम्मिलित हैं, पुतलियों का शैक्षणिक उपयोग इतना महत्त्व प्राप्त नहीं कर सका । इन देशों में अन्य कलाओं के साथ-साथ पुतलियों को एक स्वतन्त्र कला के रूप में माना गया। कला की अन्य रंगमंचीय विधाओं के अनुरूप ही पुतलियों की एक समृद्ध रंगमंचीय विधा विकसित हुई और उसमें अच्छे नाट्यों की रचना की गयी । कठपुतलियों का एक शास्त्र विकसित हुआ और उनके विशिष्ट नाट्यतत्त्वों पर खोज की गयी। इन देशों में कठपुतलियों के माध्यम से विज्ञापन आदि का भी काम लिया गया। सर्वप्रथम पूर्वी जर्मनी में और उसके पश्चात् रूस के कुछ स्कूलों में कुछ शिक्षाशास्त्रियों ने बालशिक्षण में हस्तकौशल के रूप में पुतलियों का प्रयोग किया गया। कुछ बालपुतली विशेषज्ञों ने बच्चों के योग्य पशु-पक्षियों और परियों की कहानियों के आधार पर पुतलीनाट्य तैयार कर उनको मनोरजन का माध्यम प्रदान किया । तदुपरान्त कुछ स्कूलों में बच्चों द्वारा कठपुतलियाँ बनाने का काम भी प्रारम्भ हुआ। स्वयं बच्चों द्वारा कहानी कथन आदि करवाया गया। धीरे-धीरे पुतलियों का यह प्रयोग और जोर पकड़ता गया । फलत: पूर्व के सभी देशों में कठपुतली बालशिक्षण का प्रबल माध्यम बन गया। इंग्लैण्ड में फिलपोट ने शैक्षणिक पुतलियों के अनेक प्रयोग किये। बच्चों के विकास के साथ-साथ उनकी दबी हुई मानसिक उलझनों को खोजने में भी पुतलियों ने बड़े मार्के का काम किया । इटली में तो कुछ स्कूल ऐसे भी हैं जिनमें पुतलियों के माध्यम से सभी विषयों की शिक्षा देने की योजना है । फ्रान्स, जर्मनी, रूस, इंग्लैण्ड, चेकोस्लावाकिया आदि देशों में पुतलियों का प्रयोग मानसिक रोगियों के उपचार में भी किया जाता है। . Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड कलामण्डल के पुतली-प्रयोग हमारे देश में कठपुतलियों के शैक्षणिक उपयोग की दिशा में पद्मश्री देवीलाल सामर ने अपने विश्वप्रसिद्ध भारतीय लोककला मण्डल में अनेक उपयोगी और महत्त्वपूर्ण प्रयोग किये हैं। ये प्रयोग यहाँ के गोविन्द कठपुतली प्रशिक्षण केन्द्र में गत ६ वर्षों से बराबर होते रहे हैं । राजस्थान के अतिरिक्त गुजरात, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब आदि राज्यों के कलाकार-अध्यापक यहाँ प्रशिक्षित हो चुके हैं। विदेश के भी कई पुतली-प्रेमी यहाँ तीन-तीन चार-चार माह रहकर पुतली-प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं । बालशिक्षण के साथ प्रौढशिक्षण की दृष्टि से भी इस केन्द्र में कुछ अच्छे प्रयोग किये गये हैं । जनशिक्षण में पुतलियाँ अधिकाधिक कारगर सिद्ध हों इसलिए परिवार नियोजन, हड़ताल, प्रौढशिक्षा, अल्पबचत, भावात्मक एकता, साक्षरता, जैसे विषयों पर यहाँ के पुतली-नाट्यों ने सारे देश में नाम पाया है। यहाँ के प्रयोगों से प्रभावित होकर राजस्थान के हायर सैकण्डरी बोर्ड ने कठपुतली को हवीं-१० वीं कक्षा में एक विषय के रूप में मान्यकर यहाँ के प्रशिक्षण केन्द्र को इस प्रशिक्षण के लिए मान्यता प्रदान की है। जनशिक्षण में इन कलाओं की उपयोगिता निःसन्देह असन्दिग्ध है परन्तु इन्हें शिक्षोपयोगी बनाने के लिये कला का एक विशिष्ट नजरिया आवश्यक है। यह नजरिया प्राय: प्रत्येक व्यक्ति में नहीं होता। इसके लिए किसी ऐसे कलाविद् का सहयोग हो जो कला के साथ-साथ शिक्षण-प्रशिक्षण का भी पर्याप्त अनुभव रखता हो अन्यथा ये कलाएँ अपने मूल सौन्दर्य को भी खो देंगी और जनशिक्षण के बजाय शिक्षा का अनर्थ करने में कोई कसर नहीं रखेंगी। - सुवचन वाग् वै शबली ---ताण्ड्य महाब्राह्मण २११३।१ वाणी काम धेनु है। नाना वीर्याण्यहानि करोति ---ताण्ड्य महाब्राह्मण २१।९।७ सत्पुरुष अपने जीवन के प्रत्येक दिन को विविध सत्कार्यों से सफल बनाते हैं। . Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और संचार-साधनों की भूमिका 0 प्रो० दुर्गाप्रसाद अग्रवाल (स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, राजकीय महाविद्यालय, सिरोही) प्राय: यह कहा और माना जाता है कि संचार के आधुनिक साधन शिक्षा-प्रचार के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन हैं। रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा और मुद्रित सामग्री (पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ आदि) को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि ये अब अधिक लोगों तक शिक्षा, ज्ञान, नैतिक मूल्यों आदि को पहुँचा रहे हैं । निश्चय ही ये सब साधन किसी भी बात का बृहत्तर समुदाय तक पहुँचाने की क्षमता रखते हैं, परन्तु यदि जरा गहरे में जाकर इस बात की पड़ताल की जाये कि संचार के ये आधुनिक साधन हमारे देश में बहत्तर समुदाय तक कौन-सा ज्ञान, कौन-सी शिक्षा और कौन-से नैतिक मूल्यों की बात पहुँचा रहे हैं तो बड़े चौंकाने वाले तथ्य सामने आयेंगे। भारत में आजादी के तीन दशकों के बाद भी अर्द्ध-साक्षरता तक की स्थिति नहीं आ पाई है, शिक्षा तो बहुत दूर की बात है । प्रौढ़ शिक्षा के सारे हो-हल्ले के बावजूद गांवों में ही नहीं, शहरों तक में एक बड़ा वर्ग ऐसे लोगों का है जिनके लिए 'काला अक्षर' वास्तव में 'भैंस बराबर' है। ऐसे लोगों के लिए लिखित या मुद्रित शब्द कोई अर्थ नहीं रखता। हमारी जनसंख्या का यह और शेष में से भी बड़ा भाग अपने जीवन, व्यवसाय, नागरिकता, नैतिकता आदि से सम्बद्ध मूलभूत बातों तक से अनभिज्ञ है। इस समुदाय तक इन बातों को पहुँचाने का एक महत्त्वपूर्ण साधन रेडियो हो सकता था परन्तु हम अपनी 'आकाशवाणी' के अतीत और वर्तमान पर दृष्टिपात करें तो यह त्रासद तथ्य सामने आता है कि यह महत्त्वपूर्ण साधन अपनी भूमिका के निर्वाह में असफल रहा है। आकाशवाणी वाले इस वहस में तो उलझे हैं कि वे अपने प्रसारणों में हारमोनियम को स्थान दें या न दें, उन्हें यह चिन्ता तो हुई है कि उनके प्रसारण लोकप्रियता में रेडियो सीलोन का मुकाबला क्यों नहीं कर पाते हैं, उन्होंने दूर-दराज के मुल्कों में हुर क्रिकेट मैचों के सीधे प्रसारण पर अपना धन व शक्ति तो खर्च की है; पर अपने श्रोताओं को शिक्षित करने में इनके अनुपात में बहुत ही कम रुचि ली है । कहने को तो आकाशवाणी से स्कूल प्रसारण, महिला जगत, ग्रामीण भाइयों का कार्यक्रम, युवा-वाणी आदि 'शिक्षा-प्रद' कार्यक्रमों का नियमित प्रसारण होता है पर अपनी स्तरहीनता और 'बेगार काटू' प्रस्तुतिकरण के कारण ये कार्यक्रम श्रोताओं में जरा भी लोकप्रिय नहीं हो पाये हैं। हमारी आकाशवाणी के दो सर्वाधिक लोकप्रिय केन्द्र हैंविविध भारती और उर्दू सर्विस । यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनों ही केन्द्रों की लोकप्रियता का कारण इनकी फिल्म-संगीत निर्भरता है । चुनाव के दिनों में परिणाम बुलेटिनों व टेस्ट मैचों के दिनों में कमेण्ट्री को छोड़कर आकाशवाणी के शेष कार्यक्रम शायद ही कोई सुनता हो, यहाँ तक कि समाचार भी 'अमुक मन्त्री ने कहा है' शैली के कारण नितान्त रुचिहीन होते हैं, इनकी विश्वसनीयता और नवीनता का यह हाल है कि भारत का थोता भारतीय समाचारों के लिए बी० बी० सी० सुनना पसन्द करता है और राजस्थान के प्रादेशिक समाचार स्थानीय समाचार-पत्रों में प्रकाशन के बारह घण्टे बाद आकाशवाणी जयपुर से प्रसारित होते हैं। एक ओर वास्तविक ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रमों का अभाव, नीरस प्रस्तुतिकरण और दूसरी ओर फिल्मी गीतों की भरमार । फिल्मी गीतों से क्या शिक्षा मिलती है, यह बताने की आवश्यकता नहीं । उस दुनिया में एक ही समस्या है--प्रेम, और एक ही समाधान है-लड़के-लड़की का मिलन । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड यही बात दूरदर्शन के बारे में भी है। इनके दो सर्वाधिक लोकप्रिय कार्यक्रम हैं- 'चित्रहार' व 'फूल खिले हैं गुलशन गुलशन' ये दोनों ही कार्यक्रम पूर्णतः फिल्मों पर आश्रित है। शेष कार्यक्रम प्रस्तुत करना दूरदर्शन वालों की विवशता भले ही हो, दर्शक उनको देखकर न तो बोर होना चाहते हैं, न बिजली और समय की बर्बादी करना । दूरदर्शन वाले भी सत्ताधीशों की छवि उभारने के प्रयत्न में इतने ज्यादा दूबे रहते हैं कि शेष बातों की और उनका ध्यान ही नहीं जाता। वैसे भी साइट के अल्पकालीन अनुभव के अतिरिक्त दूरदर्शन अब तक बहुत छोटे से वर्ग तक पहुँच पाया है। हम अब रंगीन टेलिभिजन प्रसार के लिए तो उत्सुक हैं पर समाज निर्माण की ओर इसे उन्मुख करने की कोई चिन्ता आभासित नहीं रही है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि हमारे देश में इन दोनों ही माध्यमों पर सरकार का पूर्ण नियन्त्रण व एकाधिकार है। कुशल और सुचिन्तित उपयोग के अभाव में ये माध्यम अपनी वांछित भुमिका में प्रयुक्त नहीं किये जा सके हैं, जनता को शिक्षित करना तो दूर रहा, ये साधन सरकारी नीतियों तक का सही प्रचार नहीं कर पाये हैं। यों, रेडियो हमारे यहां खूब लोकप्रिय हुआ है, विशेषतः ट्रांजिस्टर कान्ति के बाद से और नव-यनिक वर्ग तक टेलीविजन भी पहुँच ही गया है, परन्तु जो कुछ इन दोनों ने सिखाया है उसको देखकर तो यही कहना पड़ता है कि अच्छा होता अगर हमारे यहाँ ये दोनों ही नहीं होते, तब कम से कम हमारे बच्चे 'आज मैं जवान हो गई हूँ', 'मुझको ठण्ड लग रही है, मुझसे दूर तो न जा', 'हम तुम एक कमरे में बन्द हों', 'किवड़िया न बड़काना' जैसे भौंडे गीत तो न अलापते । भारत जैसे अशिक्षित- बहुल देश में संचार का तीसरा महत्त्वपूर्ण साधन है - सिनेमा । इसके एक अंश पर सरकार का लगभग पूरा नियन्त्रण है और दूसरे पर अमीर व्यापारियों का । वृत्तचित्र ( डाक्यूमेण्ट्री ) निर्माण लगभग पूरी तरह सरकार के हाथों में है, उसका प्रदर्शन भी वह अनिवार्यतः सिनेमाघरों में करवाती है परन्तु अपने नीरस प्रस्तुतिकरण के कारण यह भी दर्शकों को आकृष्ट व प्रभावित करने में असमर्थ हैं। इसके अतिरिक्त इनकी वितरण व्यवस्था भी दोषपूर्ण है । इनका समय पर प्रदर्शन नहीं हो पाता है । परिणाम यह होता है कि जब चीन भारत पर हमला करता है तो सिनेमाघर में हिन्दी चीनी भाई-भाई' के स्वर गूंजते हैं, जब परिवार नियोजन वाले हम दो हमारे दो की बात कहने लगते हैं तो सिनेमा में 'दो या तीन बच्चे' की बात कही जा रही होती हैं। कस्बों के सिनेमाघर प्रायः वृत्तचित्र दिखाते ही नहीं हैं और जन सम्पर्क विभाग जैसी सरकारी एजेन्सियाँ इनको अलमारी में बन्द रख सन्तुष्ट हो लेती हैं । जहां तक कथाचित्रों का प्रश्न है, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ये व्यावसायिक निर्माताओं की देन हैं और इनके निर्माण का उद्देश्य समाज सुधार या शिक्षा प्रसार न होकर महज मुनाफा कमाना है। इसके अतिरिक्त, यह भी याद रखना है कि फिल्मों की अर्थव्यवस्था बहुत हद तक काले धन पर आधारित है । और जो लोग इस व्यवसाय से जुड़े हैं उनका नैतिकता आदि शब्दों में जरा कम ही विश्वास है। परिणाम स्पष्ट है, हमारी फिल्में न किन्हीं मूल्यों का निर्देशन करती है न किन्हीं आदर्शों का प्रचार । इनमें तस्कर व्यापारी ही पूर्ण पुरुष होता है और वेश्या ही पूर्ण नारी । अपराधियों के चरित्र को कुछ इस तरह से ग्लेमराइज़ किया जाता है कि वे घृणा या दया के पात्र लगने की बजाय अनुकरणीय लगने लगते हैं। शायद यही कारण है कि फिल्म देखकर अपराध करने की घटनाएं प्रायः घटित होती हैं । कहने को हमारे यहाँ एक सेन्सर बोर्ड भी है पर उसकी अपनी सीमाएँ हैं। प्रभावशाली लोगों की फिल्मों में काट-छांट करने की ताकत उसमें नहीं है । उसकी भूमिका महज यह है कि वह फिल्मों में पुलिस के सिपाही के रिश्वतखोर रूप के चित्रण को रोकता है, चुम्बन के प्रदर्शन पर रोक लगाता है। यह बात अलग है कि चालाक निर्देशक उसकी आँखों में धूल झोंककर अधिक अश्लील ढंग से संभोग का भी विस्तृत चित्रण कर जाता है। यदि भूले-भटके कोई निर्माता यथार्थवादी, आदर्शवादी, उद्देश्यपूर्ण फिल्म बना भी डालता है तो वह इन रंगीन, विलासितापरक फिल्मों के सामने टिक नहीं पाती हैं । व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा के रहते उसे थियेटर नहीं मिल पाता, कोई सरकारी समर्थन नहीं मिलता और इस तरह अन्य लोगों का मनोबल भी टूटता जाता है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि हमारी फिल्में अगर कोई शिक्षा दे रही हैं तो वह हिंसा, नग्नता, मूल्यहीनता, विलासिता, बेईमानी, अपराध आदि की शिक्षा है । यह तो हुई रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा की बात, जिन पर पूर्णतः या अंशत: सरकारी नियन्त्रण है। आइये . Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और संचार-साधनों की भूमिका २३ अब मुद्रित शब्दों की दुनियाँ का भी जायजा लें। मुद्रित शब्द अपने किसी भी रूप (समाचार-पत्र, पत्रिका, पुस्तक) में देश के बड़े जन समुदाय तक नहीं पहुंच पाया है। इसका कारण अशिक्षा ही नहीं, लोगों की गरीबी भी है। इसके अतिरिक्त इस स्थिति का दायित्व मुद्रित सामग्री विरोधी प्राथमिकताओं और दोषपूर्ण एवं उपभोक्ता-विरोधी वितरण व्यवस्था पर भी है। जो लोग दो वक्त की रोटी तक जुटा पाने की हैसियत नहीं रखते हैं वे पुस्तक-पत्रिकाएँ क्योंकर खरीद सकते हैं ? जो लोग खरीदने की कामना रखते हैं वे किताब खरीदने की बजाय एक और कमीज सिलवाना या सिनेमा देखना या ऐसा ही कोई और उपयोग अपने पैसे का करना पसन्द करते हैं। इस तरह लोगों की प्राथमिकता सूची में पुस्तकोंपत्रिकाओं का स्थान बहुत नीचे आता है। जो लोग इन दोनों ही बाधाओं को पार कर पुस्तक खरीदने निकल ही पड़ते हैं, उनको वह पुस्तक मिलती नहीं जो वे पढ़ना चाहते हैं, या जो उन्हें पढ़नी चाहिए। भारतीय प्रकाशक वैयक्तिक पाठक के लिये पुस्तक व्यवसाय नहीं करता है। उसकी रुचि पुस्तकालयों की थोक बिक्री में ही है। उनके लिए वह तीस प्रतिशत कमीशन का प्रावधान भी रखता है, इस तरह प्रकाशक जो पुस्तक पाठक को नकद भुगतान पर पचास रुपये में बेचता है वही पुस्तक वह पुस्तकालयों को उधारी पर पेंतीस रुपये में बेच देता है. लाइब्रेरियन का कमीशन, व्यापारी का मुनाफा, व्याज, खर्चा ये सब तो है ही । यदि वह चाहे तो पचास रुपए वाली पुस्तक ग्राहक को सीधे, बिना किसी बिचोलिये के बीस-पच्चीस रुपए में बेच सकता है, पर वह बेचना चाहता ही नहीं। जब पुस्तकालयों को लूटकर उसका काम आसानी से चल रहा है, उसका धन्धा फल-फूल रहा है तो वह एक-एक पुस्तक के ग्राहक पर क्यों श्रम करे ? उन ग्राहकों के लिए उसने पाकेट बुक्स के प्रकाशन का धन्धा चला रखा है, विदेशों में भले ही पाकेट बुक्स में गम्भीर पुस्तकें प्रकाशित होती हों, हमारे यहाँ पाकेट बुक्स रोमांटिक व अपराध साहित्य का पर्याय बन चुकी है। प्रत्येक प्रकाशक के पास अपने कुछ ट्रेडमार्की लेखक हैं जो घुमा-फिराकर फार्मूलाबद्ध लेखन करते रहते हैं। इन पुस्तकों की वितरण व्यवस्था भी बहुत अच्छी है। किसी भी शहर कस्बे, गांव के रेल या बस स्टेण्ड पर आपको ये किताबें मिल जायेंगी। इस तरह हमारा प्रकाशक सीधे-साधे वह बेच रहा है जो वह बेचना चाहता है, अगर वह प्रेमचन्द, यशपाल निराला को नहीं बेचना चाहता तो आप उसका कुछ नहीं कर सकते । इधर कुछ वर्षों से राजनीति की भीतरी कथाओं के लेखन-प्रकाशन की एक नई प्रवृत्ति उभरी है। इस लेखन को गम्भीर राजनैतिक विश्लेषण की ओक्षाओं के साथ नहीं पढ़ा जाना चाहिए । वास्तव में यह राजनीति, कामशास्त्र और किस्सागोई का अजीब-सा मिश्रण है। इस लेखन में मृत राजनेताओं के बारे में कुछ भी लिख देने की एक नई नैतिकता और विकसित हो रही है। कुछ लेखकों और प्रकाशकों ने इसमें भी खूब कमाया है। पाठक की परवाह किसको है ? घोड़ा घास से यारी करे तो ...? समाचार पत्रों की दशा भी इनसे भिन्न नहीं है। उनमें मन्त्रियों के बासी भाषण, मिथ्या घोषणाएँ या अपराध की सनसनीखेज खबरें तो मिलेंगी पर आम आदमी नदारद मिलेगा। किसी अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति के जुखाम पर डाक्टरी बुलेटिन तो होगा पर बस दुर्घटना में मरे व्यक्तियों के नाम गायब होंगे । अपराध का विस्तृत वर्णन तो होगा पर उनको मिलने वाली या मिली सजा का ब्योरा देने की आवश्यकता नहीं समझी जायेगी। यह तो प्रान्तीय और राष्ट्रीय समाचार पत्रों की स्थिति है। स्थानीय समाचार पत्रों के बारे में तो कुछ भी कहना अनावश्यक है। उनका एकमात्र उद्देश्य अपने स्वामियों का भरण-पोषण ही होता है। इनकी भूमिका ब्लेकमेलिंग की श्रेणी में आती है। पिछले कुछ वर्षों से हमारे यहाँ जिस तरह से पत्रिकाओं की बाढ़-सी आई है उससे यह समझने का भ्रम हो सकता है कि लोगों में पढ़ने की न रुचि का विकास हुआ है, लेकिन सही स्थिति यह है कि ये पत्रिकाएँ पाठकों की रुचि और माँग का नहीं, प्रकाशकों को मुनाफाखोर मनोवृत्ति का परिणाम है। आज हमारी पत्रिकाओं में अपराध, रहस्य, रोमांच, भ्रष्टाचार, ऐयाशी, नग्नता, अश्लीलता आदि का अनुपात बढ़ता ही जा रहा है। अदालतों से ली गई मुकदमों की तफसील के आधार पर अपराध कथाओं की इन दिनों इतनी भरमार है कि पुरानी पत्रिकाएँ अपर्याप्त सिद्ध हो रही हैं, नई-पत्रिकाओं के प्रकाशन की अनिवार्यता उपस्थित होती जा रही है। दल-बदल भी तेजी से हो रहा है। छठे दशक में नई कहानी के विकास में अहम् भूमिका निबाहने वाली पत्रिकाएँ भी आज रहस्य-रोमांच व अपराध को समर्पित होती जा रही हैं। बड़ी ग्राहक संख्या वाली शालीन पत्रिकाएँ भी धीरे-धीरे बड़ी चालाकी से भूत-प्रेत की Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड .... ........................................................ गाथाएँ, ठगी की कहानियाँ आदि छापकर जैसे पिछले दरवाजे से इस अपराध जगत् में स्थान बनाने का प्रयत्न कर रही हैं। एक ओर कुछ वर्षों में ज्ञानोदय, माध्यम कहानी, स्टेट्स बेस्ट जैसी स्तरीय पत्रिकाएँ बन्द हुई है तो दूसरी ओर इन पत्रिकाओं ने खूब कमाई कर अपना विस्तार किया है। यही हाल फिल्मी पत्रिकाओं का भी है, इनमें फिल्मों की स्वस्थ आलोचना और फिल्म कला पर गम्भीर लेखों के बजाय फिल्मी सितारों के कपड़ों के नीचे और शयन कक्षों के भीतर झांकने का सीधा प्रयत्न होता है । यही हाल राजनीतिक पत्रिकाओं का भी है, किस मन्त्री या उसके बेटे ने किस लड़की के साथ कब किस तरह का व्यभिचार किया, इसका सचित्र, विस्तृत विवरण ही इन पत्रिकाओं का एकमात्र विषय रह गया है। आखिर यह सम्पूर्ण परिदृश्य हमें किन निष्कर्षों पर पहुंचाता है ? हमारे सारे के सारे संचार साधन किस दिशा में बढ़ रहे हैं ? क्या एक सद्यः स्वाधीन, विकासशील देश के संचार माध्यमों की यह भूमिका स्वस्थ और सन्तोषप्रद कही जा सकती है ? क्या इनसे हमारे नागरिकों को मानसिकता की सही दिशा मिल रही है ? क्या इनके इस तरह के अस्तित्व से इनकी अस्तित्वहीनता ही बेहतर नहीं होगी? __ मेरी स्पष्ट मान्यता है कि रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा, समाचार पत्र, पत्रिकाएँ और पुस्तकें सभी गलत हाथों और निश्चित स्वार्थों के घेरे में बन्द हैं। सरकार ने भी अपने दायित्व का निर्वाह करने के बजाय उसे अकर्मण्य अफसरशाही के पास गिरवी रख दिया है । सरकार से बाहर के जिन लोगों ने इन माध्यमों पर कब्जा कर रखा है उनके लिये तो किताब और शराब की बोतल के व्यवसाय में जैसे कोई फर्क ही नहीं है। मुनाफा ही तो कमाना है। शराब नहीं बेची, किताब बेच ली । परिणाम यह हुआ है कि जहाँ इन माध्यमों को अर्थ देने का प्रयत्न किया गया वहाँ ये रुचि-हीन, नीरस और उबाऊ हो जाने के कारण जरा-सा भी प्रभाव उत्पन्न नहीं कर पाये और जहाँ इन्हें खुला छोड़ा गया वहाँ मुनाफाखोरों के हाथ में पड़कर अवांछित दिशा की ओर मुड़ गये। आज हमारे समस्त संचार साधन किसी स्वस्थ भूमिका का निर्वाह करने की बजाय चतुर्दिक अनैतिकता का जहर फैला रहे हैं। कागज की भीषण कमी के कारण स्कूली पाठ्य पुस्तकें तक नहीं छप पा रही हैं, परन्तु अपराध पत्रिकाओं, रोमाण्टिक उपन्यासों की बाढ़ आई हुई है। देश में सिनेमाघरों की कमी के कारण अच्छी फिल्मों को प्रदर्शन का अवसर नहीं मिल पा रहा है। वे डिब्बे में ही पड़ी-पड़ी सड़ रही हैं परन्तु अभूतपूर्व हिंसा वाली फिल्म एक ही थियेटर में तीन साल चल चुकी है। रेडियो, टी० बी० के अपने कार्यक्रम फिल्मी रचनाओं के हाथों मार खा रहे है। यह सब यही सिद्ध करता है कि अर्थशास्त्र का सुपरिचित नियम- 'बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को प्रचलन से हटा देती है। यहाँ भी लागू हो रहा है। इसका उपचार क्या है ? सरकार यदि अपने नागरिकों के हित में मिलावटी खाद्य पदार्थों पर रोक लगा सकती है, उनके व्यापारियों को दण्डित कर सकती है, जन स्वास्थ्य के हित में शराबबन्दी की जा सकती है तो जन-भावनाओं को दूषित करने वाले साहित्य और फिल्मों पर रोक क्यों नहीं लगाई जा सकती है ? आखिर प्रजातन्त्र और अभिव्यक्ति की स्वाधीनता का अर्थ यह तो नहीं है कि कुछेक स्वार्थी लोगों को पूरे देश की मानसिकता को विकृत करने की छूट दे दी जाय ? निश्चय ही क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसका निर्णय समझदार लोगों द्वारा करवाना होगा, वरना अफसरशाही जिस अविवेकपूर्ण ढंग से इस दायित्व का निर्वाह करती है उससे कोई लाभ नहीं होने वाला है, हानि भले ही हो । इस तरह के निर्णय के लिये अधिकारियों का चयन बहुत सूझ-बूझपूर्ण होना चाहिये, इस कार्य के लिये इन माध्यमों से सम्बद्ध लोगों को भी आगे आना होगा और स्तरीय रचनाओं के उदाहरण उपस्थित करने होंगे। पाठकों, दर्शकों से भी अनुचित, गलीज और हानिप्रद रचनाओं के विरुद्ध सक्रिय विरोध की अपेक्षा होगी। यह तो हुई नकारात्मक भूमिका, सकारात्मक दृष्टि से आकाशवाणी और टेलीविजन के कार्यक्रमों का स्तर ऊँचा उठाया जाना प्रथम आवश्यकता होगी। कलात्मक और तकनीकी दृष्टि से ये माध्यम बहुत पिछड़े हुए हैं, यह Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा और संचार-साधनों की भूमिका २५ . .............. . . . . ........ ............................e erone तथ्य स्वीकार किया ही जाना चाहिये, प्राथमिकताओं का भी निर्धारण हो जाना चाहिये, यह क्यों आवश्यक समझ लिया गया है कि पूरे पाँच दिन आकाशवाणी के सारे केन्द्र क्रिकेट कमेण्ट्री का प्रसारण करें ? खेल में रुचि अच्छी बात है पर इससे होने वाली हानियों को भी मद्देनजर रखा जाना चाहिये, फिल्म संगीत पर निर्भरता खत्म करने के साथ ही उसका उतना ही वजनदार विकल्प जुटाने के लिये तैयार रहा जाना चाहिये। स्तरीय पुस्तकों-पत्रिकाओं के प्रकाशन और वितरण को हर स्तर पर प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये। अच्छी अच्छी पुस्तकें लिखी और छापी जाने के बाद दीमकों को समर्पित न हो जायें। डाक की दरों में भी कमी करके भी इस दिशा में सहयोग दिया जा सकता है। प्रकाशकों को भी सीधे पाठक से जुड़ने का प्रयत्न करना चाहिये । यह भी सोचा जाना चाहिये कि अगर एक छोटे-से गाँव में 'थम्स अप' या 'रेड एण्ड व्हाइट' पहुँच सकते हैं तो प्रेमचन्द का उपन्यास क्यों नहीं? अच्छी फिल्मों के निर्माण को प्रोत्साहन के लिये तो फिल्म वित्त निगम जैसी संस्थाओं को अपना दायरा बढ़ाना ही होगा, थियेटरों की संख्या बढ़ाने व देश के दूर-दराज के इलाकों तक उन फिल्मों को पहुंचाने के अन्य साधनों पर भी गम्भीरतापूर्वक चिन्तन करना होगा, घुमन्तु सिनेमाघर इस दिशा में एक साधन हो सकता है तो स्कूल-कालेजों में फिल्म सोसाइटियों की स्थापना दूसरा साधन । अभी तो गाँव में चौथी कक्षा में पढ़ने वाला लड़का भी पड़ौसी की लड़की को आशिक की निगाहों से देखता है, प्रेम के ताने-बाने बुनता है, बड़ा होकर किसी फिल्म में देखे तस्कर की अनुकृति बनने की कल्पना करता है । अपराध कथाएँ उसे रातोंरात अमीर बनने और विलास करने के नवीनतम तरीके सिखाती है, भड़कीले विज्ञापन उसकी कामनाओं की आग को हवा देते हैं और इन सबके बीच सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श, उदात्त जीवन मूल्य और महान् देश की परम्पराएँ—ये सब अपनी दशा पर आँसू बहाते हैं। यह अत्यन्त आवश्यक है कि संचार माध्यमों द्वारा दी जा रही इस तरह की 'शिक्षा' को अविलम्ब रोका जाये अन्यथा एक स्थिति वह भी आ सकती है जब हम भारतवासी अपने स्वप्नों के भारत से बहुत दूर पहुँच जायें और वहाँ से लौटना कतई सम्भव ही न रह जाये । क्या हम उसी स्थिति की प्रतीक्षा में हैं ? AND Aika Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lolololo +-+-+ अनौपचारिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप डॉ० शिवचरण मेनारिया ( प्रधानाध्यापक, राजकीय माडल सेकेण्डरी स्कूल, उदयपुर, राज० ) हमे ये नार्वात परम्यरन्ति न ब्राह्मणसो न करायः । त एते वाचमाभिपद्ध पापया - सिरीस्तन्त्र तत्त्वते अप्रजज्ञया ।। (ऋग्वेद १०. ०१. ९) ++ "वेद ब्राह्मणों एवं परलोकीय देवों के साथ यज्ञादि कर्म नहीं करने वाले व्यक्ति पापाचित लौकिक भाषा की शिक्षा के द्वारा अज्ञानीसदृश हलवाहक बनकर कृषि रूप ताना-बाना ही बुना करते हैं।" शैक्षणिक तारतम्यता का अभाव होने के कारण वेदों में लौकिक भाषा की शिक्षा को पापाश्रित कहा गया है। वर्तमान शिक्षा जगत् भी उद्देश्यहीनता के भँवरजाल में फँसा हुआ है। शिक्षणालयों में अध्ययनरत छात्र अपने जीवन के वास्तविक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने में सर्वया दिग्भ्रमित मा रहता है तथा अनिश्चितताओं की मृगमरीचिका में भटकता हुआ मस्तिष्क की अपरिपनयता का भारवाहक बनकर ही सांसारिकता का अनुगामी बनता है। जीवन की समस्याओं से अनभिज्ञ, विक्षिप्तावस्था में नैतिकता के लम्बे पथ पर अग्रसर होता है कभी-कभी उद्विग्नतावश अनैतिकता अनुगामी बन जाता है। उचित समाधान नहीं हो पाया है । एवं अतृप्तावस्था में जीवन भर भटकता रहता है तथा स्वातन्त्र्योत्तर काल में भी किशोरों की समस्याओं का विकास हो रहा है। डा० फिलिप हेडलर ने भावी विज्ञान एवं तकनीकी की प्रगति के परिणामतः विश्व आधुनिक युग में विज्ञान एवं तकनीकी का तीव्रगामी विकास की कल्पना करते हुए कहा है कि आने वाली शताब्दी में के ५ प्रतिशत लोग कृषि करेंगे २० प्रतिशत व्यक्ति उत्पादन कार्य में जये होंगे तथा ७५ प्रतिशत अत्यधिक कुशलताओं के कार्य में व्यस्त होंगे। इधर मानव का संचित ज्ञान भी प्रत्येक दशाब्दी में दुगुना होता जा रहा है तथा यही क्रम रहा तो यह निश्चित है कि जिला का कैसा भी पाठ्यक्रम हो, वह कुछ ही समय में अपूर्ण और निष्प्रयोजन हो जायेगा । भारतवर्ष की जनसंख्या ६० करोड़ की सीमा पार कर चुकी है तथा यह आशंका है कि यदि वर्तमान जन्मदर बनी रही तो सन् २००० ई० तक वह एक सौ करोड़ हो जायगी। जनसंख्या की तीव्रतम वृद्धि ने हमारी गत ३० वर्षों की आर्थिक प्रगति को निष्प्रभावी बना दिया है। विकास क्षेत्रों की विस्तार गति से जनसंख्या विस्तार की गति आगे निकलती जा रही है। विभिन्न प्रयासों से अन्न उत्पादन में उत्पनीय वृद्धि हुई है तो प्रति व्यक्ति अन्न की मात्रा (उपलब्ध मात्रा) भी निराशाजनक सीमा तक घट गयी है। साक्षरता प्रतिशत में सुधार की अपेक्षा निरक्षर जनसंख्या की संख्या अधिक हो गयी है। यही स्थिति मकान आदि आवश्यक जीवनोपयोगी वस्तुओं तथा सेवाओं की है। विशाल भारत राष्ट्र के जन-जन को शिक्षित करने अथवा साक्षर बनाने एवं आर्थिक, सामाजिक तथा जनयोजनाओं से भिज्ञ करने हेतु प्रचलित औपचारिक शिक्षा व्यवस्था पर्याप्त नहीं है । दीर्घावधि से कल्याण की . Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनौपचारिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप २७ . प्रचलित औपचारिक शिक्षा देश के मात्र ४० प्रतिशत लोगों को साक्षर बना पायी है। देश की ६० प्रतिशत जनता आज भी निरक्षर है तथा अज्ञान के अन्ध महासागर में गोते लगा रही है। देश की प्रचलित शिक्षा प्रणाली देश की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है तथा भीतर ही भीतर विशृंखलित है। आज ऐसी शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है जो राष्ट्र के विकास की आवश्यकताओं से सम्बन्धित हो। वर्तमान शिक्षा प्रणाली की सीमाएं १. वर्तमान शिक्षा व्यवस्था का एक मुख्य लक्षण यह है कि यह पूरे विद्यालय समय तक विद्यालय में रहने में समर्थ छात्रों को ही प्रवेश देती है। परिणामतः काम-काजी व्यक्ति को संस्थागत शिक्षा का लाभ नहीं मिल पाता है। पत्राचार एवं रात्रि महाविद्यालय भी मात्र तीसरी श्रेणी की शिक्षा उपलब्ध कराते हैं, साथ ही इस प्रणाली से उत्तीर्ण हुए स्नातकों को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसी तरह ८ वर्ष से ऊपर की आयु वर्ग के बालकों का बहुत बड़ा प्रतिशत पुन: इस प्रणाली का अंग नहीं बन पाता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था बालकों को उनके घरेलू व्यवसाय से हटा लेती है । कुछ वर्षों बाद पुन: कार्यानुभव एवं दस्तकारी जैसे निष्फल उपायों से उन्हें काम की दुनिया से जोड़ने का असफल प्रयास करती है। शिक्षा प्रणाली में अलगाव का तीसरा पक्ष प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च माध्यमिक एवं प्रौढ़ शिक्षा जैसे परस्पर भिन्न क्षेत्रों का अप्राकृतिक विभाजन है। जिनके अध्यापक, कर्मचारी आदि सभी भिन्न-भिन्न हैं। २. भारत में शिक्षा पर प्रतिवर्ष सोलह सौ करोड़ रुपयों से अधिक व्यय किया जाता है। यह व्यय सुरक्षा व्यय के बाद सबसे अधिक है। प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय एवं अवरोधन के परिणामस्वरूप ६० प्र.श. धन व्यर्थ ही चला जाता है । शिक्षा में अपव्यय और अवरोधन का मुख्य कारण इसकी उद्देश्यहीनता है । शिक्षणेतर छात्र नौकरी के लिए इधर-उधर भटकता रहता है, कदाचित ही कोई छात्र पुन: अपने पैतृक व्यवसाय में लौटने की बात सोचता हो। स्वतंत्र भारत की नव निर्वाचित सरकार ने विकास कार्यक्रमों को सामुदायिक विकास और पंचायत राज की पद्धति से जोड़ने का संकल्प किया था और विकास कार्यक्रम में जनता को भागीदारी देना शैक्षिक प्रक्रिया माना था। फलतः सामुदायिक विकास कार्यक्रम के अन्तर्गत समाज शिक्षा कार्यक्रम तैयार किया गया किन्तु द्वितीय पंचवर्षीय योजना के बाद ही समग्र विकास के स्थान पर संकुचित क्षेत्र के उत्पादन कार्यों को महत्त्व दिया जाने लगा तथा सामुदायिक विकास कार्यक्रम तथा पंचायती राज और समाज शिक्षा का महत्त्व कम हो गया । समाज शिक्षा कार्यकर्ताओं के पद समाप्त कर दिये गये और ग्रामसेवकों के पद कृषि कार्यकर्ता के पदों में रूपान्तरित कर दिये गये । जबकि उस समय का एक अत्यन्त सफल कार्यक्रम ग्राम शिक्षा की योजना थी। तदुपरान्त ग्राम शिक्षा संस्थान (रूरल इन्स्टीट्यूट) तथा कृषि महाविद्यालय खोले गये और उनमें सहकारी प्रबन्ध, ग्रामीण सेवाएँ, ग्रामीण स्वच्छता प्रणाली, ग्रामीण अभियान्त्रिकी, ग्रामोद्योग जैसे पाठ्यक्रम सम्मिलित किये गये तथा कृषि महाविद्यालयों को अनुसंधान एवं प्रसार कार्यक्रम सौंपे गये। मगर भारतीय शिक्षा व्यवस्था में इन संस्थाओं की कहानी दुःखान्त बनकर रह गयी है। ये संस्थाएँ अपनी विशेषताओं को बनाये नहीं रख सकी। ग्रामीण शिक्षा संस्थान सामान्य विश्वविद्यालयों से आबद्ध हो गये और कृषि महाविद्यालय भी (कुछ अपवादों को छोड़कर) कृषि स्नातक (सरकारी नौकरी हेतु ) तैयार करने में जुट गये । अपार धन खर्च करने पर भी कोई लाभ नहीं हुआ और यह कार्यक्रम परम्परित शिक्षा की चपेट में आ गया। समाज शिक्षा बोर्ड, कोयला खान कर्मचारी संगठन, अखिल भारतीय श्रमिक शिक्षा समिति तथा कृषकों के लिए क्रियात्मक साक्षरता कार्यक्रम (१९६७-६८) तथा नेहरू केन्द्र प्रारम्भ किये गये किन्तु परिणाम वही ढाक के पात तीन। हमारे देश का सामान्य शिक्षार्थी अपने दैनिक जीवन की समस्याओं का हल निकाल पाने में समर्थ हो सके और जिसे वह सहज ही जीवन जीते हुए स्वीकार कर सके, ऐसी शिक्षा प्रणाली ही सच्चे माने में उपयोगी कही . जा सकती है। देश का बहुसंख्यक वर्ग औपचारिक शिक्षा केन्द्रों में नहीं समा सकता और न ही यह वर्ग अपनी Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड व्यस्त दैनिक जीवनचर्या के कारण स्थान-समय सम्बन्धी सीमाओं में बँधने को तैयार है । कदाचित हम अपने प्रयासों से इन्हें औपचारिक शिक्षा की मुख्य धारा में लाने का प्रयत्न भी करें तो भी धनाभाव के कारण हम उनके लिए समुचित व्यवस्था नहीं कर सकेंगे । फलतः हमें किसी नवीन विधा का प्रयोग आवश्यक होगा। अनौपचारिक शिक्षा इसी आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है। विकासमान भारत के नागरिकों को आर्थिक एवं सामाजिक जीवन में हो रहे तीव्रतम परिवर्तनों से जूझने के लिए तैयार करना इस शिक्षा का महत्त्वपूर्ण कार्य होगा। स्वैच्छिक प्रयास क्रियाशील साक्षरता को अपना प्रमुख लक्ष्य मानकर कतिपय स्वैच्छिक संस्थाएँ भी प्रौढ़ शिक्षा एवं अनौपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रवृत्त हुई, जिनमें कर्नाटक प्रौढ़ शिक्षा समिति, बम्बई महानगर समाज शिक्षा समिति, बगोल समाज सेवा संघ तथा राजस्थान की प्रौढ़ शिक्षा समिति , अजमेर, लोक शिक्षण संस्थान, जयपुर, प्रौढ़ शिक्षा समिति, बीकानेर, सेवा मन्दिर, उदयपुर, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर तथा प्रौढ़ शिक्षा समिति आदि मुख्य हैं। इन संस्थाओं ने कृषकों के लिए अल्पकालीन प्रशिक्षण, श्रमिकों के लिए कल्याण कार्यक्रम , कार्यरत बालकों के लिये अनौपचारिक शिक्षा, महिलाओं के लिये घरेलू उद्योग एवं अनौपचारिक शिक्षा के अन्यान्य कार्यक्रम आरम्भ किये हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति एवं अनौपचारिक शिक्षा अनौपचारिक शिक्षा को औपचारिक शिक्षा का विकल्प नहीं माना जा सकता, दोनों एक दूसरे की पूरक हैं। उनमें मुख्य रूप से जो अन्तर है वह है उनके स्वरूप, संगठन और दृष्टिकोण में अन्तर । अनौपचारिक शिक्षा का विशेष लक्षण यह है कि इसका स्वरूप और व्यवस्था शिक्षाथियों की आवश्यकताओं तथा सुविधाओं के अनुरूप ही होती है, फलतः इसमें स्वरूप या संगठन की एकरूपता, कठोरता और नियमबद्धता पर आग्रह नहीं होता। स्पष्ट है कि इससे अनौपचारिक शिक्षा में स्थान और परिस्थितियों के अनुसार विविधता आना स्वाभाविक है। एकरूपता और रूढ़ नियमबद्धता से मुक्त होने के कारण यह लचीलापन लिये हुए स्वायत्तशासी व्यवस्था है। १९६६ में पर्याप्त विचार विमर्श के पश्चात् अंशकालीन शिक्षा एवं पत्राचार पाठ्यक्रम की कोठारी कमीशन की राय स्वीकृत की गई। तदुपरान्त नवम्बर, ७४ में विद्यालयेतर वालकों के लिये प्रस्ताव पारित किया गया और अनौपचारिक शिक्षा को स्वीकृति प्रदान की गई। प्रान्तीय सरकारों ने केन्द्रीय प्रशासन के अनुरोध पर कतिपय जिलों का चयन करके वहाँ पर प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम आरम्भ किया। राजस्थान में यह कार्यक्रम ६ जिलों में आरम्भ किया गया तथा प्रत्येक जिले में १०० केन्द्र प्रारम्भ करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। नवीन राष्ट्रीय नीति के अनुसार अनौपचारिक शिक्षा को प्रयोगात्मक मानने के बजाय शिक्षा का अन्तरंग हिस्सा माना गया है । इसके लिए ३ योजनाओं को पुष्ट माना गया है (अ) १५ वर्ष से कम वय-वर्ग के बालकों की शिक्षा में सहायक होगी (शिक्षा में सार्वजनीनता के प्रयत्नों में सहायक) (ब) १५ से २५ वर्ष के नवयुवकों (ग्रामीण व शहरी ) को राष्ट्रीय कार्य-क्रम में सक्रिय भागीदार बनाने का साधन होगी। (स) कृषि प्रशिक्षण एवं क्रियाशील साक्षरता में सहयोग । अनौपचारिक शिक्षा की प्रासंगिकता यद्यपि कृषियोग्य भूमि की उपलब्धि चरम पर पहुँच गयी है तथापि प्रति हेक्टर भूमि पर आश्रित लोगों की संख्या बढ़ गई है। अत: विकास के साधनों के संरक्षण एवं संवृद्धि पर भी ध्यान दिया जाना अपेक्षित है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने हेतु शिक्षा के सुबद्ध कार्यक्रम आयोजित किये जाना उपयोगी सिद्ध हो सकता Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनौपचारिक शिक्षा संकल्पना एवं स्वरूप : २६ है । खादी ग्रामोद्योग एवं दुग्ध उत्पादन जैसी योजनाओं द्वारा किसानों को प्रासंगिक अंशकालीन रोजगार का अवसर प्राप्त हो सकता है तथा भूमि पर पड़ने वाला जनसंख्या का दबाब कम हो सकता है । देश के सर्वागीण विकास हेतु यदि अनौपचारिक शिक्षा को सुसंगठित करके प्रारम्भ किया जाय तो यह निर्धनता तथा बेरोजगारी का निदान प्रस्तुत कर सकने में समर्थ हो सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषियोग्य भूमि का पुनर्वितरण, कृषकों की कृषि की नवीन विधाओं से परिचित कराने हेतु प्रशिक्षण, कृषि साधनों की सुरक्षा एवं विकास, पशुपालन एवं ग्रामोद्योग के माध्यम से कृषकों के लिए व्यावसायिक विविधता उत्पन्न की जा सकती है। अनौपचारिक शिक्षा में पर्याप्त लचीलापन होगा जिससे कि वह निर्दिष्ट जंगल वा समूह की आवश्यकताओं के प्रसंग से अपने कार्यक्रम को अनुकूलित करती रहेगी । ** संकल्पना एवं प्राथमिकताए लिए विद्यालय नहीं थे; मगर सर्वमान्य नहीं था । जलवायु, मानव विकास के क्रम में, प्राचीनकाल में हीं यद्यपि सीखने-सिखाने के सीखने का मौखिक पाठ्यक्रम अवश्य था जो किसी क्षेत्रविशेष या जातिविशेष के लिये कार्य की प्रकृति, पर्यावरण तथा सामाजिक आवश्यकताओं के आधार पर इसका निर्धारण होता था। आज भी मानव को जीवन संघर्ष के लिए तैयार करने वाली शिक्षा विद्यालय व्यवस्था के बाहर ही होती है । वगैर किसी संगठित प्रयास या व्यवस्था के अभिवृत्तियों के निर्माण, कुजलताएँ प्राप्त करने एवं जानकारी बढ़ाने की प्रक्रिया को हम सहज शिक्षा (इनफारमल एज्यूकेशन) कहते हैं। इसमें परिवार एवं समाज के बुजुर्गों के सर्वत प्रयास भी शामिल होते हैं। ताकि शिक्षार्थी पर्यावरण के साथ समंजन करते हुए विकसित हो सकें। फिलिप कुम्बस और मंजूर अहमद ने अनौपचारिक शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा है कि अनौपचा रिक शिक्षा परम्परित औपचारिक शिक्षा के ढांचे से बाहर स्वतन्त्र अथवा व्यापक कार्यक्रम के विशिष्ट अंग के रूप में, परिचालित एक व्यवस्थाबद्ध सुसंगठित शिक्षा कार्यक्रम है जिसे किन्हीं निर्दिष्ट शिक्षादियों के लिए निर्दिष्ट शैक्षिक प्रयोजनों से चलाया जाता है । अनौपचारिक शिक्षा एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था है जिसके स्वरूप का निश्चय शिक्षार्थी की आवश्यकताओं एवं सुविधाओं के अनुरूप किया जाता है, जो किसी कारणवश शिक्षा से वंचित या कामधन्धे में लगे लोगों के लिए भी शिक्षा के अवसर जुटाने का प्रयत्न करती है, जो ऐसा व्यावहारिक आधार प्रस्तुत करती है कि शिक्षा जीवन का सहज अंग बन जाए और समाज को सतत शिक्षा की ओर अग्रसर बना सके। किसी भी शिक्षा कार्यक्रम को अनौपचारिक कहलाने के लिए उसमें निम्न शर्तें होना परमावश्यक है (१) औपचारिक व्यवस्था से परे हो, जिसमें विद्यालय और कक्षा शिक्षण क्रमबद्ध और श्रेणीबद्ध व्यवस्था के बन्धन न हों । (२) सचेत भाव से विचारपूर्वक संगठित हो । (३) समान समूह के लिए आयोजित की गई हो । (४) समूह की आवश्यकताओं और व्यक्तिगत जरूरतों के अनुसार कार्यकम बनाया जाना चाहिए । ऐसे बालकों या व्यक्तियों के लिए जो किन्हीं कारणों से औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके हैं या नहीं कर सकते, अनौपचारिक शिक्षा एक विकल्प का काम करती है । यदि वे अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त करके फिर से औपचारिक शिक्षा में प्रवेश ले लें तो यह शिक्षा उनके लिए विकल्प के स्थान पर पूरक का ही कार्य करेगी। वर्तमान में जिस रूप में यह नई व्यवस्था आरम्भ की गई है, उस रूप में यह उन बालक-बालिकाओं की सहायता के लिए है जो कि आर्थिक या अन्य किसी कारण से पूर्णकालिक औपचारिक शिक्षा में प्रवेश नहीं कर सके हैं अथवा प्रवेश करके वापस छोड़ चुके हैं। इस प्रकार के शिक्षा केन्द्रों में अध्ययन करने वाले छात्रों की आयु वर्ग ८ से १४ का होगा । भारत में निर्धनता और निरक्षरता की समस्या बड़ी विकट है। इनके निराकरण को ध्यान में रखते हुए विकास अभियान में अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रमों को निम्न क्रम से प्राथमिकता देना निश्चित हुआ है . Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड .oromararerana.ormanorane...................................... .. .. (अ) ८ से १४ आयु वर्ग के कार्यरत अथवा विद्यालय से पढ़ाई छोड़ देने वाले बालकों की शिक्षा की व्यवस्था । इस वर्ग के (६० प्रतिशत अशिक्षित) शिक्षाथियों में सीखने की रुचि सक्रिय रहती है और एक हल्के से प्रयास द्वारा इन्हें निरक्षरों की श्रेणी में सम्मिलित होने से रोका जा सकता है। इस वर्ग के छात्रों को हिन्दी, गणित, वातावरण का ज्ञान एवं व्यवसाय सम्बन्धी विषयों का ज्ञान कराया जायगा जिससे वे अनौपचारिक शिक्षा पूर्ण करके औपचारिक शिक्षा में प्रवेश लेने में समर्थ हो सकें। इस कार्यक्रम में आवश्यकतानुसार टैस्ट या परीक्षा का प्रावधान भी रहना चाहिए जिससे अवसर मिलने पर शिक्षार्थी औपचारिक शिक्षा धारा में पुन: प्रविष्ट हो सकें। (ब) १५-२५ आयु वर्ग के किशोर गृहस्थी बसाने लगते हैं और व्यावसायिक तथा पारिवारिक कार्यों का उत्तरदायित्व निभाने लगते हैं। इस वर्ग के शिक्षार्थियों को रचनात्मक प्रयोजनों की ओर अग्रसर किया जा सकता है। इस वर्ग में ५२ प्रतिशत लोग निरक्षर हैं। सामाजिक-आर्थिक विकास कार्यक्रमों के सुसम्पादन के लिए यह वर्ग निर्णायक महत्त्व का है। (स) कृषकों तथा श्रमजीवियों के लिए शिक्षा कार्यक्रमों को पुनर्स गठित करना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि इन्हीं के ऊपर देश की प्रगति का भार है। (द) श्रमिकोत्तर गृहणियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की जायगी। राष्ट्रीय अनुशासन के जीवन दर्शन के लिए अनौपचारिक शिक्षा का केन्द्रीय महत्व है। हमारे सामाजिकआर्थिक जीवन के अनेक पहलुओं में राष्ट्रीय अनुशासन की नितान्त आवश्यकता है। हमें ऐसे अनुशासन की आवश्यकता है जो हमारी समाजिक-आर्थिक चेतना से उपजे। हमें एक समुचित मूल्य व्यवस्था भी विकसित करनी है। ऐसी मूल्य व्यवस्था जिसमें बुनियादी स्वतन्त्रताओं के साथ-साथ कर्तव्य भावना की जागरूकता हो, बन्धुत्व हो, मानवीयता सद्व्यवहार और आर्थिक व सामाजिक समानता हो । अनौपचारिक शिक्षा लक्ष्य अनौपचारिक शिक्षा अपने शिक्षार्थी के सर्वांगीण विकास का दावा कभी नहीं करती बल्कि वह उनके लिए शिक्षा के अवसर सुलभ कराने की संभावित चेष्टा करती है। अनौपचारिक शिक्षा भारत जैसे विकासशील देश में विकास की प्रक्रियाओं से जुड़ी हुई होती है । फिलिप कुम्बस के शब्दों में 'उचित स्थानों पर समुचित तरीके से क्रियान्वित और अनुपूरक प्रयत्नों से सम्बन्धित अनौपचारिक कार्यक्रम ग्रामीण निर्धनता के निवारण के लिए शक्तिशाली साधन हो सकते हैं।' इसके मुख्य लक्ष्य निम्न हो सकते हैं(१) सक्रिय साक्षरता। (२) नागरिकों में ग्रामोद्योग के प्रति रुचि उत्पन्न करना ताकि वे अपने अतिरिक्त समय का समुचित प्रयोग कर सकें। (३) कृषि के उन्नत तरीकों एवं साधनों के संरक्षण से नागरिकों को परिचित कराना। (४) आदर्श नागरिक के गुणों का विकास करना । (५) सामाजिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए समर्थ बनाना। (६) श्रमिकोत्तर महिलाओं के लिए शिक्षा (प्रसूति, शिशुपालन, परिवार नियोजन आदि)। अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रमों से सर्वसामान्य मनुष्य लाभान्वित हो सकते हैं, अत: उन्हें (शिक्षार्थी को) आयोजित कार्यक्रम के साथ समूहित करना पड़ता है या समूहों के अनुसार कार्यक्रम आयोजित करने पड़ते हैं। इसमें प्रवेश हेतु आयु वर्ग तथा औपचारिक शिक्षा में आवश्यक नियमों का कोई बन्धन नहीं होगा। ० ० . Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनौपचारिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप ३१ . विषय वस्तु अनौपचारिक कार्यक्रमों को अपने निर्दिष्ट समूहों के लिए उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के विचार से विषयवस्तु का चयन एवं निश्चय करना पड़ता है। कुछ विषय-वस्तु विभिन्न समूहों के लिए समान रूप से भी आयोजित की जा सकती है, यथा--अक्षरज्ञान या साक्षरता, संख्याज्ञान, सार्वजनिक स्वास्थ्य, प्रसूति चर्या और शिशु पोषण तथा परिवार नियोजन आदि । किन्तु इस प्रकार के समूहों के लिए जो विषय-वस्तु चुनी जायगी उसमें उनके व्यावसायिक कार्य और आर्थिक पक्ष की जरूरतों के लायक सामग्री पर अवश्य बल दिया जायेगा। इस दृष्टि से एक वर्ग के लिए समुन्नत बीज कार्यक्रम, दूसरे वर्ग के लिए सघन कृषि तकनीकी, तीसरे, चौथे, पांचवें तथा छठे वर्गों के लिए क्रमश: दुग्ध उत्पादन, भेड़पालन, मछलीपालन, मधुमक्खीपालन आदि सहायक व्यवसायों की जानकारी भी दी जा सकती है। इनके साथ ही कतिपय विशेष कार्यक्रमों की भी आवश्यकता रहेगी जिनके द्वारा वे प्रभुतासम्पन्न जातियों की उग्रता का सामना करने का साहस उत्पन्न कर सकें और अपने विकास में आने वाली कठिनाइयों को दूर कर सकें। तात्पर्य यह है कि जिन लोगों पर अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम की विषयवस्तु चुनने का उत्तरदायित्व होगा उन्हें स्वयं को शिक्षार्थी समुदाय में व्याप्त समस्याओं की समाजशास्त्रीय एवं वैचारिक अन्तर्दशाओं के अवबोध में पारंगत होना होगा और विभिन्न विकास अभिकरणों से समन्वय तथा सहयोग भी करना होगा। केन्द्र-व्यवस्था एवं समय ___ इस शिक्षा कार्यक्रम के आयोजक किसी स्थान विशेष के प्रति दुराग्रह से पीड़ित नहीं होते हैं । वे चाहें तो विद्यालय भवन का उपयोग अपने कार्यक्रम के आयोजन के लिए कर सकते हैं किन्तु यह किसी भी दशा में अनिवार्य नहीं है। अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रमों का आयोजन अधिकतर तो कार्य-स्थानों पर ही होगा और कार्यगत कुशलताओं के निर्देशन के विचार से वैसा होना भी चाहिए। किन्हीं विशिष्ट परिस्थितियों में शिक्षार्थी का घर भी सीखने का स्थान हो सकता है या कोई ऐसी जगह भी हो सकती है, जिसे शिक्षाथियों का समुदाय निश्चित करे, जैसेमन्दिर, मस्जिद, पंचायतघर, गांव का चोरा(चौपाल), खेत या किसी वृक्ष विशेष की छाया। अपने खुलेपन की विशिष्टता के कारण अनौपचारिक शिक्षा की परिस्थितियाँ भी उतनी ही मुक्त और निर्बन्ध होंगी जैसा कि उसका कार्यक्रम होगा। ___साथ ही इसमें शिक्षार्थी की सुविधा के अनुसार विभिन्न प्रकार के शिक्षा कार्यक्रम अंशकालिक या पढ़ने वाले की सुविधानुसार चलते हैं । इस अंशकालिक या अपनी सुविधा के दायरे में भी अनेक भिन्नताएं हो सकती हैं, जैसे कुछ कार्यक्रम दिन में थोड़े समय के लिए चल सकते हैं किन्तु शिक्षार्थी कोई चाहे तो आधे घण्टे के लिए और कोई घण्टे-दो घण्टे के लिए आ सकता है । अन्य स्थितियों में शिक्षण अवकाश में कृषकों के लिए उनकी फुरसत के समय पूर्णकालिक पाठ्यक्रम भी चलाया जा सकता है। अनौपचारिक शिक्षा में पद्धति, साधन और माध्यम विद्यार्थी समुह की शैक्षणिक आवश्यकताओं और उनकी तत्सम्बन्धी पृष्ठभूमि के आधार पर नियोजित होंगे । उनमें कक्षा शिक्षण हो सकता है तो खेत या कार्यस्थल पर प्रत्यक्ष निदर्शन भी हो सकता है । पत्राचार के माध्यम से कार्य हो सकता है तो निर्देशित स्वाध्याय की स्थिति भी बन सकती है । साक्षरता कार्यक्रम के लिए आयोजकों को भाषा के माध्यम सम्बन्धी निर्णय भी करना होगा। साधन-सामग्री की आवश्यकता को भी झुठलाया नहीं जा सकता। साधन-सामग्री के उत्पादन में जो कठिनाइयाँ उपस्थित हैं उनका अधिक समाधान तो रेडियो, चलचित्र जैसे जन संचार के साधनों से ही हो सकता है किन्तु अन्ततोगत्वा अनौपचारिक शिक्षा में उसकी अपनी साधन-सामग्री की नितान्त महत्ता को अत्युक्ति कहकर नहीं टाला जा सकता। अनुदेशक इसके पाठ्यक्रम और पद्धति की अपेक्षाओं से यह ध्वनित होता है कि व्यावसायिक अध्यापक सामान्यतः शिक्षार्थियों की विभिन्न और विविधतापूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकेंगे। इन कार्यक्रमों को वास्तविक अर्थों में व्यावहारिक बनाने के लिए विभिन्न विकास अभिकरणों के कार्यकर्ताओं का सहयोग भी प्राप्त करना होगा और यह - 0 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड भी लाभकारी होगा कि शिक्षार्थी समुदाय के शिक्षित नवयुवाओं को अंशकालिक अनुदेशक के रूप में काम देने की संभावनाओं की खोज की जाय । इस प्रकार की व्यवस्था की जाय कि विकास अभिकरणों के कार्यकर्ताओं का उपयोग करना, शिक्षार्थी समूहों में से अनुदेशक चुनना सम्बद्ध जनों में परस्पर ऊँचे दर्जे के समन्वय की अपेक्षा रखती है तथा नियम और कार्य प्रणाली में भी पर्याप्त लचीलेपन की माँग करती है । इसके उपरान्त अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रमों में संलग्न व्यावसायिक अध्यापकों तथा अन्य कर्मचारियों—अनुदेशकों के लिए प्रशिक्षण तथा अभिनवन की भी आवश्यकता होगी। कुछ समय के लिए व्यावसायिक शिक्षक का उपयोग हो सकता है किन्तु सफलता खतरे में पड़ सकती है। इसमें व्यक्तिश: जांच की प्रणाली विकसित की जायगी। प्रत्येक शिक्षार्थी को अपनी गति से सीखने और आगे बढ़ने का अवसर दिया जायगा । अनौपचारिक शिक्षा में शिक्षार्थियों को प्रेरित करने में स्तर सीखने की क्षमता को भी दृष्टिगत रखना होगा । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि इसमें औपचारिक शिक्षा के समान परीक्षा आयोजित नहीं होगी। वस्तुतः इसमें किसी विशेष पद्धति पर कोई विशेष जोर नहीं दिया जायगा । मूल्यांकन का मुख्य तरीका प्रेक्षण (Observation) एवं मौखिक परीक्षा के रूप में होगा जिसमें बालक, अध्यापक एवं परिवीक्षक अपना स्व-मूल्यांकन कर सकेंगे। - अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रम भारत में अपेक्षाकृत नया है। इसके गर्भ में अनेक संभावनाएँ छिपी हुई हैं। लगन तथा सूझ-बूझ से नये क्षेत्रों में इसके साथ प्रयोग किये जाने चाहिए। इसका आयोजन एवं नियोजन एक जटिल एवं गुरुतर दायित्व का कार्य है । अतः यह आवश्यक है कि जो लोग अनौपचारिक शिक्षा में कार्य करें वे इसके विभिन्न कार्यक्रमों पर गौर करें तथा उन्हें देश को आवश्यकताओं से जोड़ने का प्रयास करें, तभी इसकी सफलता की कामना की जा सकती है। xxxxxxx xxxxxxx X X X X X xxxxx सुवचन सीसं जहा सरीरस्स जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस्स साहु धम्मस्स तहा झाणं विधीयते । -इसिभासियाई २२।१३ जैसे शरीर में मस्तक, तथा वृक्ष के लिए उसका मूल--जड़ महत्त्वपूर्ण है, वैसे ही आत्म-दर्शन के लिए ध्यान महत्त्वपूर्ण है। xxxxx X X X X X xxxxxxx xxxxxxx Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यमिक शिक्षा और सरकारी दृष्टि ____7 श्रीमती सुषमा अरोड़ा (शोध सहायक, साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर) बुद्धि एक ऐसा तत्त्व है जिसके कारण मनुष्य को अन्य सब प्राणियों से श्रेष्ठतम समझा जाता है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ अन्तनिहित क्षमताएँ होती हैं, आवश्यकता है उन अन्तनिहित क्षमताओं को जागृत कर व्यक्ति को उनसे परिचित कराने की, ताकि वह उन क्षमताओं का उचित उपयोग कर प्रगति की ओर अग्रसर हो सके। राष्ट्र शब्द हमें किसी देश-विशेष की भौगोलिक स्थिति, पर्वत, नदियाँ, मैदान अथवा उसके मानचित्र और भूखण्ड-विशेष का ही अवबोध नहीं कराता, वरन् राष्ट्र शब्द वास्तव में किसी देश-विशेष के निवासियों (नागरिकों) एवं उनकी चेतना का अवबोधक है। किसी देश-विशेष की संस्कृति, सभ्यता, रहन-सहन, खानपान आदि वहाँ के नागरिकों के जीवन से आवश्यक रूप से जुड़े रहते हैं। प्रत्येक राष्ट्र की बुनियाद वहाँ के नागरिकों के चरित्र पर निर्भर करती है, क्योंकि व्यक्ति-चरित्र से समूह-चरित्र व राष्ट्र-चरित्र का निर्माण होता है। व्यक्ति-चरित्र के अभाव में राष्ट्र की प्रगति की कामना करना भी दुष्कर है। व्यक्ति-चरित्र के निर्माण का कार्य शिक्षा द्वारा किया जाता है। राजस्थान के राज्यपाल रघकुलतिलक के शब्दों में "लोकतन्त्र किसी भी देश में तभी टिक सकता है, जब वहाँ के नागरिक उसका अर्थ समझते हों।" और अर्थ समझाने का यह कार्य शिक्षा द्वारा ही संभव है। उनका विचार है कि-"हममें बुद्धि, शक्ति या साधनों की कमी नहीं हैं, शिक्षा व प्रशिक्षण की कमी है।"१ सन्त सुकरात के मतानुसार शिक्षा का तात्पर्य संसार के सर्वमान्य विचारों को, जो प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में स्वभावत: निहित होते हैं, प्रकाश में लाना है। एडीसन का कथन है कि जब शिक्षा मानव-मतिष्क पर कार्य करती है तो वह उसके सद्गुणों और पूर्णता को बाहर लाकर व्यक्त कर देती है । फोयबेल का विचार है कि शिक्षा एक प्रक्रिया है जो कि बालकों की अन्त:शक्तियों को बाहर प्रकट करती है। महात्मा गांधी कहते हैं कि शिक्षा से अभिप्राय बालक एवं मनुष्य के शरीर, मन और आत्मा में निहित सर्वोत्तम शक्तियों के प्रकटीकरण से है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की मान्यता है कि शिक्षा का अर्थ मस्तिष्क को इस योग्य बनाना है कि वह सत्य की खोज कर सके और उस तथ्य को अपना बनाते हुए उसको व्यक्त कर सके । प्रो० होर्नी की धारणा है कि शिक्षा शारीरिक एवं मानसिक रूप से विकसित सचेतन मानव के अपने बौद्धिक, उद्घ गात्मक और इच्छात्मक वातावरण से सर्वथा अनुकूलन है। बेसिंग का मत है कि शिक्षा का कार्य व्यक्ति को वातावरण में इस सीमा तक व्यवस्थापित करना है, जिससे व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिए महान् सन्तोषजक लाभ प्राप्त हो सके । प्रो० जेम्स के कथनानुसार शिक्षा कार्य-सम्बन्धित अजित आदतों का संगठन है जो व्यक्ति को उसके सामाजिक एवं भौतिक वातावरण के योग्य बनाती है। इसी प्रकार बटलर की धारणा है कि शिक्षा १. शिविरा--दिसम्बर, १९७७, पृ० २६८. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ ३४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड प्रजाति की आध्यात्मिक शक्ति के साथ व्यक्ति का क्रमिक सामंजस्य है। टी रेमण्ट का कहना है कि शिक्षा विकास का वह क्रम है जिसके द्वारा मनुष्य अपने को शैशवास्था से परिपक्वावस्था तक आवश्यकतानुसार भौतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना लेता है।' निष्कर्षतः शिक्षा मानव-व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास एवं सुदृढ़ चरित्र-निर्माण के साथ-साथ वातावरण के अनुकूल ढलने की क्षमता भी प्रदान करती है। शिक्षा मानव-जीवन का शुद्धिकरण है-संस्कार है। महावीर ने कहा- "पहम णाणं तओ दया" अर्थात् सर्वप्रथम ज्ञान और फिर क्रिया । ज्ञान या शिक्षा हमारे सही नेत्र हैं जिनके द्वारा हम अच्छे-बुरे का विवेक कर सकते हैं, जीवन का विकास कर सकते हैं। संसार के सभी उन्नत देशों की उन्नति का मूल उस देश के नागरिकों का शिक्षित होना है।' किसी राष्ट्र की उन्नति का मूल वहाँ की शिक्षित जनता है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण पहलू पर वहां की सरकार की उपयुक्त दृष्टि हो । स्वतन्त्रता से पूर्व अंग्रेजों द्वारा हमारे देश में जिस शिक्षा की व्यवस्था की गयी , उसका माध्यम अंग्रेजी भाषा थी और शिक्षा का लक्ष्य भारतीयों में से केवल क्लर्क पैदा करना था । उच्च पद अंग्रेजों के लिए सुरक्षित थे। उस समय सरकारी नौकरी भी केवल अंग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों को ही प्रदान की जाती थी। दुर्भाग्य से स्वतन्त्रता के पश्चात शिक्षा भारत में सदैव उपेक्षा की वस्तु बनी रही । हमारी शिक्षा-व्यवस्था आज भी उसी ब्रिटिश शिक्षा-व्यवस्था पर आधारित है । अनेक प्रयत्नों के बाद भी हमारी शिक्षा के मूल ढाँचे में परिवर्तन न किया जा सका । सन् १९५० में हमारे संविधान द्वारा यह घोषणा की गयी थी कि आने वाले बीस वर्षों में भारतवर्ष के ६ से १४ वर्ष के सभी बच्चों को निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा प्रदान कर दी जायगी, लेकिन आज तक भी हम उस लक्ष्य को पूरा नहीं कर पाये हैं और अब यह अवधि १५ वर्ष और बढ़ाकर सन् १९८५ तक कर दी गयी है। ६ से १४ तो क्या ६ से ११ वर्ष तक के सभी बालकों को हम स्कूलों में नहीं ला पाये, तथापि कुछ राज्यों जैसे मद्रास व केरल में वर्तमान समय में अनिवार्य रूप से निःशुल्क माध्यमिक शिक्षा प्रदान की जा रही है एवं वहाँ का साक्षरता प्रतिशत भी अन्य राज्यों की अपेक्षा अधिक है। शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय को नीति-निर्देशक तत्त्वों में रखा गया जिसे पूर्ण करना सरकार का केवल नैतिक दायित्व होगा। इस लक्ष्य को पूरा न कर पाने का कारण यह है कि आज भी बहुत से गाँव ऐसे हैं जहाँ विद्यालय न होने के कारण वहाँ के बच्चे शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते । बहुत से विद्यालय ऐसे हैं जहाँ केवल एक ही अध्यापक है और वही समस्त प्राथमिक कक्षाओं में अध्यापन कार्य करता है। जहाँ विद्यालय हैं भी, उनमें भी बहुत से स्थान दुर्गम होने के कारण वहाँ किसी प्रकार का निरीक्षण नहीं हो पाता । प्राथमिक विद्यालयों में विद्यमान भय व आतंक के कारण प्राथमिक शिक्षा में अपव्यय व अवरोधन की समस्या भी हमारे सम्मुख मुंह बाये खड़ी है । अधिक से अधिक छात्रों को विद्यालय में आने हेतु प्रेरित करने के लिए हमें न केवल नि:शुल्क शिक्षा की ही व्यवस्था करनी होगी वरन् अधिक निर्धन गाँव के छात्रों के लिए पाठ्य-पुस्तकों एवं विद्यालयी वेश-भूषा की सुविधा भी प्रदान करनी होगी। विद्यालयों में बहुत से ऐसे बालक भी आते हैं, जिन्हें पूरा भोजन भी उपलब्ध नहीं होता और भूख के कारण वे ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाते । कुछ छात्र विद्यालयों में विद्यनान आतंक के भय से बीच में ही स्कूल छोड़ देते है। अत: अपव्यय व अवरोधन की समस्या के समाधान के लिए आवश्यक है कि समुचित निरीक्षण के द्वारा वहाँ के आतंकपूर्ण वातावरण को समाप्त किया जाय, साथ ही विद्यालयों में छात्रों के लिए अल्पाहार की व्यवस्था भी आवश्यक है। यद्यपि सरकार द्वारा प्राथमिक स्कूलों में विद्यार्थियों के लिए अल्पाहार की व्यवस्था की गयी है, लेकिन वह सब उन तक पहुंच ही नहीं पाता है। - ० १. शिक्षा के तात्त्विक सिद्धान्त : शिक्षा की परिभाषा-रामबाबू गुप्त, पृ०६-१३. २. पं० उदय र अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४८. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यमिक शिक्षा और सरकारी दृष्टि ३५ भारत ग्रामों का देश है. अतः आवश्यकता है प्राथमिक शिक्षा के ग्रामीण वातावरण के अनुकूल होने की। लेकिन मात्र पुस्तकीय ज्ञान प्रदान करने वाली प्राथमिक शिक्षा ग्रामीण बालकों को उनके कृषि सम्बन्धी कार्यों के लिए व्यावहारिक ज्ञान प्रदान नहीं करती। छुट्टियों की व्यवस्था भी ऐसी है कि वे खेती में कोई सहयोग नहीं कर पाते । गाँवों के अधिकांश बच्चे अपने माता-पिता के साथ खेतों पर कार्य करते हैं और इसी लालच से उन बच्चों को स्कूल नहीं भेजा जाता। यदि सत्रीय व्यवस्था इस प्रकार हो कि उन्हें छुट्टियाँ उसी समय में हों, जबकि खेतों में उनके सहयोग की आवश्यकता है तो अपेक्षाकृत अधिक बालकों को स्कूल तक लाने में सुविधा रहेगी। सन् १९७६ तक प्राथमिक शिक्षा पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में रहने के कारण भी उपेक्षित बनी रही।। __ जहाँ तक माध्यमिक शिक्षा का प्रश्न है वहाँ भी हमारी शिक्षा-व्यवस्था का ढाँचा सम्पूर्ण देश में कभी भी एक समान नहीं रहा, जिसके कारण छात्रों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। सरकारी नौकरियों में आये दिन स्थानान्तरण होते रहते हैं और स्थानान्तरण के कारण यदि कोई छात्र अपने माता-पिता के साथ एक राज्य से दूसरे राज्य में चला जाता है, तो कई बार उसका पूरा एक सत्र व्यर्थ ही चला जाता है। संविधान में सरकार के कार्यों का विभाजन तीन सूचियों में किया गया है। केन्द्रीय सरकार द्वारा किए जाने वाले कार्य केन्द्रीय सूची में, राज्य सूची में राज्यों द्वारा किये जाने वाले कार्यों का विवरण है तथा समवर्ती सूची में वे विषय रखे गये हैं, जिन्हें केन्द्र और राज्य सरकार मिलकर करते हैं। इन विषयों पर केन्द्र सरकार राज्य सरकारों को सलाह तो दे सकती है लेकिन उसे मानना न मानना राज्य सरकारों की इच्छा पर निर्भर करता है। केन्द्र शासित प्रदेशों को छोड़कर अन्य सभी राज्यों के शिक्षा सम्बन्धी कार्य सन् १९७६ तक राज्य सूची के अन्तर्गत थे । इसलिए केन्द्र सरकार सदैव शिक्षा के प्रति उदासीन दृष्टिकोण अपनाती रही। शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए समय-समय पर केन्द्र सरकार द्वारा अनेक आयोग स्थापित किए गए और उन आयोगों ने अध्ययन के पश्चात् अनेक सुझाव भी दिए, लेकिन शिक्षा राज्यों का विषय होने के कारण केन्द्र सरकार उन सुझावों को लागू करने के लिए राज्यों को बाध्य नहीं कर सकी। __सन् १९५२ में डा० ए० लक्ष्मणस्वामी मुदालियर की अध्यक्षता में मुदालियर आयोग का गठन शिक्षा में सुधार हेतु आवश्यक सुझाव देने के लिए किया गया । अपने अध्ययन के पश्चात् इस आयोग ने सन् १९५३ में एक रिपोर्ट पेश की और हाई स्कूल के स्थान पर उच्चतर माध्यमिक स्कूलों की स्थापना का सुझाव दिया तथा ८+३ +३ की शिक्षा-पद्धति का परामर्श दिया, लेकिन इस आयोग के सुझावों को भी सभी राज्यों ने स्वीकार नहीं किया। आज भी कई राज्यों में वही प्राचीन इण्टर पद्धति प्रचलित है। आयोग ने बहु उद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों की स्थापना का भी सुझाव दिया तथा ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि को शिक्षा के साथ जोड़ने की बात कही। लेकिन इस आयोग के सुझावों को जहाँ लागू किया गया वहाँ भी माध्यमिक शिक्षा में कोई सुधार नहीं हो पाया। सन् १९६४ में डा० डी० एस० कोठारी की अध्यक्षता में कोठारी कमीशन का गठन माध्यमिक शिक्षा में सुधार की दृष्टि से किया गया। इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सन् १९६६ में दी, जिसमें १०+२+३ की शिक्षा व्यवस्था का प्रावधान रखा गया। जिसमें कक्षा १० तक प्रत्येक छात्र सामान्य रूप से सभी विषयों का अध्ययन करेगा और + २ में उसे व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जायेगी। १०+२ अर्थात् हायर सैकण्डरी पास करने के बाद केवल योग्य छात्रों के ही विश्वविद्यालयी शिक्षा में प्रवेश का प्रावधान इस नीति में रखा गया । इस शिक्षा व्यवस्था का यह उद्देश्य रखा गया कि १०+२ तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद प्रत्येक छात्र स्वतन्त्र रूप से आजीविका कमाने के योग्य हो सके । लेकिन शिक्षा राज्य-सूची में होने के कारण इस आयोग के सुझावों का भी वही हाल हुआ जो पहले होता रहा, अर्थात् इसे केवल कुछ ही राज्यों द्वारा स्वीकार किया गया और जहाँ यह व्यवस्था लागू हुई वहाँ भी इसे सफलता प्राप्त नहीं हुई। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि स्वयं सरकार भी शिक्षा से सम्बन्धित नीति के बारे में एकमत नहीं है। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड जैसे ही सरकार बदलती है, शिक्षा सम्बन्धी नीति में परिवर्तन कर दिया जाता है। इस प्रकार कोई शिक्षा-नीति लागू भी नही हो पाती और उस पर व्यय किये गये लाखों रुपये बर्बाद हो जाते हैं। सन् १९७६ में शिक्षा को राज्य-सूची से हटाकर समवर्ती सूची में सम्मिलित किया गया, इस डांवाडोल नीति के कारण शिक्षा की स्थिति निरन्तर दयनीय होती जा रही है। माध्यमिक शिक्षा की एक विडम्बना यह है कि एक युवक १६ वर्ष की आयु में माध्यमिक शिक्षा पूर्ण कर लेता है, जबकि सरकारी नौकरी प्राप्त करने की न्यूनतम आयु १८ वर्ष रखी गयी है, ऐसी स्थिति में दो वर्ष तक वह छात्र क्या करे? विवश हो उसे विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना पड़ता है और जब उच्च शिक्षा प्राप्त करके लौटता है तो स्वयं को अत्यन्त असहाय व बेकारी की अवस्था में पाता है । अब भी वह उसी नौकरी को अत्यन्त कठिनाई से पाता है, जो उसे माध्यमिक शिक्षा के बाद मिल जानी चाहिए थी। हमारी शिक्षा की एक अन्य बड़ी कमी उसका पुस्तकीय होना है। हमारा सारा पाठ्यक्रम केवल पाठ्यपुस्तकों में सिमटा हुआ है। कीट्स ने अपनी एक कविता में यह विचार व्यक्त किये थे कि अपूर्ण पूर्ण से अच्छा है ताकि हम कुछ पाने का प्रयास करते रहें। लेकिन हमारी पाठ्य-पुस्तकों में उस सामग्री या अन्य स्रोतों का संकेत कहीं भी नहीं मिलता है जहाँ उसके विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त की जा सके। ऐसी स्थिति में छात्र पाठ्यपुस्तकों में सिमटे सीमित ज्ञान को पूर्ण मानकर एक भ्रमपूर्ण स्थिति में जीते हैं। हमारी शिक्षा के बारे में सदैव यह कहा जाता है कि यह केवल सैद्धान्तिक है, व्यवहारिक नहीं। एक शिक्षित व्यक्ति भी उन सिद्धान्तों को जिनका उसने अध्ययन किया है व्यवहार में परिणत नहीं कर पाता है, क्योंकि शिक्षा मन्त्रोच्चारण अथवा शुकपाठ की तरह बनी रही और डिग्रीधारी युवक उसे शुकपाठ की तरह ही गले उतारते गये। आज जब शिक्षा को व्यावहारिक रूप प्रदान करने की आवश्यकता हमें अनुभव हुई, उसके लिए अनेक योजनाएँ बनायी गयीं, लेकिन उन्हें लागू करने में अनेक सीमाएँ बाधक सिद्ध हुईं। पहली सीमा थी-संलग्न व्यक्तियों की प्रभाहीनता। सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप देने के लिए उन व्यक्तियों को पदासीन किया गया, जिनके पास मोटे चमकदार प्रमाण-पत्र तो थे, पर व्यावहारिक अनुभव नहीं थे। ये पदाधिकारी तोता-शैली में सिद्धान्त-पाठ तो कर सकते थे, पर किसी भी सिद्धान्त को आचरण की सही शक्ल नहीं दे सकते थे। दूसरी कमी रही--परिवेश से अपरिचय की । व्यावहारिक नीतियाँ इतनी कल्पनाशील रहीं कि कृषि-प्रधान प्रदेश में संगीत और सिलाई की शिक्षा के केन्द्र बनाती रहीं और औद्योगिक नगरों में कृषि सम्बन्धी ज्ञान का प्रचार करती रहीं। यही कारण है कि स्वातन्त्र्योपरान्त शिक्षा, जीवन से सम्बद्ध रहने की नाटकीयता प्रशित करते हुए भी हमेशा जीवन से असम्पृक्त रही । वह कागज पर योजनाओं के झण्डे बुलन्द करती रही और अपनी अन्तनिहित वास्तविकताओं में पराजित होती रही। एक तरफ वह आदर्शों के स्वप्नलोक निर्मित करती रही, दूसरी ओर यथार्थ की खुरदरी जमीन पर पिटती रही । परिणाम यह हुआ कि देश में बेकारी की सुरसा मुंह पसारती गई, प्रतिभा उचित स्थान न पाकर कुण्ठाग्रस्त होती गई और जन-जन में हताशा का माहौल उभरता गया।' शिक्षा-प्रशासन एवं शिक्षा से सम्बन्धित नीति-निर्धारण का कार्य सदैव ऐसे लोगों के हाथों में सौंपा गया, जिनका शिक्षा से कोई भी सीधा सम्बन्ध नहीं था। इसलिए शिक्षा सदैव गलत हाथों का खिलौना मात्र बनकर रह गई । आज भी हम उसी मूल शिक्षा-नीति पर चल रहे हैं, जो हमें ब्रिटिशों द्वारा प्रदान की गई थी। हम अपनी नीतियाँ विदेशों से उधार लेते रहे हैं, जो नीति विदेशों में असफल हो जाती है उन्हें ही हमारे यहाँ प्रयोग के तौर पर १. शिविरा--पत्रिका ; अक्टूबर, १९७७, पृ० १७५. Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यमिक शिक्षा और सरकारी दृष्टि ३७ . लागू किया जाता है । जबकि आवश्यकता है अपने देश की मूल अनिवार्यताओं को समझकर उनके आधार पर नये सिरे से शिक्षानीति के निर्माण की। हमारी शिक्षा-नीति में मूल्यांकन का तरीका भी बहुत गलत रखा गया है। वर्ष भर में होने वाली केवल लिखित वार्षिक परीक्षा को ही छात्र की योग्यता व अयोग्यता का आधार माना जाता है, चाहे उसमें छात्र किन्ही तरीकों को अपनाकर अंक प्राप्त कर लें। आन्तरिक मूल्यांकन की व्यवस्था होने पर भी अध्यापकों द्वारा मात्र औपचारिकता पूरी की जाती है, जबकि वास्तव में वर्ष भर के निरीक्षण के आधार पर ही आन्तरिक मूल्यांकन का कार्य पूरा किया जाना चाहिए । मौखिक परीक्षाएँ भी मूल्यांकन का उत्तम तरीका हैं, अत: उन्हें भी परीक्षा में सम्मिलित किया जाना चाहिए। हमारी शिक्षा का कोई राष्ट्रीय स्वरूप नहीं है। उच्चतर माध्यमिक स्तर की शिक्षा से सम्बन्धित प्रत्येक राज्य की अपनो योजनाएँ हैं, अपने पाठ्यक्रम हैं । इन योजनाओं और पाठ्यक्रमों में कोई तालमेल भी नहीं है। इस अनिश्चितता और भिन्नता के कारण इस स्तर की शिक्षा की उपेक्षा और दुर्दशा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। जबकि होना यह चाहिए था कि राष्ट्रीय जीवन में इसके महत्त्व को समझते हुए, प्रत्येक नागरिक के लिए इस स्तर की अनिवार्य शिक्षा के लक्ष्य को दृष्टिगत रखते हुए इसमें एकरूपता, निश्चितता और राष्ट्र निर्माण की अपेक्षाओं को ध्यान में रखते हुए इसकी राष्ट्रीय स्तर पर व्यवस्था की जानी चाहिए थी।' ___ हमारी शिक्षा छात्रों में चरित्र-निर्माण का कार्य नहीं कर पा रही है-शिक्षा पर यह आरोप आये दिन सुनने में आता है । इसका सबसे बड़ा कारण अध्यापकों के बीच विद्यमान वेतनमान का अन्तर है। एक प्राथमिक कक्षा के अध्यापक को जो छात्रों को साँचे की तरह ढालता है, इतना कम वेतन मिलता है कि वह निरन्तर अभावों से टूटता जा रहा है और अपना ध्यान छात्रों की ओर नहीं लगा पाता, दूसरी ओर उच्च शिक्षा के एक प्राध्यापक को जो दिन में केवल दो-तीन घण्टे ही अध्यापन कार्य करता है, इतना अधिक वेतन दिया जाता है कि वह उस धन का दुरुपयोग करते हुए व्यसनों का शिकार हो जाता है। ऐसी स्थिति में दोनों ही स्थानों पर छात्रों का चरित्र अधर में रह जाता है, जो कि शिक्षा का प्रमुख कार्य है। छात्रों के चरित्र-निर्माण में एक बाधक स्थिति राजनीति का शिक्षा में प्रवेश होना भी है, जिसमें स्वयं सरकार का हाथ रहता है। शिक्षकों से अध्यापन कार्य के अतिरिक्त चुनाव के दिनों में मतदाता सूची बनाने, एवं मतदान केन्द्र के निरीक्षण, मतगणना आदि का कार्य भी लिया जाता है । जिससे शिक्षा राजनीति का अड्डा बन जाती है। शिक्षा विभाग द्वारा किए गए अध्यापकों के अधिकांश स्थानान्तरण भी राजनीति से प्रेरित होते हैं, जिससे छात्र एवं शिक्षक दोनों ही राजनीति की चक्की में पिसते रहते हैं। शिक्षा के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक है कि शिक्षा जैसे पवित्र कार्य को राजनीति से एकदम अछूता रखा जाए और शिक्षक से अध्यापन के अतिरिक्त और कोई कार्य न लिया जाए। हमारी शिक्षा-नीति तभी सफल हो हो सकती है जबकि यह हमारे अपने देश के धरातल पर निर्मित हो । हमारी शिक्षा में नैतिकता का अभाव है। यही कारण है कि शिक्षा जैसा पवित्र क्षेत्र हड़तालों, तोड़फोड़ और आरोप-प्रत्यारोपों का केन्द्र बना हुआ है। नैतिक शक्ति की कमी ही इसका सर्वप्रमुख कारण है और इस कमी को दूर करने का दायित्व प्रत्येक राष्ट्र की शिक्षा-व्यवस्था का है । इसलिए आवश्यक है कि शिक्षा को संस्कृति व नैतिकता से जोड़ा जाए । अत : नैतिक शिक्षा हमारी शिक्षा का एक आवश्यक अंग होनी चाहिए । साथ ही शिक्षा-नीति के निर्माण कार्य में प्रशासकों के अतिरिक्त अध्यापकों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए। १. पं० उदय जैन अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २६. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षण में सृजनात्मकता 0 प्रो० भगवती लाल व्यास (हिन्दी विभाग, लोकमान्य तिलक शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, रा०वि० डबोक (उदयपुर) मनुष्य अपने जिन विशिष्ट गुणों के कारण पशु से पृथक समझा जाता है, सृजनात्मकता उनमें से एक है। इस क्षेत्र में हुए अनुसन्धानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी सीमा तक सृजनशील है। सृजनात्मकता मानव के आविर्भाव काल से ही सतत प्रवहमान है किन्तु औपचारिक रूप से शिक्षा एवं मनोविज्ञान के क्षेत्र में सृजनात्मकता सम्बन्धी चिन्तन और शोध का इतिहास तीन दशकों से अधिक पुराना नहीं है। सन् १९५६ में जे० पी० गिलफोर्ड ने अपने मॉडल स्ट्रक्चर आफ इन्टेलेक्ट द्वारा चिन्तन के दो आयामों---एकदेशीय तथा बहुदेशीयकी स्थिति स्पष्ट करते हुए सृजनात्मकता का सम्बन्ध बहुदेशीय चिन्तन से बतलाया था। बहुदेशीय चिन्तन का आशय ऐसे चिन्तन से है जिसमें व्यवित किसी समस्या पर लीक से हट कर सोचता है। गिलफोर्ड ने समस्या समाधान विषयक इस चिन्तन को ही सृजनात्मक चिन्तन कहा है । वस्तुतः मानव सभ्यता के विकास एवं प्रगति के मूल में यही सृजनात्मक चिन्तन रहा है क्योंकि मानव जीवनपर्यन्त समस्याओं से घिरा रहता है तथा उनका समाधान अपने ढंग से करता है। इस समस्या समाधान में जितनी नवीनता होगी वह व्यक्ति उतना ही प्रतिभासम्पन्न कहा जायगा। गिलफोर्ड के बाद सजनात्मकता की दिशा में कई विद्वानों ने उल्लेखनीय कार्य किया है। इनमें होरेन्स, टेलर, ट्यूमिन, मसलो, थार्नडाइक, रोजर्स, मूनी, मेडनिक, थर्सटन, बर्नर, वर्दमियर आदि विदेशी तथा सुरेन्द्रनाथ त्रिपाठी, बकर मेहदी, एम० के० रैना, टी० एन० रैना आदि भारतीय विद्वानों के नाम गिनाये जा सकते हैं। परिभाषा का संकट सृजनात्मकता की दिशा में इतना कार्य हो जाने पर भी इसकी कोई सर्वसम्मत परिभाषा दे पाना कठिन है क्योंकि सृजनात्मकता के घटकों के सम्बन्ध में सभी विद्वान एकमत नहीं हैं। अनास्तासी और शेफर ने सृजनात्मकता को एक बहुपक्षीय सम्प्रदाय कहा है। राल्फ हालमेन के अनुसार मानव जीवन का आशय विकास तथा व्यक्ति की अनिवार्य विशेषताओं का प्रत्यक्षीकरण है । यह स्वप्रत्यक्षीकरण अथवा आत्मसिद्धि ही सृजनात्मकता की समकक्ष है। इसी प्रकार टारेन्स, टेलर, सिम्सन आदि विद्वानों ने भी मानव-अस्तित्व तथा सृजनात्मकता के बीच एक अनिवार्य सम्बन्ध को स्वीकार किया है। टेलर ने सृजनात्मकता की लगभग एक सौ परिभाषाओं की एक बृहद् सूची भी प्रस्तुत की है परन्तु संक्षेप में हम कह सकते हैं कि सृजनात्मकता मानव जीवन की सृजनात्मक अभिव्यक्ति है। सृजनात्मकता तथा मेधा कई वर्षों तक सृजनात्मकता तथा मेधा के एक ही वस्तु होने की भ्रान्ति बनी रही किन्तु इस दिशा में हुए 1 Guilford J. P. : An Informational Theory of Creative Thinking. Educational Trends-Vol. 8 No. 1-4, Jan-Oct, 1973. Regional College of Education. Ajmer. Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षण में सृजनात्मकता ३६ ...........................................0000000000000000000000000 अनुसंधानों ने अब यह स्पष्ट कर दिया है कि ये दोनों भिन्न वस्तुएँ हैं । जो कार्य सृजनशील व्यक्ति आसानी से कर पाता है शायद मेधावी व्यक्ति के लिए उन्हें कर पाना सम्भव न हो। इसी प्रकार एक उच्च सृजनशील व्यक्ति की तुलना बीस कम सृजनशील व्यक्तियों से नहीं की जा सकती। फागन ने इस सम्बन्ध में अपने शोधकार्य द्वारा मेधा और सृजनशीलता के सम्बन्ध में बहुत निम्न सहसम्बन्ध की सृष्टि की है। सामान्य जीवन में भी हम देखते हैं कि सृजनशील व्यक्तियों की शैक्षिक अपलब्धियाँ नगण्य प्रकार की होती हैं। सृजनात्मकता के घटक जे० पी० गिलफोर्ड ने अपने स्ट्रक्चर आफ इन्टेलेक्ट में सृजनात्मक चिन्तन के अन्तर्गत प्रवाहिता, अनाग्रह, मौलिकता, विस्तार एवं संवेद्यता को सम्मिलित किया है।' प्रवाहिता जैसा कि प्रवाहिता शब्द से ध्वनित होता है, यह वह विशिष्ट योग्यता है जो चिन्तन के निर्बाध प्रवाह को इंगित करती है। गिलफोर्ड ने अपने अध्ययन में इसके चार प्रकारों का वर्णन भी किया है। वे हैं१. शाब्दिक प्रवाहिता ३. वैचारिक प्रवाहिता और २. अभिव्यक्तिपरक प्रवाहिता ४. साहचर्यात्मक प्रवाहिता। अनाग्रह शार्टर आक्सफार्ड इंगलिश डिक्शनरी के अनुसार अनाग्रह का शाब्दिक अर्थ है "अनाग्रही होने की क्षमता अर्थात अनुकूलन की क्षमता, कठोरता एवं कट्टरता से मुक्त होना तथा त्वरित एवं वैविध्यपूर्ण क्रियान्वयन ।" गिलफोर्ड के अनुसार अनाग्रह के भी दो प्रकार हैं १. स्वतःस्फूर्त अनाग्रह और २. अनुकूल अनाग्रह। मौलिकता मौलिकता से हमारा अभिप्राय सामान्यत: उस अभिव्यक्ति से है जो सामान्य से अथवा लीक से हटकर अपनी अलग पहचान देती है। संवेद्यता इसके अन्तर्गत व्यावहारिक समस्याओं को पहचानने की योग्यता, कमियाँ या बुराइयाँ आदि समझते हुए सुधार के उपाय सुझा सकने की क्षमता सम्मिलित है। विस्तार वस्तुओं को व्याख्यायित, परिभाषित, पुनर्परिभाषित करने की क्षमता विस्तार के अन्तर्गत आती है। सृजनात्मकता के सम्बन्ध में कुछ निष्कर्ष सृजनात्मकता के सम्बन्ध में अब तक हुए चिन्तन-मनन, शोध, अनुसंन्धानों आदि के परिणामों को ध्यान में रखते हुए हम निम्नांकित निष्कर्षों पर पहुँचते हैं - १. प्रत्येक व्यक्ति में सृजनात्मकता होती है। २. प्रत्येक व्यक्ति में सृजनात्मकता की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। ३. सृजनात्मकता के विभिन्न घटकों का विकास प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न-भिन्न होता है। ४. सृजनात्मकता का शिक्षण सम्भव है। ५. सृजनात्मकता का मापन सम्भव है। ६. उपयुक्त पर्यावरण प्रदानकर सृजनात्मकता को बढ़ाया जा सकता है। - 1 Taylor C. W. : Creativity - Progress and Potential, McGraw Hill Book Co. New York 1964. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : तृतीय खण्ड ७. सृजनशील व्यक्तियों के प्रति लोग सहज ही आकृष्ट होते हैं। ८. सृजनात्मकता का उत्पादन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। ६. सृजनात्मकता से सम्बद्ध गतिविधियाँ समाजोपयोगी होनी चाहिए। सृजनात्मकतासम्पन्न व्यवितयों के व्यक्तित्व-लक्षण सृजनात्मकतासम्पन्न व्यक्तियों के व्यक्तित्व-लक्षणों का पता लगाने के लिए गेजल्स तथा जेक्सन द्वारा सन् १६५८ में, मेक्नान द्वारा सन् १९६० में तथा टारेन्स द्वारा सन् १९६२ में अध्ययन किये गये । इसी प्रकार के अध्ययन रेड, किंग तथा विकवायर (१९५६) तथा डा० एम० के० रैना ने भी किये । प्रस्तुत निबन्ध के लेखक ने भी १९७३ में इस विषय पर कार्य किया। इन अध्ययनों में से पाल टारेन्स द्वारा उच्च सृजनात्मकतासम्पम्न व्यक्तियों पर किये गये अध्ययनों से जिन व्यक्तित्व-लक्षणों का पता चलता है उन्हें वे अपनी पुस्तक में इस प्रकार वर्णन करते हैं१. गहन अनुराग २४. लड़ाकू तथा निषेधात्मक वृत्ति अपनाना । २. सिद्धान्तों के प्रति आदरभाव २५. विचित्र आदतों को अंगीकार करना। ३. सदैव किसी न किसी चीज से कुण्ठित अनुभव २६. परिश्रमी तथा उद्यमी। करना। २७. दूसरों के विचारों को ग्रहण करने में उदार । ४. रहस्यों के प्रति आकर्षण । २८. अध्यवसायी। ५. कठिन कार्यों को करने का प्रयत्न । २६. कुछ अवसरों पर पीछे हटना। ६. आलोचना में रचनात्मक रुख । ३०. मानसिक गम्भीरतासम्पन्न होना । ७. साहसिकता ३१. कार्य के प्रति निश्चयात्मक रुख अपनाना । ८. विवेक बुद्धि तथा दृढविश्वास । ३२. पुरोगमिता का पक्षधर होना । ६. स्वास्थ्य सम्बन्धी मान्यताओं की उपेक्षा । ३३. भाग्यवादी होना (कुछ सीमा तक)। १०. विशिष्ट होने की आकांक्षा । ३४. अपने कार्य के प्रति ईमानदार । ११. संकल्प का धनी होना । ३५. अनावश्यक विस्तार से अरुचि । १२. जीवन मूल्यों में भिन्नता होना । ३६. अधिकार एवं शक्ति के प्रति अपरिग्रही १३. असन्तोष भाव । १४. प्रभुत्वाकांक्षी होना । ३७. अटकलबाजी (सट्टेबाजी) के प्रति रुचि । १५. छिद्रान्वेषी होना। ३८. साहसपूर्ण अस्वीकृति प्रकट करना। १६. दूसरों से भिन्न समझे जाने का भय नहीं होना । ३६. किसी सीमा तक असंस्कृत व्यवहार कर बैठना । १७. जो कुछ हो रहा है उसे पूरी तरह ठीक न ४०. कहने की बजाय करने में अधिक विश्वास समझना। होना। १८. एकान्तप्रियता। ४१. चंचलता तथा अस्थिरता। १६. अन्तर्मुखता ४२. हठी होना। २०. कार्य करने का असामान्य समय चुनना। ४३. दृष्टिसम्पन्न होना। २१. व्यापार एवं व्यवहारकुशलता का अभाव । ४४. खतरे मोल लेने की प्रवृत्ति (चुनौती झेलना)। २२. गलतियाँ करना। ४५. बहुमुखी प्रतिभासम्पन्नता । २३. ऊब महसूस न करना । ४६. अकृत्रिम तथा सहज व्यवहार का धनी होना। 1 2 Vyas B. L. : Personality Traits of Creative Children (M. Ed. Dissertation) 1973. Torrance E. P. : Guiding Creative Talent, Englewood Cliffs. N. J. Prentice Hall, 1962. Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा में सृजनात्मकता ४१ . 'सृजनात्मकता का विकास कैसे करें ? जैसा कि पूर्ववर्ती अनुच्छेदों में स्पष्ट किया जा चुका है सृजनात्मकता का विकास सम्भव है क्योंकि यह किसी न किसी मात्रा में प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान रहती है। विद्यालय तथा कक्षा में विभिन्न विषयों के अध्यापन के दौरान सृजनात्मकता के विकास हेतु उपयुक्त अवसर ढूंढ़े जा सकते हैं। इस दिशा में विदेशों में कई प्रयोग किए गए हैं । टारेन्स द्वारा किये गए एक प्रयोग से निम्नांकित सिद्धान्त निरूपित किये जा सकते हैं :-१ १. कक्षा में बालकों द्वारा पूछे गये प्रश्नों के प्रति चाहे वे प्रश्न कितने ही असामान्य क्यों न हों अध्यापक का रुख आदरपूर्ण होना चाहिए क्योंकि प्रश्न ही वह माध्यम है जिसके द्वारा बालक अपने अप्रकट को प्रकट करता है। २. बालकों द्वारा कक्षा में व्यक्त किए गए विचारों को प्रोत्साहित करना चाहिए। ३. बालकों को यह अनुभूति प्रदान करनी चाहिए कि उनके द्वारा पूछे गए प्रश्न अथवा व्यक्त किए गए विचार अध्यापक की दृष्टि में मूल्यवान हैं। ४. सृजनात्मकता योग्यता के विकास में सहायक क्रियाकलाप तत्काल मूल्यांकनीय नहीं होते अत: ऐसे क्रियाकलापों के लिए पर्याप्त समय देना चाहिए। ५. मूल्यांकन में कारण एवं परिणाम को संयुक्त करके देखा जाना चाहिए। सृजनात्मकता से सम्बद्ध विपरीत विचारधारा कल्याणकारी एवं लाभप्रद होने के साथ-साथ कभी-कभी भयंकर भी हो सकती है अतः इस दिशा में आवश्यक निरीक्षण, निर्देशन एवं परामर्श की आवश्यकता है । हरबर्ट जे० क्लासमेयर ने इस सम्बन्ध में निम्नांकित सिद्धान्त निरूपित किए हैं :-२ १. विभिन्न साधनों के माध्यम से मौलिक अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित करना । २. समरूपता के स्थान पर नम्यता (अनाग्रह) को प्रोत्साहित करना । ३. सृजनात्मकता को प्रदर्शित करने के लिए आवश्यक समय देना । ४. छात्रों की उत्पादन-क्षमता को प्रोत्साहित करना। हिन्दी शिक्षण में सृजनात्मकता सृजनात्मकता के विकास की दृष्टि से अन्य विषयों की तुलना में भाषा अध्यापक कदाचित् अधिक लाभप्रद स्थिति में है। भाषा शिक्षक यदि अपने कक्षा-शिक्षण में जागरूक रहे तो वह निश्चय ही हर स्तर पर अपने छात्रों में सृजनात्मकता के विकास हेतु महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकता है। इसके लिए आवश्यक होगा कि : १. कक्षा का वातावरण प्रजातान्त्रिक हो । २. अध्यापक स्वयं सृजनात्मकतासम्पन्न हो । ३. छात्रों के अटपटे एवं असंगत उत्तरों के प्रति धैर्य का परिचय दे। ४. उच्च सृजनात्मकता-सम्पन्न बालकों को विशेष निर्देशन देने को प्रस्तुत रहे। ५. विद्यालय-वातावरण में भी सृजनात्मकता को स्थान मिले। ६. प्रधानाध्यापक तथा अन्य अध्यापक बन्धुओं का सहयोग प्राप्त हो। ७. अनुभवों की विविधता के लिए अवसर जुटाए जावें । 2 Torrance, E. P.: Rewarding Creative Behaviour, N. J. Prentice Hall Inc. Eoglewood Cliffs, 1965. Sharma, S. (Dr.): Hindi Shikshan men Srijanatmak Datta Karya'- A workshop ReportDeptt. of Extension Services, V. B. Teachers' College Udaipur, Rajasthan 1975. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ तृतीय खण्ड ८. दण्ड के स्थान पर पुरस्कार की नीति का अनुसरण किया जाए । ६. दायित्व निभाने के बजाय दाईत्व निभाने का रुख अपनाया जावे। सृजनात्मक अभिव्यक्ति विकास के कतिपय अभ्यास कार्य १. शीर्षक देना, दिए हुए शीर्षक में परिवर्तन सुझाना । २. संक्षिप्तीकरण एवं विस्तृतीकरण । २. विधा परिवर्तन (नाटक से कहानी कहानी से नाटक, कविता से कहानी कहानी से कविता आदि ) । ४. नए-नए उपमा, रूपक आदि । ५. अपूर्ण कथा को पूर्ण करवाना। ६. समस्यामूलक प्रश्न (विशेष परिस्थिति में अनुभूति ) । ७. कल्पनापरक प्रश्न ( असंभव संभावनाओं से युक्त ) । ८. शब्दों के खेल (छोटी कक्षाओं में ) आदि । उपर्युक्त विवेचन के प्रकाश में अब कतिपय उदाहरणों द्वारा हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि हिन्दी - शिक्षण के समय छात्रों में सृजनात्मकता का विकास कैसे किया जाय ? प्राथमिक कक्षाओं में (कक्षा में के उदाहरण) कक्षा ३ में प्रायः बालकों को लिखकर तथा बोलकर अपनी भावाभिव्यक्ति करने की कुशलता का यत्किंचित् विकास हो जाता है अतः हम इसी कक्षा की पाठ्य-पुस्तक से कुछ उदाहरणों पर विचार करेंगे १. 'जो मैं कहीं मेघ बन जाता' - कविता आप बच्चों को पढ़ा चुके हैं। अब इसी आधार पर 'जो मैं कहीं फूल बन जाता' शीर्षक पर विचार कीजिए । २. ऐसे अधिक से अधिक शब्द लिखिए जिसके अन्त में "ता" आता हो। ३. ऐसे अधिक से अधिक वाक्य बनाइये जिनमें निम्नांकित शब्द-समूहों का उपयोग होता हो (अ) आंधी-ओ-वर्षा (आ) बादल - बिजली - नदी उच्च प्राथमिक कक्षाओं में (कक्षा ७ एवं के उदाहरण) rar (काल्पनिक कहानी क (अ) यदि पेड़-पौधे बोलने लगें । ( आ ) यदि मकान चलने-फिरने लगें । ++++ (इ) पानी बांध - सिंचाई (ई) वग-हित विधा रूपान्तरण (अ) दी हुई रूप-रेखा के आधार पर कहानी का विकास । (आ) अधूरी कहानी को पूरा करना । (इ) यदि सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो जाए। (ई) यदि आपके पड़ने की भेज बोलने लगे। (अ) 'नंगे पैर कहानी को एकांकी के रूप में लिखिए (कहानी से एकांकी) (आ) 'अद्भुत बलिदान' एकांकी को कहानी के रूप में लिखिए। (कहानी से एकांकी) (इ) पूजन कविता को संवाद के रूप में लिखिए (कविता से एकांकी) (ई) 'वीर जननी के हृदयोद्गार' शीर्षक लेख को एकांकी के रूप में लिखिए। ( लेख से एकांकी) Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा में सृजनात्मकता -. .-.-.-. -. -. -.-.- -. -.-. -.-.-. -. -.- .. नाध्यमिक कक्षाएं (कक्षा ६ के उदाहरण) १. यदि ताजमहल की नींव में पड़ा हुआ कोई पत्थर बोलने लगे। (नींव की ईंट) २. यदि बंशीधर पंडित अलोपीदीन से रिश्वत ले लेता तो कहानी का अन्त किस प्रकार होता ? (नमक का दारोगा)। ३. 'नमक का दारोगा' शीर्षक के स्थान पर कोई अन्य शीर्षक सुझाइये । (नमक का दारोगा) ४. जब दीपावली का त्यौहार आता है। ५. 'दीपावली के दीए' की आत्मकथा । ६. “भुलक्कड़ भाई साहब' की तरह 'फक्कड़ भाई साहब' शीर्षक पर एक लेख लिखिये । ७. श्री रेवतदान कल्पित ने वर्षा की उपमा बीनणी (दुल्हन) से दी है। आप वर्षा के लिए और कौन-कौन सी उपमाएँ सुझा सकते हैं ? ८. 'मरतु प्यास पिंजरा पर्यो सुआ समय के फेर ।' पंक्ति को ध्यान में रखते हुए बताइये कि यदि पिंजरे ___ में बन्द तोता बोल पाता तो अपनी व्यथा-कथा किस प्रकार सुनाता ? ६. 'कैकेयी का पश्चात्ताप' शीर्षक कविता में कवि ने कैकेयी द्वारा राम के समक्ष उसका पश्चात्ताप प्रकट करवाया है । यदि दशरथ उस समय जीवित होते और उन्हें भी अपना पश्चात्ताप प्रकट करना होता तो वे किन शब्दों में प्रकट करते ? १०. 'जसोदा कहाँ लौ कीजै कानि?'-पद में सूरदास ने गोपियों द्वारा यशोदा को कृष्ण की करतूतों का उलाहना दिलवाया है । यदि उस समय कृष्ण वहाँ उपस्थित होते तो अपनी सफाई किन शब्दों में देते ? अधिक से अधिक मुहावरे लिखिए तथा उनका स्वरचित वाक्यों में प्रयोग कीजिए(अ) मुँह से सम्बन्धित (इ) नाक से सम्बन्धित (आ) मूंछ से सम्बन्धित (ई) जानवरों से सम्बन्धित उपर्युक्त उदाहरणों में विस्तारभय से बानगी के तौर पर कुछ ही पाठ्यांशों पर विचार किया जा सका है किन्तु इसी तरह अन्य पाठ्यांशों पर सभी अध्यापक बन्धु स्वयं विचार कर सकते हैं। उपसंहार । उपर्युक्त पंक्तियों से स्पष्ट हो गया होगा कि यदि हम अपने दैनन्दिन शिक्षण में जागरूकता का परिचय दें तो बालकों में सृजनात्मकता के विकास की दृष्टि से अपरिमित कार्य किया जा सकता है। पाठ्य पुस्तक लेखकों, सम्पादकों तथा प्राश्निकों को भी इस दृष्टि से सोचना छात्रों के लिए हितकर सिद्ध हो सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकतीं कि अनुभवों की विविधता यदि हम भौतिक धरातल पर उपलब्ध न कर सकें तब भी वैचारिक धरातल पर तो ऐसा किया ही जा सकता है, किया ही जाना चाहिए। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N +0+0+0+0+0+ इम्तिहान पर क्षण भर D डॉ० विश्वम्भर व्यास ! (हिन्दी विभाग, भूपाल नोबल्स महाविद्यालय, उदयपुर) ❤+0 -+ अभी कल की ही बात है एक विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ व्याख्याता को कतिपय छात्रों की हिंसक वृत्ति का कोपभाजन होना पड़ा। इम्तिहान में उन्होंने ईमानदारी को अपनाया था, बस यही उनका अपराध था। कहा जा सकता है यह कोई नयी और चौंकाने वाली बात नहीं है, आये दिन ही ऐसा देखने-सुनने को मिलता है। भले यह न हो नयी और चौंकाने वाली बात.... लेकिन क्या यह सोचने और विचारने की बात नहीं है कि ऐसा क्यों होता है...क्या इम्तिहान बहुत जरूरी है और इनकी परम्परित 'गडार' को मिटाने और नये रास्ते की तलाश की कुछ आवश्यकता है ? विश्वविद्यालयों में छात्र असन्तोष के यी अनेक कारण हो सकते हैं। कभी-कभी तो अकारण सो दीखने वाली बातें भी कारण बन जाती हैं अथवा बना दी जाती हैं। असन्तोष की परिणति होती है तोड़-फोड़, हिंसा, आगजनी आदि-आदि में। पिछले एक-दो दशक की इस प्रकार की घटनाओं पर ध्यान दें तो हमें पता लगता है कि इनकी जड़ में दो बातें प्रमुख रही हैं— छात्र परिषदों के चुनाव और परीक्षाएँ । पिछले दो-तीन वर्षों में तो छात्र असन्तोष से सम्बद्ध विविध वारदातें अपने चरम पर पहुँच गई-सी लगती हैं । विश्वविद्यालय परिसरों में राजनैतिक दलों का अवैध प्रवेश भी कम चिन्तनीय नहीं है बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली आदि के सन्दर्भ में तो यह बात और भी जोर देकर कही जा सकती है। सच तो यह है कि सारी की सारी यह हिन्दी पट्टी छात्र असन्तोष के लिये बेहद बदनाम रही है। कभीकभी तो छोटी बातों को लेकर असन्तोष उमड़ पड़ा है। आरक्षण आदि कारणों को लेकर हुई व्यापक तोड-फोड़ की कोई भी विचारवान् शिक्षाशास्त्री, प्रशासक अवहेलना नहीं कर सकता । 1 है न मजेदार बात यह कि एक साल में इम्तिहान आयोजित हो और दूसरे में परिणाम प्रकाशित । रहा सवाल पढ़ाई का पर इसकी परवाह कौन करता है ? इसे तो अधिकाधिक हतोत्साहित करने में ही सबका कल्याण है । बिहार के विश्वविद्यालयों के सम्बन्ध में तो यह बात और भी अधिक सहज भाव से कही जा सकती है। साल भर में मुश्किल से ४०-८० दिनों के बीच ही पढ़ाई हो सकी हो । छात्र लोग कुलपतियों, प्राचार्यों का घेराव करने, उनके घरों को क्षतिग्रस्त करने, वयों को जलाने तथा इधर-उधर की सरकारी सम्पति को तोड़ने-फोड़ने, नष्ट करने में लगे रहे। और इम्तिहान ? कौन देना चाहता है इम्तिहान ? सच बात तो यह है कि इम्तिहान अपनी सार्थकता बिल्कुल गँवा चुके हैं । लेकिन करें भी क्या ? गले की ऐसी हड्डी बन गये हैं ये, कि न अन्दर जाती है न बाहर निकलती है । असल में अनिवार्य बुराई हैं ये कहें कि जिनसे पिण्ड छुड़ाना आसान नहीं है। यों तो सभी विश्वविद्यालयों में थोड़ी-बहुत नकलें होती हैं, लेकिन पिछले दिनों मेरठ विश्वविद्यालय ने तो इस क्षेत्र में अपने विशिष्ट प्रतिमान स्थापित करने में सफलता हासिल करली हो जैसे । तत्सम्बन्धी वहाँ की रपटों को पढ़-सुनकर किसे वितृष्णा नहीं हो जायेगी मेरठ से लगाकर बुलन्दशहर तक के ५३ परीक्षा केन्द्रों में सामूहिक नकल . Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इम्तिहान पर क्षण भर ४५ का रौरव अभियान अपने चरम पर था जहाँ । मेरठ में स्थिति और भी विचित्र थी। बाँटने से पहले ही इन्वीजीलेटर्स के हाथों से जुझारू छात्रों ने कापियाँ झड़प ली थीं । तत्पश्चात् तो छात्रेच्छा बलीयसी । मजाल थी कोई उनसे कुछ कह ढे । घर ले जाना था कुछ घर ले गये । नहीं तो पूर्वायोजित महायकों के दिमाग का आसरा तो कहीं जाने से रहा । कुजियों-किताबों का निर्बाध प्रयोग तो खैर एक मामूली बात थी। कहीं-कहीं तो प्राध्यापकों ने भी खुले मन से मदद देने में आत्मकल्याण माना । हाँ, बेचारे ईमानदार प्राध्यापक भय और उद्विग्नता की मनःस्थिति से परीक्षा भवन में हो रहा यह अनियन्त्रित उत्पात देख रहे थे। वाइस चांसलर इन सब स्थितियों से एकदम अनभिज्ञ रहे हों, यह बात भी नहीं थी। पर वह निर्लिप्त और निर्विकार बने रहने में ही अपना भला देखते थे। वे जानते थे कि परीक्षाएँ स्थगित करना उनके हित में नहीं है। पर भाग्य ने अधिक दूर तक उनका साथ देने से इन्कार कर दिया । समाचार-पत्रों ने बड़ी बेरहमी से यह सब-कुछ प्रकाशित कर दिया। परिणाम यह हुआ कि लगभग २३ केन्द्रों की परीक्षाएँ बिल्कुल रद्द कर देनी पड़ी। परीक्षाएँ रद्द कर देने का यह निर्णय छात्रों के हलक के नीचे आसानी से उतर जाने वाला हो, यह बात नहीं थी। विरोध की लपटों ने मेरठ कालेज को ही स्वाहा करके दम लिया। एक पोस्ट आफिस भी अग्नि की भेंट हो गया। बेचारा वृद्ध पोस्टमास्टर बड़ी मुश्किल से जान बचा पाया। लड़कों का यह हाल था तो लड़कियां कैसे पीछे रहतीं । सामूहिक नकल के इस पवित्र अनुष्ठान में वे भी कूद पड़ी। उनकी शिकायत वाजिब थी कि यह सिर्फ लड़कों का ही मूल-अधिकार तो नहीं है न? और पिछली बार परीक्षाएँ जब पुन: आरम्भ हुई तो उपद्रव और हिंसा अपने चरम पर थी। नकल का यह अनपेक्षित माहौल मेरठ विश्वविद्यालय की निजी विशेषता है, यह कहना अन्य विश्वविद्यालयों के प्रति अन्याय हो गया। बिहार के अधिकांश विश्वविद्यालयों में कमोबेश इन्हीं दृश्यों की पुनरावृत्ति हुई है, और आरा का तो नारा ही था—'चोरी से सरकार बनाई, - चोरी से हम पास करेंगे।' दूसरी आजादी के आगमन के साथ लोगों ने एक सन्तोष की सांस ली थी चलो अब सब कुछ ठीक-ठाक हो जायगा, पर प्रत्याशा पूरी नहीं हो पाई। यह एक ऐसा गम्भीर प्रश्न है कि राष्ट्र के अग्रणी विचारक भी चिन्ता किये बिना नहीं रह सके हैं । स्वयं जयप्रकाश बाबू की चिन्ता भी उनके वक्तव्यों से स्पष्ट झलकती थी। शिक्षा पद्धति में पूरी तरह से परिवर्तन पर जोर देते हुए तथा तत्सम्बन्धी दुरवस्था पर दुःख व्यक्त करते हुए वे कहते थे---'शायद छात्र-समाज यह भूल गया है कि १९७४ में स्वयं उनके द्वारा नीत आन्दोलन का यह एक मुख्य मुद्दा था।' इम्तिहान में बड़े पैमाने पर गलत तरीके इस्तेमाल करने के प्रश्न पर भी वे गम्भीर चिन्ता प्रकट करते हैं। अब तो दूसरी आजादी वाली सरकार भी हवा हो गई। वर्तमान सरकार से लोगों को बहुत अपेक्षाएँ थीं, किन्तु—? प्रश्न है आखिर इम्तिहान का उद्देश्य क्या है ? याददाश्त, अभिव्यक्ति और यदाकदा निर्णय । बस यही तो न ? पर आजकल के इम्तिहान तो छात्र की याददाश्त को ही सर्वाधिक अहमियत देते नजर आते हैं। इस बात को बिल्कुल नजरन्दाज कर दिया जाता है कि निर्णय भी उसका एक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है। मजेदार बात तो यह है कि कहीं परीक्षार्थी अपनी राय व्यक्त करने का प्रयास करता है तो परीक्षक उसे गम्भीरता से नहीं लेता । विश्वविद्यालय मात्र परीक्षा केन्द्र बनकर रह गये हैं । परीक्षाएँ आयोजित करना, कापियाँ अँचवाने की व्यवस्था करना और जैसे-तैसे परिणाम प्रकाशित करवा देना । बस ये ही ध्येय रह गये हैं। यह नहीं कि इम्तिहान के तौर-तरीकों में सुधार के प्रश्न को लेकर सोच-विचार हुआ ही नहीं है । समयसमय पर समितियाँ बनी हैं, गाते-ब-गाते गोष्ठियां हुई हैं, नाना प्रकार के नूतन तरीकों की तलाश की गई है। जैसे यह कि 'आजैक्टिव टैस्ट' का तरीका अपनाया जाय ताकि नकल की नारकीयता से मुक्त हुआ जा सके, पर यह भी कोई निरापद तरीका है, कहा नहीं जा सकता। 'ऑपन बुक एक्जामिनेशन' की पद्धति पर भी विचार किया गया। पर इससे क्या परख करना चाहते हैं ? याददाश्त और निर्णय इन दो बातों का तो ऐसी पद्धति में कोई ही काम नहीं रह Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड -.0.0.0 .0.-.-.-.-.-.-.-.-.-........................................... जाता । 'क्वेश्चन बैंक' का तरीका कारगर होगा-यह मानकर कई विश्वविद्यालयों ने इसे अंगीकार किया। लेकिन प्रत्याशित परिणाम सामने नहीं आ पाये। पिछले कुछ समय से इधर ‘इन्टरनल एसैसमेन्ट' पर अधिक ध्यान दिया जाने लगा है। निश्चय ही टैस्टों की संख्या तो इसमें बढ़ जाती है मगर अपेक्षित उद्देश्य की प्राप्ति यहाँ भी संभव नहीं है। २० प्रतिशत सैशनल मार्क्स होते हैं, जबकि ८० प्रतिशत बाह्य परीक्षाओं पर निर्भर करते हैं । २० प्रतिशत में अंकों का लेन-देन एक हास्यास्पद, पर दिलचस्प प्रतिस्पर्धा को आमन्त्रित करने वाला होता है। लगता है शिक्षा के आधिकारिक विद्वान् और विशेषज्ञ अब परीक्षा के ऐसे ही किसी तरीके की तलाश में तल्लीन हैं, जिसमें अध्ययन को अधिकाधिक हतोत्साहित किया जा सके और हाँ परीक्षा-कर्म भी जिसमें आराम से आयोजित हो सके। xxxxxxx X X X X X X X X X X X X X X X अणासवा थूलवया कुसीला, मिउंपि चण्डं पकरेन्ति सीसा । -उत्तरा० १११३ आज्ञा में न रहने वाले, बिना विचारे कुछ का कुछ बोलने वाले शिष्य मृदु स्वभाव वाले गुरु को भी क्रुद्ध बना देते हैं। xxxxx X X X X X xxxxxxx xxxxxxx Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा एवं बेरोजगारी - डॉ० जी० एल० चपलोत परियोजना अर्थशास्त्री, जिला ग्रामीण विकास एजेन्सी, नारनौल (हरियाणा) शिक्षा एवं बेरोजगारी-दोनों शब्द एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। न केवल ऊपरी रूप से देखने पर अपितु सभी दृष्टियों से देखने पर भी इन दोनों में नाम मात्र भी रिश्ता नहीं जान पड़ता किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि दोनों अत्यन्त घनिष्ट सम्बन्धी हैं और समय पड़ने पर और अनुकूल परिस्थितियों के आने पर प्रबल वेग से एक साथ ही फूट पड़ते हैं । इस तथ्य-जैसे-जैसे औद्योगिक विकास होता जाता है, कृषि पर निर्भर व्यक्तियों की जनसंख्या क्रमशः कम होते-होते उद्योग की तरफ उन्मुख होती है' को प्रमाणित करने के लिए आंकड़ों की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इसी प्रकार यह भी एक सर्वमान्य सत्य है कि शिक्षितों की संख्या का बेरोजगारी से सीधा सम्बन्ध है जिसके उत्तरदायी कारण एवं प्रभावों का विवेचन आगे किया जा रहा है किन्तु इस के पहले यह जान लेना आवश्यक है कि हमारी शिक्षा कैसी है और इसका आधार क्या है। इस पर चिन्तन आवश्यक है। शिक्षा का अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान ही नहीं होकर बालकों के सर्वांगीण विकास से है जो मानसिक, शारीरिक, नैतिक एवं चारित्रिक विकास से सम्बन्ध है। शिक्षा आर्थिक विकास एवं सामाजिक आधुनिकीकरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उत्पादन के स्रोत में उसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिए आवश्यक संस्थान तथा योग्यता के व्यक्तियों को उपलब्ध कराती है। जनमानस में समुचित अभिरुचि, कुशलता तथा व्यक्तित्व की विशेषताओं को जमा कर विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करती है। सुविज्ञ एवं शिक्षित नागरिकता की रचना करके शिक्षा इसे सुनिश्चित करती है, में उन आधारभूत संस्थानों, जिन पर कि देश का आर्थिक एवं सामाजिक कल्याण निर्भर करता है, में किस प्रकार की कार्य प्रणालियाँ सफल सिद्ध होंगी। शिक्षा व्यक्ति को वैयक्तिक समृद्धि तथा सामाजिक और आथिक उन्नति के लिए प्रमुख साधन भी प्रदान करती है। शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति उसके उपयोगी होने में है। इसलिए शिक्षा एकांगी न होकर सर्वतोन्मुखी होनी आवश्यक है किन्तु हमारी शिक्षा प्रणाली केवल पुस्तकीय ज्ञान तक ही सीमित रही है। वर्तमान शिक्षा पद्धति भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना का परिचायक है जो कि लार्ड मैकाले के मस्तिष्क की देन है। इस पद्धति का प्रचलन इस उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए किया गया था कि देश में अंग्रेजी प्रशासन के संचालन के लिए अंग्रेजी जानने वाले भारतीय लिपिक अथवा मुनीम तैयार हो सके। अतः शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था इस प्रकार की गई कि सभी शिक्षित भारतीयों का लक्ष्य सरकारी नौकरी करना ही बना रहा । फलस्वरूप इस शिक्षा प्रणाली ने इतने लिपिक तैयार कर दिये हैं कि स्वतन्त्र भारत में इन सबको स्थान देना कठिन हो गया है। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड ... ... ... . ............................................................ हालांकि कुछ सीमा तक आज भी हमारी शिक्षा सिद्धान्त एवं साहित्यप्रधान अवश्य है जो केवल कुछ साहित्यकारों एवं शिक्षाविदों की स्वतन्त्र विचारधारा तथा भारतीय संस्कृति के कारण है। इसके द्वारा विद्यार्थियों को ज्ञान तथा संस्कृति तो प्रदान की जाती है परन्तु उनके व्यक्तित्व एवं चरित्र के निर्माण का कोई प्रयत्न नहीं किया जा रहा है। विश्वविद्यालयी स्तर तक केवल पुस्तकीय ज्ञान ही दिया जाता रहा है जिसमें विद्यार्थियों के जीवन सम्बन्धी व्यावहारिक ज्ञान का अभाव है और यही कारण है कि आजकल हमारी प्रचलित शिक्षा पद्धति के विरुद्ध देश के लगभग सभी भागों में आवाज उठाई जा रही है। आजकल विद्यार्थियों को जीवशास्त्र, समाजशास्त्र, नागरिकशास्त्र, वाणिज्यशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, कानून तथा मनोविज्ञान की बड़ी-बड़ी पुस्तकें तो अवश्य पढ़ाई जाती हैं किन्तु वे व्यावहारिकता में इसके ज्ञान से बहुत दूर रहते हैं। जीवन प्राप्त करके कुछ भी उपक्रम का साहस तथा आत्म-विश्वास प्राप्त नहीं होता । साहित्य के अध्ययन मात्र में वह जीविकोपार्जन की कला नहीं सीख सकता। प्रचलित शिक्षा प्रणाली के मुख्य तीन स्तर प्रारम्भिक, माध्यमिक तथा विश्वविद्यालय की शिक्षा, ये भी त्रुटिपूर्ण हैं । कुछ ही स्थानों को छोड़कर न तो प्रारम्भिक शिक्षा को अनिवार्य ही बनाया गया है और न ही इस देश के निवासियों के आर्थिक स्तर को देखते हुए निःशुल्क शिक्षा की ही व्यवस्था की गई है । यद्यपि अब शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन प्रायोगिक दृष्टि से अवश्य किये जा रहे हैं तथापि ये प्रणालियाँ भी अपने आप में पूर्ण नहीं हैं। विदेशों में शिक्षा की ओर अत्यन्त ध्यान दिया जाता है। रूस में विद्यार्थियों को नि.शुल्क पढ़ाया जाता है और पुस्तकें भी राष्ट्र की ओर से ही मिलती हैं, विद्यार्थियों को सब प्रकार की सुविधाएँ दी जाती हैं, उससे उनकी बुद्धि के पूर्ण विकास में सहायता मिलती है। तकनीकी शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है। हमारी शिक्षा पद्धति 'आधी तीतर और आधी बटेर' है। न तो हमने पूर्णतया भारतीय शिक्षा पद्धति ही अपनाई है और न यूरोपीय ही। . बेरोजगारी की समस्या बहुत पुरानी है। तेजी से बढ़ती जा रही जनसंख्या की समस्या से भी विकासोन्मुख देश पीड़ित है, यहाँ यह समस्या अपना विकराल रूप धारण करती जा रही है । यदि इस समस्या का समाधान समय रहते नहीं किया गया और केवल पलायनवादी प्रवृत्ति से काम लिया गया तो देश का भविष्य क्या हो सकता है इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। रोजगारों का सृजन, श्रमबल की वृद्धि के साथ अभी तक गति नहीं बनाए रख सका है। शिक्षित तथा तकनीकी योग्यता-प्राप्त व्यक्तियों के बीच व्याप्त बेरोजगारी की स्थिति निरन्तर चिन्ता का विषय बनी हुई है । अभी हाल ही में प्रकाशित अनुमान के अनुसार बेरोजगारों की संख्या बढ़ते-बढ़ते एक करोड़ नौ लाख और चौबीस हजार तक पहुंच गई है। १६७६ की तुलना में १९७७ में जहाँ बेरोजगारों की संख्या ११.६ प्रतिशत बढ़ी है, वहीं रोजगार में लगाये जाने वाले व्यक्तियों का अनुपात ६.७ प्रतिशत से घटकर ४.६७ प्रतिशत रह गया है। पढ़े-लिखे बेरोजगारों की संख्या का प्रतिशत भी १६७६ की तुलना में गत वर्ष बड़ा ही है । यह एक वर्ष की प्रगति के आंकड़े हैं। बेरोजगारों की सेना यदि इसी गति बढ़ती रही तो यह प्रतिशत आगे बढ़ता ही जायेगा । दस वर्ष के बाद इसका क्या विकराल स्वरूप प्रकट होगा, यह कल्पना करते ही रोंगटे खड़े होना एक स्वाभाविक बात है। कितने व्यक्तियों के नाम रोजगार के विभिन्न कार्यालयों में पंजीकृत हैं, कितनों को रोजगार प्राप्त हुआ, इसका विवरण पेज ४६ की तालिका से स्पष्ट है Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा एवं बेरोजगारी ४६ नियोजन स्थिति (संख्या लाखों में) रोजगार के लिए वर्ष पंजीकृत बेरोजगारों की संख्या रोजगार उपलब्ध करवाया गया प्रत्याशी ४५.२ ४०.७ १६७० १६७३ ८२.२ १६७४ m १९७५ १९७६ ५४.४ ५६.२ ६७८ यद्यपि ये आंकड़े कुछ वर्षों पहले के हैं किन्तु इनसे स्पष्ट है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था में केवल ४.५ लाख व्यक्तियों को रोजगार उपलब्ध करवाने की क्षमता ही रही है। यदि इसकी तुलना जनसंख्या की वृद्धि दर से की जाये तो यह कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं है। जनगणना के महापंजीकार ने १९७२ में जो विशेषज्ञ समिति स्थापित की, उसने १९७१ की जनगणना के आधार पर १९८१ तक की जनसंख्या के बारे में संकेत दिये हैं। इसके अनुसार जनसंख्या की वृद्धि की दर जो आंकी गई है वह है १६.७६ प्रति हजार व्यक्ति किन्तु भारतीय रिजर्व बैंक बुलेटिनअनुपूरक-अक्टूबर, १६७७ के अनुसार यह वृद्धि-दर २२ प्रति हजार व्यक्ति आंकी गई है, लगभग एक करोड़ से भी ज्यादा। कहाँ तो एक वर्ष में एक करोड़ की जनसंख्या में वृद्धि और कहाँ ४.५ लाख की रोजगार देने की क्षमता के आंकड़े। इस तथ्य के सन्दर्भ में रोजगार उपलब्ध करवाये गये व्यक्तियों की संख्या को यदि देखा जाये तो स्थिति विपरीत प्रतीत होती है। भविष्य का परिणाम स्पष्ट है। इस शोचनीय स्थिति को अनुभव कर भूतपूर्व जनता सरकार ने आने वाले दस वर्षों में सभी को रोजगार पर लगा देने का आश्वासन दिया था किन्तु वह स्वयं देखते-देखते सत्ता से च्युत हो गई। वर्तमान इन्दिरा सरकार ने भी बेरोजगारी की समस्या से निजात पाने के लिए अनेक कार्यक्रम हाथ में लिये हैं, किन्तु भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा प्रकाशित आँकड़ों पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होगा कि पिछले कुछ समय से रोजगार उपलब्ध करवाये गये व्यक्तियों की संख्या में गिरावट आ रही है। यह एक शोचनीय स्थिति है । समस्या का समाधानरोजगार दो प्रकार का हो सकता है-वेतनभोगी रोजगार तथा स्वरोजगार। केवल वेतन-भोगी रोजगार अकेले ही इस स्थिति का मुकाबला पूरी तरह से नहीं कर सकता है क्योंकि इनके सृजन के लिए बहुत बड़े पैमाने पर निवेश के कार्यक्रम अपनाने पड़ते हैं जिनके लिए बहुत पूंजी की आवश्यकता रहती है । इसलिए जितना सम्भव हो सके उतने अधिक स्वरोजगार के अवसरों के सृजन के प्रयत्न करना आवश्यक है। विशेष रूप से कृषि, लघु उद्योग, व्यापार तथा वाणिज्य के क्षेत्रों में स्व-रोजगार की अभी बहुत क्षमता है। शिक्षा तथा रोजगार के बीच निकटतम सम्बन्ध स्थापित करने के लिए आवश्यक है कि विद्यार्थियों की अभिरुचियों, कुशलताओं तथा व्यक्तित्व की उच्च विशेषताओं को सुनिश्चित किया जाय । आवश्यकता इस बात की भी है कि उचित पाठ्यक्रम और उपयुक्त शिक्षण पद्धतियों को अपनाकर विद्यार्थियों में ऐसे गुणों को भर दिया जाये जो सभी प्रकार के व्यवसायों से सम्बन्ध रखते हैं और अन्ततः उन्हें अधिक रोजगार प्राप्त करने और पर्यावरण के अधिक अनुकूल बनाने और उन्हें रोजगार में लग जाने में अधिक समर्थ बनायें। साथ ही यह भी आवश्यक है कि विद्यार्थियों को पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ उनके जीवनोपयोगी गुणों का विकास किया जाये। इसके लिए ऐसी संस्थाओं की आवश्यकता रहेगी जो चरित्र-निर्माण, त्याग, अनुशासन और नैतिकता की शिक्षा दे सके। आजकल विद्यार्थी वर्ग क्यों Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ तृतीय खण्ड SIC असन्तुष्ट है ? विश्वविद्यालयों में हड़तालें क्यों होती हैं ? इसका प्रमुख कारण है-अनुशासनहीनता, बुरा आचरण और असन्तोष । इस असन्तोष का प्रमुख कारण प्रचलित शिक्षा प्रणाली है जो मात्र बेरोजगारी पैदा करती है । 0400 कितनी ही बातें ऐसी हैं जो कि इस स्थिति के लिए उत्तरदायी है। हमारी शिक्षा प्रणाली की अपनी कुछ कमजोरियां हैं। हमारी सामाजिक परम्परायें ऐसी रही है कि इनमें मेहनत के काम को नीची निगाह से देखा जाता है जिससे कि लोगों में सफेदपोश नौकरियों के लिए एक धुन सी सवार हो गई है। इन सबसे ऊपर एक कारण यह भी रहा है कि हमारे उद्यमकर्ता अल्पविकसित क्षेत्रों में जहां कि बेरोजगारी के असन्तुलन पर और जोर पड़ गया है, जाने से कतराते हैं । इन उद्योगों में लगे देखने लगती हैं और यही नहीं हमारे परम्परागत लघु उद्योग समाप्त हो रहे हैं। घोड़ी-बहुत पढ़-लिख जाती हैं तो वह अपने पैतृक व्यवसायको हेय दृष्टि से में शहरों की ओर भागते हैं। इससे शहरों पर आवादी का भार बढ़ता है तथा गांव वाली होते भी नौकरी के अवसर सीमित हैं और वे भी बिना सम्पर्क, रिश्वत व जेक-जरिये के उपलब्ध नहीं व्याप्त होती है और ऐसे निराश व्यक्ति अन्त में अपराध जगत् की ओर बढ़ते हैं। ट्रेन डकैती, वृद्धि और अन्य प्रकार के अपराधों में बेरोजगारी का बहुत बड़ा हाथ है । व्यक्तियों की सन्तानें वे नौकरी की तलाश रहते हैं शहरों में होते, फलत निराशा डाकुओं की संख्या में पैतृक व्यवसाय भी पूँजी के अभाव से नष्ट हो रहे हैं। उन्हें कच्चा माल समय पर उपलब्ध नहीं होता, फिर बाजार में प्रतिस्पर्धा इतनी है कि उस माल का टिके रहना नितान्त असम्भव है । आधुनिकीकरण की ओर ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है। खादी ग्रामोद्योग बोर्ड, उद्योग विभाग, बैंक, वित्त निगम, सहकारी समतियां आदि के माध्यम से पैतृक उद्योग-धन्धों को विकसित करने के लिए पर्याप्त प्रयास भी किये गये हैं, लेकिन शिक्षित पीढ़ी की अरुचि के कारण ये प्रयास सफल नहीं हुए हैं। तेजी से बढ़ती हुई आबादी पर अंकुश लगाना भी बेरोजगारी के समाधान का एक रास्ता है, किन्तु इन सबके मूल में शिक्षा है। जब तक शिक्षा व्यवस्था व्यावहारिक नहीं होगी तथा वह छात्रों को पैतृक रोजगार की ओर उन्मुख नही करेगी, श्रम की महत्ता को नहीं समझायेगी तथा लोगों को स्वावलम्बन का पाठ नहीं पड़ायेगी तब तक पैरोजगारी के आंकड़े बढ़ते ही रहेंगे। 7 वास्तव में शिक्षा और बेरोजगारी में कुछ तालमेल बैठाने के लिए एक गम्भीर चिन्तन की आवश्यकता है । इसके समाधान के लिए न केवल सरकार ही उत्तरदायी है बल्कि देश का युवावर्ग, विद्यार्थीवर्ग उद्यमीवर्ग तथा संस्थाओं की भी अपनी जिम्मेदारियाँ हैं। जब तक एक साथ मिलकर समाधान नहीं किया जाता तब तक किसी एक मात्र का प्रयत्न अधूरा ही रह जायेगा तथा उसका कोई लाभ भी नहीं होगा । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +0+0+0 छात्र असन्तोष क्यों ? 0 श्री बी० पी० जोशी (भू० पू० निदेशक, राज्य विज्ञान शिक्षण संस्थान, उदयपुर) आज हमारे विभिन्न शिक्षा केन्द्रों में चाहे वे सैकण्डरी स्कूल हों, हायर सैकण्डरी स्कूल हों, कॉलेज हों या विश्वविद्यालय हों या किसी प्रकार के व्यावसायिक अथवा सामान्य डिग्री कॉलेज हों, हर जगह विद्यार्थियों द्वारा किसी न किसी प्रकार का आन्दोलन चलाना साधारण सी बात हो गई है। अभी तक शिक्षाशास्त्री, शिक्षामर्मज्ञ, शिक्षाविद् तथा शैक्षिक नीति-निर्धारकों द्वारा कोई सन्तोषजनक कदम इन आन्दोलनों को शान्त करने के लिए नहीं उठाया जा सका है । वस्तुतः समस्त विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों में असन्तोष फैला हुआ है और युवापीढ़ी जीवन के विविध सन्दर्भों में अपनी अनियमितताओं, अनैतिकता और दुर्व्यवहारों से अपने से श्रेष्ठ लोगों को त्रस्त करना अपने लिए प्रतिष्ठा की बात समझते हैं। सामान्य जनता ही नहीं वरन् हमारे देश की विभिन्न राज्यों की सरकारें भी इसके सामने घुटने टेक देने के रूप में अपने नियमों में परिवर्तन करती रही हैं, स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई है कि परीक्षाभवन में परिवेक्षकों को धमकाना, सड़कों पर दुकानदारों को लूट लेना, आक्रोश में दुकानों, सिनेमाघरों में तोड़-फोड़ मचाना अथवा आग लगा देना, अपने अध्यापकों के प्रति अशिष्ट व्यवहार दिखाना, विश्वविद्यालय के कुलपतियों तथा अन्य अध्यापकों तथा अधिकारियों का घेराव करके अपनी बात मनवाने के लिए बाध्य करना आजकल की सामान्य बातें हो चली हैं । वैसे तो बहुत से विचारकों ने अपने-अपने मौलिक दृष्टिकोण इस समस्या के बारे में प्रकट किये हैं, परन्तु आमतौर पर यह विचार सबसे प्रबल है कि विद्यार्थी आन्दोलन के लिए विद्यार्थी को ही दोषी नहीं ठहराना चाहिए; बल्कि इसके लिए देश की सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों को ही उत्तरदायी ठहराया जा सकता है । भारत का विद्यार्थीजगत् गहन व्याकुलता एवं अशान्ति की अवस्था में है । देश के सभी भाग विद्यार्थी, उपद्रवों एवं विद्यार्थी अनुशासनहीनता से पीड़ित हैं। वास्तव में इन घटनाओं ने ऐसे रूप धारण किए हैं कि ये कानून एवं व्यवस्था के लिए समस्या बन गये हैं। इस समस्या पर प्रकाश डालने से पूर्व इसके परिणाम हमको स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। यह किलनी दयनीय स्थिति है। संस्कृति, कुलीनता तथा शिष्टाचार के बन्धन शिथिल होने की यह स्थिति अत्यन्त शोचनीय है और इसकी पूर्ति में एक पीढ़ी से भी अधिक समय लगेगा। अध्ययन के घण्टों की अपार क्षति हुई है । उसमें भी अधिक क्षति ध्यान लगाकर कठिन कार्य करने की आदत छूट जाने की हुई है। अविवेकपूर्ण, शरारती व विनाश की भावना का जो विकास छात्रों में हुआ है, उसके परिणामों की कल्पना नहीं की जा सकती । छात्र सार्वजनिक सम्पत्तियों को नष्ट कर रहा है, वह तनिक भी यह विचार नहीं करता कि उनका उपयोग वह भी स्वयं बराबर करता रहा है और भविष्य में भी उनके उपयोग की आवश्यकता होगी। वह भूल जाता है कि निकट भविष्य में मजिस्ट्रेट या पुलिस अफसर के रूप में सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करने का दायित्व उस पर भी आयेगा । आवेश के क्षणों में वह नहीं समझता कि जिन चीजों को नष्ट कर रहा है, उसे उसके माता-पिता ने कर . Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड देकर निर्मित किया है, इस तरह की क्रूर पेक्षा एक ऐसे चरित्र का द्योतक है जो अपने अन्दर खतरनाक मनोवृत्तियाँ छिपाये हुए है। बिना कारणों के समझे शक्ति द्वारा दमन करने से किसी घटना को कुछ काल के लिए ही दबाया जा सकता है परन्तु अनुकूल अवसर प्राप्त होने पर उसके और भी विस्फोटित होने की सम्भावना होती है। हमें उपचारात्मक कार्यक्रमों को प्रारम्भ करने से पूर्व इन घटनाओं के कारणों को पूर्णतया समझना आवश्यक है तथा अध्ययन एवं शोध द्वारा ही इन कारणों को समझा जा सकता है। छात्र असन्तोष के कारण वर्तमान शिक्षा पद्धति प्रस्तावित उद्देश्यों को न पूरा करती है और न छात्रों को ऐसा आवश्यक व्यावसायिक कौशल ही देती है कि वे शिक्षा प्राप्त करने के बाद किसी कार्य को पकड़ सकें । फलतः शिक्षा प्राप्त करने के नाद छात्र अपनी समस्याओं को हल करने में अपने को समर्थ नहीं पाते । वर्तमान शिक्षा का उद्देश्य तो परीक्षा पास करा देना ही हो गया है। राजस्थान के भूतपूर्व शिक्षामन्त्री श्री शिवचरण माथुर का विचार है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली केवल विद्यार्थियों को नौकरी करने की ही प्रेरणा देती है। शिक्षार्थी मानव न बनकर सरकारी मशीन के पुर्जे के रूप में ढलकर आता है। विद्याथियों के निर्माण पर अधिक बल दिया जाना चाहिये। क्योंकि समाज भी तो व्यक्तियों से ही बनता है। श्री गुरुदत्त के विचार से डिग्री, डिप्लोमा तथा प्रमाण पत्रों को देने की प्रथा समाप्त कर देनी चाहिये तथा शिक्षा क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप को सर्वथा हटा देना चाहिये । वर्तमान में पढ़ाने की जो पद्धति है, वह बहुत दूषित है। विषय के अध्यापक न होने के कारण छात्र रुचि लेकर नहीं पढ़ते जिससे परिणाम अच्छा नहीं रहता है अत: इसमें सुधार आवश्यक है। वर्तमान शिक्षा पद्धति छात्र के जीवन में कोई एक उद्देश्य भरने में सफल नहीं होती कि वे अपने भविष्य को सुनियोजित कर सके । हमारे देश में बेरोजगारी बहुत बढ़ गई है। अतः रोजगार प्राप्ति की ओर व्यावसायिक शिक्षा को अधिक बढ़ावा देना चाहिये। हमारी आर्थिक कठिनाइयाँ इतनी विषम हो चुकी हैं कि समझ में नहीं आता कि भविष्य में हमारी आर्थिक स्थिति का क्या स्वरूप होगा। हमारे अधिकांश छात्र ऐसे परिवारों से आते हैं जो आर्थिक दृष्टि से बड़े ही संकीर्ण होते हैं। ऐसे परिवार अपने बच्चों को उच्च शिक्षा नहीं दे पाते । समस्या का एक पक्ष गत कुछ वर्षों में विद्यार्थियों की संख्या में भारी वृद्धि एवं समाजशास्त्रीय और संविधान में हो रहे भारी परिवर्तनों का है। संख्याओं में वृद्धि के कारण अध्यापक और विद्यार्थी के तीच व्यक्तिगत सम्पर्क बनाये रखना अति कठिन हो गया है। जिसके कारण अध्यापक और विद्यार्थी के बीच आवश्यक व्यवहार विनिमय में तीव्र गति से कमी हुई है। हमारे कालेज, विश्वविद्यालयों तथा स्कूलों में पढ़ाने की विधियाँ गड़बड़ हो चली हैं। इसमें विद्यार्थी में अग्रिम जानकारी हेतु कोई जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती और न वैज्ञानिक पद्धति ही होती है। फल यह होता है कि कक्षा में उनका मन नहीं लगता और न अधिकांश अध्यापकों के प्रति उनमें सम्मान की भावना उत्पन्न होती है। हमारे स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों में आज बहुत से ऐसे अध्यापक हैं जो योग्य नहीं है। ऐसे व्यक्ति अध्यापक हो गये हैं जिन्हें अपने अध्यापन में तनिक भी रुचि नहीं है। किसी भी विद्या-केन्द्र का कार्य विद्यार्थियों को केवल परीक्षा पास करने के लिए ही तैयार करना नहीं है वस्तुत: शिक्षा का उद्देश्य तो सम्पूर्ण व्यक्तित्व का सामंजस्यपूर्ण विकास है। आज परीक्षा प्रणाली ऐसी ही है जो अध्यापन प्रक्रिया परोक्ष पर आधारित हो गई है। शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य परीक्षा पास करना ही रह गया है। उपयुक्त कार्यक्रमों को प्रारम्भ करने में सरकार विविध शिक्षा Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छात्र असन्तोष क्यों ५३ केन्द्रों तथा समाज की सभी सम्बन्धित इकाइयों को आवश्यक सहयोग देना होगा। छात्रों में व्याप्त असन्तोष के निवारण हेतु समाज के सभी लोगों को अपने-अपने कर्तव्य निभाने होंगे। विद्यार्थियों के असन्तोष को दूर करने के लिए शिक्षा क्षेत्र में 'कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा' ने अपने अथक परिश्रम से कार्य किया है। भगवान महावीर के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हए राणावास में विशेष विद्यार्थियों को सन्तोष प्राप्त हो, इसी प्रकार की शिक्षा दी जा रही है, बालक का सर्वांगीण विकास हो इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए ये विद्याध्ययन केन्द्र खोले हैं। श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ शिक्षा के क्षेत्र में प्रगति कर रहा है। श्री सुराणाजी का जीवन एक कर्मयोगी, त्यागमूर्ति तथा कर्मठ समाज-सेवी प्रकाशमान जीवन रहा है। विद्याभूमि राणावास में आप द्वारा संस्थापित प्राथमिक शिक्षा से लेकर महाविद्यालयी शिक्षण तक की साधन सुविधाएँ आपके दृढ़ संकल्प का । प्रतीक है। शिक्षा के क्षेत्र में कई विद्यालय कार्य कर रहे हैं। परन्तु कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा का जो अभिनन्दन ग्रन्थ निकल रहा है वह वास्तव में बड़ा उपयोगी होगा। न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे । सुयलाभे न मज्जिज्जा, जच्चा तवसि बुद्धिए ॥ -दशवकालिक ८।३० बुद्धिमान किसी का तिरस्कार न करे, न अपनी बड़ाई करे । अपने शास्त्र ज्ञान, जाति और तप का अहंकार न करे। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों में चरित्र- निर्माण : दिशा और दायित्व 0 श्री उदय जारोली प्राचार्य, ज्ञान मन्दिर महाविद्यालय, नीमच (म० प्र०) बच्चों के चरित्र- निर्माण के बारे में बहुत कुछ कहा जाता रहा है। बड़े अपने चरित्र की बजाय बच्चों के चरित्र की चिन्ता कर-करके थके जा रहे हैं। मानों चरित्र-निर्माण इन बड़ों द्वारा पाठ पढ़ाये जाने से ही हो जाएगा। बड़े बड़े मजबूर हैं। बड़ों का कहना है कि कानून ऐसे हैं कि सब कानूनों का पूरा-पूरा पालन करें तो धन्धा-रोजगार नहीं चल सकता । व्यापारी कहता है, सारी हिसाब की किताबें सफेद रखें और सारे कर चुकाएँ तो बच्चे भूखों मर जाएँ । अफसर कहता है कि यदि रिश्वत नहीं ले तो गुजारा मुश्किल है, लड़की का ब्याह कैसे करें? उद्योगपति उत्पादन में, आयात-निर्यात में घोटाला नहीं करे, एक्साइज की चोरी नहीं करे, कारखाना इन्सपैक्टर को घूस न दे, राजनैतिक दलों को चुपके-चुपके चन्दे नहीं दे तो उसका उद्योग ठप्प हो जाए। ट्रक और बस वाला गाड़ी कितनी ही अपटूडेट क्यों न रखे आर०टी०ओ० और पुलिस वाले चालान बनाएँगे ही। उनके भी बाल-बच्चे जो हैं। तो जितनी बेईमानी, भ्रष्टाचार, रिश्वत-घूस, छल-कपट, कालाबाजारी, कर-चोरी होती है वह सब बाल-बच्चेदार बाल-बच्चों के नाम पर करते हैं। चरित्र का संकट, शायद, हर काल में रहा होगा तभी तो बार-बार महापुरुष जन्म लेते हैं, ईश्वर अवतरित होते हैं, भगवान-तीर्थकर तारने आते हैं, संसार का पाप मिटाते हैं । इस काल में भी चारित्रिक अध:पतन हो रहा है तो कुछ भौतिक सुखवाद का प्रभाव है और कुछ काल का भी प्रभाव मानना चाहिए फिर भी हमें सोचना है कि अवगुणों के स्थान पर चारित्रिक गुणों की प्रतिष्ठा हो और गुणवान की गरिमा और महिमा हो। हम सब बच्चों का चरित्र उच्च हो यह चाहते हैं, पर कौन-से बच्चों का ? बच्चों के चरित्र-निर्माण में मां क्या कर सकती है ? मजदूर और किसान माँ बच्चे को पीठ पर लादकर मजदूरी करती है। माँ सड़क या खेत में काम करती है और बच्चे एक किनारे पर बिलखते रहते हैं। ये ही बच्चे कुछ बड़े होकर गाय, बकरी, ढोर चरा लाते हैं। हजारों बच्चे फुटपाथों पर जन्म लेते हैं और वहीं जीवन पूरा कर लेते हैं। कहीं झुग्गी-झोंपड़ियों में पैदा होते हैं । स्टेशनों और बस-स्टेशनों के पास बने अनाधिकृत अड्डों पर जन्मते हैं। हम कौन से बच्चों के चरित्र-निर्माण की बात करें ? उन बच्चों का चरित्र-निर्माण कौन कर सकता है ? क्या माँ ? नहीं। उसके पास न तो देने के लिए दाना है और न ही कपड़ा है, और न ही शिक्षा है, न स्वस्थ रखने के लिये कोई साधन है। इनमें से अधिकांश बच्चे अनपढ़ रह जाते हैं, और कुछ बूट पालिश करते हैं। कुछ अलग-अलग तरह से भीख माँगते हैं। कुछ चोरों-पाकेटमारों के जाल में फँसकर चोरी-पाकेटमारी करते हैं। बड़े होकर दादागीरी-गुण्डागीरी करते हैं। भीख मांगने वालों के बच्चे भी भीख माँगते हैं। छोटी लड़कियाँ शरीर दिखाकर भीख माँगती हैं। इन अभावग्रस्त-दुखियारे बच्चों के चरित्र-निर्माण की बात करना उन्हें शर्माना है। कुछ मध्यमवर्गीय, छोटे-मोटे किसान, बड़े और संगठित मजदूर, नौकरी पेशा और मझले व्यापारियों को - बच्चों के चरित्र निर्माण की चिन्ता कम और उनके धन्धे या नौकरी की चिन्ता अधिक रहती है। वे सोचते हैं, किसी भी Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों में चरित्र-निर्माण : दिशा और दायित्व ५५ प्रकार से बच्चों का पालन-पोषण हो जाए और बच्चा नौकरी पर लग जाए। इन अभिभावकों को बच्चों के चरित्रनिर्माण की चिन्ता कहाँ रहती है ? उच्च, मध्यमवर्गीय, उच्चकुलीन-अभिजात्य वर्ग के या बड़े व्यापारियों-उद्योगपतियों, अधिकारियों के बच्चों के चरित्र-निर्माण की बात सोचें पर इन्हें बच्चों का चरित्र कहाँ बनाना है ? ये जानते हैं कि ईमानदार, सत्यवादी, गुणवान, शीलवान और कर्मठ कार्यकर्ता तो भूखे मरते हैं। इन्हें चरित्र-निर्माण करके क्या बच्चों को भूखा मारना है ? अपना उद्योग-धन्धा चौपट करना है ? इन अभिभावकों का ध्येय बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूल, इंगलिश, बाल मन्दिर, फिर पब्लिक स्कूल में रखकर गिट-पिट सिखानी है, मैनर्स सिखाने हैं, काले शोषक अफसर बनाने हैं इसके लिए चरित्र कहाँ चाहिये ? इन्हें चाहिए ऊँची डिग्रियाँ । इन बच्चों की माताओं को फुरसत भी कहाँ है ? वे क्लब-पोसायटी में जायें या बच्चे का चरित्र-निर्माण करें ? बच्चे तो नौकर-नौकरानियाँ (वे भी तो मुफ्त के सरकारी खर्च पर मिलने वाले) पाल सकती हैं। इनके बच्चे तो 'क्लब' 'एबीसी' तो बाहर सीखते ही हैं हँगना-मूतना भी कान्वेन्ट और इंगलिश स्कूल में सीखते हैं । २५-५० रुपये खर्च किये महीने के और चरित्र-निर्माण से लगाकर सब कार्यों से मुक्ति पाए । ये आधुनिक माताएँ इन्हें भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, ज्ञान क्यों सिखाएँ ? क्या इन्हें दकियानूसी बनाना है ? ___अभिभावकों में से पिता को ले तो प्रथमत: चरित्र-निर्माण का जिम्मा वह माँ पर छोड़ता है और फिर शिक्षक पर । उसे रोटी-अर्जन से ही फुर्सत नहीं मिलती। पिता के स्वयं के चरित्र का हवाला हम पहले दे चुके हैं। बच्चा घर में देखता है कि पिता को झूठ बोलना पड़ता है। बेईमानी और रिश्वत से ही अधिक पैसा आता दीखता है। काला बाजार और दो नम्बर से ही भवन बनते देखता है तो जिस घर में अन्न ही इस प्रकार का आता हो तो उस बच्चे को शिक्षक कितनी ही राम और हरिश्चन्द्र, महावीर और गौतम की कहानियाँ और नीति के पाठ बताएँ वह बच्चा नीतिवान और चरित्रवान नहीं बन सकता । कुछ माता-पिता अपने काले कारनामों-धन्धों से दु:खी होकर बच्चों को उससे मुक्त करना चाहते हैं अत: उन्हें (उसी काले-पीले धन से) अच्छी शिक्षा और प्रशिक्षण दिलाना चाहते हैं पर वे बच्चे भी बिगड़ते देखे जाते हैं। आखिर काली कमाई का अन्न तो असर करेगा ही। बच्चा घर के दूषित वातावरण में घुटे, घृणा-द्वेष कलह और लड़ाई-झगड़ों को झंले, टूटते-बिखरते परिवार के आश्रय में रहे तो इसका वहाँ दम घुटता है । वह बाहर आता है पर बाहर भी तो दम घोंटू वातावरण है? कितनी विकृति है ? स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने का वातावरण कम और उच्छंखलता, दादागीरी-गुण्डागीरी हावी होती जा रही है। शिक्षक कौन से परिश्रमी ज्ञानवान और चरित्रवान मिल रहे हैं ? यदि इक्के-दुक्के समर्पित व्यक्ति मिलते भी हैं तो वे बच्चे का चरित्र अत्यल्प प्रभावित कर पाते हैं। वैसे आज के शिक्षक का गुणवान, चरित्रवान होना आवश्यक कहाँ है ? चरित्र प्रमाण-पत्र तो सभी सरकारी-गैर सरकारी नौकरियों के लिए आवश्यक है पर आज तक किसी को 'दुश्चरित्र' है ऐसा प्रमाण-पत्र दिया जाता नहीं देखा। सारे शिक्षक इस प्रकार चरित्रवान हैं चाहे वे शिक्षण के साथ खेती-बाड़ी या अन्य धन्धे करते रहें और कक्षा में बच्चों का पोषण आहार स्वयं हजम कर जाएँ, चाहे धूम्रपान करें, चाहे शराब पीएँ, चाहे स्कूल-कॉलेज में गुटबन्दी और राजनीति चलाएँ। इनसे बच्चों का कौनसा चरित्र बनेगा ? बच्चा तो देखकर सीखता है चाहे शिक्षक कहते रहें कि "हमारे चरित्र की कमियाँ मत देखो, हमारे ज्ञान से सीखो"। फिर ज्ञान भी कौनसा ? सरकार द्वारा निर्धारित ज्ञान । अध्यात्म, धर्म, दर्शन, संस्कृति के पाठ पढ़ाना संविधान ने रोक रखा है। सरकार तो मात्र व्यावहारिक शिक्षा दिलाती है जिसका सम्बन्ध आजीविका से हो (हालाँकि वह भी नहीं हो रहा है)। वह काल गया जब सामान्य जन से लगाकर राजा, महाराजा के बच्चे ऋषि-मुनियों के आश्रम में रहकर शास्त्रों और शस्त्रों की शिक्षा अर्जित करते थे। वह जमाना भी अभी-अभी गया जब माता-पिता बच्चे को स्कूल में भर्ती करते समय कहते थे—“माड़सा, इसका मांस-मांस आपका और हड्डी-हड्डी हमारी।" अब तो चाहे छात्र नहीं Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड पढ़े या उदंडता करे और शिक्षक हाथ भी लगा दे तो बच्चे के मां-बाप लड़ने आ जाते हैं। सरकार और मनोवैज्ञानिक भी मना करते हैं। सब ओर भटककर अन्त में शिक्षा विभाग में आ टिकने वाला शिक्षक, अपनी घरेलू, आर्थिक, सामाजिक समस्याओं में उलझा हुआ, हताशा-निराशा में जी रहा न्यून वेतनभोगी, उपेक्षित शिक्षक बच्चों का चरित्र-निर्माण कैसे कर सकता है? माता-पिता, विद्यार्थी, शिक्षक, शिक्षण संस्था और सरकार, सबका लक्ष्य है कि शिक्षार्थी कक्षा में उत्तीर्ण हो जाय, डिग्री पा ले । उसके लिये कई तरीके हैं, कई हथकंडे हैं जिनके सहारे विद्यार्थी उत्तीर्ण हो जाता है। यदा-कदा शिक्षक भी उस हथकडे में साथ देता है। चाहे भय से दे या लालच से दे । चरित्र वाले कालम में 'सामान्य' या 'ठीक' लिखना भी प्रधानाचार्य और प्राचार्य के लिये जोखिम का काम है चाहे विद्यार्थी दादा-गुण्डा ही क्यों न रहा हो और उसी के बल पर उत्तीर्ण क्यों न हुआ हो? शिक्षकों के अल्पज्ञान, प्रमाद, चारित्रिक कमजोरी, पक्षपात, गुटबन्दी, राजनीति एवं सिद्धान्तविहीनता के कारण आज बच्चे उन पर एवं शिक्षण संस्थाओं पर पत्थर बरसाने लगे हैं। समर्पित माने जाने वाले शिक्षक, विद्वान, आचार्य, कुशल प्राचार्य और कुलपति भी घुटने टेक रहे हैं । उन्हें अगली कक्षा में चढ़ा रहे हैं, परीक्षा आसान कर रहे हैं, डिग्रियाँ बाँट रहे हैं। इन सब शिक्षकों से बच्चों के चरित्र-निर्माण और भविष्य निर्माण की क्या अपेक्षा की जाए? आज बच्चों के चरित्र-निर्माण में माता-पिता और शिक्षक की भूमिका शून्यवत् है। वे आदर्श नहीं रहे हैं। आज बच्चों के लिये आदर्श हैं नेता और अभिनेता ! आज उनके आदर्श हैं सिनेमा के गंदे पोस्टर; गलियों में बजने वाले शराब के और प्यार के गाने; 'गुण्डा', बदमाश, डाकू, पाकेटमार नामक फिल्में; उनमें फिल्मायें जाने वाले ढिशुम्-ढिशुम, अश्लील और वीभत्स दृश्य-चित्र; रहे-सहे में अश्लील-जासूसी उपन्यास, कहानियाँ, सत्यकथाएँ; फिल्मों और अभिनेताओं के व्यक्तिगत कार्य कलापों और रासलीलाओं से भरे पड़े सिने समाचार पत्र-पत्रिकाएँ। छोटे बच्चों को "ले जायेंगे-ले जायेंगे दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे", "झूम बराबर झूम शराबी", "खाइ के पान"-"खुल्लम-खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों" आदि सैकड़ों लाइनें याद हैं । आज अंत्याक्षरी में सूर, तुलसी, मीरा, कबीर, निराला और महादेवी के पद वजित हैं जैसे पहले कभी सिनेमा के गाने वजित थे। महापुरुषों की जीवनी, इतिहास-पुरुषों के त्याग और उत्सर्ग की कहानियाँ आज के बच्चे को याद नहीं रहती पर सिनेमा के अभिनेता, अभिनेत्री के नाम-पते, उनके प्यार और विवाह के किस्से याद रहते हैं। किसका कितना नाप है याद रहता है, कौन किस-किस फिल्म में आ रहा है याद रहता है। इस वातावरण में बच्चों के चरित्र-निर्माण की क्या बात की जाय ? दुसरे आदर्श हैं हमारे नेता ! जैसा दिल्ली दरबार में होता है या भोपाल या जयपुर आदि में होता है बच्चे उसकी नकल करते हैं । बच्चा देखता और सोचता है कि बिना पढ़े, बिना योग्यता के, बिना चारित्रिक गुणों के, परन्तु जोड़-तोड़ से शिखर पर पहुँचा जा सकता है। गाँव का बच्चा पंच-सरपंच के चुनावी अखाड़े देखता है। शहरी बच्चा भी चुनावी दंगल देखता है। स्कूल-कालेज में उसकी नकल उतारता है । दादागीरी-गुण्डागीरी, छल-कपट, प्रतिद्वन्दी को खरीदना, वोटर को खरीदना, यह सब बड़े नेताओं से सीखता है । बच्चा संसद व विधानसभाओं में जूते, चप्पल चलते देखता है, सुनता है, हाथापाई के समाचार सुनता है । सत्ता-प्राप्ति के लिए नेताओं का इधर से उधर उछलना-कदना देखता है । वायदा-खिलाफी देखता है । सत्ता से पैसा, पैसे से सत्ता, सत्ता से सुख और पैसा--यह चक्र चलते देखता है। फिर नेताओं द्वारा लाखों-करोड़ों के घपले भी सुनता है; फिर मी उनका बाल-बाँका नहीं होता है यह भी जानता है। राजनेता फिर भी उजला ही दिखता है। यह दृश्यावली बच्चे के सामने गुजरती है; फिर उसका चरित्र कैसे बनेगा ? यह सब चलता रहे और बच्चे का चरित्र बन जायेगा यह कैसे सम्भव है ? इन सिद्धान्तविहीन कुर्सी-दौड़ वालों से बच्चा कौन-सा चरित्र ले ? समाज के सर्वोच्च शिखर पर बैठे हुए समाज के ठेकेदारों, दो नंबरियों, काला-बाजारियों से बच्चा क्या सीखे ? सभी बच्चों को (११ वर्ष तक की आयु वालों को) निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा सरकार नहीं दे सकी। मन्त्रियों, अधिकारियों के बंगलों पर लाखों खर्च हो सकते हैं पर Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों में चरित्र-निर्माण दिशा और दायित्व ५७ स्कूलों में कमरे नहीं हैं, टाट पट्टियाँ नहीं हैं। बच्चों के स्कूल घुड़शाला से अधिक नहीं बन पाये । औषधालय बूचड़खाने से अधिक नहीं बन पायें समाज के कई लोगों के बच्चे अवैध रूप से सरों पर छोड़ दिये जाते हैं। बच्चे कुपोषण के शिकार हैं, बीमारियों से पीड़ित हैं, अभावों की जिन्दगी जीते हैं और फिर भी समाज के ठेकेदार और देश के कर्णधार इन्ही बच्चों को नीति और आदर्श का पाठ पढ़ाने के लिए धुंआधार भाषण झाड़ जाते हैं। सरकार ने संविधान के अनुच्छेद २३ के प्रावधान का पालन करते हुए १४ वर्ष से कम के शिशुओं को कारखानों और खतरनाक कामों पर नियुक्त करने पर रोक लगा दी है पर आज भी कई बच्चे ऐसे काम करते हैं । कई छोटे बच्चे ठेला चलाते हैं, हम्माली करते हैं, साइकिल रिक्शा चलाते हैं । कई कानून बन गये पर होटलों में सुबह से रात्रि तक काम करने वाले छोटे-छोटे बच्चों को राहत नहीं दिला सके। बच्चों के नियोजन पर रोक का कानून १९३९ से ही बन गया, उसमें कई उद्योग, व्यापार, व्यवसाय सम्मिलित कर लिये गये, अभी १६७९ में रेलवे ठेकेदारों को भी इसमें लिया गया पर क्या बच्चों का नियोजन रुका ? नहीं। बच्चों का व्यापार घोर दण्डनीय अपराध है फिर भी होता है। अपहरण होते हैं। छोटे-छोटे बच्चे पाकिटमार, चोर गिरोहों में चले जाते हैं। छोटी-छोटी बच्चियां कोठे की शरण में पहुँच जाती हैं। चोपड़ा बच्चे हत्याकाण्ड सरीखे हत्याकाण्ड होते हैं। गांव-शहर सब ओर बलात्कार भी होते हैं । समाज द्वारा बनाई हुई या सरकार की इस कुव्यवस्था, कानूनी दुर्व्यवस्था में हम बच्चों के चरित्र की बात किस मुँह से करें ? भिक्षावृत्ति पर रोक है । मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में वर्षों पूर्व से कड़े कानून बने हुए हैं पर स्टेशनों पर, डिब्बों में, सड़कों-फुटपाथों पर बड़े-बड़े तीर्थ स्थानों पर छोटे बच्चे भीख माँगते, अकुलाते दिखाई देते हैं । धार्मिक स्थानों पर लाखों-करोड़ों रुपये मन्दिरों, मस्जिदों, यज्ञ-हवन, भोजन पर खर्च हो जाते हैं पर वहीं छोटे-छोटे बच्चे अन्न के लिए तरसते मिल जायेंगे हम इस समाज से बच्चों के चरित्र में किस भूमिका की बात करें ? भीड़ भरी बस, ट्रेनों में बच्चे भेड़ बकरी सरीखे जाते हैं। बच्चे वाली महिलाएं भी बड़ी-बड़ी पिसती चली जाती है। बच्चों के बारे में किसे चिन्ता है ? सरकार ने बाल विवाहों की बुराई देखकर पचास वर्ष पूर्व कानून बनाया पर क्या उससे बाल विवाह रुक पाए ? नहीं। टूटे-बिखरे परिवारों के बच्चों के लिए समाज और सरकार ने क्या व्यवस्था की ? अब तो इन कानूनों की सरकार में बैठे मंत्री भी तोड़ने लगे हैं, तो दूसरों से क्या अपेक्षा रखें ? इतना सब होते हुए भी इस दुश्चक्र से निकालकर बच्चों के चरित्र-निर्माण पर सर्वाधिक ध्यान देना होगा । तभी चारित्रिक अध: पतन से उत्पन्न सामाजिक विकृति से निजात पा सकते हैं। इसलिए अभिभावक, शिक्षक और समाज और स्वयं को बदलना होगा और तब कुछ परिवर्तन हो सकेगा। हम बच्चों के चरित्र-निर्माण में क्या भूमिका निभाएँ, पहले उक्त गित परिस्थितियों को बदलें और कुछ ठोस कार्य करें। इस पृष्ठभूमि में हम सोचें कि बच्चे के चरित्र-निर्माण में अभिभावक की भूमिका कितनी अहम है ? इनमें से माँ का प्रभाव बच्चे के चरित्र पर सर्वाधिक पड़ता है। गर्भावस्था से ही शिशु का मन प्रभावित होता है । आज की महिला चाहे माने या न माने पर मनोवैज्ञानिक अब अभिमन्यु का गर्भ में ज्ञान सिद्धान्त मानने लगे हैं। साम्यवादी 'देशों में 'ब्रेन वाशिग गर्भवती माँ को पाठ पढ़ाकर ही किया जा रहा है। हमारे धर्मशास्त्रों में इसके किस्से पाये जाते हैं कि गर्भस्थ शिशु अपनी माँ एवं सबको प्रभावित करता है और मां भी बच्चे का विशेष उसका आचार-विचार शुद्ध और उच्च हो सद्साहित्य का वाचन श्रवण करे विग्रहों, कुण्ठाओं से दूर रहे। कामकोध से परे रहे। सरल और मौख्य जीवन यापन करे। 1 इस हेतु समाजसेवी धार्मिक संस्थाओं को विभिष्ट साहित्य उपलब्ध कराना चाहिये। प्राचीन साहित्य एवं नीति कथाएं उपलब्ध हैं। इनका विशेष प्रचार-प्रसार होना चाहिये। समाजसेवी संस्थाओं एवं ग्रन्थालयों से ध्यान रखती है। उस काल में मां आर्थिक-मानसिक व्यथाओं, . Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड ऐसा साहित्य गर्भवती माँ तक पढ़ने के लिये पहुँचाना चाहिये । धर्मगुरुओं को ऐसे उपदेश देने चाहिये और सद् साहित्य वाचन एवं श्रवण की प्रवृत्ति बढ़ानी चाहिये । सरकार का विशेष दायित्व है कि शिशु शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ जन्में और स्वस्थ विकसित हों। इस हेतु औषधालयों की लापरवाही रोकी जानी चाहिये। बाल्यकाल में शिशु का पोषण एवं प्रशिक्षण स्वस्थ हों, इस हेतु सरकार के साथ समाजसेवी संस्थाओं को भी सुविधाएँ प्रदान करनी चाहिये । माँ का पुनीत कर्तव्य है कि उसके बच्चे नीतिवान, ईमानदार कर्त्तव्यनिष्ठ, परिश्रमी, साहसी और चरित्रबान बनें। हर माँ शायद देना चाहती है पर केवल लाड़-प्यार एवं खुद अच्छा विताने पहनाने से वह वैसा नहीं बन जाता । अन्तर्मन में ममता पर बाह्य में कठोर रहते हुए शिक्षा एवं संस्कार देने होंगे । शिक्षित माताएँ छोटे-छोटे बच्चों को बाल मन्दिर में ढकेलकर उन्हें ममताविहीन नहीं करें अपितु स्वयं पढ़ायें । इस आयु में उसकी बहुत सी आदतें सुधारी जा सकती हैं। नौकर या बालमन्दिर बालों से अच्छे चरित्र और संस्कारों की कल्पना करना है। बच्चा प्रथमतः माँ को आदर्श मानकर आचरण करेगा । वह माँ के गुण-अवगुण, आचार-विचार से अत्यधिक प्रभावित होता है अतः माँ को अवगुणों से दूर, द्वेष- कलह से परे आचरण करना होगा। बच्चे को अन्याय-अत्याचार का मुकाबला करने की सीख देनी होगी व्यावहारिक शिक्षा के साथ उसे कुछ आध्यात्मिक बातें बातों-बातों में बतानी चाहिये । बच्चा बड़ी उत्सुकता से स्वयं के आगमन-गमन, पृथ्वी, आकाश, प्रकृति के बारे में जानना चाहता है तभी उसे कुछ आत्मिक ज्ञान दिया जा सकता है। नासमझ समझकर टालना या झिड़की देना उसमें कुण्ठाएँ उत्पन्न करता है । यदि म नित्य नियम, समता - सामायिक, पूजन-अर्चन-दर्शन करती हो, साधनामयी जीवन जीती हो तो बच्चा उससे अवश्य प्रभावित होगा । वह स्वयं सीख लेगा । सम्पन्न माँताएँ समझा सकती हैं कि अन्न एवं अन्य वस्तुओं का अपव्यय न हो चूँकि लाखों बच्चे अध-पेट रहते हैं । इससे अपव्यय भी रुकेगा और इस सामाजिक अव्यवस्था के प्रति बच्चे में चिन्तन जगेगा, उसके विरुद्ध विद्रोह भड़केगा । ॐ-नीच क्यों है— नहीं होना चाहिये, मृत्यु-भोज बुरा है, तिलक, दहेज बुरा है आदि बातें समझाकर इन बुराइयों के प्रति भावना माँ ही जगा सकती है। ऋषि-मुनियों, वीरों, योद्धाओं, शहीदों के कहानी - किस्से माँ बात-बात में बता सकती है । पुतलीबाई से हरिश्चन्द्र की कहानी सुनकर मोहनदास, महात्मा गाँधी बन गये तो क्या अब ऐसा सम्भव नहीं है । आज माताएँ उन्हें स्वयं कुछ सिखाने की बजाय रोते-बिलखते भी जबरन कई घण्टों के लिये बाल-मन्दिरों या इंग्लिश स्कूलों में भेजकर पिण्ड छुड़ाती हैं। माँ सबसे बड़ा गुरु माना गया है तो क्या वह पुस्तकों में लिखा रहने के लिये है ? धर्म और नीति का पाठ मां से अच्छा और कोई नहीं सिखा सकता है। 'सदा सच बोलो' हजार बार लिखाने से भी वह सत्य बोलना नहीं सीखेगा यदि वह पारिवारिक और सामाजिक समव्यवहार में सत्यं की हार होते देखेगा । अतः माँ-बाप का कर्तव्य है कि उनका आचरण नीतिमय हो, धर्ममय हो। उनके विचार उच्च हों। वे सादगी से और सन्तुलित जीवन-यापन करें। स्वयं देवैमनस्य, काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों से हटकर जीवन जीयें तब हम पायेंगे कि बच्चे भी परिजवान बन रहे हैं। हम बच्चों को सीख दें उससे पहले स्वयं सीख लेने को तैयार रहें तो सुधार के आसार दीखेंगे । अभावग्रस्त जीवन जीने वाले माता-पिता भी अपना उच्च जीवन रखते हुए बच्चों को संस्कारयुक्त बना सकते हैं । सामाजिक विषमता से पीड़ित होने के कारण वे इस व्यवस्था से लड़ने के लिये बच्चे को अधिक जुझारू बना सकते हैं । पिता को स्वयं चरित्र एवं गुणों का आदर्श उपस्थित करना होगा। आचरण और कर्म द्वारा पाठ पढ़ाना होगा कि भूखे मर जायँ पर बेईमानी और अन्याय नहीं करेंगे, न सहेंगे । जहाँ अभिभावक अशिक्षित, गरीब और साधनहीन हों वहाँ बच्चों के चरित्र-निर्माण में शिक्षक की भूमिका बढ़ जाती है। बच्चे शिक्षक के आचार-विचार, भाषण - सम्भाषण, रहन-सहन, आदतों से भी शिक्षा ग्रहण करते हैं या आदतें बिगाड़ लेते हैं। आज भी कुछ शिक्षक कई बच्चों के लिये प्रेरणास्रोत एवं आदर्श प्रतिमान होते हैं अतः शिक्षक को अपना जीवन संयमित नियत्रित रखते हुए बच्चों के समक्ष आदर्श उपस्थित करना होगा। आदेश, उपदेश Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों में चरित्र-निर्माण : दिशा और दायित्व के पीछे, शिक्षक के चरित्र एवं विद्वत्ता का जोर हो तो बच्चों पर त्वरित असर पड़ेगा, अन्यथा शिक्षक भी असम्मान का भागी होगा और बच्चों को भी कई दुर्गुणों एवं दुर्व्यसनों में फंसा सकता है। शिक्षक का निजी और सार्वजनिक जीवन अलग-अलग नहीं हो सकता है। प्राथमिक और माध्यमिक स्तर तक के बच्चे तो शिक्षक के चरित्र एवं संस्कार से ही कुछ सीख लेते हैं। अत: शिक्षकों को वैयक्तिक एवं पारिवारिक स्वार्थों, दुराग्रहों से ऊपर उठकर समर्पण की भावना से कार्य करते हुए शिक्षा देनी होगी जो केवल आजीविका के लिये ही पर्याप्त न हो अपितु बच्चों को एक सही जीवन-दर्शन भी दे सके । व्यावहारिक शिक्षा का प्रसार इतनी तेजी से हो रहा है कि भारी संख्या में गुणसम्पन्न शिक्षक नहीं मिल सकते । संसार के पास इसके लिये कोई मापदण्ड भी नहीं है। इसीलिये पारमार्थिक एवं समाज-सेवी संस्थाओं एवं व्यक्तियों को अधिकाधिक प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षण अपने हाथ में लेना चाहिये जिनमें व्यावहारिक ज्ञान के साथसाथ ही नीति-शिक्षा भी दी जा सके। इन संस्थाओं में उच्च संस्कारयुक्त सेवाभावी शिक्षक नियुक्त किये जा सकते हैं। ऐसी समाजसेवी संस्थाएँ ही मेधावी, अध्ययनशील, त्यागमय, जीवन वाले उच्च विचारशील शिक्षकों को प्रश्रय देकर अधिकाधिक बच्चों को संस्कारित करने का दायित्व पूरा कर सकती हैं। समर्पित शिक्षक हजारों लाखों बच्चों का मानस परिवर्तन कर पूरी सामाजिक राजनैतिक सुव्यवस्था का सूत्रपात कर सकते हैं। ऐसे शिक्षक आकर्षक सद्साहित्य की रचना कर सकते हैं । वैसे जहाँ पाठ्य-पुस्तकें और कापियाँ भी उपलब्ध न हों वहाँ अतिरिक्त पाठन सामग्री उपलब्ध कराना कठिन होगा। यद्यपि समाज एवं संस्थाएँ लाखों रुपये कई गतिविधियों पर व्यय करती हैं परन्तु बच्चों के साहित्य पर ध्यान नहीं दिया गया है। जब उन्हें सस्ते मूल्य में सदसाहित्य नहीं मिलता तो वे सिने-पत्रिकाएँ और सस्ता अश्लील साहित्य चुन लेते हैं। अतः समाजसेवी संस्थाओं और विद्यालयों के शिक्षकों, विद्वानों द्वारा बच्चों के लिए अच्छे साहित्य की रचना और प्रकाशन होना चाहिए। साधनहीन, निराश्रित, अनाथ, फुटपाथों, झुग्गी-झोंपड़ियों में पैदा होने, पलने वाले बच्चों को संस्कारित करने के लिए पारमार्थिक और समाजसेवी संस्थाओं को जिम्मा लेना होगा। इसमें कई पढ़े-लिखे युवक, शिक्षक नौकरी पेशा लोगों की मानद सेवा ली जा सकती है। पहले छोटी-छोटी पाठशालाएँ खोली जा सकती हैं। इन बच्चों को शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के भोजन की आवश्यकता है। यदि मानव समाज-सेवी संस्थाएँ यह कार्य हाथ में लें तो कई प्रकार की शासकीय स्कीमों से अनुदान और सहायता भी प्राप्त हो सकती है। हजारों-लाखों के रुपये दान देने या लाखों-करोड़ों रुपये मन्दिरों व पहाड़ों पर या चातुर्मासों पर खर्च करने की बजाय जीते-जागते इन बालकों पर खर्च होने चाहिए । समाजसेवी और धार्मिक संस्थाएँ साम्प्रदायिक और आम्नायों के संकीर्ण घेरे से निकलकर इन विपन्न बालकों को शिक्षा दे सकती हैं। इससे कई बच्चे जो भीख मांगने पर मजबूर हो जाते हैं, होटल या दुकान पर या मण्डी में हम्माली करते हैं, या पाकिटमार या उच्चकों की गिरफ्त में चले जाते हैं, उनसे मुक्त होकर इन्हीं स्कूलों में पढ़कर संस्कारित हो जायेंगे और सम्मानपूर्ण जीवन जी सकेंगे। इस हेतु कर्मठ संस्थाओं एवं निःस्वार्थ समाजसेवियों की आवश्यकता होगी। समाज और सरकार यदि इन अभावग्रस्त हजारों-लाखों बच्चों के प्रति बेखबर रहती है और ये बच्चे बिगड़ते हैं तो पूरे समाज का चरित्र प्रभावित होगा। साधन-सम्पन्न एवं विपन्न बच्चों की खाई बढ़ती गई तो भयंकर संघर्ष और विस्फोट की स्थिति निर्मित हो सकती है, जिसे संभालना समाज एवं सरकार के लिए कठिन होगा। अत: इन बच्चों को शिक्षा एवं संस्कार देने के लिये सामाजिक संस्थाओं को विशेष व्यवस्था करनी चाहिये। कानून बनवाकर या बनाकर समाज और सरकार अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं मान लें। यदि हमें भावी पीढ़ी के चरित्र एवं भविष्य की चिन्ता है तो बच्चों को खतरनाक, बोझिल, उबाऊ कार्यों और क्रियाओं में काम करने से रोकना होगा। बच्चे को संस्कारित करने के लिये स्कूल भेजने की बजाय गाय, ढोर चराना या खेत की रखवाली अधिक लाभप्रद है। ऐसे स्कूलों की व्यवस्था करनी होगी कि बच्चा पढ़ भी सके और मां-बाप के काम में कुछ हाथ भी बँटा सके। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ तृतीय ड बच्चों की हत्याएँ अपहरण, बलात्कार होते रहें, यह शर्मनाक है । इसके लिये कठोर दण्ड की व्यवस्था होनी चाहिये और दण्ड दिलानेवाली पृथक पुलिस इकाई होनी चाहिये। रेलों बसों में बच्चों एवं बच्चे वाली माँ को प्रथम आसन मिलना चाहिये हमें कुछ साधारण सहिष्णुता के नियम पुनः स्थापित करने होंगे। बच्चों में अपराधवृत्ति कम करने के लिये इसकी जड़, अभावों की जिन्दगी और अशिक्षा को दूर करना होगा । केवल इंगलिश कानून की नकल करते हुए, 'प्रॉवेशन आफ आफेन्डर्स एक्ट' 'प्रॉवेशन कोड' और सुधारगृह बना देने मात्र से काम पूरा नहीं हो जायेगा। बच्चों को पढ़ने के निःशुल्क साधन और सुविधाएँ देनी होंगी। इन्हें बदमाशों, चोर, उचक्कों, पाकेटमारों के चंगुल से बचाना होगा। इनके अड्डों को समाप्त करना होगा। पुलिस की मिलीभगत पर चोट करनी होगी। जो छोटे-छोटे बच्चे इनके चंगुल से मुक्त हो जाएँ उनके शिक्षण-प्रशिक्षण के लिये समाजसेवी संस्थाओं को स्कूल की सुविधा और साधन देने होंगे। व्यावहारिक शिक्षा के साथ इन्हें सम्प्रदाय निरपेक्ष आध्यात्मिक चिन्तन भी दिया जा सकता है। रेडियो और सिनेमा का उपयोग शिक्षा एवं स्वस्थ मनोरंजन के लिये होना चाहिये । सिनेमा में बीभत्स, भौंडे और डरावने दृश्यों पर रोक लगानी चाहिये । इस हेतु सिनेमा कानून में परिवर्तन की आवश्यकता है। शराब और नशीली वस्तुओं के चित्र प्रदर्शित नहीं होने चाहिये एवं ऐसे गानों का गली बाजारों में बजना सख्ती से रोका जाना चाहिये। बच्चों के लिये शिक्षाप्रद और मनोरंजक फिल्में बननी चाहिये जिससे बच्चों को जीवन की शिक्षा मिले। अश्लील साहित्य के प्रचार-प्रसार पर भारतीय दण्ड संहिता में रोक लगी हुई है परन्तु 'अश्लील' की परिभ पा नहीं दी गई है। बच्चों के कच्चे मन और मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले साहित्य का प्रकाशन एवं विक्रय धड़ल्ले से हो रहा है। इसमें पुलिस भी मिली रहती है। अभिभावकों और शिक्षकों का कर्तव्य है कि बच्चे को ऐसे साहित्य के पठन से बचायें और उसके हाथों में साहित्य दें। सरकार को अश्लील साहित्य पर तुरन्त रोक लगानी चाहिये । समाज सेवक और संस्थाएँ पिकेटिंग एवं अन्य माध्यमों से ऐसे साहित्य बेचने वालों पर पुलिस कार्यवाही करवाकर दण्ड दिलवा सकती हैं । समाज के ठेकेदारों और राजनेताओं को अपना चरित्र एवं व्यवहार बदलना होगा। धनार्जन के काले रास्ते बन्द होने चाहिये। राजनेता और धनपतियों को सला सोलुपता और धन प्राप्ति की राजनीति छोड़कर समाज एवं देश हित की राजनीति में रहना चाहिए तभी बच्चों के चरित्र पर अनुकूल प्रभाव पड़ सकता है। बच्चों एवं विद्यार्थियों को नरिव के झाड़ने के बजाय स्वयं चरित्रवान् और नीतिवान् बनकर व्यवहार करना होगा । चुनावी प्रचार में बच्चों का दुरुपयोग कानून द्वारा रोका जाना चाहिये । इस हेतु जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन कर बच्चों द्वारा प्रचार करवाना प्रतिबन्धित एवं दण्डनीय घोषित होना चाहिये । . Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-.-.-.-. -. -.-. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -.-. -. -.. छात्रों में संस्कार-निर्माण : घर, समाज व शिक्षक की भूमिका D श्री भंवरलाल आच्छा प्रधानाध्यापक, (श्री सुमति शिक्षा सदन उ० मा० विद्यालय, राणावास पाली) आज हमारे देश में संस्कारवान शिक्षा का नितान्त अभाव है। सरकार तो इस ओर एकदम निरपेक्ष बनी हुई है, किन्तु समाज की दृष्टि भी सवेष्ट नहीं है। माता-पिता और अभिभावक भी अपनी सन्तान को एक सफल व्यवसायी अपवा सफल चिकित्सक, इंजीनियर, प्रोफेसर या अधिकारी तो बनाना चाहते हैं लेकिन उनमें सम्यक् संस्कार उद्भूत हों, इस ओर वे बहुत कम चिन्तित रहते हैं। यही कारण है कि आज देश में चरित्र का संकट निरन्तर गहराता जा रहा है। हालत यह हो गई है भारत अपनी वास्तविक पहचान खोता चला जा रहा है और यहाँ भोगवादी संस्कृति क्रमशः फलती-फूलती जा रही है । ऐसी स्थिति में आवश्यकता इस बात की है कि वालकों या छात्रों में अच्छे संस्कारों का निर्माण कैसे हो? अथवा हम उनमें किस प्रकार के संस्कार विकसित करें ? क्या हम संस्कार-निर्माण के नाम पर तथाकथित द्वैतपरक सभ्यता को तो जीवित नहीं रखना चाहते जो धार्मिक आराधना गृह में, सभा व समारोहों में तो सदाचार व नैतिकता का जयघोष करती हो किन्तु जीवन के कर्मक्षेत्र में छल-छद्म एवं भोगवादी सभ्यता की पोषक हो । कथनी और करनी का यह द्वैत आज हमारे देश में नासूर बनकर सभ्यता को लील रहा है। इस द्वैतवादी मनोवृत्ति से कोई अछूता नहीं है । व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सब में यह जहर बनकर फैलती जा रही है। अब तो हालत यहाँ तक गम्भीर होगई है कि धर्म के क्षेत्र में भी संस्कारों का सान्निध्य सन्दिध बनता चला जा रहा है । वहाँ पर भी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, साम्प्रदायिकता और गुरुडम की भावना बलवती होती जा रही है। देश में तथाकथित भगवानों, योगियों और मठाधीशों ने तो इस हालत को और अधिक कलुषित किया है । संस्कारहीन राजनेताओं ने देश में भ्रष्टाचार को यत्र-तत्र प्रसारित कर दिया है। हर कोई रातों-रात लखपति बनने के चक्कर में हर तरह के हथकण्डे अपना रहा है। न तो कहीं मर्यादा है और न ही कहीं पर संयम । मानवीय मूल्य मात्र वाणी की शोभा रह गये हैं। देश क्रमश: दिशाहीन हो रहा है । सभ्यता दिग्भ्रमित है, इन्सान किंकर्तव्यविमूढ़ है । इस दयनीय दशा का एकमात्र सहारा संस्कारवान शिक्षा है। शिक्षा के माध्यम से छात्रों में जब तक मानवीय मूल्यों की पुनः स्थापना नहीं करेंगे, राष्ट्र के प्रति प्रेम को प्रोत्साहन नहीं देंगे, नैतिकता, सदाचार, सौहार्द्र और संकल्प की सरिता शिक्षालयों में प्रवाहित नहीं करेंगे तथा सांस्कृतिक पुनरुत्थान के प्रयास नहीं करेंगे, तब तक मानसिक असन्तोष, तनाव एवं पारस्परिक दूरी कायम रहेगी। इसके लिये छात्रों में संस्कार-निर्माण संजीवनी बूटी की तरह हैं। लेकिन हमें इस बात को बहुत स्पष्ट कर लेना होगा कि संस्कार-निर्माण के नाम पर हम क्या कर लेना चाहते हैं । क्या हम एक सफल व्यक्ति पैदा करना चाहते हैं अथवा एक सदाचारी व्यक्ति बनाना चाहते हैं। वर्तमान सन्दर्भो में हर कोई यही कहेगा कि एक सफल व्यक्ति बनाना ज्यादा श्रेयस्कर है, किन्तु आज सफलता का मानदण्ड है छल-छद्म, झूठ-फरेब, बेईमानी, चापलूसी और दगाबाजी। जो इन में पारंगत है, वही सफल व्यक्ति बन सकता है। सदाचारी व्यक्ति कभी सफल व्यक्ति नहीं बन सकता है। आज जो सदाचारी है, वह नितान्त निर्धन, असहाय और .. ' Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ तृतीय खण्ड परेशान है, समाज में उसका कोई स्थान नहीं है। राजनीति, व्यापार, प्रशासन और नौकरी सबमें वह असफल होता है । तथाकथित सफल व्यक्ति ऐसे सदाचारी व्यक्ति को अपनी राह से हटाने के लिये क्या-क्या नहीं करते हैं । हालत यह है कि ईमानदार लोग जब संघर्ष करते-करते थक जाते हैं तो अन्त में आत्महत्या करने की ओर अग्रसर हो जाते हैं। हमारे देश की आज यह जो स्थिति बन गई है, उसका मूल कारण शिक्षा का दोषपूर्ण होना है। छात्र पढ़ना नहीं चाहता, वह नकल करके पास होना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने लगता है, यह हिंसा, तोड़-फोड़ और आन्दोलन में अपनी शक्ति व सामर्थ्य को भुनाता चला जा रहा है, वह अध्यापकों के साथ बैठकर धूम्रपान करता है, शराब पीता है और अनैतिक आचरण में व्यस्त रहता है। जिस देश में शिक्षा की यह स्थिति हो, उस देश में संस्कारवान व्यक्ति कैसे पैदा होगे ? जब स्वयं अध्यापक संस्कारहीन है तो छात्र संस्कारवान् होगा, इसकी अपेक्षा कैसे की जा सकती है ? प्रायः यह कहा जाता है कि बालक का घर उसकी प्रथम पाठशाला है, किन्तु आज माता-पिता अपने कामधन्धों में इतने व्यस्त रहते हैं कि उनके बच्चे क्या कर रहे हैं ? कहाँ रहते हैं ? क्या खाते हैं ? क्या बोलते हैं ? उन्हें कुछ भी ज्ञात नहीं । महानगरों की स्थिति तो यह है कि माता-पिता जब बच्चे सो रहे होते हैं, तब काम-धन्धों पर निकल जाते हैं और देर रात में जब बच्चे सो जाते हैं तब लौटते हैं। छोटे शहरों में भी यह स्थिति क्रमशः बढ़ रही है। ऐसी हालत में बच्चे घर के नौकर या नौकरानी के साथ दिन गुजारते है, उनकी तरह ही वे आचरण सीखते हैं या आस-पड़ोस में स्वच्छन्द रूप से घूमते रहते हैं । अवकाश के दिन वे अपने माता-पिता के साथ अवश्य रहते हैं, किन्तु पिता जब धूम्रपान करने वाला हो और वह छोटे बच्चों के सामने धड़ल्ले से धूम्रपान करता हो तो बच्चे पर उसका क्या असर पड़ेगा ? टेलिविजन पर जब छोटे बच्चे अपने माता-पिता के साथ बैठकर सिनेमा देखते हैं, तो उनके कोमल मस्तिष्क पर सिनेमा के कथानक के अनुसार क्या हाव-भाव पैदा होते हैं, क्या इसकी कभी कल्पना की ? जिस घर में अश्लील और सस्ता साहित्य पढ़ा जाता है, सत्यकथाएँ व रोमांचकारी पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ी जाती है, उस घर के बच्चे क्या संस्कारवान् बनेगे ? पति-पत्नी के रिश्तों में टूटन के दृश्य जिस तरह आये दिन देखने को मिलते हैं, क्या वे कभी बच्चों के मस्तिष्क को प्रभावित नहीं करते ? यही हाल समाज का है। आज समाज का दायरा टूट रहा है। कभी मानव सामाजिक प्राणी कहलाता था, किन्तु आज मानव पर व्यक्तिवाद तेजी से हावी हो रहा है। समाज के अच्छे रीति-रिवाज भी रूहिग्रस्त रिवाजों के साथ समाप्त हो रहे हैं। सामाजिक अंकुश नाम की अब कोई वस्तु नहीं । समाज से विद्रोह करके हर कोई प्रगतिवादी मुखौटा धारण करना चाहता है, किन्तु विदेशों से आयातित यह प्रगतिशीलता भारतीयता को ही समाप्त कर रही है। ऐसी हालत में नन्हा बालक समाज से कैसे संस्कार ग्रहण करेगा ? संस्कार पैदा करने के लिये उत्तरदायी माने व्यक्ति तो बनना चाहते हैं किन्तु 1 घर, समाज और स्कूल वे तीनों स्थान बालकों के अन्दर अच्छे जाते हैं, किन्तु आजादी के बाद इन तीनों का स्वरूप तेजी से बदला है । सब सफल संस्कारवान् या सदाचारी व्यक्ति कोई नहीं बनना चाहता। आज जीवन का एकमात्र संस्कार रोटी हो गया है रोटी प्राप्त करने के लिए दिन-प्रतिदिन जिस तरह पापड़ बेलने पड़ते हैं, उसमें वह सब कुछ भूल जाता है। अपने-पराये का भेद समाप्त हो जाता है, मात्र रोटी उसका एकमात्र आदर्श रह जाता है। बालकों में संस्कार पैदा करने के लिये स्कूलों में नैतिक शिक्षा देने की बात की जाती है। ऐसी बातें वर्षों से सुन रहे हैं, किन्तु सरकार अपनी कुर्सी के चक्कर में कुछ भी नहीं कर पाती। देश में कुछ ऐसी शिक्षण संस्थाएँ अवश्य हैं, जिनमें बालकों में संस्कार पैदा करने के भरसक प्रयास किये जाते हैं । राणावास स्थित श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी मानव हितकारी संघ द्वारा संचालित विभिन्न शिक्षण संस्थाएँ इसी श्रेणी में आती हैं, जो मानव मात्र की विशुद्ध सेवा के लिए कटिबद्ध हैं किन्तु ऐसी दो-चार संस्थाएँ सम्पूर्ण देश का कायाकल्प कैसे कर सकती हैं। ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों की प्राय: प्रशंसा की जाती है किन्तु एक तो ऐसे स्कूलों से गरीब का सम्बन्ध ही नहीं है, फिर इनकी फीस बहुत ऊँनी रहती है और यहाँ किताबी शिक्षा तो अच्छी मिल सकती है किन्तु संस्कार के नाम पर वहाँ से निकलने वाले छात्र नगण्य हैं। साम्प्रदायिकता की आड़ लेकर भी कुछ संस्थाएँ चल रही हैं, किन्तु उनका उद्देश्य छात्रों में संस्कार पैदा करना उतना नहीं है, जितना अपने . Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छात्रों में संस्कार-निर्माण : घर, समाज व शिक्षक की भूमिका ६३ . ...................................................... .... सम्प्रदाय के हितों की रक्षा करना है। आर्यसमाज द्वारा गुरुकुल पद्धति से चलने वाले विद्यालय आशा की किरण के रूप में अवश्य प्रस्फुटित होते हैं, किन्तु इनकी अपनी सीमाएँ हैं, फिर सरकार की ओर से प्रोत्साहन देने की कोई व्यवस्था नहीं है । ऐसी स्थिति में बालकों में संस्कार पैदा करने के लिए फिर वही तीन साधन रह जाते हैं---.घर, समाज और विद्यालय । इन तीनों के संयुक्त प्रयास के द्वारा ही संस्कारवान और सच्चरित्र बालक तैयार किये जा सकते हैं। इस तरह तैयार हुए बालक ही एक समृद्ध, खुशहाल और शान्तिमय भारत का निर्माण कर सकते हैं, लेकिन इसके साथ ही अगला प्रश्न पैदा होता है कि ये तीनों बालकों में संस्कारों का सर्जन कैसे करें, इसके लिये निम्न सुझाव उपयोगी हो सकते हैं माता-पिता का दायित्व घर से ही बालकों में अच्छे संस्कार पैदा करने के लिए माता-पिता व अभिभावकों को चाहिए कि वे पहले स्वयं अपने जीवन को सुसंस्कारी बनाए, सदाचारी एवं प्रामाणिक बनाएँ ताकि उनके जीवन का प्रभाव बच्चों के मन और मस्तिष्क पर पड़ सके । माता-पिता या अभिभावकों को चाहिये कि उनका गलक दिन भर किस प्रकार के बालकों के साथ रहता है ? इसके मित्र कौन है ? उनका स्तर कैसा है ? उनमें संस्कार कैसे हैं और उनके माता-पिता की क्या स्थिति है, इस प्रकार का ध्यान रखकर ही बालकों को अपने मित्र बनाने में सहयोग दें । गलत मित्रों को हतोत्साहित करना चाहिये। क्योंकि गलत मित्र बालकों का बड़ा अहित कर बैठते हैं। बालक जब स्कूल में जाने लायक हो जाय तब विद्यालय के चयन का भी पूरा ध्यान रखना चाहिये कि विद्यालय में अध्यापक कैसे हैं? परीक्षा परिणाम कैसा रहता है ? और उस विद्यालय से निकले हुए छात्रों का भविष्य कैसा है ? इस तरह का ध्यान रखकर ही विद्यालय का चयन करना चाहिये । माता-पिता को यह भी ध्यान रखना चाहिये कि उनके बालक नौकरों के भरोसे नहीं रहे, अगर रखना मजबूरी बन जाती है तो नौकरों का चयन उपयुक्त हो तथा समय-समय पर उनकी गतिविधियों • व मेलजोल के बारे में भी ध्यान रखना चाहिये। घर पर जब बालकों का फालतू समय हो, उस समय उन्हें महापुरुषों की जीवनियां पढ़ने को देनी चाहिये, सत्साहित्य लाकर देना चाहिये, धार्मिक व आध्यात्मिक रुझान पैदा करना चाहिये । छात्र अश्लील साहित्य न पड़ें, उनमें सिनेमा की लत न पड़े इस ओर भी ध्यान रखना चाहिये । अगर ऐसी स्थिति पैदा हो जाय कि बालक को परिवार से दूर किसी छात्रावास में ही रखना है तो उन्हें अच्छे छात्रावासों का चयन करना चाहिये। समाज का सान्निध्य कोई भी व्यक्ति समाज से कटकर अधिक समय तक जिंदा नहीं रह सकता। समाज ही व्यक्ति का जीवित परिवेश है । इसलिए समाज का सान्निध्य भी बालकों को बराबर मिलता रहे और हर बालक अपने समाज का स्मरण कर गौरवान्वित हो, इस प्रकार की स्थिति आवश्यक है। अत: समाज को चाहिये कि वह प्रतिभावान, सदाचारी, परोपकारी बालकों का सम्मान करे, उन्हें प्रमाण-पत्र देकर प्रोत्साहित करे। समाज प्राचीन गुरुकुल पद्धति के विद्यालय एवं आश्रम खोले तथा वहाँ संस्कारित वातावरण बनाये । समाज कभी भी भ्रष्ट, दुराचारी, तस्कर, जमाखोर, मिलावट करने वाले व्यक्तियों को प्रोत्साहित नहीं दे, आवश्यकता पड़ने पर ऐसे लोगों की भर्त्सना करें । समाज अपने अन्दर व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करे। व्यभिचार, वेश्यावृत्ति, मादक द्रव्यों का सेवन, जुआ, मांस, शिकार आदि को हतोत्साहित करे, ऐसी बातों में लिप्त लोगों के प्रति घृणा के भाव जगाए और उन्हें भी सही रास्ते पर लाने का प्रयास करे। __शिक्षक की भूमिका माता-पिता व समाज के बाद बालकों में अच्छे संस्कार पैदा करने के लिये शिक्षक की भूमिका बड़ो महत्त्वपूर्ण होती है क्योंकि विद्यालय में शिक्षक ही छात्र का अभिभावक व द्रष्टा होता है । इसके लिए यह आवश्यक है. कि सबसे पहले शिक्षक अपने जीवन को संस्कारवान, सच्चरित्र और सदाचारी बनाए । वह व्यसनमुक्त हो, प्रेरणादायी हो तथा खुली किताब के रूप में हो ताकि अपने गुरु को देखकर छात्र के दिल में उसके प्रति स्नेह, श्रद्धा व आदर Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड DIG I . ... . .............. ..................... .................... के भाव जागें । शिक्षक को चाहिये कि वह प्रत्येक छात्र से अपना निकट का सम्पर्क रखे, छात्र की दैनिक गतिविधि पर अपनी नजर रखे और आवश्यकता पड़ने पर छात्र को यथासन्दर्भ संकेत भी वारे । छात्रों में विनय व आदर की भावना जाग्रत हो, तत्सम्बन्धी प्रयास भी करे, उन्हें महापुरुषों की जीवनियों से अवगत कराये, नैतिकता का पाठ पढ़ाये, सांस्कृतिक व साहित्यिक कार्यक्रमों व प्रतियोगिताओं द्वारा छात्रों को प्रोत्साहित करे, सम्मानित व पुरस्कृत करे, राष्ट्र के के प्रति प्रेमभाव जाग्रत करे । आध्यात्मिक गुरुओं को चाहिये कि वे सब धर्मों के प्रति समता का भाव पैदा करें, साम्प्रदायिकता से दूर रखें तथा अहिंसक भाव जाग्रत करें। विद्यालयी और आध्यात्मिक गुरुओं का यह भी दायित्व है कि वे व्यक्तिगत प्रतिष्ठा, पूजा आदि से छात्रों को दूर रखें तथा अपने घरेलू कार्यों को छात्रों से नहीं करायें। छात्रों के विषय-चयन में मदद करें तथा उनकी रुचि का ध्यान रखकर उनके अभिभावकों को सूचित करें। इस प्रकार छात्रों या बालकों में अच्छे संस्कार पैदा करने के लिये माता-पिता, समाज और शिक्षक तीनों का अपना-अपना योगदान रहता है । आवश्यकता इस बात की है कि इन तीनों में समन्वय पैदा हो, तभी संस्कारवान बालक राष्ट्र को एक नवीन दिशा दे सकते हैं। राष्ट्र के स्थायित्व व एकता के लिये यह नितान्त आवश्यक भी है। अपुच्छिओ न भासिज्जा भासमाणस्स अंतरा । पिट्ठिमंसं न खाइज्जा मायामोसं विवज्जए । -दशवकालिक ८७ बिना पूछे नहीं बोले, बीच में न बोले, किसी की चुगली न खावे और कपट करके झूठ न बोले । Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छात्र छात्रावास और संस्कार D मुनिश्री सुखलालजी (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य) एक छात्र राजस्थान के बहुत छोटे से गांव का रहने वाला था। राजस्थान के ही एक बड़े शहर में स्नातक होने के बाद वह बम्बई में सी०ए० करने के लिए आया था। राजस्थान में उसका साधुओं से निकट का सम्पर्क रहा था। इसलिए बम्बई आने के बाद भी उसकी स्मृति में वह संस्कार जीवित था। मैंने उससे पूछा-तुम कहाँ रहते हो? उसने कहा-पास में ही एक छात्रावास है वहाँ रहता हूँ। छात्रावास शब्द ने एक क्षण के लिए मुझे रोका । मेरे विचार से छात्रावास किसी भी व्यक्ति की जीवन-यात्रा का महत्त्वपूर्ण पड़ाव होता है। इसी दृष्टि से उस छात्र में मेरी अभिरुचि जागी। मैंने पूछा-वहाँ की व्यवस्था तो अच्छी है ? उसने कहा--सामान्यतया तो अच्छी ही है। पर एक कठिनाई है, वहाँ सुबह-शाम प्रार्थना में अनिवार्य रूप से उपस्थित रहना पड़ता है । यदि कोई एक समय भी चूक जाता है तो पाँच रुपये दण्ड भरना पड़ता है। रात को देरी से सोते हैं तो सुबह जल्दी उठने में तकलीफ होती है । बस यही एक कठिनाई है। तो तुम जल्दी क्यों नहीं उठ जाते ? कोशिश तो करता हूँ पर मेरा काम ही कुछ ऐसे ढंग का है कि दिन भर आडिट में डटा रहना पड़ता है। फिर रात को थोड़ा अध्ययन करना भी आवश्यक हो जाता है। इसलिए सोने में देरी हो जाती है। जब देर से सोया जाता है तो स्वाभाविक है कि उठने में जरा तकलीफ हो । इसीलिए पहले मैं इस होस्टल में नहीं रहना चाहता था। अँधेरी में एक दूसरा होस्टल है। उसमें ऐसा कुछ प्रतिबन्ध नहीं है। मैं तो वहीं रहना चाहता था पर वहाँ जगह नहीं मिली, इसलिए यहाँ आना पड़ा। मैंने आश्चर्यपूर्वक कहा- तुम्हें यह सब भारी लगता है तो तुम होस्टल में आये ही क्यों ? क्या दूसरे स्थान में नहीं रह सकते थे ? रह तो सकता था। मेरे बड़े भाई भी यहीं लेखापाल हैं। कुछ दिन मैं उनके पास रहा भी। पर उनके पास केवल एक रूम है । वहाँ पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाती। इसलिए अलग रहना आवश्यक हो गया। मुझे लगा यह विवशता एक छात्र की नहीं है अपितु हजारों-हजारों छात्रों की है। एक बार मैं उदयपुर में था। वहाँ एक बड़ी सभा हो रही थी। समाज के बड़े-बड़े लोग उसमें उपस्थित थे। कॉलेज के छात्र भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। सभी लोग छात्रों पर व्यंग्य कर रहे थे कि उनमें धर्म और समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व का बोध नहीं के बराबर है। इतने में एक छात्र उठा । उसने कहा-आप लोग जो कुछ कह रहे हैं वह तो ठीक है, पर क्या आपने कभी यह भी सोचा है कि समाज छात्रों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को कहाँ तक निभा रहा है ? बड़े शहरों में जो छात्र बाहर से पढ़ने के लिए आते हैं, उनके सामने सबसे पहली समस्या रहती है आवास की। क्या समाज उन्हें सही आवास देने की योजना बना रहा है ? यह ठीक है कि समाज में बहुत से सम्भ्रान्त लोग हैं। पर उनकी वह Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड सम्पन्नता समाज के किस काम की जबकि वे किसी भी असमर्थ व्यक्ति को सहारा न दे सकें ? वास्तव में वही समाज आगे बढ़ सकता है जो अपने कमजोर से कमजोर सदस्य को भी सम्मानपूर्ण जीवन जीने की व्यवस्था दे सके । अक्सर लोग अपने पैसे का उपयोग धर्मस्थानों जैसी भौतिक इकाइयों के निर्माण में लगाना चाहते हैं, या फिर जीमनवार या वरघोड़ा (जुलूस) जैसे बाह्य आडम्बरों में करना चाहते हैं । पर क्या उन्हें पता नहीं है कि चैतन्य निर्माण का एक बहुत बड़ा काम भी सम्पन्न और समझदार लोगों के सामने है। ईसाई लोगों ने तथ्य को बहुत जागरूकता से समझा है। इसी का परिणाम है कि आज अपनी संस्कृति का प्रचार करने में वे सबसे अग्रणी हैं। मैंने तो देखा है कि बहुत सारे जैन लोग भी अपने बच्चों को ईसाई स्कूलों छात्रावासों में भेजना पसन्द करते हैं और यह कठिनाई एक स्थान की नहीं है बल्कि सभी बड़े-बड़े नगरों में छात्रों को जिन कठिनाइयों से जूझना पड़ता है उनमें आवास की कठिनाई सर्वोपरि है। इसीलिए अनेक स्थानों पर समाज की ओर से कुछ व्यवस्थाएँ जुटाई जा रही हैं। पर मैं इन व्यवस्थाओं में भी कुछ कमी देख रहा हूँ। इसमें कोई शक नहीं कि आजकल छात्र आजादी चाहते हैं। हमारे समाज के छात्र भी इस बात के अपवाद नहीं हैं। छात्रावास हो और उसमें संस्कार-निर्माण की बात न हो तो उसका उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। प्रार्थना जैसी चीज भी छात्रों को भारी लगती है तब आगे की बात ही नहीं रह जाती। पर इस बारे में हमें केवल छात्रों को ही दोषी ठहराना उचित नहीं है । यह प्रश्न केवल छात्रों का ही नहीं अपितु सारी परम्परा का है। यह ठीक है कि लोगों का धर्मस्थानों से सम्पर्क रहना आवश्यक है। पर यदि इस सम्पर्क को जीवन्त बनाना है तो इतना ही पर्याप्त नहीं है कि कुछ बँधी बंधाई परिभाषाएँ उनके गले बाँध दी जायें। बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि धर्म के ज्योतिर्मय स्वरूप को सामने रखा जावे। यद्यपि प्रारम्भिक स्तर के लोगों के लिए कुछ बँधी-बँधाई परिभाषाओं और उपासनाओं की भी आवश्यकता है। पर जो-जो लोग प्रारम्भिक स्तर की देहली लाँघ चुके हैं, खासकर छात्रावासों में पढ़ने वाले लोगों को अब वह रजिस्टर्ड गोली नहीं गिटाई जा सकती, उनके लिए जीवन्त धर्म-दर्शन की आवश्यकता है। यह ठीक है कि छात्रावासों में भी चाहे कितनी ही सुन्दर व्यवस्था क्यों न करो पर सब लोगों को सुसंस्कारों में बाँधना असंभव है। यदि इस व्यवस्था से निकलने वाले कुछ लोग भी लाभान्वित हो सकें तो वह धर्म की बहुत बड़ी सेवा होगी। समाज के अग्रणी लोगों को इस तथ्य को समझने की बहुत बड़ी आवश्यकता है। उदाहरण के लिए छात्रों को ऊपरी विधि-निषेधों में नहीं बांधकर यदि अन्तर्जागरण की ओर उन्मुख किया जा सके तो वह बहुत महत्त्वपूर्ण बात होगी। पर क्या आज समाज के जो छात्रावास चल रहे हैं उनमें जो व्यवस्थापक रहते हैं, उनमें से ऐसे लोग बहुत ज्यादा निकल सकेंगे जो स्वयं भी अन्तर्जागरण का महत्त्व समझते हैं। मेरे विचार से ध्यान के प्रति छात्रों में बहुत अभिरुचि बढ़ती जा रही है। कहीं यदि नहीं भी बढ़ती है तो उसे बढ़ाना जरूरी है। निश्चय ही ध्यान कोई ऊपरी विधि-निषेधमूलक उपासना-पद्धति नहीं है। पर इससे जितना विवेक जागृत होता है वह किसी भी उपासना से ज्यादा लाभकर साबित हो सकता है। पर कठिनाई यह है कि यदि व्यवस्थापक स्वयं ही ध्यान से अपरिचित हों तो दूसरों को वह प्रशिक्षण कैसे दे सकते हैं ? जिन छात्रावासों में कुशल व्यवस्थापक होते हैं वहाँ के छात्र बहुत सहजता से उनकी बात को स्वीकार कर लेते हैं। बहुत बार तो योग्य व्यवस्थापक मिलते ही नहीं और कहीं यदि मिल भी जाते हैं तो आर्थिक कारणों से बहुत जल्दी उनकी विदाई हो जाती है। सचमुच, यह किफायतशारी छात्रों की चेतना को जगाने के लिए लाभकारी सिद्ध नहीं हो सकती। प्रार्थना भी इस दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण बात है। प्रार्थना ही नहीं, कहीं-कहीं छात्रावासों में सामायिक भी करवाई जाती है। पर यदि व्यवस्थापक कुशल है तो वह सामायिक को भी इतना आकर्षक रंग-रूप प्रदान कर देता है कि उससे छात्रों को ऊब पैदा नहीं होती । वास्तव में सामायिक और प्रार्थना भी ध्यान के ही रूप हैं । भक्तिप्रधान लोग प्रार्थना में ज्यादा रुचि लेते हैं तथा ज्ञान-प्रधान लोग सामायिक में अधिक रुचि लेते हैं। छात्रों की रुचि को ध्यान में रखकर उन्हें उस ओर अग्रसर किया जा सके तो निश्चय ही उनमें रस पैदा किया जा सकता है। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छात्र, छात्रावास और संस्कार मैं समझता हूँ यदि ठीक तरह से बताया जाय तो ध्यान करना छात्रों के लिए सभी दृष्टियों से उपयोगी है। यदि जल्दी उठकर ध्यान किया जाये तो उससे इतनी ताजगी प्राप्त की जा सकती है जो घण्टों सोने से भी नहीं प्राप्त की जा सके । कालेज स्तरीय छात्रावासों में तो इसकी अवश्य व्यवस्था की जानी चाहिये । यदि हम अपने समाज के छात्रों को सही प्रशिक्षण दे सकें तो उन्हें दूसरों की ओर दौड़ने की आवश्यकता नहीं होगी। इस दृष्टि से राणावास का छात्रावास उल्लेखनीय है। पर आज केवल एक राणावास से काम नहीं चल सकेगा । आवश्यकता है हर बड़े शहर में राणावास खड़ा किया जाये। इसका अर्थ यह नहीं है कि हर जगह इतने बड़े आवास बनाये जायें पर इसका यह अर्थ अवश्य है कि हर जगह गृहस्थ संन्यासी केसरीमलजी सुराणा जैसे व्यक्तित्व पैदा किए जायें। xxxxxxx xxxxxx X X X X X X X X X X मिट्ठ मियं असंदिग्धं पडिपुण्णं वियं जियं । अयंपिरमणुविग्गं भासं निसिर अत्तवं ॥ -दशवकालिक ८।४८ ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो दृष्ट (देखी हुई हो), परिमित, संशय रहित, पूर्ण वाचालता रहित तथा शान्तियुक्त हो । X X xxxxx X X xxxxxxx xxxxxxx - ० Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों का चरित्र-निर्माण । श्रीमती कुमुद गुप्ता प्राध्यापिका, हिन्दी ज्ञान मन्दिर महाविद्यालय, नीमच (म० प्र०) स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत के सामने जो अनेक समस्याएँ उदित हुईं, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या बच्चों के चरित्र-निर्माण की है। क्योंकि वर्तमान समय में सर्वत्र अनुशासनहीनता, भ्रष्टाचार, हिंसा का बोलबाला दिखाई देता है । इसका मुख्य कारण है, नागरिकों में मानवीय गुणों का अभाव । इन मानवीय गुणों के अभाव में किसी भी राष्ट्र या समाज की प्रगति सम्भव नहीं हो सकती। राष्ट्र और समाज के सर्वांगीण विकास हेतु बच्चों के चरित्र निर्माण की दिशा में चिन्तन करना आवश्यक है। बच्चों का चरित्र ही राष्ट्र की प्रगति की आधारशिला है। चरित्र क्या है ? चरित्र, संसार की सबसे बड़ी कर्म-प्रेरणा शक्ति है। इसी के द्वारा मानव-स्वभाव एवं राष्ट्र का सर्वोत्तम स्वरूप प्रकट होता है। पर उत्तम प्रकार का चरित्र बिना प्रयत्न किये प्राप्त नहीं किया जा सकता । इसके लिये वर्षों की सतर्कता, आत्मानुशासन, आत्मनियन्त्रण व सावधानीपूर्वक आत्मनिरीक्षण करते रहने की आवश्यकता होती है। प्रेरणा शक्ति के द्वारा शिशुओं या बालकों में उन शक्तियों का विकास किया जा सकता है जिन पर उनका स्वरूप, सफलता और सुख निर्भर है। अच्छी आदतों का समूह ही चरित्र है। सच्चाई, न्याय, अहिंसा, उदारता, क्षमाशीलता, समय की पाबन्दी, विश्वास, परोपकार, आज्ञा-पालन मानवीय गुणों के आधारस्तम्भ हैं। या यों कहें कि चरित्र-निर्माण की दिशा में प्रथम प्रयास हैं। जिस समाज या राष्ट्र के व्यक्तियों में ये गुण जितनी अधिक मात्रा में होते हैं वह राष्ट्र उतना ही अधिक प्रगतिशील राष्ट्र माना जाता है, क्योंकि देश की प्रगति उस देश के नागरिकों पर निर्भर है। राष्ट्र व समाज के सर्वांगीण विकास हेतु बच्चों के चरित्र-निर्माण की दिशा में चिन्तन करना आवश्यक है । बच्चों के बारे में बाल-विशेषज्ञों का मत . बच्चों का मस्तिष्क और उनका स्वभाव कच्चे घड़े के समान होता है। उस पर जो भी चिन्ह पड़ेंगे वे अमिट हो जायेंगे। वैसे भी बालक की प्रवृत्ति सीखने और अनुकरण करने की होती है उसमें अच्छे या बुरे का ज्ञान नहीं होता। बालकों के चरित्र-निर्माण का उत्तरदायित्व उनके अभिभावकों और अध्यापकों पर निर्भर है। चरित्र मानव-स्वभाव का सर्वोत्तम विकासशील स्वरूप है। यदि मानव-जीवन के किसी भी क्षेत्र पर दृष्टि डालें, तो हम देखेंगे कि प्रतिभाशील लोग अपने चरित्र के आधार पर ही समाज में प्रतिष्ठित पद प्राप्त कर लेते हैं। क्योंकि चरित्र ही मनुष्य के सहज और स्वाभाविक गुणों को निखारता है। मनुष्य की प्रतिदिन की छोटी-छोटी बातें ही उसके चरित्र का निर्माण करती हैं और वे ही मानव की प्रगति की आधारशिला बन जाती हैं। किन्तु आज की भौतिक सभ्यता चरित्र की पवित्रता और उत्तमता पर अधिक बल नहीं देती है। जार्ज हरबर्ट का कथन है "थोड़ी सी सच्चरित्रता हजारों ग्रन्थों के अध्ययन से बढ़कर है।" कहने का तात्पर्य है कि विद्या हमेशा सदाचार की सहायक Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों का चरित्र-निर्माण होनी चाहिए । चरित्र निर्माण के लिये धन की आवश्यकता नहीं। मनुष्य के पास यदि परिश्रम और ईमानदारी हो तो उसके सहारे ही वह मानवों की सर्वोच्च श्रेणी में स्थान प्राप्त कर सकता है जो उस सम्पत्ति के स्वामी हैं वे भले ही सांसारिक पदार्थों की दृष्टि से धनी न बन सकें; पर वे सम्मान और प्रसिद्धि की दृष्टि से महान् बनकर दूसरों के लिये प्रेरणा के स्रोत बन सकते हैं । ६६ चरित्र का निर्माण विविध सूक्ष्म परिस्थितियों में होता है। प्रत्येक चेष्टा, प्रत्येक विचार, प्रत्येक अनुभूति हमारे चरित्र-निर्माण में सहायक है, क्योंकि हमारी आदतों का हमारे भावी जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बालक और चरित्र बालक सचमुच किसी देश के प्राण और रक्त होते हैं। वे ही देश की रीढ़ की हड्डी माने जाते हैं। या यों कहें कि वे राष्ट्र की नींव है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी भयोंकि बालक के परित्र से ही राष्ट्र का चरित्र बनता है । इसी कारण बालक के चरित्र-निर्माण की समस्या और भी विकट रूप धारण किये हुए है । घर का और पाठशाला का वातावरण इतना दूषित हो गया है कि बालक को यहाँ से उचित मार्गदर्शन नहीं मिल पा रहा है । बालक के चरित्र-निर्माण की आवश्यकता क्यों ? बालक के चरित्र-निर्माण की समस्या उसकी चंचल मनोवृत्ति व स्वभाव से ही उत्पन्न होती हैं । प्रत्येक बच्चा अपना विकास स्वयं करता है। बच्चे के विकास और चरित्र-निर्माण में हम क्या योगदान दें, यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । बच्चे का चरित्र-निर्माण एक साथ नहीं होता है। वह विभिन्न सोपानों से होकर निर्मित होता है। उसके लिए उचित वातावरण तैयार करना पड़ता है क्योंकि बच्चे की भावी शिक्षा, शारीरिक गठन, आचार, व्यवहार आदि वातावरण पर निर्भर हैं। वातावरण जीवन की गति को मोड़ देता है। अतः उचित वातावरण निर्मित करना अभिभावक, शिक्षक, संस्था और देश के लिये परम आवश्यक है । चरित्र-निर्माण के संभावित उपाय (१) घर - चरित्र - निर्माण की सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रथम पाठशाला घर है । घर में प्रत्येक बालक सर्वोत्तम चारित्रिक शिक्षण प्राप्त करता है। यदि घर का वातावरण ठीक हो तो घर ही सबसे बड़ा प्रशिक्षण देने वाला विद्यालय बन जाता है । व्यवहार ही मनुष्य की रचना करता है, किन्तु जिस प्रकार का साँचा होता है, उसमें से निर्मित होने वाली वस्तु का स्वरूप भी उसी प्रकार का होता है, अतः घर ही मनुष्य की रचना करता है। घरेलू प्रशिक्षण से व्यवहार, मन और चरित्र सभी प्रभावित होते हैं पर में ही हृदय फूलता है, आदतें पड़ती हैं, बुद्धि जागृत होती है और सांचे में चरित्र उलता है पर ही वह स्रोत है जहां से सिद्धान्त और उपदेश प्रकट होते हैं, जो समाज का निर्माण करते हैं। बच्चों के मन में जो छोटे-छोटे संस्कार या विचार-बीज बो दिये जाते हैं वे ही आगे चलकर तरुवर के रूप में प्रकट होते हैं । प्राथमिक विद्यालयों से ही राष्ट्र अंकुरित हैं। बच्चा जब संसार में जाता है, असहाय होता है, उसे अपने पोषण तथा संस्कार के लिए घर के लोगों पर पूर्णतः निर्भर या आश्रित रहना पड़ता है। जन्म लेते ही पहले श्वास के साथ बालक का प्रशिक्षण प्रारम्भ हो जाता है । कहने का तात्पर्य है कि बचपन की शिक्षा-दीक्षा से अनुमान लगाया जा सकता है कि गुणों या दोषों के बीजाणु बाल्यकाल में मनुष्य के शारीरिक-मानसिक क्षेत्र में पनप जाते हैं। लाई प्रागम ने कहा है कि १८ और ३० महीने की अवस्था के बीच में बालक बहुत कुछ शिक्षण प्राप्त कर लेता है । इसी अवस्था में वह पदार्थ जगत् के विषय में, अपनी शक्तियों के बारे में, और दूसरों के विषय में जितना कुछ सीख जाता है, उतना आयु के सम्पूर्ण शेष भाग में . Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड . ... .... ........................................................... भी नहीं सीख पाता । बाल्यावस्था दर्पण के समान है। प्रथम हर्ष, प्रथम खेद, प्रथम सफलता, प्रथम असफलता आदि से ही जीवन के भविष्य का स्वरूप चित्रित होता है। बालक जो कुछ देखता है, उसका अनुकरण किये बिना नहीं रहता। व्यवहार, बर्ताव, चेष्टा, इंगित, गीत और भाषण का ढंग बालक अपने से बड़ों से ग्रहण करता है। यदि देखा जाय तो बालक की आदर्श मूर्ति उसकी माता और पिता होते हैं। माता की भूमिका उसके चरित्र-निर्माण में महत्त्वपूर्ण होती है । जार्ज हरबर्ट ने कहा है कि अच्छी माता सौ अध्यापकों से बढ़कर होती है । यह शिक्षा मौन होती है क्योंकि माता की क्रियाओं का प्रभाव बालक के हृदय पर पड़ता है। घर का चारित्रिक वातावरण माता पर आश्रित है। सुशीलता, दयालुता, चातुर्य, कार्यकुशलता, प्रसन्नता, सन्तोष आदि जो चरित्र के आवश्यक गुण हैं, माता से ही प्राप्त होते हैं । धैर्य व आत्म-संयम के पाठ की व्यावहारिक शिक्षा घर पर ही मिलती है। (२) शिक्षा-वास्तविक स्थिति में शिक्षा का ध्येय चरित्र-निर्माण है। क्योंकि शिक्षा मनुष्य को जीवन की परिस्थितियों से जूझने के लिए तैयार करती है। शिक्षा मानवता के लिए आवश्यक बिन्दु है। शिक्षा केवल मनुष्य में ज्ञानदान नहीं करती है वह संस्कार और सुरुचि को भी विकसित करती है। महात्मा गांधी ने कहा भी है कि सदाचार और निर्मल जीवन ही सच्ची शिक्षा का आधार है। (६) अच्छी संगति-जार्ज हर्बर्ट ने कहा था-अच्छे लोगों की संगति करो, तुम भी उन जैसे बन जाओगे। चरित्र-निर्माण में घर के बाद पाठशाला का स्थान है। वहाँ मित्रों और साथियों की संगति पाने का अवसर बालक को मिलता है । जैसा हम भोजन करते हैं, वैसा ही प्रभाव शरीर पर पड़ता है, उसी प्रकार जैसी हमें संगति व शिक्षा मिलेगी वैसी हमारी मानस-आत्मा बनेगी। मित्रों के आचार, विचार, इंगित, चेष्टा, भाषण आदि चरित्र-निर्माण में सहायक बनते हैं। दृष्टान्त या उदाहरण मानव-जाति की पाठशाला है। लॉक ने कहा है, चरित्र-अनुशासन की शिक्षा का सर्वोत्तम लक्ष्य यह होना चाहिए कि वह मनुष्य के मन को ऐसी शक्ति दे, जिससे मनुष्य आदत के शासन पर विजय पा सके। उत्साही और बुद्धिमान व्यक्ति की संगति का मनुष्य के चरित्र-निर्माण में महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। एक उत्तम चरित्र वाला व्यक्ति, चाहे वह किसी भी कारखाने में काम करता हो, अपने साथियों में उदारता व सत्यता के भाव भरने का प्रयत्न कर सकता है। उत्तम चरित्र सुगन्ध की तरह है, लोग उसका अनुकरण करते हैं। चारित्रिक शक्ति का सबसे पहला हथियार है सहानुभूति । अच्छा जीवन-चरित्र एक अच्छा जीवन-साथी है। (४) कर्म द्वारा चरित्र-निर्माण-संसार कर्म (क्रियाशीलता) प्रधान है। अत: चरित्र-निर्माण में कर्म का महत्त्वपूर्ण योगदान है । कर्म के द्वारा मनुष्य को अनुशासन, आत्म-निग्रह, एकाग्रता, प्रयोग, व्यावहारिकता, धैर्य और कार्य-निपुणता की शिक्षा मिलती है । सभ्यता का विकास कर्म पर आधारित है। आलस्य मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है । कर्म जीवन को अनुशासित करता है । कर्म मनुष्य का वास्तविक शिक्षक है । पेशे, धन्धे पद, व्यवहार, व्यापार, व्यवसाय में प्रशिक्षण प्राप्त करने से मनुष्य की क्षमतायें विकसित होती हैं। (५) चारित्रिक साहस-साहस द्वारा ही किसी मनुष्य का चरित्र महान् बनता है। साहस के द्वारा ही सत्य की खोज, सत्य-भाषण, लालसाओं को रोकने की शक्ति आदि का विकास होता है। सुकरात को उच्च विचारों के लिए विष का प्याला पीना पड़ा। (६) आत्म-संयम-आत्म-संयम सब गुणों की नींव है । जब मनुष्य अपनी इच्छा व लालसा का दास बन जाता है तो वह अपनी चारित्रिक स्वतन्त्रता को खो बैठता है और जीवन की धारा असहाय होकर बहने लगती है। अनुशासन जितना पूर्ण होगा, चरित्र उतना ही ऊँचा होगा। चरित्र अनुशासन का सर्वोत्तम द्वार. है । एक योग्य अध्यापक Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बच्चों का चरित्र-निर्माण . ... . ........................... ..... ... .... . ... .. .....D evote का कथन है-'जीवन के अनुशासन सम्बन्धी नियम उसी प्रकार पढ़ाये तथा सिखाये जा सकते हैं, जैसे कि कोई भाषा।' व्यापार या राजनीति में इतनी सफलता प्रतिभा से नहीं मिलती, जितनी शील स्वभाव के कारण मिलती है । नियन्त्रण ही शक्ति है । वैसे भी हम देखते हैं, भाप को जब नियन्त्रित किया जाता है, तब वह कितनी बड़ी शक्ति बन जाती है। इसी प्रकार चरित्र की दृढ़ता जब अनुशासनबद्ध हो जाती है, तब वह महान् शक्ति बन जाती है। अतः बालक में आत्मसंयम जैसे गुणों द्वारा चरित्र का निर्माण किया जा सकता है। (७) कर्तव्यपालन की भावना-कर्तव्यपालन भी चरित्र-निर्माण का एक माध्यम बन सकता है । कर्तव्य एक ऋण है, जिसे प्रत्येक मनुष्य को चुकाना पड़ता है। जो मनुष्य चाहता है कि वह चारित्रिक दृष्टि से दिवालिया करार न कर दिया जाय, तो उसे अपने कर्तव्य का पालन अवश्य करना चाहिए। कर्त्तव्य के लिये समर्पित होने की भावना ही चरित्र का मुकुट है। कर्तव्य की प्रेरणा से प्रेरित मनुष्य कितना ही दुर्बल क्यों न हो, उसे अपने आत्मबल अर्थात् मनोबल को बुलंद रखना चाहिए। यदि मनोबल टूट गया तो फिर कर्तव्य का विवेक भी लुप्त हो जायेगा। अतः इस प्रकार का वातावरण निर्मित किया जावे, साथ ही ऐसी व्यावहारिक व नैतिक शिक्षा की व्यवस्था की जाय कि जिससे बच्चे का मनोबल दृढ़ हो तथा वह स्वतः ही अपने चरित्र का निर्माण करता चले। X X X X X X X X X X X X उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दविया जिणे । मायं च अज्जवभावेण, लोभ संतोसओ जिणे ॥ -दशवकालिक ८९ क्रोध को क्षमा से, मान को मृदुता से, माया (कपट) को सरलता से और लोभ को सन्तोष से जीतना चाहिए। X X X X X X X X X X X X Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ B+0+0+0+0+0+8+8 + +0+0+0+ अभिभावकों का दायित्व साध्वी श्री जयमाला, नोहर ( युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) किसी कवि ने ठीक ही कहा है रहन-सहन सादा रखें, आवश्यक दो बात हैं, धन व्यय करें न व्यर्थ । सुखमय जीवन अर्थ | जीवनरूपी उपवन को सरसब्ज बनाने के लिये अहर्निश प्रयत्न किये जा रहे हैं। नाना प्रकार के प्रयोग अपनाये जा रहे हैं, किन्तु आनन्द की अनुभूति फिर भी कोसों दूर भागती हुई नजर आ रही है । कारण स्पष्ट है जीवन पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं और रात-दिन अर्थार्जन के लिये दौड़-धूप उन्हें ख्याल तक नहीं कि हमारी सन्तान किस ओर जा रही है । नियन्त्रण के अभाव में व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों तरफ से व्यक्ति निस्तेज बनता जा रहा है । वस्तुतः अनियन्त्रित जीवन किसी काम का नहीं होता। जब तक अर्थार्जन पर ब्रेक नहीं लगाया जायेगा और परिवार की तरफ ध्यान नहीं दिया जायेगा तो इससे अनेक प्रकार की बुराइयाँ बच्चों पर हावी हो जायेगी, असद् आचरणों में पड़कर सन्तान कुपथगामी बन सकती है। परिणामस्वरूप भविष्य गहन अन्धकार में प्रविष्ट हो जायेगा, पारिवारिक जीवन भी अस्त-व्यस्त हो जायेगा, सही दिशा न मिलने के कारण बच्चे आवारा भी बन सकते हैं । अस्तु, पारिवारिक जीवन सुसंस्कारी बनाने के लिये पहले स्वयं स्वस्थ बनें, सत्संस्कारों का विकास करें, क्योंकि सारा का सारा उत्तरदायित्व अभिभावकों पर होता है। यदि माता-पिता स्वयं सजग, सक्षम, योग्यतासम्पन्न होंगे तब ही अपनी दूरदशिता एवं विशिष्ट योग्यता के कारण बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बना सकते हैं। नई-नई उपलब्धियों के द्वार खोले जा सकते हैं। आवश्यक है अभिभावकों को दायित्व निर्वाह से पहले दायित्व बोध होना । दिशाबोध के अभाव में पारिवारिक एवं सामाजिक जीवनस्तर श्रेष्ठ बना नहीं सकते। सर्वप्रथम शिक्षा देने से पहले अभिभावकगण अपने जीवन को टटोलें । स्वयं यदि सही दिशा में चल रहे हैं, तो दूसरों पर भी अपनी विशिष्टता की छाप छोड़ सकते हैं। दिशाबोध के लिये निम्नोक्त स्वर्णसूत्र आवश्यक है- ( १ ) जैसे पहला सूत्र है जीवन चरित्र-निष्ठ हो, (२) व्यसनों से सर्वथा मुक्त हो, (३) स्वावलम्बी हो, (४) अप्रमादी हो, (५) धर्म के प्रति आस्थावान् हो, (६) प्रामाणिक एवं नैतिक हो, (७) निराशा के भाव न हो, यानी साहसहीन न हो। इन्हीं सूत्रों के माध्यम से परिवार एवं समाज को प्रगति पथ पर अग्रसर कर सकते हैं। प्रत्येक माता-पिता की स्वाभाविक कामना होती है कि हमारी सन्तान सुशील तथा सुसंस्कारी बने । किन्तु इच्छा मात्र से कुछ नहीं होता। यदि इरादों से ही सब कुछ बन जाता तो परिश्रम करने की जरूरत ही नहीं रहती । किसी शायर ने ठीक कहा है . Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिभावकों का दायित्व इरादे तो हैं मंजिल के, पर चलना नहीं आता । हमें कहना तो आता है, मगर करना नहीं आता ।। केवल कल्पना की उड़ानें भरने से कुछ नहीं होगा। किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये स्वयं को खपना-तपना होगा तब ही मन इच्छित कामना सफल हो सकती है । अतः माता-पिता स्वयं जागरूक बनकर बच्चों की ओर ध्यान दें। क्योंकि कोई भी बच्चा जन्म के साथ कुछ नहीं लाता, वह जैसे-जैसे बड़ा होता है वैसे-वैसे वातावरण का अंकन करता जाता है। बच्चे की प्राथमिक पाठशाला माता-पिता ही होते हैं । उसमें भी माता का प्रभाव अधिक पड़ता है वस्तुतः माँ ही बच्चे की सच्ची शिक्षिका एवं संरक्षिका होती है। अस्तु माता का जागरूक होना परमोपयोगी है, इसलिये कि यह बच्चे की समुचित आदतों, मनोवृत्तियों एवं कल्पनाशक्ति को विकसित करने में सक्षम हो । जितना बच्चे का अध्यापन माता कर सकती है उतना और कोई नहीं। क्योंकि गर्भकाल से लेकर शैशव और किशोर अवस्था तक बच्चे को सुसंस्कारवान् बनाने में माँ ही उत्तरदायी होती है। जम्मघूंटी के साथ दी गई पुष्ट खुराक जीवन निर्माण में बहुत ही उपयोगी एवं सम्बलदायक बन सकती है । ७३ लेकिन अधिकांश माता-पिता बच्चों की ओर ध्यान तक नहीं देते, क्योंकि उन्हें अपने कार्य से फुरसत ही नहीं मिलती । बच्चा जब बिगड़ जाता है, बुरी आदतों का शिकार हो जाता है, जैसे-झूठ बोलना, छोटी-मोटी चोरी करना, झगड़ालू होना, अपनी जिद पर डटे रहना आदि-आदि इन सब हरकतों को देख जब ऊब जाते हैं तब बिगड़ती हुई आदतों को सुधारने के लिये प्रयास करते हैं लेकिन मुरुआत में ही यदि ध्यान दिया जाये तो ये गन्दी आदतें आ ही नहीं सकती। किन्तु प्रारम्भ में अत्यधिक लाड़-प्यार किया जाता है इससे बच्चा बिगड़ जाता है फिर बाद में सुधारने में टाइम लगता है । देखा जाता है अतिप्यार बच्चे को सुधारने की अपेक्षा बिगाड़ता है । इसलिये माता-पिता मनोविज्ञान के आधार पर बच्चे का निर्माण करें तो भविष्य में अपने आपको और बच्चे को परेशानियाँ उठानी न पड़ें। बालक की बुनियादी शिक्षा को सही दिशा प्रदान करना, अभिभावकों का प्रथम दायित्व होता है। माता-पिता द्वारा पाई गई शिक्षा जीवनपर्यन्त अमिट छाप छोड़ जाती है और विद्यालय की शिक्षा से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण परेल शिक्षा हो सकती है, पर खेद है कि अधिकांश माता-पिता सोचते हैं कि बच्चा बड़ा होगा और स्कूल में पढ़ने जायेगा तब अपने आप ही होशियार हो जायेगा और साथ ही शिक्षा देना विद्यालयों का कार्य है । वे अपना कार्य समझते ही नहीं किन्तु यह नहीं सोचते हैं कि प्राथमिक शिक्षा बालक को विद्यालय में प्रवेश के लिये अधिक सक्षम बनाती है और साथ ही साथ जीवन की ऊर्ध्वमुखी प्रगति में सहायक बनती है । पारिवारिक शिक्षा बच्चे में अच्छे से अच्छे सद्संस्कार डालती है जबकि विद्यालय की शिक्षा उसकी समझदारी चातुर्यता में चार चाँद लगाती है । बचपन में अच्छे संस्कारों की पकड़ विद्यालय की शिक्षा से अधिक प्रभावशाली होती है। बच्चे के योग्य संस्कार अच्छी सुन्दरता का परिचय देते हैं। अस्तु, बच्चे को संकीर्ण विचारों से दूर रखें, कुसंस्कारों में न पड़ने दें, इस ओर जागरूक रहना माता-पिता का प्रथम कर्त्तव्य है । क्योंकि बच्चों की कल्पनाशक्ति बड़ी प्रखर होती है। बच्चों के सामने जब-जब नये प्रसंग उपस्थित होते हैं तब फौरन बच्चों का दिमाग कल्पना- लोक में उड़ानें भरने लगता है । नाना प्रकार के प्रश्न, प्रति प्रश्न उसके सामने उपस्थित होते हैं । जब तक उनका समाधान नहीं पा लेता, तब तक उसको चैन नहीं पड़ता । अतः प्रारम्भिक स्तर पर पूर्ण जागरूकता बरतें तो जीवनशक्ति का यथोचित विकास किया जा सकता है। आवश्यकता है माता-पिता अपनी व्यस्तता के नाम पर बच्चों का जीवन बनाने में उपेक्षा के भाव न रखें बल्कि मनोरंजन के लिये प्रोत्साहित करें और साथ ही साथ ज्ञानवर्धक महापुरुषों की जीवनी, उत्साहवर्धक रोचक छोटी-छोटी कहानियाँ, एवं धार्मिक संस्कार अवश्य डालें। बच्चे ज्यादातर अनुकरणप्रिय होते हैं । उनमें समझ कम होती है, भले-बुरे का चिन्तन वे नहीं कर सकते इसलिये बच्चों के सामने ऐसे कार्य कभी न करें जिससे बच्चों पर बुरा प्रभाव पड़े। गाली गलोज अभद्र व्यवहार भी न करें क्योंकि बच्चे इतनी शीघ्रता से पकड़ते हैं कि आप कल्पना नहीं कर सकते । हमने देखा है कि छोटे-छोटे बच्चों की जुबान पर इतने अभद्र शब्द आते हैं कि सुनकर आश्चर्य होता है। पूछने पर पता चला कि ये गन्दे शब्द कहाँ से सीखे तो उसने फौरन जवाब -0 . Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sr कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ तृतीय खण्ड दिया कि मेरा पापा और मेरी मम्मी जब लड़ते हैं तो ऐसे बोलते हैं और मेरे साथी मित्र भी तो बोलते हैं, मैं भी सीख गया । देखिए - ऐसे एक क्या अनेकों नासमझ बच्चे मिलेंगे जो नादानी के कारण ऐसी-वैसी गन्दी बातें सीख जाते हैं, इसलिये बच्चों के समक्ष अभिभावकगण अपनी समझदारी से काम करें एवं ऐसे-वैसे गन्दे बच्चों के साथ न बठने दें तो बहुत बड़ा हित हो सकता है । संस्कारों का प्रभाव बहुत गहरा होता है फिर चाहें वे अच्छे हों या बुरे मैं यहाँ कुछ सजीव घटनाओं से बतलाऊँगी कि संस्कारों का प्रभाव कितना गहरा होता है एक परिवार था, उसमें कई बच्चे थे। घर में कहीं से मिठाई आई थी, सभी बच्चे मिठाई खाने के लिये लालायित हो उठे । यह स्वाभाविक था, पर उस समय माता को कहीं बाहर जाना जरूरी था अतः मिठाई ऊँची आलमारी में रखकर बच्चों को कहा कि बेटा ! मैं जरूरी कार्य जल्दी से करके अभी आ ही रही हूँ । देखो ! आलमारी में हाऊ बैठा है । कोई हाथ मत लगाना, अच्छा ! मैं जाती हूँ । । देखिये माँ ने हाऊ का भय डाल दिया पर शरारती बच्चे कब डरने वाले ! पीछे से सबसे बड़े लड़के ने दोनों भाई एवं बहिन को एक उपाय सुझाया कि तुम सब घोड़ी बनो मैं तुम्हारे ऊपर खड़ा होकर तुम सबको मिठाई खिला दूंगा । क्यों सब तैयार हो न ? सबने एक साथ हाँ कही और फौरन घोड़ी बन गये । बड़े लड़के सुरेश ने ऊपर चढ़कर मिठाई का वर्तन नीचे उतार लिया, सबने मिलकर ऊँचा रखकर आलमारी ज्यों की त्यों बन्द कर खेलने लगे के लिए पूछे तो एक ही जवाब देना है कि हम क्या जानें। माता अपने कार्य से निवृत्त होकर पर आई, सारे बच्चे खुशी-खुशी खेल रहे थे। माँ ने जब मिठाई का बर्तन देखा तो खाली मिला । सब बच्चों से पूछा तो एक साथ उत्तर दिया हम क्या जानें, आलमारी का हाऊ खा गया होगा । हम तो वहाँ तक पहुँच भी नहीं सकते । माता बच्चों की तरफ एकाएक देखती रह गई। अगर माता ने हाऊ का भय नहीं दिखाया होता तो शायद बच्चे मिठाई नहीं भी खाते और झूठ भी नहीं बोलते, मगर उनको एक मार्ग मिल गया बहाने का, हाऊ वाला । अस्तु, इस प्रकार की एक घटना और है- माता के आने से पहले-पहले मिठाई खाकर वर्तन वापिस सुरेश ने सब बच्चों को कह दिया कि जब माताजी मिठाई आलमारी में आप हाऊ बता रही थीं वो खा गया होगा । 1 एक परिवार में कुल पाँच सदस्य थे। दो पति-पत्नी और तीन बच्चे दोनों पति-पत्नी नौकरी करते थे । भय का भूत प्रत्येक माता अपने बच्चे को रुदन के समय दिखाती है। जब बच्चा रोता- रोता बन्द नहीं होता तब उसे नाना प्रकार के भय से भयभीत कर देती है। उन्हें यह ज्ञान तक नहीं कि भय से बच्चे के दिमाग पर कितना बुरा असर होता है । बड़ी मुश्किल से आगे जाकर वे संस्कार भयभीत बच्चे बचपन में पाये गये संस्कारों से इतने प्रभावित होते हैं कि जब-जब वे प्रसंग उपस्थित होते हैं, बच्चे कंपकंपाने लग जाते हैं और भय के मारे बुखार भी हो जाता है। निकलते हैं । एक दिन आवश्यक कार्य के लिए माता कहीं बाहर जा रही थी, नौकरानी आई नहीं थी अतः बड़े लड़के से, जोकि ६-१० वर्ष का था, कह के गई कि मुन्ना सोया हुआ है, जब जाग जाये तो रोने मत देना, शीशी में दूध डालकर पिला देना । माता चली गई। थोड़ी देर के बाद मुन्ना जाग गया, उठते ही मम्मी नहीं दिखने से रोने लगा । खिलौने देने पर भी राजी नहीं हुआ, शीशी पिलाने लगा तो हाथ से शीशी गुस्से में फेंक दी काँच की शीशी थी, फूट गई; पर रोना बन्द नहीं हुआ । आखिर हारकर भाई ने उसको तीन मंजिल से नीचे गिराने का भय दिखाया, जो कि माता उसे हमेशा दिखाती थी। पर इस बार भय दिखाने पर भी रोना बन्द नहीं हुआ तब बड़े भाई ने तंग आकर नीचे फेंक दिया। परिणामस्वरूप उस दुधमुंहे बच्चे की माँ की भयंकर भूल ने उसके प्राण ले लिये। वे दोनों बहिन-भाई खेलने लगे । जब माँ कार्य से निवृत्त होकर घर आई, मुन्ने के लिए पूछा तब लड़के ने सारी घटना कह दो सुनते ही मां के तो होश हवास गुम हो गये नीचे जाकर जब देखा तो बच्चा नाली में गिरा हुआ है। माता के दुःख का कोई पार नहीं रहा, आखिर कहे तो किसको कहे, ऊपर आकर बच्चे को कहा - अरे, कभी इस तरह से फेंका Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिभावकों का दायित्व ७५. करते हैं। मूर्ख कहीं का ! लड़के ने कहा-मां, मुझे क्या पता, आप हमेशा ही जब पिंकी रोता है तो नीचे का भय दिखाती हो, तब चुप हो जाता है, मगर आज जब रोता-रोता चुप नहीं हुआ तब मैंने उसे नीचे गिरा दिया। मुझे क्या पता नीचे गिरते ही मर जायेगा । अब माता-पिता पाश्चात्ताप करते रह गये। माता सोच रही है-हाय ! अगर मैंने यह भय नहीं दिखाया होता तो आज मेरा नयनों का तारा बेमौत क्यों मरता? कवि ने ठीक ही कहा है काम करे सुविचार कर, बोले वचन विचार । और रहे संतुष्ट नित, ये तीन शांति के द्वार ।। वस्तुतः अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के संस्कार बच्चे ग्रहण करते हैं, ये दोनों उदाहरण इस बात के प्रतीक हैं कि बच्चों में समझदारी कम होती है। इसलिए अनुकरणप्रिय ज्यादा होते हैं। अच्छे संस्कार अच्छे बनाते हैं एवं बुरे संस्कार बुरे । पर संस्कारों का प्रभाव अवश्यम्भावी बच्चों पर पड़ता है, इसमें कोई दो मत नहीं। देखिये-इतिहास बताता है कि मदालसा नामक सन्नारी के जब भी पुत्र होता, तब वह स्तनपान कराते एवं सुलाते समय लोरी देती हुई बड़ी सुन्दर शिक्षा देती और कहती कि बेटा तू-''शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि संसारमाया परिवजितोऽसि" यह विराट् एवं महान् बनने की लौरी हर बालक को कान में सुनाया करती और साथ ही साथ ज्यों-ज्यों बच्चा बड़ा होता त्यों-त्यों प्रतिदिन जीवन-निर्माण की आध्यात्मिक शिक्षा दिया करती थी। परिणामस्वरूप उसके सभी बालक बड़े होने पर होनहार, योग्य एवं महान् बने। ये थे जन्म-घूटी के साथ दिये गये सुन्दर संस्कार । इसका तात्पर्य है कि बच्चे को जैसा बनाना है वे संस्कार माता की ओर से सर्वप्रथम खुराक की तरह मिलते हैं । बच्चा अपने आप में कुछ नहीं होता । अमर माधुरी में कहा है जो विचारें सो बनालें, देव हूँ, शैतान हूँ मैं । अंत में माता-पिता के खेल का सामान हूँ मैं ॥ मतलब, बालक कह रहा है कि मुझमें देवता बनने की क्षमता भी है और शैतान यानी राक्षस बनने की भी क्षमता है। दोनों प्रकार की शक्तियाँ मौजूद हैं, अब आवश्यकता है माँ-बाप जैसा बनायेगे वैसा ही बालक बन जायेगा यदि माँ-बाप शान्त प्रकृति के हैं तो बच्चे भी वैसे ही बनेंगे। यदि वे बात-बात में झगड़ालू, क्रोधी एवं व्यसनी हैं तो उनकी सन्ताने भी वैसी ही वनेंगी, क्योंकि वातावरण यदि दूषित होगा तो बच्चों का जीवन भी वैसा ही दूषित एवं अपराधी होगा । अत: आस-पास का वातावरण बिल्कुल विशुद्ध रखें, इस ओर यदि अभिभावकगण ध्यान देगे तो अवश्य ही उनकी भावी पीढ़ी सुसंस्कारी होगी। इसमें प्रथम प्रयास अभिभावकों का, दूसरा शिक्षकों का और तीसरा धर्मगुरुओं का है। सबके सुन्दर प्रयास से बच्चे होनहार, सुशिक्षित एवं चरित्रसम्पन्न होकर परिवार, समाज, देश एवं राष्ट्र के उत्थान में सहयोगी बन सकते हैं। नींव सुदृढ़ होती है तो झंझावात आने पर भी खतरा नहीं होगा। आवश्यकता है नींव को मजबूत बनाने की। कोरी कल्पना से नहीं, बल्कि स्वयं के बलिदान से। एक मुक्तक में ठीक कहा है आम धारणा है कि हमारी भावी पीढ़ी सुसंस्कारवान् बने । सम्पूर्ण दुनिया में नाम रोशन करें, वैसी बलवान बने ।। लेकिन कल्पना की लंबी-चौड़ी उड़ान भरने वाले बन्धुओ ! स्वयं को टटोलो कि उनके लिये तुम कितने परित्राण बने । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छात्र-अध्यापक सम्बन्ध 0 साध्वी श्री गुणितप्रभा (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) जीवन शब्द के दो अर्थ हैं-एक पानी और दूसरा प्राण-धारण करने वाली शक्ति। मोती में जब तक पानी रहता है, तब तक उसका मूल्य होता है। पानी उतर जाने के बाद उसकी कोई कीमत नहीं होती। ठीक उसी प्रकार उचित अनुष्ठान एवं उचित कार्यों से ही जीवन का मूल्य होता है । अन्यथा उसका कोई मूल्य नहीं होता। ऐसा मूल्यवान् जीवन बनाने के लिए किसी सहयोगी, निर्देशक और शिक्षक की अपेक्षा होती है, क्योंकि अकेला व्यक्ति मात्र अहं का भार ढो सकता है, पर विकास का मार्ग उसका रुक जाता है। जैसे एक हाथ से ताली नहीं बजती, एक पहिये से गाड़ी नहीं चल सकती तथा एक पंख से पक्षी गगन में नहीं उड़ सकता। ठीक उसी प्रकार परिवार, समाज एवं राष्ट्र को ऊँचा उठाने के लिए केवल एक विद्यार्थी, एक अध्यापक या एक नेता कुछ नहीं कर सकता । सब मिलकर सब कुछ कर सकते हैं । अतः अपेक्षा है विद्यार्थी वर्ग अपने आपको देखे और चिन्तन करे-हम देश में भावी विभूति एवं कर्णधार माने जाते हैं। अतः हमारा कर्तव्य है कि गुरु के निर्देश का पालन करें और उत्तरोत्तर विकास करें। गुरु की शिक्षा को शिष्य इस प्रकार धारण करें। एक श्लोक में बताया है कि गुरोः वाक्यं प्रतीक्षेत मनस्यामोदमादधत् । मुक्ताहार इवा कण्ठे स्वापयेत तत्सभादरात् ॥ किन्तु इसके साथ-साथ हम यह चिन्तन करें कि विद्या का फल मस्तिष्क-विकास है, किन्तु है प्राथमिक । उसका चरम फल आत्म-विकास है । मस्तिष्क-विकास चरित्र के माध्यम से आत्म-विकास तक पहुँच जाता है। अतः चरित्र-विकास दोनों के बीच की एक कड़ी है। विद्या का साधन केवल पुस्तकीय ज्ञान हो, यह वांछनीय नहीं है। मुख्यवृत्या आत्मानुशासन की साधना होनी चाहिये । बहुश्रुतता के बिना जीवन सरस नहीं बनता वैसे ही आत्मगुप्तता या स्थितप्रज्ञता के बिना जीवन में शान्ति नहीं आती। इसलिये दशवैकालिक सूत्र में बताया है कि विद्यार्थी विद्या श्रुत-प्राप्ति के लिए पढ़े, एकाग्रचित्त बनने के लिए पढ़े, आत्मस्थ बनने के लिए पढ़े एवं दूसरों को आत्मस्थ बनाने के लिए पढ़े । यह सब कब हो सकता है जब विद्यार्थी का जीवन जागृत हो । विद्यार्थियों के सुप्त मानस को जगाने के लिये अपेक्षा है पहले अध्यापकवर्ग जागृत बने । उनका जीवन शालीन, व्यसनमुक्त हो तथा विद्यार्थियों के मध्य रहकर उन्हें भी कोई ऐसी बात नहीं करनी चाहिये, जिससे उन पर कुसंस्कार पड़ें । अन्तर् में वात्सल्य एवं ऊपर से पूर्ण नियन्त्रण हो तब विद्यार्थियों का पूर्ण सुधार होगा और गुरु का सच्चा गुरुत्व होगा अन्यथा 'केवलेनोपदेशेन निश्चित वाग्विडम्बना' वाली बात होगी। __अध्यापकों तथा विद्यार्थियों दोनों का कर्तव्य है कि परस्पर विनय और वात्सल्य का सामंजस्य रखें तथा अपने को कोई भी बड़ा न माने यदि माने, तो वैसा ही माने जैसे दीपक बड़ा हो गया, अर्थात् विकास रुक गया। अहंकारी व्यक्ति के सामने सफलता की गुंजाइश नहीं रहती। अत: अपने को विद्यार्थी ही माने। विद्या+अर्थी = विद्यार्थी । अतः विद्या सभी चाहते हैं । विद्या तो जीवन की दिशा है । जिसे पाकर मनुष्य अपने इष्ट स्थान पर पहुँच Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर विद्यार्थी भील पुत्र एकलव्य के जीवन को याद करे कि गुरु के समर्पण कैसा था, तथा विनय से उसने कितना ऊँचा स्थान प्राप्त किया था। कहा है कि सकता है और चरित्र है जीवन की गति सही दिशा मिल जाने पर भी गतिहीन मनुष्य इष्ट स्थान तक पहुँच नहीं पाता । सही दिशा और गति दोनों मिलें तब पूरा काम बनता है । चरित्रहीन विद्या विद्यार्थी के लिए वरदान नहीं बन पाती है पर आजकल कुछ और ही देखा जा रहा है। विद्या के लिए जो भरसक प्रयत्त हो रहा है उतना चरित्र के लिए नहीं हो रहा है । छात्र अध्यापक सम्बन्ध ७७ हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठै नहीं ठौर । कबीरा ते नर अन्ध हैं, गुरु को समझे और ॥ अतः गुरु के इंगित एवं अनुशासन पर चलने वाले छात्र का जीवन वैसे ही चमकता है, जैसे अग्नि में तपाया हुआ सोना । सोने को तपाते, पिघालते एवं कसौटी पर कसते हैं तब उसकी सच्चाई प्रकट होती है । उसी प्रकार जो बच्चे अपने पूज्यजनों की डाँट फटकार सुनकर भी विनम्र रहते हैं, वे अच्छे आदमी बन सकते हैं। एक आचार्य ने अपने शिष्य से कहा- "जाओ सामने जो काला नाग दिखाई दे रहा है उसे नाप कर आओ ।" शिष्य बिना हिचकिचाहट वहाँ गया और साँप के चले जाने पर उस स्थान को नाप कर आ गया । आचार्य ने दूसरी बार आदेश दिया - "जाओ उसके दाँत गिनकर आओ ।" आज्ञा सुनकर शिष्य को जरा भी भय नहीं हुआ कि सर्प मुझे काट लेगा । वह अत्यन्त सहजभाव से गया और साँप का मुँह पकड़कर दाँत गिनने लगा । सर्प ने दो बार उसके हाथ को काट लिया किन्तु वह दाँत गिनने में लगा रहा। दाँत गिनकर वह गुरु के पास पहुँचा । गुरु ने पूछा- दाँत गिनकर आये हो । शिष्य की स्वीकृति सुनकर गुरु ने पूछा- कहीं सर्प ने काटा तो नहीं ? शिष्य ने अपना हाथ दिखाते हुये कहा - यहाँ दो बार काटा है। आचार्य आश्वस्त होकर बोले--- भय की कोई बात नहीं है, जाओ कम्बल लपेटकर सो जाओ । थोड़ी देर बाद देखा गया कि कम्बल एक विशेष प्रकार के कीड़ों से भर गया है। कीड़ों को देखने से पता चला कि उसके शरीर में एक भयंकर रोग था उसका शमन सर्प के जहर से हो गया था। आचार्य ने अपने शिष्य को स्वस्थ बनाने के लिए प्रयोग किया था किन्तु इसका किसी को भी पता नहीं था, जब वह रहस्य खुला तो दूसरे शिष्य अपने साथी की अनुशासनप्रियता पर विस्मित हुए । प्रति उसकी श्रद्धा, विनय एवं कबीरदासजी ने कितना सुन्दर यहां पर शिष्य में शिष्यत्व था और गुरु में गुरुत्व । वस्तुतः अनुशासनहीनता विद्यार्थी के विकास में अवरोध बन जाती है। अनुवासनहीनता के कई कारण हैं कुछ कारण अध्यापकों एवं अभिभावकों से सम्बन्धित हैं, कुछ कारणों का सम्वन्ध विद्यार्थियों से है। अध्यापकों एवं अभिभावकों से सम्बन्धित कारण है-अधिक बुलार, अतिनियन्त्रण, उत्तरदायित्व का अधिकार कहने व करने में द्विरूपता एवं दूषित वातावरण बच्चों से सम्बन्धित कारण हैं— कुसंगति, शिकायत की आदत तथा अध्यापकों एवं अभिभावकों के प्रति अश्रद्धा । उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त कुछ और भी कारण हैं जिनका सम्बन्ध समय और स्थिति से है । कुछ भी हो, अनुशासनहीनता ने जीवन-निर्माण की दिशा में बहुत बड़ी क्षति की है, इस क्षति की पूर्ति के लिए सबको सजग होना है तथा अनुशासननिष्ठा का परिचय देना है। इसमें सफलता भी मिलेगी जब अध्यापक अपना कर्त्तव्य समझकर बच्चों में सुसंस्कार भरेंगे एवं विद्यार्थी विनय, श्रद्धा और समर्पण से विद्या के साथ मनन एवं आचरण करेंगे क्योंकि विचार का चिराग बुझ जाने से आचार अन्धा हो जाता है । आचार का चिराग बुझ जाने से व्यवहार अन्धा हो जाता है । परिष्कार की मशीन जीवन के चौराहे पर फिट हो । क्योंकि व्यवहार का चिराग बुझ जाने से जीवन गंदा हो जाता है ॥ D 666 . Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - क्या धार्मिक शिक्षा उपयोगी है ? 10 साध्वी श्री रमाकुमारी (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) V आज अगर हम अन्तस्तल की गहराई में उतरकर देखें तो पायेगे कि हमारा शैक्षणिक स्तर ही बदल गया। हमारी मान्यताएँ बदल गईं, हमारी धारणाएँ बदल गई, हमारे सोचने-समझने का ढंग ही पूर्णतः बदल गया है। विज्ञान ने हमारी आध्यात्मिक आस्था ही छीन ली है। ऐसे जटिलतावादी युग में व्यक्ति आस्थाहीन व मूल्यहीन बनता जा रहा है। यह परिस्थिति छात्र जीवन के लिए दुःखद, भयावह व निराशाजन्य प्रतीत हो रही है। जहाँ देखें वहीं कुहरा ही कुहरा दृष्टिगत हो रहा है। ऐसे अन्धकारग्रसित युग में छात्र अपने जीवन का भविष्य निर्धारण करने में सर्वथा निरुपाय प्रतीत होता है। उसे अपने जीवन रथ का धुरी को कैसे प्रवर्तन करना चाहिए और किस दिशा में नियोजित करना चाहिए इस तथ्य से वह पूर्णतः अनभिज्ञ है। समुज्ज्वल भविष्य के क्षणों के दर्शन में भी वह अपने आप को असमर्थ समझ रहा है। इसीलिए ही तो आधुनिक शिक्षा-प्रणाली से छात्रों का जीवन व्यवहार उच्छृखल व अनुशासनहीन-सा बनता जा रहा है। प्रश्न है--ऐसा क्यों हो रहा है ? इसका मुख्य कारण है- जीवन में धार्मिक शिक्षा का अभाव । चिन्तन के दर्पण में अवलोकन करें तो प्रतिबिम्ब धूमिल-सा नजर आता है। आत्मा का जो पवित्र विशुद्ध रूप है वह हमारे समक्ष प्रस्तुत नहीं हो पाता। अगर जीवन व्यवहार में धार्मिकता का समावेश हो जाये तो नि:सन्देह विद्यार्थी जीवन के रंग-मंच में आमूल-चूल परिवर्तन की स्वणिम आभा प्रस्फुटित हो जाए। जीवन का वह सुनहरा प्रभात नये उल्लास से भर जाये । प्रामाणिक नैतिक जीवन ही समुज्ज्वल भविष्य की रीढ़ है। । अत: प्रत्येक विद्यार्थी को अपने जीवन को प्रकाशमय बनाने की उत्कट इच्छा हो तो उसे चाहिए कि वह इस श्लोक के प्रत्येक चरण का अपने जीवन के बहुमूल्य क्षणों के साथ तादात्म्य संस्थापित करे विनयः शासने मूलं, विनीत: संयतो भवेत् । विनयाद् विप्रमुक्तस्य, कुतो धर्मः कुतो जयः ॥११॥ विद्यार्थी विनय की परम्परा को कैसे नजर-अन्दाज कर देता है, कुछ समझ में नहीं आता है। आप पढ़ेंगे एक दासी के पुत्र का जीवन वृत्त । जिसने विनय के प्रभाव से ही बहुत कुछ ज्ञान अजित किया था। वह कथा प्रसग इस प्रकार है ___ जाबाल नामक एक दासी थी। उसको कुक्षि से एक पुत्र पैदा हुआ। उसका नाम था सत्यकाम । उसके मन में अध्ययन करने की तीव्र उत्कण्ठा थी। पर वह निर्धन था। बिना फीस कौन पढ़ाए ! पूर्वजन्मगत धार्मिक विचारों की उस पर बहुत सुन्दर प्रतिक्रिया थी। जैसे ही वह शैशव की दहलीज को पार करता है उसके मन में धर्म-शास्त्र के अध्ययन की एक तड़प जागती है। वह इन्हीं विचारों की उधेड़-बुन में डुबकियाँ लगाने लगता है। एक दिन उसने अपने मन में दृढ़ निश्चय किया और शुभ मुहूर्त देखकर सत्यकाम महर्षि गौतम की सन्निधि में उपस्थित हुआ। विनयपूर्वक प्रणाम कर अपनी हृदयगत भावना को अभिव्यक्त कर प्रशान्त मुद्रा में बैठ गया। महर्षि गौतम ने पूछातुमकौन हो? तुम्हारा गोत्र क्या है ? सत्यकाम ने प्रत्युत्तर में कहा- प्रभो ! मेरा नाम सत्यकाम है। मैं अपने Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या धार्मिक शिक्षा उपयोगी है ? ७६ गोत्र के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता। अज्ञात परिवार के परिवेश से गुजर रहा हूँ। मैं अपने गोत्र के परिचय के सम्बन्ध में पूर्णत: अनभिज्ञ हूँ। महर्षि गौतम के स्मित हास्य बिखेरते हुए कहा-जाओ, अपनी माँ से पूछकर आओ। सत्यकाम चिन्ता की गहना ब्धि में डूबने लगा। पैर लड़खड़ाने लगे। वह निराशा भरे स्वर में बोला-माँ ! बताओ अपना गोत्र क्या है ? माँ पुत्र की वाणी सुनकर निस्तब्ध हो गई । आखिर बताए भी क्या, कोई एक पति हो तो बताए । वरना क्या बताए? वह भी असंमजन में पड़ गई। बेटा, तुम्हें अगर कोई भी पूछे तो उससे स्पष्ट कहो-मेरा नाम सत्यकाम जाबाल है। उसने घर से सानन्द विदा ली और महर्षि गौतम के उपपात में उपस्थित हुआ। अपने गोत्र के सम्बन्ध में यथातथ्य कह सुनाया। महर्षि उसकी अन्तस्तल की सरलता पर आश्चर्यचकित थे। करुणामयी दृष्टि का स्नेह भाजन बनकर सत्यकाम आश्रम में रहने लगा। महर्षि गौतम का हृदय उसकी विनयशीलता पर द्रवीभूत हो गया। उसे ज्ञान का पात्र समझकर 'ब्रह्मज्ञान' का उपदेश दिया। अन्त में वह महषि जाबाल नाम से प्रसिद्ध हुआ। सिंहनी का दूध स्वर्णपात्र में ही ठहरता है, अन्य पात्र में नहीं । आत्मज्ञान भी पात्र को ही सम्प्राप्त होता है, अपात्र को नहीं । एक कवि ने यथार्थ का दिग्दर्शन कराते हुए उल्लेख किया है। जैसे विना गुरुभ्योः गुणनीरधिभ्योः जानाति धर्म न विचक्षणोऽपि । यथार्थसार्थं गुरुलोचनोऽपि दीपं विना पश्यति नान्धकारे ॥१॥ मनोवैज्ञानिक स्तर से विश्लेषण करें तो पायेंगे कि गुरु की महिमा अगाध है। वह शिष्य की हृदयगत तरंगित भाव ऊर्मियों को आसानी से परिलक्षित कर लेता है। आधुनिक युग में अनेक वैज्ञानिकों ने यन्त्रों का परिनिर्माण कर विश्व को चकाचौंध कर दिया है, किन्तु आत्मा को जानने का कोई भी यन्त्र नहीं है। अतः श्रमण भगवान् महावीर ने कहा--."चरेज्जत्त गवेसए".-खुद को जानकर आगे बढ़ो। यूरोप और एशिया को जानने से पूर्व अपने अन्तस्तल को जानो। एक अंग्रेज का भी यही कहना है-(Know thy self) अपने आप को जानो, गहराई में उतर कर जानो। आज का छात्र पानी पर तैरने वाली शैवाल की भाँति पुस्तकों के ऊपरी ज्ञान को ही पकड़ता है। ज्ञान का समुद्र बहुत गहरा है। वहाँ कौन डुबकियां लगाए ? अम्बुधि तट पर खड़ा रहने वाला तो सीप-शंख ही पाता है। कीमती मोती कहाँ से पायेगा ? गहराई के अभाव में धर्म के बिना कोई भी अपना हित-चिन्तन नहीं कर सकता। धर्म भारतीय जनता की आत्मा है। धर्म-निरपेक्ष का अर्थ होगा, आत्मा की परिसमाप्ति । अध्यात्मशून्य शक्षणिक व्यवस्था आज के भौतिकवादी गुण में वरदान की अपेक्षा अभिशाप सिद्ध हो रही है क्योंकि भारतीय छात्र अब भी पाश्चात्य शिक्षा संस्कृति से प्रभावित हैं। अतः सभ्यता व व्यावहारिकता के तो उसमें दर्शन ही दुर्लभ हो गये हैं। भगवद्वाणी भारतीय विद्यार्थियों का जीवन ही बदल देती है। अगर वे अपने जीवन का निरीक्षण सत्य व ईमान की भूमिका पर खड़े होकर करें तो वे बहुत ही सुसंस्कृत व सभ्य नागरिक बनने में सक्षम हो सकते हैं। अतः इस आर्ष वाणी को सदैव याद रक्खें-'न असब्भमाहु' असभ्य, अप्रिय तथा क्लेश वर्धक तुच्छ शब्द अपने मुंह से न बोले । यही विद्यार्जन का सही फलित होगा। मनुष्य का उदात्त विचार ही स्वस्थ समाज की परिकल्पना है। गुरु ने शिष्य से कहा- "नहि ज्ञानेन सदृशं, पवित्रमिह विद्यते” अर्थात् संसार में ज्ञान की तुलना में कोई भी वस्तु पवित्र नहीं हो सकती। किन्तु दृष्टि से अगर यथार्थ का प्रतिबिम्ब उतर आये तो सारा अन्धकार स्वतः ही विलीन हो जाये, यह कब होगा जब बुद्धि अयथार्थ के पर्दे से अनावृत हो जायेगी तथा बुद्धि का पवित्रीकरण हो जायेगा तो प्रकाश ही प्रकाश सर्वत्र विकीर्ण होने लगेगा। गुरु ने शिष्य को हस्ती का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए .. कहा- हाथी स्नान करने हेतु तालाब में प्रवेश करता है। स्नान करने के पश्चात् ज्योंही वह बाहर भाता है। पुनः अपनी ही सूंड से अपने ऊपर मिट्टी डालने लग जाता है। शिष्य ने पूछा-गुरुदेव क्या ! बह मूर्ख है ? जो स्नान की विशुद्धि और पवित्रता को नहीं समझता । गुरु ने कहा-बह अज्ञानी है, उसका बिबेक जागृत नहीं है । अज्ञान के कारण -0 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .0 ८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड ही वह ऐसा करता है । अतः मनुष्य विवेकशील प्राणी है। उसका विवेक जागृत है, वह जिस वस्तु को हेय समझ लेता है फिर उसे कदापि ग्रहण नहीं करता । यह हेय और उपादेय की जागृति कब होती है, जब उसके पास ज्ञान हो, अध्ययन हो । बस बस शिष्य समझ गया कि मुझे पढ़ना चाहिये तथा निष्ठापूर्वक विद्याभ्यास करना चाहिए । क्योंकि कहा गया है- "सा विद्या या विमुक्तये" विद्या वही है जो दुर्गुणों से मुक्ति दिलाए। पर आज के विद्यार्थी दुर्गुणों के दास बन गये हैं, फैशनपरस्ती में वे इसने सराबोर रहते हैं, उन्हें अनुभव ही नहीं होता कि अमूल्य मानवजन्म को हम कैसे नष्ट कर रहे हैं। माता-पिता व सद्गुरुजनों की शिक्षा का तो लेशमात्र भी उन पर असर नहीं होता क्योंकि मनुष्य का मन इतना दुर्बल है कि सद्गुणों की अपेक्षा दुर्गुणों से अधिक प्रभावित होता है। इस मानसिक अनियन्त्रण से दुराचार की व्याधि प्रतिदिन बढ़ रही है चाहे सरकारी कानून कितने ही क्यों न बनाये जायें। जब तक अन्तस्तल की जागृति नहीं हो पाती, तब तक दुराचार को सदाचार में परिवर्तित करना असंभव है । विवेक का जागरण बाहर से नहीं, भीतर से होगा । विद्यार्थी अगर भारत के महान् नेता व राष्ट्रपति बनना चाहते हैं तो वे अणुव्रत के माध्यम से अपना निरीक्षण करना सीखें तथा समय की कीमत को आँके । महान् बनने की भावना के सुनहरे स्वप्न जो आप रात को संजोते हैं वे स्वप्न स्वप्न न रहकर साकार होने लगेंगे। एक अंग्रेज ने कहा है(Time is money) समय बहुत बड़ा धन है । नेपोलियन युद्ध की व्यस्तता में भी जोजेफाइन को पत्र लिखने का समय निकाल ही लेता था। ऐसा कहा जाता है कि आज वे पत्र करोड़ों डालर के हैं । एक दुकानदार के पास एक व्यक्ति पुस्तक खरीदने के लिए आया और पुस्तक का मूल्य पूछा। बेंजामिन फ्रैंकलिन ने कहा – एक डालर । वह चला गया । कुछ क्षण रुककर पुनः आया और पूछा- महाशय ! पुस्तक का मूल्य कुछ कम करोगे ? फ्रैंकलिन ने तपाक से उत्तर दिया- सवा डालर । ग्राहक असमंजस में पड़ गया। पुस्तक वही है इतने में चौथाई डालर कैसे बढ़ गया । उससे रहा नहीं गया। उसने अपनी जिज्ञासा का स्पष्टीकरण चाहा। दुकानदार ने हार्द समझाते हुए कहा कीमत पुस्तक की नहीं, समय की होती है । आज जो आप विकास की रूपरेखा देख रहे हैं, ये सारे विकास के कार्य समय की उपादेयता से ही सम्पादित हुए हैं। अतः छात्रों को चाहिए कि वे समय का मूल्यांकन करे । महान् कवि, वक्ता व प्रोफेसर बनने की अभीप्सा हो तो समय के पाबन्द बनें तथा साथ ही साथ अपने जीवन को नैतिक, ईमानदार व सदाचारी बनाने का सतत प्रयास करें जिसका हृदय करुणा व मंत्री से ओत-प्रोत है, वही व्यक्ति समाज, राष्ट्र व परिवार के समक्ष नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना कर सकता है। जीवन की उज्ज्वल, पवित्र व प्रकाशमयी आभा के परिप्रेक्ष्य में अपने आपको झाँक सकता है । उस छात्र का जीवन धन्य है जिसने समय की प्राणवत्ता को सही माने में समझ लिया है । नैतिक शिक्षा की दृष्टि से अंकन करें तो राणावास की विद्याभूमि अपना गौरवमय इतिहास प्रस्तुत करती है एवं आधुनिक युग में एक नया कीर्तिमान स्थापित करती है । । SIC 0 . Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक शिक्षा की व्यावहारिकता साध्वी श्री ललितप्रमा (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) ईश्वर से मानव ने अपील की-मैं अपना जीवन सुखी और सरस बनाने संसार में जा रहा हूँ। आप मुझे ऐसा कोई मन्त्र दें ताकि सफल हो सकू। ईश्वर ने कहा- मेरे बेटे ! मैं तुम्हें जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण दो वस्तुएं दे रहा हूँ--एक अक्ल और दूसरा ईमान । अक्ल को खूब खरचना और ईमान को सुरक्षित रखना। याद रहे, तुम्हारे बाएँ हाथ में अक्ल और दाएं हाथ में ईमान है। वहाँ पहुँचते-पहुँचते विस्मृति का पट स्मृति पर गिर गया। मानव ने अक्ल की जगह ईमान को खूब बाँटा और अक्ल को सुरक्षित रखा। लगता है, वही परम्परा अब तक चल रही है कि मनुष्य ने अक्ल को सुरक्षित रख दिया। ईमान को दोनों हाथों लुटा रहा है। तथ्य सही है चिन्तनात्मक और मननात्मक शक्ति के विकास की अपेक्षा है। शिक्षा के दो रूप हैं-नैतिक और भौतिक । नैतिक शिक्षा अन्तर् को आलोकित करती है। सुप्त चेतना को जागृत करती है। संकल्प शक्ति को मजबूत बनाती है। भौतिक शिक्षा केवल जीवन-निर्वाह योग्य बनाती है। उसके लिए स्थान-स्थान पर डिग्रियाँ मिलती हैं। परिणाम यह आता है कि उन्हें नौकरी भी बड़े दौड़-धूप के बाद मिलती है। इससे केवल पुस्तकीय ज्ञान का प्रश्न भी हल नहीं हो सकता । व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास, चरित्र का विकास अच्छी तरह से हो सके, वही शिक्षा अधिक सार्थक है। केवल कमाना सिखाए वह वास्तविक शिक्षा नहीं है क्योंकि वह तो एक अनपढ़ व्यक्ति श्रम करके भी कमा सकता है। आधुनिक शिक्षाविद् यह मानने लगे हैं कि वर्तमान शिक्षा पद्धति में परिवर्तन बहुत अपेक्षित है। सरकार की तरफ से ऐसी कोई भी योजना आज तक नहीं बनी कि विद्यार्थियों का जीवन स्तर ऊँचा कैसे उठे ? नैतिक कैसे बनें, चरित्रनिष्ठ कैसे हों ? बिना नैतिक आधार के शिक्षा अधुरी है और वह फलवती भी नहीं बनती। नैतिक शिक्षा का उद्देश्य है -जीवन-व्यवहार विशुद्ध बने, जीवन का मूल्य समझने की क्षमता, जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान पाने का सामर्थ्य, प्रामाणिक जीवन जीने की कला। कोई भी क्रिया जब तक जीवनगत नहीं होती तब तक सफल नहीं हो सकती। भगवान् महावीर ने कहा -'पढमं नाणं तओ दया'---पहले ज्ञान फिर क्रिया । बिना ज्ञान के क्रिया सार्थक नहीं होती । ज्ञानात्मक और प्रयोगात्मक दोनों स्थितियों का विकास ही नैतिक जीवन का सोपान है। ___ आज देश जिस स्थिति से गुजर रहा है उससे हर प्रबुद्ध व्यक्ति चिन्तित है। गिरते नैतिक स्तर से उनका मन छटपटा रहा है। मानसिक विचार बुरी तरह प्रभावित हैं। चारित्रिक व नैतिक पतन चरम-सीमा तक पहुंच चुका है। इसलिए अपेक्षा है विद्यार्थियों में चारित्रिक व नैतिक गुणों का विकास प्रारम्भ से ही हो और वे अगर प्रामाणिक, सदाचारी, ईमानदार होते हैं तो ऐसी नैतिक शिक्षा आन्तरिक वृत्तियों का शोधन ही नहीं कलात्मक जीवन जीना भी सिखाती है। बुराइयों से बचाती है। चिन्ताजनक भारत के भविष्य को ही नहीं विश्व को उज्ज्वल बना सकती है। ___वर्तमान में अनैतिकता का पलड़ा भारी है । नैतिकता से, नैतिक शिक्षा के माध्यम से उसे हल्का बनाया जा सकता है। यद्यपि यह पतन आज कोई नया नहीं, पर तारतम्यता की दृष्टि से धरती-आसमान जितना अन्तर प्रतीत Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड . . . .... ..... ......... ... ... . .................................... हो रहा है। व्यापारियों का व्यापार में ब्लेक मार्केटिंग, चोर बाजारी, जमाखोरी, राजकर्मचारियों की घूसखोरी, विद्यार्थियों की अनुशासनहीनता. कृषकों में कर्त्तव्यनिष्ठा की कमी, मजदूरों में श्रमनिष्ठा का अभाव, शिक्षकों का अशुद्ध व्यवहार आदि-आदि कारण सबके सामने हैं। इससे मानवता का ह्रास हुआ है। नैतिकता के अभाव में वह कराह रही है। सोना कहता है-कूटना, पीटना, गालना आदि सभी सह सकता हूँ, पर चिरमी के साथ तुलना असह्य है। मिट्टी की गगरी कहती है, पैरों के नीचे रौंदना, चाक पर चढ़ाना पीटना, अग्निस्नान सह्य है पर परखने के लिए अँगुली का टनका बर्दाश्त नहीं है । यह स्थिति वर्तमान की है। जो भारत नैतिकता व अध्यात्म की निर्मल गंगा था, जहाँ डुबकी लगाने दूर-दूर से विदेशी व्यक्ति आते थे वहाँ की यह स्थिति मन में असन्तोष पैदा करती है। सच है, क्रान्ति तभी हो सकती है जब कोई कार्य भी अपनी चरम-सीमा तक पहुँच जाता है । आज नैतिक मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है। अध्यात्म के नैतिकता के आधार बिना मानव-विकास एकांगी है क्योंकि जिस मानव के लिए सब कुछ बनाया जाता है, जब वह स्वयं अनबना ही रह जाता है तो समस्या का हल नहीं हो सकता। नैतिक विकास की समस्या समाज के लिए स्थायी समस्या है जिसकी अपेक्षा अतीत में थी, भविष्य में रहेगी और वर्तमान में तीव्रता से बढ़ती जा रही है। इसलिए सर्वप्रथम मनुष्य की अन्तःवृत्तियों में परिष्कार हो, वह जितना नैतिकनिष्ठ व आचारनिष्ठ होगा, समाज उतना ही उन्नत होगा। नैतिक शिक्षा बुराई न करने का विश्वास पैदा करती है। आचार्य श्री तुलसी द्वारा प्रवर्तित नैतिक व चारित्रिक विकास की दिशा में अणुव्रत काफी वर्षों से कार्य कर रहा है। उनके विद्वान् साधु-साध्वियों द्वारा नैतिक स्तर ऊँचा उठाने हेतु राष्ट्र के प्रति कर्तव्य-भावना, श्रमनिष्ठा, अनुशासित जीवन जीना, संगठन, सेवा भावना जागृत करना, समन्वय की दिशा आदि मानवोचित गुणों पर आधारित नैतिक पाठमाला की रचना द्वारा बहुत अच्छा कार्य हुआ है और हो रहा है। इससे व्यवहार में शुद्धि को बहुत सम्बल मिला है- व्यापारी मिलावट न करें, ब्लेक-मार्केटिंग न करें, विद्यार्थी नकल न करें, तोड़-फोड़मूलक हिंसक प्रवृत्तियों में भाग न लें। प्रत्येक मानव व्यसनमुक्त जीवन जीए। यह है नैतिक शिक्षा का व्यावहारिक रूप जो जीवन का सही आदर्श है, आत्मनिरीक्षण करने का दर्पण है। धर्मराज युधिष्ठिर पाठशाला में पढ़ने गये । शिक्षक ने एक वाक्य सिखाया 'क्रोध मा कुरु" बहुत बार रटाया, सब विद्यार्थियों ने वापस सुना दिया पर युधिष्ठिर ने नहीं सुनाया । २-३ दिन तक भी नहीं सुनाया, आखिर गुरु ने क्रुद्ध होकर तमाचा लगाया। तत्काल हँसते हुए बोले--गुरुजी, याद हो गया। यह थी नैतिक शिक्षा की व्यावहारिकता जो जीवन का अंग बने । सुमन की सुगन्ध फैलाने में हवा सहायक होती है, चन्दन की सुवास घिसने से फैलती है वैसे ही नैतिक शिक्षा सुमन की सौरभ फैलाने का माध्यम है व्यवहार । बच्चों को बचपन से ही संस्कारी बनाने के लिए विशेष प्रयास अपेक्षित है (बच्चों में अनुशासनहीनता, उद्दण्डता, उच्छं खलता फैली है उसका एक कारण है नैतिक शिक्षा का अभाव) वे केवल व्यवहार जैसा देखते हैं वैसे ही बन जाते हैं । बड़े होने पर वे ही संस्कार उन्हें उच्च आदर्श पर पहुँचाते हैं। महावीर, बुद्ध, ईसा, गांधी, नेहरू का रूप लेकर सामने आते हैं। बच्चों में अनुशासनहीनता, उद्दण्डता आदि हैं इसका कारण है-नैतिक शिक्षा का अभाव । इसलिए बालकों में चारित्रिक नैतिक विकास की अपेक्षा अनुभव कर आज से ३३ वर्ष पूर्व केवल ५ छात्रों के आधार पर राणावास में एक प्राथमिक विद्यालय का शुभारम्भ किया गया, जिसके संरक्षक हैं श्री केसरीमलजी सुराणा। उनका यह प्रयास स्तुत्य है। वहाँ विद्यार्थियों में नैतिक आचरणनिष्ठता, परस्पर प्रेम, सौहार्द, संगठन, सेवा आदि संस्कार दिये जाते हैं ताकि भविष्य में वे संस्कार जीवन-निर्माण में सहयोगी बनें। इससे नैतिकता के प्रति आस्था जगी है, विचारों में परिवर्तन आया है। इससे वैचारिक क्रान्ति को नैतिक आचार संहिता का बड़ा योगदान रहा है। विद्यालय का रूप सुनने मात्र से ही नहीं, राणावास में जाकर देखा तो लगा वह छोटा-सा बीज आज वटवृक्ष बन गया है, प्राथमिक विद्यालय ने महाविद्यालय का रूप ले लिया है। वर्तमान में इसका रूप दर्शक को बंगाल के शान्तिनिकेतन की याद दिला देता है। ०० Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न छात्रवृत्तियाँ : महत्व और प्रकार 0 श्री रणजीतसिंह भण्डारी (सोजत्या) (परामर्शक, एस० आई० ई० आर० टी०, उदयपुर) स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद से ही देश में शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु राज्य व केन्द्र सरकार ने पर्याप्त ध्यान दिया है। यही कारण है कि सम्पूर्ण देश में प्राथमिक विद्यालयों से लेकर महाविद्यालयों का जाल बिछ गया है तथा उनमें कार्यरत अध्यापकों व प्राध्यापकों की जितनी संख्या है, उतनी किसी अन्य विभाग या कार्यालय में भी नहीं है। सरकार ने भी विभिन्न विकास योजनाओं की तुलना में शिक्षा के मद में अब तक बहुत अधिक धनराशि व्यय की है। यही कारण है कि हमारे देश में शिक्षितों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है । सन् १९८१ में की गई जनगणना के आँकड़ों से भी यह स्पष्ट है; लेकिन जब तक देश में शत-प्रतिशत लोग शिक्षित नहीं हों तब तक लक्ष्य अधूरा ही रहेगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर विभिन्न प्रयास चल रहे हैं। इन प्रयासों में छात्रवृत्ति भी एक प्रमुख प्रयास है। हमारी शिक्षा व्यवस्था का लक्ष्य मात्र लिखाना-पढ़ाना ही नहीं है अपितु शिक्षा के माध्यम से विभिन्न प्रतिभाओं को खोजकर उन्हें समुचित शिक्षा प्रदान करना भी है। आजादी के पूर्व तक स्थिति यह थी कि बहुत से ऐसे प्रतिभावान व सक्षम छात्र जिनकी रुचि वैज्ञानिक, तकनीकी, चिकित्सा और व्यवसाय-वाणिज्य सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करने की और होती थी, लेकिन निर्धनता व अर्थाभाव के कारण वे इस तरह के ज्ञान को प्राप्त कर उस ज्ञान का देश-सेवा में सदुपयोग करने से वंचित रह जाते थे। ऐसी सैकड़ों प्रतिभाएँ प्रतिवर्ष बर्बाद हो जाती थी, किन्तु भारत की आजादी के बाद स्वतन्त्र भारत की सरकार ने इस वस्तु-स्थिति को समझा और उसके लिये केन्द्र व राज्य स्तर पर अनेक प्रकार की छात्रवृत्तियाँ देना स्वीकार किया, जिनको प्राप्त कर हजारों निर्धन, गरीब और प्रतिभावान छात्रों ने अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण किया है तथा उससे देश के वैज्ञानिक, तकनीकी, चिकित्सा और व्यापार-वाणिज्य सम्बन्धी ज्ञान में वृद्धि की है। न केवल देश को अपितु ऐसे प्रतिभावान छात्रों ने अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, एशिया आदि उपमहाद्वीपों के विभिन्न देशों में जाकर अपनी प्रतिभा व क्षमता का परिचय भी दिया है । इससे उनकी स्वयं की आर्थिक व पारिवारिक स्थिति तो सुधरी ही है, इसके साथ ही देश का मस्तक भी ऊँचा हुआ है । इसका श्रेय छात्रवृत्तियों को ही जाता है। . इस प्रकार छात्रवृत्ति न केवल आर्थिक सहायता है, अपितु यह प्रतिभावान छात्रों को प्रोत्साहित करने का भी एक सशक्त माध्यम है। इससे छात्रों में स्वाभिमान और आत्मविश्वास जागृत होता है तथा उनमें नये अनुसन्धान व शोध-खोज करने की जिज्ञासा तीव्र होती है । लेकिन यह एक दुर्भाग्य ही है कि इन विभिन्न प्रकार की छात्रवृत्तियों की जानकारी छात्रों को प्रायः नहीं रहती है। शहरों में भी ऐसे अनेक प्रतिभावान् छात्र मिल जायेंगे जो छात्रवृत्ति प्राप्त करने की अज्ञानता के कारण अपनी प्रतिभा को कुण्ठित किये हुए हैं। सुदूर ग्रामीण अंचलों में तो यह स्थिति और भी ज्यादा खराब है। इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि प्रत्येक स्कूल के प्राचार्य, प्रधानाध्यापक, अध्यापक आदि प्रतिभावान व जरूरतमन्द छात्रों को छात्र-वृत्तियाँ देने की ओर आकर्षित करें, उन्हें आवश्यक जानकारियां दें, Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड फार्म भरवायें तथा छात्रवृत्ति वितरण में सहयोग दें। यह उतना ही आवश्यक व अनिवार्य है, जितना अनिवार्य कक्षा में छात्रों को अध्ययन कराना । अच्छा तो यह होगा कि प्रत्येक विद्यालय-महाविद्यालय में एक छात्रवृत्ति प्रकोष्ठ ही स्थापित किया जाय जो विभिन्न प्रकार की छात्रवृत्तियों को प्राप्त करने में छात्रों को मार्गदर्शन दे और उन्हें संरक्षण प्रदान करे । यहाँ छात्रवृत्तियों की सूची व सम्बन्धित विवरण दिया जा रहा है, जो सरकार व अन्य माध्यमों से छात्रों कोप्रति वर्ष प्रदान की जाती है निदेशालय स्तर पर स्वीकृत की जाने वाली छात्रवृत्तियां क० सं० छात्रवृत्ति का नाम कक्षा/आयु विवरण वर्ष १. ग्रामीण प्रतिभावान छात्रवृत्ति ६ से ११ जिला शिक्षा अधिकारी कार्यालय द्वारा आयोज्य प्रतियोगी परीक्षा में चयनित छात्रों के लिए। . २. संस्कृत विषयक छात्रवृत्तियाँ ६ से ११ कक्षा 6 से ऐच्छिक विषय संस्कृत लेने वाले छात्रों को वरिष्ठता क्रम से ५० छात्रों को दी जाती है। ३. अनुसूचित जाति जन-जाति आवासीय १ से ११ विशेष आवासीय शालाओं में अध्ययन हेतु शालाओं में दी जाने वाली विशेष छात्रवृत्तियाँ ४. अनुमोदित आवासीय माध्यमिक शालाओं आयु ११ से १३ जिन छात्रों की आयु ११ से ऊपर और १३ वर्ष से में योग्यता छात्रवृत्ति . (३० अक्टूबर तक) नीचे हो । कक्षा ६, ७, ८ में अध्ययन कर रहा हो तथा ८ पास नहीं होना चाहिये उन्हें दी जाती है। ५. नृत्य, संगीत, चित्रकला तथा मूर्तिकला आयु १० से १४ जिन छात्रों की आयु १ जुलाई को १०-१४ वर्ष के क्षेत्र में प्रतिभा खोज छात्रवृत्ति वर्ष माध्यमिक की आयु तथा माध्यमिक स्तर तक १८ वर्ष की स्तर तक १८ आयु हो उन्हें छात्रवृत्ति दी जाती है। ६. खेलकूद प्रतिभा छात्रवृत्ति ८ से ११ १६ वर्ष से कम जिलास्तर से राष्ट्रीयस्तर तक फाइनल टीम के सदस्य के रूप में प्रवेश पाने वालों को छात्रवृत्ति दी जाती है। ७. अच्छे खिलाड़ी छात्रवृत्ति राष्ट्रीय खेल आयु १७ से कम राष्ट्रस्तर पर चयनित छात्र को ७५ रु. मासिक परिषद् पटियाला द्वारा तथा राज्य स्तर पर चयनित छात्र को ५० रु० मासिक दी जाती है। ८. सांस्कृतिक प्रतिभा खोज छात्रवृत्ति आयु १० से १४ १ जुलाई को १०-१३ वर्ष के मध्य आयु वर्ष के मध्य वालों को नृत्य संगीत में प्रतिभावान छात्र छात्राओं को (घर से तथा साम्प्रदायी के बच्चों को)। ९. बर्मा से भारत आए विस्थापितों के १-६-६३ के पश्चात् बर्मा से आये विस्थापितों के बच्चों की वित्तीय सहायता ।। बच्चों को। १०. युगाण्डा और जेरे से आए विस्थापितों विवरण निदेशालय को भेजने पर स्वीकृत की के बच्चों को वित्तीय सहायता । जाती है। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न छात्रवृत्तियाँ : महत्त्व और प्रकार मण्डल स्तर पर स्वीकृत की जाने वाली छात्रवृत्तियां १. राजनीतिक पीड़ितों के बच्चों की कक्षा १ से ११ ६ मास तक माता-पिता कारावास में रह चुके हैं छात्रवृत्तियाँ तथा ३६०० रु० से कम आय हो । २. भारत-चीन युद्ध में मारे गये अथवा उक्त पूर्ण रूप से अपंग हुए सैनिकों के बच्चों को छात्रवृत्ति ३. भारत-पाक युद्ध (१९७१) में मारे गये प्रमाण-पत्र आवश्यक है। तथा पूर्णरूप से अपंग हुए सैनिकों के बच्चों की छात्रवृत्ति । जिला शिक्षा अधिकारी स्तर पर प्रदत्त छात्रवृत्तियां १. अत्यन्त निर्धनता छात्रवृत्ति ६ से ११ वार्षिक आय २५०० रु० से कम हो, वरिष्ठताक्रम पर कम आय पर चयन होता है। २. मृत राज्यकर्मचारियों के बच्चों को . ३ से ११ कर्मचारी का निधन राज्य-सेवा में रहते हुए छात्रवृत्ति होने पर। ३. अनुसूचित जाति/जनजाति विमुक्त एवं ६ से ११ समाज कल्याण विभाग की छात्रवृत्ति जिला शिक्षा घुमन्तु जाति के बच्चों को छात्रवृत्ति अधिकारी द्वारा दी जाती है। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अजमेर द्वारा प्रदत्त छात्रवृत्तियाँ १. योग्यता छात्रवृत्तियां सैकण्डरी, हायर सैकण्डरी व संस्कृत परीक्षाओं में संकायानुसार मेरिट वाले छात्रों को। २. राष्ट्रीय छात्रवृत्ति राज्य में वरिष्ठता क्रम में अंकों के आधार पर चयनित छात्र-छात्राओं को। कॉलेज निदेशालय से प्रदान की जाने वाली छात्रवृत्तियां १. राष्ट्रीय छात्रवृत्ति सैकण्डरी परीक्षा में ६० प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त करने वालों को वरिष्ठता सूची के आधार पर, अभिभावक की आय ५०० रु० से कम हो । २. नीड-कम मैरिट छात्रवृत्ति सैकण्डरी परीक्षा में ६० प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त करने वाले को, अभिभावक की आय १२०० रु० वार्षिक से कम हो। कम आय वाले को प्राथमिकता। ३. राष्ट्रीय ऋण छात्रवृत्ति सैकण्डरी परीक्षा में ५० प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त करने वालों को अंकों के आधार पर वरिष्ठता क्रम से चयन, १५०० रुपये मासिक आय से अधिक न हो। ४. अध्यापकों के बच्चों को राष्ट्रीय सैकण्डरी में ६० प्रतिशत से अधिक अंक हों। छात्रवृत्ति शिक्षक की आय ५०० २० माह से अधिक होन । -- -- Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड Doraemorromooooooooooooooo.000000000000000000000000000000000000 ___ सेना, पुलिस के बच्चों को दी जाने वाली छात्रवृत्तियाँ १. जिला सैनिक बोर्ड द्वारा प्रदत्त छात्र- ६ से ११ स्थल, जल, वायु सेना के भूतपूर्व सैनिकों के बच्चों वृत्तियाँ की कम से कम ५ वर्ष की सेवा, बालक की आयु २१ वर्ष से अधिक नहीं होने पर दी जाती है। २. पुलिस कर्मचारियों के बालकों के लिये १० से ११ कान्सटेबल व हैडकान्सटेबल स्तर के कर्मचारियों छात्रवृत्तियाँ के बच्चों को। समाज कल्याण विभाग द्वारा विकलांगों को छात्रवृत्ति १. भारत सरकार द्वारा ह से ११ डाक्टरी प्रमाण आवश्यक है। अभिभावक आयकर नहीं देता हो। २. राज्य सरकार द्वारा १ से ११ ४० प्रतिशत अंक प्राप्त करने पर । डाक्टरी प्रमाण आवश्यक है। आयकर नहीं देते हों। ३. आत्म-समर्पित डाकुओं के परिवार के राजस्थान का मूल निवासी हो, बच्चों के अतिबच्चों तथा क्षतिग्रस्त परिवारों के रिक्त भाई-बहिनों को भी देय है, आयकर नहीं बच्चों को छात्रवृत्ति । देते हो। अन्य छात्रवृत्तियाँ १. सैनिक स्कूल चित्तौड़गढ़ छात्रवृत्ति विद्यालय से सम्पर्क करें। २. मिलट्री स्कूल देहरादून की प्रवेश चयन छात्रवृत्ति प्रदान करने हेतु समाचार पत्रों में ___छात्रवृत्ति विज्ञप्ति प्रसारित की जाती है।.. ३. पूर्ण सत्र खेल तुला प्रशिक्षण में पढ़ने १०० रु. प्रति माह १० माह के लिए, छात्र सुबह वाले छात्रों को स्टाईपेण्ड शाम कोचिंग लेकर दिन में पढ़ते हों। उपर्युक्त छात्रवृत्तियों के अतिरिक्त प्रायः प्रत्येक स्कूल में समाज के धनी-मानी व प्रतिष्ठित लोगों द्वारा अपनी ओर से भी छात्रवृत्तियाँ दी जाती हैं । विभिन्न उद्योगों, ट्रस्टों व समाज के अन्य अंगों से भी छात्रवृत्तियाँ देने के प्रावधान रहते हैं । इस दृष्टि से प्रत्येक विद्यालय के प्रधानाध्यापक का यह दायित्व है कि वह अपने स्कूल में तत्सम्बन्धी सम्पूर्ण रेकर्ड रखे और छात्रों को उसका लाभ मिल सके, इस तरह की व्यवस्था करें। छात्रवृत्तियाँ अधिक से अधिक मिल सकें इस तरह का प्रयास करना प्रधानाध्यापक के दैनिक कार्य में सम्मिलित रहना चाहिये। यह विद्यालय की एक प्रवृत्ति है। जिस प्रकार खेल-कूद या सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन विद्यालय की एक प्रवृत्ति के अन्तर्गत आते हैं, उसी तरह छात्रों को अधिकाधिक छात्रवृत्तियाँ मिलें और कोई भी प्रतिभावान् छात्र धन के अभाव में अपना अध्ययन बन्द न करे, ऐसी स्थिति बनने पर ही प्रधानाध्यापक की क्षमता प्रकट होती है, ऐसा मानकर चलना चाहिये। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी-शिक्षा का लक्ष्य एवं स्वरूप डॉ० (श्रीमती) विद्याबिन्दुसिंह ५१३-डी/२ मम्फोर्डगंज इलाहाबाद (उ०प्र०) नारी हो या नर, मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है अपने दायित्वों का समुचित नियहि करते हुए जीवन में सफलताओं की उपलब्धि । यह उपलब्धि और क्षमता देती है शिक्षा। यह सत्य है कि देश, काल और व्यक्ति के स्वभावानुसार लक्ष्य भिन्न-भिन्न होते हैं। नारी का महत्व नर से अधिक स्वीकार करने वाले उसमें दो मात्राओं की अधिकता के साथ ही उसके कर्तव्य-क्षेत्र को भी अधिक बड़ा बताते हैं । वह नर की जननी है, सहधार्मिगी है, संरक्षिका है, उपासिका है। वह विभिन्न सम्बन्धों के माध्यम से नर के सुख के साधन जुटाकर ही सन्तुष्ट होती है। आर्य संस्कृति में नारी अर्धाङ्गिनी होने के साथ ही पूजनीय भी है-- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः । यौतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाक्रियाः ।। आर्य पुरुषों ने केवल शाब्दिक सद्भावना का प्रदर्शन ही नहीं किया था वरन् उस युग में नारी को पुरुष के समान ही शिक्षा प्राप्त करने का, यज्ञ में भाग लेने का अधिकार था। वैदिक शब्द 'दम्पती' आज भी इसी ओर संकेत करता है कि नारी और पुरुष एक ही घर के समान भागीदार हैं । हमारे यहाँ अर्द्धनारीश्वर के रूप में ईश्वर की कल्पना की गई है । कैदिक युग में हवनकुण्ड की पहली ईंट पत्नी ही रखती थी। विद्वानों और लेखकों में उसका नाम यश था । गृहकार्य में कुशलता, धनुष-बाण, टोकरियाँ बनाने और वस्त्र बुनने की शिक्षा उन्हें बचपन से ही मिलती थी। 'समन' नामक त्यौहार पर लड़के लड़कियाँ एक दूसरे को देखते, पसन्द करते और जीवन-पाथी के रूप में चुनते थे। स्त्रियों को तलाक, विधवा-विवाह का अधिकार भी था। स्वेच्छा से वे विधवा जीवन भी बिता सकती थीं। पर्दाप्रथा नहीं थी। मातृशक्ति की उपासना माँ के महत्त्व को स्पष्ट करती है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में नारी के सोलह प्रकार के मातृरूपों की ओर इंगित किया गया है स्तनदात्री, गर्भदात्री, भक्ष्यदात्री गुरुप्रिया । अभीष्टदेवपत्नी च पितुः पत्नी च कन्यका ॥ " मगर्भजा या भगिनी, पुत्रपत्नी प्रिया प्रसः ।। मातुर्माता, प्रितुर्माता सोदरस्य प्रिया तथा ॥ - Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Contoloncolo o do onto o 0. ८८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ तृतीय खण्ड मातुः पितुश्च भगिनी मातृवानी तथैव च। जनानां वेदविहिता मातरः षोडशस्मृता ॥ ब्रह्मवैवर्तपुराण, ग०१५ ० ) देवता की पत्नी, पिता की स्तन पिलाने वाली, गर्भधारण करने वाली, भोजन देने वाली, गुरुपत्नी, इष्ट पत्नी ( विमाता), पितृ - कन्या ( सौतेली बहन ), सहोदरा बहन, पुत्रवधू, सास, नानी, दादी, भाई की पत्नी, मौसी बुआ और मामी - वेद में मनुष्यों के लिये ये सोलह प्रकार की मातायें बतलायी हैं । मिलित नारी ही अपने इन सोलह प्रकार के मातृरूपों में अपने दायित्व का निर्वाह सुचारु रूप से कर सकती है। यहाँ शिक्षा का अर्थ सीमित पुस्तकीय ज्ञान या डिग्रियां इकट्टा करने से नहीं है। शिक्षा का व्यापक अर्थ है जिसके साधन भी व्यापक हैं और लक्ष्य भी महत् । वैदिक युग की नारी को वही शिक्षा मिलती थी । इतिहास इसका साक्षी है । याज्ञवल्क्य की पत्नी अपने पति साथ वाद-विवाद करती थी। विदुषी गार्गी की विद्वत्ता जगत प्रसिद्ध है | अगस्त्य मुनि को ऐसी पत्नी चाहिये थी जो सांसारिक सुखों से निर्लिप्त हो, त्याग तपस्या का जीवन बिता सके । वे आर्यों-अनार्यों को एक करने के प्रयत्न में लगे थे जो पत्नी के सहयोग के बिना कठिन था । उन्हें मिली पत्नीरूप में लोपामुद्रा जिनके ज्ञान एवं साधना से मुनि का स्वप्न साकार हुआ। +HD+ विदर्भ के राजा की पुत्री लोपामुद्रा ने वैभव को ठुकराकर ज्ञान-वृद्ध मुनि को अपना जीवन सौंप दिया। घोषा, अपाला आदि वैदिक युग की विदुषी नारियों को कौन नहीं जानता । अपनी ब्रह्मसाधना के कारण वे ब्रह्मवादिनी नारियों के रूप में विख्यात हैं। नारियों ने मन्त्रों की रचनायें की हैं। रामायण महाभारत काल में भी आदर्शों का पालन करने वाली महान् नारियों की गाथा उस युग में भी शिक्षा के व्यापक लक्ष्य की ओर संकेत करती है । मध्ययुग में हुई मीरा ने साहित्य को अनूठी देन दी राजपूत वीरांगनाओं की शौर्यगाथा इतिहास कहता है । उनकी शिक्षा का लक्ष्य और स्वरूप धर्म के लिए, आन-बान के लिए मर मिटने का था। रानी दुर्गावती, चांदबीबी आदि का संगीत, कला और सैन्य संचालन में दक्ष होना उस युग की शिक्षा के लक्ष्य की एवं व्यापक स्वरूप की कहानी कहता है। इसी प्रकार ताराबाई, अहिल्याबाई आदि के शौर्य की गाथायें भी। कालान्तर में छोटी अवस्था में विवाह हो जाने के कारण शिक्षा के अधिकार छिन गये । स्त्रियों का उपनयन संस्कार बन्द कर दिया गया, जिसके बाद आठ वर्ष के बालक-बालिकायें वेदाध्ययन प्रारम्भ करते थे । मनु ने नारी की महानता तो स्वीकार की पर स्त्री की रक्षा को आवश्यक बता दिया और उसकी स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लग गये पिता रक्षति कौमारे भर्ती रक्षति यौवने । रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यमर्हति ॥ फिर तो स्त्री सम्पत्ति बन गई। 7 गोदान, स्वर्णदान की भाँति कन्यादान की भी परम्परा चल पड़ी। विधवा का पति की सम्पत्ति पर अधिकार नहीं रहा। नारी के कर्तव्य की सीमा शान्ति के समय परिवार को सुखी बनाने में सहायक होना और युद्धकाल में विजयी बनाने में योग देना, मात्र निर्धारित हो गई। विधवा विवाह पर रोक लग गई । केवल राजघराने की लड़कियों को ही सैनिक शिक्षा को स्वतन्त्र थीं । या दूसरी शिक्षायें दी जाती थीं। वे ही वर चुनने बौद्ध और जैनकाल में नारी को पुनः सम्मान मिला। बुद्ध ने मोक्षप्राप्ति के लिये स्त्री-पुरुष दोनों को बराबर समझा। संघ का द्वार नारियों के लिये खोल दिया । यह वह युग था जब स्त्रियों का क्रय-विक्रय होता था । पति किसी भी समय पत्नी को छोड़ सकता था । सम्पत्ति पर अधिकार पुत्र का फिर पोत्र का था। नारी ज्ञान-विज्ञान . Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नारी-शिशा का लक्ष्य का एवं स्वरूप ८६ .........................................0000000000000000000000000000000 " मी । के क्षेत्र में बहुत पीछे थी। बुद्ध के विचार भी नारी के सम्बन्ध में पहले उदार नहीं थे। जैनधर्म की देखा-देखी बौद्धों ने भी नारी को अपने संघों में लेना प्रारम्भ कर दिया । बुद्ध की मौसी महाप्रजापति गौतमी ही पांच सौ नारियों के साथ भिक्षुणी हुई और घूम-घूमकर धर्म-प्रचार किया, दीक्षा दी। भिक्षु संघ से अलग इनका पड़ाव होता था, अलग उनके लिये धर्मशालायें बनीं । बौद्ध नारियों में वत्सा का नाम प्रसिद्ध है जिसने साग को जल गया देखकर निर्णय लिया कि अधिक समाधि और अधिक समय तक ध्यान-कर्म से मन के राग-द्वेष जलाये जा सकते हैं। अतः गौतमी से दीक्षा ली। बिम्बसार की रानी क्षेमा तथा श्रष्ठि-पुत्री भद्रा कुण्डल केशा, आम्रपाली, विशाखा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । विशाखा, वसन्तसेना आदि शिक्षित कुल-वधुयें थीं। संघमित्रा ने विदेशों में जाकर बौद्ध-धर्म का प्रचार किया। विशाखा ने भिक्षु की ओर ध्यान दिये बिना भोजन करने वाले ससुर को देखकर कहा था कि मेरे ससुर बासी भोजन कर रहे हैं अर्थात् पूर्वजन्मों का संचित पूण्य खा रहे हैं, अगले जन्मों के लिये संचय नहीं कर रहे हैं । पिता के दिये हुए दहेज से उसने दो मंजिला बिहार बनवाया था जिसे महामौदगल्यायन चलाते थे। विशाखा को बुद्ध ने स्वयं नारी के कर्तव्य की शिक्षा दी थी और कुलवन्ती स्त्री के लिये आठ सूत्रों को ग्रहण करने का विधान बतलाया था जिसमें सास-ससुर की सेवा, मृदु भाषण, पति तथा उसके मित्रों और सन्तों का सम्मान, अकृपणदान, पंचशील का पालन आदि प्रमुख हैं। ___ महावीर स्वामी ने नारी को बहुत आदर किया। जैन धर्म का नियम था--संकट में नारी की रक्षा पहले हो। जैन धर्मावलम्बी अपने तीर्थंकरों की माताओं की पूजा करते थे। ब्राही जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ की पुत्री थीं जिन्होंने सर्वप्रथम ब्राह्मी लिपि को सीखा और उन्हीं के नाम पर इस लिपि का नामकरण हुआ। ___ जैन धर्म में नारी के लिये पतिव्रत धर्म आदर्श माना गया है। जैन भिक्षुणियों में ऐसी अनेक भिक्षुणियों के नाम मिलते हैं जिन्होंने वैभवपूर्ण राजसी जीवन छोड़कर त्याग-तपस्या को अपनाया। महासती चन्दनबाला अंग देश के राजा दधिवाहन की पुत्री थीं। उन्होंने वर्द्धमान महावीर से दीक्षा ली और भिक्ष णी बन गई। उस समय शिक्षा का स्वरूप चरित्र और धर्म की शिक्षा देना था। बौद्ध धर्म की महायान और मंत्रय न शाखा ने भोग का भयावह रूप फैला दिया। अत: नारी के बन्धन और कस गये। तान्त्रिकों की दृष्टि से एवं मुसलमान शासकों की लोलुप दृष्टि से बचने के लिए पर्दा-प्रथा का प्रारम्भ हुआ और नारी-शिक्षा के द्वार बन्द हो गये। छोटी आयु में ही माँग में सिन्दूर भरकर पूर्ण हिन्दू नारी बनने के लिये ही उनमें संस्कार भरे जाने लगे। __उन्नीसवीं शताब्दी की नारियों में कुछ साहित्य और कला के क्षेत्र में प्रवृत्त हुई, कुछ राष्ट्रीय आन्दोलनों में । उनमें "तोरुदत्त" ने चौदह वर्ष की आयु में ही शेक्सपीयर के समस्त साहित्य को पढ़ लिया। जर्मन, फ्रेंच और संस्कृत का भी गहन अध्ययन किया । उनकी लिखी पुस्तक “ए शीफग्लीण्ड इन फ्रेंच फील्ड्स" बहुत प्रशंसित हुई। स्वर्णकुमारी देवी (देवेन्द्रनाथ ठाकुर की पुत्री) ने तेरह वर्ष की आयु में ही कवितायें लिखना आरम्भ कर दिया। वे प्रतिष्ठित लेखिका बनीं । कामिनी राय की दो महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृतियों में से 'ओ लो ओ छाया' कविता संग्रह बहुचर्चित हुई। पंडित रमाबाई को उनके संस्कृत में भाषणों पर सरस्वती की उपाधि मिली । उन्होंने भारतीय नारियों को अज्ञान के अँधेरे से बाहर निकालने के लिये प्रथम महिला आर्य समाज संगठन चलाया । वे इंग्लैंड में भी संस्कृत पढ़ाती थीं। वहाँ से बच्चों को शिक्षित करने की मनोवैज्ञानिक विधि सीख कर आईं। 'उच्च जाति की हिन्दू महिला' शीर्षक से इनकी पुस्तक अमेरिका में प्रकाशित हुई। विधवा नारियों के लिये धन इकट्ठा करके बम्बई में आश्रम खोला । पूना में एक और नारी भवन 'मुक्ति सदन' नाम से खोला । इनकी पुत्री ने निजाम राज्य में एक आश्रम खोला। पंडित रमाबाई ने नारी-शिक्षा के प्रचार के लिये महत्त्वपूर्ण कार्य किये। स्वतन्त्रता संग्राम में लक्ष्मी बाई आदि भारतीय नारियों के नाम अमर हैं। इन्हें बचपन से ही सैनिक शिक्षा Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •० कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय बन दी गई थी। इन्होंने अपनी सखियों को सैन्य संचालन में दक्ष करके सेना तैयार की थी। आत्म-सम्मान की रक्षा के लिये कुल-ललनाओं को अस्त्र-शस्त्र-संचालन की शिक्षा दी जाती थी। एनी बेसेंट ने स्वाधीन विचारों को प्रचारित करने के लिये कई पत्रों का सम्पादन किया । फिर दर्शन में गहन रुचि लेने लगीं। १९१३ ई० में भारत आई और यहां की राजनीति में भाग लेने लगीं। आधुनिक युग में दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, रानाडे, एनी बेसेन्ट, गांधी आदि ने नारी की समस्याओं को उठाया और समान अधिकार दिलवाने के प्रयत्न किये । नारी भी अपने अधिकार और कर्तव्यों के प्रति जागरूक हुई। आर्य समाज ने नारी शिक्षा का प्रचार करके भूला हुआ ज्ञान का मार्ग दिखाया था। गांधी ने उन्हें उनकी शक्ति से परिचित कराया। सती प्रथा का अन्त १८२६ में ही हो चुका था और तभी शारदा एक्ट द्वारा बाल विवाह प्रथा बन्द हुई। पुनः नारी के लिये शिक्षा के द्वार खुल गये। भारतीय नारी त्याग, तपस्या, सेवा और स्नेह की प्रतीक रही है । अपना खोया सम्मान उसने शिक्षा के माध्यम से पुन: प्राप्त किया। अब वह घर और बाहर के दुहरे दायित्वों को संभालने के लिए उत्साह से आगे बढ़ी। कुछ विदुषी नारियों के नाम उल्लेखनीय हैं जैसे श्रीमती लक्ष्मी मेनन, सुचेता कृपलानी, श्रीमती मिट्ठन जे. लाम, रुक्मिणी देवी, अरुंडेल, वायलेट अल्बा, प्रेमा माथुर, मृणालिनी साराभाई, एस. एस. सुब्बालक्ष्मी, फातमा इस्माइल आदि ने विविध क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर नारी-शिक्षा को गौरवान्वित किया। आरती शाह ने इंगलिश चैनल पार कर तैराकी में प्रतियोगिता जीती। नारी का उत्साह बढ़ा । अब वह हर क्षेत्र में कार्य करने के लिये शिक्षा ग्रहण करने लगी। श्रीमती भिखायीजी कामा प्रथम भारतीय महिला हैं जिन्होंने अनुभव किया कि भारत का अपना ध्वज होना चाहिये । भारत को दासता से मुक्त कराने वाली नारियों में कस्तूरबा गाँधी, कमला नेहरू, सरोजिनी नायडू, विजयलक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृतकौर, श्रीमती हंसा मेहता आदि विदुषी नारियों के नाम आदर से लिये जाते हैं। उनमें देश-प्रेम और क्रान्ति की भावनायें शिक्षा ने ही भरी थीं। इस प्रकार शिक्षा का लक्ष्य समय की आवश्यकताओं के अनुरूप निर्धारित होता रहा । पर यदि विचार किया जाय तो लगता है कि प्रारम्भ से ही शिक्षा का मूल उद्देश्य नैतिक एवं चारित्रिक दृढ़ता के साथ ही सफल जीवन की उपलब्धि रहा है। वह चाहे आध्यात्मिक दृष्टि से हो या भौतिक दृष्टि से । इतना निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि पहले आध्यात्मिक सुख की उपलब्धि और आत्मसम्मान की रक्षा पर अधिक बल था पर आज की शिक्षा का लक्ष्य भौतिक जीवन को अधिक सहज और समृद्ध बनाना होता जा रहा है। और लक्ष्य के आधार पर ही शिक्षा का स्वरूप निर्धारित होता है। आज एक ज्वलंत प्रश्न सामने है कि यदि नारी और पुरुष को समान अधिकार प्राप्त हैं, समान कार्यक्षेत्र है तो क्या उनकी शिक्षा का स्वरूप और लक्ष्य भिन्न-भिन्न होना समीचीन है ? और यदि भिन्नता आवश्यक है तो क्यों और किस सीमा तक ? आधुनिक नारी इस भेद को अपने को अक्षम और अबला समझे जाने की दृष्टि के कारण अपमान समझती है । उसने दिखा दिया है कि उसे यदि समान अवसर और सुविधा मिले तो वह किसी भी क्षेत्र में पुरुष से पीछे नहीं । दूसरा प्रश्न जो आज एक समस्या बन गया है, यह है कि क्या हर क्षेत्र को नारी की शिक्षा का स्वरूप और लक्ष्य एक जैसा ही होना चाहिये । शहरी और ग्रामीण नारी के कार्यक्षेत्र भिन्न हैं, परिवेश भिन्न हैं। क्या उन्हें एक जैसी ही शिक्षा देकर उनकी परिवेश में सामंजस्य की क्षमता का विकास किया जा सकता है ? या उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रशिक्षित करके क्या उनके बीच की दूरियों को और बढ़ाने का प्रयास नहीं किया जायेगा ? यही बात हर-वर्ग की नारी की शिक्षा को लेकर की जा सकती है। पर यदि विचार किया जाय तो इन समस्याओं का हल बहुत कठिन नहीं है। नारी को शिक्षित करने का Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी-शिक्षा का लक्ष्य एवं स्वरूप २१ अर्थ है पुरुष को शिक्षित करना । जैसा कि वेदों में माता के अनेकों रूपों का दिग्दर्शन कराया गया है वह हर रूप में पुरुष की प्रेरणा है, शिक्षिका है।। अलग-अलग क्षेत्रों के लिये शिक्षा में परिवेश की आवश्यकता के अनुसार पाठ्यक्रम तो होने चाहिये पर शिक्षा का मूल लक्ष्य तो यही होना चाहिये-अपने को परिस्थितियों के अनुसार ढालने की क्षमता देना । यह क्षमता उसी में आयेगी जिसमें नैतिक बल होगा, चारित्रिक दृढ़ता होगी। नैतिकता और सच्चरित्रता के मानदंड भी समयसमय पर परिवर्तित होते रहते हैं पर उनकी मूल आत्मा आज भी वही है जो वैदिक युग में थी। शिक्षा के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण बात है अभिरुचि और आवश्यकता की। नारी हो या पुरुष जिस विषय या क्षेत्र में उसकी अभिरुचि होगी, गहन अध्ययन की आकांक्षा और उत्साह होगा, उसके लिये वही उपयुक्त क्षेत्र है। आवश्यकताओं के आधार पर भी शिक्षा के स्वरूप का और लक्ष्य का निर्धारण समीचीन है। आज नारी की शिक्षा के लिये शासन और समाज दोनों ही उदार हैं पर कुछ समस्यायें आज भी नारी की शिक्षण-प्रगति के आगे प्रश्न चिह्न लगा देती हैं । उनमें सबसे भीषण है-दहेज की समस्या। माता-पिता इस डर से बेटी को नहीं पढ़ाते कि फिर उसके अनुरूप वर ढूंढने में कठिनाई होगी, अधिक दहेज जुटाना पड़ेगा उसके लिये । पर धीरे-धीरे लोग जागरूक हो रहे हैं । अब पुत्री को शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाकर पति-गृह में भेजने की ओर लोगों का झुकाव बढ़ रहा है । अब ऐसे लोगों का प्रतिशत घटता जा रहा है जो लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा का निर्लज्जता और स्वेच्छाचारिता के भय से विरोध करते थे। पर आज आवश्यकता है नारी-वर्ग में आत्मविश्वास की जो समाज की आवश्यकताओं को पूरी कर सके। माध्यमिक शिक्षा में कई वर्ग हैं। पाठ्यक्रम के साहित्यिक, विज्ञान, प्राविधिक, कृषि आदि । कुछ विषय या वर्ग ऐसे हैं जिन्हें लेने के लिये अभी भी बालिकायें संकोच करती हैं, अपने लिये अनुपयुक्त समझती हैं, उदाहरण के लिये -कृषि । अविभावकों और अध्यापकों का यह कर्तव्य है कि वे उनकी झिझक दूर करके उन्हें प्रोत्साहित करें। यदि नारी डाक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक बन सकती है तो क्या वह वैज्ञानिक ढंग से खती करवाने में सक्षम खेतिहर नहीं बन सकती? उसी प्रकार सैनिक शिक्षा के प्रति हमारा दृष्टिकोण उदार नहीं है । इतिहास साक्षी है कि नारी ने आवश्यकता पर पड़ने पर युद्धभूमि में पुरुषों के छक्के छुड़ा दिये। अत: यदि किसी नारी की रुचि इस क्षेत्र में हो तो उसे प्रोत्साहित करें । थल सेना, जल सेना, वायु सेना तीनों में ही नारी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। वैसे भी नारी को अपनी आत्म-रक्षा के लिये सबल बनना आवश्यक है। मातृत्व की शिक्षा-नारी शिक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग होना चाहिये । यह गुण प्रकृति ने केवल नारी को दिया है। आज आवश्यकता है नारी अपने में मातृत्व गुणों का विकास करे तभी वह समाज को नई दिशा दे सकती है। धर्म समाज की रीढ़ है । धर्म का अभिप्राय संकीर्ण सांप्रदायिक मनोवृत्ति से नहीं है। धर्म बहुत ही व्यापक शब्द है । अत: शिक्षा में धर्म की मूल आत्मा को महत्त्व मिलना आवश्यक है। तभी समाज अनुशासित होगा, तभी चारित्रिक बल बढ़ेगा और नारी वैदिक नारी की गरिमा से युक्त होगी। आज की आवश्यकताओं और परिवेश के अनुरूप ही शिक्षा स्वरूप और लक्ष्य निर्धारित करना अभिप्रेत है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी-शिक्षा का महत्व D साध्वीश्री जयश्री (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) "स्त्री शूद्रो नाधीयेताम्" अर्थात् स्त्री और शूद्र विद्या के अधिकारी नहीं हैं। विद्या के पात्र नहीं है । पहले इस विचारधारा में पलने वाले बुजुर्ग अपनी लड़कियों को बिल्कुल नहीं पढ़ाते थे; उन्हें सर्वथा अशिक्षित ही रखते थे; जिसके फलस्वरूप नारी-शिक्षा का विकास नहीं हो सका । उनकी भावना इस रूप में प्रस्फुटित हुई अबला जीवन हाय ! तुम्हारी यही कहानी । आँचल में है दूध और नयनों में पानी ।। नारी-हृदय स्वभावतः ही मृदु, कोमल, करुणाप्लावित और रस से संयुक्त होता है। उसकी यह कोमलता ही उसे विरह-व्यथा से सतत प्रताड़ित करती रहती है। जबकि पुरुष-हृदय पाषाण की भांति कठोर होता है। वह कभी तपस्या का बहाना बना घोर जंगल की ओर प्रस्थान कर देता है तो कभी रूपलावण्यमयी स्त्री के मोह-पाश में आबद्ध हो अपनी स्त्री से सदा के लिए सम्बन्ध-विच्छेद कर देता है। उसे पूर्वापूर्व का तनिक भी ख्याल नहीं रहता। नारी का भावुक हृदय सतत तिल-तिल कर जलता है, जिससे उसका सांसारिक जीवन बहुत ही दुर्वह हो जाता है। वह अपने इस दुर्वह भार को अश्रुधारा के माध्यम से ही हल्का कर सकती है और उसके पास उपक्रम ही क्या है ? यह दुर्दशा पुरातन युग के नारी समाज की ही अधिक हुई है। शिक्षा के परिप्रेक्ष्य में जायें तो पायेंगे कि अगर नारी शिक्षित व पढ़ी-लिखी होती तो क्या वह पुरुषों की कारा में रहना पसन्द करती? कदापि नहीं। आधुनिक युग का नारी समाज पुरुष-वर्ग को एक नयी चुनौती देता है। आज की महिलायें साहस और पराक्रम को संजोये हुए हैं। उनकी मानसिक चेतना का अनावरण हुआ है। कायरता सदा के लिए विदा ले चुकी है, वीरत्व जाग उठा है। उसके सोचने-समझने का मानदण्ड ही बदल गया है । पुरुषों की परायत्तता अब उन पर अधिक नहीं टिक सकती। पुरातन मान्यताएँ, धारणाएँ ऐसी थीं कि पुरुषों के अभाव में महिलाएं अपना जीवन-यापन नहीं कर सकतीं। अतीत की इन मान्यताओं में अब बहुत कुछ परिवर्तन दृष्टिगत हो रहा है । नारी सम्बन्धी विवाह समस्या किसी न किसी रूप में आज के विश्व-क्षितिज पर अभिव्यंजित होती रही है। उसके सामाजिक तथा पारिवारिक उत्तरदायित्वों को लेकर कम तर्क-वितर्क पैदा नहीं हुए। भारतीय सांस्कृतिक पुनरुत्थान के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में नारी की शिक्षा-दीक्षा की वस्तुस्थिति पर पुनः गम्भीर चिन्तन मनन किया गया । एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी उभरा कि वस्तुतः उसका कार्य क्षेत्र क्या है और क्या होना चाहिये ? नारी केवल घर-परिवार की चहारदीवारी में बन्द रहकर अपने पति तथा पुत्र की सेवा-शुश्रूषा में ही लगी रहेगी अथवा उस धरातल से ऊपर उठकर कुछ वैचारिक क्रान्ति भी कर सकेगी। उच्च शिक्षासम्पन्न तथा बृहत्तर प्रतिभावान् नारी को कुछ वर्षों के पश्चात् नारी-स्वातन्त्र्य एवं नारी-जागरण का सामाजिक मूल्य संप्राप्त हुआ, नारी को सामाजिक तथा आध्यात्मिक क्रान्ति करने को प्रोत्साहित किया गया। दार्शनिकों, कवियों, कलाकारों ने नारी Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नारी-शिक्षा का महत्त्व ६३ . के इन उदात्त विचारों का हृदय से स्वागत किया, जिसके फलस्वरूप नारी ने घर के समग्र दायित्वों का सम्यक निर्वहन कर शिक्षा के क्षेत्र में अपना चरण-विन्यास किया। स्कूलों, विश्वविद्यालयों, चिकित्सा केन्द्रों तथा अन्य सभी संगीत नाट्य-प्रतियोगिताओं में आशातीत नैपुण्य व साफल्य प्राप्त कर सर्वाधिक प्रतिभा का सर्वतोभावेन विकास किया। यह विकास का क्षेत्र उसका तब खुला कि जब उसे बन्धन की कारा से मुक्त बनने का अवसर मिला । कुण्ठाओं को परास्त कर वह स्वायत्ततामय जीवन जीने लगी। उसकी इस प्रसन्नता को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता । उसने जितनी यातनाएँ-पीड़ाएँ सहीं, उसकी पृष्ठभूमि में पुरुष और नारी के पारस्परिक सम्बन्ध को सुरक्षित बनाए रखने का ही एक मात्र हेतु परिलक्षित होता है। इतना होने के बावजूद भी पुरुष स्त्री की वात्सल्यमयी भावनाओं को ठुकराता रहा है। ___ कामायनी में एक प्रसंग आता है---मनु और श्रद्धा का । मनु अपने पुरुषत्व के अभिमान में श्रद्धा को अकेली असहाय छोड़कर चले जाते हैं । वह अपनी हृदयगत भावनाओं को इस प्रकार चित्रित करती है तुम भूल गये पुरुषत्व मोह में, कुछ सत्ता है नारी की। समरसता सम्बन्ध बनी, अधिकार और अधिकारी की ।। वह अपने प्रियतम को पुकारकार कहती है कि मुझे भी विधाता ने आधा अधिकार प्रदान किया है। इसीलिये तो मुझे अर्धाङ्गिनी कहते हैं। एक कवि ने अपने मार्मिक शब्दों में कहा है-- न ह्य केन चक्रेण, रथस्य गतिर्भवेत् । संसाररूपी रथ के दो पहिये होते हैं-स्त्री और पुरुष । अगर एक पहिये में कुछ त्रुटि हुई कि रथ लड़खड़ाने लग जायेगा । अपने गन्तव्य स्थल पर सम्यक्तया नहीं पहुँच सकेगा। अतः वह अपने उत्तरदायित्वों को पूर्णतया निभा सके तथा अपने गार्हस्थ्य जीवन को सन्तुलित बनाये रख सके-इसीलिए ही नारी-शिक्षा का होना अत्यन्त अपेक्षित है; क्योंकि बालक एवं बालिकाओं की प्राथमिक शिक्षा का शुभारम्भ माँ के स्नेहिल हृदय से ही होता है । अगर वह स्वयं अशिक्षिता होगी तो अपनी संतानों को कैसे शिक्षित बना सकेगी। मेजिनी के शब्दों में "The lesson of the child begins between the father's laps and mother's knees." आप इतिवृत्त के पृष्ठों को पढ़िये । जितने भी महापुरुष इस वसुन्धरा पर अवतरित हुए, वे सब माताओं की गोद से ही अवतरित हुए हैं, न कि आकाश से टपके हैं। आकाश से उतरने का तो प्रश्न ही निराधार होगा। उनका लालन-पालन, शिक्षा-संस्कार आदि कार्यों में माताओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । वे उनमें सदैव पवित्र विचारों की गंगा प्रवाहित करती रही है। महात्मा गांधी ने स्वाभिमान के साथ कहा कि-भारतीय धर्म अगर जीवित रहा तो एक मात्र स्त्रियों के कारण ही जीवित रहा वरना वह कभी का लुप्त हो जाता। जहाँ का धर्म जीवित है वहाँ का नैतिक व चारित्रिक धरातल तो स्वतः ही समृद्ध हो जाता है। संस्कृति के गौरव को अगर किसी ने सुरक्षित रखा है तो भारत की माताओं का शील व चारित्रिक बल ही इसका मुख्य आधेय है। यहीं से सुख का सूर्य प्रज्वलित हुआ है और यहीं से आनन्द का स्रोत प्रवहमान हुआ है। श्रमण भगवान महावीर की वाणी से भी यही धारा फूट पड़ी कि जितने आध्यात्मिक अधिकार पुरुषों को प्राप्त हैं उतने ही स्त्रीवर्ग को भी। उन्होंने धामिक भेद-रेखा को परिसमाप्त कर दिया। उसी के फलस्वरूप उनकी शिष्य-परम्परा में जितनी संख्या श्रमणों की थी, उससे अधिक संख्या श्रमणियों की थी। उन्होंने स्त्रियों को मोक्ष का मुक्तभाव से अधिकार दिया। जबकि गौतम बुद्ध ने स्त्रियों को संन्यास देना अपने धर्मसंघ की मर्यादा के प्रतिकूल माना। उनकी संकीर्ण वृत्ति स्पष्टतः प्रतिभासित होती है। नारी को उन्होंने शौर्यहीन, पराक्रमहीन समझकर धर्म-क्रान्ति करने एवं अपना आत्मोत्थान करने से सर्वथा वंचित रखा। आप इतिवृत्त के परिप्रेक्ष्य में पायेंगे कि स्त्रियों व साध्वियों ने अपने शील की रक्षा हेतु प्राणों का बलिदान कर दिया जबकि पुरुषों का चरित्र-बल कुछ निम्न स्तर का रहा । स्त्रियों ने शास्त्रार्थ करने में भी अपनी प्रकृति-प्रदत्त बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन कर Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड ................................................................... गौरव संप्राप्त किया है। विद्योत्तमा ने धुरन्धर प्रतिभासम्पन्न विद्वानों की पोल का रहस्योद्घाटन कर दिया। मण्डन मिश्र की स्त्री से कौन अपरिचित है जिसे शास्त्रार्थ में निर्णायक के रूप में मनोनीत किया गया। भारत की गौरवमयी परम्परा को उजागर करने में व समाज में संव्याप्त अर्थहीन रूढ़ियों का उन्मूलन करने में जानकी, अनुसूया, अहिल्या, गायत्री आदि स्त्रियों का स्पृहणीय व सक्रिय योगदान रहा है। इतिहास उन माताओं के पराक्रम, शौर्य व सहनशीलता की गाथाओं से गौरवान्वित है जिन्होने अपनी संतानों को भारत के क्षत्रिय वंश के गौरव को सुरक्षित रखने की सुन्दर शिक्षा से आप्लावित किया। एक कथा प्रसंग इस प्रकार है रानी विदुला का पुत्र सिन्धुराज से पगस्त होकर निराशावादी विचारधारा में निमग्न हो गया और उदासीन होकर घर आकर बैठ गया । वीरांगना को अपने पुत्र के हृदय दौर्बल्य पर बहुत ग्लानि हुई। उसे इस पौरुषहीनता से ऐसा आघात लगा मानो उस पर वज्रपात हो गया हो । अपने पुत्र को लताड़ते हुए उसने कहा-"पुत्र! तू एक क्षत्राणी की कुक्षि से पैदा हुआ है । मेरा सुख बढ़ाने की बनिस्बत शत्रु का सुख-वैभव बड़ा रहा है। क्षत्रिय अगर पराजित होकर पलायन करता है तो वह पुरुष नहीं कापुरुष है। तू उठ, तिन्दुक की लकड़ी की तरह चाहे क्षण भर भी ज्वलन्त होकर स्वाहा हो जा । जीने का मोह त्याग दे। या तो अपना पराक्रम दिखला अथवा अपना अन्त कर ले। क्योंकि जिस क्षत्रिय के पराक्रम व पौरुष की गौरवगाथा नहीं गायी जाती तथा जिसका पुत्र उत्साहहीन व कायर है वह माता सबसे बड़ी अभागिनी है।" इस प्रकार माताओं ने समय-समय पर पुत्रों को बलिदानी योद्धा बनने की प्रबल प्रेरणा से प्रोत्साहित किया है। वैसे ही चोरी, अन्याय, अत्याचारों व दुर्व्यसनों से बचने की भी शिक्षा प्रदान करती रही हैं तथा सुसंस्कार भरती रही हैं । पर ये सारी बातें तभी संभाव्य हो सकती है जबकि नारी-समाज स्वयं प्रशिक्षित, अनुशासित आदिआदि गुणों से अलंकृत व मण्डित हो । उसके व्यावहारिक जीवन में पवित्रता, उदारता, सौम्यता, विनय, अनुशासनप्रियता आदि-आदि गुणों का पुट भी हो तो वस्तुत: उसका जीवन मणिकांचन योग होगा। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : आत्म-कल्याण भी, लोक-कल्याणक भी ___- डॉ. नरेन्द्र भानावत (हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर) संसार में चार बातें प्राणी के लिये बड़ी दुर्लभ कही गई हैं। वे हैं-पनुष्य-जन्म, धर्म का श्रवण, दृढ़ श्रद्धा और संयम में पराक्रम ।' मनुष्य-जन्म अनन्त पुण्यों का फल है। यह मिल जाने पर भी यदि शेष बातें नहीं मिलतीं तो मानव-जन्म सार्थक नहीं हो पाता। इसके लिए सत्संग और समाज का संस्कार मिलना आवश्यक है। मनुष्य जन्म लेने के बाद अपने शारीरिक और मानसिक विकास के लिए समाज पर निर्भर रहता है। व्यक्ति और समाज का सम्बन्ध सहयोग और सेवा-भाव पर निर्भर है । इस दृष्टि से सेवा-भावना सामाजिकता का आधार है। ___ ज्यों-ज्यों प्राणी में इन्द्रियों का विकास होता जाता है । त्यों-त्यों उसमें सहयोग की भावना का बढ़ती जाती है। एक इन्द्रिय वाले प्राणी की अपेक्षा पंचेन्द्रिय में सहयोग भावनों का यह अभिवृद्ध रूप देखा जा सकता है । सेवा-भावना का स्रोत तभी फूटता है जब व्यक्ति में दूसरों को अपने समान समझने की भावना का उदय होता है। हमारी आत्मा जैसे हमें प्रिय है, वैसे ही दूसरे की आत्मा उसे प्रिय है । ऐसा समझकर, संसार के सभी प्राणियों के प्रति मित्रता स्थापित कर, उनके दुःख को दूर करने में सहयोगी बनना सेवाधर्म का मूल है। जब व्यक्ति अपने अहंकार को भूलकर, मन और वचन में सरलता लाता है तभी वह सेवा के क्षेत्र में सक्रिय बन पाता है । 'सेवा' शब्द 'से' और 'वा' से बना है। 'से' का अर्थ है सेंचन करना और वा' का अर्थ वारण करना । सेवा के दो मुख्य कार्य हैं । एक तो दूसरे के कार्य में सहयोगी बनकर उसके कार्य को पूरा करना अर्थात् उसके कार्य को सिंचित करना और दूसरा उसके कार्य या जीवन-निर्वाह में जो बाधाएँ हैं उन्हें दूर करना, उनका निवारण कुरना। इस प्रकार सेवाधर्म जीवनरक्षा का धर्म है। इस धर्म का निर्वाह उत्तम रूप से तभी किया जा सकता है जब व्यक्ति दूसरों के दु:ख को दूर करने या हल्का करने में अपने सुख का त्याग करे । त्याग-भावना के विना तेवाधर्म का निर्वाह नहीं हो सकता। त्याग भावना चित्त की निर्मल वृत्ति है ! जब व्यक्ति कवाय भावों का त्याग कर सेवा में प्रवृत्त होता है तब उसमें सेवा के बदले यश, मान, प्रतिष्ठा आदि कुछ भी पाने का भाव नहीं रहता । पर जब ये कषाय भाव नहीं छूटते तब जो सेवा की जाती है उसमें प्रदर्शन और सम्मान पाने की भावना रहने से वह व्यवसाय का रूप धारण कर लेती है। आज सेवा का यह व्यवसायीकरण धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक संस्थाओं व पार्टियों में बढ़ता जा रहा है। 'उत्तराध्ययन' सूत्र के २६ वें अध्ययन 'सम्यक्त्व पराक्रम' में गौतम स्वामी भगवान् महावीर से पूछते हैं कि हे भगवन् ! वैयावृत्य अर्थात् सेवा करने से जीव को क्या लाभ होता है ? भगवान उत्तर में फरमाते हैं कि वैयावृत्त्य अर्थात् सेवा करने से जीव को तीर्थंकरनामकर्म का बंध होता है ? तीर्थंकरत्व जीव की वह उच्चतम अवस्था है जब आत्मा की ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बल आदि की समस्त शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं और जन्म-मरण के १. चत्तारि परमंगाणि, दुल्लाहाणीह, जंतुणो । माणुसत्त सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥ ---उत्तराध्ययन सूत्र ३१ - . Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड भवप्रपंच से उसकी मुक्ति होना निश्चित हो जाता है । तीर्थकर ऐसा धर्मनायक और लोकनायक है जो अपनी देशना के बल पर जीवों को संसार-सागर से पार उतारने में समर्थ है । सेवा का ऐसा महान् फल तभी मिल सकता है जब सेवा शुद्ध अन्तःकरण से की गई हो, उसमें छल, कपट और अहंकार की गन्ध न हो । भगवान् ऋषभदेव ने अपने पूर्वभव में जीवानन्द वैद्य के रूप में एक रुग्ण मुनि की निष्काम भाव से सेवा की, फलस्वरूप उन्हें तीर्थकर पद की प्राप्ति हुई। सेवा का क्षेत्र विस्तृत और बहुमुखी है । 'स्थानांग सूत्र' में दस प्रकार की सेवा बताई गई है-आचार्य की सेवा, उपाध्याय की सेवा, स्थविर की सेवा, तपस्वी की सेवा, शिष्य की सेवा, ग्लान-रोगी की सेवा, गण की सेवा, कूल की सेवा, संघ की सेवा और सहधर्मी की सेवा । अन्तिम चार सेवाओं में देश-सेवा और समाज-सेवा का भाव सम्मिलित है। सेवा में ऊँच-नीच की भावना नहीं रहनी चाहिए। जिसकी सेवा की जा रही है उसके प्रति सेवाभावी के मन में हीनता की भावना नहीं आनी चाहिए। सच्ची सेवा में परमात्मा का वास होता है। पर आज सेवा को दान के साथ विशेष रूप से जोड़ दिया गया है। यद्यपि अपने परिग्रह का त्याग कर, उसका सेवाकार्यों में उपयोग करना अच्छी बात है, पर इसमें दाता सकारात्मक रूप से सक्रिय बन सेवा करने का अवसर नहीं प्राप्त कर पाता। धन कमाने के स्रोत कितने शुद्ध हैं इस पर भी सेवा की शुद्धता की निर्भर है । यदि तस्करी, भ्रष्टाचार जैसे अशुद्ध तरीकों से धन एकत्र कर दान दिया गया है तो वह फलदायी नहीं बनता। सच तो यह है कि मुद्रा के रूप में, पैसे के रूप में दान देने का हमारे यहाँ शास्त्रीय विधान नहीं है । दान के रूप में आहार-दान, औषध-दान, ज्ञान-दान और अभय-दान का विशेष उल्लेख रहा है । भूखे को भोजन देना और वह भी सम्मानपूर्वक, अज्ञानी को ज्ञान देना वह भी विवेकपूर्वक, रोगी को औषध देना वह भी प्रेमपूर्वक और प्राणी को सब प्रकार से निर्भय बना देना, दान का सर्वश्रेष्ठ रूप है। जब तक मन में घृणा है, अभिमान है, लोभ है, भय है, तब तक दान के रूप में ऐसी सेवा नहीं हो सकती। धनवानों को केवल धन का दान देकर ही नहीं रह जाना है । यह तो सेवा का नकारात्मक पक्ष है। व्यापार में स्लीपिंग पार्टनर' जैसा रोल है। उन्हें तो सक्रिय रूप से सेवा में साझीदार बनना चाहिए। सेवा अहिंसा का सक्रिय रूप है पर हमने अहिंसा को कीड़े-मकोड़ों और पशु-पक्षियों की रक्षा तक ही सीमित कर दिया है। क्या कारण है कि मानव के द्वारा मानव का शोषण होने के खिलाफ हमारी अहिंसा का तेज प्रकट नहीं होता? हम सूक्ष्म अहिंसा के पालन पर तो बल देते हैं, पर मानव को शोषण और अन्याय से बचाने में अग्रणी नहीं बनते ? हमने सेवा को मुख्यत: सन्त-महात्माओं की सेवा तक ही सीमित कर दिया है। विश्व की बृहत्तर मानवता, जो भूख से तड़प रही है, नानाविध रोगों से ग्रस्त है, आश्रय के अभाव में जो बेसहारा है, उसे वाण देने में हमारे हाथ नहीं उठते, पैर नहीं बढ़ते । हमारी सेवा गरीबों की सेवा न बनकर, पूजा-पाठ और बाहरी धार्मिक क्रियाओं की सेवा बनती जा रही है । सेवा का यह रूप आत्मा को परमात्मा बनाने की बजाय पराधीन बनाता जा रहा है । हम ऊँचे स्वर से भगवान् का कीर्तन करते ही न रहें वरन् जो दुःखी और पीड़ित हैं उनकी पुकार सुनें, हम सन्तमहात्माओं के चरण-वन्दन करके ही न रहें वरन् समाज में जो पैरों तले कुचले जाते हैं, जो पददलित हैं, उन्हें ऊँचा उठावें, अपने गले लगायें । सेवा से महान् पुण्य होता है । पर यह पुण्य मात्र कुछ देने से ही नहीं होता । शास्त्रों में जिन नौ पुण्यों की चर्चा की गई है उनमें प्रथम पाँच पुण्य-भोजन, पानी, स्थान, विश्राम के साधन, वस्त्र आदि देने से होते हैं पर अन्तिम चार पुण्य कुछ देने से नहीं वरन् मन में दूसरों के प्रति कल्याण की भावना आने से, दूसरों के प्रति हितकारी, प्रिय वचन बोलने से, अपने शरीर द्वारा दूसरों की सेवा करने से तथा गुणीजनों, गुरुजनों आदि के प्रति विनय, नमस्कार, सत्कार आदि करने से होते हैं। आज हम बाहरी क्रिया करने के ही अधिकाधिक अभ्यासी होते जा रहे हैं पर जब तक यह 'करना' हमारे होने' (becoming) बनने में परिणत नहीं होता तब तक सेवा सच्चे अर्थों में होती नहीं । भगवान् महावीर ने सेवा का तीर्थकर गोत्र बनने का जो फल बताया है, वह सेवा की आन्तरिकता से जुड़ने पर ही सम्भव है। हम इस आन्तरिकता से जुड़ सकें इसी में अपना और दूसरों का कल्याण है। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .-.-.-.-. - -. - - - - - - - - - - - - - - - सेवा : अर्थ और सही समझ साध्वी श्री यशोधरा (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) सेवा सामुदायिक जीवन का मौलिक आधार है किन्तु प्रायः लोग भिन्न रुचि वाले होते हैं । इसलिये इस अधिकार का प्रयोग सब लोग एक जैसा नहीं करते हैं, ऐसे लोगों को भगवान् महावीर ने चार वर्गों में विभाजित किया है, यथा-- (१) कुछ लोग दूसरों से सेवा लेते हैं पर देते नहीं। (२) कुछ लोग दूसरों को सेवा देते हैं पर लेते नहीं। (३) कुछ लोग सेवा लेते भी हैं और देते भी हैं। (४) कुछ लोग न सेवा लेते हैं और न देते हैं । सामुदायिक जीवन में तीसरा विकल्प ही सर्वमान्य हो सकता है। संघीय सदस्यों की परस्परता का पहला सूत्र है-सेवा का आदान-प्रदान । यह एक ऐसा सशक्त माध्यम है, जिसमें परस्पर तादात्म्य, समत्व और अभिन्नता स्थापित होती है। सेवा का अर्थ एक दूसरे के काम में सहभागी होना, राहयोग करना या काम में व्याप्त होना ही नहीं हैयह तो मात्र व्यवहार है। सेवा को गहराइयों में डुबकी लगाएँ तो रहस्य स्वयं उद्घाटित हो जायगा कि सेवा का अर्थ है-समग्रता की अनुभूति का प्रयोग । महावीर के दर्शन की सेवा के सन्दर्भ में समझें तो पाएँगे कि इसकी अन्तर्तप के भेदों में गणना हुई है। जिसके मानस में करुणा का सागर लहराता है, वही दूसरे के दुःख को अपना दु:ख एवं दूसरे की अपेक्षा को अपनी अपेक्षा समझता है, दूसरे के शरीर को अपना शरीर मानता है। ममत्व की ग्रन्थि टूट जाती है और समता की सरिता फूट पड़ती है। आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में-- सेवा शाश्वतिको धर्मः, सेवा भेदविसर्जन्म । सेवा समर्पणं स्वस्य, सेवा ज्ञान-फलं महत् ।। सेवा शाश्वत धर्म है । सेवा- यह मेरा है, यह तेरा है, इस भेद का विसर्जन करती है । सेवा सेव्य में विलीन होकर ही की जा सकती है । सेवा ज्ञान की उत्कृष्ट उपलब्धि है। तभी तो अन्तश्चेतना से किसी के ये स्वर मुखर हए सेवाधर्मः परम गहनो योगिनामप्यगम्यः । स्वार्थ की भूमिका से ऊपर उठकर की जाने वाली सेवा में लेखा-जोखा का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इस सन्दर्भ में कितनी वेधक हैं ये पंक्तियाँ-- सच्ची सेवा में कभी, रहता नहीं हिसाब । शिशु-सेवा की मात ने रखी कहीं किताब ? Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड सेवा किसी दूसरे की नहीं की जाती। सेवार्थी स्वयं ही सेवा करता है। जिस सेवा में शर्त होती है वह सेवा नहीं, क्रिया की प्रतिक्रिया है, दी हुई सेवा के प्रतिदान की याचना है और है एक प्रकार का व्यापार । सही दृष्टिकोण और यथार्थ प्रक्रिया से जो सेवा का व्रत लेता है, उसके शरीर में न रोग रहता है, न मन में चिन्ता। न हृदय में भय रहता है, न बुद्धि में किसी प्रकार की प्रतिक्रिया । और न आत्मा में अपने-पराए का भेदभाव । सेवा में मुख्यतः पाँच बातें ध्यातव्य हैं (१) बिना किसी भेदभाव के सेव्य के प्रति श्रद्धाभाव । (२) निष्काम भाव से सेवा कर हम किसी पर उपकार नहीं करते, प्रत्युत हमें सेवा का अवसर देकर हमारी सेवा स्वीकार कर वह हमें उपकृत करता है--ऐसा स्वस्थ चिन्तन । (३) जिसकी सेवा करते हैं, उसके लिके सामर्थ्यानुसार समय और श्रम की पहले से सुरक्षा । (४) उसकी अपेक्षाओं, आवश्यकताओं के प्रति सजगता । (५) सेव्य व्यक्ति की रोग आदि से मुक्ति के लिए सतत मंगल भावना । महावीर ने कहा-श्रमण निर्ग्रन्थ अग्लान भाव से आचार्य, उपाध्याय स्थविर, तपस्वी, शैक्ष, कुल, गण, संघ और सार्मिक की वैयावृत्त्य करने वाला महान् कर्मक्षय और आत्यन्तिक पर्यवसान करने वाला होता है । शिष्य ने पूछाभंते ! गुरु और सधार्मिक की शुश्रुषा (पर्युपासना) से जीव किस तत्त्व को उपलब्ध होता है ? भगवान् ने उत्तर दिया गुरु और सार्मिक की सेवा से वह विनय को प्राप्त होता है, विनय-प्राप्त व्यक्ति गुरु का अविनय नहीं करता, परिवाद नहीं करता । इसीलिए वह नैरयिक, तिर्यंच.यौनिक, मनुष्य और देव सम्बन्धी दुर्गति का निरोध करता है। श्लाघा, गुण प्रकाशन, भक्ति और बहुमान के द्वारा मनुष्य और देव सम्बन्धी सुगति का मार्ग प्रशस्त करता है । विनयमूलक समस्त प्रशस्त कार्यों को सिद्ध करता है और अनेक अनेक व्यक्तियों को विनय पथ पर गतिशील करता है। एक रुग्ण या असमर्थ व्यक्ति के साथ स्वयं तीर्थंकरों ने इतना तादात्म्य स्थापित किया है कि उनकी वाणी के वातायन से सहज झाँका जा सकता है, यथा “जे गिलाणं पडियरइ, से मं पडियरति"-जो ग्लान साधु की सेवा करता है, वह मेरी सेवा करता है। ग्लान साधु की अग्लानभाव से सेवा करने वाला मेरी भूमिका तक पहुँच जाता है, तीर्थकर हो जाता है । “सव्वं किलपडिवाई वेयावच्च अपडिवाई" संसार में सब कुछ प्रतिपाती है। एकमात्र वैयावृत्त्य ही ऐसा तत्त्व है जो अप्रतिपाती है। वैयावृत्य में व्याप्त मुक्ति एकान्त निर्जरा का भागी होता है। बौद्ध साहित्य में भी सेवा पर अत्यधिक बल दिया है। विनयपिटक में एक घटना का उल्लेख किया गया है कि---एक भिक्षु को विशूचिका की बीमारी हो गई। बुद्ध चहल-कदमी करते हुए वहीं जा पहुंचे। उन्होंने देखा गन्दगी से लथपथ छटपटाते एक भिक्षु को। कोई परिचारक नहीं । मन करुणा से भर गया । भिक्ष ओं को आमन्त्रित किया। पूछने पर भिक्ष ओं ने बताया- यह किसी का सहयोग नहीं करता था, इसलिये हमने भी इसकी उपेक्षा की। बुद्ध ने स्वयं नहलाया, उसकी चिकित्सा की समुचित व्यवस्था की। और उसी दिन से अपने भिक्षु-संघ में यह विधान किया कि प्रत्येक भिक्ष अपना धर्म मानकर ग्लान भिक्षु की सेवा करे अन्यथा वह दोष का भागी होगा। महावीर ने कहा-साधु विहार कर जिस गाँव से गुजरे वहाँ यदि कोई रुग्ण साधु या साध्वी विद्यमान हो तो उनसे सेवा के लिए पूछताछ करे । अपेक्षा हो तो वहाँ रहे, आवश्यकता न हो तो अन्यत्र चला जाए । पता चलने पर भी यदि उपेक्षाभाव से आगे बढ़ता है, तो वह संघीय अनुशासन का भंग करता है और प्रायश्चित्त का भागी होता है। सेवा संघीय प्रभावना का महत्त्वपूर्ण अंग है । वैयावृत्त्य क्यों करें ? इसके समाधान में चार कारणों का उल्लेख किया गया है (१) समाधि उत्पन्न करना । (२) विचिकित्सा ग्लानि का निवारण करता। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा : अर्थ और सही समझ (३) प्रवचन वात्सल्य प्रकट करना। (४) सनाथता-निःसहायता या निराधारता की अनुभूति न होने देना। व्यवहारभाष्य में प्रत्येक वैयावृत्त्य स्थान के तेरह द्वार उल्लिखित हैं जैसे-- (१) भोजन लाकर देना । (२) पानी लाकर देना, (३) संस्तारक करना (४) आसन देना, (५) क्षेत्र और उपधि का प्रतिलेखन करना, (६) पाद-प्रमार्जन करना, (७) औषधि पिलाना, (८) आँख का रोग होने पर औषधि लाकर देना, (8) मार्ग में विहार करते समय भार लेना तथा मर्दन आदि करना, (१०) राजा आदि के क्रुद्ध होने पर उत्पन्न क्लेश से निस्तार करना एवं शरीर को हानि पहुँचाने वाले व उपधि चुराने वालों से संरक्षण करना । (११) बाहर से आने पर दण्ड (यष्टि) ग्रहण करना, (१२) ग्लान होने पर उचित व्यवस्था करना, (१३) उच्चार, प्रस्त्रवण और श्लेष्म-पात्र की व्यवस्था करना। तेरापंथ धर्मसंघ के दर्पण में भी शासन-सम्मत सेवा के आदर्श स्पष्टता से प्रतिबिम्बित हुए हैं । आचार्य भिक्षु ने सेवाभावना पर अत्यन्त बल दिया है । उन्होंने कहा-जो साधु रुग्ण, ग्लान की सेवा से इन्कार करता है, वह महान दोष का भागी है। इससे सेवा-भावना को पोषण मिला । अपनी लौह-लेखनी से सेवा की दृष्टि से उन्होंने विधान पत्र में कुछ धाराएँ लिखीं (१) कोई साधु रुग्ण हो या बूढ़ा हो, तब दूसरे साधु अग्लानभाव से उसकी सेवा करें। (२) उसे संलेखना--विशिष्ट तपस्या करने को न उकसाएँ । (३) वह विहार करना चाहे और उसकी आँखें दुर्बल हो तो दूसरा साधु उसे देख-देखकर चलाए। (४) वह रुग्ण हो तो उसका बोझ दूसरे साधु लें । (५) उसका मन चढ़ता रहे, वैसा कार्य करे। (६) उसमें साधुपन हो तो उसे 'छेह' न दें-छोड़े नहीं । (७) वह अपनी स्वतन्त्र भावना से वैराग्यपूर्वक संलेखना करना चाहे तो उसे सहयोग दें, उसकी सेवा करें। (८) कदाचित् एक साधु उसकी सेवा करने में अपने को असमर्थ माने तो सभी साधु अनुक्रम से उसकी सेवा करें। () कोई सेवा न करे तो उसे टोका जाए और उससे कराई जाए। (१०) रुग्ण साधु को सब इकट्ठे होकर कहें, व आहार दिया जाए। उन्होंने शारीरिक अयोग्यता वाले व्यक्ति को गण में रखने योग्य बतलाया है। उन्होंने वैसे व्यक्ति को गण में रखने के अयोग्य बतलाया है जो अपने स्वभाव पर नियन्त्रण न रख सके। एक छोटी सी घटना है---उनके प्रिय शिष्य हेमराजजी स्वामी गोचरी गए। दो दालें साथ मिलाकर लाए। मूंग की दाल और चने की दाल । स्वामीजी ने कहा-क्या है ? हेमराजजी स्वामी ने उत्तर दिया-महाराज दाल है। कैसी दाल ? यह लगती है, पतली और जाड़ी कैसे? उन्होंने कहा-मूंग और चने की दाल है। स्वामीजी ने कहा--मिलाकर कैसे लाए ? उत्तर मिला--दाल, दाल है । क्या फर्क पड़ता है ? यह भी दाल है, वह भी दाल है। आचार्य भिक्षु ने कहा-...फर्क तो नहीं पड़ता होगा, पर कोई बीमार साधु हो और उसे मूंग की दाल की जरूरत हो तो चने की दाल कैसे खप सकती है ? तुमने क्यो मिलाया? उस प्रमाद के लिए आचार्य भिक्षु ने इतना बड़ा उलाहना दिया कि हेमराजजी स्वामी जैसे मुनि के लिए भी झेल पाना काफी कठिन हो गया। ____ एक प्रसंग मिलता है कि मुनि श्री चिरंजीलालजी के साथ मुनि तिरखाराम थे । मुनिश्री अस्वस्थ हो गए । अतिसार की बीमारी से ग्रस्त । सेवा का प्रसंग उपस्थित हुआ। मुनि तिरखारामजी इन्कार हो गए। जब पूज्य आचार्य प्रवर डालगणी की सन्निधि में साधु-समूह उपस्थित हुआ, पूछताछ की गई, तब उस साधु ने बताया मुझे सूग (घृणा) Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० कर्मयोगी श्री केसरीमा कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुरागा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड आती है । मैं किसी का मल-मूत्र नहीं उठा सकता । पूज्य डालगणी ने कहा- यदि तुम बीमार हो गए तो तुम्हारी परिचर्या कौन करेगा ? संघ में बह रहने के योग्य नहीं जो समय पर सेवा से जी चराता है। उनका संघ विच्छेद कर दिया गया । आत्मीयता की परख का यही समय होता है। कौन अपना है-कौन पराया? किसी से पूछने की अपेक्षा नहीं होती। जब शक्तियाँ क्षीण होती हैं, व्यक्ति अपने आपको असहाय अनुभव करता है। उस समय उसका अभिन्न बनकर जो सहयोग करता है, वही होता है सच्चा आत्मीय । एक बार ब्यावर में एक साध्वी बीमार हो गई। उन्हें सुजानगढ़ लाना जरूरी था। साध्वीश्री अणचांजी ने उन्हें कन्धे पर बिठाकर सुजानगढ़ पहुँचा दिया । ऐसे एक नहीं तेरापंथ धर्मसंघ में अनेक घटना प्रसंग हैं जिन्हें देख-सुनकर विरोधी से विरोधी व्यक्ति भी यह कहने के लिए विवश हो जाता है कि तेरापंथ धर्मसंघ की सेवा-भावना बेजोड़ है। चिकित्सा के चतुष्पाद होते हैं-वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक । चारों में से एक का भी अभाव चिकित्सा को असफल करता है। सेवा देना और लेना अपने आप में एक कला है। सेवा देने वाला कितना भी कुशल क्यों न हो पर लेने वाला यदि अयोग्य है तो वह कभी समाधि का वरण नहीं कर सकता । प्रत्युत परिचारक के उत्साह को भी क्षीण कर देता है । विनयपिटक में उस ग्लान या सेवाप्रार्थी को अयोग्य बतलाया है जो (१) साथियों के अनुकूल करने वाला नहीं होता । (२) अनुकूल की मात्रा नहीं जानता । (३) औषध सेवन नहीं करता । (४) हितेच्छुक परिचारक से ठीक-ठीक रोग की बात प्रकट नहीं करता। (५) दुःखमय, तीव्र, कटु, प्रतिकूल, अप्रिय और प्राणहर शारीरिक पीड़ा सहने में अक्षम होता है। ऐसे व्यक्ति की सेवा करना दुष्कर, दुष्करतर है । वह परिचारक भी अयोग्य है जो (अ) दवा ठीक नहीं कर सकता । (ब) अनुकूल-प्रतिकूल (वस्तु) को नहीं जानता । (स) प्रतिकूल को देता है. अनुकूल को हटाता है। (द) मल-मूत्र, थूक और वमन को हटाने में घृणा करता है। (य) रोगी को समय-समय पर धार्मिक कथा द्वारा समुत्तेजित और सम्प्रहपित करने में समर्थ नहीं होता।' सेवा लेने और देने के तीसरे विकल्प में से हम सब गुजरते हैं। अपेक्षा है हम उसकी अर्हता प्राप्त करें। सेवा लेने में हीनता की अनुभूति न हो और देने में उत्कर्ष की। हम किसी की सेवा कर उस पर एहसान नहीं करते, प्रत्युत अपने आत्मधर्म को पुष्ट करते हैं । अतः कवि की मार्मिक पंक्तियाँ प्रतिक्षण हमारी अन्तश्चेतना को झंकृत करती हैं गर थामो किसी का हाथ न करो अभिमान यह तुम्हारा फर्ज है। कहीं पानी भी पीओ तो समझो उसका तुम्हारे पर कर्ज है ।। छोटे-मोटे उपकारों का तुम न लगाओ हिसाब इतना । तुमने अच्छा किया या बुरा कुदरत के रजिस्टर में सब दर्ज है। १. विनयपिटक (३ महावग्ग ८७।२, ४) Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0.0 +0+0+0+0 समाज सेवा में नारी की भूमिका श्रीमती मालती शर्मा २५/२ पावर, बम्बई-सूना मार्ग, पूना ३ धरती सी उर्वर और सहिष्णु हमारी मातृमयी संस्कृति में प्रकृति से ही नारी सेवा रूपा और करुणाभूपा रही है। क्या इसे महज संयोग कहा जाय कि जीवन का आधार धरती, प्रेम, प्रकृति और ध्येय संस्कृति नारीरूपा है ? जागृति, कर्म और मिलन विश्राम की बेलाएँ उषा, दोपहरी, सन्ध्या नारी वेवा है ? बिना नारी शक्ति के शिव निर्जीव शव है? सेवा, मुवा और परिचय सेवा टहल के तीनों शब्द नारी बोक हैं? तथा सेवा भावना के उत्प्रेरक भाव दया, माया, ममता, करुणा नारी लिंगी है? सच पूछा जाय तो सेवा का दूसरा नाम नारी प्रकृति है । विश्व के समस्त जीव, समूचा विश्व ही नारी पक्षिणी के पंखों तले सेवा, पोसा जाकर ही ज्ञान की आँख और कर्म की पाँख पाता है गति, शक्ति और भक्ति मुक्तिमय होता है। नाम की अबला नारी में बजा की सेवाशक्ति है, उसकी मोहक आंखों में करुणा ममता का जल और आंचल में पोषक संजीवनी है। पालने से लेकर युद्ध क्षेत्र तक वही अपनी प्राणदाविनी सेवासुश्रूषा से 'न' में 'अ' लगाकर उसे नर-पुरुष बनाती है, चलाती उठाती है। कुटुम्ब परिवार कबीला हो या देश राष्ट्र, युद्ध और शान्ति क्रान्ति और भ्रान्ति की कैसी भी असमंजसमयी स्थितियों क्यों न हो सबमें नारी ही समाज सेवा की जगमगाती मशाल 'फलोरेन्स नाइटेंगिल' है । अनादि काल से ही सेवा और नारी पर्यायवाची रहे हैं। तभी तो विश्व की विशेषत: भारत की मनीषा धर्म, दर्शन, कला, संस्कृति की समस्त ऊँचाइयों में नारी माँ से ऊँची निस्पृह, निःस्वार्थ, त्याग, ममतामयी किसी दूसरी सेवामूर्ति की कल्पना नहीं कर सकी और आज भी क्या हम इस सेवा प्रतिमा के बिना पालता घर, शिशु गृहों, आश्रमों को चलाने की कल्पना कर सकते हैं ? क्या नर्सों के बिना अस्पताल हो सकते हैं ? कदापि नहीं । पर ऐसा क्यों ? आज तो यह प्रयोग, परीक्षण और आंकड़ों का सत्य है कि निसर्गतः ही नारी में पुरुष की अपेक्षा किसी भी एक रस कार्य को लम्बे समय तक करते रहने की अधिक सामर्थ्य, अधिक धैर्य है । वह दुःखों को, भारी कामों को उठाने वाली क्रेन तो नहीं मगर धारदार आरी जरूर है जो अनवरत अनथक चलती रहती है, और बड़े से बड़े ऊबाऊ काम को पार पाड़कर ही रहती है। पुरुष में वह माद्दा कहाँ कि दुखती आँखों की किरकिरी कोमल हथेली के स्पर्श से शमित कर दे, शीतला से बिलखते शिशु को छाती से लगाये कोरी आँखों रातें बिता दे, अपने मैले आँचल में दुनियाँ भर का दुःख कष्ट समेट उसी आँचल को देवी मानवीय सारे वरदानों की छाया बना दे ? वह नारी ही है जो ज्वर से तपते मस्तकों की शीतल पट्टी, सूखे ओठों की तरी, ठंडी गोद और चोट खाये हृदयों पर सान्त्वना भरा हाथ बन सकी है। इस प्रत्यक्ष भूमिका में भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है नारी की अप्रत्यक्ष भूमिका पर हो या बाहर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कहीं भी नारी की उपस्थिति मनोरम मधुर वातावरण को सृष्टि करती है । जहाँ वह होती है वहाँ का समा ही और होता है, हवा ही और बहती है । बृहद् धर्म पुराण कहता है-"गृहेषु तनया भूषा ।" घर ही क्यों, कहीं भी नारी का होना उदासी और ऊब के क्षणों में प्रेरणा और रुचि जगा तरोताजगी लाता है। मैं विज्ञान . Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड . . ... . ..... ........... . ........................................ के एक वरिष्ठ प्रोफेसर को जानती हैं जो अपनी सामान्य सी क्षीणकाय शोध सहायिका को समूचे विभाग की “जीवन हरियाली" कहा करते हैं । स्त्री सहयोगी होना अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी वातावरण में व्यवस्था और संतुलन लाता है, क्रूर एवं अमानवीय वृत्तियाँ उभर नहीं पातीं, स्वतः ही पानी-पानी हो जाती हैं । हमारे क्रांतदर्शी ऋषि इस सत्य से पूर्ण परिचित थे, उन्होंने सेवाभाव के लिये जरूरी सभी मूल प्रवृत्तियों के दर्शन नारी प्रकृति में किये हैं। यजुर्वेद का ऋषि कहता है इडे रन्ते हव्वे काम्ये चन्द्र ज्योतेऽदिते सरस्वति महि विश्रुति एताते अध्ध्न्ये नामानि देवेभ्यो मा सुकृत ब्रूतात्। -यजुर्वेद ८४/.३ जो उत्तम मधुरभाषिणी है, प्रसन्न करने वाली, पूजनीय, चाहने योग्य, आनन्द देने वाली प्रकाशमान ज्योति है । दीनभावना से रहित उत्तम ज्ञान सम्पादन करने वाली धरती सी सहिष्णु और विद्याओं की ज्ञाता है । देवता भी उस नारी का पुण्य कथन करते हैं, वह नारी कभी भी मारने योग्य नहीं है। मानव-धर्म शास्त्रकार मनु ने प्रेम और शुश्रूषा करने में स्त्रियों को उत्तम माना है एवं उनके अधीन घरों को ही स्वर्ग की संज्ञा दी है अपत्यधर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा । दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितृणात्मनश्च ।। --मनु०, अध्याय ३/६३ मानव सृष्टि के प्रारम्भ में कवि प्रसाद की नारी श्रद्धा सेवा का सार दया, माया, ममता, मधुरिमा और अगाध विश्वास, संसार-सागर को पतवार रूप में समर्पित कर विश्व की चालिका बन जाती है, वहीं भुलों का सधार, उलझनों की सुलझन, जीवन के उष्ण विचारों का शीतलोपचार और दया, माया, ममता का बल लिये शक्तिमयी करुणा है, मूर्तिवान सेवा है। - पर इस सेवामूर्ति की सेवा-भूमिका भारतीय समाज में प्रमुख समाज के लघुसंस्कार परिवार के दारे में पुत्री, बहन, पत्नी, माता, दादी, नानी, मौसी, बुआ आदि विभिन्न पारिवारिक सम्बन्धों में ही आँकी गई। इनकी सेवा-सरहदें मानव से लेकर कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों तक फैली हैं। किसी स्त्री से यदि ये रक्त वंश के सम्बन्ध नहीं भी होते तो आयु, गोत्र, गाँव के नाते मना बना लिये जाते हैं। गाँव, जवार, पुरवे, मुहल्ले में कोई न कोई ऐसी विधवा परित्यक्ता, अनाथ, एकाकी दीदी, बुआ, दादी, काकी, ताई अवश्य होती थी जो जन्ति-जापे में, हारी-बीमारी, ब्याहशादी गमी में, सब समय सब जगह अपनी मूल्यहीन अयाचित सेवाएँ देती देखी जाती थी, मगर कभी भी उन्हें ग्राम सेविका का नाम तमगा नहीं मिला। किसी न किसी रिश्ते से ही पुकारा जाता रहा। आज के नगरीय समाज में नारी का यह स्वैच्छिक अयाचित सेवा रूप एक तरह से दुर्लभ ही हो गया है। विश्व ही परिवार है। इस ग्रामीण संस्कृति के विस्तार में लोक ने सेवामूति नारी के हाथ में सुबह-सुबह बुहारी और चक्की का हथेला, दोपहर को भोजन का थाल, छाक और बिजनी, शाम को तेलभरा दीपक और रात को जल की झारी देखी सौंपी है। हर पल, हर क्षण नूतन सृजन, रक्षण, पोषण और तृप्ति देना, रोग-शोक, मलिनता, अन्धकार भगाना उसके जिम्मे पड़ा है। ___ जन्म-मरण और लगन में लोक के विस्तृत सेवक समाज की क्या स्थिति है ? यहाँ दाई है, कुम्हार के साथ कुम्हारिन, नाई के साथ नाइन, धोबी के साथ धोबिन है, भंगी के साथ भंगिन है, लुहारिन, तेलिन, तमोलिन, कोरिन, मालिन, काछिन, बारिन, चमारिन, बढ़इन हैं। खेत-खलियान, बारी-फुलबारी में, जंगलों में, घानी-धानी पर निरन्तर सेवारत । ग्राम्य समाज की कोई भी सेवा नारीरहित नहीं, अयुग्म नहीं। हमारा लोक बिना मालिन-माली की और बिना फूली डाली की कल्पना तक नहीं करता, न उसका जीवन ही बिना नारी के एक पग चल पाता है। बीज से वृक्ष तक उसे नारी की सेवा का रस सिंचन चाहिये। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सेवा में नारी की भूमिका १०३ . वैसे तो समाज में सदैव से ही सेवा के अनेक रूप, प्रकार रहे हैं। कुछ सेवाएँ मूल्ययुक्त होते हुए भी मूल्यांकन से परे हैं, कुछ कही तो अमूल्य जाती हैं पर हैं दो कौड़ी की। कहीं मूक सेवा है, कहीं शाब्दिक, आर्थिक और कायिक सेवा है तो कहीं केवल कागजी और दिमागी सेवा ही है। पर इनमें दो रूप तो प्रमुख और सर्वमान्य हैं—पेशेवर सेवाएँ तथा स्वैच्छिक सेवाएँ। मध्ययुगीन भारतीय समाज में नारी की क्रीतदासी और वेतन-पोषण-भोगी-दोनों रूपों में सेवा भूमिका रही है। दासियों की बाकायदा खरीद-फरोख्त होती थी, दहेज में लिया जाता था, वे स्वामी की सम्पत्ति होती थीं। इस युग के साहित्य और इतिहास में राज-राजवाड़ों में सम्पन्न घरानों में चेरी, दासी, लौंडी, बाँदी, गोली, दूती, सेविका और धाय आदि सेवारत नारियों के प्रचुर उल्लेख हैं। सेविकाओं के ये अनेक पर्याय एक ओर जहाँ राजकीय तन्त्रमन्त्र षडयन्त्र में नारी के मनमाने उपयोग, क्रूर शोषण, उत्पीड़न और दासी से रानी के मान-सम्मान की दास्तान हैं तो दूसरी ओर पन्ना धाय की चरमोत्कर्षमयी कहानी भी। दक्षिणी प्रान्तों में अभी भी कुछ घरों में वंशानुगत घरेलू सेवाओं की परम्परा जीवित है। बौद्धयुगीन कलारूपों, भित्ति एवं गुफा चित्रों से भी ज्ञात होता है कि ये सेविकाएँ अनेक कला निपुण और नियत सेवा की विशेषज्ञा होती थीं। तदनुसार ही उनके नाम भी ताम्बूलवाहिनी, चंवरधारिणी, वीणा-वादिनी, सैरन्ध्री इत्यादि हुआ करते थे। पांडवों के अज्ञातवास-काल में स्वयं द्रौपदी ने विराटराज के यहां सैरन्ध्री का कार्य किया था। दासियों-सेविकाओं का एक वर्ग विविध धर्मों से सम्बद्ध भी था। जिसका मेरु सुमेरु है दक्षिण की देवदासी प्रथा। महाराष्ट्र में ये दासियाँ देवता की मुरली पुकारी जाती हैं। मन्दिरों की सेवा में ही इनका जीवन होम होता . है। इसी युग में बौद्ध भिक्षुणियों और जैन साध्वियों की त्याग-तपमयी और शैव-शाक्त मत की भैरवियों की जागरणमयी भूमिकाएँ भी हैं जो अविस्मरणीय हैं। वस्तुतः यह तो एक शोध का पृथक् विषय होगा। निष्कर्षत: इतना ही कहा जा सकता है कि मध्ययुग में नारी और उसकी सेवाएँ समाज में अजित उपलब्ध सम्पत्ति थीं, जीवन का कोई मूल्य नहीं । यह दूसरी बात है कि इस युग में और अब तक भी मध्यवर्ग की गृहणी की दासी कहलाने में गौरवान्वित थी। सांस्कृतिक पुनर्जागरण, स्वातन्त्र्य आन्दोलन और पश्चिमी सम्पर्क के आधुनिक युग में नारी विविध सामाजिक क्षेत्र में अधिकाधिक बाहर आई। वजित क्षेत्रों में प्रवेश हो उसके सेवा क्षितिज, फलक का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। महर्षि दयानन्द, विवेकानन्द और महात्मा गाँधी के सक्रिय प्रयत्नों ने उसे वस्तु से व्यक्ति में बदल मानवीय गौरव दिया। एक बार फिर से नारी की वही प्राचीन निस्पृह, निःस्वार्थ, करुणा, ममतामय मगर तेजस्वी सेवामूर्ति, राजनैतिकसामाजिक जीवन के हर केन्द्र, गली, सड़क, चौराहों पर आश्रमों, निराश्रय गृहों में, विराटरूप में साकार हो उठीं, जीवन का कोई क्षेत्र उससे अछूता न बचा। वास्तव में इस काल खण्ड की नारी सेवाएँ नारी के नारीत्व, आत्मविश्वास, स्वाभिमान की जागृति एवं रक्षा तथा पवित्रता और गौरव के स्वीकार के साथ जगह स्त्री-पुरुष सहयोग के अनलअक्षर हैं। कुछ नाम तो चरमत्याग, बलिदान और समर्पणभाव की अप्रतिम मिसाल हैं। आजादी के बाद वेतनभोगी सामाजिक सेवाओं में नारी का प्रवेश अधिकाधिक हुआ यहाँ तक कि पूर्ववजित क्षेत्र पुलिस, न्यायिक व सेना (केवल वायू सेना) सेवाओं में भी उसकी प्रविष्टि हुई। मगर साथ ही स्वैच्छिक सेवाएँ भी अधिकाधिक संस्थाप्रेक्षी हो गई । एक बार तो ऐसी सेवा संस्थाओं की बाढ़ सी आई लगी। इसके पीछे ईसाई मिशनरियों की प्रेरणा भी कम न थी पर मिशन की तापसियों (Nun) के उत्साह, करुणाभाव, कर्तव्यपरायणता और सच्चाई को ये छू भी न सकीं। यह कहा जा सकता है कि मिशन का मिशन ही भिन्न था । अधिकांश में नवधनाढ्य वर्ग, प्रतिष्ठित प्रशासनिक सेवाएँ व सेना अधिकारियों की पत्नियों के प्रभाव क्षेत्र ऐसे कल्याण तथा राहत सेवा कार्य उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रभामंडल अधिक बने, सहायता, सेवा-शुश्रूषा के स्रोत कम । निचले तबके तक तो कुछ पहुँच ही नहीं सका । वही बात कि रोशनी तो हुई पर फ्लैशलाइट की, कि फोटो उतरने के बाद अंधरा ही - 0 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड mor e ................... . ... ................... .................... अंधेरा । एक तरह से आजादी से पहले की निःस्वार्थ सेवाभाव की वह सुगन्ध ही गायब हो गई। सामाजिक कुप्रथा. कुरीतियों, रुढ़ियों के विरुद्ध जागरण काल में छिड़ी आदोलनपूर्ण सामाजिक सेवाएँ काफी हद तक पश्चिमी 'वीमेन्सलिब" की बन्द गली में भटक गई । यद्यपि सेका मूर्ति मदर टेरेसा, भूखों के लिए झूठन एकत्र करती बम्बाई की मेहता बहन जैसी स्वैच्छिक सेवाएँ अभी भी विद्यमान हैं, मगर ऐसे रूपों का उद्गम वही पिछला काल खण्ड है। पिछले डेढ़ दशक में राष्ट्रीय चरित्र पतन का सीधा प्रभाव समाज सेवाओं ने भुगता है समाज-सेवक और समाज सेविका शब्द का अवमूल्यन ही होता गया है। वैसे आज पुलिस, रेल्वे, टेलीफोन, विमान सेवाओं, सेल्सगर्ल, निजी सचिव, शिक्षा व राजस्व, औद्योगिकी, यान्त्रिकी आदि सभी सेवाओं में नारी है। समाजकल्याणकारी राज्य और ग्राम विकास की अवधारणाओं ने ग्रामसेवक के साथ ग्राम-सेविकाएँ भी दी हैं पर दुखती रग वही है कि क्या स्वतन्त्रता के तीन दशकों में भी हमारे समाज में ऐसा वातावरण बन सका है जहाँ नारी बिना शोषित हुए अपनी सेवाएं दे सके ? उसे स्त्रीत्व की रक्षा का अभय, सुरक्षा एवं उचित प्रतिदान के साथ अपना कार्य करने की छूट, खुलापन नसीब हो ? विभिन्न समाजसेवाओं में लगी, यहाँ तक कि आपादसेवामूर्ति अस्पताल की नसों से भी कितनी और कैसी-कैसी सेवाएं ली जाती हैं ये अब अखबारों की सुखियाँ हैं, आँखों देखी हैं, अज्ञात तथ्य नहीं।। हमारे समाज के अधीश नारी और नारी की आधी कार्यशक्ति इसी वातावरण और सुरक्षा की चिन्ता में बन्द रह जाती है, मिट जाती है कि महिला होकर अमुक-अमुक जगह कैसे जायँ, अमुक कार्य कैसे करें ? असामाजिक तत्त्वों का निरन्तर भय आज भी नारी द्वारा सेवा के अवसर और क्षेत्र संकुचित किये हैं। अभी टेलीफोन आपरेटरों ने मांग की, उन्हें रात की ड्यूटी न दी जाय, क्यों ? महिला डाक्टर द्वार पर तख्ती लगाती है ६ बजे के बाद विजिट संभव नही, क्यों ? ग्राम-सेविकाएं शिकायत करती हैं कि ग्राम सरपंच उन्हें निरीक्षण के लिये आये अधिकारियों की मेज पर परोस देते हैं, नहीं तो तरह-तरह की धमकियाँ, क्यों? गोंडा की निरीह नसें अपने आवास में गुण्डों से पीड़ित अपमानित होती है, क्यों? मंदा के आंसू थमने का नाम नहीं लेते-“बीबीजी, अब हम काम ना करी, हमार भी इज्जत आबरू हैसाहब.......?" नारी समाज सेवा के क्षेत्र से ये चीखते-चीरते घटना प्रमाण अनायास ही कलम की नोंक पर उतर आये हैं, ये और इन जैसी बहुत सी आये दिन होती अनपेक्षित घटनाएँ क्या घोषित करती हैं कि अभी भी हमारे समाज में सामन्तयुगीन संस्कारों के प्रेत जिन्दा हैं, कि अभी भी नारी भोग-मनोरंजन की वस्तु, यौनाकर्षण की छमछम गुड़िया है कि हमारा समाज अभी भी इस योग्य नहीं कि वह सेवाशक्ति की अजस्र स्रोत नारी की क्षमता का पूरा उपयोग कर सके, कि हमारे समाज ने सेवा की जागती मशाल, सामाजिक स्वास्थ्य की एक्सरे और कोबाल्ट किरण नारी से अपने देह मन प्राण को, गांव, नगर, राष्ट्र को रोगमुक्त कर स्वस्थ सबल नहीं बनाया, प्रकाशित नहीं किया, कालिख ही बटोरी है। हमारा समाज ऐसा कब होगा? क्या सचमुच हम ऐसा कुछ भी नहीं कर सकते कि नारी, नारी रूप में अक्ष ण्ण रहे, चौखट बाहर निरापद, निर्भीक भाव से समाज को अपनी सेवाएं दे सके ? Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज के विकास में नारी का योगदान साध्वी श्री मंजुला (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) प्रत्येक समाज नारी और पुरुष का समन्वित रूप है । न केवल पुरुषों से समाज बनता है और न केवल नारी से समाज की सष्टि होती है । यद्यपि महिला-समाज, पुरुष-समाज जैसे प्रयोग देखने को मिलते हैं किन्तु वहाँ एक सजातीय व्यक्तियों के समूह को समाज कहा जाता है। वास्तव में तो एक जैसी सभ्यता, संस्कृति, धर्म और परम्परा में पलने वाले परिवारों के समूह का नाम समाज है । इसीलिए तो कहा जाता है हिन्दुस्तानी समाज, जैन समाज, ओसवाल समाज, अग्रवाल समाज इत्यादि । आज विश्व में अनेक समाज हैं । कुछ समाज विकास के चरम शिखर पर पहुँचे हुए हैं। कुछ समाज विकासशील हैं तो कुछ समाज विकासाधीन हैं हर समाज अपना सर्वतोमुखी विकास चाहता है फिर भी चाह मात्र से कोई भी समाज विकसित नहीं हो सकता । समाज-विकास के लिए जिन तत्त्वों की आवश्यकता है वे तत्त्व जितने सक्रिय होंगे, समाज उतना ही जल्दी विकसित होगा। समाज के घटक तत्त्व अनेक हैं। उनमें नारी का भी अपना बहुत बड़ा योगदान है। जिस समाज की नारी जागत, कर्तव्यपरायण, सच्चरित्र, सुशील, विवेकशील, समर्पणपरायण, सहनशील और आशा जगानेवाली होती है वह समाज विश्व का अग्रणी समाज होता है । जिस समाज का महिलावर्ग आलसी, कर्तव्यच्युत, दुश्चरित्र और विवेकशन्य होता है वह समाज निश्चित ही पतन के गर्त में गिरता है। नारी एक बहुत बड़ी शक्ति है। लक्ष्मी सी सम्पन्नता, दर्गा सी शक्तिमता और सरस्वती का विद्याभण्डार सब कुछ नारी में विद्यमान हैं। श्री रामचन्द्र सीता की खोज में भटकते हुए उसकी विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहते हैं-सीता केवल पत्नी ही नही थी वह आवश्यकतावश अनेक रूप धारण कर लेती थी। खाना खिलाते समय वह मातहदया बन कर बड़े स्नेह और प्यार से खाना खिलाती थी। मन्त्रणा और परामर्श के समय वह मन्त्री को ही भुला देती थी। रमण के समय वह परम समपिता नारी का आदर्श दिखाती थी। गृह-कार्य करते समय एक दासी से भी बढकर श्रमशीला बन जाती थी। आत्मीयता और मन-बहलाव के समय मित्रों से भी बढ़कर सहारा देती थी। उन्मार्ग से बचाने के लिए वह प्रशिक्षक और गुरु का रूप धारण कर लेती थी। ऐसी सर्वगुणसम्पन्न सीता को खोकर मैं असहाय हो गया है। सीता के नारीत्व में राम जिन गुणों को देखते हैं, वह नारीत्व किस नारी में नहीं है ? केवल गुणों के विकास का तारतम्य है । सत्ता रूप से हर नारी में ऐसे सैकड़ों गुण हैं, जो पुरुष को पूर्ण बनाते हैं। यद्यपि नीतिकारों ने विशेषरूप से नारी के छ: गुणों का उल्लेख किया और उन छ: गुणों से युक्त नारी का मिलना दुर्लभ बताया है, पर वास्तव में नारी शतगुणा होती हैं और उन गुणों का विकास बड़ी आसानी से किया जा सकता है। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड SHOH आज पुरुषों के बराबर स्त्रियों के विकास को सभी अवसर दिये जा रहे हैं, यह समाज के व्यक्तियों की उदारता तो है ही साथ ही मानव समाज के कल्याण का एक बहुत बड़ा उपक्रम है । + महिला समाज को प्रशिक्षित करने का अर्थ है पूरी मानव जाति का सम्यक् संचालन । बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक नारी पुरुष का बहुत बड़ा आलम्बन बनती है। शैशवकाल में शिशुओं का संस्कार निर्माण एकमात्र मातृअधीन है। जिन बच्चों की माताएं स्वयं प्रशिक्षित नहीं हैं या बच्चों का पालन-पोषण मां के परिपार्श्व में नहीं होता है वे बच्चे संस्कार निर्माण की दृष्टि से बहुत कच्चे रह जाते हैं । पथभ्रष्ट युवकों का मार्गदर्शन भी नारी ही करती है जिन युवकों को सद्गृहिणी नसीब नहीं होती, वे अक्सर किसी दुव्यर्सन के दास बनकर अपना जीवन नष्ट कर देते हैं। वृद्धावस्था में नारी ही अपनी सेवा भावना से पुरुष को समाधिस्थ मनाती है। जिन पुरुष की वृद्धावस्था में नारी गुजरती है, वह असहाय हो जाता है। कभी-कभी तो आत्म-हत्या तक की बात सोच लेता है। नारी बचपन में माता, यौवन में पत्नी और वृद्धावस्था में सेविका बनकर सदा पुरुष का मार्गदर्शन करती आई है। जिस समाज में नारी को दलित, पतित और उपेक्षित समझा जाता है, उस समाज का पूर्ण विकास किसी भी स्थिति में संभव नहीं है। इतिहास साक्षी है, जिस समय समाज या देश में नारी का अवमूल्यन हुआ, उस समय उस समाज और उस देश का घोर पतन हुआ है । भारतवर्ष में और हिन्दू समाज में आज जो परम्परा -परायणता, शालीनता, मर्यादाशीलता, धर्म-परायणता देखी जाती है यह एकमात्र इसलिए है कि यहां के समाज ने प्रायः नारी को सम्मान दिया है और मातृशक्ति से प्रेरणा पाकर सदा अपने जीवन को तदनुरूप ढालता रहा है। यहाँ के हर धार्मिक नेता, समाजशास्त्री और दार्शनिक की यह धारणा रही है कि संसार स्त्रियों से ही संचालित है । इसी तथ्य को व्यक्त करने वाली एक घटना है कि एक बार बादशाह ने बीरबल से पूछा -पुरुष का दिमाग तेज है या स्त्री का ? तब बीरबल ने कहा- जहाँपनाह ! पुरुष जो कुछ करता है, स्त्रियों के संकेत से करता है । स्वयं कुछ करता ही नहीं है फिर मैं बताऊँ कि किसका दिमाग तेज है ? वादशाह को बात बी नहीं और वीरबल से कहा कि तुम अपने प्रतिपाद्य को प्रमाणित करो। वीरबल ने शहर के बाहर दो खेमे तैयार करवाए । एक खेमे पर बोर्ड लगवाया स्त्री-संचालित और दूसरे खेमे पर वोर्ड लगवाया स्वयं संवालित । फिर बादशाह से कहा कि शहर के सभी लोगों को निमन्त्रित करके आदेश दे दिया जाय जो स्वयंचालित हैं वे स्वचालित खेमे में चले जाएँ और जो स्त्रीसंचालित है वे स्त्री-संचालित येमे में चले जाएँ। बादशाह ने सभी लोगों को बुलाकर उपरोक्त आदेश दे दिया। दादशाह यह देखकर हैरान था कि शहर के सभी आदमी स्त्री संचालित में गए केवल एक आदमी दूसरे खेमे में था । बादशाह ने बीरबल को कहा कि वैसे तुम्हारी बात ठीक है फिर भी एक प्रतिशत व्यक्ति स्व-संचालित भी होते हैं। वीरबल ने कहा- जरा आप ठहरिए; और उस व्यक्ति से पूछा कि भाई ! जब सब आदमी स्त्री-संचालित खेमे में गए तो तुम अकेले स्वसंचालित खेमे में कैसे गए ? उस व्यक्ति ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया कि महाशय ! मेरी पत्नी ने कहा था कि जहाँ ज्यादा भीड़-भाड़ हो वहाँ मत घुसना । उस व्यक्ति का यह उत्तर सुनते ही बादशाह की समझ में आ गया कि वस्तुतः दुनियाँ स्त्री-संचालित ही है। इस आधार पर कल्पना की जा सकती है कि जब सारी सृष्टि स्त्री-संचालित है तो सृष्टि के विकास में उसका कितना बड़ा योगदान रहा है । जो देश समज संघ और परिवार नारी जाति की अवहेलना करता है यह बहुत बड़े विकास से वंचित तो रहता ही है साथ ही साथ स्त्री जाति के प्रति कृतघ्नता भी प्रकट करता है। विद्याभूमि राणावास में स्त्री और पुरुष दोनों के विकास क्षेत्र को समान महत्व दिया गया है, यह एक अनुकरणीय तथ्य है। . Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ...... .............. ...... ..... .. ........ .. .. .... ... .... . .. ..... जैन विश्वभारती, लाडनूं : एक परिचय 0 डॉ कमलेश कुमार जैन (जैन विश्व भारती, लाडनू) जैन विश्वभारती की अन्तश्चेतना के प्रेरणा-स्रोत हैं--जगत-बन्ध, अणुव्रत-अनुशास्ता युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी। जो महामानव होते हैं, उन्हें स्वप्न बहुत ही कम आते हैं और जो स्वप्न आते हैं, वे समय पाकर अवश्य ही साकार होते हैं । कई दशकों पूर्व आचार्यप्रवर को जो स्वप्न आया, आपने अपने अन्तर्मन में जो कल्पना संजोयी, उसी का साकार रूप है शिक्षा, शोध, साधना, सेवा और संस्कृति के विकास एवं अभ्यास की तपोभूमि यह जैन विश्वभारती, जिसका जन्म आज से करीब दस वर्ष पूर्व हुआ। आचार्यप्रवर के इस स्वप्न को संजोने में स्व० श्री मोहनलालजी बांठिया, श्री जब्बरमलजी भण्डारी, श्री संपतमलजी भूतोड़िया, श्री सूरजमलजी गोठी आदि समाज के कर्णधार, लब्धप्रतिष्ठित व्यक्तियों का भी पूरा हाथ रहा । मानव-जाति को अध:पतन से बचाने के लिए व्यावहारिक स्तर पर मानवता-निर्माण की योजना की क्रियान्विति का साकार रूप यह विश्वभारती का आज जो चित्र सामने है, वह आज से तीन चार वर्ष पहले इतना विकसित नहीं था । जहाँ परमाराध्य आचार्यप्रवर एवं युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी की सतत बलवती सात्त्विक व आध्यात्मिक प्रेरणा से भारती में अन्तश्चेतना स्वरूप ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की त्रिवेणी का अजस्र स्रोत निरन्तर प्रवाहित होने से प्राण-प्रतिष्ठा का महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान फलीभूत हो रहा है, वहाँ समाज के उदारचेता, दानवीर, श्रद्धानिष्ठ महानुभावों की विसर्जन-वृत्ति एवं अमूल्य सेवाओं से भारती का बाह्याकार उत्तरोत्तर विकासोन्मुख है। भारती में पंचसूत्री विकास अबाधगति से प्रवहमान है। इस संस्थान की विविध गतिविधियाँ व्यापक हैं। इसके अन्तर्गत अध्ययन-अध्यापन, शोध-अनुसन्धान, साहित्यसंस्कृति प्रकाशन, योग-साधना, सेवा-चिकित्सा, मानव-कल्याण और अन्तर्राष्ट्रीय सौमनस्य मुख्य रूप से आते हैं। इन सभी गतिविधियों का प्रयोजन भारतीय संस्कृति और विशेषतः जैन-संस्कृति से प्राप्त होने वाले मानवीय मूल्यों को प्रकाश में लाना है। राजस्थान राज्य में नागौर जिले के सुप्राचीन लाडनू नगर के उत्तरी छोर पर ६० एकड़ भूमि पर जैन विश्वभारती के विशाल परिसर का विकास किया जा रहा है। अब तक इसके सुरम्य हरित आकर्षक परिसर में ६ क्वार्टर, ७ भवन एवं कई कुटीर व लघु आवास-कक्षों का निर्माण हो चुका है। जैन विश्वभारती की वर्तमान और भावी प्रवृत्तियाँ विभाग क्रम से निम्न प्रकार हैं१ शिक्षा विभाग-महिला महाविद्यालय (ब्राह्मी विद्यापीठ) (क) प्राक् स्नातक शिक्षा (ख) स्नातक शिक्षा (ग) स्नातकोत्तर शिक्षा २. साहित्य एवं साहित्यिक विभाग (क) जैन विद्या में डिप्लोमा (ख) पत्राचार शिक्षा (क) प्राक Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ तृतीय खण्ड B+C+B+C+0+0+0+ ►+8+8+8+8+8+0 (ग) जैन विद्या के अध्यापकों का प्रशिक्षण क्रम (घ) आवासीय विद्यालय एवं तकनीकी प्रशिक्षण ( शिक्षा विकास में ) शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षा तथा साहित्य एवं सांस्कृतिक विभाग के अन्तर्गत ठोस कार्य किये जा रहे हैं। छात्र के बौद्धिक, नैतिक, चारिविक और विकास पर बल दिया गया है। अध्ययन और अध्यापन की आधुनिक तथा परम्परागत शैली का समन्वय कर एक नयी शैली का प्रयोग किया जा रहा है। यहाँ विश्व संस्कृति के परिप्रेक्ष्य जैनविद्या के मौलिक तत्वों के अध्यापन की विशेष व्यवस्था है। महिला महाविद्यालय और पारमार्थिक शिक्षण संस्था के पाठ्यक्रम में जैन दर्शन के गम्भीर अध्ययन की व्यवस्था को ध्यान में रखा गया है। यहाँ सभी स्तरों पर शैक्षणिक कार्यक्रमों में साधना (ध्यान) को अनिवार्य प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार किया गया है । जैन विश्वभारती विद्या के क्षेत्र में एक विशेष प्रयोग है। इसलिए विशेष योग्यता वाले विद्यार्थी पूर्ण योग्यता की शर्त विना ही इसके विशिष्ट का अध्ययन कर सकेंगे जहाँ जैन विद्या परीक्षाओं द्वारा प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में बालक-बालिकाएँ, युवक-युवतियाँ, तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लाभान्वित हो रहे हैं, जहाँ पत्राचार पाठमाला द्वारा सैकड़ों जैन दर्शन एवं धर्म के जिजा पर बैठे व्यापक तथा व्यवस्थित ढंग से हो अपने आपको मान रहे हैं। सभी स्तरों के विद्यार्थियों को चिन्तन की व भावाभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है । धर्म और दर्शन के विद्यावियों के लिए इस प्रकार की स्वतन्त्रता बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये विषय निरन्तर अपनी सीमाओं का विस्तार करते जाते हैं और आधुनिक पद्धति पर आधारित मौलिक तथा साहस चिन्तन को इनके लिए बहुत आवश्यकता है। इस दृष्टि से विद्याबियों के लिए पुस्तकालय (वर्धमान ग्रन्थागार) जो विभिन्न धर्मों के करीब दस हजार ग्रन्थ व पुस्तकों (जिनमें अमूल्य व दुष्प्राप्य हस्तलिखित व मुद्रित ग्रन्थ भी शामिल हैं) का सचमुच ही आगार है, उनके उपयोग की पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है। इन विभागों के अन्तर्गत अन्य प्रवृत्तियों के अलावा इस वर्ष अभी-अभी जय विद्यापीठ (आवासीय छात्रावास) की योजना और क्रियान्वित की गई है जिसका उद्देश्य छात्रों को सुसंस्कारी, आचारवान एवं प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के रूप में तैयार करना है । उक्त विभागों के अन्तर्गत चालू प्रवृत्तियों के अतिरिक्त छोटे-छोटे बच्चों को मनोवैज्ञानिक आधार पर परिचालित मोंटेसरी पद्धति पर आधारित शिक्षा देने की योजना को क्रियान्वित करना भी नितान्त अपेक्षित है। इस सम्बन्ध में करीब दो वर्ष पहले अधिकृत रूप से घोषणा की हुई है । शिक्षा विभाग के पदाधिकारी अध्यक्ष श्री राणमलजी जीरावला त्राह्मी विद्यापीठ के निदेशक श्री भै लालजी बरड़िया एवं छात्रावास के निदेशक श्री सदासुखजी कोठारी हैं जो कि समाज के सुपरिचित एवं प्रतिष्ठित अनुभवी कार्यकर्ता हैं | साहित्य एवं संस्कृति विभाग के पदाधिकारी श्री वन्दजी रामपुरिया अध्यक्ष श्री जैन विश्वभारती एवं निदेशक श्री गोपीचन्द चोपड़ा, संस्था के कुलसचिव हैं। दोनों ही शिक्षा-प्रेमी, समाजसेवी, ध्येयनिष्ठ व्यक्ति हैं। २. शोध-विभाग (अनेकान्त शोधपीठ ) अनुसन्धान के क्षेत्रों में जैन विश्वभारती का दृष्टिकोण समीक्षात्मक, तुलनात्मक और ऐतिहासिक है। जैनागम, धर्म और दर्शन, विज्ञान, गणित, भाषा आदि अनेक विषयों पर अनुसन्धानात्मक प्रवृत्तियां चल रही हैं, जिनके द्वारा जैन संस्कृति प्राकृत जैन साहित्य, जैन इतिहास जैन संस्कृति एवं पुरातत्त्व के दो में अपने शोध कार्यों द्वारा धमण संस्कृति के विकास में रचनात्मक योगदान मिलता है। इसके अन्तर्गत उच्चस्तरीय शोध ग्रन्थों का प्रकाशन भी होता है। जैन आगम अनुसंधान के अन्तर्गत अचार्यवर ने करीब पचवीस वर्षे पूर्व अनुसन्धान दृष्टि गम्भीर अध्ययन, उदार तथा असाम्प्रदायिक दृष्टिकोण से आगम सम्पादन का कार्य हाथ में लिया । इस विभाग द्वारा प्रकाशित आगम और आगमेतर ग्रन्थों ने विद्वानों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है । अब तक ग्यारह अंगों का मूलपाठ संशोधित होकर तीन भागों में ( अंगसुताणि) प्रकाशित हो चुका है। बारह उपांगों के मूल पाठ संशोधित होकर तैयार हो . Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्वभारती, लाडनूं एक परिचय चुके हैं। चार मूल, चार छे व आवश्यक का कार्य भी सम्पन्न हो चुका है। आगम शब्दकोश ( अंगसुताणि शब्द सूची ) प्रकाशित हो चुका है। बारह उपांग, चार मूल, चार छेद व आवश्यक की शब्द सूची भी तैयार करने का कार्य तीव्रगति से चालू है। १०६ जैन विश्वभारती के परिसर में पुस्तकालय के निकटस्थ के खुले वातावरण में अलग-अलग समूहों में बँटकर छादारों के जगह-जगह आगम-कोन के महत्वपूर्ण कार्य सम्पादन में अनेक विदुवी साध्वियां तथा स्नातकोत्तर कक्षा की साधिका शिक्षार्थिनी बहिनें जिस तन्मयता से उस कार्य में जुटी हैं यह पुराने युग के शिक्षण केन्द्रों की याद दिलाता है। इसके अतिरिक्त साध्वी श्री कनकश्रीजी, साध्वी श्रीयशोधराजी आदि सात विदुषी साध्वियों के संयोजकत्व में सात शोध मण्डलियों द्वारा शोध कार्य सम्पादित किया जाता है स्व० श्री मोहनलालजी बांठिया द्वारा जैन विश्वभारती के तत्वावधान में बनाये गये पुद्गलकोष, ध्यान कोष, लेश्या कोष आदि स्मरणीय उपलब्धि है। आचार्यश्वर युवाचार्यथी तथा सायों के अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त बौद्ध एवं जैन धर्म के प्र विद्वान डॉ० टोटिया आदि विशिष्ट विद्वानों द्वारा जैन आगमों का विश्व को तैयार किया जा रहा है। सम्प्रतिमुनिमहेन्द्रकुमारजी तथा डॉ० डांडिया द्वारा आचार पर ने तैयार किया गया है। जैन विश्वभारती द्वारा जैन ग्रन्थों में गणित, भौतिकी, रसायनयास्त्र प्राणीशास्त्र तथा ज्योतिष जैसे विज्ञानों से सम्बन्धित विपुल सामग्री उपलब्ध है। जैन विश्वभारती द्वारा इस क्षेत्र में अनुसन्धान कार्य को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। अनुसन्धाताओं द्वारा किये जाने वाले अनुदान कार्य का प्रकाशन इस संस्थान द्वारा प्रकासित "तुलसी प्रज्ञा" शोध पत्रिका में किया जाता है । जैन विश्वभारती प्रतिवर्ष अपने परिसर में तथा विभिन्न स्थानों पर जैन विद्या परिषद का आयोजन करती है। जैन तथा सम्बन्धित विषयों पर विभिन्न विश्वविद्यालय में अनुसन्धान करने वाले विद्वान् इस संगोष्ठी में भाग लेते हैं | अब तक दिल्ली, जयपुर, हिसार, लाडनूं आदि स्थानों पर ऐसी ७ गोष्ठियाँ हो चुकी हैं। दिल्ली की गोष्ठी में प्रसिद्ध जर्मन विद्वान डॉ० ऐल्सफोर्ड को जैन विद्यामनीवी की मानद उपाधि दी गई है। बाद में डॉ० ए० एन० उपाध्ये तथा संस्थान के वर्तमान अध्यक्ष श्री श्री नन्दजी रामपुरिया को भी इस उपाधि से विभूषित किया गया। इस परिषद का आठवां अधिवेशन १८, १९, २० अक्टूबर, १९८० को लाडनूं में हुआ था जिसमें अनेक विद्वानों ने भाग लिया था । एक अन्य योजना और क्रियान्वित की गयी है वह है तेरापंथ विद्वद्परिषद् । जिसका उद्देश्य है कि समाज के नियों को जैनाभिमुख कर जैन दर्शन जैन साहित्य, जैन इतिहास आदि विषयों में उनकी रुचि का विकास करना । कई विद्वान इस परिषद् के सदस्य भी बने हैं। इस विभाग के अध्यक्ष हैं-श्री धीषन्दजी बंगानी, जो इस संस्थान को तीन वर्ष मन्त्री के रूप में सेवा दे चुके है एवं वर्तमान में इसके उपाध्यक्ष और निदेशक हैं—अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वान डॉ० नथमल टॉटिया । शासन - समुद्र ( तेरापंथ इतिहास ) मुनि श्री नवरत्नमलजी तेरापंथ सम्प्रदाय में आज तक दीक्षित हुए करीब २२०० साधु-साध्वियों का पद्य व मध जीवन-रिन तैयार कर रहे हैं। पक्ष में संक्षिप्त जीवन परिचय है एवं विस्तृत रूप में वर्णन में है। इस संग्रह का नाम शासन समुह रखा गया है। यह कार्य भी प्रायः पूर्ण हो चुका है। मुनिश्री ने बड़ी निष्ठा एवं लगन से पूरा परिश्रम करके इसे तैयार किया है। जैन विश्वभारती के विविध आयामों में “शासन समुद्र" की रचना एक अनूठा आयाम है। जपाचार्य निर्वाण शताब्दी +6 जैन विश्वभारती द्वारा तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य (१८०३-१८८१) निर्वाण शताब्दी-समारोह के अवसर पर अनेकानेक योजनाओं के साथ निम्नांकित तीन महत्त्वपूर्ण एवं सुव्यवस्थित योजनाएँ क्रियान्वित की जा रही हैं . Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० र्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड (१) जयाचार्य स्मृति ग्रन्थ के रूप है आगम मंथन शीर्षक ग्रन्थ का प्रकाशन । (२) जयाचार्य-रचित समग्र साहित्य (लगभग तीन लाख पद्य) का प्रकाशन । (३) जयाचार्य-रचित प्रत्येक ग्रन्थ पर भूमिका एवं मूल्यांकन सम्बन्धी निबन्धों का प्रकाशन । परम श्रद्धेय आचार्यप्रवर, युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी एवं उनकी विद्वशिष्य मण्डली तो उपर्युक्त योजनाओं की सम्पूर्ति में संलग्न हैं ही--इनके अतिरिक्त समाज के अनेक विद्वानों का भी सक्रिय सहयोग मिला है और वे भी पूज्य गुरुदेव का आशीर्वाद प्राप्त कर इस महाकार्य में जुट गये हैं । जयाचार्य का सम्पूर्ण साहित्य तीस ग्रन्थों व ५२ खण्डों में प्रकाशित किया जायेगा। श्री जथाचार्य ने राजस्थानी भाषा के गद्य और पद्य साहित्य की अनेक विधाओं में विपुल साहित्य का सृजन किया था। उनकी एक कृति भगवती सूत्र की जोड़ राजस्थानी भाषा का विशालतम ग्रन्थ माना जाता है। साहित्य जगत् में उपरोक्त योजनाओं की क्रियान्विति वस्तुतः एक अनमोल देन मानी जायेगी। अनुवाद इस संस्था के अन्तर्गत आगम व अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अंग्रेजी तथा दूसरी भाषाओं में अनुवाद का विभाग रथापित किया गया है। अब तक अग्रेजी भाषा में निम्नांकित १० ग्रन्थों का अनुवाद किया जा चुका है.-- (१) जैन सिद्धान्त दीपिका आचार्यश्री तुलसी (२) जैन न्याय का विकास आचार्य महाप्रज्ञजी (३) मन के जीते जीत युवाचार्य महाप्रज्ञजी (४) मैं, मेरा मन, मेरी शान्ति युवाचार्य महाप्रज्ञजी (५) अणुव्रत के आलोक में आचार्यश्री तुलसी (६) दशवकालिक सूत्र : एक समीक्षा, एक अध्ययन आचार्यश्री तुलसी एवं युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी (७) उत्तराध्ययन सूत्र : एक समीक्षा, एक अध्ययन (८) भगवान महावीर आचार्यश्री तुलसी (६) आपारो वाचनाप्रमुख आचार्यश्री तुलसी संपादक एवं विवेचक युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी (१०) उत्तराध्ययन (मूल) इसके अतिरिक्त और भी कई ग्रन्थ प्रकाशनार्थ तैयार हैं और हो रहे हैं। समस्त विश्व में जैन आगम, जैन दर्शन, जैन इतिहास एवं जैन साहित्य को प्रचलित करने हेतु संस्थान द्वारा संपादित यह अनुवाद-कार्य भी कम महत्त्व का नहीं है। साधना विश्राम-तुलसी अध्यात्म नीडम् (प्रज्ञा प्रदीप) जैन विश्वभारती के कार्यक्रम में साधना को विशेष महत्त्व दिया गया है। अध्यात्म साधना की विशिष्ट पद्धतियों को व्यवहार्य बनाने के लिए भगवान महावीर द्वारा प्रयुक्त ध्यान-पद्धतियों के पुनरद्धार हेतु प्रयत्न किये जा रहे हैं। साधना के लिए एक बासठ कक्षीय भवन का निर्माण चौथमल वृद्धिचंद गोठी चेरीटेबल ट्रस्ट द्वारा प्रदत्त राशि से किया गया है जिसका नाम 'प्रज्ञाप्रदीप' रखा गया है। इसका मुख्य कार्य है साधना की पद्धतियों का प्रशिक्षण देना । प्रेक्षाध्यान इसके द्वारा स्वीकृत साधना पद्धति है । प्रेक्षाध्यान के अभ्यास हेतु प्रेक्षा-ध्यान शिविरों का आयोजन किया जाता है। ऐसे उन्नीस शिविर अब तक हो चुके हैं । इन शिविरों द्वारा विभिन्न प्रान्तों के हजारों व्यक्ति अब तक लाभान्वित हो चुके हैं और होते जा रहे है । जनता में नीडम् (साधना) की प्यास का अनुभव कर ध्वनि मुद्रित प्रवचनों Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्वभारती, लाडनूं एक परिचय : की व्यवस्था की गई है। इस केन्द्र में आत्मा, दिव्यात्मा, निद्रा-स्वप्न, अतीन्द्रिय ज्ञान, पुनर्जन्म, प्रेतात्मा, जातिस्मृति, लेश्या और कषाय आदि के सम्बन्ध में प्रायोगिक अनुसन्धान योजनाओं की क्रियान्विति की जाएगी। इसकी प्रयोगशाला में इस प्रकार के आधुनिकतम उपकरण होंगे जिनकी सहायता ने विधिवत् परीक्षण किया जा सके इसके लिए गंगाशहर के नागरिकों द्वारा अनुदान की घोषणा की गई है। यह 'प्रज्ञा प्रदीन' मानसिक चिकित्सा (अध्यात्म-चिकित्सा) की पद्धति के विकास के लिए उपयुक्त विशेषज्ञ के द्वारा रोग मुक्ति का आध्यात्मिक मार्ग प्रस्तुत करेगा । मानसिक चिकित्सा के इस केन्द्र में भय, आवेग एवं कषाय से उत्पन्न विभिन्न क्लेशों से मुक्ति मिल सकती है। इस केन्द्र के अन्तर्गत आसन, प्राणायाम तथा ध्यान की दैनिक कक्षाओं का भी आयोजन किया जाता है। "प्रेज्ञा-ध्यान" नाम से एक मासिक पत्रिका का नियमित प्रकाशन भी किया जा रहा है, जिसमें पानविषयक प्रेरणादायक सामग्री प्रकाशित होती है। १११ इस विभाग के अध्यक्ष हैं श्री जेठा भाई एस० जेवेरी एवं निदेशक हैं जैन विश्वभारती के नव निर्वाचित मंत्री परिहारानिवासी श्री श्रीचन्दजी सुराणा । दोनों ही महानुभाव ध्यान एवं योगसाधना में मंजे हुए एवं धानिष्ठ व्यक्ति है। सेवा विभाग (सेवाभावी कल्याण केन्द्र) इसका प्रमुख कार्य स्वास्थ्य केन्द्र की स्थापना है । आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को तो महत्त्व दिया ही जायेगा, उसके साथ ही प्राकृतिक चिकित्सा, होमियोपैथिक तथा एलोपैथिक पद्धतियाँ भी अपनायी जायेंगी । रोग मुक्ति के लिए योग-साधना का प्रमुख स्थान रहेगा। एलोपैथिक विभाग में चाड़वास के युवक डॉ० मंगलचन्द वैद की अमूल्य अवैतनिक सेवा उल्लेखनीय हैं। गरीब एवं असहाय रोगियों को निःशुल्क चिकित्सा सेवा का प्रावधान है । आयुर्वेदिक विभाग में वैद्य श्री सोहनलालजी अच्छी सेवा कर रहे हैं। आयुर्वेदिक औषधालय एवं रसायनशाला के माध्यम से प्रति मान लगभग छः सात हजार रोगी लाभान्वित होते हैं। सेवा विभाग की ही एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है कैंसर चिकित्सा विभाग -- इस विभाग में अब तक असाध्य समझे जाने वाले कैंसर रोग के प्रभावशाली उपचार की खोज में पर्याप्त सफलता मिली है । यह खोज दुर्लभ ग्रन्थों के आधार पर की गई है। कला संस्कृति विभाग सरदारशहर निवासी श्री रविप्रकाशजी दूगड़ द्वारा प्रदत्त मुखको ध्यान में रखकर आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित इसके अन्तर्गतका वीवी" का निर्माण डेढ़ लाख की राशि से किया जा रहा है सुन्दर तथा एक प्रिंटिंग प्रेस भी कलकत्ता की मित्र परिषद के द्वारा प्रदत्त आर्थिक सौजन्य से प्रारम्भ की जायेगी । संस्था के सर्वतोमुखी विकास हेतु चिन्तन एक परामर्शक मण्डल की योजना भी की गयी की एक बैठक गत दिनांक ३० व ३१ अगस्त १९८० को आयोजित की गई। इसमें विकास हेतु एक विकास समिति का गठन किया जाना निश्चित हुआ जिसके गठन का भार श्री गुलाबचंदजी चंडालिया व श्री शुभकरणजी दस्सानी को दिया गया । इस प्रकार हम देख रहे हैं कि जैतवारी अपनी चहुँमुखी प्रगति की ओर प्रगतिशील है बड़े हर्ष का विषय है कि इस बार श्री श्रीचंदजी रामपुरिया सर्वसम्मति से इसके पुनः अध्यक्ष चुने गये हैं। इससे भी अधिक हर्ष का विषय यह है कि अब इनके केहर में पड़िहारा निवासी श्री श्रीचंदजी सुराणा का सर्वम्मति से चुनाव कर शक्ति को नवी पीढ़ी को कार्यक्षेत्र में आगे लाने का कार्य प्रारम्भ हो चुका है। वयोवृद्ध अनुभवी हुए महानुभावों के निर्देशन में अगर इस प्रकार युवापीढ़ी को आगे आने का अवसर मिलता रहेगा तो वह संस्था जीघ्र ही सांगोपांग विकास कर सकेगी-ऐसा विश्वास है। +6 . Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D D D D D -.-. -. -. -. -. -.-. -.-.-.-.-.-.-.-. -.-. -.-.- -.- -.-.-.-....... . . जन साक्षरता और राष्ट्र-निर्माण 0 प्रो० बी० एल० धाकड़, (भू० पू० प्राध्यापक अर्थशास्त्र, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर; ७१, भूपालपुरा, उदयपुर) शिक्षा स्वयं में एक वरदान है । बालक एक ईश्वरीय देन है। मानव विकास एक मूलभूत आधारशिला है जिस पर किसी राष्ट्र का स्वरूप निर्भर करता है । वह विकास एक दीर्घकालीन प्रत्रिया है और उसमें एक विशाल कार्य क्रम अन्तनिहित है। ऐतिहासिक सन्दर्भ में शिक्षा मानव शक्ति के उन्नति की आधार भूमिका रही है। रोबर्ट रिसे (Robert Richey) के मत के अनुसार शिक्षा सामाजिक उत्थान की प्रमुख भूमिका रही है। बालक देश की सम्पत्ति है उसको सँवारना और योग्य बनाना एक बड़ी मनोवैज्ञानिक समस्या है, जिसको विकसित देशों ने बड़ी निष्ठा से समाधान किया है । बालक एक नव पौध है जिसको अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित करना एक राष्ट्रीय जिम्मेदारी है, आगे ये ही बालक देश का भविष्य उज्ज्वल करते हैं अन्यथा धूमिल भी कर सकते हैं। राष्ट्र की छवि उसी पर आधारित है। यह युग अन्तर्राष्ट्रीयता का युग है, और पृथक्वादी सिद्धान्त समयानुकूल नहीं है।। . रोबर्ट रिसे का यह भी अभिमत है कि बाल्यावस्था में ही बालक का जीवन निर्मित किया जा सकता है और उसकी विभिन्न सुप्त शक्तियाँ जैसे कला, अभिरुचि व धारणायें, उत्प्रेरणा व मूल्य को प्रभावित किया जा सकता है। इन शक्तियों के निर्माण में सामाजिक शक्तियाँ विशेष दायित्व रखती हैं। प्रत्येक बालक की अपनी आशायें व अपेक्षायें होती हैं और वे विभिन्नता लिये हुए होती हैं, कोई भौतिक समृद्धि का इच्छुक होता है या कोई सामाजिक प्रतिष्ठा का, तथा कोई राजनैतिक प्रभुत्व अथवा व्यावसायिक योग्यता का। वैसे वर्तमान तकनीकी युग में विकास क्रम के अवसर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहते हैं । ___ भारत की ओर दृष्टिपात करें तो यह एक प्राचीन संस्कृति का देश है, किन्तु वर्तमान युग में इसको निरक्षरता व गरीबी दोनों अधिकांश रूप में विरासत में मिली हैं । साम्राज्यवाद ने इसको झकझोरा है। दोनों ही दृष्टि से इसकी स्थिति सम्मानजनक नहीं है, यह औचित्य है । दोष-तिहाई जनसंख्या इस देश की निरक्षर है और आधी जनसंख्या गरीबी की सीमा की रेखा के नीचे है। अधिकांश भारतवासियों के लिये जीवन जीना और जीवन यापन प्रमुख समस्या बनी हुई है। सम्पन्नता कुछ तक ही निहित है, विपिन्नता सर्वत्र है । क्या इन दोनों समस्याओं का समाधान जन साक्षरता में विद्यमान है, यदि है तो इसमें अत्युक्ति नहीं है ? गरीबी और निरक्षरता दोनों अभिन्न हैं और विषाक्त चक्र से जुड़े हुए हैं । इनको तोड़ना नितान्त आवश्यक है। सही शिक्षा ही एक मात्र उपाय है जो जन समुदाय में सामाजिक जागरूकता का संचार कर सकती है और समाज का नवीन अभ्युदय संभावित हो सकता है। जापान का ज्वलन्त उदाहरण हैमारे समक्ष है। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में मेजी युग से साक्षरता अभियान प्रारम्भ किया गया और उसमें इतनी गति दी कि राष्ट्र आज शत-प्रतिशत शिक्षित है। शिक्षा विकास और संस्कृति की दृष्टि से एशिया में सर्वोच्च स्थान के साथ, विश्व के प्रमुखतम देशों में अपना स्थान रखता है। जापान के Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन साक्षरता और राष्ट्र-निर्माण ११३ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-................... ....................... . . .... लोगों की संकल्पता, क्रियात्मकता और देश-प्रेम एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करता है। लेखक ने जापान में स्वयं अनुभव किया। भारत भी इस ओर उन्मुख अवश्य है। समस्या भारत में दुहरापन की व्यवस्था है। ग्रामीण और शहरी अंचलों में मूल्यों तथा जीवन उद्देश्यों में बड़ा अन्तर है। समष्टिगत जन-चेतना में बहुत कमी है। आज कितने प्रतिशत लोग हैं जो देश-प्रेम से प्रेरित हैं और उसके जीवन के साथ अपना जीवन मिलाकर चलते हैं, मुश्किल से बीस प्रतिशत भी हों। वस्तुस्थिति यह है कि जीवन में परम्परागत जीवन की जड़ता अधिक दृष्टिगोचर होती है, शिक्षा ही एक मात्र माध्यम है जिसके द्वारा नवपरिवर्तन संभावित हो सकता है । वर्तमान में जो दोष समाज में पाये जाते हैं वे क्षुद्र राजनैतिक परिवेश के कारण बाहरी आवरण है। साक्षरता आन्दोलन की क्रियान्विति में अत्यधिक व्यय समाहित है। वह केवल राज्य के द्वारा सम्भव नहीं हो सकता, इसमें जन सहयोग भी पूरा अपेक्षित है। तब शिक्षा कार्य व आर्थिक विकास दोनों समानान्तर रूप ले सकते हैं। शिक्षाविद् जे० डी० सेठी का यह अभिमत है कि शिक्षा एक तटस्थ तत्त्व नहीं है अपितु त्वरित तत्त्व है। उनकी यह मान्यता है कि शिक्षा पद्धति सामाजिक-आर्थिक तन्त्र का प्रतिबिम्ब है। शिक्षा की बाध्यतायें ही समय तथा तकनीकी की चुनौतियों का सामना कर सकती हैं। शिक्षा एक अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है और यूनेस्को (Unesco) उससे सम्बद्ध है। शिक्षा संकट का अर्द्ध विकसित देशों में अधिक प्रभाव है। भारत भी उस संकट से कम प्रभावित नहीं है, क्योंकि विश्व की गरीब जनसंख्या का चालीस प्रतिशत इस देश में निवास करता है। गरीबी और निरक्षरता दोनों संलग्न होने से आम दृष्टिकोण में निराशावादी और निष्क्रियता की भावना अधिक घर कर गई है । अभी भी देश के भीतरी भाग प्राचीन व्यवस्था के जीते-जागते उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। परिवर्तन के अंश नवीनता को समर्शित नहीं कर सके हैं। इस युग में रहना है तो उसी परिवेश में जीना पड़ेगा, तब भारत विश्व समुदाय में समुचित स्थान प्राप्त कर सकता है। गहन क्षेत्रीय योजना के माध्यम से साक्षरता तथा कार्यात्मकता का समन्वित प्रयास आगे के मार्ग को प्रशस्त कर सकता है और वही लोक शिक्षण है। लोक शिक्षण से न केवल अज्ञानता व असाक्षरता ही दूर होती है, अपितु सम्बद्ध समस्याओं से प्रेरित जागृति का संचार स्वाभाविक होता है। संगठित ज्ञान व्यक्तिविशेष की वह शक्ति है जिसके द्वारा अपने क्रिया-कलापों में अनवरत सुधार लाया जा सकता है । कार्य-प्रणाली की परिधि इतनी व्यापक हो चुकी है कि जीवन क्रिया के विकास में अधिक सीमा निहित है। मानसिक विकास एक सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि है जिसके द्वारा प्रतिभा उजागर होती है और जीवन सुखमय बनता जाता है, जिससे पूर्व की पीढ़िये वंचित रही हैं। यूरोपियन पुनरुत्थान और फ्रान्स की क्रान्ति ने औद्योगिक क्रान्ति तथा लोकतन्त्र को जन्म दिया है। व्यक्तिवाद ने गहरी जड़ें जमाई हैं । आज व्यक्ति विकास की चरम सीमा की ओर उन्मुख है। मानव मस्तिष्क ने चकित कर दिया है कि आज वह अन्तरिक्ष में अपना प्रभुत्व स्थापित करने जा रहा है। भारत भी इस श्रेणी में आ गया है । अनुसन्धान करने वाली ऐसी विलक्षण प्रतिभायें जनजीवन से ही उभरती हैं और निखार पाती हैं । किसी वर्ग विशेष की बपौती नहीं हैं, प्रतिभायें देशव्यापी बिखरी पड़ी हैं, आवश्यकता है सुप्त प्रतिभाओं को उभारना । रूस में ऐसी प्रतिभाओं को सर्वाधिक सुविधायें उपलब्ध कराई जाती हैं और उनको सर्वोच्च स्थान देते हैं । ये देश के लिये वरदानस्वरूप हैं। भारत का शिक्षित बौद्धिक क्षमता के स्तर में समान दर्जा रखता है और इस देश में प्रतिभायें बिखरी हुई हैं। इस प्रकार की सम्भाव्यतायें अधिक विकसित व संयोजित होने पर राष्ट्र निर्माण सशक्त बनता है। गरीबी के अभिशाप से शीघ्र मुक्ति मिल सकती है और राष्ट्र स्वयं-स्फूर्ति अवस्था की ओर गतिमान होता है । इसके लिए जन शिक्षा क्षेत्र एक उर्वर भूमि है, जिसमें से देश के महान मस्तिष्क प्रस्फुटित होते हैं। दृष्टिकोण किसी समुदाय के आर्थिक अभ्युत्थान में विभिन्न शक्तियाँ कार्य करती हैं। क्रियात्मक अनुभव बालक और Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय खण्ड बालिकाओं के जीवन पर बहुत असर डालते हैं और वे कक्षा के चारदीवारी में संभव नहीं हैं। अनौपचारिक शिक्षा पूरक रूप से बालक के समग्र विकास को मुखरित करती है और वास्तविक जीवन जीने के लिये तैयार करती है। आधुनिक युग में किसी कार्य के निष्पादन में कला अथवा तकनीकी विकास की आवश्यकता होती है ताकि उचित व्यक्ति उचित कार्य में जुटाया जा सके, इस प्रकार का सामंजस्य पूर्ण रूप से अपेक्षित है। अन्धानुकरण के कारण पचास प्रतिशत शिक्षित बेरोजगारों को उपयुक्त कार्य नहीं मिल पा रहा है, यह एक विडम्बना है। पाठ्य-पुस्तकों की शिक्षा प्रणाली व्यावसायिक तन्त्र को असन्तुलित करती हैं और उससे तनावपूर्ण स्थिति उत्पन्न होती है। भारत भी इस रोग से पीड़ित है। वर्तमान में ब्रिटेन के जातीय दंगे भी बहुत कुछ इस असन्तुलन के परिचायक हैं। शिक्षा कार्यक्रम का विस्तार और उसमें विभिन्नतायें विकेन्द्रित ग्रामीण अर्थव्यवस्था से सम्बद्ध होनी चाहिये। जहाँ विकास प्रक्रियायें----जैसे ग्रामीण विद्युतीकरण, लघु सिंचाई, ग्रामीण उद्योग, कृषि उन्नति, स्वास्थ्य एवं आवासीय निर्माण-लागू की जा रही हैं । वहाँ इन कार्यों में साक्षर व प्रशिक्षित युवक लग सकें, यह हमारा लक्ष्य होना चाहिये । कुशल श्रम को शहरी क्षेत्रों से आयात नहीं करना पड़े। व्यावसायिक शिक्षा का प्रसार बड़ा उपयोगी हो सकता है और ग्रामीण विकास आत्म-निर्भरता की ओर अधिक अग्रसर हो सकेगा। स्कूल व स्थानीय लोगों का परस्पर सम्पर्क व सहयोग अपेक्षित है। उसके आधार पर स्थानीय शिक्षा सुविधायें और पाठ्य-प्रणाली में वांछित गति मिल सकेगी। जनतन्त्र में जन सहयोग शिक्षा प्रसार का अभिन्न अंग है। पारस्परिक सद्भावना के आधार पर समूचे वातावरण में स्फूति जागृत होती है। वह युग समाप्त हो गया कि रेगिस्तान में जन्म लेने वाला रेगिस्तान में ही मरे और पानी के बिना तड़के, जबकि व्यावसायिक स्थानान्तरण अधिक उपलब्ध है। शिक्षा को सर्वांगीण दर्जा देने के लिये सांस्कृतिक तत्त्व का समुचित समावेश होना चाहिये। इस दृष्टि से नैतिक शिक्षा मानवीय मूल्यों का उचित पोषण कर सकती है। धर्म निरपेक्षता का यह अर्थ नहीं कि शिक्षार्थी अपनी धार्मिक भावनाओं से दूर हटता जावे। यह एक दुष्काल है जिसके कारण उच्छृखलता में वृद्धि हुई है। आधुनिक गन्दे चलचित्रों ने असामाजिकता को प्रोत्साहन दिया है। जबकि अच्छे व उपयोगी चलचित्र, रेडियो प्रसारण, दूरदर्शन आदि माध्यम असाक्षरता-निवारण में बड़ा योगदान देते हैं। जनसंख्या वृद्धि एक भयंकर समस्या है। इसका निवारण भी शिक्षा का एक विशिष्ट अंग होना चाहिये । भावी भारत का स्वरूप इस समस्या से बहुत अधिक सम्बद्ध है। समस्याओं के निवारण में राष्ट्रीय भावना प्रमुख है। शिक्षा के पाठ्यक्रम और पद्धतियों इस लेख से समाविष्ट नहीं है। विश्लेषण भारत एक विकासशील राष्ट्र है। इसकी नीतियों व कार्यक्रमों में जन-कल्याण तथा प्रगतिशीलता परिलक्षित होती है। जब क्रियान्वयन की कसौटी के पक्ष पर आंशिक सफलता ही प्राप्त कर पाती है। कर्तव्यपरायणता और सत्यनिष्ठा वर्तमान वातावरण में दोषमुक्त नहीं हो सकती हैं। शिक्षा सुधार समयोपयोगी बनाने के लिये काफी चर्चायें सुनने व पढ़ने में आती हैं तथापि कोई ठोस परिणाम उभर कर नहीं आया है। मैकाले की शिक्षा पद्धति विशेष रूप से नौकरशाही वर्ग को तैयार करती रही है जो राष्ट्र के जन-जीवन से तटस्थ रही है।। इस समय देश में शैक्षिक व्यवस्था में लगभग छह लाख प्राथमिक शालायें, चालीस हजार माध्यमिक विद्यालय, पैंतालीस सौ महाविद्यालय एवं एक सौ बीस विश्वविद्यालय कार्यरत हैं। जिनमें पैतीस लाख शिक्षक हैं और कुल व्यय तीन हजार करोड़ रुपये हैं । इस मद में रक्षा व्यय से दूसरा स्थान है। गत तीस वर्षों में साक्षरता प्रतिशत में १६ से ३६ प्रतिशत तक वृद्धि हो पाई है। लोक-तन्त्र में प्रत्येक को शिक्षाध्ययन मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत जाता है लेकिन वर्तमान की स्थिति को धीमी गति कहना चाहिये। फिर भी जो भी शिक्षा दी गई वह बहुत कुछ एकांगी रही है और कहाँ तक जीवनोपयोगी रही है, विचारणीय प्रश्न है। क्या वर्तमान शिक्षा पद्धति ने निर्माणात्मक नागरिकता का सृजन किया है ? यह एक प्रश्नवाचक चिन्ह है जिसको नकारा नहीं जा सकता। कार्ल मार्क्स ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर एक कठोर प्रहार किया है। उसके कथनानुसार इस पंजीवादी Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन साक्षरता और राष्ट्र-निर्माण ११५ स्वतन्त्र शिक्षा प्रणाली ने व्यक्ति-व्यक्ति के बीच में खाई पैदा कर दी है, वर्ग संघर्ष को प्रश्रय दिया है और समस्त मानव समाज अमानवीय व्यवहार की ओर सतत बढ़ा जा रहा है। इससे विश्व-सुरक्षा व शान्ति खतरे में पड़ गई है । अपेक्षित है स्कूली शिक्षा तो अनिवार्य बने जिसमें वांछित सर्वांगीण विकास लक्षित रखा जाय और जीवनोपयोगी हो। दूसरी ओर उच्च शिक्षा चयनित व विवेकपूर्ण हो, उसमें डिगरियों की लोलुपता प्रमुखता न हो। गरीब वर्ग को उपयुक्त सुविधायें प्रदान की जा सके । शिक्षा में समायोजन लोकतन्त्र में भी आवश्यक है। राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम (१९७८-८३) निरक्षरता उन्मूलन की दृष्टि से एक विशाल कार्यक्रम देश के सम्मुख है। उसके पीछे दृढ़ संकल्पता, राष्ट्रीय भावना और साधन किस सीमा तक उपलब्ध है, यह एक विचारणीय प्रश्न है । हर अच्छे कार्यक्रम के साथ प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ स्वत: जन्म लेती हैं, कार्य में अवरोधक बन जाया करती हैं, देश के लिये, जनतन्त्र में एक दुर्भाग्य है। गरीब देश में उच्च शिक्षा में जो आधिक्य है वह एक जटिल प्रश्न है। जनतन्त्र में समाधान आसान नहीं है। साधनों का अपव्यय अवश्य है। यदि आधिक्य पर राशि व्यय की जाने वाली प्राथमिक शिक्षा पर जुटाई जाती तो सम्भवत: प्राथमिक शिक्षा बहुत पहले अनिवार्य हो सकती थी और ५ से १४ वर्ष के बालक को भी शिक्षा सुविधा सब को उपलब्ध हो सकती थी। अतिरिक्त उच्च शिक्षित बेरोजगारी का सामना देश को नहीं करना पड़ता और माँग और पूर्ति का सामंजस्य बना रहता। इस प्रकार के अपव्यय से तत्कालीन देश को हानि होती है। लागत लाभ सिद्धान्त के आधार पर सार्वजनिक राशि का आवंटन अधिक हितकर रहता है। उस स्थिति में जनता अधिक लाभान्वित हो सकती थी, यह मेरी मान्यता है। उपसंहार वर्तमान में शिक्षा प्रणाली में देश की विभिन्न शक्तियाँ कार्यरत हैं, जैसे शिक्षक, शिक्षार्थी, ग्रामीण युवक, सामाजिक कार्यकर्ता, कार्यरत फील्ड कर्मचारीगण, स्वैच्छिक संगठन तथा राज्य के शिक्षा तथा समाज कल्याण विभाग । मुख्य समस्या यह है कि अपने-अपने कार्य सम्पादन में किस सीमा तक अनुप्राणित हैं और राष्ट्रहित के प्रति किस सीमा तक समर्पित भावना से योगदान देते हैं। शिक्षा कार्यक्रम एक महान पुनीत अनुष्ठान है, उसी अनुरूप ऊपर से नीचे तक कार्य का सम्पादन हो तो वांछित सफलता अवश्य सम्भावी हो सकेगी। सुदृढ़, गतिशील व स्वस्थ शैक्षिक संरचना भारत के भावी स्वरूप को अधिक उजागर कर सकेगी। आदर्श एक बात है और उसका निर्वाह दूसरी बात है । शिक्षक व स्कूल पर हमारा ध्यान केन्द्रीभूत होना चाहिये। हमारी प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के शब्दों में-"हमारा प्रयास देश में प्रत्येक परिवार को आत्मनिर्भर बनाने का है।" यह एक सुन्दर स्वप्न है जिसको थोड़े समय में पूरा नहीं किया जा सकता। प्रारम्भ तो हो चुका है और इस उद्देश्य की प्राप्ति की ओर अग्रसर है। दूसरे शब्दों में पारिवारिक स्वावलम्बिता उपयोगी जनशिक्षा में अन्तनिहित है। अन्त में भारत राष्ट्र में एक शिक्षणशील समाज का निर्माण हो जिसका लक्ष्य आजीवन शिक्षा ग्रहण करना हो और विकास मार्ग में सतत अग्रसर रहे । असम्भव तो नहीं कहा जा सकता। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अह पंचहि ठाणेहि जेहि सिक्खा न लगभई। थंभा, कोहा, पमाएणं रोगेणाऽलस्सएण य ॥३॥ १. अभिमान, २. क्रोध, ३. प्रमाद, ४. रोग तथा ५. आलस्य इन पाँच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकती। अह अहिं ठाणेहि सिक्खासीले त्ति वुच्चई । अहस्सिरे सया दन्ते न य मम्ममुदाहरे ॥४॥ नासोले न विसीले, न सिया अइलोलुए। अकोहणे सच्चरए सिक्खासीले ति वुच्चई ।।५।। -उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन ११ १. जो हँसी-मजाक नहीं करता, २. जो सदा शान्त रहता है, ३. जो किसी का मर्म प्रकाशित नहीं करता है, ४. जो अशील-सर्वथा आचारहीन न हो, ५. जो विशील-दोषों से कलंकित न हो, ६. जो रसलोलुप-चटोरा न हो, ७. जो क्रोध न करता हो, ८. जो सत्य में अनुरक्त हो, -इन आठ गुणों वाला व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करने के योग्य होता है। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IIIMIL SA - १ ad YO2px -in राणी कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ धर्म, दर्शन एवं म खण्ड साधना Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार महामन्त्र:एक विश्लेषण युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी (तेरापंथ सम्प्रदाय) मो . कुछ लोग परम्परावादी होते हैं। वे परम्परा से प्राप्त अपने शास्त्रों को शाश्वत मानते चले जाते हैं। उन्हें उन शास्त्रों के पाठ और अर्थ में किसी अनुसन्धान की अपेक्षा अनुभूत नहीं होती। किन्तु अनुसन्धित्सु वर्ग इस बात को स्वीकार नहीं करता। वह शास्त्र के पाठ और अर्थ---दोनों का अनुसन्धान करता है और जो कुछ नया उपलब्ध होता है उसे विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत भी करता है। हमने आचार्य श्री तुलसी के वाचना-प्रमुखत्व में जैन-आगमों के अनुसन्धान का कार्य प्रारम्भ किया। एक ओर हम पाठ का अनुसन्धान कर रहे हैं तो दूसरी ओर अर्थ के अनुसन्धान का कार्य भी चलता है। आगमों के सूत्रपाठ की अनेक वाचनाएँ हैं और पन्द्रह सौ वर्ष की इस लम्बी अवधि में, अनेक कारणों से उनमें अनेक पाठ-भेद हो गये हैं । अर्थभेद उनसे भी अधिक मिलता है । अनुसन्धान का उद्देश्य है मूल-पाठ और मूल-अर्थ की खोज। अनेक प्रकार के पाठों और अर्थों में से मूल पाठ और अर्थ की खोज निकालना कोई सरल कार्य नहीं है। फिर भी मनुष्य प्रयत्न करता है और कठिन कार्य को सरल बनाने की उसमें भावना सन्निहित होती है। हमारा प्रयत्न और हमारी भावना मूल के अनुसन्धान की दृष्टि से प्रेरित है। इसीलिए इस कार्य के प्रति हमारा दृष्टिकोण सत्य के प्रति समर्पित है, किसी सम्प्रदाय या किसी विशेष विचार के प्रति समर्पित नहीं है। मंगलवाद दार्शनिक युग में शास्त्र के प्रारम्भ में मंगल, अभिधेय, सम्बन्ध और प्रयोजन-ये चार अनुबन्ध बतलाये जाते थे। आगम युग में इन चारों की परम्परा प्रचलित नहीं थी। आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही अपने आगम का प्रारम्भ करते थे। आगम स्वयं मंगल हैं। उनके लिए फिर मंगल-वाक्य आवश्यक नहीं होता। जयधवला में लिखा है कि आगम में मंगल-वाक्य का नियम नहीं है। क्योंकि परम आगम में चित्त को केन्द्रित करने से नियमत: मंगल का फल उपलब्ध हो जाता है। इस विशेष अर्थ को ज्ञापित करने के लिए भट्टारक गुणधर ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल नहीं किया। कसाय पाहुड, भाग १, गाथा १, पृ०६: एत्थ पुण णियमो णत्यि, परमागमुवजोगम्मि णियमेण मंगलफलोवलंभादो । वही, पृ०६: एतस्स अत्थविसेसस्स जाणावणळं गुणहरभडारएण गंथस्सादीए ण मंगलं कथं । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतर्थ खण्ड .. . ............................................................... आचारांग सूत्र के प्रारम्भ में मंगल-वाक्य उपलब्ध नहीं है । उसका प्रारम्भ-'सुयं मे आउसं ! तेण भगवया एवमक्खायं'-इस वाक्य से होता है। सूत्रकृतांग सूत्र का प्रारम्भ-'बुज्झेज्झ तिउट्टेज्जा'--इस उपदेश-वाक्य से होता है। स्थानांग और समवायांग सूत्र के आदि-वाक्य 'सुयं मे आउसं ! तेण भगवता एवमक्खातं'-हैं। भगवती सूत्र के प्रारम्भ में तीन मंगल वाक्य मिलते हैं १. नमो अरहताणं । नमो सिद्धाणं । नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं। नमो सव्व साहूणं २ नमो बंभीए लिवीए ३. नमो सुयस्स । ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा-इन सब सूत्रों का प्रारम्भ 'तेण कालेणं तेण समएणं'--से होता है। प्रश्नव्याकरण सूत्र का आदि-वाक्य है---'जम्बू ।' विपाकसूत्र का आदि-वाक्य वही-'तेण कालेणं तेण समएणं' है। जैन आगमों में द्वादशांगी स्वत: प्रमाण है। यह गणधरों द्वारा रचित मानी जाती है। इसका बारहवाँ अंग उपलब्ध नहीं है । उपलब्ध ग्यारह अंगों में, केवल भगवती सूत्र के प्रारम्भ में मंगल-वाक्य हैं, अन्य किसी अंग-सूत्र का प्रारम्भ मंगल-वाक्य से नहीं हुआ है। सहज ही प्रश्न होता है कि उपलब्ध ग्यारह अंगों में से केवल एक ही अंग में मंगल-वाक्य का विन्यास क्यों ? कालान्तर में मंगल-वाक्य के प्रक्षिप्त होने की अधिक संभावना है। जब यह धारणा रूढ़ हो गई कि आदि, मध्य और अन्त में मंगल-वाक्य होना चाहिए तब ये मंगल-वाक्य लिखे गये। __भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक के प्रारम्भ में भी मंगल-वाक्य उपलब्ध होता है 'नमो सुयदेवयाए भगवईए'। अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या नहीं की है। इससे लगता है कि प्रारम्भ के मंगल-वाक्य लिपिकारों या अन्य किसी आचार्य ने वृत्ति की रचना से पूर्व जोड़ दिये थे और मध्यवर्ती मंगल वृत्ति की रचना के बाद जुड़ा । पन्द्रहवें अध्ययन का पाठ विघ्नकारक माना जाता था, इसलिए इस अध्ययन से साथ मंगल-वाक्य जोड़ा गया, यह बहुत संभव है। मंगलवाक्य के प्रक्षिप्त होने की बात अन्य आगमों से भी पुष्ट होती है। दशाश्रु तस्कन्ध की वृत्ति में मंगल-वाक्य के रूप में नमस्कार मंत्र व्याख्यात है, किन्तु चूणि में वह व्याख्यात नहीं है। इससे स्पष्ट है कि चूणि के रचनाकाल में वह प्रतियों में उपलब्ध नहीं था और वृत्ति की रचना से पूर्व वह उनमें जुड़ गया था। कल्पसूत्र (पर्दूषणाकल्प) दशाश्रुतस्कन्ध का आठवाँ अध्ययन है। उसके प्रारम्भ में भी नमस्कार मंत्र लिखा हुआ मिलता है । आगम के अनुसन्धाता मुनि पुण्यविजयजी ने इसे प्रक्षिप्त माना है। उनके अनुसार प्राचीनतम १. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा० १३, १४ : तं मंगलमाईए मज्झेपज्जंतए य सत्थस्स । पठमं सत्थस्साविग्धपारगमणाए निद्दिठं ॥ तस्सेवाविग्घत्थं मज्झिमयं अंतिमं च तस्सेव । अव्वोच्छित्तिनिमित्त सिस्सपसिस्साइवंसस्स। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार महामन्त्र : एक विश्लेषण ११६ ताडपत्रीय प्रतियों में यह उपलब्ध नहीं है और वृत्ति में भी व्याख्यात नहीं है। यह अष्टम अध्ययन होने के कारण इसमें मध्य मंगल भी नहीं हो सकता । इसलिए यह प्रक्षिप्त है।' प्रज्ञापना सूत्र के प्रारम्भ में भी नमस्कार मन्त्र लिखा हुआ मिलता है, किन्तु हरिभद्रसूरि और मलयगिरिइन दोनों व्याख्याकारों के द्वारा यह व्याख्यात नहीं है। प्रज्ञापना के रचनाकार श्री श्यामार्य ने मंगल-वाक्यपूर्वक रचना का प्रारम्भ किया है। इससे ज्ञात होता है कि ई० पू० पहली शताब्दी के आस-पास आगम-रचना से पूर्व मंगल-वाक्य लिखने की पद्धति प्रचलित हो गई। प्रज्ञापनाकार का मंगल-वाक्य उनके द्वारा रचित है। इसे निबद्ध-मंगल कहा जाता है । दूसरों के द्वारा रचे हुए मंगल-वाक्य उद्धत करने को 'अनिबद्ध मंगल' कहा जाता है। प्रति-लेखकों ने अपने प्रति-लेखन में कहीं-कहीं अनिबद्ध-मंगल का प्रयोग किया है । इसीलिए मंगल-वाक्य लिखने की परम्परा का सही समय खोज निकालना कुछ जटिल हो गया। नमस्कार-महामन्त्र के पाठ-भेद नमस्कार मन्त्र का बहुप्रचलित पाठ यह है--णमो अरहताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवझायाणं, णमो लोएसव्वसाहूणं । प्राचीन ग्रन्थों में इसके अनेक पदों एवं वाक्यों के पाठान्तर गिलते हैंणमो--नमो अरहंताणं-अरिहंताणं, अरुहंताणं । आयरियाणं-आइरियाणं । णमो लोए सव्वसाहूणं-णमो सन्य साहूणं । नमो अरहंतानं, नमो सव-सिधानं । प्राकृत में आदि में 'न' का 'ण' विकल्प होता है। इसलिए 'नमो' णमो' ये दोनों रूप मिलते हैं। प्राकृत में 'अहं,' धातु के दो रूप बनते हैं--अरहइ, अरिहइ । 'अरहताणं' और 'अरिहंताणं' ये दोनों 'अर्ह,' धातु के शतृ प्रत्ययान्त रूप हैं । 'अरहंत' और 'अरिहंत'--इन दोनों में कोई अर्थभेद नहीं है। व्याख्याकारों ने 'अरिहंत' शब्द को संस्कृत की दृष्टि से देखकर उसमें अर्थभेद किया है। अरिहंत--शत्रु का हनन करने वाला। यह अर्थ शब्दसाम्य के कारण किया गया है । आवश्यकनियुक्ति में यह अर्थ उपलब्ध है। अर्हता का अर्थ इसके बाद किया गया २ . १. कल्पसूत्र (मुनि पुण्यविजयजी द्वारा संपादित), पृ०३ : कल्पसूत्रारम्भे नेतद् नमस्कारसूत्ररूपं सूत्रं भूम्ना प्राचीनतमेषु ताडपत्रीयादर्शषु दृश्यते, नापि टीकाकृदादिभिरेतदादृतं व्याख्यातं वा, तथा चास्य कल्पसूत्रस्य दशाश्रुतस्कन्धसूत्रस्याष्टमाध्ययनत्वान्न मध्ये मंगलरूपत्वेनापि एतत्सूत्रं संगत मिति प्रक्षिप्तमेवैतद् सूत्रमिति । प्रज्ञापना, पद १, गाथा १: ववगयजरमरण भए सिद्ध अभिवंदिऊण तिविहेणं । वंदा मि जिणवरिदं, तेलोक्कगुरुं महावीरं ॥ ३. धवला, षट्खडागम १।१।१, पृ० ४२ : तं च मंगलं दृविहं, णिबद्धमणिबद्धमिदि । तथ्य णिबद्ध णाम, जो सुत्तस्मादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवदाणमोक्कारो, तं णिबद्धमंगलं । जो सुत्तस्मादीए सुत्तकत्तारेण ण णिबद्धो देवदाणमोकारो, तमणिबद्ध पंगलं । ४. आवश्यकनियुक्ति, गाथा ६१६६२०: इंदियविसयकसाये परीसहे वेयणाओ उवसग्गे। एए अरिणो हंना, अरिहंता तेण बुच्चंति ।। अट्ठविहं वि अ कम्मं, अरिभूअं होइ सव्वजीवाणं । तं कम्ममरि हंता अरिहंता तेण वुच्चंति ।। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड -.-. -.-. --.-.-. -.-.-.-.-. -.-. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. है।' इस अर्थभेद के होने पर 'अरहंत' और 'अरिहंत' ये दोनों एक ही धातु के दो रूपों से निष्पन्न दो शब्द नहीं होते किन्तु भिन्न-भिन्न अर्थ वाले दो शब्द बन जाते हैं। आवश्यकसूत्र के नियुक्तिकार ने अरिहंत, अरहंत के तीन अर्थ किए हैं---- १. पूजा की अर्हता होने के कारण अरहंत । २. अरि का हनन करने के कारण अरिहंत । ३. रज-कर्म का हनन करने के कारण अरिहंत । वीरसेनाचार्य ने 'अरिहंताणं' पद के चार अर्थ किये हैं-- १. अरि का हनन करने के कारण अरिहंत । २. रज का हनन करने के कारण अरिहंत । ३. रहस्य के अभाव से अरिहंत ।। ४. अतिशय पूजा की अर्हता होने के कारण अरिहंत । प्रथम तीन अर्थ अरि+हन्ता-इन दो पदों के आधार पर किए गए हैं और चौथा अर्थ अर्ह, धातु के 'अरहंता' पद के आधार पर किया गया है । भाषायी दृष्टि से 'नमो' और 'णमो' तथा 'अरहंताणं' और 'अरिहंताणं' इन दो में मात्र रूपभेद है, किन्तु मन्त्रशास्त्रीय दृष्टि से 'न' और 'ण' के उच्चारण की भिन्न-भिन्न प्रतिक्रिया होती है । 'ण' मूर्धन्य वर्ण है । उसके उच्चारण से जो घर्षण होता है, जो मस्तिष्कीय प्राण-विद्युत् का संचार होता है, वह 'न' के उच्चारण से नहीं होता। अरहताणं के अकार और अरिहंताणं के इकार का भी मन्त्रशास्त्रीय अर्थ एक नहीं है । मन्त्रशास्त्र के अनुसार अकार का वर्ण स्वर्णिम और स्वाद नमकीन होता है तथा इकार का वर्ण स्वर्णिम और स्वाद कषैला होता है । अकार पुल्लिग और इकार नपुंसकलिग होता है। अरुहंताणं यह पाठ-भेद भगवती सूत्र की वृत्ति में व्याख्यात है । वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने इसका अर्थ अपुनर्भव किया है। जैसे बीज के अत्यन्त दग्ध हो जाने पर उसके अंकुर नहीं फूटता, वैसे ही कर्म-बीज के अत्यन्त दग्ध हो जाने पर भवांकुर नहीं फूटता ।'५ १. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १२१: अरिहंति वंदणनमंसणाणि अरिहंति पूअसक्कारे । सिद्धिगमणं च अरिहा अरहंता तेण वुच्चंति ॥ आवश्यकनियुक्ति, गाथा ६२२ : देवासुरमणुएसु अरिहा पूआ सुरुत्तमा जम्हा । अरिणो इयं च हंता अरहंता तेण वुच्चंति ॥ ३. धवला, षटखंडागम १।१।१, पृष्ठ ४३-४५ : अरिहननादरिहन्ता । ....."रजोहननाद् वा अरिहन्ता । ......"रहस्याभावाद् वा अरिहन्ता । ....... अतिशयपूजाह त्वात् वार्हन्तः । ४. विद्यानुशासन, योगशास्त्र, पृ०६०,६१. ५. भगवती वृत्ति, पत्र ३ : अरुहंताणमित्यपि पाठान्तरं, तत्र अरोहद्भ्यः, अनुपजायमानेभ्यः क्षीणकर्मबीजत्वात्, आह च-. दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुर: ॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया है। आवश्यक नियंक्ति और धवला में 'अरहंत' पाठ व्याख्यास नहीं है। इससे प्रतीत होता है कि यह पाठान्तर उनके उत्तरकाल में बना है। ऐसी अनुश्रुति भी है कि यह पाठान्तर तमिल और कन्नड़ भाषा के प्रभाव से हुआ है । किन्तु इसकी पुष्टि के लिए कोई प्रमाण प्राप्त नहीं है । अरहा, अरहन्त अरिहा अरुहा अलिहंताणं नमस्कार महामन्त्र : एक विश्लेषण अरह शब्द का प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में मिलता है। उन्होंने अरहंत' और 'अरहंत' का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है। वे दक्षिण के थे, इसलिये अरहंत' के अर्थ में 'अरह' का प्रयोग दक्षिण के उच्चारण से प्रभावित है, इस उपपत्ति की पुष्टि होती है । बोध प्राभृत में उन्होंने 'अर्हत्' का वर्णन किया है । उसमें २८, २६, ३०, ३२ इन चार गाथाओं में 'अरहंत' का प्रयोग है और ३१, ३४, ३६, ३६, ४१ इन पाँच गाथाओं में 'अरुह' का प्रयोग है। आचार्य हेमचन्द्र ने उपलब्ध प्रयोगों के आधार पर अर्हत् शब्द के तीन रूप सिद्ध किये हैं—अरुहो, अरहो, अरिहो । अरुहन्तो, अरहन्तो, अरिहन्तो ।' डा० पिसेल ने अरिहा, अरहा, अरुहा और अलिहन्त का विभिन्न भाषाओं की दृष्टि से अध्ययन प्रस्तुत -अर्धमागधी - शौरसेनी -- जैन महाराष्ट्री - मागधी १२१ आयरियाणं- आइरियाणं आगम साहित्य में यकार के स्थान में इकार के प्रयोग मिलते हैं—वयगुप्त - वइगुप्त, वयर — वर । इस प्रकार 'आयरिय' और 'आइरिय' में रूप-भेद है । +++ णमो लोए सव्व साहूणं णमो सव्वसाहूणं उपलब्ध नमस्कार मन्त्र का पाँचवाँ पद, अभयदेवसूरि के अनुसार भगवती सूत्र के मंगलवाक्य के रूप में णमो म साहूणं'। णमो लोए सव्यमाहूणं" का उन्होंने पाठान्तर के रूप के उल्लेख किया है- णमो लोए मन्दसाहूणं ति क्वचित्पाठ: 13 इस पाठान्तर की व्याख्या में उन्होंने बताया है कि 'सर्व' शब्द आंशिक सर्व के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है । अत: परिपूर्ण सर्व का बोध कराने के लिए इस पाठान्तर में 'लोक' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'लोक' और 'सर्व' इन दोनों शब्दों के होने पर यह प्रश्न होना स्वाभाविक ही है और अभयदेवसूरि ने इसी का समाधान किया है । १. हेम शब्दानुशासन, ८ / २ / १११ उच्चार्हति । २. कम्पेरेटिव ग्रामर आफ दी प्राकृत लेंग्वेजेज --- पिशल, १४०, पृ० ११३. २. भगवती वृत्ति पत्र ४. ५. हस्तलिखित वृत्ति पत्र ४ 1 दशा तस्कन्ध के वृत्तिकार ब्रह्मऋषि ने भी ‘णमो लोए सव्वसाहूणं' को पाठान्तर के रूप में व्याख्यात किया है । वे इसकी व्याख्या में अभयदेवसूरि का अक्षरशः अनुकरण करते हैं । ५ ४. भगवती वृत्ति पत्र ४ तत्र सर्वशब्दस्य देश सर्वतायामपि दर्शनादपरिशेष सर्वतोपदर्शनार्थमुच्यते 'लोके'- मनुष्यलोके न तु गच्छादी ये सर्वसाधवस्तेभ्यो नमः । O . Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड हमने अभयदेवसूरि की वृत्ति के आधार पर भगवती सूत्र में णमो सब्यसाहूणं' को मूलपाठ और णमो लोए सव्वसाहूणं' को पाठान्तर स्वीकृत किया है । इसका यह अर्थ नहीं है कि णमो लोए सवसाहूणं' सर्वत्र पाठान्तर है। आवश्यक सूत्र में हमने ‘णमो लोए सब्यसाहूणं' को ही मूलपाठ माना है। हमने आगम-अनुसन्धान की जो पद्धति निर्धारित की है, उसके अनुसार हम प्राचीनतम प्रति या चूणि, वृत्ति आदि व्याख्या में उपलब्ध पाठ को प्राथमिकता देते हैं। सबसे अधिक प्राथमिकता आगम में उपलब्ध पाठ को देते हैं। आगम के द्वारा आगम के पाठ संशोधन में सर्वाधिक प्रामाणिकता प्रतीत होती है। इस पद्धति के अनुसार हमें सर्वत्र णमो लोए सव्वसाहूणं' इसे मूलपाठ के रूप में स्वीकृत करना चाहिए था, किन्तु नमस्कार मन्त्र किस आगम का मूलपाठ है, इसका निर्णय अभी नहीं हो पाया है। यह जहाँ कहीं उपलब्ध है वहाँ ग्रन्थ के अवयवरूप में उपलब्ध नहीं है, मंगलवाक्य के रूप में उपलब्ध है । आवश्यकसूत्र के प्रारम्भ में नमस्कार मन्त्र मिलता है। किन्तु वह आवश्यक का अंग नहीं है। आवश्यक के मूल अंग मामायिक, चतुर्विशतिस्तव आदि हैं । इस दृष्टि से भगवती सूत्र में नमस्कार मन्त्र का जो प्राचीन रूप हमें मिला वही हमने मूलरूप में स्वीकृत किया । अभयदेवसूरि की व्याख्या से प्राचीन या समकालीन कोई भी प्रति प्राप्त नहीं है। यह वृत्ति ही सबसे प्राचीन है। इसलिए वृत्तिकार द्वारा निर्दिष्ट पाठ और पाठान्तर का स्वीकार करना ही उचित प्रतीत हुआ। णमो सव्वसाहूणं' पाठ मौलिक है या 'णमो लोए सव्वसाहूणं' पाठ मौलिक है-इसकी चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है। यहाँ इतनी ही चर्चा अपेक्षित है कि अभयदेवसूरि को भगवती सूत्र की प्रतियों में णमो सब्बसाहूणं' पाठ प्राप्त हुआ और क्वचित् 'णमो लोए सव्वसाहूणं' पाठ मिला। णमो अरहंतानं-नमो सव-सिधानं यह पाठान्तर खारवेल के हाथीगुफा लेख में मिलता है।' इसमें अन्तिम नकार भी णकार नहीं है, सिद्ध के साथ सर्व शब्द का योग है और 'सिधानं' में द्वित्व 'ध' प्रयुक्त नहीं है। यह पाठ भी बहुत पुराना है, इसलिए इसे भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता। नमस्कार महामन्त्र का मूल स्रोत नमस्कार महामन्त्र आदि-मंगल के रूप में अनेक आगमों और ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अभयदेवसूरि ने भगवती सूत्र की वृत्ति के प्रारम्भ में नमस्कार महामन्त्र की व्याख्या की है। प्रज्ञापना के आदर्शों में प्रारम्भ में नमस्कार महामन्त्र लिखा हुआ मिलता है। किन्तु मलयगिरि ने प्रज्ञापना वृत्ति में उसकी व्याख्या नहीं की। षट्खण्ड के प्रारम्भ में नमस्कार महामन्त्र मंगलसूत्र के रूप में उपलब्ध है। इन सब उपलब्धियों से उसके मूल स्रोत का पता नहीं चलता। महानिशीथ में लिखा है कि पंचमंगल महाश्रु तस्कंध का व्याख्यान सूत्र की नियुक्ति, भाष्य और चूणियों में किया गया था और वह व्याख्यान तीर्थंकरों के द्वारा प्राप्त हुआ था। कालदोष से वे नियुक्ति, भाष्य और चूणियाँ विच्छिन्न हो गई। फिर कुछ समय बाद वज्रस्वामी ने नमस्कार महामन्त्र का उद्धार कर उसे मूल सूत्र में स्थापित किया। यह बात वृद्ध सम्प्रदाय के आधार पर लिखी गई है। इससे भी नमस्कार मन्त्र के मूल स्रोत पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता । १. प्राचीन भारतीय अभिलेख, द्वितीय खण्ड, पृष्ठ २६. २. इओ य वच्चंतेणं कालेणं समएणं महड्ढिपत्ते पयाणुसारी वइरसामी नाम दुवालसंगसुअहरे समुप्पन्ने। तेण य पंच मंगल महासुयक्खंधस्स उद्धारो मूल-सुत्तस्स मज्झेलिहिओ...""एस वुड्ढसंपयाओ। एयं तु जं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स वक्खाणं तं महया पबंधेण अणंतगयपज्जवेहि सुत्तस्स य पियभूयाहि णिजुत्तिभासचुन्नीहिं जहेव अणंतणाणदंसणधरेहिं तित्थयरेहि वक्खाणियं समासओ वक्खाणिज्जतं आमि । अहन्नयाकालपरिहाणिदोसेणं ताओ णिजुत्तिभास-चुन्नीओ वुच्छिन्नाओ। -महानिशीथ, अध्ययन ५, अभिधान राजेन्द्र, पृ० १८३५ । 0 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार महामन्त्र : एक विश्लेषण १२३ आवश्यकनियुक्ति में वज्रसूरि के प्रकरण में उक्त घटना का उल्लेख भी नहीं है। वज्रसूरि दस पूर्वधर हुए हैं। उनका अस्तित्वकाल ई०पू० पहली शताब्दी है। शय्यं भवसूरि चतुर्दश पूर्वधर हुए हैं और उनका अस्तित्वकाल ई० पू० ५-६ शताब्दी है। उन्होंने कायोत्सर्ग को नमस्कार के द्वारा पूर्ण करने का निर्देश किया है। दोनों चूणियों और हारिभद्रीय वृत्ति में नमस्कार की व्याख्या ‘णमो अरहताणं' मन्त्र के रूप में की है। आचार्य वीरसेन ने षट्खंडागम के प्रारम्भ में दिये गये नमस्कार मन्त्र को निबद्ध-मंगल बतलाया है। इसका फलित यह होता है कि नमस्कार महामन्त्र के कर्ता आचार्य पुष्पदन्त हैं। आचार्य वीरसेन ने यह किस आधार पर लिखा, इसका कोई अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं होता। जैसे भगवती सूत्र की प्रतियों के प्रारम्भ में नमस्कार महामन्त्र लिखा हुआ था और अभयदेवसूरि ने उसे सूत्र का अंग मानकर उसकी व्याख्या की, वैसे ही आचार्य बीरसेन ने षट्खंडागम की प्रति के प्रारम्भ में लिखे हुए नमस्कार महामन्त्र को उसका अंग मानकर आचार्य पुष्पदन्त को उसका कर्ता बतला दिया। आचार्य पुष्पदन्त का अस्तित्व-काल वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी (ई० पहली शताब्दी) है। खारवेल का शिलालेख ई० पू० १५२ का है । उसमें 'नमो अरहताणं' 'नमो सव्वसिद्धाणं' ये पद मिलते हैं। इससे नमस्कार महामन्त्र का अस्तित्व काल आचार्य पुष्पदन्त से बहुत पहले चला जाता है। शय्यंभवसूरि का दशवकालिक में प्राप्त निर्देश भी इसी ओर संकेत करता है । भगवान् महावीर दीक्षित हुए तब उन्होंने सिद्धों को नमस्कार किया था। उत्तराध्ययन के बीसवें अध्ययन के प्रारम्भ में 'सिद्धाणं नमो किच्चा, संजयाणं भावओ' सिद्ध और साधुओं को नमस्कार किया गया है। इन सबसे यह निष्कर्ष निकलता है कि नमस्कार की परिपाटी बहुत पुरानी है और उसका रूप भी बहुत पुराना है किन्तु भगवान् महावीर के काल में पंच मंगलात्मक नमस्कार मन्त्र प्रचलित था या नहीं--इस प्रश्न का निश्चयात्मक उत्तर देना सरल नहीं है । महानिशीथ के उक्त प्रसंग के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्तमान स्वरूपवाला नमस्कार महामन्त्र भगवान महावीर के समय में प्रचलित था। किन्तु उसकी पुष्टि के लिए कोई दूसरा प्रमाण अपेक्षित है। आवश्यकनियुक्ति में एक महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है। नियुक्तिकार ने लिखा है-पंच परमेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक करना चाहिए। यह पंच नमस्कार सामायिक का ही एक अंग है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि नमस्कार महामन्त्र उतना ही पुराना है जितना सामायिक सूत्र । सामायिक आवश्यक का प्रथम अध्ययन है। नंदी में आई हुई आगम की सूची में उसका उल्लेख है। नमस्कार महामन्त्र का वहाँ एक श्रुतस्कन्ध या महाश्रुतस्कन्ध के रूप में कोई उल्लेख नहीं है । इससे भी अनुमान किया जा सकता है कि यह सामायिक अध्ययन का एक अंगभूत रहा है । सामायिक के प्रारम्भ में और उसके अन्त में पंच परमेष्ठी को नमस्कार किया जाता था। कायोत्सर्ग के प्रारम्भ १. दस्वेआलियं, ५।१।६३ : “णमोक्कारेण पारित्तए"। २. (क) अगस्त्य० चूणि, पृ० १२३ : 'नमो अरहताणं' त्ति एतेण वयणेण काउस्सग्गं पारेत्ता । (ख) जिनदासचूणि, पृ० १८६. (ग) हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र १८० : नमस्कारेण पारयित्वा 'नमो अरहताणं इत्यनेन' । ३. षट्खंडागम, खंड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ४२ : इदं पुण जीवट्ठाणं णिबद्धमंगलं । एतो इमेसि चोद्दसण्हं जीवसमासाणं इदि एदस्ससुत्तस्सादीए णिवद्ध ‘णमो अरहंताणं' इच्चादि देवदाणमोक्कारदसणादो। आयारचूला, १५॥३२ :-"सिद्धाणं णमोक्कार करेइ।" आवश्यकनियुक्ति, गाथा १०२७ : कयपंचनमोक्कारो करेइ सामाइयंति सोऽभिहितो। सामाइयंगमेव य जं सो सेसं अतो वोच्छ । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.................................. और अन्त में भी पंचनमस्कार की पद्धति प्रचलित थी। आचार्य भद्रबाहु के अनुसार नंदी और अनुयोगद्वार को जानकर तथा पंचमंगल को नमस्कार कर सूत्र का प्रारम्भ किया जाता है। संभव है इसीलिए अनेक आगम-सूत्रों के प्रारम्भ में नमस्कार महामन्त्र लिखने की पद्धति प्रचलित हुई। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने उसी आधार पर नमस्कार महामन्त्र को सर्वश्रुतान्तर्गत बतलाया। उनके अनुसार पंचनमस्कार करने पर ही आचार्य सामायिक आदि आवश्यक और क्रमश: शेष श्रुत शिष्यों को पढ़ाते थे। प्रारम्भ में नमस्कार मन्त्र का पाठ देने और उसके बाद आवश्यक का पाठ देने की पद्धति थी। इस प्रकार अन्य सूत्रों के प्रारम्भ में भी नमस्कार मन्त्र का पाठ किया जाता था। इस दृष्टि से उसे सर्वश्रुताभ्यन्तर्वर्ती कहा गया। फिर भी नमस्कार मन्त्र को जैसे सामायिक का अंग बतलाया है वैसे किसी अन्य आगम का अंग नहीं बतलाया गया है। इस दृष्टि से नमस्कार महामन्त्र का मूलस्रोत सामायिक अध्ययन ही सिद्ध होता है। आवश्यक या सामायिक अध्ययन के कर्ता यदि गौतम गणधर को माना जाए तो पंचमंगल रूप नमस्कार महामन्त्र के कर्ता भी गौतम गणधर ही ठहरते हैं । नमस्कार महामन्त्र के पद ___ कुछ आचार्यों ने नमस्कार महामन्त्र को अनादि बतलाया है। यह श्रद्धा का अतिरेक ही प्रतीत होता है । तत्व या अर्थ की दृष्टि से कुछ भी अनादि हो सकता है। उस दृष्टि से द्वादशांग गणिपिटक भी अनादि है। किन्तु शब्द या भाषा की दृष्टि से द्वादशांग गणिपिटक भी अनादि नहीं है, फिर नमस्कार महामन्त्र अनादि कैसे हो सकता है ? हम इस बात को भूल जाते हैं कि जैन आचार्यों ने वेदों की अपौरुषेयता का इसी आधार पर निरसन किया था कि कोई भी शब्दमय ग्रन्थ अपौरुषेय नहीं हो सकता, अनादि नहीं हो सकता। जो वाङ्मय है वह मनुष्य के प्रयत्न से ही होता है और जो प्रयत्नजन्य होता है वह अनादि नहीं हो सकता। नमस्कार महामन्त्र वाङ्मय है। इसे हम यदि अनादि मानें तो वेदों के अपौरुषेयत्व और अनादित्व के निरसन का कोई अर्थ ही नहीं रहता। नमस्कार महामन्त्र जिस रूप में आज उपलब्ध है उसी रूप में भगवान महावीर के समय में या उनसे पूर्व पार्श्व आदि तीर्थंकरों के समय में उपलब्ध था या नहीं, इस पर निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। फिर भी इस संभावना को इन्कार नहीं किया जा सकता कि भगवान महावीर के समय में 'नमो सिद्धाणं' यह पद प्रचलित रहा हो और फिर आवश्यक की रचना के समय उसके पाँच पद किये गये हों। भगवान् महावीर के समय में आचार्य और उपाध्याय की व्यवस्था नहीं मिलती। उसका विकास उनके निर्वाण के बाद हुआ है और बहुत संभव है कि 'नमो आयरियाणं, नमो उवज्झायाणं' ये पद उसी समय नमस्कार मन्त्र के साथ जुड़े हों। नमस्कार महामन्त्र के पदों को लेकर जो चर्चा प्रारम्भ हुई थी, उससे इस बात की सूचना मिलती है। चर्चा का एक पक्ष यह था कि नमस्कार महामन्त्र संक्षिप्त और विस्तार--दोनों दृष्टियों से ठीक नहीं है । यदि इसका संक्षिप्त हो तो णमो सिद्धाणं' ‘णमो लोए सव्वसाहूणं'--- ये दो ही पद होने चाहिए। यदि इसका विस्तृत रूप हो तो इसके अनेक पद होने चाहिए। जैसे-नमो केवलीण, नमो सुयकेवलीणं, नमो ओहिनाणीणं, नमो मणपज्जवनाणीणं, आदि-आदि । दूसरे पक्ष का चिन्तन यह था कि अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय नियमत: साधु होते हैं, किन्तु जो साधु आवश्यकनियुक्ति, गाथा १०२६ : नंदिमणुओगदारं विहिवदुवग्धाइयं च नाऊणं । काऊण पंचमंगलमारंभो होइ सुत्तस्स ॥ विशेषावश्यकभाष्य, गाथा : सो भव्वसुतक्खंधन्भन्तरभूतो जओ ततो तस्स । आवासपाणुयोगादिगहणगहितोऽणुयोगो वि॥ ३. विशेषावश्यकभाष्य,गाथा ८. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हैं वे नियमतः अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय नहीं होते । कुछेक साधु अर्हत् आदि होते हैं।" साधु को नमस्कार करने में वह फल प्राप्त नहीं होता जो अर्हत् को नमस्कार करने में दृष्टि से नमस्कार महामन्त्र के पाँच पद किए गए हैं। उत्तरपक्ष का तर्क बहुत शक्तिशाली नहीं है, प्रसंग से द्विपक्षीय चिन्तन की सूचना अवश्य मिल जाती है । कर्त्ता की अपनी-अपनी अपेक्षा होती है। जिस समय अर्हत्, आचार्य और उपाध्याय का महत्त्व बढ़ गया था उस समय महामन्त्र के कर्त्ता उनको स्वतन्त्र स्थान कैसे नहीं देते ? होता है । इस फिर भी इस नमस्कार महामन्त्र के पदों का क्रम - नमस्कार महामन्त्र के पदों का क्रम भी चर्चित रहा है। क्रम दो प्रकार का होता है—पूर्वानुपूर्वी और पश्चानुपूर्वी । पूर्वपक्ष का कहना है कि नमस्कार महामन्त्र में ये दोनों प्रकार के क्रम नहीं है । यदि पूर्वानुपूर्वी क्रम हो तो णमो सिद्धाणं, णमो अरहंताणं' ऐसा होना चाहिए। यदि पश्चानुपूर्वी क्रम हो तो गमो लोए सव्व साहूणं - यहाँ से वह प्रारम्भ होना चाहिए और उसके अन्त में ' णमो सिद्धाणं' होना चाहिए । उत्तरपक्ष का प्रतिपादन यह रहा कि नमस्कार महामन्त्र का कम पूर्वानुपूर्वी ही है। इसमें क्रम का व्यत्यय नहीं है। इस क्रम की पुष्टि के लिए नियुक्तिकार ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि सिद्ध अहं के उपदेश से ही जाने जाते हैं। वे ज्ञापक होने के कारण हमारे अधिक निकट हैं, अधिक पूजनीय हैं, अतः उनको प्रथम स्थान दिया गया। आचार्य मलयगिरि ने एक तर्क और प्रस्तुत किया कि अर्हत् और सिद्ध की कृतकृत्यता में दीर्घकाल का व्यवधान नहीं है। उनकी कृतकृत्यता प्राय: समान ही है । 2 आत्मविकास की दृष्टि से देखा जाए तो अहं और सिद्ध में कोई अन्तर नहीं होता। आत्म-विकास में बाधा डालने वाले चार घात्यकर्म ही हैं । उनके क्षीण होने पर आत्म-स्वरूप पूर्ण विकसित हो जाता है। विकास का अंश भी न्यून नहीं रहता । केवल भवोपग्राही कर्म शेष रहने के कारण अर्हतु शरीर को धारण किये रहते हैं। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि अर्हतु से सिद्ध बड़े हैं कि दृष्टि से बड़े-छोटे का कोई प्रश्न ही नहीं है। यह प्रश्न मात्र व्यावहारिक है। व्यवहार 1 के स्तर पर अर्हत् का प्रथम स्थान अधिक उचित है । अर्हत् या तीर्थंकर धर्म के आदिकर होते हैं । धर्म का स्रोत उन्हीं से निकलता है । उसी में निष्णात होकर अनेक व्यक्ति सिद्ध बनते हैं । अतः व्यवहार के धरातल पर धर्म के आदिकर या महास्रोत होने के कारण जितना महत्त्व अर्हत् का है उतना सिद्ध का नहीं । प्रथम पद में अर्हत् शब्द के द्वारा केवल की बात होती तो सामान्य आचार्य और उपाध्याय तीसरे तीर्थंकर ही विवक्षित है, अन्य केवली या अर्हत् विवक्षित नहीं हैं । यदि नैश्चयिक दृष्टि केवली या सामान्य अर्हत् को पाँचवें पद में सब साधुओं की श्रेणी में नहीं रखा जाता। चौथे पद में हैं और केवली पाँचवें पद में । इसका हेतु व्यावहारिक उपयोगिता ही है । २. आवश्यक नियुक्ति, गाथा १०२० ३. आवश्यक नियुक्ति, गावा १०२१: पुव्वाणुपुव्वि न कमो नेव य पच्छानुपुव्वि एस भवे । सिद्धाईआ पढमा बीआए सानो आई ॥ आवश्यकनियुक्ति, गावा १०२२: 'अरिहंतुवएसेणं सिद्धा न ज्जंति तेण अरिहाई ।' आवश्यक निर्युक्ति, मलयगिरि वृत्ति, पत्र ५५३ । ४. नमस्कार महामन्त्र : एक विश्लेषण यह प्रश्न किया गया कि आचार्य अर्हत् के भी ज्ञापक होते हैं, इसलिए णमो आयरियाणं' यह प्रथम पद होना चाहिए। इसके उत्तर में नियुक्तिकार से कहा- आचार्य अर्हत की परिषद् होते हैं। कोई भी व्यक्ति परिषद् आवश्यकनिएक्ति, गाथा १०२० : अरिहंताई नियमा साहू साहू य तेसु भइयव्वा । तम्हा पंचविहो खलु हेउनिमित्त हवइ सिद्धो ॥ ५. १२५ मलयगिरिवृत्ति पत्र ५५२-५५३ । +00 . Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड को प्रणाम कर राजा को प्रणाम नहीं करता। अर्हत् और सिद्ध-दोनों तुल्य-बल हैं, इसलिए उनमें पौर्वापर्य का विचार किया जा सकता है, किन्तु परमनायक अर्हत् और परिषद्-कल्प आचार्य में पौर्वापर्य का विचार नहीं किया जा सकता। नमस्कार महामन्त्र का महत्त्व प्रस्तुत महामन्त्र समग्र जैन शासन में समानरूप से प्रतिष्ठा-प्राप्त है। यही इसकी प्राचीनता का हेतु है। यदि यह श्वेताम्बर और दिगम्बर का अन्तर होने के बाद निर्मित होता तो संभव है कि समग्र जैन शासन में इसे इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती। किसी एक सम्प्रदाय में इसका महत्त्व होता, दूसरे में इतना महत्त्व नहीं होता। यह मन्त्राधिराज के रूप में प्रतिष्ठित नहीं होता। लगभग डेढ़ हजार वर्ष की अवधि में इस महामन्त्र पर विपुल साहित्य रचा गया । इसके सहारे अनेक यन्त्रों का विकास हुआ और इसकी स्तुति में अनेक काव्य रचे गये । यह जैनत्व का प्रतीक बना हुआ है। जो जैन होता है वह कम से कम महामन्त्र का अवश्य पाठ करता है। वह कैसा जैन जो महामन्त्र को नहीं जानता ? जो नमस्कार महामन्त्र को धारण करता है, वह श्रावक है। उसे परमबन्धु मानना चाहिए। इस उक्ति से हम नमस्कार महामन्त्र की व्यापकता का मूल्यांकन कर सकते हैं। 0 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म : सर्वप्राचीन धर्म-परम्परा - डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन [ज्योति निकुंज, चारबाग लखनऊ-२२६००१ (उ० प्र०)] धर्मतत्त्व वस्तु स्वभाव का द्योतक है । वस्तु वास्तविक है, अनादि-निधन और शाश्वत है, अतएव उसका स्वभावरूप धर्म भी अनादि-निधन और शाश्वत है। जैन परम्परा में 'धर्मतत्त्व' की यही प्रकृत व्याख्या स्वीकृत है। इसी का पल्लवन जैन तत्वज्ञान में हुआ और उक्त स्वभाव की प्राप्ति के साधनोपायों को ही वहाँ व्यवहार धर्म की संज्ञा दी गई है। किन्तु, सामान्य मानव-जगत् में नाना प्रकार के धार्मिक विश्वास रहते आये हैं और वे भिन्न-भिन्न खुंटों से बँधे हैं, जिसने अनगिनत धर्म-परम्पराओं को जन्म दिया। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव आदि परिस्थितिजन्य कारणों से उनमें परस्पर वैभिन्न्य, अलगाव और मतभेद भी हुए और निहित स्वार्थों के कारण संघर्ष एवं वैर-विरोध हुए, भयंकर युद्ध एवं नर-संहार भी हुए। ये प्रक्रियाएँ चलती आई हैं, आज भी क्रियाशील हैं और शायद सदैव चलती रहेंगी। परिणामस्वरूप 'धर्म' के नाम पर जो विभिन्न परम्पराएँ दर्शन, मत, पन्थ, सम्प्रदाय आदि प्रचलित हैं. उनकी पूर्णता, श्रेष्ठता, प्राचीनता, संभावनाओं आदि की दृष्टि से तुलना भी की ही जाती है। इस प्रसंग में ध्यान देने की बात यह है कि किसी भी धार्मिक परम्परा की श्रेष्ठता उसकी प्राचीनता या अर्वाचीनता पर निर्भर नहीं होती। अनेक नवीन वस्तुएँ भी उत्कृष्ट एवं उपादेय होती हैं और अनेक प्राचीन वस्तुएँ भी निकृष्ट एवं निरर्थक सिद्ध होती हैं। तथापि यदि कोई धर्म अति प्राचीन होने के साथ ही साथ अपने उदयकाल से लेकर वर्तमान पर्यन्त जीवित, सक्रिय एवं प्रगतिशील बना रहा है, लोकोन्नयन में उत्प्रेरक, नैतिक उत्कर्ष एवं सांस्कृतिक अभिवृद्धि में सहायक रहा है और उनकी सम्भावनाएँ एवं क्षमताएँ भी अभी चूक नहीं गई हैं, तो उनकी आपेक्षिक प्राचीनता उसके स्थायी महत्त्व तभा उसमें अन्तनिहित सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक तत्त्वों की ही सूचक हैं। दूसरे, किसी संस्कृति के विकास का समुचित ज्ञान तथा उसकी देनों का सम्यक मूल्यांकन करने के लिए भी उक्त संस्कृति की जननी या आधार-भूत धर्म-परम्परा की प्राचीनता को खोजना आवश्यक हो जाता है। __ यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जैन परम्परा की प्राचीनता में शंका उठाने की और उसे सिद्ध करने की आवश्यकता ही क्यों हई ? जैनों की परम्परा अन श्रुति तो, जबसे भी वह मिलनी प्रारम्भ होती है, सहज निर्विवाद रूप में उसे सर्वप्राचीन मानती ही चली आती है। इसके अतिरिक्त, अन्य प्राचीन भारतीय परम्पराओं में बौद्ध ही नहीं, स्वयं ब्राह्मणीय (हिन्दू) अनुश्रुति भी अत्यन्त प्राचीन काल से ही जैनधर्म की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार करती चली आती है। इस विषय में भारतवर्ष के प्राचीन आचार्यों एवं मनीषियों में से किसी ने भी कोई शंका नहीं उठाई। तब फिर एक स्वतःसिद्ध एवं सर्वसम्मत मान्यता को नए सिरे से सिद्ध करने की क्या आवश्यकता हुई ? इसका कारण है। आधुनिक युग के प्रारम्भ में यूरोपीय प्राच्य-विदों ने जब भारतीय विद्या का अध्ययन भारम्भ किया तो उन्होंने भारतवर्ष के धर्म या धमों, संस्कृति, साहित्य और कला के इतिहास का नए सिरे से निर्माण Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .........-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-........................................ करना आरम्भ किया। सृष्टिकर्ता-ईश्वरवादी सेमेटिक (ईसाई) विश्वास उनके संस्कारों में बसे थे, और आधुनिक युगीन वैज्ञानिकता एवं विकासवाद से उनकी बुद्धि पूरी तरह प्रभावित थी। परिणामस्वरूप वे इस धारणा को लेकर चले कि प्रत्येक परम्परा का कोई जनक, जन्मस्थान और जन्मकाल है और तभी से उसका इतिहास आरम्भ होता है। किन्तु वे इस तथ्य से अपरिचित रहे प्रतीत होते हैं कि विश्व व्यवस्था में सभी चीजें सादि-सान्त नहीं होती, वरन् अनेक ऐसी हैं जो अनादि-निधन होती हैं। अतएव उनकी धारणा थी कि प्रत्येक धर्म व्यक्तिविशेष द्वारा, क्षेत्रविशेष और कालविशेष में स्थापित हुआ होना चाहिए और उनकी इस धारणा का समर्थन बौद्ध, पारसी, यहूदी, ईसाई, मुसलमान आदि धर्मों के इतिहास से होता ही था, किन्तु वे सब ऐतिहासिक धर्म हैं, अत: उनके जनक, जन्म-स्थान और जन्म-तिथि होना स्वाभाविक हैं । इनके विपरीत, कुछ धर्म या संस्कृतियाँ ऐतिहासिक नहीं वरन् परम्परामूलक होती हैं और उनके संस्थापक या स्थापनाकाल का निर्णय नहीं किया जा सकता । सुदूर अतीत में जहाँ तक ज्ञात इतिहास की पहुँच होती है, उनका अस्तित्व पाया जाता है। उनके पथ में विकास और अवरोध, उत्थान और पतन भी आते रहते हैं, तथापि बे बनी रहती हैं, क्योंकि उनका मूलाधार मानव-स्वभाव होता है। अस्तु, प्रवृत्तिप्रधान वैदिक परम्परा से प्रसूत ब्राह्मण धर्म अथवा शैव-वैष्णवादि रूप तथाकथित हिन्दूधर्म जिस प्रकार परम्परामूलक और सनातन है, उसी प्रकार निर्ग्रन्थ श्रमण तीर्थंकरों द्वारा पोषित-संरक्षित निवृत्तिप्रधान आत्मधर्म अर्थात् जैनधर्म भी परम्परामूलक एवं सनातन है । वस्तुत: अपनी सहज संज्ञाओं एवं एषणाओं से प्रेरित संसारी प्राणी प्रवृत्ति में तो स्वतः लीन रहता है, किन्तु जब वह प्रवृत्ति अमर्यादित, उच्छृखल, परपीड़क और अशान्तिकर हो जाती है तो उसे सीमित, मर्यादित एवं संयमित करने के लिए निवृत्ति मार्ग का उपदेश दिया जाता है, और यहीं से पारमार्थिक धर्म का प्रारम्भ होता है। अतएव जब से मानव या मानवीय सभ्यता का अस्तित्व है तभी से दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति एवं इन्द्रिय-विषयों के पोषण के हित कर्मप्रधान प्रवृत्ति मार्ग भी है और उसके परिष्कार-परिमार्जन के लिए आत्मस्वभाव-रूप-धर्मप्रधान निवृत्ति मार्ग भी है-जैन धर्म उसी निवृत्तिमूलक अहिंसाधारित सदाचार-प्रधान आत्मधर्म का सदैव से प्रतिनिधित्व करता आया है। उन आधुनिक युगीन प्रारम्भिक पाश्चात्य प्राच्यविदों की पकड़ में यह तथ्य नहीं आया, और जब उनका ध्यान जैन परम्परा की ओर आकर्षित हुआ तो उन्होंने उसे भी एक ऐतिहासिक धर्म मानकर उसके इतिहास की खोज प्रारम्भ कर दी। वे यहूदी और ईसाई धर्मों से तो पूर्ण परिचित थे ही, मुसलमान, बौद्ध और हिन्दू धर्म से भी पहले ही भलीभांति परिचित हो चुके थे। अतएव हिन्दू, विशेषकर बौद्ध के परिप्रेक्ष्य में ही उन्होंने जैन-धर्म को देखा। उनकी पद्धति वर्तमान को स्थिर बिन्दु मानकर प्रत्येक वस्तु के इतिहास को पीछे की ओर उसके उद्गम स्थान या उदयकाल तक खोजते चले जाने की थी। जो तथ्य प्रमाणसिद्ध होते जाते और अतीत में जितनी दूर तक ले जाते प्रतीत होते वहीं वे विद्वान् उसका जन्म निश्चित कर देते। नए प्रमाण प्राप्त होने पर यदि उक्त अवधि और अधिक पीछे हटाई जा सकती तो वैसा करते चले जाते । स्वयं भारतीय जन किसी भी बात को कितना ही निश्चित, असन्दिग्ध और स्वयंसिद्ध मानते हों, ये विद्वान् बिना परीक्षा और प्रयोग के उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते थे। अत: ऐसे सर्वविदित तथ्य यथा शक, विक्रम आदि संवतों का प्रवर्तनकाल, महावीर और बुद्ध की निर्वाण तिथियाँ, रामायण या महाभारत में वणित व्यक्तियों एवं घटनाओं की ऐतिहासिकता इत्यादि भी विवाद के विषय बने। अनेक पुरातन आचार्यों, ग्रन्थों, स्मारकों, पुरातात्त्विक वस्तुओं आदि के विषय में मत-वैभिन्न्य हुए। आज भी हैं और अनेक प्राचीन नरेशों एवं अन्य ऐतिहासिक तथ्यों के विषय में विवाद चलते ही रहते हैं कि उनका सम्बन्ध हिन्दू-धर्म से, जैनधर्म से अथवा बौद्धधर्म से है। अस्तु, जैनधर्म का स्वतन्त्र अस्तित्व एवं उसकी आपेक्षिक प्राचीनता और इतिहास भी विवाद के विषय बने। १६वीं शताब्दी के प्रारम्भिक प्राच्यविदों द्वारा पुरस्कृत उपर्युक्त खोज पद्धति ही आज के युग की वैज्ञानिक पद्धति मान्य की जाती है । उसी का अनुसरण स्वदेशीय भारतीय-विद्याविद् एव इतिहासकार भी करते चले आ रहे हैं । बहुत अंशों में वह है भी एक युक्तिसंगत, प्रामाणिक, श्रेष्ठ पद्धति । इस परीक्षा-प्रधान बौद्धिक युग में प्रत्येक तथ्य को परीक्षा द्वारा प्रमाणित करके ही मान्य किया जाता है । जैनधर्म स्वयं एक परीक्षा-प्रधान धर्म होने का गर्व करता है, और इस परीक्षा पद्धति के द्वारा Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनधर्म सर्वप्राचीन धर्म-परम्परा ही गत डेढ़ सौ वर्षों में वह शनैः-शनैः सातवीं शती ईस्वी में बौद्धधर्म की शाखा के रूप में उत्पन्न एक छोटे से गौण सम्प्रदाय की स्थिति से उठकर कम से कम वैदिक धर्म जितनी प्राचीन एवं एक सुसमृद्ध संस्कृति से समन्वित स्वतन्त्र तथा महत्त्वपूर्ण भारतीय धार्मिक परम्परा की स्थिति को प्राप्त हो गया है । १२६ डॉ० हर्मन जेकोबी प्रभृति प्रकाण्ड प्राच्यविदों द्वारा बौद्ध एवं जैन अनुश्रुतियों के तुलनात्मक अध्ययन, परीक्षण एवं अन्वेषण द्वारा यह तथ्य सर्वथा प्रमाणित हो गया है कि जैन परम्परा के २४वें एवं अन्तिम तीर्थंकर वर्द्धमान महावीर (ईसापूर्व ५६१-५२७) बौद्धधर्म प्रवर्तक शास्वपुत्र गौतमबुद्ध के ज्येष्ठ समकालीन थे और वह प्राचीन जैनधर्म के मात्र पुनरुद्धारक थे, प्रर्वतक नहीं जैनधर्म उनके जन्म के बहुत पहले से प्रचलित था और बौद्ध धर्म की संरचना में भी उसका प्रभाव रहा । बौद्ध साहित्य में जैनधर्म की स्वतन्त्र सत्ता एवं आपेक्षिक प्राचीनता के अनेक साक्ष्य उपलब्ध हैं, कई पूर्ववर्ती तीर्थकरों के भी इंगित हैं। महावीर के पूर्ववर्ती २३वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (ई० पू० ८७७-७७७ ) की ऐतिहासिकता भी सभी आधुनिक प्राच्यविदों ने मान्य कर ली है। भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के अनेक साधु महावीर के समय तक विद्यमान थे । अब महाभारत में वर्णित व्यक्तियों एवं घटनाओं की ऐतिहासिकता भी स्थूल रूप से मान्य की जाने लगी है - उसके प्रधान नायक नारायण कृष्ण की ऐतिहासिकता में सन्देह नहीं किया जाता। अतएव अनेक विद्वानों का मत है कि यदि कृष्ण को ऐतिहासिक व्यक्ति स्वीकार किया जाता है तो कोई कारण नहीं कि उन्हीं कृष्ण के ताउजात भाई, २२वें जैन तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) की ऐतिहासिकता को स्वीकार न किया जाय। भगवान् पार्श्वनाथ के प्रायः समकालीन मध्य एशिया के विल्दियन सम्राट नेबुचेडनजर के दानशासन प्रभृति कतिपय पुरातात्विक साक्ष्य भी तीर्थंकर नेमिनाथ की ऐतिहासिकता की पुष्टि करते हैं। २१ वें तीर्थंकर नमिनाथ का जन्म विदेहदेश की मिथिला नगरी में हुआ था और उनका एकत्व ब्राह्मणीय अनुभूति के विदेह जनकों के पूर्वज विदेहराज नाम से किया जाता है। कालान्तर में ब्रह्मवादी जनको द्वारा प्रेरित उपनिषदों की आत्मविद्या के मूल पुरस्कर्ता यह तीर्थकर नमि ही माने जाते हैं। अयोध्यापति मर्यादा पुरुषोत्तम राम का स्थान जैन परम्परा में अति सम्मानीय है, और उस युग के व्यक्तियों एवं घटनाओं का जो वर्णन जैन रामायणों में प्राप्त होता है वह ब्राह्मणीय पुराणों की अपेक्षा अधिक युक्तिसंगत एवं विश्सनीय है। उस समय २०वें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ का धर्मतीयं चल रहा था। ब्राह्मणीय पुराणों में जैनधर्म और जैनों के अनेक उल्लेख प्राप्त हैं जो जैन परम्परा की आपेक्षिक प्राचीनता सिद्ध करते हैं । भागवत आदि प्रायः सभी मुख्य पुराणों में भगवान् ऋषभदेव को विष्णु का अष्टम अवतार मान्य किया है और उनका सम्बन्ध जैनधर्म से सूचित किया है। ऋषभदेव जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर हैं । ब्राह्मण परम्परा के सर्वप्राचीन ग्रन्थ स्वयं वेद में — ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि में ऋषभादि कई तीर्थंकरों तथा निर्ग्रन्थ जैन मुनियों, यतियों, तपस्वियों के अनेक उल्लेख हैं । यह तथ्य जैन परम्परा को प्रावैदिक सिद्ध कर देता है । सिन्धुघाटी की प्राग्वैदिक एवं प्रागार्य सभ्यता के हड़प्पा में प्राप्त अवशेषों में दिगम्बर कायोत्सर्ग जिनमूर्ति का धड़ मिला है, और उसकी भी पूर्ववर्ती मोहनजोदड़ों के अवशेषों में प्राप्त मुद्राओं आदि से उस काल एवं उस प्रदेश में वृषभलांछन कायोत्सर्ग दिगम्बर योगिराज ऋषभ की उपासना के साक्ष्य मिले हैं। इस प्रकार सुदूर प्राग्वैदिक, प्रागार्य, प्रागैतिहासिक युग तक जैन परम्परा का अस्तित्व पहुँच जाता है, और ये संकेत इस धार्मिक परम्परा को सभ्यमानव की सर्वप्राचीन जीवित परम्परा सिद्ध कर देते हैं । . Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - -. - - . -. -. - . -. - - . - -. - -. -. -. -. जैन प्रमाण-शास्त्र : एक अनुचिन्तन D डॉ० दरबारीलाल कोठिया, न्यायाचार्य, (चमेली कुटीर, १/१२८ डुमराव कॉलोनी, अस्सी, वाराणसी) 'नीयते परिच्छिद्यते ज्ञायते वस्तुतत्त्वं येन सो न्यायः' इस न्याय शब्द की व्युत्पत्ति के आधार पर न्याय उसे कहा गया है, जिसके द्वारा वस्तुस्वरूप जाना जाता है । तात्पर्य यह कि वस्तुस्वरूप के परिच्छेदक साधन (उपाय) को न्याय कहते हैं। न्याय के इस स्वरूप के अनुसार कुछ दार्शनिक 'लक्षण-प्रमाणाभ्यामर्य-सिद्धिः१- लक्षण और प्रमाण दोनों से वस्तु की सिद्धि मानते हैं। अतः वे लक्षण और प्रमाण दोनों को न्याय बतलाते हैं । अन्य दार्शनिक 'प्रमाणरर्थपरीक्षणं न्यायः'२ -प्रमाणों (प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान और शब्द-चारों) से वस्तु का परीक्षण (सही ज्ञान) होता है, अतएव प्रमाणों को वे न्याय कहते हैं। अनेक तार्किक 'पंचावयवप्रयोगो न्याय:'-पाँच अवयवों (प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इन अनुमानावयवों) के प्रयोग को, जिसे अनुमान कहा गया है, न्याय स्वीकार करते हैं। जैन तार्किक गृद्धपिच्छ (उमास्वाति अथवा उमास्वामी ने) 'प्रमाणनयैरधिगमः' (त० सू० १-६) सूत्र द्वारा प्रमाणों और नयों से वस्तु का ज्ञान माना है । फलतः अभिनव धर्मभूषण ने 'प्रमाणनयात्मको न्यायः' कहकर प्रमाण और नय को न्याय कहा है। अत: जैन दर्शन में प्रमाण और नय दोनों वस्त्वधिगम के साधन होने से न्याय हैं। इसका विशेष विवेचन हमने 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' में किया है। प्रमाण का स्वरूप जैनागमों में ज्ञान मार्गणा का निरूपण करते हुए आठ ज्ञानों का प्रतिपादन किया गया है। इनमें तीन ज्ञानों (कुमति, कुश्रुत और कुअवधि-विभंग) को मिथ्याज्ञान और पाँच ज्ञानों (मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल) को सम्यग्ज्ञान बतलाया है । कुन्दकुन्द ने उसका अनुसरण किया है। गृद्धपिच्छ ने उसमें कुछ नया मोड़ दिया है। उन्होंने मति आदि पाँच ज्ञानों को सम्यग्ज्ञान और कुमति आदि तीनों को मिथ्याज्ञान तो कहा ही है। इसके साथ ही उन सम्यग्ज्ञानों को प्रमाण और उन तीन मिथ्याज्ञानों को अप्रमाण भी प्रतिपादन किया है। समन्तभद्र ने तत्त्वज्ञान अथवा स्वपरावभासी बुद्धि को प्रमाण कहा है। उनके इन दोनों प्रमाण लक्षणों तथा तत्त्वार्थसूत्रकार के प्रमाण लक्षण १-२-३. न्याय दी० टि०, पृ० ५, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, १६५४. ४. वही, पृ० ५. जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र : ऐतिहासिक एवं दार्शनिक पृष्ठभूमि शीर्षक, पृ० १५, ६. षट्खण्डागम १. १. १५ आदि । ७. नियमसार, गा० १०, ११, १२. ८. त० सू० १-६, १०, ३१. ६. आप्तमीमांसा १०१, स्वयम्भूस्तोत्र ६३. Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन प्रमाण-शास्त्र : एक अनुचिन्तन १३१ . में कोई अन्तर नहीं है । सम्यक् और तत्त्व दोनों का एक ही अर्थ है--सत्य-यथार्थ । अत: सम्यग्ज्ञान या तत्त्वज्ञान को प्रमाण लक्षण मानना एक ही बात है। न्यायावतारकार सिद्धसेन ने भी स्वपरावभासि ज्ञान को ही प्रमाण माना है । उनकी विशेषता यह है कि उसमें उन्होंने बाधविजित विशेषण और दिया है। किन्तु वह तत्त्वार्थसूत्रकार के सम्यक् और समन्तभद्र के तत्त्व विशेषण से गतार्थ हो जाता है। उनका यह विशेषण कुमारिल के प्रमाण लक्षण में भी उपलब्ध होता है । अत: उससे कोई विशेष बात प्रकट नहीं होती। उत्तरवर्ती प्रायः सभी जैन ताकिकों ने सम्यग्ज्ञान को ही प्रमाण कहा है। विशेष यह कि अकलंक, विद्यानन्दि और माणिक्यनन्दि ने उस सम्यग्ज्ञान को स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक सिद्ध किया और प्रमाण के लक्षण में उपयुक्त विकास किया है । वादिराज, देवसूरि,६ हेमचन्द्र, धर्मभूषण आदि परवर्ती ताकिकों ने भी प्राय: यही प्रमाण-लक्षण स्वीकार किया है । हेमचन्द्र ने यद्यपि सम्यक् अर्थ-निर्णय को प्रमाण कहा है, पर सम्यक् अर्थनिर्णय और सम्यक् ज्ञान दोनों में शाब्दिक भेद के अतिरिक्त कोई अर्थभेद नहीं है। प्रमाण के भेद प्रमाण के कितने भेद सम्भव और आवश्यक हैं, इस पर सर्वप्रथम तत्त्वार्थ सूत्रकार ने विचार किया है। उन्होंने स्पष्ट निर्देश किया है कि प्रमाण के मूलत: दो भेद हैं—परोक्ष और प्रत्यक्ष। उपर्युक्त पाँच ज्ञानों का इन्हीं दो में समावेश करते हुए लिखा है कि आदि के दो ज्ञान-मति और श्रुत इन्द्रियादि सापेक्ष होने से परोक्ष तथा अन्य तीन ज्ञान – अवधि, मनःपर्यय और केवल इन्द्रियादि पर-सापेक्ष न होने एवं आत्ममात्र की अपेक्षा से होने के कारण प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यह तत्त्वार्थ सूत्रकार द्वारा प्रतिपादित दो प्रमाणों की संख्या इतनी विचारपूर्ण और कुशलता से की गयी है कि इन दो प्रमाणों में ही अन्य प्रमाणों का समावेश हो जाता है। एक सूत्र' द्वारा ऐसे प्रमाणों का उन्होंने उल्लेख करके उन्हें मतिज्ञान के अवान्तर भेद प्रकट किया है। वे हैं- मति (इन्द्रिय-अनिन्द्रियजन्य अनुभव), स्मृति (स्मरण), संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमान)। ये पांचों ज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रिय सापेक्ष होते हैं। इन्हें अन्य भारतीय दर्शनों में एक-एक स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किया गया है। पर ये सभी परापेक्ष होने से परोक्ष में ही समाविष्ट हो जाते हैं। जैन प्रमाणशास्त्र के प्रतिष्ठाता अकलंक ने१२ भी प्रमाण के इन्हीं दो भेदों को मान्य किया है। विशेष यह कि उन्होंने प्रत्यक्ष और परोक्ष के तार्किक लक्षणों और उनके उपभेदों का भी निर्देश किया है। विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष और अविशद ज्ञान को परोक्ष बतलाकर प्रत्यक्ष के मुख्य एवं संव्यवहार इन दो भेदों तथा परोक्ष के प्रत्यभिज्ञान आदि पाँच भेदों का उन्होंने सविस्तार निरूपण किया है । उल्लेखनीय है कि अकलंक ने परोक्ष के प्रथम भेद मति (इन्द्रिय १. प्रमाणं स्वपरावभासि ज्ञानं बाधविवजितम्-न्यायाव० का० १. २. लघीय० का० ६०, अकलंक ग्र०, सिंघी ग्रन्थमाला । ३. प्र० प० पृ० १, वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी, १९७७. ४. प० मु० १-१. ६. प्र० न० त० १. १. २. ७. प्र० मी० १. १. २१. ८. न्या० दी०, पृ० ६, वीर सेवा मन्दिर प्रकाशन, १९४५. ६. प्र० मी० १. १.२, सिंघी ग्रन्थमाला। १०. तत्प्रमाणे । आद्य परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत्-त० सू० १-१०, ११, १२. ११. त० सू०१-१३, १४. १२. लघीय० १-३, ४० सं० १-२, अकलंकग्रन्थ त्रय, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, १९३६. १३. वही, १-३. Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड अनिन्द्रियजन्य ज्ञान) को संव्यवहार प्रत्यक्ष भी निरूपित किया है। इससे उन्होंने इन्द्रिय और अनिन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कहने की अन्य लोगों (दार्शनिकों) की मान्यता का संग्रह किया है और लोकव्यवहार से उसे प्रत्यक्ष बतलाकर परमार्थ से परोक्ष ही स्वीकार किया है और इस तरह उन्होंने आगम-परम्परा का संरक्षण भी किया है। विद्यानन्दि, माणिक्यनन्दि प्रभृति ने भी प्रमाण के ये ही दो भेद माने हैं और अकलंक के मार्ग का पूर्णतया अनुसरण किया है । परोक्ष का लक्षण परोक्ष का लक्षण सबसे पहले स्पष्ट तौर पर आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद ने प्रस्तुत किया है। उन्होंने बतलाया है कि पर अर्थात् इन्द्रिय, मन, प्रकाश और उपदेश आदि बाह्य निमित्तों तथा स्वावरण कर्म-क्षयोपमशरूप अन्तरंग कारण की अपेक्षा से आत्मा में जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह परोक्ष कहा गया है। अतः मति और श्रुत दोनों ज्ञान उक्त उभय निमित्तों से उत्पन्न होने के कारण परोक्ष हैं। अकलंकदेव ने पूज्यपाद के इस लक्षण को अपनाते हुए भी परोक्ष का एक नया लक्षण, जो उनके पूर्व प्रचलित नहीं था, दिया है। वह है-अविशदज्ञान, जिसका पहले भी संकेत किया गया है । इस लक्षण के अनुसार जो ज्ञान अविशद् (अस्पष्ट-धुंधला) है, वह परोक्ष प्रमाण है। यद्यपि इन दोनों लक्षणों में तत्त्वतः कोई अन्तर नहीं है जो परापेक्ष होगा वह अविशद् होगा ही, फिर भी अकलंक का परोक्ष लक्षण (अविशद् ज्ञान) दार्शनिक है और संक्षिप्त है तथा पूज्यपाद का परोक्ष लक्षण आगमिक है और विस्तृत है। दूसरी बात यह है कि दोनों में कार्य-कारणभाव भी है । परापेक्षता कारण है और अविशदता उसका कार्य (परिणाम) है । यह हमें ध्यान देने पर ज्ञात हो जाता है। विद्यानन्दि ने५ इन दोनों लक्षणों को साध्य-साधन के रूप में प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि परोक्ष प्रमाण परापेक्ष है, इसलिए वह अविशद् है । परोक्ष का पूज्यपादकृत परापेक्षलक्षण साधनरूप है और अकलंकदेव का परोक्षलक्षण अविशद् ज्ञान साध्यरूप है। माणिक्यनन्दि ने परोक्ष के इसी अविशद् ज्ञान लक्षण को स्वीकार किया और उसे प्रत्यक्षादिपूर्वक होने से परोक्ष कहा है । परवर्ती जैनताकिकों ने' अकलंकीय परोक्ष लक्षण को ही प्राय: प्रश्रय दिया है। परोक्ष प्रमाण के भेद तत्त्वार्थ सूत्रकार ने आगम परम्परा के अनुसार परोक्ष के दो भेद किये हैं - मति और श्रुत । इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है तथा मतिज्ञानपूर्वक उसके बाद जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । परोक्ष के ये दो भेद आगमिक हैं। अकलंक ने इन परोक्ष भेदों को अपनाते हुए भी उनका दार्शनिक दृष्टि से भी विवेचन किया है । उनके विवेचनानुसार परोक्ष प्रमाण के भेदों की संख्या पाँच है। तत्त्वार्थ सूत्रकार द्वारा प्रतिपादित १. प्र०प०, पृ० २८, ४१, ४२, वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी, १९७७. २. परी० मु० २-१, २, ३ ५, ११ तथा ३-१, २. ३. स० सि० १-१, भारतीय ज्ञानपीठ । ४. त० वा० १-११ तथा लघीय० स्वोपज्ञवृ० १-३. ५. प्र० प० पृ० ४१, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी, १९७७. परी० मु० ३-१, २. हेमचन्द्र, प्र० मी० १. २. १ आदि । ८. आद्य परोक्षम्, तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्,-त० सू० १-११, १४, ३०. ६. प्र० सं०, १-२ लघीय० १-३, अकलंकग्र०, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, १६३६. १०. त० सू०१-१३. Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मतिज्ञान के पाँच भेदों में से प्रथम भेद मति को निकालकर और उनमें श्रुत भेद गिनाये हैं। मति (अनुभव) को उन्होंने संव्यवहार प्रत्यक्ष बतलाया है। किया और भूत को अविशद् होने से परोक्ष के अन्तर्गत ने लिया है। श्रुत दार्शनिक दृष्टि से कोई बाधा नहीं है। परोक्ष के उन्होंने जो पांच भेद बताये हैं वे ये हैं ज्ञान), ३. चिन्ता (तर्क) ४. अभिनिबोध (अनुमान) और ५ युत (आगम) १. (साध्य और साधन रूप से अभिमत पूर्वानुभूत वस्तु के स्मरण को स्मृति कहते हैं । जैसे- वह इस प्रकार से उल्लिखित होने वाला ज्ञान । अनुभव तथा स्मरणपूर्वक जो जोड़रूप ज्ञान होता है वह संज्ञा है। इसे प्रत्यभिज्ञा या प्रत्यभिज्ञान भी कहते है यदायह वही है, अथवा यह उसी के समान है, अथवा यह उससे विलक्षण है आदि । इसके एकत्व, सादृश्य, वैसादृश्य आदि अनेक भेद हैं । अन्वय (विधि) और व्यतिरेक (निषेध) पूर्वक होने वाला व्याप्ति दो पदार्थों के अविनाभाव सम्बन्ध ) का ज्ञान चिन्ता (तर्क) है। ऊह अथवा ऊहा भी इसे कहते हैं । इसका उदाहरण है - इसके होने पर ही यह होता है और नहीं होने पर नहीं ही होता है । जैसे--अग्नि के होने पर ही धुआँ होता है और अग्नि के अभाव में धुआं नहीं होता । इस प्रकार का ऊहापोहात्मक ज्ञान चिन्ता या तर्क कहा गया है। निश्चित साध्याविनाभावी साधन से जो साध्य का ज्ञान होता है वह अभिनिबोध अर्थात् अनुमान है। जैसे—धूम से अग्नि का ज्ञान अनुमान है। शब्द, संकेत आदि पूर्वक जो ज्ञान होता है वह श्रुत है । इसे आगम, प्रवचन आदि भी कहते हैं । जैसे - मेरु आदि शब्दों को सुनकर सुमेरु पर्वत आदि का बोध होता है । ये सभी ज्ञान परापेक्ष हैं । स्मरण में अनुभव, प्रत्यभिज्ञान में अनुभव तथा स्मरण तर्क में अनुभव, स्वरण और प्रत्यभिज्ञान, अनुमान में लिंग दर्शन, व्याप्तिस्मरण और श्रुत में शब्द एवं संकेतादि अपेक्षित हैं, उनके बिना उनकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है । अतएव ये और इस प्रकार के उपमान, अर्थापत्ति आदि परापेक्ष अविशद् ज्ञान परोक्ष प्रमाण माने गये हैं । २. जैन प्रमाण शास्त्र एक अनुचिन्तन अकलंक ने इनके विवेचन में जो दृष्टि अपनायी वही दृष्टि और सरणि विद्यानन्द माणिक्यनन्दि आदि तार्किकों ने अनुसृत की है। विद्यानन्द ने प्रमाण-परीक्षा में और माणिक्यनन्दि ने परीक्षामुख में स्मृति आदि पाँचों परोक्ष प्रमाणों का विशदता के साथ निरूपण किया है। इन दोनों मनीषियों की विशेषता यह है कि उन्होंने प्रत्येक की सहेतुक सिद्धि करके उनका परोक्ष में सप्रमाण समावेश किया है। विद्यानन्दि ने इनकी प्रमाणता में सबसे सबल हेतु यह दिया है कि वे अविसंवादी है अपने ज्ञात अर्थ में किसी प्रकार विसंवाद नहीं करते हैं और जिस स्मृति आदि में विसंवाद होता है वह प्रमाण नहीं है उसे स्मृत्याभास प्रत्यभिज्ञाभास, तर्काभास, अनुमानाभास और आगमाभास (श्रुताभास) समझना चाहिये। उन्होंने स्पष्ट कहा है कि यह प्रतिपता का कर्तव्य है कि वह सावधानी और युक्ति आदि पूर्वक निर्णय करे कि अमुक स्मृति प्रत्यभिशा आदि निर्वाध होने से प्रमाण है और अमुक सवाध होने से अप्रमान ( प्रमाणाभास ) है । इस प्रकार पाँचों ज्ञानों के प्रामाण्याप्रामाण्य का निर्णय किया जाना चाहिए। ये पाँचों ज्ञान यतः अविशद् हैं, अत: परोक्ष हैं यह भी विद्यानन्दि ने स्पष्टता के साथ प्रतिपादन किया है । 7 जैन तार्किक विद्यानन्द की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्होंने अनुमान और उसके परिकर का लघीय० स्वोपज्ञवृ० २-१०. इदमल्पं महद् दूरमासन्नं प्रांशु नेति वा । यजतः समक्षेऽय विकल्पः साधनान्तरम् ॥१-२१॥ लचीय० ३. ४. ५. को सम्मिलित कर उन्होंने परोक्ष के पाँच इसी से उसे परोक्ष के भेदों में ग्रहण नहीं इस विवेचन या परिवर्तन में सैद्धान्तिक अथवा स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभि प्र० प० पृ० ४१ से ६५ । परीक्षा ११ से २, १०१ । स्मृति प्रमाणम् अविसंवादकत्वात् प्रत्यक्षवत् यत्र तु विसंवादः सा स्त्याभासा प्रत्यक्षावासात् प्र० पृ० ४२।१ । ६. प्र० प० पृ० ४५ से ५८ तक । १३३ - ७. . Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ....................................................................... जैसा विस्तृत निरूपण किया है वैसा स्मृति आदि का नहीं । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और प्रमाण परीक्षा में अनुमान का सर्वाधिक निरूपण है । पत्र परीक्षा में तो प्रायः अनुमान का ही शास्त्रार्थ उपलब्ध है। विद्यानन्दि ने अनुमान का बही लक्षण दिया है जो अकलंक ने प्रस्तुत किया है। अकलंकदेव ने बहुत ही संक्षेप में अनुमान का लक्षण देते हुए लिखा है कि साधना साध्यविज्ञानमनुमानम् अर्थात् साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान अनुमान है। विद्यानन्दि ने उनके इसी लक्षण को दोहराया है तथा साध्य और साधन का विवेचन भी उन्होंने अकलंक प्रदर्शित दिशानुसार किया है । साधन वह है जो साध्य का नियम से अविनाभावी है । साध्य के होने पर ही होता है और साध्य के अभाव में नहीं ही होता । ऐसा अविनाभावी साधन ही साध्य का अनुमापक होता है, अन्य नहीं। त्रिलक्षण, पंचलक्षण आदि हेतु लक्षण सदोष होने से युक्त नहीं है। इस विषय का विशेष विवेचन हमने अन्यत्र किया है। साध्य वह है जो इष्ट-अभिप्रेत, शक्य-अबाधित और अप्रसिद्ध होता है। जो अनिष्ट है, प्रत्यक्ष आदि से बाधित है और प्रसिद्ध है वह साध्य सिद्ध करने योग्य नहीं होता । वस्तुतः जिसे सिद्ध करना है उसे वादी के लिए इष्ट होना चाहिए-अनिष्ट को कोई सिद्ध नहीं करता । इसी तरह जो बाधित है--सिद्ध करने के अयोग्य है उसे भी सिद्ध नहीं किया जाता । तथा जो सिद्ध है उसे पुन: सिद्ध करना निरर्थक है---प्रतिवादी जिसे नहीं मानता, वादी उसे ही सिद्ध करता है। इस प्रकार निश्चित साध्याविनाभावी साधन (हेतु) से जो इष्ट, अबाधित और असिद्ध रूप साध्य का विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) किया जाता है वह अनुमान प्रमाण है। इसके दो भेद हैं--स्वार्थानुमान और परार्थानुमान । अनुमाता जब स्वयं ही निश्चित साध्याविनाभावी साधन से साध्य का ज्ञान करता है तो उसका वह ज्ञान स्वार्थानुमान कहा जाता है। उदाहरणार्थ-जब वह धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान, रस को चखकर उसके सहचर रूप का ज्ञान या कृत्तिका के उदय को देखकर एक मुहूर्त बाद होने वाले शकट के उदय का ज्ञान करता है तब उसका ज्ञान स्वार्थानुमान है। और जब वही स्वार्थानुमाता उक्त हेतुओं और साध्यों को बोलकर दूसरों को उन साध्य-साधनों की व्याप्ति (अन्यथानुपपत्ति) ग्रहण कराता है और दूसरे उसके उक्त वचनों को सुनकर व्याप्ति ग्रहण करके उक्त हेतुओं से उक्त साध्यों का ज्ञान करते हैं तो दूसरों का वह अनुमान ज्ञान परार्थानुमान है। धर्मभूषण ने स्वार्थानुमान और ज्ञानात्मक परार्थानमान के सम्पादक तीन अंगों और दो अंगों का भी प्रतिपादन किया है। वे तीन अंग हैं--(१) साधन, (२) साध्य और (३) धर्मी। साधन तो गमकरूप से अंग है, साध्य गम्यरूप से और धर्मी दोनों का आधार रूप से। दो अंग इस प्रकार उन्होंने बतलाये हैं--(१) पक्ष और (२) हेतु । जब साध्यधर्म को धर्मी से पृथक् नहीं माना जाता--उससे विशिष्ट धर्मी को पक्ष कहा जाता है तो पक्ष और हेतु ये दो ही अंग विवक्षित होते हैं । इन दोनों प्रतिपादनों में मात्र विवक्षा भेद है—मौलिक कोई भेद नहीं है। वचनात्मक परार्थानुमान के प्रतिपाद्यों की दृष्टि से दो, तीन, चार और पांच अवयवों का भी कथन किया गया है। दो अवयव पक्ष (प्रतिज्ञा) और हेतु हैं। उदाहरण सहित तीन, उपनय सहित चार और निगमन सहित पाँच अवयव हैं। ___ यहाँ उल्लेखनीय है कि विद्यानन्दि ने परार्थानुमान के अक्षरश्रुत और अनक्षरश्रुत दो भेदों को प्रकट करते १. प्र०प० पृ० ४५, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट, १९७७ । २. साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं तदत्यये-न्या० वि० द्वि० भा० २।१ । ३. तत्र साधनं साध्याविनाभावनियमनिश्चयैकलक्षणम्, प्र०प० पृ० ४५ । ४. प्र. प० पृ० ४५ से ४६ । ५. जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ० ६२, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, १९६६ । ६. न्याय विनि० २-१७२ तथा प्र० प० पृ० ५७ । ७. न्याय दी० पृ० ७२, ३-२४ । ८. प्र०प० पृ० ५८, संस्करण पूर्वोक्त ही। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए उसे अकलंक के अभिप्रायानुसार श्रुतज्ञान बतलाया है और स्वार्थानुमान को अभिनिबोधरूप मतिज्ञानविशेष अनुमान कहा है । आगम की प्राचीन परम्परा यही है । " श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम विशेष रूप अन्तरंग कारण तथा मतिज्ञानरूप बहिरंग कारण के होने पर मन के विषय को जानने वाला जो अविशद ज्ञान होता है वह श्रुत ज्ञान है ।" अथवा आप्त के वचन आदि के संकेत से होने वाला अस्पष्ट ज्ञान श्रुत (आगम) है। यह सन्तति की अपेक्षा अनादिनिधन है। उसकी जनक सर्वेश परम्परा भी अनादिनिधन है। बीजांकुरसन्तति की तरह दोनों का प्रवाह अनादि है। अतः सर्वज्ञोक्त वचनों से उत्पन्न ज्ञान श्रुत है और वह निर्दोष पुरुषजन्य एवं अविशद होने से परोक्ष प्रमाण है। इस प्रकार परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं । १. २. ३. ४. ५. जैन प्रमाण शास्त्र : एक अनुचिन्तन प्रत्यक्ष अब दूसरे प्रमाण प्रत्यक्ष का भी संक्षेप में विवेचन किया जाता है। जो इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि पर की अपेक्षा से न होकर मात्र आत्मा की अपेक्षा से होता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान है । आगम परम्परा के अनुसार प्रत्यक्ष का यही स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है। तत्त्वार्थ सूत्रकार और उनके आद्य टीकाकार पूज्यपाद - देवनन्दि ने प्रत्यक्ष का यही लक्षण बतलाया है । अकलंकदेव ने प्रत्यक्ष के इस लक्षण को आत्मसात् करते हुए उसका एक नया दूसरा भी लक्षण प्रस्तुत किया है, जो दार्शनिकों द्वारा अधिक ग्राह्य और लोकप्रिय हुआ है । वह है विशदता – स्पष्टता । जो ज्ञान विशद अर्थात् अनुमानादि शानों से अधिक विशेष प्रतिभासी है यह प्रत्यक्ष है। व्यक्ति के वचन से उत्पन्न अथवा वहाँ अग्नि है, क्योंकि धुआं दिख रहा है ऐसे धूमादि साधनों से जनित अनि के ज्ञान से यह (सामने) अग्नि है, अग्नि को देखकर हुए अग्निज्ञान में जो विशेष प्रतिभासरूप वैशिष्ट्य अनुभव में आता है उदाहरणार्थ, अग्नि है ऐसे किसी विश्वस्त उसी का नाम विशदता है । और यह विशदता ही प्रत्यक्ष का लक्षण है। तात्पर्य यह है कि जहाँ अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है वहाँ स्पष्ट ज्ञान प्रत्यक्ष है । प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञानों की भेदक रेखा यह स्पष्टता और अस्पष्टता ही है । उत्तरवर्ती सभी जैन दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष का यही लक्षण स्वीकार किया है । विद्यानन्द ने विशदता का विशेष विवेचन किया है। प्रत्यक्ष के भेदों का भी उन्होंने काफी विस्तारपूर्वक निरूपण किया है।" उन्होंने बतलाया है कि प्रत्यक्ष तीन प्रकार का है - १० इन्द्रियप्रत्यक्ष, २ अनिन्द्रिप्रत्यक्ष और ३. अतीन्द्रियप्रत्यक्ष । इन्द्रियप्रत्यक्ष प्रारम्भ में चार प्रकार का है - १. अवग्रह, २. ईहा, ३. अवाय और ४. धारणा । ये चारों पांचों इन्द्रियों और बहु आदि बारह अर्थभेदों के निमित्त से होते हैं । अतः ४ x ५ X १२ = २४० भेद अर्थावग्रह की अपेक्षा से हैं तथा व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता। किन्तु स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियों से बहु आदि बारह अर्थभेदों में होता है, इसलिए उसके १x४१२ =४८ भेद निष्पन्न होते हैं । इस तरह इन्द्रियप्रत्यक्ष के २४०+४८२८८ भेद हैं । ७. विशेष के लिए देखें, जैन तर्कशास्त्र में अनुमान विचार, पृ० ७७-७८, संस्करण पूर्वोक्त । प्र० प० पृ० ५८ । स० सि० ० १ १२, भा० ज्ञानपीठ सं० । वही । प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारतः - लघी० १. ३, अकलंक ग्र० । अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् । १३५ मतं बुद्ध वंशद्यमतः परम् ॥ लीय० १.४, अकलंक ० तत् त्रिविधम् - इन्द्रियानिन्द्रियातीन्द्रिय प्रत्यक्ष विकल्पात् । तत्रेन्द्रियप्रत्यक्षं सांव्यावहारिकं देशतो विशदत्वात् । तद्वदनिन्द्रियप्रत्यक्षम् तस्यान्तर्मुखाकारस्य कथंचिद्वैशद्यसिद्धः । अतीन्द्रियप्रत्यक्षं तु द्विविधं विकल प्रत्यक्षं सकलप्रत्यक्षं चेति । 1- प्र० प० पृ० ३८, संस्करण पूर्वोक्त । .... . Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड अनिन्द्रियप्रत्यक्ष केवल मन से उक्त बारह अर्थभेदों में होता है और अवग्रह आदि चारों रूप होता है। अत: उसके १४४४१२=४८ भेद हैं। इस प्रकार इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष के कुल २८८+४८-३३६ भेद हैं। यत: ये दोनों प्रत्यक्ष मतिज्ञान अथवा संव्यवहारप्रत्यक्ष हैं, अतः ये ३३६ भेद उसके जानना चाहिए। अतीन्द्रियप्रत्यक्ष के दो भेद हैं-१. विकल और २. सकल । विकल अतीन्द्रियप्रत्यक्ष के भी दो भेद हैं—१. अवधि और २. मन:पर्यय । सकल अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष एक ही प्रकार का है और वह है- केवलज्ञान । इनका विशेष विवेचन प्रमाण परीक्षा में उपलब्ध है। इस प्रकार जैन दर्शन में प्रमाण के मूलत: प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही भेद माने गये हैं। प्रमाण का विषय जैन दर्शन में वस्तु अनेकान्तात्मक स्वीकार की गयी है । अतः प्रत्यक्ष प्रमाण हो, चाहे परोक्ष (अनुमानादि) प्रमाण, सभी सामान्य-विशेषरूप, द्रव्य-पर्यायरूप, भेदाभेदरूप, नित्यानित्यरूप आदि अनेकान्तरूप वस्तु को विषय करते अर्थात् जानते हैं । केवल सामान्य, केवल विशेष आदि रूप वस्तु को कोई प्रमाण विषय नहीं करते, क्योंकि वैसी (एकान्तरूप) वस्तु नहीं है। वस्तु तो विरोधी नानाधर्मों को लिए हुए अनेकान्तरूप है और वही प्रमाण का विषय है। प्रमाण का फल प्रमाण का फल अर्थात् प्रयोजन वस्तु को जानना और प्रमाता के अज्ञान को दूर करना है । यह उसका साक्षात् फल है। वस्तु को जानने के उपरान्त उसके उपादेय होने पर उसमें ग्रहण बुद्धि, हेय होने पर उसमें हेयबुद्धि और उपेक्षणीय होने पर उपेक्षा (तटस्थता) बुद्धि होती है। ये बुद्धियाँ प्रमाण का परम्परा फल हैं। प्रत्येक प्रमाता को ये दोनों फल प्राप्त होते हैं। स्मरण रहे, ये दोनों फल प्रमाण तथा प्रमाता से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं। दोनों एक ही प्रमाता को होते हैं, इसलिए अभिन्न हैं और प्रमाण तथा फल का भेद होने से वे प्रमाण और फल कथंचित् भिन्न हैं। नय प्रमाण का विवेचन करने के बाद यहाँ नय का भी विवेचन आवश्यक है, क्योंकि प्रमाण की तरह नय भी वस्तु के ज्ञान का अपरिहार्य साधन है । जहाँ पदार्थों (वस्तुओं) का यथार्थ ज्ञान प्रमाण द्वारा अखण्ड (समग्र अनेकान्त) रूप में होता है वहाँ नय द्वारा उनका ज्ञान खण्ड-खण्ड (एक-एक धर्म--एकान्त) रूप में होता है : धर्मी (पूर्णवस्तु) का ज्ञान प्रमाण और धर्मों-अंशों का ज्ञान नय है। दूसरे शब्दों में विवक्षा या अभिप्राय के अनुसार होने वाला अंशग्राही ज्ञान नय है। यह नय भी मूलतः दो प्रकार का है-१. द्रव्याथिक और २. पर्यायाथिक । द्रव्याथिकनय द्रव्य (वस्तु के शाश्वत अंश) को और पर्यायाथिक पर्याय (वस्तु के अशाश्वत अंश-उत्पाद-व्यय) को ग्रहण करता है। अध्यात्म शास्त्र की दृष्टि से निश्चयनय और व्यवहारनय इन दो नयों का प्रतिपादन किया गया है। निश्चयनय वस्तु के असंयोगीरूप (भूतार्थ) को और व्यवहार नय संयोगीरूप (अभूतार्थ) को ग्रहण करते हैं। इन नयों के अवान्तर भेदों का निरूपण जैनशास्त्रों में विपुल मात्रा में पाया जाता है। इस प्रकार प्रमाण और नय दोनों से वस्तुपरिच्छिन्न होने से वे न्यायशास्त्र अथवा प्रमाणशास्त्र के प्रतिपाद्य हैं। हमने यहाँ उनका संक्षेप में अनुचिन्तन करने का प्रयास किया है। १. प्र०प०, पृ० ६५. प्र० प०, पृ० ६६. लघीय० का० ३०-४६. ३. Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-.-. -. -.-.-.-.-.-. -.-.-.-.-.-. -.-. -. -. -. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-. . ..... जैन आचार दर्शन : एक मूल्यांकन 0 डॉ० सागरमल जैन [दर्शन विभाग, हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल (म.प्र.)] किसी भी आचार दर्शन का मानव-जीवन के सन्दर्भ में क्या मूल्य हो सकता है यह इस बात पर निर्भर है कि वह मानव-जीवन एवं मानव-समाज की समस्याओं का निराकरण करने में कहाँ तक समर्थ है और मानव-जीवन एवं मानव-समाज को उसका क्या सक्रिय योगदान है। जैन आचार दर्शन का मूल्यांकन करने के लिए हमें इस बात पर विचार करना होगा कि यह वैयक्तिक एवं सामाजिक विकास तथा वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए कौन से सूत्र प्रस्तुत करता है और वे सुत्र समस्याओं के समाधान एवं मानवीय जीवन की प्रगति करने में कितने सक्षम हैं। साथ ही यह विचार भी आवश्यक है कि उसका वैयक्तिक एवं समाजिक जीवन पर क्या प्रभाव रहा है और उसने युग की सामाजिक समस्याओं का समाधान किस रूप में प्रस्तुत किया है। सर्वप्रथम हम जैन दर्शन का मूल्यांकन करने के लिए इस सम्बन्ध में विचार करेंगे कि जैन दर्शन ने विशेषकर महावीर के युग की तत्कालीन समस्याओं का समाधान किस रूप में प्रस्तुत किया है और उस युग के सन्दर्भ में उसका क्या मूल्य हो सकता है। महावीर के युग की आचार दर्शन सम्बन्धी समस्याएँ और जैन दृष्टिकोण (अ) नैतिकता की विभिन्न धारणाओं का समन्वय : महावीर के युग के आचार दर्शन की सबसे प्रमुख समस्या यह थी कि उस युग में आचार दर्शन सम्बन्धी मान्यताएँ एकांगी दृष्टिकोण को ही पूर्ण सत्य समझकर परस्पर एक दूसरे के विरोध में खड़ी हुई थों । महावीर ने सर्वप्रथम इन्हें समन्वय सूत्र में बाँधने का प्रयास किया । उस युग में आचार दर्शन सम्बन्धी चार दृष्टिकोण चार विभिन्न तात्त्विक आधारों पर खड़े हुए थे। क्रियावादी दृष्टिकोण आचार के बाह्य पक्षों पर अधिक बल देता था । वह कर्मकाण्डपरक था और आचार के बाह्य नियमों को ही नैतिकता का सर्वस्व मानता था । बौद्ध परम्परा में नैतिकता की इस धारणा को शीलव्रतपरामर्श कहा गया है। क्रियावाद के विपरीत दूसरा दृष्टिकोण अक्रियावाद का था । अक्रियावाद के तात्त्विक आधार पर खड़े हुए विभिन्न नियतिवादी दृष्टिकोण आत्मा को कूटस्थ एवं अकर्ता मानते थे। जहाँ क्रियावाद के अनुसार कर्म या आचरण ही नैतिक जीवन का सर्वस्व था वहाँ अक्रियावाद के अनुसार ज्ञान ही नैतिकता का सर्वस्व माना गया था। क्रियावाद कर्ममार्ग का प्रतिपादक था और अक्रियावाद ज्ञानमार्ग का प्रतिपादक था। कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग के अतिरिक्त तीसरी परम्परा अज्ञानवादियों की थी जो अतीन्द्रिय एवं पारलौकिक मान्यताओं और उन पर आधारित नैतिक प्रत्ययों को 'अज्ञेय' स्वीकार करती थी। इसका नैतिक दर्शन रहस्यवाद और सन्देहवाद इन दो रूपों में विभाजित था। इन तीनों परम्पराओं के अतिरिक्त चौथी परम्परा विनयवाद की थी जिसे नैतिक जीवन के सन्दर्भ में भक्तिमार्ग का प्रतिपादक माना जाता था। विनयवाद भक्तिमार्ग का ही अपरनाम था । इस प्रकार उस युग में ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग और अज्ञेयमार्ग एवं सन्देहवाद को परम्पराएं अलग-अलग रूप में प्रतिष्ठित थीं। महावीर ने अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के आधार पर इनमें एक समन्वय खोजने का प्रयास किया। सर्वप्रथम उन्होंने सम्यक्ज्ञान, सम्यकदर्शन और सम्यक Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड -.--.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.......................................... चारित्र के रूप में आचार दर्शन का एक ऐसा सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसमें ज्ञानवादी, कर्मवादी और भक्तिमार्गी परम्पराओं का समुचित समन्वय था। इस प्रकार महावीर एवं जैनदर्शन का प्रथम प्रयास आचार दर्शन के सम्बन्ध में विभिन्न एकांगी दृष्टिकोणों के मध्य समन्वय स्थापित करना था । यद्यपि यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन परम्परा सन्देहवाद को किसी भी अर्थ में स्वीकृत नहीं करती है । (ब) नैतिकता के बहिर्मुखी एवं अन्तर्मुखी दृष्टिकोगों का समन्वय : जैन दर्शन ने न केवल ब्राह्मणवाद द्वारा प्रतिपादित यज्ञ-याग की परम्परा का विरोध किया वरन् श्रमण परम्परा के देह-खण्डन की तपस्यात्मक प्रणाली का भी विरोध किया। सम्भवतः महावीर के पूर्व तक नैतिकता का सम्बन्ध बाह्य तथ्यों से ही जोड़ा गया था, यही कारण था कि जहाँ ब्राह्मण वर्ग यज्ञ-याग के क्रिया-काण्डों में नैतिकता की इतिश्री मान लेता था, वहाँ श्रमण वर्ग भी विविध प्रकार के देह-खण्डन में ही नैतिकता की इतिश्री मान लेता था। सम्भवत: जैन परम्परा के महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थकर पार्श्वनाथ की नैतिक एवं आध्यात्मिक साधना के परिणामस्वरूप कुछ श्रमण परम्पराओं ने इस आन्तरिक पहलू पर अधिक बल देना प्रारम्भ कर दिया था लेकिन महावीर के युग तक नैतिकता एवं सधना का बाह्यमुखी दृष्टिकोण पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया था वरन् ब्राह्मण परम्परा में तो यज्ञ, श्राद्धादि के रूप में वह अधिक प्रसार पा गया था। दूसरी ओर जिन विचारकों ने नैतिकता के आन्तरिक पक्ष पर बल देना प्रारम्भ किया था, उन्होंने बाह्य पक्ष की पूरी तरह अबहेलना करना प्रारम्भ कर दिया था, परिणामस्वरूप वे भी एक दूसरी अति की ओर जाकर एकांगी बन गये थे। अतः महावीर ने दोनों ही पक्षों के मध्य समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया और यह बताया कि नैतिकता का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है, उसमें आचरण के बाह्य पक्ष के रूप में क्रिया का जो स्थान है उससे भी अधिक स्थान आचरण के आन्तरिक प्रेरक का है। इस प्रकार उन्होंने नैतिक जीवन में आचरण के प्रेरक और आचरण के परिणाम दोनों पर ही बल दिया। मानव मात्र की समानता का उद्घोष उस युग की सामाजिक समस्याओं में वर्ण व्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण समस्या थी । वर्ग का आधार, कर्म और स्वभाव को छोड़कर, जन्म मान लिया गया था, परिणामस्वरूप वर्ण व्यवस्था विकृत हो गई थी और उसके आधार पर ऊँच-नीच के भेदभाव खड़े हो गये थे जिसके कारण सामाजिक स्वास्थ्य विषमता के ज्वर से आक्रान्त था। जैन विचारणा ने जन्मना जातिवाद का विरोध किया और मानवों की समानता का उद्घोष किया। एक ओर उसने हरकेशबल जैसे निम्न कुलोत्पन्न को तो दूसरी ओर गौतम जैसे ब्राह्मण कुलोत्पन्न साधकों को अपने साधना मार्ग में समान रूप से दीक्षित किया। न केवल जातिगत विभेद वरन् आर्थिक विभेद भी साधना की दृष्टि से उसके सामने कोई मूल्य नहीं रखता है । जहाँ एक ओर मगध सम्राट श्रेणिक तो दूसरी ओर पुणिया जैसे निर्धन धावक उसकी दृष्टि में समान थे । इस प्रकार उसने जातिगत आधार पर ऊँच-नीच का भेद अस्वीकार कर मानव मात्र की समानता का उद्घोष किया। ईश्वरवाद से मुक्ति और मानवीय स्वतन्त्रता में निष्ठा उस युग की दूसरी समस्या यह थी कि मानवीय स्वतन्त्रता का मूल्य लोगों की दृष्टि में कम आँका जाने लगा था। एक ओर ईश्वरवादी धारणाएँ तो दूसरी ओर कालवादी एवं अन्य नियतिवादी धारणाएँ मानवीय स्वतन्त्रता को अस्वीकार करने लगी थी । जैन आचार दर्शन ने इस कठिनाई को समझा और मानव की स्वतन्त्रता की पुन: प्राणप्रतिष्ठा की। उसने यह उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न अन्य शक्तियाँ ही मानव की निर्धारक है, वरन् मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है । इस प्रकार उसने मनुष्य को ईश्वरवाद की उस धारणा से मुक्ति दिलाई जो मानवीय स्वतन्त्रता का अपहरण कर रही थी वस्तुत: मानवीय स्वतन्त्रता में निष्ठा ही नैतिक दर्शन का सच्चा आधार बन सकती है। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार दर्शन : एक मूल्यांकन १३५ .-. -.-.-. -.-. -.-.-.-.-....... ....... .. .... ........ .. ...... .. ..... ....... परम्परागत रूढ़िवाद से मुक्ति जैन आ चार दर्शन ने परम्परागत रूढ़िवाद से भी मानव-जाति को मुक्त किया था। उसने उस युग की अनेक रूढ़ियों जैसे पशु-यज्ञ, श्राद्ध, पुरोहितवाद आदि से मानव-समाज को मुक्त करने का प्रयास किया था और इसलिए उसने इन सबका खुला विरोध भी किया । ब्राह्मण वर्ग ने अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि वताकर सामाजिक शोषण का जो कुचक्र प्रारम्भ किया था उसे समाप्त करने के लिए जैनधर्म एवं बौद्ध परम्पराओं ने खुला विद्रोह किया और मानव जाति को रूढ़िवाद के पंक से उबारने का प्रयास किया। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन परम्परा ने इसका जो विरोध किया वह पूर्णतया अहिंसक था। जैन और बौद्ध आचार्यों ने अपने इस विरोध में जो सबसे महत्त्वपूर्ण काम किया, वह यह था कि अनेक प्रत्ययों की नई परिभाषाएँ की गईं। नीचे हम जैन दर्शन के द्वारा प्रस्तुत ब्राह्मण, यज्ञ आदि की कुछ नई परिभाषाएँ प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। ब्राह्मण का नया अर्थ जैन परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता और निम्नता को प्रतिमान माना । उसने यह बताया कि ब्राह्मण की श्रेष्ठता हमें स्वीकार है, लेकिन उसके लिए ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की जिसमें सदाचरण को ही ब्राह्मणत्व का आधार बताया। उत्तराध्ययन सूत्र के पच्चीसवें अध्ययन एवं धम्मपद के ब्राह्मण वर्ग नामक अध्याय में सच्चा ब्राह्मण कौन है इसका सविस्तार विवेचन उपलब्ध है। विस्तार भय से हम उसकी समग्र चर्चा में नहीं जाते हुए केवल एक दो पद्यों को प्रस्तुत कर ही विराम लेंगे। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि जो जल में उत्पन्न हुए कमल के समान भोगों के उपलब्ध होते हुए भी भोगों में लिप्त नहीं रहता, वही सच्चा ब्राह्मण है । जो राग, द्वेष और भय से मुक्त होकर अन्तर् में विशुद्ध है, वही सच्चा ब्राह्मण है।' धम्मपद में बुद्ध का कथन भी ऐसा ही है। वे कहते हैं कि जैसे कमलपत्र पर पानी होता है, जैसे आरे की नोक पर सरसों का दाना होता है-वैसे ही जो कामों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने दुःखों के क्षय को यहीं पर देख लिया है, जिसने (जन्ममरण के) भार को उतार दिया है, जो सर्वथा अनासक्त है, जो मेधावी है, स्थितप्रज्ञ है, जो सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जानने में कुशल है और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुँच चुका है-उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार दर्शन एवं बौद्ध परम्परा दोनों ने ही ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए भी ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की जो कि श्रमणिक परम्परा के अनुकूल थी। न केवल जैन परम्परा एवं बौद्ध परम्परा में वरन् महाभारत में भी ब्राह्मणत्व की यही परिभाषा प्रस्तुत की गई। जैन परम्परा के उत्तराध्ययन सूत्र, बौद्ध परम्परा के धम्मपद और महाभारत के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का जो विवरण हमें मिलता है वह न केवल वैचारिक साम्य रखता है वरन् उसमें शाब्दिक साम्य भी बहुत अधिक है जो कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यज्ञ का नया अर्थ जिस प्रकार इन आचार दर्शनों में ब्राह्मणत्व की नई परिभाषा प्रस्तुत की गई उसी प्रकार यज्ञ को भी एक नये अर्थ में परिभाषित किया गया। महावीर ने न केवल हिंसक यज्ञों के विरोध में अपने मन्तव्यों को प्रस्तुत किया वरन उन्होंने यज्ञ की आध्यात्मिक एवं तपस्यापरक नई परिभाषा भी प्रस्तुत की है। उत्तराध्ययन सूत्र में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन उपलब्ध है, जिसमें बताया गया है कि तप अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मन, वचन और काया की प्रवृत्तियाँ कल्छी (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है, यही ० १. २. उत्तरा० २५।२७, २१. धम्मपद ४०१ । ४०३. Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .... .... .... .. .. .. -.-. -. यज्ञ संयम से युक्त होने से शान्तिदायक और सुखकारक है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है।' न केवल जैन परम्परा में वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी यज्ञ-याग की बाह्य परम्परा का खण्डन और उसके आध्यात्मिक स्वरूप का चिन्तन उपलब्ध है। बुद्ध ने भी आध्यात्मिक यज्ञ के स्वरूप का चित्रण लगभग उसी रूप में किया है, जिस रूप में उसका विवेचन उत्तराध्ययन में किया गया है। अंगुत्तरनिकाय में यह के आध्यात्मिक स्वरूप का चित्रण करते हुए बुद्ध कहते हैं कि "हे ब्राह्मण, ये तीन अग्नियाँ त्याग करने, परिवर्जन करने के योग्य हैं, इनका सेवन नहीं करना चाहिए। वे कौन-सी हैं ? कामाग्नि, ट्रेवाग्नि और मोहाग्नि । जो मनुष्य कामाभिभूत होता है वह काया-वाचा-मनसा कुकर्म करता है और उससे मरणोत्तर दुर्गति पाता है। इसी प्रकार द्वेष एवं मोह से अभिभूत भी काया-वाचा-मनसा कुकर्म करके दुर्गति को पाता है। इसलिए ये तीन अग्नियाँ त्याग करने और परिवर्जन के लिए योग्य हैं, उनका सेवन नहीं करना चाहिए ।" "हे ब्राह्मण इन तीन अग्नियों का सत्कार करें, इन्हें सम्मान प्रदान करें, इनकी पूजा और परिचर्या भली भाँति, सुख से करें। ये अग्नियाँ कौन सी हैं ? आह्वनीयाग्नि (आहुनेययग्गि), गार्हपत्याग्नि (गहपतग्गि) और दक्षिणाग्नि (दक्खिणय्यग्गि)। माँ-बाप को आह्वनीयाग्नि समझना चाहिए और बड़े सत्कार से उनकी पूजा करनी चाहिए। पत्नी और बच्चे, दास तथा कर्मकार को गार्हपत्याग्नि समझने चाहिए और आदरपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए। हे ब्राह्मण ! यह लकड़ियों की अग्नि तो कभी जलानी पड़ती है, कभी उसकी उपेक्षा करनी पड़ती है और कभी उसे बुझानी पड़ती है। इस प्रकार बुद्ध ने भी हिंसक यज्ञों के स्थान पर यज्ञ के आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वरूप को प्रकट किया। मात्र इतना ही नहीं उन्होंने सच्चे यज्ञ का अर्थ सामाजिक जीवन से बेकारी का नाश करना बताया । न केवल जैन एवं बौद्ध परम्परा में वरन् गीता में यज्ञ-याग की निन्दा की गई और यज्ञ के सम्बन्ध में उसने भी सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचना की। सामाजिक सन्दर्भ में गीता में यज्ञ का अर्थ समाज-सेवा माना गया है। निष्कामभाव से समाज-सेवा करना यह गीता में यज्ञ का सामाजिक पहलू था। दूसरी ओर गीता में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन भी किया गया है। गीताकार कहता है-कि योगीजन संयम रूप अग्नि में श्रोतादि इन्द्रियों का हवन करते हैं या इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं। दूसरे कुछ साधक इन्द्रियों के सम्पूर्ण कर्मों को और शरीर के भीतर रहने वाला वायु जो प्राण कहलाता है, उसके संकुचित होने 'फैलने' आदि कर्मों को, ज्ञान से प्रकाशित हुई आत्मसंयम रूप योगाग्नि में हवन करते हैं । आत्मविषयक संयम का नाम आत्मसंयम है, वही यहाँ योगाग्नि है। घृतादि से प्रज्वलित हुई अन्नि की भांति विवेक विज्ञान से उज्ज्वलता को प्राप्त हुई (धारणा-ध्यान-समाधिरूप) उस आत्म-संयम-योगाग्नि में (वे प्राण और इन्द्रियों के कर्मों को) विलीन कर देते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार दर्शन में यज्ञ के जित आध्यात्मिक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया उसका अनुमोदन बौद्ध परम्परा और गीता में भी उपलब्ध है। तत्कालीन अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों के प्रति नया दृष्टिकोण जैन दिचारकों ने अन्य दूसरे नैतिकता सम्बन्धी विचारों को भी नई दृष्टि प्रदान की बाह्य शौच या स्नान को, जो कि उस समय कर्मकाण्ड और नैतिक जीवन का एक मुख्य रूप मान लिया गया था, एक नया आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है उसमें स्नान करने से आत्मा शान्त निर्मल और शुद्ध हो जाती है। इसी प्रकार बौद्ध दर्शन में भी सच्चे स्नान का अर्थ ३. उत्तरा० १२१४४. अंगुत्तरनिकाय-सुत्तनिपात-उद्धृत भगवान् बुद्ध, पृ० २६. देखिए-भगवान् बुद्ध २३६-२३६. गीता, ४।३३, २५-२८. उत्तरा० १२१४६ । Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार दर्शन : एक मूल्यांकन १४१ मन, वाणी और कर्म से सद्गुणों का सम्पादन माना गया है। न केवल जैन और बौद्ध परम्पराओं में वरन् वैदिक परम्परा में भी यह विचार प्रबल हो गया था कि सच्ची शुद्धि आत्मा में सद्गुणों के विकास में निहित है। इसी प्रकार ब्राह्मणों को दी जाने वाली दक्षिणा के प्रति भी एक नई दृष्टि प्रदान की गई और यह बताया गया कि दान की अपेक्षा संयम ही श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि जो प्रतिमाह सहस्रों का दान करने की अपेक्षा जो बाह्य रूप से दान नहीं करता वरन् संयम का पालन करता है, उस व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है।' इसी प्रकार धम्मपद में भी कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि सौ वर्षों तक हजारों को दक्षिणा देकर प्रतिमास यज्ञ करता जाए और दूसरी तरफ यदि वह पुण्यात्मा की क्षण भर भी सेवा करे, तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक किया हुआ यज्ञ। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध आचार दर्शनों ने तत्कालीन नैतिक मान्यताओं को एक नई दृष्टि और आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया। साथ ही नैतिकता के सम्बन्ध में जो बहिर्मुखी दृष्टिकोण था उसे आध्यात्मिक संस्पर्श देकर अन्तर्मुखी बनाया। इन आचार दर्शनों ने उस युग के नैतिक चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित किया । लेकिन मात्र इतना ही नहीं कि उन्होंने अपने युग की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया था वरन् इन आचार दर्शनों में वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान की शक्ति भी है। अत: यह विचार अपेक्षित है कि युगीन परिस्थितियों में समालोच्य आचार दर्शनों का और विशेष रूप से जैन दर्शन का क्या स्थान हो सकता है, इस पर विचार कर लिया जाय । युगीन परिस्थितियों में जैन आचार दर्शन का मूल्यांकन जैन आचार दर्शन ने न केवल अपने युग की समस्याओं का समाधान किया है वरन् वह वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान में भी पूर्णतया सक्षम है। वस्तुस्थिति यह है कि चाहे वह प्राचीन युग हो या वर्तमान युग, मानव-जीवन की समस्याएँ सभी युगों में लगभग समान रही हैं। मानव-जीवन की समग्र समस्याएँ विषमताजनित ही हैं । वस्तुतः विषमता ही समस्या है और समता ही समाधान है। ये विषमताएँ निम्न हैं—१. सामाजिक बैषम्य, २. आर्थिक औषय, ३. वैचारिक वैषम्य, ४. मानसिक वैषम्य । अब हमें विचार यह करना है कि क्या जैन आचार दर्शन इन विषमताओं का निराकरण कर समत्व का संस्थापन करने में समर्थ है ? नीचे हम प्रत्येक प्रकार की विषमताओं के कारणों का विश्लेषण और जैन दर्शन द्वारा प्रस्तुत उनके समाधानों पर विचार करेंगे। १. सामाजिक विषमता चेतन जगत् के अन्य प्राणियों के साथ जीवन जीना होता है । यह सामुदायिक जीवन है । सामुदायिक जीवन का आधार सम्बन्ध है और नैतिकता उन सम्बन्धों की शुद्धि का विज्ञान है। पारस्परिक सम्बन्ध निम्न प्रकार के हैं(१) व्यक्ति और परिवार, (२) व्यक्ति और जाति, (३) व्यक्ति और समाज, (४) व्यक्ति और राष्ट्र, और (५) व्यक्ति और विश्व । इन सम्बन्धों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है। सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है। जब तक सम्बन्ध राग द्वेष के आधार पर खड़ा होता है तब तक इन सम्बन्धों में विषमता स्वाभाविक रूप से उपस्थित रहती है। जब राग का तत्त्व द्वष का सहगामी होकर काम करने लगता है तो पारस्परिक सम्बन्धों में संघर्ष और टकराहट प्रारम्भ हो जाती है। राग के कारण मेरा या ममत्व का भाव उत्पन्न होता है। मेरे सम्बन्धी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र ये विचार विकसित होते हैं। परिणामस्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद का जन्म होता है। आज के हमारे सुमधर सामाजिक सम्बन्धों में ये ही तत्त्व सबसे अधिक बाधक हैं । ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठने नहीं देते हैं । यही - १. उत्तरा० ६।४०. धम्मपद १०६. Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ........................................................-.-.-.-.-.-.-.-. आज की सामजिक विषमता के मूल कारण हैं । अनैतिकता का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा है, व्यक्ति जिसे अपना मानता है उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है। सामाजिक जीवन में शोषण, क्रूर-व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते हैं जिन्हें हम अपना नहीं मानते हैं । यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है कि हम अपनी रागात्मकता या ममत्व वृत्ति का पूर्णतया विसर्जन कर सकें। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि उसका एक सीमा तक विसर्जन किए बिना अपेक्षित नैतिक जीवन का विकास नहीं हो सकता । व्यक्ति का 'स्व' चाहे वह व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन या राष्ट्र की सीमा तक विस्तृत हो हमें स्वार्थ-भावना से ऊपर नहीं उठने देता । स्वार्थ वृत्ति चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति समान रूप से नैतिकता की विरोधी ही सिद्ध होती है। उसके होते हुए सच्चा नैतिक जीवन फलित नहीं हो सकता। मुनि नथमलजी लिखते हैं परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप जैसे जाति या राष्ट्र के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता का नियमन नहीं करता वैसे ही (जाति या राष्ट्र के प्रति ममत्व) राष्ट्र के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता का नियामक नहीं होता। मुझे लगता है कि राष्ट्रीय अनैतिकता की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय अनैतिकता कहीं अधिक है। जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक सचाई है, प्रामाणिकता है, वे भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सत्यनिष्ठ और प्रामाणिक नहीं हैं।' इस प्रकार हम देखते कि व्यक्ति का जीवन जब तक राग या ममत्व से ऊपर नहीं उठता तब तक नैतिकता का सद्भाव सम्भव ही नहीं होता। रागयुक्त नैतिकता, चाहे उसका आधार राष्ट्र अथवा मानव जाति ही क्यों न हो सच्चे अर्थो में नैतिकता नहीं हो सकती । सच्चा नैतिक जीवन वीतराग अवस्था में ही सम्भव हो सकता है और जैन आचार दर्शन इसी वीतराग जीवन-दृष्टि को ही अपनी नैतिक साधना का आधार बनाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह नैतिक जीवन का एक वास्तविक आधार प्रस्तुत करता है। यही एक ऐसा आधार है जिस पर नैतिकता को खड़ा किया आ सकता है और सामाजिक जीवन के वैषम्यों को समाप्त किया जा सकता है। दूसरे इस सामाजिक सम्बन्ध में व्यक्ति का अहम् भाव ही बहुत महत्त्वपूर्ण रूप से कार्य करता है। शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व हैं, इनके कारण भी सामाजिक जीवन में विषमता उत्पन्न होती है। शासक और शासित अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि की श्रेष्ठता के मूल में अहं ही प्रधान है । राष्ट्रीयता के मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहम् की पुष्टि का प्रयत्न है । स्वतन्त्रता के अपहार का प्रश्न इसी स्थिति में होता है। जब व्यक्ति में आधिपत्य की वृत्ति या शासन की भावना होती है तो वह दूसरों के अधिकारों का हनन करता है। जैन आचार दर्शन अहम् के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन में परतन्त्रता को समाप्त करता है। दूसरी ओर जैन दर्शन का अहिंसा सिद्धान्त भी सभी प्राणियों के समान अधिकार को स्वीकार करता है । अधिकारों का हनन एक प्रकार की हिंसा है। अत: अहिंसा का सिद्धान्त स्वतन्त्रता के साथ जुड़ा हुआ है । जैन एवं बौद्ध आचार दर्शन इसी अहिंसा सिद्धान्त के आधार पर स्वतन्त्रता का समर्थन करते हैं। यदि हम सामाजिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता के कारणों का विश्लेषण करें तो यह पाते हैं कि उसके मूल में रागात्मकता ही है। यही राग जब 'पर' केन्द्रित होता है तो अपने और पराये के भेद उत्पन्न कर सामाजिक सम्बन्धों को अशुद्ध बनाता है। दूसरी ओर यही राग जव 'स्व' केन्द्रित होता है तो अहम् या मान का प्रत्यय उत्पन्न करता है । जिसके कारण सामाजिक जीवन में ऊँच-नीच की भावनाओं का निर्माण होता है। इस प्रकार राग का तत्त्व ही मान के रूप में एक दूसरी दिशा ग्रहण कर लेता है जो भी सामाजिक विषमता को उत्पन्न करती है । राग की वृत्ति ही संग्रह (लोभ) और कपट की भावनाओं को विकसित करती है। इस प्रकार सामाजिक जीवन में विषमता के उत्पन्न होने के चार मूलभूत कारण होते हैं (१) संग्रह, (१) आवेश, (३) गर्व, (बड़ा मानना) और (४) माया (छिपाना) । जिन्हें चार कषाय' कहा जाता है। यही चारों कारण अलग-अलग रूप में सामाजिक जीवन में विषमता, १. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० ३-४. Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघर्ष एवं अशान्ति के कारण बनते हैं। १. संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, निरपेक्ष व्यवहार, क्रूर व्यवहार विश्वासवात आदि विकसित होते हैं२. आवेश की मनोवृत्ति के कारण संघर्ष, युद्ध, आक्रमण एवं हत्याएँ आदि होती हैं । ३. गर्व की मनोवृत्ति के कारण घृणा, मैत्रीपूर्ण व्यवहार और क्रूर व्यवहार होता है। इसी प्रकार माया की मनोवृत्ति के कारण अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है।' इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में जिन्हें चार कषाय कहा जाता है उन्हीं के कारण सारा सामाजिक जीवन दुषित होता है। जैन दर्शन इन्हीं कषायों के निरोध को अपनी नैतिक साधना का आधार बनाता है अतः यह कहना उचित ही होगा कि जैन दर्शन अपने साधना - मार्ग के रूप में सामाजिक विषमताओं को समाप्त कर सामाजिक समत्व की स्थापना का प्रयत्न करता है । २. आर्थिक वैषम्य आर्थिक वैषम्य व्यक्ति और भौतिक जगत् के सम्बन्धों से उत्पन्न हुई विषमता है। चेतना का जब भौतिक जगत् से सम्बन्ध होता है तो उसे अनेक वस्तुएँ अपने प्राणमय जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होती हैं । यही आवश्यकता जब आसक्ति में बदल जाती है तो एक और संग्रह होता जाता है, दूसरी ओर संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है; इसी से सामाजिक जीवन में आर्थिक विनता के बीच का वचन होता। जैसे-जैसे एक ओर संग्रह बढ़ता है, दूसरी ओर गरीबी बढ़ती है और परिणामस्वरूप आर्थिक वैषम्य बढ़ता जाता है। आर्थिक वैस्य के मूल में संग्रह भावना ही अधिक है। कहा यह जाता है कि जमाव के कारण संग्रह की चाह उत्पन होती है, लेकिन वस्तुस्थिति कुछ और ही है। स्वाभाविक अभाव की पूर्ति सम्भव है और शायद विज्ञान हमें इस दिशा में सहयोग भी दे सकता है लेकिन कृत्रिम अभाव की पूर्ति सम्भव नहीं । उपाध्याय अमरमुनि जी लिखते हैं कि "गरीबी स्वयं में कोई बहुत बड़ी चीज नहीं, किन्तु पहाड़ों की असीम ऊँचाइयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्ढे पैदा कर दिये हैं। पहाड़ टूटेंगे, तो गड्ढे अपने आप भर जायेंगे, सम्पत्ति का विसर्जन होगा तो गरीबी अपने आप दूर हो जाएगी । वस्तुतः आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति में परिग्रह के विसर्जन की भावना उद्भूत हो परिषद् के विसर्जन से ही आर्थिक वैयम्य समाप्त किया जा सकता है। जब तक संग्रह की वृत्ति समाप्त नहीं होती, आर्थिक समता नहीं आ सकती है । आर्थिक वैम्य का निराकरण असंग्रह की वृत्ति से ही सम्भव है और जैन दर्शन अपने अपरिग्रह के सिद्धान्त के द्वारा इस आर्थिक वैषम्य के निराकरण का प्रवास करता है। जैन आचार दर्शन में गृहस्थ जीवन के लिए भी जिस परिग्रह के सीमांकन का विधान किया गया है वह आर्थिक वैवस्य के निराकरण का एक प्रमुख साधन हो सकता है । आज हम जिस समाजवाद एवं साम्यवाद की चर्चा करते हैं उसका दिशा-संकेत महावीर ने गृहस्थ की व्रत व्यवस्था में किया था । जैन आचार दर्शन एक मूल्यांकन १४३ आर्थिक वैम्य का निराकरण अनासक्ति और अपरिग्रह की साधना के द्वारा ही सम्भव है। यदि हम सामाजिक जीवन में आर्थिक समानता की बात करना चाहते हैं तो हमें व्यक्तिगत सम्पत्ति की सीमा निर्धारण करती ही होगी । परिग्रह का विसर्जन ही आर्थिक जीवन में महत्व का सृजन कर सकता है। जैन दर्शन का अपरिग्रह सिद्धान्त इस सम्बन्ध में पर्याप्त सिद्ध होता है। वर्तमान युग में मार्क्स ने आर्थिक वैषम्य को दूर करने का जो सिद्धान्त साम्यवादी समाज के रचना के रूप में प्रस्तुत किया वह विनताओं के निराकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है लेकिन उसकी मूलभूत कमी यह है कि वह मानव समाज पर ऊपर से थोपा जाता है उसके अन्दर से सहज उभारा नहीं जाता है। जिस प्रकार बाह्य दवाबों से वास्तविक नैतिकता प्रकट नहीं होती उसी प्रकार केवल के बल कानून पर लाया गया। आर्थिक साम्य सच्चे आर्थिक समत्व का प्रकटन नहीं करता है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि १. देखिए नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० २ २. जैन प्रकाश, ८ अप्रेल १६६६, पृ० ११. -- . Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड मनुष्य में स्वतः ही त्याग की वृत्ति का उदय हो और वह स्वेच्छा से ही सम्पत्ति के विसर्जन की दिशा में आगे आवे । भारतीय परम्परा और विशेषकर जैन परम्परा न केवल सम्पत्ति के विसर्जन की बात करती है वरन् उसके समवितरण पर भी जोर देती है। हमारे प्राचीन साहित्य में दान के स्थान पर संविभाग शब्द का ही अधिक प्रयोग हुआ है । जो यह बताता है कि जो कुछ हमारे पास है उसका समविभाजन करना है । महावीर का यह उद्घोष कि 'असंविभागी न हु तस्स मोक्ख' यह स्पष्ट बताता है कि जैन आचार दर्शन आर्थिक विषमता के निराकरण के लिए समवितरण की धारणा को प्रतिपादित करता है। जैनदर्शन के इन सिद्धान्तों को यदि युगीन सन्दर्भो में नवीन दृष्टि से उपस्थित किया जाय तो समाज की आर्थिक समस्याओं का निराकरण खोजा जा सकता है। वर्तमान युग में भ्रष्टाचार के रूप में समाज में आर्थिक क्षेत्र में जो बुराई पनप रही है उसके मूल में भी या तो व्यक्ति की संग्रहेच्छा है या भोगेच्छा । भ्रष्टाचार केवल अभावजनित बीमारी नहीं है वरन् वह एक मानसिक बीमारी है जिसके मूल में संग्रहेच्छा एवं भोगेच्छा के कीटाणु रहे हुए हैं । वस्तुत: वह आवश्यकताओं के कारण नहीं वरन् तृष्णा के कारण उत्पन्न होती है । आवश्यकताओं का निराकरण पदार्थों को उपलब्ध करके किया जा सकता है, लेकिन इस तृष्णा का निराकरण पदार्थों के द्वारा सम्भव नहीं है। इसीलिए जैनदर्शन ने अनासक्ति की वृत्ति को नैतिक जीवन में प्रमुख स्थान दिया है। तृष्णाजनित विकृतियाँ केवल अनासक्ति के द्वारा ही दूर की जा सकती हैं। हमारे वर्तमान युग की प्रमुख कठिनाई यह नहीं है कि हमें सामान्य जीवन जीने के साधन उपलब्ध नहीं है अथवा उनका अभाव है, वरन् कठिनाई यह है कि आज का मानव तृष्णा से इतना अधिक ग्रसित है कि वह एक अच्छा सुखद एवं शान्तिपूर्ण जीवन नहीं जी सकता है। मनुष्य की वासनाएँ ही उसके शान्त जीवन जीने में बाधक हैं। ३. वैचारिक वैषम्य विभिन्न वाद और उनके कारण उत्पन्न वैचारिक विषमता सामाजिक जीवन का एक बड़ा अभिशाप है। वर्तमान युग में राष्ट्रों का जो संघर्ष है उसके मूल में आर्थिक और राजनैतिक प्रश्न इतने महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि वैचारिक साम्राज्यवाद की स्थापना । वर्तमान युग में न तो राजनैतिक अधिकारलिप्सा से उत्पन्न साम्राज्यवाद की भावना पाई जाती है और न आर्थिक साम्राज्यों की स्थापना का प्रश्न ही इतना महत्त्वपूर्ण है, वरन् वर्तमान य ग में बड़े राष्ट्र अपने वैचारिक साम्राज्यों की स्थापना के लिए प्रयत्नशील देखे जाते हैं। जैन आचार दर्शन अपने अनेकान्तवाद और अनाग्रह के सिद्धान्त के आधार पर इस वैचारिक विषमता का निराकरण प्रस्तुत करता है। अनेकान्त का सिद्धान्त वैचारिक आग्रह के विसर्जन की बात करता है और वैचारिक क्षेत्र में दूसरे के विचारों एवं अनुभूतियों को भी उतना ही महत्व देता है जितना कि स्वयं के विचारों एवं अनुभूतियों को। उपरोक्त तीनों प्रकार की विषमताएँ हमारे सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हैं। जैन आचार दर्शन उपरोक्त तीनों विषमताओं के निराकरण के लिए अपने आचार दर्शन में तीन सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। सामाजिक वैषम्य के निराकरण के लिए उसने 'अहिंसा' का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। आर्थिक वैषम्य के निराकरण के लिए 'अपरिग्रह' का सिद्धान्त तथा वैचारिक वैषम्य के निराकरण के लिए 'अनाग्रह' और 'अनेकान्त' के सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं, जो क्रमश: सामाजिक समता, आर्थिक समता और वैचारिक समता की स्थापना करते हैं। लेकिन यह सभी नैतिकता के बाह्य एवं सामाजिक आधार हैं। नैतिकता का आन्तरिक आधार तो हमारा मनोजगत ही है। जैन आचार दर्शन मानसिक विषमता अर्थात् मानसिक तनाव के निराकरण के लिए विशेष रूप के विचार करता है। ४. मानसिक वैषम्य मानसिक वैषम्य मनोजगत में तनाव की अवस्था का सूचक है। जैन आचार दर्शन ने चतुर्विध कषायों को मनोजगत के वैषम्य का मूल कारण माना है। क्रोध, मान, माया और लोभ यह चारों आवेग या कषाय हमारे . मानसिक समत्व को भंग करते हैं। यदि हम व्यक्तिगत जीवन के विघटनकारी तत्त्वों का मनोवैज्ञानिक दृष्टि --0 .. . . . Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार दर्शन : एक मूल्यांकन : १४५ . से विश्लेषण करें तो हम उनके मूल में कहीं न कहीं जैन दर्शन में प्रस्तुत कषायों एवं नोकषायों (आवेगों और उपआवेगों) की उपस्थिति ही पाते हैं । जैन आचार दर्शन कषाय-त्याग के रूप में मनोजगत के वैषम्य के निराकरण का सन्देश देता है। वह बताता है कि हम जैसे-जैसे इन कषायों के ऊपर विजय-लाभ करते हुए आगे बढ़ेंगे वैसे ही हमारे व्यक्तित्व की पूर्णता का प्रकटन भी होवेगा । जैन दर्शन में साधकों की चार श्रेणियाँ मानी गई हैं । जो इन पर क्रमिक विजय को प्रकट करती है। इनके प्रथम तीव्रतम रूप पर विजय पाने पर साधक में यथार्थ दृष्टिकोण का उद्भव होता है। द्वितीय मध्यम रूप पर विजय प्राप्त करने से साधक श्रावक या गृहस्थ उपासक की श्रेणी में आता है । तृतीय अल्प रूप पर बह आत्मपूर्णता को प्रकट कर श्रामण्य को प्राप्त कर लेता है। कषायों की पूर्ण समाप्ति पर एक पूर्ण वीतराग व्यक्तित्व का प्रकटन हो जाता है । इस प्रकार जैन आचार दर्शन कषाय के रूप में हमारी मानसिक विषमताओं का कारण प्रस्तुत करता है और कषायजय के रूप में मानसिक समता के निर्माण की धारणा को स्थापित करता है। प्रत्येक व्यक्ति यह अपेक्षा करता है कि उसका जीवन शान्त एवं सुखी हो। लेकिन यदि हम मानव-मन की अशान्ति और दुःख के कारणों को जानना चाहें तो हम यह पाते हैं कि उनके मूल में हमारे मानसिक तनाव या मनोवेग ही हैं । मानव-मन की अशान्ति एवं उसके अधिकांश दुःख कषायजनित हैं। अतः शान्त और सुखी जीवन के लिए मानसिक तनावों एवं मनोवेगों से मुक्ति पाना आवश्यक है । क्रोधादि कषायों पर विजय-लाभ करके ही हम शान्त मानसिक जीवन जी सकते हैं । अतः मानसिक वैषम्य के निराकरण और मानसिक समत्व के सृजन के लिए हमें मनोवेगों से ऊपर उठना होगा । जैसे-जैसे हम मनोवेगों या कषायचतुष्क से ऊपर उठेंगे वैसे-वैसे ही सच्ची शान्ति का लाभ प्राप्त करेंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार दर्शन जीवन से विषमताओं के निराकरण और समत्व के सृजन के लिए एक ऐसी आचार विधि प्रस्तुत करता है जिसके सम्यक् परिपालन से सामाजिक और वैयक्तिक दोनों ही जीवन में सच्ची शान्ति और वास्तविक सुख का लाभ प्राप्त किया जा सकता है। वैषम्य निराकरण के सूत्र विषमताएं विषमताओं के निराकरण के सिद्धान्त निराकरण का परिणाम . पुरुषार्थ चतुष्टय से सम्बन्ध वैषम्य १. आर्थिक वैषम्य अपरिग्रह (परिग्रह का साम्यवाद अर्थपुरुषार्थ परिसीमन) (समवितरण) २. सामाजिक अहिंसा शान्ति एवं अभय धर्म (नैतिकता) (युद्ध-संघर्ष समाप्ति) पुरुषार्थ ३. वैचारिक अनाग्रह समाधि (वैचारिक धर्म और मोक्ष वैषम्य (अनेकान्त) समन्वय) पुरुषार्थ का समन्वय ४. मानसिक अनासक्ति आनन्द मोक्ष पुरुषार्थ वैषम्य वीतरागावस्था इन निराकरण के सूत्रों के मूल्यों और उनके परिणामों का विस्तृत विवेचन पूर्व में किया जा चुका है। संक्षेप में जैन आचार दर्शन द्वारा प्रस्तुत उपरोक्त वैषम्य निराकरण के सभी सूत्र सामाजिक एवं वैयक्तिक जीवन में समत्व, शान्ति एवं सन्तुलन को स्थापित कर व्यक्ति को दुःखों एवं विषमताओं से मुक्त करते हैं। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड वर्तमान युग में नैतिकता को जीवन दृष्टि क्या हो? यदि हम इन वैषम्यों के कारणों एवं उनके निराकरण के सूत्रों का विश्लेषण करें तो अन्त में यह पाते हैं कि इन सब के मूल में मानसिक वैषम्य है । मानसिक वैषम्य आसक्तिजन्य है । वह आसक्ति का ही दूसरा नाम है । वैयक्तिक जीवन में आसक्ति के एक रूप, जिसे दृष्टि-राग कहा जाता है, से ही साम्प्रदायिक ता, धर्मान्धता और विभिन्न राजनैतिक मतवादों एवं आर्थिक विचारणों का जन्म होता है, जो हमारे सामाजिक जीवन में वर्गभेद एवं संघर्ष का सृजन करते हैं आसक्ति के दूसरे रूप संग्रहवृत्ति और विषयासक्ति से असमान वितरण और भोगवाद का जन्म होता है जिसमें वैयक्तिक एवं सामाजिक विषमताओं और सामाजिक अस्वास्थ्य (रोग) के कीटाणु जन्म लेते हैं भौर उसी में पलते हैं। वर्तमान युग के अनेक विचारकों ने आसक्ति के स्थान पर अभाव को ही समग्र वैषम्यों का कारण माना और उसकी भौतिक पूर्ति के प्रयास को ही वैयक्तिक एवं सामाजिक वैषम्य के निराकरण का आवश्यक साधन माना। लेकिन इसमें आंशिक सत्य होते हुए भी इसे नैतिक जीवन का अन्तिम सत्य उद्घोषित नहीं किया जा सकता है । मनुष्य केवल भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बल पर नहीं जी सकता है। क्राइस्ट ने ठीक ही कहा था कि मनुष्य के लिए केवल रोटी पर्याप्त नहीं है इसका यह अर्थ नहीं है कि वे बिना रोटी के जी सकते हैं। रोटी के बिना तो नहीं जी सकते लेकिन अकेली रोटी से भी नहीं जी सकते हैं । रोटी के बिना जीना असम्भव है और अकेली रोटी पर या रोटी के लिए जीना व्यर्थ है । जैसे पौधों के लिए जड़ें होती हैं, ऐसे ही मनुष्य के लिए रोटी या भौतिक वस्तुएँ हैं। जड़ें अपने आपके लिए नहीं है । फूलों और फलों के लिए वे हैं । फूल और फल न आवे तो उनका होना निरर्थक है । यद्यपि फूल और फल उनके बिना नहीं आ सकते हैं तब भी फूल और फल उनके लिए नहीं है । जीवन में निम्न आवश्यक हैं उच्च के लिए और उच्च के होने में ही वह सार्थक है। मनुष्य को रोटी या भौतिक वस्तुओं की जरूरत है ताकि वह जी सके और जीवन के सत्य और सौन्दर्य की भूख को भी तृप्त कर सके । रोटी, रोटी से भी बड़ी भूखों के लिए आवश्यक है। लेकिन यदि कोई बड़ी भूख नहीं है तो रोटी व्यर्थ हो जाती है। रोटी, रोटी के ही लिए नहीं है । अपने आप में उसका कोई भी मू और अर्थ नहीं है। उसका अर्थ है उसके अतिक्रमण में । कोई जीवन मूल्य जो कि उसके पार निकल जाता है, उसमें ही उसका अर्थ है ?' वस्तुतः हमने भौतिक मूल्यों की पूर्ति को ही अन्तिम मानकर बहुत बड़ी गलती की है। भौतिक पूर्ति अन्तिम नहीं है । यदि वही अन्तिम होती तो आज मनुष्य में उच्च मूल्यों का विकास पहले की अपेक्षा अधिक होना था क्योंकि वर्तमान युग में हमारी भौतिक सुख-सुविधाएँ पहले की अपेक्षा अधिक बढ़ी हैं लेकिन फिर भी उच्च मूल्यों का विकास उतना नहीं हो पाया है। आर्थिक विकास और व्यवस्था होने पर भी आज का सम्पन्न मनुष्य उतना ही अर्थ-लोलुप है जितना पहले था। वैज्ञानिक विकास अपने चरम शिखर पर है, फिर भी आज का विज्ञानजीवी मनुष्य उतना ही आक्रामक है, जितना पहले था। शिक्षा का स्तर बहुत ऊँचा होने पर भी आज का शिक्षित मनुष्य उतना ही स्वार्थी है, जितना पहले था। आर्थिक, वैज्ञानिक और शैक्षणिक विकास ने मनुष्य के व्यवहार को बदला है, पर उसी को बदला है, जो उनसे सम्बन्धित है। मनुष्य में ऐसी अनेक मूलप्रवृत्तियाँ हैं, जिन्हें ये नहीं बदल सकते हैं। क्रोध, अभिमान, कपट, लोभ, भय, शोक, घृणा, काम-वासना, कलह-ये मनुष्य की शाश्वत मूलप्रवृत्तियाँ हैं । आर्थिक अभाव तथा अज्ञान के कारण जो सामाजिक दोष उत्पन्न होते हैं, वे आर्थिक और शैक्षणिक विकास से मिट जाते हैं किन्तु मूलप्रवृत्तियों से उत्पन्न होने वाले दोष उनसे नहीं मिटते हैं। मूलप्रवृत्तियों का नियन्त्रण या शोधन आध्यात्मिकता से ही हो सकता है, इसलिए समाज में उसका अस्तित्व अनिवार्य है। __ जो विचारक यह मानते हैं कि आधुनिक विज्ञान की सहायता से मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति १. .२ नये संकेत, पृ० ५७. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० २५ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आचार दर्शन एक मूल्यांकन १४७ कर दी जायगी और इस प्रकार इस संसार में एक स्वर्ग का अवतरण हो सकेगा, वे वस्तुतः भ्रान्ति में ही हैं । वस्तुतः मनुष्य के लिए जिस आनन्द और शान्तिमय जीवन की अपेक्षा है वह मात्र भोगों की पूर्ति में विकसित नहीं हो सकता है । यह आज भी सत्य है, कि अनेक लोग जिन्हें सन्तुष्टि के अल्प साधन उपलब्ध है, अधिक आनन्दित हैं, अपेक्षाकृत उनके जो भौतिक सुख-सुविधाओं की पूर्ति के होते हुए भी उतने आनन्दित नहीं हैं। आज के संसार में संयुक्त राज्य अमेरिका जैसा राष्ट्र जो कि भौतिक सुख-सुविधाओं की दृष्टि से सम्पन्न होते हुए भी आज उसके नागरिक मानसिक तनावों से सर्वाधिक पीड़ित हैं। आज का मानव जिस संघर्ष की भयावह एवं तनावपूर्ण स्थिति में है उसका कारण साधनों का अभाव नहीं वरन् उपयोग की योग्यता एवं मनोवृत्ति है। यह सत्य है कि वैज्ञानिक उपलब्धियाँ मनुष्य को सुख और सुविधाएँ प्रदान कर सकती हैं, लेकिन यह इसी बात पर निर्भर है कि मनुष्य की जीवन-दृष्टि क्या है ? विज्ञान में मानव को जहाँ एक ओर सुखी और सम्पन्न करने की क्षमता है वहीं दूसरी ओर वह उसका विनाश भी कर सकता है। यह तो उसके उपयोग करने वालों पर निर्भर है कि वे कैसा उपयोग करते हैं और यह बात उनको जीवन-दृष्टि पर ही आधारित होगी। विज्ञान आध्यात्मिक एवं उच्च मानवीय मूल्यों से समन्वित होकर ही मनुष्य का कल्याणसाधक हो सकता है अन्यथा वह उसका संहारक ही सिद्ध होगा । अतः आज आवश्यक यह है कि मनुष्य में आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि एवं उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा जाग्रत की जाय । +++0+0 आज मान्यता यह हो रही है कि नैतिक एवं उच्च मूल्यों के प्रति निष्ठा रखने वाला मनुष्य सुख-सुविधा की दृष्टि से घाटे में रहता है, इसीलिए नैतिकता एवं आध्यात्मिक जीवन के प्रति मनुष्य में सहज आकर्षण नहीं है । जीवन की आवश्यकताएं जितनी अधिक होती है, उतनी ही सामाजिक उन्नति होती है. इस मान्यता ने समाज में भोग की स्पर्धा खड़ी कर दी है। अब कोई भी व्यक्ति इस दौड़ में पीछे रहना नहीं चाहता। हम भ्रष्टाचार करने वाले को दोष देते हैं, पर कितना आश्चर्य है कि भ्रष्टाचार की प्रेरणा जहां से फूटती है, उस ओर ध्यान नहीं देते। नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिस्थापना के लिए आवश्यक है कि जीवन की आवश्यकताओं को कम करने, सादा सरल जीवन बिताने त्याग व निःस्वार्थ वृत्ति को राष्ट्रीय संस्कृति का अभिन्न अंग माना जाए समाज की एक मान्यता भी चाहे जितने कष्ट आ जाएँ पर सत्य और प्रामाणिकता अखण्ड रहनी चाहिए। इस मान्यता ने सच्चे और प्रामाणिक लोगों की सृष्टि की। आज समाज की मान्यता में परिवर्तन हुआ है । जन-मानस बड़ी तेजी से ऐसा बनता जा रहा है कि सत्य और प्रामाणिकता खण्डित हों तो भले हों, सुख-सुविधाएँ प्राप्त होनी चाहिए। इस मान्यता ने सत्य और प्रामाणिकता का मूल्य कम कर दिया है। यदि हम नैतिक मूल्यों के ह्रास को बचना चाहते हैं तो हमें भौतिक मूल्यों के स्थान पर आध्यात्मिक मूल्यों को स्वीकार करना होगा और एक ऐसी जीवन-दृष्टि का निर्माण करना होगा जो कि मनुष्य में उच्च मूल्यों के विकास के साथ ही मानव जाति को भय, संघर्ष, तनाव और अप्रामाणिकता से मुक्त कर सके। जैसा कि हमने पूर्व में देखा इन सबके मूल में मानसिक विषमता के रूप में आसक्ति ही मूलतत्त्व है अतः वैयक्तिक एवं सामाजिक विषमताओं को पूर्णतया समाप्त करने के लिए जिस जीवन-दृष्टि की आवश्यकता है वह है अनासक्त जीवन-दृष्टि अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का अन्तिम नैतिक सिद्धान्त कोई है तो वह अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण ही है। जैन दर्शन में राग के प्रहाण का, बौद्ध दर्शन में तृष्णा क्षय का और गीता में आसक्ति के नाश का जो उपदेश हमें उपलब्ध होता है उसका लक्ष्य है अनासक्त जीवन-दृष्टि का निर्माण । जैन आचार दर्शन के समग्र नैतिक विधि निषेध राग के प्रहाण के लिए हैं। बौद्ध दर्शन में बुद्ध के सभी उपदेशों का अन्तिम हार्द है तृष्णा का क्षय और गीता में कृष्ण के उपदेश का सार है फलासक्ति का त्याग। इस प्रकार तीनों ही आचार दर्शनों का सार एवं उनकी अन्तिम फलश्रुति अनासक्त जीवन जीने की कला का विकास है। यही समग्र नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन का सार है और नैतिक पूर्णता की अवस्था है। १. नैतिकता का गरुत्वाकर्षण, ०६. १३-१४. Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. -. -. -. -. -. विभिन्न दर्शनों में योगजन्य शक्तियों का स्वरूप - साध्वी श्री संघमित्रा (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) तप एवं ध्यान की प्रक्रिया का परिणाम आत्म-नर्मल्य है। निर्मलता के उच्चस्तरीय आरोहण क्रम में आश्चर्यजनक, अलौकिक शक्तियों का अभिजागरण होता है। आत्मा के इस सामर्थ्य विशेष को पातञ्जल योग दर्शन में विभूति,' श्रीभागवत महापुराण में सिद्धि', दिगम्बर साहित्य में ऋद्धि एवं श्वेताम्बर साहित्य में लब्धि संज्ञा से अभिहित किया गया है। आगम तथा आगम के व्याख्यात्मक ग्रन्थों में लब्धि सम्बन्धी नाना उल्लेख प्राप्त हैं। विशेषावश्यक भाष्य में लब्धि के अट्ठाईस प्रकार हैं:१. आमर्शोषधि लब्धि २. संभिन्न श्रोता लब्धि ३. विप्रौषधि लब्धि ४. श्लेषमौषधि लब्धि ५. जल्लोषधि लब्धि ६. सर्वोषधि लब्धि ७. अवधिज्ञान लब्धि ८. ऋजुमति लब्धि ९. विपुलमति लब्धि १०. चारण लब्धि ११. आशीविषय लब्धि १२. केवलित्व लब्धि १३. गणधरत्व लब्धि १४. पूर्वधरत्व लब्धि १५. अर्हत् लब्धि १६. चक्रवर्तित्व लब्धि १७. बलदेवत्व लब्धि १८. वासुदेवत्व लब्धि १६. क्षीर, मधु सपिरास्रव लब्धि २०. कोष्टक बुद्धि लब्धि २१. बीज बुद्धि लब्धि २२. तेजोलेश्या लब्धि २३. आहारक लब्धि २४. शीतललेश्या लब्धि २५. वैकुविक देह लब्धि २६. पदानुसारी लब्धि १७. अक्षीण महानसिक लब्धि २८. पुलाक लब्धि १. पातञ्जल योग दर्शन विभूतिपाद-३. २. श्री भाग० महा० ११।१५।१. ३. गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्य विशेषो लब्धिः । -आ० म० १ अ०. ४. भगवती शतक ८।२।३१६. आमोसहि विप्पोसहि खेलोसहि जल्लोसहि चैव । सम्वोसहि संभिन्ने ओ हि रिउ विउलमइ लद्धी ॥१५०६॥ चारण आसीविस केवलिय गणहारिणो य पुव्वधरा । अरहंत चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा य ॥१५०७।। खीरमहुसप्पि आसव, कोट्ठय बुद्धि पयाणुसारी य । तह बीयबुद्धि तेयग आहारग सीय लेसा य ॥१५०८।। वेउविदेहलद्धी अक्खीण महाणसी पुलाया य । परिणाम तववसेणं एमाई हुंति लद्धीओ ॥१५०६।।-विशे० भा० Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न दर्शनों में योगजन्य शक्तियों का स्वरूप औपपातिक सूत्र का लब्धि सम्बन्धित वर्गीकरण इससे भिन्न है। गणधरत्व, पूर्वरत्व, अर्हलब्धि, चक्रवतित्य, वलदेवत्व, वासुदेवत्व, तेजोलेश्या, आहारक, गीतले और पुलाक लब्धि का उल्लेख प्रस्तुत वर्गीकरण में नहीं है। इनके स्थान पर मनोवली, वचनवली, कायवली, पटबुद्धि, विद्याधरत्य, आकाशपातित्व सब्धियों का विशेष उल्लेख है। और मधु पिराखव इन तीनों लब्धियों की परिगणना विशेषावश्यकमाध्य में कमांक उन्नीस में सम्मिलित है। पपातिक में तीनों के क्रमांक भिन्न-भिन्न है। । इनों में अधिकांश लब्धियाँ अत्यन्त विस्मयकारी हैं जो कार्य शीघ्र संचालित विशाल यन्त्रों से नहीं होता यह कार्य सम्पन्न व्यक्ति के अंगुलिनिर्देश का खेत है। अकालवर्धा, स्वर्ण-रत्न आदि की वर्षा, पतझड़ में वसन्त की बहार, नाना रूपों की रचना, विविध परिधान और पकवान योगी के चिन्तन मात्र से पलक झपकते ही निष्पन्न हो जाते हैं । योगियों की इस असाधारण क्षमता को लब्धियों की अर्थ विवेचना में अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है। १४६ अवधि लब्धि से बिना इन्द्रिय-सहायता के भी दूरस्थ पदार्थों को जानने की तथा केवल लब्धि से अतीतअनागत को जानने की क्षमता प्रकट होती है । B+B+C+6 (१) मनोबली (२) वचन (२) मनोज वचनबल कावत इन तीनों धियों के स्वामी प्रभूत शक्तिवर होते हैं। मनोवती अनन्ता स्थिरता के धारक, वचनवली प्रतिज्ञात वचन को निर्वहन करने में समर्थ और काबली अम्लानभाव से एक वर्ष तक क्षुवा और पिपासा को सहन करने में अपार धृति सम्पन्न होते हैं"। ये साधक मन, वचन और काय स्पर्श से वरदान तथा अभिशाप देने का अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं । जेष्म जल विप्र आमलब्धि से योगी का श्लेष्म, स्वेद, पण बिन्दु हस्तस्पर्श तथा सर्वोपधि लब्धि से केश, नख, लोश, त्वचा सब कुछ शीघ्र फलदायी औषध का काम करते हैं । कोष्ठ बुद्धि, बीज बुद्धि, पट बुद्धि, पदानुसारी बुद्धि इन चारों लब्धियों का सम्बन्ध मानव की सुविकसित मेधा शक्ति से है। कोष्ठ (कोठा) में निहित धान्य की तरह प्राप्त श्रुतसम्पदा को सुरक्षित रखना तथा सदा-सदा के लिए उसको स्मृतिट में धारण किए रहना, बीज की तरह एक अर्थ से सहस्रों अर्थों को विकास देना, विविध पत्रपुष्पों के धारक पट की तरह सहस्रों वचन प्रयोगों को सद्यः ग्रहण कर लेना तथा एक पद से सहस्रों पदों को जान लेना क्रमश: कोष्ठ-बुद्धि, चीज बुद्धि, पट बुद्धि एवं पदानुसारी बुद्धि लब्धि का परिणाम है । १. औपपातिक टीका, पु० ७६. २. औपपातिक टीका, पृ० ७७. २. औपपातिक टीका, ०७८. संभिन्न श्रोता -- इस लब्धि में सभी इन्द्रियों का कार्य एक ही इन्द्रिय से किया जा सकता है। एक ही स्पर्शेन्द्रिय से रूप, रस, गन्ध, शब्द सभी को स्पर्श के साथ-साथ ग्रहण कर लिया जाता है। इसी प्रकार जीभ, कान, नाक और आँख से देखना, सुनना, चखना, सूंघना और स्पर्शानुभूति करना सब कुछ हर इन्द्रियों से शक्थ हो जाता है । इस लब्धि का उल्लेख जैन आगमों में ही पाया जाता है । . ओरालय, मधुराख, सलिल इन तीनों लब्धियों से सम्पन्न साधक के वचन प्रयोग में क्रमशः दूध एवं मधु बिन्दु जैसा मिठास और घृत जैसा स्नेह टपकता है । - -0 . Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ..-.-.--.-.-.-.-.-.-.-.-.-.......................... अक्षीण महानसिक लब्धि-इस लब्धि से पात्र का भोजन अखूट बन जाता है। थोड़े से भोजन से सहस्रों व्यक्ति भोजन कर लेते हैं पर लब्धिधर मुनि स्वयं उसमें से आहार ग्रहण न कर ले तब तक पात्र खाली नहीं होता है और भोजन कम नहीं होता है।' ऋजुमति, विपुलमति लब्धि-ये दोनों मनःपर्यवज्ञान के भेद हैं। इनसे ढाई द्वीप में रहने वाले मनुष्यों के मन को जाना जा सकता है। ऋजुमति का स्वामी क्षेत्र परिमाण की दृष्टि से ढाई अंगुल कम और विपुलमति का अधिकारी ढाई अंगुल अधिक जानना है । विकुर्वण लब्धि-इससे नाना प्रकार के रूप बनाए जा सकते हैं। यहाँ लब्धि के स्थान पर मूलसूत्र में ऋद्धि शब्द का प्रयोग हुआ है। चारण लब्धि-गति की अतिशय विशेषता जिन्हें प्राप्त होती है वे चारण कहलाते हैं। उन्हें आकाश में उड़ने की क्षमता प्राप्त होती है । वे दो प्रकार के होते हैं :-जंघाचारण, विद्याचारण। जंघाचारण एक ही उड़ान में रुचकवर द्वीप तक पहुंच जाते हैं । लौटते समय एक उड़ान में नन्दीश्वर द्वीप तक आ जाते हैं और दूसरी उड़ान में अपने स्थान तक पहुँचते हैं। विद्याचारण एक उड़ान में मानुषोत्तर पर्वत तक पहुँचते हैं। वापस आते समय एक ही उड़ान में अपने स्थान पर पहुँच जाते हैं । इस लब्धि के उपलब्धि हेतु जंघाचारण को अष्टमभक्त तप की तथा विद्याचारण को षडभक्त तप की साधना करनी पड़ती है। विद्याधर-आगम विद्याओं को विशिष्टता के साथ धारण करने का सामर्थ्य रखते हैं। आकाशपाती-इस विद्या के स्वामी पादलेप लगाकर व्योम विहरण करते हैं । इस लब्धि से स्वर्ण, रत्न, कंकर आदि की वर्षा भी कराई जाती है। औपपातिक में प्रतिपादित लधियों में चारणत्व, आकाशपातित्व, संभिन्न श्रोता, इनके अतिरिक्त अन्य सभी लब्धियों की स्वामिनी नारी बन सकती है। पुलाकलब्धि-इस लब्धि से चक्रवर्ती की सेना को भी पराभूत किया जा सकता है। तेजोलब्धि-इस लब्धि में लक्षाधिक मनुष्यों को भस्म कर देने की क्षमता होती है । आधुनिक अणुबम के विस्फोट जैसा भयंकर विस्फोट इस लब्धि से किया जा सकता है। शीतललब्धि-यह लब्धि महाविनाशकारी तेजोलब्धि के विस्फोट को उपशान्त कर सकती है। आहारकलब्धि-इस लब्धि का अधिकारी विचित्र क्षमता रखता है। किसी जटिल प्रश्न का समाधान पाने हेतु अपने शरीर से कृत्रिम मनुष्य का निर्माण कर उसे तीर्थकर के पास भेजता है। उस लघुकाय मनुष्य की गति इतनी शीघ्र होती है कि वह पलक झपकते ही बहुत लम्बा रास्ता पारकर तीर्थकर भगवान् से समाधान पाकर अपने मूल स्वामी के शरीर में प्रवेश कर जाता है। अर्हत्लब्धि, चक्रवतित्व, बलदेवत्व, वासुदेवत्व, गणधरत्व, पूर्वधरत्व आदि लब्धियों का अर्थ बहुत स्पष्ट है। नारी के लिए ये लब्धियाँ अप्राप्य हैं। ____ अरिहंत-अप्रतिहार्य अतिशय के धारक होते हैं। १. औपपातिक टीका, पृ० ७९. २. वही, पृ० ७६. ३. वही, पृ० ८०. ४. वही, पृ० ८०. Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न दर्शनों में योगजन्य शक्तियों का स्वरूप १५१ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. .. .-. -.-.-.-. -.-.-.-. -. -. -.-. -.-.-. चक्रवर्ती- चौदह रत्न, नवनिधि एवं भरतक्षेत्र में छह खण्ड के स्वामी होते हैं। वासुदेव-ये तीन खण्ड के स्वामी होते हैं । बीस लाख अष्टापद जितना इनका बल होता है । बलदेव--वासुदेव से इसमें आधा बल होता है। गणधर-सर्वाक्षरसन्निपातिलब्धि से सम्पन्न चार ज्ञान एवं चौदह पूर्व के धारक होते हैं । ये अन्तर्मुहुर्त में त्रिपदी के आधार पर द्वादशांगी की रचना करने में समर्थ होते हैं।' पूर्वधर-इनके पास पूर्वो का ज्ञान होता है । ये लब्धियाँ नारी समाज के लिए अप्राप्य हैं। इनके अभाव में मुक्ति द्वार अबरुद्ध नहीं है । वह नारी और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से खुला है। पौराणिक साहित्य में लब्धि के स्थान में सिद्धि का प्रयोग हुआ है । सिद्धियों के अठारह प्रकार हैं। (१) अणिमा, (२) महिमा, (३) लघिमा ये तीन शारीरिक सिद्धियाँ हैं । इन्द्रियों की सिद्धि का नाम "प्राप्ति" है । श्रुत और दृष्ट पदार्थों को इच्छानुसार अनुभव कर लेना "प्राकाम्य" नामक सिद्धि है । माया के कार्यों को प्रेरित करना 'ईषिता' सिद्धि है। प्राप्त भोगों में आसक्त न होना 'वशिता' है । अपनी इच्छानुसार सुख की उपलब्धि 'कामावसायिता' है। क्षुधा और पिपासा की सहज उपशान्ति, दूर स्थित वस्तु का दर्शन, मन के माथ शरीर का गमन करना, इच्छानुसार रूप का निर्माण, परकाय प्रवेश, इच्छामृत्यु, अप्सरा सहित देव क्रीड़ा का दर्शन, संकल्प सिद्धि, निर्विघ्न रूप से सर्वत्र सबके द्वारा आदेश पालन-ये दस प्रकार की सिद्धियाँ सत्त्व गुण के विकास का परिणाम हैं। इन अठारह सिद्धियों के अतिरिक्त पाँच सिद्धियाँ और भी हैं। १. त्रिकालज्ञत्व-भूत, भविष्य और वर्तमान की बात को जानना । २. अद्वन्द्वस्व-शीत-उष्ण, सुख-दु:ख, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से पराजित न होना। ३. परचित्त-अभिज्ञान-दूसरों के चित्त को जान लेना। ४. प्रतिष्टम्भ-अग्नि, सूर्य, जल, विष आदि की शक्ति को स्तम्भित कर देना। ५. अपराभव-किसी से पराभूत नहीं होना। ये सिद्धियाँ योगियों को प्राप्त होती हैं । सिद्धि प्राप्ति के प्रकार-जो अत्यन्त शुद्ध धर्ममय भगवत्-हृदय की धारणा करता है वह भूख, प्यास, जन्ममृत्यु, शोक, मोह-इन छह उर्मियों से मुक्त हो जाता है। जो भगवत् स्वरूप में मन के द्वारा अनाहत नाद का चिन्तन करता है वह 'दूरश्रवण' सिद्धि को प्राप्त होता है। १. भगवती, शतक १.१. २. श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध ११, अ०१५, श्लोक ३. श्रीमद्भागवत महापुराण, ११।१५, ४, ५. ४. वही, ११।१५। ६, ७. ५. त्रिकालज्ञत्वमद्वन्द्वपरचित्तायभिज्ञता । अग्न्यम्बुिविषादीनां प्रतिष्टम्भो पराजयः ।। -वही, ११।१५।८. ६. वही, ११।१५।१८. ३. श्री Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड इस सिद्धि से आकाश में उपलब्ध होने वाली विविध भाषाओं को सुन सकता है और समझ सकता है।' जो नेत्रों को सूर्य में और सूर्य को नेत्रों में संयुक्त सम्बन्ध स्थापित कर दोनों के संयोग में मन ही मन भगवत् स्वरूप का ध्यान करता है उसे 'दूर-दर्शन' नाम की सिद्धि प्राप्त होती है । इस सिद्धि से योगी समग्र विश्व को देख सकता है। प्राणवायु सहित मन और शरीर को ईश्वर-शक्ति के साथ संयुक्त कर ईश्वर की धारणा करता है, वह 'मनोजब' सिद्धि को प्राप्त करता है। इस सिद्धि से जहाँ जाने की इच्छा होती है क्षण भर में वह वहाँ पहुँच जाता है। जो योगी भगवत् स्वरूप में चित्त लगा देता है वह मनोनुकूल रुप धारण करने में समर्थ हो जाता है। जो योगी दूसरों के शरीर में प्रवेश करना चाहे 'मैं वही हूँ' ऐसी दृढ़ धारणा से उसकी प्राणवायु एक फूल से दूसरे फूल पर बैठने वाले भ्रमर की भाँति परकाय-प्रवेश में सफल हो जाती है। भगवत् भक्ति में जिसका चित्त शुद्ध हो जाता है वह त्रिकालदर्शी हो जाता है। योगमय शरीर को अग्नि आदि कोई पदार्थ नष्ट नहीं कर सकते हैं।' योगी प्राणवायु को हृदय, वक्षस्थल, कण्ठ और मूर्धा में ले जाकर ब्रह्मरन्ध्र द्वारा ब्रह्म में लीन कर देता है । स्वेच्छा मृत्यु का क्रम यही है। पातंजल योगदर्शन के विभूतिपाद में विविध सिद्धियों की चर्चा है। ध्यान, धारणा, समाधि तीनों के ही युगपद् अभ्यास का नाम संयम है। संयम साधना से सिद्धियों की उपलब्धि होती है। पाँच महाभूत एवं इन्द्रिय समूह की तीन प्रकार की परिणतियाँ हैं। धर्म, लक्षण एवं अवस्था इन तीनों परिणामों में संयम साधना से अतीत-अनागत का ज्ञान होता है। शब्द, अर्थ एवं प्रत्यय इन तीनों के भिन्नत्व स्वरूप में संयम करने से सम्पूर्ण वाणी का ज्ञान हो जाता है। संस्कारों की प्रत्यक्षानुभूति में संयम करने से पूर्व जन्म का ज्ञान हो जाता है।3 चित्त प्रत्यय में संयम से परचित्त का ज्ञान हो जाता है ।१४ १. श्रीमद्भागवत महापुराण, ११।१५।१६. २. वही, ११।१५।२०. ३. वही, ११।१५।२१. ४. वही, ११।१५।२२. ५. वही, ११।१५।२३. ६. वही, ११।१५।२८. ७. वही, ११।१५।२६. पार्ष्याऽऽपीड्यगुदं प्राणं हृदुरः कंठमूर्धसु । आरोप्य ब्रह्मरन्ध्रण ब्रह्मनीत्वोत्सृजेत्तनुम् ॥ --वही, ११।१५।२४. ६. त्रयमेकत्र संयमः। -पातंजल यो० विभूतिपाद, ३।४. १०. एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्था परिणामा व्याख्याता। -पा० वि० ३।१३. ११. परिणामत्रयसंयमादतीतानागतज्ञानम् । -पा० वि० ३।१६. १२. पा० वि०, ३।१७. १३. संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्व जातिज्ञानम्। -पा० वि० ३।१८. १४. प्रत्ययस्य परचित्त ज्ञानम् । -पा० वि० ३।१६., Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काय रूप में संयम करने से योगी अन्तर्धान हो सकते हैं। यह एक प्रकार से दूसरों की संप्रसारित नयन ज्योति किरण का अथवा उसकी ग्राह्य शक्ति का स्तम्भन है । जिससे द्रष्टा की नयन ज्योति किरण योगी के शरीर का स्पर्श नहीं कर पाती । ग्राह्य शक्ति स्तम्भन को इस प्रक्रिया में प्रकाश शक्ति असंपृक्त रहने के कारण पास में खड़ा व्यक्ति भी योगी के शरीर को देख नहीं पाता । रूप की तरह अन्य विषयों में संयम करने से शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श सभी दूसरों के लिये अप्राप्य बन जाते हैं।" होती हैं। किया गया है । सोपक्रम कर्म (जिसका फल प्रारम्भ हो चुका है) और निस्पक्रम कर्म (जिसका परिपाक नहीं हुआ है) में संयम करने से मृत्यु का ज्ञान हो जाता है । १. हाथी के बल में संयम करने से हरितबल, गरुड़ के बल में संयम करने से गरुड़ के तुल्य बन, वायु के वल में संयम करने से वायु के समान बल प्राप्त होता है । २. ३. ४. --- ५. ६. ७. विभिन्न दर्शनों में योगजन्य शक्तियों का स्वरूप १५३ विभूतिपाद के सूत्र में काय रूप का संकेत है। इसकी व्याख्या में उपलक्षण से शब्द आदि का ग्रहण विशोका ज्योतिष्मति प्रवृत्ति के प्रकाश प्रक्षेप से सूक्ष्म व्यवधान युक्त दूरस्थ वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है। सूर्य में संयम करने से सकल लोक का ज्ञान हो जाता है। चन्द्रमा में संयम करने से तारागण का ज्ञान हो जाता है । ध्रुवतारे में संयम करने से ताराओं की गति का ज्ञान हो जाता है। " नाभि में संयम करने से कायस्थिति का ज्ञान हो जाता है। 5 कठकूप में संयम करने से क्षुधा और पिपासा पर विजय हो जाती है। कूर्माकार नाड़ी में संयम करने से स्थिरता का विकास होता है । १० मूघ की ज्योति में संयम करने से सिद्धात्माओं के दर्शन होते हैं।" प्रातिभ ज्ञान के प्रकट होने से बिना संयम के भी सब वस्तुओं ज्ञान हो जाता है । १२ स्वात्मस्वरूप का बोध होने से प्रातिभ, श्रावण, वेदन, आदर्श, आस्वाद और वार्ता- ये छह सिद्धयाँ प्रकट कायरूपसंयमात् तारितम्भे चक्षुः प्रकाशा सम्प्रयोगे अन्तर्धानम् । पा० वि० २।२१. सोपक्रम नरुपक्रम च स तत्संयमादसपरान्त ज्ञानमरिष्टेभ्यो वा । - पा० वि०३।२२. बलेषु हस्तिबलादीनि । पा०वि०३।२४. प्रवृत्त्यालोकन्यासात् सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्ट ज्ञानम् । - पा० वि०३।२५. भुवनज्ञानं सूर्वसंयमात् । पा०वि०३।२६. चन्द्र ताराम्हज्ञानम् । पा०वि० ३४२७. ध्रुवे चंद्रविज्ञानम् | - पा०वि० ३।२८. नाभिच कायव्यूहज्ञानम् । - पा० वि० ३।२६. hon पे क्षुत्पिपासा निवृत्तिः । - पा० वि० ३।३०. कूर्मनाडेयां स्वस्थैर्यम् । पा०वि० ३।३१. मूर्धज्योतिषि सिद्धिदर्शनम् । पा०वि० २१३२. ८. ε. १०. ११. प्रातिभाद्वा सर्वम् । - पा० वि० ३।३३. १२. ततः प्रातिभश्रावणवेदना दर्शास्वदवार्ता जायन्ते । पा० वि० ३०३६. .० ० . Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड प्रातिभ ज्ञान से भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल का ज्ञान होता है तथा दूर प्रदेश में स्थित अत्यन्त सूक्ष्म वस्तुएँ प्रत्यक्ष दिखई देती है। "श्रावण' सिद्धि से दिव्य शब्द सुनने की, वेदन सिद्धि से दिव्य स्पर्श अनुभव करने की, आदर्श सिद्धि से दिव्य रूप का दर्शन करने की, आस्वाद सिद्धि से दिव्य रस का आस्वाद लेने की, वार्ता सिद्धि से दिव्य शब्द ग्रहण करने की शक्ति प्रकट होती है। बन्धन के हेतुभूत कर्म संस्कार को शिथिल करने से तथा मन की गति को जान लेने से चित्त दूसरे शरीर में प्रवेश करने के लिए समर्थ हो जाता है।' उदान वायु को जीत लेने से जल, कर्दम एवं कंटक आदि का योगी के शरीर में संग नहीं होता ।२ समान वायु को जीत लेने से शरीर दीप्तिमान हो जाता है। श्रोत्र और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से कर्णेन्द्रिय में सुनने की दिव्य शक्ति प्रकट होती है। इससे योगी सूक्ष्मातिसूक्ष्म शब्द को बहुत दूर से सुन सकता है। शरीर और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से आकाश गमन की क्षमता आती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ये पाँच प्रकार के भूत हैं। प्रत्येक भूत की पाँच अवस्थाएँ हैं। स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थतत्त्व इन पाँचों अवस्थाओं में संपन करने से भूतविजय हो जाती है । भूत-जय से अणिमादि आठ सिद्धियों का प्रादुर्भाव तथा कायसम्पत् की प्राप्ति होती है और भूतधर्म की बाधा मिट जाती है। अणिमादि सिद्धियों के आठ प्रकार अणिमा : सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप का निर्माण । लघिमा : शरीर को हलका बनाना। महिमा : सुविशाल शरीर का निर्माण । गरिमा : शरीर में भार का विकास । प्राप्ति : संकल्पमात्र से यथेप्मित वस्तु की उपलब्धि । प्राकाम्य : निर्विघ्न रूप से भौतिक पदार्थों की इच्छापूर्ति । वशित्व : भूत एवं भौतिक पदार्थों का वशीकरण । ईशित्व : भूत एवं भौतिक पदार्थों के नाना रूप बनाने का सामर्थ्य । रूप, लावण्य, बल, वज्र संहनन के समान देह का गठन-शरीर सम्बन्धी इन सम्पदाओं की उपलब्धि कायसम्पत् सिद्धि का परिणाम है। २. १. पा० वि० ३३८. वही, ३१३६. समानजयाज्ज्वलनम् ।-पा० वि० ३।४०. ४. श्रोत्राकाश सम्बन्धसंयमाद् दिव्य श्रोत्रम् ।-पा० वि० ३।४१. पा० वि० ३।४२. वही, विभू० ३।४४. ७. वही, ३४५. . वही, ३।४६. * ० ८ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न दर्शनों में योगजन्य शक्तियों का स्वरूप १५५. भूतधर्म अनभिधात का तात्पर्य योगी की निर्वाण गति से है । जल की तरह योगी धरती में प्रवेश पा सकता है और अग्नि की ज्वालाओं का आलिंगन ले सकता है । न पृथ्वी उसकी गति को रोक सकती है, न आग शरीर को जला सकती है, न पानी उसको भिगो सकता है। सर्दी, गर्मी, वर्षा आदि का तनिक भी प्रभाव योगी पर नहीं होता है। इन्द्रियों की पाँच अवस्थाएँ हैं-(१) ग्रहण, (२) स्वरूप, (३) अस्मिता, (४) अन्वय, और (५) अर्थवत्व । इन पांचों अवस्थाओं में संयम करने से इन्द्रियविजय होती है।' इन्द्रिय-जय से मनोजवित्व, विकरणभाव और प्रधान जयसिद्धि की प्राप्ति होती है। मनोजवित्व- इससे शरीर में मन के तुल्य गमन करने की शक्ति आती है। विफरणभाव-स्थूल शरीर के बिना भी दूर स्थित पदार्थों के प्रत्यक्ष दर्शन की क्षमता का आविर्भाव । प्रधानजय-सम्पूर्ण प्रकृति पर विजय । समाधि सिद्ध काल में ये तीनों सिद्धियाँ स्वत: प्रकट होती हैं। इन विभूतियों के अतिरिक्त अहिंसा, सत्य आदि की साधना से अत्यन्त विस्मयकारी परिणाम फलित होते हैं । अहिंसा की उत्कर्ष स्थिति में योगी के सम्मुख प्रत्येक प्राणी वैर त्याग कर देते हैं। सत्य की उत्कर्ष स्थिति में वचन सिद्धि प्राप्त होती है। अचौर्य साधना की उत्कर्ष स्थिति में विभिन्न रत्नों की राशि प्रकट होती है। ब्रह्मचर्य की उत्कर्ष स्थिति में अतुल बल प्राप्त होता है । अपरिग्रह साधना की उत्कर्ष स्थिति में पूर्ण जन्म का भलीभाँति बोध होता है। उपनिषद् साहित्य में सिद्धियों को योगवृत्ति के नाम से पहचाना गया है। श्वेताश्वतरोपनिषद् के अनुसार ध्यान बल में योगी जब पांच महाभूतों पर विजय प्राप्त कर लेता है उस समय इन भूतों से सम्बन्धित पाँच योग-गुण प्रकट होते हैं। इन गुणों की सिद्धि हो जाने से योगाग्निमय शरीर को प्राप्त योगी को न बुढ़ापा घेरता है, न रोग सताता है, न मौत पुकारती है। उसकी इच्छामृत्यु होती है। इच्छामृत्यु का बहुत सुन्दर क्रम भागवत महापुराण में (११।१२२४) है। पाँच योग-गुण पाँच प्रकार की सिद्धियाँ हैं। इन सिद्धियों के साथ योगी के शरीर में लघुता (हल्कापन), आरोग्य, अलोलुपत्व, शरीरसौन्दर्य, स्वरसौष्ठव, शुभगन्ध और मूत्रपुरिष की अल्पता ये विशेषताएँ प्रकट होती हैं। बौद्ध साहित्य में भी इस विषय पर महत्त्वपूर्ण बिन्दु प्राप्त हैं। विसुद्धिमग्ग में लिखा है कि समाहित आत्मा १. पा० वि०, ३।४७. २. वही, ३।४८. ३. अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।-पा० साधनापाद, २०३५. ४. सत्यप्रतिष्ठायाँ क्रियाफलाश्रयत्वम् ।-पा० सा० २।३६. ५. अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।-पा०सा० २।३७. ६. ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । -पा०सा० २।३८. ७. अपरिग्रहस्थैर्यजन्मकथन्तासंबोधः ।-पा०सा० २।३६. ८. श्वेत०अ० २११२. ६. लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वं वर्णप्रसादस्वरसौष्ठवं च। गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्प योगप्रवृत्ति प्रथमं वदन्ति । -श्वे०अ० २।१३. १०. पटि सम्भिदामग्ग २।२. Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ..-.- --.-. -. -. -. -.-. -. -. -.-.-.-............. .... ............ .. ...... ..... से दस प्रकार के इद्धिविध योग्य चित उत्पन्न होता है। इससे अर्ह मार्ग की सिद्धि होती है। इसे प्रातिहार्य भी कहते हैं । अतिशय एवं उपाय सम्पदा से भी इनकी पहचान है। इसके दस भेद हैं : १. अधिष्ठान-अनेक रूप करने का सामर्थ्य । २. विकुर्वण-नाग कुमार आदि विविध सेनाओं को निर्माण करने का सामर्थ्य । ३. मनोभया-मनोगत भावों का बोध । ४. ज्ञान विस्फार-अनित्यानुप्रेक्षा । ५. ममाधिविस्फार-प्रथम ध्यान से विघ्नों का नाश । ६. आर्य ऋद्धि-प्रतिकूल में अनुकूल संज्ञा । ७. कर्मविपाकजा-आकाशगामिनी । ८. पुण्यवतो ऋद्धि-चक्रवर्ती आदि की ऋद्धि। ६. विद्यया ऋद्धि-विद्याधरों का आकाश गमन का रूपदर्शन । १०. इज्झनठेन ऋद्धि-सम्प्रयोग विधि, शिल्प कमीदि में कौशल । इनके अतिरिक्त अन्य नाना प्रकार की विभूतियों का उल्लेख मिलता है "दिव्या सौत" से सब प्रकार की शब्द बोधता का ज्ञान होता है । "परचित विजानन विभूति" से दूसरे के मन का बोध होता है। दिन-चब से दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। अधिक संयम से लाघवता और आकाश गामिनी शक्ति प्राप्त होती है । पूवनिवासानुस्सती से पूर्व जन्मों को जान लिया जाता है। इद्धविधि रूपपरिवर्तिनी, पारदशिनी, आकाशगामिनी, सूर्यचन्द्र पशिनी, विभूति का उल्लेख धम्मपद ने तत्त्वार्थसूत्र में ऋद्धि प्राप्त आर्यों का उल्लेख है। ऋद्धि प्राप्त आर्य को ही मनःपर्यवज्ञान की उपलब्धि होती है। बुद्धि प्राप्त आर्य ज्ञान सम्पदा के स्वामी होते हैं । क्रिय। ऋद्धि प्राप्त आर्य व्योम विहरण करने की क्षमता रखते हैं। विक्रिया ऋद्धि प्राप्त आर्य नाना रूपों को बनाने में समर्थ होते हैं। तसिद्धि प्राप्त आर्य उग्रतप, घोर तप, घोरातिघोर तप करने वाले होते हैं। औपातिक सूत्र में गणधर गौतम के लिए ऐसे ही विशेषणों का प्रयोग आया है। बल ऋद्धि प्राप्त आर्य मन, वाणी और काय से सम्बन्धित अतुल बल के धारक होते हैं। औपपातिक सूत्र में इनकी पहचान मनोबली, वचनबली एवं कायबली संज्ञा से हुई है । औषध ऋद्धि प्राप्त आर्य के शरीर का अशुचि पदार्थ दवा का काम करता है। रस ऋद्धि प्राप्त आर्य की वाणी दूध व रसों के तुल्य मीठी होती है तथा इनकी वाणी कटुक विष की तरह भयंकर भी होती है। अमृत और विष दोनों प्रकार की शक्तियाँ उनकी वाणी में निहित हैं। क्षेत्र ऋद्धि प्राप्त आय अतिशय विशेषता के धनी होते हैं । ये जिस क्षेत्र में रहते हैं वह क्षेत्र सहस्रों व्यक्तियों से घिर जाने पर भी कम नहीं पड़ता। तत्त्वार्थ सूत्र की व्याख्या में सात ऋद्धियों के अन्तर्गत सातवीं ऋद्धि का नाम अक्षीण ऋद्धि है। १. विशेष जानकारी के लिए देखें-विसुद्धिमग्ग का इद्धिविध निद्दे सो, पू० २६१ से २६५ २. धम्मपद, २७१२. ३. तत्त्वार्थ सूत्र, ११२५. Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभिन्न दर्शनों में योगजन्य शक्तियों का स्वरूप १५७ विभिन्न दर्शनों में प्रतिपादित इन लब्धियों, सिद्धियों, विभूतियों एवं ऋद्धियों में अत्यधिक समता के दर्शन होते हैं। इनकी संख्या निणिति में भेद होते हुए भी परचित्त बोधकता, लोकस्वरूप का समग्रता से दर्शन, आकाशगामिनी विद्या, अतुल बल का प्रादुर्भाव, भौतिक शक्तियों पर नियंत्रण तथा रूप परावर्तन का विज्ञान सभी में एक वैसा फलित होता हुआ दिखाई पड़ता है । अणिमा आदि अष्ट सिद्धियों का प्रायः ग्रन्थों में उल्लेख है। पता नहीं यह मूल कल्पना किसकी है और आदान-प्रदान कब से प्रारम्भ हुआ है। इन सिद्धियों की साधना प्रक्रिया में भी बहुत साम्य है। सभी दर्शनों ने योगीजनों के इस सामर्थ विशेष को संयम, तप, ध्यान एवं विशिष्ट योग साधना का परिणाम माना है । भागवतमहापुराण में श्रीकृष्ण कहते हैं-जो योगनिष्ठ और मन्निष्ठ होता है उसी में ये सिद्धियाँ प्रकट होती हैं।' पातंजल योग दर्शन में इनकी प्राप्ति में तप एवं संयम पर बल दिया है । संयम साधना के लिए पातंजल योग दर्शन का तृतीय विभूतिपाद सबल प्रमाण है। कायसम्पत एवं इन्द्रिय शुद्धि का मार्ग तप को माना है।' उपनिषदों ने ध्यान एवं योग का समर्थन किया तथा बौद्ध दर्शन में समाधि भावित आत्मा को इनकी उपलब्धि बताई है। जैन दर्शन के अनुसार ये लब्धियाँ बहुत कठोर तप एवं ऊर्ध्वगामी ध्यान साधना का निर्जराधर्मभावी सहचर परिणाम हैं। इन आश्चर्यकारी विद्याओं के अध्ययन से आत्मा की अनन्त शक्ति का बोध होता है। ल ब्धियों एवं विभूतियों में प्रकटित महान् विस्मयकारी सामर्थ्य भौतिकता पर आध्यात्मिकता की विजय है और जड़ पर चेतन जगत का अनुशासन है। बिना यन्त्र के भी आकाश में उड़ने की क्षमता, दूसरों की ग्राह्य शक्ति का स्तम्भन, अन्तर्धान हो जाने का विज्ञान, प्रत्येक इन्द्रिय से समग्र विषयों की ग्राहकता, पूर्व जन्म का बोध, मनीषियों की मनोमयी उड़ान नहीं, अपितु अपनी अन्तर्वाहिनी शक्ति के केन्द्रीकरण का सुपरिणाम है । केन्द्रित शक्ति क्या नहीं कर सकती? कील की नोक पर शक्ति केन्द्रित होकर मजबूत से मजबूत दीवार में छेद कर देती है। भाप इंजन में केन्द्रित होकर हजारों टन वजन ढो लेती है। काँच पर सूर्य की किरणें केन्द्रित हो जाने से उस पार की वस्तु जलाई जा सकती है। इसी प्रकार योगी योगबल से मन की शक्ति को केन्द्रित कर आश्चर्यजनक शक्तियाँ प्राप्त कर लेते हैं। योग साधना का लक्ष्य शक्तियों को प्राप्त करना नहीं, वासना पर विजय प्राप्त करना है। अध्यात्मवाद की साधना के लिए ये शक्तियाँ साध्य नहीं अपितु इनका प्रयोग और दर्शन वर्जनीय है। पातंजल योग दर्शन के अनुसार सिद्धियाँ समाधि अवस्था में बाधक हैं । कैवत्य की प्राप्ति इन सिद्धियों से विरक्त होने पर होती है । निर्बीज-समाधि की स्थिति यही है। बौद्ध दर्शन के विनयपिटक में निर्देश है-भिक्षु गृहस्थ के सामने किसी सिद्धि का प्रदर्शन न करे । पौराणिक ग्रन्थों के अभिमत से जो साधक उत्तम योग से युक्त है और भगवत्स्वरूप में लीन है उसके लिए ये सिद्धियाँ अन्तरायभूत हैं । १. श्री भागवत महापुराण, ११।१५।१. २. कायेन्द्रियसिद्धिशुद्धिक्षयात्तपस: ।-पा० सा० २०४३. ३. ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः ।-पा० वि०३१७७. ४. तद्वैराग्यादपि दोषबीजक्षये कैवल्यम् । -पा०वि० ३।५०. ५. अन्तरायान् वदन्त्येता युज्जतोयोगमुत्तमम् ।-श्रीभाग० महा० ११।१५।३३. Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन दर्शन के अनुसार इन सब्धियों का प्रयोगता बिना आलोचना के विराधक होता है। यह अपने संयम को को दूषित करता है। " कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड इन सिद्धियों के प्रतिपादन में प्रतिस्पर्धा का भाव भी उभरा है। जहाँ पातंजल योग दर्शन की श्रावणसिद्धि से दूरातिदूर शब्दों को सुना जा सकता है वहाँ जैन दर्शन की संभिन्न श्रोता लब्धि से एक ही इन्द्रिय से समग्र विषयों को ग्रहण किया जा सकता है। बौद्ध दर्शन की महायान शाखा में चामत्कारिक प्रयोगों के भरपूर उल्लेख हैं । XXXXX इन चामत्कारिक शक्तियों का प्रयोग धार्मिक परम्पराओं में बहुत प्राचीन रहा है; साहित्यिक विधा में जिस समय में इनका आकलन हुआ उस समय से विभिन्न ग्रन्थों में इनका परस्पर आदान-प्रदान अवश्य हुआ है । अणिमादि आठ सिद्धियों का उल्लेख योग दर्शन, पौराणिक साहित्य एवं जैन दर्शन ने अपने-अपने ग्रन्थों में किया है। कहीं नामभेद कहीं रूप-भेद के साथ अणिमादि सिद्धियों की तरह अन्य सिद्धियों, लब्धियों एवं विभूतियों में भी परस्पर का विनिमय रूप झांक रहा है। इन सिद्धियों का मूलस्रोत कब से और कहाँ से है, यह एक अनुसन्धान का विषय है । XXXXX XXXXXXX तपस्विभ्योऽधिको योगी, ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः । कमिभ्यरचाधिको योगी, तस्माद्योगी X X XX ३. भगवती, शतक २०/१०/६८३. तपस्वियों और ज्ञानियों से भी योगी अधिक श्रेष्ठ है, इतना ही नहीं, अग्निहोत्र आदि कर्म करने वालों से भी योगी अधिक श्रेष्ठ है, अतः हे अर्जुन ! तू योगी बन । भवार्जुन ! - गीता ६।४६ XX XXXXX XXXXX . Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. .. .. .. .. .. .-.-.-. -.-. -.-. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा डॉ० छगनलाल शास्त्री [सरदार शहर, जिला चूरू (राज.)] भारतीय चिन्तन-धारा निश्चय ही बड़ी सूक्ष्म रही है। वह क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की ओर गतिमान होती गई। मांसल जीवन की सामयिक उपयोगिता स्वीकारने के बावजूद जीवन के चरम सत्य का साक्षात्कार करने के लिए भारतीय मानस सदैव आकुल रहा । अतएव–'ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्, यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ।' अर्थात् पास में कुछ न हो तो ऋग करके घी पीए, जब तक जीए, सुख से जीए । मृत देह के जला दिए जाने के बाद फिर क्या बचा रहता है, फिर कौन वापिस आता है ? चार्वाक की यह बात सुनने में बड़ी मीठी थी, प्रिय भी लगी पर उद्बोध-प्रवण मानव अन्तत: इससे तृप्त नहीं हुआ, अन्तर्बुभुक्षा, जिज्ञासा, चाह बनी ही रह गई। बृहदारण्यकोपनिषद् के द्वितीय अध्याय, चतुर्य ब्राह्मण में वणित याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी-संवाद से यह स्पष्ट है। याज्ञवल्क्य संन्यासी होने को उद्यत हैं । उनके दो पत्नियाँ थीं--पैत्रेयी और कात्यायनी । वे मैत्रेयी से कहते हैं "मैनेयि इति ह उवाच याज्ञवल्क्य उद्यास्यन्वा अरंऽहमस्मात् स्थानाद् अस्मि हन्त तेऽनया कात्यायन्या अन्तं करवाणीति ।" अर्थात् मैं ऊर्ध्वगमन करना चाहता हूँ- गार्हस्थ्य से ऊँचा उठ संन्यास लेना चाहता हूँ। अत: अपनी सम्पत्ति का तुम्हारे और कात्यायनी के बीच बँटवारा कर दूं। याज्ञवल्क्य बड़े सम्पन्न थे। उनके पास अपरिमित धन-धान्य, सम्पत्ति और वैभव था। मैत्रेयी ने इसके उत्तर में जो कहा, वास्तव में बड़ा मार्मिक है “सा ह उवाच मैत्रेयी । यन्तु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तन पूर्णा स्यात्, कथं तेनामृता स्यामिति । नेति ह उवाच याज्ञवल्क्यो ययैवोपकरणवतां जीवितं तयैव ते जीवितं स्याद् अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्त नेति ।" अर्थात् मैत्रेयी ने कहा-भगवन् ! यदि यह सारी पृथ्वी धन से परिपूर्ण हो, मुझे प्राप्त हो जाए तो क्या मैं उससे अमर हो सकती हूँ ? याज्ञवल्क्य ने कहा-मैत्रेयी ! ऐसा नहीं होता। पुष्कल साधन-सामग्री-सम्पन्न जनों का जैसा जीवन होता है, तुम्हारा भी उससे वैसा हो जायेगा पर उससे अमृतत्व की आशा नहीं की जा सकती। इस पर उबुद्धचेता मन्त्रेयी अपने आपको स्पष्ट करती है"सा ह उवाच मैत्रेयी येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम् । यदेव भगवान् वेद तदेव मे बहीति ।" अर्थात् भगवन् ! जिससे अमृतत्व की उपलब्धि न हो, उसे लेकर मैं क्या करूं । अमरत्व के सम्बन्ध में जो आप जानते हैं, मुझे बतलाएँ। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० +++++ ज्ञानी याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी मैत्रेयी के इन उद्गारों से प्रभावित होते हैं और वे उसे आत्म-तत्व की अनुसन्धित्सा की ओर प्रेरित करते हैं । उनके उस प्रवचन की अन्तिम पंक्तियाँ बड़ी प्रेरक हैं ..........आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि ! आत्मनो वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेदं सर्वविदितम्।" अर्थात् मैत्रेयी ! आत्मा ही दर्शनीय, श्रवणीय, मननीय तथा निदिध्यासनीय है । उसी के दर्शन, श्रवण, मनन और विज्ञान से सब विज्ञात हो जाता है । कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी का कथानक तथा संवाद भारतीय मानस की उस अन्तर्वृत्ति का द्योतक हैं, जिसे वास्तविक तृप्ति, तुष्टि किंवा शान्ति के लिए कुछ ऐसा चाहिए था, जो उसे बहिर्जगत् में प्राप्त नहीं हो रहा था। आत्म-तत्वमूलक चिन्तन के ऊर्ध्वगामी विकास की ओर यह एक सजीव इंगित है । इसी या एतत्तुल्य पृष्ठभूमि पर आत्मवादी दर्शनों की धारा बहुमुखी आयामों में विस्तार पाती है, जिसका न केवल भारतीय प्रत्युत विश्व वाङ्मय में अपना अनन्य साधारण स्वान है। भारतीय दर्शनों की मूल प्रेरणा वास्तविक दृष्ट्या यह जगत दुःखमय है। कहने को दुःखनिवारक साधन हैं पर दुःख उनसे सर्वभा ध्वस्त नहीं होते। इसी मानसिक उहापोह के आधार पर अधिकांश भारतीय दर्शनों की चिन्तनधारा दुःख के आदर्श से प्रारम्भ होती है । उदाहरणार्थ, यहाँ केवल सांख्य दर्शन का सन्दर्भ उपस्थापित किया जाता है । सांख्यदर्शन की अतिप्रामाणिक पुस्तक ईश्वरकृष्ण रचित सांख्यकारिका का प्रारम्भ इसी विचार से होता है। उसकी प्रथम कारिका इस प्रकार है "दुःखाभिपातात् जिज्ञासा तदपघातके हेतौ । सापाचेनैकान्तात्यन्तोऽभावात् ॥" दृष्टे आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैनिक दुःखों से मानव पीड़ित है। इसलिए अपघात दुःख नाशक कारण की गवेषणा करता है। पर, दृष्ट- बाह्य कारणों से उनका एकान्ततः तथा अत्यन्ततः निवारण नहीं हो पाता । अभिप्रेत ईश्वरकृष्ण अपनी पुस्तक की दूसरी कारिका में दृष्ट निवारक कारणों की तरह आनुभविक — वेदसम्मत यज्ञ-यागादिक भी अस्वीकार करता है तथा दुःखनिवृत्ति की हेतुता १-पुरुष या आत्मा, २- अव्यक्तप्रकृति तथा व्यक्त महत् से भूतपर्यन्त के विज्ञान विशिष्ट ज्ञान सम्यक् ज्ञान में है, वैसा मानता है। यह कारिका इस प्रकार है- "दृष्टवद् आनुश्रविकः स हि अविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः । तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञ विज्ञानात् ॥" - भारतीय दर्शनों का चरम अभिप्रेत मोक्ष है। मोक्ष का तात्पर्य समग्र दुःखों की एकान्तिक तथा आत्यन्तिक निवृत्ति है। मोक्ष शब्द जिसका अर्थ छूटना या छुटकारा पाना है, से यह प्रकट है। यदि गहराई में जायें तो प्रतीत होता है, मोक्ष की व्याख्या में कुछ अन्तर भी रहा है । कतिपय दार्शनिकों ने दुःखों की आत्यन्तिक एकान्तिक निवृत्ति के स्थान पर सहज, शाश्वत सुख प्राप्ति को मोक्ष शब्द से अभिहित किया है की प्राप्ति होने पर दुःखों का सर्वदा के लिए सर्वया अपगम हो जाता है। । यह स्वाभाविक है कि एतत्कोटिक सुख वैशेषिक, नैयायिक, सांख्य, योग और बौद्ध दर्शन पहले पक्ष के परिपोषक हैं तथा वेदान्त और जनदर्शन दूसरे पक्ष का समर्थन करते हैं वेदान्त दर्शन में ब्रह्म www.jaintelibrary.org. Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा १६१० सच्चिदानन्दस्वरूप माना गया है अत: अविद्यावस्छिन्न ब्रह्म या जीव में अविद्या के नाश द्वारा नित्य शाश्वत, सहज, निरतिशय आनन्द की अभिव्यक्ति होती है, वही मोक्ष है । आनन्द ही ब्रह्म का स्वरूप है। तैत्तिरीयोपनिषद् के षष्ठ अनुवाक के प्रारम्भ में कहा है "आनन्दो ब्रह्म ति व्यजानात । आनन्दात् हि एव खलु इमानि भूतानि जायन्ते । आनन्देन जातानि जीवन्ति । आनन्दं प्रयन्ति अभिसंविशन्ति ।" अर्थात्- ब्रह्म आनन्दस्वरूप है। आनन्द से ही सभी प्राणी उत्पन्न होते हैं । उत्पन्न हुए प्राणी आनन्द से ह जीवित रहते हैं । आनन्द की ओर प्रयाण करते हैं । अन्तत: आनन्द में ही समा जाते हैं। जैन दर्शन में भी आत्मा को अनन्त- अव्याबाध सुखस्वरूप माना गया है। स्वाभाविक सुख, जो कर्मों के आवरण से आच्छन्न रहता है, कर्मों के सर्वथा, सम्पूर्णतः क्षय होने से उद्घाटित हो जाता है । वही मोक्ष है, क्योंकि वह आत्मा की कर्मों के बन्धन से बिलकुल छूट जाने की स्थिति है। आचार्य उमास्वातिरचित तत्त्वार्थ सुत्र के दशम् अध्याय, तृतीय सूत्र में "कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः" कहा है, जिसका यही आशय है। साधना-सरणि मोक्षात्मक ध्येय की सिद्धि के लिए विभिन्न दार्शनिक-परम्पराओं में अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार ज्ञान, चिन्तन, मनन, निदिध्यासन, तदनुरूप आचरण आदि के रूप में एक सुव्यवस्थित सरणि निर्दिष्ट की गई है, जिसका विविधता के बावजूद अपना-अपना महत्त्व है। उनमें पतंजलि का योग-दर्शन एक ऐसा क्रम देता है, जिसकी साधना या अभ्यास-पद्धति अनेक अपेक्षाओं से उपयोगी है । यही कारण है, योग-दर्शन-निर्देशित विधिक्रम को सांख्य, न्याय, वैशेषिक आदि के अतिरिक्त अन्यान्य दर्शनों ने भी बहुत कुछ स्वीकार किया है। यों कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सभी प्रकार के साधकों ने अपनी परम्परा, अभिरुचि तथा बुद्धि के अनुरूप योगनिरूपित मार्ग का अनुसरण किया है, जो भारतीय दर्शन एवं संस्कृति की समन्वयमूलक प्रवृत्ति का सूचक है। जैन परम्परा में योग भारतीय चिन्तन-धारा वैदिक, जैन तथा बौद्ध दर्शन की त्रिवेणी के रूप में प्रवहणशीला रही है । वैदिक ऋषियों, जैन तीर्थकरों, आचार्यों तथा बौद्ध तत्त्वद्रष्टाओं ने अपनी निःसंग साधना के परिणामस्वरूप ज्ञान एवं अनभूति के वे दिव्य रत्न दिये हैं, जिनकी आभा कभी धूमिल नहीं होगी। तीनों ही परम्पराओं में योग जैसे महत्वपूर्ण, व्यवहार्य तथा जीवन के विकास की प्रक्रिया से सम्बद्ध विषय पर उच्चकोटि का साहित्य रचा गया। यद्यपि बौद्धों की धार्मिक भाषा पालि रही है जो मागधी-प्राकृत का ही रूपान्तर है तथा जैनों की धामिक भाषा-श्वेताम्बरों की अर्द्धमागधी तथा दिगम्बरों की शौरसेनी प्राकृत रही है; पर बौद्धों एवं जैनों का लगभग सारा का सारा दार्शनिक साहित्य संस्कृत में लिखा गया है। गम्भीर, विशाल, भाव-समुच्चय को अति संक्षिप्त शब्दावली में अत्यन्त विशदता और प्रभावकता के साथ व्यक्त करने की संस्कृत भाषा की अपनी असाधारण क्षमता है। इन दोनों ही परम्पराओं में योग पर भी प्रायः अधिकांश रचनाएं संस्कृत भाषा में ही हुई हैं। प्रमुख जैन लेखक जैन योग पर लिखने वाले मुख्यतः चार आचार्य हैं-हरिभद्र, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र तथा यशोविजय । ये चारों अनेक विषयों के बहुश्रुत पारगामी विद्वान् थे, इनकी कृतियों से यह प्रकट है। आचार्य हरिभद्र (ई० आठवीं शती) ने योग पर संस्कृत में योगबिन्दु तथा योगदृष्टिसमुच्चय, आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र, आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव एवं उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्म-सार, अध्यात्मोपनिषद् व सटीक द्वात्रिंशत् या द्वात्रिंशिकाओं की रचना की। आचार्य हेमचन्द्र का समय बारहवीं शती है। आचार्य शुभचन्द्र भी लगभग इसी आसपास के हैं। उपाध्याय यशोविजय का समय ई० अठारहवीं शताब्दी है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ कर्मयोगी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतर्थ खण्ड आचार्य हरिभद्र की प्राकृत भाषा में भी योग पर योगशतक तथा योगविशिका नामक दो कृतियाँ हैं। उन द्वारा संस्कृत में रचित षोडशकप्रकरण भी सुप्रसिद्ध है, जिसके कतिपय अध्यायों में उन्होंने योग के सम्बन्ध में विवेचन किया है। ध्यानशतक नामक एक प्राचीन प्राकृत-रचना है, जिसकी ४६-४७ गाथाएँ आचार्य वीरसेन द्वारा रचित धवला में उद्धृत हैं । आचार्य हरिभद्र ने इस पर टीका की। उपाध्याय यशोविजय ने आचार्य हरिभद्र प्रणीत योगविशिका तथा षोडशक पर संस्कृत मे टीकाएँ लिखकर प्राचीन गूढतत्त्वों का बड़ा विशद विश्लेषण किया। उन्होंने पतंजलि के योगसूत्र के कतिपय सूत्रों पर भी एक वृत्ति की रचना की, जिनमें पातंजल योग तथा जैन योग का तुलनात्मक विवेचन है। अज्ञातकर्तृक योगप्रदीप नामक एक पुस्तक प्राप्त है, जिसमें १४३ या १४४ श्लोक मिलते हैं। पुस्तक के परिशीलन से प्रतीत होता है, यह आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव तथा आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के आधार पर लिखी गई है। इसी प्रकार योगसार नामक एक और ग्रन्थ भी श्वेताम्बर साहित्य में उपलब्ध है, जिसके रचनाकार का उसमें उल्लेख नहीं है। उसमें प्रयुक्त दृष्टान्त आदि से अनुमेय है कि उसकी रचना भी संभवतः आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के आधार पर ही हुई है। यशस्तिलक चम्पू के रचयिता आचार्य सोमदेव सूरि की योग पर "योगमार्ग" नामक एक अद्भुत पुस्तक है जो शिखरिणी छन्द में एक अत्यन्त प्रौढ़ रचना है। १२वीं शती में हुए आचार्य भास्करानंदि की संस्कृत में ध्यानस्तव नामक रचना है, जिसमें ध्यान का सुन्दर विश्लेषण है। उपाध्याय यशोविजय द्वारा संस्कारित तथा अनूदित समाधिशतक नामक कृति भी उल्लेखनीय है, जिसमें कर्ता का नाम नहीं है । मंगलाचरण के अन्तर्गत आये एक श्लोक से प्रतीत होता है, उसके कर्ता कोई दिगम्बर विद्वान् रहे हों। वह श्लोक निम्नांकित है जयन्ति यस्यावदतोऽपि भारती, विभूतयस्तीर्थकृतोऽप्यनीहतुः । शिवाय धात्रे सुगताय विष्णवे, जिनाय तस्मे सकलात्मने नमः ।। यहाँ प्रयुक्त "अवदत: अपि भारती" ये पद दृष्टव्य है, जिनसे दिगम्बर-परम्परा में स्वीकृत अभाषात्मक, ॐकारध्वनिमयी भगवद्-देशना का संकेत प्राप्त होता है। जैन तत्त्वज्ञान का स्रोत जैन तत्त्वज्ञान का मुख्य स्रोत अद्धमागधी प्राकृत में ग्रथित अंग, उपांग, मूल, छेद, चूलिका एवं प्रकीर्णक सूत्र हैं। इन आगम सूत्रों पर प्राकृत तथा संस्कृत में नियुक्ति, भाष्य, चूणि, टीका आदि के रूप में व्याख्या तथा विश्लेषणपरक साहित्य प्रणीत हुआ । संस्कृत-प्राकृत के मिश्रित रूप के प्रयोग की जैनों में विशेष परम्परा रही है, जिसे मणि-प्रवालन्याय की संज्ञा से अभिहित किया गया है। श्वेताम्बर चूर्णी-साहित्य में इस शैली का प्रयोग द्रष्टव्य है। दिगम्बर आचार्य भूतबलि और पुष्पदन्त (लगभग प्रथम-द्वितीय शताब्दी) द्वारा रचित षट् खण्डागम पर आठवीं-नौवीं ई० शती में आचार्य वीरसेन ने बहत्तर सहस्र श्लोक प्रमाण धवला नामक टीका लिखी। आचार्य भूतबलि और पुष्पदन्त के लगभग समसामयिक आचार्य गुणधर के कषाय प्राभूत पर भी उन्होंने टीका लिखना चालू किया। पर, वे ३० सहस्र श्लोक-प्रमाण टीका लिखकर स्वर्गवासी हो गये। टीका-लेखन कार्य आचार्य वीरसेन के विद्वान् शिष्य आचार्य जिनसेन ने पूर्ण किया । कषाय प्राभूत की समग्र टीका साठ सहस्र श्लोक प्रमाण है। यह जयधवला के नाम से प्रसिद्ध है । धवला और जयधवला में चूर्णियों की तरह मणि-प्रवाल-न्यायात्मक संस्कृत-प्राकृत मिश्रित शैली स्वीकार की गई है । अस्तु । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा १६३ . मूल आगम, उन पर रचित उपर्युक्त व्याख्या-साहित्य में जैनदर्शन के विभिन्न अंगों का विस्तृत एवं विशद विश्लेषण प्राप्त है । मूल आगमों में योग के सन्दर्भ में सामग्री तो प्राप्त है और पर्याप्त भी, पर है विकीर्ण रूप में। व्याख्या ग्रन्थों में यत्र-तत्र उसका विस्तार है, जो अनुशीलनीय है। पर वस्तुतः वह सामग्री क्रमबद्ध या व्यवस्थित नहीं है । जिस सन्दर्भ में जो विवेचन-विश्लेषण अपेक्षित हुआ, कर दिया गया तथा उसे वहीं छोड़ दिया गया। ई० पाँचवी-छठी शताब्दी में जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण एक बहुत ही समर्थ आगम-कुशल विद्वान् हुए। जैन आचार्यों के शब्दों में वे दुःषम काल में अन्धकार में निमज्जमान जिन-प्रवचन के उद्योत के लिए दीप सदश थे। उनका विशेषावश्यकभाव्य नामक ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध है। उसमें अनेक स्थानों पर योग-सम्बन्धी विषयों का विवेचन है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की समाधिशतक नामक एक और कृति भी है, जिसका योग से सम्बन्ध है। परिशीलन से ज्ञात होता है, जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने आगम तथा नियुक्ति आदि में वर्णित विषय से विशेष अधिक नहीं कहा है। उनकी वर्णनशैली भी आगमिक जैसी है। साधक जीवन के लिए अत्यन्त अपेक्षित योग जैसे उपयोगी विषय पर जैन परम्परा में सबसे पहले सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध सामग्री उपस्थित करने वाले आचार्य हरिभद्रसूरि हैं। जैन साधक के लिए साधना का मूल वैचारिक आधार जैन आगम हैं। आचार्य हरिभद्र ने जैन आगम वणित योगविषयक तथ्य तो ध्यान में रक्खे ही साथ ही साथ इस सन्दर्भ में अपनी मौलिक उद्भावनाएँ भी प्रस्तुत की, जिनका योग-साहित्य में बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्य शुभचन्द्र तथा आचार्य हेमचन्द्र ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया पर ज्ञय है कि इन दोनों के स्रोत एक मात्र आचार्य हरिभद्र नहीं थे । इनकी अपनी परिकल्पना एवं पद्धति थी। फिर भी आचार्य हरिशर में की जहाँ उन्हें ग्राह्यता लगी, उन्होंने रुचिपूर्वक उन्हें ग्रहण किया। यद्यपि हेमचन्द्र और शुभचन्द्र जैन परम्परा के प्रवेताम्बर तथा दिगम्बर-दो भिन्न आम्नायों से सम्बद्ध थे पर योग के निरूपण में दोनों एक दूसरे से काफी प्रभावित प्रतीत होते हैं। पातंजल अष्टांग योग तथा जैन साधना योगाश्चित्तवृत्ति निरोधः" (योगसूत्र १-२) चित्त की वृत्तियों का सम्पूर्णत: निरोध योग है, यह पतंजलिकृत योग को परिभाषा है। जब तक चित्तवृत्तियाँ सर्वथा निरुद्ध एकाग्र नहीं हो जाती, आत्मा का अपना शुद्ध स्वरूप यथा कथंचित् विस्मृत रहता है । वस्तुतः चित्तवृत्तियाँ ही संसार है, बन्धन है। चित्तवृत्तियों की विकृतावस्था में मिथ्या सत्य जैसा प्रतीत होता है । यह प्रतीति ध्वस्त हो जाए, आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को अधिगत कर ले, दूसरे शब्दों में अविद्या का आवरण क्षीण हो जाए, आत्मा परमात्मास्वरूप बन जाए, यही साधक का चरम लक्ष्य है। यही बन्धन से मुक्तता है, यही सत् चित् आनन्द का साक्षात्कार है। इस स्थिति को आत्मसात् करने का मार्ग योग है । पतंजलि ने योगांगों का निरूपण करते हुए लिखा है “यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोष्टावंगानि" (योगसूत्र २-२६)। अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि-योग के ये आठ अंग हैं। इनका अनुष्ठान करने से चैतसिक मल अपगत हो जाता है। फलत: साधक या योगी के ज्ञान का प्रकाश विवेक ख्याति तक पहुँच जाता है। दूसरे शब्दों में उसे बुद्धि, अहंकार और इन्द्रियों से सर्वथा भिन्न आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। जैन दर्शन के अनुसार केवलज्ञान, केवलदर्शन, आत्मिक सुख, क्षायिक सम्यक्त्व आदि आत्मा के मूल गुण हैं, जिन्हें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय, मोहनीय आदि कर्मों ने आच्छन्न कर रखा है। आत्मा को आवत किये रहने वाले इन कर्मावरणों के सर्वथा अपाकरण से आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है। उसी परम शुद्ध, निरावरण आत्म-दशा का नाम मोक्ष है, जो परम आनन्दमय है। Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .. .. . .... .. .. .. ...... .... .......... .. ..................... .. .. .. .. ....... आचार्य हरिभद्र का मौलिक चिन्तन आचार्य हरिभद्र सूरि अपने युग के महान् प्रतिभाशाली विद्वान् थे। वे बहुश्रुत थे, समन्वयवादी थे, माध्यस्थ्य वृति के थे। उनकी सर्व गोमुखी प्रतिभा उस द्वारा रचित अनुयोग चतुष्क विषयक धर्म-संग्रहणी (द्रव्यानुयोग), क्षेत्र समास टीका (गणितानुयोग), पंचवस्तु, धर्मबिन्दु (चरणकरणानुयोग), समराइच्चकहा (धर्मकथानुयोग) अनेकान्तजयपताका (न्यायशास्त्र) तथा भारतवर्ष के तत्कालीन दार्शनिक आम्नायों से सम्बद्ध षड्दर्शनसमुच्चय आदि कृतियों से स्पष्ट है। योग के सम्बन्ध में जो कुछ उन्होंने लिखा, वह केवल जैन योग वाङ्मय में ही नहीं प्रत्युत आर्यों की योग विषयक समग्र चिन्तन धारा में उनकी एक मौलिक देन है। जैन शास्त्रों में आध्यात्मिक विकास-क्रम का वर्णन चतुर्दश गुणस्थान तथा बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा, गुण-तारतम्य पर आधृत इन आत्म-अवस्थाओं आदि को लेकर किया गया है । आचार्य हरिभद्र ने उसी आध्यात्मिक विकास क्रम को योग के रूप में व्याख्यात किया । उन्होंने वैसा करने में जिस शैली की अन्वेषणा की, वह तब तक उपलब्ध योग-साहित्य में अनुपलब्ध थी। उन्होंने इस क्रम को आठ योगदृष्टियों के रूप में विभक्त किया है। उन्होंने योगदृष्टि-समुच्चय में निम्नांकित आठ योगदृष्टियाँ बतलाई है मित्रा तारा बला दीप्रा, स्थिरा कान्ता प्रभा परा । नामानि योग-दृष्टीना, लक्षणं च निबोधत ॥ १४ ।। इन आठ दृष्टियों को आचार्य हरिभद्र ने ओघदृष्टि और योगदृष्टि के रूप में दो भागों में बाँटा है । ओघ का अर्थ प्रवाह है । प्रवाहपतित दृष्टि ओषदृष्टि है । दूसरे शब्दों में अनादि संसार प्रवाह में ग्रस्त और उसी में रस लेने वाले भवाभिनन्दी प्रकृत जनों की दृष्टि या लौकिक पदार्थ विषयक सामान्य दर्शन ओघदृष्टि है। योगदृष्टि ओघदृष्टि का प्रतिरूप है । ओघदृष्टि जहाँ जागतिक उपलब्धियों को अभिप्रेत मानकर चलती है, वहाँ योगदष्टि का प्राप्त केवल बाह्य जगत् ही नहीं, आन्तर जगत् भी है। उत्तरोतर विकास-पथ पर बढ़ते-बढ़ते अन्तत: केवल आन्तर जगत् ही उसका लक्ष्य रह जाता है। बोध-ज्योति की तरतमता की दृष्टि से उन्होंने इन आठ दृष्टियों को क्रमश: तृण, गोमय व काष्ठ के अग्निकणों के प्रकाश, दीपक के प्रकाश तथा रत्न, तारे, सूर्य एवं चन्द्रमा की ज्योति से उपमित किया है, जो निम्नांकित श्लोक से प्रकट है-- तृणगोमयकाष्ठाग्निकणदीप प्रभोपमाः । रत्नतारार्कचन्द्राभा: सदृष्टेदृष्टिरष्टधा ।। १५ ।। प्रस्तुत उपमानों से ज्योति का वैशद्य प्रकट होता है। यद्यपि इन प्रारम्भ की चार दृष्टियों का गुणस्थान प्रथम (मिथ्यात्व) है पर क्रमश: उनमें आत्म-उत्कर्ष और मिथ्यात्व-अपकर्ष बढ़ता जाता है। गुणस्थान की शुद्धिमूलक प्रकर्ष-पराकाष्ठा-उत्कर्ष की अन्तिम सीमा चौथी दृष्टि में प्राप्त होती है । अर्थात् आदि की चार दृष्टियों में उत्तरोत्तर मिथ्यात्व का परिमाण घटता जाता है और उसके फलस्वरूप उद्भूत होते आत्म-परिष्कार रूप गुण का परिमाण बढ़ता जाता है। यों चौथी दृष्टि में मिथ्यात्व की मात्रा कम से कम और शुद्धिमूलक गुण की मात्रा अधिक से अधिक होती है अर्थात् दीपा दृष्टि में कम से कम मिथ्यात्व वाला ऊँचे से ऊँचा गुणस्थान होता है। इसके पश्चात् पाँचवीं स्थिर दृष्टि में मिथ्यात्व का सर्वथा अभाव होता है। सम्यक्त्व प्रस्फुटित हो जाता है। साधक उत्तरोत्तर विकास पथ पर बढ़ता जाता है । अन्तिम आठवीं दृष्टि में अन्तिम (चतुर्दश) गुणस्थान---आत्म-विकास की सर्वोत्कृष्टि स्थिति अयोगि-केवली के रूप में प्रकट होती है। इन उत्तरवर्ती चार दृष्टियों में योग-साधना का समग्र रूप समाहित हो जाता है। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा इन दृष्टियों के परिपार्श्व में आचार्य हरिभद्र ने योग-साधना का जो मार्मिक विश्लेषण किया है, वह सुतरां माननीय एव अनुशीलनीय है । विस्तार-भय से यहाँ सम्भव नहीं है। आठ दृष्टियों के रूप में निरूपित क्रमिक विकास के अतिरिक्त एक दूसरे प्रकार से भी आचार्य हरिभद्र ने आत्मा के विकास-क्रम को व्याख्यात किया है। उन्होंने इच्छा-योग, शास्त्र-योग तथा सामर्थ्य-योग के रूप में बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया है । इसका आशय इस प्रकार है योग-तत्त्व के प्रति अभिमुख होना इच्छा-योग है। यह विकास का प्रथम सोपान है । अध्यात्म को जीवन में ढालने वाले, अनुभवी योगियों के वचन या साक्षात् उपदेश के आधार से योग-साधना की प्रेरणा जागृत होना शास्त्रयोग है। अनुभवी द्वारा मार्ग-दर्शन और अपने अखण्ड उत्साह तथा पुरुषार्थ द्वारा स्वाधीन सामर्थ्य आत्मसात् करना सामर्थ्य योग है। सामर्थ्य-योग की दशा प्राप्त कर लेने पर फिर किसी प्रकार के परावलम्बन की आवश्यकता नहीं पड़ती। योगविशिका में योग को परिभाषा आचार्य हरिभद्र ने अपनी प्राकृत-कृति योगविशिका में योग की परिभाषा निम्नांकित शब्दों में की है मोक्खेण जोयणाओ जोगो, सव्वो वि धम्मवावारो। परिसुद्धोविन्नेओ, ठाणाइगओ विसेसेण ॥१॥ संस्कृत छाया मोक्षण योजनातो योगः सर्वोऽपि धर्मव्यापारः । परिशुद्धो विज्ञ य: स्थानादिगतो विशेषेण ।। आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि वह सारा व्यापार-~-साधना का उपक्रम, जो साधक को मोक्ष से जोड़ता है, योग है। उसका क्रम वे उसी पुस्तक की दूसरी गाथा में इस प्रकार देते हैं। ठाणुन्नत्थालंबण रहिओ, तंतम्मि पंचहा एसो। दुगमित्थ कम्म जोगो, तहा तियं नाण जोगोउ ॥२॥ संस्कृत छाया स्थानोर्णालम्बान-रहितस्तन्त्रेषु पंचधा एषः । द्वयमत्र कर्मयोगस्तथा त्रयं ज्ञान-योगस्तु ॥ स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन तथा निरालम्बन-योग के ये पाँच प्रकार हैं। इनमें पहले दो अर्थात् स्थान और ऊर्ण क्रिया-योग के प्रकार हैं और बाकी के तीन ज्ञान-योग के प्रकार हैं। स्थान का अर्थ-आसन, कायोत्सर्ग, ऊर्ण का अर्थ-आत्मा को योग-क्रिया में जोड़ते हुए प्रणव-प्रभृति मन्त्रशब्दों का यथाविधि उच्चारण, अर्थ-ध्यान और समाधि आदि के प्रारम्भ में बोले जाने वाले मन्त्र आदि, तत्सम्बद्ध शास्त्र एवं उनकी व्याख्याएँ आदि में रहे परमार्थ तथा रहस्य का अनुचिन्तन, आलम्बन-बाह्य प्रतीक का आलम्बन लेकर ध्यान करना, निरालम्बन-मुतं द्रव्य या बाह्य प्रतीक के आलम्बन के बिना निर्विकल्प, चिन्मात्र, सच्चिदानन्द स्वरूप का ध्यान करना । -0 . Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ........................................................................... आचार्य हरिभद्र द्वारा योगविशिका में दिये गये इस विशेष क्रम के विषय में यह तो केवल संकेत मात्र है, जिसके विशद अनुशीलन एवं तलस्पर्शी गवेषणा की आवश्यकता है। आचार्य हेमचन्द्र आदि विद्वानों का चिन्तन आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में योग की परिभाषा करते हुए लिखा है चतुर्वर्गेऽग्रणी मोक्षो योगस्तस्य च कारणम् । ___ ज्ञानश्रद्धानचारित्र-रूपं रत्नत्रयं च सः ॥१. १५।। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों में मोक्ष अग्रणी या मुख्य है। योग उसका कारण है । अर्थात् योग-साधना द्वारा मोक्ष लभ्य है। सम्यक्ज्ञान, सम्यकदर्शन तथा सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय ही योग है। ये तीनों जिनसे सधते हैं, वे योग के अंग हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशात्र के बारह प्रकाशों में उनका वर्णन किया है। योगांग महर्षि पतंजलि ने योग के जो आठ अंग माने हैं, उनके समकक्ष जैन-परम्परा के निम्नांकित तत्त्व रखे जा सकते हैं १. यम महाव्रत २. नियम योगसंग्रह ३. आसन स्थान, काय-क्लेश प्राणायाम भाव-प्राणायाम प्रत्याहार प्रतिसंलीनता धारणा धारणा ७. ध्यान ध्यान ८. समाधि समाधि महाव्रतों के वही पाँच नाम हैं, जो यमों के हैं। परिपालन की तरतमता की दृष्टि से व्रत के दो रूप होते हैं--महाव्रत, अणुव्रत । अहिंसा आदि का निरपवाद रूप में सम्पूर्ण परिपालन महाव्रत है, जिनका अनुसरण सर्वविदित श्रमणों के लिए अनिवार्य है । जब उन्हीं का पालन कुछ सीमाओं या अपवादों के साथ किया जाता है तो वे अणु-अपेक्षाकृत छोटे व्रत कहे जाते हैं। स्थानांग (५.१) समवायांग (२५), आवश्यक, आवश्यक-नियुक्ति आदि अनेक आगम ग्रन्थों में इनके सम्बन्ध में विवेचन प्राप्त है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र के प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय प्रकाश में व्रतों का विस्तृत वर्णन किया है । गृहस्थों द्वारा आत्म-विकास हेतु परिपालनीय अणुव्रतों का वहाँ बड़ा मार्मिक विश्लेषण किया गया है । जैसा कि उल्लेख है, आचार्य हेमचन्द्र ने गुर्जरेश्वर कुमारपाल के लिए योगशास्त्र की रचना की थी। कुमारपाल साधनापरायण जीवन के लिए अति उत्सुक था। राज्य व्यवस्था देखते हुए भी वह अपने को आत्म-साधना में लगाये रख सके, उसकी यह भावना थी। अतएव गृहस्थ-जीवन में रहते हुए भी आत्म-विकास की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर हुआ जा सके, इस अभिप्राय से हेमचन्द्र ने गृहस्थ-जीवन को विशेषत: दृष्टि में रखा । आचार्य हेमचन्द्र ऐसा मानते थे कि गार्हस्थ्य में भी मनुष्य उच्च साधना कर सकता है, ध्यान-सिद्धि प्राप्त कर सकता है । उनके समक्ष उत्तराध्ययनसूत्र का वह आदर्श था, जहाँ “संति एगेहि भिक्खूहि गारत्था संजुमुत्तरा" इन शब्दों में तितिक्षापरायण, संयमोन्मुख गृहस्थों को किन्हीं-किन्हीं साधुओं से भी उत्कृष्ट बताया है। आचार्य शुभचन्द्र ऐसा नहीं मानते थे। उनका कहना था कि बुद्धिमान्-विवेकशील होने पर भी साधक, गृहस्थाश्रम, जो महादुःखों से Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा १६७ -.-. -. -.-.-.-. -.-.-...-. -. -.-.-.-.-.-...-. -. -. -. -. -. -. -. -.-.-. -. ........ ... भरा है, अत्यन्त निन्दित है, में रहकर प्रमाद पर विजय नहीं पा सकता, चंचल मन को वश में नहीं कर सकता। अतः चैतसिक प्रशान्ति के लिए सत्पुरुषों ने गार्हस्थ्य का त्याग ही किया है। ___ इतना ही नहीं, उन्होंने और भी कठोरतापूर्वक कहा कि किसी देश-विशेष और समय-विशेष में आकाशकुसुम का अस्तित्व चाहे मिल सके, गर्दभ के भी सींग देखे जा सकें, किन्तु किसी भी काल तथा किसी भी देश-स्थान में गृहस्थाश्रम में रहते हुए ध्यान सिद्धि अधिगत करना शक्य नहीं है। ज्ञानार्णव के वे श्लोक इस प्रकार हैं न प्रमादजयं कर्तु, धीधनैरपि पार्यते । महाव्यसनसंकीर्णे, गुंहवासेऽति-निन्दिते ॥४.६।। शक्यते न वशीकर्तु गृहिभिश्चपलं मनः । अतश्चित्तप्रशान्त्यर्थ सद्भिस्त्यक्ता गृहे स्थितिः ।।४.१०।। खपुष्पमथवा शूग खरस्यापि प्रतीयते । न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिहाश्रमे ॥४.१७॥ आचार्य शुभचन्द्र ने जो यह कहा है, उसके पीछे उनका जो तात्त्विक मन्तव्य है वह समीक्षात्मक दृष्टि से विवेच्य है। ज्ञाप्य है कि सापवाद और निरपवाद व्रत-परम्परा तथा पतंजलि द्वारा प्रतिपादित यमों के तरतमात्मक रूप पर विशेषतः ऊहापोह तथा गवेषणा अपेक्षणीय है। पतंजलि ने “जाति देश काल समयानवच्छिन्नाः सार्वभौमामहाव्रतम् (२.३१)” यों निरपेक्ष या निरपवाद रूप में यमों के पालन को जो महाव्रत शब्द से संजित किया है, वह जैन परम्परा में स्वीकृत महाव्रत के सामकक्ष्य में है। योगसूत्र के व्यास-भाष्य में इस सन्दर्भ में विशद विवेचन है। नियम-योगसंग्रह यमों के पश्चात् नियम आते हैं। नियम साधक के जीवन में उत्तरोत्तर परिष्कार लाने के साधन हैं । समवायांग सूत्र के बत्तीसवें समवाय में योग-संग्रह के नाम से बत्तीस नियमों का उल्लेख है, जो साधक की व्रतसम्पदा की वृद्धि करते हैं । आचरित अशुभ कर्मों की आलोचना, कष्ट में धर्म-दृढ़ता, स्वावलम्बी तप, यश की अस्पृहा, अलोभ, तितिक्षा, सरलता, पवित्रता, सम्यक्दृष्टि, विनय, धैर्य, संवेग, माया शून्यता आदि उनमें समाविष्ट हैं। __ पतंजलि द्वारा प्रतिपादित नियम तथा समवायांग के योगसंग्रह परस्पर तुलनीय हैं। सब में तो नहीं पर अनेक बातों में इनमें सामंजस्य है । योग-संग्रह में एक ही बात को विस्तार से अनेक शब्दों में कहा गया है। इसका कारण है-जैन आगमों में दो प्रकार के अध्येता बताये गये हैं-संक्षेप-रुचि और विस्तार-रुचि । संक्षेप-रुचि अध्येता बहुत थोड़े में बहुत कुछ समझ लेना चाहते हैं और विस्तार-रुचि अध्येता प्रत्येक बात को विस्तार के साथ सुनना-समझना चाहते हैं। योगसंग्रह के बत्तीस भेद इसी विस्तार-रुचि-सापेक्ष निरूपण-शली के अन्तर्गत आते हैं। आसन प्राचीन जैन परम्परा में आसन की जगह स्थान का प्रयोग हुआ है। ओवनियुक्तिभाष्य (१५२) में स्थान के तीन प्रकार बतलाये गये हैं-ऊर्ध्व-स्थान, निषीदन-स्थान तथा शयन-स्थान । __ स्थान का अर्थ गति की निवृत्ति अर्थात् स्थिर रहना है। आसन का शाब्दिक अर्थ है बैठना; पर वे आसन खड़े, बैठे, सोते-तीनों अवस्थाओं में किये जाते हैं। कुछ आसन खड़े होकर करने के हैं, कुछ बैठे हुए और कुछ सोये हुए करने के हैं। इस दृष्टि से आसन शब्द की अपेक्षा स्थान शब्द अधिक अर्थसूचक है। ऊर्ध्व-स्थान-खड़े होकर किये जाने वाले स्थान-आसन ऊर्च आसन कहलाते हैं। उनके साधारण, सविचार, सन्निरुद्ध, व्युत्सर्ग, समपाद, एकपाद तथा गृहोड्डीन-ये सात भेद हैं । निषीदन-स्थान-बैठकर किये जाने वाले स्थानों . Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .0 १६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड - आसनों को निपीयन-स्थान कहा जाता है। उसके अनेक प्रकार है- निषद्या, वीरासन पद्मासन, उत्कटिकासन, गोदोहिका, मकरमुख, कुक्कुटासन आदि । माचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के चतुर्थ प्रकाश के अन्तर्गत पर्यकासन, वीरासन, बच्चासन, पद्मासन, भद्रासन दण्डासन, उत्कटिकासन या गोदोहासन तथा कायोत्सर्गासन का उल्लेख किया है । आसन के सम्बन्ध में आचार्य हेमचन्द्र ने एक विशेष बात कही है। वे योगशास्त्र में लिखते हैं- जायते येन येनेह विहितेन स्थिरं मनः । तत्तदेव विधातव्यमासनं ध्यानसाधनम् ॥४.१३४ ।। अर्थात् — जिस-जिस आसन के प्रयोग से साधक का मन स्थिर बने, उसी आसन का ध्यान के साधन के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए। हेमचन्द्र के अनुसार अमुक आसनों का ही प्रयोग किया जाय, अमुक का नहीं, ऐसा कोई निर्बन्ध नहीं है । पातंजल योग के अन्तर्गत तत्सम्बद्ध साहित्य जैसे शिवसंहिता पेरण्डसंहिता, हठयोगप्रदीपिका आदि ग्रन्थों में आसन, बन्ध, मुद्रा, षट्कर्म, कुम्भक, रेचक, पूरक आदि बाह्य योगांगों का अत्यन्त विस्तार से वर्णन किया गया है। काय-क्लेश 1 जैन परम्परा में निर्जरा के अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता, प्रायश्चित्त, विनय वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग इन बारह भेदों में पांच काय लेश है। काय- कलेश के अन्तर्गत अनेक काय-क्लेश दैहिक स्थितियाँ भी आती हैं तथा शीत, ताप आदि को समभाव से सहना भी इसमें सम्मिलित है। इसका नाम कायक्लेश संभवतः इसलिए दिया गया है कि दैहिक दृष्टि से जन साधारण के लिए यह क्लेशकर है। पर, आत्मरत साधक जो देह को अपना नहीं मानता, जो क्षण-क्षण आत्माभिरति में संलग्न रहता है, इसमें कष्ट का अनुभव नहीं करता । औपपातिक सूत्र के बाह्य तप-प्रकरण में तथा दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र की सप्तम दशा में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवे चन है । प्राणायाम 7 - जैन आगमों में प्राणायाम के सम्बन्ध में विस्तार से वर्णन नहीं मिलता। जैन मनीषी एवं शास्त्रकार इस विषय में कुछ उदासीन से रहे, ऐसा अनुमित होता है। संभाव्य है, आसन तथा प्राणायाम को उन्होंने योग का बाह्यांग मात्र माना, अन्तरंग नहीं । वस्तुतः वह हठयोग के ही मुख्य अंग हो गये । लगभग छठी शताब्दी के पश्चात् भारत में एक ऐसा समय आया, जब हठयोग का अत्यन्त प्राधान्य हो गया । वह केवल साधन नहीं रहा, साध्य तक बन गया । तभी तो देखते हैं, घेरण्डसंहिता में आसनों को चौरासी से लेकर चौरासी लाख तक पहुँचा दिया। हठयोग की अतिरंजित स्थिति का खण्डन करते हुए योगवासिष्ठकार ने लिखा है सती सु युक्तिष्वेतासु हठान्नियमयन्ति ये । चेतस्ते दीपमुत्सृज्ये विनिघ्नन्ति तमोऽञ्जनैः ॥ विमूढा कर्तुं मुक्ता, ये हठाच्चेतसो जयम् । ते निवध्नन्ति नागेन्द्रमुग्मत बिसतन्तुमि ॥ - अर्थात् इस प्रकार की चिन्तन-मननात्मक युक्तियों या मन को नियन्त्रित करना चाहते हैं, वे मानो दीपक को छोड़कर काले - योगवासिष्ट, उपशम प्रकरण, ६.३७-३८ उपायों के होते हुए भी जो हठयोग द्वारा अपने अंजन से अन्धकार को नष्ट करना चाहते हैं । जो मूड हठयोग द्वारा अपने चित्त को जीतने के लिए उद्यत हैं, वे मानो मृणालतन्तु से पागल हाथी को बाँध लेना चाहते हैं । . Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा आचार्य हेमचन्द्र तथा शुभचन्द्र ने प्राणायाम का जो विस्तृत वर्णन किया है, वह हटयोग-परम्परा से प्रभावित प्रतीत होता है। भाव प्राणायाम कुछ विद्वानों (जैन) ने प्राणायाम को भाव-प्राणायाम के रूप में एक नई शैली से व्याख्यात किया है । उनके अनुसार बाह्यभाव का त्याग रेचक, अन्तर्भाव की पूर्णता पूरक तथा समभाव में स्थिरता कुम्भक है । श्वासप्रश्वास-मूलक अभ्यास क्रम को उन्होंने द्रव्य - बाह्य प्राणायाम कहा । द्रव्य - प्राणायाम की अपेक्षा भाव-प्राणायाम आत्म-दृष्ट्या अधिक उपयोगी है, ऐसा उनका अभिमत था । महर्षि पतंजलि ने प्रत्याहार का विश्लेषण करते हुए लिखा है १६६ स्वविषयासम्प्रयोगो वित्तस्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः २.५४. अर्थात् - अपने विषयों के सम्बन्ध से रहित होने पर इन्द्रियों का चित्त के स्वरूप में तदाकार सा हो जाना प्रत्याहार है। जैन परम्परा में निरूपित प्रतिसंलीनता को प्रत्याहार के समकक्ष रखा जा सकता है । प्रतिसंलीनता जैन वाङ्मय का अपना पारिभाषिक शब्द है, जिसका आशय अशुभ प्रवृत्तियों से शरीर, इन्द्रिय तथा मन का संकोच करना है । दूसरे शब्दों में इसका तात्पर्य 'स्व' को अप्रशस्त से हटा प्रशस्त की ओर प्रयाण करना है । प्रतिसंलीनता के निम्नांकित चार भेद हैं १. इन्द्रिय-प्रतिसंीनता २. मनः प्रति संलीनता ३. कषाय- प्रतिसंलीनता ४. उपकरण प्रतिसंलीनता - उपकरण संयम स्थूल रूप में प्रत्याहार तथा प्रतिसंलीनता में काफी दूर तक सामंजस्य प्रतीत होता है। पर, दोनों के अन्तः स्वरूप की सूक्ष्म गवेषणा अपेक्षित है, जिससे तत्तद्गत तत्त्वों का साम्य, सामीप्य अथवा पार्थक्य आदि स्पष्ट हो सकें । औपपातिक सूत्र बाह्य तप अधिकार तथा व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (२५.७.७) आदि में प्रतिसंलीनता के सम्बन्ध में विवेचन है। नियुक्ति भूमि तथा टीका साहित्य में इसका विस्तार है। - इन्द्रिय-संयम -मन का संयम - कषाय-संयम प्रत्याहार धारणा, ध्यान, समाधि धारणा, ध्यान और समाधि योग के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग हैं पातंजल तथा जैन- दोनों योग-परम्पराओं में ये नाम समान रूप में प्राप्त होते हैं। आचार्य हरिभद्र, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र, यशोविजय आदि विद्वानों ने अपनी-अपनी शैली में इनका विश्लेषण किया है। धारणा के अर्थ में 'एकाग्रमनः सन्निवेशना' शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। धारणा, ध्यान एवं समाधि इन तीनों योगांगों का अत्यधिक महत्त्व इसलिए है कि साधक या योगी इन्हीं के सहारे दैहिक भाव से छूटता हुआ उत्तरोत्तर आत्मोत्कर्ष या आध्यात्मिक अभ्युदय की उन्नत भूमिका पर आरूढ़ होता जाता है। प्रश्नव्याकरणसूत्र के संवर द्वार तथा व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र के पच्चीसवें शतक के सप्तम उद्देशक आदि अनेक आगमिक स्थलों में ध्यान आदि का विशद विश्लेषण हुआ है। पतंजलि ने धारणा का लक्षण करते हुए लिखा है "देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ॥ ३।१. आकाश, सूर्य, चन्द्र आदि देह के बाहरी देश-स्थान हैं तथा हृत्कमल, नाभिचक्र आदि भीतरी देश हैं। इनमें से किसी एक देश में चित्त वृत्ति लगाना धारणा है। ध्यान का लक्षण उन्होंने इस प्रकार किया है -+ ० . Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ne -0 - ० .0 १७० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड "तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ॥। ३.२. - अर्थात् ध्येयवस्तु में वृत्ति की एकतानता — उसी वस्तु में चित्त का एकाग्र हो जाना, बीच में किसी व्यवधान का न रहना ध्यान है । समाधि के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है - तदेवार्थमा निर्मास स्वरूपशून्यमिव समाधिः ॥ २. २. जब केवल ध्येय मात्र का ही निर्भास या प्रतीति हो तथा चित्त का अपना स्वरूप शून्य जैसा हो जाए, तब वह ध्यान समाधि हो जाता है। धारणा, ध्यान और समाधि का पातंजल योग की दृष्टि से यह संक्षिप्त परिचय है । भाष्यकार व्यास तथा वृत्तिकार भोज आदि ने इनका विशद एवं मार्मिक विवेचन किया है । अन्तः परिष्कार या आध्यात्मिक विशुद्धि के लिए जैन साधना में ध्यान का बहुत बड़ा महत्त्व रहा है । अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर का अन्यान्य विशेषणों के साथ एक विशेषण ध्यान-योगी भी है। आचारांग सूत्र के नवम् अध्ययन में, जहाँ भगवान् महावीर की चर्या का वर्णन है, वहाँ उनकी ध्यानात्मक साधना का भी उल्लेख है । विविध आसनों से, विविध प्रकार से नितान्त असंग भाव से उनके ध्यान करते रहने के अनेक प्रसंग वहां वर्णित हैं। एक स्थान पर लिखा है कि वे सोलह दिन-रात तक सतत ध्यानशील रहे। उनकी स्तवना में उन्हें वहाँ अनुत्तर ध्यान के आराधक कहा गया है तथा शंख और इन्दु की भाँति उनका ध्यान परम शुक्ल बताया गया है । वास्तव में जैन-परम्परा की जैसी स्थिति आज है, भगवान् महावीर के समय में सर्वथा वैसी नहीं थी । आज लम्बे उपवास, अनशन आदि पर जितना जोर दिया जाता है, उसकी तुलना में मानसिक एकाग्रता, चैतसिक वृत्तियों का नियन्त्रण, ध्यान, समाधि आदि गौग हो गये है। परिणामतः ध्यान-सम्बन्धी अनेक तथ्यों तथा विधाओं का लोप हो गया है । स्थानांगसूत्र स्थान या अध्ययन ४ उद्देशक १ समवायांगसूत्र समवाय ४ आवश्यकनियुक्ति कायोत्सर्ग अध्ययन में इनके व्याख्यात्मक वाङ्मय में तथा और भी अनेक आगम ग्रन्थों एवं उनके टीका-साहित्य में एतत्सम्बन्धी सामग्री पर्याप्त मात्रा में बिखरी पड़ी है। 1 आचार्य हेमचन्द्र और शुभचन्द्र ने ध्याता की योग्यता एवं ध्येय के स्वरूप का विवेचन करते हुए ध्येय को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्य और रूपातीत यो चार प्रकार का माना है। उन्होंने पाथिवी, आग्नेयी, वायवी वारुणी और सत्य के नाम से पिण्डस्व ध्येय की पांच धारणाएँ बताई हैं, जिनके सम्बन्ध में ऊहापोह, अनुशीलन तथा गवेषणा की विशेष आवश्यकता है। इसी प्रकार पदस्थ, रूपस्य और रूपातीत ध्यान का भी उन्होंने विस्तृत विवेचन किया है, जिनका सूक्ष्म अनुशीलन अपेक्षित है । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के सप्तम, अष्टम नवम, दशम और एकादश प्रकाश में ध्यान का विशद विवेचन किया है। धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान जो आत्म-निर्मलता के हेतु हैं, का उक्त आचार्यों (हरिभद्र, हेमचन्द्र, शुभचन्द्र ) ने अपने ग्रन्थों में सविस्तार वर्णन किया है। ये दोनों (ध्यान) आत्मलक्षी हैं । शुक्लध्यान विशिष्ट ज्ञानी साधकों के सता है । वह अन्तःस्थैर्य या आत्म- स्थिरता के पराकाष्ठत्व की दशा में है । धर्म ध्यान उससे पहले की स्थिति है । वह शुभ- मूलक है। जैन परम्परा में अशुभ, शुभ और शुद्ध इन तीन शब्दों का विशेष रूप से व्यवहार हुआ है । अशुभ पापमूलक, शुभ पुण्यमूलक तथा शुद्ध पाप-पुण्य से अतीत निरावरणात्मक दशा है । तत्त्वार्थ सूत्र में धर्म ध्यान के पार भेद बतलाये हैं— आज्ञापायविपाकसंस्थानविचधाय धर्ममप्रमत्तसंवतस्य ॥२. २७. अर्थात् — आज्ञा-विचय, अपाय- विचय, विपाक-विचय तथा संस्थान-विचय- धर्मध्यान के ये चार भेद हैं । स्थानांग समवायांग, आवश्यक आदि अर्द्धमागधी आगमों में विकीर्ण रूप में इनका विवेचन प्राप्त होता है । Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय योग और जैन चिन्तन-वारा १७१ ..................... आज्ञा, अपाय, विपाक तथा संस्थान-ये ध्येय हैं। जैसे- स्थूल या सूक्ष्म आलम्बन पर चित्त एकाग्र किया जाता है, वैसे ही इन ध्येय विषयों या भावों पर चित्त को एकाग्र किया जाता है। इनके चिन्तन से चित की शुद्धि होती है, चित्त निरोध-दशा की ओर अग्रसर होता है, इसलिए इनका चिन्तन धर्मध्यान कहलाता है। धर्म-ध्यान चित्तशुद्धि या चित्त-निरोध का प्रारम्भिक अभ्यास है। शुक्ल-ध्यान में वह अभ्यास परिपक्व हो जाता है। मन सहज ही चंचल है। विषयों का आलम्बन पाकर वह चंचलता बढ़ती जाती है। ध्यान का कार्य उस चंचल एवं भ्रमणशील मन को शेष विषयों से हटा, किसी एक विषय पर स्थिर कर देना है। ज्यों-ज्यों स्थिरता बढ़ती है, मन शान्त और निष्प्रकम्प होता जाता है। शुक्ल-ध्यान के अन्तिम चरण में मन की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध-पूर्ण संवर हो जाता है अर्थात् समाधि अवस्था प्राप्त हो जाती है । आचार्य उमास्वाति ने शुक्लध्यान के चार भेद बतलाये हैं पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवृत्तीनि । ६. ४१ ।। पृथक्त्ववितर्कसविचार, एकत्ववितर्कअविचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति तथा व्युपरतक्रियानिवृत्ति । आचार्य हेमचन्द्र ने शुक्ल-ध्यान के स्वामी, शुक्ल-ध्यान का क्रम, फल, शुक्ल-ध्यान द्वारा घाति कर्मों का अपचय-क्षय आदि अनेक विषयों का विशद विश्लेषण किया, जो मननीय है। जैन परम्परा के अनुसार वितर्क का अर्थ श्रुतावलम्बी विकल्प है। पूर्वधर-विशिष्ट ज्ञानी मुनि पूर्वश्रुतविशिष्ट ज्ञान के अनुसार किसी एक द्रव्य का आलम्बन लेकर ध्यान करता है, किन्तु उसके किसी एक परिणाम या पर्याय (क्षण-क्षणवर्ती अवस्था विशेष) पर स्थिर नहीं रहता। वह उसके विविध परिणामों पर संचरण करता है-- शब्द से अथं पर, अर्थ से शब्द पर तथा मन, वाणी एवं देह में एक दूसरे की प्रकृति पर संक्रमण करता है, अनेक अपेक्षाओ से विचरण करता है। ऐसा करना पृथक्त्ववितर्क शुक्ल-ध्यान है। शब्द, अर्थ, मन, वाक् तथा देह पर संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही होता है, अत: उस अंश में मन की स्थिरता बनी रहती है। इस अपेक्षा से उसे ध्यान कहने में आपत्ति नहीं आती। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में सवितर्क-समापत्ति (समाधि) का जो वर्णन किया है, वह पृथक्त्व-वितर्कसविचार शुक्लध्यान से तुलनीय है । योगसूत्र में वितर्क समापत्ति का विवेचन इस प्रकार है तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पः संकीर्णा सवितर्का समापत्तिः ॥१.४२. अर्थात्-शब्द, अर्थ और ज्ञान-इन तीनों के विकल्पों से संकीर्ण-सम्मिलित समापत्ति-समाधि सवितकसमापत्ति है। जैन एवं पातंजल योग से सम्बद्ध इन दोनों विधाओं की गहराई में जाने से अनेक दार्शनिक तथ्यों का प्राकट्य संभाव्य है। पूर्वधर-विशिष्ट ज्ञानी पूर्वश्रत-विशिष्ट ज्ञान के किसी एक परिणाम पर चित्त को स्थिर करता है। वह शब्द, अर्थ, मन, वाक् तथा देह पर संक्रमण नहीं करता। वैसा ध्यान एकत्व-वितर्क-अविचार की संज्ञा से अभिहित है। पहले में पृथक्त्व है अतः वह सविचार है, दूसरे में एकत्व है, इस अपेक्षा से उसकी अविचार संज्ञा है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि पहले में वैचारिक संक्रम हैं, दूसरे में असंक्रम । आचार्य हेमचन्द्र ने उन्हें अपने योगशास्त्र में पृथक्त्व-श्रुत-सविचार तथा एकत्व-श्रुत-अविचार संज्ञा से अभिहित किया है । जैसे ज्ञेयं नानात्वश्रुतविचारमैक्यश्रुताविचारं च । सूक्ष्मक्रियमुत्सन्नक्रियमिति भेदैश्चतुर्धा तत् ॥११.५. Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 -0 .0 १७२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड महर्षि पतंजलि द्वारा निर्मितर्क-समापत्ति एकत्व-वितर्क-विचार से तुलनीय है। पतंजलि लिखते हैं-स्मृतिपरिशुद्ध स्वरूपशून्यमेवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का ।। १.४३. जब स्मृति परिशुद्ध हो जाती है अर्थात् शब्द और प्रतीति की स्मृति लुप्त हो जाती है, चित्तवृत्ति केवल अर्थमात्र का --- ध्येयमात्र का निर्भास कराने वाली - ध्येय मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष कराने वाली हो, स्वयं स्वरूप शून्य की तरह बन जाती है, तब वैसी स्थिति निति समापत्ति से संशित होती है। यह विवेचन स्थूल ध्येय पदार्थों की दृष्टि से है जहां ध्येय पदार्थ सूक्ष्म हों, वहाँ उक्त दोनों की संज्ञा सविचार और निर्विचार समाधि है, ऐसा पतंजलि कहते हैं-जैसे एतयैव सविचारा निविणारा व सूक्ष्मविषया व्याख्याता॥१.४४ निर्विचार समाधि में अत्यन्त वैशद्य नैर्मल्य रहता है। अतः योगी उसमें अध्यात्मप्रसाद - आत्म-उल्लास प्राप्त करता है । उस समय योगी की प्रज्ञा ऋतम्भरा होती है । ऋतम् का अर्थ सत्य है । वह प्रज्ञा या बुद्धि सत्य का ग्रहण करने वाली होती है । उसमें संशय और भ्रम का लेश भी नहीं रहता । उस ऋतम्भरा प्रज्ञा से उत्पन्न संस्कारों के प्रभाव से अन्य संस्कारों का अभाव हो जाता है । अन्ततः ऋतम्भरा प्रज्ञा से जनित संस्कारों में भी आसक्ति न रहने के कारण उनका भी निरोध हो जाता है । यों समस्त संस्कार निरुद्ध हो जाते हैं । फलतः संसार के बीज का सर्वथा अभाव हो जाने से निर्बीज-समाधि- दशा प्राप्त होती है । कायोत्सर्ग इस सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण कुछ भिन्न है । जैन दर्शन के अनुसार आत्मा पर जो कर्मावरण छाये हुए हैं, उन्हीं के कारण उनका शुद्ध स्वरूप आवृत है। ज्यों-ज्यों उन आवरणों का विलय होता जाता है, आत्मा की वैभाविक दशा छूटती जाती है और वह स्वाभाविक दशा प्राप्त करती जाती है। आवरणों के अपचय या नाथ के जैन दर्शन में तीन क्रम हैं-क्षय, उपशम तथा क्षयोपशम । किसी कार्मिक आवरण का सर्वथा नष्ट या निर्मूल हो जाना क्षय, अवधि विशेष के लिए मिट जाना या शान्त हो जाना उपशम तथा कर्म की कतिपय प्रकृतियों का सर्वथा क्षीण हो जाना तथा कतिपय प्रकृतियों का अवधि विशेष के लिए शान्त हो जाना क्षयोपशम कहा जाता है। कर्मों के उपशम से जो समाधि अवस्था प्राप्त होती है, वह सबीज हैं; क्योंकि वहाँ कर्म-बीज का सर्वथा उच्छेद नहीं होता, केवल उपशम होता है। कार्मिक आवरणों के सम्पूर्ण क्षय से जो समाधि अवस्था प्राप्त होती है, वह निर्बीज है, क्योंकि वहाँ कर्मबीज परि पूर्णरूपेण दग्ध हो जाता है । कर्मों के उपरान से प्राप्त उन्नत दशा फिर अत दशा में परिवर्तित हो सकती है, पर कर्म-क्षय से प्राप्त उन्नत दशा में ऐसा नहीं होता । पातंजल योग तथा जैन दर्शन के पहलू पर गहराई तथा जनता से विचार करने की अपेक्षा है। - कायोत्सर्ग जैन दर्शन का पारिभाषिक शब्द है । इसका ध्यान के साथ विशेष सम्बन्ध है । कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है-शरीर का त्याग विसर्जन पर जीते-जी शरीर का त्याग कैसे संभव है? यहां शरीर के उत्सर्ग का अर्थ है शरीर की चंचलता का विसर्जन तरीका तिथिलीकरण, शारीरिक ममत्व का विसर्जन शरीर मेरा है, इस ममत्वभाव का विसर्जन । ममत्व और प्रवृत्ति मन और देह में तनाव उत्पन्न करते हैं। तनाव की स्थिति में ध्यान कैसे संभाव्य है ? अतः मन को शान्त व स्थिर करने के लिए शरीर को शिथिल करना बहुत आवश्यक है । शरीर उतना शिथिल होना चाहिए, जितना किया जा सके । शिथिलीकरण के समय मन पूरा खाली रहे, कोई चिन्तन न हो, जप भी न हो । यह न हो सके तो ओ३म् आदि का ऐसा स्वर-प्रवाह हो कि बीच में कोई अन्य विकल्प आ ही न सके । उत्तराध्ययन सूत्र, आवश्यक निर्युक्ति, दशकालिक चूर्णि आदि में विकीर्ण रूप में एतत्सम्बन्धी सामग्री प्राप्य है । अमितगति श्रावकाचार तथा मूलाचार में कायोत्सर्ग के प्रकार, काल-मान आदि पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है । - -- . Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमितगति श्रावकाचार में कायोत्सर्ग के कालमान में उच्छ्वासों का एक विशेष प्रकार दिया गया है, जो मननीय है । वह इस प्रकार है भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा १७३ अष्टोत्तरशतोच्छ्वासः, कायोत्सर्गः प्रतिक्रमे । सान्थ्यो प्राभातिके बार्ध मन्यस्तरसप्तविंशतिः ॥ सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः संसारोन्मूलनक्षमे । सन्ति पंचनमस्कारे, नवधा चिन्तिते सति ॥६. ६८-६६. प्रतिमाएँ 1 कायोत्सर्ग के प्रसंग में जैन आगमों में विशेष प्रतिमाओं का उल्लेख है। प्रतिमा अभ्यास की एक विशेष दशा है। भद्रा प्रतिमा महाभद्रा प्रतिमा सर्वोद्र प्रतिमा, महाप्रतिमा आदि में कायोत्सर्ग की विशेष दशाओं में स्थित होकर भगवान् महावीर ध्यान करते रहे थे, ऐसा उन-उन आगमिक स्थलों में संकेत है, जो महावीर की साधना के इतिवृत से सम्बद्ध हैं स्थानांगसूत्र में सुभद्रा प्रतिमा का उल्लेख है। इनके अतिरिक्त समाधि- प्रतिमा उपधान प्रतिमा, विवेक प्रतिमा, व्युत्सर्ग प्रतिमा, क्षुल्लिकामोद-प्रतिमा, यवमध्यप्रतिमा, वज्रमध्यप्रतिमा आदि की आगम वाङ्मय में चर्चाएँ हैं । पर इनके स्वरूप तथा साधना के सम्बन्ध में विशेष कुछ प्राप्त नहीं है। अनुमान है, यह परम्परा लुप्त होगई। यह निश्चय ही एक गवेषणीय विषय है। आलम्बन अनुप्रेक्षा भावना ध्यान को परिपुष्ट करने के लिए जैन आगमों में उनके आलम्बन अनुप्रेक्षा आदि पर भी विचार किया गया है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में इनकी विशेष चर्चा की है। उदाहरणार्थ, उन्होंने मैत्री, प्रमोद, करुणा तथा माध्यस्थ्य को धर्म ध्यान का पोषक कहा है । जैसे - मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि नियोजयेत् । धर्मध्यानमुपस्कतु तद्धि तस्य रसायनम् ।।४.११७. ध्यान के लिए अपेक्षित निर्द्वन्द्वता के लिए जैन साहित्य में द्वादश भावनाओं का वर्णन है । आचार्य हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि ने भी इनका विवेचन किया है। वे भावनाएँ निम्नांकित हैं अनित्य, अशरण, भव, एकत्व, अन्यत्व, अशीच आलय, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक तथा बोधि दुर्लभताइन भावनाओं के विशेष अभ्यास का जैन-परम्परा में एक मनोवैज्ञानिकता पूर्ण व्यवस्थित कम रहा है, ऐसा प्रतीत होता है। मानसिक आवेगों, तनावों को क्षीण करने के लिए निःसन्देह भावनाओं के अभ्यास का बड़ा महत्व है। आलम्बन, अनुप्रेक्षा, भावना आदि का जो विस्तृत विवेचन जैन (योग के) आचायों ने किया है, उसके पीछे विशेषतः यह आशय रहा है कि चित्तवृत्तियों के परिष्कार, परिशोधन व निरोध के लिए अपेक्षित निर्मलता, ऋता सात्त्विकता एवं उज्ज्वलता का अन्तर्मन में उद्भव हो सके । अनुभूति आचार्य हेमचन्द्र के योग- शास्त्र का अन्तिम प्रकाश अनुभव पर आधृत है । उसका प्रारम्भ करते हुए वे लिखते है श्रुतसिन्धोर्गुरुमुखतो यदधिगतं तदिह दर्शितं सम्यक् । अनुभवसिद्धमिदानी प्रकाश्यते तत्त्वमिदममलम् ।। १२.१. शास्त्र समुद्र से तथा गुरुमुख से जो मैंने प्राप्त किया, वह पिछले प्रकाश (अध्यायों में मैंने भली-भांति व्याख्यात कर ही दिया है। अब जो मुझे अनुभव से प्राप्त है, वह निर्मल तत्व प्रकाशित कर रहा हूँ । . Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड योगशास्त्र के इस अन्तिम प्रकाश में हेमचन्द्र ने मन का विशेष रूप से विश्लेषण किया है। उन्होंने योगाभ्यास के प्रसंग में विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट तथा सुलीन-यों मन के चार भेद किये हैं। उन्होंने अपनी दृष्टि से इनकी विशद व्याख्या की है। योगशास्त्र का यह प्रकरण (प्रकाश) साधकों के लिए विशेष रूप से अनुशीलनीय है। हेमचन्द्र ने विविध प्रसंगों में बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा, औदासीन्य, उन्मनीभाव, दृष्टिजय, मनोजय आदि उपयोगी विषयों पर बड़े सरल शब्दों में अपने विचार उपस्थित किये हैं। बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा के रूप में आत्मा के जो तीन भेद किये जाते हैं, वे आगमोक्त हैं। विशेषावश्यक भाष्य में उनका विस्तृत वर्णन है।। इस प्रकाश में आचार्य हेमचन्द्र ने और भी अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की है, जो यद्यपि संक्षिप्त हैं, पर विचार-सामग्री की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। उपसंहार योगदर्शन साधना और अभ्यास के मार्ग का उद्बोधक है। उसकी वैचारिक पृष्ठभूमि या तात्त्विक आधार प्रायः सांख्यदर्शन है। अतएव दोनों को मिलाकर सांख्ययोग कहा जाता है। दोनों का सम्मिलित रूप ही एक समग्र दर्शन बनता है, जो ज्ञान और चर्या-जीवन के उभय पक्ष का समाधायक है। सांख्यदर्शन अनेक पुरुषवादी है। पुरुष का आशय आत्मा से है। जैन दर्शन के अनुसार भी आत्मा अनेक हैं। जैन दर्शन तथा सांख्य दर्शन के अनेकात्मवाद पर गवेषणात्मक दृष्टि से विशद एवं गम्भीर परिशीलन वांछनीय है। . इसके अतिरिक्त पातंजल योग तथा जैन योग के अनेक ऐसे पक्ष हैं, जिन पर गम्भीरता से तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन किया जाना चाहिए क्योंकि दोनों परम्पराओं में काफी सामंजस्य है। यह सामंजस्य केवल बाह्य है या तत्त्वतः उनमें कोई ऐसी आन्तरिक समन्विति भी है, जो उनका सम्बन्ध किसी एक विशेष स्रोत से जोड़ती हो, यह विशेष रूप से गवेषणीय है। X X X X X X X X X X X XXXXXXXXXX xxxxx xxxxx स्वात्मानं स्वात्मनि स्वेन, ध्याते स्वस्मौ स्वतो यतः । षट्कारकमयस्तस्माद्, ध्यानमात्मौव निश्चयात् ॥ -तत्त्वानुशासन ७४ आत्मा का, आत्मा में, आत्मा द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा से ही ध्यान करना चाहिए। निश्चय दृष्टि से षट्कारकमय यह आत्मा ही ध्यान है। xxxxx X X X X X xxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxx ० ० Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य समस्याओं की ही भांति शब्द अर्थ के पारस्परिक सम्बन्ध भी दार्शनिक जगत् में एक विवाद का विषय बनी हुई है । शब्द अर्थ में परस्पर कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं, यदि कोई सम्बन्ध है तो वह कौन-सा आदि प्रश्नों को लेकर दार्शनिकों ने अपना-अपना चिन्तन प्रस्तुत किया है। शब्द- अर्थ सम्बन्ध: जैन दार्शनिकों की दृष्टि में डॉ० हेमलता बोलिया (सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर) कतिपय दार्शनिक शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करते हैं। किन्तु इसकी उपेक्षा नहीं जा सकती, क्योंकि यदि इनमें कोई सम्बन्ध नहीं है तो हमें जो यत्किचित् की प्रतीति या अवबोध (ज्ञान) शब्द के माध्यम से होता है, वह नहीं होना चाहिए। जैन दार्शनिक हरिभद्रसूरि का कथन है कि यदि यह माना जाय कि इन दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं है, तो किसी सिद्ध पुरुष की निन्दा अथवा स्तुति कुछ भी करें तो इसमें कोई दोष नहीं होना चाहिए, तथा किसी को पुकारने पर उसे न तो सुनना चाहिए और न ही तदनुकूल आचरण करना चाहिए किन्तु लोक में ऐसा प्रत्यक्षतः देखने को नहीं मिलता। इसे स्वीकार न करने पर हमारा प्रतिदिन का कार्य भी नहीं चल सकेगा । अतः शब्द और अर्थ में परस्पर सम्बन्ध है, इसे स्वीकार किये बिना हमारी गति नहीं है । यह बात पृथक् है कि इनमें परस्पर कौन-सा सम्बन्ध है ? इनके पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर भी दार्शनिकों में मर्तय नहीं है। वानिकों ने इन दोनों के बीच नाना सम्बन्धों की कल्पना की है, जैसे—कार्यकारणभाव सम्बन्ध, वाच्य वाचकभाव सम्बन्ध, तादात्म्य - सम्बन्ध जन्यजनकभाव सम्बन्ध, कुण्ड तथा बदरी के समान संयोग सम्बन्ध, तन्तु एवं पट के समान समवाय सम्बन्ध, निमित्त - नैमितिक सम्बन्ध, आश्रय-आश्रयिभाव सम्बन्ध, सामायिक सम्बन्ध आदि । परन्तु इन सब सम्बन्धों का अर्न्तभाव दो सम्बन्धों किया जा सकता है १. शब्द और अर्थ में अनित्य सम्बन्ध है अथवा २. नित्य सम्बन्ध है । +++++++ अनित्य सम्बन्ध नैयायिकों ने सब्द और अर्थ में नित्य अथवा अपौत्य सम्बन्ध मानने वाले दार्शनिकों के मत को पूर्वपक्ष में रखकर सयुक्ति खण्डन किया है तदनन्तर स्वमत को समाधान या सिद्धान्त मत रूप में प्रस्थापित किया है । इनके १. बुद्धावपि चादोषः संस्तवेप्यगुणस्तथा । आह्नानाप्रतिपत्यादि शब्दार्थयोगतो ध्रुवम् ॥ २. न्यायमंजरी ४० २२०-२२. ३. न्यायमंजरी, आह्निक ४, पृ० २२०-२२ 2 — शास्त्रवार्तासमुच्चय का० १७२. . Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ........................................................................... मतानुसार श्रोत्र के द्वारा ग्राह्यमान गुण शब्द है । यह मात्र आकाश में रहता है, अत: अनित्य है। अत: शब्द और अर्थ में जो सम्बन्ध है वह भी अनित्य है। अमुक शब्द अमुक अर्थ का वाचक है, यह संकेत निश्चित होने पर ही अर्थ का बोध होता है और यह संकेत पुरुषाधीन है । इससे भी शब्द-अर्थ में अनित्य सम्बन्ध होना ही सिद्ध होता है । २ वैशेषिकों ने शब्द एवं अर्थ में सामायिक सम्बन्ध माना है जो नैयायिकों के अनित्य सम्बन्ध से भिन्न नहीं है। सांख्य दार्शनिकों ने इस सम्बन्ध में अपना कोई निश्चित मत व्यक्त नहीं किया । इनका तो इतना ही कहना है कि शब्द अनित्य है, अतः तदाश्रित अर्थ भी अनित्य है। शब्द से हमें जो अर्थ-प्रतीति होती है वह उसके वाच्यवाचक भावसम्बन्ध के कारण ही होती है । शब्द (वाच्य) और अर्थ (वाचक) है । इसीलिए हम व्यवहार में कहते हैं कि अमुक शब्द अमुक अर्थ का वाचक है। सांख्य दार्शनिकों के मत का भी सूक्ष्म पर्यालोचन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि शब्द एवं अर्थ में अनित्य सम्बन्ध है । वैसे भी दो अनित्य वस्तुओं का सम्बन्ध अनित्य ही होता है, यह लोकसिद्ध सत्य है । नित्य सम्बन्ध इसके विपरीत मीमांसक वेदान्ती एवं वैयाकारणों ने शब्द और अर्थ में नित्य सम्बन्ध माना है। अनित्य सम्बन्ध मानने वालों के मत का सयुक्ति खण्डन करते हुए स्वमत का प्रतिपादन किया है। इनका कहना है कि यदि शब्द और अर्थ में अनित्य सम्बन्ध है तो शब्द में अर्थ का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि न्यायादि मत में शब्द को अनित्य माना गया है। जब शब्द अनित्य है, तो संकेतित शब्द तो उच्चारणोपरान्त नष्ट हो जायेगा और नष्ट हुआ शब्द अर्थ का बोधक हो ही नहीं सकता। जबकि लोक में शब्द से अर्थ-प्रतीति देखी जा सकती है। अत: शब्द को अनित्य स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इसीलिए शब्द और अर्थ में औत्पत्तिक (नित्य) सम्बन्ध है। इसके मतानुसार शब्द नित्य है और इसी अर्थ में वेद नित्य हैं । जिसे हम शब्द की उत्पत्ति समझते हैं, वह भी वस्तुत: शब्द की अभिव्यक्ति है। शब्द अर्थ का बोधक है और शब्द एवं अर्थ में संज्ञा-संज्ञी सम्बन्ध है। शब्द संज्ञा और अर्थ संज्ञी है । संज्ञा-संज्ञी सम्बन्ध होने पर भी शब्द से अर्थ प्रतीति नहीं होती है, वहाँ ज्ञानाभाव को ही कारण मानना चाहिए। जैसे----अन्धकार में रखी हुई वस्तु यदि ज्योतियुक्त नेत्रों से नहीं देखी जा सकती है तो इसका अर्थ वस्तु का अभाव नहीं हो सकता । उसी प्रकार शब्द सुनकर उसका अर्थ न जाना जाये, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि शब्द और अर्थ में कोई सम्बन्ध नहीं है, अपितु वहाँ सहायकों का अभाव जानना चाहिए। इस प्रकार लौकिक-व्यवहार की दृष्टि से भी इनमें नित्य सम्बन्ध ही सिद्ध होता है, अनित्य नहीं। नित्य होने के कारण यह पुरुषकृत भी नहीं है, अपितु अपौरुषेय है। इनका वाच्य-वाचकभाव सम्बन्ध भी नित्य है। जैसे पूर्व से ही स्थित १. श्रोत्रग्राह्यो गुण शब्दः । आकाशमात्र वृत्तिः । -तर्कसंग्रह, पृ० ७८; प्रशस्तपादभाष्य, पृ० ६६६. २. जातिविशेषे चानियमात् । -न्याय दर्शन, २।२।५७. ३. सामायिक: शब्दार्थप्रत्ययः । - वैशेषिक सूत्र, ७. २. २०. ४. वाच्यत्वाचकभावः सम्बन्धः शब्दार्थयोः । -सांख्यसूत्र (विद्योत्तमाभाष्य), पृ० ५।३७. ५. ब्रह्मसूत्र, १. ३. ८. २८ पर शंकर भाष्य । ६. नित्याः शब्दार्थासम्बन्धास्तत्राम्नातामहर्षिभिः । सूत्राणामनुतन्त्राणां भाष्याणां प्रणेतृभिः ।। -वाक्यप्रदीप, ब्रह्मकाण्ड, २३. ७. औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन सम्बन्धस्तत्र ज्ञाना........ -मीमांसादर्शन (शाबर) १. ५. ८. द्रष्टव्य-वृहती, पृ० १३२; प्रकरणपंचिका, शास्त्रपरिच्छेद, पृ० २३३. Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-अर्थ सम्बन्ध : जैन दार्शनिकों की दृष्टि में १७७ ..................................................................... .... पदार्थ को प्रदीप-प्रकाश प्रकट मात्र करता है, उत्पन्न नहीं; वैसे ही अर्थ को शब्द अभिव्यक्त मात्र करता है, उत्पन्न नहीं। इसी को भर्तृहरि' ने वेदान्त मत का आश्रय लेकर इस प्रकार कहा कि जैसे ज्ञान के दर्शन में ज्ञाता आत्मा की चरम परिणति ज्ञेय ब्रह्म के रूप में होती है, वैसे ही शब्द द्वारा अर्थ अपने रूप को प्रकट करता है, उत्पन्न नहीं। बौद्ध दार्शनिकों का मत इन दोनों मतों से सर्वथा भिन्न है। प्रथमत: तो बौद्ध दार्शनिकों का कहना है कि इन दोनों में कोई सम्बन्ध है ही नहीं और यदि अत्यन्त भिन्न प्रतीत होने वाले इन दोनों में एकत्व माना गया तो गाय और घोड़ा में भी एकत्व मानना पड़ेगा (जो किसी को भी स्वीकार्य नहीं हो सकता), क्योंकि इन दोनों (शब्द और अर्थ) में अन्वय और व्यतिरेक सम्बन्ध का अभाव है। एक से दूसरे की उत्पत्ति होती है, यह भी नहीं कह सकते, क्योंकि मृत्तिका, दण्ड, जल, कुम्भकार, चक्रादि सम्बन्ध से (शब्द-व्यापार के बिना ही) घटोत्पत्ति होती है, वैसे ही शब्द भी बाह्य अर्थ के न रहने पर वक्ता की इच्छा मात्र से तालु, कण्ठादि के व्यापार से ही उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त शब्द वक्ता के मुंह में रहता है जबकि अर्थ (वस्तु) की स्थिति बाह्य है। इसलिए इनमें किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं हो सकता। सम्बन्ध तो दो सम्बद्ध वस्तुओं में ही सम्भव है। यहाँ यह आशंका हो सकती है कि फिर लोक में वस्तु की प्रतीति कैसे होती है ? इसके समाधान में बौद्ध दार्शनिकों का कहना है कि वस्तु की प्रतीत तो अपोह से होती है, न कि शब्द और अर्थ के किसी सम्बन्ध विशेष से । अपोह का अर्थ है निषेध । यह दो प्रकार का है-पर्युदास और प्रसज्यप्रतिषेध । इनके भी पुनः भेद-प्रभेद हैं।' जैन मत जैन दार्शनिकों का दृष्टिकोण सदैव समन्वयात्मक रहा है जिसके मूल में उनका अनेकान्त का सिद्धान्त है। अन्य मतों के समान इनके मत में दोषों की उद्भावना की सम्भावना नहीं रहती है। विवेचना का तरीका ही इनका निराला है । शब्द-अर्थ के सम्बन्ध में इनका कहना है कि निश्चित रूप से हम यह नहीं कह सकते हैं कि इनमें नित्य सम्बन्ध ही है अथवा अनित्य सम्बन्ध ही है और न ही यह कह सकते हैं कि अर्थ-प्रतीति अपोह अथवा अन्यापोह के माध्यम से होती है। __ये नैयायिकों के समान शब्द और अर्थ के बीच तदुत्पत्ति अर्थात् जन्य-जनकभाव सम्बन्ध नहीं मानते । इनका कहना है कि स्वार्थ (अर्थभूतवस्तु) की सत्ता न रहने पर भी शब्द विद्यमान रहता है। क्योंकि कभी-कभी हम एक अर्थ (वस्तु) को किसी अन्य ही शब्द से सम्बोधित करते हैं । सत्ताशून्य पदार्थों को भी शब्द द्वारा घोषित करना सम्भव होता है, उसी तरह अर्थ को भी शब्द द्वारा। न ही ये मीमांसकों के समान शब्द और अर्थ के बीच तादात्म्य अथवा नित्य सम्बन्ध स्वीकार करते हैं। इनका कहना है कि यदि इनमें नित्य सम्बन्ध होता तो शब्द और अर्थ में पृथक्त्व नहीं होना चाहिए, जबकि लोक-व्यवहार १. आत्मरूपं यथा ज्ञाने ज्ञ यरूपं च दृश्यते । अर्थरूपं तथा शब्दे स्वरूपं च प्रकाशते ॥ -वाक्यप्रदीप, ब्रह्मकाण्ड, कारिका, ५०. प्रसज्यप्रतिषेधश्च गौरगौर्न भवत्ययम् । अतिविस्पष्टं एवायमन्यापोहोऽवगम्यते ॥ ........"द्विविधोऽपोहः पर्युदास निषेधतः । द्विविधः पर्युदासोऽपि बुद्धयात्मार्थात्मवेदतः ।। -तत्त्वसंग्रह ३. अर्थासन्निधिभावेन तद्दृष्टावन्यथोक्तितः । अन्याभावनियोगाच्च न तदुत्पत्तिरप्यलम् । -शास्त्रवार्तासमुच्चय, का० ६४६. Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Tololo o १७८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड में कहीं पर भी ऐक्य दृष्टिगोचर नहीं होता । पुनश्च यदि शब्द और अर्थ में तादात्म्य सम्बन्ध होता तो शस्त्रादि के उच्चारण मात्र से ही उच्चारण करने वाले व्यक्ति का मुख कट जाना चाहिए, लेकिन लोक में ऐसा नहीं होता । शब्द से अर्थ की प्रतीति संकेत सिद्ध है, स्वयं सिद्ध नहीं ।" यदि कहा जाय कि संकेत के द्वारा व्यक्त होते पर ही नित्य सम्बन्ध शब्दार्थ का प्रकाशक है, तो यह नित्य सम्बन्ध भी व्यक्ताव्यक्त भेद से दो प्रकार का होगा। संकेत के पुरुषाधीन होने के कारण वैपरीत्य भी सम्भव है, ऐसी स्थिति में वेदाप्रामाण्य हो जायेगा। इसके अतिरिक्त यह इसलिए भी सम्भव नहीं है कि अतीति सर्वदा सर्वमालिक नहीं होती है । घटादिरूप अर्थों की अनित्यता प्रत्यक्षतः सिद्ध ही है । " अन्यापोह अथवा अपोह की अवधारणा को जैन दार्शनिक ही अस्वीकार नहीं करते हैं अपितु नैयायिक, मीमांसक, वेदास्ती आदि भी इसका खण्डन करते हैं। इनका कहना है कि निषेधमुख से पदार्थ प्रतीति सम्भव नहीं है, क्योंकि निषेधार्थक प्रवृत्ति विव्य से ही सम्भव है, जिसे बौद्ध मत में स्वीकार नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य के अभाव से स्वार्थ ( जिस वस्तु का जो अर्थ है) की प्रतीति सम्भव भी नहीं है, क्योंकि "गौ" कहने पर "अगी" की और "अगौ" कहने पर "गो" की प्रतीति प्रथमतः होनी चाहिए, वह होती नहीं। फिर भी यह कहना कि गौ कहने पर प्रथमतः अगो की प्रतीति होती है, उचित नहीं है क्योंकि लोक में ऐसा प्रत्यक्ष रूप में होता नहीं, वरन् गौ कहने पर श्रोता को गौ का ही होता है, न कि अगी का और तदनन्तर गोरूप अर्थ की ही प्रतीति होती है। इसलिए अन्यापोह शब्द का अर्थ सिद्ध नहीं होता ।" पोह के भेद मानना भी युक्त नहीं है क्योंकि यथार्थ वस्तु में ही नाना विकल्पों की प्रतीति होती है । यदि अभाव में भी भेद मानेंगे तो अपोह वस्तु होने की आपत्ति आयेगी । उपर्युक्त विवेचन से यह सष्ट हो जाता है कि जैन दार्शनिकों को न तो नित्य सम्बन्ध इष्ट है और न ही अनित्य, तथा बौद्धाभिमत अपोह भी स्वीकार्य नहीं है। ऐसी स्थिति में शब्द से अर्थ ( वस्तु) का बोध कैसे होगा ? इसके समाधान में जैन दार्शनिकों का कहना है कि शब्द अपनी स्वाभाविक योग्यता और (पुरुषकृत) संकेत से वस्तु का ज्ञान कराने में कारण है। शब्द और अर्थ की सहज स्वाभाविक योग्यता प्रतिपाद्यप्रतिपादक शक्ति है, जो ज्ञान और ज्ञेय की ज्ञाप्य ज्ञापक शक्ति के तुल्य है इसलिए योग्यता से अन्य कार्य-कारण भावादि सम्बन्ध सम्भव नहीं हो सकते हैं । * हरिभद्रसूरि का कहना है कि शब्द तथा उनके अर्थ के बीच तादात्म्यादि सम्बन्ध में जो दोष बतलाये गये हैं; वे हमारे मत पर लागू नहीं होते हैं क्योंकि उक्त प्रकार की कल्पना हमें अभीष्ट नहीं है तथा हमारे मतानुसार शब्दों १. नादात्म्यं द्वयाभावप्रसंगाव बुद्धिभेदतः । शस्त्रौद्य ुक्तो मुखच्छेदादिसंगात् समयस्थितेः ॥ २. विस्तारार्थ द्रष्टव्य - न्यायविनिश्चयविवरणम्, भाग २, पृ० ३२०-२५; प्रमेयममार्तण्ड पृ० ४०४-२७. ३. विस्तारार्थ द्रष्टव्यपीमांसाश्लोकवार्तिक, अनोहवाद न्यायमंजरी, भाग-२, आह्निक- ५, पृ० २७६-७९; प्रमेयकमल-मार्तण्ड, ३/१०१, पृ० ४३१-४६, प्रमेवरत्नमाला, ३/१७, पृ० २३४-४०. ४. सहजयोग्यता संकेतवशाद्धि शब्दादयः वस्तुप्रतिपत्तिहेतवः । -- प्रमेयकमलमा ३.१०० - प्रमेवरत्नमाला २.६६ ५. प्रमेवमण्ड, ३१०० पू०४२. शारजातसमुच्चय ६४५. . Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द-अर्थ सम्बन्ध : जैन दार्शनिकों की दृष्टि में १७९ ...... ........ .. .. ........ ...... ..... और अर्थों के बीच भेद का कारण कारणभेद हुआ करता है। यथा स्त्रियों में वन्ध्यावध्यादि का भेद कारणभेद से हुआ करता है, उसी प्रकार शब्दों में सत्य मिथ्यादि का भेद कारणभेद से होता है।' एक शब्द की विशेषता (अर्थात् यह शब्द सत्य है अथवा मिथ्या) हम शब्द के स्वरूप का विश्लेषण आदि करके जान सकते हैं । जैसे प्रमाण-भूत ज्ञान की प्रमाणता तथा अप्रमाणभूत ज्ञान की अप्रमाणता हम ज्ञान के स्वरूप का विश्लेषणादि करके जानते हैं। हमारी यह मान्यता सत्य है, क्योंकि यह लोकानुभवसिद्ध है। इसके अतिरिक्त अमुक शब्द अमुक अर्थ का द्योतक है, इस प्रकार का ज्ञान किसी व्यक्ति को कराने की आवश्यकता तब होती है जब उस व्यक्ति के ज्ञानावरण कर्मों का क्षयोपशम न हुआ हो, जहाँ तक योगियों के ज्ञान का प्रश्न है, उनको उक्त ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहती है। मल्लिसेन के मतानुसार शब्द और अर्थ में कथंचित् तादात्म्य-सम्बन्ध है । कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध से यह परिलक्षित होता है कि इस मत में शब्द और अर्थ का नित्या नित्यात्मक सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध के मूल में इनका अनेकान्तवाद का सिद्धान्त निहित है । वैसे भी ये शब्द को नित्यानित्यात्मक मानते हैं, जिससे भी शब्द और अर्थ में नित्यानित्यात्मक सम्बन्ध होना ही सिद्ध होता है। -शास्त्रवार्तासमुच्चय, ६५८-५६ अनभ्युपगमाच्चेह तादात्म्यादिसमुद्भवाः । न दोषो नो न चान्येऽपि तद् भेदात् हेतु भेदतः ।। वन्ध्येतरादिको भेदौ रामादीनां यथैव हि । मृषासत्यादिशब्दानां तद्वत् तद्धतु भेदतः ।। २. ज्ञायते तद्विशेषस्तु प्रमाणेतरयोरपि । स्वरूपालोचनादिभ्यस्तथा दर्शनतो भुवि ।। समयाक्षेपणं चेह तत्क्षयोपशमं विना। तत्कर्तृत्वेन सफलं योगिनां तु न विद्यते । -शास्त्रवार्तासमुच्चय, पृ० ६६२-६३. ३. शब्दार्थयोः कथंचित् तादात्म्याभ्युपगमात् । -स्याद्वादमंजरी, पृ० १२८ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66666 -0 ISIS ब्रह्माण्ड : आधुनिक विज्ञान और जैन दर्शन श्री बी० एल० कोठारी (व्याख्याता भूगोल, आर. एम. बी. सूरजपोल अन्दर, उदयपुर) -- अन्वेषण कार्य हुए हैं उनसे ब्रह्माण्ड की रचना विस्तार एवं अतिस्पन्दनशील वर्णपट्टमायक, रेडियो, टेलिस्कोप आदि गणितीय सूत्रों द्वारा ब्रह्माण्ड सम्बन्धी नये तथ्य प्रकट हुए विगत चालीस वर्षों में अन्तरिक्ष विज्ञान में जो कार्यप्रणाली सम्बन्धी बहुत से नये रहस्य उद्घाटित हुए हैं यत्रों की सहायता से तथा प्रायोगिक भौतिकी के निष्क व हैं जिनके आधार पर यह धारणा बना लेना अनुचित नहीं है कि अन्तरिक्ष सम्बन्धी पहेली का समाधान बहुत कुछ ढूंढ़ fer गया है। लेकिन यदि कोई जिज्ञासु अन्तरिक्षविदों व भौतिक विज्ञान के निष्कर्षो का अध्ययन करे तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी । ये निष्कर्ष इतने भिन्न-भिन्न एवं परस्पर विरोधी हैं कि इस से पहेली सुलझने के बजाय और उलझती प्रतीत होती है । यन्त्रों द्वारा अध्ययन के प्रति भी अविश्वास उत्पन्न होता है। विश्व क्या है ? इसका प्रारम्भ कब हुआ? इसका विस्तार कितना है जादि प्रश्न आज भी उतने ही अनुत्तरित है जितने शताब्दियों पूर्व थे। ++++-400 ज्योतिषियों के निष्करों में परस्पर कितना है, यह कतिपय उदाहरणों से ज्ञात हो सकता है। जैसे हमारा सौरमण्डल प्रति सैकण्ड सात मील ( प्रति घण्टा २५००० मील) की गति से स्थानीय नक्षत्र प्रणाली की परिक्रमा कर रहा है, यह माना जाता रहा है किन्तु अब यह माना जाता है कि परिक्रमण की यह गति प्रति सैकण्ड तेरह मील है । इसी तरह इस पुरानी मान्यता के विपरीत कि स्थानीय नक्षत्र प्रणाली भी प्रति सैकण्ड २०० मील की गति से आकाश-गंगा के अज्ञात केन्द्र की परिक्रमा कर रही है, सन् १९७४ में अमेरिकन ज्योतिर्विदों ने दावा किया है कि यह गति प्रति सैकण्ड ६०० मील (प्रति घण्टा बीस लाख मील) है। विश्व की उत्पत्ति व आयु के सम्बन्ध में भी वैज्ञानिक उपलब्धियों में पर्याप्त विषमता है। एक धारणा के अनुसार विश्व की उत्पत्ति ५० करोड़ वर्ष पूर्व हुई, दूसरी धारणा के अनुसार आज से १५ अरब वर्ष पूर्व हुई। इसी तरह अजन्मा व अविनाशी है अर्थात् अजर-अमर है, के विरुद्ध निश्चित समय पूर्व उत्पत्ति व निश्चित समय पर विनाश की मान्यता प्रचलित है। विश्व असीम है, विश्व ससीम है आदि वैवस्य प्रमुख वैज्ञानिकों व ज्योतिर्विदों में आज भी विवाद का विषय बने हुए हैं। । वैज्ञानिक प्रयोगों पर आधारित निष्कर्षो में विभिन्नता होनी नहीं चाहिये फिर भी ऐसा क्यों ? जिन यन्त्रों द्वारा अन्तरिक्ष का निरीक्षण किया जाता है उनकी अपनी सीमाएँ हैं । आज का श्रेष्ठ से श्रेष्ठ दूरदर्शक यन्त्र भी ८ अरव प्रकाश वर्ष स्थित ज्योतिर्माताओं से परे नहीं देख सकता। भविष्य में और अधिक उन्नत दूरदर्शक यन्त्रों की सहायता से अन्तरिक्ष के नये क्षेत्र दृष्यगम्य होंगे तब पुरानी मान्यताएँ बदलनी पड़ेंगी यही हाल वर्णपट्टमापक यन्त्रों का है । इनकी संवेदनशीलता में वृद्धि किये जाने पर अवश्य ही अन्तरिक्ष के नये तथ्य प्रकट होंगे। अधिकांश भौतिक प्रयोग और उनके निष्कर्ष हमारे धरातल व वायुमण्डल में सम्पादित होते हैं जो इनकी परिस्थितियों व कार्यप्रणालियों पर निर्भर हैं जबकि यह स्पष्ट हो चुका है कि दूरस्थ ज्योतिर्माला प्रदेशों की परिस्थितियाँ व कार्यप्रणालियाँ हमारे धरातल से भिन्न प्रकार की हैं वहां की रचना, घनत्व, गतियां व पदार्थ भिन्न प्रकार के हैं। ऐसी स्थिति में यहां के भौतिक . Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्माण्ड : आधुनिक विज्ञान और जैन दर्शन १८१ . ....................................... ................. . ..... ....... नियम अन्तरिक्ष में लागू कर कोई नियम या सूत्र प्राप्त करना सारहीन है । वास्तविकता यह है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इतना प्राचीन व विस्तृत है कि वह किसी मापे जा सकने वाले यन्त्रों की परिधि में नहीं आता। अन्तरिक्ष निरीक्षण के यन्त्र आधुनिक विज्ञान की देन हैं। ऐतिहासिक व पूर्व ऐतिहासिक काल में ऐसे यन्त्रों का अभाव था । सम्भवतः साधारण यन्त्र भी नहीं थे फिर भी उस युग में भारतीय मनीषियों के अन्तरिक्ष के सूक्ष्म रहस्यों का अनावरण किया। नंगी आँखों से ही उन्होंने आज के श्रेष्ठ यन्त्रों की पकड़ में न आने वाले अन्तरिक्ष स्थित पिण्डों के आकार, गतियाँ, दूरियाँ, रूप, रंग आदि का इतना सही विवरण प्रस्तुत किया कि वे चुनौती से परे हैं। विश्व की उत्पत्ति व विस्तार के बारे में उनका चिन्तन इतना तर्कसंगत व स्पष्ट है कि विज्ञान के विवादास्पद सिद्धान्त हास्यास्पद लगते हैं । यन्त्रों के अभाव में शताब्दियों पूर्व अन्तरिक्ष का गहन अध्ययन किस प्रकार सम्भव हुआ? क्या यह सम्भव नहीं कि उस युग में ऋषि-मुनियों की अतीन्द्रिय शक्तियों के माध्यम से अदृश्य-लोक का अनावरण हुआ होगा? ब्रह्माण्ड रचना, उत्पत्ति एवं विस्तार का जैन साहित्य में विस्तार से उल्लेख मिलता है। ब्रह्माण्ड का आकार, क्षेत्रफल, उत्पत्ति, आयु, विस्तार व ज्योतिपिण्डों की गतियाँ, उनके मार्ग आदि मानचित्रों के साथ उपलब्ध हैं। जैन साहित्य स्थित ब्रह्माण्ड विज्ञान का अवलोकन करें और इसका मूल्यांकन करें इसके पूर्व ब्रह्माण्ड सम्बन्धी आधुनिक सिद्धान्तों का संक्षिप्त परिचय आवश्यक है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, आयु, रचना व विस्तार के बारे में भिन्न-भिन्न वैज्ञानिक मत है। उत्पत्ति व आयु सम्बन्धी दो विपरीत विचारधारा निम्न प्रकार हैं (१) ब्रह्माण्ड का आरम्भ निश्चित है-अर्थात् अतीतकाल में किसी एक समय में सकल ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया एवं भविष्य में किसी एक दिन इसका अन्त हो जायगा। (२) ब्रह्माण्ड अनादि व अनन्त है। अतीतकाल में न तो कभी इसकी उत्पत्ति हुई न कभी अन्त ही होगा। यह शाश्वत अजर-अमर है। (i) ब्रह्माण्ड का निश्चित आरम्भ मानने वाले ज्योतिविदों में माउण्ट विलसन वेधशाला के डा० एडविन हबल का मत है कि आज से करीब दो सौ करोड़ वर्ष पूर्व वर्तमान ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आया। तब सभी ज्योतिपिण्ड घनीभूतरूप में एक ही स्थान पर एक पिण्ड के रूप में विद्यमान थे। उस पिण्ड में एक महाविस्फोट हुआ है और पिण्ड स्थित समस्त पदार्थ चारों ओर छितराने लगा। छितराने की वह क्रिया आज भी जारी है। पदार्थ ज्योतिर्मालाओं (आकाश-गंगाओं) के रूप में अत्यन्त तीव्र गति से आज भी शून्य में बिखरता जा रहा है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के ज्योतिर्विद डा. जार्जगेमो का मत है कि आज से करीब ५० करोड़ वर्ष पूर्व ब्रह्माण्ड का केन्द्रीय स्थल समजातीय व मौलिक वाष्प का कल्पनातीत ताप का भण्डार था। उसका तापमान कम होने से धीरे-धीरे ठोस पदार्थों का निर्माण हुआ तथा ग्रह-नक्षत्र आकाश-गंगाएँ अस्तित्व में आईं। बेल्जियम के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एबोलिमेत्र द्वारा प्रस्तावित सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक विशाल मौलिक अणु से हुई। इस अणु में विस्फोट होने से पदार्थ बिखर कर फैलने लगा एवं आज भी फैल रहा है। केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक प्रो० मार्टिन रीले का मत भी लगभग इसी प्रकार है। विश्व की उत्पत्ति का निश्चित प्रारम्भ बताने में कुछ भौतिक सिद्धान्त भी सहायक हैं। यूरेनियम धातु से निरन्तर प्रकाश किरणों का विकीरण होता रहता है, यह सभी को ज्ञात है। इस धातु का अध्ययन करने से पता चला कि यह आज से करीब २० अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आई। नक्षत्रों के आन्तरिक भागों में स्थित तापप्रणालियाँ जिस तीव्रता से पदार्थ को प्रकाश में परिणत करती है उससे अनुमान लगाया गया है कि अधिकांश तारों की आयु २० अरब प्रकाश वर्ष है। तीव्र गति से विचरण करने वाली आकाश-गंगाओं के आधार पर भी इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि ब्रह्माण्ड का प्रारम्भ लगभग बीस अरब वर्ष पूर्व हुआ होगा। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति व आयु के सम्बन्ध में वैज्ञानिकों ने जो भी सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं उनमें हर सिद्धान्त यह स्वीकार करता है कि वर्तमान ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आने के पूर्व कोई पदार्थ पहले से ही विद्यमान था-चाहे वह Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खाउ ................................................... -.-. -.-.-.-.-. -. -. -. विशाल अणु हो, घनीभूत पदार्थ समूह हो या उन्मुक्त नाइट्रोन हो। यह भी सम्भव है कि वह पदार्थ शक्ति या किसी अन्य रूप में हो । वह पदार्थ क्या था जिससे विशाल अणु अस्तित्व में आया, जिसमें विस्फोट होने से वर्तमान ब्रह्माण्ड की रचना हुई, तथा विशाल अणु का निर्माण करने वाले पदार्थ का भी उससे पूर्व कोई रूप रहा होगा। वह रूप क्या था एवं कब अस्तित्व में आया ? इन प्रश्नों पर सभी वैज्ञानिक मौन हैं। ब्रह्माण्ड-रचना के आदितत्त्व पर विचार करते-करते अतीत की गहराइयों में प्रविष्ट होते जाते हैं व किसी किनारे पर नहीं पहुँच पाते। अत: विश्व-उत्पत्ति की वर्तमान धारणाएँ अत्यन्त संकुचित रह जाती हैं । विश्व-उत्पत्ति उपरोक्त सम्बन्धी धारणाओं की यह भी मान्यता है कि विश्व का एक दिन अवश्य ही अन्त होगा क्योंकि जिस वस्तु की उत्पत्ति निश्चित है उसका अन्त भी निश्चित है । लेकिन यह अन्त कब व कैसे होगा तथा ब्रह्माण्ड स्थित समस्त पदार्थ क्या अस्तित्वहीन हो जायगा इस विषय पर भी प्रायः वैज्ञानिक मौन हैं। सिर्फ ताप-गति-विज्ञान के द्वितीय नियम के आधार पर 'ब्रह्माण्ड की एक दिन निश्चित समाप्ति' का विवरण मिलता है। ताप-गति-विज्ञान का द्वितीय नियम यह प्रतिपादित करता है कि विश्व के समस्त पदार्थ एक ही दिशा में--विनाश की ओर गति कर रहे हैं। सूर्य का ताप धीरे-धीरे घट रहा है । तारे बुझने वाले अंगारे बन रहे हैं। पदार्थ ताप एवं प्रकाश में बदलता जा रहा है और शक्ति (ताप या प्रकाश) शून्य में विलीन हो रही है । ताप-गति-विज्ञान का यह नियम अचल एवं सन्देह से परे है। हम देखते हैं कि ताप सदा उच्च अंश से निम्न अंश की ओर प्रवाहित होता है---इस दृष्टि से अधिक तापयुक्त पदार्थ निम्न तापयुक्त पदार्थ को उष्मा प्रदान करते हैं । इस प्रक्रिया से एक दिन ऐसा आ सकता है कि विश्व-स्थित समस्त पदार्थों का तापमान एक समान हो जायगा। तब ताप का प्रवाह रुक जायगा क्योंकि विश्व के पदार्थों में तापान्तर होगा ही नहीं । विश्व में सर्वत्र समान उर्जा, समान प्रकाश व समान शक्ति का वितरण होगा। ऐसा होने पर विश्व की सभी गतियाँ व व्यवस्थाएँ रुक जायंगी, विश्व गतिहीन-निर्जीव हो जायेगा--एक प्रकार से विश्व का अन्त हो जायगा। विश्व-स्थित सभी पदार्थों का तापमान एक समान होने से विश्व गतिहीन हो जायगा क्या यह मान्यता युक्तिसंगत है ? ताप के क्षय का यह नियम हमारी पृथ्वी के वर्तमान पर्यावरण में लागू होता है, ब्रह्माण्ड के अन्य क्षेत्रों में भी यह नियम इसी रूप में लागू हो यह आवश्यक नहीं; क्योंकि वहाँ की प्राकृतिक परिस्थितियाँ भिन्न हो सकती हैं। प्रकृति के सन्तुलन नियम के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि ब्रह्माण्ड के एक भाग में पदार्थ शक्ति में बदलकर शून्य में बिखर रहा है तो कहीं दूसरे भाग में पुन: एकत्रित होकर पदार्थ में बदल रहा हो। "पदार्थ व शक्ति की सुरक्षा का नियम" यह बताता है कि पदार्थ, शक्ति में व शक्ति पुन: पदार्थ में परिवर्तित की जा सकती है । पदार्थ व शक्ति दो भिन्न वस्तु नहीं है। प्रयोगशाला में ताप को पुनः पदार्थ में बदलना सम्भव हुआ है। अवश्य ही ब्रह्माण्ड के किसी कोने में भिन्न परिस्थितियों में ताप या शक्ति से नवीन पदार्थ की रचना सम्भव है। पदार्थ अविनाशी है तो विश्व भी अविनाशी है यह मानना अधिक युक्तियुक्त है। विश्व की निश्चित आदि व अन्त के सिद्धान्तों के विपरीत विश्व अनादि व अनन्त है-भूतकाल में ऐसा कोई समय नहीं था जब विश्व नहीं था, भविष्य में ऐसा कोई समय नहीं आयेगा जब विश्व का अस्तित्व मिट जायगा, यह मानने वालों में केलिफोनिया इन्स्टीट्यूट के डा० टालमेन का कथन है कि विश्व की रचना परवलीय है। वर्तमान में इसका विस्तार हो रहा है जो असंख्य वर्षों तक होता रहेगा। फिर इसका एक बार संकुचन होगा। इसमें भी असंख्य वर्ष लग जायेंगे । अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार वर्तमान विश्व विस्तार व संकुचन अथवा पदार्थ के रूप परिवर्तन के अनन्तअनन्त दौर से गुजरा है व गुजरता रहेगा। पदार्थ शक्ति में व शक्ति पदार्थ में बदलती रहेगी-विश्व सदा अविनाशी बना रहेगा। इसी सन्दर्भ में डा० फेड व्हिप्ले की मान्यता है कि वर्तमान में अन्त:नक्षत्रीय क्षेत्र में विचरण कर रहा समस्त सूक्ष्म-अदृश्य पदार्थ पन्द्रह अरब वर्षों में जमकर तारे बन जायेंगे। अजर-अमर विस्तारमान् विश्व के प्रबल समर्थक डा० फेड होयल की स्थायी अवस्था का विश्व सिद्धान्त प्रसिद्ध एवं बहुचर्चित है। उनका कथन है कि विश्व का सतत विस्तार हो रहा है। आज से २० अरब वर्ष पूर्व ब्रह्माण्ड Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्माण्ड : आधुनिक विज्ञान और जैन दर्शन १८३ के सभी ज्योतिपिण्ड एक केन्द्र में स्थित थे। एक विस्फोट के साथ ये सभी ज्योतिपिण्ड केन्द्र के चारों ओर छितराने लगे एवं आज भी अत्यन्त तीव्र गति से छितराते जा रहे हैं। इनके छितराने से जो स्थान रिक्त होता है वहाँ सतत नये द्रव्य का निर्माण होता रहता है और अन्तरिक्ष में पदार्थ का घनत्व सदा एक समान बना रहता है। नित नये द्रव्य के निर्माण से ज्योतिपिण्डों का जन्म तथा उनका अनन्त शून्य में निरन्तर विस्तृत होने की घटनाएँ अनन्त काल तक चलती रहेंगी। अत: विश्व उम्र की परिधि के बाहर है। डा० फेड होयल के सिद्धान्त की प्रमुख बात यह है कि "निरन्तर नये द्रव्य का निर्माण" हो रहा है जिससे विस्तारमान विश्व में रिक्तता नहीं आती। लेकिन नये द्रव्य के निर्माण की कल्पना सारहीन है। भौतिकशास्त्र का कोई सिद्धान्त शून्य में से नये पदार्थ का निर्माण स्वीकार नहीं करता। पदार्थ अविनाशी है। न तो इसका निर्माण होता है और न विनाश ही। ब्रह्माण्ड के आरम्भ में जितना पदार्थ रहा होगा उतना आज भी है और भविष्य में भी उतना ही रहेगा। असत् से सत् के निर्माण की कल्पना ही हास्यास्पद है। इस सिद्धान्त को प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा फिर भी "अरबों वर्ष पहले जैसा ब्रह्माण्ड था वैसा आज भी है," मान्यता इसे महत्त्व प्रदान करती है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति व आयु के सम्बन्ध में ज्योतिविदों की मान्यताएँ कितनी विषम हैं, यह स्पष्ट है। अब हम विचार करेंगे कि विश्व स्थिर व सीमाबद्ध है या विस्तारवान् एवं सीमाहीन । इस बारे में भी वैज्ञानिक मतैक्य नहीं है। अधिकांश ज्योतिविद ब्रह्माण्ड को अस्थिर व विस्तारमान बताते हैं । हबल, डा. जार्जगेमो, माटिन रीले, फेड होयल आदि के अनुसार अन्तरिक्ष स्थित समस्त पदार्थ गतिशील हैं। विश्व का निरन्तर विस्तार हो रहा है, समस्त ज्योतिपिण्ड एक दूसरे से अत्यन्त तीव्र वेग से दूर हटते जा रहे हैं। हम से दस लाख प्रकाशवर्ष तक दूरस्थ आकाशगंगाओं के दूर हटने की गति प्रति सैकण्ड १०० मील है जबकि २५ करोड़ प्रकाशवर्ष दूर की आकाश-गंगाओं के दूर हटने की गति प्रति सैकण्ड २५००० मील (प्रकाश के वेग का सातवाँ अंश) है। इस प्रकार विश्व असीम व खुला है। विश्व के प्रमुख वैज्ञानिक नोबेल पुरस्कार विजेता डा. आइंस्टीन का मत है कि ब्रह्माण्ड निरन्तर विस्तारमान है लेकिन इसकी एक सीमा है। एक सीमा के भीतर ही विस्तार सम्भव है। उनके अनुसार विश्व सीमाबद्ध है, अनन्त व सीमाहीन नहीं। डा० आइन्स्टीन द्वारा ब्रह्माण्ड को सीमित व निश्चित आकार (अण्डाकार) मानने का कारण गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र है। ब्रह्माण्ड स्थित असंख्य ज्योतिपिण्ड अपने-अपने गुरुत्वाकर्षण क्षेत्रों को परस्पर समबद्ध ज्यामितिक आकार में गठित है। प्रत्येक पिण्ड अपने स्थान पर अडिग है तथा दूसरे पिण्ड से निश्चित दूरी पर, निश्चित मार्ग पर भ्रमण-परिक्रमण करता है। ये ज्योतिपिण्ड न कभी निकट आते हैं, न दूर हटते हैं। अपनी सुनिश्चित स्थिति बनाये रखने का कारण परस्पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव है। विश्व का प्रत्येक पदार्थ गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित है यहाँ तक कि प्रकाश-किरण भी। जैसा माना जाता है--प्रकाश सदा सीधी रेखा में चलता है, वास्तव में गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में सीधा नहीं चलता। अन्य पिण्डों के वक्राकार मार्ग की भाँति इसमें भी वक्रता आ जाती है। चूंकि किसी गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की बनावट गुरुत्वाकर्षण वाली वस्तु की राशि व वेग से निर्धारित होती है अतः यह निष्कर्ष निकाला गया कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की बनावट उसके अन्दर समस्त पदार्थों के योग के प्रभाव से सीमित होगी। विश्व की असंख्य पदार्थीय मात्राओं द्वारा उत्पन्न वक्रता सीमित व निश्चित आकार वाले ब्रह्माण्ड की धारणा पुष्ट करती है। डा० आइंस्टीन ने असीम व खुले विश्व की मान्यता को स्वीकार नहीं किया क्योंकि यदि असीम ब्रह्माण्ड में अनन्त पदार्थ होता तो सम्पूर्ण गुरुत्वाकर्षण शक्ति भी अनन्त होती जिससे अनन्त प्रकाश व ताप उत्पन्न होता और ब्रह्माण्ड स्वयं जलकर भस्म हो जाता। __ विश्व के सतत विस्तार और शून्य में विलीन होने की मान्यता का आधार वर्णपट्टमापक यन्त्र है । जो प्रकाश की लालरेखा का विचलन बताता है जिसे 'डोपलर का प्रभाव' कहा गया है। वर्णपट्टमापक यन्त्र पर सुदूर स्थित आकाश-गंग:ओं का जो प्रकाश उभरता है उसमें लाल रेखा विचलित होकर अधिक लाल होती हुई प्रतीत होती है। किसी प्रकाश का आधार ज्योतिपिण्ड यदि दूर हटता हो तो प्रकाश अधिकाधिक लाल होता हुआ प्रतीत होता है इसके विपरीत प्रकाश का आधार यदि निकट आ रहा हो तो प्रकाश नीला होता हुआ प्रतीत होता है। प्रकाश के Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थखण्ड इस व्यवहार से यह निष्कर्ष खोजा गया कि आकाश गंगाएँ हम से निरन्तर दूर हटती जा रही हैं वरना इसे किसी अन्य प्रक्रिया या घटना से नहीं समझा जा सकता। विश्व के निरन्तर शून्य में विस्तृत होने में इस प्रमाण के अलावा अन्य कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है— केवल इसी सिद्धान्त पर सारा ढाँचा खड़ा है। प्रकाश की लाल रेखा में परिवर्तन के अन्य कारण सम्भव है । सर जेम्सजीन्स के अनुसार वातावरण के दबाव के कारण भी लालरेखा में विचलन सम्भव है। सुदूर तारे से आने वाला प्रकाश अपने लम्बे मार्ग में शक्ति का व्यय करता जाता है जिससे भी लालरेखा में विचलन होना सम्भव है। केलिफोर्निया इन्स्टीट्यूट के ज्योतिबिंद डा० विकी का विचार है कि जब प्रकाश किसी अन्य बड़े तारे के निकट से या किसी निहारिका से गुजरता है तो उसकी राशि एवं ऊर्जा कम हो जाती है जिससे प्रकाश का आवर्तन बढ़ जाता है एवं लालरेखा में तीव्रता आ जाती है । अतः "डोपलर के प्रभाव" के आधार पर ज्योतिर्पिण्डों का अन्तराल मापने के जितने साधन वर्तमान ज्योतिपिण्डों के निरन्तर दूर हटने की मान्यता संदिग्ध है। में प्रचलित हैं वे भी इस विषय पर प्रकाश नहीं डालते । पृथ्वी से निरन्तर दूर हटने वाले तारों की दूरियों में समय- समय पर अन्तर प्रकट होना चाहिये पर वैसा नहीं होता। जैसे पृथ्वी का निकटस्थ तारा प्रोक्सिमा सेंटोरी है जो पचास वर्ष पूर्व पृथिवी से ४.३ प्रकाश वर्ष दूर था। आज भी उसकी दूरी मापने पर ४.३ प्रकाशवर्ष ही आती है । विस्तारमान् विश्व सिद्धान्त के अनुसार सभी ज्योतिपिण्ड विस्फोट केन्द्र के चारों ओर विभिन्न दशाओं में छितरा रहे हैं ऐसी स्थिति में पृथ्वी से उनकी दूरियों में अन्तर प्रकट होना चाहिये भले ही वे कितने ही दूर क्यों न हों। पर पिछले दो हजार वर्षों में नाम मात्र भी अन्तर प्रकट नहीं हुआ । ब्रह्माण्ड स्थिर व असीम है या गतिशील व असीम यह निर्णय कर पाना आज भी असम्भव सा है । ब्रह्माण्ड और जैनदर्शन ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति, आयु, आकार व सीमा के सम्बन्ध में आधुनिक वैज्ञानिकों के विचारों में कितनी विषमता है, यह स्पष्ट है । अब हम जैनदर्शन में ब्रह्माण्ड सम्बन्धी विचारों की व्याख्या करेंगे । जैन मतानुसार- ( १ ) विश्व ( ब्रह्माण्ड ) अजन्मा, अनादि व शाश्वत है। भूतकाल में ऐसा कोई समय नहीं था जब ब्रह्माण्ड नहीं था, भविष्य में ऐसा कोई समय नहीं होगा जब ब्रह्माण्ड नहीं होगा । अर्थात् ब्रह्माण्ड का अस्तित्व अनादिकाल से है एवं अनन्त काल तक रहेगा । इस मान्यता का आधार पदार्थ की अविनाशता है। यह सर्वसम्मत तथ्य है कि पदार्थ न तो कभी नष्ट होता है, न कभी निर्मित ही । समस्त ब्रह्माण्ड में जितना पदार्थ भूतकाल में था उतना आज भी है व भविष्य में भी रहेगा। पदार्थ की मात्रा में अणुमात्र की घट-बढ़ कभी सम्भव नहीं । यदि पदार्थ की मात्रा स्थिर है और इसका अस्तित्व अनादि काल से है तो ब्रह्माण्ड भी अनादि काल से है, यह निष्कर्ष युक्तियुक्त होगा । यह कल्पना अशक्य होगी कि भूतकाल में कभी शून्य में से यकायक ब्रह्माण्डीय पदार्थ उत्पन्न हो गया । पदार्थ शून्य में से प्रकट नहीं हो सकता। इसी प्रकार पदार्थ शून्य में विलीन भी नहीं हो सकता। इसमें ब्रह्माण्ड की अनन्तता सिद्ध होती है। पौराणिक व आधुनिक वैज्ञानिक मत जो ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक विशाल अणु में विस्फोट से मानते हैं वे भी इस तथाकथित उत्पत्ति के पूर्व विशाल अणु का अस्तित्व स्वीकार करते हैं । इस विशाल अणु का पूर्व रूप क्या रहा होगा ? इसके पूर्व रूप के भी पहले कोई अन्य रूप रहा होगा - इस पूर्वापरता पर विचार करते हुए पीछे हटते जायें तो कहीं विनाश नहीं मिलेगा और अन्त में पदार्थ का अनादि अस्तित्व स्वीकार करना ही पड़ेगा। ब्रह्माण्ड उत्पत्ति के जिसने भी सिद्धान्त हैं वे ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति नहीं दर्शाते बल्कि ब्रह्माण्ड स्थित पदार्थ का रूप परिवर्तन समझाते हैं । पदार्थ नष्ट नहीं होकर नवीन रूप धारण करता है जैसे एक लकड़ी को जलाया जाय तो लकड़ी का कार्बन वायुमण्डलीय आवसी जन में मिलकर कार्बनडाई आक्साइड बन जायगा एवं कुछ भाग राख बन जायगा । लकड़ी में जितना पदार्थ जलने के पूर्व था उतना जलने के पश्चात् भी है, पर अन्य रूप में पदार्थ का रूप परिवर्तन एक प्राकृतिक घटना है। कोई भी पदार्थ गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव, ताप, दाब एवं मौसम के प्रभाव से अपना स्वरूप स्थिर नहीं रख सकता। उसमें ह्रास या विकास होगा । आज अन्तरिक्ष में हम जिन नक्षत्रों-तारों आदि को देखते हैं वे अरबों वर्ष पूर्व अणुओं, न्यूट्रोनों या अन्य 1 . Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्माण्ड : आधुनिक विज्ञान और जैन दर्शन १८५ किसी रूप में रहे होंगे। उनके घनीभूत होने से वर्तमान रूप में अस्तित्व आये और अब निरन्तर ताप-क्षय करते हुए पुन: नया रूप धारण कर लेंगे । तत्पश्चात् फिर यह ताप घनीभूत होकर नये पदार्थों का रूप धारण कर लेगा। यह परिवर्तन चक्र चलता ही रहेगा । जैन सिद्धन्त सृष्टि के इस परिवर्तन चक्र को स्वीकार करता है । यह सिद्धान्त तर्कसंगत व बोधगम्य है । वर्तमान युग के कुछ वैज्ञानिक "विश्व के चक्रीय सिद्धान्त" के समर्थक हैं जो जैन मान्यता के अत्यधिक निकट है। (२) ब्रह्माण्ड के आकार व विस्तार की दृष्टि से जैन दर्शन की मान्यता है कि ब्रह्माण्ड निश्चित आकार का है तथा ससीम है। ब्रह्माण्ड के आकार की निश्चितता व सीमाबद्धता परस्पर सम्बन्धित है। ब्रह्माण्ड अनिश्चित व असीम नहीं है । अन्तरिक्ष स्थित समस्त पदार्थ--एक सीमा में बद्ध है, इस सीमित प्रदेश को “लोक' कहा गया है। इस सीमाबद्ध प्रदेश के बहार कोई पदार्थ नहीं केवल शून्याकाश है जिसे "अलोक" कहा गया है। लोक की आकृति अंग्रेजी की 8 की संख्या से लगभग मिलती-जुलती है जिसमें एक शून्य दूसरे शून्य से ऊपर की ओर संयुक्त होता है। इस मान्यता के अनुसार "लोक" अर्थात् ब्रह्माण्ड के तीन खण्ड हैं-अधोलोक (नीचे के शून्य का गोलाकार स्वरूप), ऊर्ध्व लोक (ऊपर के शून्य का गोलाकार स्वरूप) एवं मध्य लोक (दोनों शून्यों का संगमस्थल)। तीनों लोकों में स्थित पदार्थों के गुण-धर्मों में न्यूनाधिक अन्तर के कारण भिन्न-भिन्न प्राकृतिक परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं जिनकी क्रिया-प्रतिक्रिया से सृष्टि परिवर्तन चक्र चलता रहता है। ब्रह्माण्डीय आकृति व विस्तार की जैन मान्यता डा० आइन्सटीन की मान्यता के अतिनिकट है। उनकी भी मान्यता है कि ब्रह्माण्ड निश्चित आकृति का व सीमाबद्ध है। जैसा पहले कहा है-डा० आइन्सटीन की ससीम (सीमाबद्ध) विश्व की मान्यता का आधार गुरुत्वाकर्षण है । ब्रह्माण्ड स्थित समस्त पदार्थों का संयुक्त गुरुत्वाकर्षण इसे बक्राकार रूप पदार्थ करता है एवं सीमाबद्ध कर देता है। यदि पदार्थ अनन्त होता हो अनन्त गुरुत्वाकर्षण भी होता जो विश्व को भस्मीभूत कर देता। अत: पदार्थ सीमित है जो ब्रह्माण्ड विस्तार को भी सीमित करता है । जैन दर्शन ब्रह्माण्ड को सीमित बनाने में गुरुत्वाकर्षण की तरह ही, लेकिन इससे अधिक सूक्ष्म दो तत्त्वों को प्रभावी मानता है, ये दो तत्त्व हैं--(१) धर्मास्तिकाय एवं (२) अधर्मास्तिकाय । ये दो तत्त्व ब्रह्माण्ड की आकृति को निश्चित ही नहीं करते, ब्रह्माण्ड स्थित समस्त पदार्थों की गतिशीलता, स्थिरता, रूप परिवर्तन तथा ब्रह्माण्ड के विस्तार व संकुचन के लिए उत्तरदायी हैं। धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय क्या हैं ? यह जान लेना आवश्यक है। धर्मास्तिकाय का कार्य-व्यापार है पदार्थ के धर्म को बनाये रखना अर्थात् उसमें निहित रूप, रंग, तन्मात्रा आदि को बनाये रखना। अधर्मास्तिकाय का कार्य-व्यापार है-पदार्थ के धर्म (गुणों) का विनाश करना-उसके रूप, रंग, तन्मात्रा का ह्रास करना । हम प्रकृति के इस नियम से परिचित हैं कि प्रत्येक पदार्थ अपना अस्तित्व बनाये रखता है लेकिन धीरे-धीरे उसमें ह्रास भी आता है। अस्तित्व बनाये रखने का गुण "संयोजन" है; ह्रास द्वारा पदार्थ का रूप परिवर्तन “गुण" वियोजन है। ब्राह्मण्ड स्थित समस्त पदार्थ परिवर्तन की निरन्तर प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। जैसे रेडियम परिवर्तन क्रम में २० अरब वर्ष में सीसा बन जाता है। आज जो हमारा सूर्य है वह निरन्तर ताप क्षय करता हुआ एक दिन बुझ जायगा । यह ताप पुनः संगठित होकर नया पदार्थ बना देगा । स्वर्ण जिसे हम आज देखते हैं अतीतकाल में इसका रूप भिन्न रहा होगा, यह भी परिवर्तन क्रिया में अपने तत्त्व बिखेरता हुआ विघटित होकर वर्तमान रूप में आया होगा तथा भविष्य में भिन्न स्वरूप को प्राप्त होगा । धर्मास्तिकाय व ब्रह्माण्डीय-पदार्थों की गतिशीलता में व अधर्मास्तिकाय स्थिरता बनाये रखने में भी सहायक तत्त्व हैं । सम्पूर्ण जगत् के पदार्थ गतिशील हैं--परिभ्रमण या परिक्रमण करते हैं—इनकी गतिशीलता धर्मास्तिकाय के कारण सम्भव है । समस्त पदार्थ गतिशील होते हुए भी अपनी स्थिरता--निश्चित मार्ग, निश्चित, अन्तराल बनाए रखते हैं यह अधर्मास्तिकाय के कारण है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय विपरीतधर्मी तत्त्व हैं, यह माना जा सकता है। आधुनिक वज्ञानिकों ने भी गति सहायक तत्त्व के रूप में "ईथर" की कल्पना की थी लेकिन प्रयोग द्वारा इसका अस्तित्व सिद्ध न हो सकने से इसे - ० - Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड त्याग दिया। धर्मास्तिकाय “ईथर" जैसा तत्त्व ही है । ये दोनों पदार्थ अभौतिक व अमूर्त हैं जिन्हें प्रयोगों की कसोटी पर कसना सम्भव नहीं है । धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय ब्रह्माण्ड स्थित समस्त पदार्थों के सम्मिलित प्रभाव से उत्पन्न ऐसे गुण हैं जो ब्रह्माण्ड को वक्रता प्रदान कर सीमित कर देते हैं । ब्रह्माण्ड के बाहर ये दोनों पदार्थ नहीं अत: पदार्थों की गति भी सम्भव नहीं। डा० आइन्सटीन के अनुसार ब्रह्माण्ड को सीमित आकार का रूप देने में जो कार्य गुरुत्वाकर्षण का है, जैन मान्यता में धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय का है। प्रत्येक पदार्थ स्थिर प्रतीत होते हुए भी अस्थिर है। अन्तरिक्ष स्थित पिण्ड गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में गतिशील है। तो प्रत्येक पदार्थ में निहित अणु-परमाणु विद्युत-चुम्बकीय प्रभाव में भी गतिशील है। प्रत्येक स्थिर वस्तु के अणुपरमाणुओं की गति प्रकाशवेग के समकक्ष है। स्थिरता व गतिशीलता को कौन नियन्त्रित करता है। डा० आइन्सटीन के अनुसार गुरुत्वाकर्षण व विद्युत चुम्बकीय प्रभाव नियन्ता है लेकिन जैनमतानुसार धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय निपता हैं। गुरुत्वाकर्षण व विद्युत-चुम्बकीय प्रभाव स्वयं बहुत स्थूल है जो स्वयं धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय से नियन्त्रित होते हैं। सृष्टि परिवर्तन-चक्र में पदार्थों का जो रूप परिवर्तन होता है -पदार्थों के विकास व ह्रास भी इन दो तत्त्वों से प्रभावित है। वायुमण्डलीय परिस्थितयाँ-ताप, दाब, वर्षा आदि पदार्थ परिवर्तन को प्रभावित करती हैं, स्वयं इन दो तत्त्वों की उपज है। जैन मान्यतानुसार ब्रह्माण्ड अनादि व अनन्त है तथा सीमित आकृति का है, ब्रह्माण्ड का निरन्तर रूप बदलता रहता है.--ब्रह्माण्डीय पदार्थ का अस्तित्व ज्यों का त्यों बना रहता है लेकिन स्वरूप नये-नये आकारों में प्रकट होता है। धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय की क्रिया-प्रतिक्रिया इस परिवर्तन चक्र के तथा ब्रह्माण्ड की सीमितता के कारक हैं। ब्रह्माण्ड सम्बन्धी जैन मान्यता अत्यन्त प्राचीन है जिसका आधार यन्त्र नहीं होकर दिव्य चक्षु ही हो सकते हैं । इस मान्यता को चुनौती देना अब तक सम्भव नहीं हो सका है। आज के वैज्ञानिक ज्यों-ज्यों ब्रह्माण्ड ज्ञान में वृद्धि कर रहे हैं त्यों-त्यों वे इस धार्मिक मान्यताओं के निकट आ रहे हैं। प्रमुख ब्रिटिश ज्योतिविद डा० जस्टो कहते हैंब्रह्माण्ड ज्ञान एक अत्यन्त ऊँचे पर्वत की चोटी की तरह है जिस पर चढ़ना दुष्कर है। विज्ञानवेत्ता इस चोटी पर पहुँचने के लिये पड़ते गये-चड़ते गये और अन्त में जब वे चोटी के निकट पहुंचे तो देखा कि धर्म गुरु वहाँ पहले से ही आसन जमाये बैठे हैं। तात्पर्य यह कि ब्रह्माण्ड का वास्तविक ज्ञान धर्मगुरुओं ने पहले ही कर लिया है। ब्रह्माण्ड सम्बन्धी जैनमान्यता पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है और यह निश्चित है कि एक दिन विज्ञानवेत्ता अन्तिम सत्य के रूप में इसके ही निकट पहुंचेंगे। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मित्ती मे सव्वभूएसु' ये शब्द 'जैन प्रतिक्रमण' में युग-युग से चले आ रहे नियमित चिन्तन-मनन के लिए प्रतिष्ठित रहे हैं । सब प्राणियों के प्रति उदात्त मैत्री भाव रखने वाले व्यक्तियों से सभी नागरिकों की समानता में सहज विश्वास की आशा करना स्वाभाविक है । यही समानता की भावना लोकतन्त्र की आधारशिला है । समानता स्वतन्त्रता की भगिनी है। फ्रांस की राज्य क्रान्ति ( १७८९ ) में लोकतन्त्र का कण्ठस्वर "स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुता" ऐसे ही नारों में गूंजा था। अमेरिका में टॉमस पेन (Thomas Paine ) ने 'विवेक का युग' (१७६२) में लिखा था "मैं मनुष्य की समानता में विश्वास करता है; और मेरा विश्वास है कि न्याय करने, प्रेमपूर्ण दया और अपने साथी प्राणियों की प्रसन्नता के लिए प्रयत्न में धार्मिक कर्त्तव्य निहित हैं ।"" समानता में आस्था रखने वाला व्यक्ति धर्म, मूलवंश, (Race), जाति, लिंग, जन्म-स्थान इत्यादि के आधार पर भेद-भाव नहीं मानता। वह 'मनसावयसा, कायसा' समानता का आचरण करता है । यह जैन-सन्देश है; यह लोकतन्त्र का भी निर्देश है । महात्मा गांधी ने 'यंग इण्डिया' में सन् १९२९ ई० में लिखा था; "मेरा धर्म बंदीगृह का नहीं है । इसमें परमात्मा के छोटे से छोटे प्राणी के लिए स्थान है, किन्तु यह मूलवंश, धर्म और वर्ण ( रंग ) के दुराग्रही अभिमत से प्रभावित नहीं होता ।" : जैन धर्म और लोकतन्त्र प्रो० चन्द्रसिंह नेनावटी (राजनीति विज्ञान विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर) समानता की यह भावना जैन धर्म और दर्शन में आधारभूत रूप से बहुत गहरी ही नहीं, व्यापक भी रही है । वस्तुतः उसे 'समता' का सिद्धान्त कहना उपयुक्त होगा । समता की दृष्टि व्यक्ति के व्यक्तित्व को सन्तुलित और शान्त रखती है; वह समाज को भी समरसता, सहानुभूति और सुख-शान्ति प्रदान करती है। मनुष्य मनुष्य में अन्तर जैन सिद्धान्तों के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। कोई भी हो, सम्यक्ज्ञान, सम्यदर्शन और सम्यक्चारित्र के मार्ग से मोक्ष प्राप्त कर सकता है; उसके लिए जाति, धर्म, भाषा आदि के भेद की मान्यता नहीं है । जैन दर्शन का समत्व तो प्राणी मात्र तक प्रसारित है, सीमित या संकुचित नहीं । लोकतन्त्र में जिस समानता की बात कही जाती है, वह सभी प्राणियों तक नहीं तो भी सब नागरिकों तक अवश्य व्याप्त होती है । राजनीतिक समानता में 'एक व्यक्ति, एक वोट' वा सिद्धान्त नागरिकों की बराबरी पर ही आधारित है। वह युग बीत चुका है जबकि कतिपय तथाकथित लोकतन्त्रात्मक राज्यों में शिक्षा या संपत्ति आदि के नाम पर मताधिकार सीमित रखा जाता था और कुछ वर्गों को एक ही निकाय के लिए चुनाव में एक से अधिक वोट देने का अधिकार होता था। इंग्लैंड में बहुल मतदान (Plural Voting) की उस कोटि में अन्तिम अवशिष्ट उदाहरण था विश्वविद्यालय मताधिकार ( University Franchise), जिसके अन्तर्गत विश्वविद्यालय शैक्षिक उपाधिधारियों 1 "I believe in the equality of men; and I believe that religious duties consist in doing justice, loving mercy, and endeavouring to make our fellow creatures happy.” -Thomas Paine: The Age of Reason. ० Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड को सबके साथ वोट देने के सिवाय भी एक बार और अलग से वोट देने का अधिकार होता था; किन्तु वह भी अब तो राजनीतिक इतिहास के पृष्ठों में विलीन हो चुका है। स्त्री-पुरुष के अधिकारों की असमानता भी अब समाप्तप्राय है। यह सही है कि कई जगह इसके लिए बड़े आन्दोलनों की आवश्यकता पड़ी। स्त्रियों को इंग्लैण्ड में भी बहुत संघर्ष के पश्चात् ही मताधिकार प्राप्त हो सका। फ्रांस जैसे लोकतन्त्रात्मक राज्य में भी बहुत बाद-~-द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के समय में ही–पहिलाओं को मतदाताओं की पंक्तियों में स्थान मिल सका। लोकतन्त्र का घर माने जाने वाले देश स्विटजरलैंड में तो महिला-मताधिकार अभी कुछ वर्ष पहले ही प्राप्त हुआ है। अस्तु, अब तो सभी लोकतन्त्रों में (कतिमा वैधानिक निर्योपताओं वाले व्यक्तियों के सिवाय) समान वयस्क मताधिकार की बहार है । इस समानता के सिद्वान्त को ही श्रेय है कि सभी नागरिक-नागरिक होने के नाते से ही-समान माने जाते हैं। आध्यात्मिक समानता की यह एक राजनीतिक परिणति है। जैन दर्शन के आधार पर तो सभी के प्रति समतापूर्वक मैत्रीभाव की कामना की गई है। बल से किसी प्राणी को अपने अधीन करने का निषेध किया गया है-- सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, परिघेतव्वा, न परियावेयव्वा न उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्ध णिइए मासए । (सर्व प्राणी, भूत, जीव और सत्व हैं, इनका घात मत करो; वलात् किसी को अपने अधीन मत करो; प्रहार मत करो; शारीरिक, मानसिक पीड़ा मत उपजाओ; क्लान्त मत करो; उपद्रव मत करो।' आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है आत्मवत्सर्वभूतेषु, सुखदुःखे प्रियाप्रिये । चिन्तयन्नात्मनोऽनिष्टां, हिंसामन्यस्य नाचरेत् ।। (योगशास्त्र, २।२०) अर्थात् “ज्यों निज को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, ठीक त्यों ही दूसरों को भी सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है-यह समझकर विवेकी मनुष्य किसी की भी हिंसा न करें।" ३ इस सैद्धान्तिक समानता का व्यावहारिक रूप क्या हो ? एक विचारक का कथन है : “समानता का अभिप्राय उतना ही भ्रमपूर्ण है जितना यह कहना कि पृथ्वो समतल है।" प्रकृति के द्वारा सबको समान शक्तियाँ नहीं मिली हैं। प्राकृतिक असमानता के अतिरिक्त सामाजिक विषमताएँ भी हमारे बीच में हैं। लोकतन्त्र में समानता का तात्पर्य सामाजिक वैषम्प और प्रकृतिजन्य असमानता के प्रभाव को व्यक्तित्व के विकास में बाधक होने से रोकता है; सभी नागरिकों को अपने विकास के लिए समान अवसर सुलभ हों। प्रोफेसर लास्की ने इसी धारणा को यों व्यक्त किया है :--- "निस्संदेह इसमें (समानता में) मूल रूप में एक समतलीकरण की प्रक्रिया निहित है ।"......""अतः समानता का सर्वप्रथम आशय है, विशेषाधिकार का अभाव ।............ द्वितीयतः, समानता का अर्थ है कि पर्याप्त अवसर सबके लिए खुले हों।"3 १. जैन तत्त्व संग्रह (प्रथम भाग), पृ० ३६; प्रकाशक-जैन श्वे० ते० महासभा, कलकता। जैन तत्त्व चिन्तन (मुनि श्री नथमल), पृ० ४०, प्रकाशक, आदर्श साहित्य संघ, चुरू । 3. “Undoubtedly, it (equality) implies fundamentally a certain levelling process.........Equa ity, therefore, means first of all the absence of special privilege.........Equality means, in the second place, that adequate opportunities are laid open to all." -Harold J. Laski: A Grammar of Politics, pp. 153-154. Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और लोकतन्त्र १८६. .. .......... ........ ...... ...... .. .. .. .. .. .. .. -. -. -.-.-. -.-. -. -.-. -. -... लोकतन्त्र में स्वतन्त्रता की जो अनिवार्यता है उसे भी सकारात्मक और सामाजिक सन्दर्भ में ग्रहण करना होता है। प्रो० लास्की के ही शब्दों में पुनः कहना होगा कि स्वतन्त्रता "उस वातावरण को बनाये रखना है जिसमें मनुष्यों को अपने जीवन का सर्वोतन विकास करने की सुविधा प्राप्त हो"।' अतः स्वतन्त्रता की समस्या का हल भी समानता में ही निहित है। जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त के प्रकाश में इस समानता और स्वतन्त्रता तथा लोकतन्त्र में मान्य व्यक्ति की गरिमा को स्पष्ट देखा और समझा जा सकता है। अपने ही कर्मों के प्रभाव से व्यक्ति का इहलोक और परलोक बनता है। अपने प्रयास से ही मनुष्य मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है। सबके लिए मार्ग और द्वार समान रूप से खुले हैं । सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र के द्वारा वह अग्रसर हो सकता है। जैन दर्शन कर्मफल का नियमन करने का काम किसी बाह्य शक्ति में नहीं मानता । अच्छे-बुरे कर्मों का आत्मा पर संस्कार पड़ता रहता है, वह अदुष्ट है; जब तक उसका फल नहीं मिल जाता, तब तक वह आत्मा के साथ रहता है। यह दर्शन कर्म को स्वतन्त्र द्रव्य मानता है। कर्म अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध हैं। वे जीवात्मा की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उससे बँध जाते हैं। कर्मपरमाणुओं का जीवात्मा पर गहरा प्रभाव पड़ता है। कर्म ग्रहण करने में जीवात्मा स्वतन्त्र नहीं होता, परन्तु जीव और कर्म का संघर्ष चलता रहता है। जब जीव के काल आदि की अनुकूल लब्धियाँ होती हैं तब वह कर्मों का क्षय भी कर सकता है। पूर्वजन्मों और इस जन्म में पहले बँधे हुए कर्मों की स्थिति और शक्ति नष्ट करने के लिए तपस्या आदि प्रयास करने का जीवात्मा के पास सदा ही अवसर है ; वह स्वविवेक से अवसर का उपयोग करते हुए विकास कर सकता है। यह अवसर की समानता है जिसका लाभ उठा कर व्यक्ति बन्धनों से स्वतन्त्र हो सकता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के व्रतों के पालन से मनुष्य कर्मों को पछाड़ कर चरम विकास की ओर अग्रसर होता है। यहाँ भाग्यवाद नहीं, स्वतः का प्रयास और उसके लिए प्राप्त अवसर की समानता एवं उपयोगिता द्रष्टव्य है । इस प्रकार आध्यात्मिक दर्शन लौकिक नैतिकता में लोकतन्त्र की भित्ति प्रस्तुत करता है। लोकतन्त्र बहुमत का शासन है। सबका एक मत सामान्यतया हो नहीं सकता किन्तु सबको अपना मत प्रकट करने का अधिकार होना चाहिये । ये मत भिन्न-भिन्न ही नहीं, कभी-कभी परस्पर तीव्र विरोध भरे भी हो सकते हैं। सच्चे लोकतन्त्र की यह भी एक कसौटी है कि विचार चाहे कितने ही भिन्न क्यों न हों, उन्हें प्रकट करने का अवसर सबको मिलना चाहिये। अधिनायकतन्त्र में एक ही विचारधारा में सबको बहना होता है। वहाँ यह होगा कि एक विशेष मत वाले (मतवाले ?) तो हो सत्ता में और अन्य मत वाले हों जेल में । लोकतन्त्र में विरोध और विरोधी का भी स्थान और सम्मान होता है । "निन्दक बपुरा पर उपकारी, 'दादू' निन्दा करे हमारी", लोकतन्त्र के लिए भी यह सन्त-वचन सत्यवचन ही होगा। विरोधी के भाषण मोमक्खी की भाँति तीखे, काटते हुए लग सकते हैं। गोमक्खी के काटने से लोकतन्त्र मरेगा नहीं, क्योंकि प्रभावित अंग की सोजिश को वह सरल हास विवेक से कम करने में समर्थ होता है। यदि कोई लोकतन्त्र ऐसा न कर सके और इसके बजाय हिंसात्मक प्रतिक्रिया प्रदर्शित करे तो समझना चाहिये कि उसके रक्त में कोई विकार है। जब एथेंस में प्राचीन यूनानी लोकतन्त्र ने सुकरात को, उसकी तर्क-शैली और विचार प्रणाली के कारण, विष का प्याला पिलाने का कदम उठाया तो वह स्पष्ट चिह्न था कि उस शासन-प्रणाली के कदम डगमगाने लगे थे ; वह विकृत, भ्रष्ट और अवनत हो चुकी थी। लोकतन्त्र में कई ऐसे अवसर आ सकते हैं कि किसी व्यक्ति या वर्ग का मत सबसे भिन्न हो; परन्तु हो सकता है कि उस अल्पमत की बात में भी सत्य हो या आगे चलकर वह सही साबित हो । इसलिए सबको निर्भय होकर अपना मत रखने का अवसर देना और सहिष्णुतापूर्वक विरोध को समझने-समझाने का सामर्थ्य लोकतन्त्र का बलसम्बल है। कई बार आज का अल्पमत कल बहुमत सिद्ध हो जाता है। लक्ष्य को या मार्ग को अपनी-अपनी दृष्टि से 1. "By liberty I mean the eager maintenance of that atmosphere in which men have the opportunity to be their best selves." -A Grammar of Politics, p. 142. Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड देखा जा सकता है । मत की विभिन्नता और विचित्रता के वातावरण में भी सन्तुलन बनाये रखना तब सम्भव है जब सहनशीलता का दृष्टिकोण हो। इसके लिए महावीर स्वामी के बताये हुए अनेकान्त और स्याद्वाद की महती उपादेयता है। ___ महावीर स्वामी के तत्त्वचिन्तन के अनुसार प्रत्येक पदार्थ अनन्त गुणों का पुज है। सूक्ष्म परमाणु में भी और प्रत्येक जीव में भी अनन्त विशेषताएँ और अनन्त शक्तियाँ हैं । एक ही वस्तु विभिन्न दृष्टिकोणों से विभिन्न रूपरंग-युक्त, नित्य-अनत्य, सत्-असत्, एक-अनेक इत्यादि हो सकती है। पदार्थ में परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाली भी कतिपय विशेषताएँ हो सकती हैं । उसकी इस अनेकरूपता को प्रतिपादित करता है अनेकान्तवाद । ___ वस्तु के अनन्त गुणों के ज्ञान के लिए जिस अनन्तज्ञान की आवश्यकता है उसे 'केवलज्ञान' कहते हैं। जो ज्ञान की उच्चतम इन्द्रियातीत अवस्था है । इन्द्रियों और शब्दों द्वारा वस्तु का सीमित ज्ञान होता है, जिसमें उसके अनन्त गुणों में से कुछ गुणों का बोध हो सकता है। वस्तु के अनन्त गुणों में से किसी एक गुण का बोध करना नय है । नय की दृष्टि एक समय में किसी एक गुण को ग्रहण करते हुए भी दूसरे गुण को अमान्य नहीं करती। इसके भाषात्मक प्रकटीकरण की शैली को 'स्याद्वाद' कहा गया है। स्याद्वाद 'ही' को पकड़कर बैठने के बजाय 'भी' का प्रयोग करता है । एक पुरुष बहिन की दृष्टि से भाई, पत्नी की दृष्टि से पति, पुत्र की दृष्टि से पिता और पौत्र की दृष्टि से दादा हो सकता है। वह पुरुष भाई ही नहीं है, पति ही नहीं है, पिता ही नहीं है, दादा ही नहीं है, बल्कि वास्तव में वह भाई भी है, पति भी है, पिता भी है, और दादा भी है तथा और भी बहुत-कुछ है। यह प्रश्न लगभग सबने सुना होगा-एक परिवार के दो पिता और दो पुत्र सड़क पर जा रहे हैं ; बताइये वे कितने व्यक्ति हैं ? इस प्रश्न का उत्तर जिसने 'चार' दिया उसे सही नहीं माना गया और जिसने 'तीन' कहा उसे पूरे अंक मिल गये । क्यों ? इसलिए कि दादा, अपने पुत्र और पौत्र के साथ है, उनमें से सबसे अधिक आयु वाले की अपेक्षा जो पुत्र है, वही व्यक्ति सबसे कम आयु वाले की अपेक्षा से पिता है । कहने वालों की अपनी-अपनी अपेक्षा होती है, परन्तु केवल उस 'ही' का आग्रह मतभेद और कलह का कारण बन सकता है। अत: स्याद्वाद आग्रह के स्थान पर समन्वय का प्रेरक है। इसे अपनाने वाला सामने वाले के दृष्टिकोण को समझने का प्रयास करेगा, न कि उसका तिरस्कार । यह बौद्धिक उदारता लोकतन्त्रात्मक कार्य-प्रणाली के लिए अनिवार्य है । व्यक्तियों में अपनी-अपनी 'सूझ' के बजाय किसी एक के विचार की 'गूज' लोकतन्त्र की सभा को अधिनायकवाद के नक्कारखाने में बदल देगी। तानाशाह यही तो कहते हैं : "ऐ साधारण झुंड वालो ! स्वयं के लिए सोचने की शक्ति तुम में नहीं है; वह काम तो असाधारण मनुष्य ही कर सकते हैं। हम हैं असाधारण मनुष्य, हम तुम्हारे लिए सोचने का काम कर लेगे और तब तुम्हें समझा देंगे कि वह तुम्हारा ही विचार है जो कि हमने तुम्हें बताया है।"१ जैसे बाजार में मिलने वाले सिले-सिलाये कपड़े 'फिट' कर दिए जाते हैं वैसे ही पके-पकाये विचार भी शिरोधार्य करने पड़े तो ज्ञान-गंगा का प्रवाह अथाह सागर की ओर न बढ़ सकेगा, न चिन्तन की चोटियों पर चढ़कर विश्व-दर्शन का प्रयास कोई तेनसिंह कर पायेगा। फिर तो युग-युग में गेलीलियो दण्डित होता रहेगा; युग-युग में मीरां को यही कहना पड़ेगा “राणा भेज्या जहर पियाला" । न तो कोई मनीषी अपनी अपेक्षा से सत्य का वर्णन कर सकेगा, न कोई आइन्स्टीन सापेक्षवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित कर सकेगा। ऐसे दमघोटू 'लोकतन्त्र' से तो संभवतः लोग 'परलोकतन्त्र' को ही बेहतर मानने लगें। इसलिए सच्चा जनतन्त्र तो वैचारिक स्वातन्त्र्य में ही पनप सकता है । स्याद्वाद उसके लिए प्राणदायी पर्यावरण प्रस्तुत करता है। अपनी पूर्णता और सफलता के लिए लोकतन्त्र एक और महान् योगदान जैन धर्म से ग्रहण कर सकता है; ___ 1. - . “You, the common herd, are not capable of thinking for yourselves, it is only uncommon men who can do that. We are unconimon men, and we will do the thinking for you, and then persuade you that you have thought for yourselves what we tell you to think.” --Charleton Kemp Allen: Democracy & the Individual, p. 52, Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और लोकतन्त्र १६१ ...... ...... .......... .............. ...... ........ .. .. .. .. .... .. ........ ... वह है अपरिग्रह । मनुष्य के मनुष्य द्वारा शोषण के आर्थिक साधनों और आर्थिक विषमता के कारण लोकतन्त्र वास्तविक समानता से वंचित रह जाता है। इसी आधार पर सोवियत संघ और अन्य साम्यवादी देशों के नेता फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका आदि पाश्चात्य लोकतन्त्रों को 'कोरा' और खोखला' बताते हैं। आर्थिक समानता राजनीतिक समानता की पूरक है। इसीलिए समाजवादी जनतन्त्र की लोकप्रियता में वृद्धि हुई है । यदि आवश्यकताओं को सीमित रखने और संग्रहवृत्ति को त्यागने का धर्मोपदेश जीवन-व्यापार में चरितार्थ हो जाये तो व्यक्ति और समाज के हितों में तादात्म्य स्पष्ट लक्षित होगा । अपरिग्रह का अस्तेय से और इन दोनों का जनतन्त्र की रीति-नीति से चारित्रिक सम्बन्ध है। ___ लोकतन्त्र में एक और विशेष आवश्मकता है जो साध्य के लिए प्रयुक्त होने वाले साधनों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है। उसके लिए अहिंसा हमें मार्ग दिखाती है। सत्ता-प्राप्ति के लिए प्रतियोगिता राजनीति की एक वास्तविकता है। अन्य किसी पद्धति में चाहे षड्यन्त्र, हत्या आदि को स्थान प्राप्त हो, लोकतन्त्र में तो सत्ताहस्तान्तरण लोकमत से ही किया जाता है जो सामान्यतया नागरिकों के गोपनीय मतदान से निर्णायक रूप में प्रकट होता है। जैन दर्शन में अहिंसा का बड़ा व्यापक अर्थ है; उसकी विशद व्याख्या की चर्चा में यहाँ प्रवेश नहीं करें तो भी यह तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि लोकतन्त्र में हिंसात्मक साधनों के लिए न कोई आवश्यकता होनी चाहिये, न कोई स्थान । अन्त में यह स्मरण रखना होगा कि धर्म केवल उपदेश के लिए नहीं होता; लोकतन्त्र केवल भाषण के लिए नहीं होता। धर्म केवल उपासना गृहों के लिए नहीं होता; लोकतन्त्र केवल सत्ता-संस्थानों के लिए नहीं होता। जैसे यह कहा जाता है कि 'धर्मो रक्षति रक्षितः' वैसा ही कथन लोकतन्त्र के लिए भी उपयुक्त होगा। धर्म जीवन की सम्पूर्ण धारा के साथ चिरप्रवाही है । लोकतन्त्र भी केवल शासन की एक प्रणाली ही नहीं, एक विचार पद्धति, एक सामाजिक यवस्था और जीवन जीने की विधि भी है। जीवन के कार्य-कलाप में लोकतान्त्रिक रीति को तिलांजलि देकर शासन में लोकतान्त्रिक पद्धति को देखना मृगतृष्णा के समान ही है। जैसे जीवन के पृथक्-पृथक् खण्ड नहीं किये जा सकते क्योंकि वह समय और सम्पूर्ण है, वैसे ही लोकतन्त्र को भी व्यापक रूप में ग्रहण करना होगा; और तब स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म में प्रतिपादित उच्च सिद्धान्त लोकतन्त्र को अनुप्रेरित और अनुप्राणित करने की सहज क्षमता रखते हैं । हशा (Hernshaw) का कथन स्मरण हो जाता है कि लोकतन्त्रात्मक सिद्धान्त का चरित्र अनिवार्यत: धार्मिक है। ००.००००००००० Brao:088000०० ALJ..०० - . Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐॐॐ oooooO (1 जैन रहस्यवाद डॉ० पुष्पलता जैन (प्राध्यापिका एस० एक० एस० कालेज, न्यू एक्सटेंशन एरिया सदर, नागपुर ) 3 सृष्टि के सर्जक तत्व अनादि और अनन्त हैं। उनकी सर्जनशीलता प्राकृतिक शक्तियों के संगठित रुप निर्भर करती है । पर उसे हम प्रायः किसी अज्ञात शक्ति विशेष से सम्बद्ध कर देते हैं जिसका मूल कारण मानसिक दृष्टि से स्वयं को असमर्थ स्वीकार करना है। इसी असामर्थ्य में सामर्थ्यं पैदा करने वाले "सत्यं निवं सुन्दरम् " तत्त्व की गवेषणा और स्वानुभूति की प्राप्ति के पीछे हमारी रहस्य-भावना एक बहुत बड़ा सम्बल है । साधक के लिये यह एक गुह्य तत्त्व बन जाता है जिसका सम्बन्ध पराबौद्धिक ऋषि महर्षियों की गुह्य साधना की पराकाष्ठा और उसकी विशुद्ध तपस्या से जुड़ा है । प्रत्येक द्रष्टा के साक्षात्कार की दिशा, अनुभूति और अभिव्यक्ति समान नहीं हो सकती । उसका ज्ञान और साधनागम्य अनुभव अन्य प्रत्यक्षदर्शियों के ज्ञान और अनुभव से पृथक् होने की ही सम्भावना अधिक रहा करती है । फिर भी लगभग समान मार्गों को किसी एक पन्थ या सम्प्रदाय से जोड़ा जाना भी अस्वाभाविक नहीं । जिस मार्ग को कोई चुम्बकीय व्यक्तित्व प्रस्तुत कर देता है, उससे उसका चिरन्तन सम्बन्ध जुड़ जाता है और आगामी शिष्य परम्परा उसी मार्ग का अनुसरण करती रहती है । यथासमय इसी मार्ग को अपनी परम्परा के अनुकूल कोई नाम दे दिया जाता है जिसे हम अपनी भाषा में धर्म कहने लगते हैं । रहस्य - भावना के साथ ही उस धर्म का अविनाभाव सम्बन्ध स्थापित कर दिया जाता है और कालान्तर में भिन्न-भिन्न धर्म और सम्प्रदायों की सीमा में बाँध दिया जाता है । अर्थ और परिभाषा 'रहस्य' शब्द रहस् पर आधारित है । 'रहस्' शब्द 'रह' त्यागार्थक धातु में 'असुन्' प्रत्यय लगाने पर बनता है ।" तदनन्तर 'यत्' प्रत्यय जोड़ने पर 'रहस्य' शब्द निर्मित होता है। इसका विग्रह होगा - रहसि भवं रहस्यम्' ।' अर्थात् रहस्य एक ऐसी मानसिक प्रतीति अथवा अनुभूति है जिसमें साधक ज्ञय वस्तु के अतिरिक्त ज्ञेयान्तर वस्तुओं की वासना से असंपृक्त हो जाता है। इस रहस्य को आध्यात्मिक क्षेत्र में अनुभूति के रूप में और काव्यात्मक क्षेत्र में रस के रूप में प्रस्फुटित किया गया है । रहस्य के उक्त दोनों क्षेत्रों के मर्मज्ञों ने स्वानुभूति को चिदानन्द चैतन्य अथवा ब्रह्मानन्द सहोदर नाम समर्पित किया है। गुह्य अर्थ में भी रहस्य शब्द का प्रयोग हुआ है | 3 १. २. ३. गुह्य ं रहस्यम्''''''''अभिधान चिंतामणि कोश, ७४२ । उत्तरकाल में यह शब्द अध्यात्म के साथ जुड़ गया । पं० टोडरमल (१७३६ ई०) ने रहस्यपूर्ण चिट्ठी लिखकर इस शब्द के प्रयोग को आध्यात्म के क्षेत्र में पूरी प्रक्रिया के साथ उतार दिया है। सर्वधातुभ्यो (उणादि सूप - चतुर्धपाद ) | तत्र भवः, विगादिभ्यो यत् (पाणिनि सूत्र, ४. ३. ५३-५४) । . Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रहस्यवाद १६३ यद्यपि रहस्यवाद जैसा शब्द प्राचीन भारतीय योग-साधनाओं में उपलब्ध नहीं होता, पर रहस्य शब्द का अथवा उसकी भूमिका का प्रयोग वहाँ सदैव से होता रहा है इसलिए भारतीय साहित्य के लिए यह कोई नवीन तथ्य नहीं रहा। पर्यवेक्षण करने से आधुनिक हिन्दी साहित्य में रहस्यवाद शब्द का प्रयोग पाश्चात्य साहित्य के अंग्रेजी शब्द Mysticism के रूपान्तर के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जहाँ वाद होता है, वहाँ विवाद की शृंखला तैयार हो जाती है। आत्म-साक्षात्कार की भावना से की गई योग-साधना के साथ भी वाद जुड़ा और रहस्यवाद की परिभाषा में अनेकरूपता आई । इसलिए साहित्यकारों ने रहस्यभावना को कहीं दर्शनपरक माना और कहीं साधनापरक, कहीं भावनात्मक (प्रेमप्रधान) तो कहीं प्रवत्तिमूलक, कहीं यौगिक तो अभिव्यक्तिमूलक । परिभाषाओं का यह वैविध्य साधकों की रहस्यानुभूति की विविधता पर ही आधारित रहा है । इतना ही नहीं, कुछ विद्वानों ने तो रहस्यभावना का सम्बन्ध चेतना, संवेदन, मनोवृत्ति और चमत्कारिता से भी जोड़ने का प्रयत्न किया है । इसलिए आज तक रहस्यवाद की परिभाषा सर्वसम्मत नहीं हो सकी। भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों द्वारा प्रस्तुत की गयी परिभाषायें अपने-अपने दृष्टिकोण से सही हैं पर वे सार्वभौमिक नहीं मानी जा सकतीं। इसे संकीर्णता के दायरे से हटाकर सर्वांगीण बनाने की दृष्टि से इस प्रकार परिभाषा कर सकते हैं-रहस्यभावना एक ऐसा आध्यात्मिक साधन है जिसके माध्यम से साधक स्वानुभूतिपूर्वक आत्मतत्त्व से परमतत्त्व में लीन हो जाता है। यही रहस्यभावना अभिव्यक्ति के क्षेत्र में आकर रहस्यवाद कही जा सकती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं-कि अध्यात्म की चरमोत्कर्षावस्था की भावाभिव्यक्ति का नाम रहस्यवाद है। इस परिभाषा में हम रहस्यवाद की प्रमुख विशेषताओं को इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते हैं १. रहस्यभावना एक आध्यात्मिक साधन है। अध्यात्म से तात्पर्य है-आत्मा-परमात्मा का चिन्तन । जैनदर्शन प्रमुखत: सात तत्त्वों का मनन, चिन्तन और रत्नत्रय के अनुपालन पर बल देता है। साधक सम्यक्चारित्र का परिपालन करता है और सम्यक्चारित्र का परिपालन करता हुआ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की आराधना करता है । यहाँ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र साधन के रूप में स्वीकार किये गये हैं। २. रहस्यभावना की अन्यतम विशेषता है स्वानुभूति । बिना स्वयं की प्रत्यक्ष अनुभूति के साधक साध्य की प्राप्ति नहीं कर सकता । इसी को शास्त्रीय परिभाषा में सम्यग्दर्शन कह सकते हैं। अनुभूति में उपरान्त ही श्रद्धा दृढ़तर होती चली जाती है। यह अनुभूति भावात्मक होती है और यह भावात्मक अनुभूति ही रहस्यवाद का प्राण है। ___ आत्मानुभव से साधक पड् द्रव्यों के अस्तित्व पर भलीभाँति चिन्तन करता है, श्रद्धा करता है, कर्म-उपाधि से मुक्त हो जाता है । दुर्गति के विषाद दूर हो जाता है तथा उसका चित्त समता सुधारस से भर जाता है। अनुभूति की दामिनी शील रूप शीतल समीर के भीतर से दमकती हुई संतापदायक भावों को चीरकर प्रकट होती है और सहज शाश्वत् आनन्द की प्राप्ति का सन्मार्ग प्रदर्शित करती है। बनारसीदास के गुरु रूप पण्डित रूपचन्द का तो विश्वास है कि-आत्मानुभव से सारा मोह रूप सघन अँधेरा नष्ट हो जाता है, अनेकान्त की चिर नूतन किरणों का स्वच्छ प्रकाश फैल जाता है, सत्तारूप अनुपम अद्भुत ज्ञेयाकार विकसित हो जाता है, आनन्दकंद अमन्द अमूर्त आत्मा में मन बस जाता है तथा उस सुख के सामने अन्य सुख बासे से प्रतीत होने लगते हैं । इसलिए वे अनादिकालीन अविद्या को सर्वप्रथम दूर करना चाहते हैं ताकि चेतना का अनुभव घट-घट में अभिव्यक्त हो सके। १. हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ० ५ । २. बनारसीविलास, ज्ञानबावनी, पृ०६ । ३. वही, परमार्थ हिंडोलना, ५. Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ..-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.................................................. कविवर द्यानतराय आत्मविभोर होकर यही कह उठे-'आतम अनुभव करना रे भाई !' यह आत्मानुभव भेदविज्ञान के बिना संभव नहीं होता। नव पदार्थों का ज्ञान, व्रत, तप, संयम का परिपालन तथा मिथ्यात्व का विनाश अपेक्षित है। भैया भगवतीदास ने अनुभव को शुद्ध-अशुद्ध रूप में विभाजित करके शुद्धानुभव को उपलब्ध करने के लिये निवेदन किया है। यह शुद्धानुभव राग, द्वेष, मोह, मिथ्यात्व तथा पर-पदार्थों की संगति को त्यागने, सत्य स्वरूप को धारण करने और आत्मा (हंस) के स्वत्त्व को स्वीकार करने से प्राप्त होता है। इसमें वीतराग भक्ति, अप्रमाद, समाधि, विषयवासना मुक्ति, तथा षद्रव्य-ज्ञान का होना भी आवश्यक है।' शुद्धानुभवी साधक आत्मा के निरंजन स्वरूप को सदैव समीप रखता है और पुण्य-पाप के भेदक तत्त्व से सुपरिचित रहता है। एक स्थान पर तो भैया भगवतीदास ने अनुभव का अर्थ सम्यग्ज्ञान किया है और स्पष्ट किया है कि कुछ थोड़े ही भव (जन्म-मरण) शेष रहने पर उसकी प्राप्ति होती है। जो उसे प्राप्त नहीं कर पाता वह संसार में परिभ्रमण करता रहता है। कविवर भूधरदास आत्मानुभव की प्राप्ति के लिए आगमाभ्यास पर अधिक बल देते हैं। उसे उन्होंने एक अपूर्व कला तथा भवदाधहारी घनसार की सलाक माना है। जीवन की अल्पस्थिति और फिर द्वादशांग की अगाधता हमारे कलाप्रेमी को चितित कर देती है। इसे दूर करने का उपाय उनकी दृष्टि में एक ही है--श्रुताभ्यास । यही श्रुताभ्यास आत्मा का परम चिंतक है। कविवर द्यानतराय भी भवबाधा से दूर रहने का सर्वोत्तम उपाय आत्मानुभव मानते हैं । आत्मानुभव करने वाला साधक पुद्गल को विनाशीक मानता है। उसका समता-सुख स्वयं में प्रकट रहता है। उसे किसी भी प्रकार की दुविधा अथवा भ्रम शेष नहीं रहता। भेदविज्ञान के माध्यम से वह स्व-पर का निर्णय कर लेता है। दीपचन्द कवि भी आत्मानुभूति को मोक्ष-प्राप्ति का एक ऐसा साधन मानते हैं जिसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना की जाती है । फलतः अखण्ड और अचल ज्ञान-ज्योति प्रकाशित होती है।' डा. राधाकृष्ण ने भी इसी को रहस्यवाद कहा है । पर उन्होंने विचारात्मक अनुभूति को दर्शन का क्षेत्र बना दिया। उसका भावात्मक अनुभूति से कोई सम्बन्ध नहीं स्वीकार किया। यहाँ हम उनके विचारों से सहमत नहीं हो सकेंगे। अनुभूति में भाव यद्यपि प्रधान और मूल अवश्य है पर उनका निकट सम्बन्ध विचार अथवा दर्शन से भी बना रहता है। बिना विचार और दर्शन के भावों में सघनता नहीं आ सकती। ३. आत्मतत्व आध्यात्मिक साधना का केन्द्र है। संसरण का मूल कारण है-आत्मतत्त्व पर सम्यक् विचार का अभाव । आत्मा का मूलस्वरूप क्या है ? और वह मोहादि विकारों से किस प्रकार जन्मान्तरों में भटकता है ? इत्यादि जैसे प्रश्नों का यहाँ समाधान खोजने का प्रयत्न किया जाता है। ४. परमपद में लीन हो जाना, रहस्यवाद की प्रमुख अभिव्यक्ति है। इसमें साधक आत्मा की इतनी पवित्र अवस्था तक पहुंच जाता है कि वह स्वयं परमात्मा बन जाता है। आत्मा और परमात्मा का एकाकारत्व एक ऐसी अवस्था है जहाँ साधक समस्त दुःखों से विमुक्त होकर एक अनिर्वचनीय शाश्वत चिदानन्द चैतन्य का रसपान करने लगता है। इसी को शास्त्रीय परिभाषा में हम निर्वाण अथवा मोक्ष कहते हैं। ब्रह्मविलास, शत अष्टोत्तरी, ६८. वही, १०१. वही, पुण्य-पाप जगमूलपच्चीसी, १८. वही, परमात्मशतक, २६. ५. जैनशतक, ६१. ६. अध्यात्म पदावलि, पृ० ३५६. ७. ज्ञानदर्पण, ४, ४५, १२८-३० आदि. ८. हर्ट आव् हिन्दुस्तान (भारत की अन्तरात्मा) अनुवादक-विश्वम्भरनाथ त्रिपाठी, १६५३, पृ० ६५. Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्त अवस्था में आत्मा और परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है । इसी तादात्म्य को समरस कहा गया है । जैन धर्म में आत्मा और परमात्मा का यह तादात्म्य अखण्ड ब्रह्म के अंश के रूप में स्वीकार नहीं किया गया, वहाँ तो विकारों से मुक्त होकर आत्मा ही परमात्मा बन जाता है। जैन धर्म में आत्मा के तीन स्वरूप वर्णित हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा मिथ्यादर्शन के कारण विशुद्ध नहीं हो पाता । अन्तरात्मा में विशुद्ध होने की क्षमता है पर वह विशुद्ध अभी हुआ नहीं तथा परमात्मा आत्मा का समस्त कर्मों से विमुक्त और विशुद्ध स्वरूप है । आत्मा के प्रथम दो रूपों को साधक और अन्तिम रूप को साध्य कहा जा सकता है। साधक अनुभूति करने वाला है और साध्य अनुभूति तत्त्व । ३. संसार का स्वरूप । ४. संसार से मुक्त होने का उपाय ( भेदविज्ञान ) । ५. मुक्त अवस्था की परिकल्पना (निर्वाण ) । जैन रहस्यवाद परमात्मस्वरूप को सकल और निष्कल के रूप में विभाजित किया गया है । सकल वह है जिसके ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों का विनाश हो चुका हो और जो शरीरवान हो । जैन परिभाषा में इसे अरहन्त, अरिहन्त अथवा अर्हत् कहा गया है। हिन्दी साहित्य में इसी को सगुण ब्रह्म कहा गया है । आत्मा की निष्कल अवस्था में वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघातिया कर्मों का भी विनाश हो जाता है। और आत्मा निर्देही बन जाता है। इसी को निर्गुण ब्रह्म की संज्ञा दी गई है । उत्तरकालीन जैन कवियों ने आत्मा की सकल और निष्कल अवस्था की भावविभोर होकर भक्ति प्रदर्शित की है और भक्तिभाव में प्रवाहित होकर दाम्पत्यमूलक अहेतुक प्रेम का चित्रण किया है, जिसमें आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए विरह में तड़पती है, समरस होने का प्रयत्न करती है । समरस हो जाने पर वह उस अनुभूतिगत आनन्द को चिदानन्द चैतन्य रस का पान करती है । रहस्यभावना के प्रमुख तत्त्व रहस्यवाद का क्षेत्र असीम है । उस अनन्तशक्ति के स्रोत को पाना ससीम शक्ति के सामर्थ्य के बाहर है । अतः ससीमता से असीमता और परम विशुद्धता तक पहुँच पाना तथा चिदानन्द चैतन्यरस का पान करना साधक का अथवा गुह्य है इसलिए साधक में विषय के प्रति साध्य समीप होता चला जायेगा । रहस्य को मूल उद्देश्य रहता है । इस अवस्था की प्राप्ति का मार्ग अत्यन्त रहस्य जिज्ञासा और औत्सुक्य जितना अधिक जाग्रत होगा उतना ही उसका समझने और अनुभूति में लाने के लिए निम्नलिखित प्रमुख तत्त्वों का आधार लिया जा सकता है १. जिज्ञासा और औत्सुक्य । २. संसारचक्र में भ्रमण करने वाले आत्मा का स्वरूप । १६५ रहस्यभावना का साध्य, साधन और साधक रहस्यभावना का प्रमुख साध्य, परमात्मपद की प्राप्ति करना है, जिसके मूल साधन हैं- स्वानुभूति और भेदविज्ञान | किसी विषय वस्तु का जब किसी प्रकार से साक्षात्कार हो जाता है तब साधन के अन्तरंग में तद्विषयक विशिष्ट अनुभूति जागरित हो जाती है । साधना की सुप्तावस्था में चराचर जगत् साधक को यथावत् दिखाई देता है । उसके प्रति उसके मन में मोहगर्भित आकर्षण भी बना रहता है । पर साधक के मन में जब रहस्य की यह गुत्थि समझ में आ जाती है कि संसार का प्रत्येक पदार्थ अशाश्वत है, क्षणभंगुर है किन्तु यह सत् चित् रूप आत्मा उसका अपना ही स्वरूप है, तब उसके मन में एक अपूर्व आनन्दानुभूति होती है । इसे हम शास्त्रीय परिभाषा में भेदविज्ञान कह सकते हैं । साधक को भेदविज्ञान की यथार्थ अनुभूति हो जाना ही रहस्यवादी साधना का साध्य है । शास्त्रीय परिभाषा में इसे हम निर्वाण कह सकते हैं । साध्य सदैव रहस्य की स्थिति में रहता है । सिद्ध हो जाने पर फिर वह रहस्यवादी के लिए अज्ञात अथवा HDI O . Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड रहस्य नहीं रह जाता । साधक के लिए भले ही वह रहस्य बना रहे। इसलिए तीर्थकर ऋषभदेव, महावीर, राम, कृष्ण आदि की परम स्थिति साध्य है। इसे हम ज्ञेय अथवा प्रमेय भी कह सकते हैं। इस साध्य, ज्ञेय अथवा प्रमेय की प्राप्ति में जिज्ञासा मूल कारण है। जिज्ञासा ही प्रमेय अथवा रहस्य तत्त्व के अन्तस्तल तक पहुँचने का प्रयत्न करती है । तदर्थ साध्य के सन्दर्भ में साधक के मन में प्रश्न-प्रतिप्रश्न उठते रहते हैं। 'अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' इसी का सूचक है। 'नेति-नेति' के माध्यम से साधक की रहस्यभावना पवित्रतम होती जाती है और वह रहस्य के समीप पहुँचता चला जाता है । फिर एक समय वह अनिर्वचनीय स्थिति को प्राप्त कर लेता है। 'यतो वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' । यह अनुभूतिपरक जिज्ञासा ही अभिव्यक्ति के क्षेत्र में काव्य बनकर उतरती है। इसी काव्य के माध्यम से सहृदय व्यक्ति साधारणीकरण प्राप्त करता है और शनै:-शनैः ब्रह्म दशा तक बढ़ता चला जाता है। अतएव इस प्रकार के काव्य में व्यक्त रहस्यभावना की गहनता और सघनता को ही यथार्थ में काव्य की विधेयावस्था का केन्द्र-बिन्दु समझना चाहिए। परम गुह्य तत्त्वरूप रहस्यभावना के वास्तविक तथ्य तक पहुँचने के लिए साधक को कुछ ऐसे शाश्वत साधनों का उपयोग करना पड़ता है जिनके माध्यम से वह चिरन्तन सत्य को समझ सके । ऐसे साधनों में आत्मा और परमात्मा के विशुद्ध स्वरूप पर चिन्तन और मनन करना विशेष महत्त्वपूर्ण है। जैन धर्म में तो इसी को केन्द्रबिन्दु के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है । इसी को कुछ विस्तार से समझाने के लिए यहाँ समूचे तत्त्वों को दो भागों में विभाजित किया गया है-जीव और अजीव । जीव का अर्थ आत्मा है और अजीव का विशेष सम्बन्ध उन पौद्गलिक कर्मों से है जिनके कारण यह आत्मा संसार में बारम्बार जन्म ग्रहण करता रहता है। इन कर्मों का सम्बन्ध आत्मा से कैसे होता है, इसके लिए आस्रव और बन्ध तत्त्व आये हैं तथा उनसे आत्मा कैसे विमुक्त होता है, इसके लिए संवर और निर्जरा तत्त्वों को रखा गया है । आत्मा का कर्मों से सम्बन्ध जब पूर्णत: दूर हो जाता है तब उसका विशुद्ध और मूल रूप सामने आता है। इसी को मोक्ष कहा गया है। . इस प्रकार रहस्यभावना का सीधा सम्बन्ध जैन संस्कृति में उक्त सप्त तत्त्वों पर निर्भर करता है। इन सप्त तत्त्वों की समुचित विवेचना ही जैनग्रन्थों की मूल भावना है। आचारशास्त्र और विचारशास्त्र इन्हीं तत्त्वों का विश्लेषण करते हुए दिखाई देते हैं। अध्यात्मवादी ऋषि-महर्षियों और विद्वान् आचार्यों ने रहस्यभावना की साधना में अनुभूति के साथ विपुल साहित्य का सृजन किया है। 'एक हि सद् विप्राः बहुधा वदन्ति' के अनुसार एक ही परम सत्य को विविध प्रकार से अनुभव में लाते हैं और उसे अभिव्यक्त करते हैं। उनकी रहस्यानुभूतियों का धरातल पवित्र आत्म-साधना से मण्डित रहता है। यही साधक तत्त्वदर्शी और कवि बनकर साहित्य जगत् में उतरता है। उसका काव्यभाव सौन्दर्य से निखरकर स्वाभाविक भाषा में नि:मृत होता है। फिर भी पूर्ण अभिव्यक्ति में असमर्थ होकर वह प्रतीकात्मक ढंग से भी अपनी रहस्यभावना को व्यक्त करने का प्रयत्न करता है। उसकी अभिव्यक्ति के साधन स्वरूप भाव और भाषा में श्रद्धा, प्रेमाभक्ति, उपालम्भ, पश्चात्ताप, दास्यभाव आदि जैसे भाव समाहित होते हैं। साधक की दृष्टि सत्संगति और सद्गुरु महिमा की ओर आकृष्ट होकर आत्म-साधना के मार्ग से परमात्मपद की प्राप्ति की ओर मुड़ जाती है । रहस्यभावना की साधना में साधक पूरे आत्मविश्वास के साथ आत्म-शक्ति का दृढ़तापूर्वक उपयोग करता है । तदर्थ उसे किसी बाह्य शक्ति की भी प्रारम्भिक अवस्था में आवश्यकता होती है जिसे वह अपने प्रेरक तत्त्व के रूप में स्थिर रखता है। साधना में प्रकर्षता और स्थिरता लाने के लिए साधक भक्ति, ज्ञान और कर्म के समन्वित रूप का आश्रय लेकर साध्य को प्राप्त करने का लक्ष्य बनाता है। भक्तिपरक साधना में श्रद्धा और विश्वास, ज्ञानपरक साधना में तर्क-वितर्क की प्रतिष्ठा और कर्मपरक साधना में यथाविधि आचार का परिपालन होता है। रहस्यवादी ताधक भक्ति, ज्ञान और कर्म को समान रूप से अंगीकार करता है। दार्शनिक परिभाषा में इसे - ०० Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रहस्यवाद १९. क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का परिपालन कहा जा सकता है। साधनावस्था में इन तीनों का सम्यक् मिलन निर्वाण की प्राप्ति के लिये अपेक्षित है। __ साधक और कवि की रहस्यभावना में किंचित् अन्तर है। साधक रहस्य का स्वयं साक्षात्कार करता है पर कवि उसकी भावात्मक भावना करता है । यह आवश्यक नहीं कि योगी कवि नहीं हो सकता अथवा कवि योगी नहीं हो सकता। काव्य का तो सम्बन्ध भाव से विशेषतः होता है और साधक की रहस्यानुभूति भी वहीं से जुड़ी हुई होती है । अत: इतिहास के पन्ने इस बात के साक्षी हैं कि उक्त दोनों व्यक्तित्व समरस होकर आध्यात्मिक साधना करते रहे हैं । यही कारण है कि योगी कवि हुआ है और कवि योगी हुआ है। दोनों ने रहस्यभावना की भावात्मक अनुभूति को अपना स्वर दिया है । भावना अनुभूतिपरक होती है और वाद किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा साहित्य से सम्बद्ध होकर ससीमित हो जाता है। इस अन्तर के होते हुए भी रहस्यभावना का सम्बन्ध अन्ततोगत्वा चूँकि किसी साधना विशेष से सम्बद्ध रहता है इसलिए वह भी कालांतर में अनुभूति के माध्यम से एक वाद बन जाता है। अध्यात्मवाद और दर्शन जहाँ तक अध्यात्मवाद और दर्शन के सम्बन्ध का प्रश्न है, वह परस्पराश्रित है। अध्यात्मवाद योग साधना है जो साक्षात्कार करने के एक साधन का बौद्धिक विवेचन है। अध्यात्मवाद अनुभूति पर आधारित है जब कि दर्शन ज्ञान पर आधारित है । अध्यात्मवाद तत्त्वज्ञान प्रधान है और दर्शन उसकी पद्धति और विवेचन करता है। इस प्रकार दर्शन की पृष्ठभूमि में ही दोनों का संगम संभव हो पाता है। दोनों के अन्तर को समझने के लिए हम दर्शन के दो भेद कर सकते हैं-आध्यात्मिक रहस्यवाद और दार्शनिक रहस्यवाद । आध्यात्मिक रहस्यवाद आचारप्रधान होता है और दार्शनिक रहस्यवाद ज्ञानप्रधान । अतः आचार और ज्ञान की समन्वयावस्था ही सच्चा अध्यात्मवाद अथवा रहस्यवाद है। रहस्यभावना किसी न किसी सिद्धान्त अथवा विचार-पक्ष पर आधारित रहती है और वही जब तर्क पर आधारित हो जाती है तो उसका दार्शनिक पक्ष प्रारम्भ हो जाता है। दर्शन को न तो जीवन से पृथक् किया जा सकता है और न अध्यात्म से । इसी प्रकार काव्य का सम्बन्ध भी दर्शन से बिल्कुल तोड़ा नहीं जा सकता। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रत्येक आध्यात्मवादी अथवा रहस्यवादी काव्य के क्षेत्र में आने पर दार्शनिक साहित्यकार हो जाता है। यही उसकी रहस्यभावना की अभिव्यक्ति विविध क्षेत्रों में विविध रूप से होती है। आदि कवि वाल्मीकि भी कालांतर में दार्शनिक बन गये । वेदों और आगमों के रहस्य का उद्घाटन करने वाले ऋषि-महर्षि भी दार्शनिक बनने से नहीं बच सके। वस्तुतः यहीं उनके जीवन्त-दर्शन का साक्षात्कार होता है और यहीं उनके कवित्व रूप का उद्घाटन भी। काव्य की भाषा में इसे हम रहस्यभावना का साधारणीकरण कह सकते हैं। परमतत्त्व की गुह्यता को समझने का इससे अधिक अच्छा और कौन-सा साधन हो सकता है ? रहस्यवाद और अध्यात्मवाद अध्यात्म अन्तस्तत्त्व की निश्चल गति वधि का रूपान्तर है। उसका साध्य परमात्मा का साक्षात्कार और उससे एक रूपता की प्रतीति है। यह प्रतीति किसी न किसी साधनापथ अथवा धर्म पर आधारित हुए बिना संभव नहीं। साधारणतः विद्वानों का यह मत है कि धर्म या सम्प्रदाय को रहस्यवाद के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता क्योंकि धर्म या सम्प्रदाय ईश्वरीय शास्त्र (Theology) के साथ जुड़ा रहता है। इसमें विशिष्ट-आचार, बाह्यपूजन पद्धति, साम्प्रदायिक व्यवस्था आदि जैसी बातों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है जो रहस्यवाद के लिए उतने आवश्यक नहीं। पर यह तथ्य संगत नहीं। प्रथम तो यह कि ईश्वरीशास्त्र का सम्बन्ध प्रत्येक धर्म अथवा सम्प्रदाय में उस रूप में नहीं जिस रूप में वैदिक अथवा ईसाईधर्म में है। जैन और बौद्ध दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-हर्ता नहीं माना १. आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, रहस्यवाद, पृ० ६. Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड - - - - - - - - - ANSARGIBIHEROID गया । दूसरी बात, बाह्य-पूजन पद्धति, कर्मकाण्ड आदि का सम्बन्ध भी जैनधर्म और बौद्धधर्म के मूल रूपों में नहीं मिलता । ये तत्त्व तो श्रद्धा और भक्ति के विकास के सूचक हैं । उक्त धर्मों का मूल तत्त्व तो संसरण के कारणों को दूरकर निर्वाण की प्राप्ति करना है । यही मार्ग उस धर्मों का वास्तविक अध्यात्म मार्ग है। इसी को हम तद्तद् धर्मों का रहस्य भी कह सकते हैं। रहस्यवाद का सम्बन्ध जैसा हम पहले कह चुके हैं किसी न किसी धर्म विशेष से अवश्य रहेगा। ऐसा लगता है, अभी तक रहस्यवाद की व्याख्या और उसकी परिभाषा मात्र वैदिक दर्शन और संस्कृति को मानदण्ड मानकर की जाती रही है । ईसाई धर्म भी इस सीमा से बाहर नहीं है। इन धर्मों में ईश्वर की सृष्टि का कर्ता आदि स्वीकार किया गया है और इसीलिए रहस्यवाद को उस ओर अधिक मुड़ जाना पड़ा । परन्तु जहाँ तक श्रमण संस्कृति और दर्शन का प्रश्न है वहाँ तो इस रूप में ईश्वर का कोई अस्तित्व है ही नहीं । वहाँ तो आत्मा ही परमात्मपद प्राप्त कर तीर्थकर अथवा बुद्ध बन सकता है। उसे अपने अन्धकाराच्छन्न मार्ग को प्रशस्त करने के लिए एक प्रदीप की आवश्यकता अवश्य रहती है जो उसे प्राचीन आचार्यों द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर प्राप्त हो जाता है। रहस्यभावना के प्रकार रहस्यवाद के प्रकार साधनाओं के प्रकारों पर अवलम्बित हैं। विश्व में जितनी साधनायें होंगी, रहस्यवाद के भी उतने भेद होंगे। उन भेदों के भी प्रभेद मिलेगे। सभी भेदों-प्रभेदों को सामान्यत: दो भागों में विभाजित कर सकते हैं-भावनात्मक रहस्यवाद और दूसरा साधनात्मक रहस्यवाद। भावनात्मक रहस्यवाद अनुभूति पर आधारित है और साधनात्मक रहस्यवाद सम्यक् आचार-विचारयुक्त योग साधना पर। दोनों का लक्ष्य एक ही है-परमात्मपद अथवा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति । साधना अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों ही होती है । अन्तर्मुखी साधना में साधक अशुद्ध के मूल स्वरूप विशुद्धात्मा को प्रियतम अथवा प्रियतमा के रूप में स्वीकार कर उसे योगादि के माध्यम से खोजने का यत्न करता है तथा बहिर्मुखी साधना में विविध आध्यात्मिक तथ्यों को स्पष्ट करने का प्रयत्न करता है। रहस्यभावना का सम्बन्ध चरमतत्त्व को प्राप्त करने से रहा है और चरमतत्त्व का सम्बन्ध किसी एक धर्म अथवा योग साधनाविशेष से रहना सम्भव नहीं इसलिए रहस्यभावना की पृष्ठभूमि में साधक की जिज्ञासा और उसका आचरित सम्प्रदाय विशेष महत्त्व रखता है । सम्प्रदायों और उनके आचारों का वैभिन्न्य सम्भवतः विचारों और साधनाओं में वैविध्य स्थापित कर देता है इसलिए साधारण तौर पर आज जो वह मान्यता है कि रहस्यवाद का सम्बन्ध भारतीय साधनाओं में मात्र वैदिक साधना से ही है, मात्र भ्रम है। प्रत्येक सम्प्रदाय का साधक अपने किसी न किसी आप्त पुरुष में अद्धत तत्त्व की स्थापना करने की दृष्टि से उनके ही द्वारा निर्दिष्ट पथ अनुगमन करता है और अलौकिक स्वसंवेद्य अनुभवों और रहस्यभावों को प्रतीक आदि के माध्यम से अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करता है । यही कारण है कि आधुनिक रहस्यवाद की परिभाषा में भी मत-वैभिन्य देखा जाता है। - इसके बावजूद अधिकांश साधनाओं में इतनी समानता दिखाई देती है कि जैसे वे हीनाधिक रूप से किसी एक ही सम्प्रदाय से सम्बद्ध हों । यह अस्वाभाविक भी नहीं, क्योंकि प्रत्येक साधक का मूल लक्ष्य उस अदृष्ट शक्तिविशेष को आत्मसात करना है। उसकी प्राप्ति के लिए दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिवेणी-धारा का पवित्र प्रवाह अपेक्षित है। रहस्यभावना की भूमिका इन तीनों की सुन्दर संगम स्थली है, परम सत्य या परमात्मा के आत्म-साक्षात्कार के स्वरूप का वर्णन सभी साधक एक जैसा नहीं कर सके क्योंकि वह अनादि, अनन्त और सर्वव्यापक है और उसकी प्राप्ति के मार्ग भी अनन्त हैं । अतः अनेक कथनों से उसे व्यंजित किया जाना स्वाभाविक है। उनमें जैन दर्शन के स्याद्वाद और अनेकान्तवाद के अनुसार किसी का भी कथन गलत नहीं कहा जा सकता। रहस्यभावना में वैभिन्न्य पाये जाने का यही कारण है । संभवतः पद्मावत में जायसी ने निम्न छन्द से इसी भाव को दर्शाया है विधना के मारग हैं तेते। सरग नखत तन रोवां जेते ।। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस वैभिन्न्य के होते हुए भी सभी का लक्ष्य एक ही रहा है- परम सत्य की प्राप्ति और परमात्मा से आत्म-साक्षात्कार । साधारणत: जैन धर्म से रहस्यभावना अथवा रहस्यवाद का सम्बन्ध स्थापित करने पर उसके सामने आस्तिक-नास्तिक होने का प्रश्न खड़ा हो जाता है । परिपूर्ण जानकारी के बिना जैन धर्म को कुछ विद्वानों ने नास्तिक दर्शनों की श्रेणी में बैठा दिया है । यह आश्चर्य का विषय है। इसी कल्पना पर यह मन्तव्य व्यक्त किया जाता है कि जैनधर्म रहस्यवादी हो ही नहीं सकता क्योंकि वह वेद और ईश्वर को स्वीकार नहीं करता । यही मूल में भूल है । जैन रहस्यवाद प्राचीनकाल में जब वैदिक संस्कृति का प्राबल्य था, उस समय नास्तिक की परिभाषा वेद- निन्दकों के रूप में कर दी गयी । परिभाषा के रूप निर्धारण में तत्कालीन परिस्थिति का विशेष हाथ था । वेद-निन्दक अथवा ईश्वर को सृष्टि का कर्ता हर्ता, धर्ता के रूप में स्वीकार न करने वाले सम्प्रदायों में प्रमुख सम्प्रदाय थे जैन और बौद्ध; इसलिए उनको नास्तिक कह दिया। इतना ही नहीं, निरीश्वरवादी मीमांसक और सांख्य जैसे वैदिक दर्शन भी नास्तिक कहे जाने लगे 1 , १६६ सिद्धान्ततः नास्तिक की यह परिभाषा नितान्त असंगत है। पारलौकिक अस्तित्व की स्वीकृति और अस्वीकृति पर निर्भर करती है। करने वाला आस्तिक और उसे अस्वीकार करने वाला नास्तिक कहा जाना चाहिए था । पाणिनिसूत्र “अस्ति नास्ति दिष्टं मति ( ४ ४ ६० ) से भी यह बात पुष्ट हो जाती है। जैन संस्कृति के अनुसार आत्मा अपनी विशुद्धतम् अवस्था में स्वयं ही परमात्मा का रूप ग्रहण कर लेती है, दैहिक और मानसिक विकारों से दूर होकर परमपद की प्राप्ति कर लेती है । इस प्रकार यहाँ स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि की व्यवस्था स्वयं के कर्मों पर आधारित है । अतः जैनदर्शन की गणना नास्तिक दर्शनों में करना नितान्त असंगत है । जैन रहस्यभावना भी श्रमण संस्कृति के अन्तर्गत आती है। बौद्ध साधना ने जैन साधना से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है। जैन साधकों ने आत्मा को केन्द्र के रूप में स्वीकार किया है। यही आत्मा तब संसार में जन्ममरण के चक्कर से छूट जाता है, तब उसे विशुद्ध अथवा विमुक्त वहा जाता है। आत्मा की इसी विशुद्धावस्था को परमात्मा कहा गया है। परमात्मपद की प्राप्ति स्व-पर-विवेकरूप भेदविज्ञान के होने पर ही होती है। भेदविज्ञान की प्राप्ति मिया-दर्शन मिथ्याज्ञान और मिया चारित्र के स्थान पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारिष के समन्वित आचरण से हो जाती है । इस प्रकार आत्मा द्वारा परमात्मपद की प्राप्ति ही जैन रहस्यभावना की अभिव्यक्ति है । १. स्वानुभूति रहस्यभावना के लिए प्रमुख तस्य स्वानुभूति है। अनुभूति का अर्थ है अनुभव बनारसीदास ने शुद्ध निश्चय नय, शुद्ध व्यवहार नय और आत्मानुभव को मुक्ति का मार्ग बताया है। उन्होंने अनुभव का अर्थ बताते हुए कहा है कि आत्म-पदार्थ का विचार और ध्यान करने से चित्त को जो शान्ति मिलती है तथा आत्मिक रस का आस्वादन करने से जो आनन्द मिलता है, उसी को अनुभव कहा जाता है नाटक समयसार, १७. नास्तिक और अस्तिक की परिभाषा वस्तुतः आत्मा और परलोक के अस्तित्व को स्वीकार वस्तु विचारत ध्यावते, मन पावै विश्राम । रसस्वादत सुख अपने अनुभो याको नाम ॥ कवि बनारसीदास ने इस अनुभव को चिन्तामणि रत्न, शान्तिरस का कूप, मुक्ति का मार्ग और मुक्ति का स्वरूप माना है । इसी का विश्लेषण करते हुए आगे उन्होंने कहा है कि अनुभव के रस को जगत के ज्ञानी लोग रसायन . Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड कहते हैं। इसका आनन्द कामधेनु चित्रावेली के समान है। इसका स्वाद पंचामृत भोजन के समान है। यह कर्मों का क्षय करता है और परमपद से प्रेम जोड़ता है । इसके समान अन्य कोई धर्म नहीं है अनुभव चिंतामणि रतन, अनुभव है रस कूप । अनुभव मारग मोक्ष को, अनुभव मोख स्वरूप ॥१८॥ अनुभौ के रस को, रसायन कहत जग । अनुभौ अभ्यास यहु तीरथ की ठौर है । अनुभौ की केलि यहै, कामधेनु चित्रावेलि । अनुभौ को स्वाद पंच अमृत कौ कौर है ।। अनुभौ करम तोरे सौ परम प्रीति जोरे । अनुभौ समान न धरम कोऊ और है ॥१६॥ रूपचंद पांडे ने इस अनुभूति को आत्म ब्रह्म की अनुभूति कहकर उसे दिव्यबोध की प्राप्ति का साधन बताया है। चेतन इसी से अनन्त दर्शन-ज्ञान-सुख-वीर्य प्राप्त करता है और स्वत: उसका साक्षात्कार कर चिदानन्द चैतन्य का रसपान करता है अनुभौ अभ्यास में निवास सुध चेतन को, अनुभौ सरूप सुध बोध को प्रकास है। अनुभौ अपार उपरहत अनन्तज्ञान, अनुभौ अनीत त्याग ज्ञान सुखरास है। अनुभौ अपार सार आप ही को आप जानै, आप ही में व्याप्त दीस, जामें जड़ नास है। अनुभौ अरूप है सरूप चिदानंद चंद, अनुभौ अतीत आठ कर्म स्यो अकास है ॥२ जिस प्रकार वैदिक संस्कृति में ब्रह्मवाद अथवा आत्मवाद को अध्यात्मनिष्ठ माना है उसी प्रकार जैन संस्कृति में भी रहस्यवाद को अध्यात्मवाद के रूप में स्वीकार किया गया है। पं० आशाधर ने अपने योग विषयक ग्रन्थ को 'अध्यात्मरहस्य' उल्लिखित किया है। इससे यह स्पष्ट है कि जैनाचार्य अध्यात्म को रहस्य मानते थे। बनारसीदास ने इस अध्यात्मरहस्य को अभिव्यक्ति का साधन अपनाया है इस ही सुरस के सवादी भये ते तो सुनौ, तीर्थकर चक्रवति शैली अध्यात्म की। बल वासुदेव प्रति वासुदेव विद्याधर, चारण मुनिन्द्र इन्द्र छेदी बुद्धि भ्रम की ॥ अध्यात्मवाद का तात्पर्य है आत्मचिन्तन । आत्मा के दो भाव हैं-आगम रूप और अध्यात्मरूप । आगम का तात्पर्य है वस्तु का स्वभाव और अध्यात्म का तात्पर्य आत्मा-अधिकार अर्थात् आत्म द्रव्य । संसार में जीवन के दो भाव विद्यमान रहते हैं---आगम रूप कर्म पद्धति और अध्यात्मरूप शुद्धचेतनपद्धति । कर्मपद्धति में द्रव्यरूप और भावरूप कर्म आते हैं । द्रव्यरूपकर्म पुद्गल परिणाम कहलाते हैं और भावरूपकर्म पुद्गलाकार आत्मा की विशुद्ध परिणति रूप परिणाम कहलाते हैं। शुद्ध चेतना पद्धति का तात्पर्य है शुद्धात्म परिणाम । वह भी द्रव्यरूप और भावरूप दो प्रकार का है। १. له नाटक समयसार, १८-१९. अध्यात्म सवैया, १. बनारसीदास, ज्ञानबावनी, पृ० ८. ३. Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रहस्यवाद २०१ . द्रव्यरूप परिणाम वह है जिसे हम जीव कहते हैं और भावरूप परिणाम में अनन्त चतुष्ट्य-अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य की प्राप्ति मानी जाती है। इस प्रकार अध्यात्म से सीधा सम्बन्ध आत्मा का है। ___ अध्यात्मशैली का मूल उद्देश्य आत्मा को कर्मजाल से मुक्त करना है। प्रमाद के कारण व्यक्ति उपेदशादि तो देता है पर स्वयं का हित नहीं कर पाता। वह वैसा ही रहता है जैसा दूसरों के पंकयुक्त पैरों को धोने वाला स्वयं अपने पैरों को नहीं धोता ।' यही बात कलाकार बनारसीदास ने अध्यात्मशैली की विपरीत रीति को बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है । इस अध्यात्मशैली को ज्ञाता साधक की सुदृष्टि ही समझ पाती है-- अध्यातम शैली अन्य शैली को विचार तैसो, ज्ञाता की सुदृष्टि मांहि लगै एतौ अंतरौ ॥४ एक और रूपक के माध्यम से कविवर ने स्पष्ट किया है कि जिन-वाणी को समझने के लिए सुमति और आत्मज्ञान का अनुभव आवश्यक है। सम्यक् विवेक और विचार से मिथ्याज्ञान नष्ट हो जाता है। शुक्लध्यान प्रकट हो जाता है और आत्मा अध्यात्मशैली के माध्यम से मोक्ष रूपी प्रासाद में प्रवेश कर जाता है। जिन वाणी दुग्ध माहि, विजया सुमतिहार, ___ निज स्वाद कंद वृद चहल-पहल में। विवेक विचार उपचार ए कंसूभौ कीन्हों, मिथ्या सोफी' मिहि गये ज्ञान की गहल में । 'शीरणी' शुकल ध्यान अनहद नाद' तान, ___ 'गान' गुणमान कर सुजस सहल में । 'बनारसीदास' मध्य नायक सभा समूह में, अध्यातम शैली चली मोक्ष के महल में। बनारसीदास को अध्यात्म के बिना परम पुरुष का रूप ही नहीं दिखाई देता। उसकी महिमा अगम और अनुपम है । बसन्त का रूपक लेकर कविवर ने पूरा अध्यात्म फाग लिखा है । कुमति-रूपी रजनी का स्थितिकाल कम हो गया, मोह-पंक घट गया, संशय-रूपी शिशिर समाप्त हो गया, शुभ-दल पल्लव लहलहा रहे हैं, अशुभ-पतझर हो रही है, विषयरति-मालती मलिन हो गई, विरति-वेलि फैल गई, विवेकशशि निर्मल हुआ, आत्मशक्ति सुचंद्रिका विस्तृत हुई, सुरति-अग्नि ज्वाला जाग उठी, सम्यक्त्व-सूर्य उदित हो गया, हृदय कमल विकसित हो गया, कषाय-हिमगिरि गल गया, निर्जरा नदी में प्रवाह आ गया, धारणा-धार शिव-सागर की ओर बह चली, संवरभाव-गुलाल उड़ा, दयामिठाई, तप-मेवा, शील-जल, संयम-ताम्बूल का सेवन हुआ, परम ज्योति प्रकट हुई, होलिका में आग लगी, आठ काठकर्म जलकर बुझ गये और विशुद्धावस्था प्राप्त हो गई। ___ अध्यात्मरसिक बनारसीदास आदि महानुभावों के उपर्युक्त गम्भीर विवेचन से यह बात छिपी नहीं रही कि उन्होंने अध्यात्मवाद और रहस्यवाद को एक माना है। दोनों का प्रस्थान बिन्दु, लक्ष्य-प्राप्ति तथा उसके साधन समान हैं । दोनों शान्तरस के प्रवाहक हैं। १. बनारसीविलास, पृ० २१०. २. बनारसीविलास : ज्ञानबावनी, पृ० २६ ३. वही, पृ० १३. ४. वही, पृ० ३८. ५. वही, पृ० ४५. ६. बनारसीविलास : अध्यात्मफाग, पृ० १-१८. . Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 .0 २०२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड गूँगे का सा गुड़ की इस रहस्यानुभूति में तर्क अप्रतिष्ठित हो जाता है— कहत कबीर तरह दुइ साधे तिनकी मति है मोटी" और वाद-विवाद की ओर से मन दूर होकर भगवद्भक्ति में लीन हो जाता है। उसकी अनुभूति साधक की आत्मा ही कर सकती है। रूपचंद ने इसी को 'चेतन अनुभव घट प्रतिभासो, चेतन अनुभव धन मन भावो' आदि शब्दों से अभिव्यक्त किया है। संत सुन्दरदास ने ब्रह्मसाक्षात्कार का साधन अनुभव को ही माना है । बनारसीदास के समान ही संत सुंदरदास ने भी उसके आनन्द को अनिर्वचनीय कहा है। उन्होंने उसे साक्षात् ज्ञान और प्रलय की अग्नि माना है जिसमें सभी द्वैत, द्वन्द्व और प्रपंच विलीन हो जाते हैं । सुन्दरदास ने 'अपहु आप हि जाने' स्वीकार किया है। भैया भगवतीदास ने इसी को शुद्धात्मा का अनुभव कहा है।" बनारसीदास ने पंचामृत पान को भी अनुभव के समक्ष तुच्छ माना है और इसलिए उन्होंने कह दिया- 'अनुभौ समान धरम कोऊ और न अनुभव के आधार स्तम्भ ज्ञान, श्रद्धा और समता आदि जैसे गुण होते हैं। कबीर और सुन्दरदास जैसे संत भी श्रद्धा की आव ¥ श्यकता पर बल देते हैं । इस प्रकार अध्यात्म किंवा रहस्यसाधना में जैन और जैनेतर साधकों ने समान रूप से स्वानुभूति की प्रकता पर बल दिया है । इस अनुभूतिकाल में आत्मा को परमात्मा अथवा ब्रह्म के साथ एकाकारता की प्रतीति होने लगती है । यहीं समता और समरसता का भाव जागरित होता है । इसके लिए सन्तों और आचार्यों को शास्त्रों और आगमों की अपेक्षा स्वानुभूति और चिन्तनशीलता का आधार अधिक रहता है । डा० राजकुमार वर्मा ने संतों के सन्दर्भ में ही लिखा है ये तत्व सीधे शास्त्र से नहीं जाये, वरतु शताब्दियों की अनुभूति तुला पर तुलकर, महात्माओं की व्यावहारिक ज्ञान की कसौटी पर कसे जाकर सत्संग और गुरु के उपदेशों से संगृहीत हुए। यह दर्शन स्वार्जित अनुभूति है। जैसे सहस्रों पुष्पों की सुगन्धि मधु की एक बूंद में समाहित है, किसी एक फूल की सुगन्धि मधु में नहीं है, उस मधु के निर्माण में भ्रमर की अनेक पुण्य तीर्थो की दात्रायें सन्निविष्ट हैं, अनेक पुष्पों की क्यारियां मधु के एक-एक कण में निवास करती हैं। उसी प्रकार संत-सम्प्रदाय का दर्शन अनेक युगों और साधकों की अनुभूतियों का सम्मुच्चय है । १० जैन और जैनेतर रहस्यभावना में अन्तर १. जैन रहस्यवाद आत्मा और परमात्मा के मिलन की बात अवश्य करता है पर वहाँ आत्मा से परमात्मा मूलतः पृथक नहीं । आत्मा की विशुद्धावस्था को ही परमात्मा कहा जाता है जब कि अन्य साधनाओं में अन्त तक आत्मा और परमात्मा दोनों पृथक् रहते हैं । आत्मा और परमात्मा के एकाकार होने पर भी आत्मा परमात्मा नहीं बन पाता । जैन साधना अनन्त आत्माओं के अस्तित्व को मानता है पर जैनेतर साधनाओं में प्रत्येक आत्मा को परमात्मा का अंश माना गया है । १. वादविवाद का सों नाहीं माहिं जगत के स्वारा २. हिन्दी पद संग्रह ०३६-३७ ३. अनुभव विना नहीं जान सके निरसंध निरंतर नूर है रे । उपमा उसकी अब कौन कहे नहि सुंदर चंदन सूर हे रे । ४. संत चरनदास की वानी, भाग २, पृ० ४५. ५. सुन्दरविलास, पृ० १६४. ६. वही, पृ० १५६. ७. ब्रह्मविलास, शत अष्टोत्तरी, पृ० ८. ८. नाटक समयसार, उत्थानिका, १६, पृ० १४. ६. बनारसीविलास, ज्ञानबावनी १०. डा० राजकुमार वर्मा : अनुशीलन, पृ० ७७. दादा की बानी, भाग-२, १०२. --संत सुधासार, पृ० ५८६. . Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन रहस्यवाद २०३ . ........................................................................... २. जैन रहस्यवाद में ईश्वर को सुख-दुःख दाता नहीं माना गया। वहाँ तीर्थंकर की परिकल्पना मिलती है जो पूर्णतः वीतरागी और आप्त हो । अतः उसे प्रसाद-दायक नहीं माना गया। वह तो मात्र दीपक में रूप में पथदर्शक स्वीकार किया गया है। उत्तरकाल में भक्ति आन्दोलन हुए और उनका प्रभाव जैन साधना पर भी पड़ा । फलतः उन्हें भक्तिवश दुःखहारक और सुखदायक के रूप में स्मरण किया गया है। प्रेमाभिव्यक्ति भी हुई है पर उसमें भी वीतरागता के भाव अधिक निहित हैं । ३. जैन साधना अहिंसा पर प्रतिष्ठित है। अतः उसकी रहस्यभावना भी अहिंसामूलक रही। षट्चक्र, कुण्डलिनी आदि जैसी तांत्रिक साधनाओं का जोर उतना अधिक नहीं हो पाया जितना अन्य साधनाओं में हुआ। ४. जैन रहस्यभावना का हर पथ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के समन्वित रूप पर आधारित है। ५. स्व-पर-विवेक रूप भेदविज्ञान उसका केन्द्र है। ६. प्रत्येक विचार निश्चय और परमार्थ नय पर आधारित है। जैन रहस्यभावना की परम्परा जैन और जैनेतर रहस्यभावना में अन्तर समझने के बाद हमारे सामने जैन साधकों की लम्बी परम्परा आ जाती है। उनकी साधना को हम आदिकाल, मध्यकाल और उत्तरकाल के रूप में विभाजित कर सकते हैं। इन कालों में जैन साधना का क्रमिक विकास भी दृष्टिगोचर होता है। जैन रहस्यवाद तीर्थंकर ऋषभदेव से प्रारम्भ होकर पार्श्वनाथ और महावीर तक पहुँची । महावीर से आचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वामि, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, मुनि कार्तिकेय, अकलंक, विद्यानन्दि, प्रभाचन्द्र, मुनि योगीन्दु देव, मुनि रामसिंह, आनन्दतिलक, बनासीदास, भगवतीदास, आनन्दघन, भूधरदास, द्यानतराय, दौलतराम प्रभृति जैन रहस्यसाधकों के माध्यम से रहस्यभावना की उत्तरोत्तर विकास होता गया । आदिकाल जैन परम्परा के अनुसार आदिनाथ ने हमें साधना-पद्धति का स्वरूप दिया। उसी के आधार पर उत्तरकालीन तीर्थकर और आचार्यों ने अपनी साधना की। इस सन्दर्भ में हमारे सामने दो प्रकार की साधनाएँ साहित्य में उपलब्ध होती हैं। पार्श्वनाथ परम्परा की रहस्यभावना भगवान पार्श्वनाथ जैन परम्परा के २३वें तीर्थकर कहे जाते हैं। वे भगवान महावीर से, जिन्हें पालिसाहित्य में निगण्ठनाथपुत्त के नाम से स्मरण किया गया है, लगभग २५० वर्ष पूर्व अवतरित हुए थे। त्रिपिटक में उनके साधनात्मक रहस्यवाद को चातुर्याम संवर के नाम से अभिहित किया गया है। ये चार संवर-अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह हैं । उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थों में भी इनका विवरण मिलता है। पार्श्वनाथ के इन व्रतों में से चतुर्थ व्रत में ब्रह्मचर्य व्रत अन्तर्भूत था। पार्श्वनाथ के परिनिर्वाण के बाद इन व्रतों के आचरण में शैथिल्य आया और फलतः समाज ब्रह्मचर्य व्रत से पतित होने लगा। पार्श्वनाथ की इस परम्परा को जैन परम्परा में 'पार्श्वस्थ' अथवा 'पासत्थ' कहा गया है। निगंठनाथपुत्त परम्परा की रहस्यसाधना निगंठनाथपुत्त अथवा महावीर के आने पर इस आचार शैथिल्य को परखा गया। उसे दूर करने के लिए महावीर ने अपरिग्रह का विभाजन कर निम्नांकित पंचव्रतों को स्वीकार किया-१. अहिंसा २. सत्य, ३. अचौर्य ४. ब्रह्मचर्य और ५. अपरिग्रह । महावीर के इन पंचव्रतों का उल्लेख जैन आगम साहित्य में तो आता ही है पर उनकी साधना के जो उल्लेख पालि-साहित्य में मिलते हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।' १. विशेष देखिए---डा० भागचन्द्र जैन भास्कर का ग्रन्थ 'जैनिज्म इन बुद्धिस्ट लिटरेचर'-तृतीय अध्याय-जैन ईथिक्स. tion International Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ महावीर की रहस्यवादी परम्परा अपने मूलरूप में लगभग प्रथम सदी तक चलती रही । उसमें कुछ विकास अवश्य हुआ, पर वह बहुत अधिक नहीं । यहाँ तक आते-आते आत्मा के तीन स्वरूप हो गये - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । साधक बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के माध्यम से परमात्मपद को प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में आत्मा और परमात्मा में एकाकारता हो जाती है कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थखण्ड इस दृष्टि से कुन्दकुन्दाचार्य निःसन्देह प्रथम रहस्यवादी कवि कहे जा सकते हैं। उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार आदि ग्रन्थों में इसका सुन्दर विश्लेषण किया है । मध्यकाल तिपयारो सो अप्पा परमंतरबाहिरो हु देहीणं । तत्थ पर झाइन्न, अंतोवारण एहि बहिरष्णा ॥ कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उनके ही पदचिह्नों पर आचार्य उमास्वामि, समन्तभद्र सिद्धसेन दिवाकर, मुनि कार्तिकेय, अकलंक, विद्यानन्दि, अनन्तवीर्य, प्रभाचंद्र, मुनि योगीन्दु आदि आचार्यों ने रहस्यवाद का अपनी सामयिक परिस्थितियों के अनुसार विश्लेषण किया। यह दार्शनिक युग था । उमास्वामि ने इसका सूत्रपात किया था और माणि क्यनंदि ने उसे चरम विकास पर पहुँचाया था। इस बीच जैन रहस्यवाद दार्शनिक सीना में बद्ध हो गया । इसे हम जैन दार्शनिक रहस्यवाद भी कह सकते हैं। दार्शनिक सिद्धान्तों के अन्य विकास के साथ एक उल्लेखनीय विकास यह था कि आदिकाल में जिस आत्मिक प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष कहा गया था और इन्द्रियप्रत्यक्ष को परोक्ष कहा गया था, उस पर इस काल में प्रश्न- प्रतिप्रश्न खड़े हुए। उन्हें सुलझाने की दृष्टि से प्रत्यक्ष के दो भेद किये गये -- व्यावहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष । यहाँ निश्चयनय और व्यवहारनय की दृष्टि से विश्लेषण किया गया। साधना के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुआ। उत्तरकाल -- इस युग में मुनि योगीन्दु का भी योगदान उल्लेखनीय है। इनका समय यद्यपि विवादास्पद है फिर भी हम लगभग ८वीं, हवीं शताब्दी तक निश्चित कर सकते हैं। इनके दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ निर्विवाद रूप से हमारे सामने हैं१. परमात्मप्रकाश और २. योगसार । इन ग्रन्थों में कवि ने निरंजन आदि कुछ ऐसे शब्द दिए हैं जो उत्तरकालीन रहस्यवाद के अभिव्यंजक कहे जा सकते हैं। इन ग्रन्थों में अनुभूति का प्राधान्य है । परमेश्वर से मन का मिलन होने पर पूजा आदि निरखंड हो जाती है, क्योंकि दोनों एकाकार होकर समरस हो जाते हैं मणु मिलिय उपरमेव रहें, परमेसर विमणस्स । पीहवि समरसि हवाहि पुज्ज चढावढं कस्स | " 1 उत्तरकाल में रहस्यवाद की आधारगत शाखा में समयानुकूल परिवर्तन हुआ । इस समय तक जैन संस्कृति पर वैदिक साधकों, राजाओं और मुसलमानों आक्रमणकारियों द्वारा घनघोर विपदाओं के बादल छा गये थे उनसे बचने के लिए आचार्य जिनसेन ने मनुस्मृति के आचार को जैनीकृत कर दिया, जिसका विरोध दसवीं शताब्दी के आचार्य सोमदेव ने अपने यशस्तिलक चम्पू में मन्द स्वर में किया। लगता है, तत्कालीन समाज उस व्यवस्था को स्वीकार कर चुकी थी। जैन रहस्यवाद की यह एक और सीढ़ी थी, जिसने उसे वैदिक संस्कृति के नजदीक ला दिया। जिनसेन और सोमदेव के बाद रहस्यवादी कवियों में मुनि रामसिंह का नाम विशेष रूप से लिया जा सकता २. मोक्ख 'पाहुड – कुन्दकुन्दाचार्य, ४. १. योगसार १२. . Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन रहस्यवाद २०५ - . - . -. - . -. -. है। उनका 'दोहापाहुड' रहस्यवाद की परिभाषाओं से भरा पड़ा है। शिव-शक्ति का मिलन होने पर अद्धतभाव की स्थिति आ जाती है और मोह-विलीन हो जाता है। सिव विणु सत्ति ण वावरइ सिउ पुणु सत्ति विहीणु । दो हि मि जाणहि सयलु-जगु वुज्झइ मोह विलीणु ॥५५॥' मुनि रामसिंह के बाद रहस्णत्मक प्रवृत्तियों का कुछ और विकास होता गया। इस विकास का मूल कारण भक्ति का उद्रेक था। इस भक्ति का चरम उत्कर्ष महाकवि बनारसीदास जैसे हिन्दी जैन कवियों में देखा जा सकता हैनाटक समयसार, मोह-विवेक-युद्ध, बनारसीविलास आदि ग्रन्थों में उन्होंने भक्ति-प्रेम और श्रद्धा के जिस समन्वित रूप को प्रस्तुत किया है वह देखते ही बनता है। सुमति को पत्नी और चेतन को पति बनाकर जिस आध्यात्मिक-विरह को उकेरा है, वह स्पृहणीय है । आत्मारूपी पत्नी और परमात्मारूपी पति के वियोग का भी वर्णन अत्यन्त मार्मिक बन पड़ा है। अन्त में आत्मा को उसका पति उसके घट (अन्तरात्मा) में ही मिल जाता है। इस एकत्व की अनुभूति को महाकवि बनारसीदास ने इस प्रकार वणित किया है पिय मोरे घट मैं पिय माहिं । जल तरंग ज्यों दुविधा नाहिं ।। पिय भी करता मैं करतूति । पिय ज्ञानी में ज्ञान विभूति ।। पिय सुख सागर मैं सुख सींव । पिय सुख मंदिर मैं शिव-नींव । पिय ब्रह्मा मैं सरस्वति नाम । पिय माधव मो कमला नाम ।। पिय शंकर मैं देवि भवानि । पिय जिनवर मैं केवलवानि ॥२ ब्रह्म साक्षात्कार रहस्यवादात्मक प्रवृत्तियों में अन्यतम है। जैन साधना में परमात्मा को ब्रह्म कह दिया है। बनारसीदास ने तादात्म्य अनुभूति के सन्दर्भ में अपने भावों को निम्न प्रकार से व्यक्त किया है बालम तुहं तन चितवन गागरि फूटि । अंचरा गो फहराय सरम गे फुटि, बालम ॥१॥ पिय सुधि पावत वन में पेसिउ पेलि, झाड़त राज डगरिया भयउ अकेलि, बालम ॥२॥३ रहस्यभावनात्मक इन प्रवृत्तियों में भावनात्मक और साधनात्मक दोनों प्रकार के रहस्यवाद उपलब्ध होते हैं। मोह-राग-द्वेष आदि को दूर करने के लिए सद्गुरु और सत्संग की आवश्यकता तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की समन्वित साधना की अभिव्यक्ति हिन्दी जैन रहस्यवादी कवियों को लेखनी से बड़ी ही सुन्दर, सरल और सरस भाषा में प्रस्फुटित हुई है। इस दृष्टि से सकलकीर्ति का आराधना प्रतिबोधसार, जिनदास का चेतनगीत, जगतराम का आगमविलास, भवानीदास का चेतनसुमतिसज्झाय, भगवतीदास का योगीरासा, रूपचन्द का परमाथंगीत, द्यानतराय का द्यानतविलास, आनन्दवन का आनन्दवन बहोत्तरी, भूधरदास का भूधरविलास आदि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं। जैन रहस्यभावना इन परम्पराओं में उलझती-सुलझती आधुनिककाल तक वाद की स्थिति में पहुँच गयी। फिर भी स्वरूप और विश्लेषण करने के उपरान्त यह प्रतीत होता है कि विशुद्ध साधनों पर आधारित साध्य की प्राप्ति के लिए जैन साधक परामानवतावादी बन जाता है और आत्मदर्शन के माध्यम से चरमतत्त्व को प्राप्त करता है। इस प्राप्ति में उसकी आदान शक्ति निमित कारणों का आश्रय पाकर बलवती हो जाती है। उसका स्वयं का पुरुषार्थ इसमें कारणभूत होता है, ईश्वर-कृपा नहीं । यही जैन रहस्यवाद है। १. योगसार, ५५. २. बनारसी विलास, अध्यात्मगीत, १६. ३. वही, पृ० २२८. Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to o too to o जैन दर्शन और ईश्वर की परिकल्पना डॉ० महावीर सरन जैन [स्नातकोत्तर हिन्दी व भाषा विज्ञान विभाग, जबलपुर विश्वविद्यालय, जबलपुर (म०प्र०)] इस विशाल पृथ्वी पर जब कोई लघु मानव सृष्टि विधान, जीवों की उत्पत्ति तथा उनके भाग्य का निर्माता आदि विषयों पर विचार करने के लिए उद्यत होता है तथा सृष्टि के विविध जीवों में सुख-दुःख की विषमताएँ पाता है तो जगत के निर्माता, पालक एवं संहारक किसी अदृश्य एवं परम शक्ति के रूप में ईश्वर की कल्पना करके, उसी को जीवों की उत्पत्ति एवं उनके भाग्य विधान का कारण मानकर सन्तोष कर लेता है। इसी भावना से अभिभूत हो वह इस प्रकार की विचारधारा अभिव्यक्त करता है कि जीवों का भाग्य ईश्वर के ही अधीन है, वही विश्व-नियंता है, वही उन्हें उत्पन्न करता है, संरक्षण देता है तथा उनके भाग्य का निर्धारण करता है। इन विषयों पर गहराई से विचार करने पर अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं । क्या ईश्वर ही मनुष्य के भाग्य का निर्माता है ? क्या वही उसका भाग्यविधाता है ? यदि कोई मनुष्य सत्कर्म न करे तो भी क्या वह उसको अनुग्रह से अच्छा फल दे सकता है ? मनुष्य के जितने कर्म हैं वे सबके सब क्या पूर्वनिर्धारित है? उसके इस जीवन के कर्मों का उसकी भावी नियति से क्या किसी प्रकार कोई सम्बन्ध नहीं है ? मनुष्य ईश्वराधीन होकर ही क्या सब कर्म करता है या उसकी अपनी स्वतन्त्र कतृत्व शक्ति भी है जिसके कारण वह अपनी निजी चेतना शक्ति के कारण कर्मों के प्रवाह को बदल सकता है ? यदि ईश्वर ही भाग्य निर्माता होता तब तो वह मनुष्य को बिना कर्म के ही स्वेच्छा से फल प्रदान कर देता । यदि ईश्वर यह कार्य कर सकता होता तो मनुष्य के पुरुषार्थ, धर्म, आचरण, त्याग एवं तपस्यामूलक जीवन व्यवहार की सार्थकता ही समाप्त हो जाती। यदि जीव ईश्वराधीन ही होकर कर्म करता होता तो इस संसार में दुःख एवं पीड़ा का अभाव होता। हम देखते हैं कि इस संसार में मनुष्य अनेक कष्टों को भोगता है । यदि ईश्वर या परमात्मा को ही निर्माता, नियंता एवं भाग्य विधाता माना जावे तो इसके अर्थ होते हैं कि ईश्वर इतना पर पीड़ाशील है कि वह ऐसे कर्म कराता है जिससे अधिकांश जीवों को दुःख प्राप्त होता है । निश्चय ही कोई भी परपीड़ाशील स्वरूप की कल्पना नहीं करना चाहेगा। इस स्थिति में जीव में कर्मों को करने माननी पड़ती है। व्यक्ति ईश्वर की की स्वातन्त्र्य शक्ति यह जिज्ञासा शेष रह जाती है कि कर्मों को सम्पादित करने की शक्ति या पुरुषार्थ की स्वीकृति मानने के अनन्तर क्या परमात्मा कर्मों के फल का विभाजन एक न्यायाधीश के रूप में करता है अथवा कर्मानुसार फल प्राप्ति होती है। दूसरे शब्दों में फलोद्भोग में परमात्मा का अवलम्बन अंगीकार करना आवश्यक है अथवा नहीं ? तार्किक दृष्टि से यदि विचार करें तो ईश्वर को नियामक एवं पाप-पुण्य का फल देने वाला मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। कारण कार्य के सिद्धान्त के आधार पर विश्व की समस्त घटनाओं की तार्किक व्याख्या करना सम्भव है । यदि ऐसा न होता तो प्रकृति के नियमों की कोई भी वैज्ञानिक शोध सम्भव न हो पाती । . Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और ईश्वर की परिकल्पना २०७ यह तर्क दिया जा सकता है कि इश्वर ने ही प्रकृति के नियमों की अवधारणा की है। इन्हीं के कारण जीव सासांरिक कार्य-प्रपंच करता है। इसका उत्तर यह है कि यदि ईश्वर के द्वारा ही प्रकृति के नियमों की अवधारणा हुई होती तो उसमें जागतिक कार्य-प्रपंचों में परिवर्तन करने की भी शक्ति होती । हम देख चुके हैं कि यह सत्य नहीं है। इसका कारण यह है कि यदि ऐसा होता तो परमकरुण ईश्वर के द्वारा निर्धारित संसार के जीवों के जीवन में किंचित् भी दुःख, अशान्ति, क्लेश नहीं होता। यदि हम ईश्वर की कल्पना प्रशान्त, परिपूर्ण, राग-द्वेषरहित, मोहविहीन, वीतरागी, आनन्दपरिपूर्ण रूप से करते हैं तो भी उसे फल में हस्तक्षेप करने वाला नहीं माना जा सकता। उस स्थिति में वह राग, द्वेष तथा मोह आदि दुर्बलताओं से पराभूत हो जावेगा । यदि जीव स्वेच्छानुसार एवं सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में स्वतन्त्र है, उसमें परमात्मा के सहयोग की कोई आवश्यकता नहीं है तथा वह अपने ही कर्मों का परिणाम भोगता है, फल प्रदाता भी दूसरा कोई नहीं है तो क्या उनकी उत्पत्ति एवं विनाश के हेतु रूप में किसी परम शक्ति की कल्पना करना आवश्यक है ? इसी प्रकार क्या सृष्टि-विधान के लिए भी किसी परमशक्ति की कल्पना आवश्यक है ? यदि नहीं तो फिर परमात्मा या ईश्वर की परिकल्पना की क्या सार्थकता है ? कर्तावादी सम्प्रदाय पदार्थ का तथा उसके परिणमन का कर्ता (उत्पत्तिकर्ता, पालनकर्ता तथा विनाशकर्ता) ईश्वर को मानते हैं। इस विचारधारा के दार्शनिकों ने ईश्वर की परिकल्पना सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की परम शक्ति के रूप में की है जो विश्व का कर्ता तथा नियामक है तथा समस्त प्राणियों के भाग्य का विधाता है। इसके विपरीत चार्वाक, निरीश्वर सांख्य, मीमांसक, बौद्ध एवं जैन इत्यादि दार्शनिक परमात्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते हैं। वैशेषिक दर्शन भी मूलतः ईश्वरवादी नहीं है। भारतीय दर्शनों में नास्तिक दर्शन तो ईश्वर की सता में विश्वास नहीं करते, शेष षड्दर्शनों में प्राचीनतम दर्शन सांख्य हैं । इसका परवर्ती दार्शनिकों पर प्रभाव पड़ा है। इस दृष्टि से सांख्य दर्शन के ईश्वरवाद की मीमांसा आवश्यक है। सांख्य दर्शन में दो प्रमेय माने गये हैं (१) पुरुष, (२) प्रकृति ।' पुरुष चेतन है, साक्षी है, केवल है, मध्यस्थ है, द्रष्टा है और अकर्ता है । प्रकृति जड़ है, क्रियाशील है और महत् से लेकर धरणि पर्यन्त सम्पूर्ण तत्त्वों की जन्मदात्री है, त्रिगुणात्मिका है, सृष्टि की उत्पादिका है, अज एवं अनादि है तथा शाश्वत एवं अविनाशी है ।२ ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिकाओं में ईश्वर, परमात्मा, भगवान या परमेश्वर की कोई कल्पना नहीं की गयी है। कपिल द्वारा प्रणीत सांख्य सूत्रों में, ईश्वरासिद्धः (ईश्वर की अशिद्धि होने से) सूत्र उपस्थापित करके ईश्वर के विषय में अनेक तर्कों को प्रस्तुत किया गया है। यहाँ प्रमुख तर्कों की मीमांसा की जावेगी। १. कुसुमवच्चमणि' सूत्र के आधार पर स्थापना की गयी है कि जिस प्रकार शुद्ध स्फटिकमणि में लाल फूल का प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार असंग, निर्विकार, अकर्ता पुरुष के सम्पर्क में प्रकृति के साथ-साथ रहने से उसमें उस अकर्ता पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है। इससे जीवात्माओं के अदृष्ट कर्म संस्कार फलोन्मुखी हो जाते हैं तथा सृष्टि प्रवृत्त होती है। यह स्थापना ठीक नहीं है । इसके अनुसार चेतन जीवात्माओं को पहले प्रकृति में लीन रहने की कल्पना करनी पड़ेगी तथा उन्हें प्रकृति से उत्पन्न मानने पर जड़ को चेतन का कारण मानना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त यदि अदृष्ट कर्म संस्कार फल प्रदान करते हैं तो फिर परमात्मा के सहकार की क्या आवश्यकता है ? २. अकार्यत्वेपितद्योगः पारवश्यात् सूत्र के आधार पर स्थापना की गई है कि प्रकृति कारण रूप है, कार्य नहीं है। अनन्त, विभु जीवात्मा पुरुषों १. सांख्य तत्व कौमुदी, कारिका १८, १६. २. वही, कारिका, ११, १२, १४. ३. सांख्य सूत्र ३५, प्रकाश २ । ४. सांख्य सूत्र ५५, प्रकाश ३। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-....................................... के अदृष्ट कर्म संस्कार सहित सर्व संस्कार प्रकृति में लीन रहता है। चूंकि प्रकृति जड़ है अतएव सृष्टि के लिए उसमें पुरुष के योग की आवश्यकता होती है, यह तर्क भी संगत नहीं है । हाइड्रोजन के दो एवं आक्सीजन के एक परमाणु के संयोग से जल बन जाता है । इसमें परमात्मा के सहकार की अनिवार्यता दृष्टिगत नहीं होती। यदि सर्व चेतन पुरुषों का सर्वातीत पुरुषोत्तम में लीन होकर सृष्टि के समय उत्पन्न होना माना जाये तो बीजांकुर न्याय से सर्वातीत पुरुषोत्तम सहित समस्त जीवात्माओं की उत्पति नाश की दोषापत्ति करती है। ३. एक स्थापना यह है कि परमात्मा सर्ववित् एवं सर्वकर्ता है और वह प्रकृति से अयस्कान्वत् (चुम्बक सदृश्य) सृष्टि करता है। वह प्रेरक मात्र है। यदि इस स्थापना को माना जाये तो परमात्मा को असंग, निर्गुण, निर्लिप्त, निरीह कैसे माना जा सकता है ? जिस प्रकार सेना की जय एवं पराजय का आरोप राजा पर किया जाता है उसी प्रकार प्रकृति के क्रियाकलापों का मिथ्या आरोप परमात्मा पर किया जाता है । तत्त्वतः परमात्मा कर्ता नहीं है प्रकृति ही दर्पणवत् उसके प्रतिबिम्ब को प्राप्त करके सृष्टि विधान में प्रवृत्त होती है । सृष्टि विधान में प्रकृति की प्रवृत्ति तर्कसंगत है किन्तु पुरुषाध्यास की सिद्धि के लिए पुरुष प्रतिबिम्ब की कल्पना व्यर्थ प्रतीत होती है। अलिप्त कर्ता की शक्ति से मायारूप प्रकृति का शक्तिमान बनकर जगत की सृष्टि करना संगत नहीं है । युद्ध में राजा सेना सहित स्वयं लड़ता है अथवा युद्ध एवं विजय के लिए समस्त उद्यम करता है। इस स्थिति में राजा को अकर्ता नहीं कहा जा सकता। चेतन, सूक्ष्म, निर्विकल्प, निर्विकार, निराकार का अचेतन, स्थूल, आशाविकल्पों से व्याप्त, सविकार एवं साकार प्रकृति जैसी पूर्ण विपरीत प्रकृति का संयोग सम्भव नहीं है । जीवात्मा का प्रकृति से सम्बन्ध बन्धन के कारण है किन्तु क्या परमात्मा जैसी परिकल्पना को भी बन्धनग्रस्त माना जा सकता है जिससे उसका अशान्त एवं जड़ स्वभावी प्रकृति से सम्बन्ध किया जा सके । निष्काम परमात्मा में स ष्टि की इच्छा क्यों ? पूर्ण से अपूर्ण की उत्पत्ति कैसी ? आनन्द स्वरूप में निरानन्द की सृष्टि कैसी ? जिसकी सभी इच्छायें पूर्ण हैं, जो आप्तकाम है उसमें सृष्टि-रचना की इच्छा कैसी? इस प्रकार ईश्वरोपपादित सृष्टि की अनुप्रसन्नता सिद्ध होती है। कर्त्तावादी दार्शनिक ने विश्व स्रष्टा की परिकल्पना इस सादृश्य पर की है कि जिस प्रकार कुम्हार घड़ा बनाता है उसी प्रकार ईश्वर संसार का निर्माण करता है। बिना बनाने वाले के घड़ा नहीं बन सकता । सम्पूर्ण विश्व का भी इसी प्रकार किसी ने निर्माण किया है । यह सादृश्य ठीक नहीं है । यदि हम इस तर्क के आधार पर चलते हैं, कि प्रत्येक वस्तु, पदार्थ या द्रव्य का कोई न कोई निर्माता होना जरूरी है तो फिर प्रश्न उपस्थित होता है कि इस जगत के निर्माता परमात्मा का भी कोई निर्माता होगा और इस प्रकार यह चक्र चलता जायेगा । अन्तत: इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता । कुम्हार भी घड़े को स्वयं नहीं बनाता। वह मिट्टी आदि पदार्थों को सम्मिलित कर उन्हें एक विशेष रूप प्रदान कर देता है। यदि ब्रह्म से सृष्टि विधान इस आधार पर माना जाता है कि ब्रह्म अपने में से जगत के आकार बनकर आप ही क्रीड़ा करता है तब पृथ्वी आदि जड़ के अनुरूप ब्रह्म को भी जड़ मानना पड़ेगा अथवा ब्रह्म को चेतन मानने पर पृथ्वी आदि को चेतन मानना पड़ेगा। यदि ब्रह्म ने सृष्टि विधान किया है तो इसका अर्थ यह है कि सृष्टि विधान के पूर्व केवल ब्रह्म का अस्तित्व मानना पड़ेगा। इसी आधार पर शून्यवादी कहते हैं कि सृष्टि के पूर्व शून्य था, अन्त में शून्य होगा, वर्तमान पदार्थ का अभाव होकर शून्य हो जावेगा तथा शंकर वेदांती ब्रह्म को विश्व के जन्म, स्थिति और संहार का कारण मानते १. सांख्य सूत्र, ५६, ५७, प्रकाश ३ । २. वही, ५८, प्रकाश ३ । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और ईश्वर की परिकल्पना २०६ . -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. हुए भी' जगत को स्वप्न एवं मायार चित नगर के समान पूर्णतया मिथ्या एवं असत्य मानते हैं। क्या सृष्टि विधान का कारण परमात्मा ही है ? क्या सृष्टि की आदि में जगत न था, केवल ब्रह्म था तथा इसका अस्तित्व क्या शून्य हो जावेगा? आदि के सम्बन्ध में विचार करते समय प्रश्न उपस्थित होते हैं कि सृष्टि की सत्ता सत्य है या मिथ्या है, नित्य है या अनित्य है ? जड़ है या चेतन है ? यदि परमात्मा से सृष्टि विधान माना जाता है तो परमात्मा की चेतन रूप परिकल्पना के अनुसार पृथ्वी आदि को भी चेतन मानना पड़ेगा अथवा पृथ्वी आदि के अनुरूप परम त्मा को जड़ मानना पड़ेगा । सत्य स्वरूप ब्रह्म से जगत की उत्पत्ति मानने पर ब्रह्म का कार्य असत्य कैसे हो सकता है ? यदि जगत की सत्ता सत्य है तो उसका अभाव कैसा? जगत को स्वप्न एवं मायारचित गन्धर्वनगर के समान पूर्णतया मिथ्या एवं असत्य मानना क्या संगत है? क्या जगत को माया के विवर्तरूप में स्वीकार कर रज्जु में सर्प अथवा सीप में रजत की भाँति कल्पित माना जा सकता है ? कल्पना गुण है। गुण तथा द्रध्य की पृथकता नहीं हो सकती । स्वप्न बिना देखे या सुने नहीं आता । सत्य पदार्थों के साक्षात् सम्बन्ध से वासनारूप ज्ञान आत्मा में स्थित होता है। स्वप्न में उन्हीं का प्रत्यक्षण होता है। स्वप्न और सुषुप्ति में बाह्य पदार्थों का अज्ञान मात्र होता है, अभाव नहीं। इस कारण जगत को अनित्य भी नहीं माना जा सकता । जब कल्पना का कर्ता नित्य है तो उसकी कल्पना भी नित्य होनी चाहिए अन्यथा वह भी अनित्य हुआ । जैसे सुषुप्ति में बाह्य पदार्थों के ज्ञान के अभाव में भी बाह्य पदार्थ विद्यमान रहते हैं वैसे ही प्रलय में भी जगत के बाह्य रूप के ज्ञान के अभाव में भी द्रव्य वर्तमान रहते हैं। कोयला को जितना चाहे जलावे, वह राख बन जाता है, उसका बाह्य रूप नष्ट हो जाता है किन्तु कोयला में जो द्रव्य तत्त्व है वह सर्वथा नष्ट कभी नहीं हो सकता। विश्व जिन जीवों (चेतनाओं) एवं पुद्गल (पदार्थों) का समुच्चय है वे तत्त्वतः अविनाशी एवं आन्तरिक है। इस कारण जगत को मिथ्या स्वप्नवत् एवं शून्य नहीं माना जा सकता । किसी भी नवीन पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती। किसी भी प्रयोग से नये जीव अथवा नए परमाणु की उत्पत्ति नहीं हो सकती। पदार्थ में अपनी अवस्थाओं का रूपान्तर होता है। इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक मूल तत्त्व की अपनी मूल प्रकृति है। कार्य-कारण के नियम के आधार पर प्रत्येक मूल तत्त्व अपने गुणानुसार बाह्य स्थितियों में प्रतित्रियाएँ करता है। इस कारण जगत मिथ्या नहीं है। संसार के पदार्थ अविनाशी हैं इस कारण विश्व को स्वप्नवत् नहीं माना जा सकता। ब्रह्माण्ड के उपादान या तत्त्व अनन्त, आन्तरिक एवं अविनाशी होने के कारण अनिर्मित है। शून्य से किसी वस्तु का निर्माण नहीं होता। शून्य से जगत मानने पर जगत का अस्तित्व स्थापित नहीं किया जा सकता। जो वस्तु है उसका अभाव कभी नहीं है। इस प्रकार जगत सत्य है तथा उसका शून्य से सद्भाव सम्भव नहीं है। इस प्रकार जगत को अनादि-अनन्त मानना तर्कसंगत है। विज्ञान का भी यह सिद्धान्त है कि पदार्थ अविनाशी है। वह ऐसे तत्त्वों का समाहार है जिनका एक निश्चित सीमा के आगे विश्लेषण नहीं किया जा सकता । अब प्रश्न शेष रह जाता है कि क्या परमात्मा या ईश्वर को समस्त जीवों के अंशी रूप से स्वीकार कर जीवों को परमात्मा के अंश रूप में स्वीकार किया जा सकता है ? आत्मावादी दार्शनिक आत्मा को अविनाशी मानते हैं। श्रीमद्भगवत्गीता में भी इसी प्रकार की विचारणा का प्रतिपादन हुआ है । यह जीवात्मा न कभी उत्पन्न होता है, न कभी मरता है, न कभी उत्पन्न होकर अभाव को प्राप्त होता है, अपितु यह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, पुरातन है, और शरीर का नाश होने पर भी नष्ट नहीं होता। इस जीवात्मा को अविनाशी नित्य, अज और अव्यय समझना चाहिए। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों का त्याग करके नवीन वस्त्रों को धारण कर लेता है, वैसे ही यह जीवात्मा पुराने शरीरों को छोड़कर नवीन शरीरों को ग्रहण करता रहता है । इसे न तो शस्त्र काट सकते हैं. न अग्नि जला सकती है, न जल भिगो सकता है और न वायु सुखा सकती १. तैत्तिरीयोपनिषद३।१, ३१६ और ब्रह्मसूत्र १।११२ पर शांकर भाष्य । २. (क) ब्रह्मसूत्र २।१।१४, २।२।२६ (ख) विवेक चूड़ामणि १४०, १४२ (ग) वेदांतसार, पृ० ८ । Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड' है । यह अच्छेद्य, अदाह्य एवं अशोध्य होने के कारण नित्य, सर्वगत, स्थिर, अचल एवं सनातन है ।" "इस दृष्टि से किसी को आत्मा का कर्त्ता स्वीकार नहीं कर सकते। यदि आत्मा अविनाशी है तो उसके निर्माण या उत्पत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती । इसका कारण यह है कि यह सम्भव नहीं कि कोई वस्तु निर्मित हो किन्तु उसका विनाश न हो। इस कारण जीव ही कर्त्ता तथा भोक्ता है। कर्मानुसार अनेक रूप धारण करता रहता है।" जैन दर्शन की भांति चार्वाक निरीश्वर सांख्य, मीमांसक एवं बौद्ध इत्यादि भी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। न्याय एवं वैलेषिक दर्शन मूलतः ईश्वरवादी प्रतीत नहीं होते। वैशेषिक सूत्रों में ईश्वर का कहीं उल्लेख नहीं है । न्याय सूत्रों में कथंचित् है । इन दर्शनों में परमाणु को ही सबसे सूक्ष्म और नित्य प्राकृतिक मूलतत्त्व माना गया है। सृष्टि की उत्पत्ति परमाणुवाद सिद्धान्त के आधार पर मानी गयी है। दो परमाणुओं के योग से द्वयणुक, तीन द्वणुकों के योग से व्यणुक, चार त्र्यणुकों से चतुरणुक और चतुरणुकों के योग से अन्य स्थूल पदार्थों की सृष्टि मानी गयी है । जीवात्मा को अणु, चेतन, विभु तथा नित्य आदि कहा गया है । इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में परमाणु को मूल तत्त्व मानने के कारण ईश्वर या परमात्मा शक्ति को स्वीकार नहीं किया गया । न्याय ईश्वरवाद अत्यन्त क्षीणप्राय या भाष्यकारों ने ही ईश्वरवाद की स्थापना पर विशेष बल दिया। दो भागों में विभाजित कर दिया गया, जीवात्मा एवं परमात्मा । में सूत्रकाल में आत्मा को ही ज्ञानाधिकरणमात्मा । स द्विविधः जीवात्मा परमात्मा चेति । तत्रेश्वरः सर्वज्ञः परमात्मा एक एव सुख दुःखादि रहितः जीवात्मा प्रति शरीरं भिन्नोविभुर्नित्यश्च । इस दृष्टि से आत्मा ही केन्द्र बिन्दु है जिस पर आगे चलकर परमात्मा का भव्य प्रासाद निर्मित किया गया। । आत्मा को ही ब्रह्म रूप में स्वीकार करने की विचारधारा वैदिक एवं उपनिषद् युग में भी थी 'प्रज्ञाने ब्रह्म,' 'अहं ब्रह्मास्मि,’ ‘तत्त्वमसि' 'अयमात्मा ब्रह्म' जैसे सूत्र वाक्य इसके प्रमाण हैं । ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञानस्वरूप है । यही लक्षण आत्मा का है । मैं ब्रह्म हूँ, तू ब्रह्म ही है, मेरी आत्मा ही ब्रह्म है, आदि वाक्यों में आत्मा एवं ब्रह्म पर्याय रूप में प्रयुक्त है। पतंजलि ने ईश्वर पर बल न देते हुए आत्मस्वरूप में अवस्थान को ही परम लक्ष्य, योग या कवल्य माना है । जैन दर्शन भी पुरुष विशेष (ईश्वर) में विश्वास नहीं करता। प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा बनने की शक्ति का उद्घोष करता है । द्रव्य की दृष्टि से आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है । दोनों का अन्तर अवस्था अर्थात् पर्यायगत है। जीवात्मा शरीर एवं कर्मों की उपाधि से युक्त होकर संसारी हो जाता है। मुक्तजीव त्रिकाल शुद्ध नित्य निरंजन परमात्मा है । जिस प्रकार यह आत्मा राग-द्वेष द्वारा कर्मो का उपार्जन करती है और समय पर उन कर्मों का विपाक फल भोगती है, उसी प्रकार यह आत्मा सर्वकर्मों का नाश कर सिद्ध लोक में सिद्ध पद को प्राप्त करती है । ७ १. गीता २।२०- २४ एवं २।५१ पर शांकर भाष्य । २. ( क ) ब्रह्मसूत्र २।३।३३-३६ २. तर्कभाषा, पृ० १०८ । ४. वही, पृ० १०१ ५. वही, पृ० १५२-१५१. ६. तर्क संग्रह, खण्ड एक । ७. (ख) श्वेताश्वतरोपनिषद्, ४६ । जहा रागेण कडाणं कम्माणं, पावगो फलविवागो । जय परिहरुमा सिद्ध सिद्धनुर्वेति ॥ पपातिक सूत्र ३५. ( ग ) ईशोपनिषद् ३ । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और ईश्वर की परिकल्पना २११ आत्मा देव-देवालय में नहीं है, पाषाण की प्रतिमा में भी नहीं है, लेप तथा मूर्ति में भी नहीं है । वह देव अक्षय अविनाशी है, कर्म फल से रहित है, ज्ञान से पूर्ण है, समभाव में स्थित है।' जैसा कर्मरहित, केवलज्ञानादि से युक्त प्रकट कार्य समयसार सिद्ध परमात्मा परम आराध्य देव मुक्ति में रहता है वैसा ही सब लक्षणों से युक्त शक्ति रूप कारण परमात्मा इस देह में रहता है। तू सिद्ध भगवान् और अपने में भेद मत कर । हे पुरुष ! तू अपने आप का निग्रह कर, स्वयं के निग्रह से ही तू समस्त दुःखों से मुक्त हो जायेगा। हे जीव ! देह का जरा-मरण देखकर भय मत कर । जो अजर अमर परम ब्रह्म है उसे ही अपना मान । जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव का लक्ष्य परब्रह्मत्व अर्थात् शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त करना है । जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्मा है। इस प्रकार मैं ही स्वयं अपना उपास्य हूँ । अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है। जो व्यवहारदृष्टि से देह रूपी देवालय में निवास करता है और परमार्थत: देह से भिन्न है वह मेरा उपास्यदेव अनादि अनन्त है । वह केवलज्ञान स्वभावी है। नि:संदेह वही अचलित स्वरूप कारण परमात्मा है। कारण-परमात्मास्वरूप इस परमतत्त्व की उपासना करने से यह कर्मोपाधियुक्त जीवात्मा ही परमात्मा हो जाता है जिस प्रकार बांस का वृक्ष अपने को अपने से रगड़ कर स्वयं अग्नि रूप हो जाता है। उस परमात्मा को जब केवलज्ञान उत्पन्न होता है, योग निरोध के द्वारा समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं, जब वह लोक शिखर पर सिद्धालय में जा बसता है तब उसमें ही वह कारण-परमात्मा व्यक्त हो जाता है। जैन दर्शन की सृष्टि व्यवस्था के सम्बन्ध में ईश्वर की कर्तृत्व शक्ति का निषेध तथा सर्वव्यापक एक परमात्मा के स्थान पर प्रत्येक जीव का मुक्त हो जाने पर कार्य-परमात्मा बन जाने सम्बन्धी विचारधारा का प्रभाव परवर्ती दार्शनिक सम्प्रदायों पर पड़ा है। वस्तुतः स्वभाव एवं कर्म इन दो शक्तियों के अतिरिक्त शरीर, इन्द्रिय एवं जगत के कारण रूप में ईश्वर नामक किसी अन्य सत्ता की कल्पना व्यर्थ है। १. देउ ण देवले णवि सिलए णवि लिप्पई णवि चित्ति । अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिय समचिति ।।--परमात्मप्रकाश, १२३. २. हउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ वभुं परु देह हं मं करि पेउ ॥-परमात्मप्रकाश, २६. ३. पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमोक्खसि ।-आचारागं ३।३।११६. ४. देह हो पिक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि । जो अजरामरु बंभु परुसो आपाण मुरोहि ।।-पाहुड दोहा १।३३. (मुनि रामसिंह) ५. यः परमात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः । अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।।-समाधिशतक, ३१ (पूज्यपाद) ६. देह देवलि जो वसई देउ अणाइ अणंतु । केवलणाणफुरंततणु, सो परमप्पु णिभंतु ॥-परमात्मप्रकाश ११३३ (योगीन्दु देव) उपास्यमानमेवात्मा जायते परमोऽथवा । मथित्वात्मानमात्वमैव जायते ग्निर्यथा तरुः॥-समाधिशतक (पूज्यपाद) ८. ज्ञानं केवलसंज्ञ योगनिरोध: समग्रकर्महतिः । सिद्धिनिवासश्च यदा, परमात्मा स्यात्तदा व्यक्तः ।।-अध्यात्म सार २०१२४ (उपाध्याय यशोविजय) ६. तदनुकरण भुवनादौ निमित्त कारणत्वादीश्वरस्य न चैतद् सिद्ध्यः ।-आप्त परीक्षा ११५१ । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ---. -. -.-.-.-.-.-. -. -.-.-. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-...-. -.-.-.-.-.-.-. आत्म : स्वरूप-विवेचन श्री राजेन्द्र मुनि, साहित्य-रत्न [श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री के शिष्य आज विज्ञान समस्त दृश्यमान और भौतिक अस्तित्ववारी पदार्थों को दो वर्गों में विभक्त कर अध्ययन करता है-एक सजीव है और दूसरा वर्ग निर्जीव है । भारतीय चिन्तनधारा में भी अनादि काल से इसी प्रकार का वर्गीकरण रहा है.--चेतन और अचेतन । विज्ञान के सजीव और निर्जीव के लक्षणों का जो विवेचन किया गया है, उसका चेतन और अचेतन के साथ समीपता और सादृश्य का सम्बन्ध भी है, भारतीय दर्शनानुसार चेतन में ज्ञान, दर्शन, सुख, स्मृति, वीर्य आदि गुण पाये जाते हैं और अचेतन के गुण हैं- स्पर्श, रस, गन्ध वर्णादि । चेतन तत्त्व के रहस्य के उद्घाटन की प्रवृत्ति मनुष्य में अति आरम्भ से ही रही है। व्यक्ति सामान्यतः यह नहीं समझ पाता है कि जब वह 'मैं' शब्द का प्रयोग करता है तो यह 'मैं' किसका प्रतिनिधि है ? क्या मैं का अर्थ उच्चारणकर्ता के शरीर से है ? व्यक्ति इतना तो समझ सकता है कि यह शरीर “मैं” नहीं है, किन्तु फिर यह 'मैं' कौन है ? यह जिज्ञासा बनी ही रहती है। मानव की इस सहज जिज्ञासा प्रवृत्ति का उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है। इस सम्बन्ध में इतना कहा जा सकता है कि यह चेतन तत्त्व है, जो मैं का प्रतीक बनाकर अभिव्यक्त होता रहता है । यह विश्व भी अनेक अद्भुतताओं का अनुपम समुच्चय है । यह धरती, यह समुद्र, ये विविध ऋतुक्रम, पुष्प, पल्लव, फल, लता, द्रुमादि का यह वनस्पतिक वैभव यह सब क्या है ? किसने इन्हें रचा और कौन इसका संचालक है ? ऐसे-ऐसे अनेक रहस्यात्मक प्रश्न मानव-मन में घुमड़ते रहे हैं । इस वैविध्ययुक्त जगत् का मूलतत्त्व सचेतन है अथवा अचेतन ? सत् है अथवा असत् ? इन प्रश्नों पर चिन्तन-मनन होता रहा । वेद-उपनिषदादि के दृष्टिकोण को समझा जाने लगा और विभिन्न चिन्तन-धाराओं के विचारकों दार्शनिकों ने इस परिप्रेक्ष्य में नव-नवीन उद्भावनाएँ भी की। परिणामतः कतिपय दृष्टिकोणों ने चिन्तन-क्षेत्र में स्थान पाया। सचेतन का मूलतत्त्व आत्मा ही है, जागतिक पदार्थों में आत्मा का एक विशिष्ट स्थान है और उसकी अन्य पदार्थों से भिन्न विशेषता यह है कि आत्मा अमर है, अनश्वर है, नित्य है । आत्मा के सूक्ष्म अस्तित्व का अनुभव व्यक्ति स्वयं अपने भीतर ही किया करता है। उपनिषदों में इस आत्मतत्त्व का विवेचन-विश्लेषण प्राप्त होता है। जैन दर्शन भी इस दिशा में सक्रिय रहा है। जैन दर्शन ने उपनिषदों के आत्मा के स्वरूप का अध्ययन कर स्वचिन्तन के आधार पर उसे पृथक् स्वरूप में स्वीकारा है। उपनिषदों में उल्लिखित आत्मा के स्वरूप को सामान्यतः जैन दर्शन स्वीकृति देते हुए भी सुख-दुःख के दृष्टिकोण से असहमत है । उपनिषदों के अनुसार आत्मा निर्विकार है। सुख-दुःख की अनुभूति से वह परे है। यह तो शरीर है जो कभी सुखों का तो कभी दु:खों का अनुभव करता है । जैन दर्शन इससे भिन्न दृष्टिकोण रखता है। पंचाध्यायी के अनुसार जैन दर्शन के निष्कर्ष को इस प्रकार प्रस्तुत किया सकता है कि आत्मा का मूलगुण आनन्द है, किन्तु कर्म-संयोग के अनुरूप वह विकृत रूप में सुख-दुःखादि की अनुभूति करता है। एक और भी मौलिक अन्तर द्रष्टव्य है-उपनिषदों में आत्मा को परमात्मा का ही अंश स्वीकारा गया है। ब्रह्म का यह अंश अपने मूल से पृथक् होकर आत्मा रूप धारण Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म : स्वरूप-विवेचन २१३ । करता है और शरीर विनाश पर आत्मा का साक्षात्कार परमात्मा से होता है, परन्तु यह संयोग स्थायी नहीं होता है, यदि आत्मा ने मोक्ष प्राप्ति की योग्यता अजित नहीं की। ऐसी अवस्था में आत्मा अपने मूल (ब्रह्म) से पृथक् होकर पुनः देह धारण करती है, यह जन्म-मरण का चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि आत्मा परमात्मा के साथ स्थायी मिलन की पात्रता अजित न करले । तब उसे ब्रह्म से पुनः पृथक् नहीं होना पड़ता है और यही मोक्ष है। इस धारणा से भिन्न जैन दर्शन के अन्तर्गत आत्मा को ऐसी किसी परमसत्ता के अंश के रूप में नहीं माना गया है। आत्मा को स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी है। जैन दर्शन वस्तुतः ऐसी किसी ईश्वर की कल्पना तक नहीं करता जो जगत्कर्ता हो, आत्मा का मूल हो । यह दर्शन तो व्यक्ति और आत्मा की सत्ता को ही सर्वोच्च स्थान देता है। . इन कतिपय तात्त्विक और महत्त्वपूर्ण अन्तरों के होते हुए भी जैन दर्शन और उपनिषद् के आत्म-विषयक दृष्टिकोणों में समानताएँ भी कम दृष्टिगत नहीं होती। जैन दार्शनिक आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के उपनिषदीय निम्न स्वरूप को सर्वथा स्वीकार किया है कि आत्मा चेतन है जो न तो कभी जन्म लेती है और न ही कभी करती है। आत्मा अनादि और अनन्त है, अनश्वर है । जन्म-मरण रहित नित्य है, शाश्वत और पुरातन है। आत्मा किसी के किसी कार्य की परिणाम नहीं है। साथ ही वह अभाव रूप से भावरूप में स्वयं भी नहीं आयी है। आत्मा में कर्तृत्व शक्ति भी है और भोक्तृत्व शक्ति भी। आत्मा अशब्द-अस्पर्श-अरूप-अरस-नित्य और अगन्ध है। आत्मा महत्ता के तत्व से परे है और ध्रुव है । आत्म-तत्त्व की प्राप्ति से मनुष्य मृत्यु से छुटकारा प्राप्त कर सकता है । प्रश्न : आत्मा के अस्तित्व का? आत्मा होती है, आत्मा जैसी कोई वस्तु होती ही नहीं-ये दोनों ही विचार भारतीय चिन्तन-धाराओं में रहे हैं । प्रश्न है सत्यासत्य के विवेचन का। दोनों ही पक्ष अपने-अपने समर्थन में तर्कों का भी अभाव नहीं रखते, किन्तु वास्तविकता तो कोई एक पक्ष ही रख सकता है। अन्य पक्ष आधारहीन सिद्ध होना ही चाहिए। इन दो पक्षों में से कौन-सा वस्तुतः सत्य है ? भारतीय दर्शन की समस्त शाखा-प्रशाखाएँ आत्मतत्त्व के इर्द-गिर्द स्थित हैं, आत्मवादी और अनात्मवादी दोनों ही धाराओं में आत्मा का विस्तृत विवेचन है, चाहे वह स्वीकारात्मक हो या नकारात्मक स्वरूप का हो। आत्मा किसे कहा जाए-इस विषय में भी मत वैभिन्न्य है। कहीं इन्द्रिय को आत्मा कहा जाता है तो कहीं विवेकबुद्धि को और कहीं मन को, यहाँ तक कि कहीं-कहीं तो शरीर को ही आत्मा कह दिया गया है । इसके विपरीत कहीं इन सबसे स्वतन्त्र अस्तित्व में आत्मा के स्वरूप को स्वीकार किया गया है । ये तो वे पक्ष हैं जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकृति देते हैं, चाहे आत्मा को किसी भी स्वरूप में मानते हों किन्तु चार्वाक तो आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं मानता। ___ जब हम उन कारणों पर विचार करें कि आत्मा के अस्तित्व को नकारा क्यों जा रहा है तो हम उनके मूल में, आत्मा की इस आधारभूत विशेषता को पाते हैं, कि वह भौतिक रूप नहीं रखती। उसका सूक्ष्म और अमूर्त रूप है । वह शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धादि की अनुभूति का विषय नहीं। परिणामतः उसका प्रत्यक्ष नही होता, उसका कोई रंग रूप आकार-आकृति नहीं। अतः उसे नकारा जाता है। उसके अस्तित्व में अमान्यता का भाव होता है। प्रमाण द्वारा उसके होने को सिद्ध नहीं किया जा सकता। अन्य प्रत्यक्ष अस्तित्वधारी पदार्थों की भाँति आत्मा Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oto o to o to २१४ 10 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड अपनी उपस्थिति का आभास नहीं कराती । इस आधार पर चार्वाक जैसे दार्शनिक आत्मा की सत्ता को यदि स्वीकृति नहीं देते, तो उस विचार में एक स्वाभाविकता की प्रतीति होती है, अद्वैत चिन्तन में भी किसी समय अनात्मवादी दृष्टिकोण रहा । यहाँ ध्यातव्य बिन्दु यही है कि चार्वाकादि चिन्तकों ने जो अस्वीकृति व्यक्त की है, वह आत्मा के भौतिक स्वरूप के प्रति ही है, प्रमाण के अभाव में शब्द स्पर्श-रूप-रस- गन्ध की अनुपस्थिति में केवल भौतिक अस्तित्व या मूर्त्तं स्वरूप तो असिद्ध होता है । आत्मवादी चिन्तक भी आत्मा के ऐसे स्वरूप की स्वीकृति का आग्रह कहाँ रखते हैं? वे तो अमृत रूप को ही स्वीकार करते हैं। प्रमाण- पुष्टता के अभाव में अमूर्त आत्मा के अस्तित्व की अस्वीकृति औचित्यपूर्ण नहीं कही जा सकती। चाकि यदि यह कहकर वि एतावानेव लोकोऽयं यावनिन्द्रियगोचरः जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, केवल उसी का होना स्वीकार करते हैं तो वस्तुतः आत्मा के अपूर्ण स्वरूप के होने में इससे कोई सन्देह नहीं उत्पन्न होना चाहिए, क्योंकि आत्मा की स्वीकृति तो अमूर्त, अदृश्य, अभौतिक रूप में ही की जाती है। - पंचाध्यायी में स्वसंवेदन के आधार पर आत्मा के अस्तित्व का औचित्य प्रतिपादित किया गया है, प्राणी अपने हित-अहित के परिप्रेक्ष्य में अन्य सजीव अथवा निर्जीव पदार्थों के विषय में अनुभव करते हैं, वे अमुक परिस्थिति को सुखद अथवा दुःखद अनुभव करते हैं, अन्यों के साथ राग-द्वेष का भी अनुभव करते हैं, यह अनुभव चेतन आत्मा क ही धर्म है | आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार फिर कैसे किया जा सकता है ? आग्रह रखता है हम यह चिन्तन करते हैं कि आत्मा है या नहीं ? जीव है या नहीं ? अनात्मवादी चिन्तक भी इस विषय में चिन्तन करते हैं । यह मनन कौन कर रहा है ? क्या शरीर की गतिविधियों में यह मनन आ जाता है ? नहीं । यह स्वयं आत्मा का ही गुणधर्म है। वह सशय भी स्वयं आत्मा में ही उत्पन्न होता है। जैसा कि पूर्व में संकेत किया गया है कुछ चिन्तक शरीर को ही आत्मा मानते हैं, इन्द्रियासी किसी भी वस्तु को वे स्वीकार नहीं करते। आत्मा को भी नहीं । उनका प्रश्न रहा करता है कि यदि इन्द्रियों से परे और शरीर से पृथक आत्मा का अस्तित्व होता है तो फिर मृत्यूपरान्त आत्मा का क्या होता ? किन्तु प्रमुखता तो इस बिन्दु की है कि यह गहन सोच-विचार शरीर के माध्यम से नहीं हो रहा है, शरीर के भीतर कोई चेतन तत्त्व है, जो अनुभव करता है, विवेक का और वही चिन्तन-मनन करता है, वहीं चेतनतस्य आत्मा है। तस्वार्थसूत्र में उल्लेख मिलता है कि चेतना और उपयोग आत्मा का ही स्वरूप है, शरीर का नहीं; संशय (चाहे वह आत्मा के अस्तित्व के विषय में ही क्यों न हो ) आत्मा का ही विषय है, शरीर का नहीं । यह प्रत्यक्ष प्रमाण ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने में पर्याप्त है । यदि शरीर ही आत्मा है तो जब कोई आहत व्यक्ति कहता है कि मेरा हाथ टूट गया है, तो इसका अर्थ यह है कि "मैं” का यह हाथ है, यह "मैं" क्या है ? कौन है ? वस्तुतः यह शरीर से भिन्न कोई तत्त्व है और मैं का प्रयोगकर्ता और कोई नहीं आत्मा ही है। यदि शरीर से भिन्न यह आत्म-तत्व नहीं होता तो शरीर यह कैसे कहता कि 'मेरा हाथ' जो "मैं" है वह मैं कहने वाले के शरीर से पृथक है । भिन्न है - अवश्य ही है, किसी की मृत्यु पर शोक करते हुए कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति ( क ख ग घ ) बड़ा अच्छा था, भला था। शव तो अभी वहीं रखा है । इस शरीर के लिए जो विद्यमान है 'था' का प्रयोग कैसे हो सकता है ? "था" जिसके लिए प्रयुक्त हुआ वह कोई ऐसा तत्त्व है जो कभी था किन्तु अब नहीं है । यह तत्त्व आत्मा है । क ख ग कहकर जिसकी प्रशंसा की जाती है, वह उस आत्मा की ही प्रशंसा है । आत्मा के लिए जब "था" और शरीर (शव) के लिए जब " है" का प्रयोग होता है तो इन दोनों की पृथक्ता तो स्वयं ही सिद्ध हो जाती है। शरीर आत्मा नहीं है । मनुष्य में ज्ञान है । इसी ज्ञान पर आधारित भाँति-भाँति के सोच-विचार, चिन्तन-मनन, हिताहित का भेद और विभिन्न प्रकार के अनुभव होते हैं। यह ज्ञान आत्मा का गुण है, शरीर का नहीं । शरीर से यदि ये गतिविधियाँ व्यक्त होती है तो इसका अर्थ है कि ये गुण हम में हैं और गुण है तो गुण का धारक भी अवश्य है अर्थात् आत्मा है। . Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म : स्वरूप-विवेचन २१५ लाल रंग से हमारा शरीर आवृत है, किन्तु लाल रंग का आधार वस्त्र भी हमारे शरीर पर है। लाल रंग और वस्त्र को पृथक-पृथक नहीं देखा जा सकता, उसी प्रकार उपर्युक्त गुणों की विद्यमानता स्वयं ही आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध कर देती है, यह धारणा सर्वथा मिथ्या होगी कि यह ज्ञान शरीर का गुण है। ज्ञान स्वयं अमूर्त है। अत: वह मूर्त देह का भाग या गुण नहीं हो सकता। उसका सम्बन्ध तो अमूर्त आत्मा के साथ है। इस प्रकार यह मानना ही होगा कि आत्मा का अस्तित्व असन्दिग्ध है। आत्मा का स्वरूप क्या है ? यह प्रश्न क्योंकि अमुर्त आत्मा के लिए है-इसका उत्तर सहज ही नहीं दिया जा सकता। जो अमूर्त है उसके लक्षणादि का परिचय सुगम हो भी नहीं सकता । जैन चिन्तन इस दिशा में अत्यन्त सक्रिय रहा है और इस विलोड़न के परिणामस्वरूप यह जटिलता कम हो गई है । जैन दर्शन ने आत्मा की स्वरूपगत व्याख्या को एक वैज्ञानिक और व्यवस्थित रूप प्रदान कर दिया है। जैन दृष्टि से आत्मा का प्रधान गुण चेतनता है। इस चैतन्य के कारण बोध या ज्ञान का व्यापार सम्भव हो पाता है। तत्त्वार्थ सूत्र में आत्मा की इसी स्वरूपगत विशेषता का परिचय उपयोग शब्द द्वारा दिया गया है-उपयोगो लक्षणम् । स्पष्ट है कि इस सचेतनता के कारण ही आत्मा में उपयोग का लक्षण होता है । अचेतना के कारण जड़ पदार्थ उपयोगहीन रहते हैं। यहाँ उपयोग शब्द के शास्त्रीय और तकनीकी अर्थ को ही ग्रहण करना होगा। साधारण शब्दार्थ यहाँ अप्रासंगिक होगा। प्रस्तुत प्रसंग में उपयोग का आशय चेतना से ही है। इस चेतना के प्रधान धर्म के साथ आत्मा के कतिपय अन्य साधारण धर्म भी हैं। वे हैं-उत्पाद, व्यय, धौव्य, सत्त्व, प्रमेयत्व आदि । जहाँ उपयोग का आशय चैतन्य से ग्रहण किया गया है, वहाँ उसका एक मोटा अर्थ है। यदि गहराई से देखा जाये तो चैतन्य के अन्तर्गत उपयोग के साथ-साथ सुख और वीर्य तत्त्व भी आ जाते हैं । उपयोग स्वयं भी दो भेदों में विभक्त होता है, ज्ञान और दर्शन । इस दृष्टि से आत्मा अनन्त चतुष्टय का स्वरूप रखती है-स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः। अनन्त चतुष्टय के अन्तर्गत इस प्रकार अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य को स्थान दिया गया है । 'उपयोगो लक्षणम्' कहकर जहाँ उपयोग को ही आत्मा का स्वरूप बताया गया है, वहाँ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन तो उपयोग के अन्तर्गत आ ही जाते हैं, शेष अनन्तवीर्य और अनन्तसुख भी इसी में अन्तनिहित हो जाते हैं। अनन्त चतुष्टय के सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि यह अपने समग्ररूप में संसारी आत्मा में नहीं होता। इसे मुक्त आत्माओं की स्वरूपगत विशेषता ही माना जाना चाहिए। केवली अनन्त चतुष्टययुक्त आत्मा का स्वामी होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म का जब क्षय हो जाता है, तो प्रादुर्भाव होता है-अनन्त चतुष्टय का। तात्पर्य यह है कि चार घातिक कर्मों के क्षय का परिणाम चेतनता के रूप में उदित होता है, जिसके दो भेद हैं-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । इन दोनों में समानता तो यह है कि ये दोनों ही चेतना के रूप है और अन्तर यह है कि ज्ञान साकार एवं दर्शन निराकार है। इसी प्रकार ज्ञान सविकल्प माना जाता है और दर्शन निर्विकल्प । निर्णयात्मक होने के कारण ज्ञान दर्शन से अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व रखता है और इसी आधार पर इसे प्रथम स्थान दिया जाता है । तदनन्तर दर्शन को और यों उत्पत्ति की दृष्टि से निधारण किया जाये तो दर्शन को ज्ञान की अपेक्षा पहले ही स्थान मिलना चाहिए, उपयोग का आदि सोपान ही दर्शन है, इस प्रथम चरण दर्शन से केवल सत्ता का भान होता है और इसके पश्चात् जब विशेषग्राही रूप में उपयोग आता है, तब वह ज्ञान का रूप धारण करता है। उपयोग और चेतना का क्रमिक स्वरूप तो यही है, किन्तु महत्त्व की दृष्टि से ज्ञान को अग्रगण्य स्वीकारा जाता है। ज्ञानोपयोग ज्ञानोपयोग के भेद पृष्ठ २१६ की तालिका में द्रष्टव्य हैं Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .................................................................. ज्ञान स्वभावज्ञान विभावज्ञान १ केवलज्ञान सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञान २ मतिज्ञान ३ श्रुतज्ञान ४ अवधिज्ञान ५ मन:पर्यवज्ञान ६ मत्यज्ञान ७ श्रुताज्ञान ८ विभंगज्ञान उपर्युक्त तालिका में ज्ञानोपयोग के भेदोपभेदों का निदर्शन हो जाता है । जैन दर्शन में ज्ञान के कुल ८ भेद स्वीकार किये गये हैं। प्रकाराधारित विभाजन की दृष्टि से विचार किया जाए तो ज्ञान मूलत: दो भेदों में विभक्त होता है-स्वभावज्ञान और विभावज्ञान। स्वभावज्ञान का कोई भेद नहीं होता और विभवज्ञान पुन: दो उपभेदों में विभक्त हो जाता है। इनमें से एक सम्यक् और दूसरा मिथ्या ज्ञान कहलाता है। सम्यक्ज्ञान ४ प्रकार का माना जाता है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मनःपर्यवज्ञान और मिथ्याज्ञान के पुन: ३ भेद हो जाते हैं-मत्यज्ञान श्रु ताज्ञान तथा विभंगज्ञान । स्वभावशा" स्वभावज्ञान-स्वभावज्ञान स्वत: पूर्ण और आत्मा का स्वानुभूत ज्ञान है, इसके लिए माध्यमस्वरूप इन्द्रियों तथा मन की आवश्यकता नहीं रहती । इसकी अर्जना आत्मा प्रत्यक्षतः स्वयं ही कर लेती है और यह उसका साक्षात् ज्ञान होता है । यही केवलज्ञान भी कहलाता है। मंतिज्ञान-विभावज्ञान के अन्तर्गत सम्यग्ज्ञान का यह पहला प्रकार है। विभावज्ञान में स्वभावज्ञान के विपरीत इन्द्रियों की सहायता अपेक्षित रहती है। अतः यह असहाय न होकर सहाय-ज्ञान है । मतिज्ञान की उत्पत्ति इन्द्रिय अथवा मन से होती है और इस ज्ञान का क्षेत्र जीव-अजीव के स्वरूप से सम्बन्ध रखता है। श्रुतज्ञान-इसे आगम अथवा शब्दज्ञान भी कहा जाता है। श्रवण अथवा स्मरण इस ज्ञान का आधार होता है । आप्तवचन के पढ़ने, सुनने से ही श्रुतज्ञान की उपलब्धि होती है अथवा पूर्व में पढ़े, सुने गए आप्त बचनों के स्मरण से श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है। अवधिज्ञान-अवधिज्ञान भी विभावज्ञान के अन्तर्गत सम्यग्ज्ञान का ही एक प्रकार है । रूपी अथवा मूर्त पदार्थों का (जो भौतिक अस्तित्वधारी हैं) ज्ञान अवधिशन कहलाता है। स्पष्ट है कि यह ज्ञान रूपी पदार्थों तक ही सीमित है और अरूंपी पदार्थों के साथ परिचय स्थापित कराने की समर्थता इसमें नहीं हुआ करती। मनःपर्यवज्ञान-मन की विभिन्न पर्यायों का प्रत्यक्ष ज्ञान ही मन:पर्यवज्ञान होता है। यह भी सम्यग्ज्ञान की श्रेणी में परिगणित विभावज्ञान है। मत्यज्ञान-विभावज्ञान की द्वितीय श्रेणी मिथ्याज्ञान के अन्तर्गत प्रथम भेद मत्यज्ञान (मति अज्ञान) है। यह मतिविषयक मिथ्याज्ञान है। यह ऐसा मिथ्याज्ञान है जिसका सम्बन्ध जीव-अजीव से होता है और जिसकी उत्पत्ति इन्द्रिय अथवा मन से होती है। श्रुताज्ञान-श्रु ताज्ञान भी मिथ्याज्ञान है । श्रुतविषयक मिथ्याज्ञान ही श्रुताज्ञान (श्रुत अज्ञान) होता है। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म : स्वरूप-विवेचन २१७ . विभंगज्ञान-विभावज्ञानान्तर्गत मिथ्याज्ञान की श्रेणी का अन्तिम प्रकार है-विभंगज्ञान । विभंगज्ञान अवधिविषयक मिथ्याज्ञान होता है। विभाव के इन दो भेदों-सम्यग्ज्ञान एवं मिथ्याज्ञान के सम्बन्ध में यह भी एक उल्लेखनीय तथ्य है कि सम्यक्त्व अथवा मिथ्यात्व उस वस्तु या पदार्थ का नहीं होता जिसके विषय में ज्ञान प्राप्त किया जा रहा है, अपितु यह मिथ्यात्व अथवा सम्यक्त्व तो स्वयं ज्ञान प्राप्ति के प्रयत्नकर्ता की विशेषता हुआ करती है। अर्थात् इस भेद का आधार विषय नहीं अपितु ज्ञाता होता है । यदि ज्ञाता मिथ्या श्रद्धा रखता है तो उसके द्वारा लब्ध ज्ञान मिथ्या होगा। इसी प्रकार सम्यक् श्रद्धा वाला ज्ञाता जिस ज्ञान की अर्जना करता है वह सम्यग्ज्ञान की कोटि में आ जाता है । ज्ञाता की श्रद्धा के आधार पर ही ज्ञान के सम्यक् अथवा मिथ्या होने का निर्णय किया जाता है, पदार्थ के आधार पर नहीं। इसी आधार पर केवलज्ञान या पूर्णज्ञान (स्वभावज्ञान) के अतिरिक्त जितने अपूर्ण अथवा विभावज्ञान है, उनकी दो कोटियाँ की गयी हैं-मिथ्या एवं सम्यक् । जब ज्ञाता की आत्मा कर्मबद्ध होती है, तो आवरणयुक्त होने के कारण वह शुद्ध नहीं होती और केवलज्ञान अथवा पूर्णज्ञान की प्राप्ति का सामर्थ्य उसमें नहीं होता । ऐसी आत्मा (कर्मबद्ध) यदि मिथ्या श्रद्धावाली है तो उसे ३ प्रकार के मिथ्याज्ञानों का लाभ हो सकता है मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान; और जब उसकी आत्मा सम्यक् श्रद्धा से पूर्ण हो जाती है तो ये ही तीन मिथ्याज्ञान तीन सम्यकज्ञान हो जाते हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान। तत्त्वार्थसूत्र में भी ज्ञान के इन्हीं भेदों (८) को स्वीकार किया गया है, किन्तु वर्गीकरण तनिक भिन्नाधार लिए हुए है। तत्त्वार्थसूत्र में प्रस्तुत वर्गीकरण निम्नानुसार है ज्ञान परोक्षज्ञान प्रत्यक्षज्ञान विपरीतज्ञान मत श्रुति अवधि मनःपर्यव केवल मतिअज्ञान श्रुतअज्ञान विभंग अज्ञान दर्शनोपयोग दर्शनोपयोग के कुल ४ भेद किये जाते हैं । दर्शन के वर्गीकरण को निम्नलिखित तालिका द्वारा निर्देशित किया सकता है दर्शन विभावदर्शन स्वभावदर्शन १ (केवलदर्शन) २ चक्षुदर्शन ३ अचक्षुदर्शन ४ अवधिदर्शन प्रस्तुत तालिका से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञानोपयोग की भाँति दर्शनोपयोग भी आरम्भ में दो वर्गों में . विभक्त हो जाता है-स्वभावदर्शन तथा विभावदर्शन । स्वभावदर्शन पूर्ण दर्शन है और इसका कोई उपभेद नहीं है। विभावदर्शन के ३ उपभेद हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन तथा अवधिदर्शन । इस प्रकार दर्शनोपयोग के कुल ४ भेद हो जाते हैं। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड स्वभावदर्शन-जिस प्रकार ज्ञान आत्मा का सहज और स्वाभाविक गुण होता है, उसी प्रकार दर्शन भो आत्मा का स्वाभाविक उपयोग है। स्वभावदर्शन पूर्ण और प्रत्यक्ष होता है इस कारण इसे केवलदर्शन भी कहा जाता है। चक्षुदर्शन-यह नेत्रों के माध्यम से होने वाला ऐसा दर्शन है जो निर्विकल्प भी है और निराकार भी। स्पष्ट है कि इन्द्रिय सहायता इस दर्शन में विद्यमान रहती है, इसमें नेत्रों की प्रधानता होती है। अतः इसे चक्षुदर्शन कहा गया है। ____ अचक्षुदर्शन-विभावदर्शन के अन्तर्गत इस द्वितीय उपभेद में नेत्रों के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों की सहायता अपेक्षित रहती है। इन इतर इन्द्रियों और मन से यह दर्शन सम्पन्न होता है। अवधिदर्शन-अवधिदर्शन सीधा आत्मा से होने वाला दर्शन है और यह रूपी पदार्थों का होता है। आत्मा के उपयोगेतर गुण आचार्य देवसेन ने आत्मा के स्वरूप को गहनता के साथ विवेचित एवं विश्लेषित किया है। आलाप पद्धति में आचार्य देवसेन आत्मा के लक्षणों को निम्नानुसार प्रदर्शित किया ज्ञान दर्शन सुख वीर्य चेतनत्व अमूर्तत्व उपर्युक्त प्रथम दो लक्षण आत्मा के उपयोग के अन्तर्गत आ जाते हैं। इसी रूप में इन दो लक्षणों को गिनाते हुए आचार्य नेमिचन्द्र आत्मा के लक्षणों को इस प्रकार प्रस्पुत करते हैंउपयोगमयी अमूत्तिक कर्ता स्वदेहपरिमाण भोक्ता ऊर्ध्वगमन संसारी आत्मा और उपयोग (अर्थात् ज्ञान एवं दर्शन) का अविच्छिन्न सम्बन्ध तो सभी विचारकों द्वारा स्वीकृत हुआ है, यहाँ तक वणित किया गया है कि जहाँ उपयोग है। वहाँ जीवत्व है, आत्मा चाहे संसारी हो अथवा सिद्ध, उपयोग का लक्षण तो उससे प्रत्येक परिस्थिति में सम्बद्ध रहा ही करता है । यदि यह सत्य है कि जहाँ जीव है वहाँ निश्चित रूप से उपयोग है तो यह भी एक तथ्य है कि उपयोग (ज्ञान) भी जीव के साथ ही रहता है, अन्यत्र कहीं नहीं । सामान्यतः आत्मा का यही प्रधान स्वरूप है। उपयोगमय ऐसे जीवों के दो भेद किये गये हैं-मुक्त और संसारी । ___ मुक्त जीव का लक्षण स्वभावोपयोगी है । आचार्य नेमिचन्द्र ने आत्मा के मुक्तरूप को ही (सिद्ध) कहा है। निर्जरा द्वारा कर्ममल का क्षय करके जीव सिद्ध गति प्राप्त करता है। इस कारण सर्वथा शुद्ध रूप में आत्मा का अस्तित्व सिद्धों में पाया जाता है, यही मुक्त आत्मा है। इसके वितरीत संसारी आत्मा में कर्ममल लिप्त रहता है । वादिदेव सुरि ने संसारी आत्मा के स्वरूप विवेचन में कथन किया है ___ "चैतन्य स्वरूप: परिणामी कर्ता साक्षात् भोक्ता स्वदेहारिमाण: प्रतिक्षेत्रम् भिन्नः पौद्गलिकदृष्ट्वांश्चायम् ।" अर्थात्-आत्मा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सिद्ध है, वह चैतन्यस्वरूप है, परिणामी है, कर्ता है, साक्षात् भोक्ता है, स्वदेहपरिमाण है—प्रत्येक शरीर में भिन्न है, पौद्गलिक कर्मों से युक्त है । संसारी आत्मा के उपर्युक्त स्वरूप विवेचन में वस्तुत: आत्मा के स्वरूपगत वे सारे लक्षण समाविष्ट हो जाते हैं, जिन्हें जैन आध्यात्मिक मान्यता प्राप्त है । जैन दर्शनान्तर्गत आत्मा के स्वरूप को हृदयंगम करने के लिए यह विवेचन सर्वथा सहायक सिद्ध होता है। प्रत्यक्ष प्रमाणों से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध है-इसका तात्पर्य यह है शरीर आदि से पृथक् और स्वतन्त्र अस्तित्व आत्मा का सहज लक्षण है । चार्वाक आदि कतिपय भौतिकतावादी विचारकों के मतानुसार आत्मा का स्वतन्त्र सिद्ध Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXX अस्तित्व अमान्य है किन्तु जैनदर्शन उसी मान्यता का खण्डन करता है और भौतिक देह से भिन्न अपने मौलिक स्वरूप आत्मा का होना मानता है। इस विषय में विस्तृत विवेचन इस अध्याय के पूर्वाद्ध में किया जा चुका है, चर्चा इस बिन्दु पर भी की जा चुकी है कि आत्मा चैतन्यस्वरूप है । वस्तुतः जैन दर्शन द्वारा प्रस्तुत आत्मागत इस लक्षण का भी विशिष्ट स्थान है। दार्शनिकों का एक वर्ग ऐसा भी है, जो आत्मा के लक्षण के रूप में चैतन्य को नहीं मानता। चैतन्य का होना तो ये दार्शनिक भी स्वीकार करते हैं किन्तु इसे वे आगन्तुक गुण मानते हैं, ऐसा गुण मानते हैं जो बाह्य है और बाहरी तत्त्व की भांति ही आत्मा के साथ रहता है। जैसे घट एक पृथक वस्तु है और अग्नि पृथक् है, घट जब तपाया जाता है तो वह गर्म होकर लाल रंग का हो जाता है; यह ताप घट के साथ संयुक्त तो हो जाता है किन्तु अग्नि एक बाहरी वस्तु ही है, उसका संयोग अवश्य ही घट के साथ हो गया है। वैशेषिक दर्शन के विचारक इसी प्रकार चैतन्य को आत्मा के साथ संयुक्त किन्तु बाह्य आगन्तुक और औपाधिक गुण मानते हैं । इसके विपरीत जैन चिन्तन चैतन्य को आत्मा का सहज स्वरूप मानता है, बाह्य गुण नहीं मानता । यह चैतन्य ही तो वह गुण है जो आत्मा को अन्य जड़ पदार्थों से पृथक स्वरूप देता है । वैशेषिक दर्शन से भिन्न जैन दर्शन चैतन्य को आत्मा का स्वाभाविक और आवश्यक गुण मानता है । आत्मा चैतन्य स्वरूप है, यदि यह न स्वीकार किया जाय तो इसका अभिप्राय यह भी होगा कि आत्मा का अस्तित्व चैतन्य के अभाव में भी सम्भव है जैसे- अग्नि के संयोग से रहित ठण्डा घट भी तो होता ही है; किन्तु नहीं आत्मा के ऐसे स्वरूप की तो जैनाध्यात्म के अनुरूप कल्पना भी नहीं की जा सकती । X X X X X XX आत्म : स्वरूप- विवेचन जागरह ! णरा णिच्चं जागरमाणस्स वड्ढते बुद्धी । जो सुमति न सो सुवितो, जो जग्गति सो सपा सुहितो ॥ XX XXX मनुष्यो सदा जागते रहो, जागने वाले की बुद्धि सदा बढ़ती (उन्नतिशील ) रहती है। जो सोता है, वह सुखी नहीं होता; जागने वाला ही सदा सुखी होता है। निशीषभाष्य ५६०३ २१६ XX XXXXX XXXXX -0 0 . Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ जैन धर्म में कर्म सिद्धान्त साध्वीश्री जतनकुमारी ( युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) आस्तिक दर्शनों की मूल भित्ति आत्मा है । जो आत्मा को नहीं जानता है, वह लोक, कर्म और क्रिया को भी नहीं जान सकता है; और जो आत्मा को जानता है, वह लोक, कर्म और क्रिया को भी जानता है । क्रिया को स्वीकारने वाला कर्म को और कर्म को स्वीकारने वाला क्रिया को अवश्य स्वीकारता है । क्रिया की प्रतिक्रिया निश्चित है तब उसे अस्वीकारा भी नहीं जा सकता है, अपितु स्वीकार के लिए किसी न किसी शब्द को माध्यम बनाना होता है, चाहे उसे कुछ भी अभिधा दें। दो सहजात शिशु एक साथ पले-पुसे । एक गोद में फले-फूले । पढ़े-लिखे । समान अंकों में उत्तीर्ण हुए । कालेजीय-जीवन की परिसमाप्ति के बाद व्यवसाय के क्षेत्र में प्रविष्ट हुए । पिता ने कर्म कौशल की परीक्षा के लिए दोनों को तरक्की कर ली और जन-जन का विश्वासपात्र बन गया किन्तु उन्नति नहीं कर पाया । समान साधन-सामग्री दी । छोटे बेटे ने थोड़े ही दिनों में बेचारा बड़ा बेटा बहुत प्रयत्न करने पर भी व्यापार में राम नवमी के पुण्य पर्व पर पिता ने दोनों के बहीखाते देखे । छोटे बेटे के बहीखाते लाखों का मुनाफा लिए हैं और बड़े बेटे के लाखों का कर्ज । पिता विस्मित सा सोचने लगा-तुल्य साधन-सामग्री और तुल्य-पुरुषार्थ, फिर भी यह वैषम्य । इस वैषम्य का समाधान बहुत प्रयत्न के बाद इस आर्ष वाणी से मिला— जो तुल्ल साहमान फले विसेसो ण सो विवाहे करजण जो गोयमा ! घडोव्य हेजय सो कम्म ।" , - विशेषावश्यक भाष्य इस वैषम्य का मूलाधार कर्म है । यह कर्म ही पुरुषार्थ को सफल- विफल करता है लाता है। इसीलिए दो व्यक्तियों का वर्तमान में किया गया समान पुरुषार्थ भी, समान फल नहीं देता । जब व्यक्ति का वर्तमान पुरुषार्थ अतीत के पुरवा से निर्बल होता है, तब वह अतीत के स्वार्थको अन्या नहीं कर सकता और जब उसका वर्तमान पुरुषार्थ अतीत के पुरुषार्थ से प्रबल होता है, तब उसे अन्यथा भी किया जा सकता है । तथा कर्म में वैचित्र्य भी मनीषी मूर्धन्य भगवान् महावीर ने जीव- सिद्धान्त की तरह कर्म सिद्धान्त का विवेचन आवश्यक समझा इसी । लिए उन्होंने अपने आगम ग्रन्थों में आत्म-प्रवाद की भाँति कर्म-प्रवाद को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। एक-एक प्रश्न का गहराई के साथ विश्लेषण किया । . Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म में कर्म-सिद्धान्त २२१ आय दुर्बलिका पुष्यमित्र, अपने अन्तेवासी शिष्य विन्ध्य को कर्म-प्रवाद का बन्धाधिकार पढ़ा रहे थे उसमें बन्धन के विश्लेषण के साथ कर्म के दो रूपों का वर्णन किया गया। कोई कर्म गीली दीवार पर मिट्टी की भाँति आत्मा के साथ चिपक जाता है, एकरूप हो जाता है और कोई कर्म सूखी दीवार पर मिट्टी की भांति आत्मा का स्पर्श कर नीचे गिर जाता है। यह बात गोष्ठामाहिल ने भी सुनी । उसके मन में संशय हो गया कि आत्मा और कर्म का तादात्म्य होने से मुक्ति कैसे होगी? इस सन्देह में ही उसने अपना सम्यग्दर्शन खो दिया । यह था कर्म-सिद्धान्त को नहीं समझने का परिणाम । प्रस्तुत निबन्ध का विवेच्य विषय है-'कर्म-सिद्धान्त' । कर्म शब्द भारतीय दर्शन का बहु परिचित शब्द है फिर भी प्रत्येक दार्शनिक की व्याख्यात्म-शैली भिन्न-भिन्न रही है। किसी ने कर्म को क्रिया, प्रवृत्ति और वासना कहा तो किसी ने क्लेश और अदृष्ट कहकर अपनी लेखनी को विराम दिया। किन्तु जैन मनीषियों की लेखनी अविरल-गति से चलती रही इसीलिये उनकी उर्वर मेधा ने कर्म शब्द की व्याख्या में दार्शनिक रूप दिया और परिभाषा में सब दर्शनों से विलक्षण रूप दिया । परिभाषा यह दृश्य जगत् जड़-चेतन का संयुक्त रूप है। एक दूसरे से संचालित है। जीवात्मा को अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति में जड़ का सहारा लेना होता है और जड़ को अपनी अद्भुत क्षमता प्रदर्शन में जीव का । इसीलिए कर्म की परिभाषा यों की गई है "आत्मा-प्रवृत्त्याकृष्टास्तत्प्रायोग्य पुद्गलाः कर्म ।” जब तक जीव शुभ या अशुभ प्रवृत्ति में प्रवृत्त होता है, तब तक वह अपनी प्रवृत्ति से पुद्गलों का आकर्षण करता है। वे आकृष्ट पुद्गल आत्मा के परिपार्श्व में अपने विशिष्ट रूप और शक्ति का निर्माण करते हैं। उन कार्मण वर्गणाओं को कर्म संज्ञा दी गई है। वे कर्म पुद्गल, चतुःस्पर्शी एवं अनन्त-प्रदेशी होते हैं। जीव चेतन है। पुद्गल अचेतन है। इन दोनों में परस्पर सीधा सम्बन्ध नहीं। सम्बन्ध के लिए जीव को लेश्या का सहारा लेना होता है । लेश्या के सहारे पुद्गलों का आत्मा के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है। इसीलिए जब वह शुभ प्रवृत्ति में संलग्न रहता है, तब शुभ पुद्गल आत्मा से सम्बन्धित होते हैं, जो पुण्य कहलाते हैं और जब अशुभ-प्रवृत्ति में संलग्न रहता है, तब अशुभ पुद्गल आत्मा से सम्बन्धित होते हैं, जो पाप कहलाते हैं। जब ये पुण्यपाप विभक्त किये जाते हैं, तब इनके आठ विभाग बन जाते हैं, जिन्हें अष्ट कर्म कहा गया है १. ज्ञानावरण-इससे ज्ञान आवृत होता है, इसलिए यह पाप है। २. दर्शनावरण-इससे दर्शन आवृत होता है, इसलिये यह पाप है। ३. मोहनीय-इससे दृष्टि और चारित्र विकृत होते हैं, इसलिए यह पाप है। ४. अन्तराय-इससे आत्मा का वीर्य प्रतिहत होता है, इसलिए यह पाप है। ५. वेदनीय-यह सुख-दुःख की वेदना का हेतु है, इसीलिये पुण्य भी है पाप भी है। ६. नाम-यह शुभ-अशुभ अभिव्यक्ति का हेतु बनता है, इसलिए पुण्य भी है और पाप भी है। ७. गोत्र-यह उच्च-नीच संयोगों का निमित्त बनता है, इसलिए पुण्य भी है और पाप भी है। ८. आयुष्य-यह शुभ-अशुभ जीवन का हेतु बनता है, इसलिए पुण्य भी है, पाप भी है। जीव पुण्य पाप नहीं और पुद्गल भी पुण्य या पाप नहीं है। जीव और पुद्गलों का संयोग होने पर जो स्थिति बनती है, पुण्य या पाप है। - 0 . Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड कर्मों की मुख्य अवस्थाए जैन आगमों में स्थान-स्थान पर कर्मों की विविध अवस्थाओं का वर्णन है लेकिन अवस्थाओं की संख्या का क्रम भिन्न-भिन्न है । इस भिन्नत्व का कारण प्रतिपादन शैली में अपेक्षा दृष्टि है । इसीलिये विविध प्रसंगों में विविध रूप मिलते हैं । प्रस्तुत प्रसंग में दस अवस्थाओं का वर्णन किया जाता है- १. बन्ध— जीव के असंख्य प्रदेश हैं । उनमें मिथ्यात्व अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से कम्पन पैदा होता है । इस कम्पन के फलस्वरूप जिस क्षेत्र में आत्म- प्रदेश है, उस क्षेत्र में विद्यमान अनन्तानन्त कर्मयोग्य पुद्गल जीव के एक-एक प्रदेश के साथ चिपक जाते हैं। आत्म-प्रदेशों के साथ पुद्गलों का इस प्रकार चिपक जाना बन्ध है | यह आत्मा और कर्म के सम्बन्ध की पहली अवस्था है। इसके चार विभाग हैं- (अ) प्रदेश, (ब) प्रकृति, (स) स्थिति और (द) अनुभाग । (अ) प्रदेश बन्धग्रहण के समय कर्मपुद्गल अविभावित होते हैं और ग्रहण के पश्चात् वे आत्म-प्रदेशों के साथ एकीभूत हो जाते हैं । यह प्रदेश बन्ध ( एकीभाव की व्यवस्था ) है । (अ) प्रकृति बन्ध कर्म परमाणु कार्यभेद के अनुसार आठ वर्गों में बँट जाते हैं। यह प्रकृति बन्ध (स्वभाव व्यवस्था) है। कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि । - (स) स्थिति बन्ध - सत् असत् प्रवृत्तियों द्वारा गृहीत कर्म-पुद्गलों के कालमान का निर्धारण, यह स्थिति बन्ध (काल व्यवस्था ) है । (द) अनुभाग बन्ध - तीव्र या मन्द रस से बन्धे हुए कर्म पुद्गलों का विपाक निर्धारण, यह अनुभाग बन्ध (फल व्यवस्था) है। बन्ध के चारों प्रकार एक ही साथ होते हैं । कर्म की कर्म - पुद्गलों का अश्लेष या एकीभाव की दृष्टि से प्रदेश बन्ध सबसे काल मर्यादा और फलशक्ति का निर्माण हो जाता है । २. उद्वर्तना-कर्म-स्थिति का दीर्घीकरण और रस का तीव्रीकरण उद्वर्तना है । यह स्थिति एक नए पैसे के कर्जदार को हजारों रुपये का कर्जदार बनाने जैसी है। व्यवस्था के ये चारों प्रधान अंग हैं । आत्मा के साथ पहला है। इसके होते ही उनमें स्वभाव निर्माण, ३. अपवर्तना—-कर्म- स्थिति का अल्पीकरण और रस का मन्दीकरण अपवर्तना है । यह स्थिति हजारों के कर्जदार को एक नए पैसे से मुक्त बनाने जैसी है। इससे शम, दम, उपराम की सार्थकता सिद्ध होती है। अन्यथा भगवती सूत्र में कष्ट सहिष्णुता से पूर्वसंचित कर्मों के विलीनीकरण के लिए दिये गये "जाज्वल्यमान अग्नि में सूया तृण' और तपे हुए तवे पर जल-बिन्दु जैसे प्रतीकों की, कर्मों के साथ संगति नहीं बैठ सकती । उत्तराध्ययन का निम्नोक्त प्रसंग भी इसी ओर संकेत करता है— "भन्ते ! अनुप्रेक्षा से जीव क्या प्राप्त करता है ?" भगवान ने फरमाया "अनुप्रेक्षा से वह आयुष् कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गाढ बन्धन से बँधी हुई प्रकृतियों को शिथिल बन्धन वाली कर देता है, उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन कर देता है, उनके तीव्र अनुभव को मन्द १. से जहा नामए केइ पुरिसे सुक्कतण हत्थयं जाय तेयंसि पक्खिवेज्जा से नूणं गोयमा ! से सुक्के तण हत्थए - भ० श० ६, उ०१. २. से जहा नामए केइ पुरिसे तयंसि अयकवल्लंसि उदगबिन्दू जाव हंता विद्ध समागच्छइ --- एवामेव -भ० श० ६, उ० १. . Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म में कर्म-सिद्धान्त २२३ कर देता है, उनके बहु-प्रदेशों को अल्प-प्रदेशों में बदल देता है।"१ इस प्रकार कर्म की स्थिति एवं रस का परिवर्तन अपवर्तना से ही संभावित है। ४. सत्ता-कर्म बन्ध के बाद जितने समय तक उदय में नहीं आता, उस काल को अबाधा काल कहा जाता है। अबाधा काल एवं विद्यमानता का नाम सत्ता है। यह स्थिति शान्त सागर की सी है अथवा अरणि की लकड़ी में आग जैसी है। ५. उदय-बँधे हुए कर्म-पुद्गल जब अपना कार्य करने में समर्थ हो जाते हैं, तब उनके निषेक प्रगट होने लगते हैं । उन निधेकों का प्रगटीकरण ही उदय है। वह दो प्रकार का है-जिसके फल का अनुभव होता है, वह विपाकोदय और जिसका केवल आत्मप्रदेशों में ही अनुभव होता है वह प्रदेशोदय कहलाता है। गौतम ने पूछा-भगवन् ! किये हुए कर्म भोगे बिना नहीं छूटते, क्या यह सच है ? भगवान्-हाँ, गौतम! यह सच है । गौतम-कैसे ? भगवन् ! भगवान्-गौतम ! मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाये हैं--प्रदेश कर्म और अनुभाग कर्म । जो प्रदेश कर्म हैं, वे अवश्य ही भोगे जाते हैं । जो अनुभाग कर्म हैं, वे विपाक रूप में भोगे भी जाते हैं और नहीं भी भोगे जाते । प्रदेशोदय से आत्मा को सुख-दुःख की स्पष्ट अनुभूति नहीं होती और न ही सुख-दुःख का स्पष्ट संवेदन । क्लोरोफार्म चेतना से शून्य किये हुए शरीर के अवयवों को काट देने पर व्यक्ति को पीड़ा की अनुभूति नहीं होती वसे ही यह स्थिति है। विपाकोदय से आत्मा को सुख-दुःख की स्पष्ट अनुभूति एवं संवेदना होती है। यह स्थिति फूल-शूल के स्पर्श का स्पष्ट अनुभव लिए होती है। कर्मपरमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम होता है। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से प्रभावित होकर विपाक-प्रदर्शन में समर्थ हो, जीवात्मा के संस्कारों को विकृत करता है। उससे उनका फलोपभोग होता है दव्वं, खेत, कालो, भवो य, भावो य हेयवो पंच। हेउ समासेण उदयो, जाय इसव्वाण पगईणं ॥ -पं०सं उदाहरणार्थ--जैसे, एक व्यक्ति खटाई खाता है, तत्काल उसे आम्लपित की बीमारी हो जाती है, यह द्रव्यसम्बन्धी विपाक है । एक व्यक्ति छांह से धूप में जाता है, तत्काल उसके शरीर में उष्मा पैदा हो जाती है, यह क्षेत्रसम्बन्धी विपाक है । एक व्यक्ति सर्दी में छत पर सोता है, उसे बुखार हो जाता है, यह काल-सम्बन्धी विपाक है, इसी प्रकार भाव, भव सम्बन्धी विपाकोदय समझना चाहिए। कर्म का परिपाक, डाल पर पककर टूटने वाले और प्रयत्न से पकाये जाने वाले फल की तरह है । जो फल सहज गति से पकता है उसके परिपाक में अधिक समय लगता है और जो प्रयत्न से पकता है उसको कम । यद्यपि भगवान बुद्ध ने जैनों की तरह कर्म-सिद्धान्त की अवगति के लिए कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ का गुम्फन नहीं किया और न विशद-विश्लेषण । फिर भी त्रिपिटक तथा तत्सम्बन्धी व्याख्यात्मक ग्रन्थों से कर्म-चर्चा यत्र-तत्र बिखरी हुई मिलती है। विपाकोदय के विषय में भगवान बुद्ध का अभिमत उनके एक जीवन प्रसंग से समझिये १. अणुप्पेहाएणं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? --उ० अ० २६, सूत्र २२. Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. भगवान बुद्ध भिक्षा के लिए जा रहे थे, चलते-चलते पैर में कांटा चुभ गया और चुभने के साथ उनके मुंह से निकल पड़ा इत एकनवतेः कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः । तेन कर्म विपाकेन, पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ? ॥ आयुष्मन्तो ! आज से एकाणवे भव पहले एक व्यक्ति पर अक्रोश से वार किया था और उसे मार भी दिया था। उसके फलस्वरूप आज मेरे पैर में कांटा लगा है। वेद, पुराण, उपनिषद्, संहिता एवं स्मृति ग्रन्थों में भी कर्मोदय की सूचक अनेक घटनावलियों का उल्लेख मिलता है। महाभारत में उल्लिखित गान्धारी के सौ पुत्रों के वियोग की परिचर्चा भी कर्म-सिद्धान्त की स्वीकृति का पुष्ट प्रमाण है। जाति, लिग और रंग के भेद को लेकर होने वाले द्वन्द्व, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सीमा को लेकर होने वाला विवाद, नक्सल-पंथियों और समाजवादियों के बीच चलने वाला विद्रोह, स्पर्धा, ईर्ष्या और ज्वलन जैसी कुत्सित प्रवृत्तियाँ कर्म-विपाक को नहीं पहचानने का ही परिणाम है। पुण्योदय एवं पापोदय को समझने वाला व्यक्ति, कभी भी किसी भी स्थिति में ईर्ष्या, स्पर्धा और संघर्ष जैसी घृणित प्रवृत्तियाँ नहीं कर सकता, क्योंकि उसका विवेक जागृत है कर्म प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करइ, सो तस फल चाखा ।। (गोस्वामी तुलसीदास जी) ६. उदीरणा-कर्म स्थिति का निश्चित समय से पूर्व उदय में आना उदीरणा है। बँधे हुए कर्म दो प्रकार के होते हैं-(१) दलिक और (२) निकाचित । दलिक-कर्म मन्द अध्यवसाय एवं अल्पकषायजनित होते हैं इसीलिए वे खुन भरे वस्त्र की भाँति सुधोततर होते हैं। खून का दाग, सोड़ा, सर्फ और साबुन से तत्काल मिट सकता है इसी प्रकार दलिक कर्मों का दाग भी तप, जप के स्वल्प प्रयत्न से मिट सकता है। निकाचित-कर्म तीव्र अध्यवसाय एवं तीव्र कषायजनित होते हैं, इसलिए वे जंग लगे हुए वस्त्र की तरह दुधोततर होते हैं । जंग का दाग सोड़े और साबुन से नहीं मिट सकता है। इसी प्रकार निकाचित-कर्मों का दाग भी। निकाचित कर्मोदय की अपेक्षा जीव, कर्म के अधीन रहता है । किन्तु दलिक की अपेक्षा दोनों बातें हैंजहाँ जीव उसको अन्यथा करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करता, वहाँ वह उस कर्म के अधीन होता है और जहाँ जीव प्रबल पुरुषार्थ के साथ प्रयत्न करता है, वहाँ कर्म उनके अधीन होता है। उदयकाल से पूर्व कर्म को उदय में लाकर तोड़ डालना उसकी स्थिति एवं रस को मन्द कर देना, यह सब इसी स्थिति में हो सकता है। पातंजल भाष्य में अदृष्ट-जन्य वेदनीय कर्म की तीन गतियाँ बतलाई हैं उनमें भी कर्म बिना फल दिये ही प्रायश्चित आदि से नष्ट हो जाते हैं। इसमें भी जैनसम्मत उदीरणा तत्त्व की सिद्धि होती है। ७. संक्रमणा-सजातीय-कर्म प्रकृतियों का परस्पर में परिवर्तन संक्रमणा है । जीव जिस अध्यवसाय से कर्मप्रकृति का बन्धन करता है, उसकी तीव्रता के कारण, वह पूर्वबद्ध सजातीय-प्रकृति के दलिकों को बध्यमान-प्रकृति के दलिकों के साथ संक्रान्त कर देता है। तब अशुभ रूप में बंधे हुए कर्म शुभ रूप में और शुभ रूप में बँधे हुए कर्म अशुभ रूप में उदित होते हैं। कर्म के बन्ध और उदय में यह जो अन्तर माना है उसका कारण संक्रमण (वध्यमानकर्म में कर्मान्तर का प्रवेश) है। शुभकर्म शुभ फलदायक और अशुभकर्म अशुभ फलदायक होते हैं Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म में कर्म-सिद्धान्त २२५ .. ... .. .......-. -. -. -. -...-.-.-. -.-.-. -. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-. -. -. सुचिण्णा कम्मा, सुचिण्णा फला हवन्ति । दुचिण्णा कम्मा, दुचिण्णा फला हवन्ति ।। इस आगम-वाक्य की संक्रमणा के साथ संगति नहीं बैठ सकती। इसकी संगति के लिए निकाचना का सहारा लेना होता है। यह परिवर्तन का सिद्धान्त अनुदित कमों के साथ लागू होता है, उदित के साथ नहीं । क्योंकि उदयावलिका में प्रविष्ट कर्म-पुद्गल के उदय में कोई अन्तर नहीं आता। संक्रमणा ही पुरुषार्थ के सिद्धान्त का ध्रुव आधार हो सकता है। संक्रमणा के अभाव में पुरुषार्थ का कोई महत्त्व ही नहीं रहता । इसके स्थान पर कोरा नियतिवाद ही होता। संक्रमणा की स्थिति हाइड्रोजन गैस से आक्सीजन और आक्सीजन से हाइड्रोजन गैस का परिवर्तन जैसी है। ८. उपशम-मोहकर्म की सर्वथा अनुदयावस्था उपशम है। इसमे प्रदेशोदय एवं विपाकोदय का अभाव रहता है । यह स्थिति पूर्ण विराम के जैसी है। उपशम स्थिति में उदय, उदीरणा, निधत्ति एवं निकाचना का सर्वथा अभाव होता है। निधति-उद्वर्तन, अपवर्तन के अतिरिक्त शेष छह करणों की अयोग्य अवस्था निधत्ति है। इसमें कर्म की वृद्धि एवं ह्रास को 3.६काश रहता है। यह स्थिति तृण वनस्पति जैसी है । जो वर्षा ऋतु में बढ़ती है और वर्षा अभाव में घटती है। १०. निकाचना- शुभकर्म का शुभ और अशुभकर्म का अशुभ फल निश्चय, निकाचना है। इसमें कर्मों का परिवर्तन, परिवर्धन एवं अल्पीकरण कुछ भी नहीं होता और न यहाँ पुरुषार्थ की तूती बजती है। यह स्थिति गोदरेज के ताले की सी है, जो दूसरी चाबियों से खुल नहीं सकता। इसी प्रकार निकाचित कर्म भी प्रयत्न से नहीं टूटते। __अन्य दर्शनों में भी कर्मों की क्रियमाण, संचित और प्रारम्ध ये तीन अवस्थाएँ मानी गई हैं। वे क्रमशः बन्ध, सत् और उदय की समानार्थक हैं। बँधे हुए कर्मों का फल निश्चित होता है या अनिश्चित ? कर्म जिस रूप में बंधते हैं उसी रूप में उनका फल मिलता है या अन्यथा । धर्म करने वाला दुःखी और अधर्म करने वाला सुखी कैसे ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान कर्मों की अवस्थाओं को समझने के बाद अपने आप मिल जाता है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म के साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? यह भी कोई जटिल समस्या नहीं है । प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने संसार और जीवात्मा को अनादि माना है। अनादि काल से ही कर्म-आवृत संसारी आत्माएँ कथंचित् मूर्त हैं अत: उसके साथ कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध होना असम्भव नहीं है । जीव और कर्म का अपश्चानुपूर्वी सम्बन्ध चला आ रहा है। जीव और आत्मा का अनादि सम्बन्ध है तब आत्मा और कर्म पृथक कैसे हो सकते हैं, ऐसा सन्देह भी नहीं करना चाहिए । अनादि संबद्ध धातु एवं मिट्टी, अग्नि आदि उचित साधनों द्वारा पृथक् होते हैं, तब आत्मा और कर्म के पृथक्करण का संशय ही कैसा? आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने गौतमादि श्रमणों से पूछा-(दुक्खे केण कडे) दुःख पैदा किसने किया ? उत्तर देने के लिए सब श्रमणवन्द मौन था-प्रभु से ही समाधान पाने के लिए उत्सुक था। संशय और जिज्ञासाओं से मन भरा हुआ था । भगवान् ने कहा (जीवेण कडे पमाएण) स्वयं आत्मा ने ही दुःख उत्पन्न किये हैं। गौतम ने वहा-दुःख पैदाकर आत्मा ने अपना अनिष्ट क्यों किया? Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • २२६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड भगवान् ने कहा--प्रमादवश । प्रमत्त व्यक्ति सुरापान किये हुए मनुष्य की तरह बेभान होता है। उसे कर्तव्य का बोध नहीं होता । ऐसी स्थिति में अपना अहित अपने हाथों कर लेता है। इसीलिए मैंने कहा दुःख आत्माकृत ही है, परकृत एवं तदुभयकृत नहीं। आचार्य भिक्षु ने भी अपनी राजस्थानी कविता में इस प्रश्न को इस प्रकार से समाहित किया है जीव खोया खोटा कर्तव्य करे, जब पुद्गल लागे ताम । ते उदय आयां दुःख ऊपजै, ते आप कमाया काम ॥ फल-प्रक्रिया कर्म जड़ है । तब वह जीव को नियमित फल कैसे दे सकता है ? इसका समाधान स्पष्ट है-विष और अमृत को कुछ भी ज्ञान नहीं होता, फिर भी खाने वाले को परिपाक होते ही इष्ट-अनिष्ट फल की प्राप्ति हो जाती है । उसी प्रकार कर्म-पुद्गल भी जीवात्मा को सुख-दुःखात्मक फल देने में सक्षम हो जाते हैं। कर्म-फल की व्यवस्था के लिए ईश्वर को माध्यम बनाने की कोई जरूरत नहीं रहती। __ आज के इस अणुयुग में विज्ञान के क्षेत्र में अगु की विचित्र शक्ति और उसके नियमन के विविध प्रयोगों के अध्ययन के बाद कर्मों की फलदान की शक्ति के बारे में सन्देह हो ही नहीं सकता। यद्यपि कर्म-पुद्गल सूक्ष्म हैं। फिर भी उनसे ऐसे रहस्यपूर्ण कार्य घटित होते हैं, जिनकी सामान्य बुद्धि व्याख्या ही नहीं कर सकती, किन्तु उनके अस्तित्व को किसी भी हालत में नकारा नहीं जा सकता। बुज्झिज्जत्ति तिउटिज्जा, बंधणं परिजाणिया । मनुष्यों को बोध प्राप्त करना चाहिए और बन्धन को जानकर उसे तोड़ना चाहिए। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. -.. -. -. -. - . -. -. -. संलेखना : स्वरूप और महत्त्व 0 श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री (राजस्थान केसरी उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी के शिष्य) श्रमण और श्रावक दोनों के लिए संलेखना आवश्यक मानी गई है। श्वेताम्बर परम्परा में “संलेखना” शब्द का प्रयोग हुआ है तो दिगम्बर परम्परा में 'सल्लेख ना" शब्द का । संलेखना व्रतराज है । जीवन की सान्ध्य वेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है । जीवन भर कोई साधक उत्कृष्ट तप की साधना करता रहे, पर अन्त समय में वह राग-द्वेष के दल-दल में फँस जाये तो उसका जीवन निष्फल हो जाता है । उसकी साधना विराधना में परिवर्तित हो जाती है। आचार्य शिवकोटि ने तो यहाँ तक लिखा है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप, धर्म में चिरकाल तक निरतिचार प्रवृत्ति करने वाला मानव यदि मरण के समय धर्म की विराधना कर बैठता है तो वह संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करता है। संलेखना मन की उच्चतम आध्यात्मिक दशा का सूचक है। संलेखना मृत्यु का आकस्मिक वरण नहीं है और न वह मौत का आह्वान ही है, वरन् जीवन के अन्तिम क्षणों में सावधानीपूर्वक चलना है। वह मृत्यु को मित्र की तरह आह्वान करता है। मित्र ! आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। मुझे शरीर पर मोह नहीं है। मैंने अपने कर्तव्य को पूर्ण किया है । मैंने अगले जन्म के लिए सुगति का मार्ग ग्रहण कर लिया है । संलेखना जीवन की अन्तिम आवश्यक साधना है। वह जीवन-मन्दिर का सुन्दर कलश है । यदि संलेखना के बिना साधक मृत्यु का वरण करता है तो उसे उचित नहीं माना जाता। संलेखना को हम स्वेच्छा-मृत्यु कह सकते हैं। जब वैराग्य का तीव्र उदय होता है तब उसे शरीर और अन्य पदार्थों में बन्धन की अनुभूति होती। वह बन्धन को समझकर उससे मुक्त बनना चाहता है। महाराष्ट्र के सन्त कवि ने कहा है-“माझे मरण पाही एले डोला तो झाला सोहला अनुपम्य"-मैंने अपनी आँखों से मृत्यु को देख लिया, यह अनुपम महोत्सव है। वह मृत्यु को न आमन्त्रित करता है, पर मृत्यु से भयभीत नहीं होता। जैसे कबूतर पर जब बिल्ली झपटती है तब वह आँखें मूंद लेता है और वह सोचता है अब बिल्ली झपटेगी नहीं। आँखें मूंद लेने मात्र से बिल्ली कबूतर को छोड़ती नहीं है । यमराज मृत्यु को भुला देने वाले को छोड़ता नहीं है। वह तो अपना हमला करता ही है । अत: साधक कायर की भाँति मुह को मोड़ता नहीं । किन्तु वीर सेनानी की तरह मुस्कराते हुए मृत्यु का स्वागत करता है। १. अन्त क्रियाधिकरणं तप: फलं सकलदशिनः स्तुवते । तस्माद्या-विद्विभवं समधिकरणे प्रयतितव्यम् ॥ -समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र ६२ २. भगवती आराधना, गाथा १५ ३. "लहिभो सुग्गई मग्गो नाहं मच्चस्स बीहेमो।" Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ++ संलेखना मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कला सिखाती है। वह जीवन-शुद्धि और मरण-शुद्धि की एक प्रक्रिया है । जिस साधक ने मदन के मद को गलित कर दिया है, जो परिग्रह पंक से मुक्त हो चुका है, सदा सर्वदा आत्मचिन्तन में लीन रहता है वही व्यक्ति इस मार्ग को अपनाता है। संलेखना में सामान्य मनोवल वाला साधक, विशिष्ट मनोबल को प्राप्त करता है । उसकी मृत्यु असमाधि का नहीं समाधि का कारण है। एक सन्त कवि ने कहा है - जैसे कोई वधू डोले पर बैठकर ससुराल जा रही हो ।' उसके मन में अपार आह्लाद होता है, वैसे ही साधक को भी परलोक जाते समय अपार प्रसन्नता होती है । संलेखना और समाधिमरण ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। आचार्य समन्तभद्र ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में प्रथम श्लोक में संलेखना का लक्षण बताया है, और द्वितीय श्लोक में समाधिमरण का आचार्य शिवकोटि ने "संलेखना" और समाधिमरण को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। उमास्वाति ने श्रावक और श्रमण दोनों के लिए संलेखना का प्रतिपादन कर संलेखना और समाधिमरण का भेद मिटा दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द समाधिमरण श्रमण के लिए मानते हैं और संलेखना गृहस्थ के लिए मानते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रावक के द्वादश व्रतों में जो चार शिक्षाव्रत हैं उनमें संलेखना को चौथा शिक्षाव्रत माना है। आचार्यका अनुसरण करते हुए शिवाकोटि आचार्य देवसेन, आचार्य जिनसेन, आचार्य वसुनन्दि आदि ने संलेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत में सम्मिलित किया है। किन्तु आचार्य उमास्वाति ने संलेखना को श्रावक के द्वादश व्रतों में नहीं गिना है। उन्होंने संलेखना को अलग नियम व धर्म के रूप में प्रतिपादन किया है । . आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, आचार्य अकलंक, विद्यानन्दी, आचार्य सोमदेव, अमितगति, स्वामि कार्तिकेय प्रभुति अनेक आचायों ने आचार्य उमास्वाति के कवन का समर्थन किया है इन सभी आचायों ने एक स्वर से इस सम तथ्य को स्वीकार किया है कि शिक्षाव्रत में संलेखना को नहीं गिनना चाहिए। क्योंकि शिक्षाव्रत में अभ्यास किया जाता है । पर संलेखना मृत्यु का समय उपस्थित होने पर स्वीकार की जाती है, उस समय अभ्यास के लिए अवकाश ही कहाँ है, यदि द्वादश व्रतों में संलेखना को गिनेंगे तो फिर एकादश प्रतिमाओं को धारण करने का समय कहाँ रहेगा। इसलिए उमास्वाति का मन्तब्य उचित है। श्वेताम्बर जैन आगम माहित्य और आगमेतर साहित्य में कहीं पर भी संलेखना को द्वादशवतों में नहीं गिना है। इसलिए साधरण के लिए और संजना गृहस्य के लिए है यह कथन युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि आगम साहित्य में अनेक श्रमण श्रमणियों के द्वारा संलेखना ग्रहण करने के प्रमाण समुपलब्ध होते हैं। संलेखना की व्याख्या 3 आचार्य अभयदेव ने स्थानांग वृति" में संजना की परिभाषा करते हुए लिखा है "जिस किया के द्वारा शरीर एवं कषाय को दुर्बल और कृश किया जाता है वह संलेखना है ।" "ज्ञातासूत्र " की वृत्ति में भी इसी अर्थ को स्वीकार किया है। "प्रवचनसारोद्वार" में "शास्त्र में प्रसिद्ध चरम अनशन की विधि को संबना कहा है।" निशीन कर्मयोगी श्री केसरीमलजी गुराना अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थखण्ड १. २. ३. ४. ५. "सजनि ! डोले पर हो जा सवार लेने आ पहुँचे हैं कहार ।" "सामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोसहं भणियं । तइयं अतिहिपुजे उत्य सहना अन्ते ॥ न संलेहणा संलिख्यतेऽनया शरीर कषायादि इति संलेखना " स्थानांग २ उ० २ वृत्ति "कषायशरीरकृशतायाम्" । आगमोक्तविधिना शरीरापकर्षणम् --प्रवचनसारोद्धार १३५ । - नारिषपाव गाभा २६ - शाता० वृत्ति . Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्ण व अन्य स्थलों पर संलेखना का अर्थ “छोलना-कुश करना" किया है। शरीर को कृश करना द्रव्य संलेखना है और कषाय को कृश करना भाव संलेखना है । संलेखना शब्द "सत्" और "जेवना" इन दोनों के संयोग से बना है। सत् का अर्थ है सम्यक् और लेखन का अर्थ है कृश करना। सम्यक् प्रकार से कृश करना। जैन दृष्टि से काय और कषाय को कर्म बन्ध का मूल कारण माना है । इसलिए उसे क्रुश करना ही संलेखना है । आचार्य पूज्यपाद ने और आचार्य श्रुतसागर ने काय व कषाय के कृश करने पर बल दिया है । संलेखना : स्वरूप और महत्त्व मरण को सुधारने के लिए संलेखना का को प्रीतिपूर्वक संलेखना धारण करनी - ५ श्री चामुण्डराय ने "चारित्रसार" में लिखा है बाहरी शरीर और भीतरी कवायों का क्रमशः उनके कारणों को घटाते हुए सम्यक् प्रकार से क्षीण करना संलेखना है । "बाह्यस्य कायस्याभ्यान्तराणां कषायाणां तत्कारणहापनया क्रमेण सम्यलेखनासंलेखना ||२२|| " मरण के दो भेद हैं नित्य मरण और तद्भव मरण उद्भव वर्णन है । आचार्य उमास्वाति ने लिखा है— मृत्यु काल आने पर साधक चाहिए । आचार्य पूज्यपाद आचार्य अकलंक और आचार्य श्रुतसागर ने " मारणांतिक संलेखनां जोषिता " सूत्र में जोषिता का अर्थ "प्रीतिपूर्वक" किया है। जिस संलेखना में प्रीति का अभाव है वह संलेखना सम्यक् संलेखना नहीं है। जब कभी मृत्यु पीछा करती है उस समय सामान्य प्राणी की स्थिति अत्यन्त कातर होती है । जैसे शिकारी द्वारा पीछा करने पर हरिणी पचरा जाती है; पर वीर योद्धा पीछा करने वाले योद्धाओं से घबराता नहीं, वरन् आगे बढ़कर जूझता है; वह जैसे-तैसे जीवन जीना पसन्द नहीं करता. किन्तु दुर्गुगों को नष्ट कर जीवन जीना चाहता है। एक क्षण भी जीऊँ, किन्तु प्रकाश करते हुए जीपही उससे अन्त दय की आवाज होती है जो साधक जीवन के रहस्य को नहीं पहचानता है और न मृत्यु के रहस्य को पहचानता है, उसका निस्तेज जीवन एक प्रकार से व्यक्तित्व का मरण ही है। 5 संलेखना के साथ मारणांतिक विशेषण प्रयुक्त होता है । इससे अन्य तपःकर्म से वैशिष्ट्य परिज्ञात होता है। संलेखना का पार्थक्य और २. ३. ४. ५. ६. काय और कषाय को क्षीण करने के कारण, काय संलेखना जिसे बाह्य कषाय संलेखना जिसे आभ्यन्तर संलेखना कहते हैं। बाह्य संजना में आभ्यन्तर कवायों को वह शनैः शनैः कृश करता है। इस प्रकार संलेखना में कवाय क्षीण होने, तन क्षीण होने पर भी मन में अपूर्व 'आनन्द रहता है । ७. २२६ संलेखना में शरीर और कषाय को साधक इतना कृश कर लेता है जिससे उसके अन्तर्मानस में किसी भी प्रकार की कामना नहीं होती। उसके अनशन में पूर्ण रूप से स्थैर्य आ जाता है। अनशन से शरीर क्षीण हो सकता है । ८. 008 (क) संलेखनं - द्रव्यतः शरीरस्थ भावतः कवायाणं कृशताऽअपादनं संलेखसंलेखनेति । (ख) मूल १० ३।२०८ - मूला० दर्पण, पृ० ४२५ संलेखना भी कहते हैं और को पुष्ट करने वाले कारणों सम्यक्काय कषायलेखना - तत्त्वा० सर्वार्थसिद्धि ७।२२ का भाष्य, पृ० ३६३, भारतीय ज्ञानपीठ सत् सम्य लेखन कावस्य कवायाणां च कृशीकरणं तनूकरणं तत्वार्थ वृत्ति ७।२२ भाष्य, पृ०२४६, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी । तत्वार्थ सूत्र ७-२२ । तत्त्वार्थ सर्वार्थसिद्धि ७-२२, पृ० ३६३ । तत्वार्थ राजवार्तिक, ७-२२ तत्त्वार्थ श्रुतसागरीय वृत्ति ७-२२ । यज्जीवति तन्मरणं, यन्मरणं सास्य विश्रान्ति । — बृहद्वृत्ति पत्र . Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड पर आयुकर्म क्षीण न हो और वह सबल हो तो अनशन दीर्घकाल तक चलता है, जैसे दीपक में तेल और बाती का एक साथ ही क्षय होने से दीपक बुझता है वैसे ही आयुध्यकर्म और देह एक साथ क्षय होने से अनशन पूर्ण होती है । आचार्य समभद्र ने लिखा है कि प्रतीकाररहित असाध्य दशा को प्राप्त हुए उपसर्ग, दुभिक्ष, जरा, व रुग्ण स्थिति में या अन्य किसी कारण के उपस्थित होने पर साधक संलेखना करता है । मूलाराधना में संलेखना के अधिकारी का वर्णन करते हुए सात मुख्य कारण दिये हैं १. दुश्चिकित्स्य व्याधि - संयम को परित्याग किये बिना जिस व्याधि का प्रतीकार करना सम्भव नहीं है, ऐसी स्थिति समुत्पन्न होने पर । २. वृद्धावस्था, जो श्रमण जीवन की साधना करने में बाधक हो । ३. मानव, देव और तिर्यच सम्बन्धी कटिन उपसर्ग उपस्थित होने पर । ४. चारित्र विनाश के लिए अनुकूल उपसर्ग उपस्थित किये जाते हों । इस प्रकार के अन्य कारण भी उपस्थित हो जाने पर साधक अनशन का अधिकारी होता है । जैन धर्म में जिस प्रकार "संलेखना " का उल्लेख हुआ है उससे मिलता-जुलता प्रायोपवेशन" का एक महत्त्वपूर्ण विधान वैदिक परम्परा में प्राप्त होता है । साथ ही 'प्रायोपवेश', 'प्रायोपगमन', 'प्रायोपवशानका' आदि शब्द भी प्राप्त होते हैं, जिनका अर्थ है वह अनशन व्रत जो प्राण त्यागने के लिए किया जाता है । बी० एस० आप्टे ने अपने शब्द कोश में प्रायोपवेशन का अर्थ बताते हुए अन्न-जल त्याग की स्थिति का चित्रण किया है पर उस समय साधक की मानसिक स्थिति क्या होती है उसका कुछ भी वर्णन नहीं है । संलेखना में केवल अन्न-जल का त्याग ही पर्याप्त नहीं है । उसमें उसके साथ ही विवेक, संयम, शुभ संकल्प आदि सद्गुण आवश्यक हैं। 'प्रायोपवेशन' और 'पादपोपगमन' ये दोनों शब्द एक सदृश प्रतीत होते हैं पर दोनों में गहरा अन्तर है। एक का सीधा सम्बन्ध शरीर से है तो दूसरे का सम्बन्ध मानसिक विशुद्धि से है। मानसिक विशुद्धि के बिना शारीरिक स्थिरता स्वाभाविक रूप से नहीं आ सकती । पुराणों में प्रायोपवेशन की विधि का उल्लेख है । मानव से जब किसी प्रकार का कोई महान् पाप कृत्य हो जाय या दुश्चिकित्स्य महारोग से उत्पीड़ित होने से देह के विनाश का समय उपस्थित हो जाय तब ब्रह्मत्व की उपलब्धि के लिए या स्वर्ग आदि के लिए प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश करे अथवा अनशन से देह का परित्याग करे । प्रस्तुत अधिकार सभी वर्ण वालों के लिए है । इस विधान में पुरुष और नारी का भेद नहीं है । १. २. ५. भयंकर दुष्काल में शुद्ध भिक्षा प्राप्त होना कठिन हो रहा हो । ६. भयंकर अटवी में दिग्विमूढ़ होकर पथ भ्रष्ट हो जाये । ७. देखने की शक्ति व श्रवण शक्ति और पैर आदि से चलने की शक्ति क्षीण हो जाय । ३. ४. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरनि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय अनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ मूलाराधना २७१-०४ संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ ०११२० समासक्तौ भवेद्यस्तु पातकैर्महदादिभिः । दुश्चिकित्स्यैर्महारोगे : पीड़ितो व भवेत्तु यः ॥ स्वयं देह विनाशस्य काले प्राप्ते महामतिः । ब्रह्माणं वा स्वर्गादि महापल जिगीषया ॥ प्रविशेज्ज्वलनं दीप्तं कुर्यादनशनं तथा । एनेषामधिकारो अस्ति नान्येषां सर्वजन्तुषु ॥ नराणां नारीणां सर्ववर्णेषु सर्वदा || - समीचीन धर्मशास्त्र ६।१ पृ० १६० -- रघुवंश के ९४ श्लोक पर मल्लिनाथ - टीका . Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेखना : स्वरूप और महत्त्व २३१ -.-.-. -.-. -.-.-. -. -. -. प्रायोपवेशन का अर्थ "अनशनपूर्वक मृत्यु का वरण करना" किया गया है। प्रायोपवेशन शब्द में दो पद हैं-"प्राय" और "उपवेशन'' "प्राय" का अर्थ "मरण के लिए अनशन" और "उपवेशन" का अर्थ है "स्थित होना।"3 प्रायोपवेशन किसी तीर्थस्थान में करने का उल्लेख प्राप्त होता है। महाकवि कालिदास ने तो रघुवंश में स्पष्ट कहा है --''योगेनान्ते तनत्यजाम् । वाल्मीकि रामायण में सीता की अन्वेषणा के प्रसंग में प्रायोपवेशन का वर्णन प्राप्त होता है। जब सुग्रीव द्वारा भेजे गये वानर सीता की अन्वेषणा करने में सफल न हो सके तब अंगद ने उनसे कहा कि हमें प्रायोपवेशन करना चाहिए। राजा परीक्षित के भी प्रायोपवेशन ग्रहण करने का वर्णन श्रीमद्भागवत में मिलता है। महाभारत, राजतरंगिणी और पंचतन्त्र में भी प्रायोपवेशन का उल्लेख संप्राप्त होता है। रामायण में प्रायोपवेशन के स्थान पर प्रायोपगमन चरक में "प्रायोपयोग" अथवा "प्रायोपेत" शब्द व्यवहृत हुए हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में मृत्यु वरण में योग की प्रधानता स्वीकार की है।" इस प्रकार वैदिक परम्परा में प्रायोपवेशन जीवन की एक अन्तिम विशिष्ट साधना रही है। आचारांग में संलेखना के सम्बन्ध में बताया है कि जब श्रमण को यह अनुभव हो कि उसका शरीर ग्लान हो रहा है वह उसे धारण करने में असमर्थ है तब वह क्रमशः आहार संकोच करके शरीर को कृश करें। १. "प्रायेण मृत्युनिमित्तकअनशनेन उपवेशः स्थिति सन्यासपूर्वकानशनस्थिति : ।" -शब्द कल्पद्रुम पृ० ३६४. २. "प्रायश्चानशनै मृत्यौ तुल्य बाहुल्ययोरपि इति विश्वः ।" प्रकृष्टमयनम् इति प्रायः प्र+अय+घञ्, मर अर्थमनशनम् । - हलायुधकोश, सूचना प्रकाशन ब्यूरो, उ० प्र० । ३. "प्रायोपवेशने अनशनावस्थाने।" ४. रघुवंश १-८-मल्लिनाथ ५. इदानीमकृतार्थानां मर्तव्यं नात्र संशयः । हरिराजस्य संदेशमकृत्वा कः सुखी भवेत् ॥१२॥ आस्मिन्नतीते काले तु सुग्रीवेणकृते स्वयम् । प्रायोपवेशनं-युक्तं सर्वेषां च बनौकसाम् ।।१३।। अप्रवृत्ते च सीतायाः पापमेव करिष्यति । तस्मात्क्षमभिहाद्य व गन्तु प्रायापवेशनम् ॥१४॥ अहं वः प्रतिजानामि न गमिष्याम्यहं पुरोम् । इहेव प्रायमासिष्ये श्रेयो मरणेव मे । ॥१५॥ ---वाल्मीकि रामायण ४-५५-१२. ६. प्रायोपवेशः राजर्षेविप्रशापात् परीक्षितः । -भागवत, स्कंध १२. "प्रायोपविष्टं गंगायां परीतं परिमषिभिः ।" -प्रायेण मृत्यु पर्यन्तानशनेनोपविष्टम् इति तट्टीकाय । -श्रीधरस्वामी शब्द कल्पद्रुम् पृ० ३६४ । ७. श्रीमद्भगवद्गीता ८-१२, ८-१३, ८-५, ८-१०, ५-२३ । ८. आचारांग १-८-६७ । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 -0 O २३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड संलेखना की विधि संलेखना का उत्कृष्ट काल १२ वर्ष का माना गया है । मध्यम काल एक वर्ष का है और जघन्य काल छः महीने का' । 'प्रवचनसारोद्धार' में उत्कृष्ट संलेखना का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए बताया है कि प्रथम चार वर्षों में चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, आदि तप की उत्कृष्ट साधना करता रहे और पारणे में शुद्ध तथा योग्य आहार ग्रहण करे । अगले चार वर्ष में उक्त विधि से विविध प्रकार से विचित्र तप करता रहे और पारणे में रसनिर्यूढ विगय का परित्याग कर दे । इस तरह आठ वर्ष तक तपःसाधना करता रहे। नौवे और दसवें वर्ष में उपवास करे और पारणे में आयंबिल तप की साधना करे । ग्यारहवें वर्ष के प्रथम छः मास में सिर्फ चतुर्थ भक्त, छट्ठ भक्त तप के साथ तप करे और पारणे में आयंबिल तप की साधना करे और आयदिल में भी उनोदरी तप करे । अगले छः माह में उपवास, छठ पारणे में आयंबिल तप करना आवश्यक है । इन छः भक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त, प्रभृति विविध तप करे । किन्तु माह में आयंबिल तप में इनोदरी तप करने का विधान नहीं है।" लिखना के बारहवें वर्ष के सम्बन्ध में विभिन्न आचार्यों के विभिन्न मत रहे हैं। आचार्य जिनदासगणी महत्तर का अभिमत है कि बारहवें वर्ष में निरन्तर उष्ण जल के आगर के साथ हीयमान आयंबिल तप करे । जिस आयंबिल में अंतिम क्षण द्वितीय आदिल के आदि क्षण से मिल जाता है वह कोडीसहिय आर्यवित कहलाता है ।" ही मान से तात्पर्य है निरन्तर भोजन और पानी की मात्रा न्यून करते जाना। वर्ष के अन्त में उस स्थिति पर पहुँच जाये कि एक दाना अन्न और एक बूंद पानी ग्रहण किया जाय। प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति में भी प्रस्तुत क्रमा प्रतिपादन किया गया है । बारहवें वर्ष में भोजन करते हुए प्रति दिन एक-एक कवल कम करना चाहिए। एक- एक कवल कम करतेकरते जब एक कवल आहार आ जाय तब एक-एक दाना कम करते हुए अंतिम चरण में एक दाने को ही ग्रहण करे । ४ इस प्रकार अनशन की स्थिति पहुँचने पर साधक फिर पादपोपगमन अथवा "इंगिनीमरण" अनशन व्रत ग्रहण कर समाधिमरण को प्राप्त होवे । उत्तराध्ययन वृत्ति के अनुसार संलेखना का क्रम इस प्रकार है । प्रथम चार वर्ष में विकृति परित्याग अथवा आयंबिल, द्वितीय चार वर्ष में विचित्र तप उपवास, छट्ठ भक्त आदि और पारणे में यथेष्ट भोजन ग्रहण कर सकता है। नोंवें और दसवें वर्ष में एकान्तर उपवास और पारणे में आयंबिल किया जाता है। ग्यारहवें वर्ष के प्रथम १. सा जघन्या मध्यमा उत्कृष्टा च २. चारिविचिन्ताई विगई, निज्जूहियाई बारि 1 संवच्छरे य दोन्नि एगंतरियं च आयाम ॥८२॥ नाई विगिद्धो य तनो छम्मास परिमिअं च आयामं । अवरे वियधम्मासे होई विनिटं तयो कम्मे ।। १८३|| — प्रवचनसारोद्धार ३. बालसमं वरिसं मितर हायमाण उसिणोदराण आदिल करे व कोडीसहियं भवद अय विलस्स कोडी कोडीए मिलाई । -- निशीथ चूर्णि ४. द्वादशे वर्षे भोजनं कुर्वत प्रतिदिनमेर्क कमबल हान्यान्यायदूमोदरतां करोति यावदेकं कयलमाहारयति । -व्यवहारभाष्य, २०३ ५. उत्तराध्ययन ६-२५-२५५. ६. द्वितीय वर्ष चतुष्के । "विचित्रं तु" इति विचित्रमेव चतुर्थषष्ठाष्टमादिरूपं तपश्चरेत, उगम विशुद्ध" सव्व कप्प गिज्जं पारेति । बृहद्वृत्ति पत्र ७०६ - प्रवचनसारोद्वारवृत्ति Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छः माह में 'अष्टम, दशम, द्वादश भक्त आदि की तपस्या की जाती है जिसे के दिन आयंबिल तप किया जाता है। प्रथम छः माह में आदि के समय भरपेट आहार ग्रहण करते हैं। करते हैं या प्रथम दिन आयंबिल और दूसरे दिन अन्य वर्ष के अन्त में अर्ध मासिक या मासिक अनशन भक्त परिज्ञा आदि किया जाता है । संलेखना : स्वरूप और महत्त्व २३३ जिनदासगणी क्षमाश्रमण के अभिमतानुसार संलेखना के बारहवें वर्ष में छोटे-छोटे आहार की मात्रा न्यून की जाती है । जिससे आहार और आयु एक साथ पूर्ण हो सकें । उस वर्ष अन्तिम चार महीनों में मुख यन्त्र विसंवादी न हो अर्थात् नमस्कार महामन्त्र आदि के जप करने में असमर्थ न हो जाय, एतदर्थ कुछ समय के लिए मुँह में तेल भरकर रखा जाता है। १. विष्ट अष्टम-राम-द्वादशादिकं तपःकर्म भवति दिगम्बर आचार्य शिवकोटि ने अनशन, ऊनोदरी भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता इन छः बाह्य तपों को बाह्य संलेखना का साधन माना है ।" सलेखना का दूसरा एक क्रम यह है कि प्रथम दिन उपवास द्वितीय दिन वृत्ति परिसंख्यान तप किया जाये।5 बारह प्रकार की जो भिक्षु प्रतिमाएँ हैं उन्हें भी संलेखना का साधन माना गया है । " काय संलेखना के इन विविध विकल्पों में आयंबिल तप उत्कृष्ट साधन है। संलेखना करने वाला साधक छट्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश आदि विविध तप करके पारणे में बहुत ही परिमित आहार ग्रहण करे, या तो पारणे में आयंबिल करे । कांजी का आहार ग्रहण करे ।" मूलाराधना में भक्त परिज्ञा का उत्कृष्ट काल बारह वर्ष का माना है ।" उनकी दृष्टि से प्रथम चार वर्षों में विकृष्ट कहा है ।" ग्यारहवें वर्ष में पारणे में आयंबिल में ऊनोदरी तप करते हैं और द्वितीय छः माह बारहवें वर्ष में कोटि सहित आयंबिल अर्थात् निरन्तर आयंबिल कोई तप करते हैं, पुनः तीसरे दिन आयंबिल करते हैं। बारहवें २. पारण के तु परिमितं किचिदूनोदरता सम्पन्नमाचाम्लं करोति । ३. पारण के तु मा शीघ्रमेव मरणं यासिषमिति कृत्वा परिपूर्णपाण्या आचाम्लं करोति न पुनरूनोद रयेति । ८. मूलाराधना ३।२४७ ६. वही ३।२४६ १०. वही ३।२५०, २५१ ११. वही० ३ । २५२ - प्रवचनसारोद्धार वृत्तिपत्र २५४ ४. कोटयो 1 प्रत्याख्यानाद्यन्तकोणरूपे साहिते मिलिते यरिमस्तरकोटिसहितं किमुक्तं भवति । विवक्षित दिने प्रात राचा प्रत्याख्यान समाहोरात्रं प्रतिपाल्यं पुनद्वितीयामेव प्रत्याचष्टे ततो द्वितीयस्यारम्भ कोटिशदस्य तुपर्यन्त कोटि रूपे आप मिलितं भवत इति तस्कोटि सहितमुच्यते, अन्येवाः अषाम्लमेकस्मित् दिने कृत्वा द्वितीय दिने च तपोदन्तरमनुष्ठाय पुनस्तृतीयदिन आचाम्लमेव कुर्वत कोटि सहितमुच्यते । - वही०, पत्र २५४ - वृहद् वृत्ति पत्र ७०६ ५. क्रमादद्वादशे "मुनिःसाधुः" मास, ति सुत्रत्वाम्मास भूती मासिकरते नैवमार्द्ध मासिकेन आहारेन्ति उपलक्षणत्वादाहारत्यागेन, पाठान्तरतश्च क्षणेन तपः इति प्रस्तावद भक्तपरिज्ञानादिकमनशनं “चरेत" ६. निशीथ चूर्णि ७. (४) मूलाधना ३२०० (ब) मूलाराधना दर्पण ०२४५ - वही०, पत्र २५४ -0 -0 . Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ olo o loo -० -0 U .0 २३४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : चतुर्थ खण्ड विचित्र कायक्लेशों के द्वारा तन को कृश किया जाता है । उसमें कोई क्रम नहीं होता। दूसरे चार वर्षों में विकृतियों का परित्याग कर शरीर को कृश किया जाता है। नौवे और दसवें वर्ष में आयंबिल और विगय का त्याग किया जाता है । ग्यारहवें वर्ष में केवल आयंबिल किया जाता है । बारहवें वर्ष में प्रथम छः माह में अविकृष्ट तप, उपवास. बेला आदि किया जाता है। वारहवें वर्ष के द्वितीय छः माह में विकृष्टतम तेला, बोला आदि तप किये जाते हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में संलेखना के विषय में यत्किंचित मतभेद हैं। पर दोनों ही परम्पराओं का तात्पर्य एक सदृश है। मूलाराधना में आचार्य शिवकोटि ने लिखा है-संलेखना का जो क्रम प्रतिपादित किया गया है वही क्रम पूर्ण रूप से निश्चित है, यह बात नहीं है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और शारीरिक संस्थान आदि की दृष्टि से उस क्रम में परिवर्तन भी किया जा सकता है । 3 संलेखना में जो तपविधि का प्रतिपादन किया है, उससे यह नहीं समझना चाहिए कि तब ही संलेखना है । तप के साथ कषायों की मन्दता आवश्यक है । विषयों से निवृत्ति अनिवार्य है । तपः कर्म के साथ ही अप्रशस्त भावनाओं का परित्याग के साथ प्रशस्त भावनाओं का चिन्तन परमावश्यक है । आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि संलेखना व्रत ग्रहण करने के पूर्व संलेखनाव्रतधारी को विचारों की विशुद्धि के लिए सभी सांसारिक सम्बन्धों से सम्बन्ध विच्छेद कर लेना चाहिए। यदि किसी के प्रति मन में आक्रोश हो तो उससे क्षमा-याचना कर लेनी चाहिए। मानसिक शान्ति के लिए साधक को सबसे पहले सद्गुरु के समक्ष निश्शल्य होकर आलोचना करनी चाहिए। आलोचना करते समय मन में किचित् मात्र भी संकोच नहीं रखना चाहिए। अपने जीवन में तन से, मन से और वचन से जो पाप कृत्य किये हों, करवाये हों या करने की प्रेरणा दी हो उनकी आलोचना कर हृदय को विशुद्ध बनाना चाहिए। यदि आचार्य या सद्गुरु का अभाव हो तो अपने दोषों को प्रकट कर देना चाहिए। पंच परमेष्ठी का ध्यान करना चाहिए।" आचार्य वीरनन्दी ने अपने "आचारसार"" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि साधक को संलेखना की सफलता के लिए योग्य स्थान का चुनाव करना चाहिए जहाँ के राजा के मन में धार्मिक भावना अंगड़ाइयाँ ले रही हो, जहाँ की प्रजा के अन्तमानस में धर्म और आचार्य के प्रति गहरी निष्ठा हो, जहाँ के निवासी आर्थिक दृष्टि से सुखी और समृद्ध हों, जहाँ का वातावरण तपःसाधना के लिए व्यवधान के रूप में न हो । साथ ही साधक को न अपने शरीर पर ममता होनी चाहिए न चेतन-अचेतन किसी भी वस्तु के प्रति मोह-ममता हो । यहाँ तक कि अपने शिष्यों के प्रति भी मन में किंचित् मात्र भी आसक्ति न हो। वह परीषहों को सहन करने में सक्षम हो। संलेखना की अवधि में पहले ठोस पदार्थों का आहार में उपयोग करे। उसके पश्चातु पेय पदार्थ ग्रहण करे । आहार इस प्रकार ग्रहण करना चाहिए जिससे वात, पित्त, कफ विक्षुब्ध न हों । संलेखना ग्रहण करने के पूर्व इस बात की जानकारी आवश्यक है कि जीवन और मरण की अवधि कितनी है। यदि शरीर में व्याधि हो गई हो पर जीवन की अवधि सम्बी हो तो उसे संलेखना ग्रहण करने का विधान नहीं है । १. (क) मूलाराधना ३।२५३ (ख) निविकृतिः रसव्यंजनादिवर्जितमव्यतिकीर्णमोदनादि भोजनम् । २. मूलाराधना ३।२५४ ३. मूलाराधना ३।२५५ ४. रत्नकरण्ड श्रावकाचार ५-३-७ ५. आचारसार १० - मूलाराधना दर्पण ३।२५४, पृ० ४७५ . Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेखना: स्वरूप और महत्त्व २३५ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-....................................... ...... दिगम्बर परम्परा के तेजस्वी नक्षत्र समन्तभद्र को 'भस्मरोग' हो गया और उससे वे अत्यन्त पीड़ित रहने लगे। उन्होंने अपने गुरु से संलेखना व्रत की अनुमति चाही । पर उनके सद्गुरुदेव ने अनुमति नहीं दी, क्योंकि उन्होंने देखा कि इनका आयु-बल अधिक है, इनसे जिन-शासन की प्रभावना होगी। संथारे की विधि संलेखना के पश्चात् संथारा है। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों की दृष्टि से संथारा ग्रहण-विधि इस प्रकार है। सर्वप्रथम एक निरवद्य शुद्ध स्थान में अपना आसन जमाये । उसके पश्चात् वह दर्भ, घास, पयाल आदि में से किसी का संथारा बिछौना बिछाए फिर पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह करके बैठे। उसके पश्चात् “अह भंते अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा-झूसणा आराहणाए आरोहेमि" "हे भगवन् ! अब मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन एवं आराधना करता हूँ।" इस प्रकार प्रतिज्ञा ग्रहण करता है। उसके बाद नमस्कार महामन्त्र, तीन बार वन्दना, इच्छाकारेणं, तस्स उत्तरी करणेणं, लोगस्स का पाठ व उसके पश्चात् ऊपर का पाठ बोलकर तीर्थंकर भगवान की साक्षी से इस व्रत को ग्रहण करे । फिर निवेदन करे कि-"भगवन ! मैं अभी से सागारी या आगाररहित संथारा-भक्तप्रत्याख्यान करता हूँ ,चारों आहार का त्याग करता हूँ। १८ पापस्थानों का त्याग करता हूँ। इस मनोज्ञ, इष्ट, कान्त, प्रिय, विश्वसनीय, आदेय, अनुमत, बहुमत, भाण्डकरण्डक समान, शीत-ऊष्ण, क्षुधा, पिपासा, आदि मिटाकर सदा जतन किया हुआ, हत्यारे चौरादि से, डांस-मच्छर आदि से रक्षा किया हुआ व्याधि, पित्त, कफ, वात सन्निपातिक आदि से भी बचाया हुआ विविध प्रकार से स्पर्शो से सुरक्षित, श्वासोच्छ्वास की सुरक्षा प्राप्त इस शरीर पर मैंने जो अब तक मोह-ममत्व किया था, उसे अब मैं अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक त्यागता हूँ, मुझे कोई भी चिन्ता न होगी। क्योंकि अब यह शरीर धर्म पालन करने में समर्थ न रहा, बोझरूप हो गया, आतंकित या अत्यन्त जीर्ण अशक्त हो गया।" "उपासक दशांग" में आनन्द श्रमणोपासक बहुत वर्षों तक गृहस्थ जीवन के सुखों का उपभोग करते रहे। जीवन की सान्ध्यवेला में वे स्वयं पोषधशाला में जाते हैं और "दब्भ संथारयं संथरई" दर्भ का संथारा बिछाते हैं। धर्म प्रज्ञप्ति स्वीकार कर विविध तप-कार्यों द्वारा उपासक प्रतिमाओं की आराधना करते हुए शरीर को कृश करते हैं। जिसे हम संथारा कहते हैं वह अनशन का द्योतक है। आगम साहित्य में संथारा का अर्थ "दर्भ का बिछौना" है। "सलेखना" शब्द का प्रयोग----भासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सट्ठि भत्ताइं अणसणए छेदेत्ता"। "प्रवचनसारोद्धार" में लिखा है-साधक द्वादशवर्षीय उत्कृष्ट संलेखना करके तदनन्तर कन्दरा, पर्वत, गुफा, या किसी निर्दोष स्थान पर जाकर पादपोपगमन या भक्त प्रत्याख्यान या इंगिनीमरण को धारण करे। सारांश यह है कि संलेखना के पश्चात् संथारा ग्रहण किया जाता था। यदि ऐसा कोई आकस्मिक कारण आ जाता तो संलेखना के बिना भी संथारा ग्रहण कर समाधिमरण को वरण किया जाता था। संथारा-संलेखना का महत्त्व __ संथारा-संलेखना करनेवाला साधक धर्मरूपी अमृत को पान करने के कारण ससार के जितने भी दुःख हैं वह उन दुःखों से मुक्त हो जाता है, तथा निःश्रेयस् अभ्युदय के अपरिमित सुखों का प्राप्त करता है। पण्डित आशाधर ने कहा है--जिस महासाधक ने संसार परम्परा को सम्पूर्ण रूप से उन्मूलन करने वाले समाधिमरण को धारण किया है उसने धर्मरूपी महान् निधि को परभव में जाने के लिए साथ ले लिया है। इस जीव ने अनन्त बार मरण १. द्वादशवार्षिकोमुत्कृष्टां सलेखनां कृत्वा गिरिकन्दरं गत्वा उपलक्षणमेतद् अन्यदपि षट् कायोपमई रहितं विविक्तं स्थानं गत्वा पादपोपगमनं वा शब्दाद् भक्तपरिज्ञामिगिनीमरणं च प्रपद्यते । -प्रवचनसारोद्धार, १३४. २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ५-६. Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Na २३६ प्राप्त किया किन्तु समाधि सहित पुष्य-मरण नहीं हुआ। यदि समाधि सहित पुग्य-मरण होता तो वह आत्मा संसार रूपी पिंजड़े में कभी भी बन्द होकर नहीं रहता। भगवती आराधना में कहा है जो जीव एक ही पर्याय में समाधिपूर्वक मरण करता है वह सात-आठ पर्याय से अधिक संसार में प्ररिभ्रमण नहीं करता । आचार्य समन्तभद्र ने कहा है— जीवन में आचरित तपों का कल अन्त समय में गृहीत संलेखना है । "मृत्यु महोत्सव" में लिखा है- जो महान् फल बड़े-बड़े प्रती संयमी आदि की कायक्लेश आदि उत्कृष्ट तप तथा अहिंसा आदि महाव्रतों को धारण करने से नहीं होता वह फल अन्त समय में समाधिपूर्वक शरीर त्यागने से प्राप्त होता है- कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थखण् : १. २. ३. ४. -शांतिसोपान, श्लोक २१ "गोम्मटसार" में आचार्य नेमिचन्द्र ने शरीर के त्याग करने के तीन प्रकार बताये हैं- च्युत, च्यावित और व्यक्त | अपने आप आयु समाप्त होने पर शरीर छूटता है वह च्युत है। विषभक्षण, रक्तक्षय, धातुक्षय, शस्त्राघात, संक्लेश, अग्निदाह, जल प्रवेश प्रभृति विभिन्न निमित्तों से जो शरीर छूटता है वह च्यावित है। रोग आदि समुत्पन्न होने पर तवा असाध्य मारणांतिक व उपसर्ग आदि उपस्थित होने पर विवेकयुक्त समभावपूर्वक जो शरीर त्याग किया जाता है, वह त्यक्त है । त्यक्त शरीर ही सर्वश्रेष्ठ है, इसमें साधक पूर्ण जाग्रत रहता है। उसके मन में संक्लेश नहीं होता। इसी मरण को संधारा, समाधिमरण, पण्डित-मरण, संलेखना मरण प्रभूति विविध नामों से कहा गया है। ५. ६. "यत्फलं प्राप्यते सद्भिर्वातायासविडंबनात् । तत्फलं सुखसाध्यं स्यान्मृत्युकाले समाधिना ॥ " आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर कड़ाई स्थविरों का वर्णन है। वे मंधारासंलेखना करने वाले साधकों के साथ पर्वत आदि पर जाते हैं, और जब तक संथारा करने वाले का संथारा पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक वे स्वयं भी आहारादि ग्रहण नहीं करते । दिगम्बर परम्परा की भगवती आराधना में भी इस प्रकार के साधकों का विस्तार से वर्णन है । संलेखना के पाँच अतिचार : ( १ ) ( २ ) इहलोकाशंसा प्रयोग-धन, परिवार आदि इस लोक सम्बन्धी किसी वस्तु की आकांक्षा करना । परलोकाशंसा प्रयोग — स्वर्ग सुख आदि परलोक से सम्बन्ध रखने वाली किसी बात की आकांक्षा करना । (३) जीविताशंसा प्रयोग - जीवन की आकांक्षा करना । ( ४ ) मरणाशंसा प्रयोग कष्टों से घबराकर शीघ्र मरने की आकांक्षा करना । (५) कामभोगाशंसा प्रयोग - अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के रूप में काम-भोगों की आकांक्षा करना । सावधानी रखने पर भी प्रमाद या अज्ञान के कारण जिन दोषों के लगने की सम्भावना है उन्हें अतिचार सागार धर्मामृत ७-५८ और ८ २७, २८. भगवती आराधना | रत्नकरण्ड श्रावकाचार ५ २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड ५६५०५०. ज्ञातासूत्र, अ० १ सूत्र ४६. 1 भगवती आराधना, गा० ६५०-६७६. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेखना : स्वरूप और महत्त्व २३७ .......................................................................... कहा है। साधक इन दोषों से बचने का प्रयास करता है। जैन परम्परा की तरह ही तथागत बुद्ध ने भी जीवन की तृष्णा और मृत्यु की तृष्णा को अनैतिक माना है। बुद्ध की दृष्टि से भवतृष्णा और विभवतृष्णा क्रमश: जीविताशा और मरणाशा की द्योतक हैं । जब तक ये आशाएँ और तृष्णाएँ चिदाकाश में मँडराती रहती हैं बहाँ तक पूर्ण नैतिकता नहीं आ सकती। इसलिए इनसे बचना आवश्यक है। साधक को न जीने की इच्छा करनी चाहिए, न मरने की इच्छा करनी चाहिए। क्योंकि जीने की इच्छा में प्राणों के प्रति मोह झलकता है तो मरने की इच्छा में जीने के प्रति अनिच्छा व्यक्त होती है। साधक को जीने और मरने के प्रति अनासक्त और निर्मोह होना चाहिए । एतदर्थ ही भगवान महावीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा-साधक जीवन और मरण दोनों ही विकल्पों से मुक्त होकर अनासक्त बनकर रहे ।' और सदा आत्मभाव में स्थित रहे। कष्टों से मुक्त होने के लिए और स्वर्ग के रंगीन सुखों को प्राप्त करने की कमनीय कल्पना से जीवन रूपी डोरी को काटना एक प्रकार से आत्महत्या है। साधक के अन्तर्मानस में न लोभ का साम्राज्य होता है, न भय की विभीषिकाएं होती हैं, न मन में निराशा के बादल मंडराते हैं, और न आत्मग्लानि ही होती है। वह इन सभी द्वन्द्वों से विमुक्त होकर निर्द्वन्द्व बनकर साधना करता है। उसके मन में न आहार के प्रति आसक्ति होती है, और न शारीरिक विभूषा के प्रति ही। उसकी साधना एकान्त निर्जरा के लिए होती है। संलेखना आत्म-हत्या नहीं है जिन विज्ञों को समाधिमरण के सम्बन्ध में सही जानकारी नहीं है उन विज्ञों ने यह आक्षेप उठाया है कि समाधिमरण आत्म-हत्या है। पर गहराई से चिन्तन करने पर यह स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता कि समाधिमर नहीं है। जिनका मन-मस्तिष्क भौतिकता से ग्रसित है, जरा-सा भी शारीरिक कष्ट सहन नहीं कर सकते, जिन्हें आत्मोद्धार का परिज्ञान नहीं है, वे मृत्यु से भयभीत होते हैं। पर जिन्हें आत्म-तत्त्व का परिज्ञान है, आत्मा और देह दोनों पृथक हैं, उन्हें देहत्याग के समय किंचित् मात्र भी चिन्ता नहीं होती, जैसे एक यात्री को सराय छोड़ते समय मन में विचार नहीं आता। समाधिमरण में मरने की किचित् मात्र भी इच्छा नहीं होती, इसलिए वह आत्महत्या नहीं है। समाधिमरण के समय जो आहारादि का परित्याग किया जाता है, उस परित्याग में मृत्यु की चाह नहीं होती, पर देह-पोषण से बचा जाता है। आहार के परित्याग से मृत्यु प्राप्त हो सकती है। किन्तु उस साधक को मृत्यु की इच्छा नहीं है। किसी व्यक्ति के शरीर में कोई फोड़ा हो चुका है। डॉक्टर उसकी शल्य-चिकित्सा करता है। शल्य-चिकित्सा से उसे अपार वेदना होती है। वह शल्य-चिकित्सा रुग्ण व्यक्ति को कष्ट देने के लिए नहीं किन्तु कष्ट के प्रतीकार के लिए है, वैसे ही संथारा--संलेखना की जो क्रिया है वह मृत्यु के लिए नहीं पर उसके प्रतीकार के लिए है । एक रुग्ण व्यक्ति है। डाक्टर शल्य चिकित्सा के द्वारा उसकी व्याधि को नष्ट करने का प्रयास करता है। शल्य चिकित्सा करते समय डाक्टर प्रबल प्रयास करता है कि रुग्ण व्यक्ति बच जाय । उसके प्रयत्न के बावजूद भी यदि १. जीवियं नाभिकंखेज्जा मरणं नाभिपत्थए । दुहओ विन सज्जिज्जा जीविए मरण तहा।। -आचारांग ८-८-४ । - मरण पडियार भूयाएसा एवं च ण मरणंनिमित्ता जहगंड छअकिरिआणो आयविरहाणारूपा। -उद्धत्-दर्शन और चिन्तन पृ० ५३६ से। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड . ......... . ....... ...................................-.-.-.-.-.-.-.-. रुग्ण व्यक्ति मर जाता है तो डाक्टर हत्यारा नहीं कहलाता। इसी तरह संथारा–संलेखना में होने वाली मृत्यु आत्महत्या नहीं हो सकती। शल्य चिकित्सा दैहिक जीवन की सुरक्षा के लिए है तो संलेखना-संथारा आध्यात्मिक जीवन की सुरक्षा के लिए है। कितने ही समालोचक जैन दर्शन पर आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि जैन दर्शन जीवन से इकरार नहीं करता वह जीवन से इन्कार करता है। पर उनकी यह समालोचना भ्रान्त है। जैन दर्शन जीवन के मिथ्या-मोह से इन्कार अवश्य करता है। उसका स्पष्ट मन्तव्य है कि यदि जीवन जीने में कोई विशिष्ट लाभ है, तुम्हारा जीवन स्व और पर-हित की साधना के लिए उपयोगी है तो तुम्हारा कर्तव्य है कि सभी प्रकार से जीवन की सुरक्षा की जाय । श्रुतकेवली भद्रबाहु ने स्पष्ट शब्दों में साधक को कहा- "तुम्हारा शरीर न रहेगा तो तुम संयम की साधना, तपआराधना और मनोमंथन किस प्रकार कर सकोगे। संयम-साधना के लिए तुम्हें देह की सुरक्षा का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए उसका परिपालन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।"१ संयमी साधक के शरीर की समस्त क्रियाएँ संयम के लिए होती हैं। जिस शरीर से संयम की विराधना होती हो, मन में संक्लेश पैदा होता हो वह जीवन किस काम का। जैन दर्शन के मूर्धन्य मनीषियों का यह स्पष्ट मन्तव्य रहा है-वही जीवन आवश्यक है जिससे संयमी जीवन को शुद्धि होती हो, आध्यात्मिक गुणों की शुद्धि और वृद्धि होती हो, उस जीवन की सतत रक्षा करनी चाहिए। जिस जीवन से संयमी जीवन धुंधला होता हो उस जीवन से मरना अच्छा है । इस दृष्टि से जैन दर्शन जीवन से इन्कार करता है। पर प्रकाश करते हुए, संयम की सौरभ फैलाते हुए जीवन से इन्कार नहीं करता। संलेखना व संथारे के द्वारा जो समाधिपूर्वक मरण होता है, उसमें और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या वह व्यक्ति करता है जो परिस्थितियों से उत्पीड़ित है, उद्विग्न है, जिसकी मनोकामनाएँ पूर्ण नहीं हुई हैं। संघर्षों से ऊबकर जीवन से पलायन करना चाहता है। या किसी से अपमान होने पर, कलह होने पर, आवश्यकताओं की पूर्ति न करने पर, पारस्परिक मनोमालिन्य होने पर, किसी के द्वारा तीखे व्यंग्य कसने पर, वह कुएं में कूदकर, समुद्र में गिरकर, पेट्रोल और तेल छिड़क कर, ट्रेन के नीचे आकर, विष का प्रयोग कर, फाँसी आदि लगाकर या किसी शस्त्र से अपना जीवन समाप्त करना चाहता है । आत्महत्या में वीरता नहीं किन्तु कायरता है। जीवन से भागने का प्रयास है। आत्महत्या के मूल में भय और कामनाएँ रही हुई हैं। उसमें कषाय और वासना की तीव्रता है। उत्त जना है। पर समाधिमरण में संघर्षों से साधक भयभीत नहीं होता। जब उसके मन में कषाय, वासना और इच्छाएँ नहीं होती। जब साधक के सामने एक ओर देह और दूसरी और संयम-रक्षा इन दो में से एक को चुनने का प्रश्न आता है तो साधक उस समय देह को नश्वर समझकर संयम की रक्षा के लिए संयम के पथ को अपनाता है । जीवन की सान्ध्यवेला में जब मृत्यु सामने खड़ी हुई उसे दिखाई देती है, वह निर्भय होकर उस मृत्यु को स्वीकार करना चाहता है। उसकी स्वीकृति में उसे अपूर्व प्रसन्नता होती है। वह सोचता है-कर्म जाल में यह आत्मा अनन्त काल से फंसी हुई है। उस जाल को तोड़ने का मुझे अपूर्व अवसर मिला है । वह सर्वतन्त्र स्वतन्त्र होने के लिए अविनश्वर आनन्द को प्राप्त करने के लिए शरीर को त्यागता है। समाधिमरण में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के द्वारा यह चिन्तन करता है कि कम बन्धन का मूल कारण मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व के कारण देह और आत्मा को एक मानता रहा हूँ। जैसे चना और चने का छिलका पृथक् हैं, वैसे ही आत्मा और देह पृथक् है । मिथ्यात्व से ही पर-पदार्थों में परिणति होती है। ज्ञान आत्मा का निज गुण है । मिथ्यात्व के कारण वह निजगुण प्रकट नहीं हो सका है। आत्मा अनन्तकाल से विश्व में जो परिभ्रमण कर रहा है, वह सही ज्ञान के अभाव में । जब ज्ञान का पूर्ण निखार होगा तब मुझे केवलज्ञान प्राप्त होगा। इस प्रकार वह सम्यग १. “संजमहेउ देहो धारिज्जई सो कओ उ तदभावे । संजम काइनिमित्तं देह परिपालना इछा" -ओघ नियुक्ति, ४७. Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेखना : स्वरूप और महत्त्व २३५ . -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............ दर्शन, सम्यग्ज्ञान से आत्मा और देह की पृथक्ता समझकर चारित्र और तप की आराधना करता है । उसकी आराधना में किसी भी प्रकार की आसक्ति और भय नहीं होता। इसलिए समाधिमरण आत्महत्या नहीं है। संक्षेप में यदि हम कहें तो संलेखना व समाधिमरण की निम्न विशेषताएँ हैं-- (१) जैन धर्म की दृष्टि से शरीर और आत्मा ये दोनों पृथक-पृथक् हैं। जैसे मोसम्बी और उसके छिलके। (२) आत्मा निश्चयनय की दृष्टि से पूर्ण विशुद्ध है, वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, अनन्त आनन्द से युक्त है । जो हमें शरीर प्राप्त हुआ है उसका मूल कर्म है । कर्म के कारण ही पुनर्जन्म हैं, मृत्यु हैं, व्याधियाँ हैं,। (३) दैनन्दिन जीवन में जो धार्मिक साधना पर, तप पर बल दिया गया है उसका मूल उद्देश्य है आत्मा में जो कर्म-मैल है उस मैल को दूर करना । प्रश्न है कर्म आत्मा पर चिपके हुए हैं, फिर शरीर को कष्ट क्यों दिया जाय । उत्तर है, घृत में यदि मलिनता है तो उस मलिनता को नष्ट करने के लिए घृत को तपाया जाता है, किन्तु घृत अकेला नहीं तपाया जा सकता, वह बर्तन के माध्यम से ही तपाया जा सकता है। वैसे ही आत्मा के मैल को नष्ट करने के लिए शरीर को भी तपाया जाता है। यही कारण है कि संलेखना में कषाय के साथ तन को भी कृश किया जाता है। (४) जब शरीर में वृद्धावस्था का प्रकोप हो, रुग्णता हो, अकाल आदि के कारण शरीर के नष्ट होने के प्रसंग उपस्थित हों, तो उस समय साधक को संलेखना व्रत ग्रहण कर आत्मभाव में स्थिर रहना चाहिए। संलेखना आत्मभाव में स्थिर रहने का महान् उपाय है। (५) संलेखना व्रत ग्रहण करने वाले को मृत्यु के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। मृत्यु की जानकारी के लिए श्वेताम्बर आचार्यों ने अनेक उपाय बताये हैं। उपदेशमाला के आम्नाय आदि के द्वारा आयु का समय जाना जा सकता है। (६) संलेखना करने वाले साधक का मन वासना से मुक्त हो, उसमें किसी भी प्रकार दुर्भावना नहीं होनी चाहिए। (७) संलेखना के पूर्व जिनके साथ वैमनस्य हुआ हो उनसे क्षामायाचना कर लेनी चाहिए और दूसरों को क्षमा प्रदान भी कर देना चाहिए। (८) संलेखना के अन्दर तनिक मात्र भी विषम भाव न हो । मन में समभाव हो। (8) संलेखना अपनी स्वेच्छा से ग्रहण करनी चाहिए। किसी के दबाव में आकर अथवा स्वर्ग आदि के सुखों की प्राप्ति उपलब्ध होगी इस दृष्टि से संलेखना-संथारा करना अनुचित है। (१०) सलेखना करने वाला साधक मन में यह न सोचे कि मेरी संलेखना--संथारा लम्बे काल तक चले जिससे कि लोग मेरे दर्शन हेतु उपस्थित हो सकें, मेरी प्रशंसा हो, और यह भी न सोचे कि मैं शीघ्र ही मृत्यु को परण कर लू । संलेखना वाला साधक न जीने की इच्छा करता है, न मरने की; वह तो सदा समभाव में रहकर संलेखना की साधना करता है। उसमें न लोकषणा होती है, न वित्तषणा होती है, न पुत्रैषणा होती है। जैन साधना पद्धति में आत्म बलिदान की प्रथा मान्य नहीं है । शैव और शाक्त साम्प्रदायों में पशुबनि की भांति आत्म-बलिदान को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। पर जैन धर्म में उसका महत्त्व नहीं है। संलेखनायुक्त समाधिमरण आत्म-बलिदान नहीं है । आत्म-बलिदान और समाधिमरण में अन्तर है। आत्म-बलिदान भावना को प्रबलता होती है । बिना भावातिरेक के आत्म-बलिदान नहीं होता, जबकि समाधिमरण में भावातिरेक नहीं, किन्तु विवेक की प्रधानता होती है। यदि हम श्रमण जीवन को सूर्य की उपमा से अंलकृत करें तो कह सकते हैं कि आर्हती दीक्षा ग्रहण करना यह श्रमण जीवन का उदयकाल है। उसके पूर्व की वैराग्य अवस्था साधक जीवन का उषाकाल है। जब साधक उत्कृष्ट . Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. तप-जप व ज्ञान की साधना करता है उस समय उसकी साधना का मध्याह्न काल होता है और संलेखना प्रारम्भ करता है तब उसका सन्ध्या काल होता है । सूर्य उदय के समय पूर्व दिशा मुस्कराती है। उषा सुन्दरी का दृश्य अत्यन्त लुभावना होता है । उसी प्रकार सन्ध्या के समय पश्चिम दिशा का दृश्य भी मन को लुभावनेवाला होता है। सन्ध्या की सुहावनी लालिमा भी दर्शक के हृदय को आनन्द विभोर बना देती है। वही स्थिति साधक की है। उसके जीवन में भी संयुम को ग्रहण करते समय जो मन में उल्लास और उत्साह होता है वही उत्साह मृत्यु के समय भी होता है। जिस छात्र ने वर्ष भर कठिन श्रम किया है वह छात्र परीक्षा प्रदान करते समय घबराता नहीं हैं। उसके मन में एक प्रकार का उत्साह होता है । वह प्रथम श्रेणी में समुत्तीर्ण भी होता है। वैसे ही जिस साधक ने निर्मल संयम की साधना जीवन भर की है वह संथारे से घबराता नहीं, पर उसके मन में एक आनन्द होता है । शायर के शब्दों में मुबारक जिन्दगी के वास्ते दुनिया को मर मिटना । हमें तो मौत में भी जिन्दगी मालूम देती है। मौत जिसको कह रहे वो जिन्दगी का नाम है । मौत से डरना-डराना कायरों का काम है। जैन आगम साहित्य, उसका व्याख्या साहित्य और जैन कथा साहित्य-इतिहास में संलेखनायुक्त समाधिमरण प्राप्त करने वाले हजारों साधक और साधिकाओं का उल्लेख है। तीर्थकरों से लेकर गणधर, आचार्य, उपाध्याय व श्रमण-श्रमणियाँ तथा गृहस्थ साधक भी समाधिमरण को वरण करने में अत्यन्त आनन्द की अनुभूति करते रहे हैं। इतेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी समाधिमरण का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। इस तरह सम्पूर्ण जैन परम्परा समाधिमरण को महत्त्व देती रही है । भगवान महावीर के पश्चात् द्वादश वर्षों के भयंकर दुष्कालों में संयमी साधना में अनेक बाधाएँ उपस्थित होने लगी तो उन वीर श्रमणों ने संलेखनायुक्त मरण स्वीकार कर ज्वलन्त आदर्श उपस्थित किया। विस्तार भय से हम यहाँ प्रागैतिहासिक काल से आज तक की सूची नहीं दे रहे हैं। यदि कोई शोधार्थी इस पर कार्य करे तो उसको बहुत कुछ सामग्री सहज रूप से उपलब्ध हो सकती है। संलेखना और आत्मघात में शरीर त्याग समान रूप से है, पर शरीर को कौन, कैसे और क्यों छोड़ रहा है ? यह महत्त्वपूर्ण बात है। संलेखना में वही साधक शरीर का विसर्जन करता है जिसने अध्यात्म की गहन साधना की है, भेदविज्ञान की बारीकियों से जो अच्छी तरह से परिचित है, जिसका चिन्तन स्वस्थ, सुचिन्तित है। "मैं केवल शरीर ही नहीं किन्तु मेरा स्वतन्त्र अस्तित्व है । शरीर मरणशील है और आत्मा शाश्वत है । पुद्गल और जीव--ये दोनों पृथक्पृथक हैं। दोनों के अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व हैं। पुद्गल कभी जीव नहीं हो सकता और जीव कभी पुद्गल नहीं हो सकता है । संलेखना, जीव और पुद्गल जो एव मेक हो चुके हैं, उसे पृथक् करने का एक सुयोजित प्रयास है । संलेखना और आत्मघात इन दोनों में पर्याप्त अन्तर है। आत्मवात करते समय व्यक्ति की मुखमुद्रा विकृत होती है, उस पर तनाव होता है, उस पर भय की रेखाएं झलकती रहती हैं किन्तु संलेखना में साधक की मुख-मुद्रा पूर्ण शान्त होती है, उसके चेहरे पर किसी भी प्रकार की आकुलता-व्याकुलता नहीं होती। आत्मघात करने वाले का स्नायु तन्त्र तनावर क्त होता है। जबकि संलेखना करने वाले साधक का स्नायु-तन्त्र तनावमुक्त होता है । आत्मघात करने वाले व्यक्ति की मृत्यु आकस्मिक होती है जबकि संलेखना करने वाले की मृत्यु जीवन-दर्शन पर आधारित होती है। आत्मघात करने वाला जिस स्थान पर आत्मघात करना चाहता है उस स्थान को वह प्रकट होने देना नहीं चाहता है वह लुकछिपकर आत्मघात करता है, जबकि संलेखना करने वाला साधक किसी प्रकार स्थान को नहीं छिपाता । अपितु उसका स्थान पूर्व निर्धारित होता है, सभी को ज्ञात होता है । आत्मघात करने वाले की वृत्ति में कायरता है, अपने कर्तव्य से पलायन करना चाहता है जबकि संलेखना वाले की वृत्ति में प्रबल पराक्रम है। उसमें पलायन नहीं किन्तु सत्यस्थिति को स्वीकार करना है । आत्मघात और संलेखना के अन्तर को मनोविज्ञान द्वारा भी स्पष्ट समझा जा सकता है मान Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेखना : स्वरूप और महत्त्व २४१ . .......................................................................... सिस तनाव के कारण और अनेक सामाजिक विसंगति व विषमताओं के कारण आत्मघात की प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं। भौतिकवाद की चकाचौंध में पले-पुसे व्यक्तियों को यह कल्पना भी नहीं हो सकती कि शान्ति के साथ योजनापूर्वक मरण को वरण किया जा सकता है। संलेखना विवेक की धरती पर एक सुस्थित मरण है । संलेखना में केवल शरीर ही नहीं किन्तु कषाय को भी कृश किया जाता है । जब तक शरीर पर पूरा नियन्त्रण नहीं किया जाता वहाँ तक संलेखना की अनुमति प्राप्त नहीं होती । उसमें सूक्ष्म समीक्षण भी किया जाता है। जब मानसिक संयम सम्यक् चिन्तन के द्वारा पूर्ण रूप से पक जाता है तभी संलेखना धारण की जाती है। संलेखना पर जितना गहन चिन्तन-मनन जैन मनीषियों ने किया है उतना अन्य चिन्तकों द्वारा नहीं हुआ। संलेखना के चिन्तन का उद्देश्य किसी प्रकार का लौकिक लाभ नहीं है, उसका लक्ष्य पार्थिव समृद्धि या सांसारिक सिद्धि भी नहीं है अपितु जीवन-दर्शन है । संलेखना जीवन के अन्तिम क्षणों में ही की जाती है पर आत्मघात किसी भी समय किया जा सकता है। सारं दसण नाणं, सारं तव-नियम-संजम-सोलं । सारं जिणवरधम्म, सारं सलेहणा-मरणं ॥ संसार में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, तप, नियम, संयम, शील जिनधर्म तथा संलेखनापूर्वक मरण ही सार-तत्त्व है। Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ only onto No 0+0+ समाधिमरण श्री चन्दन मुनि [ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य ] जन्मना और मरना अनादिकाल से संसारी जीव के पीछे लगा हुआ है । जन्मे और न मरे - ऐसा कभी संभव नहीं है । वस्तुतः जन्मना मरने का ही द्योतक है और मरना जन्मने की ही पूर्व भूमिका है। कहीं से मरा है तभी तो कहीं उत्पन्न हुआ है। केवल रूपान्तरण है। एक उर्दू शायर ने क्या खूब कहा है- ना जन्म कुछ ना मौत कुछ, बस एक बात है । किसी की आंख लग गई, किसी की खुल गई ॥ " परन्तु जीना कैसे चाहिए और मरना कैसे चाहिए ? इसका ज्ञान किसी विरल व्यक्ति को ही होता है। अंग्रेजी में कहावत है— 'लाइफ इज एन आर्ट' जीना एक कला है। लेकिन ज्ञानी कहते हैं— मरना बहुत बड़ी कला है, क्योंकि पूरे जीवन का वही निचोड़ है। पूरी समुद्री यात्रा का वही किनारा है। पूरी पढ़ाई का वही परीक्षा परिणाम है। जैन गगनांगण के ज्योतिर्धर आचार्य पूज्यपाद स्वामी 'मृत्युमहोत्सव' नाम के ग्रन्थ में कहते हैं— तप्तस्य तपसश्चापि पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्युः समाधिना ।। अर्थात् तपे हुए तप का, पाले हुए व्रत का और पढ़े हुए ज्ञान का समाधियुक्त मृत्यु ही फल है । यदि मृत्यु असमाधि स्थिति में हुई तो तप, व्रत और श्रुत से क्या लाभ है ? यथार्थ में पूरी साधना का समाधिमरण ही फल है । भगवान महावीर ने सकाम-मरण तथा अकाम-मरण, ऐसे मृत्यु के दो भेद किए हैं। अकाम-मरण तो बारबार हुआ और होता ही जा रहा है, परन्तु सकाम-मरण किसी विरल साधक का ही होता है। अकाम मरण से तात्पर्य है— मृत्यु को नहीं चाहना तीव्र जिजीविषा के वश मृत्यु का नाम सुनते ही रोमांच हो जाना । हाय मृत्यु आ गई, अब मेरा क्या होगा ? मेरे बाल-बच्चों का क्या होगा ? कैसे भी मैं जीवित रहूँ — ऐसा उपाय करो, ऐसी दवा दो, ऐसे अनुभवी डाक्टर या वैद्य को बुलाओ इस प्रकार दिलगीर हो जाना, अपने आपको असहाय महसूस करना, अकाम-मृत्यु के लक्षण हैं। बाल अज्ञानियों की प्राय: ऐसी ही मृत्यु होती है। वे रोते ही आते हैं और रोते ही जाते हैं। सुना है, अरवी के विख्यात सायर से सादी एक बार किसी बच्चे के जन्मोत्सव पर होने वाले प्रीतिभोज में सम्मिलित हुए। लोग हँसते- खिलते खाना खा रहे थे, उवर नवजात शिशु तीक्ष्ण स्वर से रो रहा था । इस स्थिति पर शेख सादी के दिमाग में एक भाव उभर आया । शायरी में बाँधते हुए उन्होंने कहा जब तुम आये जगत में जग हँसमुख तुम रोये । ऐसी करनी कर चलो, तुम हँसमुख जग रोये ॥ . Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधिमरण २४३ . -. -.-.-.-.-.-. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -. -. -.-.-. -. -.-.-. -. -.-.-.-. परन्तु रोते ही आना और रोते ही जाना जीवन-कला का सूचक नहीं है । अज्ञान का ही वह परिणाम है। सकाम-मरण से तात्पर्य है, इच्छापूर्वक मृत्यु का वरण करना। वासनाओं से विमुक्त होकर मौन की गोद में प्रविष्ट होना । जैनागम कहता है-इहलोक की आशंसा, परलोक की आशंसा, जीवन की आशंसा, मरण की आशंसा और कामभोग की आशंसा मुझे मरण के समय न रहे। साधक संकल्पपूर्वक कहता है कि 'मा मज्झ हुज्ज मरणंते' अर्थात् ये उपर्युक्त वासनाएं-आशंसाएं मेरे परलोक-गमन के समय न रहें । महावीर का अद्भुत चिन्तन है कि जीवनाशंसा की तरह मरण की आशंसा भी नहीं होनी चाहिए। क्योंकि रोगादि कष्टों से घबराकर कुछ मरण की भी मांग करने लग जाते हैं । साधक को उस समय जाग्रत रहने की आवश्यकता है। मृत्यु समय की पराधीनता को ध्यान में लेते हुए कबीर साहिब फरमाते हैं कबीरा ! सब ही सधी, एक रही मन मांय । कायागढ़ घेरो दियां, इज्जत रहसी के नाय ।। अर्थात्-जब कायारूपी किले पर यमदूतों का घेरा लगेगा उस समय मेरी इज्जत रहेगी या नहीं, यह चिन्तनीय है । इस स्थिति का चिन्तन करते हुए शान्तसुधारस गेयकाव्य में उपाध्याय श्री विनयविजयजी लिखते हैं प्रतापापन्नं गलितमथ तेजोभिरुदितैर्गतंधैर्योद्योगैः श्लथितमथपुष्टेन वपुषा । प्रवृत्तं तद्रव्यग्रहण-विषये बान्धवजनैर्जने बीनाशेन प्रसभमुपनीते निजशम् ।। इसी भावना का उपजीवी पद्य मैंने एक गीतिका में लिखा है मुख से कुछ कहना चाहेगा, पर न कहा जायेगा, तेज-प्रताप क्षीण होगा, तन शीतल पड़ जायेगा, अंतिम चिह्न एक ही होंगे, शाह और कंगाल के, जब बजे नगाड़े काल के, जब उठे कदम भूचाल के । प्राण पंछी उड़ने वाला, रखना खुद को संभाल के, जब बजे नगाड़े काल के । फिर भी आत्मस्थ साधकों को वहाँ किंचित् भी भय नहीं होता। वे कहते हैं--- जा मरने से जग डरे, मो मन में आनन्द । कब मरिहों कब पाइहों, पूरण परमानन्द ॥ दरअसल मौत है ही क्या ? मौत तो शरीर की है। आत्मा तो अजर-अमर है। वह तो न कभी मरी और न कभी मरेगी । परलोक-गमन को लेकर गीता में कितना मार्मिक चित्रण हुआ है वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहणति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। तात्पर्य यह है कि मरण तो केवल जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर नवीन परिधान पहनने जैसा है। शरीर जीर्ण हो चुका है । इन्द्रियाँ क्षीण हो चुकी हैं । अब इनके परित्याग में फिक्र कैसा ? भय किसका ? यह तो अवश्यंभावी भाव है । सही देखा जाए तो जन्म के क्षण से ही मौत का प्रारम्भ हो जाता है । एक थैली में सौ रुपये हैं, यदि एक-एक रुपया प्रतिदिन निकाला जाय तो थैली के खाली होने में क्या सन्देह है। हाँ, अन्तिम रुपया निकलते ही वह पूर्णरूपेण शून्य Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............................................ हो जाती है, परन्तु रिक्त होना तो पहले से ही था। प्रभु महावीर के शब्दों में इसे 'आवीचिमरण' कहा जाता है। जो इस तत्त्व को हृदयंगम कर लेता है, वह कभी मौत से भयभीत नहीं होता । सप्तमाचार्य श्री डालिगणि के समय में साध्वीप्रमुखा के रूप में काम करने वाली महासती जेठांजी का समाधिमरण बड़ा विचित्र ढंग से हुआ। बीकानेर के थली प्रदेश में 'राजलदेसर' नाम का एक अच्छा कस्बा है। श्री जेठांजी वृद्धावस्था के कारण वर्षों से वहाँ स्थानापन्न थीं। एक बार अचानक वे यावज्जीवन अनशन के लिए तैयार हो गईं। कारण पूछने पर आपने अपना अनुभव सुनाते हुए कहा-'मेरे कानों में दिव्यवादित्रों की ध्वनियां आ रही हैं जो अश्रुतपूर्व एवं अवर्णनीय हैं। बस मेरा महाप्रयाण सन्निकट है।' ऐसा कहकर उन्होंने पूरे संघ के मध्य उच्चस्वर से आजीवन अनशन स्वीकार लिया। स्वयं सतियों के मध्य स्थित थीं। पार्श्ववर्ती सध्वियाँ आराधना आदि का श्रवण करवा रही थीं। नमस्कार महामन्त्र का परावर्तन हो रहा था। दो-तीन घंटा तक ऐसा कार्यक्रम चला । सारे संघ के समक्ष इसी वातावरण में महासती श्री जेठांजी बैठी-बैठी स्वर्गगामिनी बन गईं। सारा समाज देखता ही रह गया। लोगों के आश्चर्य का पार न था। सभी मान गए कि इसे कहते हैं, समाधिमरण । किन्तु ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जबकि हमारी पूर्व तैयारी ययार्थतया से हुई हो। समाधिमरण को पाने वाला ही भवजल का किनारा पा सकता है। यही हमारे जीवन का चरम लक्ष्य है। X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X X xxxxx X X लब्भन्ति विमला भोए, लम्भंति सुर संपया। लभंति पुत्त मित्तं च, एगो धम्मो न लब्भई ॥ संसार में उत्तम भोग, देव संपदा तथा पुत्र-मित्र आदि स्वजन संबंधियों की प्राप्ति सुलभ है किन्तु एक सद्धर्म की प्राप्ति होना दुर्लभ है। xxxx xxxxx xxxxxxxxxxx xxxxxxxxxxx Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप: एक महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान ___ मुनिश्री सुमेरमलजी 'लाडनू" [युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य] तप का महत्त्व सभी भारतीय दर्शनों में है। कृतकर्मों को तोड़ने के लिए सभी ने तप को बहुत बड़ा साधन माना है। इसलिए यहाँ ज्ञानी से भी तपस्वी को अधिक महत्त्व मिलता आया है। ज्ञान में विवाद हो सकता है, तप में नहीं । तप निविवाद आत्म-उज्ज्वलता का एक महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान है। जैन दर्शन में मोक्ष के चार महत्त्वपूर्ण साधनों में तप को एक साधन माना गया है। भगवान से पूछः गयः-तवे णं भंते ! जीवे कि जणयई" तप करने से जीव को क्या लाभ प्राप्त होता है ? समाधान देते हुए बताया है-"तवे णं बोदाणं जणयई।" तप से कर्म बोदे (जीर्ण) हो जाते हैं, फिर उसे तोड़ने में विशेष परिश्रम करना नहीं पड़ता। "तवसा धुगइ पुराण पावगं" तपस्या से मुनि पूर्वसंचित कर्मों को धुन डालता है, इसीलिए सुगति प्राप्त करने वालों को तप प्रधान बतलाया है । जिनका जीवन तप-प्रधान होगा उन्हें अपने आप सुगति (श्रेजगति) प्राप्त हो जाती है । पापकर्म तप से खत्म हो जाते हैं और पुण्य कर्म का जब भारी संचय हो जाता है, सुगति-देवगति प्राप्त हो जाती है । पुण्य और पाप जब दोनों क्षय हो जाते हैं, तब सुगति (मोक्षगति) प्राप्त हो जाती है। पाप क्षय होने के बाद अकेले पुण्य का बन्धन दीर्वकालिक नहीं होता, उन्हें भी समाप्त होना पड़ता है। जैन तपस्या विधि में नाना प्रकार से तप करने का उल्लेख है । अग्लानभाव से आत्मा को तपाने की प्रक्रिया का नाम तप है। जिसमें जीवहिसा न हो, किसी दूसरे को कष्ट न हो, उसी तप विधि को तप कहा गया है । "अनाहारस्तपः कथितम्" अनाहार को तप कहा गया है। इसमें किसी को कष्ट पहुँचने की संभावना नहीं रहती। आहार के चार प्रकार माने गये हैं--(१) असन (२) पानी, (३) खादिम, (४) स्वादिम । सामान्यतः तप चारों प्रकार के आहार से निवृत्त होने पर ही होता है । तीयंकर देव जितनी तपस्या करते हैं, वह सभी चउविहार होती है । तपस्या का दूसरा प्रकार तिविहार का होता है, उसमें पानी लेकर तप किया जाता है, पानी के अतिरिक्त तीनों प्रकार के आहारों में निवृत होता होता है । वर्तमान में तिविहार तपस्या अधिक प्रचलित है। ___ आछ पीकर भी तप करने की परम्परा रही है। सिर्फ आछ के अतिरिक्त और कोई चीज काम में नहीं लेते । आछ, छाछ के उकालने के बाद कार नितर आने वाले पानी को कहा जाता है। छाछ नीचे रह जाती है, केवल नीला-नीला पानी ऊपर आ जाता है, उसे छानकर पीने वाले की तपस्या आछ के आधार पर तपस्या कही जाती है । चार महिना, छ: महिना आदि लम्बे दिनों की तपस्या आजकल आछ लेकर की जाती है। आछ लेकर वर्तमान में सर्वाधिक लम्बी तपस्या तेरापंथ धर्मसंव में साध्वी श्री भुरांजी ने की है, उन्होंने तीन सौ छत्तीस दिनों की तपस्या की थी। For. Private & Personal Use Only Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ० २४६ DIIOIC कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ चतुर्थखण्ड तपस्या के विभिन्न प्रकार तपस्या का कालमान वैसे एक दिन से लेकर बारह महिनों तक का है। जिनकी जितनी शारीरिक क्षमता हो उतनी ही तपस्या की जा सकती है। बारह महिनों की तपस्या भगवान ऋषभ के शासन काल में थी, बीच के तीर्थंकरों के साधना काल में आठ महिनों की उत्कृष्टतम तपस्या मानी जाती थी । अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के साधना काल में छः महिनों की उत्कृष्ट तपस्या रही। जिनकी जितनी क्षमता हो वह उतना ही तपस्या से अपने को लाभान्वित कर लेता है। जैन आगमों में इनके कुछ प्रकार बताये हैं, वे इस प्रकार हैं- में बेले बेले, तीसरे महिने । गुणरत्न संवत्सर तब इसमें पहिले महिने में एकान्तर उपवास, दूसरे महिने में तेले-तेले, ऐसे करते-करते सोलहवें महिने में सोलह-सोलह का तप किया जाता है सात दिन होते हैं तथा तिहीतर दिन पार के होते हैं, कुल चार सौ अस्सी दिनों का यह जाता है । इस तप में तपस्या के चारसो गुण रत्न संवत्सर तप कहा रत्नावली तप: इसमें उपवास बेला-तेला करके फिर आठ बेले किये जाते हैं। उसके बाद उपवास से शुरू करके सोलह तक तप किया जाता है, वहाँ फिर चौंतीस बेसे किये जाते हैं। बाद में सोलह पन्द्रह यों उतरते हुए उपवास तक आ जाते हैं, फिर आठ बेले किये जाते हैं, अन्त में तेला बेला और उपवास करके इसे सम्पन्न किया जाता है। इस रूप में चार सौ बहोत्तर दिन लगते हैं, इनमें अठासी दिन पारणे के होते हैं, शेष तीन सौ चौरासी दिन तप के होते हैं । पारणे की विधि भेद से इस तप की चार परिपाटी हो जाती हैं। एक विधि में पारणे में दूध, दही, घी आदि यि का सेवन किया जा सकता है । दूसरी विधि में विगय न लेना, सिर्फ लेप लगा हुआ ले सकते हैं । तीसरी विधि में लेप भी नहीं ले सकते, छाछ, राबड़ी, बिना बगार ( छोंक) की सब्जी, दाल आदि काम में ले सकते हैं । चौथी विधि में आयंबिल करना होता है । इस प्रकार पारणे के विधि भेद से इसके चार भेद हो जाते हैं । कनकावली तप - यह तप भी रत्नावली तप जैसा ही है, इसमें सिर्फ आठ-आठ बेले और बीच में चौंतीस बेले की जगह, तेले किये जाते हैं । इस क्रम से तप करने में सतरह मास और बारह दिन लगते हैं । उनमें अठासी पारणे आते हैं और चार सौ चौबीस दिन तप के हो जाते हैं । पारणे के भेद से इस तप की भी उपर्युक्त चार परिपाटी होती है। मुक्तावली तप- इसमें तपस्या करने वाला एक से सोलह तक चढ़ता है, किन्तु बीच में एक-एक उपवास करता हुआ चढ़ता है, जैसे—बेला करके पारणा किया फिर उपवास किया, फिर तेला किया, इस प्रकार हर तपस्या के बाद उपवास करके आगे का तप करता हुआ सोलह तक चढ़ता है, फिर उपवास करके उसी क्रम से पन्द्रह - चौदह करता हुआ उतरता है । इस तप में ग्यारह महिने पन्द्रह दिन लगते हैं । इनमें उनसठ दिन पारणे के और दो सौ छयासी दिन तपस्या के होते हैं। पारणे के भेद से इसकी भी चार परिपाटी होती हैं। लघुसिंहनिष्कीड़ित तप-जैसे क्रीड़ारत सिंह चलता हुआ हर दो चार कदम बाद पीछे की ओर देखता है, फिर आगे चलता है, इसी क्रम से की जाने वाली तपस्या को लघुसिंहनिष्कीड़ित तप कहते हैं । इस तप में उपवास करके बेला करना होता है, फिर उपवास करके तेला किया जाता है। फिर बेला करके चोला करना पड़ता है । इसी क्रम से नौ तक चढ़कर पुनः उपवास तक उतरना पड़ता है । इस तप में छः महिने सात दिन लगते हैं, इसमें तैंतीस पारण के और एक सौ चौपन दिन तप के होते हैं । पारण के भेद से इसकी भी चार परिपाटी होती हैं। -- महासिनिति तय इसकी विधि भी लघुहिनोति तप की भांति ही है, फर्क इतना ही है, उसमें नौ तक चढ़ना पढ़ता है, और इसमें सोलह तक चढ़ा जाता है। इस तप को करने में अठारह महिने और अठारह दिन . Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप : एक महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान २४७ . ........................................................................... लगते हैं, जिसमें इकसठ दिन पारणे के और चार सौ सिताणवें दिन तप के होते हैं। पारणे के भेद से इसकी भी चार परिपाटी होती हैं। आयंबिल वर्धमान तप-इसमें एक आयंबिल से क्रमशः चढ़ते-चढ़ते एक सौ आठ तक चढना होता है। इसका क्रम इस प्रकार है--एक आयंबिल, फिर एक उपवास, फिर दो आयंबिल फिर एक उपवास, फिर तीन आयंबिल फिर एक उपवास इस प्रकार प्रत्येक संख्या की समाप्ति पर एक उपवास करके अगली संख्या के आयंबिल प्रारम्भ कर दिए जाते हैं । आयंबिल में भी सिर्फ एक धान की बनी वस्तु और पानी के अतिरिक्त कुछ नहीं लिया जा सकता, नमक भी नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार लघुसर्वतोभद्र, महासर्वतोभद्र, भद्रोत्तर प्रतिमा का वर्णन भी अंतकृत दशांगसूत्र में मिलता है। इसके अतिरिक्त भिक्ष की बारह प्रतिमाओं को भी तपप्रधान माना गया है। धूप में आतापना लेना और सर्दियों में अनावृत रहना काया-क्लेश निर्जरा के भेद के अन्तर्गत बाह्य तप में माना है। ___ आगम में आई हुई तपस्या की विभिन्न विधियों का जिक्र ऊपर किया जा चुका है। ये सब तप साधु तथा साध्वियों द्वारा समाचरित होते रहे हैं। श्रावक-श्राविकाओं द्वारा इस प्रकार की तपस्या करने का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। श्रावक-श्राविकाओं की लम्बी तपस्या का उल्लेख आगमों में कहीं मिलता ही नहीं। सिर्फ अट्ठम (तेला) तक तप करने का जिक्र अवश्य प्राप्त होता है, या अनशन करने का उल्लेख मिलता है और तपस्याओं का उल्लेख क्यों नहीं मिलता? सचमुच, यह शोध का विषय है। क्या तेले से ऊपर तपस्या किसी ने की ही नहीं ? अगर नहीं की तो क्यों नहीं की ? या तपस्या के साथ ध्यान अनिवार्य था ? अथवा ध्यान के साथ ही तपस्या होती थी? और श्रावक अधिक ध्यान न कर सकने की स्थिति में लम्बी तपस्या नहीं कर सके ? इन सब तथ्यों का शोध करने पर ही पता लग सकता है । आज तपस्या के साथ ध्यान का कोई सम्बन्ध नहीं है । और श्रावक-श्राविकाएँ भी आज तिविहार तपस्या काफी लम्बी-लम्बी करने लग गये हैं। अठाई, पखवाड़ा तो सामान्य बात है, ऊपर में मासखमण आदि की तपस्या भी प्रतिवर्ष काफी लोग कर लेते हैं। ऊपर में तिविहार तपस्या एक सौ बीस दिन तक करने वाली पंजाब की बहिन कलावती है, इसने इस तपस्या के काफी दिन युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के सान्निध्य में बिताये थे। स्थानकवासी समाज में भी एक बहिन पिछले वर्षों में काफी लम्बी तपस्याएं करती रही है। परम्परागत तप-आजकल तप के कुछ और भी प्रकार प्रचलित हैं, जिसका उल्लेख आगमों में नहीं है। लगता है यति लोगों ने उनका क्रम प्रचलित किया है। नोकारसी, पोरसी, पुरिमड्ढ़, एकासन, आयंबिल, अभिग्रह आदि जो आगमों में अलग-अलग आए हुए हैं, उनका संयोजन विभिन्न स्तर पर करके अलग-अलग नाम से तपस्या का क्रम प्रचलित कर दिया था, वास्तव में उनका यह महत्त्वपूर्ण पवित्रतम उपक्रम था। दस पचखान-यह दस दिनों का तप विधान है, इसमें नोकारसी प्रात:कालीन (एक मुहूर्त) के त्याग से से प्रारम्भ कर चरम पचखाण सन्ध्या में एक मुहुर्त दिन से चौविहार करके सम्पन्न किया जाता है। इसमें दस दिनों में तप करने का क्रम इस प्रकार है। १. नोकारसी : सूर्योदय से एक मुहूर्त (४८ मिनट) का चारों आहार का त्याग करना होता है। नोकारसी तिविहार __ नहीं होती, वह चौविहार ही करनी पड़ती है। २. पोरसी : सूर्योदय से एक प्रहर दिन तक तिविहार या चोविहार त्याग करना । ३. पुरिमड्ढ : सूर्योदय से दो प्रहर (आधा दिन) तक तिविहार या चौविहार त्याग करना । ४. एकासन : दिन में एक बार आहार करके त्याग करना । Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिमन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ५. एकलठाणा : इसमें भी दिन में एक बार आहार करके त्याग किया जाता है, विशेषता यह है एकलठाणे में एक बार में ही खाने के लिए लिया जाता है। इसे सामान्यत: मौन रखकर ही किया जाता है। ६. नीबी : इसमें विगय के लेपमात्र का भी त्याग करना पड़ता है। छोंक दिया हुआ साग, चुपड़ा हुआ फुलका भी काम नहीं आ सकता। ७. आयंबिल : एक धान की बनी हुई बिना नमक, मिरच की वस्तु और पानी के अतिरिक्त त्याग करना पड़ता है। उपवास : पहले दिन के शाम से दूसरे दिन के लिए तिविहार या चौविहार त्याग करना। ६. अभिग्रह : अमुक संयोग मिले तो पारणा करूंगा नहीं तो अमुक समय तक नहीं करूंगा। इस प्रकार त्याग करना। १०. चरम पचखाण : एक मुहूर्त रहे तब चौविहार त्याग करना। दस पचखाण करते हुए सामान्यतः रात्रिभोजन का त्याग, सचित्त का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन करने की परम्परा है। अढाई सौ पचखाण-इन्हीं दस पचखाणों को पच्चीस गुणा करके करने से अढाई सौ पचखाण हो जाते हैं। २५ नोकारसी, २५ पोरसी, २५ दो पोरसी ऐसे दसों प्रत्याख्यान पच्चीस-पच्चीस करने से अढाई सौ हो जाते हैं । इसमें अढाई सौ दिन लगते हैं । अढाई सौ व्यक्ति मिलकर करें तो यह तप एक दिन में भी हो जाता हैं। पच्चीस-पच्चीस व्यक्तियों द्वारा दसों प्रत्याख्यानों को करने से एक दिन में ही इसे सम्पन्न किया जा सकता है। कर्मचूर तप-यह भी पारम्परिक तप है, इसमें सवा सौ उपवास, बेला बाबीस, तेला तेबीस, चोला चौदह, पंचोला तेरह, अठाई दो क्रमश: की जाती है। कर्मचूर में तपस्या के दिन तीन सौ पिचोतर होते हैं और पारणे के दिन एक सौ निन्याणु होते हैं। लड़ी तप- इस तप में तीर्थंकरों की संख्या को माध्यम मानकर एक से चौईस तक चढ़ा जाता है । पहले तीर्थकर का एक उपवास, दूसरे तीर्थंकर के दो उपवास, ऐसे चढ़ते-चढ़ते चौईसवें तीर्थकर के चौईस उपवास लड़ी बंध करने होते हैं, इसे लड़ी चढ़े ऐसा माना जाता है, उतरने का भी वैसा ही क्रम है । ऐसे विहरमान तीर्थंकरों का भी लड़ी तप किया जाता है । कई गणधरों का भी करते हैं। पखवास तप-इस तप में तिथि क्रम से उतने उपवास उसी तिथि को किये जाते हैं। जैसे-एकम का एक उपवास एकम की तिथि को ही किया जाता है । दूज के दो उपवास वदी सुदी दूज को ही किये जाते हैं। इसी प्रकार चढ़ते-चढ़ते अमावस और पूर्णिमा के पन्द्रह उपवास कर इसे सम्पन्न किया जाता है। इसमें पाँच वर्ष सात महिने लग जाते हैं। प्रायः इसका प्रारम्भ भाद्रपद वदी १ किया जाता है और छठे वर्ष की होली की पूर्णिमा पर उपवास करके सम्पन्न किया जाता है। सोलियो-संवत्सरी से सोलह दिन पूर्व इसे प्रारम्भ किया जाता है, एक दिन उपवास और पारणे के दिन बीयासन (दो बार) से अधिक भोजन नहीं करना। इस तप वहन के समय ब्रह्मचर्य का पालन, सचित्तमात्र का त्याग और रात्रि चऊविहार करना अनिवार्य है। चूड़ा तप-आगे सुहागिन बहनों को चूड़ा पहनना अनिवार्य था। दोनों भुजाओं पर हाथी दाँत का बना हुआ चूड़ा हुआ करता था । एक तरफ के चूडे में लगभग बीस चूड़ियाँ हुआ करती थीं। बायें हाथ के चूड़े के नाम से जो तप किया जाता था, उसे चूड़ा तप कहा जाता था। इसमें बीस दिन एकान्तर किया जाता है और पारणे में बीयासन किया जाता है। बोरसा तप-यह भी बहनों के पहनने का एक आभूषण होता है, इसे प्रतीक बनाकर एकान्तर से चार ० ० - - Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप : एक महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान २४. उपवास और चार बीयासन करने को बोरसा तप कहते हैं। दोनों अंगों का बोरसा तप करने से आठ उपवास और पारणा में बीयासना करके इसे सम्पन्न किया जाता है। वाटको तप-इसमें चार व्यक्ति सबेरे-सबेरे बिना कुछ खाये-पीए किसी पाँचवें व्यक्ति से चार वाटकियाँ तैयार करवाते हैं । पाँचवाँ व्यक्ति चार वाटकियों में एक में घी, एक में छाछ, एक में नवकरवाली और एक को खाली रखकर ढक देता है। फिर चारों व्यक्तियों को वहाँ बुलाया जाता है । चारों एक-एक वाटकी को खोलते हैं । घी वाली वाटकी जिसने खोली उसे एकासना करना होता है। छाछ वाली बाटकी जिसके निकली उसे नीबी करनी पड़ती है। जिसकी वाटकी में नवकरवाली निकली उसे आयंबिल करना पड़ता है। जिसकी वाटकी सर्वथा खाली निकली उसे उपवास करना पड़ता है। वाटकी खोलने से पहले यह किसी को पता नहीं रहता कि आज कौनसा तप करना है । वाटकी खोलने पर जिस तप का संकेत मिला उसी तप को उसी समय पचख लिया जाता है । वाटकी तप भी सोलह दिन करने का होता है। परदेशी (प्रदेशी) राजा का बेला-राजा परदेशी (प्रदेशी) पहले नास्तिक था। बाद में आचार्य केशीकुमार श्रमण से धर्म समझकर श्रावक बन गया। राज्य की समुचित व्यवस्था करके स्वयं विशिष्ट उपासना में लग गया, बेले-बेले पारणा करने लगा। बारह बेले सम्पन्न हो गये, तेरहवें बेले के पारणे में महारानी सुरिकान्ता के जहर दिये जाने से समाधियुक्त मरकर स्वर्गवासी बना। उसी के उपलक्ष में यह तप किया जाता है। एक के बाद एक यों संलग्न बारह बेले किये जाते हैं और तेरहवाँ बेला चउविहार करके इसे सम्पन्न किया जाता है। रसवाला तेला-इस तप का नाम पारणे के आधार पर पड़ा है। इसे रसवाला तेला इसलिए कहा जाता है कि इसके पारणे में रसमय पकवान ही खाये जाते हैं। पहले तेले के पारणे में सिर्फ लापसी ही खाई जाती है। दूसरे तेले के पारणे में सीझवां चावल और घी, चीनी ही काम में लिया जा सकता है। तीसरे तेले के पारणे में केवल लाडू (मोदक) का ही भोजन किया जाता है । चौथे तेले के पारणे में सीरा खाया जाता है। दिन भर जितनी रुचि हो केवल सीरा ही काम में आएगा । पाँचवें तेले के पारणे में खीर-पूड़ी का भोजन करना होता है। ये पाँच रसवाले तेले हो गए। इसके बाद छठे तेले के पारणे में चन्दनबाला की भाँति उड़द के बाकले लिये जाते हैं। उस दिन चउविहार भी रखना पड़ता है, इसे चंदनबाला के तेले भी कहे जाते हैं। कंठी तप- इसमें चौदह उपवास एकान्तरयुक्त करने होते हैं, बीच में एक तेला, दो बेला करना पड़ता है। इसका क्रम इस प्रकार है-प्रारम्भ में एक बेला फिर एकान्तर से सात उपवास करना होता है। बीच में एक तेला करके फिर एकान्तरयुक्त सात उपवास करना होता है। अन्त में एक बेला करके इसे सम्पन्न किया जाता है। इसमें इक्कीस दिनों की तपस्या और सत्रह दिन पारणे के होते हैं, कुल मिलाकर अड़तीस दिन का यह कंठी तप होता है। इसके अतिरिक्त यति लोगों के चलाये हुए तप में धमक तेला, चुंदरी चोला, खीर पंचोला आदि भी हैं। उसमें तपस्या के साथ पीहर और ससुराल वालों को कुछ खर्च भी करना पड़ता था, साथ में यतिजी का भी पात्र भरना होता था। वर्षी तप-प्रथम तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभ के वर्षी तप की स्मृति में जो एकान्तर तप किया जाता है। उसे वर्षों तप माना जाता है । इसका प्रारम्भ प्रायः चैत्र वदी अष्टमी श्री ऋषभ प्रभु के दीक्षा कल्याणक दिवस से किया जाता है। पारणे में बीयासना करते हैं । अक्षय तृतीया को इसे इक्षु रस के पारणे से सम्पन्न करते हैं । कई तपस्वी लोग बेले-बेले और कई तेले-तेले भी वर्षी तप करते हैं । सामूहिक तपस्या क्रम सामूहिक तपस्या का क्रम अन्य जैन सम्प्रदायों की अपेक्षा तेरापंथ सम्प्रदाय में अधिक है । यहाँ पंचरंगी, सतरंगी, नौरंगी, ग्यारहरंगी और तेरहरंगी तपस्याएँ होती रहती हैं । पंचरंगी में-पाँच ५, पाँच ४, पाँच ३, पाँच २, पाँच १ इस 0 Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड . ..................................................................... प्रकार पच्चीस व्यक्ति तपस्या करने वाले होने चाहिये और सब का पारणा साथ में आना चाहिये । अकस्मात् बीच में किसी का पारणा हो गया तो कोई व्यक्ति आगे तपस्या करके पूरी कर सकता है। __इसी प्रकार सतरंगी में सात-सात व्यक्ति ७, ६, ५, ४, ३, २, १ करने वाले चाहिये, सबकी संख्या उनपचास हो जाती है। नौरंगी में नौ-नौ, ग्यारहरंगी में ग्यारह-ग्यारह, तेरहरंगी में तेरह-तेरह व्यक्ति हर पंक्ति की तपस्या करने वाले होने चाहिये। सामूहिक तपस्या का प्रारम्भ सर्वप्रथम जोधपुर राजस्थान में हुआ ऐसा उल्लेख मिलता है। उपसंहार तपस्या की प्रचलित कुछ विधियों का जिक्र यहाँ किया गया है, और भी बहुत विधियाँ हैं, अनेक तपप्रतिमाएँ हैं, जिसमें तपस्या के साथ-साथ आसन, आतापना और ध्यान आदि के अभिग्रह भी संयुक्त हैं। कुल मिलाकर यह निराहार तप जीवन को परिशोधन करने वाला महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान है । इसे बहुत उत्साह से करना चाहिये । आगम ग्रन्थों में आया है "अग्लान मनोभाव से की जाने वाली तपस्या महान कर्म निर्जरा का हेतुभूत बनती है ।" । तपस्या में शारीरिक म्लानता स्वाभाविक है, किन्तु मन उत्साहित और वर्धमान रहना चाहिये तब ही हम तप की पवित्र अनुभूति से लाभान्वित हो सकेंगे। तपस्या के साथ ध्यान का क्रम बैठ जाए तो मणिकांचन संयोग बन जाए। वैसे एक दूसरे के सहायक माने गये हैं । तपस्या में ध्यान सुगमता से जमता है और ध्यान से तपस्या सुगम बन जाती है। अच्छा हो, हम तपस्या के सभी पहलुओं को समझें, फिर अपनी शारीरिक शक्ति का अनुमान लगाएँ और पूरे उत्साह के साथ तपस्या के अनुष्ठान में उतरें। Xxxxxxx XXXXX अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वाऽन्येभ्य उपासते । तेऽपि चातितरन्येव, मृत्युं श्रुति परायणाः ।। -गी० १३, २५ जो नहीं जाते वे जानने वालों से सुनकर तत्त्व का विचार करते हैं । जो सुनने में तत्पर हैं, वे मृत्यु को तर जाते हैं। xxxxx xxxxxxx Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में संघीय साधना का महत्व साध्वी श्री कंचनकुमारी 'लाडनूं' [ युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या ] जैन परम्परा में साधना दो भागों में विभाजित हुई है- एक संघबद्ध साधना, दूसरी संघमुक्त साधना | जिनकल्पी मुनि संघ से मुक्त होकर सर्वोत्कृष्ट साधना के पथ पर बढ़ते हैं और कई साधक संघबद्ध होकर साधना करते हैं । तत्त्वतः वैयक्तिक साधना की पृष्ठभूमि संघ ही है । अहिंसा, सत्य, मैत्री आदि की साधना भी संघीय धरातल पर ही पल्लवित एवं पुष्पित हुई है। जिनकल्पी साधक कठोर साधना कर ले अन्ततः मोक्ष प्राप्ति के लिए उसे संघ की शरण में आना ही पड़ेगा, क्योंकि कैवल्य का उपयोगी क्षेत्र संघ ही है । यदि संघ व समाज न हो तो व्यक्ति के ज्ञान और विज्ञान की उपयोगिता सिद्ध नहीं होती । भगवान महावीर ने साधना के परिपाक में सम्पूर्ण ज्ञानोपलब्धि के प्रथम दिन में ही एक विशाल संघ का निर्माण किया । १४००० श्रमण, ३६००० श्रमणी परिवार का एक बृहत् संघ था। धर्मसंघ के इतिहास में यह प्रथम संघ था। गौतम बुद्ध ने भी बोधिलाभ के पश्चात् संघ का निर्माण किया । धर्मसंघ का महत्त्व सर्वोपरि है । संघ त्राण है, प्राण है, प्रतिष्ठा है, गौरव है, और सर्वस्व है। संघ की गरिमा अनिवर्चनीय है, अनुपमेय है और अगम्य है । स्वयं भगवान ने संघ को नमस्कार किया है— तित्पयर बंदणिज्जं संघ तित्थपरो, विय एवं णमए गुरु भावओ देव संघ को अपने से अधिक महान् एवं सर्वोपरि माना है। भगवान बुद्ध के शब्दों में संघ शरणं गच्छामि'। तीर्थकरों ने यद्यपि व्यक्ति महान है, पर उससे अधिक महान् संघ है। व्यक्ति की अपेक्षा समाज बड़ा है। व्यक्ति अणु है, संघ पूर्ण । व्यक्ति छोटा है, संघ महान् है । व्यक्ति आखिर व्यक्ति है, संघ संघ है । व्यक्ति की शक्ति सीमित है, संघ सर्वशक्तिमान है । अतः राजनीति, समाजनीति और धर्मनीति आदि हर क्षेत्र में सामूहिकता की प्रधानता रही है । देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् महात्मा गांधी से किसी एक व्यक्ति ने कहा- बापू ! अब आपको हिमालय में जाकर एकान्त साधना करनी चाहिए। गांधीजी ने उत्तर दिया- भाई ! अगर जनता हिमालय में जायगी तो मैं भी वहाँ पहुँच जाऊँगा, क्योंकि मेरे महात्मापन का थर्मामीटर समाज है । हिमालय में मेरी साधना की कसौटी कौन करेगा ? अतः मेरी साधना का स्वरूप जनता के बीच ही निखर पायेगा । संघ सामुदायिक जीवन है, समुदाय का अर्थ है - इकाइयों का योग । इकाई अपने आप में पूर्ण नहीं होती । अकेले व्यक्ति के पथ में अगणित अवरोध आते हैं । वहाँ व्यक्ति का मनोबल टूटने लग जाता है, तो वह सम्भवत: कहीं भटक भी सकता है, अतः इसकी पूर्णता के लिए संघ बहुत बड़ा आलम्बन है । जीवन की सुरक्षा का सबसे बड़ा कवच संघ है । जैसे संघ के साथ यात्रा करने वाला सुगमता से निश्चित लक्ष्य को पा लेता है उसी प्रकार धर्मसंघ की कुछ नहीं होता, व्यक्ति छत्रछाया में आया साधक अपने लक्ष्य को सानन्द प्राप्त कर लेता है। संघ में व्यक्ति का अपना स्वयं संघरूपी समाज का है, और उसकी समग्र अपेक्षा समाज संबद्ध है। एक के लिए सब और का हर सदस्य अन्य हर सदस्य की सहानुभूति के लिए सदा समर्पित रहता है । तत्काल निजी स्वार्थों का और व्यक्तिगत सब के लिये एक । संघ +8 .Q . Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड हितों का बलिदान कर देता है। एक दूसरे से इतने संपृक्त होते हैं कि सुख-दुःख में पूर्ण सहयोगी बनकर रहते हैं । जैसेदूध और मिश्री । यही सामूहिक साधना की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। वस्तुतः जीवन में प्रेम, वात्सल्य और समर्पण का रस है, वह व्यक्ति के अस्तित्व का मूल है, त्राण है । जहाँ यह अमिय रस नहीं, वहाँ जीवन निष्प्राण और कंकाल बनकर रह जाता है। सामूहिक जीवन में क्रोध, ईर्ष्या, अभिमान, स्नेह, द्वेष आदि सहज सम्भव है। अकेला व्यक्ति किस पर क्रोध करेगा ? किसका अहं करेगा? और क्या सहेगा? जबकि वहाँ राग-द्वेष उभरने का कोई अवसर ही नहीं आता। जैसे चाहे कर सकता है, जहाँ चाहे जा सकता है। न उस पर कोई बन्धन है और न कोई अनुशासन । अकेला व्यक्ति ऊँची से ऊँची साधना कर सकता है, पर उस साधना की कसौटी संघ ही है। संघ अनेक सदस्यों का समवाय है। समवाय में रहने वाले सभी सदस्य समान प्रकृति व विचार वाले नहीं होते, सब एक रुचि वाले नहीं होते । चिन्तन भी सब का एक नहीं होता। इसलिए सब के साथ रहकर संघ की रुचियों और प्रवृत्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित करना, अनेक अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंगों में अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रखना और अहंकार व ममकार से असंस्पृष्ट रहना ही बहुत बड़ी साधना और कड़ी तपस्या है। परस्परता, संबद्धता का मूल मन्त्र है, क्योंकि बिना परस्परता के संघ चल नहीं सकता । जिस संगठन में परस्परता की भावना का विकास होता है उस संगठन की नींव सुदृढ़ एवं चिरस्थाई बन जाती है । संघ में शैक्ष, वृद्ध, रुग्ण आदि भी होते हैं । इसलिए हर साधक का कर्तव्य हो जाता है कि वह निष्काम और अग्लान भाव से अपनी सेवा देकर दूसरों की चित्त समाधि का निमित्त बने। पारस्परिक शालीनता के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र आवश्यक हैं । जहाँ दूसरों से सहयोग लेने की अपेक्षा हो वहाँ 'कृपया' शब्द का प्रयोग करें, और कार्य समाप्ति पर "कृतज्ञास्मि' शब्द से आभार प्रदर्शित करें। अवज्ञा व अशातना होने पर खेद' शब्द द्वारा खेद प्रकट करें। यदि किसी कार्यवश कोई कार्य न कर सका तो 'क्षमा करें' ऐसा कहे । इन महत्त्वपूर्ण पहलुओं से सामुदायिक जीवन की शालीनता बनी रहती है। साधक को किस धर्मसंघ में रहना चाहिये? जो धर्मसंघ प्राणवान् है, आचारनिष्ठ है, विशुद्ध नीति वाला है, गीतार्थ मुनियों से परिवेष्टित है, जहाँ ज्ञान, दर्शन और चारित्र की उपासना होती है, जीवन की परम माधना और धर्म की आराधना होती है । जिस धर्म संघ के दोनों अंग-साधु और साध्वी विनम्र हैं, विनय का उच्चतम आदर्श हैं, सदा जागरूक हैं, प्रबुद्ध हैं और संघ के प्रति आत्मीयता, निष्पक्ष व्यवहार और सद्भावना बनाये रखते हैं। संघ विकास में सक्रिय योगदान करते हैं। आचार्य के प्रति सर्वात्मना समर्पित हैं। वह धर्मसंघ विश्व में कीतिमान स्थापित करता है । "बृहत्कल्पभाष्य" में गच्छ की परिभाषा करते हुए लिखा है--जिस गच्छ में सारणा-वारणा और प्रेरणा नहीं होती, वह गच्छ नहीं है। साधक को उस गच्छ को छोड़ देना चाहिये । जहिं णत्थि सारणा वारणा पडिचोयणा य गच्छामि । सो उ अगच्छो गच्छो, संजय कामिणी ॥ मोक्ष की साधना के लिए संघ की आराधना अपेक्षित है । गच्छ महाप्रभावशाली है। उस गौरवशाली धर्मसंघ में रहने से महानिर्जरा होती है। सारणा वारणा तथा प्रेरणा आदि से नये दोषों की उत्पत्ति रुक जाती है। अप्रतिम शास्त्रज्ञ अनुशास्ता के नेतृत्व में और बहुश्रुत मुनियों के परिप्रेक्ष्य में रहने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र के अनन्त वैभव को प्राप्त कर साधक अपने अन्तर्जगत में नई चेतना पाता है। उनके उपपात में रहने से मौलिक तत्त्वों का चिन्तन व मनन होता है, जिससे मनीषा की स्फुरणा होती है, नये-नये उन्मेष आते हैं। संव में विकास के अनेक आयाम उद्घाटित होते हैं। युगानुकूल शिक्षा, साधना, साहित्य आदि नाना कलाओं को विकसित होने का मुक्त अवसर मिलता है। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन परम्परा में संघीय साधना का महत्त्व २५३ .... .... ........ ........ ...... ........ ...... ...... .. ...... . .... .... .. गुरुकुलवास एक पवित्र गंगा है। उसमें अधिस्नात साधक की साधना स्वर्ण की तरह और अधिक चमक उठती है। अत: "वसे गुरुकुलवासे निच्चं" साधक को जीवनपर्यन्त गुरुकुलवास में ही रहना चाहिये। धर्मसंघ में सुयोग्य शिष्यों का होना मणिकांचन का सुयोग माना जाता है। उदीयमान शिष्यों से संघ की प्रतिभा और अधिक निखर जाती है। योग शतक में सुशिष्य की परिभाषा इस प्रकार की है अणुवतमा विणीया वहुकखमा निच्च भत्ति भंताय । गुरुकुलवासी अमूइ धन्न सीसा हुइ सुसीला ॥ जो शिष्य भक्ति परायण है, क्षमाशील, इंगियागार सम्पन्न है, सुव्रत व सुशील है । साधना काल में आने वाले उपसर्गों से जो क्लान्त नहीं होता, ऐसा उपशान्त और शान्त स्वभावी आत्मविजेता साधक ही गण में तादात्म्य होकर साधना कर सकता है । संघ मेरा है और मैं संघ का हूँ। यह विलक्षण तादात्म्य अटूट आस्था का प्रतीक है। इसी सन्दर्भ में आचार्य श्री तुलसी की वाणी मुखरित हो उठी। धर्मसंघ जीवन चेतना का प्रतीक है, साधना का साकार रूप है। गणो चमहमेवास्मि, अदमेन गणो स्तययम् । एकेयं ममास्य चान्योन्यं चिन्तनीयमिति ध्रुवम् ॥ गच्छाचारपइन्ना में शिष्य की उजागरता की स्पष्ट झलक-जिस संघ के शिष्य-शिष्याएँ अपने अनुशास्ता के द्वारा उचित या अनुचित डांट को कठोर शब्दों में सुनकर केवल 'तहर' शब्द का ही प्रयोग करें। संघीय साधना करने वालों के लिए समर्पण अनिवार्य होता है। साध-साध्वियाँ, संघ और संघपति के प्रति इस प्रकार समर्पित हो जाएँ जैसे रोगी कुशल वैद्य को अपना स्वास्थ्य सौंपकर निश्चित् हो जाता है । ठीक उसी प्रकार साधक भी अपने जीवन को अपने अनुशास्ता को सौंपकर पूर्ण निश्चिन्त विश्वस्त और आश्वस्त बन जाता है। जस्स गुरुम्मि न भक्ति न य बहुमाणे न गऊरं व न भयं । न वि लज्जा जवि ने हो गुरुकुल वासेण कि तस्स ।। अगर शिष्यों में गुरु के प्रति न आदर्श है और न श्रद्धा, न भक्ति है, न भय है, न बहुमान और न स्नेह है, संघ और संघपति के प्रति न गौरव है.--.ऐसे शिष्यों को गुरुकूलवास में रहने से क्या लाभ ? प्रत्युत उन शिष्यों से संघ की प्रभाबना निष्प्रभ बन जाती है। जो शिष्य धर्मसंघ की गरिमा के साथ इस प्रकार आँख मिचौनी करता है। धर्म शासन की प्रभावना में खिलवाड़ करता है । वह सदस्य संघ के लिए क्षम्य नहीं है और संघ में उसका कोई उपयोग नहीं है। संघ और संघपति का सम्बन्ध अद्वैत है। दोनों में तादात्म्य-सम्बन्ध है। धर्मसंघ की प्राणवत्ता के लिए कुशल अनुशास्ता की आवश्यकता होती है। संघ में मंद, मध्यम और प्रकृष्ट सभी प्रकार की प्रज्ञा व साधना वाले साधक होते हैं, अत: आचार्य का कर्तव्य हो जाता है-संघ की सारणा-वारणा निष्पक्ष व तटस्थ भावों से करें। सारणा का अर्थ है कर्तव्य की प्रेरणा और वारणा का अर्थ है अकर्त्तव्य का निषेध । धर्मसंघ के संगठन को अक्षुण्ण रखने के लिए व्यवस्था, मर्यादा और अनुशासन बहत जरूरी है। व्यवस्था को सुव्यवस्थित रखने के लिए मर्यादा की उपादेयता स्वयं फलित होती है । क्योंकि बिना मर्यादा के व्यवस्था चल नहीं सकती । साधारण गति से मर्यादा में चलने वाला जल सुदूर क्षेत्रों तक जाकर धरा को शस्यश्यामला बनाता है। पतंग डोर के सहारे अनन्त आकाश में चाहे जितना ऊँचा उठ सकता है। मर्यादा विहीन जीवन बिना तारों की विद्य त है, जिसका कोई उपयोग नहीं। मर्यादाविहीन प्रभात अन्धकार बन जाता है और मर्यादायुक्त अन्धकार प्रभात बन जाता है। जिस संघ में मर्यादा नहीं, वह संघ निष्प्राण तथा निस्तेज है। मर्यादा के अभाव में कोई संस्था सजीव नहीं बन सकती। मर्यादा बहुत ही मनोवैज्ञानिक और महत्त्वपूर्ण है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हर व्यक्ति महत्त्वाकांक्षी होता है। अपने से अधिक प्रतिष्ठा और सम्मान-प्राप्त व्यक्ति को देखकर मन में स्पर्धा के भाव सहज उत्पन्न हो सकते हैं। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड अत: मर्यादा, अपरिपक्वता का परित्राण है, संयमी जीवन का प्राण है, आत्म-समाधि का सोपान है और समस्याओं का सुन्दर समाधान है। जिस धर्मसंघ में संघ की प्रगति के लिए आचार्य के द्वारा सामयिक और तत्कालीन मर्यादाओं का परिवर्तन, परिवर्धन व नवीनीकरण होता रहता है वह धर्मसंघ प्राणवान कहलाता है। संघीय परम्परा का बेजोड़ उदाहरण आज विश्व में तेरापंथ धर्म संघ है, जिसकी उजागरता के लिए धर्मसंघ में सारे संघ की सारणा, वारणा और प्रेरणा एक कुशल आचार्य के नेतृत्व में होती है। तेरापंथ धर्म संघ में हर गतिविधि और प्रवृत्ति के मुख्य केन्द्र आचार्य ही होते हैं। एक आचार्य, एक समाचारी, एक विचार-ये तेरापंथ धर्म. संघ की अखण्ड तेजस्विता का द्योतक है। एक सूत्र में आबद्ध, सैकड़ों साधु-साध्वियाँ विश्व में कीर्तिमान स्थापित करते हैं । इस गरिमामय संघ को पाकर हम अत्यन्त गौरवान्वित हैं। XXXXXXXX xxxxxx ऋचो ह यो वेद, स वेद देवान् यजषि यो वेद, स वेद यज्ञाम् ॥ सामानि यो वेद, स वेद सर्वम् । यो मानुषं वेद, स वेद ब्रह्म ॥ ऋग्वेद को जानने वाला, केवल देवताओं को जानता है, यजुर्वेद को जानने वाला यज्ञ को ही जानता है, सामवेद को जानने वाला सब को जानता है। किन्तु जो मनुष्य को जानता है, वही वास्तव में ब्रह्म को जानता है । xxxxx XXXXXXX Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . - . - . -. -. -. -. - . -. -. - . -. -. - . -. -. - . -. .-.-. -. -. -. -.-. -. -. द्रव्य : एक अनुचिन्तन ॥ वैद्य श्री राजेन्द्रकुमार जैन, आयुर्वेदाचार्य द्वारा डॉ० दरवारीलाल कोठिया (चमेली कुटीर, डुमराव कालोनी, अस्सी, वाराणसी (उ० प्र०)] आज तक जितने भी चिन्तन या विचार सामने आये हैं, उनकी विषयवस्तु यह जगत् या जगत् से जुड़ी हुई कोई वस्तु रही है। प्राचीन काल से ही विचारकों ने जगत् का अध्ययन कर सर्वसामान्य के सामने संसार एवं मोक्ष का स्वरूप उपस्थित किया। यह जगत द्रव्यों का समूह है, यह निर्विवाद सत्य है। इसका अध्ययन चिन्तकों ने अपने-अपने ढंग से किया है। 'द्' धातु से 'द्रव्य' शब्द बना है। ‘गुणान् द्रवन्ति' या 'गुणः द्र यन्ते' इन दो व्युत्पत्तियों से द्रव्य का निरूपण किया जाता है । इसका अर्थ यह हुआ कि जो गुणों सहित है, वह द्रव्य है । आधुनिक समय में द्रव्य को 'सब्सटेन्स' (Substance) शब्द से जाना जा सकता है। द्रव्य के जो लक्षण विभिन्न विचारकों ने दिये हैं, वे लगभग मिलते-जुलते हैं । यथा : १. "यंत्राश्रिताः कर्मगुणाः कारणं समवायियत् । तद् द्रव्यं ....।----चरक २. "क्रिया गुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यम्..”—वै० सू० ३. "द्रव्य लक्षणं तु क्रियागुणवत् समवायिकारणम्...'.-सुश्रुत ४. “गुणवर्यवद् द्रव्यम्.......".---उमास्वामी, त० सू० ५॥३८ उपर्युक्त लक्षणों का सामान्य अर्थ यह है कि, जिसमें गुण और पर्याय रहें, वह द्रव्य है। लेकिन आचार्य उमास्वामी ने एक दूसरा लक्षण भी किया है। उन्होंने कहा है कि “सद् द्रव्य लक्षणम्" (त० सू० ५।२६) अर्थात् द्रव्य का लक्षण सत् (होना) है तथा सत् को भी स्पष्ट करते हुए कहा है कि उत्पाद्व्ययध्रौव्ययुक्त सत् (त० सू० ५।३०) अर्थात् सत् वह है जिसमें उत्साद (नयी पर्याय की उत्पत्ति), व्यय (पुरानी पर्याय का नाश), तथा ध्रु वता (स्वभाव की स्थिरता) है, और अन्ततः ऐसा द्रव्य ही है। वैशेषिकों द्वारा प्रतिपादित द्रव्य का एक अन्य लक्षण है. "द्रव्यत्व जातिमत्वं द्रव्यत्वम्" । यह लक्षण निर्दोष न होने से आचार्य पूज्यपाद द्वारा समालोचित हुआ है। उन्होंने कहा है कि "द्रव्ययोगात् द्रव्यमिति चेत्, न, उभयासिद्धः । यथा दण्डदण्डिनोोगो भवति पृथक, सिद्धयोः न च द्रव्यद्रव्यत्वे पृथक सिद्ध स्तः ।" इसका अर्थ यह है कि जैसे दण्ड और दण्डी पुरुष पृथक सिद्ध हैं और उनका सम्बन्ध भी सिद्ध है उसी तरह द्रव्य-द्रव्यत्व पृथक सिद्ध नहीं है। यदि द्रव्यत्व के योग से द्रव्य कहलाता है तो वह द्रव्यत्व स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध होना चाहिये। लेकिन द्रव्य से द्रव्यत्व तथा द्रव्यत्व से द्रव्य पृथक सिद्ध नहीं है, अतः उनका सम्बन्ध भी सम्भव नहीं है। ऐसी स्थिति में द्रव्यत्व के योग से द्रव्य का लक्षण मानना युक्त नहीं है। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड आधुनिक विज्ञान कहता है जिसमें भार तथा आयतन हो एवं जो हमारी ज्ञानेन्द्रियों द्वारा जाना जा सके, उसे द्रव्य कहते हैं । यद्यपि यह विज्ञान अभी कुछ तत्त्वों को द्रव्य मानने के लिए तैयार नहीं है। द्रव्यों का वर्गीकरण आधुनिक विज्ञान द्रव्यों को दो भागों में बाँटता है--सजीव द्रव्य तथा निर्जीव द्रव्य । वैशेषिक नौ द्रव्य मानते हैं---"तत्र पृथिव्यप्ते जोवाय्वाका शकालदिगात्ममनांसि नवैवेति ।"-प्रशस्तपाद। जैनाचार्यों ने द्रव्य को दो भागों में वर्गीकृत किया है “जीवदव्वाय अजीव दव्वाय"-अनुयोग सूत्र। पुन: अजीव द्रव्यों को उन्होंने पाँच प्रकार का बताया है-पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल। “अजीवकायाः धर्माधर्माका शपुद्गला:” तथा "कालश्च"-तत्त्वार्थ सूत्र (५-१, ३०) इस प्रकार जैन चिन्तकों ने ये पांच अजीव द्रव्य तथा जीव द्रव्य सहित छह द्रव्य बतलाये हैं। __ यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जैन आचार्यों ने छह द्रव्य ही क्यों माने ? वैशेषिकों की तरह नौ द्रव्य क्यों नहीं माने ? इसका उत्तर यह है कि धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्यों को छोड़कर जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य विज्ञान भी स्पष्ट स्वीकार करता है जैसा कि उसके सजीव एवं निर्जीव दो द्रव्यों के उपर्युक्त कथन से प्रकट है । वैशेषिकों के जल, वायु आदि कोई पृथक द्रव्य स्वीकार नहीं किये, क्योंकि आज यह सिद्ध कर दिया गया है कि ये कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं । जल में H, तथा 0 का संयोग है, वायु, आक्सीजन, नाइट्रोजन आदि का संयोग है तथा शक्कर (पार्थिव) आदि में भी C, H तक्षा 0 का भिन्न मात्रा का संयोग ही कारण है। दिशा तो प्रतीची उदीची आदि निर्जीव द्रव्यों से ही व्यवहारतः सिद्ध होती है। वस्तुतः दिशा स्वतन्त्र कोई द्रव्य नहीं ? मन भी पौद्गलिक द्रव्य है। विशेष प्रकार के पुद्गल ही आत्मा के साथ रहकर मन संज्ञा पाते हैं। द्रष्ट मन (मस्तिष्क) जिन प्राणियों में पाया जाता है वह तो सरासर भौतिक है ही । अन्य द्रव्यों के सम्बन्ध में आगे विचार किया गया है। ___ इस तरह विज्ञान जैन दर्शन के कितने ही नजदीक आ चुका है ! द्रव्यों की उपलब्धि जीव द्रव्य स्वानुभव-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों से जाना जाता है। पुद्गल भी प्रत्यक्षादि प्रमाणों से जाना जाता है। धर्म तथा अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गलों की गति एवं स्थिति में हेतु होने से और काल द्रव्य द्रव्यों की वर्तना परिणति आदि में हेतु होने से अनुमान और आगम प्रमाण से जाना जाता है। आकाश का ज्ञान भी अनुमान तथा आगम प्रमाण से होता है । केवली (सर्वज्ञ) सब द्रव्यों को प्रत्यक्ष प्रमाण से जानते हैं। जीव द्रव्य का स्वरूप जीव के लक्षण आचार्यों ने मिलते-जुलते किये हैं :"तत्र चेतना (चिती-संज्ञाने धातु से निष्पन्न) लक्षणो जीव:'.-.चरक । "ज्ञानाधिकरणमात्मा"-अन्नं भट्ट । "उपयोगो लक्षणम् ...." उमास्वामी । यहाँ हम देखते हैं कि सभी ने जीव का लक्षण 'चेतना' किया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने जीव को पुरुष भी कहा है : अस्तिपुरुषश्चिदात्मा, विजित: स्पर्शगन्धरसवर्णः । गुणपर्ययसमवेतः समाहितः समुदयव्ययध्रौव्यः । आज का विज्ञान सजीव द्रव्यों का पार्थक्य जनन, प्रजनन, श्वसन, भोजन, वृद्धि तथा मरण से करता है। जैन आचार्यों ने ये लक्षण संसारी (सशरीरी जीव) के माने हैं : Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य : एक अनुचिन्तन २५७ . -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............ पञ्च वि इन्दियपाणा, मणक्यणकायतिण्णिबलपाणा। आणप्पणाणणा"..." || -गोम्मटसार जीवकाण्ड । जीव द्रव्य स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष से ही जाना जा सकता है। यदि कोई कहे कि जीव तो अनुमान प्रमाण से ही जाना जाता है। उसकी जन्म, मृत्यु, श्वसन आदि क्रियाओं को देखकर उसका अनुमान होता है, यह सत्य है किन्तु स्वयं का अनुभव भी होता है कि मैं शरीर से पृथक हूँ और सुखी हूँ, दुःखी हूँ तथा जानने वाला हूँ। यही कारण है कि जैन दर्शन में सम्यक् श्रद्धान की महिमा गाते हुए कहा गया है कि आत्मा की व्याख्या वचनों से कहाँ तक की जाये, यदि हम एक बार स्व को समाप्त कर देखें तो सब समाधान हो सकता है । जितनी गहराई में उतरेंगे उतने ही आत्मा के तल में पहुँच जायेंगे। जीव संख्या में अपरिसंख्येय हैं तथा 'स्व' में पूर्ण, 'पर' से नितान्त भिन्न हैं। सभी जीव समान गुण-धर्मों से युक्त एवं अनेकान्तात्मकता से युक्त हैं। एक जीव और सभी जीव सम्पूर्ण लोकाकाश में विद्यमान हैं। प्रत्येक जीव का प्रमाण कम से कम लोकाकाश के असंख्यातवें भाग तथा अधिक से अधिक पूर्ण लोकाकाश के बराबर है। उमास्वामी ने इस विषय को स्पष्ट करने के लिए "प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत्" यह उदाहरण दिया है। अर्थात् जिस तरह प्रकाश कम या अधिक स्थान में संकोच या विस्तार कर सकता है उसी तरह जीव भी शरीर के अनुसार संकोच विस्तार कर सकता है। पुद्गल पुद्गल द्रव्य की इकाई परमाणु है। स्वतन्त्र परमाणु को नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता, लेकिन पुद्गल समूह को देखा जा सकता है । प्रत्येक परमाणु में अनन्त गुण-धर्म होते हैं। इनमें दो विशिष्ट गुण होते हैं, जिन्हें शक्त्यंश कहते है। ये गुण हैंरू-क्षता एवं स्निग्धता । ये दोनों गुण सापेक्ष होते हैं । अणु एवं स्कन्ध की उत्पत्ति उमास्वामी ने कहा है-'भेदसंघाताभ्यां उत्पद्यन्ते भेदादणुः' "भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः" “स्निग्ध रूक्षत्वादबन्धः", "न जघन्यगुणानाम्" "गुणसाम्ये सदृशानाम द्वयधिकादिगुणानां तु ।” अर्थात् स्कन्धों के भेदन (तोड़ने) से अणु तथा अणुओं को संहित करने (जोड़ने) से स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। यह क्रिया स्निग्ध और रूक्ष शक्त्यंशों के निमित्त से ही होती है लेकिन जघन्य शक्त्यंशों से नहीं। जैसे तेल में पानी नहीं मिलता वैसे सामान शक्त्यंशों से भी बन्ध नहीं होता। जैसे माना कि दो आटा के अणु हैं वे तब तक नहीं मिलेंगे जब तक कि उनमें दो कम शक्त्यंश वाली वस्तु न मिले । यदि उनके बीच में मात्रानुसार पानी मिल जाये तो बन्ध हो जायेगा। यही कारण है कि आटा गंधते समय आटे से आधे या उससे भी कम भाग पानी की जरूरत होती है। यही अर्थ 'व्यधिकादि' सूत्र से स्पष्ट होता है। यदि समान भाग पानी मिला दिया जाये तो आटा पिण्डीभूत नहीं होगा। दोनों आटा परमाणु समान गुण होने से बिना किसी प्राध्यम के नहीं बँध सकते यह अर्थ है “गुणसाम्ये सदृशानाम्" का। आज की भाषा में इन शक्त्यंशों को हम इलेक्ट्रान कह सकते हैं। क्योंकि आज वैज्ञानिक भी यही तथ्य बतलाते हैं कि जिस परमाणु की कक्षा में कम इलेक्ट्रान होगा किंवा समान होंगे तो एक परमाणु के इलेक्ट्रान दूसरे परमाणु के इलेक्ट्रान की कक्षा में चले जाते हैं और आपस में बँध जाते हैं। आणविक बल तथा आणविक दूरी को समझने के लिये वे कहते हैं कि जब आणविक दूरी कम होती है तो आणविक बल अधिक रहता है। जैसे एक लोहे का ठोस (पिण्ड) अत्यधिक बल लगाने पर ही टूटता है क्योंकि इसमें आणविक बल अधिक रहता है तथा आणविक दूरी कम । इसके विपरीत एक लकड़ी को तोड़ने के लिए लोहे की अपेक्षा कम बल लगता है अत: उसमें लोहे की अपेक्षा आणविक दूरी अधिक होती है। यह बन्ध भी दो प्रकार का होता है। एक मिश्रण तथा दूसरा यौगिक । जब दो विभिन्न जाति के अणु Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ........................................................................... मिलकर एक नयी वस्तु का निर्माण करते हैं तो उसे यौगिक कहते हैं। जैसे-H+0=पानी । तथा जो नयी वस्तु का निर्माण नहीं करते वे मिश्रण कहलाते हैं । जैसे----बारूद । पुद्गल द्रव्य संख्या में अनन्तानन्त हैं। ये पूरे लोकाकाश में उपस्थित हैं। इनका आकार अवक्तव्य है। धर्म तथा अधर्म द्रव्य ये दोनों द्रव्य संख्या में एक-एक हैं-आकाशादेकद्रव्याणि तथा प्रत्येक द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त है। धर्म द्रव्य उन द्रव्यों की गति में निमित्त होता है जो अपनी योग्यता से चले । चलने वाले द्रव्य केवल दो हैंजीव एवं पुद्गल । “गति स्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकार: ।" यद्यपि आचार्य उमास्वामी ने इस सूत्र में यह नहीं बतलाया कि यह दोनों किन का उपकार करते हैं, परन्तु इसी अध्याय के प्रारम्भ में यह कहा है कि जीव और पुद्गल को छोड़ कर सब द्रव्य निष्क्रिय हैं--"निष्क्रियाणि च।" इससे स्पष्ट है कि आचार्य का अभिप्राय जीव और पुद्गल के चलने तथा ठहरने में इन द्रव्यों के योगदान बतलाने का है। धर्म द्रव्य स्वयं न चलता हुआ जो स्वत: चलते हैं उनके चलने में अप्रेरक निमित्त है। लेकिन किसी को चलने हेतु प्रेरित नहीं करता । तथा अधर्म द्रव्य स्वयं स्थिर रहता हुआ जो स्वतः स्थिर होवे उनकी स्थिति में निमित्त होता है, किसी को ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करता। जैसे-यदि कोई जीव या पुद्गल चल रहा है तो अधर्म द्रव्य उसे रोक नहीं सकता तथा यदि कोई जीव या पुद्गल स्थिर है तो धर्म द्रव्य उसे चला नहीं सकता। आधुनिक विज्ञान भी धर्म तथा अधर्म द्रव्य के सदृश ईथर तथा नॉन-ईथर दो शक्तियाँ मानता है। लेकिन अपनी परिभाषा के अनुसार द्रव्य नहीं मानता। आकाश यह भी पूर्व रूप में एक द्रव्य है "आ आकाशादेकद्रव्याणि।" इसमें जहाँ तक धर्म तथा अधर्म द्रव्य है वहाँ तक लोकाकाश है और उसके बाहर चारों ओर अनन्त अलोकाकाश है। आकाश अपने स्वरूप में ही प्रतिष्ठित है तथा दूसरे द्रव्यों को स्थान देता है—“आकाशस्यावगाहः ।" काल द्रव्य : काल को सभी दार्शनिक द्रव्य मानते हैं । जैन दर्शन भी इसे द्रव्य स्वीकार करता है। काल दो प्रकार का है १-निश्चयकाल एवं २–व्यवहारकाल । निश्चयकाल "वर्तनापरिणामक्रियापरत्त्वापरत्त्वे च कालस्य" अर्थात् सभी द्रव्यों के वर्तन (अस्तित्व), परिगमन क्रिया तथा ज्येष्ठ, कनिष्ठ आदि के व्यवहार में कारण होता है । और व्यवहार काल उसे कहते हैं जो घड़ी, घण्टा, दिन, महीना आदि का विभाजन करता है। निश्चय काल जहाँ असंख्यात कालाणु रूप है वहीं व्यवहार काल भूत, भविष्यत्, वर्तमान तथा दिन-रात, पक्ष, महीना, वर्ष आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। काल की संख्या असंख्यात है । एक-एक आकाश प्रदेश पर एक-एक कालाणु की स्थिति है। - १. (क) "अपरोऽस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रनिति काल लिङ्गानि"-वै० ६ । (ख) जन्यानां जनक कालो जगतामाश्रयो मतः । परापरत्वधी हेतुः क्षणादिस्यादुपाधितः ।।--मुक्तावली (ग) “कालश्चेत्येके" तत्त्वार्थसूत्र (श्वेताम्बर पाठ) (घ) “कालश्च" तत्त्वार्थसूत्र (दिगम्बर पाठ) 0 . Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . -. -. - . -. -. - . -. -. -. -. - . -. -. -. . जैन धर्म का प्राणः स्याद्वाद डॉ० महावीरसिंह मडिया (सहायक प्रोफेसर, रसायनशास्त्र-विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर) स्याद्वाद भारतीय दर्शनों की संयोजक कड़ी और जैन दर्शन का हृदय है। इसके बीज आज से सहस्रों वर्ष पूर्व सम्भाषित जैन आगमों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, द्रव्य, गुण, पर्याय, सप्त नय आदि विविध रूपों में बिखरे पड़े हैं। सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि जैन दार्शनिकों ने सप्तभंगी आदि के रूप में ताकिक पद्धति से स्याद्वाद को एक व्यवस्थित रूप दिया। तदनन्तर अनेक आचार्यों ने इस पर अगाध वाङ्मय रचा जो आज भी उसके गौरव का परिचय देता है। विगत ढाई हजार वर्षों से स्याद्वाद दार्शनिक जगत् का एक सजीव पहलू रहा और आज भी है। स्याद्वाद सिद्धान्त जैन तीर्थंकरों की मौलिक देन है, क्योंकि यह ज्ञान का एक अंग है, जो तीर्थकरों के केवलज्ञान में स्वत: ही प्रतिबिम्बित होता है। स्याद्वाद सिद्धान्त के द्वारा मानसिक मतभेद समाप्त हो जाते हैं और वस्तु का यथार्थ स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। इसको पाकर मानव अन्तर्द्रष्टा बनता है। स्याद्वाद का प्रयोग जीवन व्यवहार में समन्वयपरक है। वह समता और शान्ति को सजंता है। बुद्धि के वैषम्य को मिटाता है। स्याद्वाद सिद्धान्त की चमत्कारी शक्ति और सार्वभौम प्रभाव को हृदयंगम करके डॉ. हर्मन जकोबी नामक प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक ने कहा है-स्याद्वाद से सब सत्य विचारों का द्वार खुल जाता है। अमेरिका के दार्शनिक विद्वान् प्रो० आचि जे० बन्ह ने इस सिद्धान्त का अध्ययन कर निम्न प्रेरणा भरे शब्द कहे हैं..... "विश्व शान्ति की स्थापना के लिये जैनों को अहिंसा की अपेक्षा स्याद्वाद सिद्धान्त का अत्यधिक प्रचार करना उचित है।" स्याद्वाद एक तर्क व्यूह के रूप में ग्रहीत नहीं हुआ, किन्तु सत्य के एक द्वार के रूप में ग्रहीत हुआ। आज स्याद्वाद जैन दर्शन का पर्याय बन गया है तथा जैन दर्शन का अर्थ स्याद्वाद के रूप में लिया जाता है। वास्तव में स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण है । जैन आचार्यों के सारे दार्शनिक चिन्तन का आधार स्याद्वाद है। स्याबाद का स्वरूप एवं महत्त्व 'स्याद्' और 'वाद' दो शब्द मिलकर स्याद्वाद की संघटना हुई है। स्याद् कथंचित् का पर्यायवाची संस्कृत भाषा का एक अव्यय है। इसका अर्थ है-किसी प्रकार से, किसी अपेक्षा से । वस्तुतत्त्व निर्णय में जो वाद अपेक्षा की प्रधानता पर आधारित है, वह स्याद्वाद है। यह इसकी शाब्दिक व्युत्पत्ति है। किसी एक ही पक्ष को देखकर वस्तु के स्वरूप के सम्बन्ध में निर्णय करना एकान्त निर्णय है और इसलिये गलत है। स्याद्वाद के अनुसार किसी भी विषय का निर्णय करने से पहले, उसके हर पहलू की जाँच करना चाहिये। प्रत्येक वस्तु के अनन्त पक्ष, अनेक अन्त होते हैं। इतना ही नहीं प्रत्येक वस्तु में आपस में विरोधी अनन्त गुण-धर्मात्मक, अनेक प्रकार की विविधाएँ भरी हुई हैं। इस दृष्टि से जैन दार्शनिकों का कहना है कि जो वस्तु तत्त्व रूप है, वह अतत्त्वरूप भी है। जो वस्तु सत् है, वह असत् भी Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jo666 ----0 O २६० @4 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड है । जो एक है, वह अनेक भी है। जो नित्य है, वह अनित्य भी है। इस प्रकार हर एक वस्तु परस्पर विरोधी गुण-धम से भरी हुई है। स्याद्वाद के विषय में उसकी जटिलता के कारण ऐसे विवेचनों की बहुलता यत्र-तत्र दीख पड़ती है। इस जटिलता को भी आचार्यों ने कहीं-कहीं इतना सहज बना दिया है कि जिससे सर्वसाधारण भी स्याद्वाद को भली-भाँति समझ सकते हैं। जब आचार्यों के सामने यह प्रश्न आया कि एक ही वस्तु में उत्पत्ति, विनाश और ध्रुवता जैसे परस्परविरोधी धर्म कैसे ठहर सकते हैं? तो स्याद्वादी आचायों ने कहा एक स्वर्णकार स्वर्ण कलश तोड़कर स्वर्ण मुकुट बना रहा है। उसके पास तीन ग्राहक आए एक को स्वर्णपट चाहिए था, दूसरे को स्वर्णमुकुट और तीसरे को केवल स्वर्ण चाहिये था। स्वर्णकार की प्रवृत्ति को देखकर पहले को दुःख हुआ कि यह स्वर्णकलन को तोड़ रहा है। दूसरे को हर्ष हुआ कि यह मुकुट तैयार कर रहा है। तीसरा व्यक्ति मध्यस्थ भावना में रहा क्योंकि उसे से काम था। तात्पर्य यह हुआ कि एक ही वस्तु (स्वर्ण) में उसी समय एक विनाश देख रहा है, एक है और एक ध्रुवता देख रहा है । तो केवल स्वर्ण उत्पत्ति देख रहा इसी प्रकार जब किसी व्यक्ति ने पूछ लिया कि आपका स्याद्वाद क्या है, तो आचार्यों ने कनिष्ठा व अनामिका सामने करते हुए पूछा- दोनों में बड़ी कौन-सी है ? उत्तर मिला- अनामिका बड़ी है। कनिष्ठा को समेट कर और मध्यमा को फैलाकर पूछा- दोनों अंगुलियों में छोटी कौन-सी है ? उत्तर मिला - अनामिका । आचार्यों ने कहा—यही हमारा स्याद्वाद है, जो तुम एक ही अंगुली को बड़ी भी कहते हो और छोटी भी । यह स्याद्वाद की सहजगम्यता है । इसी प्रकार जो सत् है, वही असत् कैसे हो सकता है ? और यह एक विरोधाभास भी प्रतीत हो सकता है, किन्तु वास्तव में ऐसी बात नहीं है । जैन दार्शनिकों ने स्याद्वाद की दृष्टि से, अनेक भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं तथा विचारधाराओं का एक साथ विचार करने के बाद ही यह बात कही है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की चारों अपेक्षाओं, सातों नयों द्वारा की गई तुलना और सप्तभंगी से मिलान करने के पश्चात् ही जैन शास्त्रकारों ने यह विचित्र किन्तु सम्पूर्ण रूप से सत्य बात कही है। जैन तत्त्वज्ञानियों ने सर्वथा असंदिग्धता से भारपूर्वक कहा है कि एकान्त नित्य से अनित्य का या एकान्त अनित्य से नित्य का स्वतन्त्र उद्भव असम्भव है । भगवतीसूत्र में प्रश्न किया गया है-भगवन् ! परमाणु पुद्गल शाश्वत है या अशाश्वत ? भगवान् महावीर कहते हैं- हे गौतम! द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से परमाणु पुद्गल शाश्वत है- नित्य है और वर्णपर्यायों से लेकर स्पर्श - पयार्यो की अपेक्षा से अर्थात् पर्यायार्थिक नय दृष्टि से यह अशाश्वत, अनित्य, अस्थित है, क्षणिक है। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि वस्तु अन्य की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य भगवान् महावीर एक स्थान कहते हैं— 'अनेगे आया' अर्थात् परन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से उनमें वस्तु में नित्यत्य अनित्यत्व एकत्व अनेकत्व - पर कहते हैं— 'एगे आया' - आत्मा एक है। और अपने उपदेश में दूसरे स्थान पर आत्मा अनेक हैं। शाब्दिक दृष्टि से दोनों कथनों में विरोध दिखाई देता है, कोई विरोध नहीं है, केवल भेद है, अतः उन दोनों में सत्यता है आदि अनेक धर्म हैं और उनको हम एक-एक अपेक्षा से समझ सकते हैं । से जितने भी एकान्तवादी दर्शन होते हैं, उन सबका समावेश हो सकता है, इस अपेक्षादृष्टि को नय कहते हैं । नयवाद क्योंकि वे वस्तु के स्वरूप को एक दृष्टि से देखते हैं। परन्तु वे अपनी दृष्टि को सत्य और दूसरों की दृष्टि को एकान्ततः मिथ्या बताते हैं, अतः वे स्वयं मिथ्या हो जाते हैं । उनमें परस्पर संघर्ष शुरू हो जाता है । जैसे द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा के नित्यत्व को देखने वाला विचारक यह आग्रह रखता है कि आत्मा नित्य ही है, वह अनित्य नहीं है । नित्यवाद ही सही है । अनित्यवाद का सिद्धान्त पूर्णतः गलत है। इस एकान्त आग्रह के कारण वह नय मिथ्यानय हो जाता है । उसमें सत्यांश होते हुए भी एकान्त का आग्रह अन्य सत्यांगों का अस्वीकार और अपनी दृष्टि से व्यामोह का जो विकार है, वह उसे मिथ्या रूप में परिणत कर देता है । दार्शनिक क्षेत्र में फिर संघर्ष शुरू होता है और सभी दार्शनिक एवं विचारक अपने माने हुए सत्यांशों को पूर्णतः सत्य और दूसरे के अभिमत सत्यांशों को पूर्णतः असत्व सिद्ध करने के लिये वाक्युद्ध . Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-दर्शन का प्राण स्याद्वाद २६१ करने लगते हैं। वस्तुतः वस्तु न एकान्त नित्य है और न एकान्त अनित्य उसमें एकस्व भी है और अनेकत्व भी है। वस्तु अनन्त अनेक धर्मों से युक्त है । इसलिये उसे एक स्वरूप या एक ही धर्म वे युक्त कहना सत्य का तिरस्कार करना है । भगवती सूत्र श० ६, उ० ६, सूत्र ३८७ में जीव नित्य है या अनित्य, इस विषय को स्पष्ट करते हुए भगवान महावीर जमालि को समझा रहे हैं - हे जमालि! जीव शाश्वत है, नित्य है, ध्रुव है, अक्षय है, क्योंकि भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों कालों में ऐसा कोई क्षण नहीं, जिस समय जीव का अस्तित्व न रहा है। हे जमालि ! जीव अशाश्वत है, क्योंकि यह नरक भव का त्याग कर तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न होता है । तिर्यञ्च भव से निकलकर मनुष्य बनता है। मनुष्य से देवगति को प्राप्त करता है। इस प्रकार विभिन्न अवस्थाओं में परिवर्तित होने के कारण वह अनित्य है। इसी प्रकार सोमिल के प्रश्नों का उत्तर देते हुए भगवान महावीर कहते हैं - हे सोमिल ! द्रव्य दृष्टि से मैं एक हूँ, ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से मैं एक नहीं दो हूँ कभी नहीं बदलने वाले आत्मप्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ और परिवर्तनशील उपयोग की दृष्टि की अपेक्षा से मैं अनेक रूप हूँ । स्याद्वाद के अनुसार जीव सान्त भी है, और अनन्त भी है । द्रव्य-दृष्टि से जीव द्रव्य एक है अतः वह सान्त है । काल की अपेक्षा से जीव सदा-सर्वदा से है और सर्वदा रहेगा, इसलिये वह अनन्त है। भाव की अपेक्षा से जीव के अनन्त ज्ञान पर्याय है, अनन्त दर्शन पर्याय है, अनन्त चारित्र पर्याय हैं, अनन्त अगुरुलघु पर्याय हैं, इस कारण वह अनन्त है । इस प्रकार द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से जीव ससीम है, इसलिये वह सान्त है । काल और भाव की अपेक्षा से वह असीम है, अतः अनन्त है । उपर्युक्त विवेचन से यह बात स्पष्ट है कि एक और अनेक नित्य और अनित्य, सान्त और अनन्त धर्मो का स्याद्वाद के द्वारा भली-भाँति समन्वय होता है, तथा स्याद्वाद के द्वारा वस्तु के यथार्थ एवं सत्य स्वरूप को समझकर दार्शनिक संघर्ष समाप्त किये जा सकते हैं । एकान्त आग्रह सत्य पर अवलम्बित होने पर भी संघर्षों की जड़ है और वैमनस्य, राग-द्वेष, वैर एवं विरोध बढ़ाने वाला है। अतः पूर्ण सत्य को जानने देखने एवं पूर्व शान्ति को प्राप्त करने का सही मार्ग स्याद्वाद है । आइन्सटीन का सापेक्षवाद और स्याद्वाद सापेक्षवाद वैज्ञानिक जगत में बीसवीं सदी की एक महान देन है। इसके आविष्कर्त्ता सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो० अलबर्ट आइन्सटीन हैं, जो पाश्चात्य देशों में सर्वसम्मति से संसार के सबसे अधिक विलक्षण पुरुष माने गये हैं । सन् १९०५ में आइन्सटीन ने 'सीमित सापेक्षता' शीर्षक एक निबन्ध लिखा जो 'भौतिकशास्त्र का वर्ष पत्र' नामक जर्मन पत्रिका में प्रकाशित हुआ । इस निबन्ध ने विज्ञान की बहुत सी बद्धमूल धारणाओं पर प्रहार कर एक नया मानदण्ड स्थापित किया । अस्ति, नास्ति की बात जैसे स्याद्वाद में पद-पद पर मिलती है, वैसे ही है और नहीं ( अस्ति, नास्ति ) की बात सापेक्षवाद में भी मिलती है। जिस पदार्थ के विषय में साधारणतया हम कहते हैं कि यह १५४ किलो का है । सापेक्षवाद कहता है कि यह है भी और नहीं भी । क्योंकि भूमध्य रेखा पर यह १५४ किलो है, पर दक्षिणी या उत्तरी ध्रुव पर १५५ किलो है । गति तथा स्थिति को लेकर भी यह बदलता रहता है। गति और जहाज जो स्थिर है, वह पृथ्वी की अपेक्षा से ही स्थिर है, लेकिन पृथ्वी सूर्य की अपेक्षा से गति में है और जहाज भी इसके साथ गति में है । स्थाद्वाद के अनुसार प्रत्येक ग्रह व प्रत्येक पदार्थ चर भी है और स्थिर भी है । स्याद्वादी कहते हैं स्थिति अपेक्षिक धर्म है। एक - परमाणु नित्य भी है और अनित्य भी । संसार शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है । आकाश सर्वत्र व्याप्त है । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय असंख्य योजन तक सहवर्ती है । द्रव्य-दृष्टि से +8+8 . Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड विश्व एक है, अभिन्न है और नित्य है । पर्याय-दृष्टि से विश्व अनेक है, भिन्न है और अनित्य है। निरपेक्ष रहकर दोनों दृष्टि का सत्य पूर्ण सत्य नहीं है। ये सापेक्ष रहकर ही पूर्ण सत्य की व्याख्या कर सकती हैं। सापेक्षवाद के अधिष्ठाता प्रो० आइन्सटीन भी यही कहते हैं "We can only know the relative truth, the absolute truth is known only to the universal observer." (हम केवल आपेक्षिक सत्य को ही जान सकते हैं, सम्पूर्ण सत्य सर्वज्ञ द्वारा ही ज्ञात है।) वास्तव में स्याद्वाद के तथ्य जितने दार्शनिक हैं, उतने ही वैज्ञानिक भी। स्याद्वाद केवल कल्पनाओं का पुलिन्दा नहीं किन्तु जीवन का व्यावहारिक मार्ग है। इसीलिये आचार्यों ने कहा है-उस जगतगुरु स्याद्वाद महासिद्धान्त को नमस्कार हो जिसके बिना लोक व्यवहार भी नहीं चल सकता । यह तो वस्तु तथ्य को पाने का एक यथार्थ मार्ग है। स्याद्वाद का दार्शनिक स्वरूप एवं विशिष्टता स्याद्वाद की सर्वोपरि विशेषता है कि वह किसी वस्तु के एक पक्ष को पकड़कर नहीं कहता है कि यह वस्तु एकान्तत: ऐसी ही है । वह तो 'ही' के स्थान पर 'भी' का प्रयोग करता है। 'ही' एकान्त है। 'भी' वैषम्य एवं संघर्ष के बीज का मूलतः उन्मूलन करके समता तथा सौहार्द के मधुर वातावरण का सृजन करती है। जितने भी एकान्तवादी दर्शन हैं, वे सब वस्तु स्वरूप के सम्बन्ध में एक पक्ष को सर्वथा प्रधानता देकर ही किसी तथ्य का प्रतिपादन करते हैं। सांख्यदर्शन आत्मा को कूटस्थ (एकान्त) नित्य ही मानता है। उसका कहना हैआत्मा सर्वथा नित्य ही है। बौद्ध दर्शन का कहना है-आत्मा अनित्य ही है। आपस में दोनों का विरोध है । जैन दर्शन कहता है-यदि आत्मा एकान्त नित्य ही है तो उसमें नारक, देवता, पशु और मनुष्य के रूप में परिवर्तन क्यों होता है ? कूटस्थ नित्य में तो किसी भी प्रकार का पर्याय परिवर्तन या हेर-फेर नहीं होना चाहिए। क्रोध, अहंकार, माया तथा लोभ के रूप में क्यों रूपान्तर होता है ? अतः आत्मा नित्य ही है, यह कथन भ्रान्त है। यदि आत्मा सर्वथा अनित्य ही है, तो वह वस्तु नहीं है, जो पहले देखी गई है, परन्तु प्रत्यभिज्ञान तो अबाध रूप से होता है, अत: आत्मा सर्वथा अनित्य ही है-यह मान्यता भी त्रुटिपूर्ण है। निष्कर्ष निकला, द्रव्य अपेक्षा से आत्मा नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से आत्मा अनित्य है। प्रत्येक दार्शनिक, धार्मिक व सांसारिक समस्या का समाधान स्याद्वाद से किया जा सकता है। समानता को समानता एवं असमानता को असमानता मानने वाला व्यक्ति ही स्याद्वाद का उपासक हो सकता हैं। सब धर्मों में आचार-विषयक जैसे कुछ समानताएँ दृष्टिगोचर होती है उसी प्रकार असमानताएँ भी अनेक हैं। भक्ष्य, अभक्ष्य, पेय, अपेय, कृत्य, अकृत्य' की सब समानताएँ समान ही हैं, यह विचार सर्वथा भ्रान्त है। एकान्त और अनेकान्त के जीवअजीव तत्त्वों के सम्बन्धों में किये गये विवेचन-विश्लेषण में उत्तरी ध्रव तथा दक्षिणी ध्रव जैसा अन्तर होते हुए भी इनमें परस्पर कोई भेद नहीं। सब धर्मों और प्रवर्तकों में पूर्ण साम्य है, यह कहना स्याद्वाद नहीं मृषावाद है। स्याद्वादी का सर्व-धर्म-समन्वय एक भिन्न कोटि का होता है। वह सत्य को सत्य और असत्य को असत्य के रूप में देखता है, मानता है। असत्य का पक्ष न करना और सत्य के प्रति सदा जागरूक रहना ही सच्ची मध्यस्थदृष्टि है । सत्य-असत्य में कोई विवेक न करना यह मध्यस्थदृष्टि नहीं, अज्ञानदृष्टि है। सत्य के प्रति अन्याय न होने पाए और असत्य को प्रश्रय न मिलने पाए, इस अपेक्षा से स्याद्वाद सिद्धान्त के मानने वाले व्यक्ति का मध्यस्थभाव एक अलग ही ढंग का होता है, जिसकी झांकी निम्न श्लोक में देखी जा सकती है तत्रापि न द्वेष कार्यो, विषयवस्तु यत्नतो मृग्यः । तस्यापि च सद्वचनं, सर्व यत्प्रवचनादन्यत् ।। षोडशक, १६. १३. Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन का प्राण : स्याद्वाद २६३ . ........................................................................... दूसरे शास्त्रों के प्रति द्वेष करना, उचित नहीं है; परन्तु वे जो बात कहते हैं, उसकी यत्नपूर्वक शोध करना चाहिये और उसमें जो सत्य वचन है, वह द्वादशांगी रूप प्रवचन से अलग नहीं है। स्याद्वाद का गाम्भीर्य और मध्यस्थ भाव दोनों उपर्युक्त श्लोक में मुर्त होते हैं। स्याद्वादी के लिये कोई भी वचन स्वयं न प्रमाणरूप है और न अप्रमाणरूप है। विषय के शोधन-परिशोधन से ही, उसके लिये वचन प्रमाण अथवा अप्रमाण बनता है। स्याद्वादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है। वह सम्पूर्ण नय-रूप दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्य की दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्रों को देखता है, क्योंकि स्याद्वादी की न्यूनाधिक वृद्धि नहीं हो हो सकती। वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहे जाने का अधिकारी वही है, जो स्याद्वाद का अवलम्बन लेकर सम्पूर्ण दर्शनों में समान भाव रखता है। धार्मिक सम्प्रदायों को असहिष्णुता स्याद्वाद अहिंसा का एक अंग है। जैन दर्शन में अहिंसा सर्वोपरि है। यदि यह कहा जाए कि अहिंसा जैन दर्शन का पर्यायवाची नाम है तो भी अत्युक्ति न होगी। जहाँ जैन दर्शन मनुष्य अथवा प्राणधारी के जीवन की प्रत्येक क्रिया में हिंसा का आभास करता है और कहता है कि विश्व में किसी भी प्राणधारी की--पृथ्वी, अप, तेज, वायु वनस्पति तथा त्रस जीवों की हिंसा से विरत रहना चाहिये, उसी जैन दर्शन के व्याख्याता आचार्यों ने यह भी प्रतिपादित किया जयं चरे, जयं चिट्टे, जयं मासे, जयं सये । जयं भुजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधई। उपरोक्त गाथा में यत्नपूर्वक जीवन यापन में पापकर्म के बंधन न होने का प्रतिपादन किया है। जैन दर्शन में द्रव्यहिंसा की अपेक्षा भावहिंसा को भी अधिक बन्ध का कारण माना है। अर्थात् किसी प्राणी को ऐसा वचन न कहा जाए जिससे कि उसे दुःख पहुचे। स्याद्वाद बौद्धिक अहिंसा है। वास्तव में धर्म के नाम पर होने वाले साम्प्रदायिक संघर्षों का मूल कारण एकान्तवाद का आग्रह है। "केवल मेरा धर्म, विश्वास और उपासना पद्धति ही एक मात्र सत्य है और दूसरे सब गलत हैं। मेरा धर्म ही ईश्वरीय धर्म है। ईश्वर मेरी पूजा से ही प्रसन्न होगा, तथा अन्य लोगों की उपासना पद्धति मिथ्या है। मेरे धर्मग्रन्थ ही प्रामाणिक और ज्ञान के भण्डार हैं, अन्य सब व्यर्थ हैं।" इन धारणाओं के कारण भयानक कलह हुए, लड़ाइयाँ लड़ी गई और मानव जीवन कष्टप्रद एवं दुःखी बना। “सब मनुष्य एक हैं"-यह सापेक्ष सिद्धान्त है। मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रकृति और व्यवस्थाकृत अनेकताएँ भी हैं । एकता और अनेकता से परे जो द्वन्द्वातीत आत्मा की अनुभूति है, वह धर्म है। इस धार्मिक दृष्टिकोण से मानवीय एकता का अर्थ होगा---मनुष्य के बीच घृणा और संघर्ष की समाप्ति । दार्शनिक जगत के लिये जैन दर्शन की यह देन सर्वथा अनुपम व अद्वितीय है। स्याद्वाद सिद्धान्त के द्वारा विविधता में एकता और एकता में विविधता का दर्शन कराकर जैन दर्शन ने विश्व को नवीन दृष्टि प्रदान की है। स्याद्वादी का समताभाव अन्तर् और बाह्य जगत में एक समान होता है। अतः वह एक सार्वभौम अहिंसाप्रधान समाजवाद का सृजन करने की क्षमता रखता है। चाहे दर्शनशास्त्र का विषय हो और चाहे लोक व्यवहार का स्याद्वाद सिद्धान्त सर्वत्र समन्वय और समता को सिरजता है। आज के संघर्ष के युग में स्याद्वादी ही वह सूझ-बूझ का मानव हो सकता है, जो सत्य और अहिंसा के बल पर समस्त प्राणियों में मेल-मिलाप करा सकता है । भारतीय संस्कृति के विशेषज्ञ मनीषी डॉ. रामधारी सिंह दिनकर का अभिमत है कि स्याद्वाद का अनुसन्धान भारत की अहिंसा साधना का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना शीघ्र अपनाएगा, विश्व में शान्ति उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड उपसंहार स्याद्वाद सुख, शान्ति और सामंजस्य का प्रतीक है। विचार के क्षेत्र में अनेकान्त, वाणी से क्षेत्र के स्याद्वाद और आचरण के क्षेत्र में अहिंसा, यह सब भिन्न-भिन्न दृष्टियों को लेकर एक रूप ही है। अर्थक्रिया न नित्यवाद में बनती है, न अनित्यवाद में, अतः दोनों वाद परस्पर विध्वंसक है। स्याद्वाद एक समुद्र है जिसमें सारे वाद विलीन हो जाते हैं। अतः स्याद्वाद मानव के लिये, आत्म-कल्याण का अमोघ साधन है । उससे ज्ञान का विस्तार होता है और श्रद्धा निर्मल बनती है। आज जब कि सम्पूर्ण विश्व बारूद के ढेर पर बैठा है और एटमबमों के जोर पर दम्भ कर रहा है, तब इस प्रकार अनेकान्तात्मक विचारों के अनुशीलन से अन्धविश्वास, साम्प्रदायिक संकीर्णता और असहिष्णुता आदि कुप्रवृत्तियाँ नष्ट हो सकती हैं और मानव लोक-कल्याणवादी हो सकता है । आचरण को शुद्ध कर स्याद्वादरूप वाणी द्वारा सत्य की प्रस्थापना कर, अनेकान्तरूप वस्तु-तत्त्व को प्राप्त कर मानव आत्मसाक्षात्कार कर सकता है और अनन्त चतुष्टय एवं सिद्धत्व की प्राप्ति कर सकता है। समावयंता बयणाभिघाया, कण्णंगया दुम्मणियं जणन्ति । धम्मोत्ति किच्चा परमग्ग सूरे, जिइन्दिए जो सहइ स पुज्जो । –दशवकालिक है।३८ जिनके सुनने मात्र से मन में क्रोध उमड़ पड़ता है, ऐसे वचनाभिघातोकटु शब्दों को जो 'क्षमा करना धर्म है' यह मानकर सह जाता है, वह उत्कृष्ट वीर जितेन्द्रिय साधक वस्तुत: पूज्य है। Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रहवाद आर्थिक समता का आधार डॉ० फूलचन्द जैन 'प्रेमी' [प्राध्यापक, जैन विश्वभारती, लाडनूं (राज०)] भगवान् महावीर ने लोक-कल्याण के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पाँच व्रतों के पालन पर विशेष बल दिया। इन पांचों का हम चाहे जो भी नाम दे दें सभी में अहिंसा व्याप्त है और अपरिग्रह को अहिंसा का मेरुदण्ड माना गया है। अपरिग्रह को बिना अपनाये अहिंसा का सम्यक् आचरण सम्भव नहीं । बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार की हिंसा के त्याग से ही पूर्ण अहिंसा का पालन किया जा सकता है। इसलिए भगवान् महावीर ने बाहर की हिंसा से बचने के लिए 'प्रेम तत्व' दिया तो दूसरी ओर भीतरी हिसा को रोकने के लिए 'अपरिग्रह तत्त्व' । वैसे अन्तरंग और भावनात्मक दृष्टि से अपरिग्रह को भले ही अहिंसा में गर्भित मान लें, किन्तु अहिंसा की परिपूर्णता तथा निःशल्य होकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए अपरिग्रह को प्रारम्भ से ही पृथक् व्रत के रूप में स्वीकार किया गया । कार्य क्षेत्र तथा बाह्य व्यवहार में भी भिन्नता के कारण दोनों का पृथक्-पृथक् रूप में प्रति पादन आवश्यक था । अपरिग्रह शब्द परिग्रह के निषेध का सूचक है। परिग्रह शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है - "परि समन्तात् मोह बुद्धया गृह्यते यः स परिग्रहः" अर्थात् मोह (ममत्व ) बुद्धि के द्वारा जो ( पदार्थादि ) चारों ओर से ग्रहण किया जाए वह परिग्रह है। आचार्य उमास्वामि ने मूर्च्छा को परिग्रह कहा है। वस्तुतः मन और इन्द्रियों की प्रकृति चंचल है। मन में अनन्त संकल्प-विकल्प जन्म लेते रहते हैं जिनकी दौड़ असीम होती है और ये सदा नित-नवीन इच्छाओं को जन्म देता रहता है। साथ ही देखा जाय तो ये इच्छायें ही परिग्रह का मूल कारण है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मनुष्य के मन में सर्वप्रथम अनधिकृत सामग्री प्राप्ति की इच्छा होती है-इसे हम इच्छारूप परिग्रह कह सकते हैं। इसके बाद उसके संग्रह की दिशा में प्रवृत्ति होती है - यह संग्रहरूप परिग्रह है और इसके साथ ही साथ संग्रहीत वस्तुओं पर ममत्व स्थापित हो जाता है तब यही ममत्व आसक्ति का रूप धारण कर लेता है। ममत्व जितना पना होता है, संग्रहवृत्ति उतनी ही बढ़ती जाती है। कोई भी व्यक्ति कितना ही दरिद्र भिखारी या बाह्य रूप से अपरिग्रही हो, ममत्व भाव से युक्त होने पर वह अन्दर से उतना ही महापरिग्रही हो सकता है। इसके ठीक विपरीत ममत्वभाव से रहित अनासक्त वृत्तिवाला मनुष्य अतुल वैभव के बीच भी अपरिग्रह अणुव्रत का धारक हो सकता है । क्योंकि अपरिग्रह किसी वस्तु के त्याग का नाम नहीं अपितु किसी वस्तु में निहित ममत्व (मूर्च्छा) के त्याग का नाम है। यदि वस्तु के अनावश्यक संग्रह को रोकना है तो उस वस्तु के त्याग से पूर्व उस उस वस्तु में निहित ममत्व का त्याग आवश्यक होगा । यथार्थतः व्यक्ति की आकांक्षाएँ आकाश की भाँति अनन्त होती है, ज्यों-ज्यों इनकी पूर्ति होने लगती है वैसे ही लोभ और मोह बढ़ने लगते हैं और वह अनैतिक रूप से धन संग्रह में संलग्न हो जाता है। मोह-बुद्धि के कारण वह इसी में अपनी सम्पूर्ण सफलता और सुख मान बैठता है फिर उसे यह भाव जाग्रत नहीं होता कि मेरे इस क्षणिक . Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .. . ................................................................ सुख के पीछे कितनों के सुखों का गला घोटा जा रहा है। वैसे आत्मरक्षा, ऐन्द्रिय सुख, सुखद भविष्य और जीविका की अनिश्चितता आदि ऐसे कारण भी हैं जो अत्यधिक संग्रह की प्रवृत्ति को जन्म देते हैं, जबकि इन्हीं मनोवृत्तियों के कारण उसके पड़ौसी और उसके नगर तथा देशवासी अभावग्रस्त एवं दुःखी रह जाते हैं। और इन्हीं वृत्तियों के कारण बाजार में आवश्यक वस्तुओं का कृत्रिम अभाव उत्पन्न किया जाता है। इसी से मूल्यस्तर लगातार बढ़ता ही जाता है। मान लीजिये सभी के दैनिक अनिवार्य उपयोग की कोई वस्तु बाजार में आए, कोई धनवान व्यक्ति ही उसे पूरा का पूरा खरीद ले तो मध्यम या निर्धन वर्ग जो अपनी आर्थिक परिस्थिति के कारण आवश्यकतानुसार सीमित मात्रा में ही उस वस्तु को खरीदकर उपयोग में लाना चाहता था, उससे वह वंचित कर दिया गया। ऐसी ही अनेक स्थितियों में विषमता का जन्म होता है । संग्रहशील वर्गों के विरुद्ध सृजन और चिन्तन में जो वर्ग-संघर्ष चल रहा है, उसके जिम्मेदार संग्रहशील व्यक्ति और वर्ग हैं । आज विश्व की स्थिति पर दृष्टि डालें तो दिखाई देगा कि लोग विभिन्न स्रोतों से असहज-भाव से अर्थोपार्जन और संग्रह की दौड़ में तन्मय हो रहे हैं । इसी प्रवृत्ति ने मानवमानव के बीच विषमता की खाई तैयार कर दी। क्योंकि आज पैसा ही प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु का मापदण्ड बनकर रह गया है। माना कि सामाजिक व्यवस्था का आधार एवं उदरपूर्ति का साधन धन है किन्तु तृष्णा के वशीभूत हो जब साधन ही साध्य का रूप धारण कर ले तब उसकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति विवेक-अविवेक, न्याय-अन्याय आदि का बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखता और संग्रह की वृत्ति बढ़ती ही जाती है। जब पूजी कुछ के ही हाथ में सीमित होकर रह जाती है तब यहीं से पूंजीवाद का जन्म होता है जो आर्थिक विषमता का द्योतक है । यही आर्थिक विषमता, ईर्ष्या, द्वेष और वैमनष्यता को जन्म देती है । भगवती आराधना (गाथा ११२१) में कहा है-"राग, लोभ और मोह जब मन में उत्पन्न होते हैं, तब इस आत्मा में बाह्य परिग्रह ग्रहण करने की बुद्धि होती है।" वस्तुतः हम अभ्यस्त रहे हैं वाहर देखने के और उसी में मूच्छित हैं । इसके पार हमें कुछ दिखता ही नहीं है। आश्चर्य तो यही है कि हम इस मूर्छा को ही जागरण मान बैठते हैं। __ भगवान् महावीर ने कहा--"असंविभागी न हु तस्स मोक्खो" (दशवकालिक हारा२३)-जो व्यक्ति बाँटकर नहीं खाता उसके मुक्ति नहीं मिल सकती। व्यावहारिक दृष्टि से इस सिद्धान्त को हम इस प्रकार कह सकते हैं कि जिस राष्ट्र में प्रजा के बीच समान वितरण की व्यवस्था नहीं है वह राष्ट्र सही मायने में स्वतन्त्र नहीं रह सकता । जैन धर्म के आचार पक्ष में दान के प्रसंग में प्रयुक्त "संविभाग" शब्द समविभाजन-समान वितरण का ही द्योतक है । “परिग्रह परिमाण” नामक व्रत का विधान भी परिग्रह की सीमा निर्धारण करने को कहता है। अपनी अनिवार्य आवश्यकता के योग्य वस्तुयें रखकर शेष अभावग्रस्त लोगों में वितरण करना परिग्रह का परिमाण है। चूंकि गृहस्थ को पूर्ण रूप से परिग्रह से विरत रहना कठिन है किन्तु उसका परिसीमन तो निर्धारित किया ही जा सकता है । आचार्य समन्तभद्र ने भी रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है-जो बाह्य के दस परिग्रहों (क्षेत्र, वस्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, शयनासन, यान, कुप्य और भाण्ड) में ममता छोड़कर निर्ममत्व में रत होता हुआ माया आदि रहित, स्थिर और सन्तोषवृत्ति धारण करने में तत्पर है वह संचित परिग्रह से विरक्त अर्थात् परिग्रह त्याग प्रतिमा का धारक श्रावक है। एक प्रजातान्त्रिक देश का लक्ष्य समभाव के आधार पर सर्वहितकारी सर्वोदय समाज की स्थापना करना है पर यह उत्तम व्यवस्था इसलिए कार्यान्वित नहीं हो पाती क्योंकि लोगों की संग्रह की प्रवृत्ति अत्यधिक बढ़ी हुई है। आज गरीबी-अमीरी की भेदरेखा मिटाने के लिए समाजवाद-साम्यवाद की चर्चा चलती है किन्तु इसके द्वारा जिन बुराइयों को मिटाने की बात होती है, उसके लिए उन्हीं बुराइयों का सहारा साधन के रूप में प्रयुक्त होता है । इस प्रवृत्ति के पारस्परिक आन्तरिक कलह, प्रतिद्वन्द्विता, आतंक और प्रतिशोध जैसे भयंकर परिणाम सामने आये हैं । वस्तुत: लोकतन्त्र अथवा समाजवाद-ये दो समतामूलक समाज की रचना के बाह्य प्रयोग हैं । इन बाह्य प्रयोगों की सफलता मानव के आन्तरिक धरातल (अपरिग्रह की भावना) पर प्रतिष्ठित समता पर ही निर्भर है। क्योंकि समतामूलक समाज में ही सच्ची मानवता की कल्पना की जा सकती है। . Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अपरिग्रहवाब : आर्थिक समता का आधार २६७ समता का अर्थ सामाजिक और राष्ट्रीय सन्दर्भ में इतना ही है, कि स्वस्थ समाज की स्थापना हेतु प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति-प्रदत्त गुणों के विकास के समुचित अवसर प्राप्त हों। अपरिग्रह आर्थिक समता का क्षेत्र विस्तृत करता है। भगवान महावीर ने कहा-"अनावश्यक संग्रह न करके उसका वितरण जन-कल्याण के लिए करो।" धन संग्रह से अपव्यय की आदत का विकास होता है और नैतिक मूल्यों पर आघात पहुँचता है । जीवन में नैतिक मूल्यों का अपना विशेष महत्त्व है, उन्हें खोकर कोई भी व्यक्ति कितना ही वैभव प्राप्त कर ले, वह अपनी और समाज की दृष्टि में गिर जाता है। गांधी युग ने मानवता की नव रचना के लिए चार मूलभूत तत्त्व दिये-सर्वोदय, सत्याग्रह, समन्वय और साम्ययोग । इनकी भी सफलता और सार्थकता अपरिग्रह की नींव पर आधारित है । अन्तिम तत्त्व साम्ययोग की व्याख्या में विनोबा भावे ने कहा-'अमिधेयं परमं साम्यम्” अर्थात् हमारे चिन्तन का मुख्य विषय जीवन में परम साम्य की प्रतिष्ठापना है। इसके लिए प्रथम आर्थिक साम्य है जो प्रत्येक व्यवहार में मददगार होता है। दूसरा सामाजिक साम्य है जिसके आधार पर समाज में व्यवस्था रहती है और तीसरा मानसिक साम्य है जिससे मनुष्य के मन का नियन्त्रण होता है और जो बहुत जरूरी है । गांधीजी का ट्रस्टीशिप सिद्धान्त आर्थिक असमानता को दूर करने का महत्त्वपूर्ण साधन है जिसके मूल में अपरिग्रहवाद की भावना अन्तनिहित है, किन्तु भारत में कुछ विरोधी विचारधाराओं और मनोवृत्तियों के कारण यह सिद्धान्त लागू नहीं हो सका । लोगों को इस विषय में जानकारी भी कम ही है। ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त में मूलभूत यह भावना निहित थी कि धनिक अपने धन के मालिक नहीं, ट्रस्टी हैं । यह श्रम और पूजी के बीच का संघर्ष मिटाने, विषमता और गरीबी हटाने तथा आदर्श एवं अहिंसक समाज की स्थापना करने में बहुत सहायक है । क्योंकि इसके अन्तर्गत अर्थव्यवस्था में पूंजीपतियों या मालिकों को समाज-हित में अपना स्वामित्व छोड़कर ट्रस्टी बनने का अवसर दिया जाता है। वस्तुतः आर्थिक समानता के लिए काम करने का मतलब है पूजी और मजदूरी के बीच झगड़े को हमेशा के लिए मिटा देना । __ आजकल अर्थशास्त्र में एक शब्द प्रचलित है--पावर्टी लाइन (Poverty Line) अर्थात् गरीबी की रेखा। इसका अर्थ है जीवन के लिए आवश्यक तत्त्व जैसे भोजन, निवास, वस्त्र, चिकित्सा, शिक्षा आदि प्राप्त करने के लिए आमदनी का एक न्यूनतम स्तर अनिवार्य रूप से होना। यदि आमदनी इससे कम हो जाए तो ये मूलभूत आवश्यकतायें पूरी नहीं होगी। इस स्तर को राष्ट्रीय न्यूनतम से नीचे आमदनी वाले मानव-समूह की गरीबी की रेखा को सबसे निम्न कहा जाता है। आमदनी के संचय और केन्द्रीकरण के कारण स्वस्थ आर्थिक विकास अवरुद्ध हुआ है क्योंकि इसने विकास कार्यों में मानसिक और भौतिक लोकसहकार नहीं होने दिया। विषमता में जो अत्यधिक तीव्रता और तीखापन आया है, वह वर्तमान औद्योगिक सभ्यता की देन है। आर्थिक विषमता में सामाजिक विषमता भी जुड़ गयी। पर अब और अधिक आर्थिक विषमता के निराकरण का स्वाभाविक परिणाम सामाजिक विषमता के निराकरण पर भी होगा। आर्थिक समता का अपना एक स्वतन्त्र मूल्य है जिसका अपरिग्रह की भावना से सीधा सम्बन्ध है। सुप्रसिद्ध विचारक और साहित्यकार जैनेन्द्र जी ने एक बार पर्युषण पर्व व्याख्यान माला में कहा था"पदार्थ परिग्रह नहीं, उनमें ममता परिग्रह है। समाज में आज कितनी विषमता है ? एक के पास धन का ढेर लग गया है, दूसरी ओर खाने को कौर नहीं । ऐसी स्थिति में अहिंसा कहाँ ? धर्म कहाँ ? .--आप सच मानिये कि हमारे आसपास भूखे लोगों की भीड़ मँडरा रही हो तो उसके बीच महल के बन्द कमरे में धर्म का पालन नहीं हो सकता।"१ जैनेन्द्र जी के उक्त विचार आज के सन्दर्भ में विशेष प्रेरक हैं। इसी तरह उपाध्याय अमरमुनि जी ने लिखा है कि "गरीबी स्वयं में कोई समस्या नहीं, किन्तु अमीरी ने उसे समस्या बना दिया है। गड्ढा स्वयं में कोई बहुत चीज नहीं, किन्तु पहाड़ों की असीम ऊँचाइयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्ढे पैदा कर दिये हैं। पहाड़ टूटेंगे तो गड्ढे अपने १. श्रमण" मासिक, जनवरी ५६, अंक ३, वर्ष ७ से उद्ध त । Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड आप भर जायेंगे । सम्पत्ति का विसर्जन होगा तो गरीबी अपने आप दूर होगी।' आचार्य गुणभद्र ने बहुत सुन्दर लिखा है कि प्रत्येक के पास एक आशा रूपी गड्ढा है उसमें यदि सारे विश्व को भी डाल दिया जाय तो भी वह कोने में अणु के समान बैठ जायेगा । कवि कहता है कि इस प्रकार के गड्ढे विश्व के सारे प्राणियों के पास एक-एक हैं तो फिर किसके हिस्से में क्या आयेगा? यह कहा नहीं जा सकता। फिर भी यह मोही जीव व्यर्थ ही पंचेन्द्रियविषय-भोगों की आकांक्षा करके दुःखी हो रहा है। इसलिए आवश्यकता है नीति और न्याय से आवश्यकतानुसार धनोपार्जन करने, इच्छाओं तथा वासनाओं को नियन्त्रित एवं नियमित करने की और इसमें अपरिग्रहवाद अपनी अप्रतिम भूमिका निभा सकता है। क्योंकि स्वेच्छापूर्वक सम्पत्ति का सीमा नियन्त्रण करना एक सामाजिक गुण है जिसका परिणाम सामाजिक न्याय व उपयोगी वस्तुओं का उचित वितरण है, इसी से कमजोर वर्ग को जीने का अवसर मिलेगा। परिग्रह की सीमा बाँधकर चलना एक सर्वप्रसरणशील गुण है। जो व्यक्ति के लिए सत्य है, वही समुदाय के लिए भी सत्य होगा चाहे वह समुदाय सामाजिक हो या राजनैतिक । अनासक्ति और अपरिग्रह की साधना हमारे सामाजिक जीवन में आर्थिक समानता ला सकती है क्योंकि अपरिग्रह समाज-धर्म एवं समाज-व्यवस्था का सबसे बड़ा अंग है और नैतिकता के आधार पर समस्याओं के समाधान में अपरिग्रहवाद बहुत प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है । क्योंकि आज हम समाजवाद लाने की सोचें या गरीबी हटाने को, अपरिग्रह की भावना के बिना वास्तविक समाजवाद नहीं आ सकता और न गरीबी हट सकती है। __ कभी-कभी समाजवाद स्थापित करने का दूसरा ही रूप दिखाई देता है। वह यह कि सत्ता और कानून के द्वारा अमीरी-गरीबी की भेद-रेखा मिटाने का प्रयत्न चलता है । तरह-तरह के कर (टैक्स) लगाकर धनिक और गरीब वर्ग की भेद-रेखा समाप्त करना भी इसका लक्ष्य है किन्तु क्या सत्ता, कानून और बल-प्रयोग सच्चा समाजबाद ला सकता है ? कभी नहीं । बिना हृदय परिवर्तन और जनजागरण के मात्र कानून से किसी भी समस्या का स्थायी एवं अच्छा समाधान सम्भव नहीं । अलक्जंदर सोलझेनित्सीन ने कहा है-"कानून के शब्द इतने ठण्डे, इतने औपचारिक होते हैं कि उनका समाज पर कोई कल्याणकारी प्रभाव नहीं हो सकता । जब भी समाज-जीवन के तन्तु कानूनी सम्बन्धों द्वारा बने होते हैं, एक तरह की मध्यस्तरीय नैतिकता समाज में व्याप्त रहती है और मनुष्य के उत्तम अमिक्रम पंगु हो जाते हैं, इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अपरिग्रहवाद जैसे सिद्धान्तों पर होने वाली वार्ताओं, विचारों एवं इसके कल्याणकारी परिणामों को लोगों के समक्ष लाया जाय, जिससे भावनात्मक दृष्टि से इस सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप देने के लिए अनुकूल वातावरण बनाकर जनमानस को उद्वेलित किया जाय ताकि समता के सुदृढ़ धरातल का निर्माण हो सके। जैन प्रकाश, ८ अप्रैल, १९६६ के पृ० ११ से उद्धृत । आशा गर्त: प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वै विषयैषिता । सर्वोदय साहित्य (सर्व सेवा संघ, वाराणसी) के मई-जून, १९७६ के अंक से उद्धृ त । ३. Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -. -.-.-.-. -.-.-.-. -. -.-. -. -. -. -.-. -. -.-.-.............. अनुयोग और उनके विभाग - मुनि श्री किशनलाल (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य) भाषा से भावों की अभिव्यक्ति और विचार-विनिमय होता है। जो व्यक्त ध्वनि विचारों और भावों को दूसरों तक पहुँचाने में सहायक होती है, उसे भाषा कहा जाता है। 'भाषा' रहस्य' में भाषा की परिभाषा करते हुए लिखा है- 'मनुष्य मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि-संकेतों का जो व्यवहार होता है, उसे भाषा कहते हैं। तात्त्विक दृष्टि से वह ध्वनि जो काय योग से गृहीत वागयोग से निसृष्ट भाषा वर्गण सहित होती है, उसे भाषा कहते हैं। ध्वनि को चिह्न या संकेतों से अंकित कर लिया जाता है जिसे हम लिपि कहते हैं । लिपि और भाषा मानवसमाज की एक विशिष्ट सम्पत्ति है जिससे विचारों का स्थायित्व और विनिमय होता है। स्थायित्व से साहित्य वाङ्मय और विनिमय से समालोचना शास्त्र का आविर्भाव होता है जिससे मानव सम्यक् और असम्यक् का निर्णय कर 'सत्यं शिवं और सुन्दरं' की ओर प्रेरित हो सकता है। भाषा को रूपक में हम यों समझ सकते हैं । भाषा आत्मा रूपी कुएँ का वह नीर है जो आठ बाल्टियों से निकाला जाता है जिन्हें हम स्थान कहते हैं। नीर वैसा ही निकलेगा जैसा कुएँ में होगा। भाषा की भी यही अवस्था है, जिसकी आत्मा पवित्र होती है। उसकी भाषा भी पवित्र होती है । भगवान् महावीर ने राग-द्वेष के बीजों को दग्ध किया। आत्मा पवित्र बन गई। उसके पश्चात् ही दूसरों को पवित्रता की ओर प्रेरित करने के लिए प्रवचन करना प्रारम्भ किया। वे अर्थ का कथन करते हैं जैसा कि बृहद् वृत्ति में बताया गया है अत्थं भासई अरहा, तमेव सुत्तीकरेंति गणधरा। अत्थं च विणा सुत्त, अणि स्सियं के रियं होई॥ अरिहन्त केवल अर्थ की भाषा में बोलते हैं । उसको ही गणधर सूत्र रूप में ग्रथित करते हैं । अर्थ के बिना सूत्रों का क्या मूल्य ? सूत्र जब ही मूल्यवान् बनते हैं, जब वे अर्हन् अर्थ से संयुक्त होते हैं। सूत्रों की मूल्यवत्ता अर्थ के आधार पर ही तो है । अर्हन् वाणी के अनुकूल होने से ही अनुयोग कहा गया है। अनुयोग का अर्थ है व्याख्या की पद्धति । उसके लिए अनुयोग द्वार एक स्वतन्त्र आगम है। --श्री स्थानांगवृत्ति, पृ० १७३ १. द्रष्टव्य-पृ० २८. २. काययोगगृहीत वाग्योग निसृष्ट भाषा द्रव्यं संहत्ति । ३. कालु कौमुदी, पृ०७ : अष्टौ स्थानानि वर्णानां उर कंठ: शिरस्तथा । जिह्वा मूलं च दन्ताश्च नासिकौष्ठं च तालुका ।। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड अनुयोग शब्द की शल्य चिकित्सा करते हुए प्राचीन ग्रन्थों में आया है- "अणु-ओयणमणुयोगो" अनुयोजन को अनुयोग कहा है। अनुयोजन यहाँ जोड़ने से संयुक्त करने के अर्थ में आया है जिससे एक दूसरे को सम्बन्धित किया जा सके। इसी को स्पष्ट करते हुए टीकाकार ने लिखा है- "युज्यते संबध्यते भगवदुक्तार्थेन सहेति योग: " भगवद् कथन से संयोजित करता है अतः उसको अनुयोग कहा गया है। अभिधान राजेन्द्र कोश में ऐसा भी अर्थ मिलता है - "अणु सूत्रं महानर्थस्ततो महतोर्थस्याणुनासूत्रेण योगो अनुयोग : " छोटे सूत्र में महान् अर्थ का योग करने को अनुयोग कहा गया है— अनु - योग । अनु उपसर्ग है। योग भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । जैनसिद्धान्तदीपिका' में मन, वचन, काया के व्यापार को योग कहा है । इस प्रकार विभिन्न अर्थों का बोध होता है । यह उचित भी है क्योंकि शब्द में अर्थ प्रकट करने का सामर्थ्य नहीं होता, वह तो केवल प्रतीक मात्र है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों से गुजरने से शब्दों के अर्थों में ह्रास और विकास होता है तब ही आचायों ने उचित ही नहा है शब्द की परिभाषा करते समय हमें वह वहाँ, किस प्रकार और किस स्थिति में प्रयुक्त हुआ है, कौन सी धातु प्रत्यय आदि उसकी निष्पत्ति के निमित्त है जानना होगा राय ही हम उसके हार्द को पकड़ सकते हैं। अनुयोग जैन पारिभाषिक शब्द है— सूप और अर्थ का उचित सम्बन्ध अनुयोग है या हम यों कह सकते हैं अर्हन् वाणी के अनुकूल जो भी कथन है वह अनुयोग है अतः यथार्थ समस्त वाङ्मय अनुयोग के अन्तर्निहित हो जाता है। जनागमों में अनुयोग के अनेकों प्रभेद मिलते हैं नंदी में अनुयोग के दो विभाग है वहां दृष्टिवाद के पाँच विभागों में अनुयोग का उल्लेख है । प्रश्न उपस्थित किया गया है - "कोऽयं मणु योगः " समाधान में वह दो प्रकार का है— १. मूल प्रथमानुयोग २. गंडिकानुयोग मूल प्रथमानुयोग मूल प्रथमानुयोग क्या है ? आचार्य का उत्तर प्राप्त होता है इसमें अर्हन् भगवान् को सम्यक्त्व प्राप्ति के भव से पूर्वभव, देवलोक, गमन, आयुष्य, च्यवन, जन्म, अभिषेक, राज्यश्री, प्रवज्या, तप, भक्त, केवलज्ञानोत्पत्ति, तीर्थप्रर्वतन, संघयन, संस्थान, ऊँचाई, वर्ण, विभाग, शिष्य, गण, गणधर, साधु-साध्वी प्रतिनी, चतुर्विध संघ का परिमाण, केवली, मनः पर्ववज्ञानी अवधिज्ञानी सम्यग्ज्ञानी, बुतज्ञानी, वादी, अनुत्तर विमान में गए हुए, जितने सिद्ध हुए उनका, पादपोपअज्ञान रज से विप्रमुक्त हो जो मुनिवर प्रकार के अन्यभाव जो अनुयोग में कथित . गमन अनशन को प्राप्तकर जो जहाँ जितने भक्तों को छोड़कर अन्तकृत हुए अनुत्तर सिद्धि मार्ग को प्राप्त हुए हैं उनका वर्णन है। इसके अतिरिक्त इन्हीं है वह प्रथमानुयोग है अर्थात् सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्ति से तीर्थंकर तक के भवों का जिसमें वर्णन है वह मूल प्रथमानुयोग है। संडिकानुयोग ifter का अर्थ है समान वक्तव्यता से अर्थाधिकार का अनुसरण करने वाली वाक्य पद्धति । उसका अनु १. चतुर्थप्रकाश, सू० २६. २. श्रीमलयगिरीया नंदीवृत्ति: पृ० २३५, परिकम्मे, सुत्ताई, पुव्वगए, अणुयोगे चुलिया । ३. श्रीनंदीचूर्णी, पृ० ५८ मूल पढमाणुयोगे गंडियाणुयोगे । ४. इह मूल भावस्तु तीर्थंकरः तस्स प्रथमं पूर्वभवादि अथवा मूलस्य पढमा भवाणुयोगे एत्थगरस्स अतीत भव परियाय परिसत्तई भाणियव्वा । श्रीनंदीवृत्तिचूर्णी, ०. . Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुयोग और उनके विभाग ........................................................................... योग अर्थात् अर्थ प्रकट करने की विधि । श्री मलयगिरि ने नंदीवृत्ति' में गंडिकानुयोग की टीका करते हुए लिखा है इक्षु के मध्य भाग की गंडिका सदृश एकार्थ का अधिकार यानि ग्रन्थ-पद्धति है। उसको गंडिकानुयोग कहा गया है। वह अनेक प्रकार का है। १. कुलकर गंडिकानुयोग-विमलवाहन आदि कुलकरों की जीवनियाँ २. तीर्थंकर गंडिकानुयोग-तीर्थंकर प्रभु की जीवनियाँ ३. गणधर गंडिकानुयोग-गणधरों की जीवनियाँ ४. चक्रवर्ती गंडिकानुयोग-भरतादि चक्रवर्ती राजाओं की जीवनियाँ ५. दशार्ह गंडिकानुयोग-समुद्रविजय आदि द्वादशाहों की जीवनियाँ ६. बलदेव गंडिकानुयोग–राम आदि बलदेवों की जीवनियाँ ७. वासुदेव गंडिकानुयोग--कृष्ण आदि वासुदेवों की जीवनियाँ ८. हरिवंश गंडिकानुयोग-हरिवंश में उत्पन्न महापुरुषों की जीवनियाँ ६. भद्रबाहु गंडिकानुयोग--भद्रबाहु स्वामी की जीवनी १०. तपकर्म गंडिकानुयोग-तपस्या के विविध रूपों का वर्णन ११. चित्रान्तर गंडिकानुयोग-भगवान् ऋषभ तथा अजित के अन्तर समय में उनके वंश के सिद्ध या सर्वार्थ सिद्ध में जाते हैं, उनका वर्णन १२. उत्सर्पिणी गंडिकानुयोग---उत्सर्पिणी का विस्तृत वर्णन १३. अवसर्पिणी गंडिकानुयोग--अवसर्पिणी का विस्तृत वर्णन तथा देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक गति में गमन करना, विविध प्रकार से पर्यटन करना आदि का अनुयोग इस प्रकार गंडिकानुयोग के विविध रूप में हमें प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार वैदिक परम्परा में पुराण हैं वैसे ही विविध प्रकरणों के ग्रन्थ हैं। इनकी रचनाएँ भिन्न आचार्यों से सम्पन्न हुई हैं। उसका उल्लेख ईसा की सातवीं शताब्दी के आस-पास की रची “पञ्च कल्पचूर्णी" में मिलता है कि कालिकाचार्य ने गंडिकायें रची। "सुवर्णभूमि में कालिकाचार्य" पुस्तक में आया है कि उन्होंने गंडिकाऐं रची परन्तु संघ ने वे स्वीकार नहीं की। कालिकाचार्य ने संघ के सम्मुख पुन निवेदन किया कि मेरी गंडिकाएँ स्वीकृत क्यों नहीं की गई ? उनकी कमियों को सुझाया जाए या स्वीकृत की जाए। तब पुनः संघ ने अन्य बहुश्रु: आचार्यों के पास गंडिकाएँ प्रेषित की। उन्होंने उन सबको सम्यग् बताई तब कहीं वे स्वीकृत तथा मान्य हुई। इस घटना से गण्डिकाओं की यथार्थता पर सन्देह का अवकाश नहीं रहता। कालिकाचार्य जैसे समर्थ और प्रभावशाली आचार्य की गण्डिकाएँ भी संच द्वारा स्वीकृत होने पर ही मान्य हुई। दिगम्बर परम्परा में केवल 'पढमाणुयोग' ही मानते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार उसमें २४ अधिकार हैं। तीर्थकर पुराण में सब पुराणों का समावेश हो जाता है। 0 १. श्री नंदीवृत्ति, पृ० २४२. २. श्रीसमवायांगवृत्ति, पृ० १२० से किं तं गंडियायोगे ? गंडियाणुयोगे अणेग विहे पण्णत्ते .......। . 0. Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .......... .... ........ ............ .... ...... ...... ............ .......... ... आगमकाल में अनुयोग के अन्तर्गत समस्त वाङ्मय आ जाता था। पहले जैनागम अनुयोग के रूप में विभक्त नहीं थे। वीर निर्वाण छठी शताब्दी में (५८४ से ५६७) वज्र स्वामी के प्रमुख शिष्य आर्यरक्षित के द्वारा विभक्त हुए। उस घटना को स्पष्ट करने के लिए यह गाथा ही यथेष्ट हैं देविदं वंदिएहि महाणुभावोहि रक्खियज्जेहिं । जुग मासज्ज विभक्तो, अणुयोगो तो कओ चउहा ॥ (अभिधान राजेन्द्र कोश) देवेन्द्रों से वंदित महानुभाव आर्यरक्षित ने प्रवचन हित के लिए अनुयोग के चार विभाग किये। जिससे अध्ययनेच्छ आगमार्णव में प्रवेश पा श्रुत की आराधना कर सकें। विभाग करने के पीछे इतिहास भी है। आचार्य आर्यरक्षित के चार प्रमुख शिष्य थे १. दुर्बलिका पुष्यमित्र ३. विघ्य मुनि २. फल्गुरक्षित ४. गोष्ठामाहिल। एक दिन विध्यमुनि ने गुरु से निवेदन किया-"आप मुझे अकेले को ही वाचना देवें ।" "यह मेरे लिए सम्भव नहीं. अतः आज से तुम्हें दुर्बलिकापुष्य वाचना देंगे, तुम उनसे पढ़ना ।" आचार्य ने उनको शीघ्र अध्ययन सामग्री मिलने के लिए व्यवस्था कर दी। कुछ दिनों तक वे वाचना देते रहे । फिर एक दिन गुरु से निवेदन किया--भन्ते ! वाचना में समय अधिक लगने से मेरे नवें पूर्वज्ञान की विस्मृति सी हो रही है । अगर यही क्रम रहा तो मैं सारा पूर्व भूल जाऊँगा। आर्यरक्षित आचार्य ने विचार किया कि दुर्बलिकापुष्य जैसे मेधावी की यह गति है तब दूसरों की तो क्या दशा होगी। अब प्रज्ञा की हानि हो रही है। प्रत्येक आगम में चारों अनुयोगों को धारण करने की क्षमता रखने वाले अब अधिक नहीं होंगे। चिन्तन पश्चात् आगम साहित्य को चार' भागों में विभक्त कर दिया चत्तारि अणुयोग चरण धम्म गणियणुयोग यदग्वियणुयोगे तहा जहक्कम महिड्ढिया । (अभिधान राजेन्द्र कोश) १. चरण करणानुयोग २. धर्मकथानुयोग ३. गणिताणुयोग ४. द्रव्यानुयोग। चैतन्य के मूल स्वरूप को प्राप्त करना ही मुक्ति है और यही सभी दर्शनों और धर्मों का चरम लक्ष्य रहा है। जैन दर्शन का साध्य तो मुक्तावस्था है ही । उसकी प्राप्ति के लिए परम प्रभु प्रवचन करते हैं । ज्ञान-विज्ञान की सारी सिद्धियाँ आत्म साक्षात्कार की ओर ले जाने से ही श्रेष्ठ हैं अन्यथा बेकार और दुःखप्रद है। चरणकरणानयोग में आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया का वर्णन है। उसमें आचारांगादि आचार-ग्रन्थ आते हैं। "चर्यते एनेन इति चरणं भवोदधेः परं कूलं प्राप्यते" जिसके द्वारा भवसागर का किनारा प्राप्त किया जा सके उसे चरण कहते हैं। जैसे मनुष्य चरणों से मंजिल तय करता है । वैसे ही साधक चरण (चारित्र) के द्वारा अपने चरम १. आवश्यक कथा १७४: चतुष्वैकैक सूत्रार्था-ख्याते स्यात् कोऽपि न क्षमः । ततोऽनुयोगां चतुरः पार्थक्येन व्यधात् प्रभु : ॥ - Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरूप को प्राप्त करता है। चलने में चरणों का प्रमुख स्थान है। ठीक वैसे ही आत्म-स्वरूप को प्राप्त करने में चरणकरणानुयोग का है। अपेक्षा से उसके ७० भेद होते हैं, जिसे चरणतरी भी कहा गया है। •• चय समणधम्म संजम वेधावच्वं च वंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तवो कोह- निग्गहाई चरणमेयं ॥ पाँच महाव्रत, दश श्रमणधर्म, सतरह संयम, दश वैयावृत्त्य, नव ब्रह्मचर्यगुप्ति, ज्ञानादि तीन रत्न, बारह प्रकार का तप, चार क्रोधादि निग्रह इस प्रकार ७० भेद होते हैं । जिसमें गुण करण करण का शाब्दिक अर्थ जैसा टीकाकार ने किया है- वियते चरणस्य पुष्टीरनेनेति करण" जो चरण की पुष्टि करता है उसे करण कहते हैं कारित अनुमोदन रूपा करणं" करना, करवाना, अनुमोदन करने को भी करण कहा जाता है । अर्थात् मूल गुण की पुष्टि करने वाले तत्त्वों को करण कहा जाता है। वह पिण्डविशुद्धि रूप ७० प्रकार का होता है अनुयोग और उनके विभाग पिण्डविशुद्धि के चार प्रकार हैं। समिति के पाँच प्रकार हैं । - पिण्डविसोही समिई, भावणा पडिमा य इन्दियनिग्गहो । पडिलेहणं गुत्तीओ अभिग्गहं चेव करणं तु ॥ १. प्रवचनसारीद्वार, पृ० १३२. २. प्रवचनसारोद्धार, पृ० १३८ २७३ भावना के बारह प्रकार हैं । पडिमा के बारह प्रकार हैं । इन्द्रिय-निरोध पाँच प्रकार के हैं। प्रतिलेखना के पच्चीस प्रकार हैं । गुप्ति के तीन प्रकार हैं । अभिग्रह के चार प्रकार हैं । धर्मकथानुयोग में उत्तराध्ययन आदि आगम एवं ऋषिभाषित ग्रन्थ आते हैं । धर्मकथानुयोग में मुख्यतः विशिष्ट पुरुषों के जीवन एवं उनकी विशेषताओं का वर्णन मिलता है, जिनसे प्रेरित हो व्यक्ति दुर्गति से निवृत्त हो सम्यक् पथ का आवरण कर सके । गणितानुयोग जिन आगम ग्रन्थों में भंग एवं गणित की प्रधानता है, उनको गणितानुयोग कहा गया है। गणितानुयोग में प्रधानतया सूर्यप्रज्ञप्ति आदि आगम आते हैं। गणितानुयोग के माध्यम से आयुष्य, गति, स्थिति आदि विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान होता है। पिंडेसणा द्रव्यानुयोग और पर्याय अवस्थित हैं, उसे द्रव्य कहा गया हैं । द्रव्य की सत् असत् समस्त पर्यायों के U -0 . Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड सम्बन्ध में जिसमें व्यवस्था की गई है. उसको द्रव्यानुयोग कहा है। द्रयानुयोग में दृष्टिवाद आदि को रखा गया है । तर्कशास्त्र में वस्तुस्वरूप का वर्णन दस विभागों में किया गया है१. द्रव्यानुयोग-द्रव्य का विचार । २. मातृकानुयोग-सत् का विचार । ३. एकाथिकानुयोग-एक अर्थ वाले शब्दों का विचार । ४. करणानुयोग-साधन का विचार । ५. अर्पितानर्पितानुयोग-मुख्य और गौण का विचार । ६. भाविताभावितानुयोग–अन्य से अप्रभावित और प्रभावित । ७. बाध्याबाध्यानुयोग-सादृश्य और वैसादृश्य का विचार । ८. शाश्वताशाश्वतानुयोग-नित्यानित्य का विचार । ६. तथाज्ञान अनुयोग-सम्यग्दृष्टि का विचार । १०. अतथाज्ञान अनुयोग-असम्यग्दृष्टि का विचार । हत्थस अतो पावसजतो, वाचाय सञतो समुत्तमो । अज्झतरतो समाहितो, एको सन्तुसितो तमाहु भिक्खु ॥ --धम्मपद २५-३ जिसके हाथ, पैर और वागी में संयम है, जो उत्तम संयमी है, जो अध्यात्मरत, समाधियुक्त, एकाकी और सन्तुष्ट है, उसी को भिक्षु (साधु) कहा जाता है । . Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -. -. -. -. -. -. -.-. -. -.-.-." -.-.-.-.-. -. -. -.-. -. जैन धर्म के मूल तत्व : एक परिचय श्री स्वरूपसिंह चूण्डावत, एडवोकेट [उपाध्यक्ष, विद्या प्रचारणी सभा, भूपाल नोबल्स महाविद्यालय, उदयपुर]] जैन धर्म एक अत्यन्त ही प्राचीन धर्म है। प्राचीन ही नहीं, किन्तु एक वैज्ञानिक धर्म भी है। इसकी प्राचीनता, इसका दर्शन, इसकी तर्क-प्रणाली प्राणीमात्र के लिये उपयोगी है। इसमें परिमाणु, अणु इत्यादि ऐसी बातें हैं जिनको आज का आधुनिक विज्ञान भी नये वैज्ञानिक प्रयोगों के साथ लाभान्वित पाता है। इसका जीवन-दर्शन संसार की कई समस्याओं को सुलझाने के लिये आज भी उपयोगी है । इस सबके पीछे उसका एक दर्शन है, उस दर्शन में ही उसके मूल तत्त्व सन्निहित हैं। जैन दर्शन के प्रमुख प्रमेय उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य हैं। उत्पाद का अभिप्राय यह है कि सृष्टि में जो कुछ है वह पहले से ही उत्पन्न है तथा जो नहीं है उससे किसी भी तत्त्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती। व्यय का अर्थ इस बात से है कि प्रत्येक पदार्थ अपने पूर्व पर्याय (रूप) को छोड़ कर क्षण-क्षण नवीन पर्यायों को धारण कर रहा है और ध्रौव्य यह विश्वास है कि पदार्थों के रूपान्तर की यह प्रक्रिया सनातन है, उसका कभी भी अवरोध या नाश नहीं होता । वह उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य इस प्रकार विलक्षण है। कोई भी पदार्थ चेतन हो या अचेतन इस नियम का अपवाद नहीं है। जैन धर्म यह मानता है कि सृष्टि अनादि है और वह जिन छह तत्त्वों से बनी है, वे तत्त्व भी अनादि हैं। वे छह तत्त्व हैं-(१) जीव, (२) पुद्गल, (३) धर्म, (४) अधर्म, (५) आकाश व (६) काल । इन छह तत्त्वों में केवल पुद्गल ही ऐसा तत्त्व है जिसका हम रूप देख सकते हैं बाकी सभी ऐसे हैं जो अमूर्त हैं ; जो रूपवान नहीं हैं। इन छ: तत्त्वों में जीव ही एक ऐसा है जो चेतन है बाकी ५ तत्त्व निर्जीव हैं, अचेतन हैं। तीसरी बात यह है कि संसार में जीव पुद्गल के बिना ठहर नहीं सकता। पुद्गल के सहवास से उसको छुटकारा तब मिलता है जब वह संसार के बन्धनों से छूट जाता है । असल में जीव के जैन दर्शन में वही गुण हैं जो आत्मा के लिये वेदान्त में कहे गये हैं। जो मूर्त द्रव्य अर्थात् पुद्गल है वह परमाणुओं के योग से बना है और यह सारी सृष्टि ही परमाणुओं का समन्वित रूप है। जीव व पुद्गल मुख्य द्रव्य हैं क्योंकि उन्हीं के मिलन से यह सृष्टि में जीवन देखने में आता है। आकाश वह स्थान है जिसमें सृष्टि ठहरी हुई है । जीव व पुद्गल में गति कहाँ से आती है, इसका रहस्य समझाने के लिये धर्म की कल्पना की गई है । धर्म वह अवस्था है जिसमें जीव व पुद्गल को गति मिलती है। धर्म उसको सम्भव बनाता है। इसी प्रकार चलने वाली चीज जब ठहरना चाहती है तब कोई न कोई आधार चाहिए। सक्रिय द्रव्य के ठहरने को संभव बनाने वाला गुण ही अधर्म है। धर्म व अधर्म वे गुण हैं जो विश्व को क्रमश: गति-स्थितिशील रखते हैं और उसे अव्यवस्था में गिरफ्तार होने से बचाते हैं । काल की कल्पना इसलिए की गई है कि जैन धर्म संसार को माया नहीं मानता, जैसे शांकर मत में वह माना जाता है। संसार सत्य है और इसमें परिवर्तन होते रहते हैं। इस परिवर्तन का आधार काल है। Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ............................................................ जैन दर्शन के छः द्रव्यों में से सिर्फ धर्म व अधर्म ही ऐसे हैं जिनका वैदिक धर्म ग्रंथों में कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। बाकी जीव, पुद्गल, काल व आकाश ऐसे हैं जो किसी न किसी रूप में अन्यत्र भी आये हैं। यह बहुत कुछ पंच तत्त्वों के समान हैं जिनसे वैदिकों के अनुसार सृष्टि हुई है। वैदिक जैसे स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर की सता में विश्वास करते हैं उसी प्रकार जैन दर्शन के अनुसार भी हमारे स्थूल शरीर के भीतर एक सूक्ष्म कर्म-शरीर है । स्थूल शरीर के छूट जाने पर भी यह कर्म-शरीर जीव के साथ रहता है और वही उसे फिर अन्य शरीर धारण कराता है। आत्मा को मनोवैज्ञानिक चेष्टाओं-वासना, तृष्णा, इच्छा आदि से इस कर्म-शरीर की पुष्टि होती है। इसलिए कर्म-शरीर तनी छूटता है जर जीव वासनाओं से ऊपर उठ जाता है, जब उसमें किसी प्रकार की इच्छा नहीं रह जाती। जैन दर्शन में मोक्ष की व्यवस्था यही है । इस प्रकार उपरोक्त दर्शन जैन धर्म की तत्त्वमीमांसा (Metaphysics) है। जैन दर्शन का इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण पहलू उसका कर्तव्यशास्त्र (Ethics) है। जीवन का लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है; पर उसका मार्ग है । जैन दर्शन के सात तत्त्व हैं। वे हैं-जीव, अजीव, 'आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष । कुछ ने इसमें पाप व पुण्य जोड़ कर ६ कर दिए हैं। जैन दर्शन आस्रव के सिद्धान्त में विश्वास करता है जिसका अर्थ है कि कर्म के संस्कार क्षण-क्षण प्रवाहित हो रहे हैं, जिनका प्रभाव जीव पर पड़ रहा है। इन्हीं से जीव अजीव से बंध जाता है। अतएव इस को मिटाने का आय यह है कि साधक इनसे अलिप्त रहने का प्रयास करे । यह प्रक्रिया संवर कहलाती है। किन्तु यह भी पास नहीं है। आत्मा को पूजित संस्कार भी घेरे हुए हैं । इनसे छूटने की साधना का नाम निर्जरा है। जीवन नौका में छेद है जिससे पानी उसमें भरता जा रहा है। इन छेदों को बन्द करने का नाम ही संवर है किन्तु नाव में जो पानी भरा हुआ है उसको उलीचने नाम निर्जरा है। संवर और निर्जरा द्वारा जिसने अपने को संस्कारों अथवा आस्रवों से मुक्त कर दिया, वही मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रकार यह मोक्षप्राप्ति का मार्ग है। मोक्ष जीवन का अंतिम ध्येय है । जिसने मोक्ष प्राप्ति करली वह स्वयं परमात्मा है। जो आत्मा सिद्ध अथवा मुक्त हो गयी वह चार गुणों से युक्त होती है। यह गुण हैं-अनंत दर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य। इस प्रकार जैन दर्शन ने तत्व मीनाता (Metaphysics) व कर्तव्य-शास्त्र (Ethics) ही नहीं किंवा तर्कशास्त्र को भी एक अद्भुत देन दी है जो संभवत: तर्क प्रणाली में सर्वश्रेष्ठ है। वह है-अोकान्तवाद व स्याद्वाद । यह प्रणाली सत्य की खोज में अपूर्व है पर साथ ही अहिंसा के विकास का भी चरम बिन्दु है । अहिंसा का आदर्श आरम्भ से ही भारत के समक्ष रहा था किन्तु इसकी चरम सिद्धि इसी अनेकान्तवाद में हुई । विपक्षी की बात भी सत्य हो सकती है। सत्य के अनेक पहलू हैं । यह बौद्धिक अहिंसा ही जैन तर्क-प्रणाली है जो अनेकान्तवाद है। यही आगे जाकर स्थाद्वाद हुई । इस सिद्धान्त को देखते हुए ऐसा लगता है संसार को आगे चलकर जहाँ पहुँचना है, भारत वहाँ पहले ही पहुंच चुका था । संसार में आज जो खतरे व अशान्ति है, उसका कारण क्या है ? मुख्य कारण यह है कि एक वाद के मानने वाले दूसरे वादों को मानने वालों को एकदम गलत समझते हैं। साम्यवादी समझते हैं कि प्रजातंत्री एकदम गलत हैं और प्रजातंत्र के समर्थकों की मान्यता है कि सारी गलती साम्यवादियों की है। इसी प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जो कोलाहल है इसका मूल कारण यह है कि लोग विरोधियों के प्रति अत्यन्त असहिष्णु हो गये हैं फिर भी सत्य यह है कि कोई भी मत न तो सोलह आने सत्य है और न सोलह आने आने असत्य है। इसलिये आँख मूंदकर किसी के मत को खण्डित करना-जैन सिद्धान्तों के अनुसार, जिसको वह अनेकान्तवाद कहते हैं, एक प्रकार की हिंसा है, घोर मिथ्यात्व है। समन्वय, सहअस्तित्व और सहिष्णुता-ये एक ही तत्त्व के अनेक नाम हैं। इसी तत्त्व को जैन दर्शन शारीरिक धरातल पर अहिंसा और मानसिक धरातल पर अनेकान्तवाद कहता है । - Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म के मूल तत्त्व : एक परिचय २७७ . -. -. - . -. -. -. -. - . -. -. - . -. - . - . -. - . -. - . - . - . -. -. -. -. - . -. -. -. अनेकान्तवाद का दार्शनिक आधार यह है कि प्रत्येक वस्तु अनंत गुण-पर्याय व धर्मों का अखण्ड पिण्ड है। वस्तु को हम जिस दृष्टिकोण से देख रहे हैं, वस्तु उतनी ही नहीं है। उसमें अनंत दृष्टिकोणों से देखे जाने की क्षमता है। उसका विराट स्वरूप अनंतधर्मात्मक है। तुम्हें जो दृष्टिकोण विरोधी मालुम होता है उस पर ईमानदारी से विचार करो तो उसका विषयमूल धर्म भी विद्यमान है, चित्त से पक्षपात की दुरभिसंधि निकालो और दूसरे के दृष्टिकोण के विषय को भी सहिष्णुतापूर्वक खोजो, वह भी मौजूद है। आधुनिक वैज्ञानिक आइन्स्टीन का सापेक्षवाद इसी का वैज्ञानिक रूप है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अनेकान्तवाद की खोज भारत की न्याय प्रणाली का चरम उत्कर्ष है और सारा संसार इसको जितना अपनायेगा, विश्व में शान्ति भी उतनी ही शीव्र स्थापित होगी। स्याद्वाद भी लगभग यही है। जैन धर्म का त्रिरत्न (सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) धर्माचरण की जीवन पद्धति है। गीता में कृष्ण ने इसको ज्ञान, कर्म व भक्ति कहा है। त्रिरत्न में पहला स्थान सम्यक्दर्शन का है जिसके पालन के लिए आवश्यक है मनुष्य तीन प्रकार की मूढ़ताओं व आठ प्रकार के अहंकारों का विसर्जन करे । यह तीन मूढ़ताएँ हैं(१) लोकमूढ़ता; (२) देवमूढ़ता व (३) पाखण्डमूढ़ता। नदियों में स्नान करने से पुण्य होता है, यह लोकमूढ़ता का उदाहरण है। रागी-द्वेषी देवताओं को वीतराग मानना देवमूढ़ता है और साधु फकीरों के चमत्कारों में विश्वास करना पाखण्डमूढ़ता है। जैन धर्म में यह सभी अन्धविश्वास त्याज्य हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विश्व के प्रथम बुद्धिवादी (Rationalist) भगवान महावीर हैं । ग्रीक दार्शनिक उनसे २०० वर्ष बाद में है। यह न केवल जैन धर्म किन्तु भारत के लिए भी गौरव की बात है। इसी प्रकार मुमुक्षु को ८ प्रकार के अहंकारों को छोड़ना अनिवार्य है। (१) अपनी बुद्धि का अहंकार; (२) अपनी धार्मिकता का अहंकार; (३) अपने वंश का अहंकार; (४) अपनी जाति का अहंकार ; (५) अपने शरीर व मनोबल का अहंकार; (६) चमत्कार दिखाने वाली शक्तियों का अहंकार; (७) अपने योग व तपस्या का अहंकार; (८) अपने रूप व सौन्दर्य का अहंकार । इतनी तैयारी हो लेने पर ही साधक को सम्यक्ज्ञान व सम्यक्चारित्र प्राप्त होता है। इन त्रिरत्न के साथ ५ (पाँच) अणुव्रत व महाव्रत भी जैन धर्म के आधार स्तम्भ है । यह है-(१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अस्तेय (४) ब्रह्मचर्य, (५) अपरिग्रह । यह अणुव्रत गृहस्थ के लिये अनिवार्य हैं किन्तु इनका कठोरता से पालन करना महाव्रत है जो श्रमणों के लिये है। जैन धर्म में मनुष्य के विकास के १४ गुणस्थानों का भी वर्णन है जो जीवन विकास की प्रक्रिया है। मनुष्य ज्ञान व चारित्र में विकास करते-करते जब १३वें गुणस्थान में पहुँच जाता है तब उसको केवलज्ञान हो जाता है और फिर मोक्ष प्राप्ति हो जाती है, वह आवागमन के चक्र से छूट जाता है। इसी प्रकार जीवन को मलीन करने वाले कषायों का भी वर्णन है जिन पर विजय प्राप्त करना जरूरी है। ऊपर जो कुछ इतिहास लिखा गया है वह जैन धर्म के दार्शनिक व व्यावहारिक पहलू पर ही लिखा गया है किन्तु थोड़ा-सा ऐतिहासिक पहलू व उसके योगदान पर भी लिखना समीचीन होगा। कुछ विद्वानों का मत है कि जैन पन्थ का मूल उन प्राचीन परम्पराओं में रहा होगा जो आर्यों के आगमन से पहले यहाँ प्रचलित थीं पर इसे न मानकर, आर्यों के आने के बाद ही जैन परम्परा मानें तो भी ऋषभदेव व अरिष्टनेमि को लेकर जैन परम्परा वेदों तक पहुंचती है। महाभारत युद्ध के समय इस सम्प्रदाय के नेता नेमिनाथ थे जिन्हें जैन अपना २२वाँ तीर्थकर मानते हैं । ईसवी पूर्व ८वीं सदी में तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए जिनका जन्म काशी में हुआ था। जैन धर्म का पहला श्रमण संगठन पार्श्वनाथ ने किया। ये श्रमण वैदिक प्रथा के विरुद्ध थे और महावीर व बुद्ध के काल में जैन व बौद्ध होकर इन दो धर्मों में विलीन हो गये। जैन धर्म के अन्तिम तीर्थकर महावीर वर्धमान हुए, जिनका जन्म ईसवी पूर्व ५६६ में हुआ था। वे ७२ वर्ष की अवस्था में मुक्त हुए। महावीर ने निर्वाण के पहले जैन धर्म को परिपुष्ट कर दिया। जब सिकन्दर भारत आया था तब उसे जैन साधु सिन्धु के तट पर तपस्यारत मिले थे। इतिहासवेताओं की मान्यता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य मृत्यु से पहले जैन हो गया था। Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० २७८ व ईसा की पहली सदी में आकर जैन धर्म दो सम्प्रदायों में बंट गया-दिगम्बर श्वेताम्बर ११वीं सदी में चालुक्य वंश के गुजरात के राजा सिद्धराज व उसके पुत्र कुमारपाल ने जैन धर्म को स्वीकार कर राजधर्मं बना दिया और उसका व्यापक प्रचार किया। प्राकृत भाषा के व्याकरण के महाविद्वान तथा अनेक संस्कृत ग्रन्थों के रचयिता आचार्य हेमचन्द्र सूरि इनके समकालीन थे। राजस्थान के सभी राज्यों ने करीब १४०० वर्ष तक जैन धर्म को आश्रय व प्रश्रय दिया । चित्तौड़ में कई जैन विद्वान हुए जिनमें आचार्य हरिभद्र सूरि प्रमुख भी थे। मुगल सम्राट् अकबर ने भी जैन विद्वानों का आदर किया व उपदेश सुने । फिर जीवहिंसा रोकने को फरमान भी निकाले । कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड १६वीं सदी में आकर जैन धर्म में मूर्ति पूजा के विरुद्ध एक सम्प्रदाय और बड़ा हुआ जो साधुमार्गी कहलाता है । १८वीं सदी में तेरापन्थ सम्प्रदाय इसी में से निकला । इस देश की भाषागत उन्नति में जैन आचार्य सहायक रहे हैं । ब्राह्मण अपने धर्म ग्रन्थ संस्कृत में लिखते थे और बौद्ध पालि में, पर जैन मुनियों ने प्राकृत के अनेक रूपों का उपयोग किया और प्रत्येक काल व क्षेत्र में जो भाषा चालू थी उसका उपयोग किया। इस प्रकार आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास में जैन मुनियों का अनुपम योगदान है। एक तरह से कह सकते हैं कि आधुनिक भारतीय भाषाओं का आदि साहित्य अधिकतर जैन मुनियों द्वारा लिखा गया है। केवल यही नहीं, संस्कृत में भी व्याकरण, छन्द शास्त्र, कोप और गणित सम्बन्धी जनाचायों के ग्रन्थ मिलते हैं। आज भी जैन गृहस्थ दान देकर कई सार्वजनिक संस्थाएँ खड़ी कर रहे है और जैन मुनियों का आज भी जन सेवा व साहित्य सेवा में अनुपम योगदान है। XXXXXX XX सुनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्तिसु, स्फुरन्ति या काश्चन सूक्तिसम्पदः । तवैव ता: जगत्प्रमाणं पूर्वमहार्णवत्थिता जिनवाक्यविश्र्वः || आचार्य सिद्धसेन जहाँ-जहाँ जो भी सूक्ति सम्पदाएँ स्फुरित हो रही हैं, वे सब निःसन्देह आपके ही पूर्व-प्रवचन-समुद्र से उछलती हुई बंदे हैं। X> XXXXXX . Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय पद : स्वरूप और दर्शन श्री रमेश मुनि शास्त्री [राजस्थानकेसरी श्री उपाध्याय पुष्कर मुनि के शिष्य] भारतवर्ष के पुण्य प्रांगण में अनेक संस्कृतियों का उद्गम, संरक्षण एवं संवर्द्धन हुआ है। किन्तु शत सहस्र लक्षाधिक संस्कृतियों में भारत की प्राचीन एवं मौलिक दो संस्कृतियाँ हैं-एक है श्रमण संस्कृति, दूसरी ब्राह्मण संस्कृति । इन दोनों संस्कृतियों में कहीं एकरूपता है तो कहीं अनेक रूपता भी परिलक्षित होती है, तथापि यह कहा जा सकता है कि ये दोनों एक-दूसरे के समीप हैं। श्रमण-संस्कृति जैन और बौद्ध धर्म से अनुप्राणित रही है। यह संस्कृति जीवन की संस्कृति है, इसकी समता सार्वभौम है । जैन एवं बौद्ध इन दोनों धाराओं ने अपने सुचिन्तन की सुशीतल-जलधारा से इसको अभिसिंचित किया है। यह महिमामयी संस्कृति आचार और विचार के समानता की प्रसूता-भूमि है, यही कारण है कि इसने अपने आँचल में चिर-अतीत की अद्भुत गरिमा को संजोए रखा। जैन श्रमण-संस्कृति अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के वैचारिक उदात्त दृष्टिकोण की त्रिपुटी पर आधारित है। यह त्रिपुटी ऐसा प्रकाशस्तम्भ है, जिससे न केवल भारतीय जीवन अपितु सम्पूर्ण विश्व जीवन-दर्शन आलोकित है। इसकी वैचारिक उदारता दर्शन के क्षेत्र में एकान्तिक विचारणा का सर्वथा प्रत्याख्यान करती है। वस्तुतः जैन संस्कृति व्यष्टिगत धारणा की अपेक्षा समष्टिगत धारणा के प्रति आग्रहशील है, अनुदार दृष्टिकोण के निर्मूलन के प्रयास के प्रति विशेष रूप से आस्थाशील है। जैन वाङ्मय में श्रमण' शब्द की अनेक व्याख्याएँ मिलती हैं। 'श्रम' शब्द अपने आप में अनेक तात्पर्यो एवं व्यापक अर्थ-गरिमा को समेटे हुए है। उससे अनेक रूप बनते हैं-श्रम, सम, शमन, सुमन । जो मोक्ष के लिये श्रम करता है वह श्रमण है । ज्योतिर्मय प्रभु महावीर का श्रमण-संव बहुत ही विशाल था । अनुशासन, संगठन, संचालन संवर्द्धन आदि की दृष्टि से उसकी अप्रतिम विशेषताएँ रही थीं। प्रभु महावीर के नौ गण थे। इन गणों की संस्थापना का प्रमुख आधार आगम-साहित्य की वाचना एवं धार्मिक क्रियानुशीलता की व्यवस्था था। गणस्थ श्रमणों के अध्यापन एवं पर्यवेक्षण का महत्त्वपूर्ण कार्य गणधरों पर था। जिन श्रमणों की अध्ययन व्यवस्था एक साथ रहती थी, वे सारे श्रमण एक गण में समाविष्ट थे, अध्ययन के अतिरिक्त अन्यान्य व्यवस्था में भी उनका साहचर्य एवं ऐक्यभाव था। जैन-परम्परा में गणधर का एक गौरवशाली पद है, किन्तु संघ-व्यवस्था की दृष्टि से आचार्य, उपाध्याय, १. स्थानांग सूत्र, ६. ६८०. Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० प्रवर्तक स्थविर, मणी, गणधर गणायक पदों की सुन्दर व्यवस्था की गई, वह वास्तव में उस युग में संघ का सर्वतोमुखी विकास, संरक्षण-संवर्धन का विशिष्ट उदाहरण वा । यहाँ पर उपाध्याय पद के सन्दर्भ में विचार चिन्तन प्रस्तुत करना हमारा अभिप्रेत विषय है । इस पद के सम्बन्ध में जैनागमों में और उसके उत्तरवर्ती वाड्मय में अत्यधिक मूल्यवान् सदर्भ प्राप्त होते हैं, अतः यह स्पष्ट है कि उपाध्याय पद भी जैन- परम्परा में एक गौरवपूर्ण पद रहा है। जैनदर्शन ज्ञान और क्रिया के समन्वित अनुसरण पर आधारित रहा है। ज्ञान और क्रिया- दो दोनों ही पक्ष जैन श्रमण - जीवन के अनिवार्य पक्ष हैं । जैन साधक ज्ञान की आराधना में अपने आपको बड़ी ही तन्मयता से जोड़ । ज्ञानपूर्वक समाचरित क्रिया में आत्मिक निर्मलता की अनुपम सुषमा प्रस्फुटित होती है जिस प्रकार ज्ञान-परिणत क्रिया की गरिमा है, ठीक उसी प्रकार क्रियान्वित ज्ञान की वास्तविक सार्थकता भी सिद्ध होती है। जिस साधक के जीवन में ज्ञान और क्रिया का पावन संगम नहीं हुआ है, उसका जीवन भी ज्योतिर्मय नहीं बन सकता। तात्पर्य की भाषा में यह कहना सर्वथा संगत होगा कि जो श्रमण ज्ञान एवं क्रिया इन दोनों पक्षों में सामंजस्य स्थापित कर साधनापथ पर अग्रसर होता रहेगा, वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में अधिक सफल बनेगा । जैन श्रमण-संघ में आचार्य के बाद दूसरा पद उपाध्याय का है, इस पद का सम्बन्ध अध्ययन से रहा है । प्रस्तुत पद श्रुतप्रधान अथवा सूत्रप्रधान है। यह सच है कि आध्यात्मिक साधना तो साधक - जीवन का अविच्छिन्न अंग है। उपाध्याय का प्रमुख कार्य यही है कि धमणों को सूष-वाचना देना । उपाध्याय की कतिपय विशेषताएँ वे हैंआगम - साहित्य सम्बन्धी व्यापक और गहन अध्ययन, प्रकृष्ट प्रज्ञा प्रगल्भ पाण्डित्य । कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड उपाध्याय का सीधा सा अर्थ है - शास्त्र वाचना का कार्य करना । प्रस्तुत शब्द पर अनेक मनीषी आचार्यों ने अपनी-अपनी दृष्टि से विचार- चिन्तन किया है। जिनके पास जाकर साधुजन अध्ययन करते हैं, उन्हें उपाध्याय कहा गया है । 3 ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना में स्वयं निपुण होकर अन्य व्यक्तियों को जिनागमों का अध्ययन कराने वाले उपाध्याय कहलाते हैं । * जिसके सान्निध्य में जाकर शास्त्र का पठन एवं स्वाध्याय किया जाता है, वह उपाध्याय कहलाता है । इसीलिए आचार्य श्री शीलांक ने उपाध्याय को अध्यापक कहा है। १. २. ३. ४. (क) स्थानांग सूत्र, ४, ३, ३२३ वृत्ति । (ख) बृहत्कल्पसूत्र, ४ उद्देशक । (क) बारसंगो जिगरखाओ सज्जओ कहिलो बुह । त उवइस्संति जम्हा, उवज्झया तेण वुच्चति ॥ भगवती सूत्र १. १. १, मंगलाचरण में आ०नि०गाचा, ९६४. - स्थानांगसूत्र, ३.४ ३२३ वृत्ति । (ख) उपाध्याय: सूत्रदाता | उपेत्य अधीयते यस्मात् साधवः सूत्रामित्युपाध्यायः । - आवश्यक नियुक्ति ३, पृष्ठ ४४९, आचार्य हरिभद्र। रत्नत्रयेषूद्यता जिनागमार्थं सम्यगुपदिशंति ये ते उपाध्यायाः । - भगवती आराधना विजयोदया टीका–४६ । उपाध्याय अध्यापकः । आचारांग शीलांकवृत्ति सूत्र २७९ । . Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय पद : स्वरूप और दर्शन २८१ . उपाध्याय शब्द की नियुक्ति करते हुए कितना सुन्दर रूप से कहा है--'उ' का अर्थ है-उपयोगपूर्वक । 'व' का अर्थ है-ध्यान युक्त होना। तात्पर्य यह है कि श्रुत-सागर के अवगाहन में सदा-सर्वदा उपयोगपूर्वक ध्यान करने वाले उज्झा (उवज्झाय) कहलाते हैं।' इस प्रकार अनेक आचार्यों ने उपाध्याय शब्द पर गम्भीरता के साथ विशद चिन्तन कर अर्थ व्याकृत किया है। जैन-आगम-साहित्य के परिशीलन से यह तथ्य सुस्पष्ट हो जाता है कि जैन श्रमण-संघ में जैसा महत्त्व आचार्य का रहा है, वैसा महत्त्व उपाध्याय का भी रहा है। यह ध्रुव सत्य है कि उपाध्याय का पद आचार्य के बाद आया है किन्तु इस पद का गौरव किसी भी प्रकार से कम नहीं है। स्थानांग सूत्र में आचार्य और उपाध्याय इन दोनों के पाँच अतिशयों का उल्लेख हुआ है। जैन-संघ में आचार्य का जितना सम्मान व गौरव है, उतना ही सम्मान और गौरव उपाध्याय पद का है। जैसे आचार्य उपाश्रय में प्रवेश करते हैं तो उनके चरणों का प्रमार्जन किया जाता है, ठीक इसी प्रकार उपाध्याय के चरणों का भी प्रमार्जन किया जाता है, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। इसी सूत्र में अन्यत्र यह भी बताया गया है कि आचार्य और उपाध्याय के सात संग्रह-स्थान बताये हैं, जिनमें गण में आज्ञा, धारणा प्रवर्तन करने का दायित्व आचार्य उपाध्याय दोनों पर है। आचार्य तो संघ को अनुशासित रखने की दृष्टि से चिन्तन करते हैं, जबकि उपाध्याय श्रमण संघ की ज्ञानविज्ञान की दिशा में अग्रगामी रहते हैं । उनका मुख्य कार्य है-श्रमण-संघ में श्रुतज्ञान की महागंगा प्रवाहित करना। जैगागमों में आचार्य की अष्टविध सम्पदाओं का वर्णन प्राप्त होता है, वहाँ यह भी बताया गया है कि आचार्य आगमों की अर्थ-वाचना देते हैं। आचार्यश्री शिष्य-समुदाय को आगमों का गुरु-गम्भीर रहस्य तो समझा देते हैं किन्तु सूत्र-वाचना का जो कार्य है, वह उपाध्याय के द्वारा सम्पन्न होता है । यही कारण है कि उपाध्याय को सूत्र वाचना प्रदाता के रूप में माना गया है। इसका अभिप्राय यह है कि सूत्रों के पाठोच्चारण की शुद्धता एवं विशदता बनाये रखने का दायित्व उपाध्याय पर है। अनुयोगद्वारसूत्र में सूत्रोच्चारण के दोष बताते हुए उनसे आगमपाठ की सुरक्षा करने की सूचना प्रदान की गई है और पदों के शिक्षित, जित, स्थित विशेषण दिये गये हैं। संक्षेप में उनका वर्णन इस प्रकार है१. शिक्षित ३. जित ५. परिजित ७. घोषसम ६. अनत्यक्षर ११. अस्खलित २. स्थित ४. मित ६. नामसम ८. अहीनाक्षर १०. अव्याविद्धासर १२ अमिलित उ ति उवगरण वे ति वेयज्झाणएस्स होइ निद्दे से । एएण होइ उज्झा एसो अण्णो वि पज्जाओ।। -अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग २, पृष्ठ ८८३ । २. स्थानांगसूत्र, स्थान श२, सूत्र ४३८. स्थानांग, स्थान सूत्र ७, सूत्र ५४४, ४. दशाश्रुतस्कन्ध, चौथी दशा । ५. स्थानांगसूत्र ३१४१३२३ की वृत्ति । Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्य खण्ड १३. अव्यत्यानंडित १४. प्रतिपूर्ण १५. प्रतिपूर्णघोष १६. कण्ठोष्ठविप्रमुक्त । आगम पाठ को शुद्ध, स्थिर और यथावत् बनाये रखने का कार्य उपाध्याय का है, वस्तुत: उपाध्यायश्री को सूत्र-वाचना देने में कितना प्रयत्नशील और जागरूक रहना होता है, यह उक्त-विवरण से सुस्पष्ट हो जाता है। आलंकारिक भाषा में यों भी कहा जा सकता है कि उपाध्याय श्रमगसंव-रूपी नन्दनवन के ज्ञान-विज्ञान रूप वृक्षों की शुद्धता एवं विकास की ओर सदा जागरूक रहने वाला एक उद्यानपालक है, कुशल माली है। जैन साहित्य में उपाध्याय के २५ गुणों का प्रतिपादन मिलता है । उपाध्याय इन गुणों से युक्त हो, यह अपेक्षित है। उपाध्याय जैसे गौरवपूर्ण पद पर कौन प्रतिष्ठित हो सकता है, उसकी क्या योग्यता होनी चाहिए। यह भी एक गम्भीर प्रश्न है। क्योंकि इस पद पर आरूढ़ करने से पूर्व उस व्यक्ति को शारीरिक, मानसिक और शैक्षिकयोग्यता की परीक्षा को कसौटी पर कसा जाता है। यदि कोई व्यक्ति इस पद के लिये अयोग्य है और वह इस पर आसीन हो जाता है तो वह इस पद का और शासन का भी गौरव घटायेगा ही, मलिन कर देगा। इसीलिये जैन मनीषी-चिन्तकों ने उपाध्याय की योग्यता के विषय में बहुत ही गम्भीरता के साथ विचार-चिन्तन किया है। जो श्रमण कम से कम तीन वर्ष का दीक्षित हो, आचारकल्प अर्थात् आचारांग सूत्र व निशीथ का ज्ञाता हो, आचार-निष्ठ एवं स्व-समय और पर-समय का ज्ञाता हो एवं व्यंजनजात हो । दीक्षा और ज्ञान की यह न्यूनतम योग्यता का जिस व्यक्ति में अभाव होता है वह उपाध्याय के महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त वह श्रमण २५ गुणों से युक्त होना भी अतीव आवश्यक है। पच्चीस गुणों की गणना में दो प्रकार की पद्धति दृष्टिगोचर होती है। पच्चीस गुणों की प्रथम पद्धति इस प्रकार मिलती है। ११ अंग, १२ उपांग, १ करणगुण, १ चरणगुण=२५ । ग्यारह अंगों के नाम इस प्रकार हैं१. आचारांग २. सूत्रकृतांग ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति ६. ज्ञाताधर्मकथा उपासकदशा ८. अन्तगडदशा ६. अणुत्तरोववाइयदशा १०. प्रश्नव्याकरण ११. विपाकश्रुत बारह उपांगों के नाम इस प्रकार हैं१. औपपातिक २. राजप्रश्नीय ३. जीवाभिगम ४. प्रज्ञापना जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ६. सूर्यप्रज्ञप्ति ७. चन्द्रप्रज्ञप्ति ८. निरयावलिया ६. कप्पिया १०. कप्पवडं सिया ११. पुफिया १२. पुष्पचूलिका १. व्यवहारसूत्र ३३, ७१९, १०॥२६. २. जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग ६, पृष्ठ २१५. Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय पद : स्वरूप और दर्शन २८३ करणगुण आवश्यकता उपस्थित होने पर जिस आचार विधि का पालन किया जाता है, वह आचार-विषयक नियम करण युग कहलाता है। चरणगुण चरणगुण का अर्थ है-प्रतिदिन और प्रतिसमय पालन करने योग्य गुण । श्रमण द्वारा निरन्तर पालन किया जाने वाला आचार चरणगुण कहलाता है। पच्चीस गुणों की दूसरी गणना इस प्रकार है-- १-१२. अंगों का पूरा रहस्य ज्ञाता हो। १३. करणगुण सम्पन्न हो।' १४. चरणगुण सम्पन्न हो। १५-२२. आठ प्रकार की प्रभावनाओं से युक्त हो। २३. मनोयोग को वश में करने वाला हो। २४. वचनयोग को वश में करने वाला हो। २५. काययोग को वश में करने वाला हो। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है--जैन-श्रमणपरम्परा में उपाध्याय का कितना अधिक गौरवपूर्ण स्थान है और उनकी कितनी आवश्यकता है । उपाध्याय ज्ञान रूपी दिव्य-दीप को संघ में प्रज्वलित रखकर श्रुत-परम्परा को आगे से आगे बढ़ाते हैं। १. करणसत्तरी-इसके सत्तर बोल हैं पिंडविसोही समिई भावणा पडिमा य इंदियनिग्गहो। पडिलेहण गुत्तीओ अभिग्गहं चेव करणं तु॥ --प्रवचनसारोद्धार, द्वार ६८, गाथा ५९६ २. चरणसत्तरी के सत्तर बोल हैं वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव कोहनिग्गहाइहं चरणमेयं ॥ . -धर्मसंग्रह-३. Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मुनि और वस्त्र-परम्परा - मुनि श्रीचन्द्र 'कमल' (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य) मुनि के वस्त्रों के सम्बन्ध में दो परम्पराएं हैं। एक परम्परा मुनि को वस्त्र धारण करने का निषेध करती है और दूसरी उसका विधान । एक परम्परा के अनुयायी अपने को दिगम्बर मानते हैं और दूसरी के अनुयायी श्वेताम्बर । प्रथम आचारांग के आठवें अध्ययन में वस्त्रों की चर्चा है। वहाँ मुनि के लिए तीन वस्त्र, दो वस्त्र, एक वस्त्र और अचेलता का विधान है। वस्त्रों के ये चार विभाग यथेच्छ नहीं है, इनके पीछे साधना की विस्तृत प्रक्रिया है। वस्त्र के साथ पात्र, आहार विधि, चर्या तथा पण्डितमरण का दिग्दर्शन है। ऐसा मानना चाहिए कि वस्त्रों के ये चार विभाग साधना की चार भूमिकाएँ हैं। साधना के अभ्यास से कष्ट-सहिष्णुता बढ़ती है। सहिष्णुता से आत्म-शक्ति जागृत होती है और उससे साधना का स्तर ऊँचा उठता है। ज्यों-ज्यों साधना सधती जाती है, वस्त्रों का अल्पीकरण होता जाता है, या यों कहना चाहिए कि वस्त्रों के अल्पीकरण या त्याग से लाघव आता है। बाह्य परीषहों को सहने की क्षमता बढ़ती है। सहिष्णुता से आन्तरिक वृत्तियों में भी लघुता आती जाती है। इसीलिए अप्रत्यक्ष रूप से वस्त्रों का साधना के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। टीकाकार के अनुसार प्रथम भूमिका में साधना करने वाले प्रतिमा-स्वीकृत स्थविर मुनि होते हैं। इस भूमिका में साधना करने वाले प्रतिमा-स्वीकृत मुनि के लिए तीन वस्त्रों का कल्प है। सामान्यतः ग्रीष्म ऋतु में साधक को अचेल रहने का विधान है। साधना की परिपक्वता न हो तो वह एक वस्त्र रख सकता है । शीत-ऋतु में शीत जब चढ़ता है तो दूसरा सूत का वस्त्र ले सकता है। वस्त्र का आयाम और विष्कम्भ ढाई हाथ का होता है। शीत की मात्रा और बढ़ती है तो साधक एक ऊन का वस्त्र फिर स्वीकार कर सकता है। इस पर भी शीत सताए तो उसे सहन करता है, लेकिन चौथे वस्त्र की इच्छा नहीं करता। शीत-ऋतु का जब उतार होने लगे तो उस समय वह सान्तरोत्तर या अधोचेलक हो जाता है। याने क्रमशः वस्त्रों का त्याग करता चला जाता है। पुराने जीर्ण वस्त्रों को परठ देता है, मजबूत को पास में रख लेता है। अचेलक बनने में सक्षम हो तो अचेलता स्वीकार करता है, अन्यथा एक वस्त्र पास में रख सकता है, यहाँ अचेलता का अर्थ कटिबंध से है। इस भूमिका के साधकों में निम्न प्रतिज्ञाएँ होती हैं १. कोई यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं दूसरे साधकों को आहार आदि लाकर दूंगा और उनके द्वारा लाया गया आहार आदि लूंगा। २. कोई यह प्रतिज्ञा लेता है कि मैं दूसरों को आहार आदि लाकर दूंगा पर उनके द्वारा लाया गया स्वीकार नहीं करूंगा। ३. कोई यह प्रतिज्ञा लेता है कि मैं दूसरों को आहार आदि लाकर नहीं दूगा पर उनके द्वारा लाया गया आहार स्वीकार करूगा । ०० Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मुनि और वस्त्र-परम्परा २८५ ४. कोई यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं न तो दूसरों को आहार आदि लाकर दूँगा और न उनके द्वारा लाया गया आहार स्वीकार करूँगा । परिहारविशुद्धि की साधना में चलने वाला मुनि विकृष्ट तप या रोग के कारण अशक्त हो जाए तो उस समय वह साधर्मिक की अपनी प्रतिज्ञा अनुसार सेवा लेता हुआ भक्तपरिज्ञा अनशन के द्वारा अपने शरीर का त्याग कर दे । भक्तपरिज्ञा अनशन में केवल आहार और कषाय का त्याग होता है । तीसरी भूमिका में साधक एक वस्त्र और एक पात्र को स्वीकार करता है। शीत ऋतु की समाप्ति पर यदि वह सक्षम हो तो अचेल हो जाता है, अन्यथा एक वस्त्र रखता है । साधना काल में किसी कारणवश साधक के शरीर में रोग उत्पन्न हो जाए तो वह दूसरों के सहाय की अपेक्षा न कर एकत्व भावना का चिन्तन करता है। ये कर्म मैंने ही किये थे और इसका परिणाम मुझे ही भोगना पड़ेगा । एगो अहमंसि न मे अस्थि कोइ न याहमवि कस्सइ एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा “मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूँ" इस प्रकार एकत्व भावना का आलम्बन ले समभाव से रोग को सहन करता है। इस भूमिका का साधक अस्वादवृति की साधना करने के लिए आहार के कवल को दाएँ से तथा बाँ से दाँए जबड़ े में नहीं ले जाता है। रूक्ष आहार से कोई रोग उत्पन्न हो, शरीर की शक्ति शिथिल दिखाई दे और साधना के क्रियानुष्ठान में अपने को असमर्थ देखे तो वह साधक आयंबिल तप के द्वारा अपने आहार को संक्षिप्त कर देता है। फलवत् सहनशील बनकर इंदिनीमरण के लिए अपने को समर्पित कर देता है। इंगिनीमरण में भूमि को मर्यादा होती है, उससे बाहर वह आवागमन नहीं करता । चतुर्थ भूमिका के साधक गच्छ-निर्गत प्रतिमा स्वीकृत मुनि होते हैं । ये अचेल होते हैं और पात्र भी नहीं रखते । यहाँ वस्त्र के साथ पात्र का भी त्याग हो जाता है। उनकी कष्ट सहिष्णुता भी बढ़ जाती है । शीत-स्पर्श, उष्णस्पर्श, तृण-स्पर्श और डंसमंस आदि स्पर्श भी सहन करने में वे अपने को समर्थ देखते हैं । जो साधक अनुकूल और प्रतिकूल उपनगों से अपने को प्रभावित होने नहीं देता, वही इस भूमिका में साधना कर सकता है। सामान्यतः साधक निर्वस्त्र रहता है लेकिन जो लज्जा को जीतने में समर्थ नहीं होता, वह कटिबंध रखता है और उसका उपयोग शहर या गांव में मिला लाने के समय करता है प्रतिमा स्वीकृत मुनि इन चार अभिग्रहों में से एक को स्वीकार करता है। वे ये है १. मैं अशन आदि लाकर दूसरों को दूँगा और उनके द्वारा लाया गया स्वीकार भी करूँगा । २. मैं अशन आदि लाकर दूसरों को दूंगा पर उनके द्वारा लाया गया स्वीकार नहीं करूँगा । ३. मैं अशन आदि न तो लाकर दूसरों को दूंगा और न उनके द्वारा लाया गया स्वीकार करूँगा । ४. मैं अशन आदि दूसरों को लाकर नहीं दूंगा पर उनके द्वारा लाया गया स्वीकार करूँगा । उस समय तृणों की याचना करता है। इस भूमिका में मुनि अपने को रोग से ग्रस्त देखे तो तृणों को ले एकान्त में जाकर भूमि की प्रतिलेखना कर निर्जीव स्थान पर उन्हें बिठाता है । सिद्धों की साक्षी से पाँच महाव्रत का आरोपण करता है और चारों प्रकार के आहार का त्याग करता है। पादपोगपमन अनशन में शरीर के अंग तथा उपांग का संकोच और विस्तार नहीं होता । निषण्ण या शयन जिस अवस्था में प्रारम्भ करता है, अन्त तक उसी अवस्था में रहता है । दृष्टि संचालन आदि सब काय-योग, वचन-योग और अप्रशस्त मनोयोग का निरोध करता है । . Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड साधना की ये चार भूमिकाएँ थीं। जो साधक अपने को परिहारविशुद्धि, यथालं दिक, जिनकल्पिक आदि जिस साधना के योग्य पाता है, वह उसी साधना में अपने को लगा देता है। वस्त्रों का सम्बन्ध साधना के साथ सयुक्त था, इच्छानुसार उनका व्यवहार नहीं होता था। लक्ष्य सब का अचेलता की ओर था। स्थानांग सूत्र में पांच कारणों से अचेलता को प्रशस्त माना है । अचेलता से तप और इन्द्रियनिग्रह होता है । वस्त्रों की अल्पता से आन्तरिक वृत्तियों में लाघव आता है। बाह्य परिग्रह का प्रतिबिम्ब अन्तर् में भी पड़ता है। वस्त्रों के प्रति आवश्यकता जितनी कम होगी, उतना ही ममत्व का विसर्जन होगा, आन्तरिक निस्संगता बढ़ेगी। यह सच है कि सब की शारीरिक शक्ति समान नहीं होती, इसलिए प्रारम्भ में यथाशक्ति वस्त्रों का त्याग करता है। जो तरुण और स्वस्थ होते हैं वे युवक साधु एक वस्त्र ही रखते हैं, ग्लान या प्रौढ़ साधु तीन वस्त्र रखते हैं। प्रथम भूमिका के किसी साधक को साधनाकाल में कोई रोग उत्पन्न हो जाए और इस बिन्दु तक पहुँच जाए कि उसके लिए असह्य बन जाए, दीर्घ काल तक उस स्थिति में चलने में अपने को समर्थ देखे तो वह संयम की सुरक्षा के लिए वेहासन और गृद्धपृष्ठ आपवादिक मरण भी कर सकता है। ऐसी स्थिति में वैसा करना उसके लिए असम्मत नहीं है। किसी साधक के साधना काल में ऐसा प्रसंग आ जाए कि स्त्री उसे घेर ले और उसके ब्रह्मचर्य को खण्डित करने के लिए तत्पर हो जाए, उस समय यदि वह अपने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए आपवादिक मरण का सहारा लेता है तो वह असम्मत नहीं है। ऐसे आपवादिक मरण के अनेक साधन निर्दिष्ट हैं विषभक्षण, फाँसी आदि-आदि। सामान्य स्थिति में यह मरण स्वीकार्य नहीं। दूसरी भूमिका में साधना करने वाले जिनकल्पिक, परिहारविशुद्धि या यथालंदिक प्रतिमा-स्वीकृत मुनि होते हैं । प्रतिमा-स्वीकृत स्थविर मुनि इस साधना भूमि में दो वस्त्र-एक सूत का और एक ऊन का तथा एक पात्र रखता है । ग्रीष्म ऋतु में यदि सामर्थ्य हो तो साधक अचेल हो सकता है अन्यथा वह एक वस्त्र रख सकता है। साधना-काल में किसी मुनि का ऐसा अध्यवसाय हो कि मैं रोग से स्पृष्ट हूँ। उससे मेरी शारीरिक शक्ति क्षीण हो गई है, अतः मैं भिक्षा लाने में असमर्थ हूँ। उस समय कोई गृहस्थ उसके मुख से सुनकर या उसके भावों को समझकर आहार आदि लाकर दे तो वह निषेध कर दे कि ऐसा सदोष आहार मेरे लिए अग्राह्य है। यदि कोई नीरोग सार्मिक साधक (समान साधना करने वाला) उसकी सेवा करे तो वह उसे स्वीकार कर सकता है और स्वस्थ होकर वापस उसकी वैयावृत्त्य कर सकता है। १. जे निग्गंथे तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके थिर संघयणे से एगं वत्थं धारेज्जा नो बीयं । --आचारांग, २।५।१।३६४१ Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवेकालिक और जीवन का व्यावहारिक दृष्टिकोण - साध्वी श्री कनकधी (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। अनन्त विरोधी धर्म-युगलों के साथ सामंजस्य स्थापित कर चलते रहना ही जीवन की पूर्णता है। अनन्त ज्ञय-धर्मों का भी सीमित संवेदन से ज्ञान करने का प्रशस्त साधन है, हमारे पास स्याद्वाद । पर एक साथ अनन्त धर्मों का ज्ञान व्यवहार्य नहीं हो पाता। व्यवहार्य है हमारे लिए नयवाद या स्याद्वाद । उसके सहारे हम अनभीप्सित वस्त्वंश को निराकृत किये बिना ही अभीप्सित अंश का बोध या प्रतिपादन कर सकते हैं। निश्चय और व्यवहार हमारे चिन्तन के दो महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न रूपों में निश्चय और व्यवहार दोनों की सत्ता को स्वीकार किया है। जैन-दर्शन ने जिसे निश्चय और व्यवहार की अभिधा से अभिहित किया, बौद्ध दार्शनिकों ने उसे परमार्थ सत्य तथा लोक-संवृत्ति सत्य से पहचाना और सांख्य दर्शन ने उसे परमब्रह्म तथा प्रपंच कहकर पुकारा । स्याद्वाद की भाषा में निश्चय और व्यवहार परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। एक ही वस्तु के सहभावी व अवश्यंभावी धर्म हैं, इस दृष्टि से दोनों में अद्वैत है। निश्चय वस्तु का आत्मगत धर्म है। वह सूक्ष्म है । व्यवहार वस्तु का देह-धर्म है । वह स्थूल है। इस स्वरूपद्वैध से इन दोनों में द्वैत भी है। यद्यपि निश्चय, निश्चय ही है और व्यवहार, व्यवहार । इनमें स्वरूपैक्य नहीं हो सकता। निश्चय हमारा साध्य है तथापि उसका साधक है व्यवहार। इसलिए सभी दार्शनिकों ने निश्चय के साथ व्यवहार को तत्त्व रूप में स्वीकार किया है। यहाँ तक कि व्यवहार को जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है । यह उचित ही है। क्योंकि निश्चय जहाँ उन्नत और गिरि-शृंग है, वहाँ व्यवहार उस तक पहुँचने के लिए घुमावदार पगडण्डी। पथिक उसके बिना सीधा पर्वतारोहण कर सके, यह सम्भव नहीं । निश्चय फलगत रस है और व्यवहार है उसकी उत्पत्ति, वृद्धि और संरक्षण का हेतुभूत ऊपर का कवर । निश्चय वाष्प यान है और व्यवहार गमन-साधक पटरी। साध्यावस्था में हम निश्चयमय ही बन जाते हैं ; पर साधनाकाल में निश्चय और व्यवहार दोनों घुले-मिले रहते हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि लक्ष्य प्राप्ति के बाद जीवन की पूर्णता में व्यवहार हमारे लिए अनुपयोगी है, उतना ही उपयोगी जीवन की अपूर्णता में वह है। वहाँ हम व्यवहार का त्याग कर चल नहीं सकते। Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २८८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-................................................ व्यवहार का अर्थ छलना तथा प्रवंचना नहीं है। उसका अर्थ है-यथार्थ कार्य को भी उस पर अपने बुद्धिविवेक तथा कला का अवलेप लगाकर प्रस्तुत करना । व्यवहार जीवन का कलात्मक पक्ष है। दूसरे शब्दों में, कलात्मक जीवन-पद्धति का नाम ही व्यवहार है। सत्य और शिव को भी जैसे सौन्दर्य अपेक्षित है, वैसे ही यथार्थ-क्रिया भी कलात्मकता के बिना अधूरापन लिए रहती है । उसकी पूर्ति व्यवहार करता है। ___ व्यक्ति जहाँ अकेला होता है, वहाँ व्यवहार-पथ के अनुगमन की विशेष आवश्यकता नहीं रहती । पर जहाँ समाज होता है, वहाँ परस्परता होती है। जहाँ परस्परता होती है, वहाँ व्यवहार अत्यन्त अपेक्षित हो जाता है। व्यवहार पक्ष की उपादेयता को अभिव्यक्त करते हुए कवि ने कितना सुन्दर पद्य लिखा है-- काव्यं करोतु परिजल्पतु संस्कृतं वा, सर्वाकला: समधिगच्छतु वा यथेच्छम् । लोकस्थितिं यदि न वेत्ति यथानुरूपां, सर्वस्य मूर्खनिकरस्य स चक्रवर्ती ।। प्रकाण्ड पाण्डित्य प्राप्त व्यक्ति भी यदि लोकव्यवहार से अनभिज्ञ है तो वह मूर्ख-चक्रवर्ती की उपाधि से विभूषित होता है। यद्यपि शुद्ध लोकविरुद्ध नाचरणीयम्- इस पंक्ति ने तो लोक व्यवहार को इतना महत्त्व दे दिया है कि जिस कार्य को अपनी दृष्टि शुद्ध मानती है, तथापि यदि वह लोक-विरुद्ध है, तो उसका आचरण मत करो । व्यवहार-कुशल व्यक्ति जहाँ पग-पग पर अप्रत्याशित सफलताएँ प्राप्त करता रहता है, वहाँ व्यवहार से परे रहने वाले को कदम-कदम पर असफलता का मुंह देखना पड़ता है। इसीलिए विद्वान् लेखक की यह पंक्ति कितनी मार्मिक है कि 'जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है, अव्यावहारिक होना' । वाचक उमास्वाति ने इसी हार्द को प्रस्तुत करते हुए अपनी शिक्षात्मक रचना 'प्रशमरति-प्रकरणम्' में लिखा है लोकः सत्त्वाधारः सर्वेषां ब्रह्मचारिणां यस्मात् । तस्माल्लोकविरुद्ध कार्य, धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् ॥ निश्चय अदृश्य होता है, वह व्यवहार के द्वारा गम्य होता है। हमारी किसी के साथ कितनी ही सद्भावना क्यों न हो ? हमारा अन्तःकरण कितना ही विशुद्ध क्यों न हो? पर जब तक वह व्यवहार में समवतरित नहीं होता, तब तक उसकी सच्चाई में कम ही विश्वास होता है। व्यवहार की इस साध्य-साधकता तथा उपादेयता को दृष्टिगत रखते हुए भगवान महावीर ने साधक के लिए स्थान-स्थान पर उसकी उपयोगिता बताई है। यद्यपि आपने भी साधक के लिए दो साधना-क्रम प्रस्तुत किये हैंजिनकल्पी तथा स्थविरकल्पी । जिनकल्पी सहायनिरपेक्ष एकाकी जीवन-यापन करते हैं, उनकी साधना विशिष्ट कोटि की होती है, अत: वे व्यवहारातीत तथा कल्पातीत हैं । स्थविरकल्पी संघीय जीवन यापन करते हैं। उनके लिए व्यवहार की भी अपनी सीमा तक आवश्यकता होती है। __आगे की पंक्तियों में भगवान् महावीर के व्यावहारिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने का प्रयास किया जायगा। चिन्तन तथा भावनाएँ असीम हैं। उनका व्यास न हो। समास के लिए दशवैकालिक सूत्र ही मुख्य आधार रहेगा। ओदन-पाक जानने के लिए दो चावलों की परीक्षा अपर्याप्त नहीं रह जाती। भगवान महावीर ने अनेकों ऐसे विधि तथा निषेधों के संकेत दिये हैं, जिनमें प्रत्यक्ष या परोक्ष सूक्ष्म स्थल दृष्टि से हिंसा आदि से बचने का ही दृष्टिकोण रहा है। पर कहीं ऐसे विधान व निषेध हैं, जहाँ हिंसा आदि से बचने Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवकालिक और जीवन का व्यावहारिक दृष्टिकोण २८६. -. - . - . की अपेक्षा व्यावहारिक दृष्टिकोण अधिक प्रबल रहा है। कहीं ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि जिन कार्यों के आचरण से हिता आदि की। कचित् भी संभावना नहीं है, फिर भी वे कार्य निषिद्ध हैं। इससे विदित होता है कि उनकी दृष्टि में व्यवहार-कुशलता को कितना ऊँचा स्थान था। नीचे की पंक्तियों में आपका व्यावहारिक दृष्टिकोण अतीव प्रशस्तता लिए उभरा है। ____ साधुत्व स्वीकरण के बाद साधक की दिनचर्या का एक महत्त्वपूर्ण अंग है-भिक्षाचर्या। क्योंकि बिना भिक्षा के उसे कोई भी आवश्यक वस्तु प्राप्त नहीं हो पाती। भगवान् ने इसीलिए कहा है कि "सव्वं से जाइयं होइ, नत्थि किंचि अजाइयं" साधु की सब वस्तुएँ याचित होती हैं, अयाचित कुछ नहीं होता। अतः आपने भिक्षा की भी सुन र मार्मिक तथा सुन्दर विधि प्रदान की, क्योंकि महत्त्व कार्य का जितना नहीं होता उतना विधि का होता है। प्रत्येक कार्य के पीछे क्यों ? कब? और कैसे ? ये जिज्ञासाएँ उभर ही जाती हैं। इन तीनों जिज्ञासाओं को सुन्दर समाधान देने वाली कार्य पद्धति ही व्यावहारिक उच्चता प्राप्त कर सकती है। भिक्षा के लिए कब जाए ? इसका सुन्दर समाधान देते हुए भगवान ने कहा कि जब भिक्षा का समय हो।' क्योंकि काल का अतिक्रमण कर भिक्षार्थ जाने वाला भिक्षु निन्दा, तिरस्कार तथा अविश्वास का पात्र बन सकता है। भिक्षार्थ जाता हुआ मुनि असंभ्रान्त रहे । २ यद्यपि यह संभ्रान्ति अनेकों दोषों का उद्गम-स्थल है, तथापि संघीय जीवन की सरसता तथा माधुर्य विनष्ट न हो जाए अत: यह महान उपयोगी व्यावहारिक निर्देश है। भिक्षाचारिका करता हुआ मुनि मन्द-मन्द चले । यद्यपि भिक्षु के लिए उपयोगपूर्ण शीघ्रगति अविहित नहीं है। फिर भी यदि भिक्षार्थ जाते समय वह त्वरता करता है तो व्यवहार में अच्छा नहीं लगता । दूसरे लोग उसके बारे में विभिन्न अनुमान लगा सकते हैं। जैसे यह भिक्षु इसलिए जल्दी-जल्दी चलता है कि कहीं अमुक परिवार में अमुक भिक्षु पहले न चला जाए। फिर अमुक वस्तु मुझे नहीं मिलेगी। दूसरे स्थान में यह भी बताया गया है कि साधु दब-दब करता न चले, अतिशीघ्र न चले। इससे प्रवचन लाघव होता है। गोचरान के लिए गया हुआ मुनि मार्ग में, आलोक-गवाक्ष, झरोखा, खिड़की, थिग्गल-घर का वह द्वार जो किसी कारणवश पुनः चिना गया हो, सन्धि-दो घरों के बीच की गली अथवा सेन्ध-दीवाल की ढकी हुई सुराक और जल-मंचिका अथवा जलगृह को ध्यानपूर्वक न देखे । वे शंका-स्थान हैं। उन्हें इस प्रकार देखने से लोगों को मुनि पर चोर तथा पारदारिक होने का सन्देह हो सकता है। मुनि गृहपति-इश्य, राजा और आरक्षकों के रहस्यमय स्थानों में न जाए तथा उनके समीप भी खड़ा न रहे । क्योंकि वे स्थान संवलेशकर हैं। इनका वर्जन इस लिए किया गया है कि इन रहस्यमय गुह्य स्थानों में जाने से ति स्त्रियों के अपहरण करने का तथा मन्त्रभेद होने का सन्देह हो सकता है। सन्देहवश साधु को गिरफ्तार किया जा सकता है । अन्य भी अनेक प्रकार के कष्ट पहुँचाए जा सकते हैं, जिससे व्यर्थ ही साधु को अवहेलना का पात्र बनना पड़े। १. दशवकालिक : ५।१।१ : संपत्ते भिक्ख कालम्मि । २. वही, ५।१।१. ३. वही, ५।१२ : "चरे मन्दमणुव्विगो।" ४. दशवकालिक : “दवदवस्स न गच्छेज्जा ।" ५. वही, ५।१।१५. ६. वही, ५।१।१६. Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड भिक्षु प्रतिक्रुष्ट कुलों में भिनार्थ न जाए। प्रतिक्रुष्ट का शाब्दिक अर्थ है, निन्दित, जुगुप्सित तथा गहित । वे दो प्रकार के होते हैं -अल्पकालिक और यावत्कालिक । अलकालिक मृतक सूतक आदि के घर हैं । यावत्कालिक डोम, मातंग आदि के घर । यह स्पष्ट है कि यह निषेध व्यावहारिक भूमिका को छूने वाला है। क्योंकि उपरोक्त कुलों में भिक्षा करने से साधक की साधना में क्या बाधा आ सकती है ? इस प्रश्न को समाहित करते हुए टीकाकार लिखते हैं--जुगुत्सित कुलों की भिक्षा लेने से जैन शासन की लघुता होती है। जैन-दर्शन के अध्येता इस बात से अनभिज्ञ नहीं कि वह जातिवाद को तात्त्विक नहीं मानता। उसके आधार पर किसी को हीन तथा जुगुप्सित मानना हिंसा है। फिर भी प्रतिक्रुष्ट कुलों की भिक्षा का निषेध किया गया है। जहाँ तक हम समझ पाये हैं, वैदिक परम्परा के बढ़ते हुए प्रभाव को ध्यान में रखकर, व्यवहार-पालन को मुख्यता देना ही इसका प्रमुख कारण हो सकता है। भिक्षु संसक्त दृष्टि से न देखे । यह सामान्य कपन है। इसका वाचार्य यह है कि साधु व साध्वी क्रमशः बहिन तथा भाई की आंखों में आँखें गड़ाकर न देखें। इस निषेध के दो कारण बताए गए हैं--पहला निश्चय की भूमिका पर अवस्थित है कि आसक्त दृष्टि से देखने पर ब्रह्मवर्यप्रत खण्डित होता है । दूसरा व्यवहार की भूमि पर खड़ा है कि हृदय शुद्ध होने पर भी इस प्रकार देखने से लोक आक्षेप कर सकते हैं कि यह मुनि विकारग्रस्त है। भिक्षा ग्रहण करते समय भिक्षु भैक्ष्य-पदार्थ तक ही दृष्टि प्रसार करे । अति दूरस्थ वस्तुओं को, गृह के कोणों आदि को न देखे । इस प्रकार देखने से मुनि के चोर या पारदारिक होने की आशंका हो सकती है। भिक्षार्थ गृहस्थ के घर में प्रविष्ट मुनि, विकसित नेत्रों से न देखें। इससे मुनि की लघुता होती है। आहारादि के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने के बाद मुनि अन्दर कहाँ तक जाए ? इसका संकेत देते हुए भगवान् महावीर ने कहा-गृहस्वामी द्वारा अननुज्ञात या वजित भूमि में मुनि प्रवेश न करे। यह प्रतिषेध भी अप्रीतिदोष को वजित करने के लिए ही किया गया है। मुनि के लिए स्नानगृह तथा बव गृह को दे बने का भी निषेध किया गया है। भिक्षा में यदि अमनोज्ञ और अपथ्य जल आ जाए तो मुनि उसे गृहस्थों की भाँति इतस्ततः न फेंके। किन्तु उसे लेकर वह विजन भूमि में जाए और वहाँ शुद्व भूमि पर धीरे से गिराए। ताकि गन्दगी न फैले। कितनी ऊँची सभ्यता की शिक्षा है यह । यदि गृहस्प समाज भी इस पर अमल करें तो शहरी-गलियों में इतनी गन्दगी के दर्शन न करने पड़ें। भिक्षाचरी की सम्पन्नता होने पर आहार की विधि बताते हुए कहा गया है कि सामान्यत: भिक्षा के अनन्तर आहार उपाश्रय में जाकर ही करें। यदि वह भिक्षार्थ दूसरे गाँव में गया हुआ हो और कारणवश वहाँ आहार करना १. दर्शवकालिक, ५।१।१७. २. हारिभद्रीय टीका पत्र १६६ : एतान्न प्रविशेत् शासनलघुत्वप्रसंगात् । ३. दशवकालिक : ५।११२३ : असंसत्तं पलोएज्जा । ४. (क) वही : नाइदूरावलोयए। (ख) जिनदास चूर्णि, पृ० १७६ : "तओ परं घर-कोगादि पलोयतं दळूण संका भवति किमेस चोरो पारदारिको वा होज्जा ? एवमादी दोसा भवंति ।" ५. दशवकालिक ५।११२३ : "उप्फुल्लं ण विणिज्झाए।" Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़े तो यदि साधु वहाँ पर हों तो वहाँ जाकर आहार करे यह परस्पर प्रेम-संबर्द्धन तथा प्रेम स्थायित्व का अनुपम साधन है । यदि अन्य भोजन करना पड़े तो जहाँ नहीं भारियों की भांति न खाए, किन्तु शून्यगृह या कोष्ठक में बैठकर विधिपूर्वक खाए । गई है। दशवेकालिक और जीवन का व्यावहारिक दृष्टिकोण आहार में ग्रास के साथ यदि कंकर, कंटक आदि आ जाएँ तो वहीं बेटा हुआ मुँह से न थूके किन्तु आसन से उठकर, कंकर आदि को हाथ से लेकर, एकान्त स्थान में धीरे से रखे । ' उपाश्रय में आकर आहार करने वाले मुनि के लिए भी अतीव मनोज्ञ तथा आकर्षक विधि बतलाई २६१ मुनि उपाश्रय में प्रविष्ट होते समय 'रजोहरण' से पाद प्रमार्जन करे और तीन बार 'निसीहि' शब्द का उच्चारण करे जो कि मुनि के कार्य निवृत्त हो, स्थान- प्रवेश का सूचक है। गुरु के समक्ष जाते ही बद्धांजलि हो मोखमासमणाणं' कहकर गुरु का अभिवादन करे यह विधि भी व्यवहार के अन्तर्गत ही है। इसका समावेश विनय के सात भेदों में से लोकोपचार विनय में होता है। लोकोपचार और व्यवहार एक ही तात्पर्यार्थ को बताने वाले शब्द हैं। जिस क्रम से तथा जहाँ से भिक्षा ग्रहण की हो, गुरु के समक्ष उसकी आलोचना करे । वह भी गुरु की अनुज्ञा पाकर । मुनि दो प्रकार के होते हैं । आहार विधि की अपेक्षा से पहले मण्डली के साथ आहार करने वाले और दूसरे अकेले आहार करने वाले । प्रथम प्रकार का मुनि जब तक मण्डली के सब मुनि न आ जाएँ, तब तक स्वाध्याय करे । न कि यह सोचकर कि मैं लाया हूँ, अतः इस आहार पर मेरा ही अधिकार है, अकेला खाने बैठ जाए। इससे पारस्परिक प्रेमपूर्ण सम्बन्धों में खटास आ सकता है । अकेले आहार करने वाला भिक्षु भी भिक्षा लाकर मुहूर्त भर विश्राम करे । विश्राम के क्षणों में भिक्षार्पण सम्बन्धी चिन्तन करे | फिर आचार्य से निवेदन करे कि भगवन् ! इस आहार से यथेच्छ आहार आप स्वीकार कर, मुझे कृतार्थ करें। यदि आचार्य न से तो यह नः निवेदन करे भन्ते! इस भैध्य से आप अतिथि ग्लान, शैक्ष, तपस्वी, बास तथा वृद्ध इनमें से किसी को देना चाहें तो दें। प्रार्थना स्वीकार कर यदि आचार्य अतिथि आदि को दें तो प्रसन्नमना वह साधु अवशिष्ट आहार को आचार्य की अनुज्ञा पाकर स्वयं खा ले । यदि आचार्य कहें कि तुम ही साधर्मिकों को निमन्त्रित कर यदि उन्हें आवश्यकता हो तो दे दो । तब वह स्वयं मुनिजनों को सादर निमन्त्रित करे। वे यदि निमन्त्रण स्वीकार कर लें तो उनके साथ भोजन करें। यदि वे निमन्त्रण न स्वीकारें तो अकेला ही भोजन कर ले। यहाँ सत्कारपूर्वक निमन्त्रण देने का उल्लेख किया गया है क्योंकि अवज्ञा से निमन्त्रण देना साधु-संघ का अपमान करना है । कहा भी है है, वह सबका सत्कार करता है । १. दर्शकालिक ५१०४. जो एक भी साधु का अपमान करता है, वह सब साधुओं का अपमान करता है। जो एक का सत्कार करता एगम्म हीलियम्म सम्बते होनिया हुन्ति । एगम्मि पूइयम्मि सव्वेते पूइया हुन्ति ॥ ( ओघ नियुक्ति, गाथा ५२६-२७ ) -0 -0 ० . Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ...--.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. काले कालं समायरे से ही मुनि की दिनचर्या सुन्दर तथा आकर्षक बन सकती है। यह एक सुन्दर व्यवस्था है । व्यवस्था से सौन्दर्य निखार पाता है । - यदि व्यक्ति के प्रत्येक कार्य के लिए समय विभक्त हो जाए और ठीक उसी समय में वह संपादित किया जाए तो कभी दौड़-धूप न करनी पड़े । इससे हमारे सभी कार्य आसानी से सध सकते हैं। समय का बचाव हो सकता है और किसी भी कार्य के लिए जल्दबाजी नहीं करनी पड़ती। इससे स्नायुयों का तनाव नहीं बढ़ता और उससे अस्वास्थ्य भी नहीं बढ़ता। समय की पाबन्दी के अभाव में जल्दबाजी करनी पड़ती है। उससे स्नायविक तनाव बढ़ता है और उससे शारीरिक रोग भी अंगड़ाइयाँ लेकर जग उठते हैं। इससे सारी व्यवस्थाएँ गड़बड़ा जाती हैं। हम जिस दिन जो कार्य करना चाहते हैं, वह हो नहीं पाता।। महात्मा गांधी ने लिखा है-कार्य-अधिकता व्यक्ति को नहीं मारती किन्तु समय की अव्यवस्था उसे बुरी तरह मार डालती है। कार्य-व्यवस्था जहाँ साधक की चित्त-विक्षिप्तता को रोक मनःस्थैर्य प्रदान करती है, वहाँ बाह्य व्यवहार को भी सुघड़ बना देती है। यद्यपि यह भिक्षा का प्रसंग है । अतः स्थूलरूपेण यही आभासित होता है कि भिक्षा के समय भिक्षा करनी चाहिए, लेकिन 'काले कालं समायरे' यह पद अपने आप में जितना अर्थ-वैशद्य छिपाए हुए है कि मुनि की प्रत्येक क्रिया के लिए यथाकाल संपादन करने का संकेत देता है। सूत्रकृतांग के चूर्णिकार भी इसी का अनुमोदन करते हुए लिखते हैं कि मुनि भिक्षा के समय भिक्षा करे, खाने के समय खाए, पीने के समय पीए, वस्त्र काल में वस्त्र ग्रहण करे । लयनकाल (गुफादि में रहने के समय अर्थात् वर्षाकाल में) में लयन करे । सोने के समय सोए। समय नियमितता का महत्त्व निश्चय दृष्टि से तो है ही, क्योंकि उसके व्यतिक्रम से चित्त-विक्षेप होता है और मानसिक समाधि में विघ्न होता है। पर व्यवहार भी अपनी स्वस्थता खो देता है । वह मुनि लापरवाह कहलाता है। भिक्षार्थ गया हुआ मुनि गृहस्थ के घर में न बैठे। न ही, वहाँ कथा-प्रबन्ध करे । २ भिक्षु भिक्षा ग्रहण करे, उतने काल तक उसे वहां खड़ा रहना पड़ता है, यह निश्चित है । पर खड़ा कैसे रहना चाहिए, इसका भी विवेक भगवान ने साधक को दिया है। मुनि अर्गला, परिधा, द्वार, कपाट, भित्ति आदि का सहारा लेकर खड़ा न रहे। इससे मुनि की असभ्यता लगने से लघुता होती है और कहीं गिर पड़ने से चोट लगने का भी भय रहता है। भक्त-पान के लिए मुनि गृहस्थ के घर जाता है, तब यदि द्वार पर कोई श्रमण, ब्राह्मण, कृपण तथा भिखारी खड़े हों तो उनका उल्लंघन कर, अन्दर प्रवेश न करे और न गृहस्वामी तथा श्रमण आदि की आँखों के सामने खड़ा रहे । वनीपक आदि को लांघकर, अन्दर प्रवेश करने से गृहपति तथा वनीपक आदि को साधुओं से अप्रीति हो सकती है अथवा जैन-शासन की लघुता प्रदर्शित होती है। गृहस्वामी द्वारा प्रतिषेध कर देने पर अथवा दान दे देने पर, जब वे श्रमणादि लौट जाएँ, तब मुनि उस घर में भिक्षार्थ प्रविष्ट हो। १. दशवैकालिक, ५।२।४. २. दशवकालिक, ५।२।८. ३. दशवकालिक, ५।२।२५. ४. वही, ५।२।१०, ११, १२, १३. Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि सामुदायिक भिक्षा करे केवल 1 दर्शकालिक और जीवन का व्यावहारिक दृष्टिकोण हुए सर्व घरों से भिक्षा ले। यह न हो कि वह क्रमगत भी नीच कुलों को छोड़कर केवल बड़े-बड़े घरों की ही भिक्षा कर ते। क्योंकि इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलता है। साधारण व्यक्ति सोचते हैं कि मुनि जी भी हमारी भिक्षा न लेकर हमारा तिरस्कार कर रहे हैं । प्रयोजनवश गृहस्थ के घर जाए तो मुनि उचित स्थान पर खड़ा रहे तथा मित बोले । २ साधु अनेकों कुलों में जाता है । अनेकों व्यक्तियों से सम्पर्क साधता है । कानों को अनेकों बातें सुनने को मिलती हैं । आँखों को अनेकों दृश्य देखने को मिलते हैं। पर साधक को दृष्ट तथा श्रुत सभी बातें कहना उचित नहीं । २६३ यह विचारधारा अहिंसा की सकल मिति पर तो सुस्विर है ही पर इस आदर्श से संघीय तथा सामाजिक जीवन के पारस्परिक सम्बन्ध विगड़ते-बिगड़ते यच जाते हैं। उनमें अपूर्व माधुर्य टपक जाता है। साधु मनोज्ञ आहार तथा अन्य वांछित पदार्थ न मिलने पर बकवास न करे । उसका वाक्य प्रयोग संयत हो । +0+0+0+6 कुलों को छोड़कर अन्य उच्च नीच कुलों का भेदभाव न रखते 1 मुमुक्षु मुनि क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करे। क्योंकि क्रोध प्रीति का, अभिमान विनय का, माया मित्रों का, तथा लोभ सर्वहितों का विलोप करने वाला है । * १. दशैवकालिक, २१५. २. वही, ३. दर्शकालिक ८ २०. मुनि रानिक मुनियों का विनय करे। अट्टहास न करे इहलौकिक तथा पारलौकिक हित साधन में निरत साधु, बहुश्रुत ( जिसने श्रुत का बहुत अध्ययन किया है अथवा आचार्य, उपाध्यायादि) की पर्युपासना करें तथा तत्त्व का निश्चय करे । ४. वही ८३६-३७. ५. वही, ८।४०. ६. वही, १४१. ७. वही, ८।४४. ८. वही, ८।४५. उपासना के समय गुरु के पास कैसे बैठे ? इसकी विधि बताते हुए लिखा है- जितेन्द्रिय मुनि हाथ, पैर तथा शरीर को संगत रखे। अर्थात् हाथों को न नचाए पैरों को न फैलाए और शरीर को आलस्यवत न मोड़े। गुरु के पास आलीन गुप्त होकर बैठे । आलीन अर्थात् थोड़ा लीन । तात्पर्य की भाषा में जो गुरु के पास न अति निकट और न अति दूर बैठे, वह 'आलीन' कहलाता है। गुरु के शब्द श्रवण में दत्तावधान तथा प्रयोजनवश सीमित वाग्व्यवहार करने वाला 'गुप्त' कहलाता है। संक्षेप में शिष्य को गुरु के सान्निध्य में 'आलीन गुप्त' ही बैठना चाहिए।" गुरु के समीप बैठने की और भी विधियां बताई गई हैं जैसे गुरु के पार्श्वभाग में आसन्न न बैठे बराबर न बैठे आगे न बैठे पीछे न बैठे और उनके घुटने से घुटना सटाकर न बैठे 15 " तात्पर्य की भाषा में पार्श्वभाग के निकट बराबर बैठने से शिष्य द्वारा समुच्चारित शब्द सीधा गुरु के कानों में प्रवेश करता है। जिससे गुरु की एकाग्रता भंग हो सकती है। - गुरु के आगे अत्यन्त निकट बैठने से अविनय होता है तथा दर्शानार्थियों के गुरु दर्शन में वह व्यापात होने का निमित्त बन जाता है । . Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ..................................................................... पीछे बैठने के निषेध का भी यही कारण हो सकता है कि पीछे भी सट कर न बैठे। एक कारण यह भी हो सकता है कि पीछे बैठने से गुरु के मुख-दर्शन नहीं हो पाते । उसके अभाव में शिष्य गुरु के इंगित और आकार को समझ नहीं पाता। गुरु के घुटनों से घुटना सटाकर बैठने से भी विनय का अतिक्रमण होता है। अशिष्टता द्योतित होती है। सारांश की भाषा में मुनि किसी भी स्थिति में असभ्य तथा अविनयपूर्ण पद्धति से न बैठे। मनि बिना पूछे तथा निष्प्रयोजन न बोले । दो व्यक्ति परस्पर बात कर रहे हों अथवा गुरु किसी के साथ वार्तालाप कर रहे हों, उस हालत में 'यह कार्य ऐसे नहीं, बल्कि इस प्रकार हुआ था' इत्यादि रूप में न बीच में बोले। चगली-परोक्ष में दोषोद्घाटन न करे।' वचन-व्यवहार के विषय में भी साधु को सतर्क रहना आवश्यक है। वह जन-भाषा का अन्धानुगमन न करे। जिस विषय को अपनी आँखों से देखा हो, वह भी यदि अनुपघातकारी हो तो अमन्द और अनुच्च स्वर के साथ सभ्यतापूर्वक कहे। भाषा भी प्रतिपूर्ण-स्वर-व्यंजन, पद आदि सहित तथा स्पष्ट होनी चाहिए । भाषा के अस्पष्ट तथा स्खलित होने पर सुनने वाला एक बार में आशय नहीं समझ सकता। बोलने वाले को भी पुनः-पुनः बोलना पड़ता है। उस पर भी न समझने पर श्रोता को भी झुंझलाहट आ सकती है । अतः एक बार सुनते ही भाषा का आशय हृदयंगम हो जाए, ऐसी स्पष्ट तथा शालीन भाषा बोलना चाहिए। वाक्य-रचना के नियमों तथा प्रज्ञापना-पद्धति को जानने वाला और नयवाद में निष्णात मुनि यदि बोलता हुआ स्खलित हो जाए, वर्ण, वचन तथा लिंग का विपर्यास कर बैठे, तो भी श्रोता मुनि उसका उपहास न करे । धर्म का मूल विनय है और उसका परम है मोक्ष । जैनागमों में विनय शब्द का प्रयोग आचार और उसकी विविध धाराओं के अर्थ में हुआ है। नम्रता उस व्यापक विनय-सरिता की एक धारा है । औपपातिक में सात प्रकार के विनय का उल्लेख मिलता है, उसमें सातवाँ प्रकार है, उपचार विनय । यद्यपि विनय का सीधा सम्बन्ध है, अपनी आत्मा से । विनय अपना ही होता है, अन्य का नहीं । क्योंकि आत्मा का सहज नम्रभाव ही तो विनय है । फिर भी पूर्वाचार्यों ने उपचार-विनय, व्यवहार-विनय को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। ___ गुरु तथा रत्नाधिक मुनियों के आगमन पर खड़ा होना, हाथ जोड़ना, आसन देना तथा भक्ति और शुश्रूषा करना उपचार विनय है। उपचार-विनय आचार-विनय की पृष्ठभूमि है। दशवैकालिक में उपचार विनय का सुन्दर दिग्दर्शन मिलता है । जैसे आहिताग्नि ब्राह्मण, आहुति और विविध मन्त्रपदों से अभिषिक्त पंचाग्नि को नमस्कार करता है, वैसे ही शिष्य अनन्तज्ञान से उपपेत होता हुआ भी आचार्य की विनयपूर्वक सेवा-भक्ति करे। १. दशवैकालिक, ८।४६ २. वही, ८।४६. ३. वही, ६।२।२. ४. अब्भुट्ठाणमंजलिकरणं, तहेवासणदायणं । गुरुभत्ति भाव सुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ॥ ५. दशवकालिक, ६।१।११. Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस मुनि से धर्मपदों की शिक्षा ग्रहण करे उसके साथ शिक्षार्थी मुनि विनय का प्रयोग करे उसे बद्धांजलि तथा नत मस्तक हो वन्दन करे। वह मन, वाणी तथा काया से सदा उसका विनय करे। आगम-ज्ञान में तत्पर मुनि, आचार्य के आदेश का लंघन न करे । दर्शकालिक और जीवन का व्यवहारिक दृष्टिकोण 1 विनेय आचार्य की शैया (बिछोना) से अपनी सेवा नीचे स्थान में करे गति भी नीची रखे अर्थात् आचार्य के आगे-आगे न चले। पीछे चले । चूर्णिकार लिखते हैं- शिष्य गुरु के अति समीप तथा अति दूर न चले । अति समीप चलने से रजकण उड़ते हैं, गुरु की आशातता होती है । अति दूर चलने से प्रत्यनीकता का आभास मिलता है । आचार्य जहाँ खड़े हों, शिव्य उनसे नीचे स्थान में खड़ा रहे। चूर्ण के अनुसार नीचे स्थान में भी गुरु के आगे तथा बराबर खड़ा न रहे । अपना आसन भी गुरु के आसन से नीचा बिछाए । २६५ I शिष्य नत होकर गुरु-वरणों में वन्दन करे यद्यपि आचार्य ऊपर आसन पर विद्यमान हैं और शिष्य नीचे खड़ा है तथापि वह सीधा खड़ा खड़ा वन्दन न करे अपितु चरण-स्पर्श हो सके उतना झुक कर करे । सीधा खड़े रहकर वन्दन करने से उनका अक्कड़पन आभासित होता है । वन्दना के लिए भी सीधा खड़ा खड़ा हाथ न जोड़े। नीचे झुके । आचार्य के निश्रित उपकरणों से यदि शिष्य का अनुचित स्पर्श हो जाए पैर लग जाए, ठोकर लग जाए, तो वह बद्धांजलि और नत मस्तक हो निवेदन करे कि भगवन् ! मेरे अपराध के लिए क्षमा करें। भविष्य में मैं ऐसा अपराध न करने का संकल्प करता हूँ | 3 पूज्य की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि आलोइयं इंगियमेव नच्चा, जो छन्दमाराहयइ स पुज्जो विनीत शिष्य गुरु द्वारा आदिष्ट कार्य तो करता ही है पर इसी में उसके कार्य की 'इतिश्री' नहीं हो जाती । वह गुरु के निरीक्षण तथा इंगित को देखकर भी उनके अभिप्राय को समझ लेता है और कार्य सम्पादन में जुट जाता है । आलोकित से कर्त्तव्यबोध — जैसे शरद् ऋतु है । आचार्य वस्त्र की ओर देख रहे हैं । इतने मात्र से विनीत समझ लेता है कि आचार शीतबाधित हैं, उन्हें वस्त्र की अपेक्षा है और वह तुरन्त उठकर गुरु को वस्त्र दे देता है । इंगित से कर्तव्यबोध जैसे आचार्य के कफ का प्रकोप है। दवा की आवश्यकता है पर उन्होंने किसी को कुछ कहा नहीं फिर भी विनीत शिष्य गुरु के इंगित मनोभावों को व्यक्त करने वाली अंग बेष्टा से समझ लेता है और उनके लिए सौंठ ले आता है । भिक्षु का लक्षण बताते हुए कहा गया है कि जो भिक्षा लाकर साधर्मिकों को निमन्त्रित कर भोजन करता ह, वह भिक्षु है । जो दूसरों को हँसाने के लिए कुतूहलपूर्ण अंगचेष्टा नहीं करता, वह भिक्षु है । दशवेकालिक सूत्र में ऐसे और भी अनेकों उल्लेख मिलते हैं, शिक्षाएँ उपलब्ध होती हैं जो सामूहिक जीवनव्यवहार को संवारती हैं तथा उसमें रस भरती हैं। १. २. ३. ४. ५. यह तो हम पहले ही जान चुके हैं कि जीवन की अपूर्ण अवस्था में या यूं कहें कि साधना काल में निश्चय तथा व्यवहार परस्पर जुड़े हुए हैं। इनमें इतना गहरा सम्बन्ध है कि एक-दूसरे को विलग करना आसान नहीं है । दशकालिक १।१।१२ । वही, २०१२१७ वही २०१८ । वही, ६|३|१ | दशवेकालिक, १० o . Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............................................ निश्चय यदि शुद्ध आत्मतत्त्व है तो व्यवहार है देह । क्या सांसारिक आत्मा देहमुक्त रह सकती है? जैसे संसारी आत्मा देह-मुक्त नहीं रह सकती और आत्म-शुन्य शरीर भी शव की अभिधा से अभिहित होता है, वैसे ही व्यवहारशून्य निश्चय अदृश्य होने के कारण अनुपयोगी तथा अव्यवहार्य है तो निश्चयविहीन व्यवहार का भी दोष तथा प्रवंचना के अतिरिक्त मूल्य नहीं रह जाता अतः उक्त तथ्यों को हम निश्चय से परे रखकर, कलेवर के रूप में ही नहीं देख सकते । नैश्च यिक दृष्टिकोण तो उनमें निहित है ही, लेकिन यदि हम एक बार नैश्चायिक दृष्टि को गौण कर केवल व्यवहार की आंखों से देखें तो भी वे सूत्र हमारे जीवन में कितने उपयोगी हैं ? ___ साधु संस्था को तो ये नियम मधुर तथा सुव्यवस्थित करते ही हैं पर इनका मूल्य राष्ट्रीय, राजनैतिक, सामाजिक तथा पारिवारिक क्षेत्रों में भी कम नहीं है। क्या ही अच्छा होता है यदि भगवान् महावीर के द्वारा निर्दिष्ट इन व्यावहारिक तथ्यों पर आज का जनमानस अमल करता? P सम्भाषमाणस्य गुरोस्त थैव, व्याकुर्वतस्तात्त्विकबोध चर्चाम् । यो नान्तराले बदतीह किंचित्, स एव शिष्यो विनीयोति बोध्यः ॥ (श्री चन्दनमुनि रचित ) वर्धमान शिक्षा सप्तशती गुरु किसी से सम्भाषण कर रहे हों अथवा तात्त्विक विवेचन या तत्वचर्चा कर रहे हों, तब जो बीच में नहीं बोलता वैसा शिष्य विनयी समझा जाता है। --0 Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणचर्या विषयक कुन्दकुन्द की दृष्टि Dडॉ. रमेशचन्द्र जैन [जैन मन्दिर के पास, बिजनोर (उ०प्र०)] दिगम्बर जैन आचार्यों की परम्परा में कुन्दकुन्द का स्थान सर्वोपरि है। भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद उनके नाम का स्मरण किया जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द निर्दोष श्रमणचर्या के कट्टर समर्थक थे, असंयतपने के वे प्रबल विरोधी थे। दर्शन और आचार उभयपक्ष को उन्होंने समान रूप से स्वीकार किया था, उनके अनुसार आगम से यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो सिद्धि नहीं होती। पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत हो तो निर्वाण को प्राप्त नहीं होता।' पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का संवर करने वाला, तीन गुप्ति सहित, कषायों को जीतने वाला तथा दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण श्रमण संयत है। जो जीव निर्ग्रन्य रूप से दीक्षित होने के कारण संयम तथा तप संयुक्त हो वह भी यदि ऐहिक कार्यों सहित वर्तता है तो लौकिक है । संयम और तपस्या में रत श्रमण का किसी के प्रति राग नहीं होना चाहिए। राग बन्धन का कारण है, चाहे वह भगवान के प्रति ही क्यों न हो? कुन्दकुन्द की दृष्टि में संयम तथा तप संयुक्त होने पर भी नव पदार्थों और तीर्थंकर के प्रति जिसकी बुद्धि का झुकाव है, सूत्रों के प्रति जिसकी रुचि है, उस जीव को निर्वाण दूर है। निर्वृत्तिकाम के लिए वीतरागी' होना आवश्यक है। साधु आगमचक्षु साधु का नेत्र आगम है। आगमहीन श्रमण आत्मा को तथा 'पर' को नहीं जानता । पदार्थों का नहीं जानने वाला भिक्षु कर्मों का क्षय कैसे कर सकता है ? जो कर्म अज्ञानी लक्षकोटि भवों में खपाता है, वह कर्म ज्ञानी १. ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदवि अस्थि अत्थेसु । सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि ।। -प्रवचनसार-२३७. २. पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ। दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ।। -प्र०सा०-२४०. णिग्गंथं पव्वइदो वहदि जदि एहिगेहिं कम्मेहिं । सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंपजुत्तो वि ॥ -वही, २६६. सपयत्थं तित्थयरं अभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स । दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपउत्तस्स ।। -पंचास्तिकाय-१७०. पंचास्तिकाय-१७२. आगमचक्खू साहू"""|| -प्र०सा० २३४. आगमहीणो समणो णेवप्पाणं पर वियाणादि । अविजाणन्तो अत्थे खवेदि कम्माणि किध भिक्खू ।।-प्र.सा. २३३. * Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२६८ कर्मयोगी भी केसरोमलजी सुराना अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ सण तीन प्रकार (मन-वचन-काय) से गुप्त होने से उच्छ्वासमात्र में खपा देता है।' ज्ञानी की पर-पदार्यों के प्रति मूर्छा (आसक्ति) नहीं होनी चाहिए। जिसके शरीरादि के प्रति परमाणु मात्र भी मूर्छा है, वह भले ही सर्वागम का धारी हो तथापि वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। मोक्षार्थी जीव निःसंग और निर्मम होकर सिद्धों की भक्ति करता है, अतः वह निर्वाण को प्राप्त करता है। नानत्व : विमोक्षमार्ग कुन्दकुन्द के अनुसार जिस मत में परिग्रह का अल्प अथवा बहुत ग्रहणपन कहा है, वह मत तथा उसकी श्रद्धा करने वाला पुरुष गर्हित है । जिन शासन में वस्त्रधारी मुक्ति को प्राप्त नहीं करता, चाहे वह तीर्थकर ही क्यों न हो। नग्नपना मोक्ष का मार्ग है, शेष उन्मार्ग हैं। मुनि यथाजात रूप है, वह अपने हाथ में तिल के तुषमात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करता है, यदि थोड़ा-बहुत ग्रहण करता है तो निगोद में जाता है। साधु के बाल के अग्रभाग की कोटिमात्र भी परिग्रह का ग्रहण नहीं होता है, वह अन्य का दिया हुआ भोजन भी एक स्थान पर खड़े होकर पाणिपात्र में ग्रहण करता है। वस्त्ररहित अचेलक अवस्था और एक स्थान पर पाणिपात्र में भोजन के अतिरिक्त जितने मार्ग हैं, वे अमार्ग हैं। जो अण्डज, कापसिज, वल्कल, चर्मज तथा रोमज-इन पाँच प्रकार के वस्त्रों में किसी वस्त्र को ग्रहण करते हैं, परिग्रह के ग्रहण करने वाले हैं, याचनाशील हैं तथा पापकर्म में रत हैं, वे मोक्षमार्ग से धुत हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के समय में मुनिमार्ग में शिथिलाचार आ गया था। यही कारण है कि नग्नत्व का प्रबल समर्थन करते हुए भी जो केवल नग्नत्व का बाह्य प्रदर्शन करते हैं ऐसे श्रमणों की आचार्य कुन्दकुन्द ने तीव्र भर्त्सना की है १. कुछ मुनि ऐसे थे, जिन्होंने निर्ग्रन्थ होकर मूलगुण धारण तो कर लिये थे, किन्तु बाद में मूलगुणों का छेदन कर केवल बाह्य क्रियाकर्म में रत थे, कुन्दकुन्द ने उन्हें जिनलिंग का विराधक कहा है ।। २. कुछ मुनि रागी-परद्रव्य के प्रति आभ्यन्तरिक प्रीतिवान् थे, जिन-भावनारहित ऐसे मुनियों को भावपाहुड में द्रव्यनिर्ग्रन्थ कहा गया है। ऐसे साधु समाधि (धर्म तथा शुक्लध्यान) और बोधि (रत्नत्रय) को नहीं पा सकते हैं। १. जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भव सयसहस्सकोडीहि । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ॥-प्र०सा० २३८. परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहा दिएसु जस्स पुणो। विज्जदि जदि सो सिद्धि ण लहदि सव्वागमधरो वि ॥-वही २३६ तथा पंचास्तिकाय-१६७. ३. पंचास्तिकाय--१६६. ण वि सिज्झउ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो। णग्गो विमोक्खमग्गो सेस उम्मग्गया सव्वे ॥—सूत्रपाहुड-२३. सूत्रपाहुड-१८. वही, १७. ७. वही, १०. जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला। आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ॥-भावपाहुड-७६. मूलगुणं छित्त ण य बाहिरकम्मं करेइ जो साहू। सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिलिंगविरागो णियदं ॥-मोक्षपाहुर-६८. १०. भावपाहुड-७२. Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भमणचर्या विषयक कुम्बकुम्ब को दृष्टि २५. ऐसे व्यक्तियों के लिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम वे मिथ्यात्व का त्याग कर भाव की अपेक्षा नग्न हों, अनन्तर जिनाज्ञा के अनुसार द्रव्यलिंग धारण करें।' आभ्यन्तर भावदोषों से रहित जिनवर लिंग (बाह्य निर्ग्रन्थ लिंग) प्रकट करना श्रेयस्कर है। भाव मलिन जीव बाह्य परिग्रह के प्रति भी मलिनमति हो जाता है। भावसहित मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप रूप चार आराधनाओं को पा लेता है। भावरहित मुनि दीर्घ संसार में भ्रमण करता है। जिन-भावनावजित नग्न दुःख पाता है, बोधि को प्राप्त नहीं करता है, क्योंकि द्रव्य की अपेक्षा तो सभी नग्न रहते हैं । नारकी तथा तिर्यच तो नग्न रहते ही हैं, मनुष्यादिक भी कारण पाकर नग्न होते हैं, तथापि परिणाम अशुद्ध होने से भावधमणपने को नहीं प्राप्त करते हैं ।५ जिसके परिणाम अशुद्ध हैं, उसका बाह्य परिग्रह त्यागना अकार्यकारी है। वस्त्रादि को त्यागकर तथा हाथ लम्बे कर कोई कोटाकोटि काल तप करे तो भी यदि भावरहित है तो उसकी सिद्धि नहीं है। बाह्य परिग्रह का त्याग भाव की विशुद्धि के लिए किया जाता है। जो आभ्यन्तर परिग्रह से युक्त है, उसका बाह्य त्याग विफल है। ३. कुछ श्रमण दिगम्बर रूप जिनलिंग को ग्रहण कर उसे पापमोहितमति होकर उसे हास्यमात्र के समान गिनते थे । आचार्य कुन्दकुन्द ने उन्हें नारदलिंगी कहा है। ४. कुछ लिंगी बहुत मान कषाय से गर्वित होकर निरन्तर वाद करते थे, द्यूतक्रीड़ा करते थे, लिंगपाहुड में उन्हें नरकगामी बतलाया गया है।" ५. कुछ श्रमणलिंग धारणकर अब्रह्म का सेवन करते थे, कुन्दकुन्द ने उन्हें संसाररूपी कान्तार में भ्रमण करने वाला लिखा है।" ६. कुछ लिंगी दूसरे गृहस्थों के विवाह सम्बन्ध कराते थे। वे कृषि, वाणिज्य तथा जीवघात रूप कार्य को करते थे। ७. कुछ चोरों, झूठ बोलने वालों तथा राजकार्य करने वालों में परस्पर युद्ध अथवा विवाद करा देते १. भाव भावपाहुड, ७३. २. पयहिं जिणवलिगं आभिन्तरभावदोस परिसुद्धो। भावमलेण य जीवो बाहिरसंगम्मि मलिनमई॥-भावपाहुड ७०. भावपाहुड ६६. ४. वही, ६८. ५. वही, ६७. परिणामम्मि असुदे गंथे मुच्चेइ बाहरे य जई। बाहिर गंथच्चाओ भावविहणस्स किं कुणइ॥-भावपाहुड ५. ७. वही, ४. ८. भावविसुद्धिणिमित्त बाहिरगंथस्स कीरए चायो। बाहिरचाओ विहस्से अभंतरगंथजुत्तस्स ॥-भावपाहुड ३. जो पावमोहिदमदी लिगं घेत्त ण जिणवरिंदाणं । उवहसइ लिंगिभावं लिगिम्मिय णारदो लिंगी॥-लिंगपाहड ३. १०. लिंगपाहुड ६. ११. वही, ७. १२. लिंगपाहुड--६. Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतर्थ खण्ड थे तथा जिनमें अधिक कषाय उत्पन्न हो ऐसे तीव्रकर्म करते थे एवं यन्त्र (चौपड़, सतरंज वगैरह) से द्यूतक्रीड़ा करते थे। ८. कुछ लिंग धारणकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप तथा संयम रूप नित्यकर्मों का आचरण करते हुए मन में दुःखी होते थे, कुन्दकुन्द ने इन्हें तथा उपर्युक्त सभी को नरकगामी बतलाया है। ६. कुछ श्रमणलिंग धारण कर नृत्य करते थे, गाना गाते थे, वाद्य बजाते थे, परिग्रह का संग्रह करते थे अथवा उसमें ममत्व रखते थे, परिग्रह की रक्षा करते थे, रक्षा हेतु अत्यधिक प्रयत्न करते थे तथा उसके लिए निरन्तर आतध्यान करते थे,४ भोजन में रसलोलुप होते हुए कन्दर्पादि में वर्तते थे तथा मायामयी आचरण करते थे। कुछ श्रमण ईर्यापथ का पालन न कर दौड़ते हुए चलते थे, उछलते थे, गिर पड़ते थे, पृथ्वी को खोदते हुए चलते थे, धान्य, पृथ्वी तथा वृक्षों के समूह का छेदन करते थे, कुछ दर्शन और ज्ञान से हीन श्रमण नित्य महिलावर्ग के प्रति स्वयं राग रखते थे तथा जो निर्दोष थे उन्हें दोष लगाते थे। कुछ मुनियों की क्रिया और गुरुओं के प्रति विनय से रहित थे तथा प्रव्रज्याहीन गृहस्य तथा शिष्यों के प्रति अत्यधिक स्नेह रखते थे। आचार्य कुन्दकुन्द ने इन सभी को तिर्यग्योनि कहा है, उनकी दृष्टि में वे वास्तव में श्रमण नहीं थे। १०. आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में जो आहार के निमित्त दौड़ता है, आहार के निमित्त कलह कर उसे खाता है तथा आहार के निमित्त अन्य से ईर्ष्या करता है, वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है। जो बिना दिया हुआ दान लेता है; परोक्ष में दूसरे की निन्दा करता है, जिनलिंग को धारण करता हुआ वह श्रमण चोर के समान है।" ११. जो महिलावर्ग में दर्शन, ज्ञान और चारित्र की शिक्षा दे; विश्वास उत्पन्न कर उनमें प्रवृत्ति करता है, वह पार्श्वस्थ (भ्रष्ट मुनि) से भी निकृष्ट है।१२ जो व्यभिचारिणी स्त्री के घर आहार लेता है, नित्य उसकी स्तुति करता हुआ पिण्डपोषण करता है, वह अज्ञानी है, भावविनष्ट है, श्रमण नहीं है। अतः श्रमणधर्मी को जानना चाहिए कि श्रमणलिंग धर्मसहित होता है, लिंग धारण करने मात्र से ही धर्म की प्राप्ति नहीं हो जाती है। अत: भावधर्म को जानना चाहिए, केवल लिगमात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं है। यदि लिंग रूप धारण कर भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र को उपधान रूप धारण न किया, केवल आत्तध्यान ही किया तो ऐसे व्यक्ति का अनन्त संसार होता है। छेदविहीन श्रमण व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, लोच, आवश्यक, अवेलपना, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधावन, खड़े-खड़े भोजन करना और एक बार आहार-ये श्रमणों के मूलगुण जिनवरों ने कहे हैं, उनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक २. ६. वही, १५. ७. वही, १६. ५ १. चोराण लाउराण य जुद्ध विवादं च तिव्वकम्मेहिं । जंतेण दिवमाणो गच्छदि लिंगी णरयवासं ॥-लिंगपाहुड, १०. वही, ११. ३. वही, ४. ४. वही, ५. ५. वही, १२. ८. वही, १७. ९. वही, १८. १०. धावदिपिंडणिमित्तं कलह काऊण भुंजदे पिंडं। अवरूप सूई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो ॥--वही, १३. ११. गिण्हदि अदत्तदाणं परणिंदा वि य परोक्ख दूसेहिं।। जिलिंगं धारतो चोरेण व होइ सो समणो॥-वही, १४. १२. वही, २०. १३. वही, २. - Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमणचर्या विषयक कुन्दकुन्द की दृष्टि ३०१ होता है। यदि श्रमण के प्रयत्नपूर्वक की जाने वाली कायचेष्टा में छेद होता है तो उसे आलोचनापूर्वक क्रिया करना चाहिए, किन्तु यदि श्रमण छेद में उपयुक्त हुआ हो तो उसे जैनमत में व्यवहारकुशल श्रमण के पास जाकर आलोचना करके वे जैसा उपदेश दें, वह करना चाहिए। श्रमण अधिवास (आत्मवास अथवा गुरुओं के सहवास में) बसते हुए या गुरुओं से भिन्न वास में बसते हुए सदा प्रतिबन्धों का परिहरण करता हुआ श्रामण्य में छेद-विहीन होकर विहार करे। मुनि आहार, क्षपण (उपवास), आवास, विहार, उपधि (परिग्रह), श्रमण (अन्य मुनि) अथवा विकथा में प्रतिबन्ध (लीन होना) नहीं चाहता। प्रयतचर्या श्रमण के शयन, आसन, स्थान, गमन इत्यादि में जो अप्रयतचर्या है, वह सदा हिंसा मानी गई है। जीव ' मरे या जिये, अप्रयत आचार वाले के (अन्तरंग) हिंसा निश्चित है। प्रयत (प्रयत्नशील, सावधान) के, समितिवान् के (बहिरंग) हिंसामात्र से बन्ध नहीं है ।५ अप्रयत आचार वाला श्रमण छहों काय सम्बन्धी वध का करने वाला माना गया है । यदि श्रमण यत्नपूर्वक आचरण करे तो जल में कमल के समान निलेप कहा गया है। उपधि-त्याग उपधि परिग्रह को कहते हैं । कायचेष्टापूर्वक जीव के मरने पर बन्ध होता है अथवा नहीं होता, किन्तु उपधि से अवश्य बन्ध होता है, इसलिए श्रमणों ने सर्व परिग्रह को छोड़ा है । आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में उपधि का निषेध अन्तरंग छेद का ही निषेध है, क्योंकि यदि निरपेक्ष त्याग न हो तो भिक्ष के हृदय की विशुद्धि नहीं होती। जो भाव में अविशुद्ध है, उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है ? उपधि के सद्भाव में भिक्ष के मूर्छा, आरम्भ या असंयम न हो, यह नहीं हो सकता। जो पर-द्रव्य में रत है, वह आत्मसाधना भी नहीं कर सकता। जिस उपधि के ग्रहणविसर्जन में सेवन करने वाले के छेद नहीं होता उस उपधियुक्त काल, क्षेत्र को जानकर श्रमण इस लोक में भले वर्ते, भले ही अल्प हो तथापि जो अनिन्दित हो, असंयतजनों से अप्रार्थनीय हो और मूर्छादि की जननरहित हो ऐसी उपधि को श्रमण ग्रहण करे।११ अपुनर्भवकामियों के लिए जिनवरेन्द्रों ने 'देह परिग्रह है, ऐसा कहकर देह में भी अप्रतिकर्मपना कहा है तब उसके अन्य परिग्रह कैसे हो सकता है ?१२ जिम-मार्ग में उपकरण अजातरूप, गुरुवचन, सूत्रों का अध्ययन और विनय जिनमार्ग में उपकरण कहे गए हैं। वदसमिदिदियरोधो लोचांवस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवेरहिं पण्णत्ता । तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगोहोदि ।।—प्रवचनसार-२०८-२.६. २. वही, २११-१२. ३. वही, २१३. ४. वही, २१६. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।।-वही २१७. ६. वही, २१८. ७. वही, २१६. ८. ण हि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी । अविसुद्धस्स य चित्त कहं णु कम्मक्खओ विहिदो ॥-प्रवचनसार-२२०. ६. प्रवचनसार, २२१. १०. वही, २२२. ११. वही, २२३. १२. वही, २२४. १३. उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं । गुरुवयणं पि य विणओ सुत्तज्झयणं निद्दिळं ॥-वही, २२५. Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्ष बण्ड -. - . -. -. - - - अप्रतिषिद्धशरीरमात्र उपधि का पालन श्रमण इस लोक में निरपेक्ष और परलोक में अप्रतिबद्ध होने से कषायरहित वर्तता हुभा मुक्ताहार विहारी होता है। स्वयं अनशन स्वभाव वाला होने से (अपने आत्मा को अनशनस्वभाव वाला जानने से) और एषणाशुन्य होने से मुक्ताहारी साक्षात् अनाहारी ही है। २ मुक्ताहार एक बार, ऊनोदर, यथालव्ध, भिक्षाचरण से, दिन में, रस की अपेक्षा से रहित और मधु मांस रहित होता है। अल्पलेपी श्रमण श्रमण को शरीर और संयम रूप मूल का जैसे छेद न हो वैसा आचरण करना चाहिए। यदि श्रमण आहार, विहार, देश, काल, श्रम, क्षमता तथा उपधि को जानकर प्रवृत्ति करता है तो अल्पलेपी होता है। सम : श्रमण यदि श्रमण अन्य द्रव्य का आश्रय करके अज्ञानी होता हुआ मोह, राग अथवा द्वेष करता है तो विविध कर्मों से बँधता है, यदि ऐसा नहीं करता तो नियम से विविध कर्मों को नष्ट कर करता है। जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग समान है, सुख-दुःख समान है, प्रशंसा और निन्दा के प्रति जिसे समता है, जिसे लोष्ठ (मिट्टी का ढेला) और सुवर्ण समान है तथा जीवन-मरण के प्रति समता है, वह श्रमण है। निरास्त्रव और सास्रव श्रमण प्रवचनसार में कुन्दकुन्द ने शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी दो प्रकार के श्रमण कहे हैं। इनमें से शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं, शेष सास्रव हैं । ऐसा होते हुए भी आचार्य कुन्दकुन्द ने शुभोपयोगी की क्रियाओं का निषेध नहीं किया है, बल्कि उनकी कौन-कौन-सी क्रियायें प्रशस्त हैं, इसका प्रवचनसार में विस्तृत रूप से वर्णन किया है। अन्त में शुद्धोपयोगी की प्रशंसा में वे कहते हैं कि शुद्धपयोगी को श्रामण्य कहा है और शुद्ध को दर्शन तथा ज्ञान कहा है, शुद्ध के निर्वाण होता है, शुद्ध ही सिद्ध होता है, उसे नमस्कार हो। इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में श्रमणों की निर्दोष चर्या पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। उनके प्रवचनसार में श्रमणचर्या का जो यथार्थ चित्र प्राप्त होता है, वह अन्यत्र विरल है। १. वही, २२६. २. वही, २२७ (अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका). ३. वही, २२६. ४. वही, २३०, ५. आहारे व विहारे देसं कालं समं खमं उधि । जाणिता ते समणो वह दि जदि अप्पलेवी सो।।---वही २३१. ६. वही, २४३-४४. समसत्तु बंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।-वही २४१. प्रवचनसार-२४५. ६. वही, २४५-६८. १०. सुद्धस्स य सामण्णं भणियं सुद्धस्स दंसणं णाणं । सुद्धस्स य णिवाणं सो च्चिय सुद्धो णमो तस्स ॥-वही, २७४. Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिमाधारी श्रावक : एक परिचय D साध्वी श्री जतन कुमारी (युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या) "संति एगेहिं भिक्खूहिं गारत्था संजमोत्तरा" कुछ भिक्षुओं की अपेक्षा कुछ गृहस्थों का संयम श्रेष्ठ एवं अनुत्तर होता है । जो तीन करण और तीन योग से असत् प्रवृत्ति का परित्याग करता है, वह महाव्रती होता है। जो इनमें अपवाद रखता है, वह श्रावक होता है। ___ श्रावकों के अनेक स्तर हैं, उनमें भी एक स्तर प्रतिमाधारी श्रावक का है । प्रतिमा का अर्थ-विशेष त्याग व विशेष अभिग्रह है। प्रतिमाएं ग्यारह हैं जो निम्न प्रकार हैं : (१) दर्शन-प्रतिमा-समय-एक मास । विधि-एक मास तक निरतिचार (शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित) सम्यक्त्व का पालन करना। संसार के सर्व धर्मों को जानकर भी सम्यग्दर्शन में दृढ़ रहना, सम्यक्त्व के दोषों को वर्जना । सम्यग्दर्शनी किसी भी परिस्थिति में देव, गुरु और धर्म के अतिरिक्त और किसी को वन्दन, व्यवहार नहीं करता है । सगे-सम्बन्धियों से संलग्न जुहार आदि करना भी निषिद्ध है। क्योंकि संसार में रहता हुआ भी सांसारिक व्यवहारों से अलग रहता है । (२) व्रत-प्रतिमा-समय-दो मास । विधि-ग्रहण किये हुए अणुवत, गुणव्रत और शिक्षावतों का निरति- . चार पालन होता है। (३) सामायिक-प्रतिमा-समय-३ मास । विधि-प्रातः, मध्याह्न और सन्ध्या तीनों समय शुद्ध सामायिक एवं देशावकाशिक करता है । नवकारसी तथा पौरसी का क्रम चालू रहता है। (४) पौषध-प्रतिमा--समय-४ मास । विधि-अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या एवं पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध का पालन करना। (५) कायोत्सर्ग-प्रतिमा-समय-५ मास । विधि-इस प्रतिमा में श्रावक रात के समय कायोत्सर्ग करता है । पाँचवीं प्रतिमावाला (१) स्नान नहीं करता (२) रात्रिभोजन नहीं करता (३) धोती की लांग नहीं देता। (४) दिन में ब्रह्मचारी रहता है (५) रात्रि में मैथुन का परिमाण करता है। (६) ब्रह्मचर्य-प्रतिमा-समय-६ मास । विधि-पूर्व नियमों के अतिरिक्त इस प्रतिमा में श्रावक पूर्ण ब्रह्मचारी रहता है। (७) सचित्त-प्रतिमा-समय-७ मास । विधि-सचित्त आहार का सर्वथा त्याग होता है। (6) आरंभ-प्रतिमा-समय-८ मास । विधि-इस प्रतिमा में श्रावक सर्वथा आरम्भ-समारम्भ करने का त्याग करता है। सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि, बीज आदि का संघट्टा भी नहीं कर सकता। Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड (e) प्रेष्य-प्रतिमा-समय-९ मास । विधि-नौकर-चाकर आदि से भी आरम्भ, समारम्भ नहीं करवाना। (१०) उद्दिष्ट-वर्जक-प्रतिमा-समय-१० मास । विधि-इस प्रतिमा वाला श्रावक साधुओं की भांति उद्दिष्ट भोजन का परित्याग करता है। (अपने लिए बनाया हुआ भोजन आदि ग्रहण नहीं करता), बालों का क्षुर से मुण्डन करता है अथवा शिखा धारण करता है (चोटी रखता है) । घर सम्बन्धी प्रश्न पूछने पर “मैं जानता हूँ अथवा नहीं।" इन दो वाक्यों से अधिक नहीं बोलता। (११) श्रमणभूत-प्रतिमा-समय-११ मास । विधि-ग्यारहवीं प्रतिमावाला श्रावक शक्ति हो तो लोच करता है अन्यथा क्षुर से मुण्डन करता है । तीन करण और तीन योग से सावध कार्य का त्याग करता है, और साधुओं की तरह मुंहपत्ति, रजोहरण धारण करता है लेकिन रजोहरण की डण्डी खुली होती है। साधुओं का आचार-महाव्रत, समिति, गुप्तियों का निरतिचार पालन करता है। साधुओं की तरह गोचरी भी करता है किन्तु ज्ञाति वर्ग से उसका प्रेम बन्धन नहीं टूटता, इसलिए वह भिक्षा के लिए ज्ञातिजनों में ही जाता है। पर एषणा समिति का पूरा ख्याल रखता हुआ ४२ दोषों को टालकर भिक्षा ग्रहण करता है । पडिलेहणा आदि क्रियाएँ एवं भिक्षा विधि साधुओं के समान होने से ग्यारहवीं प्रतिमा को जैन आगमों में श्रमणभूत कहा है । वह मुनि के तुल्य होता है, पर मुनि नहीं। इन प्रतिमाओं का पालन करने वालों को प्रतिमाधारी श्रावक कहते हैं । इन सभी प्रतिमाओं में पाँच वर्ष और छ: मास का समय लगता है, और प्रथम प्रतिमाओं का त्याग यथावत् अन्त तक चालू रहता है। इन प्रतिमाओं में देव, मनुष्य और पशु, पक्षी सम्बन्धी उत्पन्न उपसर्गों को साधक "परिसह आय गुत्ते सहेज्जा" आत्मगुप्त होकर सहन करता है क्योंकि "देह दुक्खं महाफलं" साधना काल में दैहिक कष्टों को समता से सहन करना महान फलदायक है। Xxxxxxx xxxxxxxx xxxxxx xxxxxx त्याजो महत्तां हि बिति गुर्वी, गृह्णाति चेद् वास्तविक स्वरूपं । न द्रव्यतो गौरवमेति किचिद्, भावात्मकः सोऽतितरां विशिष्टः ॥ -वर्द्धमान शिक्षा सप्तशती (श्री चन्दन मुनि) X X X X X यदि त्याग वास्तविक-यथार्थ रूप में हो तो उसकी बहुत बड़ी महत्ता है। त्याग यदि केवल द्रव्य दृष्टि-बाह्यदृष्टि से हो तो उसका महत्त्व नहीं है, भावात्मक (आन्तरिक) त्याग की ही अत्यधिक विशेषता है। X X X X X X X X X X X X X X xxxxxxxx Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • + C + CD + € + 15 +B+C+B+C तेरापंथ-दर्शन मुनि श्री उदितकुमार ( युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य ) विश्व के दर्शनों में जैन दर्शन बहुत महत्त्वपूर्ण दर्शन हैं । जैन दर्शन ही तेरापंथ दर्शन है। जैन दर्शन की व्याख्या ही तेरापंथ दर्शन की व्याख्या है । तेरापंथ की स्थापना तत्कालीन साधु संस्थानों की शिथिलता को देखकर आचार्य भिक्षु ने की । आचार्य भिक्षु ने संवत् १८०८ में आचार्य रघुनाथजी के पास स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षा ली। कई वर्षों तक शास्त्रों का गहन अध्ययन किया, गहन अध्ययन कर लेने के पश्चात् उन्हें लगा कि वर्तमान का साधु समाज भगवान महावीर की वाणी के अनुसार नहीं चल रहा है। आचार्य भिक्षु ने शास्त्रों के आधार पर तत्कालीन साधु समाज की साधना से ३०६ बोलों का फर्क निकाला। उन्होंने संवत् १८१७ में बगड़ी में शुद्ध साधुत्व पालन के लिए अभिनिष्क्रमण किया । आचार्य रघुनाथजी ने समझाने की निष्फल चेष्टा की उन्होंने कहा- तुम्हें समय देखकर चलना चाहिये इस समय इतनी कठोर चर्या की बात किसी प्रकार से निभ नहीं सकती, अतः निरर्थक हठ छोड़कर मेरे साथ संघ में आ जाओ । 1 स्वामीजी ने कहा- समय के बहाने से शिथिलाचार को प्रश्रय देना उचित नहीं हो सकता। इस समय भी साधु-चर्या के कठोर नियम उसी प्रकार निभाये जा सकते हैं जिस प्रकार कि पहले निभाये जाते थे। इसी विश्वास के आधार पर हम लोग जिन-आज्ञा के अनुसार शुद्ध संयम पालना चाहते हैं। आप अगर ऐसे चलें तो आप गुरु और मैं बेला हूँ और जीवन भर रहूंगा। अगर मिथिलाचार में रहना है तो हमारा रास्ता अलग है ही आचार्य भिक्षु के शब्दों में ओज था, अतुल आत्मबल था । 1 आचार्य भिक्षु की विचार कान्ति के मूलभूत सूत्र हैं १. साध्य और साधन - आचार्य भिक्षु ने कहा- साध्य और साधन दोनों शुद्ध होने चाहिये । हमारा साध्य है मोक्ष और उसका साधन है—संबर और निर्जरा। इसके द्वारा ही मोक्ष प्राप्त होता है । साध्य हमारा शुद्ध हो और साधन अगर हिंसा, परिग्रह आदि अशुद्ध हों तो तो साध्य की प्राप्ति नहीं होगी, पाप कभी मोक्ष का साधन नहीं बन सकता । पाप भी यदि मुक्ति का साधन बन जावे तो पाप और मुक्ति में कोई भेद नहीं रहेगा । अतः ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के सिवाय कोई भी मुक्ति का उपाय नहीं है। इसलिए ये चार ही धर्म हैं। शेष सब बन्धन के हेतु हैं । वे मोक्ष के हेतु नहीं बन सकते । २. करण योग -- आचार्य भिक्षु ने कहा- जो कार्य करना साध्य के अनुकूल नहीं है, उसे करवाना व आचार्य भिक्षु की विचार - कान्ति Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ कर्मयोगी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ......................................................................... करने वाले का अनुमोदन करना भी साध्य के अनुकूल नहीं हो सकता ; करना, करवाना व अनुमोदन करना तीनों अभिन्न हैं। (क) जिस कार्य के करने में धर्म होता है तो उसके करवाने व अनुमोदन में भी धर्म है। ऐसा नहीं हो सकता कि करने में धर्म व करवाने व अनुमोदन करने में धर्म नहीं। (ख) जिस कार्य के करने में धर्म नहीं उसके करवाने व अनुमोदन में भी धर्म नहीं होता है । अहिंसा का पालन करना धर्म है, करवाना धर्म है और उसके पालन का अनुमोदन करना भी धर्म है। कुछ लोग कहते हैं-म रते हुए प्राणियों की रक्षा करना धर्म है। आचार्य भिक्ष ने कहा-धर्म का सम्बन्ध जीवन या मृत्यु से नहीं है। उनका सम्बन्ध संयम से है, त्याग से है। आत्मा के ऊँचा उठने से है। आचार्य भिक्ष ने कहा-किसी हिसक को उपदेश देकर उसे हिंसा से बचाना धर्म है । दबाव या प्रलोभन के बल से किसी को हिंसा से रोका तो वह आत्मधर्म नहीं है। चींटी चल रही है, हमने अपने पैर को हिंसा से बचने के लिये ऊँचा उठाया, हम हिमा से बच गये, इधर चींटी भी बच गई। धर्म हम हिंसा से बचे उसी में है । चींटी बची वह धर्म है तो दूसरे क्षण चींटी को चिड़िया ने मार दिया तो क्या हमारी दया मर गई ? हमारी दया हमारी वृत्तियों के साथ जुड़ी हुई है. चींटी के शरीर के साथ नहीं। यह आनुसंगिक परिणति है, सहज रूप में होती है। ३. आचार्य भिक्षु ने भगवान की आज्ञा के मानदण्ड से क्रियामात्र को मापा । भगवान् की आज्ञा जिस कार्य में है, मात्र उसी कार्य में धर्म है; क्योंकि जिस कार्य की भगवान की आज्ञा है, मुनि भी उस कार्य को कर सकता है और करा भी सकता है । उस कार्य का अनुमोदन भी कर सकता है। भगवान् की आज्ञा हमेशा ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा तप की वृद्धि के लिये ही होती है। शरीर-रक्षा और परिग्रह वृद्धि के लिये कभी भगवान् की आज्ञा नहीं होती। क्योंकि वह जिस कार्य का अनुमोदन नहीं कर सकता तो उसे कर भी नहीं सकता, करवा भी नहीं सकता। संयमी असंयम व उसके साधनों का अनुमोदन नहीं कर सकता, इसलिए असंयम धर्म नहीं है। मुनि संयम व उसके साधनों का अनुमोदन कर सकता है, इसलिए संयम ही धर्म है। दया की विशेष मीमांसा करते हुए आचार्य भिक्षु ने कहा-- जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हो हिंता मत जाण । मारणवाला ने हिसा कही, नहीं मारे हो ते दया गुण खाण ॥ जीव अपने आयुष्य-बल से जीता है, वह अहिंसा या दया नहीं है। कोई जीव स्वयं का आयुष्य क्षीण होने से मरता है, वह हिंसा नहीं है। मारने की प्रवृत्ति हिंसा है और न मारने की प्रवृत्ति का नाम दया है, अहिंसा है। उन्होंने दृष्टान्त देते हुए कहा--किसी ने गाजर खाने का त्याग लिया, अब गाजर मालन के टोकरे में बच गई, वह धर्म है या त्याग किया वह धर्म है ? अगर गाजर बची वही धर्म है ? तब तो किसी ने खरीदकर गाजर को खा लिया, क्या दया खत्म हो गई ? दया का सम्बन्ध गाजर के साथ नहीं आत्मा के साथ है। जो क्रिया किसी जीव को मात्र जिलाने के लिये होती है उसमें मोह और हिंसा की सम्भावना बनी ही रहती है। और जो क्रिया अपनी जीवनमुक्ति के लिए होती है वह संयम में परिणत हो जाती है। ५. आचार्य भिक्षु ने वैचारिक क्रान्ति के अन्तर्गत और भी कई सूत्र दिये जिनमें प्रमुख ये हैं--- (१) भगवान की आज्ञा में धर्म है, आज्ञा के बाहर नहीं। (२) धर्म त्याग में है, भोग में नहीं। (३) धर्म हृदय परिवर्तन में है दबाव में नहीं, प्रलोभन में नहीं। Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ-दर्शन ३०७ .-.-.-. -. -.-.-. -.-.-.-. -.-.-. -.-. -.-. -. -.-. -.-.-. -. -.-. -.-.-. -.-.-.-.-. .. (४) जीवों को मारकर जीव की रक्षा करना धर्म नहीं है। (५) असंयमी के जीने की इच्छा करना राग है। (६) उसके मरने की इच्छा करना द्वेष है। (७) उसके तिरने की इच्छा करना धर्म है। आचार्य भिक्षु की आचार-क्रान्ति आचार्य भिक्षु ने विचार-क्रान्ति के साथ आचार-क्रान्ति भी की। उन्होंने कहा-जो बात मुझे वर्तमान में साधना की दृष्टि से ठीक लग रही है, वही मैं करूंगा । जो बात भगवान् महावीर से चली आ रही है उन्होंने समय देखकर उनमें परिवर्तन भी किया। उनमें से प्रमुख धाराएँ ये हैं १. शिष्य परम्परा आचार्य भिक्षु शिष्य बनाने की प्रक्रिया को बहुत महत्त्व देते थे । वे हर किसी को दीक्षित बनाने के पक्ष में नहीं थे । अयोग्य दीक्षा पर उन्होंने कड़ा प्रहार किया। उस समय अयोग्य शिष्यों की बाढ़ आ रही थी, उसका प्रमुख कारण शिष्य परम्परा। अपने-अपने शिष्य बढ़ाने की होड़ में योग्य और अयोग्य की परीक्षा गौण हो जाती थी। येन-केन-प्रकारेण ज्यादा शिष्य हो जाये तो आचार्य बनने का अवसर मिल जाये, या अलग टोला भी बनाया जा सके। आचार्य भिक्षु ने इसकी जड़ को ही पकड़ लिया। उन्होंने उस पर दोनों ओर से नियन्त्रण किया। उन्होंने संवत् १८३२ के मर्यादापत्र (लिखत) में लिखा कि मेरे बाद आचार्य भारमलजी होंगे। तेरापन्थ में एक ही आचार्य होगा, दो नहीं हो सकेंगे। दूसरी ओर उन्होंने उसी मर्यादा पत्र में एक मर्यादा यह लिखी कि जो शिष्य बनाये वह भारमलजी के नाम से बनाया जाय । इन दोनों मर्यादाओं को बनाकर आचार्य भिक्षु अयोग्य दीक्षा की बाढ़ रोकने में सफल हुए। २. संघ व्यवस्था भगवान् महावीर के समय में नौ गण व ११ गणधर थे। उनकी समाचारी एक थी। उनका गण विभाजन व्यवस्था की दृष्टि से था। प्राचीन समय में साधु संघ में सात पद थे--(१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) गणी, (४) गणावच्छेदक, (५) स्थविर, (६) प्रवर्तक, (७) प्रतिनी। इनके द्वारा हजारों-हजारों साधु-साध्वियों का कार्य संचालन होता था। इनमे आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। उपाध्याय का काम है संघ में शिक्षा का प्रसार करना । एक व्यक्ति ने स्वामीजी से पूछा-आपके उपाध्याय कौन हैं। आचार्य भिक्षु ने कहा-कोई नहीं । उसने कहातो उपाध्याय के बिना संघ पूर्ण कैसे होगा। उन्होंने उत्तर दिया- संघ पूर्ण है । सातों पदों का काम में अकेला देख आचार्य भिक्षु ने आज के युग के सन्दर्भ में इस महावीरकालीन परम्परा को समाप्त किया। उन्हें ऐसा लगा कि यह पद परम्परा रहेगी तो संघ में एकता नहीं रहेगी। इसी कारण उन्होंने लिखा---- ''वर्तमान आचार्य अपने गुरु-भाई अथवा अपने शिष्य को उत्तराधिकारी चुने, उसे सब साधु-साध्वियाँ सहर्ष स्वीकार करें और सभी एक ही आचार्य की आज्ञा में रहे। __ इस मर्यादा का तेरापन्थ के आत्मार्थी साधु-साध्वियों ने बहुत ही निष्ठा से पालन किया है। आचार्य श्री तुलसी नवमे आचार्य हैं। इन्हें पूर्ववर्ती आचार्य श्री कालुगणी ने २२ वर्ष की अवस्था में अपना उत्तराधिकारी चुना। उस समय पांच सौ के लगभग साधु-साध्वियां थीं। उनमें बयःप्राप्त भी थे, विद्वान् भी थे, सभी प्रकार के थे फिर भी पूर्ववर्ती आचार्य को जितना सम्मान दिया गया, वही सम्मान आचार्य श्री तुलसी को संघ ने दिया । Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.....................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. __आचार्य भिक्षु ने आचार-क्रान्ति के अन्तर्गत और भी अनेकों सूत्र दिये। जिससे तेरापन्थ आज भी एक आचार, एक विचार, एक आचार्य पद्धति पर दृढ़ता से आगे बढ़ रहा है। आचार्य भिक्षु अपने लक्ष्य के धनी थे, चारित्रनिष्ठ थे। उन्होंने चारित्र-शुद्धि को सर्वाधिक महत्त्व दिया। आचार्य भिक्षु का संगठन केवल शक्ति प्राप्ति के लिए नहीं था। यह आचार-शुद्धि के लिए था। आचार्य भिक्षु की दृष्टि में आचार की भित्ति पर अवस्थित संगठन का महत्व है। उससे विहीन संगठन का कोई धार्मिक मूल्य नहीं है। Xxxxx XXXXX ये चासवास्तेऽपि परित्रवाः स्युः परिस्रवा आस्रवतां श्रयन्ति । गौणानि बाह्यानि निबन्धनानि, भावानुरूपौ किल बन्धमोक्षो ।। -वर्द्धमान शिक्षा सप्तशती (श्री चन्दनमुनि रचित) ---जो आस्रव हैं-कर्मबन्धन के हेतु हैं वे परिस्रव-कर्मों को काटन के हेतु बन जाते हैं। वैसे ही जो परिस्रव हैं, वे आस्रव बन जाते हैं। बाहरी वन्धन गौण हैं । वस्तुतः भावों के अनुसार ही बन्ध तथा मोक्ष होता है। X X X X X Xxxxx Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - . - . - . - . - . - . - . - . - . .... ...... .. .. . .... .. .......... .............. . तेरापंथ और अनुशासन मुनि श्री सुमेरमल "लाडनूं" (युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य) तेरापन्थ शब्द अन्य धर्म सम्प्रदायों के लिए अनुशासन का प्रतीक बन गया है। तेरापन्थ नाम दिमाग में आते ही आचार्य केन्द्रित सर्वात्मना समर्पित संस्थान का ढांचा सामने आ जाता है। सचमुच तेरापन्थ का मतलब ही है-अनुशासित धर्मसंघ । __ आचार्य भिक्षु की यह महान् देन है। उन्होंने अपने धर्म-संघ में प्रारम्भ से अनुशासन को स्थान दिया था। वे देख चुके थे-अन्य धर्म सम्प्रदायों की अनुशासनहीनता और उसके दुष्परिणाम । उनकी यह दृढ़ मान्यता थीबिना अनुशासन के सामूहिक व्यवस्था ठीक नहीं बैठ सकती और अव्यवस्था में कभी सम्यक्साधना सध नहीं सकती। मनमानी करने वाला उनकी दृष्टि में साधना नहीं कर सकता। जब तक मन पर नियन्त्रण नहीं होता, तब तक साधना में साधक स्थिर नहीं हो सकता। मनमानी रोकने के लिए ही उन्होंने कुछ अनुशासनात्मक मर्यादाएँ बाँधी । संवत् १८३२ में उन्होंने इस ओर अपनी लेखनी उठाई । प्रथम लेखपत्र में ही उन्होंने कई मर्यादाओं का निर्माण किया उनमें प्रमुख पाँच मर्यादाएँ हैं १. सर्व साधु-साध्वियाँ एक आचार्य की आज्ञा में रहें । २. विहार-चातुर्मास आचार्य की आज्ञा से करें। ३. अपना शिष्य-शिष्याएँ न बनायें । ४. आचार्य श्री योग्य व्यक्ति को दीक्षित करें, दीक्षित करने पर भी कोई अयोग्य निकले तो उसे गण से अलग कर दें। ५. आचार्य अपने शिष्य को उत्तराधिकारी चुने, उसे सब साधु-साध्वियां सहर्ष स्वीकार करें। इन मर्यादाओं ने व्यवस्था की दृष्टि से साधक को सर्वथा निश्चिन्त बना दिया है। कहाँ जाना ? कहाँ रहना? किसके साथ जाना? या किसे ले जाना ? ये सब आचार्य केन्द्रित व्यवस्थाएं हैं। हर साधक को आचार्य के निर्देशानुसार चलना होता है, फिर किसी प्रकार की कठिनाई नहीं । मर्यादाओं का औचित्य कहने को यह भी कहा जा सकता है, इन मर्यादाओं में जीवन बँध जाता है ; व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं रहता, हर दृष्टि से वह पराधीन बन जाता है। फिर साधु को मर्यादा की क्या जरूरत ? उसे तो मुक्त-जीवन जीना चाहिए। साधु साधक है, सिद्ध नहीं है । सिद्धों के मर्यादा नहीं होती, सर्वज्ञों के मर्यादा नहीं होती। जब तक छद्मस्थता है, तब तक जागरूकता अपेक्षित है। जागरूक रहने के लिए मर्यादाएँ प्रहरी को काम करती हैं। वह बहुत जरू मर्यादा में चलने का मतलब पराधीन बनना नहीं, अपने जीवन की व्यावहारिक व्यवस्था का भार अगर - U Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड किसी को सौंपकर निश्चिन्त भाव से साधना संलग्न बनता है, तो वह पराधीन नहीं होता है । अपने जुम्मे का कार्य किया और निश्चिन्त हुआ। दूसरों की चिन्ता तो नहीं, उसे अपनी चिन्ता भी नहीं । सारा दायित्व आचार्य पर सौंपकर साधक सचमुच हल्का हो जाता है, अतः मर्यादा में रहना, अनुशासन में रहना, आचार्य समर्पित होना, पराधीन बनना नहीं, अपने आपको निश्चिन्त बनाकर साधना संलग्न होने का मार्ग प्रशस्त करना होता है । तेरापन्थ में केवल मर्यादा का निर्माण ही नहीं हुआ है, उनके पालन के प्रति पूरी सजगता बरती जाती है । जहाँ मर्यादा का भंग हुआ, वहीं अनुशासनात्मक कार्यवाही की गई। एक बार आचार्य भिक्षु ने चंडावल में एक साथ पाँच साध्वियों को मर्यादा से अधिक वस्त्र रखने के कारण संघ से निष्कासित कर दिया था। तेरापन्थ में व्यक्ति का सवाल नहीं, मर्यादा का सवाल है, साधना का सवाल है । उस समय साध्वियों की संख्या बहुत कम थी फिर भी आचार्य भिक्षु ने चिन्ता नहीं की । इसी प्रकार चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जाचार्य ने एक साधु को संघ से इसलिये बहिष्कृत कर दिया कि संघ की मर्यादा के प्रति यह लापरवाह था। उस मुनि ने एक बार बिना आज्ञा लिये सुई वापिस भुला दी थी युवाचार्य श्री मपनामणि के पूछने पर कहा- हुई हो तो भी क्या खास बात की जो आज्ञा लेना पड़े। यों लापरवाही से उत्तर दिया । जयाचार्य प्रतिक्रमण में थे, प्रतिक्रमण के बाद उसे बुलाकर फिर पूछा तो उसी लापरवाही से उसने वहाँ उत्तर दिया । जयाचार्य ने कहा- प्रश्न सुई का नहीं है । प्रश्न है अनुशासन का प्रश्न है व्यवस्था का । उसके प्रति लापरवाही बरतने वाला संघ में कैसे रह सकता है ? उस मुनि ने फिर भी अपनी लापरवाही के प्रति कोई अनुताप नहीं किया । जयाचार्य ने उसे अनुशासनहीनता के कारण संघ से बहिष्कृत कर दिया था । तेरापन्थ की यह नीति रही है । यहाँ रुग्ण को स्थान है, प्रकृति से कठोर व्यक्ति को स्थान है किन्तु अनुशासनहीन को यहाँ स्थान नहीं है । आचार्य भिक्षु से लेकर अब तक यही क्रम अविच्छिन्न रूप से चल रहा है । तेरापन्थ की आचार्य परम्परा ही केवल अनुशासन के प्रति सजग नहीं है, साधु-साध्वियों की परम्परा भी इस ओर जागरूक है । किसी साध्वी को अनुशासनहीन होने ही नहीं देते, सब जानते हैं अनुशासनहीन होने का मतलब है सबकी दृष्टि में गिरना और अन्त में संघ से भी छूटना । तेरापन्थ के धावक-धाविकाएँ भी संघीय अनुशासन के प्रति पूर्णतः जागरूक हैं अनुशासनहीनता के विरुद्ध कठोर से कठोर कदम उठाते भी नहीं सकुचाते। मेवाड़ में देवरिया ग्राम के निवासी श्री जुहारमलजी के जीवन का भी ऐसा ही एक प्रसंग है- श्रावक जुहारमल संघनिष्ठ परम भक्त थे। एक बार वहाँ मुनि नथराजजी आये, जिनका चातुर्मास अन्यत्र फरमाया हुआ था । वे सम्त वहां जाना नहीं चाहते थे, वहीं देवरिया में ही चातुर्मासविताना चाहते थे किन्तु आचार्यश्री द्वारा उनका चातुर्मास घोषित दूसरे स्थान पर था । अतः धावकों में कुछ परस्पर चर्चा होने लगी सन्तों का मन विहार का कम है, बातचीत भी चलाते हैं तो कहते हैं घुटनों में दर्द है ऐसा दर्द लगता नहीं है, शौच-गोचरी के लिये इधर-उधर जाते ही हैं तो बिहार न हो ऐसा नहीं लगता । आखिर लोगों ने बिहार के लिये सन्तों से कहा । सन्तों के दर्द बताने पर लोगों ने स्पष्ट कहा - महाराज ! चातुर्मास आपका वहां फरमाया हुआ है अतः वहीं करना पड़ेगा घुटनों का दर्द इतना नहीं है, पंचमी (शौच के लिये आप बाहर पधारते ही हैं, ऐसे ही धीमे-धीमे बिहार कर लीजिये । गुरु आज्ञा है उसे तो पालना ही होगा । भावकों की स्पष्ट बातें सुनकर सन्तों ने विहार किया, किन्तु पैरों को टेसा रखते हुए बहुत कठिनाई से चलने लगे। सोचा होगा— शायद अब भी धावक देवरिया चातुर्मास के लिये कह दे तो वापिस चले जायें। पहुँचाने के लिए आये हुए लोगों को उनका चलना अस्वाभाविक लगा। तभी भीड़ में से श्रावक जुहारमलजी आगे आये और बोलेमहाराज ! हमारे ग्राम में इस वर्ष चातुर्मास किसी साधु-सतियों का नहीं है प्रार्थना भी काफी की थी, किन्तु पूज्य . Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ और अनुशासन ३११ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.................................................. गुरुदेव के वेंत न होने से चातुर्मास नहीं हुआ। किन्तु हम आपको यहाँ नहीं रख सकते । आपका चातुर्मास जहाँ फरमाया हुआ है, वहीं पर आपको करना होगा । सन्तों ने घुटने की ओर इशारा करते हुए कहा----दर्द है कैसे चलूं ? जुहारमलजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा---सुनो महाराज ! घुटने का दर्द तो बहाना मात्र है, वहाँ जाने की आपकी इच्छा नहीं है, ऐसा हमें लगता है। अपने संघ में ऐसा नहीं चल सकता। यहाँ तो गुरु-आज्ञा प्रधान है। अनुशासन प्रधान है। अत: या तो अच्छी तरह से विहार कर निर्णीत स्थान पधार जाइये, अगर ऐसा नहीं करना चाहते हो तो पुस्तक पात्र आदि संघ के हैं उन्हें तो यहाँ रख दीजिए फिर जहाँ मर्जी हो वहाँ जाइए, हमें कोई एतराज नहीं । यह सुनते वहाँ से सन्त ऐसे चले मानो घुटने में दर्द था ही नहीं। इस प्रकार तेरापन्थ के इतिहास के हर पृष्ठ पर हमें अनुशासन की छाप मिलेगी। साधु-साध्वियों के साथ धावक-श्राविकाएँ भी संघीय मर्यादा के प्रति, अनुशासन के प्रति सजग रहे थे और आज भी सजग हैं, अनुशासन भंग करने वालों को यहाँ सब ओर से टोका जाता है। चाहे बहुश्रुत भी क्यों न हो ? यही कारण है दो सौ वर्ष बीत जाने पर भी धर्मसंघ का अनुशासन वैसा का वैसा कायम है। जब तक अनुशासन कायम रहेगा, तब तक तेरापन्य प्रगति शिखर पर चढ़ता रहेगा । जन-जन का कल्याण करता रहेगा। XXXXXXX Xxxxxx न धावने काऽपि विशेषताऽऽस्ते, दिशावबोधो यदि नास्ति सम्यक् । निर्णीय गन्तव्यपथं यियासोः शनैः शनर्यानमपि प्रशस्तः । -वर्द्धमान शिक्षा सप्तशती (श्री चन्दनमुनि रचित) दिशा का सम्यक् बोध न हो और मनुष्य दौड़ता ही जाय तो उसमें क्या विशेषता है, उससे कोई साध्य सिद्ध न हो सकेगा। गन्तव्य पथ और प्राप्तव्य ध्येय का सम्यक रूप से निर्णय करके धीरे-धीरे भी गमन करे तो लक्ष्य को प्राप्त कर मकता है। Xxxxxx X X X X X X X Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cong on colo अणुव्रत और अणुव्रत आन्दोलन श्री सतीश चन्द्र जैन 'कमल' [जैन वासण भण्डार 'नागरवेल हनुमान' सुखरामनगर, अहमदाबाद-२१ (गुजरात)] आज संसार में एक बड़ी विचित्र बात देखने में आती है। हम पुराणों के जिस देवासुर संग्राम की चर्चा सुनते थे, वह आज प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। एक ओर मनुष्य विज्ञान की प्रगति के नाम पर विनाशकारी यन्त्रों के निर्माण एवं अनुसन्धान में पागल हो रहा है, दूसरी ओर वही मानव उनसे त्राण पाने के उपाय सोचने में व्यग्र है । वह उनका उपयोग अपने कल्याण के लिए करना चाहता है, विनाश के लिए नहीं । एक साथ घृणा और सहयोग के मार्ग पर चलता हुआ मानव आज जैसे खो गया है। जैसे अनन्त शक्ति की खोज में वह अशान्त होकर शान्ति की पुकार लगा रहा है । देवासुर संग्राम में जो स्थिति तब हुई थी, जब सागर से हलाहल का जन्म हुआ था, वही स्थिति आज दिखाई दे रही है । अमृत की खोज में जैसे मानव के हाथ में हलाहल ही आ गया है। इस हलाहल के अग्नि-दाह से सम्पूर्ण चराचर संत्रस्त है, लेकिन शंकर का कहीं पता नहीं लग रहा है। न जाने किस दिन उस नीलकंठ का उदय होगा और यह त्रस्त मानवता त्राण पा सकेगी और तभी अमृत का उदय होगा । गांधीजी का कहना था -- देश के लोग शुद्ध हों, सेवापरायण हों । वे स्वराज्य का भी ऐसा ही अर्थ करते थे । वे जीवन भर इसके लिए चेष्टा करते रहे। आज हमारे देश को स्वराज्य प्राप्त है, पर जो काम हो रहा है, उससे उतना लाभ नहीं होता, जितना लाभ होना चाहिए करोड़ों रुपयों का गबन हो रहा है। स्वानों पर लोग भाई-भतीजावाद में संलग्न हैं। बड़े खेद और राष्ट्रीय चिन्ता का विषय है कि हर विभाग में आज रिश्वतखोरी है, चोर बाजारी है। राष्ट्र में यह बहुत बड़ी व्याधि है । इसका असली कारण है, सच्चरित्रता का अधःपतन । हम आज स्वतन्त्र राष्ट्र की अट्टालिका बना रहे हैं, किन्तु उसके सिद्धान्तों को पक्का करना होगा। उसके सिद्धान्त हैं- सदाचार और सच्चरित्रता । अणुव्रत आन्दोलन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि संवत् २००५ में आचार्य श्री तुलसी छापर में पावस प्रवास कर रहे थे। एक दिन वहाँ उनके पास बैठे हुए कुछ व्यक्ति नैतिकता के विषय में बात कर रहे थे। उनमें से एक ने निराशा के स्वर में कहा- इस युग में नैतिकता कोई रख ही नहीं सकता । इस भाई के इन शब्दों से आचार्यश्री के मन में उथल-पुथल मच गई। उसी दिन प्रातःकालीन प्रवचन सभा में ऐसे पच्चीस व्यक्तियों की माँग की जो अनैतिकता के विरुद्ध अपनी शक्ति लगा सकें, नैतिक रह सकें। वातावरण में गम्भीरता छा गई। सहसा सभा में से कुछ व्यक्ति खड़े हुए और उन्होंने अपने नाम प्रस्तुत कर दिये। एक-एक कर २५ नाम आचार्यश्री के पास आ गये। उस दिन की यह छोटी-सी घटना ही अणुव्रत आन्दोलन के लिए नींव की प्रथम ईंट बन गई । . Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रत और अणुव्रत आन्दोलन ३१३ प्रारम्भ में केवल यही भावना थी कि जो लोग प्रतिदिन सम्पर्क में आते हैं, उनका नैतिकता के प्रति प्टिकोण बदले। फलस्वरूप जिन व्यक्तियों ने अपने नाम प्रस्तुत किये थे, उनके लिए नियम-संहिता बनाई गई एवं राजलदेसर में मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आदर्श श्रावक संघ के रूप में वह योजना जनता के सम्मुख रखी गई। इस योजना में भी सुधार के दरवाजे खुले रखे गये। धीरे-धीरे इस योजना के लक्ष्य को विस्तृत कर सबके लिए एक सामान्य नियम-संहिता प्रस्तुत की। फलस्वरूप सर्वसाधारण के लिए रूपरेखा निर्धारित हो गई और संवत् २००५ में फाल्गुन शुक्ला द्वितीया को सरदार शहर में आचार्य श्री ने अणुव्रत आन्दोलन का प्रवर्तन किया। इसी सन्दर्भ में आचार्यश्री की नव-सूत्री योजना और तेरह-सूत्री योजना के द्वारा लगभग तीस हजार व्यक्तियों को नैतिक उद्बोधन मिल चुका था। इस प्रकार अणुव्रत आन्दोलन के लिए सुदृढ़ भूमिका तैयार हो गई। प्रारम्भ में अणुव्रती व्यक्तियों के संगठन का नाम अणुव्रती संघ रखा गया। फिर एक सुझाव आया कि संघ संकुचित शब्द है, जबकि आन्दोलन अपेक्षाकृत मुक्त एवं विशाल भावना का परिचायक है। सुझाव मानकर इसका नाम अणुव्रती संघ से अणुव्रत आन्दोलन कर दिया गया। निर्देशक तत्त्व- इसके निर्देशक तत्त्व कुछ इस प्रकार निर्धारित किये गये :-.- १. अहिंसा-जैन धर्म अहिंसा की मूल भित्ति पर टिका हुआ है । अहिंसा जैन धर्म की आत्मा है। किसी को जान से न मारना ही अहिंसा नहीं है, अपितु किसी के प्रति मन में दुश्चिन्तन व खराब भावना नहीं करना भी अहिंसा है। किसी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग न करना, निर्दयतापूर्वक व्यवहार न करना, शोषण नहीं करना, रंग-भेद या भाषायी आधार पर किसी मनुष्य को हीन या उच्च नहीं समझना, सह-अस्तित्व में विश्वास रखना, किसी के अधिकारों का अपहरण न करना भी उच्च कोटि की अहिंसा है। २. सत्य-'सत्यमेव जयते नानृतम्' सत्य की ही जीत होती है, झूठ की नहीं। इस आदर्श वाक्य को जीवन में उतारकर यथार्थ चिन्तन करना एवं यथार्थ भाषण करना, दैनिक चर्या, व्यवसाय व व्यवहार में सत्य का प्रयोग करना कठिन अवश्य है, लेकिन सम्भव है । सत्याणुव्रती को अभय और निष्पक्ष रहना चाहिये और असत्य के सामने घुटने नहीं टेकने चाहिये। ३. अचौर्य-अचौर्य अणुव्रत का पालन करने वाले को दूसरों की वस्तु को चोरवृत्ति से नहीं लेना चाहिये । कठोर अचौर्य व्रत का पालन नहीं कर सकने वाले को कम से कम व्यवसाय व व्यवहार में प्रामाणिक रहकर एवं सार्वजनिक सम्पत्ति का अनावश्यक दुरुपयोग तो नहीं करना चाहिये। ४. ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचारी नीरोग बना रहता है। सामान्य व्यक्ति पूर्ण ब्रह्मचर्य की साधना नहीं कर सकता, अत: पुरुष पर-स्त्रीगमन एवं स्त्रियाँ परपुरुष के साथ मैथुन का तो परित्याग कर ही सकती हैं। इसी प्रकार पवित्रता का अभ्यास, खाद्य-संयम, स्पर्श-संयम एवं चक्षु-संयम भी ब्रह्मचर्य की ओर बढ़ने के संकेत हैं। ५. असंग्रह-प्रत्येक अणुव्रती का यह कर्तव्य है कि वह धन को आवश्यकता-पूर्ति का साधन माने। धन जीवन का लक्ष्य नहीं है। अनावश्यक सम्पत्ति का संग्रह करना समाज का शोषण एवं घोर अपराध है । अधिक नहीं तो कम से कम दैनिक उपभोग की वस्तुओं के अपव्यय से तो बचना ही चाहिये। वैचारिक पक्ष-व्रत एक आत्मिक अनुशासन होता है। वह ऊपर से थोपा हुआ नहीं है, अपितु अतर से स्वीकार किया हुआ होता है। अन्य का शासन परतन्त्रता का सूचक होता है। _व्रत से आत्म-शक्ति का संवर्धन होता है। दोषों के निराकरण का यह एक अचूक उपाय है। अणुव्रत आन्दोलन की पृष्ठभूमि व्रत ही है। . Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 666 ३१४ DIDISI कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड अणुव्रत आन्दोलन का एक ध्येय है-नैतिक मूल्यों का पुनरुत्थान । कार्य-पद्धति में देश-काल के अनुसार नवनव उन्मेष होते रहे। हिमालय की उपत्यकाओं से आने वाला निर्जर क्षेत्री अपेक्षाओं के अनुसार अनेक धाराओं में बहने लगा। अभियान को चरितार्थ करने में वैतिक चेतना ही पर्याप्त नहीं थी इसलिए वर्गीय कार्यक्रमों का आविर्भाव हुआ और वर्गीय नियमों का निर्मान हुआ इस आधार पर व्यापारियों विद्यार्थियों कर्मचारियों, महिलाओं आदि में व्यापक सुधार हुआ । अणुव्रत सब के लिए १. मैं चलने-फिरने वाले निरपराध प्राणी का संकल्पपूर्वक वध नहीं करूँगा । २. मैं न तो आक्रमण करूँगा और न आक्रामक नीति का समर्थन करूँगा । ३. मैं हिंसात्मक उपद्रवों एवं तोड़-फोड़मूलक प्रवृत्तियों में भाग नहीं लूंगा । ४. मैं मानवीय एकता में विश्वास रखूंगा (क) मैं जाति, वर्ण आदि के आधार पर किसी को अस्पृश्य या नीच नहीं मानूंगा । ( ख ) मैं सम्पत्ति, सत्ता आदि के आधार पर किसी को हीन या उच्च नहीं मानूंगा । ५. में सभी धर्म-सम्प्रदायों के प्रति सहिष्णुता रखूंगा। ६. मैं व्यवसाय व व्यवहार में सत्य की साधना करूँगा । ७. मैं चोर-वृत्ति से किसी की वस्तु नहीं लूंगा । 5. मैं स्वदार ( या स्वपति) सन्तोषी रहूँगा । C. मैं रुपये व अन्य प्रलोभन से मत ( वोट) न लूंगा और न दूंगा । १०. मैं सामाजिक कुरूढ़ियों को प्रश्रय नहीं दूंगा । ११. मैं मादक व नशीले पदार्थों का सेवन नहीं करूँगा । अणुव्रत : व्यापारियों के लिए १. मैं झूठा तौल माग नहीं करूंगा। २. मैं किसी चीज में मिलावट नहीं करूंगा । २. मैं चोरबाजारी तस्करी आदि) नहीं करूंगा। ४. मैं राज्य निषिद्ध वस्तु का व्यापार नहीं करूंगा । ५. मैं एक प्रकार की वस्तु दिखाकर दूसरे प्रकार की वस्तु नहीं दूंगा । अणुव्रत कर्मचारियों के लिए : १. मैं रिश्वत नहीं लूंगा । २. में प्राप्त अधिकारों से किसी के साथ अन्याय नहीं करूंगा । ३. मैं जनता और सरकार को धोखा नहीं दूंगा । अणुव्रत विद्यार्थियों के लिए १. मैं परीक्षा में अवैधानिक उपायों से उत्तीर्ण होने का प्रयत्न नहीं करूँगा। २. मैं तोड़-फोड़मूलक हिंसात्मक प्रवृत्तियों में भाग नहीं लूंगा । ३. मैं विवाह प्रसंग में रुपये आदि लेने का ठहराव नहीं करूँगा । ४. मैं धूम्रपान व मद्यपान नहीं करूँगा । ५. मैं बिना टिकट रेल यात्रा नहीं करूंगा । . Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रत और अणुव्रत आन्दोलन ३१५. अणुव्रत : महिलाओं के लिए १. मैं दहेज का प्रदर्शन नहीं करूंगी और न किसी के यहाँ दहेज देखने जाऊँगी। २. मैं अपने लड़के-लड़कियों की शादी में रुपये आदि लेने का ठहराव नहीं करू गी। ३. मैं आभूषण आदि के लिये पति को बाध्य नहीं करूंगी। ४. मैं सास-ससुर आदि के साथ कटु-व्यवहार होने पर क्षमा-याचना करूंगी। ५. मैं अश्लील व भद्दे गीत नहीं गाऊँगी। ६. मैं मृतक के पीछे प्रथा-रूप से नहीं रोऊँगी। ७. मैं बच्चों के लिए गाली या अभद्र शब्दों का प्रयोग नहीं करूंगी। अणुव्रत : शिक्षकों के लिए १. मैं विद्यार्थी के बौद्धिक विकास के साथ उसके चरित्र विकास का ध्यान रखेगा। २. मैं अवैध उपायों से विद्यार्थियों के उत्तीर्ण होने में सहायक नहीं बनेगा। ३. मैं अपने विद्यालय में दलगत राजनीति को स्थान नहीं दूंगा, और न इसके लिए विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करूंगा। ४. मैं मादक व नशीले पदार्थों का सेवन नहीं करूंगा। ५. मैं शिक्षा प्रसार के लिए प्रति सप्ताह एक घण्टा निःशुल्क सेवा दंगा। श्रमिक अणुव्रत १. मैं अपने कार्य में प्रामाणिकता रमूंगा। २. मैं हिंसात्मक उपद्रवों एवं तोड़-कोड़मूलक प्रवृत्तियों का आश्रय नहीं लूंगा। ३. मैं मद्यपान व धूम्रपान नहीं करूँगा तथा नशीले पदार्थों का सेवन नहीं करूंगा। ४. मैं जुआ नहीं खेलूंगा। ५. मैं बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, मृत्यु-भोज आदि कुरीतियों को प्रश्रय नहीं दूंगा। कृषक अणुव्रत १. मैं पारिश्रमिक वितरण में अवैध उपायों को काम में नहीं लघा । २. मैं अपने आश्रित पशुओं के साथ क्रूर व्यवहार नहीं करूंगा। ३. मैं समस्याओं के निदान के लिए हिंसात्मक तथा अवैधानिक उपायों को काम में नहीं लगा। ४. मैं विवाह व अन्य आयोजनों में अपव्यय नहीं करूँगा। ५. मैं मादक व नशीले पदार्थों का सेवन नहीं करूँगा। ६. मैं सामाजिक कुरूढ़ियों को प्रश्रय नहीं दूंगा। साहित्यकारों व कलाकारों के लिये अणुव्रत १. मैं साहित्य व कला का सर्जन केवल व्यवसाय-वृद्धि से नहीं अपितु सत्यं-शिवं-सुन्दरं की भावना से करूँगा। २. मैं अश्लील साहित्य व कला का सर्जन नहीं करूंगा। ३. मैं दलगत राजनीति एवं साम्प्रदायिक भावना से साहित्य व कला का सर्जन नहीं करूंगा। चुनाव आचार संहिता : मतदाता के लिए अणुव्रत १. मैं रुपये व अन्य प्रलोभन से मतदान नहीं करूंगा। २. मैं जाति-धर्म आदि के आधार पर मत नहीं दूंगा। at Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ३. मैं अवैध मतदान नहीं करूंगा। ४. मैं चरित्र व गुणों के आधार पर अपने मत का निर्णय करूंगा। ५. मैं किसी उम्मीदवार या दल के प्रति अश्लील प्रचार व निराधार आक्षेप नहीं करूंगा। ६. मैं किसी चुनाव-सभा या अन्य कार्यक्रमों में अशांति या उपद्रव नहीं फैलाऊँगा। उम्मीदवार के लिए १. मैं रुपये व अन्य प्रलोभन तथा भय दिखाकर मत ग्रहण नहीं करूगा । २. मैं जाति-धर्म आदि के आधार पर मत ग्रहण नहीं करूंगा। ३. मैं अवैध मत ग्रहण करने का प्रयास नहीं करूंगा। ४. मैं सेवा-भाव से रहित केवल व्यवसाय-बुद्धि से उम्मीदवार नहीं बनूंगा। ५. मैं अपने प्रतिपक्षी उम्मीदवार या दल के प्रति अश्लील प्रचार व निराधार आक्षेप नहीं करूंगा। ६. चुनाव-सभा या अन्य कार्यक्रमों में अशांति व उपद्रव नहीं फैलाऊँगा। ७. मैं निर्वाचित होने पर बिना पुनः चुनाव के दल-परिवर्तन नहीं करूगा । विधायक के लिए १. मैं विधान या कानून के निर्माण में निष्पक्ष रहूँगा। २. मैं किसी एक दल के टिकट से निर्वाचित होकर बिना पुनः चुनाव के दल-परिवर्तन नहीं करूंगा। ३. मैं विरोध के नाते विरोध और पक्ष के नाते पक्ष नहीं करूंगा। ४. मैं सदन की शिष्टता का उल्लंघन नहीं करूंगा। ५. मैं राष्ट्र की भावात्मक एकता के विकास में प्रयत्नशील रहूँगा। अन्तर्राष्ट्रीय आचार-संहिता १. एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण न करे । २. एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की भूमि व सम्पत्ति पर अधिकार करने की चेष्टा न करे । ३. एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की आन्तरिक व्यवस्था में हस्तक्षेप न करे । ४. एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के साथ मतभेद की स्थिति में समन्वय की नीति अपनाये । ५. निःशस्त्रीकरण का प्रयास हो । ६. एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर अपनी शासन पद्धति व विचारधारा को न थोपे । इस प्रकार अणुव्रत का यह विधान जीवन जीने की कला, नैतिक क्रांति का विचार-वाहक, सही सामाजिक मूल्यों का प्रतिष्ठापक, मानव की भावनात्मक एकता का मार्गदर्शक एवं विश्व शांति के सुन्दर समाधान रूप में आपके समक्ष समुपस्थित है। युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी द्वारा प्रवर्तित अणुव्रत आन्दोलन किसी एक समाज और वर्ग का नहीं, वह समस्त मानव समाज के हित के लिए है । देश में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि विभिन्न प्रकार के वर्ग हैं । सबके उपासना के प्रकार और उपास्य के नामों में भिन्नता है। उनके उद्देश्य भी भिन्न हो सकते हैं, किन्तु युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के प्रवचनों का सार यह है कि उपासना के प्रकार और भाषा में भिन्नता होते हुए भी व्यक्ति अपने धर्म को नहीं छोड़े । वह धर्म है-सत्य और अहिंसा । इस तथ्य में किसी का विरोध नहीं हो सकता। मन्दिर में जाकर भगवान की पूजा कर लेना तथा बड़े-बड़े तीर्थों की यात्रा कर लेना तो आसान है, किन्तु धर्म को जीवन-व्यवहार में स्थान देना बहुत कठिन है। व्यवहार में धर्म उतारे बिना यह अपने उपास्य के - U Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुव्रत और अणवत आन्दोलन अणुव्रत प्रति धोखा होगा । पूजा नहीं करने वाले का तो सम्भव है किसी प्रकार और कर्म प्रवंचक का कभी उद्धार नहीं हो सकता। यदि मानव समाज को को अपनाना होगा। हमें युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की आवाज को शक्ति देनी है, उनके हाथों को मजबूत करना उद्धार भी हो जाये किन्तु प्रात्म-प्रवंचक जीवित रखना है तो अणुव्रत के आदर्शों t है यद्यपि आचार्य श्री तुलसी स्वयं समर्थ है किन्तु सर्वसाधारण का समर्थन मिलने से उनके अभियान में और गतिशीलता आयेगी । ३१७ एक युग था, जब नैतिक मूल्यों की कोई चर्चा नहीं होती थी यह बात नहीं है कि उस समय मनुष्य के मन में दुर्बलताएँ नहीं थीं, बुराइयाँ नहीं थीं । पर उसका स्वरूप भिन्न था और बुराई के प्रतिकार का क्रम भी दूसरा था। धीरे-धीरे मनुष्यों के मन-विचार और प्रवृत्तियों में जो परिवर्तन हुए, उन्होंने नैतिक आन्दोलन की अपरिहार्यता अनुभव करा दी । अणुव्रत आन्दोलन भी उसी श्रृंखला की एक सशक्त कड़ी है। मनुष्य के मन की धरती पर विचारों की पौध उगती है । उस पौध में कहीं फूल खिले होते हैं, कहीं कांटे बिछे होते हैं । कभी वह पतझर की भाँति वीरान हो जाती है और कभी मधुमास की बहारों से भर जाती है। उसके किसी भाग में अन्धकार भरा है तो दूसरा उजालों से खिला हुआ है। मन की इस धरती पर केवल आरोह-अवरोह ही नहीं, द्वन्द्वों का जाल भी है। उस द्वन्द्वात्मक जाल को काटकर आगे बढ़ने के लिए नैतिक बल की अपेक्षा रहती है। जिस व्यक्ति के पास नैतिकता का पाथेय नहीं है, वह अपनी जीवन-यात्रा में श्रान्त और क्लांत हो जाता है। किसी भी क्षेत्र में गति करने के लिए नैतिक बल की नितान्त अपेक्षा रहती है। धर्म और अध्यात्म की फलबूति तो नैतिकता ही है, समाज और राजतन्त्र भी नैतिकता के प्रभाव से मुक्त रहकर अपनी नीति में सफल नहीं हो सकते । स्वयं अनुव्रत आन्दोलन के जनक युग-प्रधान आचार्य श्री तुलसी के शब्दों में, "आज बुद्धिवाद और वैज्ञानिक सुविधाएँ जिस रूप में बढ़ रही हैं, युग चेतना में सत्ता सम्पदा और आत्मख्यापन की भूख भी तीव्र होती जा रही है । इस भूख ने मनुष्य को इतना असहाय और किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया है कि वह इसकी पूर्ति के लिए उचितानुचित कुछ भी करने में झिझकता नहीं। इस स्थिति को नियन्त्रित करने के लिए वैयक्तिक और सामूहिक, दोनों स्तरों पर प्रयत्न करने की अपेक्षा है। अणुव्रत आन्दोलन का उद्देश्य दोनों ओर से काम करने का रहा है। भारत में अपनी श्रेणी का यह पहला आन्दोलन है जिसने व्यक्ति चेतना और समूह चेतना को समान रूप से प्रभावित किया है।" असाम्प्रदायिक आन्दोलन इस आन्दोलन का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही असाम्प्रदायिक रहा है सब धर्मों की समान भूमिका पर रहकर कार्य करते रहना ही इसने अपना श्रेय मार्ग चुना है। असम्प्रदाय भावना से अणुव्रत आन्दोलन को सबके साथ मिलकर तथा सबका सहयोग लेकर सामूहिक रूप से कार्य करने का सामर्थ्य प्रदान किया है। प्रथम अधिवेशन का आकर्षण अणुव्रत आन्दोलन का प्रथम वार्षिक अधिवेशन भारत की राजधानी दिल्ली में हुआ। पहले-पहल शिक्षित वर्ग ने उनकी बातों को उपेक्षा व उपहास की दृष्टि से देखा, पर आचार्य श्री की आवाज जनता की आवाज थी, उसकी उपेक्षा की नहीं जा सकती थी । उनकी बातों ने धीरे-धीरे जनता के मन को छुआ और आन्दोलन के प्रति आकर्षण बढ़ने लगा | अनैतिक वातावरण में मनुष्य जहाँ स्वार्थ को ही प्रमुख मानकर चलता है, परमार्थ को भूलकर भी याद नहीं करता, वहाँ कुछ व्यक्तियों का अणुव्रती बनना एक नया उन्मेष था । पत्रों की प्रतिक्रिया पत्रकारों पर उस घटना का बहुत अनुकूल प्रभाव हुआ। देश के प्रायः सभी दैनिक पत्रों ने बड़े-बड़े शीर्षकों से उन समाचारों को प्रकाशित किया। अनेक पत्रों में एतद्विषयक सम्पादकीय लेख भी लिखे गये। हिन्दुस्तान . Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ......................................................................... टाइम्स (नई दिल्ली), हिन्दुस्तान स्टेण्डर्ड (कलकत्ता), आनन्द बाजार पत्रिका, हरिजन सेवक, टाइम (न्यूयार्क) आदि पत्रों में प्रशंसात्मक निबन्ध प्रकाशित हुए। पत्रों में होने वाली उस प्रतिक्रिया से ऐसा लगता है कि मानो ऐसे किसी आन्दोलन के लिए मानव-समाज भूखा और प्यासा बैठा था । प्रथम अधिवेशन पर उसका वह स्वागत आशातीत और कल्पनातीत था। आन्दोलन का लक्ष्य पवित्र है, कार्य निष्काम है, अतः उससे हर एक व्यक्ति की सहमति ही हो सकती है। जब देश के नागरिकों की संकल्प शक्ति जागरित होती है, तब मन में मधुर आशा का एक अंकुर प्रस्फुटित होता है । भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद, भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन, भूतपूर्व प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू, यूनेस्को के भूतपूर्व डायरेक्टर जनरल डॉ० लूथर इवान्स, सुप्रसिद्ध विचारक काका कालेलकर, श्री राजगोपालाचारी, जे०बी० कृपलानी, हिन्दी जगत् के सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री जैनेन्द्र कुमार, श्रीमन्नारायण, श्रीमती सुचेता कृपलानी आदि कई नेताओं एवं विचारकों ने अणुव्रत आन्दोलन की मुक्तकण्ठ से सराहना की। आन्दोलन का मुख्य बल जनता है। उसी के आधार पर इसकी प्रगति निर्भर है। यों सभी दलों तथा सरकारों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ है। सबकी शुभकामनाएँ तथा सहानुभूति उसने चाही हैं और वे उसे हर क्षेत्र से पर्याप्त मात्रा में मिलती रही हैं। जन-मानस की सहानुभूति ही उसकी आवाज को गांवों से लेकर शहरों तक तथा किसान से लेकर राष्ट्रपति तक पहुँचाने में सहायक हुई है। आन्दोलन ने न कभी राज्याश्रय प्राप्त करने की कामना की है और न उसे इसकी जरूरत ही है। फिर भी राज्य सभा, लोकसभा, कई विधान सभाओं व विधान परिषदों में अणुव्रत-आन्दोलन विषयक प्रश्नोत्तर चले एवं प्रशंसा प्रस्ताव पारित हुए। विचार प्रसार के लिए साहित्य द्वारा जीवन-परिशोध की प्रेरणाएँ दी गईं। समय-समय पर विचार-परिषदों, गोष्ठियों, प्रवचनों तथा सार्वजनिक भाषणों का क्रम प्रचलित किया गया। परीक्षाओं का आयोजन प्रारम्भ किया गया। अणुव्रत विद्यार्थी-परिषदों की स्थापना की गई। केन्द्रीय अणुव्रत समिति की स्थापना भी आन्दोलन के क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। समिति द्वारा प्रचुर साहित्य का प्रकाशन किया गया और अणुव्रत नामक पाक्षिक पत्र का प्रकाशन निरन्तर कर रही है। नैतिक विचार क्रान्ति की आधारशिला लिए अणुव्रत का स्वर आन्दोलन के रूप में निखरा और आज यह अहिंसक समाज-व्यवस्था के अनुरूप सामाजिक एवं वैयक्तिक आदर्शों का प्रतीक बन गया है। अणुव्रत आज एक ऐसी आचार संहिता है जो राष्ट्रनायकों, साहित्यकारों एवं विचारकों की दृष्टि में जन-जन के लिए व्यवहार्य है। स्वस्थ समाज-निर्माण की यह आधारभूत चरित्र-रेखा है। इस प्रकार अणुव्रत आन्दोलन आज के भारत के पतनोन्मुख समाज का एकमात्र उद्धारक एवं पथ-प्रदर्शक है। इसमें राष्ट्रीय जीवन को एक नूतन स्वास्थ्यकर और ऊर्ध्वगामी दिशा में अग्रसर करने की प्रबल शक्ति है। हम आशान्वित हैं कि यह आन्दोलन और अधिक विकसित होगा तथा जन-जन के लिए भाग्य बनेगा, अस्तु । Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन में मानववादी चिन्तन 1] श्री रतनलाल कामड़ [ग्राम पोस्ट-चंगेड़ी, तहसील-मावली, जिला--उदयपुर (राज.)] मानववादी-दार्शनिक परम्परा में जैन-दर्शन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस दर्शन में मानव-कल्याणपरक इहलौकिक-मूल्यों का विशद एवं वैज्ञानिक परिशीलन प्रस्तुत किया गया है, जैसे : मानव व उसकी कर्तव्य-परायणता, मानव-मात्र की समानता व उसका विशाल गौरव, चारित्रिक-शुद्धि, स्त्री व शूद्रों का समाज में उचित स्थान, सर्वमंगल की भावना, हिंसक प्रवृत्ति का प्रबल विरोध, प्राकृत : जन-भाषा का प्रयोग, समाजवादी प्रेरणा, सुदृढ़ व स्वच्छ आर्थिक व्यवस्था, विश्व-बन्धुत्व की भावना, आध्यात्मिक व लौकिक मूल्य, भौतिकवादी (जड़वाद) मूल्य, नैतिक दर्शन, रत्नत्रय, पंचमहाव्रत व ईश्वर का मानवीयकरण आदि मानववादी चिन्तनाओं पर विचार-दर्शन प्रस्तुत किया गया है। यहाँ कुछ तथ्यों का संक्षिप्त अध्ययन इस प्रकार है १. मानव और उसका गौरव जैन दर्शन में मानव-जन्म की महत्ता को अंगीकार किया गया है। यह मानव-जीवन मंगल का प्रतीक है क्योंकि वह अनेक मंगल-कर्मों को सिद्ध करने वाला सर्वशक्तिमान सत्य है। भगवान महावीर ने मानव की गरिमा को सहर्ष स्वीकार किया है : “जब अशुभ-कर्मों का विनाश होता है तभी आत्मा शुद्ध, निर्मल और पवित्र होती है, और तभी उसे मानव-जन्म की प्राप्ति होती है।"१ यह मानव-जीवन भरसक प्रयत्न के पश्चात् ही प्राप्त होता है, यहाँ भगवान् महावीर के पावन-उद्गारों को उद्धृत करना उचित है : “सांसारिक जीवों को मनुष्य का जन्म चिरकाल तक इधर-उधर भटकने के पश्चात् बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है, वह सहज नहीं है। दुष्कर्म का फल बड़ा भयंकर होता है। अतएव हे ! गौतम ! क्षण भर के लिए भी प्रमाद मत कर"। यहाँ भगवान महावीर ने मानवमात्र को सर्वश्रेष्ठ कर्म करने के लिए उपदेश दिये हैं, जिससे मानव अपने परमध्येय को प्राप्त कर सके । २. मानव और उसका कल्याण जैन दर्शन में मानव-मूल्यों को महत्ता प्राप्त हुई है, जो आत्मा की निर्मलता, सत्यवादिता, अहिंसा व प्रेम आदि तथ्यों पर अवलम्बित है । मानव ही एक ऐसी विरासत है, जो अमूल्य नैतिक-मूल्यों का सृजक है, उपभोक्ता है । वह शुभ-अशुभ-मूल्यों का उत्तरदायी है। इस दर्शन में जीवन का परम ध्येय-कामनाओं का परित्याग एवं आत्मशुद्धि १. कम्माणं तु पहाणाए, आणुपुब्बी कयाइ उ। जीवा सोहिमणुप्पत्ता आययंति मणुस्सयं ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र ३. ७. २. दुल्लहे खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सव्वपाणिणं । गाढा य विवाग कम्मुणो, समयं गोयम ! मा पमायए ।।--उत्तराध्ययन सूत्र १०.४. Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ३२० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड स्वीकार किया गया है। यह समाजवादी चिन्तना का सर्जक है, जो वर्ण-भेद, रंग-भेद व लिंग-भेद आदि अमानवीय दुष्प्रवृत्तियों का निराकरण करने की योजना प्रस्तुत करता है। जैन-दार्शनिकों ने चारित्रिक-श्रेष्ठता, शुद्धता, अहिंसा, प्रेम, करुणा, विश्व-मंगल, सहभाव एवं समानता आदि मानवीय गुणों को अंगीकार कर, उसे मानवोपयोगी सिद्ध किया है। यह न केवल मानव की मंगल-कामना का इच्छुक है, अपितु प्राणीमात्र के लिए मंगल-भावना प्रस्तुत करता है। जैन-दर्शन मानव को पाँच नियमों का सदुपदेश देता है—अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह ।। ये पांच तत्त्व मानव को कल्याण-पथ पर चलने को प्रेरित करते हैं । वह रत्न-त्रय को मोक्ष व मानव-व्यक्तित्व में पूर्ण सहायक स्वीकार करता है । यह एक अहिंसावादी चिन्तना का सर्जक है जो विश्वकल्याण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । अहिंसा मानव का सुन्दर आभूषण है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं- "हे गौतम ! जीव की दया, संयम, मन, वचन व काया से शुद्ध ही मंगलमय की संज्ञा है।" मानव का कल्याण सम-दृष्टि से ही सम्भव है । "हमें सबको, समस्त प्राणियों को, चाहे वे मित्र हों या शत्रु और किसी भी जाति के क्यों न हों, समान दृष्टिकोण से देखना चाहिये । इस समतावादी सिद्धान्त में मैत्रीभावना को पर्याप्त बल मिला है, अन्यथा मानव का मानव के प्रति कोई सम्बन्ध न होता। जैन-दर्शन में मानव का परम लक्ष्य परमार्थ को अंगीकार किया गया है। वह आत्मकल्याण, सामाजिककल्याण व उनके हितों पर भी आवश्यक बल प्रदान करता है । मानव की परोपकार-भावना से ही आत्म-विकास व सद्-भावना का प्रसार होता है। जैन-दर्शन समाजवादी विचारधारा का पोषक है। व्यक्ति अपने गुण, कर्म व स्वभाव से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र कहा जा सकता है, न कि मात्र जन्म से । इस दर्शन में मानव-जाति की एकता, प्राणीमात्र की समता, समाज-कल्याण, नीति-संवर्द्धन तथा आचार-विचार की श्रेष्ठता पर बल दिया है। समाज में वर्ग-संघर्ष आदि अमानवीय-प्रवृत्तियों से बचने का आदेश दिया है, जो मानवमात्र के लिए हितकारी हैं। ३. मानव और आध्यात्मिक मूल्य जैन-दर्शन की यह मान्यता है कि मानव का व्यक्तित्व संस्कारों के आवरण से प्रभावित रहता है। इन संस्कारों के प्रभाव कम होने पर ही आत्मा में ज्ञान, सुख व शक्ति की अभिवृद्धि होती है। यह दर्शन आत्म-ज्ञान पर पर्याप्त बल देता है जो नैतिक व आचार-मूल्यों से ही प्राप्त होता है। उसकी उद्घोषणा है कि आध्यात्मिक साधना व उसके अनुशासन से ही मानव का कल्याण संभव हो सकता है । अत: मानव की आध्यात्मिक धरोहर को न केवल जैनदर्शन ही स्वीकार करता, अपितु सभी भारतीय दार्शनिक सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं। १. (i) अहिंसा परमो धर्मः । (ii) जैनदर्शन में अहिंसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है, भारतीय चिन्तन-परम्परा में यही एक ऐसा सम्प्रदाय है, जो अहिंसा-दर्शन की वैज्ञानिक व मानवोपयोगी चिन्तना प्रस्तुत करता है । उसकी उद्घोषणा है कि "अहिंसा शक्ति शाली की ताकत है, दुर्बल की नहीं।" २. हिसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योविरतिव्रतम् । -तत्त्वार्थसूत्र ७१ ३. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष-मार्गः । -तत्त्वार्थसूत्र ७१ ४. उत्तराध्ययन अ० १६, गा० २६. ५. वही, अ० २५, गा० ३३. ६. Jainism and Democracy : Dr. Indra Chandra Shastri, p. 40. ७. भारतीय दर्शन, आचार्य बलदेव उपाध्याय, पृ० १५० 5. The Concept of Man : Radhakrishnan and P. T. Raju, p. 252. ० . Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदर्शन में मानववादी चिन्तन जैन दर्शन में जीव या आत्मा की सत्ता स्वीकार की गई है। उसके जीव और बद्धजीव जिन्होंने बल्य को हासिल कर लिया, वे मुक्त जीव आबद्ध हैं, वे बद्धजीव हैं। बद्धजीव के दो भेद हैं--त्रस और स्थावर जीव । स्थावर-जीवों में केवल स्पर्श-ज्ञान की सत्ता होती है । स्थावर-जीव में शरीर जीवों में न्यूनाधिक विकास की अवस्था पायी जाती है। उनमें भी क्रमश: जैसे घोषा, पिपीलिका, भ्रमर, मनुष्य, पशु व पक्षी आदि । ४. मानव और उसकी जीवात्मा 1 अनुसार आत्मा के दो भेद हैं-मुक्तजो अभी तक सांसारिक आसक्ति में त्रस जीवों में क्रियाशीलता होती हैं, जबकि का पूर्ण विकास नहीं होता है, जबकि सदो, तीन, चार व पाँच इन्द्रिय जीव होते हैं, है जैन दर्शन में चैतन्य द्रव्य को जीव या आत्मा की संज्ञा दी गयी है ।' संसार के प्रत्येक जीव में चैतन्य की सत्ता उपलब्ध होती है । प्रत्येक जीव स्वभावतः अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त सामर्थ्य आदि अलौकिक गुणों से सम्पन्न होता है । सभी जीवों में चैतन्य विद्यमान रहता है, किन्तु प्रत्येक जीव में उसकी मात्रा व विकास भिन्न-भिन्न होता है । सिद्ध आत्माओं में सबसे अधिक चैतन्य की सत्ता रहती है। सिद्ध जीव सर्वश्रेष्ठ व पूर्णज्ञानी होते हैं। सबसे निम्न एकेन्द्रिय जीव होते हैं, वे क्षिति, जल, अग्नि, व वायु में रहते हैं। इन जीवों में चैतन्य सीमित या अस्पष्ट होता है। स जीवों में दो से पाँच तक इन्द्रियाँ होती हैं, जैसे कृमि, पिपीलिका, भ्रमर व मनुष्य आदि 1 ३२१ जीव शुभाशुभ कर्मों का कर्ता एवं फल का भोक्ता है। सुख-दुःख का भोक्ता होता है वह स्वयं को प्रका शित करता व परिणामी है । शरीर से पूर्णतया पृथक् है, चैतन्य ही उसका बड़ा सबसे प्रमाण है । वह दीपक के प्रकाश की भांति संकोच व विकासशील प्रवृत्ति वाला है। हस्ती के शरीर में स्थित जीव विशालकाय एवं चींटी में रहने वाला अल्पकाय होता है । ५. मानव और कैवल्य जीव व पुद्गल का संयोग बन्धन और वियोग मोक्ष की संज्ञा है । 3 जीव का स्वरूप नित्य शुद्ध है । वह ऊर्ध्वगमन करता है, यह उसका स्वभाव है। किन्तु कर्मों के आवरण के कारण वह ऊपर गति न करके, इस संसार में ही रह जाता है । परन्तु ज्यों-ज्यों अज्ञान के आवरण ( क्रोध, मान व अभिमान) को त्रिरत्न द्वारा नष्ट कर देता है, तभी जीव का ऊर्ध्वगमन होता है। वह जीव उठकर सिद्ध-शिला को प्राप्त कर लेता है। यही जीव की कैवल्य अवस्था है । अतः जीव का पुद्गल से अलग होना ही मोक्ष है। इन पुद्गलों का वियोग त्रि-रत्न व पंचमहाव्रत की सहायता से ही संभव है। ६. मानव और जड़वाद जैन दर्शन में जड़वाद का महत्वपूर्ण स्थान है जिसे अजीववाद भी कहते हैं। इसके निम्न पाँच वर्ग हैं-पुद्गल, आकाश, काल, धर्म व अधर्म । १. चैतन्यलक्षणो जीवः । षड्-दर्शन समुच्चय, कारिका ४९ २. भारतीय चिन्तन का इतिहास, डा० श्रीकृष्ण ओझा, जयपुर, ११७७, ०५५ ३. मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतुनां निरोधेऽभिनवकर्माभावा निर्जरा हेतुसन्निधानेनाजितस्य कर्माणो निरसनादात्यन्तिक्कर्ममोक्षणं मोक्षः । ४. अबोधात्मस्त्वजीवः । सर्वदर्शनसंग्रह, माधव, वाराणसी, १६७८, पृ० १४३ । सर्वदर्शनसंग्रह, माधव, वाराणसी, १६७८, पृ० १६७. B . Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड (क) पुद्गल जिसका संयोग व विभाजन हो सके, उसे पुद्गल कहते हैं।' वे स्पर्श, रस, गन्ध व वर्ण गुण वाले होते हैं। वे दो प्रकार के होते हैं-अणु (Atomic) और स्कन्ध (Compound) । अणु सबसे छोटा भाग है, जिसका विभाजन असम्भव है, जबकि स्कन्ध दो या उससे अधिक अणुओं से निर्मित होता है। (ख) आकाश आकाश तत्व प्रत्यक्षगम्य नहीं है, यह अनुमान द्वारा सिद्ध होता है। वह सभी अस्तिकाय--द्रव्योंजीव, पुद्गल, धर्म व अधर्म को अवकाश प्रदान करता है। बिना आकाश के इन अस्तिकाय-द्रव्यों की स्थिति असम्भव है। क्योंकि द्रव्य आकाश को व्याप्त करता है और आकाश द्रव्य के द्वारा व्याप्त होता है । जीव, धर्मादि तत्त्वों को आश्रय देने वाले आकाश को लोकाकाश कहते हैं। जहाँ उक्त द्रव्य हो, उसे अलोकाकाश कहते हैं। लोकाकाश में असंख्य प्रदेश होते हैं, जबकि अलोकाकाश में अनन्त । (ग) काल __आकाश-तत्त्व की तरह काल भी प्रत्यक्षगम्य नहीं होने से, यह भी अनुमान पर ही आधारित है। द्रव्यों की वर्तना, परिणाम, क्रिया, नवीनत्व, या प्राचीनत्व काल के कारण ही सम्भव होती है। द्रव्यों के अस्तित्व से ही काल की सत्ता सिद्ध होती है। इसकी विभिन्न अवस्थाएं हैं। जैसे-घण्टा, मिनट, दिन व रात्रि आदि । काल भी अणु कहलाता है। यह प्रदेश को व्याप्त करता है, इसलिये इसका कोई कार्य नहीं है । ये अणु समस्त लोकाकाश में व्याप्त रहते हैं, ये परस्पर मिलते भी नहीं हैं। ये अदृश्य, अमूर्त, अक्रिय व असंख्य होते हैं। (घ) धर्म जैन-दर्शन में स्वीकृत धर्म की कल्पना नितान्त भिन्न है। यह स्वयं जीव को गति प्रदान करने में असमर्थ है, किन्तु उसके लिए उचित वातावरण का निर्माण करता है। जिस प्रकार जल में तैरने वाली मछली के लिए जल सहायक होता है, उसी प्रकार धर्म भी जीव-पुद्गल द्रव्यों को गति में सहायक होता है । (ङ) अधर्म अधर्म का प्रमाण स्थिति है । वह द्रव्यों की स्थिति में सहायक होता है। जिस प्रकार थके पथिक के लिए वृक्षों की शान्त व सुखदायी छाया मदद करती है, उसी प्रकार अधर्म भी द्रव्यों की स्थिति में सहायक सिद्ध होता है। यहाँ छाया व स्थिति क्रमशः पथिक व द्रव्यों को बाध्य नहीं करती हैं, अपितु सहायता मात्र करती हैं। यहाँ अधर्म की कल्पना धर्म के एकदम विरुद्ध मान्यता प्रस्तुत करती है। ७. मानव और उसके लौकिक-मूल्य जैन-दर्शन में जहाँ पारलौकिक-तथ्यों का विशद विवेचन प्राप्त होता है, वहाँ इहलौकिक-तथ्यों का भी वैज्ञानिक विश्लेषण उपलब्ध होता है । इस दार्शनिक सम्प्रदाय का उद्भव ही मानव की इहलोकवादी चिन्तना से हुआ १. पूरयन्ति गलन्ति च"....." । --सर्वदर्शन संग्रह, माधव, वाराणसी, पृ० १५३. २. पड्-दर्शनसमुच्चय, गुणरत्न की टीका-४६. ३. वर्तना-परिणाम-क्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य । -तत्त्वार्थाधिगम सूत्र-५.२२. ४. धर्मादीनां गत्यादिविशेषाः । -सर्वदर्शनसंग्रह, माधव, वाराणसी, १६७८, पृ० १५४. . Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन में मानववादी चिन्तन ३२३ -.-.-.-.-... -.-.-. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -. -. -. -. -.-.-.-. -. -.-. -. -. -.-. .. है । इस दर्शन में मानवमात्र को कर्तव्यपरायणता का उपदेश दिया गया है। मानव का इहलौकिक विकास करना ही समाज व राष्ट्र के लिए हितकर है । यह प्रत्यक्ष-प्रमाण, जड़वाद, ज्ञान की महत्ता, रत्न-त्रय, सुदृढ़ आर्थिक-व्यवस्था, परमाणवाद, पंच महाव्रत व सदाचार आदि मानवोपयोगी मान्यताओं का अध्ययन प्रस्तुत करता है। (क) प्रत्यक्ष-प्रमाण मानव को बिना किसी सहायता से प्राप्त होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है। इसके दो भेद हैं-मतिज्ञान व श्रुतज्ञान। दृश्य-वस्तु का सम्पूर्ण बोध ही मतिज्ञान है और आगमों के आप्त-वचनों से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान का प्रत्यक्ष चार प्रकार से होता है -अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। (ख) जड़वाद जैनदर्शन में जड़वाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह भौतिकवादी चिन्तना का आधार स्तम्भ है । इसके पाँच भेद हैं-पुद्गल, आकाश, काल, धर्म व अधर्म । (ग) ज्ञान की महत्ता अज्ञान ही समस्त कषायों का कारण है, जिससे मन की बगिया में क्रोध, मान, माया व लोभ की दुर्गन्ध उमड़ती है। इस अज्ञान की दुर्गन्ध का नाश ज्ञान की खुशबू से ही सम्भव है। इस समस्या के निराकरण के लिए ही रत्न-त्रय की सृष्टि हुई। (घ) रत्न-त्रय मानव को अज्ञान से ज्ञान की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना चाहिए। जिससे वह दुःखों से मुक्त होकर अमोघ आनन्द का उपभोग कर सके । इसके लिए तीन रत्नों-सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान व सम्यक्-चारित्र की आवश्यकता प्रतीत हुई। (ङ) पंच-महाव्रत मानव की चारित्रिक शुद्धि के लिए पाँच महाव्रतों की आवश्यकता पर बल प्रदान किया गया है। वे निम्न हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह । अहिंसा अहिंसा जैन-दर्शन का प्रमुख सिद्धान्त है । इसका तात्पर्य है-मन, वचन, कर्म से किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देना । अहिंसा मानव की आत्म-शक्ति का प्रमाण है जबकि हिंसा शारीरिक-शक्ति का। सत्य सत्य-वचन से मनुष्य को लोभ, भय व क्रोध का डर नहीं रहता है। अत: मानव को सत्य व हितकारी वचनों का प्रयोग करना चाहिए। अस्तेय धन मानव की बाह्य-सम्पदा है । अतः धन की चोरी जीवन की चोरी के समान है। इसलिए मनुष्य मात्र को किसी प्रकार का चौर्य-कर्म नहीं करना चाहिए। जैन-दर्शन के अस्तेयवाद के कारण ही स्वच्छ-पूजीवाद को प्रबल प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। ब्रह्मचर्य मानव को सभी प्रकार की वासनाओं का परित्याग करना चाहिए। अत: मानव को मन, वचन और कर्म से कामनाओं का त्याग करना चाहिए। यह सिद्धान्त स्वस्थ संयम का आदेश प्रदान करता है। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ..-. -.-.-. -. -.-. -.-. -. -. -. -.-. -. -. -. .... ......... .... .. .... .... ...... .. ... अपरिग्रह मानव को सांसारिक-वस्तुओं का अधिक संग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि संग्रह-प्रवृत्ति से अनेक प्रकार की सामाजिक समस्याएँ पैदा होती हैं। इस सिद्धान्त ने सुन्दर समाजवादी चिन्तन को व्यक्त किया है, जो आधुनिक समय में अति-महत्त्वपूर्ण है। (च) मानव और परम सत्ता ईश्वर कोई प्रत्यक्ष सत्ता नहीं है, अतः जैन-दर्शन में ईश्वर जैसी कल्पित सत्ता को अस्वीकार किया है । वे सिद्धस्थ तीर्थंकरों की आराधना पर बल प्रदान करते हैं, उसे ही परम सत्ता या ईश्वर स्वीकार करते हैं । अत: जैनदर्शन में परम सत्ता के स्थान पर तीर्थकरों की पूजा व उपासना पर बल देकर मानवीय गौरव को सहर्ष स्वीकार किया गया है। यह मानववादी अर्थवत्ता का सुन्दर व अद्वितीय प्रमाण है। ८. मानव और उसकी आचार-पद्धति जैन-दर्शन के पूर्व तत्कालीन भारत में अनेक दुष्प्रवृत्तियाँ अमानवता का नग्न-अट्टहास कर रही थीं। ऐसे भीषण-समय में मानव मूल्यों की सुरक्षा करने के लिए अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये थे, जैसे-वैदिक आदर्श व उनके कर्म, पुरोहितों के आडम्बरयुक्त कर्म, हिंसा, अन्याय, जातिवाद, छूआ-छूत, परलोकवाद, यज्ञों में बलि, साम्प्रदायिकता, धार्मिक-ढोंग, असत्य-भाषण, चोरी, संग्रह-वृत्ति, स्त्री व शूद्रों का शोषण, संस्कृत-भाषा का प्रचलन, राष्ट्रीयता का अभाव व मिथ्या अन्धविश्वास आदि अमानवीय-मूल्यों का विरोध । ये सभी कीटाणु मानव-मूल्यों को नष्ट करके समाज की जड़ को खोखला कर रहे थे। जैन आचार्यों ने इनके विरुद्ध कदम उठाया। भगवान् महावीर ने मानव को उपदेश दिया-"किसी भी प्राणी को सताओ मत । जीओ और जीने दो। दया करो।" उन्होंने मानवकल्याण के लिये अनेक उपदेश दिये, उनमें से कुछ इस प्रकार हैं-रत्न-त्रय, सप्त-पदार्थ, पंच-महाव्रत व कैवल्य की प्राप्ति आदि। जैन-दर्शन में अज्ञान से मुक्ति के लिए तीन साधन बतलाये गये हैं, जिन पर चलकर मानव अज्ञान से ज्ञान की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होकर आनन्द की प्राप्ति कर सकता है। वे निम्न हैं—सम्यक्-दर्शन, सभ्यज्ञान व सम्यक्-चारित्र। (क) सम्यक्-दर्शन यथार्थ-ज्ञान के प्रति श्रद्धा सम्यक्-दर्शन कहलाती है। इसका तात्पर्य वास्तविक ज्ञान से है, न कि अन्धविश्वास से । जैन-दर्शन युक्ति-प्रधान दर्शन का समर्थक है, वह युक्ति-रहित किसी भी दार्शनिक मान्यता को स्वीकार नहीं करता है । यहाँ आचार्य हरिभद्र का कथन उद्धृत करना उचित ही होगा-"न मेरा महावीर के प्रति कोई पक्षपात है और न कपिल या अन्य दार्शनिकों के प्रति द्वेष ही है । मैं युक्ति-संगत वचन को ही स्वीकार करता हूँ, वह चाहे जिस किसी का हो ।” (ख) सम्यक्-ज्ञान जीव व अजीव के मूल तत्त्वों का विशेष ज्ञान होने से ही सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है। घाती कर्मों के पूर्ण विनाश के बाद ही केवल-ज्ञान की प्राप्ति संभव है। (ग) सम्यक्-चारित्र सम्यक्-चारित्र का तात्पर्य है, जीव हितकारी कर्मों में ही प्रवृत्त हो। जिससे वह कर्म-जाल से मुक्त हो सकता है, क्योंकि बन्धन व दु:ख का कारण है-कर्म । सम्यक-चारित्र ही इसके विनाश का आधार है। १. दिनांक २६ मार्च, ८० को उदयपुर (राज.) से प्रस्तुत रेडियो वार्ता । Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन में मानववादी चिन्तन ३२५ ........................................................................... अतः जैन-दर्शन के नैतिक-मूल्यों का आधार अहिंसा है। अहिंसा ही मानव की सुदृढ़ आधार-शिला है । भगवान् महावीर ने अहिंसक-समाज के लिए सबसे अधिक बल प्रदान किया है, जो प्राणी-मात्र के लिये उपयोगी है।' इस अहिंसा व अध्यात्मवादी चिन्तनाओं से अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है। ये आचार-दर्शन की मान्यताएँ आधुनिक समाज के लिये पर्याप्त उपयोगी सिद्ध हो चुकी हैं । १. नवभारत टाइम्स (दैनिक पत्र), नई दिल्ली, ३१-३-१९८० । XXXXXXXXX X X X X X X भिद्यतां सम्प्रदायास्तु न धर्मो भेदमावहेत् । सम-हर्य-कुटीरेषु, किमाकाशं विभिद्यते ।। -वर्द्धमान शिक्षा सप्तशती (श्री चन्दनमुनि रचित) मम्प्रदाय भिन्न-भिन्न हो सकते हैं, धर्म में भेद नहीं हो सकता। क्या आकाश–घर, महल और झोंपड़े में भिन्न हो सकता है ? X X X X X X xxxxxxxxx Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-................ स्वानुभूति की ओर : अन्तर्यात्रा 0 श्री सोहनराज कोठारी, [जिला एवं सत्र न्यायाधीश, जयपुर (राजस्थान)] अध्यात्म जगत् में हमारे समग्र व्यक्तित्व की सर्वांग साधना की चरम निष्पत्ति की सर्वमान्य एवं सुगम परिभाषा है-स्वानुभूति” और जिस प्रक्रिया से निकलकर व्यक्ति को स्वयं की अनुभूति का साक्षात्कार एवं मिलन होता है उसे आध्यात्मिक भाषा में 'योग' कहा जाता है-इस योग की प्रक्रिया के लिये विभिन्न प्रकार के प्राणायाम, योग-आसन, ध्यान-मुद्रा आदि अनेक श्रम-साध्य क्रियाएँ अपनी-अपनी रुचि के अनुसार व्यक्ति एवं व्यक्तियों के कई सामूहिक संस्थान अपनाते हैं। चेतना की अनूभूति या स्वयं का बोध, इसमें मेरी बहुत वर्षों से रुचि रही है, पर श्रमसाध्य प्रयोगों में मैं कभी रस नहीं ले पाया, क्योंकि इस विषय पर गहराई से चिन्तन के बाद मेरा अपना चिन्तन यह है कि सम-विषम परिस्थितियों में, मध्यस्थ भाव में रहकर बिना श्रम के यदि हम सारी शक्तियों को गहनतापूर्वक प्रतिक्षण सहजता से अपनी चेतना की ओर या दूसरे शब्दों में स्वयं की खोज में, अतल गहराई की ओर उन्मुख कर सकें, तो हमारी चेतना से मिलन की महायात्रा का प्रारम्भ हो जाती है और निश्चित ही हम चेतना की ओर बढ़ जाते हैं । बाहर के सारे अपने कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी प्रतिपल हमारा चिन्तन यह बन जाना चाहिये कि हम कोई ऐसा कार्य न करें, जिससे हमारी आत्मा कलुषित या मलिन हो जाय, या हमारे विचार, वाणी व प्रवृत्ति का कोई भी अंश, हमारी अन्तर्चेतना को मूच्छित कर दे, या हमारी सजगता या सचेतना जड़ता या सुषुप्ति से आच्छादित हो जाय । बाहर की गंगा या जमना धाराप्रवाह बहती रहे, उसमें कोई आपत्ति नहीं है, पर अन्दर की सरस्वती का अजस्र प्रवाह भी सूख नहीं जाय, इस बात का भी पूरा ध्यान रहे और तभी हमारे शरीर, मन और आत्मा के त्रिवेणी संगम का योग हमारी जीवात्मा को अक्षुण्ण पावन तीर्थस्थली बना सकता है। बाहर के सारे कोलाहल के मध्य भी अन्तर्ध्वनि का नाद प्रतिपल गूंजता रहे, वस्तुओं की रट लगाते रहने पर भी, अन्दर का नि:शब्द 'अजपा जाप' सतत रूप से चलता रहे, पौद्गलिक पदार्थों से प्राप्त संगीत, नृत्य, सुवासना, दाय, रस के साथ-साथ प्राणों का संगीत-स्वासों का नृत्य, रोमरोम में चेतना की छवि, कण-कण में जीवन रस व भावों की सुगन्ध में, हमारी आत्मा अहर्निश प्रतिष्ठापित रहे, तभी हमारी साधना प.लवती हो सकती है और हम अपनी अनुभूति करने में सफल हो सकते हैं। आवश्यक यह है कि सहजता की दिशा में, हमारा ध्यान पूर्णतया व्यापक बन जाए, तन और चेतना जो कि अलग-अलग विरोधी तत्त्व हैं, उन्हें हम तटस्थ एवं साक्षी भाव से अलग-अलग स्वरूप में, दर्शन कर सकें और हमारे शरीर व मन की संवेदना हमारी आत्मा को प्रभावित न कर सके, तभी हम स्वयं को जान सकते हैं, व हमारा स्वयं से मिलन हो सकता है। सन्त भीखणजी ने इसी व्यापक ध्यान के स्वरूप को बहुत ही सहज शब्दों में भाव गाम्भीर्यता प्रकट करते हुए राजस्थानी भाषा में निम्न प्रकट करते हुए राजस्थानी भाषा में निम्नलिखित छोटे से पद में परिलक्षित किया है जे समदृष्टि जीवड़ा, करे कुटुम्ब प्रतिपाल । अन्तर् मन न्यारा रहे, ज्यों धाय रमावे बाल ।। ०० Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वानुभूति की ओर : अन्तर्यात्रा ३२७ वस्तुत: हमारी सारी चिन्तना, गति, प्रवृत्ति, हर समय, रात और दिन, प्रत्येक घड़ी और पल, सोते-जागते, उठते-बैठते, इसी प्रकार की बन जाय कि जो हम दिख रहे हैं, और कह रहे हैं, वह अपना नहीं है और जो अपनापन अन्तनिहित है, वो हमारे इन सारे बाह्य कार्यों से प्रभावित न हो, उसकी जड़ता हमारे चेतना को आच्छादित या मलीन न कर दे, महात्मा कबीर के शब्दों में हमारी आत्मा की झीनी चद्दर मली न हो जाय और स्वच्छ रहे पर इस चिन्तना के लिये यह आवश्यक है कि हम अपने मन, वचन एवं शरीर की सारी गतिविधियों को एक समतल पर समस्वर में रखें । जो हम सोचें, वैसा ही करें और जैसा कहें वैसा ही करें, और तभी हमारा द्वैतभाव दूर हो सकेगा और हमको अपनी जानकारी प्राप्त करने में सुगमता रहेगी। मन में विचार कुछ और चल रहे हों और वाणी में विचार उसे अन्यथा प्रकट हों और शरीर में हमारी सारी गतिविधियां मन व वाणी के विपरीत चले, तब हमको अपने नानाविध मुखौटे पहनने के लिये विषमताओं एवं विसंगतियों का सहारा लेना पड़ता है और इसी जोड़-तोड़ की उधेड़बुन में, यह सारा जीवन बीत जाता है, हमारी जटिलताएँ निरन्तर बढ़ती जाती हैं, और उसमें जीवन के आनन्द का स्रोत सुख ही नहीं जाता बल्कि उसमें अमृततत्त्व का शोषण होकर, केवल वासना एवं आसक्ति की कीचड़ ही हमारे हाथ लगती है, जिसमें से बाहर निकलने के हर प्रयास के साथ हम उसके दल-दल में फँसते ही जाते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि हम सरलता, सहजता या ऋजुता की ओर बढ़े। मन के विचार, वाणी के उद्गार व शरीर का व्यवहार, सारे एक से बन जाय और हम स्फटिक की तरह बन जाएं व भीतर व बाहर एक से स्वरूप में, हमारा बाह्य व्यवहार व अन्तर् का आकार स्पष्ट हो जाय-इसी में स्वानुभूति प्रकट होती है। चेतना की अन्तर् यात्रा में, हमारे सामने पहला विकट अवरोध स्वयं हमारा मन है। मन की कल्पनाएँ, भाशा-आकांक्षाएँ, तृष्णा-वासनाएँ, अनन्त विचारों के माध्यम से, हमको अपने बारे में सोचने का अवकाश ही नहीं लेने देतीं, हमारे मस्तिष्क में अनगिन वस्तुओं की स्मृति के अम्बार भरे पड़े हैं। इतिहास, भूगोल, साहित्य, कला, विज्ञान आदि अनेक विषयों के बारे में, हमारी सूक्ष्म से सूक्ष्म जानकारी करने की अनवरत चेष्टा तो जीवन भर चलती ही रहती है और जो वस्तुएँ, वर्तमान में नहीं है, उन्हें प्राप्त करने व उनकी महत्त्वाकांक्षा रखने, एवं उनके स्वप्न संजोने में, हमारे जीवन का प्रत्येक क्षण शीघ्रता से बीत जाता है और हम कभी भी एक क्षण रुक जायें तो लगता है कि हम न तो कहीं पहुंच पाये हैं और न कुछ बन ही पाये हैं । विचारों की इस सघन भीड़ को पार करना असंभव नहीं तो दुरूह कार्य अवश्य है । अन्तर् यात्रा में इस पहले अवरोध को पार करना मुश्किल हो जाता है व व्यक्ति विचारों के जबरदस्त हमले से आक्रान्त होकर, अपनी हार मान लेता है और मन से आगे बढ़ने का साहस नहीं कर पाता। इसलिये स्वानुभूति की ओर चरण बढ़ाने में, हमको पहले निर्विचार बनने का अभ्यास करना पड़ेगा। यह तो असम्भव है कि जब तक मन है, तब तक कोई विचार ही न आए, और यह भी हमारे अपने साथ ही निर्ममता होगी कि हम अपना दमन कर, बलात् अपने विचारों को रोकें और विचारों के अतिशय वेग-प्रवाह को एक स्थान पर रोकने के प्रयास की तीन प्रतिक्रिया भी हो सकती है जिसका परिणाम और भी भयंकर हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि जैसे-जैसे हमारे मन में संकल्प-विकल्प जगते रहें, वैसे-वैसे उनको उनके आदिस्रोत की ओर प्रतिक्रमण करते रहें और अपने मन को उनसे खाली करते रहें, ताकि खाली मन में अपनी अनुभूति की चिन्तना उस खाली स्थान को घेर कर, व्यापक बन सके । अतः स्वानुभूति की ओर बढ़ते चरणों को सर्वप्रथम घनीभूत विचारों के आक्रमणकारी कोलाहल करती भीड़ को पार कर निर्विचारिता की तरफ बढ़ना आवश्यक होगा। अन्तर्यात्रा की दिशा में जब विचारों की गहन आततायी भीड़ को पार करने में हम समर्थ हो जाते हैं, तब हमारे सामने अतीत की स्मृतियों की जकड़न एवं भविष्य की आकांक्षाओं का गुरुत्वाकर्षण, हमको आगे व पीछे खींचता हुआ, परिवर्तनशील समय की घाटियों में ला पटकता है, जिससे बाहर निकलना हमारे लिए आसान नहीं हो पाता। विश्व की हर जड़ वस्तु में लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई होती है पर उसमें अस्तित्व नहीं होता, क्योंकि अस्तित्व के लिए समय का होना आवश्यक है और समय ही चेतना की दिशा है । जगत् की सारी ही वस्तुएँ क्षणभंगुर हैं, परिवर्तनशील हैं, पर Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ DISISION कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड 1 समय शाश्वत है, जो सदा था, और सदा रहेगा और उसकी धाराओं में सब चीजें बनेंगी व मिटेंगी, पर समय की धारा अविच्छिन्न रहेगी । संभवतः इसलिये आत्मा या चेतना का एक नाम 'समय' भी दिया गया है, जो उसके शाश्वत, सनातन, अनादि, अनन्त, तत्व होने का द्योतक मात्र है । हम आमतौर पर समय के तीन भाग करते हैं, अतीत, वर्तमान व भविष्य, लेकिन यह विभाजन कृत्रिम एवं गलत है, क्योंकि अतीत सिर्फ स्मृति में है और कहीं भी नहीं है व इसी तरह भविष्य केवल कल्पना में है और कहीं नहीं है और है तो सिर्फ वर्तमान इसलिये समय का एक ही अर्थ हो सकता है, वर्तमान ; जो है वही समय है और यह चेतना के अन्तिम खण्ड का अणु है और वो इतना सूक्ष्म है कि हम यदि प्रतिक्षण सजग न रहें तो उसका बोध होते ही वह अतीत का अंग बन जाता है और हम उस अणु से वंचित हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में हमारा चित्त इतना शान्त और निर्मल बन जाए कि हम वर्तमान के छोटे से अणु की झलक पा लें और जिस क्षण हमने इसे स्थिर कर दिया कि हम अपने अस्तित्व से परिचित हो गए, समय के दर्शन के साथ ही आत्मा को उपलब्ध हो गए, उससे साक्षात्कार कर लिया । मन संग्रह है, अतीत और भविष्य का जो नहीं है और बीच की सूक्ष्म रेखा वर्तमान को पाने के लिए, शान्त चित्त होना आवश्यक है। अतः निर्विचारिता के साथ-साथ हमारी महायात्रा का अगला चरण अतीत और भविष्य की भयावही अन्धेरी, गहन घाटियों को पारकर, वर्तमान के राजमार्ग पर अब - स्थित हो जाय व समय को स्थिर कर दें, तभी हमारी यात्रा सुगम हो सकती है। , निविचारिता व समयातीतता या स्थिरयोग की प्राप्ति के बाद, तीसरा और सबसे भयंकर अवरोध जी हमारे सामने अन्तर् यात्रा के बीच में, मुँह बाए खड़ा रहता है, वह है अहं की चट्टान । हमारे अपने अहं से ही सारे विकारों एवं कषायों का प्रजनन होता रहता है और जब तक अहं की चट्टान को तोड़कर हम अहंशून्यता में प्रवेश नहीं कर पाते तब तक आत्मा से साक्षात्कार लगभग असम्भव हो जाता है । अहं में जहाँ अवरोध उत्पन्न होता है वहाँ फोध प्रकट हो जाता है, जिसका स्वाभाविक परिणाम होता है-प्रतिशोध, हिंसा, संघर्ष, युद्ध आदि जो अपनी पूरी विभीषिका में समूची मानव जाति का विनाश करने की सम्भावना रखते हैं। अहं को पोषण करने वाली वृत्ति का नाम लोभ है, जिसके धरातल पर तृष्णा की विष बेल फैलती है और माया के लुभावने किन्तु आत्मघाती फल पैदा करती है । अहं का बाह्य स्वरूप अभिमान, ममता, आसक्ति, घृणा, द्वेष में परिलक्षित होता है। लाखों-करोड़ों की सम्पदा का एक ही बार में त्याग कर देने वाले, अपने पुत्र-पुत्री एवं भरे-पूरे परिवार से अलग होने वाले व वर्षों संन्यास की साधना करने वाले, अकिंचन ऋषि-मुनि भी अहं से अपने को मुक्त नहीं कर पाते। वे भी अपने शिष्यों व धारणाओं का मोह नहीं छोड़ पाते । यश कामनाएं उनको भी घेरे रहती हैं। परिणाम यह होता है कि शिष्यों के संग्रह व यशलिप्सा की वृद्धि में, उनकी लोकेषणा कम नहीं हो पाती और उनके त्याग में वैभव का अनुराग ही छिपा रह जाता है और इस कारण से न तो वे अहं का पाषाण ही तोड़ पाते हैं और न आत्मा के आनन्द का निर्झर ही उनमें फूट कर प्रवाहित हो पाता है । मान-अपमान की भावना से कोई विरला ही व्यक्ति अछूता रह पाता है। बड़े-बड़े साधु-सन्त अपनी प्रशंसा व दूसरों की निन्दा में रस लेते हैं और उनकी किंचित् सी निन्दा उनके सामने इतर सम्प्रदाय या मत के दूसरे साधु-सन्तों की प्रशंसा से उनके चेहरे पर रोष की रेखा खिंच जाती है, तब लगता है कि अहं की चट्टान को तोड़ने में वे असमर्थ और असहाय हो गए हैं । जब तक अहं नहीं छूटता तब तक वे उस नाव की तरह भटकते रहते हैं जो लंगर से बंधी होने के कारण घण्टों पानी में घूमती फिरती है व किसी किनारे तक नहीं पहुँच पाती और एक ही परिधि में चक्कर खाती रहती है। इसलिये चेतना से मिलने की दिशा में बढ़ते चरणों को न केवल विचारों की सघन आक्रामक भीड़ चीरनी पड़ती है या अतीत व भविष्य की गहन घाटियों को ही पार करना पड़ता है बल्कि उनको अहं की चट्टान को भी विदीर्ण करना पड़ता है और तभी व्यक्ति आत्मानन्द के झरते - बहते निर्झर में चेतना की अनुभूति प्राप्त कर सकता है और वस्तुतः जो वह है उसमें उसका मिलन हो जाता है। अतः स्वयंसिद्धि या स्वानुभूति के उपरोक्त तीन निविचारिता, समयातीतता अहंन्यता निश्चित सोपान हैं, जिनके माध्यम से हम अपना गन्तव्य प्राप्त कर सकते हैं। मेरा अपना अनुभव है कि व्यापक एवं सहज ध्यान की प्रक्रिया से ऋजुता या निर्मल चित्त के धरातल पर Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वानुभूति की ओर : अन्तर्यात्रा ३२६ निर्विचारिता, समयातीतता व अहंशून्यता की ओर, हमारे चरण क्रमशः बढ़ते जायँ तो उस यात्रा की अवधि में ही हमको कुछ ऐसे छोटे-मोटे अनुभव स्वतः होते जाएँगे, जिनकी आसानी से कल्पना नहीं की जा सकती, पर जिनके लिये विशेष प्रयास करना अपेक्षित ही नहीं रहता। शान्त एवं निर्मल चित्त की साधना के अविरल एवं व्यापक ध्यान की प्रक्रिया में, व्यक्ति न केवल अपने इस जन्म की घटनाओं को ही स्मृति में ला सकता है, बल्कि अपने पूर्वजन्म की घटनाओं को भी साक्षात् जान सकता है। 'जातिस्मरणज्ञान' की विश्रुत विधा हमारे निर्मल चित्त का ही सहज परिणाम है जो अन्तर दर्शन के साथ-साथ किसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति को सरलता से प्राप्त हो सकती है। जन्म से पूर्व के जीवन की स्मृति, हमारे वर्तमान जीवन की कई रहस्यपूर्ण गुत्थियों को सुलझाने व समझने में सहायक हो सकती है और इस अर्थ में, पूर्वजन्म-स्मृति हमारी अपनी अन्तर्यात्रा में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है। पूर्वजन्म की स्मृति केवल वैचारिक या बौद्धिक स्तर पर हो सकती है, यह बात निश्चित है। इसकी क्या सीमाएँ हैं और इस क्रम में कब कहाँ रुकना आवश्यक तथा अनिवार्य हो जाता है ? वो इस प्रयोग में क्या ? बाधाएँ क्यों आ जाती है ? यह स्वयं में एक विस्तृत विवेचन का विषय है पर यहाँ इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि पूर्वजन्म की स्पष्ट संस्मृति सम्भव है और इसे विशेष श्रमसाध्य उपलब्धि के रूप में या आश्चर्यपूर्ण तरीके से देखना या कहना न तो सही होगा और न उचित है। व्यापक ध्यान की सहज प्रक्रिया में, जब हमारी यात्रा चेतना की ओर प्रारम्भ हो जाती है, तब हमारे भावों में एक अपूर्व जागरण आ जाता है और इन्द्रियों व मन से परे, हम अपने हृदय, प्राण, भावों में जिसकी चाह करते हैं, वह प्राप्त हो जाती है। यह तो निश्चित है कि अन्तर्यात्रा में चलने वाला व्यक्ति कभी पदार्थ की चाह या कामना तो रखना नहीं चाहेगा पर कभी-कभी वह विराट चेतना की अनुभूति के अंश को साक्षात् करने की जिज्ञासा में उन महापुरुषों के (चाहे वे भगवान, तीर्थकर, गुरु, महात्मा, किसी भी नाम से पुकारे जाते हों) दर्शन करने की इच्छा रख लेता है और जिस महापुरुष की चेतना से वह अपनी निकटता महसूस करता है, उसको देखने व उससे प्रेरणा प्राप्त करने की उसकी स्वाभाविक कामना बन जाती है। इस शुभेच्छा के परिणामस्वरूप निर्मल चित्त की आराधना करने वाला व्यक्ति अपने भावों में अपने आराध्य का दर्शन कर लेता है, और कभी-कभी तो ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है कि हमारे इष्टदेव हमारे समक्ष, मुदितमना आशीर्वाद देने की मुद्रा में, साक्षात् उपस्थित हैं और हमारी सारी दुश्चिन्ताएँ मात्र उनके दर्शन से ही दूर हो जाती हैं । मेरा तो अपना अनुभव यह है कि हमारी इच्छा मात्र से ही हमारे आराध्य देव की चेतना, अपनी दैहिक छवि में, प्रकट होकर हमारी समस्याओं का निराकरण स्वत: कर देती है । वस्तुत: वे क्षण बहुत ही सुखद एवं आह्लादपूर्ण होते हैं । बौद्धिक विश्लेषण के आधार पर तो यह अनुभव शब्दों में अभिव्यक्त करना सम्भव नहीं है. पर जिसने अपने भावों में अपने आराध्यदेव को सम्पूर्ण रूप में रमा लिया है और जिसका चित्त निस्तरंग झील की तरह बनना आरम्भ हो गया है, उसे अपने इच्छित आराध्यदेव के दर्शन निश्चितरूप से स्मरण करते ही हो सकते हैं व उसकी अन्तर्यात्रा को सुगम बना सकते हैं। जातिस्मरण ज्ञान व भाव-दर्शन के साथ-साथ विचारों के सम्प्रेषण का कार्य भी उनके लिये सहज सुलभ हो जाता है, जो निर्मल चित्त बनाने की प्रक्रिया में अवरोधों को पार करने का संकल्प लेकर चेतना से मिलने की दिशा में चल पड़े हैं। मनोवैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करने लगे हैं कि विचारों की तरंगें विकीर्ण कर हम दूसरों तक पहुँचा सकते हैं तो इसमें संशय करने की तो कोई गुंजाइश नहीं रह गई है कि विचारों का संप्रेषण सम्भव नहीं है । चेतना की ओर उन्मुख यात्री के लिये, यह प्रयोग कभी-कभी उस समय आवश्यक हो जाता है, जब वह शरीर और वाणी से निवृत्ति और नि:शब्दता की तरफ बढ़ने लग जाता है और उसके मन की प्रवृत्ति ही मुक्त रहती है, तब वह अपने विचारों के माध्यम से, अपने आवश्यक कार्य कर लेता है या अन्य लोगों को प्रभावित कर या करा लेता है। अपने से गुरुतर व्यक्तियों से प्रेरणा प्राप्त करने या अपने परिपार्श्व को परिष्कृत कर शुद्ध वातावरण का निर्माण करने व इसी से अपनी यात्रा को सुलभ बनाने की दिशा में, जब-जब यह प्रयोग आवश्यक होता है, तब-तब साधक इसका सफलतापर्वक प्रयोग लेता है, और इसके लिये उसे आश्चर्यकारी कहने की आवश्यकता नहीं है, पर इतना अवश्य सही Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड है कि अन्तर्यात्रा के लिये यह सहज हैं । उसे प्रयास नहीं करना पड़ता। हमारे आत्मार्थी संतजन विपदाग्रस्त भक्त जनों को देखकर मनोभावों से ही व्यथा भांप लेते हैं और कभी-कभी अपने विचारों से ही व्यथा का निराकरण कर देते हैं । यह इसी निर्मल चित्त अवस्था व शुभ भावना का ही परिणाम है । अन्त में यही कहा जा सकता है कि चेतना से मिलन की जो अन्तिम निष्पत्ति है, वह केवल अनुभूतिजन्य है, शब्दातीत है व स्वयं-चेतना- निराकार व निरूपम है अतः इसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है और जब अन्तिम निष्पत्ति शब्दों में नहीं बाँधी जा सकती, तो उसके आधारभूत मार्ग ऋजुता की ओर सहज सतत व्यापक ध्यान और निर्मल चित्त अवस्था तथा उसके बाधक एवं साधक तत्त्वों को भी शब्दों में समावेश करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है और मैं नहीं जानता कि मैंने जो कुछ अपने शब्दों में व्यक्त किया है, उसमें मेरे विचार या भावों को कितनी अभिव्यक्ति मिल सकी है, पर इतना मैं अवश्य कह सकता हूँ कि मेरे शब्द, उस दिशा, मार्ग एवं मार्ग के अवरोधों की और जो व्यक्ति को अपने से साक्षात् करने की यात्रा में सन्निहित है, किचित् भी संकेत सूत्र बन पाए, तो मैं इसे विराट चेतना की कृपा का ही प्रसाद समझकर अपने को सौभाग्यशाली समझँगा । Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RA-22 HAJAala MADE । SSION कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ साहित्य संस्कृति 7 खण्ड Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथी जैन व्याकरण साहित्य D साध्वी प्रमुखा श्री कनकप्रभा ( युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या ) भाषा भावाभिव्यक्ति का साधन है। भाषा का नियामक तत्त्व है व्याकरण । प्रारम्भ में कोई भी भाषा व्याकरण के नियमों में आबद्ध नहीं होती । व्याकरण की नियामकता के अभाव में लोक-व्यवहार में प्रचलित शब्दों की तरह भाषा के नए प्रयोग भी मान्य हो जाते हैं। किन्तु यह तब तक होता है जब तक उस भाषा का प्रवेश साहित्य के क्षेत्र में नहीं होता। साहित्य क्षेत्र में उतरते ही भाषा के लिए नियमन की अनिवार्यता हो जाती है। कुछ लोगों का अभिमत है कि पहले व्याकरण बनता है और उसके अनुसार भाषा के प्रयोग होते हैं, किन्तु व्याकरण के नियमों का सूक्ष्मता 'से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उस समय में प्रचलित कुछ विशेष शब्दों की सिद्धि के लिए विशेष सूत्रों का निर्माण किया गया । संस्कृत और प्राकृत भाषा के व्याकरण काफी समृद्ध हैं। जैन एवं जैनेतर विद्वानों ने व्याकरण साहित्य की अभिवृद्धि में पूरा योग दिया है। जैन आगमों के अनुसार 'सत्यप्रवादपूर्व' व्याकरण का उत्स है । उसमें व्याकरण के मौलिक विधानों का संग्रह है। जैन आगमों की भाषा प्राकृत है अतः पूर्वगत व्याकरण के विधान प्राकृत भाषा से सम्बन्धित हो सकते हैं। वह पूर्व वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, इसलिए उसके सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । आगमों के मूल विभाग में 'अनुयोगद्वार' सूत्र है । उसमें लिंग, वचन, काल, पुरुष, कारक, समास, तद्धित आदि का सोदाहरण उल्लेख है । ये उदाहरण प्राकृत भाषा में हैं, किन्तु सम्भव है तब तक संस्कृत भाषा के व्याकरण बन गये हों, क्योंकि इसमें तीन वचनों का उल्लेख है जबकि प्राकृत में द्विवचन नहीं होता है। भारतीय इतिहास के अनुसार कुषाणकाल संस्कृत साहित्य का उत्कर्षकाल है। इस समय ब्राह्मणों और श्रमणों ने संस्कृत भाषा में लिखना प्रारम्भ कर दिया था । श्रमण परम्परा में जैन और बौद्ध दोनों का समावेश है । जैन और बौद्ध आचार्यों ने अन्य साहित्य के साथ संस्कृत में व्याकरण भी लिखे । बौद्धाचार्य चन्द्रगोभी का चान्द्र व्याकरण प्रसिद्ध आठ व्याकरणों में से एक है। जैन व्याकरणों की सूची बहुत लम्बी है किन्तु सर्वांगीण व्याकरणों की संख्या अधिक नहीं है। अधिकांश वैयाकरणों ने पूर्व लिखित व्याकरणों की पूरकता अथवा उसकी व्याख्या में ही अपने ग्रन्थ लिखे हैं स्वतन्त्र और सर्वागीण रूप से लिखे गए व्याकरणों में भावसेन वैद्य का तन्त्र, बेवनन्दी का जैनेन्द्र व्याकरण, पल्यकीति का शाकटायन और हेमचन्द्राचार्य का हेमशब्दानुशसान उल्लेखनीय हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने पूर्ववर्ती व्याकरणों का सांगोपांग अध्ययन करने के बाद अपना व्याकरण लिखा इसलिए यह अन्य व्याकरणों की अपेक्षा अधिक परिष्कृत है । जैन आचार्यों द्वारा लिखित पचासों व्याकरण ग्रन्थों के नाम उपलब्ध हैं, किन्तु इस निबन्ध में तेरापंथ संघ के व्याकरण ही विवेच्य हैं । बीसवीं सदी के व्याकरण ग्रन्थों में 'भिक्षुशब्दानुशासनम्' का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इस समय में जैन ॐ ० . Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ......................................................................... आचार्यों द्वारा निर्मित और कोई व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। 'भिक्षुशब्दानुशासनम्' तेरापंथ संघ का अपना व्याकरण है। वि० सं० १९८८ में इसका निर्माण कार्य पूरा हुआ था। इसके निर्माण का एक स्वतन्त्र इतिहास है, जिसका उल्लेख यहाँ अप्रासंगिक नहीं होगा। ___ तेरापंथ संघ के साधु-साध्वियों का प्रारम्भिक विहार क्षेत्र राजस्थान रहा है। राजस्थान की लोकभाषा राजस्थानी है अतः अध्ययन, अध्यापन और साहित्य-रचना का क्रम राजस्थानी में चला। तृतीय आचार्य श्री रायचन्द्र जी के समय भावी आचार्य श्री जीतमलजी (जयाचार्य) ने संस्कृत विद्या में पदन्यास किया । पंचम आचार्य श्री मघवागणी को संस्कृत भाषा विरासत में प्राप्त हुई। उन्होंने सारस्वत, चन्द्रिका, चान्द्र, जैनेन्द्र आदि व्याकरण ग्रन्थों का विशद अध्ययन किया । अष्टमाचार्य श्री काल गणी को दीक्षित करने के बाद उनको भी संस्कृत भाषा के अध्ययन में नियोजित किया गया, किन्तु क्रमबद्धता न रहने से उसमें पर्याप्त विकास नहीं हो सका। ___आचार्य बनने के बाद कालूगणी ने संस्कृत भाषा को पल्लवित करने का भरसक प्रयास किया। अध्यापनकाल में उन्होंने अनुभव किया कि सारस्वत, चन्द्रिका आदि अपूर्ण व्याकरण हैं। सारकौमुदी के आधार पर उस अपूर्णता को भरने का प्रयास किया गया, पर पूरी सफलता नहीं मिली। इसके बाद उन्हें विशालकीर्तिगणी द्वारा रचित 'विशालशब्दानुशासनम्' प्राप्त हुआ। इस व्याकरण का व्यवस्थित अध्ययन प्रारम्भ हुआ, किन्तु बीच-बीच में कुछ स्थल समझने में कठिनाई महसूस होने लगी। सरदारशहर में आशुकविरत्न पण्डित रघुनन्दनजी का योग मिला। उनके पास कुछ साधुओं ने हेमशब्दानुशासन का अध्ययन प्रारम्भ किया और कुछ साधुओं ने विशालशब्दानुशासन का। हेमशब्दानुशासन का क्रम ठीक था, अत: उसका अध्ययन व्यवस्थित रूप से चलता रहा । विशालशब्दानुशासन अष्टाध्यायी के रूप में था। वृत्ति के अभाव में सूत्रगत रहस्य समझ में नहीं आ सके । सारकौमुदी प्रक्रिया का आधार पुष्ट नहीं था । अत: एक बार कालूगणी ने कहा-विशालशब्दानुशासन की बृहद्वृत्ति बन जाए तो कितना अच्छा हो । आचार्यश्री के निर्देशानुसार पण्डित रघुनन्दनजी ने काम पूरा करने का संकल्प किया। वि०सं० १९८१ में काम प्रारम्भ हुआ। पाणिनीय अष्टाध्यायी, सिद्धान्तकौमुदी, सारकौमुदी, सारस्वत, सिद्धान्तचन्द्रिका, हेमशब्दानुशासन आदि अनेक ग्रन्थों की वृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन करके एक नई वृत्ति तैयार करने का निर्णय किया गया। इस काम में पण्डितजी के अनन्य सहयोगी थे मुनिश्री चौथमलजी (दिवंगत)। वे प्रतिदिन आठ घंटा का समय इनमें लगाते थे। श्री भिक्षुशब्दानुशासनम् ___ व्याकरण में किसी प्रकार की न्यूनता न रहे, इस दृष्टि से सवृत्तिक सूत्र तैयार किए गए। कुछ साधुओं को उनका अध्ययन विशेषरूप से कराया गया। अध्ययनकाल में नई जिज्ञासाएँ पैदा हुई और फिर संशोधन किया गया । एक बार इसे सम्पूर्ण रूप से तैयार करके मुनिश्री चौथमलजी ने स्वयं इसका अध्ययन कराया। विद्यार्थी साधुओं की शंकाओं से इसमें पुनः परिवर्तन की अपेक्षा महसूस हुई । इन सब परिवर्तनों और संशोधनों का परिणाम यह हुआ कि 'विशालशब्दानुशासन' का मूल रूप प्रायः बदल गया । रूप-परिवर्तन के साथ नाम परिवर्तन भी आवश्यक समझा गया, अतः तेरापंथ संघ के आद्यप्रवर्तक आचार्यश्री भिक्षु के नाम पर उस नवनिर्मित ग्रन्थ का नाम 'भिक्षुशब्दानुशासन' रखा गया। भिक्षुशब्दानुशासन पर पूर्व व्याकरणों का प्रभाव है, पर इसे उनके विवादास्पद स्थलों से बचाने का प्रयास किया है। ग्रन्थकार का उद्देश्य अपने ग्रन्थ को अपेक्षाकृत सरल बनाने का रहा है। सरलता के साथ इसकी शैली में संक्षेप भी है। इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों ने अपनी सम्मतियां भेजी हैं। उनके अनुसार लघुसिद्धान्त कौमुदी के हल सन्धि प्रकरण में ४१ सूत्रों और कई वात्तिकों से जो काम होता है वह इस व्याकरण में २३ सूत्रों से ही हो जाता है । : Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथी जैन व्यकराण साहित्य पाणिनीय व्याकरण के आधार पर 'उत्थानम्' इस शब्द की सिद्धि में छ: सूत्र लगाने पड़ते हैं, किन्तु भिक्षुशब्दानुशासन का एक ही सूत्र उन सबका काम कर देता है। भिक्षुशब्दानुशासन प्रकाशित नहीं है, इसलिए इसका अध्ययन अध्यापन तेरापंथ संघ के साधु-साध्वियों तक ही सीमित है। इस व्याकरण ग्रन्थ के अध्ययन से साधु-साध्वियों ने संस्कृत विद्या के क्षेत्र में अच्छा विकास किया है। तेरापंथ संघ के नामकरण की पहले कोई कल्पना नहीं थी, इसी प्रकार इस संघ के व्याकरण का नामकरण भी अकल्पित रूप से हुआ। भिक्षुशब्दानुशासन अष्टाध्यायी के क्रम से बनाया गया है। इसकी सूत्र संख्या जानने के लिए देखिए यन्त्र-- | 0 चरण m अध्याय १ ८६ २६६ ४७२ १०५ १६० Irr ० tur mro ० ५०४ १३४ Kasी जर ० ० Wwxx 60WG १२२ १०५ १२४ १५३ ५१२ ४०४ ४७८ ५३५ ४६५ " १६१ १०८ १४३ ११७ १३४ कुल संख्या ३७४६ कालूकौमुदी भिक्षु शब्दानुशासन का निर्माण होने के बाद संघ के साधु-साध्वियों में संस्कृत भाषा के प्रति विशेष अभिरुचि पैदा हुई। प्रतिभा सम्पन्न और स्थिर विद्याथियों के लिए भिक्षुशब्दानुशासन का अध्ययन सहज हो गया किन्तु साधारण बुद्धिवालों और प्रारम्भिक रूप से पढ़ने वालों के लिए कुछ जटिलता पैदा हो गई। उस जटिलता को निरस्त करने के लिए भिक्षुशब्दानुशासन की संक्षिप्त प्रक्रिया "कोलू कौमुदी' नाम से तैयार की गई। यह पूर्वाद्धं और उत्तरार्द्ध दो भागों में विभक्त है। यह काम भी मुनि श्री चौथमलजी ने किया। संक्षिप्तता और सरलता के साथ कालूकौमुदी की उपयोगिता बढ़ गई । "कोलूकौमुदी' पढ़ने के बाद भिक्षुशब्दानुशासन का अध्ययन भी सुगम हो गया। "कालूकौमुदी" के दोनों भाग प्रकाशित हैं। एक बार बनारस विश्वविद्यालय में संस्कृत के विद्यार्थियों ने कालू कौमुदी की पुस्तक देखी । उसे देखकर व लोग बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा - 'हम संस्कृत व्याकरण पढ़ते हैं पर पढ़ने में मन नहीं लगता। क्योंकि हमें प्रारम्भ से ही बड़े-बड़े व्याकरण ग्रन्थों का अध्ययन कराया जाता है। काल कौमुदी जैसी छोटी-छोटी पुस्तकें पढ़ाई जाएँ तो सहज ही हमारा उत्साह बढ़ जाता है।' श्री भिक्षुशब्दानुशासन लघुवृत्ति भिक्षुशब्दानुशासन को साधारण जन-भोग्य बनाने के लिए मुनि श्री धनराजी और मुनि श्री चन्दनमलजी के संयुक्त प्रयास से इसकी लघुवृत्ति तैयार की गई । लघुवृत्ति का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए वृत्तिकारों की ओर से लिखा गया है tion International Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड बृहद्वत्ति समालोक्य भैक्षुशब्दानुशासनीम् । शीघ्रोपकारिणी श्रेष्ठा लघ्वीवृत्तिविरच्यते ।। इसमें भिक्षुशब्दानुशासन के उलझन भरे सूत्रगत रहस्यों को छोड़कर सामान्य रहस्यों को खोला गया है, इसलिए साधारण विद्यार्थी इसके माध्यम से भिक्षुशब्दानुशासन का अध्ययन करने में सफल हो सकते हैं। इसका रचनाकाल वि०सं० १६६५ है। तुलसीप्रभाप्रक्रिया वि० सं० १९६६ में मुनि श्री सोहनलालजी (चूरू) ने 'तुलसीप्रभा प्रक्रिया' नामक व्याकरण तैयार किया। इस व्याकरण का आधार सिद्धहेमशब्दानुशासन है। व्याकरण और न्याय के जितने ग्रन्थ हैं वे सब पूर्वरचित ग्रन्थों के आधार पर ही बनाए गए हैं इसलिए इनमें कई स्थलों पर एकरूपता प्राप्त होती है। एकरूपता होने पर भी ग्रन्थ में जो नयापन होता है, वह ग्रन्थ कार का अपना होता है। इस दृष्टि से प्रत्येक ग्रन्थ का स्वतन्त्र महत्त्व है। प्रस्तुत ग्रन्थ 'तुलसीप्रभाप्रक्रिया' में प्राचीन उदाहरणों को नए रूप में परिवर्तित किया गया है। संज्ञाएँ प्राचीन ही हैं, फिर भी उदाहरणों की नवीनता ने इस ग्रन्थ को पठनीय बना दिया है। श्रीभिक्षुन्यायदर्पण व्याकरण के सूत्र अपने आप में पूर्ण होने पर भी अपूर्ण रहते हैं । अनेक सूत्रों के हितों में परस्पर संघर्ष खड़ा हो जाता है । ऐसी स्थिति में पाठक के सामने समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं। पाठकों की समस्या समाहित करने के लिए व्याकरण के साथ कुछ न्याय सूत्रों का होना आवश्यक है। जहाँ-जहाँ सूत्रों में संघर्ष पैदा होता है न्याय के आधार पर उसे उपशान्त किया जाता है । भिक्षुशब्दानुशासन की उलझनों को समाधान देने के लिए 'श्रीभिक्षुन्यायदर्पण' का निर्माण हुआ । न्याय की परिभाषा देते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है नीयते संदिग्धोऽर्थो निर्णयमेभिरिति न्यायाः सन्दिग्ध अर्थ को निर्णय देने वाले सूत्रों का नाम न्याय है । न्यायदर्पण में १३५ सूत्र हैं। इन सूत्रों का सम्बन्ध मूलतः व्याकरण से है फिर भी ये बहुत व्यावहारिक हैं । व्यावहारिकता के कारण इनका विषय वर्णन रोचकता लिए हुए है। भिक्षुलिंगानुशासन “लिंगानुशासनमन्तरेण शब्दानुशासनं अविकलम्"-लिंगानुशासन के बिना शब्दानुशासन अधूरा रहता है। क्योंकि शब्दानुशासन का काम है शब्दों की सिद्धि । प्रकृति-प्रत्यय से निष्पन्न शब्दों की जानकारी होने पर भी लिंग ज्ञान के अभाव में उनका प्रयोग नहीं हो सकता। लिंगज्ञान के लिए विद्यार्थियों को लिंगानुशासन की अपेक्षा रहती है। पण्डित रघुनन्दनजी ने आचार्य भिक्षु के नाम पर श्रीभिक्षुलिंगानुशासन की रचना की। मुनिश्री चन्दनमलजी ने लिंगानुशासन की वृत्ति बनाकर इसे सुबोध बना दिया। लिंगानुशासन पद्यबद्ध रचना है। इसके श्लोकों की संख्या १५७ है। श्रीभिक्षूणादि वृत्ति उणादि पाठ व्याकरण का एक विशेष स्थल है । उसका प्रारम्भ 'उणु' प्रत्यय से होता है, इसलिए इसे उणादि कहते हैं । उणादि प्रत्ययों के द्वारा शब्दों की सिद्धि में बहुत सुगमता रहती है। जो शब्द बनाना है, उसके अनुरूप धातु और प्रत्यय में सम्बन्ध स्थापित कर नए-नए सूत्र बनाए हैं। एक-एक शब्द के लिए सूत्र रचना की गई है । यह Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथी जैन व्याकरण साहित्य पढ़ने में सुबोध होने के साथ-साथ रोचक भी है। भिक्षुशब्दानुशासन का निर्माण हुआ तब उसमें उणादि पाठ नहीं रखा गया, इसलिए स्वतन्त्र रूप से मूत्र और वत्ति की रचना की गई। इस रचना का आधार हेमशब्दानुशासन है । ग्रन्थकार ने इसकी सूचना देते हुए लिखा है श्रीमती हेमचन्द्रस्य सिद्धणब्दानुशासनात् । औणादिकानि सूत्राणि गृहीतानि यथाक्रमम् ॥१॥ संज्ञाधात्वनुबन्धेषु प्रत्याहारादि रीतिषु । यत्र भेदस्थितस्तत्र स्वक्रमः परिवर्तितः ॥२॥ तुलसी मंजरी साधु-साध्वियों के लिए संस्कृत की भाँति प्राकृत का अध्ययन भी आवश्यक है, क्योंकि आगम-साहित्य प्राकृत भाषा में निबद्ध है । किसी भी साहित्य को मूल भाषा में पढ़ने से जो आनन्द मिलता है तथा अर्थ-बोध होता है वह उसके अनुवाद में नहीं हो सकता। संस्कृत-व्याकरण पढ़ लेने के बाद प्राकृत व्याकरण की क्लिष्टता स्वयं समाप्त हो जाती है। उसमें भाषा-सम्बन्धी परिवर्तन को छोड़कर अधिकांश नियम संस्कृत व्याकरण के ही हैं। कुछ नियम अवश्य भिन्न हैं जिन्हें समझने के लिए प्राकृत-व्याकरण का अध्ययन जरूरी है। हेमशब्दानुशासन का आठवाँ अध्याय प्राकृत व्याकरण से सम्बन्धित है। हेमशब्दानुशासन पढ़ने वालों के लिए प्राकृत व्याकरण साथ ही पढ़ा जाता है किन्तु 'भिक्षुशब्दानुशासनन्' में यह क्रम नहीं है इसलिए पृथक् व्याकरण बनाने की अपेक्षा महसूस हुई। मुनिश्री नथमलजी (युवाचार्य महाप्रज्ञ) ने तेरापंथ संघ के वर्तमान आचार्य के नाम पर 'तुलसी मंजरी' नामक प्राकृत व्याकरण बनाया। इस व्याकरण के दो रूप हैं। इसका पहला रूप प्रक्रिया के क्रम से है तथा दूसरा अष्टाध्यायी के क्रम से । विद्यार्थी साधु-साध्वियां अपनी सुविधा के अनुसार दोनों क्रमों से अध्ययन करते हैं। इसका हिन्दी अनुवाद साथ में रहने से विद्यार्थियों को पढ़ने में काफी सुविधा रहती है। तुलसी-मंजरी में प्राकृत भाषा के साथ शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश भाषा के विशेष नियम भी हैं । जिन नियमों में एकरूपता है उनके लिए 'शेष प्राकृतवत्' 'शेषं शौरसेनीवत्' कहकर विद्धाथियों को सूचित कर दिया गया है। उदाहरणों में भी सरलता रखने का प्रयास किया गया। यह कृति छोटी होने पर भी प्राकृत भाषा का सर्वांगीण अध्ययन कराने में सक्षम है। भिक्षुशब्दानुशासन और अन्य व्याकरण भिक्षुशब्दानुशासन के निर्माण में पूर्ववर्ती व्याकरणों को आधार माना गया है, किन्तु इसमें मात्र उनका अनुकरण ही नहीं हुआ है । पूर्ववर्ती व्याकरणों के कई स्थल इसमें छूट गए हैं और कुछ नए तथ्य जोड़ गए हैं। रचनाक्रम में भी अन्तर है। हेमशब्दानुशासन में लिंग ज्ञान के लिए व्याकरण के बीच में लिंगानुशासन रखा गया है। भिक्षुशब्दानुशासन में उसे नहीं रखा गया, अतः वह स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में है। हेमव्याकरण में एक अध्याय के चारों पाद परस्पर सापेक्ष हैं। पहले पाद में जो काम होता है उसका अवशिष्ट भाग दूसरे में है, किन्तु भिक्षुशब्दानुशासन में हर चरण अपने आप में पूर्ण है । हेमशब्दानुशासन में .स्वर आदि संज्ञाओं को उल्लिखित करके स्वरों का परिचय कराया गया है। भिक्षुशब्दानुशासन प्रत्याहार सूत्र में स्वरों और व्यंजनों को उल्लिखित करने के बाद संज्ञाओं का निर्धारण करता है । हेमव्याकरण में घोष-अघोष आदि को विस्तार से समझाया गया है पर भिक्षुशब्दानुशासन में इसको अपेक्षा नहीं समझी गई । कुछ स्थलों पर एक ही अर्थ के लिए भिन्न शब्दों का प्रयोग हुआ है, जैसे-करण, साधन, हेतु, निमित्त, अधिकरण, आधार आदि । Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनदन ग्रन्थ : पंचम खण्ड . .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. व्याकरण साहित्य में पाणिनीय व्याकरण सर्वाधिक प्रसिद्ध है । यद्यपि वह अपने आप में परिपूर्ण है फिर भी कहीं-कहीं कात्यायन के वात्तिक और पतंजलि के भाष्य का सहारा लिया जाता है। इसलिए इस व्याकरण की पूर्णता तीन व्याकरण ग्रन्थों के संयोग से है। सिद्धान्तकौमुदी के निर्माता भट्टोजी दीक्षित ने अपनी रचना के प्रारम्भ में मुनित्रय-पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि को नमस्कार किया है। पाणिनि का व्याकरण अपने आप में परिपूर्ण होता तो आचार्य हेमचन्द्र के लिए किसो कवि को यह नहीं कहना पड़ता कि स्तुमः शब्द पाथोधेहेमचन्द्र यतेर्मतिम् । एकेनापि हि येनेदृक् कृतं शब्दानुशासनम् ॥ भिक्षुशब्दानुशासन में भी उपर्युक्त तीनों ग्रन्थों का सार संगृहीत है। इसकी पूर्णता या अपूर्णता के बारे में निर्णय देना विद्वानों का काम है पर इसके अध्ययन से ज्ञात हुआ कि इसके कई उदाहरण बहुत प्राचीन हैं तथा कुछ उदाहरणों में वैदिक शब्दावलि का प्रयोग हुआ है। इन्हें याद रखने के लिए विद्यार्थियों के सामने कुछ कठिनाई पैदा होती है। पाणिनीय व्याकरण और भिक्षुशब्दानुशासन के कतिपय स्थलों में जो भेद हैं, उसे यहाँ उल्लिखित किया जा रहा है-- भिक्षुशब्दानुशासन पाणिनीय व्याकरण दीर्घ लकार नहीं है। वत्सर शब्द नहीं है, इसलिए वत्सरार्णम् रूप नहीं बनता है। प्लुत से कोई विधि नहीं है। यह नियम नहीं है। १. लकार के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत तीनों प्रकार हैं । २. प्र०वसन, कम्बल, दश, ऋण, वत्सर और वत्सतर शब्दों से परे ऋण हो तो उसे आर आदेश होता है। ३. ह्रस्व और दीर्घ की भाँति प्लुत शब्दों से भी विशेष कार्य होता है। ४. समासान्त अध्यर्ध और अर्ध शब्द पूर्व में हो ऐसे पूर णार्थक प्रत्ययान्त शब्द क प्रत्यय होने पर संख्यावत् हो जाते हैं। ५. डयत् प्रत्ययान्त शब्दों से परे जसु को इश् विकल्प से होता है, अत: त्रये, त्रया ये दो रूप बनते हैं। ६. नुम् प्रत्यय के विषय के अप् शब्द शब्द की उपधा विकल्प से दीर्घ होती है-स्वाम्पि, स्वम्पि । ७. नपुसक लिंग में जरस् शब्द से परे सि और अम् का लोप विकल्प से होता है । अतः जरः, जरसम् । आसन शब्द को आसन् होता है। ६. शकारान्त शब्द और राज् भ्राज्-त्रश्च भ्रज आदि के अन्त को ष होता है छ को श करने वाला सूत्र दूसरा है । १०. उपाध्याय की स्त्री के लिए उपाध्याया और उपाध्यायी ये दो प्रयोग है । अध्यापिका के लिए केवल उपाध्याय शब्द है। इयत् का ग्रहण नहीं किया है इस लिए केवल 'त्रया' बनता है। इस सम्बन्ध में कोई विधान नहीं है। विकल्प का विधान नहीं है। आस्य शब्द को आसन् आदेश होता है। इनके साथ छकार को भी पकार होता है। जो स्वयं अध्यापिका है वह उपाध्याया अथवा उपाध्यायी कहलाती है। Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथी जैन व्याकरण साहित्य ३३७ - लक्ष्मण के स्थान पर लक्षण शब्द है-लक्षणोरु । कर्म संज्ञा नित्य होती है, अत: केवल मासमास्ते बनता है। इस शब्द से कोई विधान नहीं है। यह विधान नहीं है अत: कर्म की अविवक्षा में पाचयति चैत्रेण यह रूप निष्पन्न होता है। तृतीया विभक्ति का विधान नहीं है। षष्ठी विभक्ति नित्य होती है। अग्रे और अन्त शब्दों से नहीं होता है। अग्र आदि शब्द समस्त नहीं होते । ११. पूर्वपद में लक्ष्मण शब्द हो तो ऊरु शब्द से ऊड़ समा सान्त प्रत्यय होता है-लक्ष्मणोरु । १२. अकर्मक धातुओं के योग में काल, अध्वा, भाव और देश के आधार की कर्म संज्ञा विकल्प से होती है मास आस्ते, मासे आस्त । १३. येन तेन शब्द के योग में द्वितीया विभक्ति होती है । १४. अविवक्षित कर्मवाली धातुओं के अधिन अवस्था के कर्ता की विकल्प से कर्म संज्ञा होती है। पाचयति मैत्रः चैत्रं चैत्रेण वा । १५. द्वि द्रोण आदि शब्दों से वीप्सा अर्थ में तृतीया और द्वितीया दोनों विभक्तियाँ होती हैं-द्वि द्रोणेन, द्वि द्रोणं-द्विद्रोणं वा धान्यं क्रीणाति । १६. भाव में विहित क्त प्रत्यय के योग में वैकल्पिक षष्ठी छात्रस्य छात्रेण वा हसितम् १७. पारे, मध्ये, अग्रे और अन्तः इन शब्दों का षष्ठ्यन्त ___के साथ समास होता है। १८. द्वि, त्रि, चतुष् और अग्र आदि शब्द अभिन्न अंशी वाचक शब्दों के साथ समस्त होते हैं। १६. तृतीयान्त अर्ध शब्द चतस शब्द के साथ विकल्प से समस्त होता है। २०. परः शता, परः सहस्रः, परो लक्षा, सर्वपश्चात्, समर सिंहः पुनः प्रवृद्धम्, कृतापकृतम् भुक्ता भुक्तम् आदि शब्दों में समास का विधान है। २१. बहुब्रीहि समास में संख्यावाची अध्यर्ध शब्द पूरणार्थक प्रत्ययान्त अर्ध शब्द विकल्प से समस्त होते हैं-अध्यर्ध विंशा, अर्धपंचम विशाः। २२. मास, ऋतु, भ्रातृ और नक्षत्रवाची शब्दों में क्रमशः प्राग निपात होता है। २३. समास मात्र में संख्यावाची शब्दों में क्रमश: प्राग निपात ___ होता है। २४. ओजस्, अजस्, अम्भसे, तपस् और तमस् से परे तृतीया विभक्ति का लुक नहीं होता। २५. अप शब्द से परे सप्तमी विभक्ति का लुक् नहीं होता य योनि मति और चर शब्द परे हो तो। यह विधान नहीं है। इनके सम्बन्ध में कोई विधान नहीं है। समास का विधान नहीं है। मास शब्द नहीं है यह नियम नहीं है। तपस् शब्द नहीं है । मति और चर शब्द नहीं है Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३३८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड अप, सरस्, उरस् और मनस् शब्द नहीं है। वर्षा शब्द नहीं है। संज्ञा का कोई नियम नहीं है। इस सम्बन्ध में सूत्र नहीं है। वह, धातु को भी छोड़ा गया है । आहारक अद धातु को छोड़ा गया है। गृणाति धातु में निषेध नहीं है। ऐसा विधान नहीं है। २६. वर्ष, क्षर, शर, वर, अप, सरस, उरस् और मन से परे सप्तमी का लुक विकल्प से होता है 'ज' परे हो तो। २७. प्रावृष्, वर्षा, शरत् काल और दिव् इनसे परे सप्तमी का लुक् नहीं होता है, उत्तरपद में 'ज' परे हो । २८. श्वन शब्द से परे षष्ठी विभक्ति का लुक नहीं होता शेष आदि शब्द परे हो तो, संज्ञा के नियम में । २६. नासिका शब्द से परे तसु, य प्रत्यय तथा क्षुद्र शब्द हो तो नस् आदेश होता है-नस्तः, नस्यम्, नःक्षुद्रः । ३०. क्रिया-व्यतिहार में गत्यर्थक, शब्दार्थक, हिंसार्थक और हस धातु को छोड़कर अन्य धातुओं से तथा ह और वह, धातु से आत्मनेपद होता है। ३१. चल्यार्थक, आहारार्थक और बुध आदि धातुओं से परस्मैपद होता है कर्तृवाच्य में। ३२. गृणाति, शुभ और रुच धातु से भृश और आभी पण्य अर्थ में यड् प्रत्यय नहीं होता। ३३. जिज्ञासार्थक शक धातु में कर्ता में आत्मनेपद होता है-शिक्षते। ३४. अच् प्रत्यय परे हो तो उकारान्त से विहित यङ् का लोप नहीं होता-योयूयः रोख्यः । ३५. वाष्प, उष्म, धूम और फेन कर्म से उद्वमन अर्थ में क्यड् प्रत्यय होता है। ३६. द्वित्व विधि के प्रसंग के कुछ आचार्य द्वित्व को भी द्वित्व करने के पक्ष में हैं-सुसोसुपिषते । ३७. जु, भ्रम, वम, त्रस, फण, स्यम, स्वन, राज, भ्राज भ्रास, भ्लास इनमें णबादि सेट् थप परे हो तो अ को ए होता है तथा द्वित्व नहीं होता। ३८. कृपण आदि शब्दों को छोड़कर कृप धातु की ऋ और लु आदेश होता है। ३६. अनिट् प्रत्यय परे हो तो ष्ठिवु और षिवु धातु को विकल्प से दीर्घ होता है। ४०. पित् वजित स्वरादि शित्प्रत्यय परे हो तो इंक धातु को य आदेश विकल्प से होता है। ४१. वि पूर्वक श्रम धातु को ति णित् कृत् प्रत्यय और णि प्रत्यय परे हो तो विकल्प से वृद्धि होती हैविश्रामः विश्रमः। यह नियम नहीं है। धूम शब्द से नहीं होता। यह प्रसंग नहीं है, अत: सोसुपिषते । वमति धातु से यह एक विधान नहीं है। कृपण आदि शब्दों को नहीं छोड़ा है। यह विधान नहीं है। इक धातु को इणवत् माना गया है अत: वैकल्पिक विधान नहीं है। वृद्धि का निषेध होने से केवल विश्रमः रूप बनता . Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथी मैन व्याकरण साहित्य ३३६ -.-.-.-. -. -. -. -.-.-.-. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-.-. -. -. -. -.-.-.-.-. -.-.-. नेश आदेश नहीं है-अनशत् । सन् प्रत्यय में पत को विकल्प से इट् अतः क्त क्तवतु में इट नहीं होगा । वम, जप और श्वस से यह नियम नहीं है। ऐसा विधान नहीं है। भज धातु से यह विधान नहीं है। ऐसा नियम नहीं है। ऋच धातु को नहीं छोड़ा गया है । ४२. नश् धातु को विकल्प से नेश आदेश होता है-अनेशत्, अनशत् । ४३. पत धातु से क्त और क्तवत् प्रत्यय में इट् करने से पतितः रूप बना है। ४४. वम, जप, त्वर, रुष, संघुप्, आश्वन और श्वस धातु से परे क्त क्तवतु को विकल्प से इट् होता है। ४५. स्म शब्द सहित माङ् उपपद में हो तो धातु से दिवादि और धादि के प्रत्यय होते हैं। ४६. श्लिष्, शी, स्था, आस, वस्, जन, रुह, भज और ज़ धातु से कर्ता में क्त प्रत्यय विकल्प से होता है। ४७. यज् और भज् धातु से य प्रत्यय विकल्प से होता है पक्ष में ध्यण, यज्यम्, याज्यम् । ४८. कृप, चूत और क्रच धातु को छोड़कर ऋकार उपधा वाली धातुओं से क्यप् प्रत्यय होता है। ४६. कृ, वृष, मृज, शंस, दुह, गुह, और जप धातु से क्यप् प्रत्यय विकल्प से होता है। ५०. तिप्य, पुष्य और सिद्ध्य नक्षत्र अर्थ में क्यप् प्रत्य यान्त निपातन से सिद्ध होते है। ५१. नाम्युपध धातु और ज्ञा, प्री, कृ एवं गृ धातु से क प्रत्यय होता है। धनुष, दण्ड, त्सरु, लाङ्गल, अंकुश, ऋष्टि, शक्ति, यष्टि, तोमर और घट शब्द से परे ग्रह धातु को अच् प्रत्यय विकल्प से होता है। ५३. आदि, अन्त आदि शब्द उपपद में हो तो कृ धातु से ट प्रत्यय होता है। ५४. फले, रजस् और मल शब्द उपपद में हो तो ग्रह धातु से इ प्रत्यय होता है। ५५. देव और वात कर्म उपपद में हो तो आप्ल धातु से इ प्रत्यय होता है—देवापि। ५६. क्षेम, प्रिय, भद्र और भद्र कर्म उपपद में हो तो कृ धातु से अण् और खश् प्रत्यय होते हैं। ५७. बहु, विधु, अरुष और तिल उपपद में हो तो तुद धातु से खश् प्रत्यय होता है। दुह, गुह और जप से वैकल्पिक क्यप् का विधान नहीं है। तिष्य शब्द से यह विधान नहीं है। गृ धातु से नहीं होता। ५२. दण्ड, सरु और ऋष्टि शब्दों से यह विधान नहीं है। क्षपा, क्षणदा, रजनी, दोषा, दिन, दिवस ये शब्द नहीं हैं। रजस् और मन शब्द की उपपदता में नहीं होता। ऐसा सूत्र नहीं है। भद्र शब्द की उपपदता में नहीं होते। बहु शब्द उपपद में हो तो नहीं होता । Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .0 ३४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड ५८. शं, स, स्वयं वि और प्र इनसे परे भू धातु को डु प्रत्यय होता है । ५६. नी, पा, दाप आदि धातुओं से साधन अर्थ में ट् प्रत्यय होता है । ६०. अन्तर्धत और अन्त हन् धातु से अच् प्रत्यय होने पर देश अर्थ में निपातन से सिद्ध होते हैं। , ६१. माति हेति पूति, जूति, शप्ति और कीर्ति कर्ता के अतिरिक्त अन्य कारकों और भाव में निपातन से सिद्ध होते हैं । ६२. स्त्रीलिंग को छोड़कर युव संज्ञक अपत्य की कुत्मा अर्थ में और पौत्रादि अपत्य की अर्चा अर्थ में युव संज्ञा विकल्प से होती है। इससे गार्ग्य और गाविण दोनों रूप में बनते हैं। ६२. एदोश एवेपादौ प्रागदेशे ये दो सूत्र हैं। ६४. दिति, अदिति, आदिव्य, यम तथा जिनके उत्तरपद में पति हो उन शब्दों से इदम् अर्थ को छोड़कर प्राम दीव्यतीत अर्थ में और अपत्यादि अर्थ में अणपवादक प्रत्यय के विषय में तथा अण् प्रत्यय के स्थान में ब प्रत्यय होता है । एवं इदम् अर्थ में अण के स्थान में ही ञ्य प्रत्यय होता है । ६५. विश्रवस् शब्द से अपत्य अर्थ में अण प्रत्यय और उसके योग में अन्त को णकार आदेश होता है और णकार के योग में विशु का सोप विकल्प से होता है-वैचक्षणः, रावणः । ६६. अग्निशर्मन् शब्द से वृषगण गौत्र और पौत्रादि अपत्य अर्थ में तथा कृष्ण और रण शब्द से ब्राह्मण और वाशिष्ठ गौत्र में आयनण प्रत्यय होता है । ६७. दगु कौशल आदि शब्दों से आयनि प्रत्यय और उसे युट् का आगम होता है— दागव्यायानि, कौशल्यायनि । ६८. मोधा शब्द से दुष्ट अवश्य अर्थ में एरण और आर प्रत्यय होते हैं । ६९. अन धेनु शब्द से समूह अर्थ में इकण् प्रत्यय होता है । ७०. पुरुष शब्द से कृत, हित, वध, विकार और समूह अर्थ में एय प्रत्यय होता है । ७१. प्राणी विशिष्ट मे अर्थ में रङ्कुशब्द से वाय प्रत्यय विकल्प से होता है--राहकवायण, राहुकवः । सं और स्वयं शब्दों से नहीं होता। पा धातु से नहीं होता । अन्तर्षण शब्द नहीं है। ज्ञप्ति शब्द नहीं है । युव संज्ञक शब्दों की कुत्सा अर्थ में गोत्र संज्ञा और वृद्ध संज्ञक शब्दों की पूजा अर्थ में युवसंज्ञा होती है । गार्यो जाल्मः --- गार्ग्यायणः । एड प्राचां देशे यह एक ही सूत्र है । इदम् अर्थ में अणपवादक प्रत्ययों के स्थान में भी य का निषेध नहीं है । इस सम्बन्ध में कोई विधान नहीं है । ऐसा विधान नहीं है। दगु शब्द से नहीं होता । दुष्ट अर्थ नहीं है । न को नहीं छोड़ा है । यह विधान नहीं है। अमनुष्य वाची रकु शब्द से यह विधान है । . Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथी जैन व्याकरण साहित्य ३४१ त कुशलपथः यह सूत्र है। इनके सम्बन्ध में कोई विधान नहीं है। सर्वधुर शब्द से इव प्रत्यय होता है । विध्यति अर्थ में य प्रत्यय होता है, पर वह वेधन धनुष से नहीं होना चाहिए। प्रतिजन आदि शब्दों से खञ् प्रत्यय होता है। शक्ति शब्द से नहीं होता। वर्षा और दीर्घ शब्द से नहीं होता। ७२. सप्तम्यर्थ में कुशल अर्थ से यथा विहित प्रत्यय होते हैं--प्रत्यय करने वाला सूत्र है-"कुशले"। ७३. त्यद् आदि पंचम्यन्त शब्दों से प्रभवति अर्थ में मयट् होता है। द्वितीयान्त ज्योतिष् शब्द से अधिकृत्य कृते ग्रन्थे इस अर्थ में अण् प्रत्यय और वृद्धि का अभाव निपातन से होता है। ७४. बहन अर्थ में वामादि पूर्वक धुर् शब्द से ईन प्रत्यय होता है-वामधुरीण सर्वधुरीण: आदि । ७५. द्वितीयान्त से विध्यति अर्थ में प्रत्यय होता है । पादौ विध्यन्ति पद्या, शर्करा। ७६. सर्वजन शब्द से ण्य और ईन तथा प्रतिजन आदि शब्दों से ईनञ् प्रत्यय होता है। ७७. नञ् सु और दुर् से परे शक्ति हलि और सक्थि शब्द हो तो बहुब्रीहि में समा सान्त अ प्रत्यय विकल्प से होता है। ७८. सर्व, अंशवाची शब्द, संख्यात, वर्षा, पुण्य, दीर्घ, संख्या और अव्यय से परे रात्रि शब्द को समासान्त अ प्रत्यय होता है। ७६. सुप्रातः सुश्वः सुदिवः, शारिकुक्ष: चतुरश्रः, एणीपदः, अजपदः प्रोष्ठपद: और भद्रपदः ये शब्द उ प्रत्ययान्त निपातन से सिद्ध होते हैं। ८०. मन्द, अल्प और नजादि शब्दों से परे युधा शब्द को समासान्त अस् प्रत्यय होता है। ८१. तमादि प्रत्ययों से पहले तक भृश, आभीक्ष्ण्य, सातत्य और वीप्सा अर्थ में वर्तमान पद पर वाक्य द्वित्व होता है । ८२. अनेक पुद्राथों में भेदपूर्वक इयत्ता का ज्ञान हो उसे नानावधारण कहते हैं। नानावधारण अर्थ में वर्तमान शब्द द्वित्व होता है-"अस्मान् कार्षापणात् मापं माष देहि" यहाँ माषं-माष द्वित्व हुआ है। ८३. दूसरों की अपेक्षा प्रकर्ष द्योतित हो तो पूर्व और प्रथम शब्द द्वित्व होते हैं-पूर्व पूर्व पुष्यन्ति, प्रथम-प्रथम पच्यन्ते । ८४. समान व्यक्तियों के बारे में प्रश्न हो तथा उसका सम्बन्ध भाववाची स्त्रीलिंग शब्दों से हो उतर, उत्तम प्रत्ययान्त शब्द रूप द्वित्व होते हैं-उभौ इमो आढ्यौ कतरा-कतरा अनयोः आढ्यता? भद्रपदः शब्द नहीं है। यह नियम नहीं है। तमादि प्रत्ययों से पहले का विधान नहीं है। इन नियमों के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं। Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ८५. जिस नक्षत्र में बृहस्पति का उदय हो तद्वाची तृतीयान्त शब्दों से युक्त अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होते हैं । वह युक्त अर्थ संवत्सर होना चाहिए-पुष्येण उदित-गुरुणा युक्तं वर्षम् पौषं वर्षम्। पाणिनीय और भिक्ष शब्दानुशासन के भेदस्थलों की सूचना का आधार एक हस्तलिखित पत्र है । उस पत्र की निष्पत्ति में आचार्य श्री तुलसी के मूल्यवान् क्षणों का योग है। वह पत्र प्राप्त नहीं होता तो इतने थोड़े समय में व्याकरण के दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का अध्ययन कर उनकी भिन्नता के बारे में लिखना बहुत कठिन हो जाता। पाणिनीय की भाँति अन्य व्याकरण ग्रन्थों और भिक्षुशब्दानुशासन के बीच की भेदरेखाएँ भी स्पष्ट की जा सकती हैं, किन्तु यह काम बहुत श्रम-साध्य है। इसके लिए सब व्याकरण ग्रन्थों का सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करना आवश्यक है। जिन विद्यार्थियों की व्याकरण में विशेष अभिरुचि है, वे इस काम में सफल हो सकते हैं । लेकिन उन्हें भी किसी अच्छे वैयाकरण के पथ प्रदर्शन की अपेक्षा रहेगी। उचित पथ-दर्शन में जागरूकता के साथ इस क्षेत्र में गति की जाए तो व्याकरण साहित्य में एक नई विधा का पल्लवन हो सकता है। स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद् विमुच्यते ॥ -वेदान्त दर्शन आत्मा स्वयं ही कर्म करता है और स्वयं ही उनका फल भोगता है। अपने कर्मों के कारण स्वयं ही संसार में भ्रमण करता है और स्वयं ही कर्मों से छूट कर मुक्त हो जाता है। Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्परा डॉ० गेहरीलाल शर्मा [प्रवक्ता-संस्कृत, राजकीय उ० मा० विद्यालय, लोहारिया, जिला-बांसवाड़ा (राजस्थान)] भारत में व्याकरण शास्त्र के अध्ययन और अध्यापन की जड़ें बहुत गहरी हैं। यहाँ पर व्याकरण की शिक्षा को सदैव ही प्रमुख स्थान मिलता रहा है। शास्त्र की अनेक शाखाओं में व्याकरण को प्रधान माना गया है--'प्रधानं च षडङ्गषु व्याकरणम् ।' व्याकरण शब्द का अर्थ स्पष्ट करने के लिए उसकी यह परिभाषा प्रसिद्ध है--'व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा: अनेन इति व्याकरणम् ।' अर्थात् जिसके द्वारा प्रकृति और प्रत्यय को अलग-अलग करके शब्द की व्युत्पत्ति का ज्ञान किया जाय, वह व्याकरण है। जब से भाषा का प्रारम्भ हुआ, तब से उसके नियमों व उपनियमों के ज्ञाता विद्वान् भी रहे हैं। जिस प्रकार पाणिनि संस्कृत-व्याकरण-शास्त्र के जनक माने जाते हैं, उसी तरह जैनाचार्यों ने भी व्याकरण शास्त्र के क्षेत्र में अनेक नई उद्भावनाएँ प्रस्तुत की हैं । प्राकृत में लिखे गये आगम ग्रन्थों में यत्र-तत्र प्राकृत व्याकरण के नियमों का उल्लेख मिलता है । आचारांगसूत्र में एकवचन, द्विवचन एवं बहरचन, स्त्रीलिंग, पुल्लिग एवं नपुंसकलिंग तथा वर्तमान, भूत एवं भविष्यत् काल के वचनों का उल्लेख है। यथा समियाए, संजए, भासं, भासेज्जा, तं जहा—एगवयणं, बहुवयणं, इत्थीवयणं, णपुंसगवयणं, पच्चक्खवयणं, परोक्खवयणं॥ —आयार चूला, ४.१, सूत्र ३. स्थानांगसूत्र में आठ कारकों का सोदाहरण निरूपण है । यथा अट्ठविहा वयणविभत्ती पण्णत्ता, तं जहाणिद्दे से पढमा होई, बितिया उवएसणे । तइया करणम्मि कया, चउत्थी संपदावणे ॥१॥ हवइ पुण सत्तमी तंमि, मम्मि आहारकालभावे य । आमंतणी भवे अट्ठमी, उ जह हे जुवाणत्ती ॥६॥ -स्थानांगसूत्र, अष्टमस्थान, सूत्र ४२. Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थः पंचम खण्ड इसके अतिरिक्त अनुयोगद्वारसूत्र में शब्दानुशासन सम्बन्धी पर्याप्त विवेचन हुआ है। इसमें नाम शब्द, समास, आख्यात शब्द आठों विभक्तियों आदि का विस्तृत विवरण विद्यमान है। इस प्रकार प्रकृत ग्रन्थों में प्राकृत-व्याकरण सम्बन्धी नियमों का उल्लेख मिलता है, पर प्राकृत भाषा में ही लिखा गया कोई स्वतन्त्र व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है । प्राकृत भाषा के जितने भी व्याकरण लिखे गये वे सभी संस्कृत भाषा में ही लिखे गए। उन ग्रन्थों में कुछ ग्रन्थों का केवल उल्लेख ही मिलता है। कुछ उपलब्ध हैं, कुछ अनुपलब्ध हैं। ऐसे ग्रन्थों में चण्डकृत प्राकृत लक्षण, त्रिविक्रमकृत प्राकृत शब्दानुशासन आदि प्रमुख हैं। ___ जैन परम्परा में संस्कृत व्याकरण ग्रन्थों की रचना कब से हुई, यह कहना कठिन है । इस परम्परा में सबसे प्राचीन उपलब्ध व्याकरण शास्त्र आचार्य देवनन्दी की कृति जैनेन्द्र व्याकरण है। पर प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह मानना उचित है कि आचार्य देवनन्दी के पूर्व भी जैन परम्परा से सम्बन्धित व्याकरण की कृतियाँ थीं। जिस प्रकार महर्षि पाणिनि के व्याकरण ग्रन्थ शब्दानुशासन में उनमें पूर्व के वैयाकरणों का उल्लेख मिलता है, उसी प्रकार जैनेन्द्र व्याकरण से लेकर परवर्ती जैन परम्परा के व्याकरण ग्रन्थों में पूर्वाचार्यों और उनकी कृतियों का उल्लेख है। उनमें से शब्दप्रभृत, ऐन्द्र व्याकरण और क्षपणक व्याकरण प्रसिद्ध हैं। शब्दप्राभृत (सद्दपाहुड) परम्परा के अनुसार शब्दप्राभूत या सद्दपाहुड की रचना संस्कृत में की गई थी। यह पूर्वग्रन्थों का अंग है। जैन आगमों के दृष्टिवाद में चौदह पूर्व शामिल थे। ये पूर्व ग्रन्थ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के माने जाते हैं। पार्श्वनाथ का समय भगवान महावीर से दो सौ पचास वर्ष पूर्व का माना जाता है। इससे ज्ञात होता है कि पूर्वो की रचना ईसा पूर्व आठवीं शती में हुई होगी। अत: शब्द प्राभूत का समय भी आठवीं शती माना जा सकता है। सिद्धसेनगणि ने कहा है कि पूर्व ग्रन्थों में जो शब्द प्राभृत है, उसी में से व्याकरणशास्त्र का उद्भव हुआ है। चौदह पूर्व संस्कृत भाषा में थे अतः इसकी भाषा भी संस्कृत हो रही होगी ।२। डॉ० नेमिचन्द शास्त्री के अनुसार सत्यप्रवाद पूर्व में व्याकरणशास्त्र के नियमों का उल्लेख मिलता है। इसमें वचन संस्कार के कारण, शब्दोच्चारण के स्थान, प्रयत्न, वचन भेद आदि का विवेचन किया गया है । इस प्रकार सत्यप्रवाद पूर्व में व्याकरणशास्त्र का प्रारम्भिक स्वरूप स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। ऐन्द्र व्याकरण अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा में ऐन्द्र व्याकरण का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इस व्याकरण के कर्ता भगवान् महावीर को माना जाता है । परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर ने इन्द्र के लिए एक शब्दानुशासन कहा। उसे उपाध्याय लेखाचार्य ने सुनकर ऐन्द्र नाम से लोक में प्रकट किया । इस सम्बन्ध में आवश्यक नियुक्ति तथा हारिभद्रीय आवश्यकवृत्ति में कहा है सक्को आ तत्समक्खं, भगवंत आसणे निवेसिता। सदस्स लक्खणं पुच्छे, वागरणं अवयवा इदं ॥ बहुत समय तक आचार्य देवनन्दी के जैनेन्द्र व्याकरण को ही ऐन्द्र व्याकरण मानने का भ्रम चलता रहा। १. संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा, पृ० ३६. (गोकुलचन्द का लेख) २. पं० अम्बालाल प्रे० शाह-जैन साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग ५, पृ० ६. ३. डॉ० नेमिचन्द शास्त्री-जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान, पृ०४२-४३. Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्परा ३४५ पर वस्तुतः ये दोनों व्याकरण भिन्न हैं । जैनेन्द्र व्याकरण के पहले ही ऐन्द्र व्याकरण के उल्लेख मिलते हैं। इस भ्रम को फैलाने का जिम्मेदार रत्नर्षि के “भग्वद्वाग्वादिनी" नामक ग्रन्थ को मानते हुए डॉ० गोकुलचन्द जैन ने इस भ्रम के निवारण का प्रयास किया है। इस ऐन्द्र व्याकरण की रचना ईसापूर्व ५६० में हुई होगी, ऐसा विद्वान् लोग मानते हैं। पर यह व्याकरण अद्यावधि उपलब्ध नहीं हुआ है। क्षपणक व्याकरण अनेकानेक ग्रन्थों में आये हुए प्रमाणों से ज्ञात होता है कि किसी क्षपणक नामक वैयाकरण ने भी शब्दानुशासन की रचना की थी। तन्त्रप्रदीप में क्षपणक के व्याकरण का अनेक बार उल्लेख हुआ है। एक स्थान पर आया है 'अत एव नावमात्मानं मन्यते इति विग्रहपरत्वादनेन हस्वत्वं बाधित्वा अमागमे सति "नावं मन्ये' इति क्षपणक व्याकरण दशितम् ।' कवि कालिदास रचित "ज्योतिर्विदाभरण" नामक ग्रन्थ में विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में क्षपणक का भी उल्लेख हुआ है । यथा-- धन्वन्तरि क्षपणकोऽमरसिंह शंकु-. वेतालभट्ट घटकपर-कालिदासाः ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नवविक्रमस्य ।। तन्त्रप्रदीप सूत्र ४.१.१५५ में "क्षपणक महान्यास" का उल्लेख है। उज्ज्वलदत्त विरचित "उणादिवृत्ति" में "क्षपणक वृत्तौ अत्र इति शब्द आद्यर्थे व्याख्यातः” इस प्रकार उल्लेख किया गया है । इससे ज्ञात होता है कि शब्दानुशासन के अतिरिक्त न्याय और वृत्ति ग्रन्थ भी क्षपणक विरचित रहे होंगे । पर आज तक क्षपणक के अन्य शास्त्रों में उल्लेख के अतिरिक्त उनकी किसी भी प्रकार की रचना प्राप्त नहीं हुई है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि व्याकरण की परम्परा में यह जैन व्याकरणत्रयी बहुत महत्त्वपूर्ण है। परवर्ती व्याकरणशास्त्रकारों ने इस त्रयी को अत्यन्त आदर के साथ स्मरण किया है । इनके अतिरिक्त देवनन्दी ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण में श्रीदत्त, यशोभद्र, भूतबलि, प्रभाचन्द्र, सिद्धसेन और समन्तभद्र इन प्राचीन जैनाचार्यों के मतों का उल्लेख किया है । परन्तु इन आचार्यों का कोई भी ग्रन्थ अद्यावधि उपलब्ध नहीं हुआ है और न कहीं अन्यत्र इनके वैयाकरण होने का उल्लेख मिलता है। इन पूर्वाचार्यों के पश्चात् जैन व्याकरण परम्परा के व्याकरणशास्त्र उपलब्ध होने लगते हैं । उपलब्ध व्याकरण शास्त्रों की भी एक दीर्घ-परम्परा विद्यमान है। इस परम्परा के अन्तर्गत अनेक आचायों ने महत्त्वपूर्ण व्याकरणशास्त्रों की रचनाएँ थीं। इन स्वयं ने तथा अन्यान्य आचार्यों ने इनके व्याकरण पर परप्रक्रिया ग्रन्थ, वृत्तियाँ, न्यासग्रन्थ आदि ग्रन्थों की रचनाएँ की । इन पर विस्तार से प्रकाश डालने पर इनका महत्त्व स्वतः प्रकट हो जायगा। जैनेन्द्र व्याकरण उपलब्ध जैन व्याकरण के ग्रन्थों में जैनेन्द्र व्याकरण प्रथम कृति मानी जाती है। इसकी रचना पूज्यपाद आचार्य देवनन्दी ने की। देवनन्दी दिगम्बर परम्परा के विश्रुत जैनाचार्य थे। उनके पूज्यपाद तथा जैनेन्द्रबुद्धी नाम भी प्रचलित थे। नन्दीसंघ की पट्टावली में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है -0 १. संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० ४०. २. भरत कौमुदी, भाग २, पृ०८६३ की टिप्पणी. ३. (i) गुणे श्रीदत्तस्यास्त्रियाम् ॥१. ४. ३४ ॥ (i) कृवृषिमृजां यशोभद्रस्य ॥२. १.६६ ॥ - 0 . Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............................................ यशः कीतियशोनन्दि देवनन्दी महामतिः । श्री पूज्यपादापराख्यो, गुणनन्दो गुणाकरः ॥ श्रवणबेलगोल के ४० वे शिलालेख में देवनन्दी का जिनेन्द्रबुद्धी नाम बताया गया है । यथा--- यो देवनन्दि प्रथमाभिधानो, बुद्ध या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः । श्री पूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं मदीयम् ॥ जिनका प्रथम नाम देवनन्दी था, एवं बुद्धि की महत्ता के कारण जिनेन्द्रबुद्धि नाम हुआ, देवताओं द्वारा जिनके चरणों की पूजा की गई, अतः पूज्यपाद देवनन्दी उत्पन्न हुए। बौद्ध साधु जिनेन्द्रबुद्धि से पूज्यपाद देवनन्दी भिन्न रहे हैं। इनका समय चौथी से छठी शताब्दी के बीच में माना जाता है। मुग्धबोध के कर्ता वोपदेव ने अपने एक पद्य में आठ वैयाकरणों के नामों का उल्लेख किया है इन्द्रश्चन्द्रकाशकृत्स्नापिशली -शाकटायना । पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ।। इस पद्य में जैनेन्द्र का नाम भी आया है। यदि यह नाम जैनेन्द्र-व्याकरण के कर्ता जैनेन्द्रबुद्धि का ही हो तो इनका समय पाणिनि पूर्व का माना जा सकता है। पर युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार पूज्यपाद के 'अरुणन्महेन्द्रो मथुराम्' उदाहरण में गुप्तवंशीय कुमारगुप्त की मथुराविजय की ऐतिहासिक घटना सुरक्षित है। इससे प्रकट होता है कि पूज्यपाद कुमारगुप्त के समकालिक होने से ५वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुए होंगे। अद्यावधि प्राप्त प्रमाणों के आधार पर यही ज्ञात होता है कि जैनाचार्य द्वारा रचित मौलिक व्याकरणों में जैनेन्द्र व्याकरण सर्वप्रथम रचना हैं । इसमें पांच अध्याय है। इसी कारण इसका नाम पंचाध्यायी भी है। पाणिनि की तरह ही विधानक्रम को दृष्टिगत रखते हुए सूत्रों की रचना की गई है। एकशेष प्रकरण रहित याने अनेकशेष रचना इस व्याकरण की अपनी विशेषता है। इसमें संज्ञाएँ अल्पाक्षरी हैं। इस ग्रन्थ की रचना करते समय पाणिनीय अष्टाध्यायी को आधार माना गया है। संज्ञाओं के अल्पाक्षरी होना, वैदिक प्रयोगों को भी लौकिक मान कर सिद्ध करना आदि कुछ ऐसे कारण हैं, जिनसे यह व्याकरण कुछ क्लिष्ट हो गई है। डॉ० गोकुलचन्द जैन लिखते हैं कि आचार्य देवनन्दी ने पाणिनीय अष्टाध्यायी को आधार मानकर उसे पंचाध्यायी में परिवर्तित करते समय दो वातों की ओर विशेष ध्यान रखा था। एक तो धातु, प्रत्यय, प्रातिपदिक, विभक्ति, समास आदि अन्वर्थ महासंज्ञाओं को बीजगणित की तरह अतिसंक्षिप्त संकेतों में बदल दिया हैं । दूसरे जितने स्वर सम्बन्धी तथा वैदिक प्रयोग सम्बन्धी मूत्र थे उनको छोड़ दिया है। इस रचना के दो पाठ प्राप्त होते हैं । इसके प्राचीन पाठ में ३००० हजार सूत्र तथा अर्वाचीन संशोधित पाठ में ३६०० सूत्र हैं । अनेक सूत्रों और संज्ञाओं में भी भिन्नता है। दोनों पाठों पर अलग-अलग टीका ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं । इतना भेद होते हुए भी इनमें पर्याप्त मात्रा में समानता विद्यमान है। शाकटायन व्याकरण महर्षि पणिनि के शब्दानुशासन में अनेक स्थानों पर शाकटायन का उल्लेख है, पर इनके किसी व्याकरण के होने के प्रमाण नहीं मिलते हैं। जब १८६४ में बुहलर को शाकटायन शब्दानुशासन की पाण्डुलिपि का कुछ अंश १. पं० अम्बालाल प्रे० शाह --जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग ५, पृ०८. २. पं० अम्बालाल प्रे० शाह-जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग ५, पृ० ८. ३. युधिष्ठिर मीमांसक-जैनेन्द्र शब्दानुशासन तथा उसके भिन्न पाठ, जैनेन्द्र-महावृत्ति, ४३.४४. ४. संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० ४६. Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्परा ३४७ मिला तो उन्होंने संस्कृत जगत् को अवगत कराया कि पाणिनि द्वारा उल्लिखित शाकटायन वैयाकरण का ग्रन्थ उपलब्ध हो गया है। पर वास्तव में यह भ्रम था, जिसका आगे चलकर निवारण हो गया । वास्तव में यह पाण्डुलिपि यापनीय संघ के अग्रणी आचार्य पाल्यकीर्ति द्वारा रचित 'शब्दानुशासन' की थी। ये पाल्यकीति ही जैन-व्याकरण परम्परा में 'शाकटायन' नाम से प्रसिद्ध रहे हैं। उनके इस नाम का कारण व्याकरण के क्षेत्र में प्रसिद्ध आचार्य होने के कारण, पाणिनि से पूर्व के आचार्य शाकटायन की उपाधि रहा होगा। उनके इस नाम के आधार पर ही उनका ग्रन्थ 'शाकटायन व्याकरण' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । आचार्य पाल्यकीर्ति राजा अमोघवर्ष के राज्यकाल में हुए थे। वह वि० सं०८७१ में राजगद्दी पर बठा । अत: पाल्यकीर्ति ने अपनी कृति की रचना हवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में की होगी। इस व्याकरण में भी प्रकरण विभाग नहीं है। पाणिनि की तरह विधान-क्रम का अनुसरण करके सूत्र रचना की गई है । प्रक्रिया क्रम की रचना करने का भी प्रयत्न किया है पर ऐसा करने से कुछ क्लिष्टता तथा विप्रकीर्णता आ गई है । यद्यपि इसकी रचना करते समय पाणिनि के शब्दानुशासन को दृष्टिगत रखा है, फिर भी अनेक क्षेत्रों में इसमें भिन्नताएँ हैं । अध्यायों का विभाजन, विषय-वस्तु का प्रस्तुतीकरण, स्वरनियमों का अभाव, प्रत्याहार सूत्रों में परिवर्तन आदि अनेक तत्त्व हैं जो इस व्याकरण को पूर्वाचार्यों की व्याकरण से भिन्न करते हैं। डॉ० गोकुलचन्द जैन ने १६ ऐसी विशेषताएं बताई हैं जो इस व्याकरण की अन्य पूर्वाचार्यों के व्याकरण से भिन्नता प्रकट करती हैं। यक्षवर्मा ने इस ग्रन्थ की चिन्तामणि टीका में इसकी विशेषता बताते हुए लिखा है इष्टिर्नेष्टा न वक्तव्यं वक्तव्यं सूत्रतः पृथक् । संख्यानं नोपसख्यानं यस्य शब्दानुशासने ।। इन्द्रचन्द्रादिभिः शब्दर्यदुक्तं शब्दलक्षणम् । तदिहास्ति समस्तं च यत्रेहास्ति न तत् क्वचित् ।। अर्थात् शाकटायन व्याकरण में इष्टियां पढ़ने की आवश्यकता नहीं। सूत्रों से पृथक् कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं है । उपसंख्यान करने की भी आवश्यकता नहीं है। इन्द्र, चन्द्र आदि वैयाकरणों ने जो कुछ शब्दलक्षण कहा है, वह सब कुछ इसमें विद्यमान है । जो इसमें नहीं है, वह कहीं पर भी नहीं है। पंचग्रन्थी व्याकरण इस व्याकरण का अपरनाम 'बुद्धिसागर व्याकरण' और 'शब्दलक्ष्म' भी है। इस ग्रन्थ की रचना श्वेताम्बआचार्य बुद्धिसागर सूरि ने वि० सं० १०८० में की थी। श्वेताम्बराचार्यों के उपलब्ध व्याकरण ग्रन्थों में सर्वप्रथम इन्हीं की रचना आती हैं। ये आचार्य वर्धमानसूरि के शिष्य थे। ग्रन्थ की रचना का उद्देश्य बताते हुए स्वयं आचार्य ने कहा है कि जैन परम्परा में शब्दलक्ष्म और प्रमालक्ष्म का अभाव है। इस क्षेत्र में ये पर-ग्रन्थोपजीवी हैं। दुर्जनों के इस आक्षेप के निवारण के लिए इस ग्रन्थ की रचना की गई है। १. संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० ६१-६४. २. सूत्र और वात्तिक से सिद्ध न होने पर भाष्यकार के प्रयोगों से जो सिद्ध हो उसको इष्टि कहते हैं। ३. श्री विक्रमादित्य नरेन्द्रकालात् साशीतिकं याति समासहस्र स श्रीकजावा लिपुरे तदाद्य दृब्धं मया सप्तसहस्रकल्पम् ।। -व्याकरणप्रान्त प्रशस्ति. ४. तैरवधीरिते यत्तु प्रवृत्तिरावयोरिह । तत्र दुर्जनवाक्या नि प्रवृत्त : सन्निबन्धनम् ॥ ४०३ ।। शब्दलक्ष्मप्रमालक्ष्म यदेतेष्णां न विद्यते । नादिमन्तस्ततो ह्य ते परलक्ष्मोपजीविनः ।। ४०४ ॥ - 0 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 ३४८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड, यह ग्रन्थ ७००० श्लोक प्रमाण गद्य-पद्यमय रचना है। इसकी रचना अनेक व्याकरण ग्रन्थों के आधार पर की गई है। धातु सूत्र, गण पाठ, उणादिसूत्र वृतबन्ध में हैं। इस व्याकरण की हस्तलिखित प्रति जैसलमेर भण्डार में है। प्रति अत्यन्त अशुद्ध है । सिद्धमानुशासन श्वेताम्बराचार्यों में हेमचन्द्रसूरि का नाम बहुत प्रसिद्ध आचार्यों की श्रेणी में आता है । इन्होंने गुर्जरनरेश सिद्धराज जयसिंह की प्रार्थना पर एक शब्दानुशासन की रचना की । इन्होंने इस ग्रन्थ का नाम सिद्धराज और अपना नाम साथ में जोड़कर सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन रखा । इसका रचनाकाल वि० सं० ११४५ के आस-पास है । यह ग्रन्थ बहुत ही लोकप्रिय हुआ । इसी कारण इस पर ६२-६३ टीकाएँ हैं । इस ग्रन्थ की परिपूर्णता की दृष्टि से वृत्तियों, उणादिपाठ, गणपाठ धातुपाठ तथा निमानुशासन भी उन्होंने स्वयं ही लिखे हैं । आचार्य का उद्देश्य पूर्वाचायों के व्याकरणों में विद्यमान कमियों को दूर करते हुए एक सरल व्याकरण की रचना करना रहा है । इस शब्दानुशासन में कुल आठ अध्याय हैं, जिनमें से प्रथम सात संस्कृत भाषा के लिये हैं तथा अन्तिम एक प्राकृत भाषा के लिए हैं। प्रत्येक अध्याय में चार पाद है । कुल मिलाकर ४६८५ सूत्र हैं । इस व्याकरण को विशृंखलता, क्लिष्टता, विस्तार और दूरान्वय जैसे दोषों से बचाया गया है। इसकी सूत्र संकलना दूसरे व्याकरणों की अपेक्षा सरल और विशिष्ट प्रकार की है। संज्ञाएं सरल हैं। विधयक्रम, संज्ञा, सन्धि, स्यादि कारकत्व गर स्त्रीप्रत्यय, समास, आख्यात, तद्धित और कृदन्त के रूप में रखा गया है । इस व्याकरण की अनेक विशेषताओं पर डॉ० नेमिचन्दशास्त्री ने विस्तारपूर्वक विचार किया है।" हेमचन्द्राचार्य अपने इस शब्दानुशासन की रचना के लिए विशेष रूप से शाकटायन के ऋणी रहे हैं। जहाँ पर शाकटायन के सूत्रों से काम चला वहाँ पर वे ही सूत्र रहने दिये तथा जहाँ पर परिवर्तन की आवश्यकता हुई, उसमें परिवर्तन किया । इनके व्याकरण का इतना प्रभाव फैल गया कि इन्होंने बड़े आत्मविश्वास के साथ कहा कि. "आकुमारं यशः शकटायनस्य" । अर्थात् शाकटायन का यश कुमारपाल तक ही रहा। क्योंकि तब तक "सिद्धहेमचन्द्रानुशासन' न रचा गया था और न प्रचार में आया था। दीपक व्याकरण इस व्याकरण की रचना श्वेताम्बराचार्य भद्रेश्वरसूरि ने की। गणरत्न महोदधि में इसका उल्लेख करते हुए वर्धमान सूरि ने लिखा है- मेवाविनः प्रवरदीपक का उसी की व्याख्या में आगे लिखा है— दीपककर्ता भद्रेश्वरसूरिः । प्रवरश्चासो दीपककर्त्ता च प्रवरदीपककर्ता प्राधान्यं चास्याधुनिक वैयाकरणपेक्षया' सायण रचित धातु वृत्ति में श्री भद्र के नाम से व्याकरण विषयक मत के अनेक उल्लेख हैं। संभवतः वे दीपक व्याकरण के होंगे । भद्रेश्वर सूरि ने इस ग्रन्थ के अतिरिक्त लिंगानुशासन और धातुपाठ की भी रचना की होगी क्योंकि सायण और वर्धमान ने इस प्रकार के उल्लेख किये हैं। इनका समय १२वीं या १३वीं वि० शताब्दी माना गया है । । - शब्दानुशासन (मुष्टिव्याकरण) वि० की १२वीं शताब्दी में आचार्य मलयगिरि हुए जो हेमचन्द्रसूरि के सहचर वे उन्होंने भी शब्दानुशासन की रचना की जिसे मुष्टिव्याकरण भी कहते हैं । इन्होंने अपने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना कुमारपाल के राज्यकाल में की है। इस बात के अनुमान का आधार उनके व्याकरण का ख्याते दृश्यते (२२) यह सूत्र है । इसे उदाहरण के रूप उन्होंने "अदहदरातीन् कुमारपाल : " ऐसा लिखा है । १. डॉ० नेमिचन्द जैन जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान, पृ० ५३ - ६०. २. पं० अम्बालाल प्रे० शाह – जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० २३. Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्पर ३४६ ................................................................... ...... यह ग्रन्थ स्वोपज्ञवृत्ति युक्त है । आचार्य क्षेमकीतिसूरि ने बृहत्कल्प की टीका की उत्थानिका में "शब्दानुशासन सनादि विश्वविश्वविद्यामय ज्योति: पुजपरमाणुधटित मूर्तिभिः" इस प्रकार का उल्लेख मलयगिरि के इस व्याकरण के सम्बन्ध में किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि विद्वानों में इस व्याकरण का उचित आदर था। यह व्याकरण ग्रन्थ अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर की ओर से प्राध्यापक पं० बेचरदास दोशी के संपादकत्व में प्रकाशित हो चुका है। शब्दार्णवव्याकरण वि० सं० १६८० के आसपास खरतरगच्छीय वाचक रत्नसार के शिष्य सहज-कीर्तिगणि ने शब्दार्णव व्याकरण की रचना की । उन्होंने इस व्याकरण ग्रन्थ की रचना अनेक व्याकरण ग्रन्थों का अवलोकन कर की तथा इसे अधिकारों में वर्गीकृत किया। इन अधिकारों को निम्न पद्यों में प्रकट किया है संज्ञाश्लेषः शब्दाः षत्व-णत्वे कारकसंग्रहः । समासस्त्रीप्रत्यश्च, तद्धिता कृञ्चधातवः ।। दशाधिकारा एतेऽत्र व्याकरणे यथाक्रमम् । साङ गाः सर्वत्र विज्ञ या, यथा शास्त्र प्रकाशिताः ।। भिक्षुशब्दानुशासन जैन व्याकरण-परम्परा में अतीव अर्वाचीन एवं सर्वाङ्गपूर्ण संस्कृत-व्याकरण के विषय में यदि जानना चाहें तो इसमें भिक्षुशब्दानुशासन पर दृष्टिपात करना होगा। इस व्याकरण ग्रन्थ की रचना की प्रेरणा के स्रोत तेरापंथधर्मसंघ के अष्टम आचार्य कालूगगी रहे हैं। आचार्यजी को संस्कृत विद्या से अगाध प्रेम था। इसी अनुराग ने एक साङ्गपूर्ण नवीन व्याकरण की सर्जना की भावना को जन्म दिया। उनकी इस भावना को मूर्तरूप विद्वद्वर्य मुनि श्री चौथमलजी ने दिया। उनका अध्ययन आचार्य कालूगणी की देख-रेख में सम्पन्न हुआ था। इनका प्रिय विषय व्याकरण था। इस रुचि के कारण ही उन्होंने पाणिनीय, शाकटायन, सारस्वत, सिद्धान्तचन्द्रिका, मुग्ध-बोध, सारकौमुदी, जैनेन्द्र व्याकरण और सिद्धहेमशब्दानुशासन का गहरा अध्ययन एवं अनुशीलन किया। इस अनुशीलन के कारण उनमें आचार्य कालूगणी की भावना की मूर्त रूप देने की क्षमता आ गई। वर्षों के अध्ययन के बाद सभी शब्दानुशासन के ग्रन्थों से आवश्यक सामग्री को लेकर इन्होंने विशाल शब्दानुशासन की रचना की। इसकी रचना थली प्रदेश में छापर में सम्पन्न हुई। इसका रचनाकाल विक्रम संवत् १९८०-१९८८ है। १९८८ के माघ शुक्ला त्रयोदशी शनिवार को पुष्यनक्षत्र में यह कृति पूरी हुई। विशालशब्दानुशासन के सूत्रों में परिवर्तन एवं परिवर्तन परिवर्धन करके इस ग्रन्थ का निर्माण करने के कारण प्रारम्भ में इसका नाम विशालशब्दानुशासन ही रखा गया। पर बाद में मुनि श्री गणेशमलजी की प्रेरणा से इनका नाम भिक्षुशब्दानुशासन रखने की दृष्टि से आचार्य कालूगणी की स्वीकृति के लिये उनके पास भेजा गया । आचार्यजी ने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। उसके पश्चात् विक्रम संवत् १९६१ में इसका नाम भिक्षुशन्दानुशासन रख दिया गया। इस ग्रन्थ के सूत्रों की रचना मुनि श्री चौथमलजी ने की तथा इसकी वृत्ति की रचना का कार्य पण्डितश्री रघुनन्दन शर्मा ने पूरा किया। पण्डितजी व्याकरण के उच्चकोटि के विद्वान् थे। पाणिनीय व्याकरण उन्हें कण्ठस्थ था। इस प्रकार मुनि श्री चौथमलजी और पण्डित रघुनन्दनजी दोनों के संयुक्त प्रयास से विशालकाय भिक्ष शब्दानुशासन भ्याकरण ग्रन्थ पूरा हुआ। इसमें शब्दों के अनुशासन सूत्रों के साथ-साथ उनकी व्याख्याएँ भी हैं। यह लघु और बृहद् वृत्ति से युक्त है। यह धातुपाठ, गणपाठ, उणादि, लिंगानुशासन, न्यायदर्पण, कारिका संग्रह वृत्ति आदि अवयवों से परिपूर्ण Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड है । इसके सूत्रों की रचना सरल व स्पष्ट है। जैसे प्रत्याहार सूत्र अ इ उ ऋ लृ ए ऐ ओ औ, ह य व र ल ज णन ङम आदि । १ C ऊपर वर्णित जैन व्याकरण परम्परा में संस्कृत के प्रमुख व्याकरण हैं। इनके अतिरिक्त भी अनेक ऐसे व्याकरण और उपलब्ध होते हैं जिनका महत्त्व प्रतीत नहीं होता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए उनका यहाँ संक्षेप में उल्लेख कर देना ही उचित होगा। अतः अग्रिम पंक्तियों में उन पर एक सूचनात्मक दृष्टिकोण से संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत की जा रही है । शब्दार्णव +0+0+0+0 आचार्य गुणनन्दि ने जैनेन्द्र व्याकरण के सूत्रों से कुछ परिवर्तन और परिवर्धन कर इस व्याकरण की रचना की । इसका रचनाकाल विक्रम सम्बत् १००० के आसपास है । प्रेमलाभ व्याकरण इसकी रचना अंचलगच्छीय मुनि प्रेमलाभ ने की है। इसका रचनाकाल वि० सं० १२८३ है। इसका नाम इसके रचयिता के नाम पर ही रख दिया गया है। यह एक स्वतन्त्र व्याकरण रचना है । विद्यानन्द व्याकरण तपागच्छीय आचार्य देवेन्द्र सूरि के शिष्य विद्यानन्द सूरि ने अपने ही नाम पर इस ग्रन्थ की रचना की । सका रचनाकाल वि० सं० १३१२ है । यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । गुर्वावली में आचार्य मुनि सुन्दरसूरि ने कहा है कि इस व्याकरण में सूत्र कम हैं, परन्तु अर्थ बहुत है। इसलिए यह व्याकरण सर्वोत्तम जान पड़ता है। नूतन व्याकरण कृष्णषिच्छ के महेन्द्र सूरि के शिष्य जयसिंह ने वि० सं० १४४० के आसपास इस नूतन व्याकरण की रचना की । यह व्याकरण स्वतन्त्र है अथवा किसी अन्य बृहद् व्याकरण ग्रन्थ पर आधारित, यह स्पष्टीकरण नहीं हुआ है। बालबोध व्याकरण २. जैनग्रन्थावली के अनुसार इसके रचयिता आधार पर की गई है। इसका रचनाकाल वि० सं० १४४४ है । शब्दभूषण व्याकरण तपागच्छीय आचार्य विजयसूरि के शिष्य दानविजय ने इस ग्रन्थ की रचना की। इसका रचनाकाल वि० सं० १७७० के आसपास रहा है। यह स्वतन्त्र कृति है या अन्य व्याकरण ग्रन्थ पर आधारित, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है । यह ग्रन्थ ३०० श्लोक प्रमाण है, इस प्रकार का निर्देश जैन ग्रन्थावली में ( पृ० २६८ ) है । प्रयोगमुख व्याकरण इस ग्रन्थ की ३४ पत्रों की प्रति जैसलमेर के भण्डार में विद्यमान है। इसके रचयिता का नाम ज्ञात नहीं हुआ है। १. विस्तृत अध्ययन के इष्टस्य मुनि बीचन्द कमल- भिक्षुणन्दानुशासन एक परिशीलन, संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० १४३. गुर्वावली पद्य १७६. मेरुतु गसूरि रहे हैं। इसकी रचना तंत्र का व्याकरण के सूत्रों के . Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत जैन व्याकरण-परम्परा जैन व्याकरण पर न्यास, टीका आदि ग्रन्थ जैनेन्द्र व्याकरण पर टोकाए इस व्याकरण पर विचार करते समय स्पष्ट हो चुका है कि जैन परम्परा में यह महत्त्वपूर्ण व्याकरण है । इस पर अनेक विद्वानों ने विभिन्न प्रकार के टीका ग्रन्थों की रचना की। उनमें से कुछ प्रमुख ग्रन्थों पर प्रस्तुत प्रसंग में विचार किया जा रहा है । स्वोपज्ञ नेवास पूज्यपाद स्वयं देवनन्दी ने जैनेन्द्र व्याकरण पर स्वोपज्ञ न्यास की रचना की। भिमोगा जिले में प्राप्त एक शिलालेख में इसका उल्लेख मिलता है। वह इस प्रकार है सकलबुधनतं पाणिनीयस्य भूमो न्यास जैनेन्द्र ग्यास शब्दावतारं मनुजततिहितं वेदशास्त्रं च कृत्वा ॥ इससे प्रकट होता है उन्होंने पाणिनीय व्याकरण पर भी न्यास ग्रन्थ लिखा था। पर इस समय ये ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । ३५१ महावृत्ति अभयनन्दी दिगम्बर परम्परा के मान्य आचार्य थे। इनका समय वि० सं० की ८वीं ध्वीं शताब्दी माना जाता है। डॉ० बेल्वलकर ने इनका समय ७५० ई० बताया है। इन्होंने जैनेन्द्र व्याकरण पर महावृत्ति की रचना की। इस व्याकरण की उपलब्ध सभी टीकाओं में यह सर्वाधिक प्राचीन है। पंचवस्तु टीका के कर्ता ने इसका महत्त्व बताते हुए जैनेन्द्र व्याकरण रूप महल के किवाड़ की उपमा की है। यह वृत्ति ११ हजार श्लोक परिमाण है । डॉ० गोकुलचन्द जैन ने इसकी अनेक विशेषताओं का उल्लेख किया है।" शब्दाम्भोजभास्करन्यास इस व्यास ग्रन्थ की रचना दिगम्बराचार्य प्रभाचन्द्रजी ने की ये ११वीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वान् थे । इन्होंने अपने इस न्यास ग्रन्थ में दार्शनिक शैली अपनायी है । इस ग्रन्थ के ४ अध्याय, ३ पाद तथा २११ हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं। वैसे यह ग्रन्थ १६,००० श्लोक परिमाण था । सूत्र तक की यह टीका ग्रन्थ जैनेन्द्र व्याकरण पर प्रक्रिया ग्रन्थ है। यह ३३०० श्लोक परिमाण है । ग्रन्थ में होने के कारण व्याकरण के प्रारम्भिक अध्येताओं के लिए बहुत उपयोगी है। इसे इस व्याकरण का बताया गया है - १. सिस्टम्स आफ ग्रामर, पैरा ५०. २. संस्कृत - प्राकृत जैन व्याकरण और कोश परम्परा, ५६. ३. (अ) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-५, पृ० १२; (आ) युधिष्ठिर मीमांसक संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ५६३ (इ) संस्कृत - प्राकृत जैन व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० १३५. टीकामानमिहाररचितं जैनेन्द्र शब्दागमं । प्रासादं पृथुपंचवस्तुकमिदं सोपानमा रोहताम् ॥ इसके रचनाकार का नाम नहीं मिलता है । सन्धिप्रकरण में एक स्थान पर "सन्धिं त्रिधा कथयति श्रुतकीर्तिरार्यः " यह पंक्ति मिलती है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि इसके रचयिता श्रुतकीर्ति रहे होंगे । इनका समय १२वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना गया है। अतः इस ग्रन्थ का रचनाकाल भी यही रहा होगा । 3 वस्तु टीका सरल शैली सोपान का .0 . Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .. ... .. .. ...... .. ...... ........................ .......... ........ .. ... लघुजैनेन्द्र इस ग्रन्थ की रचना दिगम्बर जैन पं० महा चन्द्र ने १२वीं शताब्दी में की। इन्होंने अभयनन्दी की महावृत्ति को आधार मानकर इस ग्रन्थ की रचना की। इसकी एक प्रति अंकलेश्वर जैन मन्दिर में तथा दूसरी प्रति प्रतापगढ़ (मालवा) के दिगम्बर जैन मन्दिर में है । यह प्रति अपूर्ण है। जैनेन्द्र व्याकरणवृत्ति . राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों की ग्रन्थ सूची, भाग-२, पृ० २५० पर इस वृत्ति का उल्लेख है। इसके रचयिता मेघविजय बताये गये है । यदि ये हेमकौमुदी व्याकरण के कर्ता मेघविजय से अभिन्न हों तो इस ग्रन्थ का रचनाकाल १८वीं शती रहा होगा। अनिरकारिकावचूरी जैनेन्द्र व्याकरण की अनिरकारिका पर श्वेताम्बर जैन मुनि विजयविमल ने १७वीं शती में अवचूरी की रचना की है। इन सब के अतिरिक्त भगवद् वाम्बादिनी नामक ग्रन्थ भी जैनेन्द्र व्याकरण से सम्बन्धित है। इसमें ८०० श्लोक प्रमाण जैनेन्द्र व्याकरण का सूत्र पाठ मात्र है। शाकटायम व्याकरण पर टीकाएँ जैन परम्परा के महावैयाकरणों में शाकटायन दूसरे वैयाकरण हैं। इनके शाकटायन व्याकरण पर भी अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गये। विद्वानों की जानकारी के लिए कुछ प्रमुख ग्रन्थों का विवरणात्मक विवेचन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा हैअमोघवृत्ति शाकटायन व्याकरण पर अमोघवृत्ति नाम की एक बहद् वृत्ति उपलब्ध है । यह वृत्ति सभी टीका ग्रन्थों में प्राचीन एवं विस्तारयुक्त है। इसका नामकरण अमोघवर्ष राजा को लक्ष्य बनाकर किया गया प्रतीत होता है। यह १८००० श्लोक परिमाण की वृत्ति है । यज्ञवर्मा ने इस वृत्ति की विशेषता बताते हुए कहा है गणधातुपाठयोगेन धातुन्, लिंगानुशासने लिंगताम् । औणादिकानुणादी शेषं निशेषमात्रवृत्ती विधात् ।। इससे इसकी उपयोगिता स्वतः प्रकट होती है। इसके रचनाकार का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, पर अन्यान्य ग्रन्थों में उपलब्ध प्रमाणों से यह सिद्ध हो जाता है कि इसके रचनाकार स्वयं शाकटायन ही थे । वृत्ति में अदहदमोघवषोऽरातीन्' ऐसा उदाहरण है, जो अमोघवर्ष राजा का ही संकेत करता है। अमोघवर्ष का समय शक सं०७३६ से ७८९ है। अत: इस ग्रन्थ की रचना ८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई होगी। चिन्तामणिवृत्ति इस वृत्ति की रचना यक्षवर्मा नामक विद्वान् ने की है। अपनी इस वृत्ति के विषय में वे स्वयं लिखते हैं कि यह वृत्ति 'अमोघवृत्ति' को संक्षिप्त करके बनायी गयी है। जैसे तस्याति महति वृत्ति संहत्येयं लघीयसी। संपूर्ण लक्षणावृत्तिर्वक्ष्यते लक्षवर्मणा ।। बालाबाल जनोऽप्यस्या वृत्तरभ्यासवृत्तितः । समस्तं वाङ्मयं वेत्ति, वर्षेणे केन निश्चयात् ।। Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्परा ३५३ - ..................................................................morore अर्थ स्पष्ट है । यह वृत्ति ६०००० श्लोक परिमाण है । अजितसेन नामक विद्वान् से इस पर मणिप्रकाशिका नाम की टीका लिखी। प्रक्रिया संग्रह अभयचन्द्र नामक आचार्य ने शाकटायन के व्याकरण को प्रक्रियाबद्ध किया । रूपसिद्धि द्रविडसंघ के आचार्य दयापाल ने शाकटायन व्याकरण पर एक छोटी सी टीका लिखी। दयापाल आचार्य का समय वि०सं ११०० के आसपास है। इनका यह ग्रन्थ प्रकाशित है। गणरत्नमहोदधि गोविन्दसूरि के शिष्य वर्धमान सूरि नामक श्वेताम्बर आचार्य ने शाकटायन व्याकरण में आये हुए गणों का संग्रह करके इस ग्रन्थ की रचना की। इसका रचनाकाल वि० सं० ११६७ है। इसमें गणों को श्लोकबद्ध करके गण के प्रत्येक पद की व्याख्या के साथ उदाहरण भी दिये गये हैं । इस पर उनकी स्वोपज्ञ टीका भी है। ग्रन्थ के रचनाकाल का उन्होंने स्वयं ही निम्न श्लोक में उल्लेख किया है सप्तनवत्यधिकेष्वेकादशसु शतेष्वतीतेषु । वर्षाणां विक्रमतो, गणरत्नमहोदधिविहितः ॥ युधिष्ठिर मीमांसक इसे शाकटायन व्याकरण पर आधारित न मानकर वर्धमान सूरि द्वारा संपादित स्वरचित व्याकरण के आधार पर ही इसकी रचना मानते हैं।' डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी ने इसे सभी ग्रन्थों का सार लेकर बनाया हुआ स्वतन्त्र व्याकरण का ग्रन्थ माना है । इस सम्बन्ध में उन्होंने इसी का एक श्लोक भी उधत किया है विदित्वा शब्दशास्त्राणि, प्रयोगानुपलक्ष्य च । स्वशिष्यप्रार्थिताः कूर्मो गणरत्नमहोदधिम् ॥ इन सभी टीका ग्रन्थों के अतिरिक्त स्वयं पाल्यकी ति द्वारा रचित लिंगानुशासन और धातुपाठ, प्रभाचन्द्रकृत शाकटायनन्यास, भावसेन वैद्य की टीका, अज्ञात लेखक की शाकटायन तरंगिणी आदि ग्रन्थ भी शाकटायन व्याकरण से ही सम्बन्धित हैं। सिद्धहेमशब्दानुशासन की टोकाएँ जैन व्याकरण-परम्परा में यह व्याकरण बहुत प्रसिद्ध और प्रिय रहा है। इसी कारण इस ग्रन्थ पर सबसे अधिक टीका-ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। इस पर अनेक टीका-ग्रन्थ स्वयं हेमचन्द्राचार्य ने लिखे थे। उनके द्वारा रचित ग्रन्थ निम्नलिखित हैं १. स्वोपज्ञलघुवृत्ति-६००० हजार श्लोक परिमाण का वृत्ति ग्रन्थ । २. स्वोपज्ञमध्यमवृत्ति-८००० श्लोक परिमाण । ३. रहस्यवृत्ति-२५ हजार श्लोक परिमाण । ४. बृहद्वत्ति (तत्त्वप्रकाशिका) १२००० श्लोक परिमाण की इस वृत्ति में अमोघवृत्ति का सहारा लिया गया है। ५. बृहन्न्यास (शब्दमहार्णवन्यास) ८४००० श्लोक परिमाण का यह ग्रन्थ पूरा नहीं मिलता है। १. युधिष्ठिर मीमांसक-संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ५६३. २. संस्कृत-प्राकृत-जैन व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० १३५. Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ३५४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ......................................................................... ये सभी ग्रन्थ स्वयं हेमचन्द्रसरि ने अपने ही व्याकरण पर लिखे। इनके अतिरिक्त भी बहुत से टीका-ग्रन्थ इस पर लिखे गये, जिनका यहाँ संक्षिप्त उल्लेख ही पर्याप्त होगा। १. न्यायसारसमुद्धार-~-कनकप्रभसूरि ने बृहन्न्यास को संक्षिप्त कर १३वीं शती में इसकी रचना की। २. लघुन्यास-आचार्य रामचन्द्र सूरि ने वि० १३वीं शताब्दी में इस ग्रन्थ की रचना की। ३. लघन्यास-धर्मघोषसूरि द्वारा रचित । ४. न्यासोद्धारटिप्पण-अज्ञात आचार्य द्वारा रचित इस ग्रन्थ की वि०सं० १२७० की हस्तलिखित प्रति मिलती है। ५. हेमढुण्ढिका---इस २३०० श्लोकात्मक ग्रन्थ के रचनाकार उदयसौभाग्य थे । ६. अष्टाध्यायतृतीयपदवृत्ति-रचयिता आचार्य विनयसागरसूरि । ७. हेमलघुवृत्तिअवचूरि-२२१३ श्लोकात्मक ग्रन्थ की रचना धनचन्द्र द्वारा की गई। इसकी १४०३ में लिखी हुई एक प्रति मिलती है। ८. चतुष्कवृत्ति अवचूरि-अज्ञात लेखक द्वारा। ६. लघुवृत्तिअवचूरि-नन्दसुन्दर मुनि द्वारा रचित इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति मिलती है। १०. हेमलघुवृत्ति ढुण्ढिका-३२०० श्लोक प्रमाणात्मक इस ग्रन्थ की रचना मुनिशेखर मुनि ने की। ११. ढुण्डिका दीपिका-इसके रचयिता कायस्थ अध्यापक काषल थे, जो हेमचन्द्र के समकालीन थे। ग्रन्थ ६००० श्लोक परिमाण है। १२. बृहद्वत्तिसारोद्धार-किसी अज्ञात लेखक द्वारा रचित इसकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ वि० सं० १५२१ में लिखी हुई मिलती हैं। १३. बृहद्वृत्ति अवणिका-वि०सं० १२६४ में अमरचन्द सूरि ने इस ग्रन्थ की रचना की । लेखक ने इसमें कई बातें नवीन कही हैं तथा बहुत अंशों में यह कनकप्रभसूरिकृत लघुन्यास से मिलता है।' १४. बृहद्वतिष्ठिका-८००० श्लोकात्मक इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १५८१ में मुनि सौभाग्यसागर ने की। १५, बहद्दति दीपिका- इसके रचयिता विद्याधर थे। १६. बृहद् वृत्तिटिप्पन-अज्ञातनामा विद्वान द्वारा वि०सं० १६४६ में रचित । १७. क्रियारत्नसमुच्चय---इस ग्रन्थ के रचयिता आचार्य गुणरत्नसूरि थे। इसमें सिद्धहेमशब्दानुशासन में आये धातुओं के दस गण तथा सन्नन्तादि प्रक्रिया के रूपों की साधनिका को सूत्रों के साथ समझाने का यत्न किया गया है। सौत्रधातुओं के सब रूपाख्यानों को विस्तारपूर्वक समझा दिया गया है। ग्रन्थ के अन्त में प्रशस्ति में कर्ता और कृति का विस्तृत परिचय दिया गया है। इस सम्बन्ध में निम्न पद्य द्रष्टव्य है-- कालेषड्रसपूर्व(१४६६)वत्सरमिते श्रीविक्रमार्काद् गते, गुर्वादेशविमृश्य च सदा स्वान्योपकारं परम् । ग्रन्थं श्रीगुणरत्नसरिरतनोत् प्रज्ञाविहिनोप्यमु, निर्हेतुप्रकृतिप्रधानजननैः शोध्यस्त्वयं धीधनैः ।। १८. स्याविसमुच्चय-इस ग्रन्थ की रचना अमरचन्दसूरि ने १३वीं शताब्दी में की। यह ग्रन्थ सि० श० के अध्येताओं के लिए बड़ा उपयोगी है। भावनगर की यशोविजय जैन ग्रन्थमाला से यह छप गया है। . १. यह ग्रन्थ देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड की ओर से छपा है। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्परा ३५५ १६. कविकल्पदुम---वि० सं० १५७७ में तपागच्छीय हर्षकुल गणि ने इस ग्रन्थ की रचना की। इसमें सि० श० में निर्दिष्ट धातुओं की विचारात्मक पद्यबद्ध रचना है। इन सभी टीका ग्रन्थों के अतिरिक्त सिद्धहेमशब्दानुशासन से सम्बन्धित अनेक प्रक्रिया-ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं। इन ग्रन्थों में मूल शब्दानुशासन के क्रम को बदलकर प्रक्रियाओं के क्रम से आवश्यकतानुसार सूत्रों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार के ग्रन्थों का निर्देश अग्रिम पंक्तियों में प्रस्तुत है। १. हेमलघुप्रक्रिया इस ग्रन्थ की रचना तपागच्छीय उपाध्याय विनयविजयगणि ने वि० सं० १७१० में की। विषय की दृष्टि से यह ग्रन्थ संज्ञा, सन्धि, लिंग, युष्मदस्मद्, अव्यय, स्त्रीलिंग, कारक, समास और तद्धित इन प्रकरणों में विभक्त है। २. हेमबृहप्रक्रिया इसकी रचना आधुनिक कविवर भायाशंकरजी ने, हेमलघुप्रक्रिया के क्रम को ध्यान में रखते हुए की है । इसका रचनाकाल १०वीं शती है। ३. हेमप्रकाश यह हेमलघुप्रक्रिया की ३४००० श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ रचना है। इसकी रचना वि० सं० १७६७ में हुई तथा स्थान-स्थान पर लेखक ने अपनी व्याकरण विषयक मौलिक योग्यता का परिचय भी दिया है। ४. चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी यह भी सि०श० का प्रक्रिया ग्रन्थ है । इसकी रचना तपागच्छीय उपाध्याय मेघविजयजी ने वि० सं० १७५७ में आगरे में की। इसका क्रम भट्टोजी दीक्षित रचित सिद्धान्त कौमुदी के अनुसार रखा गया है। इसका ६००० हजार श्लोक परिमाण है। ५. हेमशब्दप्रक्रिया इसकी रचना मेघविजयगणि ने वि० सं० १७५७ के आसपास की। यह ३५०० श्लोक परिमाण का ग्रन्थ है । इसकी हस्तलिखित प्रति भण्डारकर इन्स्टीट्यूट पूना में है। ६. हेमशब्दचन्द्रिका ६०० श्लोक प्रमाण के इस ग्रन्थ की रचना उपाध्याय मेघविजयगणि ने की। पूना के भण्डारकर इन्सटीट्यूट में इसकी वि० सं० १७५५ में लिखित प्रति है। ७. हेमप्रक्रिया–वीरसेन द्वारा रचित है। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त हेमशब्दसमुच्चय, हेमशब्दसंचय, हेमकारकसमुच्चय आदि ग्रन्थों का भी अन्यान्य ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है, जो हेमशब्दानुशासन से सम्बन्धित हैं। भिक्षुशब्दानुशासन को टीकाएँ भिक्षुशब्दानुशासन जैन व्याकरण परम्परा का नूतनतम व्याकरण ग्रन्थ माना जा सकता है। इस पर भी अनेक टीका-ग्रन्थों की रचनाएँ हुई है। १. भिक्षुशब्दानुशासनलघुवृत्ति यह ग्रन्थ भिक्षुशब्दानुशासन की वृत्ति है । इसको लिखने का कार्य तो मुनि श्री तुलसीराम जी ने प्रारम्भ १. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० ४३-४४. Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ कर्मयोगी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड किया पर अन्य कायों में व्यस्त होने से इसे वे पूरा न कर सके। इसे पूरा करने का कार्य वि० सं० १९६५ में मुनि श्री धनराज जी तथा मुनि श्री चन्दनमल जी दोनों विद्वानों ने पूरा किया । २. भिक्षुधातुपाठ इस कार्य को मुनि श्री चन्दनमलजी ने वि० सं० १९८६ में पूरा किया था। इसमें कुल २००२ धातुओं का संग्रह गण के क्रम से किया गया है । ३. भिक्षुन्यायदर्पणलघुवृत्ति यह भिन्दानुशासन के १३५ भ्रूणों की लघुवृत्ति है। इसकी हस्तलिखित प्रतिलिपि सर्वप्रथम मुनिधी तुलसीराम जी ने (आचार्य तुलसी) ने वि० सं० १९८२ में मार्गशीर्ष शुक्ला द्वितीया को रतनगढ़ में पूरी की। ४. भिक्षुन्यायदर्पण बृहद्वृत्ति इस ग्रन्थ में १३५ न्यायों पर विस्तृत वृत्ति है। इसकी रचना मुनिश्री चौथमल जी ने की है। उन्होंने वि० सं० १९९४ के भाद्र शुक्ला ३ को इसको पूरा किया | ५. मिलिगानुशासन सवृत्तिक १५७ श्लोकात्मक यह ग्रन्थ विभिन्न छन्दों में लिखा गया है। इन श्लोकों के वृत्तिकार मुनिश्री पांदमल जी हैं वृत्ति का कार्य विक्रम संवत् १६६७ ज्येष्ठ शुक्ला 8 को पूर्ण हुआ था । ६. कारिकासंग्रहवृत्ति भन्दानुशासन के सूत्रों में जो कारिकाएँ आई हैं, उनकी वृत्ति इस ग्रन्थ में लिखी गई है। इसकी प्रति लिपि मुनिश्री नथमलजी ने विक्रम संवत् १९९७ श्रावण ६ गुरुवार को लाडनूं में की थी। ७. कालुकौमुदी यह ग्रन्थ भिन्दानुशासन का लघु प्रक्रिया ग्रन्थ है। इसकी रचना भी मुनिधी चौधरी ने ही की। विक्रम संवत् १९६१ आश्विन कृष्णा १० बुधवार को जोधपुर में यह ग्रन्थ पूरा हुआ था। प्रशस्तिश्लोक इस प्रकार है शब्दानुशास 1 तत्पदान्प्रसादेन, मुनिना चौचमल्लेन कृतेयं कालुकौमुदी ॥६॥ भू निधिनिधि बन्दे पुष्ये जोधपुरे दशमी बुधदिवसे । आश्विनमासे कृष्णपक्षे, पूर्णाकालुगणेन्द्रसमक्षे ||७|| इस ग्रन्थ की विशेषताओं पर मुनि श्रीचन्द कमल ने विस्तारपूर्वक विचार किया है ।" जैनेतर संस्कृत व्याकरणों पर जंनाचार्यों की टीकाएँ किया और इन पर टीका- ग्रन्थों की ऊपर किये गये प्रयास से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत वाङ्मय में व्याकरणशास्त्र के क्षेत्र में जैनाचार्यों का योगदान एक महत्त्वपूर्ण निधि है । इन्होंने स्वतन्त्र व्याकरणशास्त्रों का प्रणयन रचना भी की। इसके साथ ही इन आचार्यों ने उन संस्कृत के व्याकरणों पर भी टीका ग्रन्थों की रचना की जो जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत नहीं है। अग्रिम पंक्तियों में इन्हीं ग्रन्धों का सामान्य परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है १. मुनि श्रीचन्द कमल भिक्षुन्दानुशासन एक परिशीलन, संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० १५०-१६३. Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि का शब्दानुशासन किसी न किसी रूप में विषयों का अध्ययन करने वालों का प्रिय रहा है। जैनाचार्यों में भी है । अनेक आचार्यों ने इस पर टीका ग्रन्थ भी लिखे। इस प्रकार प्रकार है- संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्परा ३५७ पाणिनीय व्याकरण—- टीकाएँ संस्कृत भाषा का या इसके माध्यम से अन्य इसका किसी न किसी रूप में प्रचलन अवश्य रहा के टीका ग्रन्थों का परिचयात्मक विवरण इस व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि सुधानिधि की रचना आचार्य विश्वेश्वरसूरि ने की है ग्रन्थका सर्जन अष्टाध्यायीसूम को ध्यान में रखकर किया गया है। यह ग्रन्थ प्रारम्भ के तीन अध्यायों पर ही उपलब्ध होता है, जिसका विद्याविलास प्रेस से दो भागों में प्रकाशन भी हो चुका है। इसके मंगलचरण के पाँचवें श्लोक में पतंजलि के प्रति जो श्रद्धा व्यक्त की गई है, उससे प्रतीत होता है, इस ग्रन्थ का प्रणयन महाभाष्य को आधार मानकर किया गया होगा । श्लोक इस प्रकार है विषये फणिनायकस्य क्षमते नैनं विधातुमल्पमेधाः । विबुधाधिपतिप्रसादधाराः पुनरारादुपकारमारभन्ते ॥ इनका समय भट्टोजी दीक्षित के बाद तथा उनके पौत्र हरिदीक्षित के पूर्व माना गया है ।" शब्दावतारन्यास इस ग्रन्थ के प्रणेता जैनेन्द्र व्याकरण के रचनाकार पूज्यपाद देवनन्दी थे । ग्रन्थ अप्राप्य है । अन्यत्र उल्लेखों के आधार पर यह कहा जाता है कि इसकी रचना पूज्यपाद ने की। इस सम्बन्ध में शिमोगा जिले की नगर तहसील के एक शिलालेख को भी उद्धृत किया जाता है । श्लोक इस प्रकार है— न्यास जैनेन्द्रसंज्ञ सहल बुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो । न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा ॥ सस्तत्वार्थस्य टीका व्यरचदिह भात्यसौ पूज्यपादः । स्वामी भूपालवन्ध: स्वपरहितयचः पूर्णदुग्बोधयुतः ॥ यह कृति काशिकावृत्ति पर टीका ग्रन्थ है । इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ इसका प्रणयन मुनि विद्यासागर ने किया है। इनके गुरु का नाम श्वेतगिरि था । का उल्लेख भी बड़े आदर के साथ किया है । पद्य इस प्रकार है वन्दे मुनीन्द्रान् मुनिवृन्दवन्द्यान्, श्रीमद्गुरु श्वेतगिरीन् परिष्ठान् । न्यासकारवचः पद्मनिकरोद्गीर्णमम्बरे, गृहगामि- मधुप्रीतो विद्यासागर षट्पदः ॥ इसमें जिन न्यासकार का स्मरण किया गया है वे पूज्यपाद देवनन्दी अथवा काशिका विवरण पंजिका न्यास के कर्ता आचार्य जिनेन्द्रबुद्धि रहे होंगे। प्रक्रियामंजरी मद्रास तथा त्रिवेन्द्रम में संग्रहीत हैं । इन्होंने ग्रन्थ के प्रारम्भ में न्यासकार क्रियाकलाप इसकी रचना आचार्य भावदेवसूरि के गुरु भावडारगच्छीय आचार्य जिनदेवसूरि ने की थी । रचनाकाल वि० सं० १४१२ के आसपास का है। १. वही, पृ० १०२ जानकीप्रसाद द्विवेदी संस्कृत व्याकरणों पर जैनाचायों की टीकाएँ । . Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .... ........... ..................................................... ___ कातन्त्र न्याकरण पर टीकाएँ कातन्त्र व्याकरण के जैनेतर होने पर भी अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से इसका बहुत प्रभाव रहा है । यह प्रत्येक क्षेत्र में वैयाकरणिक अध्ययन दृष्टि से प्रिय ग्रन्थ रहा है। अनेक जैनाचार्यों ने इस पर टीकाओं की रचना की। प्रस्तुत प्रकरण की सीमाओं के अन्तर्गत उनका संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है-- कातन्त्रदीपक यह ग्रन्थ मुनीश्वरसूरि के शिष्य हर्ष मुनि द्वारा रचित है। मंगलाचरण लेखक के गुरु का नाम, ग्रन्थ लिखने का प्रयोजन आदि निम्न पद्यों से स्पष्ट होते हैं। प्रारम्भ का पद्य भूर्भुवः स्वस्त्रयीशानं, वरिवस्यं जिनेश्वरम् । स्मृत्वा च भारती सम्यग, वक्ष्येकातन्त्रदीपकम् ॥ अन्त में श्री मुनीश्वर सूरिकं शिष्येण लिखितोमुदा । मुनि हर्षमुनीन्द्रेण नाम्नाकातन्त्रदीपकः । व्यलेखि मुनिहर्षाख्यैर्वाचेकैर्बुद्धिवृद्धये ।। कातन्त्ररूपमाला यह ग्रन्थ प्रक्रिया क्रम से कातन्त्र सूत्रों की व्याख्या है। वादीपर्वतवज्री मुनीश्वर भावसेन ने मन्दधी बालकों को कातन्त्र व्याकरण का सरलतया बोध करने के लिये इसकी रचना की। यह ग्रन्थ निर्णयसागर यन्त्र बम्बई तथा वीर पुस्तक भण्डार जयपुर से प्रकाशित है। कातन्त्रविस्तर यह ग्रन्थ कातन्त्र व्याकरण की विस्तृत टीका है। वि० सं० १४४८ के आसपास इसकी रचना वर्धमान ने की थी। इसका कारकभांगीय कुछ अंश मंजूषापत्रिका (वर्ष १२, अंक ९) में प्रकाशित है। इसकी अनेक हस्तलिखित प्रतियाँ विभिन्न साहित्य-भण्डारों में उपलब्ध हैं। यह ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध रहा होगा। इसी कारण इस पर अनेक टीकाएँ भी लिखी गई। कातन्त्रपंजिकोद्योत वर्धमान के शिष्य त्रिविक्रम ने इस ग्रन्थ की रचना की। रचना-काल वि० सं० १२२१ ज्येष्ठ वदी, तृतीया शुक्रवार है। रचना का उद्देश्य कातन्त्रपंजिका पर किये गये असारवचनों को निःसार करना है। इसका हस्तलेख संघभण्डार पाटन में संग्रहीत है। कातन्त्रोत्तरम् इसकी रचना विजयानन्द ने की। यह टीका ग्रन्थ है । इसका हस्तलेख लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद में सुरक्षित है । ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य प्रतिपद्यों के आक्षेपों का समाधान है। कातन्त्रभूषणम __ आचार्य धर्मघोषसूरि ने कातन्त्र व्याकरण के आधार पर इस ग्रन्थ की रचना की है, ऐसा बृट्टिपणिका में उल्लेख है। १. संस्कृत-प्राकृत-जैन-व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० ११३. २. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ५, पृ० ५३. Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत जैन म्याकरण-परम्परा ३५६ ++++ कातन्त्र विभ्रमटीका लघुखरतरच्छ के प्रवर्तक आचार्य जिनसिंहरि के शिष्य आचार्य जिनप्रभसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। वि० सं० १३५२ में योगिनीपुर (दिल्ली) में कायस्थ खेतल की प्रार्थना पर उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना की थी । इसका उल्लेख उन्होंने निम्न पथ में किया है— पक्षेषु शक्ति शशिभून् भित्तविक्रमाब्दे, धाङ्कते हरतिथो परियोगिनीनाम् । कातन्त्रविभ्रम ह व्यनिष्ट टीकाम, अरवि जिनप्रभसूरिरेताम् ॥ क्रियाकलाप जिनदेवसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। इसका सं०१५२० का एक हस्तलेख अहमदाबाद में प्राप्त है । चतुष्कव्यवहार दृष्टिका इसके रचनाकार श्री धर्मप्रभसूरि थे । हस्तलेखों में इसका प्रकरणान्त भाग ही प्राप्त होता है । दुर्गपदप्रयोध वह ग्रन्थ सम्पूर्ण प्रयास किया है । दुर्गप्रबोध टीका जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ३, में डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी ने इस कृति का उल्लेख किया है। इसकी रचना वि० सं० १३२० में जनप्रबोध मूरि ने की थी। योगसिंह वृत्ति दुसिंहरचित वृत्ति पर यह ग्रन्थ लिखा गया है। ३००० श्लोक परिमाण के इस ग्रन्थ की रचना आचार्य प्रद्युम्नमूरि ने वि०सं० १३६६ में की थी । बीकानेर के भण्डार में इसका हस्तलेख विद्यमान है । जिनेश्वरसूरि के शिष्य प्रबोधमूर्ति गण ने १४वीं शताब्दी में इस ग्रन्थ की रचना की थी कातन्त्र व्याकरण के सूत्रों पर रचा गया है। ग्रन्थकार ने इसमें सभी मतों का सार समाविष्ट करने का बालावबोध अंगदेश्वरसूरि ने इसका प्रणयन किया था। इसके अनेक हस्तलेख अहमदाबाद, जोधपुर तथा बीकानेर के ग्रन्थ भण्डारों में उपलब्ध हैं । राजगच्छीय हरिकलश उपाध्याय ने इसकी रचना की । इसके हस्तलेख बीकानेर में प्राप्त है । वृत्तित्रयनिबन्ध आचार्य राजशेखरसूरि ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया था। इसके नाम से यह ज्ञात होता है कि कातन्त्र व्याकरण की तीन वृत्तियों पर इसमें विचार किया गया होगा । ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । ' सारस्वत व्याकरण की टीकाएँ अनुभूति स्वरूपाचार्य द्वारा प्रोक्त इस ग्रन्थ में ६०० सूत्र हैं । इस ग्रन्थ पर भी अनेक टीका ग्रन्थ लिखे गये 1 इनमें से अनेक ग्रन्थ जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत हैं। आगे इन्हीं पर संक्षेप में विचार किया जा रहा है । सुबोधिका नागपुरीय तपागच्छाधिराज भट्टारक आचार्य चन्द्रकीति ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। यह कृति सारस्वत १. जैन साहित्य का बुद् इतिहास भाग ५ पृ०५२. बालावबोध D+G . Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड . . . . . ........... ....... ..... ................ . . ....... ... .. व्याकरण पर टीका-ग्रन्थ है । इसका रचनाकाल निश्चित नहीं है, फिर भी युधिष्ठिर मीमांसक ने इसका समय १६वीं शती का अन्त या १७वीं शती का प्रारम्भ माना है।' ग्रन्थ सरल और सुबोध है । क्रियाचन्द्रिका खरतरगच्छीय गुण रत्न ने इस वृत्ति का प्रणयन वि० स० १६४१ में किया था। इसका हस्तलेख बीकानेर में विद्यमान है। क्रियाचन्द्रिका मेघविजयजी ने इसकी रचना की थी। इसका समय निश्चित नहीं है । दीपिका इसके रचनाकार विनयचन्द्रसूरि के शिष्य मेघरत्न थे । इसकी रचना वि०सं०१५३६ में की गई । इसका एक हस्तलेख लाद० संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद में सुरक्षित है । प्रारम्भिक श्लोक इस प्रकार है नत्वापार्श्व गुरुमपि तथा मेघरत्नाऽभिधोऽहम् । टीकां कुर्वे विमल मनस, भारतीप्रक्रियां ताम् । धातुतरंगिणी तपागच्छीय आचार्य हर्षकीतिसूरि ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें १८९१ धातुओं के रूप बताये गये हैं। इसकी वि० सं० १६१६ में लिखित एक प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद में विद्यमान है। न्यायरत्नावली खरतरच्छीय आचार्य जिनचन्द्रसूरि के शिष्य दयारत्न मुनि ने सं० १६२६ में इसकी रचना की। इसमें सारस्वत व्याकरण के न्यायवचनों का विवरण है। वि० सं० १७३७ में लिखित इसकी एक प्रति लाद०भा० संस्कृति विद्यामन्दिर अहमदाबाद में विद्यमान है। पंचसन्धिटीका यह ग्रन्थ मुनि सोमशील द्वारा प्रणीत है। पाटन के भण्डर में इसकी प्रति प्राप्त है। प्रक्रियावृत्ति खरतरगच्छीय मुनि विशालकीति ने इस ग्रन्थ की रचना की थी। इसकी प्रति श्री अगरचन्द्र नाहटा के संग्रह में विद्यमान है। भाषाटीका . मुनि आनन्दनिधि ने १८वीं शताब्दी में इसकी रचना की। इसका हस्तलेख भीनसार के बहादुरमल बांठियासंग्रह में विद्यमान है। यशोनन्दिनी दिगम्बर मुनि धर्मभूषण के शिष्य यशोनन्दी ने इसका प्रणयन किया था। रूपरत्नमाला १४००० श्लोक परिमाण के इस ग्रन्थ की रचना तपागच्यछी भानुमेरु के शिष्य मुनि नयसुन्दर ने वि०स० १७७६ में की थी । ग्रन्थ में प्रयोगों की साधनिका है । इसकी प्रतियां बीकानेर व अहमदाबाद के ग्रन्थभण्डारों में विद्यमान है। - - . १. युधिष्ठिर मीमांसक-संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ५७५. Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचिन्तामणिमुनि विनयसागरसूरि ने इसकी रचना की थी। स्वयं प्रकार ने इसका परिचय इस श्री विधिपक्ष गच्छेशाः सूरिकल्याणसागराः । तेषां शिष्येवंराचायें: सूरिविनयसागरैः ॥२४॥ सारस्वतस्य सूत्राणां, पद्यबन्धविनिमितः । विद्वच्चिन्तामणि ग्रन्थः कण्ठपाठस्य हेतवे ॥ २५ ॥ प्रकार दिया है संस्कृत-व्याकरण-परम्परा ३६१ इसकी एक प्रति ता०६० संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद में विद्यमान है। शग्यप्रक्रियासाधनी – आचार्य विजयराजेन्द्र सूरि ने २०वीं शताब्दी में इसकी रचना की। शब्दार्थचन्द्रिका — विजयानन्द के शिष्य हंसविजयगणि ने इसकी रचना की थी। सं० १७०८ में ग्रन्थकार के विद्यमान होने का उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त इनका अन्य परिचय नहीं मिलता है । सारस्वतीका मुनि सत्यप्रबोध ने इसका प्रणयन किया। पाटन और लींबड़ी के भण्डारों में इसके हस्तलेख प्राप्त होते हैं । सारस्वतटीका — इस श्लोकबद्ध टीका की रचना तपागच्छीय उपाध्याय भानुचन्द्र के शिष्य देवचन्द्र ने की थी । श्री अगरचन्द नाहटा के संग्रह में इसकी प्रति प्राप्त है । सारस्वतटीका - अपरनाम धनसागरी नामक इस ग्रन्थ की रचना मुनि धनसागर ने की थी । इसका उल्लेख जैन साहित्य के संक्षिप्त इतिहास में किया गया है। सारस्वत रूपमाला - रचनाकार पद्मसुन्दरगणि ने इसमें धातुरूपों को दर्शाया है । वि० सं० १७४० में लिखी गई इसकी प्रति ला० द० भा० संस्कृति विद्या मन्दिर अहमदाबाद में प्राप्त है । सारस्वतमण्डनम् - श्रीमालजातीय मन्त्री मण्डन ने १५वीं शताब्दी में रचना की थी । सारस्वतवृत्ति तपागच्छीय उपाध्याय भानुचन्द्र ने १७वीं शताब्दी में इस वृत्तिग्रन्थ की रचना की थी। यह क्षेमेन्द्र रचित सारस्वत टिप्पणी पर वृत्ति है । इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ पाटण तथा छाणी के ज्ञान भण्डारों में विद्यमान हैं। सारस्वतवृत्ति–विसं०] १६०१ में खरतरगच्छीय मुनि सहजकीर्ति ने इसकी रचना की थी। इसके हस्तलेख कार के श्री पूजाजी तथा चतुर्भुजजी के भण्डार में सुरक्षित हैं । सिद्धान्तरत्नम् - युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इस ग्रन्थ के रचनाकार जिनरत्न थे । यह बहुत अर्वाचीन ग्रन्थ माना है । सिद्धान्तचन्द्रिका व्याकरण की टीकाएँ रामाश्रम या रामचन्द्राश्रम ने "सिद्धान्तचन्द्रिका" नामक एक विशदवृत्ति का प्रणयन किया । इसमें लगभग २३०० हजार सूत्र हैं । इस पर भी जैनाचार्यों द्वारा रचित अनेक टीका ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । इनका सामान्य परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । अनिट्कारिका स्वोपज्ञवृत्ति - नागपुरीय तपागच्छ के हर्षकीर्तिसूरि ने इसकी रचना की है । अनिट्कारिका पर यह स्वपोज्ञवृत्ति है । रचनाकाल सं० १६६६ है । बीकानेर के दानसागर भण्डार में इसकी हस्तलिखित प्रति विद्यमान है । सुबोधिनी -- खरतर आम्नाय के श्री भक्तिविनय के शिष्य सदानन्दगणि ने इस ग्रन्थ की रचना की। इसमें भाये श्लोक के अनुसार इसका रचनाकाल १७९६ है । श्लोक इस प्रकार है O . Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ कर्मयोगी भी केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड निधिनन्दार्वभूवर्षे, सदानन्दसुधीमुदे। सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति कृदन्ते कृतवानुजुम् ॥३१॥११६. यह वृत्ति ग्रन्थ है। अनिट्कारिकावरि-इसके प्रणेता मुनि क्षमामाणिक्य थे। बीकानेर के श्रीपूज्यजी के भण्डार में इसकी हस्तलिखित प्रति विद्यमान है। सिद्धान्तचन्द्रिकावृत्ति-खरतरगच्छीय मुनि विजयवर्धन के शिष्य ज्ञानतिलक ने १८वीं शताब्दी में इसकी रचना की। इसके हस्तलेख बीकानेर के महिमा भक्ति भण्डार और अबीरजी के भण्डार में विद्यमान हैं। भूधातुवृत्ति-इस वृत्ति की रचना खरतरगच्छीय क्षमाकल्याणमुनि ने वि० सं० १८२८ में की है। राजनगर के महिमा-भक्ति भण्डार में इसका हस्तलेख प्राप्त है। सिद्धान्तवन्द्रिकाटीका-आचार्य जिनरत्नसूरि द्वारा इसका प्रणयन किया गया है। सुबोधिनी-३४६४ श्लोक परिमाण की इस वत्ति का प्रणयन खरतरगच्छीय रूपचन्द्र ने किया है। बीकानेर के भण्डार में इसकी प्रतियाँ विद्यमान हैं। ___औक्तिक रचनाएँ-कुछ जैनाचायों ने गुजारती भाषा द्वारा संस्कृत का शिक्षण देने के लिए भी व्याकरण ग्रन्थों की रचना की। ऐसे ग्रन्थों को “औक्तिक" संज्ञा प्रदान की गई। इस प्रकार के कुछ ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, जो निम्न हैं-- १. मुग्धावबोध औक्तिक इस ग्रन्थ की रचना कुलमण्डनसूरि ने १५वीं शताब्दी में की है। इस औक्तिक ग्रन्थ में ६ प्रकरण केवल संस्कृत भाषा में हैं। प्रथम, द्वितीय, सातवें और आठवें प्रकरणों में सूत्र और कारिकाएँ संस्कृत में हैं और विवेचन जूनीगुजराती में है। तृतीय, चतुर्थ, पंचन, षष्ठ और नवन प्रकरण जूनी गुजराती में हैं। इसमें विभक्ति विचार, कृदन्त विचार, उक्तिभेद और शब्दों का संग्रह है। २. वाक्यप्रकाश __वृहत्तपागच्छीय रत्नसिंह मूरि के शिष्य उदयवर्धन ह वि० सं० १५०७ में वाक्य प्रकाश नामक औक्तिक ग्रन्थ की रचना की। इसमें १२८ पद्य हैं। इसका उद्देश्य गुजराती द्वारा संस्कृत भाषा सिखाना है। इसलिए यहाँ कई पद्य गुजराती में देकर उसके साथ संस्कृत में अनुवाद दिया गया है। इस ग्रन्थ पर वि० सं० १५८३ में हर्षकुल द्वारा, सं० १६६४ में जिनविजय द्वारा तथा रत्नसूरि द्वारा टीका लिखी गई। ३. उक्तिरत्नाकर पाठक साधुकीर्ति के शिष्य साधुसुन्दरमणि ने वि० सं० १६८० के आसपास उक्तिरत्नाकर ग्रन्थ की रचना की। अपनी देश भाषा में प्रचलित देश्य-रूपवाले शब्दों के संस्कृत प्रतिरूपों का ज्ञान कराने के लिए इस ग्रन्थ की रचना की गई। इसमें कारक का ज्ञान कराने का भी प्रयास किया गया है। ४. उक्तिप्रत्यय मुनि धीरसुन्दर ने इस ग्रन्थ की रचना की है। इसकी हस्तलिखित प्रति सूरत के भण्डार में है। यह ग्रन्थ अप्रकाशित है। ५. उक्तिव्याकरण इसकी रचना किसी अज्ञात विद्वान् ने की है। सूरत के भण्डार में इसकी हस्तलिखित प्रति विद्यमान है। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - - - - - जैन-आयुर्वेद: परम्परा और साहित्य डॉ. राजेन्द्रप्रकाश भटनागर, (प्राध्यापक, राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, उदयपुर) भारतीय संस्कृति में चिकित्सा का कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और प्रतिष्ठित माना गया है, क्योंकि प्रसिद्ध आयुर्वेदीय ग्रन्थ 'चरकसंहिता' में लिखा है-'न हि जीवितदानाद्धि दानमन्यविशिष्यते' (च.चि०अ० १, पा०४,श्लोक ६१) अर्थात् जीवनदान से बढ़कर अन्य कोई दान नहीं है । चिकित्सा से कहीं धर्म, कहीं अर्थ (धन), कहीं मैत्री, कहीं यश और कहीं कार्य का अभ्यास ही प्राप्त होता है, अतः चिकित्सा कभी निष्फल नहीं होती क्वचिद्धर्मः क्वचिदर्थः क्वचिन्मैत्री क्वचिद्यशः । कर्माभ्यास: क्वचिच्चैव चिकित्सा नास्ति निष्फला ।। अतएव प्रत्येक धर्म के आचार्यों और उपदेशकों ने चिकित्सा द्वारा लोकप्रभाव स्थापित करना उपय क्त समझा । बौद्धधर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध को 'भैषज्यगुरु' का विशेषण प्राप्त था। इसी भांति जैन तीर्थंकरों और आचार्यों ने भी चिकित्साकार्य को धार्मिक शिक्षा और नित्य-नैमित्तिक कार्यों के साथ प्रधानता प्रदान की। धर्म के साधनभूत शरीर को स्वस्थ रखना और रोगी होने पर रोगमुक्त करना आवश्यक है। इसलिए जैन-परम्परा में तीर्थंकरों की भी वाणी के रूप में प्रोद्भासित आगमों और अंगों में वैद्यकविद्या को भी प्रतिष्ठापित किया गया है। अतः यह धर्मशास्त्र है । अद्यावधि प्रचलित 'उपाश्रया' (उपासरा) प्रणाली में जहाँ जैन यति-मुनि सामान्य विद्याओं की शिक्षा, धर्माचरण का उपदेश और परम्पराओं का मार्गदर्शन करते रहे हैं, वहीं वे उपाश्रयों को चिकित्सा-केन्द्रों के रूप में समाज में प्रतिष्ठापित करने में भी सफल हुए हैं। प्राणावाय : जैन आयुर्वेद (चिकित्साविज्ञान) आयुर्वेद शब्द 'आयु' और 'वेद'-इन दो शब्दों को मिलाकर बना है। आयु का अर्थ है-जीवन और वेद का ज्ञान । अर्थात् जीवन-प्राण या जीवित शरीर के सम्बन्ध में समग्र ज्ञान आयुर्वेद से अभिहित किया जाता है। जैन आगम साहित्य में चिकित्साविज्ञान को 'प्राणावाय' कहते हैं । यह पारिभाषिक संज्ञा है। जैन तीर्थंकरों की वाणी अर्थात् उपदेशों को १२ भागों में बाँटा गया है। इन्हें जैन आगम में 'द्वादशांग' कहते हैं । इन बारह अंगों में अन्तिम अंग 'दृष्टिवाद' कहलाता है। 'स्थानांग सूत्र' (स्थान ४, उद्देशक १) की 'वृत्ति' में कहा गया है कि दृष्टिवाद या दृष्टिपात में दृष्टियाँ अर्थात् दर्शनों और नयों का निरूपण किया जाता है-- 'दष्टयो दर्शनानि नया वा उच्यन्ते अभिधीयन्ते पतन्ति वा अवतरन्ति यत्रासौ दृष्टिवादो, दृष्टिपातो वा। प्रवचन पुरुषस्य द्वादशेऽनें । 'प्रवचनसारोडार' (द्वार १४४) में भी कहा है-जिस में सम्यक्त्व आदि दृष्टियों-दर्शनों का विवेचन किया गया है, उसे दृष्टिवाद कहते हैं Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 -Q ० ३६४ दुष्टदर्शन सम्पनत्वादि वचनं बादो, दृष्टीनां वादो दृष्टिवाद ।' दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं - १. पूर्वगत, २. सूत्र, ३. प्रथमानुयोग, ४. परिकर्म, ५. चूलिका । पूर्व चौदह हैं । इनमें से बारहवें पूर्व का नाम 'प्राणावाय' है। इस पूर्व में मनुष्य के आभ्यन्तर अर्थात् मानसिक और आध्यात्मिक तथा बाह्य अर्थात् शारीरिक स्वास्थ्य के उपायों, जैसे यम, नियम, आहार, बिहार और औषधियों का विवेचन है। साथ ही इसमें दैविक, भौतिक, आधिभौतिक जनपदोध्वंसी रोगों की चिकित्सा का विस्तार से विचार किया गया है। आठवीं शताब्दी के दिगम्बर आचार्य अकलंकदेव कृत 'तत्त्वार्थवात्तिक' (राजवार्तिक) नामक ग्रन्थ में प्राणावाय की परिभाषा बताते हुए कहा गया है- कायचिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेद भूतिकर्मजागतिकप्रक्रमः प्राणापानविभागोऽपि यत्र विस्तरेण वणितस्तत् प्राणावायम् । (अ०१, सू० २० ) अर्थात् -- जिसमें कायचिकित्सा आदि आठ अंगों के रूप में सम्पूर्ण आयुर्वेद, भूतशान्ति के उपाय, विषचिकित्सा ( जांगुलिप्रक्रम) और प्राण अपान आदि वायुओं के शरीरधारण करने की दृष्टि से विभाजन का प्रतिपादन किया गया है, उसे प्राणावाय कहते हैं । कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड लाख थी । आयुर्वेद के आठ अंगों के नाम हैं- कायचिकित्सा (मेडिसिन), शल्यतन्त्र (सर्जरी), शालाक्यतन्त्र ( ईअर, नोज, नोट- आपल्मोलाजी) भूतविद्या, कौमारभृत्य, अगदतस्त्र, रसायनतन्त्र और वाजीकरणतन्त्र चिकित्सा के समस्त विषयों का समावेश इन आठों अंगों में हो जाता है । 1 श्वेताम्बर मान्यतानुसार दृष्टिवाद के 'प्राणायुपूर्व' में आयु और प्राणों के भेद-प्रभेद का विस्तार से निरूपण था । दृष्टिवाद के इस पूर्व' की पद संख्या दिगम्बर मत में १३ करोड़ और श्वेताम्बर मत में १ करोड़ ५६ 'स्थानांगसूत्र' (ठा० १० सूत्र ७४२) में दृष्टिवाद के निम्न दस पर्याय बताये गये हैं दृष्टिवाद, हेतुवाद, भूतवाद, तथ्यवाद, सम्यग्वाद, धर्मवाद, भाषा-विचय या भाषाविजय, पूर्वगत, अनुयोगगत और सर्वभूतवत्वाव उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार शरीरशास्त्र ( Anatomy and Physiolazy ) और चिकित्साशास्त्र – इन दोनों विषयों का वर्णन 'प्राणावाय' में मिलता है । निश्चय ही, बाह्य हेतु -- शरीर को सबल और उपयोगी बनाकर आभ्यन्तर - आत्मसाधना व संयम के लिए जैन विद्वानों ने प्राणावाय (आयुर्वेद) का प्रतिपादन कर अकाल जरा-मृत्यु को दूरकर दीर्घ और सशक्त जीवन हेतु प्रयत्न किया है। क्योंकि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति के लिए शरीर का स्वस्थ रहना अनिवार्य है' धमार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । जैन-ग्रन्थ 'मूलवातिक' में आयुर्वेद प्रणयन के सम्बन्ध में कहा गया है—'आयुर्वेदप्रणयनान्यथानुपतेः । अर्थात् अकाल जरा ( वार्धक्य ) और मृत्यु को उचित उपायों द्वारा रोकने के लिए आयुर्वेद का प्रणयन किया गया है । मुनि, आर्यिका धावक और धाविका रूपी चतुविध संघ के लिए चिकित्सा उपादेय है। आगमों का अभ्यास, पठन-पाठन प्रारम्भ में जैन यति-मुनियों तक ही सीमित था । जैन धर्म के नियमों के अनुसार यति-मुनियों और आर्यिकाओं के रुग्ण होने पर वे श्रावक-श्राविका से अपनी चिकित्सा नहीं करा सकते थे । वे इसके लिए किसी से कुछ न तो कह सकते थे और न कुछ करा सकते थे । अतएव यह आवश्यक था कि वे अपनी चिकित्सा स्वयं ही करें अथवा अन्य यतिमुनि उनका उपचार करें। इसके लिए प्रत्येक यति-मुनि को चिकित्सा-विषयक ज्ञान प्राप्त करना जरूरी था । कालान्तर में जब लौकिक विद्याओं को यति-मुनियों द्वारा सीखना निषिद्ध माना जाने लगा तो दृष्टिवाद संज्ञक आगम, जिसमें . Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आयुर्वेद : परम्परा और साहित्य ३६५ अनेक लौकिक विद्याएँ शामिल थीं, का पठन-पाठन-क्रम बन्द हो गया। शनैः-शनै: उसका लोप ही हो गया। यह परिस्थिति तीसरी-चौथी शती में आगमों के संस्करण और परिष्कार के लिए हुई 'माथुरी' और 'वाल्लभी' वाचनाओं से बहुत पहले ही हो चुकी थी । अतः इन वाचनाओं के काल तक दृष्टिवाद को छोड़कर अन्य एकादश आगमांगों पर तो विचार-विमर्श हुआ। पर 'दृष्टिवाद' की परम्परा सर्वथा लुप्त हो गयी अथवा विकलरूप में कहीं-कहीं प्रचलित रही। सम्पूर्ण 'दृष्टिवाद' में धर्माचरण के नियम, दर्शन और नीति-सम्बन्धी विचार, विभिन्न कलाएँ, ज्योतिष, आयुर्वेद, शकुनशास्त्र, निमित्तशास्त्र, यन्त्र-तन्त्र आदि विज्ञानों और विषयों का समावेश होता है। दुर्भाग्य से अब दृष्टिवाद का कोई ग्रन्थ नहीं मिलता। बाद के साहित्य में उनका विकीर्णरूप से उल्लेख अवश्य मिलता है। महावीरनिर्वाण (ईसवीपूर्व ५२७) के लगभग १६० वर्ष बाद 'पूर्वो' सम्बन्धी ग्रन्थ क्रमश: नष्ट हो गये। सब पूर्वो का ज्ञान अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु को था। उनके १५१ वर्ष बाद हुए विशाखाचार्य से धर्मसेन तक दस पूर्वो' (अन्तिम चार पूर्वो को छोड़कर) का ज्ञान प्रचलित रहा। उसके बाद उनका ज्ञाता कोई आचार्य नहीं रहा । 'षट्खण्डागम' के वेदनानामक अध्याय के प्रारम्भिक सूत्र में दसपूर्वो और चौदहपूर्वो के ज्ञाता मुनियों को नमस्कार किया गया है। इस सूत्र की टीका में वीरसेनाचार्य ने स्पष्ट किया है कि पहले दस पूर्वो के ज्ञान से कुछ मुनियों को अनेक प्रकार की महाविद्याएँ प्राप्त होती हैं, उससे सांसारिक लोभ और मोह उत्पन्न होता है और वे वीतरागी नहीं हो पाते। लोभ-मोह को जीतने से ही श्रुतज्ञान प्राप्त होता है। समस्त पूर्वो के उच्छिन्न होने के कारणों की मीमांसा करते हुए डा. हीरालाल जैन ने लिखा है-“ऐसा प्रतीत होता है कि अन्त के जिन पूर्वो में कलाओं, विद्याओं, यन्त्र-तन्त्रों व इन्द्रजालों का निरूपण था, वे सर्वप्रथम ही मुनियों के संयम रक्षा की दृष्टि से निषिद्ध हो गये । शेष पूर्वो के विच्छिन्न हो जाने का कारण यह प्रतीत होता है कि उनका जितना विषय जैन मुनियों के लिये उपयुक्त व आवश्यक था, उतना द्वादशांग के अन्य भागों में समाविष्ट कर लिया गया था, इसीलिये इन रचनाओं के पठन-पाठन में समय-शक्ति को लगाना उचित नहीं समझा गया गया।" आगम-साहित्य में आयुर्वेद विषयक सामग्री दिगम्बर परम्परा में आगमों को नष्ट हुआ माना जाता है, परन्तु श्वेताम्बर परम्परा में महावीर-निर्वाण के बाद १०वीं शताब्दी में हुई अन्तिम वालभी वाचना में पुस्तक रूप में लिखे गये ४५ ग्रन्थों को समय-समय पर भाषा व विषय सम्बन्धी संशोधन-परिवर्तन के होते रहने पर अब तक उपलब्ध माना जाता है । आगम-साहित्य में प्रसंगवशात् आयुर्वेद-सम्बन्धी अनेक सन्दर्भ आये हैं। यहाँ उनका दिग्दर्शन मात्र कराया जायेगा। 'स्थानांग सूत्र' में आयुर्वेद या चिकित्सा (तेगिच्छ-चैकित्स्य) को नौ पापश्रुतों में गिना गया है। निशीथचूणि' से ज्ञात होता है कि धन्वन्तरि इस शास्त्र के मूल-प्रवर्तक थे। उन्होंने अपने निरन्तर ज्ञान से रोगों की खोज कर वैद्यकशास्त्र या आयुर्वेद की रचना की। जिन लोगों ने इस शास्त्र का अध्ययन किया वे 'महावैद्य' कहलाये। आयुर्वेद के आठ अंगों का भी उल्लेख इन आगम ग्रन्थों में मिलता है-कौमारभृत्य, शालाक्य, शाल्यहत्य, कायचिकित्सा, जांगुल (विषनाशन), भूतविद्या, रसायन और वाजीकरण । चिकित्सा के मुख्य चार पाद हैं-वैद्य, रोगी, औषधि और प्रतिचर्या (परिचर्या) करने वाला परिचारक । सामान्यत: विद्या और मन्त्रों, कल्पचिकित्सा और १. डॉ० हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० ५३. २. स्थानांगसूत्र, ६. ६७८. ३. निशीथचूणि, पृ० ५१२. ४. (क) स्थानांगसूत्र, ८, पृ० ४०४ (ख) विपाक सूत्र, ७, पृ० ४१. ५. उत्तराध्ययन, २०. २३; सुखबोध, पत्र २६६. Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Nationa ३६६ 60+0 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड वनौषधियों ( जड़ी-बूटियों) से चिकित्सा की जाती थी और इसके आचार्य यत्र-तत्र मिल जाते थे। चिकित्सा की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित थीं। इनमें पंचकर्म, वमन, विरेचन आदि का भी विपुल प्रचलन था । रसायनों का सेवन कराकर भी चिकित्सा की जाती थी । चिकित्सक को प्राणाचार्य कहा जाता था। पशुचिकित्सक भी हुआ करते थे निष्णात वैद्य को 'दृष्टपाठी' (प्रत्यक्षकर्माभ्यास द्वारा जिसने वास्तविक अध्ययन किया है) कहा गया है। 'निशीथचूणि' में उनके शास्त्रों का नामतः उल्लेख मिलता है । तत्कालीन अनेक वैद्यों के नाम का भी उल्लेख आगम-प्रन्थों में मिलता है विपाकसूत्र में विजयनगर के धन्तरि नामक चिकित्सक का वर्णन है।5 रोगों की उत्पत्ति वात, पित्त, कफ और सन्निपात से बतायी गयी है। रोग की उत्पत्ति के नौ कारण बताये गये हैं—अत्यन्त भोजन, अहितकर भोजन, अतिनिद्रा, अतिजागरण, पुरीष का निरोध, मूत्र का निरोध, मार्गगमन, भोजन की अनियमितता, काम विकार। १° पुरीष के वेग को रोकने से मरण, मूत्र वेग रोकने से दृष्टिहानि और वमन के वेग को रोकने से कुष्ठरोग की उत्पत्ति होती है । " १० 'आचारांग सूत्र' में १६ रोगों का उल्लेख है - गंजी (गंडमाला), कुष्ठ, राजयक्ष्मा, अपस्मार, कार्णिय ( काण्य, अक्षिरोग), झिमिय (जड़ता ), कुणिय ( हीनांगता), खुज्जिय ( कुबड़ापन ), उदररोग, मूकत्व, सूणीय (शोथ ), गिलास णि ( भस्मकरोग), बेवई (कम्पन), पीठसंधि (पंगुत्व), सिलीवय ( श्लीपद) और मधुमेह । १२ इसी प्रकार आगम साहित्य में व्याधियों की औषधि चिकित्सा और सत्यचिकित्सा का भी वर्णन मिलता है। सर्पकीट आदि के विषों को चिकित्सा भी वागत है। सुवर्ण को उत्तम विषनायक माना गया है। गंडमाला, अर्श, भगंदर, व्रण, आघात या आगन्तुजवण आदि के शल्यकर्म और सीवन आदि का वर्णन भी है। मानसिक रोगों और भूतावेश-जन्य रोगों में भौतिक चिकित्सा का भी उल्लेख मिलता है। जैन आगम ग्रन्थों में आरोग्यशालाओं (च्छियसाल चिकित्साशाना) का उल्लेख मिलता है। वहाँ वेतनभोगी चिकित्सक, परिचारक आदि रखे जाते थे । १३ वास्तव में सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य में उपलब्ध आयुर्वेदीय सन्दर्भों का संकलन और विश्लेषण किया जाना अपेक्षित है । = जैन- परम्परा जैनधर्म के मूल प्रवर्तक तीर्थंकर माने जाते हैं। कालक्रम से ये चौबीस हुए— ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपावं, चंदप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, धेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शांति रह कुन्थु, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्वनाथ, वर्धमान या महावीर । इनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ और अन्तिम महावीर हुए पूर्व, शक संवत् से ६०५ वर्ष पाँच माह पूर्व तथा ईसवी सन् से ५२७ १. उत्तराध्ययन, २०. २२; सुखबोध, पत्र २६६. ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ११. ५. वही, पत्र ४६२ . ७. निशीथचूण, ११.३४३६. ६. आवश्यकचूर्ण, पृ० ३८५. ११. बृहत्कल्पभाष्य, २. ४३००. १३. ज्ञातृधर्मकथा, १३, पृ० १४३. महावीर का निर्वाण विक्रम संवत् से ४७० वर्ष वर्ष पूर्व हुआ था । वर्तमान प्रचलित जैन धर्म की २. उत्तराध्ययन, १५.८. ४. वही, पत्र ४७५. ६. निशीथ चूणि, ७. १७५७. ८. विपाकसूत्र ७, पृ० ४१. १०. स्थानांगसूत्र ९.६६७. १२. आचारांगसत्र, ६. १. १७३. . Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आयुर्वेद : परम्परा और साहित्य ३६७ नींव महावीर के उपदेशों से पड़ी । उन्होंने जनसंघ को चार भागों में बाँटा-मुनि, आयिका, श्रावक और श्राविका । पहले दोनों वर्ग घरबार छोड़कर परिव्राजक व्रत धारण करने वाले और शेष दोनों गृहस्थों के वर्ग हैं। इसे 'चतुर्विध-संघ' कहते हैं । परिव्राजकों और गृहस्थों के लिए अलग-अलग आचार-नियम स्थापित किये। ये नियम व व्यवस्थाएँ आज पर्यन्त जैन-समाज की प्रतिष्ठा को बनाये हुए हैं। महावीर के बाद गणधर व प्रतिगणधर हुए, उनके बाद श्रुतकेवली भौर उनके शिष्य-प्रशिष्य आचार्य हुए। प्राणावाय के अवतरण को परम्परा __ सामान्य जन-समाज तक प्राणावाय की परम्परा कैसे चली, इसका स्पष्ट वर्णन दिगम्बराचार्य उग्रादित्य के 'कल्याणकारक' नामक प्राणावायग्रन्थ के प्रस्तावना अंश में मिलता है । उसमें कहा गया है भगवान् आदिनाथ के समवसरण में उपस्थित होकर भरत चक्रवर्ती आदि भव्यों ने मानवों के व्याधिरूपी दुःखों का वर्णन कर उनसे छुटकारे का उपाय पूछा। इस पर भगवान् ने अपनी वाणी में उपदेश दिया। इस प्रकार प्राणावाय का ज्ञान तीर्थंकरों से गणधर, प्रतिगणधरों ने, उनसे श्रुतकेवलियों ने और उनसे बाद में होने वाले अन्य मुनियों ने क्रमश: प्राप्त किया। जैनों द्वारा प्रतिपादित और मान्य आयुर्वेदावतरण (प्राणाबायावतरण) की यह परम्परा आयुर्वेदीय चरक, सुश्रुत संहिताओं में प्राप्त परम्पराओं से सर्वथा भिन्न और नवीन है। प्राणावाय की यह प्राचीन परम्परा मध्ययुग से पूर्व ही लुप्त हो चुकी थी। क्योंकि प्राणावाय के परम्परागत शास्त्रों के आधार पर या उनके साररूप में ई० आठवीं शताब्दी के अन्त में दक्षिण के आन्ध्र प्रान्त के प्राचीन चालुक्यराज्य में दिगम्बराचार्य उग्रादित्य ने 'कल्याणकारक' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। यही एक मात्र ऐसा ग्रन्थ मिलता है जिसमें प्राणावाय की प्राचीन परम्परा और शास्त्रग्रन्थों का परिचय प्राप्त होता है। इस काल के बाद किसी भी आचार्य या विद्वान् ने 'प्राणावाय' का उल्लेख अपने ग्रन्थ में नहीं किया। मध्ययुग में प्राणावाय परम्परा के लुप्त होने के अनेक कारण हो सकते हैं। प्रथम, चिकित्सा-शास्त्र एक लौकिक विद्या है। अपरिग्रहव्रत का पालन करने वाले जैन साधुओं और मुनियों के लिए इसका सीखना निष्प्रयोजन था, क्योंकि वे भ्रमणशील होने से एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करते रहते थे, श्रावक-श्राविकाओं की चिकित्सा करना उनके लिए निषिद्ध था, क्योंकि इससे मोह और परिग्रहवृत्ति उत्पन्न होने की संभावना रहती है। मुनि या साधु केवल साधुवर्ग की चिकित्सा ही कर सकते थे। संयमशील साधुओं का जीवन वैसे ही प्रायश: नीरोग और दीर्घायु होता था। अतः साधुओं और मुनियों ने चिकित्सा कार्य को सीखना धीरे-धीरे त्याग दिया। परिणामस्वरूप जैन-परम्परा में प्राणावाय की परम्परा का क्रमशः लोप होता गया । दक्षिण भारत में तो फिर भी ईसवीय आठवीं शताब्दी तक प्राणावाय के ग्रन्थ मिलते हैं । परन्तु उत्तरी भारत में तो वर्तमान में एक भी प्राणावाय का प्रतिपादक प्राचीन ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता। इससे ज्ञात होता है कि यह परम्परा उत्तर में बहुत काल पहले ही लुप्त हो गई थी। फिर, ईसवीय तेरहवीं शताब्दी से हमें जैन श्रावकों और यति-मुनियों द्वारा निर्मित आयुर्वेदीय ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । ये ग्रन्थ प्राणावाय-परम्परा के नहीं कहे जा सकते, क्योंकि इनमें कहीं पर भी प्राणावाय का उल्लेख नहीं है। इनमें पाये जाने वाले रोगनिदान, लक्षण, चिकित्सा आदि का वर्णन आयुर्वेद के अन्य ग्रन्थों के समान है। ये ग्रन्थ संकलनात्मक और मौलिक--दोनों प्रकार के हैं। कुछ टीकाग्रन्थ हैं--जो प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थों पर देशीभाषा में या संस्कृत में लिखे गये हैं। कुछ ग्रन्थ पद्यमय भाषानुवाद मात्र हैं । वर्तमान में पाये जाने वाले अधिकांश ग्रन्थ इस प्रकार के हैं। जैनपरम्परा के अन्तर्गत श्वेताम्बरी साधुओं में यतियों और दिगम्बरी साधुओं में भट्टारकों के आविर्भाव के बाद इस प्रकार का साहित्य प्रकाश में आया । यतियों और भट्टारकों ने अन्य परम्परात्मक जैन साधुओं के विपरीत स्थानविशेष में अपने निवास बनाकर, जिन्हें उपाश्रय (उपासरे) कहते हैं, लोकसमाज में चिकित्सा, तन्त्र-मन्त्र (झाड़ा-फूंकी) और ज्योतिष विद्या के बल पर प्रतिष्ठा प्राप्त की। जैन साधुओं में ऐसी परम्पराएँ प्रारम्भ होने के पीछे तत्कालनी Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड 100. ........................................... सामाजिक व्यवस्था कारणीभूत थी। भारतीय समाज में नाथों, शाक्तों आदि का प्रभाव लौकिक विद्याओं--चिकित्सा, रसायन, जादू-टोना, झाड़ा-फूंकी, ज्योतिष, तन्त्र-मन्त्र आदि के कारण विशेष बढ़ता जा रहा था। ऐसे समाज के सम्मुख अपने सम्मान और मान्यता को कायम रखने हेतु श्रावकों को प्रभावित करना आवश्यक था, जो इन लौकिक विज्ञानों और विद्याओं के माध्यम से अधिक सरल और स्पष्ट था। अत: सर्वप्रथम दिगम्बरमत में भट्टारकों की परम्परा स्थापित हुई, बाद में उसी के अनुसरण पर श्वेताम्बरों में यतियों की परम्परा प्रारम्भ हुई। इनके उपासरे जहाँ श्रावकों के बच्चों को लौकिक-विद्याओं की शिक्षा और धर्मोपदेश देने के केन्द्र थे तो वहीं दूसरी ओर चिकित्सा, तन्त्र-मन्त्र और ज्योतिष आदि के स्थान भी थे। इन यतियों और भट्टारकों ने योग और तन्त्र-मन्त्र के बल पर अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कर ली थीं, चिकित्सा और रसायन के अद्भुत चमत्कारों से जनसामान्य को चमत्कृत और आकर्षित किया था और ज्योतिष की महान् उपलब्धियाँ प्राप्त की थीं। दक्षिण में भट्टारकों का प्रभाव विशेष परिलक्षित हुआ। इन्होंने रसायन के क्षेत्र में विशेष योग्यता प्राप्त की। कुछ अंश में प्राणावाय परम्परा के समय ८वीं शती तक ही रसायनचिकित्सा अर्थात् खनिज द्रव्यों और पारद के योग से निर्मित औषधियों द्वारा रोगनाशन के उपाय अधिक प्रचलित हुए। दक्षिण के सिद्धसम्प्रदाय में यह चिकित्सा विशेष रूप से प्रसिद्ध रही । दसवीं शताब्दी तक उत्तरी भारत के आयुर्वेदीय ग्रन्थों में धातुसम्बन्धी चिकित्साप्रयोग स्वल्प मिलते हैं, जबकि आठवीं शताब्दी के 'कल्याणकारक' नामक ग्रन्थ में ऐसे सैकड़ों प्रयोग उल्लिखित हैं, कुछ प्रयोग तो किन्हीं प्राचीन ग्रन्थों से उद्धृत किये गये हैं। कालान्तर में यह रसचिकित्सा सिद्धों और जैन भट्टारकों के माध्यम से उत्तरी भारत में भी प्रसारित हो गई और यहाँ भी रसग्रन्थ रचे जाने प्रारम्भ हो गये। वस्तुत: रसचिकित्सा-सम्बन्धी यह देन दक्षिणवासियों की है, इसमें बहुलांश जैन-विद्वानों का भाग है। इस प्रकार प्राणावाय की परम्परा में अथवा बाद में अन्य कारणों से जैन यति-मुनियों, भट्टारकों और श्रावकों ने आयुर्वेद के विकास और आयुर्वेदीय ग्रन्थों की रचना में महान् योगदान किया। ये ग्रन्थ राजस्थान, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मद्रास आदि के हस्तलिखित ग्रन्थागारों में भरे पड़े हैं। दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश ग्रन्थ अप्रकाशित हैं और कुछ तो अज्ञात भी हैं। इनमें से कुछ काल-कवलित भी हो चुके हैं। जैन-वैद्यक-ग्रन्थ जैन वैद्यक-ग्रन्थों के अपने सर्वेक्षण से मैं जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ, उसके निम्न तीन पहलू हैं एक-जैन विद्वानों द्वारा निर्मित उपलब्ध वैद्यक साहित्य अधिकांश में मध्ययुग में (ई०सन् की १३ वीं शती से १६ वीं शती तक) रचे गये थे। कुछ ग्रन्थ दक्षिण में ७-८वीं शती के भी, दक्षिण के आन्ध्र और कर्नाटक क्षेत्रों में मिलते हैं, जैसे-कल्याणकारक आदि । परन्तु ये बहुत कम हैं। द्वितीय-उपलब्ध सम्पूर्ण वैद्यक-साहित्य में जैनों द्वारा निर्मित साहित्य उसके एक-तिहाई से भी अधिक है। तृतीय----अधिकांश जैन वैद्यकग्रन्थों का प्रणयन पश्चिमी भारत में, जैसे--पंजाब, राजस्थान, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र और कर्नाटक में हुआ है। कुछ माने में राजस्थान को इस सन्दर्भ में अग्रणी होने का गौरव और श्रेय प्राप्त है। राजस्थान में निर्मित अनेक जैन-वैद्यकग्रन्थों, जैसे वैद्यवल्लभ (हस्तिरुचि गणि कृत), योगचितामणि (हर्षकीतिसूरिकृत) आदि का वैद्य-जगत् में बाहुल्येन प्रचार-प्रसार और व्यवहार पाया जाता है। इनमें से अधिकांश ग्रन्थ मध्ययुगीन प्रादेशिक भाषाओं जैसे पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, कर्णाटकी (कन्नड़) में तथा संस्कृत में प्राप्त हैं। जैन विद्वानों द्वारा मुख्यतया निम्न तीन प्रकार से वैद्यकग्रन्थों का प्रणयन हुआ-- १. जैन यति-मुनियों द्वारा ऐच्छिक रूप से ग्रन्थ-प्रणयन । २. जैन यति-मुनियों द्वारा किसी राजा अथवा समाज के प्रतिष्ठित और धनी श्रेष्ठी पुरुष की प्रेरणा या आज्ञा से ग्रन्थ-प्रणयन । Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आयुर्वेद : परम्परा और साहित्य ३६६ ...............................................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. ३. स्वतन्त्र जैन श्रावक विद्वानों और चिकित्सकों द्वारा ग्रन्थ-प्रणयन । निम्न पंक्तियों में भारतवर्ष के कुछ प्रसिद्ध जैन वैद्यक-मनीषियों और उनके ग्रन्थों का परिचय दिया जा रहा है यहाँ प्रारम्भ कर्णाटक के जैन आयुर्वेद साहित्य के वर्णन से करेगे, क्योंकि उपलब्ध जैन आयुर्वेद ग्रन्थों में प्राचीनतम ग्रन्थ में वहीं पर उपलब्ध हैं। _ 'कल्याणकारक नामक प्राणावाय' ग्रन्थ ईसवीय आटवीं शताब्दी के अन्त का मिलता है। उसमें इस परम्परा के प्राचीन विद्वानों और उनके ग्रन्थों का उल्लेख है-"पूज्यपाद ने शालाक्य पर, पात्रस्वामी ने शल्यतन्त्र पर, सिद्धसेन ने विष और उग्र ग्रह शमनविधि सम्बन्धी, दशरथगुरु ने कायचिकित्सा पर, मेघनाद ने बालरोगों पर, सिंहनाद ने वाजीकरण और रसायन पर वैद्यक ग्रन्थों की रचना की थी।" (कल्याणकारक, परिच्छेद २०, श्लोक ८५)। कल्याणकारक में यह भी कहा गया है कि “समन्तभद्र ने विस्तारपूर्वक आयुर्वेद के आठों अंगों पर जो कहा था, संक्षेप में मैं (उग्रादित्य) ने अपनी शक्ति के अनुसार यहाँ (इस ग्रन्थ में) पूर्णरूप से कहा है।" (क० का०, परिच्छेद २०, श्लोक ८६)। उपर्युक्त विवरण से ज्ञात होता है कि उग्रादित्य के कल्याणकारक ग्रन्थ की रचना से पूर्व दक्षिण में (विशेषकर कर्णाटक में, जैसा कि हम आगे चलकर देखेंगे उक्त सभी वैद्यक विद्वान् कर्नाटक के ही थे) जैन प्राणावाय-आगम के विद्वानों की एक सुदीर्घ परम्परा रही थी और उनके द्वारा विभिन्न ग्रन्थ भी रचे गये थे। दुर्भाग्य से अब इनमें से कोई ग्रन्थ नहीं मिलता । केवल उग्रा दित्याचार्य का कल्याणकारक उपलब्ध है। यह संस्कृत में है और सोलापुर से हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित भी हो चुका है। समंतभद्र का काल ई० ३ से ४थी, शताब्दी माना जाता है। वर्तमान में इनका वैद्यक ग्रन्थ नहीं मिलता। "पुष्प आयुर्वेद" नामक कोई ग्रन्थ इनके नाम से कर्नाटक मिलता है, परन्तु वह सन्दिग्ध है। उग्रादित्य ने इनके अष्टांगसम्बन्धी विस्तृत ग्रन्थ का उल्लेख किया है। पूज्यपाद-इनका काल ५वीं शताब्दी है। इनका प्रारम्भिक नाम देवनन्दि था, परन्तु बाद में बुद्धि की महत्ता के कारण यह जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये तथा देवों ने जब इनके चरणों की पूजा की, तब से यह 'पूज्यपाद' कहलाने लगे। मानवजाति के हित के लिए इन्होंने वैद्यकशास्त्र की रचना की थी। यह ग्रन्थ अप्राप्य है। कल्याणकारक में अनेक स्थानों पर 'पूज्यपादेन भाषित:' ऐसा कहा गया है । आन्ध्र प्रदेश में रचित १५वीं शताब्दी के 'वसवराजीय' नामक ग्रन्थ में पूज्यपाद के अनेक योगों का उल्लेख मिलता है। पूज्यपाद के अधिकांश योग धातु-चिकित्सा सम्बन्धी हैं। इनका ग्रन्थ 'पूज्यपादीय' कहलाता था। यह संस्कृत में रहा होगा । कर्नाटक में पूज्यपाद का एक कन्नड़ में लिखित पद्यमय वैद्यक ग्रन्थ मिलता है । 'वैद्यसार' नामक ग्रन्थ भी पूज्यपाद का लिखा बताया जाता है, जो जैन-सिद्धान्त-भास्कर में प्रकाशित हो चुका है, परन्तु ये दोनों ही ग्रन्थ वस्तुतः पूज्यपाद के नहीं हैं। __ आठवीं शताब्दी के अन्त में दिगम्बराचार्य उग्रादित्य ने 'कल्याणकारक' नामक अष्टांग ग्रन्थ की संस्कृत में रचना की थी। यह रामगिरि (वर्तमान विशाखापट्टन जिले में है) के निवासी थे। परन्तु राजनैतिक उथल-पुथल से इन्हें बाद में हवीं शती के प्रारम्भ में राष्टकूट राजा नृपतुग अमोघवर्ष प्रथम के राज्य में आश्रय लेना पड़ा। नृपतुग के दरबार में उपस्थित होकर उन्होंने मांस निषेध पर एक विस्तृत भाषण दिया था, जो कल्याणकारक ग्रन्थ के अन्त में 'हिताहित' अध्याय के रूप में सम्मिलित किया गया है। ___ संस्कृत ग्रन्थों के अतिरिक्त कन्नड़ भाषा में भी ग्रन्थ रचे गये । जैन मंग(ल)राज ने स्थावर विष की चिकित्सा पर 'खगेन्द्रमणिवर्पण' नामक एक बड़ा ग्रन्थ लिखा था। यह प्रारम्भिक विजयनगर साम्राज्य काल में राजा हरिहरराज के समय में विद्यमान था। इनका काल ई० सन् १३६० के आसपास माना जाता है। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड देवेन्द्रमुनि ने बालग्रचिकित्सा पर ग्रन्थ लिखा था। श्रीधरदेव (१५०० ई०) ने 'वैद्यामत' की रचना की थी। इसमें २४ अधिकार हैं। बाचरस (१५०० ई०) ने 'अश्ववैद्यक' की रचना की। इसमें अश्वों की चिकित्सा का वर्णन है । पद्मरस या पद्मण्ण पण्डित ने १६२७ ई० में 'हयसारसमुच्चय' (अश्वशास्त्र) नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें घोड़ों की चिकित्सा बतायी गई है । रामचन्द्र और चन्द्रराज ने अश्ववैद्यक, कीर्तिमान ने गोचिकित्सा, वीरभद्र ने पालकाप्प के हस्त्यायुर्वेद की कन्नड़ टीका, अमृतनन्दि ने वैद्य कनिघण्टु नामक शब्दकोश, साल्व ने रसरत्नाकर और वैद्यसांगत्य, जगदेव ने महामन्त्रवादि नामक ग्रन्थ की रचना की थी। तमिल आदि भाषाओं में जैन वैद्यक ग्रन्थों का संकलन नहीं हो पाया है। कर्नाटक के प्राचीनतम साहित्य के बाद गुजरात का अनुक्रम प्राप्त होता है । सौराष्ट्र के ढंकगिरि (धन्युका) में पादलिताचार्यसूरि का निवास था। इनका काल ३ से ४थी शती माना जाता है। इन्हें रसायनविद्या में सिद्धि प्राप्त थी। इनके शिष्य नागार्जुन हुए। इन्होंने ही वलभी में एक मुनि-सम्मेलन बुलाकर आगमों का पाठ संकलित कराया था। ये ही आगमग्रन्थ आज तक प्रचलित हैं । इनको भी रसायनसिद्धि प्राप्त थी। इनको उत्तरीभारत में रसायनविद्या का प्रारम्भ और उत्कर्ष किये जाने का तथा रसायनचिकित्सा का प्रचलन करने का श्रेय प्राप्त है। पण्डित गुणाकरसूरि नामक श्वेताम्बर साधु ने नागार्जुन द्वारा विरचित 'आश्वयोगमाला' पर सं० १२१६ (ई. सन् ११५६) में संस्कृत टीका-वृत्ति लिखी थी। ई० सन् १६६६ के लगभग तपागच्छीय साधु हर्षको ति सूरि ने 'योगवितामणि' नामक प्रसिद्ध चिकित्साग्रन्थ की रचना की थी। इसमें योगों का संग्रह है। इसमें फिरंगरोग और कबाबवीनी का उलेख मिलता है। तपागच्छीय कनक के शिष्य नर्बुदाचार्य या नर्मदाचार्य ने संवत् १६५६ में 'कोककला चौपई' नामक कोकशास्त्र (कामशास्त्र) पर गुजराती में पद्यबद्ध ग्रन्थ लिखा था। श्रीकंठसरि नामक जैन आचार्य ने 'हितोपदेश' नामक पथ्यापथ्य सम्बन्धी ग्रन्थ लिखा है। मेहतुंग नामक जैन साधु ने ई० १३८६ में एक प्राचीन रसग्रन्थ 'कंकालीयरसाध्याय' पर संस्कृत टीका लिखी थी। माणिक्यचन्द्र जैन ने 'रसावतार' नामक रसग्रन्थ की रचना की । नयनरोबर अंवलगच्छीय पालीताणा शाखा के वैद्यकविद्या में निष्णात मुनि थे। इन्होंने संवत् १७३६ में 'योगरत्नाकरचौपई' नामक गुजराती चौपई पद्यों में लिखित वैद्यकग्रन्थ की रचना की थी। यह बहुत बड़ा और उपयोगी ग्रन्थ है । केसराज के पुत्र श्रावक नयनसुख ने संवत् १६४६ में 'वैद्यभनोत्सव' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की थी। तपागच्छीय लक्ष्मीकुशल ने संवत् १६६४ में 'वैद्यकसाररत्न-प्रकाश' नामक ग्रन्थ ईडर के पास ओडा नामक ग्राम में रचा था। कच्छक्षेत्र के अन्तर्गत अंजार नगर के निवासी आगमगच्छ के साधु कवि विश्राम ने विपोपविष-शान्ति, धातुशोधनकारण और रोगानुपान के सम्बन्ध में संवत् १८४२ में 'अनुपान-मंजरी' और व्याधियों की चिकित्सा पर संवत् १८३८ में 'व्याधिनिग्रह' नामक ग्रन्थ की रचना की। राजस्थान में सबसे अधिक वैद्यक ग्रन्थों का प्रणायन हुआ था। पण्डित आशाधर नामक जैन श्रावक ने ई० १२४० के लगभग अष्टांग हृदय पर उद्योतिनी नामक संस्कृत टीका लिखी थी। यह सपादलक्षक्षेत्र के मांडलगढ़ जिला भीलवाड़ा राजस्थान के निवासी थे, जो बाद में मुहम्मद गोरी के अजमेर पर आधिपत्य कर लेने पर मुस्लिम आक्रमणों में त्रस्त होकर मालवा के शासक विंध्यवर्मा की धारानगरी में रहने लगे थे। बाद ये नालछा में बस गये। इनका यह टीकाग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। पीटर्सन ने अपनी सूवी में इसका उल्लेख किया है। सम्भवतः खरतरगच्छीय वर्द्धमान सूरि के शिष्य हंसराज मुनि ने १७वीं शती में भिषक्रचितोत्सव' नामक रोगानिदान सम्बन्धी संस्कृत में श्लोकात्मक ग्रन्थ लिखा था। इसे 'हंसराजनिदानम्' भी कहते हैं। कृष्णवैद्य के पुत्र महेन्द्र जैन ने वि० सं० १७०६ में धन्वन्तरिनिघण्टु के आधार पर उदयपुर में 'द्रव्यावली समुच्चय' ग्रन्थ की रचना की थी। यह द्रव्यगुणशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थ है । तपागच्छीय हस्तिरुचिगणि ने सं० १७२६ में संस्कृत में 'वैद्यवल्लभ' नामक रोगचिकित्सा सम्बन्धी ग्रन्थ रचा Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आयुर्वेद : परम्परा और साहित्य ३७१. था । इसमें ज्वर, स्त्रीरोग, कासक्षयादिरोग, धातुरोग, अतिसारादि रोग, कुष्ठादिरोग, शिरःकर्णाक्षिरोग के प्रतिकार तथा स्तम्भन विषयक कुल ८ अध्याय हैं । मेघभट्ट ने सं० १७२६ में इस पर संस्कृत टीका लिखी थी। खरतरगच्छीय जिनचन्द की परम्परा में वाचक सुमतिमेरु के भ्रात पाठक विनयमेरुगणि ने १८वीं शती में 'विद्वन्मुखमण्डनसारसंग्रह' नामक योगसंग्रह ग्रन्थ लिखा था। इसमें रोगों की चिकित्सा दी गई है। इनके शिष्य मुनि मानजी के राजस्थानी में लिखे हुए 'कविप्रमोद', 'कविविनोद' आदि वैद्यकग्रन्थ मिलते हैं। यह बीकानेर क्षेत्र के निवासी थे। बीकानेर के निवासी और धर्मशील के शिष्य रामलाल महोपाध्याय ने 'रामनिदानम्' या 'रामऋद्धिसार' नामक छोटे से ग्रन्थ की संस्कृत में रचना की थी। इसमें संक्षेप में सब रोगों के निदान का वर्णन है। इसकी कुल श्लोक संख्या ७१२ है। खरतरगच्छीय मुनि दयातिलक के शिप्य दीपकचन्द्र वाचक ने जयपुर में महाराजा जयसिंह के शासनकाल में 'लंघनपथ्यनिर्णय' नामक पथ्यापथ्य सम्बन्धी ग्रन्थ की रचना की थी। इसका रचनाकाल सं० १७६२ है। बाद में इस ग्रन्थ का संशोधन शंकर नामक ब्राह्मण ने संवत् १८८५ में किया था। संस्कृत में रचित उपर्युक्त वैद्यक ग्रन्थों के अतिरिक्त राजस्थानी भाषा में भी जैन विद्वानों ने कई वैद्यक ग्रन्थ रचे थे। खरतरगच्छीय यति रामचन्द्र ने वैद्यक सम्बन्धी 'रामविनोद' (रचनाकाल सं० १७२०) तथा 'वैद्यविनोद' (रचनाकाल सं० १७२६) नामक ग्रन्थों की रचना की थी। यह औरंगजेब के शासनकाल में मौजूद थे। ये दोनों ग्रन्थ चिकित्सा पर हैं। 'वैद्यविनोद' ग्रन्थ शाजधरसंहिता का पद्यमय भाषानुवाद है । इनके 'नाडीपरीक्षा' और 'मानपरिमाण' नामक ग्रन्थ भी मिलते हैं, जो वास्तव में 'रामविनोद' के ही अंश हैं। श्वेताम्बरी बेगड़ गच्छ के आचार्य जिनसमुद्रसूरि ने 'वैद्यचिन्तामणि' नामक ग्रन्थ १७वीं शती में लिखा था। इस ग्रन्थ के अन्य नाम 'वैद्यकसारोद्धार,' 'समुद्रसिद्धान्त' और 'समुद्रप्रकाशसिद्धान्त' भी मिलते हैं। इसमें रोगों के निदान और चिकित्सा का पद्यों में संग्रह है। बीकानेर के खरतरगच्छीय धर्मसी या धर्मवर्द्धन की 'डंभक्रिया' नामक २१ पद्यों में छोटी सी रचना मिलती है। इसका रचनाकाल सं० १७४० दिया गया है। इसमें विभिन्न रोगों में अग्निकर्म-चिकित्सा का वर्णन है। खरतरगच्छीय शाखा के उपाध्याय लक्ष्मीकीर्ति के शिष्य लक्ष्मीवल्लभ ने शम्भुनाथकृत संस्कृत के 'कालज्ञानम्' का संवत् १४७१ में पद्यमय भाषानुवाद किया था। इनकी दूसरी कृति 'मूत्रपरीक्षा' नामक है जो अतिसंक्षिप्त, केवल ३७ पद्यों में मिलती है। इसका रचनाकाल सं० १७५१ है । लक्ष्मीवल्लभ बीकानेर के रहने वाले थे। विनयमेरुगणि के शिष्य मुनिमान की राजस्थानी पद्यों में लिखित दो वैद्यक रचनाएँ मिलती हैं----'कविविनोद' और 'कविप्रमोद ।' 'कवि विनोद' में रोगों के निदान और औषधि का वर्णन है। इसमें दो खण्ड हैं-प्रथम में कल्पनाएँ हैं और दूसरे में चिकित्सा दी गई है । इसका रचनाकाल सं० १७४५ है । 'कविप्रमोद' बहुत बड़ी कृति है। इसका रचनाकाल सं० १७४६ है । यह कवित्त और दोहा छन्दों में है । इसमें वाग्भट, सुश्रुत, चरक आदि ग्रन्थों का सार संकलित है। बीकानेर के निवासी तथा महाराज अनूपसिंह के राज्याथित व सम्मानित श्वेताम्बर जैन जोसीराम मथेन के पुत्र जोगीदास (अन्य नाम 'दासकवि') ने महाराजकुंवर जोरावरसिंह की आज्ञा से सं० १७६२ में 'वैद्यकसार' नामक चिकित्साग्रन्थ की रचना की थी। श्वेताम्बर खरतरगच्छीय मतिरत्न के शिप्य समरथ ने सं० १७५५ के लगभग शालिनाथ (वैद्यनाथ के पुत्र) द्वारा प्रणीत संस्कृत 'रसमंजरी' नामक रस ग्रन्थ पर पद्यमय भापाटीका लिखी थी। Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३७२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .................................................... जयपुर के दीपकचन्द्र वाचक ने कल्याणदास की संस्कृत रचना 'बालतन्त्र' पर 'बालतन्त्रभाषावचनिका' नामक राजस्थानी गद्य में टीका लिखी थी। दीपकचन्द्र वाचक की संस्कृत रचना 'लंघनपथ्यनिर्णय' का ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। खरतरगच्छीय जिनदत्तसूरि शाखा के लाभनिधान के शिष्य चैनसुखयति ने वैद्यक पर दो ग्रन्थ राजस्थानी में लिखे थे। प्रथम-बोपदेवकृत शतश्लोकी को राजस्थानी गद्य में 'सतश्लोकी भाषा टीका' सं० १८२० में तथा द्वितीय लोलिम्बराज के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ वैद्य जीवन पर 'वैद्यजीवनटबा' । चैनसुखयति फतेहपुर (सीकर, शेखावाटी) के निवासी थे। मलूकचन्द नामक जैन धावक ने यूनानी चिकित्साशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ तिब्ब सहाबी का भाषा में पद्यमय अनुवाद 'वैद्यहुलास' (तिब्ब सहाबीभाषा) नाम से किया था। यह बीकानेर क्षेत्र के निवासी थे। श्री अगरचन्द नाहटा ने इनका समय १९वीं शताब्दी माना है। पंजाब के किसी बहुत प्राचीन वैद्यरुग्रन्थ का मुझे उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ। सं० १८१८ में जालन्धर जिले के फगवाडानगर में मेघमुनि ने पुरानी हिन्दी के दोहे-चौपाइयों में मेषविनोद' नामक एक बहुत उपयोगी ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें चिकित्सोपयोगी सब बातों का एक साथ संग्रह है। साथ ही कतिपय नवीन रोगों का वर्णन भी किया है। महाराजा रणजीतसिंह के शासनकाल में गंगाराम नामक जैनयति ने सं० १८७८ में अमृतसर में 'गंगयतिनिदान' नामक ग्रन्थ का निर्माण किया था। इसमें ज्वर, अतिसार आदि रोगों के निदान, लक्षण आदि का सुन्दर विवेचन है। इन दोनों ग्रन्थों का हिन्दीभाषाभाष्य कर कविराज नरेन्द्रनाथ शास्त्री ने लाहौर से प्रकाशित कराया था। समीक्षा जैन परम्परा में रचित आयुर्वेद साहित्य की खोज करते हुए मुझे जिन हस्तलिखित, प्रकाशित और अप्रकाशित ग्रन्थों का परिचय प्राप्त हुआ उनमें से कुछ के सम्बन्ध में संक्षेप में ऊपर कहा गया है । इन वैद्यक ग्रन्थों में वर्णित विषय का विश्लेषण करने पर जो विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं, वे निम्न हैं १. अहिंसावादी जैनों ने शवच्छेदन प्रणाली और शल्यचिकित्सा को हिंसक-कार्य मानकर चिकित्सा क्षेत्र में उन्हें अप्रचलित कर दिया। परिणामस्वरूप शरीर सम्बन्धी ज्ञान शनैः-शनैः क्षीण होता गया और शल्यचिकित्सा छूटती गयी। २. जहाँ एक ओर जैन विद्वानों ने शल्यचिकित्सा का निषेध किया, वहां दूसरी ओर उन्होंने रसयोगों और सिद्धयोगों का बाहुल्येन उपयोग प्रारम्भ किया। एक समय ऐसा आया कि जब सब रोगों की चिकित्सा सिद्धयोगों द्वारा ही की जाने लगी, जैसा कि आजकल ऐलोपैथिक चिकित्सा में सब रोगों के लिए पेटेन्ट योग प्रयुक्त किये जा रहे हैं। नवीन सिद्धयोग और रसयोग (पारद और धातुओं से निर्मित योग) भी प्रचलित हुए। ये सिद्धयोग स्वानुभूत और प्रायोगिक प्रत्यक्षीकृत थे। ३. भारतीय वैद्यकशास्त्र की परम्पराओं के आधार पर रोग निदान के लिए नाड़ी-परीक्षा, मूत्र-परीक्षा आदि को जैन विद्वानों ने विशेष मान्यता प्रदान की, यह उनके द्वारा इन विषयों पर रचित अनेक ग्रन्थों से ज्ञात होता है। ४. जैन विद्वानों ने अपने धार्मिक सिद्धान्तों के आधार पर ही मुख्य रूप से चिकित्साशास्त्र का प्रतिपादन किया है । जैसे--अहिंसा के आदर्श पर उन्होंने मद्य, मांस और मधु के प्रयोग का सर्वथा निषेध किया है, क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अनेक प्राणियों की हिंसा होती है। इस अहिंसा का आपत्काल में भी पूर्ण विचार रखा गया है । 'कल्याणकारक' में तो मांसभक्षण के निषेध की युक्तियुक्त विस्तृत विवेचना की गई है। ५. चिकित्सा में उन्होंने वनस्पति, खनिज, क्षार, लवण, रत्न, उपरत्न, आदि का विशेष उपयोग बताया है। इस प्रकार केवल वानस्पतिक और खनिज द्रव्यों से निर्मित योगों का जैन विद्वानों द्वारा चिकित्सा-कार्य में विशेष प्रचलन किया गया । यह आज भी सामान्य वैद्यजगत् में परिलक्षित होता है। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-आयुर्वेद : परम्परा और साहित्य ३७३ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. ६. शरीर को स्वस्थ, हृष्टपुष्ट और नीरोग रखकर केवल ऐहिक सुख भोगना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है, अपितु शारीरिक स्वास्थ्य के माध्यम से आत्मिक स्वास्थ्य व सुख प्राप्त करना ही जैनाचार्यों को अभिप्रेत था। इसके लिए उन्होंने भक्ष्याभक्ष्य, सेव्यासेव्य आदि पदार्थों का उपदेश दिया है। ७. जैन वैद्यकग्रन्थ, अधिक संख्या में प्रादेशिक भाषाओं में उपलब्ध हैं। फिर भी, संस्कृत में रचित जैन वैद्यक ग्रन्थों की संख्या न्यून नहीं है। अनेक जैन वैद्यों के चिकित्सा और योगों सम्बन्धी गुटके (परम्परागत नुसखों के संग्रह, जिन्हें 'आम्नाय ग्रन्थ' कहते हैं) भी मिलते हैं, जिनका अनुभूत प्रयोगावली के रूप में अवश्य ही बहुत महत्त्व है। जैन आगम साहित्य में आयुर्वेद सम्बन्धी वर्णन भी प्राप्त होते हैं, उन पर स्वतन्त्र रूप से विस्तार से अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। इस प्रकार जैन विद्वानों द्वारा आयुर्वेद सम्बन्धी जो रचनाएं निर्मित की गई हैं, उन पर संक्षेप में ऊपर प्रकाश डाला गया है।। __ संक्षेप में, जैन विद्वानों और यति-मुनियों द्वारा जनसमाज में चिकित्सा-कार्य और वैद्यक ग्रन्थ प्रणयन द्वारा तथा अनेक उदारमना जैन श्रेष्ठियों द्वारा धर्मार्थ (निःशुल्क) चिकित्सालय और औषधालय या पुण्यशालाएं स्थापित किये जाने से भारतीय समाज को सहयोग प्राप्त होता रहा है। निश्चित ही, यह देन सांस्कृतिक और वैज्ञानिक रष्टि से महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। विहितं साधुजनः समस्तै?रापराधं हि मुषाप्रवाद । अन्तर्दरिद्र नितरामभद्र, समाद्रियन्ते न कदापि सन्तः ॥ -वर्द्धमान शिक्षा सप्तशती (चन्दनमुनि रचित) असत्य भाषण सभी सत्पुरुषों द्वारा निन्दित है, घोर अपराध है, उसमें दारिद्रय-दैन्य अन्तनिहित है, वह अत्यन्त अभद्र है। उत्तम पुरुष उसे कभी नहीं अपनाते । Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप 0 श्री सोहनलाल गौ० देवोत [व्याख्याता-राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय लोहारिया, जिला बासंवाड़ा (राज.)] शब्द की शक्ति पर विचार करने पर हमारा ध्यान भारतीय मन्त्रशास्त्र पर जाता है। हमारे प्राचीन धर्मग्रन्थ मन्त्रों की महिमा से भरे पड़े हैं किन्तु हमारे यहाँ अनेक लोगों में यह भ्रम फैला हुआ है कि यह भाग अन्धविश्वास के अलावा कुछ नहीं है तथा बहुत से व्यक्ति इस साहित्य को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। जिस प्रकार पाश्चात्य वैज्ञानिक एवं विद्वान विज्ञान की सभी शाखाओं की खोज कर रहे हैं और वास्तविकता का पता लगाने के लिए तन, मन, धन सब कुछ अर्पण कर रहे हैं। उसी प्रकार हमारे यहाँ भी शब्द-विज्ञान और उसके अन्तर्गत मन्त्र-विज्ञान की अगर खोज की जाती तो सैकड़ों आश्चर्यजनक तथ्य प्रकाश में आते, जिससे हमारा व्यक्तिगत कल्याण तो होता ही, साथ ही भारतीय संस्कृति एवं साहित्य की एक धारा का स्वरूप भी प्रकाशित होता। ___ जब हम मन्त्र शब्द के अर्थ पर विचार करते हैं तो कुछ ऋषि-मुनियों एवं विद्वानों द्वारा बताये गये अर्थ को समझना पर्याप्त होगा। यास्क मुनि ने कहा है कि "मन्त्रो मननात्", मन्त्र शब्द का प्रयोग मनन के कारण हुआ है। अर्थात् जो पद या वाक्य बार-बार मनन करने योग्य होता है, उसे मन्त्र कहा जाता है। वेदवाक्य बार-वार मनन करने योग्य होने से वे पद एवं वाक्य मन्त्र कहलाये । जैन धर्म के पंचमंगल सूत्र ने इसी कारण महामन्त्र (णमोकार) का उच्च स्थान प्राप्त किया। बौद्ध धर्म की त्रिशरण पद-रचना भी इसी दृष्टि से उत्कृष्ट मन्त्र के रूप में जानी जाती है। अभयदेव सूरि ने पंचाशक नामक ग्रंथ की टीका में बताया है कि “मन्त्रो देवाधिष्ठितोऽसावक्षर रचना विशेषः ।" "देव से अधिष्ठित विशिष्ट अक्षरों की रचना मन्त्र कहलाता है।" पंचकल्पभाष्य नामक जैन ग्रन्थ में बताया है कि 'मतोपुण होई पठियसिद्धो-जो पाठ सिद्ध हो वह मन्त्र कहलाता है। दिगम्बर जैनाचार्य श्री समन्तभद्र ने मन्त्र व्याकरण में कहा है कि 'मन्त्रयन्ते गुप्तं भाष्यन्ते मन्त्रविद्भिरिति मन्त्राः।" जो मन्त्रविदों द्वारा गुप्त रूप से बोला जाय उसे मन्त्र जानना चाहिए। मन्त्र-तन्त्र ग्रन्थों की विषयगत व्यापकता दर्शनीय है । इन ग्रन्थों का दार्शनिक दृष्टि से अनुशीलन करने पर तीन प्रकार के विमर्श प्रतीत होते हैं-१-द्वत-विमर्श, २-अद्वैत-विमर्श, ३-द्वैताद्वैत-विमर्श । 'देवता-भेद से भी उसके अनेक भेद हैं। जिनमें प्रमुख भेद (१) वैष्णव तन्त्र (२) शैव तन्त्र (३) शाक्त तन्त्र (४) गाणपत्य तन्त्र (५) बौद्धतन्त्र (६) जैन तन्त्र आदि हैं । भेदोपभेद की दृष्टि से उपरोक्त तन्त्रों की अनेक शाखाएँ हैं। जैन मन्त्र-शास्त्रों की परम्परा-भारतीय मन्त्र-शास्त्र की इस विशाल परम्परा में अन्य सम्प्रदायों की तरह जैन सम्प्रदाय में भी मन्त्रों से सम्बन्धित शास्त्र प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। जैन मन्त्र-शास्त्र कीप रम्परा अनादि है। जैन धर्म का मूल मन्त्र णमोकार मन्त्र भी एक मन्त्र ही है जो अनादि काल से चला आ रहा है, इस महामन्त्र के सम्बन्ध में यह प्रलोक प्रसिद्ध है Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मन्त्र-शास्त्रों को परम्परा भौर स्वरूप अनादि मूलमन्त्रोऽयं, सर्वविघ्नविनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु, प्रथमं मंगलं मत: ॥' जिसकी प्राचीनता अनिर्वचनीय है । द्वादशांगवाणा के बारह अंग और चौदह पूर्वो में से विद्यानुवाद पूर्व यन्त्र, मंत्र तथा तन्त्रों का सबसे बड़ा संग्रह है। उसमें ५०० महाविद्याएँ एवं ७०० विद्याएँ परम्परानुसार मौखिक रूप से चली आ रही थीं। अवसर्पिणीकाल की दृष्टि से आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जैन तन्त्र के मूल प्रवर्तक माने जाते हैं। ऋषभदेव को नागराज ने आकाशगामिनी विद्या दी थी । इसी प्रकार गन्धर्व और पन्नगों को नागराज ने ४८ हजार विद्याएँ दी थीं। उसका वर्णन वसुदेव हिण्डी के चौथे लम्भक में प्राप्त होता है। किन्तु काल-प्रभाव, उत्तम संहनन एवं कठोर तपश्चर्या के अभाव में वे काल कवलित होती गई। दूसरी शताब्दी से आचार्यों ने उन्हें लेखनीबद्ध करना प्रारम्भ किया। उस साहित्य में से जो मन्त्र साहित्य हमें उपलब्ध होता है, उसका वर्णन निम्नानुसार है। उबसग्गहर स्तोत्र पाँच श्लोक परिमाण यह कृति आचार्य भद्रबाहु ने ४५६ ईसवी पूर्व रची है। यह स्तोत्र पार्श्वनाथ की भक्ति से सम्बन्धित है । इसका प्रत्येक श्लोक मन्त्र-यन्त्र गभित है । इस पर कई विद्वानों ने यन्त्र-मन्त्र सहित टीकाएँ लिखी हैं । जैन मन्त्र साहित्य में यह रचना अपना विशिष्ट स्थान रखती है। स्वयंभूस्तोत्र १४३ श्लोक परिमाण यह कृति दिगम्बर जैनाचार्य श्री समन्तभद्र ने २री शती ईसवी में रची है। इसमें चतुर्विशति तीर्थकरों की स्तुति है। स्तुति के प्रथम श्लोक में स्वयं पद आजाने से इस चतुर्विशति स्तोत्र को स्वयंभू स्तोत्र की संज्ञा दे दी गई है । स्तुतिकारों में सबसे पहले स्तुतिकार समन्तभद्र आचार्य हुए हैं। यह स्तोत्र मन्त्रपूत अथवा मान्त्रिक शक्ति से युक्त माना जाता है। अभी तक इस स्तोत्र पर ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित कोई टीका देखने में नहीं आयी है। प्रतिष्ठा पाठ ६२६ श्लोक परिमाण यह कृति दिगम्बर जैनाचार्य जयसेन आर नाम वसुबिन्दु ने २री शती ईसवी में रची है। इसमें मन्त्रों की सुन्दर संरचना की गई है। भक्तामर स्तोत्र ४८ श्लोक परिमाण यह कृति श्री मानतुंगाचार्य ने ७वीं शती ईसवी में रची है। स्तुतिकार अपने स्तोत्र का प्रारम्भ भक्त शब्द से करते हैं-भक्तामर प्रणत मौलिमणिप्रभाणाम् । अतः इस स्तोत्र का नामकरण भक्तामर स्तोत्र हुआ। इस स्तोत्र ने अनेक साधकों को अनेक चमत्कार बताये हैं। इसका प्रत्येक श्लोक ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र से गभित है। इस स्तोत्र पर कई विद्वानों ने ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित टीकाएँ लिखी हैं। मन्त्र-शास्त्र की दृष्टि से यह कृति जनसाधारण में सर्वाधिक प्रिय एवं प्रचलित रही है। विषापहार स्त्रोत ४० श्लोक परिमाण यह कृति महाकवि धनंजय ने ७वीं शती ई० में रची है। इस स्तोत्र का प्रत्येक प्रलोक १. डॉ० नेमीचन्द शास्त्री, मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन, पृष्ठ ६३ २. भमृतलाल कालिदास दोसी, उवसग्गहर स्तोत्र, स्वाध्याय, पृष्ठ २ ३. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, धर्मध्यान दीपक, पृष्ठ ५ ४. सेठ हीराचन्द नेमचन्द दोसी, सोलापुर द्वारा १९२६ ई० में प्रकाशित ५. सं० पण्डित कमलकुमार शास्त्री, श्री कुथुसागर स्वाध्याय सदन, खुरई, मध्य प्रदेश द्वारा १९५४ ई० में प्रकाशित । Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिमन्धन प्रस्थ : पंचम खण्ड .... . ................................................................... ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र से गभित है। विद्वानों ने इस पर ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित कई टीकाएँ लिखी हैं । मन्त्र-शास्त्र की दृष्टि से यह रचना भी अपना विशिष्ट स्थान रखती है। ज्वालामालिनी कल्प मुनिराज इन्द्रनन्दि द्वारा इस ग्रन्थ की रचना की परिसमाप्ति मान्यखेट में (वर्तमान मालखेड यह राष्ट्रकट राजाओं की राजधानी थी), शक संवत् ८६१ (ईसवी ६३६) में अक्षय तृतीया के दिन की गई।' यह मन्त्रशास्त्र का अपूर्व ग्रन्थ है । इसमें नौ परिच्छेद है। प्रथम परिच्छेद में मन्त्री लक्षण । द्वितीय परिच्छेद में दिव्यादिव्यग्रह । तृतीया परिच्छेद में सकलीकरण, ग्रहनिग्रह विधान, बीजाक्षर ज्ञान का महत्त्व, पल्लवों का वर्णन, साधारण विधि। चतुर्थ परिच्छेद में सामान्य मण्डल, सर्वतोभद्रमण्डल, अष्ट दण्डकरी देवियां, सोलह प्रतिहार, समयमण्डल, सत्य मण्डल। पंचम परिच्छेद में भूताकंपन तेल । षष्ठ परिच्छेद में सर्वरक्षायन्त्र, ग्रहरक्षक, पुत्रदायक यन्त्र, वश्य यन्त्र, मोहन वश्य यन्त्र, स्त्रीआकर्षण यन्त्र, गतिसेना क्रोध स्तम्भन यन्त्र, स्तम्भन यन्त्र, पुरुषवश्य यन्त्र, शाकिनी भयहरण यन्त्र, सर्वविघ्नहरण मन्त्र, आकर्षण, वश्य हवन । सप्तम परिच्छेद में (तन्त्राधिकार) नाना प्रकार के वशीकरण तिलक, नाना प्रकार के सुखदायक अजन, वश्यनमक व तेल, सन्तानदायक औषधि । अष्टम परिच्छेद में वसुधारा स्नान, पूजन आदि की विधि । नवम परिच्छेद में नीरांजन विधि । दशम परिच्छेद में शिष्य को विद्या देने की विधि, ज्वालामालिनी साधन-विधि १-२, ज्वालामालिनी स्तोत्र, ब्राह्मी आदि अष्ट देवियों का पूजन, जप व हवन विधि, ज्वालामालिनी माला मन्त्र, ज्वालामालिनी वश्य मन्त्र यन्त्र, चन्द्रप्रभु स्तवन, चन्द्रप्रभु यन्त्र विधि । एकीभाव स्तोत्र २६ श्लोक परिमाण यह कृति श्री वादिराज ने सन् १०२५ ईसवी में रची है। इसका प्रत्येक श्लोक ऋद्धि, मन्त्र से गर्भित माना जाता है। किन्तु स्तोत्र पर ऋद्धि, मन्त्र एवं यन्त्र सहित टीका देखने में नहीं आती है । इस स्तोत्र को मन्त्रपूत अथवा मान्त्रिक शक्ति से युक्त माना जाता है। शिष्टसमुच्चय .. यह कृति श्री दिगम्बराचार्य दुर्गदेव द्वारा कुम्भनगर में संवत् १०८६ (१०३२ ईसवी) श्रावण शुक्ला एकादशी मूल नक्षत्र में रची गई है। डॉ. नेमीचन्द शास्त्री ने इसका सम्पादन किया है तथा गोधा जैन ग्रन्थमाला १. पं० चन्द्रशेखर शास्त्री, ज्वालामालिनीकल्प, प्रस्तावना, पृष्ठ १० धर्मध्यान दीपक, पृ० ७६, सं० पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री संवच्छरइगसहस बोलीणे णवयसीइ संजुते।। सावण सुक्के यारसि दिअइम्मि (य) मूलरिक्खंमि ॥२६०।। सिरिकुंभनयरण (य) ए सिरिलच्छि निवास निवइरज्जमि । सिरिसतिनाह भवणे मुणि भविअ सम्मउमे (ल) रम्मे ॥२६॥ पृ० १७१ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप ३७७ . -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-... इन्दौर से प्रकाशित है। इसमें मरणसूचक चिन्ह एवं भविष्य की जानकारी के लिये अम्बिका मन्त्र एवं अन्य मन्त्र भी दिये हैं। महोदधि मन्त्र इस कृति के प्रणेता भी दिगम्बर आचार्य दुर्गदेव हैं। ई० सन् १०३२ के आस-पास इसकी रचना हुई होगी। इस मन्त्रशास्त्र की भाषा प्राकृत है।' भैरव पद्मावती कल्प ४०० अनुष्टुप श्लोक परिमाण इस कृति की दिगम्बराचार्य श्री मल्लिषेण ने ईसा की ११वीं सदी में रचना की है। इन्होंने मन्त्रशास्त्र सम्बन्धी अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इस कल्प को इन्होंने १० परिच्छेद में परिपूर्ण किया है। प्रथम परिच्छेद-इसमें मंगलाचरण (पार्श्वनाथ को प्रणाम कर) पद्मावती के नाम, ग्रन्थ की अनुक्रमणिका, मन्त्री का लक्षण आदि विषय हैं। द्वितीय परिच्छेद--(सकलीकरण क्रिया) इसमें सकलीकरण क्रिया अंशक परीक्षा आदि विषय हैं । तृतीय परिच्छेद (देवी की आराधना विधि)-मन्त्रों के जप में गुथने के भेद, मन्त्रों की सामान्य साधनाविधि, पद्मावती को सिद्ध करने का विधान, अनुष्ठान में पास रखने का यन्त्र, पूजन के पांचों उपचार, पद्मावती सिद्ध करने का मूल मन्त्र, पद्मावती का षडक्षरी मन्त्र, पद्मावती का त्रयाक्षरी मन्त्र, पद्मावती का एकाक्षर मन्त्र, होम विधि, पार्श्वनाथ भगवान् के यक्ष की साधना विधि तथा वशीकरण चिन्तामणि मन्त्र आदि विषय है। चतुर्थ परिच्छेद (द्वादश रंजिका यन्त्र विधान)-इसमें मोहन में क्ली रंजिका यन्त्र, इसके अनन्तर रंजिका मन्त्र के ह्रीं, ह, य, यः, ह, फट, म, ई, क्षवषट्, ल और श्री इन ग्यारह भेदों का वर्णन आता है । इन बारह यन्त्रों में से अनुक्रम से एक यन्त्र स्त्री को मोह-मुग्ध बनाने वाला, स्त्री को आकर्षित करने वाला, शत्रु का प्रतिषेध करने वाला, परस्पर विद्वेष करवाने वाला, शत्रु के कुल का उच्चाटन करने वाला, शत्रु को पृथ्वी पर कौवे की तरह गुमाने वाला, शत्रु का निग्रह करने वाला, स्त्री को वश में करने वाला, स्त्री को सौभाग्य प्रदान करने वाला, क्रोधादि का स्तम्भन करने वाला और ग्रह आदि से रक्षण करने वाला है। इसमे कौए के पंख, मृत प्राणी की हड्डी तथा गधे के रक्त के बारे में भी उल्लेख है। पंचम परिच्छेद-इसमें अग्नि, वाणी, जल, तुला, सर्प, पक्षी, क्रोध, गति, सेना, जीभ एवं शत्रु के स्तम्भन का निरूपण है । इसके अतिरिक्त वार्ताली यन्त्र का भी उल्लेख है। षष्ठ परिच्छेद- इसमें इष्ट स्त्री के आकर्षण के छ: प्रकार से विविध उपाय बतलाये गये हैं। सप्तम परिच्छेद - इसमें दाह ज्वर का शांतिमन्त्र, विभिन्न प्रकार से किस प्रकार वशीकरण किया जाय, उसके लिये छः प्रकार के वशीकरण यन्त्र, अरिष्ट निमि मन्त्र, दूसरों को असमय में किस प्रकार मुलाया जाय ऐसा मन्त्र, विधवाओं को क्षुब्ध करने का मन्त्र । इसमें होम की विधि भी बतलाई गई है और उससे भाई-भाई में वैरभाव और शत्रु का मरण किस प्रकार हो, इसकी रीति भी बतलाई गई है। - १. रिष्टसमुच्चय, प्रस्तावना, पृष्ठ १२, सं० पं० नेमीचन्द शास्त्री २. पं० चन्द्रशेखर शास्त्री कृत हिन्दी भाषाटीका ४६ यन्त्र एवं पद्मावती विषयक कई रचनाओं के साथ यह कृति श्री मूलचन्द किशनदास कापडिया ने वीर संवत् २४७६ में प्रकाशित की है। - . Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३७८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ...... .................................................................... अष्टम परिच्छेद-इसमें 'दर्पण निमित्त' मन्त्र तथा कर्णपिशाचिनी मन्त्र को सिद्ध करने की विधि आती है। इसके अलावा अंगुष्ठ निमित्त, दीपक निमित्त तथा सुन्दरी नाम की देवी को सिद्ध करने की विधि भी बतलाई है । धनदर्शक दीपक, गणित निमित्त, गर्भ में पुत्र है या पुत्री, स्त्री अथवा पुरुष किसकी मृत्यु होगी आदि के बारे में बताया गया है। नवम् परिच्छेद–इसमें मनुष्यों को वश में करने के लिये किन-किन औषधियों का उपयोग करके तिलक कैसे तैयार करना, स्त्री को वश में करने का चूर्ण, उसे मोहित करने का उपाय, राजा को वश में करने के लिए काजल कैसे तैयार करना, कौन सी औषधि खिलाने से मनुष्य पिशाच की तरह व्यवहार करे, अदृश्य होने की विधि, वस्तु के क्रय-विक्रय के लिये क्या-क्या करना तथा रजस्वला एवं गर्भ मुक्ति के लिये कौनसी औषधि काम में लेनी आदि विविध तन्त्र बतलाये गये हैं। दशम् परिच्छेद--इसमें गारुडाधिकार सम्बन्धी निम्नलिखित आठ बातों के वर्णन की प्रतिज्ञा की गई है और उसका निर्वाह भी किया गया है १-संग्रह : साँप द्वारा काटे गये व्यक्ति को कैसे पहचानना । २-अंगन्यास : शरीर के ऊपर मन्त्र किस प्रकार लिखना। ३-~-रक्षाविधान : साँप द्वारा काटे गये व्यक्ति का कैसे रक्षण करना। ४-स्तम्भन विधान : दंश का आवेग कैसे रोकना। ५-स्तम्भन विधान : शरीर में चढ़ते हुए जहर को कैसे रोकना। ६-विषापहार : जहर कैसे उतारना। ७--सचोद्य : कपड़ा आदि आच्छादित करने का कौतुक । ८-खटिका सर्प कौतुक विधान : खड़िया मिट्टी से आलिखित सांप के दाँत से कटवाना । इस परिच्छेद में भेखण्डा विद्या तथा नागाकर्षण मन्त्र का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त आठ प्रकार के नागों के बारे में इस प्रकार जानकारी दी गई है। नाम : अनन्त, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंखपाल, कुलिक । कुल : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण । वर्ण : स्फटिक, रक्त, पीत, श्याम, श्याम, पीत, रक्त, स्फटिक । विष : अग्नि, पृथ्वी, वायु, समुद्र, समुद्र, वायु, पृथ्वी, अग्नि । जय-विजय जाति के नागदेव कुल के आशुविषवाले तथा जमीन पर न रहने से उसके विषय में इतना ही उल्लेख किया गया है । इसके अतिरिक्त इसमें नाग के फन, गति एवं दृष्टि के स्तम्भन के बारे में तथा नाग को घड़े में कैसे उतारना इसके बारे में भी जानकारी दी है। सरस्वती मन्त्र कल्प' यह ग्रन्थ भी आचार्य मल्लिषेण का बनाया हुआ है। इसमें ७५ पद्य और कुछ गद्य विधि दी गई है। काम चाण्डाली कल्प इस कृति के रचयिता भी मल्लिषेण हैं। इस कृति की एक प्रति बम्बई के सरस्वती भवन में सुरक्षित है। ज्वालिनी कल्प इसकी रचना भैरव पद्मावती कल्प आदि के प्रणेता श्री मल्लिषेण ने की है। यह ग्रन्य ज्वालामालिनी अन्य १. यह कृति साराभाई नवाब द्वारा प्रकाशित भैरव पद्मावती कल परिशिष्ट, ११ पृ. ६१-६८ पर छपी है । . Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जैन मन्त्रशास्त्रों को परम्परा और स्वरूप ३७५ से अलग है। इस ज्वालिनी कल्प की एक प्रति स्व० माणिव चन्द्र के ग्रन्थ संग्रह बम्बई में है, जिसमें १४ पत्र हैं और जो विक्रम संवत् १५६२ की लिखी हुई है। कल्याणमन्दिर स्तोत्र ४४ श्लोक परिमाण यह कृति दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचन्द्र ने ११२५ ईसवी सन् के लगभग रची है। इसका प्रत्येक श्लोक ऋद्धि मन्त्र एवं यन्त्र से गभित है। इस स्तोत्र पर कई विद्वानों ने ऋद्धि मन्त्र-यन्त्र सहित टीकाएँ लिखी हैं। जैन मन्त्र साहित्य में यह कृति अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । इस पर कल्याणमन्दिर स्तोत्र मूल, नूतन पद्यानुवाद, अर्थ मन्त्र-यन्त्र ऋद्धि, साधन विधि, गुण, फल तथा श्रीमद्देवेन्द्रकीति प्रणीत कल्याण मन्दिर स्तोत्र पूजा सहित पुस्तक श्री पं० कमलकुमार शास्त्री ने लिखी है।' __ श्री वर्धमान विद्या कल्प ७७ श्लोक परिमाण यह कृति २ श्री सिंहतिलकसूरि ने ईस्वी सन् १२६६ में रची है । इसमें यन्त्र लेखन विधि के साथ वाचनाचार्य मन्त्र, उपाध्याय विद्या, आचार्य तुल्य यति योग्य विद्या आदि का वर्णन किया गया है। श्री वर्धमान विद्याकल्प (द्वितीय)3 ६६ श्लोक परिमाण यह कृति भी श्री सिंहतिलकसूरि ने संवत् १३२३ (ईसवी सन् १२६६) में रची है।" इसमें स्तुति के साथ चतुर्विशति विद्याओं का वर्णन इस प्रकार किया है-श्री ऋषभविद्या, श्री अजितविद्या, श्री सम्भवविद्या, श्री अभिनन्दनविद्या, श्री सुमतिविद्या, श्री पद्मप्रभविद्या, श्री सुपार्श्वविद्या, श्री चन्द्रप्रभविद्या, श्री सुविधिविद्या, श्री शीतलविद्या, श्री श्रेयांस विद्या, श्री वासुपूज्यविद्या, श्री विमलविद्या, श्री अनन्तविद्या, श्री धर्मविद्या, श्री शान्तिविद्या, श्री कुंथुविद्या, श्री अरविद्या, श्री मल्लिविद्या, श्री मुनिसुव्रतविद्या, श्री नमिविद्या, श्री नेमिविद्या, श्री पार्श्वविद्या, श्री वर्धमानविद्या; अन्त तथा में साधन-विधि दी हुई है। मन्त्रराजरहस्यम् ६२६ श्लोक परिमाण यह कृति श्री सिंहतिलकसूरि ने संवत् १३२७ (ई० स० १२७०) में रची है। आचार्य ने इस कृति को निम्न शिर्षकों में विभक्त कर परिपूर्ण किया है। पंचाशल्लब्धि पदानि प्रत्येक तेसां कृत्यकारित्वं च, बष्टचत्वारिंशत्स्तुतिपदी युक्त यन्त्रोल्लेख: जपभेद निरूपणं, सूरिमन्त्रस्य वाचना प्रकाराः, मन्त्रजाप योग्यस्थानादि मन्त्र १. श्री कुन्थुसागर स्वाध्याय, खुरई, म०प्र० से प्रकाशित वीर नि० सं० २४७८ २. पं० अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह, सूरिमन्त्र कल्प सन्दोह, पृ० १.६ पर प्रकाशित । ३. वही, पृ० १०-२० । ४. इत्यवचिन्त्य बहुश्रुतमुखाम्बुजेभ्यो मयाऽऽत्मने लिखितः । श्री वर्धमान विद्याकल्पस्त्रि-द्वि-त्रिकेन्दु(१३२३)मितेवर्षे ॥१५॥ श्री विबुधचन्द्रगणभ्रत शिष्यः श्रीसिंहतिलकसूरिमम् । साह्लाद देवतोज्ज्वल विशदमना लिखितवान् कल्पम् ॥६६॥ सं० मुनि जम्बूविजयजी, सूरिमन्त्र कल्पसमुच्चय, भाग १, पृ० १-७४ संयतगुण-त्रयोदश १३२७ वर्षे दीपालिपर्वमदिवसे । साह्लाद देवतोज्ज्वलमनसा पूर्ति मयेदमानीतम् ॥६२६॥ (इति) श्रीयशोदेवसूरि शिष्य श्री विबुधचन्द्रसूरि शिष्य श्रीसिंहतिलकसूरिभिर्मन्त्रराजरहस्यं रचितं । सर्वान ८०० ग्रन्थ श्लोक संख्या ॥ श्रीरस्तु।। Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड जाप विधि फलादिकं च, पार्श्वनाथसन्तानीय केशि गणधर मन्त्र:, कोट्यंशादिविचारः, महत्यादिमन्त्र चतुष्क विचार:, सुरिमन्त्राभिधान कारणं तदधिकारी व मुद्रा विचारः, विद्या प्रस्थान-पीठ स्वरूपम् 'ॐ' आदि बीज त्रय प्रयोग विचारः, एकोनचत्वारिशंत्पदात्मक मरिमन्त्रविचार:, त्रयोदशलब्धि पद-सप्तमेरु युत सूरिमन्त्रविचारः, द्वात्रिशंल्लब्धि पद्या चतुर्विशति लब्धि पद्या च युक्तस्य षट् प्रस्थानमयस्य सूरिमन्त्रस्यविचारः, षोडशस्तुतिपदयुक्तस्य षटप्रस्थानमयस्य सूरिमन्त्रस्यविचार:, त्रयोदशमेरुयुक्तस्य सूरिमन्त्र विचारः, ह्रीं कार विकारः, मात्र राजमान विकारः, द्वादश तन्धिाद, त्रयोदशमेरुयुक्तस्य सूरिमन्त्रस्य विचारः, षोडशस्तुतिपदषण्मेरुकूटाक्षर युक्तस्य सूरिमन्त्रस्य विचारः । ॐकारस्य ह्रींकारस्य ग्रहादिशान्तिकस्य च विचारः, मायाबीज विचारः, अहंकार रहस्यम्, देहस्थस्य आधार चक्रादिपीठ चतुष्कस्य विचारः, जापमाहात्म्यम् यन्त्रलेखन प्रकारः, षोडश लब्धिपद षण्मेरुयुक्तस्य सुरिमन्त्रस्य विकारः, द्वादशलब्धि पर युक्त पंचमेरु वाचनायां विशेषः, उपविद्यामेरुरहित सूरिमन्त्रविचार:, शान्तिक विचारस्तद्विधिश्च स्तम्भादिविचारः, सूरिमन्त्र महिमादिविचारः, सूरिमन्त्रनित्य पूजन विधिः, षोडशलब्धिपद, त्रयोदशमेरुसहित सूरिमन्त्रस्य वाचनान्तरम् अक्ष विचारः वासक्षेप मुद्रादि विचारः आशिर्वचन पूर्व ग्रन्थकारकृताग्रत्य समाप्तिः । विद्यानुवाद यह विविध मन्त्र एवं तन्त्र की संग्रहात्मक कृति है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति सरस्वती दि० जैन मन्दिर, इन्दौर में विद्यमान है। इस कृति में कहीं भी संग्रहकर्ता अयवा ग्रन्थकर्ता का नाम नहीं दिया गया है। पं० श्री चन्द्रशेखर शास्त्री ने इसे मुनि कुमारसेन द्वारा संग्रहीत बताया है। इसमें निम्न २३ परिच्छेद हैं-१. मन्त्रीलक्षण, २. विधि मन्त्र, ३. लक्ष्म, ४. सर्व परिभाष, ५. सामान्य मन्त्र साधन, ६. सामान्य यन्त्र, ७. गर्भोसत्ति विधान, ८. बाल चिकित्सा, १. ग्रहोपसंग्रह, १०. विषहरण, ११. फणितन्त्र मण्डल्याद्य १२. पनयोरुजांशमनं, १३-१४-१५. कृते खग्वधोवधः, १६. विधान उच्चाटनं, १७. विद्वेष, १६. स्तम्भन, १६. शान्ति, २०. पुष्टि, २१. वश्यं, २२. आकर्षणं, २३. नर्म आदि। प्रतिष्ठातिलक १८ परिच्छेद एवं अन्त में परिशिष्ट प्रकरण परिमाण यह कृति दिगम्बर जैनाचार्य श्री नेमीचन्द ने १३वीं सदी ईस्वी के लगभग रची है। दोनी पखाराम ने भवन्द सोनापुर से यह प्रकाशित है। यह एक तरह से मन्त्र-यन्त्रों का सागर है। इसमें निम्न यन्त्र अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं-महाशान्तिपूजायन्त्र, बृहच्छांतिक यन्त्र, जलयन्त्र, महायाग मण्डल यन्त्र, लघुशान्तिक यन्त्र, मृत्युंजययन्त्र, सिद्धचक्रयन्त्र, पीठयन्त्र, सारस्वतयन्त्र, निर्वाणकल्याण यन्त्र, वश्ययन्त्र शान्तियन्त्र, स्तम्भनयन्त्र, आसनपदवास्तुयन्त्र, जलाधिवासनयन्त्र, गन्धयन्त्र, अग्नित्रय होमयन्त्र, अन्नित्रय द्वितीय प्रकार यन्त्र, अग्नित्रय होम मण्डप यन्त्र, उपपीठपद वास्तु यन्त्र, परम सामायिक पद वास्तुयन्त्र, उनपीठ पद वास्तु यन्त्र, नवग्रह होम कुण्ड मण्डल, स्थंडिलपद वास्तु यन्त्र, मंडुकपद वास्तु यन्त्र आदि । श्रीसूरिमन्त्रबृहत् कल्प विवरण' इस कृति को श्री जिनप्रभसूरि ने १३०८ ईसवी के आसपास रचा है। इसमें ये प्रमुख प्रकरण हैं(१) विद्यापीठ (२) विद्या (३) उपविद्या (४) मन्त्रपीठ (५) मन्त्रराज । (१) विद्यापीठ-(मानदेवी वाचनानुगता) द्वादशपदी, (धर्मघोषाम्नायानुगता) त्रयोदश पदी, (पट लेख्या) अष्टादशपदी, चतुर्विंशतिपदी, अष्टपदी (दिगम्बराम्नायानुगता) षोडशपदी (जिनप्रभूसूरि पूर्व परम्परागता) अष्टौ विद्याः तासांजपविधिः फलं च, अशिकेपशमिनी द्वात्रिंशत्स्तुतिपदी, अप्रस्तुता अपि केचन मन्त्रा , अत्यन्तगोप्यानि, आम्नायान्तराणि लब्धि पद प्रभावश्च शल्योद्धारनिर्णय विद्या प्रथम पीठ विवरण समाप्तिश्च । 0. १. भैरवपद्मावतीकल्प, भूमिका, पृ० ७-८ २. सं० मुनि जम्बूविजयजी, सूरिमन्त्र कल्प समुच्चय, भाग १, पृ. ७७-१०६ Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मन्त्रशास्त्रों को परम्परा और स्वरूप ३८१ -. - . -. -. - . -. - . -. -. - . -. २. द्वितीय पीठ : विद्या ३. तृतीय पीठ : उपविद्या ४. चतुर्थ पीठ : मन्त्रपीठ ५. पंचम पीठ : मन्त्रराज अन्त में सुरिमन्त्र जाप्य फल, साधन विधि, तपविधि, स्वआम्नाय मन्त्रशुद्धि, सूरिमन्त्र अधिष्ठायक स्तुति एवं मुद्राओं का वर्णन किया गया है। देवतासर विधि' इस कृति की श्री जिनप्रभसूरि ने १३०८ ईस्वी के आस-पास रचना की है। इसमें सूरिमन्त्र को साधन करने के लिये निम्न २० अधिकारों का वर्णन किया है (१) भूमिशुद्धि, (२) अंगन्यास, (३) सकलीकरण, (४) दिग्पाल आह्वान, (५) हृदयशुद्धि (६) मन्त्र-स्नान, (७) कल्मषदहन (८) पंचपरमेष्ठि स्थापना (8) आह्वानन, (१०) स्थापना, (११) सन्निधानं, (१२) सन्निरोधः (१३) अवगुंठन, (१४) छोटिका, (१५) अमृतीकरण, (१६) जाप, (१७) क्षोभण, (१८) क्षमण, (१६) विसर्जन, (२०) स्तुति, सूरिमन्त्र माहात्म्य, जाप्य-ध्यान आदि से प्राप्त सिद्धियों का वर्णन । मायाबीज कल्प इस कृति की जिनप्रभसूरि ने १३०८ ईसवी के आसपास रचना की है। इसमें मायाबीज ह्रीं को सिद्ध करने की सम्पूर्ण विधि का वर्णन किया है। शुक्ल पक्ष, पूर्णा तिथि, नैवेद्य-पकवान, फल, स्नान, एक भुक्ति भोजन एवं ब्रह्मचर्य आदि शब्द लिखकर साधक को उन बातों पर विशेष ध्यान के लिये संकेत किया है। प्रथम मायाबीज मन्त्र ॐ ह्रीं नमः' मूलमन्त्र का एक लक्ष जाप करने, जप के साथ ध्यान विधि भी बतायी गई है। इस मूल मन्त्र के साथ अलग-अलग पल्लवों को लगाकर शान्ति, पुष्टि, वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण आदि मान्त्रिक क्रियाओं को सिद्ध करने की विधि बताई गई है। सूरिमन्त्र कल्प यह कृति श्री राजेशेखर सूरि ने १३५३ ईसवी के पासपास रची है। यह कल्प १० वक्तव्यों में लिखा गया है-(१) सप्तदश मुद्रावर्णन, (२) प्रथम पीठ वक्तव्यता, (३) द्वितीय पीठ वक्तव्यता, (४) तृतीय पीठ वक्तव्यता, (५) चतुर्थ पीठ वक्तव्यता, (६) पंचम पीठ वक्तव्यता, (७) पंचपीठमय सम्पूर्ण सूरिमन्त्र वक्तव्यता, (८) सविस्तार देवतावसरविधि वक्तव्यता, (९) संक्षिप्त देवतावसरविधि वक्तव्यता, (१०) मन्त्रमहिम वक्तव्यता। सूरिमुख्य मन्त्र फल्प इस कृति को श्री मेरुतुगसूरि ने १३८३ ई० सं० के आसपास रची है। इसमें निम्न प्रकरणों का वर्णन है-पंचपीठ वर्णन उपाध्याय विद्या, प्रवर्तक मन्त्रः, स्थविर मन्त्रः, गणवच्छेदमन्त्रः, वाचनाचार्य-प्रवृत्तिन्योर्मन्त्र: पंडित मिश्र मंत्रः, ऋषभविद्या, सूरिमन्त्र साधन विधि (देवतावसर विधि सदृश्य:) आद्यपीठ साधन विधिः, द्वितीय पीठ साधन विधिः, तृतीय पीठ साधन विधिः, चतुर्थ पीठ साधन विधिः, पंचम पीठ साधन विधिः, सूरिमन्त्र स्मरणफलम्, सूरिमन्त्र पट लेखन विधिः, ध्यान विधिजपभेदादिक च, अष्टौविद्यास्तासांफलं च, सूरिमन्त्र स्मरण विधिः (संक्षिप्तः) सूरिमन्त्र १. सं० मुनि जम्बूविजयजी, सूरिमन्त्र कल्प समुच्चय, भाग १, पृ०१०७-११२ २. लेखक के निजी संग्रह में विद्यमान है। ३. सं० मुनि जम्बूविजयजी, सूरिमन्त्र कल्प समुच्चय, भाग १, पृ. ११३-११ ४. वही, पृ० १३२-१७५ । . Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड Doorse. ............................................................... अधिष्ठायक स्तुतिः, अक्षा दि विचारः, स्तम्भनाद्यष्टकर्म विचारः, चतुर्धामन्त्रजातिमन्त्र स्मरणरीतिश्च, मुद्रावर्णनम्, पंचाशल्लब्धिवर्णनम्, विद्यामन्त्र लक्षणः । कोकशास्त्र इस कृति' को तपागच्छ कमलकलश शाखा के नर्बुदाचार्य ने संवत् १६५६ (१५६६ ईसवी) के आसोज शुक्ला दशमी को सम्पूर्ण किया। इसके दसवे अधिकार में आचार्य ने मन्त्र एवं तन्त्र की संक्षिप्त में सुन्दर सामग्री का वर्णन किया है । पद्मिनी, चित्रिणी, हस्तिनी एवं शंखिनी स्त्रियों के प्रकार के आधार पर उनको अपने वश में करने के लिये उक्त अधिकार में आचार्य ने मन्त्र के साथ तन्त्र का समावेश किया है जिससे कार्य की त्वरित सिद्धि हो सके। तन्त्र:- मोचाकंद रसेन जातिफलकं कुर्याद्वशंचित्रिणी। पक्षीमाक्षिक संयुतौ च करिणी पारापत भ्रामरैः ॥ शंखिन्यावशवत्तिनी च तगरी मूलान्वितां श्रीफलं । ताम्बूलेन सह प्रदत्तमचिराद्वश्यं भवति पद्मिनी ॥१३१८॥२ मन्त्रः- ॐ पच पच विहंगम कामदेवाय स्वाहा ॥१३२०॥ मोचाकन्द का रस और जायफल पान में देने से चित्रिणी स्त्री वश में होती है। उपर्युक्त मन्त्र से भंवरे का पंख अभिमन्त्रित कर मधु में खिलाने से चित्रिणी स्त्री वशीभूत होती है। इसी प्रकार पद्मिनी, हस्तिनी तथा शंखिनी स्त्रियों को वशीभूत करने के मन्त्र तन्त्र एवं अन्य कई प्रकार के तन्त्र दिये हुए हैं। महाचमत्कारी विशायन्त्र यह कृति श्री मेघविजयजी ने १७वीं शती ईसवी में रची है। इसमें रावण पार्श्वनाथ स्तवन पाठ, श्री अर्जुन पताका के अन्तर्गत कई प्रकार के बिसे एवं अन्य यन्त्रों की आकृतियाँ दी हैं। साराभाई नवाब ने इसे सम्पादित कर प्रकाशित करवाया है। चर्चासागर ___ यह कृति श्री चम्पालालजी ने संवत् १८१० (१७५३ ईस बी) में बसन्त पंचमी को पूर्ण की। इसमें चर्चा संख्या १५७ से १६५ तक में निम्न मन्त्रों का स्वरूप एव विधि दी हुई है। सिद्धच क्रयन्त्र, शान्तिचक्र यन्त्र, कलिकुण्ड दण्ड स्वामी यन्त्र, ऋषिमण्डल यन्त्र, चिन्तामणि च क यन्त्र, गणधर वलय यन्त्र, षोडशकारण यन्त्र, दशलाक्षणिक यन्त्र, रत्नत्रय आदि का सुन्दर विवेचन हुआ है । यह ग्रन्थ भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्था, कलकत्ता से प्रकाशित है। श्री ऋषिमण्डल का मन्त्र कल्प यह कृति श्री विद्याभूषणसूरि द्वारा रचित है। साथ ही श्री ऋषिमण्डल मन्त्र, यन्त्र, स्तोत्र, पूजा श्री गुण १. साराभाई नवाब ने इसको सम्पादित कर प्रकाशित करवाया है। २. वही, पृ० ११७ ३. वही, पृ० ११७ ४. संवत्सर विक्रम अर्क राज्य, समयेते दिगहरिचन्द्र छाज । माघ मास शशि पक्षशुद्ध, पंचम गुरुवार अनंग बूद्ध ।।१२।। तिस दिन शुभ बेला पूर्ण कीन, चर्चासिधू बहुकथन पीन । नंदो वृद्धो जयवन्त होउ, यावतरविशशिछिति वाद्धि लोउ ॥१३॥ -पृ० ५३७ . Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप नन्दि मुनीद्र द्वारा विरचित है। इसका मूलमन्त्र “ॐ ह्रां हि ह ह ह्रौं ह्रीं ह्रों हः असि आउ सा सम्यगु दर्जन शानचारित्रेभ्यो ह्रीं नमः ।" उपर्युक्त मन्त्र की साधना से आधिव्याधि, दुःख दारिद्र्य शोक-सन्ताप आदि का नाश होता है तथा हर प्रकार की सुख सामग्री का प्रादुर्भाव होता है जैसे : र राजकुले व जले दुर्गे गजे हरौ श्माने विपिने पोरे स्मृतो रक्षति मानव ॥५६॥ राज्यभ्रष्टानिजं राज्यं पदभ्रष्टा निजंपदां लक्ष्मी भ्रष्टा निजा लक्ष्मी प्राप्नुवंति न संशय ॥ ६०॥ भार्यार्थी लभते भार्यां पुत्रार्थी लभते सुतं । धनार्थी लभते वित्तं नरः स्मरणमात्रतः ॥ ६१॥ स्वर्णे रूप्येऽवा कांस्येलिखित्वा यस्तु पूजयेते तस्यै वेष्ट महासिद्विगृहे वसति शास्ती ।।६२॥ ब्र० श्रीलाल जैन ने इसका सम्पादन कर प्रकाशित करवाया है । अनुभवसिद्ध मन्त्र द्वात्रिशिका इस कृति की रचना भद्रगुप्ताचार्य ने की है। इसमें पाँच अधिकार हैं। पहले अधिकार में (१) सर्वशाभमन्त्र ५ श्री हीं अहं नमः" २) सर्वकर्मकरयन्त्र “ॐ ह्रीं श्रीं अहं नमः ।" उपर्युक्त दोनों मन्त्रों के ध्यान विषय में बताया है कि :पीतंस्तम्भेऽरुव क्षोभणे विद्रुम प्रभम् । प्रभम् ॥ कृष्णं विद्वेषणे ध्यायेत् कर्मघाते शशि द्वादश सहस्रजापो दशांश होमेन सिद्धिमुपयाति । मन्त्री गुरुप्रसादाद्ज्ञातव्य स्त्रिभुवने सारः ।। द्वितीय अधिकार में वशीकरण एवं आकर्षण मन्त्रों का वर्णन किया है। तृतीय अधिकार में स्तम्भन स्तोत्र यदि मन्त्रों का वर्णन है। गया है । ३८३ "ॐ ह्रीं देवी कुछ कुछ स्वाहा।" इस मन्त्र का हर प्रकार की बीमारी, विष आदि पर प्रयोग होता है। चौथे अधिकार में शुभ-अशुभसूचक सुन्दर और तुरन्त अनुभव करवाने वाले आठ मन्त्रों का समावेश किया पाँचवें अधिकार में गुरु-शिष्य के योग्यायोग्य का निरूपण किया गया है, जिससे दोनों का कल्याण हो सके। इसे पण्डित अम्बालाल प्रेमचन्द शाह ने सम्पादित कर प्रकाशित करवाया है । यह कृति ' अज्ञात सूरि द्वारा रचित है। इसमें निम्न प्रकरण हैं- प्रथम वाचना, विधि साधनविधि तृतीयान) मन्त्र गति दिया प्रस्थान पर विधिः अधिष्ठायकस्तुतिः एवं सूरिमन्त्र पद संख्या । सूरिमन्त्र संग्रह यह कृति अज्ञात कर्तृक है। इसमें निम्न पीठों का वर्णन किया है। प्रथम विद्यापीठ, द्वितीय महाविद्या पीठ, तृतीय उपविद्यापीठ, चतुर्थ मन्त्रपीठ, पंचम मन्त्रराजप्रस्थान । १० मुनि जम्बूविजयी मिसमुच्चय भाग २, पृ० १०९-१९४. २. वही, पृ० सं० २३१-२३५, ५८. ३. लेखक के संग्रहालय में सुरक्षित है । चिन्तामणि पाठ इस कृति का रचनाकाल एवं कर्त्ता का परिचय अज्ञात है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ का स्तोत्र एवं पूजा, सूरिमन्त्र कल्प द्वितीय वाचना, ध्यान मन्त्रद्धि तपोविधिः . Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ कर्मयोगी श्री केसरीमसजी सुराणा अभिनन्दन अन्य : पंचम खण्ड ........................................................................... मायाबीज ह्रींकार की पूजा में धरणेन्द्र-पद्मावती की पूजा, दश दिशाओं में पार्श्वनाथ की पूजा, चौबीस यक्ष-यक्षिणी पूजा, सोलह विद्यादेवी पूजा, नवग्रह पूजा आदि विषय हैं। यह रचना मन्त्रपूत अथवा यान्त्रिक शक्ति से युक्त होने पर शान्तिक एवं पौष्टिक अभिकर्म की पूर्ति करती है। चिन्तारणि (मन्त्र, यन्त्र तथा तन्त्र संग्रह) : इस कृति' का संकलनकर्ता एवं समय अज्ञात है । अनुमान से १८वीं-१६वीं शती में सागवाड़ा (बागड़ प्रान्त) गद्दी के भट्टारक अथवा उनके किसी पण्डित ने संग्रह किया होगा। इस संग्रह में मन्त्र-यन्त्र एवं औषध प्रयोग विधि में बागड़ी बोली, मारवाड़ी तथा मालवी बोली के शब्दों का प्रयोग किया गया है। उसमें कहीं-कहीं शैव मन्त्रों, हनुमान मन्त्रों का भी समावेश किया गया है। इस संग्रह की पुष्पिका में निम्न पंक्तियां लिखी हुई हैं :-- वृषभादि चतुर्विशस्सुत्रयः त्रिशत् योज्या चतुर्विशतिभिर्भक्त शैसं शान्तिनात् षोडशात्कथितं व्याः इति तीर्थकर इति चिन्तारणि समाप्तम् । इस मन्त्र-मन्त्र-तन्त्र संग्रह का नामकरण उपरोक्त पंक्तियों के आधार पर चिन्तारणि रखा गया है। मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र संग्रह अज्ञात व्यक्ति द्वारा संग्रहीत इस कृति का समय ज्ञात नहीं हुआ है। इसमें प्रथम पृष्ठ पर बारीक अक्षरों में णमोकार कल्प प्रारम्भ लिखते हुए लिखा हुआ है। इसको बागड़ी, मारवाड़ी बोली के शब्दों में लिखा गया है। इसमें ६ तक पत्र संख्या है। अनुमान से इसका संग्रह १८-१९वीं शती में सागवाड़ा (बागड़ प्रान्त) गद्दी के भट्टारक के किसी अनुयायी ने किया होगा। इसमें मुख्यतया वशीकरण, उच्चाटन, मारण, विद्वेषण आदि मन्त्र-यन्त्रों का ही संग्रह किया गया है। मन्त्र शास्त्र ___ इस कृति के रचनाकार एवं रचनाकाल के विषय में किसी प्रकार के साक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं । इसकी रचना अनुमान से सागवाड़ा (जिला डूंगरपुर) गद्दी के १८-१९वीं शती के भट्टारक के किसी अनुयायी भक्त ने की होगी। इसमें पत्र-संख्या २४ के बाद पत्र गायब हैं। इसको बागड़ी, मारवाड़ी, मालवी बोली के शब्दों में लिखा गया है यह मन्त्र, यन्त्र एवं तन्त्र का अनूठा संग्रह है। इसमें कहीं-कहीं मुसलिम, शाबर मन्त्रों एवं वैष्णव मन्त्रों का भी समावेश किया गया हैं। मंगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन यह कृति डॉ० नेमिचन्द शास्त्री द्वारा सन् १९५६ में प्रणीत है। इसमें लेखक ने णमोकार महामन्त्र का वैज्ञानिक दष्टि से परिशीलन किया है। इसके प्रत्येक अक्षर एवं पद का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। इसको साधने की विधि एवं इससे सम्बन्धित कई मन्त्रों का संग्रह भी साथ में दिया है। किसने कब इस महामन्त्र की साधना से अपना कल्याण किया, उनके बारे में १७ कथाएँ भी दी हैं ।। १. लेखक के संग्रहालय में सुरक्षित है। २. 'ॐ नमो भगवतेरुद्राय ह्रीं ह्र हफट् स्वाहा अनेन मन्त्र सर्वभूताडाकिणीयोगिनीदमन मन्त्रः' पृ० १२ पर ३. लेखक के संग्रहालय में सुरक्षित है। ४. वही। ५. ॐनमौल्लाइल्ला इल्ल इल्लाईल्ली ईल महमद रसलिला: सलमान पैगम्बर सकरदिन ममहादिन हस्तावतारदिपा वतारः पत्रावतार कजलावतार आगच्छ-आगच्छ सत्यं ब्रू हि-सत्यं ब्रूहि स्वाहा, पृ० १० ६. भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित है। Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन मन्त्रशास्त्रों को परम्परा और स्वरूप ३८५. घण्टाकर्णवीरजयपताका अज्ञातकर्तृक इस कृति' का संवत् २०२८ में सम्पादन श्री नरोत्तमदास नगीनदास शाह ने गुजराती भाषा में किया है । इसमें विशेष रूप से निम्न मन्त्र-यन्त्रों का समावेश किया ।६ी 120 बली' । है। १-सर्व सिद्ध महायन्त्र की विधि, २-नवग्रह यन्त्र की विधि, ह।१-सव सिख महाय ते । । ३-दशदिग्पालयन्त्र की विधि, ४-षोडश विद्यादेवी यन्त्र की विधि, ५–अष्टबटुक भैरव यन्त्र विधि, ६-बावन वीर यन्त्र विधि, ७HEIR 12 चौंसठ योगिनी यन्त्र विधि, ८-वीणाकार यन्त्र की विधि, : धनुषाकार यन्त्र की विधि, १०-स्वतिकाकार यन्त्र विधि, ११लक्ष्मीमाटे घण्टाकर्ण बीसा यन्त्र' सन्तानोत्पत्ति गर्भरक्षा यन्त्र विधि, १२-ध्वजाकार यन्त्र विधि, १३-षट्कोण महालक्ष्मी यन्त्र विधि, १४--लक्ष्मी माटे घंटाकर्ण बीसायन्त्र १५-भाग्योदय वृद्धिकारक सिंहासनाकार यन्त्रविधि आदि। वेरनावमलमा इस गुजराती कृति का सम्पादन मुनिश्री गुणभद्रविजयजी ने सन् १९७२ में किया है। इसका प्रथम भाग मन्त्रशास्त्र का है तथा द्वितीय भाग ज्योतिषशास्त्र का है । इसमें मन्त्र-यन्त्रों का सुन्दर सम्पादन किया गया है । मन्त्र विभाग-नवकार महामन्त्र एवं तेना गूढ मन्त्रो, चौबीस तीर्थकर परमात्मा के अप्रसिद्ध प्राचीन महान सिद्ध प्रभावक विद्यामन्त्र, सर्वकार्य सिद्ध महाचमत्कारी अनुभव सिद्ध मन्त्र, (ॐ तारे तारे वीरे, ॐ तारे वीरे वीरे ह्रीं फट् स्वाहा) अपराजित महाविद्यामन्त्र, श्री चक्रेश्वरी देवी के मन्त्र (ॐ ह्रीं श्रीं चक्रेश्वरी चक्रवारुणी चक्रवेगेन मम उपद्रव हन हन शान्ति कुरु कुरु स्वाहा), श्री पद्मावती देवी के मन्त्र (ॐ नमो धरणेन्द्र पद्मावती सहिताय श्रीं क्लीं ऐं अहँ नमः), सरस्वती देवी के मन्त्र, व्याख्यान श्रेष्ठ आपवानो मन्त्र, श्री लक्ष्मी देवी के मन्त्र, घंटाकर्णदेव मन्त्र, कर्णपिशाचिनीनामन्त्रो, पंचागुली मन्त्र । ST .. "T - - -- -- - -- -- - - -- -- - -- - ई हीली बा. -- F----" ५.४८ । ठ: । ४२ । ३४ । ४० । फु । ऋद्धि सिद्धि यन्त्र ठ: । ३७ । ३६ । ४१ । फु । 3८ अभाव अमन भाषा अमृतमम सर्व शश है ।भर मर मुर रोग निवारण यन्त्र व्यापारवर्धक यन्त्र १. मेघराज जैन पुस्तक भण्डार बम्बई से प्रकाशित है। २. पृष्ठ २० पर ३. सेठ चिमनलाल काजी, बम्बई ५४ से प्रकाशित । ४. वेरनावमलमां, पु. ६३ ५. वही, पृ०१७ ६. वही, पृ० १०२ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ कर्मयोगी श्री केसरीमल जी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ......-..-.-.-.-.-.-.-.-.-........................................... यन्त्र विभाग-चौबीस तीर्थकर परमात्मानु महान प्रभाविक चमत्कारी सिद्ध यन्त्र, श्री चौबीस तीर्थकर परमात्माना अधिष्ठित देव देवीओना निवास वारू कल्पवृक्ष यन्त्र, सर्वकार्य मनोकामना सिद्धयन्त्र, चौदपूर्वी सर्वतोभद्र यन्त्र, श्री लक्ष्मी प्राप्तिना चमत्कारी अद्भुत सिद्धि यन्त्रो, अदभुत सिद्व विद्या प्राप्ति तया ज्ञान प्राप्ति यन्त्रो, मनोकामना सिद्धयन्त्र, चिन्तेवेलु कार्य सिद्ध यन्त्र, घण्टाकर्णो यन्त्र, कोर्ट कचेरी मा विजय प्राप्ति विजयराज यन्त्र, व्यापार वर्धक यन्त्र, रोगनिवारण यन्त्र, एकाक्षी नालीयेर कल्प, व्यापारवर्धक ३२, ३४, ६५ का यन्त्र, शंख कल्प, सोनु बनावानु कल्प आदि । महावीरकोति स्मृति ग्रन्थ __ इस कृति का सम्पादन डॉ० नेमैन्द्रचन्द्र जैन ने सन् १९७५ में किया है । इस ग्रन्थ के तृतीय खण्ड में स्व. आचार्य द्वारा समय-समय पर अपने भक्तों को दिये गये एवं बताये गये मन्त्रों एवं तन्त्रों का संग्रह कर सम्पादन किया गया है जिसमें निम्न मन्त्र एवं यन्त्र महत्वपूर्ण हैं : णमोकार कल्प-मंगलमन्त्र णमोकार, अक्षर पंक्ति विद्यामन्त्र, अचिन्त्यफल प्रदायक मन्त्र, पापभक्षिणी विद्या रूप मन्त्र, रक्षा मन्त्र, अग्निनिवारक मन्त्र, लक्ष्मी प्राप्ति मन्त्र, सर्व सिद्धि मन्त्र, त्रिभुवनस्वामिनी विद्या मन्त्र, महामृत्युजय मन्त्र. रोग निवारक मन्त्र, विवेक प्राप्ति मन्त्र, प्रतिवादिकी शक्ति स्तम्भन करने का मन्त्र, विद्या व कवित्व प्राप्ति मन्त्र, सर्वकार्यसाधक मन्त्र-(ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लू अहं नमः), सर्वशान्तिमन्त्र, व्यन्तर बाधाविनाशक मन्त्र, शिरोव्याधि विनाशक मन्त्र, बुखार तिजारी एकातरानिवारक मन्त्र, व्यन्तर और भूत-प्रेत विनाशक मन्त्र, केतु-मंगल-सूर्य ग्रह निवारक मन्त्र, चन्द्र-शुक्र ग्रह निवारक मन्त्र, बुध ग्रह निवारक मन्त्र, शान्ति के लिए मन्त्र, मनचिन्तित कार्यसिद्धि मन्त्र, द्रव्य प्राप्ति मन्त्र, वशीकरण मन्त्र, व्यापार में धन-प्राप्ति मन्त्र, लाभान्तराय मन्त्र, लक्ष्मीप्राप्ति मन्त्र, ऋणमोचन मन्त्र, पुत्र प्राप्ति मन्त्र (ॐ ह्रीं पुत्र-सुख प्राप्ताय श्री आदिजिनेन्द्राय नमः), फौजदारी मुकदमे में जीत मन्त्र, बिच्छू विषहरण मन्त्र, विद्यासिद्धि मन्त्र, सर्वकार्य सिद्धि मन्त्र, बन्दी-मोक्ष मन्त्र, वस्तु विक्रय मन्त्र, स्तम्भन मन्त्र, मेववृष्टिकारक मन्त्र, चिन्तामणि मन्त्र (ॐ णमो अरिहन्ताणं अरे अरणिमोहणि अमुकं मोहय मोहय स्वाहा), आधा सिर दर्द नष्ट करने का मन्त्र आदि। यन्त्र प्रकरण :-लक्ष्मी प्राप्ति यन्त्र, भप निवारण व गर्भ रक्षा यन्त्र, शान्तिदायक यन्त्र, उपद्रवनाशक यन्त्र, धनधान्य वृद्धिकारक श्री पार्श्वनाथ यन्त्र, दरिद्रतानाशक यन्त्र, गर्भ रक्षा यन्त्र, बिक्री यन्त्र, सर्वकार्य सिद्धि मन्त्र यन्त्र, व्यापार अच्छा चले यन्त्र, योगिनी यन्त्र, सम्मान प्राप्ति यन्त्र, द्रव्य प्राप्ति पन्दरिया यन्त्र, वशीकरण पन्दरिया यन्त्र, उच्चाटन निवारक पन्दरिया यन्त्र, मुकदमा जीतने का यन्त्र आदि । ------- + ---- + --- 16। १५ । २ । ७ । iT३॥ १२! ११ --- -- -------------- iviti E । १ +---+----+------ ------ +--- --- --- i४।३1511 +---+---+- + । । ५। । +--- --- -- ।२।.11 Rii १ । + -- - -- -- -- - - - - -- Xx द्रव्य प्राप्ति यन्त्र अति उत्तम व्यापार यन्त्र ___ लक्ष्मी प्राप्ति यन्त्र (जहाँ व्यापार हो वहाँ रखें) ०० १. धनेन्द्रप्रसाद जैन, वाराणसी द्वारा प्रकाशित । २. महावीरकीर्ति स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ १८६ ३. वही, पृ० १६० ४. वही, पृ० १६७ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप ३८७. -. -.-. -.-.-. -.-. -. -.-. -. -.-. -. -. -. -. -.-. -.-... मन्त्र विद्या यह कृति' करणीदान सेठिया द्वारा संवत् २०३३ में प्रणीत है। इसमें लेखक ने मंगलाचरण के बाद निम्न प्रकरणों को अपनी कृति में स्थान दिया है :-- मन्त्र विद्या-विधि क्रम, मन्त्र ग्रहण दिवस, नक्षत्र, फल, जप, सकलीकरण, नमस्कार महामन्त्र कल्प, वर्धमान विद्याकल्प, लोगस्सविद्या कल्प, चन्द्र प्रज्ञप्ति-विद्याकल्प, शान्तिदायक महाप्रभावकसिद्ध शान्ति कल्प, श्री चन्द्रकल्प, यक्षिणीकल्प, विविध मन्त्र एवं स्तोत्र । यन्त्र विभाग में कई जैन यन्त्र तथा अन्य सम्प्रदायों के यन्त्रों का भी समावेश किया है। यही नहीं मन्त्र विभाग में भी जैन मन्त्रों के अलावा अन्य सम्प्रदायों के मन्त्रों को भी इस ग्रन्थ में अपनाया गया है । लेखक ने अपनी कृति में प्रचलित-अप्रचलित कई प्रकार के मन्त्र एवं यन्त्रों का संकलन कर मन्त्रशास्त्र की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। जैन मन्त्रशास्त्रों का स्वरूप __ मन्त्र शब्द मन् धातु (दिवादि ज्ञाने) से ष्ट्रन (त्र) प्रत्यय लगाकर बनाया जाता है। इसका व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ होता है 'मन्यते ज्ञायते आत्मादेशोऽनेन इति मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मा का आदेश निजानुभव जाना जाय, वह मन्त्र है। दूसरी तरफ से तनादिगणीय 'मन' धातु से (तनादि अवबोधे Toconsider) ष्ट्रन प्रत्यय लगाकर मन्त्र शब्द बनता है। इसकी व्युत्पत्ति के अनुसार 'मन्यते-विचारयते आत्मादेशोयेन स मन्त्रः' अर्थात् जिसके द्वारा आत्मादेश पर विचार किया जाय, वह मन्त्र है। तीसरे प्रकार से सम्मानार्थक 'मन' धातु से ष्ट्रन प्रत्यय करने पर मन्त्र शब्द बनता है। इसका व्युत्पत्ति अर्थ है-'मन्यन्ते सत्क्रियन्ते परमपदे स्थिता: आत्मानः वा यक्षादिशासनदेवता अनेन इति मन्त्रः' अर्थात जिसके द्वारा परम पद में स्थित पंच उच्च आत्माओं का अथवा यक्षादि शासनदेवों का सत्कार किया जाय, वह मन्त्र है । इन तीनों व्युत्पत्तियों के द्वारा मन्त्र शब्द का अर्थ अवगत किया जा सकता है। मन के साथ जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्यज्योति प्रगट होती है, उन ध्वनियों के समुदाय को मन्त्र कहा जाता है । मन्त्रों का बार-बार उच्चारण किसी सोते हुए को बार-बार जगाने के समान है। यह प्रक्रिया इसी के तुल्य है, जिस प्रकार किन्हीं दो स्थानों के बीच बिजली का सम्बन्ध लगा दिया जाय । साधक की विचार-शक्ति स्विच का काम करती है और मन्त्र-शक्ति विद्युत लहर का । जब मन्त्र सिद्ध हो जाता है तब आत्मिक शक्ति से आकृष्ट देवता मान्त्रिक के समक्ष अपना आत्मार्पण कर देता है और उस देवता की सारी शक्ति उस मान्त्रिक में आ जाती है । साधारण साधक बीज मन्त्रों और उनकी ध्वनियों के घर्षण से अपने भीतर आत्मिक शक्ति का स्फुटन करता है । मन्त्रशास्त्र में इसी कारण मन्त्रों के अनेक भेद बताये हैं। प्रधान ये हैं : (१) शान्तिक मन्त्र (२) पौष्टिक मन्त्र (३) वश्याकर्षण मन्त्र (४) मोहन मन्त्र (५) स्तम्भन मन्त्र (६) विद्वेषण मन्त्र (७) जम्भण मन्त्र (८) उच्चाटन मन्त्र (६) मारण मन्त्र आदि । आगे की पंक्तियों में इन्हीं मन्त्रों के स्वरूप पर कुछ विस्तार से विचार किया जा रहा है, जिससे जैन मन्त्रशास्त्र का स्वरूप स्पष्ट हो सके । (१) शान्तिक जिन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश के घर्षण द्वारा भयंकर से भयंकर व्याधि, व्यन्त र, भूत-पिशाचों की पीड़ा, १. करणीदान सेठिया द्वारा प्रकाशित मुस्लिम पन्द्रहिया मन्त्र, पृ० १७ ३. गणेश मन्त्र :-ॐ श्रीं ह्रीं प्रीं क्लीं लु गं गणपतये वरवरदे सर्वभस्मानय कुरु स्वाहा। -पृष्ठ ५४ Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३८८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड क्रूर ग्रह, जंगम-स्थावर विष बाधा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुभिक्षादि ईतियों और चोर आदि का भय प्रशान्त हो जाय, उन ध्वनियों के सन्निवेश को शान्ति मन्त्र कहते हैं । शान्ति मन्त्र-'णमो अमीया सवीणं" इस मन्त्र के जाप से समस्त प्रकार के उपद्रवों का शमन होता है। 1५ क्लीं श्रीं क्लीं 12 शान्तिजाभाम क्ली पाNया पोय महावीर स्नाभी चकेश्वरी देवी भूत, प्रेत पिशाच, डाकण, आदि उपद्रव निवारक यन्त्र इस यन्त्र को हड़ताल, मणसिल, हिंगुल तथा गोरोचन से लिखकर, धूप देकर गले में, भुजा पर अथवा कमर पर बाँधने से उस मनुष्य के भूत, प्रेत, पिशाच, डाकण आदि सभी प्रकार के उपद्रव शान्त हो जाते हैं । (२) पौष्टिक जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा सुख सामग्रियों की प्राप्ति अर्थात् जिन मन्त्रों के द्वारा धनधान्य, सौभाग्य, यश-कीति तथा सन्तान आदि की प्राप्ति हो, उन ध्वनियों की संरचना को पौष्टिक मन्त्र कहते हैं । मन्त्र-(१) ॐ झी झीं श्रीं क्लीं स्वाहा। (२) ॐ ह्रां ह्रीं देवाधिदेवाय अरिष्टनेमि अचिन्त्य चिन्तामणि त्रिभुवन कल्पवृक्ष ॐ ह्रां ह्रीं सर्व हित सिद्धये स्वाहा। यन्त्र :-- मन्त्र-यन्त्र की साधना-पुर्नवसु, पुष्य, श्रवण या धनिष्ठा नक्षत्र में १२५०० हजार जाप करने से यह समस्त जिनेश्वरों से युक्त, समस्त मन्त्रों में श्रेष्ठ पैसठिया यन्त्र विजय दिलाने वाला है। पवित्र द्रव्यों से लिखकर शुद्ध भावों से जो स्त्री अपने बायें अंग पर तथा पुरुष | १६ १२ अपने दायें अंग पर धारण करता है, उसको सुख एवं मांगलिक परम्पराओं को देता है। प्रयाण में, युद्ध में, वाद-विवाद में, राजा या राजा तुल्य बड़े मनुष्य को मिलने में, विकट मार्ग में, चिन्ता आदि का नाश करने में, धन-प्राप्ति में इस यन्त्र की आराधना से अवश्य सुख-समृद्धि, जय-विजय एवं मन की इच्छाओं की पूर्ति होती है। तन्त्र-लखमी होणे को उपाय लिखते मृगसिर नक्षत्रे मृगऽस्ति कीलगुल ७ सप्त की मंत्रणी ॥ मन्त्र ॥ ॐ छः छः ठः ठः स्वाहा ।। १०८ मन्त्रज घर धूप देइ गाडई जे घर दूकान लक्ष्मी होय, धन वधे, व्यापार घणु होय, व्यापारी आव ग्राहक गणा आवई ॥१॥ NIMA । জ্বন १. सम्पादक-अम्बालाल प्रेमचन्द शाह न्यायतीर्थ, सूरि मन्त्र कल्प सन्दोह, पृष्ठ ६८ २. सम्पादक--मुनि गुणभद्रविजय, वेरनावमलमां, पृष्ठ १०१ ३. सं. नरोत्तमदास शाह, अंक यंत्र सार याने किस्मतनो कीमियो, पृष्ठ ५३ ४. मन्त्र यन्त्र तन्त्र संग्रह, पृष्ठ १ । Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप (२) वश्याकर्षण जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा इच्छित वस्तु, व्यक्ति, पशु, पक्षी, देवी-देवता आदि चुम्बक की तरह खिंचे हुए साधक के पास आजाये तथा उनका विपरीत मन भी साधक की अनुकूलता स्वीकार करले, उन ध्वनियों के सनिवेश को वश्याकर्षण मन्त्र कहते हैं। जो व्यक्ति इस चिन्तामणि नाम के यन्त्र का पूजन करता है, उसके वश में सम्पूर्ण लोक के साथ-साथ मुक्ति रूपी स्त्री भी हो जाती है।' इस यन्त्र को भोजपत्र पर अष्टगन्ध से लिखकर आसन के नीचे दबाकर रखने से आने वाला व्यक्ति प्रभावित होगा तथा व्याख्यान के समय पास रखने से सभा मोहित होगी।* १० भैरव पद्मावती कल्प, पृष्ठ २३ २. सं० पं० अम्बालाल शाह, अनुभव सिद्ध मन्त्र द्वात्रिंतिका, "पृष्ठ ३० ३. सं० नेमैन्द्रचन्द्र जैन, महावीरकीर्ति स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ २२३ । ४. करणीदान सेठिया, मन्त्रविद्या, पृष्ठ १५ 和 ४८८ 49. क्लीं The 'श्रीँ ऐ ई मन्त्रॐ ह्रीं श्रीं कलिकुण्डस्वामिने वशमानय आनय स्वाहा। - वशीकरण चिन्तामणि यन्त्र विधि - पार्श्वनाथ प्रभु के सम्मुख अच्छे चमेली के दस हजार पुष्पों से तीन रात्रि तक साधना करने से किसी भी मनुष्य का बयाकर्षण हो सकता है।" यस्त्र -- ४ (४) मोहन जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक रचना के पर्वन द्वारा किसी को मोहित कर दिया जाय अर्थात् जिन मन्त्रों के द्वारा मनुष्य, पशु, पक्षी आदि मोहित कर दिये जायें उन ध्वनियों के सन्निवेश को मोहन मन्त्र कहते हैं । मेस्मेरिग्म, हिप्नोटिज्म आदि प्रायः इसी के अंग है। हे मोहनी विद्या मन्त्र ॐ नमो भगवती कराली महाकराली, ॐ महामोह सम्मोहनीय महाविद्य: जंभय जंभय स्तम्भय स्तम्भय मोहय मोहय मुच्चय मुच्चय क्लेदय क्लेदय आकर्षय आकर्षय पातय पातय कुनेर सम्मोहिनी ऐं ह्रीं ह्रीं ह्रौं आगच्छ कराली स्वाहा || मोहनी विद्या ॥ इस विद्या मन्त्र का जाप करने से इच्छित व्यक्ति अथवा सभा को मोहित किया जा सकता है । No recek A 祗 ३८६ 2 ७ ६ 3 |४८८८६४८९८५ ४eeee४८८८३ ट १ ५ kece४/४८८७ व्यक्ति व सभा मोहन वशीकरण यन्त्र . Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.- -.-. -. -.-.-. -.-. -.-.-. -.-.-. -............... .......... ............... (५) स्तम्भन जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा मनुष्य, पशु, पक्षी, भूत, प्रेत आदि देविक बाधाओं को शत्रुओं के आक्रमण तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले कष्टों को दूर कर इनको जहाँ के तहाँ निष्क्रिय कर स्तम्भित कर दिया जाय उन ध्वनियों के सन्निवेश को स्तम्भन मन्त्र कहते हैं। स्तम्भन यन्त्र मन्त्र :-ॐ जंभे मोहे अमुकस्य जिह्वा स्तम्भय स्तम्भय ठः ठः ठः स्वाहा । विधि-उपरोक्त यन्त्र को भोजपत्र पत्र गोरोचन एवं कुंकुम से लिखकर फिर कुम्हार के हाथ की मिट्टी लाकर उससे अपने प्रत्यथि की छोटी सी मूर्ति बनाकर उसके मुख यह यात्र रख दे। उस मूति का मुख (मजबूत कांटों से चीर कर उसको दो मिट्टी के शराबों में रख कर उपरोक्त मन्त्र से उसकी पीले पुष्पों से पूजा करे। उसके विरोधी व्यवहारी का जिह्वा स्तम्भन होता है।' (६) विद्वेषण जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा कुटुम्ब, मित्र, जाति, देश, समाज, राष्ट्र आदि में परस्पर कलह और वैमनस्य की क्रान्ति मच जाय, उन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश को विद्वेषण मन्त्र कहते हैं। मन्त्र-ॐ चल चल प्रचल प्रचल विश्वं कम्प कम्प विश्वं कम्पय कम्पय ठः ठः ठः स्वाहा । उपरोक्त मन्त्र का जाप करने से सिद्धि को देने वाला, कपिल आँखों वाला चटेक प्राणियों का विद्वेषण और उच्चाटन करता है। तन्त्र-राड़ी होय सही प्रयोग है, काग की पांख, उल्लू की पाँख, बिलाव मुखरा बाल, उंदरा मुखरा बाल मेणरी गोली करीखाट पाग नीचे गालजे, स्त्रीपुरुष राड़ी होय ॥ विद्वष होय ॥ १० ॥ (७) जृम्भण जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा शत्र, भूत, प्रेत, व्यन्तर आदि साधक की साधना से भयत्रस्त हो जाय, काँपने लगे, अर्थात् जिस मन्त्र द्वारा मनुष्य, पशु, पक्षी आदि प्रयोग करने वाले की सूचनानुसार कार्य करे, इसे जृम्भण मन्त्र कहते हैं। मन्त्र-ॐ नमः सहस्रजिह्व कुमुदभाजिनि दीर्घकेशिनि उच्छिष्टभक्षिणि स्वाहा। इस मन्त्र को पढ़ने से साँप पीछे-पीछे चलता है और 'याहि' अर्थात् जाओ, ऐसा कहने से चला जाता है। १. सं. पं० चन्द्रशेखर शास्त्री, ज्वालामालिनी कल्प, पृ० ७६ २. उस मन्त्र का देवता ३. सं० पं० अम्बालाल प्रेमचन्द शाह, अनुभवसिद्ध मन्त्र द्वात्रिंशिका, पृ०४१ ४. मन्त्र यन्त्र तन्त्र संग्रह, पृ० १ ५. सं० पं० चन्द्रशेखर शास्त्री, भैरव पद्मावती कल्प, पृ० ६० , Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) उच्चाटन जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा किसी का मन अस्थिर उल्लास रहित एवं निरुत्साहित होकर पथभ्रष्ट या स्थानभ्रष्ट हो जाय, अर्थात् जिन मन्त्रों के प्रयोग से मनुष्य, पशु, पक्षी असे इज्जत और मान-सम्मान को खो देवे उन ध्वनियों के वैज्ञानिकों के सन्निवेश को उच्चाटन मन्त्र कहते हैं । हो, जैन मन्त्रशास्त्रों की परम्परा और स्वरूप २८१ मन्त्र -उच्चाटन में फट रंजिका यन्त्र विधि - श्मशान से लिए हुए कपड़े पर नीम और आक के रस में क्रोध में भरकर लिखे। उस यन्त्र को श्मशान में फेंक दें। जब तक यह यन्त्र वहाँ पर रहता है तब तक शत्रु आकाश में कौवे के समान पृथ्वी पर घूमता रहता है ।" १. पं० चन्द्रशेखर शास्त्री, भैरव पद्मावती ०३३ २. चिन्तारणि पृ० १६ ३. मन्त्रशास्त्र, पृ०२१ अचान ट् अनितायै स्वाह दर्ग्यू देवदत्त स्वाह तन्त्र — शत्रु का डावा पग की धूलि, मनाण धूलि, सात उड़द, सात सरस्यु, पाँच राई, टं १ तेल काले लुगड़े बांधिये शत्रु का पर उपर नाखिने शत्रु उच्चाटनं ॥ १ ॥ * 72 (4) मारण जिन ध्वनियों की वैज्ञानिक संरचना के घर्षण द्वारा साधक आततायियों को प्राणदण्ड दे सके अर्थात् जिन ध्वनियों के घर्षण द्वारा अन्य जीवों की मृत्यु हो जाय, उन ध्वनियों के वैज्ञानिक सन्निवेश को मारण मन्त्र कहते हैं । मन्त्र — ॐ काली महाकाली त्रिपुरा भैरवदारिता अमुकस्य जीवितं संहर मम सुखं कुरु कुरु स्वाहा। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन मन्त्रशास्त्र की एक विशाल परम्परा है जिसका मानव के ऐहिक और भौतिक कल्याण की दृष्टि से बहुत महत्व है वह केवल कल्पना ही नहीं है किन्तु आयुर्वेद के चिकित्साशास्त्रों से भी प्रमाणित है कि मन्त्र तन्त्र से अनेक प्रकार की अधि-व्याधि से मुक्ति दिलाकर मानव के जीवन को प्रशस्त किया जा सकता है । आज के इस विज्ञान के युग में आधुनिकता के परिवेश में लोग इस महत्वपूर्ण परम्परा को केवल अन्धविश्वास बताकर इसकी उपेक्षा करते हैं । किन्तु यदि इस विद्या का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया जाय और तथ्यों का विश्लेषण किया जाय तो निश्चय ही यह मानव-कल्याण के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकती है । अपराजि . Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ जेन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा डॉ० राजेन्द्र प्रकाश भटनागर, [प्राध्यापक, राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, उदयपुर (राज० ) ] भारतीय ज्योतिष एक अत्यन्त प्राचीन शास्त्र है । 'तत्त्वार्थ' (अ०४, सू० १३ ) में लिखा है--' ज्योतिष्काः सूर्यश्चन्द्रमसौ प्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च' । सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्रों के साथ प्रकीर्णक तारों को ज्योतिष्क ( चमकने वाले प्रकाशमान कहते हैं। इनसे सम्बन्धित शास्त्र या विज्ञान को 'ज्योतिष' कहते है (ज्योतिषां सूर्याविग्रहाणां बोधकं शास्त्रम्) । ज्योतिषशास्त्र भारतीयों का मौलिक विशिष्ट विज्ञान है। डा० नेमिचन्द शास्त्री ने लिखा है---"यदि पक्षपात छोड़कर विचार किया जाय तो मालूम हो जायगा कि अन्य शास्त्रों के समान भारतीय ही इस शास्त्र के आदि आदिकर्ता है ।" (भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ ३१) । ज्योतिष का आधार अंकज्ञान है। यह ज्ञान भी भारतीयों का मौलिक है । डा० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा का मत है---"भारत ने अन्य देशवासियों को जो अनेक बातें सिखाई, उनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान अंकविद्या का है । संसारभर में गणित, ज्योतिष विज्ञान आदि की जो उन्नति पायी जाती है, उसका मूल कारण वर्तमान अंकक्रम है, जिसमें एक से नौ तक के अंक और शून्य इन दस चिह्नों से अंकविद्या का सारा काम चल रहा है। यह क्रम भारतवासियों ने ही निकाला और इसे संसार ने अपनाया " (मध्यकालीन भारतीय संस्कृति, पृ० १०८ ) । अलबेरुनी भी लिखता है - "ज्योतिषशास्त्र में हिन्दू लोग संसार की सभी जातियों से बढ़कर हैं । मैंने अनेक भाषाओं के अंकों के नाम सीखे हैं, पर किसी जाति में भी हजार से आगे की संख्या के लिए मुझे कोई नाम नहीं मिला। हिन्दुओं में अठारह अंकों तक की संख्या के लिए नाम हैं, जिनमें अन्तिम संख्या का नाम परार्द्ध बताया गया है" (सचाऊअसबेनीज इण्डिया जिल्द १ ० १७४-७७) । भारतीय ज्योतिष की दो परम्पराएँ रही हैं- वैदिक ज्योतिष और जैन ज्योतिष । दोनों परम्पराएँ बहुत प्राचीन और प्रायः समानान्तर हैं। दोनों का परस्पर एक-दूसरे पर प्रभाव भी पड़ा है। वैदिक परम्परा में ज्योतिष का स्थान महत्त्वपूर्ण है । इसे छः वेदांगों में परिगणित किया गया है । ये वेदांग हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष । शिक्षा कल्पोऽथ व्याकरणं निरुक्तं छन्दसां च यः । ज्योतिषामयनं चैव वेदांगानि षडेव तु ॥ यज्ञों के अनुष्ठान के लिए, उसके आरम्भ और समाप्ति पर अनुकूल ग्रह योग देखा जाता था। इसका ज्ञान ज्योतिष पर आधारित है। वैदिक ज्योतिष सम्बन्धी 'वेदांग ज्योतिष' नामक प्राचीन लघुग्रन्थ उपलब्ध है। इ रचना लोकमान्य तिलक ने १२०० से १४०० ई० पू० मानी है । इसका लेखक अज्ञात है । इस ग्रन्थ के दो पाठ मिलते हैं— ऋग्वेद ज्योतिष और यजुर्वेद ज्योतिष । पहले में ३६ श्लोक और दूसरे में ४४ श्लोक हैं। इस पर अनेक टीकाएँ विद्यमान हैं । यह ग्रन्थ वैदिक ज्योतिषशास्त्र का मूल माना जाता है। . Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ३६३ जैन विद्वानों का ज्योतिषशास्त्र के क्षेत्र में अविस्मरणीय गोगदान रहा है। जैन-ज्योतिष की परम्परा तीर्थंकरों के काल से प्रारम्भ होती है। यह काल वैदिककाल के समान्तर अथवा उससे कुछ परवर्ती प्रमाणित होता है। पहले के तीर्थंकरों की वाणी अब उपलब्ध नहीं है। उस काल का जैन साहित्य 'पूर्व' संज्ञा से अभिहित किया जाता है। उपलब्ध आगम-साहित्य चौबीसवें तीर्थंकर महावीर की वाणी के रूप में प्राप्त है। उसी को गणधरों और प्रतिगणधरों ने संकलित कर व्यवस्थित किया तथा विभिन्न आचार्यों ने इसके आधार पर अनेक शास्त्रों की रचना की। 'आगम' शब्द समन्तात् या सम्पूर्ण अर्थ में प्रयुक्त 'आ' उपसर्गपूर्वक गति प्राप्ति के अर्थ में प्रयुक्त 'गम्' धातु से निष्पन्न होता है । इसका तात्पर्य वस्तुतत्त्व या यथार्थ का पूरा ज्ञान ऐसा होता है। आप्त का कथन ही आगम है। इससे उचित शिक्षा मिलती है। जैन ग्रन्थों में आगम को ही 'श्रुत' और 'सूत्र' भी कहते हैं। जैन धर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में आगम साहित्य के अस्तित्व के सम्बन्ध में मतभेद है। दिगम्बर परम्परा आगम साहित्य को विच्छिन्न या लुप्त मानती है । श्वेताम्बर परम्परा में केवल बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' को विलुप्त माना गया है। इस प्रकार जैन आगम साहित्य को तीन आधारों पर वर्गीकृत किया गया है। सर्वप्रथम 'समवायांग' में इसे दो भागों में बांटा गया है-'पूर्व' और 'अंग' । 'पूर्व' १४ थे-उत्पाद, आग्रायणीय, वीर्यानुप्रवाद, अस्ति-नास्ति-प्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यानप्रवाद, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणावाय, क्रियाविशाल, लोकबिन्दुसार । पूर्व साहित्य महावीर से पहले का होने के कारण इसे 'पूर्व' कहा जाता है। कालान्तर में इसको अंगों में ही समाविष्ट कर लिया गया । 'दृष्टिवाद' नामक बारहवें अंग में एक विभाग 'पूर्वगत' है। इसी 'पूर्वगत' में चौदह पूर्वो का अन्तर्भाव किया गया है। 'अंग' बारह हैं । ये आगम साहित्य के मुख्य ग्रन्थ हैं। ये अंग हैं-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, भगवती, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाक, दृष्टिवाद । आगमों का द्वितीय वर्गीकरण 'नंदीसूत्र' (४३) में मिलता है। इसमें आगमों के दो वर्ग किये गये हैं-अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । जो गणधर द्वारा सूत्ररूप में बनाये गये हैं, जो गणधर द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित हैं और जो शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित हैं, उनको 'अंगप्रविष्ट' आगम कहते हैं । जो स्थविर (मुनि) कृत हैं उनको 'अंगबाह्य' कहते हैं। ___ नंदीसूत्र में 'अंगबाह्य' के आवश्यक, आवश्यक-व्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक रूप में चार भेद किये गये हैं। ____ 'अंगप्रविष्ट' आगम प्राचीन और मूलभूत माने जाते हैं। इनके मूलवक्ता तीर्थकर और संकलनकर्ता गणधर होते हैं । पूज्यपाद ने 'सर्वार्थसिद्धि' (१/२०) में वक्ता के तीन भेद बताये हैं—तीर्थकर, श्रुतकेवली और आरातीय । अकलंक के अनुसार आरातीय आचार्यों की रचनाएँ अंगप्रतिपादित अर्थ के समीप और अनुरूप होने के कारण 'अंगबाह्य' कहलाती हैं (तत्त्वार्थराजवार्तिक १।२०)। 'अंगप्रविष्ट' आगम-ग्रन्थों को ही आचारांग आदि १२ 'अंग' भी कहते हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराएँ आगमों के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य वर्गों को मानती हैं। आगमों का तीसरा वर्गीकरण आचार्य आर्यरक्षित ने किया। उन्होंने अनुयोगों के आधार पर आगमों के चार विभाग किये हैं-(१) चरण-करणानुयोग (कालिकश्रुत, महाकल्प, छेदश्रुत आदि), (२) धर्मकथानुयोग (ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि), (३) गणितानुयोग (सूर्यप्रज्ञप्ति आदि), (४) द्रव्यानुयोग (दृष्टिवाद आदि) । (आवश्यक नियुक्ति ३६३-३७७) । दिगम्बर परम्परा में आगमों को लुप्त माना गया है। इस परम्परा में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ग्रन्थों Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड के अतिरिक्त जो ग्रन्थ लिखे गये उनको 'अनुयोग' कहते हैं। इनके चार विभाग हैं - ( १ ) प्रथमानुयोग — महापुरषों का जीवन-चरित्र, जैसे महापुराण, आदिपुराण (२) करणानुयोग लोकालोकविभाजन, काल, गणित आदि जैसेत्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार। (३) चरणानुयोग आचार का वर्णन, जैसे—मूलाचार ४ द्रव्यानुयोग - द्रव्य, गुण पर्याय, तत्त्व आदि का वर्णन, जैसे- प्रवचनसार, गोम्मटसार आदि । आगमों का चौथा परवर्ती वर्गीकरण इस प्रकार है-अंग (११ या १२), उपांग १२ मूलसूत्र ४, छेत्रसूत्र ६, प्रकीर्णक १० । तत्त्वार्थभाष्य (१।२० ) में 'उपांग' से 'अंगबाह्य' माना गया है। इस प्रकार कुल आगमों की संख्या ४५ है । I समवायांग और नन्दीसूत्र में बारहवें अंग 'दृष्टिवाद' के पाँच विभाग बताये हैं- परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका दिगम्बर मान्यता के अनुसार परिकर्म के पांच भेद है चन्द्रप्रप्ति, सूर्वप्रज्ञप्ति, जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति द्वीपसागर प्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति । 'पूर्वगत' में पूर्वोक्त चौदह 'पूर्वी' का समावेश होता है । चूलिका के भी पाँच भेद हैं— जलगता, स्थलगता, मायागता, आकाशगता, रूपगता । निशीवचूर्णि के अनुसार दृष्टिवाद में द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग का विचार किया गया है। यह दृष्टिवाद सब अंगों में श्रेष्ठ था और इसका साहित्य बहुविध व अत्यन्त विस्तृत था । जैन परम्परा में समस्त लौकिक या लाक्षणिक विद्याओं और शास्त्रों की उत्पत्ति 'दृष्टिवाद' से मानी जाती जाती है। दुर्भाग्य से दृष्टिवाद का साहित्य अब लुप्त हो चुका है परन्तु उससे व्युत्पन्न विद्याओं का अस्तित्व और विकास शनैः-शनैः प्रकट हुआ । 'दृष्टिवाद' के 'परिकर्म' संज्ञक विभाग में लिपिविज्ञान, ज्योतिष और गणित का विवेचन मिलता है। 'षट्'खंडागम' की 'धवला' टीका में वीरसेनाचार्य ने गणित सम्बन्धी विवेचन में 'परिकर्म' का उल्लेख किया है। इसी से गणित - ज्योतिष का प्रादुर्भाव हुआ । परिकर्म के पाँच भेदों में से प्रथम चार सूर्यप्रज्ञप्ति, चंद्रप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति को जैन ज्योतिषशास्त्र और गणितशास्त्र का मूल माना जाता है। श्वेताम्बर परम्परा में सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की गणना बारह उपांगों में की गई है। अष्टांग निमित्तों का विवेचन 'दृष्टिवाद' के 'पूर्व' संज्ञक भेद के 'विद्यानुप्रवाद' संज्ञक उपभेद में हुआ था । 'कल्याणवाद' (अबन्ध) नामक 'पूर्व' में सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र और तारागणों की विविध गतियों के आधार पर शकुन का विचार तथा बलदेवों, वासुदेवों, चकवतियों आदि महापुरुषों के गर्भावतरण, जन्म आदि अवसरों पर होने वाले लक्षणों और कल्याणों का विवरण दिया गया है। इस प्रकार शुभाशुभ लक्षणों के निमित्त से भविष्य की घटनाओं का कथन अबंध्य अर्थात् अवश्यम्भावी माना गया था। इस कारण इस पूर्व को 'कल्याणवाद' या 'अबंध्य' कहते हैं । 'णिवा' नामक प्रकीर्णक भी ज्योतिष से सम्बन्धित है। अन्य आगम साहित्य में भी प्रसंगवश ज्योतिष सम्बन्धी विचार प्रकट हुए हैं। 'करणानुयोग' में ज्योतिष, गणित, भूगोल और कालविभाग का समावेश होता है। दिगम्बर परम्परा में इस विषय के लोकविभाग, तिलोयपण्णत्ति (त्रिलोकप्रज्ञप्ति), त्रिलोकसार और जम्बूद्वीपण्णत्ति प्राचीन ग्रन्थ हैं। श्वेताम्बर परम्परा में इस विषय के आगम साहित्यान्तर्गत सूर्यप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, क्षेत्रसमास और संग्रहणी का समावेश होता है योतिषकरण्डक' इन सबसे प्राचीन केवल ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ है। J दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर निर्वाण के १६२ वर्ष बाद भद्रबाहु के स्वर्गवासी होने पर अंग ग्रन्थ क्रमशः विच्छिन्न होने लगे। सम्पूर्ण आगम साहित्य लुप्त हो गया; केवल 'दृष्टिवाद' के अन्तर्गत द्वितीय पूर्व 'अग्रायणीय' . Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ३६५ . के कुछ अधिकारों का ज्ञान आचार्य धरसेन के पास शेष रहा। उन्होंने वह ज्ञान अपने दो शिष्यों-पुष्पदंत और भूतबलि को दिया, जिसके आधार पर उन्होंने 'षट्खण्डागम' की सूत्र रूप में रचना की। यह ग्रंथ प्राप्त है और टीका व अनुवाद सहित तेईस भागों में प्रकाशित हो चुका है। इस पर आचार्य वीरसेन कृत 'धवला' नामक टीका मौजूद है। इस टीका में ज्योतिष और गणित सम्बन्धी अनेक विचार प्रकट हुए हैं। श्वेताम्बर परम्परानुसार वीर निर्वाण के १७० वर्ष बाद भद्रबाहु स्वर्गवासी हुए। इसके बाद 'पूर्वो' का ज्ञान क्रमशः लुप्त होता गया । पूर्वो के विच्छेद का क्रम देवद्धिगणी क्षमाश्रमण (बी० नि० सं० १८० या ६६३, ई० ४५४ या ४६६) तक चलता रहा । स्वयं देवद्धिगणी ११ अंग और एक पूर्व से कुछ अधिक श्रुत के ज्ञाता थे । श्वेताम्बर मत में आगम साहित्य का बहुत-सा अंश लुप्त होने पर भी कुछ मौलिक अंश अब तक पारम्परिक रूप से सुरक्षित है। श्वेताम्बर परम्परा में स्वीकृत आगम साहित्य अर्धमागधी प्राकृत भाषा में मिलता है। 'षट्खण्डागम' की टीका में दिये गये प्राचीन गाथाएँ आदि उद्धरण शौरसेनी प्राकृत में हैं । अर्धमागधी प्राकृत का प्रचलन शूरसेन (मथुरा) और मगध के मध्य अयोध्या के समीपवर्ती क्षेत्र में था। शूरसेन (मथुरा) के आसपास 'शौरसेनी' प्राकृत का प्रचलन था। ज्योतिष : एक कला भी जैन सूत्रों में जिन ७२ कलाओं का उल्लेख मिलता है, उनमें ज्योतिष विद्या को भी परिगणित किया गया है। इसमें 'चार' अर्थात् ग्रहों की अनुकूल गति और 'प्रतिचार' अर्थात् ग्रहों की प्रतिकूल गति का विचार किया गया है। कल्पसूत्र (१।१०) से ज्ञात होता है कि महावीर ने गणित और ज्योतिष विद्या आदि में कुशलता प्राप्त की थी। ज्योतिष को 'नक्षत्र विद्या' भी कहा गया है। (दशवकालिक, ८।५१)। जैन ग्रन्थों में धर्मोत्सवों के समय और स्थान के निर्धारण हेतु ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान जरूरी माना गया है। इसके विपरीत बौद्धग्रन्थों में बौद्ध भिक्षुओं के लिए ज्योतिष विद्या और अन्य कलाओं का सीखना निषिद्ध माना गया है। यही कारण है कि जैन विद्वानों और आचार्यों ने ज्योतिष में आश्चर्यजनक प्रगति की थी। बौद्धों में यह विद्या अप्रचलित रही। 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' (२११) और 'उत्तराध्ययन' (२५७,३६) में 'संख्यान' (गणित) और 'जोइस' (ज्योतिष) को चौदह विद्यास्थानों में परिगणित किया गया है। गणित और ज्योतिष का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। अतः यह तथ्य ध्यान में रखना होगा कि प्रायः दोनों विषयों के ग्रन्थ अन्योन्य सम्बन्ध रखते हैं। भारतीय ज्योतिष का क्रमशः विकास हुआ है और उसके नये-नये भेद-प्रभेद प्रकट हुए हैं । प्रारम्भ में ज्योतिष का उद्भव उत्सवादि-यज्ञादि कार्य के समय और स्थान के शुभाशुभ विचार की दृष्टि से नक्षत्र, ऋतु, अयन, दिन, रात्रि, लग्न आदि के विचार से हुआ था। उस समय गणित और फलित ये दो भेद नहीं थे। सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिषकरण्डक, वेदांगज्योतिष में ज्योतिष का प्रारम्भिक रूप मिलता है। __ कालान्तर में ज्योतिष के दो भेद प्रकट हुए-गणित और फलित । ग्रहों की गति, स्थिति, अयनांश आदि से सम्बन्धित गणित ज्योतिष तथा शुभाशुभ फल व काल विचार, यज्ञ-याग, उत्सव आदि के समय व स्थान के निर्धारण का विचार फलित ज्योतिष का विषय माना जाने लगा। इसके बाद ज्योतिष का त्रिस्कन्धात्मक रूप प्रकाश में आयासिद्धान्त, संहिता और होरा । आगे चलकर इसके पाँच भेद हो गये-होरा, गणित, संहिता, प्रश्न और निमित्त । (१) होरा-को 'जातक' भी कहते हैं। यह शब्द 'अहोरात्र' से बना है, पहला 'अ' और अन्तिम 'त्र' अक्षर का लोप होने से 'होरा' शब्द बना है। मनुष्य के जन्म के समय ग्रहों की स्थिति के आधार पर फलादेश किया जाता है। जन्म-कुण्डली के द्वादश भावों के फलाफल का ग्रहों के अनुसार विवेचन करना 'होराशास्त्र' कहलाता है। (२) गणित ज्योतिष में कालगणना, सौरचान्द्रमानों का प्रतिपादन, ग्रहगतियों का निरूपण, प्रश्नोत्तर विवेचन और अक्षक्षेत्र सम्बन्धी अक्षज्या, लंबज्या, धुज्या, कुज्या, तद्धृति, समशंकु आदि का निरूपण किया जाता है। गणित के भी तीन प्रभेद प्रकाश में आये-सिद्धान्त, तन्त्र और करण । Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -O २४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड (३) संहिता ज्योतिष में भू-शोधन, दिशोधन, हल्योद्धार, मेलापक, आवाद्यानयन, गृहोपकरण, इष्टिकाद्वार, गृहारम्भ, गृहप्रवेश, मुहूर्तगणना, उल्कापात, अतिवृष्टि, ग्रहों का उदय अस्त और ग्रहण फल का विचार होता है । मध्यकाल में 'संहिता' में होरा, गणित और शकुन का मिश्रित रूप माना जाने लगा। कुछ जैनाचार्यों ने 'आयुर्वेद' को भी संहिता में सम्मिलित किया है। ( ४ ) प्रश्न - ज्योतिष में प्रश्नाक्षर, प्रश्न लग्न और स्वरज्ञान विधियों से प्रश्नकर्ता के प्रश्न के शुभाशुभ का विचार किया जाता है। प्रश्नकर्ता के हाव, भाव, विचार, चेष्टा से भी विश्लेषण किया जाता है। इससे तत्काल फलनिर्देश होता है । यह जैन ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण अंग है । केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि, चन्द्रोन्मीलन, अयज्ञानतिलक, अर्हन्चूडामणिसार आदि इस पर प्रसिद्ध और प्राचीन जैन ग्रन्थ हैं । वराहमिहिर ( ६वीं शती) के पुत्र पृथुयशा के काल से प्रश्नलग्न सिद्धान्त का प्रचार प्रारम्भ हुआ था । (५) शकुन ज्योतिष को 'निमित्तशास्त्र' भी कहते हैं। इसमें शुभाशुभ फलों का विचार किया जाता है। पहले यह 'संहिता' में शामिल था, बाद में वीं १०वीं शती से इस पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये । ज्योतिषशास्त्र के ये पांच विभाग उसकी गम्भीर व्यापकता को सूचित करते हैं। अंग-लक्षणों के आधार पर शुभाशुभ को बताने वाला सामुद्रिक शास्त्र भी ज्योतिष का ही अंग माना जा सकता है। फलित ज्योतिष में मानव जीवन के हर पक्ष पर विचार किया गया है। यह केवल पंचांग तक ही सीमित नहीं था । ५०० ई० के बाद भारतीय ज्योतिष पर ग्रीस, अरब और फारस के ज्योतिष का प्रभाव पड़ने लगा । वराहमिहिर ने उनसे भी कुछ ग्रहण करने का उपदेश दिया है म्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक् शास्त्रमिदं स्थितम् । ऋषिवत्तेऽपि पूज्यन्ते किं पुनर्देवविद् द्विजः ॥ दसवीं शती के बाद ज्योतिष में यन्त्रों का प्रचलन हुआ । यन्त्रों से ग्रह-वेद - विधि का विचार किया गया । 'मुहूर्त' पर भी स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये । सब कार्यों के लिए शुभाशुभ काल का विचार किया गया । मुसलमानों के सम्पर्क से ज्योतिष के क्षेत्र में ११वीं शादी के बाद दो नवीन अंग 'ताजिक' और 'रमल' विकसित हुए । (१) ताजिक - यह अरबों से प्राप्त ज्योतिष ज्ञान है । बलभद्र ने लिखा है यवनाचार्येण पारसीकभाषायां ज्योतिषशास्त्रैकदेशरूपं वार्षिकादिनानाविधफलादेशफलकशास्त्रंताजिकशास्त्रवाच्यम् । मनुष्य के नवीन वर्ष और मास में प्रवेश करने के समय ग्रहों की स्थिति देखकर उस वर्ष या मास का फल बताना 'ताजिक' का विषय है । यह भारतीय 'जातक' के अन्तर्गत है। मूलतः यह प्रकार भारतीयों की देन भी लिखा है 1 गर्गा बनैश्चरोमकमुखः सत्यादिभिः कीर्तितम् । शास्त्रं ताजिकशास्त्र...... ********** ***It गर्ग आदि भारतीय आचार्यों ने, यवनों ने, रोमवासियों ने और सत्याचार्य आदि ने इस शास्त्र की रचना की । भारतीय ज्योतिष के आधार पर यवनों ने इसे सीखा, उन्होंने इसमें संशोधनपरिवर्धन किया। जन्मकुण्डली से फलादेश के नियम मूलतः भारतीय हैं। हरिभट्ट या हरिभद्रकृत 'ताजिकसार' में कुछ पवन शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। (२) रमल - यह शब्द अरबों का है । इमें 'पाशकविद्या' भी कहते हैं । पासों पर बिन्दु के रूप में चिह्न होते हैं । पासे फेंकने पर उन चिह्नों की स्थिति देखकर प्रश्नकर्ता के प्रश्न का उत्तर बताने की यह विद्या है। यह भारतीय 'प्रश्नशास्त्र' का ही अंग है। . Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा रमलशास्त्र में अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी इन चार तत्त्वों की दशा का आधार माना जाता है। इनके • सोलह भेद हैं। पासे पर उनके प्रतीक सोलह चिह्न होते हैं । 1. ३५७ मुसलमानों के सम्पर्क के बाद संस्कृत में इस पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गये। इनमें अरबी शब्द भी व्यवहृत हुए हैं । अत: इसे मुसलमानों के सम्पर्क से विकसित हुआ माना जाता है । जैन विद्वानों ने ज्योतिष की प्रत्येक विधा पर महत्त्वपूर्ण रचनाएँ लिखी हैं ये रचनाएँ प्राकृत, अपभ्रं • संस्कृत, हिन्दी के अतिरिक्त राजस्थानी, गुजराती, तमिल, कन्नड़, तेलगु आदि प्रान्तीय भाषाओं में मिलती हैं। इससे इसकी व्यापकता प्रदर्शित होती है । जैन मान्यता में कालविभाग एवं लोकविभाग ज्योतिष का सम्बन्ध काल एवं खगोल-भूगोल से है । सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में इनका परिचय मिलता है, इससे सृष्टि के विकास क्रम का पता चलता है । लोक विभाग- सम्पूर्ण विश्व के दो विभाग हैं—एक 'अलोकाका', जहाँ आकाश के सिवा कोई जड़ या नेतन द्रव्य मौजूद नहीं है, दूसरा 'लोकाकाश', जहाँ पाँच द्रव्य (जीव, पुद्गल, उनके गमनागमन में सहायक धर्म एवं अधर्म द्रव्य इय्य-परिवर्तन में निमित्त भूत 'काल') होते हैं अत: इसे 'द्रव्यलोक' भी कहते हैं। द्रव्यलोक के तीन भाग हैऊर्ध्व, मध्य और अधो लोक । ऊर्ध्वं लोक में सर्वप्रथम ज्योतिर्लोक हैं, जिसमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारे स्थित है। इसके ऊपर १६ स्वर्ग हैं सौधर्म, ईमान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, सान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महागुरू, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत । इनको 'कल्प' भी कहते हैं । स्वर्गों के ऊपर नौ ग्रैवेयक और उनके ऊपर विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि नामक पाँच कल्पातीत देव - विमान हैं । इसके ऊपर लोक का अन्तिम भाग है, जहाँ मुक्तात्माएँ रहती हैं। अधोलोक में क्रमशः नीचे की ओर ७ नरक हैं- रत्न, शर्करा, बालुका, पंक, धूम, तम और महातम प्रभा । इसमें तीन महान् द्वीप हैंधातकीखण्ड और पुष्कर का असंख्य द्वीप व सागर हैं। अलंध्य पर्वत हैं। जम्बूद्वीप, मध्यलोक में पृथ्वी है । यह गोलाकार है और इसमें -जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड और पुष्कर । पुष्करद्वीप के मध्य में आधा भाग — इस प्रकार ढाई द्वीप में मनुष्यलोक है। पृथ्वी के मध्य में जम्बूद्वीप (एक लाख योजन विस्तृत) के चारों और लवण समुद्र (२ लाख योजन विस्तृत) है। लवण समुद्र के चारों ओर घातकीखण्ड (४ लाख योजन विस्तृत) है। - धातकीखण्ड के चारों ओर कालोदधि (८ लाख योजन विस्तृत ) है । कालोदधि के चारों ओर पुष्करद्वीप ( १६ लाख योजन विस्तृत) है । जम्बूद्वीप में ७ क्षेत्र हैं- भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत, ऐरावत। इनके विभाजक ६ कुलपर्वत हैं — हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मि, शिखरी । सबसे मध्य में विशाल विदेहक्षेत्र है । इसके मध्य में मेरुपर्वत है। भरतक्षेत्र में हिमालय से निकलकर पूर्व समुद्र की ओर गंगा तथा पश्चिम समुद्र की ओर सिन्धुनदी बहती हैं। बीच में विन्ध्यपर्वत है। इन दोनों नदियों और पर्वतों से भरतक्षेत्र के ६ बंद हो गये है। इन पर एकछत्र (विजयार्थ) शासन करने वाला शासक 'पट्खण्ड चकवर्ती' कहलाता है। गंगा-सिन्धु का मध्यवर्ती देश 'आर्यखेड' कहलाता है । इसको 'मध्यदेश' भी कहते हैं । इसमें ही तीकथंरों आदि ने जन्म लिया । काल विभाग जैनमान्यतानुसार काल की सबसे छोटी अविभाज्य इकाई 'समय' और सबसे लम्बी इकाई 'कल्प काल' है । कल्पकाल का मान बीस कोटाकोटि 'सागर' है, जो असंख्य वर्ष जितना है । प्रत्येक कल्पकाल के दो विभाग हैं - अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी । जम्बूद्वीप में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के रूप में कालचक्र घूमता रहता है । जैन मान्यता में विश्व में समस्त जड़ चेतन अनादि और अनन्त हैं। इसको न किसी ने बनाया और न कभी इसका विनाश होता है जगत के उपादान द्रव्यों में हमेशा परिवर्तन होता रहता है। इसका निमित्त 'काल' है। . Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड कालचक्र में अवसर्पिणी के छः और उत्स पिणी के छ: आरे हैं। इन आरों को 'युग' या 'काल' भी कहते हैं । अवसर्पिणी के छ: काल हैं-प्रथम काल 'सुषमा-सुषमा', द्वितीय काल 'सुषमा', तृतीय काल 'सुषमा-दुषमा', चतुर्थ काल 'दुषमा-सुषमा', पंचम काल 'दुषमा' और षष्ठकाल 'दुषमा-दुषमा' है। उत्सर्पिणी में इसके विपरीत काल अर्थात् क्रमशः छठा, पाँचवाँ, चौथा, तीसरा, दूसरा, पहला होता है। अवसर्पिणी के कालों में क्रमश: अवनति तथा उत्सर्पिणी के कालों में क्रमशः उन्नति होती है। अवसर्पिणी के पहले तीन कालों में यहाँ 'भोगभूमि' की रचना होती है। इस समय मनुष्य खान, पान, शरीराच्छादन आदि सारे काम उस काल के वृक्षों से पूरे करते हैं, अत: इन वृक्षों को 'कल्पवृक्ष' कहते हैं। तीसरे काल के अन्त में १४ कुलकर उत्पन्न होते हैं। इस समय 'कर्मभूमि' की रचना प्रारम्भ होती है । अन्तिम तीन कालों में यहाँ कर्मभूमि की रचना होती है। ये कुलकर जीवों को विभिन्न प्रकार की शिक्षाएँ देते हैं । प्रथम कुलकर 'प्रतिश्रुति' ने मनुष्य की प्रथम बार सूर्य व चन्द्रमा आदि को देखकर प्रकट की गई शंका का निवारण किया, सूर्य-चन्द्र के उदय अस्त का रहस्य समझाया (तब से दिन, काल और वर्ष का प्रारम्भ हुआ। वह दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा का प्रात:काल था)। उन्हें ज्योतिष की शिक्षा दी । ग्रहों के ज्ञान से मनुष्य अपने कार्य चलाने लगे। द्वितीय कुलकर ने मनुष्य को नक्षत्र और तारा सम्बन्धी शंकाओं का निवारण कर ज्योतिष ज्ञान को आगे बढ़ाया। यह पहले ज्योतिर्विद थे। अन्तिम कुलकर नाभिराज ने असि, मसि, कृषि, विद्या-वाणिज्य, शिल्प और उद्योग इन षट्कर्मों की शिक्षा दी। कुछ विद्वान् इनके आविष्कारक नाभिराज के पुत्र प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को मानते हैं। इसके बाद २४ तीर्थकर (ऋषभ आदि), १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव और प्रतिवासुदेव, ये ६३ (त्रिषष्टि) 'शलाका पुरुष' चौथे काल में हुए। महावीर निर्वाण के बाद पाँचवाँ दुषमा काल शुरू हुआ, जो चालू है। इस क्रम से वर्तमान मानव सभ्यता का विकास क्रमशः हुआ है। कुलकरों से पूर्व का काल प्रीहिस्टोरिक और उनके बाद तीर्थंकरों तक का काल प्रोटोहिस्टोरिक माना जाता है। इस प्रकार जैन ज्योतिष की परम्परा कुलकरों के समय से प्रारम्भ होती है, परन्तु जो साहित्य उपलब्ध है, वह बहुत बाद का है । सम्भव है, ज्योतिष सम्बन्धी प्राचीन मान्यताएँ उसमें पारम्परिक रूप से अन्तनिहित हों। आगम-साहित्य में ज्योतिष सम्बन्धी प्रमाण जैन आगम-ग्रन्थों में ज्योतिष सम्बन्धी दिन, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, ग्रहण, ग्रह, नक्षत्र आदि का स्थानस्थान पर विचार आया है, आगमों का रचनाकाल ईसा की पहली शती या कुछ बाद का माना जाता है। प्रश्नव्याकरणांग (१०/६) में १२ महीनों की १२ पूर्णमासी और अमावस्याओं के नाम व उनके फल बताये गये हैं। श्रावण मास की श्रविष्ठा, भाद्रपद की पौष्ठवती, आश्विन की असोई, कार्तिक की कृत्तिका, मार्गशीर्ष की मृगशिरा, पौष की पौषी, माघ का माघी, फाल्गुन की फाल्गुनी, चैत्र की चैत्री, बैशाख की बैशाखी, ज्येष्ठ की मूली और आषाढ़ की आषाढ़ी पूर्णिमा होती है। अयन दो होते हैं-उत्तरायण और दक्षिणायन । जैन मान्यतानुसार जम्बूद्वीप के बीच में सुमेरु पर्वत है। सूर्यचन्द्र इस पर्वत की परिक्रमा करते हैं । परिक्रमा की गति से उत्तरायण और दक्षिणायन होते हैं। सुमेरु की प्रदक्षिणा के इनके गमनमार्ग या वीथियाँ १८३ हैं। सूर्य एक मार्ग को दो दिन में पूरा करता है, अत: ३६६ दिन या एक वर्ष में यह प्रदक्षिणा पूरी होती है। सूर्य जब जम्बूद्वीप के भीतरी मार्ग से बाहर लवणसमुद्र की ओर जाता है, तब दक्षिणायन और जब सूर्य लवण समुद्र के बाहरी अन्तिम मार्ग से चलता हुआ जम्बूद्वीप के भीतरी मार्ग में गमन करता है तब उत्तरायण होता है । 'स्थानांग' और 'प्रश्न-व्याकरणांग' में सौरवर्ष का विचार मिलता है । 'समवायांग' में ३५४ से कुछ अधिक दिनों का चान्द्रवर्ष माना गया है। 'स्थानांग' (५।३।१०) में पाँच वर्ष का एक युग बताया गया है। पंच-संवत्सरात्मक युग के ५ भेद हैं-नक्षत्र, युग, प्रमाण, लक्षण और शनि । युग के भी ५ भेद हैं-चन्द्र, चन्द्र, अभिद्धित, चन्द्र और अभिवद्धित । Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ३६५ -.-.-.-.--.-.-.-... 'समवायांग' (६१११) में पंच वर्षात्मक युग के पाँच वर्षों के नाम दिये हैं-चन्द्र, चंद्र, अभिवद्धित, चन्द्र और अभिवद्धित । पाँच वर्ष के युग में ६१ ऋतुमास होते हैं । प्रश्नव्याकरण अंग में एक युग के दिन और पक्षों का भी निरूपण मिलता है। इन ग्रन्थों में ग्रहों और नक्षत्रों का गम्भीरता से विचार मिलता है। 'प्रश्नव्याकरण' अग (१०१५) में नक्षत्रों के तीन वर्ग बताये गये हैं—कुल, उपकुल और कुलोपकुल। यह विभाजन प्रत्येक माह की पूर्णमासी को होने वाले नक्षत्रों के आधार पर किया गया है । धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिर, पुष्य, मघा, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, मूल एवं उत्तराषाढा-ये १२ 'कुल' नक्षत्र हैं। श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहिणी, पुनर्वसु, आश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, ज्येष्ठा और पूर्वाषाढा-ये १२ 'उपकुल' नक्षत्र हैं। अभिजित्, शतभिष, आर्द्रा और अनु राधा ये ४ 'कुलोपकुल' संज्ञक नक्षत्र हैं । प्रत्येक मास की पूर्णिमा को पहला नक्षत्र कुल, दूसरा उपकुल और तीसरा कुलोपकुल कहलाता है। इस कथन से उस महीने का फलादेश बताया जाता है। 'समवायांग' (७५) में नक्षत्रों के दिशाद्वार बताये गये हैं। कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा ये ७ 'पूर्वद्वार'; मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति और विशाखा ये ७ 'दक्षिणद्वार'; अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, अभिजित् और श्रवण ये ७ 'पश्चिमद्वार' तथा धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी ये ७ 'उत्तरद्वार' वाले नक्षत्र हैं। 'स्थानांग' (८।१००) में कृत्तिका, रोहिणी, पुनर्वसु, मघा, चित्रा, विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा इन ८ नक्षत्रों को चन्द्र से स्पर्शयोग करने वाले बताये हैं। ग्रहों की संख्या ८८ मानी गई है। 'स्थानांग' और 'समवायांग' (८८१) में इनका उल्लेख है। 'प्रश्नव्याकरणांग' में नौ ग्रहों का विचार है-सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु (धूमकेतु)। 'समवायांग' (१॥३) में शुक्ल-कृष्णपक्ष और ग्रहण का कारण राहु को माना है। राहु के दो भेद बताये गये हैं-नित्यराहु और पर्वराहु । नित्य-राहु से चन्द्र को पकड़ने के कारण कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष तथा पर्वराहु से चंद्रग्रहण होता है। केतु का ध्वजदण्ड सूर्य के ध्वजदण्ड से ऊँचा है अतः भ्रमण करते हुए केतु के कारण सूर्यग्रहण होता है। 'समवायांग' (८८४) में दिन-वृद्धि और दिनह्रास की मीमांसा भी बतायी गयी है। आगमग्रंथों में फलित ज्योतिष सम्बन्धी स्थान और समय की शुद्धि, आदि का विचार भी मिलता है। आगम साहित्य तीर्थंकरों की वाणी का संग्रह है। उपलब्ध आगम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर की वाणी पर -आधारित है। पहले के तीर्थंकरों की वाणी 'दृष्टिवाद' के 'पूर्वो' में सन्निविष्ट थीं, जो अब अनुपलब्ध है। वर्तमान उपलब्ध आगमों में पूर्व प्रचलित प्राचीन मान्यताओं का भी अवश्य समावेश है। आगम साहित्य की पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में ज्योतिष सम्बन्धी आगम-ग्रन्थों की चर्चा करेंगे। निम्न 'अंगबाह्य' ग्रन्थों (सूत्रों) का इनमें समावेश होता है १. सूर्यप्रज्ञप्ति (सूरपण्णत्ति ई० पू० २०० वर्ष)-श्वेताम्बर परम्परा में इसकी गणना उपांगों में होती है। यह पाँचवां उपांग है, इसमें २० पाहुड (प्राभृत) और १०३ सूत्र हैं । इसमें सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, मास आदि की गतिविधियों के विषय में विस्तृत वर्णन मिलता है। साथ ही द्वीपों व सागरों का वर्णन दिया है। स्थानांग नामक अंग में प्रज्ञप्ति का उल्लेख है। इस ग्रन्थ का अत्यन्त महत्त्व है, क्योंकि इससे प्राचीन भारतीय ज्योतिष की की मान्यताओं का पता चलता है। इसमें पाँच वर्ष का युग मानकर सूर्य और चन्द्र का गणित किया गया है। सूर्य के उदय और अस्त के विचार के साथ इसमें दो सूर्य और दो चन्द्र का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। दोनों सूर्य एकान्तर से गति करते हैं, अतः हमें एक ही सूर्य दिखायी देता है। उत्तरायग में सूर्य लवणसमुद्र के बाहरी मार्ग Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 ४०० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड में सूर्य जम्बूद्वीप के भीतरी मार्ग नक्षत्रों के स्वभाव व गुण भी जम्बूद्वीप की ओर आता है, अतः दिनमान क्रमशः बढ़ता है, तथा दक्षिणायण से लवणसमुद्र की ओर क्रमशः गति करता है, अतः दिनमान घटता जाता है। बताये हैं । इससे आगे मुहूर्तशास्त्र विकसित हुआ । इसमें पंच पताका युग मानकर तिथि, नक्षत्रादि का विचार किया गया है । इस ग्रन्थ पर भद्रबाहु ने नियुक्ति और मलयगिर ने संस्कृत टीका लिखी है। इसका प्रकाशन सं० १९९९ मैं मलयगिरि की टीका सहित आगमोदय समिति बम्बई ने किया है। (२) चन्द्रप्रज्ञप्ति ( चंदपण्णत्ति ) - इसका भी उपांगों में समावेश है। यह सातवाँ उपांग है। इसका विषय भी सूर्यप्रज्ञप्ति के समान है। परन्तु अधिक महत्त्वपूर्ण है, इसमें २० प्राभृत हैं। इसमें चन्द्र की परिभ्रमण गति, विमान आदि का वर्णन है । चन्द्र की प्रतिदिन योजनात्मिका गति बतायी गयी है। इसमें १९वें प्राभृत में चन्द्रमा को स्वतः प्रकाशमान बताया गया है। इसके घटने-बढ़ने का कारण राहु ग्रह है । छाया-साधन और छाया-प्रमाण पर से दिनमान का ज्ञान बताया है। कीलकच्छाया व पुरुषच्छाया का विवेचन है। वस्तुओं की छाया का वर्णन भी है। इसी से आगे गणित, ज्योतिष का विकास हुआ। चौकसी ने सम्पादित कर सन् १९३८ में अहमदाबाद से प्रकाशित किया है। गोल, त्रिकोण और चौकोर यह ग्रन्थ प्रो० गोपानी और (३) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (अम्बुद्दीपयति ) - इसके दो भाग हैं—पूर्वार्ध और उत्तरा पहले भाग के ४ परि छेदों में जम्बूद्वीप और भरतक्षेत्र तथा उसके पर्वतों, नदियों आदि का एवं उत्सर्पिणीय अवसर्पिणी नामक काल विभाग का तथा कुलकरों, तीपंकरों, चक्रवतियों आदि का विवरण है। (४) गणिविद्या (गणिविक्जा) दस प्रकीर्णकों में आठवा गणिविज्जा है। इसमें ६२ गाथाएँ हैं जिसमें दिवस, तिथि, नक्षत्र, करण, ग्रह, मुहूर्त शकुन आदि का विचार किया है। इस दृष्टि से यह ज्योतिष की महत्वपूर्ण कृति है, इसमें लग्न और होरा का भी उल्लेख है । , (५) ज्योतिषकरंडक ( जोइसकरंडन) (६० ५० १०० ) - इसको भी प्रकीर्णक ग्रन्थों में ही शामिल किया जाता है। इसका प्रकाशन रतलाम से १९२८ में हो चुका है। मुद्रित प्रति में 'पूर्वभृद बालभ्य प्राचीनतराचार्य' कृत ऐसा उल्लेख होने से इसकी रचना अत्यन्त प्राचीन प्रमाणित होती है, इसमें ३७६ गाथाएँ हैं और भाषा जैन महाराष्ट्री प्राकृत है । इसमें उल्लेख है कि इसकी रचना सूर्यप्रज्ञप्ति के आधार पर संक्षेप में की गयी है । इस ग्रन्थ में २१ पाहुड हैं—कालप्रमाण, मान, अधिकमास निष्पत्ति, तिथि - निष्पत्ति, ओमरत्त (हीनरात्रि), नक्षत्रपरिमाण, चन्द्र-सूर्य परिमाण, नक्षत्र-चन्द्र-सूर्य-गति नक्षत्रयोग, मण्डलविभाग, अयन, आवृत्ति, मुहूर्तगति ऋतु विषुवत् (अहोरात्रसमत्व ), व्यतिपात, ताप, दिवसवृद्धि, अमावस - पौर्णमासी, प्रनष्टपर्व और पौरुषी । इसमें ग्रीक ज्योतिष से पूर्ववर्ती विष्यक काल के लन्न- सिद्धान्त का प्रतिपादन है। इससे यह ग्रीकों से पहले की प्रणाली निश्चित होती है। जैसे नक्षत्रों की विशिष्ट स्थिति 'राशि' कहलाती है वैसे ही इस ग्रन्थ में नक्षत्रों की विशिष्ट दशा को लग्न कहा गया है ।" भाषा व शैली से यह ग्रन्थ ई० पूर्व ३००-४०० वर्ष का है । 7 1 निशीचूर्ण ( १२ ) इसमें विवाहपटल' (विवाहपटल) जो विवाह के समय तथा 'अर्धकांड' (अग्धकांड), जो व्यापार में काम आता था, नामक ज्योतिष ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है । करणानुयोग साहित्य में दिगम्बर परम्परा में लोकविभाग, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का अन्तर्भाव किया जाता है। लोकविभाग – यह मूलग्रन्थ प्राकृत में रहा होगा, जो अनुपलब्ध है। इसका बाद में सिंहसूरि ने संस्कृत पचानुवाद किया था । सिंहसूरि की सूचना के अनुसार यह मूल ग्रन्थ कांची के राजा सिंहवर्मा के २२ वें संवत्सर (शक सं० ३८० ) में सर्वनंदिमुनि ने पांड्य राज्य के पाटलिक ग्राम में लिखा था कुन्दकुन्द ने नियमसार ( गाथा १७) में इसका . Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा उल्लेख किया है। सिंहसूरि के संस्कृत अनुवादित ग्रन्थ में २२३० गावाएं और ११ विभाग हैं, इसमें से एक ज्योति लॉक सम्बन्धी है। शेष भूगोल एवं खगोल सम्बन्धी हैं। इसमें तिलोयपणत्ति, त्रिलोकसार आदि का उल्लेख होने से इसका रचनकाल ११वीं शती के बाद का है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति (तिलोयपण्णत्ति ) - प्राकृत गाथाओं में यतिवृषभाचार्य द्वारा विरचित । इसमें ५६७७गाथाएँ और १ महाधिकार हैं— सामान्यलोक, नरकलोक, भवनवासीसोक, मनुष्यतोड, तिर्यकुलोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, देवलोक और सिद्धलोक । वीरसेनकृत धवलाटीका में इस ग्रन्थ का अनेकशः उल्लेख मिलता है । अत: इसका रचनाकाल ५०० से ८०० ई० के बीच प्रमाणित होता है । ज्योतिर्लोक में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारों की स्थिति, गति आदि का वर्णन है। त्रिलोकसार —- नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्तिकृत | इसमें १०१८ प्राकृत गाथाएँ हैं । यह अध्यायों में विभक्त नहीं है, परन्तु इसमें विषयों सम्बन्धी की गयी प्रारम्भिक प्रतिशा के अनुसार विषयों का विवेचन है, जिसमें लोक-सामान्य, 7 भवन व्यन्तर, ज्योतिष वैमानिक और नर -तियंक लोक का वर्णन है। वर्णन संक्षिप्त है। यह ११वीं शती की रचना है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - पद्मनन्दिकृत रचना है । इसमें २३८६ गाथाएँ हैं । इसमें १३ उद्देश्य हैं, जिनमें एक ज्योति -- लॉक है। शेष द्वीपों, खगोल, भूगोल सम्बन्धी हैं इसकी रचना पारियानदेशान्तर्गत वारा नगर में राजा संति या सत्ति के काल में हुई थी । पद्मनन्दि के गुरु बलिनंदि थे जो वीरनंदि के शिष्य थे । श्वेताम्बर परम्परा में इस विषय पर सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रशप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अतिरिक्त 'क्षेत्र समास' और 'संग्रहणी' नामक कृतियाँ मिलती हैं । इन दोनों के लेखक जिनभद्रगणी थे । परवर्ती विद्वानों और टीकाकारों ने इन दोनों ग्रन्थों के कई छोटे-बड़े संस्करण बना डाले हैं, इनमें जम्बूद्वीप, कालगणना आदि का वर्णन है । ४०१. धवला और जयधवला टीकाएँ- दक्षिण में आचार्य वीरसेन ई० ८वीं-हवीं शती के महान् दिगम्बर आचार्य हुए। उन्होंने धरसेनाचार्यकृत शौरसेनी प्राकृत के 'पट्खण्डागम' (कर्मप्राभृत) पर 'धवला' टीका ( रचना काल वि० सं० ८७३, ई० सन् ८१६) पाँच खण्डों में लिखी, इसमें ७२ हजार श्लोक हैं । इसके अतिरिक्त वीरसेन ने 'कषायपाहुड' पर २० हजार श्लोकों में व्याख्या लिखी किन्तु उनका स्वर्गवास हो जाने से यह अपूर्ण रह गयी । इसे उनके ही शिष् आचार्य जिनसेन ने ४० हजार श्लोक प्रमाण टीका और लिखकर पूर्ण किया कयायपाहुड' की रचना २३३ गाथाओं में आचार्य धरसेन के प्रायः समकालिक आचार्य गुणधर ने की थी । वीरसेन का जन्म वि० सं० हुआ था । I आचार्य वीरसेन के गुरु आर्यनन्दि थे वीरसेन के शिष्य आचार्य जिनसेन हुए और जिनसेन के शिष्य आचार्य गुणभद्र हुए। गुणभद्र ने उत्तरपुराण की रचना की । ७९५ (शक सं० ६६० ) और स्वर्गवास वि० सं०८८० (शक सं० ७४५ ) में गणित के अनेक नियमों को स्पष्ट किया है। अनेक सूत्रों का अर्थ और प्रयोजन गणित वीरसेनाचार्य अच्छे गणितज्ञ थे। उन्होंने अपनी टीकाओं में घरमा टीका में गणित सम्बन्धी विवेचन में परिकर्म का उल्लेख किया है। से स्पष्ट किया है। वीरसेनाचार्य का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और गणितीय सिद्धान्तों पर आधारित था। ज्योतिष के भी इन टीकाओं में बड़ी संख्याओं का उपयोग वर्णन, शलाका गणन, विरलन देय गुणन, अनन्तराशियों का कलन, राशियों के विश्लेषण हेतु अनेक विधियों आदि विषय दिये हैं। इनमें ज्योतिष सम्बन्धी विचार भी स्पष्ट किये गये हैं । 'धवला' टीका में १५ मुहूर्त बताये हैं- रौद्र, श्वेत, मंत्र, सारगड, दैत्य, वैरोचन, वैश्वदेव, अभिजित्, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य वरुण, अर्यमन और भागन 7 आचार्य वीरसेन के प्रायः समकालीन प्रसिद्ध गणित ज्योतिषाचार्य महावीर हुए, जो राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष 'पग' के सभासद थे। . Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .....-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.........................-.-.-.-.-.-. -. -. -. -. ज्योतिष-सम्बन्धी जैन ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार उमास्वामि (ई० प्रथम व द्वितीय शती)-इनके 'तत्त्वार्थसूत्र' ग्रन्थ में ज्योतिष-सम्बन्धी सिद्धान्तों का निरूपण है। चौथे अध्याय में ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक और तारों का वर्णन है। कालकाचार्य (ई. तीसरी शती)-जैन परम्परा में आचार्य कालक का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये ज्योतिष और निमित्त के ज्ञाता थे। प्राकृत में इनके द्वारा विरचित 'कालकसंहिता' नामक ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ बताया जाता है। यह अनुपलब्ध है । वराहमिहिर के 'वृहज्जातक' (१६३१) की 'उत्पल टीका' में इसके दो प्राकृत पद्य उद्धृत हैं । कालकसूरि का निमित्त ग्रन्थ भी था। ऋषिपुत्र (ई० ६५०)-ये गर्ग नामक आचार्य के पुत्र थे। ज्योतिष का ज्ञान इन्हें पिता से मिला था। ये वराहमिहिर के पूर्ववर्ती थे। इनका लिखा-'निमित्तशास्त्र' नामक गन्थ है। यह संहिता सम्बन्धी है। हरिभद्रसूरि (८वीं शती)- मुनि जिनविजयजी ने इनका काल सं० ७५८ से ८२७ प्रमाणित किया है (जैन साहित्य संशोधक, वर्ष १, अक १)। राजस्थान के जैन विद्वानों में इनका नाम अग्रणी है। ये चित्रकूट (चित्तौड़) के निवासी थे । जन्म से ये ब्राह्मण जाति के थे, बाद में साध्वी याकिनी महत्तरा से प्रतिबोधित होकर आचार्य जिनदत्तसूरि के पास दीक्षा ली। ये संस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड पण्डित हुए। आगम साहित्य के प्रथम टीकाकार के रूप में इनकी प्रसिद्धि है। इनके 'समराइच्चकहा' और 'धूख्यिान' प्राकृत के श्रेष्ठ कथा-ग्रन्थ हैं। इनका साहित्य बहुविध और विशाल है। ज्योतिष पर इन्होंने लग्गसुद्धि (लग्नशुद्धि) ग्रन्थ लिखा है। यह प्राकृत में है। इसे लग्नकुण्डलिका भी कहते हैं। इसमें १३३ गाथाएँ हैं। यह जातक या होरा सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें लग्न के फल, गोचर शुद्धि आदि का विवरण है। महावीराचार्य (८५० ई० के लगभग)-यह दक्षिण में कर्नाटक प्रदेश के निवासी दिगम्बर जैन विद्वान थे। इनको मान्यखेट के राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष प्रथम (७९३-८१४ ई०) का राज्यश्रय प्राप्त था। इस राजा के काल में जैन धर्म की उन्नति हुई । साहित्य, कला और विज्ञान के क्षेत्र में भी पर्याप्त प्रोत्साहन मिला। महावीराचार्य गणित और ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। इसके लिए उनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। महावीराचार्य की ज्योतिष पर ज्योतिषपटल तथा गणित पर गणितसारसंग्रह और षट्त्रिंशिका नामक कृतियाँ मिलती हैं । गणित और ज्योतिष का घनिष्ठ सम्बन्ध है। १. ज्योतिषपटल-इसमें ग्रह, नक्षत्र और तारों के संस्थान, गति, स्थिति संख्या के विषय में वर्णन है। यह कृति अपूर्ण मिलती है। सम्भवतः यह गणितसारसंग्रह पर आधारित है। २. गणितसारसंग्रह-इसमें 8 प्रकरण हैं—संज्ञाधिकार, परिकर्मव्यवहार, कला-सवर्ण व्यवहार, प्रकीर्णव्यवहार, पैराशिकव्यवहार, मिश्रव्यवहार, क्षेत्र-गणितव्यवहार, खातव्यवहार और छायाव्यवहार । आरम्भ में 'संज्ञाधिकार' में गणित को सब शास्त्रों में महत्त्वपूर्ण और उपयोगी बताया गया है। इसमें २४ अंक तक संख्याओं का उल्लेख है । लघुसमावर्तक का आविष्कार महावीराचार्य की महान् देन है। ३. षट्त्रिंशिका-यह लघु कृति है। इसमें बीजगणित के व्यवहार दिये हैं। श्रीधर (१०वीं शती)-यह कर्नाटक का निवासी था। प्रारम्भ में शैव ब्राह्मण था, परन्तु बाद में जैन धम अंगीकार कर लिया था। यह ज्योतिष और गणित का प्रकाण्ड पण्डित था। इसने संस्कृत में गणितसार और ज्योतिनिनिधि तथा कन्नड़ में जातकतिलक ग्रन्थों की रचना की थी। १. गणितसार-यह गणित का उत्तम ग्रन्थ है। इसमें अभिन्नगुणक, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल, समच्छेद आदि के साथ राशि-व्यवहार, छायाव्यवहार आदि गणितों का वर्णन है। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा २. ज्योतिर्ज्ञाननिधि - प्रारम्भिक ज्योतिष सम्बन्धी उपयोगी ग्रन्थ है । इसमें व्यवहारोपयोगी मुहूर्त भी दिये हैं । ३. जातकतिलक - यह कन्नड़ में होरा और जातक सम्बन्धी कृति है । इसमें लग्न, ग्रह, ग्रहयोग और जन्म-कुण्डली सम्बन्धी फलादेश बताये हैं। दक्षिण भारत में इस ग्रन्थ का बहुत प्रचार रहा। गणितसार पर उपकेशगच्छीय सिद्धसूरि की टीका भी है। I दुर्यदेव (१०३२६०) यह प्रसिद्ध दिगम्बर जैन विद्वान् थे इनके गुरु का नाम संयमदेव था। इनके तीन ग्रन्थ प्राप्त हैं १. रिट्ठसमुच्चय ( रिष्टसमुच्चय ) - इसकी भाषा मुख्यतया शौरसेनी प्राकृत है। इसे कुम्भनगर (कुम्भेरगढ़, भरतपुर, राजस्थान) में राजा लक्ष्मीनिवास के राज्यकाल में लिखा था। इसमें रिष्ट अर्थात् मरणसूचक लक्षणों का विचार है। यह सिपी जैन ग्रन्थमाला बम्बई से १९४५ ई० में प्रकाशित हो चुका है। शकुनों और शुभाशुभ निमित्तों का संग्रह है । २. अग्घकाण्ड (अर्घकाण्ड ) - यह प्राकृत में है । ज्योतिष ग्रन्थों में 'अर्ध' सम्बन्धी अध्याय मिलता है, परन्तु इस शीर्षक से केवल यही स्वतन्त्र ग्रन्थ मिलता है । ग्रहयोग के अनुसार किसी वस्तु के खरीदने या बेचने से लाभ होने का वर्णन है । ४०३ ३. वष्टिसंवत्सरफल - यह लघुकृति है इसमें साठ संवत्सरों के फल का वर्णन है। नरपति (११७५ ई० ) - यह धारा निवासी आम्रदेव के पुत्र थे । इसने अणहिल्लपुर के राजा अजयपाल के काल में सं० १२३२ (११७५ ई०) में आशापल्ली नामक स्थान में नरपतिजयचर्या ग्रन्थ की रचना की थी । इसमें मातृका आदि स्वरों के आधार पर शकुन देने की विधि दी है, इसमें यामलग्रन्थों का भी उल्लेख है । ++++ इस पर वि० १०वीं शती में खरतरगच्छीय हर्षनिधान के शिष्य पुण्यतिलक ने टीका लिखी है। अन्य जैनेतर हरिवंश की टीका भी मिलती है । नरचन्द्रसूरि (१२२३ ई० ) – यह मलधारीगच्छ के आचार्य देवप्रभसूरि के शिष्य थे। इनका ज्योतिष पर ज्योतिस्तार ग्रन्थ प्राप्त है । ज्योतिस्सार — इसे 'नारचन्द्र ज्योतिष' भी कहते हैं । इसकी रचना सं० १२८० (१२२३ ई०) में हुई । तिथि, वार, नक्षत्र, योग, राशि, चन्द्र, तारकाबल, भद्रा, कुलिक, उपकुलिक, कंटक, अर्थप्रहर, कालवेला आदि ४८ विषयों का विवेचन है । इस पर सागरचन्द्र मुनि ने 'टिप्पण' लिखा है । उदयप्रभदेवसूरि (१२२३ ई० ) - यह नागेन्द्रगच्छीय (आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य थे । उदयप्रभदेवसूरि के मल्लिषेणसूरि और जिनप्रभसूरि शिष्य थे । ज्योतिष पर इनका आरम्भसिद्धि ग्रन्थ है । -- आरम्भसिद्धि इसे व्यवहारचर्या' और 'पंच' भी कहते हैं। इसका रचनाकाल सं० १२०० (१२२३ ई० ) है । संस्कृत पद्यों में मुहूर्त सम्बन्धी उत्तम ग्रन्थ है । इसमें पाँच 'विमर्श' और ११ 'द्वार' हैं । इसमें प्रत्येक कार्य के शुभाशुभ मुहतों का वर्णन है। इस पर आचार्य रत्नशेखरसूरि के शिष्य हेमहंसगणि ने सं० १५१४ में सुधी शृंगार' नामक वार्तिक लिखा है । पद्मप्रभसूर (१२३७ ई० ) - यह नागपुरीय तपागच्छ के संस्थापक और वादिदेवसूरि के शिष्य थे। इनका निवास स्थान राजस्थान था । इन्होंने ज्योतिष पर भुवनदीपक ग्रन्थ लिखा है । - भुवनदीपक इसे प्रभावप्रकाश' भी कहते हैं। इसका रचनाकाल सं० १२९४ (१२३७ ई०) है। छोटा होने पर भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें ज्योतिष के अनेक विषय दिये हैं । इस पर सिंहतिलकसूरिकृत 'भुवनदीपकवृत्ति', मुनि हेमतिलक कृत 'भुवनदीपककृत्ति', जैनेतर दैवज्ञशिरोमणिकृत 'भुवनदीपकवृत्ति' टीकाएँ प्राप्त हैं । . Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ४०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्य : पंचम खण्ड -.-..-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-................................ जामताह देमप्रभसरि (१२४८ ई०)--यह देवेन्द्रसूरि के शिष्य थे। इन्होंने ताजिक ज्योतिष पर त्रलोक्य प्रकाश नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसका रचनाकाल सं० १३०५ (१२४८ ई०) है। इसमें मुस्लिम लग्नशास्त्र का वणन है। ज्योतिष-योगों से शुभाशुभ फल बताये हैं। इनका दूसरा ग्रन्थ मेघशाला है। यह निमित्त सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसका रचनाकाल भी सं० १३०५ के लगभग है। . नरचन्द्र उपाध्याय (१२६६ ई०)- यह कासहृद्गच्छ के उद्योतनसूरि के शिष्य सिंहसूरि के शिष्य थे। देवानन्दसूरि इनके विद्यागुरु थे । ज्योतिष पर इनके अनेक ग्रन्थ और उन पर टीकाएँ लिखी मिलती हैं १. जन्मसमुद्र--(रचनाकाल सं० १३२३=१२६६ ई०) यह जातक सम्बन्धी ग्रन्थ है । इसमें ८ 'कल्लोल' हैं। २. बेड़ाजातकवृत्ति-'जन्मसमुद्र' पर स्वरचित टीका है। रचना समय सं० १३२४ माघ शुक्ल अष्टमी रविवार दिया है। ३. प्रश्नशतक-(रचनाकाल सं० १३२४) इसमें लगभग सौ प्रश्नों का समाधान किया गया है। ४. प्रश्नशतक अवचरि-उपर्युक्त पर स्वोपज्ञ टीका है। ५. ज्ञानचविशिका-(रचनाकाल सं० १३२५) इस छोटी कृति में लग्नानयन, पुत्रपुत्री-ज्ञान, जयपृच्छा आदि विषय हैं। ६. ज्ञानचतुविशिका-उपर्युक्त पर टीका है। ७. ज्ञानदीपिका-(रचना सं० १३२५) ८. लग्नविचार-(रचना सं० १३२५) ९. ज्योतिषप्रकाश-(रचना सं० १३२५) फलित ज्योतिष सम्बन्धी । १०. चतुर्विशिकोद्धार-(रचना सं० १३२५) प्रश्न-लग्न सम्बन्धी। ११. चतुर्विशिकोद्धार-अवचूरि-उपयुक्त पर स्वोपज्ञ भवचूरि। ठक्कूर फेरू (१३वीं-१४वीं शती) यह राजस्थान के कन्नाणा ग्राम के श्वेताम्बर श्रावक श्रीमालवंशीय चंद्र के पुत्र थे। इनको दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने अपना कोषाधिकारी (खजांची) नियुक्त किया था। इनके ८ ग्रन्थ मिलते हैं । 'युगप्रधानचतुष्पदिका' (रचना सं० १३४७=१२६० ई.) अपभ्रंशमिश्रित लोकभाषा में है। शेष कृतियाँ प्राकृत में हैं । इनकी गणित पर गणितसारकौमुदी और ज्योतिष पर ज्योतिस्सार ग्रन्थ हैं। १. गणितसारकौमुदी-यह महावीराचार्य के गणितसारसंग्रह और भास्कराचार्य के लीलावती पर आधारित है। २. ज्योतिस्सार (रचना सं० १३७२=१३१५ ई०) इसमें चार 'द्वार' हैं-दिन-शुद्धिद्वार, व्यवहारद्वार, गणितद्वार, लग्नद्वार । इसमें पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों का उल्लेख है। अहंदास (१३०० ई.)-यह 'अट्ठकवि' के नाम से प्रसिद्ध है। यह कर्नाटक निवासी थे। इन्होंने कन्नड़ में ज्योतिष पर अट्ठमत नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है। इसमें वर्षा के चिह्न, आकस्मिक लक्षण, शकुन, वायुचक्र, गृहप्रवेश, भूकम्प आदि विषयों का निरूपण है । इनका काल १३०० ई० के लगभग है। भास्कर कवि ने शाके १४वीं शती में इसका तेलुगु में अनुवाद किया था। महेन्द्रसूरि (१३७० ई०)-यह आचार्य मदनसूरि के शिष्य थे। यह दिल्ली के फिरोजशाह तुगलक के सभापण्डित थे। 'यन्त्रराज' इनकी ग्रहगणित पर अच्छी कृति है। रचनाकाल शक सं० १२९२ (१३७० ई.) है। इसमें विभिन्न यन्त्रों की सहायता से सभी ग्रहों का साधन बताया है। इनके ही शिष्य मलयेन्दुसूरि ने इस पर टीका लिखी है। Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष: प्रगति और परम्परा ४०५ . -. -. - . ............................................... ..... गुणाकरसूरि (१५वीं शती)-इनका जातक सम्बन्धी होरामकरन्द ग्रन्थ मिलता है । इसमें ३१ अध्याय हैं। रत्नशेखरसूरि (१५वीं शती)- इन्होंने प्राकृत में दिनसुदि (दिनशुद्धि) नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा है। मेघरत्न (१४६३ ई०) यह वडगच्छीय विनयसुन्दरसूरि के शिष्य थे। इन्होंने सं० १५५० के लगभग उस्तरलावयंत्र नामक ज्योतिषग्रन्थ लिखा है। इस पर संस्कृत में स्वोपज्ञ टीका है। मुनि भक्तिलाभ (१५१४ ई०)-यह खरतरगच्छीय मुनिरत्नचन्द्र के शिष्य थे। इन्होंने वाराहमिहिर के 'लघुजातक' पर सं० १५७१ (१५१४ ई.) में विक्रमपुर (बीकानेर) में टीका लिखी है। साधुराज (१६वीं शती)—यह खरतरगच्छीय साधु थे। इन्होंने ज्योतिषचतुविशिका-टीका लिखी है। मुनि मतिसागर (१६वीं शती)-इन्होंने सं० १६०२ (१५४५ ई०) में वराहमिहिर 'लघुजातक' पर भाषा में 'वचनिका' लिखी है। इन्होंने इस पर बार्तिक भी लिखा है। हीरकलश (१५६४ ई०-१६०० ई०) यह खतरगच्छीय हर्षप्रभ के शिष्य थे। मारवाड़ क्षेत्र (जोधपुरबीकानेर) के निवासी थे, ज्योतिष पर इनके दो ग्रन्थ हैं (१) जोइससार (ज्योतिषसार)-यह प्राकृत में है। रचना सं० १६२१ (१५६४ ई०) नागौर । (२) हीरकलश जोइसहीर-रचना सं० १६५७ (१६०० ई०) राजस्थानी में पद्यों में लिखा गया है। कृपाविजय (१५७८ ई०) यह तपागच्छीय मुनि थे। इन्होंने शक सं० १५०० में मोढ़ दिनकर कृत 'चन्द्रार्की पर टीका लिखी है। विनयकुशल (१५६५ ई०)-यह आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य थे। इन्होंने सं० १६५२ (१५९५ ई०) में प्राकृत में खगोल-ज्योतिष सम्बन्धी मंडलप्रकरण ग्रन्थ लिखा है। इस पर स्वयं लेखक ने सं० १६५२ में स्वोपज्ञटीका लिखी है। मुनिसुन्दर (१५९८ ई०) यह रुद्रपल्लीगच्छीय जिनसुन्दरसूरि के शिष्य थे। इन्होंने सं० १६५५ (१५९८ ई.) ज्योतिष गणित पर करणराज या करणराजगणित लिखा है। इसमें १० अध्याय हैं। __हर्षकीतिसूरि (१६०३ ई०)-यह नागोरी तपगच्छीय आचार्य चन्द्रकीर्तिसूरि के शिष्य थे। राजस्थान के निवासी थे। व्याकरण, ज्योतिष, वैद्यक, छन्द और कोष के अच्छे विद्वान् थे। ज्योतिष पर इनके तीन ग्रन्थ हैं (१) ज्योतिस्सारसंग्रह (ज्योतिषसारोद्धार)-रचना सं० १६६०=१६०३ ई. (२) जन्मपत्रीपद्धति (३) विवाहपडल-बालावबोध । जयरत्नगणि (१६०५ ई०)-यह पूर्णिमाक्ष के आचार्य भावरत्न के शिष्य थे। इन्होंने त्र्यंबावती (खंभात गुजरात) में सं० १६६२ (१६०५ ई०) में 'वरपराजय' नामक वैद्यक ग्रन्थ तथा ज्योतिष पर दोषरत्नावली य ज्ञानरत्नावली ग्रन्थ की रचना की थी। श्रीसारोपाध्याय (१७वीं शती)-इनका ज्योतिष पर जन्मपत्रीविचार नामक ग्रन्थ मिलता है। समयसुन्दर (१६२८ ई०)-उपाध्याय समय सुन्दर ने लूणकरणसर (बीकानेर) में अपने प्रशिष्य वाचक जयकीर्ति के सहयोग से सं० १६८५ (१६२८ ई०) में ज्योतिष पर दीक्षाप्रतिष्ठाशुद्धि ग्रन्थ लिखा है। इसमें १२ अध्याय हैं। कीर्तिवर्धन या केशव (१७वीं शती)-यह आद्यपक्षीय मुनि दयारत्न के शिष्य थे। इन्होंने मेड़ता में जन्मप्रकाशिका ज्योतिष की रचना की है। लाभोदय (१७वीं शती)-यह उपाध्याय भुवनकीर्ति के शिष्य थे। इनका ज्योतिष पर बलिरामानन्दसार संग्रह ग्रन्थ है । यह संग्रहकृति है। . Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड 0. ... ............. .................................................. सुमतिहर्ष (१६१६ ई०)-यह अंचलगच्छीय हर्षरत्नमुनि के शिष्य थे। ज्योतिष पर इनके ५ (पाँच) ग्रन्थ हैं (१) जातकपद्धति-टोका-श्रीपतिकृत 'जातक पद्धति' पर टीका । रचना सं० १६७३ । (२) ताजिकसार-टीका-हरिभट्ट (हरिभद्र) कृत 'ताजिकसार' पर टीका । रचना सं० १६७७ । (३) करणकुतूहल-टीका-भास्कराचार्यकृत करणकुतूहल' पर टीका। रचना सं० १६६७ । (४) होरामकरन्द-टीका-रचना सं० १६७० । (५) बृहत्पर्वमाला-मौलिक ग्रन्थ है। धनराज (१६३५ ई०)-यह अंचलगच्छीय मुनि भोजराज के शिष्य थे। इन्होंने सं० १६६२ (१६३५ ई.) में पद्मावतीपतन में महादेवकृत 'महादेव-सारणी' पर दीपिका-टीका लिखी है। भावरत्न या भावप्रभसूरि (१६५५ ई०)- यह पूर्णिमागच्छ के मुनि थे। इन्होंने व्यंबावती में 'ज्योतिर्विदाभरण' पर स० १७१२ (१६५५ ई०) में 'सुबोधिनी-वृत्ति, नामक टीका लिखी है। महिमोदय (१६६४ ई०) यह खरतरगच्छीय मतिहंस के शिष्य थे। ये गणित एवं फलित ज्योतिष के प्रकाण्ड पण्डित थे। ज्योतिष पर इनके निम्न ग्रन्थ मिलते हैं (१) ज्योतिषरत्नाकर (रचना सं० १७२२=१६६५ ई.)-यह फलित ज्योतिष का ग्रन्थ है। (२) जन्मपत्रीपद्धति (रचना सं० १७२१=१६६४ ई०)। (३) गणित साठ सौ (रचना सं० १७३३) गणित विषयक ग्रन्थ । (४) षट्पंचाशिका-टीका-वराहमिहिर के पुत्र पृथुयश कृत 'षट्पंचाशिका' पर टीका। (५) खेटसिद्धि (६) पंचागानयनविधि (रचना सं० १७२२) (७) प्रेमज्योतिष यशोविजयगणि (१६७३ ई०)-नयनविजयगणि के शिष्य उपाध्याय यशोविजयगणि ने सं० १७३० (१६७३ ई०) में फलाफलविषयक-प्रश्नपत्र नामक ज्योतिष पर छोटा-सा ग्रन्थ लिखा था। इसमें चार 'चक्र' हैं और प्रत्येक चक्र में सात 'कोष्ठक' हैं। मेघविजयगणि (१६८० ई०)-ये तपागच्छीय साधु थे। मारवाड़ क्षेत्र (राजस्थान) के निवासी थे। 'विज्ञप्ति' की रचना सं० १७३७ (१६८० ई०) में सादड़ी में की थी। ज्योतिष पर इनके निम्न ग्रन्थ मिलते हैं (१) वर्षप्रबोध-इसमें १५ अधिकार और ३५ प्रकरण हैं। इसे मेघमहोदय भी कहते हैं। (रचना सं० १७३२ से पूर्व)। (२) उदयदीपिका (रचना सं० १७५२)। (३) प्रश्न सुन्दरी (रचना सं० १७५५) । (४) हस्तसंजीवन (रचना सं० १७३५)। (५) रमलशास्त्र (रचना सं० १७३५) । (६) प्रश्नसुन्दरी। (७) वीशायंत्रविधि । उभयकुशल (१६८० ई.)-इनका अन्य नाम 'अभयकुशल' है । यह खरतरगच्छीय मुनि पुण्यहर्ष के शिष्य थे। मुहूर्त और जातक के अच्छे विद्वान् थे। ज्योतिष पर इनके दो ग्रन्थ हैं (१) विवाहपटल-इसमें नक्षत्र, नाडीवेधयंत्र, राशिस्वामी, ग्रहशुद्धि, विवाहनक्षत्र, चन्द्र-सूर्य-स्पष्टीकरण, एकार्गल, गोधूलिका फल आदि का वर्णन है। (२) चमत्कारचिंतामणि-टीका-राजर्षिभट्ट कृत 'चमत्कारचिंतामणि' पर टीका। रचना सं० १७३७ । लाभवर्द्धन (लालचंद) (सं० १६३६ ई.)-यह खरतरगच्छीय जैनयति थे और शांतिहर्ष के शिष्य थे। इनका मूल नाम लालचंद था। इन्होंने सं० १७३६ (१६८२ ई०) में बीकानेर में लीलावती गणित-भाषा, सं० १७३६ (१६७६ ई०) में गूढ़ा में अंकप्रस्तार नामक गणित सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे। सं० १७५३ में स्वरोदयभाषा और सं० १७७० में शकुनशास्त्र पर शकुनदीपिका चौपई लिखी । इनके भाषा काव्य सम्बन्धी अन्य ग्रन्थ भी प्राप्त हैं। Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ४०७ . ........... . ................ ............ . .... . .. .. . ... . . . . ..... लक्ष्मीवल्लभ उपाध्याय (१६८४ ई.)--ये खरतरगच्छीय लक्ष्मीकीति के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७४१ में शंभुनाथकृत 'कालज्ञान' का पद्यमय भाषानुवाद कालज्ञानभाषा किया है। ज्ञानभूषण (१६९३ ई०)- इन्होंने सं० १७५० (१६६३ ई.) में ज्योतिष पर ज्योतिप्रकाश ग्रन्थ लिखा है। दूसरा ग्रन्थ खेटचूला है। यह भी ज्योतिष पर है। लब्धिचंद्रगणि (१६६४ ई०)-यह खरतरगच्छीय मुनि कल्याणनिधान के शिष्य थे। इनके ज्योतिष पर दो ग्रन्थ हैं१. जन्मपत्रीपद्धति-रचना सं० १७५१ २. लालचन्दीयपद्धति-जातक सम्बन्धी ग्रन्थ है। यशस्वतसागर (१७०३ ई.)-इनका अन्य नाम जसवंतसागर था। यह चारित्रसागर के शिष्य कल्याणसागर के शिष्य थे। ये राजस्थान के निवासी थे । ज्योतिष, न्याय, व्याकरण और दर्शन के विद्वान थे । ज्योतिष पर इनके ये ग्रन्थ हैं (१) ग्रहलाघव-वातिक-रचना सं० १७६० (१७०३ ई०) है। गणेशकृत 'ग्रहलाघव' का टीका। (२) यशोराजीपद्धति-रचना सं० १७६२ (१७०५ ई०)। यह जन्मकुण्डली सम्बन्धी व्यावहारिक ग्रन्थ है। लक्ष्मीचंद (१७०३ ई०)-यह पार्श्वचंद्रगच्छीय जगच्चद्र के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७६० (१७०३ ई०) में ज्योतिष पर गणसारणी ग्रन्थ लिखा है। इसमें तिथि, नक्षत्र आदि की गणनाएँ दी हैं। जयधर्म (१७०५) ई०-यह जैन यति पं० लक्ष्मीचंद के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७६२ (१७०५ ई.) में पानीपत में हिन्दी पद्यों में शकुनप्रदीप की रचना की है। लक्ष्मी विनय (१७१० ई०)-यह खरतरगच्छीय अभयमाणिक्य के शिष्य थे। इन्होंने पद्मप्रभसूरिकृत भवनदीपक पर सं० १७६७ (१७१० ई०) में बालावबोध टीका लिखी है। लक्ष्मीविजय (१७१० ई०)--यह खरतरगच्छीय मुनि थे। इन्होंने हरिभद्र कृत 'भुवनदीपक' पर सं० १७६७ (१७१० ई०) में टीका लिखी है। बाघजी मुनि (१७२६ ई.)-यह पार्श्वचंद्रगच्छीय शाखा के जैन यति थे। इनका काल सं० १७८३ (१७२६ ई०) है। इनके ज्योतिष पर तिथिसारणी आदि तीन-चार ग्रन्थ मिलते हैं । लब्धोदय (१८वीं शती)--यह खरतरगच्छीय ज्ञानराज के शिष्य थे । इन्होंने होरावबोध लिखा है। रत्नजय (१८वीं शती)—यह खरतरगच्छीय रत्नराजगणि के शिष्य थे। इन्होंने जन्मपत्रीपद्धति ग्रन्थ लिखा है। पुण्यतिलक (१८वीं शती)-यह खरतरगच्छीय हर्षनिधान के शिष्य थे। ज्योतिष पर इन्होंने ग्रहायुः ग्रन्थ लिखा है। 'नरपतिजयचर्या' (निमित्तग्रन्थ) पर टीका भी लिखी है। जिनोदयसरि (१८वीं शती)--यह बेगड़गच्छीय जिनोदयसूरि के शिष्य थे। इन्होंने उदयविलास नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा है। जिनोवयसरि (१८वीं शती)-यह खरतरगच्छीय मुनि थे । इन्होंने १५० श्लोकों में विवाह रत्न की रचना की है। मुनि अमर (१८वीं शती)-यह खरतरगच्छीय मुनि सोमसुन्दर के शिष्य थे। इन्होंने विवाहपटल पर बालावबोध टीका लिखी है। रामविजय उपाध्याय (१७४४ ई०)-यह खरतरगच्छीय दयासिंह के शिष्य थे। इन्होंने सं० १८०१ .(१७४४ ई०) में मुहर्तमणिमाला की रचना की है । विवाहपटल पर भी भाषा टीका लिखी है। Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड रत्नधीर ( १७४६ ई० ) - यह खरतरगच्छीय मुनि ज्ञानसागर के शिष्य थे। इन्होंने पद्मप्रभसूरिकृत 'भुवनदीपक'' पर सं० १८०६ (१७४६ ई०) में बालावबोध लिखा है । मुनि मेघ ( १७६० ई० ) – यह उत्तराधगच्छ के मुनि जटमल शिष्य परमानन्द शिष्य सदानन्द शिष्य नारायण शिष्य नरोतम शिष्य मयाराम के शिष्य थे। इनका निवासस्थान फगवाड़ा (पटियाला स्टेट, पंजाब) था यह ज्योतिष और वैद्यक के विद्वान् थे। वैद्यक पर मेघविनोद ग्रन्थ मिलता है । ज्योतिष पर मेघमाला नामक ग्रन्थ लिखा है । इसकी रचना फगवाड़ा में चौधरी चाहड़मल के काल में सं० १८१७ को हुई थी। यह वर्षा - ज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थ है । यति रामचन्द (१७६० ई०) वह खरतरगच्छीय मुनि थे। इनका क्षेत्र नागौर (राजस्थान ) था इन्होंने शकुनशास्त्र पर अवयादी शकुनावली नामक ग्रन्थ सं० १८१७ में लिखा था । भूधरदास (१७७० ई० ) – यह खरतरगच्छीय जिनसागरसूरि शाखा के रंगवल्लभ के शिष्य थे। इन्होंने भौधरी ग्रहसारणी नामक ज्योतिष ग्रन्थ सं० १८२७ में रचा । मुनि मतिसागर इनका नाम मतिसार भी है। राज भट्ट कुत चमत्कार चितामणि पर इन्होंने सं० १०२७ में फरीदकोट में टबा की रचना की है। - मुनि विद्याम (१७७३ ई० ) – यह खरतरगच्छीय मुनि थे। इन्होंने विवाहपटल पर सं० १५३० में अर्थ नामक टीका लिखी है। मुनि खुशालसुन्दर (१७०२ ६० ) - इन्होंने वराहमिहिर के लघुजातक पर स्तबक सं० १८३६ में लिखा है। सतीदास (११वीं शती) - यह जनयति थे। इन्होंने सुधासिंह के काल में शुकनावली (शकुनाचली) ग्रन्थ पद्यमय भाषा में लिखा है । चिदानन्द (यूरचंद (१८५० ई० ) - यह खरतरगच्छीय पति मुनालाल के शिष्य थे। इन्होंने पालीताणा (गुजरात) में सं० १६०७ में पद्यों में स्वरोदयभाषा की रचना की है । निमित्त प्रत्य सिद्धपाहुड (सिद्धप्राभृत) - यह ग्रन्थ अप्राप्त है । इसमें अंजन, पादलेप, गुटिका आदि का वर्णन था । जयपाहुड (जयप्राभृत) — अज्ञातकर्तृ के । यह निमित्तशास्त्र सम्बन्धी है । यह जिनभाषित है । इसमें अतीत, अनागत सम्बन्धी नष्ट, मुष्टि, चिंता, विकल्प आदि के लाभालाभ का ३७८ गाथाओं में विचार है। यह १०वीं शती के पहले की रचना है । निमित्तपाड (निमित्तप्राभूत) — इसमें ज्योतिष व स्वप्न आदि निमित्तों का वर्णन है। इसका आचार्य भई स्वर ने 'कहावली' में उल्लेख किया है । जोणिपाहुड ( यौनिप्राभृत) - यह निमित्तशास्त्र का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसे दिगम्बर आचार्य धरसेन ( प्रज्ञाश्रमण मुनि) ने अपने शिष्य पुष्पदंत और भूतबलि के लिए लिखा है। इसमें ज्वर, भूत, शाकिनी आदि को दूर करने के विधान दिये हैं । इसे सब विद्याओं और धातुवाद का मूल तथा आयुर्वेद का सार रूप माना है। इसमें एक जगह लिखा है कि प्रज्ञाश्रमणमुनि ने संक्षेप में 'बालतंत्र' भी लिखा है। पहावगारग ( प्रश्नव्याकरण ) - यह दसवें अंग आगम से भिन्न निमित्त सम्बन्धी प्राकृत ग्रन्थ है । इसमें निमित्त का सांगोपांग वर्णन है। इस पर ३ टीकाएँ हैं। श्वानशकुनाध्याय अज्ञातक के संस्कृत में २२ पद्यों में रचित है। इसमें कुत्ते की गतियों और चेष्टाओं से शुभाशुभ फल बताये हैं। . Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ४०६. .......................................................................... साणरुय (श्वानरुत)-अज्ञातकर्तृक । इसमें कुत्ते की विभिन्न आवाजों के आधार पर गमन-आगमन, जीवित-मरण आदि का वर्णन है। सिद्धादेश-अज्ञातकर्तृक । इसमें वर्षा, वायु, विद्युत के शुभाशुभ फल दिये हैं । उपस्सुइदार (उपश्रुतिद्वार)-अज्ञातकर्तृक । इसमें सुने शब्दों के आधार पर शुभाशुभ फल दिये हैं। छायादार (छायाद्वार)-अज्ञातकर्तृक । छाया के आधार पर शुभाशुभ फल दिये हैं। नाडीदार (नाडीद्वार)-अज्ञातकर्तृक । इडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के विषय में वर्णन है। निमित्तदार (निमित्तद्वार)—अज्ञातकर्तृक । निमित्तों का वर्णन है। रिट्ठदार (रिष्टद्वार)-अज्ञातकर्तृक । जीवन-मरण का फलादेश है। पिपीलियानाण (पिपीलिकाज्ञान)-अज्ञातकर्तृक । चींटियों की गति देखकर शुभाशुभ फल बताये हैं। प्रणष्टलाभादि-अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में । गतवस्तुलाभ, बन्ध-मुक्ति, रोग, जीवन-मरण का विचार है। नाडीविज्ञान-अज्ञातकर्तृक । संस्कृत में । नाडियों की गति से शुभाशुभ फल दिये हैं। नाडी वियार (नाडीविचार)-अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में। कार्यानुसार दायी या बायीं नाड़ी के शुभाशुभ फल बताये हैं। मेघमाला-अज्ञातकर्तक । प्राकृत में । नक्षत्रों के आधार पर वर्षा के चिह्नों और उनके शुभाशुभ फल बताये हैं। छींकविचार-अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में। छींक के शुभाशुभ फल दिये हैं। लोकविजयतंत्र—अज्ञातकर्तृ क । प्राकृत में । सुभिक्ष और दुर्भिक्ष का विचार है । ध्रुवों के आधार पर शुभाशुभ फल दिये हैं। सुविणवार(स्वप्नद्वार)—अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में । स्वप्नों के शुभाशुभ फल दिये हैं। सुमिणसत्तरिया (स्वप्नसप्ततिका)-अज्ञातकर्तृक । प्राकृत में । स्वप्न के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। इस पर जैसलमेर में सं० १२८७ (१२३० ई०) में खरतरगच्छीय सर्वदेवसूरि ने वृत्ति की रचना की है। जिनपालगणि-इन्होंने सुविणविचार नामक स्वप्नशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थ ८७५ गाथाओं में लिखा है। जगदेव (११वीं शती) यह गुजरात के राजा कुमारपाल के मंत्री दुर्लभराज का पुत्र था। पिता-पुत्र को इस राजा का आश्रय प्राप्त था। इनका स्वप्नशास्त्र ग्रन्थ है। वर्धमानसरि-यह रुद्रपल्लीय गच्छ के मुनि थे । इन्होंने स्वप्नों के सम्बन्ध में स्वप्नप्रदीप या स्वप्नविचार ग्रन्थ लिखा है। इसमें ४ 'उद्योत' हैं-दैवतस्वप्न, द्वासप्ततिमहास्वप्न, शुभस्वप्न, अशुभस्वप्न । वर्धमानसूरि (११वीं शती)—यह आचार्य अभयदेवसूरि (सं० ११२०) के शिष्य थे। इनका शकुनशास्त्र पर शकुनरत्नावलि-कथाकोश नामक ग्रन्थ है। आचार्य हेमचन्द्रसूरि (१२वीं शती)- इनका शकुन सम्बन्धी शकुनावलि ग्रन्थ प्राप्त है । जिनदत्तसूरि (१२१३ ई०)-वायडगच्छीय जैन मुनि थे, इन्होंने सं० १२७० में विवेकविलास की रचना की थी। शकुनशास्त्र पर इन्होंने शकुनरहस्य संस्कृत पद्यों में ग्रन्थ लिखा है । इसमें प्रस्ताव हैं। माणिक्यसूरि (१२८१ ई०)-इन्होंने सं० १३३८ में शकुनशास्त्र या शकुनसारोद्धार ग्रन्थ लिखा है। पार्श्वचन्द-ये आचार्य चंद्रसूरि के शिष्य थे। इन्होंने निमित्तशास्त्र पर हस्तकांड ग्रन्थ की रचना की है। इसमें सौ पद्य हैं। सउणदार (शकुनद्वार)—अज्ञातकर्तृक । Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-... . शकुनविचार (दोहा)-अपभ्रंश में। इसमें किसी पशु के दायें या बायें होकर निकलने के शुभाशुभ फल दिये हैं। सामुद्रिक-ग्रन्थ अंगविज्जा (अंगविद्या) (३री-४थी शती)-अज्ञातकर्तृक रचना है। पिंडनियुक्ति टीका आदि प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख है। इसमें शरीर के विभिन्न लक्षणों और चेष्टाओं के द्वारा शुभाशुभ फलों का विचार किया गया है। इसके अनुसार अग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, छींक, भौम और अन्तरिक्ष-ये आठ महानिमित्त के आधार हैं । इनके द्वारा भूत-भविष्य का ज्ञान होता है। इसमें ६० अध्याय हैं । इसकी भाषा गद्य-पद्य मिश्रित प्राकृत है। करलक्खण (करलक्षण)-अज्ञातकर्तृक । इसे सामुद्रिक शास्त्र भी कहते हैं। इसमें हस्तरेखाओं का महत्त्व बताया है। मनुष्य की परीक्षा कर 'व्रत' देने का स्पष्टीकरण मिलता है। दुर्लभराज (११वीं शती)-यह गुजराज के सोलंकी राजा भीमदेव के मंत्री थे। इन्होंने ४ ग्रन्थ लिखे हैं - १. गजप्रबंध (गजपरीक्षा), २. तुरंगप्रबंध, ३. पुरुष-स्त्री-लक्षण (समुद्रतिलक), ४. शकुनशास्त्र। समुद्रतिलक-इसमें ५ अधिकार हैं । इसमें पुरुष व स्त्री के लक्षणों का वर्णन है । इस ग्रन्थ को दुर्लभराज के पुत्र जगदेव ने पूरा किया था। सामुद्रिक-अज्ञातकर्तृक । संस्कृत में । हस्तरेखाओं और शारीरिक संरचना के आधार पर शुभाशुभ फल बताये हैं। सामुद्रिकशास्त्र-अज्ञातकर्तृक । इसमें ३ अध्याय हैं । पहले में हस्तरेखाओं का, दूसरे में शरीरावयवों का और तीसरे में स्त्री-लक्षणों का वर्णन है। अंगविद्याशास्त्र-अज्ञातकर्तृक । इसमें ४४ श्लोकों में अशुभस्वप्नदर्शन, पुसंज्ञक अंग, स्त्री-संज्ञक अंग आदि का वर्णन है। रामचन्द्र (१६६५ ई०)- यह खरतरगच्छीय जिनसिंहसूरि के शिष्य पद्मकीर्ति के शिष्य पद्मरंग के शिष्य थे। यह वैद्यक और ज्योतिष के विद्वान् थे। इन्होंने मेहरा (पंजाब) में सं० १७२२ में सामुद्रिक भाषा नामक पद्यमय भाषा ग्रन्थ लिखा है। इनके वैद्यक पर वैद्यविनोद (सं० १७२६, मरोट) और रामविनोद (सं० १७२०, सक्कीनगर) ग्रन्थ हैं। नगराज (१८वीं शती)- यह खरतरगच्छीय जैनयति थे। इन्होंने अजयराज के लिए सामुद्रिक-भाषा की १८८ पद्यों में रचना की, इसमें स्त्री व पुरुष के शुभाशुभ लक्षण बताये हैं । लक्षण-शास्त्र पर निम्न ग्रन्थ भी हैंलक्षणमाला-आचार्य जिनभद्रसूरिकृत। लक्षण-अज्ञातकर्तृक । लक्षणसंग्रह-रत्नशेखरसूरिकृत (वि० १६वीं शती) लक्षण-अवचूरि-अज्ञातकर्तृक । लक्ष्यलक्षणविचार-हर्षकीर्तिसूरि कृत (वि० १७वीं लक्षणपंक्तिकथा-दिगम्बराचार्य श्रुतसागरसूरिकृत । शती) प्रश्नशास्त्र (चूड़ामणि) दुविनीति (५वीं शती)-यह द्रविड़ देश का राजा था। इसने प्राकृत गद्य में विस्तृत चूड़ामणि ग्रन्थ की रचना की है। यह अप्राप्त है। इससे तीनों कालों का ज्ञान होता है। भद्रबाहु (६ठी शती)-भद्रबाहु स्वामी के नाम से प्राकृत में अर्हच्चूडामणिसार नामक ग्रन्थ मिलता है । इसे चूड़ामणिसार या ज्ञानदीपक भी कहते हैं । इसमें वर्गों का विभाजनकर उनकी संज्ञायें दी गयी हैं। प्रश्नों के अक्षरों के उन वर्गों के आधार पर जय-पराजय, लाभाभाभ, जीवन-मरण फलों का ज्ञान होता है। Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वधर से भद्रबाहु से भिन्न हैं । समन्तभद्र – आचार्य समन्तभद्र के नाम से प्रश्नशास्त्र सम्बन्धी केवलज्ञानप्रश्नचूड़ामणि ग्रन्थ मिलता है । डॉ० नेमिचन्द्रशास्त्री ने इसका संपादन किया है । इन्हें आप्तमीमांसाकार समन्तभद्र से भिन्न माना है । जैन ज्योतिष: प्रगति और परम्परा ४११ इस ग्रन्थ में अक्षरों का वर्गीकरण करके तदनुसार कार्य की सिद्धि लाभालाभ, रोगनिवारण, जय-पराजय आदि का विचार है । भट्टवोसरि ( १०वीं शती) – यह दक्षिण के दिगम्बर जैन आचार्य दामनन्दि के शिष्य थे। इन्होंने आयनाणतिलय (आयज्ञागतिलक) नामक प्रश्नशास्त्र सम्बन्धी अन्य प्राकृत में लिखा है, इसमें ध्वज, घूम, सिंह, गज, खर, स्नान, वृष और ध्वांक्ष (कौआ) इन आठ 'आयों' के द्वारा फलादेश का विस्तार से विवेचन है । इस पर स्वयं भट्टवोसरि ने स्वोपज्ञ टीका लिखी है । भी प्राप्त हैं मल्लिषेण (१०४३ ई० ) – यह कर्नाटक के निवासी थे । इनके गुरु दिगम्बर आचार्य जिनसेनसूरि थे । प्रश्न-शास्त्र पर इन्होंने सुग्रीव आदि मुनियों के ग्रन्थों के आधार पर आयसद्भाव नामक ग्रन्थ की रचना की है । इसमें भट्टवोसरि का भी उल्लेख है । इसमें २० प्रकरण हैं तथा ध्वज, धूम, सिंह, मंडल, वृष, खर, गज, वायस, इन आठ 'आयों' के स्वरूप व उनके आधार पर फलादेश बताया गया है । हरिश्चन्द्रगणि—इनका प्रश्नपद्धति नामक ज्योतिष ग्रन्थ मिलता है। प्रश्नशास्त्र पर कुछ अज्ञात ग्रन्थ (१) अक्षरचूडामणिशास्त्र — संस्कृत में । 1 (२) चन्द्रोन्मीलन- इसमें ५५ अधिकार हैं। इसमें प्रश्नकर्त्ता के प्रश्न के वर्गों को संयुक्त, असंयुक्त अभिघातित, अभिप्रमित, आलिंगत और दग्ध इन छः संज्ञाओं में विभाजित किया गया है । [रमल या पाशककेवली गर्गाचार्य - आचार्य गर्ग ने पाशककेवली सम्बन्धी कोई ग्रन्थ लिखा था । --- मुनि भोजसागर (१८वीं शती) — इन्होंने रमलविद्या नामक ग्रन्थ लिखा है। इसमें उल्लेख है कि आचार्य कालकर इस विद्या को यवनदेश से भारत में लाये। मुनि विजयदेव इनके रमलविद्या ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है। पाशाकेवली - अज्ञातकर्तृक । यह संस्कृत में है । इसमें अदअ, अअय आदि कोष्ठक देकर अ, व, य, और द के प्रकरण दिये हैं । इसमें शुभाशुभ फल दिये हैं । गणित ज्योतिष यल्लाचार्य - यह प्राचीन मुनि थे। इन्होंने गणितसंग्रह लिखा था । नेमिचन्द्र – इनका रचा क्षेत्रगणित मिलता है । मुनि तेजसिंह यह लौकागच्छीय मुनि थे। इन्होंने दमित पर २६ पद्यों में इष्टांकपंचविशतिका नामक छोटासा ग्रन्थ लिखा है । अनन्तपाल (१२०४ ई० ) – यह पल्लीवाल जैन गृहस्थ थे। इनका लिखा पाटीगणित नामक गणित सम्बन्धी ग्रन्थ मिलता है। इसमें अंकगणित सम्बन्धी विवरण है। इनके भाई जनपाल ने सं० १२६१ में तिलकमंजरीकथासार लिखा है । सिंह (१३ शती) – यह आगमगच्छीय आचार्य देवरत्नसूरि के शिष्य थे। इन्होंने कोष्ठचितामणि नामक ग्रन्थ प्राकृत में लिखा है। संस्कृत में इस पर स्त्रयं ने कोष्टकचितामणि टीका लिखी है । +++ -0 ० . Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ......-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-....................................... सिद्धसूरि-यह उपकेशगच्छीय मुनि थे। इन्होंने श्रीधरकृत गणितसार पर टीका लिखी थी। सिंहतिलकसरि (१२७३ ई०)-इनके गुरु का नाम विबुधचन्द्र सूरि था। ये ज्योतिष और गणित के अच्छे विद्वान् थे। इन्होंने श्रीपतिकृत गणितसार पर सं० १३३० में वृत्ति (टीका) लिखी है। ज्योतिष पर इनकी भुवनदीपकवृत्ति टीका भी मिलती है। ज्योतिष सम्बन्धी अन्य ग्रन्थ ज्योतिष पर विनयकुशलमुनि ने जोइसचक्कविचार (ज्योतिषचक्रविचार) नामक प्राकृत ग्रन्थ लिखा है। जिनेश्वरमुनि ने श्रीपतिकृत जातकपद्धति पर टीका लिखी है । खरतरगच्छीय मुनिचन्द्र ने अनलसागर नामक ज्योतिषग्रन्थ लिखा है। मानसागर मुनि का मानसागरी पद्धति नामक ज्योतिष ग्रन्थ मिलता है । यह पद्यात्मक है। इसमें फलादेश दिये हैं। मुनि राजसोम ने गणेशकृत ग्रहलाघवसारिणी पर संस्कृत में टिप्पण लिखा है। मुनि मतिविशालगणी ने प्राकृत में टिप्पणकविधि नामक ज्योतिष ग्रन्थ लिखा है। इसमें पचांगतिथिकर्षण, संक्रांतिकर्षण, नवग्रहकर्षण आदि १३ विषय दिये हैं। पद्मसुन्दर मुनि ने ज्योतिष पर हायनसुन्दर ग्रन्थ लिखा है। कुछ ग्रन्थ अज्ञातकर्तृक मिलते हैंगणहरहोरा (गणधरहोरा)-होरा सम्बन्धी ग्रन्थ है। जोइसदार (ज्योतिर)-प्राकृत में है। इसमें राशि व नक्षत्रों के शुभाशुभ फल दिये हैं। जातकदीपिकापद्धति-इसमें अनेक ग्रन्थों के उद्धरण हैं । जन्मप्रदीपशास्त्र-इसमें कुण्डली के १२ भुवनों के लग्नेश के सम्बन्ध में विचार है। जोइसहीर (ज्योतिषहीर)- यह प्राकृत में है। इसमें शुभाशुभतिथि, ग्रह-बल, शुभ घड़ियाँ, दिनशुद्धि आदि विषय दिये हैं। पंचांगतत्त्व-इसमें पंचांग के तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण का निरूपण है। पंचांगतत्त्व-टीका-अभयदेवसूरिकृत। पंचांगतिथिविचरण-इसे करणशेखर या करणकोश भी कहते हैं । इसमें पंचांग बनाने की विधि दी है। पंचांगदीपिका-पंचांग बनाने की विधि दी है। पंचांगपत्रविचार-पंचांग के विषय दिये गये हैं। हिन्दी-राजस्थानी के ग्रन्थ कवि-केशव (१७वीं शती)-यह खरतरगच्छीय दयारत्न के शिष्य थे। इनका जन्म-नाम केशव और दीक्षा का नाम कीर्तिवर्धन था। यह मारवाड़ क्षेत्र के निवासी थे । इनका काल १७वीं शती है। इनका जन्मप्रकाशिका नामक ज्योतिषग्रन्थ मिलता है। रत्नधौर (१७४६ ई०)-यह खरतरगच्छीय मुनि थे। इन्होंने भुवनदीपक पर बालावबोध की रचना सं०१८०६ (१७४६ ई.) में की। ___ लाभवर्धन (१८वीं शती)—यह खरतरगच्छीय जिनहर्ष के गुरुभ्राता थे। इनका काल १८वीं शती है। इन्होंने ज्योतिष पर राजस्थानी में लीलावतीगणित और शकुनदीपिका ग्रन्थ लिखे । शीघ्रबोधचन्द्रिका-इसका रचना काल सं० १६१६ है । 'शीघ्रबोध' ज्योतिषग्रन्थ की भाषा-टीका है। रचनाकार अज्ञात है। . Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ज्योतिष : प्रगति और परम्परा ......................................................................... पं० भगवानदास (२०वीं शती)-इनका जन्म सं १९४५ (१८८८ ई०) में पालीताणा (गुजरात) में हुआ था। इन्होंने ज्योतिष पर ज्योतिषसार नामक ग्रन्थ लिखा है। दक्षिण-भाषाओं में रचित ज्योतिष-गणित के ग्रन्थ तमिल भाषा में जैनों द्वारा गणित, ज्योतिष और फलित सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे गये हैं। ऐचडि नामक गणित सम्बन्धी और जिनेन्द्रमौलि नामक ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ बहुत प्रचलित हैं। ऐंचूवडि का व्यवहार व्यापारिक परम्परा में अधिकतर होता है। कन्नड भाषा में गणित पर राजादित्य के व्यवहारगणित, क्षेत्रगणित, लीलावती, व्यवहाररत्न, जैनगणितसूत्रटोकोदाहरण तथा अन्य ग्रन्थ मिलते हैं । यह कर्नाटक क्षेत्र के निवासी थे। यह विष्णुवर्धन राजा के मुख्य सभापंडित थे । इनका काल सं० ११२० के लगभग है। कर्णाटककविचरित में इनको कन्नड साहित्य में गणित का ग्रन्थ लिखने वाला प्रथम विद्वान् बताया है। चन्द्रसेम-कर्नाटक के दिगम्बर जैन मुनि थे। इन्होंने ज्योतिष पर केवलज्ञानहोरा नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है। इसमें लगभग चार हजार श्लोक हैं । इस पर कर्णाटक के ज्योतिष का प्रभाव है। कहीं-कहीं विषय के स्पष्टीकरणार्थ कन्नड भाषा भी प्रयुक्त हुई है । इनका काल कल्याण वर्मा के बाद का है, इसके प्रकरण उनकी 'सारावली' से मेल खाते हैं। __भद्रबाहु-इनके नाम से संस्कृत में भद्रबाहुसंहिता नामक ज्योतिष ग्रन्थ मिलता है। यह आचार्य भद्रबाहुकृत प्राकृत के ग्रन्थ का उद्धाररूप माना जाता है। संस्कृत कृति में २७ प्रकरण हैं, इसमें निमित्त और संहिता का प्रतिपादन है । डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने श्रुतकेवली भद्रबाहु से इस भद्रबाहु को भिन्न माना है और इनका काल १२वीं, १३वीं शती बताया है। उपसंहार जैन विद्वानों ने ज्योतिष पर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं । इनमें से अधिकांश अब तक प्रकाशित नहीं हो पाये हैं। केवल कुछ ही प्रमुख ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं । अधिकांश ग्रन्थ हस्तलिखित रूप में विभिन्न स्थानों पर पुस्तकालयों, भट्टारकों के पाठों और व्यक्तिगत संग्रहों में मौजूद हैं । इनके विस्तृत केटलाग बनाने की आवश्यकता है । इन ग्रन्थों के प्रकाशन की भी व्यवस्था होनी चाहिए। यहाँ जैन-ज्योतिष-साहित्य पर संक्षेप में कालक्रमानुसार प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। यह केवल परिचय मात्र है। इस पर विस्तार से विश्लेषण की आवश्यकता है। ज्योतिष के शोधार्थियों की इसमें प्रवृत्त होना चाहिए। Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन गणित : परम्परा और साहित्य 0 वैद्या सावित्रीदेवी भटनागर, २६, कानजी का हाटा, उदयपुर जैन विद्वानों की गणितशास्त्र में अभूतपूर्व देन है। प्राचीन भारतीय गणित और ज्योतिष के क्षेत्र में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण और अविस्मरणीय है। इन दोनों विद्याओं का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध होने से इनके प्राचीन ग्रन्थों में ये दोनों विषय सम्मिलित हैं। 'समवायांगसूत्र' और 'औपपातिकसूत्र' में ७२ कलाओं में गणित को भी गिना गया है। आदितीर्थकर ने अपनी पुत्री सुन्दरी को गणित की शिक्षा दी, ऐसा उल्लेख मिलता है। 'लेख' नामक 'कला' में लिपियों का ज्ञान सम्मिलित है। अठारह प्रकार की लिपियों में 'अंकलिपि' (१, २ आदि संख्यावाचक चिह्न) तथा 'गणितलिपि' (जोड़, बाकी, गुणा, भाग आदि चिह्नों का व्यवहार) का समावेश है। चार प्रकार के अनुयोगों में एक 'गणितानुयोग' है। इस अनुयोग में 'सूर्यप्रज्ञप्ति' और 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' का समावेश होता है। गणित विद्या को 'संख्यान' भी कहते हैं। 'स्थानांगसूत्र' (१०/७४७) में दस प्रकार के संख्यान (गणित) का उल्लेख है-परिकर्म, व्यवहार, रज्जू (ज्यामिति), कलासवण्ण (कलासवर्ण), जावं, तावं, वर्ग, घन, वर्गावर्ग और विकल्प । 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' (२/१) तथा 'उत्तराध्ययनसूत्र' (२५/७, ३६) में 'संख्यान' (गणित) और 'जोइस' (ज्योतिष) का चौदह प्रकार के विद्यास्थानों में उल्लेख किया गया है। महावीर ने गणित और ज्योतिष आदि विद्याओं में दक्षता प्राप्त की थी (कल्पसूत्र १/१०) । श्वेताम्बर परम्परा के आगम-साहित्य के अन्तर्गत 'सूर्यप्रज्ञप्ति' और 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' नामक दो उपांग ग्रन्थों में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारों की गति के प्रसंग में गणित का वर्णन मिलता है। . दिगम्बर परम्परा में प्राप्त धरसेनाचार्यकृत 'षट्खंडागम' की टीका में टीकाकार वीरसेनाचार्य (८१६ ई.) : ने गणित सम्बन्धी विवेचन में 'परिकर्म' का उल्लेख किया है। 'दृष्टिवाद' संज्ञक बारहवें अंग के पाँच भेदों में से एक 'परिकर्म' है। इसमें लिपिविज्ञान एवं गणित का विवेचन था। परिकर्म के पाँच भेद हैं-१. चन्द्रप्रज्ञप्ति, २. सूर्यप्रज्ञप्ति, ३. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४. द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति । इनमें से प्रथम चार प्रज्ञप्तियों में गणितसूत्रों का प्रकाशन हुआ है। दिगम्बर-मत में 'अंगप्रविष्ट' (१२ अंग) और 'अंगबाह्य' आगमसाहित्य के अतिरिक्त उसकी परम्परा में जो ग्रन्थ लिखे गये, उनको चार अनुयोगों में विभाजित किया जाता है। प्रथमानुयोग में पुराणों, चरितों और कथाओं के रूप में आख्यान ग्रन्थ समाविष्ट हैं; करणानुयोग में गणित और ज्योतिष सम्बन्धी ग्रन्थ आते हैं; चरणानुयोग में मुनियों व गृहस्थों के आचरणनियमों सम्बन्धी ग्रन्थ हैं, द्रव्यानुयोग में जीव, जड़ आदि दार्शनिक चिन्तन कर्मसिद्धान्त और न्यायसम्बन्धी ग्रन्थ सम्मिलित हैं । करणानुयोग के ग्रन्थों में ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक, द्वीप, सागर, क्षेत्र, पर्वत, नदी आदि के स्वरूप और विस्तार का तथा गणित की प्रक्रियाओं के आधार पर वर्णन किया गया है। इन ग्रन्थों से गणितसूत्रों और उनके क्रमविकास को समझने में बड़ी मदद मिलती है। Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन गणित : परम्परा और साहित्य ४१५ . -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-... ..... . ...... 'गणिविद्या' (गणिविज्जा) नामक 'प्रकीर्णक' (अंगबाह्यग्रन्थ) में दिवस, तिथि, नक्षत्र, योग, करण, मुहूर्त आदि सम्बन्धी ज्योतिष का विवेचन है, इसमें 'होरा' शब्द भी मिलता है, इसमें प्रसंगवश गणित के सूत्र भी शामिल हैं। परवर्तीकाल में जैनाचार्यों द्वारा विरचित गणित सम्बन्धी ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का परिचय यहाँ दिया जा रहा है तिलोयपण्ण त्ति (छठी शती)-यतिवृषभ । त्रैलोक्य सम्बन्धी विषय को प्रस्तुत करने वाला प्राचीनतम ग्रन्थ है। रचना प्राकृत-गाथाओं में है। कहीं-कहीं प्राकृत-गद्य भी है। १८००० श्लोक हैं । कुल गाथायें ५६७७ हैं । अंकात्मक संदृष्टियों की इसमें बहुलता है। ६ महाधिकार हैं - सामान्यलोक, नारकलोक, भवनवासीलोक, मनुष्यलोक, तिर्यक्लोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, देवलोक, सिद्धलोक । इसकी रचना ई० ५०० से ८०० के बीच में हुई । सम्भवत: छठी शती में। गणितसार-संग्रह (८५० ई० के लगभग)-यह मूल्यवान् कृति महावीराचार्य द्वारा विरचित है। यह दक्षिण के दिगम्बर जैन विद्वान थे। इनको मान्यखेट (महाराष्ट्र) के राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष का राज्याश्रय प्राप्त था। यह गोविन्द तृतीय (७९३-८१४ ई०) का पुत्र था। उसका मूल नाम शर्व था। राज्याभिषेक के समय उसने 'अमोघवर्ष' उपाधि ग्रहण की। इस नाम से वह अधिक विख्यात हुआ। उसे शर्व अमोघवर्ष भी कहते हैं । नृपतुंग, रट्टमार्तण्ड, वीरनारायण और अतिशयधवल उसकी अन्य उपाधियाँ थीं। राष्ट्रकूट राजाओं की सामान्य उपाधियाँ 'वल्लभ' और 'पृथ्वीवल्लभ' भी उसने धारण की थीं। इन उपाधियों में 'अमोघवर्ष' और 'नृपतुंग' विशेष प्रसिद्ध हैं । उसने छासठ वर्ष (८१४-१५० ई०) तक राज्य किया। पूर्व में वेंगी के चालुक्यों को पराजित कर अपने राज्य में मिला लिया था। अमोघवर्ष विद्वानों और कलाकारों का आश्रयदाता था। स्वयं भी विद्वान् और कवि था। कन्नड साहित्य का प्रथम काव्य 'कविराजमार्ग' है, जिसका रचयिता स्वयं अमोघवर्ष है । अनेक कन्नड लेखकों को उसने प्रश्रय दिया था। अमोघवर्ष की जैन धर्म और दर्शन के प्रति विशेष रुचि थी। आदिपुराण के रचयिता जिनसेन ने लिखा है कि वह अमोघवर्ष का आचार्य था। जैन गणितज्ञ महावीराचार्य ने अपनी पुस्तक 'गणितसारसंग्रह' में अमोघवर्ष को जैन बताया है। वह धर्मसहिष्णु था। उसने हिन्दू और जैन धर्म के समन्वय का प्रयत्न किया था। ___ साहित्य और विज्ञान के प्रति विशेष प्रेम के कारण उसके राजदरबार में ज्योतिष, गणित, काव्य, साहित्य, आयुर्वेव आदि विषयों के विद्वान् सम्मानित हुए थे। अमोघवर्ष के समय में अनेक प्रकाण्ड जैन विद्वान् हुए। गणितसारसंग्रह ग्रन्थ के प्रारम्भ में महावीराचार्य ने भगवान् महावीर और संख्याज्ञान के प्रदीप स्वरूप जैनेन्द्र को नमस्कार किया है १. वैदिक परम्परा में छ: वेदांगों में ज्योतिष को गिना गया है। ज्योतिष का मूल ग्रन्थ 'वेदांगज्योतिष' है, इसके दो पाठ हैं-ऋग्वेदज्योतिष और यजुर्वेदज्योतिष। ज्योतिष के दो विभाग हो गये हैं --गणितज्योतिष और फलितज्योतिष। इनमें से गणितज्योतिष प्राचीन है। ज्योतिष के निष्कर्ष गणित पर आधारित हैं । अतः वेदांगज्योतिष (श्लोक ४) में समस्त वेदांगशास्त्रों में गणित को सर्वोपरि माना गया है यथा शिखा मयूराणां, नागानां मणयो यथा । तद्ववेदांगशास्त्राणां, गणितं मूर्ध्नि संस्थितम् ॥ अर्थात्-जिस प्रकार मोरों में शिखाएँ और नागों में मणियाँ सिर पर धारण की जाती हैं, उसी प्रकार वेदांगशास्त्रों में गणित सिर पर स्थित है अर्थात् सर्वोपरि है । Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड इसके बाद राजा अमोघवर्ष उसे सब प्राणियों को सन्तुष्ट करने यस्याऽनंतचतुष्टयम् । अलंध्यं त्रिजगत्सारं नमस्तस्मे जिनेन्द्राय महावीराय तायिने ॥ १ ॥ संख्याज्ञानप्रदीपेन जैनेन्द्राय महत्विया । प्रकाशितं जगत्सर्व येन तं प्रणमाम्यहं ॥ २ ॥ नृपतुंग की प्रशस्ति में ६ पद्म है। राजा अमोघवर्ष के जैनदीक्षा लेने के बाद तथा नीरीति निरवग्रह करने वाला 'स्वेष्टाहितैषी' बतलाया हैप्रीणित: प्राणिसस्यौधो श्रीमताऽमोघवर्षेण येन नीतिनिरवग्रहः । स्वष्टाहितैषिणा ॥ ३ ॥ उसने पापरूपी शत्रुओं को अनीहित पित्तवृत्ति रूपी तपोग्नि में भस्म कर दिया था और कामक्रोधादि अन्तरंग शत्रुओं पर विजय पा लेने से 'अवन्ध्यकोप' बन गया था। सम्पूर्ण संसार को वश में करने और स्वयं किसी के वश में नहीं होने से 'अपूर्वमकरध्वज' बन गया था। राजमंडल को वश में करने के साथ तत्पश्चरण द्वारा संसारचक्र के भ्रमण को नष्ट करने वाले रत्नगर्भ (सम्यदर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय), ज्ञान और मर्यादावयवेवी द्वारा चारित्ररूपी समुद्र को पार कर लिया था 0.0 पापरूपाः परा यस्य चित्तवृत्ति हविर्भुजि । नाभिभूतः प्रभुस्तस्मादपूर्वमकरण्यजः ॥ ५ ॥ यो विक्रमक्रमाक्रांतच क्रिचक्रकृतिक्रियः । चत्रिकाकारमंजनो नाम्ना चक्रिकामंजनो जसा ॥ ६ ॥ यो विद्यानधिष्ठानो मर्यादावयवेदिकः । रत्नगर्भो यथाख्यात चारित्रजलधिर्महान् ॥ ७ ॥ इन विवरणों से अमोघवर्ष की मुनिवृत्ति का परिचय मिलता है। राजा अमोघवर्ष ने अन्तिम दिनों में विवेकपूर्वक राज्य छोड़कर जैनमुनि के रूप में जीवन बिताने का उल्लेख उसने स्वयं अपनी रत्नमाला के अन्तिम पद्य मैं किया है। गणितसार संग्रह ग्रन्थ में अमोघवर्ष नृपतुंग के शासन काल की वृद्धि की कामना की गई है— विश्वस्तकांतपक्षस्य स्याद्वाद न्यायवादिनः । देवस्य नृपतु गस्य वर्द्धतां तस्य शासनम् ॥८॥ महावीराचार्य की दो कृतियां मिलती है-गणितसारसंग्रह (समुच्चय) और शिका तथा ज्योतिष पर ज्योतिषपटल गणित और ज्योतिष का अत्यन्त पनिष्ठ सम्बन्ध है ज्योतिष के दो अंग है—एक गणित ज्योतिष और दूसरा फस ज्योतिष | अतः महावीराचार्य के गणित सम्बन्धी दोनों ग्रन्थ भी ज्योतिष के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। 1 I गणितसारसंग्रह ग्रन्थ में कहीं रचनाकाल का उल्लेख नहीं है, परन्तु उसमें नृपतुंग के शासन की वृद्धि की कामना की गई है, अतः इसकी रचना अमोषवर्ष के काल में ही हुई थी। इसमें अमोघवर्ष की जैनमुनितुल्य वृत्तियों के सम्बन्ध में बताया गया है। अतः यह कृति उसके शासनकाल के अन्तिम दिनों में लिखी गई प्रतीत होती है। इसी आधार पर इसकी रचना ८५० ई० के लगभग होने का अनुमान होता है । प्रारम्भ के 'संशाधिकार में गणित के महत्व को स्वीकार करते हुए बताया गया है-संसार के सब व्यापारों (लौकिक, वैदिक और सामाजिक) में संख्या का उपयोग किया जाता है। कामतन्य अर्थशास्त्र, गन्धर्वशास्त्र, नाटक, सूपशास्त्र, वैद्यक, वास्तुविद्या, छन्द, अलंकार, काव्य, तर्क, व्याकरण समस्त कलाओं में गणित प्राचीन काल से प्रचलित है । ( ज्योतिष के अन्तर्गत) सूर्यादि ग्रहों की गति, ग्रहण, ग्रहसंयोग, त्रिप्रश्न, चन्द्रवृत्ति, सर्वत्र गणित स्वीकार किया Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन गणित : परम्परा और साहित्य ४१७. ..............-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.............. गया है। द्वीप, समुद्र, पर्वत का संख्या से ही व्यास और परिक्षेत्र (विस्तार) ज्ञात किया जाता है। संसार की सब बातें गणित पर आश्रित हैं लौकिके वैदिके चापि तथा सामाजिके च यः । व्यापारस्तत्र सर्वत्र संख्यानमुपयुज्यते ॥६॥ कामतंत्रेऽर्थशास्त्रे च गांधर्वे नाटकेऽपि वा। सूपशास्त्रे तथा बैद्य वास्तुविद्यादि वस्तुषु ॥१०॥ छन्दोऽलंकारकाव्येषु तर्कव्याकरणादिषु । (टीका) लिखी है। इसमें ली कलागुणेषु सर्वेषु प्रस्तुतं गणितं पुरा ॥११॥ ज्योतिष पर इन्होंने सूर्यादिग्रहचारेषु ग्रहणे ग्रहसंयुतौ। लघनमस्कारचक्र, ऋषिमंडलयंत्र त्रिप्रश्ने चन्द्रवृत्तौ च सर्वत्रांकीकृतं हि तत् ॥१२॥ सिद्ध-भ-पद्धति- अज्ञातकर्तृक सागरशैलानां संख्या-व्यासपरिक्षिपः । ॥१३॥ इस पर दिगम्बर वीरसेन गर्य व्यंतरज्योतिर्लोककल्पाधिवासिनाम ना काणां च सर्वेषां श्रेणीबद्धेन्द्रकोत्तरा। णकप्रमाणाद्या बुध्यते गणितेन तु ॥१४॥ प्राणिनां तत्र संस्थानामायुरष्टगुणादयः । यात्राद्यास्संहिताद्याश्च सर्वे ते गणिताश्रयाः ॥१५॥ बहुभिविप्रलापः किं त्रैलोक्ये सचराचरं । यत्किचिद्वस्तु तत्सर्व गणितेन विना न हि ॥१६॥ महावीराचार्य के मत में तीर्थंकरों की वाणी से गणित का उद्भव हुआ है। तीर्थंकरों के शिष्य-प्रशिष्यों द्वारा प्रकट 'संख्याज्ञानरूपसागर' से समुद्र से रत्न, पाषाण से सुवर्ण और शुक्ति से मोती निकालने के समान कुछ सार लेकर इस ग्रन्थ की रचना की है । यह ग्रन्थ छोटा होने पर भी विस्तृत अर्थ को बताने वाला है तीर्थकृभ्यः कृतार्थेभ्यः पूज्येभ्यो जगदीश्वरैः । तेषां शिष्यप्रशिष्येभ्यः प्रसिद्धाद्गुरुपर्वतः ॥१७॥ जलधेरिव रत्नानि पाषाणादिव कांचनम् । शुक्तेमुक्ताफलानीव संख्याज्ञानमहोदधेः ॥१८॥ किंचिदुद्धृत्य तत्सारं रक्ष्येऽहं मतिशक्तितः । अल्पग्रन्थमनल्पार्थ गणितं सारसंग्रह ॥१६॥ प्रथम संज्ञाधिकार के अन्त में पुष्पिका दी है'इतिसारसंग्रहे गणितशास्त्रे महावीराचार्यकृतौ संज्ञाधिकारः समाप्तः । यह ग्रन्थ प्रो० रंगाचार्य कृत अंग्रेजी टिप्पणियों के साथ सम्पादित होकर मद्रास से सन् १९१२ में प्रकाशित हो चुका है। इसमें प्रकरण हैं-संज्ञाधिकार, परिकर्मव्यवहार, कलासवर्णव्यवहार, प्रकीर्णव्यवहार, त्रैराशिकव्यवहार, मिश्रकव्यवहार, क्षेत्रगणितव्यवहार, खातव्यवहार और छायाव्यवहार । इसमें २४ अंक तक की संख्याओं का उल्लेख है-१ एक, २ दश, ३ शत, ४ सहस्र, ५ दशसहस्र, ६ लक्ष, ७ दशलक्ष, ८ कोटि, ६ दशकोटि, १० शतकोटि, ११ अर्बुद, १२ न्यर्बुद, १३ खर्व, १४ महाखर्व, १५ पद्म, १६ महापद्म, १७ क्षोणी, १८ महाक्षोणी, १६ शंख, २० महाशंख, २१ क्षिति, २२ महाक्षिति, २३ क्षोभ, २४ महाक्षोभ । 0 Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड " -.-.-. -.-.-. -.-.-.-.-.-..................... .......... ....... .. ...... अंकों के लिए विशेष शब्दों का व्यवहार मिलता है-यथा ३ के लिए रत्न, ६ के लिए द्रव्य, ७ के लिए तत्व, पन्नग और भय, ८ के लिए कर्म, तनु, मद, और के लिए पदार्थ आदि । इसमें अंकों सम्बन्धी ८ परिकर्मों का उल्लेख किया है-जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल । शून्य और काल्पनिक संख्याओं का विचार भी किया गया है। भिन्नों के भाग के विषय में मौलिक विधियाँ दी हैं। लघुसमावर्तक का आविष्कार महावीराचार्य की अनुपम देन है। रेखागणित और बीजगणित की अनेक विशेषताएँ इस ग्रन्थ में मिलती हैं। त्रि गणित की विशिष्ट विधियाँ दी हैं। समीकरण को व्यावहारिक प्रश्नों द्वारा स्पष्ट कि' समकुट्टीकरण, विषमकुट्टीकरण और मिश्रकुट्टीकरण आदि गणित की विधियों काना और कामक्रोधादि अन्तरंग यह ग्रन्थ भास्कराचार्यकृत लीलावती से बड़ा है। महाबीराचार्य ने नरने और स्वयं किसी के वश में श्रीधर के शितिका' का उपयोग किया है। गणित के क्षेत्र में महावीराचासाथ तत्पश्चरण द्वारा संसारचक्र के गन और मर्यादावज्रवेदी द्वारा कीर्तिमान है, जो उनकी अमरकीति का दीपस्तम्भ है। दक्षिण भारत में इस ग्रन्थ का बहुमान है। इस पर वरदराज आदि की संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध हैं । ११वीं शती में पावुलूरिमल्ल ने इसका तेलुगु में अनुवाद किया है। वल्लभ ने कन्नड़ में तथा अन्य विद्वान् ने तेलुगु में टीका लिखी है। षत्रिंशिका (८५० ई० के लगभग)-महावीराचार्य कृत। यह लघु कृति है, जिसमें बीजगणित के व्यवहार दिये हैं। व्यवहारगणित, क्षेत्रगणित, व्यवहाररत्न, जैन-गणित-सूत्र-टीकोदाहरण और लीलावती (सं० ११७७, ई० ११२०) ये सब ग्रन्थ कन्नड़ भाषा में हैं। इनके लेखक राजादित्य नामक कवि-विद्वान् थे। यह दक्षिण में कर्नाटक क्षेत्रांतर्गत कोंडिमंडल के 'यूविनवाग' नामक स्थान के निवासी थे। इनके पिता का नाम श्रीपति और माता का नाम वसन्ता था । इनके गुरु का नाम शुभचन्द्रदेव था । ये विष्णुवर्द्धन राजा के मुख्य सभापण्डित थे। अत: इनका काल ई० सन् ११२० के लगभग है । इनको 'राजवर्म', 'भास्कर' और 'वाचिराज' भी कहते थे। ये कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि और गणित-ज्योतिष के महान विद्वान् थे। 'कर्णाटक कविचरित' में इनको कन्नड़ भाषा में गणित का ग्रन्थ लिखने वाला सबसे पहला विद्वान् बताया है। पाटीगणित (सं १२६१, ई० १२०४) अनन्तपालकृत । यह पल्लीवाल जैन गृहस्थ विद्वान् थे। इसके ग्रंथ पाटीगणित में अंकगणित सम्बन्धी विवरण है। अनन्तपाल ने नेमिचरित महाकाव्य रचा था। उसके भाई धनपाल ने सं० १२६१ में 'तिलकमंजरीकथासार' बनाया था। कोष्ठकचिंतामणि (१३ वीं शती)-शीलसिंहसूरिकृत। ये आगमगच्छीय आचार्य देवरत्नसरि के शिष्य थे। इनका काल १३वीं शती माना जाता है। इनका गणित सम्बन्धी 'कोष्ठकचितामणि' नामक ग्रन्थ प्राकृत में १५० पद्यों में लिखा हुआ है। इसमें ६, १६ २० आदि कोष्ठकों में अंक रखकर चारों ओर से मिलने पर अंक समान आते हैं। इसमें अनेक मन्त्र भी दिये हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थ पर संस्कृत में 'कोष्ठकचितामणि-टीका' लिखी है। गणितसंग्रह-यत्लाचार्यकृत । ये प्राचीन जैनमुनि थे। Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन गणित : परम्परा और साहित्य ४१५ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. क्षेत्रगणित-नेमिचन्द्रकृत । इसका उल्लेख जिनरत्नकोश (पृ० ६८) में दिया हुआ है। इष्टपंचविशतिका-मुनि तेजसिंहकृत । यह लोंकागच्छीय मुनि थे। गणित पर इनका यह छोटा-सा ग्रन्थ २६ पद्यों में प्राप्त है। गणितसार-टीका-सिद्धसूरिकृत । ये उपकेशगच्छीय मुनि थे। इन्होंने श्रीधरकृत गणितसार पर टीका लिखी थी। गणितसार-वृत्ति (सं० १३३०, ई० १२७३)-सिंहतिलकसूरिकृ त । ये ज्योतिष और गणित के अच्छे विद्वान् थे। इनके गुरु का नाम विबुधचन्द्रसूरि था। इन्होंने श्रीपतिकृत 'गणितसार' पर (सं० १३३०, ई० १२७३) में वृत्ति (टीका) लिखी है। इसमें लीलावती और त्रिशतिका का उपयोग किया गया है। ज्योतिष पर इन्होंने 'भुवनदीपकवृत्ति' लिखी । मंत्रराजरहस्य, वर्धमानविद्याकल्प परमेष्ठिविद्यायंत्रस्तोत्र, लघुनमस्कारचक्र, ऋषिमंडलयंत्रस्तोत्र भी इनके ग्रन्थ हैं। सिद्ध-भू-पद्धति-अज्ञातकर्तृक यह प्राचीन ग्रन्थ है। यह क्षेत्रगणित विषयक ग्रन्थ है। इस पर दिगम्बर वीरसेनाचार्य ने टीका लिखी थी। इनका जन्म वि० सं० ७६५ एवं मृत्यु सं०८८० हुई । ये आर्यनंदि के शिष्य, जिनसेनाचार्य के गुरु तथा गुणभद्राचार्य (उत्तरपुराण-कर्ता) के प्रगुरु थे। इन्होंने दिगम्बर आगम ग्रन्थ 'षट्खण्डागम' (कर्मप्राभृत) के पाँच खंडों पर 'धवला' नामक टीका सं०८७३ में लिखी । इस व्याख्या में इन्होंने गणित सम्बन्धी अच्छा विवरण दिया है। इससे इनकी गणित में अच्छी गति होना प्रकट होता है। इसके अतिरिक्त वीरसेनाचार्य ने 'कसायपाहुड' पर 'जयधवला' नामक विस्तृत टीका लिखना प्रारम्भ किया, परन्तु बीच में ही उनका देहान्त हो गया। गणितसूत्र-अज्ञातकर्तृक । किसी दिगम्बर जैन मुनि की कृति है। इसकी हस्तप्रति जैन सिद्धांत भवन आरा में मौजूद है। यंत्रराज (श० ११६२, ई० १२७०)-महेन्द्रसूरिकृत-यह ग्रहगणित सम्बन्धी उपयोगी ग्रन्थ है। गणितसारकौमुदी (ई०१४वीं शती प्रारम्भ)-ठक्कुर फेरूकृत । यह जैन श्रावक थे। मूलत: राजस्थान के कन्नाणा के निवासी और श्रीमालवंश के धंधकुल में उत्पन्न हुए थे। इस ग्रन्थ की रचना सं० १३७२ से १३८० के बीच हुई थी । यह अप्रकाशित है। ठक्कुर फेरू दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के कोषाधिकारी (खजांची) थे। गणितसारकौमुदी प्राकृत में है। इसकी रचना भास्कराचार्य की लीलावती और महावीराचार्य के गणितसारसंग्रह पर आधारित है। विषय विभाग भी लीलावती जैसा ही है। क्षेत्रव्यवहारप्रकरण के नामों को स्पष्ट करने के लिए यंत्र दिये हैं। यंत्रप्रकरण में अंकसूचक शब्दों का प्रयोग है। तत्कालीन भूमिकर, धान्योत्पत्ति आदि विषय नये हैं। ठक्कुर फेरू के अन्य ग्रन्थ-वास्तुसार, ज्योतिस्सार, रत्नपरीक्षा, द्रव्यपरीक्षा (मुद्राशास्त्र), भूगर्भप्रकाश, धातूत्पत्ति युगप्रधान चौपई हैं । पहली सात रचनाएँ प्राकृत में हैं । अन्तिम रचना लोकभाषा (अप्रभ्रंश बहुल) में है। लीलावतीगणित (१६८२ ई०)-कवि लालचन्दकृत । ये बीकानेर के निवासी थे। इनका दीक्षानाम लाभवर्द्धन था। इनके गुरु शांतिहर्ष और गुरुभ्राता जिनहर्ष थे। हिन्दी पद्यों में लीलावतीगणित की रचना सं० १७३६ (१६८२ ई०) में बीकानेर में की थी। अन्य रचनाएँ गणित पर 'अंकप्रसार' तथा 'स्वरोदयभाषा', 'शकुन दीपिकाचौपई' भी हैं। Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ........................................................................... अंकप्रस्तार (१७०४ ई.)-कवि लालचंदकृत । परिचय ऊपर दिया है। इनकी रचनाएँ सं० १७६१, (१७०४ ई. में) 'गूढा' में हुई हैं। ऐंचवडि-तमिल भाषा में गणित सम्बन्धी ग्रन्थ है। यह जैनकृति है। इसका व्यवहार व्यापारी परम्परा में विशेष रूप से रहा है। उपर्युक्त विवरण में दिये गये ग्रन्थों के अतिरिक्त गणित पर अन्य ग्रन्थ भी मिलते हैं। कुछ ग्रन्थ ज्योतिष सम्बन्धी गणित पर मुख्य रूप से लिखे गये हैं। भारतीय प्राचीन परम्परा में गणित का उपयोग त्रिलोकसंरचना, राशिसिद्धान्त की व्याख्या और कर्मफल के अंश व फल निरूपण हेतु मुख्य रूप से हुआ है। वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, आयुर्वेद और अन्य विद्याओं में भी गणित का भरपूर उपयोग हुआ है। --0 १ पं० कैलाशचंद्र, दक्षिण में जैनधर्म, पृ०६०। Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-.-. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -. -.-. -. -.-. -.-.-.-.-.-.-.-. जैन साहित्य में कोश-परम्परा 0 विद्यासागरराय, व्याख्याता, महात्मा गांधी रा० उ० मा० विद्यालय, जोधपुर "वक्तृत्वं च कवित्वं च, विद्वत्तायाः फलं विदुः । शब्दज्ञानाहते तन्न, द्वयमप्युपपद्यते ॥" विद्वानों की विद्वत्ता दो रूपों में फलीभूत होती है। विद्वान् या तो अपनी वाणी द्वारा लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं, अथवा अपने संचित ज्ञान को साहित्य सृजन के माध्यम से प्रकट करते हैं। लेकिन वे दोनों कार्य शब्दों के सम्यक् ज्ञान के बिना सम्पन्न नहीं हो सकते । अतः इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए विद्वज्जनों को कोश की आवश्यकता अनुभव होती है। __ 'कोश' शब्द का अर्थ-कोश' शब्द का अर्थ भण्डार, आकर, खजाना, संग्रह आदि होता है। शब्दकोश से अभिप्राय-शब्दों के ऐसे संग्रह से है, जिसमें शब्द, उनके अर्थ, व्युत्पत्ति, प्रयोग आदि सभी कुछ निर्दिष्ट किया होता है । लगभग सभी भाषाओं के अपने-अपने कोश होते हैं । इन कोशों में वर्णादि क्रम से शब्दों की परिचिति, प्रकृति वाक्य विन्यास, आदि का व्यवस्थापन किया जाता है। कोश भी व्याकरण की ही भांति भाषाशास्त्र का महत्त्वपूर्ण भाग है । व्याकरण मात्र यौगिक शब्दों को सिद्ध करता है, जबकि कोश रूढ़ तथा योगरूढ़ शब्दों का भी विवेचन करता है। कोश : उत्पत्ति एवं परम्परा-कोश भाषा का ही अभिन्न रूप है। इसलिये कोशों की उत्पत्ति भी तभी से माननी पड़ेगी, जब से भाषा की उत्पत्ति हुई। जिस प्रकार भाषा का प्राचीन काल में मौखिक रूप था, उसी प्रकार कोशों का भी मौखिक रूप ही रहा होगा। इस देश में कोशों की परम्परा लगभग २६०० वर्ष पूर्व से प्राप्त होती है। भारतीय परम्परा प्राचीन काल में मौखिक रही है। इसलिए इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई सीमा-रेखा नहीं खींची जा सकती, लेकिन कोश पहले 'निघण्टुओं' के रूप में प्रचलित थे। यही परम्परा आगे चलकर जैन-वाङमय में 'नाम-माला' के नाम से प्रचलित रही। निघण्ट कोश वैदिक ग्रन्थों के विषय से मर्यादित हैं। लेकिन इसके विपरीत लौकिक कोश अन्य सब लौकिक विषयों के नाम, अव्यय, लिंग, वचन आदि का ज्ञान कराते हुए शब्दार्थ ज्ञान कराने वाला व्यापक भण्डार है । निघण्टु के बाद निरुक्तकार 'यास्क' ने विशिष्ट शब्दों का संग्रह किया है। तदनन्तर पाणिनि ने 'अष्टाध्यायी' में यौगिक शब्दों का संग्रह करके कोश भण्डार में अभिवृद्धि की है। पाणिनि के समय तक सभी कोश ग्रन्थ 'गद्य' में लिखे गये। बाद में लौकिक कोशों को पद्यबद्ध किया गया। मुख्य रूप से कोश दो पद्धतियों में प्राप्त होते हैं—एकार्थक कोश और अनेकार्थक कोश । जैन-परम्परानुसार सम्पूर्ण जैन वाङमय 'द्वादशांगवाणी' में निबद्ध है। इन्हीं में 'कोश' साहित्य भी पांच महाविद्याओं में से अक्षर विद्या में सन्निहित है । प्रारम्भ में एकादश अंग, चतुर्दश पूर्वो के भाष्य, चूणियाँ, वृत्तियाँ तथा विभिन्न टीकायें कोश साहित्य का काम करती रहीं। कालान्तर में ये ही शब्द कोशों में निबद्ध हो गयीं । शब्द कोशों की परम्परा वदिक काल से ही प्रारम्भ हो जाती है । यास्क के निरुक्त से पहले भी कई निरुक्तकार हो चुके थे । वैयाकरणों ने ही संस्कृत को प्राकृत भाषा में बदलने के लिए वचन व्यवस्था का आदेश दिया। उन्होंने Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + -गी. नाकीम बजी सुन्दर अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड, ही प्राकृत बोलियों को प्राकृत अपभ्रंश नाम दिये । साधारण लोक जीवन में प्राकृतें प्रतिष्ठित थीं। इसी कारण कोश की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई। पांचवीं छठी शती पूर्व तक प्राकृत में शब्द कोशों की रचना नहीं हुई थी । प्राकृतों के रूढ़ होने पर छठी शती में अपभ्रंश प्रकाश में आ गयी थी। जैन परम्परा के अनुसार जैन आगम ग्रन्थ भगवान महावीर के १२३ वर्ष में सर्वप्रथम वल्लभी में देवधगणी 'क्षमाश्रमण' ने लिपिबद्ध किये लगभग पांचवी शताब्दी में जैनागमों के लिपिबद्ध होने तक कोई शब्द कोश नहीं रचा गया, लेकिन साहित्य रचना की दृष्टि से संस्कृत परम्परा प्राचीन रही है। प्राच्य विद्या विशारद 'वूल्हर' ने सर्वप्रथम प्राकृत शब्दकोषों की विवरिणिका बनायी थी । ' जैन वाङ्मय में कोशकार एवं कोश जैन विद्वानों ने एवं मुनियों ने संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश में विविध कोशों की रचना की, जिनका संक्षिप्त उल्लेख एव सामान्य परिचय निम्न पंक्तियों में दिया जा रहा है : (१) धनपाल जैन पाइयलच्छीनाममाला - यह कोश उपलब्ध प्राकृत कोशों में प्रथम है। इसके रचनाकार पं० धनपाल जैन थे । ये गृहस्थ थे। पं० धनपाल जन्म से ब्राह्मण थे। आप धाराधीश मुंजराज की राज्यसभा के सामान्य विदुर थे। मुंजराज आपको सरस्वती कहा करते थे। अपने भाई शोभन मुनि के उपदेश से जैन ग्रन्थों का अध्ययन किया, तदनन्तर जनत्व अंगीकार किया। आपने अपनी छोटी बहिन 'सुन्दरी' में लिए वि० सं० १०२९ में इस कोश की रचना की । 'पाइयलच्छी नाममाला' कोश में २७६ गाथायें हैं। इसमें २६८ शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का संकलन है। देशी शब्दों का इस ग्रन्थ में अच्छा अभिधान हुआ है। स्वयं धनपाल ने देशी शब्दों का उल्लेख किया ।" आज भी हमारे बोलचाल के शब्द इन कोशों में ज्यों के त्यों मिलते हैं। जैसे - कु पल ( कोंपल), मुक्खा (मूर्ख), खाइया (खाई) आदि । इसी प्रकार संस्कृत एवं अन्य भाषाओं के शब्द भी इष्टव्य हैं। हेमचन्द्रविरचित अभिधानचिन्तामणि में भी इसकी प्रामाणिकता एवं महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। शार्ङ्गधर पद्धति में भी धनपाल के कोश विषयक ज्ञान का उल्लेख मिलता है। पं० धनपाल द्वारा विरचित अन्य ग्रन्थ निम्न हैं २. श्रावक विधि, ४. महावीरस्तुति, ६. शोभनस्तुति टीका १. तिलक मंजरी, ३. ऋषभपंचाशिका ५. सत्यपुंडरीक मंडन (२) धनंजय : धनंजयनाममाला - कवि धनंजय ने 'धनंजयनाममाला' की रचना की । इनके काल का निर्धारण भी अभी नहीं हो पाया है । कतिपय विद्वान् इनका समय नौवीं; कोई दशवीं शताब्दी मनाते हैं । आप दिगम्बर जैन थे । 'द्विसंधान महाकाव्य' के अन्तिम पद्य की टीका के अनुसार धनंजय के पिता का नाम वसुदेव, माता का नाम श्रीदेवी और गुरु का नाम दशरथ सूचित किया गया है । ५ १. Zachariae in Die - Indischen Worterbucher in Buhler's Encyclopaedia 1897. २. कइओ अंध अणकि वा कुसलत्ति पयाणमतिना वण्णा । नामाम्मि जस्स कम सो तेणेसा निरइया देशी ॥ ३. "पोओ वहणं सबरा य किराया " दलीय २७४ ४. आचार्य प्रभाचन्द्र और वादिराज ( ११वीं शती) ने धनंजय के द्विसंधान महाकाव्य का उल्लेख किया है। सूक्ति मुक्तावली में राजशेखर कृत धनंजय की प्रशस्ति सूक्ति का उल्लेख है । ५. महावीर जैन सभा, खंभात शक संवत् १८१८ (मूल) . Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "मानता है कि "हो वे हैं. लेकिन किसी आवृति में तीन तो किसी में पाँच, श्लोक, अधिक भी मिलते हैं । इस कोश में १७०० शब्द हैं। आपने इन श्लोकों की रचना 'अनुष्टुप् छन्द में की है। इस कोश में एक शब्द से शब्दान्तर करने की विशेष पद्धति का प्रतिपादन किया गया है । जैसे—मनुष्य वाचक शब्द से आगे 'पति' शब्द जोड़ देने से 'नृपवाची' नाम बनता है। 'वृक्ष' वाची के आगे 'चर' शब्द जोड़ देने से वानरवाची नाम बनता है। इस प्रकार आपका प्राकृत कोश आजकल के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है। इस कोश के अध्ययन से सरलता के साथ संस्कृत का शब्द भण्डार बढ़ता है । धनंजय के काव्यग्रन्थ निम्न हैं ला जाता है। (२) आचार्य हेमचन्द्र अभिधानचितामणिनाममाला- आचार्य हेमचन्द्र ने 'अभिधानचितामणिनाममाला' का प्रणयन किया है। आपका समय १३वीं शती के लगभग है। आपका पूरा नाम हेमचन्द्रसूरि है । आचार्य हेमचन्द्र के जीवनवृत्त का ठीक-ठीक पता नहीं चलता । इनकी रचनाओं में इन्होंने अपना या अपने वंश का उल्लेख नहीं किया है। क्र० सं० १. २. ३. इस कोश का आरम्भ शब्दानुशासन के समस्त अंगों की रचना प्रतिष्ठित हो जाने के बाद किया है ।" आपने स्वयं कोश की उपयोगिता बताते हुए लिखा है- "बुधजन वक्तृत्व और कवित्व को विद्वत्ता का फल बताते हैं । परन्तु ये दोनों शब्द ज्ञान के बिना सिद्ध नहीं हो सकते ।" इस कोश की रचना 'अमरकोश' के समान ही की गयी है। यह कोश रूद, यौगिक और मिश्र एकार्थक शब्दों का संग्रह है। इसमें कांडों का विभाजन निम्न प्रकार हुआ है ४. इस कोश की स्तोत्र, उन सभी ग्रन्थों पर विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न टीकायें लिखी है। कई भाव्य भी उपलब्ध होते हैं। ५० ६. काण्ड देवाधिदेव काण्ड देवनाण्ड मर्त्य काण्ड तिर्यक् काण्ड जैन साहित्य में कोश-परम्परा ४२३ १. प्रणिवत्यार्हतः सिद्धसांगशब्दानुशासनः । रूढ यौगिक मिश्राणां नाम्नां मालां तनोम्यहम् ॥ वक्तृत्वं च कवित्वं च विद्वत्तायाः फलं विदुः । शब्दज्ञानादृते तन्न यमप्युपपद्यते ॥ श्लोक ६८ २५० ५६७ २. राघवीय ४. अनेकार्थ निघण्टु । ४२३ ७ नारक काण्ड साधारण काण्ड १७८ नवीन एवं प्राचीन शब्दों का इस ग्रन्थ में कुल १५४१ श्लोक हैं। अमरकोश से यह कोश शब्द संख्या में डेढ़ गुना बड़ा है | पर्यायवाची शब्दों के साथ-साथ भाषा-सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सामग्री भी इसमें प्राप्त होती है। इसमें समन्वय है। इसकी एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि इन्होंने कवि द्वारा प्रयुक्त और सामान्य बन्दों को ग्रहण नहीं किया है । विषय २४ तीर्थंकर तथा उनके अतिशयों के नाम । देवता तथा तत्सम्बन्धी वस्तुओं के नाम । मनुष्यों एवं उनके व्यवहार में आने वाले पदार्थों के नाम । पशु, पक्षी, जीव, जन्तु, वनस्पति, खनिज आदि के नाम । नरकवासियों के नाम । ध्वनि, सुगन्ध और सामान्य पदार्थों के नाम । -0 ·0 o . Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ___ भाषा की दृष्टि से यह कृति अमूल्य है, इसमें प्राकृत, अपभ्रंश और देशी भाषाओं के शब्दों का पूर्ण प्रभाव स्पष्ट है। हेमचन्द्रसूरि की अन्य कृतियाँ निम्न हैं१. अभिधानचिंतामणि, २. अनेकार्थ संग्रह, ३. निघंटु संग्रह, ४. देशीनाममाला, ५. (रयणावली)। आचार्य हेमचन्द्रसूरि : अभिधानचितामणिवृत्ति-यह रचना भी आचार्य हेमचन्द्रसूरि की ही का को 'तत्त्वाभिधायिनी' भी कहा गया है, इसमें शब्दों के संग्राहक श्लोक निम्न प्रकार है- की जान कांड श्लोक प्रथम काण्ड चतुर्थ काण्ड द्वितीय काण्ड पंचम काण्ड तृतीय काण्ड षष्ठ काण्ड काण्ड Mrs इस प्रकार इसमें कुल २०४ श्लोक हैं । इन श्लोकों में अभिधानचिंतामणिनाममाला मिला देने से कुल श्लोक संख्या १५४५ हो जाती है । इस ग्रन्थ में ५६ ग्रन्थकारों एवं ३१ ग्रन्थों का उल्लेख है। हेमचन्द्रस रि : अनेकार्थसंग्रह-इस कोश का प्रणयन हेमचन्द्रसूरि ने विक्रम संवत् १३वीं शती में किया। इस कोश में प्रत्येक शब्द के अनेक अर्थ प्रतिपादित किये गये हैं। इस ग्रन्थ के काण्ड एवं श्लोक संस्था निम्नवत् है श्लोक ४८ काण्ड श्लोक काण्ड १. एकस्वर काण्ड ५. पंचस्वर काण्ड २. द्विस्वर काण्ड ६. षट्स्वर काण्ड ३. त्रिस्वर काण्ड ७. अव्यय काण्ड ४. चतुःस्वर काण्ड ३४३ ___इस प्रकार इसमें १८२६+६० पद्य हैं। इस कोश में भी देश्य शब्द हैं । यह ग्रन्थ अभिधानचिंतामणि के बाद ही लिखा गया है। इसके आदि श्लोक से यही ज्ञात होता है। आचार्य हेमचन्द्रसूरि : निघण्टु शेष-आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने निघण्टु शेष नामक वनस्पति कोश का भी प्रणयन किया है । 'निघण्टु' शब्द का अर्थ 'वैदिक शब्द समूह' होता है । लेकिन बनस्पति कोशों को भी निघण्टु कहने की परम्परा है।' डॉ० व्यूल्हर के अनुसार यह एक श्रेष्ठ वनस्पति कोश है । इस कोश की रचना करते समय आचार्य के सामने 'धन्वन्तरि निघण्टु कोश' रहा होगा। इस ग्रन्थ की रचना के विषय में आचार्य ने लिखा है विहितैकार्थ-नानार्थ-देश्यशब्द समुच्चयः । निघण्टुशेषं वक्ष्येहं, नत्वाहत् पदपंकजम् ॥ इसमें छ: काण्ड निम्नवत् हैं १. एकार्थानेकार्था देश्या निघण्टु च चत्वारः । विहिताश्च नामकोश भुवि कवितानट्युपाध्यायः ।। Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में कोश-परम्परा ४२५ . -. -. - . - . - . - . - . - . - . -. -. -. - . - . -. -. -. -. - . -. - . -. -. -. -. -. - . -. -. -. - . -. - . -. -. - . -. श्लोक श्लोक १०५ ma काण्ड काण्ड १. वृक्षकाण्ड १८१ २. गुल्मकाण्ड ३. लताकाण्ड ४४ ४. शाककाण्ड ५. तृणकाण्ड १७ ६. धान्यकाण्ड इस प्रकार इस कोश की कुल श्लोक संख्या ३६६ है । यह कोश आयुर्वेदिक ज्ञान के लिए अत्यन्त उपयोगी है । आचार्य हेमचन्द्रसूरि : देशी शब्द संग्रह-आचार्य सूरि ने देशज शब्दों के लिए इस देश्य शब्दों के कोश की रचना की है। इसका अपर अभिधान 'देशी नाममाला' भी है। इसी को 'रयणावली' नाम से भी अभिहित किया जाता है। इस कोश की ७८३ गाथाओं का विभाजन निम्नवत् हुआ है१. स्वरादि २. कवर्गादि ३. चवर्गादि ४. टवर्गादि ५. तवर्गादि ६. पवर्गादि ७. यकारादि ८. सकारादि इस कोश की रचना करते समय विद्वान् कोशकार के समक्ष अनेक कोश ग्रन्थ विद्यमान थे। इन्होंने कोश ग्रन्थ की प्रयोजन इस प्रकार सिद्ध किया है जे लक्खणे ण सिद्धा ण पसिद्धा सक्काया हिहाणेसु । ण य गउडलक्खणासत्ति संभवा ते इह णिबद्धा ॥ इस कोश पर भी विभिन्न विद्वानों ने टीकायें एवं भाष्य लिखे हैं। जिनदेव मुनि : शिलोंच्छ कोश-अभिधान चिंतामणि के दूसरे परिशिष्ट के रूप में यह कोश रचा गया है। इस कोश के प्रणयन कर्ता जिनदेव मुनि हैं । जिनरत्न कोश के अनुसार इनका समय सं० १४३३ के आसपास निश्चित होता है। यह कोश परिशिष्ट के रूप में १४० श्लोकों में निबद्ध है। कई स्थानों पर यह १४६ श्लोकों में भी प्राप्त होता है। ज्ञानविमलसूरि के शिष्य वल्लभ ने इस पर टीका लिखी है। सहजकीति : नामकोश-इस कोश के रचयिता सहजकीति थे। आप रत्नसार मुनि के शिष्य थे। इनके निश्चित काल का ज्ञान नहीं हो सका है। कोश के आधार पर आपका समय सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी निश्चित होता है। इस कोश का आदि श्लोक इस प्रकार है स्मृत्वा सर्वज्ञामात्मानम् सिद्धशब्दार्णवान् जिनान् । सालिंगनिर्णयं नामकोशं सिद्ध स्मृति नमे ॥ तथा कोश का अन्तिम श्लोक निम्न है कृतशब्दार्णवैः सांगाः श्रीसहजादिकीतिभिः । सामान्यकांडो यं षष्ठः स्मृतिमार्गमनीयत् ।। इस कोश पर भी भाष्य एवं कतिपय टीकायें उपलब्ध हैं। मुनि जी की मुख्य अन्य रचनायें निम्न प्रकार हैं १. जिन रत्नकोश, पृ० ३८३. Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ कर्मयोगी श्री केसरीमलगी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड १. शतदन्तकमलालंकृतलोप्रपुरीयपार्श्वनाथस्तुति।। ५. एका दिदशपर्यन्त शब्द साधनिका २. महावीरस्तुति ६. सारस्वत वृति ३. कल्पमंजरी टीका ७. शब्दार्णव आदि। ४. अनेक शास्त्र सार समुच्चय पद्मसुन्दर : सुन्दरप्रकाशशब्दार्णव-इस कोश के प्रणेता पद्मसुन्दर हैं। आप पद्ममेरु जी के शिष्य थे। इनकी यह रचना वि० सं १६१६ की है। इस प्रमाण के आधार पर आपका काल सत्रहवीं शती निश्चित होता है। सम्राट अकबर के साथ आपका घनिष्ठ सम्बन्ध था। अकबर ने आपको आपकी बुद्धि एवं शास्त्रार्थ की क्षमता पर सम्मानित भी किया था। आगरा में आपके लिए अकबर द्वारा 'धर्मस्थानक' भी बनवाया गया था। पं० पद्मसुन्दर ज्योतिष, वैद्यक, साहित्य और तर्कशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे। सुन्दरप्रकाशशब्दार्णव की हस्तलिखित प्रति वि० सं० १६१६ की लिखी हुई प्राप्त हुई है। इस कोश में २६६८ पद्य हैं । इसकी ८८ पत्रों की हस्तलिखित प्रति सुजानगढ़ में श्री पनेचन्दजी सिंघी के संग्रह से प्राप्त हुई है। यह कोश शब्दों तथा उनके अर्थों की विशद विवेचना करता है। आधुनिक समय के लिए यह एक अत्यन्त उपयोगी है। उपाध्याय भानुचन्द्रगणि : नामसंग्रह-उपाध्याय भानुचन्द्रगणि ने इस कोश की रचना की है। इसी कोश के अन्य 'अभिधान नाममाला' तथा 'विविक्त नाम संग्रह है। इसी कोश को कई विद्वान् भानुचन्द्र नाममाला' भी कहते हैं।' उपाध्याय भानुचन्द्रगणि सूरचन्द्र के शिष्य थे। वि० सं० १६४८ में इनको लाहौर में 'उपाध्याय' की पदवी प्राप्त हुई। इन्होंने सम्राट अकबर के सामने स्व रचित 'सूर्य सहस्रनाम' का प्रत्येक रविवार को पाठ किया था। इस कोश में अभिधान चिंतामणि के अनुसार ही छ: काण्ड हैं। काण्डों के शीर्षक भी लगभग उसी क्रम से दिये गये हैं । नाम संग्रह का अपनी दृष्टि से अलग ही महत्व है। भानुचन्द्रगणि विरचित अन्य ग्रन्थ निम्न हैं१. रत्नपाल कथानक २. कादम्बरी वृति ३. सूर्य सहस्रनाम ४. वसन्तराज शाकुन वृत्ति ५. विवेक विलास वृत्ति ६. सारस्वत व्याकरण वृत्ति हर्षकीतिसूरि : शारदीय नाममाला-इस कोश के प्रणेता चन्द्रकीर्ति सूरि के शिष्य हर्षकीतिसूरि थे। इनका काल सत्रहवीं शती है। इनके जीवन वृत्त का अन्य विवरण अप्राप्य है । शारदीयनाममाला में कुल ३०० श्लोक हैं। शोध कर्म की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण कोश है । इस कोश का नाम 'शारदीय अभिधानमाला' भी है। इस कोश के अतिरिक्त भी इन्होंने 'योग चिन्तामणि', 'वैद्यकसारोद्धार' आदि ८ ग्रन्थ तथा टीकायें लिखी हैं । मुनि साधुकीति : शेष नाममाला-खरतरगच्छीय मुनि साधुकीति ने इस कोश ग्रन्थ की रचना की है। यह भी अन्य नाममालाओं की तरह ही एक लब्ध प्रतिष्ठ कोश है । इनका काल सत्रहवीं शती था। आपने अकबर के दरबार में शास्त्रार्थ में खूब ख्याति प्राप्त की थी। बादशाह ने प्रसन्न होकर इनको 'वादिसिंह' की पदवी से सम्मानित किया था। ये सहस्रों शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान् थे।' १. जैन ग्रन्थावली पृ० ३११ २. खरतरगण पाथोराशि वृद्धौ.. शास्त्रसहस्रसार विदुषां"..... उक्ति रत्नाकर प्रशस्ति। - . Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में कोश-परम्परा ४२७. . ................................................................. साधुसुन्दर गणि : शब्द रत्नाकर-खरतरगच्छीय साधुसुन्दरगणि ने वि० सं० १६८० में इस कोश की रचना की । साधुसुन्दरमणि साधुकीर्ति के शिष्य थे। इनके जीवन-वृत्त के बारे में अधिक जानकारी अप्राप्य है। यह पद्यात्मक कृति है । इसमें छ: काण्ड हैं१. अर्हत् २. देव ३. मानव ४. तिर्यक ५. नारक ६. सामान्य काण्ड। इनकी अन्य रचनायें-'शक्ति रत्नाकार' और 'धातु रत्नाकर' हैं । मुनिधरसेन : विश्वलोचन कोश-मुनि धरसेन ने विश्वलोचन कोश की रचना की है। इसी का अपर नाम मुक्तावली कोश भी है। आप सेन वंश में उत्पन्न होने वाले कवि और वादी मुनिसेन के शिष्य थे। ये समस्त शास्त्रों पारगामी तथा काव्यशास्त्र के मर्मज्ञ थे। इनके काल का निश्चित ज्ञान नहीं होता। एक अनुमान के अनुसार इनका समय चौदहवीं शती था। इस अनेकार्थ कोश में २४५३ श्लोक है। इस कोश के रचनाक्रम में स्वर और क वर्ग आदि के क्रम से शब्द के आदि का निर्णय किया गया है। इनमें शब्दों को ३३ वर्ग, क्षान्त वर्ग और अव्यय वर्ग, इस प्रकार ३५ वर्गों में विभक्त किया गया है। जिनभद्रसरि : अपवर्ग नाममाला-इस कोश के प्रणेता जिनभद्रसूरि हैं । ये अपने आपको 'जिनवल्लभसूरि' और 'जिनदत्तसूरि' का सेवक भी कहते थे।' इस आधार पर इनका रचना काल १२वीं शती निश्चित होता है। लेकिन इस समय के बारे में विद्वान् एक मत नहीं हैं। इस ग्रन्थ का नाम 'जिन रत्न कोश' में 'पंचवर्गपरिहारनाममाला' दिया गया है। लेकिन इसका आदि और अन्त देखते हुए 'अपवर्ग नाममाला' नाम ही उचित प्रतीत होता है। इस कोश में पाँच वर्ग यानी क से म तक के वर्गों को छोड़कर य, र, ल, व, श, प, स, ह-इन आठ वर्गों में से कम ज्यादा वर्णों से बने शब्दों को बताया गया है। इस प्रकार यह कोश अपने आप में अनूठा है। अमरचन्द्रसूरि : एकाक्षर नाममालिका-इस कोश का प्रणयन १२वीं शती में अमरचन्द्रसूरि द्वारा किया गया। अमरचन्द्रसूरि ने गुजरात के राजा विसलदेव की राजसभा को अलंकृत किया था। ये शीघ्र कवित्व के कारण समस्यापूर्ति में बड़े निपुण थे। आपका समकालीन कवि समाज में अत्यन्त सम्मान था। इस कोश का प्रथम श्लोक अमर कवीन्द्र नाम दर्शाता है। इन्होंने सभी कोशों का अवलोकन करके इस कोश की रचना की है, इसमें २१ श्लोक हैं। इनके अन्य ग्रन्थ निम्न हैं१. बाल भारत २. काव्यकल्पलता ३. पद्मानन्द महाकाव्य ४. स्यादि शब्द समुच्चय । महाक्षपणक: एकाक्षर कोश-एकाक्षर कोश 'महाक्षपणक' प्रणीत है। प्रणेता के सम्बन्ध में "एकाक्षरार्धसंलापः स्मृतः क्षपणकादिभिः" के अतिरिक्त कुछ जानकारी प्राप्त नहीं होती। १. श्रीजिनवल्लभ जिनदत्तसूरिदेवी जिनप्रिय विनेयः । अपवर्ग नाममालामकरोज्जिनभद्रसूरिरिमान् ॥ Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -O ४२८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड कवि ने प्रारम्भ में ही आगमों, अभिधानों, धातुओं और शब्द शासन से यह एकाक्षर नाम अभिधान किया है । इसमें क सेक्ष तक के व्यंजनों के अर्थ प्रतिपादन के बाद स्वरों के अर्थ को स्पष्ट किया है। इसमें कुल ४१ पद्य हैं । सुधाकलशमुनि : एकाक्षर नाममाला - इस कोश के प्रणेता सुधाकलश मुनि है । अन्तिम पथ में दिये गये इनके परिचय से पता चलता है कि ये 'मलधारिगच्छमती गुरु राजशेखरसूरि के शिष्य थे। इनके जीवन वृत्त के बारे में भी ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं हुई है । एकाक्षर नाममाला में ५० पद्य हैं । उपाध्याय सुन्दरगणि ने सं० १६४६ में अर्थ रत्नावली में इस कोश का नाम-निर्देश किया है। इसमें भी वर्णानुक्रम शब्द रचना का निर्देश किया है। इस प्रकार अठारहवीं शती से पूर्व जैन कोशों की एक निरन्तर परम्परा रही। कुछ कोश अत्यन्त विशालकाय पाये गये तो कुछ लघुकाय । उपर्युक्त मुख्य कोशों के अतिरिक्त भी कुछ छोटे कोशों की रचना भी अठारहवीं शती से पूर्व हो चुकी थी । जिनमें कतिपय निम्न है १. निघण्टु समय : धनंजय ३. अवधान चिन्तामणि अवचूरि : अज्ञात ५. शब्दचन्द्रिका ७. अव्ययेकाक्षर नाममाला सुधाकलशराणि ६. शब्दरत्नप्रदीप: कल्याणमल्ल ११. पंचकी संग्रह नाममाला मुनि सुन्दरसूरि १३. एकाक्षर कोश : महाक्षपणक इत्यादि । २. अनेकार्थनाममाला : धनंजय ४. अनेकार्य संग्रह हेमचन्द्रसूरि ६. शब्दभेद नाममाला महेश्वर शब्द-संदोह संग्रह ताड़पत्रीय (अज्ञात) १०. गतार्थकोश : असंग १२. एकाक्षरी नानार्थकाण्ड : धरसेनाचार्य इन सभी कोश ग्रन्थों पर विभिन्न मनीषी विद्वानों ने टीकायें लिखी हैं, जिनमें निम्न मुख्य हैं धनंजय नाममाला भाष्य अमरकीर्ति, अनेकार्थं नाममाला टीका अज्ञात, अभिधान चिन्तामणि वृत्ति, अभिधान चिन्तामणि टीका, व्युत्पत्ति-रत्नाकर, अभिधान चिन्तामणि अवचूरि, अभिधान चिन्तामणि बीजक, अभिधान चिन्तामणि नाममाला प्रतीकावली, अनेकार्थ संग्रह टीका, निघण्टु शेष - टीका इत्यादि । इस प्रकार ये सब कोश अठारहवीं शती तक रखे गये। आधुनिक कोशों का आरम्भ उन्नीसवीं शती से माना जा सकता है। इन कोशों की रचना शैली का आधार पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विरचित शब्दकोश रहे हैं। इन सदियों में भी जैन विद्वानों ने अमूल्य कोशों की रचना करके कोश साहित्य एवं परम्परा को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । आधुनिक मुख्य कोशकारों एवं कोशों का अति संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है - विजयराजेन्द्र र अभिधानराजेन्द्र कोश इस कोश के प्रणेता विजयचन्द्रसूरि थे। इनका जन्म सं० १००३ (सन् १८२६ ) पोष शुक्ल गुरुवार को भरतपुर में हुआ था। आपके बचपन का नाम रत्नराज था। आप संवत् १९०३ में स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित होकर 'रत्न विजय' बने । संवत १९२३ में आप मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में दीक्षित हुए और 'विजयराजेन्द्रसूरि' नाम से आचार्य की पदवी प्राप्त की। आप अच्छे प्रवक्ता और शास्त्रार्थक थे । सन् १९०६ में राजगढ़ में आपका देहावसान हो गया । इस कोश ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है इस कोश में अकारादि क्रम से अनुवाद फिर व्युत्पत्ति, लिंग निर्देश तथा जैन आगमों के अनुसार उनका की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि जैन आगम आचार्य विजयचन्द्रसूरि ने स्वयं प्राकृत शब्द, तत्पश्चात् उनका संस्कृत में अर्थ प्रस्तुत किया गया है। इस फोन जो इस महाकोश में न आया हो। अत: मात्र इस कोश को देखने से ही जैन आगमों का बोध हो जाता है। का कोई भी विषय न रहा . Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में कोश-परम्परा ४२६ -. -.-.-.-. -. -.-.-. -. -.-.-. -.-. अभिधानराजेन्द्रकोश की श्लोक संख्या साढ़े चार लाख है। अकारादि वर्णानुक्रम से साठ हजार प्राकृत का संकलन है।' इस कोश की विशेषता यह भी है कि कोशकार ने प्राकृत, जैन-आगम, वृत्ति, भाष्य, चूणि आदि में उल्लिखित सिद्धान्त, इतिहास, शिल्प, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा आदि का भी इसमें संग्रह किया है। यह कोश रतलाम से सात भागों में प्रकाशित हुआ है। इस कोश में प्राचीन टीका, व्याख्या तथा ग्रन्थान्तरों का भी उल्लेख मिलता है। तीर्थ और तीर्थंकरों के बारे में भी बताया गया है।' संक्षेप में कोश निम्न प्रकार है ऋ० सं० भाग वर्ण पृष्ठ प्रकाशनकाल ८९४ प्रथम भाग द्वितीय भाग तृतीय भाग चतुर्थ भाग पंचम भाग पष्ठ भाग सप्त भाग अ वर्ण आ-ऊ ए-क्ष ज-न प-भ म-व ११७८ १३६४ २७७८ १६३६ १४६६ १२४४ १६१० १६१३ १६१४ १९१७ १६२१ १९२३ स-ह १६२५ इस प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोश पाठकों के लिए बृहत् ज्ञान प्रस्तुत करता है। मुनि रत्नचन्द्र : अर्धमागधी कोश-इस कोश के प्रणेता मुनि रत्नचन्द्र हैं। ये लीम्बड़ी सम्प्रदाय के स्थानकवासी साधु थे। मुनि जी का जन्म संवत् १९३६ वैशाख शुक्ल १२ गुरुवार को हुआ। ये कच्छ में भरोसा नामक ग्राम के निवासी थे। आपका विवाह तेरह वर्ष की अवस्था में हुआ। सं० १९५३ में पत्नी की मत्यु हो गयी। तत्पश्चात् इन्हें संसार से विरक्ति हो गयी और दीक्षा ले ली। इन्होंने जीवन के उत्तर काल में इस महाकोश की रचना की। अर्ध मागधी कोश मूलत: गुजराती में लिखा गया। इस कोश की रचना में मुनि उत्तमचन्द जी, आत्माराम जी, मुनि माधव जी, तथा मुनि देवेन्द्र जी ने भी सहयोग दिया। इसका हिन्दी तथा अंग्रेजी में रूपान्तर प्रीतम लाल कच्छी तथा उनके सहयोगी विद्वानों ने किया । यह कोश निम्न रूप में प्रकाशित हुआ है भाग वर्ण पृष्ठ प्रकाशन वर्ष ५१२ प्रथम भाग द्वितीय भाग तृतीय भाग चतुर्थ भाग अ आ-ण त-ब १००२ १००० १०१५ १६२३ १६२७ १६२६ १६३२ भ-ह (परिशिष्ट सहित) १. अभिधान राजेन्द्र कोश, भूमिका पृष्ठ १३ २. अभिधान राजेन्द्र कोश, भूमिका पृ० १३ Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ o ४३० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खंड इस प्रकार लगभग ३६०० पृष्ठों में यह कोश समाप्त होता है । पाँच भाषाओं में अनूदित होने के कारण इसे हम 'पंचभाषाकोष' भी कह सकते हैं। इस कोश में अभिधान राजेन्द्रकोश की कमियों को दूर करने का प्रयत्न किया गया है। अर्ध मागधी के अतिरिक्त प्राकृत बोलियों के शब्दों को भी इसमें स्थान प्राप्त है । यह कोश चित्रमय भी है; जैसे आवलिका बंध विमान, आसन, ऊर्वलोक, उपशमश्रेणी, मनकावली, कृष्णराजी कालचक्र, क्षपक श्रेणी, धनरज्जु आदि पारस्परिक चित्र प्रमुख हैं। इस कोश का पूरा नाम An Illustrated Ardh Magadhi Dictionary है । इसका प्रकाशन एस० एस० जैन कान्फ्रेस इन्दौर से हुआ है। मुनि रत्नचन्द्रजी का यह कोश छात्रों और शोधकों के लिए उद्धरण ग्रन्थ है। पं० हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द्र सेठ पाइय-समय सेठजी का जन्म वि० सं० १९४५ में राधनपुर (गुजरात) में हुआ। इनकी शिक्षा यशोविजय जैन पाठशाला, वाराणसी में हुई। इन्होंने यहाँ संस्कृत एवं प्राकृत का अध्ययन भी किया । आप पालि का अध्ययन करने के लिए श्रीलंका भी गये। बाद में संस्कृत गुजराती एवं प्राकृत के अध्यापक के रूप में कलकत्ता विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए। यशोविजय जैन ग्रन्थमाला से आपने अनेक संस्कृत - प्राकृत ग्रन्थों का सम्पादन भी किया। लगभग ५२ वर्ष की अवस्था में संवत् १६७७ में आप भौतिक शरीर से मुक्त हो गये । I विद्वानों का ऐसा अनुमान है कि सेठ जी ने इस कोश ग्रन्थ की रचना 'अभिधान राजेन्द्र कोश' की कमियों को दूर करने के लिए की इन्होंने स्वयं लिखा है-इस तरह प्राकृत के विविध भेदों और विषयों के जैन तथा जैनेतर साहित्य के यथेष्ट शब्दों के संकलित आवश्यक अवतरणों से युक्त शुद्ध एवं प्रामाणिक कोश का नितान्त अभाव रहा। इस अभाव की पूर्ति के लिए मैंने अपने उक्त विचार को कार्य रूप में परिणत करने का दृढ़ संकल्प किया और तदनुसार ही प्रयत्न भी शुरू कर दिया। जिसका फल प्रस्तुत कोश के रूप में चौदह वर्षों के कठोर परिश्रम के पश्चात् आज पाठकों के सामने है। ५० पृष्ठ की विस्तृत प्रस्तावना लिखी। शब्द के साथ किसी ग्रन्थ का प्रमाण भी बताया है। अतः यह कोश अत्यन्त उपयोगी कोशकार ने इस कोश को बनाने में अपार परिश्रम तथा धन व्यय किया । इन्होंने आधुनिक ढंग से लगभग इस ग्रन्थ के निर्माण में लगभग ३०० ग्रन्थों से सहायता ली गयी । प्रत्येक दिया गया है। एक शब्द के सभी सम्भावित अर्थों को भी कोशकार ने बन पड़ा है। : सम्पादक - जुगलकिशोर मुख्तार पुरातन जैन वाक्य सूची - मुख्तार जी प्राचीन जैन विद्या के विख्यात अनुसन्धाता थे। आपने अपने जीवन के पचास वर्ष खोज एवं अनुसन्धान में ही व्यतीत किये हैं। आपके ग्रन्थों में गागर में सागर भरा है । इसमें ६४ मूल ग्रन्थों के पद्य वाक्यों की वर्णादिक्रम । इसमें कुल २५३२५२ प्राकृत पद्यों की अनुक्रमणका पुरातन जैन वाक्य सूची वास्तव में एक कोश ग्रन्थ है। से सूची दी है। इसी में टीकाओं से प्राकृत पद्य भी दिये गये हैं है । इसके सहायक ग्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदाय के हैं । यह ग्रन्थ शोधकों के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। इसका प्रकाशन वीर सेवा मन्दिर से सन् १६५० में हुआ । इस ग्रन्थ की प्रस्तावना में सम्बद्ध ग्रन्थों और आचार्यों के समय तथा उनके सहयोग पर भी कहा गया है। सम्पादक युगल किशोर मुख्तार, पं० परमानन्द शास्त्री जैन प्रशस्ति संग्रह इस प्रशस्ति संग्रह के दो भाग हैं । प्रथम भाग का सम्पादन श्री जुगलकिशोर मुख्तार जी ने किया है। इस कोश में संस्कृत - प्राकृत भाषाओं के १७१ ग्रन्थों की प्रशस्तियों का संकलन किया गया है। ये सभी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें संघ, १. पाइयसद्दमहण्णव, भूमिका, पृ० १४ (द्वितीय संस्करण) . Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यौन साहित्य में कोश-परम्परा गण, गच्छ, वंश, गुरु-परम्परा, स्थान, समय आदि का संकेत मिलता है। इसमें ११३ पृष्ठों में पं० परमानन्द जी लिखित प्रस्तावना भी विशेष महत्त्वपूर्ण है । ४३१ जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह के दूसरे कोश के सम्पादक पं० परमानन्द शास्त्री हैं। शास्त्रीजी इतिहास एवं साहित्य के गणमान्य विद्वान् हैं। आपके द्वारा सौ से भी उपर शोध प्रबन्धों को स्वयं लिखकर प्रकाशित कराया गया । इस द्वितीय भाग में अपभ्रंश ग्रन्थों की १२२ प्रशस्तियाँ प्रल्लिखित हैं। इससे तत्कालीन धार्मिक एवं - सामाजिक रीति-रिवाज पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इन प्रशस्तियों को पांडुलिपियों में से उद्धृत किया गया है - और यथासम्भव अप्रकाशित ग्रन्थों को ही सम्मिलित किया गया है। लगभग १५० पृष्ठों की भूमिका भी विशेष महत्त्व रखती है । इसका प्रकाशन १९६३ में दिल्ली से हुआ । सम्पादक - श्री मोहनलाल बांठिया एवं श्रीचन्द चोरडिया : लेश्या कोश - इस ग्रन्थ का प्रकाशन संपादन श्री चोरडिया जी ने किया है। यह ग्रन्थ १६६६ में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। ये दोनों जैन वाङ्मय के प्रकांड विद्वान् थे । इन्होंने जैन वाङ्मय को सर्वविदित दशमलव प्रणाली के आधार पर १०० वर्गों में विभक्त किया है । इसके सम्पादन में मुख्य रूप से तीन बातों का ध्यान रखा गया है। पाठों का मिलान विषय के उपविषयों का बर्गीकरण और हिन्दी अनुवाद, इसमें टीकाकारों का भी आधार लिया गया है। इसमें निर्युक्ति, चूणि, वृत्ति, भाष्य आदि का भी यथास्थान उपयोग किया गया है। इस कोश में दिगम्बर ग्रन्थों का उल्लेख नहीं हैं । इस ग्रन्थ के निर्माण में ४३ ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है । : में सम्पादक - मोहनलाल बांठिया एवं श्रीचन्द चोरडिया क्रिया कोश- इस कोश को सन् १६६६ में 'जैन दर्शन समिति' कलकत्ता ने प्रकाशित किया है। जैन दर्शन गहरी पैठ रखने के कारण ही बांठिया जी के अथक परिश्रम से यह कोश बन सका । इसका निर्माण भी दशमलव प्रणाली के आधार पर किया गया है। क्रिया के साथ-साथ कर्म को भी इसमें आधार बनाया गया है। इसके संकलन में ४५ ग्रन्थों का उपयोग किया गया है । सेश्या कोश के समान ही इसमें भी तीन बिन्दुओं को आधार माना है। लेकिन इसमें कुछ ग्रन्थों का भी उल्लेख किया गया। इस प्रकार के कोश जैन दर्शन को समझने के लिए अत्यन्त उपयोगी है । सम्पादक - > जैनी : जैन जेम डिक्सनरी (Jain Gem Dictionary ) — इसका सम्पादन जैन दर्शन - जे ० ० एल एवं जैन आगमों के ख्यातनामा विद्वान् जे० एल० जैनी ने किया। इसका प्रकाशन सन् १९१६ में आगरा से किया गया । जैन धर्म को आंग्ल भाषा के माध्यम से प्रस्तुत करने में श्री जैनी महोदय का महत्त्वपूर्ण योगदान है । यह कोश जैन पारिभाषिक शब्दों को समझने के लिए बहुत उपयोगी है। इसमें सभी जैन पारिभाषिक शब्दों को समझने के लिए वर्णानुक्रम से व्यवस्थित करके अँग्रेजी में अनुवाद किया गया है। इसका एक और प्रत्यक्ष लाभ यह रहा कि आँग्ल भाषी लोग भी जैन दर्शन एवं आगम के बारे में आसानी में समझ सकें । इस कोश को आधार बनाकर परवर्ती विद्वानों ने जैन सिद्धान्त प्रवेशिका, बृहज्जैन शब्दार्णव, अल्प परिचित सैद्धान्तिक शब्दकोश आदि का प्रणयन किया है । 1 सुल्लक जिनेा वर्गी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश इस कोश के प्रणेता क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णों है वर्गी जी का जन्म १९२१ में पानीपत में हुआ। आपके पिता जय भगवान एक वकील, जाने-माने विचारक और विद्वान् थे । इनको क्षय रोग हो गया था। अतः एक ही फेफड़ा होते हुए भी आप अभी तक जैन वाङ् मय की श्रीवृद्धि कर रहे हैं । आपने सन् १६५७ में घर से संन्यास ग्रहण कर लिया तथा १९६३ में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। आपने शान्ति पथ प्रदर्शक, नये दर्पण, जैन सिद्धान्त शिक्षण, कर्मसिद्धान्त आदि अनेक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया । यह कोश २० वर्षों के सतत अध्ययन के परिणामस्वरूप बना है । इन्होंने तत्त्वज्ञान, आचार शास्त्र, कर्मसिद्धान्त, भूगोल, ऐतिहासिक तथा पौराणिक राजवंश, आगम-धार्मिक, दार्शनिक सम्प्रदाय आदि से सम्बद्ध लगभग ६००० . Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन अन्य : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-................ शब्दों तथा २१०० विषयों का विषद वर्णन किया है। सम्पूर्ण सामग्री संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की लगभग १०० पांडुलिपियों से उद्धृत है । यथा-स्थान तथा रेखाचित्र एवं सारणियां भी हैं। यह कोश भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित किया गया है। मूल उद्धरणों से उद्धृत होने के कारण इस कोश की उपयोगिता और भी बढ़ गयी है। इस कोश की रचना में अधिकांश दिगम्बर ग्रन्थों का सहारा लिया गया है। इसके चार भाग निम्न प्रकार हैं क० भाग वर्ण प्रकाशन काल अ-औ ५०४ ६३४ १. प्रथम भाग २. द्वितीय भाग ३. तृतीय भाग ४. चतुर्थ भाग १९७१ १९७१ १९७२ १६७३ प-व स-ह ६३८ इस प्रकार यह महाकोश वर्णी जी की सतत साधना का प्रमाण एवं शोधार्थियों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है। सम्पादक-बालचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री : जैन लक्षणावली-इस कोश के सम्पादक श्री बालचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री हैं। इनका जन्म संवत् १९६२ में सोरई ग्राम (झांसी) में हुआ। आपकी शिक्षा वाराणसी में पूर्ण हुई। सन् १९४० से आप निरन्तर साहित्य-साधना में मग्न हैं। आपने षट्खण्डागम के दस भागों का भी सम्पादन किया। इसके अतिरिक्त जीवराज जैन ग्रन्थमाला से कई पुस्तकों का प्रणयन एवं सम्पादन, प्रकाशन किया कराया। लक्षणावली भी एक जैन पारिभाषिक शब्दकोश है। इसमें ४०० श्वेताम्बर दिगम्बर ग्रन्थों के पारिभाषिक शब्दों का संकलन है। जैन दर्शन के सन्दर्भ में एक ऐसे पारिभाषिक शब्दकोष की आवश्यकता थी जो एक ही स्थान पर वर्णानुक्रम से दार्शनिक परिभाषाओं को प्रस्तुत कर सके । इस कमी को जैन लक्षणावली ने पूर्ण किया। इसमें लगभग १०० पृष्ठों की प्रस्तावना इस कोश ग्रन्थ की उपयोगिता को बढ़ाती है। इसके दो भाग क्रमश:-१९७२ और १९७५ में प्रकाशित हुए हैं। इसकी पृष्ठ संख्या ७५० है। तीसरा भाग मुद्रणाधीन है। इस प्रकार जैन कोश परम्परा में इस कोश ने भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। Editor : Mohan Lal Mehta and K. R. Chandra : A Dictionary of Prakrit Proper Names-इस कोश का संयुक्त संकलन एवं सम्पादन डा० मोहनलाल मेहता एवं के० आर० चन्द्र ने किया । १९७२ में अहमदाबाद से इस कोश को दो भागों में प्रकाशित किया गया। इन दोनों विद्वानों के अनेक शोध ग्रन्थ एवं निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं । डा० मेहता ने Jaina Psychology, Jaina Culture, Philosophy आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया। डा. चन्द्र ने कई ग्रन्थों के हिन्दी एवं अंग्रेजी के अनुवाद किये। जैन साहित्य, विशेषतः आगमों में उल्लिखित व्यक्तिगत नामों के सन्दर्भ में यह कोश एक अच्छी जानकारी प्रस्तुत करता है ।। Dr. A.N. Upadhyaya : Jaina Bibliography': इस ग्रन्थ का सम्पादन डा० ए० एन० उपाध्याय कर रहे हैं । इसके लगभग २००० पृष्ठ मुद्रित हो चुके हैं। शेष भाग का कार्य डा० भागचन्द जैन कर रहे हैं। आप नागपुर के निवासी हैं। आपकी जैन वाङ्मय में गहरी पैठ है। इस Bibliography में देश-विदेश में प्रकाशित जैन ग्रन्थों . Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में कोश-परम्परा ४३३ एवं पत्रिकाओं से ऐसे विषयों अथवा सन्दर्भों को विषयानुसार एकत्रित किया गया है, जिनमें जैन धर्म एवं जैन संस्कृति से सम्बन्धित किसी भी प्रकार की सामग्री प्रकाशित हुई है। इस बृहदाकार ग्रन्थ में देशी-विदेशी विद्वानों द्वारा लिखित तीन सौ पुस्तकों एवं निबन्धों का उपयोग किया गया है । यह ग्रन्थ निर्विवाद रूप से प्राचीन भारतीय संस्कृति और मुख्य रूप से जैन संस्कृति के ज्ञान के लिए अत्यन्त उपयोगी सन्दर्भ ग्रन्थ है । अन्य कोश - इन कोशों के अतिरिक्त भी निम्न मुख्य कोशों का निर्माण हुआ है श्री वल्लभी छगनलाल कृत — जैन कक्को, एन० आर० कावडिया कृत English Prakrit Dictionary, डा० भागचन्द्र जैन कृत विद्वद्विनोदनी आदि उल्लेखनीय हैं। इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से ज्ञात हुआ है कि जैन वाङ्मय में कोश परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। पहले पहल यह पांडुलिपियों में एवं अविकसित रूप में हमें उपलब्ध होती है । बाद में परिवर्तित एवं परिमार्जित रूप में प्राप्त हुई है। कई पांडुलिपियों का संकलन एवं सम्पादन करके बृहद् कोश तैयार कर लिये गये हैं । कुछ का कार्य अभी चल रहा है । आशा है, भविष्य में भी यह परम्परा अबाध गति से चलती रहेगी और शोधार्थियों को अत्यधिक लाभ प्रदान करेगी। यह कोश परम्परा जैन धर्म एवं जैन वाङ् मय को अधिक से अधिक प्रकाश में लाकर साधारण जन-मानस में भी व्याप्त हो जायेगी । ० . Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. - . -. -. -. -. -. -. -. -. - . -. जैन छन्दशास्त्र परम्परा 0 श्री नरोत्तम नारायण गौतम, व्याख्याता-साहित्य, महाराणा संस्कृत महाविद्यालय, उदयपुर प्राचीन मनीषियों को “साहित्यपाथोनिधिमंथनोत्थं कर्णामृतं रक्षत हि कवीन्द्रा" कहकर साहित्य की सुरक्षा की सलाह देते समय कवि को मानवों की स्मृति पर विश्वास करना पड़ा होगा। स्मृति में किसी भी विद्या को सुरक्षित रखने के लिए उसे रागात्मक, आल्हादक तत्त्वों से संयुक्त करना आवश्यक था। प्रत्येक प्राचीन विधा इसीलिए स्वर, यति, राग एवं छन्दों से किसी न किसी प्रकार बँधी रही है। सम्भवत: भीषण झझावातों के पश्चात् भी इसी आल्हाद देने वाले स्वरों में बँधी रचनाधर्मिता के कारण यह विद्या सुरक्षित रह पायी । वेद विश्वसाहित्य की प्राचीनतम कृति हैं। स्मृति पर सुरक्षित इन वेदों के विश्लेषण एवं गम्भीर ज्ञान के लिए उपयोगी विधाओं में छन्दविद्या को भी स्थान दिया गया । वेद को पुरुष का रूपक बतलाते हुए कहा गया है कि "छन्दः पादौ तु वेदस्या।" पाणिनी ने छन्द शब्द को आल्हाद या प्रसन्नता के अर्थ में प्रयुक्त 'चदि' धातु से निर्मित माना है जिसका अर्थ है-मन को प्रसन्न करने वाला । मन के भावों को भाषा, स्वर, लय, यति, गति से आवृत कर प्रस्तुत करने के कारण छन्द शब्द को छादन छाने, ढकने अर्थ की धातु से भी निष्पन्न किया गया है। इसी तत्त्व को समझने के लिए ब्रह्महत्या के दोषी इन्द्र की पाप (सं मानसिक सन्ताप) से रक्षा करने की कथा भी जोड़ी गई । संक्षेप में हम कह सकते हैं कि छन्द का अर्थ अक्षर, मात्रा, यति, लय आदि के नियमों से निबद्ध रचना होती है, जिसके सुनने से मन में प्रसन्नता का संचार होता है। छन्दों के विश्लेषण का प्रारम्भ वेदों से ही प्रारम्भ हो गया था। शुक्ल यजुर्वेद के निम्न मन्त्र में वेदों में प्रयुक्त छन्दों का परिगणन किया गया है गायत्री त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप्पङ्कत्या सह । बृहत्युष्ण्णिहा ककुप्पसूचीथिः शम्मयन्तुत्त्वा ॥ कालिदास का श्रुतबोध एवं भट्ट केदार के वृत्तरत्नाकर के समान ही जैन आचार्यों ने भी छन्द शास्त्र के अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है रत्न मंजूषा-आठ अध्यायों में विभक्त २३० सूत्रों की इस मंजुषा के कर्ता का नाम भूत के गर्भ में विलीन हो गया है। इसकी टीकाओं के अधिकांश लेखकों के जैन होने तथा हेमचन्द्रसूरि के अतिरिक्त अन्य छन्दशास्त्रियों से विवरण मेल न खाने के कारण इसके रचयिता के जैन होने की सम्भावना प्रबल है। इसके प्रथम अध्याय में विविध पारिभाषिक शब्दों का परिचय है। द्वितीय-तृतीय अध्याय में मात्रिक छन्द, चतुर्थ में विषम वृत्त, पंचम से सप्तम में वर्णवृत्त (वाणिक छन्द) तथा आठवें अध्याय में प्रस्तार का निरूपण है। कवि ने गणों की परम्परा से हटकर अलग संज्ञाएँ प्रदान की हैं । बहुप्रचलित य, म, र, स, त, ज, य गण के स्थान पर क, च, द, त, प, श, ष, म, ह तथा संख्याओं के लिए द, दा, दि, दी आदि वर्गों का प्रयोग कवि की अपनी मौलिकता प्रदर्शित करता है। कवि की कृति पर किन्हीं पुन्नागचन्द्र अथवा नागचन्द्र नामक जैन विद्वाच ने टीका भी लिखी है। : Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन छन्दशास्त्र परम्परा ४३५. . छन्दोऽनुशासन--कन्नड़ प्रदेश के निवासी दिगम्बर आचार्य जयकीति ने इस ग्रंथ की रचना की। कृति में आचार्य असंग के उल्लेख से ज्ञात होता है कि आपका समय लगभग १००० ई० के आसपास रहा होगा। छन्दोऽनुशासन के आठों अध्यायों में क्रमशः संज्ञा, समवृत्त, अर्धसमवृत्त, विषमवृत्त, जाति (मात्रिक छन्द), मिश्र, कन्नड़ के छन्द, एवं प्रस्ताव निरूपित हैं। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषतां वैदिक छन्दों के निरूपण के स्थान पर लोकभाषा कन्नड़ के छन्दों का निरूपण है । अनेक स्थलों पर कवि ने नये नामों का भी प्रयोग किया है। कवि ने प्रायः सभी लक्षणों को उसी छन्द में देने का प्रयास किया है ताकि पृथकशः उदाहरण देने की आवश्यकता न पड़े। छन्दःशेखर-ठक्कुर दुद्दक एवं नागदेवी के पुत्र राजशेखर ने इस ग्रन्थ की रचना की। इसकी प्राचीनतम प्रति वि० सं० ११७६ की मिली है। हेमचन्द्राचार्य ने इस कृति का उपयोग अपने ग्रन्थ में किया है । छन्दोऽनुशासन-षड्भाषा चक्रवर्ती आचार्य हेमचन्द्र ने जहाँ काव्य, व्याकरण एवं कोशों पर अपनी लेखनी चलाई, वहीं छन्दशास्त्र सम्बन्धी इस ग्रन्थ का प्रणयन भी किया। इसमें न केवल संस्कृत के अपितु प्राकृत, अपभ्रंश के छन्दों का वर्णन भी विस्तार के साथ किया है। आठ अध्यायों में विभक्त इस छन्दशास्त्रीय ग्रन्थ में चतुर्थ अध्याय में प्राकृत तथा पंचम से सप्तम तक के तीन अध्यायों में अपभ्रंश साहित्य में बहुप्रयुक्त छन्दों का विवरण मिलता है। शेष प्रथम में संज्ञा, द्वितीय में संस्कृत के समवृत्त एवं दण्डक तथा तृतीय में अर्धसम एवं विषम छन्दों का वर्णन प्राप्त होता है। आचार्य हेमचन्द्र को छन्दों के बहुत से नये प्रकरणों का ज्ञान था। दण्डक का विवरण देते हुए आपने ४११ विषम छन्दों में ७२ छन्दों का वर्णन किया है। उनके इस ग्रन्थ में कुल मिलाकर ८०० छन्दों का निरूपण है, जो अपने आप में बहुत बड़ी संख्या है। छन्दों के विषय में इतनी सुगम एवं विविधतापूर्ण कृति अन्यत्र दुर्लभ है। इस कृति पर स्वयं आचार्य हेमचन्द्र ने ही स्वोपज्ञ अथवा छन्दश्चूड़ामणि नाम से टीका लिखी। इस टीका में भरत, सैतव, पिंगल, जयदेव, काश्यप, स्वयंभू, सिद्धसेन, सिद्धराज कुमारपाल आदि का उल्लेख है। छन्दोरत्नावली-गुर्जर नरेश बीसलदेव की सभा के रत्न अमरचन्द्रसूरी जिनदत्तसूरी के शिष्य थे। अनेक ग्रंथों के रचयिता अमरचन्द्रसूरी ने ६०० श्लोकों में इस कृति की रचना की। __ इस कृति में नौ अध्याय हैं। अपने पूर्वाचार्यों की भांति इन्होंने भी अपनी कृति में प्राकृत छन्दों का विश्लेषण किया है । अद्यावधि अप्रकाशित इस ग्रंथ के प्रकाशन से शोधार्थियों को जानकारी प्राप्त होगी। छन्दोऽनुशासन—मेदपाट (मेवाड़) के जैन श्रेष्ठी नेमिकुमार के पुत्र महाकवि वाग्भट्ट ने १४वीं शती में इस ग्रंथ की रचना की। इसके पाँच अध्यायों में क्रमशः संज्ञा, समवृत्त, अर्धसमवृत्त, मात्रासमक एवं मात्रिक छन्दों का विवेचन है। वृत्तमौक्तिक-व्याकरण, काव्य, ज्योतिष, दर्शन एवं आध्यात्म की बहुमुखी प्रतिभाशाली उपाध्याय मेघविजय ने इस ग्रंथ की रचना की। १० पत्रों की इस लघुकाय कृति में कवि ने प्रस्तार संख्या, उद्दिष्ट, नष्ट आदि विषयों का विशद विवेचन तथा उपयोगी यंत्र (चार्टस) का निर्माण भी किया है। ऐसी मान्यता है कि सं० १७५५ में इस ग्रंथ की रचना भानुविजय के लिए की गई। समित्यर्थाश्वभू वर्षे प्रौढिरेषाऽभवत् श्रिये । भान्वादिविजयाध्यायहेतुतः सिद्धिमाश्रितः ।। छन्दोऽवतंस—केदार भट्ट के वृत्तरत्नाकार की शैली पर रचित इस रचना के प्रणेता उपाध्याय लालचन्द्रगणि हैं । संस्कृत भाषा में रचित इस ग्रंथ में अति उपयोगी छन्दों का विशद विश्लेषण कर शेष पर चलती दृष्टि डाली है। Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ....... ... -. - . - . वि० सं०१७११ में रचित इस कृति के अन्त में विनयशील उपाध्याय ने विद्वानों से त्रुटियों के शोधन की प्रार्थना भी की है क्वचिद् प्रमादाद् वितथं मयास्मिश्छन्दोऽवतंसे स्वकृते यदुक्तम् । संशोध्य तन्निर्मलयन्तु सन्तः विद्वत्सु विज्ञप्तिरियं मदीया ।। जयदेवछन्दस्-वृत्तरत्नाकर के टीकाकार सुल्हण ने 'श्वेतपट" विशेषण लगाकर कवि जयदेव के श्वेताम्बर सम्प्रदाय के होने की सम्भावना उत्पन्न कर दी है। इस ग्रन्थ के रचयिता कवि जयदेव ने वर्धमान को नमस्कार कर जैन होने का अन्तःसाक्ष्य भी दिया है। जयदेव ने अपना ग्रंथ जयदेवछन्दस पिंगल शिरोमणि को आधार मानकर बनाया। आठ अध्यायों में विभक्त यह प्रथम जन काव्य है, जिसमें वैदिक छन्दों का विवेचन हुआ है। इस ग्रंथ में वैदिक एवं लौकिक संस्कृत के छन्दों का ही विवेचन है। प्रारम्भ एवं अन्त भी पिंगल से प्रभावित है किन्तु लौकिक छन्दों के निरूपण में उनकी शैली पिंगल से भिन्न हो गयी है । स्वयंभू एवं हलायुध ने जयदेव के मत की समीक्षा की है। अभिनवगुप्त, नमि साधु, हेमचन्द्र, त्रिविक्रम, अमरचन्द्र, सुल्हण, गोपाल, नारायण, रामचन्द्र आदि साहित्यशास्त्रियों ने जयदेव के अवतरणों को अपने ग्रन्थों में उद्धृत किया है। इससे प्रतीत होता है कि जयदेव की कृति का सम्मान एवं उपयोग सभी जैन, जैनेतर काव्यशास्त्रियों ने नि:संकोच किया । कविकृति की प्रामाणिकता एवं लोकप्रियता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा? मुकुल भट्ट के पुत्र हर्षट ने इस कृति पर जयदेवछन्दोवृत्ति नाम से टीका लिखी। इस वृत्ति के ३०० वर्षों के पश्चात् शीलभद्रसूरि के शिष्य चन्द्रसूरी ने १३वीं शती में जयदेवछन्दशास्त्रवृत्ति टिप्पन के नाम से टिप्पणियाँ की, जो संभवतः हर्षट की वृत्ति पर ही है। स्वयंभच्छन्दस-हरिवंशपुराण (जैन), पउमचरिउ तथा इस कृति के रचयिता स्वयंभू एक ही थे या भिन्न-भिन्न इस विषय पर मतैक्य नहीं है । पउमचरिय में विद्यमान इस कृति के अवतरणों को एक ही कवि की कृति मानने से कवि की एकता माने तो स्वयंभू माउरदेव ब्राह्मण के पुत्र एवं त्रिभुवन के पिता हैं। आठ अध्यायों में विभक्त इस कृति के प्रथम अध्याय के कुछ पत्र अप्राप्य हैं। द्वितीय अध्याय में अर्धसम तथा तृतीय अध्याय में विषम छन्दों का वर्णन है । चतुर्थ से अष्टम तक अपभ्रंश के छन्दों की चर्चा है। कवि ने संस्कृत छन्दों को भी प्राकृत में प्रयुक्त कर उनके उदाहरण प्राकृत रचनाओं से दिये हैं। वृत्तजातिसमुच्चय-प्राकृत पद्यों में रची हुई इस रचना के नामान्तर कवि सिट्ठ, कृतसिद्ध एवं छन्दोविचित भी है। इसके रचयिता विरहांक या विरहलांछन है। सिद्धहेमव्याकरण में इसमें प्रयुक्त दो प्राकृत पद्यों को उद्धत किया गया है जो इसकी प्रामाणिकता की कसौटी हैं। यह ग्रन्थ छ: नियमों में विभक्त है। पांचवें नियम को छोड़कर शेष पाँच नियमों में प्राकृत छन्दों का ही विश्लेषण है। पांचवें नियम में संस्कृत छन्द हैं । छठे नियम में एक कोष्ठक में दूरियों का मान दिया है, जो इस प्रकार है ४ अंगुल=१ राम, ३ राम= १ वितस्ति, २ वितस्ति = १ हाथ, २ हाथ =१ धनुर्धर, २००० धनुर्धर= १ कोश, ८ कोश= १ योजन । इस ग्रन्थ पर वृत्ति नाम से चक्रपाल के पुत्र गोपाल ने टीका लिखी है, जिसमें कात्यायन, भरत, कम्बल और अश्वतर का स्मरण है। छन्दःकोश-रत्नशेखरसूरि द्वारा रचित इस रचना में कुल ७४ पद्य हैं। प्राकृत भाषा में निबद्ध इस कृति में ५ से ५० तक के पद्य अपभ्रंश भाषा में लिखे गये हैं। प्राकृत छन्दों के लक्षण विस्तार से दिये हैं । इस कृति पर चन्द्रकीतिसूरि ने वृत्ति एवं अमरकीतिसूरि ने वालावबोध नामक टीका की। इस ग्रन्थ को आधार बनाकर छन्दकदली एवं छन्दस्तत्व की भी रचना हुई। Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन छन्दशास्त्र परम्परा ४३७ .......................................... जैनेतर छन्द ग्रन्थों पर टोकायें जैन कवियों ने उपर्युक्त ग्रन्थों पर तो टीकाएँ लिखी ही हैं, साथ ही संस्कृत साहित्य में समादृत अन्य कवियों की छन्द सम्बन्धी रचनाओं पर भी उनकी लेखनी चली है। उनमें से प्रमुख निम्न हैं छन्दोविद्या-इस ग्रन्थ के रचयिता कवि राजमल्ल थे। छन्दशास्त्र पर इनका असाधारण अधिकार था। इनका जन्म १६वीं शताब्दी में माना जाता है। यह अपने ढंग का अनूठा ग्रन्थ है। यह संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी में निबद्ध है। इसमें ८ से ६४ पद्यों में छन्दशास्त्र के नियम-उपनियम बताये गये हैं। यह ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है। कवि राजमल्ल ने (१) लाटी संहिता, (२) जम्बूस्वामीचरित, (३) अध्यात्मकमलमार्तण्ड एवं (४) पंचाध्यायी की रचना की है। __ पिंगलशिरोमणि—पिंगद शिरोमणि नामक छन्द विषयक ग्रन्थ की रचना मुनि कुशललाभ ने की है। इस ग्रन्थ की रचना का समय वि० सं० १५७५ बताया गया है। आठ अध्याय में विभक्त इस ग्रन्थ में अधोलिखित विषय वर्गीकृत हैं (१) वर्णावर्णछन्दसंज्ञाकथन (२-३) छन्दोनिरूपण (४) मात्राप्रकरण (५) वर्णप्रस्तार (६) अलंकारवर्णन (७) डिङ्गलनाममाला और (८) गीत प्रकरण । भार्यासंख्या उद्दिष्ट नष्ट वर्तन विधि-उपाध्याय समयसुन्दर ने इस ग्रन्थ की रचना की है। इसमें आर्याछन्द की संख्या और उद्दिष्ट नष्ट विषयों की चर्चा की है । इसका आरम्भ इस प्रकार है जगणविहीना विषमे चत्वारः पंचयुजि चतुर्मात्रा। द्वौ वष्ठाविति चगणास्तद्धातात् प्रथमदलसंख्या ॥ १७वीं शताब्दी में विद्यमान उपाध्याय समयसुन्दर ने संस्कृत और जूनी गुजराती में अनेक ग्रन्थों की रचना की है। श्रतबोध-कुछ विद्वान् 'श्रुतबोध' के कर्ता वररुचि को और कुछ कालिदास को मानते हैं। यह शीघ्र ही कठस्थ हो सके ऐसी सरल और उपयोगी ४४ पद्यों की छोटी-सी कृति अपनी पत्नी को सम्बोधित करके लिखी गयी है । छन्दों के लक्षण उन्हीं छन्दों में दिये गये हैं, जिनके वे लक्षण हैं। इसमें आठ गणों एवं गुरु लघु वर्गों के लक्षण को बताकर आर्या आदि छन्दों से प्रारम्भ कर यति का निर्देश करते हुए समवृत्तों के लक्षण बताये हैं। इस कृति पर हर्षकीतिसूरि ने विक्रम की १७वीं शताब्दी में वृत्ति की रचना की है। टीका के अन्त में वृत्तिकार ने इस प्रकार परिचय दिया है श्रीमन्नागपुरीयपूर्वकतपागच्छाम्बुजाहस्कराः सूरीन्द्राः [चन्द्र] कोतिगुरुवौविश्वत्रयोविश्रुताः । तत्पादाम्बुसहप्रसाद पदतः श्रीहर्षकीर्त्याद्वयो पाध्यायः श्रुतबोध वृत्तिमकरोद् बालावबोधाय वै ॥ वृत्तरत्नाकर-छन्दशिरोमणि केदार भट्ट ने इस ग्रन्थ की रचना सन् १००० के आस-पास की है। यह कृति (१) संज्ञा (२) मात्रासूत्र (३) समवृत्त (४) अर्धसमवृत्त (५) विषमवृत्त और (६) प्रस्तार, इन छ: अध्यायों में विभक्त है। इस पर जैन लेखकों ने निम्नलिखित टीकाएँ की हैं(१) आसड नामक कवि ने वृत्तरत्नाकर पर 'उपाध्यायनिरपेक्षा' नामक वृत्ति की रचना की है। (२) सोमचन्द्रगणि ने वि० सं० १३२६ में वृत्तरत्नाकर पर वृत्ति की रचना की थी। इसमें उन्होंने आचार्य हेमचन्द्र के छन्दोऽनुशासन पर स्वोपज्ञ वृत्ति के उदाहरण लिये हैं। टीकाकार ने अपना परिचय इस प्रकार दिया है Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड . .....-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. बादी श्री देवसूरिर्गणगगनविधौ विभ्रतः शारदायाः, नाम प्रत्यक्षपूर्व सुजयपदभृतौ मङ्गलाह्वस्य सूरेः । पादद्वन्द्वा रविन्देऽम्बुमधुपहिते भंग भुंगी वधानो, वृत्ति सोभोऽभिरामामकृत कृतिभृतां वृतरत्नाकरस्य । (३)मुनि क्षेमहंस ने इस पर टिप्पन की रचना की है। ये वि० १५वीं शताब्दी में विद्यमान थे। (४) अमरकीति और उनके शिष्य यशकीर्ति ने इस पर वृत्ति की रचना की है। (५) मेरूसुन्दरसूरि ने इस पर बालावबोध की रचना की है। ये १६वीं शताब्दी में विद्यमान थे। (६) उपाध्याय समयसुन्दरगणि ने इस वृत्ति की रचना वि० सं० १९६४ में की है। इसके अन्त में वृत्तिकार ने अपना परिचय इस प्रकार दिया है वृत्तरत्नाकरे वृत्ति गणिः समयसुन्दरः। षष्ठाध्यायस्य संबद्धा पूर्णीचक्रे प्रयत्नतः ॥१॥ संवति विधिमुखः निधि-रस शशिसंख्ये दीपपर्व दिवसे च । जालोरनामनगरे लुणिया कसलापितस्थाने ॥२॥ श्रीमत् खरतरगच्छे श्री जिनचन्द्रसूरयः ।। तेषां सकलचन्द्राख्यो विनेयो प्रथमोऽभवत् ॥३॥ तच्छिष्यसमयसुन्दरः सत्तां वृत्ति चकार सुगतराम् । श्रीजिनसागरसूरिप्रवरे गच्छाधिराजेऽस्मिन् ॥ ४ ॥ इस प्रकार अन्यान्य ग्रन्थों में भी छन्द विषयक रचनाएँ अपूर्ण रूप से मिलती हैं। इस विषय पर अभी शोध की आवश्यकता है, जिससे कि जैन साहित्य पल्लवित एवं पुष्पित हो सके। Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. - . -. -. -. -. - ." तेरापंथ में संस्कृत का विकास मुनि श्री विमलकुमार, युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के शिष्य विक्रम संवत् १८८१ की घटना है । उस समय आचार्य जयाचार्य (तेरापन्थ के चतुर्थ आचार्य) का सामान्य मुनि अवस्था में मुनि श्री हेमराज जी के साथ जयपुर चातुर्मास था। उस समय उन्हें मालूम पड़ा कि एक श्रावक का लड़का संस्कृत पढ़ता है। जय मुनि के मन में मुन हेमराजजी के पास आगमाध्ययन करते हुए उनकी संस्कृत टीका पढ़कर और अधिक सामर्थ्य प्राप्त करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई थी पर अवैतनिक अध्यापक के अभाव में वह पूर्ण नहीं हो सकी । जब उन्हें ज्ञात हुआ अमुक श्रावक का लड़का संस्कृत का अध्ययन करता है तब उनके मन में उससे संस्कृत पढ़ने की इच्छा हुई। एक दिन जब वह बालक दर्शनार्थ आया तब उन्होंने कहा-तुम दिन में जो संस्कृत पढ़ते हो वह मुझे रात्रि में बताओगे क्या? यह सुन उसने सहर्ष स्वीकृति देते हुए कहा-इससे तो मुझे दोहरा लाभ होगा। पढ़े हुए पाठ की पुनरावृत्ति हो जायेगी तथा आपकी सेवा का अवसर प्राप्त होगा। तत्पश्चात् वह प्रतिदिन रात्रि में आने लगा और दिन में जो कुछ भी पढ़ता उसे जय मुनि को बता देता । जय मुनि उन सुने हुए व्याकरण सूत्रों को वृत्ति सहित तत्काल कंठस्थ कर लेते और दूसरे दिन उनकी साधनिका को राजस्थानी भाषा में पद्य-बद्ध कर देते थे। इस प्रकार जय मुनि ने श्रम करके संस्कृत व्याकरण का अध्ययन किया। उन्हीं ने सर्वप्रथम तेरापंथ धर्म संघ में संस्कृत का बीज बोया । कालान्तर में जय मुनि तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य बने । उन्होंने अपने समय में संघ में संस्कृत भाषा को प्रोत्साहन दिया। उनकी पावन प्रेरणा से मुनि मघराजजी ने संस्कृत का अच्छा अध्ययन किया । वे संस्कृत के विद्वान् कहलाते थे। उन्होंने संस्कृत में कुछ स्फुट रचनाएँ भी की। मुनि मघराज जी की संसार पक्षीया बहिन साध्वी प्रमुखा गुलाबांजी ने सर्वप्रथम साध्वी-समाज में संस्कृत का अध्ययन किया था। जयाचार्य के बाद मुनि मघराजजी तेरापंथ के पंचम आचार्य बने । वे अपने बाल मुनि कालरामजी (छापर) को संस्कृत अध्ययन की प्रेरणा देते हुए कहते थे-संस्कृत हमारे आगमों की कुंजी है । आगम प्राकृत भाषा में है। उनकी टीकाएँ संस्कृत में लिखी हुई हैं । संस्कृत जानने वाला टीकाओं के माध्यम से आगमों के रहस्य को समझ सकता है। अतः हमें संस्कृत अवश्य पढ़नी चाहिए।' मघवागणी की पावन प्रेरणा से तथा उनकी छत्र-छाया में मुनि कालूराम जी ने संस्कृत का अध्ययन प्रारम्भ किया पर उसके पूर्णता तक पहुँचने पूर्व ही आचार्य मघराजजी का स्वर्गवास हो गया। मघवागणी के बाद तेरापथ धर्म-संघ में संस्कृत का प्रवाह क्रमशः बन्द होने लगा। मघवागणी के पश्चात् मुनि माणकलाल जी तेरापंथ के छठे आचार्य बने। वे कुछ वर्षों तक ही (वि० सं० १९४६ चैत्र कृष्णा अष्टमी से वि० सं १९५४ कार्तिक कृष्णा तृतीया) शासन कर पाये कि क्रूर काल अचानक उन्हें उठाकर ले गया । इस आकस्मिक निधन के कारण वे अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति भी नहीं कर सके । अत: तेरापंथ धर्म-संघ के सम्मुख एक जटिल समस्या उत्पन्न हुई । क्योंकि संघ के विधानानुसार भावी आचार्य का चुनाव वर्तमान आचार्य ही करते हैं । इस समुत्पन्न जटिलता को संघ के शासन-निष्ठ मुनियों ने मिलकर सुलझा दी और सर्व-सम्मति से मुनि डालचंद जी को तेरापंथ का सप्तम आचार्य घोषित कर दिया। आचार्य डालगणी के शासनाकाल की घटना है। एक बार वे वि० सं० १६६० में बीदासर पधारे। उस १. महामनस्वी आचार्य श्री कालूगणी का जीवन-वृत्त, पृ० ३८. Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -..-.-.-.-.-.-.-.-.-.-................................................ समय हुकुमसिंह जी वहाँ के ठाकुर साहब थे। उनकी संस्कृत के प्रति अच्छी रुचि थी। अत: वे कुछ न कुछ संस्कृत पढ़ते या सुनते रहते थे। एक बार उन्हें निम्नलिखित श्लोक का अर्थ समझ में नहीं आया दोषास्त्वामरुणोदये रतिमितस्तन्वीरयातः शिवं, याममितथाः फलान्यद शुभं त्वय्याहतेङगे च काः । नारामं तमजापयोधरहितं मारस्य रंगाहृदः, सोभाधी गृहमेधिनापि कुविशामीशोसि नन्दादिमः।।' ___जब उन्हें मालूम हुआ कि डालगणी यहाँ पधारे हुए हैं तब उन्होंने उस श्लोक को लिखकर डालगणजी के पास भेजा और अर्थ बताने का निवेदन किया। डालगणी ने उस श्लोक को मुनि कालूराम जी को दिया । पर वे उसका अर्थ नहीं बता सके। इस घटना से मुनि कालूराम जी के मन पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने पुन: संस्कृत पढ़ने का दृढ़ निश्चय किया तथा सारस्वत का पूर्वार्द्ध कंठस्थ करना शुरू कर दिया । कुछ दिनों के बाद डालगणी चुरू पधारे । वहाँ के शासन-निष्ठ श्रावक रायचंदजी सुराणा के द्वारा मुनि कालूरामजी का पंडित घनश्यामदासजी से सम्पर्क हुआ। पण्डितजी मुनि कालूरामजी के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि कई कठिनाइयों के बावजूद भी उन्हें अवैतनिक रूप से संस्कृत पढ़ाने के लिए तत्पर हो गये। जनके सहयोग से मुनि कालूरामजी अपने निश्चय की ओर गति करने लगे। वि० सं० १९६६ भाद्रपद शुक्ला १२ को डालगणी का स्वर्गवास हो गया। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के रूप में मुनि कालूरास जी की नियुक्ति की । डालगणी के स्वर्गारोहण के बाद मुनि कालूरामजी तेरापंथ धर्म-संघ के अष्टम आचार्य बने । आचार्य बनने के बाद उन पर अनेक संघीय जिम्मेदारियाँ आ गई। फिर भी उन्होंने संस्कृत अध्ययन को उपेक्षित नहीं किया। परन्तु उसमें और अधिक गति लाने का प्रयत्न करने लगे। इस प्रकार अभ्यास करने से आचार्य कालूगणी का संस्कृत भाषा पर अच्छा अधिकार हो गया। आचार्य बनने के बाद उन्होंने स्वप्न में एक वृक्ष को फलों, पुष्पों से लदा हुआ देखा । जिसका अर्थ उन्होंने यह किया कि अब हमारे संघ में संस्कृत का वृक्ष अवश्य ही फलितपुष्पित होगा। वि० सं० १६७४ का सरदारशहर चातुर्मास सम्पन्न पर आचार्य कालूगणी चुरू पधारे। उस वहाँ के यति रावतमलजी की प्रेरणा से आशुकवि पण्डित रघुनन्दन जी का आचार्य कालूगणी के साथ सम्पर्क हुआ। प्रथम सम्पर्क में ही पण्डितजी की अनेक भ्रान्त धारणाओं का निराकरण हुआ और उन्होंने कालूगणी के पास सम्यक् प्रकार से तेरापंथ की साधु चर्या की जानकारी प्राप्त की। दूसरे दिन उन्होंने “साधु-शतक" बनाकर उसकी प्रतिलिपि कालूगणी को अर्पित की। कालूगणी ने तीन घन्टे में बनाये हुए उस “साधु-शतक" को गौर से देखा और पण्डितजी की ग्रहणशीलता और सूक्ष्ममेधा को परखा । तत्पश्चात् पण्डितजी आचार्य कालूगणी के प्रति समर्पित होकर तेरापंथ धर्मसंघ को अपनी सेवाएँ देने लगे। इस प्रकार संघ को पण्डित धनश्यामदासजी तथा पं० रघुनन्दनजी का अपूर्व सहयोग प्राप्त हुआ। उन दोनों के सहयोग से तथा आचार्य कालूगणी की पावन प्रेरणा से अनेक मुनियों ने संस्कृत के क्षेत्र में विकास किया। उस समय कई मुनियों ने संस्कृत में कालू कल्याण मन्दिर तथा कालू भक्तामर स्तोत्र की रचना की। उनमें मुनि तुलसीरामजी (आचार्य श्री तुलसी), मुनि कानमलजी, मुनि नथमल जी (बागौर), मुनि सोहनलाल जी (चुरू), मुनि धनराज जी (सिरसा) तथा मुनि चंदनमल जी (सिरसा) थे । मुनि चौथमलजी ने संस्कृत व्याकरण अध्येयताओं के लिए "कालू-कौमुदी" की रचना कर उनके अध्ययन को सुगम बना दिया। इसके साथ-साथ उन्होंने भिक्ष शब्दानुशासन जैसे विशालकाय ग्रन्थ की रचना की। इन रचनाओं में उन्हें पण्डित रघुनन्दनजी का अविस्मरणीय सहयोग मिला। प्राचार्य कालूगणी के शासनकाल में साधुओं में संस्कृत भाषा की गति हो रही थी पर साध्वियों में विशेष नहीं । आचार्य कालूगणी की हार्दिक इच्छा थी कि साध्वियों में भी संस्कृत भाषा का विकास हो। पर उनका स्वप्न १. महामनस्वी आचार्य श्री कालूगणी का जीवन-वृत्त, पृ० २६. Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ में संस्कृत का विकास ४४१ ......................................................... साकार होने के पूर्व ही निर्दय काल उन्हें उठाकर ले गया। आचार्य कालगणी ने अपने स्वप्न को मूर्तिमान् करने का दायित्व अपने उत्तराधिकारी आचार्य श्री तुलसी को सौंपा और अन्तिम शिक्षा देते हुए उन्हें इस ओर विशेष ध्यान देने को कहा। आचार्य श्री तुलसी ने जब शासन भार संभाला तब वे सिर्फ २२ वर्ष के थे। फिर भी उन्होंने अपनी कार्यजा शक्ति से सारे संघ को प्रभावित किया । उन्होंने साधुओं में संस्कृत-विकास के साथ-साथ साध्वियों के संस्कृत-विकास की ओर भी विशेष ध्यान दिया और अपना समय लगाया। साधु-साध्वियों के शैक्षणिक विकास को दृष्टिगत रखते हुए एक सप्तवर्षीय पाठ्यक्रम भी निर्धारित किया गया था। जिसकी अन्तिम योग्यता एम० ए० के समकक्ष थी। प्रतिवर्ष उसकी परीक्षाएँ भी होती थीं। उनमें उत्तीर्ण होकर अनेक साधु-साध्वियों ने विशेष योग्यता प्राप्त की। वर्तमान में यह अध्ययनक्रम बन्द है। इसके स्थान पर जैन विश्व भारती के शिक्षा विभाग द्वारा निर्धारित पाठ्यक्रम का अध्ययन कराया जाता है। आचार्य श्री तुलसी के शासनकाल में साधु-साध्वियों के शैक्षणिक विकास में विशेष गति हुई। वर्तमान में अनेक साधु-साध्वियां संस्कृत भाषा में धारा प्रवाह बोलने में समर्थ हैं । संस्कृत-लेखन में भी उनकी लेखनी अबाध-रूप से चलती है। आचार्य प्रवर तथा आचार्य महाप्रज्ञ के अतिरिक्त कई मुनियों की संस्कृत भाषा में रचित कृतियाँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं । उनका विवरण इस प्रकार है१. आचार्य तुलसी द्वारा रचित-भिक्षु न्याय कणिका, मनोऽनुशासनम्, जैन सिद्धान्त दीपिका, पंचसूत्रम्, शिक्षाषण्णवति तथा कर्त्तव्य-षट् त्रिशिका । २. युवाचार्य महाप्रज्ञ द्वारा रचित-अश्रुवीणा, मुकुलम् । ३. मुनि श्री चंदनमल जी द्वारा रचित-ज्योतिःस्फुलिंगम्, अनुभव शतकम्, अभिनिष्क्रमणम्, आर्जुनमालाकारम्, प्रभव-प्रबोध, वर्धमान शिक्षा सप्तति, संवर-सुधा इत्यादि । ४. मुनि श्री सोहनलाल जी द्वारा रचित-देवगुरुधर्मस्तोत्र । ५. मुनि श्री बुद्धमल जी द्वारा रचित-उत्तिष्ठ जागृत । ६. मुनि श्री धनराजजी (लाडनूं) द्वारा रचित-भावभास्करकाव्य । ऊपर में उन्हीं कृतियों का उल्लेख किया गया है जो प्रकाशित हैं। इसके सिवाय अनेक साधु-साध्यियों की रचनाएँ अप्रकाशित भी हैं। लेखन के साथ-साथ कई साधु-साध्वियां संस्कृत में आशु कविता में करने में भी सक्षम हैं। अस्तु, तेरापंथ धर्मसंघ के साधु-साध्वियाँ शिक्षा, साधना और सेवा के क्षेत्र में और अधिक कीर्तिमान स्थापित करते हुए शासन की सौरभ को सर्वत्र प्रसारित करें। इसी शुभाशंसा के साथ ......... Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.................................... राजस्थान का जन संस्कृत साहित्य 17 डॉ. प्रेमचन्द रांवका, प्राध्यापक, राजकीय संस्कृत महाविद्यालय, मनोहरपुर (जयपुर) भारतीय इतिहास में राजस्थान का गौरवपूर्ण स्थान है। यहाँ की धरती वीर-प्रसिवनी होने साथ-साथ मनीषी साहित्यकारों एवं संस्कृत भाषा के उद्भट विद्वानों की कर्मस्थली भी रही है। एक ओर यहाँ की कर्मभूमि का कण-कण वीरता एवं शौर्य के लिए प्रसिद्ध रहा है तो दूसरी ओर भारतीय साहित्य एवं संस्कृति के गौरवस्थल भी यहाँ पर्याप्त संख्या में मिलते हैं । यहाँ के वीर योद्धाओं ने अपनी-अपनी जननी-जन्मभूमि की रक्षार्थ हँसते-हँसते प्राणों को न्यौछावर किया तो यहाँ होने वाले आचार्यों, ऋषि-मुनियों-भट्टारकों, साधु-सन्तों एवं विद्वान् मनीषियों ने साहित्य की महती सेवा की और अपनी कृतियों द्वारा प्रजा में राष्ट्रभक्ति, नैतिकता एवं सांस्कृतिक जागरूकता का प्रचार किया। यही कारण है कि प्रारम्भ से ही राजस्थान प्रजा एवं शासन के अपूर्व सहयोग से संस्कृति, साहित्य, कला एवं शौर्य का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहाँ के रणथम्भौर, कुम्भलगड़, चितौड़, भरतपुर, अजमेर, मण्डोर, और हल्दीघाटी जैसे स्थान यदि वीरता, त्याग एवं देशभक्ति के प्रतीक हैं, तो जयपुर, जैसलमेर, बीकानेर, नागौर, अजमेर, आमेर, उदयपुर, डूंगरपुर, सागवाड़ा, गलियाकोट आदि कितने ही नगर ग्रन्थकारों एवं साहिन्योपासकों के पवित्र स्थल हैं, जिन्होंने अनेक संकटों एवं झंझावातों के मध्य भी साहित्य की धरोहर सुरक्षित रखा है। वस्तुतः शक्ति एवं भक्ति का अपूर्व सामंजस्य इस राजस्थान प्रदेश की अपनी विशेषता है। राजस्थान की इस पावन भूमि पर अनेकों सन्त, मनीषी विद्वान् हुए, जिन्होंने अपनी कृतियों द्वारा भारतीय वाङमय के भण्डार को परिपूरित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जैन-मुनियों एवं विद्वानों का राजस्थान प्रान्त सैकडों वर्षा तक केन्द्र रहा है। डूंगरपुर, सागवाड़ा, नागौर, अजमेर, बीकानेर, जैसलमेर, चित्तौड़ आदि इन सन्त विद्वानों के मुख्य स्थान थे, जहाँ से वे राजस्थान में ही नहीं भारत के अन्य प्रदेशों में विहार करते तथा अपने ज्ञान एवं आत्म-साधना के साथ-साथ जनसाधारण के हितार्थ उपदेश देते थे। ये सन्त विद्वान विविध भाषाओं के ज्ञाता थे। भाषाविशेष से कभी मोह नहीं रखते थे। जनसामान्य को रुचि एवं आवश्यकतानुसार वे संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओं में साहित्य संरचना करते । आत्मोन्नति के साथ जनकल्याण इनके जीवन का उद्देश्य होता था। राजस्थान में जैन साहित्य के विश्रत गवेषी विद्वान् डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल के शब्दों में वेद. स्मृति, उपनिषद्, पुराण, रामायण एवं महाभारत काल के ऋषियों एवं सन्तों के पश्चात् भारतीय साहित्य की जितनी सेवा एवं उसकी सुरक्षा जैन सन्तों ने की उतनी अधिक सेवा किसी सम्प्रदाय अथवा धर्म के साधुवर्ग द्वारा नहीं हो सकी है। राजस्थान में होने वाले इन जैन सन्तों ने स्वयं तो विविध भाषाओं में सैकड़ों-हजारों कृतियों का सृजन किया ही; किन्तु अपने पूर्ववर्ती आचार्यों, साधओं, कवियों एवं लेखकों की रचनाओं को भी बड़े प्रेम, श्रद्धा एवं उत्साह से संग्रह किया। एक-एक ग्रन्थ की अनेकानेक प्रतियाँ लिखवाकर विभिन्न ग्रन्थ-भण्डारों में विराजमान की और जनता को पढ़ने एवं स्वाध्याय के लिए प्रेरित किया। राजस्थान के सैकड़ों हस्तलिखित ग्रन्थागार उनकी साहित्य-सेवा के ज्वलन्त उदाहरण हैं। ये जैन सन्त संग्रह की दृष्टि से कभी जातिवाद एवं सम्प्रदायवाद के व्यामोह में नहीं पड़े । उन्हें जहाँ से भी लोकोपकारी साहित्य उपलब्ध हुआ, उसे शास्त्र-भण्डारों में संग्रहीत किया और १ मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : राजस्थानी जैन संतों की साहित्य-साधना, पृ० ७८३ Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान का जैन संस्कृत साहित्य ४४३ .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............................................ स्थान-स्थान पर ग्रन्थागार स्थापित किये। यही कारण है कि आज राजस्थान के अन्य भण्डारों में विविध भाषा के विविध विषयक तीन लाख के लगभग ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। ये ग्रन्थ भण्डार भारतीय वाङ्मय के महत्त्वपूर्ण अंग हैं। भारतीय वाङ्मय का अधिकांश भाग इन्हीं भण्डारों में सुरक्षित है। भारतीय संस्कृति के विभिन्न अंगों की भाँति साहित्य के उन्नयन तथा विकास में भी राजस्थान ने मूल्यवान योगदान दिया है। जैन बहुलप्रदेश होने के नाते संस्कृत महाकाव्य की समृद्धि में जैन कवियों ने श्लाघ्य प्रयत्न किया है। डॉ. सत्यव्रत ने ठीक ही कहा है, "यह सुखद आश्चर्य है कि जैन साधकों ने अपने दीक्षित जीवन तथा निश्चित दृष्टिकोण की परिधि में बद्ध होते हुए भी साहित्य के व्यापक क्षेत्र में झांकने का साहस किया, जिसके फलस्वरूप वे साहित्य की विभिन्न विधाओं एवं उसकी विभिन्न शैलियों की रचनाओं से भारती के कोश को समृद्ध बनाने में सफल हुए हैं।" भारतीय संस्कृत वाङ्मय का अधिकांश भाग जैन-ग्रन्थ भण्डारों में सुरक्षित है। जैसलमेर, नागौर एवं बीकानेर के ग्रन्थागार इस तथ्य के साक्षी हैं। इन ग्रन्थागारों के द्वारा संस्कृत साहित्य के इतिहास की कड़ियाँ प्रकाश में आ सकी हैं । एक विद्वान् के शब्दों में-"संस्कृत के सुकृतो रचनाकारों के साथ-साथ हमें महामना जैन मुनियों का भी ऋणी होना चाहिए, जिन्होंने अपने संस्कृतानुराग के कारण कई दुर्लभ एवं विस्मत संस्कृत ग्रन्थों को अपनी ममतामयी कोड़ में स्थान देकर उन्हें काल के भयंकर थपेड़ों से और इतिहास की खूखार तलवार से बचाये रखा।"४ इससे कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि राजस्थान में संस्कृत साहित्य के संरक्षण, संवर्द्धन एवं सम्पोषण में जैनाचार्यों, सन्तों एवं विद्वानों का उल्लेखनीय योगदान रहा है। राजस्थान में जैन कवियों ने संस्कृत भाषा में साहित्य की प्रत्येक विधा में-दर्शन, न्याय, व्याकरण, साहित्य, चरितकाव्य, पुराण, नाटक, कथा, स्तोत्र, पूजा, भाषाशास्त्र आदि विषयों पर ग्रन्थ रचे ।। राजस्थान में १०वीं शताब्दी से पूर्व ही साहित्य-प्रेमी जैन-कवियों की लेखनी से अनेक ग्रन्थ प्रसूत हुए । इस परम्परा में राजस्थान जैन संस्कृत साहित्य के प्रथम निर्माता हरिभद्रसूरि थे। उनका सम्बन्ध चित्तौड़ से था और अस्तित्वकाल वि० की ८-6वीं शताब्दी । हरिभद्रसूरि का प्राकृत एवं संस्कृत दोनों भाषाओं पर समान अधिकार था। दोनों ही भाषाओं में उनकी विपुल रचनाएँ मिलती हैं। उन्होंने धर्म, योग, दर्शन, न्याय, अनेकान्त, आचार, अहिंसा के साथ ही आगम सूत्रों पर भी विशाल ग्रन्थ लिखे । प्रमुख ग्रन्थों में अनुयोगद्वारसूत्र-टीका, आवश्यकसूत्र-टीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र-टीका, अनेकान्तवादप्रवेश, न्यायविनिश्चय, सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण, योगदृष्टि समुच्चय, योगशतक, समराइच्चकहा आदि हैं । योग-रचनाओं में जैन योग और पतंजलि की योगपद्धति का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। अनेकान्त दृष्टि प्राप्त होने पर साम्प्रदायिक अभिनिवेश समाप्त हो जाता है। हरिभद्र सूरि ने प्रथम बार आगम की व्याख्या संस्कृत में लिखी। हरिभद्र सरि के पश्चात् 'सिषि' की महान् कृति 'उपमितिभवप्रपंचकथा' है, जो वि० सं० ६८२ में लिखी 1 Jain Granth Bhandars in Rajasthan : Introduction -Dr. Kastur Chand Kasliwal. २ श्री के० सी जैन : जैनिज्म इन राजस्थान ३ जैन संस्कृत महाकाव्य-राजस्थान का जैन साहित्य, पृ० ११७. ४ डॉ० हरिराम आचार्य : राजस्थान में संस्कृत साहित्य की परम्परा, राष्ट्रीय संस्कृत शिक्षा सम्मेलनम् : स्मारिका, १९७८ । ५ मुनिश्री नथमल : संस्कृत साहित्य : विकास एवं प्रवृत्तियाँ (राजस्थान), जैन साहित्य, पृ० ५६ ६ वही, Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खg गई। शैली की दृष्टि से यह एक श्रेष्ठतम महारूपक ग्रन्थ है जो समस्त भारतीय भाषाओं में ही नहीं, अपितु विश्वसाहित्य में प्राचीनतम एवं मौलिक रूपक उपन्यास है। इसमें काल्पनिक पात्रों के माध्यम से धर्म के विराटस्वरूप को रूपायित किया गया है। इसे पढ़ते समय अंग्रेजी की जान बनयन कृत 'पिलग्रिम्स प्रोग्रेस' का स्मरण हो आता है। जिसमें रूपक की रीति से धर्मवृद्धि और इसमें आने वाली विघ्नबाधाओं की कथा कही गई है । आठवीं शताब्दी के अन्तिम पाद के 'ऐलाचार्य' भी प्राकृत एवं संस्कृत के विद्वान् व सिद्धान्त शास्त्रों के विशेष ज्ञाता थे । चित्रकूटपुर इनका निवास स्थान था। आचार्य वीरसेन के ये गुरु थे। १०वीं शताब्दी में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय पर संस्कृत टीका-ग्रन्थ लिखे । पुरुषार्थसिद्ध युपाय, तत्त्वार्थसार एवं समयसारकलश इनकी लोकप्रिय रचनाएँ हैं। पं० नाथूराम प्रेमी एवं डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल के अनुसार ये बयाना के पास स्थित ब्रांभपणाड-ब्रह्मबाद में आये । राजस्थान को पर्याप्त समय तक अलंकृत किया। राजस्थान के ग्रंथ भण्डारों में इनकी अनेक रचनाएँ मिलती हैं । बागड़ प्रदेश में १०वीं शताब्दी में तत्वानुशासन के रचयिता आचार्य रामसेन ने अपने ग्रंथ में अध्यात्म जैसे नीरस, कठोर एवं दुर्बोध विषय को सरल एवं सुबोध बनाया। इसी शताब्दी में आचार्य महासेन ने १४ सर्ग में प्रद्युम्नचरित को संस्कृत में निबद्ध किया। उनका सम्बन्ध लाड बागड़ से था। चित्तौड़निवासी कवि डड्ढा ने संस्कृत में ही पंच संग्रह की रचना की, जो प्राकृत पंच संग्रह की गाथाओं का अनुवाद है । इनका समय स० १०५५ है। ११-१२वीं शताब्दी में होने वाले आचार्य हेमचन्द्र संस्कृत के उद्भट विद्वान् थे। इनके ग्रन्थों का राजस्थान में काफी प्रचार रहा । दोनों ही सम्प्रदायों के शास्त्र-भण्डारों में इनके ग्रंथ समान रूप से मिलते हैं । संस्कृत वाङमय के क्षेत्र में आचार्य हेमचन्द्र का विस्मयकारी योगदान है। प्रमाणमीमांसा उनकी जैनन्याय की अनूठी रचना है। त्रिशष्टिशलाका पुरुषचरित प्रसिद्ध महाकाव्य है। सिद्धहेमशब्दानुशासन लोकप्रिय व्याकरणग्रंथ है।" सं० १२६२ में मांडलगढ़ निवासी आशाधर ने संस्कृत में न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार, शब्दकोश, धर्मशास्त्र और वैद्यक आदि विषयों पर अनेक ग्रंथों की रचना की। जैनेतर ग्रंथों पर भी उन्होंने टीकाएँ लिखीं। आराधनासारटीका, प्रमेयरत्नाकर, भरतेश्वराभ्युदय, ज्ञानदीपिका, गजमती विप्रलम्भ, अध्यात्म-रहत्य, अमरकोश एवं काव्यालंकार टीका, जिनसहस्रनाम, सागार एवं अनागार धर्मामृत आदि ग्रंथों के प्रणेता आशाधर संस्कृत भाषा के धुरन्धर विद्वान् थे, जिन पर जैन समाज को गर्व है। १३वीं शताब्दी में वाग्भट्ट ने मेवाड़ में छन्दोऽनुशासन एवं काव्यानुशासन की रचना की। इसी शती में सोमप्रभाचार्य ने सूक्तिमुक्तावली की रचना की। यह कृति सुभाषित सूक्त होने के साथ-साथ प्रांजल भाषा, प्रसादगुण सम्पन्न पदावली और कलात्मक कृति है। सोमप्रभाचार्य की शृंगारवैराग्यतरंगिणी भी एक महत्त्वपूर्ण कृति है। अजमेर की गादी के भट्टारक प्रभाचन्द्र ने १३वीं शती में राजस्थान के कई जैन मन्दिरों में मूर्तियों की १. म. विनयसागर महोपाध्याय : संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार, पृ०६० २. डा० हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १७४ ३. डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल : संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार, पृ० ६५ ४. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ५. राष्ट्रीय संस्कृत शिक्षा सम्मेलन, स्मारिका १६७८, पृ० ६७ ६. राजस्थान का जैन साहित्य, पृ०६७ ७. संस्कृत साहित्य के विकास में जैनाचार्यों का योगदान : डा० कासलीवाल ८. जैन साहित्य और इतिहास : नाथूराम प्रेमी ६. राजस्थान का जैन साहित्य, पृ० ६० Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान का जैन संस्कृत साहित्य ४४५ प्रतिष्ठापना के साथ-साथ पूज्यपाद के समाधितन्त्र और आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन पर लोकप्रिय संस्कृत टीकाएँ लिखीं। इन्हीं के शिष्य भट्टारक पद्मनन्दि (सं० १३८५) संस्कृत के उद्भट विद्वान् थे। इन पर सरस्वती की असीम कृपा थी । एक बार उन्होंने पाषाण की सरस्वती की मूर्ति को मुख से बुला दिया था। राजस्थान में चित्तौड़, मेवाड़, बूंदी, नैणबाँ, टोंक, झालावाड़ के साथ गुजरात इनकी साहित्य-साधना एवं धर्म प्रचार के केन्द्र रहे। भट्टारक सकलकीति ने इन्हीं से नैणवाँ में शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की। इनकी प्रमुख कृतियों में श्रावकाचार, द्वादशव्रतोद्यापन, पार्श्वनाथस्तोत्र, देवशास्त्रगुरुपूजा हैं। वि० की १४वीं शताब्दी में जिनप्रभसूरि ने द्वयाश्रय श्रेणिक काव्य लिखा, जिसमें व्याकरण की वृत्ति एवं श्रेणिक का जीवन चरित्र दोनों साथ चलते हैं । मुहम्मद तुगलक के प्रतियोधक एवं धर्मगुरु जिनप्रभसूरि ने वि० सं० १३८६ में विविधतीर्थकल्प नामक ग्रन्थ का निर्माण किया । तीर्थयात्रा में जो देखा, उसका सजीव वर्णन हुआ है। इसमें भक्ति, इतिहास और चरित तीनों एक साथ मिलते हैं। १५वीं शताब्दी में राजस्थान में बागड़ प्रान्त में भट्टारक सकलकीति का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। सकलकीति संस्कृत के उद्भट विद्वान् थे। उन्होंने पुराण, न्याय, काव्य, आदि पर २८ से भी अधिक ग्रन्थ लिखे। मूलाचारप्रदीप, आदिपुराण, उत्तरपुराण, शान्तिनाथचरित्र, यशोधरचरित्र, सुकुमालचरित्र, सुदर्शनचरित्र, पार्श्वनाथचरित्र, व्रतकथाकोष, सुभाषितावली, जम्बूस्वामीचरित्र, सिद्धान्तसारदीपक आदि प्रमुख ग्रन्थ हैं । राजस्थान में जैन संस्कृत साहित्य की संरचना में ब्रह्म जिनदास का योगदान भी कम नहीं है। गुजरात के अणहिलपुरपट्टण में जन्म लेने के बाद मेवाड़ में बागड़ प्रान्त में भट्टारक सकलकीति के सान्निध्य में सं० १४८० से १५२० तक साहित्याराधन में रत रहने वाले ब्रह्म जिनदास ने हिन्दी के साथ संस्कृत भाषा में भी काव्य रचना की, जिनमें पद्मपुराण, जम्बूस्वामीचरित्र, हरिवंशपुराण मुख्य हैं । भट्टारक ज्ञानभूषण की तत्त्वज्ञानतरंगिणी (रचना काल सं० १५६०) आत्मसम्बोधन काव्य है। ये सागवाड़ा गादी के भट्टारक थे। षट्भाषा चक्रवर्ती शुभचन्द्र (सं० १५७३) विविध विद्याधर (शब्दागम, युक्त्यागम एवं परमागम) के ज्ञाता थे। इनकी २४ संस्कृत रचनाओं में चन्द्रप्रभचरित्र, करकण्डुचरित्र, कार्तिकेयानुप्रेक्षा-टीका, जीवन्धरचरित्र, पाण्डवपुराण, श्रेणिकचरित्र विशेष प्रसिद्ध हैं । आचार्य सोमकीति ने १५वीं शताब्दी में संस्कृत में सप्तव्यसनकथा, प्रद्युम्नचरित्र एवं यशोधरचरित्र रचनाएँ लिखीं । इस्सी शताब्दी में जिनदत्त सूरि ने जैसलमेर में ज्ञानभण्डार की स्थापना की । वे संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे।" ___सं० १५४४ में कमलसंयमोपाध्याय ने उत्तराध्ययन पर संस्कृत टीका लिखी। ब्रह्म कामराज ने सं० १५६० में जयपुराण लिखा। १ संस्कृत साहित्य एवं साहित्यकार : डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल पृ० १०३ २ भट्टारक सम्प्रदाय : श्री वी० पी० जोहरापुरकर ३ राजस्थान का जैन साहित्य, पृ० ५६ । ४ राजस्थान के जैन सन्त : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ०९ ५ ब्रह्म जिनदास : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, डा. प्रेमचन्द्र रावका ६ राजस्थान के जैन संत, पृ० ६४ ७ मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ, पृ०७६७ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड १६वीं शताब्दी में ब्रह्म रावमल्ल ने भक्तामरस्तोत्र की वृत्ति लिखी । १७वीं शताब्दी के सर्वतोमुखी और सर्वश्रेष्ठ विद्वान् महोपाध्याय समयसुन्दर ने सं० १६४९ में काश्मीर विजय के समय सम्राट अकबर के सम्मुख 'राजानो ददते सौख्यम्' इन आठ अक्षरों के आठ लाख अर्थ कर अष्टलक्षी ग्रन्थ रचा। सं० १६५६ में विराटनगर में भट्टारक सोमसेन ने पद्मपुराण की रचना की । १७वीं शताब्दी में सन्त हर्षकीर्ति सूरि ने आयुर्वेद का प्रसिद्ध ग्रन्थ योगचिन्ता - मणि लिखा । १८वीं शताब्दी में उपाध्याय मेघविजय ने सप्तनिधान काव्य का निर्माण किया, जिसमें ऋषभदेव, शान्तिनाथ, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर इन पांच तीर्थंकरों तथा राम और कृष्ण के चरिव निबद्ध हुए। सं० १७०५ में भट्टारक श्रीभूषण का पूजासाहित्य, भट्टारक धर्मचन्द (सं० १७२६ ) का गौतमस्वामीचरित, पण्डित जिनदास का होली रेणुकाचरित्र, विराटनगर के पं० राजमल्ल का जम्बूस्वामीरिण, वादिराज का वाग्भट्टालंकार, भट्टारक देवेन्द्रकीति की समयसार टीका, भट्टारक सुरेन्द्रकीति की अष्टाह्निका कथा, प्रताप काव्य आचार्य ज्ञानसागर के वीरोदय, जपोदय एवं दयोदय महाकाव्य, पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ के जैनदर्शनसार, सर्वार्थसिद्धिसार; पं० मूलचन्द शास्त्री का वचनदूतम्, मुनि चौथमलजी का भिक्षु शब्दानुशासन, आचार्यश्री तुलसी का जैन सिद्धान्तदीपिका, मनोऽनुशासनम्, मुनिश्री नथमलजी की सम्बोधि, चन्दनमुनि का अभिनिष्क्रमणम्, प्रभवप्रबोधकाव्यम्, आदि संस्कृत काव्य राजस्थान के हैं । सम्प्रति आचार्य विद्यासागर संस्कृत के युवा आचार्य हैं । इनका श्रमणसूक्तम् जैनगीताकाव्य है । इस प्रकार राजस्थान में संस्कृत की सरिता निरन्तर प्रवहमान रही जहाँ जैन मुनियों, आचार्यों, विद्वानों ने संस्कृत साहित्य के संवर्द्धन में योग दिया । वह परम्परा आज भी गतिशील है । O . Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार C] डॉ० शक्तिकुमार शर्मा, "शकुन्त", सहायक शोध अधिकारी (संस्कृत), साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर कर्मकाण्ड एवं आडम्बर के विरोध में पनपे जैन और बौद्ध धर्मों ने समाज के अभिजात्य वर्ग में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने के लिए लोकभाषा एवं लोक संस्कृति का आश्रय लिया। पालि एवं प्राकृत की सरिता में गौतम बुद्ध एवं महावीर ने अपने उपदेशों को प्रवाहित किया। त्रिपिटक एवं आगम साहित्य की रचनाएँ हुई। तथापि जनमानस में संस्कृत तत्वज्ञों के प्रति व्याप्त आदर की भावना ने बौद्ध एवं जैन तत्त्वज्ञों को भी प्रभावित किया । अश्वघोष ने सौन्दरानन्द एवं बुद्धवरित लिवकर ख्याति ऑजत की। फलत: जैन धर्म ने भी धर्माशर्माभ्युदय एवं यशस्तिलकचम्पू की रचना कर संस्कृत में पर्दापण किया। राजस्थान का जैन साहित्यकार भी इस कार्य में पीछे नहीं रहा। विक्रम की अष्टम शती से प्रवाहित यह स्रोतस्विनी आज तक भी कलकल ध्वनि से मरुधरा को निनादित करती रही है। (१) रविषेण-रविषेण सेन परम्परा के आचार्य लक्ष्मणसेन के शिष्य थे।' सेन संघ के भट्टारक सोमकीति राजस्थान के निवासी होने के कारण दिगम्बर सम्प्रदाय के इस संघ का राजस्थान में बहुत प्रचार था। विद्वानों का अनुमान है कि आप भी राजस्थान के निवासी थे। पद्मचरित की पुष्पिका के अनुसार इस रचना की समाप्ति महावीर निर्वाण के १२०३ वर्ष, ६ माह पश्चात विक्रम संवत् ७३४ में हुई । अतएव इनका समय विक्रम की ८वीं शती स्वीकार किया जा सकता है। पद्मचरित जैन दृष्टिकोण से लिखी गई रामकथा है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ही इस काव्य के नायक पद्म हैं । १२३ पर्वो की इस रचना में आठवें नारायण लक्ष्मण, भरत, सीता, जनक, अंजना, पवन, हनुमान, राक्षसवंशी रावण, विभीषण एवं सुग्रीव का विस्तृत वर्णन है। (२) हरिभद्रसूरि-श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आप्त पुरुष हरिभद्रसूरि की लीलाभूमि चित्रकूट (चित्तौड़) थी। राजपुरोहित जाति में उत्पन्न आचार्य हरिभद्र ने याकिनी नामक महत्तरा से प्रतिबोधित होकर संन्यास ग्रहण किया। आपके दीक्षा गुरु जिनदत्तसूरि थे । आपका आविर्भाव सं० ७५७ से ८५७ के मध्य स्वीकार किया जाता है। __ भारतीय दर्शन के गढ़तम रहस्यों का अध्ययन कर आपने योग दर्शन को जैन धर्म से मिश्रित कर योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु, योग-शतक एवं योगविशिका नामक कृतियों की रचना की। न्यायदर्शन के दृष्टिकोण से अनेकान्तवाद प्रवेश, अनेकान्तजयपताका, न्यायविनिश्चय, लोकतत्त्वनिर्णय, शस्त्रवार्ता समुच्चय, सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण मौलिक एवं दिङ्नाग कृत न्याय प्रवेश टीका तथा न्यायावतार टीका, टीकाग्रन्थ हैं । टीका ग्रन्थों की दृष्टि से आपकी साहित्य को बहुत बहुत बड़ी देन है। इनके प्रमुख टीका ग्रन्थ निम्न हैं -पद्मचरित १. आसादिन्द्रगुरो दिवाकरपतिः, शिष्योऽस्य चाहन्मनि । तस्माल्लक्ष्मणसेन सन्मुनिरदः, शिष्यो रविस्तु स्मृतः ।। द्विशताभ्यधिके समा सहस्र, समतीते अर्धचतुर्थ-वर्ष-युते । जिनभास्करवर्धमानसिद्धेः, चरितं पद्मनेरिदं निबद्धम् ॥ -पद्मचरित Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४४८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .... . ................................................................... अनुयोगद्वारसूत्र टीका, आवश्यकसूत्र बृहद्वृत्ति, आवश्यक नियुक्ति टीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र टीका, जीवागम-सूत्र-लघुवृत्ति, तत्त्वार्थसूत्रटीका, दशवैकालिक सूत्रटीका, नन्दीसूत्रटीका, पिण्डनियुक्ति टीका, प्रज्ञापना सूत्र प्रदेश व्याख्या, ललितविस्तरा, चैत्यवन्दन सूत्रवृत्ति आदि।। राजस्थान के संस्कृत साहित्य को आचार्य हरिभद्रसूरि का आदि कवि कहा जा सकता है। (३) सिद्धषिसूरि-सिषिसूरि निवृत्ति कुल के आचार्य दुर्गस्वामी के शिष्य थे । आचार्य दुर्गस्वामी का स्वर्गवास भिन्नमाल (भीनमाल) में हुआ। अतएव आपका कार्यक्षेत्र राजस्थान ही रहा । दुर्गस्वामी की मृत्यु के पश्चात् आपने गर्गस्वामी को अपना गुरु बनाकर दीक्षा ग्रहण की। उपमितिभवप्रपंच कथा में सं० ६६२ अंकित है। अतएव आपका स्थिति काल १०वीं शती स्वीकार किया जा सकता है। आपकी दो रचनाएँ साहित्यिक जगत् में विख्यात रहीं-उपमितिभव-प्रपंच नामक रचना एक विशालकाय महारूपक है। विश्व साहित्य में यह एक प्राचीनतम रूपकमय उपन्यास है। प्रतीत होता है कि संस्कृत कवि कृष्णचन्द्र यति को 'मोहविजय' नामक रूपक लिखने की प्रेरणा इस ग्रन्थ से मिली होगी। चन्द्रकेवली चरित एक चरित काव्य है। इनके अतिरिक्त उपदेशमाला एवं न्याया वतार पर आपकी टीकाएँ भी प्रसिद्ध हैं। - (४) अमृतचन्द्र-महापण्डित आशाधर ने अमृतचन्द्र का उल्लेख सूरिपद के साथ किया जिससे ज्ञात होता है कि वे अभिजात कुल के थे। पं० नाथूराम प्रेमी ने लिखा है-"अमृतचन्द्र वामणवाडे आये तथा सिंह नामक कवि को 'पज्जुण्णचरिउ' लिखने की प्रेरणा दी। यह बामणवाड़ यदि सवाईमाधोपुर जिले में स्थित बामणवास है तो आपका कार्यक्षेत्र राजस्थान ही सिद्ध होता है। आपका स्थितिकाल १०वीं एवं ११वीं शती के मध्य माना जाता है। आपकी तीन रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-(१) पुरुषार्थसिद्ध युपाय, (२) तत्त्वार्थसार, (३) समयसारकलश । पुरुषार्थसिद्ध युपाय २२६ पद्यों की संस्कृत रचना है जिसमें जैनधर्म के त्रिरत्न (सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र) व्यवहारनय-निश्चयनय, आस्रव आदि जैन दर्शन के तत्त्वों का विवेचन है। अधिकारों से संवलित तत्त्वार्थसार में जीव-अजीव, आस्रव, बन्ध, मोक्ष, निर्जरा आदि का विशद विश्लेषण है। आचार्य कुन्दकुन्द की कृति समयसार पर आत्मख्याति नामक टीका में परिष्कृत गद्यशैली एवं गाथा के शब्दों की व्याख्या के मनोरम उदाहरण प्राप्त होते हैं। (५) रामसेन-दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रस्तुत कवि रामसेन बागड (डूंगरपुर-बांसवाड़ा क्षेत्र) से सम्बन्धित एवं नरसिंहपुरा जाति के संस्थापक थे। भट्टारक परम्परा के अनेक विद्वानों ने अपनी प्रशस्तियों में रामसेन को आदरपूर्वक स्मरण किया है । आपका समय १०वीं शती माना जाता है। तत्त्वानुशासन नामक २५८ श्लोकों की रचना में अध्यात्म का सुन्दर विश्लेषण किया गया है। अपनी सुबोध एवं सरल शैली के माध्यम से कठोर, नीरस एवं दुर्बोध विषय को भी सहज, सरल एवं सरस बना दिया है । कर्मबन्ध, उसकी मुक्ति, मुक्ति का उपाय (ध्यान), उसका भेद आदि का वर्णन सहज एवं आकर्षक बन पड़ा है। (६) आचार्य महासेन-आचार्य महासेन लाल बागड़ संघ के पूर्णचन्द जयसेन तथा गुणाकरसेन सूरि के शिष्य थे। इनके गुणों के परिगणन में सिद्धान्तज्ञ, वाग्मी, यशस्वियों द्वारा मान्य, सज्जनों में अग्रणी एवं परमार वंशी मुंज द्वारा पूजित' विशेषणों का प्रयोग हुआ है। मुंज के स्थितिकाल के आधार पर आपका समय १०वीं शती स्वीकार किया जा सकता है । १ तच्छिष्यो विदिताखिलोरुसमयो वादी च वाम्मी कवि, शब्दब्रह्मविचारधामयशसां मान्यो सतामग्रणी। आसीत् श्रीमहसेनसूरिरनघः श्रीमुंजराज चितः, सीमादर्शनबोधप्रत्तपसां भब्याब्जनी बान्धवः ॥ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार आपकी समय कीर्ति एकमात्र कृति प्रयम्नपरित पर अवलम्बित है १४ सर्गों के इस महाकाव्य में श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का जीवन चरित रस एवं अलंकारों से सरस एवं अलंकृत काव्यशैली में निबद्ध है । (७) जिनेश्वरसूरि - मध्य प्रदेश के निवासी कृष्ण ब्राह्मण के पुत्र श्रीधर ही वर्धमान सूरि से दीक्षा प्राप्त कर जिनेश्वरसूरि हो गये । अणहिलपुरपत्तन में आपका शास्त्रार्थ सूराचार्य जी से हुआ। महाराजा दुर्लभराज की अध्यक्षता में होने वाले इस शास्त्रार्थ में जिनेश्वरसूरि को विजय के साथ खरतर नामक विरुद की प्राप्ति हुई । आपका कार्यक्षेत्र राजस्थान व गुजरात था । आपकी रचनाएँ मूलतः टीकाएँ हैं। प्रमालक्ष्य, अष्टकप्रकरण एवं कथाकोष प्रकरण पर जालोर एवं डीडवाना में स्वोपज्ञ नामक टीकाओं की रचनाएँ की प्रमालक्ष्य जैनदर्शन का आद्य ग्रन्थ एवं शेष प्रकरण ग्रन्थ हैं। इन तीन ग्रन्थों की रचना आपने ग्यारहवीं शती में की है। ४४६ (८) बुद्धिसागरसूरि - श्रीधर के अनुज श्रीपति ने भी दीक्षा ग्रहण कर बुद्धिसागर नाम धारण किया । जिनेश्वरसूरि के अनुज होने के नाते आपका समय भी ग्यारहवीं शती ही स्वीकार किया जा सकता है। आपकी एकमात्र कृति पंचग्रन्थी व्याकरण है जिसका अपर नाम ही बुद्धिसागर व्याकरण हो गया है । आचार्य हेमचन्द्र ने भी इस व्याकरण का उपयोग अपने ग्रन्थों में किया है । (4) कवि डड्ढा - चित्रकूट के निवासी कवि डड्ढा पोरवाड़ जाति के श्रीपाल के पुत्र थे । आपका निवासस्थान चित्रकूट था । विद्वानों के अनुसार आपका समय १०५० है । आपकी एकमात्र कृति संस्कृत पंचसंग्रह है, जो प्राकृत पंचसंग्रह का अनुवाद मात्र है। यद्यपि पंचसंग्रह का अनुवाद अमितगति ने भी किया था । किन्तु अमितगति के अनुवाद में जहाँ अनावश्यक बातें भी हैं, वहां डड्ढा ने वाणी पर संयम का अंकुश रखा है । (१०) आचार्य शुभ-शुभचन्द नाम से कई आचार्य जैन परम्परा में हो चुके हैं। प्रस्तुत शुभचन्द के निवासस्थान, कुल, वंश परम्परा के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं । इनकी कृति ज्ञानार्णव की शताधिक प्रतियाँ राजस्थान के जैन भण्डारों में प्राप्त होती हैं, जिससे यह अनुमान होना है कि आप राजस्थान के निवासी थे । ४८ प्रकरणों के इस ग्रन्थ में १२ आपकी कृति ज्ञानार्णव योग दर्शन (जैन मान्यतानुसार) का प्रमुख प्रन्थ है भावना, पंचमहाव्रत, ध्यान आदि का सुन्दर विवेचन हुआ है । (११) आचार्य ब्रह्मदेव – आचार्य ब्रह्मदेव आश्रमपत्तन के निवासी थे । आश्रमपत्तन बूंदी जिले में अवस्थित केशवरायपत्तन ( केशारायपाटन) का पुराना नाम है । ब्रह्मदेव की दोनों कृतियों की रचना यहाँ हुई । आपने दो ग्रंथों - बृहद् - द्रव्य-संग्रह एवं परमात्म प्रकाश पर श्रेष्ठी सोमराज के लिए टीका लिखी । द्रव्यसंग्रह में श्रेष्ठी सोमराज के प्रश्नों का नामोल्लेख के साथ उत्तर दिया गया है जिससे यह प्रतीत होता है कि श्रेष्ठी सोमराज की शंकाओं का समाधान उक्त ग्रन्थ के रूप में हुआ है । १. बल्लभ भारती (१२) जिनवल्लभ सूरि - जिनवल्लभसूरि का अधिकतर समय चित्रकूट में ही व्यतीत हुआ। आप जिनेश्वर सूरि के शिष्य थे एवं अभयदेवसूरि के पास अध्ययन करते थे । सं० १९६७ में अभयदेवसूरि की मृत्यु के पश्चात् आचार्य पद पर अभिषिक्त हुए । इसी वर्ष आप भी अपने गुरु का अनुगमन स्वर्ग चले गये ।' आपकी कृतियाँ अनेक है जिनके नाम निम्न प्रकार परिगणित किये जा सकते हैं . Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० D+0+0+0 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड सैद्धान्तिक रचनाएँ ये हैं: १. धर्मशिक्षा प्रकरण ३. सूक्ष्मार्च विचारसारोद्वार ५. पिण्डविशुद्धि २. संघपट्टक ४. आगमिक साहित्यिक सौन्दर्य से संचलित रचनाएँ निम्न हैं: ६. द्वादशकुलक आदि । वस्तु विचारसार १. २. प्रश्नोतरं कष्टिशतकाम्य ३. अष्टसप्ततिका अथवा चित्रकूटद्वीप वीर चैत्य प्रशस्ति ४. भावारिवारण आदि । (१३) जिनपतिसूरि - मलधारी जिनचन्द्र के शिष्य जिनपति सूरि का जन्म सं० १२१० में विक्रमपुर में हुआ । आपके पिता का नाम यशोवर्धन एवं माता का नाम सूहवदेवी था । आपने आशिका नरेश भीमसिंह एवं अजमेर-नरेश 'पृथ्वीराज चौहान की सभा में शस्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की। आपकी दीक्षा १२१७ में आचार्य पद प्राप्ति १२२३ तथा मृत्यु १२७७ में हुई । ' आपकी रचनाओं में कतिपय स्तोष के अतिरिक्त वृत्तियां प्रमुख हैं। जिनवल्लभसूरि को संघपटक एवं बुद्धिसागर की पंचलिंगी व्याकरण पर आपकी टीकायें प्रसिद्ध हैं । प्रबोधोदय एवं वादस्थल नामक कृतियाँ दर्शन एवं तर्क की दृष्टि से उपयोगी प्रतीत होती है। (१४) जिनवालोपाध्याय - जिनपति सूरि के शिष्य जिनपासोपाध्याय की दीक्षा संवत् १२२५ में पुष्कर में हुई। सं० १२७३ बृहद्द्द्वार में कश्मीरी पण्डित मनोदानन्द के साथ शस्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की । सं० १३११ में पालनपुर में आपका स्वर्गवास हुआ। अतः राजस्थान एवं गुजरात आपका कार्यक्षेत्र स्वीकार किया जा सकता है। आपकी कृतियों में दो मूल एवं शेष टीका कृतियां हैं। सनत्कुमार चक्रीचरित शिशुपालवध की कोटि का एक श्रेष्ठ महाकाव्य है। जबकि युगप्रधान आचार्य गुर्वावली जैन आचार्यों का ऐतिहासिक विवरण प्रदान करती है । स्थानक प्रकरण, उपदेश रसायन, द्वादश कुलक, धर्मशिक्षा एवं चचंटी पर विवरण नामक टीकायें प्रमुख है। आचार्य नेपाल एक ओर मूलग्रन्थ रचने की कारयित्री प्रतिभा से सुशोभित हैं वहीं प्राचीन ग्रन्थों को समझकर टीका करने की भावयित्री प्रतिभा से भी सम्पन्न हैं । (१५) लक्ष्मी तिलकोपाध्याय जालोर जनपद के निवासी उपाध्याय लक्ष्मीतिलक ने प्रत्येकयुद्ध परित महाकाव्य की रचना की । इस काव्य में जैन धर्म के सभी मुक्तपुरुषों के जीवनचरित का क्रमिक विवरण है। श्रावकधर्म बृहद्वृति की रचना जालोर में हुई। ३. सूरि श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेऽपि सत्तया । पदवीं भेजे जातरूपधरोऽपि यः । ततः श्री सोमसेनोऽभूत् गणीगुणगणाश्रय, सद्विनेयोऽस्ति जयसेन तपते । शीघ्र बभूव मालूसाधुसदा धर्मरतोवदान्ध, सुनुस्ततः साधु महीपतिस्तमारयं पागभट स्वनूजः ॥ (१६) आचार्य जयसेन - वीरसेन के प्रशिष्य एवं सोमसेन के शिष्य आचार्य जयसेन का पारिवारिक नाम चारुभट था । दिगम्बर सम्प्रदाय में दीक्षित होने के पश्चात् ही आपका नाम जयसेन रखा गया । इनके पितामह का नाम भालूशाह एवं पिता का नाम महीपति था। डा० ए० एन० उपाध्याय ने इनका समय १२ १३वीं शती माना है । १. खतरतगच्छालंकार युगप्रधानाचार्य गुर्वावली २. यह ग्रन्थ महा विनयसागर द्वारा सम्पादित होकर प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित हो गया हैं । Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार ४५१ (१७) पं० आशाधर-पं० आशाधर मूलत: मण्डलगढ़ (मेवाड़) के निवासी थे। आपके पिता का नाम सलक्खण एवं माता का नाम श्रीरत्नी था। आपकी पत्नी सरस्वती एवं पुत्र छाहड़ था। शहाबुद्दीन गौरी द्वारा अजमेर एवं दिल्ली पर अधिकार कर लेने के कारण धारा नगरी चले गये वहाँ से नलकच्छपुर (नालछा) चले गये। नलकच्छपुर में अध्ययन अध्यापन करते रहे । सं० १२८२ में आप नलकच्छपुर से सलखण चले गये। आपकी गति न्याय, व्याकरण, काव्य, अलंकार आदि में थी। आपकी सर्वतोमुखी प्रतिभा के परिणामस्वरूप १८ ग्रन्थ रत्नों की सृष्टि हुई। उनके नाम क्रमश: निम्न हैं:१. प्रमेयरत्नाकर २. भरतेश्वराभ्युदय ३. ज्ञानदीपिका ४. राजमतीविप्रलम्भ ५. अध्यात्मरहस्य ६. मूलराधना टीका ७. इष्टोपदेश टीका ८. आराधनासार टीका ९. अमरकोश टीका १०. भूपान चतुर्विंशति टीका ११. क्रियाकलाप १२. काव्यालंकार टीका १३. जिनसहस्रनाम १४. जिनपंजर काव्य १५. त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र १६. रत्नत्रय विधान १७. सागार धर्मामृत १८. अनागार धर्मामृत उपर्युक्त ग्रन्थों में से प्रमेयरत्नाकर, भरतेश्वराभ्युदय, ज्ञानदीपिका, राजमतीविप्रलंभ, अमरकोशटीका आदि ग्रन्थ अभी तक अनुपलब्ध हैं। शेष में जिनपंजरकाव्य एवं जिनसहस्रनाम स्तोत्र हैं । ___ अध्यात्मरहस्य दर्शन का ग्रन्थ है। इसमें आशाधर ने बहिरात्मा-अन्तरात्मा एवं परमात्मा के स्थान पर स्वात्मा, शुद्धात्मा एवं परब्रह्म नामक भेद किये हैं। त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र की रचना जाजक पण्डित की प्रेरणा से हुई। इसमें प्रेसठ शलाका पुरुषों का जीवनचरित्र संक्षेप में वणित है। सागार धर्मामृत में गृहस्थ जीवन की आचार संहिता तथा अनागार धर्मामृत में मुनि जीबन की आचार संहिता का वर्णन है। उक्त दोनों ग्रन्थों की रचना क्रमशः सं० १२९६ एवं सं० १३०० हुई। (१८) वाग्भट्ट-प्रस्तुत वाग्भट्ट अष्टांगहृदयकार, नेमिनिर्वाण महाकाव्यकार तथा वाग्भट्टालंकार-कर्ता तीनों ही वाग्भट्टों से भिन्न हैं । आप माक्कलय के पौत्र नेमिकुमार के पुत्र थे। आपकी दो वृत्तियाँ प्रसिद्ध हैं-छन्दोऽनुशासन एवं काव्यानुशासन । छन्दोऽनुशासन १. संज्ञाध्याय, २. समवृत्तरूप ३. अर्धसमवृत्त, ४. मात्रासमक, ५. मात्राछन्दक नामक पाँच अध्यायों में विभक्त है। २८६ सूत्रों के काव्यानुशासन में रस, अलंकार, छन्द, गुण, दोष आदि का कथन किया गया है। स्वरचित स्वोपज्ञ टीका में परम्परानुसार विभिन्न ग्रन्थों के पद्य उदाहरण रूप में दिये गये हैं। इन दोनों ग्रन्थों से ज्ञात होता है आप काव्यशास्त्र के उत्कृष्ट कोटि के विद्वान् थे। (१६) अभयतिलक-१३वीं एवं १४वीं शती में वर्तमान अभय तिलकोपाध्याय ने जिनेश्वर सूरि को अपना गुरु बनाया। १२९१ में दीक्षित होने के पश्चात् १३१६ में उपाध्याय पद प्राप्त किया। १. म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्तिसुवृत्तक्षिति त्रासान्विन्ध्य नरेन्द्रदौः परिमलस्फूर्जस्त्रितर्गोजसि ॥ प्राप्तोमालवमण्डले बहुपरीवारः पुरीमाबासन् । योधारामपठज्जिनप्रमिति वाक्यशास्त्र महावीरतः ।। २. श्रीमदर्जून भूपालराज्ये श्रावकसंकुले । जैनधर्मोदयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत् ॥ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 ४५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड आपकी तीन रचनायें प्रसिद्ध है. पंचप्रस्थान न्याय तर्क व्याख्या २. पानीय वादस्वल, २. हेमचन्द्रीय द्वयाश्रय काव्य टीका । (२०) जनप्रभरि - जिनसिंह सूरि के शिष्य जिनप्रभसूरि मोहिलीवाड़ी (अनु) के निवासी रत्नपाल एव खेतलदेवी के पुत्र थे। आपने सं० १३६६ में दीक्षा प्राप्त करके सं० १३४१ में आचार्य पद प्राप्त किया। आपकी प्रमुख रचनायें श्रेणिकपरित एवं विविध तीर्थकल्प मौलिक कृतियाँ हैं। इनके अतिरिक्त कल्पसूत्र, साधु प्रतिक्रमण पावस्यक अनुयोग चतुष्टयव्याख्या प्रव्रज्याभिधान, कातंत्र विभ्रमटीका, अनेकार्य संग्रह शेष शेष-संग्रह, विदग्धमुखमण्डन, गायत्री विवरण आदि पर टीका लिखी। (२१) जिनकुशलसूर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के तीसरे दादाजी जिनकुशलसुरि के गुरु कलिकालकल्पतरु जिनचन्द्र सूरि थे । सं० १३०३ में रचित इनकी एकमात्र कृति चैत्यवंदन कुलक वृत्ति है । - (२२) पद्मभट्टारक प्रभाचन्द्र के शिष्य पद्मनन्दि जाति से ब्राह्मण थे। भट्टारक पद्यनन्दि भट्टारक बनने से पूर्व आचार्य पद से सुशोभित होते थे । ३४ वर्ष की आयु में सं० १६८५ में भट्टारक पद प्राप्ति करने वाले नन्दि ने अपनी भक्ति के प्रभाव से पाषाणमयी सरस्वती को मुख से बुला दिया था। आपका कार्यक्षेत्र मेवाड़, हाड़ौती, झालावाड़, टोंक आदि थे। आपकी अधिकतर रचनाएँ पूजा, संतोष, कथा आदि वर्गों में आती है१. धावकावार, २ व्रतोपना २. नन्दीश्वर भक्तिपूजा, ४. सरस्वती पूजा, ५. सिद्धपूजा, ६ वीतरागस्तोत्र ७. पार्श्वनाथस्तोत्र ८ लक्ष्मीस्तोत्र, ९. मांतिना वस्तवन, १०. परमात्मराजस्तोत्र ११. भावना चौबीसा, १२. देवतास्वगुरुपूजा, १३. रत्नत्रय पूजा, १४. अनन्तव्रतकथा । (२३) भट्टारक सकलकीर्ति - सन्त सकलकीर्ति का जन्म १४४३' में करमसिंह एवं शोभादेवी के घर हुआ। आपका बचपन का नाम पूर्णसिंह पदर्थ था । २६ वर्ष की आयु में सम्पूर्ण सम्पत्ति को त्यागकर संन्यास ग्रहण कर लिया । नैणवां नामक ग्राम में भट्टारक पद्मनन्दि के पास आप रहे । आपने न केवल स्वाध्याय किया अपितु शिष्यों को भी अध्यापन करवाया। ब्रह्म जिनदास ने आपको निर्ग्रन्थराज हरिवंशपुराणकार ने तपोनिधि तथा सकलभूषण नेपुण्यमूर्ति कहा। इनकी मृत्यु महसाना में १४६६ में हुई । आपकी रचनाएँ लगभग ५० हैं । उनमें संस्कृत रचनाओं के नाम क्रमशः निम्न प्रकार है (१) मूलाधार प्रदीप, (२) प्रश्नोतरोपासकाचार, (३) आदिपुराण (४) उत्तरपुराण ( ५ ) शान्तिनायचरित , १. हरषी सुणीय सुवाणि पालइ अन्य उअरि सपर । पोउद त्रिताल प्रमाणि पुरद विनपुत्र जनमीजं ॥ २. न्याति महि मुतवन्त बडहरवाए। करमसिंह वितपन्न उदयवन्त हम जाणीइय ॥ शोभित तरस अयांग मूली सहीस्य सुन्दरीय सील पगारित अंग पेखु प्रत्यक्षे पुरंदरीय ॥ ३. ततोऽभवस्य जगत्प्रसिद्धे, पट्टेमनोशे सकलादिक्रीतिः । महाकविः शुद्धचरित्रधारी, निर्ग्रन्थराजा जगद्रि प्रतापी ।। ४. तत्पट्टपकेजविका सभास्वान्, वभूव निम्दरः प्रतापी । महाकवित्वादिकलाप्रवीणः, तौनिधिश्री सकलादिकीर्तिः ॥ ५ तत्पट्टधरीजनचित्तहारी, पुराणमुख्योत्तमशास्त्रकारी। भट्टारक श्री सकलाविकीर्तिः प्रसिद्धनामाजनि पुष्पमूर्तिः ॥ : " - जम्बूस्वामिचरितम् हरिवंश पुराण - उपदेशरत्नमाला Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार (६) वर्धमानचरित (७) मल्लिनाथचरित (८) यशोधरचरित (१) धन्यकुमारचरित, (१०) सुकुमानचरित ( ११ ) सुदर्शनचरित, (१२) श्रीपालचरित, (१३) नेमिजिनचरित, (१४) जम्बूस्वामीचरित, (१५) सद्भाषितावली, (१६) व्रतकथाकोष ( १७ ) कर्मविपाक (१८) तत्त्वार्थसारदीपक, (११) सिद्धान्तसारदीपक (२०) आगमसार, (२१) परमात्मराजस्तोत्र, (२२) सारचतुर्विंशतिका, (२३) द्वादशानुप्रेक्षा । ૪૫૨ आदिपुराण एवं उत्तरपुराण भागवत् पुराण के २४ अवतारों की भाँति २४ तीर्थंकरों का विवेचन देते हैं । आदिपुराण में २० समों में ऋषभनाथ का चरित वर्णित है तो उत्तरपुराण में शेष २३ तीर्थकरों का चरित वागत है। मल्लिनाथ, पार्श्वनाथ वर्द्धमान, यशोधर, शान्तिनाथ, धन्यकुमार एवं नेमिजिनचरित काव्यों में गामानुसार तीर्थकरों एवं महापुरुषों का चरित क्रमशः २७ २२ १६ १६ सगों में वर्णित है सद्भाषितावली एक सुभाषित ग्रन्थ है। कर्मविपाक एवं तत्त्वार्थसार जैन धर्म की दार्शनिक मान्यताओं पर प्रकाश डालता है। व्रतकथाकोष में व्रतों एवं परमात्मराजस्तोष स्तुतिग्रन्थ है। (२४) जिनवर्धनसूरि - जिनराजसूरि के शिष्य जिनवर्धनसूरि ने देवकुलपाटन में सं० १४६१ में आचार्य पद प्राप्त किया। आपका कार्यक्षेत्र जैसलमेर और मेवाड़ था । आपकी रचनाओं में सर्वप्रमुख रचना प्रत्येकबुद्धचरित एवं सत्यपुर मण्डन प्रमुख है । प्रत्येकबुद्धचरित में रघुवंश की भांति सभी तीर्थकरों का कमिक जीवन-चरित वर्णित है टीका साहित्य की दृष्टि से सप्तपदार्थी टीका एवं वाग्भट्टालंकार टीका आपकी न्याय एवं काव्यशास्त्र की मर्मज्ञ विद्वत्ता का द्योतन कराती है। 1 (२५) बाडव - बाडव एक सफल टीकाकार हैं । बाडव की टीकाओं के स्मरणमात्र से मल्लिनाथ की स्मृति हो आती है विराटनगर राजस्थान के निवासी वाडव ने प्रत्येक महत्त्वपूर्ण महाकाव्य को अपनी टीका से विभूषित किया है । मल्लिनाथ ने अपनी टीकाओं का नाम संजीवनी रखा तो "बाडव ने अपनी सभी टीकाओं का नाम अवचूरि रखा । आपने कुमारसंभव, रघुवंश, किरातार्जुनीयम्, मेघदूत, शिशुपालवध के अतिरिक्त वृत्तरत्नाकर, वाग्भट्टालंकार, विदा मुखमण्डन एवं योगशास्त्र से शास्त्रीय ग्रन्थों पर भी टीकाएँ लिखी हैं। स्तोत्रों पर टीका लिखने की परम्परा का निर्वाह कर आपने भीतरागस्तोत्र, भक्तामर स्तोत्र, जीरापल्लीपार्श्वनाथस्तोष, कल्याणमन्दिरस्तोत्र एवं त्रिपुरास्तोत्र पर अवचूरि का प्रणयन किया । (२६) चारित्रबर्धन - कल्याणराज के शिष्य चारित्रवर्धन का समय १४७० १५२० था। आपका कार्यक्षेत्र झुंझनू के आस-पास रहा। बाडव की परम्परा का निर्वाह करते हुए आपने भी टीका साहित्य का प्रणयन किया । 1 आपकी प्रमुख कृतियां रघुवंग, कुमारसंभव, शिशुपालवध, मेवदूत नैषधीयकाव्यम्, रामवपाण्डवीय, आदि महाकाव्यों पर टीकाएँ हैं। सिन्दूरप्रकरण टीका भावारिवारण एवं कल्याणमन्दिरस्तोत्र की टीका जैन सम्प्रदायों में अत्यधिक लोकप्रिय रही। (२७) जयसागर - सं० १५४० में आसराज एवं सोखू के घर में जन्मे जयदत्त जिनराज का शिष्यत्व स्वीकार कर जयसागर बन गये आपके भाई मण्डलीक ने आयु में खरतर सही का निर्माण करवाया जैसलमेर, आबू, गुजरात, सिंध, पंजाब एवं हिमाचल का विहार करने वाले मुनि जयसागर ने शताधिक स्तोत्रों की रचना की। इनकी मुख्य कृतियाँ विज्ञप्ति त्रिवेणी हैं पृथ्वीचन्द्रचरित, शान्तिनाथ जिनालय प्रमस्ति सन्दोह दोहावली टीका, गुरुवारसन्oयस्तोsटीका, भावारिवारण टीका है। विज्ञप्तित्रिवेणी एक ऐतिहासिक रचना है, जिसमें नगरकीट, कांगड़ा आदि का दुर्लभ विवरण प्राप्त होता है । पृथ्वीचन्द्रचरित चरितकाव्य एवं शान्तिनाथ जिनालय प्रशस्ति जैसलमेर में उक्त नाम से बने मन्दिर की प्रशस्ति है। (२८) कीतिरत्नसूरि - जिनवर्धनसूरि के शिष्य एवं देवलदे के पुत्र देल्हाकंवर ही आगे चलकर कीर्ति रत्नसूरि O . Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड - - -. -. -. - -.-. -. -. -.-. -. -.-.-. -.-.-...-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -. -. के नाम से विख्यात हुए। आषकी दीक्षा सं० १४६३ में हुई और वाचनाचार्य पद १४७०, उपाध्याय १४८० एवं आचार्य पद १४६७ में प्राप्त किया। आपकी एकमात्र रचना नेमिनाथ महाकाव्य है। नेमिनाथ महाकाव्य संस्कृत के ह्रासकाल की रचना है। भारवि एवं माघ द्वारा प्रवर्तित अलंकार मार्ग की प्रवृत्तियों का अनुकरण करते हुए कीर्तिरत्नसूरि ने छोटी-सी घटना को सजा-संवार कर १२ सर्गों में प्रस्तारित कर दिया। स्वप्न, वसन्त वर्णन, धर्मोपदेश, निर्वाण प्राप्ति आदि के विवरण मनोरम एवं रोचक बन पड़े हैं। (२९) नयचन्द्रसूरि-नयचन्द्रसूरि के जीवन-चरित्र के विषय में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकी। तोमरनरेश वीरम के सभासदों की व्यंग्योक्ति से आहत होकर नयचन्द्र सूरि ने प्राचीन कवियों की प्रतिभा से प्रतिस्पर्धा में हम्मीर महाकाव्य की रचना की ।' रणस्तम्भपुर (रणथम्भौर) के महाराजा हम्मीर के जीवन चरित का वर्णन होने के कारण इतना निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उनका राजस्थान से गहन सम्बन्ध रहा होगा।' प्रथम छः सर्गों में चाहमान वश की उत्पत्ति तथा हम्मीर के पूर्वजों का वर्णन है। मुख्य कथन ८-१३ सर्गों में है। राजपूती शौर्य की साकार प्रतिमा महाहठी हम्मीर एवं अलाउद्दीन खिलजी के घनघोर युद्धों एवं अन्ततः प्राणोत्सर्ग का वर्णन है। हमीर काव्यम् की प्रमुख विशेषता यह है कि कल्पना एवं काव्य-सौन्दर्य के आवरण में कहीं भी ऐतिहासिक तथ्य विलीन नहीं हो पाये हैं। काव्य की दृष्टि से यह ग्रन्थ उच्च विन्दु तक पहुँचा हआ है। इसके काव्यगत वैशिष्ट्य पर स्वयं कवि को गर्व है। (३०) जिनहर्ष-जिनहर्ष ने अपने काव्य वस्तुपालचरित की रचना चित्रकूट (चितौड़) के जिनेश्वर मन्दिर में सं० १४९७ में की। आठ विशालकाय प्रस्तावों में कवि ने चालुक्य नरेश वीरधवल के नीति निपुण मन्त्री वस्तुपाल एवं उनके अनुज तेजपाल का जीवनचरित लिखा है। इस काव्य में वस्तुपाल एवं तेजपाल के विषय में उपयोगी जानकारी है किन्तु पौराणिक संकेतों एवं काव्यात्मक वर्णनों में कथावस्तु इतनी उलझ गयी है कि उसको प्राप्त करने के लिए पाठक का मन आहत होकर निराश हो जाता है। ४५५६ श्लोकों के इस महाकाव्य में वस्तुपाल के जीवन पर मुश्किल से २५०३०० श्लोक ही प्राप्त होते हैं। कवि में मानवीय गुणों, साहित्यिक प्रेम एवं जैन धर्म के प्रति अपार उत्साह परिलक्षित होता है। वस्तुपाल का जितना वर्णन दिया गया है वह प्रामाणिक है यह सन्तोष की बात है। (३१) जिनहंससूरि-मेघराज एवं कमलादे के पुत्र जिनहंससूरि जिनसमुद्रसूरि के शिष्य थे। सं० १५२४ में जन्म ग्रहण कर १५३५ में दीक्षा प्राप्त की। धौलपुर में बादशाह को चमत्कार दिखाकर ५०० बन्दियों को कारागार से मुक्त कराया। आपकी प्रमुख कृति आचारांगसूत्र दीपिका है जिसकी रचना १५७२ में बीकानेर में हुई। (३२) भट्टारक ज्ञानभूषण-भट्टारक ज्ञानभूषण नामक चार व्यक्ति हो चुके हैं। प्रस्तुत भट्टारक ज्ञानभूषण ज्ञानकीति के भ्राता थे। सं० १५३५ में सागवाड़ा में हुई प्रतिष्ठाओं का संचालन दोनों भ्राताओं ने ही किया । आप बृहद शाखा के भट्टारक के नाम से प्रसिद्ध हैं तथा ज्ञानकीति लघुशाखा के । आपने गुजरात, आभीर, तैलब, महाराष्ट्र, द्रविड़, रायदेश (ईडर), मेरुभार (मेवाड़), मालवा, कुरुजांगल, विराट, नीमाड़, आदि प्रदेशों को अपने ज्ञान से प्रभावित किया। १ हम्मीर महाकाव्यम्, १४ : ४३, २ वही, १४ : २६ ३ वही, १४ : ४६ ४ वस्तुपालचरित प्रशस्ति, ११ ५ भट्टारक पट्टावलि शास्त्र भण्डार Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक ज्ञानहंस व्याकरण, छन्द, अलंकार साहित्य तर्क आगम अध्यात्म आदि शास्त्र रूपी कमलों पर विहार करने वाले राजहंस थे । शृद्ध ध्यानामृत पान की उन्हें लालसा थी । " 3 नाथूराम प्रेमी ने इनके तत्त्वज्ञान-तरंगिणी, सिद्धान्तसार-भाष्य, परमार्थोपदेश, आदीश्वर फाग, भक्तामरोद्यापन, सरस्वती पूजा तथा परमानन्द जी ने आत्म-सम्बोधन काव्य सरस्वतीस्तवन आदि रचनाओं का परिणयन किया है । राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों में ऋषिमण्डल पूजा, पंचकल्याणोद्यापनपूजा, भक्तामरपूजा, श्रुतपूजा, शास्त्रमण्डलपूजा तथा दशलक्षण व्रतोद्यापन पूजा आदि अतिरिक्त ग्रंथ भी प्राप्त होते हैं । राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार ४५५ तत्त्वज्ञानतरंगिणी नामक रचना इनकी सर्वोत्कृष्ट कृति है । १८ अध्यायों में विभक्त तथापि लघुकाय रचना में शुद्ध आत्मतत्त्व प्राप्ति के उपाय बताये गये हैं । भट्टारक पद छोड़कर मुमुक्षत्व की ओर अग्रसर कवि की यह प्रौढ़ रचना विद्वत्ता एवं काव्यत्व से परिपूर्ण है । (३३) भट्टारक शुभचन्द्र वाल्यकाल से भट्टारक शुभचन्द्र विद्वानों के सम्पर्क में रहने लगे थे। आपके गुरु भट्टारक विजयकीर्ति थे । व्याकरण एवं छन्दशास्त्र में निपुणता प्राप्त कर आप भट्टारक ज्ञानभूषण एवं विजयकीर्ति दोनों के सान्निध्य में रहने लगे। सं० १५७३ में आप भट्टारक पद पर अभिषिक्त हुए। ईडर शाखा की गद्दी के सर्वोच्च अधिकारी भट्टारक शुभचन्द्र ने राजस्थान, गुजरात एवं उत्तर प्रदेश को अपने उपदेशों से पवित्र किया । भट्टारक शुभचन्द्र वक्तृत्व कला में पटु एवं अनेक विषयों में पारंगत थे। , संघव्यवथा एवं आत्मसाधना के अतिरिक्त समय को साहित्य साधना में लगाने वाले भट्टारक की लगभग ४० संस्कृत कृतियां हैं। इनमें १. चन्द्रप्रभचरित २. श्रेणिकचरित १ जीवंधरचरित ४ प्रनचरित २ पाण्डवपुराण काव्यात्मक कृतियां हैं। पाण्डवपुराण की लोकप्रियता इनके जीवनकाल में ही बहुत अधिक हो गयी थी। शेष रचनाओं में चन्दनकथा, अष्टान्हिक कथा रचनायें कथा साहित्य की श्रीवृद्धि करती है। शेष रचनायें पूजा, व्याकरण, न्याय सम्बन्धी है । लेख के आधार को दृष्टिगत रखते हुए उन पर विचार करना यहाँ स्थगित रखा गया । (३४) भट्टारक जिनचन्द्र - आप वड़ली निवासी श्रीवन्त एवं सिरियादेवी के पुत्र थे । सुलतान कुमार नामक यह आईती दीक्षा प्राप्त कर सुमतिधीर एवं आचार्य पद प्राप्त कर जिनचन्द्र हो गये। सं० १६४८ में अकबर ने आपको युगप्रधान का विरुद्ध प्रदान किया। राजस्थान, गुजरात एवं पंजाब में विहार करने वाले आचार्य जिनचन्द्र सूरि की एक ही कृति विख्यात है। औषधि - विधि- प्रकरण टीका वास्तव में आयुर्वेद से सम्बन्धित कृति है । (३५) पुण्यसागर -- जिनहंस सूरि के शिष्य पुण्यसागर की दो कृतियाँ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र टीका एवं प्रश्नोतरकषष्ठिशतकाव्य टीका जिनकी क्रमशः १६४५ में जैसलमेर एवं १६४० में बीकानेर में रचना हुई । (३६) जिनराजसूरि-बीकानेर में धर्मसी एवं धारलदे के घर में सं० १६४७ में आपका जन्म हुआ । खेतसी नामक यह बालक १६५६ में दीक्षा प्राप्त कर राजसमुद्र तथा आचार्य पद प्राप्त कर जिनराजसूरि बन गया। आप नव्यन्याय एवं साहित्य शास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे । १. जैन साहित्य और इतिहास - नाथूराम प्रेमी, पृ० ३८१-८२ २. जैन साहित्य और इतिहास - नाथूराम प्रेमी, पृ० ३८२ ३. जैन प्रशस्ति संग्रह - पं० परमानन्द ४. राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूची, भाग चतुर्थ ४६३-८३० ५. भट्टारक सम्प्रदाय, पृ० १५८ ६. जैन साहित्य और इतिहास, नाथूराम प्रेमी, पृ० ३८३, ७. प्रशस्ति संग्रह डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, पृ०७१ · . Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.................................................... आपकी प्रमुख कृतियाँ नैषधीयचरितम् की जैनराजी टीका एवं भगवती सूत्र की टीका है। नैषधीय महाकाव्य की टीका परिमाण ३६०० श्लोकों का है। (३७) समयसुन्दर-आप का जन्म सांचोर निवासी रूपसी एवं लीलादेवी के घर सं० १६१० में हुआ। आपने सकलचन्दगणि से दीक्षा ग्रहण की। सं० १६४० में गणि, १६४६ में वाचनाचार्य एवं १६८१ में उपाध्याय पद क्रमशः जैसलमेर, लाहौर एवं लवेरा में प्राप्त किया। सिन्ध के अधिकारी मखनूम महमूद शेख काजी और जैसलमेर के रावत भीमसिंह आपसे प्रभावित थे। समयसुन्दर ने अपने प्रभाव का उपयोग कर सिन्ध, जैसलमेर, खंभात, मण्डोवर एवं मेड़ता के शासकों से जीवहिंसा-निषेध की घोषणा करवाई। कश्मीर विजय के समय अकबर के सम्मुख कहे गये वाक्य-"राजा नो ददते सौख्यम्" को आधार बनाकर अष्टलक्षी की रचना की। आप व्याकरण, साहित्य, साहित्यशास्त्र आदि के प्रकाण्ड पण्डित थे। आपकी प्रमुख रचनाएँ निम्न प्रकार हैं-१. अष्टलक्षी, २. जयसिंह सूरि-पदोत्सवकाव्य, ३. रघुवंशटीका, ४. कुमार-संभव-टीका, ५. मेघदूत टीका, ६. शिशुपालवध तृतीयसर्ग की टीका, ७. रूपकमाला अवचूरि, ८. ऋषभभक्तामर। उक्त सारिणी से ज्ञात होता है कि आप कालिदास एवं माघ से अत्यधिक प्रभावित थे। ४ रचनाएँ तो दोनों कवि के काव्यों पर टीका ही हैं। जयसिंह पदोत्सव काव्य भी रघुवंश के श्लोकों की पादपूर्ति ही है। इसी भांति ऋषभभक्तामर भी वस्तुत: भक्तामर स्तोत्र की पादपूर्ति ही है। वाग्भटालंकार एवं वृत्तरत्नाकर की टीका एवं भावशतक काव्यशास्त्र के ग्रन्थ हैं। जबकि सारस्वत रहस्य, लिंगानुशासन अवणि, शब्द रूपावली, अनिटकारिका आदि ग्रन्थ व्याकरण की टीकाएँ एवं रचनाएँ हैं । कल्पसूत्रटीका, दशवकालिक सूत्र टीका, नवतत्त्व प्रकरण टीका आदि टीकायें एवं विशेष-शतक, गाथा-सहस्री. सप्तस्मरण एव अनेक स्तोत्रों की रचना कर आपने बहुश्रुतता का परिचय दिया। (३८) गुणविनय-जयसोमोपाध्याय के शिष्य गुणविनय को १६४६ में वाचक पद प्राप्त हुआ। सम्राट जहाँगीर ने आपसे अत्यधिक प्रभावित होकर कविराज की उपाधि प्रदान की । गुणविनय मूलत: टीकाकार हैं उनकी सभी रचनायें टीकाएँ ही हैं। १. खण्डप्रशस्तिटीका, २. नेमिदूत-टीका, ३. दमयन्ती-कथाचम्पू टीका, ४. रघुवंश टीका, ५. वैराग्यशतक टीका, ६. संबोध-सप्तति टीका, ७. कर्मचन्द्रवंश प्रबन्ध टीका, ८. लघुशांतिस्तवटीका, ६. शीलोपदेशलघुवृत्ति । प्रतीत होता है कि मुनि गुणविनय साहित्य (काव्य) प्रेमी थे। ये स्वयं काव्य की रसचर्वणा कर दूसरों के लिए भी पानक रस तैयार कर देते थे। ये टीका ग्रन्थ वास्तव्य में काव्यानन्द में आयी ग्रन्थियों को खोलने के लिए ही लिखे गये हैं। (३६) श्री बल्लभोपाध्याय-ज्ञान विमलोपाध्याय के शिष्य श्री वल्लभोपाध्याय का कार्यक्षेत्र जोधपूर, नागौर बीकानेर एवं गुजरात था। आप व्याकरण कोष के मूर्धन्य विद्वान्, कवि एवं सफल टीकाकार थे। आपकी कृतियों में ८ मूल ग्रन्थ एवं १२ टीकायें हैं । विजयदेव-माहात्म्य काव्य एवं विद्वत्प्रबोधकाव्य महाकाव्य की श्रेणी की रचनाएँ हैं । शेष रचनाएँ स्तुतियाँ एवं प्रशस्तियाँ हैं जिनमें अरजिनस्तव एवं रूपजीवंशप्रशस्ति प्रमुख हैं। १. महोपाध्याय समय सुन्दर म० विनयसागर २. यह वृत्ति विनयसागर के सम्पादन में राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान से प्रकाशित हो गई। ३. यह कृति सुमति सदन कोटा से प्रकाशित है। ४. प्रथम कृति रा० प्रा० वि० प्र० जोधपुर से एवं द्वितीय कृति सुमति सदन कोटा से प्रकाशित है। . Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार ४५७ . टीका ग्रन्थों में अधिकांश रचनाएँ हेमचन्द्राचार्य की हैं। जिनमें १. हेमनाममाला शेष संग्रह टीका, २. हेमनाममाला शिलोच्छ टीका', ३. हेमलिंगानुशासन दुर्गप्रदप्रबोध टीका, ४. हेमनिघण्टु टीका, ५. सिद्ध हेमशब्दानुशासन टीका प्रमुख है। (४०) सहजकीति-हेमनन्दन के शिष्य सहजकीति ने कल्पसूत्र, गौतम कुलक, वैराग्यशतक, सारस्वत आदि ग्रन्थों पर टीका लिखी। (४१) गुणरत्न-विनयप्रमोद के शिष्य गुणरत्न की काव्य प्रकाश, तर्कभाषा, सारस्वत एवं रघुवंश पर टीका प्राप्त होती है। यह प्रतीत होता है कि आप काव्यशास्त्र, न्यायदर्शन, व्याकरण एवं साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान थे। (४२) सूरचन्द-वीरकलग के शिष्य सूरचन्द दर्शन एवं साहित्यशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। आपकी कृतियों स्थूलभद्र गुणमाला काव्य, शान्तिलहरी, शृंगाररसमाला एवं पर्दकविंशति काव्य की मौलिक रचनाएँ हैं । अष्टार्थी श्लोक वृत्ति एवं 'जैन तत्वसार की स्वोपज्ञ टीका' टीका साहित्य के अन्तर्गत परिगणित होती है। (४३) मेघविजयोपाध्याय-कृपाविजय के शिष्य मेघविजयोपाध्याय काव्य, व्याकरण, न्याय, ज्योतिष आदि के विद्वान थे । आपने अपने आपको कालिदास, भारवि, माघ एवं कविराज के समकक्ष माना है। इसलिए इन्होंने उनकी शैली में ही काव्य प्रणयन किया। कालिदास की शैली में मेघदूत-समस्यालेख, भारवि की शैली में किरातार्जुनीय-पादपूर्ति, माघ की शैली में देवानन्द-महाकाव्य तथा कविराज की शैली में सप्तसंधानकाव्य का प्रणयन किया। इस काव्य में कवि ने राम, कृष्ण, ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर का चरित श्लेष विधि से वणित किया। २ श्लोकों के ७ अर्थ निकलते हैं जो अलग-अलग महापुरुषों के जीवन पर घटित होते हैं। देवानन्द महाकाव्य की रचना स. १७२७ में सादड़ी में हुई एवं ग्रन्थकार ने इसकी लिपि ग्वालियर में की। इनके अतिरिक्त लघु त्रिषष्टिशलाका-पुरुष-चरित, भविष्यदत्त-चरित हस्तसंजीवनयुक्ति प्रबोध, मातृका-प्रसाद आदि रचनाएँ भी उपलब्ध हैं । (४४) भट्टारक श्रीभूषण-भट्टारक भुवनकीर्ति के शिष्य भट्टारक श्रीभूषण सं० १७०५ में नागौर की गद्दों पर अभिषिक्त हुए। आपकी पाँच रचनाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। पांचों रचनाएँ पूजा-पद्धति का विश्लेषण करती हैं। इनके नाम क्रमशः निम्न प्रकार हैं : १. अनन्त चतुर्दशीपूजा, २. अनन्तनाथ पूजा, ३. भक्तामरपूजा, ४. श्रुतस्कन्ध पूजा, ५. सप्तर्षि पूजा । (४५) वाविराज-खण्डेलवाल वंश में उत्पन्न वादिराज स्वयं को धनंजय, आशाधर एवं वाणभट्ट का अवतार एवं तक्षकनगर (टोडारायसिंह) को अनहिलपुर के समान बतलाता है । वादिराज तक्षकनगर के नरेश राजसिंह के महामात्य थे । आपके चार पुत्र थे--रामचन्द्र, लालजी, नेमिदास, विमलदास । वादिराज की तीन कृतियाँ प्राप्त होती हैं-वाग्भटालंकारटीका, ज्ञानलोचनस्तोत्र तथा सुलोचनाचरित । वाग्भटालंकार की टीका की रचना दीपमालिका सं० १७२९ में हुई। -सप्तसंधानकाव्य ४:४२. Io १. भारतीय विद्या मन्दिर अहमदाबाद से प्रकाशित । २. काव्येऽस्मिन् त एव सप्त कथिता अर्था समग्रश्रिये ३. देवानन्द महाकाव्य ग्रन्थ प्रशस्ति ३. ४. धनंजयाशाधरवाग्भटानां धत्ते पदं सम्प्रति वादिराजः । खांडिलवंशोद्भवपोमसुनु जिनोक्तिपीयूष सुतृप्तगात्रः ।। Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड . . . . . .. . ..-. -. -.-.-.--. .... ...... ...... ..... (४६) भट्टारक देवेन्द्रकीति-जगत्कीर्ति के शिष्य भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति का ढूढाड प्रदेश की राजधानी (आमेर) में पट्टाभिषेक हुआ । महाराज सवाई जयसिंह के राज्यकाल में ईसरदा में आपने समयसार पर टीका लिखकर सं० १७८८ में समाप्त की। (४७) महोपाध्याय रामविजय-दयासिंह के शिष्य रूपचन्द्र ही दीक्षा प्राप्ति के उपरान्त रामविजय के रूप में विख्यात हो गये । आपका कार्यक्षेत्र जोधपुर बीकानेर ही रहा । आपकी रचनाएँ काव्य, ज्योतिष, व्याकरण एवं आचारशास्त्रपरक है। गौतमीय महाकाव्य में महावीर द्वारा गौतम को अपनी ओर आकर्षित कर अपने पंथ में सम्मिलित करना वर्णित है । गुणमालाप्रकरण, सिद्धान्तचन्द्रिका, मुहूर्तमणिमाला आदि रचनाएँ व्याकरण, नीतिशास्त्र, एवं ज्योतिष के साहित्य में अभिवृद्धि करती हैं। (४८) महोपाध्याय क्षमाकल्याण-अमृतधर्म के शिष्य क्षमाकल्याण का जन्म सं० १८०१ में केसरदेसर नामक स्थान में हुआ। मुनिजिनविजय के अनुसार राजस्थान के जैन विद्वानों में आप एक उत्तम कोटि के विद्वान् थे। इसके बाद राजस्थान में ही नहीं अन्यत्र भी इस श्रेणी का कोई जैन विद्वान् नहीं हुआ। इनकी अनेक रचनाएँ प्राप्त होती हैं, जिनमें कुछ निम्न हैं :१. तर्कसंग्रहफक्किका २. भूधातुवृत्ति ३. समरादित्य केवलीचरित ४. यशोधरचरित ५. चैत्यवंदन-चतुर्विंशतिका ६. विज्ञानचन्द्रिका ७. सूक्तिरत्नावलि ८. परसमयसारविचारसंग्रह ६. प्रश्नोत्तर सार्धशतक । इनके अतिरिक्त गौतमीय महाकाव्य की टीका इनकी टीका पद्धति पर प्रकाश डालती है। (४६) भट्टारक सुरेन्द्रकोति-आपका पट्टाभिषेक सं० १८२२-२३ में जयपुर में हुआ। आपकी सात रचनाएँ उपलब्ध हैं१. अष्टाह्निका कथन २. पंचकल्याण विधान ३. पंचमास-चतुर्दशी-व्रतोद्यापन ४. लब्धिविधान ५. पुरन्दर व्रतोद्यापन ६. सम्मेदशिखर पूजा ७. प्रतापकाव्य (५०) जिनमणि-सं० १९४४ में जन्मे मनजी की जन्मभूमि बाकड़िया बड़गाँव है । सं० १९६० में पालीताणा में आपकी दीक्षा हुई । सं० २००० में बीकानेर में आचार्य पद प्राप्त किया। कोटा, बम्बई, कलकत्ता में कार्यरत जिनमणि गुरु सुमतिसागर के शिष्य थे। संस्कृति की दृष्टि से एक ही रचना उल्लेखनीय है-साध्वी व्याख्यान निर्णय । यह व्याख्यान की दृष्टि से उपयोगी विषयों का संकलन है। (५१) बुद्धि मुनिगणि-केसरमुनि के शिष्य बुद्धिमुनिगणि का जन्म सं० १९५० में हुआ। राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र में विहार कर अपने जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया । आपकी प्रमुख कृतियाँ कल्पसूत्र टीका, कल्याणक परामर्श, पर्युषणा परामर्श है। इन कृतियों के अतिरिक्त साधुरंगीय सूत्रकृतांग दीपिका, पिण्डविशुद्धि आदि ग्रन्थों का सम्पादन बड़ी योग्यता एव विद्वता से किया है। (५२) आचार्य घासीलाल-सं० १९४१ में जसवन्तगढ़ में जन्मे आचार्य घासीलाल स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य जवाहरलालजी शिष्य के थे । व्याकरण, कोश, काव्य, स्तोत्र आदि में आपकी अमित गति है। - Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार ४५६ आपकी कृतियाँ शिवकोश, उदयसागर कोश, श्रीलाल नाममालाकोश कोश साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इसी प्रकार व्याकरण के क्षेत्र में भी आपकी तीन कृतियों से जैन जगत आलोकित है। लघुसिद्धान्त कौमुदी, सिद्धान्तकौमुदी एवं अष्टाध्यायी के समान आपके आहेत व्याकरण, आहत लघु व्याकरण तथा आर्हत सिद्धान्त व्याकरण प्रसिद्ध है। ___काव्य की दृष्टि से शान्तिसिन्धु महाकाव्य, लोकाशाह महाकाव्य, पूज्य श्रीलाल काव्य, लवजी मुनि काव्य महत्त्वपूर्ण है। स्तोत्र जगत् में कल्याण मंगल स्तोत्र, वर्धमान स्तोत्र, नवस्मरण प्रमुख हैं। सिद्धान्त साहित्य में जैनागम तत्त्वदीपिका, तत्त्वप्रदीप, गृहस्थकल्पतरु, नागम्बर मंजरी एवं सूक्ति संग्रह का स्थान मुख्य है। (५३) आचार्य ज्ञानसागर-आपका जन्म सीकर जिलान्तर्गत राणोली ग्राम में सं० १९४८ में चतुर्भुज एवं घेवरीदेवी के घर हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त उच्च अध्ययन के लिए आप वाराणसी गये। वहाँ संस्कृत एवं जैनसिद्धान्त का अध्ययन कर शास्त्र परीक्षा उत्तीर्ण की। अविवाहित रहकर आचार्य ने अपना समग्र जीवन माँ भारती को समपित कर दिया । आपकी रचनाएँ महाकाव्य एवं चम्पू काव्य हैं। महाकाव्य की दृष्टि से वीरोदय, जयोदय एवं दयोदय एवं चम्पूकाव्य की दृष्टि से समुद्रदत्त, सुदर्शनोदय एवं भद्रोदय सर्वप्रमुख रचनाएँ हैं। वीरोदय में भगवान महावीर का जीवन-चरित वणित है। इस काव्य ने कालिदास, भारवि, माघ एवं श्रीहर्ष की स्मृति दिला दी है। 'माघे सन्ति त्रयो गुणाः' वाली कहावत चरितार्थ कर दी है। जयोदय काव्य में २८ सगों में जयकुमार एवं सुलोचना की कथा के माध्यम से अपरिग्रहव्रत का सन्देश दिया गया है। दयोदय में सामान्य व्यक्ति को नायक बनाकर महाकाव्य लिखने की जैन परम्परा का निर्वाह किया गया है। मृगसेन नामक धीवर के व्यक्तित्व को उभार कर अहिंसा व्रत का महत्त्व वणित किया गया है। समुद्रदत्त, सुदर्शनोदय एवं भद्रोदय नामक चम्पू लिखकर चम्पूसाहित्य की श्रीवृद्धि की है। आपकी हिन्दी साहित्य में भी अनेक रचनाएँ हैं जिनमें ऋषभचरित, भाग्योदय, विवेकोदय प्रमुख हैं। इनमें भी संस्कृत बहल शब्दों का प्रयोग किया गया है। (५४) कालगणि-वि० सं० १९३३ में जन्मे तेरापंथ के आठवें आचार्य कालूगणि का संस्कृत का अध्ययन बहुत विशद एवं प्रामाणिक था। यह भी कहा जा सकता है कि दो शती पूर्व प्रवर्तित तेरापंथ संप्रदाय में संस्कृत का प्रचार-प्रसार एवं रचनाओं की दृष्टि से आपका योगदान अविस्मरणीय है। राजस्थान के थली प्रदेश में भिक्षुशब्दानुशासन की रचना करवाकर व्याकरण के सरलीकरण की दिशा में प्रयास किया। इतना ही नहीं, मुनि चौथमल को निरन्तर संस्कृत साहित्य का अध्ययन एवं मनन की प्रेरणा आपसे मिलती रही। आचार्य कालूगणि को यह बात अखरती थी कि सारस्वत चन्द्रिका संक्षिप्त है, सिद्धान्त कौमुदी में वातिकों की अधिकता है, हेमशब्दानुशासन की रचना पद्धति कठोर है। अतएव गुरु की इस टीस को समझकर इस ग्रन्थ की रचना हुई। इसलिए गुरु को समर्पित इस ग्रन्थ की रचना में कालूगणि के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता। (५५) आचार्य श्री तुलसी-युग प्रधान आचार्य श्री तुलसी तेरापंथ धर्म संघ के नवमें आचार्य एवं अणुव्रत अनुशास्ता के रूप में सर्वत्र ख्यात हैं। नागौर जिले के लाडनूं ग्राम में वि० सं० १९७१ में जन्म लेकर आपने ११ वर्ष की उम्र में दीक्षा ग्रहण की एवं अष्टमाचार्य के दिवंगत होने के पश्चात् आप वि० सं० १९९३ में तेरापंथ धर्मसंघ के नवम आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हुए। आप प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती व अंग्रेजी भाषा के ख्यात विद्वान्, कवि एवं उच्च कोटि के साहित्यकार हैं। - O Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ovo o loo ४६० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड SIDIIOISIO आपकी गति जैन दर्शन के अतिरिक्त न्याय एवं योग में भी रही है। जैन सिद्धान्न दीपिका में जहाँ जैन दर्शन के द्रव्य, गुण, पर्याय, जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, मोक्ष आदि का विवेचन है तो भिक्षु- न्यायकणिका में प्रमाण, प्रमाण- लक्षण, प्रमेय आदि न्याय के विषयों का वर्णन है। मनोऽनुशासन नामक कृति में मन, मन की अवस्था, आसन, ध्यान, भावना, प्राणायाम आदि योग दर्शन के विषयों का विवेचन है । पंचसूत्र नामक कृति में अनुशासन एवं सामूहिक जीवन व्यवस्था की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है । शिक्षा पण्णवति में भक्तामरस्तो की पादपूतिकर विद्यार्थियों के लिए उपयोगी उपदेशों को दर्शाया गया है। कर्त्तव्यत्रिशिका में साधु-साध्वियों की साधना के लिए समग्र मार्ग दर्शन दिया है। वि० सं० १९०७ में दीक्षा ग्रहण की। आपको किया गया है एवं युवाचार्य महाप्रज्ञ सम्बोधन दर्शनों के प्रकाण्ड विद्वान् हैं और आप आपने दर्शन, महाकाव्य, खण्डकाव्य, स्तोत्र संबोध योग दर्शन की सामग्री का विश्लेषण (५६) मुनि नथमल (पुवाचार्य महाप्रतजी) -नयमल जी ने अब आचार्य तुलसी के उत्तराधिकारी के रूप में युवाचार्य घोषित प्रदान किया गया है। आप अनेक भाषाओं के ज्ञाता और विविध इस सम्प्रदाय में साहित्य रचना की दृष्टि से सबसे अधिक सक्रिय हैं। एवं गीतकाव्य की सृष्टि की है । युक्तिवाद एवं अन्यापदेश न्याय की तथा किया है। भिक्षु महाकाव्य में तेरापंथ के आदि आचार्य भिक्षु के जीवनचरित का आश्रय लिया गया है। शब्द संकलन, भाव सौष्ठव एव पदावली का मनोहारी वर्णन पाठक को बलात् आकर्षित कर लेता है। अश्रुवीणा नामक काव्य १०० श्लोकों का शतक परम्परा का काव्य है। काव्य की मुख्य घटना है। इसी प्रकार रत्नपालचरित भी इसी भाँति की रचना है । महावीर द्वारा चन्दनबाला के आँख में आँसू का अभाव दर्शन इस तुला अतुला आपकी स्फुट पद्य रचननाऐं एवं मुकुल स्फुट निबन्ध है स्तोत्र साहित्य की दृष्टि से आत्मा स्तोत्र एवं कल्याणमन्दिरस्तोत्र की पादपूर्ति करके कालूभक्तामर एवं कालू कल्याणमन्दिर स्तोष की रचना महत्त्वपूर्ण है न केवल पादपूर्ति स्तोत्र ही आपकी क्षमता के परिचायक है अपितु तेरापंची स्तोत्र एवं भिक्षु शतकम् आपकी साम्प्रदायिक महत्त्व की रचनाएँ हैं भिल महाकाव्य में बचे भावों की अर्चना आप ने भिक्षु शतक की रचना करके कर दी । 1 (५७) चन्दनमुनि - वि० सं० १९७१ में सिरसा (पंजाब) में जन्मे चन्दन मुनि युगप्रधान आचार्य तुलसी के प्रधान शिष्यों में से हैं । आप प्राकृत, संस्कृत व हिन्दी भाषा के उद्भट विद्वान् हैं। संस्कृत में आपने १३ से अधिक कृतियाँ लिखी है। नथमल मुनि की भांति ही आपका अधिकार भी महाकाव्य, खण्डकाव्य, नीतिकाव्य एवं स्तोत्र साहित्य पर है। अभिनिष्क्रमण नामक कृति गद्य में लिखी होने पर भी महाकाव्य का सा आनन्द देती है। इसकी रचना तेरापंथी संप्रदाय के द्विशताब्दी समारोह के अवसर पर आचार्य भिक्षु के स्थानकवासी सम्प्रदाय से अभिनिष्क्रमण की स्मृति में हुई है। कृति में भावप्रवणता, विचारगांभीर्य, प्रकृति वर्णन उच्च कोटि के हैं। 'प्रभव प्रबोध' एवं 'अर्जुनमालाकारम्' नामक गद्यकाव्य जम्बूकुमार एवं अर्जुनमाली के जीवन पर आधारित हैं । 'प्रस्ताविक श्लोकशतकम्' एवं 'उपदेशामृतम्' नीति काव्य है । इनमें सामाजिक कुरीतियों एवं समस्याओं का वर्णन एवं समाधान दिया है। प्रथम कृति में १०० श्लोक एवं द्वितीय कृति में १६ चषक है। वीतराग स्तुति स्तोत्र साहित्य का प्रतिनिधित्व करता है । (५८) छत्रमल्ल मुनि - आप भी तेरापंथ सम्प्रदाय के नवमाचार्य आचार्य श्री तुलसी के शिष्य हैं । आपने शतक काव्यों की परम्परा का निर्वाह कर संस्कृत साहित्य को अनेक शतक प्रदान किये हैं । भगवान् श्रीकृष्ण से लेकर तुलसी एवं उनके पंथ तेरापंथ तक उनकी शतक परम्परा की परिधि में आता है। श्रीकृष्ण शतकम्, जयाचार्य शतकम्, कालू Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्यकार ४६१ शतकम्, तुलसी शतकम् एवं तेरापंथ शतकम् लिखकर शतक परम्परा को व्यक्ति जीवन पर आधारित ७ शतक प्रदान किये। (५६) मुनि दुलीचन्द 'दिनकर'-आप भी आचार्य श्री तुलसी के विद्वान् शिष्य हैं। आपकी ३ रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-गीतिसंदोह, तुलसीस्तोत्र एवं तेरापंथ शतकम् । प्रथम कृति में गीतिकाओं का संकलन तथा अपर दो कृतियाँ मुनिक्षत्रमल्ल की भांति ही आचार्य तुलसी एवं उनके पंथ की स्तुति में बनायी गई हैं। (६०) साध्वी संघमित्रा-साध्वी श्री संघमित्रा तेरापंथ धर्मसंघ की परम विदुषी साध्वियों में से एक है। आप जैन इतिहास, साहित्य व दर्शन की महान ज्ञाता हैं। आप संस्कृत व हिन्दी में समान रूप से लिखती हैं । गीतिकाव्य में भावों की तीव्रता, अनुभूति की सघनता, संक्षिप्तता, संकेतात्मकता एवं सूक्ष्मता अपेक्षित होती है। महिलाओं में इनकी सहज स्वाभाविक उपस्थिति होती है। अतएव साध्वी संघमित्राजी का गीति काव्य के प्रति, सम्मान स्वाभाविक है । आपकी संस्कृत रचनाएँ गीतिमाला एवं नीतिगुच्छ प्राप्त होती हैं। (६१) पं० रघुनन्दन शर्मा- जैन नहीं होते हुए भी प० रघुनन्दन शर्मा को जैन साहित्य के विवरण से अलग नहीं कर सकते । तेरापथ के संघनायक आचार्य तुलसी के प्रति भक्ति को आपने अपनी काव्य प्रतिभा से तुलसी महाकाव्य की रचना के रूप में प्रकट किया। २५ सगों के इस महाकाव्य में आचार्य के जन्म का आध्यात्मिक अभ्युदय के रूप में वर्णन, रस, अलंकार, नवीन उपमायें एवं रूपकों का वर्णन कर संस्कृत भाषा की जीवन्तता एवं युगानुरूप परिवर्तनशीलता का प्रमाण दिया है। इनके अतिरिक्त मुनि बुद्धमल्ल, डूंगरमल्ल, नगराज, धनराज, कन्हैयालाल मोहनलाल शार्दूल, साध्वी मंजुलाजी, साध्वी कमलाजी भी साहित्य सृजन में सक्रिय हैं। दिङमात्र प्रदर्शित इन कृतियों एवं कृतिकारों के विवरण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि राजस्थान में जैन सम्प्रदाय ने संस्कृत की उन्नति एवं प्रसार का प्रशंसनीय कार्य किया । सभी जैन साहित्यकारों ने केवल जैन धर्म एवं दर्शन पर ही लेखनी नहीं चलाई अपितु जैनेतर दर्शन, व्याकरण, काव्य एवं साहित्य पर भी उतनी ही उदारता एवं सहजता से लेखन कार्य किया । आशा है, शोधार्थी वर्ग इस उपेक्षित परम्परा की शोध-खोज की ओर भी ध्यान देना। Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. -. - . -. -. -. -. - . - . -. - . -. -. - . - . - . - . -. -. -. -. -. - . -. - . - . -. - . -. -. -. -. धूर्ताख्यान : पार्यन्तिक व्यंग्य-काव्यकथा प्रो० डॉ० श्रीरंजन सूरिदेव, सम्पादक, 'परिषद्-पत्रिका', बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना-४ व्यंग्य-काव्यकथा ग्रन्थों में 'धूर्ताख्यान' का उल्लेखनीय महत्व है। इसके रचयिता श्रमण-परम्परा के प्रसिद्ध विद्वान् कथाकार आचार्य हरिभद्रसूरि (आठवी-नवीं शती) हैं। उन्होंने अपनी इस व्यंग्यप्रधान कथा-रचना में पाँच धुर्तों के आख्यानों द्वारा पुराणों में बणित असम्भव और अविश्वसनीय बातों या कथाओं का प्रति-आख्यान उपन्यस्त किया है । लाक्षणिक कथाशैली की दृष्टि से यह ग्रन्थ भारतीय कथा-साहित्य में कूटस्थ है। व्यंग्य और उपहास के उपस्थापन की पुष्टि पद्धति की दृष्टि से तो इस कथा-ग्रन्थ को द्वितीयता नहीं है । कहना न होगा कि आचार्य हरिभद्र का व्यंग्य-प्रहार ध्वंस के लिए नहीं, अपितु निर्माण के लिए हुआ है। धूर्ताख्यान" (प्रा० धुत्तक्खाण) में व्यंग्य के यथार्थ रूप का दर्शन होता है । विकृति के माध्यम से सूकृति को संकेतित या सन्देशित करना ही व्यंग्य का मूल लक्ष्य है। इसीलिए, प्रबुद्ध व्यंग्यकार प्रायः सार्वजनीन जड़ता, अज्ञानता या दुष्कृतियों के उपहास तथा भर्त्सनापूर्वक विरोध के लिए ही व्यंग्य का प्रयोग करते हैं । 'ए न्यू इंगलिश डिक्शनरी आव हिस्टोरिक्ल प्रिंसिपुल्स' (भाग ८, पृ० ११६) में कहा गया है कि पाप, जड़ता, अशिष्टता और कुरीति को प्रकाश में लाकर उनकी निन्दा और उपहास के लिए कवियों द्वारा व्यंग्य का प्रयोग किया जाता है। कुरीति और अनाचार के निर्मूलन के लिए व्यंग्य अमोघ अस्त्र सिद्ध होता है। शिप्ले ने अपने शब्दकोश 'डिक्शरी आव् वर्ल्ड लिटरेरी टर्न्स' (पृ० ४०२) में लिखा है कि मानवीय दुर्बलताओं की निन्दापूर्ण कटु आलोचना ही व्यंग्य है। इसीलिए, आचार और सौन्दर्य के भावों को उद्भावित कर सामाजिक दुर्बलता में सुधार लाना ही व्यंग्य का मुख्य उद्देश्य है । यों, अन्य उपायों से भी सामाजिक दोषों का निराकरण किया जा सकता है, किन्तु व्यंग्य में निराकरण की ध्वनि और प्रविधि, रोचकता और तीक्ष्णता की दृष्टि से, कुछ भिन्न या विशिष्ट होती है। ___ 'चेम्बर्स इन्साइक्लोपीडिया' (नवीन संस्करण, जि० १२) के अनुसार, सार्वजनीन भर्त्सना के भावों में कल्पना और बुद्धिविलास के साथ ही झिड़की के भाव जब मिल जाते हैं, तभी व्यंग्य की सृष्टि होती है। सुधार की दृष्टि से किसी भी प्रकार का सामाजिक जीवन व्यंग्य के लिए उपयुक्त क्षेत्र बन सकता है। सच पूछिए, तो स्वाभाविकता जब अस्वाभाविकता का परिहास करती है, तभी व्यंग्य की स्थिति उत्पन्न होती है। व्यंग्य दोषों का परिमार्जन ही नहीं करता, उनका शोधन और सुधार भी करता है । व्यंग्य से पारस्परिक कटुता या तिक्तता नहीं बढ़ती, अपितु समाज या व्यक्ति के स्वभावों का परिष्कार और संस्कार होता है। व्यंग्य गत्यात्मक और उपदेशात्मक, दोनों प्रकार का हो सकता है। 'धुर्ताखान' के उपन्यासक आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में आक्षेप या निन्दा की अपेक्षा व्यंग्य ही एक ऐसा उत्तम साधन है, जो बिना किसी हानि के मानव की दुर्नीतियों का परिशोधन करता है। कारण है कि मनुष्य अपना उपहास नहीं सह सकता है, अत: जिन दोषों के कारण उस पर दूसरे लोग हँसते हैं, उन दोषों से वह अपने आप को मुक्त कर लेना चाहता है, परिमार्जन की इच्छा करता है । व्यंग्य उन दोषों का परिमार्जन करना चाहता है और तभी व्यंग्य कला का रूप धारण करता है। पुन: व्यंग्य जब कला के रूप में प्रतिष्ठित होता है, तब वह सौन्दर्य-भावना के Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूर्ताख्यान : पार्यन्तिक व्यंग्य-काव्यकथा .................................................................... ...... माध्यम से उपहास के निमित्त सामयिक कुरुचियों या कुरीतियों की कल्पनात्मक विवेचना के नियमानुकूल एक आकार प्रदान करता है। इसलिए, व्यंग्य का सर्वाधिक वैभव साहित्य के माध्यम से ही उपलब्ध हो सकता है। व्यंग्य मुख्यतः दो प्रकार का होता है : सरल और वक्र। सरल या सीधे ढंग से व्यंग्य का प्रयोग करने वाला लेखक प्राय: उपदेशक या उससे थोड़ा ही विशिष्ट होता है। ऐसे व्यंग्यकारों में कबीर, रविदास आदि की सीधी चोट करने वाली व्यंग्य-कविताएँ उदाहरणीय हैं । किन्तु, वक्र व्यग्य का प्रयोक्ता जिन पात्रों या वस्तुओं को अपने आक्रमण या प्रहार का विषय बनाता है, उनका वर्णन सीधे व्यंग्य से न करके उसे प्राय: अप्रस्तुत-प्रशंसा, अन्योक्ति या अन्योपदेश, वक्रोक्ति, अथवा व्याजोक्ति-शैली में उपस्थापित करता है। कहना न होगा कि व्यग्य-काव्य में वाच्य से इतर ध्वन्यात्मकता और सामान्य से परे विशिष्ट रसात्मक वाक्यावली के समायोजन से अद्भुत चमत्कार आ जाता है। तभी तो व्यंग्य का कठोर कशाघात मृदुल मालाघात की तरह प्रतीत होता है। व्यंग्य का अभिव्यक्तीकरण कला के विभिन्न माध्यमों-चित्र, मूर्ति, स्थापत्य, कथा, काव्य और नाटकों द्वारा सम्भव है। इसलिए, कलात्मक व्यंग्य को समझने के लिए सहृदय की अधिकाधिक प्रबुद्धता या पर्याप्त बौद्धिक जागरूकता अपेक्षित होती है। इस सन्दर्भ में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के 'अन्धेर नगरी चौपट राजा', 'वैदिकी हिंसा-हिंसा न भवति' आदि दृश्यकाव्यों-नाटकों की कथावस्तुओं के वर्णन-वैविध्य को निर्देशित किया जा सकता है। इस प्रकार के व्यंग्य से न केवल व्यक्तिगत चरित्रों में सुधार सम्भव होता है, वरन् वह सम्पूर्ण राष्ट्रीय चरित्र को उद्भाषित कर उसे आत्मसंशोधन के लिए प्रेरित करता है, कभी-कभी तो आत्म-चरित्र में आमूल-परिवर्तन लाने को विवश कर देता है । फलत: व्यंग्य अनिर्मित का निर्माण और निमित का पुननिर्माण भी करता है। __आचार्य हरिभद्र ने पाँच आख्यानों में विभक्त तथा प्राकृत के सर्व सर्वप्रिय छन्द 'गाथा' में निबद्ध 'धूख्यिान' में वक्र व्यंग्य की विच्छित्तिपूर्ण योजना की है। पुराणों की असम्भव और अंबुद्धिगम्य बातों के निराकरण के निमित्त व्यंग्य-कथालेखक हरिभद्र ने धूर्तगोष्ठी की आयोजना की है। कथा है कि उज्जयिनी के एक सुरम्य उद्यान में ठग विद्या के पारंगत सैकड़ों धूतों के साथ मूलदेव, कण्डरीक, एलाषाढ़, शश और खण्डपाना ये पाँच धूर्त्तनेता पहुँचे। इनमें प्रथम प्रथम चार पुरुष थे और खण्डपाना स्त्री थी । प्रत्येक पुरुष धूर्तराज के पांच-पांच सौ पुरुष-अनुचर थे और खण्ड पाना की पांच सौ स्त्री-अनुचर थीं। जिस समय ये धूर्त नेता उद्यान में पहुँचे थे, उस समय घनघोर वर्षा हो रही थी। सभी धूर्त वर्षा की ठण्ड से ठिठुरते और भूख से कुड़बुड़ाते हुए, व्यवसाय का कोई साधन न देखकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि बारी-बारी से पांचों धूर्त्तनेता अपने-अपने जीवन के अनुभव सुनायें और जो धूर्त्तनेता शेष चारों के अनुभव की कथाओं को असत्य और अविश्वसनीय सिद्ध कर देगा, वही सारी मण्डली को एक दिन का भोजन करायेगा। इसके अतिरिक्त, जो धूर्त्तनेता स्वयं महाभारत, रामायण, पुराण आदि के कथानकों से अपनी अनुभवकथा का समर्थन करते हुए उसकी सत्यता के प्रति विश्वास दिला देगा, वह सभी धर्मों का राजा बना दिया जायगा । इस प्रस्ताव से सभी सहमत हो गये और सभी ने रामायण, महाभारत तथा पुराणों की असम्भव कथाओं का भण्डाफोड़ करने के निमित्त आख्यान सुनाये । किन्तु, खण्डपाना ने न केवल अपनी कल्पित अनुभव-कथाएँ सुनाई, वरन् उनका पुराण-कथाओं से समर्थन भी कर दिया और शर्तबन्दी के अनुसार यह सभी धूर्त्तनेताओं में अग्रणी मान ली गई। इसके अतिरिक्त उसने अपनी चतुराई से एक सेठ को ठगकर रत्नजटित अंगूठी प्राप्त की, जिसको बेचकर बाजार से खाद्य-सामग्री खरीदी गई और पूरी धूर्तमण्डली को भोजन कराया गया। ज्ञातव्य है कि 'धूर्ताख्यान' में व्यंग्य-कथाओं के माध्यम से विभिन्न पौराणिक मान्यताओं का निराकरण किया गया है। जैसे : सृष्टि-उत्पत्तिवाद, सृष्टि-प्रलयवाद, त्रिदेव अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश के स्वरूप की मिथ्या मान्यताएं, अन्धविश्वास, अग्नि का वीर्यपान, देवों के तिल-तिल अंश से तिलोत्तमा की उत्पत्ति आदि अस्वाभाविक मान्यताएँ, जातिवाद, वर्णवाद आदि की मनगढन्त अवधारणाएँ, ऋषियों में असंगत और असम्भव कल्पनाएँ, अमानवीय तत्व आदि। Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड DOD D O -. -. -. -.-.-.-.-.-... ...... ........................ .... .......... ... प्रथम आख्यान में कथा के द्वारा सृष्टि को उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रचलित मिथ्या और असम्भव कल्पनाओं के प्रति-आख्यान के क्रम में कहा गया है कि धूर्त्तनेता मूलदेव ने जब अपनी कल्पित अनुभव-कथा सुनाई, तब दूसरे धूर्तनेता कण्डरीक ने उससे कहा : "तुम्हारे और हाथी के कमण्डलु में समा जाने की बात बिल्कुल सत्य और विश्वसनीय है; क्योंकि पुराणों में भी बताया गया है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा के वैश्य और पैरों से शूद्र का जन्म हुआ। अत:, जिस प्रकार ब्रह्मा के शरीर में चारों वर्ण समा सकते हैं, उसी प्रकार कमण्डलु में तुम दोनों समा सकते हो। द्वितीय आख्यान में अण्डे से सृष्टि के उत्पन्न होने की कथा की असारता दिखाई गयी है। कण्डरीक ने अपने अनुभव का वर्णन करते हुए कहा है कि एक गांव के उत्सव में सम्मिलित सभी लोग डाकुओं के डर से कद में समाविष्ट हो गये। उस कद्रू को एक बकरी निगल गई और उस बकरी को एक अजगर निगल गया और फिर उस अजगर को एक ढेंक (सारस-विशेष) पक्षी ने निगल लिया। जब वह सारस उड़कर वटवृक्ष पर आ बैठा था, तभी किसी राजा की सेना उस वृक्ष के नीचे आई। एक महावत ने सारस की टाँग को बरगद की डाल समझकर उससे हाथी को बाँध दिया । जब सारस उड़ा, तब हाथी भी उसकी टांग में लटकता चला। महावत के शोर मचाने पर शब्दवेधी बाण द्वारा सारस को मार गिराया गया और क्रमशः सारस, अजगर, बकरी और कद्द, को फाड़ने पर उक्त गाँव का जनसमूह बाहर निकल आया। कण्डरीक के इस अनुभव का समर्थन विष्णुपुराण के आधार पर करते हुए एलाषाढ बोला : “सृष्टि के आदिमें जल ही जल था । उसकी उत्ताल तरंगों पर एक अण्डा चिरकाल से तैर रहा था। एक दिन वह अण्डा दो समान हिस्सों में फूट गया और उसी के आधे हिस्से से यह पृथ्वी बनी। इसलिए, जब अण्डे के एक ही अर्धांश में सारी पृथ्वी समा सकती है, तब कद्दू में एक छोटे-से गाँव के निवासियों का समा जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं।" ब्रह्मा, विष्णु और महेश यानी त्रिदेव के स्वरूप की मान्यता के सम्बन्ध में अनेक मिथ्या धारणाएँ प्रचलित हैं, जिनका बुद्धि से कोई सम्बन्ध नहीं है। 'धूर्ताख्यान' के प्रथम आख्यान में ही व्यंग्यकथाकार ने लिखा है कि ब्रह्मा ने एक हजार दिव्य वर्ष तक तप किया। देवताओं ने उनकी तपस्या में विघ्न उत्पन्न करने के लिए तिलोत्तमा नाम की अप्सरा को भेजा । तिलोत्तमा ने उनके दक्षिण पार्श्व की ओर नाचना शुरू किया। रागपूर्वक अप्सरा का नृत्य देखने और उसका एक दिशा से दूसरी दिशा में घूम जाने के कारण ब्रह्मा ने चारों दिशाओं में चार अतिरिक्त मुख विकसित कर लिये । तिलोत्तमा जब ऊर्ध्वदिशा, यानी ऊपर आकाश में नृत्य करने लगी, तब ब्रह्मा ने अपने माथे के ऊपर पाँचवाँ मुख विकसित कर लिया । ब्रह्मा को इस प्रकार काम-विचलित देखकर रुद्र ने उनका पाँचवाँ मुख उखाड़ फेंका ब्रह्मा बड़े ऋद्ध हए और उनके ललाट से पसीने की बूदें गिरने लगीं, जिनसे श्वेतकुण्डली नाम का पुरुष उत्पन्न हुआ और उस ने ब्रह्मा, की आज्ञा से शंकर का पीछा किया। रक्षा पाने के लिए शंकर .बदरिकाश्रम में तपस्यारत विष्ण के पास पहुँचे। विष्णु ने अपने ललाट की रुधिर-शिरा खोल दी। उससे रक्तकुण्डली नाम का पुरुष निकला, जो शंकर की आज्ञा से श्वेतकुण्डली से युद्ध करने लगा। दोनों को युद्ध करते हुए हजार दिव्य वर्ष बीत गये, पर कोई किसी को नहीं हरा सका। तब, देवों ने यह कहकर उनका युद्ध बन्द करा दिया कि जब महाभारत-युद्ध होगा, तब उसमें उन्हें सड़ने को भेज दिया जायगा। कहना न होगा कि उक्त कथा की सारी अवधारणाएँ कल्पित प्रतीत होती हैं। ___ इसी प्रकार, आचार्य हरिभद्र ने अपनी व्यंग्यकथाओं द्वारा अन्धविश्वासों का भी निराकरण किया है। तपस्या भ्रष्ट करने के लिए अप्सरा की नियुक्ति (प्रथम आख्यान); हाथियों के मद से नदी प्रवाहित होना, पवन से हनुमान की उत्पत्ति, विभिन्न अंगों के संयोग से कार्तिकेय का जन्म (तृतीय आख्यान); अगस्त्य का सागर-पान, अण्डे बिच्छू, मनुष्य और गरुड़ की उत्पत्ति (चतुर्थ आख्यान) आदि धारणाएँ अन्धविश्वास के द्योतक हैं । पुराणों में अग्नि का वीर्यपान, शिव का अनैसर्गिक अंग से बीर्यपात, कुम्भकर्ण का छह महीने तक शयन, सूर्य का कुन्ती से सम्भोग कान से कर्ण की उत्पत्ति प्रभृति बातों की 'धूर्ताख्यान' में पर्याप्त हँसी उड़ाई गयी है। 'धूख्यिान' के पांचों आख्यानों में कुल मिलाकर मुख्यत: निम्नांकित कथा-प्रसंगों पर व्यंग्य किया गया है : Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धूर्ताख्यान : पार्यन्तिक व्यंग्य-काव्यकथा प्रथम आख्यान: ब्रह्मा के मुख, बाहु, जंघा और पैरों से चातुर्वर्ण्य की उत्पत्ति । अप्राकृतिक दृष्टि से कल्पित विभिन्न जन्म-कथाएँ। शिव की जटा में गंगा का समाना। ऋषियों और देवताओं के असम्भव और विकृत रूप की मान्यता । द्वितीय आख्यान : अण्डे से सृष्टि की मान्यता। अखिल विश्व का देवों के मुख में निवास । द्रौपदी के स्वयंवर में, एक ही धनुष में पर्वत, सर्प, अग्नि आदि का आरोप । जटायु, हनुमान आदि की जन्म-सम्बन्धी असम्भव कल्पनाएँ। तृतीय आख्यान : जमदग्नि और परशुराम-सम्बन्धी अविश्वसनीय मान्यताएँ। जरासन्ध के स्वरूप की मिथक-कल्पना । हनुमान् द्वारा सूर्य का भक्षण । स्कन्ध की उत्पत्ति-सम्बन्धी असम्भव कल्पना । राहु द्वारा चन्द्रग्रहण की विकृत कल्पना । वामनावतार और वराहावतार की विकृत मान्यताएँ। चतुर्थ आख्यान : रावण और कुम्भकर्ण-सम्बन्धी मिथ्या मान्यताएँ। अगस्त्य ऋषि द्वारा समुद्र के पान की कल्पना । कद्र और विनता के अस्वाभाविक उपाख्यान । समुद्र पर वानरों द्वारा पर्वतखण्डों से सेतु-रचना । पंचम आख्यान: व्यास ऋषि के जन्म की अद्भुत कल्पना । पाण्डवों की अप्राकृतिक अद्भुत कल्पना । शिवलिंग की अनन्तता की अवधारणा। हनुमान की पूंछ की असाधारण लम्बाई की मान्यता। गन्धारिकावर राजा का मनुष्य-शरीर छोड़कर वन में कुरबक वृक्ष के रूप में परिणत होने की कल्पना। इस प्रकार, पुराणों की विभिन्न कथा-कल्पनाओं को मिथ्याभ्रान्ति मानकर उनका व्यंग्यात्मक शैली में निराकरण करने में आचार्य हरिभद्र ने अपने अक्खड़ पाण्डित्य और प्रकाण्ड आचार्यत्व का परिचय दिया है । कहना न होगा कि इस अद्भुत व्यंग्यकार ने अपनी हास्य-रुचिर कथाओं के माध्यम से अन्यापेक्षित शैली में असम्भव, मिथ्या, अकल्पनीय और निन्द्य-आचरण की ओर ले जाने वाली बातों का निराकरण कर स्वस्थ, शिष्ट, सदाचार-सम्पन्न और सम्भव आख्यानों का निरूपण किया है। ____ 'धूर्ताख्यान' में सृजनात्मक व्यंग्य-प्रक्रिया अपनाई गई है एवं सप्राण शैली में वैषम्यपूर्ण तथा परस्पर असम्बन्ध तथ्यों का तिरस्कार समाज-निर्माण की दृष्टि से किया गया है। कथा के शिल्प-विधान का चमत्कार तथा दुरूह उलझनभरी सामाजिक विकृतियों का आख्यान-शैली में प्रति-आख्यान इस कथाग्रन्थ के आलोचकों को भी मुग्ध कर देने वाला है । निस्सन्देह, विश्वजनीन कथा-वाङमय का विकासात्मक अध्ययन 'धूख्यिान' जैसी पार्यन्तिक व्यंग्य-काव्यकथा के अध्ययन के बिना अधूरा ही माना जायगा। . Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ....... ............................................................. प्राकृत कथा साहित्य का महत्व डॉ. उदयचन्द्र जैन, प्राध्यापक, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर प्राकृत साहित्य की लोकप्रियता उसके सर्वोत्कृष्ट कथा-साहित्य के ऊपर आश्रित है। मानव-जीवन का सहज आकर्षण इसी विधा पर है। क्योंकि कथा-साहित्य में मानव-जीवन के सत्य की अभिव्यंजना, कला-माधुर्य और उत्कण्ठा की सार्वभौमता स्पष्ट रूप से झलकती है। मानव को सुसंस्कृत संस्कारों के साथ उल्लास-भरी दृष्टि इसी से प्राप्त होती है । जब हम अपनी दृष्टि सीमित क्षेत्र को छोड़कर उन्मुक्त पक्षी की तरह फैलाते हैं, तब हमें प्राचीनता में भी नवीनता का अभास होने लगता है। जिसे आज हम प्राचीन कहते हैं, वह कभी तो नवीन रूप को लिए होगी। आज जो कुछ है, वह पहले नहीं था, यह कहना मात्र ही हो सकता है। जो आज हमारे सुसंस्कृत एवं धार्मिक विचार हैं, वे सब प्राचीनता एवं हमारी संस्कृति के ही द्योतक हैं। मानव के हृदय-परिवर्तन के लिये कथानकों का ही माध्यम बनाया जाता है। उपनिषद्, वेद, पुराणों में जो आख्यान हैं, वे निश्चित ही गूढार्थ का प्रतिपादन करते हैं। पुराण-साहित्य का विकास वेदों की मूलभूत कहानियों के आधार पर हुआ है। पंचतन्त्र, हितोपदेश, बृहत्कथामंजरी, कथासरितसागर आदि संस्कृत आख्यान एवं बौद्ध-जातककथाएँ विशेष महत्त्वपूर्ण मानी गई हैं । फिर भी प्राकृत कथा साहित्य ने जो कथा-साहित्य के विकास में योगदान दिया वह कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। प्राकृत कथा साहित्य बहुमुखी कारणों को लिये हुए है। जैन-आगम परम्परा का साहित्य कथा एवं आख्यानों से भरा हुआ है । नायाधम्मकहा, उवासगदसाओ, अंतगड, अनुत्तरोपातिक, विवागसुत्त आदि अंग ग्रन्थों की समग्र सामग्री कथात्मक है। इसके अतिरिक्त ठाणांग, सूयगडंग आदि अनेक रूपक एवं कथानकों को लिए हुए सिद्धान्त की बात का विवेचन करते हैं, जो प्रभावक एवं मानव-जीवन के विकास के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माने गये हैं। प्राकृत कथा साहित्य ईसा की चौथी शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक प्राकृत कथा साहित्य का विशेष विवेचन के साथ निर्माण होता रहा है। आज प्राकृत कथा साहित्य इतने विपुल रूप में है कि इसके शोध के १०० वर्ष भी कम पड़ जायेंगे। इस साहित्य में समाज, संस्कृति, सभ्यता, राजनीति-चित्रण, मन्त्र-तन्त्र एवं आयुर्वेद आदि विषयों का विवेचन पर्याप्त रूप में प्राप्त होता ही है, साथ ही प्रेमाख्यानों की भी अधिकता है। कई ऐसे गम्भीर हृदय को ओत-प्रोत करने वाले विचारों का भी चित्रण किया गया है। जैन प्राकृत कथा-साहित्य अन्य कथा-साहित्य की अपेक्षा समृद्ध भी है। जैन कथा साहित्य में तीर्थंकरों, श्रमणों एवं शलाकापुरुषों के जीवन का चित्रण तो हुआ ही है, परन्तु कथानकों के साथ आत्मा को पवित्र बनाने वाले साधनों का भी प्रयोग किया गया है । धामिक कहानियाँ प्रारम्भ में अत्यन्त रोमांचकारी होती हैं और आगे कथानक की रोचकता के साथ दुःखपूर्ण वातावरण से हटकर सूखपूर्ण वातावरण में बदल जाती है। प्रत्येक कथा का कथानक एकांगी न होकर बहुमुखी होता है, जिसमें भूत, भविष्यत और वर्तमान के कारणों का भी स्पष्ट उल्लेख मिलता है। देश, काल के अनुसार कथानक में सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक एवं प्राकृतिक चित्रण का पी पूर्ण समावेश देखा जाता है, जिससे हमें तत्कालीन विशेषताओं का भी प्रर्याप्त बोध हो जाता है। Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत कथा साहित्य का महत्त्व ४६७ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. प्राकृत कथा साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ काव्य की दृष्टि से प्राकृत कथा साहित्य को भी महाकाव्य, खण्डकाव्य और मुक्तककाव्य में विभाजित किया जा सकता है। पउमचरिअ, जंबूचरिअ, पासनाहचरिअ, महावीरचरिअ, सुपासनाहचरिअ, सुदंसणचरिअ, कुमारपालचरिअ आदि महाकाव्य के लक्षणों से पूर्ण हैं । इन चरित्र-प्रधान काव्यों में प्रांतज, देशी शब्दों का भी प्रयोग हुआ है तथा जिस प्रान्त में कथा-काव्यों को लिखा गया, उस प्रान्त की संस्कृति-सभ्यता, रहन-सहन का भी बोध हो जाता है। समराइच्चकहा, णाणपंचमीकहा, आक्खाणमणिकोस, कुमारवालपडिवोह, पाइअकहासंग्गह, मलयसुन्दरीकहा, सिरीवालकहा, कंसवहो, गउडवहो, लीलावई, सेतुबंध, वसुदेवहिंडी, आदि प्रमुख खण्डकाव्य हैं। मुक्तक काव्य के रूप में गाथासप्तसती का विशेष नाम आता है। इन सभी कथा-काव्यों में त्याग, तपश्चर्या, साधना पद्धति एवं वैराग्य-भावना की प्रचुरता है। ये साधन जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण कहे गये हैं । इस मार्ग का अनुसरण कर मानव अपने जीवन कोसमुन्नत बना सकता है। कथाओं का वर्गीकरण प्राकृत कथाओं का वर्गीकरण विषय, पात्र, शैली और भाषा की दृष्टि से किया जा सकता है। विषय की दृष्टि से आगम ग्रन्थों में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ रूप कथाओं के भेद उपलब्ध होते हैं । दशवकालिक में 'अत्थकहा, कामकहा, धम्मकहा चेव मीसिया य कहा' । अर्थात् (१) अर्थकथा, (१) कामकथा, (३) धर्मकथा और (४) मिश्रितकथा-इन चार कथाओं और उनके भेदों का वर्णन दशवकालिक सूत्र में किया गया है । समराइच्चकहा में अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा और संकीर्णकथा का उल्लेख आता है । आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण प्रथम पर्व में (श्लोक ११८-११६) में धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थ रूप कथाओं का वर्गीकरण करते हुए कहा है कि "धर्मकथा आत्मकल्याणकारी है और यह ही संसार के बन्धनों से मुक्त कर सच्चे सुख को प्रदान करने वाली है।" अर्थ और काम कथा धर्मकथा के अभाव में विकथा कहलायेंगी। डा० नेमिचन्द्र ने कथा-साहित्य के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि "लौकिक जीवन में अर्थ का प्रधान्य है। अर्थ के बिना एक भी सांसारिक कार्य नहीं हो सकता है, सभी सुखों का मूलकेन्द्र अर्थ है । अत: मानव की आर्थिक समस्याओं और उनके विभिन्न प्रकारों के समाधानों की कथाओं, आख्यानों और दृष्टान्तों के द्वारा व्यंग या अनुमित करना अर्थकथा है। अर्थ कथाओं को सबसे पहले इसीलिए रखा गया है कि अन्य प्रकार की कथाओं में भी इसकी अन्विति है।' विद्या, शिल्प, उपाय के लिए जिसमें वर्णन किया गया हो, वह अर्थ कथा है। क्योंकि अर्थ की प्रधानता अर्थात् असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और सेवा कर्म के माध्यम से कथावस्तु का निरूपण किया जाता है। प्रेमीप्रेमिका की आत्मीयता का चित्रण काम-कथाओं में किया जाता है। प्रेम के कारणों का उल्लेख हरिभद्रसूरि की दशवकालिक के ऊपर लिखी गयी वृत्ति में किया गया है ___ सई दसणाउ पेम्मं पेमाउ रई रईय विस्संभो। विस्संभाओ पणओ पंचविहं वड्ढए पेम्मं ॥ अर्थात् सदा दर्शन, प्रेम, रति, विश्वास और प्रणय-पाँच कारणों से प्रेम की वृद्धि होती है। पूर्ण सौन्दर्य वर्णन (नख से शिख का) तथा वस्त्र, अलंकार, सज्जा आदि सौन्दर्य के प्रतीक हैं और इन्हीं माध्यमों या साधनों के आधार पर कामकथा का निरूपण किया जाता है। धर्मकथा द्रव्य क्षेत्र, काल, तीर्थ, भाव एवं उसके फल की महत्ता पर प्रकाश डालती है। क्षमा, मार्दव, १. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नेमिचन्द्र पृ० ४४५. Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .-.-.-. -.-.-.-.-.-.-.-. ...marare.............................. आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और परिग्रह इन दर्शधर्म रूप साधनों का विशेष कथानकों के माध्यम से निरूपण किया जाता है। जीव के भावों का निरूपण भी धर्मकथा का माध्यम होता है। वीरसेनाचार्य ने धवलाटीका में आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदनी और निवेदनी इन चार प्रकार की धर्मकथाओं का उल्लेख किया है। दशवकालिक में उक्त कथाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। पात्र एवं चरित्र-चित्रण के आधार पर प्राकृत कथा साहित्य में दिव्या, दिव्यमानुषी और मानुषी इन तीन भेदों का उल्लेख किया है। लीलावई' कथा में दिव्यमानुषी कथा को विशेष महत्त्व दिया है। समराइच्चकहा' में भी दिव्वं, "दिव्वमाणुसं, माणुसं च' अर्थात् दिव्य, दिव्यमानुष और मानुष इन इन कथाओं का उल्लेख किया है तथा इन कथाओं में से देवचरित्र वाली कथाओं को विशेष महत्त्व दिया है। दिव्य-कथाओं में दिव्यलोक (देव-लोक) के पात्र होते हैं और उन्हीं की घटनाओं के आधार पर कथा का विस्तार किया जाता है। दिव्य-मानुष-कथा में देवलोक और मनुष्यलोक के पात्रों के आधार पर कथानक को आदर्श एवं सर्वप्रिय बनाया जाता है। मानुष-कथा में मनुष्य लोक के ही पात्र होते हैं । उनके चरित्रों में पूर्ण मानवता की झलक रहती है। शैली और भाषा के आधार पर कौतूहल कवि ने संस्कृत, प्राकृत और मिश्र इन तीन रूप में वर्गीकरण किया है। उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में स्थापत्य के आधार पर पाँच भेद किये हैं-'सयलकहा, खंडकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा । तहावरा कहियत्ति सकिण्णकत्ति ।' अर्थात् सकलकथा, खण्डकथा, उल्लासकथा, परिहासकथा और संकीर्णकथा इसमें भी अभीष्ट फल की प्राप्ति के लिए सकल कथा को महत्त्वपूर्ण बतलाया है। इसकी शैली महाकाव्य के लक्षणों से युक्त होती है। इसमें शृगार, वीर और शान्त रस में से किसी एक रस की प्रमुखता होती है। इसका नायक आदर्श चरित्र वाला होता है। खण्डकथा की कथावस्तु छोटी होती है। इसमें एक ही कथानक प्रारम्भ से अन्त तक चलता रहता है। उल्लासकथा में नायक के साहसिक कार्यों का निरूपण किया जाता है। परिहास कथा हास्य-व्यंग्य से परिपूर्ण श्रोताओं को हँसाने वाली होती है। मिश्र-कथा में अनेक तत्त्वों का मिश्रण होता है, जो जनमानस के मन में जिज्ञासा उत्पन्न करती रहती है। प्राकृत-कथा-साहित्य का दृष्टिकोण जितने भी आगम ग्रन्थ हैं, उन सभी में किसी न किसी रूप में हजारों दृष्टान्तों द्वारा धार्मिक सिद्धान्तों, आध्यात्मिक तत्त्वों, नीतिपरक विचारों एवं गूढ़ से गूढ़ समस्याओं का समाधान प्राप्त हो जाता है। ये आगम ग्रन्थ कथानकों से परिपूर्ण हैं, इनके ऊपर लिखी गयी नियुक्ति, भाष्य, चूणि आदि अनेक कथानकों का भी चित्रण करते हैं। आगम-ग्रन्थ केवल धार्मिक या आध्यात्मिक होने के कारण महत्त्वपूर्ण हैं ही, साथ ही कथा-साहित्य के विकास में प्राकृत साहित्य के इन आगम ग्रन्थों का और भी महत्त्व बढ़ जाता है। क्योंकि प्रत्येक आगम मग की नाभि की कस्तुरी की तरह है। जो इनकी गहराइयों में प्रवेश कर जाता है वह अपने विकास के साधनों को अवश्य खोज निकालता है । प्राकृत-कथा साहित्य में प्रयुक्त आख्यान सजीव, मनोरंजक और उपदेशपूर्ण है। आचारांग में महावीर की जीवनगाथा का वर्णन किया है। साधना, तपश्चर्या एवं परीषह सहन का मार्मिक चित्र पढ़ने को मिलता है। कल्पसूत्र में तीर्थंकरों की नामावली का उल्लेख है। न्यायाधम्मकहाओ जो कि मूल रूप से प्राकृत कथा साहित्य का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में प्रथम श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययनों में और दूसरे श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों में अनेक ऐसे कथानक हैं, जिन्हें पढ़कर या सुनकर व्यक्ति अपने जीवन की सार्थकथा को समझ सकता है। कूर्म अध्ययन ० ० १ लीलावई-गा० ३५ "तं जह दिब्बा, तह दिवमाणुसी माणुसी तहच्चेय २ समराइच्चकहा का सांस्कृतिक अध्ययन-डॉ० झनकू यादव ३ डॉ. प्रेमसुमन-कुवलयमाला का सांस्कृतिक अध्ययन, वैशाली, १९७५ . Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत कथा साहित्य का महत्त्व ४६६ ...................................... ....-. -. -.-. -. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-... में पंचेन्द्रिय गोपन के कारण का निर्देश किया है तथा इस उदाहरण द्वारा यह बतलाने की कोशिश की है कि जो चंचल कछुए की तरह इन्द्रियों को रखता है, वह निश्चित ही मारा जाता है और जो इन्द्रियों को वश में किये हुए रहता है, वह मुक्ति की ओर अग्रसर हो जाता है। तुम्बक अध्ययन में अष्टकर्म के विषय में समझाया गया है। जो कर्म से युक्त रहता है, वह बन्धनों से युक्त रहता है, परन्तु जो बन्धन तू बी पर अष्टलेप लगे होने पर भी संयम तप आदि से उन लेप को दूर कर अष्ट लेपों से रहित होकर तूंबी की तरह ऊपर जाता है, वह बन्धनों से छूट जाता है। भगवती सूत्र में संवाद शैली का प्रयोग किया गया है, जो अपने आप में एक विशिष्ट स्थान रखती है। सूत्रकृतांग के छठे और सातवें अध्ययन में आर्द्र कुमार के गोशालक और वेदान्ती तथा पेढालपुत्र उदक के गौतम स्वामी के साथ वार्तालाप का उल्लेख आता है। द्वितीय खण्ड में पुण्डरीक का आख्यान बहुत ही शिक्षापूर्ण है। उत्तराध्ययन' में अनेक भावपूर्ण एवं शिक्षापूर्ण आख्यान है। प्रथम अध्ययन में विनय का आख्यान आज की परम्परा के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके सभी आख्यान गहन-सैद्धान्तिक तत्त्वों को समाविष्ट किये हुए पद्यशैली में अपने एक विशेष आदर्श को प्रस्तुत करते हैं। राजीमती और रथनेमि, केशीकुमार और गौतम, भृगुपुत्र आदि के संवाद कर्णप्रिय के साथ अत्यन्त प्रभावपूर्ण है। सनाथ और अनाथ का परिसंवाद विशुद्ध आचार की शैली को प्रकट करता है। श्रमण की भूमिका क्या, कैसी होनी चाहिए इसकी सम्यक विवेचना उत्तराध्ययन के प्रत्येक अध्ययन में समाविष्ट है। सुभाषित वचनों से युक्त गीता की तरह उत्तराध्ययन भी विशुद्ध भावों से परिपूर्ण ग्रन्थ है। धम्मपद का जो स्थान बौद्धधर्म में है वही उत्तराध्ययन का जैनधर्म में है। श्रमण परम्परा के अनुयायी इसका अध्ययन करते हैं और इसके धर्म का अनुसरण करते हैं। गुहस्थ भी इसका अध्ययन करके अपने जीवन को महत्त्वपूर्ण बना सकते हैं। प्राकृत कथा साहित्य धीरे-धीरे आगम परम्परा से हटकर साहित्यिक सरस वर्णन के साथ एकरूपता के स्थान पर विविधता और नवीनता से युक्त होकर मानव-मन का मनोरंजन करने लगा। पात्र, विषयवस्तु, वातावरण, उद्देश्य, रूपगठन एवं नीति-संश्लेषण आदि का प्रयोग और भी अधिक रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाने लगा, जो अत्यन्त ही विस्तृत रूप से कथा-साहित्य के विकास का साधन बन गया। विशुद्ध कथा का रूप प्रथम तरंगवती में आया है । पादलिप्त सूरि ने इस कथा ग्रन्थ की रचना प्रेमकथा के आधार पर विक्रम संवत् की तीसरी शती में की है। वसुदेवहिण्डी वसुदेव के भ्रमण एवं शलाकापुरुषों के जीवनवृत्त के साथ अनेक मनोरंजक कथानकों से परिपूर्ण है। हरिभद्रसूरि' की समराइच्चकहा प्राकृत कथा-साहित्य की समृद्धि का कारण माना गया है । धूर्ताख्यान इसी लेखक की एक व्यंगप्रधान अत्यन्त रोचक रचना है, जिसमें पाँच धूर्तों की बातों का आख्यान अत्यन्त ही रोमांटिक रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह अपनी शैली का एक विशिष्ट एवं अनुपम कथा ग्रन्थ हैं। समराइच्चकहा एक धर्मकथा है। जिसमें आख्यानों के माध्यम से धर्म की विशेषताओं का परिचय दिया है। नायक-नायिकाओं के प्रेम-कथाओं और उनके चरित्रों का वर्णन बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। पहले कथानक प्रेम रूप में पल्लवित होता है और अन्त में वही कथानक संसार की असारता को प्रकट करता हुआ वैराग्य की ओर मुड़ जाता है । इसके कथानक कर्मसिद्धान्त और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन करते हैं । भाषा की दृष्टि से भी इस काव्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसकी भाषा जैन महाराष्ट्री प्राकृत भाषा है और कहीं-कहीं पर शौरसेनी है। प्राकृत का भी प्रभाव स्पष्ट रूप से पाया जाता है । भाषा सरल एवं प्रवाहबद्ध है। १. डॉ० सुदर्शन जैन-उत्तराध्ययन का सांस्कृतिक अध्ययन, प्र. पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी २. डा० जगदीशचन्द्र जैन-वसुदेवहिण्डी का आलोचनात्मक अध्ययन, अहमदाबाद, १९७६ ३. डा० नेमिचन्द्र-हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड कुवलयमाला, कथाकोषप्रकरण, कहारयणकोस, आख्यानकमणिकोष, कुमारपालप्रतिबोध आदि कुछ ऐसे कथा काव्य हैं, जो प्रत्येक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। लीलावई का प्रेम कथाकृति में महत्त्वपूर्ण स्थान है । समराइच्चकहा और लीलावईकहा का स्थान एक ही है। दोनों ही अपने क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हैं । फिर भी दोनों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। कथानक दोनों ही प्रेम से प्रारम्भ होते हैं, परन्तु लीलावई पूर्ण प्रेम-परक कथा का रूप लेकर ही सामने आती है। जबकि समराइच्चकहा प्रेमाख्यान के साथ धमख्यिान की विशेषताओं से भी महत्त्वपूर्ण हैं। हरिभद्रसूरि ने स्वयं ही इसे धर्मकथा के रूप में स्वीकार किया है । उद्योतनसूरि की कुवलयमाला भी अनेक अवान्तर कथाओं से युक्त है। इसके कथानक धर्मपरक और प्रेमरक दोनों रूप हैं। इस काव्य के कथानक कौतूहल के साथ मनोरंजन भी करते हैं। प्राकृत-कथा-साहित्य और वैचारिकों का दृष्टिकोण डा० नेमिचन्द्र शास्त्री ने प्राकृत-कथा को लोक कथा का आदि रूप कहा है । गुणाढ्य की बहत्कथा लोककथाओं का विश्वकोष कहा जाता है। प्राकृत कथा साहित्य का मूल ध्येय ऐसे कथानकों से रहा है जो प्रभावक हो तथा जीवन में नया मोड़ उत्पन्न कर सके । पालि कथा साहित्य भी विस्तृत एवं विपुलकाय है, परन्तु सभी कथानकों का एक ही उद्देश्य, एक ही शैली एवं एक ही दृष्टिकोण पुनर्जन्म तक सीमित है । उपदेशपूर्ण कथानक होते हुए बोधिसत्व की प्राप्ति के कारण तक पालि ही कथा की सीमा है । जबकि प्राकृत कथा साहित्य जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्ध के साथ सैद्धान्तिक भावों को भी गम्भीरता के साथ प्रस्तुत करता है। प्राकृत कथा का विकास प्रेमकथा या लोककथा के साथ होता चला जाता है। पात्र के चरित्र-चित्रण की विशेषताक्षों के साथ नैतिक, सैद्धान्तिक एवं धार्मिक विचारों को प्रतिपादित करता है। डा. जगदीशचन्द्र जैन ने प्राकृत जैन तथा साहित्य में कथा साहित्य के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि जब मानव ने लेखन कला नहीं सीखी थी, तभी से यह कथा-कहानियों द्वारा अपने साथियों का मनोरंजन करता आया है। प्रो० हर्टले का विचार है कि "कहानी कहने की कला की विशिष्टता प्राकृत कथाओं में पायी जाती है। ये कहानियां भारत के भिन्न-भिन्न वर्ग के लोगों के रस्म-रिवाज को पूर्ण सचाई के साथ अभिव्यक्त करती हैं। ये कथाएँ जनसाधारण की शिक्षा का उद्गम स्थान ही नहीं है, वरन् भारतीय सभ्यता का इतिहास भी है।"5 विण्टरनित्स ने लिखा है कि "प्राकृत का कथा साहित्य सचमुच में विशाल है। इसका महत्त्व केबल तुलनात्मक परिकथा साहित्य के विद्यार्थियों के लिए ही नहीं है, बल्कि साहित्य की अन्य शाखाओं की अपेक्षा हमें इसमें जनसाधारण के वास्तविक जीवन की झाँकियाँ भी मिलती है। जिस प्रकार इन कथाओं की भाषा और जनता की भाषा में अनेक साम्य हैं उसी प्रकार उनका वर्ण्यविषय भी विभिन्न वर्गों के वास्तविक जीवन का चित्र हमारे सामने उपस्थित करता है । केवल राजाओं और पुरोहितों का जीवन ही इस कथा साहित्य में चित्रित नहीं है, अपितु साधारण व्यक्तियों का जीवन भी अंकित है। १. श्री मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ, कथा खण्ड । २. प्राकृत जैन कथा साहित्य-डा. जगदीशचन्द्र जैन, ३. आन दी लिटरेचर आफ दी श्वेताम्बरास आफ गुजरात, पृ०८ ४. ए हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ० ५४५ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत कथा साहित्य का महत्त्व ४७१ इसके अतिरिक्त डा. सत्यकेतु, डा० याकोबी, डा० सी० एच० टान, हर्टल, ब्यूल्हर, तैस्सितोरि, आदि अनेक 'विद्वानों ने इस विधा पर पर्याप्त काम किया है। प्रो० श्रीचन्द जैन ने 'जैन कथा साहित्य : एक अनुदृष्टि' में कथा साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हए लिखा है कि जैन कथाओं की कुछ ऐसी विशिष्टताएँ हैं जिनके कारण विश्व के कलाकारों ने इन्हें प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों रूपों में अपनाया है।' डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' में साहित्य की सभी विधाओं पर विचार करते हए जैन कथाओं की विशिष्टता पर लिखा है कि “जैन संस्कृति के मूल तत्त्वों को अनावृत्त करते हुए एक ऐसी प्राचीन परम्परा की ओर संकेत करते हैं, जो कई युगों से भारतीय जीवन को प्रभावित कर रही है।" ___अन्त में यही कहा जा सकता है कि प्राकृत कथा साहित्य उपदेशप्रद कथाओं से परिपूर्ण कथा साहित्य की सभी विशेषताओं का चित्रण करता है । आज जो भी कथा साहित्य है, चाहे किसी भी भाषा का क्यों न हो, उसे प्राकृत-कथा-साहित्य से सर्वप्रथम योग मिला। इसीलिए इस साहित्य को कथा साहित्य के विकास का एक अंग मानना अति आवश्यक हो जाता है। १. श्री मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ-कथा खण्ड Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत : विभिन्न भेद और लक्षण श्री सुभाष कोठारी, द्वारा : प्राकृत व जैन विद्या विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर प्राकृत भाषा की गणना मध्य भारतीय आर्य भाषा में की जाती है और इसका विकास वैदिक, संस्कृत व छान्दस भाषा से माना जाता है। अत: प्राकृत की प्रकृति वैदिक भाषा से मिलती-जुलती है।' स्वर भक्ति के प्रयोग प्राकृत व छान्दस दोनों भाषा में समान रूप से पाये जाते हैं। अतः यह मानना उचित व तर्कसंगत मालूम होता है कि छान्दस भाषा से प्राकृत की उत्पत्ति हुई, जो उस समय की जनभाषा रही होगी। लौकिक संस्कृत व संस्कृत भाषा भी छान्दस से विकसित हुई है । अत: विकास की दृष्टि से संस्कृत व प्राकृत दोनों सहोदरा है। प्राचीन भारत की मूल भाषा या बोली का क्या रूप था यह तो स्पष्ट नहीं है पर आर्यों की अपनी एक भाषा थी। उस भाषा पर अन्य जातियों का भी प्रभाव पड़ा, उससे छान्दस भाषा विकसित हुई। इस छान्दस भाषा को विद्वानों ने पद, वाक्य, ध्वनि व अर्थ इन चारों अंगों को विशेष अनुशासनों में आबद्ध कर दिया। फलत: छान्दस का मौलिक विकसित रूप प्राकृत कहलाया। साहित्य निबद्ध प्राकृत का विकास मध्य भारतीय आर्य भाषा से माना जाता है । बुद्ध व महावीर के बाद इसका एक नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। शिष्टता के घेरे को तोड़कर इतनी तेजी से यह आगे बढ़ी कि संस्कृत भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी। संस्कृत में जनउपयोगी विषयों का विवेचन प्राकृत का ही फल है। अत: समय व सीमा की दृष्टि से प्राकृत का विकासकाल मध्यकाल माना जाता है। प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति-प्राकृत भाषा का बोध कराने वाला 'प्राकृत' शब्द प्रकृति से बना है। इस प्रकृति शब्द के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है । उनका यह मत है कि प्रकृति की आधारभूत भाषा संस्कृत है और इसी संस्कृत से प्राकृत भाषा निकली है। हेमचन्द्र ने कहा है कि "प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवम् ततं आगतं वा प्राकृतम" अर्थात् प्रकृति संस्कृत है और उससे आयी हुई भाषा प्राकृत है। इसी अर्थ का समर्थन मार्कण्डेय द्वारा भी होता है । लक्ष्मीधर अपनी षड्भाषाचन्द्रिका में लिखते हैं-"प्रकृते संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृता मता" । दशरूपक के टीकाकार धनिक ने प्राकृत की व्याख्या करते हुए कहा है कि "प्राकृतः आगतं प्राकृतम् । प्रकृतिः संस्कृतम्" यही मत कर्पूरमंजरी के टीकाकार वासुदेव , वाग्भटालंकार के टीकाकार सिंहदेवगणी, प्राकृत शब्द प्रदीपिका के रचयिता नरसिंह का भी है । नमि साधु सामान्य लोगों में व्याकरण के नियमों आदि से रहित सहज वचन व्यापार को प्राकृत का आधार मानते हैं । उक्त व्युत्पत्तियों की विशेष व्याख्या करने पर निम्न फलितार्थं प्रस्तुत होते हैं (अ) प्राकृत भाषा की उत्पत्ति संस्कृत से नहीं हुई किन्तु "प्रकृतिः संस्कृतम्" का अर्थ है कि संस्कृत भाषा के द्वारा प्राकृत भाषा को सीखने का यत्न करना । इसी आशय से हेमचन्द्र ने प्राकृत को संस्कृत की योनि कहा है। -प्राकृतसर्वस्व ६१६१ १. डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, प्राकृत भाषा व साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ०८ २. प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवं प्राकृतमुच्यते ३. पाइअ सद्दमहण्णवो, पृ० २३ ४. प्राकृतस्य तु सर्वमते संस्कृतयोनिः ५. भाषा विज्ञान, डॉ० भोलानाथ तिवारी पृ० १७३ -संजीवनी टीका, १२१ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •••• प्राकृत : विभिन्न भेद और लक्षण (ब) संस्कृत व प्राकृत के बीच किसी प्रकार का उत्कृष्ट व जघन्य भाव नहीं है। दोनों की उत्पत्ति छान्दस हुई। (स) उच्चारण भेद से इनमें हल्का अन्तर आ जाता है परन्तु इतना भी अन्तर नहीं कि दोनों विपरीत लगने लगे । प्राकृत के भेद ४७३ १. पालि हीनयान बौद्धों के 'धर्म प्रन्थों की भाषा को पालि कहते हैं। यह भी एक तरह की प्राकृत है। पालि शब्द के विषय में कई विद्वानों का मत है कि पालि शब्द 'पंक्ति' से बना है जिसका अर्थ है श्रेणी, परन्तु अन्य विद्वानों के अनुसार पालि शब्द पल्लि से बना है और पल्लि एक प्राकृत शब्द है। इसका उल्लेख प्राचीन जैन ग्रन्थ विपाक सूत्र भी आया है जिसका अर्थ होता है ग्राम या गाँव । अतः पालि शब्द का अर्थ ग्राम में बोली जाने वाली भाषा से होता है । यही कारण कि प्रसिद्ध विचारक मनीषी गायगर ने इसे आर्ष प्राकृत कहा है। में पालि शब्द की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। इसका प्राचीनतम प्रयोग चौथी शताब्दी में लिखित ग्रन्थ दीपवंश लंका में हुआ था। वहाँ इसका अर्थ बुद्ध वचन है । बौद्ध लोग इसे मागधी कहते हैं, अतः इसका उत्पत्ति स्थल मगध है, परन्तु इसका मागधी से कोई सम्बन्ध नहीं है। डॉ० कोनो इसे पैशाची के सदृश्य मानते हैं । उनके मत में पैशाची का उत्पत्ति स्थल विध्याचल का दक्षिण प्रदेश है। परन्तु पालि भाषा अशोक के गुजरात प्रदेश स्थित गिरनार के शिलालेख के अनुरूप होने से कारण यह मगध में ही नहीं अपितु भारतवर्ष के पश्चिमी प्रान्त में उत्पन्न हुई व वहाँ से सिंहस प्रदेश में लायी गयी होगी और यही तर्क विशेष युक्तिसंगत प्रतीत होता है। लक्षण - (१) पालि में श, ष, व स के स्थान पर केवल दन्त्य स ही प्रयुक्त होता है । ७ - द्विवचन का प्रयोग नाम व धातु दोनों रूपों में नहीं है । ८ - व्यंजनान्त प्रतिपादित बहुत कम रह रहे हैं। २पालि में र एवं ल दोनों ही ध्वनियां विद्यमान हैं। ३ - पुल्लिंग व नपुंसकलिंग के कर्त्ता कारक एकवचन में ए की जगह पालि में ओ प्रत्यय जोड़ा जाता है । ४— ऋ, ऋ, लृ-ए-ओ-श-ष-विसर्ग व अघोष, हृ जिव्हामूलक इन दस ध्वनियों का लोप हो जाता है ।, ५ उयनिव रूप दोनों ही दृष्टियों से पालि में तत्कालीन कई बोलियों के तत्व हैं, ऐसा ज्ञात होता है। ६ - पालि में तद्भव शब्दों का प्रयोग ही अधिक है । इसके बाद तत्सम व देश्य शब्दों का ही प्रयोग है । विदेशी शब्दों की संख्या इसमें कम है। पालिका वामय पानि में साम्प्रदायिक ग्रन्थ जैसे त्रिपिटक, विनयपिटक, सूनपिटक, अभिधम्मपिटक, साम्प्रदायिकेतर ग्रन्थों में मिलिन्दपाहो, दीपवंश इत्यादि, छन्दशास्त्र में कात्यायन व्याकरण इत्यादि तो लिखे गये परन्तु संस्कृत व अन्य भाषाओं की तरह सर्वापूर्ण ग्रन्थ नहीं लिखे गये हैं। वर्तमान पालि वाङ्मय को चार भागों में बाँटा जा सकता है । (अ) चौरासी हजार धर्मस्कंधों के रूप में इसका प्रथम वर्गीकरण हुआ किन्तु प्रयोग में नहीं होता है। (ब) दूसरा वर्गीकरण नव अंगों में किया जाता है (१) सुत्त (२) गेप्य (३) वेध्याकरण (४) गाथा (५) उदान (६) इति उत्तक ( ७ ) जातक (८) अब्भुतधम्म (२) वैदल (स) बुद्ध के सम्पूर्ण उपदेशों को पांच निकायों में बांट दिया है . Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ -+-+ • कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड (१) दीघनिकाय (२) मज्झिमनिकाय, (३) संयुत्तनिकाय, (४) अंगुत्तरनिकाय, (५) खुद्दकनिकाय | (द) पालि या पिटक साहित्य या अनुपालि व अनुपिटक साहित्य- ये दो स्थूल विभाग किये गये हैं । २. पैशाची पैशाची एक बहुत प्राचीन प्राकृत है। इसकी गणना पालि अर्धमागधी व शिलालेखों की प्राकृतों के साथ की जाती है। खरोष्ठी शिलालेखों व कुवलयमाला में पैशाची की विशेषताएं देखने को मिलती है। पैशाची की प्रकृति शौरसेनी है। मार्कण्डेय ने पैशाची भाषा को कैकय, शौरसेन और पांचाल इन तीन भेदों में विभक्त किया है । डॉ० सर जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार पैशाची का आदिम स्थान उत्तर पश्चिम पंजाब व अफगानिस्तान प्रान्त है। पंजाब, सिन्ध, बिलोचिस्तान, काश्मीर की भाषाओं पर इसका प्रभाव आज भी लक्षित होता है। इस समय पैशाची भाषा का उदाहरण 'प्राकृत प्रकाश', आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण, षड्भाषाचन्द्रिका, प्राकृत- सर्वस्व आदि प्राकृत व्याकरणों में तथा हेमचन्द्र के कुमारपालचरित्र व काव्यानुशासन में एवं एक-दो षड्भाषाचन्द्रिका में प्राप्य हैं । प्रथम युग की पैशाची भाषा का कोई निदर्शन साहित्य में नहीं मिलता है । गुणाढ्य की बृहत्कथा प्रथम शताब्दी की रचना है परन्तु वर्तमान में उपलब्ध नहीं है । आजकल पैशाची के जो उदाहरण मिलते हैं, वह मध्य युग की पैशाची भाषा के हैं। मध्य युग की यह पैशाची भाषा ख्रिस्त की द्वितीय शताब्दी से पांचवीं शताब्दी पर्यन्त प्रचलित थी । लक्षण - (१) पैशाची शब्दों के आदि में न रहने पर वर्गों के तृतीय व चतुर्थ वर्णों के स्थान पर उसी वर्ग के क्रमशः प्रथम व द्वितीय वर्ग हो जाते हैं जैसे गकनं गगनम् ग के स्थान पर क (२) ज्ञ, न्य व ण्य के स्थान पर ञ्ञ होता है प्रज्ञा = पञ्जा, पुण्य = पुञ्ञ (३) ण व न दोनों के स्थान पर 'न' होता है गुण = गुन, कनक = कनक (४) त व द के स्थान पर 'त' ही होता है— शतसत, मदन पतन, देव = तेय (५) अकारान्त शब्द की पंचमी का एकवचन आतो व आदु होता है जैसे- जिनातों - जिनातु (६) भविष्य काल के स्सि के बदले एम्य होता है । (७) शौरसेनी के दि व दे प्रत्ययों की जगह ति व ते होता है । जैसे— रमति, रमते २. पुलिया पैशाची चूलिका पैशाची, पैशाची का एक भेद है । इसका सम्बन्ध काशगर से माना जाय तो अनुचित नहीं होगा । उस प्रदेश के समीपवर्ती चीनी तुर्किस्तान में मिले हुए पट्टिका लेखों में ऐसी विशेषताएँ पायी जाती हैं । इसके लक्षण आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण व लक्ष्मीधर ने षड्भाषाचन्द्रिका में दिये हैं । हेमचन्द्र के कुमारपालचरित्र व काव्यानुशासन में इस भाषा के निर्देश हैं । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने 'अभिधानचिन्तामणि' नामक संस्कृत कोष ग्रन्थ में पैशाची के साथ ही उसका उल्लेख किया है । लक्षण - (१) चूलिका पैशाची में र के स्थान पर विकल्प से ल होता है। गौरी = गोली, चरण = चलण, राजा = लाजा । (२) इसमें पैशाची के समान वर्ग के तृतीय व चतुर्थ वर्णों के स्थान पर प्रथम व द्वितीय वर्ण होता है । नगः = नको ग के स्थान पर क झ के स्थान पर छव र के स्थान पर ल झर= छलो ठक्का = ठक्का ठ का ठ शब्द १. अभिनव प्राकृत व्याकरण, पृ० ४४४ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) चूलिका पैशाची में आदि अक्षरों में उक्त नियम लागू नहीं होता, जैसे- गतिः गती धर्म धम्मो = घन घनो = गका क नहीं हुआ ध के स्थान पर थ नहीं हुआ ध के स्थान पर ख नहीं हुआ । ४. अर्धमागधी प्राकृत : विभिन्न भेद और लक्षण साधारणतः अर्द्धमागधी शब्द की व्युत्पत्ति 'अर्द्ध मागध्या' अर्थात् जिसका अधश मागधी का हो, वह भाषा अर्द्धमागधी कहलायेगी, परन्तु जैन सूप ग्रन्थों की भाषा में उक्त युक्ति सम्यक् प्रकार से घटित नहीं होती, तीर्थकर या भगवान महावीर इत्यादि अपना धर्मोपदेश अर्द्धमागधी में देते थे और यह शान्ति, आनन्द व सुखदायी भाषा आर्यअनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु-पक्षी और सरीसृपों के लिए अपनी बोली में परिणत हो जाती थी। ओववाइयसूत्र से उक्त कथन की पुष्टि हो जाती है। इसका मूल उत्पति स्थान पश्चिम मगध व शूरसेन (मथुरा) का मध्यवर्ती प्रदेश है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव अयोध्या के निवासी थे, अतः अयोध्या में ही इस भाषा की उत्पत्ति मानी जाती है । प्रदेश की दृष्टि से अनेक विचारक इसे काशी-कौशल की भाषा भी मानते हैं। ४७५ सर आ० जी० भण्डारकर अर्द्धमागधी का उत्पत्ति समय खितीय द्वितीय शताब्दी मानते हैं । इनके मतानुसार कोई भी साहित्यिक प्राकृत भाषा ख्रिस्त की प्रथम व द्वितीय शताब्दी से पहले की नहीं है। इसका अनुसरण कर डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी ने अपनी पुस्तक में अर्द्धमागधी का समय ख्रिस्तीय तृतीय शताब्दी स्थिर कर दिया है। (अ) हार्नले ने समस्त प्राकृत बोलियों को दो भागों में बाँटा है । एक वर्ग को शोरसेनी प्राकृत व दूसरे वर्ग को मागधी प्राकृत कहा है । +++ (ब) ग्रियर्सन के अनुसार शनैः-शनैः ये आपस में मिलीं और इनसे तीसरी प्राकृत उत्पन्न हुई, जिसे अर्द्ध मागधी कहा गया है । (स) मार्कण्डेय ने इस भाषा के विषय में कहा है “शौरसेन्या अइरत्वादिय मेवार्धमागधी' अर्थात् शौरसेनी के निकट होने के कारण मागधी ही अर्द्धमागधी है।" लक्षण - (अ) वर्ण सम्बन्धी दो स्वरों के मध्य के मध्यवर्ती असंयुक्त क् के स्थान में सर्वत्र ग और अनेक स्थलों में त और यू पाये जाते हैं । प्रकल्प = पगप्प, आकाश = आगास, निषेधक = णिसेवग (ब) दो स्वरों के बीच का असंयुक्त य प्रायः स्थिर रहता है व कहीं-कहीं त और य भी पाये जाते हैं । जैसेआगम-आगम । ग ज्यों का त्यों स्थिर है । आगमणं < आगमन; ग को छोड़ न का ण हुआ । १. भगवं च ण अहमाहिए भाषाए धम्ममाइक्खइ । २. कम्परेटिव ग्रामर, भूमिका पृ० १७ ३. प्राकृत सर्वस्व, पृ० १०३ (स) दो स्वरों के बीच आने वाले असंयुक्त च और ज के स्थान पर त् और य ही होता है णारात < नाराच पावतण < प्रवचन इत्यादि, पूजा पूता, पूया इत्यादि । = (द) दो स्वरों के मध्यवर्ती प् के स्थान पर व् होता है जैसे वायव वायव, प्रिय पिय, इन्द्रिय इंदिय (य) अर्द्धमागधी के गद्य व पद्य की भाषा के रूपों में अन्तर है । स० प्रथमा एकवचन के स्थान पर मागधी की तरह ए प्रयोग होता है और प्रायः पद्य में शौरसेनी के समान 'औ' का प्रयोग है । समवायागं सूत्र, पृ० ६० -0 O . Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड (र) दैत्य ध्वनियाँ मूर्द्धन्य हो गयी है जैसे स्थित = ठिप, कृत्वा = कट्टु (ल) अर्द्धमागधी में ऐसे शब्द प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं जिनका प्राय: महाराष्ट्री में अभाव है जैसे अणुवीति, आघवेत, आवकम्म, कण्हुइ, पोरेवच्च वक्क, विउस इत्यादि । ५. जैन महाराष्ट्री अर्द्धमागधी के आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त चारित्र कथा, दर्शन, तर्क, ज्योतिष, भूगोल आदि विषयक प्राकृत का विशाल साहित्य है । इस साहित्य की भाषा को वैयाकरणों ने जैन महाराष्ट्री नाम दिया है, इसमें महाराष्ट्री के बहुत लक्षण पाये जाते हैं, फिर भी अर्द्धमागधी का बहुत कुछ प्रभाव देखा जाता है। जैन महाराष्ट्री के कतिपय ग्रन्थ प्राचीन है। यह द्वितीय स्तर के प्रथम युग के प्राकृतों में स्थान पा सकती है। पन्ना ग्रन्थ, नियुक्तियाँ, पउमचरिउ, उपदेशमाला ग्रन्थ प्रथम युग की जैन महाराष्ट्री के उदाहरण हैं । आगम ग्रन्थों पर रचे गये बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारसूत्रभाष्य, विशेषावश्यक भाष्य एवं निशींथ चूर्णी में इस भाषा का प्रयोग हुआ है, समराइच्चकहा, कुवलयमाला वसुदेव हिण्डी, पउमचरिउ में भी इसी भाषा का प्रयोग है । लक्षण - अर्द्धमागधी के अनेक लक्षण इसमें पाये जाते है (१) क के स्थान पर अनेक स्थान पर ग होता है । (२) लुप्त व्यंजनों के स्थान पर यू होता है । (३) शब्दों के आदि व मध्य में ण की जगह न अर्द्धमागधी की तरह होता है । (४) अस धातु का सभी काल, वचन न पुरुषों में अर्धमागधी के समान आसी रूप पाया जाता है । शेष नियम महाराष्ट्री प्राकृत के समान ही जैन महाराष्ट्री में लागू होते हैं। (६) शिलालेखी प्राकृत शिलालेखी प्राकृत के प्राचीनतम रूप अशोक के शिलालेखों में संरक्षित है। इन शिलालेखों की दो लिपियाँ है— ब्राह्मी व खरोष्ठी । अशोक के शिलालेखों की संख्या लगभग ३० है । अशोक ने अपने लेख शिलाओं पर लिखवाये जो उस समय की प्रादेशिक भाषाओं में रचित हैं, इनको ३ भागों में बांट सकते हैं (अ) पंजाब के शिलालेख - इसमें र का लोप नहीं देखा जाता । (ब) पूर्व भारत के लेख - इनमें मागधी के सदृश र की जगह सर्वत्र ल होता है । (स) पश्चिम भारत के शिलालेख – ये उज्जैन की उस भाषा से सम्बन्धित हैं जिनका मेल पालि भाषा से है । इनका समय ख्रिस्तपूर्व २५० वर्ष का है । (७) शौरसेनी प्राकृत भारतीय आर्य भाषा से मध्य युग में जो नाना प्रादेशिक भाषाएं विकसित हुईं, उनका सामान्य नाम प्राकृत है। विद्वानों ने देश-भेद के कारण मागधी व शौरसेनी को ही प्राचीन माना है। अशोक के शिलालेखों में दोनों ही प्राकृतों के उल्लेख है। इस प्रकार ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में शौरसेनी के वर्तमान रहने के शिलालेखी प्रमाण उपलब्ध हैं। शौरसेनी शूरसेन ( ब्रजमण्डल - मथुरा) के आसपास की बोली थी और इसका विकास वहाँ की स्थानीय बोली से हुआ । मध्य देश संस्कृत का केन्द्र होने के कारण शौरसेनी उससे बहुत प्रभावित है, मौर्य काल में जैन संघ के प्रवास के कारण इसका प्रचार दक्षिणी भारत में भी हुआ । शौरसेनी के विषय में विद्वानों की मान्यताएँ इस प्रकार हैं : Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत : विभिन्न भेद और लक्षण ४७७ (१) आचार्य भरत' के अनुसार नाटकों की बोलचाल में शौरसेनी का आश्रय लेना चाहिए। (२) हेमचन्द्र ने आर्ष प्राकृत के बाद शौरसेनी का ही उल्लेख किया है बाद में मागधी व पैशाची का किया है। (३) मार्कण्डेय ने शौरसेनी से ही प्राच्या का उद्भव बताया गया है। (४) पिशेल के अनुसार बोलचाल की जो भाषाएँ प्रयोग में लायी जाती हैं, उनमें शौरसेनी का प्रथम उल्लेख किया है। इसी तरह मच्छकटिक, मुद्राराक्षस के पद्य भाग में व कर्पूरमंजरी में भी शौरसेनी के उल्लेख है जो प्राचीनता पर प्रर्याप्त प्रकाश डालते हैं। ____ अश्वघोष के नाटकों में जिस शौरसेनी के उदाहरण मिलते हैं वह अशोक के समसामयिक कही जाती है। भास के नाटकों की शौरसेनी का समय सम्भवतः ख्रिस्त की प्रथम या द्वितीय शताब्दी मानना उचित प्रतीत होता है। लक्षणः-(१) ऋ ध्वनि शब्दारम्भ में आने पर उसका परिवर्तन इ, अ, उ में हो जाता है जैसे ऋद्धि= ईडिह, कटु=कत्वा, पृथिवि पुढवि इत्यादि । (२) शब्द के तीसरे वर्ण का प्रयोग होता है त के स्थान पर द एवं थ के स्थान पर घ का प्रयोग होता है जैसे -~-चदि=चेति, वाघ=वाथ । (३) षटखण्डागम में कहीं-कहीं त का य व यथावत रूप में मिलते हैं। जैसे-रहित=रहिये, अक्षातीत= अक्खातीदो, वीयरागवीतराग । (४) जैन शौरसेनी में अर्द्ध मागधी की तरह क का ग होता है। जैसे—वेदक-वेदग एवं स्वक= सग। (५) शौरसेनी में मध्यवर्ती क, ग, च, ज, त, द, व, प का लोप विकल्प से हो जाता है जैसे-गइ=गति, सकलम् =सयलं, वचन:=वयणे हि (६) रूपों की दृष्टि से कुछ बातों में संस्कृत की ओर झुकी हुई है, जो मध्य देश में रहने का प्रभाव है, किन्तु साथ ही महाराष्ट्री से भी काफी साम्य है। (७) त्वा प्रत्यय के स्थान पर इण, इण वत्ता होते हैं यथा परित्वा =पढिअ, पढिइण, पढिता इत्यादि । ८. मागधी मागधी के सर्वप्राचीन उल्लेख अशोक साम्राज्य के उत्तर व पूर्व भागों के खालसी, मिरट, बराबर, रामगढ़, जागढ़ आदि-अशोक के शिलालेखों में पाये जाते हैं। इसके बाद नाटकीय प्राकृत में उदाहरण मिलते हैं। वररुचि के प्राकृतप्रकाश, चण्ड के प्राकृतलक्षण, हेमचन्द्र के सिद्धहेमचन्द्र, क्रमदिश्वर के संक्षिप्तसार में मागधी के उल्लेख हैं। मगध देश ही मागधी का उत्पत्ति स्थान है, मगध की सीमा के बाहर जो मागधी के निर्देशन पाये जाते हैं, उसका कारण यही है कि मागधी भाषा राजभाषा होने के कारण मगध के बाहर इसका प्रचार हुआ है। अशोक के शिलालेखों व अश्वघोष के नाटकों की भाषा प्रथम युग की मागधी भाषा के निर्देशन की है, परवर्तीकाल के अन्य नाटकों व प्राकृत व्याकरणों की मागधी मध्ययुग की मागधी भाषा के उदाहरण है। (१) भरत के नाट्यशास्त्र में मागधी भाषा का उल्लेख है। १. नाट्यशास्त्र, अध्याय १७ २. प्राकृत सर्वस्व । Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड . -. -. -. -. -. -. (२) मार्कण्डेय द्वारा अपने प्राकृतसर्वस्व में अन्तपुर निवासी, सुरंग खोदने वाले, कलवार, अश्वपालक, विपत्ति में नायक के अतिरिक्त भिक्षु क्षपणक आदि भी इस भाषा का प्रयोग करते हैं। लक्षणः-(१) र के स्थान पर सर्वत्र ल होता है यथा नर=नल, कर=कल (२) ष, श, व स के स्थान पर सर्वत्र श तालव्य ही होता है। जैसे—पुरुष-पुलिश, सारस शालश इत्यादि। (३) संयुक्त ष और स के स्थान पर दन्त्य सकार होता है जैसे-शुष्क= शुस्क, कष्टकस्ट, स्खलति= स्खलदि इत्यादि। (४) क्ष की जगह स्क होता है जैसे-राक्षस=लस्कस इत्यादि । (५) अकारान्त पुल्लिग शब्द प्रथमा एकवचन में ए होता है यथा-जिन=यिणे, पुरुष पुलिणे (६) अस्मत् शब्द के एकवचन व बहुवचन का रूप हो जाता है। (७) इसमें र का सर्वत्र ल हो जाता है यथा-राजा=लाजा (E) मागधी में ज, घ, और य के स्थान में य आदेश होता है। (अ) जनपद=जणवेद ज के स्थान पर य व प के स्थान पर व हुआ है। (ब) जानाति=याणादि ज के स्थान पर य व ण को त हुआ है। (E) मागधी में प्रथम, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी विभक्ति में ही अन्तर पड़ता है। ६. महाराष्ट्री प्राकृत काव्य व गीतों की भाषा को महाराष्ट्री कहा जाता है। सेतुबन्ध, गाथा सप्तशती, कुमारपालचरित ग्रन्थों में इस भाषा के उदाहरण पाये जाते हैं। गाथाओं में महाराष्ट्री प्राकृत ने इतनी प्रसिद्धि प्राप्त की कि नाटक के पद्यों में भी महाराष्ट्री बोले जाने का रिवाज सा बन गया। यही कारण था कि कालिदास से लेकर सभी नाटकों में इसका व्यवहार हो गया। डॉ० हार्नले का मत है कि महाराष्ट्री भाषा महाराष्ट्र देश में ही उत्पन्न नहीं हुई। वे मानते हैं कि महाराष्टी का अर्थ विशाल राष्ट्र की भाषा से है। इसलिए राजपूताना व मध्यप्रदेश इसी के अन्तर्गत हैं, इसीलिए महाराष्टी को मुख्य प्राकृत कहा गया है । ग्रियर्सन के मत में आधुनिक मराठी की जन्मदायिनी यही भाषा है । अत: यह बात निस्सन्देह कही जा सकती है कि महाराष्ट्री का उत्पत्ति स्थान महाराष्ट्र ही है। ___आचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में महाराष्ट्री को ही प्राकृत नाम दिया है व इसकी प्रकृति संस्कृत कही है। डॉ. मनमोहन घोष इसे शौरसेनी के बाद की शाखा मानते हैं। इसी तरह चण्ड, लक्ष्मीधर, मार्कण्डेय आदि वैयाकरणों ने भी साधारण रूप से इसकी प्रकृति संस्कृति ही कही है। महाराष्ट्री प्राकृत साहित्य की दृष्टि से बहुत धनी है । हाल की गाथा सतसई, रावणवहो (प्रवरसेन), जयवल्लभ का वज्जालग्ग इसकी अमर कृतियाँ हैं। श्वेताम्बर जैनियों के भी इसमें कुछ ग्रन्थ भी लिखे गये हैं। इस पर अर्धमागधी का भी प्रभाव है। लक्षण-(१) अनेक जगह भिन्न स्वरों के स्थान में भिन्न-भिन्न स्वर होते हैं यथा समृद्धि-सामिद्धि, ईषत = ईसि, हर=हीर। (२) इसमें दो स्वरों के बीच आने वाले अल्प प्राण स्पर्श (क, त, प, ग, ढ, व, इत्यादि) प्रायः लुप्त हो गये हैं। जैसे-प्राकृत पाउअ, गच्छति =गच्छइ (३) उष्म ध्वनियाँ स व श का केवल र रह जाता है जैसे-तस्य ताह, पाषाण=पाहाण । . Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत: विभिन्न भेद और लक्षण (४) ऐ का प्रयोग महाराष्ट्री में नहीं होता। उसकी जगह सामान्यतः ह एवं विशेषण अइ होता है जैसे शैल = सैल, ऐरावण एरावण, सैन्य सेण्ण, दैन्य देइष्ण । = = (५) कितने ही शब्दों के प्रयोगानुसार पहले, दूसरे व तीसरे वर्ष पर अनुसार का आगम होता है। अबु अयु, असुं, त्रस्कम तसं तसं आदि । (६) आदि के स्थान पर ज होता । (७) अनेक स्थानों पर र का ल होता है। ४७६ ( ८ ) ष्प और रूप के स्थान पर फ आदेश होता है । (E) अकारान्त पुल्लिंग एकवचन ओ प्रत्यय होता है, पंचमी से एकवचन में तो, ओ, उ, हि और विभक्तिचिह्न का लोप भी होता है व पंचनी बहुवचन में हिन्तों व सुन्तों प्रत्यय जोड़े जा सकते हैं । (१०) भविष्यकाल के प्रत्ययों के पहले हि होता है। (११) वर्तमान, भविष्य, भूत व आज्ञार्थक प्रत्ययों के स्थान में ज्ज और ज्वा प्रत्यय भी होते हैं । (१२) ति व ते प्रत्ययों में त का लोप होता है । (१३) भाव कर्म में इअ और इज्ज प्रत्यय होते हैं । -0 .0 . Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रश साहित्य-परम्परा डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, प्राध्यापक, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, शासकीय महाविद्यालय, नीमच (म० प्र०) यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय भाषाओं के मूल में सांस्कृतिक विरासत निहित है। भाषाओं के स्वाभाविक प्रवाह में जो भाव समय-समय पर प्रकट होते रहे, वे लेखांकन के अभाव में साहित्यिक रूप ग्रहण नहीं कर सके; किन्तु लोक में प्रचलित अवश्य रहे। संस्कृत के नाटकों के मूल में यही प्रवृत्ति लक्षित होती है। भारतीय साहित्य की मूल परम्परा अभिनय से विभिन्न रूपों से विकसित लक्षित होती है। संस्कृत के नाट्य-साहित्य में लोकप्रचलित प्राकृत भाषाओं का प्रयोग, देशी रागों में गायी जाने वाली ध्र वा-गीतियाँ एवं चर्चरियाँ इस तथ्य को पुष्ट करने के लिए पर्याप्त है। प्राकृत साहित्य की रचना इसी मूल धारा को लेकर हुई है। क्योंकि अभिनय और गेयता-इन दोनों का मूल सम्बन्ध लोकजीवन तथा प्राकृत-साहित्य से रहा है। वस्तुतः लोक-परम्परा ही भारतीय परम्परा का मूल है। परन्तु आज हमें जो प्राचीन साहित्य उपलब्ध होता है, उसके आधार पर ही हम साहित्यिक परम्परा का स्रोत खोजते हैं। सम्भव है कि संस्कृत-प्राकृत और अपभ्रश साहित्य के मध्यकालीन (उत्तरकालिक गुप्तकाल) रूप को देखकर वे एक-दूसरे से प्रभावित लक्षित होते हों, किन्तु उनकी भाव-भूमि और रचना का मूल उस आदिकालिक परम्परा में निहित है जो आर्य-संस्कृति व साहित्य की मूल उद्भावक रही है। अतः यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि अपभ्रंश साहित्य की परम्परा अत्यन्त प्राचीन रही है। यह साहित्य अधिकतर प्राकृत साहित्य का अनुवर्ती रहा है और प्राकृत भाषा तथा साहित्य की आनुपूर्वी में गतिशील रहा । इसलिए प्राकृत साहित्य की विभिन्न भावधाराओं एवं शैलियों का स्फीति आकलन आज भी स्पष्ट रूप से लक्षित होता है। अपभ्रंश साहित्य की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं जिनको वह मूल रूप से सहेजे हुए है। साहित्यिक निदर्शन के रूप में अपभ्रंश साहित्य की परम्परा एक ओर महाकवि कालिदास की 'विक्रमोर्वशीय' जैसी प्राचीन रचनाओं में तथा 'गाथासप्तशती' में स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है, तो दूसरी ओर प्राकृत साहित्य के सुयगडंग, वसुदेवहिण्डी, आवश्यकचूणि तथा आख्यानकमणिकोश में परिलक्षित होती है। आधुनिक युग में इस परम्परा को खोजने वाले यूरोपीय विद्वानों की शोध-खोज से जो निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं, वे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। प्राच्यविद्या-जगत् में यह एक नया आयाम था, जिसने जैनधर्म व प्राकृत भाषा एवं अपभ्रंश साहित्य की जानकारी के साथ भाषावैज्ञानिक इतिहास तथा भारतीय आर्य-भाषाओं के विकास के मूल रूप को उजागर किया। किन्तु आज भी इस भाषा और साहित्य के अध्ययन व अनुसन्धान के द्वारा विभिन्न पार्श्ववर्ती क्षेत्रों, साहित्यिक रूपों, भाषागत प्रभेदों, रूप-रचना, संघटन आदि का विश्लेषण व अनुशीलन अपेक्षित है। जैनविद्या के महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान के रूप में उल्लेखनीय विद्वान् अल्वर्ट वेबर हैं। बम्बई के शिक्षा-विभाग से अनुमति प्राप्त कर डॉ. बूलर ने जिन पाँच सौ ग्रन्थों को बलिन पुस्तकालय में भेजा था, उनका अध्ययन व अनुशीलन कर वेबर कई वर्षों तक परिश्रम कर भारतीय साहित्य (Indishen Studies) के रूप में महान ग्रन्थ १८८२ ई० में प्रस्तुत किया। यह ग्रन्थ सत्रह जिल्दों में निबद्ध है। यद्यपि 'कल्पसूत्र' का अंग्रेजी अनुवाद १८४८ ई० में स्टीवेन्सन द्वारा प्रकाशित हो चुका था, किन्तु जैन आगम ग्रन्थों की भाषा तथा साहित्य की ओर तब तक विदेशी विद्वानों का विशेष रूप से झुकाव नहीं हुआ था। वेबर ने इस साहित्य का विशेष महत्त्व प्रतिपादित कर १८५८ ई० में धनेश्वरसूरि कृत "शत्रुजय माहात्म्य" का सम्पादन कर विस्तृत भूमिका सहित प्रथम बार लिपजिग . Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य-परम्परा -. -. - . -. - . - . - . -. -. -. -. -. -. .-. -.-. -. -.-. -.-. -.-. -.-. -.-.-.-. -.-.-. से प्रकाशित कराया। श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ "भगवती सूत्र" पर जो शोध-कार्य वेबर ने किया, वह चिरस्मरणीय माना जाता है। यह ग्रन्थ बलिन की विसेन्चाफेन (Wissenchaften) अकादमी से १९६६-६७ में मुद्रित हुआ था। वेबर ने जैनों के धार्मिक साहित्य के विषय में विस्तार से लिखा था, जिसका अंग्रेजी अनुवाद स्मिथ ने प्रकाशित किया था। विण्डिश ने अपने विश्वकोश (Encyclopedia of Indo Aryan Researc1) में तत्सम्बन्धी विस्तृत विवरण दिया है। इस प्रकार जैन विद्याओं के अध्ययन का सूत्रपात करने वाला तथा शोध व अनुसन्धान को निर्दिष्ट करने वाला विश्व का सर्वप्रथम अध्ययन केन्द्र जर्मन में विशेष रूप से बर्लिन रहा है। होएफर, लास्सन, स्वीगल, फ्रेडरिक हेग, रिचर्ड पिशेल, अल्वर्ट वेबर, ई० व्युमन, डॉ. हर्मन जेकोबी, डब्ल्यू व्हिटसन, वाल्टर शुबिंग, लुडविग आल्डोर्फ, नार्मन ब्राउन, क्लास ब्रहन, गुस्तेव राथ और डब्ल्यू० बी० बोल्ले इत्या दि जर्मन विद्वान् है। विदेशों में पूर्व जर्मनी में फ्री युनिवर्सिटी, बलिन में प्रोफेसर डॉ० क्लास ब्रुहन (Klaus Bruehn) जैन लिटरेचर एण्ड माइथालाजी, इण्डियन आर्ट एण्ड इकोनोग्राफी का अध्यापन-कार्य कर रहे हैं। उनके सहयोगी डॉ० चन्द्रभाई बी० त्रिपाठी बुद्धिस्ट जैन लिटरेचर तथा डॉ. मोनीका जार्डन 'जैन लिटरेचर' का अध्यापन कार्य करने में प्रवृत्त हैं। पेनिसिलवानिया युनिवर्सिटी में नार्मन ब्राउन के निर्देशन में प्राकृत तथा जैन साहित्य पर अनुसन्धान-कार्य चल रहा है। इसी प्रकार युनिवर्सिटी आफ केम्ब्रिज में के० आर० नार्मन अध्यापन-कार्य कर रहे हैं। लीडन युनिवर्सिटी में प्रोफेसर एफ० बी० जे० क्युपर भी इस दिशा में प्रवर्तमान हैं। प्राच्य-विद्याओं की भाँति जैनविद्याओं का भी दूसरा महत्वपूर्ण अध्ययन केन्द्र फ्रान्स था। फ्रांसीसी विद्वानों में सर्वप्रथम उल्लेखनीय है-ग्युरिनाट । उनका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'एसे डि बिब्लियाग्राफि जैन' पेरिस से १६०६ ई० में प्रकाशित हुआ। इसमें विभिन्न जैन विषयों से सम्बन्धित ८५२ प्रकाशनों के सन्दर्भ निहित हैं। 'जैनों का धर्म' पुस्तक उनकी पुस्तकों में सर्वाधिक चचित रही। यथार्थ में फ्रांसीसी विद्वान् विशेषकर ऐतिहासिक तथा पुरातात्त्विक विषयों पर शोध व अनुसन्धान कार्य करते रहे। उन्होंने इस दिशा में जो महत्त्वपूर्ण कार्य किये, वे आज भी उल्लेखनीय हैं। ग्युरिनाट ने जैन अभिलेखों के ऐतिहासिक महत्त्व पर विशेष रूप से प्रकाश डाला है। उन्होंने जैन ग्रन्थ सूची निर्माण के साथ ही उन पर टिप्पण तथा संग्रहों का भी विवरण प्रस्तुत किया था।' वास्तव में साहित्यिक तथा ऐतिहासिक अनुसन्धान में ग्रन्थ-सूचियों का विशेष महत्त्व है। यद्यपि १८६७ ई० में जर्मन विद्वान् अर्नेस्ट ल्युपन ने 'ए लिस्ट आव द मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द लायब्रेरी एट स्ट्रासवर्ग' वियेना ओरियन्टल जर्नल, जिल्द ११, पृ० २७६ में दो सौ हस्तलिखित दिगम्बर जैन ग्रन्थों का परिचय दिया था, किन्तु ग्युरिनाट के पश्चात् इस दिशा में क्लाट (Klatt) ने महान कार्य किया था। उन्होंने जैन ग्रन्थों की लगभग ११००-१२०० पृष्ठों में मुद्रित होने योग्य अनुक्रमणिका तैयार की थी, किन्तु दुर्भाग्य से उस कार्य के पूर्ण होने के पूर्व ही उनका निधन हो गया। वेबर और अर्नेस्ट ल्युमन ने 'इण्डियन एन्टिक्वेरी' में उस बृहत् संकलन के लगभग ५५ पृष्ठ नमूने के रूप में मुद्रित कराए थे। भारतवर्ष में इस प्रकार का कार्य सर्वप्रथम बंगाल की एशियाटिक सोसायटी के माध्यम से प्रकाश में आया। १८७७ ई० में राजेन्द्रलाल मिश्र ने 'ए डिस्क्रिप्टिव केटलाग आव् संस्कृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द लाइब्रेरी आव् द एशियाटिक सोसायटी आव् बेंगाल' कलकत्ता से प्रकाशित किया था, जिसमें कुछ प्राकृत तथा अपभ्रंश ग्रन्थों के नाम भी मिलते हैं। मुख्य रूप से इस महत्त्वपूर्ण कार्य का प्रारम्भ इस क्षेत्र में भण्डारकार के प्रकाशित 'लिस्ट्स आव् संस्कृत मैन्युस्क्रिष्ट्स इन प्राइवेट लाइब्रेरीज इन द बाम्बे प्रेसीडेन्सी' ग्रन्थ से माना जाता है। इसी शृंखला में सुपार्श्वदास गुप्त द्वारा सम्पादित 'ए केटलाग आव् संस्कृत, प्राकृत एण्ड हिन्दी वर्क्स इन द जैन सिद्धान्त भवन, आरा' (१९१६ ई०) एवं दलाल और लालचन्द्र म. गांधी द्वारा १. द्रष्टव्य है : 'द कन्ट्रिब्युशन आव फ्रेन्च एण्ड जर्मन स्कालर्स टु जैन स्टडीज' शीर्षक लेख, प्रकाशित आचार्य भिक्ष स्मृति-ग्रन्थ, कलकत्ता, १९६१, पृ० १६६ २. मुनिश्री हजारीलाल स्मृति-ग्रन्थ में प्रकाशित, गोपालनारायण बहुरा का लेख 'जैन वाङमय के योरपीय संशोधक', पृ० ७४७-४८ द्रष्टव्य है। Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .... . .................................................................. सम्पादित 'केटलाग आव् मैन्युस्क्रिप्ट्स इन जैसलमेर भाण्डाराज' गायकवाड़ ओ० सी०, बड़ौदा (१९२३ ई०), 'रायबहादुर हीरालाल-केटलाग आव् संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द सी० पी० एण्ड बरार, नागपुर, १६३६ ई० आदि उल्लेखनीय हैं । आधुनिकतम खोजों के आधार पर इस दिशा में कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ-सूचियों का निर्माण हुआ, जिनमें एच० डी० वेलणकर का 'केटलाग आव् प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स, जिल्द ३-४, बम्बई (१९३० ई.) तथा 'जिनरत्नकोश', पूना (१९४४ ई०), हीरालाल रसिकदास कापड़िया का 'डिस्क्रिप्टिव केटलाग आव् मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द गवर्नमेन्ट मैन्युस्क्रिप्ट्स लाइब्रेरी, भण्डारकर ओ० रि० ई०, पूना' (१९५४ ई०), डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल का 'राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ-सूची, भा० १-५' तथा मुनि जिनविजयजी के 'ए केटलाग आव संस्कृत एण्ड प्राकृत मैन्युस्क्रिप्ट्स इन द राजस्थान ओ० रि० इं०, जोधपुर कलेक्शन' एवं मुनि पुण्यविजयजी के पाटन के जैन भण्डारों की ग्रन्थ-सूचियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । अपभ्रंश के जैन ग्रन्थों की प्रकाशित एवं अप्रकाशित हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची के लिए लेखक की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित पुस्तक 'अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ पठनीय है, जिसमें अपभ्रंश से सम्बन्धित सभी प्रकार का विवरण दिया गया है। वास्तव में जर्मन विद्वान् वाल्टर शुबिंग ने सर्वप्रथम जन हस्तलिखित ग्रन्थों की बृहत् सूची तैयार की थी जो १९४४ ई० में लिपजिग से प्रकाशित हुई और जिसमें ११२७ जैन हस्तलिखित ग्रन्थों का पूर्ण विवरण पाया जाता है। यह सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य माना जाता है। इस प्रकार के कार्यों से ही शोध व अनुसन्धान की दिशाएँ विभिन्न रूपों को ग्रहण कर सकीं। आधुनिक युग में प्राकृत तथा अपभ्रंश विषयक शोध-कार्य मुख्य रूप से तीन धाराओं में प्रवाहित रहा है(१) साहित्यिक अध्ययन (२) सांस्कृतिक अध्ययन और (३) भाषावैज्ञानिक अध्ययन । साहित्यिक अध्ययन के अन्तर्गत जैन आगम-साहित्य का अध्ययन प्रमुख है। यह एक असन्दिग्ध तथ्य है कि आधुनिक युग में जैनागमों का भलीभांति अध्ययन कर उनको प्रकाश में लाने का श्रेय जरमन विद्वानों को है । यद्यपि संस्कृत के कतिपय जैन ग्रन्थों का अध्ययन उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में होने लगा था, किन्तु प्राकृत में तथा अपभ्रंश साहित्य का सांगोपांग अध्ययन डॉ.हर्मन जेकोबी से आरम्भ होता है । डा० जेकोबी ने कई प्राकृत जैन ग्रन्थों का सम्पादन कर उन पर महत्वपूर्ण टिप्पण लिखे। उन्होंने सर्वप्रथम श्वेताम्बर जैनागम-ग्रन्थ "भवगतीसूत्र" का सम्पादन कर १८६८ ई० में प्रकाशित किया ।' तदुपरान्त "कल्पसूत्र" (१८७६ ई०), "आचारांगसूत्र” (१८८५ ई०), "उत्तराध्ययनसूत्र” (१८८६ ई०) आदि ग्रन्थों पर शोध-कार्य कर सम्पादित किया। इसी समय साहित्यिक ग्रन्थों में जैन कथाओं की ओर डॉ० जेकोबी का ध्यान गया । सन् १८८१ ई० में “उपमितिभवप्रपंचकथा" का संस्करण प्रकाशित हुआ। इसके पूर्व “कथासंग्रह' १८८६ ई० में प्रकाशित हो चुका था । "पउमचरियं", "णेमिणाहचरिउ". और "सणयकुमारचरिउ" क्रमशः १६१४, १९२१, २१ में प्रकाशित हुए । इसी अध्ययन की शृंखला में अपभ्रंश का प्रमुख कथाकाव्य "भविसयत्तकहा" का प्रकाशन सन् १९१८ में प्रथम बार मचन (जर्मनी) से हुआ। इस प्रकार जरमन विद्वानों के अथक प्रयत्न, परिश्रम तथा लगातार शोधकार्यों में संलग्न रहने के परिमामस्वरूप ही जैन विद्याओं में शोध व अनुसन्धान के नए आयाम उत्मुक्त हो सके हैं। आल्सडोर्फ ने "कुमारपालप्रतिबोध" (१९२८ ई०), हरिवंशपुराण (महापुराण के अन्तर्गत), (१६३६ ई०), उत्तराध्ययनसूत्र, मूलाचार, भगवती आराधना (१९८०) आदि ग्रन्थों का सुसम्पादन कर प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य पर महान कार्य किया। वाल्टर शुब्रिग ने 'दसवेयालियसुत्त-दशवकालिकसूत्र" का एक सुन्दर संस्करण तथा अंग्रेजी अनुवाद तैयार किया जो १६३२ में अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ। उनके द्वारा ही सम्पादित “इसिभासिय" भा० २(१६४३ ई०) प्रकाशित हुआ। शुब्रिग और केत्लट के सम्पादन में तीन छेदसूत्र “आयारदसाओ, ववहार और निसीह" १६६६ ई० में हेम्बर्ग से प्रकाशित हुए। इसी प्रकार जे. एफ. कोल का "सूर्य प्रज्ञप्ति" (१६३७ ई०), डब्लू, किफेल का "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" (१६३७ ई०), हम्म का ' गीयत्थबिहार" (महानिशीथ का छठा अध्ययन) (१९४८ ई.), क्लास का "चउप्पनमहापुरिस चरियं” (१९५५ ई०।, नार्मन का ' स्थानांगसूत्र"२ (१९५६), आल्सडोर्फ का “इत्थिपरिना” (१९५८ ई०) ए० ऊनो १. एफ. विएसिंगर : जरमन इण्डालाजी-पास्ट एण्ड प्रिजेन्ट, बम्बई, १९६६, पृ० २१ २. संस्कृत एण्ड एलाइड एण्डोलाजिकल स्टडीज इन यूरोप, १९५६, पृ० ६६ . Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य-परम्परा ४८३. . .................................................................... .... का "प्रवचनसार" (१९६६ ई०) तथा टी• हनाकी का "अनुयोगद्वारसूत्र" (१९७०) इत्यादि । १९२५ ई० में किरफल (Kirfel) ने उपांग "जीवाजीवाभिगम" के सम्बन्ध में प्रतिपादन कर यह बताया था कि वस्तुतः यह "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" से सम्बद्ध है । सन् १९२६ में वाल्टर शुब्रिग ने अपनी पुस्तक "वोर्त महावीराज" के परिचय में जैनागमों के उद्भव विकास के साथ ही उनका साहित्यिक मूल्यांकन भी किया था। सन् १९२६ में हेम्बर्ग में काम्पत्ज (Kamptz), ने आगमिक प्रकीर्णकों को लेकर शोधोपाधि हेतु अपना शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत कर डाक्टरेट प्राप्त की थी। जैनागम के टीका-साहित्य पर सर्वेक्षण का कार्य अर्नेस्ट ल्युमन ने बहुत ही परिश्रमपूर्वक किया था, किन्तु वे उसे पूर्ण नहीं कर कर सके । अनन्तर "ओवेरश्चिट ओवेर दि आवश्यक लिटरेचर" के रूप में वाल्टर शुबिंग ने १९२४ में हेम्बर्ग से प्रकाशित किया। इस प्रकार जैनागम तथा जैन साहित्य की शोध-परम्परा के पुरस्कर्ता जरमन विद्वान् रहे हैं। आज भी वहाँ शोध व अनुसन्धान का कार्य गतिमान है । सन् १९३५ में फेडेगन (Faddegon) ने सुप्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने "प्रवचनसार" का अंग्रेजी अनुवाद किया था। इस संस्करण की विशेषता यह है कि आचार्य अमृतचन्द्र की "तत्त्वप्रदीपिका" टीका, व्याख्या व टिप्पणों से यह अलंकृत है। ऐसे अनुवादों की कमी आज बहुत खटक रही है। इस तरह के प्रकाशन की ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए । वर्तमान युग में सम्यक् दिशा में सम्यक् कार्य होना नितान्त अपेक्षित है। - साहित्यिक विधाओं में जैन कथा-साहित्य पर सर्वप्रथम डॉ. जेकोबी ने प्रकाश डाला था। इस दिशा में प्रमुख रूप से अर्नेस्ट ल्युमन ने पादलिप्तसूरि की "तरंगवतीकथा" का जर्मन भाषा में सुन्दर अनुवाद "दाइ नोन' (Die Nonne) के नाम से १९२१ ई० में प्रकाशित किया था। तदनन्तर हर्टेल ने जैन कथाओं पर महत्त्वपूर्ण कार्य किया। क्लास बुहन ने "शीलांक के चउप्पनमहापुरिसचरियं" पर शोधोपाधि प्राप्त कर सन् १९५४ में उसे हेम्बर्ग से प्रकाशिन किया। आर० विलियम्स ने "मणिपतिचरित" के दो रूपों को प्रस्तुत कर मूल ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद किया। इस तरह समय-समय पर जैन कथा साहित्य पर शोध-कार्य होता रहा है। . जैन-दर्शन के अध्ययन की परम्परा हमारी जानकारी के अनुसार आधुनिक काल में अल्ब्रेख्त वेबर के "फेगमेन्ट आव भगवती" के प्रकाशन से १८६७ ई० से मानना चाहिए। कदाचित् एच० एच० विल्सन ने सर्वप्रथम "ए स्केच आव द रिलीजियस सेक्ट्स आव द हिन्दूज" (जिल्द १, लन्दन), (१८६२ ई.) पुस्तक में जैनधर्म तथा जैनदर्शन का उल्लेख किया था। किन्तु उस समय तक यही माना जाता था कि जैनधर्म हिन्दूधर्म की एक शाखा है। किन्तु वेबर, जेकोबी, ग्लासनेप आदि जरमन विद्वानों के शोध व अनुसन्धान कार्यों से यह तथ्य निश्चित व स्थिर हो गया कि जैनधर्म एक स्वतन्त्र दर्शन व मौलिक परम्परा है । इस दृष्टि से डॉ० हेल्मुथ वान ग्लासनप की पुस्तक "द डाक्ट्राइन आव कर्मन इन जैन फिलासफी" अत्यन्त महत्वपूर्ण है जो सन् १९४२ में बम्बई से प्रकाशित हुई थी। ऐतिहासिक दृष्टि से जीमर और स्मिथ के कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । एफ० डल्ब्यू ० थामस ने आ० हेमचन्द्र कृत "स्याद्वादमंजरी" का बहुत सुन्दर अंग्रेजी अनुवाद किया जो १९६० ई० में बलिन से प्रकाशित हुआ। १९६३ ई० में आर० विलियम्स ने स्वतन्त्र रूप से “जैन योग” पर पुस्तक लिखी जो १९६३ ई० में लन्दन से प्रकाशित हुई । कोलेट केल्लट ने जैनों के श्रावक तथा मुनि आचार विषयक एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक "लेस एक्सपिएशन्स डान्स ले रिचुअल एन्शियन डेस रिलिजियक्स जैन" लिखकर १९६५ ई० में पेरिस से प्रकाशित की । वास्तव में इन सब विषयों पर इस लघु निबन्ध में लिख पाना सम्भव नहीं है । केवल इतना ही कहा जा सकता है कि परमाणुवाद से लेकर वनस्पति, रसायन आदि विविध विषयों का जैनागमों में जहाँ कहीं उल्लेख हुआ है, उनको ध्यान में रखकर विभिन्न विद्वानों ने पत्र-पत्रिकाओं के साथ ही विश्वकोशों में भी उनका विवरण देकर शोध व अनुसन्धान की दिशाओं को प्रशस्त किया है। उनमें से जैनों के दिगम्बर साहित्य व दर्शन पर जरमनी विद्वान् वाल्टर डेनेके (Walter Denecke) ने अपने शोध-प्रबन्ध में १. प्रोसीडिंग्स आव् द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना यूनिवर्सिटी, १९७०, पृ० २१० २. वही, पृ० २१० ३. वही, पृष्ठ २११ Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ....................................... दिगम्बर आगमिक ग्रन्थों का भाषा व विषयवस्तु दोनों रूपों में पर्यालोचन किया था। उनका प्रबन्ध सन् १९२३ में हेम्बर्ग से "दिगम्बर-टेक्स्टे : ईन दर्शतेलगु इहरेर प्राख उन्ड इन्हाल्ट्स" के नाम से प्रकाशित हुआ था। भारतीय विद्वानों में डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, हीरालाल जैन, पं० बेचरदास दोशी, डॉ० प्रबोध पण्डित, सिद्धान्ताचार्य, प० कैलाशचन्द्र, सिद्धान्तचार्य, पं० फूलचन्द्र, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, पं० सुखलालजी संघवी, पं० दलसुखभाई मालवणिया, डॉ. राजाराम जैन, डॉ० एच० सी० भायाणी, डॉ. के. आर. चन्द्र, डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, डॉ० प्रेमसुमन और लेखक के नाम उर लेखनीय हैं। डॉ० उपाध्ये ने एक दर्जन प्राकृत ग्रन्थों का सम्पादन कर कीर्तिमान स्थापित किया । अपभ्रंश के ‘परमात्मप्रकाश" का सम्पादन आपने ही किया । “प्रवचनसार" और 'तिलोयपण्णत्ति' जैसे ग्रन्थों का सफल सम्पादन का श्रेय आपको है। साहित्यिक तथा दार्शनिक दोनों प्रकार के ग्रन्थों का आपने सुन्दर सम्पादन किया। आचार्य सिद्धसेन के "सन्मतिसूत्र" का भी सुन्दर संस्करण आपने प्रस्तुत किया, जो बम्बई से प्रकाशित हुआ। प्राच्य विद्याओं के क्षेत्र में आपका मौलिक एवं अभूतपूर्व योगदान रहा है । डॉ० हीरालाल जैन और सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थ धवला, जयधवला आदि का सम्पादन व अनुवाद कर उसे जनसुलभ बनाया । अपभ्रंश ग्रन्थों को प्रकाश में लाने का श्रेय डॉ० हीरालाल जैन, पी० एल० वैद्य, डॉ० हरिवल्लभ चुन्नीलाल भायाणी, पं० परमानन्द शास्त्री, डॉ० राजाराम जैन, डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन और डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री को है।' प० परमानन्द जैन शास्त्री के “जैन ग्रन्थ प्रशस्ति-संग्रह" के पूर्व तक अपभ्रंश की लगभग २५ रचनाओं का पता चलता था, किन्तु उनके प्रशस्ति-संग्रह प्रकाशित होने से १२६ रचनाएँ प्रकाश में आ गई । लेखक ने "अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ" में अपभ्रंश के अज्ञात एवं अप्रकाशित ग्रन्थों के अंश उद्धृत कर लगभग चार सौ अपभ्रश के ग्रन्थों को प्रकाशित कर दिया है। जिन अज्ञात व अप्रकाशित रचनाओं को पुस्तक में सम्मिलित नहीं किया गया, उनमें से कुछ नाम हैं (१) शीतलनाथकथा (श्री दि० जैन मन्दिर, घियामंडी, मथुरा), (२) रविवासरकथा-मध् (श्री दि० जैन मन्दिर, कामा), (३) आदित्यवारकथा-अर्जुन (श्री दि० जैन पंचायती मन्दिर, दिल्ली)। इनके अतिरिक्त ईडर व नागौर के जैन भण्डारों में पाई जाने वाली महत्त्वपूर्ण अपभ्रंश रचनाओं की भी जानकारी मिली है। उन सब को सम्मिलित करके आज अपभ्रंश-साहित्य की छोटी-बड़ी सभी रचनाओं को मिलाकर उसकी संख्या पांच सौ तक पहुंच गई है। शोध व अनुसन्धान की दिशाओं में आज एक बहुत बड़ा क्षेत्र विद्वानों का राह जोह रहा है। शोध-कार्य की कमी नहीं है, श्रमपूर्वक कार्य करने वाले विद्वानों की कमी है। विगत तीन दशकों में जहाँ प्राकृत व्याकरणों के कई संस्करण प्रकाशित हुए, वहीं रिचर्ड पिशेल, सिल्वालेवी और डॉ. कीथ के अन्तनिरीक्षण के परिणामस्वरूप संस्कृत के नाटकों में प्राकृत का महत्वपूर्ण योग प्रस्थापित हुआ। आर० श्मित ने शौरसेनी प्राकृत के सम्बन्ध में उसके नियमों का (एलीमेन्टरबुख देर शौरसेनी, हनोवर. १९२४), जार्ज ग्रियर्सन ने पैशाची प्राकृत का, डॉ. जेकोबी तथा आल्सडोर्फ ने महाराष्ट्री तथा जैन महाराट्री का और डब्ल्यू. ई० क्लार्क ने मागधी और अर्द्धमागधी का एवं ए. बनर्जी और शास्त्री ने मागधी का (द एवोल्युशन आव मागधी, आक्सफोर्ड, १९१२) विशेष अध्ययन प्रस्तुत किया था। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से नित्ति डोल्ची का विद्वत्तापूर्ण कार्य “लेस -.0 १. प्राकृत स्टडीज आउटसाइड इण्डिया (१९२०-६६) शीर्षक लेख एस० डी० लद्द , प्रोसीडिास आव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना युनिवर्सिटी, १९७०, पृ० २०६ २. डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री : अपभ्रंग भाषा और साहित्य की शोधप्रवृत्तियाँ, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन १९७२; तथा - द्रष्टव्य हैडॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री : भाषाशास्त्र तथा हिन्दी भाषा की रूप-रेखा, विश्व विद्यालय प्रकाशन, वाराणसी। Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपन श साहित्य-परम्परा ४८५ .................................................. . . ... . .. .... अमेरियन्स प्राकृत्स" (पेरिस, १९३८) प्रायः सभी भाषिक अंगों पर प्रकाश डालने वाला है। नित्ति डोल्ची ने पुरुषोत्तम के "प्राकृतानुशासन" पेरिस, १९३८) तथा रामशर्मन् तर्कवागीश के "प्राकृतकल्पतरु" (पेरिस, १९३९) का सुन्दर संस्करण तैयार कर फ्रांसीसी अनुवाद सहित प्रकाशित कराया। व्याकरण की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण कार्य रिचर्ड पिशेल का "ग्रेमेटिक देअर प्राकृत-श्प्राखन" अद्भुत माना जाता है, जिसका प्रकाशन १६०० ई० में स्ट्रासबर्ग से हुआ। ___ इधर भाषाविज्ञान की कई नवीन प्रवृत्तियों का जन्म तथा विकास हुआ। परिणामतः भाषाशास्त्र के विभिन्न आयामों का प्रकाशन हुआ। उनमें ध्वनिविज्ञान. पदविज्ञान, वाक्यविज्ञान तथा शब्द व्युत्पत्ति व शब्दकोशी अध्ययन प्रमुख कहे जाते हैं । ध्वनिविज्ञान विषयक अध्ययन करने वालों में "मिडिल-इण्डो-आर्यन" के उपसर्ग, प्रत्यय, ध्वनि. विषयक पद्धति तथा भाषिक उच्चारों आदि का विश्लेषण किया गया। इस प्रकार के अध्ययन करने वालों में प्रमुख रूप से आर० एल० टर्नर, एल. ए० स्वाजर्स चाइल्ड, जार्ज एस० लेन, के० आर० नार्मन के नाम लिए जा सकते हैं। एल० आल्सडोर्फ ने नव्य भारती आर्य-भाषाओं के उद्गम पर बहुअ अच्छा अध्ययन किया जो रूप-रचना विषयक है । लुइप एज० ग्रे ने ‘आब्जर्वेशन्स आन मिडिल इण्डियन मार्कोलाजी” (बुलेटिन स्कूल आव् ओरियन्टल स्टडीज, लन्दन, जिल्द ८, पृ० ५६३-७७, सन् १९३५-३७) में संस्कृत व वैदिक संस्कृत के रूप-सादृश्यों को ध्यान में रखकर उनकी समानता व कार्यों का विश्लेषण किया है । इस भाषावैज्ञानिक शाखा पर कार्य करने वाले उल्लेखनीय विद्वानों व भाषाशास्त्रियों के नाम हैं-ज्यूल ब्लास एडजर्टन, ए० स्वार्स चाइल्ड, के० आर० नार्मन, एस. एन. घोषाल, डा० के० डी० बीस ।। __ वाक्य-विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन करने वाले विद्वानों में मुख्य रूप से डॉ० के० डी० वीस, एच० हेन्द्रिक सेन, पिसानी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । इस अध्ययन के परिणामस्वरूप कई महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आए । एच० हेन्द्रिकसेन ने अपने एक लेख “ए सिन्टेक्टिक रूल इन पाली एण्ड अर्द्ध मागधी" के प्रयोग की वृद्धिंगत पाँच अवस्थाओं का उद्घाटन किया है । के० अमृतराव, डॉ. के. डी. वीस, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी, कुइपर आदि ने प्राकृत पर पर द्रविड़ तथा अन्य आर्येतर भाषाओं के प्रभाव का अध्ययन किया। भाषाकोशीय तथा व्युत्पत्तिमूलक अध्ययन की दृष्टि से डब्ल्यू० एन० ब्राउन का अध्ययन महत्त्वपूर्ण माना जाता है जिन्होंने संस्कृत, प्राकृत-महाराष्ट्री प्राकृत और अपभ्रंश के सम्बन्ध में सन् १९३२ में कोशीय टिप्पणियाँ लिखी थीं और १९३५-३७ ई० में “गौरीशंकर ओझा स्मृतिग्रन्थ” में “सम लेक्सिकल मेटरियल इन जैन महाराष्ट्री प्राकृत" निबन्ध में वीरदेवगणि ने के 'महीपालचरित" से शब्दकोशीय विवरण प्रस्तुत किया था । ग्रे ने अपने शोधपूर्ण निबन्ध में जो कि "फिप्टीन प्राकृत-इण्डो-युरोपियन एटिमोलाजीज” शीर्षक से जर्नल आव् द अमेरिकन ओरियन्टल सोसायटी (६०, ३६१-६९) में सन् १९४० में प्रकाशित हुआ था । अपने इस निबन्ध में ग्रे महोदय ने यह प्रमाणित करने का प्रयत्न किया था कि प्राकृत के कुछ शब्द यारोपीय परिवार के विदेशी शब्द हैं । कोल, जे० ब्लाख, आर० एल० टर्नर, गुस्तेव राथ, कुइपर, के० आर० नार्मन, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी आदि भाषा-वैज्ञानिकों ने शब्द-व्युत्पत्ति की दृष्टि से पर्याप्त अनुशीलन किया । वाकरनागल ने प्राकृत के शब्द का व्युत्पत्ति की दृष्टि से अच्छा अध्ययन किया। इसी प्रकार संस्कृत पर प्राकृत का प्रभाव दर्शाने वाले निबन्ध भी समय-समय पर प्रकाशित होते रहे । उनमें से गाइगर स्मृति-ग्रन्थ में प्रकाशित एच० ओरटेल का निबन्ध "प्राकृतिसिज्म इन छान्दोग्योपनिषद्” (लिपजिग, १६३१) तथा ए० सी० वूलनर के "प्राकृत एण्ड नान-आर्यन स्ट्रेटा इन द वाकेबुलरी आव संस्कृत" (आशुतोष मेमोरियल १. प्रोसीडिंग्स आव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना युनिवर्सिटी, १६७०, पृ० २२३. २. वही, पृ० २३. Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड वाल्युम, पटना, १९२८),जे० ब्लाख के कई निबन्ध और एमेन्यु के निबन्ध "द डायलेक्ट्स आव इण्डो-आर्यन," "सम क्लियर एवीडेन्स आव प्राकृतिसिज्म इन पाणिनि" महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। इनके अतिरिक्त प्राकृत भाषा के उच्चारण आदि के सम्बन्ध में तथा ध्वन्यात्मक दृष्टि से डॉ. ग्रियर्सन, स्वार्स चाइल्ड तथा एमेन्यु आदि का अध्ययन-विश्लेषण आज भी महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश करने वाला है। इस प्रकार भाषा-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं तथा उनके विविध प्रवृत्तियों के मूलगत स्वरूप के अध्ययन की दृष्टि से भी मध्यभारतीय आर्यभाषाओं और विशेषकर प्राकृत-अपभ्रंश भाषाओं का आज भी विशेष अध्ययन विशेष रूप से उपयोगी एवं भाषा-भाषिक संसार में कई नवीन तथ्यों को प्रकट करने वाला है। इस दृष्टि से इन भाषाओं का बहुत कम अध्ययन हुआ है। इतना अवश्य है कि यह दिशा आज भी शोध व अनुसन्धान की दृष्टि से समृद्ध तथा नवीन आयामों को उद्घाटित कर सकती है। काश ! हमारी युवा पीढ़ी इस ओर उन्मुख होकर विशेष श्रम तथा अनुशीलन करे, तो सांस्कृतिक अध्ययन के भी नवीन क्षितिजों को पार कर स्वणिम विहान लाया जा सकता है। १. प्रोसीडिंग्स आव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना युनिवर्सिटी, १९७०, पृ० २२५-२६. Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य डॉ० हरिवल्लभ चुन्नीलाल भायाणी, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद (गुजरात) अपभ्रंश साहित्य में कृष्ण विषयक रचनाओं का स्वरूप इयत्ता प्रकार और महत्व कैसा था यह समझने के लिए सबसे पहले उस साहित्य से सम्बन्धित कुछ सर्वसाधारण और प्रास्ताविक तथ्यों पर लक्ष्य देना आवश्यक होगा । समय की दृष्टि से अपभ्रंश साहित्य छठवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक पनपा और बाद में भी उसका प्रवाह क्षीण होता हुआ भी चार सौ पाँच सौ वर्ष तक बहता रहा । इतने दीर्घ समयपट पर फैले की हमारी जानकारी कई कारणों से अत्यन्त त्रुटित है । हुए साहित्य पहली बात तो यह कि नवीं शताब्दी के पूर्व की एक भी अपभ्रंश कृति अब तक हमें हस्तगत नहीं हुई है । तीन सौ साल का प्रारम्भिक कालखण्ड सारा का सारा अन्धकार से आवृत सा है और बाद के समय में भी दसवीं शताब्दी तक की कृतियों में से बहुत स्वल्प संख्या उपलब्ध है । दूसरा यह कि अपभ्रंश की कई एक लाक्षणिक साहित्यिक विधाओं की ठीक उत्तरकालीन है। ऐसी पूर्वकालीन कृतियों के नाममात्र से भी हम वंचित हैं। चित्र काफी घुंधला और कई स्थलों पर तो बिल्कुल कोरा है । +0+0+0+0+8 1 तीसरा यह कि अपभ्रंश का बचा हुआ साहित्य अधिकतर धार्मिक साहित्य है और वह भी स्वल्प अपवादों के सिवा केवल जैन साहित्य है जनेतर हिन्दू एवं बौद्ध साहित्य की और शुद्ध साहित्य की केवल दो-तीन रचनाएँ मिली हैं । इस तरह प्राप्त अपभ्रंश साहित्य जैन प्राय है और इस बात का श्रेय जैनियों की ग्रन्थ- सुरक्षा की व्यवस्थित पद्धति को देना चाहिए। मगर ऐसी परिस्थिति के फलस्वरूप अपभ्रंश साहित्य का चित्र और भी खण्डित एवं एकांगी बनता है । - इस सिलसिले में एक और अधिक बात का भी निर्देश उसमें से भी बहुत छोटा अंश अब तक प्रकाशित हो सकता है। में होने से असुलभ है। एकाध ही कृति बची है और वह भी इससे अपभ्रंश के प्राचीन साहित्य करना होगा। जो कुछ अपभ्रंश साहित्य बच गया है। बहुत सी कृतियां भाण्डारों में हस्त प्रतियों के ही रूप इन सबके कारण अपभ्रंश साहित्य के कोई एकाध अंग या पहलू का भी वृत्तान्त तैयार करने में अनेक कठि -नाइयाँ सामने आती हैं और फलस्वरूप वह वृत्तान्त अपूर्ण एवं त्रुटक रूप में ही प्रस्तुत किया जा सकता है । यह तो हुई सर्वसाधारण अपभ्रंश साहित्य की बात । किन्तु यहाँ हमारा सीधा नाता कृष्णकाव्यों के साथ है । - अतः हम उसकी बात लेकर चलें । भारतीय साहित्य के इतिहास की दृष्टि से जो अपभ्रंश का उत्कर्षकाल है वही है कृष्णकाव्य का मध्याह्नकाल । संस्कृत एवं प्राकृत में इसी कालखण्ड में पौराणिक और काव्यसाहित्य की अनेकानेक कृष्णविषयक रचनाएँ हुई। हरिवंश विष्णुपुराण, भागवतपुराण आदि की कृष्णकथाओं ने तत्कालीन साहित्य रचनाओं के लिए एक अक्षय मूलस्रोत " का काम किया है। विषय, शैली आदि की दृष्टि से अपन साहित्य पर संस्कृत आकृत साहित्य का प्रभाव महरा एवं . Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 ४८८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड लगातार रहा था। अतः अपभ्रंश साहित्य में भी कृष्णविषयक रचनाओं की दीर्घ और व्यापक परम्परा का स्थापित होना अत्यन्त सहज था । किन्तु उपरिवर्णित परिस्थिति के कारण हमें न तो प्राप्त है अपभ्रंश का एक भी शुद्ध कृष्णकाव्य, और न हमें प्राप्त है एक भी जैनेतर कृष्णकाव्य । जैन परम्परा की जो रचनाएँ मिलती हैं वे भी बहुत कर के अन्य बृहत् पौराणिक रचनाओं के एकदेश के रूप में मिलती हैं। इतना ही नहीं उनमें से अधिकांश कृतियों अब तक अप्रकाशित हैं । इसका अर्थ यह नहीं होता कि अपभ्रंश का उक्त कृष्णसाहित्य काव्य गुणों से वंचित है । फिर भी इतना तो अवश्य है कि कृष्णकथा जैन साहित्य का अंश रहने से तज्जन्य मर्यादाओं से वह बाधित है । जैन कृष्णकथा का स्वरूप वैदिक परम्परा की तरह जैन परम्परा में भी कृष्णचरित्र पुराणकथाओं का ही एक अंश था। जैन कृष्णचरित्र वैदिक परम्परा के कृष्णचरित्र का ही सम्प्रदायानुकूल रूपान्तर था । यही परिस्थिति रामकथा आदि कई अन्य पुराणकथाओं के बारे में भी है। जैन परम्परा इतर परम्परा के मान्य कथास्वरूप में व्यावहारिक दृष्टि से एवं तर्क बुद्धि की दृष्टि से असंगतियाँ बताकर उसे मिथ्या कहती है और उससे भिन्न स्वरूप की कथा जिसे वह सही समझती है उसको वह प्रस्तुत करती है । तथापि जहाँ-जहाँ तक सभी मुख्य पात्रों का, मुख्य घटनाओं का और उनके क्रमादि का सम्बन्ध है वहाँ सर्वत्र जैन परम्परा ने हिन्दू परम्परा का ही अनुसरण किया है । जैन कृष्णकथा में भी मुख्य-मुख्य प्रसंग, उनके क्रम एवं पात्र के स्वरूप आदि दीर्घकालीन परम्परा से नियत थे । अतः जहाँ तक कथानक का सम्बन्ध है जैन कृष्णकथा पर आधारित विभिन्न कृतियों में परिवर्तनों के लिए स्वल्प अवकाश रहता था । फिर भी कुछ छोटी-मोटी तफसीलों के विषय में, कार्यों के प्रवृत्ति नियमों के विषय में एवं निरूपण की इयत्ता के विषय में एक कृति और दूसरी कृति के बीच पर्याप्त मात्रा में अन्तर रहता था। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा के कृष्णचरित्रों की भी अपनी-अपनी विशिष्टताएँ हैं । और उनमें से कोई एक रूपान्तर के अनुसरणकर्ताओं में भी आपस में कुछ भिन्नता देखी जाती है। मूल कथानक को कुछ विषयों में सम्प्रदायानुकूल करने के लिए कोई सर्वमान्य प्रणालिका के अभाव में जैन रचनाकारों ने अपने-अपने मार्ग लिये हैं । जैन कृष्णचरित्र के अनुसार कृष्ण न तो कोई दिव्य पुरुष थे, न तो ईश्वर के अवतार या 'भगवान स्वयं' । वे मानव ही थे हालांकि एक असामान्य शक्तिशाली वीरपुरुष एवं सम्राट थे। जैन पुराणकथा के अनुसार प्रस्तुत कालखण्ड में तिरसठ महापुरुष या समारुष हो गए। चौवीस तीर्थकर, बारह वर्ती, नो वासुदेव (या नारायण), नौ बलदेव और नौ प्रतिबासुदेव वासुदेवों की समृद्धि, सामर्थ्य एवं पदवी पतियों से आधी होती थी। प्रत्येक वासुदेव तीन खण्ड पर शासन चलाता था । वह अपने प्रतिवासुदेव का युद्ध में संहार करके वासुदेवत्व प्राप्त करता था और इस कार्य में प्रत्येक बलदेव उसका साहाय्य करता था। राम, लक्ष्मण और रावण क्रमशः आठवें बलदेव, वासुदेव ओर प्रतिवासुदेव थे। नवीं त्रिपुटी थी कृष्ण, बलराम और जरासन्ध । तिरसठ महापुरुषों के चरित्रों को ग्रथित करने वाली रचनाओं को 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र' या त्रिषष्टिमहींपुरुषपरित्र' ऐसा नाम दिया जाता था जब नी प्रतिवासुदेवों की गिनती नहीं की जाती थी तब ऐसी रचना 'चतुष्पंचाशत्महापुरुषचरित्र' कहलाती थी । दिगम्बर परम्परा में उनको 'महापुराण' भी कहा जाता था । महापुराण में दो भाग होते थे आदिपुराण और उत्तरपुराण आदिपुराण में प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती के चरित्र दिये जाते थे । उत्तरपुराण में शेष महापुरुषों के चरित्र । सभी महापुरुषों के परित्रों का निरूपण करने वाली ऐसी रचनाओं के अलावा कोई एक तीर्थकर, वासुदेव आदि के चरित्र को लेकर भी रची जाती थीं । ऐसी रचनाएँ 'पुराण' नाम से ख्यात थीं । वासुदेव का चरित्र तीर्थकर अरिष्टनेमि के चरित्र के साथ संलग्न था उनके चरित्रों को लेकर की गयी रचनाएँ 'हरिवंश' या 'अरिष्टनेमिपुराण' के नाम से ज्ञात हैं। Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य ४८ जहाँ कृष्ण वासुदेव और बलराम की कथा स्वतन्त्र रूप से प्राप्त है वहाँ भी वह एकाधिक कथाओं के संलग्न तो रहती थी हो । जैन कृष्णकथा नियम से ही अल्पाधिक मात्रा में अन्य तीन-चार विभिन्न कथासूत्रों के साथ गुम्फित रहती थी। एक कथासूत्र होता था कृष्णपिता वसुदेव के परिभ्रमण की कथा, दूसरा, बाईसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि का चरित्र तीसरा कथासूत्र होता था पाण्डवों का चरित्र । इनके अतिरिक्त मुख्य-मुख्य पात्रों के भवान्तरों की कथाएँ भी दी जाती थीं । वसुदेव ने एक सौ बरस तक विविध देशों में परिभ्रमण कर के अनेकानेक मानव और विद्याधर कन्याएँ प्राप्त की थीं— उसकी रसिक कथा 'वसुदेवहण्डिी' के नाम से जैन परम्परा में प्रचलित थी । वास्तव में वह गुणाढ्य की लुप्त 'बृहत्कथा' का ही जैन-रूपान्तर था । कृष्णकथा के प्रारम्भ में वसुदेव का वर्णन और चरित्र आता है। वहीं पर वसुदेव की परिभ्रमणकथा भी छोटे-मोटे रूप में दी जाती थी। अरिष्टनेमि कृष्ण वासुदेव के चचेरे भाई थे । बाईसवें तीर्थंकर होने से उनका चरित्र जैनधर्मयों के लिए सर्वाधिक महत्त्व रखता है। अतः अनेक बार कृष्णचरित्र नेमिचरित्र के एकदेश के रूप में मिलता है। इनके अलावा पाण्डवों के साथ एवं पाण्डव- कौरव युद्ध के साथ कृष्ण का घनिष्ठ सम्बन्ध होने से कृष्ण के उत्तरचरित्र के साथ महाभारत की कथा भी ग्रथित होती थी। फलस्वरूप ऐसी रचनाओं का 'जैन महाभारत' ऐसा भी एक नाम प्रचलित था । इस प्रकार सामान्यत: जिस अंश को प्राधान्य दिया गया हो उसके अनुसार कृष्णचरित्र विषयक रचनाओं को 'अरिष्टनेमिचरित्र' (या नेमिपुराण), 'हरिवंश', 'पाण्डवपुराण', 'जैन महाभारत आदि नाम दिये जाते थे किन्तु इस विषय में सर्वत्र एकवाक्यता नहीं है । अमुक विशिष्ट अंश को समान प्राधान्य देने वाली कृतियों के भिन्नभिन्न नाम भी मिलते हैं। जैसे कि आरम्भ में सूचित किया था, जैन पुराणकथाओं का स्वरूप पर्याप्त मात्रा में रूढ़िवद्ध एवं परम्परानियत था। दूसरी ओर अपभ्रंश कृतियों में भी विषय वस्तु आदि में संस्कृत प्राकृत की पूर्वप्रचलित रचनाओं का अनुसरण होता था । इसलिए यहाँ पर अपभ्रंश कृष्णकाव्य का विवरण एवं आलोचना प्रस्तुत करने के पहले जैन परम्परा से मान्य कृष्णकथा की एक सर्वसाधारण रूपरेखा प्रस्तुत करना आवश्यक होगा । इससे उत्तरवर्ती आलोचना आदि के लिए आवश्यक सन्दर्भ सुलभ हो जायेगा | नीचे दो गयी रूपरेखा सन् ७८४ में रचित दिगम्बराचार्य जिनसेन के संस्कृत 'हरिवंशपुराण' के मुख्यतः ३३, ३४, ३५, ३६, ४० और ४६ इन सर्गों पर आधारित है । श्वेताम्बरचार्य हेमचन्द्र के सन् १९६५ के करीब रचे हुए संस्कृत 'त्रिषष्टिशलाका-पुरुषचरित्र, के आठवें पर्व में भी सविस्तार कृष्णचरित्र है । जिनसेन के वृत्तान्त से हेमचन्द्र का वृतान्त कुछ भेद रखता है । कुछ महत्त्व की विभिन्नताएँ पाद-टिप्पणियों में सूचित की गयी है । ( 'हरिवंशपुराण' का संकेत - हपु. और 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' का संकेत 'त्रिपष्टि' रखा है) कृष्णचरित्र अत्यन्त विस्तृत होने से यहाँ पर उसकी सर्वागीण समालोचना करना सम्भव नहीं है। जैन कृष्णचरित्र के स्पष्ट रूप से दो भाग किये जा सकते हैं। कृष्ण और यादवों के द्वारावती प्रवेश तक एक भाग और शेष चरित्र का दूसरा भाग पूर्वभाग में कृष्ण जितने केन्द्रवर्ती है उतने उत्तरभाग में नहीं है । इसलिए निम्न रूपरेखा पूर्वकृष्णचरित्र तक सीमित की गयी है । जैन कृष्णकथा की रूपरेखा राजा हुआ । उसके नाम से हरिवंश में, जो कि हरिराजा से शुरू हुआ था, कालक्रम से मथुरा में यदु नामक उसके वंशज यादव कहलाए। यदु का पुत्र नरपति हुआ और नरपति के पुत्र शूर और सुवीर । सुवीर को मथुरा का राज्य देकर शूर ने कुच देश में फौर्मपुर बताया। शूर के अन्धकवृष्णि आदि पुत्र हुए और मुवीर के भोजकवृष्णि आदि । अन्धकवृष्णि के दश पुत्र हुए उनमें सबसे बड़ा समुद्रविजय और सबसे छोटा वसुदेव था । ये सब दशार्ह नाम से ख्यात हुए । कुन्ती और माद्री ये दो अन्धकवृष्णि की पुत्रियाँ थीं । भोजकवृष्णि के उग्रसेन आदि पुत्र थे । क्रम से शौर्यपुर के सिहासन पर समुद्रविजय और मथुरा के सिहासन पर उग्रसेन आरूढ़ हुए । अतिशय सौन्दर्य युक्त वसुदेव से मन्त्रमुग्ध होकर नगर की स्त्रियाँ अपने घरबार की उपेक्षा करने लगीं । नागरिकों की शिकायत से समुद्रविजय ने युक्तिपूर्वक वसुदेव के घर से बाहर निकलने पर नियन्त्रण लगा दिया । वसुदेव को एक दिन आकस्मात् इसका पता लग गया। उसने प्रच्छन्न रूप से नगर छोड़ दिया। जाते-जाते . Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .. .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-...................... उसने लोगों में ऐसी बात फैलाई कि वसुदेव ने अग्निप्रवेश करके आत्महत्या कर ली। बाद में वह कई देशों में भ्रमण करके और मानव-कन्याएँ एवं विद्याधर-कन्याएँ प्राप्त करके एक सौ वर्ष के बाद अरिष्टपुर की राजकुमारी रोहिणी के स्वयंवर में आ पहुँचा । रोहिणी ने उसका वरण किया। वहाँ आए समुद्र विजय आदि बन्धुओं के साथ उसका पुनर्मिलन हुआ। वसुदेव को रोहिणी से राम नामक पुत्र हुआ । कुछ समय के बाद वह शौर्यपुर में वापिस आ गया और वहीं धनुर्वेद का आचार्य बनकर रहा । मगधराज जरासन्ध ने घोषणा कर दी कि जो सिंहपुर के राजा सिंहरथ को जीवित पकड कर उसे सौंपेगा उसको अपनी कुमारी जीवयशा एवं मनपसन्द एक नगर दिया जाएगा। बसूदेव ने यह कार्य उठा लिया । संग्राम में सिहरथ को वसुदेव के कंस नामक एक प्रिय शिष्य ने पकड़ लिया । अपनी प्रतिज्ञा के अनसार जीवयशा देने के पहले जरासन्ध ने जब अज्ञातकुल कंस के कुल की जाँच की तब ज्ञात हुआ कि वह उग्रसेन का ही पुत्र था। जब वह गर्भ में था तब उसकी जननी को पतिमांस खाने का दोहद हुआ था। पुत्र पितृघातक होगा इस भय से जननी ने जन्मते ही पुत्र को एक कांसे की पेटी में रखकर यमुना में बहा दिया था। एक कलालिन ने पेटी में से बालक को निकालकर अपने पास रख लिया था। कंस नामक यह बालक जब बड़ा हुआ तब उसकी उग्र कलहप्रियता के कारण कलालिन ने उसको घर से निकाल दिया था। तब से धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त करता हुआ वसुदेव के पास ही रहता था और उसका बहुत प्रीतिपात्र बन गया था। इसी समय कंस ने भी पहली बार अपना सही वृत्तान्त जाना तो उसने पिता से अपने वैर का बदला लेने के लिए जरासन्ध से मथुरा नगर मांग लिया । वहाँ जाकर उसने अपने पिता उग्रसेन को परास्त किया और उसको बंदी बनाकर दुर्ग के द्वार के समीप रख दिया । कंस ने वसुदेव को मथुरा बुला लिया और गुरुदक्षिणा के रूप में अपनी बहन देवकी उसको दी। देवकी के विवाहोत्सव में जीवयशा ने अतिमुक्त मुनि का अपराध किया। फलस्वरूप मुनि ने भविष्यकथन के रूप में कहा कि जिसके विवाह में मस्त होकर नाच रही है । उसके पुत्र से ही तेरे पति का एवं पिता का विनाश होगा। भयभीत जीवयशा से यह बात जानकर कंस ने वसुदेव को इस वचन से प्रतिबद्ध कर दिया कि प्रत्येक प्रसति के पर्व देवकी को जाकर कंस के आवास में ठहरना होगा। बाद में कंस का मलिन आशय ज्ञात होने पर वसूदेव ने जाकर अतिमुक्तक मुनि से जान लिया कि प्रथम छह पुत्र चरमशरीरी होंगे इसलिए उनकी अपमृत्यु नहीं होगी और सातवाँ पुत्र वासुदेव बनेगा और वह कंस का घातक होगा। इसके बाद देवकी ने तीन बार युगलपुत्रों को जन्म दिया। प्रत्येक बार इन्द्राज्ञा से नैमग देव ने उनको उठाकर भद्रिलनगर के सुदृष्टि श्रेष्ठी की पत्नी अलका के पास रख दिया और अलका के मृतपुत्रों को देवकी के पास रख दिया । इस बात से अज्ञात प्रत्येक बार कंस इन मृतपुत्रों को पछाड कर समझता था कि मैंने देवकी के पुत्रों को मार डाला। देवकी के सातवें पुत्र कृष्ण का जन्म सात मास के गर्भवास के बाद भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को रात्रि के समय हआ। बलराम नवजात शिशु को उठाकर घर से बाहर निकल गया । घनघोर वर्षा से उसकी रक्षा करने के लिए वसुदेव उस पर छत्र धर कर चलता था ।५ नगर के द्वार कृष्ण के चरण-स्पर्श से खुल गए। उसी समय कृष्ण को १. दीक्षा लेने के पूर्व अतिमुक्तक कंस का छोटा भाई था । हपु० के अनुसार जीवयशा ने हँसते-हँसते अतिमुक्त मुनि के सामने देवकी का रजोमलिन बस्त्र प्रदर्शित करके उनकी आशातना की। त्रिषग्टि० के अनुसार मदिरा के प्रभाववश जीवयशा ने अतिमुक्त मुनि को गले लगकर अपने साथ नृत्य करने को निमन्त्रित किया। २. त्रिषष्टि के अनुसार जन्मते ही शिशु अपने को सौंप देने का वचन कंस ने वसुदेव से लिया। ३. त्रिषष्टि० में सेठ-सेठानी के नाम नाग और सुलसा हैं। ४. त्रिषष्टि के अनुसार कृष्णजन्म की तिथि और समय भाद्रपद कृष्णाष्टमी और मध्यरात्रि है। ५. त्रिषष्टि० के अनुसार देवकी के परामर्श से वसुदेव कृष्ण को गोकुल ले चला । इसमें कृष्ण पर छत्र धरने का कार्य उनके रक्षक देवता करते हैं। त्रिषष्टि के अनुसार देवता आठ दीपिकाओं से मार्ग को प्रकाशित करते थे और उन्हीं ने श्वेत वृषभ का रूप धर कर नगरद्वार खोल दिए थे। Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य में कृष्णकाव्य ४६१ छींक आ गई। यह सुनकर वहीं बन्धन में रखे हुए उग्रसेन ने आशिष्य का उच्चारण किया। वसुदेव ने उसको यह रहस्य गुप्त रखने को कहा । कृष्ण को लेकर वसुदेव और बलराम नगर से बाहर निकल गये । देदीप्यमान श्रृंगधारी देवी वृषभ उनको मार्ग दिखाता उनके आगे-आगे दौड़ रहा था। यमुना नदी का महाप्रवाह कृष्ण के प्रभाव से विभक्त हो गया। नदी पार करके वसुदेव वृन्दावन पहुँचा और वहाँ पर गोष्ठ में बसे हुए अपने विश्वस्त सेवक नन्दगोप और उसकी पत्नी यशोदा को कृष्ण सौंपा। उनकी नवजात कन्या अपने साथ लेकर वसुदेव और बलराम वापस आए । कांस प्रसूति की खबर पाते ही दौड़ता आया । कन्या जानकर उसकी हत्या तो नहीं की फिर भी उसके भावी पति की ओर से भय होने की आशंका से उसने उसकी नाक को दबा कर चिपटा कर दिया । गोप-गोपी के लाड़ले कृष्ण ब्रज में वृद्धि पाने लगे । कंस के ज्योतिषी ने बताया कि तुम्हारा शत्रु कहीं पर बड़ा हो रहा है। कंस ने अपनी सहायक देवियों को आदेश दिया कि वे शत्रु को ढूंढ निकालें और उसका नाश करें। इस आदेश से एक देवी ने भीषण पक्षी का रूप रखकर कृष्ण पर आक्रमण किया । कृष्ण ने उसकी चोंच जोर से दबाई तो वह भाग गई। दूसरी देवी पूतानभूत का रूप लेकर अपने विषलिप्त रतन से कृष्ण को स्तनपान कराने लगी । तब देवों ने कृष्ण के मुख में अतिशय बल रखा। इससे पूतना का स्तनाग्र इतना दब गया कि वह भी चिल्लाती भाग गई। तीसरी शकटरूपधारी पिशाची जब धावा मारती आई तब कृष्ण ने लात लगाकर शकट को तोड़ डाला । कृष्ण के बहुत ऊधमों से तंग आकर यशोदा ने एक बार उनको ऊखली के साथ बाँध दिया। उस समय दो देवियाँ यमलार्जुन का रूप धरकर कृष्ण को मारने आईं। कृष्ण ने दोनों को गिरा दिया। छठवीं वृषभरूप धारी देवी की गरदन मोड़कर उसको भगाया और सातवीं देवी जब कठोर पाषाण वर्षा करने लगी तब कृष्ण ने गोवर्धन गिरि ऊँचा उठाकर सारे गोकुल की रक्षा की के कृष्ण के पराक्रमों की बात सुनकर उनको देखने के लिए देवकी बलराम को साथ लेकर गोपूजन को निमित्त बनाकर गोकुल आई और गोपवेश में कृष्ण को निहारकर आनन्दित हुई और मथुरा वापस आई । बलराम प्रतिदिन कृष्ण को धनुविद्या और अन्य कलाओं की शिक्षा देने लिए मथुरा से आता था । ३ बालकृष्ण गोपकन्याओं के साथ रास खेलते थे कृष्ण स्वयं निर्विकार थे। लोग कृष्ण की उपस्थिति में अनुभव करते थे। 1 गोपकन्याएँ कृष्ण के स्पर्श के लिए उत्सुक रहती थीं, किन्तु अत्यन्त सुख का और उनके वियोग में अत्यन्त दुःख का एक बार शंकित होकर कंस स्वयं कृष्ण को देखने को गोकुल आया । यशोदा ने पहले से ही कृष्ण को दूर वन में कहीं भेज दिया। वहाँ पर भी कृष्ण ने ताडवी नामक पिशाची को मार भगाया एवं मण्डप बनाने के लिए शाम की लकड़ी के अत्यन्त भारी स्तम्भों को अकेले ही उठाया। इससे कृष्ण के सामर्थ्य के विषय में यशोदा निःशंक हो गई और कृष्ण को वापिस लौटा लिया। +36 मथुरा वापिस आकर कंस ने शत्रु का पता लगाने के लिए ज्योतिषी के कहने पर ऐसी घोषणा कर दी कि जो मेरे पास रखी गई सिहवाहिनी नागणय्या पर आरूढ़ हो सके, अजितजय धनुष को चढ़ा सके एवं पांचजन्य शंख १. त्रिषष्टि० के अनुसार ये प्रारम्भ के उपद्रव कंस की ओर से नहीं, अपितु वसुदेव के वैरी शूर्पक विद्याधर की ओर से आए थे । विद्याधर- पुत्री शकुनी शकट के ऊपर बैठकर नीचे रहे कृष्ण को दबाकर मारने का प्रयास करती है और पूतना नामक दूसरी कृष्ण को विषलिप्त स्तन पिलाती है । कृष्ण के रक्षक देवता दोनों का नाश करते हैं। २. त्रिषष्टि० के अनुसार बालकृष्ण कहीं चला न जाय इसलिए उनको ऊखली के साथ बाँधकर यशोदा कहीं बाहर गई । तब शुर्पक ने पुत्र ने यमलार्जुन बनकर कृष्ण को दबाकर मारना चाहा किन्तु देवताओं ने उसका नाश किया । त्रिपटि में गोवर्धनधारण की बात नहीं है। ३. त्रिषष्टि० के अनुसार कृष्ण के पराक्रमों की बात फैलने से वसुदेव ने कृष्ण की सुरक्षा के लिए बलराम को भी नन्द-यशोदा को सौंप दिया। उससे कृष्ण ने विद्या- कलाएँ सीखीं । . Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४६२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .......................................................................... को फूंक सके उसको अपनी मनमानी चीज प्रदान की जाएगी। अनेक राजा ये कार्य सिद्ध करने में निष्फल हुए । एक बार जीवयशा का भाई भानु कृष्ण का बल देखकर उनको मथुरा ले गया और वहाँ कृष्ण ने तीनों पराक्रम सिद्ध किए।' इससे कंस की शंका प्रबल हो गई। किन्तु बलराम ने शीघ्र ही कृष्ण को ब्रज भेज दिया। कृष्ण का विनाश करने के लिए कंस ने गोप लोगों को आदेश दिया कि यमुना के ह्रद में से कमल लाकर भेंट करे । इस हृद में भयंकर कालियनाग रहता था। कृष्ण ने हद में प्रवेश करके कालिय का मर्दन किया और वे कमल लेकर बाहर आए। जब कंस को कमल भेंट किये गये तब उसने नन्द के पुत्र के सहित सभी गोपकुमारों को मल्लयुद्ध के लिए उपस्थित होने का आदेश दिया । अपने बहुत से मल्लों को उसने युद्ध के लिए तैयार रखा। कंस का मलिन आशय जान कर वसुदेव ने भी मिलन के निमित्त से अपने नव भाइयों को मथुरा में बुला लिया । बलराम गोकुल गये और कृष्ण को अपने सही माता-पिता, कुल आदि घटनाओं से परिचित किया। इससे हृष्ट होकर कृष्ण कंस का संहार करने को उत्सुक हो उठे। दोनों भाई मल्ल वेश धारण करके मथुरा की ओर चले । मार्ग में कस से अनुरक्त तीन असुरों ने क्रमश: नाग के, गधे के और अश्व के रूप में उनको रोकने का प्रयास किया। कृष्ण ने तीनों का नाश कर दिया। मथुरा के नगरद्वार पर कृष्ण और बलराम जब आ पहुँचे तब इनके ऊपर कंस के आदेश से चम्पक और पादाभर नामक दो मदमत्त हाथी छोड़े गये । बलराम ने चम्पक को और कृष्ण ने पादाभर को दन्त उखाड़ कर मार डाला। नगरप्रवेश करके वे अखाड़े में आये। बलराम ने इशारे से कृष्ण को वसुदेव, अन्य दशाह, कंस आदि की पहचान कराई। कंस ने चाणूर और मुष्टिक इन दो प्रचण्ड मल्लों को कृष्ण के सामने भेजा । किन्तु कृष्ण में एक सहस्र सिंह का और बलराम में एक सहस्र हाथी का बल था। कृष्ण ने चाणूर को भींच कर मार डाला और बलराम ने मुष्टिक के प्राण मुष्टिप्रहार से हर लिए। इतने में स्वयं कंस तीक्ष्ण खड्ग लेकर कृष्ण के सामने आया । कृष्ण ने खड्ग छीन लिया । कंस को पृथ्वी पर पटक दिया । उसे पैरों से पकड़ कर पत्थर पर पछाड़ कर मार डाला। और एक प्रचण्ड अट्टहास किया । आक्रमण करने को खड़ी हुई कंस की सेना को बलराम ने मंच का खम्भा उखाड़ कर प्रहार करके भगा दिया। कृष्ण पिता और स्वजनों से मिले। उग्रसेन को बन्धनमुक्त किया और उसको मथुरा के १. त्रिषष्टि के अनुसार जो शारंग मनुष्य चढ़ा सके उसको अपनी बहन सत्यभामा देने की घोषणा कंस ने की और इस कार्य के लिए कृष्ण को मथुरा ले जाने वाला कृष्ण का ही सौतेला भाई अनाधृष्टि था। त्रिषष्टि० में कालियमर्दन का और कमल लाने के प्रसंग कंस की मल्लयुद्ध घोषणा के बाद आते हैं। त्रिषष्टि० के अनुसार कंस गोपों को मल्लयुद्ध के लिए आने का कोई आदेश नहीं भेजता है। उसने जो मल्लयुद्ध के उत्सव का प्रबन्ध किया था उसमें सम्मिलित होने के लिए कृष्ण और बलराम कौतुकवश स्वेच्छा से जाते हैं। जाने के पहले जब कृष्ण स्नान के लिए यमुना में प्रवेश करते हैं तब कंस का मित्र कालिय डसने को आता है। तब कृष्ण उसको नाथ कर उस पर आरूढ़ होकर उसे खूब धुमाते हैं और निर्जीव सा करके छोड़ देते हैं। ३. त्रिषष्टि० में सर्पशय्या पर आरोहण और कालियमर्दन इन पराक्रमों के पहले जबकि कृष्ण ग्यारह साल के थे तब ये पराक्रम करने की बात है। त्रिषष्टि के अनुसार कृष्ण की कसौटी के लिए ज्योतिषी के कहने पर कंस अरिष्ट नामक वृषभ को, केशी नामक अश्व को, एक खर को और एक मेष को कृष्ण की ओर भेजता है। इन सबको कृष्ण मार डालते हैं । ज्योतिषी ने कंस को कहा था कि जो इनको मारेगा वही कालिय का मर्दन करेगा, मल्लों का नाश करेगा और कंस का भी घात करेगा। ४. त्रिषष्टि० में 'पादाभर' के स्थान पर 'पद्मोत्तर' ऐसा नाम है। . ५. त्रिषिष्ट० के अनुसार प्रथम कंस कृष्ण और बलराम को मार डालने का अपने सैनिकों को आदेश देता है। तब कृष्ण कूद कर मंच पर पहुँचते हैं और केशों से खींच कर कंस को पटकते हैं। बाद में चरणप्रहार से उसका सिर कुचल कर उसको मण्डप के बाहर फेंक देते हैं। Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य में कृष्णाव्य सिंहासन पर फिर से बैठाया। जीवयशा जरासन्ध के पास जा पहुँची । कृष्ण ने विद्याध कुमारी सत्यभामा' के साथ और बलराम ने रेवती के साथ विवाह किया । ४६३ कंसवध का बदला लेने के लिए जरासन्ध ने अपने पुत्र कालयवन को बड़ी सेना के साथ भेजा । सत्रह बार यादवों के साथ युद्ध करके अन्त में वह मारा गया । तत्पश्चात् जरासन्ध का भाई अपराजित तीन सौ छियालिस बार युद्ध करके कृष्ण के बाणों मारा गया। तब प्रचण्ड सेना लेकर स्वयं जरासन्ध ने मथुरा की ओर प्रयाण किया । इसके भय से अठारह कोटि यादव मथुरा छोड़ कर पश्चिम दिशा की ओर चल पड़े। जरासन्ध ने उनका पीछा किया। विन्ध्याचल के पास जब जरासन्ध आया तब कृष्ण की सहायक देवियों ने अनेक चिताएँ रचीं और वृद्धा के रूप लेकर उन्होंने जरासन्ध को समझा दिया कि उसके डर से भागते हुए यादव कहीं शरण न पाने से सभी जलकर मर गए । इस बात को सही मानकर जरासन्ध वापिस लौटा। जब यादव समुद्र के निकट पहुँचे तब कृष्ण और बलराम की तपश्चर्या से प्रभावित इन्द्र ने गौतम देव को भेजा। उसने समुद्र को दूर हटाया । वहाँ पर समुद्रविजय के पुत्र एवं भावी तीर्थंकर नेमिनाथ की भक्ति से प्रेरित कुबेर ने द्वारका नगरी का निर्माण किया । उसने बारह योजन लम्बी और नव योजन चौड़ी इस वज्रमय कोट से युक्त नगरी में सभी के लिए योग्य आवास बनाए और को अनेक दिव्य शस्त्रास्त्र, रथ आदि में भेंट किए। कृष्ण यहाँ पर पूर्व-कृष्णचरित्र समाप्त होता है। उत्तर-कृष्णचरित्र के मुख्यतः निम्न विषय थे : रुक्मिणीहरण, साम्ब प्रम्न उत्पत्ति, जाम्बवतीपरिणय, कुरुवंशोत्पत्ति, द्रौपदीलाभ, कीचकवध, प्रद्युम्नसमागम, शाम्बविवाह, जरासन्ध के साथ युद्ध एवं पाण्डव-कौरव युद्ध, कृष्ण का विजयोत्सव, द्रौपदीहरण, दक्षिणमथुरा-स्थापना, मिनियम, केवलज्ञानप्राप्ति, धर्मोपदेश, बिहार, द्वारावतीविनाश, कृष्ण की मृत्यु, बलराम की तपश्चर्या, पाण्डवों की प्रव्रज्या और नेमिनिर्वाण । भिन्न-भिन्न अपभ्रंश कृतियों में उपर्युक्त रूपरेखा से कतिपय बातों में अन्तर पाया जाता है । यथाप्रसंग उनका निर्देश किया जायगा । अब हम कृष्ण विषयक विभिन्न अपभ्रंश रचनाओं का परिचय करें । अपभ्रंश साहित्य में अनेक कवियों की कृष्णविषयक रचनाएँ हैं। जैन कवियों में नेमिनाथ का चरित्र अत्यन्त रूढ़ और प्रिय विषय था और कृष्णचरित्र उसी का एक अंश होने से अपभ्रंश में कृष्णकाव्यों की कोई कमी नहीं है । यहां पर एक सामान्य परिचय देने की दृष्टि से कुछ प्रमुख अपभ्रंश कवियों की कृष्णविषयक रचनाओं का विवेचन और कुछ विशिष्ट अंश प्रस्तुत किया जाता है। इनमें स्वयम्भू पुष्पदन्त, हरिभद्र और धवल की रचनाएँ समाविष्ट हैं । पुष्पदन्त की कृति के सिवा सभी कृतियाँ अभी अप्रकाशित हैं । हस्तप्रतियों के आधार पर उनका अल्पाधिक परिचय यहाँ पर दिया जा रहा है । स्वयम्भू के पूर्व नवीं शताब्दी के अपभ्रं महाकवि स्वयम्भू के पूर्व की कृष्णविषयक अपभ्रंश रचनाओं के बारे में हमारे पास जो ज्ञातव्य है वह अत्यन्त स्वल्प और त्रुटक है। उसके लिए जो आधार मिलते हैं वे ये हैं- स्वयम्भूकृत छन्दोग्रन्थ 'स्वयम्भूच्छन्द' में दिए गए कुछ उद्धरण और नाम; भोजकृत 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में प्राप्त एकाच उद्धरण, हेमचन्द्रकृत १. त्रिषष्टि० के अनुसार सत्यभामा कंस की बहन थी । २. त्रिषष्टि० के अनुसार पहले जरासन्ध समुद्रविजय पर कृष्ण और बलराम को उसको सौंप देने का आदेश भेजता है । समुद्रविजय इस आदेश का तिरस्कार करता है । बाद में ज्योतिषी की सलाह से यादव मथुरा छोड़कर चल देते है । जरासन्ध का पुत्र काल यादवों को मारने की प्रतिज्ञा करके अपने भाई यवन और सहदेव को साथ लेकर यादवों का पीछा करता है । रक्षक देवियों द्वारा दिए गए यादवों के अग्निप्रवेश के समाचार सही मानकर वहं प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए स्वयं अग्निप्रवेश करता है। . Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड Dr -. - - -.-.-.-. -.-.-.-.-.-.-...............-.-.-. -.-.-.-.-.-.-.-.-.. .- 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' के अपभ्रंश विभाग में दिए गए तीन उद्धरण और कुछ अपभ्रंश कृतियों में किया हुआ कुछ कवियों का नामनिर्देश। स्वयम्भू के पुरोगामियों में चतुर्मुख स्वयम्भू के ही समान समर्थ महाकवि था और सम्भवत: वह जैनेतर था। उसने एक रामायणविषयक और एक महाभारतविषयक ऐसे कम से कम दो अपभ्रंश महाकाव्यों की रचना की थी-यह मानने के लिए हमारे पास पर्याप्त आधार हैं।' उसके महाभारत-विषयक काव्य में कृष्णचरित्र का भी कुछ अंश होना अनिवार्य था । कृष्ण के निर्देश वाले दो-तीन उद्धरण ऐसे हैं जिनको हम अनुमान से चतुर्मुख की कृतियों में से लिए हुए मान सकते हैं। किन्तु इससे हम चतुर्मुख की काव्यशक्ति का थोड़ा सा भी संकेत पाने में नितान्त असमर्थ हैं। ___ चतुर्मुख के सिवा स्वयम्भू का एक और ख्यातनाम पूर्ववर्ती था। उसका नाम था गोविन्द । स्वयम्भूच्छन्द में दिये गये उसके उद्धरण हमारे लिए अमूल्य हैं। गोविन्द के जो छह छन्द दिए गये हैं वे कृष्ण के बालचरितविषयक किसी काव्य में से लिए हुए जान पड़ते हैं। गोविन्द का नामनिर्देश अपभ्रंश की मूर्धन्य कवित्रिपुटी चतुर्मुख, स्वयम्भू और पुष्पदन्त के निर्देश के साथ-साथ चौदहवीं शताब्दी तक होता रहा है। चौदहवीं शताब्दी के कवि धनपाल ने जो श्वेताम्बर कवीन्द्र गोविन्द को सनत्कुमारचरित का कर्ता बताया है वह और स्वयम्भू से निर्दिष्ट कवि गोविन्द दोनों का अभिन्न होना पूरा सम्भव है। स्वयम्भू द्वारा उद्धृत किये हुए गोविन्द के छन्द उसके हरिवंशविषयक या नेमिनाथ विषयक काव्य में से लिए हुए जान पड़ते हैं । अनुमान है कि इस पूरे काव्य की रचना केवल रड्डा नामक द्विभंगी छन्द में हुई होगी । और सम्भवत: उसी काव्य से प्रेरणा और निदर्शन प्राप्त करने के बाद हरिभद्र ने रड्डा छन्द में ही अपने अपभ्रंश काव्य 'नेमिनाथचरित' की रचना की थी। 'स्वयम्भूच्छन्द' में उद्धत गोविन्द के सभी छन्द यद्यपि मात्रिक हैं तथापि ये मूल में रड्डाओं के पूर्वघटक के रूप में रहे होंगे, ऐसा जान पड़ता है। यह अनुमान हम हरिभद्र के 'नेमिनाथचरित' का आधार लेकर लगा सकते हैं एवं हेमचन्द्र के 'सिद्धहेम' के कुछ अपभ्रश उद्धरणों में से भी हम कुछ संकेत निकाल सकते हैं। 'स्वयम्भूच्छन्द' में गोविन्द के लिए गए मत्तविलासिनी नामक मात्रा छन्द का उदाहरण जैन परम्परा के कृष्णबालचरित्र का एक सुप्रसिद्ध प्रसंग विषयक है। यह प्रसंग है कालियनाग के निवासस्थान बने हुए कालिन्दी ह्रद से कमल निकाल कर भेंट करने का आदेश जो नन्द को कंस से दिया गया था। पद्य इस प्रकार है एहू विसमउ सुछ आएसु माणंतिउ माणुसहो दिट्ठीविसु सप्पु कालियउ । कंसु वि मारेई धुउ कहिं गम्मउ काइं किज्जउ ॥ (स्वच्छ० ४-१०-१) 'यह आदेश अतीव विषम था । एक ओर था मनुष्य के लिए प्राणघातक दृष्टिविष कालिय सर्प और दूसरी ओर था (आदेश के अनादर से) कंस से अवश्य प्राप्तव्य मृत्युदण्ड-तो अब कहाँ जाएँ और क्या करें। गोविन्द का दूसरा पद्य जो मत्तकरिणी मात्रा छन्द में रचा हुआ है राधा की ओर कृष्ण का प्रेमातिरेक प्रकट करता है। हेमचन्द्र के 'सिद्धहेम' में भी यह उद्धत हुआ है (देखो ८-४-४२२, ५) और वहीं कुछ अंश में प्राचीनतर पाठ १. विशेष के लिए देखिए इस व्याख्याता का लेख-Chaturmukha, one of the earliest Apabhramsa epic Poets', Journal of the Oriental Institute, Baroda, ग्रन्थ ७, अंक ३, मार्च १९५८, पृ० २१४-२२४ । स्वयम्भूच्छन्द ६-७५-१ में कृष्ण के आगमन के समाचार से आश्वस्त होकर मथुरा के पौरजनों ने धवल ध्वज फहराए और इस तरह अपना हृदयभाव व्यक्त किया ऐसा अभिप्राय है। ६-१२२०-१ में कृप, कर्ण, और कलिंगराज को एवं अन्य सुभटों को पराजित करके अर्जुन कृष्ण को अयद्रथ का पता पूछता है, ऐसा अभिप्राय है। इनके अलावा ३-८-१ और ६-३५-१ में अर्जुन का निर्देश तो है, उसके साथ कई अन्य का भी उल्लेख है, किन्तु कृष्ण का नहीं। और मुख्य बात तो यह है कि ये चतुर्मुख के ही मानने के लिए कोई निश्चित आधार नहीं है। Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रश साहित्य में कृष्णकाव्य ४६५ . ............................................ . . ...... . . ... . . .... सुरक्षित है। इसके अतिरिक्त 'सिद्धहेम'(८-४-४२०, २) में जो दोहा उद्धृत है वह भी मेरी समझ में बहुत करके गोविन्द के ही उसी काव्य के ऐसे ही सन्दर्भ में रहे हुए किसी छन्द का उत्तरांश है। 'स्वयम्भूच्छन्द' में दिया गया गोविन्दकृत वह दूसरा छन्द इस प्रकार है (कुछ अंश हेमचन्द्र वाले पाठ से लिया गया है ; टिप्पणी में पाठान्तर दिए गए हैं) एक्कमेक्कउ' जइ वि जोएदि । हरि सुठु वि आअरेग तो वि देहि जहि कहिं वि राही। को सक्कइ संवरेवि दड्ढ णयण हे पलुट्टा ॥ (स्वच्छ० ४-१०-२) "एक-एक गोपी की ओर हरि यद्यपि पूरे आदर से देख रहे हैं तथापि उनकी दृष्टि वहीं जाती है जहाँ कहीं "राधा होती है । स्नेह से झुके हुए नयनों का संवरण कौन कर सकता है भला?" इसी भाव से संलग्न 'सिद्धहेम' में उद्धत दोहा इस प्रकार है हरि नच्चाविउ अंगणइ विम्हइ पाडिउ लोउ । एवंहिं राह-पओहराहं जं भावइ तं होउ ॥ 'हरि को अपने घर के प्रांगण में नचा कर राधा ने लोगों को विस्मय में डाल दिया। अब तो राधा के पयोधरों का जो होना हो सो हो ।' स्वम्भूच्छन्द' में उद्धृत बहुरूपा मात्रा के उदाहरण में कृष्णविरह में तड़पती हुई गोपी का वर्णन है। पद्य इस प्रकार है देइ पाली थणहं पन्भारे तोडेप्पिणु पालिणिदलु हरिविओअसंतावें तत्ती। फलु अण्णुहि पावियउ करउ दइअ जं किपि रुच्चइ ।। (स्वच्छ ० ४-११-१) 'कृष्णवियोग के सन्तान से तप्त गोपी उन्नत स्तनप्रदेश पर नलिनीदल तोड़कर रखती है। उस मुग्धा ने अपनी करनी का फल पाया। अब दैव चाहे सो करे।' हेमचन्द्र के 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र' ८-५ में किया गया वर्णन इससे तुलनीय है-गोपियों के गीत के साथ बालकृष्ण नृत्य करते थे और बलराम ताल बजाते थे। मानो इससे ही संलग्न हो ऐसा मत्तबालिका मात्रा का उदाहरण है कमलकुमुआण एक्क उप्पत्ति ससि तो वि कुमुआअरहं देह सोक्खु कमलहं दिवाअरु । पाविज्जइ अवस फलु जेण जस्स पासे ठवेइउ ॥ (स्वच्छ० ४-६-१) 'कमल और कुमुद दोनों का प्रभवस्थान एक ही होते हुए भी कुमुदों के लिए चन्द्र एवं कमलों के लिए सूर्य सुखदाता है । जिसने जिसके पास धरोहर रखी हो उसको उसी से अपने कर्मफल प्राप्त होते हैं।' ___ मत्तमधुकरी प्रकार की मात्रा का उदाहरण सम्भवत: देवकी कृष्ण को देखने को आई उसी समय के गोकुल वर्णन से सम्बन्धित है । मूल और अनुवाद इस प्रकार है ठामठामहि घाससंतुट्ठ रतिहि परिसंठिआ रोमथएवसचलिअगंडआ। दीसहि धवलुज्जला जोव्हाणिहाणा इव गोहणा ॥ (स्वच्छ० ४-५-५) पाठान्तर : १. सव्व गोविउ, २. जोएइ, ३. सुठ्ठ सव्वायरेण, ४. देइ दिट्ठि, ५. डड्ढ ६. नयणा, ७. नेहि ८. पलोट्टउ १. रहीम के प्रसिद्ध दोहे का भाव यहाँ पर तुलनीय है जल में बसे कमोदनी चंदा बसे अकास । जो जाहिं को भावता सो ताहिं के पास ॥ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .... . .................................................................. 'स्थान-स्थान पर रात्रि में विश्रान्ति के लिए ठहरे हुए और जुगाली में जबड़े हिलाते हुए गोधन दिखाई देते हैं—मानो ज्योत्स्ना के धवलोज्ज्वल पुज ।' इन पद्यों से गोविन्द कवि की अभिव्यक्ति की सहजता का तथा उसकी प्रकृतिचित्रण और भावचित्रण की शक्ति का हमें थोड़ा सा परिचय मिल जाता है। यह उल्लेखनीय है कि बाद के बालकृष्ण की क्रीड़ाओं के जैन कवियों के वर्णन में कहीं गोपियों के विरह की तथा राधा सम्बन्धित प्रणयचेष्टा की बात नहीं है। दूसरी बात यह है कि मात्रा या रड्डा जैसा जटिल छन्द भी दीर्घ कथात्मक वस्तु के निरूपण के लिए कितना सुगेय एवं लयबद्ध हो सकता है यह बात गोविन्द ने अपने सफल प्रयोगों से सिद्ध की। आगे चलकर हरिभद्र से इसी का समर्थन किया जाएगा। और छोटी रचनाओं में तो रड्डा का प्रचलन सोलहवीं शताब्दी तक रहा।' स्वयम्भू नवीं शताब्दी के महाकवि स्वयम्भू के दो अपभ्रंश महाकाव्यों में से एक था 'हरिवंशपुराण' या 'अरिष्टनेमिचरित्र' ('रिट्ठणेमिचरिउ') । यह सभी उपलब्ध कृतियों में प्राचीनतम अपभ्रंश कृष्णकाव्य है। अठारह सहस्र श्लोक जितने बृहत विस्तारयुक्त इस महाकाव्य के ११२ सन्धियों में से ६६ सन्धि स्वयम्भू विरचित हैं। शेष का कर्तृत्व स्वयम्भू के पुत्र त्रिभुवन का और पन्द्रह्वीं शताब्दी के यश:कीति भट्टारक का है। हरिवंश के चार काण्ड इस प्रकार हैं-यादवकाण्ड (१३ सन्धियाँ), कुरुकाण्ड (१६ सन्धियाँ), युद्धकाण्ड (६० सन्धियाँ), उत्तरकाण्ड (२० सन्धियाँ)। कृष्णजन्म से लेकर द्वारावती स्थापन तक का वृत्तान्त यादवकाण्ड के चार से लेकर आठ सन्धियों तक चलता है। स्वयम्भू ने कुछ अंशों में जिनसेन वाले कथानक का तो अन्यत्र वैदिक परम्परा वाले कथानक का अनुसरण किया है। कृष्णजन्म का प्रसंग स्वयम्भू ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है (सन्धि ४, कडवक १२) भाद्रपद शुक्ल द्वादशी के दिन स्वजनों के अभिमान को प्रज्वलित करते हुए असुरविमर्दन जनार्दन का (मानों कंस के मस्तक शूल का) जन्म हुआ। जो सौ सिंहों के पराक्रम से युक्त और अतुलबल थे, जिनका वक्षःस्थल श्रीवत्स से लांछित था, जो शुभ लक्षणों से अलंकृत एवं एक सौ साठ नामों से युक्त थे और जो अपनी देह प्रभा से आवास को उज्ज्वल करते थे उन मधुमथन को वसुदेव को उठाया। बलदेव ने ऊपर छत्र रखते हुए उनकी बरसात से रक्षा की। नारायण के चरणांगुष्ठ की टक्कर से प्रतोली के द्वार खुल गए। दीपक को धारण किये हुए एक वृषभ उनके आगे-आगे चलता था। उनके आते ही यमुनाजल दो भागों में विभक्त हो गया। हरि यशोदा को सौंपे गए। उसकी पुत्री को बदले में लेकर हलधर और वसुदेव कृतार्थ हुए । गोपबालिका लाकर उन्होंने कंस को दे दी। मगर विन्ध्याचल का अधिप यक्ष उसको विन्ध्य में ले गया। १. 'सिद्धहेम' ८-४-३६१ इस प्रकार है इत्तउं ब्रोप्पिणु सउणि ट्ठिउ पुणु दूसासणु ब्रोप्पि । तो हउं जाणउं एहो हरि जइ महु अग्गइ ब्रोप्पि ।। इतना कहकर शकुनि रह गया । और बाद में दुःशासन ने यह कहा कि मेरे सामने आकर जब बोले तब मैं जानूं कि यही हरि है । इसमें अर्थ की कुछ अस्पष्टता होते हुए भी इतनी बात स्पष्ट है कि प्रसंग कृष्णविष्टि का है । यह पद्य भी शायद गोविन्द की वैसी अन्य कोई महाभारत विषयक रचना में से लिया गया है। २. मल्लवेश में मथुरा पहुँचने पर मार्ग में कृष्ण धोबी को लूट लेते हैं और सैरन्ध्री से विलेपन बलजोरी से लेकर गोपसखाओं में बाँट देते हैं । दो प्रसंग हिन्दू परम्परा की ही कृष्णकथा में प्राप्त होते हैं और ये स्वयम्भू में भी हैं। - Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य में रामकथा डॉ देवेन्द्रकुमार जैन, शान्ति निवास, ११४, उषा नगर, इन्दौर (म० प्र०) अपभ्रंश रामकाव्य परम्परा वस्तुतः जैन राम-काव्य परम्परा है जो परम्परागत जैनकाव्य परम्परा से प्रभावित है। जैन सस्कृत साहित्य में रामकथा की दो धाराएँ हैं-एक रविषेण रामकथा की धारा और दूसरी आचार्य गुणभद्र की धारा। ऐतिहासिक दृष्टि से विमलसूरि की रामकथा (परिमचरिउ) पुरानी है, परन्तु अपभ्रंश कवि जो (जो प्रमुखतः दिगम्बर जैन हैं) उसका उल्लेख नहीं करते। अपभ्रंश में इन धाराओं के प्रथम प्रतिनिधि कवि हैं स्वयंभू और पुष्पदंत । रामकथा पर लिखित काव्य-परम्परा के आदि कवि वाल्मीकि हैं, विमलसरि (प्राकृत), रविषेण (संस्कृत) और स्वयंभू (अपभ्रंश) की रामकथा, मोटेतौर पर वाल्मीकि की कथा का अनसरण करती हैं। दूसरी धारा के कवि भी कुछ प्रसंगों और पात्रों के विषय में वाल्मीकि रामायण से अनुप्राणित हैं। इस प्रकार उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर आदि रामायण-रामकाव्य और कथा का पहला लिखित स्रोत है। जब जैनकवि गौतम गणधर से परमत प्रसिद्ध (वस्तुतः लोकप्रिय) रामकथा की तुलना में जैनमत की रामकथा का स्वरूप पूछते हैं, तो परमत की रामकथा से उनका अभिप्राय वाल्मीकि की रामकथा से ही होता है। अपभ्रंश में, स्वयंभू और पुष्पदंत-रामकथा की दोनों धाराओं के प्रथम प्रवर्तक और प्रसिद्ध कवि हैं, उनके बाद दूसरे कवियों ने भी रचनाएँ की हैं, परन्तु भाषा और समय की दृष्टि से इन दोनों कवियों की रचनाओं का विशेष महत्त्व है, अतः यहाँ मुख्य रूप से उन्हीं के रामकथा-काव्यों विश्लेषण करना उचित है। अपनी रामकथा का स्रोत बताते हुए स्वयंभू कहते हैं कि महावीर भगवान् के मुखरूपी पर्वत से प्रवहमान इस कथारूपी नदी को सबसे पहले गणधरों ने देखा, बाद में आचार्य इन्द्रभूति से लेकर अनुत्तरवाग्मी कीर्तिधर ने उसमें अवागहन किया। आचार्य रविषेण (संस्कृत पद्मचरित के रचयिता) के प्रसाद से मैंने भी अपनी बुद्धि से इसका अवगाहन किया। स्वयंभू की यह परम्परा रविषेण की परम्परा से मिलती है, क्योंकि उन्होंने इन्द्रभूति के बाद धारणी के पुत्र सुधर्मा और अनुत्तरवाग्मी कीर्तिधर का उल्लेख किया है (पद्मचरित, पर्व १, श्लोक ४०-४२)। पउमचरिउ के अनुसार राजा श्रेणिक गौतम गणधर से कहते हैं कि दूसरे मतों में राघव की कथा उल्टी सुनी जाती है, बताइये वह जिनमत में किस प्रकार पायी जाती है । पुष्पदंत के महापुराण में रामकथा के प्रसंग पर भी श्रेणिक यह प्रश्न उठाता है गौतम पोमचरितु भुवणि पवित्तु पयासहि । जिह सिद्धत्थ सुएण दिट्ठउं तिहि महु भासहि ।। हे गौतम ! विश्व में प्रसिद्ध पद्मचरित्र का प्रकाशन कीजिए, जिस रूप में सिद्धार्थपुत्र (महावीर) ने उसे देखा है, उस रूप में मुझ बताइये। इस प्रकार रामकथा भिन्न-भिन्न होते हए भी दोनों कवियों के रामकथा का काव्य सृजन का उद्देश्य समान है और यह कि परमत में प्रसिद्ध रामकथा के विपरीत, जिनमत में प्रसिद्ध रामकथा का निरूपण करना । प्रश्न Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन अन्य : पंचम खण्ड - -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. है कि क्या समान स्रोत से निकलने वाली एक कथा, एक ही मत में मूल रूप से भिन्न हो सकती है ? यदि नहीं तो, प्रश्न है कि क्या कवियों का यह दावा झूठा माना जाये कि उनका स्रोत समान है ? यदि एक ही स्रोत से विकसित कथा भिन्न हो सकती है, तो किसे सही माना जाये, और किसे • लत ? दूसरों के मत में प्रसिद्ध रामकथा का खण्डन करने के पहले, यह आवश्यक है कि जिनमत की वास्तविक रामकथा का स्वरूप निर्धारित किया जाये ? चरणानुयोग के नाम पर जो कुछ जैन पुराणसाहित्य लिखित है, उसका मूलस्रोत महावीर के मुखरूपी पर्वत से निकली वाणी से जोड़ा जाता है। इसका इतना ही अर्थ है कि मूलकथा का स्रोत समान होते हुए भी उसमें देशकाल के अनुसार कुछ न कुछ जुड़ता रहा। यही उसके जीवन्त और प्रासंगिक होने की सबसे बड़ी शक्ति है । स्वयंभू का यह कथन महत्त्वपूर्ण और वास्तविकता को उजागर करने वाला है कि उन्होंने भी अपनी बुद्धि से रामकथा का अवगाहन किया। जिस प्रकार कोई नदी पर्वत से निकलकर जब बहती है, तो समुद्र में मिलने के पूर्व कई कोण और मोड़ बनाती है, उसी प्रकार एक समान स्रोत से निकलने पर भी रामकथा रूपी नदी, काल और परिस्थितियों के अनुरूप कई कोण और आकार ग्रहण करती है ? उद्गम के सत्य और गति के सत्य में अन्तर होगा ही। वाल्मीकि, विमलसूरि, रविषेण और स्वयंभू की रामकथा का मुख्य ढाँचा लगभग समान है, अवान्तर प्रसंगों, मान्यताओं और चरित्रों की अवतारणाओं में अन्तर हो सकता है। स्वयंभू की रामकथा अयोध्या से प्रारम्भ होती है। राजा दशरथ अयोध्या के राजा हैं और रावण लंका का। सागरबुद्धि निमित्तज्ञानी से यह जानकर कि दशरथ के पुत्रों द्वारा, जनक की पुत्री के कारण, रावण मारा जायेगा, विभीषण दोनों राजाओं के वध का षडयन्त्र रचता है। नारद मुनि यह खबर दशरथ और जनक को देते हैं। वे दोनों अपने पुतले स्थापित कर अपने नगरों से भाग जाते हैं । स्वयंवर में कैकेयी दशरथ के गले से वरमाला डालती है। दूसरे प्रतियोगी राजा उस पर हमला करते हैं। शत्रुओं का सामना करते समय कैकेयी दशरथ के रथ को हांकती है। जीतने पर दशरथ कैकेयी को वरदान देते हैं, जिन्हें वह सुरक्षित रखती है। पुतलों के सिर कटवाकर विभीषण समझता है कि खतरा टल गया। दशरथ अयोध्या वापस आ जाते हैं। चार रानियों से उनके चार पुत्र हैं, अपराजिता से राम, सुमित्रा से लक्ष्मण, कैकेयी से भरत, और सुप्रभा से शत्रुघ्न । राजा जनक की दो संतानें हैं-भामंडल और सीता। पुत्र का, पूर्वजन्म का दुश्मन अपहरण करके ले जाता है। एक बार राजा जनक भीलों और पुलिंदों से घिर जाते हैं। सहायता मांगने पर राम और लक्ष्मण जनक की रक्षा करते हैं। उनकी इच्छा है कि राम से सीता का विवाह कर दिया जाये परन्तु दबाव के कारण उन्हें स्वयंवर का आयोजन करना पड़ता है। सीता राम का वरण करती है । इस अवसर पर राजा शशिवर्धन अपनी १८ कन्याएँ लेकर उपस्थित होता है, जिनमें से आठ लक्ष्मण और शेष दस दूसरे भाइयों से विवाहित होती हैं । बुढ़ापा आने पर दशरथ राम को सत्ता सौंप कर जैन दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं, परन्तु कैकेयी भरत को राजा बनाने का प्रस्ताव करती है। पिता की आज्ञा पाकर, मना करने पर भी भरत के सिर पर राजपट्ट बांधकर राम वनवास के लिए चल पड़ते हैं। उनके साथ सीता और लक्ष्मण हैं । उनका पहला पड़ाव सिद्धवरकूट में होता है। भरत और कैकेयी उन्हें मनाने आते हैं, परन्तु राम उन्हें लौटाकर, आगे बढ़ते हैं। दण्डकवन में पहुँचने के पूर्व वे दशपुर (सिहोदर वज्रकर्ण) तापसवन, चित्रकूट, भिल्लराज रुद्रभक्ति, यक्ष द्वारा रामपुरी की स्थापना, सुघोषा वीणा की प्राप्ति, जीवन्त नगर, नद्यावर्त में विद्रोही अनंतवीर्य को भरत के अधीन बनाना, क्षेमंजलीनगर, देशभूषण-कुलभूषण मुनियों का उपसर्ग दूर करना, आहारदान, रत्नों की वर्षा, जटायु के सुनहले पंख होना, सीता का उसे अपने पास रखना, उसके पूर्वभव कथन -आदि प्रसंगों में से गुजरते हैं। दण्डकवन में उनकी यात्रा दूसरा मोड़ लेती है । घूमते हुए लक्ष्मण को बांसों के झुरमुट में चन्द्रहास खड्ग दिखायी देता है, उसे उठाकर वे झुरमुट पर प्रहार करते हैं। उसमें साधना करते हुए शंबूक के दो टुकड़े हो जाते हैं। उसकी माँ चन्द्रनखा (रावण की बहन) आगबबूला होकर लक्ष्मण के पास जाती है। परन्तु उनका रूप देखकर, वह मोहित हो उठती है। ठुकराई जाने पर वह खर दूषण को पुत्रवध की खबर देती है, वह रावण को पत्र लिखकर युद्ध करता है। रावण युद्ध के लिए आता है, परन्तु सीता का रूप देखकर लड़ना तो दूर उसके अपहरण की योजना Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य में राम-कथा ४६६ ................ ..................................... .. . ... . .... बनाता है। सिंहनाद के छल से सीता के अपहरण में सफल होता है। खर दूषण को मारने के बाद जब राम लक्ष्मण वापस लौटते हैं तो सीता को न पाकर भौचक्के रह जाते हैं। उन्हें मरणासन्न जटायु मिलता है। णमोकार मन्त्र सुनाकर वे उसकी मिट्टी ठिकाने लगाते हैं । सीता के वियोग में व्याकुल राम को जैन मुनि समझाते हैं, परन्तु उन पर कोई असर नहीं होता। राम की विराधित से भेंट होती है, जो उनका परिचय सुग्रीव से कराता है। राम सुग्रीव की सहायता करते हैं। वदले में वह सीता की खोज करता है। भामंडल के अनुचर रत्नकेशी से उसे सीता का पता चलता है। राम हनुमान की सहायता प्राप्त करते हैं। हनुमान लंका जाते हैं, जहाँ कई राक्षसों से भिड़त और लंकासुन्दरी से प्रणय के बाद वे विभीषण से मिलते हैं । जिस समय वह सीता के दर्शन करते हैं, उस समय वह मंदोदरी को जबाब दे रही थी। लोक मर्यादा और स्वाभिमान के कारण वह हनुमान के साथ नहीं जाती। रावण को फटकारने और उद्यान को उजाड़ने के बाद हनुमान वापस आकर सारा वृत्तान्त राम को सुनाते हैं। राम उन्हें पुनः दूत बनाकर भेजते हैं । अन्त में वे लंका पर चढ़ाई करते हैं । रावण मारा जाता है। उसका दाह-संस्कार कर, तथा शोकाकुल परिवार को समझाकर वे विभीषण को राजपाट देते हैं। अयोध्या वापस आने पर भरत जिनदीक्षा ग्रहण करता है । लोकापवाद के कारण राजा राम सीता का निर्वासन कर देते हैं। वज्रजंघ के आश्रय में सीता लव और कुश को जन्म देती है । दिग्विजय के सन्दर्भ में उनका राम लक्ष्मण से युद्ध होता है। पहचान होने पर राम उन्हें गले लगाते हैं। अग्नि परीक्षा के बाद राम के साथ रहने के बजाय सीता भागवती दीक्षा ग्रहण कर अन्त में मरकर १६वें स्वर्ग में जन्म लेती है। लक्ष्मण के निधन से संतप्त राम भी दीक्षा ले कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। ___ जहाँ तक पुष्पदंत की राम-कथा का सम्बन्ध है, वह उनके महापुराण का अंग है। उनकी राम-कथा, राम, लक्ष्मण, सीता के पूर्वभवों से प्रारम्भ होती है। पूर्वजन्म में रत्नपुर के राजा प्रजापति का पुत्र चन्द्रचूल श्रीदत्त की पत्नी का अपहरण करता है। आगे वही राम के रूप में जन्म लेता है। पुष्पदंत के अनुसार राम के जन्म के समय दशरथ काशी के राजा थे। किसी असुरराजा के द्वारा अयोध्या छीन लिए जाने पर दशरथ को काशी आगा पड़ा। सुबला से राम का और कैकेयी से लक्ष्मण का जन्म होता है। दूसरी दो रानियों से भरत और शत्रुघ्न जन्म लेते हैं। पशुयज्ञ के सिलसिले में राम और लक्ष्मण जनकपुरी जाते हैं। यज्ञ की रक्षा के फलस्वरूप जनक सीता का विवाह राम से कर देते हैं, इसके अलावा उन्हें सात कन्याएँ और प्राप्त होती हैं। सीता वस्तुत: जनक की असली कन्या नहीं है। वह रावण की कन्या है, अनिष्ट की आशंका से उसे विदेह में गड़वा दिया जाता है, जो एक किसान के माध्यम से जनक को प्राप्त होती है । अयोध्या लौटने पर, राम पिता की अनुमति प्राप्त 'काशीराज्य' पर कब्जा करने जाते हैं । लक्ष्मण, सीता उनके साथ हैं । काशी की जनता उनका पुरजोर स्वागत करती है। हाथी के उद्यान में जब राम और सीता बसंत क्रीड़ा कर रहे थे, तब नारद से प्रेरित होकर रावण सीता को पाने के लिए वहाँ पहुँचता है। पहले वह विद्याधरी चन्द्रनखा को फुसलाने के लिए भेजता है। जब विद्याधरी असफल लौटती है, तो रावण मारीच को स्वर्णमृग बनाकर उसके छल से सीता का अपहरण कर लेता है । लाख प्रतिरोधों के बावजूद, वह उन्हें लंका ले आता है। सीता खानापीना छोड़ देती है। सीता के अपहरण से राम दुखी हैं । स्वप्न देखकर सीता के अपहरण की बात दशरथ को मालूम हो जाती है, वे भरत और शत्रुघ्न को सहायता के लिए भेजते हैं । जनक भी आ जाते हैं । सुग्रीव भी सशर्त सहायता के लिए आता है। हनुमान भी वचन देता है। वह सीता की खोज में जाता है। पहचान की अंगूठी दिखाकर, सीता को सारा हाल बताता है। हनुमान को दुबारा दौत्य के लिए रावण के पास भेजा जाता है। अन्त में युद्ध होता है जिसमें रावण मारा जाता है। उसका दाह-संस्कार और विभीषण को सांत्वना देकर राम सीता को लेकर वापस आ जाते हैं। राम की आठ और लक्ष्मण को सोलह हजार रानियाँ थीं । अन्त में सीता जिनदीक्षा लेती है। दोनों कथाओं की तुलना से स्पष्ट है, समान स्रोत होते हुए-उनमें पर्याप्त और मूलभूत भिन्नता है। स्रोत की बात फिलहाल छोड़ दें, तो स्वयंभू की रामकथा की परम्परा स्पष्ट और प्रसिद्ध है। राम के जीवन को संघर्षमय और Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५०० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-. -. -.-.-.-. -.-... उदात्त बनाने वाली घटनाएं. (वनवास, सीता का निर्वासन) पुष्पदंत की रामकथा में नहीं है। सीता का अपहरण है, परन्तु वह सामंतवाद की सामान्य प्रवृत्ति है, जिसमें हर ताकतवर राजा किसी भी विवाहित, अविवाहित सुन्दरी को अपने भोग की चीज समझता है । लगता है पुष्पदंत का उद्देश्य राम लक्ष्मण का वर्णन, बलभद्र और वासुदेव के परम्परागत रूप में करना है, जिसमें तामझाम और अलंकरण है। स्वयंभू रामकथा का चयन मानवीय और सांस्कृतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति के लिए करते हैं । पुष्पदंत ने महापुराण के नाभेय चरिउ में सांस्कृतिक मूल्यों को अभिव्यक्ति दी हैं । इस बात से दोनों रामकथाओं के लेखक सहमत हैं कि राम और सीता जो कुछ दुःख झेलना पड़ा, वह पूर्वजन्म के कर्म के कारण । परन्तु उसमें उनकी सहमति का प्रश्न नहीं है क्योंकि यह तो कर्मदर्शन का सामान्य सिद्धान्त है। राम के पूर्वभवों का वर्णन स्वयंभू भी करते हैं जो सुनंदा से शुरू होता है, जिसे पिता सागरदत्त धनदत्त को देना चाहता है, जबकि माँ रत्नप्रभा श्रीकान्त को। उसका भाई वसुदेव धनदत्त पर हमला कर बैठता है, इस प्रकार कई जन्मान्तरों में राग-द्वेष की आग में झलसते रहने के बाद वे राम, लक्ष्मण और सीता के रूप में जन्म लेते हैं। यह दोनों को मान्य है कि कैकेयी ने दशरथ का वरण किया था। वर्तमान जीवन की तरह, पूर्वभवों का जीवन भी दोनों कथाओं में मेल नहीं खाता। यह नई बात है कि पुष्पदंत के अनुसार लक्ष्मण कैकेयी का बेटा है। उनकी कथा में भरत का चरित्र गौण भी नहीं है। हालांकि पुष्पदंत का प्रारम्भिक कथन है कि मैं राम और रावण के उस युद्ध का वर्णन करता हूँ जिसमें राम का यश, लक्ष्मण का पौरुष, सीता का सतीत्व, सीता का अपहरण, हनुमान का गुण विस्तार, कपटी सुग्रीव का मरण, लवण-समुद्र का संतरण, निशाचर वंश का नाश है तथा जो भक्ति से भरे हुए भरत के लिए नाना रसभावों का जनक है। पुष्पदन्त ने रामकथा प्रारम्भ करते समय, स्वयंभू और चतुर्मुख का नाम अत्यन्त आदर से लिया है, परन्तु वे उनकी कथा का अनुकरण नहीं करते । दोनों में रामकथा भविष्य कथन से जुड़ी हुई है। सीता का जन्म विवादास्पद है, आदि कवि उसे धरती की बेटी मानते हैं, संभवतः यह उसका प्रतीक नाम है। आखिर धरती की तरह उसने जीवन में क्या नहीं सहा ? दूसरे हिन्दू पुराण (महाभारत, हरिवंश आदि रामायण भी) उसे जनक की पुत्री मानते हैं। रविषेण और स्वयंभू का यही मत है। उत्तरपुराण, विष्णुपुराण, महाभागवत पुराण, कश्मीरी-तिब्बती रामायण और खोतानी रामायण में सीता रावण की पुत्री बताई गई है। दशरथ जातक (जावा) के राम, केलिंगमलय के सेरीराम के अनुसार सीता दशरथ की पुत्री है। अद्भुत रामायण के अनुसार दंडकारण्य के मुनि गृत्समद एक स्त्री की प्रार्थना पर, दूध को अभिमंत्रित कर घड़े में रखने लगे। एक दिन रावण ने उन पर विजय पाने के लिए मुनि के शरीर से तीरों से रक्त निकाल कर घड़ा भर लिया और वह उसे घर ले आया। मंदोदरी उसे पी लेती है, जिससे गर्भ रह जाता है । सीता का प्रसव होने पर वह विमान से जाकर कुरुक्षेत्र में गाड़ आती है, जो बाद में जनक को मिली। दशरथ जातक के अनुसार वाराणसी के राजा दशरथ के दो पुत्र राम पंडित और लक्ष्मण और पुत्री सीता थी। पहली रानी के मरने पर वह दूसरा विवाह करते हैं उससे भरत का जन्म हुआ। राजा ने उसे वर दे रखा था । वह भरत के लिए राज्य की मांग करती है, जब वह प्रतिदिन मांग करने लगी तो दशरथ ने राम लक्ष्मण और सीता को बारह वर्ष के लिए किसी दूसरे के राज्य में रहने के लिए कहा । जब वे हिमालय की तराई में रह रहे थे, तो नौ वर्ष में दशरथ का निधन हो गया (हालांकि भविष्यवाणी के अनुसार उन्हें १२ साल में मरना था)। भरत के अनुरोध करने पर भी रामपंडित १२ वर्ष बाद ही वापस आए। तीन वर्ष तक तृणपादुकाएँ रखकर राजकाज करते रहे। रामपंडित लौटकर सीता से विवाह करते हैं । १६ हजार वर्षों तक राज्य करने के बाद वे स्वर्ग जाते हैं। अन्त में बुद्ध कहते हैं कि उस समय शुद्धोदन दशरथ थे, महामाया (बुद्ध की माता) राम की माता, यशोधरा (सीता) और आनन्द भरत थे। मेरी दृष्टि में यह बुद्ध के जीवन की राम से संगति बैठाने के लिए गढ़ी गई कथा ज्ञात होती है, परन्तु इस कथा का सम्बन्ध वाराणसी से है। यह बात सही है कि प्रारम्भ में रामकथा सूत्र रूप में मिलती है जैसाकि प्राकृत में पहली बार रामकथा को काव्य ' Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य में रामकथा ५०१ ................... . -. -.-.-. -. का रूप (पउमचरिय) देने वाले विमलसूरि ने लिखा है कि आचार्य परम्परा से आगत नामावली के रूप में निबद्ध जितना भी पद्मचरित है, मैं उस सबको यथानुक्रम से कहता हूँ। णामावलियणिबद्ध आयरिय-परंपरागमं सव्वं । वोच्छामि पउमचरियं अहाणुपुग्विं समासेन उद्देश्य ॥ विमलसूरि को भी इसकी आवश्यकता तब पड़ी होगी, जब दूसरे मतों में उसने काव्य का आकार ग्रहण कर लिया होगा और वह धर्म प्रचार की लोकप्रिय विधा हो उठी होगी। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तरभारत में वाल्मीकि की रामकथा प्रचलित थी और दक्षिण भारत में उत्तरपुराण की । गुणभद्र के अनुकरण पर पुष्पदंत ने उसे सामंतवाद की पृष्ठभूमि पर जैनसिद्धान्तों के अनुरूप काव्य का रूप दिया। किसी भी पौराणिक आख्यान या घटना महत्त्व यही है कि वह समकालीन चेतना और लोक-विश्वासों के मेल से नए सृजन का रूप ग्रहण करने की क्षमता रखती है । अन्य दूसरे पौराणिक कवियों की तरह, जैनपुराण कवियों को भी अपने सृजन में इस बात के लिए संघर्ष करना पड़ा कि मूलस्रोत, परम्परा और नए समकालीन तथ्यों और प्रसंगों का सामंजस्य करते हुए वे अपने सृजन को नई भाषा में क्या आयाम दें ? 000 Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रश चरिउ काव्यों की भाषिक संरचनाएँ 0 डॉ० कृष्णकुमार शर्मा, रीडर, हिन्दी विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर अपभ्रंश के चरिउकाव्य जहाँ कथारस, रचयिता की धर्मदृष्टि और सन्देश (message) के समन्वित रूप हैं वहाँ भाषा के कलात्मक-प्रयोग के भी निदर्शन है। प्रत्येक काव्य एक सन्देश होता है यह सन्देश मनुष्य की किसी भी वृत्ति से सम्बद्ध हो सकता है। इसी सन्देश के लिए रचयिता एक मोटिफ तलाशता है, वस्तुत: जब कभी कहानी में प्रतिपाद्य को समेटा जाता है तभी उसके अस्तित्व के लिए मोटिफ अपेक्षित हो उठता है। यह मोटिफ ही घटना को सार्थकता के साथ नियन्त्रित करता है, सन्दर्भो को समायोजित करता है। मोटिफ की घटनाएँ लेखक के अनुभव-संसार से गुजरकर, उसकी दृष्टि संवेदना की संवाहक बनकर आती है। कालविशेष और भाषाविशेष में जब एकाधिक रचनाकार एक ही दृष्टि-संवेदना से प्रेरित होते हैं तो एक ही मोटिफ किंचित् अन्तर के साथ सभी में प्रसरित होता दिखाई पड़ता है । अन्तर, इस प्रसरण के बीच में आने वाली घटनाओं का क्रम अथवा बाह्य खप में दिखाई पड़ सकता है। मोटिफ की समरूपता भाषा-संरचना की समरूपता में भी सिद्ध होती है और भाषा-संरचना-प्रयोग की समरूपता संरचना आवर्तन में दृष्टिगोचर होती है । एक रचनाकार ही नहीं, समान सन्दर्भो के आवर्तन में सभी रचनाकार भाषा-संरचना का भी आवर्तन करते हैं । सन्दर्भ और संरचना की यह पारस्परिक प्रतिबद्धता ही शैलीचिह्नक (style marker) की धारणा के मूल में हैं। और शैलीचिह्नकों की समानता के आधार पर ही काव्य-प्रवृत्तियाँ निर्धारित की जाती हैं। अपभ्रंश काव्य के कुछ सर्वनिष्ठ सन्दर्भो और उन सन्दर्भो की अभिव्यक्ति हेतु प्रयुक्त भाषिक संरचना का परीक्षण करने पर यह स्थिति स्पष्ट हो जाती है, कुछ सन्दर्भ यहाँ दिये जा रहे हैं। संघाधिपति का आगमन अथवा वर्णन और भगवान का वर्णन अपभ्रंश काव्यों का ऐसा सन्दर्भ है जो प्रत्येक काव्य में आता है। कवि इस सन्दर्भ में कथ्यछाया में अन्तर कर सकता है, बिम्ब और प्रतीक में भी वैविध्य मिलता है पर भाषा-संरचना लगभग एक-सी होती है। सन्दर्भ १ : दिव्य व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह इस सन्दर्भ में रचनाकारों ने दिव्य-व्यक्ति के दिव्यत्व, श्रेष्ठत्व, संसार से विरागत्व, उसके प्रति पूज्य भाव आदि का वर्णन प्रायः किया है। स्वयंभू के पउमचरिउ में ऋषिसंघ का यह प्रसंग देखें तहि अवसरे आइउ सवण संघु, पर समय समीरण-गिरि अलंघु ॥ दुम्महमह वम्मह महण सोलु, भयभंगुर भुअणुद्धरण लीलु ॥ अहि विसम-विसम-विस-वेय समणु, खम-दम-णिसेणि किम-मोक्ख-गमणु ॥ तवसिरी वर रामलिगियंगु, , कलि-कलुस-सलिल सोसण पयंगु ॥ तित्थंकर-चरणम्बरूह भमरू, किम मोह महासुर णयर-डमरू ॥ --(पउमचरिउ, संधि २२, ४) उपर्युक्त प्रसंग की भाषिक संरचना हैक्रि० वि० पदबंध+कर्ता प. बं+विशेषण प० ब,+वि-प. बं+-----वि०प० बं, Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश चरिउ काव्यों को भाषिक संरचनाएं ५०३ इसी प्रकार भगवान का एक सन्दर्भ जंबुसामिचरिउ में द्रष्टव्य है तहो तले कणय रयणहरि-विट्ठरे, किरणाहयसुरिंदसेहरकरे ।। पत्तपहुत्ततिछत्तालंकिए, देवकुमारमुक्ककुसुमंकिए ॥ चामरकरजक्खेसर भद्दए, दुन्दुहिसद्धनिहयपडिसद्दए ॥ दिव्वए सव्वाणि परिमाणिए, सयल भाससंवलिए वाणिए ॥ भामंडलमज्झठिउ,.................॥ -(जंबुसामिचरिउ, संधि १, १७) इस प्रसंग की भाषिक संरचना हैक्रि० वि० पदबंध+विशेषण ष० बं,+वि० प० बं+........+वि० ५० बं, दोनों प्रसंगों में एक अन्तर है कर्ता प० बं० के नियोजन का । अन्यथा कि० वि० से प्रारम्भ संरचना में समान संरचनावाले विशेषण पदबन्धों का आवर्तन दोनों उद्धरणों में है। इस प्रकार का आवर्तन विशेष्य की एक-एक विशेषता की पते क्रमशः खोलता जाता है । रचयिताकृत शब्दचयन, बिम्बनिर्मायक तत्व-चयन, प्रतीक चयन आदि का कौशल इस आवर्तन में स्पष्ट देखा जा सकता है। णायकुमारचरिउ में सरस्वती वर्णन का निम्नलिखित प्रसंग भी आवर्तन के चमत्कार का उदाहरण है दुविहालंकारे विष्फरंति, लीला कोमलई दिति ॥ महकव्वणिहेलणि संचरंति, बहुहावभावविभम धरंति ॥ सुपसत्य अत्य दिहि करंति, सम्बई विण्णाण संभरंति ॥ णोसेस देसभासउ चवंति, लक्खणइं विसिट्ठई दक्खवंति ॥ -(णायकुमारचरिउ संधि, १,१) उपर्युक्त प्रसंग में विशेषण पद बन्ध,+.............."विशेषण पदबन्धक+विशेष्य प. बं संरचना है और विशेषण पदबन्ध भी मुक्तरूपिमबद्धरूपिम 'टा'+क्रियापद रचना का ही आवर्तन हुआ है। करकंड नरिउ में शील मुनि के सन्दर्भ की निम्नलिखित संरचना भी द्रष्टव्य है जसु सणे हरि उपसमु सरेइ करिकुम्भहो माह ण सो करेइ ॥ अवरुप्पर वइरइ जे बहंति, तहो दसणे मद्दउ मणे लिहंति ॥ जसु दसणे अणुवय के विलिति, जिणु छोडवि अण्णहि मणुणदिति ॥ -(करकंडुचरिउ, संधि ६, १) इस पाठांश में 'जसू...............' संरचना का आवर्तन हुआ है। 'मयणपराजय' में भी यह स्थिति देखने को मिलती है कमल कोमल कमलकतिल्ल कमलंकिय कमलगय कमलहणणसिहरेण अंचिय। कमलापिय, कमलापिय कमलभवहि कमलेहि पुज्जिय । न केवल पदबन्धों का वरन् रूपिम का भी आवर्तन कवि ने किया है । वर्णन प्रसंग में इस प्रकार का संरचना आवर्तन अपभ्रंश के चरिउकाव्यों की विशेषता है। वर्णन प्रसंग से प्रतिबद्ध होने के कारण यह संरचना-प्रयोग अपभ्रंश'काव्यों का एक शैलीचिह्नक है। Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .---.-.-.-.-.-.-.-.-................................................... सम्दर्भ २: वैराग्य भाव __ अपभ्रंश चरिउकाव्यों में वैराग्यभाव का वर्णन एक अपरिहार्य सन्दर्भ है। चरिउकाव्यों के मोटिफ का यह महत्त्वपूर्ण कथ्य-अंग है । जहाँ भी वैराग्य भाव के उदय का प्रसंग आया है, दुःख की अधिकता, मृत्युलोक की भीषणता, शरीर-भोगजन्य बन्धन, सुख की अत्यल्पता सर्वत्र कथित है। कतिपय उदाहरण देखें१. हु महुविन्दु सम, दुहु मेरू सरिस पवियम्मइ । -(पउमचरिउ, २२, २) रयणायरतुल्लउ जेत्थ दुक्खु महुविन्दुसमाणउ भोयसुक्खु । -(करकंडुचरिउ, ६, ४) इन अलंकार रचनाओं में सुख की तुलना 'मधुविन्दु' से एवं दुःख की तुलना 'मेरु' पर्वत तथा 'सागर' से की गई है। 'मधुबिन्दु' अपभ्रंश काव्यों की कथानक रूढ़ि है और मोटिफ के मूलभाव को पुष्ट करने के लिए इसका प्रयोग किया गया है। जहाँ भी ये रचनाएँ प्रयुक्त हुई हैं उपमासूचक रूपिम इनमें अनिवार्यतः है। अतएव यह उपमा संरचना इस प्रसंग में सन्दर्भबद्ध हो गई है। सन्दर्भ ३ : पूर्वजन्म का स्मरण भवान्तर स्मरण के प्रसंग से ज्ञानोपलब्धि अपभ्रंश चरिउकाव्यों में वर्णित है। पउमचरिउ में भामंडल का प्रसंग है पत्त वियडढ पुरू तं णिएवि जाउ जाईसरू । अण्णहि भव गहणे हउं होन्तु एत्थु रज्जेसरू । मुच्छाविउ तं पेखेंवि पएसु संभरेंवि भवन्तरु णिखसेसु ॥ भामण्डल' पूर्वजन्म के वृत्तान्त का स्मरण का वैराग्य प्राप्त करता है और 'जंबुसामिचरिउ' में सागरचन्द पूर्वजन्म के वृत्तान्त को जानकर दीक्षा ग्रहण करता है तुहु अणुउ रासि जो सो वि बुहु चक्कबइमहापउ मंग रूहु । अहिहाणे सिवकुमारू अभउ इह कहिउ भवन्तरू सिन्धुलउ । -(जं० सा० चरिउ, ३, ५) इन प्रसंगों में रूपिमों का आवर्तन होता है। कर्ममूचक 'उ' विभक्तियुक्त, 'भवन्तरू' पद का आवर्तन इस विशेष प्रसंग में हुआ है। यह प्रसंग भी अपभ्रंश चरिउकाव्यों के मोटिफ का प्रत्यापक है। जैसाकि स्पष्ट है कि अपभ्रंश काव्यों में सन्देश की प्रवृत्ति का प्रेरक आवेग है। 'मयणपराजयचरिउ' तो स्पष्टतः (प्रतीकों का आश्रय लेते हुए भी) सन्देश है । सभी अपभ्रश काव्यों का मोटिफ एक ही है, अन्तर उसके विस्तार में है । कवि के कवित्व का दर्शन उसके द्वारा प्रयुक्त भाषिक संरचनाओं में व्यक्त उसकी कल्पना में होता है । यह स्थिति इतनी स्पष्ट है कि अपनी कल्पना के आवेग को रचयिता वर्णन के प्रसंग में धारा की भाँति प्रवाहित करता है, परिणामतः एक ही संरचनाओं का आवर्तन जलावों के समान होता है, एक निश्चित गति से, निश्चित दिशा में। अतएव, सन्दर्भो में निश्चित संरचना का आवर्तन कवि की दृष्टि का परिचायक है । 'जंबुसामिचरिउ' के निम्नलिखित प्रसंग को देखें १. जालियाउ गयवइहिययहि सहुं उडुइ नहंगणे मयलंछणु लहु । भमिए तमंधयार बरअच्छिए, दिण्णउ दीवउ णं नहलच्छिए । १. जोण्णहारसेण भुवणु किउ सुद्धउ खीरमहण्णवम्मि णं छुखउ । ये दोनों उत्प्रेक्षा संरचनाएँ हैं । चन्द्रमा की किरणें धरती पर बरस रही हैं उस सौन्दर्य से कवि के मन में जो आनन्द का आवेग उत्पन्न होता है उसे निम्नलिखित 'कि............' संरचना के आवर्तन में साकार होता देखा जा सकता है . Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश चरिउकाव्यों को भाषिक संरचनाएँ ५०५ . किं गयणाउ अमियलवविहहि । कि कप्पूरपूरकण निडिहिं । कि सिरिखंड बहलरमसीयर । मयरद्धयबंधवससहरकर ॥ 'कि"...""संरचना का यह आवर्तक कवि के आवेग का परिचायक है। करकंडुचरिउ में 'मानो' संरचना का आवर्तन है गुरुघायवडणे णिग्गय फुलिंग णं कोहवसई अहिजललिंग। तहे गंठिहे वयणहो बहलकार ता णिग्गय तक्खणि सलिलधार । पढमउ भुभुक्कइ णिग्गमेइ णं मेइणि भीए उव्वमेइ । णिग्गंती बाहिरि सा विहाइ महि भिदिवि फणिवइधरिणि पाइँ॥ परिसहइ सावि भूमिहिं मिलंति गंगाणइ णं खल खल खलंति ।-(करकंडुचरिउ,४-१४) विशेषता इन संरचनाओं में प्रयुक्त शब्दों के चयन की है। उपर्युक्त प्रसंग में 'णं........' संरचना का आवर्तन है। 'णायकुमारचरिउ' का निम्नलिखित उद्धरण इस बात को सिद्ध करता है कि अपभ्रंश काव्यों के अधिकांश वर्णन प्रसंगों में अलंकार संरचना (णं.......) आवर्तित हुई है णं घरसिहरग्गहि सग्गु छिवइ णं चंद अमियधाराउ पियइ । कुंकुमछडए णं रइहि रंगु णावइ रक्खालिय सुहपसंगु। विरइय मोत्तिय रंगावलीहिं जं भूसिउ णं हारावलीहि । -(णायकुमारचरिउ, १) कभी एक ही कथ्यांश के लिए अनेक उत्प्रेक्षा संरचनाएँ प्रयुक्त की जाती हैं। कभी एक कथ्य के विविध परिप्रेक्ष्यों को आवर्तित उत्प्रेक्षा संरचनाओं में उजागर किया जाता है, वर्णन के प्रसंगों की यह सामान्य प्रवृत्ति है। णायकुमारचरिउ में कवि एक उपवाक्य में अनेक पदबन्धों का मध्य प्रशासन (Mid Branching) करता है, इस प्रकार अनेक क्रियाविशेषणों का नियोजन शीघ्रतापूर्वक होने वाले अनेक परिवर्तनों अथवा क्रियाओं को चित्रात्मकता के साथ प्रस्तुत करता है। इन पदबन्धों में प्रयुक्त शब्दावली भी चयन का प्रमाण है, संरचना भी समान है अतएव आवतित भी घडहडइ कडयडइ, कोवेण तायडइ। लोहेहि सिक्खवइ, मायाउ दक्खवइ । माणेण कयघट्ट, कयसोउ बहु दट्ट । -(मयणपराजयचरिउ, २. ५१) इस उद्धरण में १, २, ३, ४, पदबन्ध हैं, ६ प्रमुख क्रियापदबन्ध है। व्यक्ति उच्छलित भावों की अभिव्यक्ति में भी संरचना-आवर्तन-विधान देखा जा सकता है। अपभ्रंश के कवियों ने इस संरचना-प्रकार का भी प्रयोग किया हैं । मयणपराजयचरिउ में बन्दी (दूत) कहता है वज्जघाउ को सिरिण पडिच्छइ । असिधारापहेण को गच्छइ ।। को जमकरणु जंतु आसंघइ । को भुवदंडई सायर, लंघइ ॥ को जममहिससिंह उप्पाडइ । विफ्फुरंतु को दिणमणि तोडइ । आसीविसमुहि की करू छोहइ । धगधगंत धुववहि को सोवइ ॥ Bato Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलगी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड एक ही कथ्य को विविध प्रकार से कहा गया है, किन्तु सभी कथनों की भाषिक संरचना समान है। "कौन हैं....जो ऐसा करें" संरचना का प्रतिपाद्य यहाँ निषेधात्मक है । बन्दी (दूत) के वचनों को सुन्दर ताल ठोककर मदनराज अपने सामन्तों के साथ यहाँ से चल पड़ा, मानों समुद्र उछल पड़ा, मानों समुद्र उछल उठा हो । उसकी चलने की अनिवार्यता के वर्णन में कवि पुनः उपर्युक्त संरचना का ही प्रयोग करता है--- विसहरु पुप्फुवंतु को छिदइ। फुफकारते हुए सर्प को कौन रोकता है कहकर कवि ने मदनराज की स्थिति प्रकट कर दी है। अर्थात् सर्प फुफकारता रहे उसे कोई नहीं रोकता, वैसे ही मदनराज को कौन रोकता, वह क्रुद्ध होकर चल पड़ा। मदनराज के प्रति कवि की भावना व्यक्त हो जाती है। कविकृत चयन, वस्तुत: उसकी दृष्टि से प्रभावित होता है अतएव भाषिक संरचना से कवि के मानस तक पहुँचा जा सकता है, यह निर्विवाद है। एक ही पाठ में संरचना का आवर्तन विविध कथ्यों के लिए भी किया जा सकता है, किन्तु ये विविध कथ्य भी एक घटना से संबद्ध होने के कारण परस्पर संसक्त हो जाते हैं, 'मयणपराजयचरिउ' का यह प्रसंग द्रष्टव्य है जिम जिम सिय-भेरीरव गजहि । तिम तिम पंच कुदंसण भजहि ॥ जिम जिम पंच महब्वय दुहिं । तिम तिम पंचिदिय मणि संकहिं ।। जिम जिम धम्मणिवह संचल्लाह । तिम तिम कम्मणिवह मणि सल्लहिं ।। जिम जिम सत्त तत्त चम्मक्काहि । तिम तिम सत्त महाभय संकहि ।। जिम जिम पायाच्छित पयहि । तिम तिम सल्लतय ओहदहिं ।। जिम जिम चारित्तोहु पयासइ । तिम तिम दिढ पमायबलु णासइ ।। -(मयणपराजयचरिउ, २-६६) इस संरचना का प्रयोग कारण-कार्य के त्वरित सम्बन्ध की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है अर्थात ज्योंही अमुक घटना घटी त्योंही दूसरी घटना भी। दूसरी घटना प्रथम घटना के परिणामस्वरूप है, यदि प्रथम न घटती तो द्वितीय भी न घटती । परन्तु विविध प्रसंगों के अवलोकन से सिद्ध हो जाता है कि अपभ्रंश का रचनाकार सामान्यतः समान संरचना के आवर्तन का अभ्यस्त है । भाषिक संयन्त्र का अभ्यस्त एवं पुनरावर्तित प्रयोग ही शैली है। अतएव यह भाषिक-प्रयोग अपभ्रंश चरितकाव्य की शैली का विशेष पक्ष है। मयणपराजयचरिउ में अलंकार संरचनाएँ लगभग नहीं हैं, परन्तु आवर्तन का विधान अवश्य है । समान संरचना वाले पदबन्धों का मध्यप्रशासन भी इन चरिउकाव्यों में प्रवृत्ति के रूप में दिखलाई पड़ता है, इस विधान में अलंकरण नहीं है, सरल पदबन्ध हैं णरजम्मलद्धण, भावए विसुद्धेण, जिणपुज्ज जो करइ, मुनिचरण मणे धरइ । सज्झाउ अणुसरइ, संजमई संचरइ । तवणियमभारेण, दिण गमइ सारेण । -(करकंडुचरिउ, ६-२०) यह ठीक है कि गद्य संरचना और काव्य-संरचना में अन्तर होता है, किन्तु काव्य में भी उपवाक्य तो होते ही हैं, यह अलग बात है कि छन्दानुरोध से उन्हें चरणों में तोड़कर लिखा जाय । परन्तु प्रशासन की प्रवृत्ति, पदबन्ध प्रयोग की प्रवृत्ति आदि विशेषताओं का प्रत्यायन तो उनमें होता ही है। एक विशेष बात यह है कि अपभ्रंश की इन संरचनाओं से कालांतर में विकसित गद्य संरचना का भी बहुत स्पष्ट आभास होता है। Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश चरिउकाव्यों की भाषिक संरचनाएँ ५०७. ................................................................... . .... एक और बहुप्रयुक्त संरचना-प्रकार है ........."विशेषण उपवाक्य कर्ता (प्रतीक रूप में)......""प्रमुख क्रिया। जंबुसामिचरिउ में इस संरचना का प्रयोग देखें भग्गभूवल्लिसोहो हरियाहरपल्लवारुणच्छाउं । सामियालयालिमालो अहलोकयपुफ्फपरिणामो ।। हयचंदणत्तिलयपरुई रिउरमणीरम्मजोव्वणवणेसु । कोहदुव्वायवेउ नरवणो जस्स निव्वडिओ॥ (१-११-४-५) अधिकांशतः वैशेषिक संरचनाओं का प्रयोग अपभ्रंश काव्य में हुआ है। किन्तु जहाँ सामान्य संवाद है अथवा कथा-प्रवाह है, वहाँ सीधी-सरल संरचनाएँ हैं। जहाँ व्यक्ति की मानसिकता व्यक्त की गई है, वहाँ भी यही स्थिति है और यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि व्यक्ति अलंकार-संरचनाओं में चिन्तन नहीं करता, दुःख अथवा ग्लानि के वैचारिक संदर्भ में भी अलंकार संरचनाओं का प्रयोग विरल ही है। पउमचरिउ में कंचुकी अपनी अवस्था का वर्णन करता है ।। गय दियहा ।।। जोव्वणु ल्हसिउ देव ।। ।। गइ तुट्टिय विहडिय सन्धिबन्ध ।। ।। सुणन्ति कष्ण ।। लोयण गिरन्ध ।। ।। सिरु कंपई ।। मुहे पक्खलइ वाम ।। ।। गय दन्त । । सरीर हो गट्ठ छाय ।। और कंचुकी के इन लघु, पर व्यंजक उपवाक्यों को सुनकर दशरथ को जीवन से ग्लानि हो जाती है, परिणामत: वैराग्य होता है, दशरथ की विचार तरंगें भी इसी प्रकार के लघु वाक्यों में व्यंजित हैं, पूरा पाठांश इन्हीं संरचनाओं का गुच्छ है । यद्यपि से पृथक्-पृथक् उपवाक्य से लगते हैं, पर कथ्य इन्हें परस्पर संसक्त कर देता है। ऐसी संरचना व्यक्ति के मन में होती ऊहापोह की व्यंजना हेतु समुचित होती है कं दिवसु वि होसइ आरिसाहुं। कञ्चुइ-अवत्थ अम्हारिसाहुं ॥ को हउं, का महि, कहो तणउ दव्वु । सिंहासणु छत्तई अथिरु सब्बु । जोव्वणु सरीर जीविउ धिगत्थु । संसार असारु अणत्यु अत्यु ॥ विसु विसय बन्धु दिढ बन्धणाई। घर दारइ परिभव कारणाई॥ जहाँ ऐसी स्थिति में भी अलंकार संरचना का अधिक प्रयोग होता है, वहाँ यह मानना होगा कि रचयिता ही पात्र के चरित्र में मुखर हो रहा है तब उस प्रसंग में कृत्रिमता का आभास भी स्पष्ट होगा। सम्पूर्ण चरिउ काव्यों के अवगाहन से इन काव्यों में प्रयुक्त संरचनाओं का उद्घाटन किया जा सकता है। भाषा की प्रत्येक संरचना का अपना ०० Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .........-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-........................................ प्रयोजन होता है। शब्द-चयन की ही भांति भाषिक संरचना भी यादृच्छिक नहीं होती। कालविशेष में या काव्य प्रवृत्तिविशेष में भाषा में कुछ विशेष संरचनाएँ उस प्रवृत्तिविशेष के शैलीचिह्नक के रूप में पहचानी जाने लगती हैं। आवर्तन की दृष्टि से, सर्वाधिक आवतित संरचनाएँ जो अपभ्रंश काव्य में उपलब्ध होती हैं, का निबन्धन निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है। यही संरचना नहीं है, इनके अतिरिक्त भी है, यह प्रस्तुतीकरण आवर्तन और समानान्तरता की दृष्टि से है। (१) पात्र के रूप, आकृति अथवा गुण वर्णन में अलंकार संरचनाओं का आवर्तन रूप, गुण अथवा आकृति के सौन्दर्य से प्रभावित रचयिता-मानस के आबेग की सूचना इन संरचनाओं से मिलती है, इस संरचना का सूत्र है ___णं+ कर्ता + कर्म + क्रिया अथवा, क्रियापद + णं + विशेषण पद (२) द्वितीय संरचना कि........' के आवर्तन वाली है, वक्ता-मानस के संभ्रम की सूचक है। इसमें सामान्यतः अलंकार संरचना का अन्तर्भाव रहता है, क्योंकि एक उपमेय के लिए अनेक उपमान उपवाक्यों का प्रयोग होता है। क्योंकि कथ्य एक रहता है, इसलिए संरचना भी समान होती है कि............ -- कि............. कथ्य----- -- कि........... आवेगपूर्ण संभ्रम की व्यंजना इस संरचना की विशेषता है। (३) तृतीय प्रकार की संरचना का सूत्र है___ क्रियाविशेषण+क्रिया+कर्ता+विशेषण पदबन्ध, +............+विशेषण पदबन्ध,+............ यह संरचना ज्ञात कर्ता की नई-नई विशेषताओं का क्रमश: उद्घाटन करती है। प्रारम्भ में सरल वाक्य होता है, विशेषण पदबन्धों में रूपक अथवा उत्प्रेक्षा संरचना होती है। ज्ञात घटना से कर्ता की अब तक अज्ञात विशेषताओं का प्रत्यक्षीकरण होता है। (४) चतुर्थ प्रकार की बहुप्रयुक्त संरचना हैविशेषण पदबन्ध,+विशेषण पदबन्ध, +..........."कर्ता+क्रिया ससा दोणरायस्स भग्गाणुराया, तुलाकोडि कंति लयालिद्धपाया। स पालम्ब कञ्ची-पहा भिण्ण गुज्झा, धगुतुंगभारेणजाणित्तममा ॥ णवासोय वच्छच्छयाछाय पाणी वरालाविणी-कोइलालाववाणी । महामोरपिच्छोह संकाय केसा, अणंगस्स भल्ली वपच्छष्णवेसा । गया केवकया जत्थ अत्थाण-मग्गो । (५) पाँचवीं संरचना प्रश्नवाचक को...........' है, इसका प्रतिपाद्य या तो निषेधात्मक होता है, या पात्र की मूर्खता का सूचक । इसका सूत्र है को.........."कर्म+क्रिया कर्ता स्वयं 'को' में निहित होता है। संरचना का कर्म+क्रिया अंश असम्भव कार्य के सूचक होते हैं, अर्थ होता है—ऐसा कौन करता है कर सकता है, भावार्थ होता है 'कोई नहीं, जो करता है वह प्रमादी होता है। (६) छठी आवर्तित संरचना है --.0 - Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश चरिउ काव्यों की भाषिक संरचनाएँ ५०६ -.-.-.-. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-.-.-.-.-.-. -.-.-. -. -. -. -.-.-.-. -.-.-. -... जिम............ तिम............ यह कारण-कार्य की सूचक संरचना भी होती है और अलंकार (उपमा) की सूचक भी। (७) सातवीं संरचना है जिसमें विशेषण उपवाक्यों का आवर्तन होता है विशेषण उपवाक्य, ....."+"...."वि० उपवाक्य,....."+कर्ता प्रतीक रूप में+......"क्रिया । (८) आठवीं संरचना है-लघु उपवाक्यों के ग्रन्थनवाली । इसमें अनेक संरचनाएँ मिश्रित होती हैं (क) कर्ता+सहायक क्रिया-को हउं । (ख) कर्म+क्रिया-१. जीविउ धिगत्थु । २. संसारु असार । ३. णय दंत । इस प्रकार संरचनाओं के आकलन से अपभ्रंश चरिउकाव्यों के कथ्य का वैशिष्ट्य तो उद्घाटित होता ही है, रचयिता-मानस भी उजागर होता है। अब तक इन काव्यों का अध्ययन अनेक दृष्टियों से किया गया है, संरचना और कथ्य के सम्बन्ध की दृष्टि से तथा संरचना-आवर्तन और समानान्तरता-विधान के परिप्रेक्ष्य में इन काव्यों का अध्ययन नहीं किया गया। इस दिशा में संकेत देने का एक अत्यल्प प्रयास प्रस्तुत लेख में किया गया है । आवश्यकता इस बात की है कि समग्र चरिउकाव्यों और अन्य काव्यों का इस सन्दर्भ में विस्तृत परीक्षण किया जाय। यदि ऐसा हो, तो ऐसी अनेक संरचनाओं को प्रकट किया जा सकेगा जो परवर्ती काव्य को प्रभावित करती रही हैं। यह भी ज्ञात हो सकेगा कि अपभ्रंश काव्य ने संरचना-सन्दर्भ में कितना कुछ संस्कृत शैली से ग्रहण किया है। यह अपभ्रंश-काव्य के अध्ययन की दिशा में एक नया चरण होगा। इससे अपभ्रंशकाव्य का विश्लेषण वस्तुनिष्ठता से किया जा सकेगा, क्योंकि इसका आधार भाषावस्तु होगा। Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. -. - . + -. -. - - - -. . . -. - - -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. -. - - -. . . - -. - - . -. -. - अपभ्रश के प्रबन्धकाव्य डॉ.प्रेम सुमन जैन, अध्यक्ष, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर अपभ्रंश भाषा में काव्य की रचना कब से प्रारम्भ हुई यह कह पाना कठिन है । क्योंकि अपभ्रंश की प्रारम्भिक रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं । अपभ्रंश के जिन कवियों का अभी तक पता चला है उसमें गोविन्द और चतुर्मुख प्राचीनतम हैं। इनकी अभी तक कोई रचना उपलब्ध नहीं हुई है। स्वयम्भू और महाकवि धवन ने इन्हें अपभ्रंश के आदिकवि के रूप में स्मरण किया है। इससे ज्ञात होता है कि ईसा की छठी शताब्दी में अपभ्रंशकाव्यों की रचना होने लगी थी। स्वम्यभू के समय तक (७ वीं श०) अपभ्रंश-काव्य की परम्परा विकसित हो गयी थी। स्वयम्भू की पौढ़ और परिपुष्ट रचना को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अपभ्रंश की काव्य रचनाएँ प्राकृत आदि की प्राचीन काव्यपरम्परा से विकसित हुई हैं। अब तक अपभ्रंश साहित्य की लगभग १५० रचनाएँ प्रकाश में आयी हैं। उनके सम्पादन-प्रकाशन का कार्य चल रहा है । प्रकाशित रचनाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि अपभ्रंश साहित्य की अनेक विधाएँ हैं । प्रबन्धकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तककाव्य, सन्धिकाव्य, रासा, चर्चरी आदि अनेक भेद विद्वानों ने किये हैं । किन्तु अपभ्रंश रचनाओं की विषयवस्तु और अन्तसंगठना के आधार पर उन्हें प्रबन्धकाव्य और मुक्तककाव्य के अन्तर्गत समाहित किया जा सकता है। अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों का विवेचन ही यहाँ प्रतिपाद्य है। बन्ध सहित काव्य को प्रबन्धकाव्य कहा जाता है। प्रबन्धकाव्य में कोई पौराणिक, ऐतिहासिक, या लोकविश्रुत कथा होती है, जिसकी वर्णनात्मक प्रस्तुत कवि क्रमबद्ध रूप में करता है । कथा की समस्त घटनाएँ आपस में सम्बद्ध होती है तथा कथा के प्रभाव को अग्रगामी करने के लिए वे परस्पर सापेक्ष होती हैं। प्रमुख कथा के साथ अवान्तरकथाएँ इस प्रकार जुड़ी हुई होती हैं जिससे नायक के चरित्र का क्रमशः उद्घाटन होता रहे । कवि सम्पूर्ण कथा को घटनाओं के आधार पर कई भागों में विभाजित कर लेता है, जो सर्ग, आश्वास, सन्धि आदि के नाम से जाने जाते हैं । प्रबन्धकाव्य के रूप उपलब्ध होते हैं-महाकाव्य एवं खण्डकाव्य । जीवन की सम्पूर्ण अनुभूतियों की अभिव्यक्ति महाकाव्य है तथा कुछ चुनी हुई जीवनपद्धतियों की अभिव्यंजना खण्डकाव्य है। इस स्वरूप भेद के कारण इन दोनों के प्रेरणास्रोत, उद्देश्य एवं प्रभाव में अन्तर है। एकरूपता है तो केवल कथा-सूत्र की अखण्डता में है। महाकाव्य हो अथवा खण्डकाव्य दोनों को अपनी कथा में निरन्तरता रखना आवश्यक है। इस गुण के कारण दोनों ही प्रबन्धकाव्य की कोटि में परिगणित होते हैं। भारतीय साहित्य में अनेक प्रबन्धकाव्यों की रचना हुई है। संस्कृत और प्राकृत में इनकी प्रचुरता है; किन्तु स्वरूपभेद भी है। संस्कृत में अधिकांश महाकाव्यों की रचना हुई है, जिनका आधार अधिकतर पौराणिक है। प्राकृत के प्रबन्धकाव्यों में पौराणिकता होते हुए भी लौकिक और धार्मिक वातावरण अधिक है। प्रवरसेन का 'सेतुबन्धु' और वाक्पतिराज का 'गउडवहो' शास्त्रीय शैली में निर्मित प्राकृत के प्रबन्धकाव्य हैं । विमलसुरि का 'पउमचरियं' पौराणिक शैली का है तो हेमचन्द्र का 'द्वयाश्रयकाव्य' ऐतिहासिक प्रबन्धकाव्य का प्रतिनिधित्व करता है। प्राकृत में रोमांचक शैली में प्रबन्धकाव्य लिखे गये हैं। कौतूहल की 'लीलावईकहा' इस शैली का उदाहरण है। प्राकृत में रोमांचक शैली में कुछ खण्डकाव्य भी लिखे गये हैं, जिन्होंने प्रबन्धकाव्य की परम्परा को आगे बढ़ाया है। Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य -.-. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-.-.-. -.-.-.-.-.-. -. -. -.-. -. -. -. -. -.-. -.-. -. अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य संस्कृत एवं प्राकृत की सुदीर्य परम्परा से प्रभावित है। किन्तु उन पर प्राकृत का सीधा प्रभाव है। अपभ्रंश में शास्त्रीय शैली के प्रबन्ध काव्य नहीं हैं । सम्भवतः लोकभाषा होने के कारण भी अपभ्रंश में विशुद्ध महाकाव्य लिखे जाने की परम्परा प्रारम्भ नहीं हुई। प्रबन्धकाव्य की कुछ निश्चित विशेषताओं के आधार पर अनश में जो प्रबन्ध काव्य हैं उन्हें तीन प्रकार का माना जा सकता है-पौराणिक, धार्मिक, एवं रोमांचक । यह विभाजन भी विशिष्ट गुणों की प्रधानता के कारण है अन्यया अपभ्रंश की प्राय: सभी रचनाएँ पौराणिकता, धार्मिकता एवं रोमांचकता से किसी न किसी मात्रा में युक्त होती है । पौराणिक प्रबन्धकाव्य ___ अपभ्रंश में पौराणिक कथावस्तु को लेकर जो रचनाएँ लिखी गयी हैं उनमें कुछ महाकाव्य हैं, कुछ चरितकाव्य । किन्तु उनकी संगठना एक तरह की है। जैनपरम्परा के अनुसार महापुराण वह है जिसमें वर्णन हो । अधिकतर त्रेसठशलाका पुरुषों का जीवन-चरित इनमें वणित होता है। इस प्रकार के अपभ्रंश के पौराणिक प्रबन्धकाव्य निम्न हैं (१) हरिवंशपुराण (रिट्ठणेमिचरिउ)-महाकवि स्वयम्भू । इसमें ११२ सन्धियाँ हैं तथा श्रीकृष्ण के जन्म से हरिवंश तक की भवावली का विस्तृत वर्णन है। (२) हरिवंशपुराण-महाकवि धवल । १८ हजार पद्यों में विरचित यह प्रबन्धकाव्य अभी तक अप्रकाशित है। (३) महापुराण-पुष्पदन्त । इसमें प्रारम्भ में २४ तीर्थंकरों तथा बाद राम और कृष्ण की जीवनगाथा विस्तार से वणित है। (४) पाण्डवपुराण-यश:कीति । इसमें ३४ सन्धियों में पाँच पाण्डवों की जीवनगाथा वर्णित है। (५) हरिवंशपुराण-श्रुतकीर्ति । ४४ सन्धियों में कौरव-पाण्डवों की गाथा का वर्णन । हरिवंशपुराण नाम से अन्य रचनाएँ भी अपभ्रंश में उपलब्ध हैं। (६) पउमचरिउ-स्वयम्भू । इसमें रामकथा का विस्तार से वर्णन है। चरित नामान्त होने पर भी विषयवस्तु की दृष्टि से इसे पौराणिक प्रबन्ध ही मानना होगा। यद्यपि इसमें पौराणिकता अन्य प्रबन्धों की अपेक्षा कम है । कथा का विस्तार एक निश्चित क्रम से हुआ है। ___ अपभ्रंश के इन पौराणिक प्रबन्धकाव्यों में राम और कृष्ण कथा की प्रधानता है। रामायण और महाभारत इनके उपजीव्य काव्य थे। यद्यपि इन कवियों ने अपनी प्रतिभा और पाण्डित्य के कारण इन प्रचलित कथाओं में पर्याप्त परिवर्तन किया है तथा अपनी मौलिकता बनाये रखी है। इन प्रबन्धकाव्यों में वर्णन की दृष्टि से भी प्रायः समानता है यथा १. सभी के प्रारम्भ में तीर्थंकरों की स्तुति । २. पूर्व कवियों एवं विद्वानों का स्मरण । ३. विनम्रता-प्रदर्शन । ४. ग्रन्थ रचना का लक्ष्य व काव्य विषय का महत्त्व । ५. सज्जन-दुर्जन वर्णन । ६. आत्म-परिचय। ७. श्रोता-वक्ता शैली। प्रायः प्रत्येक पौराणिक प्रबन्ध में समवसरण की रचना में गौतम गणधर और श्रेणिक उपस्थित रहते हैं तथा श्रेणिक के पूछने पर गणधर अथवा वर्धमान कथा का विस्तार करते हैं। काव्य सम्बन्धी इन रूढ़ियों के अतिरिक्त प्रबन्धकाव्यों में कुछ पौराणिक अथवा धार्मिक रूढ़ियों का भी प्रयोग देखने को मिलता है। यथा-१. सृष्टि का Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.........................-.-.-.-.-.. वर्णन, २. लोक-विभाजन, ३. धर्म-प्रतिपादन, ४. दार्शनिक खण्डन-मण्डन, ५. अलौकिक तथ्यों की योजना, ६. पूर्वभवस्मरण तथा ७. स्वप्नदर्शन आदि । अलौकिक तथ्यों के संयोजन के लिए देवता, यक्ष, गन्धर्व, विद्याधर, नाग, राक्षस आदि भी सहायक के रूप में उपस्थित किये जाते हैं । तथा अनेक लोककथाएँ धार्मिक चौखटे में जड़ दी जाती है। इस प्रकार अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य धर्म, कथा और काव्य इन तीनों के सम्मिश्रण से युक्त होते हैं । इस प्रकार के प्रबन्धकाव्यों की परम्परा अपभ्रंश तक ही सीमित नहीं रही । राजस्थानी एवं गुजराती से होते हुए हिन्दी में भी ऐसे प्रबन्धकाव्य लिखे गये हैं, जिनमें काव्य और पौराणिक रूढ़ियों का प्रयोग हुआ है। धार्मिक प्रबन्धकाव्य __ अपभ्रंश की जिन रचनाओं में पौराणिकता और काल्पनिकता की अपेक्षा धार्मिकता अधिक उभरती है वे धार्मिक प्रबन्धकाव्य हैं। कथा की एकरूपता इनमें भी मिलती हैं। अधिकांश चरित्रग्रन्थ इस कोटि में आते हैं। इनकी रचना जैनधर्म के किसी विशेष व्रत अथवा सिद्धान्त प्रतिपादन के लिए होती है। कुछ काव्यों में धार्मिक-महापुरुषों के जीवनगाथा की ही प्रधानता होती है । इस कोटि के कुछ प्रबन्धकाव्यों का परिचय द्रष्टव्य है। जसहरचरिउ--यह महाकवि पुष्पदन्त की रचना है । इसमें यशोधर राजा की जीवन कथा वणित है। सम्पूर्ण कथानक में पाँच-सात जन्म-जन्मान्तरों के वृत्तान्त समाविष्ट हैं । कथानक का विशेष अभिप्राय है कि जीवहिंसा सबसे अधिक घोर पाप है। उसके परिणाम कई जन्मों तक भोगने पड़ते हैं । अत: जीवहिंसा की क्रिया एवं भावना से भी बचना चाहिए । कथा के इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर यशोधरचरित नाम से ५०-६० रचनाएँ संस्कृत-प्राकृत एवं अपभ्रंश में लिखी गयी हैं। णायकुमार चरिउ-इस चरित के लेखक भी पुष्पदन्त हैं तथा यह कथा भी धार्मिक उद्देश्य से लिखी गयी है। इस ग्रन्थ के नायक नागकुमार हैं, जो एक राजपुत्र हैं, किन्तु सौतेले भ्राता श्रीधर के विद्वेषवश वे अपने पिता द्वारा निर्वासित नाना प्रदेशों में भ्रमण करते हैं तथा अपने शौर्य, नैपुण्य व कला-चातुर्यादि द्वारा लोगों को प्रभावित करते हैं । अन्त में पिता द्वारा आमन्त्रित होने पर पुनः राजधानी को लौटते हैं। फिर जीवन के अन्तिम चरण में जिनदीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। किसी भी धर्म की प्रभावना के लिए इससे अधिक आकर्षक और मनोरम जीवनचरित दूसरा नहीं हो सकता। सूक्ष्मदृष्टि से विचार करें तो नागकुमारचरित की कथा रामकथा का ही रूपान्तर हैं। ___ जंबूसामिचरिउ-कहाकवि बीर द्वारा रचित जंबूसामिचरिउ प्रसिद्ध धार्मिक प्रबन्ध काव्य है। इसमें महाकाव्य के सभी गुण विद्यमान हैं । इनका कथानक बड़ा रोचक है । कथा बड़ी लम्बी एवं अवान्तरकथाओं से गुंथी हुई है। जम्वू नामक श्रेष्ठिपुत्र कुमारावस्था में ही संसार से विरक्त होकर मोक्षफल की आकांक्षा करने लगता है। इसकी सूचना मिलते ही उसकी वाग्दता चार घोष्ठिकन्याएं केवल एक दिन के लिए उसे विवाह कर लेने के लिए प्रेरित करती हैं। विवाहोपरान्त मधुरात्रि में चारों वधुएँ और जम्बू सुहागशय्या पर परस्पर वार्तालाप करते हैं । वधुएं सांसारिक सुखों के गुण गाती हैं और जम्बू आत्मिक सुख के । अन्ततोगत्वा, प्रातःकाल जम्बू की ही जीत होती है और वह अपने स्वजनों सहित दीक्षित हो जाता है। इन रचनाओं के अतिरिक्त विशुद्ध धार्मिक वातावरण से युक्त अन्य प्रबन्ध भी अपभ्रंश में उपलब्ध हैं । सुन्दरसणचरिउ (नयनंदि), करकंडुचरिउ (कनकामर), जिणदत्तचरिउ (लक्ष्मण), सिद्धचक्कमहाप्य (रइधू) आदि उनमें प्रमुख हैं। वस्तुवर्णन अलंकार, छन्द, रस आदि काव्य उपकरणों की इनमें विविधता है। उदाहरण के लिए कुछ काव्यचित्र द्रष्टव्य हैं। उद्यानक्रीड़ा करते हुए जम्बूकुमार किसी कामिनी के यौवन की प्रशंसा करते हुए कहता है अन्भसियउ हंसहि गमणु तुज्झु कलचंठिहिं कोमललविउ बुज्छु । पडिगाहिउ कमलहि चलणलासु तरुपल्लवेर्हि करयलविलासु । सिक्खिउ वेल्लिहिं भूवंकुडतु सीसत्तभाउ सच्चु वि पवत्तु । -ज० सा० च०४।१७ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.................................. (हंसों ने तुझसे गमन का अभ्यास किया, कलकंठी ने कोमल आलाप करना जाना, कमलों ने चरणों से कोमलता सीखी, तरुपल्लवों ने तुम्हारी हथेलियों का विलास सीखा तथा बेलों ने तुम्हारी भौंहों से बांकपन सीखा। इस प्रकार ये सब तुम्हारे शिष्यभाव को प्राप्त हुए हैं ।) महाकवि पुष्पदन्त वस्तु-वर्णन करने में सिद्धहस्त थे। राजगृह का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि मानों वह (नगर) कमल-सरोवर रूपी नेत्रों से देखता था, पवन द्वारा हिलाये हुए वनों के रूप में नाच रहा था तथा ललित लतागृहों के द्वारा मानों लुका-छुपी खेलता था । अनेक जिनमन्दिरों द्वारा मानों उल्लसित हो रहा था जोयइ व कमलसरलोयणेहि णच्चइ व पवण हल्लियवणेहिं । ल्हिवकइ व ललियवल्लीहरेहि उल्लसइ व बहुजिणवरहरेहि ।। -ण० कु० च० १७ वीरकवि द्वारा चांदनी रात का एक मनोरम दृश्य बड़ा ही सूक्ष्म और मौलिक उद्भावनाओं से युक्त है। यथा-गतपतिकाओं के द्वारा अपने हृदयों पर कंचुकी के साथ-साथ गगनांगन में चन्द्रमा शीघ्र उदित हुआ; (जो ऐसा शोभायमान हुआ) मानों घना अन्धकार फैल जाने पर सुन्दर नेत्र वाली नवलक्ष्मी के द्वारा दीपक जलाया गया। ज्योत्स्ना के रस (चांदनी) से भुवन शुद्ध किया गया मानों उसे क्षीरोदधि में डाल दिया गया हो । कामदेव के बन्धु चन्द्रमा की किरणें----क्या गगन अमृत बिन्दुओं को गिरा रहा है, क्या कर्पूर-प्रवाह से कण गिर रहे हैं, क्या श्रीखण्ड के प्रचुर रस-सीकर गिर रहे हैं ? (ऐसा लगता है मानों) लार फैलाता हुआ मार्जार गवाक्ष-जालों को गोरस की भाँति से चाटता है इत्यादि-- जालियाउ गयवहहिययहि सहुँ उडउ नहंगणे मयलंछणु लहु । भमिए तमंधयार बर अच्छिए दिण्णउ दीवउ णं नहलच्छिए। जोहारसेन भुवणु किउ सुद्धउ खीरमहण्णवम्मि णं छुद्ध उ । कि गयणाउ अभियलवविहडहिं किं कप्पूरपूरकण निवडहिं । किं सिरिखंडबहलरससीयर मयरद्धयबंधवससहरकर । जाल गवक्खई पसरियलालउ गोरस भंतिए लिहइ विडालउ । -ज०सा०च० ८.१५ रोमांच प्रबन्ध काव्य अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य लोकमानस से अधिक अनुप्राणित हैं । अत: उनमें लोककथा के अधिकांश गुण समाहित हए हैं, जिनमें काल्पनिकता और रोमांचकता प्रधान है। इसमें अतिशयोक्तिपूर्ण बातों के द्वारा कथानायक के चरित्र का उत्कर्ष बतलाया गया है । अपभ्रंश ने इस शैली को एक ओर जहाँ लोक से ग्रहण किया है, दूसरी ओर वहाँ प्राकृत की रोमांचक कथाओं से । पादलिप्तसूरि की 'तरंगवतीकथा' में आदि से अन्त तक रोमान्स हैं । सच्चे प्रेम की यह अनूठी गाथा है। इसी प्रकार की 'लीलावती', 'सुरसुन्दरी चरित्र', 'रत्नशेखरकथा' आदि अनेक रचनाएँ प्राकृत में हैं, जिनके शिल्प का प्रभाव अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों पर अवश्य पड़ा होगा। ___ अन्य प्रबन्धकाव्यों की तुलना में अपभ्रंश के इन कथात्मक प्रबन्धों की अलग विशेषताएँ हैं । इनकी एक विशेषता बड़ी उनका प्रेमाख्यान-प्रधान होना तथा साहसिक वर्णनों से भरा होना है। इन काव्यों में किसी चित्र-दर्शन आदि द्वारा नायक-नायिका का एक दूसरे के लिए व्याकुल हो जाना, प्राप्ति का उपाय करना, वियोग में झूरना, अनहोनी घटनाओं द्वारा मिलन तथा पुन: बिछोह होना और अन्त में सभी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर सफल होने का वर्णन उपलब्ध होता है । अपभ्रंश के प्रमुख रोमांचक प्रबन्धकाव्य हैं - १. विलासवती कथा (साधारण सिद्धसेन) २. जिनदत्तकथा (लाखू) ३. पउमसिरिचरिउ (धाहिल)। कवि की यह रचना अत्यन्त ललित है । कवि ने इसे 'कर्णरसायन धर्मकथा' कहा है। इस कथा में एक धनी परिवार की विधवा पुत्री की स्थिति का अंकन है । काव्य सरस एवं भावपूर्ण है। Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ..........-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-........................................ ४ जिनदत्त चउपइ (रल्ह) ५. सुदंसणचरिउ (नयनन्दी) ६ सुदर्शनचरित्र (माणिक्यनन्दि)-इस कथा में प्रसिद्ध सुदर्शन सेठ की कथा है । किन्तु काव्य की शैली एवं कथा का विधान बड़ा आकर्षक है । एक भावुक प्रेमी के अन्तर्द्वन्द्व का हृदयग्राही चित्रण इसमें है। ७. श्रीपाल कथा (रइधू) ८ भविसयत्तकहा (धनपाल) धनपाल की भविसयत्तकहा अपभ्रंश प्रबन्धकाव्यों में कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । यद्यपि इस कथा में श्रुतपंचमीव्रत का माहात्म्य प्रतिपादन किया गया है, किन्तु काव्य की आत्मा पूर्ण लौकिक है । धनपाल ने सम्भवतः अपभ्रंश में सर्वप्रथम लोकनायक की परम्परा का सूत्रपात किया है। साधु और असाधु प्रवृत्तिवाले दो वर्गों के व्यक्तियों का चरित्र इस प्रबन्ध में विकसित हुआ है । भविष्यदत्त की भ्रमण कथा अनेक घटनाओं को अपने में समेटे हुए है। कवि ने जिन वस्तुओं को वर्णन के लिए चुना है उनमें पूर्णता भर दी है । अलंकारों का प्रयोग सर्वत्र व्याप्त है । उपमा अलंकार की छटा द्रष्टव्य है दिक्खइ णिग्गयाउ णं कुलतियउ विणासियसीलउ । पिक्खइ तुरय वलत्थ परसई पत्थण भंगाइ व विगयासई । --भ०द०० ४.१०४ (उसने गजरहित गजशालाओं को शीलरहित कुलीन स्त्रियों की भाँति देखा तथा अश्वरहित घुड़साल उसे ऐसी दिखायी दी मानो आशारहित भग्न प्रार्थनाएं हों। कवि धाहिल स्वाभाविक वर्णन करने में प्रसिद्ध हैं । उन्होंने प्रकृति एवं मानव-स्वभाव के सजीव चित्र उपस्थित किये हैं। यशोमती की विरहवेदना हृदय को प्रभावित करने वाली है आरत्त-नयण, विच्छाय-वयण उम्मुक्क-हास, पसरंत-सास । दरमलिय-कति, कलुणं रुपन्ति उलिग्गदीण निसि सयल खीण । आहरण-विवज्जिय विगय-हार उच्चिणिय-कुसुम नं कुंद-साह । -प०स०च०१।१४।७४ (.."आभरण रहित यशोमती ऐसी कुदशाखा के समान हो गयी जिस पर से फूल बीन लिये गये हों)। अपभ्रश के इन प्रबन्धकाव्यों में न केवल प्रेम और प्रकृति के अनूठे चित्रण हैं, अपितु युद्ध की भीषणता और श्मशान की भयंकरता के भी सजीव वर्णन उपलब्ध हैं। संसार की नश्वरता के तो अनेक सन्दर्भ हैं, जो विभिन्न उपमानों से भरे हुए हैं। शरीर की नश्वरता का क्रम द्रष्टव्य है तणु लायगण वण्ण, णव जोवण्णु रुव विलास संपया । सुरघण मेह जाल जल बुब्बुय सरिसा कस्स सासया । सिसुतणु पासइ णवजोव्वणेण जोव्वण जासई बुड्ढत्तणेण । बुड्ढत्तणु पाणिणं चलियएण पाणु वि खंधोहि गलियएण । -ज०ह० च० ४.१०.१-४ अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों का शिल्प की दृष्टि से स्वतन्त्र अध्ययन अपेक्षित है। इनके सूक्ष्म अध्ययन से ज्ञात होता है कि हिन्दी के प्रेमाख्यान काव्यों का जो स्वरूप आज स्थिर हुआ है उसका बीजवपन और अंकुरोद्भव अपभ्रंश कविता में हो चुका था । अभी कुछ समय पूर्व तक जिस प्रतीक योजना को सूफी काव्यों की मौलिक उद्भावना माना जाता रहा है वह अपभ्रंश रोमांचक काव्यों की प्रतीक पद्धति की देन है। यही स्थिति हिन्दी के प्रबन्धकाव्यों की Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य शैली और शिल्प की है, जिसने अपभ्रंश काव्यों से बहुत कुछ ग्रहण कर उसे अपने ढंग से अभिनव वातावरण में विकसित किया है। सन्दर्भ ग्रन्थ १. कोछड़, हरिवंश : अपभ्रंश साहित्य २. जैन, हीरालाल : णायकुमारचरिउ (भूमिका) ३. भायाणी, एच०सी० : पउमचरिउ (भूमिका) ४. जैन, देवेन्द्रकुमार : अपभ्रंश भाषा और साहित्य ५. शास्त्री, देवेन्द्रकुमार : भविसयत्तकहा तथा अपभ्रंश कथाकाव्य ६. जैन, राजाराम : महाकवि रइधू और उनका साहित्य ७. सिंह, नामवर : हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग ८. उपाध्याय, संकटाप्रसाद : कवि स्वयम्भू है. जैन, विमलप्रकाश : जम्बूसामिचरिउ (प्रस्तावना) १०. जैन, प्रेमचन्द : अपभ्रंशकथाकाव्यों का हिन्दी प्रेमाख्यानकों के शिल्प पर प्रभाव ११. शास्त्री, नेमिचन्द्र : प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास 0000 Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा डॉ. मनमोहनस्वरूप माथुर, प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, आई० बी० कॉलेज, पानीपत (हरियाणा) विश्व-फलक पर राजस्थान की भूमि गौरवपूर्ण विविध रंगों को ग्रहण किये हुए है । वेशभूषा, खान-पान, रहनसहन, भाषा आदि में विविध सांस्कृतिक चेतना को समन्वित करने वाला यह अकेला प्रदेश है । यहाँ दुर्गा और सरस्वती एक ही पटल पर विराजमान हैं। यही कारण है कि राजस्थान के अणु-अणु में झंकृत रण-कंकण की ध्वनि और खड्गों की खनखनाहट के समान ही यहाँ के नगर-नगर, ग्राम-ग्राम में अवस्थित ज्ञान-भण्डारों में तथा जन-जिह्वा पर सरस्वती-सेवकों की गिरा सुरक्षित है। इन ज्ञान-भण्डारों में बैठकर राजस्थान के मूर्धन्य जैन विद्वानों ने विभिन्न विषयों पर साहित्य-निर्माण किया जिनमें उनके द्वारा विरचित भक्ति-साहित्य का अपना विशिष्ट महत्त्व है। राजस्थान में जैनधर्म के प्रचार की जानकारी हमें महावीर स्वामी के निर्वाण के लगभग एक शती बाद से ही मिलने लगती है। पांचवीं-छठी शताब्दी तक यह व्यापक रूप से फैल गया। यही धर्म निरन्तर विकसित होता हुआ आज राजस्थान की भूमि पर स्वणिम रूप से आच्छादित है। राजस्थान में मध्यमिका नगरी को प्राचीनतम जैन नगर कहा जाता है।' करहेड़ा, उदयपुर, रणकपुर, देलवाड़ा (माउण्ट आबू), देलवाड़ा (उदयपुर), जैसलमेर, नागदा आदि स्थानों में निर्मित जैन-मन्दिर राजस्थान में जैनधर्म की प्राचीनता को सिद्ध करते हैं। राजस्थान के साहित्यिक, राजनीतिक, धार्मिक, व्यापारिक और सामाजिक सभी क्षेत्रों में यहाँ के जैनियों का अपूर्व योगदान रहा है। राजस्थान में जैनियों द्वारा लिखित साहित्य की परम्परा का आरम्भ ५वीं-६ठी शताब्दी से माना जा सकता है। ये मुनि प्राकृत-भाषा में साहित्य लिखते थे। प्रथम जैन साहित्यकार का गौरव भी राजस्थान की भूमि को ही प्राप्त कहा जाता है ।' आचार्य सिद्धसेन दिवाकर राजस्थान के प्राचीनतम साहित्यकार थे। राजस्थान के जैन मुनियों को साहित्य के लिए प्रेरित किया यहाँ की राज्याश्रय प्रवृत्ति, धर्मभावना एवं गुरु और तीर्थंकरों की भावोत्कर्षक मूर्तियों ने। जैन परम्परा में उपाध्याय पद की इच्छा ने भी इन मुनियों को श्रेष्ठ साहित्य की रचना के लिए प्रेरित किया। इस प्रकार श्रमण-संस्कृति के परिणामस्वरूप राजस्थान की इस पवित्र गौरवान्वित भूमि पर उत्कृष्ट कोटि का जैन-धामिक साहित्य का भी अपनी विशिष्ट शैलियों में सृजन होने लगा। अपनी साहित्यिक विशिष्टता के कारण यह साहित्य जैन-शैली नाम से जाना जाता है। जैन शैली के अद्यतन प्रमुख साहित्यकारों के नाम हैं-आचार्य सिद्धसेन, आचार्य हरिभद्र, उद्योतनसूरि, जिनेश्वरसूरि, महेश्वरसूरि, जिनदत्त सूरि, शालिभद्र, सूरि, नेमिचन्द्र सूरि, गुणपाल मुनि, विनयचन्द्र, सोममूति, अम्बदेव सूरि, जिनपद्म सूरि, तरुणप्रभ सूरि, मेरुनन्दन, राजेश्वर सूरि, जयशेखरसुरि, हीरानन्द सूरि, रत्नमन्डन गणि, जयसागर, कुशललाभ, समयसुन्दर गणि, ठक्कुर फेरू, जयसिंह मुनि, वाचक कल्याणतिलक, वाचक कुशलधीर, हीरकलश मुनि, मालदेवसूरि, नेमिचन्द भण्डारी, आचार्य श्री तुलसी, आचार्य श्री काल राज जी, आचार्य श्री घासीराम जी, आचार्य श्री आत्माराम जी प्रभृति ।। १. मज्झमिका, प्रथम अंक. १९७३ ई० (डॉ. ब्रजमोहन जावलिया का लेख) २. पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० १६६ Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा ५१७ ........................................................................ इन सभी साहित्यकारों ने यों तो जैन धर्म से सम्बन्धित रचनाओं का ही सृजन किया, जिनका प्रधान रस शान्त है, किन्तु गहराई के साथ अध्ययन के उपरान्त यह साहित्य जनोपयोगी भी सिद्ध होता है । जीवन से सम्बन्धित विविध विषय एवं सृजन की विविध विधाएँ इस साहित्य में उपलब्ध होती हैं । यद्यपि इस साहित्य में कलात्मकता का अभाव अवश्य है, किन्तु भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से समस्त राजस्थानी जैन-साहित्य शोध के लिए व्यापक क्षेत्र प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त १३-१५वीं शताब्दी तक के अजैन राजस्थानी ग्रन्थ स्वन्त्र रूप से उपलब्ध नहीं है, उसकी पूर्ति भी राजस्थानी जैन साहित्य करता है। १७वीं शताब्दी राजस्थानी जैन साहित्य का स्वर्णकाल कहा जाना चाहिए । इस समय तक गुजरात एवं राजस्थान की भाषाओं में भी काफी अन्तर आ चुका था। किन्तु जैन साधुओं के विहार दोनों प्रान्तों में होने से तथा उनकी पर्यटन-प्रवृत्ति के कारण यह अन्तर लक्षित नहीं होता था। विविध काव्य रूप और विषय अब तक पूर्णत: विकसित हो चुके थे। श्री अगरचंद नाहटा ने इन काव्य रूपों अथवा विधाओं की संख्या निम्नलिखित ११७ शीर्षकों में बताई है (१) रास, (२) संधि, (३) चौपाई, (४) फागु, (५) धमाल, (६) विवाहलो, (७) धवल, (८) मंगल, (8) बेलि, (१०) सलोक, (११) संवाद, (१२) वाद, (१३) झगड़ो, (१४) मातृका, (१५) बावनी, (१६) कछा, (१७) बारहमासा, (१८) चौमासा, (१६) कलश, (२०) पवाड़ा, (२१) चर्चरी (चांचरी), (२२) जन्माभिषेक, (२३) तीर्थमाला, (२४) चैत्य परिपाटी, (२५) संघ वर्णन, (२६) ढाल, (२७) ढालिया, (२८) चौढालिया, (२६) छडालिया, (३०) प्रबन्ध, (३१) चरित्र, (३२) सम्बन्ध, (३३) आख्यान, (३४) कथा, (३५) सतक, (३६) बहोत्तरी, (३७) छत्तीसी, (३८) सत्तरी, (३६) बत्तीसी, (४०) इक्कीसो, (४१) इकत्तीसो, (४२) चौवीसो, (४३) बीसी,(४४) अष्टक, (४५) स्तुति, (४६) स्तवन, (४७) स्तोत्र, (४८) गीत, (४६) सज्झाय, (५०) चैत्यवंदन, (५१) देववन्दन, (५२) वीनती, (५३) नमस्कार, (५४) प्रभाती, (५५) मंगल, (५६) साँझ, (५७) बधावा, (५८) गहूँली, (५६) हीयाली, (६०) गूढ़ा, (६१) गजल, (६२) लावणी, (६३) छंद, (६४) नीसाणी, (६५) नवरसो, (६६) प्रवहण, (६७) पारणो, (६८) बाहण, (६६) पट्टावली, (७०) गुर्वावली, (७१) हमचड़ी, (७२) हीच, (७३) माल-मालिका, (७४) नाममाला, (७५) रागमाला, (७६) कुलक, (७७) पूजा, (७८) गीता, (६) पट्टाभिषेक, (८०) निर्वाण, (८१) संयम श्रीविवाह-वर्णन, (८२) भास, (८३) पद, (८४) मंजरी, (८५) रसावली, (८६) रसायन, (८७) रसलहरी, (८८) चन्द्राबला, (८६) दीपक, (६०) प्रदीपिका, (६१) फुलड़ा, (६२) जोड़, (६३) परिक्रम, (६४) कल्पलता, (६५) लेख, (६६) विरह, (६७) मंदड़ी, (६८) सत, (६६) प्रकाश, (१००) होरी, (१०१) तरंग, (१०२) तरंगिणी, (१०३) चौक, (१०४) हुंडी, (१०५) हरण, (१०६) विलास, (१०७) गरबा, (१०८) बोली, (१०६) अमृतध्वनि (११०) हालरियो, (१११) रसोई, (११२) कड़ा, (११३) झूलणा, (११४) जकड़ी, (११५) दोहा, (११६) कुंडलिया, (११७) छप्पय ।' इन नामों में विवाह, स्तोत्र, वंदन, अभिषेक, आदि से सम्बन्धित नामों की पुनरावृत्ति हुई है। इसके अतिरिक्त विलास, रसायन, विरह, गरबा, झूलणा प्रभृति काव्य-विधाएँ चरित, कथा-काव्य एवं ऋतु-सम्बन्धी काव्य रूप में ही समाहित हो जाते हैं । अत: इन सभी काव्यों का मोटे रूप में इस प्रकार वर्गीकरण किया जा सकता है१. पद्य (क) प्रबन्ध काव्य-(अ) कथा चरित काव्य-रस, आख्यान, चरित्र, कथा, विलास, चौपाई, संधि सम्बन्ध, प्रकाश, रूपक, विलास, गाथा इत्यादि । (आ) ऋतुकाव्य-फागु, धमाल, बारहसासा, चौमासा, छमासा, विरह, होरी, चौक, चर्चरी, झूलणा इत्यादि । (इ) उत्सवकाव्य-विवाह, मंगल, मूंदड़ी, गरबा, फुलड़ा, हाल रियो, धवल, जन्माभिषेक, बधावा। १. भारतीय विद्यामन्दिर, बीकानेर-प्राचीन कार्यों की रूप परम्परा, पृ० २-३ Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .... . . ............................................................... (ख) मुक्तककाव्य-(अ) धार्मिक-तीर्थमाला, संघ वर्णन, पूजा, विनती, चैत्य परिपाटी, ढाल, मातृका, नमस्कार, परिभाति, स्तुति, स्तोत्र, निर्वाण, छंद, गीति आदि। (आ) नीतिपरक-कक्का, बत्तीसी, बावनी, शतक, कुलक, सलोका, पवाड़ा, बोली, गूढा आदि । (इ) विविध मुक्तक रचनाएँ-गीत, गजल, लावणी, हमचढ़ी, हीच, छंद, प्रवहण, भास, नीसाणी, बहोत्तरी, छत्तीसी, इक्कीसो आदि संख्यात्मक काव्य, शास्त्रीय काव्य । (२) गद्य ____टब्बा, बालावबोध, गुर्वावली, पट्टावली, विहार पत्र, समाचारी, विज्ञप्ति, सीख, कथा, ख्यात, टीका ग्रन्थ इत्यादि। जैन साहित्य की इन विधाओं में से कतिपय का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है। पद्य काव्य (१) रासौ काव्य-रास, रासक, रासो, राइसौ, रायसौ रायड़, रासु आदि नामों से रासौ नामपरक रचनाएँ मिलती हैं । वस्तुतः भाषा के परिवर्तन के अनुसार विभिन्न कालों में ये नाम प्रचलित रहे। विद्वानों ने रासो की उत्पत्ति विभिन्न रूपों में प्रस्तुत की है। आचार्य शुक्ल बीसलदेव रास के आधार पर रसाइन शब्द से रासो की उत्पत्ति मातते हैं। प्रथम इतिहास लेखक गार्सेद तासी ने राजसूय शब्द से रासौ की उत्पत्ति मानी है। डा० दशरथ ओझा रासौ शब्द को संस्कृत के शब्द से व्युत्पन्न न मानकर देशी भाषा का ही शब्द मानते हैं, जिसे बाद में विद्वानों ने संस्कृत से व्युत्पन्न मान लिया है। डॉ. मोतीलाल मेनारिया रासी की व्याख्या करते हुए लिखते हैं-"चरितकाव्यों में रासौ ग्रन्थ मुख्य हैं । जिस काव्य ग्रन्थ में किसी राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध, वीरता आदि का विस्तृत वर्णन हो, उसे रासो कहते हैं। निष्कर्ष रूप में रासौ रसाइन शब्द से व्युत्पन्न माना जा सकता है। जैन-साहित्य के सन्दर्भ में ये लौकिक और शृंगारिक गीत रचनाएँ हैं, जिनमें जैनियों ने अनेक चरित काव्यों का निर्माण किया। ये रासौ काव्य शृंगार से आरम्भ होकर शान्तरस में परिणत होते हैं । यही जैन रासौ-काव्य का उद्देश्य है। इस परम्परा में लिखे हुए प्रमुख रासौ ग्रन्थ हैं-विक्रमकुमार रास (साधुकी ति), विक्रमसेन रास (उदयभानु) बेयरस्वामी रास (जयसागर) श्रेणिक राजा नो रास (देपाल), नलदवदंती रास (ऋषिवर्द्धन सूरि), शकुन्तला रास (धर्मसमुद्रगणि),१० तेतली मंत्री रास (सहजसुन्दर)," वस्तुपाल-तेजपाल रास (पार्श्वचंद्र सूरि),१२ चंदनबाला रास (विनय समुद्र), जिनपालित जिन १. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ० ३२ २. हिन्दी साहित्य का इतिहास ३. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास, पृ० ७० (द्वितीय संस्करण) ४. राजस्थान का पिंगल साहित्य, पृ० २४ (१९५२ ई.) ५. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० ३४-३५ ६. वही, पृ० ११३ ७. वही, पृ० २७ ८. वही, पृ० ३७, भाग ३, पृ० ४४६, ४६६ ९. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ७५०, ७६८ १०. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० ११६; भाग ३, पृ. ५४८ ११. वही, भाग १, पृ० १२०, भाग ३, पृ० ५५७ १२. वही, भाग १, पृ० १३६, भाग ३, पृ० ५८६ १३. राजस्थान भारती, भाग ५, अंक ६, जनवरी १९५६ Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा रक्षित रास ( कनक सोम) १ तेजसार रास, अगड़दत्त रास ( कुशललाभ ) २, अंजनासुन्दरीरास ( उपाध्याय गुण - विनय ) " । (२) चौपाई (चउपाई, पपई) रासी विधा के पश्चात् जैन साहित्य में सर्वाधिक रचनाएँ चोपाई नाम से मिलती है । यह नाम छन्द के आधार पर है। चौपाई सममात्रिक छन्द है, जिसके प्रत्येक चरण में पन्द्रह एवं सोलह मात्राएँ होती हैं । १७वीं शताब्दी तक रासौ और चौपाई परस्पर पर्याय रूप में प्रयुक्त होने लगे कुछ उल्लेखनीय चौपाई काव्य निम्नलिखित है— पंचदण्ड चौपाई (१५५६ अज्ञात कवि), पुरन्दर चौपई (मालदेव) * चंदन राजा मलयागिरी चौपाई (हीरविशाल के शिष्य द्वारा रचित ) चंदनबाला चरित चौपाई (देपाल), मृगावती चौपाई (विनयसमुद्र) 5. अमरसेन चयरसेन चौपाई ( राजनीस) माधवानल कामकंदला चौपाई, ढोला माखणी चौपाई, भीमसेन हंसराज चौपाई ११, (कुशललाभ), देवदत्त चौपाई (मालदेव) १२ आषाढ़भूति चौपाई ( कनकसोम ) ३, गोराबादल पद्मिनी चौपाई (हेमन्त सूरि ) १४, गुणसुन्दरी चौपई (गुणविनय ) । १५. १७ (३) सन्धि-काव्य - अपभ्रंश महाकाव्यों के अर्थ में संधि शब्द का प्रयोग होता था । महाकाव्य के लक्षण ब हुए हेमचन्द्र ने कहा है कि संस्कृत महाकाव्य सर्गों में, प्राकृत आश्वासों में अपभ्रंश संधियों में एवं ग्राम स्कन्धों में निबद्ध होता है । १६ भाषा-काव्य ( राजस्थानी ) में संधि नाम की रचनाएँ १४वीं शताब्दी से मिलने लगती हैं । कतिपय संधि काव्य इस प्रकार हैं- आनंद संधि (विनयचंद), केशी गौतम संधि * ( कल्याणतिलक), नंदनमणिहार संधि ( चारुचंद्र ), उदाहरणर्षि संधि, राजकुमार संधि ( संयममूर्ति), सुबाहु संधि ( पुण्यसागर), जिनपालित जिनरक्षित संधि, हरिकेशी संधि ( कनकसोम), चउसरण प्रकीर्णक संधि ( चारित्रसिंह), भावना संधि ( जयसोम) अनाथी संधि (विमल - विनय, कला संधि (गुणविनय ४. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० ६६ ५. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० १०-१०० ६. कल्पना - दिसम्बर १६५७, पृ० ८१ (४) प्रबन्ध, चरित, सम्बन्ध, आख्यान, कथा, प्रकाश, विलास, गाथा इत्यादि -- ये सभी नाम प्राय: एक दूसरे के पर्याय हैं । जो ग्रन्थ जिसके सम्बन्ध में लिखा गया है, उसे उसके नाम सहित उपर्युक्त संज्ञाएँ दी जाती हैं । ७. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० ३७ ८. राजस्थानी भारती भाग ५ अंक १ जनवरी १९५६ " १. युगप्रधान श्री जिनचंद्रसूरि पृ० १९४-९५ २. मनमनोहनस्वरूप माथुर कुशललाभ और उनका साहित्य (राजस्थान विश्वविद्यालय से स्वीकृत शोध प्रबन्ध) ३. शोध पत्रिका, भाग ८, अंक २-३, १६५६ ई० ६. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, पृ० ५३६ १०. सं०] मोहनलाल दलीचंद देसाई आनन्द काव्य महोदधि, मी० ७ ५१६ ११. एल० डी० इंस्टीट्यूट, अहमदाबाद, हस्तलिखित ग्रंथ १२. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग २ +++ १३. युगप्रधान श्री जिनचंद्र सूरि पृ० १६४-६५ १४. कल्पना, वर्ष १, अंक १, १९४९ ई० ( हिन्दी और मराठी साहित्य प्रकाशन - माचवे ) १५. शोधपत्रिका, भाग ८, अंक २-३, १६५६ ई० १६. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी - राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २३७ १७. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० ३७ १०. डॉ० हीरालाल माहेश्वरी– राजस्थानी भाषा और साहित्य १० . Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड इन नामों में सम्बन्धित कुछ काव्य रचनाओं के नाम हैं-भोज चरित (मालदेव) अंबड चरित (विनयसुन्दर)२ नवकार प्रबन्ध (देवाल), भोजप्रबन्ध (मालदेव), कालिकाचार्य कथा, आषाढ़भूति चौपाई सम्बन्ध (कनकसोम)५ विद्या-विलास (हीरानन्द सूरि)।६ (५) पवाड़ो और पवाड़ा-पवाड़ा शब्द की व्युत्पत्ति भी विवादास्पद है। डॉ. सत्येन्द्र, इसे परमार शब्द से व्युत्पन्न मानते हैं। पंवाड़ो में वीरों के पराक्रम का प्रयोग होता है। यह महाराष्ट्र का प्रसिद्ध लोकछन्द भी है। बंगाली में वर्णात्मक कविता अथवा लम्बी कविता के कथात्मक भाग में पयार कहते हैं। बंगाली में भी यह एक छन्द है। पयार की उत्पत्ति संस्कृत के प्रवाद से मानी जाती है। डॉ० मंजुलाल र० मजुमदार के अनुसार पंवाड़ो वीर का प्रशस्ति काव्य है। रचनाबन्ध की दृष्टि से विविध तत्त्वों के आधार पर वे आसाइत के हंसावली प्रबन्ध, भीम के सदयवत्सवीर प्रबन्ध तथा शालिसूरि के विराट पर्व के अन्तर्गत मानते हैं ।१० पवाडा के लिए प्रवाडा शब्द का भी प्रयोग मिलता है।११ इस प्रकार पवाडा या पवाडो का प्रयोग कीर्ति गाथा, वीरगाथा, कथाकाव्य अथवा चरित काव्यों के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला शब्द है जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत के प्रवाद शब्द से मानी जा सकती है-सं० प्रवाद > प्रा. पवाअ>पवाड़अ-पवाडो। चारण-साहित्य में इसका प्रयोग बहुधा वीर-गाथाओं के लिए हुआ है तथा जैन साहित्य में धार्मिक ऋषि-मुनियों के वर्चस्व को प्रतिपादित करने वाले ग्रन्थों के लिए। जैन साहित्य में इस नाम की प्रथम रचना हीरानन्दसूरि रचित विद्याविलास पवाडा (वि० सं० १४८५) को माना जाता है ।१२ ऐसी ही अन्य कृति हैबंकचूल पवाड़ो (ज्ञानचन्द्र)।3 (६) ढाल-किसी काव्य के गाने की तर्ज या देशी को ढाल कहते हैं। १७वीं शताब्दी से जब रास, चौपाई आदि लोकगीतों की देशियों में रचे जाने लगे तब उनको ढालबंध कहा जाने लगा। प्रबन्ध काव्यों में ढालों के प्रयोग के कारण ही इसका वर्णन प्रबन्ध काव्य की विधा में किया जाता है, अन्यथा यह पूर्णतः मुक्तक काव्य की विधा है। जैन-साहित्य में अनेक भजनों का ढालों में प्रणयन हुआ। मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने लगभग २५०० देशियों की सूची दी है ।१४ कुछ प्रमुख ढालों के नाम इस प्रकार हैं-ढाल वेली नी, ढाल मृगांकलेखा नी, ढाल संधि नी ढाल वाहली, ढाल सामेरी, ढाल उल्लाला।१५ १. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ. ३०५ २. राजस्थान भारती, भाग ५, अंक १, जनवरी, १९५६ ई० ३. जैन गुर्जर कविओ, पृ० ३७ ४. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ०६८-१०० ५. युगप्रधान श्री जिनचंद्र सूरि, पृ० १९४-९५ ६. डॉ. माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २४८ ७. मरुभारती, वर्ष १, अंक ३, सं० २०१० ८. कल्पना, वर्ष १, अंक १, १९४६ ई० (हिन्दी और मराठी साहित्य-प्रभाकर माचवे) ६. डॉ. हीरालाल माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २३८ १०. गुजराती साहित्य नो स्वरूपो, पृ० १२३, १२५ ११. मुहता नैणसी री ख्यात, भाग १, पृ० ७१ १२. गुर्जर रासावली-एम० एस० यूनीवर्सिटी प्रकाशन १३. जैन गुर्जर कविओ, भाग ३, पृ० ५४३-४४ १४. आनन्द महाकाव्य महोदधि, मौ० ७ १५. सं० भंवरलाल नाहटा-ऐतिहासिक काव्य संग्रह - 0 Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा ५२१ . (७) फागु-काव्य-ऋतु-वर्णन में फागु-काव्य जैन साहित्य की विशिष्ट साहित्यिक विधा है । फाल्गुन-चैत्र (बसन्त ऋतु) मास में इस काव्य को गाने का प्रचलन है। इसलिए इन्हें फागु या फागु-काव्य भी कहा जाता है। गरबा भी ऐसे उत्सवों पर गाये जाने वाले नृत्यगीत हैं। फागु और गरबा रास काव्य के ही प्रभेद हैं। इन काव्यों में शृगार-रस के दोनों रूपों-संयोग और वियोग का चित्रण किया जाता है। प्रवृत्तियों एवं काव्य शैली के आधार पर विद्वानों ने फागु की व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से मानी है। डॉ० बी० जे० साण्डेसरा फागु को संस्कृत के फला शब्द से व्युत्पन्न मानते हैं-फला-फगु---फागु ।' डिंगल कोश में फाल्गुन के पर्यायवाची फालगुण और फागण बताये हैं । इन व्युत्पत्तियों से यह भी स्पष्ट होता है कि फागु का उद्भव गेय-रूपकों काव्यों में वसन्तोत्सव मनाने से से हुआ है। इनमें मुख्य रूप से संयमश्री के साथ जैन मुनियों के विवाह, शृंगार, विरह और मिलन वणित होते हैं। जैन मुनि चूंकि सांसारिक बन्धन तोड़ चुके हैं, अतः उनके लौकिक विवाह का वर्णन इनमें नहीं मिलता । इन्हीं विषयों को लेकर जैन मुनियों ने १४वीं शताब्दी से १७वीं शताब्दी अनेक ऋषियों से सम्बन्धित फागु काव्यों का निर्माण किया। इस शृंखला की प्राचीनतम रचना जिनचन्द सूरि फागु (वि० सं० १३४६-१३७३) कही गयी है। अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाएँ इस प्रकार हैं-स्थूलभद्र फाग (देवाल), नेमिफाग (कनकसोम),५ नेमिनाथ फाग जम्बूस्वामी फाग आदि । (८) धमाल-फागु-काव्यों के पश्चात् धमाल-काव्य-रूप का विकास हुआ। यों फागु और धमाल की विषयवस्तु समान ही है। होली के अवसर पर आज भी ब्रज और राजस्थान में धमालें गाने का रिवाज है। यह एक लोक-परम्परा का शास्त्रीय राग है। जैन कवियों ने इस परम्परा में अनेक रचनाएँ की हैं। यथा-आषाढ़भूति धमाल, आर्द्र कुमार, धमाल (कनकसोम) नेमिनाथ धमाल (मालदेव) इत्यादि । (e) चर्चरी (चांचरी)-धमाल के समान ही चर्चरी भी लोकशैली पर विरचित रचना है। ब्रजप्रदेश में चंग (ढप्प) की ताल के साथ गाये जाने वाले फागुन और होली के गीतों को चंचरी कहते हैं। अतः वे संगीतबद्ध राग-रागिनियों में बद्ध रचनाएँ जो नृत्य के साथ गायी जाती हैं, चर्चरी कहलाती है । प्राकृ-पैगलम् में चर्चरी को छन्द कहा गया है। जैन-साहित्य में चर्चरीसंज्ञक रचनाओं का आरम्भ १४वीं शताब्दी से हुआ।११ जिनदत्तसूरि एवं जिनवल्लभसूरि की चचियाँ विशेष प्रसिद्ध हैं, जो गायकवाड़ ओरियंटल सीरीज में प्रकाशित हैं। (१०) बारहमासा-बारहमासा, छमासा, चौमासा-संज्ञक काव्यों में कवि वर्ष के प्रत्येक मास, ऋतुओं अथवा कथित मासों की परिस्थितियों का चित्रण करता है। इसका प्रमुख रस विप्रलम्भ श्रृंगार होता है। नायिका के विरह १. प्राचीन फागु-संग्रह, पृ० ५३ २. परम्परा ३. सम्मेलन पत्रिका (नाहटाजी का निबन्ध 'राजस्थानी फागु काव्य की परम्परा और विशिष्टता') ४. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० ३७, पृ० ४४६, ४६६ ५. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, चै० ८६६ ६. सम्मेलन पत्रिका ७. सी० डी० दलाल-प्राचीन गुर्जर कवि-संग्रह, पृ० ४१, पद २७ ८. युगप्रधान जिनचंद्र सूरि, १० १९४-६५ ६. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग २ १०. हिन्दी छन्द प्रकाश, पृ० १३१ ११. जैन सत्य प्रकाश, वर्ष १२, अंक ६ (हीरालाल कावडिया का 'चर्चरी' नामक लेख) Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५२२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .......... ............................................................ को उद्दीप्त करने के लिए प्रकृति-चित्रण भी इन रचनाओं में सघन रूप में मिलता है। मासों पर आधारित जैन साहित्य की यह विधा लोक साहित्य से ग्रहीत है। बारहमासा का वर्णन प्राय: आषाढ़ मास से आरम्भ किया जाता है । जैन कवियों ने बारहमासा, छमासा अथवा चौमासा काव्य-परम्परा के अन्तर्गत अनेक कृतियाँ लिखी हैं, यथा-नेमिनाथ बारमासा चतुष्पदिका (विनयचन्द्रसूरि),' नेमिनाथ राजिमति बारमास (चारित्रकलश)। जैन-रास, चौपाई, फागु-संज्ञक रचनाओं में इन कवियों ने यथा-प्रसंग बारहमासा आदि के मार्मिक चित्र प्रस्तुत किये हैं । कुशललाभ की माधवानल कामकंदला, अगड़दत्त रास, ढोला माखणी चौपई, स्थूलिभद्र छत्तीसी, भीमसेन हंसराज चौपई आदि रचनाओं से इनके श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं । (११) विवाहलो, विवाह, धवल, मंगल-जिस रचना में विवाह का वर्णन हो, उसे विवाहला और इस अवसर पर गाये जाने वाले गीतों को धवल या मंगल कहा जाता है। विवाह-संज्ञक रचनाओं में जिनेश्वर सूरिकृत संयमश्री विवाह वर्णन रास एवं जिनोदय सूरि विवाहला अब तक प्राप्त रचनाओं में प्राचीनतम हैं तथा धवल-संज्ञक रचनाओं में जिनपति सूरि का धवलगीत प्राचीनतम माना गया है। इन नामों से सम्बन्धित अन्य रचनाएँ हैं-नेमिनाथ विवाहलो (जयसागर), आर्द्र कुमार धवल (देपाल), महावीर विवाहलउ (कीतिरत्न सूरि), शान्तिविवाहलउ (लक्ष्मण), जम्बू अंतरंग रास विवाहलउ (सहजसुन्दर), पार्श्वनाथ विवाहलउ (पेथो), शान्तिनाथ विवाहलो धवल प्रबन्ध (आणन्द प्रमोद), -सुपार्श्वजिन-विवाहलो (ब्रह्मविनयदेव)। (१२) वेलि-रचना-प्रकार की दृष्टि से वेलि हिन्दी के लता, वती आदि काव्य रूपों की तरह है। इसमें भी विवाह-प्रसंग का ही चित्रण किया जाता है। चारण कवियों द्वारा रचित कृतियों में वि० सं० १५२८ के आसपास रचित बाछा कृत चिहुँगति वेलि सबसे प्राचीन कही जाती है। अन्य महत्त्वपूर्ण जैन-वेलियाँ हैं-जम्बूवेलि (सीहा), गरभवेलि (लावण्यसमय), गरभवेलि (सहजसुन्दर), नेमि राजुल बारहमासा बेलि (वि० सं० १६१५), स्थूलिभद्र मोहन वेलि (जयवंत सूरि) जहत पद वेलि (कनकसोम) इत्यादि । (१३) मुक्तक काव्य-राजस्थानी जैन मुक्तक काव्य का अध्ययन धार्मिक नीतिपरक एवं इतर धार्मिक शीर्षकों में किया जा सकता है। धामिक साहित्य के अन्तर्गत जैन कवियों ने गीत, कवित्त, तीर्थमाला, संघवर्णन, पूजा, विनती, चैत्य, परिपाटी, मातृका, नमस्कार, परभाति, स्तुति, स्तोत्र, मूंदड़ी, सज्झाय, स्तवन, निर्वाण, पूजा, छंद, चौबीसी, छत्तीसी, शतक, हजारा आदि नामों से की है। इन रचनाओं में तीर्थंकरों, जैन महापुरुषों, साधुओं, सतियों, तीर्थों आदि के गुणों का वर्णन किया जाता है । दुर्गुणों के त्याग और सद्गुणों के ग्रहण करने के गीत तथा आध्यात्मिक गीत भी धार्मिक मुक्तक-काव्य की विषय-वस्तु है । कुछ उल्लेखनीय रचनाएँ हैं-चौबीस जिनस्तवन, अजितनाथ स्तवन विनती, अष्टापद तीर्थ बावनी, चतुरविंशतीजिनस्तवन, अजितनाथ विनती, पंचतीर्थक र नमस्कारस्तोत्र, महावीर वीनती, नगर १. प्राचीन गुर्जर काव्य-संग्रह २. गुजराती साहित्य ना स्वरूपो, पृ० २७६ ३. सं० भंवरलाल नाहटा, ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह ४. डा० माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २४४ ५ ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, पृ० ४०० ३. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ८६७ जैन सत्यप्रकाश, अंक १०-११, वर्ष ११, क्रमांक १३०-३१ । ५. डा० माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २४३ है. जैन धर्म प्रकाश, वर्ष ६५, अंक २ (हीरालाल कावडिया का लेख) Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा ५२३ . .................................................................. ...... कोट-साहित्य परिपाटी, चैत्य परिपाटी, शान्तिनाथ वीनती (जयसागर) 'स्नात्र पूजा, थावच्याकुमार दास (देपाल), नेमिगीत (मतिशेखर) गुणरत्नाकर-छंद, ईलातीपुत्र-सज्झाय, आदिनाथ शत्रुजय स्तवन (सहजसुन्दर) साधुवंदना; उपदेश रहस्य गीत; वीतरागस्तवन ढाल; आगमछत्रीशी; एषणाशतक; शत्रुजय स्तोत्र (पार्श्व सूरि) स्तंभन पार्श्वनाथस्तवन; गोड़ी-पार्श्वनाथ छंद; पूज्यवाहण गीत; नवकारछंद (कुशललाभ) महावीर पंचकल्याण स्तवन; मनभमरागीत (मालदेव); सोलहस्वान सज्झाय (हीरकलश) इत्यादि । नीतिपरक रचनाएँ यदि जैन साहित्य को उपदेश, ज्ञान और नीति परक भी कहे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। कारण, जैन कवियों का मुख्य उद्देश्य धार्मिक प्रचार करना था। अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने संवाद, कक्का, बत्तीसी, मातृका, बावनी, कुलक, हियाली, हरियाली, गूढा, पारणो, सलोक, कड़ी, कड़ा इत्यादि साहित्यिक विधाओं को ग्रहण किया। इनमें से उल्लेखनीय विधाओं का परिचय इस प्रकार है (१४) संवाद-इनमें दोनों पक्ष एक-दूसरे को हेय बताते हुए अपने पक्ष को सर्वोपरि रखते हैं। दोनों ही पक्षों. की मूलभावना सम्यक्ज्ञान करवाना है । कुछ संवाद जैनेतर विषयों पर भी है। संवाद संज्ञक रचनाएँ १४वीं शताब्दी से मिलने लगती हैं। कुछ उल्लेखनीय संवाद निम्नलिखित हैं--आँख-कान संवाद; यौवन-जरा संवाद (सहजसुन्दर); कर-संवाद, रावण-मंदोदरी संवाद, गोरी-साँवली संवाद गीत (लावण्यसमय); जीभ-संवाद, मोती-कपासिया संवाद (हीरकलश); सुखड़ पंचक संवाद (नरपति) इत्यादि । (१५) कक्का-मातृका-बावनी-बारहखड़ी-ये सभी नाम परस्पर पर्याय हैं। इनमें वर्णमाला के बावन अक्षर मानकर प्रत्येक वर्ग के प्रथम अक्षर से आरम्भ कर प्रासंगिक पद रचे जाते हैं। बावनी नाम इस सन्दर्भ में १६वीं शताब्दी से प्रयोग में आया। ऐसी प्रकाशित कुछ रचनाएँ हैं-छीहल बावनी१९, डूंगर बावनी(पद्मनाभ)", शील बावनी (मालदेव)१२, जगदम्बा बावनी (हेमरत्नसूरि)। (१६) कुलक या खुलक-जिस रचना में किसी शास्त्रीय विषय की आवश्यक बातें संक्षेप में संकलित की गई हों अथवा किसी व्यक्ति का संक्षिप्त परिचय दिया गया हो-ऐसी रचनाएँ कुलक कही जाती हैं।४ १६वीं-१७वीं १. शोधपत्रिका, भाग ६, अंक १, दिस० १६५७ ई० २. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, भाग ३, पृ. ४४६ ३. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास, पै० ७६८ ४. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० १२०, भाग ३, पृ०५५७; (१९६२) ५. वही, पृ० १३६, भाग ३, पृ० ५८६ ।। ६. मनोहनस्वरूप माथुर-कुशललाभ और उनका साहित्य (राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत शोध प्रबन्ध) ७. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० १५-१०० ८. शोध पत्रिका, भाग ७, अंक ४ है. डॉ. माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २४५ १०. अनूप संस्कृत लायब्रेरी, बीकानेर, हस्तलिखित प्रति सं० २८२२२ (अ) ११. श्री अभय जैन ग्रन्थमाला, बीकानेर हस्तलिखित प्रति १२. राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, भाग २ १३. डॉ० माहेश्वरी-राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २६६ १४. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५८, अंक ४, सं० २०१० Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............................................ शताब्दी के कतिपय कुलक इस प्रकार हैं---ब्रह्मचर्य दशसमाधिस्थान कुलक, वंदन दोष ३२ कुलक, गीतार्थ पदावबोध कुलक (पार्श्वचद्र सूरि)', दिनमान कुलक (हीरकलश)। - (१७) हीयाली-कूट या पहेली को हीयाली कहते हैं। हीयालियों का प्रचार सोलहवीं शताब्दी से हुआ। इस काव्य-शैली की प्रमुख कृतियाँ हैं -हरियाली (देपाल), गुरुचेला-संवाद (पिंगल शिरोमणि कुशललाभ कृत के अंश), अष्टलक्ष्मी (समयसुन्दर) इत्यादि । (१८) विविध मुक्तक रचनाएं-जैन कदियों ने जैन धर्म से हटकर अन्य विषयों पर भी गीत, छंद, छप्पय, गजलें, पद, लावनियाँ, भास, शतक, छत्तीसी आदि नामों से भी रचनाएँ की हैं। इनके विषय इतिहास, उत्सव, विनोद आदि हैं। इनके अतिरिक्त जैन मुनियों ने शास्त्रीय विषयों को भी अपने साहित्य का आधार बनाया। इस दृष्टि से व्याकरण, काव्यशास्त्र, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष प्रभृति अनेक शास्त्रीय ग्रन्थ एवं उन पर टीकाएँ उपलब्ध हैं। संख्याधारी रचनाओं में छन्दों की प्रमुखता होती हैं। कहीं-कहीं उनमें निहित कथाओं अथवा उपदेशों को भी ये संख्या द्योतित करते हैं। जैसा-वैताल पच्चीसी (ज्ञाचन्द्र) सिंहासन बत्तीसी (मलयचंद्र), विल्हण पंचाशिका (ज्ञानाचार्य) संख्या नामधारी काव्य-रचनाओं में इन्होंने अधिकांशत: धार्मिक स्तुतियां ही लिखी हैं। महत्त्वपूर्ण शास्त्रीय ग्रन्थ निम्नलिखित हैं (क) व्याकरण शास्त्र-बाल-शिक्षा, उक्ति रत्नाकर, उक्तिसमुच्चय, हेमव्याकरण', उडिंगल-नाममाला ।१० (ख) काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ-पिंगलशिरोमणि, दूहाचंद्रिका, वृत्तरत्नाकर, विदग्ध मुखमंडनबालावबोध इत्यादि। (ग) गणितशास्त्र-लीलावती-भाषा चौपाई, गणितसार-चौपाई, गणित साठिसो इत्यादि । (घ) ज्योतिष शास्त्र-पंचांग-नयन चौपाई, शकुनदीपिका चौपाई, अंगफुरकन चौपाई, वर्षफलाफल सज्झाय आदि।११ गद्य-साहित्य (१६) जैनियों ने पद्य के साथ-साथ राजस्थानी को श्रेष्ठ कोटि की गद्य रचनाएँ भी दी हैं हिन्दी ग्रन्थ के विकासक्रम की भी यही परम्परा प्रथम सोपान है । जैनियों द्वारा लिखित गद्य के दो रूप मिलते हैं-गद्य-पद्य मिश्रित तथा शुद्ध गद्य । गद्य-पद्यमिश्रित गद्य संस्कृत-चम्पू साहित्य के समान ही वचनिका साहित्य के नाम से अभिहित है। चारण गद्य साहित्य में अनेक बचनिकाएं लिखी गई हैं। जैन शैली में इस परम्परा की उपलब्ध रचनाएँ हैं-जिनसमुद्रसूरि री वचनिका, जयचन्दसूरिकृत माता जी री वचनिका (१८वीं शती वि०)। १. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० १३६, भाग ३, पृ० ५८६ २. शोध पत्रिका, भाग ७, अंक ४, सं० २०१३ (राजस्थान के एक बड़े कवि हीरकलश) ३. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, ३ ४. परम्परा, भाग १३; राजस्थान भारती, भाग २, अंक १, १९४८ ई० ५. आनन्द काव्य महोदधि, मौक्तिक ७ ६. जैन गुर्जर कविओ, भाग १, पृ० ५४५ ७. वही, पृ० ४७४ ८. वही, पृ० ६३६ १. पूज्यप्रवर्तक श्री अम्बालालाजी महाराज अभिनंदन ग्रन्थ ('राजस्थानी जैन साहित्य' नामक लेख), पृ. ४६० १०. परम्परा, भाग १३ ११. पूज्यप्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४६४ Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी जैन साहित्य की रूप-परम्परा ५२५ ... .................................................................. . (२०) टोका-टब्बा-बालावबोध-काव्य, आयुर्वेद, व्याकरण प्रभृति मूल रचनाओं के स्पष्टीकरण के लिए पत्रों के किनारों पर जो संक्षिप्त गद्य-टिप्पणियाँ हाँशिये पर लिखी जाती हैं, उन्हें टब्बा तथा विस्तृत स्पष्टीकरण को बालावबोध कहा जाता है। विस्तार के कारण बालावबोध सुबोध होता है। इसमें विविध दृष्टान्तों का भी प्रयोग किया जाता है । मूल-पाठ पृष्ठ के बीच में अंकित होता है। इस शैली में लिखित साहित्य ही टीका कहलाता है। राजस्थानी जैन-टीका साहित्य समृद्ध है। उल्लेखनीय टीकाएँ निम्नलिखित हैं धूर्ताख्यानकथासार, माधवनिदान टब्बा, वैद्य जीवन टब्बा, शतश्लोकी टब्बा, पथ्यापथ्य टब्बा, विवाहपडल बालावबोध, भुवनदीपक बालावबोध, मुहूर्तचिंतामणि बालावबोध, भर्तृहरि भाषा टीका इत्यादि ।' २१. पट्टवली-गुर्वावली-- इनमें जैन लेखकों ने अपनी पट्टावली परम्परा और गुरुपरम्परा का ऐतिहासिक दृष्टि से वर्णन किया है । ये गद्य-पद्य दोनों रूपों में लिखी गई हैं। तपागच्छ और खरतरगच्छ आदि की पट्टावलियाँ तो प्रसिद्ध हैं ही, पर प्रायः प्रत्येक गच्छ और शाखा की अपनी पट्टावलियाँ लिखी गई हैं। (२२) विज्ञप्ति पत्र, विहार पत्र, नियम पत्र, समाचारी-इन पत्रों के अन्तर्गत जैनाचार्यों के भ्रमण, उनके नियम एवं श्रावकों को चातुर्मास, निवास इत्यादि की सूचनाओं का वर्णन किया जाता है । विज्ञप्ति पत्रों में मार्ग में आने वाले नगरों, ग्रामों का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया जाता है। पत्र लेखन शैली की दृष्टि से भी इनका महत्त्व है। (२३) सीख-सीख का अर्थ है शिक्षा । जैन लेखकों ने धार्मिक शिक्षा के प्रचार की दृष्टि से जिन गद्य-रचनाओं का निर्माण किया, वे सीख-ग्रन्थ हैं। इस प्रकार राजस्थानी का जैन-साहित्य विविध विधाओं में लिखा हुआ है। कथाकाव्यों, चरितकाव्यों के रूप में इन कवियों और लेखकों ने जहाँ धार्मिक स्तुतिपरक रचनाओं का निर्माण किया वहीं गद्य रूप में वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया। इस साहित्य में चाहे साहित्यिकता का अभाव रहा हो पर भाषा के अध्ययन एवं साहित्यिक रूपों के विकास की दृष्टि से वह महत्त्वपूर्ण है। जैन साहित्य की आत्मा धार्मिक होने से उसका अंगी रस शान्त है। यों कथा-चरित काव्यों का आरम्भ शृंगार रस से ही हुआ है। विक्रम सम्बन्धी रचनाओं एवं गोरा-बादल सम्बन्धी जैन रचनाओं में वीर रस की भी प्रधानता है। प्रत्येक कृति का आरम्भ मंगलाचरण, गुरु, सिद्ध, ऋषि की वंदना से हुआ है तथा अन्त नायक के संन्यास एवं उसकी सुचारु गृहस्थी के चित्रण द्वारा । चरित-काव्यों एवं मुक्तक रचनाओं के अन्दर लौकिक दृष्टान्तों का स्पर्श है। राजस्थानी जैन गद्य का हिन्दी के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, किन्तु ऐसे महत्त्वपूर्ण साहित्य का संकलन अभी तक अपूर्ण है। १. पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४६४ Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DISC तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य [] मुनि श्री दुलहराज, युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के शिष्य +-+ साहित्य की गंगा अनेक धाराओं में प्रवाहित रही है। उद्गम स्थल में धारा एक वह अपने क्षेत्रको विस्तृत करती हुई आगे बढ़ती है, उसकी अनेक धाराएँ हो जाती हैं। विशेषता को लेकर प्रवाहित होती है। वह मूल से सर्वथा विभिन्न नहीं होती । प्रत्येक रहता है, फिर भी उसका अपना एक वैशिष्ट्य होता है ओ अन्य धाराओं में नहीं मिलता। साहित्य की दो मुख्य धाराएँ हैं— गद्य और पद्य । इनके अवान्तर भेद अनेक हो सकते हैं । गद्य साहित्य सरल और सुबोध होता है और पद्य साहित्य कठिन और दुर्बोध । यह भी अकारण नहीं है । गद्य विस्तार - रुचि का परिणाम है और पद्य संक्षेप रुचि का । विस्तार रुचि से लिखा गया साहित्य प्रत्येक अंश की विशद व्याख्या करता हुआ आगे बढ़ता है । उसका दृष्टिकोण होता है कि मेरी बात पाठक को स्पष्ट समझ में आए। कहीं भी कोई बात निगूढ़ न रहे। होती है परन्तु ज्यों-ज्यों प्रत्येक धारा अपनी एक धारा में मूल प्रतिबिम्बित सामान्यतः गद्य साहित्य से ऐसे साहित्य का बोध होता है जो वास्तव में ध्वन्यात्मक हो, शब्दों की अभिव्यंजना किसी शाश्वत तथ्य की पुष्टि करती हो । पद्यात्मक विधा सीमा में प्रवाहित होने वाली धारा है। उसका अपना निश्चित विधान और विज्ञान होता है। वह उनका अतिक्रमण नहीं कर सकती। यह थोड़े में बहुत कहने की विधा है। यह मर्म को छूती है, परन्तु बहुत कम व्यक्ति इसे आत्मसात् कर पाते हैं । तेरापंथ प्राणवान् संघ है । इसका इतिहास केवल दो सौ वर्ष पुराना है। आचार्य भिक्षु इसके प्रवर्तक थे । उन्होंने विक्रम संवत् १८१७ में इसका प्रारम्भ किया। वह समय एक धार्मिक कट्टरता का समय था । स्थान-स्थान पर धार्मिक चर्चाएँ होती थीं, वाद-विवाद आयोजित किये जाते थे। एक पक्ष अपनी श्रेष्ठता और सत्यता को प्रमाणित करने के लिए तर्कों को ढूंढ़ता था। इस प्रक्रिया ने अनेक ग्रन्थों के आलोड़न विलोड़न की ओर मुमुक्षुओं को प्रेरित किया । इससे तथ्यात्मक ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ तर्क- प्रतितर्क का विकास हुआ और परिणामस्वरूप विशाल साहित्य का निर्माण हो गया । तेरापंथ गण ने अपनी इस २१५ वर्षों की कलावधि में अनेक साहित्यकारों को उत्पन्न किया है, जिन्होंने विपुल साहित्य-सृजन कर राजस्थानी साहित्य भण्डार को भरा है। उनमें आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु तथा चतुर्थ गणी श्री मज्जवाचार्य का नाम सर्वोपरि है। इन दोनों विभूतियों ने राजस्थानी भाषा में विपुल साहित्य की रचना की। अधिक रचनाएँ पचात्मक हैं और उनका विषय भी धार्मिक मान्यताओं के विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करना रहा है। इन दोनों विभूतियों ने राजस्थानी गद्य में भी अनेक रचनाएँ लिखीं। इन रचनाओं में राजस्थानी भाषा का वैविध्य नजर आता है । उसका कारण है— मुनिवृन्द का परिव्रजन । जैन मुनि एक स्थान पर नहीं रहते । वे निरंतर परिव्रजन करते रहते हैं । यही कारण है कि उनकी भाषा में विविधता होती है और उसका स्फुट - प्रतिबिम्ब साहित्य में यत्र-तत्र टिगोचर होता है। दूसरी बात है कि जैन संघ में विभिन्न प्रान्तों के व्यक्ति प्रवजित होते हैं, अतः यह स्वा भाविक भी है कि उनकी अपनी मातृभाषा पर प्रान्तीय भाषा का प्रभाव पड़ता है। उसमें अनेक शब्द उस प्रान्त के आ घुसते है और कालान्तर में उस भाषा के अभिन्न अंग बन जाते हैं। आज राजस्थान में बोली जाने वाली भाषा को राजस्थानी कहा जाता है, किन्तु उसमें भी बहुत अन्तर है। पली प्रदेश की भाषा में भी अन्तर है। बीकानेर की Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य ५२७ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-... राजस्थानी भाषा और सरदारशहर, चुरू आदि में बोली जाने वाली राजस्थानी में बहुत अन्तर है। जयपुर की भाषा भी भिन्न पड़ती है । इसी प्रकार मारवाड़, मेवाड़, गोड़वाड़, बाड़मेर, पचपदरा, जसोल आदि में व्यवहृत राजस्थानी का भी रूप भिन्न-भिन्न है। तेरापंथ धर्म-संघ राजस्थान में जन्मा और यहीं पल्लवित और पुष्पित हुआ। इस संघ में प्रवजित होने वाले साधु-साध्वी भी राजस्थान के ही थे और उनका विहार-क्षेत्र भी मुख्यत: राजस्थान ही रहा । अनुयायी वर्ग भी राजस्थानी ही था अतः यह स्वाभाविक ही था कि साहित्य-सृजन भी मुख्यतः राजस्थानी भाषा में ही हो। तेरापंथ धर्म-संध में आठ आचार्य हो चुके हैं और वर्तमान में नौवें आचार्य श्री तुलसी गणी का शासन चल रहा है । सभी आचार्यों ने राजस्थानी में रचनाएँ लिखीं, किन्तु वे प्रायः पद्यमय हैं । प्रथम आचार्य श्री भिक्षु ने लगभग ३६ हजार श्लोक परिमाण साहित्य लिखा और चौथे आचार्य श्रीमज्जयाचार्य ने साढ़े तीन लाख श्लोक परिमाण के माहित्य की रचना की। इसमें गद्य-पद्य दोनों सम्मिलित है । पद्य साहित्य अधिक है। प्रस्तुत निबन्ध में मैं केवल तेरापंथ के आचार्यों तथा साधु-साध्वियों द्वारा रचित राजस्थानी गद्य साहित्य का एक परिचय प्रस्तुत कर रहा हूँ। आचार्य भिक्ष आचार्य भिक्षु तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक थे। आपका जन्म वि० सं० १७८३ आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी को मारवाड़ कांठा में कंटालिया ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम शाह वलूजी और माता का नाम दीपाँबाई था। आप पच्चीस वर्ष की अवस्था में वि० सं० १८०८ मृगशिर कृष्णा द्वादशी के दिन स्थानकवासी परम्परा के यशस्वी आचार्य रुघनाथ जी के पास दीक्षित हुए। नौ वर्ष तक उनके साथ रहे । फिर आचार और विचार के भेद के कारण आपने वि० सं० १८१७ चैत्र शुक्ला नवमी को बगड़ी गाँव (अब सुधरी) में अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया और उसी वर्ष आषाढ़ी पूर्णिमा को केलवे में पुनः दीक्षा ग्रहण की । वही तेरापंथ की स्थापना का प्रथम दिन था। आचार्य भिक्षु अपने युग के महान् राजस्थानी साहित्यकार थे। आपने लगभग अड़तीस हजार श्लोक परिमाण साहित्य रचा । इसमें पद्य साहित्य अधिक है, गद्य कम । आपका सम्पूर्ण पद्य साहित्य प्रकाशित हो चुका है।' गद्य साहित्य अप्रकाशित है । आपने जैन दर्शन के अनेक विषयों पर साहित्यिक रचनाएँ लिखीं। उनमें मुख्य विषय हैंदया-दान का विवेक, अनुकम्पा, व्रत-अव्रत आदि-आदि । आपका गद्य साहित्य मर्यादाओं, लिखितों तथा पत्रों के रूप में प्राप्त होता है। आपने नव-गठित संघ को सुदृढ़ बनाने तथा उसका संरक्षण-पोषण करने के लिए अनेक विधान बनाए। उन विधानों के अध्ययन से उनकी आध्यात्मिक उत्कृष्टता, व्यवहार की निश्छलता तथा अन्यान्य तथ्यों का सहज बोध होता है। वे राजस्थानी गद्य में हैं। उदाहरणस्वरूपमर्यादाएं (१) आचार्य भिक्षु चाहते थे कि गण में वही रहे, जिसके मन में आचार-साधुत्व के प्रति श्रद्धा हो। जो अन्यमनस्कता या अन्यान्य स्वार्थों के वशीभूत होकर गण में रहता है, वह गण को धोखा देता है। उन्होंने वि० सं० १८४५ के लिखत में लिखा "उण नै साधु किम जाणिये, जो एकलो वेणरी सरधा हुवै । इसड़ी सरधा धारने टोला मांहि बैठो रहे छ । म्हारी इच्छा आवसी तौ माहे रहिसू, म्हारी इच्छा आवसी जद एकलो हुस् ।........ दगाबाजी ठागा सूं टोला माहै रहे तो निश्चय असाध छै। माहे राख जाणवै त्यांन पिण महा दोष छै।" १. भिक्षुग्रन्थरत्नाकर, भाग १, २-प्रकाशक-श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता। Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड संवत् १८५० के लिखत में लिखा "जिण रो मन रजाबंध हुवै, चोखीतरे साधपणौ पलतो जाण तो टोला माही रहिणो । आप में अथवा पेला में साधपणो जांणनै रहिणो। ठागा तूं माहै रहिवा रा अनंत सिद्धां री साख सूं पचखाण छ।” (२) गण की एकता के लिए आचार्य भिक्षु ने अनेक मर्यादाओं का निर्माण किया। एकता के अनेक आधारभूत तत्त्व हैं। उनमें पारस्परिक सौहार्द और प्रमोद भावना का विकास भी एक है। इसके लिए आचार्य भिक्षु ने वि० सं० १८५० में लिखा "किण ही साध आर्यां में दोख देखै तो तत्काल धणी ने कहणी, अथवा गुरां ने कहणी। पिण और कनै न कहिणौ । पिण घणा दिन आडा घालनै दोख बतावै तौ प्राछित रो धणी उहीज छ।" संघ संघटन का दूसरा आधार है-केन्द्र पर विश्वास, आपसी दलबंदी से मुक्ति। आचार्य भिक्षु ने वि० सं० १८४५ में लिखा "टोला माहै पिण साधां रा मन भांगनै आप आपर जिले करै तौ महाभारी करमी जाणवौ। विसासघाती जाणवी । इसडी घात पावडी करै । तै तो अनन्त संसार री साइ छै।" गण में सैकड़ों साधु-साध्वियाँ, श्रावक-श्राविकाएँ होती हैं। उनका सब अपना-अपना विचार होता है। सोचने का ढंग भी भिन्न-भिन्न होता है। ऐसी स्थिति में किसी प्रश्न पर सब एक मत हो जाएँ, यह सम्भव नहीं है। अत: मुमुक्षुओं को क्या करना चाहिए, उसका स्पष्ट निर्देश आचार्य भिक्षु ने वि० सं० १८४५ के लिखत में इस प्रकार किया _ 'जै कोई सरधा रो, आचार रो सूतर रो अथवा कलपरा बोल री समझ न पड़े तो गुरु तथा भणणहार साधु कहै तै मांण लेणौ । नहीं तो केवली नै भलावणौ । पिण और साधु र संका घालने मन भांगणी नहीं।' इसी को आगे बढ़ाते हुए वि० सं० १८५० में लिखा 'कोई सरधा आचार नौ नवौ बोल नीकले तो बड़ा सू चरचणौ, पिण ओर सून चरचणी। ......"बड़ा जान देव, आप रै हियै बैस मान लैणी, नहीं बैसे तो केवली नै भलावणी, पिण टोला माहै भैद पाडणी नहीं।' इसी प्रसंग में वि० सं० १८५६ में लिखा ___(बोल आदि के विषय में) किण ही नै दोस भ्यास जाये तो बुधवंत साधू री प्रतीत कर लेणी। पिण खांच करणी नहीं।' मर्यादाओं के निर्माण का उद्देश्य कितने सुन्दर शब्दों में अभिव्यक्त हुआ है 'सिखादिक री ममता मिटावण रौ नै चरित्र चोखो पालण रौ उपाय कीधो छ। विनै मूल धर्म ने न्याय मारग चालण रो उपाय कीधो छ।' 'विकलां नै मूड भेला कर ते शिखा रा भूखा। एक-एक रा अवर्णवाद बोले । फारा-तोरो करें । माहोंमा कजिया, रोड, झगडा करै । एहवा चरित्र देखनै साधां मरजादा बांधी।' साधु-साध्वियों के पारस्परिक व्यवहार की इयत्ता क्या हो, इसका समाधान करते हुए आपने लिखा 'आयर्यां सं लेवी देवौ लिगार मात्र करणौ नहीं। बडारी आग्न्या विना। आग आयाँ हवै जठ जाणी नहीं । जा तो एक रात रहिणी । पिण अधिको नहीं । कारण पडियां रहैं तो गौचरी रा घर Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य बाँट लेणा पिण नितरी ति पूछो नहीं। कनै वेसण देणी नहीं, कभी रहिणा देणी नहीं चरचा 1 बात करणी नहीं । बड़ा गुरुवादिकरा कह्यां थी कारण री बात न्यारी ।' दो-दो, चार-चार साधु साथ रहते हैं और पाँच-पाँच, सात-सात साध्वियां साथ रहती हैं। उनमें से कोई साधु-साध्वी दोष का सेवन कर ले। तब दूसरे साधु-साध्वियों का क्या कर्त्तव्य होता है, इसका सुन्दर चित्रण भिक्षु ने सं० १८४१ के लिखित में इस प्रकार किया है साथ-साथ मांहो मांहि भेला रहे, तिहां किम ही साथ में दोष लागे धभी ने सताव से कहो, अवसर देखने, पिण दोष मेला करणा नहीं धणी ने कहा थकां प्रति ले तो पिन गुरां ने कहि देणौ । जो प्रति ले तो प्राछित रा धमी ने आरं कराय ने बोल लिखने उन सूप देणो । इण बोल रौ प्राछित गुरु थांने देवै तो लीजो। जो इण रौ प्राछित कहिजथे गाला गोलो कीजो मती जो ये न कह्यो तो महारा कहिया रा भाव है दोष भासै तो संका सहित कहिसूं । निसंक पणे दोष जाणूं छू तं निसंकपणे कहिसूं । नहीं पाधरा चालो ।' I 1 न हुवै तो ही संका सहित तो अजै ही 'हैं उणाने छोड्या जद पाँच वर्ष तांइ तो पूरो आहार न मिल्यो । घी चोपर तो कठै। कपडो कदाचित् वासती मिलती ते सवा रुपया री। तो भारमलजी स्वामी कहिता पछवडी आपर करौ । जद स्वामीजी कहिता एक पोलपटी चार करो, एक म्हार करो। आहार पाणी जाचने उजाड़ में सर्व साध परहा जावता । रूँखरा री छाया तो आहार पाणी मेलने आतापना लेता, आथण रा पाछा गाम में आवता । इण रीतै कष्ट भोगता । कर्म काटता । म्है या न जाणता म्हारो मारग जमती नै म्हां मैं यूं दीक्षा लेसी ने यूं श्रावक श्राविका हुसी । जाण्यो आत्मा रा कारज सारसां मर पूरा देसां इम जाण नै तपस्या करता । पछे कोई-कोई के सरधा बेसवा लागी । समझवा लागा । जद विरपालजी फतचन्दजी माहिला साधां को लोग तो समझता दी है। ये तपस्या क्यूं करौ । तपस्या करण में तो म्हें छांईज । थे तो बुद्धिमान् छो सो धर्म रो उद्योत करो। लोकां ने समझावो । जद पछै विशेष रूप करवा लागा। आचार अणुकंपा री जोडां करी । व्रत अव्रत री जोडां करी । घणा जीवां ने समझाया। पछै वखान जोड्यो । - भिक्षु दृष्टान्त २७६ इस गद्य में स्वामीजी के अन्तःकरण की भावना, पवित्रता, निरभिमानता और साधना की उत्कटता स्पष्ट झलकती है। थोकडा ५२ --- आपने कई 'धोकडें लिखे। उनमें 'तेरह द्वार' का थोकड़ा बहुत प्रसिद्ध है। इसमें नौ तत्वों जीव अजीव पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष को तेरह विभिन्न द्वारों (अपेक्षाओं) से समझाया गया है। बे तेरह द्वार हैं-मूल, दृष्टान्त, कुण, आत्मा, जीव, अरूपी, निरवद्य, भाव, द्रव्य, गुण-पर्याय, द्रव्यादिक, आज्ञा, विनय, तालाब । मैं इनकी स्पष्ट अभिव्यक्ति के लिए प्रथम तथा अन्तिम द्वार का उल्लेख करता हूँ 'जीव ते चेतना लक्षण, अजीव ते अचेतना लक्षण, पुण्य ते शुभ कर्म, पाप ते अशुभ कर्म, कर्म ग्रहै ते आस्रव, कर्म रोके ते संवर, देशथकी कर्म तोड़ी देशयी जीव उज्ज्वल भाव ते निर्जरा, जीव संघाते शुभाशुभ कर्म बन्ध्या ते बन्ध, समस्त कर्मों से मुकावं ते मोक्ष ।' —-द्वार पहला 1 ' तलाब रूपी जीव जाणवो । अतलाब से तलाब रूपी अजीव जाणवों निकलता पाणी रूप पुण्यपाप जाणवा । नाला रूप आस्रव जाणवो । नाला बंध रूप संवर जाणवो । मोरी करी ने पाणी काढ़े ते निर्जरा जाणवो । महिला पाणी रूप बंधजाणवो । खाली तलाब रूप मोक्ष जाणवो ।' -द्वार तेरहवाँ . Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड भाव की चर्चा जैन दर्शन में भाव पाँच माने गये हैं-औदयिक, औपशभिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । भाव का अर्थ है-कर्मों के उदय, उपशम आदि से होने वाली अवस्था। आचार्य भिक्षु ने आठ कर्मों के इन पाँच भावों का विस्तार से वर्णन किया है। जैसे 'उदै भाव मोहकर्म उदै सुउद भाव छै । ते तो सावद छ। सेष ७ कर्मों रे उदै सु उदै भाव छै ते सावद निर्वद दोनुई नथी। अनै उपसम भाव छै ते तो मोहणीकर्म उपसमिया थाय । दर्शणमोहणी उपसमियाँ तो उपसम समकत पामें अनै चार्तमोहिणी उपसमियाँ उपसम चार्त पांमें।' ..........."इव्रत तो अनादकालरी छ। मोहणी कर्म रा जोग सु आसा बांध्या लाग रही छ। यांसु सावद कृतव्य करै ते पिण मोहिणी कर्मरा उदासु करै छ। ते पिण इण उदै रा कृतव्य औगण छ। पिण खयोपसम में औगण नहीं।.......... योग की चर्चा जैन दर्शन में तीन योग माने हैं-मनो-योग, वचन-योग और काय-योग। ये शुभ-अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं । उनके 'लघु निबन्ध योग री चरचा, में इनके शुभ-अशुभ होने के निमित्तों की चर्चा है। इस विषय का इतना सूक्ष्म विवेचन विरल ही मिलता है। एक सौ इक्यासी बोलां री हुंडी हंडी आगम को सप्रमाण संक्षिप्त निरूपण करने की विधा है। आचार्य भिक्षु ने साधु-साध्वियों की आगम विषयों की विशेष स्मृति रह सके, इसलिए विभिन्न हुंडियां बनाई। उन दिनों स्थान-स्थान पर धार्मिक चर्चाएँ होती थीं। जय-पराजय का प्रश्न उभरा हुआ था। जो वादी आगमिक स्थलों के अधिक प्रमाण प्रस्तुत करने में कुशल होता था वह अपने प्रतिवादी को सहजता से पराजित कर देता । उस समय से हुंडियां बहुत काम आती थीं। क्योंकि आगमों के सारे विषयों की स्मृति रख पाना बहुत कठिन कार्य है। किन्तु आवश्यक स्थलों की स्मृति भी किसी विधि से ही रखी जा सकती थी। इस विषय में हुंडियों ने बहुत सहयोग दिया। प्रस्तुत ग्रन्थ में भिन्न-भिन्न विषयों पर भिन्न-भिन्न आगमों के प्रमाण प्रस्तुत किये हुए हैं। सारे विषय १८१ हैं । इस ग्रन्थ का प्रारम्भ साहित्यिक ढंग से हुआ है। जे हलुकरमी जीव होसी ते सुण-सुण ने हरष पामसी । त्यागने न्याय मारग बतायां सु सुसाधां ने उत्तम जाणसी । कुगुरु ने छोड़ सतगुरु ने आदरसी । जे भारी कर्मा होसी से सुण-सुण ने धेख पामसी । ..........." । त्यांने दिष्टंत देइ नै ओलखावै छै ; चोर ने चांनगो न सुहावै ज्यू भारी करमां जीवां ने आचार री बात न सुहावै । घुघु ने दिन ने न सूजे, ज्यू भारी करमां............ । रोगी ने वाजिक न सुहावै, ज्यूं भारी करमां...........। ताव चढ़यो तिण नै धान न भावे, ज्यू........... | पांव रोगी ने खाज सुहाव, ज्यं...........| सरपरा जहर चढ्यां ने नींव कडवो न लाग, ज्यू भारी करमा जीवां नै भिष्ट आचारी भागल गुरु कडवा न लागै । .........." हंडी के क्रम को समझने के लिए उसके कुछ बोल नीचे लिखे जा रहे हैं(१) साध थई नै सिज्यातरपिंड भोगवै त्यांने अणाचारी कह्या। . -साख सूत्र दसवेकालक, अधेन ३। (बोल २८) (२) साध थई नै सिज्यातरपिंड भोगवै तिण ने मासिक प्राछित आवै । -साख सूत्र नसीत, उदेसो २ । ............ । इसका ग्रन्थमान लगभग ७०० अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण है। Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य ५३१ टीकम डोसी की चरचा टीकम डोसी कच्छ के मोरवी बंदर नामक शहर के वासी जैन श्रावक थे। वे तत्त्वज्ञ और आगमों के जानकार थे। जोधपुर के पुष्कर ब्राह्मण श्री गेरूलालजी व्यास स्वामीजी (आचार्य भिक्षु) के श्रावक थे। एक बार वे मोरवी गए। वहाँ टीकम डोसी से बातचीत की। टीकम डोसी ने स्वामीजी के मंतव्यों के रहस्यों को समझा। उनके मन में स्वामीजी से मिलने की उत्कण्ठा जागी । वे अपने अनेक प्रश्नों का समाधान पाने के लिए वि०सं० १८५३ में कच्छ से पाली आए। उन्होंने अपनी शंकाओं के उनतीस ओलिया (ऐसे पन्ने जो लम्बे ज्यादा हों और चौड़े कम) लिख रखे थे। वे बहभाषी थे। स्वामीजी ने उन ओलियों को पढ़ा और एक-एक शंका का समाधान लिखकर पढ़ाते गए । लगभग छबीस ओलिओं में लिखी सारी शंकाओं का समाधान हो गया, किन्तु तीन ओलियों में लिखी शंकाओं का समाधान नहीं हो पाया । वे स्वामीजी के तत्त्वज्ञान और प्रश्न-समाहित करने की कला से बहुत प्रभावित हुए। वि०सं० १८५६ में टीकम डोसी का मन योग के (मन, वचन और काया) विषय में शंकित हो गया। शंकासमाधान करने वे मारवाड़ आए । प्रश्नों का समाधान पा कच्छ लौट गए। कुछ वर्षों बाद पुन: मन शंकित हो गया। इस बार वे स्वामीजी के पास नहीं आ सके । अन्त में पन्द्रह दिन का चौबिहार अनशन कर मृत्यु प्राप्त की। __ स्वामीजी ने टीकम डोसी से हुई चरचा को लिपिबद्ध कर लिया। वह 'टीकम डोसी की चरचा' के नाम प्रसिद्ध है। यह राजस्थानी गद्य में है। भीमब्जयाचार्य आप तेरापंथ के चौथे आचार्य थे । आपका नाम था 'जीतमलजी' । परन्तु आप जयाचार्य के नाम से ही प्रसिद्ध थे। आपका जन्म जोधपुर डिवीजन के अन्तर्गत 'रोयट' ग्राम में विक्रम संवत् १८६० आश्विन शुक्ला चतुर्दशी को हुआ। बाल्यकाल से ही वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित होने लगे। जब आप नौ वर्ष के हुए तब वि०सं० १८६६ में माघ कृष्णा सप्तमी को जयपुर में प्रवजित हुए । आपको प्रारम्भ से ही बहुश्रुत मुनिश्री हेमराजजी स्वामी को सान्निध्य मिला, अतः आपका ज्ञान शतशाखी वट की भाँति फैलता ही गया। लगभग बारह वर्ष तक उनके उपपात में मुनिचर्या के शिक्षण के साथ-साथ आगमों का भी गहरा अनुशीलन किया। तथ्यों के बार-बार आलोड़न-विलोड़न से आपकी मेधा तीखी होती गई और उसमें नए-नए उन्मेष आने लगे। वि०सं० १६०८ माघ पूर्णिमा के दिन आप आचार्य पद पर आसीन हुए। श्रीमज्जयाचार्य श्रुत के अनन्य उपासक थे। विद्यार्जन की लालसा ने उन्हें निरन्तर विद्यार्थी बनाये रखा । यही कारण है कि उन्होंने अपने जीवन काल में लाखों-लाखों पद्यों की स्वाध्याय के साथ-साथ साढ़े तीन लाख पद्य-प्रमाण का राजस्थानी साहित्य रचा । बाल्यावस्था से ही वे अध्ययन के साथ-साथ साहित्य का सृजन भी करने लगे थे। उन्होंने ग्यारह वर्ष की लघु वय में 'संत गुणमाला' की रचना कर सबको आश्चर्य में डाल दिया । धीरे-धीरे ज्ञान की प्रौढ़ता के साथ उनकी रचनाओं में भी प्रौढ़ता आती गई । वर्तमान की आधुनिक विधाओं में भी उनकी लेखनी अबाध गति से चली । उनमें संस्मरण-लेखन, जीवनी-लेखन, कथा-लेखन आदि मुख्य हैं । आपने राजस्थानी गद्य-पद्य में अपने जीवनकाल का इतिहास लिपिबद्ध किया और प्राचीन इतिहास की कड़ी की भी सुरक्षित रखने का प्रयास किया । यदि आप इस ओर सजग नहीं होते तो सम्भव है तेरापंथी इतिहास की प्रारम्भिक ऐतिहासिक घटनाएँ हमें उपलब्ध नहीं होती। श्रीमज्जयाचार्य बीसवीं शती के महान राजस्थानी साहित्यकार और सरस्वती के वरद पुत्र थे । राजस्थानी भाषा में इतना विपुल साहित्य किसी एक व्यक्ति ने लिखा हो ऐसा ज्ञात नहीं है । आप द्वारा रचित १२८ ग्रन्थ १. भिक्ष, दृष्टान्त, १६४ Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .......................................................................... इसका स्नवंभू प्रमाण है। इनमें जीवन चरित्र, आख्यान, कथानक, संस्मरण, स्तुतियाँ, गण का विधान, मर्यादाएं, इतिहास, दृष्टान्त, उपदेश, व्याकरण, आगमों का प्रद्यानुवाद, दर्शन आदि-आदि अनेक विषय संग्रहीत हैं। इनमें लगभग ५० ग्रन्थ गद्य में और शेष पद्य में हैं । गद्यमय रचनाओं का विषय हैं-१.तत्त्व विवेचन, २. कथा, ३. पत्र, ४. विधान, ५. व्याकरण की साधनिका, ६. संस्मरण, ७. दृष्टान्त, ८. आगमों की टीका (टब्बा), ६. हुण्डियाँ, १०. आगमों का विषयानुक्रम-आदि-आदि। आप द्वारा लिखित गद्य साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है। उसमें सबसे बड़ा गन्थ है-'कथा रत्न कोष' । इसमें लगभग दो हजार कथाएँ हैं । आपने 'भिक्खु दृष्टान्त' नाम का एक गद्य-ग्रन्थ लिखा। यह संस्मरणात्मक गद्य-साहित्य का उत्कृष्ट नमूना है। इस ग्रन्थ पर हिन्दी भाषी तथा अहिन्दी भाषी विद्वानों ने महत्त्वपूर्ण अभिमत लिखे हैं। अब मैं आपके सामने उनकी राजस्थानी गद्य में लिखित रचनाओं का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहा हूँ। (१) भ्रम विध्वंसन-वह धर्म-चर्चा का युग था। सब अपनी-अपनी मान्यता को शास्त्र-सम्मत सिद्ध करने का प्रयास कर रहे थे। जयाचार्य के जीवन में भी धार्मिक चर्चा के अनेक प्रसंग आए। तेरापंथ को प्रकाश में आए एक शताब्दी पूरी हो चुकी थी। उसकी मान्यताएँ बद्धमूल हो गई थी। फिर भी उनको आगमिक प्रमाणों से सिद्ध करने की परम्परा चालू थी। आपने उस समय के प्रमुख विवादास्पद विषयों को शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर विवेचित किया । उसका समग्ररूप 'भ्रम विध्वंसन' के नाम से प्रथम बार व्यवस्थित रूप में वि० सं० १९९० में गंगाशहर निवासी सेठ ईश्वरचन्दजी चोपड़ा ने, ओसवाल प्रेस, कलकत्ता से मुद्रित करवाया। इसमें २४ अधिकार हैं। इसका ग्रन्थ परिमाण १००७५ अनुष्टुप् श्लोक जितना है । जैनगमों के रहस्यों को समझने में यह अनुपम गद्य कृति है। (२) संदेह विषौषधि-इसमें जीवन व्यवहार से सम्बन्ध रखने वाले अनेक विषय चचित हैं। यह चर्चा आगमिक संन्दर्भ में की गई है। इसमें परिच्छेदों की 'रत्न' संज्ञा दी गई है। वे चौदह हैं--१. छठा गुणठाणा री ओलखाण २. संयोग, ३. ववहार, ४. आहार, ५. कल्प, ६. अन्तरघर ७. श्रावक अविरति, ८. अन्तरिक्ष, 8. ईपिथिकी क्रिया, १०. तीर्थ, ११. निरवद्य आमना, १२, तपो प्रसिद्धकरण, १३. भाव तीर्थकर, १४. सूखा धान । इसका ग्रन्थमान १७०० अनुष्टुप् पद्य परिमाण है। इसका रचनाकाल प्राप्त नहीं है। (३) जिनाज्ञा मुखमंडन-जैन मुनि-चर्या का आधार आगम हैं। उनमें उत्सर्ग और अपवाद के अनेक निर्देश प्राप्त हैं । बहुश्रुत मुनि के लिए यह आवश्यक है कि वह साधारण मेधा वाले व्यक्तियों के लिए उन अपवादों की स-प्रमाण व्याख्या करे जिससे कि प्रत्येक मुमुक्षु आपवादिक सेवन को शिथलता का आधार न मान बैठे। मूल सत्रों में कछेक अपवादों के सेवन का विधान प्राप्त है। उनके आसेवन से मुनि पाप से स्पृष्ट नहीं होता। इस ग्रन्थ में उनमें से कुछेक निर्देशों की सप्रमाण और सयुक्ति व्याख्या प्रस्तुत की गई है। वे कुछ विषय हैं (१) ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि के लिए नदी पार करना-नौका द्वारा या पैदल चलकर भी। (२) रात्रि में देहचिन्ता से निवृत्त होने के लिए खुले आकाश (राज. अछायां) में जाना। (३) पानी में डूबती हुई साध्वी को साधु द्वारा हाथ पकड़कर निकालना । (४) पाट-बाजोट आदि में से खटमल आदि निकालना; आदि-आदि : इसका ग्रन्थमान १३७८ है । इस ग्रंथ की पूर्ति वि० सं० १९६५ ज्येष्ठ कृष्णा सोमवती अमावस्या को हई। (४) कुमति विहंडन-यह भी तात्त्विक ग्रन्थ है। इसमें मुख्यत: मुनि के आचार-विचार से सम्बन्धित कुछेक -- समस्त ग्रन्थों के संक्षिप्त परिचय के लिए देखें--मुनि मधुकर द्वारा लिखित 'जयाचार्य की कृतियाँ : एक परिचय' (वि०सं० २०२१ में जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित) Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य शंकाओं का सरस राजस्थानी में समाधान प्रस्तुत किया गया है। इसका ग्रन्थमान १२४२ श्लोक परिमाण है । इसकी संपूर्ति वि० सं० १८६४, पाली चातुर्मास में हुई । यह है (५) प्रश्नोत्तर सार्धशतक — इसमें विभिन्न विषयों पर १५१ प्रश्नों के उत्तर दिये हुए हैं। कुछ प्रश्न तात्विक हैं, कुछ प्रश्न आगमों के निगूढ स्थलों का उद्घाटन करने वाले और कुछ मुनि-चर्या से सम्बन्धित हैं । इसका ग्रन्थाग्र १५७८ श्लोक परिमाण है । इसकी रचना वि० सं० १८६४ में होनी चाहिए । राजस्थानी में तत्त्व की गम्भीर चर्चा की जा सकती है । उसमें इसकी क्षमता है। उसका एक उदाहरण पावणा पद १७ में समाण, अफुसमाण गति से केहने कहीजे' (ओ प्रश्न) 'अफुसमाण गाही जे सभी श्रेणी अने जे ठाने रह्यो तो, जेतनाज आकाश प्रदेश फरस्यां ता अने तिहां थी गति करें तेतलाज आकाश प्रदेश फरसतो चाल ते गति अनें अफुसमाण ते नवा फुसमाण नवा बांका प्रदेश फरस, ओछा अधिक फरसे ते फुसमाण गति । सिद्ध नी अफुसमाण गति छँ । 'दुहउ खुहागाई' ते कुण ? बेहुं ना अंतर ने ठामै विग्रह गति फिर फरसे ते 'दुहउ खुहागई' विहुं आकाश प्रदेश फरस छँ जे माटे ||" (६) चरचा रत्नमाला- - इस कृति में आपने विभिन्न स्थानों पर चर्चा के रूप में हुए प्रश्नों का संकलन कर उत्तर प्रस्तुत किये हैं । यह अधूरी कृति है । इसका ग्रन्थमान १४६१ श्लोक परिमाण है । ५३३ ध्यान योग — श्रीमज्जायाचार्य धर्म-संघ के प्राणवान अनुशास्ता होने के साथ-साथ अध्यात्मयोगी भी थे । जब सब सो जाते तब आप जागृत होकर ध्यान में लीन हो जाते। उनका अध्यात्म प्रखर था। वे प्राणों को सूक्ष्म कर, कपाल में ले जाते और वहाँ उसे स्थिर कर देते । यद्यपि उनकी ध्यान प्रक्रिया के विषय में विशेष उल्लेख नहीं है। फिर भी उनके द्वारा लिखित कुछेक स्फुट पन्नों से तथा उनके द्वारा रचित दो ध्यानों—बड़ा ध्यान और छोटा ध्यान, से यह तथ्य ज्ञात होता है कि वे महान् ध्यानी थे। रंगों के आधार पर ध्यान करना भी आपको ज्ञात था । और इस विधा से ध्यान करते भी थे । दूसरी बात यह कि श्रीमज्जवाचार्य स्वाध्याय प्रेमी थे। स्वाध्याय करने की उनकी प्रवृत्ति स्वयं में एक आश्चर्य है । तेरापंथ के पांचवें आचार्य मपना गणी ने उनकी स्वाध्यायशीलता की एक नोंध स्वरचित 'जययुज' में प्रस्तुत की है । उसके द्वारा यह जाना जाता है कि आपने अपने आठ वर्षों में लगभग ८७ लाख गाथाओं की स्वाध्याय की थी। जिस व्यक्ति का जीवन इतना स्वाध्यायरत हो वह सहज ही ध्यान-कोष्ठ में जाने का अधिकारी हो जाता है। जो इतने स्वाध्यायशील होते हैं उनकी बहुश्रुतता और गीतार्थता का कहना ही क्या ? (क) बड़ा ध्यान - इसके प्रारम्भ में बैठने की विधि और ध्यान में की एकाग्रता के लिए क्या करना चाहिए और फिर ध्यान को कैसे एकाग्र अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु — इन रंगों पर ध्यान करने की प्रक्रिया का निर्देश है। इसका काल अज्ञात है । इसकी पदावली ललित और सुरम्य है प्रवेश करने से पूर्व ध्यान-साधक को मन करना चाहिए, इसका निर्देश है। इसमें पाँच पदों को ध्यान का आलम्बन बनाकर इनके भिन्न-भिन्न ग्रन्थमान १५० अनुष्टुप् श्लोक प्रमाण है। इसका रचना 'प्रथम तो पद्मासनादिक आसन थिर करी काया नो चंचल पणो मेटी ने मननो पिण चंचल पणो मेटणो । पछे मन बाहिर थकी अंदर जमावणो । विषयादिक थकी मन ने मिटाय ने एकत्र आणणो । ते मन ठिकाणे आणवा निमित श्वासासूरत लगावणी । प्रवेश में 'सकार', निर्गमन में 'हकार' | 'सोहं' एसो शब्द अणबोल्या उच्चरै ।........... १. प्रश्नोतर सार्धशतक प्रश्न १३० 90 ० . Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड इम करतां ते मननी थिरता हुवै । तिवारे पछे तीर्थंकर नो ध्याण करणो। २४ तीर्थकर जे रंगे थया ते तीर्थकर रग सहित चितवणा । आप बैठो तिण आगे हाथ दोय तथा तीन तथा चार हातरे आंतरे तीर्थकर थापणा । जाण इण ठिकाण भगवंत विराज्या छै। थिर आसण छ। रंग काले छै, तथा नीले छ तथा पीले छ तथा राते छ तथा धवले छ। ए पाँचुई रंग मांहि आप रो मन हुवै सो ही रंग री चितवणा करणा।" (ख) छोटा ध्यान-इसका ग्रन्थ-परिमाण केवल ३७ अनुष्टुप् श्लोक जितना है। इसमें पांचों पदों के गुणों के ध्यान का विवरण है। इतिहास संकलन-श्रीमज्जयाचार्य महान् इतिहासकार थे। उन्होंने अपने जीवन काल में घटित छोटी-मोटी घटनाओं का अविकल संकलन किया। उन्होंने अपने विद्यागुरु हेमराजजी स्वामी से बहुत कुछ सुना । और उसे तत्काल लिपिबद्ध कर उसे स्थायित्व दे डाला। ऐसा ही एक ग्रन्थ 'दृष्टान्त' के नाम से प्रसिद्ध है। उसके चार पत्र हैं और वे मूल राजस्थानी गद्य में लिखे गए हैं। युवाचार्य अवस्था में श्रीमज्जयाचार्य ने विक्रम संवत् १९६३ का चातुर्मास मुनिश्री हेमराजजी के साथ नाथद्वारा मेवाड़ में बिताया। वहाँ हेमराजजी स्वामी ने प्राचीन इतिहास की कई बातें सुनाई। श्रीमज्जयाचार्य ने उनका संकलन किया। उसका प्रारम्भ इस प्रकार है 'हेमजी स्वामी मूहढा सू एती वारता लिखाइ ते सं० १९०३ चौमासा में, ते लिखियै छ।' 'सोजत में अणंदै पटवै कहयो—हूँ तो इण भीखनीया रो महढो न देखू । इम बार-बार क्रोध रै वस बोल्यो। पापरा उदाथी सातमै दिन आंधौ होय गयो । लोक बोल्या-बचन तौ अणंदैजी तीखी पाल्यौ । आंधा होय गया सो भीखनजी रो मूहढो कदेइ देखै नहीं। लोक में घणी निद्या पायी। (दृष्टान्त १) इन संस्मरणों में तात्कालिक स्थिति का भी सुन्दर बोध होता है। उस समय आबादी कम थी । यातायात के साधन भी इतने नहीं थे । मुनिजन जब एक गाँव से दूसरे गाँव में विहार करते तब मार्ग में उन्हें अनेक आपत्तियों का सामना करना पड़ता था। मार्ग में चोर, लुटेरे उन्हें लूट लेते, अनेक यातनाएँ देते। वे कपड़े उतरवा लेते और यदा-कदा पात्रों को भी ले लेते थे। 'नगजी जातिरो गूजर । तिण घर छोड़ने भेष पहिर्यो । ते दोनू गुरु चेला विहार करता थकां 'करेहै' आवै । मारग में एक चोर उठ्यो सो गुरां रा तो कपड़ा खोस लीया, नगजी रा लवा लाग्यौ जद नगजी बोल्यौ-थां कनै तरवार है । म्हारै लौहरो संगटो करणो नहीं सो सस्त्र अलगा मेल दै । जद तिण सस्त्र दूरा मेल्या । कपड़ा लैवा आघौ आयौ तद नगजी चोर रा दोन बाहुडा पकड्या, पछावट लाग्यौ जद तिण रो गुरु बोल्यो-'रै अनरथ करै । मनख मार।' जद नगजी बोल्यो-'यूं साधां ने खोस जद विचरस्यां किस तरह श्यूं । म्हैं तो घर में ई घणाई सुसला मार्या था । जाण्यौ एक सुसलौ वधतो मार्यो । एक तलौ प्राछित रो ऊरौ लैसू, पिण इण नै तो छोडूं नहीं। पर्छ गुरु घणो कह्यो, मार मती, जद कमरडी दोरी तूं दो हाथ पूठ बाँध णांम र गौरवं आण नै छोड दीयो।' -(दृष्टान्त २५) इतिहास अतीत को जोड़ने वाली कड़ी है। प्रत्येक परम्परा अतीत की घटनाओं से प्रेरणा लेती है। एक प्रेरक घटना प्रस्तुत है जो कि भाव और भाषा-दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हैं __ 'कोटवाला दौलतरांमजी माहिथी चार आया-बडौ रूपचंद, छोटो रूपचन्द वधमानजी, सुरतौ । तिण में सुरती तो थोड़ा दिन रही छूट गयौ। अनै बधमानजी घणां वर्स साध पणौ पाल्यौ, पछ ढूंढार में मारग में लू लागी, चामडों खाच्यां हाथ में आवै। इसौ सरीर सीझ गयौ । हालता हेठा पड़ गया । बेठा होय चलता फैर हेठा पड गया । साथै अखैरामजी मायारामजी हुँता ते गाम मांही थी Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य ५३५ . ....................................................................... मांचो आण छाया कीधी । संथारी कराय दीयो । थोडी वैला थी दिनरा ईज आउखौ पूरी कीयो । परिणाम घणा सैठा रह्या, इसा उत्तम पुरुष ।' -(दृष्टान्त ३६) निम्न गद्यांश में तात्कालिक परम्पराओं का उल्लेख ही नहीं, उस समय में प्रचलित शब्दों का कितना सुन्दर समावेश हुआ है 'विजेचंद पाटवी पाली मैं लोकाचरीयौ गयो । एक मोटी लोटी भरन सिनान करै, जद वावेचा बौल्या-विजेचंद भाई तुम्हें ढूंढिया सो पाणीमें पैसनै सिनान पिण न करौ जद विजचंदजी बोल्याहूँ थाने भरभोलीयां री माला समान जाणू छु । होलीरा दिनां मैं छोहरीयां भरमोलीया करै-औ म्हार खोपरो, औ म्हार नालेर इम नाम दीया पिण है गौबर नो गौबर । ज्यू थै मनख जमारौ पाया पिण दया धर्मरी ओलखाण बिणा पसू सरीखा हो।' कथा-कोष-श्रीमज्जयाचार्य एक असाधारण वक्ता थे। वक्तृत्व के लिए बहुविध सामग्री की अपेक्षा होती है। उसमें छन्द, कवित्त, श्लोक. कथा आदि-आदि की उपयुक्तता होने पर वह और प्रभावशाली हो जाता है। सफल वक्ता वही होता है जो भिन्न-भिन्न रुचि वाले श्रोताओं को मनोनुकूल सामग्री से परितुष्ट कर सके । श्री मज्जयाचार्य के समय में अनेक साधु अपने वक्तृत्व-कौशल के लिए प्रसिद्ध थे, किन्तु साध्वियाँ अभी उस ओर प्रस्थित ही हुई थीं। श्रीमज्जयाचार्य ने उनको इस कला में प्रशिक्षित करने के लिए एक ऐसा संकलन तैयार किया जिसमें वक्ता के लिए उपयोगी सभी छोटे-बड़े तथ्य संकलित थे। इस ग्रन्थ का नाम 'उपदेश-रत्न-कथा-कोष' रखा। इसमें लगभग १०८ विषयों पर कथाएँ, दोहे, गीतिकाएँ आदि का सकलन है। इसमें कथा-भाग अधिक है लगभग दो हजार कथाएँ हैं । प्रत्येक विषय से सम्बन्धित कथाओं के साथ-साथ गीतिकाएँ और अन्यान्य सामग्री भी है । इसका ग्रन्थमान लगभग छासठ हजार पद्य परिमाण है । यह संकलन समय-समय पर किया गया था। इसमें लोक-कथाओं का भी संग्रह हुआ है । इसमें प्रयुक्त शब्द तथा मुहावरे ठेठ राजस्थानी भाषा की समृद्धि की याद दिलाते हैं। यह राजस्थानी भाषा का विशाल गद्य-ग्रन्थ है। इसमें मुगल साम्राज्य से सम्बन्धित कुछ घटनाएँ हैं तो कुछ घटनाएँ अंग्रेजी सल्तनत से सम्बन्धित भी हैं। राजा-महाराजाओं की कुछ घटनाएँ भी संग्रहीत हैं। इसके सम्पादन और प्रकाशन से इतिहास की कई नई बातें सामने आ सकेंगी-ऐसी आशा की जा सकती है। इस ग्रन्थ में संकलित कथाओं का सम्पादन हो रहा है। उदाहरणस्वरूप दो-चार कथाएँ प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा (१) अनरगल मूठ-एक सैहर में चार बाहिला भाई रहै। ते चारूँई गप्पी, कितोली। माहोमा हेत घणा । चारां मैं एक तो आंधो, दूजो बोलो, तीजो पांगलो, चौथा नागो। ए च्यारूं ही झूठा बोला । ठाला बैठा झूठी-झूठी बातां करें। एक दिन आंधो बोल्यो-भाइजी ! उण डूंगर ऊपर किडी चालै; हूँ देखू । थांन दीसे है के ? जद दूज्यो बोल्यो-कोडी दीसवारी बात छोड़ । कीडी चालती रा पग बाज, तिण रा शब्द हुंइ सुणूं हुँ। जद पांगलो बोल्यो-चालो देखां । जद चौथो नागो बोल्यो-चाला तो सरी पण खतरो है। चोर म्हारा कपड़ा खोस लेसी तो कांइ करतूं। सीयाले सीयां मरसू, लोकां में लाज जासी।' आ बात सुणनै लोक बोल्या-धत् । चारूंई झूठा बोला। किण नै दीसे, कुण सुने, कुण चाल, किण रै कपड़ा सो खोस लेसी नै लाज जासी। त्यांरी पेठ गई । इम जाण अनरगल झूठ, कितोल न करणी। (२) पीजारो-एक पीजारो रूई पीजवा लागो । बेटा रो नाम जमालो। जमालो रूई चोर-चार ने कोठी में घाले । रूई थोडी हुंती । जद पीजारो बोल्यो Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ५३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड 'बस कर जमला । बसकर, एताही मैं तसकर ।' जद रूई रो धणियाणी हंसवा लागी । जद पीजारो बोल्यो-'हंसेगा सो रोवेगा'।। जद धणियाणी बोली-किसका आंण पजोवेगा? ए रोस्यूं मैं क्यूँ । रजाई तो पूरी भरनी ही पड़सी। मैं जाणं है तू कोठी में रूई घाली है । पण बीरा ! थारै ध्यान में रेहवं-मैं कीन की बत्ती ही लेसू, घटती कोनी ल्यूं।' (३) ठग साधू-एक साहूकार परणीज नै परदेश गयौ । बार वरस तांई परदेस रह्यो । लाखा रुपैइया रो माल कमायो । सोनो, रूपो, हीरा, पन्ना माणक, मोती (तथा) अवर वस्तु लेने घरै आयो। संसार रा सुख भोगवतां एक बेटो हुआ। धणी धण्यांणी दोय जणा; तीजो डावडो । पेहर दिन पाछलो रहै; जद सेठ घर आवै । हवेली रा दरवाजा जड़ दे। ऊपर मालिया मैं इस्त्री सहित बैठो रेवै । मालिया में ईज रसोइ जीमने सूय रहै। एक ठग अतीत रै भेख गांम में फिरै । इण सेठ रा घर री हगीगत सारी धारी । दोफारां हवेली में आयनै लुक गयौ । सदा री रीते सेठ आयन; बारणा जडने; रसोई जीमने राते सूतो। अबे ठग ऊँचो आयो। साहूकार रों मोहरां री गांठडी बांधी । धणी धण्यांणी दोनूई नींद में सूता । अतीत छोरा रै हेठे गोबर न्हाखनै चूंठियो भर्यो जद छोरो रोवा लाग्यो । स्त्री जागी। धणी नै जगायो (कह्यो) छोर हांग्यो है, सो चालो; बारे ले जायने धोबां। अ तो दोई बारे धोवा गया । लारे ठग मोहरां लेन; हवेली रा दरवाजा खोलने निकल गयो। इसा ठग संसार में साधू रा भेख लिया फिरे। (४) नव नाता-एक पीजारो नव नाता न्यायो। पीजण सूं रूई पीजतो हो कि नवमा नातावाली पीजारी आई । तिण ने देख ओ अहंकार में बोल्यो-नवधर, नवधर, नवधर, नवधर ।' जद पीजारी पिण टेढ़ में एक दूहो बोली नवधर-नवधर क्या करै, मुझे आत है रीस । तूं मरसी जद और करूंगी, तो पूरा हवेला वीस ॥ ईसा अहंकारी भिनख भूडा दीसे । - व्याकरण-जैन आगमों को समझने के लिए उनके व्याख्या-ग्रन्थों (टीकाओं) को समझना बहत आवश्यक है। टीकाएँ संस्कृत भाषा में लिखी गई हैं। संस्कृत का अध्ययन श्रम-साध्य है। श्रीमज्जयाचार्य आगम के पारगामी बहुश्रुत विद्वान थे । संस्कृत की टीकाओं के अध्येता थे, फिर भी संस्कृत भाषा को क्रमबद्ध सीखने की उनकी लालसा बनी रहती थी। वि० सं० १८८१ का उनका चातुर्मास मुनि हेमराजजी के साथ जयपुर में था। वहाँ एक श्रावक का लड़का संस्कृत व्याकरण पढ़ता था। कहा जाता है कि वह 'हटवा' जाति का था।' श्री मज्जयाचार्य उस समय इक्कीस वर्ष के युवा साधु थे। वह लड़का प्रतिदिन उपासना करने आता और दिन में जो कुछ स्कूल में पढ़ता, वह रात्रि के समय जयाचार्य को सुना देता। वे दूसरे ही दिन उन सुने हुए व्याकरण सूत्रों को वृत्ति सहित कंठस्थ कर लेते और उसकी साधनिका (शब्दसिद्धि की प्रक्रिया) को राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध करके लिख लेते । यह ग्रन्थ 'पंच संधि की जोड़' के नाम से प्रसिद्ध है । इसमें २०१ दोहे हैं। इसी प्रकार सारस्वत चन्द्रिका का आख्यात प्रकरण भी 'आख्यात री जोड़' के नाम से निर्मित हुआ है। साधनिका-यह गद्य कृति है। इसका ग्रन्थमान १८०० पद्य परिमाण है। इसमें सारस्वत चन्द्रिका के कुछ स्थलों की ससूत्र सिद्धि की गई है। इस प्रकार श्रीमज्जयाचार्य ने व्याकरण को सबके लिए सरल-सुबोध बनाने के लिए राजस्थानी गद्य-पद्य में उसका रूपान्तरण किया। १. तेरापंथ का इतिहास, पृ० २५१ Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य ५३७ . .........................................00.0000.0.0 0 . नयचक्र री जोड-न्याय अपने आप में एक कठिन विषय है। हर एक व्यक्ति इसमें सुगमता से प्रवेश नहीं पा सकता । श्रीमज्जयाचार्य ने देवचन्द्रसूरि द्वारा रचित 'नयचक' का राजस्थानी में पद्यमय अनुवाद किया। इसमें १४४ दोहे, २० सोरठे, १८ छंदों में ७१८ गाथाएँ हैं। साथ-साथ आपने इस पर १३५ वातिकाएँ लिखी हैं । ये सब गद्य में हैं । इनका ग्रन्थमान ८७८ पद्य परिमाण है।' इतने कठिन विषय को इस प्रकार राजस्थानी में प्रस्तुत करना अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। भिक्खु दृष्टान्त-तेरापंथ का प्रादुर्भाव हुए सौ वर्ष बीत गये थे। अब तक आचार्य भिक्षु के संस्मरण या घटनाओं का संकलन नहीं हुआ था। श्रुतानुश्रुत की परम्परा से वे एक दूसरे तक पहुँच रहे थे। श्रीमज्जयाचार्य युवाचार्य बन गये थे । उन्होंने सोचा-स्वामीजी की घटनाओं का संकलन किया जाए। उस समय मुनि हेमराजजी, जिन्होंने स्वामीजी को अत्यन्त निकटता से देखा था, विद्यमान थे। जयाचार्य ने उनसे निवेदन किया। उन्होंने संस्मरण सुनाये । जयाचार्य ने उन्हें संकलित किया और 'भिक्खु दृष्टान्त' ग्रन्थ तैयार हो गया। इसमें ३१२ संस्मरण संकलित हैं । कृति के अन्त में चार दोहे हैं। इस ग्रन्थ की संपूर्ति संवत् १६०३ कार्तिक शुक्ला १३ रविवार के दिन नाथद्वारा (मेवाड़) में हुई। इस ग्रन्थ का प्रकाशन वि सं० २०१८ तेरापंथ द्विशताब्दी के अवसर पर हुआ था। जनता ने इसका अपूर्व स्वागत किया। संस्मरण संकलन की विधा को प्रारम्भ कर जयाचार्य ने अपनी सूझ-बूझ और इतिहास-रक्षण की प्रवृत्ति को उजागर किया है। इस ग्रन्थ की विद्वानों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. विजयेन्द्र स्नातक ने पुस्तक को पढ़कर लिखा है "स्वामीजी (आचार्य भिक्ष ) के जीवन से सम्बन्ध होने के कारण इन प्रसंगों में जीवन-निर्माण की अतुल विधि का संचय होना तो स्वाभाविक ही था, किन्तु शैली की सरसता और रोचकता के कारण ये इतने सुपाठ्य और हृदयग्राही बन गये हैं कि इनमें जीवन कथा का-सा आनन्द आता है। "इस प्रकार के विचारोत्तेजक एवं गम्भीर आदर्शों से ओत-प्रोत संग्रह का हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशन हो जाए तो लाभप्रद होगा। मैंने इतने सरस अपने प्रसंगों में इतनी सरस शैली में लिखी जीवन-निर्माण में सहायक दूसरी पुस्तक नहीं देखी। न तो इसमें दार्शनिक उलझन है और न बनावटी भाषा या अभिव्यक्ति का झंझट । इसमें सीधी-सादी सरल भाषा में गहन गुत्थियों को सुलझाया गया है।" डा० रघुवीरणरण, एम० ए०, पी-एच० डी०, डी० लिट० ने लिखा है-"इस ग्रन्थ का ऐतिहासिक और साहित्यिक महत्त्व भी है। भाषा की दृष्टि से तत्कालीन राजस्थानी का नमूना प्रस्तुत है। अत: भाषा विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए (यह पुस्तक) विशेष अध्ययन का विषय बन सकती है।" इस प्रकार भिक्खु दृष्टान्त संस्मरणात्मक राजस्थानी गद्य साहित्य का उत्कृष्ट ग्रन्थ माना जा सकता है। इसके कुछ प्रसंग इस प्रकार हैं (क) 'भीखणजी स्वामी देसूरी जातां घाणेरावनां महाजन मिल्या। पूछ्यो-थारो नाम काइ ? स्वामीजी बोल्या-म्हारो नाम भीखन। जद ते बोल्या-भीखण तेरापंथी ते तुम्हें ? जद स्वामीजी कह्यो-हां, उवेहीज। जद ते क्रोधकर बोल्या-थारो मूहड़ो दीठा नरक जाय । तिवारे स्वामीजी कह्यो–थारो मूहड़ो दीठा ? जद त्यां कह्यो-म्हारो मूहड़ो दीठा देवलोक नै मोक्ष जाय । जद स्वामीजी कह्यो-म्हें तो यून कहां-मूहडो दीठां स्वर्ग नरक जाय पिण थारी कहिणी रे लेखै थारो मूहडो तो म्हैं दीठो सो मोक्ष ने देवलोक तो म्हैं जास्यां । अने म्हारो मूहडो थें दीठो सो थारी कहिणी रे लेख थारे पाने नरक ईज पडी।' -दृष्टान्त १५ १. जयाचार्य की कृतियाँ : एक परिचय, पृ० ३३ Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ....................................................................... (ख) 'तिण पीपार में एक गैवीराम चारण भगत थयो। ते लोकां में पूजाव। भगतां ने लापसी जीमाव । तिणने लोकां सीखायो-तूं भगतां ने लापसी जीमावै तिण में भाखणजी पाप कहै। जद ते गेवीराम घोटो हाथ में ले गृघरा धमकावतो स्वामीजी कनें आयो। कहै हे भीषण बाबा ! हूँ भगतांने लापसी जीमाऊं सो काइ हुवे ? स्वामीजी बोल्या-लापसी में जैसो गुल घाले जैसी मीठी हुवे। इम सुणाने घणो राजी हुवो। नाचवा लागो। भीखण बाबै भलो जबाव दीधो । लोके बोल्या-भीखणजी पहिला उत्तर जाणे घड़इज राख्यो हुँतों।' --दृष्टान्त २० (ग) 'घर में छतां कंटालिया में कोई रो गहणो चोर ले गयो । जद बोर नदी सूआंधा कुम्हार ने बोलायो । कुम्हार रे डील में देवता आवतो तिणसू तेहने गहणो बतावा बुलायो। कुम्हार स्वामीजी ने पूछ्यो-भीखणजी अठ किण रो भर्म धरै। जद स्वामीजी इण रो ठागो उवाड़ करवा कह्यो-भर्म तो मजन्यां रोधर है। हिवं रात्रि आंध कुम्हार देवता डील अणायो। घणा लोक देखता हाका करे। न्हाखदे रे न्हाखदे रे । जद लोक बोल्यानाम बतावो । जद बोल्यो-ओ-ओ-ओ-मजन्यो रे मजन्यो गहणो मजन्ये लियो। जद अतीत घोटो लेइ ने उठ्यो । 'मजन्यो तो म्हारा बकरा रो नाम है, म्हारै बकरे रै माथै चोरी देवो । जद लोकां ठागो जाण्यों । स्वामीजी लोकां में कह्यो-थे सुझाता तो गहणो गमायो अन आंधा कानां सू कढावो सो गहणो कठासू आसी?-दृष्टान्त १०६ हाजरी-इसका शाब्दिक अर्थ है-उपस्थिति । श्रीमज्जयाचार्य ने आचार्य भिक्षु द्वारा रचित मर्यादाओं के आधार पर २८ हाजरियाँ बनायीं। इनमें भिन्न-भिन्न मर्यादाओं का विशेष विवेचन कर उनकी उपयोगिता पर बल दिया गया है। प्रतिदिन एक हाजरी के अनुपात से प्रति मास २८ हाजरियों का वाचन वि० १६१० पौष कृष्णा नवमी रावलियाँ से प्रारम्भ किया। इनमें गण की अखण्डता के सूत्र कौन-कौन-से हैं ? गण और गणी का क्या सम्बन्ध है ? गण से बहिर्भूत या बहिष्कृत व्यक्ति के प्रति गण के सदस्यों का क्या कर्त्तव्य है ? गण और गणी के प्रति समर्पित होने से क्या लाभ है ? आदि-आदि विषयों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। मर्यादाओं और परम्पराओं की स्मृति कराने के लिए इन हाजरियों का अमूल्य योगदान है। हाजरी की इस स्वतन्त्र विधा से श्रीमज्जयाचार्य ने मर्यादाओं को दृढ़ आधार प्रदान किया और गण के सदस्यों को उन मर्यादाओं के पालन में कटिबद्ध किया। ये सब हाजरियाँ राजस्थानी गद्य में हैं और इनका ग्रन्थमान लगभग ३३०० पद्य परिमाण है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं १. उत्तम जीव हुवै ते अवनीतरी टालोकर री निंदकरी वेमुखरी वेपतारी कलहगारा री संगत न कर करयां समकित चोखी न रहे। २. आचार गोचर से सावचेत रहिणो । भीखनजी स्वामी रा लिखित ऊपर दृष्टि तीखी राखणी । पासत्था, उसन्नां, कुसीलिया, अपछंदा, टालोकर नी संगति न करणी। कर्म जोगे टोला थी टल, कटणाई में चालणी नहीं आवै, आहारादिक रो लोलपी घणो अथवा चौकड़ी रे वस थइ आग्या पालणी आपरी छांदो रूंधणो- ए दोरो जद वक्रबुद्धि होइ गण बार नीकलै । ३. मुंहढे तो मीठो बोल । गुरु रा गुण गावै । अनै छान-छाने दगाबाजी करै । इसड़ा अवनीत, दुष्ट, अजोग, प्रत्यनीक, मुखअरी ने भगवान कुह्या कानां री कुत्ती री, भूड सूरा री उपमा दीधी है। वातिक - इसका अर्थ है-व्याख्या । व्याख्या पद्यात्मक होती है और गद्यात्मक भी । श्रीमज्जयाचार्य ने अनेक आगमों तथा इतर ग्रन्थों पर पद्यात्मक व्याख्याएं लिखीं। किन्तु व्याख्या में जो भी विषय दुरूह ज्ञात हुआ, उस पर आपने वार्तिक लिखे । ये गद्य में है। आपने भगवती जैसे तात्त्विक जैन आगम को राजस्थानी पद्य में बाँधा और स्थान-स्थान पर राजस्थानी गद्य में बार्तिकाएं लिखीं । आज की भाषा में हम उन्हें 'टिप्पण' (Notes) कह सकते हैं । इन वार्तिकाओं की संख्या ११६० है । इनका अनुष्टुप् ग्रन्थमान ७५०० है । Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . .. . .. तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य . ५३. ........................................................... इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र का भी आपने राजस्थानी भाषा में पद्यानुवाद किया है। स्थान-स्थान पर विशेष वार्तिक लिखे । उनकी संख्या दो सौ से अधिक है। उनका ग्रन्थमान है १५०० अनुष्टुपु श्लोक परिमाण । ___टब्बा-राजस्थानी भाषा में की गई आगम व्याख्या को 'टब्बा' कहा जाता है। इसका संस्कृत रूप है'स्तबक' । विक्रम की अठारहवीं शती में पार्श्वचन्द्रसूरि तथा स्थानकवासी परम्परा के धर्मसी मुनि ने गुजरातीराजस्थानी मिश्रित भाषा में आगमों पर स्तबक जिखे । विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी में आचार्य भिक्ष ने आगमों के सैकड़ों दुरूह स्थलों पर प्रकीर्ण व्याख्याएँ लिखीं।' इसी श्रृंखला में श्रीमज्जयाचार्य ने आचार चूलापर टब्बा लिखा । इसका ग्रन्थमान १०४०७ अनुष्टुप् श्लोक परिमाण है। इसकी पूर्ति संवत् १६१६ फाल्गुन शुक्ला १२, पुष्य नक्षत्र में हुई। इस व्याख्या की रचना में श्रीमज्जयाचार्य ने श्री मत्पायचंद सूरि कृत संक्षिप्त टब्बे तथा शीलांकाचार्य कृत टीका का तथा अन्यान्य आगमों का सहारा लिया था । आपने अन्त में लिखा 'श्रीभिक्षु-भारीमालजी-ऋषिराय प्रसाद करी ने चतुर्थ पट्टधारी जयाचार्य ए आचारांग नो टब्बो कियौ ते पायचंद कृत टब्बो तथा शीलांकाचार्य कृत टीका देखी अनेक सूत्र नो न्याय अवलोकी मिलतो अर्थ जाणी टब्बो कियो।' टहुका-श्रीमज्जयाचार्य ने साधु-साध्वियों में भोजन के संविभाग की व्यवस्था की। संविभाग अपने आप में सर्वोत्तम विधि है। किन्तु उसका अभ्यास न हो तब वह स्वाभाविक नहीं लगती । श्रीमज्जयाचार्य ने संविभाग का संस्कार डालने के लिए एक मार्ग निकाला। भोजन के समय सब साधु पंक्ति में बैठ जाते और एक साधु जयाचार्य द्वारा लिखित टहुके का वाचन करता । वह बहुत ही सरस गद्य में लिखा हुआ है। सिद्धान्तसार-श्रीमज्जयाचार्य ने आचार्य भिक्षु के ग्रन्थों पर 'सिद्धान्तसार' बनाए। इनको हम आधुनिक भाषा में तुलनात्मक अध्ययन कह सकते हैं । इन ग्रन्थों में आचार्य भिक्षु के मन्तव्यों को आगमों के आधार पर पुष्ट किया गया है। ये सारे राजस्थानी गद्य में रचे गए हैं । वे किस ग्रन्थ के विषय में हैं और उनका ग्रन्थमान क्या है-यह संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है ग्रन्थमान १. नव पदार्थ की चौपी पर (दीर्घ सिद्धान्तसार) ४८७५ २. वार व्रत री चौपी पर १४३५ ३. कालवादी री चौपी पर २८५५ ४. पर्यायवादी री चौपी पर ३४८६ ५. मर्यादावादी री चौपी पर ८३० ६. टीकम डोसी री चौपी पर २११५ ७. निक्षेपां री चौपी पर २५१५ ८ मिथ्यात्वी री करणी पर १४५० ६. एकल री चौपी पर ६२५ १०. जिज्ञासा पर १८१४ ११. पोतियाबंध री चौपी पर १२. विनीत अविनीत री चौपी पर २०५० १३. अनुकंपारी चौपी पर ३५०५ ७१० १. मुनि नथमल-जैन दशैन : मनन और मीमांसा, पृ०६१ Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ४७६५ ग्रन्थ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-... १४. व्रताव्रत री चौपी पर (दीर्घ सिद्धान्तसार) १५. श्रद्धा री चौपी पर ४४१५ १६. आचार री चौपी पर ५३७५ १७. आचार री चौपी पर (लघु सिद्धान्तसार) १६४० १८. जिज्ञासा री चौपी पर १०७० १६. मिथ्यात्वी री करणी पर ३८५ २०. श्रद्धा री चौपी पर १२०५ २१. व्रताव्रत री चौपी पर १४६० २२. विनीत अविनीत री चौपी पर ८६० २३. एकल री चौपी पर २६५१ इस लघु निबन्ध में श्रीमज्जयाचार्य के समस्त गद्य साहित्य का परिचय प्रस्तुत करना सम्भव नहीं है। वे राजस्थान के साहित्याकाश में एक देदीप्यमान अंशुमाली की तरह उदित हुए और अपनी सहस्रों किरणों से राजस्थानी साहित्य को आलोकित किया । ऐसी बहुत कम विधाएँ हैं, जिन पर उनकी लेखनी न चली हो। भगवान महावीर और आचार्य भिक्षु के प्रति उनके आत्मसमर्पण ने उन्हें एक महान् तत्त्ववेत्ता स्तुतिकार बनाया तो अपनी आत्मा के प्रति पूर्णभावेन अर्पित होने की भावना ने एक महान् योगी। वे केवल शुष्क तर्कवादी ही नहीं, तथ्य की गहराई तक पहुँचने वाले सत्य-शोधक थे। अब मैं उनकी समस्त गद्य कृतियों की एक तालिका प्रस्तुत कर रहा हँ ग्रन्थमान ग्रन्थ प्रन्थमान १. भ्रमविध्वंसन १००७५ १५. छोटी मर्यादा २२८ २. सन्देह विषौषधि ७१०० १६. परम्परा का बोल (दो खण्ड) १३४० ३. जिनाज्ञामुखमंडन १३७८ १७. साधनिका १८०० ४. कुमतिविहंडन १२४२ १८. भिक्खु दृष्टान्त २४२६ ५. प्रश्नोत्तर सार्धशतक १५७८ १६ श्रावक दृष्टान्त ६. चरचा रत्नमाला (अपूर्ण) १४६१ २०. हेम दृष्टान्त ७. भिक्खु पृच्छा २६८ २१. आचारचूला (टब्बा) ७४०७ ८. ध्यान (बड़ा) १५० २२. आगमाधिकार ६. ध्यान (छोटा) ३७ २३. निशीथ की हुण्डी (विषयानुक्रम) १०. बृहत्प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध १२४८ २४. बृहत्कल्प की हुण्डी २२५ ११. झीणी चरचा रा बोल २६६ २५. व्यवहार की हुण्डी ३२५ १२. परचूनी बोल १४३० २६. भगवती की संक्षिप्त हुण्डी ४२५ १३. गण विशुद्धिकरण हाजरी ३२८७ २७. उपदेश रत्न कथा कोश ६६५६६ १४. बड़ी मर्यादा २५४ २८. प्रकीर्ण पत्र १४७८ इस प्रकार श्रीमज्जयाचार्य ने लगभग सवा लाख पद्य परिमाण का राजस्थानी गद्य साहित्य लिखा जो कि विभिन्न विषयों की छूता हुआ, पाठक के मन पर अमिट छाप छोड़ देता है। तेरापंथ के अन्यान्य आचार्यों तथा मुनियों ने भी राजस्थानी साहित्य के भण्डार को भरा है। परन्तु उनकी कृतियाँ प्रायः राजस्थानी पद्यों में हैं, अत: उनका विवरण यहाँ अपेक्षित नहीं है। ३६३ १४५ ४२५ १ जयाचार्य की कृतियाँ : एक परिचय, पृ० ४०, ४१ Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य ५४१ ....-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. _तेरापंथ भण्डार में आचार्यों द्वारा साधु-साध्वियों के लिए लिखे गये पत्रों का भी अच्छा संकलन है। यह पत्रलेखन आचार्य भिक्षु से लेकर आज तक चलता आ रहा है । इन पत्रों में शासन की सारणा-वारणा से सम्बन्धित समाचार तथा आचार्य के आदेश-निर्देश होते हैं। किसी साधु-साध्वी का सिंघाड़ा (ग्रुप) दूर देश में भ्रमण कर रहा है। आचार्य उसको स्थितिवश विशेष निर्देश देना चाहते हैं, तो वे साधु-साध्वी के माध्यम से उसको पत्र द्वारा सूचित करते हैं । इन पत्रों के माध्यम से विविध प्रकार की जानकारी दी जाती है । मैं समझता हूँ, ये पत्र हमारे संघ की अमूल्य निधि हैं, जिनका मूल्य वर्तमान में कम परन्तु भविष्य में अधिक होगा। साधु-साध्वी भी अपनी भावना, भक्ति, उत्साह और समर्पण की बात पत्रों द्वारा आचार्य तक पहुँचाते हैं। प्राय: ये पत्र राजस्थानी भाषा में लिखे गये हैं । कुछेक पत्र हिन्दी में और कुछेक संस्कृत में भी हैं। तेरापंथ में आठ आचार्य हो चुके हैं । पहले आचार्य श्री भिक्षु और चौथे आचार्य श्रीमज्जयाचार्य के साहित्य का वर्णन पूर्व पृष्ठों में आ चुका है। शेष आचार्यों तथा मुनियों का गद्य साहित्य विशेषतः केवल पत्र-लेखन के रूप में ही मिलता है। एक बार श्रीमज्जयाचार्य के बड़े भाई मुनिश्री सरूपचन्दजी ने श्रीमज्जाचार्य को पत्र लिखा 'पूजजी महाराज श्री श्री श्री श्री श्री कृपानिधि गुणजिहाज गुणसमुद्र कृपानिधि गणाधार गणदीपक गणतिलक गणानंदकारक मर्यादाधारक अखल आचार आधारक सू ऋष सरूपरी तरफरी श्रीपूजजी महाराज श्रीजीतमलजी स्वामी सुखसाता पुछवै । १००८ वार गणे मांन सूं गणे-गणे मान सेती मालम होय । आप बड़ा उत्तम पुरुष हो।.... .."आपरो आधार आपरो सरणो छ । सर्व कारज में आपरी आज्ञा रो आधार छ । मांसु आप उपगार घणो कीधो। भाँति-भाँति रो साज दीधो । ऊणायत किणही बात री राखी नहीं । ...... सती सिणगार सिरदाराजी-सू ऋष सरूप री गाडी सुखसाता वाँचजो । हेत मिलाप राखो तिण सं विशेष राखजो । श्रीजी महाराज रा सरीर रा जतन घणां कीजो । मुरजी पकी आराधजो । भाँति-भांति कर साता उपजाइजो। थारै भरोसे नीचीता छा। गणपति ने गणसमदाय रा आपरी कांनी री जमाषातर छ ।....."सं० १९२० मगसुर बिद ३, खानपुर मधै ।' आचार्य तुलसी वि० सं० १९६३ में आप बावीस वर्ष की अवस्था में तेरापंथ के नौवें आचार्य बने । आपने आचार्य-काल के इन चालीस वर्षों में विविध प्रकार का साहित्य रचा और काव्यों की शृखला में अनेक काव्यों का निर्माण किया। आप राजस्थानी के सिद्धहस्त कवि हैं। आपकी प्रायः कृतियाँ राजस्थानी पद्यों में हैं। हिन्दी में आपकी अनेक कृतियाँ आयी हैं। अनेक काव्य भी प्रकाशित हुए हैं । आपने राजस्थानी पत्र में 'कालूयशोविलास' नामक पूज्यपाद कालुगणी की जीवनी लिखी है। यह वर्णन, भाषा और अलंकरण की दृष्टि से संस्कृत महाकाव्यों की पद्धति का राजस्थानीकरण है। काव्य तत्त्वों की दृष्टि से इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।' इसी पद्य शृंखला में 'माणक महिमा'तेरापंथ के छठे आचार्य श्री माणक गणी का जीवन, 'डालम चरित्त -तेरापंथ के सातवें आचार्य श्री डालगणी का जीवन, 'मगन चरित्त'-तेरापंथ के मंत्रीश्वर श्री मगनलालजी स्वामी का जीवन-ये तीन जीवनियाँ भी लिखी हैं। गद्य साहित्य की दृष्टि से आप द्वारा लिखित पत्रों को लिया जा सकता है। उनकी संख्या अनेक सौ है। उन सबका संग्रह हमारे लाडनू भण्डार में है। उनकी भाषा हिन्दी-संस्कृत मिश्रित राजस्थानी है। अब मैं आचार्य द्वारा अपने शिष्यों को लिखा गया पत्र, शिष्यों द्वारा आचार्य को लिखा गया पत्र तथा मुनि द्वारा अपनी साध्वी माता को लिखा गया पत्र-इन तीनों का संक्षिप्त नमूना उपस्थित कर रहा हूँ १. मुनि नथमल-जैन धर्म : बीज और बरगद, पृ० ४०. . . . . . . . Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण (१) आचार्यश्री द्वारा लिखा गया पत्र 'लाडांजी अस्वस्थ है आ तो ठीक है, पर बी वेदनां में जकी सहनशीलता रो बै परिचय दियो है बी के वास्ते मन बहुत प्रसन्नता है। मैं ई वास्ते ही तो 'सहिष्णुता री प्रतिमूर्ति' ओ शब्द बांके नाम के साथ जोड्यो है। इस्यू अठे चार तीर्थ में प्रसन्नता हुई है और मैं समझू हूंब भविष्य में भी इसी सहनशीलता रो परिचय देसी। ओ मनै विश्वास है अठे का जो शब्द हे बारै वास्ते बहुत बड़ी दवा को काम कर है और ई विश्वास स्यू ही मैं बार-बार कुछ केयो है, कुछ लिख्यो है, कुछ विचार रख्यो है और जिती बार ही बै विचार बढ़ पहुंच्या है बांस्यू बाने बल मिल्यो है और दर्शण हुणा तो हाथ की बात कोनी । आयुस्य बल होसी तो दर्शण होसी, पण दर्शण की इच्छा स्यूं भी अधिक बांरी जकी दृढ़ता है बा सारै नै बल दे रही है।" -आचार्य तुलसी (२) शिष्य द्वारा आचार्य को लिखा गया पत्र आचार्य श्री राजस्थान से दूर दक्षिण यात्रा पर थे। साध्वीश्री लाडांजी अत्यन्त अस्वस्थ अवस्था में बीदासर (राजस्थान) में स्थित थीं। एक बार आपने गुरुदेव को लिखा 'म्हारे ऊपर गुरुदेव री पूर्ण कृपा तथा माइतपणो है । यात्रा री ई व्यस्तता रै माय नै भी म्हार जिसी चरण-रज ने बार-बार याद करावै तथा बठे विराज्या ही मन बडो पोख दिराव है।....." म्हारो मन पूर्ण समाधिस्त तथा प्रसन्न है। मन एकदम मजबूत है। सरीर री लेशमात्र भी चिन्ता कोनी । आपनै म्हार प्रति जको विश्वास है वीरै अनुरूप ही काम हुवै दीस्यो ही परिचय छू जद ही म्हारी कृतार्थता है। म्हैं पल-पल आ ही कामना करूंहूँ कै म्हारी आत्मशक्ति और मनोबल दिन-दिन बढ़ता रेवै । ई अवसर पर मांजी महाराज री सेवा मिली है, ओ म्हारो परम सौभाग्य है। -साध्वी लाड (३) सेवाभावी मुनि चंपक द्वारा मातुश्री साध्वी बदनांजी को लिखा गया पत्र 'महासक्ति मां! सादर चरण वन्दना ।.....""अॐ नित नू 0 आगडा-ठाट लाग रहा है । ............ आपरै सुखसाता रा समाचार सुणकर जाणे एकर स्यां तो बीदासर ही पूग गया, इसे लाग्यो। ..........."हांसी में धूवर तो लारो ही कोनी छोड्यो। ११ दिन तांई लगातार एग सरीखी धूवर पडी । कदेई-कदेई तो दिन मैं दो-दो बज्यां तांई बूंवर खिडती ।..........."मांजी ! म्हैं तो ईसी धुंबर ६० वर्षा में ही कदेई कोनी देखी। .........""मैं स माजी धाको सोक धिकाउंहूं। कदेइ एक मजल लारै तो कदेई दो मजल आगे । जियां तियां पूगू हूं।..........."गोडा दूख है। सरीर में सोजो रेवं है। दरद-फरद देखता तो भलाइं आज ही बैठ ज्यावो, पण देखू हूँ अबक-अबकै री दिल्ली यात्रा तो आचार्यश्री साग-साग कर ल्यू । आगै स म्हारै अन्तराय टूटी हुसी तो फेर हुसी। आपरो सेवाभावी चंपक इस प्रकार तेरापंथ के साधु-साध्वियों की कुछ न कुछ राजस्थानी कृति मिल जाएगी। प्रकाशित कृतियां बहुत कम हैं। राजस्थानी साहित्य निर्माता के रूप में इन मुनियों के नाम उल्लेखनीय हैं - U . Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ का राजस्थानी गद्य साहित्य ५४३ ................................................................. ...... १. मुनि वेणीरामजी २. मुनि हेमराजजी ३. मुनि जीवराजजी . ४. मुनि चांदमलजी ५. मुनि चौथमलजी ६. मुनि धनराजजी ७. मुनि चन्दनमलजी ८. मुनि सोहनलालजी' मुनि नथमल मुनि नथमलजी हिन्दी, संस्कृत और प्राकृत के मनीषी विद्वान् हैं । आपने इन भाषाओं में अनेक ग्रन्थ लिखे हैं और लगभग ५-७ दर्जन ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। आपने राजस्थानी में लिखा, पर वह बहुत अल्प है। आप द्वारा लिखित दो-एक गद्य मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ, जिनमें इतनी तीखी अभिव्यंजना है कि वह पाठक के मन पर सीधी चोट किये बिना नहीं रहती। (क) दुर्जन व्यक्ति मिले हुए दिलों को तोड़कर सबके मन में संशय का बीज बो देता है। जब सब बिछुड़ जाते हैं, तब उसका मन आनन्दित हो जाता है । इससे उसका अपना कोई स्वार्थ नहीं भी सधता फिर भी वह दूसरों को कष्ट देकर मुदित होता है। इन तथ्यों की अभिव्यंजना निम्नोक्त रूपक में कितने मार्मिक ढंग से हुई है, वह द्रष्टव्य है ........"एक दुरजण आदमी बाग में गयो-सिंज्यारी सी बात ही हाल सूरज आथम्यों कोनी हो। कंवल रा फुल खिल रया हा-वां पर भंवरा नाच रया हा-सूरज री किरण्यां पड रही हो। वीं ने (दुरजन ने) आ बात आछी कोनी लागी । वो सूरज ने बोल्यो-सूरज ! तूं तो बण्यो बणायो मुरख है। देख-कंवल थारै पर रीसकर लाल मुंडो कर राख्यो है । तो ही तूं वी रै कनै जावै । ___ कंवल ने कह्यो-सूरज थां स्यू उपरलो हेज दिखाव और मायनें स्यूं के कर हैं तूं कोनी जाण । देख-थारी जड़ काट-पाणी और कादो सुखावै । भंवरे ने इसी ट पाई-रै भंवरा ! ओ कंवल थारै वास्ते कोनी खिल्यो है, सूरज रे वास्ते-खिल्यो है-तु आ बात मत भूल ज्याई। दिन ढलतो हो-तीनों रा मन फाट्म्या । तीनू न्यारा-न्यारा होग्या। सूरज जाकर पाणी में डूबग्यो। कंवल आपरो मूढो लुको लियो । भंवरो कठेई दूर भाजग्यो । वीं रो कालजो ठरग्यो । वो तो सेर घी पीयोडो सो होग्यो। अब दिन चढ़तो हो । ई वगत वीं खोटे आदमी री बात कुण मानै ।............ (ख) गुण के साथ दोष और फूल के साथ कांटा होता ही है। यह नैसगिक है। ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसमें गुण ही गुण हों, दोष न हों, और संसार में ऐसा भी कुछ नहीं है जिसमें केवल दोष ही हों, गुण न हों। गुण और दोष साथ-साथ चलते हैं (१) दिल तो है पण दर्द कोनी। दर्द कोनी जदि दिल है नहीं तो आज तांइ रे तो इ कोनी, कदेई टूट जातो।............ (२) मर्द तो है पण रीस कोनी। रीस कोनी जदि मर्द है-नहीं तो आज तांइ रे तो इ कीनी, पेल्ही मरज्यातो।" (३) बडो सीधो है पण कनै सत्ता कोनी । सत्ता कोनि जदि सीदो है नहीं तो आज तांइ रे तोदू कोनीपेल्ही सीदाई पूरी हो ज्याती।............ (४) बडो सादो है पण कनै धन कोनी । धन कोनी जदि सादो है-नहीं तो आज तां रे तोइ कोनी—सादगी कदेई टूट ज्याती।........... १. जैन धर्म : बीज और बरगद, पृ० ४१. Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ५४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड (५) बडो नकटो है, केणो कोनी मानै । केणो कोनी माने जदि नकटो है नहीं तो आज ताई रे तो इ कोनी-पेल्ही नास्यां में नथ घल ज्याती।............ (६) बडो सचवादो है पण लूखो है। लूखो है जदि सचवादो है नहीं तो आज तांइ रे तो इकोनी-पेल्ही झूठ बोल २ पांच आंगल्यां घी में कर लेतो।........... (७) बडो धीरो है, बार २ फिर पण चूंस कोनी देवै। घूस कोनी देवं जदि बार २ फिरै । नहीं तो आज तांइ फिरतो इ कोनी । पेल्ही काम बण ज्यातो। (८) बडो स्याणो है, पण वई-खाता झूठा राखै । झूठा राखै जदि स्याणो है। नहीं तो आज ताइ रे तो इ कौनी । इनकमटेवस अफसर पेल्ही बावलो बणा देता ।............ (३) बडो भागवान है, पण पढ्योडो कोनी। पढ्योडो कोनी जदि भगवान है। नहीं तो आज तांइ रे तो इ कोनी । नोकरी री अरज्यां लियां फिरतो। (१०) बडो मस्त है, पण घर-बार री चिन्ता कोनी। चिन्ता कोनी जदि मस्त है। नहीं तो आज ताइ रे तो इ कोनी । मस्ताई कदेई सूक ज्याती। ........... (११) बडो समझदार है, पण कोई नै कैव-कवावै कोनी। कैव-कवावै कोनी जदि समझदार है । नहीं तो आज तांइ रे तो इ कोनी । पेल्ही समझदारी पूरी हो ज्याती।.........." (१२) टाबर बडो फुटरो है, पण टीकी काली है। टीकी काली है जदि फुटरो है। नहीं तो आज तांइ रे तो इ कोनी । पेल्ही टमकार लाग ज्याती।......" (१३) बडो विनीत है, पण भोलो है। भोलो है जदि विनीत है। नहीं तो आज तांइ रे तो इ कोनी । पेल्ही कान कतरण लाग ज्यातो ।....." (१४) साग रेण ने तरसतो रेवं है। सागै रह्यो कोनी जदि तरस है। नहीं तो तरसतो इ कोनी । कदकोई दूर भाग ज्यातो।........... स्फुट गद्य मारवार नौ-कोटी मारवार है। मोटी रात रा मोटा तडका। अठे आंध्यां सूझत्यां स्यूं ही जोर स्यूं चाल । ई जगत में आंख और पांख दो ही चीज हुवै । आंख नहीं हुवै तो पांख हुयां के हुवै ? और केहुवै ? दूजां ने फोडा घालै। समंदर स्यूं पाणी उठ्यो । मै बण बरस्यो । तलाव भरग्या, तलायां भरगी । खाडा भरग्या, नाड्यां भरगी। वे सब सवार्थी हा । जितरो चाइजो हो वित्तो ले लियो, बाकी रं ने दियो धरम-धक्को । पाणी रो पूर आग सरक्यो। कठेई ठोड कोनी मिली। जद वो पूर रोतो-रोतो समंदर कने गयो। वो वीरै पाणी रो के करे, आगेइ भरयो पड़यो । तो भी वीने आपरे खोले में ले आंसू पूंछया। नेठ आपरो आपरो हुवे ने परायो परायो। उपसंहार तेरापंथ संघ के राजस्थानी गद्य साहित्य का मैंने एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है। इस संघ के राजस्थानी साहित्य पर अभी पर्याप्त कार्य नहीं हुआ है । अभी दो दशक पूर्व तक यह साहित्य प्रकाशित भी नहीं था । अतः विद्वानों के लिए उसकी उपलब्धि दुर्लभ थी। वि० सं० २०१८ में तेरापंथ का द्विशताब्दी समारोह मनाया गया। उस अवसर पर तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु का पद्य साहित्य 'भिक्ष ग्रन्थ रत्नाकर', भाग १ भाग २ के रूप में प्रकाशित हुआ। उसका ग्रन्थमान लगभग ३५ हजार पद्य परिमाण है। किन्तु श्रीमज्जयाचार्य का विशाल राजस्थानी गद्य-पद्य साहित्य अभी भी अप्रकाशित है। उसके प्रकाशित होने पर मैं मानता हूँ कि राजस्थानी साहित्य की श्रीवृद्धि होगी, साथ-साथ अनेक विद्वान् इस ओर आकृष्ट होकर अपनी राजस्थानी साहित्यिक कृतियों पर अहमहमिकथा कार्य करने के लिए उद्यत होंगे। Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी दिगम्बर जैन गद्यकार 0 डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल, टोडरमल स्मारक भवन, ए-४, बापूनगर, जयपुर-४ (राज.) विषय के विवेचन और गूढ़ भावों की स्पष्ट एवं बोधगम्य अभिव्यक्ति के लिये पद्य की तुलना में गद्य अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी माध्यम है। प्राचीन काल में पद्य का महत्त्व कितना ही क्यों न हो, किन्तु आधुनिक जीवन के लिये गद्य अपरिहार्य है, उसका क्षेत्र अपरिमित है । पद्य के समान वह छन्दों की सीमा में बंधा नहीं रहता, वह निर्बन्ध होता है, अतः अभिव्यक्ति में अपूर्णता नहीं रह पाती । गद्य की इसी विशेषता के कारण आज का पद्य भी छन्द की सीमा से मुक्त होता जा रहा है, गद्यात्मक होता जा रहा है । पद्य की अपेक्षा गद्य सहज एवं सरल होता है। गद्य में भर्ती के शब्दों की आवश्यकता नहीं होती और न ही शब्दों को तोड़ना-मरोड़ना पड़ता है, अतः भाषा का परिमार्जन सहज हो जाता है। एक ही लेखक का गद्य उसके पद्य की अपेक्षा अधिक परिमाजित होता है। पद्य में भाषा की तोड़-मोड़ बहुत अधिक होती है। लय और छन्द के अनुरोध के कारण पद्य में यह दोष एक तरह से क्षम्य होता है किन्तु गद्य में ऐसी कोई सुविधा प्राप्त नहीं होती। यही कारण है कि गद्य को कवियों की कसौटी कहा गया है-"गद्य कवीनां निकषं वदन्ति" । हिन्दी के अन्तर्गत सामान्यत: पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी, राजस्थानी, बिहारी तथा पहाड़ी भाषाओं और इनकी बोलियों की गणना की जाती है। इस प्रकार इनमें से किसी भी बोली या भाषा में लिखा गया गद्य 'हिन्दी गद्य' कहलायेगा। प्रकृत में हिन्दी गद्य-साहित्य के अन्तर्गत राजस्थानी प्रतिनिधि दिगम्बर जैन गद्यकारों के व्यक्तित्व और कर्तृत्व का संक्षिप्त परिचय देना अभीष्ट है। मध्यकाल में आते-आते संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश सामान्यजन की समझ के बाहर हो चुकी थी और हिन्दी पूर्णत: जनभाषा बन चुकी थी। जैन साहित्यकार सदा ही जनभाषा में अपने विचार जन-जन तक पहुंचाते रहे हैं, यही कारण है कि उन्होंने सोलहवीं शताब्दी के आरम्भ से ही संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों की हिन्दी वचनिकाएं लिखना आरम्भ कर दिया था। जैन हिन्दी साहित्य का निर्माण केन्द्र प्रधानत: जयपुर, आगरा और दिल्ली एवं इनके आस-पास का प्रदेश रहा है । अत: जैन साहित्यकारों द्वारा लिखा गया साहित्य राजस्थानी और ब्रजभाषा दोनों में पाया जाता है। कहीं-कहीं तो दोनों भाषाएँ इतनी एकमेक होकर आई है कि उनके भेद करना संभव नहीं है। महान पण्डित टोडरमल और दौलतराम कासलीवाल का गद्य इसका स्पष्ट प्रमाण है। डा. गौतम लिखते हैं-"जयपुर के दिगम्बर जैन लेखकों ने संस्कृत-प्राकृत में लिखित अपने बहुत से धर्मग्रन्थों का हिन्दी-गद्यानुवाद किया है। उत्तर प्रदेश के भी दिगम्बर जैनों ने अपने संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों के अनुवाद का कार्य किया है"।' १. हिन्दी गद्य का विकास : डा० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, आचार्य नगर, कानपुर-३, पृष्ठ २१०. Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड राजस्थान में गद्य लेखन की परम्परा अपभ्रंश काल से लेकर आज तक अखण्ड रूप से चली आ रही है । राजस्थानी गद्य साहित्य के सम्बन्ध में राजस्थानी साहित्य के विशिष्ट विद्वान श्री उदयसिंह भटनागर के निम्नलिखित विचार द्रष्टव्य हैं : "राजस्थानी साहित्य की विशेषता यह है कि जहाँ हिन्दी साहित्य में गद्य का प्राचीन रूप नहीं के बराबर 'है, वहाँ राजस्थानी में गद्य साहित्य मध्यकाल से ही पूर्ण विकसित रूप में मिलता है। इस गद्य का कब आरम्भ हुआ होगा, यह निश्चित रूप से कहने को अभी कोई प्रमाण हमारे पास नहीं है, पर यह तो स्पष्ट है कि राजस्थानी "कहानी" तथा "ख्यात" लिखने की प्रवृत्ति बहुत प्राचीन है। उपलब्ध साहित्य और पद्य दोनों में साथ-साथ लिखी जाने लगी थी। राजस्थानी का व्यवस्थित १५०० से पूर्व का नहीं मिलता"।" साहित्यकारों में "बात" "वार्ता" या इस बात का द्योतक है कि बात गद्य रूप में विकसित गद्य साहित्य वि०सं० इससे यह स्पष्ट है कि गद्य साहित्य के इतिहास में उसके द्वारम्भकाल से ही दिगम्बर जैन गद्यकारों का उसके विकास और परिमार्जन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है । इस सम्बन्ध में डा० प्रेमप्रकाश गौतम के विचार द्रष्टव्य हैं : "वस्तुतः प्राचीन राजस्थानी गद्य के निर्माण, रक्षण और विकास में जैन समाज का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । जैन लेखकों ने अपने धार्मिक विचारों को जनता तक पहुँचाने और अपने प्राचीन ( प्राकृत और संस्कृत में लिखित ) धर्मग्रन्थों की व्याख्या के लिये लोक भाषा का सहारा लिया। मौलिक गद्य का भी निर्माण इन लोगों ने किया" । " राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों में आज भी अनेक महत्त्वपूर्ण गद्यग्रन्थ शोधार्थियों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस दिशा में शोध-खोज की महती आवश्यकता है और लगन से की गई मोध साहित्य इतिहास बदल देने वाला परिणाम ला सकती है। यद्यपि दिगम्बर जैन गद्यकारों की अनेक टयूट रचनाएँ १५वीं और १६वीं शती में लिखी गई, तथापि सर्वप्रथम प्रौढ़ रखना पाण्डे राजमल्लजी की 'समयसारकलन' पर लिखी गई 'बालबोधिनी टीका' प्राप्त होती है। पाण्डे राजमल्लजी - राजस्थान के जिन प्रमुख विद्वानों ने आत्म-साधना के अनुरूप साहित्य आराधना को अपना जीवन अर्पित किया है उनमें पाण्डे राजमल्लजी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इनका समय सोलहवीं शती ईसवी का उत्तरार्ध है । ये जैन दर्शन, सिद्धान्त और अध्यात्म के तो पारमामी विद्वान थे ही, इनका संस्कृत भाषा पर भी पूर्ण अधिकार था । संस्कृत भाषा में लिखे गये इनके ग्रन्थों से उनके भाषा एवं विषयगत ज्ञान की प्रौढ़ता ज्ञात होती है। एक ओर 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड" और "पंचाध्यायी" जैसे गम्भीर तात्त्विक विवेचन के भरे ग्रन्थराज आपकी लौह लेखनी से प्रसूत हुए है, वहाँ दूसरी ओर "जम्बूस्वामी चरित्र" ( ई० सन् १५७६ ) जैसे कथाग्रन्थ एवं “लाटी संहिता" ( सन् १५८४) जैसे आचार ग्रन्थ भी आपने लिखे हैं। एक 'छन्दोविद्या' नामक पिंगल ग्रन्थ भी आपने लिखा है । उक्त कृतियां सभी परिमार्जित संस्कृत भाषा में है, अतः उनका विस्तृत विवेचन वहाँ उपयुक्त न होगा राजस्थानी (हिन्दी) गद्य में लिखित उनका एकमात्र उपलब्ध ग्रन्थ है 'समयसारकलश' की "बालबोधिनी टीका" । कहाकवि बनारसीदास ने 'नाटक समयसार' की प्रशस्ति में आपको आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थराज 'समयसार ' का मर्मज्ञ घोषित किया है। १. हिन्दी साहित्य द्वितीय खण्ड, भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग ०५१६. २. हिन्दी गद्य का विकास, डा० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, आचार्यनगर, कानपुर, पृ० १२२. Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . राजस्थानी दिगम्बर जैन गद्यकार ५४७ । ... ग्रन्थराज 'समयसार' पर आचार्य अमृतचंद्र ने 'आत्मख्याति' नामक बहुत ही गम्भीर संस्कृत टीका लिखी है, उसी के बीच-बीच उन्होंने संस्कृत भाषा के विभिन्न छन्दों में २७८ पद्य लिखे हैं, उन्हें 'समयसारकलश' कहा जाता है। पाण्डे राजमल्लजी ने उस 'समयसारकलश' के भावों को स्पष्ट करने वाली 'बालबोधिनी' टीका राजस्थानी हिन्दी भाषा में लिखी है। जिसके माध्यम से उस समय अध्यात्म का प्रचार घर-घर में हो गया था। उसी के आधार पर आगे चलकर महाकवि बनारसीदास ने अपने लोकप्रिय पद्यग्रन्थ 'नाटक समयसार' की रचना की है। जैसा कि उन्होंने स्वयं 'नाटक समयसार' की प्रशस्ति में स्पष्ट उल्लेख किया हैं : पांडै राजमल्ल जिनधर्मी, समयसार नाटक के मर्मी । तिन्हे ग्रन्थ की टीका कीनी, बालबोध सुगम कर दीनी ॥ इह विधि बोध वचनिका फैली, समै पाइ अध्यात्म सैली । प्रगटी जगत मांहि जिनवाणी, घर-घर नाटक कथा बसाली ।। नाटक समसार हित जी का, सुगत रूप · राजमल टीका । कवित बृद्ध रचना जो होई, भाषा ग्रन्थ पढ़ सब कोई ॥ तब बनारसी मन में आनी, कीजै तो प्रगटे जिनवानी । पंच पुरुष की आज्ञा लीनी, कवित्त बद्ध की रचना कीनी ॥ महाकवि बनारसीदास को आत्माभिमुख करने का श्रेय उक्त बालबोधिनी टीका को ही प्राप्त है। राजस्थानी के प्रसिद्ध विद्वान् अगरचंद नाहटा ने इस टीका को हिन्दी जैन गद्य की प्राप्त रचनाओं में प्राचीनतम गद्य रचना माना है एवं पांडे राजमल्ल की इस देन को उल्लेखनीय माना है।' यह टीका पुरानी शैली पर खण्डान्वयी है । शब्द पर्याय देते हुए भावार्थ लिखा गया है । यद्यपि इसकी भाषा संस्कृतपरक है, पर कठिन नहीं। वाक्यों में प्रवाह बराबर पाया जाता है। इस बालाबोधिनी भाषा टीका का गद्य इस प्रकार है : "यथा कोई जीव मदिरा पीवाइ करि अविकल कीजै छ, सर्वस्व छिनाई लीजै छ। पद ते भ्रष्ट कीजै छै तथा अनादि तांई लेइ करि सर्व जीव राशि रागद्वेष तै ज्ञानावरणादि कर्म को बंध होई छ। पांडे हेमराज-पांडे राजमल्लजी की 'समयसार कलश' पर लिखी बालबोधिनी टीका से प्रेरणा पाकर आगरा निवासी कँवरपाल जी ने इसी प्रकार की टीका कुन्दकुन्दाचार्य के दूसरे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ 'प्रवचनसार' की टीका करने का आग्रह पांडे हेमराज से किया, परिणामस्वरूप वि० सं० १७०६३ तदनुसार ईस्वी, सन् १६५२ में पांडे हेमराज जी द्वारा 'प्रवचनसार' पर 'बालबोध' भाषा टीका लिखी गई। उसकी प्रशस्ति में निम्नानुसार उल्लेख पाया जाता है : बाल बोध यह कीनी जैसे, सो तुम सुनहु कहूँ मैं तैसे । नगर आगरे में हितकारी, कंवरपाल ग्याता अविकारी ॥ तिन विचार जिय में इह कीनी, जो भाषा इह होई नवीनी । अल्प बुद्धि भी अरथ बखाने, अगम अगोचर पद पहिचाने । यह विचार मन में तिन राखी, पांडे हेमराज सो भाखी। आगे राजमल्ल जी नै कीनी, समयसार भाषा रस भीनी॥ अब जो प्रवचन की हू भाषा, सौ जिनधर्म व बहु साखा । तात काहू विलम्ब न कीजै, परम भावना अंगफल लीजै॥ १. हिन्दी साहित्य, द्वि० ख०, भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग, पृ० ४७६ । २. हिन्दी साहित्य, द्वितीय खण्ड, भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग, पृ० ४६७-७७ ३. प्रवचनसार भाषा टीका, प्रशस्ति, छन्द ११ ४. वही, छन्द Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -O 0. ૫૪. कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड प्रवचनसार के अतिरिक्त इन्होंने पंचास्तिकाय संग्रह, नयचक्र, गोम्मटसार कर्मकाण्ड आदि पर भी वचनिकाएँ लिखी हैं ।" इसकी भाषा-शैली के सम्बन्ध में डॉ० गौतम लिखते हैं : "वाक्य सीधे और सुग्राह्य है। जो सो विये, करि इत्यादि पुराने शब्द इस वचनिका में भी हैं। गद्य में शैथिल्य और पण्डिताऊपन भी है । २" इनकी भाषा एवं गद्य का नमूना इस प्रकार है : : "धर्मद्रव्य सदा अविनासी टंकोत्कीर्ण वस्तु है । यद्यपि अपण अगुरलघु गुणनि करि षट्गुणी हानि वृद्धि रूप परिषर्व है परिणाम करि उत्पाद व्यय संयुक्त है तथापि अपने प्रौव्य स्वरूप सो चलना नांही । द्रव्य तिसही का नाम है, जो उपजै विनसे थिर रहे । बनारसीदास महाकवि बनारसीदास यद्यपि मुख्य रूप में कवि (पद्यकार ) हैं तथापि उनकी दो लघु कृतियाँ गद्य में भी प्राप्त होती हैं, वे हैं 'परमार्थ वचनिका' और 'निमित्त उपादान चिट्ठी' । साहित्यिक महत्त्व की अपेक्षा हिन्दी भाषा के विकास की दृष्टि से इनका ऐतिहासिक महत्व है। इनमें कवि ने अत्यन्त सुलझी हुई व्याख्या प्रधान भाषा का प्रयोग किया है । उनके गद्य का नमूना इस प्रकार है - "मच्यादृष्टि जीव अपनी स्वरूप नहीं जानतो ताते पर स्वरूप वियंमगन होड करिकार्य मानतु है, ता कार्य करतो छतो अशुद्ध व्यवहारी कहिये । सम्यग्दृष्टि अपनी स्वरूप परोक्ष प्रमाण करि अनुभवत है । परसत्ता पर स्वरूप सौं अपनी कार्य नाहीं मानतौसंतौ जोगद्वारकरि अपने स्वरूप को ध्यान विचाररूप किया करतु है ता कार्य करती मिश्र व्यवहारी कहिए केवलज्ञानी यथाख्यात चारित्र के बल करि शुद्धात्म स्वरूप को रमनशील है ताते शुद्ध व्यवहारी कहिये, जोगारूढ़ अवस्था विद्यमान है ता व्यवहारी नाम कहिए गुड व्यवहार की सरहद त्रयोदशम गुणस्थानक सी लेई करि चतुर्दशम गुणस्थान पर्यन्त जाननी असिद्धत्व परिगमनत्वात् व्यवहारः ।" I "इन कान को व्यारों कहां ताईं लिखिए, कहां तांई कहिये । वचनातीत, इन्द्रियातीत, ज्ञानातीत ताते यह विचार बहुत कहा लिखहि । जो ग्याता होइगो सो थोरो ही लिख्यो बहुत करि समुझेगो, जो अज्ञानी होइन सो यह चिट्ठी नंगी सही परन्तु समझँगो नहीं यह वचनिका यथा का यथा सुमति प्रवीन केवली वचनानुसारी है जो याहि सुनंगो, समुमंगो, सरदहंगो, ताहि कल्याणकारी है भाग्य प्रमाण । . महाकवि बनारसीदास का स्थान हिन्दी साहित्य के इतिहास में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । ये महाकवि तुलसीदास वे समकालीन थे और इनका प्रसिद्ध काव्य 'नाटक समयसार' तत्कालीन धार्मिक समाज में तुलसीदास के रामचरितमानस के समान ही लोकप्रिय था । उनके छन्दों को लोग रामायण की चौपाइयों के समान ही गुनगुनाया करते थे। आज भी जैन समाज में 'नाटक समयसार' अत्यन्त लोकप्रिय रचना के रूप में स्थान पाये हुए हैं । आपके द्वारा लिखा गया 'अनान' हिन्दी - आत्मकथा साहित्य की सर्वप्रथम रचना है जिसमें कवि का आरम्भ से ५५ वर्ष तक का जीवन दर्पण की भाँति प्रतिबिम्बित है। आत्मकथा साहित्य की प्रथमकृति होने पर भी प्रौढ़ता को लिए हुए है। आपकी फुटकर रचनाएँ 'बनारसी विलास' में संकलित हैं। 'नाममाला' नामक पद्यबद्ध एक कोश ग्रन्थ भी है । आपका जीवन अनेक उतार-चढ़ावों को लिए हुए है। आपका जन्म विक्रम सं० १६४३, माघ शुक्ला, ११ रविवार के दिन जौनपुर में श्रीमाल कुलोत्पलाला खरगसेन जी के यहाँ हुआ था। १. हिन्दी गद्य का विकास : डॉ० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, आचार्यनगर, कानपुर - ३, पृ० १७४ २. उपरोक ३. वही, पृ० १७४-७५ ४. अर्द्ध कथानक बनारसीदास, संशोधित साहित्य माला, ठाकुर द्वार, बम्बई, भूमिका, पृ० ७८ . Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी दिगम्बर जैन गयकार ५४६ ................................... ........................ ......... .. . . .... इनके जीवन के सम्बन्ध में हम अनुभवी लेखक पं० बनारसीदास चतुर्वेदी की निम्नलिखित पंक्तियाँ उद्धृत करना उपयुक्त समझते हैं "कोई तीन सौ वर्ष पहले की बात है। एक भावुक हिन्दी कवि के मन में नाना प्रकार के विचार उठ रहे थे। जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव वे देख चुके थे। अनेक संकटों में से वे गुजर चुके थे, कई बार बाल-बाल बचे थे, कभी चोर डाकुओं के हाथ जान-माल खोने की आशंका थी, तो कभी सूली पर चढ़ने की नौबत आने वाली थी, और कई बार भयंकर बीमारियों से मरणासन्न हो गये थे। गार्ह स्थिक दुर्घटनाओं का शिकार उन्हें कई बार होना पड़ा था। एक के बाद एक उनकी दो पत्नियों की मृत्यु हो चुकी थी। और उनके नौ बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा था । अपने जीवन में उन्होंने अनेक रंग देखे थे-तरह-तरह के खेल खेले थे-कभी वे आशिकी के रंग में सराबोर थे, तो कभी धार्मिकता उन पर सवार थी, और एक बार तो आध्यात्मिक फिट के वशीभूत होकर वर्षों के परिश्रम से लिखा गया अपना नवरस का ग्रन्थ गोमती नदी के हवाले कर दिया था। संवत् १६६८ में अपनी तृतीय पत्नी के साथ बैठे हुए यदि उन्हें किसी दिन आत्मचरित्र का विचार सूझा हो तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं नौ बालक हुए मुए, रहे नारि नर दोई। ज्यों तरवर पतझार ह, रहे ठूठ से होई ॥ अपने जीवन के पतझड़ के दिनों में लिखी हुई इस छोटी सी पुस्तक से यह आशा उन्होंने स्वप्न में भी न की होगी कि वह कई सौ वर्ष तक हिन्दी जगत में उनके यश:शरीर को जीवित रहने में समर्थ होगी।' __ कविवर बनारसीदास के जीवन और साहित्य के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए डा. रवीन्द्रकुमार जैन के शोध प्रबन्ध 'कविवर बनारसीदास, जीवन और कृतित्व'२ का अध्ययन करना चाहिए। दीपचन्द साह-दीपचन्द साह भी उन आध्यात्मिक विद्वानों में से थे जिन्होंने हिन्दी गद्य निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। वे खण्डेलवाल जाति के कासलीवाल गोत्र में जन्मे थे। अत: कई स्थानों पर उनका नाम दीपचन्द कासलीवाल भी लिखा मिलता है। ये पहिले सांगानेर में रहते थे किन्तु बाद में आमेर आ गये थे । ये स्वभाव से सरल, सादगी प्रिय और अध्यात्म चर्चा के रसिक विद्वान् थे। आपके द्वारा रचित 'अनुभव प्रकाश' (सं० १७८१-वि० १७२४ ई०), "चिद्विलास' (सं० १७७९-वि० १७२२ ई०)। 'आत्मावलोकन' (सं० १७७७–वि० १७२० ई०) परमात्म-प्रसंग, ज्ञानदर्पण, उपदेश रत्नमाला स्वरूपानन्द नामक ग्रन्थ हैं। बढाढ़ प्रदेश के अन्य दिगम्बर जैन लेखकों की भाँति उनकी भाषा में ब्रज और राजस्थानी के रूपों के साथ खडी बोली के शब्द रूप है। यद्यपि इनकी भाषा टोडरमल जैसे दिग्गज लेखकों की अपेक्षा कम परिमार्जित है तथापि वह स्वच्छ है एवं साधु वाक्यों में गम्भीर अर्थाभिव्यक्ति उसकी विशेषता है। साहित्यिक मूल्यों की दृष्टि से इनकी रचनाओं का महत्त्व चाहे उतना न हो जितना तत्वचिन्तन एवं हिन्दी गद्य के निर्माण व प्रचार की दृष्टि से इनका कार्य अभिनन्दनीय है। हिन्दी गद्य की बाल्यावस्था में बहुत रचनाओं का गद्य में निर्माण कर इन्होंने इसकी रिक्तता को भरने का सफल प्रयास किया और इस दिशा में महत्त्वपूर्ण योग भी दिया है। इनकी भाषा का नमूना निम्नानुसार है 'जैसे बानर एक कांकरा के पड़े रौवे तैसे याके देह का एक अंग भी छीजे तो बहुतेरा रौवे । ये १. पं० बनारसीदास चतुर्वेदी, अर्द्धकथानक भूमिका, सं० नाथूराम प्रेमी २. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ३. हिन्दी गद्य का विकास : डा० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, पृ० १८७ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड मेरे और मैं इनका झूठ ही ऐसे जड़न के सेवन से सुख मान। अपनी शिवनगरी का राज्य भूल्या, जो श्री गुरु के कहे शिवपुरी को संभालै, तो वहाँ का आप चेतन राजा अविनाशी राज्य करै।' महापंडित टोडरमल-डा० गौतम के शब्दों में "जैन हिन्दी गद्यकारों में टोडरमल जी का स्थान बहुत ऊंचा है । उन्होंने टीकाओं और स्वतन्त्र ग्रन्थों के रूप में दोनों प्रकार से गद्य निर्माण का विराट उद्योग किया है। टोडरमलजी की रचनाओं के सूक्ष्मानुशीलन से पता चलता है कि वे अध्यात्म और जैनधर्म के ही वेत्ता न थे अपितु व्याकरण, दर्शन, साहित्य और सिद्धान्त के ज्ञाता थे । भाषा पर भी इनका अच्छा अधिकार था" ईसवी की अठारहवीं सदी के अन्तिम दिनों में राजस्थान का गुलाबी नगर जयपुर जैनियों की काशी बन रहा था। आचार्यकल्प पण्डित टोडरनलजी की अगाध विद्वत्ता और प्रतिभा से प्रभाबित होकर सम्पूर्ण भारत का तत्वजिज्ञासु समाज जयपुर की ओर चातक दृष्टि से निहारता था। भारतवर्ष के विभिन्न प्रान्तों में संचालित तत्व-गोष्ठियों और आध्यात्मिक मण्डलियों में चचित गूढ़तम शंकाएँ समाधानार्थ जयपुर भेजी जाती थीं और जयपुर से पण्डित जी द्वारा समाधान पाकर तत्व जिज्ञासु समाज अपने को कृतार्थ मानता था। साधर्मी भाई व० रायमल ने अपनी 'जीवनपत्रिका' में तत्कालीन जयपुर की धार्मिक स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है "तहाँ निरन्तर हजारों पुरुष स्त्री देवलोक की सी नाई चैत्यालै आय महापुण्य उपारज, दीर्घ काल का संचया पाप ताका क्षय करै । सौ-पचास भाई पूजा करने वारे पाईए, सौ पचास भाषा शास्त्र बांचने वारे पाईए, दस बीस संस्कृत शास्त्र वांचने वारे, सौ पचास जने चरचा करने वारे पाईए और नित्यान का सभा के शास्त्र वांचने का व्याख्यान विष पांच से सात से पुरुष, तीन च्यारि से स्त्रीजन, सब मिली हजार बारा से पुरुष स्त्री शास्त्र का श्रवण करै बीस तीस बायां शास्त्राभ्यास करै, देश देश का प्रश्न इहां आवै तिना समाधान होय उहां पहुंचे, इत्यादि अद्भुत महिमा चतुर्थकाल या नग्र विष, जिनधर्म की प्रवर्ति पाईए"। यद्यपि सरस्वती के वरद पुत्र का जीवन आध्यात्मिक साधनाओं से ओत-प्रोत है, तथापि साहित्यिक व सामाजिक क्षेत्र में भी उनका प्रदेय कम नहीं है । आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल जी उन दार्शनिक साहित्यकारों एवं क्रान्तिकारियों में से हैं, जिन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में आई हुई विकृतियों का सार्थक व समर्थ खण्डन ही नहीं किया वरन् उन्हें जड़ से उखाड़ फेंका। उन्होंने तत्कालीन प्रचलित साहित्य भाषा ब्रज में दार्शनिक विषयों का विवेचक ऐसा गद्य प्रस्तुत किया जो उनके पूर्व विरल है। पण्डितजी का समय ईसवी की अठारहवीं शती का मध्यकाल है। वह संक्रान्तिकालीन युग था। उस समय राजनीति में अस्थिरता, सम्प्रदायों में तनाव, साहित्य में शृंगार, धर्म में रूढ़िवाद, आर्थिक जीवन में विषमता एवं सामाजिक जीवन में आडम्बर--ये सब आपनी चरम सीमा पर थे। उन सबसे पण्डितजी को संघर्ष करना था, जो उन्होंने डटकर किया और प्राणों की बाजी लगाकर किया। पण्डित टोडरमलजी गम्भीर प्रकृति के आध्यात्मिक महापुरुष थे। वे स्वभाव से सरल, संसार से उदास, धन के धनी, निरभिमानी, विवेकी, अध्ययनशील, प्रतिभावान, बाह्याडम्बर विरोधी, दृढ़ श्रद्धानी, क्रान्तिकारी, सिद्धान्तों की कीमत पर कभी न झुकने वाले, आत्मानुभवी, लोकप्रिय, प्रवचनकार, सिद्धान्त ग्रन्थों के सफल टीकाकार एवं परोपकारी महामानव थे। - १. हिन्दी साहित्य, द्वि० ख०, भारतीय हिन्दी परिषद् प्रयाग, पृ० ४६५ २. हिन्दी गद्य का विकास : डा० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, आचार्यनगर, कानपुर, पृ० १८८ पण्डित टोडरमल : व्यक्तित्व और कर्तृत्व, परिशिष्ट, प्रकाशक : टोडरमल (पंडित) स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर, जयपुर-४ (राजस्थान) 0 Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी दिगम्बर जैन गद्यकार ५५१ . .............-. -. -.-. -.-.-.-. -. -. -.-. - -. -. -. -. -. -. -. -. -. --. -.. वे विनम्र पर दृढ़, निश्चयी विद्वान् एवं सरल स्वभावी थे । वे प्रामाणिक महापुरुष थे । तत्कालीन आध्यात्मिक समाज में तत्त्वज्ञान सम्बन्धी प्रकरणों में उनके कथन प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत किये जाते थे। वे लोकप्रिय आध्यात्मिक प्रवक्ता थे। धामिक उत्सवों में जनता की अधिक से अधिक उपस्थिति के लिये उनके नाम का प्रयोग आकर्षण के रूप में किया जाता था । गृहस्थ होने पर भी उनकी वृत्ति साधुता की प्रतीक थी। पण्डितजी के पिता का नाम जोगीदासजी एवं माता का नाम रम्भादेवी था। वे जाति से खण्डेलवाल थे और गोत्र था गोदीका, जिसे भौंसा व बडजात्या भी कहते हैं। उनके वंशज ढोलाका भी कहलाते थे। वे विवाहित थे पर उनकी पत्नी व सुसराल पक्ष वालों का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनके दो पुत्र थे-हरिचन्द और गुमानीराम । गुमानीराम भी उनके समान उच्चकोटि के विद्वान् और प्रभावक, आध्यात्मिकता के प्रवक्ता थे। उनके पास बड़े-बड़े विद्वान् भी तत्त्व का रहस्य समझने आते थे । पण्डित देवीदास गोधा ने “सिद्धान्तसार टीका प्रशस्ति" में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है। पण्डित टोडरमलजी की मृत्यु के उपरान्त वे पण्डित टोडरमल द्वारा संचालत धार्मिक क्रान्ति के सूत्रधार रहे । उनके नाम से एक पंथ भी चला जो “गुमान-पंथ” के नाम से जाना जाता है। पण्डित टोडरमलजी की सामान्य शिक्षा जयपुर की एक आध्यात्मिक (तेरापंथ) सैली में हुई, जिसका बाद में उन्होंने सफल संचालन भी किया । उनके पूर्व बाबा बंशीधरजी उक्त सैली के संचालक थे। पण्डित टोडरमलजी गढ़तत्त्वों के तो स्वयंबद्ध ज्ञाता थे । 'लब्धिसार" व "क्षपणासार" की संदृष्टियाँ आरम्भ करते हुए वे लिखते हैं"शास्त्र विष लिख्या नाहीं और बतावने वाला मिल्या नाहीं।" __संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी के अतिरिक्त उन्हें कन्नड़ भाषा का भी ज्ञान था। मूल ग्रन्थों को वे कन्नड़ लिपि में पढ़-लिख सकते थे । कन्नड़ भाषा और लिपि का ज्ञान एवं अभ्यास भी उन्होंने स्वयं किया। वे कन्नड़ भाषा के ग्रन्थों पर व्याख्यान करते थे एवं वे कन्नड़ लिपि भी लिख भी लेते थे। ब्र० रायमल ने लिखा है : "दक्षिण देश सू पांच सात और ग्रन्थ ताड़पत्रां विषै कर्णाटी लिपि में लिख्या इहां पधारे हैं, ताकूँ मल जी बाचे हैं, वाका यथार्थ व्याख्यान कर हैं वा कर्णाटी लिपि में लिखि ले है।' यद्यपि उनका अधिकांश जीवन जयपुर में ही बीता तथापि उन्हें अपनी आजीविका के लिए कुछ समय सिंघाणा रहना पड़ा। वहाँ वे दिल्ली के एक साहू कार के यहाँ कार्य करते थे। परम्परागत मान्यतानुसार उनकी आयु कुल २७ वर्ष कही जाती रही, परन्तु उनकी साहित्यिक साधना, ज्ञान व प्राप्त उल्लेखों को देखते हुए मेरा यह निश्चित मत है कि वे ४७ वर्ष तक अवश्य जीवित रहे। इस सम्बन्ध में साधर्मी ब्र. रायमल द्वारा लिखित 'चर्चा-संग्रह' ग्रन्थ की अलीगंज (एटा, उ० प्र०) में प्राप्त हस्तलिखित प्रति के पृ० १७० का निम्नलिखित उल्लेख विशेष द्रष्टव्य है : "बहरि बारा हजार त्रिलोकसारजी की टीका वा बारा हजार मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रंथ अनेक शास्त्रा के अनुस्वारि अर आत्मानुसासनजी की टीका वा हजार तीन यां तीना ग्रंथा की टीका भी टोडरमलजी सैतालीस बरस की आयु पूर्ण करि परलोक विर्ष गमन की"। पण्डित बखतराम शाह के अनुसार कुछ मदान्ध लोगों द्वारा लगाये गए शिवपिण्डी को उखाड़ने के आरोप के सन्दर्भ में राजा द्वारा सभी श्रावकों को कैद कर लिया गया था। और तेरापंथियों के गुरु, महान धर्मात्मा, महापुरुष पंडित टोडरमलजी को मृत्युदण्ड दिया गया था। दुष्टों के भड़काने में आकर राजा ने उन्हें मात्र प्राणदण्ड ही नहीं दिया बल्कि गंदगी में गड़वा दिया था । यह भी कहा जाता है कि उन्हें हाथी के पैर के नीचे कुचलवा कर मारा था। १. इन्द्रध्वज विधान महोत्सव पत्रिका २. बुद्धि विलास : बखतराम शाह, छन्द १३०३, १३०४. ३. (क) वीरवाणी : टोडरमल प० २८५, २८६. (ख) हिन्दी साहित्य, द्वितीय खण्ड, पृ० ५०० Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .... ... ................................................................ पण्डित टोडरमल जी आध्यात्मिक साधक थे। उन्होंने जैन दर्शन और सिद्धान्तों का गहन अध्ययन ही नहीं किया अपितु उसे तत्कालीन जनभाषा में लिखा है। इसमें उनका मुख्य उद्देश्य अपने दार्शनिक चिन्तन को जनसाधारण तक पहुंचाना था। पण्डितजी ने प्राचीन जैन ग्रन्थों की विस्तृत, गहन परन्तु सुबोध भाषा टीकाएं लिखीं। इन भाषा टीकाओं में कई बार विषयों पर बहुत ही मौलिक विचार मिलते हैं जो उनके स्वतन्त्र चिन्तन के परिणाम थे। बाद में इन्ही विचारों के आधार पर उन्होंने कतिपय मौलिक ग्रन्थों की रचना भी की। उनमें से सात तो टीकाग्रन्थ हैं और पाँच मौलिक रचनाएं। उनकी रचनाओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है-१. मौलिक रचनाएँ २. व्याख्यात्मक टीकाएं। मौलिक रचनाएँ गद्य और पद्य दोनों रूपो में है । गद्य रचनाएं चार शैलियों में मिलती हैं१. वर्णनात्मक शैली २. पत्रात्मक शैली ३. यंत्र रचनात्मक (चार्ट शैली) ४. विवेचनात्मक शैली वर्णनात्मक शैली में समोसरण आदि का सरल भाषा में सीधा वर्णन है । पण्डितजी के पास जिज्ञासु लोग दूरदूर से अपनी शंकाएँ भेजते थे, उनके सामाधान में वह जो कुछ लिखते थे, वह लेखन पत्रात्मक शैली के अन्तर्गत आता है। इसमें तर्क और अनुभूति का सुन्दर समन्वय है । इन पत्रों में एक पत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है । सोलह पृष्ठीय यह पत्र 'रहस्यपूर्ण चिट्ठी' के नाम से प्रसिद्ध है । यन्त्र रचनात्मक शैली में चार्टी द्वारा विषय को स्पष्ट किया जाता है। 'अर्थसंदृष्टि अधिकार' इसी प्रकार की रचना है। विवेचनात्मक शैली में सैद्धान्तिक विषयों को प्रश्नोत्तर पद्धति में विस्तृत विवेचन करके युक्ति व उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है। "मोक्षमार्ग प्रकाशक" इसी श्रेणी में आता है। पद्यात्मक रचनाएँ दो रूपों में उपलब्ध हैं१. भक्तिपरक २. प्रशस्तिपरक भक्तिपरक रचनाओं में ‘गोम्मटसार पूजा' एवं ग्रन्थों के आदि, मध्य और अन्त में मंगलाचरण के रूप में प्राप्त फुटकर पद्यात्मक रचनाएँ हैं । ग्रन्थों के अन्त में लिखी गई परिचयात्मक प्रशस्तियाँ प्रशस्तिपरक श्रेणी में आती हैं। पण्डित टोडरमलजी की व्याख्यात्मक टीकाएँ दो रूपों में पाई जाती हैं-१. संस्कृत ग्रन्थों की टीकायें, २. प्राकृत ग्रन्थों की टीकायें। संस्कृत ग्रन्थों की टीकायें 'आत्मानुशासन भाषा टीका' और 'पुरुषार्थसिद्धि युपाय भाषा टीका' है। प्राकृत ग्रन्थों में गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार-क्षपणासार और त्रिलोकसार हैं, जिनकी भाषा टीकाएँ उन्होंने लिखी हैं।। गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार और क्षपणासार की भाषा टीकायें पण्डित टोडरमल जी ने अलग-अलग बनाई थी परन्तु चारों टीकाओं को परस्पर एक दूसरे से सम्बन्धित एवं परस्पर एक का अध्ययन दूसरे के अध्ययन में सहायक जानकर उन्होंने उक्त चारों टीकाओं को मिलाकर एक कर दिया तथा उसका नाम 'सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका' रख दिया।' १. (क) बाबू ज्ञानचंद जी जैन, लाहौर, वि० सं० १८५४ (ख) जैन ग्रंथरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९११ ईसवी (ग) पन्नालाल जी चौथे, वाराणसी, बी०नि० सं० २४५१ (घ) अनन्तकीति ग्रंथमाला, बम्बई, वी० नि० सं० २४६३ (ङ) सस्ती ग्रंथमाला, दिल्ली, १९६५ ईसवी . Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी दिगम्बर जैन गद्यकार ५५३ सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका विवेचनात्मक गद्य शैली में लिखी गई है। प्रारम्भ में इकहत्तर पृष्ठ की पीठिका है। आज नवीन शैली के सम्पादित ग्रन्थों में भूमिका का बड़ा महत्त्व माना जाता है। शैली के क्षेत्र में दो सौ बीस वर्ष पूर्व लिखी गई सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका की पीठिका आधुनिक भूमिका का आरम्भिक रूप है। किन्तु भूमिका का आद्य रूप होने पर भी उसमें प्रौढ़ता पाई जाती है, उसमें हकलापन कहीं भी देखने को नहीं मिलता। उसको पढ़ने से ग्रन्थ का पूरा हार्द खुल जाता है एवं इस गूढ़ ग्रन्थ के पढ़ने में आने वाली पाठक की समस्त कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं। हिन्दी आत्मकथा-साहित्य में जो महत्त्व महाकवि पण्डित बनारसीदास के 'अर्द्ध कथानक' को प्राप्त है, वही महत्त्व हिन्दी भूमिका साहित्य में समग्ज्ञानचन्द्रिका की पीठिका का है। ___ 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' पण्डित टोडरमलजी का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का आधार कोई एक ग्रन्थ न होकर सम्पूर्ण जैन साहित्य है। यह सम्पूर्ण जैन साहित्य को अपने में समेट लेने का एक सार्थक प्रयत्न था, पर खेद है कि यह ग्रन्थ राज पूर्ण न हो सका । अन्यथा यह कहने में संकोच न होता कि यदि सम्पूर्ण जैन वाङ्मय कहीं एक जगह सरल, सुबोध और जनभाषा में देखना हो तो 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' को देख लीजिये। अपूर्ण होने पर भी यह अपनी अपूर्वता के लिए प्रसिद्ध है । यह एक अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ है, जिसके कई संस्करण निकल चुके हैं एवं खड़ी बोली में इसके अनुवाद भी कई बार प्रकाशित हो चुके हैं।" यह उर्दू में भी छप चुका है। मराठी और गुजराती में इसके अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। अभी तक सब कुल मिलाकर इसकी ५१,२०० प्रतियाँ छप चुकी हैं । इसके अतिरिक्त भारतवर्ष के दिगम्बर जैन मन्दिरों के शास्त्र भण्डारों में इस ग्रन्थराज की हजारों हस्तलिखित प्रतियां पाई जाती हैं । समूचे समाज में यह स्वाध्याय और प्रवचन का लोकप्रिय ग्रन्थ है। आज भी पण्डित टोडरमल जी दिगम्बर जैन समाज में सर्वाधिक पढ़े जाने वाले विद्वान् हैं। 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' की मूलप्रति भी उपलब्ध है। एवं उसके फोटोप्रिण्ट करा लिये गये हैं जो जयपुर, बम्बई, दिल्ली और सोनगढ़ में सुरक्षित हैं । इस पर स्वतन्त्र प्रवचनात्मक व्याख्याएँ भी मिलती हैं। यह ग्रन्थ विवेचनात्मक गद्य शैली में लिखा गया है। प्रश्नोत्तरों द्वारा विषय को बहुत गहराई से स्पष्ट किया गया है। इसका प्रतिपाद्य एक गम्भीर विषय है, पर जिस विषय को उठाया गया है उसके सम्बन्ध में उठने वाली प्रत्येक शंका का समाधान प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। प्रतिपादन शैली में मनोवैज्ञानिकता एवं मौलिकता पाई जाती है । प्रथम शंका के समाधान में द्वितीय शंका की उत्थानिका निहित रहती है। ग्रन्थ को पढ़ते समय पाठक के हृदय में जो प्रश्न उपस्थित होता है उसे हम अगली पंक्ति में लिखा पाते हैं । ग्रन्थ पढ़ते समय पाठक को आगे पढ़ने की उत्सुकता बराबर बनी रहती है। वाक्य रचना संक्षिप्त और विषय-प्रतिपादन शैली तार्किक एवं गम्भीर है । व्यर्थ का विस्तार उसमें नहीं है, १. (क) अ०भा० दि० जैन संघ मथुरा, वि० सं० २००५ (ख) श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट सोनगढ़, वि० सं० २०२३, २६, ३० २. दाताराम चेरिटेबिल ट्रस्ट, १५८३, दरीबाकला, दिल्ली, वि० सं० २०२७ ३. (क) श्री दि० जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (ख) महावीर ब्र० आश्रम, कारंजा ४. दि. जैन मन्दिर दीवान भदीचंद जी, घी वालों का रास्ता, जयपुर, ५. वही, जयपुर। ६. श्री दि. जैन सीमंधर जिनालय, जवेरी बाजार, बम्बई । ७. श्री दि. जैन मुमुक्षु मण्डल, श्री दि. जैन मन्दिर, धर्मपुरा, दिल्ली ८. श्री दि० जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ ९. आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी द्वारा किये गये प्रवचन "मोक्षमार्ग प्रकाश की किरणें" नाम से दो भागों में श्री दि. जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ से हिन्दी व गुजराती भाषा में कई बार प्रकाशित हो चुके हैं। Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५५४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन अन्य : पंचम खण्ड ....-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-........... .................................... पर विस्तार के संकोच में कोई विषय अस्पष्ट नहीं रहा है। लेखक विषय का यथोचित विवेचन करता हुआ आगे बढ़ने के लिए स्वयं ही आतुर रहा है। जहाँ कहीं भी विषय का विस्तार हुआ है वहाँ उत्तरोत्तर नवीनता आती गई है। वह विषय विस्तार सांगोपांग विषय-विवेचना की प्रेरणा से ही हुआ है। जिस विषय को उन्होंने छुआ उसमें "क्यों" का प्रश्नवाचक समाप्त हो गया है । शैली ऐसी अद्भुत है कि एक अपरिचित विषय भी सहज हृदयंगम हो जाता है। पण्डितजी का सबसे बड़ा प्रदेय यह है कि उन्होंने संस्कृत, प्राकृत में निबद्ध आध्यात्मिक तत्त्वज्ञान को भाषागद्य के माध्यम से व्यक्त किया और तत्त्व विवेचन में एक नई दृष्टि दी। यह नवीनता उनकी क्रान्तिकारी दृष्टि में है। टीकाकार होते हुए भी पण्डितजी ने गद्य शैली का निर्माण किया। डॉ. गौतम ने उन्हें गद्य निर्माता स्वीकार किया है। उनकी शैली दृष्टान्तयुक्त प्रश्नोत्तरमयी तथा सुगम है । वे ऐसी शैली अपनाते हैं जो न तो एकदम शास्त्रीय है और न आध्यात्मिक सिद्धान्तों और चमत्कारों से बोझिल। उनकी इस शैली का सर्वोत्तम निर्वाह 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में है । तत्कालीन स्थिति में गद्य भाग को आध्यात्मिक चिन्तन का माध्यम बनाना बहुत ही सूझ-बूझ और और श्रम का कार्य था। उनकी शैली में उनके चिन्तक का चरित्र और तर्क का स्वभाव स्पष्ट झलकता है। एक आध्यात्मिक लेखक होते हुए भी उनकी गद्यशैली में व्यक्तित्व का प्रक्षेप उनकी मौलिक विशेषता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पण्डित टोडरमलजी न केवल टीकाकार थे बल्कि अध्यात्म के मौलिक विचारक भी थे। उनका यह चिन्तन समाज की तत्कालीन परिस्थितियों और बढ़ते हुए आध्यात्मिक शिथिलाचार के सन्दर्भ में एकदम सटीक है। लोकभाषा काव्यशैली में 'रामचरितमानस' लिखकर महाकवि तुलसीदास ने जो काम किया, वही काम उनके दो सौ वर्ष बाद गद्य में 'जिन-अध्यात्म' को लेकर पण्डित टोडरमलजी ने किया। - जगत के सभी भौतिक द्वन्द्वों से दूर रहने वाले एवं निरन्तर आत्मसाधना व साहित्य-साधनारत इस महामानव को जीवन की मध्य वय में ही साम्प्रदायिक विद्वेष का शिकार होकर जीवन से हाथ धोना पड़ा। इनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिये लेखक के शोध प्रबन्ध 'पण्डित टोडरमल । व्यक्तित्व और कर्तृत्व का अध्ययन करना चाहिये । इनकी भाषा का नमूना इस प्रकार है "ताते बहुत कहा कहिये, जैसे रागादि मिटावने का श्रद्धान होय सो ही सम्यग्दर्शन है। बहरि जैसे रागादि मिटावने का जानना होय सो ही सम्यग्ज्ञान है। बहुरि जैसे रागादि मिटें सो ही सम्यक्चारित्र है । ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है। बौलतराम कासलीवाल-महापण्डित टोडरमलजी के पश्चात् यदि किसी महत्त्वपूर्ण गद्य-निर्माता का नाम लिया जा सकता है तो वह है दौलतराम कासलीवाल। इनका उल्लेख आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास के 'गद्य विकास' (पृ० ४११ पर) में किया है।। इनका जन्म जयपुर से लगभग १०० किलोमीटर की दूरी पर स्थित वसवा नामक स्थान पर विक्रम सं० १७४८ में हुआ था। इनके पिता का नाम आनन्दराम था। ये खण्डेलवाल जाति एवं कासलीवाल गोत्र के दिगम्बर जैन विद्वान थे। वे जयपुर राज्य में उच्चाधिकारी के पद पर सेवारत थे। ये जयपुर के राजा सवाई जयसिंह के वकील बनकर बहुत काल तक उदयपुर में रहे। उस समय की रचनाओं में इन्होंने स्वयं को नृपमन्त्री लिखा है। साधर्मी भाई ब. रायमलजी ने अपनी जीवन पत्रिका में तत्सम्बन्धी उल्लेख इस प्रकार किया है १. हिन्दी गद्य का विकास, डॉ. प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, आचार्य नगर, कानपुर, पृ० १८५ व १८८ २. प्रकाशक - पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर जयपुर--४ ३. मोक्षमार्ग प्रकाशक, पंडित टोडरमल ट्रस्ट, पृ०, ३१३ Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी दिगम्बर जैन गद्यकार ५५५ . "पीछे राणा का उदेपुर विष दौलतराम तेरापंथी, जेपुर के जयस्यंध राजा के उकील तासू धर्म आथि मिले। ताकै संस्कृत का ज्ञान नीकां, बाल अवस्था सू लें वृद्ध अवस्था पर्यन्त सदैव सौ पचास शास्त्र अवलोकन कीया और उहाँ दौलतराम के निमित्त करि दस बीस साधर्मी वा दस बीस बायां सहित सेली का बणाव बणि रहा । ताका अवलोकन करि साहि पूरै पाछा आए।" इन्हीं राजमलजी की प्रेरणा से दौलतराम जी ने वचनिकाएं लिखी हैं। जिनकी प्रशस्तियों में इस बात की चर्चा सर्वत्र की है। जयपुर के प्रसिद्ध दीवान रामचन्द्र जी उनके मित्रों में से थे। उन्होंने इनसे पण्डित टोडरमलजी के अपूर्ण टीकाग्रन्थ 'पुरुषार्थसिद्ध युपाय भाषाटीका' पूर्ण करने का आग्रह किया था और उन्होंने वह टीका पूर्ण की थी। उसकी प्रशस्ति में इस बात की उन्होंने स्पष्ट चर्चा की है एवं पण्डित टोडरमलजी का बहुत ही सम्मान के साथ उल्लेख किया है भाषा टीका ताड परि कीनी टोडरमल्ल । मुनिवत वृत्ति ताकी रही वाके मंहि अचल्ल ॥ इन्होंने अपने कवि जीवन के आरम्भ काल में पद्य ग्रन्थ ही अधिक लिखे, किन्तु टोडरमलजी के प्रभाव के कारण वे भी गद्य की ओर झुके फलस्वरूप महान एवं विशालकाय गद्य ग्रन्थों की रचना कर डाली। इनकी गद्य रचनाओं में 'पद्मपुराण वचनिका', 'आदिपुराण वचनिका' और 'हरिवंशपुराण वचनिका' जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी शामिल हैं। जिनका आज भी सारे भारतवर्ष के दिगम्बर जैन मन्दिरों में अनवरत स्वाध्याय होता है। हिन्दी गद्य के विकास की दृष्टि से दौलतरामजी की इन कृतियों का ऐतिहासिक महत्त्व है,। इनका समीक्षात्मक अध्ययन आवश्यक है। इनकी भाषा में प्रवाह है। वह परिमार्जित है। युग की धारा को बदल देने में समर्थ है। इनकी रचनाओं का नमूना देखने के लिये जीवन और साहित्य का परिचय प्राप्म करने के लिये डॉ० कस्तूरचंद कासलीवाल द्वारा सम्पादित 'महाकवि दौलतराम कासलीवाल : व्यक्तित्व और कृतित्व" कृति का अध्ययन किया जाना चाहिये। इसकी भाषा का नमूना इस प्रकार है अथानंतर पवनंजयकुमार ने अंजनासुन्दरी को परण कर ऐसी तजी जो कबहूं बात न बूझ, सो वह सुन्दरी पति के असंभाषण तै अर कृपादृष्टि कर न देखवे तें परम दुःख करती भई ।(पप-पुराण भाषा) अथानन्तर-राजा जरत्कुमार राज्य त्याग करे ताके राज्य में पूजा आनन्द को प्राप्त होती भई । राजा महाप्रतापी जिनकी ताके राज को लोग अति चाहें ॥१॥ सो जरत्कुमार ने राजा कलिंग की पुत्री परनी ताके राजवंश की ध्वजा समान वसुध्वज नामा पुत्र भया ॥२॥ ताहि राज्य का भार सोंप जरत्कुमार मुनि भये । सत पुरुषन के कुल की यही रीति है। पुत्र को राज्य देय आप चारित्र धारे ॥३॥ -हरिवंशपुराण चक्रवर्तीनि में आदि प्रथम चक्री अतुल है लक्ष्मी जाके अर नाचते उछलते उत्तुग तुरंग तिनिके खुरनिकरि चूर्ण कीए है विषस्थल जान तुरंगनि के खुरनिकरि उठी रेणु ताकरि समुद्र कूश्यामता उपजावता संता प्रभासदेव कुंजीतिकारि ता थकी सारभूत वस्तु लीन्ही ॥ १२६ ॥ -आदिपुराण पं० जयचंदजी छावड़ा-दिगम्बर जैन समाज में सर्वाधिक सम्माननीय आचार्य कुन्दकुन्द के सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ 'समयसार' एवं उसके मर्म को प्रकट करने वाली आचार्य अमृतचन्द्र की 'आत्मख्याति' तथा 'कलशों' के समर्थ १. महापंडित टोडरमल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ० २५५-५६ ३. वही, पृ० २६० २. वही, पृ० २५५-५६ ४. वही, पृ० ३०६ । Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 ५५६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड हैं - हिन्दी टीकाकार पंडित जयचन्दजी छावड़ा ने हिन्दी गद्य के उन्होंने १५ से अधिक विशाल गद्य रचनाएँ हिन्दी साहित्य को दी १. स्वार्थसूत्र वचनका वि० सं० २०५० ३. प्रमेयत्नमाला वचनिका सिं० २०६२ ५. द्रव्यसंग्रह वचनिका वि० सं० १८६३ भण्डार को अपनी प्रौढ़ लेखनी से भरपूर भरा है। । जिनमें कतिपय महत्त्वपूर्ण रचनाओं के नाम हैं२. सर्वसिद्धि वचनका वि० सं० २०६२ ४. स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा भाषा वि सं १८६३ ६. समयसार वचनिका वि० सं १८६४ ७. देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा) वि० सं० २०६६ ६. ज्ञानार्णव वचनिका वि सं १८६६ ११. पदसंग्रह १३. पत्र परीक्षा वचनिका १५. धन्यकुमारचरित वचनिका ८. अष्टपाहुड वचनिका दि ० १८६७ १०. भक्तामर स्तोत्र वचनिका वि० सं० १८७० १२. सामायिक पाठ वचनिका १४. चन्द्रप्रभ चरित द्वि० सर्ग 'सर्वार्थसिद्धि वचनिका' प्रशस्ति में उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया है - काल अनादि भ्रमत संसार, पायो नरभव में सुखकार । जन्म फागई लयो सुथनि, मोतीराम पिता के आनि ।। ११ ।। पायो नाम तहां जयचन्द, यह परजायतणू मकरन्द | द्रव्यदृष्टि में देखूं जबै मेरा नाम आतमा कबे ॥ १२ ॥ गोव छावड़ा आवक धर्म, जामें भी किया शुभ कर्म । ग्यारह वर्ष अवस्था भई तब जिन मारग की सुधि लई ॥ १३ ॥ आ इष्ट को ध्यान अयोगि, अपने इष्ट चलन शुभजोगि । यहां जो मंदिर जिनराज, तेरापंथ पंच तहां साज ।। १४ ।। देव धर्म गुरु सरधा कथा, होय जहां जन तब मो मन उमग्यो तहां चलो, जो अपनो करनो है भलो ।। १५ ।। जाव तहां श्रद्धा हद करी, मिथ्या बुद्धि सबै परिहरी भाशे यथा । निमित्त पाय जयपुर में आय, बड़ी जु सैली देखी भाय ।। १६ ।। पंडित बहुते मिले। गुणी लोक साधर्मी भले, ज्ञानी पहले थे वंशीधर नाम, धरै प्रभाव शुभ ठाम ॥ १७ ॥ टोडरमल पंडित मति खरी, गोम्मटसार वचनका करी । ताकी महिमा सब जन कर वा पढे बुद्धि विस्तरं ।। १८ ।। दौलतराम गुणी अधिकाय, पंडितराय राग में जाय । ताकी बुद्धि लसै सब खरी, तीन पुराण वचनिका करी ।। १६ ।। रायमल्ल त्यागी गृहवास, महाराम व्रतशील निवास । मैं हूँ इनकी संगति ठानि बुद्धितणु जिनवाणी जानि ॥ २० ॥ उक्त कथनानुसार उनका जन्म जयपुर के पास "फागी"" कस्बा में मोतीरामजी छावड़ा के यहाँ हुआ था । ग्यारह वर्ष की अवस्था में उन्हें आध्यात्मिक रुचि जागृत हुई । तेरापंथी मन्दिर में होने वाली तत्त्वचर्चा में शामिल होने लगे । कुछ समय बाद कारणवश जयपुर आना हुआ और यहां उन्होंने बहुत बड़ी सैली देखी यहाँ बड़े-बड़े ज्ञानी पंडित गुणीजन प्राप्त हुए। वंशीधरजी पहले हो चुके थे । वर्तमान में बहुचर्चित व प्रशंसित गोम्मटसार की वचनिका १. फागीग्राम जयपुर से ४५ किलोमीटर की दूरी पर डिग्गी-मालपुरा रोड पर स्थित है। . Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी दिगम्बर जैन गद्यकार ५५७ . करने वाले महान् बुद्धिमान पंडित टोडरमलजी, तीन पुराणों की वचनिका करने एवं राजदरबार में जाने वाले गुणी विद्वान् दौलतरामजी, गृहवासत्यागी राजमलजी एवं शीलवती महारामजी थे। इन सबकी संगति में रहकर उन्होंने जिनवाणी का रहस्य समझा था। दीवान रामचंदजी से इसके अच्छे सम्बन्ध थे। उनके द्वारा आजीविका की स्थिरता पाकर उन्होंने विविध साहित्य सेवा की थी। इनके पुत्र पंडित नन्दलालजी भी अच्छे विद्वान् थे, उनसे प्रेरणा पाकर भी इन्होंने साहित्य निर्माण किया था। उनकी प्रशंसा स्वयं उन्होंने की है । नंदलाल मेरा सुत गुनी, बालपने ते विद्या सुनी। पंडित भयो बडौ परवीन, ताहू ने प्रेरण यह कीन । इनके ग्रन्थों की भाषा सरल, सुबोध एवं परिमार्जित है, भाषा में जहाँ भी दुरुहता आयी है, उनका कारण गम्भीर भाव और तात्त्विक गहराइयाँ रही हैं। इनके गद्य का नमूना इस प्रकार है जैसे इस लोक विषे सुवर्ण अर रूपा गालि एक किये एक पिण्ड का व्यवहार होय है तैसें आत्मा के अर शरीर के परस्पर एक क्षेत्र की अवस्था ही में एक पणां का व्यवहार है ऐसे व्यवहार मात्र ही करि आत्मा शरीर का एक पणा। बहुरि निश्चय नै एक पणा नाहीं है। जाते पीला अर पांडुर है स्वभाव जिनिका ऐसा सुवर्ण अर रूपा है तिनकै जैसे निश्चय विचारिये तब अत्यन्त भिन्न पणा करि एक-एक पदार्थ पणा की अनुपस्थिति है । तातै नानापना ही है। पंडित सदासुखदास-पंडितप्रवर जयचन्द जी छावड़ा के बाद हिन्दी भाषा के गद्य भण्डार को समृद्ध करने. वाले किसी दिगम्बर जैन विद्वान् का नाम लिया जा सकता है तो वे हैं पंडित सदासुखदास कासलीवाल । इनका जन्म जयपुर में विक्रम संवत् १८५२ तदनुसार ईसवी १७६५ के लगभग हुआ था। क्योंकि वि० सं० १९२० में रचित 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार भाषा टीका' की प्रशस्ति में आपने अपने को ६८ वर्ष का लिखा है अडसठि वरष जु आयु के, बीते तुझ अधार । शेष आयु तब शरण ते, जाहु यही मम सार ॥१७॥ आपके पिता का नाम था दुलीचन्द और वे 'डेडाका' कहलाते थे। ये सहनशीलता के धनी और संतोषी विद्वान थे। अपना अधिकांश समय अध्ययन-मनन, पठन-पाठन और लेखन में ही लगाया करते थे। इनसे प्रेरणा पाकर एवं अध्ययन कर प० पन्नालाल संवी, पारसदास निगोत्या जैसे योग्य विद्वान् तैयार हुए थे। इनकी विद्वत्ता और सद्गुणों की थाक दूर-दूर तक थी। आरा से परमेष्ठी शाह अग्रवाल ने 'तत्त्वार्थ सूत्र' पर 'अर्थ प्रकाशिका' नामक टीका पाँच हजार श्लोक प्रमाण लिखकर इनके पास संशोधनार्थ भेजी थी। इन्होंने उसका योग्यतापूर्वक संशोधन कर उसे ११ हजार श्लोक प्रमाण बनाकर उन्हें वापिस भेज दी थी। वृद्धावस्था में अपने २० वर्षीय इकलौते पुत्र के स्वर्गवास के कारण कुछ टूट से गये थे । इनके शिष्य सेठ मूलचन्द सोनी वियोगजन्य दुःख कम करने की दृष्टि से इन्हें अजमेर ले गये फिर भी ये अधिक काल जीवित नहीं रहे । अन्तिम समय में अपने सुयोग्य शिष्य पन्नालाल संघी आदि को तत्त्व प्रचार करने की प्रेरणा दी जिसे उन्होंने भलीभांति निभाया। आपके द्वारा लिखित ग्रन्थ निम्नानुसार हैं-: १. भगवती आराधना भाषा वचनिका वि० सं० १९०६ २. तत्त्वार्थ सूत्र लघु भाषा टीका वि० सं० १९१० ३. तत्त्वार्थसूत्र बृहद् भाषा टीका अर्थ प्रकाशिका' वि०सं०१६१४ ४. समयसार नाटक भाषा वचनिका वि०सं० १९१४ १. हिन्दी साहित्य : द्वितीय खण्ड, पृ० ५०४. Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ५. अकलंकाष्टक भाषा वचनिका वि० सं०.१६१५ ६ . मृत्यु महोत्सव ७. रत्नकरण्ड श्रावकाचार भाषा टीका वि० सं० १९२०८. नित्य नियम पूजा वि० सं० १९२१ एक ऋषिमण्डल पूजा भी आपके द्वारा रचित बताई जाती है । इनकी भाषा का नमूना इस प्रकार है : "संसार में धर्म ऐसा नाम तो समस्त लोक कहे हैं, परन्तु शब्द अर्थ तो ऐसा जो नरक तिर्यञ्चादिक गति में परिभ्रमण रूप दुःखते आत्माकू छुड़ाय उत्तम आत्मीक, अविनाशी अतीन्द्रिय मोक्षसुख में धारण कर सो धर्म है। सो ऐसा धर्म मोल नाहीं आवे जो धन खरचि दान सन्मानादिक तै ग्रहण करिये तथा किसी का दिया नाहीं आवै जो सेवा उपासनाते राजी कर लिया जाय। तथा मदिर, पर्वत जल, अग्नि, देवमूर्ति, तीर्थादिकन में नाहीं धरया है, जो वहाँ जाय ल्याइये। तथा उपवासवत, बाह्यक्लेशादि तप में हू, शरीरादि कृश करने में हू नाहीं मिले। तथा देवाधिदेव के मंदिरी नि में उपकरणदान मण्डल पूजनादिकरि तथा गृह छोड़ वन श्मशान में बरानेकरि तथा परमेश्वर के नाम जाप्यादिकरि धर्म नाहीं पाइये है। धर्म तो आत्मा का स्वभाव है । जो पर में आत्मबुद्धि छोड़ अपना ज्ञाता द्रष्टा रूप स्वभाव का श्रद्धान अनुभव तथा ज्ञायक स्वभाव में ही प्रवर्तन रूप जो आचरण सो धर्म है।" यद्यपि गत-चार पाँच सौ वर्षों में शताधिक दिगम्बर जैन विद्वानों ने राजस्थानी हिन्दी-साहित्य के गद्य भण्डार को काफी समृद्ध किया है, उसे प्रौढ़ता प्रदान की है, उसका परिमार्जन किया है, सशक्त बनाया है तथापि स्थानाभाव के कारण यहाँ मात्र कतिपय प्रतिनिधि गद्यकारों के व्यक्तित्व और कर्तृत्व का संक्षिप्त परिचय ही दिया जा सका है। मुझे विश्वास है कि उक्त संक्षिप्त विवरण भी मनीषियों को दिगम्बर जैन गद्यकारों की ओर आकृष्ट करेगा और राजस्थान जैन ग्रन्थ भण्डारों में शोध-मनन, पठन-पाठन एवं प्रकाशन को प्रेरित करेगा। १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार भाषाटीका, पृष्ठ २ Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित 0 मुनि श्री गुलाबचन्द्र निर्मोही' युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य भारतीय भाषाओं में राजस्थानी भाषा का स्वतन्त्र और मौलिक स्थान है। साहित्य एकादमी ने इसे एक स्वतन्त्र भाषा के रूप में मान्यता देकर इस तथ्य को प्रमाणित भी कर दिया है। शताब्दियों पूर्व इस भाषा का जो साहित्य-स्रोत प्रवाहित हुआ, वह क्रमश: विस्तार पाकर अनेक आयामों को अपने में समेटे हुए निरन्तर गतिशील है। भारतीय वाङ्मय में से राजस्थानी साहित्य को पृथक् कर दिया जाए तो एक रिक्तता की अनुभूति होगी। राजस्थानी भाषा की अनेक अन्तर्भाषाएँ हैं । मारवाड़ी, मेवाड़ी, जयपुरी, बीकानेरी, गाढ़वाली, हाडौती, भीली आदि उनमें प्रमुख हैं । इन भाषाओं में प्रचुर साहित्य भी लिखा गया है। वह समग्र साहित्य राजस्थानी भाषा भी विधाओं का साहित्य कहा जाता है। राजस्थानी साहित्य जीवन-चरित, दर्शन, गणित, ज्योतिष, न्याय, लोकगीत, लोककथा, तथा लोकमानस का स्पर्श करने वाले विभिन्न पक्षों पर लिखा गया है। अन्य भाषाओं की तरह राजस्थानी भाषा में सन्त-साहित्य भी पर्याप्त मात्रा में है। प्राचीन काल में राजस्थानी भाषा का कोई व्याकरण न होने के कारण अब तक उसका एक सर्व-सम्मत रूप नहीं है। काव्यकारों ने जिस प्रकार भाषा प्रयोग किया, वही प्रमाण माना जाने लगा। तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक आचार्य भिक्षु राजस्थानी भाषा के एक उद्भट कवि हुए हैं। साधना के विषम पथ पर सतत प्रसारणशील रहते हुए उन्होंने जीवनकाल में ३८ हजार पद्य प्रमाण साहित्य की रचना की। आचार्य भिक्षु का कवित्व अभ्यास-साध्य नहीं था। वह नैसगिक था। कवि बनाये नहीं जाते। वे स्वत: बनते हैं। आचार्य भिक्षु इसके प्रतीक कहे जा सकते हैं । उन्होंने किसी काव्य-ग्रन्थ या अलंकार-शास्त्र का अध्ययन करके कवित्व का प्रशिक्षण नहीं पाया था । हृदय में भावों की उद्वेलना हुई, आत्मसंगीत का उद्गान हुआ और वे शब्दों का संबल पाकर मूर्तरूप में आविर्भूत हो गए। यही उनकी काव्य कला का रहस्य था। केवल शब्द और अर्थ ही काव्य के उपादान नहीं हैं। वे तो मात्र उसके कलेवर हैं। काव्य की आत्मा तो रस है। इसी के कारण मानव का काव्य के प्रति आकर्षण उत्पन्न होता है। आचार्य भिक्षु के काव्य-ग्रन्थों का सूक्ष्मेक्षण से पारायण करने पर हम पायेंगे कि उनकी पदावलियाँ काव्योचित रस से परिपूरित हैं। उनमें अन्तःश्रेयस् की प्रेरणा देने वाला निर्वेद-निर्झर सतत प्रवहमान है। अपने सहज कवित्व के द्वारा त्रिकाल-सम्मत ध्रुवसत्य को जन-जन तक पहुँचाना ही उनको अभिप्रेत था न कि कवित्व-प्रस्थापन के द्वारा कीर्ति अर्जन करना। इसीलिए कविता उन्होंने की नहीं । वह स्वतः बन पड़ी और अत्यन्त उत्कृष्ट बन पड़ी। उन्होंने अपनी कविताओं में उन दिनों प्रचलित राजस्थानी लोकगीतों तथा लोकजनीन सरल एवं बोधगम्य शब्दों का ही विशेषत: प्रयोग किया है, जिससे वह सहज ही जनभोग्य बन सके। जिस उदात भावना ने सन्त तुलसीदासजी को अपने इष्टदेव का चरित्र ब्राह्मणों के निरन्तर विरोध के बावजूद भी अवधी में लिखने को प्रेरित किया, उसी ने आचार्यश्री मिक्षु को भी जीवन के शाश्वत सत्यों को जनजीवन तक प्रसारित करने हेतु जन-भाषा का आश्रय लेने की प्रेरणा दी। महान् कवि परिनिष्ठित भाषाओं में नहीं, अपरिष्कृत जन-भाषा में रचना कर उसे समृद्ध बनाते हैं । अत: वे काव्य-भाषा के भी स्रष्टा माने जाते हैं। Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O ५६० + कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ++++++ चरित काव्यों की परम्परा सुदर्शनचरित आचार्य भिक्षु द्वारा रचित सुप्रसिद्ध चरित काव्य है । भारतीय वाङ्मय में चरित - लेखन की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । भारतीय मनीषियों ने जिस वस्तु या व्यक्ति में आदर्श का निरूपण पाया, उसे जन-मानस के समक्ष रखने का प्रयास किया। महर्षि वाल्मीकि ने भगवान् राम के चरित्र को अपनी रामायण का विषय बनाया । जैन- परम्परा में होने वाले विद्वानों एवं कवियों ने भी तीर्थकरों तथा अन्य महापुरुषों के चरित-लेखन के द्वारा चरित काव्यों की परम्परा को समृद्ध बनाया। संक्षेप में कहा जा सकता है कि यहाँ के प्रबुद्धदेता मनीषियों का इतिवृत्त लिखने का क्रम प्रायः आदर्शानुप्राणित ही रहा है । यद्यपि प्राचीनकाल में अनेक योद्धा, शूरवीर और राजा भी हुए हैं, किन्तु भारत ने उन्हें भुला दिया। भारतीय जन-मानस के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं था कि किसी व्यक्ति ने जन्म लिया, राज्य किया या युद्ध किया हो, यह उनमें कुछ और भी विशिष्टता हूँढने की कोशिश करता है। यदि उसमें कुछ और विशिष्टता नहीं है तो ऐसे व्यक्तियों का होना या नहीं होना एक समान है। इस प्रवृत्ति के परिहारस्वरूप कुछ व्यातिप्रिय राजाओं ने अनेक प्रशस्तियों और दरबारी कवियों के काव्यों द्वारा अपने को अमर करने का प्रयास किया। संस्कृत साहित्य में हर्षचरित, नवसाहसांक चरित्र, पृथ्वीराज - विजय काव्य आदि कुछ ऐसे ग्रन्थ हैं, जिनमें राजाओं का यशोगान पर्याप्त मात्रा में विद्यमान है । किन्तु ये ग्रन्थ भी वर्णित राजाओं की महत्ता से नहीं, किन्तु विशिष्ट कवियों के विलक्षण कवित्व के कारण जीवित हैं। भारत की आदर्शानुप्राणित परम्परा में उसी कृति को अमरत्व मिलता है जो हमारे सामने किसी प्रकार का आदर्श उपस्थित करे । विशेषत: जैन परम्परा में तो महनीय वही है जो क्रमशः वीतरागत्व की ओर गतिमान हो। उसी के प्रभाव से जनता कैवल्य प्राप्ति के उन्मुख हो सकती है। आचार्य भिक्षु का सुदर्शन चरित इसी उद्देश्य का पूरक है। भाषा और शैली आचार्य भिक्षु के काव्य-ग्रन्थों की भाषा मुख्यतः मारवाड़ी है। मुख्यतः इसलिए कि उसमें गुजराती की भी एक हल्की सी फुट है। आचार्य भिक्षु का जन्म मारवाड़ में हुआ था। उनका कार्यक्षेत्र प्रमुख रूप से मारवाड़ और मेवाड़ रहा है। उन्होंने अपनी कविता में जिस भाषा का प्रगोग किया है, वह मारवाड़ी और मेवाड़ी का मिश्रित रूप है । मेवाड़ गुजरात का सीमावर्ती भूखण्ड है, अतः आचार्य भिक्षु की भाषा में गुजराती का भी मिश्रण हुआ है। आचार्य भिक्षु की रचनाओं में तत्वज्ञान, आचार-विश्लेषण, जीवनचरित्र, धर्मानुशासन की मर्यादा आदि मौलिक विषयों का स्पर्श हुआ है । चरितकाव्यों में सुदर्शन चरित का अपना एक महत्त्वपूर्ण और स्वतन्त्र स्थान है । इसमें पात्रों के चरित्र-चित्रण एवं भावों की अभिव्यंजनात्मक शैली का अनुपम निदर्शन मिलता है। इसमें विभिन्न रागिनियों में ४२ गीतिकाएं हैं। इनके साथ दोहों और सोरठों का भी प्रयोग है। सुदर्शनचरित की रचना से यह प्रतिभासित होता है कि उनकी रचनाएँ सहज हैं, प्रयत्नसाध्य नहीं हैं । भावों के अनुकूल जो शब्द उद्गीर्ण हुए, उन्हें भी प्रयुक्त किया गया है। भौतिक सुखों की नश्वरता का चित्रण करते हुए उन्होंने कितने सरल शब्दों में कहा है । तीन काल नां सुख देवां तणा, मेला किजै कुल । तेहना अनन्त वर्ग बधारिए, नहीं सिद्ध सुखां के तुल ॥ ते पिग सुख शास्वता तेनो आवे नहीं पार छे संसार ना सुख स्थिर नहीं जातां ना लागे बार ॥ संसार ना सुख स्थिर नहीं, जैसी आभानी छांय । विणसतां बार लागे नहीं, जैसी कायर नी बांह ॥ किपाक फल छँ मनोहर, मीठो जेहनो स्वाद । ज्यों विषय सुख जाणजो, परगम्या करै खराब ॥ Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित ५६१ .......................................................................... चरित्र-चित्रण-सफल कवित्व वह है, जिसमें कवि अपने प्रतिपाद्य का वस्तुचित्र खींच सके । चरित्र-चित्रण में आचार्य भिक्ष ने जो अभिनव काव्य-कौशल प्रदर्शित किया है, वह सचमुच ही अद्भुत है। उनके कवित्व का यह सहज गुण है कि वे अपने प्रतिपाद्य का ऐसा सुन्दर और मार्मिक भावचित्र प्रस्तुत करते हैं, कि गेय-काव्य भी चित्रपट की तरह दृश्यमान लगने लगता है। अभया रानी सुदर्शन के प्रथम दर्शन मात्र से ही आसक्त होकर अपनी मनोवांछा की पूर्ति के लिए पण्डिता धाय से निवेदन करती है मुझ एक मनोर ऊपनो, बस न रहयो मन मांय । ए बात लजालु छ घणी, तो ने कह्याँ बिन सरे नाय ।। हूं वसन्त रितु खेलण गई, राय सहित वन मंझार । तिण ठामें चम्पा नगरी तणा, आया घणा नर-नार ।। पुत्र सहित परिवार सू, तिहां आयो सुदर्शन सेठ । ओर सेठ घणाई तिहां आविया, ते सहु सुदर्शन हेठ॥ तिणरा अणियाला लोयण भला, जाणेक सोभे मसाल । मुख पूनमचन्द्र सारखो, तेहनो रूप रसाल । काया कंचन सारखी, सूर्य जिसो प्रकाश । सीतल छै चन्द्रमा जिसी, हंस सरीखो उज्ज्वल छ तास ।। जेहोनें दीठां ओरख्यां ठर, जेहनो सोम सभाव । तिण आगे बिजा स्यूं बापड़ा, कुण राणा कुण राव। म्हारो मन लागो तेह सू, जाणे रहूं सेठ रे पास । एहवो मनोरथ मांहरो, रात दिवस रही छु विमास ॥ तिण सू भूख त्रिखा भूले गई, निसदिन रहूं उदास । मन म्हारो कठेई लागे नहीं, तिण तूं कही छ तो पास ॥ हूं मोही सुदर्शन सेठ सू, लागो म्हारो रंग। तिण सूमिलू नहीं त्यां लगे, नित नित गलै छै म्हारो अंग ॥ रानी की मनोकामना सुनकर पण्डिता धाय अनेक युक्तियों, उपमाओं एवं उदाहरणों से उसे समझाने का प्रयास करती है, जो अत्यन्त मार्मिक और हृदयस्पर्शी हैइसड़ी बातां हो बाई कहे मूढ गिवार, थे राय तणी पटनार । ए बात थांने जुगती नहीं। ऊँचा कुल में हो बाई थे ऊपना आण, बले थे छो चतुर सुजाण । ए नीच बात किम काढिए । एक पीहर हो बाई दूजो सासरो जाण, बिहुँ पख चन्द समाण । दोनूकुल छै थारा निर्मल ॥ इण बातां हो बाई लाजै तुम तात, बले लाजै तुम मात । पीहर लाजै तुम तणो । एहवी बातां हो बाई लाजै माय मूसाल, निज कुल साम्हो निहाल । त्याने लागै घणी मोटी मेंहणी ॥ इण बातां हो बाई लागै कुल ने कलंक, लागै पीढ्याँ लग लंक । ते सुण-सुण माथो नीचे करै । Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड सासरिया हो बाई लाजै अत्यन्त सांभल ए विरतन्त । ते पिण नीचो चोगसीउनी । एहवी बातां हो सुणसी बाई देश विदेश, बले सुणसी राय नरेश । निन्दा करसी सहु तुमतणी॥ राज माह हो बाई थारी मोटी मांड, होसी जगत में भाण्ड । शील बिना इक पलक में । शील बिना हो बाई फिट फिट करे लोय, अजम अकीरत होय । नार-नारी मुह मचकोड़सी ॥ पिता सुपी हो बाई घणा पुरुषारी साख, तिण पर निश्चो राख । तिण पुरुष तणी सेवा करो॥ पर पुरुष हो बाई जाणो भाई समान, ए सीख म्हारी लो मान । ज्यू महिरा वधे थांरी जगत में ॥ ज्यू सोभे हो बाई चन्द्रमा सू रात, तिम नारी नी जात । - शील थकी सोभे घणी ॥ नहीं सोभे हो बाई नदी जलबिन लिगार, तिम नारी सिणगार । शील बिना सोभे नहीं। शील बिना हो बाई लागे कुलने कुलंक, ज्यू राजेसर लंक । तिण कुलने कलंक चढावियो । शील थकी हो सीता हुई गुणवंत नार, ते गई जन्म सुधार । कुल निर्मल कर आपणो ॥ शील बिना हो बाई जसोधरा नार, तिण कंत ने न्हांखो मार । मरने छडी नरके गई॥ शील थकी हो बाई बध्यो द्रोपदी नो चीर, पाल्यो शील सधीर । तिण जन्म सुधार्यों आपणो । शील थकी हो थांरी मोती जिसी आब, ते पिण उतरसी सताब । शील बिना एक पलक में । म्हारी मतीसू हो बाई सीख द्यूछू तोय, निज कुल साम्हो जोय । पुरुष परायो परहरी ॥ आचार्य भिक्ष ने अपनी प्रखर प्रतिभा का प्रयोग सुन्दर शब्दों की खोज व अलंकार और उपमाओं को गढ़ने में नहीं किया। फिर भी शब्दों की सज्जा अर्थानुकूल प्रयोग एवं अन्तःस्पर्शी सहजभाव । अनुस्यूत होकर जीवन रस को आप्लावित करने वाली काव्य की अमर धारा बन गई है। उपरोक्त पदावली में सहज और सरल भाषा में उपमा, अलंकार और उदाहरणों का एक समां बंध गया है, जो काव्य और जीवन के अन्तःस्रोत को निरन्तर प्रवहमान रखता है। पण्डिता धाय की उचित शिक्षा सुनने पर भी रानी नहीं समझ सकी, प्रत्युत अपनी कार्य-सिद्धि के लिए कहती है कि यदि मेरा मनोरथ सफल नहीं होगा तो मुझे कपिला (ब्राह्मणी) के सम्मुख नीचा देखना पड़ेगा। इसलिए अपनी मान-मर्यादा और बचन की रक्षा के लिए मैं एक अकार्य भी करलू तो क्या हानि है ? क्योंकि अपनी वचनरक्षा के लिए बड़े-बड़े गजाओं ने भी अनेक अकार्य किये हैं और दुःसह कष्ट उठाये हैं ० . Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित ५६३ .....................................................0.00000000000000000 आशा अलूधी हूं रहूं, जो हूँ बस न करूंसेठ। ' तो कपिला वचन ऊंचो रहे, म्हारो वचन रहे हेठ ।। x सेठ सुदर्शन सू सुख भोगवी, म्हारो ऊपर आणू बोल । ज्यू कपिला ब्राह्मणी तिणकनें, रहे हमारो तोल ।। वचन काजे बड़ा-बड़ा राजवी करे अनेक अकाज । तो एक अकारज करतां थका, मोने किसी छ लाज ।। वचन काजे हो धायजी, हरिश्चन्द्र बड़ा वीर। भरियो डमघर नीर, नीचतणी सेवा करी ॥ वचन काजे हो श्री लछमन ने राम, ज्यां को प्रसिद्ध नाम । बारे वर्ष वन में रह्या ॥ वचन काजे हो धायजी हनुमंत बड़वीर, गयो लंका नी तीर । सीताजी रे संदेशड़े ।। राम दियो हो वभीषण ने लंका नो राज, करी रावण को अकाज । लंकपति वभीखण ने थापियो । पांच पांडू हो धायजी बचनां के काज, गया जब हारी ने राज । नगर वेराट सेवा करी॥ वचन चुको हो त्यारी न रहीजी शर्म, इणरो तो ओहिज मर्म । ज्यू हूं पिण खपू म्हारा वचन ने ॥ रानी की बात सुनकर पंडिता धाय उसे मृत्यु-दण्ड का भय दिखलाती है कि यदि राजा को इस बात का पता चल जायेगा तो वह तुम्हें बिना मौत मरवा देगाएहवा वचन हो बाई सुणसी श्रीमहाराज, तो थासी बड़ो अकाज । मौत कुमौत कर मारसी जी ॥ ओर सगला हो बाई लागा थारे प्रसंग, त्यांरो पिण होसी भंग। - इण बातां में सांसों को नहीं। तिण कारण हो बाई कहूं छू ताय, निज मन ल्यो समझाय । ___ ग्रही टेक पाछी परहरो॥ धाय की दण्ड नीति का प्रत्युत्तर देती हुई रानी भेद-नीति का आश्रय लेने को कहती है। सच है भोगासक्त मनुष्य क्या नहीं करता? क्योंकि "कामातुराणा न भयं न लज्जा"। वह विविध उपक्रमों का सहारा लेता है। रानी मृत्यु-भय का प्रतिकार एवं कार्य-पूर्ति का उपाय बताती हैसेठ ने हो धाय तुम ल्यावो छिपाय, ज्यू नहीं जाणे राय । पाछो पिण छाने पोहचावज्यो॥ छाने आण हो छाने दीज्यो पोहचाय, तो किम जाणसी राय । थे चिन्ता करो किण कारणे ॥ पण्डिता धाय, रानी की इस छलपूर्ण नीति की सफलता में सन्देह प्रकट करती हैधाय भाखे हो छानी किम रहसी बात, राय करसी तुम घात । ए बात छिपाई ना छिपे ।। Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ........-...-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. पर पुरुष हे बाई जाणो लसण समान, तेखूणे वैस खाये जाण । जिहाँ जावे तिहाँ परगट हुवे ॥ सेठ चारू है बाई चम्पानगर मझार, थे राय तणी पटनार । . तरे छिपाया किम छिपे । पण्डिता धाय की प्रत्युक्ति बहुत ही सुन्दर बन पड़ी है। ऐसा लगता है कि यहाँ कवित्व अपने चरम उत्कर्ष पर पहुँच गया हो । आचार्य भिक्ष की रचनाओं में स्थान-स्थान पर उपमा और अलंकार भरे पड़े हैं। उपमा कौशल वही है जो प्रतिपाद्य का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करता है। संस्कृत साहित्य में उपमा के क्षेत्र में कालिदास की कोटि का अन्य कवि शायद आज तक नहीं हुआ हो, किन्तु राजस्थानी काव्य-साहित्य में आचार्य भिक्षु ने विभिन्न स्थलों पर जिस प्रकार के उपमा अलंकार और रूपक प्रयुक्त किये हैं, उनसे काव्य में एक अनुपम सजीवता निखर उठती है। वर्ण्य-वस्तु का वैध एवं स्पष्टव्य सहज उपमाओं से उपमित होकर उनकी प्रखर प्रतिभा की अभिव्यक्ति करते हैं। सभी धर्म-शास्त्रों में नारी के लिए पर-पुरुष एवं पुरुष के लिए पर-नारी त्याज्य माने गये हैं। धर्मशास्त्रों की इस मर्यादा का उल्लंघन करने वाला आत्म-पतन व लोक-निन्दा का भाजन बनता है। पतिव्रत एवं पत्नीव्रत समाज व्यवस्था के न्यूनतम विधान हैं। इनका उल्लंघन करके कोई व्यक्ति अपने पाप को छिपा नहीं सकता। पतिव्रत का खण्डन करने वाली स्त्री के लिए पर-पुरुष को आचार्य भिक्ष ने लहसुन की उपमा दी है। जिस प्रकार लहसुन खाकर कोई भी व्यक्ति किसी भी कोने में छिप जाये, किन्तु उसका मुंह उसकी साक्षी दे ही देगा। लहसुन की वास स्वतः प्रकट हो जाती है, वह छिप नहीं सकती। उसी प्रकार पर-पुरुष का अवैध सम्बन्ध भी किसी प्रकार छिप नहीं सकता। सृष्टि के सहज विधान को उसकी गोपनीयता स्वीकार नहीं है। लहसुन की लोक-जनीन उपमा आचार्य भिक्ष की चमत्कारपूर्ण कुशाग्न मेधा की सूचक है। पण्डिता धाय के युक्तिसंगत तर्क का कोई भी प्रत्युत्तर रानी के पास न था। किन्तु काम परवश व्यक्ति अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए कितना आतुर हो उठता है इसका भी बहुत सुन्दर चित्रण रानी के शब्दों में मिलता हैहोणहार हो होणो ज्यू होसी मोरी माय, सेठ ने ल्यावो वेग बुलाय । नहीं तो कण्ठ कटारी पहरी मरू ॥ विकारों की परवशता प्राणी को अपने कर्तव्य से च्युत कर देती है। वह अपने हिताहित को विस्मृत कर लेता है। उसका खाना-पीना भी छूट जाता है। यहाँ तक कि अपनी इच्छा पूर्ति न होने पर मरने को भी उद्यत हो जाता है । मानव-समाज की यह बहुत बड़ी दुर्बलता है कि मनुष्य अपने इष्ट का संयोग न मिलने पर आत्महत्या के लिए उतारू हो जाता है, मस्तिष्क का सन्तुलन तो रहता ही नहीं। भावी में मिलने वाले प्रतिफल की कोई चिन्ता नहीं रहती। वह नियति के धूमिल भविष्य पर अपना सत्त्व छोड़ देता है । धाय भी रानी को समझाकर हार जाती है। व्याकुल होकर रोने लगती हैधाय रोवे हो सुण राणी रा वेण, आसूडा नाखे छ नेण । कर मसले माथो धूणती ॥ मोटा कुल में हो इसड़ी हुवे बात, जब किहाँ थी हुवे बात । कोई विघ्न होसी इण राज में । पूर्व संच्या हो उदे आया दीसे पाप, उपनों एह सन्ताप । सुख माहे दुख उपनो घणो । पण्डिता धाय लाचार होकर हाथ मलती है और शिर धुनती हुई विचार करती है-"हाय ! जब बड़े कुल में भी ऐसी बातें होने लगती हैं, तब दूसरों की तो बात ही क्या ? अथवा इसमें आश्चर्य भी क्या है ? बड़े व्यक्तियों - Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित की छाया में अधिकांशतः अव्यवस्था होती ही है ? दीपक तिमिराच्छन्न सृष्टि को आलोकित करता है, किन्तु उसके - स्वयं के नीचे अँधेरा पलता है। संस्कृतज्ञों की भाषा में चित्रं किं महतां तले क्षितितले प्रायो व्यवस्थाधिका दीपे प्रज्वलितेप्यधोऽत्र तिमिरं स्यान्नव्यता कापि नो || ५६५ धाय मन ही मन विचार करती है कि इस राज्य में किसी बड़े अनिष्ट की सम्भावना लगती है, तभी तो रानी अपने धर्म को छोड़ने के लिए उद्यत है। ऐसा लगता है कि मानो पूर्व जन्मोपार्जित पाप उदय में आये हों । सर्वत्र सुख ही सुख में एकाएक दु:ख उत्पन्न हो गया। इसके निवारण के लिए मैं कर भी क्या सकती हूँ? मेरे लिए हाथ मलने और सिर घुनने के अतिरिक्त और है ही क्या ? इसीलिए तो विद्वानों ने कहा है कार्ये नो महतां ब्रवीति मनुजः क्षुद्रो न शक्तोऽपि सः । मार्जारस्य च मासुरीं किमु कदा सूच्यास्य उत्पाटयेत् ॥ बड़ों के काम में क्षुद्र मनुष्य कुछ नहीं बोलता । वह बोले भी कैसे ? क्योंकि वह समर्थ भी नहीं है । क्या चहा कभी अपनी इच्छा होने पर भी बिल्ली की मूँछ उखाड़ सकता है। बेचारी धाय मन ही मन पछता कर रह जाती है । वह कुछ कर नहीं सकती। उसे न चाहने पर भी रानी की इच्छा पूर्ति के लिए तत्पर होना पड़ता है । सच है दासता मानव सृष्टि का एक बहुत बड़ा अभिशाप है। पण्डिता धाप और अभया रानी का यह पारस्परिक संवाद सुदर्शन चरित का महत्वपूर्ण भाव चित्रण है, जिसमें आचार्य भिक्षु के उद्भट कवित्व की अमर रसधारा से सुन्दर निखार आ गया है। वस्तु निरूपण - आचार्य भिक्षु परम साधक थे। बिना किसी पक्ष और स्पर्धा के उनकी चिन्तन-धारा वस्तु-सत्य के अन्वेषण में ही बही। वास्तविकता का यथार्थ निरूपण ही उनका परम लक्ष्य था । यही कारण है कि उनका काव्य विभिन्न उक्तियों, अलंकारों व दृष्टान्तों को अपने में संजोए समान गति से आगे बड़ा है। पण्डिता धाय रानी के हठ से लाचार जब सुदर्शन को जैसे-तैसे महलों में पहुँचाने के उपक्रम में उसके आस-पास अवसर की ताक में चक्कर लगाती है तो उसका भी बहुत ही यथार्थ चित्र आचार्य भिक्षु की शब्द तूलिका के द्वारा चित्रित हुआ है ज्यू दूध देखी मंजारिका, फिर छँ उंली-सोली । ज्यू सेठ सुदर्शन अपरे धाय आय फिरे हे दोली ॥ बिल्ली की यह उपमा कितनी यथार्थ है ? इसका सहज ही अन्दाज लगाया जा सकता है। धाय विविध छलप्रयत्नों से सुदर्शन को महल में ले आती है, किन्तु बलपूर्वक किसी के हृदय को नहीं जीता जा सकता । सुदर्शन को महल में लाने में तो धाय जैसे-तैसे सफल हो गई किन्तु उसे अपने व्रत से चलित करता उसके वश की बात नहीं थी । रानी द्वारा विविध प्रकार की शृंगार चेष्टाओं के बावजूद भी सुदर्शन अपने हृदय में चिन्तन करता हैहिवेसेठ करे रे विचार, ए कांई होय जासी कामणी । ए आपे जासी हार, एकाई करेला मांहरो भागनी || एआय बणी छँ मोय, ते कायर हुवां किम छूटिये । होणहार जिम होय, मों अडिग नै कहो किम लूटिये ॥ ए प्रत्यक्ष कामन भोग, मोने लागे धमिया आहार सारिखा । तो हूँ किमक भोग संजोग, मोने सुगत बुखारी आई पारिया ॥ जो हूँ करूँ राणी सूं प्रीत, तो हूँ क्यूँ कर्म बांधी जाऊ कुगत में। चिहुँ गत में होॐ फजीत, घणो भ्रमण करूँ इण जगत में ।। मोने मरणो छ एक बार, आगण पाछल मो भणी । मुखां दुख होसी कर्म लार, तो सेंठो रहूं न चूकूं अणी ॥ -0 .0 . Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-. -.-.-.-. -. ... ... . ................................. ओ मल-मूत्र तणो भण्डार, कूड कपट तणी कोथली। इणमें सार नहीं छै लिगार, तो हूं किण विध पामू इण सूरली ।। अणेक मिले अपछरा आण, रूप करे रलियामणो। त्याने पिण जाणूं जहर समान, म्हारे मुगत नगर में जावणो । स्व-प्रवेशी साधक के लिए यही चिन्तन उपादेय है। सुदर्शन एक मुमुक्षु साधक था। भौतिक और क्षणिक विकारों से उसका हृदय निलिप्त था। विषयासक्ति मिट चुकी थी। मुक्ति का परम पद प्राप्त करने की तीव्र उत्कंठा उसके दिल में परिव्याप्त थी। विकृति के साथ क्रय-विक्रय का प्रपंच उसने नहीं सीखा। इसलिए वह एक धीर, वीर और गम्भीर साधक की श्रेणी में अवस्थित था । कालिदास ने भी कहा है विकारहेतौ भुवि विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः। सुदर्शन का यह चिन्तन उसकी साधना के अनुकूल ही था । उसके स्थान पर यदि दूसरा व्यक्ति होता तो शायद अपना सत्त्व कायम रख सकता या नहीं । किन्तु सुदर्शन इस कड़ी परीक्षा में पूर्णत: उत्तीर्ण हुआ, यह असन्दिग्ध है। संस्कृत कवियों ने अपनी भाषा में कहा है-विनाशकाले विपरीत बुद्धिः । जब मनुष्य का विनाश निकट आता है तब उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । सियार की मौत नजदीक आने पर वह गाँव की तरफ दौड़ता है। रानी अपनी समस्त श्रृंगार चेष्टाएँ करके सब हार चुकी तब कुपित होकर भय प्रदशित करती है पुरुष सुकोमल हुवै छै हियारो, पिण तूं तो कठण कठोरो। म्हारा वचन सुणीने तूं न प्रजलियो, तूं तो दीसे निपट निठोरो॥ प्रगलायो भाटो पिण पगले, पिण तूं न प्रगले प्रगलायो । लोक भेलो कहै छै तोने, पिण म्हारे तो मन नहीं भायो । थोड़ी सी समझ तो आण हिया में. कहो म्हारो मानों। नहीं तो खुराबी करतूं भारी, कर देसू जावक हैरानों॥ हूं बलि-बलि वचन कहूं छू तोने, तूं नहीं माने छै मूली। बांका दिन आया दीसे थारा, तोने तुरत दिरातूं सूली ॥ तूं बोलायो पिण मूल न बोल थे मुंहढो राख्यो छै भीचो। अजेस को मान हमारो, नहीं तो मराऊँ तोनें कुमीचो॥ बार-बार कहूं छू सेठ तोनें, म्हासू कर मनमानी प्रीतो। नहीं तो कूडोई आलदेसू तो माथे, करसूं लोकां में फजीतो॥ रानी द्वारा मौत का भय दिखाने पर भी सुदर्शन अडिग रहा। उसे जीवन का मोह और मृत्यु का भय नहीं था। स्वीकृत नियम और व्रत का पालन ही उसके लिए अभीष्ट था। रानी का अनुनय और भय दोनों ही सुदर्शन को शुभ करणी से डिगा नहीं सके। उसकी मौन और उदासीन वृत्ति रानी को असह्य थी। ब्याज की आशा में मूलधन ही लुट चुका था । रानी की गति सांप-छुछून्दर की तरह हो गई। उसने नहीं सोचा था कि उसे अपने कृत्य का यों पश्चात्ताप करना पड़ेगा। चारों ओर से निराश होकर वह मन में सोचती है लेणा सूं देणे पड़ी, बले उल्टी खोई लाज। लेने के देने पड़ गए। चौबेजी छब्बेजी की आशा में दुब्बेजी ही रह गए। सारी लोक लज्जा नष्ट हो गई। यदि राजा को इस बात का पता लग जाएगा तब मुझे जीवित ही नहीं छोड़ेंगे। न जाने किस पाप का यह प्रायश्चित्त मुझे करना पड़ रहा है। किन्तु खेद ! मानव का यह कितना बड़ा मनोदौर्बल्य है कि वह अपनी गलती को जानकर भी उसका परिष्कार नहीं करता । लोकापवाद से बचने के लिए वह सच्चे पर भी झूठा अभ्याख्यान लगाने को तत्पर रहता है। रानी ने भविष्य की चिन्ता न करते हुए अपने दोष को ढंकने के लिए आखिर सुदर्शन पर झूठा कलंक मढ़ Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित ही दिया । वह अपना शरीर क्षत-विक्षत कर लेती है। बाल नोच लेता है । वस्त्र फाड़ लेती है, तथा सहमी हुई जोरों से रोकर पहरेदारों को आवाज देती हुई कहती है ओ सेठ सुदर्शन पापियो, तिण मुझसूं कियो अतिजोर । ओ किण मारग होय आवियो, बले बोली वचन कठोर ॥ म्हारो अंग बिलूरी कस तोड़ने, फाड्या महामंद नीर हिवे घणी बात के ही कहूँ, मैं राख्यो शील सधीर ॥ राय ने ज्यू करे सेठनी जी घात । ए बात कहो सहु बने अर्ज न माने केहनी, जेवन करे विण मात ॥ राजा ने जब सेवकों के द्वारा कथित दुर्घटना का वृत्तान्त सुना तो सहसा ही आपे से बाहर हो गया और बिना कुछ विचार किए शूली की सजा सुना दी। प्राचीन दण्ड व्यवस्था में शूली की सजा बेरहमी और दर्दनाक मौत की निशानी होती थी। जहां जीवित मनुष्य के तिल-तिलकर मरने की कल्पना से ही दिल कांप उठता है, यहाँ सजा भुगतने वालों को कितनी भयंकर पीड़ा होती होगी, इसकी कल्पना जड़ लेखनी के द्वारा नहीं बताई जा सकती । सुदर्शन के मृत्यु दण्ड का दुःखद संवाद भाषा वर्गणा के पुद्गलों के समान चारों ओर फैल गया। शहर के विशिष्ट नागरिकों ने विचार किया कि सुदर्शन पूर्ण निर्दोष है। यह घटना पूर्व कृत कर्मों का ही दुष्परिणाम है। हमारा राजा के पास जाकर अनुनयपूर्वक सुदर्शन की निर्दोषता प्रमाणित करें। यद्यपि राजा का एकतन्त्र जन-भावना की कद्र तो राजा का कर्त्तव्य होगा ही । कर्त्तव्य है कि हम राज्य है, फिर भी नागरिकों का एक शिष्ट मण्डल राजा के पास जाता है और दृढ़ विश्वास की अभिव्यक्ति के साथ निवेदन करता है— पूर्व यकी पश्चिम दिले, कदाच ऊगे भाण । तो पिण सेठ शील थी न चले, जो जावे निज प्राण ॥ कदा मेरू चलायो पिण चले, कदा शशि मूके अंगार । तो पिया सेठजी शीत थी, चले नहीं लिगार ॥ कदा गंगा ही गल्टी बहे, सायर लोपे कार । तो ही सेठ शील थी नहीं चले, व्रत पाले एकधार ॥ ५६७ एकतन्त्र की सबसे बड़ी असफलता वहाँ है, जहाँ जन-भावना का उचित समादर नहीं है । जन-भावना के उचित पहलुओं को दृष्टिगत रखते हुए नीर-क्षीर विवेक संयुक्त एकाधिपत्य स्यात् जनतन्त्र की अपेक्षा अधिक सफल भी हो सकता है । राजा ने जन-भावना को आदर नहीं दिया। सच्चे को झूठा ठहरा कर कहा झूठा ने साचो करो, आ कहां की रीति । ये घर जावो आपने नहीं तो होती फजीत || राजा के शब्दों से महसूस होता है कि उस समय एकतन्त्र में एक प्रकार का उन्माद घुस गया था। शास्ता के लिए हर स्थिति में सन्तुलन आवश्यक होता है। जन भावना के अनुरूप कार्य समय पर न भी हो किन्तु उसे समझने में तो कोई आपत्ति होनी ही नहीं चाहिए । किन्तु यह भी एक तथ्य है कि प्रायः सत्ता प्राप्ति के साथ-साथ अधिकारों का थोड़ा बहुत उन्माद आ ही जाता है । जन-भावना को न समझने वाला शासक कभी लोकप्रियता नहीं पा सकता । सुदर्शन चरित का यह स्थल तत्कालीन राज्य व्यवस्था और दण्ड नीति पर प्रकाश डालता है । वितथ अभ्याख्यान और शूली की सजा मिलने पर भी सुदर्शन के हृदय में रानी और राजा के प्रति किसी प्रकार का विद्वेष जागृत नहीं हुआ। उसने अपने बचाव का प्रयत्न भी नहीं किया। यदि कोई अपर व्यक्ति वहाँ होता . Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ५६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन खण्ड .......................................... ............................... तो अपने बचाव के लिए न जाने कितने यत्न करता । अपनी निर्दोषता प्रमाणित करने के लिए न जाने कितने प्रमाण प्रस्तुत करता । किन्तु सुदर्शन के हृदय में सत्य के प्रति अखण्ड श्रद्धा थी। इसी दृढ़ विश्वास के कारण उसे अपनी निर्दोषता प्रमाणित करने की कोई आवश्यकता नहीं समझी। संसार में सबसे अधिक निकट स्नेह-सूत्र पति-पत्नी के बीच होता है। किन्तु सजा घोषित होने के बाद भी अपनी पत्नी मनोरमा के मिलन-प्रसंग में उसे सान्त्वना देता हुआ, राजा-रानी के प्रति किसी प्रकार की शिकायत न करता हुआ यही कहता है सेठ कहे सुण मनोरमा नारी, पूर्व पाप कियो मैं भारी । ते पाप उदे आयो अब म्हारो, भुगत्यां बिन नहीं छुटकारो । इण बातरो किणने नहीं दीजे दोषो, वले किणसूइ न करणो रोषो । तुम्हें चिन्ता मकरो म्हारी लिगारो, म्हारो न हुवे मूल बिगारो॥ सुदर्शन का कथन हृदय की ऋजुता और समता को प्रकट करता है। एक आदर्श एवं धर्म-निष्ठ व्यक्ति की धीरता और गम्भीरता बहुत ही सम्यक् रूपेण परिलक्षित होती है। प्रतिकूल परिस्थिति को कर्मजन्य प्रतिफल मानकर समता सहन करना वास्तव में वैराग्य और सत्यनिष्ठा का चरम उत्कर्ष हैं । पति के महान् आदर्श की प्रतिच्छाया उसकी पत्नी में भी दृष्टिगोचर होती है। उस विषम स्थिति में मनोरमा ने सुदर्शन को जिन शब्दों में प्रत्युत्तर दिया है, वह वस्तुत: ही नारी समाज के गर्वोन्नत भाल का प्रतिभू है। मनोरमा का कथन बहुत ही हृदयग्राही बन पड़ा है सेठ ने पिण सन्तोषे मनोरमा नारी। थे मत किज्यो चिन्ता लिगारी॥ केवली ए भाव दिठा जिम हुसी। थे पिण राखज्यो घणी खुशी ।। दुख हुवे के पूर्व संचित कर्मा । थे पिण गाढा राखज्यो जिनधर्मा ॥ संकट के समय पति को इस प्रकार दृढ़ साहस बँधाना, आदर्श नारी का ही कर्तव्य हो सकता है। मनोरमा के शब्दों में सत्य एवं शीलनिष्ठा नारी की अन्तरात्म' बोल रही थी। इसमें सत्य और शील का वह अद्भुत ओज भरा है, जिसके श्रवण मात्र से हृदय में त्याग और बलिदान की भावना जागृत होती है। मनोरमा की वाणी से यह सिद्ध होता है कि नारी संकट के समय सिर्फ रोना ही नहीं जानती, वह अपने पति के दुःख में हाथ बंटाकर सहचरी का अनुपम आदर्श उपस्थित कर सकती है। मनोरमा के हृदयोद्गार सचमुच ही उसके दृढ़ धार्मिक विश्वास और महान धैर्य के सूचक हैं। सुदर्शन को शूली के नीचे खड़ा कर दिया गया। जल्लाद राजा के आदेश की प्रतीक्षा में है। काल का कूर दृश्य उपस्थित हो रहा है । मौत को अति सन्निकट जानकर सुदर्शन का हृदय किंचित् भी विचलित नहीं हुआ। राजा और रानी के प्रति मन में जरा भी द्वेष नहीं है। इस भीषण संकट को भी अपने कर्मों का प्रतिफल समझकर वह मन में सोचता है - कर्म र बलियो जग में को नहीं, बिन भुगत्यां मुगत न जाय । जे जे कर्म बान्ध्या इण जीवड़े, ते अवश्य उदे हवे आय ।। ज्य' मैं पिण कर्म बांध्या भव पाछले, ते उदे हुवा छै आय । पिण याद न आवै कर्म किया तिक, एहवो ज्ञान नहीं मों मांय ।। के मैं चाडी खाधी चोंतो, दिया अणहुंता आल । ते आल अणहुँतो शिर माहरे, निज अवगुण रह्यो छ निहाल । Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित ५६६ - . - . -. - . - . -. के मैं दोपद चोपद छेदिया, के छेदी वनराय । के भात-पाणी किणरा मैं रूधिया, के मैं दीधी त्याने अन्तराय ।। के मैं साधु-सती संतापिया, के मैं दीया कुपात्र-दान । के मैं शील भाग्या निज पारका, के मैं साधाँ रो कियो अपमान ।। सुदर्शन का यह आध्यात्मिक भावना से ओत-प्रोत चिन्तन-“संपिक्खए अप्पगमप्पएणं" का आदर्श उपस्थित करता है। पर की भूल और दोष द्वारा सम्प्राप्त दु:ख को स्वकृत कर्मफल मानकर आत्मतोष करना ही विज्ञता का लक्षण है। शूली का सिंहासन बना हुआ देखकर लोक-निन्दा के भय से अभया आत्महत्या कर लेती है । आत्म-हत्या धार्मिक एवं सामाजिक दोनों दृष्टियों से ही गर्हणीय है। आवेश के वश में मानव का कृत्याकृत्य विवेक लुप्त हो जाता है। वह इहलौकिक आपदाओं से मुक्त होने को आतुर हो उठता है, किन्तु क्या यह निश्चित है कि उसे परलोक में मनोनुकूल संयोग ही मिलेगा? धर्म-दृष्टि से आत्म-हत्या एक जघन्य अपराध है और कायरता का प्रतीक है । उसका प्रतिफल भी भोगना पड़ता है। अभया ने आत्म-हत्या की । इहलोक से मुक्त होकर पाटलीपुत्र के श्मशान में व्यन्तर योनि में उत्पन्न हुई। सुदर्शन अपने पूर्व निर्धारित अभिग्रह से साधुत्व स्वीकार करता है । साधक जीवन के विषम परीषहों को समभाव से सहन करता हुआ सतत अध्यात्म भावना में रमण करता है। जीवन की एक कड़ी कसौटी पर खरा उतरा, किन्तु अभी कुछ और परीक्षा अवशिष्ट है। मुक्ति मार्ग के बीच कुछ बीहड़ पहाड़ियों को और पार करना होगा। वह एक महीने की घोर तपस्या में रत गुरु की आज्ञा से एकाकी विहरण करता हुआ क्रमशः पाटलीपुत्र में आया । पाटलिपुत्र की सुप्रसिद्ध वेश्या देवदत्ता ने तीन दिन तक अपने घर में रखकर विविध कुचेष्टाओं से सुदर्शन को व्रतभ्रष्ट करने का प्रयास किया, किन्तु सुदर्शन इस काजल की कोठरी से भी बिल्कुल बेदाग बच आया। नियम और लक्ष्य के प्रति दृढ़ विश्वास ही उस अदम्य शक्ति का स्रोत प्रवाहित करता है जिसके प्रभाव से व्यक्ति कड़े से कड़े परीक्षण में भी पूर्णांक प्राप्त करता है। वेश्या के जाल से मुक्त होकर सुदर्शन ने आत्म-समाधि का निर्णय किया । वह श्मशान भूमि में जाकर पादपोपगमन अनशन स्वीकार करता है, किन्तु श्रेय' प्राप्ति में अनेक विघ्न भी उपस्थित होते हैं । अभया रानी जो इसी स्थान पर राक्षसी के रूप में उत्पन्न हुई थी, विविध वैक्रिय रूप बनाकर उसे रिझाने और व्रत-भ्रष्ट करने का असफल प्रयास करने लगी। श्रृंगार कुचेष्टाओं से जब सुदर्शन चलित नहीं हुआ तब वह अत्यन्त कुपित हो उठी और नाना प्रकार के दैहिक कष्ट देने लगी। सुदर्शन ने किसी प्रकार का प्रतिकार नहीं किया और शान्त रहा । शील सहायक देव उपस्थित हुए और राक्षसी के कष्ट को निराकृत किया। सुदर्शन के साम्य-योग की आराधना में भावों का उत्कर्ष ऊर्ध्वगामी हो रहा था। उसे राक्षसी पर द्वेष और कष्ट निवारक देवों पर किसी प्रकार का राग नहीं था। राग-द्वेषरहित इस पुण्य अवस्था में सुदर्शन को कैवल्य-प्राप्ति हुई। देवों ने कैवल्य महोत्सव मनाया । सुदर्शन ने समता-धर्म का प्रतिबोध दिया । कैवल्य महिमा देखकर राक्षसी का हृदय-परिवर्तन हुआ। उसे अपने कृत्यों के प्रति तीव्र लज्जा की अनुभूति हुई। पश्चात्ताप की अग्नि में जलती हुई अपने पूर्व-कर्मों के लिए मुनि से पवित्र हृदय से क्षमा-याचना करने लगी अपराध खमावे देवी आपरो, थे खमज्यो मोटा मुनिराय । हुँ पापण छू मोटकी, मैं कीधो अत्यन्त अन्याय ।। मैं अनेक उपसर्ग दिया आपने, कीधो छै पाप अघोर । तिण पाप थकी किम छूटसू, खमाऊँ बारू बार कर जोर ॥ यह प्रसंग क्षमा और समता की विजय-गाथा है। प्रतिपक्षी के हृदय-यरिवर्तन का एक बेजोड़ उदाहरण है। हिसा का अहिंसात्मक प्रतिकार किस प्रकार हो इसका सुन्दर निदर्शन है । धर्म का आधार हृदय परिवर्तन है, बल Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ....................................................................... प्रयोग और शक्ति नहीं । सुदर्शन ने अपनी अद्भुत क्षमता के द्वारा राक्षसी का हृदय-परिवर्तन कर दिया, यह इसका सजीव प्रतीक है। इस प्रकार महान् साधक सुदर्शन जीवन की अनेक दुस्तीर्ण परीक्षाओं में सम्यक्तया उत्तीर्ण होकर अपनी आत्म-साधना में उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ क्षमा और समता का महान् आदर्श उपस्थित करके हृदय-परिवर्तन के माध्यम से एक पापात्मा को प्रतिबोध देकर मुक्ति के अजरामर शिखर पर आरूढ़ हुआ। सुदर्शन चरित में उपन्यस्त कथा-सूत्र स्वयं ही रोचक और हृदयग्राही है। आचार्य भिक्ष की लोकजीवन लेखनी का आश्रय पाकर वह और भी निखार पा गया है। सुदर्शन चरित का रचनाकाल आचार्य भिक्ष की साहित्य और अनुभव-परिष्कृति का उत्कर्ष काल था। उस समय तक वे अपने जीवन के ६७ वसन्त देख चुके थे। जैसा कि उनकी लेखनी से परिज्ञात है एक चरित कियो सुदर्शन सेठ रो, नाथद्वारे मेवाड़ मंझार । संवत् अठारे पच्चासे समे, काती सुद पांचम शुक्रवार । आचार्य भिक्षु के महान् अनुभव, प्रखर साहित्यिक प्रतिभा और जीवन-साधना के मौलिक सूत्रों का समन्वित दर्शन सूदर्शन चरित में होता है। विविध उपमा, अलंकार, कल्पना और भावभरे चित्रणों के संयोग से लोकगीतों का आश्रय पाकर यह सहज ही जन-भोग्य काव्य बन गया है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह काव्य श्रेयोऽभिमुख मानस के लिए आत्मतृति की खुराक देता है तथा जीवन-पथ में भटके हुए प्राणी को सही दिशादर्शन देता है। प्रकृति-चित्रण-अन्य गेय काव्यों की तरह सुदर्शन चरित में प्रकृति चित्रण भी यथारूप हुआ है। वसन्त ऋतु के वर्णन में आचार्य भिक्षु के शब्द-शिल्प का सहारा पाकर ऐसा प्रतीत होता है मानों प्रकृति का कण-कण प्रफुल्लित होकर स्वयं ही बोल रहा है आयो आयो हे सखी कहीजै मास वसन्त, ते ऋतु लागे छे अति ही सुहामणी। सह नर-नारी हे सखी इणरित हुवे मयमत्त, त्याने रमण-खेलणनें छे रितु रलियामणी।। फूल्यो रहे सखी चम्पक मखो अधाम, फूल्या छे जाह जुही ने केतकी ।। फूल्या फूल्या हे सखी बले फूल गुलाब, बले फूल्या छे रुख केवड़ा तणा । नाहना मोटा हे सखी फलिया रुख सताब, ते फल फूल पानां कर ढलिया घणा ।। फूली फूली रहे सखी मोरी सहु वनराय, बले ओबां लगी मांजर रलियामणी । महक रही छै हे सखी तिण बागरे माय, तिण गन्ध सुगन्ध लागे सुहामणी ।। तिण ठामे हे सखी कोयल करे टूहूकार, बले मोर किंगार शब्द करे घणा । चकवां-चकवी हे शब्द करे श्रीकार, बले अनेक शब्द गमता पखियां तणा ॥ बसन्तु ऋतु में उद्यान का यह प्रसाद-गुण-संवलित-वर्णन वास्तव में सूक्ष्म प्रकृति-चित्रण का चमत्कार है। यथार्थ लेखनी का चमत्कार आचार्य भिक्षु स्पष्टवादी थे । वस्तु-स्थिति के निरूपण में उनकी लेखनी निर्भय होकर चली है। उन्होंने अनुभूत सत्य का दर्शन प्रस्तुत किया है। यह भी एक तथ्य है कि सत्य सदा कटु होता है। आचार्य भिक्षु ने अपने जीवन का सत्य की उपासना में ही उत्सर्ग किया था। अत: उनकी लेखनी में सत्य का परिपाक परिलक्षित होता है। मानवप्रकृति के कटु सत्यों का उद्घाटन करने में उनकी लेखनी ने जिस निर्भीकता का परिचय दिया है, उससे वह सामान्य बुद्धि के लिए कटु हो सकती है, किन्तु उसकी सत्यानुभूति निर्विकल्प है। उन्होंने अपनी अनुभूतियों को ज्यों का त्यों रख दिया, फिर भी उनका विवेक सदा जागृत रहा। उन्होंने कुलटा नारी का बहुत ही सुन्दर भाव-चित्र प्रस्तुत किया है Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित ५७१ ............................................................. ...... डेली चढती डिग-डिग करे, चढ जाये डूंगर असमान । घर माहे बैठी डरे करे, राते जाए मसाण ।। देख बिलाइ ओजके, सिंह ने सन्मुख जाय । सांप ओसीसे दे सुवे, स ऊन्दर सूं भिड़काय ॥ कोयल मोर तणी परे, बोलेज मीठा बोल । भिंतर कड़वी कटकसी, बाहिर करे किलोल ॥ खिण रोवे खिण में हँसे, खिण दाता खिण सूम ।। धर्म करतां धुंकल करे, ए सी नार अलाम । बाँदर ज्यू नचावे निज कंतने, जाणक असल गुलाम ॥ नारी में काजल कोटड़ी, बेहूँ एकज रंग। काजल अंग कालो करे, नारी करे शील भंग ।। नारी ऐ बन बेलड़ी, बेहूँ एक स्वभाव । कंटक रुख कुशील नर, ताहि विलम्बे आय ॥ विरची बाघण स्यूं बुरी, अस्त्री अनर्थ मूल । पापकरी पोते भरे, अंग उपावे सूल ।। मोर तणी पर मोहनी, बोले मीठा बोल । पिण साप सपूछो ही गिल, आले नर ने भोल ।। पुरुष पोत कपड़ा जिसौ, निर्गुण नितनवी भांत । नारी कातर बस पाड्यो, काटत है दिनरात ॥ बाघण बुरी बन मांहिली, बिलगी पकड़े खाय । ज्यूं नारी बाघण बस पड्यो, नर न्हासी किहां जाय ॥ फाटा कानां री जोगणी, तीन लोक में खाय । जीवत चूंटे कालजो, मूंआ नरक ले जाय ॥ नारी लखणां नाहरी, करे निजरनी चोट । केयक संत जन उबऱ्या, दया-धर्म नी ओट ॥ त्रिया मदन तलावड़ी, डूबो बहु संसार । केइक उत्तम उगरया, सद्गुरु वचन संभार ।। + + + जिम जलोक जल मांहिली, तिण नारी पिण जाण । उवा लागी लोही पीवे, नारी पिए निज प्राण ॥ राता कपड़ा पहरने, काठा बांध्या माथा रा केश । हस्यां महन्दी लगायनें, नारी ठगियो देश । लोक कहे ग्रह बारमों, लागां हणे कहे प्राण । आ न्हाखे नरक सातमी लगे, नारी नव-ग्रह जाण ॥ कुसती का यह वर्णन अत्यन्त रोचक बन पड़ा है। उन्होंने इस धरातल पर जो कुछ देखा, परखा, अनुभव किया, उसे ही सहज शब्दों में लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया। यही कारण है कि उनके निरूपणक्रम में एक वैशिष्ट्य रहा, वह संघटन रहा, जिसमें उनका काव्य तत्क्षण लोकमानस के अन्तःस्तल तक अपनी भाव-संपदा पहुँचा सका। Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "५७२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.......................................... आचार्य भिक्षु के काव्य में एक ओर जहाँ सरलता है, वहाँ गहनता भी है पर उनके निरूपण वैशिष्ट्य के कारण गहनता सरलता में परिवर्तित हो गई। काव्य-सृजन में लोक-जनीन उक्तियों और उपमाओं का प्रचुर प्रयोग हुआ है। उपरोक्त वर्णन में इसका सम्यग् दिग्दर्शन होता है । कुलटा स्त्री के चरित्र के बहुत ही सुन्दर चित्र खींचते हुए उन्होंने उसे काजल कोटड़ी, बन बेलड़ी, फाटा कानां री जोगणी, मदन तलावड़ी, जलोक आदि विशेषण दिए हैं, जो उनकी काव्यविशिष्टता का प्रतिभास कराते हैं । जहाँ जैसा औचित्य था उन्होंने वैसा ही चित्रण किया। इसलिए यह भी आवश्यक होता है कि उनके हार्द को आत्मसात करने के लिए उनके द्वारा दिए गए विवेचन की पृष्ठभूमि को यथावत् जाना जाए। उपर्युक्त पद्यों से सहसा यह नहीं समझ लेना चाहिए कि नारी-जाति के प्रति उनका अवहेलनापूर्ण दृष्टिकोण था। ये विशेषण उनके द्वारा वहाँ प्रयुक्त हैं, जहां उन्होंने कुसती नारी का विवेचन किया है-- कुसत्यां में अवगुण घणां, पूरा कह्या न जाय । पिण थोड़ा सा प्रगट करू, ते सुणज्यो चित्त ल्याय ।। अथवा "नहीं सरीखी सगली नार" अन्यत्र उनके द्वारा प्रयुक्त यह पद स्पष्टतया व्यक्त करता है कि नारीमात्र के लिए उक्त अभिमत नहीं था। उन्होंने सती नारी के प्रति तो आदरपूर्ण शब्दों में कहा कि सती सोलह गुण की खान होती है, सती सीता के तुल्य होती है, जिसका वर्णन जिनेश्वरदेव भी करते हैं। सुदर्शन चरित्र में दर्शन तत्त्व-दर्शन की सत्ता काव्य को अस्वीकार्य नहीं है। किन्तु उसकी अस्पष्टता काव्य को निष्प्राण बना देती है। हर काव्य में उसका यथोचित पुट रहता है । सुदर्शन चरित्र एक कथा-काव्य है। सूदर्शन की जीवन-घटनाओं पर गुंफित हुआ यह काव्य जहाँ एक ओर विविध रागिनियों, लोकोक्तियों और उपमाओं से चित्त को आह्लादित करता है, वहाँ दूसरी ओर दर्शन-प्रेमी पाठकों को दार्शनिक खुराक भी प्रदान करता है। कर्मवाद जैनदर्शन का एक मौलिक तत्त्व है । वह मानव-सृष्टि को किसी एकाधिपत्य की कठपुतली न मानकर कर्म-सिद्धान्त प्रस्तुत करता है। वह प्राणी के सुख-दुःख, ज्ञान-अज्ञान, निर्धनता-धनता आदि के लिए कर्म वैचित्र्य का प्रतिफल स्वीकार करता है। यदि एक ही व्यक्ति में कर्तृत्व का आरोपण किया जाए तो उसकी वृत्तियों में पक्षपात और विभेद क्यों रहता है ? ईश्वर की सत्ता को सृष्टि का कर्ता हर्ता स्वीकार करने से यह पक्षपात का राग-द्वेष क्या उसकी वीतरागता में बाधक नहीं बनता? इन सब दृष्टियों से हमें कर्मवाद का आश्रय लेना होगा । कर्मवाद की सत्ता स्वीकार कर लेने से उक्त समस्त प्रश्न स्वतः ही समाहित हो जाएंगे। आचार्य भिक्ष ने इसी कर्मवाद की विचित्रत को अत्यन्त सहज एवं सरल शब्दों में अभिव्यक्त किया है एक नर पंडित प्रवीण, एकण ने आखर ना चढ़े। एक नर मूर्ख दीन, भाग बिना भटकत फिरे।। एक-एकरे भरया भण्डार, रिद्ध सम्पत्ति घर में घणी। एकण रे नहीं अन्न लिगार, दीधा सोई पाइए॥ एकण रे मूषाण अनेक, गहणा वस्त्र नितनवा । एकण रे नहीं एक, वस्त्र बिना नागा फिरे ।। एक नर जीमें कूर, सीरा पूरी ने लापसी । एक बूके बूकस बूर, भीख माँगत घर-घर फिरै ।। एक नर पोड़े खाट, सेज बिछाई ऊपरे । एक नर जोमे हाट, आदर मान पावे नहीं । एक नर होवे असवार, चढ़े हस्ती ने पालखी। एक चले सिर भार, गाम गाम हिड़तो फिरै ।। Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी काव्य की परम्परा में सुदर्शन चरित एक-एक नर ने हुजूर, हाथ जोड़ी हाजर रहे। एक नर नें कहे दूर, निजर मेले नहीं तेहसूं ॥ एक सुन्दर रूप सरूप, गमतो लागे सकल नें । एकज कालो कुरूप, गमतो न लागे केहनें ॥ एक एक नी निर्मल देह. एक ने रोग पीड़ा घणी । किसो किजे अहमेव, कियो जिसोई पाईए । एक बालक विधवा नार, रात दिवस झूरे घणी । एक सज सोले सिणगार, नित नवला सुख भोगवे ॥ धराय, आण मनावे देश में । एक नर छत्र अलवाणे पाय, घर-घर टुकड़ा मांगतो ॥ पाय, हुकम चलावे लोक में । हाट एक कोही के कारण ।। एक एक बैठे सिंघासण एक फिरे हाटो एक सारे निजकाज, संयम मारग आदरी । एकज विलसे राज, काज बिगाड़े आपणो ॥ ५७३ लोक भाषा में किया गया कर्म - विचित्रता का यह विशद वर्णन भाषा की दृष्टि से जितना सरल है, उसमें उतनी ही अधिक दर्शन की गहरी पृष्ठभूमि का विवेचन मिलता है। लोकजीवन भाषा में दर्शन की गम्भीरता को अत्यन्त सरल शब्दों में प्रस्तुत करना सचमुच ही एक आश्चर्य है । 0+0+0+0+@ काव्य की कसौटी पर सुदर्शन चरित सुदर्शन चरित को हम निःसंकोच एक परिपूर्ण काव्य की संज्ञा दे सकते हैं । काव्य क्या है ? इस पर विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं। आज तक काव्य की कोई एक ऐसी परिभाषा नहीं बन सकी जिसके सम्बन्ध में यह कहा जा सके कि इस परिभाषा के अनन्तर अब और परिभाषाएँ नहीं बनाई जाएँगी । काव्य इतनी विशाल और विचित्र वस्तु है कि उसे एक-दो वाक्यों की परिभाषा में बाँध देना बहुत कठिन है । काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों की भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं। आज तक की गई परिभाषाओं का उल्लेख सिर्फ लेख की कलेवर-वृद्धि मात्र ही होगा, अतः इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि उन परिभाषाओं की सूची में वृद्धि की जा सकती है पर उससे काव्य की परिभाषा समझने में कोई लाभ होगा, ऐसी आशा नहीं है। कोशकार, कवि और समालोचक काव्य की परिभाषा करने में एकमत नहीं है किन्तु यदि इन सब परिभाषाओं की समन्विति में हम एषणा करें कि काव्य की परिभाषा करने वाले भिन्न-भिन्न विचारक किन-किन तत्त्वों को काव्य का घटक अवयव मानते हैं तो चार तत्त्व सहज ही हमारे हाथ लगते हैं, जिनका थोड़ा या बहुत अंशों में प्रायः सभी लक्षणकारों ने उल्लेख किया है। वे तत्त्व हैं - (१) भाव तत्त्व, (२) कल्पना - तत्त्व, (३) बुद्धितत्त्व और (४) शैलीतत्त्व । इनके आधार पर साधारणतया हम कह सकते हैं कि जिस रचना में जीवन की वास्तविकता को छूने वाले तथ्यों, अनुभूतियों, समस्याओं, विचारों आदि का भावना और कल्पना के आधार पर अनुकूल भाषा में सुसंगत रूप से वर्णन किया जाए, वह काव्य है । सुदर्शन चरित में भाव-तत्त्व - उच्चकोटि के काव्य वे माने जाते हैं जिनमें भाव तत्त्व अर्थात् अनुभूतियों का वर्णन रहता है तथा दूसरे तत्त्व सहायक बनकर भावतत्त्व का साथ देते हैं । यहाँ एक बात और समझने की है कि अनुभूति या भाव उदात्त हो, मानव को ऊँचा उठाने वाला हो । काव्य उस चीज को नहीं छूता जो कुत्सित है । काव्य का उद्देश्य मानव को पशुत्व से ऊपर उठाना है, इसलिए महाकवियों ने आहार आदि शारीरिक क्रियाओं का वर्णन अपने काव्यों में नहीं के बराबर किया है। पाशविक प्रवृत्ति वाले लोग जिन बातों को बहुत रस लेकर सुनते और . Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ......................................................................... सुनाते हैं, कवि लोग उन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं । एक सुप्रसिद्ध लेखक ने कहा है कि विषय-वासना की तृप्ति करने में ही आनन्द होता तो मनुष्य की अपेक्षा पशु बहुत सुखी होते। किन्तु बास्तविकता यह है कि मनुष्य का आनन्द उसकी आत्मा में निहित है, न कि देह में। मनुष्य का ध्यान यदि मांसल-प्रसन्नता-प्राप्ति के उपायों में ही लगा रहेगा तो वह संसार में रहने के अयोग्य हो जाएगा। किसी भी ललित कला का यह उद्देश्य नहीं होता कि वह जीवन की कुत्सितता को लेकर आगे बढ़े। जो भव्य है, सुन्दर है, मधुर अनुभूतियों का संचार करने वाला है, उसी का वर्णन करना काव्य-कला, चित्रकला आदि कलाओं का ध्येय होता है। इसका यह अर्थ नहीं कि श्रृंगाररस का वर्णन काव्य में त्याज्य है। अपनी सीमा में रहने वाला शृंगार रस काव्योपयुक्त बन सकता है, वह विष तभी बनता है, जब अपनी सीमा का अतिक्रमण कर देता है। सुदर्शन चरित में भाव-तत्त्व बहुत सुन्दर रूप में गूंथा गया है अथवा यों कहना चाहिए कि सुदर्शन चरित एक भाव-तत्त्व-प्रधान काव्य ही है। आचार्य भिक्ष ने अपने जीवन में जो कुछ देखा, सुना, परखा और अनुभव किया, उसी का एक बृहद् भाव-चित्र इस अद्भुत कलाकृति के साथ प्रस्तुत हुआ है। कुसती के वर्णन और कामातुर अभया की मनोदशा के चित्रण में उन्होंने जिन कटु सत्यों का रहस्योद्घाटन किया है, वे पद्य सिर्फ पद नहीं है, जाज्वल्यमान भाव-स्फुलिंग हैं । वे अन्तरतम को वेध देने वाले व्यंग-बाण हैं। वे तथाकथित शील की विडम्बना करने वालों की कुत्सित वृत्तियों के प्रति आभ्यन्तरिक टीस के परिचायक हैं। उनका प्रत्येक शब्द शील की ओट में पोषित होने वाले भ्रष्टाचार पर एक करारा प्रहार है । विचारों की द्रढिमा दृढ़तम शब्दों का आश्रय पाकर निखर उठी है। सधे हुए शब्द, लोकजनीन सरणि और शृंखला भावक्रम ने एक अद्भुत प्रभावोत्पादकता उत्पन्न कर दी है। ___ सुदर्शन चरित में कल्पना-तत्त्व-कल्पना का कार्य है-अनुभूति के प्रकाशन में सहायता देना । कभी-कभी कवि कल्पना को इतनी अधिक प्रधानता दे देता है कि भाव गौण हो जाता है। ऐसी कल्पना हृदय में रस-संचार नहीं करती। संस्कृत के एक कवि ने किसी राजा के यश का वर्णन करते हुए कहा है-"राजन् ! आपके यश की धवलिमा को चारों तरफ फैलता देखकर मुझे आशंका हो गई कि इस धवलता से कहीं मेरे प्रियतमा के केश भी धवल (सफेद) न हो जाए।" इसमें कल्पना को खींचकर इतना तान दिया गया है कि हँसी आने के अतिरिक्त राजा के पौरुष के सम्बन्ध में हृदय में किसी प्रकार के भाव की उत्पत्ति नहीं होती। यहाँ कल्पना भाव को सहारा देने के लिए नहीं आई, बल्कि अपना ही खिलवाड़ दिखाने के लिए आई है। उपरोक्त उदाहरण में कल्पना भाव को फेंककर आगे निकल गई है। इस प्रकार की कल्पना को 'ऊहा' कहा जाता है। ऊहात्मक काव्य में वह शक्ति नहीं होती, जिससे हृदय में किसी प्रकार की हिलोर पैदा हो सके । आचार्य भिक्ष ने अपने काव्य में कल्पना को इतना महत्व नहीं दिया जिससे भाव गौण हो जाए । सुदर्शन चरित के आद्योपान्त पारायण से ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नहीं होता, जहाँ कल्पना की दौड़ भाव से आगे निकल गई हो । कहना तो यों चहिए कि कल्पना के प्रयोगों में उन्होंने कृत्रिम प्रयास किया ही नहीं। सहज भावना से उद्भुत कल्पनाओं का एक ऐसा सुन्दर सूत्र उनके काव्य में मिलता है जो कि वास्तविकता से अनुस्यूत है। नारी के लिए पर-पुरुष को 'लहसुन' की उपमा देकर उन्होंने अपने सहज, स्वाभाविक कल्पना-प्रयोग का परिचय दिया है। इसी प्रकार कुसती के लिए 'जोंक', 'मदन तालाब' आदि उपमाएँ देकर अपनी कुशल प्रतिभा को व्यक्त किया है। आचार्य भिक्षु की ये लोक-जनीन कल्पनाएँ और उपमाएँ काव्य-क्षेत्र में अन्यत्र दुर्लभ हैं । सफल कवित्व भी वही है, जो कल्पना की हवाई उड़ान न भरकर लोक-मानस का स्पर्श करे। सुदर्शन चरित में बुद्धि-तत्व-काव्य में बुद्धितत्त्व कल्पना की तरह भाव को सहारा देने के लिए गौण रूप से रहता है। इसका प्रयोग स्वतन्त्र रूप से काव्य में नहीं किया जाता है। दर्शनशास्त्र में तो कई बार बुद्धि की अवहेलना कर दी जाती है। इसीलिए शेक्सपियर ने कवि को उन्मत्त की एक कोटि में रखा है। रोमन कवि व समीक्षक हारेस लिखता है या तो यह कोई पागल है या कवि है। यह अतिशयोक्ति हो सकती है पर कवि बौद्धिक सीमाओं से बँधा नहीं होता। इसलिए कहा-'निर्बन्धाः कवयः' । जो लोग ताकिक हैं, उन्हें प्रायः काव्य पसन्द नहीं आता क्योंकि Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थानी काव्य परम्परा में सुदर्शन चरित 1 काव्य में हृदय-पक्ष की ही प्रधानता रहती है न कि मस्तिष्क पक्ष को कोई भी महान कवि बुद्धिमत्ता का चमत्कार दिखाने के लिए काव्य लिखने में प्रवृत्त नहीं होता पर इसका अर्थ यह नहीं कि काव्य में बुद्धितत्त्व का प्रवेश ही निषिद्ध है। भावों के प्रकाशन में कभी-कभी असंगति रह जाती है। वहाँ बुद्धि का सहारा लेकर ही असंगति को दूर किया जाता है । कवि को इस बात का सदा ध्यान रहता है कि मैं कोई ऐसी बात नहीं कह दूँ जिसे पढ़ या सुनकर लोग कहें - यह कैसे हो सकता है ? इस विचार से वह अपनी बात को इस ढंग से कहता है कि जिससे उसका कथन बुद्धि-संगत हो जाए। बस, बुद्धि का काव्य में इतना में ही स्थान है । सुदर्शन चरित का अध्ययन करने से यह भली प्रकार प्रमाणित होता है कि आचार्य भिक्षु ने बुद्धि को भाव की अपेक्षा अनावश्यक अधिक महत्त्व कभी नहीं दिया। कुछ प्रश्नवाचक प्रसंगों का अपनी बौद्धिक कुशलता से सुन्दर समाधान भी किया है। प्रश्न हो सकता है कि क्या शूली का सिंहासन बन सकता है ? किन्तु इसकी भूमिका बांधते हुए उन्होंनेकी १६ गीतिका में फीस के अद्भुत चमत्कारों का वर्णन कर दिया। अतः मूली का सिंहासन होना कोई बड़ी बात नहीं । कुसती वर्णन के सन्दर्भ में उन्होंने तीखे व्यंग-बाणों की बौछार करते हुए बहुत ही स्पष्ट बातें कही हैं। क्यों और कैसे का समाधान करने के लिए अनेक घटनावलियों को उदाहरण रूप में भी रख दिया है । हाथ कंगन को आरसी क्या ? प्रत्यक्ष के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती ( प्रत्यक्ष किं प्रमाणम् ) घटित घटनावलियों के उदन्त प्रश्न को उत्पन्न होने से पहले ही समाहित कर देते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य भिक्षु ने बुद्धि तत्त्व का सहारा अवश्य लिया है, किन्तु उसे भाव से प्रमुख स्थान कभी नहीं दिया । सब बातें आ जाती हैं जो किसी भावाभिव्यक्ति के लिए आवश्यक इसलिए शैली में मुख्य बात भाषा की रहती है। सुदर्शन-चरित की जा चुका है। फिर भी कुछ विशेष बातें और हैं। भाव काव्य की अतः भाव और भाषा का परस्पर गहरा सुदर्शन चरित में शैली-तस्य शैली में वे होती है। भावाव्यक्ति का माध्यम भाषा है भाषा के सम्बन्ध में कुछ प्रकाश पहले डाला आत्मा है तो भाषा उसका शरीर है। भाषा भाव को मूर्तिमान् करती है। सम्बन्ध है । शृंगार रस के वर्णन में भाषा में कोमलता रहती है और वीर रस के वर्णन में कठोरता आ जाती है । भाव तभी जागृत होते हैं जब उनके अनुकूल भाषा का प्रयोग किया जाता है। बड़े-बड़े कवियों की भाषा में यही गुण विद्यमान रहता है । वे जानते हैं कि किस शब्द का किस स्थान पर प्रयोग करना है । वे जब वर्षा की नन्हीं-नन्हीं बूंदों के बरसने का वर्णन करते हैं तो उनकी पदावली से ध्वनित होने लगता है मानो समुच की बूंदें पड़ने का धीमा-धीमा शब्द हो रहा है किन्तु जब वे मूसलाधार वर्षा का वर्णन करते हैं तब भाषा बदल जाती है । जहाँ एक क्षुद्र नदी का वर्णन करना है, वहाँ मृदु-ध्वनि शब्दों की प्रयुक्ति आवश्यक है, किन्तु होना चाहिए। एक अंग्रेज कवि पोप ने अपने समालोचना विषयक कविता में इतना ही पर्याप्त नहीं कि किसी प्रकार के कर्ण-न कि ऐसे शब्दों का प्रयोग हो, जिनके उच्चारण मात्र से अर्थ जहाँ वर्ण्य विषय समुद्र है, वहाँ भाषा में गर्जन निबन्ध (Essay on Criticism) में लिखा है कि शब्दों का प्रयोग किया जाए, प्रत्युत आवश्यक है ध्वनित हो । सुदर्शन चरित की शैली भाव-तत्व के ठीक अनुरूप सच पायी है। प्रकृति-चित्रण के प्रसंग में जो शब्दलालित्य आचार्य भिक्षु द्वारा उपन्यस्त हुआ है उससे सहज ही वसन्त की दृस्याकृतियों के सम्मु नाचने लगती है। शब्दचित्र और भावचित्र दोनों ही कोमलता से भरे हैं। वसन्त-चित्रण की यही कोमलता संग्राम-वर्णन के समय कठोरता बदल जाती है। देवताओं के साथ राजा का युद्ध इस प्रकार है नॅ बड़नाल । ५७५ राजा तणा सुभट छूटे, गोला हलकार्या, बोले सेठ राजा तणा सुभटां, तीर कबाग बावे, जाणक दल सन्मुख +++++ ने गाल ॥ हाथ लेह | वर्षे मेह ॥ . Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ................................................................ सेठ तणा दल ऊपरे, राजा तणा छूटे बाण । कोकाट शब्द करता, पड़े बिजली जिम आण ।। सूरा सुभट राजारा, ते हुवा साहस धीर । संग्राम में सूरा, कानी-कानी लागा बड़वीर ।। इस प्रकार शैली तत्त्व की. तुला पर भी सुदर्शन-चरित पूर्णतः खरा उतरता है। राजस्थानी साहित्य के क्षेत्र में काव्य साहित्य की परम्परा अति प्राचीन है। समय-समय पर विभिन्न कवियों ने अपनी अनुभूतियों को संजोकर काव्य साहित्य को समृद्ध बनाया। आचार्य भिक्षु का 'सुदर्शन चरित' निःसंदेह उसी काव्य-शृंखला की एक कड़ी होगा। जिसमें साहित्य, संस्कृति, कला और दर्शन का सुन्दर निदर्शन मिलता है। भाव, कल्पना, बुद्धि और शैली के मूलभूत साहित्यिक तत्त्व निकष पर यह शत प्रतिशत खरा उतरा है। अत: इसे निःसंकोच स्वतन्त्र और परिपूर्ण काव्य की संज्ञा देने में किसी प्रकार की झिझक नहीं होनी चाहिए। उपसंहार-जीवन के शाश्वत और मौलिक तथ्यों का अस्खलित प्रकटीकरण आचार्य भिक्ष की काव्य-साधना का सहज गुण था। अनेक गहन विषयों को सरल भाषा में गूंथकर व्यावहारिक रूपकों द्वारा हृदयंगम कर देना उनकी विलक्षण प्रतिभा का प्रतीक रहा। उनके साहित्य की सर्वाधिक विशेषता यह है कि इन्होंने सनातन सत्य को परिभाषाओं के कृत्रिम और कठोर बन्धनों में बाँधने को कभी प्रयत्न नहीं किया। यही कारण है कि उनकी कृतियों में साहित्य स्वयं मूर्तिमान सत्य के रूप में अवतरित हुआ है। 'सुदर्शन चरित' इसका प्रमाण है। आचार्य भिक्ष ने तथ्यों को तोड़-मरोड़कर नहीं रखा किन्तु उनमें अपना स्पष्ट चिन्तन, सहमति और मतभेद प्रकट किया है। इतना होते हुए भी उनमें उनकी अनाग्रह वृत्ति साकार होकर निखरी है। 0000 Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश साहित्य के कवियों में जानकरी अभी तक नहीं मिल सकी है, वह संक्षिप्त होने पर भी महत्वपूर्ण है। माएसर (मातेसर) और माता का नाम महाकवि धनपाल : व्यक्तित्व और कृतित्व D श्री मानमल कुदाल, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर धनपाल का प्रमुख स्थान है । यद्यपि कवि धनपाल के सम्बन्ध में विशेष पर स्वयं धनपाल ने जो परिचय अपनी कृति भविसयतका में दिया है कवि ने धक्कड़ नामक वैश्य वंश में जन्म लिया था। इनके पिता का नाम धनश्री था । धक्कडवणियाँस माएसरहु प्रणसिरदेखि सुएण विरइ कहा जाता है कि उन्हें सरस्वती का वरदान प्राप्त था १. पं० परमानन्द जैन शास्त्री २. पं० परमानन्द जैन शास्त्री पृ० १५५. समुभविण । सरस संभविण ॥ - भ० क० १, ४ चिन्तिय धणवाले वणिवरेण सरसइ बहुलद्ध महावरेण । कवि निश्चित ही प्रतिभाशाली विद्वान् रहे होंगे और उन्होंने अन्य रचनाएँ भी लिखी होंगी। किन्तु आज उनको खोज निकालना असम्भव-सा प्रतीत होता है क्योंकि धनपाल नाम के कई विद्वानों के उल्लेख मिलते हैं। पं० परमानन्द शास्त्री ने धनपाल नाम के चार विद्वानों का परिचय दिया है।' ये चारों ही भिन्न-भिन्न काल के विभिन्न विद्वान् हैं । उनमें से दो संस्कृत भाषा के विद्वान् तथा ग्रन्थ रचयिता थे और दो अपभ्रंश के संस्कृत के प्रथम धनपाल राजा भोज के आश्रित थे, जिन्होंने तिलकमंजरी और पाइयलच्छी ग्रन्थ की रचना १०वीं शती में की थी दूसरे धनपाल १३वीं शती के हैं। उनके द्वारा लिखित तिलकमंजरी नामक ग्रन्थ का ही अब तक पता लग पाया है। तीसरे धनपाल अपभ्रंश भाषा में लिखित बाहुबलिचरित के रचयिता हैं, जिनका समय १५वीं शती है । ये गुजरात के पुरवाड वंश के तिलक थे। इनकी माता का नाम सुहडा देवी और पिता का नाम सेठ सुहडपुत्र था। जैसा कि कहा गया है गुज्जरपुरबाड सलिलड़ सिर सुहसेठ गुणसणणिलउ । तहो मणहर छायागेहणिय सुहडाएवी णामे मणिय | तहो उवरिविाउ वदु विणयओ धणवालु वि सुउ णामेण हुआ। तहो विण्णि तणुब्भव विउलगुण संतोसु तह य हरिराज पुण ॥ - भ० क० २२, १ चौथे धनपाल भविसयतकहा कथा काव्य के लेखक धक्कड़ वंश में उत्पन्न हुए थे । धर्मपरीक्षा के कर्त्ता कवि हरिषेण भी इसी वंश के थे। धर्मपरीक्षा का रचना काल वि० सं० २०४४ है। महाकवि वीरकृत जम्बूस्वामी चरित में भी मालव देश में धक्कड़ वंश के तिलक महासूदन के पुत्र तक्खडु श्रेष्ठी का उल्लेख मिलता है ।" देलवाड़ा — बाहुबलिचरित, अन्त्य प्रशस्ति, अनेकान्त से उद्धत धनपाल नाम के चार विद्वान् कवि, अनेकान्त, किरण ७-८, पृ० ८२. अपभ्रंश भाषा का जम्बूस्वामिचरिउ और वीर, अनेकान्त, वर्ष १३, किरण ६ . Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "५७८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड के वि० सं० १२८७ तेजपाल वाले शिलालेख में भी धर्कट जाति का उल्लेख है । इससे पता लगता है कि १०वीं से १३वीं शती तक यह वंश अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है। अतएव भविसयतकहा के लेखक धनपाल का होना इसी समय सम्भावित है। काल-निर्णय-कवि धनपाल के समय के बारे में विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग विचार हैं (१) भाषा के आधार पर डॉ० हर्मन जेकोबी इन्हें १०वीं शती का मानते हैं। क्योंकि इनकी भाषा हरिभद्र सूरि के नेमिनाहचरिउ से मिलती है। मुनि जिनविजय ने हरिभद्र का समय ७०५ से ७७५ के बीच माना है।' (२) श्री दलाल और गुणे के अनुसार भविसयतकहा की भाषा आचार्य हेमचन्द्र के व्याकरण में प्रयुक्त भाषा की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। धनपाल के समय में अपभ्रंश बोली जाती रही होगी, जबकि हेमचन्द्र के समय में वह मृतभाषा हो गयी थी। अतः दोनों में बीच २५० वर्ष का अन्तर होना चाहिए । (३) डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री की 'भविसयतकहा तथा अपभ्रंश काव्य' पृ० ६४ के अनुसार भ० कहा की उपलब्ध प्रतियों में सबसे प्राचीन संवत् १४८० की प्रति मिलती है, जो डॉ० शास्त्री को आगरा भण्डार से प्राप्त हुई है (वही पृ० १५५) । इसी काव्य की प्रशस्ति में इसको वि० सं० १३९३ में लिखा हुआ कहा गया है । उल्लिखित पंक्ति इस प्रकार हैं सुसंवच्छरे अक्किरा विक्कमेणं अहिएहि तेणवदिते रहसएणं । वरिस्सेय पूसेण सेयम्मि पक्खे तिही वारिसी सोमिरोहिणिहिरिक्खे ॥ सुहज्जोइमयरंगओवुद्धपत्तो इओ सुन्दरो केत्थु सुहदिणि समत्तो। (४) ऐतिहासिक दृष्टि से इस ग्रन्थ में जो तथ्य प्राप्त होते हैं, उनसे यह काल उचित जान पड़ता है। धनपाल ने दिल्ली के सिंहासन पर मुहम्मद शाह (१३२५-५१ ई०) का शासन करना लिखा है। सन् १३२८ ई० में आचार्य जिनचन्द्रसूरि का मुहम्मदशाह को धर्म श्रवण कराना एक महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। सम्भवतः इसीलिए मुसलमान उसे काफिर कहते हैं। इस प्रकार ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर कवि धनपाल का १४वीं शती में भविसयतकहा की रचना करना सुनिश्चित प्रतीत होता है। धनपाल का सम्प्रदाय-धनपाल जैन धर्म के दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी थे। अतएव यह स्वाभाविक था कि कवि अपनी रचना में अपनी मान्यता के अनुसार वर्णन करता । भविसयतकहा के 'जेण भंजिवि दियम्बरि लाय के अतिरिक्त कतिपय वर्णनों तथा सैद्धान्तिक विवेचन के अनुसार भी उनका दिगम्बरमतानुयायी होना निर्विवाद सिद्ध होता है। कवि ने अष्टमूलगुणों का वर्णन करते हुए कहा है कि मधु, मद्य, मांस और पाँच उदुम्बर फलों को किसी भी जन्म में नहीं खाना चाहिए । जैसा कि कहा है महु मज्जु मंसु पंचुंबराई खज्जंति ण जम्मंतर सयाइ (१६,८) कवि का यह कथन भावसंग्रह के कर्ता देवसेन के अनुसार है महुमज्जमंसविरई चाओ पुण उंबराण पंचण्हं । अट्ठेदे मूलगुणा हवंति फुड देसविरयम्मि। -(भावसंग्रह, गाथा ३५६) १. जै० सा० सं० १ २. संपादक सी० डी० दलाल और पी० डी० गुणे : धनपाल की भविसयतकहा, १९२३, परिचय पृ० ४. ३. वही, पृ० ८६. ४. भ० क० तथा अपभ्रंश कथा काव्य-देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ० ८७. Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह भी ध्यान में देने योग्य बात है कि कवि ने अपभ्रंश के कवि विबुध श्रीधर से भी बहुत कुछ ग्रहण किया था। क्योंकि आ० जिनसेन तथा समन्तभद्र ने अष्ट मूलगुणों में तीन मकारों और पांच अणुव्रतों को गिनाया है परन्तु विबुध श्रीधर ने मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलों के त्याग को आठ मूलगुण कहा है महाकवि धनपाल : व्यक्तित्व और कृतित्व ५७६. ( भविसम्बनि ५३) । I रचनाएँ -- धनपाल की एकमात्र अपभ्रंश रचना भविसयतकहा प्राप्त होती है यह कथा २२ संधियों में विभाजित है। इसके तीन खण्ड हैं प्रथम में भवियत के वैभव का वर्णन है। द्वितीय खण्ड में कुरुराज और तक्षशिलाराज के युद्ध में भविष्यदत्त की प्रमुख भूमिका एवं विजय का वर्णन है। तृतीय खण्ड में भविष्यदत्त के तथा उनके साथियों के पूर्वजन्म और भविष्य जन्म का वर्णन है। मज्जुमंसु महणउ भाक्खेज्जइ पंचुंबरफल गियरुमुइज्जइ । अमूलगुणु ए पालिज्जहि सह संधान एहि ण गरिहि ॥ कथावस्तु चरितनायक भविष्यदत्त एक बनिन् पुत्र है। यह अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त के साथ व्यापार हेतु परदेश जाता है, धन कमाता है और विवाह भी कर लेता है। किन्तु उसका सौतेला भाई उसे बार-बार धोखा देकर दुःख पहुँचाता है । यहाँ तक कि उसे एक द्वीप में अकेला छोड़कर उसकी पत्नी के साथ घर लौट आता है और उससे विवाह करना चाहता है । किन्तु इसी बीच भविष्यदत्त भी एक यक्ष की सहायता से घर लौट आता है; अपना अधिकार प्राप्त करता है और राजा को प्रसन्न कर राजकन्या से विवाह करता है । अन्त में मुनि के द्वारा धर्मोपदेश व अपने पूर्व-भव का वृत्तान्त सुनकर विरक्त हो, पुत्र को राज्य दे, मुनि हो जाता है ।. यह कथानक श्रुतपंचमी व्रत का माहात्म्य प्रकट करने के लिए लिखा गया है । ग्रन्थ के अनेक प्रकरण बड़े सुन्दर और रोचक हैं । बालक्रीड़ा, समुद्र यात्रा, नौका-भंग, उजाड़नगर विमान यात्रा आदि वर्णन पढ़ने योग्य हैं । कवि के समय विमान हो अथवा न हो किन्तु उसने विमान का वर्णन बहुत सजीव रूप में किया है । रूप-वर्णन वस्तु-वर्णन - कवि धनपाल ने अपने काव्य भविसयतकहा में वस्तु-वर्णन कई रूपों में किया है । कवि ने जहाँ परम्परामुक्त वस्तुपरिगणन, इतिवृत्तात्मक शैली को अपनाया है, वही लोक प्रचलित शैली में भी जन-जीवन का स्वाभाविक चित्रण कर लोकप्रवृत्ति का परिचय दिया है। वस्तु-वर्णन में नगर वर्णन, कंचनद्वीप यात्रा वर्णन, समुद्रवर्णन, विवाह वर्णन, युद्ध यात्रा-वर्णन, युद्ध-वर्णन, तेल चढ़ाने का वर्णन, बसन्त-वर्णन, बाल वर्णन, राजद्वार वर्णन, शकुनवर्णन, वन वर्णन, रूप वर्णन, मेगानद्वीप का वर्णन और प्रकृति-वर्णन आदि का सजीव वर्णन किया है, जिसमें रसात्मकता देखी जा सकती है । घटना वर्णनों के बीच अनेक मार्मिक स्थलों की नियोजना स्वाभाविक रूप से हुई है, जिनमें कवि की प्रतिभा अत्यन्त स्फुट है। वर्णन के कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं - विवाह वर्णन किय मंडवसोह धरि धरि, बद्धइ तोरणई । उल्लोच सवाई र जणमण चोरभई ॥ सा कमलसिरी पाउं तहू पसी अलिय निगवरसासगिनती । समचक्कल कडियल सुमनोहर वियडरमणघणपणपलोहर । छणससि बिंब समुज्जलवयणी णवकुवलयवलदीहरणायणी । (००१, १२ ) जिनमें मनुष्य भाव-व्यंजना -- प्रबन्ध में परिस्थितियों और घटनाओं के अनुकूल मार्मिक स्थलों की संयोजना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि कवि की प्रतिभा और भावुकता का सच्चा परिचय उन्हीं स्थलों पर मिलता है, हृदय की वृत्तियाँ सहज रूप में, प्रसंग को हृदयंगम करते ही भावनाओं में तन्मय हो जाती है। धनपाल की रचना में - ( भ० क० १, ८) . Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "५८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड . -. --.-. -. -. -.-. -.-. -. -.-. -... .......................... .. ............... निम्नलिखित स्थल अत्यन्त मर्मस्पर्शी कहे जा सकते हैं-बन्धुदत्त का भविष्यदत्त को अकेला मेगानद्वीप में छोड़ देना और साथ के लोगों का सन्तप्त होना, माता कमलश्री को भविष्यदत्त के न लौटने का समाचार मिलना, बन्धुदत्त का का लौटकर आगमन, कमलश्री का विलाप और भविष्यदत्त का मिलन आदि । ___ कमलश्री विलाप करती है कि हा हा पुत्र ! मैं तुम्हारे दर्शन के लिए कब से उत्कण्ठित हूँ। चिरकाल से आशा लगाये बैठी हूँ। कौन आँखों से यह सब देखकर अब समाश्वस्त रह सकता है ? हे धरती ! मुझे स्थान दे, मैं तेरे भीतर समा जाऊँ । पूर्वजन्म में मैंने ऐसा कौन-सा कार्य किया था, जिससे पुत्र के दर्शन नहीं हो रहे हैं । इस प्रकार के वचनों के साथ विलाप करते हुए उसे एक मुहूर्त बीत गया । हा हा पुत पुत उक्कंठियइं घोरंतरिकालिपरिट्ठियई। को पिक्खिवि मणु उम्भुद्धरमि महि विवरू देहिजिं पइसरमि । हा पुव्वजम्मि किउ काई मई णिहि देसणि णं णयणई हयई। -(भ० क० ८, १२) इसके अलावा इसमें रस-व्यंजना की दृष्टि से शृंगार, वीर और शान्त-रस का परिपाक हुआ है। संवाद-योजना-कवि धनपाल के कथाकाव्य में संवादपूर्ण कई स्थल दृष्टिगोचर होते हैं, जिनमें काव्य का चमत्कार बढ़ गया है और कथानक में स्वाभाविक रूप से गतिशीलता आ गयी है। मुख्य रूप से निम्न संवाद भविसयतकहा में द्रष्टव्य हैं- प्रवास करते समय पुत्र भविष्यदत्त और माता कमलश्री का वार्तालाप, भविष्यदत्तभविष्यानुरूपा का संवाद, राक्षस-भविष्यदत्त संवाद, भविष्यदत्त-बंधुदत्त संवाद, कमलश्री मुनि-संवाद, बन्धुदत्त-सरूपा संवाद और मनोवेग विद्याधर-भविष्यदत्त तथा मुनिवर संवाद आदि।। शैली-धनपाल के कथाकाव्य में अपभ्रंश के प्रबन्ध काव्यों की कडवकबन्ध शैली प्रयुक्त है। कडवक बन्ध सामान्यतः १० से १६ पंक्तियों का है । कडवक, पज्झरिका, अडिल्ला या वस्तु से समन्वित होते हैं। सन्धि के प्रारम्भ में तथा कडवक के अन्त में ध्रुवा, ध्रुवक या धत्ता छन्द प्रयुक्त है। धत्ता नाम का एक छन्द भी है किन्तु सामान्यतः किसी भी छन्द को धत्ता कहा जा सकता है। भाषा-धनपाल की भाषा साहित्यिक अपभ्रंश है पर उसमें लोकभाषा का पूरा पुट है। इसलिए जहाँ एक और साहित्यिक वर्णन तथा शिष्ट प्रयोग है वहीं लोक-जीवन की सामान्य बातों का विवरण घरेलू वातावरण में वणित है। उदाहरण के लिए-सजातीय लोगों का जेवनार में षट् रसों वाले विभिन्न व्यंजनों के नामों का उल्लेख है, जिनमें घेवर, लड्ड, खाजा, कसार, मांडा, भात, कचरिया, पापड़ आदि मुख्य हैं। गुणाधारिया लड्डुवा खोरखज्जा कसारं सुसारं सुहाली मणोज्जा। पुणो कच्चरा पप्पडा डिण्ण भेया जयंताण को वण्णए दिव्व तेया ॥ -(भ० क० १२, ३) डॉ. हर्मन जेकोबी के अनुसार धनपाल की भाषा बोली है, जो उत्तर-प्रदेश की है। डॉ. नगारे ने पश्चिमी अपभ्रंश की जिन विशेषताओं का निर्देश किया है वे भविसयतकहा में भली भांति दृष्टिगोचर होती हैं। __अलंकार-योजना-धनपाल ने इस कथा काव्य में सोद्देश्यमूलक अलंकारों में उपमा और उत्प्रेक्षा का प्रयोग किया है। उपमा में कई रूप दृष्टिगोचर होते हैं । मूर्त और अमूर्त भाव में साम्य है। जैसेते विदिठ्ठ कुमारू अकायरू कडवाणालिण णाई रयणारू -(भ० क० ५, १८) इसी प्रकार प्रकृति-वर्णन में मानवीय रूपों तथा भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है। कवि की उर्वर एवं अनुभूतिमयी कल्पना का परिचय उसकी अलंकार योजना में मिलता है। १. डॉ० गजानन वासुदेव नगारे : हिस्टारिकल ग्रामर आव् अपभ्रंश, पूना, १६४६, पृ० २६० Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि धनपाल : व्यक्तित्व और कृतित्व ५८१ . ......................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-... अन्य अलंकारों के उदाहरण इस प्रकार है१. कलि-तरुवरहो मूलु छिदिज्जइ (रूपक) (कलह रूपी वृक्ष की जड़ भी नष्ट कर देनी चाहिए। ) २. किउ अपमाण्ड णिउत्त मुहल्लउ अहरउ णावइ दाडिमहुल्लउ (व्यतिरेक) (सुख से संलग्न अधर (निचले ओठ) ने अनार के फल को नीचा दिखाकर उसका अपमान किया।) ३. जो भक्खइ मंसु तासु कहिमि कि होइ दय (काव्यलिंग) (जो मांस खाता है उसके दया कहाँ से हो सकती है ? ) छन्द-अपभ्रंश के काव्यों में मुख्यतः मात्रिक छन्दों का प्रयोग हुआ है। मात्रिक रचना परवर्ती प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य की निजी विशेषता है। कवि धनपाल ने अपने काव्य में निम्नलिखित छन्द विशेष रूप से प्रयुक्त किये हैं पञ्झरिका, अडिल्ला, दुवई, मरहट्ठा, सिहावलोकन, काव्य, प्लवंगम, कलहंस, गाथा, धत्ता, उल्लाला, अभिसारिका, विभ्रमविलासवदन, किन्नरमिथुनविलास, मर्करिका, चामर, भुजंगप्रयात, शंखनारी, लक्ष्मीधर और मन्दार। कुछ छन्दों के उदाहरण द्रष्टव्य हैपज्झरिका कि करमि खीणविहवप्पहाइ गउ लहमि सोह सज्जण सहाइ । अह णिवणु सोहइ ण कोइ धणु संपय विणु गुण्णहि ण णेह ॥ -(भ० क० १, २) शंखनारी रणे णोसंरते भयं वीसरते। महावाणि वग्गे पुरे हट्ट मग्गे ॥ -(भ० क० १४,८) काव्य पियविरहाणलेण संतत्तउ सो हिउतउ । पइसइ चंदकांति चैतालइ सव्व सुहालइ ॥ -(भ० क० ७,८) काव्य रूढ़ियाँ-धनपाल ने अपने काव्य में इन सात काव्य रूढ़ियों को प्रयुक्त किया है-(१) मंगलाचरण (२) विनय-प्रदर्शन (३) काव्य-रचना का प्रयोजन, (४) सज्जन-दुर्जन वर्गन (५) वन्दना (६) श्रोता-वक्ता शैली (७) आत्मपरिचय । समाज और संस्कृति-धनपाल के काव्य में राजपूतकालीन समाज और संस्कृति की झलक दृष्टिगोचर होती है। भविष्यदत्त केवल सकल कलाएँ, ज्ञान-विज्ञान, ज्योतिष, तन्त्र-मन्त्रादिक ही नहीं सीखता है, वरन् विविध आयुधों का विविध प्रकार से संचालन, संग्राम में विभिन्न चातुरियों से बचाव, मल्लयुद्ध तथा हाथी घोड़े की सवारी आदि की भी शिक्षा प्राप्त करता है, जो उस युग की विशेष कलाएँ थीं। उस युग में स्त्रियाँ विभिन्न कलाओं में तथा विशेषकर संगीत और वीणावादन में निपुण होती थीं । सरूपा इन कलाओं से युक्त थी-वीणालावणिगेयपरिक्खणु कुडिलावियारि सरोसणि रिकवणु । (भ० क० ३, ३) लोक-जीवन और लोक-रूढ़ियाँ-धनपाल ने तत्कालीन लोक-जीवन और लोकरूढ़ियों का विवरण प्रस्तुत १. श्री दलाल गुणे : भविसयतकहा की भूमिका, पृ० २८-२९ Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड किया है, जिसमें प्रियवियोग में भारतीय ललनाएँ कौओं को उड़ाती थीं और उनके माध्यम से पति तक सन्देश पहुँचाती थीं। पुत्र के परदेश-गमन पर माताएँ बेटे के सिर पर दही, दूर्वा और अक्षत लगाकर पूजा-वन्दना करती थीं। जलदेवता का पूजन भी लोक-रूढ़ि थी। उस समय बहु-विवाह की प्रथा थी। विवाह कार्यों में अत्यधिक धन-व्यय किया जाता था। इस अवसर पर दमामा, शंख, तुरही और मादल बजाते थे। किन्तु युद्ध के समय नगाड़ा बजाते थे। शृंगार प्रसाधन में महिलाएँ अत्यधिक रुचि रखती थीं । करधनी, हार, कुण्डल और केशकलाप में कुसुमों का प्रसाधन सामान्य वनिताएँ भी करती थीं। इसी प्रकार अंगूठी, भुजबन्द, कंगन, बिछुए, कटिसूत्र, मणिसूत्र आदि का भी सामान्य जनता में प्रचलन था। उस काल में युद्ध किसी सुन्दरी या राज्य-विस्तार के निमित्त होते थे। उस समय कई छोटे-छोटे राज्य थे। धार्मिक विश्वास--अपभ्रंश के सभी काव्य जैन-कवियों द्वारा रचित हैं । इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि इनमें २४ तीर्थंकरों का स्तवन तथा उनके द्वारा निर्दिष्ट धर्म का स्वरूप एवं मोक्ष-प्राप्ति का उपाय वणित हैं। किन्तु मध्यकालीन देवी-देवताविषयक मान्यताओं का उल्लेख भी इन काव्यों में मिलता है। यही नहीं, जल (वरुण) देवता का पूजन, जल-देवता का प्रत्यक्ष होना, संकट पड़ने पर देवी-देवताओं द्वारा संकट-निवारण आदि धार्मिक विश्वास कथाओं में लिपटे हुए प्रतीत होते हैं। इस प्रकार भविसयतकहा कथा-काव्य से कवि धनपाल का व्यक्तित्व और कृतित्व देखा जा सकता है, जो अपभ्रंश काव्य में अपना प्रमुख स्थान रखते हैं। 0000 Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-.-.-.-.-.-.-. -. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-. -. -.-. -.-.-.- -.. आचार्य नेमिचन्द्रसूरि और उनके ग्रन्थ - श्री हुकमचन्द जैन, शोध छात्र, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर प्राकृत कथा साहित्य में संघदास एवं धर्मदास गणीकृत वसुदेवहिण्डी, हरिभद्रसूरिकृत समराइच्चकहा "एवं धूर्ताख्यान, उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला, जिनेश्वरसूरि द्वारा निर्वाण लीलावती कथा तथा कथाकोशप्रकरण, जिनचन्द्रकृत संवेगरंगमाला, महेश्वरसूरिकृत णाणपंचमीकहा, देवभद्रसूरि या गुणचन्द्र का कहारयणकोश, महेन्द्रसूरिकृत नखमयासुन्दरीकहा, सोमप्रभसूरीकृत कुमारपाल-प्रतिबोध आदि कथाएँ लिखी गयी हैं । प्राकृत साहित्य में विभिन्न कथाकार हुए हैं उनमें नेमिचन्द्रसूरि प्रसिद्ध कथाकार एवं चरित साहित्य के रचयिता हुए हैं। गुरु-परम्परा-आचार्य नेमिचन्द्रसूरि चन्द्रकुल के बृहद्गच्छीय उद्योतनसूरि के प्रणिष्य और आम्रदेव उपाध्याय के शिष्य थे। आचार्य पद प्राप्त करने के पहले इनका नाम देवेन्द्रगणि था। ये मुनि चन्द्रसूरि के धर्म-सहोदर थे।' उत्तराध्ययन को सुखबोधा टीका की वृत्ति के अन्त के प्रशस्ति-वर्णन में नेमिचन्द्र के गच्छ गुरु, गुरुभ्राता आदि का उल्लेख है। आख्यान मणिकोश की प्रस्तावना में इनकी गुरु-परम्परा का उल्लेख मिलता है । किन्तु अधिक स्पष्ट गुरुपरम्परा वर्णन रयणचूड़चरियं में मिलता है। रयणचूड़ में वणित गुरु-परम्परा प्रशस्ति की मूल गाथाओं के निम्नांकित अनुवाद से ग्रन्थकार की गुरु-परम्परा अधिक स्पष्ट हो जाती है। __ पालन करने में कठिन शील के सभी अंगों और गुणों की धुरा को धारण करने वाले तथा हमेशा विहार करने में प्रयत्नशील श्री देवसूरि हैं। पट्टधर पृथ्वीमंडल पर प्रसारित निर्मल कीति वाले विमलचित, कठिनता से धारण किये जाने वाले श्रमण के गुणों को ग्रहण करने में धुरन्धर भाव को प्राप्त तथा सौम्य शरीर एवं सौम्य दृष्टि वाले श्रीउद्योतनसूरि हुए। १. (अ) श्रीबृहद्गच्छीय श्रीउद्योतनसूरिप्रवरशिष्योपाध्याय श्रीआम्रदेवस्य शिष्याः प्रथमनाधेय श्रीदेवेन्द्रगणिवराः पश्चादाप्त सूरिपदेन श्रीनेमिचन्द्रनामधेय सूरिप्रवरा: श्रीमुनि चन्द्रसूरिधर्मसहोदराः । -विशेष-रयणचूडचरियं की प्रस्तावना, संशोधक-विजयकुमुदसूरि, १९४२ ई० (ब) प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० ३४६, डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, प्रथम संस्करण, १९६६ ई० २. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ३, डॉ. मोहनलाल मेहता, पृ० ४४७, पी० वी० शोध संस्थान, वाराणसी, १९६७ ई. ३. आख्यान मणिकोश, नेमिचन्द्रसूरि, प्राकृत ग्रन्थ परिषद, वाराणसी, १९६२ ई. हिन्दी प्रस्तावना, पृ०६ "३" ४. आसिसिरिदेवसूरि, दुव्वहसोलंग गुणधुराधरणो। उज्जयविहारनिरओ, तगच्छे तयणं संजाओ॥ ६॥-२० चू०, . ५. (क) सिरिनेमिचन्द्रसूरि, कोमुइचंदाव्व जणमणणंदो।। तयण महिवलय पसरिय निम्मल कित्तो विमलचित्तो ॥ ७ ॥ Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. धर्म की तरह मुक्ति के मंत्र स्वरूप चरणकमलों की धूल से अज्ञानरूपी तम समूह को नष्ट करने वाले सूर्य की तरह तप-तेज-युक्त जसदेवसूरि थे।' अपने रूप से कामदेव की जीतने वाले तथा मन से सकल गुणों के धारक तथा समस्त लोगों को आनन्दित करने वाले प्रद्युम्नसूरि हुए। सघन बुद्धि के द्वारा दुर्गम काव्यों को जानने वाले तथा आत्मा की तरह शास्त्रों को जानने वाले एवं मदरूपी कामदेव को खण्डित करने वाले आचार्यप्रवर मानदेव थे। . श्रेष्ठ कीति फैलाने वाले, मनोहर शरीरधारी, महामति कुशल, दर्शन मात्र से जिनेन्द्र प्रवचनों में प्रविष्ट लोगों को आनन्दित करने वाले, श्रेष्ठ शास्त्रों के अर्थ को प्रकट करने वाले, सरस्वती के समान मुख में स्थित कुशल वचनों वाले तथा समस्त लोक में विख्यात श्रीदेवसूरि थे। उनके ही गच्छ में उद्योतनसूरि के श्रेष्ठ शिष्य तथा गुणरत्नों के खजाने उपाध्याय अंबदेव हुए। पूर्णिमा के चन्द्रमण्डल की तरह सौम्य शरीर एवं संयमित चित्त के धारी श्रेष्ठ मति वाले मुनि चन्द्रसूरि के धर्म-सहोदर देवेन्द्रगणि के द्वारा उनकी अनुमति से उनसे शिष्य के शब्दों द्वारा संक्षेप में अक्षरबन्ध (कथा) के रूप में यह कथा कही गयी है। इस प्रकार आचार्य नेमिचन्द्रसूरि की गुरु-परम्परा निम्न प्रकार स्पाट होती है : देवसूरि उद्योतनसूरि जसदेवसूरि प्रद्युम्नसूरि मानदेवसूरि उपाध्याय अंबदेव देवेन्द्रगणि (नेमिचन्द्रसूरि) सबसे प्रथम देवसूरि हुए। देवसूरि के ४ शिष्य हुए-उद्योतनसूरि, जसदेवसूरि, पद्युम्नसूरि, आचार्य मानदेवसूरि । ये चारों समकालीन थे। उद्योतनसूरि के उपाध्याय अंबदेव हुए । अंबदेव के देवेन्द्रगणि (नेमिचन्द्रसूरि) हुए थे। (ख) समणगुणदुव्वहधरा धारण धोरेय भावमणुपत्तो। सिरिउज्जोयणसूरि सोमत्तणु सोमदिट्ठी व ॥८॥ १. धम्मोव्व मुत्तिमंत्तो पयपंकयरेणुनासिय तमोहो । जसदेवसूरिनामो, रविव्व तवतेयला जुत्तो ॥६॥ २. दूर विणिज्जयमवणो स्वेण, मणेण सयलगुणनिलओ। आणंदियसयलजको पवरो पज्जुन्नसूरिवरो ।। १०॥ ३. निविडइमुणियदुग्गमकव्वो जोवोव्व नायसत्थत्थो। मुसुमरियमयमयणो, सूरवरो माणदेवोत्ति ॥ ११ ॥ ४. उद्दाम कित्तिसद्दो मणहरदेहो महामई कुसलो।। दसणमेत्ताणंदियजिणपदयणपविट्टलोगोवि ॥ १२ ॥ पयडियवरसत्थत्थो मुहट्टियसरस्सइव्व पडुवयणो। सिरिदेवसूरिणामो समत्थ लोगंमि बिक्खाओ ॥ १३ ॥ Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्रसूरि और उनके ग्रन्थ ५८५ . .................................................................. . ...... इसके बाद देवेन्द्रगणि के किसी शिष्य का उल्लेख नहीं मिलता है । इस गुरु-परम्परा का स्पष्टीकरण पं०. मुनिश्री पूण्यविजयजी ने भी किया है, जो अनन्तनाथचरित्र की प्रशस्ति' एवं आख्यानमणिकोश की प्रशस्ति के आधार पर है। ग्रन्थकार का लाघव-देवेन्द्रगणि ने अपनी गुरु-परम्परा के उपरान्त अपना लाघव प्रकट करते हुए इस प्रकार मंगलाचरण किया है विद्वानों को आनन्द देने वाले तथा अन्य कथाओं के उपस्थित रहने पर भी यह जानते हुए कि विद्वानों के लिए यह कथा हास्य का पात्र होगी। क्योंकि कलहंस की गति के विलास के साथ निर्लज्ज कौए का संचरण इस संसार में निश्चित रूप से हास्य का पात्र होता है। किन्तु ये सज्जन रूपी रत्न हास्य के योग्य वस्तुओं पर भी कभी नहीं हँसते हैं । अपितु गुणों के आराधक होने के कारण उसकी प्रशंसा करते हैं । केवल इस बल के कारण से काव्य के विधान को न जानते हुए उनका अनुसरण करने के लिए मैंने काव्य का अभ्यास किया हैं । उनका अनुग्रह मानते हुए गुणों से रहित इस कथा को दक्षिण समुद्र जैसे सज्जन लोग सुनें और ग्रहण करें तथा इसके दोष समूह का संशोधन कर दें। प्रद्य म्नमरि के शिष्य धर्म के जानकार एवं सज्जनता के साथ जसदेवगणि के द्वारा इसकी प्रथम प्रति उद्धत की गयी है। यद्यपि उपर्युक्त मंगलाचरण में कवि ने अपना लाघव प्रकट किया है, किन्तु उनके ग्रन्थों के अनशीलन से यह स्पष्ट है कि वे बहुत बड़े कवि और विद्वान् कलाकार थे। समय एवं स्थान-आचार्य नेमिचन्द्रसूरि (देवेन्द्रगणि) का समय विक्रम की १२वीं शती माना जाता है। इनकी प्रथम रचना आख्यानमणिकोश एवं अन्तिम रचना महावीरचरियं मिलती हैं जो क्रमशः लगभग वि० सं० ११२४ एवं वि० सं० ११४६ में लिखी गयी हैं। १. अनन्तनाहचरियं (अप्रकाशित) की गाथा नं० १-१८ उद्धृत, आ० म० को० भूमिका, पृ० १२-१३ २. आख्यानमणिकोश प्रशस्ति, पृ० २६६ ३. आणंदियाविउसासु अन्नासु कहासु विज्जमाणिसु । एसा हसठाणं जणंतेणावि विउसाण ॥ १७ ॥ ४. कलहंसगइविलासेण संचरंतो हु घट्टबलिपुट्ठो। हासट्ठाणं जायइ जणंमि निस्संसयं जेण ॥१८॥ ५. किंतु इह सुयण रयणा हासोचिवयमवि हसंति न कयाइ । अविय कुणंति महग्धं गुणाणामारोहणेत्थ ॥ १६ ॥ ६. इह बलिवकारेणं कव्वविहाणंमि जायवसणेण । कव्वभासो विहिओ (एसा कहिया रइया) तेणपाणोणु सरणत्थं ॥ २० ॥ ताणुग्गहं कुणता, सुणंतु गिण्हंतु निग्गुणिम्पि इमं । सोहंतु दोसजालं दक्षिण महोयहो सुयणा ॥ २१ ॥ ८. पज्जुन्नसूरिणो धम्मनतुएणं तु सुणणु साणिणं । गणिणा जसदेवेणं उद्धरिया एत्थ पढमपई ॥ २३ ॥ Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५८६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .... .. ................................................................. इन दोनों ग्रन्थों का शताब्दियों से अनुमान लगाया जाता है कि इनका समय एवं रचनाकाल विक्रम सं० १२वीं शताब्दी रहा है।' आचार्य नेमिचन्द्रसूरि कहाँ के रहने वाले थे, इसके सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण इनकी रचनाओं में नहीं मिलते हैं । केवल इनकी रचना रयणचूड़चरियं की प्रशस्ति में यह संकेत दिया गया है कि यह रचना डिडिलपद 'निवेश में प्रारम्भ की थी तथा चड्डावलीपुरी में समाप्त की थी। चड़ावलीपुरी को आजकल चन्द्रावती कहते हैं। उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका अणहिलपाटन नगर में लिखी गयी जो गुजरात में है। तुर्क (गजनवी) ने गुर्जर देश पर आक्रमण किया था। सोमनाथ मन्दिर को लूटा था। विमलमंत्री ने आबू के जैन मन्दिर के निर्माण के साथ चन्द्रावती नगरी को भी बसाया था। आबू के जैनमन्दिर का निर्माण काल भी वि० सं० १२वीं शताब्दी है। अत: कवि का कार्यक्षेत्र गुजरात एवं राजस्थान रहा है। प्रमुख रचनायें-नेमिचन्द्रसूरि की छोटी-बड़ी पाँच रचनायें हैं १. आख्यानमणिकोश, २. आत्मबोधकुलक अथवा धर्मोपदेशकूलम्, ३. उत्तराध्ययनवृत्ति, ४. रत्नचूड़ कथा, ५. महावीरचरियं पाँच कृतियों के अतिरिक्त अन्य कोई कृति उन्होंने नहीं लिखी। उनकी रचनाओं का आख्यानमणिकोश के वृत्तिकार आम्रदेवसूरि अपनी प्रशस्ति में और आम्रदेवसूरि के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि भी अपनी अनन्तनाथचरित की प्रशस्ति में उल्लेख करते हैं । किन्तु ये दोनों आचार्य आत्मबोधकुलक का उल्लेख नहीं करते हैं । सम्भवतः मात्र २२ आर्याछन्द में रची गयी यह लघुतम कृति उनकी दृष्टि में साधारण सी रही हो । अतः दोनों ने उसे उल्लेख योग्य न समझा हो । आख्यानमणिकोश की अन्त्य गाथा का उत्तरार्द्ध और आत्मबोधकुलक की अन्त्यगाथा के उत्तरार्द्ध को देखते हुए ऐसा फलित होता है कि दोनों का कर्ता एक ही होना चाहिए । इसलिए इस लघु कृति को भी उनकी लघु कृतियों में शामिल किया है। नेमिचन्द्रसूरि (देवेन्द्र गणी) के प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार प्राप्त होता है १. जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग-५, गुलाबचन्द चौधरी, पी० वी० शोध संस्थान, वाराणसी, प० ६२. २. डिडिलबद्धनिवेसे पारद्धा संठिएण सम्मता। चड्डावलिपुरोए एसा फग्गुणचउमासे ॥ -रयणचूड पू० ६७ संशोधक विजयकुमुदसूरि, १६४२, प्रकाशक-तपागच्छ जैन संघ, खंभात १९४२. ३. जैन साहित्य नो इतिहास : मोहनलाल दलीचंद देसाई, प्रकाशक-जैन श्वेताम्बर कान्फ्रेन्स, बोम्बे, १९३३ ई०, पृ० ३३१, टीका नं० ३६२. ४. आख्यानमणिकोश की प्रस्तावना,पृ०७, संशोधक-मु० पुण्यविजयजी, प्राकृतग्रन्थ परिषद, वाराणसी, १९६२ ई. ५. श्री नेमिचन्द्रसूरियः कर्ता प्रस्तुतप्रकरणस्य । सर्वज्ञागमपरमार्थवेदिनामग्रणी: कृतिनाम् ॥ अन्यां च सुखवागमां यः कृतवानुत्तराध्ययनवृत्तिम् । लघुवीरचरितमथ रत्नचूडचरितं च चतुरमतिः ॥ पृ० ३७६ सिरिनेमिचन्द्रसूरि पढमो तेरियं न केवलाणं पि । अवराण वि समय सहस्सदेसयाणं मुणिदाणं ॥ जेण लहुधीरचरियं रइयं तह उत्तरज्झयणवित्ति । अक्खाणं यं मणि कोशो य रयणचूडो य ललियपओ ॥ पृ० १२. ७. पुण्यविजयजी की भूमिका, पृ०७. Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य नेमिचन्द्रसूरि और उनके ग्रन्थ (१) आख्यानमणिकोश' - यह ग्रन्थ वास्तव में आख्यानों का कोश है। इस ग्रन्थ का रचनाकाल वि० सं० ११२६ के पूर्व है । कुल ग्रन्थ ५२ गाथाओं में ही लिखा गया है । ५८७ इस ग्रन्थ में ४१ अधिकार एवं १४६ आख्यानों का निर्देश ग्रन्थकार ने किया है पर कहीं-कहीं पुनरावृत्ति भी की गयी है। इसलिए वास्तविक संख्या १२७ हो जाती है। वृत्तिकार की संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश की पटुता ज्ञात होती है। आख्यानमणिकोश में चतुर्विध वर्णन अधिकार में भरत नैमित्तिक अभय के आख्यान, दान स्वरूप वर्णन अधिकार में वन्दना, मूलदेव, नागश्री ब्राह्मणी के आख्यान हैं । शील माहात्म्य वर्णन अधिकार में दमयन्ती, सीता, रोहिणी आदि के आख्यान हैं । इस प्रकार विभिन्न आयामों का वर्णन मिलता है तथा कुछ आख्यान विस्तृत रूप से इन्हीं के दूसरे ग्रन्थों में मिलते हैं जैसे बकुलाख्यान रयणचूडचरियं मिलता है । उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका - आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने इसे वि० सं० १९२९ में अणहिलपाटन नगर में पूरी की है। इस टीका में छोटी-बड़ी सभी मिलाकर लगभग १२५ प्राकृत कथाएँ वर्णित हैं। इन कथाओं में रोमांस परम्परा प्रचलित मनोरंजक वृतान्त, जीव-जन्तु कथाएँ, जैन साधु के आचार का महत्व प्रतिपादन करने वाली कथाएँ, नीति उपदेशात्मक कथाएँ एवं ऐसी कथाएँ भी गुम्फित हैं, जिनमें किसी राजकुमारी का वानरी बन जाना, किसी राजकुमार को हाथी द्वारा जंगल में भगाकर ले जाना ऐसी दोनों प्रकार कथाएँ इन्हीं की रचना रयणचूडचरियं में मिलती है । इस प्रकार विभिन्न परिषदों के उदाहरण के लिए विभिन्न कथाओं को गुम्फित किया गया है । उत्तराध्ययन की सुखबोधा वृत्ति शान्त्याचार्य विहित शिष्यहिता नामक बृहद्वृत्ति के आधार पर बनाई गयी हैं । उसके सरल एवं सुबोध होने के कारण इसका नाम सुखबोधा रखा गया है। वृत्ति का रचना स्थान अणहिलपाटन नगर (दोहडि सेठ का घर ) है । यह वृत्ति १३००० श्लोक प्रमाण है । - अनन्तनाथ चरियं — इसके रचयिता आम्रदेव के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि हैं । इस ग्रन्थ की रचना सं० १२१६ के लगभग की है । सम्भवतः यह आख्यानमणिकोश, महावीरचरियं (सं० १९४१ ) के बाद में लिखी गयी है । ग्रन्थ में १२००० गाथाएँ हैं । इसमें १४वें तीर्थंकर का चरित्र वर्णित है । ग्रन्थकार ने इससे भव्य जनों के लाभार्थ भक्ति और पूजा का माहात्म्य विशेष रूप से दिया है। इसमें पूजाष्टक उद्धृत किया गया है, जिसमें कुसुमपूजा आदि का उदाहरण देते हुए जिनपूजा को पापहरण करने वाली, कल्याण का भण्डार एवं दारिद्र्य को दूर करने वाली कहा है। इसमें पूजा प्रकाश या पूजा विधान भी दिया गया है जो संघाचारभाष्य, श्राद्धदिनकृत्य आदि से उद्धृत किया गया है। रयणचूडचरियं - यह गद्य-पद्यात्मक प्राकृत भाषा का ग्रन्थ है । नेमिचन्द्रसूरि ने गणि पद की प्राप्ति के बाद ही इसे लिखा है । इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि वि० सं० ११२६ के बाद ही उन्होंने गणि पद प्राप्त किया था उसके बाद ही इस ग्रन्थ का निर्माण किया है । इसे रत्नचूडकथा या तिलकसुन्दरी रत्नचूड़ कथानक भी कहते हैं। यह एक लोक कथा है जिसका सम्बन्ध देवपूजादि फल प्रतिपादन के साथ जोड़ा गया है। कथा तीन भागों में विभक्त है - १. रत्नचूड़ का पूर्वभव, २. जन्म, १. ( अ ) प्राकृत साहित्य का इतिहास, डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी, पृ० ४४५, PEST to (ब) जैन साहित्य का इतिहास भाग-२, डॉ० मोहनलाल मेहता, पी० बी० शोध संस्थान, वाराणसी, १६६६, पृ० ४४७-४८. २. जिनरत्न कोश, पृ० ३५८ ३. रयणचूडचरियं – सम्पादक विजयकुमुदसूरि, श्री तपागच्छ जैन संघ, खंभात १९४२ ई० में प्रकाशित । . Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ...-.-..-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............... -.-. -. -. हाथी को वश करने के लिए जाना एवं तिलकसुन्दरी के साथ विवाह, ३. रत्नचूड़ का सपरिवार मेरु गमन एवं देश व्रत स्वीकार। पूर्वजन्म में कंचनपुर के बकूल माली ने ऋषभदेव भगवान को पुष्प चढ़ाने के फलस्वरूप गजपुर के कमलसेन नूप के पुत्र रत्नचूड़ के रूप में जन्म ग्रहण किया। युवा होने पर मन्दोन्मत्त हाथी का दमन किया किन्तु हाथी रूपधारी विद्याधर ने उसका अपहरण कर जंगल में डाल दिया। इसके बाद वह नाना देशों में घूमता हुआ अनेक अनुभव प्राप्त करता है, पाँच राजकन्याओं से विवाह करता है, अनेक ऋद्धि विद्याएँ भी सिद्ध करता है, तत्पश्चात् पत्नियों के साथ राजधानी लौटकर बहुत काल तक राज्य वैभव भोगता है। फिर धार्मिक जीवन बिताकर मोक्ष प्राप्त करता है। महावीरचरियं-नेमिचन्द्रसूरि कृत पद्यबद्ध महावीरचरियं का रचना काल वि० सं० ११४१ है। यह ग्रन्थ पाटण में दोहडि सेठ के द्वारा निर्मित स्थान में लिखा गया है । इसमें २३८५ पद्य हैं । ३००० ग्रन्थान प्रमाण है। इसका प्रारम्भ महावीर के २६वें भव पूर्व में भगवान ऋषभ के पौत्र मरीचि के पूर्वजन्म में एक धार्मिक श्रावक की कथा से होता है। उसने एक आचार्य से आत्मशोधन के लिए अहिंसाव्रत धारण कर अपना जीवन सुधारा और आयू के अन्त में भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचि नाम से हुआ। एक समय भरत चक्रवर्ती ने भगवान ऋषभ के समवशरण में आगामी महापुरुषों के सम्बन्ध में उनका जीवन परिचय सुनते हुए पूछा-भगवन् ! तीर्थकर कौन-कौन होंगे? क्या हमारे वंश में भी कोई तीर्थकर होगा? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ऋषभ ने बतलाया कि इक्ष्वाकुवंश में मरीचि अन्तिम तीर्थकर का पद प्राप्त करेगा । भगवान की इस भविष्यवाणी को अपने सम्बन्ध में सुनकर मरीचि प्रसन्नता से नाचने लगा और अहंभाव से तथा सम्यक्त्व की उपेक्षा कर तपभ्रष्ट हो मिथ्यामत का प्रचार करने लगा। इसके फलस्वरूप वह अनेक जन्मों में भटकता फिरा । महत्व-उपयुक्त पाँचों रचनाओं का सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्त्व है। इन रचनाओं में समुद्रयात्रा, नाव का ट जाना, विभिन्न द्वीपों के नाम जैसे कठाह द्वीप; मंत्र-तन्त्र, रिद्धि-सिद्धि एवं विभिन्न विद्याओं को सिद्ध करने का वर्णन मिलता है जैसे स्तम्भिनी, तालोद्घाटिनी, उड़ाकर ले जाने वाली, वैतालिक विद्या आदि; नगर, चैत्य, पर्वत, ऋतुओं के सुन्दर वर्णन इन ग्रन्थों में मिलते हैं। भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश एवं देशी शब्दों का इन ग्रन्थों के आधार पर सघन अध्ययन किया जा सकता है। इन ग्रन्थों में कथानक रूढ़ियों एवं लोकोक्तियों के प्रयोग मिलते हैं। एक कथा में अनेक अवान्तर कथाओं के जाल बिछे हुए हैं जो मुख्य कथानक की पुष्टि करते हैं। भाषा, शैली एवं अलंकृत काव्यात्मक वर्णन इन ग्रन्थों की सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं। ये छन्दोबद्ध एवं अलंकृत वर्णन कथा के विकास में कहीं भी बाधा पैदा नहीं करते हैं। इनमें नीति एवं उपदेशात्मक कथाएँ भी हैं। रयणचूडचरियं का इसी दृष्टिकोण से प्रस्तुत लेखक द्वारा अध्ययन व सम्पादन कार्य किया जा रहा है। इससे श्री नेमिचन्द्रसूरि (देवेन्द्रगणि) के व्यक्तित्व एवं ग्रन्थों पर नया प्रकाश पड़ सकता है। '-0 १. महावीरचरियं, सम्पादित मुनि श्री चतुरविजयजी, आत्मानन्द सभा भावनगर Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..... ............. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. आचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र एवं उनका नाट्यदर्पण 0 डॉ० कमलेशकुमार जैन, जैन विश्वभारती, लाडनू संस्कृत साहित्य में लाक्षणिक साहित्य का विशेष महत्त्व है। अलंकार-शास्त्र उसका प्रमुख अंग है। अलंकारशास्त्र के प्रणेताओं में जिनका प्रमुख रूप से नाम लिया जाता है, उनमें भारत, भामह, दण्डी, वामन, आनन्दवर्धन, मम्मट, हेमचन्द्र, विश्वनाथ और पण्डितराज जगन्नाथ विशेष हैं । इन आचार्यों में हेमचन्द्र जैन-आचार्य हैं, जिन्होंने अपनी बहुमुखी प्रतिभा एवं साहित्य साधना से न केवल देशी अपितु डा० पिटर्सन जैसे विदेशी विद्वानों को भी चमत्कृत किया है। अलंकार-शास्त्र पर जैनाचार्यों द्वारा प्राकृत भाषा में निबद्ध सर्वप्रथम रचना 'अलंकार दप्पण' है, जिनका काल श्री अगरचन्द नाहटा ने ८वीं से ११वीं शताब्दी माना है। यद्यपि इससे पूर्व नाट्यशास्त्र के आद्य प्रणेता भरतमुनि के समकालीन आर्यरक्षित (ईसा की प्रथम शती) ने 'अनुयोग-द्वारसूत्र' में नौ रसों का विवेचन किया है तथापि सामान्य विवेचन होने से इन्हें विशुद्ध आलंकारिक-परम्परा से नहीं जोड़ा जा सकता है। तदनन्तर वाग्भट प्रथम (ईसा की १२वीं शती का पूर्वार्द्ध) ने वाग्भटालंकार, हेमचन्द्र (१२वीं शती) ने काव्यानुशासन, रामचन्द्र-गुणचन्द्र (१२वीं शती) ने नाट्यदर्पण, नरेन्द्रप्रभुसूरि (१३वीं शती ) ने अलंकारमहोदधि, अमरचन्द्रसूरि (१३वीं शती) ने काव्यकल्पलतावृत्ति, विनयचन्द्रसूरि (१३वीं शती) ने काव्यशिक्षा, विजयवर्णी (१३ वीं शती) ने शृंगारार्णवचन्द्रिका, अजितसेन (१३वीं शती) ने अलंकारचिन्तामणि, वाग्भट द्वितीय (१४वीं शती) ने काव्यानुशासन, मण्डन मन्त्री (१४वीं शती) ने अलंकारमण्डन, भावदेवसरि (१४वीं शती) ने काव्यालंकारसारसंग्रह, पद्मसुन्दरगणि (१६वीं का उत्तरार्द्ध) ने अकबरसाहिशृंगारदर्पण और सिद्धिचन्द्रगणि (१७वीं शती) ने काव्यप्रकाश खण्डन की स्वतन्त्र रचना की। इनके अतिरिक्त अलंकार शास्त्रीय ग्रन्थों ने अनेक टीकाकार भी हुए हैं, जिनमें महाकवि रुद्रट काव्यालंकार पर श्वेताम्बर जैन विद्वान् नमिसाधु द्वारा वि०सं० ११२५ में लिखित टीका और वाग्देवतावतार आचार्य मम्मट-रचित काव्यप्रकाश पर माणिक्यचन्द्रसूरि द्वारा वि०सं० १२६६ में लिखित संकेत नामक टीकाएं अतिप्रसिद्ध हैं। प्रस्तुत लेख में नाट्यदर्पण के प्रणेता आचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र का विवेचन ही अभीष्ट है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र का नाम प्राय: साथ-साथ लिया जाता है । इन विद्वानों के माता-पिता और वंश इत्यादि के विषय में कोई उल्लेख नहीं मिलता है । अत: इतना ही कहा जा सकता है कि ये दोनों विद्वान् सतीर्थ्य थे। आचार्य रामचन्द्र ने अपने अनेक ग्रन्थों में अपने को आचार्य हेमचन्द्र का शिष्य बतलाया है। ये उनके पट्टधर शिष्य थे। इसकी पुष्टि प्रभावकचरित के इस १. (क) शब्द-प्रमाण-साहित्य-छन्दोलक्ष्मविद्यायिनाम् । श्री हेमचन्द्रादानां प्रसादाय नमो नमः ।। ---हिन्दी नाट्यदर्पण, व्याख्याकार-आचार्य विश्वेश्वर, प्रका० दिल्ली विश्वविद्यालय, १६६१, अन्तिम प्रशस्ति, पद्य १. (ख) सूत्रधार-दत्तः श्रीमदाचार्यहेमचन्द्रस्य शिष्येण रामचन्द्रेण विरचितं नलविलासाभिधानमाद्य रूपकमभिनेतुमादेशः । -नलविलास-नाटक, सम्पादक-जे०के० गोण्डेकर, प्रका० गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज, बड़ौदा, पृ० १. (ग) श्रीमदाचार्यश्रीहेमचन्द्र शिष्यस्य प्रबंधशतकर्तुं महाकवे: रामचन्द्रस्य भूयांस: प्रबंधाः। -निर्भयभीम-व्यायोग, सम्पादक -पं० हरगोविन्ददास बेचरदास, प्रका०-हर्षचन्द भूराभाई, वाराणसी, वी०सं० २४३८, पृ० १. Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड कथन से भी होती है कि एक बार तत्कालीन गुर्जरनरेश सिद्धराज जयसिंह ने आचार्य हेमचन्द्र से पूछा कि-- आपके पट्ट के योग्य गुणवान शिष्य कौन हैं ?' इसके उत्तर में हेमचन्द्र ने रामचन्द्र का नाम लिया था। रामचन्द्र अपनी असाधारण प्रतिभा एवं कवि-कर्म-कुशलता के कारण कविकटारमल्ल की सम्मानित उपाधि से अलंकृत थे । वह उपाधि उन्हें सिद्धराज जयसिंह ने प्रसन्न होकर प्रदान की थी। इसका उल्लेख रत्नमन्दिरगणि गुम्फित उपदेशतरंगिणी में इस प्रकार मिलता है कि-एक बार जयसिंहदेव ग्रीष्म ऋतु में क्रीडोद्यान जा रहे थे, उसी समय मार्ग में रामचन्द्र मिल गये । उन्होंने रामचन्द्र से पूछा कि-ग्रीष्म ऋतु में दिन बड़े क्यों होते हैं ? इसके उत्तर में उन्होंने (तत्काल पद्य रचना करके) निम्न पद्य कहा-- देव श्रीगिरिदुर्गमल्ल भवती दिग्जैत्रयात्रोत्सवे धीवद्धीरतुरंगनिष्ठुरखुरक्षुण्णक्षमामण्डलात् । वातोद्धृतरजोमिलत्सुरसरित्संजातपंकस्थली दूर्वाचुम्बनचंचुरा रविहयास्तेनाति वृद्ध दिनम् ।। - यह सुनकर सिद्धराज द्वारा पुन: "तत्काल पत्तननगर का वर्णन करो" यह कहे जाने पर उन्होंने निम्न पद्य की रचना की एतस्यास्य पुरस्य पौरवनिताचातुर्यता निजिता, मन्ये नाथ ! सरस्वती जडतया नीरं वहन्ती स्थिता। कोतिस्तम्भमिषोच्चदण्डरुचिरामुत्सूत्र्यवाहावली तन्त्रीकां गुरुसिद्धभूपतिसरस्तुम्बी निजां कच्छपीम् । तदनन्तर सिद्धराज जयसिंह ने प्रसन्न होकर महाकवि रामचन्द्र को सबके सामने 'कवि कटारमल्ल' की उपाधि प्रदान की थी। महाकवि रामचन्द्र समस्या-पूर्ति करने में भी बहुत चतुर थे। एक बार वाराणसी से विश्वेश्वर कवि पत्तन नामक नगर में आये तथा कवि आचार्य हेमचन्द्र की सभा में गये । वहाँ राजा कुमारपाल भी विद्यमान थे। विश्वेश्वर ने कुमारपाल को आशीर्वाद देते हुए कहा-'पातु वो हेमगोपालः कम्बलं दण्डमुद्वहन्' यत: राजा जैन थे, अत: उन्हें कृष्ण द्वारा अपनी रक्षा की बात अच्छी नहीं लगी और उन्होंने क्रोध भरी दृष्टि से देखा । तभी रामचन्द्र ने उक्त श्लोकार्ध की पूर्ति के रूप में 'षड्दर्शन-पशुग्राम चारयन् जैन-गोचरे" यह कहकर राजा को प्रसन्न कर दिया। १. राजा श्रीसिद्धराजेनान्यदा नुयुयुजे प्रभुः । भवतां कोऽस्ति पट्टस्य योग्यः शिष्यो गुणाधिकः ।। -प्रभावकचरित (प्रभाचन्द्राचार्य), सम्पादक-जिनविजय मुनि, प्रका० सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, १९४० हेमचन्द्रसूरिप्रबंध, पद्य १२६. २. आह श्रीहेमचन्द्रस्य न कोऽप्येवं हि चिन्तकः । आद्योऽप्यभूदिग्पाल: सत्पात्राम्भोधिचन्द्रमाः ॥ सज्ज्ञानमहिमस्थैर्य मुनीनां किं न जायते । कल्पद्रुमसमे राज्ञि त्वयीदृशि कृतास्थितौ ।। अस्त्यामुष्यायणो रामचन्द्राख्य: कृतिशेखरः । प्राप्तरेखः प्राप्तरूपः संघे विश्वकलानिधिः ॥ -वही, पद्य १३१-१३३. ३. द्रष्टव्य-उपदेशतरंगिणी (रत्नमन्दिरगणि), प्रका० हर्षचन्द्र मूराभाई, वाराणसी, वी०नि०सं० २४३७, पृ० ८६. ४. प्रबंधचिन्तामणि (मेरुतुगाचार्य), सम्पादक-जिनविजय मुनि, प्रका० सिंघी जैन ज्ञानपीठ, १९३५, कुमारपालादिप्रबंध, पृ० ८६. Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र एवं उनका नाट्यदर्पण ५६१ . ........................................................................... आचार्य रामचन्द्र की विद्धत्ता का परिचय उनकी स्वलिखित कृतियों में भी मिलता है। रघुविलास में उन्होंने अपने को 'विद्यात्रयीचरणम्' कहा है। इसी प्रकार नाट्यदर्पण-विवृत्ति की प्रारम्भिक प्रशस्ति में-'त्रविद्यवेदिनः' तथा अन्तिम प्रशस्ति में व्याकरण, न्याय और साहित्य का ज्ञाता कहा है। प्रारम्भ में कहे गये प्रभावकचरित और उपदेशतरंगिणी से यह ज्ञात होता है कि आचार्य हेमचन्द्र और सिद्धराज जयसिंह समकालीन थे तथा उस समय तक रामचन्द्र अपनी असाधारण प्रतिभा के कारण प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुके थे। सिद्धराज जयसिंह ने सं० ११५० से सं० ११६६ (ई० सन् १०६३-११४२) पर्यन्त राज्य किया था। मालवा पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष में सिद्धराज का स्वागत समारोह ई० सन् ११३६ (वि० सं० ११६३) में हुआ था, तभी हेमचन्द्र का सिद्धराज से प्रथम परिचय हुआ था। सिद्धराज की मृत्यु सं० ११६६ में हुई थी। इस बीच रामचन्द्र का परिचय सिद्धराज से हो चुका था तथा प्रसिद्धि भी प्राप्त कर चुके थे। सिद्धराज जयसिंह के उत्तराधिकारी कुमारपाल ने सं० ११९६ से १२३०६ तथा उसके भी उत्तराधिकारी अजयदेव ने सं० १२३० से १२३३ तक गुर्जर भूमि पर राज्य किया था। इसी जयदेव के शासनकाल में रामचन्द्र को राजाज्ञा द्वारा तप्त-ताम्र-पट्टिका पर बैठाकर मारा गया था। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि आचार्य रामचन्द्र का साहित्यिक काल वि० सं० ११६३ से १२३३ के मध्य रहा होगा। ___ महाकवि रामचन्द “प्रबन्धशतकर्ता" के नाम से विख्यात हैं । इसके सम्बन्ध में विद्वानों ने दो प्रकार के विचार अभिव्यक्त किये हैं। कुछ विद्वान् "प्रबन्धशतकर्ता" का अर्थ 'प्रबन्धशत नामक ग्रन्थ के कर्ता' ऐसा करते हैं। दूसरे विद्वान् इसका अर्थ 'सौ ग्रन्थों के प्रणेता' के रूप में स्वीकार करते हैं। डॉ० के० एच० त्रिवेदी ने अनेक तर्कों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि रामचन्द्र सौ प्रबन्धों के प्रणेता थे। यह तर्क अधिक मान्य है, क्योंकि ऐसे विलक्षण एवं प्रतिभासम्पन्न विद्वान् के लिए यह असम्भव भी प्रतीत नहीं होता है। उन्होंने अपने नाट्यदर्पण में स्वरचित ११ रूपकों का उल्लेख किया है । इसकी सूचना प्रायः 'अस्मदुपज्ञे ....", इत्यादि पदों से दी गई है, जिनके नाम इस प्रकार हैं१. सत्य हरिश्चन्द्र नाटक, २. नलविलास नाटक, ३. रघुविलास नाटक, ४. यादवाभ्युदय, १. पंचप्रबन्धमिषपंचमुखानकेन, विद्वन्मनः सदसि न त्यति यस्य कीर्तिः । विद्यात्रयीचरणचुम्बितकाव्यचन्द्र', कस्तं न वेद सुकृती किल रामचन्द्रम् ॥ -नलविलास-नाटक, प्रस्तावना, पृ० ३३ २. प्राणा: कवित्वं विद्यानां लावण्यमिव योषिताम् । विद्यवेदिनोप्यस्मै ततो नित्यं कृतस्पृहाः ।। -हिन्दी नाट्यदर्पण, प्रारम्भिक प्रशस्ति, पद्य ६१ शब्दलक्ष्म-प्रमालक्ष्म-काव्यलक्ष्म-कृतश्रमः । वाग्विलासस्त्रिमार्गो नौ प्रवाह इव जाह्नजः ॥ -वही, अन्तिम प्रशस्ति, ४ ३. प्रबन्धचिन्तामणि-कुमारपालादिप्रबंध, पृ० ७६ ४. हिन्दी नाट्यदर्पण, भूमिका, पृ० ३ ५. द्वादशस्वथ वर्षाणां, शतेषु विरतेषु च । एकोनेषु महीनाथे सिद्धाधीशे दिवं मते ॥ -प्रभावकचरित-हेमसूरिविरचित, पृ० १६७ ६. प्रबंधचिन्तामणि-कुमारपाला दिप्रबंध, पृ० ६५ ७. त्रिवेदी, के० एच०, दी नाट्यदर्पण आव रामचन्द्र एण्ड गुणचन्द्र : ए क्रिटिकल स्टडी, प्रका० एल० डी० इंस्टी ट्यूट आव इन्डोलोजी, अहमदाबाद, १९६६, पृ० २१६-२२० Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ +++ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ५. राघवाभ्युदय, ७. निर्भयभीम व्यायोग ६. सुधाकलश, ११. वचनमाला नाटिका । ६. रोहिणीमृगांक प्रकरण, ८. कौमुदीमिश्रानन्द प्रकरण, १०. मल्लिकामकरन्द प्रकरण और कुमारविहारशतक, द्रव्यालंकार और यदुविलास उनके अन्य प्रमुख ग्रन्थ हैं। एतदतिरिक्त कुछ छोटे-छोटे स्तव भी पाये जाते हैं । इस प्रकार उनके उपलब्ध ग्रन्थों की कुल संख्या डॉ० के० एच० त्रिवेदी ने ४७ स्वीकार की है। गुणचन्द्र का नाम प्रायः महाकवि रामचन्द्र के साथ ही लिया जाता है। इनके स्वतन्त्र व्यक्तित्व एवं कृतित्व के सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है । अतः केवल इतना ही कहा जा सकता है कि गुणचन्द्र, रामचन्द्र के समकालीन और आचार्य हेमचन्द्र के शिष्यों में एक थे I 800 नाट्यदर्पण - यह नाट्य विषयक प्रामाणिक एवं मौलिक ग्रन्थ है। इसमें महाकवि रामचन्द्र गुणचन्द्र ने अनेक नवीन तथ्यों का समावेश किया है। आचार्य भरत से लेकर धनंजय तक चली आ रही नाट्यशास्त्र की अक्षुण्ण- परम्परा का युक्तिपूर्ण विवेचन करते हुए आचार्य रामचन्द्र ने प्रस्तुत ग्रन्थ में पूर्वाचार्य स्वीकृत नाटिका के साथ प्रकरणिका नाम की एक नवीन विधा का संयोजन कर द्वादश रूपकों की स्थापना की है। इसी प्रकार रस की सुख-दुःखात्मकता स्वीकार करना इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता है। नाट्यदर्पण में नो रसों के अतिरिक्त तृष्णा, आर्द्रता, आसक्ति, अरति और सन्तोष को स्थायीभाव मानकर क्रमश: लौल्य, स्नेह, व्यसन, दुध और सुधरस की भी संभावना की गई है । इसमें शान्तरस का स्थायीभाव शम स्वीकार किया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में ऐसे अनेक ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है, जो अद्यावधि अनुपलब्ध हैं । कारिका रूप में निबद्ध किसी भी गूढ़ विषय को अपनी स्वोपज्ञ विवृत्ति में इतने स्पष्ट और विस्तार के साथ प्रस्तुत किया है कि साधारण बुद्धि वाले व्यक्ति को भी विषय समझने में कठिनाई का अनुभव नहीं करना पड़ता है । इसलिए इस ग्रन्थ की कतिपय विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए आचार्य बलदेव उपाध्याय ने लिखा है कि "नाट्यविषयक शास्त्रीय ग्रन्थों में नाट्यदर्पण का स्थान महत्त्वपूर्ण है। यह वह श्रृंखला है तो धनंजय के साथ विश्वनाथ कविराज को जोड़ती है। इसमें अनेक विषय बड़े महत्त्वपूर्ण हैं तथा परम्परागत सिद्धान्तों से विलक्षण हैं, जैसे रस का सुखात्मक होने के अतिरिक्त दुःखात्मक रूप " इसके अतिरिक्त आचार्य उपाध्याय ने प्राचीन और अधुनालुप्तप्रायः रूपकों के उद्धरण प्रस्तुत करने के कारण इसका ऐतिहासिक मूल्य भी स्वीकार किया है । इन विशेषताओं के कारण नाट्यदर्पण अनुपम एवं उत्कृष्ट कोटि का ग्रन्थ है । प्रस्तुत गन्थ में दो भाग पाये जाते हैं- प्रथम कारिकाबद्ध मूल ग्रन्थ और द्वितीय उसके ऊपर लिखी गई स्वोपज्ञ विवृत्ति । कारिकाओं में ग्रन्थ का लाक्षणिक भाग निबद्ध है तथा विवृत्ति में तद्विषयक उदाहरण एवं कारिका का स्पष्टीकरण । यह ग्रन्थ चार विवेकों में विभाजित किया गया है । इसके प्रथम विवेक में मंगलाचरण और विषय प्रतिपादन की प्रतिज्ञा के पश्चात् १२ रूपकों की सूची गिनाई २. स्थायीभावः श्रितोत्कर्षो विभावव्यभिचारिभिः । स्पष्टानुभावनिश्येयः सुखदुःखात्मको रसः ॥ १. वही, पृ० २२१-२२२, नलविलास नाटक के सम्पादक जी० के० गोण्डेकर एवं नाट्यदर्पण के हिन्दी व्याख्याकार सिद्धान्तशिरोमणि आचार्य विश्वेश्वर ने उक्त ग्रन्थों की भूमिका में रामचन्द्र के ज्ञात ग्रन्थों की कुल संख्या ३६ मानी है । हिन्दी नाट्यदर्पण २,७ ३. वही, पृ० ३०६ ४. उपाध्याय, आचार्य बलदेव, संस्कृत शास्त्रों का इतिहास, प्रका० शारदा मन्दिर, वाराणसी, १९६९, ०२३५ ५. वही, पृ० २३५. . Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य रामचन्द्र-गुणचन्द्र एवं उनका नाट्यदर्पण - . - . -. -. - . .................... . ..... ...... गई है। पुन: रूपक के प्रथम भेद नाटक का स्वरूप, नायक के चार भेद, वृत्त (चरित) के सूच्य, प्रयोज्य, अम्यूह्य (कल्पनीय) और उपेक्षणीय नामक चार भेद तथा कुल अन्य भेदों के साथ काव्य में चरित निबन्धन विषयक शिक्षाओं का विवेचन किया गया है । तत्पश्चात् अंक-स्वरूप, उसमें आदर्शनीय तत्व, विषकम्भ, प्रवेशक, अंकास्य, चूलिका और अंकावतार नामक पाँच अर्थोपक्षेपक, बीज, पताका, प्रकरी, बिन्दु और कार्य नामक पाँच फल-हेतु ; आरम्भ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम नाम पांच अवस्थाएँ ; मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण नामक पाँच सन्धियाँ एवं उनके कुल ६५ (१२+१३+१३+१३+१४=६५) भेदों का सांगोपांग निरूपण किया है । द्वितीय विवेक में नाटक के अतिरिक्त प्रकरण, नाटिका, प्रकरणी, व्यायोग, समवकार, भाण, प्रहसन, डिम, उसृष्टिकांक, ईहामृग, और वीथि नामक शेष ११ रूपकों का लक्षणोदाहरण सहित विस्तृत विवेचन किया गया है। पुन: वीथि के १३ अंगों का भी सलक्षणोदाहरण विषय प्रतिपादन किया गया है। तृतीय विवेक में सर्वप्रथम भारती, सात्त्वती, कौशिकी और आरभटी नामक चार वृत्तियों का विवेचन किया किया गया है। पुन: रस-स्वरूप, उसके भेद, काव्य में रस का सन्निवेश, विरुद्ध रसों का विरोध और परिहार, रसदोष, स्थायीभाव, ३६ व्यभिचारीभाव, वेपथु, स्तम्भ, रोमांच, स्वरभेद, अश्रु, मूर्छा, स्वेद और विवर्णता नामक आठ अनुभाव तथा वाचिक, आंगिक, सात्त्विक और आहार्य नामक चार अभिनयों का विस्तृत विवेचन किया गया है। चतुर्थ विवेक में समस्त रूपकों के लिए उपयोगी कुछ सामान्य बातों को प्रस्तुत किया गया है। इसमें सर्वप्रथम नान्दी-स्वरूप, कविध वा-स्वरूप, उसके प्रावेशिकी, नष्कामिकी, आक्षेपिकी, प्रासादिकी और आन्तरी नामक पाँच भेदों का सोदाहरण प्रतिपादन, पुरुष और स्त्री पात्रों के उत्तम, मध्यम और अधम भेदों का कथन, मुख्य नायक का स्वरूप और उसके तेज, विलास, शोभा, स्थैर्य, गाम्भीर्य, औदार्य और ललित नामक आठ गुणों का विवेचन, प्रतिनायक, नायक के सहायक, नायिका-स्वरूप, नायिका के मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा नामक तीन सामान्य भेद तथा प्रोषितपतिका और विप्रलब्धा आदि प्रसिद्ध आठ भेद और स्त्रियों के यौवनबलजन्य हाव-भाव आदि आंगिक, विभ्रम-विलास आदि दस स्वाभाविक तथा शोभा-कान्ति आदि सात अयत्नज को मिलाकर कुल बीस अलंकारों का विवेचन किया गया है। पुन: नायिकाओं का नायक के साथ सम्बन्ध, नायिकाओं की सहायिकाएँ, पात्रों द्वारा भाषा प्रयोग के औचित्य का विस्तृत विवेचन, पात्रों के लिए पात्रों द्वारा सम्बोधन में प्रयुक्त नामावली तथा पात्रों के नामकरण में ज्ञातव्य बातों आदि का विवेचन किया गया है। अन्त में प्रथम और द्वितीय विवेक में कहे गये १२ रूपकों के अतिरिक्त सट्टक, श्रीगदित, दुमिलिता, प्रस्थान, गोष्ठी, हल्लीसक, शम्पा, प्रेक्षणक, रसक, नाट्य-रासक, काव्य, भाण और भाणिका नामक १३ अन्य रूपकों का सलक्षण विवेचन प्रस्तुत किया गया है। Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . -. - . -. . -. -. -. -. -. -. -. -. -. अभयसोमसन्दरकृत विक्रम चौबोली चवि - डॉ० मदनराज डी० मेहता हिन्दी विभाग, जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर विक्रमादित्य के प्रेरक चरित्र ने साहित्यकारों के मानस को सर्वाधिक स्पर्श किया। करुणा, न्याय, औदार्य एवं शौर्य की अनेक अनुश्रुतियों और लोककथाओं के नायक विक्रमादित्य प्रत्येक भारतीय के लिये गौरवास्पद हैं। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में ही नहीं, अरबी, फारसी तथा चीनी जैसी विदेशी भाषाओं में भी विक्रमादित्य विषयक अनेक कृतियों के प्रणयन की शोध-सूचनाओं से पुष्टि होती है। इतिहास अथवा प्रामाणिकता की दृष्टि से, हो सकता है, इन रचनाओं के महत्त्व में विद्वान शंका करे, लेकिन यह बात निश्चित रूप से सिद्ध होती है कि विक्रम के प्रभावशाली वृत्त में सामाजिक एवं सांस्कृतिक असमानताओं में सामंजस्य स्थापित करने की आश्चर्यजनक क्षमता है। न्यूनाधिक इसी कारण से मत-मतान्तर, देश और काल की सीमाओं का अतिक्रमण कर रचयिताओं ने विक्रमादित्य को अपने हृदय का हार मानकर भिन्न-भिन्न भाषाओं में उनके अप्रतिम, उदात्त एवं आकर्षक गुणों का मुक्त-कण्ठ से गुणगान किया। प्रसिद्ध गुर्जर कवि वृत्त संग्राहक श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई तथा विख्यात साहित्यान्वेषक श्री अगरचन्द नाहटा ने जैन रचयिताओं द्वारा लिखित ५५ ग्रंथों का परिचय अनेक वर्षों में पूर्व सूचित किया था। श्री देसाई ने तो उपलब्ध ग्रन्थों के आदि, मध्य एवं अन्त के उद्धरण भी दिये थे। नाहटाजी ने तो केवल ग्रन्थ नाम, ग्रन्थ रचयिता, रचनाकाल, प्राप्ति स्थान एवं प्रकाशन स्थान का निर्देश कर ही संतोष किया था। प्राचीन पाण्डुलिपियों के मेरे निजी संग्रह से मुझे एक गुटका प्राप्त हुआ है, जो विक्रम संवत् १७५७ से १७७६ के मध्य में लिपिबद्ध किया गया था। इस गुटके में अन्य अनेक ग्रन्थों के साथ विक्रमादित्य सम्बन्धी एक ग्रन्थ है, 'विक्रम चौबोली चउपि' । ५४४४० से. मी. आकार के सांगानेरी कागज पर निबद्ध ग्रन्थ का पाठ सुवाच्य तो है ही, शुद्ध भी है। इस श्री विक्रम चौबोली चउपि की रचना वाचनाचार्य अभयसोमसुन्दर ने विक्रम संवत् १७२४ की आषाढ़ कृष्णा १० को की थी। उन्होंने ग्रन्थ के अन्त में रचनाकाल का स्पष्ट उल्लेख किया है-- सतर चउविस किसन दसवीं आदि आसाढ़े सहि । वाचनाचारिअ अभसोमे मति सुन्दर काजै कहि ।। प्रारम्भ में अभयसोम ने सरस्वती को स्मरण करते हुए विक्रम-वृत्त की रचना के लिए शुभाशीष की याचना की है । अत्यन्त स्वाभाविक ढंग से कवि कहता है : वीणा पुस्तक धारिणी हंसासन कवि माय । ग्रह ऊगम ते नित नमू, सारद तोरा पाय ।। दुई पंचासे बंदिउ, कोइ नवो कोठार। बाथां भरीने काढ़ता, किणही न लाधो पार ॥ Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयसोमसुन्दरकृत विक्रम चौबोली चउपि ५६५ तोहुति नवनिधि हुवे, तोहुति सहु सिद्धि । आजने आगा लगे, मुरिख पण्डित कीध ।। तिण तोने समरि करी कहिसु विक्रम बात । मैं तो उद्यम मांडियो पूरो करस्यो मात ॥ मोने किणही न छेतरयो मैं जगी ठग्यो अनेक । मो कलियुग ने छेतरयो राजा विक्रम एक ।। चौबोली राणी चतुर सीलवंती सुखकार । विक्रम परणी जिण विधै कथा कहीस निरधार । कवि ने मालव प्रदेश और उज्जयिनी नगरी का वर्णन करके विक्रम के ललित चरित्र का हृदयग्राही विवरण प्रस्तुत किया है। राजा विक्रम वंस पमार । वंस छत्रीसों ऊपरी सार ॥ राज रीत पाले राजान । न्याये राम तणे उपमान । सकल सोमानी बहुगुण निलो। सूर वीर उपगारी भलो । पृथ्वी उरण किधि तिणे । परदुखिया दुख भांज्या तिणे ॥ एक दिन राजा ने इस बात का पता लगाने के लिए कि लोग उसके बारे में क्या सोचते हैं, श्याम-वेष धारण कर अपने राज्य के कोने-कोने को छान मारा। जब वह थक गया तो एक आम के नीचे विश्राम के लिए रुका । ऊपर एक तोते का जोड़ा मानव-भाषा में अत्यन्त सुन्दर बोली बोल रहे थे। तोते की स्त्री ने नारी की प्रशंसा की तो तोते ने नारी के दुर्गुणों का उल्लेख किया। उसने कहा कामणि कूड़ कपट कोथलि, छोड़ि कुटंब जाई एकली। [कामिनी असत्य और कपट की थैली होती है, वह कुटम्ब छोड़कर अकेली चली जाती है। स्त्री ने प्रत्युत्तर दिया नर मत वखाणो सुडि कहे नेह पषे कूडो निरवहे। नलराजा दवदंति छांडि गयो सूति मूकि उजाडि ॥ [नर ! मत व्याख्यान करो। नर का स्नेह के प्रति असत्य निर्वाह होता है। नल ने दमयन्ती को छोड़ा और उसे उजाड़ में छोड़ कर चल दिया।] जब दोनों में वार्तालाप हो रहा था तो राजा ने स्त्री को यह कहते हुए सुना कि यदि पुरुष भले हों तो लीलावती यों ही क्यों रहती है ? तोते ने पूछा कि कौन-सी लीलावती? स्त्री ने कहा कि दक्षिण में एक त्रिया राज्य है-कनकपुर । वहाँ लीलावती शासन करती है। वह अप्सरा के सदृश है। वह न तो पुरुष का मुंह देखती है और न पुरुष के महत्त्व को ही मानती है । विक्रम पूर्वानुराग से पीड़ित होने लगा। उसने उज्जैन पहुँच कर राज्य का कार्य-भार अपने मन्त्री को सौंपा Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : पंचम खण्ड ......................................................................... और स्वयं कनकपुर की ओर चल पड़ा। यात्रा बहुत लम्बी थी। कवि ने मार्ग का वर्णन करते हए अनेक मामिक बातें कही हैं। एक स्थान पर कवि ने कहा तिणि देसड़े न जाइये, जिहां अपणो न कोय । सैरि सैरि हिंडता, बात न पूछे कोय ।। राजा को रास्ते में एक प्रजापति गृहस्थ के यहाँ विश्राम के लिए ठहरना पड़ा। प्रजापति ने विक्रम से यात्रा का उद्देश्य पूछा । राजा ने कहा-लीलावती के रूप की प्रशंसा सुनी है, उसी को देखने जा रहा हूँ। प्रजापति ने कहाराजन् ! उसे तो पुरुष से प्रचण्ड बैर है। वह कृष्ण पक्ष की चतुदर्शी को पास के चामुण्डा के मन्दिर में रात्रि को दर्शनार्थ आती है। वहाँ वह अपनी सखियों के साथ कंचुकी खोलकर नृत्य करती है। यदि वह कंचुकी आपके हाथ लग जाये तो आप लीलावती को प्राप्त कर सकेंगे। राजा विक्रम ने आगे के लिए प्रस्थान किया और अनेक बाधाओं को पार करते हुए चामुण्डा के मन्दिर तक पहुँचे। वहाँ उन्होंने कृष्ण पक्ष की अन्धकारपूर्ण रात्रि में लीलावती को रास करते देखा। उन्होंने चुपके से लोलावती की कंचुकी को उठा लिया। रास समाप्त होने पर लीलावती ने समझा कि उसकी कंचुकी किसी सहेली पास होगी और वह निशंक राजमहल की ओर चली। मार्ग में कंचुकी के सम्बन्ध में जब पूछताछ हुई तो एक सखी ने दूसरी का नाम लिया और दूसरी ने तीसरी का । सभी सहेलियाँ जब कंचुकी का पता नहीं लगा सकी तो वे चामुण्डा के मन्दिर वापस लौटीं। वहाँ विक्रम के पास कंचुकी होने की सूचना मिली तो सभी सहेलियों ने विनम्रता से कंचुकी लौटाने की प्रार्थना की। विक्रम ने इस शर्त पर कंच की देना स्वीकार किया कि वे राजकुमारी से उसका मिलन करायेंगी। सहलियों की सहायता से वह महल में पहुंचा और वैताल की सहायता से चार समस्याएँ कथा के रूप में प्रस्तुत की। अन्त में राजकुमारी को बोलना पड़ा और विक्रम लीलावती प्रणय-बंधन में बंध गये । विक्रम चौबोली चउपि' राजस्थानी-गुजराती मिश्रित भाषा में निबद्ध एक महत्त्वपूर्ण रचना है। कवि ने अनेक लोकोक्तियों का प्रयोग कर कथा की रोचकता में वृद्धि की है। यहाँ विक्रम चौबोली का आदि मध्य और अन्त रचना के स्वरूप को समझने की दृष्टि से दिया जा रहा है ॥६० ।। सकल पंडित शिरोमणि पंडित श्री५श्री कांतिविजयगणि गुरुभ्योनमः ॥ आदि भाग वीणा पुस्तक धारिणी, हंसासन कवि माय । ग्रह ऊगम ते नित नमू, सारद तोरा पाय ॥१॥ दुई पंचासे बँदिउ, कोइ नवो कोठार । बाथां भरी ने काड़तां, किणही न लायो पार ॥२॥ तो हुति नव निधि हुवै, तो हुति सहु सिद्धि । आज ने आगा लगै मुरिख पंडित किध ॥ ३ ॥ तिण तो ने समरि करी, कहि सु विक्रम बात । मैं तौ उद्यम मांडियो, पूरो करस्यो मात ॥ ४॥ मोने किणही न छेतरयो; मैं जगी ठग्यो अनेक । मो कलियुग ने छेतरयो, राजा विक्रम एक ॥ ५॥ चउबोलि राणी चतुर, सीलवती सुभकार । विक्रम परणी जिण विध, कथा कहिस निरधार ॥ ६॥ --0 Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयसोमसुन्दरकृत विक्रम चौबोली चउपि ॥चऊपई ढाल ।। जंबू दिपै भरत विशाल । मालव देसे सदा सुगाल ॥ उजेणि नगरी गुण भरी। गढ मठ मंदिर देउल करी ॥१॥ सात्त भूमि प्रासाद उत्तंग । तोरण मंडप सोहै संग ॥ ठामों ठामै शत्रुकार । अन्न पानं जिहां दै दै कार ॥२॥ च्यारे करण वसै तिणि पुरै। पवन छत्रीस वस बहु परै ॥ राजा विक्रम वंस पमार । वंस छत्री सौ उपरी सार ॥ ३ ॥ राअ रीति पाले राजान । न्यायै राम तणे उपमान ॥ सकल सौभागी बह गुण निलों। सूरवीर उपगारी भलो ॥ ४ ॥ पृथ्वी उरण किधि तिणे । पर दुखिया दुख भांज्या तिणे ॥ एक दिवसीमन चितई राति । जोउ केहवी माहरी बति ॥ ५॥ साम वेस पहरियो निज अंग । कांधै खडग ऊछरंग ।। पोहर राति गइ जै त लई । राइ चाल्यों जोवा ते तल ॥ ६॥ कालि रात ने काला वस्त्र । कालि पाघ ने काला सस्त्र ॥ एणे वेसे राजा फिरें। वीर वीर ना लक्षण धरे ॥ ७ ॥ चउकी चोहटें गलि ए गलि । बात करें जब बैठा रलि ।। लोक वचन सांभली जस भलौ। प्याग त्याग न्याइ गुण निलो ॥८॥ जोवे कोतिग बहिर जई। चौर चरड दांणव कुण भई॥ गुफा विवरें वांडी ठाम । नदि नाल गिर सूनां धाम ||६|| मडे मसाणे विषमा घाट । जोई चाल्यो सुधि बाट । फिरतां षेद थयो राजान । लेईवि सांमो एकणि थान ॥१०॥ छांया अंब तणि मनिषंति । फलियो फूल्यो बहू लिभंति ॥ ऊपरि बईठी सुवटा जोड़ि। रंगे बात करें मनकोड़ि ॥ ११ ॥ माणस भाषा बोलें बोल । अमृत वांणि साकरि तौल ॥ कहे सूडो सांभलि बालही । पुरष रतन सोभा सवि कहि ॥ १२ ॥ सूडी कहे जो बारी कन्हें । तो सोभा सगलि जगि मन्हें । सूडो कहे ईम वषांण नारि । त्रिबोलि पुरषां आधारि ॥ १३ ॥ कामणि कूड कपट कोथलि । छांडि कुटंब जाई एकली ।। पुरुष करें विमासी जोई । पुरुष समो नवि पूजे कोई ॥१४॥ नर मत वषांणो सूडि कहें। नेह पर्षे कूडो निरबहे ॥ नल राजा दवदंति छांडि । गयो सूति मूकि उजाड़ि॥ १५ ॥ मांहो मांहे करें इम वाद । सूडी बोलें सरले साद ॥ पुरष भला जो होवों सही । लीलावई इमही कांइ रही ॥ १६ ॥ कुण लिलावे सूडो कहे । कुण से कुण ठांमे रहे। बात कहो तेहनि विगताइ । सुण्यां बिना किम आवे दाइ ॥ १७ ॥ ॥हा॥ दिषण देसें त्रीय राज छे, कनकपुरि अभिराम । राज करई लीलावति, सारई उत्तम काम ॥१॥ Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्र ५६५. कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड मध्य भाग ना रातां नं अपछरा, ना किन्नरी काय | तिण आगिल तिण सारिषि, जोतां आवें दाय ॥ २ ॥ भांति एक लीलावति, वीजीऊ भांति नारि । 1 ना पग नें अँगूठे सभी रूपे कानहि नारि ॥ ३ ॥ नां जोवें मुँह पुरुष तन लेखवे लिगार । आपण जांण पण थकि, अंगि वहें अहंकार ॥ ४ ॥ एक वाथ सुडि कहि, सुष आमलि मन थंति । राजा मन देसां भले, एक चितें एकंत ॥ ५ ॥ मन भेद्यो मालव धणि, सांभलि बात विचार । ते किण विधि देषस्यूँ, चितई मनह मझारि ॥ ६ ॥ ७ ॥ ढाल - कुमरो बोलाये कुवडो ए देसी ॥ बोलावें अण बोलति, बाते विक्कम रायो रे । कथा कहें ने केलवि, आवें कोटि उपायो रे । १ बो० ॥ दीपक सनमुप जोड़ने, राति पणि किम जाये रे । कांईक बात कहों तुम्हें, सांभलिए सुष थायो रे । २ बो० ॥ इम जाणे लिलावति, गहिलो ए बर दिसे रे । ए दिवों कीम बोलसि मुँह चढ़ावे रिसो रे । ३ वी० ॥ दीवा मांहि देवता, आगियों बोलें आगे रे । मांहि रे ।। ५ बो० ॥ दुषो रे । दुषों रे ।। ६ बो० ॥ वणाइ रे । । सांभलि राय सुजांण तुं, बात कहूँ किण रागें रे ॥ ४ बो० ॥ बात कीसि हुषियां कही, एक घडि सुष नांहि रे । मोडि मरोड वाट ने, तेल भरि तप इम काया परजाकतों, राति दिवस सहां बात न काइ आवडे, दुषां उपरि बात कहो तुम्ह आवडें, रूडि रसक हुँकारो देस्सु अम्हें, सांभले लोक घणाइ रे ।। ७ बो० ॥ हि राजा कहें वारता, सांगलण्यो सह कोई रे क्षति प्रतिष्टपुर वर भलो, न्याय चलें सब कोई रे ॥ ८ बो० ॥ श्रीधर सेठ वसें तिहां, कांमदेव तसु पुत्रो रे । जाण प्रविण सुपुत्र छे, राषण घरनो सूत्रो रे ।। १ बो० ॥ परणायो ऊछव चंद्रानगरि भूरे। आंणों करवा तेहने, आवें भोलि बालपणा थकि, करें विलाप कांमदेव ते लाजतो, सासू सुसरा वलतो ससुरो इम कहे, नान्हड़ी ए निजि वारे आणिस्यो, ग्रहणों वींटी कामदेव तिमहिज कियो, फिरो २ वार २ ते आवतो, लाजे लोक विचारों रे ।। १३ बो० ॥ तेह सरूपें रे ।। १० बो० ॥ विसेषे रे । देवे रे ।। ११ बो० ॥ बालि रे । वालि रे ।। १२ बो० ॥ विचारों रे । करी, . Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -अन्त भाग अभयसोमसुन्दरकृत विक्रम चौबोली चउपि लोक बोक बांतां करे, जीवनी तेहनि आगे रे । कहें तोमें तेजि नहि, के पीहर कोइ लागें रे । १४ बो० ॥ ॥ दूहा ॥ पूठि । कामदेव मनि दुष धरे, केहनें सूझे रथ सारिथि एकलें, पुछितात चल्यों उठि ॥ १ ॥ मारगि अरधे आवतां, पेष्यों एक प्रसाद । सुररांणि सचि सगति, बाजें घंट निनाद ॥ २ ॥ आसा पूरण इसरि, अगि सह आवै जात कामदेव देषि प्रसन्न, करें मनस्युं बात ॥ ३ ॥ हिवडां माहिर अस्तरि, बोलावे मुझे सात | सो माता तो आवलें, कमल चढावु' 'हामि ॥ ४ ॥ आरति एहवि आपणि, आयमि उजिऊ ग्यान । माता आगलि नामऊ, मस्तक पूजा मान ॥ ५ ॥ हतोजाइ सासर पणी भगतिई तिथ बार। 1 सासू सुसरा स्युं मिलि करें बहुलि मनुहारि ।। ६ ।। संतोष सप्रेडिऊ, चाल्यों त्रिया समेति । हर धरतों विडी सफल जांण तो हेत ॥ ७ ॥ ॥ ढाल १७ मी - राग धन्यासि ॥ कहें । रहे ॥ १ ॥ इक दिनां राजा सुतो मन्दिरे, चित्ते मन में कुंण रक्षा करें । माहरे मालवें कवाणये ईहा आयो त्रिया हूं परणवे ॥ परणवें त्रीयां ईहां आयो, प्रजा मारि दोहिलि । हूँ बेग जाऊ पंथ दूरें, एह बालों मुझ भलि ॥ इम राय मन में करें चिता, देषि तिलाबें बैठा उदासि आज प्रिउडा, एम कदि हिं ना कहो हिव प्रिउडा बात मन तणि, मो हूंति कोई छांनी तु मृतणि । याहा जेहवि कहियो मुझ भणि हे अरर्धगि बाल्हा अति घणि ॥ अति घणि वाल्हा वासि ताहरी, कहो गुरु कृपा तब कहें राजा मानवानि, राजध्यानी हुं पम्मार विक्कम नाम माहरो आयो कारिज ए राज थाने भला, जाउ बेग बोलें बालि लाछि लिलावती, केहि चिंता प्रीउडा एवति । हिवडां जास्यां थानिक आपणें, राजा विक्रम हरषें अति घणें ॥ अति घणे हरषे, विमान उजेणि कुसले गया । । करि माहरि ॥ ताहरें । मनें सेबल सामेला थया || देई बधावे धवल गाई, स राजा प्रजा सवि आय नमिया, लिलावती स्युं राय विक्रम, महिमा रंगरलि । वई चितव आस्या " माहरें ॥ २ ॥ फलि ॥ ३ ॥ ५६६ -0 -0 ० . Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड कलियुग मांहि विक्रमराय नो, सोहाग सुन्दरि महिमा माजनो। जेहनि सानिध देव सदा करें, आगलि ऊभा आपद अपहरें। अपहरें आपद चरित सुणतां, नामथी नव निध मिलें। परतर गर्छ श्री जिनचंद सगुरू, रूड़े सेवता वंछित फले ॥ सतर चउविसे किसन दसमि, आदि आसाढे सहि । वाचनाचारिज अभसोमे, मतिसुन्दर काजों कहि ॥४॥ ॥ इति श्री विक्रम चौबोलि चउपि सम्पूर्णम् ।। ॥ सकल पंडित प्रवर प्रधान पंडित शिरोरत्न पंडित मुकटामान पंडित श्री श्री कांतिविजय गणि गुरुभ्यो नमः ॥ मिति भद्र संवत् १७६० वर्षे मृगशिर बदि ६ दिन अर्कवासरे। सकल पंडित प्रवर प्रधान पंडित शिरोरत्न पंडित मुकटायमान पंडित श्री५श्री कांतिविजयगणि तत्शिष्य गणि वीरविजय मेघाजि, लिपिकृतं ।। मंगलं लषकानां च पाठनां च मंगलं, मंगलं सर्वलोकानों भूमो भूपति मंगलं ॥१॥ श्रीरस्तु कल्याणमस्तु !! सज्जन फलज्यों अंब जिम, बड जिम विस्तर ज्यों। मासे वरसें जो मिला, तो उण रंगे रहज्यों । 000 Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. - . -. - . -. -. -. -. -. -. - . -. -. - . -. - . -. - . -. -. - . -. -. - . - . -. - . - . -. -. -. - . -. -. - . -. - . महान साहित्यकार तथा प्रतिभाशाली श्रीमज्जयाचाय D साध्वी श्री भिकांजी (नोहर) युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या तेरापंथ धर्म-संघ के चतुर्थ नायक श्री जीतमल जी स्वामी थे। आपकी प्रतिभा अद्वितीय थी, मेधा बड़ी प्रखर थी। जिस कार्य में भी हाथ बढ़ाया, उसमें सफलता ही मिली। भला पुरुषार्थी का कौन सहयोगी न बनता? आपने धर्मसंघ की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दी। फलस्वरूप तेरापंथ धर्म-संघ में एक नया मोड़ आया। हालाँक पूर्व तीनों आचार्यों ने भी बहुत कुछ काम किया, किन्तु घोर संघर्ष के कारण जनता अंकन नहीं कर पायी। पर आपके समय में संघर्ष ने कुछ विराम लिया, अस्तु आप धर्म-संघ की नींव को सुदृढ़ बनाने के लिए अथक परिश्रम से साहित्य निर्माण की ओर प्रवृत्त हुए क्योंकि साहित्य जीवन निर्माण के लिए सर्वोत्कृष्ट पाथेय एवं आधेय भी माना जाता है। हर संस्कृति का आधार साहित्य होता है। बिना साहित्य के बौद्धिक वर्ग कुछ पा नहीं सकता, इसलिए संघ को पल्लवित एवं विकसित करने के लिए आपने अपनी लेखनी चलानी शुरू की जबकि साहित्य हमारे प्रथम प्रणेता श्रीमद् भिक्षु स्वामी ने भी बहुत लिखा, लगभग ३८ हजार पद्य । स्वामी जी की लेखनी ने जयाचार्य को प्रभावित किया । परिणामस्वरूप आपने साढ़े तीन लाख पद्य रचे । उनका विवरण संक्षेप में प्रस्तुत करना ही इस लेख का विषय है। आपने नौ वर्ष की अवस्था में संयम स्वीकार किया। दो वर्ष बाद आपने लिखना आरम्भ कर दिया। ग्यारह वर्ष की आयु में ही आपकी काव्य शक्ति प्रस्फुटित होने लगी जो क्रमशः द्वितीया के चाँद तरह बढ़ती ही गई। आपकी स्मरण शक्ति एवं मेधा बड़ी विचित्र थी। इस अवस्था में जहाँ बालक अपने आप को भी नहीं संभाल पाता वहाँ आप साहित्यकार बन गये । “सन्त गुण माला" नामक आपका पहला ग्रन्थ देखकर आपकी असाधारण प्रतिभा का परिचय पाया जा सकता है। आपकी साहित्यिक प्रतिभा को उजागर करने वाली साध्वीप्रमुखा श्री दीपांजी थी। वह घटना इस प्रकार है कि एकदा आप एक काष्ठ पात्री के रंग-रोगन देकर तैयार कर आपने आराध्य देव ऋषि रायचन्द जी को दिखा रहे थे, इतने में साध्वी श्री दीपांजी भी आ पहुंची। उन्होंने देखकर कहा कि ऐसा कार्य तो हम जैसी अनपढ़ साध्वियां भी कर सकती हैं। किन्तु मुनि प्रवर ! आप तो सूत्र-सिद्धान्तों का अन्वेषण कर कोई उपयोगी रत्न निकालते जिससे आपका और धर्मसंघ का विकास होता। इस छोटे से वाक्य ने आपके मानस को झकझोर डाला। फलस्वरूप आपने अनेक शास्त्रों का अवगाहन कर पञ्च-टीका लिखनी शुरू की । आगम जैसे दुरूह पथ पर बढ़े, जिसकी भाषा प्राकृत थी। सतत प्रयत्न करके अठारह वर्ष की अवस्था में सर्वप्रथम “पन्नवणा" सूत्र की जोड़ (पद्य-टीका) करके केवल तेरापंथ को ही नहीं वरन् सम्पूर्ण जैन समाज को उपकृत किया। उसके पश्चात् उनका हौसला बढ़ता गया। एक के बाद एक आगमों का अनुसन्धान कर तत्त्व-जिज्ञासुओं के समक्ष नवनीत देते रहे। आपकी काव्य शक्ति विलक्षण थी । सुना जाता है कि जिस टाइम रचना करते उस टाइम अपने पास पांच सात साधु-साध्वियों को लिखने के लिए बैठा लेते। आप पद्य बोलते जाते, साधु-साध्वियाँ अनवरत रूप से क्रमशः लिखते जाते। कोलाहलमय वातावरण में भी लेखक की लेखनी विविध धाराओं में निर्बाध गति से चलती रही। आपने जहाँ भगवती जैसे आगम जटिल विषय का राजस्थानी भाषा में पद्यानुवाद किया, वहाँ अनेक स्तुति काव्य, औपदेशिक काव्य, तात्विक-गद्य पद्य रूप में, इतिहास, जीवन - 0 Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 666 ६०२ DIGICICI कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड चरित्र, व्याकरण, संस्मरण आदि विविध धाराओं में अदम्य उत्साह के साथ साहित्य लिखते गये। आपने बहुत सारा साहित्य तत्कालीन समृद्ध भाषा मारवाड़ी में विशेष लिखा है क्योंकि जन-भाषा में लिखा हुआ साहित्य ही जनोप योगी हो सकता है । --- आपके साहित्य में सहज सरसता, सुगमता गम्भीरता और धर्म तथा संस्कृति के रहस्य मर्म खोलने का स्वाभाविक चातुर्य छुपा हुआ है। आपका अपना स्वतन्त्र चिन्तन एवं मननपूर्वक लिखा हुआ साहित्य विशेष प्रभावकारी सिद्ध हुआ है। वस्तुतः कुशल साहित्यकार वही होता है जिसका लिखा हुआ साहित्य सुनने या पढ़ने मात्र से नयी चेतना की स्फुरणाएँ पैदा कर दे। भगवान महावीर ने कहा है- "जे सोच्चा पडिवज्जंति, तवं खंति महिं सयं" - जिस वाणी को सुनकर सोचकर इन्सान तप, संयम और अहिंसा को अंगीकार करें यानी सुपथ पर अग्रसर हों जिससे जीवन की धारा को नया मोड़ मिले। अस्तु आपके साहित्य की झलक इस प्रकार है- आगम साहित्य पद्यानुवाद- १. भगवती री जोड़, २. पन्नवणारी जोड़. ३. निशीथ री जोड़, ४. ज्ञाता री जोड़, ५. उत्तराध्ययन री जोड़, ६. अनुयोग द्वार री जोड, ७. प्रथम आचारांग री जोड, ८. संजया एवं नियंठा से जोड़। भगवती सूत्र ३२ आगमों में सबसे बृहद् ग्रन्थ है जिसको आद्योपान्त पढ़ना कठिन समझा जाता है । वहाँ कवि की लेखनी ने जटिलतम विषयों को पद्यमय बनाकर सचमुच ही एक आश्चर्यकारी कार्य किया है। बिना एकाग्रता इतने बड़े विशालकाय ग्रन्थ का अनुवाद ही नहीं बल्कि जगह-जगह अपनी ओर से विशेष टिप्पणी देने में अनुपम परिश्रम किया है। विविध राग-रागनियों में ५०१ डालें और कुछ अन्तर ढालें लिखी हैं और दोहों के रूप में भी हैं। इसमें कुल ४६६३ दोहे. २२२४५ गाथाएँ, ६५५२ सोरठे, ४३१ विभिन्न छन्द, १८८४ प्राकृत एवं संस्कृत पद्य तथा पर्याय आदि ७४४६ तथा परिमाण ११६० । ६३२६ पद्य परिमाण ४०४ यन्त्रचित्र आदि हैं। इन सबका कुल योग ५२६३२ हैं । इस कृति का अनुष्टुप् पद्य परिमाण ग्रन्थाय ६०९०६ है । इस प्रकार आगमों पर मारवाड़ी में पद्यमय टीका लिखने वाले शायद आप प्रथम आचार्य हुए हैं । इतने बड़े ग्रन्थ की लिपिकर्त्री हमारे धर्मसंघ की प्रमुखा साध्वी श्री गुलाबांजी एवं बड़े कालूजी स्वामी तथा मुनि श्री कुंदनमलजी हुए है जिन्होंने ५१६ पत्रों में प्रतिलिपि की है। इस प्रकार आपने राजस्थानी भाषा में आगमों की जोड़ की । स्तुतिमय काव्य - चौबीस छोटी और बड़ी जिनमें २४ तीर्थंकरों की विशेष स्तुति की है । "सन्त गुणमाला " में श्रीमद् भारमलजी स्वामी के शासन काल में तत्कालीन मुनिवरों का विशेष वर्णन अंकित किया है । "सन्त गुण वर्णन" में तेरापंथ धर्मसंघ के तेजस्वी मुमुक्षुओं की सायना की गई है। "सती गुण वर्णन" में विशिष्ट एवं तपस्विनी साध्वियों का चित्र अंकित किया है। "जिन शासन महिमा" में जैन धर्म की प्रभावना करने वाले विशेष साधु-साध्वियों का पण्डित मरण प्राप्त करने वालों का एवं विघ्नहरण का इतिहास वर्णित है, जो कि बहुत रविकर एवं सरस है । इतिहास - "हेम चोडालियो" इसमें चार डालें है। समग्र गाथा ४६ है । "हेम नवरसो" में दायें हैं। यह अपने शिक्षा एवं विद्यागुरु के विषय पर लिखी गई है। आपने अपने विद्या गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए लिखा है हूँ तो बिंदु समान थो, तुम कियो सिंधु समान । तुम गुण कबहु न बीसरु, निशदिन धरूं तुज ध्यान ॥ ढा० ७, गा० २१ "शासन विलास" यह एक ऐतिहासिक ग्रन्थ है | यह तेरापंथ प्रारम्भ दिवस वि० सं० १८१७ से लेकर वि० सं० १८७८ तक तेरापंथ में दीक्षित साधु-साध्वियों का वर्णन प्रस्तुत करता है। इसकी चार ढालें हैं- सम्पूर्ण पद्य ५४७ हैं । “लघुरास” में तत्कालीन प्रमुख ६ टालोकरों, यानी संघ से बहिष्कृत व्यक्तियों के विषय में अनूठा प्रकाश डाला गया है। वही वर्णन आज के युद्ध में भी बहित टालोकरों में पाया जाता है। इसमें १ दोहा, बाकी की ढाले समग्र ग्रन्थ १३३९ गाथाएँ हैं। इस प्रकार इतिहास लिखने में आपकी लेखनी ने अद्भुत कौशल दिखलाया है। . Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान् साहित्यकार तथा प्रतिभाशाली श्रीमज्जाचार्य ६०३: जीवन चरित्र भिक्षु, जस रसायन" में आद्यप्रवर्तक महामना श्री भिक्षु स्वामी का राजस्थानी भाषा में प्रामाणिक एवं क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत किया है। यह स्वामी जी का साक्षात्कार कराने वाला महान् ग्रन्थ है । यह चार भागों में विभक्त है—प्रथम में स्वामी जी की जीवनी, दूसरे भाग में दान-दया जैसे सैद्धान्तिक प्रश्नों का शास्त्र सम्मत विश्लेषण, तृतीय भाग में स्वामीजी के जीवन काल में दीक्षाओं का विवरण और चतुर्थ में स्वामीजी की अन्तिम आराधना, संघ को शिक्षा, चरम कल्याण, आकस्मिक आभास और समग्र चातुर्मासों का विवरण प्रस्तुत किया है। चारों की ढालें ६३ हैं । समग्र पद्यों की संख्या २१६६ है । कृति बहुत ही रोचक एवं सुन्दर है। “खेतसी चरित्र" इसमें धर्मसंघ के विनयी एवं सरस स्वभावी, उपनाम सतयुगी से बतलाये जाते थे, उनका वर्णन हैं । आपने तपस्या बहुत उग्र की । इसकी १३ ढाले, ६७ दोहे, समग्र पद्यों की संख्या २३७ है। " ऋषिराय सुयश" तेरापंथ धर्मसंघ के तृतीयाचार्य श्रीमद् रायचंदजी स्वामी की जीवन-झांकी प्रस्तुत करता है। इसमें १४ ढालें, ५० दोहे, समग्र पद्य २५७ हैं। "सतीदास चरित्र" "स्वरूप नवरसो" व "स्वरूप चौढालियो" में आपके ज्येष्ठ भ्राता का वर्णन बड़ा रोचक एवं प्रेरणदायी है। इसकी ६ ढालें, ६२ दोहे, १५ सोरठे, समग्र पद्य २६६ हैं । "हरख ऋषि रो चौढालियो," "शिवजी स्वामी रो चौढालियो," आदि मुनिवरों का शिक्षाप्रद जीवन तथा त्यागमय जीवन का लेखा-जोखा है और "सरदार सुयश " ग्रन्थ में महासती सरदारां जी का वर्णन है । यह ग्रन्थ नेरापंथ धर्मसंघ में महत्वपूर्ण स्थान रखता है । आपका जीवन अनेक विशेषताओं को लिए हुए था— जैसे कुशल व्यवस्थापिका, मधुरभाषिणी, सफल लिपिकर्णी, सत्प्रेरणादात्री, परमविदुषी व निर्भीक हृदया आदिआदि । जयाचार्य युगीन साध्वियों की व्यवस्थाओं को समुचित ढंग से व्यवस्थित रखने में आप प्रमुख थीं। दीक्षा के पूर्व सांसारिक झंझट झमेलों से उपरत होने के लिए आपको अनेकों संघर्षों से गुजरना पड़ा, पर आप कसौटी में स्वर्ण की भाँति खरी उतरीं, यह सब वर्णन "सरदार सुयश" में बड़े सुन्दर ढंग से चित्रित है । आख्यान - महिपाल चरित्र, धनजी का बखाण, पार्श्वनाथ चरित्र, मंगल कलश, मोहजीत, सीतेन्द्र, शीलमंजरी, महादत्त चरित्र, रतनचूड़, बंधक संन्यासी यशोभद्र, भरत बाहुबली आदि अनेक उपन्यास आपने बहुत रोचक ढंग से लिखे । पाठकगण एक बार अवश्य वाचन करें । तात्विक - इसमें "भ्रम- विध्वंसन" ग्रन्थ तेरापंथ और स्थानकवासी सम्प्रदाय के विचार भेद को स्पष्ट करने के लिए प्रकाश स्तम्भ का काम करता है । यह ३४ अधिकारों में विभक्त है । भगवान् महावीर की वाणी के आधार पर प्रस्तु है। प्राचीन युग चर्चा का युग था । उसमें यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी रहा है साथ-साथ जन-प्रिय भी । देखियेजयपुर, प्राचार्य के दर्शनार्थ एक कच्छ प्रान्त का प्रमुख श्रावक मूलचंद कोलम्बी आया । जब उसने "भ्रम-विध्वंसन" को सुनी तो इस ग्रन्थ से इतना प्रभावित हुआ कि उसकी प्रति को प्रच्छन्न रूप से चुराकर कच्छ ले गया और अतिशीघ्रता से बम्बई में मुद्रित करवा कर जनता के हाथों में पहुँचा दी। किन्तु वह अशुद्ध प्रति ( रफ कापी ) थी, पूर्णरूपेण संशोधित नहीं थी । अस्तु वह ग्रन्थ उपयोगी न होकर अनुपयोगी सिद्ध हो गया, अर्थ का अनर्थ हो गया। जब वह पुस्तक सन्तों के हाथ में आई तो सब देखते रह गये, उसको पढ़ा तो जगह-जगह इतनी अशुद्धियाँ भरी पड़ी थीं कि पुस्तक कोई काम की नहीं रही। जब श्रावकों का ध्यान इस ओर गया तब मूल प्रति (शुद्ध) से संशोधित कर १८६० मैं गंगाशहर के सुप्रतिष्ठित धावक ईशरचंदजी चोपड़ा ने इसको पुनः प्रकाशित करवाकर जनोपयोगी बनाया। इस ग्रन्थ के मुख्य विषय इस प्रकार है मिध्यात्वी की क्रिया दान, अनुकंपा निरवद्य किया, अल्प पाप बहुत निर्जरा आदि आदि । समग्र ग्रन्थाग्र १००७५ के लगभग है । " सन्देह विपौषधि" नामक ग्रन्थ का रचनाकाल तब का है जब जनता में धर्म के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ घर कर गई थीं, उन भ्रान्त धारणाओं को दूर करने हेतु इस ग्रन्थ का निर्माण हुआ । इसके प्रमुख विषय निम्नोक्त है छठा गुणठाणानी ओलखणा, संयोग, व्यवहार, कल्प, धावक अविरति ईर्वापथिकी क्रिया, निरवद्य आमना भावी तीर्थंकर आदि आदि । यह गद्यात्मक ग्रन्थ है । ग्रन्थाग्र लगभग १७०० है । 'जिनाज्ञा मुख मंडन' इसमें आगमोक्त 6698 . Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ......................................................................... विधि साधुओं के लिए दर्शायी गई जो कि चर्मचक्षुओं से अकल्पनीय सी प्रतीत होती है किन्तु सर्वज्ञ द्वारा कथित होने की वजह से सन्देह का कोई स्थान नहीं रहता अत: इस दृष्टि से इसमें यथार्थ का उल्लेख किया गया है जैसेनदी पार करना, पानी में डूबती साध्वी को साधुओं द्वारा बाहर निकालना, पाट-बाजोट आदि में से खटमल निकालना आदि-आदि । ग्रन्थान १३७८ के लगभग है। 'कुमति विहंडन' इस ग्रन्थ के नाम से ही पता लगता है कुमति को दूर सदबुद्धि प्रदान करना । इसके कुछेक विषय इस प्रकार हैं-गृहस्थ को सूत्र पढ़ाना, व्याख्यान देने रात्रि में अन्य स्थान में जाना, नित्यपिंड देने का विधान, नव पदार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, नय निक्षेप आदि-आदि। इस कृति का ग्रन्थान १२४२ के लगभग हैं । "प्रश्नोत्तर सार्ध शतक" इसमें १५१ प्रश्नोत्तर हैं जैसे-भगवान द्वारा फोडी गई लब्धि की चर्चा, पुण्य की करणी आज्ञा में या बाहर, साधु अकेला रह सकता है या नहीं ? शुभ योग संवर है या नहीं ? आदिआदि । इसका ग्रन्थान १५७८ है। 'चरचा रत्नमाला' यह ग्रन्थ जिज्ञासुओं के प्रश्नों का आगम तथा अन्य ग्रन्थों के प्रमाणों से समाधान प्रस्तुत करता है। इसका ग्रन्थान १४६१ है। 'भिक्खू पृच्छा' 'बड़ा ध्यान' 'छोटा ध्यान' दोनों कृतियों में चंचल मन को एकाग्र बनाने के सुन्दर तरीके बतलाये हैं-~-ध्यान और स्वाध्याय। यह ग्रन्थ गद्यात्मक है। ग्रन्थाग्र १५० अनुष्टुप् प्रमाण है। 'प्रश्नोत्तर तत्व बोध', 'बृहद् प्रश्नोत्तर तत्त्व बोध' ये दोनों ग्रन्थ मूर्तिपूजक श्रावक कालरामजी आदि श्रावकों की जिज्ञासाओं का समाधान प्रस्तुत करते हैं। प्रश्नोत्तर में २७ अधिकार हैं, जिनमें १५१७ दोहे, १६३ सोरठे, १० छंद, १० कलश, १८३ अनुष्टुप् पद्य परिमाण, १० वतिकाएँ एवं समग्र पद्यों की संख्या १८८३ है। बृहद् प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध की १२४८ गद्यात्मक हैं। श्रद्धा री चौपाई, जिनाज्ञा री चौपाई, अकल्पती व्यावच री चौपाई, झीणी चरचा यह ग्रन्थ लयबद्ध हैं। इनमें स्थान-स्थान पर आगमों के उद्धरण दिये हुए हैं, जिससे पाठकों को अल्प परिश्रम से अधिक ज्ञान सुगमता से प्राप्त हो सकता है। इसकी २२ ढालें, ५२ दोहे ५ सोरठे, समग्र पद्य ७४७ हैं। बड़ी रोचक होने से आज भी सैकड़ों श्रावकों के कण्ठस्थ मिलेगी। 'झीणी चरचा के बोल' यह गद्यात्मक है। द्रव्यजीव और भावजीव की दुरूह चर्चा सरल तौर-तरीकों से समझाई गई है, २२५ गाथाएँ हैं। 'झीणी ज्ञान' यह ग्रन्थ सूक्ष्म ज्ञान का दाता है जो जटिल विषय है। जैसे केवली समुद्घात करते समय कितने योगों को काम में लेते हैं, लोक स्थिति कैसी है, स्वर्ग-नरक कहाँ है, रोम आहार, ओज-आहार, कवल आहार कौन-कौन से दंडकों में में होता है। आत्मा के साधक बाधक तत्व कौन-कौन से हैं आदि-आदि को बड़े सुन्दर ढंग से समझाया गया है। 'भिक्ष कृत हुण्डी की जोड़' इसमें तत्कालीन ज्वलंत प्रश्नों का समाधान है-वे ये हैं-व्रताव्रत, जिनाज्ञा, दान-दया, अनुकंपा, सम्यक्त्व, आश्रव, सावद्य-निरवद्य क्रिया, साध्वाचार आदि । 'प्रचूनी बोल' इसमें शास्त्र-सम्मत विवादास्पद विषयों का संग्रह कर स्पष्टीकरण किया गया है । इसके ३०८ बोल हैं । ग्रन्थ पठनीय है। व्याकरण-हमारे धर्मसंघ में सवा सौ वर्ष पूर्व संस्कृत भाषा को कोई नहीं जानता था, क्योंकि अवैतनिक संस्कृतज्ञ पण्डित मिलना मुश्किल था, अस्तु, जयाचार्य की अध्ययनशीलता एवं चेष्टा ने खोज कर ही डाली। आप जयपुर में थे तब एक लड़का दर्शनार्थ आया। वार्तालाप के दौरान उस छात्र ने कहा-मैं संस्कृत व्याकरण पढ़ता हूँ। आपने कहा-क्या पढ़ा हुआ पाठ मुझे बता सकते हो? उस छात्र ने पाठ बताया, तब आपने कहा-तुम प्रतिदिन स्कूल में पढ़ कर मुझे सुनाया करो। आपने उस छोटे से बालक से सुने हुए संस्कृत पाठों को राजस्थानी भाषा में प्रतिबद्ध कर डाला । देखिए ज्ञान की पिपासा! इतने बड़े धर्मसंघ के नायक होते हुए भी एक बच्चे से ज्ञान लेकर संस्कृत का विकास किया। इसके आगे 'आख्यात री जोड़' और साधनिका ये दोनों ग्रन्थ संस्कृतज्ञों के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं । 'दर्शन' दर्शन में 'नयचक्र री जोड़' 'नयचक्र' इसके रचयिता देवचन्द्रसूरि थे। संस्कृत भाषा में होने से हर व्यक्ति के लिए पढ़ना कठिन थी, साथ ही दर्शन का ज्ञान ही गहन होता है। इस दृष्टि से जयाचार्य ने सर्वजनोपयोगी बनाने के लिए राजस्थानी भाषा में रच डाला। इसमें १४४ दोहे, २० सोरठे, १८ छन्द, ७१८ गाथाएँ, ८७८ पद्य परिमाण, १३५ वार्तिकाएँ तथा सर्वपद्य १७७८ हैं । उपदेश-"उपदेश री चौपी" इस ग्रन्थ में ३८ डालें, १८ दोहे, सर्वपद्य ५०३ हैं। जीवन उत्थान हेतु प्रेरणादायक, वैराग्य रंग से ओत-प्रोत मानस को छू लेने वाली गीतिकाएँ हैं। गीत अन्तर्मन की सबसे सरस और मार्मिक Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान साहित्यकार तथा प्रतिभाशाली श्रीमज्जयाचार्य ६०५ .......................................................................... अभिव्यक्ति का माध्यम है। गीत में मुखरित भावों की चित्रोपमता व्यक्ति को सहज और ग्राह्य बना देती है। इसलिए आपने गीत का सहारा लिया। 'शिक्षक की चोपाई' संघ को सुव्यवस्थित बनाने के लिए है । आचार्य को समयसमय पर अपने शिष्यों को सजग करना आवश्यक होता है। इस कृति में ऐसी ही सुन्दर शिक्षाओं का संकलन है। इसमें खोड़ीलो प्रकृति और चोखी प्रकृति यानी सुविनीत और अविनीत का बड़ा ही रोचक और स्पष्ट वर्णन है। इसी प्रकार गुरु-शिष्य का संवाद आदि अनेक पाठनीय सामग्री हैं। इसमें २६ ढालें, ३३ दोहे, समग्र पद्य ६६० हैं । "आराधना" यह ग्रन्थ वैराग्य रस से ओत-प्रोत है। साधक को अन्तिम अवस्था में सुनाने से ये पद्य संजीवनी बूटी का-सा काम करते हैं। भाव-पक्ष और शैली-पक्ष-काव्य कसौटी के दो आधार माने गये हैं । इस ग्रन्थ में दोनों ही पक्ष पूर्णतया पाये जाते हैं। जीवन की सम्पूर्ण सक्रियता के पीछे गीतों की प्रेरणा बड़ी रोचक रही है। इसमें दस द्वार हैंआलोयणा द्वार, दुरकृत निन्दा, सुकृत अनुमोदना, भावना, नमस्कार मन्त्र जाप आदि-आदि । "उपदेश रत्न कथा कोष" इसमें करीब १०८ विषय हैं। प्रत्येक विषय पर कथाएँ, दोहे, सोरठे, गीत आदि विषय के अनुसार व्याख्यान का मसाला बड़े अच्छे ढंग से संकलित किया गया है। वर्तमान में जैसे मुनि धनराजजी प्रथम ने 'वक्तृत्व कला के बीज" रूप में तैयार किया है। ____ संविधान-“गणविशुद्धिकरण हाजिरी' (गद्यमय) तेरापंथ प्रणेता स्वामीजी ने संघ की नींव को मजबूत बनाने के लिए विभिन्न मर्यादाएँ बनायीं। उनका ही आपने क्लासिफिकेशन कर उसका नामकरण "गणविशुद्धिकरणहाजिरी" कर दिया। वे २८ हैं। प्रत्येक हाजिरी शिक्षा और मर्यादा से ओत-प्रोत है। संघ में रहते हुए साधुसाध्वियों को कैसे रहना, संघ और संघपति के साथ कैसा व्यवहार होना, अनुशासन के महत्त्व को आंकना, संघ का वफादार होकर रहना आदि बहुत ही सुन्दर शिक्षाएँ दी गयी हैं। सामुदायिक जीवन की रहस्यपूर्ण प्रक्रियाओं का परिचायक ग्रन्थ है। बड़ी मर्यादा, छोटी मर्यादा तथा लिखता री जोड़-ये तीनों ही कृतियाँ मर्यादाओं पर विशेष प्रकाश डालती है। तेरापंथ धर्मसंघ की प्रगति का श्रेय इन्हीं विधानों और महान् प्रतिभाशाली आचार्यों को है। जिनके संकेत मात्र से सारा संघ इस भौतिक वातावरण में भी सुव्यवस्थित एवं सुन्दर ढंग से चल रहा है। "परम्परा रा बोल" परम्परा रा बोल (गोचरी सम्बन्धी) तथा 'परम्परा री जोड़' इनमें ठाणांग, निशीथ तथा भगवती आदि आदि सूत्रों को साक्षी देकर संयमियों को कैसे संयम निर्वाह करना विधि-विधानों का उल्लेख किया है। इस प्रकार धर्म संघ को प्राणवान् बनाये रखने के लिए जयाचार्य ने विपुल साहित्य का निर्माण किया। सम्पूर्ण जानकारी के लिए देखिए "जयाचार्य की कृतियाँ : एक परिचय" पुस्तिका लेखक मुनि श्री मधुकरजी। इसमें भी विहंगम दृष्टि से ही दिया है । समग्र ग्रन्थों का परिचय तो साहित्य के गहन अध्ययन से ही पाया जा सकता है। सचमुच आप जन्मजात साहित्यकार थे, आपको किसी ने बनाया नहीं । साहित्य भी ऐसा-वैसा नहीं बल्कि अत्यन्त अन्वेषणापूर्वक मौलिक साहित्य लिखा है । संगीत की पीयूष मयी धारा जगह-जगह लालित्यपूर्ण ढंग से प्रवाहित हुई है। कवि का अनुभूतिमय चित्रण साहित्य में बोल रहा है । आपकी महत्वपूर्ण कृतियाँ काव्य जगत् की अत्यधिक आस्थावान आधार बनेंगी। राजस्थान में आज जो पीड़ी राजस्थानी काव्य का प्रतिनिधित्व कर रही है उसमें जयाचार्य का काव्य शीर्षस्थ पंक्ति में होगा। राजस्थानी भाषा का माहिर ही आपके साहित्य से अनूठे रत्न निकाल पायेगा । आपका साहित्य कबीर, मीरा आदि किसी से कम नहीं है। अभी तक आपका साहित्य प्रकाशित नहीं हो पाया है। जब सारा साहित्य प्रकाशित होगा, तब ही जनता आपकी बहुमुखी प्रतिभा से भली भांति परिचित हो पायेगी। Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. ... ............ .. .. ...... ............................ ............... आचार्य तुलसी : एक साहित्यिक मूल्यांकन 0 डॉ० भंवर सुराणा विशेष संवाददाता, हिन्दुस्तान जयपुर, (राजस्थान) धर्म संघ का संगठन, गण और गणाधिपति की मर्यादा, साधु का आचार, विचार, विहार और व्यवहार निभाते हुए आचार्य तुलसी ने भगवान महावीर की उग्र जनकल्याणकारी भावनाओं को अपनाकर बुद्ध की इस शिक्षा को जीवन में उतारा है "चरत भिक्खवे चारिकां बहुजन हिताय बहुजन सुखाय" तेईसवें जैन तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ और चौबीसवें जैन तीर्थंकर भगवान महावीर के जीवन से, उपदेशों से प्रेरणा लेकर आचार्य तुलसी ने समस्त भारत को अणुव्रत का पावन सन्देश सुनाया, नैतिक जीवन के प्रति निष्ठा जगाई और जीवन में श्रद्धा को उचित स्थान दिलाने का प्रयत्न किया। आचार्य तुलसी ने भारत के सुदूर प्रान्तों में विचरण करते हुए निर्बाध गति से अपने साहित्य सृजन के कार्य को भी निरन्तर जारी रखा है। उनके द्वारा किये गये साहित्य सृजन को तीन खण्डों में वर्गीकृत किया जा सकता है। जैन शास्त्रों का संपादन, धर्म के प्रतिपादन तथा अपनी परम्परा से प्राप्त गण इतिहास से सम्बन्धित साहित्य तथा जीवन दर्शन व अन्य साहित्य, ये तीन वर्ग हैं । आचार्य तुलसी ने अपने गुरु आचार्य कालगणि के पास दीक्षित होने के बाद न केवल व्याकरण, तर्कशास्त्र, आगम सिद्धान्त, दर्शन तथा साहित्य का ही सांगोपांग अध्ययन किया अपितु उसी साधनाप्रवाह में संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी तथा राजस्थानी भाषा व साहित्य का भी गहन अध्ययन किया। आचार्य तुलसी ने संस्कृत में जैन तत्त्वज्ञान, जैन न्याय, जैन साधना पद्धति, संघ व्यवस्था सम्बन्धी जैनसिद्धान्त दीपिका, भिक्ष न्यायकणिका, मनोनुशासनम्, पंचसूत्रम् आदि ग्रन्थों की रचना की है। जैन सिद्धान्त दीपिका में उन्होंने जैन परम्परा के अनुसार द्रव्य, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, लोक, जीव, पुद्गल, संयोग, अलोक, परमाणु, स्कन्ध रचना, कालभेद, अनन्त प्रदेश, धर्म, अधर्म, पर्याय, तत्व, उपभोग, ज्ञान, धारणा, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मतिज्ञान, मनपर्याय ज्ञान, केवलज्ञान, अज्ञान, दर्शन, इन्द्रिय, मन, भाव, कर्म की परिभाषा एवं भेद पर विस्तार से प्रकाश डाला है । बन्ध, पुण्य, पाप, आश्रव, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग, लेश्या, संवर, सम्यक्त्व, करण, अप्रमाद, अकषाय, अयोग, निर्जरा, तपस्या, मोक्ष, सिद्ध, मुक्त, आत्मा, सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चरित्र की परिभाषा तथा प्रकार का परिचय प्रस्तुत करते हुए आचार्य तुलसी ने पंच-महाव्रतों का महत्त्व एवं उनकी पालना का विवेचन करते हुए विस्तार से वर्णन किया है । अणुव्रत, शिक्षाव्रत, श्रावक के मनोरथ, देव, गुरु, धर्म परिचय, लोक धर्म व धर्म की समानता व भिन्नता का उल्लेख करते हुए उन्होंने विशेष व्याख्यात्मक टिप्पणी व पारिभाषिक शब्द कोष भी जिज्ञासु-पाठकों के निमित्त दिया है। - --- -- 0 Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य तुलसी : एक साहित्यिक मूल्यांकन जैन साहित्य में भक्तामर स्तोष का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा पण्णवति में संस्कृत के मात्र नौ श्लोकों में गुरु, धर्म, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, देव, विरक्ति, आसक्ति, ज्ञान, श्रद्धा, संयम, तप, रत्नत्रय, मार्ग, सद्गुण व स्याद्वाद् का आचार्य श्री ने परिचय देकर गागर में सागर भर दिया है। मोक्ष कर्त्तव्य षत्रिशिका में उन्होंने साधु के कर्त्तव्य का विवेचन किया है। मनोनुशासन में मन को प्रबल बनाने की साधना के मार्ग का विवेचन करते हुए आचार्य श्री ने इस लघु ग्रन्थ में इन्द्रिय तथा मन को प्रबल बनाने की साधना को केन्द्र बिन्दु मानकर वर्णन किया है । भिक्षु, न्यायकणिका में जैनदर्शन के जैन न्यायशास्त्र के सिद्धान्तों निरूपण किया है। सूत्र और वृत्ति में संक्षिप्त सरल सम्यक् परिचय देकर वाहमय को शास्वत श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण कड़ी जोड़ी है। ६०७ का आचार्य श्री ने सरल संस्कृत में सहज आचार्यश्री ने इस ग्रन्थ के द्वारा नैयायिक +0+0 अर्हत् वन्दना में जैन धर्मावलम्बियों के परम्परागत नमस्कार मंत्र, मोक्ष सूत्र, अहिंसा सूत्र, सत्त सूत्र, अप्रमाद सूत्र, साम्य सूत्र, आत्मविजय सूत्र, मंत्रीसूत्र, मंगल सूत्र मूल प्राकृत के साथ ही साथ आचार्यश्री ने हिन्दी, अनुवाद भी प्रस्तुत किया है। भगवान महावीर का समग्र धर्मदर्शन और जीवन दर्शन आगम साहित्य में संकलित है। आचार्यश्री और उनके विद्वान् दार्शनिक मुनिजनों ने उन आगमों के सुसम्पादन तथा अनुवाद में अपना महत्वपूर्ण योग दिया है । आचारांग सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, शाताधर्मकथा, उपासकदशा, अंतकृतदशा अनुरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण व विपाकश्रुत को पाठशुद्धि के पश्चात् प्रस्तुत करने का अतिमानवीय कार्य आचार्यश्रा तथा उनके शिष्य मुनि नथमलजी के हाथों पूरा होने जा रहा है। साथ ही प्राकृत भाषा बृहद्कोष, संस्कृत छायानुवाद, शब्दों के उत्कर्ष का इतिहास, शेष टिप्पणियों का संयोजन, आगमों का कालनिर्णय, समीक्षा, अन्य दर्शनों से तुलना का कार्य भी अनथक परिश्रम से आचार्यश्री ने सम्पूर्ण किया है । हिन्दी में 'धर्म एक कसोटी एक रेखा' में आचार्यश्री ने अध्यात्म के परिप्रेक्ष्य में जैन धर्म तथा विविधा तीन खण्डों में अपना विभिन्न विषयों पर चिन्तन, मनन, अध्ययन से अनुभूत अभिमत का निरूपण किया है। इस ग्रन्थ में विभिन्न राजनेताओं, साहित्यकारों, कवियों, दार्शनिकों, विचारकों की जिज्ञासा, चेतना को सम्पर्क के माध्यम से उन्होंने चित्रित किया है । दक्षिण भारत के जैन आचार्य, वर्तमान के सन्दर्भ में शास्त्रों का मूल्यांकन, डा० राजेन्द्रप्रसाद, प० नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, डॉ० जाकिर हुसैन आदि के सम्बन्ध में भी आचार्यश्री ने अपना मुल्यांकन इस ग्रन्थ में दिया है। आचार्यश्री ने 'मेरा धर्म-केन्द्र और परिधि में विस्तार से सर्वधर्मसमभाव, स्याद्वाद, धर्म का तेजस्वी रूप, धार्मिक समस्यायें, एशिया में जनतन्त्र का भविष्य, लोकतन्त्र का आधार विश्वशान्ति एवं अनुवम बुद्ध और सन्तुलन समय के विभिन्न पहलू व्यक्ति और समाज निर्माण, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के सन्दर्भ में अणुव्रत, अनशन, मर्यादा, तेरापंथ महावीर के शासन सूत्रों का विवेचन किया है। आचार्य रघुनावजी के समय भिक्षुगण के अन्त का उद्भव व विकास का परिचय भी उनकी लेखनी में इस ग्रन्थ में प्रस्तुत हुआ है। तेरापंथ 3 स्वसिजन, धर्म तथा व्यक्ति स्वातन्त्र्य, जीवन और धर्म युद्ध और अहिंसा, अणुव्रत आन्दोलन आदि विषयों पर आचायश्री का विचारोत्तेजक विवेचन, 'क्या धर्म बुद्धिगम्य है ?' ग्रन्थ में प्राप्त होता है। जैन दर्शन का संक्षिप्त निरूपण करते हुए आचार्यश्री ने तत्व क्या है, तत्वचर्चा के बाद तीन सन्देश में आदर्श राज्य की अपनी परिकल्पना दी है। साथ ही साथ धर्म के सन्देश व धर्म के रहस्य को भी सहज सरल भाषा में आचार्यश्री ने बहुजन हिताय, बहुजनसुखाय प्रस्तुत किया है। .0 . Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड . ... .............................................................. अणुव्रत गीत एवं अणुव्रत के सन्दर्भ में अणुव्रत आन्दोलन के मूल सिद्धान्तों की क्रमशः गीतमयी व सहज सरल व्याख्या की गई। प्रश्नोत्तर शैली में समसामयिक, सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों में नैतिकता व शुद्धाचरण की आवश्यकता भी इन ग्रन्थों में आचार्यश्री ने प्रतिपादित की है। राम के जीवन पर जैन परम्परा में एक प्रगीत प्रबन्ध भी आचार्यश्री ने अग्नि परीक्षा शीर्षक से लिखा है। आचार्यश्री ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के जीवन का परिचय देते हुए ही श्रीकाल यशोविलास, माणक महिमा, डालिम चरित्र, कालू उपदेश वाटिका आदि ग्रन्थों का प्रणयन किया है। उनके प्रवचनों के अनेक संग्रह भी सामने आये हैं जिनमें सन्देश, कान्ति के पथ पर, नवनिर्माण की पुकार आदि संग्रह प्रमुख हैं। अपने इस विस्तृत साहित्य सृजन के अतिरिक्त अपने विद्वान् मुनियों के साहित्यिक कार्यकलापों को भी आचार्यश्री की सतत प्रेरणा, निर्देशन व मार्गदर्शन का सम्बल प्राप्त होता रहता है। 0000 - ० Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . - . -. -. -. -. - . - . -. -. - .. आगम-पाठ संशोधन: एक समस्या, एक समाधान 0 मुनि श्री दुलहराज युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के शिष्य जैन आगमों का इतिहास पचीस सौ वर्ष पुराना है । वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी से पूर्व तक आगमों का व्यवस्थित लेखन नहीं हो पाया था, प्रवचन के माध्यम से गुरु अपने शिष्य को और शिष्य अपने शिष्य को आगम-वाचना देते और इस प्रकार आगमों का अस्खलित रूप से हस्तान्तरण होता रहता। वीरनिर्वाण की दसवीं शताब्दी के अन्त में महामेधावी आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने एक संगीति बुलाई और उसमें आगम-पाठों क संकलन, व्यवस्थीकरण और सम्पादन किया। यह आगम-वाचना अन्तिम और निर्णायक मानी गई। इस वाचना के विषय में हमें यह स्पष्ट जान लेना चाहिए कि हजार वर्षों से मौखिक परम्परा के रूप में चली आ रही भगवान महावीर की वाणी के अनेक स्थल पूर्ण विस्मृत हो गए, अनेक स्थल अर्द्ध विस्मृत से हुए और बहुत भाग स्मृति-परम्परा से अक्ष ण्ण रहा । दूरदर्शी आचार्य देवद्धिगणी ने अपने समय के सभी विशिष्ट आचार्यो, उपाध्यायों और मुनियों को एक मंच पर एकत्रित कर उनके कण्ठस्थ ज्ञान को एक बार लिपिबद्ध कर डाला। सब संकलित हो जाने पर स्वयं आचार्य ने या उस समय के निर्दिष्ट मुनि-मण्डल (Board) ने उस संकलित आगम-पाठ का संपादन किया । संपादन काल में पाठों में काट-छाँट हुई तथा उनको व्यवस्थित करने का उपक्रम हुआ। साथ-साथ आचार्यमण्डल ने गत दस शताब्दियों की प्रमुख घटनाओं को भी आगमों में यत्र-तत्र जोड़कर उनको प्रामाणिक रूप दे डाला। यह पन्द्रह सौ वर्ष पुरानी बात है । इस उपक्रम से आगमों का रूप सदा के लिए निश्चित हो गया। तत्पश्चात् किसी आचार्य ने पाठों में हेर-फेर तो नहीं किया, किन्तु विस्तार का संक्षेप अवश्य किया है। वर्तमान में उपलब्ध आदर्श इसके प्रमाण हैं। देवद्धिगणी की आगम-वाचना के बाद आगमों की प्रतियाँ लिखी जाने लगीं। प्रतिलिपिकरण को पुण्य-कार्य माना गया और तब अनेक व्यक्ति इस कार्य में जुट गये । एक-एक धनी व्यक्ति ने हजारों-हजारों प्रतियाँ तैयार करवाई। लिपीकरण की यह प्रक्रिया तीव्रगति से तब तक चलती रही जब तक कि मुद्रण-यन्त्रों का प्रादुर्भाव नहीं हुआ। इसका फलित यह हुआ कि लगभग एक शताब्दी पूर्व तक लिपीकरण की प्रक्रिया चलती रही । लिपीकरण के चौदह सौ वर्षों के इस दीर्घकाल में आगम-पाठों में बहुत बड़ा परिवर्तन हो गया। इसके मुख्य कारण ये हैं (१) प्रतिलिपि करने वालों के सामने जो प्रति रही उसी के अनुसार प्रति तैयार करना । (२) लिखते-लिखते प्रभादवश या लिपि को पूरा न समझ सकने के कारण अक्षरों का व्यत्यय हो जाना, वर्णविपर्यय हो जाना। (३) दृष्टिदोष के कारण पद्य या गद्य के अंशों का छूट जाना या स्थानान्तरित हो जाना। (४) लिपि करते समय पाठ के पौर्वापर्य का विमर्श न कर पाना। (५) लिखते समय संक्षेपीकरण की स्वाभाविक मनोवृत्ति के कारण 'जाव' या 'एवं' आदि शब्दों से अनेक पद्यों या गद्यांशों को संगृहीत कर लेना। Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पचम खण्ड (६) व्याख्या-काल में आगम-पाठों के व्याख्यांशों को प्रति के आस-पास लिख रखना और कालांतर में उन व्याख्यांशों का स्वयं पाठ के रूप में प्रविष्ट हो जाना। पाठ-भेद होने के ये कुछेक मुख्य कारण हैं। इनके अतिरिक्त अनेक अन्यान्य कारण भी हो सकते हैं । इन पाठभेदों के कारण कालान्तर में व्याख्याओं में भी अन्तर होता रहा और कहीं-कहीं इतना बड़ा अन्तर हो गया कि पाठक उसको देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ बन जाता है। आज जितने हस्तलिखित आदर्श प्राप्त होते हैं, उतने ही पाठ-भेद मिलते हैं। कोई भी एक आदर्श ऐसा नहीं मिलता, जिसके सारे पाठ दूसरे आदर्श से समान रूप से मिलते हों और यह सही है कि जहाँ हाथ से लिखा जाए वहाँ एकरूपता हो नहीं सकती क्योंकि लिपि-दोष या भाषा की अजानकारी के कारण त्रुटियाँ हो जाती हैं । प्राचीन आदर्शों में प्रयुक्त लिपि में 'थ' 'ध' और 'य' में कोई विशेष अन्तर नहीं है। इस कारण से 'य' के स्थान पर 'ध' या 'थ' और 'द्य' के स्थान पर 'ध' या 'य' हो जाना कोई असम्भव बात नहीं है। इस सम्भाव्यता ने अनेक महत्त्वपूर्ण पाठों को बदल दिया और आज उनके सही रूपों के जानने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। उदाहरण के लिए 'थाम' शब्द 'धाम' या 'याम' बन गया। इन तीनों शब्दों के तीन अर्थ होते हैं, जो एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं । इसी प्रकार अनेक अक्षरों के विषय में भ्रान्तियाँ हुई हैं। 'च' और 'व' के व्यत्यय से अनेक पाठ-भेद हुए हैं। आगम पाठों का संक्षेपीकरण दो कारणों से हुआ है-- १. स्वयं रचनाकार द्वारा २. लिपिकर्ता द्वारा। संक्षेपीकरण विशेषतः गद्य भाग में अधिक हुआ है, किन्तु कहीं-कहीं पद्य भाग में भी हुआ है। संक्षेप करते समय रचनाकार या लिपिकार के अपने-अपने संकेत रहे होंगे, किन्तु कालान्तर में वे विस्मृत हो गये और तब वह संक्षेप मात्र रह गया, उसके आगे पीछे का सारा अंश छूट गया । (क) रचनाकार द्वारा कृत संक्षेपीकरण--दशवकालिक सूत्र के आठवें अध्ययन का छब्बीसवाँ श्लोक इस प्रकार है कण्णसोक्खेहि सद्देहि, पेम नाभिनिवेसए। दारुणं कक्कसं फासं, काएण अहियासए । यहाँ पाँच श्लोकों का एक श्लोक में समावेश किया गया है। ऐसी स्थिति में पांच श्लोकों को जाने बिना इस श्लोक विषयक अस्पष्टता बनी रहती है। यथार्थ में पांचों इन्द्रियों के पाँचों विषयों को समभावपूर्वक सहने का उपदेश इन पाँच श्लोकों से अभिव्यक्त होता है। किन्तु श्लोकों के अधिकांश शब्दों का पुनरावर्तन होने के कारण तथा आदि, अन्त के ग्रहण से मध्यवर्ती का ग्रहण होता है-इस न्याय से रचनाकार ने कर्ण, शब्द और स्पर्श का ग्रहण कर पाँच श्लोकों के विषय को एक ही श्लोक में सन्निहित कर दिया। __ चूणिकार तथा टीकाकार ने इस विषय की कुछ सूचनाएँ दी हैं, किन्तु उन्होंने पांचों श्लोकों का अर्थ नहीं किया। निशीथ-चूणि तथा बृहत्कल्प-भाष्य में आद्यन्त के ग्रहण से मध्य का ग्रहण होता है-इसे समझाने के लिए इस श्लोक को उद्धृत कर पांच श्लोक देते हुए लिखा है- ..... हे चोदग! जहा दसवेयालिते आचारपणिहीए भणियं-कण्णसोक्खेंहि सद्दे हि" एत्थ सिलोगे आदिमंतग्गहणं कथं इहरहा उ एवं वत्तव्वं : १. कण्ण सोक्खेहिं सद्दे हि, पेम्म णाभिणिवेसए । दारुणं कक्कसं सद्द सोऊणं अहियासए ॥ Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-पाठ संशोधन : एक समस्या, एक समाधान ६११ . .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-.-.-.-. -. -.-. -.-. -. -. २. चक्खूकंतेहि रूवेहि, पेम्मं णाभिणिवेसए। दारुण कक्कसं रूवं, चक्खुणा अहियासए । ३. घाणकतेहि गन्धेहि, पेम्मं णाभिगिवेसए। दारुणं कक्कसं गंध, घाणेणं अहियासए । ४. जीइकतेहिं रसेहि, पेम्म णाभिणिवेसए । दारुणं कक्कसं रसं, जोहाए अहियासए । ५. सुहफासेहिं कतेहिं, पेम्म गाभिणिवेसए। दारुणं कक्कसं फासं, कारणं अहियासए । मज्झिला अट्ठ विसया गहिता भवंति । एवं इहविमहंत सुतं मा भवं उत्ति आदि अन्तग्गहिता।' (ख) लिपिकर्ता द्वारा कृत संक्षेपीकरण-दशवकालिक सूत्र १३३, ३४ में श्लोक इस प्रकार है एवं उदओल्ले ससिणिद्ध, ससरक्खे मट्टिया ऊसे । हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे॥ गेरुय वणिय सेडिय, सोरठ्ठिय पिट्ठ कुक्कुस कए य । उक्कट्ठमसंसठे संसढे चेव बोधव्वे ।। टीकाकार के अनुसार ये दो श्लोक हैं । चूणि में इनके स्थान पर सत्रह श्लोक हैं । टीकाभिमत श्लोकों में 'एव' और 'बोधव्व' ये दो शब्द जो हैं वे इस बात के सूचक हैं कि ये संग्रह श्लोक हैं। जान पड़ता है कि पहले ये श्लोक भिन्न-भिन्न थे, फिर बाद में संक्षेपीकरण की दृष्टि से उनका थोड़े में संग्रहण कर लिया गया। यह कब और किसने किया ? इसकी निश्चित जानकारी हमें नहीं है । इसके बारे में इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि यह संक्षेपीकरण चूणि और टीका के निर्माण का मध्यवर्ती है और लिपिकारों ने अपनी सुविधा के लिए ऐसा किया है। संक्षेपीकरण से होने वाले विपर्यय के दो उदाहरण ये हैं(१) ज्ञातासूत्र के सोलहवें अध्ययन का १५३वा सूत्र प्रतियों में इस प्रकार हैंसकोरेह सेयचामर हय-गय-रह-महया-भउचउभरेण जाव परिक्खिता यहाँ 'जाव' को कितने गलत स्थान पर रखा है। यह पूरे पाठ के सन्दर्भ में ज्ञात हो जाता है। पूरा पाठ इस प्रकार है सकोरेंह-मल्लदामेणं छत्तणं धरिज्जमाणेण सेयवरचामराहि बी इज्जमाणा हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुडा महया भउ-भउगर-रहपकर-दिद-परिक्खित्ता......। (२) इसी सूत्र के आठवें अध्ययन का ४५वां सूत्र प्रतियों में इस प्रकार है 'कणगामईए जाव मत्थयछिड्डाए।' यहाँ जाव शब्द अस्थान-प्रयुक्त है। इसके स्थान पर “मत्थयछिड्डाए जाव पडिमाए'-ऐसा होना चाहिए । पूरा पाठ इस प्रकार है कणगामईए मत्थयछिड्डाए पउमुप्पल-पिहाणाए पडिमाए...." पाठ-परिवर्तन के मूल कारणों का मैंने जो निर्देश दिया है, उसके उदाहरण आगमों में हमें प्राप्त है। ऊपर मैंने लिपि-दोष और संक्षेपीकरण के कारण होने वाले पाठभेदों का नामोल्लेख किया है। इसी प्रकार दृष्टिदोषके कारण पाठों का छूट जाना या स्थानान्तरित हो जाने के उदाहरण भी मिलते हैं। १. निशीथभाष्य चूणि, भाग ३, पृ० ४८३ Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड आचारांग सूत्र के आठवें अध्ययन के प्रथम उद्दे शक में एक पाठ इस प्रकार है 'जे भिक्खू परक्कमेज्ज वा, चिठ्ठज्ज वा, णिसीएज्ज बा, तुयटेज्ज वा, सुसाणंति वा, सुन्नागारेति वा, गिरिगृहंति वा, रुक्खमूलसि वा, कुंभारायतणंसि वा" । (८. २१) यहाँ 'कु'भारायतवणंसि' (कुम्भकार-आयतन) की बात सहज समझ में नहीं आती। वह शब्द श्मशान आदि चार शब्दों से अलग-थलग पड़ जाता है। सम्भव है इस शब्द के साथ-साथ अन्य आयतनों का भी उल्लेख रहा हो । यह तथ्य आचारांगण की अर्थ-परम्परा से स्पष्ट लक्षित होता है। सम्भव है पहले 'जाव' शब्द द्वारा दूसरे सारे आयतनों का ग्रहण होता रहा हो और कभी किसी लिपिकर्ता से 'जाव' शब्द छूट गया और उस प्रति से लिखी गई सारी प्रतियों में केवल 'कुम्भकारायतणंसि' पाठ लिखा गया। इस प्रकार अनेक शब्द छूट गये। टीकाकारों ने इनका विमर्श नहीं किया। शेष शब्दों के अभाव में इस एक शब्द की यहाँ कोई अर्थ-संगति नहीं बैठती। इसी प्रकार ज्ञातासूत्र के १.१४.४ में कनकरथ राजा के अमात्य तेतलीपुत्र के गुणों का वर्णन है। वहाँ प्राय: प्रतियों में 'तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णाम अमच्चे सामदंड' इतना ही पाठ है। यहाँ जाव' आदि संग्राहक शब्दों का भी उल्लेख नहीं है । वास्तव में यह पाठ इतना होना चाहिए--तस्स णं कणगरहस्स तेयलिपुत्ते णामं अमच्चे साम-दंड-भेय-उवष्प याणनीति-सुप्पउत्त-नय-विहण्णू, 'ईहा-वृह-मग्गण-गवेसण-अत्थसत्थ-मइविसारए, उत्पत्तियाए वेणइयाए कम्मयाए परिणामियाए-चउबिहाए बुद्धीए उववेए, कणगरहस्स रष्णो बहूसु कज्जेसु य कुटुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य आपुच्छणिज्जे, मेढी पमाणं आहारे आलंबलणं चक्ख, मेढीभए पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभए, चक्खुभए, सव्वकज्जेसु सवभूमियास लद्धपच्चए विइण्ण वियारे रज्जधुरचितए यावि होत्था, कणगरहस्स रजो रज्ज च रटं च कोसं च कोट्ठागारं च बलं च वाहणं च पुरं च अंतेउरं च सयमेब समुपेक्खमाणे-समुपेक्खमाणे विहरई"। इसी प्रकार ज्ञातासूत्र में अनेक स्थानों पर लम्बे-लम्बे गद्यांश छूट गए हैं-- (१) इस सूत्र के आठवें अध्ययन का २१७-१८वां सूत्र प्रतियों में इस प्रकार प्राप्त होता है-'आभरणालंकार पभावईपडिसछई...' । इसमें बहुत सारे शब्द छुट गए हैं। पूरा पाठ इस प्रकार होना चाहिए २१७......."आभरणालंकार ओमुयह । २१८"...""तएणं पभावई हंसलवखणेणं पडसाउएणं आभरणालंकार पडिच्छई। (२) इसी सूत्र के पहले अध्ययन का १६८वां सूत्र प्रतियों में इस प्रकार लिखित हैतए णं तुम मेहा ! अण्णया कयाइ गिम्हकालसमयसि जेट्ठामूले इसके स्थान पर पाठ इस प्रकार होना चाहिए तए णं तुम मेहा ! अण्णया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जेठामूले मासे पायवघंससमुट्ठिएणं सुक्कतणपत्तकवयर - मारुयसंजोगदीविएणं महाभयंकरेणं हुयवहेणं वणदवजालापलित्ते सु वर्णतेसु।' (१.१.१६८) कई स्थानों में अनावश्यक अंश भी प्रविष्ट हो गये हैं। इसी सूत्र के पहले अध्ययन का १२८वा सूत्र प्रतियों में इस प्रकार उपलब्ध है 'मउडं पिणद्धेति, दिव्वं सुमणदाम पिणद्धति, दद्दर-मलयसुगंधिए गधे पिणद्धेति । तए ण त मेहं कुमार गंथिमवेढिम-पूरिम-संघाइमेणं........' इसके स्थान पर पाठ ऐसा होना चाहिए......."मउड पिणद्धेति, पिणद्धत्ता गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघाइमेणं...।' शब्दों के स्थानान्तरण के अनेक उदाहरण हमें उपलब्ध होते हैं। ज्ञातासूत्र के प्रथम अध्ययन के १८५वें सूत्र में-'तएणं से मेहे अणगारे समणओ भगवस्स महावीरस्स अंतिए तहारूवाणं थेराणं सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ"......' ऐसा पाठ प्रतियों में मिलता है। इसका अर्थ है-तब वह मेघ अनगार श्रमण भगवान् महावीर के Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-पाठ संशोधन : एक समस्या, एक समाधान पास तथारूप स्थविरों के सामायिक आदि ग्यारह अंग पढ़ता है.......।' इसको पढ़ने से- महावीर के पास तथारूप स्थविरों के' इसका कोई अर्थ समझ में नहीं आता। यह शब्द-विपर्यय है। यह पाठ इस प्रकार होना चाहिए 'तए णं से मेहे अणगारे-समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए...."अहिज्जई'।। इसका अर्थ होगा-तब वह मेघ अनगार श्रमण भगवान् महावीर के तथारूप स्थविरों के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करता है......"। यह स्पष्ट है । यहाँ 'अंतिए' शब्द का स्थानान्तरण होने से अर्थ की दुरूहता हो गई। व्याख्यान की सुविधा के कारण कुछ मुनि कई शब्दों के अर्थ प्रतियों में लिख देते थे। कालान्तर में अर्थ उन शब्दों के साथ जुड़कर मूलपाठ के रूप में गृहीत हो गये। विभिन्न आगमों में इस प्रकार के पाठ उपलब्ध हुए हैं । उदाहरण के लिए ज्ञातासूत्र का एक पाठ उल्लिखित करता हूँ। ज्ञातासूत्र के १.१६.१८ तथा उसके आस-पास के अनेक सूत्रों में एक पाठ प्रतियों में इस प्रकार प्राप्त होता है तित्तकडुयस्स बहुनेहावगाढस्स । यहाँ अर्थ ने पाठ में संक्रमित होकर उसकी बनावट को बदल डाला। तिक्त का अर्थ है-कटुक । कालान्तर में यह कडुवा (प्रा०) तित्त के साथ मूल पाठ बनकर 'तित्तकडुयस्स' ऐसा बन गया। तथा 'तित्त' के बाद वाला 'आलाउयस्स' शब्द छूट गया। तथा 'बहुसंभारसंभियस्स नेहावगाढस्स' के स्थान पर केवल 'बहुनेहाबगाढस्स' मात्र रह गया। जो 'बहु' शब्द दूसरे शब्द के साथ था वह 'नेहावगाढस्स' के साथ जुड़ गया । इस सारे सन्दर्भ में इन शब्दों का अर्थ ही बदल गया । यहाँ मूल पाठ इस प्रकार होना चाहिए तित्तालाउयस्स बहसंभारसंभियस्स नेहावगाढस्स ।' मैंने पहले वर्ण-विपर्यय से होने होने वाले पाठ-भेदों का उल्लेख किया है। उसका स्पष्ट उदाहरण ज्ञातासूत्र (१।११।१६) से सहज बुद्धिगम्य हो जाता है । वह प्रसंग इस प्रकार है राजा जितशत्रु और अमात्य सुबुद्धि के बीच वार्तालाप का प्रसंग आया। राजा ने मन्त्री से कहा-'गन्दे पानी का वर्ण, गंध, रस और स्पर्श सभी अनमोज्ञ होते हैं, वे कभी मनोज्ञ नहीं बन सकते।' मन्त्री बोला-राजन् ! ऐसा नहीं है। मनोज्ञ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पुद्गल अमनोज्ञ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले हो सकते हैं और अमनोज्ञ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पुद्गल मनोज्ञ वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले हो सकते हैं। राजा ने इसका परीक्षण चाहा । अमात्य ने गन्दा पानी लिया। उसे पहले नौ कपड़ों से छाना फिर नौ घड़ों से उसे झारा आदि-आदि । यहाँ प्रतियों में सर्वत्र वस्त्र के स्थान पर घड़े का उल्लेख है नवएसु घडएसु गालावेई..."। 'पड' के स्थान 'घड' हो जाने के कारण अर्थ पकड़ने में कठिनाई होती है। 'घ' और 'प' लिखने में बहुत थोड़ा अन्तर रहता है। अत: वर्ण-विपर्यय से भी पाठों में बहुत बड़ा अन्तर होता रहता है। वर्ण-विपर्यय का एक हास्यास्पद उल्लेख भी मिलता है। एक स्थान में मूल शब्द था 'दहमाण' इसका अर्थ होता है-जलता हुआ। इसके स्थान पर 'हदमाण' हो गया। इसका अर्थ होता है-मलविसर्जन करता हुआ। एक अक्षर के इधर-उधर हो जाने से अर्थ में कितना बड़ा भेद पड़ गया? यह स्पष्ट है। ____ आगमों के मूलपाठगत त्रुटियों के ये कुछेक उदाहरण हैं। इस प्रकार की तथा इनसे भिन्न प्रकार की त्रुटियों के उदाहरण भी यत्र-तत्र उपलब्ध हैं। ज्ञाताधर्मकथासूत्र में इसी प्रकार की सभी त्रुटियों के उदाहरण खोजे जा Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड I I -I I I I........................................................ सकते हैं। अभी-अभी हमने ज्ञातासूत्र के मूलपाठ का संशोधन और निर्धारण किया है। उसके कार्यकाल में इस प्रकार की त्रुटियों के पाठ सामने आये । हमने उनके पौर्वापर्य को पकड़कर पाठ की सप्रमाण संगति बैठाने का प्रयास किया है और उनका विमर्श पाद-टिप्पणों में दिया है। उन पाद-टिप्पणों के अवलोकन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पाठ-विपर्यय के कितने प्रकार हो जाते हैं। मैं मानता हूँ कि आगम-सम्पादन में पाठ-निर्धारण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसके बिना अर्थ, टिप्पण आदि विपर्यस्त हो जाते है। पाठ निर्धारण में प्राचीन प्रतियाँ मात्र सहायक नहीं बनती। प्रत्येक शब्द का पौर्वापर्य और अर्थ जान लेना भी पाठ निर्धारण में आवश्यक होता है । जो व्यक्ति पौवापर्य या अर्थ की ओर ध्यान न देकर केवल प्राचीन प्रतियों के आधार पर पाठ का निर्धारण करते हैं, वे एक नई समस्या पैदा कर देते हैं । ज्ञातासूत्र के एक उदाहरण से यह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है थावच्चापुत्त बाईसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि के शासन के श्रमण थे। शैलकपुर का राजा शैलक उनके पास गया। धर्म सुना और आगार धर्म स्वीकार करने की बात कही। श्रमण ने उसे व्रतों का निर्देश दिया । ज्ञातासूत्र (१।५।४५) के इस प्रसंग का प्रतियों में इस प्रकार उल्लेख है "तए णं से सेलय राया थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म उवसंपज्जइ।" इसका अर्थ है तब शैलक राजा ने थावच्चापुत्त अनगार के पास पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत-इस प्रकार बारह-विध गृहधर्म को स्वीकार किया। यहाँ मीमांसनीय यह है कि बाईसवें तीर्थंकर के समय में बारह प्रकार के गृहस्थ-धर्म का प्रचार नहीं था। क्योंकि पहले और अन्तिम तीर्थंकरों के अतिरिक्त शेष बावीस तीर्थंकरों के शासन में 'चातुर्याम धर्म' का ही प्रचलन होता है। यहाँ जो पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतों का उल्लेख है, वह महावीरकालीन परम्परा का द्योतक है। पाठ की पूर्ति करने वालों ने इस स्थल पर इतना विचार नहीं किया। उन्होंने औपपातिक सूत्र के अनुसार यहाँ इस सन्दर्भ में पाठ-पूर्ति कर दी। वहाँ पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतों के ग्रहण का निर्देश है। वह केवल महावीर के श्रावकों के लिए है, न कि मध्यवर्ती बाईस तीर्थकरों के श्रावकों के लिए। किन्तु प्रस्तुत सन्दर्भ में अरिष्टनेमि के शासन की बात आ रही है, अतः यहाँ 'चाउज्जामियं गिहिधम्म पडिवज्जइ' ऐसा पाठ होना चाहिए। हमने यह भी देखा है कि कुछेक विद्वानों ने आगम पद्यों में छन्द की दृष्टि से कुछेक शब्दों का हेरफेर कर पद्यों को छन्ददृष्टि से शुद्ध करने का प्रयत्न किया है। वहाँ पर भी बहुत बड़ा भ्रम उत्पन्न हुआ है। प्राकृत पद्यों के अपने छन्द हैं, जो कि अनेक हैं। एक ही श्लोक के चारों चरणों के चार भिन्न-भिन्न छन्द प्राप्त होते हैं । किन्हीं श्लोकों में तीन और किन्हीं में दो छन्द भी प्राप्त होते हैं । ऐसी स्थिति में श्लोक के चारों चरणों में एक ही छन्द कर देना न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता । इस प्रकार का परिवर्तन अनधिकार चेष्टा मात्र है। पाठ-भेदों के कारणों को और अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं दो आगमों ज्ञाता और आचारांग के कुछेक उदाहरण सप्रमाण प्रस्तुत कर रहा हूँ१. ज्ञाताधर्मकथा ८।५६८ विवराणि के स्थान पर विरहाणि ८।१६५ किच्छोवगयपाणं किंछपाणोवगयं २।१७ विणित्तए विहरित्तए Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-पाठ संशोधन : एक समस्या, एक समाधान ६१५ . ............. ........ .. ......... " - . -. -. -. -. -. -. - . -. -. -. - . -. - . -. ८।१५४ एवं वुत्ता समाणी के स्थान पर एवं व ८।१३५ सक्कं सक्का १६६७% गंधट्टएणं , गंधोद्ध एणं, गंधुदएणं, गंधदूएणं ५।४० अणगारसहस्सेण सद्धि , सहस्सेणं अणगाराणं, सहस्सेणं अणगारेणं । ८७४ निव्वोलेमि निच्छोल्लेमि ७७५ तुमं णं जा , तुम णं जाव ८७२ भुमरासिरं , भुभलसिरं, संभलसिरं बुभलं, कुन्तलं । ८७२ कोट्टकिरियाण कोटिकिरियाण १६७ संसारियासु संचारियासु १८०५१ परब्भाहते परिब्भमंते, परब्भमंते, परब्भए । ८।३५ जम्मणुस्सवं जम्मणं सव्वं ८।१८ सो उ जीवो, एसो। १३।३१ वेज्जा विज्जा २१७१ गच्छामि इच्छामि १३३१७ मत्तछप्पय महच्छप्पय १२।१३ ईसर , राईसर २. आचारांग ६१७२ आयरिय-पदेसिए आरिय-देसिए ६७३ दइया चियत्ता ६।६६ सिलोए लोए ६९ वीरो ८।६१ णिस्सेयसं णिस्सेस, निस्सेसियं ८.१८ आसीणे णेलिसं उदासीणो अणेलिसो ११३५ विजहत्तु विसोत्तियं तिन्नोहसि विसोत्तियं, विजहित्तु पुव्व संजोगं २।१३४ कासं कसे कामं कामे २२१५७ दिट्ठ-पहे दिट्ठ-भवे २८ वीरे ३।३७ दिट्ठ-भए दिट्ठ-पहे ३।६६ सहिए दुक्खमत्ताए सहिते धम्ममादाय ३१७७ उवाही उवही ४।२५ पावादुया , समणा माहणा ५।६६ पलीबाहरे , पलिबहिरे, पलिबाहरे, बलिबादिरे । प्रस्तुत विवरण के सन्दर्भ में आगम-पाठों की वस्तुस्थिति का सही-सही ज्ञान हो जाता है। सत्य का शोधक अत्यन्त नम्र होता है। वह शोध करता हुआ नए-नए सत्यों का आत्मसात् करता जाता है। वह एक ही बिन्दु पर खड़ा नहीं रहता। एक-एक बिन्दु को पार कर वह सारे समुद्र को तैर जाता है। यदि वह एक बिन्दु पर पहुंचकर धीरो धीरे Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड r r ore ... . . ..... .... . ...... .............. ............. ............. अपने आपको कृतकार्य मान लेता है तो उसकी सत्य-शोध की वृत्ति वहीं ठप्प हो जाती है और तब उसमें नए-नए अभिनिवेश घर कर जाते हैं । अब उसको सत्य-प्राप्त नहीं होता, सत्य का आभास मात्र उसको हस्तगत होता है। आज सद्यस्क आवश्यकता है कि शोध-विद्वान् आगम पाठों के निर्धारण में पूर्ण श्रम करें और पौर्वापर्य, अर्थसंगति, परम्परा और अन्यान्य आगमों में उसका उल्लेख .......... इन सारी बातों पर ध्यान दें। आगमों के अनुवाद आदि की आवश्यकता है किन्तु इससे पूर्व पाठ-निर्धारण का कार्य अत्यन्त अपेक्षित है। पाश्चात्य विद्वानों का यह अनुरोध है कि यह कार्य पहले हो और अन्यान्य कार्य बाद में। वि० सं० २०१२ में औरंगाबाद में आचार्यश्री ने आगम सम्पादन और विवेचन की घोषणा की। उसी वर्ष कार्य प्रारम्भ हुआ। कार्य धीरे-धीरे चलता रहा । अन्यान्य प्रवृत्तियों के साथ यह कार्य आगे बढ़ता गया और कुछ ही वर्षों में यह मुख्य कार्य बन गया । अनुभव संचित हुए। कुछ आगम ग्रन्थ प्रकाश में आये। विद्वानों ने उनको सराहा। कार्य गतिशील रहा । भगवान् महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण शताब्दी का प्रसंग आया तब ग्यारह अंगों का मूलपाठ अंगसुत्ताणि भाग १, २, ३ में प्रकाशित हुआ। आगमों का ऐसा विशद और सटिप्पण मूल पाठ को पाकर जैन समाज कृतकृत्य हुआ। हमारे पाठ-सम्पादन की एक मंजिल पूरी हुई। वर्तमान में प्राय: बत्तीस आगमों का पाठ सम्पादित हो चुका है। पाठ-सम्पादन की वैज्ञानिक पद्धति ने इस वाचना को देवद्धिगणी की वाचना से शृंखलित कर डालाऐसा कहा जा सकता है। आचार्यश्री का दृढ़ अध्यवसाय, वृद्धिंगत उत्साह, और अदम्य पुरुषार्थ तथा बहुश्रुत युवाचार्य महाप्रज्ञजी (मुनिश्री नथमलजी) की सूक्ष्म-मनीषा, गहरे में अवगाहन करने की क्षमता और पारगामी दृष्टि तथा साधुसाध्वियों के कार्यनिष्ठ भाव ने आगम के अपार-पारावार के अवगाहन को सुगम ही नहीं बनाया अपितु वह एक पथ-प्रदीप बना और आज भी उस दिशा में गतिशील संधित्सुओं का पथ प्रकाशित करने में सक्षम है। तेरापंथ धर्म-संघ ही नहीं, सारा जैन समाज आचार्यश्री के इस भगीरथ प्रयत्न के प्रति और उनके साधु-संघ की कर्तव्य निष्ठा के प्रति नत है। 0000 Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .......... ...... .......................-.-.-.-. -. -.-.-.-.-. -.-. -.-.-.-... तेरापंथ सम्प्रदाय और नयी कविता 0प्रो० बी० एल० आच्छा हिन्दी विभाग, शासकीय महाविद्यालय, बड़नगर (म. प्र.) साहित्य जब साम्प्रदायिक मूल्यों के पोषण के लिए रचा जाता है, तो साहित्य की सरहद से हटकर सोद्देश्य रचना का शब्दजाल बनकर रह जाता है। परन्तु सम्प्रदाय की हदबन्दियों से हटकर सार्थक जीवनानुभूतियों को, बेहतर इंसानी रिश्तों को, संकल्पवती आस्था को, मानवीय जिजीविषा को, विसंगतियों में पलती सामाजिक व्यवस्था को अथवा मानवीय आकांक्षाओं से संवेदित मूल्यों को पाथेय बनाता है, तो वह सम्प्रदाय का नहीं जीवित मानवता की सार्थक अभिव्यक्ति बन जाता है। भारत में अनेक सम्प्रदायों और धार्मिक आन्दोलनों का उत्थान-पतन हुआ है, भक्ति, वेदान्त दर्शन, साधना आदि पर सम्प्रदाय लक्षित प्रभूत साहित्य रचा गया है, परन्तु उसका अधिकांश काव्य के क्षेत्र में प्रविष्ट नहीं हो पाया। अपभ्रंश और प्राकृत के अनेक जैन कथाकाव्य रूढ़ियों के प्रयोग में मंतव्यानुसारी बन गये हैं, जिनमें नायक-नायिका दीक्षागुरु से उपदेश प्राप्त कर, जैन साधु बन जाते हैं तथा कर्मों से विरत होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। परन्तु जहाँ कहीं इस सोद्दे श्यता से हटकर उदाशयता प्रकट हुई हैकाव्य क्रान्तिकारी सिद्ध हुए हैं। कबीर हठयोगी निर्गुण सन्त होते हुए भी मानवता के पोषक हैं और तुलसी के राम सम्प्रदाय-विशेष के आराध्य होकर भी मानवता के त्राता पुरुष हैं। सौभाग्य से जैन धर्म का नव्यतम सम्प्रदायतेरापंथ भी पिछली मान्यताओं से हटकर, मानवता की-उनके सभी पाश्वों की भावभूमि पर काव्य संपदा का सजन कर रहा है। यह सम्पदा तेरापंथ की धरोहर नहीं, साहित्य की तरह निखिल मानवता की रग को छू लेने वाली सहानुभूतिशील धरोहर है । महावीर ने सत्य को अनेकान्तिक कहा है और चरमसत्य को समझने के लिए स्याद्वाद की राह दिखायी है। आज धर्म को भी उसके अनेकान्त में देखने की आवश्यकता है । धर्म कोश, तत्त्व दर्शन, समाधियोग अथवा निवृत्ति मात्र नहीं है। धर्म का सीधा सम्बन्ध सामाजिक स्वास्थ्य और समता से है। इन्हें अनदेखा कर धर्म की चिन्ता करना बेमानी लगता है। आचार्य द्विवेदी का कहना है कि अगर निरन्तर व्यवस्थाओं का संस्कार और परिमार्जन नहीं होता रहेगा तो एक दिन व्यवस्थाएँ तो टूटेंगी ही, अपने साथ धर्म को भी तोड़ देंगी।' अतः धर्म का सीधा सरोकार मानवीय व्यवस्थाओं से है। कहना न होगा कि आज धर्म-सिद्धान्त और व्यवहार के द्वत, मुखौटों की नक्कालता पर प्रहार कर समाज सम्पृक्त नयी मर्यादाओं का संश्लेषण करना चाहता है । तेरापन्थ के ये जैनकवि अपने सम्पूर्ण काव्य प्रयासों में जीवन के अनेकान्त से जुड़े हैं, सामाजिक विसंगतियों को उन्होंने नजदीकी से देखा है, ईश्वरीयता पर नये प्रश्न-चिह्न लगाये हैं, आस्था और विश्वास के नये संकल्प दिये हैं और नकली कुण्ठाओं को अनावृत कर स्वस्थ मानवीयता के सबल संकेत दिये हैं। यही कारण है कि ये कविताएँ हिन्दी की नयी कविता से अन्तरंग होती हुई भी नैराश्य और अनास्था के बियावान में नहीं भटकी है। समय की प्रगति, बदलती विचारधाराएँ, एवं संगत-विसंगत परिदृश्य कवि की अनुभूति को प्रभावित करते हैं। द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् वैज्ञानिक और तकनीकी विकास, युद्धों की काली छाया, यान्त्रिक जीवन की नीरसता, १. पुनर्नवा-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृ० १७३. Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .................................................................... जीवन-मूल्यों की टकराहट, सिद्धान्त और आचरण का द्वैत, परम्परा और परम्परा-विहीनता का संघर्ष, व्यक्ति और समाज के उलझते रिश्ते आदि अनेक जटिलताओं ने जीवन को प्रभावित किया है और काव्य संसार भी इससे अछूता नहीं रहा । हमारे सारे विचार मानव केन्द्रित हो गये और गतानुगतिक विचार संक्रमित होते रहे । संक्रमण के इस दौर में भी कुछ कवि प्राणवन्त बनकर मानवता के भविष्य के प्रति विश्वासी बने रहे, परन्तु उसका निराश किन्तु विध्वंसक स्वर निहिलिज्म में सुना गया। कहना न होगा कि मानवीय चरित्र के ये सर्जक साधक कवि धार्मिक मान्यताओं से उपरत होकर मानवीय भविष्य के प्रति संवेदनशील बने रहे । धर्म का तात्त्विक और निवृत्तिमूलक रूप ही अब तक चिन्तनीय बना रहा, परन्तु इन कवियों ने इस एका न्तिक दर्शन को भी चुनौती देने का साहस किया है। फ्रांसीसी कवि रेम्बू का कहना है कि “काव्यात्मक मार्ग तक आने का अभिनव मार्ग ऊँचा और खतरनाक है" और इन कवियों के लिए यह खतरा दुहरा बन गया है-धर्म को तथा काव्य को चुनौती देने के सन्दर्भ में । पर यह आस्थाभरी चुनौती हमेशा गति देती है। सर्वेश्वर के शब्दों में-- __ "वह यति है—हर गति को नया जन्म देती है। आस्था है-रेती में भी नौका खेती है।" प्रस्तुत लेख तेरापंथ के इन जैन कवियों की काव्य-साधना का प्रवृत्तिगत बिश्लेषण करने के लिए लिखा गया है, जो इस प्रकार है (१) आस्था और विश्वास का स्वर-मानव की ऐतिहासिक सामाजिक यात्रा में कई अँधेरे युग आये हैं, पर मानव की दुर्दम जिजीविषा ने कभी दम नहीं तोड़ा है। जीवन के विकृत पापों, विघटन और विखराव के परिदृश्यों, युद्ध और विनाश की अमंगल छाया से त्रस्त जीवन मूल्यों और पाशविकता के दंभ भरे कदाचरणों में भी जीने का मूलमन्त्र प्रत्येक युग ने स्वीकार किया है। लेकिन आज जिन्दगी के रेशे में अनास्था और निरर्थकता का व्यापन हो गया है। तेरापंथ के ये कवि जीवन को उसके सारे यथार्थ सन्दर्भो में स्वीकार करके भी हताश का चिन्तन नहीं देते उसके स्वीकार में तनिक भी हमें संकोच नहीं हैकि हमारे में ज्वालामुखी सी भभकती हुई एक आग है, नुची हुई लाश की भयंकरता है मांस नोचते हुए गिद्धों सी, क्रूरता है और गहरे से गहरे चुभ जाने वाला नुकीले कांच के टुकड़े सा हमारे में अहम् है।' ___ इन सन्दर्भो से कटकर कवि जीना नहीं चाहता, हताश से क्षणवाद की राह नहीं पकड़ता, अनस्तित्व की पीड़ा से मर्माहत नहीं होता। यहाँ तक कि ईश्वरीय विश्वासों को तिलांजलि देकर वह अपने अस्तित्व को कायम रखना चाहता है, यह अस्तित्व पौरुष का अस्तित्व है। मुनि रूपचन्द्र की कविता को लक्ष्य करते हुए डॉ० वार्ष्णेय का कहना है कि संगत-असंगत परिस्थतियों के बीच से कवि प्रशान्त मार्ग खोजने निकलता है और क्षोभ, आक्रोश, आदि से भरे स्वरों को अभिव्यक्ति प्रदान कर आज के भारतीय जन में कर्मठता और आत्मबल उत्पन्न करने की आकांक्षा प्रकट करता है । अकर्मण्यता पर वह गहरा व्यंग्य करता है । मुनि रूपचन्द्र का कहना है १. अर्धविराम-मुनि रूपचन्द्र, पृ० ३०. २. द्वितीय महायुद्धोत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ० लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पृ० २३५ Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ सम्प्रदाय और नयी कविता ६१६ ..................... उम्र भर हम अपने कंधों पर एक बेहोश शरीर ढोते रहे हैं और अपना पेट पालते रहे हैंधर्म और पुण्य के नाम पर मित्रों की सहायता के नाम पर आत्मनिर्भर होकर उसे कैसे बचा सकते हैं हम ? अहिंसक जो हैं ।' साहसिकता यह भी है कि अहिंसा का पाथेय कवि ही अहिंसकता पर नुकीले दाँत गढ़ाता है, पर यह अहिंसा क्लीव मानसिकता की सूचक है। यह अकर्मण्यता जिजीविषा को पुष्ट नहीं करती, इसलिए कवि 'तड़प' को ही जीवन की परिभाषा कह डालता है जीवन की परिभाषा एक शब्द में सिर्फ "तड़प" है वह जीवित भी मृत है जिसमें तड़प नहीं है। साध्वी मंजुला का कहना है-"मौत को मत दो निमंत्रण, जिंदगी से जूझना है।" कवि इसी विश्वास को प्रकट करता है किन्तु रहे आशा अमंद नहीं साध्य के विकसे रेतीले हो जायें। ये कविताएँ मानवता की पोषक हैं । “मानवतावाद, नियतिवाद के विरुद्ध मानवता के कर्म, चिन्तन, स्वातन्त्र्य में आस्था रखते हैं । अतीत की सीमाओं और बन्धन से परे वह अपनी नियति का स्वयं ही निर्माता है। (२) परम्परा और नूतनता का संघर्ष-परम्पराएँ मानवीय आकांक्षाओं की उपलब्धि के लिए मानव निर्मित व्यवस्थाएँ हैं, परन्तु इनका युगानुकूल परिष्कार अनिवार्य है। हर बार जीर्ण-शीर्ण परम्पराओं को चरमरा देना पड़ता है और नव्य व्यवस्थाओं का वरण करना होता है। परन्तु परम्पराओं के प्रति निरर्थक मोह अथवा नये के लिए अबूझा संकर्षण दोनों ही अनुपादेय हैं । मनुष्य अपनी सांस्कृतिक चेतना और प्रत्ययों से कटकर जी भी नहीं सकता, यह अलग बात है कि इन प्रत्ययों को नई दृष्टि से संग्राहित करना आवश्यक है। आधुनिकता का अर्थ परम्परा और अतीत के सम्पूर्ण बहिष्कार से नहीं, अपितु परम्परा को आज के सन्दर्भ में कसने का है। "आज हमारे मूल्य भिन्न है और हमारी आस्थाएँ भिन्न हैं । हमारी आस्था के सन्मुख एक तीव्र प्रश्नचिह्न हैं । इस प्रश्नचिह्न को हटाने में आवश्यकता अनुभव नहीं करता। इतना अवश्य अनुभव करता हूँ, आज तक लिखे जा रहे इस लम्बे वाक्य में हम एक "अर्ध-विराम" लगाकर देखें तो सही, क्या यह वाक्य सचमुच प्रश्नचिह्न की ओर तो जा रहा है ? "विनाश और निर्माण" कविता में कवि जीर्ण-शीर्ण मकान को तोड़ना ही चाहता है, यहाँ तक कि उसकी सड़ी-गली ईंटों और बूढ़े पत्थरों का भी उपयोग १. अर्धविराम, पृ० ५६ २. गूंजते स्वर : बहरे कान-मुनि नथमल, पृ०६ ३. चेहरा एक : हजारों दर्पण, पृ० ४१ ४. अन्धा चाँद, पृ० ४६ ।। ५. नयी कविता : स्वरूप और समस्याएँ, जगदीश गुप्त, पृ० २२ ६. अर्धविराम की भूमिका से Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .................................................... नहीं करना चाहता, इन वृथा मोहों से चिपककर सामाजिक वातावरण को दमघोंटू और जहरीला नहीं बनाना वाहता इस मोह के विषधर को दूध पिलाने की कोशिश करेंगे फिर अपने मुर्दे को कृत्रिम सांसों में जिलाने की कोशिश करेंगे।' लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हर नयापन ही सार्थक है। कवि नव पुरातन को प्रश्नित करता है, जिसका प्रतीक “उदास कबूतर" कविता में निहित है। वह किसी अशुभ को नहीं अपनाना चाहता है, जो भविष्य को बौना लगे कि इस पर हम कुछ लिखेंचो चाहे कितना ही सन्दर्भहीन क्यों न हों लेकिन आगे आने वाली पीढ़ी की दृष्टि में हम औरों से भिन्न (चाहें नपुंसक बौने ही) दीखें।। लेकिन इस संघर्ष में सामंजस्य का स्वर भी मिलता है । यह सामंजस्य निरर्थक के स्वीकार की कीमत पर नहीं अपितु नव-पुरातन के सम्मानपूर्ण आदर में लक्षित है कली को चाहिए कि वह फूल को सम्मान दे पतझड़ को रोका नहीं जा सकता कौंपल को टोका नहीं जा सकता। (३) आज की सभ्यता दोहरे जीवन मूल्य-कामायनी में प्रसादजी का इंगित था कि इच्छा, ज्ञान और क्रिया का असन्तुलन ही जीवन की विडम्बना है । आज मनुष्य ने अपने चातुर्य से इतने मुखौटे और आवरण गढ़ लिये हैं कि वास्तविक जीवन मूल्य तिरस्कृत हो गये हैं । मुनि रूपचन्द्र ने “स्वामिभक्त बैल" के प्रतीक से आज की दोहरी नैतिकता पर प्रहार किया है । व्यापारी इस बैल पर हड्डियों के ढेर से लेकर तस्करी का समान और भगाई हुई लड़कियों तक को ढोता हुआ मालिकीय मूल्यों का प्रशंसक बना रहा । व्यावसायिकता यही कहती रही कि बैल अन्त तक स्वामिभक्त बना रहा अपने प्राणों को संकट में डालकर भी कानून के शिकंजों से मालिक को बचाता रहा + + आज इसी बात की चर्चा थी बाजार में बड़ा स्वामिभक्त था बेचारा । । व्यावसायिकता के इस परिदृश्य में संवेदना को आत्महत्या करनी पड़े, तो क्या आश्चर्य ? इन दोहरे मूल्यों ने संवेदना-निरपेक्ष एक ऐसी अँधेरी संस्कृति को जन्म दिया है, जो सूरज की संस्कृति पर १. अर्धविराम, पृष्ठ १० ३. अर्धविराम, पृ० ५४. २. गूंजते स्वर : बहरे कान, पृ० १५, ४. अर्धविराम, पृ० २८. Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ सम्प्रदाय और नयी कविता ६२१ अपराध गढ़ती है। नव-धनाढ्यों की एकान्तिक विलासिता में सूरज बाधा डालता है, अँधेरे में भोग की उत्कण्ठाओं को झुठलाता है । लेकिन सच यह भी है कि आम आदमी भी इसी अँधेरे का फायदा उठाने के लिए तत्पर रहता है। 'सूरज को फाँसी' कविता का आलेख है अभियोग यह था उस पर कि हमारी कामनाओं के रंगीन प्यालों तश्तरियों को तोड़-फोड़कर उसने असभ्यता का परिचय दिया परदों में छिपी हमारी नग्नता को उघाड़कर उसने अश्लीलता का परिचय दिया।' विलासिता के ये ही नजारे नये संत्रास को जन्म देते हैं, नारी को भोग यन्त्र बनने को विवश करते हैं, चमड़ी का ब्यापार (Skin Trade) चलाते हैं । जहाँ मानवता उसके भ्रूण में ही होम हो जाती है। अर्ध विराम में (पृष्ठ ४१) इसीलिए तो कवि का व्यंग्य है आदमी-अस्तित्वबोध का झूठा अभिमान, जानवर-एक सीधा सादा इन्सान ? एक्सरे शरीर के अवयवों का तो चित्र प्रस्तुत कर देता है, अन्ततम का नहीं। पर कवि ने मनुष्य के अन्तस का चित्र खींचने के लिए मना कर दिया है, क्योंकि यह गिरगिट इतनी जल्दी रंग बदलता है कि तुम्हारी सचाई झूठ में बदल जायेगी। विज्ञान तटस्थ न्याय का प्रतीक है, पर सभ्यता के हाथों उसकी तटस्थता भी संदेहशील हो उठेगी । आज का आदमी स्वार्थ-केन्द्रित है, समूह मानवता के जीवन मूल्यों की उपेक्षा कर रहा है । इसीलिए वह विज्ञान जैसे रचनात्मक प्रयत्नों को भी ध्वंस में परिणत कर देता है पक्षी, मानव की तरह घर बनाना तो जानता है लेकिन दूसरे घर को ढहाना नहीं जानता। स्वार्थलिप्त यह आनवता आज घुटन, आक्रोश, निरर्थकता के इन परिदृश्यों में जिन्दा लाशें बन गई है, यद्यपि इन लाशों में कवयित्री नयी गीति संवेदना से स्फुरित करना चाहती है (साक्षी है शब्दों की, पृ० ३६)। (४) ईश्वरीय आस्थाओं पर प्रश्न-चिह्न-वैज्ञानिक बुद्धि के विकास के साथ मानव का सम्बन्ध मानवेतर से स्खलित होकर सम्पूर्ण मानवता में ही केन्द्रित हो गया, अतः संवेदना और नैतिकता, भावना और ईश्वर-कल्पना का रूप परिवर्तन हो गया । मूल्यों की परिवर्तनीयता भी मानव सापेक्ष हो गई। इसीलिए कवि ईश्वर के अस्ति-नास्ति के तर्कानुमान से ऊपर उठकर उसकी यशःकीर्ति के प्रति भी सन्देहशील हो जाता है १. अर्धविराम, पृ० ३३ २. गूंजते स्वर : बहरे कान, पृष्ठ ३८ । ३. साक्षी है शब्दों की, पृ० ४५ ४. आचार्य हजारीप्रसाद के उपन्यास, बी० एल० आच्छा, पृ०६ Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड -.-.-.-. -.-.-.-................. .-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. मेरे भगवान ! दीनता और दरिद्रता के सागर में डूबी हुई तुम्हारी भक्त मण्डली को देख क्या मैं कह सकता हूँ कि तुम दयालु हो ?' ईश्वर की ओट में पाखण्ड और अनाचार भी खुलकर खेले हैं । अब तो स्वयं ईश्वर ही ऐसे भक्तों से घबराकर उलटे पैरों भागा जा रहा है आपकी मूरत पर वे सर्वस्व चढ़ा रहे हैं । अबकी बार वे झुझलाकर बोले हाँ इसीलिए ही तो लोग इनसे ईमानदारीपूर्वक ठगे जा रहे हैं। ईश्वरीय अस्तित्व का प्रतीकत्व और उसके उखड़ते सिंहासन की वेदना भरी कहानी को यहाँ लक्षित किया जा सकता है तभी भगवान ने सिसकियाँ भरते हुए उत्तर दिया-भक्त ! मत पूछो दर्द, बहुत दर्द मेरी लगाम इन्सान के हाथ में है। (५) नारीत्व को आह्वान-आधुनिक युग में नारीत्व की उदात्त परिकल्पना में काव्य का विशेष योगदान रहा है। नारी व्यापक अर्थों में पुरुष की सहचरी है। पुरुष की वासना के भोगयन्त्र से मुक्त होकर आज नारी स्वयं की इयत्ता और स्वत्व को पहचानने लगी है। नारी की सामाजिक और रचनात्मक भूमिका को इन कवियों ने उभारा है ध्वंस नहीं नब नव सर्जन में तुम ही हो सुन्दरतम शक्ति करो क्रान्ति मूच्छित जीवन में फिर आ जाये नवस्पन्दन भारत की नारी, तुम जागो।। मुनि रूपचन्द्र ने भी विलासी शरीरों द्वारा नारी पर किये जा रहे पाशविक अत्याचारों पर निर्मम व्यंग्य किये हैं । इन विलासियों के लिए औरत एक जिस्म और मुनाफे का धन्धा मात्र है। (६) साम्प्रदायिकता पर प्रहार-इन सभी कवियों ने मानवता को अलगाने वाली दीवारों को तोड़ा है। साम्प्रदायिकता के इस जहर ने कभी भी मनुष्य को एक नहीं होने दिया है। वर्ण जाति और सम्प्रदाय की दीवारें इतनी बड़ी खड़ी हैं कि पत्थर पर फूल कभी खिला ही नहीं । -० १. गूंजते स्वर : बहरे कान, पृ० २६ २. अंधा चाँद, पृ० ४२ ३. साक्षी है शब्दों की, पृष्ठ २१ ४. साक्षी है शब्दों की, पृ० ५० ५. गूंजते स्वर : बहरे कान, पृष्ठ ११ Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि रूपचन्द्र ने भी इन शब्दों में इस कुत्सित मनोभाव का प्रत्याख्यान किया है मजहब के नाम पर राष्ट्र और मत और बड़ी-बड़ी दीवारे खड़ी करने की तैयारी, जाति और भाषा के नाम पर आदमी से आदमी के दिल में घृणा पैदा करना । ' तेरापंथ सम्प्रदाय और नयी कविता ये कवि अपने आशय की व्याख्या के लिए अन्य धर्मों के पुराख्यानों का सान्दर्भिक प्रयोग करने में भी नहीं चूके हैं । (७) उधार की संस्कृति से इन्कार - "स्वत्व" मानव और राष्ट्र को गरिमामय बनाता है, पर जब हम उधार के प्रकाश को ही श्रेयस् समझकर अपने प्रति हीन भाव जतलाते हैं, तो कवि इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता। उधार के प्रकाश पर ही जिन्दा रहने की अपेक्षा उसे "चाँद का अन्धापन" प्रतीकात्मक दृष्टि से अधिक पसन्द है ।" पश्चिम के नक्काल प्रभाव से प्रभावित भारतीय युवा पर यह गहरा व्यंग्य भी है । साध्वी मंजुला भी कहती है अच्छा किसी उधारे धन से । इतराते कुत्सित यौवन से ।। खुद का एक नया पैसा भी इस कुटिया को मत बहकाओ ६२३ (5) आराधना का समर्पित संगीत- - इन सभी कवियों ने अपने आराध्य के प्रति संगीतभरी आस्थाएँ व्यक्त की हैं। पर आराध्य कौन है, यह सिवाय भूमिकाओं के कहीं व्यक्त नहीं है । अतः मूलरूप में इसे ईश्वरीय शक्ति और भक्ति के रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए कुछ कविताएं आचार्य तुलसी को लेकर निवेदित हुई हैं। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा का 'सरगम' संकलन एकान्तिक रूप में इसी समर्पण का छन्दोबद्ध संगीत है, उसके प्रति आस्था का आवेग है। देव तेरी इस अतीन्द्रिय चाँदनी का राग, भर रहा है मनुज में शुभ्रतम अनुराग । १. अं० २१ २. अंधा चांद, भूमिका से ३. प्राथमिकी, गूंजते स्त्रर बहरे कान ४. अंधा चांद की भूमिका से - ( सरगम, पृ० ३७ ) (e) काव्यमूल्य : शिल्प का नया रचाव - तेरापंथ के इन कवियों की साधना प्रश्न चिन्हों से घिरी मानवता के साथ जुड़कर नये बोध एवं शिल्प में अभिव्यक्त हुई है । कवि अनुभूतियों की व्यक्ति के लिए नये प्रतीकों और शब्दों का परिधान जुटाते हैं, इसलिए ये कविताएँ शब्द कल्लोल नहीं हैं । "अनुभूति का सोता शब्दों में फूट पड़े, वह शब्दों मैंने शब्दों का जाल रचा है और न तुकों की प्रतिवद्धता जनसाधारण से है। इसी वास्ते की कारा का बन्दी न बने, इसलिए मैंने उन्मुक्त वातावरण दिया है-न अपेक्षा की है, उसे सहज गति से बहने दिया है ।" इन कविताओं की घुमावदार शिल्प और क्लिष्ट रचना प्रक्रिया से बचकर सीधी किन्तु बेबाक अभिव्यक्ति को प्रेय माना गया है । हिन्दी की नयी कविता - भाव और भाषा-शैली, दोनों दृष्टियों से जनसाधारण से बहुत दूर है । अतः कवि जनसाधारण की भाषा और बोधगम्य प्रतीकों का ही उपयोग करता है । अनेक काव्य पंक्तियाँ तो पाठक को संवाद की स्थिति से जोड़ देती हैं | जनसंवादी स्वर एवं भाषा, अभिवंदनीय इसलिए हैं कि वे अपनी सारी बुनावट और सम्प्रेषण में पाठक के प्रति प्रतिबद्धता प्रकट करते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि कवि कला के प्रति गैर ईमानदार रहे हैं, अपितु कला के मोल पर सम्प्रेषण को कत्ल नहीं किया है । चेहरा एक हजारों दर्पण, पृ० ३१) • . Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड . ........................................................... ___ इन काव्यानुभूतियों के स्वर विविध हैं, जिन्हें सहज शब्द-बन्ध मिल गया है । सहजता के कारण कहीं-कहीं काव्य परिपाक शिथिल एवं गद्याभासी प्रतीत होता है। कहीं भाषा अनावश्यक स्फीति का बोध कराती है, तो कहीं उपयुक्त शब्द चयन की असावधानता । कला आवरण माँगती है और कवि बेलाग अभिव्यक्ति देना चाहता है। ऐसी स्थिति में ये कविताएँ प्रतीकित या बिम्बाधायी अभिव्यंजनाएँ नहीं दे पातीं। पुराने प्रतीक नये अर्थों की छाया नहीं दे पाते । कारण साफ है कि ये साधक कवि जन-प्रतिबद्ध है और इनका नये काव्य के क्षेत्र में प्रवेश भी ऐतिहासिक महत्त्व रखता है। धर्म के रूढ़ क्षेत्र में आधुनिक संवेदना का जनलिपि में ढलता यह स्वर पहले नहीं सुनाई दिया था। लेकिन कलात्मक सामर्थ्य और नये अभिव्यक्ति शिल्प के संकेत भी कम नहीं हैं। कवि रूपचन्द्र ने अन्धा चाँद, उदास कबूतर, सूरज को फांसी, स्वाभिभक्त बैल, महासागर, मिल की चिमनी आदि अनेक नये अर्थ प्रतीकों को सिरजा है, जो जीवन के तनाबों, दोहरे मूल्यों, सभ्यता के विषैलेपन एवं बेमानी मूल्यों को पूरी अर्थगमता समेटे हुए हैं । शब्द चयन और मार्मिक अर्थ-स्फोट की दृष्टि से ये काव्य पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं१. शायद सिसकती हुई अमीरी की आहे गरीबी की अनब्याही चाहों से ज्यादा भयंकर होती हैं। २. इन गीतों की सरगम से । यदि कोई पीड़ा हँसती है, तो हँस लेने दो इसकी (समुद्र) भोली बेटियों को जाल में फंसाकर आजाद शरीर, गुलाम साँसे पीड़ा घुटन और आहों को ढोने वाली उसासे ५. अनाथ बच्चे सा कराहता हुआ शहर इन स्थानों पर एन्टीथीसिस का सौन्दर्य मिलता है, जो कवि की प्रश्न-चिह्नित दृष्टि को उजागर करता है। इन कविताओं के उच्चार में ओवरटोन और बलाघात का विशेष महत्त्व है। युवाचार्य महाप्रज्ञजी (मुनि नथमलजी) मूलत: विचारक हैं, दृष्टान्तों के सहारे निष्कर्षों तक पहुँचने वाले मनीषी ! यही उनका काव्य व्यक्तित्व भी है । अपनी अनुभूतियों और अभिव्यक्तियों में वे युग के प्रतीपत्व को प्रकट करते हैं, पर दर्शन की छाया छूटती नजर नहीं आती। वह तो उनका अन्तरंग है। इसीलिए उनकी कविताएँ प्रभाव की अपेक्षा बोध की परतों को उघाड़ती है, विचारों की दुनिया में ले जाती है। साध्वी संघमित्राजी आज की युग दशा एवं मन:स्थितियों को बेबाक अभिव्यक्ति देने वाली कवयित्री हैं। उनके प्रथम प्रयास 'साक्षी है शब्दों की' में जीवन के विविध आयामों के अनियन्त्रित स्वर सुने जा सकते हैं। पर इनके प्रतीक और छन्द परम्परागत है, अत: नयी अर्थ-ऊर्जा देने में कमजोर साबित होते हैं । परन्तु अनुभूति या आवेग पाठक को संवेदित करता है । साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी का काव्य संकलन “सरगम' अपनी गीति संवेदना में आराध्य के प्रति समर्पण भाव ही प्रकट करता है। अपने टूटे-जुड़े जीवन को वह आराध्य के प्रति ही उत्सगित करना चाहती हैं। उनका आराध्य जगती के लिए चरित्र की बटछांह है, विशाल समुद्र को पार कराने वाली नौका है, अँधेरे पथ को नेतृत्व देने वाले चाँद की रोशनी है। साध्वी मंजुलाजी का काव्य संग्रह "चेहरा एक : हजारों दर्पण' युगीन संवेदना और आराध्य के प्रति समर्पण दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । कवयित्री क्षण की ईमानदार अनुभूतियों को शब्दों में संजोती है, लेकिन ये क्षण अस्तित्ववादी नहीं अपितु शाश्वत से जुड़े हुए हैं । यहाँ प्रत्येक कवि और संकलन का परिचयात्मक आलेख देना अभीष्ट नहीं है। परन्तु इस लेख में अचचित ऐसी कृतियाँ भी हैं, जो काव्य संवेदना के नये धरातल खोजती हैं। यह खोज नयी कविता के 'राहों के अन्वेषण' में संगति खाती प्रतीत होती है। Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .. .. ........................................................ ...... जैन भक्ति साहित्य प्रो० महेन्द्र रायजादा अध्यक्ष, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, श्रीकल्याण राजकीय महाविद्यालय, सीकर भारतवर्ष में वैदिक, वैष्णव, शाक्त, बौद्ध, जैन, सिक्ख तथा लिंगायत आदि धर्म के अनेक पन्थ प्रचलित एवं प्रसिद्ध हैं। ये विभिन्न धर्मपन्थ हमारे देश की संस्कृति की अध्यात्मपरक चिन्तनधाराएं हैं। इन धर्मधाराओं के प्रवर्तकों, साधुओं, प्रचारकों एवं कवियों ने अपने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विचारों के परिप्रेक्ष्य में मानव-जीवन को विशुद्ध, समृद्ध एवं कृतार्थ बनाने हेतु नवीन-नवीन क्षेत्र खोजे हैं एवं जीवन का विपुल अध्ययन एवं साक्षात्कार किया है। धर्म प्रचारकों एवं कवियों ने समय-समय पर अपने पन्थ की मूल प्रवृत्तियों एवं सिद्धान्तों का रहस्योद्घाटन तथा विवेचन करते समय अपने मौलिक विचारों एवं निजी अनुभवों का भी उसमें थोड़ा बहुत समावेश किया है। मूल आर्य एक सरिता की भांति अपने उद्गम से प्रवाहित होता हुआ अपने सुदीर्घ प्रवाह में मार्ग में पड़ने वाले स्थलों के जल को भी ग्रहण एवं आत्मसात करता हुआ निरन्तर प्रवहमान रहता है। वैदिक धर्म आगे बढ़कर सनातन धर्म हुआ और आज हिन्दू-धर्म के नाम से अभिहित किया जाता है। एक ही धर्म की धारा से अनेक पन्थों की धाराएँ तथा शाखा-प्रशाखाएँ फूटी हैं। हमारे देश के सभी धर्मों में आदान-प्रदान भी होता रहा है और इसी कारण हमारा सांस्कृतिक जीवन अत्यन्त सहिष्णु एवं समृद्ध रहा है । लगभग सभी धर्मों में भक्ति को अधिक महत्त्व दिया गया है। एक भी धर्म ऐसा नहीं है जिसमें भक्ति को प्रधानता नहीं दी गई हो । ज्ञानमार्गी एवं अद्वैतवादी जगद्गुरु शंकराचार्य जो कि 'ज्ञानादेव तु कैवल्यम्' में विश्वास रखते थे उन्हें भी यह कहना पड़ा 'मोक्षकारणसामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी'। इसी प्रकार ज्ञानमार्ग में अटूट विश्वास रखने वाले जैनियों को भी भक्ति की महिमा को स्वीकार करना पड़ा । वास्तव में भक्ति ही निरन्तर प्रवाहित रहने वाली रसमयी प्रवृत्ति है। जैन जीवन दृष्टि ने जिनेन्द्र आदि चाहें कोई भी नाम स्वीकारा हो; किन्तु उन्होंने अपनी निष्ठा आत्मतत्त्व को समर्पित की है; क्योंकि आत्मा का अर्पण तो आत्मदेव को ही हो सकता है और इसी आत्मदेव की भक्ति को सभी ने अपने ढंग से उपासना करने के लिए अपनाया है । धर्म के विविध पन्थों की जीवन पद्धतियों में कितना भी अन्तर रहा हो, किन्तु सभी धर्मों के अनुयायियों, भक्तों एनं कवियों ने अपनी आत्मा एवं हृदय की वाणी को पूर्ण निष्ठा एवं श्रद्धा के साथ अपने आराध्य देव को अर्पित किया है। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार हिन्दी भक्तिकाल के आरम्भ में उस समय प्रचलित बारह सम्प्रदाय नाथ सम्प्रदाय में अन्तर्भुक्त थे। उनमें 'पारस' और 'नेमी' नामक दो सम्प्रदाय भी ये । जैनियों के बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के नाम पर नेमीसम्प्रदाय तथा तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के नाम पर 'पारस-सम्प्रदाय' प्रचलित हुआ। नेमीसम्प्रदाय दक्षिण में तथा पारस-सम्प्रदाय उत्तरी भारत में अधिक फैला था। हिन्दी के सन्त कवि कबीरदास पर भी इस सम्प्रदाय का थोड़ा-बहुत प्रभाव अवश्य पड़ा था। कबीर की 'निर्गुण' में 'गुण' और 'गुण' में 'निर्गुण' वाली बात (निरगुन में गुन और गुन में निरगुन) कि गुण निर्गुण का तथा निर्गुण गुण का विरोधी नहीं है तथा संसार के घट-घट में निर्गुण का वास है । निर्गुण का अर्थ है गुणातीत और गुण का अर्थ है प्रकृति का विकार सत्, रज और तम। कबीर के इसी निर्गुण को सातवीं शताब्दी में अपभ्रंश भाषा के जैन कवियों ने निष्कल कहा है । जैन मुनि रामसिंह ने 'दोहापाहड' में लिखा है- 'तिहुयणिदीसइ देउजिण जिणवरि तिहुवणु एउ।' वे ब्रह्म को संसार में बसा बताते हैं तो Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ...... ............ ............................................... द्वैत की चर्चा करते हैं और जब संसार को ब्रह्म में बताते हैं तो अद्वैत की बात करते हैं। इसी 'द्वैताद्वैत' की झलक कबीर की वाणी में पाई जाती है। मध्यकालीन जैन भक्तकवियों में अनेकान्तात्मक प्रवृत्ति पाई जाती है जिसमें एक ही ब्रह्म के एकानेक, मुर्तामूर्त, विरोधाविरोध, भिन्न-भिन्न आदि अनेक रूप द्रष्टव्य हैं । मध्यकाल के जैन भक्त कवि श्री बनारसीदास ने ब्रह्म के 'एकानेक' रूप के सम्बन्ध में लिखा है देखु सखी यह ब्रह्म विराजित, याकी दसा सब याही को सोहै। एक में अनेक अनेक में एक, दुदु लिये दुविधा मह दो हैं। आपु संसार लखे अपनौ पद, आपु विसारि के आपुहि मोहैं । - व्यापक रूप यहै घट अन्तर ग्यान में कौन अग्यान में को है। मुनि आनन्दघन ने कुण्डल और कनक का प्रसिद्ध उदाहरण प्रस्तुत किया है कि कुण्डल आदि पर्याय में अनेकरूपता रखते हुए भी स्वर्ण के रूप में एक ही है । उसी प्रकार ब्रह्म अपने एकानेक स्वरूप को प्रकट करता है। हिन्दी निर्गुण भक्ति काव्य के मूल स्रोत में जैन भक्तिधारा भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। मध्यकाल में अनेक जैन भक्त-कवि हुए है जिन्होंने तीर्थंकरों के माध्यम से जैन भक्ति काव्य की प्रचुर मात्रा में सृष्टि की है। तीर्थंकर का जन्म होता है, पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा होती है। वह स्वयं अपने तप और ध्यान के द्वारा धर्म का प्रवर्तन करते हैं, उनकी आत्मा शुद्धतम होती है और वे शरीर से मुक्त हो सिद्ध हो जाते हैं। जिनका न जन्म होता हैं और न मरण, यही है निर्वाण और निःसंग। 'तीर्थं र को सगुण और सिद्ध को निर्गुण ब्रह्म कहा जा सकता है। एक ही जीव तीर्थकर और सिद्ध दोनों ही हो सकता है। अत: उसका नितान्त विभाजन सम्भव नहीं।' डा. प्रेमसागर जैन। जैन भक्तिकाव्य संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में स्तुति-स्तोत्रों के रूप में उपलब्ध होता है। विक्रम की प्रथम शताब्दी से इसका क्रम प्रारम्भ होकर निरन्तर चलता रहा। मुक्तक काव्य रचना का यह प्रवाह आगे चलकर हिन्दी पदकाव्य मंदाकिनी के रूप में निरन्तर प्रवहमान रहा। वास्तव में हिन्दी जैन पद-साहित्य अपने आप में अलग से शोध का विषय है। हिन्दी जैन-भक्ति-साहित्य प्रबन्ध-काव्य के रूप में भी उपलब्ध होता है। रामकाव्य की तो इसमें एक लम्बी परम्परा उपलब्ध होती है। इनमें कहीं-कहीं कृष्ण की कथाएँ भी निबद्ध हैं। विक्रम की पहली शताब्दी में प्राकृत के प्रसिद्ध कवि विमलसूरि का 'पउमचरियं' एक प्रसिद्ध रचना है। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता है रामायण के पात्रों का मानवीकरण । मध्यकाल में भक्तकवि रविषेण के 'पद्मपुराण' के अनेक अनुवाद हिन्दी में रचे गये। इसके अतिरिक्त रामचन्द्र का 'सीताचरित' भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियो से एक उत्कृष्ट कृति है। १७वीं शती में पं० भगवतीदास ने 'बृहत्सीतासुतु' की रचना की। उसके अतिरिक्त ब्रह्मजयसागर का 'सीताहरण' एक महत्त्वपूर्ण रचना है जो कि एक खण्डकाव्य के रूप में लिखी गई है । भट्टारक महीचन्द का लवकुशछप्पय' रामकथा के आधार पर लिखा गया है। इसी १७वीं शती की एक अन्य सुन्दर कृति है ब्रह्मराममल्ल का 'हनुमच्चरित'। जैन परम्परा के २२वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के साथ कृष्ण और वसुदेव का नाम भी जुड़ा हुआ है। कवि भाऊ का 'नेमीश्वररास' नामक एक ग्रन्थ और उपलब्ध हुआ है, इसमें १५५ पद हैं। जैन भक्ति साहित्य के निर्माण में भट्टारकों, सूरियों और सन्तों का विशेष योगदान रहा है। वास्तव में जैन भक्तिकाव्य की रचना करने वाले एक ही नाम के अनेक कवि हुए हैं। ज्ञानभूषण नाम के चार भट्टारक हुए हैं, इनमें से 'आदिश्वरफागु' ग्रन्थ के वास्तविक रचयिता की खोज करना अत्यन्त कठिन है। इसी प्रकार चार रूपचन्द और चार भगवतीदास मिलते हैं। आनन्दघनों की भी बहुतायत है । कवि रत्नभूषण ने हिन्दी में 'ज्येष्ठ जिनवरपूजा,' 'विपुलपुण्ण', 'रत्नभूषणस्तुति' तथा 'तीर्थनयमाला' ग्रन्थों की रचना की है। ब्रह्म जयसागर जैन भक्ति साहित्य के सामर्थ्यवान कवि माने जाते हैं, इन्होंने 'सीताहरण', 'अनिरुद्धहरण' और 'सागरचरित' ये तीन प्रबन्धकाव्य लिखे हैं। इन ग्रन्थों का कथानक व प्रबन्धनिर्वाह अत्यन्त सुन्दर बन पड़ा है। . Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .... . .... जैन भक्ति साहित्य ६२७ ................................................................... ..... ___ 'अध्यात्म-सवैया' जैन भक्तकवि पाण्डे रूपचन्द की कृति बतलाई जाती है। डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल का यह मत है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त में 'इतिश्री अध्यात्म रूपचन्द कृत कवित्त समाप्त' लिखा है किन्तु रूपचन्द नाम के चार कवि हुए हैं इनमें से दो समकालीन थे जो कि उच्चकोटि के विद्वान थे। जैन भक्ति में 'निष्कल' और 'सकल' शब्दों का विशेष महत्त्व है। आचार्य योगीन्दु ने अपने ग्रन्थ 'परमात्मप्रकाश' में 'सिद्ध' को निष्कल कहा है । ब्रह्मदेव ने लिखा है-'पञ्चविधशरीररहितः निष्कल:' । अर्हन्त 'सकल' ब्रह्म कहलाते हैं । अर्हन्त उसे कहते हैं जो चार घातिया कर्मों का नाश करके परमात्मपद को प्राप्त होता है। अर्हन्त का का परम औदारिक शरीर होता है। अत: ये सशरीर कहलाते हैं। निष्कल' और 'सकल' में अशरीर और सशरीर का ही भेद है अन्यथा दोनों ही आत्मा परमात्मतत्त्व की दृष्टि से समान हैं । प्रत्येक निष्कल' पहले 'सकल' बनता है, क्योंकि बिना शरीर धारण किये और बिना केवलज्ञान प्राप्त किये कोई भी जीव सकल निष्कल नहीं बन सकता। जैन भक्तकवियों ने निष्कल और अर्हन्त अथवा सकल दोनों के ही गुणों का गान किया है । भट्टारक शुभचन्द्र ने 'तत्त्व सारदूत' ग्रन्थ में और मुनि चरित्रसेन ने अपनी 'सम्माधि' कृति में निष्कल और सकल के अनेक गीत गाये हैं। जैन भक्ति-साहित्य में दाम्पत्य रति प्रमुख है। जैन कवियों ने चेतन को पति और सुमति को पत्नी बताया है । पति-पत्नी के प्रेम में जो शालीनता होती है जैन भक्तकवियों ने उसका सुन्दर निर्वाह किया है । कवि बनारसीदास की “अध्यात्मपदपंक्ति", भैया भगवतीदास की 'अतअष्टोत्तरी', मुनि विनयचन्द की 'चूनरी', द्यानत राय, भूधरदास तथा जगराम आदि के पदों में दाम्पत्य रति के अनेक उदाहरण द्रष्टव्य हैं। इस दाम्पत्यरति के चित्रण में जैन भक्तकवियों ने पूर्ण मर्यादा का पालन किया है । "आध्यात्मिक विवाह" एक रूपक काव्य है। मेरुनन्दन उपाध्याय का 'जिनोदयसूरी विवाहउल', उपाध्याय जयसागर का 'नेमिनाथ विवाहलो', कुमुदचन्द का 'ऋषभ विवाहलो' तथा अजयराज पाटणी का 'शिवरमणी का विवाह' इस प्रकार के ग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। "आध्यात्मिक फागुओं' की रचनाएँ भी जैन भक्त कवियों ने की है जिसमें जैन भक्त चेतन और सुमति आदि अनेक पत्नियों के साथ होली खेलता रहा है । चेतन की पत्नियाँ 'आध्यात्मिक चूनड़ी' पहनती है। कबीर की 'बहुरिया' ने भी चूनड़ी पहनी है। नेमिनाथ और राजीमती से सम्बन्धित मुक्तक और खण्डकाव्यों में जिस प्रेम की अभिव्यंजना हुई है, वह भी लौकिक नहीं, दिव्य है । वैरागी पति के प्रति पत्नी का प्रेम सच्चा है और वह भी वैराग्य से युक्त है। ___ मध्यकालीन जैन भक्त कवियों ने अपभ्रंश से प्रभावित होकर रहस्यवाद की तो चर्चा की है, किन्तु वे तन्त्रवाद से मुक्त हैं। इन कवियों में भावात्मक अनुभूति की प्रधानता है। आचार्य कुन्दकुन्द में भी भावात्मक अनुभूति का आधिक्य है। पाण्डे रूपचन्द ने अपने ग्रन्थ 'अध्यात्म-सवैया' में लिखा है कि आत्मब्रह्म की अनुभूति से यह चेतन दिव्य प्रकाश से युक्त हो जाता है। उसमें दिव्य ज्ञान प्रकट होता है और वह अपने आप में ही लीन होकर परमानन्द का अनुभव करता है। जैन भक्त कवियों में रहस्यवादी-गीतों की सृष्टि करने वालों में सकलकीति का 'आराधनाप्रतिबोधसार', चरित्रसेन का 'सम्माधि', शुभचन्द्र का तत्त्वसारदूत', सुन्दरदास की 'सुन्दर सतसई', हेमराज का हितोपदेश बावनी' तथा किशनसिंह का 'चेतनगीत' आदि प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। जैन भक्ति साहित्य में सतगुरु का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अर्हन्त और सिद्ध को ही सतगुरु की संज्ञा दी है जो कि ब्रह्म का पर्याय है । कबीर का गुरु ब्रह्म से अलग है । कबीर ने गुरु को ब्रह्म से बड़ा कहा है । जैन भक्तों के अनुसार गुरु सम्यक्-पथ (मोक्ष-मार्ग) का निर्देशक है । जैन गुरु-भक्ति में अनुराग का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । रल्ह की 'जिनदत्त चौपाई' कुशललाभ का 'श्रीपूज्यवाहणगीतम्', साधुकीति का 'जिनचन्द्र सूरिगीतम' तथा जीवराज का 'सुगुरुशतक' अनुसयात्मक भक्ति की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं। जैन भक्त कवियों ने भगवान से याचनाएँ की हैं, क्योंकि उनका यह दृढ़ विश्वास है कि जिनेन्द्र की प्रेरणा से ही उन्हें सामर्थ्य प्राप्त होती है, जिसे प्रेरणाजन्य कर्तव्य की संज्ञा भी दी जाती है। जिनेन्द्र का सौन्दर्य प्रेरणा का अक्षय पुज है। 'स्वयम्भू स्तोत्र' में आचार्य समन्तभद्र ने Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्य : पंचम खण्ड ............ ............................................................. लिखा है-"न पूजार्थस्त्वयि वीतरागेन निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिन: पुनातिचित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ।" द्यानतराय ने जिनेन्द्र के प्रेरणाजन्य कर्तव्य को एक उपालम्भ के द्वारा प्रकट किया है तुम प्रभु कहियत दीनदयाल । आपन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जगजाल ॥ तुमरो नाम जपं हम नीके, मन बच तीनौं काल । तुम तो हम को कछू देत नहि, हमारो कोन हवाल । बुरे-भले हम भगत तिहारे, जानत हो हम हाल । और कछू नहीं यह चाहत है, राग द्वेष कौं टाल ॥ हम सों चूक परी सो बकसो, तुम तो कृपा विशाल । द्यानत एक बार प्रभु जग तै, हमको लेहु निकाल ।। जैन भक्त कवियों ने दास्यभाव से भी जिनेन्द्र की उपासना की है। जैन भक्त भगवान का अनन्य दास है और उसका आराध्य अत्यन्त उदार है तथा वह अपने दास को भी अपने समान बना लेता है। कवि बनारसीदास ने ज्ञानी के लिए सेवाभाव की भक्ति अनिवार्य बताई है । जैनभक्त 'दीनदयालु' को पुकारता है "अहो जगदगुरु एक सुनियो अरज हमारी। तुम प्रभु दीन दयालु, मैं दुखिया संसारी ॥" जैन भक्त कवियों ने हिन्दी के भक्त कवियों की भाँति अपने आराध्य की महत्ता का प्रतिपादन किया है। जब भक्त अपने को लघु तथा अपने आराध्य को अत्यन्त महान् समझता है तभी वह श्रेष्ठ भक्त कहलाता है। हिन्दी के शीर्ष कवि तुलसीदास एवं सूरदास ने अपने आराध्य राम और कृष्ण को ब्रह्मा और महेश से भी बड़ा बतलाया है तो जैन भक्त कवियों ने भी जिनेन्द्र को अन्य देवों से बड़ा माना है। आराध्य की महत्ता के समक्ष भक्त अपने को अत्यन्त तुच्छ एवं अकिंचन समझता है । भक्त अपने को जितना अकिंचन एवं लघु अनुभव करता है वह उतना ही विनम्र होगा और अपने आराध्य के समीप पहुँच जायेगा। तुलसी ने लघुता के भाव को 'विनय पत्रिका' में पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है। जैन भक्त कवि का जगजीवन, मनराम, बनारसीदास तथा रूपचन्द आदि ने अपने पदों में अपनी लघुता को प्रमुखता प्रदान की है। लघुता के साथ ही भक्त के हृदय में दीनता का भाव भी जागृत होता है । जैन भक्त कवियों ने दीनता को लेकर 'दीनदयालु' के सम्बन्ध में प्रचुर पदों की रचना की है। इन भक्त कवियों में दौलतराम की 'अध्यात्म बारहखड़ी', भैया भगवतीदास का 'ब्रह्मविलास', भूधरदास का 'भूधर विलास' आदि उल्लेखनीय हैं। जिनेन्द्र 'दीनदयालु' एवं 'अशरणशरण' हैं। जैन भक्त कवियों ने जिनेन्द्र के इस रूप को लेकर प्रचुर मात्रा में आत्मपरक पदों की रचना की है। इस सन्दर्भ में पं० दौलतराम का निम्न पद द्रष्टव्य है जाऊं कहां तजि शरण तिहारी। चूक अनादितनी या हमरी, माफ करौ करुणा गुनधारे । डूबत हौं भवसागर में अब, तुम बिनु को मोहि पार निकारे ॥ जैन भक्त कवियों ने जिनेन्द्र के नाम जाप की महिमा सदैव स्वीकारी है। हिन्दी के सूर, तुलसी आदि भक्त कवियों के समान ही इन जैन भक्त कवियों ने भी जिनेन्द्र का नाम जपने की महिमा गायी है। जिनेन्द्र में असीम गण हैं और मानव है ससीम। अतः असीम को कहने के लिए ससीम अतिशयोक्ति का सहारा लेता है। जैन कवि द्यानतराय ने लिखा है प्रभु मैं किहिं विधि थुति करौं तेरी। गणधर कहत पार नहिं पावै, कहा बुधि है मेरी ॥ प्राक् जनम भरि सहजीभ धरि तुम जस होत न पूर । एक जीभ कैसे गुण गावै उलू कहै किमि सूर । - 0 Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति साहित्य ६२६ ......................................................... . ... .. . .... सभी भक्त अपने आराध्य का स्मरण करते हैं । जैन भक्तों एवं आचार्यों ने स्मरण और ध्यान को पर्यायवाची कहा है। 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' में कहा गया है कि जिनेन्द्र के ध्यान से क्षणमात्र में यह जीव परमात्म-दशा को प्राप्त हो जाता है। भक्त के हृदय में अपने आराध्य के दर्शन की उत्कण्ठा सदैव बनी रहती है। जैन भक्त भट्टारक ज्ञानभूषण ने 'आदीश्वर फागु' में बालक आदीश्वर के सौन्दर्य का वर्णन किगा है-"देखने वाला ज्यों-ज्यों देखता जाता है उसके हृदय में वह बालक अधिकाधिक भाता जाता है । तीर्थकर का जन्म हुआ है और इन्द्र टकटकी लगाकर उसे देखने लगे, किन्तु तृप्त नहीं हुए तो सहस्र नेत्र धारण कर लिये, फिर भी तृप्ति न मिल सकी। महात्मा आनन्दघन ने लिखा है कि मार्ग को निहारते-निहारते आँखें स्थिर हो गयी हैं। जैसे योगी समाधि में हो, वियोग की बात किससे कही जावे, मन को तो भगवान के दर्शन करने से ही शान्ति प्राप्त होती है पंथ निहारत लोयणे, द्रग लगी अडोला । जोगी सुरत समाधि में, मुनि ध्यान अकोला । कौन सुनै किनहुं कहुं, किम मांडू मैं खोला । तेरे मुख दीठे हले, मेरे मन का चोला । जैन भक्त कवियों ने अपने अन्तर् में 'आत्मराम' के दर्शन की बात बहुत कही है। उनके दर्शन से चरम आनन्द की अनुभूति होती है और यह जीव स्वयं भी 'परमातम' बन जाता है। आनन्दतिलक ने अपने ग्रन्थ-"महानन्दिदेउ” में लिखा है-"अप्प बिदु'ण जाणति रे। घट महि देव अणतु।" कवि ब्रह्मदीप ने "अध्यात्मबावनी" में लिखा है-"जै नीकै धरि घटि माहि देखे, तो दरसनु होइ तबहि सबु पेखै।" कविवर बनारसीदास के कथनानुसार 'घट में रहने वाले उस परमात्मा के रूप को देखकर महा रूपवन्त थकित हो जाते हैं, उनके शरीर की सुगन्ध से अन्य सुगन्धियाँ छिप जाती है । (ग्रन्थ-बनारसीविलास) __ भक्त को जब 'आत्मराम' के दर्शन प्राप्त होते हैं तो उसे केवल हृदय में ही आनन्द की अनुभूति नहीं होती वरन उसे सारी पृथ्वी आनन्दमग्न दिखाई देती है। कवि बनारसीदास ने प्रिय आतम के दर्शन से सम्पूर्ण प्रकृति को श्री प्रफल्लित दरसाया है । उसी प्रकार कवि जायसी ने 'पदमावत' में सिंहलद्वीप से आये रतनसेन को जब नागमती ने देखा तो उसे सम्पूर्ण विश्व हराभरा दिखाई दिया। जैन भक्त कवियों ने आध्यात्मिक आनन्द पर ही अधिक बल दिया है। जैन भक्ति में समर्पण की भावना का प्राधान्य है । आचार्य समन्तभद्र ने 'स्तुतिविद्या' में लिखा है-"प्रज्ञा वही है, जो तुम्हारा स्मरण करे, शिर वही है, जो तुम्हारे पैरों पर विनत हो, जन्म वही है, जिसमें आपके पादपद्मों का आश्रय लिया गय हो; आपके मत में अनुरक्त रहना ही मांगल्य है; वाणी वही है जो आपकी स्तुति करे और विद्वान वही है जो आपके समक्ष रहे"। यशोविजय ने 'पार्श्वनाथ स्तोत्र' में, श्री धर्मसूरि ने 'श्रीपार्श्वजिनस्तवनम' में, आनन्दमाणिक्यगणि ने 'पार्श्वनाथस्तोत्र' में भी इसी प्रकार के विचार प्रगट किये हैं। हिन्दी भक्त कवियों ने भी इसी सरस परम्परा का निर्वाह किया है। कबीर आदि हिन्दी के निर्गुण भक्ति कवियों की साखियों और पदों में 'चेतावनी को अंग' का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस अंग में सन्तों ने अपने मन को संसार के माया-मोह से सावधान किया है । जैन तथा बौद्ध भक्ति साहित्य में यह चेतावनी वाली बात अधिक मिलती है, क्योंकि ये दोनों धर्म विरक्तिप्रधान हैं । जैन भक्ति साहित्य में अनेक कवियों ने इसी प्रकार के अत्यन्त सरस पदों की रचना की है। उदाहरणार्थ-जैन भक्ति कवि भूधरदास ने अनेक प्रसाद गुण-युक्त श्रेष्ठ पदों की रचना की है, उनमें से निम्न पद द्रष्टव्य है भगवंत भजन क्यों भूला रे। यह संसार रैन का सपना, तन धन वारि बबूला रे ।। इस जीवन का कौन भरोसा, पावक में तूल पूला रे। काल कुदाल लिये सिर ठाडा, क्या समझे मन फूला रे॥ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .मोह पिशाच छल्यो मति मार, निज कर बंध वसूला रे। भज श्री राजमतीवर भूधर, दो दुरमति सिर धूला रे॥ -(भूधर विलास) जैन भक्त कवियों ने भक्ति सम्बन्धी अनेक श्रेष्ठ काव्य ग्रन्थों की रचना की है जो कि शतक, बावनी, बत्तीसी तथा छत्तीसी आदि के रूप में उपलब्ध होते हैं । बारहखड़ी के अक्षरों को लेकर सीमित पद्यों में काव्य-रचना करना जैन भक्त कवियों की अपनी विशेषता है । पं० दौलतराम का "अध्यात्म बारहखड़ी" बृहद् काव्यग्रंथ उल्लेखनीय हैं। बारहखड़ी के अक्षरों पर लिखा गया यह बृहद् मुक्तक काव्य अभूतपूर्व एवं अनन्य है । जैन भक्त कवियों द्वारा लिखी गई अनेक बावनियाँ उपलब्ध होती हैं, जिनमें भक्तिपरक अनुपम भाव सामग्री भरी पड़ी है । पाण्डे हेमराज की "हितोपदेश-बावनी", उदामराजजती की 'गुणबावनी', पं० मनमोहनदास की 'चिन्तामणि-बावनी', जिनरंभसूरि की 'प्रबोधबावनी' आदि जैन-भक्ति-साहित्य की उल्लेखनीय कृतियाँ हैं । शतक ग्रन्थों में पाण्डे रूपचन्द का परमार्थीदोहाशतक', भवानीदास का 'फुटकरशतक' तथा भैया का ‘परमात्मशतक' आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हैं। जैन भक्त कवियों ने अनेक बत्तीसी, छत्तीसी और पच्चीसियाँ भी रची हैं । बनारसीदास की 'ध्यानबत्तीसी' और 'अध्यात्म बत्तीसी', मनराम की 'अक्षरबत्तीसी', लक्ष्मीवल्लभ की 'चेतनबत्तीसी', और 'उपदेशबत्तीसी' कुशललाभ की स्थूलभक्तछत्तीसी' सहजकीर्ति की 'प्रतिछत्तीसी' और उदयराजजती की 'भजन छत्तीसी', द्यानतराय की 'धर्मपच्चीसी', विनोदीलाल की 'राजुलपच्चीसी' और 'फूलमाल पच्चीसी' तथा बनारसीदास की 'शिवपच्चीसी' आदि उल्लेखनीय ग्रन्थ हैं। जैन भक्त कवियों ने भगवद्विषयक अनुराग को लेकर अनेक प्रेम रूपकों को भी रचना की है। इन ग्रन्थों में सुमति रूपी पत्नी का चेतन रूपी पति के लिये व्याकुलता का भाव अभिव्यक्त किया गया है। इस प्रकार के ग्रन्थों में पाण्डे जिनदास का 'मालीरासो', उदयराजजती का 'वेदविरहिणीप्रबन्ध', पाण्डे रूपचन्द का 'खटोलनागीत', हर्षकीति का 'कर्महिण्डोलना' और भैया भगवतीदास का 'सुआबत्तीसी' और 'चेतनकर्मचरित' आदि प्रसिद्ध रूपक कृतियाँ हैं । वास्तव में ये सरस काव्य ग्रन्थ हिन्दी साहित्य को जैन भक्त-कवियों की अनूठी देन हैं। जैन भक्त कवियों ने अनेक प्रबन्ध काव्यों (महाकाव्यों) की भी सृष्टि की है। इन ग्रन्थों में जिनेन्द्र अथवा उनके अनन्य भक्तों को प्रमुखता प्रदान की गई है। इन ग्रन्थों की रचना अपभ्रंश के महाकाव्यों की पौराणिक एवं रोमांचक दोनों प्रकार की शैलियों का सम्मिश्रण करके की गई है। सधारू का 'प्रद्युम्नचरित', कवि परिमल्ल का 'श्रीपालचरित्र', माल कवि का 'भोजप्रबन्ध', लालचन्द लब्धोदय का 'पद्मिनीचरित'; रामचन्द्र का 'सीताचरित' तथा भूधरदास का पार्श्वपुराण' आदि महत्त्वपूर्ण महाकाव्य हैं । इन महाकाव्यों में बीच-बीच में मुक्तक स्तुतियों का भी समावेश किया गया है। इन प्रबन्धकाव्यों की एक और उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ग्रन्थ के अन्तिम अध्याय में नायक की केवलज्ञान प्राप्ति का भी सरस एवं भावपूर्ण वर्णन किया गया है तथा नायक की आत्मा का परमात्मा से तादात्म्य होना भी दरशाया गया है । साथ ही ये महाकाव्य सगुण (सकल) और निर्गुण (निष्कल) की भक्ति का निरूपण करने के लिये रचे गये हैं। जैन भक्त कवियों द्वारा अनेक खण्डकाव्यों की भी रचना की गई है। उनमें से अधिकांश नेमिनाथ और राजीमती की कथा को लेकर गचे गये हैं । नेमिनाथ विवाह-मण्डप से बिना विवाह किये ही वैराग्य लेकर तप करने चले गये थे, किन्तु राजीमती ने उन्हें अपना पति माना और किसी अन्य के साथ विवाह नहीं किया और संयम लेकर आत्मसाधना में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया। नेमिनाथ पर लिखे गये खण्डकाव्यों में राजशेखरसूरि का 'नेमिनाथफागु', सोमनाथसूरि का 'नेमिनाथफागु', कवि ठकुरसी की 'नेमिसूर की वेली' तथा अजयराज पाटणी का 'नेमिनाथचरित' महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं । ___ जैन भक्त कवियों ने अपने लगभग सभी प्रबन्ध काव्यों का प्रारम्भ सरस्वतीवन्दना से किया है । मुक्तककाव्यों में भी सरस्वती की स्तुतियाँ उपलब्ध होती हैं। जैन भक्त कवियों ने विलास का सम्बन्ध भक्ति से नहीं जोड़ा है। 'गीतिगोविन्द' की राधा और 'रट्ठणेमिचरिउ' की राजुल में बहुत अन्तर है । नेमिनाथ और राजुल से सम्बन्धित सभी जैन काव्य विरह-काव्य हैं, किन्तु राजुल के विरह में कहीं भी वासना अथवा विलासिता की गन्ध नहीं आने पाई Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन भक्ति साहित्य है। जैन भक्त कवियों ने दाम्पत्य रति का सम्बन्ध भौतिक क्षेत्र से न जोड़कर आध्यात्मिकता से जोड़ा है । साथ ही वीतरागी भक्ति से सम्पूर्ण जैन भक्ति साहित्य परिपूर्ण है। ६३१ I स्वयंभू का 'पउमचरिउ वि० सं० नवमी शती में रचा गया अपभ्रंश भाषा का ग्रन्थ है । इसी प्रकार कवि पुष्पदन्त का 'णायकुमारचरिउ' वि० सं० १०२६ में रची गयी अपभ्रंश भाषा की कृति है, जिसे पुष्पदन्त ने देशभाषा की संज्ञा दी है । श्रीचन्द ने जैन भक्ति सम्बन्धी कथाओं को लेकर देशभाषा में 'कथाकोष' नामक ग्रन्थ की रचना की । तेरहवीं शती में विनयचन्द सूरि ने 'नेमिनाथ चंउपई' ग्रन्थ का प्रणयन किया जातिभ्रसूरि का बाहुबलिस' (सन् ११०४) एक उच्च कोटि का ग्रन्थ है महेन्द्रसूरि के शिष्य धर्मसूरि ने वि० सं० १२६६ में 'जम्बूस्वामीचरित', स्थूलचन्द्ररास' तथा 'सुभद्रासती चतुष्पदिका' ग्रन्थों की रचना की । इनके अतिरिक्त ईश्वर सूरि, (सं० १५६१), गुणसागर (सं० १६२६), त्रिभुवनचन्द्र (सं० १६५२), सुन्दरदास (सं० १६७५), कनक कीर्ति, जिनहर्ष (सं० १७१३), बिहारीदास ( ० १७५८) तथा पं० दौलतराम (सं० १७७७) आदि जैन भक्त साहित्यकारों के नाम भी उल्लेखनीय हैं । जैन भक्ति साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, जो कि अनेक जैन भक्त कवियों द्वारा समय-समय पर प्राकृत, अपभ्रंश, देशभाषा तथा हिन्दीभाषा में रचा गया है। इस लेख में समूचे जैन भक्ति साहित्य का विस्तृत विवेचन तो सम्भव नहीं था, अतः उसकी मुख्य-मुख्य प्रवृत्तियाँ एवं तत्सम्बन्धी विशेषकर हिन्दी की प्रमुख कृतियों तथा कृतिकारों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। O . Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसेहरीकहा एवं जायसी का पद्मावत कु० सुधा लाग्या जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर प्राकृत कथा साहित्य के इतिहास में जिनहर्षगणि कृत रयणसेहरीकहा का महत्वपूर्ण स्थान है। भाषा एवं साहित्य की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण कृति है । उसमें प्रयुक्त प्राकृत भाषा अत्यन्त सरल है । जैसे - जसे इसकी ओर विद्वज्जनों का ध्यान आकर्षित होगा वैसे-वैसे इसका स्वरूप और भी उज्ज्वल होता जाएगा। जिनहर्षगणि ने इस कथारत्न द्वारा पर्व तिथियों पर व्रतोपवास, पूजा, पौषध इत्यादि करने से क्या फल प्राप्त होता है? इसका हृदयहारी वर्णन किया है । मूलतः यह एक प्रेम-कथा है। इसमें प्रेम तत्त्व का मार्मिक चित्रण किया गया है । नायक रत्नशेखर नायिका रत्नवती का सौन्दर्य-श्रवण कर उस पर मुग्ध हो जाता है तथा अनेक कठिनाइयों को झेलने के बाद उसे प्राप्त करता है। इस सुन्दर प्रेम कथा को प्राकृत भाषा में ही नहीं अपितु कई अन्य भाषाओं जैसे संस्कृत, गुजराती, अपभ्रंश, हिन्दी आदि में भी ग्रहण किया गया है । +0+0+0 - जायसी कृत पद्मावत इससे बहुत अधिक प्रभावित काव्य है। इन दोनों काव्यों के साम्य को देखकर कई विद्वानों ने रत्नशेखर कथा को पद्मावत का पूर्व रूप माना है। यह मानने वाले प्रमुख विद्वान हैं-डा० रामसिंह तोमर', डा० शम्भूनाथ सह, डा० गुलाबचन्द्र चौधरी, डा० हीरालाल जैन, डा० नेमिचन्द शास्त्री' इत्यादि । इससे स्पष्ट है कि इन दोनों में कई बातों में गहरा सम्बन्ध है । कुछ प्रमुख बिन्दुओं पर इन दोनों ग्रन्थों के साम्य पर विचार किया जा सकता है | २ १. कथावस्तु की तुलना जिनहगण ने अपने इस कथा काव्य के लिए लोक प्रचलित कथानक को चुना है। रत्नशेखर कथा एक ऐसी लोक प्रचलित कथा है जिसे कई भाषाओं के कवियों ने अपनाया है। इसका मूल कथा बिन्दु है— नायक का नायिका के सौन्दर्य-श्रवण से प्रेम विह्वल होना तथा अनेक बाधाओं को पार कर नायक द्वारा नायिका को प्राप्त करना । इस सुन्दर कथा लिखी है। हिन्दी का महाकाव्य पद्मावत इससे बहुत किया है। इस मूल कथावस्तु से सम्बन्धित निम्न बातों की इन कथा-बिन्दु के आधार पर जिनहर्षगण ने बहुत ही प्रभावित है। जायसी ने इसी कमानक को ग्रहण दोनों काव्यों में समानता दृष्टिगोचर होती है १. डा० रामसिंह तोमर, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य तथा उनका हिन्दी साहित्य पर प्रभाव, प्रयाग, १९६४ पृ० २७१ २. राजकुमार शर्मा— जायसी और उनका पद्मावत, पद्म बुक कं०, जयपुर, १९६७, पृ० ४७ ३. डा० गुलाबचन्द्र चौधरी, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ६ पार्श्वनाथ विद्याथम शोधसंस्थान, वाराणसी १६७६, पृ० ३०७ ४. डा० हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, साहित्य परिषद् भोपाल (म०प्र० शासन) १९६२ पृ० १४८ ५. डा० नेमिचन्द शास्त्री, प्राकृत भाषा एवं साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, तारा पब्लिकेशन्स, १९६६, पृ० ५११ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसेहरीकहा एवं जायसी का पद्मावत ६३३ . ..............................." (१) सौन्दर्य-श्रवण-रत्नशेखर नायिका के सौन्दर्य का वर्णन किन्नर युगल से सुनकर उस पर मुग्ध होता है। पद्मावत का नायक रत्नसेन भी तोते के मुख से नायिका पद्मावती के सौन्दर्य का वर्णन सुनकर प्रेम-विह्वल होता है । (२) सिंहलद्वीप की नायिका-रत्नशेखर की नायिका रत्नवती सिंहलद्वीप के जयपुर नगर के राजा जयसिंह की पुत्री है। पद्मावत की नायिका पद्मावती भी सिंहलद्वीप के ही सिंहलगढ़ के राजा गन्धर्वसेन की पुत्री है। (३) नायक सिंहलद्वीप से अनभिज्ञ-दोनों काव्यों के नायकों को सिंहलद्वीप अज्ञात है। रत्नशेखर और मन्त्री रत्नदेव यक्ष की सहायता से रत्नवती का पता प्राप्त कर यक्ष को ही सहायता से वहाँ पहुँचते हैं तथा कामदेव के मन्दिर में ठहरते हैं ।५ रत्नसेन तोते के मार्गदर्शन में नाव से समुद्र पार कर सिंहलद्वीप पहुँचता है तथा शिब मंडप में रुकता है। (४) नायिका प्राप्ति के लिए योगी वेश-रत्नशेखर का मन्त्री नायिका की खोज करने जाता है और यक्ष की पूर्वभव की पुत्री लक्ष्मी से विवाह कर यक्ष की सहायता प्राप्त करता है तथा सिंहलद्वीप पहुँचकर रूप-परिवर्तनी विद्या से योगिनी का रूप धारण कर नायिका का पता लगाता है। तोते के मार्गदर्शन से रत्नसेन स्वयं योगी का वेष धारण कर नायिका की प्राप्ति के लिए निकलता है। (५) सखियों द्वारा नायक का सौन्दर्य वर्णन-रत्नवती की सखी नायक का सौन्दर्य देखकर नायिका से आकर कहती है कि मन्दिर में प्रत्यक्ष कामदेव के समान कोई राजा बैठा है। यह सुनकर नायक को देखने को लालायित नायिका वहाँ जाती है। पद्मावती की सखियाँ भी स्वामिनी को मन्दिर के पूर्व द्वार पर योगियों के ठहरने एवं उनके गरु को योगी वेश-धारी बत्तीस लक्षण सम्पन्न राजकुमार होने की सूचना देती है। यह सनकर नायिका बड़ा जाती है। (६) मिलन-स्थल-रत्नवती एवं रत्नशेखर का मिलन कामदेव के मन्दिर में होता है।" रत्नसेन एवं पद्मावती शिव मण्डप में मिलते हैं ।१२ (७) वियोग में अग्निप्रवेश-रत्नशेखर मन्त्री द्वारा दी गई सात माह की अवधि समाप्त होने पर नायिका के वियोग में अग्नि प्रवेश करना चाहता है। 3 रत्नसेन भी होश में आने पर नायिका को न देख उसके वियोग में अग्नि में प्रविष्ट होना चाहता है ।१४ १. रायावि......."जोइसरव्व तग्गयचित्तो झायन्तो न जम्पइ न हसइ न ससइ ।-पृ० २ २. सुनतहि राजा गा मरुछाई । जानहुं लहरि सुरुज के आई। पेम घाव दुख जान न कोई । जेहि लागे जाने पै सोई॥११६॥ १-२ ३. रयणसेहरीकहा-जिनहर्षगणि, सं० मुनि चतुरविजय, आत्मानन्द सभा, भावनगर, वि० सं० १६७४, पृ० ६ ४. पद्मावत—जायसी, टीका० डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, साहित्य सदन, चिरगाँव, वि० सं० २०१२, २४१२, रयणसेहरीकहा, पृ० १६ ६. पद्मावत, १६०।४, १६२।८-६ ७. रयणसेहरीकहा, पृ० १० ८. पद्मावत, १२६६१-६ ६. रयणसेहरीकहा, पृ० १६ १०. पद्मावत, १६३१-६ ११. रयणसेहरीकहा, पृ० १७ १२. पद्मावत, १६४।६, १९५१ १३. ....."रायाणं च हुअवहस्स परिक्खणं दिन्तं पासई।-पृ० १५ १४. ककनूं पंखि जैसे सर गाजा । सर चढि तबहिं जरा चह राजा । २०५१ Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड ........................................................................... (८) लौटने पर नगर में स्वागत-रत्नशेखर एवं रत्नवती के रत्नपुर आने पर उनका भव्य स्वागत होत है।' चित्तौड़ पहुँचने पर रत्नसेन एवं पद्मावती का भव्य स्वागत होता है। (E) नायक पराक्रम-वर्णन-रत्नशेखर व रत्नसेन दोनों कुशल योद्धा हैं । रत्नसेन कुम्भलनेर के राजा देवपाल पर आक्रमण कर विजयश्री का वरण करता है। रत्नशेखर कलिंगराज पर आक्रमण कर विजय प्राप्त करता है। (१०) नाम साम्य-रत्नशेखरकथा एवं पद्मावत के नायकों के नाम समान हैं । रत्नशेखरकथा के नायक का नाम रत्नशेखर है तथा पद्मावत के नायक का नाम रत्नसेन है। दोनों में लक्ष्मी नामक कन्या का उल्लेख है। रत्नशेखरकथा में मन्त्री मतिसागर की पत्नी एवं यक्ष की पुत्री का नाम लक्ष्मी है। पद्मावत में समुद्र-पुत्री लक्ष्मी का उल्लेख आया है। इस प्रकार कथानक के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि दोनों कथानक बहुत मिलते-जुलते हैं। रत्नशेखरकथा की रचना पद्मावत से पहले हुई थी। अत: इनके साम्य को देखकर यह सम्भावना की जा सकती है कि पद्मावत की रचना से पूर्व जायसी ने रत्नशेखरकथा को अवश्य पढ़ा या सुना होगा। दोनों कवियों ने अपने ग्रन्थ में इस कथानक को इतने रोचक एवं मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किया है कि उसे पढ़ते हुए पाठक मन्त्र-मुग्ध हो जाता है। २. प्रन्थकारों का व्यक्तित्व जितना साम्य रत्नशेखरकथा एवं पद्मावत की कथावस्तु में है उतना ही साम्य जिनहर्ष एवं जायसी के समय, स्थान, वर्णन-शैली इत्यादि में भी है, इनके प्रमुख साम्य इस प्रकार हैं (१) समय-जिनहर्षगणि एवं जायसी के समय में ज्यादा अन्तर नहीं है। जिनहर्षगणि ने रत्नशेखरकथा की रचना ईस्वी सन् १४५५ (वि० सं० १५१२) में की, जायसी ने पद्मावत की रचना ईस्वी सन् १५४० में की। जिनहर्षगणि ने अपनी कृति में कहीं इसके रचना समय का निर्देश नहीं किया है। इनकी अन्य कृतियों के आधार पर इनका समय १५वीं शताब्दी ठरहता है। जायसी ने अपने काव्य में रचना समय का उल्लेख किया है। उसके आधार पर पद्मावत का रचनाकाल हिजरी संवत् ६४७ अर्थात् ईस्वी सन् १५४० सिद्ध होता है। इस प्रकार इनके समय में अधिक अन्तर नहीं है । (२) स्थान-जिनहर्षगणि ने अपने काव्य में रचना-स्थान का उल्लेख करते हुए लिखा है कि मैंने यह रचना चित्तौड़ में की है। यह राजस्थान में है। जायसी ने भी पद्मावत के रचना स्थान का उल्लेख करते हुए कहा है कि मैंने इसकी रचना जायसनगर में की है। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इस स्थान की पहचान रायबरेली के जायस नामक कस्बे से की है ।१ डा. रामचन्द्र शुक्ल, पं० सुधाकर द्विवेदी, डा० ग्रियर्सन, डा० माताप्रसाद गुप्त आदि विद्वान भी यही मानते हैं। ' (३) वर्णन-जिनहर्षगणि एवं जायसी ने अपने ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर प्रवाहपूर्ण शैली में नगर-वर्णन, १. तओ राइणा महया रिद्धीए नयरप्पवेसो कओ।-पृष्ठ १६ २. बाजत गाजत राजा आवा । नगर चहुँ दिसि होई बधावा ।-४२६/१ ३. पद्मावत, ६४५/५ ४. रयणसेहरीकहा, पृ० २५ ५. रयणसेहरीकहा, पृ०८ ६. पद्मावत, ३६७/४ ७. डा० नेमिचन्द शास्त्री, प्राकृत भाषा एवं साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ०५११ ८. पद्मावत, २४१ ६. रयणसेहरीकहा, गाथा १४६, १५० १०. पद्मावत, २३।१ ११. वही, २३ चौपाई की टिप्पणी। Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसेहरीकहा एवं जायसी का पद्मावत ६३५ . ............................................................ ..... सौन्दर्य वर्णन, नगर-प्रवेश वर्णन इत्यादि अनेक वर्णन किये हैं जो काव्य को पर्याप्त रोचक एवं मनोरंजक बनाने में सफल हुए हैं। इसके कुछ उदाहरण आगे दिये गये हैं। (४) धर्म-जिनहर्षगणि जैन धर्म के पालक पंचमहाव्रतधारी साधु थे' तथा जायसी संसार से विरक्त सूफी फकीर थे। वैराग्य भावना का दोनों में प्राधान्य है । दोनों सांसारिक भोगों से दूर थे तथा भवसागर से पार होने के लिए धर्माराधना में लगे थे। जिनहर्षगणि ने स्थान-स्थान पर जैन धर्म में पर्व-तिथियों एवं उनके फल का बहुत सुन्दर वर्णन किया है। जायसी ने सूफी प्रेम मार्ग का वर्णन किया है। (५) गुरु-महिमा-१५वीं १६वीं शताब्दी तक गुरु को बहुत महत्त्व दिया जाने लगा था। उस समय गुरु को ईश्वर से भी बड़ा माना जाता था। इससे ये दोनों कवि भी अछूते नहीं रहे। दोनों ने अपने गुरु का उल्लेख बडी श्रद्धा व भक्ति के साथ किया है। जिनहर्षगणि ने अत्यन्त भक्ति के साथ अपनी श्रद्धा के पुष्प गुरु के चरणों में चढ़ाए हैं। जायसी ने भी भाव-भक्ति से स्वयं को गुरु का सेवक मानकर उल्लेख किया है। गुरु के प्रति भक्ति से परिपूर्ण हृदय से गुरु को खेने वाला माना है । वे कहते हैं कि गुरु की कृपा से ही मैंने योग्यता पायी जिससे यह काव्य लिख सका। गुरु के प्रति ऐसी अटूट श्रद्धा देखकर कौन विभोर नहीं हो जाता।। (६) ईश्वर-प्रार्थना-ईश्वर के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति भावना जिनहर्षगणि एवं जायसी में विद्यमान है। प्रभु भक्ति इनके हृदय में कूट-कूटकर भरी है। जिनहर्षगणि ने भगवान महावीर के चरण-कमलों में प्रणाम करके अपने कथा-ग्रन्थ का प्रारम्भ किया है। इन्होंने अपनी कथा उन्हीं के मुख से कहलायी है। जायसी ने भी ईश्वर को सब कार्यों का कर्ता बताया है। जायसी ने उसी एक मात्र ईश्वर का स्मरण करके ग्रन्थ का प्रारम्भ किया है। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि दोनों कवियों के विचारों आदि में काफी समानता है। समय की दृष्टि से से भी इनमें अधिक अन्तर नहीं है। रत्नशेखरकथा पद्मावत से केवल ८५ वर्ष पूर्व लिखी गई थी। अत: ऐसा लगता है कि जायसी ने रत्नशेखर कथा को पढ़कर पद्मावत की रचना की होगी। समय में अधिक अन्तर न होने के कारण उस समय प्रचलित परिपाटी के अनुसार अपने काव्यों में गुरु स्तुति इत्यादि को समान रूप से ग्रहण किया है। ३. कथानक-रूढ़ियाँ प्राय: हर कथानक में कुछ प्रयोग ऐसे मिलते हैं जिनका सम्बन्ध कथानक-रूढ़ियों से होता है। जैसे--तोते, किन्नर इत्यादि द्वारा नायिका का सौन्दर्य-वर्णन, चन्द्रमा-चकोर का प्रेम सम्बन्ध इत्यादि। इनके माध्यम से कवि अपने कथानक को रोचक बनाते हैं । कथा को मनोरंजक बनाने के लिए जिन अभिप्रायों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें ही कथानक-रूढ़ियाँ कहते हैं । भारतीय साहित्य में कथानक-रूढ़ियाँ अत्यन्त प्रचलित हैं। अत: जिनहर्षगणि एवं जायसी ने भी कई रूढ़ियों का प्रयोग करके अपने काव्य को सरस बनाया है। इन कथाओं की कुछ प्रमुख कथानक-रूढ़ियाँ निम्नलिखित हैं (१) सिंहलद्वीप को सुन्दरी-ग्रीक कथा-साहित्य में जिस प्रकार सुन्दरी हेलन सम्बन्धी रूढ़ि है उसी प्रकार १. रयणसेहरीकहा, गाथा १५० २. डॉ० द्वारिकाप्रसाद सक्सेना, पद्मावत में काव्य, सस्कृति और दर्शन, पृ० १५, -विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा, १९७४ ३. रयणसेहरीकहा, पृ०१ ४. पद्मावत, १२४१३-६ ५ रयणसेहरीकहा, गाथा १४६ ६. पद्मावत, २०११ ७. रयणसेहरीकहा, पृ०१ ८. पद्मावत, ११ Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 ६३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड भारतीय कथा-साहित्य में सिंहलद्वीप की सुन्दरी सम्बन्धी कथानक रूड़ियां प्रचलित हैं। कवियों की मान्यता है कि समुद्र पार सिंहलद्वीप में अनिन्द्य सुन्दरी रहती है। अतः हर कथानक में नायिका अन्य द्वीप को बताई गई है। इसे दोनों कवियों ने अपनाया है । जिनहर्षगणि के कथा- काव्य की नायिका रत्नदेवी समुद्र - मध्य स्थित सिंहलद्वीप के जयपुर नगर के राजा जयसिंह की कन्या है ।" जायसी के काव्य की नायिका भी सात समुद्र पार सिंहलद्वीप के सिंहलगढ़ के राजा गन्धर्वसेन की पुत्री है। " - (२) सौन्दर्य-श्रवण से प्रेम - सौन्दर्य श्रवण से नायक-नायिका का प्रेम विह्वल हो जाना एक बहुप्रचलित कथानक रूढ़ि है । रत्नशेखर नायिका रत्नवती का सौन्दर्य वर्णन किन्नर युगल से सुनकर प्रेमासक्त हो जाता है तथा उसके बिना अपने प्राणों को धारण करने में भी अपने आपको असमर्थ पाता है। पद्मावत का नायक रत्नसेन भी तोते द्वारा पद्मावती का सौन्दर्य वर्णन सुनकर प्रेम में व्याकुल हो जाता है और किसी भी प्रकार से उसे पाना चाहता है। (३) नायिका प्राप्ति में योगी रूप का सहयोग रत्नशेखरका में मन्त्री रूप परिवर्तती विद्या द्वारा योगिनी का रूप धारण कर सिंहलद्वीप जाता है और रत्नवती के पास पहुँचता है। पद्मावत में रत्नसेन स्वयं रत्नाभूपण त्यागकर, शरीर पर भभूत लगाकर कंथा आदि धारणकर योगी का वेश बनाता है तथा नायिका को प्राप्त करने सिलीप पहुँचता है।" • (४) मन्दिर में मिलन रत्नशेखर व नवती का मिलन कामदेव के मन्दिर में होता है।" वहाँ रत्नवती पूजा करने आती है। पद्मावत में भी रत्नसेन व पद्मावती का मिलन शिवम में होता है जो पद्मावती शिव पूजा के लिए आती है। - --- (५) वियोग में अग्निवेश रत्नवती के वियोग में रत्नशेखर इतना व्याकुल हो जाता है कि एक क्षण भी जीना उसे भार लगता है । नायिका का सौन्दर्य श्रवण करते ही वह वियोग के कारण मरना चाहता है । मन्त्री उसे रोकता है तथा सात माह की अवधि में लाने की प्रतिज्ञा करके जाता किन्तु अवधि समाप्ति तक भी नहीं आता तो नायिका के वियोग में वह अग्नि में प्रविष्ट होना चाहता है। योगिनी आकर उसे रोकती है।" शिवमण्डप में पद्मावती के जाने के बाद होश में आने पर रत्नसेन उसे नहीं देखता है तो प्रचण्ड विरहाग्नि में जलने लगता है और चिता तैयार कर उसमें प्रविष्ट होना ही चाहता है कि शिव-पार्वती आकर उसे रोकते हैं।" (६) दृढ़ता की देवों द्वारा परीक्षा-देवों द्वारा नायक-नायिका की कठोर परीक्षा लिये जाने की रूढ़ि साहित्य मैं लब्धप्रतिष्ठित है। रत्नशेखर की धार्मिक हड़ता की परीक्षा देव द्वारा ली जाती है किन्तु हर परीक्षा में नायक उत्तीर्ण होता है । " रत्नसेन की नायिका पद्मावती के प्रति प्रेम की दृढ़ता की परीक्षा पार्वती द्वारा की जाती है । पार्वती अप्सरा के रूप में आती है और उसे आकर्षित करना चाहती है किन्तु रत्नसेन प्रेम में रंचमात्र भी नहीं जिससे पार्वती प्रसन्न होकर उसे सिद्धि प्रदान करने के लिए शिवजी से कहती है। १२ १. रयणसेहरीकहा, पृ० ६ ३. रयणसेही पृ० २ 1 ५. रयणसेहरीकहा, पृ० १० ७. रयणसेहरीकहा, पृ० १७ ६. रवणसेहरीकहा, पृ० ३‍ ११. पद्मावत, २१४।२-५ १३. पद्मावत २११ २. पदमावत, ६५ ४. पद्मावत, १३ ६. पद्मावत, १२६ पद्मावत, २१४।४-६ वही, १५ १०. १२. रयणसेहरीकहा, पृ० ३० Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसेहरीकहा एवं जायसी का पद्मावत ६३७ । onormore....... ........ . ...... ... (७) वधू-शिक्षा–भारतीय साहित्य में ही नहीं समाज में भी विवाह के बाद विदाई के समय वधू को मातापिता या सखी द्वारा शिक्षा देने की प्रथा प्रचीन समय से लेकर वर्तमान तक प्रचलित है। रत्नबती की विदाई के अवसर पर उसके माता-पिता--सास-ससुर, देवर एवं गुरुजनों इत्यादि के प्रति आदर भाव रखने एवं सबकी आज्ञानुवर्ती होने की शिक्षा देते है। पद्मावत में पद्मावती की विदाई के अवसर पर सखियाँ उसे पति के अनुकूल चलने की शिक्षा देती हैं। (८) शकुन-विचार-शकुनों को देखकर काम करने की प्रथा आज भी प्रचलित है। इसे भी कथानक-रूढ़ि के रूप में प्रयुक्त किया गया है। रत्नशेखर कथा में मंत्री शुभ शकुन देखकर रत्नवती की खोज में जाता है। तथा जब रत्नवती सखी से नायक के बारे में सुनती है तो उसका बाँया नेत्र फड़कने लगता है जिसे वह शुभ शकुन मानती है । रत्नसेन के चित्तौड़ से पद्मावती की प्राप्ति के लिए प्रस्थान करने पर शकुन देखने वाले शकुन देखकर इष्ट प्राप्ति होने की भविष्यवाणी करते हैं । (६) तोते का उल्लेख-रत्नशेखरकथा में तोते को एक पात्र के रूप में कथा के मध्य में लिया गया है। एक शुक-शुकी रत्नशेखर एवं रत्नवती के हाथ में आ कर बैठते हैं तथा वार्तालाप करते हैं। पद्मावत में तोते को प्रमख पात्र के रूप में प्रारम्भ से ही ग्रहण किया गया है। नायक-नायिका का मिलन भी तोता ही कराता है। - रयणसेहरीकहा पृ० १८. १. निर्व्याजा दयिते ननदृषु नता श्वश्रुषु भक्ताः भवेः । स्निग्धाबन्धुषु वत्सला परिजने स्मेरा स्वपत्निष्वपि ॥ पत्थमित्रजने सनर्मवचना स्विना च तद्द्व षिषु । स्त्रीणां संववननं नतभु ! तदिदं बीजौषधं भर्तुषु ।। २. तुम्ह बारी पिय चहुं चक राजा । गरब किरोधि ओहि सब छाजा । सबफर फूल ओहि के साखा । चहै सो चूरै चहै सो राखा ॥ आएस लिहें रहेहु निनि हाथा । सेवा करेहु लाइ भुइं मांथा । बर-पीपर सिर ऊभ जो कीन्हा । पाकरि तेहि ते खीन फर दीन्हा । बंवरि जो पौंडि सीस भुंइ लावा । बड़ फर सुभर ओहि पं पावा ॥ आव जो फरि के नवै तराहीं । तब अंब्रित भा सब उपराहीं ।। सोइ पियारी पियहिपिरीती । रहै जो सेवा आएसु जीती ॥ ३. तओ पहाणसुउणबलं लहिऊण दक्षिण दिसं पडिचलिओ। ४. तक्काल च वामनयनफुरणेण आणन्दिआ.....। ५. आगै सगुन सगुनिआ ताका। दहिउ मच्छ रूपे कर टाका ॥ भरें कलस तरुनी चलि आई। दहिउ देहु ग्वालिन गोहराई । मालिन आउ मौर लै गाथें। खंजन बैठ नाग के माथें । दहिने मिरिग आइ गौ धाई। प्रतीहार बोला खर बाई ॥ विर्ख संवरिआ दाहिन वोला । बाएं दिसि गादुर नहिं डोला । बाएं अकासी धोविन आई। लोवा दरसन आइ देखाई ॥ बाएं कुरारी दाहिन कूचा । पहुँचै भुगुति जैस मन रूचा ॥ जाकहं होहिं सगुन अस औ गवन जैहि आस । अस्टी महासिद्धि तेहि जस कवि कहा बिआस ।। ६. रयणसेहरीकहा पृ० १६. ७. पद्मावत ५४।५. - पद्मावत, ३८१॥ १-७ -रयणसेहरीकहा, पृ० ४. -~वही, पृ० १६. . -पद्मावत, १३५॥ १-६ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड दोनों काव्यों की कथानक रूढ़ियों का साम्य उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है। दोनों ने कथानक के समान ही कथानक रूढ़ियों को भी समान रूप में प्रयुक्त किया है। ४. काव्यात्मक वर्णन कवि अपने काव्य को रोचक बनाने के लिए विभिन्न काव्यात्मक वर्णनों को अपने काव्य में वर्णित करते हैं। जिनहर्षगण एवं जायसी ने भी अनेक वर्णन अपने काव्यों में किये हैं । यथानायक एवं नायिका दोनों का सौन्दर्य-वर्णन रत्नशेखरकथा एवं पद्मावत में किया (१) सौन्दर्य - वर्णन गया है । - नायिका रत्नवती का सौन्दर्य वर्णन करते हुए कवि ने उसके सम्मुख रम्भा को भी हीन माना है तथा उसने सुर-असुर की सभी सुन्दरियों के सौन्दर्य को जीत लिया है।" जायसी ने भी पद्मावती का सौन्दर्य वर्णन करते हुए उसका चित्र सा उपस्थित कर दिया है। तोता उसका मुख चन्द्रमा के समान तथा अंग मलयगिरि की गन्ध लिए हुए बताता है । जायसी के वर्णन इतने सरस हैं कि पाठक उनमें लीन हो जाता है । नायक रत्नशेखर का सौन्दर्य वर्णन करते हुए सखी उसे प्रत्यक्ष कामदेव के समान बताती है । पद्मावती को उसकी सखियाँ योगियों के बारे में बताती हुई कहती है कि उसमें एक गुरु है जो कि बत्तीस लक्षणों से युक्त राजकुमार लगता है। (२) नगर वर्णन जिनगणि ने रत्नपुर की शोभा का वर्णन करते हुए वहां के मन्दिरों, नागरिकों, गृहस्थों, व्यापारियों आदि का भी सुन्दर चित्र खींचा है। जायसी ने सिंहलगढ़ का वर्णन अत्यन्त रोचक ढंग से किया है। (२) नगर-प्रवेश-वर्णन नगर-प्रवेश का वर्णन दोनों में समान रूप से हुआ है। रत्नपुर के निवासी रत्नशेवर एवं रत्नवती को लेने सम्मुख आते हैं तथा ठाट-बाट से नगर प्रवेश कराते हैं। रत्नसेन व पद्मावती को लेने भी बन्धुबान्धव आते हैं तथा बाजों के साथ नगर प्रवेश कराते हैं । ५. काव्यात्मक गुण-विम्ब जो महत्त्व भारतीय काव्य-क्षेत्र में अलंकार, रस, छन्द आदि को दिया जाता है, वही महत्त्व पाश्चात्य काव्यक्षेत्र में बिम्ब को दिया जाता है । बिम्ब एक ऐसी कवि-कल्पना है जिसके माध्यम से कवि अपने अमूर्त भावों का मूर्तीकरण करता है। इसके माध्यम से कवि अपने भावों को भी मूर्त रूप में अभिव्यक्त करता है । जिनहर्षगण एवं जायसी ने भावाभिव्यक्ति के लिए विम्बों का सहारा लिया है। कुछ प्रमुख विम्ब इस प्रकार है सागर- जिनहर्षगण ने रत्नशेखर की गम्भीरता बाते हुआ है"सायरव्व गम्भीरो..." पृ० २ किया है +0+0+0+0+0+0+ जायसी ने प्रेम की असीमता को दर्शाया है "परा सो पेम समुन्द अपारा। लहरहि लहर होइ विसंभारा। कमल - रत्नशेखरकथा में नायक के सौन्दर्य को अभिव्यक्त करने के लिए "रायमुहकमलाओ परमवणेऊ' १. रयणसेहरीकहा, पृ० २ ३. रयणसेहरीकहा, १० १६ ५. रयणसेहरीकहा, पृ० १-२ ७. रयणसेहरीकहा, पृ० १८-१६ ---|''–पृ० १७ ११९१३ कवि ने कमल के बिम्ब का प्रयोग २. पद्मावत ६३।२-४ ४. ६. पद्मावत, ४०-४४ = पद्मावत, ४२५८-६, ४२६।१ पद्मावत, १९३११-६ . Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसेहीका एवं जायसी का पद्मावत पद्मावत में पद्मावती के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहा है पद्मावति राजा के बारी पदम गन्ध ससि विधि ओतारी । " २३१३ "रम्भेव साररहिया रम्भा परिमार देवाणं ।" १०२ जायसी ने पद्मावती की भुजाओं का सौन्दर्य इस तरह अंकित किया है"कलियां की जान जोरी।" - ११२२ A कदलीस्तम्भ – रत्नवती के अत्यधिक सौन्दर्य का वर्णन करने के लिए उसके सम्मुख रम्भा को कदली के स्तम्भ के समान सार रहित बताया है सूर्य - रत्नशेखर की तेजस्विता सूर्य बिम्ब से प्रकट की है— "सूरख तेली........१०२ जायसी ने शेरशाह के तेज एवं ओज का प्रदर्शन इस तरह किया है— "सेरसाहि दिल्ली सुलतानू 1 चारि खंड तपइ जस भानू । " - १३०१ If ww..co चन्द्र – यक्षकन्या लक्ष्मी के मुख का सौन्दर्य रत्नशेखरकथा में चन्द्र के बिम्ब से प्रकट किया गया हैपुन्नलायन निही पुन्नचन्द्रवयणा पूओवयार कलिया......." - पृ० ४ पद्मावती के मुख का सौन्दर्य भी चन्द्रबिम्ब से प्रकट किया है “पदमावति में पूनिवं कला । चौदह चाँद उए सिंघला ।" - ३३८।२ -- Commence मेघगर्जन — इस बिम्ब द्वारा जिनहर्षगणि ने वाद्यों की तीव्र आवाज को बताया है"नणातूर निवाएवं नमण्डल मे व गज्जयन्तो वन्दि.१० २० पद्मावत में राजा रत्नसेन के क्रोध का चित्र देखिये "सुनि अस लिखा उठा जरि राजा । जानहु देव घन गाजा । " - ४८६ । १ बाण - जिनहर्षगण ने बाण के बिम्ब द्वारा तीक्ष्ण कटाक्षों का वर्णन किया है"अबलाए पुर्ण बिद्धो कस्छ बाणेहि लिक्खेहि।" - पृ० १० पद्मावती की भौंहों से छूटते बाणों के देखिये "भौहें स्याम धनुकु जनु ताना। जासौं हेर मार बिख वाना । " - १०२।१ हंस - रत्नवती की गति को दर्शाने के लिए राजहंस का विम्ब देखिये— "राजहंसी व सलीलं चकम्मयाणी ।" - पृ० १६ पद्मावती में पद्मावती की चाल का चित्र कुछ इस तरह है "हंस लजाइ समुद कहं खेले । लाज गयंद धूरि सिर मेले । ४८४।५ ६३६ इनके अतिरिक्त भी कल्पवृक्ष, इन्द्र, चकोरी, एरावत हाथी आदि बिम्बों के माध्यम से भावों को अभिव्यक्त किया गया है। जिनहर्षगण एवं जायसी ने इन विम्बों के माध्यम से काव्य में सजीवता एवं मामिकता ला दी है। +0+0+0+0 ६. सामाजिक परिवेश उस समय के सामाजिक जीवन की एक झांकी हमें इन काव्यों में देखने को मिलती है । उस समय सती-प्रथा, प्रेम-विवाह, दहेज-प्रथा इत्यादि प्रचलित थी । इनसे हमें उस समय की सामाजिक स्थिति को समझने में सहायता मिलती है। (१) प्रेम-विवाह की स्वीकृति - उस समय समाज में प्रेम-विवाह प्रचलित थे तथा समाज द्वारा। इन्हें स्वीकृति प्राप्त थी । रत्नशेखरकथा में नायक का आगमन सुनकर राजा जयसिंह आकर उसे सादर ले जाता है और नायिका से विवाह ● . Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड कराता है। विवाह कर जब वे अपने नगर रत्नपुर पहुँचते हैं तो वहाँ भी भव्य स्वागत किया जाता है। पद्मावत में पहले योगी जानकर राजा गन्धर्वसेन इनकार करता है तथा नायक को सूली देता है किन्तु बाद में भाट एवं तोते के द्वारा परिचय देने पर विवाह कर देता है। इनका भी चितौड़ लौटने पर भव्य स्वागत होता है। (२) सती-प्रथा उस समय समाज में सती-प्रथा प्रचलित थी। पति की मृत्यु के बाद पत्नी उसके शव के के साथ सती होती थी। इसे दोनों कवियों ने अपने काव्य में स्थान दिया है। रत्नशेखरकथा में प्रयुक्त एक अन्तर्कथा में एक स्त्री अपने विद्याधर पति के मृत शरीर को देखकर शव के साथ चिता में जलकर सती हो जाती है। पद्मावत में राजा रत्नसेन की मृत्यु के बाद पद्मावती व नागमती दोनों उसके शव के साथ सती होने के लिए चिता पर लेट जाती हैं । इसका वर्णन जायसी ने बड़े मार्मिक शब्दों में किया है। (३) मृति-पूजा--जिनहर्षगणि एक जैन साधु थे। अत: उनके कथा-काव्य में मूर्तिपूजा का विस्तृत एवं रोचक वर्णन है । मूति-पूजा का फल, पूजा के प्रकार इत्यादि का बड़ा भावपूर्ण वर्णन किया है। वन में मन्दिर देखकर मन्त्री स्वर्ण पुष्पों से वस्तु पूजा एवं स्तुति द्वारा भावपूजा करता है। रत्नवती भी पति-प्राप्ति के लिए कामदेव की पूजा करती है। जायसी ने सूफी होते हुए भी मूर्ति-पूजा का वर्णन किया है। नायिका पद्मावती पति-प्राप्ति के लिए शिव की पूजा करती है। (४) दहेज-प्रथा-भारतीय समाज में दहेज-प्रथा प्राचीनकाल से प्रचलित है। इसका उल्लेख दोनों कवियों ने अपने ग्रन्थों में किया है। रत्नशेख रकथा में करमोचन के अवसर पर राजा जयसिंह हाथी, घोडे आदि देते हैं , १० पद्मावत में भी विदाई के समय राजा गन्धर्वसेन अनेक वस्तुएँ दहेज में देते हैं।११ ७. भौगोलिक विवरण भौगोलिक विवरणों की दृष्टि से भी इनमें अनेकों साम्य हैं । जिनहर्षगणि एवं जायसी का कार्य-क्षेत्र जम्बद्वीप से लेकर सात समुद्र पार सिंहलद्वीप तक फैला हुआ है । इनमें रत्नपुर, चित्तौड़, सिंहलद्वीप इत्यादि का उल्लेख रूप से हुआ है। (१) रत्नपुर-रत्नशेखरकथा का नायक रत्नपुर नगर का राजा है।१२ जायसी ने चित्तौड़ से सिंहलद्वीप तक के मार्ग का वर्णन करते हुए बीच में रत्नपुर नामक नगर का उल्लेख किया है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इसे कल्चुरि शासक रत्नदेव की राजधानी विलासपुर से २० मील उत्तर में माना है ।१४ (२) चित्तौड-रत्नशेखरकथा के कर्ता जिनहर्षगणि ने चितोड़ में रहकर इस कथा की रचना की । १४ जायसी १. रयणसेहरीकहा, पृ० १८ २. वही, पृ० १८-१६ ३. पद्मावत, २६०-२७३ ४. वही, २७५ ५. रयणसेहरी कहा, पृ० २२. ६. पद्मावत ६५०. ७. रयणसेहरीकहा, पृ० ४. ८. वही, पृ० १४. ६. पद्मावत, २०. १०. रयणसेहरीकहा, पृ० १८. ११. पद्मावत, ३८५. १२. रयणसेहरीकहा, पृ० १-२. १३. पद्मावत, १३८। ८-७. १४. पद्मावत-वासुदेवशरण अग्रवाल-१३८ चौपाई की टिप्पणी, पृ० १३५. १५. रयणसेहरीकहा, गाथा, १४६. Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणसेहरीकहा एवं जायसी का पद्मावत ६४१ ................................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. के पद्मावत का नायक स्वयं चित्तौड़ का राजा है।' चित्तौड़ से दोनों ग्रन्थों के कर्ता परिचित थे। एक ने चित्तौढ़ में रहकर ग्रन्थ रचना की तो दूसरे का नायक ही चित्तौड़ का है। (३) सिंहल-द्वीप-सिंहल-द्वीप का वर्णन उस समय की लगभग सभी कथाओं में प्राप्त होता है । भारतीय कवियों में ऐसी मान्यता रही है कि समुद्र पार एक द्वीप में अनन्य सौन्दर्य-शालिनी सुन्दरी रहती है । इस मान्यता से जिनहर्षगणि एवं जायसी अछूते नहीं रहे हैं। रत्नशेखरकथा में मन्त्री द्वारा रत्नवती का पता पूछने पर रत्नदेव यक्ष कहता है कि समुद्र के मध्य ७०० योजन प्रमाण सिंहल-द्वीप है जो अत्यन्त सुन्दर है ।२ जायसी ने सिंहल-द्वीप का बहुत विस्तृत और रोचक वर्णन किया है। उस द्वीप का सौन्दर्य अनुपम है। (४) अयोध्या-रत्नशेखरकथा में रत्नवती अपना पूर्वभव सुनाती हुई अयोध्या नगरी का उल्लेख करती है। जायसी ने अयोध्या का वर्णन करते हुए कहा है कि इस पद मिनी को विभीषण पायेगा तो ऐसा लगेगा मानों यहाँ अयोध्या पुन: छा गयी है। इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि रयणसेहरीकहा एवं पद्मावत में समय, कथावस्तु, काव्यात्मक वर्णन, विम्ब-योजना, भौगोलिक, सामाजिक आदि दृष्टियों से बहुत अधिक समानता है। इनके अतिरिक्त भाषा वज्ञानिक दृष्टि से भी इनमें अत्यधिक साम्य है जिस पर अलग से विचार किया जा सकता है। चूंकि दोनों के समय में अधिक अन्तर नहीं है और रत्नशेखरकथा पद्मावत से पहले लिखी गयी थी अत: यह सम्भावना की जा सकती है कि पद्मावत लिखने से पूर्व जायसी ने यह कथा पढ़ी या सुनी होगी तथा उन्हें इतनी पसन्द आयी होगी कि उन्होंने अपने काव्य के लिए भी इसी कथानक को पसन्द किया। अत: कहा जा सकता है कि पद्मावत का आधार रत्नशेखरकथा है। १. पद्मावत, २४।२. २. रयणसेहरीकहा, पृ० ६. १. रयणसेहरीकहा, पृ० १३. ३. पद्मावत, २४१२, ९५५-६. ५. पद्मावत, ३६१।३. Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. -. - -. -. - . -. - . -. ............................................ जैन-कथा-साहित्य में नारी डॉ० श्रीमती सुशीला जैन मोहन निवास, कोठी रोड, उज्जैन ___कथा, विश्रान्ति, जागृति, उद्बोधन, आत्मचिन्तन, तथ्यनिरूपण, विविध कला-परिज्ञान-संचरण, दिव्यानुभूति मानवोचित अनेक वस्तु-स्वभाव-परिशीलन आदि का सहज स्रोत है। यही कारण है कि आदिकाल से मनीषियों का कथा साहित्य के प्रति स्वाभाविक आकर्षण है । यह कहना अनुचित न होगा कि मानव-संस्कृति के साथ ही यह कया अनुस्यूत है। विश्व का कोई ऐसा अंग नहीं है जो कथा की परिधि में समाहित न हुआ हो । चींटी से लेकर गजराज तक इसके पात्र हैं एवं धरती का अणु पर्वतराज की विशाल काय को लेकर कथा का कथानक बना है। कल्पना, वास्तविकता के वेश में अलंकृत होकर कहानी की सर्जना करती है, सूर्य इसे आलोकित करता है, चन्द्रमा अपनी शीतल किरणों से इसकी थकान मिटाता है, सागर अपनी लहरों से इसके पैरों को प्रक्षालित करता है, सुमन अपनी सौरभ से उसे नित्य सुरभित करता रहता है। वीरों की तलवारें कथा के प्रांगण में चमकती हैं, वनवासियों के तार कथा के माध्यम से स्वर्ग तक पहुँचते हैं, राजाओं के गहन न्याय कहानी की तरलता से सर्वमान्य बनते हैं एवं नारी के विविध रम्यरूप आख्यायिका के आख्यान बनकर मानव को विमोहित करते रहते हैं। महाराजा से लेकर रंक तक अपनी सरलता-कोमलता-आमा-सन्तोषवृत्ति आदि को साहित्य की इस कमनीय विधा से रम्यरूपायित किया करते हैं । ऐतिहासिकता, कथा की अभिव्यक्ति से ही तो सर्वमान्य बनी है। भारतीय नारी की लम्बी यात्रा इस कथा-साहित्य में इस प्रकार गुम्फित हुई है कि इसका प्रत्येक चरण कहीं अश्रुपूरित है तो कहीं संत्रासों से उलित हुआ है। कहीं इसका प्रथम अध्याय ओज-पूर्ण है तो कहीं उसकी मध्य रूपरेखा दयनीय स्थिति से आक्रान्त है। लेकिन इन विविध रूपों में नारी का बहुविध रूप कहीं भी अस्थिर नहीं हो सकता है। कितने अत्याचार, अनाचार एवं बीभत्स दृश्य इस रमणी ने देखे फिर भी उसकी दारुण परिस्थिति कुछ ही पलों में संदमित होकर स्वार्थी मानव की जागृति का आदि सन्देश बनी। निश्चयतः नारी चरम तपस्या की प्रतीक है, साधना का अकम्पित लक्ष्य है, कठोर संयम का स्वरूप एवं समय की आधारभूत क्रान्ति है। जैन कथा-साहित्य में सामान्यतया नारी के ये रूप उपलब्ध हैं १. पुत्री के रूप में, २. कन्या के रूप में, ३. रानी-महारानी के रूप में, ४ शासिका के रूप में, ५. मानिनी के रूप में, ६. विद्रोहिणी के रूप में, ७. अविवाहिता के रूप में, ८. विवाहिता के रूप में, ६. विरह-पीड़िता के रूप में, १०. राष्ट्र संरक्षिका के रूप में, ११. गृहिणी के रूप में, १२. साध्वी के रूप में, १३. सच्चरित्रा के रूप में, १४. पतिता के रूप में, १५. मोहिनी के रूप में, १६. आदर्श शिक्षिता के रूप में, १७. विविध कला-विशारदा के रूप में, १८. युद्ध-प्रवीणा के रूप में, १६. धर्मसेविका के रूप में, २०. रूप-लावण्य-कमनीयता के रूप में, २१. राजनीतिज्ञा के रूप में, २२. गणिका के रूप में, २३. गुप्तचर के रूप में, २४. प्रगतिशीला के रूप में, २५. परम्परागत रूढ़िग्रस्ता के रूप में, २६. व्यभिचारिणी के रूप में, २७. मंत्र-तंत्रादि-विशारदा के रूप में, २८. अंकुरित यौवना के रूप में, २६. ज्ञात यौवना के रूप में, ३०. स्वाभिमानिनी के रूप में, ३१. प्रकीर्णका । विनय, क्षमा, गृह-कार्य-कुशलता, शिल्प, वैदुष्य, धीरता, ईश्वर-भक्ति तथा पातिव्रत्य आदि गुणों से अलंकृत नारी सभा शृंगार नामक ग्रन्थ में रूपाली, चन्द्रमुखी, चकोराक्षी, चित्तहरिणी, चातुर्यवन्ती, हंसगतिगामिनी, शीलवंती, सुलक्षिणी, Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन- कथा - साहित्य में नारी ६४३ श्यामा, नवांगी, नवयौवना, गौरांगी, गुणवन्ती, पद्मणी, पीनस्तनी और हस्तमुखी आदि चालीस रूपों में विभक्त हुई हैं।" महादेवी, शिवा, जगदम्बा, भद्रा, रौद्रा, गौरी, बुद्धि, छाया, शक्ति, कृष्णा, शान्ति, लज्जा, धढा, कान्ति, दया, तृप्ति आदि के रूपों में आपूत नारी प्राचीन जैन साहित्य में बहु प्रशंसित अवश्य हुई है लेकिन बहुपत्नीत्व की प्रथा ने उसे समय-समय पर अधिक पीड़ित किया है । जैन धर्मग्रन्थों को देखने से पता चलता है कि प्राचीनकाल में प्रतिष्ठित धनी परिवारों में बहुपत्नीत्व का प्रचुरता से प्रचलन था । वही व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानित माना जाता था जो अनेक पत्नियाँ रखता था । श्रावक लोग भी अनेक पत्नियाँ रखते थे। राजमल द्वारा रचित लाटी संहिता वि० सं० १६४१ की एक प्रशस्ति में भासू नाम के एक श्रावक की मेधा, रूपिणी और देविला नाम की तीन पत्नियों का उल्लेख मिलता है आगे इसी ग्रन्थ में संघपति भासू के नाती न्योता को पचाही और बौराड़ी नामक दो पत्नियों और संघपति मोल्हा की छाजाही और विधही आदि तीन पत्नियों का उल्लेख किया गया है। इस काल के (वि० सं० १०७०) अमितगति के एक पुराने ग्रन्थ धर्मपरीक्षा की मण्डपकौशिककथा के प्रकरण में आये कुछ श्लोकों से उन दिनों विधवा-विवाह के प्रचलन की सम्पुष्टि होती है। जैन धर्म-ग्रन्थों में इस बात के भी अनेक सुपुष्ट प्रमाण मिलते हैं कि समाज के अन्य वर्गों के समान जैन-सम्प्रदाय में भी दासियाँ रखने की प्रथा थी । 'दासः क्रय की तकर्मकर:' के अनुसार खरीदी हुई नारियाँ ही दासी कहलाती थीं। जिन स्त्रियों को विधिवत् विवाह न करके वैसे ही घर में रख लिया जाता था उन्हें बेटिका कहा जाता था । चेटिका सुरतप्रिया और भोग्या होती थीं। जो दासियाँ खरीदी जाती थीं उनमें से कुछ को पत्नी के रूप में भी स्वीकार कर लिया जाता था । ऐसी स्त्रियों को रखेल या परिग्रहीता की संज्ञा दी गई । उन दिनों गृहस्थों का ब्रह्मचर्य अणुव्रत अथवा स्वदारसंतोष प्रत यही था कि वे खरीदी हुई दासियों और धर्मपत्नी को छोड़कर अन्य सब स्त्रियों को माता, बहन और बेटी समझते थे । नारी के भेदों की चर्चा भी जन-प्रम्यों में प्रचुरता से हुई है।" जंन कथा-साहित्य में नारो-भेद विभिन्न देशों की कमनीय नारियों को उनके विशिष्ट अंग-सौन्दर्य को ध्यान में रखते हुए विभाजित किया गया है - केरल देश ( अयोध्यापुरी का दक्षिण दिशावर्ती देश) की स्त्रियों के मुखकमलों को उस प्रकार विकसित करने वाले जिस प्रकार सूर्य कमलों को विकसित करता है, बंगीदेश (अयोध्या का पूर्वदिशावर्ती देश) की कमनीय कामिनियों के कानो को उस प्रकार विभूषित करने वाले जिस प्रकार कर्णपूर (कर्णाभूषण) कानों को विभूषित करता है; चोल-देन (अयोध्या की दक्षिण दिशा सम्बन्धी देश) की रमणियों के कुच (स्तन) रूपी फूलों की अधखिली कलियों से कीड़ा करने वाले, पल्लवदेश (पंच प्रामिल देश) की रमणियों के वियोग दुःख को उत्पन्न करने वाले, कुन्तल देश ( पूर्वदेश ) | की स्त्रियों के केशों को विरलीकरण में तत्पर, मलयाचल की कमनीय कामिनियों के शरीर में नखक्षत करने में तत्पर पर्वत सम्बन्धी नगरों की रमणियों के दर्शन करने में विशेष उत्कंठित, कर्नाटक देश की स्त्रियों को कपट के साथ आलिंगन करने में चतुर, हस्तिनापुर की स्त्रियों के कुच - कलशों को उस प्रकार आच्छादित करने वाले जिस प्रकार कंचुक ( जम्फर आदि वस्त्र विशेष) कुचकलशों को आच्छादित करता है। ऐसे हे राजन! आप काश्मीर देश की कमनीय कामिनियों के मस्तकों को कुकुम तिलक रूप आभूषणों से विभूषित करते हैं । १. सम्पादक : क्षेमचन्द्र सुमन नारी तेरे रूप अनेक, भूमिका, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखित, पृ० ४२ २. नारी तेरे रूप अनेक भूमिका, पृ० ४१-४२ ३. श्रीमत्सोमदेवसूरिविरचित: यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य, पृ० १८ 0+0 -0 . Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड संस्कृत साहित्य के उत्थान में अन्य महिलाओं के साथ जैन महिलाओं का योगदान भी महत्त्वपूर्ण है (विशेष अध्ययनार्थ द्रष्टव्य-संस्कृत साहित्य में महिलाओं का दान : लेखक डा० यतीन्द्र विमल चौधरी, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० ६७६)। इसी प्रकार धर्म सेविकाओं के रूप में जैन-नारियों ने जो ख्याति प्राप्त की है, वह सर्वदा अनुकरणीय रही है। प्राचीन शिलालेखों एवं चित्रों से पता चलता है कि जैन श्राविकाओं का प्रभाव तत्कालीन समाज पर था। इन धर्मसेविकाओं ने अपने त्याग से जैन समाज में प्रभावशाली स्थान बना लिया था। उस समय की अनेक जैन देवियों ने अपनी उदारता एवं आत्मोत्सर्ग द्वारा जैन धर्म की पर्याप्त सेवा की है। इस सन्दर्भ में इक्ष्वाकुवंशीय महाराज पद्म की पत्नी धनवती, मौर्यवंशीय चन्द्रगुप्त की पत्नी सुषमा, एवं सिद्धसेन की धर्मपत्नी सुप्रभा के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।" जैन कथा-ग्रन्थों की संक्षिप्त तालिका प्रथमानुयोग के अन्तर्गत जो भी जैन साहित्यिक सामग्री ग्राह्य है, वह सब जैन कथात्मक है। मैं तो यह मानती हूँ कि यह प्रथमानुयोग, अन्य तीन अनुयोगों से (चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, करणानुयोग) से बृहत्तर है। तीर्थकरों की जीवन गाथाएँ, त्रेसठशलाकापुरुषों का जीवन-चरित्र, चरितकाव्य (पद्यात्मक एवं गद्यात्मक), कथा कोश आदि की तालिका बहुत बड़ी है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं प्रदेशीय विभिन्न भाषाओं में रचित जैन कथा-साहित्य प्रचुर है । डा. वासुदेवशरण अग्रवाल 'लोक-कथाएँ और उनका संग्रह कार्य' शीर्षक निबन्ध में लिखते हैं-बौद्धों ने प्राचीन जातकों की शैली के अतिरिक्त अवदान नामक नये कथा-साहित्य की रचना की जिसके कई संग्रह (अवदान शतक, दिव्यावदान आदि) उपलब्ध हैं। परन्तु इस क्षेत्र में जैसा संग्रह जैन लेखकों ने किया वह विस्तार, विविधता और बहुभाषाओं के माध्यम की दृष्टि से भारतीय साहित्य में अद्वितीय है। विक्रम संवत् के आरम्भ से लेकर उन्नीसवीं शती तक जैन साहित्य में कथाग्रन्थों की अविच्छिन्न धारा पायी जाती है। यह कथा-साहित्य इतना विशाल है कि इसके समुचित सम्पादन और प्रकाशन के लिए पचास वर्षों से कम समय की अपेक्षा नहीं होगी। डॉ० शंकरलाल यादव, अपने शोध-ग्रन्थ-'हरियाणा प्रदेश का लोक-साहित्य' में जैन-कथा-साहित्य के विस्तार के सम्बन्ध में अपने विचार इस प्रकार प्रकट करते हैं-कथा-साहित्य सरिता की बहुमुखी धारा के वेग को क्षिप्रगामी बनाने में जैन कथाओं का योगदान उल्लेखनीय है। जैनों के मूल आगमों में द्वादशांगी प्रधान और प्रख्यात है। उनमें नायाधम्मकहा, उवासगदसाओ, अन्तगड, अनुत्तरौपपातिक, विपाकसूत्र आदि समग्र रूप में कथात्मक हैं। इनके अतिरिक्त सूयगडंग, भगवती, ठाणांग आदि में अनेक रूपक एवं कथाएँ हैं जो अतीव भावपूर्ण एवं प्रभावजनक हैं। तरंगवती, समराइच्चकहा तथा कुवलयमाला आदि अनेकानेक स्वतन्त्र कथा ग्रन्थ तथा विश्व की सर्वोत्तम कथा-विभूति हैं । यदि इनका अध्ययन विधिवत् तथा इतिहास क्रम से किया जाय तो कई नवीन तथ्य प्रकाश में आवेंगे और जैन कथा साहित्य की प्राचीनता वैदिक कथाओं से भी अधिक पुरानी परिलक्षित होगी। जैनों का पुरातन साहित्य तो कथाओं से पूर्णत: परिवेष्टित है। कतिपय कथा कोश निम्नस्थ हैं (१) कथाकोश अथवा कथाकोशप्रकरणम् – इसके रचयिता श्रीवर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसुरि हैं। प्राकृत के इस ग्रन्थ में २३६ गाथाएँ हैं। ०० १. विशेष अध्ययनार्थ देखिए-ब्रचंदाबाई जैन-धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियाँ, प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० ६८४ २. आजकल-लोक-कथा अंक, पृ० ११ ३. हरियाणा प्रदेश का लोक साहित्य, पृ० ३३०-४० . Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) कथाकोच रचयिता अज्ञात है। इसमें १० कथाएँ हैं, जो संस्कृत में लिखी गई हैं। (३) कथारत्नकोशीचन्द्र के शिष्य श्रीदेवभद्र द्वारा रचित है। यह प्राकृत कृति है। (४) कथाकोश (भरतेश्वर बाहुबलि-वृत्ति ) - प्राकृत की यह रचना है जिसमें महापुरुषों की जीवन कथाएँ हैं। - (५) कथाकोश (प्रतचाकोश) श्री श्रुतसागररचित यह संस्कृत कृति है जिसमें व्रतों से सम्बन्धित व अनेक जैन कथाएँ हैं। इसकी रचना शैली प्रांजन है तथा कथ्य बड़ी रमणीयता से प्रतिपादित किया गया है। जैन-कथा-साहित्य में नारी प्राकृत की यह कृति श्रीविजयचन्द्र रचित है। (६) इस रचना में १४० गाथाएँ हैं (७) आख्यानमणिकोश - यह प्राकृत में लिखित है, जिसमें ४१ अध्याय हैं । (८) कथारत्नसागर - इसमें १५ तरंग हैं जिसे श्रीदेवभद्रसूरि के शिष्य नरचन्द्रसूरि ने रचा है । (e) कथारत्नाकर - इसमें संस्कृत में लिखित २५८ जैन कथाएँ हैं। जो संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि के पुरातन उद्धरणों से अलंकृत भी है । (१०) कथार्णव - जैन तपोधन वीरों की इसमें कथाएँ हैं । अन्य उपदेश कथाएँ भी यहाँ द्रष्टव्य हैं । कवि धर्मघोष ने इसे प्राकृत में लिखा है। हुए हैं। (११) कथासंग्रह सामान्य संस्कृत में लिखित अनेक सरस कथाएँ इसमें संग्रहीत हैं एक मुख्य कथा के अन्तर्गत अनेक उपकथाएँ गुम्फित की गई है। इसके रचयिता श्री राजशेखरमलधारी हैं। (१२) श्रीरामचन्द्र मुमुक्षु कृत संस्कृत पुण्यात्रव कथा-कोश- -भी बहुचर्चित है। इन कथाकोशों के अतिरिक्त शताधिक जैन कथाकोश उपलब्ध है । , शान्तिनाय चरित्र वसुदेवहडी, पउमचरियं चउप्पन्न महापुरिस चरिये तरंगलोला, भुवनसुन्दरीकहा, निर्वाण लीलावती कथा, बृहत्कथाकोश, उपदेश प्रासाद, जंबुचरियं सुरसुन्दरचरियं, रयणचूरराय, जयति प्रकरण आदि-आदि अनेक कथा ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद हो चुका है । धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष में विभाजित जैन कवाओं के कुछ उपभेद भी हैं, जिनमें नारी के विविध रूप अंकित ६४५ । 1 नारी के कुछ रंगीन अथवा मर्म स्पर्शी चित्र इन कथाओं में रूपायित हुए हैं (१) शापत्नीधन का घड़ा और बुद्धिहीन पड़ोसी, पृ० १. (२) असोत की राजकुमारी आज की दासीदास प्रथा की जड़ें हिल गई, पृ० १३. (२) साध्वी प्रमुख का प्रभावक ज्ञानोपदेश सबसे पहला कार्य, पृ० १८. (४) रानी मृगावती का अटल आत्मविश्वास गूँजा - मेरे लिए अब अंधकार नहीं रहा, पृ० २४. (५) नृत्य कला प्रवीणा देवदत्ता नामक वेश्या की लास्यभंगिमा- हथेली पर सरसों कैसे उगेगी, पृ० ३१. (६) शील का चमत्कार - नामक कथा में नारी का भव्यरूप, पृ० ३४. ( यह सब पृष्ठ संख्या जैन जगत के जैन कथा अंक के हैं ।) (७) माली की दो लड़कियाँ केवल भक्तिभाव से जिन मन्दिर की देहली पर एक-एक फूल चढ़ाने के कारण मरने के उपरान्त सौधर्म इन्द्र की पत्नियां बनती हैं। (पुण्यास्त्रव कथाकोश, पृ० १. ) १. राजकथा, चोरकथा, सेनकथा, भयकथा, युद्धकथा, पातकथा, वस्त्रकथा, शयनकथा, मालाकथा, गंधकथा, ग्रामकथा, निगम कथा, स्त्रीकथा, पुरुषकथा, शूरकथा, पनघटकथा, आदि-आदि । . Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to onto on to o ६४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड (८) मैनासुन्दरी अपनी व्रत साधना के बल पर अपने पति को कुष्ठरोग से मुक्त करती है। (श्रीपाल एवं मैंनासुन्दरी की कथा, पुष्याधव कथाकोश) (e) सती जसमा ओडण, सती ऋषिदत्ता एवं लीलापत अणकारा अपने पतिव्रता के भव्यरूप में विश्ववन्दनीय ', बनती हैं। (देखिए - अध्यात्मयोगी श्रीपुष्कर मुनि जैन कथाएँ भाग २० आदि) । संघर्षों के द्वन्द्वों में उन्मत्त शीर्षा नारी सर्वथा वरेण्य है, वह पूजनीय है, अनुकरणीया है एवं आलोकित प्रतिभा की धनी है । शक्तिसंगम तंत्र ताराखण्ड में प्रदत्त यह नारी प्रशस्ति शाश्वत अर्थवती है- न नारीसदृशो यज्ञः न नारीसदृशो जपः । न नारीसदृशो योगो न भूतं न भविध्यति ॥ 7 न नारीसदृशो मंत्र न नारीसदृशं तपः । न नारीसदृशं वित्तं न भूतो न भविष्यति ॥ . Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. -.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-.-. -.-.-.-.-.-. -.-.-.-. -. -. -. -.-. -.-.-. -.-.-.-.-. -.. हिन्दी जन गीतकाव्य में कर्म-सिद्धांत 0 (स्व०) प्रो० श्रीचन्द्र जैन मोहन निवास, कोठी रोड, उज्जैन (म० प्र०) जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त का जो गहन विवेचन किया गया है वह वैज्ञानिक है तथा साथ ही साथ तात्त्विक भी। जैनाचार्यों ने निष्पक्षभाव से कर्म-मीमांसा को इस प्रकार निरूपित किया है कि यह सामान्य जन को भी ग्राह्य है और मनीषियों के लिए भी बुद्धि-संगत है। __ यह तो स्पष्ट ही है कि आत्मा के सहज स्वरूप को कलुषित करने वाले कर्म ही हैं। यदि साधना की आग में कर्म दग्ध कर दिये जायं तो निष्कलंक बनकर आत्मा अलौकिक दिव्य आभा से शीघ्र ही प्रकाशित हो उठती है एवं अपने लक्ष्य की पूर्ति में सफल हो जाती है। लेकिन कर्म-पाश में आबद्ध यह जीव स्वलक्ष्य को भूलकर रागद्वेष के कर्दम में पतित होता है एवं अपनी प्रतिभा को कलंकित करता रहता है। महाकवि दौलतराम ने जीव की इस दूषित प्रवृत्ति का चित्रण इस प्रकार किया है जीव तू अनादि ही तै भूल्यो शिव गैलवा ।। मोहमदवारि पियौ, स्वपद विसार दियो। पर अपनाय लियो, इन्द्रिय सुख में रचियो । भवत न भियौ न तजियो मन-मैलवा । जीव तू अनादि ही तै भूल्यो शिव गैलवा ॥ मिथ्या ज्ञान आचरन धरिकर कुमरन । तीन लोक की धरन तामैं किया है फिरन ॥ पायौ न सरन, न लहायौ सुख-शैलवा । जीव तू अनादि ही तै भूल्यो शिव-गैलवा ।। अब नरभव पायौ, सुथल सुकुल आयौ । जिन उपदेस भायौ, दौल झट झिटकायो॥ पर परनति दुखदायिनी चुरैलवा। जीव तू अनादि ही तै भूल्यो शिव गैलवा ॥ कर्मों के वशीभूत होकर इस प्राणी ने स्व-पर विवेक को भुलाया, जिनेन्द्र भगवान की भक्ति की ओर आकृष्ट न हुआ, विषय-सुख में उल्लसित होकर उसने ऐसे दुष्कृत्य किये जो उसकी नैसर्गिक प्रगति के लिए घातक सिद्ध हुए तथा भोगों में निमग्न रहकर वह अपना ही विद्रोही बना। भगवन्त-भजन क्यों भूला रे? यह संसार रैन का सुपना, तन धन वारि बबूला रे ! भगवन्त-भजन क्यों भूला रे? Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .-.-.-. -.-.-.-.-.-.-. -.-.-.-. -. -.-. इस जीवन का कौन भरोसा पावक में तृण-पूला रे काल कुदाल लिये सिर ठाड़ा क्या समझै मन फूला रे ! भगवन्त भजन क्यों भूला रे ! स्वारथ साधै पांच पांव तू, परमारथ को लूला रे ! कहु कैसे सुख पैहे प्राणी काम करै दुख मूला रे ! भगवन्त भजन क्यों भूला रे? । मोह पिशाच छल्यौ मति मारै, निज कर कंध वसूला रे ! भज श्रीराजमतीवर भूधर, दो दुरमति सिर धूला रे ! भगवन्त भजन क्यों भूला रे ? साधक के आत्म-विकास में जिस शक्ति के कारण बाधा उपस्थित होती है, उसे जैन शास्त्र कर्म कहते हैं। भारतीय दार्शनिकों ने कर्म शब्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग किया है। वैयाकरण जो कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट हो उसे कर्म मानते हैं । यज्ञ आदि क्रियाकाण्ड को मीमांसा-शास्त्री कर्म जानते । वैशेषिक दर्शन में कर्म की इस प्रकार परिभाषा दी है जो एक द्रव्य में समवाय से रहता हो, जिसमें कोई गुण न हो और जो संयोग तथा विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे। सांख्य दर्शन में संस्कार अर्थ में कर्म का प्रयोग हुआ है। गीता में कियाशीलता को कर्म मान अकर्णयता को हीन बताया है। महाभारत में आत्मा को बाँधने वाली शक्ति को कर्म मानते हए शान्तिपर्व २४०-७ में लिखा है-प्राणी कर्म से बँधता है और विद्या से मुक्त होता है। बौद्ध साहित्य में प्राणियों की विविधता का कारण कर्मों की विभिन्नता कहा है । कर्म की बंधन नाम की एक अवस्था का वर्णन करने वाला तथा चालीस हजार श्लोक प्रमाण वाला महाबंध नाम का जैन ग्रन्थ प्राकृत भाषा में अभी विद्यमान है। जैनाचार्य बताते हैं कि आत्मा के प्रदेशों में कंपन होता है और उस कंपन से पुद्गल (Matter) का परमाणु-पुंज आकर्षित होकर आत्मा के साथ मिल जाता है, उसे कर्म कहते हैं। प्रवचनसार के टीकाकर अमृतचन्द्रसूरि लिखते हैं-आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से क्रिया को कर्म कहते हैं। उस क्रिया के निमित्त से परिणमन-विशेष को प्राप्त पुदगल भी कर्म कहलाता है। जिन भावों के द्वारा पुद्गल आकर्षित हो जीव के साथ सम्बन्धित होता है उसे भावकर्म कहते हैं और आत्मा में विकृति उत्पन्न करने वाले पुद्गलपिण्ड को द्रव्यकर्म कहते हैं। स्वामी अकलंकदेव का कथन है-जिस प्रकार पात्रविशेष में रखे गये अनेक रस वाले बीज, पुष्प तथा फलों का मद्यरूप में परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों का का क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों तथा मन, वचन, काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों के परिस्पन्दनरूप योग के कारण कर्मरूप परिणमन होता है। पंचाध्यायी में यह बताया है कि आत्मा में एक वैभाविक शक्ति है जो पुद्गल-पुंज के निमित्त को पा आत्मा में विकृति उत्पन्न करती है। जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल स्वयमेव कर्मरूप परिणमन करते हैं। तात्त्विक भाषा में आत्मा पुदगल का सम्बन्ध होते हुए भी जड़ नहीं बनता और न पुद्गल इस सम्बन्ध के कारण सचेतन बनता है। . प्रवचनसार की संस्कृत टीका में तात्त्विक दृष्टि को लक्ष्य कर यह लिखा है-द्रव्यकर्म का कर्ता कौन है ? स्वयं पुद्गल का परिणमन-विशेष ही। इसलिए पुद्गल ही द्रव्य कर्मों का कर्ता है, आत्म परिणाम रूप भावकों का नहीं। अत: आत्मा अपने-अपने स्वरूप से परिणमन करता है। पुद्गल स्वरूप से नहीं। कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होने से जो अबस्था उत्पन्न होती है उसे बन्ध कहते हैं। इस बन्ध पर्याय में जीव और पुद्गल की ऐसी नवीन अवस्था उत्पन्न हो जाती है जो न तो शुद्ध जीव में पायी जाती है और न शुद्ध पुद्गल में ही । जीव और पुद्गल अपने अपने गुणों से च्युत होकर एक नवीन अवस्था का निर्माण करते हैं। राग, द्वेष, युक्त आत्मा पुद्गल पुंज को अपनी ओर आकर्षित करता है। जैसे चुम्बक लोहा आदि पदार्थों को आकर्षित करता है। यह अज्ञानी जीव इष्ट-अनिष्ट संकल्प द्वारा वस्तु में प्रिय-अप्रिय कल्पना करता है जिससे राग-द्वप उत्पन्न होते हैं । इस राग-द्वेष से दृढ़ कर्म का बन्ध होता है। Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन गीतकाव्य में कर्म-सिद्धान्त इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि यह कर्मचक्र राग-द्वेष के निमित्त से सतत चलता रहता है और जब तक राग-द्वेष, मोह के वेग में न्यूनता न होगी तब तक यह चक्र अबाध गति से चलता रहेगा। राग-द्वेष के बिना जीव की क्रियाएँ बन्धन का कारण नहीं होतीं। इस विषय को कुन्दकुन्द स्वामी समयप्राभृत में समझाते हुए लिखते हैं कि कोई व्यक्ति अपने शरीर को तैल से लिप्त कर धूलिपूर्ण स्थान में जाकर शस्त्र-संचालन रूप व्यायाम करता है और ताड़, केला, बांस आदि के वृक्षों का छेदन-भेदन भी करता है। उस समय धूलि उड़कर उसके शरीर से चिपट जाती है । यथार्थ में देखा जाय तो उस व्यक्ति का शस्त्र-संचालन शरीर में धूलि चिपकाने का कारण नहीं है। वास्तविक कारण तो तैल का लेप है, जिससे धूलि का सम्बन्ध होता है। यदि ऐसा न हो तो वही व्यक्ति जब बिना तैल लगाये पूर्वोक्त शस्त्र-संचालन कार्य करता है तब उस समय वह धूलि शरीर में क्यों नहीं लिप्त होती? इसी प्रकार राग-द्वेष रूपी तैल से लिप्त आत्मा में कर्म-रज आकर चिपकती है और आत्मा को इतनी मलीन बना पराधीन कर देती है कि अनन्त शक्तिसम्पन्न आत्मा क्रीतदास के समान कर्मों के इशारे पर नाचा करती है।' जैन दर्शन में आठ कर्म माने गये हैं। ये ही आत्मा के निर्मल स्वरूप को किसी न किसी प्रकार धूमिल बनाते रहते हैं । इस सन्दर्भ में ४ घातिया कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अंतराय) का आत्मविकास में विरोधी रूप विशेष चर्चित है। आत्मा के गुणों का घात करने के ही कारण ये घातिया कर्म कहे गये हैं। शेष कर्म (वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र) अघातिया हैं । यद्यपि ये प्रत्यक्ष रूप में आत्मा के विकास में घातक नहीं हैं फिर भी मोहनीय के कुप्रभावशाली शासन में रहकर ये (अघातिया कर्म) जीव के विकास में बाधाएँ उपस्थित करते रहते हैं और उसे सच्चिदानन्द की प्राप्ति से कोसों दूर रखते हैं। अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा अपनी उत्कृष्ट साधना से कर्मों का क्षय करती है तथा इनके नाश हो जाने पर वह मोक्षस्थ बन जाती है। सिद्ध-स्वरूप की उपलब्धि तपश्चर्या की चरम फल-प्राप्ति है। सर्वज्ञता से समलंकृत आत्मा निज स्वरूप में लीन रहती हुई अरहंत कहलाती है। यह रूप चार घातिया कर्मों के क्षय से प्राप्त होता है। सत्य तो यह है कि रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र) रूपी तलवार को यदि साधक ग्रहण करता है तो फिर कर्म-शत्रुओं का विनाश अविलम्ब निश्चित है। इन आठ कर्मों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है (१) ज्ञानावरणीय कर्म-आत्मा के ज्ञान गुण पर ऐसा आवरण उत्पन्न होता है जिसके कारण संसारावस्था में उसका पूर्ण विकास नहीं होने पाता, जिस प्रकार कि वस्त्र के आवरण से सूर्य या दीपक का प्रकाश मन्द पड़ जाता है। इसकी ज्ञानों के भेदानुसार पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं, जिससे क्रमश: जीव का मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान व केवलज्ञान आवृत होता है। (२) दर्शनावरणीय कर्म-यह आत्मा के दर्शन नामक चैतन्यगुण को आवृत करता है। इस कर्म की निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि तथा चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय ये नौ उत्तरप्रकृतियां हैं। (३) मोहनीय कर्म-जीव में मोह अर्थात् उसकी रुचि व चारित्र में अविवेक, विकार व विपरीतता आदि दोष उत्पन्न करता है । इसके मुख्य भेद दो हैं---एक दर्शनमोहनीय और दूसरा चारित्रमोहनीय, जो क्रमश: दर्शन व चारित्र में उक्त प्रकार दूषण उत्पन्न करते हैं। दर्शनमोहनीय की उत्तरप्रकृतियाँ तीन हैं-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । चारित्रमोहनीय के चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । ये चारों ही प्रत्येक अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन के भेदानुसार चार-चार प्रकार के होते हैं, जिनकी कुल मिलाकर सोलह उत्तर प्रकृतियाँ होती हैं। इनमें हास्य, रति, अरति, खेद, भय, ग्लानि, एवं पुरुष, स्त्री व नपुंसकवेद-ये नौ नोकषाय मिलाने १. श्री सुमेरुचन्द्र दिवाकर-जैन शासन-कर्म सिद्धान्त नामक अध्याय से साभार । २. ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 ६५० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड से मोहनीय कर्म की समस्त उत्तरप्रकृतियों की संख्या अट्ठाइस हो जाती है। मोहनीय कर्म सबसे अधिक प्रबल व प्रभावशाली है, और प्रत्येक प्राणी के समग्र जीवन में अत्यन्त व्यापक व उसके लोक चरित्र के निर्माण अथवा विनाश में समर्थ सिद्ध होता है। इस कर्म के कुप्रभाव से जीव भ्रमित होकर स्व-पर-भेद को विस्मृत करता है तथा परत्व को स्वकीय मानकर उसमें तन्मय हो जाता है । अनेक दुर्गुण इसके माध्यम से उत्पन्न होते हैं और प्राणी कुकर्म करता हुआ भी नहीं हिचकता मोह-मदिरा के वश में होकर यह जीव उम्मत बनता है और कर्तव्याकर्तव्य के भेद को भूलकर ऐसे निन्द्य कुकार्यों में अथवा कहिए पापों में रम जाता है जिसके कारण उसे दुर्गतियों में भ्रमण करना पड़ता है। धर्मक्रियाएँ उसके लिए गौण हो जाती हैं तथा विषय-भोग ही ऐसे मूढ़ को सर्वोपरि प्रतीत होते हैं जैनाचायों और जैन कवियों ने मोहनीय कर्म के कुप्रभाव से बचने के लिए, जीव को विविध रूपों में सम्बोधित किया है एवं उसे ऐसे मनोरम प्रबोधन दिए हैं जो निरन्तर स्मरणीय है। मोह का दूसरा नाम गाया है जिसकी भर्त्सना समस्त सन्तों एवं विचारकों ने की है। कविवर रूपचन्द जी कहते हैं कि मोह के वशीभूत होकर यह चेतन अन्य के प्रेम में लीन हो रहा है चेतन परस्यों प्रेम बढ्यो || स्वपर-विवेक बिना भ्रम भूल्यो में मैं करत रह्यो। चेतन परस्यों प्रेम बढ्यो || १ || नर भव रतन जतन बहु तैं करि कर तेरे आइ चढ्यो । सुक्यौं विषय-सुख लागि हारिए, सब गुन गढनि गढ्यो || चेतन परस्यौं प्रेम बढ्यो || २ || आरंभ के कुसियार कीट ज्यौं, आपुहि आप मढ्यो । रूपचंद चित चेतन नाहि सँ सुक ज्यों वादि पढ्यो । चेतन परस्यों प्रेम बढ्यो || ३ || महाकवि दौलतराम के कथनानुसार यह जीव मोह-मदिरा पीकर अयाना ( अज्ञानी) बना हुआ है तथा परपरणति में तल्लीन होकर निजस्वरूप को भूल चुका है। यह सब मोहनीय कर्म का ही प्रभाव है निपट अयाना ते आपा नहि जाना, नाहक भरम भुलाना वे । निपट अयाना, ते आपा नहि जाना || पीय अनादि मोहमद मोह्यो पर पद में निज 2 माना वे। निपट अयाना ॥ १ ॥ चेतन चिह्न भिन्न जड़ता सौं, ज्ञान 'दरस रस साना वे । तन में छिप्यो लिप्यो न तदपि ज्यों, जल में कजदल माना वे ।। सकल भाव निज निज परनतिमय कोई न होय तू दुखिया पर कृत्य मानि ज्यों, नभ ताड़न अजगन में हरि भूल अपनयो, भयो दौल सुगुरु धुनि सुनि निज में निज आप निपट अयाना ॥ २॥ बिराना वे | श्रम ठाना वे ॥ निपट अयाना ॥३॥ दीन हैराना वे लह्यो सुख थाना वे ।! निपट अयाना ॥ ४ ॥ कविवर बनारसीदास की यह एक मान्यता है कि यह चेतन मोह के वशीभूत होकर उल्टी चाल चल रहा है। यह तो इतना विमूढ़ हो गया है कि प्रमुदित होकर वह अपने गले में स्वयं विषय-वासना की फाँसी डाल रहा है . Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन गीतकाव्य में कर्म-सिद्धान्त .................................................................. ..... चेतन उलटी चाल चले ॥ जड़ संगत तँ जड़ता व्यापी, निज गुन सकल टले । चेतन उलटी चाल चले ॥१॥ हित सों विरचि ठगनिसों राचे, मोह पिशाच जले। हँसि हसि फंद सवारि आपही, मेलत आप गले ।। चेतन उलटी चाल चले ॥२॥ आये निकसि निगोद सिंधु से, फिर तिह पंथ टले । कैसे परगट होय आग जो, दबी पहार तले ॥ चेतन उलटी चाल चले ॥३॥ भले भव-भ्रम बीचि बनारसि, तुम सुज्ञान भले । धर शुभ ध्यान ज्ञान नौका चढ़ि, बैठे ते निकले ॥ चेतन उलटी चाल चले ॥४॥ इस प्रकार के सैकड़ों पद हैं जिनमें मोहनीय कर्म के प्रबल प्रभाव को प्रदर्शित करके चेतन को सजग बनाने का प्रयास किया गया है। (४) अन्तराय कर्म-जो कर्म जीव के बाह्य पदार्थों के आदान-प्रदान और भोगोपभोग तथा स्वकीय पराक्रम के विकास में विघ्न-बाधा उत्पन्न करता है, वह अन्तराय कर्म कहा गया है। उसकी पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । ये क्रमश: जीव के दान करने, लाभ लेने, भोज्य व भोग्य पदार्थों का एक बार में अथवा अनेक बार में, सुख लेने एवं किसी भी परिस्थिति का सामना करने योग्य सामर्थ्य रूप गुणों के विकास में बाधक होते हैं।' (५) वेदनीय कर्म-डॉ. हीरालाल जैन लिखते हैं-जो कर्म जीव को सुख व दु:ख रूप वेदना उत्पन्न करता है, उसे वेदनीय कहते हैं । इसकी उत्तरप्रकृतियाँ दो हैं-सातावेदनीय, जो जीव को सुख का अनुभव कराता है और असातावेदनीय, जो दुःख का अनुभव कराता है । (६) आयुकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की देव, नरक, मनुष्य या तिर्यंच गति में आयु का निर्धारण होता है, वह आयु कर्म है। इसकी चार उत्तरप्रकृतियाँ हैं—१. देवायु, २, नरकायु, ३. मनुष्यायु व ४. तिर्यंचायु । जीवन-मरण की यह सारी क्रीड़ा इसी आयु में कर्म पर आधारित है। इन विभिन्न योनियों में नियत काल की अवस्थिति यही कर्म करता है । आयु की समाप्ति पर कोई भी शक्ति जीव को जीवित जहीं रख सकती है सुर असुर खगाधिप जेते, मग ज्यों हरि काल दले ते । मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ॥ आयु कर्म की प्रभावशीलता को न समझने वाले व्यक्ति ईश्वर की प्रधानता को स्वीकार कर उसकी अनुकम्पा को ही आयु की वृद्धि में परम सहायक मानते हैं, लेकिन यह मान्यता निरर्थक है। काल की समर्थता के सम्बन्ध में कविवर भूधरदास का यह कवित्त विचारणीय है लोह मई कोट के ई कोटन की ओट करो, काँगरेन तोप रोपि राखो पट भेरि के। . . १. डॉ० हीरालाल जैन : भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ २२८ २. वही, पृ० २२६ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजो सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड इन्द्र चन्द्र चौकायत चौकस है चौकी देहु, चतुरंग चमू चहूं ओर रहो घेरि के। तहां एक भौंहिरा बनाय बीच बैठो पुनि, बोलो मत कोऊ जो बुलावै नाम टेरिक । ऐसी परपंच पांति रचो क्यों न भाँति-भाँति, कैसे हु न छोड़े जम देखो हम हेरिकै ॥ इसी सन्दर्भ में निम्नस्थ पंक्तियां सांसारिक क्षणभंगुरता के साथ जीवन की असारता, एकाकीपन और अस्थिरता को भी प्रमाणित करती हैं राजा राणा छत्रपति, हाथिन के असवार । मरना सबको एक दिन, अपनी अपनी बार ।। दल बल देई देवता, माता-पिता परिवार । मरती बिरियाँ जीव को, कोई न राखनहार ॥ दाम बिना निर्धन दुखी, तृष्णा वश धनवान । कहूँ न सुख संसार में, सब जग देख्यो छान ।। आप अकेलो अवतरै, मरै अकेलो होय । यों कबहूं इस जीव को, साथी सगा न कोय ।' (७) गोत्रकर्म-जिस प्रकार कुम्भकार मृत्तिका आदि को छोटे-बड़े घट के रूप में परिणत कर दिया करता है, उसी प्रकार छोटे-बड़े भेदों से विमुक्त इस जीव को गोत्र कर्म कभी उच्च कुल में जन्म धारण कराता है तो कभी हीन संस्कार, दूषित आचार-विचार एवं हीन-परम्परा वाले कुलों में उत्पन्न कराता है। सदाचार के आधार पर उच्चता और कुलीनता अथवा अकुलीनता और नीचता के व्यवहार का कारण उच्च-नीच गोत्र कर्म का उदय है । आज वर्ण व्यवस्था सम्बन्धी उच्चता-नीचता पौराणिकों की मान्यता मानी जाती है। किन्तु जैन शासन में उसे गोत्र कर्म का कार्य बताया है । पवित्र कार्यों के करने से तथा निरभिमान वृत्ति के द्वारा यह जीव उच्च संस्कार सम्पन्न वंश परम्परा को प्राप्त करता है। शिक्षा, वस्त्र, वेश-भूषा आदि के आधार पर संस्कार तथा चरित्र-हीन नीच व्यक्ति शरीर परिवर्तन हुए बिना उच्च गोत्र वाले नहीं बन सकते, क्योंकि उच्च गोत्र के उदय के लिए उच्च संस्कार परम्परा में उत्पन्न शरीर को नोकर्म माना है। (जैन शासन, पृ० २२८) डा. हीरालाल जैन के मतानुसार लोक-व्यवहार सम्बन्धी आचरण गोत्र माना गया है । जिस कुल में लोकपूजित आचरण की परम्परा है उसे उच्च गोत्र और जिसमें लोक निन्दित आचरण की परम्परा है उसे नीच गोत्र नाम दिया गया है। इन कुलों में जन्म दिलाने वाला कर्म गोत्र कर्म कहलाता है और उसकी तदनुसार उच्च गोत्र व नीचगोत्र ये दो ही उत्तर-प्रकृतियाँ हैं । यद्यपि गोत्र शब्द का वैदिक परम्परा में भी प्रयोग पाया जाता है, तथापि जैन कर्म सिद्धान्त में उसकी उच्चता और नीचता में आचरण की प्रधानता स्वीकार की गई है। (८) नाम कर्म-जिस प्रकार चित्रकार अपनी तूलिका और विविध रंगों के योग से सुन्दर अथवा भीषण आदि चित्रों को बनाया करता है। उसी प्रकार नामकर्म रूपी चित्रकार इस जीव को भले-बुरे, दुबले-पतले, मोटे-ताजे, लूलेलंगड़े, कुबड़े, सुन्दर अथवा सड़े-गले शरीर में स्थान दिया करता है। इस जीव की अगणित आकृतियाँ और विविध प्रकार के शरीरों का निर्माण नामकर्म की कृति है। विश्व की विचित्रता में नामकर्म रूपी चितेरे की कला व नीच. कार की गाया जाता है १. डा० प्रेमसागर जैन, हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, पृ० ३४३. २. डॉ० हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, प० २२६. Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन गीतकाव्य में कर्म-सिद्धान्त ६५३ ......................................................................... अभिव्यक्त होती है। शुभ नाम कर्म के प्रभाव से मनोज्ञ और सातिशय अनुपम शरीर का लाभ होता है । अशुभ नाम कर्म के कारण निन्दनीय असुहावनी शारीरिक सामग्री उपबन्ध होती है । जो लोग जगत् का निर्माता किसी विधाता या स्रष्टा को बताते हैं, यथार्थ में वह इस नामकर्म के सिवाय और कोई वस्तु नहीं है। आचार्य भगवज्जिनसेन ने इस नामकर्म को ही वास्तविक ब्रह्मा, स्रष्टा अथवा विधाता कहा है विधिः स्रष्टा विधाता च, दैवं कर्म पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञयाः कर्मवेधसः ॥ -महापुराण ३७।४ एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त चौरासी लाख योनियों में जो जीवों की अनन्त आकृतियाँ हैं उनका निर्माता यह नामकर्म है। नामकर्म के मुख्य भेद ४२ तथा उनके उपभेदों की अपेक्षा ६३ उत्तरप्रकृतियाँ मानी गई है। यहाँ पर भी विचारणीय है कि इन कर्मों का कर्ता स्वयं जीव ही है तथा शुभाशुभ फल का भोक्ता भी यही चेतन है। यह जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। जैन सिद्धान्त का यही मत है जो पूर्णरूपेण तर्कसंगत होने से मान्य है । इस सिद्धान्त में अन्य के हस्तक्षेप को स्वीकार करना सर्वथा अनुचित है। यह जीव संसार में अकेला भ्रमण करता हुआ कर्मों का बंध करता है । कविवर भागचन्द्र ने इस सत्य को इस रूप में चित्रित किया है जीव तू भ्रमत सदैव अकेला । संग साथी कोई नहीं तेरा । अपना सुख दुःख आप ही भुगतै, होत कुटुम्ब न भेला। स्वार्थ भये सब बिछुर जात हैं, विछट जात ज्यों भेला ॥१॥ रक्षक कोई न पूरन व जब आयु अंत की बेला। फूटत पार बँधत नहिं जैसे, दुद्धर जल को ठेला ॥२॥ तन धन जोवन विनश जात, ज्यों इन्द्रजाल को खेला । भागचंद इमि लखकर भाई, हो सतगुरु का चेला ॥३॥ जीव तू भ्रमत सदैव अकेला ॥ दूसरों के परिणमन या कार्य में हस्तक्षेप करने की भावना ही मिथ्या, निष्फल और दुःख का कारण है क्योंकि सब जीवों का जीवन-मरण, सुख-दुःख स्वयंकृत व स्वयंकृत-कर्म का फल हैं । एक को दूसरों के दुःख-सुख, जीवन-मरण का कर्ता मानना अज्ञान है, सो ही कहा है सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीय-कर्मोदयान्मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम्। . . अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य, कर्यात्पुमान्मरण-जीवित-दुःख-सौख्यम् ॥ यदि एक प्राणी को दूसरे के सुख-दुःख और जीवन-मरण का कर्ता माना जाय तो फिर स्वयंकृत शुभाशुभ कर्म निष्फल साबित होंगे, क्योंकि प्रश्न यह है कि हम बुरे कर्म करें और कोई दूसरा व्यक्ति चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, क्या हमें सुख दे सकता है ? इसी प्रकार हम अच्छे कार्य करें और कोई व्यक्ति चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो, क्या बुरा कर सकता है ? यदि हाँ, तो फिर अच्छे कार्य करना और बुरे कार्यों से डरना व्यर्थ है। क्योंकि उनके फल को भोगना आवश्यक तो है ही नहीं? और यदि यह सही है कि हमें अपने अच्छे बुरे कर्मों का फल भोगना ही होगा तो फिर पर के हस्तक्षेप की कल्पना निरर्थक है। इसी बात को अमितगति आचार्य ने इस प्रकार व्यक्त किया है स्वयं कृतः कर्म यदात्मनापुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभं । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुट, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ १. श्री सुमेरुचन्द्र दिवाकर : जैन शासन, पृ० २२६. Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड निजाजितं कर्म विहाय देहिनो, न कोपि कस्यापि ददाति किचन । विचारयन्नेवमनन्य मानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ॥' महाकवि दौलतरामजी ने भी इस सर्वव्यापक तथ्य को अपने सैद्धान्तिक ग्रन्थ 'छहढाला' में निरूपित कर जीव को आत्मोद्धार के लिए प्रेरित किया है .. शुभ अशुभ करम फल जेते, भोग जिय एकहि ते ते।। सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भीरी ।। प्रबुद्ध मानव अपनी सतत साधना से इस दूषित मान्यता को नष्ट करता है और फिर वास्तविकता की ओर आकृष्ट होकर विचारने लगता है कि हम न किसी के कोई न हमारा, झूठा है जग का व्योहारा। तन संबंधी सब परिवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ॥१॥ पुन्य उदय सुख का बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा। पाप पुन्य दोऊ संसारा, मैं सब देखन जानन हारा ॥२॥ मैं तिहुंजग तिहुंकाल अकेला, पर संबंध हुआ बहु मैला । थिति पूरी कर खिरखिर जाहीं, मेरे हरख शोक कछु नाहीं ॥ ३ ॥ राग-भाव ते सज्जन मान, द्वेष-भाव ते दुर्जन माने । रागदोष दोऊ मम नाहीं, द्यानत मैं चेतन पद माहीं ॥४॥ किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल यह जीव स्वयं भोगता ही है। पापों के कष्टदायक परिणाम से यह चेतन किसी भी प्रकार से बच नहीं सकता। कवि धर्मपाल के शब्दों में कर्मभोग तो भोगने से ही छूट सकते हैं, इसमें अन्य की सहायता माँगना केवल मूढ़ता है जिया तू दुख से काहे डरे रे । पहले पाप करत नहिं शंक्यो, अब क्यों साँस भरे रे ॥१॥ करम भोग भोगे ही छुटेंगे, शिथिल भये न सरे रे । धीरज धार मार मन ममता, जो सब काज सरे रे ॥ २ ॥ करत दीनता जन जन पे तु, कोई न सहाय करे रे। 'धर्मपाल' कह सुमरो जगतपति, वे सब विपति हरे रे ।। ३ ।। इस कर्मसिद्धान्त से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वास्तव में इस जीव का (शुभ-अशुभ कर्म के सिवाय) कोई अन्य न तो हित करता है और न अहित । मिथ्यात्व कर्म के अधीन होकर धर्म-मार्ग का त्याग करने वाला देवता भी मर कर एकेन्द्रिय वृक्ष होता है। धर्माचरण रहित चक्रवर्ती भी सम्पत्ति न पाकर नरक में गिरता है। इसलिए अपने उत्तरदायित्व को सोचते हुए कि इस जीव का भाग्य स्व-उपार्जित कर्मों के अधीन है, धर्माचरण करना चाहिए। स्वामि कार्तिकेय मुनिराज ने उपर्युक्त सत्य को इस प्रकार प्रकाशित किया है ण य कोवि देरु लच्छी ण कोवि जीवस्स कुणइ उवयारं । उवयारं अवयारं कम्मं पि सुहासुहं कुणदि ॥ ३१६ ॥ देवो वि धम्मचत्तो मिच्छत्तवसेण तरुवरो होदि। चक्की वि धम्मरहिओ णिवडइ णरए ण सम्पदे होदि ॥ ४३५ ॥ -स्वामि कीर्तिकेयानुप्रेक्षा र मन ममता, न सहाय कर॥ ३ ॥ १. डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल, धार्मिक सहिष्णुता और तीर्थंकर महावीर (महावीर जयंती स्मारिका १९७३), पृ०१-५७ २. जैन शासन (पं० सुमेरुचन्द्र दिवाकर) पृ० २४१ Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन गीतकाव्य में कर्म-सिद्धान्त कायम कम-सिद्धान्त ६५५ ......................................................... .... . . .... मनीषियों के सुविचारित मत से प्रत्येक प्राणी को कर्माधीन रहकर अपने जीवन को व्यतीत करना है एवं अमिट कर्म-रेखा के फल को भोगना ही है। यह कर्मवाद, भवितव्यता, विधि-विधान, नियतिवाद, भाग्यवाद, परिस्थिति चक्र आदि कई नामों से अभिहित किया गया है। कविवर प्रसाद का नियतिवाद इस सम्बन्ध में एक व्यापक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है। कवि बुधजन के "कर्मन की रेखा न्यारी रे" पद में अनेक उदाहरणों के माध्यम से भवितव्यता की परिपुष्टि की है जो कर्मवाद का एक रूप ही है कर्मन की रेखा न्यारी रे, विधिना टारी नाहिं टरै॥ रावण तीन खण्ड को राजा, छिन में नरक पड़े। छप्पन कोट परिवार कृष्ण के वन में जाय मरे ॥१॥ हनुमान की मात अंजना वन-वन रुदन करें। भरत बाहुबलि दोऊ भाई, कैसा युद्ध करै ॥२॥ राम अरु लछमन दोनों भाई सिय के संग वन में फिरै । सीता महासती पतिव्रता, जलती अगनि परै ।। ३ ।। पांडव महाबली से योद्धा तिनकी त्रिया को हरै। कृष्ण रुक्मणी के सुत प्रद्युम्न जनमत देव हरै ॥ ४ ॥ को लग कथनी कीजे इनकी, लिखता ग्रन्थ भरै। धर्म सहित ये करम कौन सा, बुद्धजन यों उचरं ॥ ५॥ -हिन्दी पद संग्रह, पृ० २०१ जैन दार्शनिकों ने अपने परमात्मा या ईश्वर को उसके कर्तृत्व में उपस्थित होने वाले दोषों से मुक्त रखा है और दूसरी ओर प्रत्येक व्यक्ति को अपने आचरण के सम्बन्ध में पूर्णतः उत्तरदायी बनाया है। इस लेख की समाप्ति के पूर्व यह विचार करना भी आवश्यक है कि जीव और कर्म-बंध सादि है या अनादि । कतिपय विचारकों की मान्यता है कि ईश्वर-अंश होने के कारण जीव प्रारम्भ में विशुद्ध था। माया के वशीभूत होकर वही सकलंक बन गया है। इस प्रकार की मान्यता अथवा धारणा कैसे मान्य कही जा सकती है। ऐसा कौन चेतन होगा, जो स्वयं निर्मल रूप को छोड़कर घृणित शारीरिक बंधन में आबद्ध होना चाहेगा। मानसरोवर-निवासी हंस क्या पंकमय पोखर में रहना पसन्द करेगा? कभी नहीं। इसी प्रकार विशुद्ध चेतन का कर्मसत्व से मलीन होने की लालसा या कहिए मलाकर्षण अभिरुचि कहाँ तक संगत कही जा सकती है । वस्तुत: इस जीव का यह संसार परिभ्रमण अनादि है तथा उसकी समाप्ति भी सम्भव है। साधना, तप आदि के द्वारा कर्मक्षय से यह भ्रमण समाप्त होता है और चेतन विशुद्ध बनकर सिद्ध रूप में विश्वपूज्य हो जाता है। यह कोई नियम नहीं है कि जो अनादि है, वह अनन्त भी होगा। भव्य जीवों के लिए यह अनादि कर्म-बंधन आदि है लेकिन अभव्य के लिए यही कर्मजनित अनादि परिभ्रमण अनन्त कहा गया है। जैन शासन में पं० सुमेरुचन्द दिवाकर लिखते हैं कि इस कर्म का और आत्मा का कब से सम्बन्ध है? यह प्रश्न उत्पन्न होता है। इसके उत्तर में आचार्य कहते हैं कि कर्मसन्तति-परम्परा की अपेक्षा यह सम्बन्ध अनादि से है । जिस प्रकार खान से निकाला गया सुवर्ण कालिमादि विकृति सम्पन्न पाया जाता है, पश्चात् अग्नि तथा रासायनिक द्रव्यों के निमित्त से विकृति दूर होकर शुद्ध सुवर्ण की उपलब्धि होती है, इसी प्रकार अनादि से यह आत्मा कर्मों की विकृति से मलीन हो भिन्न-भिन्न योनियों में पर्यटन करता फिरता है । तपश्चर्या, आत्म-श्रद्धा, आत्म-बोध के द्वारा मलिनता का नाश होने पर यही आत्मा परमात्मा बन जाती है। जो जीव आत्म-साधना के मार्ग में नहीं चलता, वह प्रगति-हीन जीव सदा दुःखों का भार उठाया करता है । यह कर्म-बंधन पर्याय की दृष्टि से अनादि नहीं है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड 'अनादि सम्बन्धे च' (२.४१) सूत्र द्वारा यह बता दिया है कि कर्मसन्तति की अपेक्षा अनादि सम्बन्ध होते हुए भी पर्याय दृष्टि से वह सादि सम्बन्ध वाला है। बीज और वृक्ष के सम्बन्ध पर दृष्टि डालें तो परम्परा की दृष्टि से उनका कार्य-कारणभाव अनादि होगा। जैसे अपने सामने लगे हुए नीम के वृक्ष का कारण हम उसके बीज को कहेंगे। यदि हमारी दृष्टि अपने नीम के झाड़ तक ही सीमित है तो हम उसे बीज से उत्पन्न कह सादि सम्बन्ध सूचित करेंगे किन्तु इस वृक्ष के उत्पादक बीज के जनक अन्य वृक्ष और उसके कारण अन्य बीज आदि की परम्परा पर दृष्टि डालें तो इस सम्बन्ध को अनादि मानना होना । किन्हीं दार्शनिकों को यह भ्रम हो गया है कि जो अनादि है, उसे अनन्त होना ही चाहिए । वस्तु-स्थिति ऐसी नहीं है, अनादि वस्तु अनन्त हो, न भी हो। यदि विरोधी कारण आ जावे तो अनादिकालीन सम्बन्ध की भी जड़ उखाड़ी जा सकती है । (पृ० २१५-१६) __ जैन सिद्धान्तानुसार आत्मा का चरम लक्ष्य सांसारिक बंधनों से मुक्त होना है तथा एतदर्थ उसे निरन्तर प्रयास करना चाहिए। 0000 . Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. -. - . -. - . -. -. ............................................... जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबंध-काव्य 0डॉ० लालचन्द जैन हिन्दी विभाग, बनस्थली विद्यापीठ, वनस्थली (राज.) भारतीय वाङमय के विकास में जैन कवियों का योगदान अविस्मरणीय है। जिस प्रकार भारतीय धर्मों में जैन धर्म एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, उसी प्रकार भारतीय साहित्य में जैन साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसमें सन्देह नहीं कि जैन धर्म एक प्राचीन धर्म है और इस धर्म के बहुत से कर्णधार साहित्य के प्रणेता भी रहे हैं तथा अनेक साहित्यकार अपनी धार्मिक आस्थाओं को लेकर चले हैं। इस प्रकार जैन साहित्यकार अतीतकाल से ही अपनी मनीषा एवं भावुकता का परिचय देते रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि जैन साहित्यकार भारत की विविध भाषाओं और साहित्य की विविध विधाओं में साहित्य का सृजन करते रहे हैं । जिस प्रकार उन्होंने भारत की अनेक भाषाओं में साहित्य की रचना की, उसी प्रकार ब्रजभाषा में भी की। ब्रजभाषा में उनके द्वारा प्रभूत परिमाण में काव्य-सृष्टि हुई है। उसमें भी यद्यपि मुक्तक काव्य का प्राचुर्य है, किन्तु प्रबन्धकाव्यों की भी एक विशिष्ट भूमिका है। इन प्रबन्धकाव्यों के अन्तर्गत महाकाव्य और खण्डकाव्य के अतिरिक्त एकार्थ काव्य भी उल्लेखनीय हैं। ___ आलोच्य प्रबन्धकाव्यों में पार्श्वपुराण (भूधरदास), नेमीश्वरदास (नेमिचन्द्र) जैसे महाकाव्य, सीता चरित (राम चन्द्र बालक), श्रेणिक चरित (लक्ष्मीदास), यशोधरचरित (लक्ष्मीदास), यशोधरचरित चौपई (साह लोहट) जैसे एकार्थकाव्य, बंकचोर की कथा (नथमल), आदिनाथ बेलि (भट्टारक धर्मचन्द्र), रत्नपाल रासो (सूरचन्द), चेतनकर्म चरित (भैया भगवतीदास), मधु बिन्दुक चौपई (भैया भगवतीदास), नेमिनाथ मंगल (विनोदीलाल), नेमि राजमती बारहमासा सवैया (जिनहर्ष), नेमि-राजुल बारहमासा (विनोदीलाल), शत अष्टोत्तरी (भैया भगवतीदास), नेमि ब्याह (विनोदीलाल), पंचेन्द्रिय संवाद (भैया भगवतीदास) राजुल पच्चीसी (विनोदीलाल) सूआ बत्तीसी (भैया भगवतीदास), नेमिचन्द्रिका (आसकरण), शीलकथा (भारामल्ल), सप्तव्यसन चरित (भारामल्ल), निशिभोजन-त्याग कथा (भारामल्ल) नेमिचन्द्रिका (मनरंगलाल) आदि खण्डकाव्य ब्रज प्रबन्धकाव्य-शृंखला की महत्त्वपूर्ण कड़ियाँ हैं। उपर्युक्त प्रबन्धकाव्यों के अतिरिक्त, पर्याप्त संख्या में, अनूदित प्रबन्धकाव्य भी उपलब्ध होते हैं, जैसे-धर्मपरीक्षा (मनोहरलाल), प्रीतकर चरित (जोधराज गोदीका), पाण्डव पुराण (बुलाकीदास), धन्यकुमार चरित (खुशालचन्द्र), जीवंधर चरित (दौलतराम कासलीवाल), श्रेणिक चरित (रत्नचन्द), वरांगचरित (पाण्डे लालचन्द्र), जिनदत्त चरित (वख्तावरमल) आदि । यदि हम अनूदित प्रबन्धकाव्यों को छोड़ दें तो भी यह कहना चाहिए कि मौलिक प्रबन्धकाव्य भी संख्या में कम नहीं हैं और उनमें नामकरण, विषय एवं शैली आदि की दृष्टि से विविधता परिलक्षित होती हैं। नामकरण की दृष्टि से ये रचनाएँ चरित, पुराण, कथा, वेलि, मंगल, चन्द्रिका, बारहमासा, संवाद, छन्द-संख्या आदि अनेक नामान्त हैं, जो अपने विविध रूपविधानों का संकेत करती है। विषय के विचार से भी ये रचनाएँ कई प्रकार की हैं। इनमें कुछ पौराणिक हैं, यथा-सीता चरित, श्रेणिक चरित, नेमीश्वर रास आदि, कुछ धार्मिक हैं, जैसे—बंकचोर की कथा, Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .६५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड शीलकथा आदि, कुछ की रचना दार्शनिक या आध्यात्मिक विषयों के आधार पर हुई है, जैसे-चेतन कर्म चरित, शत अष्टोत्तरी, पंचेन्द्रिय सवाद, मधु बिन्दुक चौपई, सूआ बत्तीसी आदि । ___ यह भी स्मरणीय है कि जिस काल में इन प्रबन्धकाव्यों का प्रणयन हुआ, वह काल हिन्दी में रीतिकाल के नाम से प्रसिद्ध है । इस युग में श्रृंगारपरक मुक्तक काव्य की सृष्टि अपने उत्कर्ष पर थी। बहुत थोड़े प्रबन्धकाव्यों का उदय अपने अस्तित्व की सूचना दे रहा था। ऐसे समय में वस्तु एवं शिल्प विषयक अनेक विशिष्टताओं से सम्पुटित अनेक प्रबन्ध कर्ताओं की रचना एक आश्चर्य की बात है । आलोच्य प्रबन्ध काव्यों में दो प्रमुख महाकाव्य है(१) पार्श्वपुराण और (२) नेमीश्वररास । उक्त दोनों महाकाव्य के लक्षणों की कसौटी पर प्रायः पूरे उतरने वाले काव्य हैं। ये महान् नायक, महदुद्दे श्य, श्रेष्ठ कथानक, वस्तु-व्यापार-वर्णन, रसाभिव्यंजना, उदात्त शैली आदि की दृष्टि से पर्याप्त सफल हैं। एकार्थकाव्यों में कवि लक्ष्मीदास का यशोधर चरित एवं श्रेणिक चरित, अजयराज का नेमिनाथ चरित, रामचन्द्र बालक का सीताचरित आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये काव्य चरित काव्यों की परम्परा के प्रतीत होते हैं, जिनमें प्रबन्धत्व के साथ-साथ कथाकाव्य एवं इतिवृत्तात्मक कथा के लक्षण भी विद्यमान हैं। आलोच्य युग में रचे गये खण्डकाव्यों की संख्या ही सर्वाधिक है । जहाँ महाकाव्य और एकार्थकाव्य प्रायः पुराण, चरित, चौपाई और रास नामान्त हैं, वहाँ खण्डकाव्य कथा, चरित, चौपाई, मंगल, ब्याह, चन्द्रिका, वेलि, बारहमासा, संवाद तथा छन्द संख्या (शत अष्टोतरी, सूआ बत्तीसी, राजुल पच्चीसी) आदि अनेक नामान्त हैं। इन खण्डकाव्यों के प्रतिपाद्य विषय अनेक हैं और उनमें प्रयुक्त शैलियाँ भी अनेक हैं । इन खण्डकाव्यों में भाव प्रधान खण्डकाव्यों की संख्या काफी है । ये अनुभूति की तीव्रता से सम्पुटित हैं, हमारे हृदय को छूते हैं और अधिक समय तक रसमग्न रखते हैं। इनमें प्रयुक्त अधिकांश छन्दों एवं ढालों का नाद-सौन्दर्य सहृदयों को विमोहित करता है। इस प्रकार के खण्डकाव्यों में आसकरण कृत नेमिचन्द्रिका, विनोदीलाल कृत राजुल-पच्चीसी, नेमि-ब्याह, नेमिनाथ मंगल, नेमि-राजुल बारहमासा संवाद, जिनहर्ष कृत नेमि-राजुल बारहमासा आदि उल्लेखनीय हैं। कुछ ऐसे खण्डकाव्य भी हैं, जो वर्णनप्रधान या घटनाप्रधान हैं। बंकचोर की कथा (नथमल), वर्णनप्रधान तथा चेतनकर्मचरित (भैया भगवतीदास) घटनाप्रधान खण्डकाव्य कहे जा सकते हैं। __समन्वयात्मक खण्डकाव्यों में भारामल्ल कृत शील कथा, भैया भगवतीदास विरचित सूआ-बत्तीसी, मधुबिन्दुक चौपाई, एवं पचेन्द्रिय-संवाद सुन्दर बन पड़े हैं। वस्तुत: खण्डकाव्य के क्षेत्र में भैया भगवतीदास एवं विनोदीलाल को अधिक प्रसिद्धि मिली है। भैया ने पांच खण्डकाव्यों (शत अष्टोत्तरी, चेतनकर्मचरित, मधु-बिन्दुक चौपाई, सूआ बत्तीसी और पंचेन्द्रिय संवाद) का प्रणयन किया है। इन पाँचों खण्डकाव्यों का कथापट झीना है, किन्तु काव्यात्मक एवं कलात्मक रंग गहरा है। साध्य एवं साधन दोनों दृष्टियों से भगवतीदास के खण्डकाव्य और कामायनी (प्रसाद) एक ही परम्परा के काव्य हैं । अन्तर मात्र इतना ही है कि भगवतीदास की कृतियाँ सीमित लक्ष्य के कारण खण्डकाव्य हुई, वहाँ प्रसाद की कृति उद्देश्य की महत्ता के कारण महाकाव्य हो गयी। भगवतीदास महाकाव्य की रचना न करने पर भी महाकवि के गौरवभागी हैं।' भैया कवि के अतिरिक्त विनोदीलाल के खण्डकाव्य भी भाव, भाषा एवं शैली की दृष्टि से उत्कृष्ट कोटि के हैं । आलोच्य प्रबन्धकाव्यों की रचना का उद्देश्य भी विचारणीय है। ध्यान रखने की बात यह है कि वह काल १. डॉ. सियाराम तिवारी : हिन्दी के मध्यकालीन खण्डकाव्य, पृ० ३६५. Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्य ................................... मुख्यतः रीति, शृंगार और कला का काल था। उस युग के काव्य में विलासिता एवं ऐहिक सुख-भोग की प्रवृत्ति बढ़ चली थी, किन्तु हमारे काव्यों में भिन्न प्रवृत्ति-निवृत्तिमूलकता का ही अतिरेक दिखाई देता है। इस की दृष्टि से इनमें शान्त रस शीर्ष पर है। जैन कवि बनारसीदास (वि०सं० १६४३-१७००) ने 'नवमो शान्त रसन को नायक' कहकर शान्त को रसों का नायक स्वीकार किया था । अन्य पूर्ववर्ती कवियों की चेतना ने भी शान्त रस की धारा में खूब अवगाहन किया है । वास्तव में हमारे युग के कवि भी आध्यात्मिक धारा के पोषक थे और शृंगार के अन्तर्गत मांसल प्रेम के विरोधी । उनकी रचना में शृगार की लहरें शान्त के प्रवाह में विलीन हो गई हैं । रस की यह परिणति रीति के झकोरों से मुक्त एक विशेष दशा की सूचक है। इन प्रबन्धकाव्यों में भक्ति का, धर्म एवं दर्शन का स्वर भी प्रबल है और उनमें स्थल-स्थल पर उनके प्रणेताओं की सन्त-प्रवृत्ति का उन्मेष झलकता है । कहना न होगा कि इन कृतियों में या तो तिरसठशलाका पुरुषों का यशोगान है या आत्मतत्त्व की उपलब्धि के लिए रूपक अथवा प्रतीक शैली में दार्शनिक एवं आध्यात्मिक रहस्यों का उदघाटन है, या अन्यान्य चरित्रों के परिप्रेक्ष्य में उदात्त मूल्यों एवं आदर्शों की प्रतिष्ठा है। वस्तुतः लक्ष्य के विचार से इन काव्यों की वैराग्योन्मुख प्रवृत्ति का मूल उद्देश्य तत्कालीन अव्यवस्था से क्षत - विक्षत सामन्तवाद के भग्नावशेष पर खड़े त्रस्त और पीड़ित मानव को स्फूति और उत्साह प्रदान करके दिशान्तर में प्रेरित करता है, जीवन-पथ में आच्छादित अन्धकार और निराशा को दूर कर उसमें आशा और आलोक भरना तथा विलास-जर्जर मानव में नैतिक बल का संचार करना है। इनमें स्थल-स्थल पर जो भक्ति की अनबरत गंगा बह रही है, वह भी इस भावना के साथ कि मानव अपने पापों का प्रक्षालन कर ले, अपनी आत्मा के कालुष्य को धो डाले और इनमें जो आदर्श चरित्रों का उत्कर्ष दिखलाया गया है, वह भी इसलिए कि उन जैसे गुणों को हृदय में उतार ले। इस प्रकार विवेच्य प्रबन्धकाव्यों में धर्म के दोनों पक्षों (आचार एवं विचार) पर प्रकाश डालते हुए मानव को यह बोध कराया गया है कि व्यक्ति और समाज का मंगल धर्मादों के परिपालन एवं चारित्रिक पवित्रता के आधार पर ही संभव है। प्रायः समस्त प्रबन्धों में संघर्षात्मक परिस्थितियों का नियोजन तथा अन्त में आत्म-स्वातन्त्र्य की पुकार है। उनके मध्य में स्थल-स्थल पर अनेक लोकादर्शों की प्रतिष्ठा है। लोक-मंगल की भावना उनमें स्थल-स्थल पर उभरी है। वहाँ पाप पर पुण्य, अधर्म पर धर्म और असत्य पर सत्य की विजय का उद्घोष है। उनमें ऐसे प्रसंग आये हैं जहाँ हिंसा, क्रोध, वैर, विषयासक्ति, परिग्रह, लोभ, कुशील, दुराचार आदि में लिप्त मानव को एक या अनेक पर्यायों में घोरतम कष्ट सहते हुए बतलाया गया है और अन्ततः अहिंसा, अक्रोध, क्षमा, त्याग, उदारता, अपरिग्रह, शील, संयम, चारित्र आदि की श्रेयता, पवित्रता और महत्ता सिद्ध कर इहलोक और परलोक के साफल्य का उद्घाटन किया गया है। उनका लक्ष्य राग नहीं विराग है, भौतिक प्रेम नहीं आध्यात्मिक प्रेम है, भोग नहीं योग है, तप है, मोक्ष है। संक्षेप में, चतुर्वर्ग फलों में से धर्म और मोक्ष की प्राप्ति है, अर्थ और काम उपर्युक्त दोनों फलों की उपलब्धि के साधन मात्र हैं। निष्कर्ष यह है कि विद्वानों द्वारा आलोच्य प्रबन्ध-काव्यों का प्रबन्धकाव्य-परम्परा में चाहे जो स्थान निर्धारित किया जाये, किन्तु इतना अवश्य है कि उनमें चिन्तन की, आचारगत पवित्रता की, सामाजिक मंगल एवं आत्मोत्थान की व्यापक भूमिका समाविष्ट है । सामाजिक, धार्मिक एवं साहित्यिक तीनों ही दृष्टियों से इन काव्यों का अविस्मरणीय महत्त्व है। १. देखिए-डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री : हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के नाटकों में तीर्थकर महावीर 0 डा. लक्ष्मीनारायण दुबे रीडर, हिन्दी विभाग, सागर विश्वविद्यालय, सागर (म० प्र०) भगवान महावीर के जीवन चरित्र को केन्द्र में रखकर हिन्दी में ऐतिहासिक तथा सामान्य नाटक लिखे गये हैं। महावीर तथा बुद्ध का समय एक ही था अतएव, अनेक बौद्ध नाटकों में महावीर के युग का चित्रण मिलता है जिनमें रामवृक्ष बेनीपुरी के “तथागत", विश्वम्भर सहाय “व्याकुल" के "बुद्धदेव", बनारसीदास "करुणाकर" के "सिद्धार्थ बुद्ध", चन्द्रराज भण्डारी के "सिद्धार्थ कुमार या महात्मा बुद्ध", उदयशंकर भट्ट के “मुक्तिपथ”, रामवृक्ष बेनीपुरी के “अम्बपाली" और सियारामशरण गुप्त के "पुण्य पर्व" नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। छठी शताब्दी ई० पू० से भारतीय इतिहास के पुरातनकाल का श्रीगणेश होता है। यही वह कालखण्ड था जिसमें बुद्ध तथा महावीर का जीवन चरित्र आच्छादित हुआ था जिनका धार्मिक एवं सांस्कृतिक इतिहास पर विशिष्ट प्रभाव पड़ा । दोनों ने भारतीय मनीषा को नवल तथा युगांतरकारी अध्ययन से सम्पृक्त किया । इनके युग में सर्वत्र धार्मिक असहिष्णुता फैली हुई थी। वैदिक धर्म के प्रति विद्यमान आस्था में विखण्डन आ चुका था। यज्ञ एवं बलि हीन दृष्टि से निरखे-परखे जा रहे थे । बुद्ध तथा महावीर में आश्चर्यजनक सादृश्य भाव दृष्टिगत होता है । बुद्ध और महावीर ने परिपाटीगत समाज व्यवस्था का डटकर विरोध किया था। महावीर और बुद्ध के युग की एक महान् घटना भारत में चार राज्यों- कौशाम्बी (वत्स), अवंति, कौशल तथा मगध-का उदय था। "प्रसाद" के "अजातशत्र" नाटक तथा गोविन्दवल्लभ पंत के "अन्तःपुर का छिद्र" में समकालीन राजनैतिक स्थितियों पर अच्छा प्रकाश मिलता है। तीर्थंकर महावीर के जीवन-चरित्र को लेकर हिन्दी में सन् १९५० में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नाटक स्व. ब्रजकिशोर "नारायण" ने “वर्धमान-महावीर" शीर्षक से लिखा है। इस नाटक में महावीर के जन्म से लेकर उनके महापरिनिर्वाण तक की घटनाओं को संयोजित किया गया है। चौबीसवें तीर्थंकर के निजी जीवन के साथ उनकी धार्मिक मान्यताओं को भी नाटकीय रूप में प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि प्रस्तुत नाटककार ने अपनी भूमिका में इतिहास को यथासम्भव सुरक्षित रखने का दावा किया है परन्तु जनश्रुतियों को भी पर्याप्त मात्रा में आधार बनाया गया है । वास्तव में महावीर हमारे समक्ष एक ऐतिहासिक चरित्र के रूप में संस्थित हैं। डॉ० रायचौधरी ने "प्राचीन भारत का राजनैतिक इतिहास" में महावीर की मां त्रिशला (विदेह कन्या) को वैशाली के नरेश चेटक की भगिनी स्वीकार किया है। नाटक के अन्य पात्र नन्दिवर्धन, पत्नी यशोदा, पुत्री प्रियदर्शना, गोशालक, अयंपुल हस्तिपाल, सुचेता आदि सभी जैन ग्रन्थों के आधार पर निर्मित किये गये हैं। नाटककार श्वेताम्बर ग्रन्थों पर अधिक निर्भर प्रतीत होता है। वर्धमान के उत्पन्न होने पर उनके पिता द्वारा प्रजा से कर न लेना, ज्योतिषी द्वारा पुत्र के श्रमण बन जाने की भविष्यवाणी और तीस साल तक वैवाहिक गृहस्थ जीवन बिताने के बाद संन्यास ग्रहण कर लेना आदि ऐसी घटनाएँ जो प्राय: इसी रूप में भगवान बुद्ध के साथ भी सम्प्रक्त है। इस नाटक में यह प्रतिपादित है कि गोशालक शुरू में महावीर का शिष्यत्व स्वीकार करता है परन्तु एक दिन उनकी परीक्षा लेने के विचार से कुछ प्रश्न पूछता है और जब वे ठीक निकलते हैं तो आक्रोश में आकर उनसे पार्थक्य कर लेता है और आजीवक-सम्प्रदाय की स्थापना करता है। --0 Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी के नाटकों में तीर्थंकर महावीर ६६१ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-............................................. ...... जैसा कि ऊपर कहा गया है, नाटककार कतिपय सन्दर्भो की संयोजना जनश्रुतियों के आधार पर करता है यथागोशालक को भिक्षावृत्ति में सड़े चावल की प्राप्ति, सम्भयक तथा महावीर का चोरी में पकड़ा जाना, फांसी देते समय रस्सी का टूट जाना इत्यादि । जमालि महावीर का विरोधी था और उसने बहुरत सम्प्रदाय को स्थापित किया। तपस्या के तेरहवें वर्ष महावीर को ज्ञान मिला और वे "जिन" बने । वे अनवरत तीस वर्षों तक धर्मोपदेशक की भांति घूमते रहे और बहत्तर वर्ष की आयु में दक्षिण बिहार में 'पावा' नामक स्थान में उनका निर्वाण हुआ। ये सभी घटनाएँ इतिहास-सम्मत है। इस नाटक में ब्रजकिशोर "नारायण" जनश्रुतियों को अधिक महत्त्व दे गये हैं इसलिए वे सम्यक् परिवेश का निर्माण नहीं कर पाये । यदि वे महावीर के युग की संस्कृति, धर्म, समाज तथा अन्य परम्पराओं की पूर्व पीठिका में उनके जीवन एवं कार्यकलापों को निरूपित करते तो नाटकीय मार्मिकता तथा प्रभावोत्पादकता में अवश्य ही नयी द्य ति आ जाती । वर्द्धमान महावीर द्वारा प्रदत्त उपदेशों में जैन-दर्शन के कतिपय लक्षण अवश्य उपलब्ध होते हैं । जैन संस्कृति नर के नारायणत्व में निष्ठा व्यक्त करती है । नाटक में महावीर आत्मा को 'मैं' शब्द का वाच्यार्थ निरूपित करते हैं और अहिंसा एवं सत्य के प्रति प्रतिबद्ध हैं। इसे ही नाटक का मूलधर्म तथा मुख्य स्वर स्वीकार किया जा सकता है। महेन्द्र जैन ने ‘महासती चन्दनबाला" नामक नाटक लिखा है जिसमें महावीर स्वामी की पुनीत तथा सात्विक नारी-आस्था को अभिव्यंजना मिली है। डॉ. रामकुमार वर्मा का नाम तथा हिन्दी के ऐतिहासिक नाटककारों में सर्वोपरि है। उन्होंने महापरिनिर्वाणोत्सव के समय 'जय वर्धमान" नामक नाटक लिखा जिसको सन् १९७४ में मेरठ के भारतीय साहित्य प्रकाशन ने प्रकाशित किया । यह एक सफल, सार्थक तथा रंगमंचीय नाटक है। इस नाटक के प्रारम्भिक दृश्यों में वर्धमान महावीर अपने हमजोली सखा विजय तथा सुमित्र से कहते हैं -विजय ! मनुष्य यदि हिंसा-रहित है, तो वह किसी को भी अपने वश में कर सकता है। बात यह है कि संसार में प्रत्येक को अपना जीवन प्रिय है, इसलिए जीवन को सुखी करने के लिए सभी कष्ट से दूर रहना चाहते हैं । जो व्यक्ति अपने कष्ट को समझता है, वह दूसरे के कष्ट का अनुभव कर सकता है और जो दूसरों के कष्ट का अनुभव करता है, वही अपने कष्ट को समझ सकता है। इसीलिए उसे जीवित रहने का अधिकार है, जो दूसरों को कष्ट न पहुँचाये, दूसरों की हिंसा न करे। जो दूसरों के कष्ट हरने की योग्यता रखता है, वही वास्तव में वीर है। भगवान् महावीर पर लिखित हिन्दी के नाटक-साहित्य में सर्वोपरि स्थान की कृति डॉ० रामकुमार वर्मा का प्रस्तुत नाटक है। जिनेन्द्र महावीर पर अनेक एकांकी लिखे गये जो कि या तो संकलित रूप में मिलते हैं अथवा पत्र-पत्रिकाओं के स्फुट साहित्य के रूप में। इनमें महावीर प्रकाशन, अलीगंज (एटा) द्वारा सन् १९७५ में प्रकाशित श्री वीरेन्द्र प्रसाद जैन के "वंदना" का उल्लेखनीय स्थान है क्योंकि यह एकांकी-संग्रह है। इनका ही एक अलग एकांकी-संग्रह "वरी महावीर" भी महत्त्वपूर्ण है । इन छोटे-छोटे एकांकियों के माध्यम से लेखक महावीर के दिव्य जीवन की महामहिम झांकियाँ प्रस्तुत की हैं। स्व. पं० मंगलसेन जैन के “महावीर नाटक" की भी अच्छी साहित्यिक स्थिति है। श्री घनश्याम गोयल द्वारा लिखित 'त्रिशला का लाल" एक सुन्दर प्रहसन है। डॉ० शीतला मिश्र ने मूल उपन्यासकार श्री वीरेन्द्र कुमार जैन के "अनुत्तर योगी" को मंचीय नाटक रूप प्रदान किया और उसे “आत्मजयी महावीर" के रूप में खेला गया। संगीत-नाटिकाओं के माध्यम से भी महावीर के व्यक्तित्व तथा कृतित्व को उपस्थित किया गया है। इस क्षेत्र में श्री ध्यानसिंह तोमर 'राजा' की कृति 'ज्योतिपुरुष महावीर' और जयंती जोशी की रचना 'प्रेम-सौरभ' बड़ो चचित रहीं। ०० Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड रेडियो रुपक के रूप में महावीर को आकाशवाणी के स्वर-तरंगों पर थिरकाने का श्रेय कुथा जैन को है। भारतीय ज्ञानपीठ ने “वर्धमान रूपायन" के नाट्य रूपक को प्रकाशित किया। इसमें रेडियो रूपक के रूप में 'मान स्तम्भ", छन्द-नृत्य-नाटिका के रूप में 'दिव्य ध्वनि' और मंच नाटक के रूप में 'वीतराग' संकलित हैं। उपरलिखित पुस्तक ( सन् १९७५) महावीर निर्वाण-शताब्दी वर्ष की एक उल्लेखनीय कृति है। ये तीनों रूपक विभिन्न महोत्सवों पर मंच पर खेले जाने वाले योग्य नाट्य रूपक हैं जिनका सम्बन्ध भगवान् महावीर के अलौकिक जीवन, उपदेश तथा सिद्धान्तों के विश्वव्यापी प्रभाव से है । ये कथ्य तथा शैली- शिल्प में सर्वथा नूतन हैं। इनमें रंग-सज्जा और प्रकाश छाया के प्रयोगों की चमत्कारी भूमिका का निर्वाह किया गया है। इनमें कुछ जैन के काव्य-सौष्ठव का निखार भी द्रष्टव्य है । विदुषी लेखिका की भाषा परिमार्जित तथा शैली सधी हुई है। तीर्थंकर महावीर स्वामी के जीवन की दिव्यता, उनकी कठोर तपस्या-साधना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं चिरंतन - परहित के आलोक से मण्डित प्रेरक उपदेशों को इस पुस्तक में परम अनुभूतिमयी एवं आत्मीय अभिव्यंजना मिली है। उपर्युक्त तीनों नाट्य रचनाओं में 'दिव्य ध्वनि' (संगीत-नृत्य-नाटिका) का सर्वोपरि स्थान है। इसमें महावीर की स्वामी जीवन-साधना तथा उनके उपदेशों को चिरंतन महत्त्व तथा सर्वयुगीन भावना के साथ अत्यन्त कलात्मक रूप में समुपस्थित किया गया है। यह गागर में सागर है । इसका प्रथम दृश्य उदात्त तथा महान् है। इसकी कतिपय पंक्तियाँ अधोलिखित हैं 1 शाश्वत है यह सृष्टि, द्रव्य के कण-कण में रूपों का वर्णन । कालचक्र चलता उस युग के सभ्यता ऋषभनाथ पहले अनादि से, रचता युग, करता परिवर्तन । विधायक, आत्म साधना के अन्वेषक । तीर्थकर, धमण धर्म के आदि प्रर्वतक उपर्युक्त पुस्तक की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और सारगर्भित है । उसमें बौद्धिकता तथा आधुनिकता से समन्वित अनेक प्रकरणों की विवेचना की गयी है । श्रीमती कुथा जैन के शब्दों में ही हम कह सकते हैं : इसलिए ये रचनाएँ अपनी खूबी और खामियों सहित यदि पठनीय और मंचीय दृष्टि से सफल हुईं तो समझँगी कि भगवान् के चरणों में प्रेषित श्रद्धांजलि स्वीकृत हुई । इस दिशा में राजस्थान में अनेक सफलधर्मा बहुमुखी प्रयोग हुए हैं। इनमें डॉ० महेन्द्र भानावत हमारा विशेष ध्यान आकर्षित करते हैं। उन्होंने महावीर विषयक तीन पुतली नाटक लिखे हैं जिनके नाम हैं चंदन को वंदना', 'मंगलम् महावीरम्' तथा 'परमु पालणिये' । 'चंदन को वंदना' मासिक 'श्रमणोपासक' (२० अप्रेल, १९७५) में प्रकाशित हुआ था । इसमें छः दृश्य हैं और महावीर के नारी- उद्धार के प्रसंग को मुख्यता मिली है । 'मंगलम् महावीरम्' को हरियाणा के मासिक 'जैन साहित्य' (नवम्बर, १९७५ ) ने प्रकाशित किया । 'परमु पालणिये' राजस्थानी रचना है और इसे 'वीर निर्वाण स्मारिका' (जयपुर सन् १६७५) ने प्रकाशित किया। इस प्रकार नाटक के जितने वर्ग श्रेणी तथा विधाएं हो सकती है उनमें तीर्थकर महावीर चित्रित तथा अभिव्यंजित किये गये हैं महावीर विषयक नाट्य साहित्य का पठनीय, सैद्धान्तिक तथा मंत्रीय सभी दृष्टि से उपयोग है । नाटक का सम्बन्ध आँखों और अनुकरण से होता है और वह रस निष्पत्ति का सशक्त माध्यम है। इस दृष्टि से महावीर विषयक हिन्दी का नाट्य साहित्य एक ओर वाङ्मय की श्रीवृद्धि करता है, तो दूसरी ओर हिन्दी के रंगमंच को सम्पुष्ट तथा समृद्ध बनाता है और धर्मप्राण जनता में पुनीत तथा सात्त्विक भावों का संचार करता है । COO . Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... Mum . rMS .. RSSIAC कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ इतिहास और खड पुरातत्व । खण्ड Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +-+-+0+0+0+0 वैशाली - गणतन्त्र का इतिहास श्री राजमल जैन सहायक निदेशक, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, (वेस्ट ब्लाक ७, रामकृष्णपुरम्, नई दिल्ली ११००२२) वैशाली गणतन्त्र के वर्णन के बिना जैन राजशास्त्र का इतिहास अपूर्ण ही रहेगा। वैशाली गणतन्त्र के निर्वाचित राष्ट्रपति ('राजा' शब्द से प्रसिद्ध बेटक की पुत्री विमला भगवान् महावीर की पूज्य माता भी (श्वेताम्बरपरम्परा के अनुसार त्रिशला चेटक की बहन थी ) । भगवान् महावीर के पिता सिद्धार्थ वैशाली के एक उपनगर 'कुण्डग्राम' के शासक थे। अतः महावीर भी 'वैतालिक' अथवा 'वैशाली' के नाम से प्रसिद्ध वे भगवान् महावीर ने संसारत्याग के पश्चात् ४२ चातुर्मासों में से छ: चातुर्मास वैशाली में किये थे बारह चातुर्मास वैशाली में व्यतीत किये थे।" । कल्पसूत्र (१२२ ) के अनुसार महावीर ने +8+8+8+8 महात्मा बुद्ध एवं वैशाली इसका यह तात्पर्य नहीं कि केवल महावीर को ही वैशाली प्रिय थी। इस गणतन्त्र तथा नगर के प्रति महात्मा बुद्ध का भी अधिक स्नेह था। उन्होंने कई बार वैशाली में बिहार किया था तथा चातुर्मास बिताए। निर्वाण से पूर्व वैशाली पर दृष्टिपात किया और अपने शिष्य आनन्द से कहा, "आनन्द ! इस नगर में यह मेरी अन्तिम यात्रा होगी ।" यहीं पर उन्होंने सर्वप्रथम भिक्षुणी संघ की स्थापना की तथा आनन्द के अनुरोध पर गौतमी को अपने संघ में प्रविष्ट किया। एक अवसर पर जब बुद्ध को लिच्छवियों द्वारा निमन्त्रण दिया गया तो उन्होंने कहा- "हे भिक्षुओ ! देव-सभा के समान सुन्दर इस लिच्छवि परिषद् को देखो।" महात्मा बुद्ध ने वैशाली - गणतन्त्र के आदर्श पर भिक्षु संघ की स्थापना की । “भिक्षु संघ के छन्द ( मत- दान ) तथा दूसरे प्रबन्ध के ढंगों में लिच्छवि (वैशाली) गणतन्त्र का अनुकरण किया गया है।' (राहुल सांकृत्यायनपुरातत्व- निबन्धावली, पृ० १२) । यद्यपि बुद्ध शाक्य - गणतन्त्र से सम्बद्ध थे ( जिसके अध्यक्ष बुद्ध के पिता शुद्धोदन थे), १. मुनि नथमल ( युवाचार्य महाप्रज्ञ), श्रमण महावीर, पृ० ३०३. २. इदं पच्छिमकं आनन्द ! तथागतस्स बेसालिदस्सनं भविस्सति । ३. उपाध्याय श्री मुनि विद्यानन्दकृत तीर्थकर वर्धमान से उड़त } J यस भिभिनवनं देवा तावनिया अदिट्ठा अलोव भिक्खये! लिच्छवनी परिसं अपलोनेथ भिक्यये ! लिच्छवी परिसरं ! उपसंहरथ भिक्खवे लिन्छने लिन्छवी परिसर तापनिसा सदरान्ति || I ---- . Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड तथापि उन्होंने वैशाली-गणतन्त्र की पद्धति को अपनाया । हिन्दू राजशास्त्र के विशेषज्ञ श्री काशीप्रसाद जायसवाल के शब्दों में “बौद्ध संघ ने राजनैतिक संघों से अनेक बातें ग्रहण की। बुद्ध का जन्म गणतन्त्र में हुआ था। उनके पड़ौसी गणतन्त्र संघ थे और वे उन्हीं लोगों में बड़े हुए। उन्होंने अपने संघ का नामकरण भिक्षुसंघ अर्थात् भिक्षुओं का गणतन्त्र किया । अपने समकालीन गुरुओं का अनुकरण करके उन्होंने अपने धर्म-संघ की स्थापना में गणतन्त्र संघों के नाम तथा संविधान को ग्रहण किया । पालि-सूत्रों में उद्धृत बुद्ध के शब्दों के द्वारा राजनैतिक तथा धार्मिक संघव्यवस्था का सम्बन्ध सिद्ध किया जा सकता है। विद्वान् लेखक ने उन सात नियमों का वर्णन किया है जिनका पूर्ण पालन होने पर वज्जि-गण (लिच्छवि एवं विदेह) निरन्तर उन्नति करता रहेगा। इन नियमों का वर्णन महात्मा बुद्ध ने मगधराज अजातशत्रु (जो वज्जिगण के विनाश का इच्छुक था) के मन्त्री के सम्मुख किया था। बुद्ध ने भिक्षु-संघ को भी इन नियमों के पालन की प्रेरणा दी थी। बौद्ध ग्रन्थ एवं वैशाली इस प्रकार यह स्पष्ट है कि वैशाली-गणतन्त्र के इतिहास तथा कार्यप्रणाली के ज्ञान के लिए हम बौद्ध ग्रन्थों के ऋणी हैं । विवरणों की उपलब्धि के विषय में ये विवरण निराले हैं। सम्भवत: इसी कारण श्री जायसवाल ने इस गणतन्त्र को 'विवरणयुक्त गणराज्य' (Recorded republic) शब्द से सम्बोधित किया है। क्योंकि अधिकांश गणराज्यों का अनुमान कुछ सिक्कों या मुद्राओं से या पाणिनीय व्याकरण के कुछ सूत्रों से अथवा कुछ ग्रन्थों में यत्र-तत्र उपलब्ध संकेतों से किया गया है। इसी कारण विद्वान् लेखक ने इसे 'प्राचीनतम गणतन्त्र' घोषित किया है, जिसके लिखित साक्ष्य हमें प्राप्त हैं और जिसकी कार्य-प्रणाली की झांकी हमें महात्मा बुद्ध के अनेक संवादों में मिलती है । वैशाली गणतन्त्र का अस्तित्व कम ने कन २६०० वर्ष पूर्व रहा है। २५०० वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने ७२ वर्ष की आयु में निर्वाण प्राप्त किया था । यह स्पष्ट ही है कि महावीर वैशाली के अध्यक्ष चेटक के दौहित्र थे। महात्मा बुद्ध महावीर के समकालीन थे। बुद्ध के निर्वाण के शीघ्र पश्चात् बुद्ध के उपदेशों को लेख-बद्ध कर लिया गया था। वैशाली में ही बौद्ध भिक्षुओं की दूसरी संगीति का आयोजन (बुद्ध के उपदेशों के संग्रह के लिए) हुआ था। वैशाली गणतन्त्र से पूर्व (छठी शताब्दी ई० पू०) क्या कोई गणराज्य था ? वस्तुत: इस विषय में हम अन्धकार में हैं। विद्वानों ने ग्रन्थों में यत्र-तत्र प्राप्त शब्दों से इसका अनुमान लगाने का प्रयत्न किया है। वैशाली से पूर्व किसी अन्य गणतन्त्र का विस्तृत विवरण हमें उपलब्ध नहीं है। बौद्ध-ग्रन्थ 'अंगुत्तर निकाय' से हमें ज्ञात होता है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी से पहले निम्नलिखित सोलह 'महाजन पद' थे—१. काशी, २. कोसल, ३. अंग, ४ मगध, ५. वज्जि (बृजि), ६. मल्ल, ७. चेत्तिय (चेदि), ८. वंस (वत्स) ६. कुरु, १०. पंचाल, ११. मच्छ (मत्स्य), १२. शूरसेन, १३. अस्सक (अश्मक), १४. अवन्ति, १५. गन्धार, १६. कम्बोज । इनमें से वज्जि का उदय विदेह-साम्राज्य के पतन के बाद हुआ। जैन ग्रन्थ भगवती सूत्र में इन जनपदों की सूची भिन्न रूप में है जो निम्नलिखित है---१. अंग, २. वंग, ३. मगह (मगध), ४. मलय, ५. मालव (क), ६. अच्छ, ७. वच्छ (वत्स), ८. कोच्छ (कच्छ ?) ६. पाढ (पाण्ड्य या पौड़) १०. लाढ (लाट या राट), ११. वज्जि (वज्जि), १२. मोलि (मल्ल), १३. काशी, १४. कोसल, १५. अवाह, १. श्री काशीप्रसाद जायसवाल----'हिन्दू पोलिटी० ----पृष्ठ ४० (चतुर्थ संस्करण)। २. पुरातत्त्व-निबन्धावली-२०. ३. राय चौधुरी, पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ ऐंशियेंट इण्डिया, कलकत्ता विश्वविद्यालय, छठा संस्करण, १६५३, पृ. ६५. Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली-गणतन्त्र का इतिहास ३ .......................................... . . ..... . .............. १६. सम्मुत्तर (सुम्भोत्तर?)। अनेक विद्वान् इस सूची को उत्तरकालीन मानते हैं परन्तु यह सत्य है कि उपर्युक्त सोलह जनपदों में काशी, कोशल मगध, अवन्ति तथा वज्जि सर्वाधिक शक्तिशाली थे। वैशाली गणतन्त्र की रचना 'बज्जि' नाम है एक महासंघ का, जिसके मुख्य अंग थे—ज्ञातृक, लिच्छवि एवं वृजि। ज्ञातृकों से महावीर के पिता सिद्धार्थ का सम्बन्ध था (राजधानी-कुण्ड-ग्राम)। लिच्छवियों की राजधानी वैशाली की पहचान बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में स्थित बसाढ़-ग्राम से की गई है। वृजि को एक कुल माना गया है जिसका सम्बन्ध वैशाली से था। इस महासंघ की राजधानी भी वैशाली थी। लिच्छवियों के अधिक शक्तिशाली होने के कारण इस महासंघ का नाम 'लिच्छवि-संघ' पड़ा। बाद में राजधानी वैशाली की लोकप्रियता से इसका भी नाम वैशाली गणतन्त्र हो गया। वज्जि एवं लिच्छवि बौद्ध साहित्य से यह भी ज्ञात होता है कि वज्जि-महासंघ में अष्ट कुल (विदेह, ज्ञातृक, लिच्छवि, वृजि, उग्र, भोग, कौरव तथा ऐक्ष्वाकु) थे। इनमें भी मुख्य थे-वृजि तथा लिच्छवि । बौद्ध-दर्शन तथा प्राचीन भारतीय भूगोल के अधिकारी विद्वान् श्री भरतसिंह उपाध्याय ने अपने ग्रन्थ (बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृष्ठ ३८३-८४, हिन्दी-साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संवत् २०१८) में निम्नलिखित मत प्रकट किया है-"वस्तुतः लिच्छवियों और वज्जियों में भेद करना कठिन है, क्योंकि वज्जि न केवल एक अलग जाति के थे, बल्कि लिच्छवि आदि गणतन्त्रों को मिलकर उनका सामान्य अभिधान वज्जि (सं० वृजि) था और इसी प्रकार वैशाली न केवल वज्जि संघ की ही राजधानी थी बल्कि वज्जियों, लिच्छवियों तथा अन्य सदस्य गणतन्त्रों की सामान्य राजधानी भी थी। एक अलग जाति के रूप में वज्जियों का उल्लेख पाणिनि ने किया है और कौटिल्य ने भी उन्हें लिच्छवियों से पृथक् बताया है । यूआन चुआङ् ने भी वज्जि (फु-लि-चिह) देश और वैशाली (फी-शे-ली) के बीच भेद किया है। परन्तु पालि त्रिपिटक के आधार पर ऐसा विभेद करना सम्भव नहीं है। महापरिनिर्वाण-सूत्र में भगवान् बुद्ध कहते हैं,-"जब तक वज्जि लोग सात अपरिहाणीय धर्मों का पालन करते रहेंगे, उनका पतन नहीं होगा।" परन्तु संयुत्त निकाय के कलिंगर सुत्त में कहते हैं, "जव तक लिच्छवि लोग लकड़ी के बने तख्तों पर सोयेगे और उद्योगी बने रहेंगे ; तब तक अजातशत्रु उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।" इससे प्रकट होता है कि भगवान् बुद्ध वज्जि और लिच्छवि शब्दों का प्रयोग पर्यायवाची अर्थ में ही करते थे। इसी प्रकार विनय-पिटक के प्रथम पाराजिक में पहले तो वज्जि प्रदेश में दुर्भिक्ष पड़ने की बात कही गई है (पाराजिक पालि, पृष्ठ १६, श्री नालन्दा-संस्करण) और आगे चलकर वहीं (पृष्ठ २२ में) एक पुत्रहीन व्यक्ति को यह चिन्ता करते दिखाया गया है कि कहीं लिच्छवि उनके धन को न ले लें। इससे भी वज्जियों और लिच्छवियों की अभिन्नता प्रतीत होती है। विद्वान् लेखक द्वारा प्रदर्शित इस अभिन्नता से मैं सहमत हूँ। इस प्रसंग में 'वज्जि' से बुद्ध का तात्पर्य लिच्छवियों से ही था और इसी आधार पर वज्जि-सम्बन्धी बुद्ध-वचनों की व्याख्या होनी चाहिए। अन्य ग्रन्थों में उल्लेख पाणिनि (५०० ई० पू०) और कौटिल्य (३०० ई० पू०) के उल्लेखों से भी वज्जि (वैशाली, लिच्छवि) गणतन्त्र की महत्ता तथा ख्याति का अनुमान लगाया जा सकता है। पाणिनीय 'अष्टाध्यायी' में एक सूत्र है-'मद्रवृज्जयोः कन्' ४।२।३१ । इसी प्रकार, कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' में दो प्रकार के संघों का अन्तर बताते हुए लिखा है-"काम्बोज, सुराष्ट्र आदि क्षत्रिय श्रेणियाँ कृषि, व्यापार तथा शास्त्रों द्वारा जीवन Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड -.0.0.0.0..... .......................................................... यापन करती हैं और लिच्छविक, वृजिक, मल्लक, मद्रक, कुकुर, कुरु, पंचाल आदि श्रेणियाँ राजा के समान जीवन बिताती हैं। रामायण तथा विष्णु पुराण के अनुसार, वैशालीनगरी की स्थापना इक्ष्वाकु-पुत्र विशाल द्वारा की गई है। विशाल नगरी होने के कारण यह 'विशाला' नाम से भी प्रसिद्ध हुई। बुद्ध काल में इसका विस्तार नौ मील तक था। इसके अतिरिक्त, “वैशाली धन-धान्य-समृद्ध तथा जन-संकुल नगरी थी। इसमें बहुत से उच्च भवन, शिखरयुक्त प्रासाद, उपवन तथा कमल-सरोवर थे (विनयपिटक एवं ललितविस्तर)। बौद्ध एवं जैन-दौनों धर्मों के प्रारम्भिक इतिहास से वैशाली का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। “ई० पू० पांच सौ वर्ष पूर्व भारत के उत्तर-पूर्व भाग में दो महान् धर्मों के महापुरुषों की पवित्र स्मृतियाँ वैशाली में निहित हैं।"3 बढ़ती हुई जनसंख्या के दबाव से तीन बार इसका विस्तार हुआ। तीन दीवारें इसे घेरती थीं। तिब्बती विवरण भी इसकी समृद्धि की पुष्टि करते हैं। तिब्बती विवरण (सुल्व ३८०) के अनुसार, वैशाली में तीन जिले थे। पहले में स्वर्ण-शिखरों से युक्त ७००० घर थे, दूसरे जिले में चाँदी के शिखरों से युक्त १४००० घर थे तथा तीसरे जिले में ताँबे के शिखरों से युक्त २१००० घर थे । इन जिलों में उत्तम, मध्यम तथा निम्न-वर्ग के लोग अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार रहते थे। (राकहिल : लाइफ आफ बुद्ध-पृष्ठ ६२)। प्राप्त विवरणों के अनुसार वैशाली की जनसंख्या १६८००० थी। क्षेत्र एवं निवासी? जहाँ तक इसकी सीमा का सम्बन्ध है, गंगा नदी इसे मगध साम्राज्य से पृथक् करती थी । श्री राय चौधुरी के शब्दों में, "उत्तर दिशा में लिच्छवि-प्रदेश नेपाल तक विस्तृत था।" श्री राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, वज्जि-प्रदेश में आधुनिक चम्पारन तथा मुजपफरपुर जिलों के कुछ भाग, दरभंगा जिले का अधिकांश भाग, छपरा जिले के मिर्जापुर एवं परसा, सोनपुर पुलिस-क्षेत्र तथा कुछ अन्य स्थान सम्मिलित थे। बसाढ़ में हुए पुरातत्त्व-विभाग के उत्खनन से इस स्थानीय विश्वास की पुष्टि होती है कि वहाँ राजा विशाल का गढ़ था । एक मुद्रा पर अंकित था-'वेशालि इन ट-कारे सयानक ।' जिसका अर्थ किया गया, "वैशाली का एक भ्रमणकारी अधिकारी।" इस खुदाई में जैन तीर्थंकरों की मध्यकालीन मूतियाँ भी प्राप्त हुई हैं। वैशाली की जनसंख्या के मुख्य अंग थे--क्षत्रिय । श्री राय चौधुरी के शब्दों में, "कट्टर हिन्दू-धर्म के प्रति उनका मैत्रीभाव प्रकट नहीं होता। इसके विपरीत, ये क्षत्रिय जैन, बौद्ध जैसे अब्राह्मण सम्प्रदायों के प्रबल पोषक थे।" मनुस्मृति के अनुसार, "झल्ल, मल्ल, द्रविड़, खस आदि के समान वे व्रात्य राजन्य थे।" यह सुविदित है कि व्रात्य का अर्थ यहाँ जैन है, क्योंकि जैन साधु एवं श्रावक अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहइन पाँच व्रतों का पालन करते हैं। मनुस्मृति के उपर्युक्त श्लोक में लिच्छवियों को 'निच्छवि' कहा गया है। कुछ विद्वानों ने लिच्छवियों का 'तिब्बती उद्गम' सिद्ध करने का प्रयत्न किया है परन्तु यह मत स्वीकार्य नहीं है। अन्य विद्वान् के अनुसार लिच्छवि भारतीय क्षत्रिय हैं, यद्यपि यह एक तथ्य है कि लिच्छवि-गणतन्त्र के पतन के बाद वे नेपाल चले गये और वहाँ उन्होंने राजवंश स्थापित किया । १. काम्बोज-सुराष्ट्र क्षत्रिय श्रेण्यादयो वार्ताशास्त्रोपजीविन: लिच्छविक-वृजिक-मल्लक-कुकुर-पांचालादयो राजशब्दोप जी विनः। २. बी०ए० सालेतोर-ऐन्शियेंट इण्डियन पोलिटिकल थौट एण्ड इन्स्टीट्यूशंस, १९६३, पृ० ५०६. ३. बी०सी० ला: 'हिस्टोरिकल ज्योग्रे फी आफ एशियेट इण्डिया, फाइनेंस' में प्रकाशित (१९५४), पू० २६६. ४. वही, पृ० २६६-६७. ५. झल्लो मल्लाश्च राजन्याः व्रात्यानिच्छविरेव च । नटश्च करणश्चोखसो द्रविड एव च ॥१०.२२. ६. भरतसिंह उपाध्याय, वही, ३३१. Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली-गणतन्त्र का इतिहास ५. 'लिच्छवि' शब्द की व्युत्पत्ति जैन-ग्रन्थों में लिच्छवियों को 'लिच्छई' अथवा 'लिच्छवि' कहा गया है। व्याकरण की दृष्टि से, 'लिच्छवि' शब्द की व्युत्पत्ति 'लिच्छु' शब्द से हुई है। यह किसी वंश का नाम रहा होगा। बौद्ध-ग्रन्थ 'खुद्दकपाठ' (बुद्धघोषकृत) की अट्ठकथा में निम्नलिखित रोचक कथा है—काशी की रानी ने दो जुड़े हुए मांस-पिण्डों को जन्म दिया और उनको गंगा नदी में फिकवा दिया। किसी साधु ने उनको उठा लिया और उनका स्वयं पालन-पोषण किया। वे निच्छवि (त्वचारहित) थे । कालक्रम से उनके अंगों का विकास हुआ और वे बालक-बालिका बन गये। बड़े होने पर वे दूसरे बच्चों को पीड़ित करने लगे, अतः उन्हें दूसरे बालकों से अलग कर दिया गया (वज्जितव्व-वजितव्य) । इस प्रकार ये 'वज्जि' नाम से प्रसिद्ध हुए। साधु ने उन दोनों का परस्पर विवाह कर दिया और राजा से ३०० योजन भूमि उनके लिए प्राप्त की । इस प्रकार उनके द्वारा शासित प्रदेश 'वज्जि-प्रदेश' कहलाया। सात धर्म मगधराज अजातशत्रु साम्राज्य-विस्तार के लिए लिच्छवियों पर आक्रमण करना चाहता था। उसने अपने मन्त्री वस्सकार (वर्षकार) को बुद्ध के पास भेजते हुए कहा- "हे ब्राह्मग ! भगवान् बुद्ध के पास जाओ और मेरी ओर से उनके चरणों में प्रणाम करो। मेरी ओर से उनके आरोग्य तथा कुशलता के विषय में पूछकर उनसे निवेदन करो कि वैदेही-पुत्र मगधराज अजातशत्रु ने वज्जियों पर आक्रमण का निश्चय किया है और मेरे ये शब्द कहो-'बज्जिगण चाहे कितने शक्तिशाली हों, मैं उनका उन्मूलन करके पूर्ण विनाश कर दूंगा।' इसके बाद सावधान होकर भगवान् तथागत के वचन सुनो।' और आकर मुझे बताओ । तथागत का वचन मिथ्या नहीं होता।" अजातशत्रु के मन्त्री के वचन सुनकर बुद्ध ने मन्त्री को उत्तर नहीं दिया बल्कि अपने शिष्य आनन्द से कुछ प्रश्न पूछे और तब निम्नलिखित सात अपरिहानीय धर्मों (धम्म) का वर्णन किया १. अभिण्हं सन्निपाता सन्निपाता बहुला भविस्संति। ---हे आनन्द ! जब तक वज्जि पूर्ण रूप से निरन्तर परिषदों के आयोजन करते रहेंगे; २. समग्गा सन्निपातिस्सति समग्गा बुट्ठ-हिस्संति समग्गा संघकरणीयानि करिस्संति । .--जब तक वज्जि संगठित होकर मिलते रहेंगे, संगठित होकर उन्नति करते रहेंगे तथा संगठित होकर कर्तव्य कर्म करते रहेंगे; ३. अप्पञ्चत न पत्रापेस्संति, पञ्जतं न समुच्छिन्दिस्संति यया, पञ्चतेषु सिक्खापदेसु समादाय वत्तिस्संति । ....-जब तक वे अप्रज्ञप्त (अस्थापित) विधानों को स्थापित न करेंगे, स्थापित विधानों का उल्लंघन न करेंगे तथा पूर्व काल में स्थापित प्राचीन वज्जि-विधानों का अनुसरण करते रहेंगे ; ४. ये ते संवपितरो संघपरिणायका ते तककरिस्संति गुरु करिस्संति मानेस्संति पूजेस्संति तेस च सोत्तन्वं मञिस्संति । -जब तक वे वज्जि-पूर्वजों तथा नायकों का सत्कार, सम्मान, पूजा तथा समर्थन करते रहेंगे तथा उनके वचनों को ध्यान से सुनकर मानते रहेंगे ; १. री डेबिड्स (अनुवाद) बुद्ध-सुत्त (सेक्रिड-बुक्स आफ ईस्ट, भाग ११-मोतीलाल बनारसीदास, देहली), पृष्ठ २-३-४. २. पालि-पाठ राधाकुमुद मुखर्जी के ग्रन्थ 'हिन्दू सभ्यता' (अनुवादक-डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल) द्वितीय संस्करण, १९५८, पृ० १६६-२०० से उद्ध त । नियम-संख्या मैंने दी है। ० Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ne कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ षष्ठ खण्ड ५. ये ते वज्जीनं वज्जिमहल्लका ते सक्करिस्संति, गुरु करिस्सन्ति मानेस्संति पूजेस्संति, या ता कुलित्थियो कुलकुमारियो ता न आक्कस्स पसह्य वास्सेन्ति । जब तक कुल की महिलाओं का सम्मान करते रहेंगे और कोई भी कुल स्त्री या कुल-कुमारी उनके द्वारा बलपूर्वक अपहृत या निरुद्ध नहीं की जायेगी ; ६. वज्जि तियानि इअंतरानि वेव वाहिरानि च तानि सक्करिस्सति, गुरु करिस्संति, मानेस्संति, पूजेस्संति, तेस दिन कल धामिकं बलिनो परिहारसंति नो परिहापेस्संति । - जब तक वे नगर या नगर से बाहर स्थित चैत्यों (पूजा-स्थानों) का आदर एवं सम्मान करते रहेंगे और पहले दी गई धार्मिक दलि तथा पहले किए गए धार्मिक अनुष्ठानों की अवमानना न करेंगे; ७. वज्जीनं अरहतेसु धम्मिका रक्खावरण-गुत्ति सुसंविहिता भविस्संति । - जब तक वज्जियों द्वारा अरहन्तों को रक्षा, सुरक्षा एवं समर्थन प्रदान किया जायेगा ; तब तक वज्जियों का पतन नहीं होगा, अपितु उत्थान होता रहेगा । आनन्द को इस प्रकार बताने के बाद बुद्ध ने वस्सकार से कहा, "मैंने ये कल्याणकारी सात धर्म वज्जियों को वैशाली में बताये थे ।" इस पर वस्सकार ने बुद्ध से कहा, "हे गौतम! इस प्रकार मगधराज वज्जियों को युद्ध में तब तक नहीं जीत सकते, जब तक वह कूटनीति द्वारा उनके संगठन को न तोड़ दें।" बुद्ध ने उत्तर दिया, "तुम्हारा विचार ठीक है ।" इसके बाद वह मन्त्री चला गया। वस्सकार के जाने पर बुद्ध ने आनन्द से कहा- "राजगृह के निकट रहने वाले सब भिक्षुओं को इकट्ठा करो ।” तब उन्होंने भिक्षु संघ के लिए निम्नलिखित सात धर्मों का विधान किया १. हे भिक्षुओ ! जब तक भिक्षुगण पूर्ण रूप से निरन्तर परिषदों में मिलते रहेंगे २. जब तक वे संगठित होकर मिलते रहेंगे. उन्नति करते रहेंगे तथा संघ के कर्त्तव्यों का पालन करते रहेंगे ३. जब तक वे किसी ऐसे विधान को स्थापित नहीं करेंगे जिसकी स्थापना पहले न हुई हो, स्थापित विधानों का उल्लंघन नहीं करेंगे तथा संघ के विधानों का अनुसरण करेंगे; - ४. जब तक वे संघ के अनुभवी गुरुओं, पिता तथा नायकों का सम्मान तथा समर्थन करते रहेंगे तथा उनके वचनों को ध्यान से सुनकर मानते रहेंगे ; ५. जब तक वे उस लोभ के वशीभूत न होंगे जो उनमें उत्पन्न होकर दुःख का कारण बनता है ; ६. जब तक वे संयमित जीवन में आनन्द का अनुभव करेंगे ; ७. जब तक वे अपने मन को इस प्रकार संयमित करेंगे जिससे पवित्र एवं उत्तम पुरुष उनके पास आयें और आकर सुख-शान्ति प्राप्त करें ; तब तक भिक्षु संघ का पतन नहीं होगा, उत्थान ही होगा। जब तक भिक्षुओं में ये सात धर्म विद्यमान हैं, जब तक वे इन धर्मों में भली-भाँति दीक्षित हैं, तब तक उनकी उन्नति होती रहेगी । महापरिनिब्बान सुत्त के उपर्युक्त उद्धरण से वैशाली - गणतन्त्र की उत्तम व्यवस्था एवं अनुशासन की पुष्टि होती है। वैशाली के लिए विहित सात धर्मों को कुछ परिवर्तित करके) बुद्ध ने अपने संघ के लिए भी अपनाया, इससे स्पष्ट है कि २६०० वर्ष पूर्व के प्राचीन गणतन्त्रों में वैशाली गणतन्त्र श्रेष्ठ तथा योग्यतम था । लिच्छवियों के कुछ अन्य गुणों ने उन्हें महान् बनाया। उनके जीवन में आत्म-संयम की भावना थी । Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली-गणतन्त्र का इतिहास ........................................................ ..... ७ .... . लकड़ी के तख्त पर सोते थे, सदैव कर्तव्यनिष्ठ रहते थे। जब तक उनमें ये गुण रहे, अजातशत्रु उनका बाल बांका भी न कर सका। शासन-प्रणाली लिच्छवियों के मुख्य अधिकारी थे-राजा, उपराजा, सेनापति तथा भाण्डागारिक। इनमें से ही सम्भवत: मन्त्रिमण्डल की रचना होती थी । केन्द्रीय संसद का अधिवेशन नगर के मध्य स्थित सन्थागार (सभा-भवन) में होता था। शासन-शक्ति संसद के ७७०७ सदस्यों (राजा नाम से युक्त) में निहित थी। सम्भवतः इनमें से कुछ राजा उग्र थे और एक दूसरे की बात नहीं सुनते थे। इसी कारण ललितविस्तर-काव्य में ऐसे राजाओं की मानो भर्त्सना की गई है-"इन वैशालिकों में उच्च, मध्य, वृद्ध एवं ज्येष्ठजनों के सम्मान के नियम का पालन नहीं होता। प्रत्येक स्वयं को 'राजा' समझता है। 'मैं राजा हूँ ! मैं राजा हूँ !' कोई किसी का अनुयायी नहीं बनता।"3 इस उद्धरण से स्पष्ट है कि कुछ महत्त्वाकांक्षी सदस्य गणराजा (अध्यक्ष) बनने के इच्छुक थे । संसत्सदस्यों की इतनी बड़ी संख्या से कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वैशाली की सत्ता कुछ कुलों (७७०७) में निहित थी और इसे केवल 'कुल-तन्त्र' कहा जा सकता है। इस मान्यता का आधार यह तथ्य है कि ७७०७, राजाओं का अभिषेक एक विशेषतया सुरक्षित सरोवर (पुष्करिणी) में होता था। स्वर्गीय प्रो० आर० डी० भण्डारकर का निष्कर्ष था-"यह निश्चित है कि वैशाली संघ के अंगीभूत कुछ कुलों का महासंघ ही यह गणराज्य था।" श्री जायसवाल तथा श्री अल्तेकर जैसे राजशास्त्रविद इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं। श्री जायसवाल ने 'हिन्दू राजशास्त्र' (पृ० ४४) में लिखा है-"इस साक्ष्य से उन्हें 'कुल' शब्द से सम्बोधित करना आवश्यक नहीं। छठी शताब्दी ई० पू० के भारतीय गणतन्त्र बहुत पहले समाज के जन-जातीय स्तर से गुजर चुके थे। ये राज्य, गण और संघ थे, यद्यपि इनमें से कुछ का आधार राष्ट्र या जनजाति था ; जैसाकि प्रत्येक राज्य-प्राचीन या आधुनिक का होता है।" डॉ० ए० एस० अल्तेकर का यह उद्धरण विशेषतः दृष्टव्य है-“यह स्वीकार्य है कि यौधेय, शाक्य, मालव तथा लिच्छवि गणराज्य आज के अर्थों में लोकतन्त्र नहीं थे। अधिकांश आधुनिक विकसित लोकतन्त्रों के समान सर्वोच्च एवं सार्वभौम शक्ति समस्त वयस्क नागरिकों की संस्था में निहित नहीं थी। फिर भी इन राज्यों को हम गणराज्य कह सकते हैं । "स्पार्टा, ऐथेन्स, रोम, मध्य-युगीन वेनिस, संयुक्त नीदरलैण्ड और पोलैण्ड को 'गणराज्य' कहा जाता है; यद्यपि इनमें से किसी में पूर्ण लोकतन्त्र नहीं था। इस सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि तथा ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर निश्चय ही प्राचीन भारतीय गणराज्यों को उन्हीं अर्थों में गणराज्य कहा जा सकता है जिस अर्थ में यूनान तथा रोम १. देखिए श्री भरतसिंह उपाध्याय-कृत बुद्ध कालीन भारतीय भूगोल (पृ० ३८५-८६) का निम्नलिखित उद्धरण (संयुत्तनिकाय पृ० ३०८ से उद्धृत)-"भिक्षुओ ! लिच्छवि लकड़ी के बने तख्ते पर सोते हैं । अप्रमत्त हो, उत्साह के साथ अपने कर्तव्य को पूरा करते हैं। मगधराज वैदेही-पुत्र अजातशत्रु उनके विरुद्ध कोई दाव-पेंच नहीं पा रहा है । भिक्षुओं ! भविष्य में लिच्छवि लोग बड़े सुकुमार और कोमल हाथ-पैर वाले हो जायेंगे। वे गद्देदार बिछावन पर गुलगुले तकिए लगाकर दिन-चढ़े तक सोये रहेंगे। तब मगधराज वैदेही-पुत्र अजातशत्रु को उनके विरुद्ध दांव-पेंच मिल जायेगा। तस्य निचकालं रज्ज कारेत्वा वसंमानं येव राजन सतसहस्सानि सतसतानि तत्र च । राजानो होति तत्तका, ये व ___उपराजाओं तत्तका, सेनापतिनो तत्तका, तत्तका भंडागारिका । J. I. S. O. 4. ३. नोच्च-मध्य-वृद्ध-ज्येष्ठानुपालिता, एकक एव मन्यते अहं राजा, अहं राजेति, न च कस्यच्छिष्यत्वमुपगच्छति । ४. वैशाली-नगरे गणराजकुलानां अभिषेकमंगलपोखरिणी ।-जातक, ४।१४८. Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड के प्राचीन राज्यों को गणराज्य कहा जाता है। इन राज्यों में सार्वभौम सत्ता किसी एक व्यक्ति या अल्पसंख्यक ।। को न मिलकर बहु-संख्यक वर्ग को प्राप्त थी।" महाभारत में भी 'प्रत्येक घर में राजा' होने का वर्णन है। उपर्युक्त विद्वान् के मतानुसार, इस वर्णन में छोटे गणराज्यों की तथा उन क्षत्रिय कुलों की चर्चा है जिन्होंने उपनिवेश स्थापित करके राजपद प्राप्त किया था। संयुक्त राज्य अमरीका में मूल उपनिवेश स्थापकों को नवागन्तुकों की अपेक्षा कुछ विशेषाधिकार प्राप्त थे । _ 'मलाबार गजटियर' के आधार पर श्री अम्बिकाप्रसाद बाजपेयी ने 'नय्यरों के एक संघ' की ओर ध्यान आकर्षित किया है जिसमें ६००० प्रतिनिधि थे। वे केरल की संसद के समान थे । बौद्ध-साहित्य से ज्ञात होता है कि राजा बिम्बिसार श्रेणिक के अस्सी हजार गामिक (ग्रामिक) थे। इसी सादृश्य पर अनुमान किया जा सकता है कि ७७०७, राजा विभिन्न क्षेत्रों (या निर्वाचन-क्षेत्रों) के उसी रूप में स्वतन्त्र संचालक थे जिस प्रकार देशी रियासतों के जागीरदार राजा के आधीन होकर भी अपनी निजी पुलिस की तथा अन्य व्यवस्थाएँ करते थे। वैदेशिक सम्बन्ध लिच्छवियों के वैदेशिक सम्बन्धों का नियन्त्रण नौ सदस्यों की परिषद् द्वारा होता था। इनका वर्णन बौद्ध एवं जैन साहित्य में 'नव लिच्छवि' के रूप में किया गया है। अजातशत्रु के आक्रमण के मुकाबले के लिए इन्हें पड़ोसी राज्यों नवमल्ल तथा अष्टादश काशी कौशल के साथ मिलकर महासंघ बनाना पड़ा। उन्होंने अपने सन्देश के लिए दूत नियुक्त किए (वेशालिकानां लिच्छविनां वचनेन)। न्याय-व्यवस्था न्याय-व्यवस्था अष्टकुल सभा के हाथ में थी। श्री जायसवाल ने 'हिन्दू राजशास्त्र' (पृ० ४३-४७) में इनकी न्याय-प्रक्रिया का निम्नलिखित वर्णन किया है—विभिन्न प्रकरणों (पवे-पट्ठकान) पर गणराजा के निर्णयों का विवरण सावधानीपूर्वक रखा जाता था जिनमें अपराधी नागरिकों के अपराधों तथा उनके दिए गए दण्डों का विवरण अंकित होता था। विनिश्चय महामात्र (न्यायालयों) द्वारा प्रारम्भिक जाँच की जाती थी (ये साधारण अपराधों तथा दीवानी प्रकरणों के लिए नियमित न्यायालय थे)। अपील-न्यायालयों के अध्यक्ष थे—वोहारिक (व्यवहारिक)। उच्च-न्यायालय के न्यायाधीश 'सूत्रधार' कहलाते हैं । अन्तिम अपील के लिए 'अष्ट-कुलक' होते थे। इनमें से किसी भी न्यायालय द्वारा नागरिकों को निरपराध घोषित करके मुक्त किया जा सकता था। यदि सभी न्यायालय किसी को अपराधी ठहराते तो मन्त्रिमण्डल का निर्णय अन्तिम होता था। विधायिका लिच्छवियों के संसदीय विचार-विमर्श का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण प्राप्त नहीं होता, परन्तु विद्वानों ने चुल्लवग्ग एवं विनय-पिटक के विवरणों से इस विषय में अनुमान लगाए हैं। जब कौशलराज ने शाक्य-राजधानी पर आक्रमण किया और उनसे आत्म-समर्पण के लिए कहा तो शाक्यों द्वारा इस विषय पर मतदान किया गया । मत-पत्र को 'छन्दस्' एवं कोरम को 'गणपूरक' तथा आसनों के व्यवस्थापक को 'आसन-प्रज्ञापन' कहा जाता था। गणपूरक के अभाव में अधिवेशन अनियमित समझा जाता था। विचारार्थ प्रस्ताव की प्रस्तुति को 'ज्ञप्ति' कहा जाता था। संघ से तीनचार बार पूछा जाता था कि क्या संघ प्रस्ताव से सहमत है । संघ के मौन का अर्थ सहमति या स्वीकृति समझा जाता १. डॉ. ए. एस० अल्तेकर-प्राचीन भारत में राज्य एवं शासन (१९५८), पृ० ११२-१३. २. गृहे-गृहे तु राजान:-महाभारत, २०१५।२. ३. अम्बिकाप्रसाद बाजपेयी, हिन्दू राज्यशास्त्र, पृ० १०४. . Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली-गणतन्त्र का इतिहास . ........................................................... ...... .... था। बहुमत द्वारा स्वीकृत निर्णय को 'ये भुय्यसिकम्' (बहुत की इच्छानुसार) कहा जाता था। मत-पत्रों को 'शलाका' तथा मत-पत्र गणक को 'शलाका-ग्राहक' कहा जाता था। अप्रासंगिक तथा अनर्थक भाषणों की शिकायत भी की जाती थी। __ श्री जायसवाल के मतानुसार- 'सुदूर अतीत (छठी शताब्दी ई० पू०) से गृहीत इस विचारधारा से 'एक उच्चतः' विकसित अवस्था की विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। इसमें भाषा की पारिभाषिकता एवं औपचारिकता विधि एवं संविधान की अन्तनिहित धारणाएँ उच्च स्तर की प्रतीत होती हैं। इसमें शताब्दियों से प्राप्त पूर्व अनुभव भी सिद्ध होता है। ज्ञप्ति, प्रतिज्ञा, गणपूरक, शलाका, बहुमत प्रणाली आदि शब्दों का उल्लेख, किसी प्रकार की परिभाषा के बिना किया गया है, जिससे इनका पूर्व प्रचलन सिद्ध होता है।" वैशाली-गणतन्त्र का अन्त वैशाली-गणतन्त्र पर मगधराज अजातशत्रु का आक्रमण इस पर घातक प्रहार था। अजातशत्रु को माता चेलना वैशाली के गणराजा चेटक की पुत्री थी, तथापि साम्राज्य विस्तार की उसकी आकांक्षा ने वैशाली का अन्त कर दिया । बुद्ध से भेंट के बाद मन्त्री वस्सकार को अजातशत्रु द्वारा वैशाली में भेजा गया। वह मन्त्री वैशाली के लोगों में मिलकर रहा और उसने उसमें फूट के बीज बो दिये। व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं तथा फूट से इतने महान् गणराज्य का विनाश हुआ। 'महाभारत' में भी गणतन्त्रों के विनाश के लिए ऐसे ही कारण बताए हैं। भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर से कहा, "हे राजन् ! हे भरतर्षभ ! गणों एवं राजकुलों में शत्रुता की उत्पत्ति के मूल कारण हैं-लोभ एवं ईर्ष्या-द्वेष । कोई (गण या कुल) लोभ के वशीभूत होता है, तब ईर्ष्या का जन्म होता है और दोनों के कारण पारस्परिक विनाश होता है।" - वैशाली पर आक्रमण के अनेक कारण बताये गये हैं। एक जैन कथानक के अनुसार, सेयागम (सेचानक) नामक हाथी द्वारा पहना गया १८ शृंखलाओं का हार इसका मूल कारण था। बिम्बसार ने इसे अपने एक पुत्र वेहल्ल को दिया था परन्तु अजातशत्रु इसे हड़पना चाहता था। वेहल्ल हाथी और हार के साथ अपने नाना चेटक के पास भाग गया। कुछ लोगों के अनुसार, रत्नों की एक खानि ने अजातशत्रु को आक्रमण के लिए ललचाया । यह भी कहा जाता है कि मगध-साम्राज्य तथा वैशाली गणराज्य की सीमा गंगा-तट पर चुंगी के विभाजन के प्रश्न पर झगड़ा हो गया । अस्तु, जो भी कारण हो, इतना निश्चित है कि अजातशत्रु ने इसके लिए बहुत समय से बड़ी तैयारियां की थीं। सर्वप्रथम उसने गंगा-तट पर पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) की स्थापना की। जैन विवरणों के अनुसार, यह युद्ध सोलह वर्षों तक चला, अन्त में वैशाली-गणतन्त्र मगध साम्राज्य का अंग बन गया। __ क्या वैशाली गणराज्य के पतन के बाद लिच्छवियों का प्रभाव समाप्त हो गया? इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक हो सकता है, परन्तु श्री सालेतोर (वही, पृ०५०८) के अनुसार “बौद्ध साहित्य में इनका सबसे अधिक उल्लेख हुआ है, क्योंकि इतिहास में एक हजार वर्षों से अधिक समय तक इनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण रही।" श्री रे चौधुरी के अनुसार, “ये नेपाल में ७वीं शताब्दी में क्रियाशील रहे। गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त, “लिच्छवि-दोहित्र' कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे।" २५०० वर्ष पूर्व महावीर-निर्वाण के अनन्तर, नवमल्लों एवं लिच्छवियों ने प्रकाशोत्सव तथा दीपमालिका का आयोजन किया और तभी से शताब्दियों से जैन इस पुनीत पर्व को 'दीपावली' के रूप में मानते हैं। कल्प-सूत्र के शब्दों में, "जिस रात भगवान महावीर ने मोक्ष प्राप्त किया, सभी प्राणी दुःखों से मुक्त हो गये। काशी-कौशल के अठारह संघीय राजाओं, नव मल्लों तथा नव लिच्छवियों ने चन्द्रोदय (द्वितीया) के दिन प्रकाशोत्सव आयोजित किया ; क्योंकि उन्होंने कहा- 'ज्ञान की ज्योति बुझ गई है, हम भौतिक प्रकाश से संसार को आलोकित करें।" Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ षष्ठ खण्ड XXXXXX २५०० वें महावीर - निर्वाणोत्सव के सन्दर्भ में आधुनिक भारत वैशाली से प्रेरणा प्राप्त कर सकता है । अनेक सांस्कृतिक कार्य-कलाप वैशाली पर केन्द्रित हैं। इसी को दृष्टिगत करके राष्ट्रकवि स्व० श्री रामधारीसिंह दिनकर ने वैशाली के प्रति श्रद्धांजलि निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत की है XX वैशाली जन का प्रतिपालक, गण का आदि विधाता । जिसे ! ढूंढ़ता देश आज, उस प्रजातन्त्र की माता ॥ रुको एक क्षण, पथिक ! यहाँ मिट्टी को सीस नवाओ । राज-सिद्धियों की सम्पत्ति पर फल पढ़ाते जाओ। एवं लोभः क्षोभदः स्पष्टमेव नानारूप: प्राचिनां वर्ततेऽव | कि तत्पापं न जायेत लोभाद, दुस्त्याज्योऽयं सर्वथानर्थकारी ॥ - वर्तमान शिक्षा प् (श्री चन्दन मुनि विरचित) लोभ संसार में प्राणियों को क्षुब्ध करता रहता है। वह कौनसा पाप है, जो लोभ से उत्पन्न नहीं होता ? उत्पन्न होते हैं। लोभ सदा ही अनर्थ छोड़ना बहुत ही कठिन है । अर्थात् सभी पाप लोभ करता है किन्तु इसे F • X . Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. -. -. -. -. -. -. -. -. ओसियां की प्राचीनता प्रो० देवेन्द्र हाण्डा [प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़-१६००१४] उत्तरी रेलवे के जोधपुर-जैसलमेर खण्ड पर जोधपुर से ६६ किलोमीटर उत्तर-उत्तर-पश्चिम में स्थित वर्तमान ओसियां नगर ओसवाल जाति के उद्गम स्थान के रूप में विख्यात है। एक स्थानीय परम्परा के अनुसार पहले ओसियां' का नाम मेलपुरपट्टन था। धुन्दलीमल्ल नामक एक साधु ग्राम से लगभग डेढ़ मील पूर्वोत्तर में एक पहाड़ी पर रहता था जहाँ एक टीले की चोटी पर उसके अवशेष दबे हैं तथा चरण-चिह्न उत्कीर्ण हैं । २ अनुश्रुति के अनुसार एक दिन उसने अपने शिष्य को गाँव से भिक्षा लाने के लिए भेजा परन्तु किसी ने भी उसे खाने के लिए कुछ नहीं दिया, और वह खाली हाथ लौट आया। इस पर धुन्दलीमल्ल इतना क्रुद्ध हुआ कि उसने गांव को शाप दिया जिसके फलस्वरूप मेलपुरपट्टन उट्टण अर्थात् ध्वस्त हो गया । कालान्तर में यह स्थान उपलदेव नामक परमार राजकुमार द्वारा शत्रुओं से पीड़ित हो मारवाड़ के तत्कालीन प्रतिहारवंशीय शासक की शरण लेने पर पुनः बसाया गया। प्रतिहार राजा ने उपलदेव को मेलपुरपट्टन के ध्वंसावशेष देते हुए वहाँ शरण लेने के लिए कहा । उपलदेव ने निर्जन ग्राम को पुन: बसाया और इसका नाम नवनेरी नगरी रखा । क्योंकि उपलदेव ने यहाँ ओसला (शरण-आश्रय) लिया था इसलिए इस नगर का नाम ओसियां पड़ गया ।५ उपलदेव ने यहाँ सांखला परमारों की कुलदेवी सचिया १. कहीं-कहीं यह नाम ओसिया, औसियां, ओशीया आदि लिखा भी मिलता है। ओसियां के दक्षिण-पूर्व में लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर एक पहाड़ी है जिसे लूणाद्री (लवणाद्रि) कहा जाता है । इस पर दादी-बाड़ी स्थित है। इसमें प्राचीन चरण-चिह्न उत्कीर्ण हैं तथा एक अभिलेख है जिसका पाठ है-'सं० १२४६ माघ वदि १५ शनिवार दिने श्री मज्जिनभद्रोपाध्याय शिष्यः श्री कनकप्रभमिश्र कायोत्सर्गः कृतः' (P. C. Nahar : Jain Inscriptions, Part I, Calcutta, 1918, p. 199, No. 808) प्राचीन चरण-चिह्नों पर संवत् २००१ में जीर्णोद्धार के समय एक अन्य मुण्डेर बनाकर संगमरमर के चरणचिह्न तथा एक अभिलेख स्थापित कर दिया गया था जिसमें चरण-पादुकाएँ श्री रत्नप्रभसूरि की बताई गई हैं। ३. कहीं-कहीं यह नाम उप्पल दे, उत्पल कुमार आदि भी मिलता है। ४, स्पष्टत: मूल ओसियां नगर उपलदेव से बहुत पहले का था। ५. D. R. Bhandarkar, The Temples of Osia, Annual Report, Archaeological Survey of India, 1908-09, p. 100. Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड [+8+8+8+8+ माता का एक मन्दिर भी बनवाया ।" विक्रम संवत् १३९३ में विरचित उपकेशगच्छ पट्टावलि में ओसियाँ के नाम तथा स्थापना के सम्बन्ध में एक अन्य परम्परा निबद्ध है । इसके अनुसार श्रीमाल नगर में एक जैन राजा जयसेन शासन करता था । उसकी दो रानियाँ थीं जिनसे क्रमश: भीमसेन तथा चन्द्रसेन नामक पुत्र हुए। शैव एवं जैन मतावलम्बी होने कारण दोनों की आपस में नहीं बनती थी । जयसेन अपने छोटे पुत्र को उत्तराधिकारी बनाना चाहता था परन्तु वह अपने जीवनकाल में औपचारिक रूप से ऐसा नहीं कर पाया । जयसेन की मृत्यु के पश्चात् दोनों भाइयों में उत्तराधिकार का झगड़ा इतना बढ़ गया कि शक्ति प्रयोग द्वारा ही निर्णीत होने की नौबत आगई । तब चन्द्रसेन ने अपना दावा वापिस ले लिया। राज्यसिहासन एवं शक्ति पाकर भीमसेन ने जैनों के साथ दुर्व्यवहार प्रारम्भ कर दिया जो अन्ततः चन्द्रसेन के नेतृत्व में नगर छोड़ कर चले गये । उन्होंने आबू पर्वत के निकट चन्द्रसेन के नाम चन्द्रावती की स्थापना की । * भीमसेन ने अपने नगर में करोड़पतियों, लखपतियों तथा साधारण लोगों के लिए तीन परकोटे बनवाए जिसके कारण श्रीमाल नगर को भिन्नमाल ( भीनमाल ) कहा जाने लगा । * भीमसेन के राज्यकाल में भीनमाल शैवों तथा वाममागियों का केन्द्र बन गया । भीमसेन के दो पुत्र थे – श्रीपुंज तथा उपलदेव । दोनों भाइयों में मतभिन्नता के कारण कहा सुनी हो गई और श्रीपुंज ने उपलदेव को ताना मारते हुए कहा कि इतनी ही ऐंठ है तो अपने भुजबल से अपना ही साम्राज्य क्यों नहीं स्थापित कर लेते। इस पर उपलदेव ने अपना साम्राज्य स्थापित करने की शपथ ली और नगर छोड़ दिया। श्रीपुंज के चन्द्रवंशी महामात्य का पुत्र ऊहड़ जो अपने बड़े भाई सुबड़ से नाराज था, " उपलदेव १. रुचिया माता का यह मन्दिर वर्तमान नगर के पूर्व में एक पहाड़ी पर अब भी स्थित है। मूल मन्दिर के सम्भवतः नष्ट हो जाने पर बाद में उसी स्थान पर नवीन मन्दिर बनाया गया और इसमें संशोधन-परिवर्धन होते रहे । ओसवाल जैन सचिया माता को अपनी कुलदेवी मानते हैं । मन्दिर की निजप्रतिमा महिषासुरमर्दिनी की है । विस्तार के लिए देखें— श्री रत्नचन्द्र अग्रवाल, राजस्थान में जैन देवी सच्चिवा पूजन, जैन सिद्धान्त भास्कर, जून १६५४, पृ० १-५. २. पट्टावली समुच्चय (सं० दर्शन विजय ) वीरमगाम, १६३३. ३. भीनमाल के इतिहास के लिए देखें-K. C. Jain, Ancient Cities and Towns of Rajasthan, Delhi, Varanasi, Patana, 1972, pp. 155-65. ४. चन्द्रावती का इतिहास दसवीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है। विस्तार के लिए देखें वही, पृ० ३४१-४७ ५. सम्भवत: मूल नाम यहाँ बसने वाले भीलों के नाम पर भिल्लमाल था । एक अन्य परम्परा के अनुसार भिन्नमाल नाम यहाँ माल (माल, धन-दौलत, सम्पदा) के भीना (हदम) होने के कारण पड़ा । – देखें वही, पृ० १५६ ॥ ६. पट्टावलि नं० १ में श्रीपुंज के राजकुमार सुरसुन्दर द्वारा गर्वपूर्वक श्रीमाल छोड़कर अठारह हजार बनियों, नौ हजार ग्राह्मणों और अनेक अन्य लोगों को लेकर नया नगर बसाने की बात कही गई है। पट्टावलि नं० ३ में उपलदेव को श्रीपुंज का पुत्र कहा गया है। ७. विस्तृत कथा के लिए देखें-मुनि ज्ञानसुन्दर जी, जैन जाति महोदय, प्रथम खण्ड, फलोधी, वि० सं० १९८६, प्रकरण ३, पृ० ४२-५० । ८. भीममाल में तीन अलग-अलग परकोटों में करोड़पति, लखपति तथा साधारण लोग रहते थे । सुवड़ करोड़पति होने के कारण पहले परकोटे में रहता था और ऊहर के पास निन्यानवे लाख होने के कारण उसे दूसरे परकोटे में रहना पड़ा। एक बार वह अस्वस्थ हो गया । उसके मन में आया कि अलग-अलग परकोटे में रहने के कारण दोनों भाई सुख-दुःख में एक-दूसरे का साथ सरलता से नहीं दे सकते । अतः वह पहले परकोटे में जाने की इच्छा से अपने भाई के पास गया और एक लाख रुपये माँगे । इस पर सुबड़ (अपर पट्टावलि के अनुसार उसकी पत्नी) ने उसे ताना दिया कि उसके बिना परकोटा सूना नहीं है । दोनों भाइयों में इस कारण नाराजगी उत्पन्न हो गई । . Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोसियां की प्राचीनता १३ ..-.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-.-..... ................-.-.-.-.-.-.-. -.-. -. -.-.-.-. के साथ हो लिया । चलते-चलते उनकी भेंट बैराट-नरेश संग्रामसिंह से हुई जिसने उपलदेव की वीरता एवं साहस से प्रभावित होकर अपनी पुत्री की सगाई उससे करदी। उपलदेव बैराट से ढेलीपुर (दिल्ली) पहुँचा। रास्ते में उसने घोड़े बेचने वाले व्यापारियों से इस शर्त पर कुछ घोड़े' खरीद लिये कि उनके मूल्य का भुगतान वह अपने सामाज्य की स्थापना कर लेने के उपरान्त करेगा। दिल्ली पर उस समय साधु नाम का राजा शासन करता था। वह छ: मास तक अन्तःपुर में रंगरेलियां मनाया करता था और वर्ष के शेष छ: मास प्रशासन पर ध्यान देता था । उपलदेव प्रतिदिन राजदरबार में जाता और एक घोड़ा उपहार देता । अन्ततः जब राजा को इस बात का पता चला तो उसने उपलदेव को बुलाया। उसके अपने राज्य की स्थापना के निश्चय की जानकारी प्राप्त कर उसने उपलदेव को एक घोड़ी दी और कहा कि जहाँ भी वह बंजर धरती देखे, अपने लिए नए नगर की नींव रख ले । एक शकुनी ने, जो उस समय पास ही बैठा था, उपलदेव को उस स्थान पर नगर की स्थापना करने की सलाह दी जहाँ घोड़ी पेशाब करे । ऊहड़ को साथ लेकर उपलदेव वहाँ से चल पड़ा और अगले दिन प्रात: जब घोड़ी ने मण्डोर से कुछ आगे पहुँचने पर बंजर जमीन पर पेशाब किया तो वह वहाँ रुक गया। वहीं उसने अपने आप को नगर की नींव रखने के कार्य में लगा दिया । पृथ्वी के उसीली (गीली, ओसयुक्त) होने के कारण उसने नये नगर का नाम 'उएस पट्टन' रखा। कालान्तर में भीनमाल से बहुत से लोग वहाँ आकर बस गए कि नगर बारह योजन के क्षेत्रफल में फैल गया। उपरिवर्णित अनुश्रुतियों में कल्पना एवं अतिशयोक्ति का पुट होने पर भी एक बात समान है कि ओसियां नगर की स्थापना (या पुनःस्थापना) उपलदेव नामक राजकुमार ने की। यह स्थापना कब की गई इस सम्बन्ध में तीन मत विशेषतया प्रचलित हैं: १. जैन ग्रन्थों एवं जैन आचार्यों के मतानुसार वीर निर्वाण संवत् ७० में अर्थात् लगभग ४५७ ईसा पूर्व में भगवान् पार्श्वनाथ के सातवें पट्टधर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने वहाँ के राजा को प्रतिबोधित कर वीर मन्दिर की स्थापना की थी। स्पष्टत: ओसियां नगर उस समय राजधानी था और पर्याप्त समय पहले बसा होगा। २. भाटों, भोजकों और सेवकों की वंशावलियों से पता चलता है कि विक्रम संवत् २२२ (बीये बाइसा) में राजा उपलदेव के समय में ओसियां में रत्नप्रभसूरि के उपदेश से ओसवाल जाति के मूल गोत्रों की स्थापना हुई। १. विभिन्न पट्टावलियों के अनुसार ५५ या १८० घोड़े। २. दिल्ली और ओसियां की दूरी लगभग सवा छ: सौ किलोमीटर है जिसे घोड़ी द्वारा एक रात में तय नहीं किया जा सकता। ३. कहा जाता है कि ओसियां नगर जब अपनी कीर्ति एवं समृद्धि के शिखर पर था तो मथानिया गांव-ओसियां के दक्षिण-दक्षिण-पूर्व में २५ किलोमीटर दूर-इसकी अनाज मण्डी था, २० किलोमीटर दक्षिण-दक्षिण-पश्चिम में तिवरी गांव इसका तेलीवाड़ा था, १० किलोमीटर दूर खेतार गांव खत्रीपुरा था और लगभग चालीस किलोमीटर उत्तर में स्थित लोहावर इसकी लोहामण्डी था एवं दक्षिण-दक्षिण-पश्चिम में लगभग ४-५ किलोमीटर दूर घटियाला ग्राम इसका एक प्रमुख द्वार था। उपकेशगच्छ पट्टावलि नं. १ के अनुसार नगर की लम्बाई १२ योजन तथा चौड़ाई ६ योजन थी। ४. सुखसम्पतराय भण्डारी तथा अन्य, ओसवाल जाति का इतिहास, भानपुरा, १६३४, पृ० १-२० । ५. अठारह गोत्र ये हैं-परमार, सिसोदिया, राठौड़, सोलंकी, चौहान, सांखला, पड़िहार, बोड़ा, दहिया, भाटी मोयल, गोयल, मकवाणा, कछवाहा, गौड़, खरबड़, बेरड़ तथा सौखं । तुलना करें-सदाशिव रामरतन दरक माहेश्वरी, वैश्यकुलभूषण, मुबई, सं० १९८०, पृ० १२३–प्रथम साख-पंवारसेस सीसोदसिंगाला ।। रणथम्भा राठौड़ वंश चंवाल बचाला ॥ दया भाटी सौनगरा कछावा धन गौड़ कहीजे ॥ जादम झाला जिंद लाज-मरजाद लहीजे ॥ खरदरापाह औपेखरा लेणां पहाजलखरा । एक दिवस इता महाजनहुवा सूरबड़ाभिडसाखरा ॥ Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड अत: ओसियां नगर विक्रम संवत् २२२ ( १६५ ई० ) में अस्तित्व में था और सम्भवत: पर्याप्त पहले बसा होगा। ___३. तीसरा मत तथा कथित आधुनिक इतिहासकारों का है जो यह मानते हैं कि नवमी विक्रमी शताब्दी से पहले न तो ओसियां नगर का ही अस्तित्व था भौर न ओसवाल जाति का ही। इसके पश्चात् ही किसी समय भीनमाल के राजकुमार उपलदेव ने मण्डोर के प्रतिहार शासक का आश्रय ग्रहण कर ओसियां की स्थापना की होगी। पहले मत के सम्बन्ध में जैन परम्परा साक्ष्य के अतिरिक्त अभी तक कोई ऐसा प्रमाण नहीं है जो इस बात की पुष्टि करता हो कि वीर निर्वाण संवत् ७० में ओसियां नगर विद्यमान था। विक्रम संवत् से चार सौ वर्ष पूर्व न तो भीनमाल नगर का ही अस्तित्व था और न जैन धर्म राजस्थान तक पहुंच पाया था। उस समय न तो उपकेश गच्छ अस्तित्व में था और न ही आचार्य रत्नप्रभसूरि की तत्कालीनता का कोई प्रमाण उपलब्ध है। स्पष्टतः यह मत प्राचीनता का बाना पहनाकर ओसवाल जाति को भारत की एक अत्यन्त प्राचीन जाति सिद्ध करने का प्रयास मात्र है, और कुछ नहीं। नाभिनन्दनजिनोद्धार प्रबन्ध में वीर निर्वाण संवत् के ७०वें वर्ष में रत्नप्रभसूरि द्वारा कोरटंकपुर' तथा उपकेश पट्टन के मन्दिरों में महावीर स्वामी की प्रतिमा की एक ही मुहूर्त में प्रतिष्ठा किये जाने का उल्लेख इस ग्रन्थ के बहुत बाद में लिखित होने के कारण केवल परम्परा को निबद्ध करने का प्रयास है न कि कोई ऐतिहासिक तथ्य क्योंकि पांचवीं शताब्दी ईर्सा-पूर्व का कोई भी मन्दिर तथा मूर्ति ओसियाँ तथा कोरटंकपुर से तो क्या भारत के किसी भी स्थान से अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। द्वितीय मत के अनुसार ओसियां की स्थापना विक्रम संवत् २२२ अर्थात् १६५ ईस्वी से पूर्व हो चुकी थी और वहाँ उपलदेव के शासनकाल में रत्नप्रभसूरि द्वारा ओसवाल जाति के १८ मूल गोत्रों की स्थापना की गई। अभी तक कोई ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं हुआ है जिसके आधार पर यह सिद्ध किया जा सके कि १६५ ईसवी में ओसियां में उपलदेव का शासन था, आचार्य रत्नप्रभसूरि उस समय विद्यमान थे, जैनधर्म राजस्थान में उस समय तक प्रविष्ट हो चुका था और जिन अठारह मूल गोत्रों का उल्लेख किया जाता है, वे उस समय विद्यमान थे। अब रहा तृतीय मत-तथाकथित आधुनिक इतिहासकारों का मत-कि विक्रमी संवत् ६०० से पहले । ओसवाल जाति और ओसियां नगर का अस्तित्व न था। ओसवाल जाति का इतिहास नामक ग्रन्थ में ही जहाँ इन . उपरिलिखित तीनों मतों का विवरण उपलब्ध है, हरिभद्रसूरि विरचित 'समराइच्च कहा' के श्लोकों का सन्दर्भ दिया गया है जिनमें उस नगर के लोगों का ब्राह्मणों के कर से मुक्त होना तथा ब्राह्मणों का उपकेश जाति के गुरु न होना उल्लिखित है। हरिभद्र का समय संवत् ७५७ से ८५७ के बीच माना गया है जिससे स्पष्ट है कि संवत् ८५७ से पहले अर्थात् ८०० ईस्वी में उएस नगर एक समृद्ध एवं प्रसिद्ध नगर था। ओसियां के महावीर जैन मन्दिर से प्राप्त संवत् १०१३ के प्रशस्तिलेख से पता चलता है कि इस मन्दिर की स्थापना प्रतिहार शासक वत्सराज के शासनकाल में की गई थी। वत्सराज प्रतिहार का उल्लेख जिनसेन विरचित 'जैन १. कोरटंकपुर के इतिहास तथा पुरातनता के लिए देखें-Jain, op. cit., pp. 284-86. २. भण्डारी, उपरोक्त, पृ० १-२० । ३. तस्मात् उकेशज्ञाति नाम गुरवो ब्राह्मणाः न हि । उएस नगरं सर्व कर • ऋण-समृद्धि - मत् ।। सर्वथा सर्व-निर्मुक्तमुएसा नगरं परम् । तत्प्रभृतिः सजाताविति लोक-प्रवीणम् ॥ Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHO हरिवंशपुराण की पुष्पिका' में मिलता है पूर्व श्रीमदवन्तिभूभूति नृपे वत्सराजे -- शक संवत् ७०० (७७० ई०) की समाप्ति के एक दिन पहले जाबालिपुर ( वर्तमान जालोर) में उद्योतन सूरि द्वारा रचित 'कुवलयमाला कथा' में भी वत्सराज का उल्लेख हुआ है।" धाराव ध्रुवराज के शक संवत् ७०२ (७८०ई०) के और राज्य संग्रहालय के ताम्रपत्र अभिलेख ", गोविन्द तृतीय के राधनपुर तथा वनी अभिलेखों, 3 कर्कराज के बड़ोदा ताम्रलेखों तथा हरिवंश पुराण के उल्लेख के संयुक्त साध्य से पता चलता है कि वत्सराज का वर्धमानपुर (वर्तमान वर्धवान) तथा जाबालिपुर (जालोर) से ७८० तथा ७८३ ईस्वी में किसी समय शासन समाप्त हुआ । अतः स्पष्ट है कि ओसियां का महावीर मन्दिर भी ७८० ई० से पूर्व इस नरेश के शासनकाल में बन चुका था और उस समय ओसियां एक समृद्ध नगर रहा होगा। ओसियां के हरिहर मन्दिर तथा बावड़ी भी आठवीं शताब्दी में बने प्रतीत होते हैं और उस समय नगर की समृद्धि के परिचायक हैं । कुछ समय पूर्व हरिहर मन्दिर नं० २ के आंगन में सुरक्षित संवत् ८०३, ८१२ आदि के स्मारक लेख मिले हैं जो ओसियां की प्राचीनता को आठवीं शताब्दी के पूर्वाद्धं तक ले जाते हैं। अतः तथाकथित इतिहासकारों का का मत कि विक्रमी संवत् ६०० से पूर्व ओसियां का अस्तित्व न था, भ्रान्त है । स्पष्ट है कि आठवीं शताब्दी के मध्य में ओसियां एक वैभवशाली नगर था । ८. ई. ओसियां की प्राचीनता ओसियां की स्थापना के सम्बन्ध में सभी पश्चकालीन परम्पराएँ एक स्वर से परमार राजकुमार उपलदेव को नगर की स्थापना का श्रेय देती हैं। इस परमार राजकुमार की पहिचान सन्दिग्ध है । उपलदेव ने मण्डोर के प्रतिहार शासक का आश्रय तथा साहाय्य प्राप्त किया था। यह प्रतिहार शासक कौन था, यह भी निश्चित नहीं । बाऊक के जोधपुर के विक्रम संवत् ८९४ (८३७ ई०) तथा कक्कुक के विक्रम संवत् ६१८ (५६१ ई०) के घटियाला अभिलेख से मण्डोर के प्रतिहारों की उत्पत्ति ब्राह्मण हरिश्चन्द्र की अविया पत्नी भद्रा से वर्णित की गई है।" बाऊक तथा कक्कुक एवं प्रथम शासक हरिश्चन्द्र में ग्यारह पीढ़ियों का अन्तर था । अतः मण्डोर पर प्रतिहार शासन का प्रारम्भ सातवीं शताब्दी में किसी समय हुआ प्रतीत होता है। इस तरह इन परम्पराओं के आधार पर भी ओसियां की प्राचीनता सातवीं शताब्दी के कुछ समय पश्चात् सम्भवतया आठवीं शताब्दी तक ही है। यदि परमार राजकुमार उपलदेव की पहिचान मालवा के वाक्पति मंजु (उत्पन्न) से की जाए तो ओसियां की स्थापना ६७४ से ६८६ ई० के बीच जा बैठती है जो कि इस शासक के राज्यकाल को ज्ञात तिथियाँ हैं । इससे पहले उपलदेव नामक किसी परमार राजकुमार का पता नहीं । १५ १. परभभिगो पीयन रोहिणी कला चन्दो । सिरि बच्छराय नामो नरहत्थी पत्थीवोजइया || २. Indian Antiquary XIV, pp. 156ff. वही, VI, p. 248. ३. Y. Indian Antiquary, XIV, pp. 156 ff. ५. Dr. Gulab Chandra Choudhary, Political History of Northern India from Jain Sources, Amritsar, 1963, p. 41. ६. Bhandarkar, op. cit, pp. 101 ff. Noticed by Dr. K. V. Ramesh, Superintending Epigraphist, Archaeological Survey of India, Mysore vide a typed copy ( received through the courtesy of Sh. R. C. Agrawal, Director, Archaeology & Museums Department, Rajasthan, Jaipur) of Inscriptions on Stone and other Materials, 1972-73, Nos. 214-15. Dr. Dasharatha Sharma, Rajasthan Through the Ages, Vol. 1, 1966, Bikaner, p. 541. Ibid., p. 549. ... . Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड इस स्थिति में दसवीं शताब्दी में ओसियां की सम्भवतः पुनः स्थापना हुई होगी क्योंकि हम ऊपर देख चुके हैं कि आठवीं शताब्दी के मध्य में ओसियां एक समृद्ध एवं वैभवशाली नगर बन चुका था। कक्कुक के घटियाला लेखों में इस क्षेत्र में आभीरों की लूटमार तथा मण्डोर एवं रोहिन्सकूप (घटियाला) के आभीरों द्वारा नष्ट किये जाने का उल्लेख मिलता है । सम्भवत: ओसियां भी उनकी लूटमार से न बचा हो और निर्जन हो गया हो। ओसियां के अध्ययन में प्रस्तुत लेखक को कुछ महत्त्वपूर्ण नवीन साक्ष्य मिले हैं जो ओसियाँ की प्राचीनता को और पीछे ले जाते हैं । यहाँ पहली बार उनका विवेचन किया जा रहा है । ओसियां के महावीर जैन मन्दिर में किसी समय एक तोरण विद्यमान था जो बाद में खण्डित हो गया। इस तोरण के मुख्य स्तम्भ तथा अन्य भाग अब इसी मन्दिर में सुरक्षित हैं। १९०८-०६ में जब भाण्डारकर द्वारा ओसियां का पुरातात्त्विक सर्वेक्षण किया गया था तो यह तोरण मन्दिर में खड़ा था। इसके एक स्तम्भ पर अष्टकोण भाग की पट्टिका पर एक अभिलेख है जिसे भाण्डारकर ने देखा था तथा इसके 'सं०१०३५ आषाढ़ सुदि १० आदित्य वारे स्वाति नक्षत्रे श्री तोरणं प्रतिष्ठापितमिति' पाठ के आधार पर इसकी प्रतिष्ठापन तिथि दी थी। बाद में श्री पूर्णचन्द नाहर ने भी 'इस तोरण के केवल उपरिलिखित अभिलेखांश को प्रकाशित किया था। अन्य विद्वानों ने भाण्डारकर तथा नाहर का ही अनुसरण किया है। महावीर मन्दिर में सुरक्षित इन स्तम्भों का निरीक्षण करते हुए प्रस्तुत लेखक ने देखा कि स्तम्भ के अष्टकोणात्मक भाग की पूरी पट्टिका पर (आठों ओर) अभिलेख उत्कीर्ण हैं जिसके "याते संवत्सराणां सुरमुनि सहित विक्रमगुरौ शुक्लपक्षे पंचम्याम्""स कीर्ति कार""कषह देवयश: सद्य सोनशिखे ...' आदि पाठ से यहाँ विक्रम संवत् ७३३ (सुर=३३, मुनि =७) में "मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी गुरुवार को मन्दिर (कीर्ति) बनवाने का पता चलता है। इसी तोरण की पट्टिका की अन्तिम तीन पंक्तियों में 'सं० १०३५ अषाढ़ सुदि १० आदित्यवारे स्वातिनक्षत्र श्री तोरणं प्रतिष्ठापितमिति' पाठ से तोरण-प्रतिष्ठा का पता चलता है । स्पष्ट है कि यहाँ संवत् ७३३ अर्थात् ६७६ ई० में भी मन्दिर विद्यमान था। यह मूल मन्दिर सम्भवतया राजस्थान का प्राचीनतम जैन मन्दिर रहा होगा। महावीर जैन मन्दिर की संवत् १०१३ की प्रशस्ति का सन्दर्भ ऊपर दिया जा चुका है। इसमें महावीर मन्दिर के ऊकेश नगर के मध्य में स्थित होने का उल्लेख है। इस नगर के अवशेषों की गवेषणा करते हुए मन्दिर के उत्तरपश्चिम में एक निम्नस्थ थेह (पुराने टीले) का पता चलता है जिस पर अब श्री वर्धमान जैन उच्च माध्यमिक विद्यालय का भवन तथा खेल के मैदान स्थित हैं। इस टीले की परिधि-रेखाओं पर पुराने ठीकरे चुने जा सकते हैं। पूछताछ से पता चला कि उक्त विद्यालय के वर्तमान भवन की नींव खोदते समय इस टीले से कुछ पुरानी वस्तुएँ मिली थीं जिनमें १. Journal of the Royal Asiatic Society, p. 513. २. Cf. Pupul Jayakar, "Osian" Marg, Vol. XII, No. 2, March 59, p. 69. .३. Bhandarkar , op. cit., Plate XLIII, a, Also see--AGhosh (Ed.) Jaina Art and Architecture, New Delhi, 1975, Vol. II, Plate 144. ४. Bhandarkar, op. cit., p. 108. ५. Nahar, op. cit., p. 195, No. 789. ६. अभिलेख कुछ खण्डित एवं अस्पष्ट है । पूरा पाठ अन्यत्र प्रकाशित किया जा रहा है। ७. प्राचीनकाल में संख्या सूचक सांकेतिक शब्दों का प्रयोग संवत् देने के लिए प्रचलित था। विस्तार के लिए देखें गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, भारतीय प्राचीन लिपिमाला, तृतीय संस्करण, दिल्ली १९५६, पृ० ११६-२४. Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओसियां की प्राचीनता १७ . ........................................................... ....... ... MOHINITISHANA DIPANDEY महावीर मन्दिर के तोरण-स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख Miss T - एक छोटा सा मिट्टी का कुल्हड़ भी था जिसमें चांदी के बहुत छोटे-छोटे सिक्के भरे हुए थे। मिट्टी का वह कुल्हड़ तो तोड़ दिया गया था परन्तु सिक्कों में से ३७३ अब भी सेठ श्री मंगलसिंह रतनसिंह देव की पेड़ी ट्रस्ट, ओसियां Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड B errore. . -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. - . - . -. - . -. - . - . - .. .. -. -. में सुरक्षित हैं। ये सभी सिक्के अरब गवर्नर अहमद के हैं और इनमें से अधिकतर टकसाली स्थिति में हैं। अरब ___ ओसियां से प्राप्त गवर्नर अहमद को रजत-मुद्राएं इतिहासकारों से पता चलता है कि आठवीं शतब्दी के पूर्व में अरबों के भारत आक्रमण को पूर्व में उज्जैन की एक नवीन शासकीय शक्ति द्वारा नियंत्रित किया गया । २ विद्वानों का मत है कि इस नवीन शक्ति से अभिप्राय अवन्ति के प्रतिहार शासक से है। इससे संकेत मिलता है कि प्रतिहार मालवप्रदेश के अधिपति थे और आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उनका प्रभुत्व पश्चिम भारत में मारवाड़ तक था । पुराने थेड़ से प्राप्त अहमद के चाँदी के सिक्कों का यह निचय इस बात का प्रमाण है कि आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ओसियां विद्यमान था और सम्भवतः एक महत्त्वपूर्ण व्यापार-केन्द्र था। ___ इन सिक्कों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं इसी थेड़ से उक्त विद्यालय के निर्माण के समय नींवों की खुदाई के समय मिले मिट्टी के चार बड़े-बड़े मंचयन भाण्ड (Storage Jars) जो उपरिलिखित ट्रस्ट में ही सुरक्षित हैं। संचयन भाण्ड पर ब्राह्मी अभिलेख इनमें से दो भाण्डों के उपान्तों पर छोटे-छोटे अभिलेख उत्कीर्ण हैं जो पुरालिपि शास्त्रीय आधार पर लगभग द्वितीय लेखक ओसियां के पुरावशेषों के अध्ययन हेतु श्री मक्खनलाल वार्ष्णेय (प्रधानाध्यापक, जैन विद्यालय तथा अवैतनिक प्रबन्धक, जैन ट्रस्ट) का अत्यन्त आभारी है। सचिया माता मन्दिर तथा महावीर जैन मन्दिर के पुजारी श्री जुगराज भोजक तथा उनके पूरे परिवार से प्राप्त स्नेह तथा सहायता के लिए भी लेखक उनका आभारी है। २. Choudhary, op. cit. ३. वही . Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ++ ओसियां की प्राचीनता तृतीय शताब्दी ईस्वी के हैं। इस उपलब्धि से इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि ओसियां नगर ईसा की १९ ● एक अन्य साभिलेख संचयन भांड प्रारम्भिक शताब्दियों में अस्तित्व में था । इस स्थान का वैज्ञानिक उत्खनन निश्चय ही ओसियां के इतिहास तथा बनजीवन पर नवीन प्रकाश डालेगा। १. इन अभिलेखों को अन्यत्र प्रकाशित किया जा रहा है। २. ओसियां की प्राचीनता ओसवाल जाति की प्राचीनता नहीं है। ३ लेखक अपने मित्र श्री कनकमल दूगड़ (अध्यक्ष, सचिवा माता ट्रस्ट, ओगियों का अत्यन्त आभारी है, जिन्होंने ओसियां के अध्ययन हेतु लेखक को न केवल प्रेरणा ही दी वरन् एतदर्थं सभी सुविधाएँ एवं साहाय्य प्रदान किये। शब्द हार्दिक आभार वहन के लिए सक्षम नहीं है । O . Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -. - -. - -. -. -. -. -. -. -. -. -. - . - . -. - . - . - . -. -. - . - . -. - . -. - . -. - . -. - . - . विदेशों में जैनधर्म D डॉ० भागचन्द जैन 'भास्कर', [अध्यक्ष, पाली-प्राकृत विभाग, नागपुर विश्वविद्यालय, न्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर (म० रा०)] जैनधर्म के प्राचीन इतिहास के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि उसने साधारणत: अपनी जन्मभूमि की सीमा का उल्लंघन नहीं किया। उसका प्रचार-प्रसार उतना अधिक नहीं हो पाया जितना बौद्धधर्म का हुआ। इसका मुख्य कारण यह था कि उसका आचार-शैथिल्य बौद्धधर्म की अपेक्षा बहुत कम रहा। आचार के क्षेत्र में दृढ़ता और प्रगाढ़ता होने के कारण वह विदेशी किंवा शुद्ध भौतिकवाद में पती-गुती पाश्चात्य संस्कृति को अन्तर्भूत नहीं कर सका । अन्तर्भूत करने की आवश्यकता थी भी नहीं। आवश्यकता थी अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने की । यह प्रस्तुति किसी सीमा तक विदेशों में हुई है और वहाँ की संस्कृति को जैनधर्म ने प्रभावित किया भी है। इसे हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं-प्राचीन युग और आधुनिक युग । १. प्राचीन युग भारत की भौगोलिक सीमा बदलती रही है। प्राचीन काल में अफगानिस्तान, गांधार (कन्दहार तथा ईरान का पूर्वी भाग), नेपाल, भूटान, तिब्बत, कश्मीर, बर्मा, श्रीलंका आदि देशों को भारत के ही अन्तर्गत माना जाता था।' जावा, सुमात्रा, वाली, मलाया, श्याम आदि देश भारत के उपनिवेश जैसे थे। चीन, अरब, मिश्र, यूनान आदि कुछ ऐसे देश थे जहाँ भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा था। विदेशों से थल और जल मार्गों द्वारा व्यापार हुआ करता था। इसलिए आवागमन के साथ सांस्कृतिक तत्त्वों का भी आदान-प्रदान लगा रहता था । यही कारण है कि आज के सुदूर पूर्ववर्ती देशों और मध्य एशिया के विभिन्न भागों में भारतीय संस्कृति के विविध रूपों का अस्तित्व मिलता है । जैन संस्कृति का रूप भी यहाँ उपलब्ध है। श्रीलंकार जैनधर्म श्रीलंका (Ceylon) में लगभग आठवीं शती ई०पू० में पहुंच चुका था । उस समय उसे रत्नद्वीप, सिंहद्वीप अथवा सिंहलद्वीप कहा जाता था । दक्षिण की विद्याधर संस्कृति का अस्तित्व सिंहलद्वीप के ही पालि ग्रन्थ महावंश में उपलब्ध होता है। वहाँ कहा गया है कि विजय और उनके अनुयायियों को श्रीलंका में यक्ष और यक्षिणियों के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा था। बाद में पाण्डुकाभय ४३८-३६८ ई०पू०) नरेश उनका सहयोग लेने में १. आदिपुराण, १६. १५२-५६. २. श्रीलंका वर्तमान सीलोन है या वह कहीं मध्यप्रदेश अथवा प्रयाग के आसपास थी, इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। मेरी दृष्टि में वर्तमान सीलोन ही श्रीलंका है। Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेशों में जैनधर्म ........................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-. सफल हो गया। उसने अनुराधापुर के आस-पास जातिय निग्गंठ के लिए एक विहार भी बनवाया। वहाँ लगभग पाँच सौ विभिन्न मतावलम्बियों का निवास था । वहीं गिरि नामक एक निग्गंठ भी रहता था।' पाँच सौ परिवारों का रहना और निग्गंठों के लिए विहार का निर्माण करना स्पष्ट सूचित करता है कि श्रीलंका में लगभग तृतीय-चतुर्थ शती ई० पू० में जैनधर्म अच्छी स्थिति में था। बाद में तमिल आक्रमण के बाद बट्टगामणि अभय ने निग्गण्ठों के विहार आदि सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर दिये । महावंश टीका के अनुसार खल्लाटनाग ने गिरि निग्गण्ठ के बिहार को स्वयं नष्ट किया और उसके जीवन का अन्त किया। जैन परम्परा के अनुसार श्रीलंका में विजय के पहुँचने के पूर्व वहाँ यक्ष और राक्षस नहीं थे बल्कि विकसित सभ्यता सम्पन्न मानव जाति के विद्याधर थे, जिनमें जैन भी थे। श्रीलंका की किष्किन्धानगरी के पास त्रिकूट गिरि पर जैन मन्दिर था जिसे रावण ने मन्दोदरि की इच्छापूर्ति के लिए बनवाया था ।५ किष्किन्धानगरी की पहचान आधुनिक केन्डी से की जा सकती है जिसके समीप आज भी एक सुन्दर पर्वत-शृंखला विद्यमान है। इसी पर्वत पर आज भी रावणपरिवार के अवशेष-चिह्न सुरक्षित बताये जाते हैं। जैन साहित्य श्रीलंका में जैनधर्म के अस्तित्व को और भी अनेक प्रमाणों से स्पष्ट करता है। कहा जाता है, पार्श्वनाथ की जो प्रतिमा आज शिरपुर (वाशिम, महाराष्ट्र) में रखी है, वह वस्तुतः श्रीलंका से माली-सुमाली ले आये थे।६ करकण्डुचरिउ में भी लंका में अमितवेग के भ्रमण का उल्लेख मिलता है और मलय पर्वत पर रावण द्वारा निर्मित जैन मन्दिर का भी पता चलता है । मलय नामक पर्वत श्रीलंका में आज भी विद्यमान है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रीलंका में जैनधर्म का अस्तित्व वहाँ बौद्धधर्म पहुँचने के पूर्व था और बाद में भी रहा है । तमिलनाडु के तिरप्परंकुरम (मदुरै जिला) में प्राप्त एक गुफा का निर्माण भी लंका के एक गृहस्थ ने कराया था। यह वहाँ से प्राप्त एक ब्राह्मी शिलालेख से ज्ञात होता है । जहाँ तक पुरातात्त्विक प्रमाणों का प्रश्न है, श्रीलंका में वे नहीं मिलते। डॉ० पर्णवितान ने यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि यद्यपि जैनधर्म से सम्बद्ध पुरातात्त्विक प्रमाण श्रीलंका में अभी तक उपलब्ध नहीं हुए पर प्राचीन स्तूपों को मूलतः जैन स्तूपों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।" बर्मा तथा अन्य देश वर्मा को प्राचीन काल में सुवर्णभूमि के नाम से जाना जाता था। कालकाचार्य ने सुवर्णभूमि की यात्रा की थी।" ऋषभदेव ने बहली (बेक्ट्रिया), यवन (यूनान), सुवर्णभूमि, पण्डव (ईरान) आदि देशों में भ्रमण किया १. महावंश, पृ० ६७. २. वही, ३३-७६. ३. महावंशटीका, पृ० ४४४. ४. हरिवंशपुराण, पउमचरिउ आदि ग्रन्थ इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य हैं। ५. विविधतीर्थकल्प, पृ० ६३. ६. वही, पृ० १०२. ७. करकण्डुचरिउ, पृ० ४४-६६. ८. यशस्तिलकचम्पू, पृ० ३४, १८१, ४६६. ६. जैन कला व स्थापत्य, भाग-१, पृ० १०२. १०. Pre-Buddhist Religion Beliefs, JRAS (Ceylon), Vol. XXXI, No. 82, 1929, p. 325. विशेष देखिये, लेखक की पुस्तक Jainism in Buddhist Literature, p. 46-50. ११. उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा १२०, बृहत्कल्पभाष्य, भाग १, पृ०७३-७५. - 0 Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -o २२ SISISIS कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड था। पाल्नाथ धर्म प्रचार के लिये शाक्यदेश (नेपाल) गये थे। अफगानिस्तान में भी जैनधर्म के अस्तित्य के अनेक प्रमाण मिलते हैं । वहाकरेन एमीर (अफगानिस्तान) से कायोत्सर्ग मुद्रा में संगमरमर से निर्मित तीर्थंकर की मूर्ति भी प्राप्त हुई है। ईरान, स्थान और फिलिस्तान में दिगम्बर जैन साधुओं का उल्लेख आता है यूनानी लेखक मिश्र, एवीसीनिया और इयूपिया में भी दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व बताते हैं। काम्बुज, चंपा, बल्गेरिया आदि में भी जैनधर्म का प्रचार हुआ है। केमला (बल्गेरिया) से तो एक कांस्य तीर्थंकर मूर्ति भी प्राप्त हुई है । प्राचीन साहित्य में समुद्री यात्राओं का वर्णन बहुत मिलता है। जैन श्रावक भी देश-विदेश में व्यापार के लिए इस प्रकार की यात्रायें किया करते थे । कुवलयमाला में निम्नलिखित जलमार्गों की सूचना मिलती है :५ ++++0 १. सोपारक से चीन, महाचीन जाने वाला मार्ग (६६.२) म. सुवर्णद्वीप से लौटने के रास्त में कुडंगद्वीप (८२-४) २. सोपारक से महिला राज्य (तिब्बत) जाने वाला मार्ग (६६.३) ६. लंकापुरी को जाते हुए रास्ते में कुडंगद्वीप (८९.६) ३. सोपारक से रत्नद्वीप (६६.४) १०. जयश्री नगरी से यवनद्वीप ( १०६.२ ) ११. यवनद्वीप से चन्द्रद्वीप (१०६.१६ ) १२. समुद्रतट से रोहणद्वीप (१२१.१३, १६) १३. सोपारक से बब्बरकुल (६५.३३ ) १४. सोपारक से स्वर्णद्वीप (६६.१) ६ ४. रत्नद्वीप से तारद्वीप ( ६६.१८ ) ५. सारद्वीप से समुद्रतट (७०.१२, १० ६. कोशल से लंकापुरी (७४.११) ७. पाटलिपुत्र से रत्नद्वीप के रास्ते में कुडलद्वीप ( ८८.२६, ३०) ये जैन व्यापारी जहाँ व्यापार करने जाते होंगे वहाँ जैन परिवार मन्दिर स्थानक, उपाश्रय होने की सम्भावना अधिक है; क्योंकि जैन श्रावक की क्रियायें कुछ इस प्रकार की होती हैं जिन्हें उनके बिना पूरा नहीं किया जा सकता । अतः इन देशों में जैनधर्म निश्चित रूप से काफी अच्छी स्थिति में रहा होगा । जैन संस्कृति का प्रचार-प्रसार विदेशों में अधिक क्यों नहीं हुआ, यह एक साधारण प्रश्न हर अध्येता के मन में उभर आता है । उसका सबसे बड़ा कारण यह रहा, जहाँ तक मैं समझता हूँ, कि अशोक जैसे कर्मठ और क्रान्तिकारी नरेश की छाया जैनधर्म को नहीं मिल सकी । इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि जैनधर्म को राजाश्रय नहीं मिला । राजाश्रय तो बहुत मिला है और यही कारण है कि भारत में बौद्धकला और स्थापत्य की अपेक्षा जैनकला और स्थापत्य परिमाण और गुण दोनों की अपेक्षा अधिक है । परन्तु यह राजाश्रय मातृभूमि तक ही सीमित रहा। विदेशों तक नहीं जा सका । एक अन्य कारण यह भी माना जा सकता है कि जैन आचार का परिपालन अपेक्षाकृत कठिन प्रतीत होता है । बौद्धधर्म की तरह यहाँ शैथिल्य या अपवादात्मक स्थिति नहीं रही । बौद्धधर्म विदेशी संस्कृति के परिवेश में अपने आपको बहुत कुछ परिवर्तित करता रहा जो जैनधर्म नहीं कर सका। जैनधर्म के स्थायित्व का भी यही कारण है। बौद्धधर्म अपने आचार-विचार की शिथिलता के कारण अपनी जन्मभूमि से सुप्तप्राय हो गया पर जैनधर्म अनेक सोखी झंझावातों के बावजूद सुदृढ़ और लोकप्रिय बना रहा। जैन इतिहास से देखने को यह भी आभास होता है कि जैनाचार्य भी स्वयं जैनधर्म को विदेशों की ओर भेजने में अधिक उत्सुक नहीं रहे । वे तो सदा साधक रहे हैं, आत्मोन्मुखी रहे १. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा ३३६-३७. २.JRAS. (India), Jan. 1885. २. जे०एफ० मूट, हुकुमचन्द्र अभिनन्दन प्रत्व, पृ० ३७४. ४. Asiatic Researches, Vol. 3, p. 6. ५. कुवलयमाला का सांस्कृतिक अध्ययन, डा० प्रेमसुमन जैन, पृ० २११. ६. द्रष्टव्य - गो० इ० ला०३०, पृ० १३८. . Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेशों में जैनधर्म २३ ......................................................................... है। राजनीति के जंजाल में वे प्रायः कभी नहीं पड़े । इसके बावजूद भी जैनधर्म विदेशों में पहुँचा । उसे विदेशियों की गुणग्राहकता ही कहना चाहिए। २. आधुनिक यग आधुनिक युग में विदेशों में पहुँचे हुए जैनधर्म की स्थिति को समझने के लिए जैन साहित्य की ओर दृष्टिपात करना होगा। १८-१९वीं शती में विशेषरूप से विदेशी विद्वानों का ध्यान प्राचीन जैन साहित्य की ओर आकर्षित हुआ। उन्होंने हस्तलिखित जैन ग्रन्थों की खोजकर उन्हें सुसंपादित किया और प्रकाशित कर अन्य विद्वानों के लिए शोध-खोज के क्षेत्र में मार्ग प्रशस्त किया। प्राकृत भाषा और साहित्य की ओर उनका झुकाव अधिक दिखाई देता है। जैन हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची कदाचित् विदेशी विद्वानों ने ही हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची-निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया है। सर्वप्रथम वियेन से ई० १८८१ में वू तर ने संस्कृत-प्राकृत हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची प्रकाशित की। इसके बाद पीटरसन ने सन् १८८२ से १८९४ के बीच वम्बई क्षेत्र से चार रिसोर्ट प्रस्तुत की जिनमें कुमारपाल प्रतिबोध, पउमचरिय आदि ग्रन्थ प्रकाश में आये। इसी प्रकार वेबर का Verzzichnies des Sanskrit and Prakrit Hand-schriften der Kinig lichen Bibliothek lu Berlin." (1886-1892), Th. Aufrecht Fr Florentine Sanskrit Manuscripts examined' (1892), Pulle का 'The Florentine Jain Manuscripts' (London, 1893), एवं Leumann का 'A List of the Strassbury Collection of Digambar Manuscripts' (Vien, 1897), कार्य भी उल्लेखनीय हैं । इन कार्यों के बाद ही भारतीय विद्वानों ने इस ओर ध्यान दिया है। जैनागम ग्रन्थ सम्पादन इस क्षेत्र में भी सर्वप्रथम Buhler, Keilhorn, Jacobi, Weber, Leumann, Peterson आदि विदेशी विद्वानों ने ही कार्य किया है । Jacobi ने आचारांग (London P. T. S. 1882), Schubring ने आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध (१९१०), Weber ने "Fragment, der Bhagawati, Steinthal ने 'नायाधम्मकहाओ', (Leipzig, 1881), Hoernle ने उवासकदसाओ (पूना, १६४०) तथा रायल एशियाटिक सोसाइटी ने अन्तगडदसाओ (लंदन, १९०७) का संपादन किया। उपांगों में औपातिकमूत्र का सम्पादन Leumann ने सर्वप्रथम किया (Leipzin, 1885) और इसी के गर आधार पर बाद में अन्य विद्वानों ने अनेक संस्करण तैयार किये। सूर्यप्रज्ञप्ति को इसी तरह सर्वप्रथम अपने अध्ययन का विषय बनाने वालों में Weber व Thibaut हैं जिन्होंने इस पर निबन्ध लिखे। इसके बाद जे० एन० कोही ने उसका संपादन किया और जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति के साथ उसका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया (Stuttgart, 1937) । इसी तरह S. J. Warren का प्रबन्ध "Niryavaliya-suttam een Upanga der Jains" 'निरयावलियसुतं' के विस्तृत अध्ययन के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ। छेदसूत्रों के अध्ययन में भी विदेशी विद्वानों ने अपना महनीय योगदान दिया है। W. Schubring ने संक्षिप्त पर महत्त्वपूर्ण भूमिका के साथ महानिशीय का सम्पादन किया (Berlia, 1918) और उन्हीं ने फिर कल्पसूत्र, व्यवहार-सूत्र और निशीथसूत्र को भी एक साथ सम्पादित कर प्रकाशित किया। Celette Caillat ने व्यवहारसूत्र का सम्पादन कर अनुवाद के साथ फ्रांस में उसे तीन भागों में प्रकाशित किया। H. Jacobi ने सर्वप्रथम दसासुयक्बंध का १. "Uber die Suryaprajnapti" published in India Studies, Vol. X, p. 254-316., Leipzig, 1868. Journal of the Asiatic Society of Bengal, Vol. XLIX, p. 109-127, etc. 181-206. Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिमन्टन प्राय : षष्ठ खएर तुलनात्मक अध्ययन के साथ सम्पादन किया (Leipzig, 1879) जिसका अंग्रेजी अनुवाद Sacred Books of the East Vol. 22 में प्रकाशित हुआ। बाद में उन्होंने कल्पसूत्र का भी सम्पादन किया। J. Stevenson ने उन्हीं के अनुकरण पर कल्पसूत्र और नवतत्व का संयुक्त सम्पादन किया । अंग्रेजी अनुवाद के साथ (London, 1848)। w.schubring ने भी बरपसूत्र वा अरयन किया-Das Kalpasutra, dic alte Sammlung Unistischer Monchs uor sehriften" (Leipzig, 1905) मूलसूत्रों पर भी विदेशी विद्वानों ने अध्ययन का सूत्रपात किया। H. Jacobi ने उत्तराध्ययन का सम्पादन तुलनात्मक अध्ययन के साथ सर्वप्रथम प्रस्तुत किया।' J. Charpentier ने उसके अध्ययन को और आगे बढ़ाया। आवश्यक सूत्र और उसकी टीकाओं का E. Leumann ने अच्छा अध्ययन प्रस्तुत किया। उन्होंने आवश्यक साहित्य का प्रथम भाग तो प्रकाशित कर दिया (Hemburg 1934) पर द्वितीय भाग अभी तक सामने नहीं आ पाया । Leumann ने नियुक्ति सहित दशवकालिक सूत्र को तुलनात्मक अध्ययन के साथ सम्पादित किया (Bombay Samvat 1999.) अर्धमागधी आगम साहित्य के अ ययन की ओर विदेशी विद्वानों का झुकाव अधिक रहा है, शौरसेनी आगम साहित्य की ओर नहीं आगमेतर ग्रन्थों का संपादन-अनुसंधान यह बहविध व्यापी क्षेत्र है । इस क्षेत्र में चरितकाव्यों में से जेकोबी ने सर्वप्रथम विमलसूरि के पउमचरिय का संपादन विया (भारनगर, १६१४) । कथाकाच्यों में से तरंगवईकहा का सम्पादन Leumann ने और समराहच्चकदा तथा कालकाचरियकहानय (ZDMG, Vol. XXXIV, p. 247-318, Leipzig 1880) का सम्पादन विस्तृत भूमिका के साथ जेकोबी ने (Asiatic Society of Bengal, Calcutta, 1926) किया । Leumann ने भी Zwei weitere Kalaka-Legenden शीर्षक से इसका अध्ययन किया । प्राकृत कोषों के क्षेत्र में Buhler पहले "On a Prakrit Glossar entitled Pailacchi और The author of the Pailacchi' शीर्षक दो निबन्ध लिखे और फिर पाइयलच्छी नाममाला का सम्पादन स्वयं किया । इसी तरह हेमचन्द्र की देशीनाममाला तथा उसकी टीका का सम्पादन R. Pischel ने किया ।५ विदेशी विद्वानों ने प्राकृत जैन साहित्य के आधार पर प्राकृत भाषाओं का भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन भी किया है। इस दृष्टि से A. Hoefer, J. Beames, G. Gold Schamidt, E. Muller, A. F. Rudolf, John Beames, H. Jacobi, R. Pischel, Sten Kcmeu, T. Burrow, Alsdorf, Hulsh, Buhler, Bloch, Wilson आदि विद्वानों के नाम इस क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं। इनमें भी Jacobi और Pischel विशेष स्मरणीय हैं । Jacobi के Uber Unregel massige Passive in Prakrit (Kuhre's Zeitschift fur deultschen morgenlandischen ceselleschaft, Vol. XXXIII, pp. 249-259, Gutersloh, 1887), 791 Uber das Prakrit in der Erahlungh-Leteratur der Jainas (Rivista degi studi oriental, Vol. II pp. 231-236, Roma, 18881909) कार्य यहाँ उल्लेखनीय हैं, जिनमें उन्होंने प्राकृत की विभिन्न विशेषताओं को भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन का विषय बनाया। हरिभद्रसूरि की समराइच्चकहा तथा विमलसूरि के पउमचरिउं के अध्ययन के आधार पर यह निचित करने का प्रयत्न किया कि जैन महाराष्ट्री प्राकृत के गद्य-पद्य साहित्य की विशेषताएँ पृथक्-पृथक हैं। १. SBE, Vol. 45. २. Upsala, 1914. ३. Indian Antiquary, Vol. II, pp. 166-168, Bombay, 1875. ४. Ibid., Vol. IV, p. 59-60, Bombay, 1875. ५. बंबई, १८८०. Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदेशों में जैनधर्म ___R. Pischel ने 1900 में Strassburg से Grammatik 'der Prakrit Sprachen (Grundriss der Indo-arischen philogie un Alterturns kunde, Band I, Heft 8) प्रकाशित कर भाषावैज्ञानिकों को प्राकृत का अध्ययन करने के लिए और भी प्रेरित कर दिया। यहाँ लेखक ने यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्राकृत जैन आगमों की भाषा को अर्धमागधी नाम दिया जाना चाहिए, जैन प्राकृत नहीं । इसी प्रकार महाराष्ट्री जैन प्राकृत के स्थान पर सौराष्ट्री जैन प्राकृत तथा दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राकृत आगम ग्रन्थों की भाषा को शौरसेनी जैन प्राकृत कहा जाना चाहिए। प्राकृत व्याकरणों का अध्ययन प्राकृत व्याकरणों को साधारणतः द्रो सम्प्रदायों में विभक्त किया गया है-पूर्वी और पश्चिमी। पूर्वी सम्प्रदाय का नेतृत्व वररुचि करते हैं और पश्चिमी सम्प्रदाय का नेतृत्व हेमचन्द्र। पाश्चात्य विद्वानों ने इन दोनों सम्प्रदायों पर काम किया है । पूर्वी व्याकरण सम्प्रदाय पर शोध प्रारम्भ करने का श्रेय Cl. Lassen को दिया जा सकता है जिन्होंने १८३७ में Bonnae से Institutions Linguae Pracritieae नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया। कतिपय विद्वान् चण्ड के 'प्राकृत लक्षण' को वररुचि से भी पूर्ववर्ती मानते हैं। प्राकृत लक्षण का सर्वप्रथम सम्पादन H. Hoernle के किया जो १८८० में कलकत्ता से The Prakrit Lakshanam or Chanda's Grammar of the ancient (आर्ष) Prakrit, Pt. I, text with a critical Introduction and Indexes नाम से प्रकाशित हुआ। Hoernle की दृष्टि में चण्ड ने आर्ष (अर्धमागधी महाराष्ट्री) व्याकरण लिखा है और यह चण्ड वररुचि से पूर्ववर्ती है । परन्तु Block ने अपने Vararuchi unt Hemachandra शीर्षक निबन्ध में इस मत का खण्डन किया है और कहा है कि चण्ड ने अपना व्याकरण हेमचन्द्र आदि अनेक व्याकरणों से उधार लिया है। इतना ही नहीं, उसमें अशुद्धियाँ भी बहुत हैं। पिशल ने इन दोनों मतों का खण्डन किया और कहा कि चण्ड उतना प्राचीन नहीं जितना Hoernle मानते हैं । डॉ० हीरालालजी ने भी चण्ड़ को वररुचि से पूर्वतर माना है। क्रमदीश्वर का संक्षिप्तसार हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के आधार पर लिखा गया है। इसका सर्वप्रथम सम्पादन Lassen ने १८३६ में 'इन्स्टीट्यूत्सीओनेस' में किया जिसका कुछ भाग “राडियेत प्राकृतिका ए (बौनाएआर्डरनुम)" नाम से प्रकाशित हुआ। पुरुषोत्तम के प्राकृत शब्दानुशासन का सर्वप्रथम सम्पादन Nitti Dolci ने नेपाल से प्राप्त एक ही प्रति के आधार पर किया जिसका प्रकाशन १९३८ में पेरिस से हुआ। कोबेल और आफरेस्ट के भी प्राकृत-अध्ययन का मूल्यांकन Dolci ने किया। प्राकृत-कल्पतरु के रचयिता रामतर्कवागीश का उल्लेख लास्सन ने इन्स्टीट्यूत्सीओनेस में किया। उसके समूचे भाग को एक साथ प्रकाशित नहीं किया जा सका । ग्रियरसन ने उसके कुछ भागों को निबन्धों के रूप में अवश्य प्रस्तुत किया है। बाद में सम्पूर्ण ग्रन्थ का सम्पादन E. Hultzsch ने किया जिसका प्रकाशन रायल एशियाटिक सोसाइटी Hertford से १९०६ में हुआ। प्राकृत व्याकरण के पश्चिमी सम्प्रदाय के प्रमुख वैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र को कहा जा सकता है। उनका प्राकृत व्याकरण "सिद्धहेमशब्दानुशासन" का अष्टम अध्याय है जिसका सर्वप्रथम सम्पादन R. Pischel ने दो भागों में किया जिनका प्रकाशन Halle से १८७७ और १८८० में हुआ। प्रथम भाग में मूलग्रन्थ और शब्द-सूची दी गई है और द्वितीय भाग में उसका जर्मन अनुवाद, विशद व्याख्या और तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इसमें पिशल ने हेमचन्द्र के सिद्धान्तों की मीमांसा की है। कहीं वे उनसे सहमत भी नहीं हो सके। कहीं उन्होंने अकथ्य की भाषा को कथ्य भी बना दिया। अर्धमागधी, महाराष्ट्री आदि के अतिरिक्त ढक्की, दाक्षिणात्या, आवन्ती और जैन-शौरसेनी जैसी प्राकृत बोलियों पर पिशल ने बिलकुल नई सामग्री प्रस्तुत की है। त्रिविक्रम के शब्दानुशासन के आधार पर सिंहराज ने 'प्राकृत रूपावतार' लिखा जिसका प्रथम सम्पादन Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 २६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : बष्ठ खण्ड E.Hultzsch ने किया और प्रकाशन रायल एशियाटिक सोसाइटी, Hertford से १६०६ में हुआ । सम्पादक ने इसकी भूमिका में लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है। उपर्युक्त व्याकरणों के आधार पर विदेशी विद्वानों ने अनेक व्याकरण-ग्रन्थ स्वतन्त्ररूप से लिखे जिनमें Hoeffar, Lassen, Muller, Goldschmidt, Jacobi, Pavolini, Grierson, Wollner आदि विशेष उल्लेखनीय है। बाद में Weber, Jacobi, Comell, Pischel, Nachtrag आदि विद्वानों ने प्राकृत की किसी एक बोली पर अध्ययन प्रारम्भ किया । तदनन्तर आचारंग, सूयगडंग, उत्तरज्झयण आदि जैन ग्रन्थों का विशेष आधार लेकर प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन भी पाश्चात्य विद्वानों ने किया ।" अपभ्रंश साहित्य की ओर भी इन विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हुआ । सर्वप्रथम Pischel ने 'Materialen ur Kennnis des Apabhransa ( Goltingen, 1902) और 'Ein Nachtrag zur Grammatik der Prakrit Sprachen' (Berlin, 1902) प्रकाशित किये और फिर Jalobi ने उनका अध्ययन कर प्राकृत अपभ्रंश ग्रन्थों का सम्पादन किया । उत्तराध्ययन, आचारांग, कालकाचार्य कथानक, पउमचरिय, समराइच्चकहा (१९१३-१४), भविसयत्त कहा (Munchen 1918) सनतकुमारचरित (१९२१) आदि ग्रन्थों का सम्पादन उनकी ही प्रतिमा और अध्यवसाय का परिणाम था। उनके बाद Alsdorf ने इस क्षेत्र को संवारा और कुमारपानप्रतिबोध ( Harward University, 1928 ) आदि ग्रन्थ सम्पादित किये। इन विद्वानों ने अन्य विद्वानों को भी प्रेरित किया और फलतः वर्तमान में भी इस दिशा में कार्य चल रहा है। प्राकृत अपभ्रंश के साथ ही संस्कृत जैन साहित्य का भी विदेशी विद्वानों ने अध्ययन किया | Jacobi, Keith आदि जैसे विद्वान इस क्षेत्र में अग्रणी रहे हैं। आचार्यों के काल निर्णय की दिशा में उनका विशेष योगदान कहा जा सकता है । प्रचार-प्रसार जैन साहित्य के इस अध्ययन क्रम ने विदेशों में जैनधर्म की लोकप्रियता को काफी आगे बढ़ाया । स्व० श्री चम्पतराय बेरिस्टर और श्री जैनी ने ब्रिटेन, अमेरिका आदि देशों में जाकर जैनधर्म पर अनेक भाषण दिये और एक संस्थान भी प्रारम्भ किया। वर्तमान में उनके कार्य को डॉ० नरेन्द्र सेठी बढ़ा रहे हैं पूरी तत्परता के साथ। उन्होंने वहाँ एक मन्दिर तथा एक पुस्तकालय का निर्माण कराया है। पिछले वर्ष मुनि श्री सुशीलकुमारजी ने अमेरिका, ब्रिटेन आदि देशों में तीन-चार माह की लम्बी यात्रा कर जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया तथा जैन योगसाधना केन्द्रों की स्थापना की। मुनिश्री कुछ शिष्यों को साथ लेकर वापस आये और उन्हें जैन आचार का व्यावहारिक शिक्षण-निरीक्षण कराया । अभी जनवरी १९८० में नाइरोबी (केनिया) में पंचकल्याण प्रतिष्ठा कराकर श्री कानजी स्वामी ने जैनधर्म के प्रचार में एक और नया अध्याय जोड़ दिया है। उन्होंने वहाँ अपनी शिष्य मण्डली के साथ स्वयं पहुँचकर नाइरोबी, मुम्बासा आदि शहरों में बीस दिन तक तत्व प्रचार किया तथा जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई । विदेशों में हुए जैनधर्म के प्रचार-प्रसार के इस संक्षिप्त विवरण से यह संकेत मिलता है कि जैन सिद्धान्तों की समीचीनता तथा उसकी सार्वभौमिकता की ओर विदेशियों का झुकाव रहा है। जिस तत्परता और लगन के साथ बौद्धधर्म का प्रचार किया गया, यदि उसी तत्परता और लगन के साथ जैनधर्म का प्रचार किया गया होता तो निश्चित ही जैनधर्म की स्थिति बौद्धधर्म की स्थिति से कहीं अधिक अच्छी होती । १. विस्तृत जानकारी के लिये देखिये लेखक का लेख - "आधुनिक युग में प्राकृत व्याकरण शास्त्र का अध्ययन-अनुसंधान संस्कृत - प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा," छापर, १६७७, पृ० २३६-६१. . Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . - -. - . -. -. -. -. - . . . मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म श्री जसवन्तलाल मेहता, एडवोकेट (जगदीश मन्दिर रोड, उदयपुर ३१३००१) मेवाड़ भारतवर्ष के प्राचीनतम स्थानों में है। मेवाड़ में जैनधर्म उतना ही प्राचीन है, जितना उसका इतिहास । अति प्राचीन काल से मेवाड़ प्रदेश जैनधर्म का मुख्य केन्द्र रहा है। अजमेर-मेरवाड़ा के ग्राम बड़ली के शिलालेख में मध्यमिका नगरी का उल्लेख है।' मध्यमिका चित्तौड़ से केवल ७ मील दूर है जो वर्तमान में नगरी के नाम से प्रख्यात है। ब्राह्मी लिपि का वीर सम्बत् ८४ का यह बड़ली शिलालेख भारतवर्ष का प्राचीनतम शिलालेख माना जाता है। मज्झिमिल्ला एवं मध्यमा शाखा भगवान् महावीर के १०वें पट्टधर सुहस्ति सूरि (वीर संवत् २६०) के शिष्य आर्य सुस्थित सूरि एवं सुप्रतिबुद्ध सूरि (वीर संवत् ३२७) ने करोड़ बार सूरि मन्त्र का जाप कर कोटिक गच्छ निकाला। कोटिक गच्छ की चार शाखायें-उच्चानागरी, विद्याधरी, वयंरी एवं मज्झिमिल्ला निकलीं । सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध के शिष्य प्रियग्रन्थसूरि थे. जिनका विहार-क्षेत्र मुख्यतया अजमेर के पास का क्षेत्र रहा। उनसे मध्यमा शाखा निकली। उस काल में आचार्यों के नाम अथवा कार्य के साथ-साथ नगर एवं क्षेत्र के नाम पर भी गच्छ एवं शाखाओं के नाम होने लग गये थे। ऐसी स्थिति में उक्त मज्झिमिल्ला अथवा मध्यमा शाखा का नाम भी इस मध्यमिका नगरी के आधार पर रहा है। उपरोक्त महावीर निर्वाण संवत् ८४ के शिलालेख में इस नगरी का नाम 'मज्झिमिके' अंकित है। अर्ध मागधी में इसे 'मज्झमिया' कहा गया है, प्राकृत एवं राजस्थानी भाषाओं में 'मझिमिका' कहा गया है । मध्यमिका इसी शब्द का परवर्ती रूप है। इस आधार पर भी मेवाड़ की इस नगरी के नाम पर जैन धर्म की इन शाखाओं का नामकरण होना अथवा यहीं से इनका उद्भव होना मानना उचित प्रतीत होता है। प्राचीन काल में कई जैन साहित्यकार, दार्शनिक, भक्त एवं लेखक मेवाड़ में हुए। जैनाचार्य देवगुप्तसूरि (७६ वि० पू०) एवं यज्ञदेवसूरि (२३५ वि०) आदि का इस क्षेत्र में विचरण करने का उल्लेख मिलता है । २ वृद्धिवादीसूरि ने कुमुदचन्द्र ब्राह्मण को जीत कर अपना शिष्य बनाया और आचार्य पद दिया जो सिद्धसेन दिवाकर के नाम से प्रख्यात हुए । सिद्धसेन दिवाकर का आविर्भाव काल राजा विक्रमादित्य को प्रतिबोध देने वाले होने से विक्रमी संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य के काल से अधिकांश ग्रन्थों में माना गया है। सिद्धसेन दिवाकर मेवाड़ में दीर्घकाल तक रहे थे। सिद्धसेन दिवाकर ने एक बार चित्तौड़ के एक चैत्य के पास एक विचित्र स्तम्भ देखा जिसमें कई ग्रन्थ संग्रहीत थे, उन्होंने शासनदेव की कृपा से कई ग्रन्थ प्राप्त किये । सिद्धसेन दिवाकर द्वारा विरचित ग्रन्थों में न्यायावतार, सन्मति प्रकरण मुख्य 0 १. नाहर जैन संग्रह भाग १, पृ०६७. २. वीरभमि चित्तौड़ श्री रामवल्लभ सोमानी, पृ० १५२. ३. कल्पसूत्र, स्थविरावली. Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........योगी भी सरोमळती सुणा अभिवादन IEWSawL... ग्रन्थ हैं। सिद्धसेन दिवाकर को जैन तर्कशास्त्र का आदिपुरुष कहा जाता है, उनके तर्कशास्त्र की व्याख्याएँ आज भी अखण्डित हैं । सिद्धसेन दिवाकर द्वारा विरचित कल्याणमन्दिरस्तोत्र, द्वात्रिंशका आदि कई ग्रन्थ हैं। मेवाड़ के दूसरे प्रसिद्ध प्राचीनकाल के आचार्य हरिभद्रसूरि हैं जो चित्तौड़ के राजा जितारि के राजपुरोहित थे। उनके आविर्भाव काल के सम्बन्ध में भी मतभेद हैं। मुनिसुन्दर कृत गुर्वावली में इनको मानदेव सूरि का समकालीन माना है । अतः इनका आविर्भावकाल पांचवी शताब्दी होता है लेकिन जिनविजयजी ने कुवलयमाला के आधार पर इनका काल विक्रम की आठवीं शताब्दी माना है। हरिभद्रसूरि बहुश्रुत विद्वान थे। उन्होंने समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान, षड्दर्शन समुच्चय, शास्त्रवार्ता समुच्चय, अनेकान्तजयपताका, धर्मसंग्रहिणी, योग शतक, योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशिका, पूजा पंचाशिका, पंचाशक, अष्टक, षोडशका आदि १४४४ प्रकरण बनाये। कई ग्रन्थ चित्तौड़ में विरचित किये । हरिभद्रसूरि को धार्मिक प्रेरणा देने वाली प्रख्यात विदुषी एवं तपस्विनी साध्वी याकिनी महत्तरा की जन्म भूमि भी मेवाड़ है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सिद्धसेन दिवाकर एवं हरिभद्र सूरि के अतिरिक्त कृष्णषि, प्रद्युम्न सूरि, जिनवल्लभमूरि, जिनदत्तसूरि एवं दिगम्बर विद्वान एलाचार्य, वीरसेनाचार्य, महाकवि डड्ढा, हरिषेण, सकलकीति, भुवनकीर्ति मेवाड़ में उल्लेखनीय विद्वान् हुए हैं। कृष्णषि विक्रम की नवीं शताब्दी में बड़े विख्यात जैन साधु हुए, जिन्होंने चित्तौड़ में कई व्यक्तियों को दीक्षित किया। इन्होंने अनेक मन्दिरों का निर्माण कराया। प्रद्युम्न सूरि का मेवाड़ के गुहिल राजा अल्लट (वि० सं० १००८ से १०२८) की राजसभा में बड़ा सम्मान था। जिनवल्लभसूरि प्रारम्भ में कुर्चपुरीय गच्छ के श्री जिनेश्वर सूरि के शिष्य थे जो चैत्यवासी थे, फिर श्री अभयदेव सूरि के पास शिक्षार्थ आये एवं चैत्यवासियों की शास्त्रविरुद्ध प्रक्रियाओं से अप्रसन्न होकर इसे त्याग दिया एवं वि०सं० ११३८ के आसपास श्री अभयदेव सूरि के पास दीक्षा ली। इनका बहुत काल तक मेवाड़ में विचरण हुआ। चित्तौड़ में उस समय चैत्यवासी अधिक थे जिनकी आलोचना की एवं विधि चैत्यों की संस्थापना करवाई, चित्तौड़ उस समय मालवा के राजा नरवर्मा के अधिकार में था। राजा के दरबार में एक समस्या 'कण्ठे कुठार, कमठे ठकार' एक दक्षिणी पंडित ने भेजी, इसकी पूर्ति कोई नहीं कर सका । अत: जिनवल्लभसूरि के पास चित्तौड़ भेजी गई, सूरिजी ने शीघ्र पूर्ति कर दी, इससे राजा नरवर्मा बड़ा प्रसन्न हुआ एवं २ लाख मुद्रा देना चाहा, सूरिजी ने इन्कार कर दिया, एवं राजा को चित्तौड़ के नवनिर्मित मन्दिर की व्यवस्था के लिए कहा, जो की गई। वि०सं० ११६७ में जिनवल्लभसूरि का पट्ट महोत्सव चित्तौड़ में हुआ। उनके शिष्य जिनदत्तसूरि को पट्टधर बनाने का भव्य महोत्सव भी चित्तौड़ में हुआ। मेवाड़ में जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों ने धर्म-प्रचार में हाथ बँटाया है। तपागच्छ एवं तेरापंथ सम्प्रदाय का तो उद्भवस्थान मेवाड़ ही है । स्थानकवासी समाज का भी आरम्भ से ही प्रभाव पाया जाता है। श्वेताम्बर के साथ-साथ दिगम्बर सम्प्रदाय का भी मेवाड़ दीर्वकाल तक विद्या का केन्द्र रहा है। यहाँ पर प्रसिद्ध साधु एलाचार्य हुए जिनसे वीरसेन ने चित्तौड़ में दीक्षा प्राप्त की। वीरसेनाचार्य ज्योतिष, छन्दशास्त्र, प्रमाण और न्यायशास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे, जिन्होंने धवला टीका पूर्ण की, इसमें ६२००० श्लोक बताये जाते हैं, इस ग्रन्थ की परिसमाप्ति शक सं०७३८ में हुई। हरिषेण चित्तौड़ का रहने वाला विद्वान् था जिसने धर्मपरीक्षा ग्रन्थ वि०सं० १०४४ में पूरा किया। प्राग्वाट (पोरवाड़) जातीय जैन विद्वान् महाकवि डड्ढा का प्राकृत ग्रन्थ पंच संग्रह भी बहुत प्रसिद्ध है । आचार्य सकलकीति और भुवनकीति मेवाड़ के बड़े उल्लेखनीय दिगम्बर विद्वान थे। १. जैन साहित्य संशोधक, अंक १, खण्ड १. २. खरतरगच्छ पट्टावली। ३. बीरभूमि चित्तौड़, श्री रामवल्लभ सोमानी, पृ० १२.. Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म ऐतिहासिक घटनाएँ, पुरातन महत्त्व और कलात्मक स्थापत्य यह प्रमाणित करते हैं कि जैन श्रमण संस्कृति का इस वीर भूमि पर विशाल एवं गौरवशाली प्रभाव रहा है। मेवाड़ के शासकों का जैन धर्म के प्रति शताब्दियों से संरक्षण एवं श्रद्धा भी इसका एक मुख्य कारण है। मेवाड़ के महाराणाओं ने जैन धर्म को सम्बल दिया, इस सम्बन्ध में कतिपय प्रमाणों का संक्षिप्त उल्लेख द्रष्टव्य है- यह बड़े खेद का विषय है कि कई महत्वपूर्ण प्रमाणों को हमने ही लुप्त अथवा नष्ट कर दिये हैं। सूक्ष्मदृष्टि से इस बिन्दु पर विचार करने पर यह एक अनहोनी बात प्रतीत होगी क्योंकि हम ही ऐसे प्रमाणों को लुप्त अथवा नष्ट क्यों करें ? लेकिन जितना गहन अध्ययन किया जावे, इसकी पुष्टि और ज्यादा मजबूती के साथ होती है । सर्वप्रथम मन्दिरों के जीर्णोद्वार एवं प्रतिष्ठा के प्रश्न को ही लिया जाये। जैन मन्दिरों के जीर्णोद्वार के समय कई स्थानों पर मन्दिर के पुरातत्त्व को मिटाने का प्रयास किया जाता है। पुरानी प्रशस्ति हटा दी जाती है ताकि यह मालूम नहीं हो सके कि पूर्व में कब और किस व्यक्ति द्वारा मन्दिर निर्माण एवं किस आचार्य की निश्रा में प्रतिष्ठा अथवा जीर्णोद्धार का कार्य सम्पन्न हुआ है। इसके दो कारण है, प्रथम तो नये जीर्णोद्वार कराने व करने वाले की यह इच्छा रहे कि उसी की नामवरी हो द्वितीय पूर्व के उन आचायों का नाम जाहिर नहीं हो पाये जो अन्य गच्छ के थे। नये जीर्णोद्वार किये मन्दिरों में जीर्णोद्धार कराने वाले मुनिगण की नामावली का कई पट्टावली तक वर्णन मिल जायेगा और बड़े-बड़े लाखों पर इसका सुन्दर लिपि में अंक मिलेगा लेकिन मन्दिर निर्माण एवं पूर्व के जीर्णोद्वार करने व कराने वाले महानुभावों का कोई वर्णन नहीं मिलेगा। फलतः ऐसे स्थानों का इतिहास जानना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जाता है अतः दन्तकथाओं का आश्रय लिया जाता है जो इतिहासकार कभी पसन्द नहीं करता । क्या ही अच्छा हो, नवीन जीर्णोद्धार के लेख के साथ पूर्व के जीर्णोद्धार व मन्दिर निर्माण का भी संक्षिप्त विवरण दिया जावे। द्वितीय, हस्तलिखित पुस्तकों के संकलन एवं प्रकाशन की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है। बहुत सी अमूल्य सामग्री पाटन, खम्भात, अहमदाबाद आदि स्थानों पर चली गई है, कुछ ताने में बन्द है। विगत कई वर्षों से मेवाड़ में साधु, मुनिराज द्वारा विचरण प्रायः बन्द सा हो जाने से एवं यति समुदाय की ओर ध्यान नहीं देने से यह सामग्री भी लुप्त हो रही है एवं पता लगाना भी कठिन हो रहा है । इस सम्बन्ध में यह बताना उचित समझता हूँ कि अगर जैन मुनियों के कुछ ग्रन्थ नहीं मिलते तो मेवाड़ का इतिहास अधूरा ही रहता । यह मत मेरा ही नहीं अपितु कई सुप्रसिद्ध इतिहासकारों का भी है । सुप्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टाड ने मांडल उपासरे के यति श्री ज्ञानचन्द्रजी को अपना गुरु माना है एवं इस उपासरे के संग्रह के आधार पर इतिहास के कई पृष्ठ लिखे हैं। क्या ही अच्छा हो, मुनिवर्ग इस ओर भी अपना ध्यान देवें और इस अमूल्य निधि का संकलन ही नहीं अपितु अनुवाद के साथ प्रकाशन करावें । समस्त पश्चिमी भारत पर सम्राट अशोक के पौत्र सम्प्रति का राज्य था अंग था। सम्प्रति जैन धर्म का महान प्रचारक था। उस समय जीवहिंसा का पूर्ण वंश के जैन राजा चित्रांग ने बसाया। चित्तौड़ में सातवीं शताब्दी तक मौर्यो का ही २६ +++ मेवाड़ के राजाओं की जैन श्रमण संस्कृति के प्रति थड़ा के प्रश्न पर राजा वंशावली की शृंखला ली जावे तो इस शृंखला के अनुसार सत्रहवीं पीढ़ी में भर्तृभट १००० में भर्तृपुर (भटेवर ) गांव बसा गढ़ बनवाया तो सर्वप्रथम श्री आदिनाथ प्रारम्भ किया एवं इसका नाम गुहिल बिहार रखा गया। इसी गाँव से जैनों का इन्हीं राजा भर्तृभट का पुत्र राजा अल्लट (आलूरावल ) था जो राजगच्छ के आचार्य प्रद्युम्नसूरि का भक्त था । राजा राजा भर्ती भट, अल्लट एवं वैरिसिंह गुहिल से मेवाड़ के शासकों की द्वितीय राजा हुआ जिसने वि०सं० भगवान के चैत्य के निर्माण का कार्य भतृ पुरीव (भटेवर) गच्छ निकला। मौर्य वंश, राजा संप्रति एवं चित्रांग और मेवाड़ इसी राज्य का एक निषेध या चित्तौड़गढ़ को मौर्य राज्य रहा । . Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्य : षष्ठ खण्ड अल्लट ने चित्तौड़ किले पर महावीर स्वामी का मन्दिर बनवाया', राजा अल्लट ने आघाटपुर (आयड़) में जिनालय निर्माण कराकर श्री यशोभद्रसूरि द्वारा श्री पार्श्वनाथ प्रभु की मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई। रावल अल्लट के समय में श्वेताम्बरों को राज्याश्रय मिला, अल्लट के मन्त्रियों में कई जैन थे जिन्होंने कई मन्दिर बनवाये। अल्लट की राणी हरियादेवी को रेवती दोष था जिसे बलभद्र सूरि ने दूर किया ।२ अल्लट ने सारे राज्य में विशिष्ट दिन जीवहिंसा एवं रात्रिभोजन निषेध कर दिया। राजा अल्लट के बाद वैरिसिंह के समय आयड़ में जैनधर्म के बड़े-बड़े समारोह हुए एवं ५०० प्रमुख जैनाचार्यों की एक महत्त्वपूर्ण संगति आयोजित हुई। राजा जैसिंह एवं तपागच्छ राजा जैत्रसिंह (वि०सं० १२७० से १३०६) के राज्यकाल में आघाटपुर (आयड़) में प्रख्यात जैनाचार्य श्री जगच्चन्द्र सूरि द्वारा १२ वर्षों तक कठोर आयंबिल तपस्या कर कई भट्टारक को जितने से राजा जैत्रसिंह प्रभावित हुए एवं आचार्य श्री जगच्चन्द्र सूरि को विक्रम सं० १२८५ में तपाविरुद दिया जिससे तपागच्छ चला। चित्तौड़ की राज्यसभा में इन्हीं राजा ने जगच्चन्द्र सूरि को 'हिरा' का विरुद दिया, जिससे इनका राम 'हिरला जगच्चन्द्र सुरि प्रख्यात हुआ। राजा कर्णसिंह एवं ओसवाल गोत्रोप्ति विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में मेवाड़ के राजा कर्णसिंह के पुत्र माहप, राहप, श्रवण, सखण हुए जिनसे राणा शाखा निकली। इस समय इस राज्य परिवार से ओसवाल वंश की दो गोत्रों का प्रादुर्भाव हुआ। शिशोदिया सरूपरिया गोत्र मेवाड़ के राजा रावल कर्णसिंह के पुत्र श्रवणजी ने विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में यति श्री यशोभद्रसूरि (शान्तिसूरि) से जैन धर्म एवं श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किये तब ही से इनके वंशज जैन मतानुयायी हुए और शिशोदिया गोत्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस गोत्र की दो शाखाएं बाद में हुई। एक बेंगू और दूसरी उदयपुर में बस गई । इसी गोत्र में आगे जाकर डूंगरसिंह नामी व्यक्ति हुए जो राणा लाखा के कोठार के काम पर नियुक्त थे, इनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर महाराणा ने सरोपाव एवं सूरपुर गाँव जागीर में दिया, तब से शिशोदिया गोत्र की यह शाखा सूरपुर नाम पर सरूपरिया नाम से विख्यात हुई । डूंगरसिंह ने इन्दौर स्टेट में रामपुरा के पास श्री आदिश्वर का मन्दिर बनवाया। इसी खानदान में दयालदास के नाम के प्रसिद्ध व्यक्ति हुए जिनको राणा राजसिंह ने प्रधानमन्त्री बनाया जिनके द्वारा राजसमुद्र के पास वाली पहाड़ी पर श्री आदिनाथजी का भव्य मन्दिर बनवाया गया जो दयालशाह के देवरे के नाम से प्रसिद्ध है। शिशोदिया मेहता गोत्र मेवाड़ के रावल कर्णसिंह के सबसे छोटे पुत्र सखण ने जैनधर्म अंगीकार किया । सखण के पुत्र सरीपत को राणा राहप ने सात गांव जागीर में दे मेहता पदवी दी, तबसे इनके वंश वाले मेहता (शिशोदिया मेहता) कहलाते हैं। इनकी तीसरी पीढ़ी में हरिसिंह एवं चतुर्भुजजी नामांकित व्यक्ति हुए, जिनको पाँच गाँव के पट्टे मिले, जिनको इन्होंने १. जैन परम्परा नो इतिहास, त्रिपुटि महाराज, पृ०४६२. २. वीरभूमि चित्तौड़, श्री रामवल्लभ सोमानी, पृ० १५७. ३. जैन परम्परा नो इतिहास, त्रिपुटि महाराज, पृ० ४६३. ४. वही. ५. ओसवाल जाति का इतिहास, श्री सुखसम्पतराज, पृ० ३९३. ६. भोसवाल जाति का इतिहास, सुखसम्पतराज भण्डारी, पृ० ३६३. Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -+-+-+ 1 बसाये' । सरीपत के वंशज सम्राट अकबर द्वारा किये गये चित्तौड़ पर आक्रमण के समय चित्तौड़ के अन्तिम ( तीसरे ) साके में लड़े और काम आये केवल मेवराज जो राणा उदयसिंहजी के बड़े विश्वासपात्र में ये इस लड़ाई के पूर्व ही महाराणा उदयसिंह के साथ चित्तौड़ से निकल गये और बच गये । वर्तमान का सारा कुटुम्ब मेघराज का वंश है । मेहता मेघराज ने उदयपुर में मेहतों का टिम्बा बसाया एवं सबसे पहला श्री शीतलनाथजी का विशाल जैन मन्दिर बनवाया । उदयपुर नगर के महलों का सबसे पुराना भाग राय आंगन, नेका की चौपड़, पाण्डे की ओवरी, जनाना रावला ( कोठार), मौचोकी सहित पानेडा, महाराणा उदयसिंहजी ने बनवाये पुरानी परम्परा थी कि गढ़ की नींव के साथ मन्दिर की नींव दी जाती थी। तदनुसार राजमहल के इस निर्माण कार्य के साथ श्री शीतलनाथजी के उक्त मन्दिर का शिलान्यास एक ही दिन वि०सं० १६२४ में सम्पन्न हुआ। बताते हैं, इस मन्दिर के मूलनायक की प्रतिमा भी चित्तोड़ से लाई गई थी। इसी मन्दिर के साथ एक विशाल उपाश्रय भी है जो तपागच्छ का मूल स्थान है जहाँ के पट्ट आचार्य श्रीपूज्यजी कहलाते थे जिनके संचालन में भारत के समस्त तपागच्छ की प्रवृत्तियां चलती थीं। संवेगी साधु समाज का प्रादूप होने के पश्चात् भी तपागच्छ के संवेगी मुनिवर्ग को उदयपुर नगर में व्याख्यान हेतु अनुमति लेनी पड़ती थी । इतना ही नहीं, यहां के श्रीपूज्यों को राज्य-मान्यता थी । जब कभी श्रीपूज्यजी का उदयपुर नगर में प्रवेश होता तो यहाँ के महाराणा अपने महलों से करीब दो मील आगे तेलियों की सराय, वर्तमान भूपाल नोबल्स कॉलेज तक अगवाई के लिए जाते थे। प्रतिक्रमण में शान्ति की प्रविष्टि भी इसी स्थान से हुई मेहता मेघराज के पुत्र वेरीसाल से दो शाखायें चलीं- ज्येष्ठ पुत्र अन्नाजी की सन्तति टिम्बे वाले एवं लघु पुत्र सोनाजी की सन्तति ड्योढी वाले मेहता के नाम से प्रसिद्ध हुई जो सदियों से जनानी योडी का कार्य करते रहे हैं। मेहता मेघराज की ११वीं पीढ़ी में मेहता मालदास हुए जिन्होंने वि० सं० १८४४ में मेवाड़ एवं कोटा की संयुक्त सेना के सेनापति होकर मरहठों से निकुम्भ, जिरण, निम्बाहेड़ा लेकर इन पर अधिकार किया और हवाखाल के पास युद्ध का नेतृत्व किया। इन्हीं के नाम से मालदासजी की सेहरी, उदयपुर नगर का समृद्ध मोहल्ला है।* मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म राणाओं के पुरोहित ऐसा कहते हैं कि राणा राहप को कुष्ठ रोग हो गया जिसका इलाज सांडेराव (गोड़वाद) के पति ने किया । जब से इन यति एवं इनके शिष्य परम्परा का सम्मान मेवाड़ के राणाओं में होता रहा। उक्त यति के कहने से उनके एक शिष्य सरवल, जो पल्लीवाल जाति के ब्राह्मण का पुत्र था, को राहप ने अपना पुरोहित बनाया, तब से मेवाड़ के राणाओं के पुरोहित पल्लीवाल ब्राह्मण चले आते हैं। इसके पूर्व चौबीसे ब्राह्मण थे। डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा के राजाओं के पुरोहित अब तक चौबीसे ब्राह्मण हैं । " १. ओसवाल जाति का इतिहास, सुखसम्पतराज भण्डारी, पृ० ३१६. २. मेवाड़ के जैन वीरें, जोधसिंह मेहता । महाराणा तेजसिंह एवं समरसिंह जत्रसिंह के पीछे उसका पुत्र तेजसिंह मेवाड़ का स्वामी हुआ जिसके विरुद महाराजाधिराज, परमभट्टारक, परमेश्वर आदि मिलते हैं। जैसाकि उपरोक्त लेख से प्रतीत होगा कि तपागच्छ का प्रादुर्भाव वंशोत्पत्ति, जैन मन्दिर निर्माण आदि कारणों से मेवाड़ के राज्य वंश का जैनधर्म से बड़ा अच्छा एवं उसके पुत्र समरसिंह के शासनकाल में और भी ज्यादा गहरा हुआ ३. राजपूताना का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ७३३. ४. लेखक के पिता श्री अर्जुनलाल मेहता द्वारा संकलित वंशावली । ५. मेवाड़ के जैन वीर, श्री जोधसिंह मेहता | ६. राजपूताना का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ५१०. ३१ सम्बन्ध हो गया था, यह सम्बन्ध तेजसिंह तेजसिंह के समय जैनधर्म की अभूतपूर्व उन्नति ++ 0 . Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड सिंह पी पटराणी जपतलवामा चित्ताड पर मत पुरयाभटवर गच्छकजनाचायक उपदर्श स:35 में श्याम पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया।' राणी जयतल्ल देवी की जैनधर्म पर अधिक श्रद्धा थी। राणी जयतल्ल देवी की श्रद्धा एवं अंचलगच्छ के आचार्य अमितसिंह सूरि के उपदेश से राणा तेजसिंह के पुत्र समरसिंह ने अपने राज्य में जीवहिंसा पर रोक लगा दी। राणा समरसिंह ने उक्त श्याम पार्श्वनाथ के अपनी माता द्वारा बनवाये गये मन्दिर के पास पौषधशाला हेतु भूमि दी एवं इस मन्दिर व उपाश्रय की स्थायी व्यवस्था हेतु कुछ हाट (दुकानें) एवं बाग की भूमि भटेवरगच्छ के आचार्य प्रद्युम्नसूरि को दी और चित्तौड़ की तलहटी, आघाटपुर (आहड़), खोहर और सज्जनपुर के सायर के महकमों से रकम दी जाने की व्यवस्था की ताकि व्यय की व्यवस्था स्थायी रूप से चलती रहे । इस सम्बन्धी एक शिलालेख मन्दिर के द्वार पर बने छबने पर खुदा हुआ चित्तौड़ के पुराने महलों के चौक में गड़ा हुआ मिला है। यह शिलालेख सं० १३३५ वैसाख सुदि ५ का है। इस शिलालेख के मध्य में श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा खुदी हुई है जिससे यह प्रकट है कि यह छबना जयतल्ल देवी के बनाये हुए श्याम पार्श्वनाथ के मन्दिर के द्वार का है। यह मन्दिर बाद के आक्रमण में मिसमार हो गया। राणा लाखा, मोकल एवं कुम्भा मेवाड़ के राणा लाखा (लक्षसिंह) (वि० सं० १४३६ से १४७८), राणा मोकल (वि० सं० १४७८ से १४६०) राणा कुम्भा (वि० सं० १४६० से १५२५) के समय में भी मेवाड़ के राणाओं पर जैन धर्म का बहुत प्रभाव रहा है। कई जैन मन्दिरों का निमार्ण एवं जीर्णोद्धार हुआ है जिनके कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैं कि राणा लाखा के समय वि० सं० १४७६ में आसलपुर दुर्ग में श्री पार्श्वनाथ चैत्य का जीर्णोद्धार हुआ, वि० सं० १४७८ में राणा मोकल के समय में जावर के जैन-मन्दिरों का निर्माण कराया गया। वि० सं० १४८५ में संघपति गुणराज द्वारा चित्तौड़ के कीर्ति स्तम्भ का जीर्णोद्धार कराया एवं इस कीर्तिस्तम्भ के पास महावीर स्वामी का मन्दिर बनवाया गया। वि० सं० १४६१ एवं १४६४ के नागद्र ह (नागदा) एवं देवकुल-पाटकपुर (देलवाड़ा) के कई जैन मन्दिरों के शिलालेख हैं जिनसे यह जाहिर है कि यहाँ खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनवर्द्धनसूरि, जिनसागरसूरि, जिनचन्द्रसूरि एवं सदानन्दसूरि ने कई प्रतिष्ठा उत्सव राणा कुम्भा के काल में कराये। देलवाड़े के मन्दिर विशाल एवं बावन जिनालय वाले हैं। मन्दिर भव्य एवं कलात्मक हैं, एक मन्दिर को देखने से तो आबू के दिलवाड़ा मन्दिरों की याद ताजा हो जाती है। मन्दिर की कारीगरी देखने से ऐसा अनुमान होता है कि मन्दिर की कला ही दोनों स्थानों के नाम देलवाड़ा पुकारे जाने का आधार रहा हो । इस मन्दिर की एक विशेषता तो आबू के मन्दिरों से भी ज्यादा यह है कि मन्दिर के बिल्कुल बाहर के भाग में बहुत ही सुन्दर कोराणी कराई गई है जिसको देखते हुए वहाँ से हटने की इच्छा नहीं होती है। इस स्थान पर राजमन्त्री रामदेव श्रेष्ठी, वीसल एवं श्रेष्ठी गुणराज के परिवारों का उल्लेख करना भी आवश्यक है । रामदेव का नवलखा परिवार महाराणा खेता (क्षेत्रसिंह, वि० सं० १४३१ से १४३६) के समय से ही प्रसिद्ध रहा है। वि० सं० १४६४ के नागदा के अद्भुतजी की मूर्ति के लेख में इस परिवार की परम्परा दी गई है। रामदेव महाराणा खेता एवं उसके पुत्र लाखा के समय मन्त्री था। रामदेव के दो पुत्र सहण एवं सारंग महाराणा कुम्भा एवं मोकल के समय में मुख्य मन्त्री थे। यह परिवार देलवाड़े का रहने वाला था ।५ नागदा व देलवाड़ा की कई मूर्तियों के लेख में इस परिवार का नाम है। अन्य कई मूर्तियों के लेख एवं ग्रन्थ प्रशस्तियाँ इस परिवार की मिली हैं। रामदेव नवलखा की एक पुत्री का विवाह विक्षल से हुआ, विसल के पिता ईडर के राजा रणमल का मन्त्री था। विसन के १. राजपूताना का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ८०, ८२. १. राजपूताने का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ४८०. ३. वही, ४. जैन परम्परा नो इतिहास, त्रिपुटी महाराज, पृ० ३४. ५. वीरभूमि चित्तौड़, श्री रामवल्लभ सोमानी, पृ० १६१. Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म ३३ . .............. ..000000000000000000000000000000000000 परिवार ने आचार्य सोमसुन्दरसूरि के काल में कई मन्दिरों की प्रतिष्ठा कराई, संघ निकाले, ग्रन्थ लिखवाये, चित्तौड़ में श्रेयांसनाथ का मन्दिर बनवाया । श्रेष्टी गुणराज चित्तौड़ एवं अहमदाबाद का रहने वाला था, जिसने विशाल संघ निकाला, जिसमें राण कपुर के मन्दिर बनाने वाला धरण शाह भी शामिल था। गुणराज गुजरात के बादशाह की सभा का सदस्य था एवं उसका पुत्र महाराणा मोकल की सभा का सदस्य। राणकपुर के प्रसिद्ध मन्दिर की प्रतिष्ठा भी महाराणा कुम्भा के राज्यकाल वि०सं० १४९६ में हुई। आचार्य श्री सोमचन्द्रसूरि ने इस मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई। इस मन्दिर में राणा कुम्भा ने पाषाण के दो स्तम्भ बनवाये । राणकपुर के मन्दिर के निर्माण सम्बन्धी यह प्रमाण मिलता है कि राणा कुम्भा के प्रीतिपात्र शाह गुणराज के साथ रहकर नदिया ग्राम निवासी प्राग्वाट वंशी सागर के पुत्र कुरपाल के बेटे रत्नसा एवं धन्नासा ने "त्रैलोक्यदीपक" नामक युगादीश्वर का ४८००० वर्गफीट जमीन पर एवं १४४४ विशाल प्रस्तर स्तम्भों पर सुविशाल चतुर्मुख मन्दिर महाराणा की आज्ञा पाकर बनवाया।' इसी तरह से राणा कुम्भा के प्रीतिपात्र शाह गुणराज ने अजाहरी (अजारी), पिण्डरवाटक (पिण्डवाड़ा) तथा सालेरा के नवीन मन्दिर बनवाये और कई पुराने मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया । महाराणा कुम्भा के श्रेय से कुम्भा के खजांची वेला (वेलाक) ने वि० सं० १५०५ में चित्तौड़ में शान्तिनाथ का सुन्दर मन्दिर बनवाया (एक मतानुसार जीर्णोद्धार कराया), जिसको इस समय शृंगारचंवरी कहते हैं । इस मन्दिर के पास वि० सं १५१० के दो और जैन मन्दिर हैं। इसी तरह से राणा कुम्भा के समय के बसन्तपुर, मूला आदि स्थानों के जैन मन्दिर विद्यमान हैं । मचिन्द दुर्ग पर महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित जैन मन्दिर होने का भी प्रमाण यह मिलता है कि महाराणा जगतसिंह (वि० सं० १६८४ से १७०६) ने इस मन्दिर के जीर्णोद्धार हेतु फरमान निकाला। राणा कुम्भा ने अचलगढ़ (आबू) का दुर्ग बनवाया। अचलगढ़ के जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा भी इसी समय वि० सं० १५१८ में हुई । राणा कुम्भा के समय के कई शिलालेख भी मिलते हैं जिनसे उसका जैन धर्म के प्रति श्रद्धा एवं संरक्षण स्पष्टतया प्रकट है, इन शिलालेखों में वि० सं० १४६१ कार्तिक सुदि ४ का देलवाड़े का शिलालेख, वि० सं० १४६४ माघ सुदि ११ का नागदा के अदबुद जी (शान्तिनाथजी) की अतिविशाल मूर्ति के आसन का शिलालेख, वि० सं० १४९६ का राणकपुर मन्दिर का शिलालेख, वि० सं० १५०६ असाढ़ सुदि २ का देलवाड़ा (आबू) का शिलालेख, वि०सं० १५१८ वैसाख विद ४ का . अचलगढ़ के जैन मन्दिर में आदिनाथजी की विशाल प्रतिमा के आसन पर खुदा शिलालेख मुख्य हैं। राणा कुम्भा ने आबू पर जाने वाले जैन यात्रियों पर जो कर लगता था उसे उठाकर यात्रियों के लिये बड़ी सुगमता कर दी जिसकी पुष्टि आबू देलवाड़ा के विमलशाह एवं वस्तुपाल-तेजपाल द्वारा बनाये गये मन्दिरों के मध्य चौक में एक वेदी पर लगे शिलालेख से होती है जिसमें आबू पर जाने वाले यात्रियों के दाण, मुंडिक, वालावी (यानि राहदारी, प्रति यात्री से लिये जाने वाला कर), मार्ग रक्षा कर तथा घोड़े, बैल आदि का जो कर लिया जाता था उसे माफ करने का उल्लेख है । उस समय आबू प्रदेश राणा कुम्भा ने ले लिया था, जो मेदपाट, मेवाड़ का ही एक अंग था। राणा कुम्भा आचार्य सोमसुन्दरसूरि, कमलकलशसूरि, सोमजयसूरि के भक्त थे। तपागच्छ के सोमदेव वाचक का राणा कुम्भा बड़ा सम्मान करते थे। हीराचन्दसूरि को महाराणा कुम्भा गुरु मानता था, इनका राजसभा में बड़ा सम्मान था और इन्हें 'कविराज' की उपाधि भी दी थी। राणा कुम्भा के समय के निम्न परवाने से कुम्भा के जैन धर्म के प्रति श्रद्धा का सहज अनुमान लगाया जा सकता है १. राजपूताने का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ६२५. २. भावनगर इंस्क्रिप्शन, पृ० ११४, ११५, ३. राजपूताना म्यूजियम की रिपोर्ट, ई०स० १९२०-२१, पृ० ५, लेख सं० १०. ४. राजपूताने का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ६३०-६३६. ५. वीरभूमि चित्तौड़, रामवल्लभ सोमानी, पृ० ११८. Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 ३४ कमयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड स्वस्ति श्री एकलिंगजी परसादातु महाराजाधिराज महाराणाजी श्री कुम्भाजी आदेसातु मेदपाट रा उमराव, थानेदार कामदार समस्त महाजन पंचकास्य अप्रं आपणे अठे श्रीपूज तपागच्छ का तो देवेन्द्रसूरिजी का पंथ का तथा पुनम्यागच्छ का हेमाचारजजी को परमोद है। धरमज्ञान बतायो सो अठे अगा को पंथ को हावेगा जणीने मानांगा पूजागा । परथम ( प्रथम ) तो आगे सु ही आपणे गढ़ कोट में नींव दे जद पहीला श्री रिषभदेव जी रा देवरा री नींव देवाड़े है, पूजा करे है, अबे अजु ही मानेगा, सिसोदा पग का होवेगा ने सुरेपान ( सुरापान ) पावेगा नहीं और धरम मुरजाद में जीव राखणो, या मुरजाद लोपागा जणी ने महासता ( महासतियों ) की आण है और फेन करेगा जणी ने तलाक है, सं० १४६१ काती सु० ५।१ राणा रायसिंह एवं सांगा राणा रायसिंह (वि० सं० १५३० से १५६६ ) एवं राणा सांगा (वि० सं० १५६६ से १५०४) के समय में भी जैन धर्म की बड़ी प्रगति हुई— खरतरगच्छ, तपागच्छ, चैत्रगच्छ बृहद्गच्छ भृतपुरीयगच्छ, आंचलगच्छ के कई साधुओं का विचरण मेवाड़ में था। इस काल में जैनग्रन्थ लेखन कार्य बहुत हुआ । वि०सं० १५५३ में विनयराजसूरि द्वारा उपासकदशांग चरित्र लिखा गया, वि० सं० १५५५ में शत्रुंजय माहात्म्य वि० सं० १५७४ में पार्श्वपुराण, वि०सं० १५९७ में स्थानांगसूत्र की प्रतिलिपियाँ कराई गई। राणा सांगा जैनाचार्य धर्मरत्नसूरि का परमभक्त था । धर्मरत्नसूर के आवागमन के समय कई मील उनके सामने गया था, उनके व्याख्यान सुने एवं शिकार भी कुछ समय के लिए छोड़ दिया था । " राणा रतनसिंह एवं मंत्री सिंह मेवाड़ के राणा रतनसिंह द्वितीय (वि० सं० १५८४ से १५००) के मन्त्री, कर्म (कर्मराज) कर्माने वि० सं० १५८७ वैसाख विद ६ को शत्रुंजय का सातवाँ उद्धार कराया और पुण्डरीक के मन्दिर का जीर्णोद्धार करा उसमें आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित की इस कार्य के लिये ऐसा कहा जाता है कि कर्मसिंह ने राणा रत्नसिंह की सिफारिश से गुजरात के सुलतान बहादुरशाह से फरमान प्राप्त कर शत्रुंजय का उद्धार कराया क्योंकि मुसलमानों के समय बहुधा मन्दिर बनाने की मनाई थी। लेकिन एक मत यह कि गुजरात का शाहजादा बहादुरशाह भागकर राणा सांगा की शरण में चित्तौड़ आगया । कर्माशाह ने उसे विपत्ति के समय एक लाख रुपये इस वास्ते दिये कि जब वह गुजरात सिंहासन पर बैठे तब शत्रुंजय की प्रतिष्ठा कराने की आज्ञा देवे । कालान्तर में जब वह गुजरात का बादशाह बन गया तब उसने पूर्व वचनानुसार कर्माशाह को अनुमति दी राणा प्रतापसिंह (वि० सं० १६२८ से १६५३) ++ राणा प्रताप का राज्यकाल प्रायः संघर्य में ही बीता । समय-समय पर एक स्थान को छोड़कर दूसरे, १. राजपूताना के जैनवीर, अयोध्याप्रसाद गोयल, पृ० ३४०. २. वीरभूमि चितौड़, रामवल्लभ सोमानी, पृ० १६५. ३. शत्रुंजय का शिलालेख वि० सं० १७८७. ४. राजपूताने का इतिहास, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पृ० ७०३. ५. बीरभूमि चितौड़, रामवल्लभ सोमानी, पृ० १६६. . Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म ३५ . दूसरे को छोड़कर तीसरे पर जाते रहे एवं 'मारो और भागो' की नीति अपनाई । इस संघर्षमय जीवन में भी इनका धर्मप्रेम बहुत प्रबल था। जगतगुरु आचार्य हीरविजयसूरि एवं उनके शिष्यों के लिये अत्यधिक मान था। जब कभी तपागच्छ के पट्टधर साधुओं का आना होता था तो सामने लेने जाते थे। यह मर्यादा बराबर कायम रही और जबजब तपागच्छ के पट्टधर (शीतलनाथजी के उपासरे के श्रीपूज्यजी) का आवागमन उदयपुर में होता तब-तब तेलियों की सराय (वर्तमान भूपाल नोबल्स कालेज) तक उदयपुर के महाराणा अगवाई के लिये जाते थे। मन्दिर एवं उपासरे की मर्यादा बराबर कायम रखते । इसकी पुष्टि राणा प्रताप के निम्न पत्र से होती है जो हीरविजयसूरि को सं० १६३५ में मेवाड़ में पधारने हेतु निमन्त्रण स्वरूप लिखा गया ___'स्व स्ति श्री मुसुदु (मेवाड़ का ग्राम) महाशुभस्थाने सरब ओपमा लायक भट्टारक महाराज श्री हीरविजेसूरि जी चरण कमलायणे स्वस्त श्री बजेकटक चावंडेरा (चामुडेरी) सुथाने महाराजाधिराज श्री राणा प्रतापसिंघजी ली. पगे लागणों बंचसी, अठारा समाचार भला है, आपरा सदा भला छाईजे, आप बड़ा है, पूजणीक है, सदा करपा राखे जी सू ससह (श्रेष्ठ) रखावेगा, अप्रं अपारो पत्र अणा दना म्हे आया नहीं सो करपा कर लगावेगा । श्री बड़ा हजर री वगत पदारवो हुवो जी में अठारौँ पाछा पदारता पातसा अकब्रजी ने जेनाबाद म्हें ग्रानरा (ज्ञानरा) प्रतिबोध दी दो, जीरो चमत्कार मोटो बताया जीव हंसा (जीवहिंसा) छरकली (चिड़िया) तथा नाम पंषेरु (पक्षी) ने तीसो माफ कराई, जीरो मोटो उपकार कीदो सो श्री जेनरा ध्रम रो आप असाहीज अदोतकारी (उद्योतकारी) अबार कीसे (समय) देखता आप जू फेर वे न्ही आवी, पूरब हिदस्थान अत्रवेद सुदा चारू (४) दसा म्हे धरम रो बड़ो अदोतकार देखाणो, जठा पछे आपरो पदारणो हुवोन्ही सो कारण कहीवेगा पदारसी आगे सू पटा प्रवाना कारण रा दस्तूर माफक आप्रे है जी माफक तोल मुरजाद सामो आवारी कसर पड़ी सुणी जो काम कारण लेखे भूल रही वेगा, जीरो अदेसो न्ही जाणेगा, आगे सु श्री हेमाआचारजी ने श्री राज म्हे मान्यता है, जी रो पटो कर देवाणो जी माफक अरो पगरा भटारख गादी प्र आवेगा तो पटा माफक मान्या जावेगा श्री हेमाचारजी पेला श्री बड़गच्छ रा भटारख जी बड़ा कारण सुश्री राज म्हे मान्या जी माफक आपने आपरा पगरा गादी प्रपाट हवी तपागच्छ राने मान्या जावेगारी "सुवाये देस म्हें आपरे गच्छ रो देवरो तथा उपासरो वेगा, जी रो मुरजाद श्री राज सू वा दूजा गच्छ रा भटारख आवेगा सो रहेगा," श्री समरण ध्यान . देवाजात्रा जठे याद करावसी भूलसी नहीं ने वेगा पदारसी, प्रवानगी पंचोली गोरो समत् १६३५ रा वर्ष आसोज सु. ५ गुरुवार'।' राणा प्रताप के समय में उनके दीवान भामाशाह कावड़िया ने वि०सं० १६४३ माह सुदी १३ को केशरियाजी (धुलेव) मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया। महाराणा अमरसिंह (वि० सं० १६५३ से १६७६) एवं जगतसिंह (वि०सं० १६८४ से १७०९) राणा अमरसिंह ने तपागच्छ के भट्टारक विजयरत्नसूरि के उपदेश से पर्युषण पर्व के दिनों में हिंसा नहीं करने (अगता पलाने) का पट्टा जारी किया। खुर्रम ने अपने पिता शहंशाह जहाँगीर के हुक्म से राणा अमरसिंह के विरुद्ध मेवाड़ पर चढ़ाई की। उस समय वि०सं० १६७० में शाही फौजों ने राणकपुर के प्रसिद्ध मन्दिर की खराबी करना शुरू किया तब राणा ने चित्तौड़ के युद्ध में जान देने वाले विख्यात योद्धा जयमल्ल के पुत्र मुकुन्दास को मुकाबले के लिये भेजा । मन्दिर की खराबी करने वाली शाही फौज का मुकुन्ददास ने डटकर मुकाबला किया और अपनी जान दी। राणा जगतसिंह ने आचार्य विजयदेवसूरि एवं विजयसिंहमूरि के उपदेश से वरकाणा (गोड़वाड़) तीर्थ पर पार्श्वनाथ भगवान के जन्मदिवस पर होने वाले मेले में आने-जाने वाले यात्रियों से कर लेना बन्द कर दिया एवं भविष्य में ऐसा कर नहीं लिया जावे इस हेतु इस आज्ञा को शिला पर खुदवा कर मन्दिर के दरवाजे पर लगवा दिया। राणा जगतसिंह १. राजपूताने के जैन वीर, अयोध्याप्रसाद गोयल, पृ० ३४१, ३४२. २. मेवाड़ के महाराणा एवं शहंशाह अकबर, राजेन्द्र शंकर भट्ट, पृ० ३६५. Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 666 20 ३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ षष्ठ खण्ड के निमन्त्रण पर उक्त आचार्य ने उदयपुर में चातुर्मास किया । चातुर्मास समाप्त होने पर एक रात दल-बदल महल में विश्राम किया, महाराणा जगतसिंह नमस्कार करने गये एवं आचार्य के उपदेश से निम्न बातें स्वीकार कीं १. पीछोला तालाब एवं उदयसागर में मछलियों को कोई नहीं पकड़े। २. राजतिलक के दिन जीवहिंसा बन्द रखी जावे । ३. जन्ममास एवं भाद्रमास में जीवहिंसा बन्द रखी जावे । ४. मचींद दुर्ग पर राणा कुम्भा द्वारा बनवाये गये जैन चैत्यालय का पुनरुद्धार कराया जावे। राणा राजसिंह राणा राजसिंह (वि०सं० १७०९ से १७३७ ) के समय में राजसमन्द का निर्माण हुआ था उसी के साथ राणा के दीवान दयालशाह ने दयालशाह का किला नामक बावन जिनालय का एक भव्य देरासर बनवाया। इस सम्बन्ध में यह प्रसिद्ध है कि राजसमन्द की पाल जैसे ही तैयार होती, पानी आने पर टूट जाती; ऐसी स्थिति में मन्दिर की प्रतिष्ठा की अनुमति को राणा डालते रहे अन्ना में राजा राहत की पत्नी पाटनदे (पाटनदेवी) जो धर्मात्मा एवं सती थी उसने पाल की नींव रखवाई एवं रात-दिन काम करवा कर पाल वायी जो चातुर्मास की वर्षा में भी नहीं टूटी ने इस मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाने की अनुमति दी तदनुसार] [वि०सं० १७३२ साथ सुद तत्पश्चात् राणा ७को विजयगच्छ के मानक विनयसागरसूरि कीनिया में एवं सांडेराव गच्छ के म देवसुन्दरसूरि की उपस्थिति में इस मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई। महाराणा राजसिंह के समय का एक आशापत्र कर्नल टॉड ने जी में प्रकाशित किया। इससे भी राणा राजसिंह जी की जैन धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा प्रकट होती है । यह आज्ञा ( फरमान ) यति मान के उपदेश से जारी किया गया था। इसमें मुख्य बातें निम्न प्रकार हैं— "महाराणा श्री राजसिंह, मेवाड़ के दस हजार गांवों के सरदार मंत्री और पटेलों को आशा देता है, सब अपने-अपने पद के अनुसार पढ़ें १. प्राचीन काल से जैनियों के मन्दिरों और स्थानों को अधिकार निरहुआ है इस कारण कोई मनुष्य उनकी सीमा में जीव-वध नहीं करे, यह उनका पुराना हक है। २. जो जीव नर हो या मादा, वध होने के अभिप्राय से इनके स्थान से गुजरता है, वह अमर हो जाता है । राजद्रोही, लुटेरे और कारागृह से भागे हुए महाअपराधी को भी, जो जैनियों के उपास रे में शरण ग्रहण कर लेगा, उसको राज्य कर्मचारी नहीं पकड़ेगा । ३. DIDIE ४. फसल में कूंची (मुट्ठी), कराना की मुट्ठी, दान की हुई भूमि, धरती और अनेक नगरों में उनके बनाये हुए उपासरे कायम रहेंगे। । ५. यह फरमान यति मन की प्रार्थना पर जारी किया गया है, जिनको १२वी वा धान की भूमि के और २५ बीचे माटी के दान किये गये हैं। नीमन और निम्बाहेड़ा के प्रत्येक परगने में भी हर एक पति को इतनी ही भूमि दी नई है। अर्थात् तीनों परगनों में धान के कुल ४५ बीधे और मालेटी के ७५ बीघे । इस फरमान को देखते ही भूमि नाप दी जावे व दे दी जाय और कोई मनुष्य जतियों बल्कि उनके हकों की रक्षा करे । उस मनुष्य को धिक्कार है जो उनके हकों का उल्लंघन करता है। मुसलमान को सूअर और मुदारी की कलम है सं १७४२ (१) महासुदी ५ ६०० १५९३ (१) १. राजपूताने के जैन वीर, अयोध्याप्रसाद गोयल, पृ० ३४६. २. एनल्स एण्ड एण्टीक्यूटीज आफ राजस्थान - टाट परिशिष्ट, ५, १०६१७. को दुःख नहीं दे, हिन्दू को गो और दया मंत्री" . Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म ३७ .0.0.0.0.0.0.0.0.0.0.0.0.0.0000000000000000000 00 0 000. राणा भीमसिंह और आचार्य भारमल महाराणा भीमसिंह (वि०सं० १८३४-१८८५) को भी जैन धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा थी। तेरापंथ के द्वितीय आचार्य भारमल जब वि०सं० १८७४-७५ में मेवाड़ में आये, तेरापंथ धर्म उस समय शैशव अवस्था में ही था; किन्तु आचार्य भारमल के प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं उनकी सैद्धान्तिक कट्टरता से प्रभावित होकर तेरापंथ के अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी, इससे कुछ व्यक्ति आचार्य भारमल के विरोधी होगये और महाराणा भीमसिंह के कान भरने लगे। राजा कानों का कच्चा होता ही है, उन्होंने झूठी बातों पर विश्वास करके आचार्य भारमल को उदयपुर से निष्कासित कर दिया; किन्तु देवयोग से संयोग ऐसा बना कि मेवाड़ में प्राकृतिक प्रकोप हो गया, सर्वत्र हाहाकार मच गया। महाराणा को अपनी गलती का अहसास हुआ तथा मेवाड़ के राणाओं की जैन धर्म के प्रति श्रद्धा का स्मरण हुआ । उन्होंने तत्काल पत्र भेजकर आचार्य भारमलजी को पुन: उदयपुर पधारने का विनम्र अनुरोध किया, यथा श्री एकलिंगजी श्री बाणनाथजी श्रीनाथजी स्वस्ति श्री साध भारमलजी तेरेपंथी साध श्री राणा भीमसिंघ री विनती मालूम है । क्रपा करै अठै पधारोगा। की दुष्ट वै दुष्टाणो कीदो जी सामुन्हीं देखेगा। मा सामु वा नगर में प्रजा है ज्यांरी दया कर जेज नहीं करेगा । वती काही लषु । ओर स्माचर स्हा स्वलाल का लष्या जाणेगा। संवत् १८७५ वर्षे आषाढ़ बीद तीज शुक्रे । इसके बाद भी आचार्य भारमलजी का उदयपुर आना न हुआ, तब वि० सं० १८७६ में पोष वदि ११ को महाराणा ने एक पत्र और लिखा।' दूसरे पत्र के बाद आचार्य भारमलजी तो उदयपुर नहीं आये किन्तु मुनि हेमराज व रामचन्द्र आदि तेरह साधुओं को उदयपुर भेजा। एक मास तक ये उदयपुर में ही रहे और इस अवधि में ग्यारह बार महाराणा भीमसिंह स्वयं चलकर इन साधुओं के पास आये और धर्मचर्चा का लाभ प्राप्त किया। महाराणा जवानसिंह एवं मुनि ज्ञानसारजी मुनि ज्ञानसार अपने समय के महान राजस्थानी कवि थे। खरतरगच्छ के आचार्य जिनलाभसूरि ने वि० सं० १८२६ में इन्हें दीक्षा दी। इनका दीक्षा के पूर्व का नाम नारायण था लेकिन दीक्षा के पश्चात् भी अपनी कविताओं में अपने आपको इसी नाम से सम्बोधित किया। कहा जाता है, एक बार आप उदयपुर पधारे, आपकी सिद्धियों एवं सद्गुणों की प्रसिद्धि सर्वत्र व्याप्त थी। जब राणा की कृपारहित राणी ने सुना तो वह भी प्रतिदिन श्रीमद् के चरणों में आकर निवेदन करने लगी कि गुरुदेव कोई ऐसा यन्त्र दीजिए, जिससे महाराणा की अप्रसन्नता दूर हो, श्रीमद् ने बहुत समझाया लेकिन राणी किसी तरह नहीं मानी और यन्त्र देने के लिये विशेष हठ करने लगी। तब एक कागज पर कुछ लिखकर दे दिया, राणी की श्रद्धा एवं मुनिजी की वचनसिद्धि से ऐसा संयोग बना कि महाराणा की राणी पर पूर्ववत् कृपा हो गई। जब यन्त्र वशीकरण की बात महाराणा तक पहुँची और उन्होंने पूछताछ की तो श्रीन ने कहा, 'राजन ! हमें इन सब कार्यों से क्या प्रयोजन ?' जाँच करने के लिये यन्त्र खोलकर देखा गया तो उसमें लिखा था कि 'राजा राणी सं राजी हवे तो नाराणो ने कई, राजा राणी सं रूसे तो नाराणो ने कई' इस पर राणाजी आपकी निस्पृहता और वचनसिद्धि से बड़े प्रभावित हुए एवं अनन्य भक्त हो गये। १. तेरापंथ का इतिहास, पृ० १५२. २. वही, पृ० १५४. ३. ज्ञानसार ग्रन्थावली, श्री अगरचन्द जी नाहटा, पृ० ६१. Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड महाराणा सज्जनसिंह, फतहसिंह, भूपालसिंह एवं केशरियाजी तीर्थ उदयपुर नगर के ४१ मील दूर दक्षिण की ओर प्रसिद्ध के श रियाजी जैन तीर्थ है जिसमें मूलनायक प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ एवं चारों और देवबुलिकाओ में चौबीस तीर्थकरों की प्रतिमाये प्रतिष्टित हैं। इस तीर्थ की महत्ता के सम्बन्ध में सदियों से कई जैनाचयों ने रचनाएं लिखी हैं । वि० सं० १७४४ में सडिरगच्छी मुनि श्री ज्ञानसुन्दर ने डिंगल भाषा में अत्यन्त प्रभावोत्पादक वर्णन किया है एवं बादशाहों के आक्रमण की ओर संकेत किया, वि० सं० १७८३-८४ में तपागच्छी साधु श्री सीहविजय ने 'केसरियाजी रो रास' की रचना की। इस तीर्थ की व्यवस्था एक अर्से से ओसवाल जाति के बापना गोत्री उदयपुर के नगर सेठ द्वारा की जाती थी। यह व्यवस्था वि० सं० १९३४ तक चली आई, इसी दौरान वहाँ के भण्डारियों द्वारा तीर्थ की सम्पत्ति का दुविनियोजन करने एवं गबन करने से महाराणा सज्जनसिंह ने १९-११-१८७७ को भण्डारियों को हटा तीर्थ की व्यवस्था हेतु अन्य पाँच ओसवाल साहूकारों की कमेटी नियुक्त की । इस समय से तीर्थ का सामान्य नियन्त्रण मेवाड़ के महाराणाओं का चला आया। इस दौरान जब भी कोई जैन मर्यादा का प्रश्न इस तीर्थ की व्यवस्था हेतु उत्पन्न होता तो जैनाचार्यों से निर्णय कराया जाता, तदनुसार व्यवस्था कराई जाती । संवत् १९६३ में मन्दिर की शुद्धि का प्रश्न पैदा हुआ तो तपागच्छ के मुख्य उदयपुर में स्थित श्री शीतलनाथजी के उपासरे (जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है) के मुनि प्रन्यास श्री नेमकुशलजी के पास निर्णय हेतु भेजा गया और मुनिश्री द्वारा दी गई व्यवस्थानुसर शुद्धि इन्हीं मुनिश्री से कराई गई। संवत् १९७६ में निवैद्य चढ़ाना प्रारम्भ कर दिया गया, इस पर उसी समय कार्तिक शुक्ला १० संवत् १९७६ को यह आशा दी गई कि जैन संघ एवं जैनाचार्य इसके विरुद्ध है, निवैद्य चढ़ाने का यह नवीन कार्य अवांछित है, अत: निवैद्य नहीं चढ़ाया जावे।' मेवाड़ के महाराणाओं की जैन धर्म के प्रति भक्ति एव श्रद्धा का प्रमाण मेवाड़ राज्य के गजट नोटिफिकेशन दिनांक १९ अप्रैल १९२६ से भी मिलता है जिसमे यह उल्लेख है कि पवित्र जैन तीर्थ केशरियाजी में महाराणा फतहसिंहजी ने साढ़े तीन लाख रुपयों की, सोना, हीरा, जवाहा रात की आंगी मूलनायकजी के चढ़ाई, इस कार्य में महाराणी द्वारा ५०००) रु० दिया गया। इस सम्बन्ध में महोत्सव किया जिसका व्यय तत्कालीन महाराजकुमार (श्री भूपालसिंहजी) ने वहन किया। महाराणा के इस कार्य के लिये श्री जैन संघ ने आभार प्रकट किया। महाराणा फतहसिंहजी एवं भूपालसिंहजी मुनि श्री चौथमलजी महाराज के प्रवचनों से काफी प्रभावित थे, भक्ति से प्रेरित हो उन्होंने प्रत्येक वर्ष पौष कृष्णा १० (पार्श्वनाथ भगवान के जन्म दिवस), चैत्र शुक्ला १३ (महावीर भगवान के जन्म दिवस) एवं जब चौथमलजी महाराज पधारे या विहार करें तब जीवहिंसा बन्द रखने (अगता पालने) की आज्ञा जारी की। परिणाम : साहित्यिक उपलब्धियां मेवाड़ के महाराणाओं द्वारा जैन धर्म के संरक्षण एवं श्रद्धा का यह परिणाम हुआ कि कई जैनाचार्यों ने मेवाड़ के राणाओं एवं वीरों की वीरता को काव्यबद्ध किया । हेमरत्नसूरि ने 'गोराबादल चरित्र' की रचना की एवं पद्मिनी की लोककथा को. काव्यबद्ध किया । जयसिंहसूरि ने दिल्ली के सुल्तान की नागदा (नागद्रह) की लड़ाई, जो राजा जैसिंह के समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में हुई, इस विषय में हमीर मद मर्दन' पुस्तक लिखी। वि० सं० १३०६ में लिखित पुस्तक 'पाक्षिकवृत्ति' में राजा जयसिंह (जैत्रसिंह) को दक्षिण एवं उत्तर के राजाओं का मान मर्दन करने वाला महाराजाधिराज कहा गया है। सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के छोटे भाई उलगखां की चित्तौड़ में वि० सं० १३५६ में राजा समरसिंह के साथ की लड़ाई का वर्णन श्री जिनप्रभसूरि ने अपने तीर्थकल्प' में करते हुए लिखा है कि मेवाड़ के स्वामी समरसिंह ने उसे दण्ड देकर मेवाड़ की रक्षा की। वि० सं० १३३० में चैत्रगच्छ के आचार्य १. १९७३ वीकली लॉ रिपोर्टस, पृ० १००८ (१०१४) उच्चतम न्यायालय का निर्णय, पेरा ११. Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म ३५ ..................................................-.-.-.-.-.-.-.-.-. -.-.. रत्नप्रभसूरि ने चीरवा ग्राम के मन्दिर की ५१ श्लोकों को प्रशस्ति की रचना की जिसमें राजा जैत्रसिंह, रतनसिंह, समरसिंह के उल्लेखनीय कार्यों का उल्लेख किया। चरित्ररत्नगणि ने वि० सं० १४६५ में चित्रकूट प्रशस्ति' की रचना की । इस पुस्तक में मेवाड़ के राजवंश का एवं राणा कुम्भा का सुन्दर वर्णन मिलता है। विजयगच्छ के यति मान ने 'राजविलास' काव्य वि० सं० १७३३ में लिवा जिसमें राणा राजसिंह प्रथम का जीवन एवं इतिहास वणित है । तपागच्छ के हेमविजय ने मेदपाट देशाधिपति प्रशस्ति-वर्णन विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी में लिखा। शत्रुजय तीर्थोद्वार प्रबन्ध' में राणा सांगा के लिये अपने बाहुबल से समुद्र पर्यन्त पृथ्वी जीतने वाला लिखा है, और यह बताया है कि लोग उसे चक्रवर्ती मानते थे। उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि मेवाड़ में राज्यमान्यतानुसार जैन धर्म के सब ही समुदाय, गच्छ एवं शाबाओं की मान्यता रही है। xxxxxxxx xxxxxx यत्राऽहिंसा महादेव्याश-छत्रच्छाया विराजते । साम्राज्यं तत्र धर्मस्य, ध्रुवमित्यवधर्याताम् ॥ -वर्द्धमान शिक्षा सप्तशती (श्री चन्दन मुनि विरचित) जहाँ अहिंसादेवी की छत्रछाया विलसित है, वहीं धर्म का साम्राज्य व्याप्त है, इसे निश्चित माने। XXXXXX xxxxxxxx Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 00000 0 00000000000000000000000000000.0.00.0.0.. नयचन्द्रसूरिकृत-हम्मीर महाकाव्य और सैन्य-व्यवस्था D डॉ. गोपीनाथ शर्मा, (भूतपूर्व) प्रोफेसर, इतिहास, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर] हम्मीर महाकाव्य की रचना नयचन्द्रसूरि ने चौदहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण के आस-पास की थी। इस काव्य में पृथ्वीराज तथा हम्मीर के रणकौशल का परिचय मिलता है। वैसे तो कवि इन दोनों महावीरों का समकालीन नहीं है, परन्तु घटनाओं के अध्ययन से स्पष्ट है कि कवि ने लोकवार्ताओं और संस्मृतियों के आधार पर घटनाओं को लेखबद्ध किया था । इसके अतिरिक्त कवि के समय तथा हम्मीर के समय में कोई विशेष अन्तर नहीं रह जाता है, जबकि ऐतिहासिक विषयों से प्रेम रखने वाला लेखक इनके बारे में अपने बाल्यकाल से उन्हें समकालीन व्यक्तियों से, जो उस समय तक रहे हों, सुनता रहा हो । जिन घटनाओं का उल्लेख हमारा लेखक करता है उनका वर्णन फारसी तवारीखों में में भी मूल रूप से मिलता है जिससे कवि-वणित सैन्य व्यवस्था में सन्देह के लिए स्थान अधिक नहीं रहता। इस काव्य के तीसरे सर्ग में लगभग १०० पद्यों में पृथ्वीराज का वर्णन दिया गया है जिनमें पृथ्वीराज के चरित्र एवं उसके शहाबुद्दीन गौरी के साथ किये गये युद्ध का विवरण दिया गया है। प्रथम तराइन के युद्ध ११६०-११६१ ई० से स्पष्ट है कि राजपूत युद्ध प्रणाली में सम्पूर्ण दल से शत्रुओं पर एक साथ आक्रमण करना होता था। यदि यह आक्रमण शन को तत्क्षण विथकित कर देता तो राजपूतों की विजय हो जाती थी। इस युद्ध में पृथ्वीराज की सम्पूर्ण सेना का दबाव इतना प्रबल था कि शत्रुओं के पाँव उखड़ गये। इस गतिविधि का फारसी तवारीखों में भी उल्लेख मिलता है। संभवत: इस प्रणाली से गौरी अवगत नहीं था । यही कारण था कि उसे युद्धस्थल से भागना पड़ा। परन्तु इसी युद्धशैली के साथ नय चन्द्र हमें इस व्यवस्था के दोष की ओर भी संकेत करता है। वह यह है कि पृथ्वीराज ने इस विजय के बाद कभी आस-पास के प्रदेशों में मोर्चाबन्दी का कोई प्रबन्ध नहीं किया। इसी प्रकार उसने इन निकटवर्ती प्रदेशों के निवासियों से राजनीतिक सम्बन्ध भी स्थापित नहीं किये । इसका फल यह हुआ कि जब शहाबुद्दीन गौरी दुबारा भारतवर्ष में आया तो वह खर्पर, लंगार, भिल्ल आदि अर्द्धसभ्य जातियों को अपनी ओर मिलाने में सफल हआ। इन जातियों के प्रदेश की रसद और उनका सहयोग विदेशी शत्रु की विजय के कारण बने । नय चन्द्र ने इस परिस्थिति को राजपूत पराजय का कारण माना है। दूसरे तराइन के युद्ध में ११९१ ई० गौरी अपनी पूरी शक्ति एक साथ प्रयोग में नहीं लाता, जबकि पृथ्वीराज १. हम्मीर महाकाव्य, एक पर्यालोचन, पृ० २८. २. फरिश्ता के अनुसार उसकी सेना में दो लाख अश्वारोही एवं तीस हजार हाथी थे।-भा० १, पृ. ५ व ७ । इस संख्या में हमें सन्देह है। ३. तबकात-ए-नासिरी, पृ० ४६०,४६३, ४६४. ४. हम्मीर महाकाव्य, सर्ग ३, श्लोक १८-४६. Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयचन्द्रसूरिकृत - हम्मीर महाकाव्य और सैन्य व्यवस्था DISC भाग० २, पृ० २००. २. हम्मीर महाकाव्य, सर्ग ३, श्लोक ५१-६४. IIIIIIIII अपने सम्पूर्ण सम्ययल का उपयोग करता है। विदेशी सैनिक बारी-बारी से युद्ध में उतरते हैं, भागते हैं और पुनः मुड़कर शत्रुओं पर टूट पड़ते हैं। राजपूत सैनिक एक ही दौड़ में अपनी परम्परा के अनुसार, शत्रु को विथकित करना चाहते हैं, जैसा कि उन्होने प्रथम युद्ध के समय किया था। परन्तु इस बार उन्हें सफलता नहीं मिली । नयचन्द्रसूरि यह भी संकेत देता है कि राजपूत विशेषतः पाति-पद्धति से परिचित थे, उनका अश्वारोहियों का जत्था २ प्रदर्शन मात्र के लिए था इसीलिए लेखक लिखता है कि पृथ्वीराज जब नट नामक अश्व पर बड़ा तो बजाय द्रुतगति से आगे बढ़ने के वह नाचने लगा। इसी स्थिति में शत्रु दल के किसी सैनिक ने पृथ्वीराज के गले में धनुष की प्रत्यंचा डाली, जिससे उसे नीचे उतरने को बाध्य होना पड़ा। यहाँ अश्वदल के बल और व्यवस्था में राजपूतों का विश्वास नहीं होना स्पष्ट है । शत्रुओं के धनुष भी लेखक अधिक सधे हुए मानता है और संकेत करता है कि द्वितीय तराइन के युद्ध में राजपूत पदाति तथा भारी धनुषों के बल में विश्वास रखते रहे। लेखक की दृष्टि में शत्रुपक्ष की अश्वदल एवं उसके छोटे धनुष और उनका द्रुतगामी वार युद्ध के निर्णायक बने । ३. हम्मीर महाकाव्य, सर्ग ६, श्लोक ६१-१२५. ४. वहीं, सर्ग १, श्लोक १२६-५०, ५. वही, सर्ग १०, श्लोक २६-६६. ६. वही, सर्ग ११, श्लोक १- २४, २५ -६६. ७. वही, श्लोक ७०-१०३. ८. वही, सर्ग १३, श्लोक १-३८. नयचन्द्रसूरि इसी प्रकार अपने काव्य के नवम् सर्ग में हम्मीर के समय अलाउद्दीन के सेनानायक उलूगखाँ के रणथम्भौर के आक्रमण का वर्णन देता है। इस आक्रमण के समय राजपूत सेना, जिसका नेतृत्व हम्मीर का सेनानायक भीमसिंह कर रहा था, शत्रु दल पर टूट पड़ती है। सेना का एक साथ दबाव इतना प्रबल था कि शत्रु सेना भाग जाती है। प्रथम तराइन की भांति यहां राजपूत उसी सैन्य प्रणाली से विजयी होते हैं परन्तु इसको पूर्ण पराजय नहीं मानते। विजय के उल्लास में लौटती हुई फौज पर उलूगखाँ प्रत्याक्रमण करता है, जिसके फलस्वरूप भीमसिंह मारा जाता है और उसकी बाकी बची हुई फौज पुनः किले की शरण लेती है। विजयी शत्रुदल का नायक दिल्ली लौट जाता है । इस आक्रमण के वर्णन में भी लेखक उसी राजपूत गतिविधि का वर्णन करता है जिसे पृथ्वीराज ने अपनाया था। लेखक की दृष्टि में भीमसिंह की यही भूल पराजय का कारण थी। फारसी तवारीखों के वर्णन तथा हम्मीर महाकाव्य के वर्णन यहाँ लगभग एक से हैं। ४१ " दसवेंस में हिन्दूवार के युद्ध का वर्णन है जिसमें चारों ओर से चौहान सेना ने उलूगा पर आक्रमण कर दिया। इस बार चौहान विजयी रहे, क्योंकि इनके हमले का दवाब शक्तिसम्पन्न था। परन्तु ग्यारहवें सर्ग के आक्रमण की कहानी पुनः वही है जब अलाउद्दीन ने भेद नीति को अपनाया था। राजपूतों ने अपनी परम्परा के अनुसार दुर्ग के संरक्षा की व्यवस्था की। कई दिनों की रसद, पानी तथा शस्त्रों को दुर्ग में एकत्रित किया गया ।" बारहवें तथा तेरहवें सर्ग में हम्मीर और अलाउद्दीन के दो दिन के संग्राम का वर्णन है। इससे प्रतीत होता है कि राजपूत शत्रुओं के द्वारा अपनाई गई गतिविधि को कुण्ठित करने में क्षमता रखते थे । जहाँ मिट्टी, पत्थर तथा लकड़ी के टुकड़ों एवं पूलियों से दुर्ग की खाइयों को भर कर शत्रु दुर्ग पर चढ़ने की वार से तथा अग्नि के प्रयोग से उनकी व्यवस्था को नष्ट भी कर देते थे। +++ १. सब-नागिरी भाग १ ० ४६४ तारीख-ए-फरिश्ता, भाग १ ० १७५ जमीन हिदायत १० डा० ; 1 व्यवस्था करते थे, वहाँ चोहान शस्त्रों के राजपूतों की इस प्रकार अपनाई गई विधि -O . Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड . - . - . -. -. - . -. -. -. -. -. झालोर' तथा चित्तौड़ के आक्रमण के समय भी दिखाई देती है। हमारा लेखक हमें सूचित करता है कि जब शत्रुओं ने खाइयों को लकड़ी व घास से पाटने का प्रयत्न किया तो हम्मीर के सैनिकों ने अग्नि के गोलों से खाई की लकड़ी आदि को भस्म कर दिया और सुरंगों में लाख से मिला हुआ उबलता तेल डालकर शत्रु सेना को भस्मसात् कर दिया । इसी सर्ग के अन्तिम भाग में कवि ने पराजय के समय अपनाये जाने वाले प्रयोगों का भी वर्णन किया है । जब किसी प्रकार दुर्ग की रक्षा किया जाना सम्भव प्रतीत नहीं हुआ तो हम्मीर ने अपना दरबार लगाया, नाच-गान की व्यवस्था की और सभी अन्तिम बलिदान के लिए कटिबद्ध हो गये। यहाँ दरबार के लगने तथा रंभा के नृत्य के आयोजन के वर्णन में लेखक राजपूत-मनोवृत्ति का समुचित चित्रण करता है। ऐसे अवसर पर बलिदान के संकल्प की तुलना में सांसारिक सुखों को कोई स्थान राजपूत सैन्य व्यवस्था में नहीं है। आभूषण, द्रव्य, अन्न आदि के भण्डारों को सहर्ष नष्ट करने में एक राजपूत नहीं हिचकता । यहाँ तक कि हाथियों के मस्तक भी काट दिये जाते हैं जिससे शत्रु के हाथ कुछ न पड़े। इस अवसर पर रानियाँ तथा राजकुमारियां चिता में प्रवेश कर 'जौहर' व्रत का पालन करती हैं और बचे हुए रणवीर दुर्ग के फाटक खोलकर युद्ध में उतर जाते हैं। जौहर की भीषण ज्वाला के माथ युद्ध की प्रगति भयंकर रूप धारण करती है और एक-एक सैनिक युद्ध में नष्ट होकर अपने जीवन को सफल बनाता है। इस युद्ध-कौशल के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि नयचन्द्र सूरि अपने समय तक प्रचलित युद्ध पद्धति से भली-भांति परिचित था । सम्भवत: चौहान ह्रास के साथ यह पद्धति आगे चलकर नया मोड़ लेती है। दुर्ग की रक्षा में सर्वनाश की स्थिति में मर-मिटने की परम्परा यहाँ से आगे चलकर समाप्त होती है, जिससे हमारा कवि परिचित नहीं था। राजपूतों का आगे का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि दो विभिन्न मोचों को बनाकर युद्धस्थल से बचकर निकलने तथा शत्रु दल को छकाने की व्यवस्था इस बलिदान से बाद राजपूत सीख चुके थे। कामरान के साथ होने वाले जैतसी का युद्ध तथा हल्दीघाटी में लड़े जाने वाले युद्ध में राणा प्रताप का बचकर निकलना एवं युद्ध की प्रगति को बनाये रखना और युद्ध काल को लम्बा कर विजयी होने की युक्ति निकालना इस परम्परागत युद्ध-शैली को छोड़ना सिद्ध करती है । मुगलों के साथ होने वाले आगे के युद्ध इस स्थिति को अधिक स्पष्ट कर देते हैं। औरंगजेब के समय सीसोदिया-राठौड़ संघ के १६८०-१६८१ ई. आक्रमण और प्रत्याक्रमण की कहानियां भी नई युद्ध शैली की गति-विधि के अच्छे प्रमाण हैं। १. कान्हड़दे प्रबन्ध, प्र० ४, प० ४५. २. अमरकाव्य वंशावली, पत्र ३८ क. ३. हम्मीर महाकाव्य सर्ग १३, श्लोक ३६-४७. ४. वही, सर्ग १३, श्लोक १-३८. ५. हम्मीरकाव्य, सर्ग १३, श्लोक १६८-१८६ ; हम्मीरायण, पृ० १३१; फतूहात, २६७ ; केम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, भाग ३, पृ० ५१७ ; हरविलास, हम्मीर, पृ० ४४ ; लाल-हिस्ट्री ऑफ खिलजीज, पृ० ६३-६४. ६, राव जैतसी रो छन्द. ७. अमरकाव्य वंशावली, पत्र ४४ ; अकबरनामा, भा० ३, पृ० १६६. ८. मासिर-ए-आलमगीरी, पृ० १६५-६६ ; राजविलास, सर्ग ११-१४. Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोडवाड़ का अधिकांश भाग जैन धर्म का केन्द्र रहा है। नाडोल माडलाई, बरकाना, सादड़ी, राणकपुर, प्रतिहारों के अधीन था। चौहानों ने कालान्तर में दुडिया राठौड़ों के वि० सं० बाली, हठंडी सेवाडी, सांडेराव आदि के प्राचीन मन्दिर बड़े प्रसिद्ध हैं। यह क्षेत्र प्रारम्भ में सम्भवतः इनके कमजोर हो जाने पर राठौड़ों और पौहानों ने अपने राज्य स्थापित किये अपनी शक्ति का काफी विस्तार किया और राठौड़ों को उनके आधीन रहकर रहना पड़ा। १२७४ और वि० १२१८ के लेख सिरोही क्षेत्र में अवश्य मिले हैं, किन्तु वे भी परमारों गोडवाड़ पर कालान्तर में वि० सं० १४३० के आसपास मेवाड़ के महाराणा लाखा का राज्य वहाँ बराबर बना रहा और वि० सं० १८३२ (१७७५ ई०) के आसपास यह भाग राजस्थान के बनने तक यह भाग फिर मारवाड़ में ही रहा । के सामन्तों के रूप में हैं। अधिकार हो गया जिनका मारवाड़ का भाग बना । गोड़वाड़ के जैन शिलालेख श्री रामवल्लभ सोमानी कानूनगो भवन, कल्याणजी का रास्ता, जयपुर (राज० ) राता महावीर (हडी) ठंडी और राता महावीर के लेख इस क्षेत्र में बड़े प्रसिद्ध हैं। हण्डी का बालाप्रसाद का वि० सं० १०५३ (१६७ ई०) के लेख में स्थानीय राठौड़ शासकों की वंशावली दी है और कई महत्वपूर्ण सूचनाएँ राठौड़ धवल के सम्बन्ध में हैं यथा मेवाड़ के शासक को मुंज द्वारा हारने पर शरण देना, चौहान महेन्द्र को गुजरात के शासक दुर्लभराज के आक्रमण कर देने पर सहायता देना, आबू के धरणीवराह को मूलराज चालुक्य के आक्रमण कर देने पर उचित सहायता देना आदि आदि । इस शिलालेख में कुछ साधुओं ( बलभद्राचार्य, वासुदेव शांतिभद्राचार्य आदि) का उल्लेख है। इसी शिला पर अन्य प्राचीन लेखों वि० सं० १७३ (२१६ ए०डी०) एवं १२६ (२३९ ई०) को भी उद्धृत किया गया है । सम्भवतः इस प्राचीन शिलालेख को इसलिए पुनः वि० सं० १०५३ के लेख के साथ खोदा गया हो कि इसमें वर्णित दान को बालाप्रसाद ने भी लागू किया था । इस मन्दिर में मूल रूप से ऋषभदेव की प्रतिमा रही होगी जैसा कि उक्त लेख से ज्ञात होता है या इस १. (अ) एपिचि इण्डिया, भाग १० पृ० १० १६. (ब) मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादितः प्राचीन जैन लेख संग्रह ले० सं० २१८. २. (अ) लेखक द्वारा लिखित हिस्ट्री ऑफ मेवाड़, पृ० ५७ (ब) ए० के० मजूमदार - चालुक्याज ऑफ गुजरात, पृ० २८ ; (स) प्रतिपाल भाटिया दी परमा, पृ० ४०-४. - .0 . Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड . .. ................................................................. लेख में वणित मन्दिर राता महावीर मन्दिर से भिन्न रहा होगा। महावीर' मन्दिर में वि० सं० १३३५, १३३६, १३४५ एवं १३४६ के और शिलालेख हैं। ये दान सम्बन्धी लेख हैं। वि० सं० १३४५ वाले लेख में हठुडी ग्राम शब्द भी है। राता महावीर नाम भी इन लेखों में आता है । सेवाडी सेवाडी जिसे समीपाटी भी कहते हैं पूर्व मध्यकाल में अत्यन्त प्रसिद्ध रहा है । इनमें वि० सं० ११६७, ११७२ एवं १२०० के लेख चौहान कटुकराज से सम्बन्धित हैं। वि० सं० ११६७ का लेख बाबन जिनालय में है जो बाजार के बीच में है। इस लेख में प्रदाडा, मेंदाचा, छेडिया ग्रामों के निवासियों द्वारा महाशासनिक पूववी के वंशज उपलराज के कहने पर दिया । वि० सं० ११७२ का लेख अत्यन्त प्रसिद्ध है। यह शांतिनाथ मन्दिर की भींत पर है। इसमे वषोदेव बलाधिप का उल्लेख है जिसे राजसभा और महाजन सभा का सम्मान प्राप्त था। इसके पौत्र थल्लक को युवराज का जन मन्दिर की पूजा के निमित शिवरात्रि से दिन ८द्रम्म दान में दिये थे। ये दोनों लेख युवराज कटुकराज के शासनकाल के हैं। यह अश्वराज का पुत्र था। अश्वराज के बाद रत्नपाल शासक हुआ जिसका पुत्र रायपाल वि० सं० ११८६ से १२०२ तक शासक रहा था। सम्भवतः ११९८ से १२०० तक अश्वराज का पुत्र कटुकराज पुन: शासक हो गया था। इसका एक शिलालेख सिंह संवत् ३१ का भी मिलता है। सेवाडी से एक अन्य५ लेख वि० सं० १२१३ का और मिला है इसमें पार्श्वनाथ मन्दिर के नेचा के लिए दान देने की व्यवस्था है। नाडोल चौहान लक्ष्मण ने इसे राजधानी बनाया था। यहाँ का श्रेष्ठी शुभंकर बड़ा प्रसिद्ध हुआ है। इमने 'अमारि घोषणा' कई शासकों से करवाई थी। इससे सम्बन्धित २ लेख वि० सं० १२०६ के रत्नपुर एवं किराडू से मिले हैं । दोनों में अन्त में लिखा है कि उक्त अमारि की घोषणा उक्त श्रेष्ठि परिवार के कहने पर की गई थी। वि०सं० १२१८ के आल्हण एवं इसी संवत् के राजकुमार कीर्तिपाल के दानपात्र भी बड़े प्रसिद्ध हैं। आल्हण के मंत्री, जैन सुकर्मा की प्रार्थना पर उसने संडेरकगच्छ के महावीर देवालय के निमित्त ५ द्रम्म दान में दिये। वि० सं० १२१८ का कीर्तिपाल का दानपत्र है जो नाडलाई के मन्दिर के लिए उसको दिये गये १२ ग्रामों में से प्रत्येक से २ द्रम्म देने की व्यवस्था का हैं। शिलालेखों एवं साहित्यिक सन्दर्भो से यहाँ कई प्रतिष्ठायें होने का उल्लेख मिलता है। वि० सं० ११८१ में संडेरकगच्छ के शालिभद्रसुरि द्वारा, बहदगच्छीय देवसूरि के शिष्य पद्मवन्द्रगणि द्वारा १२१५ में, संडेरकगच्छीय सुमतिसूरि द्वारा वि०सं० १२३७ में तपागच्छीय विजयदेव सूरि द्वारा १६८६ में प्रतिष्ठायें होने का उल्लेख मिलता है। वि० सं० १२१५ के शिलालेख में 'बीसाडा स्थाने महावीर चैत्ये' शब्द हैं। ये मूत्तियां आज नाडोल में हैं, सम्भवतः ये कहीं अन्यत्र से लाई गई हैं। १. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख संग्रह, नं० ३१८ १६, २०. २. वही, सं० ३२५ :, एपिग्राफिया इण्डिया भाग XI, पृ० २६. ३. वही, सं० ३२३, पृ० ३१. ४. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख संग्रह, सं० ३२६. ५. उक्त, सं० ३२७. ६. एपिग्राफिआ इण्डिया, भाग ११, पृ० ४३, ४६ ; मुनि जिनविजय, सं० ३४५, ३४४. ७. नाहर-I, सं० ८३६ ; एपिग्राफिआ इण्डिया, भाग ६ में प्रकाशित. Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोड़वाड़ के जैन शिलालेख ४५ - . -. -. - . -. -. -. -. -. -. नाडलाई ___ नाडलाई में कई प्राचीन मन्दिर हैं । ऐसी मान्यता है कि संडेरकगच्छ ने यशोभद्रसूरि यहाँ १०वीं शताब्दी में पधारे थे तब से यह क्षेत्र संडेरकगच्छ का बड़ा केन्द्र रहा है। यहाँ के आदिनाथ मन्दिर में वि० सं० ११८६, ११६५, १२००, १२०२ के महाराजा रायपाल के राज्य के लेख हैं। वि० सं० १२०० का एक अन्य लेख इसी ग्राम के एक अन्य मन्दिर से इसी राजा का और मिला है। इन लेखों में उसने गुजरात के चालुक्य राजा को अपना स्वामी होने का उल्लेख नहीं किया जो विशेष उल्लेखनीय है । वि० सं ११८६ के लेख में रामपाल की राणी मीनलदेवी और उसके पुत्रों द्वारा दान देने का उल्लेख है। वि० सं० ११९४ का लेख काफी लम्बा है। इसमें गुहिलोत ठाकुर उद्धरण के पुत्र राजदेव द्वारा अपनी स्थानीय आय, जो बणजारों से प्राप्त होती थी, में से आधा भाग जैन मन्दिर के लिये दिया । वि० सं० १२०० के लेख में रथयात्रा की व्यवस्था के लिये दान देने की व्यवस्था है । इसी तिथि के अन्य लेख में महावीर मन्दिर की पूजा के निमित्त समस्त महाजनों द्वारा दान देने की व्यवस्था है । वि० सं० १२०२ का लेख वणजारों द्वारा अलग से दान की व्यवस्था का है। इसमें देशी एवं बाहर के आये दोनों प्रकार के बणजारों का उल्लेख है (अभिनव पुरीय बदार्या अत्रत्यषु समस्तबणजारकेषु देशी मिलित्वा) । वि० सं० १२१५ का लेख मेडलोक प्रतापसिंह से सम्बन्धित है । यह स्थानीय शासक था। इसने नाडलाई के जैन मन्दिर के लिये दान दिया। इस लेख में विशेष रुचिकर बात यह है कि यह दान समस्त महाजन, ब्राह्मण एवं भट्टारकों की सहमति से बदार्या की मंडपिका से दिया गया था (बदार्या मंडपिका मध्यात् समस्त महाजन भट्टारक ब्राह्मगादय प्रमुखं प्रदत्त)। ब्राह्मण एवं भट्टारक जो सम्भवतः शैव मन्दिरों के आचार्य थे द्वारा भी इस प्रकार के दान में सहमति देना उल्लेखनीय था। पुरातन प्रबन्ध संग्रह में रावलाषण से सम्बन्धित प्रबन्ध में इसकी वश्यकुल की पत्नी द्वारा उत्पन्न पुत्र को भण्डारी गोत्र दिया गया था। वि० सं० १५५७ एवं १६७४ के नाडलाई के मन्दिरों के लेखों में भण्डारी सामर के परिवार का विस्तार से उल्लेख है। वि० सं० १५५७ का लेख मेवाड़ के इतिहास में उल्लेखनीय है । यह पहला लेख है जिसमें महाराजकुमार पृथ्वीराज (रायमल के पुत्र) के गोडवाड पर शासन करने का उल्लेख किया गया है । इसी लेख में 'श्री उकेशवंशे राय भंडारी गोत्रे राउल लाषण पुत्र भं० दुदु वंशे' शब्द होने से पुरातन प्रबन्ध संग्रह की उक्त बात की पुष्टि होती है । इस लेख में मन्दिर में देववुलिका बनाने का उल्लेख है । दूसरा लेख वि० सं० १६७४ (१६१८ ए.डी.) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । जहाँगीर के शासनकाल में यह क्षेत्र गजनीखाँ जालोरी के आधीन थोड़े समय तक रहा था जिसने राणकपुर सहित सब मन्दिरों में तोड़-फोड़ की थी। १६१५ ई० में सन्धि हो जाने के बाद जब मन्दिरों का जीर्णोद्धार कार्य प्रारम्भ किया तब सबसे पहले नाडलाई’ का जीर्णोद्धार पूरा होकर वि० सं० १६७४ (१६१८ ई०) में तपागच्छ के विजयदेव सूरि से प्रतिष्ठा कराई गई थी। यहाँ के अन्य मन्दिर का जीर्णोद्धार वि० सं० १६८६ में किया गया। राणकपुर का जीर्णोद्वार १६२१ ई० में पूर्ण हुआ था। १. श्मशान के पास एक प्राचीन स्तूप पर 'सूरि यशोभद्राचार्यादि' शब्द है (जैन तीर्थसर्व संग्रह, भाग १, खण्ड II, पृ० २२३. २. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख, सं० ३३१, ३३२, ३३, ३४. ३. दशरथ शर्मा-अरली चौहान डाडनेस्टीज, पृ० १३१. ४. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख सं० ३३२. ५. गुजरातना ऐतिहासिक लेखा III सं० १४८. ६. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित : प्राचीन जैन लेख संग्रह २३७ एवं ३४१. ७. वही, सं० ३४१. ८. जैन सर्वतीर्थ संग्रह, भाग I, खण्ड II पृ० २२४. Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड 2+3+0 "यहीं के ऋषभदेव के मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है कि इसे यशोभद्रसूरि मन्त्रशक्ति से वल्लभी' लाये थे । लावण्यसमय ने अपनी तीर्थमाला में 'वत्सभी पुरी थी आणियो ऋषभदेव प्रसाद' वर्णित किया है। ये सब प्रसंग भक्तों की श्रद्धा को प्रदर्शित करते हैं । सांडेराव सांडेराव में चौहान कालीन २ जैन लेख सं १२२१ एवं १२३६ के मिले हैं। ये दोनों लेख महावीर मन्दिर में हैं वि० सं० १२२१ का लेख महत्त्वपूर्ण है। इसमें महावीर के जन्म के कल्याणक पर्व के निमित्त महाराणी आनलदेवी राष्ट्रकूट पालू केल्हण आदि द्वारा दान देने की व्यवस्था है। स्मरण रहे कि आज भी भगवान महावीर का जन्मदिवस 'महावीर जयंति रूप में मानते हैं। वि० सं० १२३६ के लेख में केल्हण की राणी उसके दो भाई राहा और पाल्हा द्वारा पार्श्वनाथ मन्दिर के लिये दान देने का उल्लेख है । ऐसा प्रतीत होता है कि वि० सं० १२२१ का लेख जो सभा मण्डप में लगा रहा है या तो किसी अन्य मन्दिर का होगा या वि० सं० १२२१ के बाद मूलनायक प्रतिमा अन्य विराजमान कराई गई हो। इस सम्बन्ध में मूलनायक प्रतिमा के बदलने की बात ठीक लगती है। सुल्तान मोहम्मद गोरी के नाडोल पर आक्रमण वि० सं० १२३४ में करने की पुष्टि पृथ्वीराज विजय आदि ग्रन्थों से होती है। अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि मन्दिर की मूलनायक प्रतिमा भंग करने पर अन्य मूर्ति बिराजमान कराई गई हो । घाणेराव घाणेराव मुछाता महावीर मन्दिर के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध है। यहां के कई प्राचीन शिलालेख मिले हैं किन्तु वे अभी सम्पादित नहीं हुए हैं। एक लेख हाल ही में 'वरदा' में श्री रत्नचंद्र अग्रवाल ने सम्पादित किया है इसमें मन्दिर में 'नेचा' की व्यवस्था का उल्लेख है । मुछाला महावीर के सम्बन्ध में कई किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं । राणकपुर - राणकपुर का अन्य जैन मन्दिर बहुत उल्लेखनीय है। इस मन्दिर का निर्माण श्रेष्ठी धरणाशाह द्वारा कराया गया था वि० सं० १४९६ का प्रसिद्ध शिलालेख इस मन्दिर में लगा हुआ है । सोम सौभाग्य काव्य में इस मन्दिर की प्रतिष्ठा का विस्तार से उल्लेख है । महाकवि हेम ने राणकपुर स्तवन नामक पद्य में, जो वि० सं० १४९६ में विरचित किया था, इस मन्दिर का विस्तार से उल्लेख है। मेवाड़ के इतिहास के अध्ययन के लिए रामपुर के वि० सं० १४६६ के शिलालेख का बहुत उल्लेख करते हैं। इसमें दी गई वंशावली अपेक्षाकृत अधिक विश्वसनीय है। महाराणा कुंभा के सम्बन्ध में दी गई सूचनायें एवं मिस्दावली विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें कुंभा द्वारा सारंगपुर, नागोर गागरोन, नरायणा, अजमेर, मंडोर, माण्डलगढ़, बूंदी, खाटू ( श्यामजी), चाटसू, जाता दुर्ग जीतने का उल्लेख है । महाराणा कुंभा की आज्ञा से धरणाशाह ने मन्दिर बनाया था। इसके परिवार द्वारा सालेरा, पिंडवाडा और अजारी के जैन मन्दिरों के जीर्णोद्धार कराने का भी उल्लेख मिलता है । इस मन्दिर में लगे लेखों के अनुसार निर्माण कार्य वि० सं० १५१५ तक चलता रहा। मेघनाद मंडप अहमदाबाद उस्मानपुर निवासी एक जैन परिवार ने बनाया था जिसने १६२१ ई० में इसका जीर्णोद्धार भी कराया था । बरकांणा बरकाणा के मन्दिरों में २ अप्रकाशित शिलालेख हैं। एक लेख महाराणा जगतसिंह एवं दूसरा लेख महाराणा जगतसिंह 11 के राज्य के हैं। दोनों लेख प्रकाशित है। मैं इन्हें शीघ्र ही सम्पादित कर रहा है। इन लेखों में यहां होने वाले मेले के अवसर पर छूट देने का उल्लेख है। इनके अतिरिक्त नाणा बेड़ा, जाकोडा, कोरंटा, लालराई, खींवाणदी, सेंसली, बाली, खोमेल, खुडाला आदि से भी प्राचीन जैन लेख मिले हैं। १. इस सम्बन्ध में एक शेव योगी और यशोभद्रसूरि के मध्य वाद-विवाद होने और दोनों द्वारा मन्दिर जाने की कथा प्रचलित है। २. मुनि जिनविजय द्वारा सम्पादित प्राचीन जैन लेख संग्रह । : . Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागौर के जैन मन्दिर और दादावाड़ी श्री भंवरलाल नाहटा [द्वारा : अभय जैन ग्रन्थालय, नाहटों की गवाड़, बीकानेर (राज.)] राजस्थान के ऐतिहासिक और प्राचीनतम नगरों में नागौर शहर का भी प्रमुख स्थान है। संस्कृत ग्रन्थों में एवं अभिलेखों में व्यवहृत 'अहिपुर' और 'नागपुर' शब्द इसी के पर्याय हैं। इस परगने के खींवसर, कडलू (कुटिलकूप), डेह, रुण, कुचेरा (कूर्चपुर), भदाणा, सूरपुरा, ओप्तरां आदि संख्याबद्ध ग्रामों का इतिहास अनेकों वीर, मिष्ठ और साधुजनों की ज्ञात-अज्ञात कीति-गाथाओं से संपृक्त है। प्राचीनकाल में इस परगने को 'सपादलक्ष' या 'सवालक' देश के नाम से पुकारा जाता था । यहाँ की राज्यसत्ता कई बार मुस्लिम शासकों के हाथों में आई और परिणामत: नाना प्रकार के पट परिवर्तन हुए। कभी यह राज्य अपने पड़ोसी बीकानेर, जोधपुर राज्यों के साथ युद्धरत रहा और कभी मित्र रहा । कभी इसकी स्वतन्त्र सत्ता भी रही और चिरकाल तक जोधपुर राज्यान्तर्गत भी । अत: तोड़-फोड़ और नवनिर्माण के अनेक झौंके महते हुए इस नगर के अपनी प्राचीन स्थापत्यकला व पुरातत्त्व सामग्री को विशृंखल कर डाला। यही कारण है कि नागौर का कोई देवालय १५वीं शती से प्राचीन नहीं पाया जाता। जनरल कनिंघम ने लिखा है कि बादशाह औरंगजेब ने जितने मन्दिर यहाँ तो उससे भी अधिक मस्जिदें राजा वसिह ने तोड़ी । यही कारण है कि यहाँ कई फारसी लेख शहरसनाह की चुनाई में उल्टे-सुल्टे लगे हुए आज भी विद्यमान हैं। गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरखा ने अपने भाई शम्सखाँ को नागौर की जागीर दी थी, जिसने यहाँ अपने नाम से शम्स मस्जिद और तालाब बनवाये तथा उसके पुत्र फिरोजखां ने नागौर का स्वामी होकर एक बड़ी मस्जिद का निर्माण करवाया जिसको महाराणा कुम्भा ने नागौर विजय करते समय नष्ट कर डाला था। नागौर में बहुत से हिन्दू और जैन मन्दिर हैं। हिन्दु मन्दिरों में वरमाया योगिनी का मन्दिर प्राचीन है, जिसके स्तम्भों पर सुन्दर खुदाई का कार्य है। सं० १६१८ और इसके सं०१६५६ के दो लेख बच पाये हैं। प्राचीनता और विशालता की दृष्टि से बंशीवाला मन्दिर महत्त्वपूर्ण है। विमलेश्वर शिव और मुरलीधरजी के मन्दिर की मध्यवर्ती दीवाल पर ११ श्लोक तया पंक्तयों में गद्य अभिलेख भी खा है। इस विषय में विशेष जानने के लिए मेरा "नागौर के बंशीवाला मन्दिर की प्रशस्ति" शीर्षक लेख (विशम्भरा वर्ष ४, अंक १-२) देखना चाहिए। नागौर से जैन धर्म का सम्बन्ध अतिप्राचीनकाल से है। ओसवाल जाति का नागौरी गोत्र एवं नागपुरीय तपागच्छ (पायचंद गच्छ) व नागौरी लूकागच्छ भी इसी नगर के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हैं। यहाँ धर्मघोषगच्छ का भी अच्छा प्रभाव था, कुछ वर्ष पूर्व तक उस गच्छ के महात्मा पोशाल में रहते थे। दिगम्बर समाज की भट्टारकों की गद्दी होने से वहाँ बड़ा समद्ध ज्ञान-भण्डार भी है जिसमें अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का संग्रह है तथा कई दिगम्बर जैन मन्दिर भी हैं। यहाँ के भट्टारक श्री देवेन्द्रकीतिजी कुछ वर्ष पूर्व अच्छे विद्वान हए हैं। ज्ञानभण्डार में लगभग १२ हजार ग्रन्थों का बहुमूल्य संग्रह है। Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to on to oto .० ૪૬ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ षष्ठ खण्ड नागौर में ओसवाल श्वेताम्बर जैन एवं दिगम्बर जैनों की अच्छी बस्ती है। ओसवालों का सुराणा वंश यहीं से सम्बन्धित है और बाद में बीकानेर आदि में गया। सुरराणाओं की कुलदेवी सुसानी देवी का मन्दिर तो सोलहवीं शती का मोरयाणा में है जिससे सम्बन्धी दन्त कथाएँ नागौर के नवाब से सम्बन्धित है, पर वहाँ का ११२६ संवत् का लेख उस कुलदेवी को मुसलमानों के आगमन से पूर्व की प्रमाणित करता है, अस्तु । भारत के इतिहास में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करने वाले सुप्रसिद्ध जगत सेठ के पूर्वज यहीं के अधिवासी थे । ++++ जैन साहित्य के परिशीलन से नौवीं दशवीं शताब्दी से जैन धर्म का नागौर से विशिष्ट सम्बन्ध प्रमाणित है । जैन श्रमण कृष्ण और जयसिंहरि के उल्लेख सर्वप्राचीन हैं। श्री जयसिंहरि ने सं० २१५ में नागौर में ही 'धर्मोपदेशमाला-विवरण' की रचना की और कृष्णर्षि ने सं ६१७ में नारायण वसति महावीर जिनालय को प्रतिष्ठित किया था। उस समय नागौर में पहले से ही अनेक जिनालय विद्यमान थे, ऐसा उल्लेख "नागउराइ जिनमंदिराणि जायाणिणेग्यणि" वाक्यों से धर्मोपदेशमाला विवरण में किया है। यहाँ के नारायण श्रेष्ठि को प्रतिबोध देने वाले न मुनि कृषि थे। श्री कुमारपाल परि महाकाव्य प्रशस्ति में इसका उल्लेख इस प्रकार पाया जाता हैपुरा निजगिरा नारायणष्ठितो प्रतिष्ठाप्य च । श्रीमन्नागपुरे निर्माष्योत्तम वैश्यमन्तिम जिनं तत्र श्रीवीरान्त-चन्द्र-सप्त (११७) मरदिपमेतेषु तिच्या शुची बंभाद्यात् समातिष्ठ यत् स मुनिराट् द्वासप्तति गोष्टिकान् ॥ इस श्लोक से विदित होता है कि नारायणवसति की स्थापना के समय ७२ गोष्ठी ट्रस्टी नियुक्त किये गये थे। अतः उस समय वहां जैनों की अच्छी वस्ती होना प्रमाणित है। उपकेशवच्छ प्रबन्ध के अनुसार इसकी प्रतिष्ठा कृष्णयि की आशा से गुजरात से देवगुप्तसूरि को बुलाकर करवायी गई थी। चौदहवीं शताब्दी के स्तयनों में प्रस्तुत नारायणवसति को कन्हरियीवसति' नाम से भी सम्बोधित किया है। जिनालय 'जीणं जिणहर' बतलाया गया है। उपकेशगच्छ - प्रबन्ध में कोई भी प्राचीन जिनालय के अवशेष वहाँ नहीं मिलते । सतरहवीं शताब्दी में यह नारायणवसति महावीर इसकी स्थिति कोट के स्थान में लिखी है । अब खरतरगच्छ युग प्रधानाचार्य गुर्वावली के अनुसार नागौर में श्रावकसंघ ने श्री नेमिनाथ भगवान के बिना और प्रतिमा का निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा श्री जिनवल्लभसूरिजी महाराज के करकमलों से कराई थी, यह मन्दिर कब लुप्त हो गया, पता नहीं । सं० १३५२ के आसपास श्री पद्मानन्दसूरि के समय में ट्रिकलश ने 'नागौरचैत्य परिपाटी गा० ६ और स्तुति गा० ४ की रची थी जिन्हें मैंने 'कुशल निर्देश' वर्ष ४ अंक ५ में प्रकाशित की है। इन दोनों में नागौर के ७ जिनालयों का उल्लेख है। यद्यपि विवरणवार देखा जाय तो तीर्थकरों के नाम आदि से संख्या अधिक हो जाती है परन्तु अवान्तर देवकुलिकाएँ तथा अपरनाम, निर्मातानाम एवं इतर देहरियों की प्रतिमाओं को मूलनावरूप समझकर समन्वय किया जा सकता है स्तुति संज्ञक रचना में पार्श्वनाथ चोवीसटा, ४ महावीरस्वामी व २ चन्द्रप्रभ जिनालय - इन सात जिनालयों में ऋषभदेवादि अन्य प्रतिमाएँ होना लिखा है चैत्य परपाठी के अनुसार इस प्रकार है- 1 चौवीसटा बड़ा मन्दिर है जिसमें मन्त्री तिहुंराय कारित सुराणा वसही में भ० पार्श्वनाथ, नाहर -विहार में शान्तिनाथ और श्रीसंघ के भवन में मल्लिनाथ हैं। डीडिंग वसही सूरह कुल-सुराणों की निर्मापित है जिसमें चौकी, मण्डप और संबल स्तंभ है। चउवीसवट्ट्य ( चतुर्विंशति पट्टक) पीतल धातुमय तोरण परिकर युक्त है। चौवीस भगवान, महावीरस्वामी और चन्द्रप्रभुजी के बाद कन्हरिषि ( नारायणवसति), छजलानी, उच्छितवाल- इन तीनों मन्दिरों में महावीर स्वामी है । आदीश्वर जिनालय के गोष्टी ओसवाल (गच्छ उपकेश) है और चन्द्रप्रभ का उल्लेख है । इन दोनों को (आदीश्वर को ) चन्द्रप्रभ के अन्तर्गत मान लेने से सातों मन्दिरों का समन्वय हो जाता है तथा जीर्णोद्धार केसमय मूलनायक परिवर्तन भी हो सकता है। . Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागौर के मैन मन्दिर और दादावाड़ी ४६ . सतरहवीं शताब्दी में कवि विशाल सुन्दर के शिष्य ने जिन सात मन्दिरों का वर्णन किया है, वे इस प्रकार हैं-१. शान्तिनाथ-पित्तलमय प्रतिमा, समवशरण, २. आदिनाथ, ३. पित्तलमय महावीर स्वामी ४-५. ऋषभदेव, ६. पार्श्वनाथ और ७. महावीर जिनालय (प्राचीन नारायण वसही)। सं० १६६३ में रचित अंजना चौपाई में कवि विमलचारित्र ने नागौर के सात मन्दिर आदिनाथ, शांतिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामी के लिखे हैं । इसके पन्द्रह वर्ष पश्चात् कवि पुण्यरुचिकृत स्तवन में, जो सं० १६७८ में रचित है, नागौर में नौ मन्दियों का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं--१. ऋषभदेव, २, मुनिसुव्रत, ३. शान्तिनाथ, ४. आदिनाथ (हीरावाड़ी), ५. वीरजिन, ६. आदिनाथ, ७. आदिनाथ, ८. पार्श्वनाथ. ६. वीरजिनेश्वर। इन नो मन्दिरों में मुनिसुव्रत और आदिनाथ दो नव निर्मित हुए हों, ऐसा संभव है। महावीर स्वामी के चार मन्दिरों में सतरहवीं शताब्दी में दो रह जाते हैं और आदिनाथ भगवान के दो बढ़ जाते हैं। चौदहवीं शती के पश्चात् किसी समय शान्तिनाथ जिनालय का निर्माण हुआ प्रतीत होता है क्योंकि हम नाहर-विहार के शान्तिनाथ को अवान्तर में ले चुके हैं। जो भी हो, नागौर के मन्दिरों का ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन होना आवश्यक है। सतरहवीं शताब्दी के मन्दिरों का वर्णन वर्तमान स्थिति से मेल खाना कठिन है। श्री आनंदजी कल्याणजी की पेढ़ी से प्रकाशित 'जैन तीर्थ सर्वसंग्रह' भाग १ में नागौर के मन्दिरों का वर्णन इस प्रकार किया गया है आज भी नागौर में सात मन्दिर ये हैं- १. ग्रामबाहर गुंबज वाले मन्दिर में मूलनायक सुमतिनाथ स्वामी की प्रतिमा है । इसमें सुन्दर चित्रकारी की हुई है। सं० १९३२ में यतिवर्य रूपचंदजी ने इस मन्दिर का निमार्ण कराया था, इसमें प्राचीन पुस्तक भण्डार है। २. घोड़ावतों की पोल में गुंबजबद्ध श्री शांतिनाथ भगवान का मन्दिर है जिसे सं० १५१५ में घोड़ावत आसकरण ने बनवाया है। इसमें सं० १२१६ की प्राचीन धातु प्रतिमा है और ४४ इंच का धातुमय समवशरण भी दर्शनीय है। ३. दफ्तरियों की गली में आदिनाथ भगवान का शिखरबद्ध जिनालय है जिसे सं० १६७४ में सुराणा रायसिंह ने बनवाया था, मूलनायक प्रतिमा पर सं० १६७४ का लेख है । ४. इसी गली में सुराणा रायसिंह द्वारा निर्मापित आदिनाथ भगवान का गुंबज वाला जिनालय है। ५. हीरावाड़ी में आदिनाथ भगवान का गुंबजवाला मन्दिर सं० १५६६ के श्रीसंघ ने निर्माण कराया था, इसी संवत् का लेख प्रतिमा पर है। ६. बड़ा मन्दिर नाम के स्थान में आदिनाथ भगवान का सोलहवीं शताब्दी का जिनालय है, इसमें काँच का सुन्दर काम किया हुआ है और धातु व पाषाणमय सुन्दर प्रतिमाएँ हैं। ७. स्टेशन के पास श्री चन्द्रप्रभ भगवान का शिखरबद्ध जिनालय जैनधर्मशाला में है। सं० १९६३ में श्रीकानमलजी समदड़िया ने बनवाया है । मूलनायक प्रतिमा पर इस संवत् का लेख है। उपर्युक्त उल्लेख में हीरावाड़ी का मन्दिर सं० १५६६ का लिखा है पर मैंने इस मन्दिर के गर्भगृह पर बारहवीं शताब्दी का एक चूने में दबा हुआ लेख लगभग ३५ वर्ष पढ़ा था। संभवत: जीर्णोद्धार के समय मूलनायक १५९६ के विराजमान किये गये थे। सं० १५६३ में नागौर में उपकेशगच्छीय श्री सिद्धसूरिजी ने प्रतिष्ठा कराई थी। मिती आषाढ़ सुदि ४ को प्रतिष्ठित प्रतिमा देशणोक के मन्दिर में है। इसी प्रकार सं० १५५६ मिगसर बदि ५ प्रतिष्ठित (श्री देवगुप्तसूरि द्वारा) हनुमान के मन्दिर में है एवं इसी संवत् की हेमविमलसूरि प्रतिष्ठित सुविधिनाथ प्रतिमा का लेख नाहर ले० ५८० में प्रकाशित है। सं० १५३४ में शीतलनाथ प्रतिमा हीरावाड़ी नागौर के आदिनाथ मन्दिर में है तथा सं० १४८३ में देवलवाड़ा-मेवाड़ के आदिनाथ जिनालय में नागौर वालों ने देवकुलिका बनवाई थी (नाहर लेखांक १९८६)। सं० १८४१ अक्षयतृतीया के दिन श्री सुन्दर शि० स्वरूपचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित सिद्धचक्र यंत्र केशरियाजी के मन्दिर, जोधपुर में है। नाहरजी ने अपने जैनलेख संग्रह दूसरे भाग के लेखांक १२३३ से १३२६ तक नागौर के चार मन्दिरों के लेख प्रकाशित किये हैं। प्रभावकचरित्रगत वीराचार्य प्रबन्ध से नागौर में धर्मप्रभावना करने का तथा श्री वादिदेवसूरि प्रबन्ध से बहाँ दिगम्बर गुणचन्द्र को वाद में पराजित करने तथा फिर एक बार नागौर पधारने पर आल्हादन नरेश्वर के वन्दनाथ आने और भागवताचार्य देवबोध के साथ आकर अभिनन्दित करने का उल्लेख है। .. Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड नागौर में खरतरगच्छ विधि मार्ग का मन्दिर निर्माण श्री जिनवल्लभसूरिजी के समय में हुआ था और उन्होंने उनको गुरु मानकर उन्हीं के करकमलों से श्री नेमिनाथ स्वामी की प्रतिष्ठा शुभ मुहूर्त में करवाई थी । देवालय निर्मापक सेठ धनदेव के पुत्र कवि पद्मानन्द ने अपने वैराग्यशतक में इस प्रकार उल्लेख किया है सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतेः । श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः ।। श्रेष्ठी श्रीधनदेव इत्यभिधया ख्यातश्च तस्याङ्गजः । पद्मानन्दशतं व्यधत्त सुधियामानन्दसम्पत्तये ।। ___ इस पुण्य-कार्य के प्रभाव से वहां के सभी श्रावक लक्षाधीश हो गये। उन्होंने भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा के रत्नजटित आभूषण बनवाये । इस मन्दिर में महाराज ने रात्रि में भगवान के भेंट चढ़ाना, रात्रि में स्त्रियों का आगमन आदि निषेध के लिए शिलालेख रूप में विधि लिखवा दी थी जिसे 'मुक्ति पाधक-विधि' नाम से कहा है। इसके बाद श्री जिनबल्लभगणि विक्रमपुर मरोट आदि स्थानों में विवरणकर पुनः नागौर पधारे थे। श्री जिनवल्लमसूरि के पट्ट पर विराजमान होने के पश्चात् श्री जिनदतपूरिजी स्त्र. श्रीट्रिसिंहाचार्यजी का आदेश प्राप्त कर मारवाड़ की ओर पधारे। नागौर पहुँचने पर वहाँ के मुख्य सेठ धनदेव ने सूरिजी की महान् प्रतिभा देखकर निवेदन किया कि यदि आप व्याख्यान में 'आयतन-अनायतन' का विषय छोड़ दें तो मैं विश्वास दिलाता हूँ कि सभी श्रावक आपके आज्ञाकारी बन जायें। पर गुरुदेव ने उत्सूत्र भाषण स्वीकार नहीं किया। श्री जिनदत्तसूरिजी से प्रतिबोध प्राप्त श्रावक देवधर चैत्यवासी देवाचार्य के देवगृह में गया तो उसने उनके साथ चर्चा करके विधि मार्ग का समर्थन स्वीकार कराया और लोकवाद के विरोध की असमर्थता पाकर वस्यवासियों को अन्तिम नमस्कार कर अजमेर गया था। श्री जिनचंद्रसूरि (कलिकाल केवली) के समय सं० १३५३ में निकले संघ में नागौर, रूण आदि के धनी-मानी श्रावक भी सम्मिलित हुए थे। सं० १३७१ में जालोर में अनेक उत्सवादि होने के पश्चात् म्लेच्छों द्वारा जालौर भंग होने पर सपादलक्षदेश पधारे उस समय ३०० गाड़ों के झुंड के साय फलौदी पार्श्वनाथ जी की यात्रा करके नागौर पधारे थे। सं० १३७५ में दूसरी बार फलौधी तीर्थ की यात्रा कर जब श्री जिनचन्द्रसूरि जी नागौर पधारे तो मिती माघ शुक्ला १२ को अपने पट्टशिष्य कुशलकीति (थी जिनकुशलमूरि) को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया था। इस समय कई दीक्षाएं आदि उत्सव हुए थे। नागौर के श्रावकों की प्रार्थना से नागौर में नंदिमहोत्सव किया गया । यहाँ के मंत्रिदलीय ठा० विजयसिंह, ठा० सेडु, सा. रूपा आदि ने दिल्ली, डालामर, कन्यानयन, आशिका, नरभट, वागड़देश, कोसवाड़ा, जालौर, समियाना आदि के एकत्र संघ की बड़ी भक्ति की । जगह-जगह अन्नक्षेत्र खोले गए। धनवान श्रावकों ने सोने-चांदी कड़े के अन्न-वस्त्रादि खूब बांटे। साधु सोनचन्द्र और शीलसमृद्धि, दुर्लभसमृद्धि, भुवनसमृद्धि साध्वियों को दीक्षित किया। पं. जगत्चन्द्र गणि और पं० कुलशलकीर्ति को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया। धर्मपाल गणिनी और पुण्यसुन्दरी गणिनी को प्रवर्तिनी पद दिया गया। श्री तरुणप्रभसूरिकृत श्री जिनकुशलसूरि चहुत्तरी में वाचनार्य पद प्रदान का उल्लेख इस प्रकार है तं गच्छलच्छि जुग्गं माऊणं नायपुरजिणहरमि । तेरपणसयरि वरिसे माहेसिय बारसी दिवसे ॥४४॥ पउर सिरिसंघ मेले सिरिजिणचंदेण सूरिणा तस्स । हरिसा तियहत्थेणं वाणारियसंपया दत्ता ॥४५॥ मिती वैशाख बदि ८ को पुन: श्री जिनचन्द्रसूरिजी नागौर पधारे। वहाँ पर अनेक उज्ज्वल कर्मों से अपने कुल का उद्धार करने वाले धनी-मानी मंत्रिदलीय श्रावक अचलसिंह ने बादशाह कुतुबुद्दीन से फरमान प्राप्त कर तीर्थयात्रा Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागौर के जैन मन्दिर और दादावाड़ी ५१ . -.-. -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. का संघ निकाला जिसमें अनेक देश-ग्रामों के संघ को आमन्त्रित किया गया था। इसमें आचार्यश्री जयदेवगणि, पद्मकीर्तिगणि, अमृतचन्द्रगणि आदि ८ साधु और जयदि महत्तरा आदि चतुर्विध संघ ने देवालय के साथ बड़े ठाठ से प्रयाण किया था। सं० १३८० में दिल्ली के सेठ रयपति के संघ में नागौर के सेठ लखमसिंह आदि संघ सहित विशाल यात्रीसंघ में सम्मिलित हुआ था। श्री जिनकुशलसूरिजी के शिष्य और जिनपद्मसूरिजी के पट्टधर श्री जिनलब्धिसूरिजी, जो सिद्धान्तज्ञ-शिरोमणि और अष्टावधानी थे, सं० १४०६ में आपका नागौर में ही स्वर्गवास हुआ था जिसके पट्ट पर सं० १४०६ माघ सुदि १० के दिन नागौर निवासी श्री मालवंशीय राखेचा साह हाथी कारित उत्सवपूर्वक जेसलमेर में श्री जिनचन्द्रसूरिजी विराजमान हुए। आपके पट्टधर श्री जिनोदयसूरिजी के विज्ञप्ति-महालेख के अनुसार नागौर से दो लेख लोकहिताचार्य को अयोध्या भेजे थे जिनमें नागौर में मोहन श्रावक द्वारा मालारोपण उत्सव करवाये जाने का उल्लेख किया गया था। श्री जिनभद्रसूरि अपने समय के एक महान् प्रभावक आचार्य थे। उन्होंने सात स्थानों में ज्ञान-भण्डार स्थापित किये थे जिसमें कितने ही प्राचीन और नवीन ग्रन्थों को लिखवाकर रखा गया था। नागौर में भी ज्ञान-भण्डार स्थापित करने के उल्लेख पाये जाते हैं। युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज सं० १६२२ में बीकानेर से जेसलमेर जाते हुए नागौर पधारे । उन दिनों संभवत: नागौर मुगलों के अधिकार में था और वहाँ का शासक हसनकुलीखान था जिसके साथ बीकानेर के मंत्री संग्रामसिंह वच्छावत ने संधि की थी। जिनचन्द्रसूरि विहार पत्र के उल्लेखानुसार हसनकुलीखान द्वारा प्रवेशोत्सव कराने का 'बिचि नागौर हसनकुलीखान जय लाभपइसार' लिखा है। ___सं० १६२३ मिती माघ बदि ५ को नागौर दादाबाड़ी में श्री जिनकुशलसूरिजी के चरण पादुके प्रतिष्ठित कराये गये थे। सं० १६४७ में सम्राट के आमन्त्रण से खंभात से लाहौर जाते हुए युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी नागौर पाधारे थे। यहाँ के मन्त्रीश्वर मेहा ने बड़ी धूमधाम के साथ सूरिजी का प्रवेशोत्सव कराया था और गुरुमहाराज को वन्दनार्थ बीकानेर का संघ आया जिसके साथ ३०० सिजवाला और ४०० वाहन थे। वह संघ स्वधर्मीवात्सल्यादि करके वापस लौटा। श्री जिनचन्द्रसूरि अकबर प्रतिबोधरास का आवश्यक अंश यहाँ दिया जा रहा है हिव नगर नागोरउरई आया श्री गच्छराज। वाजिन बहु हय गय मेली श्रीसंघ साज ॥ आवी पद वंदी करइ हम उत्तम काज । जउपूज्य पधार्या तउसरिया सब काज ।।७।। मन्त्रीसर वांदइ मेहइ मन नइ रंग। पइसारउ सारउ कीधउ अति उछरंग ।। गुरु दरसण देखी वधियो हर्षकलोल। महियलिजस व्यापिउ आपिउ वर तंबोल ॥७६।। गुरु आगम ततखिण प्रगटिउ पुण्य पडूर । संघ बीकानेरउ आविउ संघ सनूर ।। त्रिणसउ सिजवाला प्रवहण सई वालि चार । धन खरचइ भवियण भावइवर नर नारि ॥७७।। समयसुन्दरजी महाराज स्वयं नागौर में विचरे हैं और यहीं पर सं० १६८२ में सुप्रसिद्ध शत्रुजयरास की रचना Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षण्ठ खण्ड की थी। एक वार आप नागौर पधारे तब वहाँ के भावकों में परस्पर कलह का वातावरण चल रहा था। आपने अपने व्याख्यान में स्वयं रचित क्षमाछत्तीसी की व्याख्या द्वारा उपदेश देकर कलह मिटाया जिसका वर्णन क्षमाछत्तीसी की प्रशस्ति है नगर मांहि नागौर नगीनउ जिहाँ जिनवर प्रासादजी श्रावक लोग वस अति सुखीया, धर्म तणइ परसादजी ||३४|| क्षमा छत्तीसी खांत कीधी, आतप पर उपगार जी । सांभलता धावक पण समज्या, उपसम धरयउ अपारजी ||३५|| श्री जिनसागरसूरि अष्टक में भी अपने "श्री जावालपुरे च योधनगरे श्रीनागपुर्या पुनः " वाक्यों द्वारा नागौर का उल्लेख किया है। श्री जितलाभसूरिजी महाराज सं० १०१५ में बीकानेर से बिहार करके पधारे और १८ वर्ष पन्त बाहर जब आप नागौर आये तब बीकानेर वाले आश लगाए बैठे थे पर आप वहाँ से साचौर पधार ही विचरे। गए । यतः अटकलता आसी अवस, पिण मन वसीयो पुजरे, निरख विचै सहिर भलौ नागौर । सानीर ॥२२॥ इस प्रकार प्राचीन साहित्य के परिशीलन से नागौर में जैनाचायों के विचरण करने का उल्लेख पाया जाता है। और साधु यतियों व साध्वियों के चातुर्मास बराबर होते ही आये हैं । नागौर में चातुर्मास के समय विद्वान मुनियों ने अनेक ग्रन्थों की रचना की है, जिसकी कुछ सूची इस प्रकार है सं० १६३२ में कवि कनकसोम ने जिनपालित जिनरक्षित रास की रचना की। सं० १६३६ मा० सु० ५ साधुतिजी ने नमराजाय चौ० की रचना की। सं १६४५ में श्रीवल्लभ उपाध्याय ने शीलोंछ नाममाला सं० १६५५ में कनकसोम कवि ने थावच्चा सुकोशल चरित्र, सं० १६५६ में सूरचंद्रगणि (वीरकलश शि० ) ने शृंगाररसमाला, सं०] १६०३ में विद्यासागर (सुमतिको शि० ) ने कलावती चौ १६८२ में सं० १६६८ में सहजकीर्ति ( हेमनन्दन शि० ) से व्यसन सत्तरी, सं० १६८४ में पुण्यकीर्ति ( हंसप्रमोद शि० ) ने मोहछत्तीसी, सं० १७३२ में मतिरत्न शि० समयमाणिक्य (समरथ ) ने मत्स्योदर चौपई रंची है। सुखनिधान शि० महिमामेरु ने मिना फाग और समुन्दरी ने मातीसी की रचना की है। सं० १०१७ में रायचंद ने दशावली [सं०] १२२ में दीपचंद ति कर्मचन्द्र ने पदार्थ वोधिनी टोडा ०१०१६ में सुमतिवर्द्धन के सिध्य चारि सागर ने साधुविधि प्रकाशभाषा का निर्माण किया। सं० १९५२ में द्वितीय चिदानंदजी महाराज ने “आत्मभ्रमोच्छेदन भानु" ग्रन्थ की रचना की थी । महान् प्रतापी मुनिराज श्री मोहनलालजी महाराज नागौर के यति श्री रूपचन्दजी के पास सं० १९०० में दीक्षित हुए थे और ३० वर्ष पर्यन्त यति पर्याय में रहकर सं० १९३० में क्रियोद्धार किया था । आप बड़े समभावी थे और आपका शिष्य परिवार खरतरगच्छ व तपागच्छ दोनों में सुशोभित है । दादाबाड़ी नागौर का दादाबाड़ी अति प्राचीन है। श्री जिनकुशलसूरिजी के पट्टधर थी जिनधरी के स्वर्गवास के समय सं० १४०९ में अवश्य निर्मित हुई होगी, पर चरणपादुका इतनी प्राचीन उपलब्ध नहीं है। सं० १९२३ में प्रतिष्ठा होने का लेख श्री हरिसागरिसूरजी के लेखसंग्रह में है । इसके पश्चात् सं० १७७५ में पं० गजानन्द मुनि के उपदेश से खरतरगच्छ संघ ने जीर्णोद्धार कराया था जिसका अभिलेख इस प्रकार है— “संवत् १७७५ वर्षे शाके प्रवर्तमाने मासोत्तम मासे द्वितीय श्रावण मासे शुक्लपक्षे १२ तिथौ गुरुवारे . Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागौर के जन मन्दिर और दादावाड़ी खरतरगच्छभट्टारक गच्छे श्री जिनसुबसूरि शिष्यांग प्रा श्री श्री कीर्तिवर्द्धनजी गणि पं० प्र० श्री इलाधनजी गणि पं० प्र० श्री विनीतसुन्दरजी गणि तच्छिष्य पं० गजानन्द मुनि उपदेशात् श्री खरतरगच्छधेन दादा श्री जिनकुशलसूरिणा का जीर्णोद्धार करवाया।" इसके बाद संवत् १८८२ में भी जीर्णोद्धार हुआ था । यह स्थान नौ छत्रियाँ नाम से विख्यात है और अब तो वहां भगवान महावीर स्वामी के मन्दिर का निर्माण हो जाने से दिनोंदिन उन्नति की ओर अग्रसर है। प्रसिद्ध दादावाड़ियों की नामावली जो स्तवनों में मिलती है उनमें नागौर की दादावाड़ी की स्तुति बड़ी भक्ति-प्रवणता के साथ की गई है। १. सतरहवीं शती के उ. साधकीति जी के सुप्रसिद्ध "विलसे ऋद्धि" स्तवना में "शुभसकल परचा पूरे, श्रीनागपुरे संकट चूरे" २. राजसागरकृत जिनकुशल सूरिस्तवन में "अरे लाल जोधपर ने मेड़त जैतारण ने नागोर रे लाल सोजत ने पालीपरै जालोर ने श्री साचोर रे लाल" ३. अभयसोम कृत जिनकुशलसूरिछन्द (गा० ३२) में "प्रभावना रिणीपुरै निसाण वाजता धुरै । भेटो नयर भट्टनेर जगत्रय सह हवैजेर ॥१८॥ "नागोर नाम दीपतौ दाणव देव जीपतो। तोरण तेम सोहए जगत्र मन मोहए ॥१६॥" ४. उदयरत्नकृत स्तवन (गा० १७) में “जी हो अहिपर आस्या पूरै जो हो सोजित मांहे सुविचारजी ॥११॥" ५. खुल्यालकृत (सं० १८२३) जिनकुशलसूरि छंद (गा० ७६) में "नागौर नमंत पाय जाय व्याधि नाम ए। वीकाणे पूर दीयंत कीध माल वाम ए॥५६॥" ६. जयचन्दकृत जिनकुशलसूरि छन्द में.-- "नागौर नगीनो सह जन लीनो व्यंतर भत भगंदा है। जो धन नर नारी उठ सवारी जाके पाय नमंदा हे।" ७. उपाध्याय क्षमाकल्याण गणि कृत श्री जिनकुशलसूरिस्तोत्र (गा० २२) में "नागोर योधपुर्यामुदयपुररिणो सोजिताख्यासुपुर्षः । पल्लीपुर्यां तिमा ममररारसि वा मेडता लाडपुर्याम् ।।" ८. ललितकीति शि. राजहर्ष कृत जिनकूशलसरि अष्टोतर शतस्थाने स्तुभ नाम गभित स्त० (गा०२६) में "जेसलमेर सकल जोधाणइ, नागोरई प्रणमइ नर वंद। मेदनीतटइ देखी मन उल्हसइ, देवलवाडइ जाणि दिणंद ॥४१॥" Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड ६. श्रीजिनराजसूरि कृत जिनकुशलसूरि स्तवन में "हो अहिपुरमांहे दीपतउ, दादा देराउर सविशेष । हो जैसलगिरिवर पूजियइ, दादा भाजइ दुख अशेष ॥५॥" सुप्रसिद्ध कविवर समयसुन्दरोपाध्याय ने निम्नोक्त स्वतन्त्र स्तवन की रचना की है नागौर मण्डन श्री जिनकुशलसूरिगीतम् उल्लट धरि अम आविया दादा भेटण तोरा पाय । बे कर जोड़ी वीनकुदादा आरति दूरि गमाय ॥१॥ इण रे जगत में नागोर नगीनइ दादो नागतउ । भाव भगति सुंभेटतां, भव दुख भागतउ ॥इण रे०॥ टेर।। को केहनइ को केहनइ दादा भगत आराधइ देव।। मई इकतारी आदरी दादा, एक करूं तोरी सेव ॥इण रे०॥२॥ सेवक दुखिया देखता दादा, साहिब सोभ न होय । सेवक नइ सुखिया करइ दादा, साचो साहिब सोय ॥इण०॥३॥ श्रीजिनकुशलसूरीसरू दादा, चिन्ता आरति चूरि । समयसुन्दर कहर माहरा दादा मनवंछित फल पूरि ॥इण०॥४॥ xxxxxxxxx xxxxxxx जानन्नपि च यः पापम् शक्तिमान् न नियच्छति । ईशः सन् सोऽपि तेनैव कर्मणा सम्प्रयुज्यते ॥ -महाभारत, आदिपर्व १७९।११ जो मनुष्य शक्तिमान एवं समर्थ होते हुए भी आन-बूझकर पापाचार को नहीं रोकता, वह भी उसी पापकर्म से लिप्त हो जाता है। XXXXXXX xxxxxxxxx Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D+0+0+0+0 सिरोही जिले में जैन धर्म डॉ० सोहनलाल पटनी, [ स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, राजकीय महाविद्यालय, सिरोही ( राजस्थान ) ] अर्बुद मण्डल के नाम से विख्यात था । अर्बुद मण्डल सं० १४८५ में सिरोही की स्थापना के पूर्व यह क्षेत्र का महत्त्व अर्बुद पुराण से ज्ञात होता है। जैन धर्म की दृष्टि से इस प्रदेश का इतिहास भगवान पार्श्वनाथ के गणधर केशी से प्रारम्भ होता है। इन मी rear ने विरोही जिले के प्राचीनतम तीर्थ ब्राह्मणवाटक (वामनवाजी में भगवान महावीर के जीवित स्वामी बिम्ब की प्रतिष्ठा की थी। जैन जगत् में आज भी यह उक्ति प्रसिद्ध है कि नाणा (पाली जिला ), दियाणा (सिरोही जिला ) एवं नांदिया के मन्दिर जीवित स्वामी मन्दिर हैं । नाणा दियाणा नांदिया जीवित स्वामी वांदिया जीवित स्वामी या जीवंत स्वामी तीर्थं उस तीर्थ को कहते हैं जिसकी स्थापना भगवान् महावीर के जीवनकाल में ही हो चुकी थी। भगवान् महावीर के बड़े भाई नंदिवर्द्धन ने नांदिवा गाँव में भगवान् के भव्य मन्दिर की स्थापना की। नांदिया चैत्य की भगवान् महावीर की यह मूर्ति सपरिवार अष्ट प्रातिहार्य वाली है, जिसकी समता की मूर्ति अन्यत्र मिलना कठिन है ऐसी भी जनवृति है कि भगवान के कानों में कीलें ठोकने का उपसर्ग इसी ब्राह्मणवाटक स्थान पर हुआ था एवं यही प्रदेश अनावं प्रदेश था चण्डकौशिक का उपसर्ग भी नांदिया के मन्दिर के पास ही हुआ था जिसका उत्कीर्णन एक पहाड़ी शिला पर आज भी देखा जा सकता है । मुण्डस्थल महातीर्थ ( वर्तमान मूंगथला ) के सं० १२१६ के स्तम्भ लेख के अनुसार भगवान् महावीर छद्मस्थावस्था में अर्बुद भूमि में विचरे थे । इसकी पुष्टि भीनमाल के महावीर मन्दिर के वीर सं० १३३४ के लेख से भी होती है कि वीर प्रभु यहाँ विचरे थे । ' मुण्डस्थल के इस लेख के अनुसार श्री वीर के सेंतीसवे वर्ष में पूर्णराज (?) नामक राजा ने श्री वीर भगवान् की सुन्दर मूर्तियाँ बनवाई थीं एवं उनकी प्रतिष्ठा श्री पार्श्वनाथ भगवान् के संतानीय श्री केशी गणधर ने की थी । १२वीं सदी में श्री महेन्द्र सूरि ने अपने अष्टोतरी तीर्थमाला में इस तथ्य की पुष्टि की है। श्री वीर प्रभु के आठवें पट्टधर श्री अ महागिरि सूरि और आप सुहत्तिरि के समय में आज से लगभग २२०० वर्ष पहले सम्राट अशोक के पौत्र जैन धर्म मण्डन महाराज सम्प्रति ने सिद्धगिरि, रेंवतगिरि, शंखेश्वर, नंदिया ( नांदिया ) एवं ब्राह्मणवाटक (नामनवाडजी) तीर्थ की यात्रा की थी। नांदिया एवं बामनवादजी सिरोही जिले में ही है। महाराज सम्प्रति ने इस जिले में कई जैन मन्दिरों का निर्माण करवाया था, ऐसी जनश्रुति है । १. आक्योंलोजिकल रिपोर्ट सन् १९०७-८ श्री श्वेताम्बर कान्फरेन्स हेराल्ड जुलाई-अक्टूबर १९१५ एवं उपागच्छीय पट्टावली पृ० ३२८ से ३७३. pra .0 Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड श्री वीर प्रभु के बारहवें पट्टधर श्री आर्य सिंहसूरि के समय अर्थात् आज से लगभग १९६७ वर्ष पहले श्री नागार्जुनसूरि, श्री स्कन्दिलसूरि एवं श्री पादलिप्तसूरि अपने पैरों में औषधि का लेप कर आकाश मार्ग से उडकर सिद्धाचल, गिरनार, सम्मेत गिरि, नन्दिया चैत्र (नांदिया) एवं ब्राह्मणवाटक महातीर्थ की यात्रा करते थे। श्री वीर प्रभु के उन्तीसवें पटधर श्री जयानन्द सूरिजी के समय में वि० सं० ८२१ के आसपास चन्द्रावती के मन्त्री सामन्त ने सम्प्रति के बनाये मन्दिरों में से ब्रह्माण (वरमाण-सिरोही), नंदिया (नांदिया-सिरोही), ब्राह्मणवाटक (बामनवाड़-सिरोही) मुहरिपास आदि मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया था। भगवान महावीर के पैतीसवें पट्टधर श्री उद्योतनरिजी ने मगधदेश से आबू यात्रा के लिए विहार किया था एवं बंभनवाड़, नंदिया तथा दहियाणक (दियाण-सिरोही) आदि तीर्थों की यात्रा की थी। विक्रमी संवत् १२८२ के आसपास सोमप्रभसूरि के पट्टधर जगच्चन्द्रसूरि तथा उनके सहचारी देवप्रभसूरि ने भी इन तीर्थों की यात्रा की थी। तत्पश्चात् वि०संवत् १५०० के आसपास लिखी पं० मेघ की तीर्थमाला से लेकर आज तक तीर्थमालाओं में सिरोही जिले के जीरावाल, ब्राह्मण (वरमाण), ब्राह्मनवाटक, नंदिया, दहियाणक (दियाण), कोरटा (कोरंटक), मीरपुर एवं आबू के तीर्थों के उल्लेख हैं। मौर्ययुग से ही अर्बुद मण्डल जैन धर्म का प्रमुख स्थान रहा है । सम्प्रति मौर्य के युग में तो कई जैन मन्दिर इस क्षेत्र में बने ही थे। गुप्तकाल में वसन्तगढ़ धातु कला एवं मूर्तिकला का केन्द्र रहा। आज भी यहाँ ताम्बे की खानों के लिए डिलिंग हो रहा है । यहाँ जैनों की प्रचुरमात्रा में बस्ती थी एवं यहाँ की बनी धातु प्रतिमाएं भारत के मूर्तिकला के क्षेत्र में नया कीतिगमन स्थापित करती थीं। ऐसी ही गुप्तकाल की दो कलात्मक आदमकद धातु प्रतिमाएँ पश्चिमी रेलपथ के सिरोही रोड स्टेशन से १ कि० मी० दूर पिण्डवाड़ा के मन्दिर में देखी जा सकती हैं । वसन्तगढ़ की ही ढली हुई चिन्तामणि पार्श्वनाथ की दो दुर्लभ राजपूतकालीन धातु-प्रतिमाएँ भी इसी मन्दिर में सुरक्षित हैं । यहाँ के प्रसिद्ध मूर्तिकार शिवनाग का नाम कौन नहीं जानता? मूर्तिकला के क्षेत्र में आज भी उसका डंका बज रहा है। बीच के युगों में इस क्षेत्र पर ब्राह्मणधर्म का जोर रहा । तत्पश्चात् ७ वीं सदी में आचार्य हरिभद्रसूरि ने इस प्रदेश के पुरातन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाकर उनकी प्रतिष्ठा की। इन मन्दिरों में जी रावल का मन्दिर मुख्य है। हरिभद्र युग के पश्चात् इस क्षेत्र में कलात्मक मन्दिरों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। कलात्मक वैभव की प्रथम कृति थी कला मन्दिर मीरपुर जो पहाड़ी की तलहटी में विशाल पीठिका पर हाथियों की करधनी पर स्थित है। इसकी तक्षण कला देलवाड़ा एवं राणकपुर के मन्दिरों की पूर्ववर्ती है। परमारों की उजड़ी राजधानी चन्द्रावती के कलात्मक वैभव के नमूने कर्नल टाड की 'ट्रेवल्स इन वेस्टर्न इण्डिया' (पश्चिमी भारत की यात्रा) नामक पुस्तक में देखने को मिल सकते हैं। इस नगरी का वैभव ८वीं से १२वीं सदी तक रहा। इसके मन्दिरों के तोरण, छारों एवं सिंहद्वारों के कलात्मक नमूने यदि आप देखना चाहें तो प्रसिद्ध तीर्थ ब्राह्मणवाड़ा (बामनवाड़जी) के पास झाड़ोली के मन्दिर के सिंहद्वार पर देख सकते हैं। ऐसी जनश्रुति है कि इस चन्द्रावती में 888 झालरें बजती थी। इतने मन्दिर चन्द्रावती में रहे हों या न रहे हों पर यह बात इतिहास-सिद्ध है कि यह नगरी बड़ी समृद्ध थी। यहीं के निवासी प्राग्वाट ज्ञातीय गांगा पुत्र धरणिंग की पुत्री अनुपमा देवी ने अपने पुत्रहीन पिता की सम्पत्ति से देलवाड़ा के जगत प्रसिद्ध लणवसहि (नेमिनाथ-मन्दिर) का निर्माण करवाया जिसका श्रेय धोलक के मन्त्री वस्तुपाल एवं तेजपाल को मिला। इस मन्दिर का शिल्पी सोभनदेव चन्द्रावती का रहने वाला था। गुजरात के राजा परममाहेश्वर भीमदेव सोलंकी के मन्त्री एवं सिंह-सेनापति विमलशाह ने भी इस लुणवसहि मन्दिर के पूर्व विमलवसहि (आदिनाथ) नाम के एक विश्वविश्रुत कलात्मक मन्दिर का निर्माण करवाया था । चन्द्रावती के उजड़ने के बाद वसन्तगढ़ एवं आबू पर जैनों ने पाँव -० १. कुवलयमाला प्रशस्ति । कुवलयमाला पर निबन्ध-मुनि जिनविजयजी. Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरोही जिले में जन-धर्म जमाने का प्रयत्न किया पर उन्हें सफलता नहीं मिली । निरन्तर आक्रमणों से ये दोनों ही स्थान उजड़ गये । गुजरात के परमात महाराज चौक कुमारपाल ने आबू जीरावल एवं आसपास के क्षेत्र के मन्दिरों के जीर्णोद्वार के लिए महत्प्रयत्न किये । प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनदत्तसूरि, सोमचन्द्रसूरि, लक्ष्मीसागर सूरि, हरिविजयसूरि एवं मेघविजयोपाध्याय का सम्बन्ध इस मण्डल से बराबर रहा। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि माघ के पूर्वजों का सम्बन्ध वसन्तगढ़ के राणाओं से रहा वस्तुपाल ने इस प्रदेश के चन्द्रावती एवं देलवाडा में अपने वसन्तविलास ग्रन्थ को पूरा किया जिस पर सोमेश्वर ने उन्हें श्रेष्ठ कवि की उपाधि दी। सोमेश्वर ने भी अपने चन्द्रावती निवास के समय कीर्तिकौमुदी की रचना की। तपागच्छ के हेमविजयगण के 'विजय प्रशस्ति महाकाव्य की दस हजार श्लोक प्रमाण टीका की समाप्ति गुणरत्न विजयजी ने सं० १६८८ में सिरोही में की। राणकपुर के त्रैलोक्य दीपक मन्दिर का निर्माता धरणशाह सिरोही जिले के नांदिया गाँव का रहने वाला था । सम्राट अकबर - प्रतिबोधक हीरविजयसूरि ने सिरोही के उत्तुंग शिखर चौमुखा मन्दिर की प्रतिष्ठा की थी एवं यहीं उन्हें आचार्य पदवी प्रदान की गयी थी । ५७ वि० [सं०] १५३३ में सिरोही के एक गांव अठवाड़ा (शिवगंज तहसील) में स्थानकवासी परम्परा के प्रवर्तक लोकशाह ने मूर्तिपूजा का विरोध किया एवं दयाधर्म की उद्घोषणा की। इनके विषय में एक पुराना दोहा प्रसिद्ध हैनोकरशाह जमिया सिरोही धरणा । संता शूरा वरणिया भौसागर तरणा ॥ इन लोकशाह ने एवं इनके शिष्य लखमसी, रूपजी तथा जीवनी ऋषि ने सर्वप्रथम पोसलिया (सिरोही) एवं सिरोही में लोकागच्छ उपाश्रयों की स्थापना की। इस प्रकार स्थानकवासी परम्परा का प्रारम्भ सिरोही से हुआ । १७वीं सदी से तो सिरोही जैनधर्म का गढ़ रहा है। यहाँ के दीवान पद पर बहुत से जैन प्रतिष्ठित हुए एवं सिरोही के महाराव सुरताण ने हीरविजयसूरि के उपदेश से अमारि प्रवर्तन का आदेश दिया था । सिरोही के महाराव शिवसिह की बामनवाद मण्डन महावीर स्वामी पर अट्ट धडा भी एवं उन्होंने मन्दिर के लिए वीरवाड़ा ग्राम का दान दिया था। उन महाराव की हाथी से उतरी नमस्कार मुद्रा में पूजार्पण मुद्रा प्रतिमा बामनवाड़ी में आज भी मौजूद है । १. सोमेश्वर की आयु के लूणवसहि मन्दिर की प्रमस्ति । की है । श्वेताम्बर परम्परा में सिरोही को अर्द्धशत्रुंजय की महिमा से मण्डित किया गया है एवं यहाँ के जैनों ने अहमदाबाद, सूरत एवं बड़ौदा में बसकर बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त धार्मिक सहिष्णुता भी इस प्रदेश में बहुत रही है। देलवाड़ा के नेमिनाथ मन्दिर के सं० १२८७ के लेख से यह ज्ञात होता है कि इस मन्दिर के संरक्षण का उत्तरदायित्व राजपूतों एवं ब्राह्मणों तक ने अपने ऊपर लिया था । परवर्तीकाल में भी जैनों को राज्याश्रय यहाँ मिला । वि० सं० १९६४ की वैशाख सुदि प्रतिपदा को वाटेरा ग्राम में त्रिविक्रम विष्णु मन्दिर की प्रतिष्ठा जैनाचार्य विजय महेन्द्रसूरिजी ने की थी। यहाँ के जैन गुजरात एवं दक्षिण भारत में व्यापार-व्यवसाय करते हैं एवं अपनी संस्कृति की रक्षा में लगे हुए हैं । pra . Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमिलनार में जैन धर्म और जैन संस्कार - मुनि श्री सुमेरमल 'सुमन' युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के शिष्य युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी का आदेश पाकर हम सब बम्बई से दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रान्त में मद्रास चातुर्मास के लिए गये । लगभग एक वर्ष तक इस भूमि पर पर्यटन किया। अनेक ऐतिहासिक स्थलों का अवलोकन करने का मौका मिला। इससे बहुत कुछ जाना, देखा और समझा। मुझे लगा कि वहाँ पर जैन धर्म की जड़ें गहत बहरी हैं, और वहाँ पर आज भी संस्कारों का प्रभाव है। वैसे तमिलनाडु में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार अति प्राचीन काल से चलता आ रहा है। यह एक आम मान्यता है कि सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में जब बारह वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा. उस समय श्रुतके वली भद्रबाह ने बारह हजार मुनि संघ के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। इस यात्रा में राज-पाट को छोड़कर चन्द्रगुप्त मौर्य भी साथ ही गये थे । कर्नाटक प्रान्त के श्रवणबेलगोल पहुँचने पर भद्रबाहु को सहसा अभास हुआ कि अब उनका अन्तिम समय निकट है, यह अनुभव करके उन्होंने मुनि संघ को यहाँ से दक्षिण में विभिन्न स्थानों पर विचरण करते हुए धर्म-प्रभावना करने का आदेश दिया और वे स्वयं श्रवणबेलगोल में ही रुक गये । चन्द्रगुप्त भी इन्हीं के साथ रहा। भद्रबाह ने यहीं पर समाधिपूर्वक नश्वर शरीर को त्यागा । भद्रबाहु के मुनिसंघ के साथ इस प्रयास के बाद दक्षिण में जैन धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। यद्यपि समय-समय पर अनेक संघर्ष झेलने पड़े किन्तु आज जो स्थिति है, उसका प्रारम्भ तब से ही माना जाता रहा है । यह अब अनुश्रुति नहीं रहकर ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध भी हो चुका है। लेकिन एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि महान श्रुतकेवली भद्रबाहु ने भयंकर दुभिक्ष के समय में दक्षिण की ओर ही प्रस्थान क्यों किया? इसके लिए यह सहज उत्तर दिया जा सकता है कि भद्रबाहु के सामने उस समय जैन धर्म और मुनिसंघ दोनों की रक्षा का एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व था । यह वस्तुस्थिति भी है। लेकिन इसके साथ ही यह दूसरा प्रश्न उठता है कि धर्म और संघ की रक्षा का सवाल तत्कालीन मगध, पाटलीपुत्र आदि में भयंकर दुभिक्ष के कारण जितना कठिन था, उससे कम कठिन दक्षिण में प्रस्थान करने पर भी नहीं था, क्योंकि दक्षिण तो उनके लिये एकदम अपरिचित क्षेत्र था। आहार और मुनिचर्या के जो कठिन विधान हैं, उनका पालन करना दक्षिण में ज्यादा कठिन था, क्योंकि दक्षिण में सुनि संघ की मर्यादा आदि को समझने वाले नहीं थे, अन्य धर्म के अनुयायी थे। उस हालत में बारह हजार के इतने बड़े मुनिसंघ का निर्वाह अपरिचित हालतों में कैसे हुआ होगा, यह एक विचारणीय मुद्दा अवश्य है। इस प्रश्न का उत्तर विद्वानों ने खोज निकाला है और उसे अब मान्यता भी मिल गई है कि भगवान महावीर ने स्वयं कलिंग प्रदेश में विहार करते हुए वहाँ पर जैन धर्म की काफी प्रभावना की और कालान्तर में कलिंग जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र बन गया । इस बात के प्रमाण हाथीगुफा स्थित सम्राट खारवेल के शिलालेख से भी मिलते हैं। यह भी कहा जाता है कि कलिंग में जैन धर्म का प्रवेश शिशुनागवंशी राजा नन्दवर्धन के समय में हो गया था। ऐसे भी प्रमाण मिलते हैं कि सम्राट खारवेल के समय में कलिंग में कई जैन मन्दिर विद्यमान थे। कलिंग की सीमा आन्ध प्रदेश से मिलती है। ऐसी हालत में भगवान महावीर के समय में ही कलिंग के रास्ते आन्ध्र में जैन धर्म का प्रवेश हो Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमिलनाडु में जैन धर्म और जैन-संस्कार ५६ . .................................................................... . .... गया था और आन्ध्र से इसका प्रवेश तमिलनाडु और क्रमशः दक्षिण के अन्य प्रदेशों में हो गया । भद्रबाह स्वामी जब मूनि संघ के साथ दक्षिण में पधारे तो उस समय जैन धर्म का उपर्युक्त आधार अवश्य रहा होगा, तभी उन्होंने भिक्ष के संकट के समय में दक्षिण प्रस्थान का यह जोखिमभरा कदम उठाया। वस्तुस्थिति कुछ भी हो, लेकिन यह सही है कि तमिलनाडु में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार अति प्राचीनकाल से चलता आ रहा है। तमिलनाडु में जैन धर्म के आज भी बहुत से अवशेष प्राप्त होते हैं । कांची के पास तिरूपत्तिकुन्नु में प्रथम और अन्तिम तीर्थकर क्रमश: ऋषभदेव और वर्धमान के दो भव्य मन्दिर थे, इसी कारण इस स्थान का दूसरा नाम जिनकांची है। यहाँ से बहुत से शिलालेख भी मिले हैं। ये शिलालेख जैन धर्म और संस्कृति पर अच्छी खासी सामग्री उपलब्ध कराते हैं। यही नहीं, पोलूर नामक स्थान से लगभग दस मील दूर तिरूमल नामक गाँव और इसी नाम की एक पहाड़ी है। यहाँ पर अभी भी जैन मतावलम्बियों का निवास है। इनमें से कुछ घरों में जैन धर्म के बहुत से ग्रन्थ भी बताए जाते हैं । दक्षिण आरकाट जिले का पाटलीपुर गाँव कभी जैन गुरुओं का केन्द्र था। सित्तन्नवासल में अनेक जैन गुफाएँ, मन्दिर व मूर्तियाँ मिलती हैं। सित्तन्नवासल का अर्थ है-सिद्धों या जैन साधुओं का वास स्थान । तमिल में 'सित्त' का अर्थ है सिद्ध और 'वासल' का अर्थ है, निवास स्थान । इस क्षेत्र में 'सित्तवणकम्' आज भी प्रचलित है। इस सित्तवणकम् का अर्थ होता है.--'सिद्धों को नमस्कार'। नारट्टामलै नाम की पहाड़ी पर भी जैन धर्म व संस्कृति के अवशेष पाये जाते हैं । आलट्टीमल नाम की पहाड़ी पर भी सित्तन्नवासल की तरह प्राकृतिक गुफाएँ हैं जो जैन धर्म से सम्बन्धित हैं । मदुरा, अज्जनन्दि आदि स्थानों पर तो जैन धर्म के अवशेष बड़ी मात्रा में पाये जाते हैं । 'अरगमकुप्पम्' गाँव अरिहंतों के गाँव के रूप में आज भी प्रसिद्ध है। कडलू में जो विशाल खण्डहर व अन्य अवशेष प्राप्त होते हैं, उनके लिये ऐसा कहा जाता है कि वहाँ पर कभी एक बहुत बड़ा जैन विश्वविद्यालय था। यह सब इसलिये संभव हो सका कि यहाँ पर अनेक दिग्गज जैनाचार्य जैन शासन की प्रभावना के लिए आए। कुछेक जैनाचार्य यहीं जन्में, जैन धर्म का प्रचार-प्रसार किया और इसी भूमि पर समाधिमरण से मृत्यु का वरण किया। उनमें अकलंक, गुणभद्र आदि मुख्य रहे हैं। कुछ आचार्यों का आगमन तो इस भूमि के लिए ऐतिहासिक माना जाता है। उनके आने से जैन धर्म का प्रभाव जन-मानस पर ही नहीं, राजाओं पर भी पड़ा । क्रमश: जैन धर्म राज-धर्म बन गया । सर्वत्र जैनों का प्रभुत्व और प्रभाव बढ़ने लगा। विशाल जैन मन्दिरों की भी जगह-जगह स्थापना होने लगी। सर्वत्र जैन धर्म को सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा। जैन धर्म यहाँ के जन-मानस में जब पूर्णरूपेण आत्मसात् हो गया तब जैनाचार्यों, संतों और विद्वानों की लेखनी तमिल भाषा में चली। जैन दर्शन और साहित्य पर अनेकानेक ग्रन्थ लिखे गये। तमिल भाषा को इससे सुसम्पन्न होने का अवसर मिला । कन्नड भाषा भी इससे लाभान्वित हुई। 'नालडीयार' और 'इलंगो अडिगल' जैसे श्रमण संतों का योग विशेष उल्लेखनीय रहा । यह निर्विवाद सत्य है । यहाँ का विद्वत् समाज भी बहुत गौरव के साथ इस बात को स्वीकार करता है और यह भी मानता है कि यदि इस भाषा से प्राचीन जैन साहित्य निकाल दिया जाय तो इस भाषा में रिक्तता आ जायेगी। तिरूक्कुरल नाम का सुप्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ यहाँ बहुत सम्मान और आदर के साथ पढ़ा जाता है । इस ग्रन्थ का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है । ग्रन्थ के रचयिता तिरूवल्लुवर माने जाते हैं । कुछ विद्वानों का अभिमत है कि यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा था। ऐसा भी माना जाता है कि तिरूवल्टुवर कुन्दकुन्दाचार्य के शिष्य थे। किंवदन्ती के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि इस ग्रन्थ के वाचन का प्रोग्राम राजसभा में रखा गया था। कुन्दकुन्दाचार्य स्वयं उपस्थित नहीं हुए। उन्होंने तिरूवल्लुवर को भेजा। उसका वाचन तिरूवल्लुवर ने किया था। अत: उनके नाम से प्रसिद्ध हो गया। यह सत्य है कि यह जैन ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के आरम्भ में आदि-भगवान को नमस्कार किया है। धर्म अमृत है, पर अमृत के नाम से जहर कितना उगला गया। धर्म व्यापक है पर व्यापकता के नाम पर संकीर्णता कितनी बरती गयी । धर्म अहिंसा है पर अहिंसा के नाम पर हिंसा कितनी हुई, इसका एक ज्वलन्त उदाहरण Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड है-दक्षिण में जैनों के प्रति तथाकथित धार्मिकों के द्वारा अत्यन्त करुणाजनक और हिंसाजनक किया गया अत्याचार । हम कल्पना नहीं कर सकते कि एक धार्मिक दूसरे धार्मिक के प्रति इतना हिंसक बन सकता है। धर्म के नाम पर क्या नहीं किया जा सकता ? यहाँ की घटनाओं से स्पष्ट हो जाता है। मन नहीं चाहता है कि ऐसी घटनाओं का विस्तार से उल्लेख किया जाय । किसी घटना को लेकर सैकड़ों जैन संतों को, लाखों जैनी भाइयों को मौत के घाट उतारा गया। कोल्हू में पीला गया । कड़ाहों में तला गया। हिंसा चरम सीमा पर पहुंची। उस हिंसा के तूफान में अनेकों मरे । अनेकों शैव-धर्मी बने और अनेकों ने छद्मवेष धारण किया और अनेक भव्य जैन मन्दिर शिव मन्दिर में परिणत हो गए। आज दक्षिण के जैनों की संख्या बहुत कम और सामान्य स्थिति में है। प्रायः खेतीकर लोग है । आज वे नाईनार से पुकारे जाते हैं । जैन धर्म के संस्कारों में आज भी वे सुदृढ़ हैं । अपनी संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए वे लोग अपनी संतानों के नाम तीर्थकर और प्राचीन आचार्यों के नाम पर रखते हैं । रात्रिभोजन वे लोग नहीं करते। सुनने को यहाँ तक मिलता है कि माताएँ अपने बच्चे को रात्रि में स्तनपान भी नहीं करातीं। तमिलनाडु में जैन संस्कृति का प्रभाव आज भी जनमानस पर छाया हुआ है। इसका पता बहुत आसानी से लग सकता है । यहाँ के पहनाव को देखने से ऐसा लगता है कि यहाँ जैन संतों की सचेलक और अचेलक दोनों प्रकार की साधना चलती थी। यहाँ के स्थानीय लोग विवाह दिन में करते हैं । रात्रि में विवाह करने वाले मारवाड़ियों को कहते हैं कि यह चोर विवाह है। यह जैनों के लिए चिन्तन का विषय है। जैनों की पहचान के यहाँ दो प्रमुख कारण मानते हैं-रात्रि-भोजन न करना और अनछाना पानी न पीना। दक्षिण की यात्रा के प्रसंग में आचार्य श्री से राजगोपालाचार्य ने कहा था-'यहाँ के जनमानस में जैन धर्म के संस्कार हैं । यहाँ लोग फूल को नहीं बीघते । यह जैनों की अहिंसा का ही प्रभाव है। मैं निरामिष-भोजी हूँ। यह जैन धर्म की ही देन है; नहीं तो मांसाहारी होता' । Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन जातियों का उद्भव एवं विकास बहुत रहस्यमय बना हुआ है। अनुश्रुतियों के अनुसार ये जातियाँ बहुत प्राचीन हैं, किन्तु सातवीं सदी के पहले इनके होने का अस्तित्व नहीं मिलता। ऐतिहासिक दृष्टि से इन जातियों की स्थापना आठवीं एवं तेरहवीं शताब्दी मध्य हुई थी । ऐसा पता चलता है कि करीब आठवीं शताब्दी में जैन साधु रत्नप्रभरि ओसिया धीमान और पाली गए, जहाँ लोगों को जैन धर्मावलम्बी बनाया तथा इन स्थानों के नाम पर क्रमशः ओसवाल, श्रीमाल एवं पालीवाल जातियों की स्थापना की। परिवर्तन के पश्चात् ओसवालों की संख्या लगातार बढ़ती गई और इन्होंने अनेक गोत्र भी बना -ति श्रीपाल एक ग्रन्थ का हवाला देता है, जिसमें इस जाति के ६०९ गोत्रों का उल्लेख है ।" इस जाति के कुछ गोत्र स्थान कुछ व्यक्ति तथा कुछ धन्धों के नाम पर हैं। श्रीमाल जाति की सबसे प्राचीन वंशावली के अनुसार श्रीमाल जाति तथा भारद्वाज गोत्र के वणिक तोड़ा को ७३८ ई० में किसी जैन साधु ने सम्बोधित किया । १२५३ ई० में पहलीवाल जाति के देवा ने चन्द्रगच्छ के यशोभद्रसूरि से मल्लिनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाई । " F जेन जातियों का उदभव एवं विकास [] डॉ० कैलाशचन्द्र जैन आचार्य व अध्यक्ष, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति व पुरातत्व विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म०प्र०) प्राचीन अभिलेखों तथा ग्रन्थों में पोरवाल जाति का नाम प्राबाट मिलता है जो मेवाड़ (मेदपाट) का प्राचीन नाम है ऐसा प्रतीत होता है कि प्राग्वाट देश के लोग कालान्तर में प्राग्वाट व पोरवाल कहे जाने लगे । इन्दरगढ़ के वि० सं० ७६७ के लेख से ज्ञात होता है कि प्राग्वाट जाति के कुमार की देउल्लिका तक्षुल्लिका एवं भोगिनिका नाम की पुत्रियों ने गुहेश्वर के मन्दिर को दान दिया । परवाल जाति के लोग पोरवालों से भिन्न हैं । परवाल लोगों की उत्पत्ति ग्वालियर के समीप स्थित प्राचीन पद्मावती नामक स्थान से हुई है, जो आजकल पवाया कहलाता है । खंडेलवाल जाति और बघेरवाल जाति की उत्पत्ति दसवीं सदी के पहले क्रमशः खंडेला और बघेरा से हुई है । राजस्थान में खंडेल जाति का सबसे प्राचीन उल्लेख ११६७ ई० के अभिलेख में हुआ है। खंडेलवाल जाति का उल्लेख उज्जैन से प्राप्त वि० सं० १२१६ तथा वि० सं० १२०० की जैन प्रतिमाओं में भी मिलता है। मुसलमानों के भय से मांडलगढ़ को छोड़कर १२वीं सदी के अन्त में धारानगरी जाने वाला पंडित आशाधर बघेरवाल जाति का था । बघेरवाल श्रावकों के नाम उज्जैन की जैन प्रतिमा के बारहवीं सदी के अभिलेख में पाया जाता है। इन खंडेलवाल और बघेरवाल जातियों की उत्पत्ति तो राजस्थान में हुई किन्तु कालान्तर में कुछ श्रावक मध्यप्रदेश को चले गये । १. जैन सम्प्रदाय शिक्षा, पृ० ६५६ २. जैन साहित्य संशोधक एवं जैनाचार्य आरमाराम शताब्दी स्मारक ग्रन्थ, गुजराती विभाग, पृ० २०४ - २. नाहर जैन ग्रनं० १७७८ ४. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द २२ ६. मालवा थू दि एजेज, पृ० ५१२ ५. जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० १०३ ७. वही . Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड जैनियों में जैसवाल जाति की उत्पत्ति बारहवीं शताब्दी के पश्चात् हुई जब जैसलमेर की स्थापना हो गई थी। चौदहवीं तथा पन्द्रहवी शताब्दी में चित्तौड़ा तथा नागदा जातियों के श्रावकों ने अनेक प्रतिमाओं तथा मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। कुछ जातियाँ ऐसी हैं जो मूल में क्षत्रिय थीं किन्तु कालान्तर में जैन धर्म को स्वीकार करके वणिक जातियों में घुल-मिल गई । जालोर दुर्ग के सुवर्णगिरि पहाड़ के नाम पर सोनीगरा चौहान जैनधर्म को अपनाने पर सोनी कहलाये । जब हथुडिया राठोड़ जैनधर्म में में परिवर्तित हो गए तो वे हथुडिया श्रावक कहे जाने लगे। अनुश्रुतियों के अनुसार अग्रवाल जाति की स्थापना बहुत प्राचीन समय में अग्रसेन ने की और इसकी उत्पत्ति पंजाब में अग्रोहा नामक स्थान से हुई। आठवीं शताब्दी के पूर्व इस जाति के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं मिलता। कालान्तर में ये लोग राजस्थान में आकर बस गये तथा समय-समय पर प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा तथा ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाई। हुंबड़ जाति की उत्पत्ति के स्थान का पता नहीं लग रहा है। बहुत सम्भव है कि अन्य जातियों के समान इसकी भी उत्पत्ति किसी विशेष स्थान से हुई हो। राजस्थान में वागड़ प्रदेश के डूंगरपुर, बाँसवाड़ा और प्रतापगढ़ में इस जाति के लोग पाये जाते हैं। अन्य जातियों के समान इस जाति की स्थापना भी आठवीं सदी के पश्चात् हुई थी। इन लोगों ने भी अनेक मन्दिरों और मूतियों की प्रतिष्ठा की। झालारापाटन का प्रसिद्ध शांतिनाथ का जैन मन्दिर इस जाति के साह पीपा ने १०४६ ई० बनवाया था।' धर्कट जाति की उत्पत्ति राजस्थान में हुई ज्ञात होती है, किन्तु अभी इसके लोग दक्षिण में पाये जाते हैं। हरिषेण के 'सिरिजपुरिय ठक्कड़कुल' कथन से नाथुराम प्रेमी का कहना है कि इसकी उत्पत्ति सम्भवतः टोंक जिले के सिरोंज नामक स्थान से हुई । अगरचन्द नाहटा की मान्यता है कि इसकी उत्पत्ति धकड़गढ़ से हुई जिससे ही महेश्वरी जाति की धकड़ शाखा निकली। दो प्रशस्तियों के प्रमाण पर वह इस स्थान को श्रीमाल के पास बतलाते हैं। श्रीमोढ़ जाति की उत्पत्ति गुजरात के अणहिलवाड़ के दक्षिण में स्थित प्राचीन स्थान मोढेरा से हुई है। प्रसिद्ध विद्वान् हेमचन्द्रसूरि का जन्म इसी जाति में हुआ है। इस जाति से सम्बन्धित अभिलेख बारहवीं सदी से मिलते हैं । अनेक जैन श्रावक तथा ब्राह्मण इसी जाति से अपने को पुकारते हैं जिसकी उत्पत्ति इस प्राचीन स्थान से हुई है। १. अनेकान्त, १३, पृ० १२५ . ३. अनेकान्त, ४, पृ० ६१७ २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४६८ ४. जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह, ५२ और ६३ Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.- .-.-. जैन जाति और उसके गोत्र 0 श्री बलवन्तसिंह महता भू०पू० संसद सदस्य, रैन बसेरा, उदयपुर जैन जाति के लिए यह कम गौरव और महत्त्व की बात नहीं है कि इस देश का नाम भारतवर्ष जैनधर्म के आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव के बड़े पुत्र चक्रवर्ती के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी तरह इस देश की दो प्रधान संस्कृतियाँ मानी गयी हैं जो वैदिक और श्रमण के नाम से जानी जाती हैं । वैदिक सत्यमूलक है तो श्रमण अहिंसामूलक । वैदिक सनातन या ब्राह्मण धर्म कहलाता है तो श्रमण वीरों का क्षात्रधर्म माना जाता है। वैदिक धर्म व संस्कृति के इस देश के बाहर से आये हुए आर्यों की होने के कारण श्रमण संस्कृति ही इस देश की मूल व आदि संस्कृति और जैनधर्म इसी संस्कृति का प्रधान अंग होने से इस देश का मूल व आदि धर्म माना गया है जिसे देश के राष्ट्रनेता पण्डित जवाहरलालजी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इण्डिया' (भारत की कहानी) में खुले रूप से स्वीकार किया है। यह भी जैन जगत के लिए कर्म गर्व व गौरव की बात नहीं मानी जा सकती। जैन धर्म में परम+आत्मा परमात्मा का निषेध नहीं है पर वह उसे सृष्टिकर्ता नहीं मानता। जैनधर्म का जातिपाँति में विश्वास नहीं है किन्तु वह अपने 'कम्मेसूरा सो धम्मेसूरा' के मौलिक सिद्धान्त के अनुसार जैनधर्म को वीरों का धर्म मानने के कारण क्षात्रत्व को धर्मपालना में महत्त्व ही नहीं देता अपितु प्राथमिकता भी देता है। जैन धर्म के आध्यात्मिक क्षेत्र के प्रवेश में जाति, पाँति, वर्ण आदि पर कोई रोक नहीं है पर तीर्थ की स्थापना करने वाले तीर्थकरों के क्षत्रियकुल में जन्म होने की अनिवार्यता को खुले रूप से स्वीकार किया है। इस मान्यता का हिन्दू धर्म पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है। जैन धर्म के २४ तीर्थंकरों के अनसार हिन्दू धर्म ने भी २४ अवतार माने हैं। तीर्थंकरों द्वारा तीर्थस्थापना के उद्देश्य के अनुसार अवतारों द्वारा भी गीता के अनुसार 'धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे'-धर्म संस्थापन की ही कल्पना की गयी है। अवतारों में वामन, परशुराम आदि ब्राह्मण अवतार हैं किन्तु ब्राह्मणों द्वारा भी मन्दिरों में पूजा क्षत्रियकुल में उत्पन्न अवतारों की ही करवायी गयी है। यह जैनधर्म की इस मान्यता का हिन्दूधर्म पर प्रत्यक्ष प्रभाव दिखायी पड़ता है। वैसे उपनिषदों ने तो 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्य' कहकर अध्यात्मक्षेत्र में प्रवेश करने वाले प्रत्येक मुमुक्ष पर यह अनिवार्यता कर दी है। महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद १२ वर्ष तक गौतम स्वामी के जीवित रहने पर भी श्वेताम्बरों का सुधर्मा स्वामी को पट्टधर मानने का भी यही कारण था कि सुधर्मा स्वामी क्षत्रिय कुल में जन्मे थे। आज भी श्वेताम्बर समाज में आचार्य पदवी प्रायः उसी को दी जाती है जो मूल में क्षत्रिय कुल का हो । अस्तु । दक्षिण देश कर्णाटक में जैनधर्मावलम्बी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि सब ही वर्गों में मिलेंगे पर उत्तर भारत और पश्चिम में जैनधर्म वैश्य वर्ग तक ही सामित हो गया है। पर ये मूल में सब ही क्षत्रिय कुल के हैं। उत्तर भारत, मध्यभारत, राजस्थान और गुजरात के क्षत्रियों की मुख्य शाखाएँ निम्न मानी गयी हैं (१) गहलोत-सिसोदिया, (२) राठौड़, (३) चौहान, (४) परमार, (५) झाला, (६) सोलखी आदि । आज जैनी क्षत्रियों की उपरोक्त मूल शाखाओं के ज्यों के त्यों इसी रूप में पाये जाते हैं। यही नहीं, इनकी उपशाखाओं याने इनसे निकली हुई खां जो नीचे दी जाती हैं उनमें भी वे उसी खांप व गोत्र से जाने जाते हैं । क्षत्रिय कुलों Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड D.0 0 0 0 .0.0.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. से कई उपशाखाएँ निकलीं किन्तु यहाँ हम उन्हीं शाखाओं या खांपों को दे रहे हैं जो आज जैनियों के भी गोत्र हैं। आज भी जैनियों के शादी विवाह के वे ही रस्म-रिवाज हैं जो क्षत्रिय कुलों के हैं। गहलोत-सिसोदिया, पीपाडा, भटेवरा ओड़लिया, पालरा (पालावत), कुचेरा, डामलिया, गोधा, मांगलिया, मोड हूल, स्वरूपरिया, चितौड़ा, आहाडा, राणा, भाणावत, गोभिल । राठोड़--डांगी, माण्डौत, कोटडिया, भदावत, पौरवरणा। चौहान-मादरेचा, हाडा, वागरेचा, बडेर, चंडालिया, गेमावत, जालौरी, सामर । परमार-सांखला, छाहड़, हुमड़, काला, चौरडिया, गेहलडा, पिथलिया। पडिहार-बापणा, चौपड़ा। झाला-मकवाना। नाग-टांक या टाक कछवाह-गोगावत सोलखी-सोजतिया, खेराड़ा, भूहड़ यादव–पुगलिया राजपूतों की पूरी खांपों का इतिहास अभी तक प्रगट नहीं हुआ है वरना और भी गोत्रों का पता चल सकता है । राजपूतों में भी कई गोत्र स्थानवाचक हैं, जैसे सिसोदिया, अहाड़ा, पीपाड़ा, भटेवरा आदि; इसी प्रकार जैन जातियों में भी अधिकांश स्थानवाचक व पेशे व पद के सूचक हैं । जो यहाँ दिये जा रहे हैं स्थानवाचक-सिसोदिया, भटेवरा, पीपाड़ा, अहाड़ा (अहाड़ से), मारु (मारवाड़ से), ओस्तवाल व ओसवाल (ओसियां से), देवपुरा, डूंगरपुरिया, जावरिया, चित्तौड़ा, सींगटवाडिया, नरसिंहपुरा, जालोरी, सिरोया, खींवसरा, पालीवाल, श्रीमाल, कंठालिया, डूंगरवाल, पोरवाल, कर्णावट, गलूँडिया, कछारा (कच्छ) से, डांगी, (डांग से), गोडवाडा। व्यापार सूचक-जौहरी, सोनी, हिरन (सोने का व्यापार करनेवाला, सोनी जेवरों में) लुणिया, बोहरा (बोरगत), गांधी, तिलेसरा, कपासी, विनोलिया, संचेती (थोकमाल का व्यापारी), भण्डशाली (पहले गोदामों में माल भाण्डों में रखा जाता था), रांका (ऊन के व्यापारी), दोशी (कपड़े का व्यापारी), पटवा, बया (तोलने वाला)। पद वाचक-पगारिया (वेतन चुकाने वाला), वोथरा--बोहित्थरा (जहाज से माल मँगाने वाला) हिलोत (सेलहत्थ-भाला रखने वाले), महता (लेखन का काम करने वाला या राणियों के कामदार), चौधरी, कोठारी, भण्डारी, खंजाची, बेताला (खानों पर काम कराने वाला), नानावटी, कावेडिया (कवडिये सिक्के के व्यापारी,), गन्ना, मंत्री, सिंघवी, सेठिया, साहु (शाह), खेतपालिया, वेद, नाहरा, साहनी (घोड़ों का अफसर), छाजेड़ । सिन्ध से आये हुए-ललवानी, सोमानी, छजलानी, चोखानी, सोगानी। उपरोक्त जो भी कुछ गोत्र दिये गये हैं वे सब मध्यपूर्व व मध्य युग में जैनाचार्यों द्वारा जैन धर्म में जिन क्षत्रियों को दीक्षित किया गया था उन्हीं के हैं। अब हम उन गोत्रों पर प्रकाश डालेंगे जो महावीर काल में या उनके पीछे जैन ग्रन्थों में पाये जाते हैं और इतिहास के अन्धकार में उनके उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई मनगढन्त कथाएँ प्रचलित कर दी गयी हैं। दोशी को दोषी बताते हुए जैन जाति का अन्तिम परिवर्तित गोत्र मानकर इसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहा जाता है कि 'और भी कोई होसी' । यह बहुत ही प्राचीन जाति है जो सूत और रेशम के वस्त्रों का व्यापार करती थी। जो ब्राह्मण व्यापारी हो गये हैं उनमें भी आज दोशी गोत्र हैं। भगवान् महावीर की दीक्षा के समय जो शरीर पर वस्त्र था वह दुष्य ही था। उसके व्यापार करने वाले को दोशी कहा गया था। शत्रुजय का अन्तिम Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन जाति और उसके गोत्र ६५ .... ............................................................ ....... . उद्धार कराने वाला कर्माशाह दोशी था जो देश के कपड़े के बड़े व्यापारियों में था। उसके यहाँ चीन से रेशमी वस्त्र जहाजों द्वारा जाता था। वह महाराणा का दीवान भी था किन्तु शिलालेखों में उसे दोशी लिखा गया है। बोथरा—यह बो हित्थ से बना है जिसका संस्कृत भाषा में अर्थ जहाज होता है। मेवाड़! में बोथरा को बोहित्थरा कहा जाता है । यह शब्द भी प्राचीन काल से चला आ रहा है। __ रांका-पाणिनि काल में पंजाब और हिमालय प्रदेश में रंकु नाम की प्रसिद्ध बकरियाँ थीं, जो उनको बेचने आता और जो लेता, अर्थात् जो उनका व्यापार करते वे रांका कहलाते थे। रांका और बांका नाम के दो भाइयों की कथा गढ़कर उनके वंशजों को भी रांका मान लिया गया है। विस्तार के भय से उपर्युक्त कुछ ही उदाहरण दिये गये हैं। वैसे बहुत सामग्री उपलब्ध है जिससे यह सिद्ध किया जा सकता है कि वर्तमान में जैन जाति पूर्ण रूप से क्षत्रिय है और स्थान, पद और व्यवसाय के नाम से पुकारे जाने के पर भी यह पता लगाना असम्भव नहीं हैं। Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक परम्परा [] डॉ० बिहारीलाल जैन सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर भट्टारक-परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय के मूलसंघ, काष्टसंघ, नन्दिसंघ से सम्बन्धित है किन्तु भट्टारकीय प्रवृत्तियों पर श्वेताम्बर परम्परा के चैत्यवासी मुनियों के आचरण का भी प्रभाव पड़ा है। अतः भट्टारक- परम्परा का परिचय देने के पूर्व दिगम्बर एवं श्वेताम्बर चैत्यवासी मुनियों की जीवन-चर्या एवं कार्य-कलापों का दिग्दर्शन करना आवश्यक है ताकि भट्टारक परम्परा की प्रवृत्तियों को भलीभांति समझा जा सके। जनसंघ में चैत्यवासी - दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में मुनियों के अनेक संघ प्रचलित हुए हैं किन्तु मुख्य रूप से दो प्रकार के मुनि होते थे चैत्यवासी और वनवासी। जो मुनि समाज के बीच आकर किसी चैत्य में स्थायी रूप से निवास करने लगते थे तथा मन्दिर, मूर्ति, ग्रन्थ आदि की सुरक्षा के कार्य में लग जाते थे, वे चैत्यवासी और जो वन में रहते हुए अपने आत्म ध्यान में लगे रहते थे, वे वनवासी कहलाते थे । श्वेताम्बर - परम्परा में चैत्यवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और जो संवेगी कहलाते हैं, वे वनवासी शाखा के प्रतिनिधि हैं । परा में भट्टारक चैत्यवासी परम्परा के प्रतिनिधि है और न मुनि वनवासी परम्परा के हैं। आज के यति दिगम्बर पर श्वेताम्बर पत्यवासी श्वेताम्बर चैत्यवासी जैन मुनियों की जीवनचर्या के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों में कुछ उल्लेख मिलते हैं। आचारांग में सज्जा निवारण के लिए साधुओं को सादे वस्त्र रखने की छूट दी गयी। किन्तु जिन शर्तों के साथ यह छूट दी गयी थी, धीरे-धीरे वे नगण्य हो गई और विक्रम की छठी शताब्दी तक श्वेताम्बर साधु आवश्यकता पड़ने पर कटिवस्त्र धारण करते रहे । किन्तु इस समय तक इनके आचरण और दिगम्बर साधुओं की चर्या में कोई विशेष अन्तर नहीं था। आगे चलकर वस्त्र धारण करना आवश्यकता पर निर्भर नहीं रह गया बल्कि यह सामान्य नियम हो गया । इसके साथ ही श्वेताम्बर जैन साधु सामाजिक कार्यों में भी अपनी रुचि दिखाने लगे । श्वेताम्बर चैत्यवासी मुनियों के इतिहास के सम्बन्ध में जो प्रमाण उपलब्ध हैं उनसे ज्ञात होता है कि वीर निर्वाण संवत् ८०२ (वि० [सं० ४१२ ) से चैत्यवास प्रारम्भ हो चुका था। जनमत पट्ट की भूमिका में कहा गया है कि वीर निर्वाण संवत् ८५० वि० सं० २००) के लगभग कुछ मुनियों ने उम्र बिहार छोड़कर मन्दिरों में रहना प्रारम्भ कर दिया । धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गयी। इन चैत्यवासियों ने निगम नाम के कुछ ग्रन्थ भी लिखे जिनमें १. द्रष्टव्य -- मुख्त्यार, जुगलकिशोर - वनवासी और चैत्यवासी जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४७८- ६५. २. आचारांग १.६.३.२.१४.१. ३. ( क ) हरिभद्र - संबोध प्रकरण, अहमदाबाद, वि० सं० १९७२. (ख) जिनवल्लभ-संघपट्टक. ४. धर्मसागर की पट्टावली-बीरात् ६५२ चैपस्थितिः । . Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक-परम्परा ६७ यह कहा .या है कि मुनियों को चैत्य में रहना उचित है और उन्हें पुस्तकादि के लिए आवश्यक द्रव्य भी संग्रह करना चाहिए। विक्रम संवत् ८०२ में शीलगुणसूरि ने वहाँ के राजा से यह घोषणा भी करवा दी थी कि नगर में चैत्यवासी साधु को छोड़कर वनवासी साधु नहीं आ सकेंगे। इन सब विधानों के कारण ईसा की सातवीं शताब्दी तक राजस्थान में चैत्यवासियों का काफी प्रभाव बढ़ गया था। इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति का विरोध अनेक श्वेताम्बर साधुओं ने किया क्योंकि वे यह मानते थे कि जैन-साधु का कार्य आत्म-ध्यान करता है, सामाजिक सुधार के कार्यों से उसके आचरण में शिथिलता आती है। प्रसिद्ध दार्शनिक आचार्य हरिभद्र ने संबोध-प्रकरण में श्वेताम्बर चैत्यबासी साधुओं के शिथिलाचार का विस्तार से वर्णन किया और इसे जैन-संघ के लिए अहितकर माना है। इससे प्रतीत होता है कि आठवीं शती तक श्वेताम्बर चैत्यवासी साधुओं का शिथिलाचरण बहुत बढ़ गया था, जिनके विरोध में जिनवल्लभ, जिनदत्त, जिनपति, नेमिचंद भण्डारी आदि जैनाचार्यों ने सशक्त आवाज उठायी थी। दिगम्बर चैत्यवासी-दिगम्बर परम्परा के मुनि-संध में चैत्यवासी नाम से मुनियों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु श्वेताम्बर चैत्यवासी मुनियों की जो प्रवृत्तियाँ थीं वैसी ही प्रवृत्तियाँ करने वाले मुनि दिगम्बर सम्प्रदाय में भी रहे होंगे तभी आचार्य कुन्दकुन्द से लेकर पं० आशाधर तक अनेक दिगम्बर आचार्यों को ऐसे शिथिलाचारी मुनियों के आचरण का विरोध करना पड़ा है । कुन्दकुन्द के लिंगपाहुड से ज्ञात होता है कि कुछ जैन साधु ऐसे थे जो गृहस्थों के विवाह जुटाते थे और कृषिकर्म, वाणिज्यादि रूप हिंसाकर्म करते थे। आचार्य कुन्दकुन्द ने ऐसे साधुओं को पश समान माना है। संभवत: वे उनकी इतनी तीव्र भर्त्सना करके उन्हें सत्पथ पर लाना चाहते थे। इससे स्पष्ट है कि दूसरी शताब्दी में शिथिलाचारी दिगम्बर जैन साधु भी थे। देवसेन के दर्शनसार में भी पाँच जैनाभासों की उत्पत्ति का इतिहास दिया गया है। उनमें द्राविड, काष्ठा और माथुर संघ को जैनाभास कहा गया है। उसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि इन संघों के साधु वनवासी साधओं से संभवतः भिन्न आचरण करने लग गये थे । आगे चलकर यह बात ऐतिहासिक प्रमाणों से भी सिद्ध होती है। शक संवत १०४७ के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि द्राविड़ संघीय श्रीपालयोगीश्वर को सल्ल नामक ग्राम दान में दिया गया था। विक्रम संवत् ११४५ के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि काष्ठासंघ के विजयकीति मुनि के उपदेश से राजा विक्रमसिंह ने मुनियों को जमीन एवं बगीचे आदि में दान दिये। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि दिगम्बर जैनसंघ के मुनि भी वसति अथवा जैन मन्दिरों में रहते थे और उनको दान में जमीन आदि दी जाती थी। उपर्यक्त शिथिलाचरण वाले दिगम्बर मुनियों को चैत्यवासी, मठपति या भट्टारक क्यों कहा जाता था, यह स्पष्ट नहीं है। क्योंकि ऐसे मुनियों का उल्लेख मुनि और भट्टारक दोनों विशेषणों के साथ हुआ है। ऐसे दिगम्बर साध शिथलाचारी होने पर भी नग्न रहते थे तथा इनके धार्मिक कार्यों में कोई विशेष मतभेद नहीं था। किन्तु ऐसे मुनियों का आचरण विशुद्ध दिगम्बर जैन-मुनियों तथा आचार्यों के लिए चिन्ता का विषय अवश्य था। यही कारण २. वही -हरिभद्रसूरि, संबोध प्रकरण १. द्रष्टव्य-जिनवल्लभकृत संघपट्टक की भूमिका ३. बाला वयंति एवं वेसो तित्थंकराण एसो वि । णमणिज्जो घिट्टी अहो सिरसूलं कस्स पुकरिमो ॥ ७६ ॥ ४ द्रष्टव्य-नाहटा, अगरचंद--यतिसमाज-अनेकांत, वर्ष ३, अंक ८-६ ५. जो जोडेदि विवाहं किसिकम्मवणिज्जजीवघादं च-लिंगपाहुड, गाथा । ६. वही, गाथा-१२ ७. द्रष्टव्य-दर्शसार, गाथा २४ से ४६ तक ८. द्रष्टव्य-जैन शिलालेख संग्रह, शिलालेख नं० ४६३ ६. द्रष्टव्य-एपिग्राफिका इण्डिया, जिल्द २, पृ० ३३७-४० Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड है कि आचार्य सोमदेव ने इन मुनियों को विशुद्ध मुनियों की छाया कहा है।' आगे चलकर बारहवीं शताब्दी में पं० आशाधर को शिथिलाचारी मुनियों की संख्या में वृद्धि के कारण यह कहना पड़ा कि खेद है कि सच्चे उपदेशक मुनि जुगनू के समान कहीं-कहीं ही दिखाई पड़ते हैं। इस प्रकार जैन संघ की प्राचीन परम्परा में मुनियों का एक वर्ग ऐसा था जिसने समय के प्रभाव से जैनमुनि आचार-संहिता में संशोधन कर समाज को अपने साथ करने का प्रयत्न किया था, क्योंकि धार्मिकों के बिना धर्म नहीं होता । अत: धार्मिकों को बनाये रखने के लिए पूजा-विधान, मन्दिर, मूर्ति, तीर्थयात्रा आदि कार्यों में भी इन मुनियों को सम्मिलित होना पड़ा। साथ ही श्रावकों में लिए उन्हें ऐसे साहित्य का भी सृजन करना पड़ा जो जैन धर्म के अनुरूप जीवन-चर्या का विधान कर सके । यही कारण है कि लगभग आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अनेक श्रावकाचार ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। इन सब तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भट्टारक-परम्परा प्रारम्भ होने के पूर्व भी जैनसंघ में निम्न प्रवृत्तियाँ प्रचलित थी - १. मुनियों का चैत्यों, वसति अथवा मन्दिरों में निवास करना । २. श्रावकों के धार्मिक कार्यों में मुनियों द्वारा सहयोग । ३. तीर्थयात्राओं का आयोजन करना। ४. मन्दिरों का जीर्णोद्धार करना एवं भूमि आदि का दान ग्रहण करना । ५. विशेष परिस्थितियों में मुनियों द्वारा वस्त्र-धारण करना। ६. साहित्य-निर्माण के साथ-साथ प्राचीन ग्रन्थों का संरक्षण करना । ये विशेष प्रवृत्तियाँ ही आगे चलकर भट्टारक-परम्परा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ बनीं। इसी पृष्ठभूमि के आधार पर भट्टारक-परम्परा कब से और कैसे विकसित हुई उसका विवेचन किया जा रहा है। जैनसंघ और भट्टारक-भट्टारक-परम्परा की प्रवृत्तियाँ जैन मुनि-संघ की प्रवृत्तियों के अनुरूप हैं ईसा की दूसरी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक जैन-मुनियों के आचरण, साहित्य-साधना एवं सामाजिक कार्य आदि प्रवृत्तियाँ भट्टारकों की प्रवृत्तियों में सम्मिलित हुई । अत: मुनि, साधु और भट्टारक-ये शब्द अधिक भिन्नार्थक नहीं हैं । यद्यपि मुनि और साधु शब्द से धर्माचरण में लीन एवं आत्म-कल्याण करने वाले व्यक्ति का ही बोध होता है जबकि भट्टारक शब्द 'स्वामी' शब्द का वाचक है। भट्टारक शब्द मुनियों के लिए कब से और किस रूप में प्रयुक्त हुआ यह कहना कठिन है, क्योंकि जैन मुनिसंघ का कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं मिलता। दूसरी बात यह है कि भट्टारक शब्द का अर्थ भी क्रमश: परिवर्तित होता रहा है । अतः इस शब्द के अर्थ परिवर्तन को ध्यान से देखना होगा । संस्कृत व्युत्पत्ति के आधार पर 'भट्टारक' शब्द भट्ट+ऋ+अण्+कन से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ पूज्य, मान्य, आचार्य, प्रभु या स्वामी होता है । जैन मुनियों के साथ यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। __ भट्टारक शब्द का प्रयोग जैन-आगमों में आवश्यकसूत्र ३ में हुआ है। वहाँ भट्टारक या भट्टारय का अर्थ पूज्य से ही सम्बन्धित है। सस्कृत नाटकों में भट्टारक शब्द स्वामी का वाचक बन गया था ।५ राजा के लिए भी -0 १. यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम् । ___ तथा पूर्वमुनिच्छाया: पूज्या: सम्प्रति संयता ॥ उपासकाध्ययन, श्लोक ७६७, पृ० ३००, २. खद्योतवत् सुदेष्टारो हा द्योन्ते क्वचित् क्वचित् । -सागारधर्मामृत, श्लोक ७, पृ० ११. ३. द्रष्टव्य-शास्त्री, हीरालाल-वसुनंदि श्रावकाचार की भूमिका, पृ० २१. ४. द्रष्टव्य --- पाइअसद्दमहण्णवो, ग्रन्थ क ७, पृ० ६४२ - प्राकृत ग्रन्थपरिषद्, वाराणसी-५, १९६३. ५. 'भट्टारक इतोऽध युष्माकं सुमनो मूल्यं भवतु ।' --अभिज्ञानशाकुन्तल, इलाहाबाद, १९६६, पृ० ३४२. . Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक परम्परा ६६ ...................................................................... इसका प्रयोग हुआ है । अपभ्रंश काव्यों में स्वयंभू के पउमचरिउ में सागरबुद्धि भट्टारक का उल्लेख है, जिससे विभीषण रावण के राज्य का भविष्यफल पूछता है। इससे प्रतीत होता है कि ईसा की आठवीं शताब्दी में जैनमुनि 'भट्टारक' शब्द से सम्बोधित होते थे तथा भविष्यफल जैसे लौकिक कार्यों में भी प्रवृत्त होते थे। अपभ्रंश के अन्य काव्यों में भी 'भडारय' शब्द प्रयुक्त हुआ है ।' इन साहित्यिक उल्लेखों के अतिरिक्त भट्टारक शब्द के प्रयोग के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासिक उल्लेख भी प्राप्त होते हैं, जिनमें ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, अभिलेख एवं पट्टावलियाँ प्रमुख हैं । ग्रन्थों की प्रशस्तियों में षट्खण्डागमटीका धवला (वि० सं० ८३८) में वीरसेन के साथ भट्टारक विशेषण का प्रयोग हुआ है । इसमें कहा गया है कि सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण आदि शास्त्रों में निपुण वीरसेन भट्टारक के द्वारा यह टीका से लिखी गयी है। कषायपाहुड टीका जयधवला (वि०सं० ८४०) में जिनसेन के द्वारा वीरसेन को भट्टारक कहा गया है जो विश्वदर्शी तथा साक्षात् केवली थे।५ उत्तरपुराण की प्रशस्ति (वि०सं० ९५५) में भी वीरसेन को भट्टारक कहा गया है। इन ग्रन्थ-प्रशस्तियों के अतिरिक्त पट्टावलियों में भी भट्टारक शब्द के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। नागपुर की पट्टावलियों में सोमसेन भट्टारक, वीरसेन भट्टारक, माणिक्यसेन भट्टारक आदि अनेक नाम मिलते हैं। शिलालेखों में भी मुनियों के साथ भट्टारक शब्द का प्रयोग हुआ है। हिरेआवली शिलालेखों में जो वि० सं० ११८१ का है, पोडगरिगच्छ के माधवसेन का उल्लेख है। इस प्रकार जैनमुनियों के साथ भट्टारक शब्द प्राचीन समय से ही प्रयुक्त होता रहा है। उक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट होता है कि भट्टारक विशेषण ज्ञान, चारित्र एवं साहित्य-साधना में विशिष्ट स्थान रखने वाले मुनियों के लिए प्रयुक्त हुआ है। संभवत: इन मुनियों का स्वामित्व, पाण्डित्य, ज्ञान एवं चारित्र उत्कृष्ट होने से ही इन्हें भट्टारक कहा गया है। आगे चलकर यह भट्टारक शब्द भौतिक वस्तुओं एवं पद के स्वामित्व का भी द्योतक बन गया होगा। ___ डॉ० जोहरापुरकर ने 'भट्टारक संप्रदाय' नामक पुस्तक में भट्टारक संप्रदाय के जिन गणों और गच्छों का परिचय दिया है तथा उनसे सम्बन्धित प्राचीन लेखों, प्रशस्तियों का संकलित किया है, उनमें भट्टारक शब्द आठवीं से दशवीं शताब्दी तक के साक्ष्यों में बहुत कम प्रयुक्त हुआ है। किन्तु तेरहवीं शताब्दी के बाद भट्टारक शब्द प्रायः सभी पट्टधरों के साथ प्रयुक्त मिलता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि भट्टारक शब्द किसी संप्रदाय या परम्परा का द्योतक नहीं था, केवल सम्बोधन अथवा पूज्य के अर्थ में मुनियों के साथ उसका प्रयोग होता था। जब अनेक गणों के मुनियों की कार्य-प्रणाली एक सी हो गयी और उनके गुरु भट्टारक के नाम से प्रसिद्ध थे तो बाद के शिष्य १. स्वस्ति समस्तभुवनाश्रयश्रीपृथ्वी वल्लभमहाराजाधिराजपरमेश्वरभट्टारक.............. | जोहरापुरकर, विद्याधर भट्टारक संप्रदाय, ले० ८६. २. पभणइ सायरबुद्धि भट्टारउ । कुसुमाउह-सर-पसर-णिवारउ ॥-पउमचरिउ, २१ संधि, १. ३. द्रष्टव्य-भविसयत्तकहा आदि। ४. सिद्धत छंद जोइस वायरण पमाण सत्थ णिवुणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण ।। -धवलाप्रशस्ति, पृ० ३६. ५. श्रीवीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः । पारदृश्वादिविश्वानां साक्षादिव स केवली ।। -जपत्रबलाटीका, भाग १, प्रस्तावना , पृ० ६६. ६. आचार्य, गुणभद्र, उत्तरपुराण, ग्रन्थप्रशस्ति, २-४, पृ० ५७३. ७. द्रष्टव्य-जोहरापुरकर, भट्टारक संप्रदाय, लेख ३७, ३८, ४०, पृ० १३-१४ ८. स्वस्ति श्रीमतु... श्रीमन्मूलसंघद सेनगणद पोगरिगच्छद चन्द्रप्रभसिद्धांतदेवशिष्य""माधवसेन भट्टारकदेवरु । ---जोहरापुरकर, भट्टारक संप्रदाय, पृ० ७ पर उद्धृत Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षण्ठ खण्ड भी भट्टारक कहे जाने लगे। तेरहवीं से सत्रहवीं शताब्दी तक भट्टारक शब्द एक गण विशेष और प्रवृत्तिविशेष का द्योतक हो गया। वस्त्र-धारण का औचित्य-श्वेताम्बर परम्परा के चैत्यवासी और वनवासी मुनि तो वस्त्र-धारण करते ही थे। समय के प्रभाव से दिगम्बर परम्परा के चैत्यवासी मुनियों में भी वस्त्र-धारण का विधान कर दिया गया था। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी के श्रुतसागरसूरि ने लिखा है कि कलिकाल में म्लेच्छादि यतियों को नग्न देखकर उपद्रव करते हैं, इस कारण मण्डपदुर्ग में श्रीवसंतकीर्ति ने वस्त्र धारण करने का अपवाद रूप में विधान किया था ।' यह वसंतकीति विक्रम संवत् १२६४ के लगभग हुए हैं । इस समय तक समाज में मुसलमानों का आतंक भी बढ़ रहा था। अतः स्वाभाविक है कि दिगम्बर साधु तेरहवीं शताब्दी में बाहर निकलते समय लज्जा-निवारण के लिए वस्त्र-धारण करणे लगे। ___ वस्तुतः भट्टारक समाज में आदर्श मुनि के रूप में मान्य थे। किन्तु कालान्तर में भट्टारक-पीठ भौतिक सामग्रियों से सम्पन्न हो गये और पीठाधीश भट्टारक स्वच्छन्द प्रवृत्तियों में आसक्त हो गये । फलतः भट्टारकों का प्रभाव क्षीण हो गया । अधुना अनेक भट्टारक पीठ हैं परन्तु उनका दिगम्बर समाज में विशेष महत्त्व नहीं है। 0000 १. कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वोपद्रवं कुर्वन्ति तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसंतकीर्तिना स्वामिनाचर्यादिवेलादां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुच्यन्तीत्युपदेशः कृतः संयमिनां इत्यपवादवेषः । -षट्प्राभृतटीका, पृ० २१ २. द्रष्टव्य--प्रेमी, नाथूराम-जन साहित्य का इतिहास, पृ० ४६० Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ जैनागमों एवं कोषग्रन्थों में यति, साधु, मुनि, निर्धन्थ, अनगार वापयंम आदि शब्द एकार्थ बोधक माने गये हैं।" अर्थात् यति साधु का ही पर्यायवाची शब्द हैं, पर आजकल इन दोनों शब्दों के अर्थ में रात और दिन का अन्तर आ गया है। इसका कारण यह है कि जिन-जिन व्यक्तियों के लिए इन दोनों शब्दों का प्रयोग होता है, उनके आचारविचार में बहुत व्यवधान हो गया है। जो यति शब्द किसी समय साधु के समान ही आदरणीय था, आज उसे सुनकर काल प्रभाव से कुछ और ही भाव उत्पन्न होते हैं । शब्दों के अर्थ में भी समय के प्रभाव से कितना परिवर्तन हो जाता है, इसका यह ज्वलन्त उदाहरण है । जैन यति परम्परा [] श्री अगरचन्द नाहटा नाहटों की गुवाड़, बीकानेर (राजस्थान) जैन धर्म में साधुओं के आचार बड़े ही कठोर हैं । अतएव उनका यथारीति पालन करना, 'असिधार पर चलने के समान' ही कठिन बतलाया गया है। कहीं-कहीं 'लोहे के चने चबाने का दृष्टान्त भी दिया गया है, और वास्तव में है भी ऐसा ही । जैन धर्म निवृत्तिप्रधान है, और मनुष्य प्रकृति का झुकाव प्रवृत्ति मार्ग की ओर अधिक है। पौद्गलिक मुखों की ओर मनुष्य का एक स्वाभाविक आकर्षण-सा है। सुतरां जैन साध्वाचारों के साथ मनुष्य प्रकृति का संघर्ष अवश्यम्भावी है। इस संघर्ष में जो विजयी होता है, यही सच्चा साधु कहलाता है। समय और परिस्थिति बहुत शक्तिशाली होते हैं, उनका सामना करना टेढ़ी खीर है। इनके प्रभाव को अपने ऊपर न लगने देना बड़े भारी पुरुषार्थ का कार्य है। अतः इस प्रयत्न में बहुत से व्यक्ति विफल मनोरथ ही नजर आते हैं विचलित न होकर मोर्चा बांध कर डटे रहने वाले वीर बिरले ही मिलेंगे। भगवान महावीर ने यही समझकर कठिन से कठिन आचार-विचार को प्रधानता दी है। मनुष्य की प्रकृति जितनी मात्रा में आरामतलब है, उतनी ही मात्रा में कठोरता रखे बिना पतन होते देर नहीं लगती । आचार जितने कठोर होंगे, पतन में भी उतनी देरी और कठिनता होगी। यह बात अवश्य है कि उत्थान में जितना समय लगता है, पतन में उससे कहीं कम समय लगता है । उसे भगवान महावीर ने, भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायियों की जो दशा केवल दो सौ ही वर्षों में हो गई थी, अपनी आंखों देखा था अतः उन्होंने नियमों में काफी संशोधन कर ऐसे कठिन नियम बनाये कि जिनके लिए मेधावी श्रमण केशी जैसे बहुश्रुत को भी गणधर गौतम से उनका स्पष्टीकरण कराना पड़ा। सूत्रकारों ने उसे समय की आवश्यकता बतलाई और कहा कि प्रभु महावीर से पहले के व्यक्ति अजु-प्राज्ञ थे और महावीर शासन काल के व्यक्तियों का मानस उससे बदल कर वक्र-जड़ की ओर अग्रसर हो रहा था। दो सौ वर्षों के भीतर परिस्थिति ने कितना विषम परिवर्तन कर डाला, इसका यह स्पष्ट प्रमाण है। महावीर ने परिधान की अपेक्षा अचेलकत्व को अधिक महत्त्व दिया, और इसी प्रकार अन्य कई नियमों को भी अधिक कठोर रूप दिया । १. अथ मुमुक्षुः श्रमणा यतिः || ६५ || वाचयंमो व्रती साधुरनगार ऋषिर्मुनिः निर्ग्रन्थो भिक्षुः । यत ते मोक्षयंति यतिः (मोक्ष में यत्न करने वाला यति है), यतं यमन मस्त्यस्य यती ( नियमन - नियन्त्रण रखने वाला यति है ।) अभिधान चिन्तामणि । जइ (पु० ) यति, साधु, जितेन्द्रिय संन्यासी ( औपपातिक, सुपार्श्व, पाइअ सद्द महण्ण्वो, भा० २, पृ० ४२६) । २. उत्तराध्ययन सूत्र 'केशी - गौतम - अध्ययन' ३. कल्पसूत्र । - . Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड भगवान की ही दूरदशिता का यह सुफल है कि आज भी जैन साधु संसार के किसी भी धर्म के साधुओं से अधिक सात्त्विक और कठोर नियमों-आचारों को पालन करने वाले हैं अन्यथा बौद्ध और वैष्णवों की भांति अवस्था हुए बिना नहीं रहती । पर यह भी तो मानना ही पड़ेगा कि परिस्थिति ने जैन मुनियों के आचारों में भी बहुत कुछ शिथिलता प्रविष्ट करा दी। उसी शिथिलता का चरम शिकार हमारा वर्तमान यति समाज है। इस परिस्थिति के उत्पन्न होने में मनुष्य-प्रकृति के अलावा और भी कई कारण हैं- जैसे (१) बारहवर्षीय दुष्काल (२) राज्य-विप्लव, (३) अन्य-धर्मों का प्रभाव, (४) निरंकुशता-स्वच्छन्दता, (५) समय की प्रतिकूलता, (६) शरीर-गठन (७) संगठन शक्ति की कमी इत्यादि । प्रकृति के नियमानुसार पतन एकाएक न होकर क्रमशः हुआ करता है। हम अपने चर्म-चक्षु और स्थूलबुद्धि से उस क्रमश: होने वाले पतन की कल्पना भी नहीं कर सकते, पर परिस्थिति तो अपना काम किये ही जाती है। जब वह परिवर्तन बोधगम्य होता है, तभी हमें उसका सहसा भान होता है । “अरे ! थोड़े समय पहले ही क्या था और क्या हो गया? और हमारे देखते देखते ही ?" यही बात हमारे साधुओं की शिथिलता के बारे में लागू होती है । बारह वर्ष के दुष्काल आदि के कारणों ने उनके आचार को इतना शिथिल बना दिया कि वह क्रमशः बढ़ते-बढ़ते चैत्यवास के रूप में परिणत हो गया। चैत्यवास की उत्पत्ति का समय विद्वानों ने वीर संवत् ८८२ में बतलाया है, पर वास्तव में वह समय प्रारम्भ का न होकर मध्यकाल का है। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि परिवर्तन बोधगम्य हुए बिना हमारी समझ में नहीं आ सकता । हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि भविष्य जब पतन या उत्थान का होता है तब एक ही ओर से पतन या उत्थान नहीं होता, वह चारों ओर से प्रवेश कर अपना घर बना लेता है। यही बात जैन श्रमण संस्था पर लागू है । जैनागमों के अनुशीलन से पता चलता है कि पहले ज्ञानबल घटने लगा। जम्बूस्वामी से केवलज्ञान-विच्छेद हो गया, भद्रबाहु से ११ से १४ पूर्व का अर्थ, स्थूलभद्र से ११-१४वाँ पूर्व मूल और वज्रस्वामी से १० पूर्व का ज्ञान भी विच्छिन्न हो गया। इस प्रकार क्रमश: ज्ञान-बल घटा और साथ ही साथ चारित्र की उत्कट भावनाएँ एवं आचरणाएँ भी कम होने लगीं। छोटी-बड़ी बहुत कमजोरियों ने एक ही साथ आ दबाया । इन साधारण कमजोरियों को नगण्य समझकर पहले तो उपेक्षा की जाती है । पर एक कमजोरी आगे चलकर प्रकट होकर पड़ोसिन बहुत ही कमजोरियों को बुला लेती है. यह बात हमारे व्यावहारिक जीवन से स्पाट है। प्रारम्भ में जिस शिथिलता को, साधारण समझकर अपवाद मार्ग के रूप में अपनाया गया था, वही आगे चल कर राजमार्ग बन गई। द्वादशवर्षीय दुष्काल में मुनियों को अनिच्छा से भी कुछ दोषों के भागी बनना पड़ा था, पर दुष्काल निवर्तन के पश्चात् भी उनमें से कई व्यक्ति उन दोषों को विधान के रूप में स्वीकार कर खुल्लमखुल्ला पोषण करने लगे। उनकी प्रबलता और प्रधानता के आगे सुविहिताचारी मुनियों की कुछ नहीं चल सकी। सम्राट संप्रति के समय जैन मन्दिरों की संख्या बहुत बढ़ गई। मुनिगण इन मन्दिरों को अपने ज्ञान-विज्ञान के कार्य में साधक समझकर वहीं उतरने लगे। वन को उपद्रवकारक समझकर, क्रमश: वहीं ठहरने एवं स्थायी रूप से रहने लगे। इस कारण से उन मन्दिरों की देखभाल का काम भी उनके जिम्मे आ पड़ा और क्रमशः मन्दिरों के साथ उनका सम्पर्क इतना बढ़ गया कि वे मन्दिरों को अपनी पैतृक सम्पत्ति समझने लगे। चैत्यवास का स्थूल रूप यहीं से प्रारम्भ हुआ मालूम पड़ता है । एक स्थान में रहने के कारण लोक-संसर्ग बढ़ने लगा। कई व्यक्ति १. पुरातत्त्वविद श्री कल्याणविजयजी ने भी प्रभावक चरित्र पर्यालोचन में यही मत व्यक्त किया है। २. इस सम्बन्ध में दिगम्बर मान्यता के लिए 'अनेकान्त' वर्ष ३, किरण १ द्रष्टव्य है। ३. कहा जाता है सम्प्रति ने साधुओं की विशेष भक्ति से प्रेरित होकर कई ऐसे कार्य किये जिनसे उनको शुद्ध आहार मिलना कठिन हुआ और राजाश्रय से शिथिलता भी आ गई। Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन यति परम्परा -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. उनके दृढ़ अनुयायी और अनुरागी हो गये। इसी से गच्छों की बाड़ाबन्दी की नींव पड़ी। जिस परम्परा में कोई समर्थ आचार्य हुआ और उसके पृष्ठपोषक तथा अनुयायियों की संख्या बढ़ी, वही परम्परा एक स्वतन्त्र गच्छ के रूप में परिणत हो गई । बहुत से गच्छों के नाम तो स्थानों के नाम से प्रसिद्ध हो गये। रुद्रपल्लीय, सडेरक, उपकेश इत्यादि इस बात के अच्छे उदाहरण हैं । कई उस परम्परा के प्रसिद्ध आचार्य के किसी विशिष्ट कार्य से प्रसिद्ध हुए, जैसे खरतर, तपा आदि । विद्वत्ता आदि सद्गुणों के कारण उनके प्रभाव का विस्तार होने लगा और राजदरबारों में भी उनकी प्रतिष्ठा जम गई । जनता में तो प्रभाव था ही, राजाश्रय भी मिल गया, बस और चाहिए क्या था? परिग्रह बढ़ने लगा, वह शाही ठाटबाट-सा हो गया। गद्दी तकियों के सहारे बैठना, पान खाना, स्नान करना, शारीरिक सौन्दर्य को बढ़ाने के साधनों का उपयोग, जैसे बाल रखना, सुगंधित तेल और इत्र-फुलेलादि सेवन करना, और पुष्पमालाओं को पहनना आदि विविध प्रकार के आगम-विरुद्ध आचरण प्रचलित हो गये। __ सुविहित मुनियों को यह बातें बहुत अखरी, उन्होंने सुधार का प्रयत्न भी किया, पर शिथिलाचारियों के प्रबल प्रभाव और अपने पूर्ण प्रयत्न के अभाव के कारण सफल नहीं हो सके। समर्थ आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी अपने संबोध-प्रकरण में चैत्यवासियों का बहुत कड़े शब्दों में विरोध किया है। इस प्रकरण से चैत्यवास का स्वरूप स्पष्ट रूप में प्रकट होता है। कहावत है कि पाप का घड़ा भरे बिना नहीं फूटता । समय के परिपाक के पूरे होने पर कार्य हुआ करते हैं । व्रण भी जब तक पूरा नहीं पक जाता तब तक नहीं फूटता । ग्यारहवीं शताब्दी में चैत्यवासियों का प्राबल्य इतना बढ़ गया कि सुविहितों को उतरने या ठहरने का स्थान तक नहीं मिलता था। पाटण उस समय उनका केन्द्र स्थान था। कहा जाता है कि वहाँ उस समय चैत्यवासी चौरासी आचार्यों के अलग-अलग उपाश्रय थे। सुविहितों में उस समय श्री वर्द्धमानसूरि मुख्य थे। उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि से जैन मुनियों की इतनी मार्गभ्रष्टता न देखी गई, अतः उन्होंने गुरुजी से निवेदन किया कि पाटण जाकर जनता को सच्चे साधुत्व का ज्ञान कराना चाहिए, जिससे कि धर्म, जो कि केवल बाहर के आडम्बरों में ही माना जाने लगा है, वास्तविक रूप में स्थापित हो सके । इन विचारों के प्रबल आन्दोलन से उनमें नये साहस का संचार हुआ और वे १८ मुनियों के साथ पाटण पधारे । उस समय उन्हें वहाँ ठहरने के लिए स्थान भी नहीं मिला, पर आखिर उन्होंने अपनी प्रतिभा से स्थानीय राजपुरोहित को प्रभावित कर लिया, और उसी के यहाँ ठहरे। जैसा कि पहले सोचा गया था चैत्यवासियों के साथ विरोध और मुठभेड़ अवश्यम्भावी थी। उन लोगों ने जिनेश्वरसूरि के आने का समाचार पाते ही जिस किसी प्रकार से उन्हें लांछित कर निर्वाचित कराने की ठान ली। विरुद्ध प्रचार उनका पहला हथियार था। उन्होंने अपने कई शिष्यों और आश्रित व्यक्तियों को यह कहा कि तुम लोग सर्वत्र इस बात का प्रचार करो कि "यह साधु अन्य राजाओं के छद्मवेशी गुप्तचर हैं, यहाँ का आन्तरिक भेद प्राप्त कर राज्य का अनिष्ट करेंगे। अत: इनका यहाँ रहना मंगलजनक न होकर उलटा भयावह ही है । जितना शीघ्र हो सके, इनको यहाँ से निकाल देना चाहिए। राष्ट्र के हित में लिए हमें इस बात का स्पष्टीकरण करना पड़ रहा है।" फैलते-फैलते यह बात तत्कालीन नपति दुर्लभराज के कानों में पहुँची । उन्होंने राजपुरोहित से पूछा और उससे सच्ची वस्तुस्थिति जानने पर उनके विस्मय का पार न रहा, कि ऐसे साधुओं के विरुद्ध ऐसा घृणित और निन्दनीय प्रयत्न । समय का परिपाक हो चुका था, चैत्यवासियों ने अन्य भी बहुत प्रयत्न किये पर सब निष्फल हुए। इसके उपरान्त चैत्यवासियों से श्री जिनेश्वरसूरिजी का शास्त्रार्थ हुआ, चैत्यवासियों की बुरी तरह से हार हुई। तभी से सुविहिताचारियों का प्रभाव बढ़ने लगा । जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, और जिनपतिसूरि, इन चार १. विशेष जानने के लिए देखें-हरिभद्रसूरि रचित संबोध प्रकरण, गणधर सार्द्धशतक बृहद् वृत्ति, संघपट्टक वृत्ति आदि । पं० बेचरदास दोशी रचित, जैन साहित्य मा विकास अवायी भयेली हानी, ग्रन्थ में भी सम्बोध-सत्तरी के आधार से अच्छा प्रकाश डाला गया है। २. विशेष वर्णन के लिए देखें-सं० १२६५ में रचित 'गणधर सार्द्ध शतक बृहवृत्ति'। Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड आचार्यों के प्रबल पुरुषार्थ और असाधारण प्रतिभा से चत्यवासियों की जड़ खोखली हो गई । जिनदत्त तो इतने अधिक प्रभावशाली व समर्थ आचार्य हुए कि विरोधी चैत्यवासियों में से कई आचार्य स्वयं उनके शिष्य बन गये । जिनपतिसरि के बाद तो चैत्यवासियों की अवस्था हतप्रभाव हो गई । उनकी शक्ति अब विरोध एवं शास्त्रार्थ करने की तो दूर की बात, अपने घर को संभाल रखने में भी पूर्ण समर्थ नहीं रही थी, कई आत्मकल्याण के इच्छुक चैत्यवासियों ने सुविहित मार्ग को स्वीकार कर उसे प्रचारित किया। उनकी परम्परा से कई प्रसिद्ध गन्छ प्रसिद्ध हुए। खरतरगच्छ के मूलपुरुष वर्द्धमानसूरि भी पहले चैत्यवासी थे । इसी प्रकार तपागच्छ के जगच्चन्द्रसूरि ने भी क्रिया उद्धार किया। इन्हीं के प्रसिद्ध खरतरगच्छ तथा तपागच्छ आज भी विद्यमान हैं । वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने दुर्लभराज की सभा में (सं० १०७०-७५) चैत्यवासियों पर विजय प्राप्त की। अत: खरे-सच्चे होने के कारण वह 'खरतर' कहलाये और जगच्चन्द्रसूरि ने १२ वर्षों की आयंबिल की तपश्चर्या की । इससे वे 'तपा' (सं० १२८५) कहलाये । इसी प्रकार अन्य कई गच्छों का भी इतिहास है।। इसके बाद मुसलमानों की चढ़ाइयों के कारण भारतवर्ष पर अशान्ति के बादल उमड़ पड़े। उनका प्रभाव श्रमण-संस्था पर पड़े बिना कैसे रह सकता था? जनसाधारण के नाकों दम था । धर्म-साधना में भी शिथिलता आ गयी थी क्योंकि उस समय तो लोगों के प्राणों पर संकट बीत रहा था । फलत: मुनियों के आचरण में भी काफी शिथिलता आ गयी थी। यह विषम अवस्था यद्यपि परिस्थिति के अधीन हुई, फिर भी मनुष्य की प्रकृति के अनुसार एक बार पतनोन्मुख होने के बाद फिर संभलना कठिनता और विलंब से होता है। अत: शिथिलता दिन ब दिन बढ़ने ही लगी। उस समय यत्र-तत्र पैदल विहार करना विघ्नों से परिपूर्ण था। यवनों की मार अचानक कहीं से कहीं आ पड़ती, देखते-देखते शहर उजाड़ और वीरान हो जाते । लूट-खसोटकर यवन लोग हिन्दुओं के देवमन्दिरों को तोड़ डालते, लोगों को बेहद सताते और भाँति-भाँति के अत्याचार करते। ऐसी परिस्थिति में श्रावक लोग मुनियों की सेवा, संभाल और उचित भक्ति नहीं कर सके, यह अस्वाभाविक भी नहीं था। शिथिलता क्रमशः बढ़ती गयी, यहाँ तक कि १६वीं शताब्दी में सुधार की आवश्यकता आ पड़ी। चारों ओर से सुधार के लिए व्यग्र आवाजें सुनायी देने लगीं। वास्तव में परिस्थति ने क्रांति-सी मचा दी। श्रावक समाज में भी जागति फैली। सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रथम लोंका शाह (सं० १५३०) ने विरोध की आवाज उठायी, कड़वाहशाह ने उस समय के साधुओं को देख वर्तमान काल (१५६२) में शुद्ध साध्वाचार का पालन करना असम्भव बतलाया और संवरी श्रावकों' का एक नया पंथ निकाला, पर यह मूर्तिपूजा को माना करते थे। लोंका शाह ने मर्तिपूजा का भी विरोध किया पर सुविहित मुनियों के शास्त्रीय प्रमाण और युक्तियों के मुकाबले उनका यह विरोध टिक नहीं सका। पचास वर्ष नहीं बीते कि उन्हीं के अनुयायियों में से बहुतों से पुन: मूर्तिपूजा को स्वीकार कर लिया। बहुत से शास्त्रार्थ में पराजित होकर सुविहित मुनियों के पास दीक्षित हो गये। सुविहित मुनियों के तर्क शास्त्र-सम्मत, प्रमाण-युक्त, युक्ति-युक्त और समीचीन थे, उनके विरुद्ध टिके रहने की विद्वत्ता और सामर्थ्य विरोधियों में नहीं थी। इधर आत्मकल्याण के इच्छुक कई गच्छों के आचार्यों में भी अपने-अपने समुदाय के सुधार करने की भावना का उदय हआ, क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं शास्त्रविहित मार्ग का अनुसरण नहीं करता, उसका प्रभाव दिन-ब-दिन कम होता चला जाता है। खरतरगच्छ के आचार्य श्री जिनमाणिक्यसूरि ने अपने गच्छ का सुधार करने का निश्चय कर लिया और इसी उद्देश्य से वे जिनकुशलसूरि के दर्शनार्थ देशावर पधारे। पर भावी प्रबल है, मनुष्य सोचता कुछ है, होता और कुछ ही है। मार्ग में ही उनका स्वर्गवास हो गया, अत: वे अपनी इच्छा को सफल और कार्य रूप में १. उदाहरण के लिए सं० १५७७ में लोकामत से बीजामत निकला जिसने मूर्तिपूजा स्वीकृत की (धर्मसागर रचित पदावली एवं प्रवचन परीक्षा)। जैनेतर समाज में भी इस समय कई मूर्तिपूजा के विरोधी मत निकले, पर अन्त में उन्होंने भी मूर्तिपूजा स्वीकार की। Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन यति परम्परा ७५. . -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.--.-.-. ... परिणत नहीं कर सके। उनके तिरोभाव के बाद उनके सुयोग्य शिष्य श्री जिनचन्द्रसूरि ने अपने गुरुदेव की अन्तिम आदर्श भावना को सफलीभूत बनाने के लिए वि० सं० १६१३ में बीकानेर में क्रिया-उद्धार किया। इसी प्रकार तपागच्छ में आनन्दविमलसूरि ने सं० १५८२ में, नागोरी तपागच्छ के पावचन्द्रसूरि ने सं० १५६५ में, अंचलगच्छ के धर्ममूतिसूरि ने सं० १६१४ में क्रिया-उद्धार किया। सत्रहवीं शताब्दी में साध्वाचार यथारीति पालन होने लगा। पर वह परम्परा भी अधिक दिन कायम नहीं रह सकी, फिर उसी शिथिलता का आगमन होना शुरू हो गया, १६८७ के दुष्काल का भी इसमें कुछ हाथ था। ___ अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में शिथिलता का रूप प्रत्यक्ष दिखायी देने लगा, खरतरगच्छ में जिनरत्नसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि ने शिथिलाचार पर नियन्त्रण करने के लिए सं० १७१८ की विजयादशमी को कुछ नियम १. विशेष जानने के लिये देखें, हमारे द्वारा लिखित 'युग प्रधान जिनचन्द्रसूरि'। २. इस दुष्काल का विशद वर्णन कविवर समयसुन्दर ने किया है। इस दुष्काल के प्रभाव से उत्पन्न हुई शिथिलता के परिहारार्थ समयसुन्दरजी ने सं० १६८२ में क्रिया उद्धार किया था। ३. समय-समय पर गच्छ की सुव्यवस्था के लिए ऐसे कई व्यवस्था पत्र तपा और खरतर गच्छ के आचार्यों ने जारी किये, जिनमें से प्रकाशित व्यवस्था-पत्रों की सूची इस प्रकार है(क) जिनप्रभसूरि (चौदहवीं शताब्दी) का व्यवस्थापत्र (प्र. जिनदत्तसूरि चरित्र जयसागरसूरि लि.) (ख) तपा सोमसुन्दरसूरि-रचित संविज्ञ साधु योग्य कुलक के नियम (प्र. जैनधर्मप्रकाश, वर्ष ५२, अंक ३, पृ० ३) (ग) सं० १५८३ ज्येष्ठ, पट्टन में तपागच्छीय आनन्दविमलसूरि का 'मर्यादापट्टक' (प्र. जैन सत्यप्रकाश, वर्ष २, अंक ३, पृ० ११२) (घ) सं० १६१३ जिनचन्द्रसूरि का क्रिया उद्धार नियम पत्र (प्र० हमारे द्वारा लि० युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि) (ङ) सं० १६४६ पो० सु० १३ पत्तनं हीरविजयसूरि पट्टक ( जैन सत्य प्रकाश, वर्ष २, अंक २, पृ० ७५) (च) सं० १६७७ वै० सु० ७ सावली में विजयदेवसूरि का साधु मर्यादा पट्टक (प्र. जैन धर्म प्रकाश, वर्ष ५२, अंक १, पृ० १७)। (छ) सं १७११ मा० सु० १३ पतन, विजयसिंहसूरि (प्र. जैन धर्म प्रकाश, वर्ष ५२, अंक २, पृ० ५५) (ज) सं० १७३८ मा० सु० ६ विजयक्षमासूरि पट्टक (जैन सत्यप्रकाश, वर्ष, २ अंक ६ पृ० ३७८) (झ) उपर्युक्त जिनचन्द्रसूरि का पत्र अप्रकाशित हमारे संग्रह में है । इन मर्यादा पट्टकों से तत्कालीन यति समाज की अवस्था का बहुत कुछ परिचय मिलता है। नं० 'झ' व्यवस्थापत्र अप्रकाशित होने के कारण उससे तत्कालीन परिस्थिति का जो तथ्य प्रकट होता है वह नीचे लिखा जाता है(अ) यतियों में क्रय-विक्रय की प्रथा जोर पर हो चली थी, श्रावकों की भाँति ब्याज-बट्टे का काम भी जारी हो चुका था, पुस्तकें लिख कर बेचने लगे थे। शिक्षादि का भी क्रय-विक्रय होता था। (आ) वे उद्भट उज्ज्वल वेष धारण करते थे। हाथ में धारण करने वाले डण्डे के ऊपर दांत का मोगरा और नीचे लोहे की सांब भी रखते थे। (इ) यति लोग पुस्तकों के भार को वहन करने के लिए शकट, ऊँट, नौकर आदि साथ लेते थे। . (ई) ज्योतिष, वैद्यक आदि का प्रयोग करते थे, जन्म-पत्रियाँ बनाते व औषधादि देते । (उ) धातु का भाजन, धातु की प्रतिमादि रख पूजन करते थे। (3) सात-आठ वर्ष से छोटे एवं अशुद्ध जाति के बालकों को शिष्य बना लेते थे. लोच करने एवं प्रतिक्रमण करने की शिथिलता थी। (ए) साध्वियों को विहार में साथ रखते थे। ब्रह्मचर्य यथारीति पालन नहीं करते थे। (ऐ) परस्पर झगड़ा करते थे, एक-दूसरे की निन्दा करते थे। (अठारहवीं शताब्दी के यति और श्रीपूज्यों के पारस्परिक युद्धों तथा मार-पीट के दो बृहद वर्णन हमारे संग्रह में भी हैं।) Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड ...... ...........-.-.-.-.-.-.-.-.-........................................ बनाये। एक बात का स्पष्टीकरण करना यहाँ आवश्यक है कि यद्यपि शिथिलाचार का प्रभाव दिन-ब-दिन बढ़ रहा था, फिर भी उस समय जैनाचार्यों का प्रभाव साधु एवं श्रावक संघ पर बहुत अच्छा था, अतः उनके नियन्त्रण का बड़ा भारी प्रभाव पड़ता था। उनके आदेश का उल्लंघन करना मामूली बात नहीं थी, उल्लंघनकारी को उचित दण्ड मिलता था। आज जैसी स्वेच्छाचारिता उस समय नहीं थी। इसी के कारण सुधार होने में सरलता थी। अठारहवीं शताब्दी में गच्छ नेता स्वयं शिथिलाचारी हो गये, अत: सुधार की ओर उनका लक्ष्य कम हो गया । इस दशा में कई आत्मकल्याणेच्छुक मुनियों ने स्वयं क्रिया उद्धार किया। उनमें खरतरगच्छ में श्रीमद्देवचन्द्रजी (सं० १७७७) और तपागच्छ में श्री सत्यविजय पन्यास प्रसिद्ध हैं । उपाध्याय यशोविजय भी आपके सहयोगी बने । इस समय की परिस्थिति का विशद विवरण यशोविजय जी के 'श्रीमंधर स्वामी' विनती आदि में मिलता है। अठारहवीं शताब्दी के शिथिलाचार में द्रव्य रखना प्रारम्भ हुआ था । पर इस समय तक यति समाज में विद्वत्ता एवं ब्रह्मचर्य आदि सद्गुणों की कमी नहीं थी। वैद्यक, ज्योतिष आदि में इन्होंने अच्छा नाम कमाना आरम्भ किया। आगे चलकर उन्नीसवीं शताब्दी से यति-समाज में दोनों दुर्गुणों (विद्वत्ता की कमी और असदाचार) का प्रवेश होने लगा। आपसी झगड़ों ने आचार्यों की सत्ता और प्रभाव को भी कम कर दिया। १८वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में क्रमश: दोनों दुर्गुण बढते नजर आते हैं। वे बढ़ते-बढते वर्तमान अवस्था में उपस्थित हुए हैं। कई श्रीपूज्यों ने यतिनियों का दीक्षित करना व्यभिचार के प्रचार में साधक समझकर यतिनियों दीक्षा देना बन्द कर दिया । इनमें खरतर गच्छ के जयपुर शाखा वाले भी एक हैं । उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में तो यति लोग धनाढ्य कहलाने लग गये । परिग्रह का बोझ एवं विलासिता बढ़ने लगी। राजदरबार से कई गाँव जागीर के रूप में मिल गये । हजारों रुपये वे ब्याज पर देने लगे, खेती करवाने लगे, सवारियों पर चढ़ने लगे, स्वयं गाय, भैंस, ऊँट इत्यादि रखने लगे । संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि वे एक प्रकार से घर-गृहस्थी-से बन गये । उनका परिग्रह राजशाही ठाट-बाट सा हो गया। वैद्यक, ज्योतिष, मंत्र-तंत्र में ये सिद्धहस्त कहलाने लगे और वास्तव में इस समय इनकी विशेष प्रसिद्धि एवं प्रभाव का कारण ये ही विद्याएँ थीं । अठारहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध धर्मवर्द्धनजी ने भी अपने समय के यतियों की विद्वत्ता एवं प्रभाव विषय में कवित्त रचना करके अच्छा वर्णन किया है। . औरंगजेब के समय से भारत की अवस्था फिर शोचनीय हो उठी, जनता को धन-जन की काफी हानि उठानी पडी। आपसी लड़ाइयों में राज्य के कोष खाली होने लगे तो उन्होंने भी प्रजा से अनुचित लाभ उठा कर द्रव्य संग्रह की ठान ली। इससे जन-साधारण की आर्थिक अवस्था बहुत गिर गई, जैन श्रावकों के पास भी नगद रुपयों की बहुत कमी हो गई। जिनके पास ५-१० हजार रुपये होते वे तो अच्छे साहूकार गिने जाते थे, साधारणतया ग्राम निवासी जनता का सुख्य आधार कृषि जीवन था, फसलें ठीक न होने के कारण उनका भी सहारा कम होने लगा, तब श्रावक लोग, जो साधारण स्थिति के थे, यतियों के पास से ब्याज पर रुपये लेने लगे। अत: आर्थिक सहायता के कारण कई श्रावक यतियों के दबैल से बन गये, कई वैद्यक, तत्र-मंत्र आदि के द्वारा अपने स्वार्थ साधनों में सहायक एवं उपकारी समझ उन्हें मानते रहे, फलत: संघसत्ता क्षीण-सी हो गई। यतियों को पुनः कर्तव्य पथ पर आरूढ करने की सामर्थ्य उनमें नहीं रही। इससे निरंकुशता एवं नेतृत्वहीनता के कारण यति समाज में शिथिलाचार स्वच्छन्दता पनपती एवं बढ़ती गई। यति समाज ने भी रुख बदल डाला। धम प्रचार के साथ-साथ परोपकार को उन्होंने स्वीकार किया, श्रावक आदि के बालकों को वे शिक्षा देने लगे, जन्मपत्री बनाना, मुहूर्तादि बतलाना, रोगों के प्रतिकारार्थ औषधोपचार चालू करने लगे, जिनसे उनकी मान्यता पूर्ववत् बनी रहे। उनकी विद्वत्ता की धाक राज-दरबारों में भी अच्छी जमी हुई थी, अत: राजाओं से उन्हें अच्छा सम्मान प्राप्त था, अपने चमत्कारों से उन्होंने काफी प्रभाव बढ़ा रखा था। इस राज्य-सम्बन्ध एवं प्रभाव के कारण जब स्थानकवासी मत निकला, तब उनके साधुओं के लिये इन्होंने बीकानेर, जोधपुर आदि से ऐसे आज्ञापत्र भी जारी करवा दिये, जिनसे वे उन राज्यों में प्रवेश भी नहीं कर सकें। Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन यति परम्परा ७७ . -.-.-. -. -.-.-.-.-. -. -. -. -.-.-.-.-...-.-.-. -. -. -. -. -. -. -. -.-.-.-. ... . .... १८वीं शताब्दी तक यति समाज में ज्ञानोपासना सतत चालू थी, अत: उनके रचित बहुत से अच्छे-अच्छे ग्रन्थ इस समय तक के मिलते हैं, पर १८वीं शताब्दी से ज्ञानोपासना क्रमश: घटती चली। अतः इस शताब्दी के बाद विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ बहुत कम मिलते हैं । और वह घटते-घटते वर्तमान अवस्था को प्राप्त हो गई। यति समाज की पूर्वावस्था के इतिहास पर सरसरी तौर के ऊपर विचार किया गया । इस उत्थान-पतनकाल के मध्य में यति समाज में धुरंधर विद्वान, शासन प्रभावक, राज्य-सम्मान प्राप्त अनेक महापुरुष हो गये हैं, जिन्होंने जैन शासन की बड़ी भारी सेवा की है, प्रभाव विस्तार किया है, अन्य आक्रमणों से रक्षा की है एवं लाखों जैनेतरों को जैन बनाया, हजारों अनमोल ग्रन्थ-रत्नों का निर्माण किया, जिसके लिये जैन समाज उनका चिर ऋणी रहेगा। अब यति समाज की वर्तमान अवस्था' का अवलोकन करते हुए इनका पुनः उत्थान कैसे हो इस पर कुछ विचार द्रष्टव्य हैं। जो पहले साधु या मुनि कहलाते थे, वही अब यति कहलाते हैं । पतन की चरम सीमा हो चुकी है। जो शास्त्रीय ज्ञान को अपना आभूपण समझते थे, ज्ञानोपासना जिनका व्यसन-सा था, वे अब आजीविका, धनोपार्जन और प्रतिष्ठा रक्षा के लिये वैद्यक, ज्योतिष और मंत्र-तंत्र के ज्ञान को ही मुख्यता देने लगे हैं। कई महात्मा तो ऐसे मिलेंगे जिन्हें प्रतिक्रमण के पाठ भी पूरे नहीं आते । गम्भीर शास्त्रालोचन के योग्य तो अब शायद ही कोई व्यक्ति खोजने पर मिले । क्रियाकाण्डों को जो करवा सकते हैं (प्रतिक्रमण, पोसह, पर्व व्याख्यान वाचन, तप, उद्यापन एवं प्रतिष्ठाविधि) वे अब विद्वान गिने जाने लगे हैं। __ जिस ज्ञानधन को उनके पूर्वजों ने बड़े ही कष्ट से लिख-लिखकर संचित एवं सुरक्षित रखा, वे अमूल्य हस्तलिखित ग्रन्थों को संभालते तक नहीं । वे ग्रन्थ दीमकों के भक्ष्य बन गये, उनके पृष्ठ नष्ट हो गये, सर्दी आदि से सुरक्षा न कर सकने के कारण ग्रन्थों के पत्र चिपक कर थोपड़े हो गये । (हमारे संग्रह में ऐसे अनेक ग्रन्थ सुरक्षित हैं ।) नवीन रचने की विद्वत्ता को तो सदा के लिये प्रणाम कर दिया, पुराने संचित ज्ञानधन की भी इतनी दुर्दशा हो रही है कि उसे सुनकर आँसू बहाने पड़ रहे हैं । सहज विचार आता है कि इन ग्रन्थों को लिखते समय उनके पूर्वजनों ने कैसे भव्य मनोरथ किये होंगे कि हमारे सपूत इन्हें पढ-पढ़कर अपनी आत्मा एवं संसार का उपकार करेंगे। पर आज अपने ही योग्य वंशजों के हाथ इन ग्रन्थों की ऐसी दुर्दशा देखकर पूर्वजों की स्वर्गस्थ आत्माएँ मन ही मन न जाने क्या सोचती होंगी? उन्होंने अपने ग्रन्थों की प्रशस्तियों में कई बातें ऐसी लिख रखी हैं कि उन्हें ध्यान से पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा काम नहीं कर सकता। मग्न दृष्टि कटि ग्रीवा, वक्रदृष्टिरधोमुखम् । कष्टेन लिख्यते शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥ ग्रन्थों की सुरक्षा की व्यवस्था करते हुए लिखा है जलाद्रक्षेत् स्थलाद्रक्षेत् रक्षत् शिथिलबन्धनात् । मूर्खहस्ते न दातव्या एवं वदति पुस्तिका ।। अग्ने रक्षेत् जलाद्रक्षेत् मूषकेभ्यो विशेषतः । उदकानिलचौरेभ्यो मूषकेभ्यो हुताशनात् ॥ कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत् ।। मुनि आचार की तो गंध भी नहीं रहने पाई, पर जब हम उन्हें श्रावकों के कर्तव्य से भी च्युत देखते हैं, तब कलेजा धड़क उठता है, बुद्धि भी कुछ काम नहीं देती कि हुआ क्या ? भगवान् महावीर की वाणी को सुनाने वाले १. इसका संक्षेप में कुछ वर्णन कालूराम बरडिया लिखित 'ओसवाल समाज की वर्तमान परिस्थिति' में भी पाया जाता है। Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पाठ खण्ड उपदेशकों की भी क्या यह हालत हो सकती है ? जिस बात की सम्भावना तो क्या, कल्पना भी नहीं की जा सकती, आज वह हमारे सामने उपस्थित है। बहुतों के तो न रात्रिभोजन का विचार, न अभक्ष्य वस्तुओं का परहेज, न सामायिक प्रतिक्रमण या क्रियाकाण्ड और नवकारसी का पता। आज इनमें कई व्यक्ति तो भांग-गाँजा आदि नशीली चीजों का सेवन करते हैं। बाजारों में वृष्टि आदि का सौदा करते हैं। उपाश्रयों में रसोई बनाते हैं, व्यभिचार का बोलबाला है। अतएव जगत की दृष्टि में वे बहुत गिर चुके हैं। पंच महाव्रतों का तो पता ही नहीं, अणुव्रतधारी श्रावकों से भी इनमें से कई तो गये-बीते हैं। यतिनियों की तो बात ही न पूछिए, उनके पतन की हद हो चुकी है, उनकी चरित्रहीनता जैन समाज के लिये कलंक का कारण हो रही है। यति समाज की यह दशा आँखों देखकर विवेकी यतियों के हृदय में सामूहिक सुधार की भावना जागृत हुई थी, खरतर गच्छ के बालचन्द्राचार्य आदि के प्रयत्न के फल से सं० १९६३ में उनकी एक कान्फ्रेन्स हुई थी और उसमें कई अच्छे प्रस्ताव भी पास हुए थे, यथा (१) व्यावहारिक और धार्मिक शिक्षा का सुप्रबन्ध (२) बाह्य व्यवहार शुद्धि (३) ज्ञानोपकरण की सुव्यवस्था (हस्तलिखित ग्रन्थों का न बेचना) (४) संगठन (५) यति डायरेक्टरी प्रकाशन आदि । उस कान्फ्रेन्स का दूसरा अधिवेशन हुआ या नहीं, अज्ञात है। अभी फिर सं० १९६१ में बीकानेर राजपूताना प्रांतीय यति-सम्मेलन हुआ था और उसका दूसरा अधिवेशन भी फलौदी में हुआ था, पर सभी कुछ परिणाम-शून्य ही रहा। अब भी समय है कि युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिजी की तरह कुछ सत्ता-बल का भी प्रयोग किया जाना चाहिए। एक विद्यालय, ब्रह्मचर्य-आश्रम, केवल यति-शिष्यों की शिक्षा के लिए खोला जाय । यहाँ पर अमुक डिग्री तक प्रत्येक यति शिष्य को पढ़ना लाजिमी किया जाय, उपदेश क के योग्य पढ़ाई की सुव्यवस्था की जाय । उनसे जो विद्यार्थी निकलें उनके खर्च आदि का योग्य प्रबन्ध करके उन्हें स्थान-स्थान पर उपदेशकों के रूप में प्रचार कार्य में नियुक्त कर दें, ताकि उन्हें जैन धर्म की सेवा का सुयोग मिले । श्रावक समाज का उसमें काफी सहयोग होना आवश्यक है। १. श्वेताम्बर समाज में जिस प्रकार यति समाज है, दिगम्बर समाज में लगभग वैसे ही 'भट्टारक' प्रणाली का इतिहास आदि जानने के लिए 'जैन हितैषी' में श्री नाथ रामजी प्रेमी का निबन्ध एवं जैनमित्र कार्यालय, सूरत से प्राप्त 'भट्टारक-मीमांसा' ग्रंथ पढ़ना चाहिए। इसीलिए राजपूताना प्रान्तीय प्रथम यति सम्मेलन (संवत् १८८१, बीकानेर) में निम्नलिखित प्रस्ताव पास किये गये थे। खेद है उनका पालन नहीं हो सका। (क) उद्भट वेश न करना (ख) दवा आदि के सिवा जमीकन्द आदि के त्याग का भरसक प्रयत्न करना (ग) दवा आदि के सिवा पंचतिथियों में हरी वनस्पति आदि के त्याग का भरसक प्रयत्न करना (घ) रात्रिभोजन के त्याग की चेष्टा करना (ङ) आवश्यकता के सिवाय रात को उपाश्रय से बाहर न जाना (च) अंग्रेजी फैशन के बाल न रखना (छ) दीक्षित यति को साग-सब्जी खरीदने के समय बाजार न जाना (ज) धूम्रपान का त्याग (झ) साईकिल पर बैठ बाजार न घूमना (य) पंच प्रतिक्रमण के ज्ञाता न होने तक किसी को दीक्षा न देना । (ट) पर्व-तिथियों में प्रतिक्रमण अवश्य करना । इन प्रस्तावों से प्रगट है कि वर्तमान में इन सब बातों के विपरीत प्रचार है, तभी इनका विरोध समर्थन की आवश्यकता हुई। . Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ की अग्रणी साध्वियाँ साध्वी श्री मधुस्मिता युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या एक व्यक्ति ने एक बार तेरापंथ के प्रथम आचार्य भीखणजी से कहा-भीखणजी ! आपका तीर्थ अधूरा है। भीखणजी ने पूछा-कैसे ? उसने कहा-आपके तीर्थ में साधु, श्रावक और श्राविकाएँ हैं साध्वियां नहीं हैं। तब तक तेरापंथ में बहिनें दीक्षित नहीं हुई थीं। तीर्थ वास्तव में अधूरा था। संयोग से वि० सं० १८२१ में तीन बहिनें दीक्षित होने हेतु आचार्य भिक्षु के सम्मुख उपस्थित हुई। आचार्य भिक्षु ने उनसे प्रश्न किया—यदि संयोगवश एक की मृत्यु हो जाए तो शेष दो को आजीवन संलेखना करनी पड़ेगी। तीन साध्वियों से कम रहना कल्पता नहीं । तत्क्षण तीनों ने कहा-हमें मंजूर है । आचार्य भिक्षु ने तीनों को प्रव्रजित कर लिया। साध्वियों की संख्या क्रमशः अभिवृद्धि को प्राप्त होती रही। न केवल संख्या की दृष्टि से ही, अपितु साध्वी समाज का गुणात्मक विकास भी होता गया । आज तेरापंथ धर्म संघ अपने दो शतक पूरे कर अब तीसरे शतक में जल रहा है। इस अवधि में लगभग दो हजार बहिनों ने दीक्षा ली और आत्म-साधना के साथ-साथ जनहित में पूर्ण योग दिया है। आचार्य भिक्षु ने साध्वी समाज को एक व्यवस्था दी । उत्तरवर्ती आचार्यों ने समय-समय पर उसको संवद्धित किया, युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी ने तो साध्वी समाज के युगीन विकासार्थ अपने बहुमूल्य समय का विसर्जन किया है, कर रहे हैं। इस लेख में केवल उन साध्वियों के जीवन प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जिन्होंने साध्वी समाज का नेतृत्व कर अपनी बुद्धि और विवेक के बल पर नारी जाति के जागरण में योगदान दिया है। अब तक तेरापंथ शासन में ११ साध्वीप्रमुखाएँ हुई हैं१. महासती बरजूजी २. महासती हीराजी ३. महासती दीपांजी ४. महासती सरदारांजी ५. महासती गुलाबांजी ६. महासती नवलांजी . ७. महासती जेठांजी ८. महासती कानकुमारीजी ६. महासती झमकूजी १०. महासती लाडांजी ११. महासती कनकप्रभाजी। प्रथम तीन साध्वियाँ प्रमुखा पद प्राप्त नहीं थीं, किन्तु उन्होंने साध्वी-प्रमुखा की तरह सारा कार्यभार संभाला था, अन्य ८ साध्वियों को आचार्यों ने साध्वीप्रमुखा पद पर स्थापित कर साध्वी समाज की देखरेख का कार्यभार सौंपा । सर्वप्रथम जयाचार्य ने महासती सरदारांजी को विधिवत् प्रमुखा पर नियुक्त किया। प्रस्तुत है अग्रणी साध्वियों का उपलब्ध जीवनवृत्त । १. महासती दीपांजी–साध्वी श्री दीपांजी का जीवन अनेक गुणों से परिपूर्ण था। सहज श्रद्धा का उद्रेक, चरित्र के प्रति निष्ठा, संयम के प्रति अनुराग, सहधार्मिकों के प्रति स्नेह और वात्सल्य ये आपके मौलिक गुण थे। निर्भीकता, वाक्कौशल, गति, मति, स्थिति गुरुदृष्टि-अनुसारिणी थी । पठन-पाठन में विशेष रुचि थी। एक बार डाकू से साक्षात्कार हुआ। उसने साध्वियों को लूटना चाहा । आपने ओज भरे शब्दों से कहा-"हम जैन साध्वियाँ हैं। Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड पुरुष का स्पर्श नहीं करती। छूना मत।" सामान नीचे रख दिया। एक वृत्त बनाकर सभी साध्वियाँ बैठ गयीं । महासती दीपांजी उनके बीच में बैठ गयीं। उच्च स्वर से नमस्कार महामन्त्र का जाप शुरू कर दिया, लुटेरे ने समझा यह तो किसी देवी आराधना कर रही है, न मालूम मेरी क्या दशा कर देगी। वह डरकर सामान छोड़कर भाग गया। आपका जन्म स्थान जोजावर था। आचार्य भारमलजी के हाथों १६ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली । ५० वर्ष तक साधना कर वि० सं० १९१८ की भाद्रपद कृष्णा ११ को आमेट में २० प्रहर के अनशनपूर्वक स्वर्ग सिधारी। २. महासती सरदारांजी-संकल्प में बल होता है और आशा में जीवन । सरदारां सती का जीवन संकल्प और आशा की रेखाओं का स्पष्ट चित्र है। वि० सं० १८६५ में चूरू में आपका जन्म हुआ। दस वर्ष की बाल्यावस्था में विवाह हुआ। चार मास पश्चात् पति का वियोग सहन करना पड़ा। सुकुमार हृदय पर बज्राघात लगा। उसी वर्ष मुनि श्री जीतमलजी का चातुर्मास चूरू में हुआ। सरदार सती ने उस पावस में अपनी जिज्ञासाओं का समुचित समाधान पा तत्वों को मान, तेरापंथ की श्रद्धा स्वीकार की। १३ वर्ष की अवस्था में यावज्जीवन चौविहार का व्रत ले लिया, सचित्त त्याग आदि अनेक प्रत्याख्यान किए, विविध प्रकार का तप करके आपने साधना पक्ष को परखा। दीक्षा ग्रहण की भावना उत्कट हई । पारिवारिक जनों के बीच अपनी भावना रखी। स्वीकृति न मिलने पर सरदारसती ने अनेकों प्रयास किए, सब कसौटियों पर खरी उतरने के पश्चात् दोनों पारवारों से अनुज्ञा प्राप्त हुई । दीक्षा श्रीमज्जाचार्य के हाथों सम्पन्न हुई। लूंचन अपने हाथों से किया । प्रथम बार आचार्यश्री रामचन्दजी के दर्शन किए तब औपचारिक रूप से अग्रगण्या बना दिया । दीक्षा के १३ वर्ष बाद आपको साध्वीप्रमुखा का पद मिला। जयाचार्य को आपकी योग्यता व विवेक पर विश्वास था। प्रखर बुद्धि के कारण एक दिन में २०० पद्य कंठस्थ कर लेती थीं। सहस्रों पद कंठस्थ थे । उन दिनों साधु-साध्वियों का हस्तलिखित प्रतियों पर अपना अधिकार था। महासती सरदारांजी ने एक उपाय ढूंढ़ निकाला । सारी पुस्तके सरदारसती को अर्पित की गई। सरदारसती ने सारी पुस्तके जयाचार्य को भेंट कर दी। जया चार्य ने आवश्यकतानुसार सबका संघ में वितरण कर दिया। विवेक और बुद्धि कौशल के आधार पर ही उन्होंने साध्वियों के हृदय परिवर्तन कर अनेक ग्रुप तैयार किये, जिन्हें तेरापंथ की भाषा में सिंघाड़ा कहते हैं । जयाचार्य का आदेश पा आपने एक रात्रि में ५२ साध्वियों के १० संघाटक तैयार कर श्रीमज्जाचार्य से निवेदन किया । आचार्यश्री आपकी कार्य-कुशलता व तत्परता पर बहुत प्रसन्न हुए। आहार के समविभाग की परम्परा का श्रेय भी सरदारसती को ही है। साधु जीवन में विविध तपस्याएँ की, अनेक साध्वियों को प्रोत्साहित किया। अन्त में वि० सं० १९२७, पौष कृष्णा ८ को आजीवन अनशन (पाँच प्रहर के अनशन) में आपका स्वर्गवास हआ। ३. महासती गुलाबांजी-हृदय में कोमलता, भाषा की मधुरता और आँखों की आर्द्रता-ये नारी के सहज गुण हैं । साध्वी श्री गुलाबांजी में इनके साथ-साथ व्यक्तित्व का सुयोग भी था। जिसका जीवन विवेक रूपी सौन्दर्य से अलंकृत है । वही वास्तव में सुन्दर है, महासती गुलाबांजी में बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के सौन्दर्य का सहज मेल था। शरीर की कोमलता, अवयवों की सुन्दर संघटना, गौरवर्णऐसा था उनका बाह्य व्यक्तित्व । मिलनसारिता, विद्वत्ता, सौहार्द, वात्सल्य और निश्छलभाव--यह था आपका आन्तरिक व्यक्तित्व। आपकी दीक्षा जयाचार्य के करकमलों से हुई। महासती सरदारांजी से संस्कृत व्याकरण तथा काव्य का अध्ययन किया । मेधावी तीव्रता और ग्रहण-पटुता से कुछ समय में ही विदुषी बन गयी। श्रीमज्जयाचार्य ने भगवती सूत्र की राजस्थानी भाषा में पद्यबद्ध टीका करनी प्रारम्भ की। आचार्यश्री पद्य फरमाते और आप एक बार सुनकर लिपिबद्ध कर लेती । एक समय में ६, ७ पद्यों को सुनकर याद रख लेतीं । आपकी लिपि सुघड़ और स्पष्ट थी। आपने अनेकों ग्रन्थ लिपिबद्ध किए। व्याख्यान कला बेजोड़ थी। कण्ठ का माधुर्य रास्ते में चलते पथिक को रोक लेता था। वि० सं० १९२७ में साध्वीप्रमुखा का कार्यभार संभाला । १५ वर्ष तक इस पद पर रही । आपके अनुशासन में वात्सल्य मूर्तिमान था। समस्त साध्वी-समाज का विश्वास आपको प्राप्त था। आपका स्वर्गवास १९४२ की पौष कृष्णा नवमी को हुआ। Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ की अग्रणी साध्वियाँ ८१ ........................................... ... ... .. . ... .. .. .. ४. महासती नवलांजी-आपका जन्म सं० १८८५ में हुआ । बाल्यावस्था में ही विवाह हो गया । कुछ वर्ष पश्चात् ही पति का वियोग सहन करना पड़ा । तृतीय आचार्य श्री ऋषिराय जी के कर-कमलों से दीक्षा संस्कार सम्पन्न हुआ। आपने दीक्षा के दिन अपना केश लुचन स्वयं अपने हाथों से किया। विवेक, नम्रता आदि गुणों से योग्य समझकर आचार्यश्री ने उनको बहुत सम्मान दिया, उसका उदाहरण है, उनको उसी दिन ‘साझ' की वन्दना करवाई गई। आपने बत्तीस आगमों का वाचन किया। तत्त्व को गहराई से पकड़तीं और निपुणतापूर्वक अन्य जनों को समझातीं । कण्ठ में माधुर्य और गाने की कला सुन्दर थी। पुस्तकें और सिंघाड़े की साध्वियों को समर्पित करने की पहल आपने की । जय गणि के शासन काल में १३ वर्ष तक गुरुकुल-वास का सुन्दर अवसर आपको प्राप्त हुआ। १२ वर्ष ६ माह तक अग्रणी रूप में बहिविहार करते हुए जन-जीवन को जागृत किया । आचार्यश्री रायचन्द जी, आचार्यश्री जीतमलजी, आचार्यश्री मघराजजी, आचार्यश्री माणकचन्दजी, आचार्यश्री डालगणि इन पाँच आचार्यों की आज्ञा और इंगित की आराधना करती हुई आचार्यों की करुणा-दृष्टि की पात्र बनीं । ज्येष्ठा और कनिष्ठा सभी' साध्वियों को आप से अनहद वत्सलता मिलती। ३ वर्ष तक बीदासर में आपका स्थिरवास हुआ। आपाढ़ कृष्णा पंचमी के दिन नव प्रहर के अनशनपूर्वक ६६ वर्ष की अवस्था में समाधिपूर्वक स्वर्गगमन किया। ५. महासती जेठांजी-आपका जन्म वि० सं० १६०१ में हुआ। दीक्षा वि० सं० १६१६ में चूरू में हुई। प्रमुखा पद वि० सं० १९५५ में लाडन में प्राप्त हुआ। आपका स्वर्गवास वि० सं० १६८१ में राजलदेसर में हुआ। व्यक्तित्व स्वयं एक ज्योति है । वह स्वयं प्रकाशशील है। साध्वीश्री जेठांजी व्यक्तित्व की धनी थीं। शरीर सम्पदा से आपकी आन्तरिक सम्पदा कहीं अधिक महान् थी। यही कारण था कि आपका जीवन उत्तरोत्तर आदर्श बनता गया और उसने आपको तपस्या को अपने में मूर्तकर शरीर के प्रति अभयत्व की भावना का पाठ पढ़ाया। आपके दो दशक गृहस्थवास में बीते । इस अल्प अवधि में अनेक सुख-दुःखात्मक अनुभूतियाँ आपको हुई । आपका कुटुम्ब समृद्धिशाली था। आपका विवाह हुआ परन्तु १६वें वर्ष में प्रवेश पाते ही पति का वियोग हो गया और आपका सर्वस्व लुट गया । सब कुछ खोकर भी आपने वह पाया जो अमर आनन्द देने वाला था। दुःख वैराग्य की सुखमय अनुभूति में बदल गया। जयाचार्य के कर-कमलों से दीक्षा संस्कार हुआ। सरदार सती की सन्निधि में शिक्षण चला। रुचि एकनिष्ठ थी । महासती सरदारांजी की बयावृत्य और शासन के कतिपय कार्यों का दायित्व स्वयं ले लिया । आपने सेवा व्रत को अपने जीवन का अंग बना लिया । ग्लान साधु-साध्वियों के लिए औषधि का सुयोग मिलाने का कार्य अपने पूर्ण तत्परता से निभाया । नवदीक्षिता साध्वियों को आपकी देख-रेख में रखा जाता । आप उन्हें सुसंस्कारों से संस्कारित बनातीं । कष्टसहिष्णुता का मर्म समझातीं। तेरापंथ के सप्तमाचार्य श्री डालगणि ने आपको प्रमुखा पद पर स्थापित किया। आपकी सेवाओं के विषय में डालगणि कहते - "जेठांजी की सेवाएँ अनुकरणीय हैं । इन्होंने आचार्यों तथा साधु-साध्वियों की बहुत सेवाएँ की । इनसे सेवा करना सीखो।" साध्वी श्री जेठांजी ने १७ और २ को छोड़कर २२ तक चौविहार तपस्या की। तेरापंथ में यह चौविहार तपस्या का उत्कृष्ट उदाहरण है। सहज सौन्दर्य, कर्त्तव्य-निष्ठा, गुरु-भक्ति सहज ही जन जन को आकृष्ट कर लेती थी। कालगणि फरमाया करते-'जेठांजी की देखरेख में कितनी भी साध्वियों को रखा जाए, उनकी व्यवस्था के Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड ..... room e ................................................... बारे में मुझे चिन्ता नहीं करनी पड़ती।" इन वचनों में उत्तरदायित्व के प्रति उनकी निष्ठा एवं अपने आश्रित के प्रति वात्सल्य की पूर्ण झलक है। ६. महासती वानकंवरजी--आपका जन्म वि०सं० १६३० में श्री डूंगरगढ़ में हुआ। दीक्षा वि०सं० १९४४ में बीदासर में हुई । प्रमुखा-पद वि०सं० १९८१ को चूरू में प्राप्त किया। अहिंसा और अभय एकार्थक है । जहाँ अभय है वहाँ अहिंसा के भाव फूलते-फलते हैं । महासती कानकुमारीजी का जीवन इन दोनों का समवाय था। उनमें यदि नारी की सुकुमारता थी तो साथ-साथ पौरुष का कठोर अनुबन्ध । एक बार बिहार में-एक छोटे से गांव में रुकना पड़ा । रात्रि में वहाँ चोर आये, बाहर सोये कासीद को रस्सी से बाँध दिया और अन्दर घुसे । महासती कानकंवरजी ने सब साध्वियों को जगाकर महामन्त्र का जाप करना शुरू कर दिया। चोर बोले तुम्हारे पास जो कुछ है, वह हमें दे दो । महासती ने पन्ने निकालते हुए कहा- इनमें अमूल्य रत्न भरे हैं । और संगीत की थिरकती हुई स्वर लहरी उनके कानों में गूंजने लगी। उसमें बहुत सुन्दर भाव थे। चोरों का मन बदल गया और अपनी धृष्टता के लिए क्षमा मांगते हुए चले गये। कला जीवन का उदात्त पक्ष है । जो जीने की कला में निपुण है, वह सब कलाओं में निपुण है। आपका जीवन कला की स्फुट अभिव्यक्ति था। जीवन कला के साथ-साथ अन्यान्य कलात्मक वस्तुओं के निर्माण का शिक्षण देना भी आप अपना कर्त्तव्य समझती थीं। अपनी सन्निधि में रहने वाली साध्वियों को सभी कलाएँ सिखातीं। आप कला में बेजोड़ थीं । आपके अनुशासन में "वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि" यह उक्ति चरितार्थ होती थी। स्वाध्याय की विस्मृति न हो जाए, यह स्वाध्याय का गौण पक्ष है। मुख्य पक्ष है तत्सम आनन्दानुभूति । महासती कानकंवरजी स्वाध्याय में लीन रहतीं। ६ आगम, अनेक भजन, स्वतन, थोकड़े कण्ठस्य थे। रात में घण्टों पुनरावर्तन करतीं। दिन में आगम-वाचन करती। वर्ष भर में ३२ आगमों का वाचन हो जाता। आपको साध्वी समाज का अटूट विश्वास प्राप्त था। इसका हेतु था अप्रतिम और निश्छल वात्सल्य । दूसरों को समाधि पहुँचाने में अपना स्वार्थ त्याग करने हेतु सबसे आगे थीं। . ___व्याख्यान शैली प्रभावोत्पादक थी। बड़े-बड़े साधु आपके सामने व्याख्यान देने में सकुचाते थे। आपके प्रति साधुओं के हृदय में बहुमान था। आपके बारे में आचार्यश्री तुलसी ने 'काल यशोविलास' में लिखा है संचालन शैली सुघड़ ज्ञान ध्यान गलतान । कानकंवर गण में लह्यो गुरु कृपा सम्मान ॥ निमल नीति युत पालियो चरण रमण सुविलास । बाल्यकाल ब्रह्मचारिणी वर्षे गुण पचास ।। श्रुति स्वाध्याय विलासिनी हसिनी-कर्मकठोर । विकथावाद विनासिनी आश्वासिनी मन मोर ।। अति सुखपूर्वक समालियो निजसंयम जीतव्य ।। वाह ! वाह सती महासती अवसर लह्यो ! अलभ्य ।। वि०सं० १६६३ भाद्रपक्ष कृष्णा ५ को अत्यन्त समाधिस्थ अवस्था में राजलदेसर में आपका स्वर्गवास हआ। ७. महासती झमकूजी-आपका जन्म-स्थान रतन नगर था । गर्भावस्था में माता को लक्ष्मी का स्वप्न दिखायी दिया । स्वप्न में ही माँ ने पूछ लिया-यह क्या ? उत्तर मिला-यह कन्या तेरे कुल की शृंगार बनेगी। अतुल स्नेह और वात्सल्य से पालन-पोषण हुआ। अल्पवय में पाणिग्रहण हो गया। ससुराल में जन-धन की वृद्धि Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने से आपको लक्ष्मी के रूप में स्वीकार किया गया। योग्यता के कारण कुछ दायित्र तत्काल सौंप दिये । अचानक पति का वियोग हो गया। पुत्री के वैधव्य की बात सुन पिता तीन दिन मूच्छित रहे । स्वप्न में आवाज आयी - यह अप्रत्याशित दुःख इसके जीवन को अमरत्व प्रदान करेगा । दीक्षा के समय आपके जेठ ने कहा - 'जितना हो रहा है। मेरे घर की रखवाली अब कौन करेगा ?" परिचायक है। तेरापंथ को अग्रणी साध्वियां एक बार स्वप्न में महासती ने आम्र से लदे हुए वृक्ष को देखा । मन में दीक्षा का संकल्प किया। माता-पिता का स्नेह और सास-ससुर का अनुराग उन्हें बाँध नहीं सका । दीक्षा से पूर्व पतिगृह की रखवाली का भार आप पर था । ८३ आपके मन में कला के प्रति सहज आकर्षण था। मिनट में चोलपट्टे को सीना, एक दिन में रजोहरण की जीवन में रहते हुए भी आपने अनेक साध्वियों को सूक्ष्म कला सिखायी। दुःख मेरे कनिष्ठ भ्राता की मृत्यु पर नहीं हुआ उतना आज उमार दायित्व के प्रति इनकी गहरी निष्ठा और कुशलता के हर कार्य में स्फूर्ति और विवेक सदा बना रहता था । १५ २५ कलिकाओं को गूंथना स्फूर्ति के परिचायक हैं। गृहस्थ आप स्वाध्याय रसिक थीं। शैक्ष, ग्लान, वृद्ध की परिचर्या में विशेष आनन्दानुभूति होती थी। जब कभी शल्यचिकित्सा का प्रसंग आता तो अपने हाथों से उस कार्य को सम्पन्न कर देतीं। हाथ था हल्का और साथ-साथ कार्यकुशलता । एक बार कालूगणि चातुर्मास के लिए चूरू पधार रहे थे । नगर प्रवेश का मुहूर्त ६ ॥ वजे था । दूरी थी ६ मील की । आचार्यश्री इतने शीघ्र किसी हालत में वहाँ पहुँच नहीं सकते थे । अतः प्रस्थाना रूप आपको भेजा । आप एक घण्टे में ६ मील पहुँच गयीं। स्मृति और पहचान अविकल थी । वर्षों बाद भी दर्शनार्थी की वन्दना अँधेरे में नामोच्चारणपूर्वक स्वीकार करतीं । दर्शनार्थी गद्गद् हो जाते और अपना सौभाग्य समझते । हर्ष से विह्वल और शोक से उद्विग्न होने वाले अनेक हैं। दोनों अवस्थाओं में समरस रहने वाले विरले मिलेंगे। कालूगणि का स्वर्गवास हुआ। सर्वत्र शोक का वातावरण था । ऐसी विकट स्थिति में आपने धैर्य का परिचय दिया । सब में साहस का मन्त्र फूंका। वह शोक अभिनव आचार्य पद प्राप्त तुलसी गणि के अभिनन्दन में हर्ष बनकर उपस्थित हुआ । तेरापंथ शासन की ३७ वर्षों तक सेवाएँ को आचायों का विश्वास साधु-साध्वियों का अनुराग, धावक समुदाय की अविकल भक्ति को स्वीकार करती हुई साधना की आनन्द मुक्ताओं को समेटती विखेरती वि०स० २००२ में पूर्ण समाधि में इस संसार से चल बसी आज उनकी केवल स्मृति रह गयी है जो अनेक कार्यों में प्रतिबिम्बित होकर विस्मृति को स्मृति बना देती है । ८. महासती लाडांजी - आपका जन्म वि० सं० १९६० में लाडनू में हुआ तथा दीक्षा भी लाडनू में ही वि० सं० १९८२ में हुई । साध्वी प्रमुख पद प्राप्ति वि० सं० २००२ में हुई। विवाह के अनुरूप आयु होने पर विवाह किया गया किन्तु अल्पसमय पश्चात् ही पति वियोग सहना पड़ा। वैराग्य का अंकुर प्रस्फुटित हुआ। आपकी दीक्षा अष्टमाचार्यश्री कारण के करकमलों से मुनि तुलसी, जो बाद में तेरापंथ के नवम आचार्य बने के साथ हुई किसने ऐसा चिन्तन किया था कि इस शुभ मुहूर्त में दीक्षित होने वाले ये दोनों साधक शासन के संचालक बनेंगे। शासन का सौभाग्य था । 7 कालूगणि के स्वर्गारोहण के पश्चात् तुलसी गणि पदासीन हुए। महासती लाडांजी को गुरुकुलवास मिला । महासती झमकूजी के स्वर्गारोहण के पश्चात् उनका कार्यभार महासती लाडांजी सौंपा गया । युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी का जीवन शान्ति का जीवन है। आचार्यजये के कुशल नेतृत्व में साधु-साध्वियों . Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड +++ मुत किया। साध्वियों ने शिक्षा के क्षेत्र है 1 । वे प्रेरणास्रोत थीं। जीवन भर प्रेरणानहीं किन्तु गागर में सागर समा जाए वह ने अनेकों क्षेत्रों में विकास किया। महासती लाडोज ने उस विकास को में जो प्रगति की है उसका श्रेय प्रमुख रूप से साध्वीप्रमुखाजी को ही दीप बनकर जलती रहीं । सागर में गागर समाये इसमें कोई आश्चर्य आश्चर्य है । साध्वीप्रमुखा श्री लाडांजी ने गागर बनकर जीवन बिताया किन्तु उनमें सागर लहराता रहा। जिज्ञासा जीवन का जीवन्त आधार है। आप में जिज्ञासाएँ प्रबल थीं । यत्र-तत्र जिज्ञासाओं को शान्त कर अपनी गागर को भर लेतीं । आप अभय थीं, भय था तो केवल पाप का । आचार कौशल इसका फलित था। साध्वीप्रमुखा का पद उन्हें मिला। वे पद से शोभित नहीं थीं, पद उनसे सुशोभित हुआ। वे असामान्य थीं, पर उन्होंने सामान्य से कभी नाता नहीं तोड़ा । वे नि:स्पृह थीं । उन्हें सब कुछ मिला पर उसमें आसक्त न बनीं। उनकी मृदुता, सौम्यता, निडरता और सहिष्णुता थी उनका भौतिक शरीर रोगग्रस्त हुआ किन्तु मनोवल सदा स्वस्थ रहा। बहुत वर्ष तक निरन्तर रक्तस्राव की बीमारी ने आपकी सहिष्णुता को द्विगुणित कर दिया। चिकित्सकों ने तो कैंसर तक की कल्पना कर ली। वि० सं० २०२३ में आचार्य प्रवर ने दक्षिण यात्रा प्रारम्भ की। महासती लाडांजी को बीदासर में अस्वस्थता के कारण रुकना पड़ा। व्याधि ने भयंकर रूप धारण कर लिया। जलोदर की भयंकर वेदना में भी चार-चार सूत्रों का स्वाध्याय चलता । अत्यन्त समभाव से वेदना को सहन किया। थोड़े ही महिनों में तीन बार पानी निकाला गया। डाक्टर पर डाक्टर आने लगे । सबकी आवाज थी कि इस बीमारी का आपरेशन के सिवा कोई इलाज नहीं। पर आपने स्वीकृति नहीं दी । हँसते-हँसते समरांगण में सुभट की भाँति आत्मविजयी बनीं। आपकी सहिष्णुता को देख, सुनकर महामना आचार्य प्रवर ने आपको "सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति" उपाधि से अलंकृत किया । चैत्र की रात्रि के ३ बजे अनसनपूर्वक कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया। ८. साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी - आपका मूल निवास स्थान लाडनूं था । वि० सं० १६६८ में कलकत्ता में आपका जन्म हुआ | आपने वि० सं० २०१७ की आषाढी पूर्णिमा को केलवा में आचार्य तुलसी से दीक्षा ग्रहण की। साध्वीप्रमुखा का पद वि० सं० २०२० में गंगाशहर में प्राप्त हुआ। o धार्मिक परिवार में जन्म होने से बचपन से ही आपको धर्म के संस्कार प्राप्त हुए। आपके मन में वैराग्य के अंकुर प्रस्फुटित हुए, पर संकोची मालिका होने के कारण सबके सामने अपने विचार प्रकट नहीं किये। वैराग्य भावना बलवती होती गई। आखिर सं० २०१३ भाद्रपद शुक्ला त्रयोदशी के दिन आपको श्री पारfe शिक्षण संस्था में प्रविष्ट किया गया। आपका प्रत्येक कार्य शालीनता व विवेकपुरस्सर होता । साधना की भूमिका में निष्णात पाकर आचार्यची तुलसी ने आपको दीक्षा की स्वीकृति प्रदान की। फलस्वरूप तेरापंच द्विशताब्दी समारोह के ऐतिहासिक अवसर पर मेवाड़ में स्थित ऐतिहासिक स्थल केलवा में आपका दीक्षा संस्कार सम्पन्न हुआ । दीक्षा के पश्चात् आपकी स्फूर्तप्रज्ञा और अधिक उन्मिषित हुई । एकान्तप्रियता, गम्भीरता, स्वल्पभाषण, निष्ठापूर्वक कार्य संचालन आपकी विरल विशेषताएँ हैं । अप्रमत्तता आपका विशेष गुण है। पश्चिम रात्रि में उठकर सहस्रों पद्यों की स्वाध्याय आपका स्वभाव बन गया है । आज भी आपको दसवेजातिय नाम माला, न्यायका नीति जैन सिद्धान्त दीपिका, शान्तसुधारस, सिन्दूर प्रकर, 'षड्दर्शन' आदि अनेकों ग्रन्थ सम्पूर्ण रूप से कण्ठाग्र हैं । न्याय सिद्धान्त, दर्शन और व्याकरण का आपने गहन अध्ययन किया है। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत भाषा पर पूर्ण अधिकार है । अंग्रेजी भाषा में भी आपको अच्छी गति है । आपका अध्ययन आचार्य प्रवर की पावन सन्निधि व साध्वी श्री मंजुलाजी की देख-रेख हुआ । . Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +0+0+0+0+ तेरापंथ की अग्रणी साध्वियाँ ८५ सब दृष्टियों से पूर्ण योग्य समझकर गंगाशहर मर्यादा महोत्सव के अवसर पर सं० २०२८ की माघ कृष्णा त्रयोदशी को युगप्रधान आचार्य प्रवर ने साध्वीप्रमुखा के रूप में आपका मनोनयन किया। उस समय आप से ४१७ साध्वियां रत्नाधिक थीं। आज भी लगभग ४०० साध्वियां दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ हैं । आपके नम्र व्यवहार को देखकर सब आश्चर्यचकित हैं | आप एक कुशल अनुशासिका, विज्ञ व्यवस्थापिका व सफल संचालिका होने के साथ-साथ सफल संपादिका व लेखिका भी हैं । HIGIE आपकी सतत प्रवाहिनी लेखनी जनजीवन को नया चिन्तन, नव्यप्रेरणा व नूतन सन्देश देती है। आगम डालिमसम्पादन के गुरुतर कार्य में भी आप सतत संलग्न हैं। आचार्यप्रवर के प्रमुख काव्य — कालूयशोविलास, चरित्र, माणक महिमा, नन्दन निकुंज, चन्दन की चुटकी भली का आपने सफलतापूर्वक सम्पादन किया। आचार्यश्री तुलसी दक्षिण के अंचल में' आपकी अपूर्व कृति है और 'सरगम' में आपकी काव्यमयी प्रतिभा की एक झलक मिलती है। जो भक्तिरस से ओत-प्रोत है। आपका समर्पण भाव अनूठा है। आचार्यश्री के हर इंगित को समझकर उसको क्रियान्वित करती हैं। नियमितता तथा संकल्प की दृढ़ता आपके जीवन की विशेष उपलब्धि है जिसके फलस्वरूप इतने व्यस्त कार्यक्रम में भी आप जो करणीय है, वह करके ही रहती हैं। आपके महान् व्यक्तित्व और कर्तृत्व को शब्दों की सीमा में आवद्ध करना शक्य नहीं है। आप आने वाले सैकड़ों युगों तक जन-जन का मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी । . Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माण्ड के जावड़ शाह मूल लेखक : डॉ० सी० क्राउझे अनुवादक: डॉ सत्यव्रत संस्कृत विभाग, राजकीय महाविद्यालय, श्रीगंगानगर (राजस्थान) १४६८-६९ ई० में, जब मालव प्रदेश पर गयासुद्दीन खल्जी का शासन था, उसकी राजधानी मण्डुपदुर्ग (आधुनिक माण्डु) में एक भव्य उत्सव का आयोजन किया गया था। यह उद्यापन पर्व था। जैन समाज, कुछ व्रतों की पूर्णाहूति-पारणा पर अब भी ऐसा उत्सव मनाता है। इस अवसर पर धार्मिक ज्ञान, विश्वास तथा आचरण के उन्नयन के लिये समुचित उपहार दिए जाते हैं । इस उद्यापन का विशेष महत्त्व था। उस समय पवित्र जैन महिला 'कुमरी' ने खरतरगच्छीय जैन यति वाचनाचार्य 'सोमध्वज' को कल्पसूत्र की एक स्वर्णाक्षरी सचित्र प्रति भेंट की थी, जो उसने प्रचुर धन व्यय करके तैयार करवायी थी। संवत् १५५५ में लिखित यह उत्कृष्ट हस्तप्रति आज भी उपलब्ध है। कल्पसूत्र के अर्धमागधी पाठ के अतिरिक्त इसमें अत्यन्त अलंकृत काव्य-शैली में निबद्ध ६१ संस्कृत-पद्यों की एक प्रशस्ति है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत उपयोगी है। इस प्रशस्ति की रचना सोमध्वज के प्रशिष्य के शिष्य मुनि शिवसुन्दर ने उक्त संवत् में की थी और उसी वर्ष इसकी प्रतिलिपि की गयी थी।' कल्प-प्रशस्ति में लेखक ने केवल उपहार का ही विस्तृत वर्णन नहीं किया है, अपितु मण्डुप के जैन-व्यापारी जसधीर के वंश के सम्पूर्ण इतिहास का भी निरूपण किया है। कल्पसूत्र की भेंटकी 'कुमरी', जसधीर की चार पत्नियों में से दूसरी थी। प्रशस्तिकार ने अपना विवरण परिवार के सातवें पूर्वज से प्रारम्भ किया है, जो दिल्ली का प्रतिष्ठित व्यापारी था। यह परिवार तब तक दिल्ली में रहता रहा, जब तक इसका चतुर्थ पूर्वज माण्डू में स्थानान्तरित न हुआ। माण्डू में इस परिवार की एक लघु शाखा बस गयी थी। जसधीर इसी शाखा से सम्बन्धित था। श्रीमाली कुल का बहकट गोत्रीय यह परिवार खरतरगच्छ का अनुयायी था। वंशपरम्परा के अनुरूप जसधीर तत्कालीन गच्छधर आचार्य जिनसमुद्रसूरि का श्रद्धालु शिष्य था । उसने 'संघपति' की स्पृहणीय उपाधि प्राप्त की थी तथा अपनी दानशीलता एवं धार्मिक विचारधारा के कारण सुविख्यात था। इसीलिये प्रशस्ति में उसकी मुक्त प्रशंसा की गयी है। यही प्रशंसा उसके उन पूर्वजों को प्राप्त हुई है, जिन्होंने अपने सत्कृत्यों के कारण विशिष्ट पद प्राप्त किये थे। अन्य पूर्वजों का प्रशस्ति में केवल नामोल्लेख है। इन गौरवशाली पुरुषों के समुदाय में, सीधे वंशवृक्ष से कुछ हटकर, दो ऐसे व्यक्ति थे, जिनका नाम संयोगवश जावड़ था । वे दोनों माण्डू के वासी तथा समसामयिक थे। १. खरतरगच्छीय जावड़-जावड़ नामधारी इन दो व्यक्तियों में से कम महत्त्वपूर्ण जावड़, जसधीर का जामाता था। उसे कुमरी की सौत झषक की बड़ी पुत्री, सरस्वती, विवाहित थी । उसके विषय में कल्पसूत्रप्रशस्ति १. इस प्रशस्ति की प्रतिलिपि मुझे श्री अगरचन्द नाहटा के सौजन्य से प्राप्त हुई थी। २. कल्पप्रशस्ति, २ Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माण्डू के जावड़ शाह से केवल इतना ही ज्ञात होता है कि वह संघपति मण्डण का पुत्र था (५४) । उल्लेखों की स्वतन्त्रता से अभास होता है कि यह जावह अपने समकालीन लेखकों को प्रभावित नहीं कर सका वह निश्चय ही अपने लब्धप्रतिष्ठ पिता की अपेक्षा कम प्रतिष्ठित था. जिसके बारे में कल्पप्रशस्ति के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से भी पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है तथा जिसके प्रख्यात नाम के पीछे जावड़ एक परिशिष्ट-सा प्रतीत होता है । ८७ क्रमशः संवत् १५२८ तथा १५३२ में लिखित वसुदेवहिण्डी और भगवतीसूत्र की हस्तप्रतियों की पुष्पिकाओं से, जिनकी प्रतिलिपियाँ संघपति मण्डण ( माण्डण ) ने माण्डू के भण्डार के लिये करवायी थीं, विदित होता है कि वह श्रीमाली कुल के ठक्कुर गोत्र से सम्बन्धित तथा खरतरगच्छ का अनुयायी था। वह संघपति जयता तथा उसकी पत्नी होमी का आत्मज था। उसने प्रतिमा-प्रतिष्ठा, देवालय निर्माण, रुपयात्रा आदि मुल्यों से जैन धर्म के प्रति अपनी निष्ठा प्रमाणित की भी तथा सत्रागारों की स्थापना आदि दान कार्य किये थे। उसने पूर्वोक्त भण्डार के लिये समूचे सिद्धान्त (जैन धर्म के पवित्र ग्रन्थ) की प्रतिलिपि भी कराई थी । मुद्रित पुस्तकों के अभाव के उस युग में यह निःसन्देह प्रशंसनीय कार्य था। इस बात पर बल दिया गया है कि यह सब कुछ उसने ईमानदारी से अर्जित विशाल धनराशि खर्च करके सम्पन्न किया था । वसुदेवहिण्डी की पुष्पिका में उसकी पत्नी लीलादे तथा उसके पुत्रों खीमा और करण का तो उल्लेख है, किन्तु जावड़ के विषय में सर्वथा वह मौन है। भगवतीसूत्र की पुष्पिका के अनुसार उसके पुत्रों का नाम संघपति खीमराज तथा संघपति जाउ हैं । जाउ निःसन्देह, जावड़ का नामान्तर है । जावड़ के पुत्र नीना का भी इस पका में उल्लेख आया है। III ने शिलालेखों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि श्रीमाली कुल के जयता के पुत्र मण्डप (अथवा माण्डण ) जिन - मूर्तियों की स्थापना की थी तथा जिनचन्द्रसूरि से उनका अभिषेक ( प्रतिष्ठा ) कराया था । जिनचन्द्रसूरि खरतरगच्छ के सत्तावनवें आचार्य और इस प्रकार जिनसमुद्रसूरि के पूर्ववर्ती थे, जो, जैसा पहले कहा गया है, जसधीर के में उस वर्ष श्रेयांस की प्रतिमा स्थापित , 3 जावड़ का उक्त लेख में कोई उल्लेख नहीं है, गुरु थे । संवत् १५२४ के एक शिलालेख' से स्पष्ट है कि उसने मण्डप की थी । इस लेख से यह भी ज्ञात है कि वह ठक्कुर गोत्र का था । यदि झांझण जावड़ का भ्रष्ट रूप न हो । संवत् १५३३ के एक अन्य लेख पुत्र जावड़ के नाम आये हैं । इसी लेख में यह निर्देश भी है कि माण्डण ने सुपार्श्व की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी थी जिस पर प्रस्तुत लेख उत्कीर्ण है । इसमें स्थान तथा गोत्र के नाम का सर्वथा अभाव है । में माण्डण की पत्नी लीलादे तथा उसके १. विनयसागर प्रतिष्ठा-लेख संग्रह, नं० ६५१ : ३. इस मण्डण ( माण्डण ) को उसके समवर्ती अथवा लगभग समवर्ती इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि उपर्युक्त पुष्पिकाओं तथा शिलालेखों के मण्डण तथा जावड़ (जाउ ) उन ममनाम व्यक्तियों से अभिन्न है, जिनका उल्लेख कल्प- प्रशस्ति में हुआ है । खरतरगच्छीय जावड़ का संक्षिप्त विवरण यहीं समाप्त होता है । वह न अपने उदार तथा दूरदर्शी पिता के पगचिह्नों पर चला, न उसने अपने विशालहृदय श्वसुर का अनुगमन किया। जहाँ तक हमें ज्ञात है, उसने ऐसा कोई कृत्य नहीं किया था जिससे उसका नामोल्लेख न्यायोचित कहा जा सकता, यदि लोग उसे उसके गौरवशाली समनामतपागच्छीय जावड़ से अभिन्न मानने की भूल न करते । २. वही, नं० ७५७ समनाम व्यक्तियों, विशेतः मन्त्री मण्डन से afra मानना भ्रामक है, यद्यपि मन्त्री मण्डन भी माण्डू के वासी तथा श्रीमाली कुल एवं खरतरगच्छ से सम्बन्धित थे । वे सोनगर- गोत्रीय बाहड़ के पुत्र ये - एम० डी० देसाई जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास (बम्बई, १९३३), ० ६१८-७०४ ४. अगरचन्द नाहटा : माण्डवगढ़ के जैन मन्दिर, मध्यप्रदेश इतिहास परिषद् की पत्रिका, भाग २, पृ० ८० .0 . Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड (२) तपागच्छीय जावड़— दूसरा जावड़ जसधीर की सबसे छोटी बुआ' सुहगू का पुत्र था। जावड़ के पिता का नाम राजमल्ल था । कल्पसूत्रप्रशस्ति में उसके नाम का यद्यपि निर्देश मात्र है किन्तु अन्य स्रोतों से, जिन पर हम आगे विचार करेंगे, विदित होता है कि वह गौरवप्राप्त व्यक्ति था । H जाब तथा उसके परिवार का मुख्य इतिहासकार जैन कवि सर्वविजयगण है, जिसकी मुनि-परम्परा तपागच्छ के पचासमें गच्छनायक आचार्य सोमसुन्दरसूरि तक पहुँचती है वह दो संस्कृत महाकाव्यों-आनन्दसुन्दर तथा सुमतिसम्भव' का प्रणेता है । ये दोनों काव्य हस्तप्रतियों के रूप में सुरक्षित हैं । अभी तक इनका मुद्रण नहीं हुआ है । आनन्दसुन्दर (अपरनाम दशधारित) में जैसा दोनों शीर्षकों से संकेतित है, महावीर के दस प्रमुख वक की कथाएँ वर्णित है, जिनमें आनन्द सर्वप्रथम है। यह उवासगदसाओ (सप्तम अंग ) पर आधारित है तथा इसमें आठ अधिकार हैं। इसकी रचना संवत् १५५१ में लिखित प्राचीनतम प्रतिलिपि से कुछ ही पूर्व हुई होगी क्योंकि इसमें जावड़ द्वारा संवत् १५४७ में कराई गयी प्रतिमा प्रतिष्ठा की घटना का उल्लेख है तथा तपागच्छ के ५४वें गच्छाधिपति, जाब के गुरु आचार्य सुमतिसाधुरि जिसका स्वर्गारोहण संवत् १५५१ में हुआ था के जीवित होने का संकेत है। अनेक छिटपुट उल्लेखों के अतिरिक्त इसमें छठे पूर्वज के बाद से, जावद के परिवार का विस्तृत ऐतिहासिक वृत्त सन्निविष्ट है । सर्वविजय ने काव्य का प्रणयन जावड़ के सुझाव तथा आग्रह से किया था, अतः उसके परिवार का विस्तृत विवरण यहाँ अप्रत्याशित नहीं है। 7 1 सर्व विजय के दूसरे काव्य का शीर्षक आपाततः सुपरिचित प्रतीत होता है, क्योंकि इसमें जैन तीर्थकरों सुमति तथा सम्भव, के नाम ध्वनित हैं; किन्तु वास्तव में उनका काव्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसमें पूर्वोक्त आचार्य सुमतिसाधुसूरि का जीवनचरित वर्णित है। काव्य में, संवत् १५४७ में, जावड़ द्वारा कराई गयी प्रतिमा प्रतिष्ठा का वर्णन होने के कारण यह उस वर्ष (संवत् १५४७) तथा इसकी एकमात्र शात हस्तप्रति के प्रतिनिधिकाल संवत् १५५४ के मध्य लिखा गया होगा । अन्तिम भाग के नष्ट हो जाने से यह कहना सम्भव नहीं कि काव्य में नायक के निधन का वर्णन किया गया था या नहीं । किन्तु इसके शीर्षक (सम्भव ) को देखते हुए अधिक सम्भव यही है कि काव्य में यह वर्णन नहीं था । अतः काव्य-रचना की अन्तिम सीमा संवत् १५५१ निश्चित होती है । काव्य के आठ में से पूरे दो सर्गों में ( ७-८ ) जावड़ (नायक के प्रमुख भक्त के रूप में) का वृत्त वर्णित है। किन्तु जानड़ के पूर्वजों में से केवल उसके पितामह गोह तथा पिता राजमल्ल की ही चर्चा हुई है। यह सम्भवतः इस बात का द्योतक है कि इसकी रचना आनन्दसुन्दर के बाद हुई थी, जिसमें पूर्ण वंशावली दी गयी है और कवि ने उसे यहाँ दोहराना आवश्यक नहीं समझा । 1 जावड़ के विषय में कुछ जानकारी, मुख्यतः उसकी सामाजिक तथा धार्मिक सेवाओं के सम्बन्ध में शिवसुन्दर की उपर्युक्त समसामयिक कल्पसूत्रप्रशस्ति से प्राप्त होती है। जावड़ का एक उल्लेख वाचनाचार्य सोमध्वज के शिष्य खेमराज गणि अपरनाम क्षेमराज गणि की गुजराती 'माण्डवगढ़प्रवाडी' में मिलता है। उसके एक अन्य ग्रन्थ (सं० १५४६ में लिखित) के प्रामाण्य के अनुसार वह जावड़ का समकालीन था। एक अन्य स्रोत संवत् १५४१ में रचित सोमचरित १. बहिन नहीं, जैसा अगरचन्द नाहटा ने 'विक्रम' १. १ में प्रकाशित अपने लेख में माना है । कल्पप्रशस्ति में स्पष्ट कहा गया है कि सुहगू जसधीर के पितामह जगसिंह की पुत्री थी । २. इसकी एक हस्तप्रति भक्तिविजय भण्डार, आत्मानन्द सभा, भावनगर में सुरक्षित है ( नं० ७०३ ) : ३. तुलना कीजिए भँवरलाल नाहटा "श्रीसुमतिसम्भव नामक ऐतिहासिक काव्य की उपलब्धि," जैन सत्यप्रकाश, २०, २३, पृ० ४४. मेरे उल्लेख तथा उद्धरण एशियाटिक सोसायटी बंगाल, कलकत्ता में सुरक्षित हस्तप्रति (७३०२) की फोटो प्रति के अनुसार हैं । यह प्रति मुझे, परम उदार तथा सदैव सहायताकर्त्ता श्री अगरचन्द नाहटा के सौजन्य से प्राप्त हुई थी। . Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माण्डू के जावड़ शाह ................................................................... ८६ ...... गणि का 'गुरुगुणरत्नाकर' महाकाव्य है । यह तपागच्छ के ५३३ गच्छेश आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि का जीवन चरित है। किन्तु इससे जावड़ की संघयात्रा पर ही पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। इनके अतिरिक्त विबुधविमलशिष्य द्वारा गुजराती पद्यों में रचित 'तपागच्छ-पट्टानुक्रम-गुर्वावली छन्द' (संवत् १५७०) तथा आधुनिक 'लघुपौषालिक-गच्छपट्टावली' दो अन्य स्रोत हैं, इन दोनों से जावड़ की प्रतिमा-प्रतिष्ठा के विषय में पर्याप्त सूचना मिलती है। वंशावली-जावड़ एक प्राचीन, अतीव सम्मानित तथा धनाढ्य परिवार का वंशज था । इसका अनुमान इस तथ्य से किया जा सकता है कि, हापराज को छोड़कर उसके पूर्वजों की श्रृंखला के सभी घटक व्यक्ति संघपति थे। इसका तात्पर्य है कि उन्होंने कम-से-कम एक बार संघयात्रा का आयोजन किया था। यह ऐसा काम है जिसके लिए उन दिनों असीम साहस, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा धन की आवश्यकता थी। जावड़ के तीन पूर्वज मालव-नरेशों के दरबारों से सम्बन्धित थे। हापराज 'मास्टर आफ प्रोटोकोल' के समान कोई अधिकारी था। गोल्ह राजा का प्रेम-पात्र था तथा जावड़ का पिता राजमल्ल मालवपति महिमुन्द की सभा का भूषण था। इनमें से अधिकांश की, उनकी दानशीलता तथा पवित्रता के कारण प्रशंसा की गयी है। अन्त में राजमल्ल का प्रशस्तिगान हुआ है, जो माण्डू में गुरु लक्ष्मीसागरसूरि का ठाटदार स्वागत करने के कारण प्रख्यात है। इस आयोजन पर उसने ६०,००० टंक व्यय किये थे। इस लोकप्रिय तथा विद्वान् साधु के माण्डू में ठहरने की पुष्टि, संवत् १५१७, १५२०, १५२१ तथा १५२४ में उनके द्वारा अभिषिक्त (प्रतिष्ठित) जिन-प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों से होती है। इससे राजमल्ल के इस कार्य का समय भी लगभग निश्चित हो जाता है। . प्रशासनिक तथा सामाजिक प्रतिष्ठा-वंश-परम्परा के अनुरूप जावड़ को भी राजदरबार में प्रतिष्ठित पद प्राप्त था। गयासुद्दीन सदैव उसका सम्मान किया करता था। सुल्तान ने उसे उत्तम व्यवहारों की उपाधि से विभूषित तथा कोषाध्यक्ष नियुक्त किया था। इसीलिए उसे सुल्तान का मन्त्री कहा गया है। कभी-कभी जावड़ेन्द्र के रूप में भी उसका उल्लेख हुआ है । यह विरुद उसकी सत्ता के अतिरिक्त, लघुशालिभद्र की भांति, उसकी असीम समृद्धि को व्यक्त करता है। श्रीमालभूपाल' विरुद उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा का द्योतक है। यह उपाधि उसके लिए बार-बार प्रयुक्त । की गयी है। तीर्थयात्रा-जैसा उसके विशेषण संघनायक तथा नियमित उपाधि संघपति से व्यक्त है, जावड़ को अपने सम्प्रदाय में बहुत सम्मान प्राप्त था। स्पष्टत: उपरोक्त उपाधि उसे अर्बुदाचल (आबू) तथा जीरापल्ली अथवा जीरापुरी (आधुनिक जीरावल) की तीर्थयात्रा करने के पश्चात् मिली थी। ये दोनों अब भी जैनों के विख्यात तीर्थ-स्थान हैं । जावड़ की किसी अन्य तीर्थ-यात्रा का अन्य स्रोतों से पता नहीं चलता, यद्यपि वे उसके साथ जाने वाले तीर्थयात्रियों के अपार समूह तथा उसके द्वारा व्यय की गयी असीम धन-राशि का वर्णन करते-करते नहीं अघाते। कल्पप्रशस्ति के अनुसार जसधीर स्वयं भी संघयात्रा का सदस्य था। मण्डप का मन्त्रीश जाउ, अपने संव के साथ किस प्रकार उज्जैन तथा धारा से आने वाले संघों से रतलाम में मिला, और कैसे तीनों संघ मिलकर गच्छपति आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि की वन्दना करने के लिए ईडर गये, इसका वर्णन 'गुरुगुणरत्नाकर में सन्तोषपूर्वक किया गया है। वहाँ से आबू तथा जीरावला गये और धार्मिक उत्सव मनाते हुए, उपवास एवं दावतें करते हुए तथा सदैव आनन्दपूर्वक मुक्त हस्त दान देते हुए वे सिरोही के रास्ते मालवा लौटे । सौभाग्यवश, आबू के लुनि वसहि मन्दिर में उत्कीर्ण एक शिलालेख की सहायता से इस यात्रा का समय निश्चित किया जा सकता है। यह लेख संवत् १५३१ में, श्रीमालीकुल के संघपति राजा (राजमल्ल) तथा उसकी पत्नी सुहब के पुत्र, संघपति जावड़ की उक्त तीर्थ की यात्रा के उपलक्ष में खुदवाया गया था । यह यात्रा जावड़ ने अपनी पत्नी धनीया के साथ की थी। १. सुमतिसम्भव के सप्तम सर्ग की पुष्पिका का पाठ "श्रीमालवभूपाल" छन्द की दृष्टि से सदोष है । २. मुनि जयन्तविजय : श्री अर्बुद-प्राचीन-जैनलेख-सन्दोह, श्रीविजयधर्म जैन ग्रन्थमाला, संख्या ५०, संवत् १६६४, पृ० १५५, सं० ३८७, पृ० ४६५. Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : षष्ठ खण्ड गुरु का स्वागत-अपने पिता के पगचिह्नों पर चलते हुए जावड़ ने जैसे आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि की वन्दना की थी वैसे ही वह तपागच्छ के गुरुओं का भक्त रहा। उसकी आस्था विशेष रूप से लक्ष्मीसागर सूरि के पट्टधर आचार्य सुमतिसाधुसूरि के प्रति केन्द्रित थी। उसके जीवनीकार ने उसके बहु-प्रशंसित कार्यों को इन्हीं आचार्य के बुद्धिपूर्ण मार्ग-दर्शन का परिणाम माना है। सुमतिसाधु जब गुजरात में विहार कर रहे थे, जावड़ ने उन्हें माण्ड में निमन्त्रित किया तथा शानदार आयोजन से उनका अभिनन्दन किया, जिसका सविस्तार वर्णन सुमतिसम्भव में किया गया है।' वादकों द्वारा प्रयुक्त विविध वाद्यों, उनके तुमुल नाद, भड़कीले जलूस में चलती गजराजियों तथा भूषित घोड़ों, सेठ द्वारा वितरित मूल्यवान् परिधान तथा वेशकीमती अन्य वस्तुओं और मुसलमानों-सहित जनता के हर्ष की ओर कवि ने विशेष ध्यान आकृष्ट किया है। माण्डू के वर्तमान खण्डहरों को देखकर इस चित्र की कल्पना करना सचमुच कठिन है। द्वादशवतग्रहण--गुरु के सान्निध्य में जावड़ को सर्वप्रथम जो कार्य करने की प्रेरणा मिली, वह था धावक के बारह व्रत ग्रहण करना, जिन्होंने, उसके जीवनीकार की दृष्टि में, उसे राजा श्रेणिक, सम्राट सम्प्रति, महाराज कुमारपाल तथा आम, सेठ शालिभद्र जैसे प्राचीन महान् श्रावकों की पंक्ति में आसीन कर दिया। इनमें में प्रथम पाँच व्रत अणुव्रतों के नाम से ख्यात हैं। ये मुनियों के पाँच महाव्रतों के शिथिल संक्षिप्त संस्करण हैं । जावड़ ने प्रथम दो-अहिंसा तथा सत्य-व्रतों को परम्परागत रूप में ग्रहण किया। अस्तेय को भी उसने यथावत् स्वीकार किया। केवल फलनाशक कीटाणुओं को दूर करने में वह सतर्क रहा । चतुर्थ व्रत ब्रह्मचर्य के अन्तर्गत, जावड़ ने दाम्पत्य-निष्ठा का परिपालन करते हुए ३२ स्त्रियाँ रखने का अधिकार सुरक्षित रखा। निस्सन्देह, यह उसने सद्यः-निर्दिष्ट शालिभद्र के उदाहरण के अनुकरण पर किया था, जिसकी इतनी ही पत्नियाँ बताई जाती हैं। दोनों में अन्तर केवल इतना है कि शालिभद्र ने उन सबको छोड़कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली थी। अन्य स्रोतों के अनुसार जावड़ की वस्तुतः चार धर्मपत्नियाँ थीं, जिनके नाम भी हमें ज्ञात हैं। प्राचीन राजपूती परम्परा के अनुरूप, जो कुछ पीढ़ियों पूर्व राजपूत-मूलक जैन परिवारों में भी प्रचलित थी, अन्य स्त्रियाँ उसकी रखैले रही होगी। अपरिग्रह नामक पंचम व्रत से, जिसके अनुसार निजी सम्पत्ति को संख्या तथा परिमाण की दृष्टि से सीमित करना होता है, जावड़ ने, निम्नोक्त क्रम में, इन वस्तुओं को अपने अधिकार में रखा-१००,००० मन अनाज, १००,००० मन घी तथा तैल, १००० हल, २००० बैल, १० भवन तथा हाट, ४ मन चाँदी, १ मन सोना, ३०० मन हीरे, १० मन साधारण धातुएँ (तांबा, पीतल आदि), २० मन प्रवाल, १००,००० मन नमक, २००० मन गुड़, २०० मन अफीम, २००० गधे, १०० गाड़ियाँ, १५०० घोड़े, ५० हाथी, १०० ऊँट, ५० खच्चर, २०,०००,००० टंक । इन अंकों से प्राचीन माण्डू के 'व्यवहारिशिरोरत्न' की समृद्धि का अंदाज किया जा सकता है। 'गुणवत' नामक द्वितीय व्रत-समुदाय के अन्तर्गत हठा, सातवां तथा आठवां व्रत आता है। छठे व्रत से जावड़ ने अपनी गति का अर्द्धव्यास आड़ी दिशा में २००० गव्यूति तथा ऊर्ध्व एवं अघोदिशा में क्रमशः आधा तथा २ गव्यूति तक सीमित कर दिया। सातवें व्रत के अन्तर्गत, जो दैनिक खपत तथा प्रयोग की संख्या तथा परिमाण को सीमित करता है, उसने प्रतिदिन अधिकाधिक इन वस्तुओं का प्रयोग करने का प्रण किया-चार सेर घी, पाँच सेर अनाज, पेय जल के पाँच घड़े, सौ प्रकार की सब्जियाँ, संख्या में पाँच सौ तथा तौल में एक मन फल, चार सेर सुपारी, २०० पान, स्नानीय जल के आठ कलश, परिधान के सात जोड़े तथा इसी प्रकार सीमित अन्य वस्तुएँ, जिनकी सूची बहुत लम्बी है । आठवें व्रत के अनुसार, जो ऐसी वस्तुओं तथा कार्यों की सीमा निर्धारित करता है जिनसे प्राणियों को अनावश्यक २. वही, ७. २८. ३. वही, ७. २१. १. सुमतिसम्भव, ७, २६-३३. ४. आनन्दसुन्दर, पृ० १७. Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माण्डू के जावड़ शाह ................................................................... .... असुविधा हो, जावड़ ने उबालकर कृमिरहित किये गये जल का प्रयोग करने, थोड़े-से वस्त्रों को रंगाने, जुआ न खेलने, कोतवाल, जेल-निरीक्षक, आदि पद स्वीकार न करने की प्रतिज्ञा की। द्वादश श्रावक-व्रतों में से अन्तिम चार (६-१२) शिक्षाव्रत कहलाते हैं। नवाँ व्रत निश्चित समय पर परम्परागत सामायिक, धार्मिक अनुष्ठान करने का आदेश देता है। दसवाँ व्रत, पहले व्रतों के अन्तर्गत सामान्यत: वर्णित कार्यकलापों को और सीमित करता है। ग्यारहवें के अनुसार पौषध अनिवार्य है। बारहवाँ व्रत निश्चित समय पर निश्चित धन खर्च करके दान-कार्य, आतिथ्य तथा धार्मिक अनुष्ठानों को करने का आदेश देता है। जावड़ ने जिन प्रतिबन्धों को स्वयं स्वीकृत किया था तथा जो प्रतिज्ञाएँ कीं, उनका सूक्ष्म वर्णन उसके जीवनीकार ने किया है । वह इस आदर्श श्रावक का चित्र संसार के समक्ष प्रस्तुत करने को उत्सुक था, जो अपने सम्प्रदाय के अनुयायियों में श्रेष्ठ था तथा जिसके धर्म ने उसे इस आत्म-संयम के पालन के लिए प्रेरित किया था। जावड़ ने अपने प्रणों, विशेषतः बारहवें व्रत के अन्तर्गत किये गये प्रणों, का निष्ठापूर्वक पालन किया। इसका अनुमान उसके द्वारा प्रत्येक उपयुक्त अवसर पर दिये गये दान, उसके जीवनीकार की इस दृढ़ उक्ति से कि 'उसने समूची पृथ्वी को सत्रागार बना दिया', जलचरों की रक्षा के लिए माण्डू की समस्त नदियों, झीलों तथा कुपों को वस्त्र से बुद्धिपूर्वक ढकवाने के वर्णन तथा उसके द्वारा करायी गयी जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा से सहज ही किया जा सकता है। मूर्ति-प्रतिष्ठा—जावड़ ने इन प्रतिमाओं की स्थापना एक शानदार सामूहिक आयोजन में, संवत् १५४७ में, माण्डू में करायी थी और इनका अभिषेक उसके गुरु आचार्य सुमितसाधु ने किया था। वे संख्या में १०४ थीं-अतीत के चौबीस तीर्थंकरों की एक-एक, भविष्य के चौबीस तीर्थ करों की एक-एक, वर्तमान चौबीस तीर्थ करों की एक-एक उक्त प्रति चौबीस तीर्थंकरों के तीन सामूहिक मूर्तिपट्ट, बीस विहरमाण का एक सामूहिक मूर्तिपट्ट तथा ६ पंचतीथियाँ । तेईस सेर की एक चाँदी की मूर्ति तथा ग्यारह सेर की एक स्वर्णप्रतिमा को छोड़कर शेष सभी मूर्तियाँ पीतल की बनी हुई थीं। उन्हें हीरक-खचित छत्रों तथा बहुमूल्य आभूषणों से सजाया गया था। यहाँ तक कि क्षेमराज ने पूर्वोक्त चैत्यप्रवाड़ी में जावड़ की चाँदी, सोने तथा मणियों की जिन-प्रतिमाओं की प्रशंसा करते हुए कहा है कि वे यात्रियों के देखने योग्य "अभिराम वस्तुएँ" हैं। कल्पसूत्रप्रशस्ति में भी जावड़ के वर्णन के प्रसंग में उनका विशेष उल्लेख किया गया है। मूति-स्थापना के उपलक्ष में आयोजित उत्सवों, जावड़ द्वारा दिये गये उपहारों, उसके द्वारा भेटी गयी शानदार सामग्री तथा भारत के कोने-कोने से आये संघों का सूक्ष्म वर्णन सुमितसम्भव के २३ पद्यों में सम्भवतः यह दिखाने के लिए कि ऐसे महत्त्वपूर्ण उत्सव का आयोजन किस आदर्श रूप में किया जाना चाहिए, किया गया है। विबुधविमलशिष्य के १७ पद्यों में भी इस घटना का वर्णन है। उसमें अतिथियों को दी गयी भोजनसामग्री तक का वर्णन किया गया है। उसके अनुसार प्रतिष्ठा-समारोह पर जावड़ के पन्द्रह लाख रुपये खर्च हुए थे। मन्दिर-जावड़ के इस असीम औदार्य के कारण उसके आधुनिक प्रशंसकों का कथन है कि उसने माण्डू में ऋषभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर, इन पाँच तीर्थंकरों के विशाल मन्दिरों का भी निर्माण किया १. विश्वम्भरा"...."श्रीजावडेन....."सत्रगारमिव व्यधाप्यत। -आनन्दसुन्दर, पृ० २४. २. सुमतिसम्भव, ८. ३-७. ३. २२ सेर नहीं, जैसा लेखक एक दूसरे का अन्धानुकरण करते हुए कहते चले आये हैं । देखिये, सुमतिसम्भव, ८६ रौप्यो त्रयोविंशतिसेरिकका। ४. हैमी च सैकादशसेरसत्का। -सुमितसम्भव, ८६ ५. रूप्यस्वर्णमषीमयानि भगवबिम्बानि योऽकारयत् । ----कल्पप्रशस्ति , ४४ Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड @+-+-+-+ था। इसके लिए कोई प्रमाण नहीं है। यह अनुमान आनन्दसुन्दर (११५ ) के आधार पर अन्यायपूर्वक किया गया प्रतीत होता है, जिसके मंगलाचरण में उक्त तीर्थकरों की वन्दना तथा उनके आशीर्वाद की आकांक्षा की गयी है । मण्डप श्रृंगाराः पञ्चाप्येते जिनेश्वराः । शास्त्रादौ जावडेन्द्रस्य प्रसन्नाः सन्तु सन्ततम् ।। ६ ।। कवि ने इन पाँच जिनों को ही क्यों चुना है, यह तो उसे ही ज्ञात है महावीर को इनमें शामिल करना सम्भवतः इसलिए उचित समझा गया है कि काव्य के सभी नायक उनके उपासक थे । किन्तु इस पद्य से यह निष्कर्ष कदापि नहीं निकाला जा सकता कि उक्त तीर्थकरों के मन्दिर माण्डवगढ़ के प्रमुख देवायतन थे । चैत्यप्रवाड़ी में क्षेमराजगणि ने माण्डू तथा उसके आस-पास के प्रतिनिधि तीर्थस्थलों की यात्रा का विवरण देते हुए निकटवर्ती तारापुर, धार, होशंगाबाद, ( ये सब सम्भवतः माण्डू के सुल्तान के अधिकार क्षेत्र के अन्तर्गत थे, इसीलिए प्रवाड़ी में इन्हें शामिल किया गया है) आदि स्थानों के अतिरिक्त खास मा के पार्श्व सुपार्श्व शान्ति सम्भव तथ आदिनाथ के पाँच मन्दिरों का नामोल्लेख तथा वर्णन किया है। उसके साक्ष्य से यह सहज माना जा सकता है कि उसके द्वारा निर्दिष्ट पाँच मन्दिर उस समय खास माण्डू के मुख्य देवायतन थे । माण्डू के पार्श्व तथा सुपार्श्व मन्दिरों की प्रतिनिधि प्रकृति की पुष्टि समवर्ती कल्पसूत्रप्रशस्ति से होती है। श्रीमन्मण्डपमेरुभूधरधरास्कन्धे निबद्धस्थिती । श्रीमत्पार्श्वमुपार्जित स्थातां सतां पसे ।। १ ।। इसके अतिरिक्त प्रत्येक जैन जानता है कि विशेषकर सुपा देव माण्डू के अधिष्ठाता देव माने जाने रहे हैं। यह गुजराती कवि ऋषभदास के बहुश:- उद्धृत पद्य से स्पष्ट है--- माहवगटनो राजियो नामे देव सुपास । 'ऋषभ' कहे जिन समरतां पहोंचे मननी आस || ५ || माण्डू के जैनों के देवता के रूप में सुपार्श्व का उल्लेख रत्नमन्दिरमणि का उपदेश तरंगिणी' ( पृ० ११५), खेमाकृत वृद्धचैत्यवन्दन, शीलविजय तथा सुभागविजय की तीर्थमालाओं में भी हुआ है। ये सभी ( अंतकीट) अठारहवीं शताब्दी की कृतियां हैं। 18 साहित्य तथा शिलालेखों में कहीं भी इस बात का संकेत तक नहीं है कि जावड़ ने उक्त पाँच मन्दिरों अथवा उनमें से किसी एक का या अन्य किसी जैन मन्दिर का निर्माण करवाया था। दूसरी ओर, यह निश्चित है कि जावड़ के समय में, माण्डू में जैन मन्दिर पर्याप्त संख्या में विद्यमान थे, यद्यपि यह कहना कठिन है कि उन समस्त सात सौ मन्दिरों का क्या हुआ, जिनका उल्लेख मुनि जयानन्द ने अपनी 'नेमा प्रवास-गीतिका में किया है तथा ओ संवत् १४२७ में, उनकी यात्रा के समय वहाँ अवस्थित थे, जब माण्डू की जनसंख्या ३००,००० थी । अस्तु, यदि हम माण्डू के जैन मन्दिरों के प्राचीन इतिहास की खोज करने लगे तो हम विषय से भटक जायेंगे क्योंकि उसके अन्तर्गत हमें पेड़ के प्रसिद्ध निर्माणकार्य पर दृष्टिपात करना होगा। यहां यह कहना ही पर्याप्त होगा कि जानड़ के समय में कम-से : १. मुनि यतीन्द्र विजय यतीन्द्रविहारदिग्दर्शन, भाग ४, सं० १९९३ पृ० २०३, अगरचन्द नाहटा ने इसे दोहराया है, मध्यप्रदेश इतिहास परिषद् की पत्रिका, नं० २, पृ० ८०. २. चैत्यप्रवाड़ी के पाठ से बिल्कुल स्पष्ट है कि तीर्थयात्रा के मार्ग के २२ मन्दिरों में से केवल पांच माण्डू में स्थित थे, यद्यपि अगरचन्द नाहटा इन सब को माण्डू में स्थित मानते हैं। देखिये - मध्यप्रदेश इतिहास परिषद् की पत्रिका, पूर्वोक्त । ३. बनारस से प्रकाशित, सं० १५२०, वीर संवत् २४३७ ४. सं० १६१६ ( ? ) द्रष्टव्य-क्राउझे, त्रण प्राचीन गुजराती कृतिओ, अमदाबाद, १६५१, पृ० २५-२६ ५. सं० १७४६ तथा १७५० : देखिए ६. मुनिम्याविजयकृत जैन तीर्थोनो इतिहास, अमदावाद, १९४९, पृ० ४११ विजयधर्मसूरि, प्राचीन तीर्थमाला संग्रह, संवत् १६७८, पृ० १०१ तथा ७३ . Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माण्डू के जावड़ शाह ६३ 'कम १०४ मन्दिर निःस्सन्देह विद्यमान थे और उनमें से प्रत्येक में उसने एक-एक प्रतिमा की स्थापना की थी (सुमतिसम्भव, ८।१४)। स्फुरन्त्यत्र देवालयास्तुशृगाः शतं ते चतुभिः समं चित्रचंगाः । कसत्कोरणीभिर्लसत्तोरणश्रीधरः सिन्धुरा एव घण्टाघटाभिः ।। यह विवरण विबुधविमलशिष्य से मेल खाता है । अभिनव देवभवन देवाला, शत उपरि च्यारइ चउसाला । कणय, रजत, पीतलमय कारीय, बिब प्रतिष्ठा जग साधारीश ।। ७५ ॥ इससे अनुमान किया जा सकता है कि जावड़ के समय में जैन संस्कृति किस भव्यता तथा गौरव को प्राप्त कर चुकी थी। हम यह जानने को उत्सुक हैं कि श्रद्धालु कवियों द्वारा मुखरस्वर में प्रशंसित इस गौरव का अब क्या शेष रहा है ? क्या कवियों के अलंकृत शब्द ही उसकी एकमात्र साक्षी है ? शिलालेखीय प्रामाण्य-भाग्यवश कुछ सलेख मूर्तियाँ उस सर्वव्यापी विध्वंस से बच गयी हैं, जिसने 'आनन्दनगर' माण्ड को बियाबान बना दिया है, जिसमें आज मुसलमानों की भयोत्पादक कबरें ही स्थित हैं। पवित्र जैन लोग समय रहते उन मूल्यवान बिम्बों को अन्य सुरक्षित स्थानों पर ले गये थे तथा माण्ड से दूर मन्दिरों में स्थापित कर दिया गया था जहां अब भी उनकी पूजा होती है। ___ जावड़ द्वारा प्रतिष्ठापित १०४ बिम्बों तथा मूर्तिपट्टों में से, अतीत के जिनों के तीन बिम्ब--अनन्तवीर्य, स्वयम्प्रभ, तथा पद्मनाभ; वर्तमान के तीर्थकरों की दो मूर्तियाँ–अभिनन्दन तथा नेमिनाथ, विहरमाण जिनों की एक प्रतिमाविशालनाथ तथा तीनों पंचतीथियों--कुन्थु, शान्ति तथा पार्श्व, कुल मिलाकर ये नौ बिम्ब अभी तक सुरक्षित हैं । कुछ स्पष्टत: भ्रष्ट पाठों को शुद्ध करने के पश्चात् ज्ञात होता है कि उन सब में स्थान-नाम, मण्डप, सुमतिसम्भव (७।८) में निर्दिष्ट प्रतिष्ठा-तिथि-माघशुक्लात्रयोदशी, संवत् १५४७, प्रतिष्ठाता श्रीमालवंशीय जावड़ का नाम, बहुधा उसकी पत्नियों के नाम, पत्नी सहित उसके पुत्र हीरा, उसके दत्तक सम्बन्धी लाला, हापराज के सिवाय पत्नियों सहित उसके समस्त पूर्वजों तथा राजमल्ल के अग्रज मेधा तथा वहिन शानी का समुचित उल्लेख हुआ है। ये सब किसी-न-किसी माहित्य स्रोत से भी ज्ञात हैं । शिलालेख साहित्यिक स्रोतों से, तथा आपस में, इस बात पर भी सहमत हैं कि जिन बिम्बों की प्रतिष्ठा तपागच्छीय आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि के पट्टधर आचार्य सुमतिसाधुसूरि ने की थी तथा इन १०४ बिम्बों को एक-साथ स्थापित किया गया था (केवल एक स्रोत में ऐसा वर्णन नहीं है)। इस प्रकार जिस गणितीय नाप-जोख से साहित्यिक स्रोतों की उक्तियों तथा अंकों की पुष्टि शिलालेखों के प्रामाण्य से हई है, उससे बहु निन्दित जैन-साहित्य की ऐतिहासिक उपयोगिता का पक्ष-पोषण होता है। शोधक के लिये उस स्थिति में भी इस पर विश्वास करना न्यायोचित होगा, जब इसके समर्थन में कोई शिलालेख सूत्र प्राप्त न हो । हाँ, इससे पूर्व यह आवश्यक है कि ग्रन्थों को भाषावैज्ञानिक सत्यता से समझा जाए तथा सत्य-केवल सत्य को ग्रहण करने का निष्पक्ष प्रयास किया जाए। अन्यथा अर्द्ध-इतिहास का निर्माण हो जाता है, जैसा प्रस्तुत प्रबन्ध के विषय -जावड़-के बारे में हुआ है, जिसे समस्त प्रमाणों के विपरीत, वस्तुतः उनके अभाव में, माण्ड को मन्दिरों से अलंकृत करने, कल्पसूत्र की स्वर्णाक्षरी प्रति लिखवाने, प्रस्तर-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाने तथा खरतरगच्छ से सम्बन्धित होने का श्रेय पूर्ण निष्ठा से दिया गया है। आशा है, यह संक्षिप्त अध्ययन जैन सांस्कृतिक इतिहास के एक अध्याय का सूक्ष्म किन्तु तथ्यपूर्ण चित्र प्रस्तुत करने में सफल हुआ है । यह यद्यपि माण्डू की तंग सीमाओं में बद्ध है पर इसे तत्कालीन समूचे भारत का प्रतिनिधि माना जा सकता है क्योंकि जैन धर्म अपने सतत विहारशील, उपदेशदाता तथा बहुमानित साधुओं के कारण कभी भी भौगोलिक परिसीमाओं में बन्दी नहीं रहा है। ०० Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. ---.-. -.-.-. -. -.-.-. -.-. -.-.-. -.-.-.-. -. -.-. -.-.-.-.-. -.-...-. -.-.-. -.. तेरापंथ के हधर्मी श्रावक : अर्जुनलालजी पोरवाल 0 मुनि श्री बुद्धमल्ल युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य रावजी की नौकरी-अर्जुनलालजी का जन्म वास नामक ग्राम में रायचन्दजी पोरवाल के घर संवत् १९५३ में हुआ। वे चार भाई थे, प्रथम भाई कालूलालजी तथा चतुर्थ भाई मनोहरलालजी की मृत्यु बाल्यकाल में ही हो गई, अत: अर्जुनलालजी और सोहनलालजी ये दो भाई ही रहे। घर की आर्थिक स्थिति साधारण थी। उनके पिता वास में ही अन्न तथा वस्त्र की दुकान करते थे। उससे घर का व्यय भी कठिनता से ही निकल पाता था। अर्जुनलालजी ने नौकरी करने का निश्चय किया। खोज करने पर उन्हें मेरपुर रावजी के यहाँ नौकरी मिल गई। शीघ्र ही वे वहाँ के खजांची बन गये। एक दिन उन्हें एक पशु-पालक से खरीदे गये पशुओं का मूल्य चुका देने के लिए कहा गया । लेखा करते समय उन्हें ज्ञात हुआ कि राव साहब के 'रसोड़े' में पकने वाले मांस का स्रोत यही पशु-पालक है। वे निरीह पशुओं के वध में सहयोगी बनने से घबराये । लेखा-जोखा बीच में ही छोड़कर उन्होंने रावसाहब से कहा- "जैन हूँ, अत: यह कार्य किसी भी स्तर पर करना नहीं चाहता।" रावसाहब ने उनको समझाने का काफी प्रयास किया कि इसमें तुम्हें कौनसी हिंसा करनी पड़ती है ? तुम्हें तो केवल हिसाब करके मूल्य चुकाना पड़ता है, परन्तु उन्होंने वह कार्य करना स्वीकार नहीं किया। अपना वेतन लिये बिना ही वे वहाँ से अपने घर चले आये। कालांतर में जब रावजी वास आये, तब उनका अवशिष्ट वेतन उन्हें देने लगे परन्तु उन्होंने उसे लेने से इन्कार कर दिया। आखिर रावजी ने उनके सम्बन्धियों के माध्यम से वह रकम उनकी पत्नी के पास भिजवा दी। . तान्त्रिक से झगड़ा-अर्जुनलालजी वास में आकर वहाँ की दुकान का कार्य देखने लगे। वहाँ नवला नामक एक तेली तन्त्र-क्रिया का जानकार था, उसने उनके यहाँ से कुछ रुपये उधार लिये, परन्तु बहुत दिन हो जाने पर भी वापस नहीं लौटाये। उन्होने तब उगाही के लिए उसके घर पर अपना आदमी भेजा। तेली ने उसे डरा-धमका कर वापस भेज दिया। अर्जुनलालजी को उसका वह व्यवहार बहुत बुरा लगा । वे स्वयं उसके घर जाने को उद्यत हुए। कई व्यक्तियों ने उनको टोकते हुए कहा कि वह तान्त्रिक है, अत: उससे उलझना लाभदायी नहीं है । अर्जुनलालजी निर्भीक व्यक्ति थे, अत: किसी का भी कथन उन्हें प्रभावित नहीं कर सका, वे तत्काल वहाँ गये और अपने पैसे मांगने लगे। तेली उनसे भी उलझ पड़ा उसने धमकी देते हुए कहा- "तुमने मुझे समझ क्या रखा है ? मैं मूठ मार कर तुम्हें इसी समय समाप्त कर सकता हूँ।" उसके गर्वोक्तिपूर्ण कथन ने अर्जुनलालजी को उत्तेजित कर दिया। उन्होंने आव देखा न ताव चील की तरह झपटे और भुजाओं में कसते हुए उसे पार्श्ववर्ती गड्ढे में ढकेल दिया। उसके अनेक चोटें आई । बहुत दिनों के उपचार के पश्चात् ही वह ठीक हो पाया- उसी दिन से उसकी तान्त्रिक विद्या की धाक सदा के लिए समाप्त हो गई। भौई और भोजन-मेवाड़ में राखी के त्यौहार से पूर्ववर्ती रविवार के दिन 'वीर फूली' नामक त्यौहार मनाया जाता है । वह भाइयों की ओर से बहिनों के लिये मनाया जाने वाला त्यौहार है। उस दिन बहिन-बेटियों को बुलाया जाता है और दाल बाटी तथा चूरमे का भोजन कराया जाता है। उस दिन जब अर्जुनलालजी सायंकालीन भोजन करने के लिए घर आये तब उनकी थाली में भी चूरमा, बाटी और दाल परोसी गई। सबसे छोटे भाई मनोहर ने उनके साथ बैठ कर ही भोजन करना चाहा परन्तु उन्होंने उसे अपने साथ नहीं बिठाया। बाल स्वभाव के कारण वह - Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ के दृढ़धर्मों श्रावक : अर्जुनलालजी पोरबाल ६५ रूठ गया और सायंकालीन भोजन किये बिना भूखा ही सो गया। रात्रि में अचानक उसके पेट में पीड़ा प्रारम्भ हुई और वह किसी भी उपचार से शान्त नहीं हुई । प्रातःकाल होने से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो गई। उस दुर्घटना से अर्जुनलालजी को बड़ा आघात लगा-भाई के साथ किये गये अपने रूखे व्यवहार से उन्हें बड़ी आत्म-ग्लानि हुई । उन्होंने उस दिन के पश्चात् कभी चूरमा नहीं खाया। फूली के दिन फिर कभी उन्होंने भोजन भी नहीं किया। प्रतिवर्ष उस दिन को उन्होंने भाई की स्मृति में उपवास करके ही मनाया। भाई का विवाह मेवाड़ में उन दिनों लड़कियों के रुपये लिए जाते थे, अत: साधारण आर्थिक स्थिति वाले लड़कों का विवाह प्रायः कठिनता से ही हो पाता था। अर्जुनलालजी के छोटे भाई सोहनलालजी लगभग २५ वर्ष के हो गये फिर भी उनके लिए कोई सम्बन्ध नहीं मिल पाया। एक दिन उनकी माता ने अर्जुनलालजी को व्यंगपूर्वक कहा-"छोटा भाई जवान होकर भी कुंवारा घूम रहा है, इसकी न तुझे कोई चिन्ता है और न लज्जा, तेरा घर बस गया इसलिए तुझे फुरसत ही कहाँ रह गई जो भाई की बात सोचे।" माँ के उस व्यंग्य-बाण ने उनके हृदय पर ऐसी चोट की कि वे तिलमिला उठे। उन्होंने उसी समय यह प्रतिज्ञा कर ली कि भाई का विवाह करने से पूर्व वे अपनी पत्नी से बोलेंगे तक नहीं। उसी दिन से वे उस कार्य के पीछे पूरी शक्ति से लग गये । लगभग तीन महीनों का समय पूर्ण होते-होते उन्होंने भाई का विवाह सम्पन्न कर दिया। अधिकार-त्याग-पिता रायचन्दजी ने एक बार दोनों भाइयों से यह वचन लिया कि जो भाई वास से बाहर जाकर पृथक् कार्य करना चाहेगा वह यहाँ की चल तथा अचल सम्पत्ति में से कोई भाग नहीं लेगा। पिता की मृत्यु के पश्चात् वास की दुकान का कार्य सोहनलालजी देखने लगे और अर्जुनलालजी ने गोगुन्दा निवासी गेरीलालजी कोठारी के साझे में उदयपुर में दुकान कर ली। वह साझेदारी लगभग तीन वर्ष तक चली। उसके पश्चात् खाखड निवासी टेकचन्दजी पोरवाल के साथ साझा किया उसमें उन्हें काफी घाटा उठाना पड़ा । उस समय तक दोनों भाइयों का आयव्यय साथ में ही चलता था। घाटा लगने पर सोहनलालजी ने उसमें कोई भी सहयोग देने से इन्कार कर दिया। फल यह हुआ कि अर्जुनलालजी को वह घाटा तो अकेले उठाना पड़ा ही, साथ में वास की समस्त सम्पत्ति के अधिकार का भी परित्याग करना पड़ा। आर्थिक उतार-चढ़ाव-अर्जुनलालजी की नीति सदैव विशुद्ध रही थी। घाटा लगने पर भी उसमें कोई परिवर्तन नहीं आया, ऋण-शोधन के लिये उन्होंने अपनी पत्नी के प्रायः सभी आभूषण बेच दिये । इतने पर भी वे पूर्ण रूप से ऋण-मुक्त नहीं हो पाये । अवशिष्ट ऋण उतारने के लिए वे गाँवों के व्यापारियों में उगाही करने बाहर चले गये । उन्होंने संकल्प कर लिया कि जब तक पूरा ऋण नहीं उतार दूंगा तब तक उदयपुर नहीं आऊँगा, वे गाँवों में उधार दिये गये माल का मूल्य उगाहते और वहीं से मांगने वालों को भेज देते। लगभग चार वर्षों तक उन्हें अनिकेतवासी होकर विभिन्न गाँवों में भटकते रहना पड़ा । अपने संकल्प की पूर्ति के पश्चात् ही वे उदयपुर में वापस आये। उस समय उन्हें बड़ी कठिन परिस्थितियों में से गुजरना पड़ रहा था, न पास में कोई कार्य था और न पूंजी ही। किसी से ऋण लेने की भी उनकी इच्छा नहीं थी, घर का व्यय चलाने के लिए तब उन्होंने सट्टा करना प्रारम्भ कर दिया । धीरे-धीरे उनके पास पुनः कुछ पूंजी एकत्रित हो गई । संवत् १९६२ में आचार्य श्री कालूगणी ने उदयपुर में चातुर्मास किया। उस समय मुनि श्री मगनलालजी ने उनको सटटे का त्याग करवा दिया, उन्होंने तब फिर से कपड़े की दुकान प्रारम्भ कर दी। धन के प्रति उनके मन में तीव्र लालसा कभी नहीं रही, फिर भी दुकान में अच्छी आय होते रहने के कारण वे धनी बन गये। व्यापार के अतिरिक्त ब्याज के कार्य से भी उन्हें अच्छा लाभ मिलने लगा। मेरपुर रावजी तो आवश्यकता होने पर दस-बीस हजार रुपये तक उन्हीं के यहाँ से लेते थे। वे उनके सौजन्य और सत्य व्यवहार पर बड़े मुग्ध थे। उनकी सम्पन्नता का लाभ अन्य भी अनेक व्यक्तियों को विभिन्न प्रकार से मिलता रहा, किसी को सहयोग के रूप में तो किसी को रोजगार के रूप में। Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षण्ठ खण्ड - ro o re............................................................. कालान्तर में धार्मिकता की वृद्धि के साथ-साथ धन के प्रति उनकी उदासीनता बढ़ने लगी। उन्होंने स्वयं के लिए बीस हजार से अधिक पूंजी रहने का त्याग कर दिया। धार्मिक क्रियाओं में अधिक समय लगाते रहने के कारण दुकान पर बैठना भी प्रायः बन्द कर दिया। सारा व्यापार कार्य साझीदार ही देखा करते थे, अतः उनका विभाग बढ़ा दिया और अपना घटा लिया। घर का व्यय दुकान से निकलता रहे इतने मात्र से ही वे पूर्ण सन्तुष्ट थे। धार्मिक वृत्ति--अर्जुनलालजी प्रारम्भ से ही धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति थे। सन्त-समागम, तत्त्व-चर्चा तथा सामायिक आदि क्रियाओं में उनका मन बहुत लगता था । अनेक ढालें तथा थोकड़े उनको कण्ठस्थ थे--त्याग और तपस्या के क्षेत्र में तो अपने समय के वे अंगुली-गणनीय व्यक्तियों में थे। उन जैसी दृढ़ आस्था और सेवापरायणता भी विरल व्यक्तियों में ही उपलब्ध होती है। कष्टसहिष्णुता में भी वे निरुपम थे। निरन्तर वर्धमानता की ओर अग्रसर होने वाली उनकी विराग-वृत्ति आश्चर्यजनक कही जा सकती है। उन्हें अपने तन और मन पर एक प्रकार से अवर्णनीय नियन्त्रण प्राप्त था। उनकी पत्नी की प्रकृति बहुत कठोर थी, फिर भी वे अपने सन्तुलन को जरा-सा भी इधर-उधर नहीं होने देते थे । तीन पुत्र तथा दो पुत्रियों के पिता होने पर भी सन्तान-मोह से वे बहुत ऊपर उठे हुए थे। उन जैसे धर्मनिष्ठ श्रावक क्वचित् ही देखने में आते हैं। स्वयं धार्मिक होने के साथ ही वे दूसरों को धार्मिक बनाने में भी बहुत रुचि रखते थे। जहाँ भी जाते वहाँ धार्मिक चर्चा छेड़ते। उनके द्वारा कही गई बात का प्रभाव बहुत शीघ्र होता था। एक बार दशहरा के अवसर पर राव साहब के निमन्त्रण पर वे मेरपुर गये । उस समय राव साहब के आदेशवर्ती अनेक ग्रामपति भी वहाँ एकत्रित थे। राव साहब ने अर्जुनलालजी से कहा--मैं आपको भूमि देना चाहता हूँ जहाँ भी इच्छा हो स्वयं चुनाव कर लीजिये।" अर्जुनलालजी नम्रता से निवेदन किया--"भूमि उसी के लिये लाभदायक होती है जो स्वयं उसकी देखभाल कर सकता हो, मेरे लिये यह सम्भव नहीं है, अतः क्षमा ही चाहता हूँ परन्तु यदि आप देना चाहे तो एक अन्य वस्तु की मांग कर सकता हूँ।" राव साहब उन पर बहुत प्रसन्न थे अतः कहने लगे-"आप जो भी मागेंगे, अवश्य दिया जायेगा।" अर्जुन लालजी ने तब अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा-"आप की कृपा से वस्तुओं की मुझे कोई कमी नहीं है, मेरी मांग तो यह है कि आप और आपके सरदार शराब का परित्याग कर दें। एक साथ में पूरा नहीं छोड़ा जा सकता हो तो धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाते हुए छोड़ दें।" राव साहव तथा उपस्थित सभी सरदारों ने उनके कथन पर विचार किया और फिर राव साहव ने तो प्रतिमास चार दिन के लिये तथा अन्य १३ सरदारों ने आजीवन के लिए शराब का परित्याग कर दिया । अपनी पद्धति के अनुसार उन्होंने जल मँगाया और फिर प्रत्येक ने विधिवत् उसे जलांजलि दे दी। दृढ़ आस्थावान-देव, गुरु और धर्म के प्रति उनकी आस्था बहुत प्रबल थी। इसी आस्था के बल पर उन्होंने विपत्तियों तथा कष्टों के अनेक सागर पार किये थे, स्वामी भीखणजी के नाम को तो उन्होंने मन्त्रवत् अपना लिया था। हर कठिन परिस्थिति में उनके मुख से सर्वप्रथम वही नाम निकलता था। एक बार वे वास से गोगुन्दा जा रहे थे । पूरा मार्ग पहाड़ियों और जंगलों में से ही गुजरता था। एक पहाड़ी नाले के मार्ग से ज्यों ही वे मोड़ पर पहुँचे तो देखा कि उसी मोड़ पर सामने से एक भाल आ पहुँचा है, मृत्यु के और उनके बीच में केवल ५-७ कदमों की ही दूरी रह गई थी। स्वामीजी का नाम जपते हुए उन्होंने अपनी स्थिति को समझने का प्रयास किया तो पाया कि दायें-बायें दोनों ओर पहाड़ियों का चढ़ाव था। पीछे छोड़ आये चढ़ाव पर भी भागते हुए चढ़ने की उनमें शक्ति नहीं थी। वे ठिठककर खड़े रह गये । भालू ने भी उनको देखा और फिर बाई पहाड़ी पर चड़ता हुआ जंगल में घुस गया। मार्ग को निरापद देखकर अर्जुनलालजी अपने गन्तव्य की ओर आगे बढ़ गये । एक बार उन्होंने १४ दिनों की तपस्या का पारणा किया। पारणा के लिये बनाई गई ऊकाली में काली मिर्च के स्थान पर भूल से कोई जुलाब का चूर्ण डाल दिया गया । उससे उन्हें खून के दस्त होने लगे। तीन ही दिनों में उनकी हालत बहुत खराब हो गई । एलोपेथी औषध लेने का उन्हें त्याग था अत: गोगुन्दा के एक वैद्य का उपचार चालू किया गया । वैद्य ने जो औषध दी उसकी एक-एक मात्रा उन्हें प्रति घण्टा लेनी थी, दिन में तो वह क्रम चलता रहा परन्तु -0 Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ के धर्मी धावक अर्जुनलालजी पोरवाल ६७ रात्रि में उन्होंने उसे लेने से इन्कार कर दिया । पारिवारिकों ने उन पर बहुत दबाव डाला परन्तु वे टस से मस भी नहीं हुए। वैद्य ने भय दिखलाया कि ऐसा न करने से सम्भव है तुम अपने प्राणों से ही हाथ धो बैठोगे । अर्जुनलालजी ने कहा - " औषध लेते हुए भी तो अनेक व्यक्ति मर जाते हैं तो फिर इसका क्या निश्चय है कि मैं नहीं मरूंगा । मैं जीवित रहने के लोभ में अपना व्रत भंग नहीं करूँगा ।" स्वामीजी के नाम का जप करते हुए उन्होंने वह रात्रि आनन्द से निकाल दी और फिर कुछ ही दिनों में बिल्कुल स्वस्थ हो यये । उनकी सुदृढ़ आस्था ने उनको इस प्रकार से अनेक आवर्ती में से बाहर निकाला और तट पर पहुँचाया था । विभिन्न प्रत्याख्यान - अर्जुनलालजी बारह व्रतधारी श्रावक थे। प्रतिदिन चौदह नियम 'चितार' कर वे अपनी दिनचर्या को और भी अधिक नियन्त्रित कर लेते थे । समय-समय पर अपने प्रत्याख्यानों को अधिकाधिक कसते रहने की प्रक्रिया ने उनके जीवन को काफी अंशों में आरम्भ-समारम्भों से मुक्त कर दिया । उनके प्रत्याख्यान विराग-प्रेरित तो हुआ ही करते थे परन्तु कभी-कभी उस विराग के उद्भावन में कोई घटना भी कारण बन जाती थी । संवत् २००७ में वे अपनी आँखों का आपरेशन कराने के लिए भिवानी गये। मार्ग में किसी रेलवे स्टेशन पर एक होटल से उनके साथ वाला व्यक्ति साग और पूड़ियाँ खरीदकर लाया। खाने की तैयारी की तब उन्हें पता चला कि वह साग निरामिषभोजियों के लिये काम का नहीं है। अपनी पत्तल में आमिष को देखकर उनके मन में इतनी वितृष्णा हुई कि उसी समय उन्होंने बाजार में बने भोजन का सदा के लिए परित्याग कर दिया । उनके कुछ विशिष्ट प्रत्याख्यान इस प्रकार थे - संवत् १९९२ में उन्होंने रात्रिभोजन हरितृकाय-भोजन और संचित जल-पान का आजीवन परित्याग कर दिया । उसी वर्ष आजीवन शीलव्रत ग्रहण कर चारों स्कन्धप्रत्याख्यान सम्पन्न कर दिये। तभी से प्रतिदिन " पौरसी प्रत्याख्यान" रखने लगे तथा खाद्य और पेय के रूप में द्रव्यों से अधिक ग्रहण करने का त्याग कर दिया। फिर संवत् १६६६ से केवल ६ द्रव्य ही रखे । वे इच्छा व्यक्त करके कोई भोज्य पदार्थ नहीं बनवाते, जो परोसा जाता वही खा लेते। भोजन में नमक आदि की अल्पाधिकता होने पर भी वे कभी व्यक्त नहीं करते । स्नान के लिए दो सेर अचित्त जल से अधिक का प्रयोग नहीं करते । संवत् १६८६ में उन्होंने दहेज लेने तथा देने का, दहेज लेने वाले के वहाँ भोज में सम्मिलित होने का, मृत्यु-भोज करने तथा उसमें सम्मिलित होने का परित्याग कर दिया। पहले वे सामाजिक भोज में सम्मिलित होते थे परन्तु बाद में उसका भी परित्याग कर दिया। प्रतिदिन प्रतिक्रमण करते और कम से कम १२ सामायिक करते । प्रतिवर्ष आचार्य श्री की सेवा में जाते। अधिक समय निकलने पर घी का परित्याग रखते । महान् तपस्वी -- अर्जुनलालजी का एक महान् तपस्वी श्रावक थे । तपस्या उनके जीवन का संबल बन गयी थी । प्रतिवर्ष कोई न कोई लम्बी तपस्या अवश्य करते थे । पारणा के विषय में वे कभी बहुत पहले नहीं बतलाते थे । परिवार वाले पूछते रहते तब वे प्रायः वही उत्तर देते कि पारणा करना होगा तब मैं स्वयं कह दूंगा । वे यथासम्भ चौविहार तपस्या करने का ही प्रयास करते । लम्बी तपस्याओं में भी १०-१२ दिनों के अन्तर से ही प्रायः जल ग्रहण करते । अन्तिम १२ वर्षों में अचक्षु रहे, फिर भी उनकी तपस्या का क्रम कभी भंग नहीं हुआ। वे पहले प्रतिमास २ उपवास किया करते थे, संवत् १६६२ से ४ उपवास करने लगे, उसके पश्चात् संवत् १६६७ से पाँचों तिथियों के उपवास प्रारम्भ कर दिये तब प्रतिमास कम से कम १० उपवास नियमतः होने लगे। पहले वे प्रत्येक दीपावली पर “बेला” किया करते थे, संवत् २००० से "तेला" और २४ प्रहरी पौषध करने लगे, संवत् १९९२ से उन्होंने प्रतिवर्ष पर्युषण पर्व पर अठाई तप प्रारम्भ किया, वह अन्तिम वर्ष तक निर्विघ्न चलता रहा। एक बार चौविहार लड़ी तप करते हुए वे संलग्न रूप से ह तक चढ़े और फिर वैसे ही उतरे । संवत् १६८८ में यही लड़ी-तप उन्होंने दूसरी बार भी किया। एक बार २१ दिनों तक का और दूसरी बार १५ दिनों तक का चौविहार लड़ी-तप भी उन्होंने किया। उनकी समग्र तपस्या के उपलब्ध आँकड़े अग्रोक्त हैं Bo . Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 0. O -£5 १७ २ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड १ २ १३०० ७५ ३ ७० 810 - ५ १८ १६ २० २१ २= २६ ३० ३१ २ २ २ २ १ १ १ १ १६ ह २४ प्रहरी ३२ प्रहरी ४४ प्रहरी ६ ३१ १०० ५४ २० १० 2 ३२ ३५ १० कुछ बड़े ऑकड़े अर्जुनलालजी के धार्मिक उपक्रमों के कुछ अन्य आंकड़े भी काफी बड़े और विचित्र है। पचासी सहस्र के लगभग सामायिक, पन्द्रहसौ के लगभग पोरसी, प्रतिदिन कम से कम पाँचसौ गाथाओं का स्वाध्याय, बारहसों के लगभग चतुष्प्रहरी तथा अष्टमहरी पौषध उनके अतिरिक्त जो विशिष्ट पीषध उन्होंने किये उनकी तालिका इस प्रकार है २ 0000 ४८ प्रहरी ५२ प्रहरी ६४ प्रहरी २६ प्रहरी ११ ११ १२ १३ १४ १५ १६ 부부착 ३६ ४४ ४६ ५२ १ १ ६२ १ ३ १ पौषध विभिन्न समय में की गयी तीन अठाईयों में किये गये तथा ६६ दिनों में किया । जीवन काल में भी एक थी। उपर्युक्त पौषधों में ६४ प्रहरी तीनों प्रहरी पौषध ३५ दिनों की तपस्या के प्रथम १२ अन्तिम समय अर्जुनलालजी ने अपने अनेक दीक्षार्थी भाई बहिनों की दीक्षा में सहयोग दिया। उनमें साध्वी नजरकंवरजी ( वास वाली) उन्होंने एक बार उनसे कहा कि आपने मेरी दीक्षा के लिए जो प्रयास किया वह मेरे पर आपका एक ऋण है। अवसर आने पर मैं उसे उतारने का प्रयास करूँगी । संवत् २०१७ में वह अवसर आ गया। अर्जुनलालजी रुग्ण हो गये और धीरे-धीरे उनकी रुग्णता अन्तिम स्थिति तक पहुँच गयी। माघ का महीना था । उदयपुर में उस समय साधु-साध्वियों का संयोग नहीं था, स्थानीय श्रावक-श्राविकाएँ तथा उनके परिजन ही उन्हें धर्म-आराधना का सहयोग दे रहे थे। आचार्यधी तुलसी का विहरण उस वर्ष मेवाड़ में हो रहा था मर्यादा महोत्सव आमेट में मनाया जाने वाला था। वहाँ संघ एकत्रित हो उससे पूर्व साध्वी नजरकंवरजी आदि कुछ सिघाड़ों का उदयपुर जाना हुआ। उन्हें जब अर्जुनलालजी की स्थिति का पता लगा तो वे तत्काल उन्हें दर्शन देने के लिए गयीं । यथासमय उन्होंने उनको धार्मिक सहयोग दिया। संवत् २०१७ माघ कृष्णा ३ को प्रातः उनकी शारीरिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गयी तब उनकी बहिन ने उनको चोबिहार संधारा करा दिया। पाँच मिनिट के पश्चात् ही उनका देहावसान हो गया । . Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0+0+0+ + + ++++ तेरापंथ के महान् श्रावक मुनि श्री विजयकुमार युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य तेरापंथ एक प्राणवान धर्मसंघ है। इसकी गौरवशाली परम्पराओं को देखकर हर व्यक्ति इसके प्रति श्रद्धावनत हो जाता है। प्रसिद्ध साहित्यकार श्री जैनेन्द्र जी ने विश्वयात्रा से लौटकर जब युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के दर्शन किये तब निवेदन किया- " मैंने अनेक देशों में भ्रमण किया और वहाँ पर अनेक धर्म संस्थान भी देखे किन्तु तेरापंथ जैसा सुव्यवस्थित संगठन कहीं नजर नहीं आया। एक आचार्य के नेतृत्व में यह संघ सदा फलता फूलता रहा है । आचार्य भक्ष ने इसकी नींव में मर्यादा और अनुशासन के दो खम्भे ऐसे गाड़ दिये है कि इस संघ रूपी प्रासाद को कहीं कोई खतरा नहीं है। एक से एक महान् आचार्य सौभाग्य से इस गण को मिलते रहे हैं। वर्तमान में आचार्य तुलसी की छत्रछाया में इस संघ ने विकास के और नये आयाम उद्घाटित किये हैं। आचार्य भिक्षु ने बीज वपन किया था वही बीज आज आचार्य श्री के सद्प्रयासों से वट वृक्ष के रूप में लहलहा रहा है और अब तो वह वृक्ष इतने विशाल आयतन में फैल गया है कि उस वृक्ष की शीतल छांह में समस्त वसुधा के प्राणी बैठकर आनन्द का अनुभव कर सकते हैं । इस संघ को सर्वांग सम्पन्न शरीर की उपमा दी जा सकती है । शरीर का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग होता है मस्तिष्क । आचार्य को मस्तिष्क से उपमित किया जा सकता है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, इसके हाथ-पैर के समान हैं । मस्तिष्क पूर्ण विकसित हो और हाथ पैर को अगर लकवा मार गया हो तो व्यक्ति का कोई भी चिन्तन कार्य रूप में परिणत नहीं हो पाता है। व्यक्ति जीवित अवस्था में भी मृतत्व की पीड़ा को भोग लेता है । तेरापंथ को जीवन्त धर्मसंघ इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि उसका हर अवयव मजबूत है । तेरापंथ की प्रगति का श्रेय आचार्यों और त्यागी - बलिदानी साधु-साध्वियों को तो है ही किन्तु उन महान् श्रावक और श्राविकाओं को भी है जिन्होंने विविध कसौटियों में अटूट शासन-निष्ठा का परिचय दिया, अपनी सेवा और कर्त्तव्यपरायणता से शासन को गौरवान्वित किया । इसीलिए तो स्वामीजी अपनी एक रचना में लिखा है- “साध - श्रावक रतनां री माला एक मोटी दूजी नान्ही रे" । तेरापंथ के इतिहास के साथ श्रावक-श्राविकाओं का इतिहास सदा अमर रहेगा । प्रस्तुत निबन्ध में मुझे केवल प्रमुख श्रावकों का जीवन दर्शन करवाना है। श्रावकों की भी एक लम्बी श्रृंखला मेरे सामने है । इस लघुकाय निबन्ध में सभी श्रावकों का समग्र जीवन वृत्त लिख पाना असम्भव है फिर भी कुछ श्रावकों का वर्णन यहाँ प्रस्तुत हैं । मेवाड़ के प्रमुख आवक (१) श्री शोभजी कोठारी—ये स्वामीजी के अनन्य श्रावक थे। इनके पिता श्री भेरोजी ने केलवा के प्रथम चातुर्मास में ही स्वामीजी की श्रद्धा ग्रहण की थी। शोभजी सांसारिक और धार्मिक दोनों क्षेत्रों में कुशल थे । इनको केलवा के ठिकाणों का प्रधान नियुक्त किया गया। एक बार किसी कारण से केलवा के ठाकुर के साथ इनका मनमुटाव हो गया । फलतः इन्हें केलवा छोड़कर नाथद्वारा जाना पड़ा। इस प्रकार बचकर भाग जाने का पता लगने पर केलवा के ठाकुर और अधिक आवेश में आ गये। वे शोभजी को किसी जाल में फँसाकर अपमानित करना चाहते थे । नावद्वारा उनकी जागीर में नहीं था वहाँ के सर्वेसर्वा गोसाई जी थे। गोसांईजी के साथ उनके सम्पर्क अच्छे थे। ठाकुर ने शोभजी पर कई अभियोग लगा दिये और गोसांई जी से उन्हें कारागार में बन्द करने का आदेश दिला दिया । शोभजी को कैदी बना लिया गया। स्वामीजी आस-पास के गाँवों में विचर रहे थे। उन्हें जब इस घटना का पता चला . Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड ISISIDIN तो वे नाथद्वारा पधारे। अपने भक्त को दर्शन देने के लिए जेल में आये। उनकी कोठरी के सामने स्वामीजी पहुँचे तब वे गुनगुना रहे थे - (१) मोटो फंद पड्यो इण जीव रे कनक कामणी दोय । (२) उलझ रह्यो निकल सकूं नहीं रे, दर्शण दो पड्यो विछोह । (३) स्वामी जी रा दर्शन कि विश्व होये स्वामीजी कुछ क्षण उनकी तल्लीनता देखते रहे फिर वे बोले-शोभजी दर्शन कर लो। स्वामीजी को प्रत्यक्ष आँखों के सामने देखकर हर्ष विभोर हो गये । वे वन्दन करने के लिए खड़े हुए और बाँधी हुई पैरों की बेड़ियाँ तिनके ज्यों टूट गई । जेल संरक्षक को यह घटना देखकर आश्चर्य हुआ । उन्होंने शोभजी जैसे महान् व्यक्ति को अन्दर कैद रखना उचित नहीं समझा । शोभजी को मुक्त कर दिया गया । इन्होंने अनेक व्यक्तियों को स्वामीजी का अनुयायी बनाया। शोभजी भक्त के साथ-साथ अच्छे कवि भी थे। उन्होंने संकल्प किया था कि स्वामीजी जितने पद्य बनायेंगे, उनका दशमांश वे बनायेंगे। इस प्रकार उन्होंने अपने जीवन में ३८०० पद्यों की रचना की । उनके कई गीत आज भी भाई-बहिनों के मुँह पर सुने जाते हैं। (२) श्री केशरजी भण्डारी - श्रावक श्री केशरजी का जन्म कपासन में हुआ है। कुछ समय पश्चात् इन्होंने अपना निवास स्थान उदयपुर बना लिया । श्रावक श्री शोभजी के प्रयत्न से ये स्वामीजी के अनुयायी बने थे 1 काफी समय तक वे प्रच्छन्न रूप में रहे थे । उस समय तेरापंथी बनने वालों को काफी सामाजिक कठिनाइयाँ सहनी पड़ती थीं । भारमल स्वामी के उदयपुर निष्कासन के समय ये प्रकट रूप में आमने आये । कई भ्रान्तियों में पड़कर राजा ने भारमलजी स्वामी को उदयपुर से निकाल दिया और मेवाड़ भर से निकालने की भी योजनाएँ चल रही थीं। उस समय केशरजी ही एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने महाराणा के मन को मोड़ा और उनकी गलती का भान कराया । महाराणा ने दो पत्र लिखकर भारमलजी स्वामी को उदयपुर पधारने की प्रार्थना की। उस समय केशरजी ने संघ और आचार्य की जो सेवा की वह सदा स्मरणीय रहेगी। केशरजी अनेक वर्षों तक महाराणा के यहाँ ड्योढ़ी (अन्तःपुर ) के अधिकारी के रूप में रहे। कई वर्षों तक ये राज्य में कर अधिकारी के रूप में रहे, कालान्तर में महाराणा ने इनको राज्य का न्यायाधीश नियुक्त किया । इनकी ईमानदारी और सेवा भावना से महाराणा बहुत प्रभावित हुए, विश्वासपात्र होने से महाराणा इनकी हर बात को ध्यान से सुनते थे । इनके प्रयास से ही विरोधियों का सारा पाँस पलट दिया गया । राजकीय कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी ये कुछ न कुछ समय प्रतिदिन स्वाध्याय में लगाते थे 1 इनके पास आगमों और शास्त्रों का अच्छा संग्रह भी था । (३) श्री अम्बालालजी कावड़िया श्री कावड़िया उदयपुर निवासी थे और सुप्रसिद्ध भामाशाह के वंशज थे । इनका ननिहाल तेरापंथी परिवार में था । इनको धर्म के संस्कार अपनी माँ से मिले। बाद में जयाचार्य के पास उन्होंने सम्यक् श्रद्धा ग्रहण की। वे वकालत भी करते थे । समाज की अनेक उलझनों को ये आसानी से सुलझा देते थे। गंगापुर की साध्वी श्री नजरकंवरजी की दीक्षा रुकवाने के लिए पुर निवासी जीवमलजी ने एक मुकदमा प्रारम्भ किया था, उस मुकदमे को विफल करने में इनका ही परिश्रम रहा था । वे शासन और आचार्य की सेवा तो करते ही ये किन्तु सेवा में आने वाले यात्रियों की सुविधाओं का भी ख्याल रखते थे। इनके विशेष निवेदन पर सं० १९७२ का चातुर्मास डालगणी ने उदयपुर में किया चातुर्मास में सेवा का उन्होंने अच्छा लाभ उठाया। उन्होंने जाचार्य से लेकर कालूगणी के शासन काल तक अपनी सेवाए संघ को दीं । ६६ वर्ष का आयुष्य पूरा कर कालधर्म प्राप्त किया। 1 (४) हेमजी बोलावासरदारगढ़ के निवासी थे ये ऋषिशय के शासन काल में हुए वे साधु-साध्वियों की सेवा काफी रुचि से करते थे । तात्त्विक ज्ञान अच्छा सीखा हुआ था । पच्चीस वर्ष की भर यौवन अवस्था में इन्होंने यावज्जीवन सपत्नीक ब्रह्मचर्य स्वीकार कर लिया था। योगों की स्थिरता का अच्छा अभ्यास था। एक बार पश्चिम . Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ के महान् श्रावक १०१ -. -. -. -. -. -. -. -. - . रात्रि में वे सामायिक कर रहे थे। जब वे ध्यानस्थ बैठे थे, एक सर्प उन पर चढ़ गया। हेमजी को उसके लिज लिजे स्पर्श से पता चल गया कि कोई सर्प मेरे पर रेंग रहा है, फिर भी वे वैसे ही अविचल बैठे रहे। साँप पूरे शरीर पर घूमता हुआ एक तरफ चला गया। यह उनकी स्थिरता और निर्भीकता का एक उदाहरण था। एक बार वे अपनी दुकान पर बैठे सामायिक कर रहे थे। किसी ने आकर सूचना दी कि आपके घर पर तो आग लग गई है। साधारण व्यक्ति के मन में जहाँ इस प्रकार के संवाद से उथल-पुथल मच सकती है वहाँ हेमजी का मन डांवाडोल नहीं हआ। सामायिक पूरी होने के बाद जब वे घर पहुंचे तो आग बुझा दी गई थी, कोई विशेष नुकसान भी नहीं हुआ। उनका मुख्य धन्धा ब्याज का था । किसानों और चरवाहों को काफी रकम ब्याज पर देते थे। ब्याज उगाहने में वे वड़ी कोमलता का व्यवहार करते थे। किसी की विवशता से लाभ उठा लेना उनका लक्ष्य नहीं रहता था। एक बार किसी एक व्यक्ति ने उनसे रुपये उधार लिये। स्थिति बिगड़ जाने से वह रुपया चका नहीं पाया। हेमजी ने जब रुपया चुकाने के लिए तकाजा किया तो उसने दयनीय शब्दों में कहा-वैसे तो रुपया चुकाने में असमर्थ हूँ। इतना तो हो सकता है कि मैं अपनी भेड़ बकरियों को बेचकर आपकी रकम चुका दू किन्तु इससे मेरा सारा परिवार भूखा मर जायेगा । हमारा गुजारा इन्हीं पर निर्भर है। हेमजी ऐसा नहीं चाहते थे, उन्होंने उस राशि को बट्टे खाते लिखकर खाता बरावर कर दिया । यही उनके आदर्श धार्मिकता की निशानी थी। (५) श्री जोधोजी-बावलास निवासी श्रावक जोधोजी ऋषिराय के समय के श्रावक थे। आर्थिक अवस्था से कमजोर होते हुए भी अनैतिकता का एक भी पैसा घर में नहीं लाना चाहते थे। सन्तोष और सादगी प्रधान इनका जीवन था। इनके सात पुत्रियाँ थीं। उस समय लड़कियों की कीमत ज्यादा थी। क्योंकि लड़के वाले को विवाह करने के लिए धन देने पर लड़कियाँ मिलती थीं। एक-एक समय की स्थिति होती है। तो ऐसे समय में सात पुत्रियाँ होना सौभाग्य की बात थी, क्योंकि घर बैठे ही जोधोजी धनवान बन जाते, किन्तु जोधोजी ने इस परम्परा का बहिष्कार किया। उन्होंने लड़कियों को पैसों में बेचना उचित नहीं समझा । सातों पुत्रियों को अच्छे घरों में ब्याहा गया। जहाँ भी इनकी लड़कियाँ गईं, इन्होंने पूरे घर को तेरापंथी बना लिया और दूसरे परिवारों को भी अपने अनुकूल बनाया। वावलास में एक चमार भी श्रावक था। बड़ी लगन वाला भक्त था। जोधोजी श्रावकों में मुखिया थे । उस चमार श्रावक के साथ उनका अच्छा पारस्परिक सौहार्द था। किसी कारण से दोनों में खटपट हो गई । एक बार किसी राहगीर ने चमार श्रावक को सूचना दी कि मुनि हेमराजजी बावलास पधार रहे हैं, बस थोड़ी ही देर में पहुंचने वाले हैं । अब प्रमुख श्रावक जोधोजी को समाचार बताना जरूरी हो गया। वह पशोपेश में पड़ गया क्योंकि उनके साथ बोलचाल बन्द थी। आखिर उसने निर्णय किया कि यह वैयक्तिक झगड़ा है, धर्म के कार्य में तो हम एक ही हैं। वह चमार जोधोजी के घर गया और यह समाचार बताया। हेमराजजी स्वामी गाँव में पधारे, व्याख्यान हुआ। जोधोजी उस चमार के सार्मिक वात्सल्य से इतने प्रभावित हुए कि व्याख्यान समाप्ति पर खड़े होकर बोले "इस चमार ने मुनिश्री के आगमन का समाचार मिलते ही मुझे खबर दी। मुझे अगर सूचना मिलती तो शायद मैं इसे नहीं कहता । मैं सेठ होकर भी इस चमार से गया। बीता ठहरा और यह चमार होकर भी मुझसे ऊँचा उठ गया।" । जोधोजी की आत्म-निन्दा ने उनको महान् बना दिया । दोनों में फिर से अच्छा सम्बन्ध जुड़ गया । गुरुदर्शन के निमित्त अनेक बार इन्होंने पद यात्राएँ भी की थी। कहते हैं पूरी यात्रा में एक रुपया से अधिक खर्च उनका नहीं होता था। (६) श्री अम्बालालजी मुरड़िया-सुप्रसिद्ध श्रावक श्री अम्बालालजी मुरड़िया उदयपुर के निवासी थे। वे श्रीलालजी मुरडिया के सुपुत्र थे। जयाचार्य के पास इन्होंने गुरु-धारणा ली थी। ये राजकीय और धार्मिक दोनों कार्यों में प्रमुख थे। वे उस समय के एक कुशल अभियन्ता थे। महाराणा सज्जनसिंहजी के कृपा-पात्र थे। इनकी सेवाओं से तुष्ट होकर महाराणा ने उनको 'राजा' की उपाधि से अलंकृत किया था। तत्पश्चात् लोग उन्हें 'अंबाब राजा' कहकर ही पुकारते थे। एक बार महाराणा सज्जनसिंहजी की भावना हुई कि किसी पर्वत पर अपने नाम से किला बनाया जाए। -0 Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड पिछोला झील पर स्थित राजमहलों के सामने दिखने वाली सर्वाधिक ऊँची चोटी को उन्होंने पसन्द किया। अंबाव राजा को निर्माण कार्य की जिम्मेदारी दी गई। उन्होंने चोटी तक पहुँचने के लिए मार्ग से लेकर राजमहल बनाने तक का कार्य सफलता से किया। सज्जनगढ़ के नाम से यह स्थान आज भी प्रसिद्ध है । अंबाव राजा की देखरेख में दूसरा किला उदयपुर की पार्श्ववर्ती पहाड़ी पर बनाया गया । महाराणा ने उसका नाम अंबावराजा के नाम पर अंबावगढ़ दिया। अंबावराजा के छोटे भाई प्यारचन्दजी उग्र प्रकृति के थे। एक बार किसी हत्या के मामले में उन्हें मृत्युदण्ड दे दिया गया । उन्हीं दिनों अंबावराजा ने महाराणा को अपने घर पर निमन्त्रित किया और बहुत बढ़िया सत्कार किया। महाराण। ने प्रसन्न होकर कहा-अंबाव ! जो तेरी इच्छा हो सो माँग ले। अवसर देखकर उन्होंने कहामेरे भाई को मुक्त करने की कृपा करें। महाराणा ने कहा- अरे अंबाव कुछ धन जागीर माँग लेते । अंबावराजा ने विनम्रता से कहा-अन्नदाता, मेरा भाई मौत के फन्दे में लटक रहा है और मैं जागीरी मांगूं । यह कैसे हो सकता है ? महाराणा ने भाई को तत्काल छोड़ दिया और अंबावराजा की प्रशंसा करते हुए कहा-भाई हो तो ऐसा होना चाहिये। महाराणा की कृपा उत्तरोत्तर बढ़ती रही। अंबावराजा का व्यक्तित्व राज्यक्षेत्र और धर्मक्षेत्र दोनों में मान्यता प्राप्त था। मारवाड़ के प्रमुख श्रावक (७) श्री गेहलालजी व्यास- गेरूलालजी व्यास जोधपुरनिवासी ब्राह्मण थे। ये स्वामीजी के प्रथम तेरह श्रावकों में से एक थे। और उन तेरह में भी प्रथम कोटि के कहे जा सकते हैं। तेरापंथ की स्थापना से पूर्व स्वामीजी जब जोधपुर पधारे तब ही इन्होंने परम्परागत धर्म को छोड़कर जैन धर्म स्वीकार किया था। स्वामीजी के सुलझे हुए विचारों से ये बहुत प्रभावित हुए। जैनत्व स्वीकार कर लेने से इनकी बिरादरी के लोग इनसे बहुत नाराज हुए। किन्तु व्यासजी अपनी श्रद्धा में दृढ़ थे। इनका बेटा विवाह के योग्य हो गया किन्तु कोई भी लड़की देने के लिए तैयार नहीं था। व्यासजी ने किसी अन्य गाँव में लड़के का सम्बन्ध किया। दहेज में लड़की के पिता ने अन्य वस्तुओं के साथ मुखवस्त्रिका, आसन और पूंजणी भी दी। इसे देख लोगों ने सम्बन्धियों को परस्पर भिड़ाने के लिए कहा-देखो, समधी ने कैसा मजाक किया है। व्यासजी ने कहा-मजाक नहीं, यह बुद्धिमानी की बात है, क्योंकि समधी जानता है कि मेरी लड़की जैन कुल में जा रही है इसलिए सामायिक, पौषध भी करेगी । इसलिए इन वस्तुओं की जरूरत पड़ेगी। लोग अपने आप चुप हो गये। व्यासजी श्रद्धालु श्रावक होने के साथ धर्मप्रचारक भी थे। उन्हें व्यापारिक कार्यों से दूर प्रदेशों में जाना पड़ता था। वे वहां जाकर व्यापार के साथ-साथ धर्म-चर्चा भी किया करते थे। अनेक व्यक्तियों को उन्होंने सम्यक श्रद्धा प्रदान की। कच्छ में तेरापंथ का बीज वपन करने का श्रेय इन्हीं को है। एक बार १८५१ में ये व्यापारार्थ कच्छ गये । वहाँ मांडवी में टीकमजी डोसी के यहाँ ठहरे। उनसे धर्म-विषयक चर्चा छेड़ी। स्वामीजी की विचारधारा उन्हें बतलायी। वे बहुत प्रभावित हुए और स्वामीजी के मारवाड़ में जाकर प्रत्यक्ष दर्शन किये और सम्यक् श्रद्धा ग्रहण की। उसके बाद कई परिवारों को श्रद्धालु बनाया। (८) श्री विजयचन्दजी पटवा-विजयचन्दजी पाली के धनी व्यक्तियों में सबसे अग्रणी थे। स्वामीजी के पाली पदार्पण के समय सम्पर्क में आये । समाज-भय के कारण ये दिन में नहीं आते। रात्रि में भी प्रवचन सम्पन्न होने के बाद स्वामीजी के पास तत्त्वचर्चा करते थे। एक बार ये अपने मित्र को साथ लेकर आये । चर्चा शुरू हुई । स्वामीजी ने सन्तों से सो जाने के लिए कहा और बताया मुझे अभी कुछ समय लगेगा । प्रश्न-प्रतिप्रश्न चलते रहे। चर्चा चलतेचलते पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी। अन्ततोगत्वा स्वामीजी का रात्रि जागरण सफल हुआ, दोनों व्यक्तियों ने गुरु-धारणा की और अपने घर रवाना हुए। स्वामीजी ने सन्तों को पुकारा-उठो सन्तो ! प्रतिक्रमण का समय होने वाला है । स्वामीजी को विराजे देख सन्तों ने पूछा-आपको विराजे कितनी देर हुई ? स्वामीजी ने कहा- कोई सोया Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ के महान् श्रावक १०३ हो तो विराजे । सन्तों को आश्चर्य हुआ। स्वामीजी ने पूरी रात जागरण कर उन्हें असली तत्त्व समझाया। उसके बाद दोनों की पत्नियों ने भी गुरुधारणा की। पटवाजी के तेरापंथी बन जाने से काफी लोग झुंझलाये। ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार तो वे नहीं कर सकते थे पर लोगों ने उनके विरोध में काफी अफवाहें फैलायीं किन्तु वे अपनी श्रद्धा में मजबूत रहे। अपने जीवन में इन्होंने सैकड़ों व्यक्तियों को सम्यक्त्वी बनाया। स्वामीजी ने उनकी दृढ़ श्रद्धा को देखकर एक बार कहा था-"पटवाजी को सन्तों से विमुख करने के लिए लोग कितनी उल्टी बातें उन्हें कहते हैं परन्तु वे इतने दृढ़ विश्वासी हैं कि मानो क्षायिक सम्यक्त्वी हो।" पटवाजी एक बार दुकान से उठकर स्वामीजी का व्याख्यान सुनने गये । सामायिक में बैठ गये । अब याद आया कि दो हजार रुपयों का थैला दुकान के बाहर भूल गया। स्वामीजी को निवेदन किया-आज तो आर्तध्यान की स्थिति पैदा हो गई । स्वामीजी ने उनको धीरज बँधाया और सामायिक में योगों की स्थिरता रखने की प्रेरणा दी और कहा- शुद्ध सामायिक की तुलना में दो हजार रुपये तुच्छ हैं । पटवाजी ने मन को जमाया, शुद्ध सामायिक को पूर्ण कर जब दुकान पर गये तो उन्हें देखकर आश्चर्य हुआ कि एक बकरा उस थैले पर इस ढंग से बैठा है कि थैला दूसरे को नजर भी न आये। उनके रुपये उन्हें वहीं सुरक्षित मिल गये । एक वार जोधपुरनरेश ने पाली के व्यापारियों से एक लाख रुपये की मांग की। दुकानदारों ने कसमसाहट की। नगर में उस समय दो ही धनी साहुकार थे। एक पटवाजी, दूसरे एक माहेश्वरी थे। पटवाजी ने विषम स्थिति देखकर माहेश्वरीजी से कहा- इन छोटे व्यापारियों को कसना अच्छा नहीं है, यह रकम आधी-आधी हम ही भेज दें। दोनों व्यापारियों ने पचास-पचास हजार रुपया जोधपुरनरेश को भेज दिये। नरेश ने वह रकम वापिस भेज दी यह कहकर कि मुझे तो केवल पाली के व्यापारियों की परीक्षा लेनी थी। इस घटना से पटवाजी का नरेश पर अच्छा प्रभाव पड़ा । पटवाजी दृढ़श्रद्धालु और व्यवहारकुशल श्रावक थे। (8) श्री बहादुरमलजी भंडारी - भंडारीजी जोधपुर के सुप्रसिद्ध श्रावक थे । इनको धार्मिक संस्कार अपनी माता से मिले । साधु-साध्वियों के सम्पर्क से वे संस्कार दृढ़ होते रहे । जयाचार्य के प्रति इनके मन में अटूट आस्था थी। पाप भीरु और सादगीप्रिय व्यक्ति थे । जोधपुरनरेश की इन पर अच्छी कृपा थी। जोधपुर राज्य को इन्होंने काफी सेवाएँ दी। राजा ने इन्हें कोठार और बाहर के विभाग पर नियुक्त किया। काफी समय तक राजकोष का कार्य भी इन्हें सौंपा गया। कुछ समय के लिए ये राज्य के दीवान भी रहे। इनकी कार्यकुशलता से प्रभावित होकर नरेश ने इनको जागीर के रूप में एक गाँव भी दिया। नरेश की इतनी कृपा देखकर लोगों ने एक तुक्का जोड़ दिया-"माहे नाचे नाजरियो, बारे नाचे बादरियो" यानि अन्तःपुर में नाजरजी का बोलबाला है और महाराजा के पास बहादुरमलजी का। राजकीय सेवाओं के साथ-साथ धर्मशासन को भी इन्होंने बहुत सेवाएँ दी थीं। अनेक घटनाओं में से एक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण घटना मुनिपतजी स्वामी के दीक्षा सम्बन्धी है। मुनिपतजी स्वामी के पिता जयपुरनिवासी थानजी के यहाँ गोद आये थे। किसी कारण थानजी और मुनिपतजी स्वामी के पिता के परस्पर अनबन हो गई और वे थानजी से अलग रहने लगे । पृथक् होने के बाद पिता का देहान्त हो गया। कुछ वर्षों बाद माता और पुत्र मुनिपतजी ने जयाचार्य के पास सं० १६२० के चूरू चातुर्मास में दीक्षा ले ली। अब थानजी को विरोध का अच्छा अवसर मिल गया। उन्होंने जोधपुरनरेश को आवेदन कर दिया कि एक मोडे ने मेरे पोते को बहकाकर मूड लिया है अतः आप उस मोडे को गिरफ्तार कर मेरा पोता मुझे दिलावें। नरेश ने पूरी स्थिति की जानकारी किये बिना आदेश कर दिया और दस सवारों को लाडनूं की तरफ भेज दिया और कहा-उस मोडे को गिरफ्तार कर हाजिर किया जाय । उस समय जयाचार्य लाडनूं में थे। बहादुरमलजी को इस षड्यन्त्र का पता लग गया। वे रात के समय ही नरेश के पास गये । सारी स्थिति बतायी और आदेश को रद्द करने का रुक्का लिखवाया । वह रुक्का लेकर उनके पुत्र किशनलालजी एक ऊँटणी पर बैठकर गये और उन सवारों को बीच में ही रोक दिया। जयाचार्य को जब यह पता लगा तो वे भण्डारीजी की बुद्धिमत्ता पर बहुत प्रसन्न हुए। थोड़े दिनों बाद जब भण्डारीजी ने दर्शन किये तब भण्डारीजी को Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड +++ ❤ बगशीश के रूप में सं० १९२४ का चातुर्मास जोधपुर करवाया। भण्डारीजी ने समय-समय पर शासन को बहुत सेवाएँ दीं । वे सब इतिहास में अंकित रहेंगी । ७० वर्ष की उम्र में इनका देहावसान हुआ । मघवागणी का चातुर्मास उस समय जोधपुर में था । (१०) श्री दुलीचंदजी दूगड़ - श्री दुलीचंदजी लाडनूं निवासी थे । इन्होंने तीसरे आचार्य श्री ऋषिराय से लेकर कालूगणी तक छः आचार्यों की सेवा की थी। धर्म के प्रति इनकी आस्था अद्वितीय थी। शासन को विपत्ति भरे अवसरों पर दुलजी ने प्राणों को हथेली पर रखकर जो सेवाएं दीं वे सदा गौरव से याद की जायेंगी। मुनिपतजी स्वामी के दीक्षा प्रसंग को लेकर जोधपुरनरेश ने जयाचार्य को गिरफ्तार करने का आदेश निकाल दिया था। लाउनु जब खबर मिली तब दुलजी ने जयाचार्य को निवेदन किया आप मेरी हवेली में पधार जायें। अपने आचार्य की सुरक्षा के लिए श्रावकों ने यह उचित समझा कि पुराना स्थान छोड़ दिया जावे। जयाचार्य के मन में भय नहीं था । पर दुलजी व अन्य श्रावकों का आग्रह देखकर जयाचार्य वहाँ पधारे। दुलजी ने निवेदन किया हम कुछ श्रावक यहाँ द्वार पर पहरा देंगे हमारे जीवित रहते कोई भी आपको गिरफ्तार नहीं कर सकेगा । यो प्राणों की बलि देने तक उनकी तैयारी थी । यद्यपि भण्डारी की दक्षता से वह आदेश रद्द कर दिया गया फिर भी उनका वह साहस सदा दूसरों को प्रेरणा देता रहेगा । दुलजी आचार्यों के अत्यन्त कृपा-पात्र श्रावक थे। सभी आचार्य इनकी बात को बहुत आदर से सुनते थे । इनके आग्रह पर आचार्यों को कई बार अपना निर्णय बदलना पड़ता था। इनके जीवन की और भी घटनाएँ हैं किन्तु विस्तारभय से सबका उल्लेख होना संभव नहीं है। 1 (११) श्रीमानजी मंथा - ये जसोल के निवासी थे । स्वामी भीखणजी के प्रति इनके मन में बेजोड़ श्रद्धा थी । अपने श्रद्धाबल से इन्होंने हर कठिनाई को दूर किया। एक बार एक काले साँप ने उनको डस लिया । काला साँप अपेक्षाकृत अधिक विष वाला होता है। लोगों ने तत्काल उपचार कराने का परामर्श दिया या किसी मन्त्रवादी को बुलाकर विष प्रभाव को दूर करने के लिए कहा। किन्तु मानजी ने कहा- मेरी औषध तो स्वामीजी का नाम है। उन्होंने एक धागा मँगवाया, स्वामी जी के नाम से मन्त्रित किया और साँप के काटे हुए स्थान के पास बाँध दिया । बाद में झाड़ा लगाते हुए बोले- “भिक्षु, बाबो भलो करेगा, नाम मन्त्र का काम करेगा ।" थोड़ी ही देर बाद विप का संभावित प्रभाव शान्त हो गया । उनको ऐसी प्राणवान् श्रद्धा को देखकर सबको आश्चर्य हुआ । इस घटना के कई वर्ष बाद तक जीवित रहे । मानजी शासन की मर्यादाओं के अच्छे जानकार थे। कहीं भी किसी साधु में मर्यादा के प्रति उपेक्षाभाव देखते उन्हें विनम्रतापूर्वक निवेदन करते वे धर्मसंघ के हितगधी थे। ! थली के प्रमुख श्रावक (१२) श्री जेठमलजी गधेया- सरदारशहर के गधैया परिवार में तेरापंथ की श्रद्धा जेठमलजी से ही प्रारम्भ भाइयों पर संघ से निकले हुए छोगजी चतुर्भुजजी का श्रद्धा पैदा हुई । जेठमलजी टालोकरों के कट्टर भक्त हुई । उस समय सरदारशहर बहिनों का क्षेत्र कहलाता था। प्रभाव था। मुनि कालूजी के प्रयासों से भाइयों में तेरापंथ की बन गये थे । उन्होंने अन्य सन्तों के पास जाना तो दूर वन्दना तक का त्याग ले रखा था। एक बार रास्ते में ही कालूजी स्वामी के सहवर्ती मुनि छबिलाजी ने उनसे बात की फिर कालूजी स्वामी से ठीकाने के बाहर ही बातचीत की। उनकी शंकाएं दूर हुई और जयाचार्य को गुरु रूप में उन्होंने धारण कर लिया। गधैयाजी के तेरापंथ की श्रद्धा स्वीकार कर लेने के बाद अनेकों भाइयों ने सही मार्ग को अपनाया। गधेयाजी सरदारशहर के प्रमुख व्यक्तियों में थे अतः उनका अनुकरण दूसरे लोग करें यह स्वाभाविक ही था । अपने पुत्र श्रीचन्दजी जो उस समय कलकत्ता थे उनको पत्र लिखकर अपनी धार्मिक मान्यता व तेरापंथ की श्रद्धा के बारे में बता दिया और उन्हें भी इस ओर प्रेरित किया। उन्होंने भी जयाचार्य को गुरु रूप में स्वीकार कर लिया । इनका जीवन वैराग्यमय था । चालीस वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने पूर्ण ब्रह्मचर्यं स्वीकार कर लिया था। खान-पान और रहन-सहन में भी काफी संयम रखते थे । प्रारम्भ में इनकी आर्थिक अवस्था सामान्य थी। खेती का धन्धा किया करते थे । जेठमलजी कुछ नया व्यापार करना चाहते थे । . Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ के महान् श्रावक १०५ ..................................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-..... ..... कलकत्ता में लाल कपड़े का व्यापार अच्छा चला । कुछ ही वर्षों में इनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो गई। इनके पुत्र श्रीचन्दजी जब कमाने में होशियार हो गये तब इन्होंने देश जाने का प्रत्याख्यान कर लिया। जीवन की सन्ध्या में इन्होंने निवृत्तिप्रधान जीवन जीया। (१३) श्री चेनरूपजी दूगड़-चेनरूपजी सरदारशहर के रहने वाले थे। ये स्वाभिमानी और धन के धनी व्यक्ति थे। आज तो इनका परिवार अर्थ से अत्यधिक सम्पन्न है किन्तु चेनरूपजी अपनी बाल्यावस्था में बहुत गरीब थे। घर की दयनीय अवस्था ने मजदूरी करने के लिए विवश कर दिया । एक बार किसी सेठ के यहाँ हवेली पर इनको काम मिला । मिस्त्री ने इनको गारे की तगारियाँ भर-भर कर लाने को कहा। कहीं कोई गलती हो गई होगी उस पर मिस्त्री ने उसके शिर पर करणी की मार दी। चेनरूपजी उस समय २१ वर्ष के थे। राज मिस्त्री के इस अपमान से उनके स्वाभिमान को बहुत चोट पहुँची । आगे के लिए उन्होंने मजदूरी नहीं करने का संकल्प कर लिया। उन्होंने बंगाल जाकर व्यापार शुरू करने का निर्णय किया। इतनी लम्बी यात्रा करने के लिए उनके पास कोई साधन नहीं था। आखिर पैदल यात्रा करने का निश्चय किया। वे अपनी धुन के पक्के थे। साढ़े तीन महिने निरन्तर चलकर वे बंगाल की राजधानी कलकत्ता पहुँचे। उन्होंने अपनी प्रथम सुसाफिरी में ही हजारों रुपयों का लाभ कमाया। वे एक साहसी व्यक्ति थे । व्यापार में उतार-चढ़ाव आने पर भी वे हिम्मत नहीं हारते थे। कलकत्ता में इनका व्यापार जमता गया । थोड़े ही वर्षों में इनका परिवार लखपतियों की गणना में आने लगा। इतना धन पास में होने पर भी वे धन के अभिमान से दूर थे । जीवन सादगी-प्रधान था । जयाचार्य के प्रति इनके मन में अटूट श्रद्धा थी। (१४) श्री रूपचन्दजी सेठिया-सुजानगढ़ निवासी सुप्रसिद्ध श्रावक रूपचंदजी का जीवन अगणित विशेषताओं का पुज था । इन्होंने पाँच आचार्यों की सेवाएँ की। आचार्यों के ये कृपा-पात्र थे। शासन के अन्तरंग और हितगवैषी श्रावक थे । बचपन से ही इनमें धार्मिक संस्कार थे। साधु-साध्वियों के सम्पर्क से ये संस्कार निरन्तर वर्धमान होते रहे। इनके हर व्यवहार में धर्म की पुट रहती थी। पाप से जितना बचा जा सके उतना बचने का वे प्रयास करते थे। इनकी संयमप्रधान वृत्ति के कारण लोग उन्हें “गृहस्थ साधु" के आदरास्पद नाम से पुकारते थे। ये गृहस्थ वेष में साधु के समान रहते थे। हर क्रिया में बड़ा विवेक रखते थे। ३२ वर्ष की पूर्ण युवावस्था में पति-पत्नी दोनों ने ब्रह्मचर्य का पालन करना शुरू कर दिया था। पाँच वर्ष तक साधना करने के बाद आचार्य डालगणी के पास इन्होंने यावज्जीवन ब्रह्मचर्य स्वीकार कर लिया। इनके जीवन में अनेक त्याग थे। गृह-कार्यों में जैन संस्कारों को प्रधानता देते थे। डालगणी के ये निकटतम श्रावकों में से प्रथम कोटि के थे। जब डालगणी ने अपने पीछे शासन व्यवस्था करने की बात सोची तब श्रावक रूपचंदजी से परामर्श लिया। जब अन्य श्रावकों को अन्दर आने की मनाही होती तब भी रूपचंदजी के लिए रास्ता खुला रहता था। अन्तिम समय में भी उन्हें अच्छा धर्म का साज मिला । सं० १९८३ में उन्होंने जीवन को पूरा किया था। उस वर्ष कालूगणी उनको प्रातः और सायंकाल स्थंडिलभूमि से पधारते समय दर्शन देते थे । कभी-कभी विराजकर सेवा भी करवाते थे। फाल्गुन शुक्ला सप्तमी को रात के समय ठिकाने में एक साथ अद्भुत प्रकाश हुआ। कालुगणी ने मन्त्रीमुनि को फरमाया-लगता है रूपचंदजी का शरीर शांत हो गया है। वस्तुत: उसी समय एक बजे के करीब उन्होंने शरीर को छोड़ा था। करीब १ घण्टा ५ मिनिट का संथारा भी आया। (१५) श्री छोगमलजी चौपड़ा-समाजभूषण श्री छोगमलजी चौपड़ा गंगाशहर निवासी थे। उस समय जबकि समाज में शिक्षा को गौण समझा जाता था, छोगमलजी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्नातक (बी० ए०) की उपाधि प्राप्त की थी। थली में ओसवाल समाज के शायद ये पहले स्नातक थे। वे एक सफल वकील थे । वकालत करते हुए भी असत्य का प्रयोग नहीं करते थे। झूठे मामले को वे कभी स्वीकार नहीं करते थे। मारवाड़ी समाज के प्रथम बेरिस्टर कालीप्रसादजी खेतान उनके बारे में कहा करते थे कि न्यायालय में जैसी प्रतिष्ठा उनकी थी वैसी अन्य किसी की सुनने को नहीं मिली। उनका जीवन सादगी-प्रधान था। धर्मशासन को इन्होंने बहुत सेवाएँ दी Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षण्ठ खण्ड थीं। श्रीचन्दजी गधैया, वृद्धिचन्दजी गोठी, मगनभाई जवेरी, ईसरचन्दजी चौपड़ा, केशरीचन्दजी कोठारी आदि कई व्यक्ति इनके साथी थे। सब समाज एवं शासन के परम हितैषी थे। शासन पर आने वाली विपत्तियों को दूर करने के लिए आधी रात को भी तैयार रहते थे। विरोधियों द्वारा निकाले गये भिक्षा-विरोधी-बिल, दीक्षा-प्रतिबन्धकबिल इन्हीं के प्रयासों से निरस्त हुए थे। इनकी सेवाएँ इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी जायेंगी। स्वभाव से सरल, मदुभाषी, शासन और समाज के लिए सेवारत इनका व्यक्तित्व जन-जन के अनुकरणीय था । इनकी अविरल विशेषताओं के कारण समाज ने सं० १९६६ में इनको समाजभूषण की उपाधि से विभूषित किया। अपने नित्य नियमों में पक्के थे। अनेकों त्याग प्रत्याख्यान इन्होंने ले रखे थे। ८७ वर्ष की उम्र में इनका जीवन शान्त हुआ। (१६) श्री सुगनचन्दजी आंचलिया--गंगाशहर के श्री सुगनचन्दजी आंचलिया शासन-निष्ठ व्यक्ति थे । धर्मसंघ और समाज की इन्होंने बहुत सेवा की। ये आचार्य श्री तुलसी के कृपापात्र श्रावक थे। आचार्य श्री की लम्बी यात्राओं में ये प्रायः सेवा में रहते थे। इनकी पत्नी भी सदा इनके साथ रहती थी। इनको धार्मिक संस्कार अपने पूर्वजों से मिले थे। गलत कार्यों से सदा बचते रहते थे। अनीति का पैसा इन्हें स्वीकार्य नहीं था। इनके कुशल व्यवहार की सब पर अच्छी छाप थी। सब कुछ सुविधाएँ होने पर भी ये विषयों से अलिप्त ज्यों रहते थे। ३७ वर्ष की यौवनावस्था से ही इन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन करना शुरू कर दिया था। ये धुन के धनी थे। जिस काम की जिम्मेदारी ले लेते उसे पूरा करके ही चैन लेते थे। ज्ञान-पिपासु थे। जब भी समय मिलता ये कुछ न कुछ अध्ययन करते रहते थे। स्वाध्याय इनके जीवन का अनिवार्य अंग था। प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्रजी ने इनके लिए एक बार आचार्यश्री से कहा था-"गाँधीजी की तरह आपको भी एक जमुनालाल बजाज मिल गये हैं।" सामाजिक रूढ़ियों को इन्होंने कभी प्रश्रय नहीं दिया। मरने से पूर्व अपनी पत्नी को रोने, कपड़ा बदलने की इन्होंने मनाही कर दी थी। सं० २०१६ पौष सुदी ३ को इनकी मृत्यु हुई । समाज ने इनके निधन को अपूरणीय क्षति बताया। कुछ अन्य प्रमुख श्रावक (१५) श्री गुलाबचन्दजी लूणिया-ये जयपुर के निवासी थे। जयाचार्य का अग्रणी अवस्था में सं० १८८५ का चातुर्मास जयपुर में था। उस समय ५२० व्यक्तियों ने तेरापंथ की गुरुधारणा ली थी। उस समय इनके दादा गोरूलालजी भी तेरापंथी बने थे। गुलाबचन्द को धार्मिक संस्कार अपने पिताजी से मिले थे। इनके पिता गणेशमलजी एक प्रामाणिक और धर्मनिष्ठ थावक थे। इनके जवाहरात का धन्धा था। इनका व्यापारिक सम्बन्ध ज्यादा विदेशियों से रहता था। सन्तों से उनका सम्पर्क करवाते । व्यापार के साथ-साथ धर्म की दलाली भी करते रहते थे। गुलाबचन्दजी अच्छे गायक थे। खुद अच्छी रचनाएँ बनाते थे। कण्ठ मधुर था। आचार्य डालगणी इनके भजनों को रुचि से सुनते थे। जयपुर में कारणवश मुनि पूनमचन्दजी को गुणतीस वर्षों तक रुकना पड़ा था। उस समय अनेक व्यक्तियों ने थोकड़े आदि सीखे थे। श्री गुलाबचन्दजी ने भी तत्त्वज्ञान अच्छा हासिल किया था। आचार्यश्री के दर्शन साल में एक बार प्रायः कर लेते थे। कभी-कभी अनेक बार भी सेवा में उपस्थित हो जाते थे। (१८) श्री टीकमजी डोसी-टीकमजी डोसी मांडवी के रहने वाले थे। जोधपुर के श्रावक भेरूलालजी व्यास व्यापारार्थ एक बार मांडवी आये थे। उनके सम्पर्क से इन्होंने सम्यक् श्रद्धा स्वीकार की थी। इसके बाद इन्होंने मारवाड़ में स्वामी भीखणजी के दर्शन किये और २१ दिन तक वहाँ ठहरे। स्वामीजी से अपनी जिज्ञासाओं का समाधान पाया, उसके बाद स्वामीजी से गुरुधारणा ली। ये कच्छ वापिस लौट गये। सही तत्त्व को समझ लेने के बाद दूसरों को भी इन्होंने सम्यक् तत्त्व समझाया । प्रारम्भिक प्रयास में ही पच्चीस परिवारों ने सम्यक्त्व स्वीकार की। उस समय कच्छ प्रान्त में साधु-साध्वियों का समागम नहीं होता था। इसी कारण लोग उनको टिकमजी के श्रावक या गेरुपंथी के नाम से पुकारते थे। बाद में जब १८८६ में ऋषिराय का पदार्पण हुआ तब आचार्य श्री रायचन्दजी स्वामी से गुरु धारणा ली Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरापंथ के महान् श्रावक और अपने को तेरापंथी कहना प्रारम्भ किया। टीकमजी ज्ञान-पिपासु थे । इनके पास ग्रन्थों का अच्छा संग्रह था । निरन्तर जब भी समय मिलता कुछ न कुछ स्वाध्याय करते रहते थे । स्वामीजी के अनेकों ग्रन्थ इन्होंने कण्ठस्थ किये थे । याद करके अनेक ग्रन्थों को लिपिबद्ध भी किया था । उसके बाद उन ग्रन्थों की अन्य प्रतिलिपियाँ समय-समय पर दूसरों के द्वारा होती रहीं । अन्त समय में इन्होंने चौविहार संथारा किया । १०७. तेरापंथ एक प्रकाश पुंज के रूप में इस धरती पर अवतरित हुआ । इसके आलोक में लाखों व्यक्तियों ने अपना मार्ग प्रशस्त किया है । तेरापंथ में आज तक अनेक श्रावक पैदा हुए हैं। जिन्होंने न केवल धर्मसंघ की ही सेवा की अपितु अपने नैतिक और सदाचारी जीवन से समाज और देश की भी सेवा की है और जिनका जीवन अगणित विशेषताओं से भरा हुआ है। मेरे सामने कठिनाई थी कि इस सीमाबद्ध निबन्ध में उन सबका दिग्दर्शन कैसे किया जाये । OOO 0+0+0++++ उपरोक्त विवेचन में कई आवश्यक घटनाएँ छूट गई और कई महान् श्रावकों का जीवन वृत्त भी नहीं लिखा जा सका । साहित्य परामर्शक मुनि श्री बुद्धमलजी स्वामी द्वारा लिखे जा रहे 'तेरापंथ का इतिहास' (दूसरा खण्ड) ग्रन्थ में श्रावकों की विस्तृत जीवन झाँकी दी गई है, इतिहास के जिज्ञासुओं के लिए वह ग्रन्थ पठनीय है । . Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलिदान और शौर्य की विभूति भामाशाह डॉ० देवीलाल पालीवाल निदेशक, साहित्य संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर इतिहासप्रसिद्ध स्वातन्त्र्य योद्धा मेवाड़ के महाराणा प्रतापसिंह (१५४०-१५६७) के साथ कर्मवीर भामाशाह का नाम राष्ट्रीय इतिहास में अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। विदेशी दासता के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन काल में दोनों ऐतिहासिक व्यक्तित्व स्वतन्त्रता के लिये जूझने वाले भारतीय स्वतन्त्रता सेनानियों के लिये त्याग, तपस्या, साहस और वीरता के अनवरत प्रेरणास्रोत बने । विदेशी गुलामी को अस्वीकार कर प्रताप ने स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये सभी प्रकार के ऐश्वर्य प्रलोभनों और मुख की जिन्दगी को छोड़ा और अपने परिजनों सहित जीवन-पर्यन्त पहाड़ों एवं जंगलों में संकट झेलते हुए एवं अत्यन्त साधारण जीवन जीते हुए आजादी के लिये संघर्ष किया। महाराणा प्रताप के प्रधान भामाशाह ने अपने शासक का अनुसरण किया और अपने परिजनों तथा सभी सुख-साधनों को स्वतन्त्रतासंघर्ष में होम दिया । मेवाड़ के इस स्वतन्त्रता-संघर्ष में भामाशाह एक साहसी एवं कुशल योद्धा, एक सुविज्ञ एवं चतुर प्रशासक तथा सक्षम एवं दूरदर्शी व्यवस्थापक के रूप में उभरा । यदि प्रताप के जीवन-आदर्शों एवं संघर्ष ने भारत के जन-जन को स्वतन्त्रता के लिए मर-मिटने एवं सर्वस्व बलिदान करने के लिये प्रेरित किया तो भामाशाह के उदाहरण ने देश के सम्पन्न धनिक वर्गों को देश के प्रति अपने कर्तव्यों का भान कराया, उनमें देशभक्ति की भावना पैदा की तथा देश के लिये स्वयं को, अपने परिजनों को तथा अपने साधनों को अर्पित करने के लिये प्रेरणा दी। यही कारण है कि महाराष्ट्र और गुजरात से लेकर बंगाल और आसाम तक तथा काश्मीर से लेकर केरल तक राष्ट्रीय साहित्य में महाराणा प्रताप के साथ-साथ भामाशाह का स्मरण एक वीर योद्धा के साथ-साथ दानवीर एव बलिदानी देशभक्त के रुप में किया गया है। स्वतन्त्र और जनतन्त्रीय भारत के वर्तमान राष्ट्रीय सन्दर्भ में भी इन दोनों ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के जीवन आदर्शों एवं राष्ट्रीय देन के महत्त्व को आसानी से आँका जा सकता है। आज जबकि देश में स्वार्थपरता, . अनैतिकता और ऐश्वर्य-साधना की होड़ लगी हुई है, राष्ट्रीय एवं सार्वजनिक हितों पर प्रहार करके, सामान्य जन के हितों का बलिदान करके उच्च वर्गों में अपने और अपने परिजनों के हित साधन की प्रवृत्ति फैली हुई है, प्रताप का उच्च चरित्र, राष्ट्रीय हितों पर निजी हितों को कुर्बान करने, भोग-विलास के जीवन का त्याग करके जन साधारण के समान एवं उनके साथ जीवन जीकर संघर्ष करने, अपने सिद्धान्तों, आदर्शों और प्रतिज्ञाओं का दृढ़ता से पालन करने का उनका जीवन-व्यवहार वर्तमान भारतवासियों के लिये प्रेरणास्पद है। उसी भाँति भामाशाह का बलिदानी जीवन देश के वर्तमान उच्च प्रशासक एवं सम्पन्न वर्गों को उलाहना दे रहा है. जिनमें अनैतिकता और शोषण की प्रवृत्ति का व्यापक रूप से प्रसार हो रहा है ।। ____ अब तक की गई व्यापक शोध के बावजूद भामाशाह के जीवन एवं कृतित्व के सम्बन्ध में अपर्याप्त जानकारी मिली है। भामाशाह ने कावड़िया गोत्र के ओसवाल कुल में जन्म लिया और उसके पिता का नाम भारमल था, इसकी स्पष्ट जानकारी प्राचीन ग्रन्थों में मिलती है। समकालीन कवि हेमरत्न सूरि कृत “गोरा बादल कथा पद्मनी चउपई' ग्रन्थ की प्रशस्ति में उल्लेख मिलता है १. हेमरत्न सूरि एक अयाचक साधु थे। मेवाड़ के प्रधान भामाशाह के भ्राता ताराचन्द ने, जो महाराणा प्रताप की ओर से गोडवाड़ इलाके का प्रशासन करते थे, इनसे यह रचना करवाई थी। वि०सं० १६४५ की Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलिदान और शौर्य की विभूति भामाशाह पृथ्वी परगटा राण प्रताप । प्रतपइ दिन दिन अधिक प्रताप ॥ तस मन्त्रीसर बुद्धि निधान कावड़िया कुल तितक निधान ।। सामि धरमि धुरि भासाह । वयरी वंस विधुंसण राह ॥ विदुर वायस्क कृत 'भामा बावनी' में उल्लेख है कि भामाशाह श्वेताम्बर जैन की नमन गच्छ शाखा के मानने वाले थे । पृथ्वीराज के कुल में भारमल्ल उत्पन्न हुए, जिनसे कावड़िया शाखा निकली। भारमल्ल को जसवन्त, करुण, कलियाण, भामाशाह, ताराचन्द नामक पुत्र उत्पन्न हुए । नृमन गच्छ नागोरि आनि देपाल जिसा गुर । दया धाम दाखिये, देव चवीस तिथंकर । पिरिया यहि पृधिराज, सांड भारमल्ल सुनिने । जसवन्त बांधव जोड़, करण कलीयाण कहिज्जई ॥ ताराचन्द लखमण राम जिन, घित धो भण जोड़ी धयो । कुल तिलक अभंग कावेडिया, भामो उजवालयग भयो ॥ १ ॥ साब भारमल्ल, मूल पेड़ काबेडियां सोहाइ पुत्र पौत्र परिवार, मउरि मूंझण दति मोहइ ॥२॥ जैन कवि दौलतराम विजयं ( दलपत ) कृत खुमाणरासो राजस्थानी ग्रन्थ में निम्न उल्लेख मिलता है साह बसें मेवाड़ घर काबेट्यो कुल मांण । भामो भारमल तो रोग तणो परधान || ३॥ * *** +0+0+0+0+0+0 प्राप्त जानकारी के अनुसार भामाशाह के पूर्वज अलवर क्षेत्र में रहते थे । इतिहासप्रसिद्ध मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह के काल तक भामाशाह के पूर्वज मेवाड़ क्षेत्र में आ बसे थे। वि०सं० १६१६ में उनके पिता भारमल चित्तौड़ में मौजूद थे ।" उससे पूर्व महाराणा संग्रामसिंह द्वारा भारमल को रणथम्भौर का किलेदार नियुक्त किये जाने का प्राचीन पट्टावलियों में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इनसे यह जानकारी भी मिलती है कि भारमल प्रारम्भ में तपागच्छ सम्प्रदाय के अनुयायी थे, बाद में उन्होंने देवागर से प्रभावित होकर नागोरी लोकागच्छ को स्वीकार कर लिया था । उनका परिवार धनी और सम्पन्न था। महाराणा के विश्वस्त दरबारी होने के कारण ही महाराणा संग्रामसिंह द्वारा उनको कुंवर विक्रमादित्य एवं उदयसिंह की सुरक्षा का उत्तरदायित्व देकर रणथम्भौर किले का किले श्रावण शुक्ला ५ को सादड़ी ग्राम में इस ग्रन्थ की रचना सम्पन्न हुई थी। राजस्थान राज्य प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान द्वारा हाल ही में यह ग्रन्थ प्रकाशित किया गया है। २. शोध पत्रिका, वर्ष १४, अंक १, पृष्ठ ६३. २. शोध पत्रिका, सं० १६१६ चित्रकूट महादुर्गे यही जानकारी सादड़ी (मारवाद) स्थित तारा दावड़ी के वि० सं० १६२४ के शिलालेख में उपलब्ध होती है । द्रष्टव्य - श्री रामवल्लभ सोमानी का लेख 'मरुधर केसरी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० १७६ एवं १७८. १. शोधपत्रिका, वर्ष १४, अंक २, पृ० १३५-४७ - इस ग्रन्थ की रचना वि०सं० १६४६ आश्विन शुक्ला १४ को सम्पन्न हुई। श्री अगरचन्दजी नाहटा के अनुसार इस ग्रन्थ की एक अन्य प्रति में रचनाकाल वि०सं० १६४८ मिलता है। ( नागपुरीय लुकागच्छीय पट्टावली का अंश) डा० देवीलाल पालीवाल - सम्पादित महाराणा प्रताप स्मृति ग्रन्थ पृ० ११४, तथा मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० १७७-७८ . Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड ..... .. .............................................. दार बनाया गया था। ये दोनों पुत्र अपनी माता हाड़ी करमेती के साथ यहीं रहा करते थ । ऐसा प्रतीत होता है कि बाद में हाड़ा सूरजमल को उनकी जगह रणथम्भौर की रक्षा का उत्तरदायित्व दे दिया गया था। राणा सांगा के बाद रतनसिंह चित्तौड़ का स्वामी बना । तुजके बाबरी' (बावर की आत्मकथा) में उल्लेख है कि रानी करमेती ने मेवाड़ का स्वामित्व अपने पुत्र विक्रमादित्य के लिये प्राप्त करने हेतु बावर की सहायता चाही थी और उसकी एवज में रणथम्भोर देने का प्रस्ताव किया था। किन्तु थोड़े ही समय बाद रतनसिंह की मृत्यु और विक्रमादित्य का मेवाड़ महाराणा बनने की घटनाएं हो गई। उधर रणथम्भौर भी मेवाड़ के आधिपत्य से निकलकर मुगलों के हाथों में चला गया । यह भी जानकारी मिलती है कि महाराणा उदयसिंह ने गद्दीनशीन होने के बाद भारमल परिवार की विशिष्ट सेवाओं के कारण वि० सं० १६१० में भारमल को एक लाख का पट्टा देकर प्रतिष्ठित किया था। ऐसी मान्यता है कि चित्तौड़ की तलहटी में पाडनपोल के पास भारमल की इस्तिशाला थी और ऊपर महलों के सामने तो परवाने के निकट उनकी हवेली थी। जनश्रुति के आधार पर यह मान्यता भी चली आयी है कि उदयपुर के महलों के निकट स्थित गोकुल चन्द्रमाजी के मन्दिर के पास भामाशाह का निवास था जो दीवानजी की पोल के नाम से प्रसिद्ध हुआ । उदयपुर के कुछ मील दूर स्थित सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल में जावर में मोती बाजार के निकट भामाशाह की हवेली होने तथा जावर माता के विशाल मन्दिर का भामाशाह द्वारा निर्मित किये जाने की भी मान्यता रही है। भामाशाह का जन्म सोमवार आषाढ़ शुक्ला १०, १६०४ वि० सं० (२८ जून, १५४७ ई०) को हुआ माना जाता है । इसके अनुसार भामाशाह प्रताप से सात वर्ष छोटे थे। भामाशाह के प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में अब तक कोई जानकारी नहीं हुई है । १५७२ ई० में महाराणा प्रताप के गद्दीनशीन होने के समय भामाशाह पच्चीस वर्ष के नवयुवक थे। उस समय तक सम्भवतः उनके पिता भारमल का देहावसान हो चुका था। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि भारमल अपनी सेवाओं और स्वामिभक्ति के कारण महाराणा उदयसिंह के विश्वासपात्र प्रमुख राजकीय व्यक्ति हो गये थे; किन्तु उनको दीवान पद मिल गया हो, ऐसी जानकारी नहीं मिलती। वस्तुत: इस परिवार में यह पद भामाशाह को पहली बार मिला, जो निस्सन्देह ही उनके पिता भारमल द्वारा मेवाड़ राज्य को अर्पित उपयोगी सेवाओं के प्रभाव तथा नवयुवक भामाशाह की वीरता एवं प्रशासनिक क्षमता के कारण प्राप्त हुआ। ज्ञातव्य है कि चित्तौड़ पतन (१५६८ ई.) के बाद भामाशाह का परिवार भी महाराणा उदयसिंह एवं अनके सहयोगियों के साथ मेवाड़ का स्वतन्त्रता संघर्ष जारी रखने हेतु एवं तदर्थ संकटों एवं आफतों से पूर्ण जीवन-यापन करते हुए अपना सर्वस्व त्याग एवं बलिदान करते हुए, पर्वतीय इलाके में चला गया या। इस बात की स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती कि महाराणा प्रताप ने भामाशाह को कब दीवान पद पर आसीन किया। फिर भी अन्य ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह निर्णय करना सही प्रतीत होता है कि हल्दीघाटी युद्ध के बाद जब महाराणा प्रताप ने मेवाड़ की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए लम्बे काल तक कठिन छापामार युद्ध चलाने तथा मेवाड़ के सम्पूर्ण जनजीवन, अर्थव्यवस्था तथा प्रशासनिक-व्यवस्था को दीर्घकालीन स्वतन्त्रता संघर्ष के लिए सामरिक आधार (War Footing) पर संचालित करने का निश्चय किया, उस समय तथा उसके बाद जो नई व्यवस्थाएँ एवं परिवर्तन किये, तब भामाशाह को भूतपूर्व प्रधान रामा महासाणी के स्थान पर राज्य के प्रशासन के सर्वोच्च पद पर दीवान (प्रधान) का उत्तरदायित्व दिया गया। उस समय तक भामाशाह की आयु तीस वर्ष से अधिक हो चुकी थी। वह हल्दीघाटी के युद्ध में अपना शौर्य, साहस और वफादारी प्रदर्शित कर चुके थे। इतिहास इस बात का साक्षी है कि भामाशाह के सम्बन्ध में महाराणा प्रताप का निर्णय सर्वथा १. कविराजा श्यामलदास : वीर विनोद, भाग २, पृ० २५२ २. तुजके बावरी (अंग्रेजी अनुवाद) पृ० ६१२-१३ ३. बलवन्तसिंह मेहता का लेख-कर्मवीर भामाशाह, महाराणा प्रताप स्मृति ग्रन्थ (सं० डॉ० देवीलाल पालीवाल), पृ० ११४ ४. कविराजा श्यामलदास : वीर विनोद, भाग २, पृ० २५१ Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलिदान और शौर्य को विभूति भामाशाह १११ .......................................................................... सही एवं दूरदर्शितापूर्ण सिद्ध हुआ। भयानक संकटों एवं कठिन संघर्षों के दौरान प्रताप के अविचल एवं वफादार सहयोगी के रूप में भामाशाह इतिहास में विख्यात हो गये हैं। दीर्घकालीन स्वातन्त्र्य-संघर्ष के दौरान भामाशाह एक कुशल योद्धा, सेनापति, संगठक एवं प्रशासक सिद्ध हुए। भामाशाह को प्रधान बनाये जाने के सम्बन्ध में निम्न कहावत प्रचलित है भामो परधानो करे, रामो कोदो रद्द । धरची बाहर करण नूं, मिलियो आया मरद्द ॥' हल्दीघाटी के इतिहास-प्रसिद्ध युद्ध में भामाशाह और उनके भाई ताराचन्द के मौजूद होने का स्पष्ट उल्लेख तवारीखों में मिलता है। वे महाराणा प्रताप की सेना के हरावल (अग्रिम भाग) के दाहिने भाग में थे। हल्दीघाटी में मुगल सेना की ओर से लड़ने वालों में 'मुन्तखाब उत तवारीख' इतिहास ग्रन्थ का लेखक मौलवी अल बदायूनी भी था। उसने लिखा है कि मेवाड़ी सेना के हावल के जबरदस्त आक्रमण ने मुगल सेना को ६ कोस तक खदेड़ दिया था। भामाशाह और उनके भाई ताराचन्द ने इस युद्ध में जो युद्धकौशल, वीरता और शौर्य प्रदर्शन किया, उसके कारण ही बाद में उनको राज्य शासन की बड़ी जिम्मेदारियाँ दी गई। हल्दीघाटी युद्ध के बाद प्रताप ने मुगलों से लड़ने के लिए दीर्घकालीन छापामार युद्ध का प्रारम्भ किया, जो लगभग १० वर्षों (१५७६-१५८६) तक चला। प्रताप के कृतित्व की यह चिरस्मरणीय सफलता थी कि उन्होंने न केवल तत्कालीन विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली बादशाह अकबर के मेवाड़ को आधोन बनाने के प्रयासों को निष्फल कर दिया, अपितु उन्होंने मुगल आधिपत्य से मेवाड़ के उस मैदानी इलाके को पुनः जीत लिया, जो अकबर ने १५६८ में चित्तौड़ पर आक्रमण के समय अपने आधीन कर लिया। प्रताप के इस दीर्घकालीन छापामार युद्ध की महत्त्वपूर्ण घटनाओं के साथ भामाशाह का नाम जुड़ा हुआ है। मेवाड़ी सेना के एक भाग का वह सेनापति था। भामाशाह अपनी सैन्य टुकड़ी लेकर मुगल-थानों एवं भुगल सैन्य टुकड़ियों पर हमला' करके मुगल जन-धन को बर्बाद करता था और शस्त्रास्त्र लूटकर लाता था। इसी भाँति उसने कई बार शाही इलाकों पर आक्रमण किये और लटपाट कर मेवाड़ के स्वतन्त्रता-संघर्ष के लिए धन और साधन प्राप्त किये । ये आक्रमण गुजरात, मालवा, मालपुरा और मेवाड़ के सरहद पर स्थित अन्य मुगल इलाकों में किये जाते थे। जब मुगल सेनापति कछवाहा मानसिंह मेवाड़ में मुगल थाने कायम कर रहा था उस समय प्रताप के ज्येष्ठ कुबर अमरसिंह के साथ भामाशाह मालपुरे धन प्राप्त करने में लगा हुआ था । वि० सं० १६३५ में मुगल सेनापति शाहबाज खाँ द्वारा कुम्भलगढ़ फतह करने के तत्काल बाद ही भामाशाह के नेतृत्व में मेवाड़ की सेना ने मालवे पर जो आकस्मिक धावा किया और मेवाड़ के लिए धन और साधन प्राप्त किये, वह इतिहासप्रसिद्ध घटना है।६ प्रसिद्ध है कि चूलिया में महाराणा प्रताप को भामाशाह ने पच्चीस लाख १. गौ० ही० ओझा : उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग १, पृ० ४३१; कविराजा श्यामलदास : वीर विनोद, भाग २, पृ. १५८ २. वही ३. भामाशाह को प्रधान बनाने के साथ ताराचन्द को मुगल साम्राज्य की सीमा से सटे हुए महत्त्वपूर्ण इलाके गोड़वाड़ का शासक नियुक्त किया गया था। ४. ओझा-उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग १, पृ०४६; मुशी देवीप्रसाद प्र० च०, ४२, श्यामलदास : वीर __ विनोद, पृ० १६४ ५. महाराणा प्रताप स्मृति ग्रन्थ, पृ० ११५ ६. कविराजा श्यामलदास ने लिखा है कि शाहबाज खाँ द्वारा कुम्भलगढ़ फतह करने के उपरान्त महाराणा का प्रधान भामाशाह कुम्भलमेर की रैयत को लेकर मालवे में रामपुरे की तरफ चला गया जहाँ के राव दुर्गा ने उनको बड़ी हिफाजत के साथ रखा (वीर विनोद, भाग २, पृ० १५३) । भामाशाह ने उसी समय मुगलाधीन मालवे के इलाके Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड रुपये तथा बीस हजार अफियाँ भेंट किये थे। यह विश्वास किया जाता है कि वह धन मालवा पर किये गये धावे के बाद ही प्राप्त हुआ था। मालवा आक्रमण के बाद ही दिवेर के मुगल थाने पर मेवाड़ी सेना ने आक्रमण कर दिवेरु की नाल पर कब्जा कर लिया। इस आक्रमण में कुंवर अमरसिंह के साथ भामाशाह भी था।' प्रसिद्ध इतिहासकार डा० कालिकारंजन कानूनगो ने लिखा है कि दिवेर के महत्त्वपूर्ण युद्ध में चण्डावतों और शक्तावतों के साथ भामाशाह ने प्रमुख भाग अदा किया था। दिवेर विजय के बाद ही महाराणा प्रताप ने कुम्भलगढ़ पर आक्रमण किया और वहाँ स्थित मुगल सेना को परास्त कर किले पर कब्जा कर लिया। महाराणा प्रताप को अपने दीर्घकालीन संघर्ष की बड़ी सफलता १५८६ में मिली जब चित्तौड़, मांडलगढ़ और अजमेर को छोड़कर शेष मेवाड़ के हिस्सों पर उनका पुनः अधिकार हो गया। इस विजय अभियान में उनके प्रधान भामाशाह की प्रधान भूमिका रही। (वीर विनोद, भाग २, पृ० १६४) । जैन कवि दौलतविजय ने अपने ग्रन्थ 'खुमाण रासो' में उल्लेख किया है कि महाराणा अमरसिंह के काल में भामाशाह ने अहमदाबाद पर जबरदस्त धावा मारा और वहाँ से दो करोड़ का धन लेकर आया । ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन के आधार पर यह आक्रमण महाराणा प्रताप के समय में भामाशाह द्वारा धन एकत्रित करने हेतु किये गये अभियानों में से एक होना चाहिए । भामाशाह की मृत्यु महाराणा प्रताप के देहावसान के तीन वर्ष बाद ही हो गई थी। __ भामाशाह के मेवाड़ के प्रधान पद पर आसीन होने और सैन्य व्यवस्था एवं अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित गतिविधियों में उसकी प्रमुख भूमिका को देखते हुए इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि राज्य की प्रशासन-व्यवस्था, आर्थिक प्रबन्ध, युद्ध नीति, सैन्य संगठन, आक्रमणों की योजना आदि तैयार करने में भामाशाह का महाराणा प्रताप के सहयोगी एवं सलाहकार के रूप में प्रमुख योगदान रहा होगा। महाराणा के आदेश से भामाशाह द्वारा जारी किये गये कई ताम्रपत्र भी मिले हैं जो उसके प्रधान पद पर आसीन होने तथा राज्य के शासन प्रबन्ध में उसकी महत्त्वपूर्ण स्थिति को दर्शाते हैं । - भामाशाह के उज्ज्वल चरित्र पक्ष को प्रकट करने वाली एक अन्य ऐतिहासिक घटना का उल्लेख मिलता है। बादशाह अकबर अपने साम्राज्य की सुदृढ़ता एवं विस्तार के लिए भेद नीति का सहारा लेकर राजपूत राजाओं एवं योद्धाओं को एक दूसरे के विरुद्ध करके तथा राजपूत राज्यों के भीतर बान्धवों-रिश्तेदारों के बीच पारस्परिक कलह में धावा बोलकर धन वसूल किया होगा। मालवे पर किये गये आक्रमण में भामाशाह का भाई ताराचन्द भी उसके साथ था। अकबर के सेनापति शाहबाज खाँ ने धावे के बाद में बड़ी सेना का पीछा किया था, उस समय लड़ते-लड़ते ताराचन्द बसी ग्राम के पास घायल हो गया था। बसी का स्वामी सांईदास उसको उठाकर ले गया और उसके उपचार की व्यवस्था कराई। १. वही, पृ० १५८ २. K. R. Quanungo, Studies in Rajput History, p. 52 ३. वीर विनोद पृ० १५८ ४. वही, पृ० १६४ ५. शोधपत्रिका वर्ष १४, अंक १, पृ० ६३ ६. (क) महाराजाधिराज महाराणा श्री प्रतापसिंघ आदेशातु चौधरी रोहितास कस्य ग्राम मया कीधो ग्राम डाईलागा बड़ा माहे षेडा ४ बरसाली रा उदक"..."सं० १६५१ वर्षे आसोज सुद १५ दव श्रीमुख बीदमान सा० भामा (ख) सिधश्री महाराजाधिराज महाराणाजी श्री प्रतापसिंघजी आदेशातु तिवाड़ी साहुल नायण भवान काना गोपाल टीला धरती उदक आगे राणांजी श्री जी ता--रा पत्र करावे दीधो थो प्रगणे जाजपुर रा राम ग्राम पडेर पट्टे हलै धरती बीगा धारा करे दीधो श्रीमुख हुकम हुआ। सा० भामा सं० १६४५ काती सुदी १५ (श्री रामवल्लभ सोमानी का लेख-दानवीर भामाशाह-मरुधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० १७५) 0 Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलिदान और शौर्य की विभूति भामाशाह ११३ पैदा करके अपने दरबार में उच्च पद, मनसब आदि का प्रलोभन देता था। इतना ही नहीं, वह राजपूत राज्यों के प्रमुख प्रशासनिक अधिकारियों को भी मुगल दरबार में प्रतिष्ठा और पद देने का प्रलोभन देकर अपनी ओर मिलाने का प्रयत्न करता था । जब अकबर की महाराणा प्रताप को परास्त करने की सभी कोशिशें नाकामयाब हुई तो उसने प्रताप के प्रधान भामाशाह को अपनी ओर मिलाने का प्रयास किया। इस उद्देश्य से अकबर ने अपने चतुर कूटनीतिज्ञ सेनापति अब्दुर रहीम खानखाना को भामाशाह से मुलाकात करने का आदेश दिया । खानखाना की भामाशाह से यह भेंट मालवे में हुई जहाँ भामाशाह उस समय मौजूद था। खानखाना द्वारा दिये गये प्रलोभनों का वीरवर बलिदानी भामाशाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह प्रलोभन उस समय दिया गया जबकि महाराणा प्रताप और उनके सहयोगी भीषण आर्थिक संकट और सैनिक दबाव के बीच जीवन और मृत्यु का संघर्ष कर रहे थे। ऐश्वर्यपूर्ण जीवन के प्रलोभन को ठुकराकर भामाशाह ने स्वतन्त्रता और स्वाभिमान का जीवन जीने के लिए सकटों कठिनाइयों और अभावों से जूझते रहने के स्थिति को अपनाना श्रेयस्कर समझा । यह बात ही उनको इतिहास में आदर्श स्थान प्रदान कर देती है। महाराणा प्रताप के समकक्ष भामाशाह ने महाराणा प्रताप तथा उनके बाद महाराणा अमरसिंह के राज्यकाल में जिस वीरता, कार्यकुशलता और राज्यभक्ति के साथ प्रधान का कार्य किया उससे भामाशाह और उसके परिवार को जो प्रतिष्ठा और विश्वास मिला, उसके कारण भामाशाह के बाद उसके परिवार में तीन पीढ़ियों तक मेवाड़ राज्य का प्रधान पद बना रहा । भामाशाह की मृत्यु के बाद महाराणा अमरसिंह ने उसके पुत्र जीवशाह को मेवाड़ का प्रधान बनाया जो बादशाह जहाँगीर के साथ की गई सन्धि के समय कुँवर कर्णसिंह के साथ बादशाह के पास गया था । जीवशाह की बाद उसके पुत्र अक्षयराज को मेवाड़ का प्रधान बनाया गया। भामाशाह और उसके परिजनों द्वारा अर्पित त्यागपूर्ण सेवाओं के कारण समाज से उनको जो सम्मान मिला, वह बाद के काल में भी कायम रहा । ३ मृत्यु 3 कर्मवीर भामाशाह के कृतित्व एवं देश की प्रशंसा करते हुए सुप्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने लिया है कि भामाशाह का नाम मेवाड़ के उद्धारक के रूप में प्रसिद्ध है।" सुप्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ वीर विनोद के लेखक श्यामलदास ने लिखा है— भामाशाह बड़ी जुअरत का आदमी था। महाराणा प्रतापसिंह के शुरू के समय से महाराणा अमरसिंह के राज्य के २३-३ वर्ष तक प्रधान रहा। इसने बड़ी-बड़ी लड़ाइयों में हजारों आदमियों का खर्चा चलाया। इसने मरने से एक दिन पहले अपनी स्त्री को एक बही अपने हाथ की लिखी हुई दी और कहा कि इसमें मेवाड़ के खजाने का कुल हाल लिखा हुआ है। जिस वक्त तकलीफ हो, यह महाराणा की नत्र करना । इस खैरख्वाह प्रधान की इस बही के लिखे हुए खजाने से महाराणा अमरसिंह का कई वर्षों तक खर्च चलता रहा। जिस तरह वस्तुपाल तेजपाल, जो अन्हिलवाड़े के सोलंकी राजाओं के प्रधान थे और जिन्होंने आबू पर जैन मन्दिर बनवाये, वैसा ही पराक्रमी और नामी भामाशाह को भी जानना चाहिये । प्रसिद्ध इतिहासकार डा० कालिकारंजन कानूनगो ने भामाशाह के सम्बन्ध में लिखा है १. कविराजा श्यामलदास वीर विनोद, भाग २, पृ० १५८ अकबर की भेद नीति का उदाहरण बीकानेर राज्य का प्रधान ओसवाल जाति का बच्छावत कर्मचन्द है, जिसको मुगल दरबार में बैठक देकर उसने अपना प्रयोजन पूरा किया था । २. श्यामलदास : वीर विनोद, भाग २, पृ० २५१. के ३. महाराणा स्वरूपसिंह के राज्यकाल (१८४२ १८६१ ) में मेवाड़ में एक विवाद उठ खड़ा हुआ कि ओसवालों की न्यात में प्रथम तिलक किसको दिया जावे ? इस पर महाराणा ने वि०सं० १९१२ ज्येष्ठ शुक्ला १५ को एक पट्टा लिखा कर भामाशाह के परिवार वालों को यह प्रतिष्ठा देने का आदेश दिया । Y. James Tod: Annals and Antiquities of Rajasthan, Vol. I. p. 275 ५. कविराजा श्यामलदास : वीर विनोद, भाग २, पृष्ठ २५१-२५२. . Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड The name of Bhama Shah is remembered throughout Rajputana with as tender affection and reverence as that of Maharana Pratap. Bharmal's two sons Bhama Shah and Tarachand grew up dashing soldier and capable administrator and fought in the battle of Holdighati under Maharana Pratap. He made Bhama Shah his pradhan and appointed Tarachand to the charge of Godwar district. During the critical years of Pratap's fortune Bhama Shah raided Akbar's territory of Malva and brought a booty of twenty lakhs of rupees and twenty thousand asharfis to the Maharana.........Bhama Shah was neither Netaji Palkar nor Nana Fadnavis."1 निस्सन्देह ही भामाशाह की प्रशंसा में जो कुछ भी कहा जाय, पर्याप्त नहीं होगा । वह एक सच्चा देशभक्त, त्यागी और बलिदानी पुरुष था। वह प्रताप की तरह आन-बान का पक्का था। वह कठिन से कठिन संकटों में अविचलित एवं दृढ़ रहने वाला योद्धा था । उसका उदात्त नैतिक चरित्र उसकी स्वामिभक्ति और देश-रक्षा के लिये सर्वस्व समर्पणकारी भावना, उसका अदम्य साहस और शौर्य, सैन्य संचालन की दृष्टि से उसका उच्च कौशल और शासन व्यवस्था में निपुणता भामाशाह अपने इन गुणों के कारण महाराणा प्रताप का अतिप्रिय एवं सर्वाधिक विश्वासपात्र सहयोगी बन गया। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि प्रताप की सफलता में भामाशाह जैसे कर्मवीर का अत्यन्त अमूल्य योगदान रहा है और यही कारण है कि स्वतन्त्रता के अमर सेनानी महाराणा प्रताप के साथ भामाशाह का नाम अभिन्न रूप से जुड़ गया है। भामाशाह का देहावसान वि० सं० १६५६ माघ शुक्ला ११ (२७ जनवरी) में हुआ जब वह सिर्फ ५२ वर्ष का था। C १. K. R. Quanungo : Studies in Rajput History, p. 51-52 नेताजी पालकर छत्रपति शिवाजी का विश्वासपात्र सहयोगी मराठा सरदार था, जो बाद में मुगल बादशाह औरंगजेब के प्रलोभन में आकर शिवाजी का साथ छोड़ गया । नाना फड़नवीस मराठा राज्य का एक बहुत कुशल प्रशासक एवं चतुर कूटनीतिज्ञ हो गया है । किन्तु उसके खिलाफ बड़ी मात्रा में राजकीय सम्पत्ति को हड़पने का इलजाम है । २. कविराजा श्यामलदास : वीर विनोद, भाग २, पृ० २५१ । . Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..-.-.-.-. -.-.-. -.-. -. -.-.-.-.-.-.-. -. -.- -.. जोधपुर के जन वीरों जम्बन्धी ऐतिहासिक काव्य सौभाग्यसिंह शेखावत राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी, जोधपुर (राजस्थान) राजस्थान की भूतपूर्व रियासतों, रजवाड़ों तथा ठिकानों में ओसवाल शाखा के वैश्यों का बड़ा वर्चस्व रहा है । राज्यों के दीवान, प्रधान, सेनापति, प्रांतपाल, तन दीवान, मन्त्री, फौजवक्षी, कामदार तथा राजस्व अधिकारी एवं वकील आदि प्रशासनिक, अप्रशासनिक पदों पर रहकर ओसवाल जाति के अनेक लोगों ने अपनी कार्यपटुता, प्रबुद्धता एवं नीति-कौशल का परिचय दिया है। राजस्थान की राजनीति, अर्थनीति तथा धर्मनीति को नवीन दिशा देने और समाज में संतुलन स्थापित किये रखने में भी ओसवाल समाज का महनीय योगदान रहा है । प्रशासनिक और व्यावसायिक क्षेत्रों में अत्यधिक व्यस्त रहते हुए भी इस समाज में मोहनोत, नैणसी, लधराज मुहता, रूधा मुहता उदयचन्द्र भण्डारी. उत्तमचंद भण्डारी, सवाईराम सिंघवी, फतहचंद भण्डारी प्रभृति कतिपय ऐसे विद्वान् हो गए हैं जिनका कृतित्व कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। साहित्यिक क्षेत्र तथा मन्दिर, मठ, देवस्थान, उपाश्रय, कूप, वापिका आदि सार्वजनिक हित के कार्यों में ओसवाल समाज की पर्याप्त रुचि रही है। किन्तु इन प्रवृत्तियों के अतिरिक्त इस समाज में एक स्वभाव, धर्म और संस्कार विरुद्ध विशिष्टता रही है और वह है तराजू पकड़ने वाले हाथ में तलवार, कलम थामने वाले कर में कटार ग्रहण कर युद्ध में शत्रुओं से लोहा लेना तथा मारना और मरना। ओसवाल समाज के ऐसे अनेक रणोत्साही वीरों का प्राचीन काव्यों तथ. स्फुट छन्दों में चित्रण मिलता है जिन्होंने युद्ध-भूमि में प्रवेश कर वैरियों से दो-दो हाथ किये थे। यहाँ इसी कोटि के केवल जोधपुर क्षेत्र के कुछ ऐसे योद्धाओं का सोदाहरण उल्लेख करने का प्रयास किया जा रहा है जिनकी युद्धवीरता का वृत्तांत प्राचीन राजस्थानी छन्दों में प्राप्य है। साह तेजा सहसमलोत-जोधपुर क्षेत्र के ओसवाल योद्धाओं में पहला उल्लेख जोधपुर के राठौड़ शासक राव मालदेव और दिल्ली के सुल्तान शेरशाहसूरि के १६०० विक्रमी के गिर्ग सुमेल स्थान के प्रसिद्ध युद्ध में राव मालदेव की ओर से साह सहसमल के पुत्र तेजा (तेजराज) के भाग लेने का मिला है। एक समकालीन गीत में कवि ने तेजा की वीरता का बड़ा ही ओजमयी भाषा में वर्णन किया है गीत साह तेजा सहसमलौत रो सूर पतसाह नै मालदे सैफलौ, ठाकुरे वडबूडे छाडिया ठाल । गिरंद जूझारियाँ तेथ किण गादिय, प्रतपियौ तेजलौ गढ़ रख पाल । संमरे केम परधान सहसा सुतन, विरद पतसाह रौं हुवो बाथे । जोधपुर महाभारथ कियों जोरवर, हेमजो मार जस लियो हाथे ॥ भारमलहरे मेछांण दल भांजिया, राव रे काम अखियात राखी। कोट नव अचल राठौड़ साको कियो, सोम नै सूर संसार साखी ॥ हारिया असुर इम हिन्दुवै जस हुवौ, वाणीय इसी करदाख वारौ। थापियो मालदे तो तेजा थिरां, थयौ खण्ड मुर खंडै नाम थारौ॥ उपर्युक्त गीत इतिहाससम्मत है। इसमें गीतनायक तेजा गादहिया (गधैया) गोत्र का वैश्य अंकित है। तेजा के पिता का नाम सहसमल, पितामह का भारमल था। वह राव मालदेव का प्रधानमन्त्री था। शाह तेजराज के पराक्रम Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ovo Goo -0 -0 O ११६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड तथा मतिमत्ता की पुष्टि राव मालदेव के पौत्र राजा शूरसिंह के एक परवाने से भी होती है। इसमें तेजा के पुत्र शाह सिमल का वृत्त है यह महत्वपूर्ण परवाना प्रस्तुत है। परवानों १ म्हाराज श्री सुरजसिंघजी रो सही सूधो साह सिंहमल गावहीयो लीखाय ल्याया पढ़ीयार भीवां ऊपरां तिणरी नकल । 1 स्वरूप श्री महाराजाधिराज महाराज श्री सुरजसिंघजी म्हाराजकुवार श्री गजसिंजी वचनायतुं पढ़ीयार भींवा दीस सुपरसाद वांचजो अठां रा समाचार भला छें थांहरा देजो तथा साहसिहगल नाहीयो से राव श्री मालदेजी दोषा जगात बगसीयो है तोणा दीसा दांणी बोलण करै छै । तीण सू मन करजी । वीजोइ इण नूँ कु न लागै छ । सरब माफ छै । इण रो ऊपर करजो । कोई चोलण करण न पावै । हुकम छै। सं० १६७१ जेठ वद मुकाम अजमेर प्रवानगी भाटी गोइंददासजी प्रवानी साह सिंहमल नुं सुपजो । साह तेजौ प्रथीराज जैतावत सं० १६१० रा चेत्र बद २ काम आयो जैमल वीरमदेवोत सागरी वेद में, मेहते कुंडल सलाय अतएव वीरगीत तथा राजकीय आज्ञा पत्र से स्पष्ट है कि तेजा ने दो युद्धों में भाग लिया और द्वितीय युद्ध १६१० में वह पृथ्वीराज जैतावत बगाड़ी के स्वामी तथा राव मालदेव के प्रधान सेनानायक के साथ मेड़तियों के साथ के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ था । पता उरजनोत-पता मुहता अर्जुन का पुत्र था। वह सिवाना के राव कल्ला का प्रधान मन्त्री था । पता पर प्राप्त गीत इस प्रकार है: गीत पता उरजनोत मुहता रो परगह के मस्तक केइक हाथ पग, के तु ण के नैण तिम। अजण तणा म्रत हुवो अणखलो, जीव पख वप हुवौ जिम || ठाकर पंचसयंचभूत थिति, रहै सकँ तन नीत रखै । सब सारीखी हुवी समीयाणो पातल जोति स्वरूप पखे ॥ नाहि तो बल खमण न हाल विथका अंग सह परियािं खेत कलोधर हंस बेलियो कोड़ि सरीर सर कोई कांम ॥ नाड़ि नाड़ि नित भुरज भुरजनित, थूरंतो जाय अरि चा थाट । इस पतो थुगलोक हालीयो, देही दुरंग शो दहबाट । —दुरसा आढ़ा उपर्युक्त गीत में प्रसिद्ध कवि दुरसा आढा ने पता द्वारा सिवाना दुर्ग की रक्षा में जूझते हुए वीरगति प्राप्त करने का वर्णन किया है। पता ओसवालों की बंद शाखा के उरजन (अर्जुन) का पुत्र था वह सं० १६४४ वि० में शाही आज्ञा से मोटेराजा उदयसिंह के सिवाना दुर्ग पर आक्रमण करने पर वीरतापूर्वक लड़ते हुए मारा गया था। नारायण एवं सांवलदास पताउत -पता का पुत्र नारायण और सांवलदास भी बड़े वीर योद्धा थे । नारायण की वीरता पर सर्जित एक गीत में कवि ने नारायण के युद्ध कौशल का लुहार के साथ रूपक बाँधा है गीत नारायण पताउत मुंहता रा अहिरिण रिपवेत थोड़ी आवध, मांस धमण तम रोम सहाय । आठे पोहर अथाकित ऊमौ, धड दल रयण घड़े घण घाय ॥ कर साउसी जड़ण कोयानल, धड धड़छे भड़ धूय घड़े । वैनाणी पातावत अरि बप, जड़ां ऊबेड़े भिजड़ जड़े ॥ . Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर के जैन वीरों सम्बन्धी ऐतिहासिक काव्य -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. आरणते आहुटि, अगन ते आतसि, अंत कारीगर घाट अनप । धावड़ियाँ नारेण त्रिविध धड़, भाँजि घड़े धड़ भांजे भूप । गालणि चाढ़ि बज ग्रह गाल, गज मुदगर करि तंग ग्रहि । सारधार लोहार असंकित, सत्र संकेले जंग सहि ।। प्रोक्त गीत में कवि ने लुहार के यंत्र अहरन, हथौड़ा, धमनी, संडासी और उसकी भट्टी के साथ गीतनायक की रणभूमि, हथियार, श्वास, तोपों की अग्नि, तलवार आदि क्रियाओं से समता प्रकट की है। सांवलदास पर रचित गीत में सांवलदास द्वारा मुसलमानों की सेना पर आक्रमण कर विजय प्राप्त करने का वर्णन है। इतिहास में यह सूत्र उपलब्ध नहीं है कि किस स्थान के युद्ध में गीतनायक ने मुसलमानों को पराजित कर विजय प्राप्त की थी। गीत की पंक्तियाँ हैं गोत सांवलदास पताउत मुहता रो मंगा च्यार फौजां लगी जंगा बीराण में, चंगा हैली सगत च्यार चहकै । बगां रण बार सूधा लगै बाढ़िया, मुहंता र खगा कसबोह महकै ॥ साहुली काहुली फौज सिर सांवला, झीक पड़ बाँवला रोप झंडा । अरी गंजा बूड बाढ बना आंवला, खुलेबा सांवला तेण खंडा ।। अरावाँ धरर झाले नयर फताउत, प्रसद हद अन दुनिया पतीजा । मैछ मीने अतर समर विन मूंछ रै, वाह खग आहड़े अगर वीजा ॥ धधड़े फतै पाई परम धारियाँ, थारियां होउ किंण हीन था । मीरजा हुआ किता दिवस मारियाँ, अजै तरवारियां बास आवै ।। मोहनोत जयमल-जैमल अपने समय के गणमान्य सैनानायकों में था। वह समान रूप से कलम और कृपाण की करामात का धनी था । युद्ध विजय उसके करतल थी । राजस्थान के सुख्यात कवि दुरसा आढ़ा ने जैमल की प्रबुद्धता और यौद्धिकता का एक गीत में अभिराम चित्रण किया है। गीत में उसे जोधपुर के राजा गजसिंह का मान्य सेनापति घोषित किया है। गीत जगि भल पनि वषन्त तुडालौ जैमलि, नव सहसी सिणगार निडार । असमरहथा सको तो आगे, लेखणि हथा सको तो लार ॥१॥ महण कलोधर गजीण मानियो, एकज सांमिध्रम देखि सधीर । रेवंत मुहरि हालिया राउत, वांस होई हालिया वजीर ॥२॥ जुधि मांझियाँ मेर जैसाउत, गढ़ि उपावण गरथ । सोहड़ा सांमि जीआँ समजत्तियां, अवड़ों नें सारै अरथ ॥३॥ माल भुजे पह न्याअि मानिया, सारी धरा तणा सह सूत । तू हुजदार वडो हेकाणवि, तू रिमराह बडौ रजपूत ।।४।। जयमल के पुत्र नैणसी और सुन्दरदास भी यथापिता तथापुत्र हुए। राजस्थान में अपने समसामयिकों में दोनों भ्राता विचक्षण पुरुष के रूप में पहिचाने गये । ___मोहनोत नैणसी-ओसवालों की मोहनोत शाखा में अनेक कुल-गौरव उत्पन्न हुए हैं। मोहनोत शाखा के जयमल के पुत्र नैणसी और सुन्दरसी बड़े स्मरणीय व्यक्ति हुए हैं। नैणसी जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह के दीवान थे । वे कलम और तलवार के दोनों के धनी थे। नैणसी ने एक ओर जहाँ शस्त्र ग्रहण कर शत्रुओं का दमन किया, Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड सैनिक अभियानों में नेतृत्व ग्रहण किया, वहाँ दूसरी ओर "नैणसी री ख्यात" और "मारवाड़ के परगनों की विगत" जैसी ख्यातों का संकलन करवाकर प्राचीन इतिहास और साहित्य की सुरक्षा का बहुत बड़ा कार्य किया। नैणसी की यह सेवा कभी विस्मृत नहीं की जा सकती। नैणसी इतिहास और साहित्य का अनुरागी होने के साथ ही स्वयं भी उच्चकोटि का कवि था। नैणसी द्वारा रचित कुछ भक्ति गीत निःसन्देह नैणसी को सुकवि के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। नैणसी की वीरता से सम्बद्ध स्फुट गीत, कवित्त तथा दोहों में से यहाँ एक कवित्त दिया जा रहा है : कवित्त थह सूतौ भर निहर घोर करतौ सादूलौ। ओनी दौ ऊठियो वडा रावतां स झूलौ ।। पौंहतो तीजी फाल भजड़ हाथल तोलता। मेछ दलाँ मूगलां घात सीकार रमंता ॥ मारियो सिरोही मुगल मिल, खडग डसण धड़च खलै । गडड़ियौ सीह जैमाल रो, नैणसींह भरियों नलै ॥ मोहनोत सुन्दरसो-नैणसी की भाँति ही सुन्दरसी भी वीर और साहित्य प्रेमी था। वह महाराजा जसवंतसिंह का तन दीवान (निजी सचिव) था। सुन्दरसी द्वारा कंवलां के सिंघल राठौड़ों को पराजित करने का वर्णन मोहनोतों पर रचित एक निशानी छंद में इस प्रकार प्राप्त है :--- निसाणी मोहणोत ओसवालां री मोहण सुभट महेस मन आछ अवतारी। साखां तेहरों रो सिंधौ धींगौ पणधारी ।। चाँदे सादुल संचहै न आचै आचारी। देवै खेते अमरसी दीठौ दातारी॥ नगौ सपग्गी निडर नर धीरज वंत धारी। भाँजो कालूसी भलम, अगवात उधारी॥ साँम काँम समरथ सदा नित कलह बिहारी । सांवत जिसडा साँचवट कर खग करारी॥ नगै तणौ सूजौ निमल अचलौ अवतारी । अचलावत अवचल जैसी जड़धारी ॥ जैमल राजा गजन रे सौवे धर सारी। सुन्दर देवासा अविनी साझे ली सारी ॥ कंवला सिंघल सर किया आ साटै तरवारी। तेण घरांण तेजसी वंस रीत वधारी॥ तोउर तेजै रै तिसौ रावण अहकारी। कंबर तिकै रौ सहसकर सोभा प्रिय सारी ।। मोहणोतां में मुकुट मिण बानेत बिहारी। उल्लेखित निशानी में सुन्दरसी के पूर्वजों तथा उत्तराधिकारियों तेजसी, तोडरमल, बिहारीदास का भी वर्णन है। मोहनोत सुरतराम-मोहनोत नैणसी की संतति में करमसी, संग्रामसी, भगवतसी और सुरतराम हुए। सुरतराम को राजाधिराज बख्तसिंह ने सं १८०४ में सिंघवी फतहचन्द के स्थान पर फौजबक्षी के पद पर नियुक्त Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर के जैन वीरों सम्बन्धी ऐतिहासिक काव्य ११६ ................................................................... ...... किया। उसने जोधपुर में अपने पुत्र के विवाह में बड़ा द्रव्य व्यय किया था । मोहनोत सुरतराम के पुत्रों का विवाह रूपक में दौलतराम सेवग ने मोहनोत की उदारता, वीरता और धनाढ्यता का वर्णन किया है। यहाँ उदाहरणार्थ एक दोहा प्रस्तुत है : सुरतसाह जोधासहर, जिग जीतौ बल जेम । क्यावर जोधापुर कियो, जैमल नेणा जेम ।। सुरतराम ने जोधपुर के फौजबक्षी के पद पर कार्य करते हुए अनेक युद्धों का संचालन कर यश अजित किया था। महाराजा विजयसिंह ने सुरतराम को राव की पदवी प्रदान कर सम्मानित किया था । मोहनोत सांबतसी-महाराजा अजितसिंह ने भण्डारी खींवसी और रघुनाथ के आग्रह पर बरसी के पुत्र सांवतसिंह को किशनगढ़ से जोधपुर बुलाकर विश्वासपूर्वक राजकीय सेवा में नियत किया। इन पर रचित गीत देखिये : गीत सांवतसी मोहणोत रो सत जुगरा सहज लियां सत आसत, वीरतदत कीरत वडवार । मरदां मरद सोनगिर सोहै, सांवत साँवतंसी सरदार ।। हात पोहरै पोहरायत कारण, अकल अवल उपगार अपार । नरपुर नाम करण जसनामी, वैरसीयोत विजै विसतार ।। आद अनाद रीत उजवालण, विमल कमल विरदै विरदैत । हीमत हाथ सम्रथ हाथालौ, नैणाहर नाहर नखतैत ।। सतमत सुक्रित सुभाव साहियां, खाग त्याग निकलंक खरौ । मोहण वंस बडौ मध नामक, वाधै दिन दिन सुजस वरी॥ कवि ने सांवतसी के साहस, वीरत्व और वदान्यता का गीत में वर्णन किया है। अहमदाबाद युद्ध और भण्डारी परिवार-महाराजा अजितसिंह ने रघुनाथसिंह भण्डारी को रायरायान की पदवी और देश दीवानगी प्रदान की थी। रतनसिंह और उसके भाई गिरधारी द्वारा महाराजा अभयसिंह के नेतृत्व में अहमदाबाद में गुजरात के विद्रोही प्रांतपाल सरबुलंदखाँ के विरुद्ध लड़े गए युद्ध में पराक्रम प्रदर्शित करने का कविराज करणीदान कविया ने बड़ा फड़कता हुआ वर्णन किया है। करणीदान के अनुसार अहमदाबाद के युद्ध में भण्डारी गिरधारी, भण्डारी रतनसिंह पुत्र भण्डारी उदयराज और दलपत तथा धनराज (धनरूप) एवं कल्याणदास के पुत्र मघ आदि ने भाग लिया था। इस सन्दर्भ में निम्न तीन कवित्त द्रष्टव्य हैं :-- कवित्त गिरधारी रतनसी बिहां मेलीया वजीरां । करां तेग काढीयां सीस वाहता अमीरां ॥ गजां धजां गाहता, उरड़ ठेलता अठेला । धीर आपता बोलीया, खेल खेलता अखेला ॥ घरांण सोह चाढत घणां, लोह बोह लीधा लुभे । महाराज काज जूटा महर, उदेराज वाला उभै ॥ (२) कर ताता मेलीया खैग ऊपरां खंधारां। वहै धार बीजलां उडै तंडलां आपारां ॥ Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -0 १२० 10 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड (३) खलां सीस खीजीया, धार बाढ़ण खंडारी । छात राड़ि छाजीया, भला बाजीया भण्डारी ॥ भूरती दलो मुलयान री चौल खाग रत चंपीयी करतौ विरूप किलमाणं घणां राड बीच धनरूपीयौ || धरम स्यांम धारीया सरम वींटीयां सिघाले । विहां भाया मेलीया बेड वैरीयां विचान ॥ झिले वीर भैरवां वीर किलकिले भवानी । गिरै तुरां ऊपरां खवा बाढीया खवानी ॥ मधुकरी अनै गोपालमल सदा जिकै गढ़ साररा । कलीयांणदास वाला किले, मुंहता जूटा मारका ॥ +0+0+0+0+0+8 भण्डारी मनरूप भण्डारी मनरूप अपने समय का बड़ा प्रभावशाली दीवान था । यह पोमसी भण्डारी का ज्येष्ठ पुत्र था। वि० सं० १७८२ में इसे मेह का हाकिम नियुक्त किया गया जब १७८२ में मराठों ने मेड़ते पर हमला किया तो भण्डारी मनरूप ने इस अवसर पर बड़ी बहादुरी बताई । वि० सं० १५०४ में इसे जोधपुर के दीवान पद पर आसीन किया गया। महाराजा रामसिंह और बख्तसिंह के वैमनस्य के समय यह रामसिंह के साथ अन्तिम समय तक रहा। वि० सं० १८०७ में इसका देहान्त हुआ। प्रसिद्ध चारण कवि करणीदान कविया ने मनरूप भण्डारी के व्यक्तित्व का चित्रण एक गीत में इस प्रकार किया है गोत मनरूप भण्डारो रो लावा ईरान रान तरां आमुराद जीनां औगांन भयांन चखां आसंगै न आन । लागा सीस आसमान मसतांन खूना लायो, मल्हार अमान हाथी डाकदार मान ॥ मलीदां निवालां चहु चकां जी मालां, भालां दोनूसला लि कपाटां भंजार | जिको लागी दोनों कालीपटा मेघ आणी जाणे, आंण फील दिखखणी चाबकी अस्सवार || चंबेली कछूबातां मारो सनीदे काला चीता, आखतां बराला झालां लोमणां अबीह । मैमता आवियो डांटा बाद झाटमार, साटमार लावियो पोमसी तणौ सीह ॥ रासाहरै आणियो सतारा तणां गाढ़ेराव, नीमरैन छूटा पट्टा बीमल नाग । जटी नैनां बसी अमी हुकम्मा ऊचारं जठी, विधूस नांखसी वैरीहरां तणां बाग ॥ यह महाराजा विजयसिंह का समकालीन या यह बड़ा रणकुशल व बहादुर था। इसने सिंघवी भीमराज बक्षी के पद पर नियुक्त किया कार्यों से प्रसन्न होकर महाराजो ने इसे चार गाँव इनायत किये । वि० सं० १८३७ में जब मरहठों की फौजें जयपुर पर चढ़ आई थीं, उस समय इसने जोधपुर की ओर से जयपुर की रक्षा में बहुत योगदान दिया। इसके पराक्रम सम्बन्धी निम्न गीत उल्लेखनीय है :-- - करणीदान कविया इसे वि० सं० १८२४ में महाराजा ने फौजअनेक लड़ाइयां लड़ीं। इसके वीरतापूर्ण . Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर के जैन वीरों सम्बन्धी ऐतिहासिक काव्य गीत सिंघवी भीमराज जोधपुर रो थूरं खामा दहूँ राहां दिलेस व्है ताबीन थायौ, मही बेहो डंमरा मिलायौ आसमान । आंबेर ऊथापवा पटेल दलां साज आयो, जोरावर देख मनां अभायो जिहांन ॥ १ ॥ महाबाहु ऊमरा सकज्जां मंत्र धारा मिल, राजा लिखे प्रताप अरज्जां अह रीति । अजीत साहू आगेही जैसींध में ऊबेलियो, यं अर्थही मेल की बिजाई अजीत ।। २ ।। प्रभू चं प्रताप बिजैसाह हिंदवांणा पत्ती, तई बत्ती सुणतां ऊससे सिरताज । कुरम्माण धरती राखिवा तत्ती जैत काज, रंगारूप म दीठो भेजियो भींवराज ॥ ३ ॥ बाजे ढाक वाला सालु महावीर बंका, धैधींग आसंका भुई मंडे सूरधीर । दरौ पारंभ लौधां कूरम्माण बेल आयो, बस नंद रौ दीवांण महावीर ॥ ४ ॥ है खुरां घमस्सां बागी मचीला भूगोल हल्ले, गरो चौतरपफां झल्ले गंण । अठी माधवेस प्रथी जैत आण आवाजियो, महाबाह भीम गाजीयौ भीमेण ॥ ५ ॥ जैणा तसां फिरंगाण तेरे हजार भुवनकी तोप, कड़क्की बीजलां रूद्र तोप प्रलंकाल I ऊजालवा नवां कोटां सताबां हरौल आगे, रालिया जा अराबां ऊपर बाजराज ॥ ६ ॥ मारवाड़ा वीर चौतरफा मार मार मच्चे, तई जंग जोबा भाग खच्चे सपतास । खागां झींक देबा काज भीम मेलिया जोस खाथै, बांकड़ा गनीमां माथै मेलिया ब्रहास ॥ ७ ॥ बीरहाक जोगणी हजारों बागों धारा बागी, चमू गंजा भिड़ज्जां दुसारां चूर चूर । अथागो भारथ सूं दीवाण विजेसाह बालो, सतारानाथ सूं खाग बागो महासूर ॥ ८ ॥ कुत बाण क्वांग वेधके का वीर केई, लोटणां परव ज्यूं लुटे कई रीठ तेर धींग ऊपटै केई अथां वगो बिरद्दां धारू, बागा मारू मारहठी कट्टा जैण बेर ॥ ६ ॥ माण मागां गरद्दा कायरां भाण पाण भागा, भीडे रूकां ऊनागां बीरांण बाण मीठ । १२१. 2+0+0+0+0+0+0+0+6 0 . Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ १२२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड लोहा झाट देते भुजां डंडा आसमांण लागा, रुघाहरी सिंघीरांग बागा आकारीठ ॥ १० ॥ विधूस खाग हूँ फिरंगाण रा चौवड़ा वाड़ा, घेतलां ऊवेड़ जाडा जोड़ जोस घटेल । जोरावर अथाय आघात रो देखतां जूझ, मांण छडे भागो आधीरात रौ पटेल ।। ११ ।। लाखां माल गयंदां सहेत डेरा लूट लीधा 1 स बोल धणी रा कीधा लिक्खयां सुजाव । जीता देस देस ने दिलेस नै गांजियों जंण, तण माधवेस ने भांजियों रुकां ताव ।। १२ ।। हिन्दू पातसाह बिजैसाह री तपस्या हूँता, शहाजीत मी साल में दियो अरेह । राजा प्रताप चो धिरे जिहांन भाखियौ सारे, अंबानेर वाली राज राजा राखियो अबीह ।। १३ ।। बजावै जैतरा जांगी मिलावे अच्छरां वरां, रूकां धारां धपावे घेतला चौ वीर रीति । अज्जमेर कीलो अच्छेही धरा लोधी अही, जैतवादी सींघवी तेहरी राडांजीत ॥ १४ ॥ कुरमाण प्रताप चौ सारो रोग काट आयो, तर सेन लोहां लाट आयौ सरताज । खावंद चा स बोल बाला सारी धरा खाट आयो, राड़ाजीत थाट पाट आयो भीमराज ।। १५ ।। भण्डारी सिवचन्द - यह वि० सं० १८५१ में १८५५ तक जोधपुर राज्य का फौज बख्शी रहा । इसके सम्बन्ध में निम्न गीत मिला है । गीत सिवचन्द भण्डारी रो मन सुघ म्हैं तुझ फायदा माँगा, जुग जुग अविचल रहे जस । दे काइक सिवचन्द हरख दिल, जैपुररी आछी जिनस ॥ पैखै खाग पूछे परिपाटी, करें जास तारीफ कवी । तै आंणी आंबेर तलासे, नाला दे टूम नवी ॥ जगपत री सेवा कर जोड़ी, मरथ जोड़णा गरब गये । दीजै इसी पौमसी दूजा, हर इक चौखी चीज हमैं || सोमाचंद तणा सत सोनन, बिलसे विमौ बजावे वार | भागां रा वदुआ रौ भाई दे मुंहगी बटुओं दातार । सिंघवी इंद्रराज - यह विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी का एक महान और प्रतापी जैन योद्धा था । जोधपुर के महाराजा भीमसह के अन्तिम दिनों में उपद्रवी सरदारों का दमन करने, जालोर पर जोधपुर का अधिकार जमाने, भीमसिंह के बाद मानसिंह को जोधपुर की गद्दी दिलाने तथा उसे स्थायित्व प्रदान कराने में इस सिंघवी इन्द्रराज ने जिस वीरता, दूरदर्शिता और रणकुशलता का परिचय दिया तथा अन्त में अपने प्राणों का भी उत्सर्ग कर दिया, . Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर के जैन वीरों सम्बन्धी ऐतिहासिक काव्य १२३ ............................................................-.-.-.-.-.-.-. उसके उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। महाराजा ने इन्द्रराज को वि० सं० १८६४ में जोधपुर का दीवान बनाया और वि० सं० १८७२ तक वह इस पद पर कार्य करता रहा । महाराजा ने इसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर इसे अनेक रूक्के आदि प्रदान किये तथा अमीर खां पिण्डारी द्वारा वि० सं०१८८२ में इनकी हत्या करवा देने पर उनके पुत्र फतहराज को पच्चीस हजार की जागीर प्रदान की। स्वयं महाराजा मानसिंह ने, जो अच्छा कवि भी था, इन्द्रराज द्वारा की गई सेवाओं की स्मृति में निम्न सोरठे व दोहे रचे । इनके अलावा अन्य कवि का एक गीत भी लिखा मिलता है। दोहे, सोरठे और गीत द्रष्टव्य हैं सोरठा गेह छुटो कर गेड़, सिंह जुटो फूटो समद । अपनी भूप अरोड़, अड़िया तीनू इन्दड़ा ।। १ ।। गेह सांकल गजराज, घहै रह्यौ सादुल धीर । प्रकटी बाजी बाज, अकल प्रमाणे इन्दड़। ॥ २॥ दोहा पड़तो घेरो जोधपुर, अड़ता दला अर्थभ । आप डींगता इन्दड़ा, थे दीयों भुज थंभ ॥३॥ इन्दा वे असवारियाँ, उण चोहटे आमेर । घिण मन्त्री जोधाण रा, जैपर कीनी जेर ॥ ४ ॥ पोडियो किण पोशाक सू, जंग केडी जोय । गेह कटे है जावतां, होड न मरता होय ॥ ५॥ बेरी मारण मीरखां, राजकाज इन्द्रराज । मैं तो सरणे नाथ के, नाथ सुधारे काज ॥६॥ गीत इन्द्रराज सिंघवी रो दल अटकै कमण ऊबाणों दुजड़े, करसी कमण घरा रौ काज। सिंघवी राव मरण तो सुणतां, राजां सोच कियौ इन्द्रराज ॥१॥ मेल दलां पर दलां मरोड़ण, छव वरणां आधार छतो। अकल निधान भीमसुत ऊभा, हिन्दस्थान न चीत हुतौ ॥ २ ॥ जण आसान उदैपुर जयपुर, सबल नरां सर अंक सही। मोटा साह तुझ मिलव री, राजां राणां हूंस रही ॥ ३ ॥ सिंघवी गुलराज-यह सिंघवी इन्द्रराज का छोटा भाई और महाराजा मानसिंह का समकालीन था। इसने महाराजा मानसिंह को जालोर के घेरे में लाकर जोधपुर की राजगद्दी पर बैठाने में बड़ी सेवा की। इससे प्रसन्न होकर महाराजा ने इसे एक खास रूक्का प्रदान किया था। वि० सं० १८७२ में जब अमीर खाँ पिण्डारी ने अपना खर्च प्राप्त करने सम्बन्धी बखेड़ा उठाया तथा आयस देवनाथ और सिंघवी इन्द्रराज को इसने मरवा डाला, उस समय गुलराज ने बड़ी दूरदर्शिता से काम लेकर अमीर खाँ को जोधपुर से रवाना किया और महाराजा की आज्ञा से गुलराज तथा इसका भतीजा फतैराज दोनों राज्यों का प्रबन्ध देखने लगे। अन्त में यह भी षड्यन्त्र का शिकार हुआ तथा वि० सं० १८७४ में कैद कर इसे मरवा दिया। गुलराज की प्रशंसा में कहे गये निम्न दो दोहे उपलब्ध होते हैं Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड दुहा गुलराज भीवराजोत सिंघवी जो गुण धरम जिहाज, भूले जावां भीम तण । तो पिण म्है कहिया तिकै, गुण जाय न गुलराज ॥१॥ इण जुग माहै आज, जाहर गुण त्रेता जिसा । गाढे मन गुलराज, राम इसट मन राचियौ ॥ २॥ सिंघवी कुशलराज-यह महाराजा मानसिंह का समकालीन था और महाराजा मानसिंह को जोधपुर के घेरे में जोधपुर लाकर गद्दी पर बैठाने में इसका प्रमुख हाथ था। इस उपलक्ष में महाराजा ने इसे एक रूक्का भी प्रदान किया था। मानसिंह के गद्दी पर बैठने के बाद भी उसके राज्य में उस समय पैदा हुए विभिन्न बखेड़ों में इसने महाराजा मानसिंह की बड़ी मदद की । उसने बगड़ी के ठाकुर शिवनाथसिंह की बगावत को बड़ी बहादुरी से दबाया। अंग्रेज पोलिटिकल एजेन्ट ने जब १८६० में जोधपुर पर सेना भेजने की धमकी दी, उस समय भी इसने महाराजा की बड़ी मदद की। यह वीर प्रकृति का पुरुष था। इसके व्यक्तित्व को प्रकट करने वाला निम्न गीत दृष्टव्य है। गीत कुसलराज बनराजोत सिंघवी प्रगट मेलिया गरट पेंगां झपट पाषरां, सुमर नट नचावन बिजड़ सेले । कुसल रज चढ़ावे विकट त्रिमकी कवट, मुडे झट विसणथट मरट मेले ॥ कपटां बजरा हूंत छाती कटण, झाल ताती भभक खाग झाटां । बनावत तुराटां पीठ आवे बिरड़, बैरियाँ चलावे आठ बारां ।। चमू हड़हड़ वहै पीठ कूरम चड़ड़, खित घडड़ नाचता मुनंद्र खेला। उपाडै घाटियाँ बाग सिंघवी उरड़, बसे तड़ अनड़ रिम विसम बेला ।। सूरपण पूर भूगोल स्याबासियौ, तोल असमाण भुज नूर ताले । सार दरिया मझ बोल असहां समर, भीमहर वाहुड़े चौल भाले । मुहता सूरजमल-महाराजा मानसिंह के समय में सोजत निवासी कोचर. मुहता खुशालचन्द का पुत्र मुहता सूरजमल बड़ा प्रभावशाली व्यक्ति था। वि० सं०१८६२ में इसे जोधपुर राज्य की दीवानगी का पद मिला। जालोर की लड़ाई में यह महाराजा मानसिंह के साथ घेरे में शामिल था। महाराजा. ने इसको अनेक रूक्के देकर सम्मानित किया। इसके बारे में दो डिंगल गीत निम्नानुसार लिखे मिलते हैं: गोत सूरजमल मुहता रो कल जुगिया चुगल नह लागै कान, बदल नहीं बोलिया वैण । हूतल रहण धारणा है कै, सूरजमल सारां रौ सैंण ॥ पर उपगार करै सत पूरत, पालै पुषत प्रजांसू प्रीत । नवकोटां पतरौ निज नायब, मतरौ समंद जगतरौ मीत ।। सुत खुसियाल खाटवां सुसबद, वैणा जेम चढे चित बेल । मान महीप फायदै मुहतो, मुहता रै सगला सू मेल ।। विध विध खोटा पवन बाजिया, अडग भलो रहियो अकल । पूरणमाल हरा रे पग पग, सुभ चिंतक दोसत सकल ॥ (२) लहर सुमति फैले हिये उवारणा लीजिय, दीजिये बराबर किसौ दूजौ। धुरा सू दाम रै लोभ नह धावियौ, सांम रे काम हमगीर सूजौ ॥ गंगजल सहज बिरदैत कामेत गुरु, ईख छक साजनां हुआं आणंद । भलल ताला प्रभा भला बड़ियां भुजां, नेत मुरधर तणा खुसालानंद ।। Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थेट सूं सांमधमी तिसी थाटियो, प्रचंड दरजै तिसै भलां पहुंतौ । जसतणी बाक भाखै सरब जोधपुर, मंत्रियाँ तिलक सुभियांण मुहतौ ॥ जोर जबरी नथी रैत सिर जमाने कमाये मान महाराज रा काम । प्रवादानीत पूरण ती पोतरो नवकोटा मंही उवारें नाम ॥ जोधपुर के जैन वीरों सम्बन्धी ऐतिहासिक काव्य साहिबराम सवाईरामोत:-- सवाईराम का पुत्र साहिबराम बड़ा दूरदर्शी और स्वामिभक्त था । महाराजा मानसिंह के शासनकाल में इसकी सेवाएँ काफी प्रशंसनीय रहीं। एक गीत दृष्टव्य है गीत सहिबराम सवाईरामोत रो (१). (२) 1 मेघराज सिंघवी - अखेराज सिंघवी का दत्तक पुत्र मेघराज जोधपुर राज्य का वि० सं० १८५७ से १८८२ तक फोजबख्शी रहा और इसने अनेक लड़ाइयों में बड़ी बहादुरी के साथ भाग लिया। इसका स्वर्गवास वि० सं० १९०२ में हुआ । मेघराज सिंघवी की स्वामिभक्ति प्रसिद्ध थी । चार गीत द्रष्टव्य हैं : (३) प्रथीनाथ छल वडा मेवासिया पजावै, वजावी ऊधर्म आथ बारा । तबंध साहिया पर हजदार नह साहिया पर हुजदार सारा ॥ परविधूमण हजूरा पराक्रम छोल महाराण सम गुदत छीजो। मुरधरा महीं तुलियो न को मुसाहिब, बराबर सार आचार बीजो || करन र पौहर दस देस सिव ऋपा सू. कुसलहर आपरी जस कहावे । दान बग पछाड़ी रहे मुसद्दी हुआ, तगाड़ी दान खग नको आवे || साजना थिये सुप में दूध सा गुमरधर पंचमुख प्रेम गाजे ऊजला काम कर नाम राखे इला, सवाईराम सुत दीह साजै ॥ १२५ गीत मेघराज सिंघवी रा कर मुंहगा घणा वरतिया कवियण, भीम अखं इंदे धर भाव । जै बगसियां तण घर जाणां, नवमी मिसल धरम ची नाव ॥ गुण ग्राहक पालक गढ़वाड़ां, किल सिंघवी अचड़ां करण । बोलै विरद राखड़ी बांधे, बिलकुल चित चारण वरण ।। वीड़िया लड़ियां नह विरचै पालै नित झालियाँ पलौ । बैहल व्रन मन सुध वांछें, भीम तणा कुल तणो भलो ॥ कीरत दवा लिये कीधौधर, नवनिध दिये चढै मुख नूर । दादा पित काका जिम भाखे पातां सूं मैघी हित पूर ॥ सतत सुकुलीण गुणां में समझे, सारौ जगत कहे स्याबास । मेघराज कविराजा मुख ची, फेरे नह पाछी फुरमास ॥ जसमा लाज ऊधर चेतन, बड़ौ महोदय जैम वरी मांगण जस हंडी लिख मेहर से भीमहरी ॥ पर उपगार करण गहपूरत, वडम विशेषत लाख बरीस । हुकम सुपातां जीह हुवोड़ो, सिंघवी लिये चढाव सीस ॥ मान तणे बगसी कुल मंडण, असर विंडण रण अनड़ । त्याग पग ग्रहियां अरवई तण, वेहलां तणौ प्रयाग बड़ ॥ तो सारखा हुआ अखा तण त्यागी, आखर ज्यांरा वर्ण उढंग । अचरज किसौ ऊमदा आवें, रूड़ा पौस ऊपरां रंग ॥ आ .0 . Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड -. -. -. -. -.-.-. -. -.-.-. -... -.-.-. . . -.-.-.-.-.-. .. -.-. जुड़े जोड़ता तूझ विसारा, सिंघवी जस कायब सरस । आप हूंत किल भलो ऊधड़े, कनक भलोड़ा तणौ कस ।। वरणवता दातार तूझ वड़ गौरव सहत रचीजै गीत । मेघ भींत अतोखी माथै, चोखा घणा मंडीज चीत ।। जनमै नहीं बात जग जाहर, विमल सारदा देस विहीण । केसर जिम ते भीम कलोधर, सत कायब मान सुकलीण ।। (४) पर धर अरि जिकै फैलिया पगपग, हैवर नकू खरीद हुवे । मान प्रताप कोट नव माहै, सहूं प्रजा सुख नींद सुवै ।। ओधा दिस कुलवाट उजाला, भाला सगह दूजा भीमेण । तू यह बगसी तूझत बोल, तुरंग हजार खटावे तेण ।। मेघराज धजराज मांहरौ, वाल बंधाव बधारण वाल । मन में आवै जिता मेलणां, रुपिया बांध पलै रुमाल ॥ कर हाणणाट ठांण पग कूट, घोड़ो मांग थोक घणा । ऊगै दिन रूपिया आधारी, तलब मैट अखमाल तणा ॥ मुहता साहिबचन्द्र-यह महाराजा मानसिंह का अत्यन्त विश्वासपात्र और पराक्रमी पुरुप था। इसने विभिन्न लड़ाइयों में भाग लेकर जोधपुर राज्य की अच्छी सेवा की थी। इसने वि० सं० १८६१ में महाराजा की आज्ञा से घाणेराव पर चढ़ाई कर उसे जोधपुर के अधिकार में कर लिया। वि० सं० १८७३ में इसने सिरोही से चढ़े हुए दण्ड के रुपये वसूल करने के लिए चढ़ाई की और भीतरोट क्षेत्र को लूटा। वि० सं० १८७४ में साहिबचन्द ने पुन: सिरोही पर चढ़ाई की। महाराव उदयभाण शहर छोड़ कर भाग गया और साहिबचन्द ने यहाँ के दफ्तर आदि जला कर दस दिन तक नगर को लूटा, तत्सम्बन्धी एक गीत तथा एक अन्य गीत इस प्रकार हैं गीत साहिबचन्द मुहता रो आबू लेलियौ अलावदीन पैड ही न आयौ उठी, देलियौ जलाबदीन उठी नू न दौट । मेलियौ तै भलो मेल घाट तोड़वा रौ मंत्री, मेलियौ त साहिबा ठिकाणे भीतरौट ॥ वला अन्धकार रा में लाख ज्यू झौकिया बाज, केहरी ग्या भाज छंडै थाहरां कराल । कीधौ हाथ सिवारा तै देवड़ा लगाई कालौ, ___ आबू आडादला वालौ औढी अंतराल । कोली मांण मंदा थाने वाघेला बारडां कंपै। नाहेरां भाडेरां हंदां दुआ सूना सेस । डोहियो तै मान रा कॉमेत सिंधू रोड डंका, दोनू वंका गिरिन्द्रा बिचाल वंको देस ॥ सूबो दाप दाहै लीधा फौजां रा हबौला साथ। बेलियां निवाहै बोल चंडीनाथ बेल । साहिबा ते चडी चोट लीधौ भीतरोट सारी, बैधै लाग काट लेणां थारै हासो खेल ॥ ० Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोधपुर के जंन वीरों सम्बन्धी ऐतिहांसिक काव्य गीत साहिबचन्द मुहता रो सबद रिझवार साहिबा सांगल, उपजी चिन्ता रूप उपाध । नृपत नणौ दीदार हुवै नह, अवड़ौ की मौ में अपराध ।। भाली नजर अमीरी भूपत, दूजां सोह चाकरां दिसी । fat feat न भजे बुलावे, अमो नहीं सकसीर इसी ॥ मान महीप हूंत कर मालम, सही सवाई तथा म सांक । दिये नहीं अनदातां दरसण, वांका री प्राप्त में बांक ॥ मुजरा गय अरजकर मुहता, हव मन तणौ सन्देह हर । कै तौ धणी बुलावै कदमां के फुरमावै सीखकर ॥ भण्डारी पत्रभुज (तुर्भुज ) - यह भण्डारी सुखराम का पुत्र था और महाराजा मानसिंह के शासनकाल में बड़ा प्रभावशाली फौजबख्शी था । इसकी कीर्ति निम्न गीत से स्पष्ट है गोल चतुर्भुज भण्डारी रो लेस । मन सुध सुण वयण चतुरभुज म्हारी, लेखव मती खुसामद जस रा काज सुधारण जौंगौ, तर तूहिज नाडूल नरेस || अरज करें नृप हूंत अमीणी, रलियायत करित रमण । तूझ विणा सुखराम तणो भ्रम, कामेती दूजौ कमण || कुल उजवाल अंगोटो कायम, जग उपगार करण धण जांण । मुसद्दी किसी जोधपुर मांहै, तुझ सरीखी ऊँची तांण ॥ बुध सूं सूत राजरा वांघणा, दीधौ मान महीप दुऔ । लूणाहरा आज कस लोभी, हुजदारां सिरताज हुआ || भण्डारी लखमीचन्द - यह वि० सं० १८६४ में केवल तीन मास तक जोधपुर राज्य का दीवान रहा। इसके पिता का नाम कस्तूरचन्द भण्डारी था। इसकी प्रशंसा में निम्न गीत मिला है गीत भण्डारी लिखमीचन्द रो थिर जितरा गाम तालके थार, नराहरा नाडूल नरेस । तुरत मँगाय हमें दे त्यांरां, लायां रा रूपिया लखमेस || भेलप जाणणहार भण्डारी, चित तो चाह उबारण चौज । तूं घर सुछल जागे तिखड़ो, नां दाखँ लागां रौ नौज ॥ कहियो काज जेज नह करसी, लाज लोयणां सुजस लियो । भाल तूने दूजा भीमाजल, होमाजल जिसी हियो । ईटगरां इण वार अनंरां, घरवट दीनी छोड़ घणां । तोनूं तो किसतूर तणी भ्रम, गोरा वाधा जिसी गिणां ॥ - मुहता लिखमीचन्द यह वयमचन्द्र मुहता असेचन्द का पुत्र था और जोधपुर राज्य का दो बार वि० सं० १६०० से १६०२ तथा वि० सं० १९०३ से १९०७ तक दीवान के पद पर रहा। इसकी प्रशंसा में निम्न कवित्त उपलब्ध है कर १२७ कवित लिखमीचन्द मुहता रो एको काढियो सुरां असुरां मथ सागर पायो सुरां हूँ मोहणी दनु जर सोले । . Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ १२८ HD कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड मंडल किरणां मंही कलानिधि थापित कीधो । अमरापुर सूं आणि गरूड जणणी नूं दीधौ । लिखमीचन्द स्वरूप रा रोग हरण वधती रती । वर श्री जिनेन्द्र वाले वसे हाथ थारं अती ॥ बहुत प्रभावशाली सिंघवी फौजराज — यह सिंघवी गुलराज का पुत्र था और महाराजा मानसिंह के समय में था। महाराजा ने इसे वि० सं० १८६३ में जोधपुर का फौज बख्शी कायम किया और इस पद पर यह वि० सं० १९१२ तक कायम रहा । वि० सं० १६०२ में यह खालसे का काम भी देखता था। मारोठ व खेतड़ी के झगड़े में उसने फौज लेजाकर बीच-बचाव किया था । वि० सं० १८९७ में सिवाना परगना के आसोतरा ठाकुर के यहाँ पर उपद्रव हुआ । उसे भी उसने जाकर दबाया। एक गीत द्रष्टव्य है : गीत फौजराज सिंघवी रो बांकारा सैण जिकां मन विकस, दोखी वांका तथा दबै । ईन्दा जिम कर क्रीत उवारण, ईन्दाणी सुभ नजर अबै ॥ ईन्दै भूपत त अमांची, हूँत अमांची, आठ बार कीनी अरज । मिलिया ईन्दा तणी मारफत, गांम कुरब सुखपाल गज || आडो झगड़ौ करां आप सूँ, दिन ऊ आसीस दियां । म्हाहरी निखाह भीमहर, कपा भीम सुत जेम कियां ॥ पढ़ दिया रूपयां रा पहला पर्छ किया तोफान पलां । सिंघवी ओ मौ काज सुधारण, गाज सीह जिय राय गलां ॥ निज कहिया वायक निरवाहै, मन नहचल आपरे मत । दुवै राह दिल खोल पापियों, फती मदत ज्यां वै फते ॥ +0+0+0+0 मुहता हरखचन्द - हरखचन्द मुहता के बारे में भी एक गीत मिला है। यह जोधपुर का पराक्रमी योद्धा, साथ ही धार्मिक रुचि सम्पन्न व्यक्ति था । निम्न गीत द्रष्टव्य है गीत हरचन्द मुहता रो पद उपाध्याय दिन इन्द्र पावियो, जग जाहर तूं मदत जद । गुरू अधक बधायौ गौरव, हरदवा कीधौ काम हद ॥ फैज बगस जस खाट फाबियो धन तूं रह्या मीढगर धूज । विने करी श्रीपूज बड़ा सूं, स्वर कियो छोटो श्रीवृज || राजे तूं मेधा रतनागर, चौज उबारण आर्च चाव । चौरासी गछ कीधी चावी, सागर नं उतमेस सुजाव ॥ जांण जोग दिनेन्द्र जती नूं, उदै मंदिरां तण उजीर । मुर्द कियो तै तपगछ माहै, निज कुल भलो चढायो नीर ॥ O . Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमदाबाद युद्ध के जैन योद्धा D श्री विक्रमसिंह गुन्दोज सर्वेक्षक, राजस्थानी शोध संस्थान, चोपासनी, जोधपुर (राज.) मध्यकालीन भारतीय इतिहास अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। इस काल में घटित राजनैतिक घटनाओं का प्रभाव देश के जन-जीवन और उसकी संस्कृति पर स्पष्ट और व्यापक रूप से दृष्टिगोचर होता है। राजस्थान में भी इस काल में अनेक वीर योद्धा हुए, जिन्होंने अपने वीरतापूर्ण कृत्यों से राजस्थान ही नहीं अपितु भारत के इतिहास को गौरवान्वित किया। निःसन्देह इस सूची में क्षत्रिय-वीरों की संख्या सर्वाधिक है, लेकिन उनके अतिरिक्त भी अन्य वर्गों में उत्पन्न अनेक योद्धाओं ने वीरता के क्षेत्र में अपना नाम उज्ज्वल किया और यश तथा ख्याति अजित की। जैन सदा से ही शान्तिप्रिय रहे हैं । इसके साथ ही बदलते हुए सामाजिक परिवेश में अपना सामंजस्य स्थापित करने में भी वे हमेशा जागरूक रहे। सफल व्यापारी के रूप में उन्होंने समाज में अपने आपको स्थापित किया। इसी वजह से मारवाड़ में यह कहावत चल पड़ी 'बिणज करेगो बाणियो' अर्थात् व्यापार का कार्य तो वैश्य ही सफलतापूर्वक सम्पादित कर सकता है । व्यापारिक कार्य में लगे रहने के साथ-साथ जैन हमेशा ही राजनीति से जुड़े रहे। लक्ष्मीपुत्र होने के नाते सर्वत्र उनका सम्मान होता था। इस कौम के बुद्धिमान लोग प्रशासनिक दृष्टि से भी अपने को सफल सिद्ध करने में किसी से पीछे नहीं रहे। बड़े-बड़े ठाकुरों, जागीरदारों, राजा-महाराजाओं के कार्य की देखरेख, दीवान, कामदार आदि के पदों पर सदा जैनों का बना रहना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि मध्यकालीन प्रशासन में ये लोग भी काफी प्रभावी थे तथा स्थानीय वित्तीय व प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाये रखने में जैनों का महत्त्वपूर्ण योग रहा। जैन परोक्ष रूप में युद्ध में सहयोग करते रहते थे परन्तु स्वयं उनका युद्ध में भागीदार बनना और रणक्षेत्र में उतरना बहुत कम जगह देखा गया है। इसी कारण अहमदाबाद युद्ध में अनेक जैन योद्धाओं द्वारा अद्भुत वीरता का प्रदर्शन करना प्रत्येक पाठक को अनूठा एवं एक अप्रत्याशित उदाहरण अवश्य लगेगा। अहमदाबाद का युद्ध एक ऐतिहासिक घटना है तथा राजस्थान के इतिहास में यह युद्ध महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इस युद्ध के बारे में 'सूरजप्रकास' और 'राजरूपक' में विस्तार से वर्णन मिलता है। बखताखिडिया ने भी अहमदाबाद के झगड़े से सम्बन्धित कुछ कवित्त लिखे हैं । इसके अतिरिक्त डॉ० गौरीशंकर हीराचंद ओझा द्वारा लिखित 'जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग-२' व पण्डित विशेश्वरनाथ रेऊ के 'मारवाड़ का इतिहास, भाग-१' में प्रसंगानुकूल इस युद्ध का वर्णन मिलता है। सूरजप्रकास व राजरूपक के रचयिता क्रमशः कविराजा करणीदान और वीरभाण रतनू दोनों ही इस युद्ध में मौजूद थे । युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी होने के कारण इन दोनों का वर्णन बड़ा सशक्त है । अहमदाबाद के युद्ध की घटना संक्षेप में इस प्रकार है कि दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह को जब यह ज्ञात हुआ कि गुजरात के सूबेदार सरबुलन्द ने विद्रोह कर दिया है और स्वयं गुजरात का स्वतन्त्र शासक बन बैठा है तब बादशाह ने एक दरबार किया। इस दरबार में उस समय के बड़े-बड़े उमराव, नवाब, अमीर और राजा-महाराजा उपस्थित हुए । बादशाह ने सरबुलन्द के विरुद्ध अपने दरबार में पान का बीड़ा घुमाया पर किसी ने यह बीड़ा नहीं उठाया। सरबुलन्द से मुकाबला करने की हिम्मत जब किसी की नहीं हुई तब जोधपुर के महाराजा अभय सह ने उस बीड़े को उठाया। Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड महाराजा अभयसिंह ने सरबुलन्द से युद्ध किया । तीन दिन तक घमासान लड़ाई हुई । आखिर चौथे दिन सरबुलन्द की सेना के पाँव उखड़ गये । उसने महाराजा अभयसिंह के सम्मुख आत्मसमर्पण किया। नींबाज ठाकुर अमरसिंह ऊदावत ने इस सन्धि समझौते में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अहमदाबाद विजय की यह घटना विजयदशमी विक्रम संवत् १७८७ (१० अक्टूबर, सन् १७३०) की है। सत्तर समत सत्यासियो, आसू उज्जल पक्ख । विजै दसम भागा विचित्र, अभै प्रतिग्या अक्ख ।। गुजरात के सूबेदार सरबुलन्दखों के साथ हुए इस युद्ध में जोधपुर के महाराजा अभयसिंह की फौज में कई जैन महत्त्वपूर्ण सैनिक पदों पर नियत थे। बांकीदाम लिखता है कि वि० सं० १७८७ आश्विन सुदि ७ (७ अक्टूबर सन् १७३०) को कोचरपालडी पहुंचने पर अहमदाबाद नगर तथा भद्र के किले पर पाँच मोर्चे लगाये गये । एक मोर्चे में अभयकरण करणोत, चांपावत महासिंह पोकरण तथा भागीरथ दास आदि, दूसरे में शेरसिंह सरदारसिंहोत मेडतिया, प्रतापसिंह जोधा खैरवा तथा पुरोहित केसरीसिह आदि, तीसरे में मारोठ तथा चौरासी के मेडतिये एवं भण्डारी विजयराज, चौथे में गुजराती सैनिक एवं रत्नसिंह भण्डारी और पाँचवें मोर्चे में दीवान पंचोली लाला आदि थे। ___ अक्टूबर, १७३० में ही रत्नसिंह भण्डारी ने भद्र के किले (गुजरात) में प्रवेश कर वहाँ आधिपत्य स्थापित किया। कैम्पबेलकृत 'गैजेटियर आफ् दी बोम्बे प्रेसीडेन्सी' में लिखा है कि अहमदाबाद में प्रवेश करने पर महाराजा ने रत्नसिंह भण्डारी को अपना नायब मुकर्रर किया। जोधपुर राज्य की ख्यात से भी इस बात की पुष्टि होती है। इसमें अहमदाबाद के सूबे पर अभयसिंह का अमल होने, उसके शाही बाग में ठहरने और नायब का पद भण्डारी रत्नसिंह को देने का उल्लेख है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि अहमदाबाद के युद्ध में सरबुलन्द को परास्त करने में जैन सैनिक पदाधिकारियों ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई । विजयराज भण्डारी और रत्नसिंह भण्डारी महाराजा के विश्वास-पात्र व्यक्तियों में से थे। उनकी वीरता और नीतिज्ञता के कारण ही उन्हें सेना के उच्च पदों पर नियुक्त किया गया । इतना ही नहीं निर्णय लेने के महत्त्वपूर्ण अवसरों पर भी महाराजा अभयसिंह इन जैन राजनीतिज्ञों पर कार्यभार डाल निश्चिन्त हो जाया करते थे। उदाहरण के लिए बाजीराव से गुजरात की चौथ के सम्बन्ध में कौल-करार करने के लिए महाराजा ने अपनी ओर से शत तय करने के लिए भण्डारी गिरधरदास और रत्नसिंह भण्डारी को प्रतिनिधि के रूप में भेजा । महाराजा अभयसिंह जब अहमदाबाद से प्रस्थान कर माही नदी के उत्तर में बड़ौदा जिले में पहुंचे तथा बड़ौदा पर जब अधिकार कर लिया तो जीवराज भण्डारी को, बड़ौदा के मालदार आदमियों को कैद कर, उनसे धन वसूल करने के लिए नियुक्त किया। ___ खांडेराव दाभाडे को गुजरात की चौथ उगाहने का हक प्राप्त था। खांडेराव तो युद्ध में मुकाबला करता हुआ मारा गया परन्तु उनकी विधवा पत्नी उमाबाई बड़ी साहसी महिला थी। उमाबाई ने आस-पास के प्रदेश की चौथ वसूल करने के लिए पीलाजी गायकवाड को नियत किया। महाराजा अभयसिंह ने पीलाजी गायकवाड को छल से मरवा डाला तो उमाबाई घायल शेरनी की भाँति उग्र हो उठी और उसने महाराजा पर चढ़ाई कर दी। इस मुकाबले में भी मारवाड़ के अन्य जागीरदारों व सैनिकों के साथ जैन सेनानायकों ने न केवल कन्धे से कन्धा मिलाकर युद्ध किया बल्कि जब उन्हें यह पता लगा कि महराज ने डेढ़ लाख रुपये देकर उमाबाई से समझौता कर लिया है तो यह बात भण्डारी रत्नसिंह, भण्डारी विजयराज, मेहता जीवराज, पंचोली लालजी आदि को पसन्द नहीं आई और उन्होंने दूसरे दिन उमाबाई की फौज पर चढ़ाई कर दी। इस युद्ध में मेहता जीवराज अपने कई साथियों के साथ वीर-गति को प्राप्त हुए । इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि अपमानजनक समझौता करने की अपेक्षा युद्ध-भूमि में वीरतापूर्वक लड़कर सर्वस्व बलिदान देने वाले क्षत्रियों की परम्परा की अनुपालना करने में भी जैन सेनानायक पीछे नहीं रहे। १ जोधपुर राज्य का इतिहास, भाग २, डा० ओझा, पृ० २१४. . Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमदाबाद युद्ध के जैन योद्धा १३१. ............................. ........................................ उक्त युद्ध में महाराजा अभयसिंह की ओर से लड़ने वालों में जिन जैन सैनिक पदाधिकारियों (दीवानों, फौजबख्शियों और हुजदारों) ने भाग लेकर अद्भुत शौर्य प्रकट किया था तथा अपने बुद्धि चातुर्य से उस युग के प्रतिनिधि व्यक्तियों में अपना नाम लिखा गये उन कतिपय वीरों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया जा रहा है।। १. अनोपसिंह भण्डारी-यह राय भण्डारी रघुनाथसिंह का पुत्र था। रघुनाथसिंह भण्डारी स्वयं महाराजा अजीतसिंह के शासनकाल में एक महाशक्तिशाली पुरुष हो गया है। यह अजीतसिंह का दीवान था। इसमें शासन-कुशलता और रण-चातुर्य का अद्भुत संयोग था। महाराजा की अनुपस्थिति में कुछ समय तक मारवाड़ का शासन भी किया। इससे सम्बन्धित निम्नलिखित दोहा बहुत प्रचलित है करोड़ा द्रव्य लुटायौ, हादौ ऊपर हाथ । अजौ दिली रो पातसा, राजा न रघुनाथ ॥ , अपने पिता रघुनाथसिंह भण्डारी की भाँति अनोपसिंह भण्डारी बड़ा बहादुर, रणकुशल तथा नीतिज्ञ था। संवत् १७६७ में महाराजा अजीतसिंह द्वारा जोधपुर का हाकिम नियुक्त किया गया जिसको इसने पूरी तरह निभाया। संवत् १७७२ में इसको नागौर का मनसब मिला तथा महाराजा ने इसको व मेड़ते के हाकिम पेमसिंह भण्डारी को नागौर पर अमल करने के लिए भेजा जिसमें सफलता प्राप्त की। विक्रम संवत् १७७६ में फर्रुखसियर के मारे जाने के बाद फौज के साथ अहमदाबाद भी इसको भेजा वहाँ भी इसने बड़ी बहादुरी दिलाई। २. अमरसिंह भण्डारी-इसके पिता का नाम खींवसी भण्डारी था । खींवसी भण्डारी महाराजा अजीतसिंह के विश्वासपात्र व्यक्तियों में से था । मुगल सम्राट पर्रुखसियर पर इसका बड़ा प्रभाव था। करणीदान रचित सूरजप्रकास' के अनुसार हिन्दुओं पर से जजिया कर छुड़वाने में इसने महत्त्वपूर्ण सहयोग दिया था । खींवसी जोधपुर राज्य की तरफ से वर्षों तक मुगल दरबार में रहा। खींवसी भण्डारी का पुत्र अमरसिंह भण्डारी भी योग्य एवं कुशाग्र बुद्धि वाला था। महाराजा अभयसिंह के शासन काल में वि०सं० १७६६ से १८०१ तक जोधपुर का दीवान रहा । अहमदाबाद युद्ध के समय यह दिल्ली में महाराजा अभयसिंह का वकील था। यह बहुत बुद्धिमान, चतुर और अपने समय का कुशल राजनीतिज्ञ था। भंडारिय ता मंत्री कुलि भांण । दिल्ली अमरेस हुतौ दइवांण ॥ जिको पिंड सूर दसा परवीण । रहै दत्त स्याम धरम सुलीण ॥ लिया सुते खीमे भुजा रंज लाज । असप्पतिहूंत तूं कीध अरज्ज ।। जिकै विध कीध फतै महाराज । कही धर गुज्जर कथ्थ सकाज ॥' ३. रत्नसिंह भण्डारी—यह महाराजा अभयसिंह के विश्वासपात्र सेनानायकों में था। यह बड़ा वीर, राजीतिज्ञ, व्यवहारकुशल और कर्तव्यपरायण सेनापति था । मारवाड़ राज्य के हित के लिए इसने बड़े-बड़े कार्य किये । वि०सं० १७९३ में महाराजा अभयसिंह रत्नसिंह भण्डारी को गुजरात की गवर्नरी का कार्यभार सौंपकर दिल्ली चले गये थे तब इसने बड़ी योग्यता के साथ इस कार्य को किया । रत्नसिंह ने अनेक युद्धों में भाग लिया। देश में चारों ओर जब अशान्ति छाई थी, मरहठों का जोर दिन पर दिन बढ़ता जा रहा था ऐसी विकट परिस्थिति में सफलता प्राप्त करना रत्नसिंह जैसे चतुर और वीर योद्धा का ही काम था। कविराजा करणीदान ने अपने ग्रन्थ सूरजप्रकास में इस वीर के युद्धकौशल व वीरता का वर्णन इस प्रकार किया है महाबल हूर वरावत मीर । बडौ महाराज तणौ स वजीर ।। दुवै सुत 'ऊद' तणा दइवांण । भंडरिय कट्टिया खाग भयाण ।। १. सूरजप्रकास, भाग.३, सम्पादक-सीतारामलालस, पृ० २७६. Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ १३२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड 1 वदन्न मजीठ 'जवान' 'विजेस' । तठे अमि और वियो 'रतनेस' ॥ जई खग वाहत दारण जोस पड़े खग झाटक सिल्लह पोस ॥ कटें सिर सूर जूट घड़ केक । उभे हुय टूक पड़ंत अनेक || पड़े पग हाथ धरा लपटंत किला किर राखस बालकरंत ॥ 'अभै' भुज भार दियो अथाह । सुतौ उजवाल कियो 'रणसाह' ।। भिड़े 'रतनागर' यूं गज भार । वधै असि औरवियो त्रिण वार ॥ ४. विजयराज भण्डारी - यह खेतसी भण्डारी का पुत्र था। यह उन ओसवाल मुत्सद्दियों में विशेष स्थान रखता है जिन्होंने जोधपुर राज्य के इतिहास को अपनी सेवाओं द्वारा गौरवान्वित किया। महाराजा अजीतसिंह द्वारा मेड़ते का हाकिम नियुक्त किया गया। दिल्ली के उत्तराधिकार युद्ध में महाराजा की आज्ञानुसार जोधपुर से ससैन्य जाकर विजयराज भण्डारी ने शाहजादे फर्रुखसियर का पक्ष लिया था । गुजरात के सूबेदार मरबुलन्द का दमन करने से लिए महाराजा अभयसिंह ने जब प्रयाण किया तो उन्होंने अपनी सेना को तीन भागों में विभाजित किया। एक महाराजा अभयसिंह के अधिकार में और दूसरा राजाधिराज सिंह के अधिकार में एवं तीसरा भण्डारी विजयराज के अधिकार में था। अहमदाबाद के युद्ध में जो व्यूह रचना की गयी उसके अन्दर पाँच मोर्चों में से एक मोर्चे का भार भण्डारी जीवराज के सुपुर्द किया गया था। इस युद्ध में इसने अपनी बुद्धि और रणकुशलता का अच्छा परिचय दिया । अद्भुत वीरता व पराक्रम दिखाने वाले जैन योद्धाओं चौथ वसूल करने के सम्बन्ध में बाजीराव से बातचीत ५. गिरधरदास भण्डारी - अहमदाबाद के युद्ध में अपनी में गिरधरदास भण्डारी का नाम भी महत्त्वपूर्ण है। गुजरात की करने के लिए महाराजा अभयसिंह ने अपने दो प्रतिनिधियों को भेजा उसमें एक गिरधरदास भण्डारी था। इससे यह ज्ञात होता है कि वह बाहुबल का धनी होने के साथ-साथ बुद्धिमान राजनीतिज्ञ भी था । कविराजा करणीदान ने सूरजप्रकास में मोतीदान छन्द में गिरधरदास भण्डारी का वर्णन निम्नांकित रूप से किया है दलां खल झोकि तुरी हुजदार । भंडारिय जूटत जै गज भार ॥ सकौ सिरपोस 'गिरद्धर' सूर पटोधर 'ऊद' तणौ छक पूर ॥ हाँ भिड़ि मूंछ चखां विकराल । काले असि औरवियो कलिचाल ॥ दिय खग झाट गिरवरदास । बिढे असवार सहेत ब्रहास ॥ सिल बंध पाखर बंध संधार । भेला हिज गंज चढे धर भार ॥ बहै खल गाहटतौ जुध बाज | करें खग घाव अरोह सकाज ॥ उडै असि ऊपर लोह अपार । वढे असि भोम चढे णिवार ॥ किलम्मक एक जठै कलिचाल । वुही खग टोप कटे विकराल || वही झल ऊपर वीजल वेगि त ' गिरधार' वही धण तेगि || उभे हुए टूक पई अनुरोण पई असि सांम विये चहवांग || बिया असि ऊपरी गज्जर बूर । सझै खग झाट क्लोवल सूर ॥ वह खग झाट भंडारिय 'बाँध' । उडै खल थाट संवाट अथाघ । दुज असि जाम कटेस उदार । तिजै असि सूर चढै तिण वार ॥ लड़ें 'गिरधारिय' अंबर लागि । उड़े खल थाट सिरै खग आगि || 1 ६. सिंघवी जोधमल अभयसिंह की ओर से लड़े थे और मेहता गोकुलदास दोनों जैन बोद्धा भी अहमदाबाद के युद्ध में महाराजा . Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमदाबाद युद्ध के जैन बोद्धा चिढ चंडिका पुत्र यूं वरणेस | कंठीरव पौरस जे करणेस || उ असि आरण वीर अरोध । जुडै सिंघवी खग झाटक 'जोध' ।। विढे महता जुधि और व्रहास । दियै खग झाटक गोकलदास ॥ वैरीहर बाढ़त वीजल वाह । गोपाल कराल करें गजगाह ॥ १३३ इसके अतिरिक्त उदयचन्द भण्डारी, बाघचन्द भण्डारी, पेमचन्द भण्डारी व उसका पुत्र, थानचंद दीपचंद, माईदास भण्डारी, रणछोड़दास, खुशालचंद, मुहणोत सूरतराम आदि जैन योद्धाओं ने इस ऐतिहासिक युद्ध में बहादुरी से शत्रु सेना का सामना किया । इन वीरों के नाम तो कविराजा करणीदान ने अपने ग्रन्थ सूरजप्रकास में गिनाये हैं। इसके अतिरिक्त भी निश्चित रूप से ऐसे अनेक अनाम जैन मोढ़ा रहे होंगे जिन्होंने इस युद्ध में भाग लिया होगा परन्तु आज उनके नामोल्लेख या अन्य पुष्ट प्रमाणों के अभाव में केवल अनुमान का ही आश्रय लेकर संतोष करना पड़ रहा है। उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर स्वामी के अहिंसा परमोधर्म के सिद्धान्त का कठोरता से पालन करने वाले, कोमल एवं शांत विचार के अनुयायी जैन सम्प्रदाय के लोग आवश्यकता पड़ने पर शत्रु का मुकाबला करने के लिए मोर्चा संभालने का कार्य भी सहर्ष स्वीकार करते थे युद्ध की विकरालता और भयंकरता उनको भयभीत नहीं करती थी कोमलविस और प्रवृत्ति का स्वाभाविक गुण होने के बावजूद युग की मांग के अनुरूप अपने जीवन में परिवर्तन को स्वीकार कर रण-रंग में डूब जाना ही सच्चे धीर की पहचान है। नमो अरिहंताण' का जाप जपने वाले शंखनाद कर शत्रुदल का संहार करने को भी तत्पर हो जाये यही तो भारतीय संस्कृति की विशेषता है । 1 DIDIG दो विचारों में परस्पर विरोधाभास की अपेक्षा सामंजस्य स्थापित करने की प्रवृत्ति हमारी संस्कृति की आधारभूत विशेषता है। इसी के फलस्वरूप जहाँ एक ओर पुरातन परम्पराओं का संरक्षण हुआ है वहीं दूसरी ओर नवीन परम्पराओं का सदैव स्वागत जब तक यह तस्य विद्यमान रहेगा जग में हिन्दुस्तान की संस्कृति सर्वोत्कृष्ट समझी जाती रहेगी और विषम से विषम परिस्थितियों में भी अपना अस्तित्व कायम रखने में सक्षम होगी। इस देश के सांस्कृतिक सरोवर में विभिन्न अंचलों से विविधरूपा पारम्परिक धाराओं के सतत प्रवाहित होते रहने और भारतीय संस्कृति की श्रीवृद्धि की कामना करता हूँ । १. सूरजप्रकास, भाग ३ (संपादक - सीतारामलालस) में वर्णित कथ्य के आधार पर ये नाम उल्लिखित किये गये हैं । . Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के जैन वीर 0 श्री शम्भूसिंह "मधु" ४ सीताफल गली, गणेशघाटी, उदयपुर (राज.) जिस प्रकार ज्ञान, भक्ति, कला, साहित्य, विज्ञानादि प्रभृति प्रतिभा-गुण किसी देश, समाज, जाति, रक्त, वर्ण व व्यक्ति की धरोहर नहीं है, उसी प्रकार वीरता भी मनुष्य का सहज धर्म है, जो समय-समय पर धरती के सभी स्थानों और मानव के सभी कुल-समुदायों में अपने शौर्य और पराक्रम का परिचय देता रहा है । युगयुगीन मानव और अनन्त काल-धारा का जब से परिचय हुआ तब से पता नहीं किन-किन मनुष्यों ने कब-कब कैसी-कैसी अद्भुत वीरता का परिचय दिया ? सभ्य समाजों का अपने द्वारा संकलित इतिहास तो बहुत बाद का, बहुत छोटा दस्तावेज है। आज का सभ्य मनुष्य जो कल मात्र आदिमानव था, कैसे-कैसे विकराल जानवरों की हिंसा को अपनी वीरता से पार कर सभ्यता के पहले पड़ाव तक पहुँचा है। अपने अस्तित्व को बचाये रहने की बलवती भावना ही तब उसकी वीरता थी। मेवाड़ वीरभूमि है और जैन-धर्म वीरधर्म। यहाँ दोनों का जैसा मणिकांचन संयोग हुआ वैसा अन्यत्र शायद कम हुआ होगा । अहिंसा पर आधारित जैन धर्म वस्तुत: क्षत्रिय धर्म है । वैदिक धर्म के प्रथम पूर्ण मानव अवतार और जैन धर्म के आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव ने 'विश्व-मानव' के लिए 'असि, मसि, कृषि' कर्म की जो व्यवस्था आरम्भ व स्थापित की, उसमें 'असि' अर्थात् तलवार राज्य व सुरक्षा की प्रतीक है। जैन-धर्म के 'कम्मे सूरा सो धम्मे सूरा जैसे आदि सिद्धान्त-वाक्य मनुष्य के ओज को इंगित करते हैं । ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर और भावी तीर्थकर पद्मनाभ आदि सभी का क्षत्रिय कुलोत्पन्न होना आदि जैनधर्म के वीर धर्म होने के पूर्ण प्रमाण है। इससे अधिक किसी धर्म में वीरता की स्वीकृति व पुष्टि नहीं मिलेगी। जैन धर्म की पौराणिक साहित्य में अनेक महत्त्वपूर्ण जैन वीरों द्वारा युद्धों के माध्यम से राज्यों की स्थापना करना, राज्यों को जीतने व राज्यों की रक्षा करने के उल्लेख मिलते हैं। किन्तु मेवाड़ में जैन वीरों द्वारा राज्य भार ग्रहण करने हेतु नहीं अपितु लोक-स्वतन्त्रता व लोक-जीवन की रक्षा हेतु युद्ध करने, युद्धों में सहयोग करने के अनेक उदाहरण व प्रमाण मिलते हैं । यद्यपि इन युद्धों में जैन वीरों की प्रथम भूमिका नहीं है, किन्तु निस्सन्देह प्रथम से अधिक महत्त्वपूर्ण व प्रशंसनीय भूमिका है। मेवाड़ के कतिपय जैन वीर तो ऐसे हए हैं, जिन्होंने अपने वीरता, बल, बुद्धि-कौशल और धन-वैभव से क्षत्रियों के समान ही मेवाड़ की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव की रक्षा की है। जाल मेहता-मेवाड़ के जैन वीरों में शोध के बाद प्रथम ज्ञात नाम जाल मेहता का आता है। जाल मेहता जालोर के शासक मालदेव चौहान के दीवान थे तथा जब मालदेव मुगल शासकों की सेवा में दिल्ली जाते, अथवा युद्ध अभियानों में भाग लेते अथवा मुगल शासक उनका कूटनीतिक कार्यों में अन्यत्र उपयोग करते तब जालोर का सारा शासन और प्रशासन जाल मेहता ही सम्भालते। इस प्रकार मालदेव चौहान अपने दीवान जाल मेहता की योग्यता पर पूर्णत: निर्भर एवं आश्वस्त थे। ___अलाउद्दीन खिलजी ने जब मेवाड़ राज्य की प्रथम ऐतिहासिक राजधानी चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया तब मेवाड़ के प्रथम राजवंश के रावल शासकों ने दुर्ग की रक्षा में वीरतापूर्वक अपनी सम्पूर्णाहुति दे दी। इतनी कठिनाई से -० Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के जैन वीर १३५ . ...... ............................-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-........... जीते गये चित्तौड़गढ़ दुर्ग को राजपूत शक्ति का पुन: केन्द्र बनने से रोकने के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने अपने पुत्र खिज्र खां खिलजी को चित्तौड़ का शासक बनाकर चित्तौड़ नगर का नाम ही खिज्राबाद कर दिया और खिज्र खां की सहायता के लिए अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर के मालदेव चौहान को चित्तौड़ का किलेदार बनाया। किन्तु शीघ्र ही खिलजियों के विरुद्ध तुगलकों ने युद्ध छेड़ दिया। तब खिज्रखां अपने वंश और साम्राज्य की सहायता के लिये चित्तौड़ दुर्ग का सारा भार मालदेव पर छोड़कर दिल्ली चला गया। किन्तु युद्ध में खिलजियों की हार हुई और तुगलक साम्राज्य के नये शासक बने। किन्तु चित्तौड़ में पुन: राजपूत शक्ति की सम्भावना देखते हुए मुहम्मद शाह तुगलक ने पुन: चित्तौड़ को जीता। पर खिलजी वंश की भाँति तुगलक वंश भी देश के शासन में अल्पकालीन सिद्ध हुआ। दिल्ली अपने ही संघर्षों में केन्द्रित और लिप्त होती जा रही थी तथा दिल्ली से किसी प्रकार की सहायता व सुरक्षा नहीं मिलने से मालदेव बड़ा निराश हआ। इधर दिल्ली के संघर्षों का लाभ उठाकर रावलों के छोटे भाइयों की सिसोदिया शाखा का सिसोदा निवासी नवयुवा हमीर सक्रिय हुआ। तब मालदेव ने अपनी पुत्री का विवाह हमीर से कर दिया। नववधू ने सुहाग-रात में ही हमीर से कहा-'यदि आप अपने पूर्वजों का चित्तौड़ राज्य प्राप्त करना चाहते हैं तो आप मेरे पिता से दहेज में धन-वैभव मांगने के बजाय जाल मेहता को माँग लेना । जाल मेहता आपका मनोरथ पुरा कर देंगे।' हमीर ने ऐसा ही किया और जाल मेहता चित्तौड़ आ गये तथा मालदेव की ओर से किले का काम देखने लगे। किले में मालदेव के सैनिकों के अतिरिक्त प्रहरी के रूप में सामान्य मुस्लिम सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी रहती थी। जब हमीर के पहला पुत्र क्षेत्रसिंह हुआ तब उपयुक्त अवसर मानकर जाल मेहता ने एक योजना बनायी। जिसके अनुसार हमीर को प्रात:काल कुलदेवी की पूजा के लिये दुर्ग में प्रवेश होने देना था। योजना के अनुसार हमीर अपनी छोटी सी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित सेना लेकर रात को ही किले के द्वार पर पहुँच गया और जाल मेहता ने आधी रात को ही दुर्ग का द्वार खोलकर हमीर व उसकी सेना को किले में प्रवेश करा दिया। हमीर ने रात्रि में ही चित्तौड़ का दुर्ग जीत लिया और प्रातःकाल उसने अपने मेवाड़ के राजवंश का ध्वज दुर्ग पर फहराया तथा चित्तौड़ का खिज्राबाद नाम रद्द कर पुनः चित्तौड़ रखा और जाल मेहता को अपना दीवान नियुक्त किया। यही हमीर मेवाड के वर्तमान राणा राजवंश का प्रथम शासक था। इस प्रकार राजपूतों के हाथ से खोये हुए चित्तौड़ को पुनः राजपूतों को दिलाने वाला जाल मेहता स्थायी रूप से मेवाड़ में ही बस गया और उसके वंशधरों को मेवाड़ के राणाओं ने अनेक सामरिक एवं ऐतिहासिक महत्त्व के किलों का किलेदार एवं अन्य उच्च गरिमामय प्रशासनिक पदों पर रखा। जाल मेहता के वंशज आज भी मेवाड़ की अन्तिम ऐतिहासिक राजधानी उदयपुर में निवास करते हैं। इसी वंश के वर्तमान में जीवित वयोवृद्ध स्वतन्त्रता सेनानी मा० श्री बलवन्तसिंह मेहता ने मेवाड़ प्रजा-मण्डल का प्रथम संस्थापक-अध्यक्ष बनकर मेवाड़ में अंग्रेजों एवं सामन्तों की गुलामी के विरुद्ध स्वतन्त्रता का ऐतिहासिक संघर्ष किया और कई बार जेलों का कठोर जीवन जीया । आप गांधीजी के भी निकट सम्पर्क में आये तथा देश को स्वतन्त्रता मिलने पर संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य, राजस्थान सरकार के मन्त्री एवं प्रथम लोक सभा के विजयी संसद सदस्य रहे । कर्माशाह-अपने पिता राणा रायमल की तरह राणा सांगा ने भी मुगलों के विरुद्ध स्वतन्त्रता संघर्ष करने वाले कई क्षत्रिय एवं अन्य जातियों के वीरों को मेवाड़ राज्य में आमन्त्रित करने की नीति का अनुसरण किया और वह अलवर से भारमल कावड़िया तथा कर्माशाह को आग्रहपूर्वक चित्तौड़ लाया तथा युवा कर्माशाह को अपना दीवान नियुक्त किया। कर्माशाह अत्यन्त धनाढ्य व्यापारी था तथा अपनी सारी धन-सम्पदा वह चित्तौड़ ले आया। किन्तु निरन्तर युद्धों में रत रहने से मेवाड़ की निर्बल आर्थिक दशा वह जानता था तथा अपने स्वामी राणा सांगा की मुगलों के | Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड आधिपत्य से भारत को स्वतन्त्र कराने की महत्वाकांक्षा से वह परिचित था। अतः वह समझता था कि मेवाड़ में निरन्तर बढ़ाई जा रही सैन्य संख्या और भारी युद्धों के व्यय में धन की सदैव अत्यधिक आवश्यकता रहेगी। इसलिए कर्माशाह ने दीवान के पद पर कार्य करते हुए भी अपने निजी धन की पूँजी से चित्तौड़ में अपना व्यवसाय स्थापित किया और वह न केवल देश में अपितु बंगाल की खाड़ी द्वारा चीन तक अपना निर्यात का व्यवसाय कर धन अर्जित करता । यही कारण है कि जब राणा सांगा ने गुजरात, मालवा और दिल्ली के निकट क्षेत्र के सूबेदारों से युद्ध कर उन्हें पराजित किया तब और मेवाड़ के राजवंश में सबसे विशाल सेना रखी तब भी मेवाड़ राज्य में कभी धन की कमी नहीं आयी । गुजरात के शासक मुहम्मद शाह ने जब अपने पुत्र बहादुरशाह को गुजरात से निकाल दिया तब बहादुरशाह राणा सांगा के आश्रय में चित्तोड़ आया । सांगा ने उसे अपने पुत्रवत् आश्रय दिया। जब बहादुरशाह ने अपने पिता के विरुद्ध युद्ध करने की इच्छा जाहिर की तब कर्माशाह ने बहादुरशाह को एक लाख रुपये का सामान और खर्चे के लिये एक लाख रुपये नकद की सहायता की । बहादुरशाह जब गुजरात का शासक बना तब उसने वित्तौड़ में कर्माशाह को सन्देश भिजवाया कि 'वह अब अपने कर्ज का रुपया लौटाना चाहता है और कर्माशाह के किसी वचन को पूरा कर उनके उपकार का बदला चुकाना चाहता हैं ।' कर्माशाह ने उत्तर भिजवाया कि - 'मेरे पास धन की कमी नहीं है इसलिए मैं अपना दिया हुआ धन वापस नहीं लेना चाहता हूँ। मैंने उसे ऋण मानकर नहीं दिया अपितु एक साहसी व्यक्ति को उसके न्याय के संघर्ष में सहयोग हेतु दिया। फिर भी मैं बहादुरशाह की इस भावना की प्रशंसा करता हूँ और दो वचन लेना चाहता हूँ । एक तो यह कि मुस्लिम शासकों ने पाटण में जितने जैन मन्दिर तोड़े हैं, उनका मैं जीर्णोद्धार करवाना चाहता हूँ। दूसरा यह कि गुजरात राज्य में आपके वंशज मुस्लिम शासक भविष्य में कभी किसी मन्दिर को नहीं तोड़ेंगे ।' बहादुरशाह ने कर्माशाह के ये दोनों वचन सहर्ष स्वीकार कर लिये । कर्माशाह ने उस समय करोड़ों रुपया खर्च कर पाटण के (११००) ग्यारह सौ जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया और बहादुरशाह के वंशज गुजरात के मुस्लिम शासकों ने फिर कभी किसी मन्दिर को नहीं तोड़ा। ये मन्दिर आज भी विद्यमान हैं तथा जैन मतावलम्बियों का प्रमुख तीर्थ केन्द्र हैं। इनकी भव्यता आज भी कर्माशाह के युग के उत्कृष्ट शिल्प से दर्शकों का मन मोह लेती है। भारमल कावड़िया - अलवर निवासी भारमल कावड़िया अत्यन्त धनाढ्य व्यापारी था और राणा सांगा के विशेष आग्रह से अपनी सम्पूर्ण धन-सम्पदा सहित चित्तौड़ आकर मेवाड़ राज्य की सेवा में समर्पित हुआ था । सांगा ने भारमल को सामरिक महत्व के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक दुर्ग रणथम्भोर का किलेदार नियुक्त किया। सांगा ने भारमल को रणथम्भोर के निकट एक लाख रुपये की जागीरी दी, अपना प्रथम श्रेणी का सामन्त बनाया एवं अपने महल के पास हवेली बनवाकर देकर उसे विशेष रूप से सम्मानित किया। अपनी मृत्यु के पूर्व सांगा ने भारमल को अपने दो छोटे पुत्रों, विक्रमादित्य एवं उदर्यासह का अभिभावक भी नियुक्त किया । सांगा की मृत्यु के बाद उनकी विधवा रानी कर्मावती को यह आशंका हुई कि कहीं नया राणा रतनसिंह उसके दोनों अवयस्क पुत्रों को मरवा न दे। इसलिए कर्मावती ने बाबर से सन्धि करने का विचार किया और अपने सम्बन्धी बिजौलिया के सामन्त अशोक को बाबर के पास यह सन्धि प्रस्ताव लेकर भेजा कि यदि बाबर हमें रणथम्भोर के बराबर ७० लाख की जागीर दे देगा तो हम रणथम्भोर का किला और उसकी इतनी ही बड़ी जागीर बाबर को दे देंगे ।' बाबर ने इस अप्रत्याशित सन्धि प्रस्ताव का हृदय से स्वागत किया और वह रणथम्भोर के बदले शाहाबाद की ७ लाख की जागीर देने को तैयार हो गया तथा उसने अशोक को कहा कि यदि रानी कर्मावती सन्धि के अनुसार मेरी बात को मानती रहेगी तो मैं भविष्य में विक्रमादित्य वा उदयसिंह को, जिसे रानी पाहेगी, चित्तौड़ का राणा बना दूँगा ।' साथ ही बाबर ने रणथम्भोर दुर्ग को खाली करवाकर अपने अधिकार में लेने के लिए अपने विश्वस्त सेवक हमूसी के पुत्र देवा को कुछ सेना रणथम्भोर रवाना कर दिया । . Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के जैन वोर १३७ किलेदार भारमल कर्मावती की बाबर के साथ इस गुप्त संधि से अनभिज्ञ था। इसका रहस्योद्घाटन तब हुआ जब देवा ने भारमल को किला सौंप देने की बात कही। भारमल दिन व दिन कमजोर होते मेवाड़ राज्य को देख रहा था । वह इस सन्धि के पीछे छिपी बाबर की मंशा भी समझ रहा था कि यदि मेवाड़ राज्य के सीमा-प्रान्त पर स्थित रणथम्भोर का किला एक बार बाबर के हाथ में आ गया तो यह उभरते हुए मुगल साम्राज्य के लिए मेवाड़ राज्य में प्रवेश का स्थायी द्वार बन जायेगा । इसलिये भारमल ने देवा को दृढ़तापूर्वक इन्कार करते हुए कहा कि 'मुझे राणा सांगा ने इस किले का किलेदार बनाया है और विक्रमादित्य एवं उदयसिंह का अभिभावक बनाया है। इन सबकी सुरक्षा की जिम्मेदारी मुझ पर है। रानी सन्धि करने वाली कौन होती है ?' देवा के लाख प्रयत्न करने पर भी भारमल अपने निश्चय पर अडिग रहा । तब अन्तत: देवा को खाली हाथ वापस लौटना पड़ा । बाबर द्वारा लिखित अपनी 'आत्म-कथा' 'बाबरनामा' में रानी कर्मावती के सन्धि प्रस्ताव का बाबर ने उल्लेख किया। किन्तु इस सन्धि के भंग होने या असफल रहने के सम्बन्ध में बाबर व बाबरनामा, दोनों ही मौन हैं । चूंकि इस सन्धि में बाबर की असफलता है तथा भारमल का देशभक्तिपूर्ण साहस है। रतनसिंह, विक्रमादित्य व बनवीर के अल्प शासनकाल में उत्तराधिकारी के युद्ध राजघराने के आपसी गृहकलह में जब रणथम्भोर मेवाड़ राज्य के हाथ से निकल गया तब उसके साथ भारमल की जागीरी भी जाती रही। इन तीनों अल्पकालीन शासकों के काल में भारमल चित्तौड़ में अपने तलहटी वाले मकान में आकर शान्तिपूर्वक रहने लगा। जब महाराणा उदयसिंह गद्दी पर बैठा तथा उसके हाथ में पुन: चित्तौड़ का दुर्ग आया तब उदयसिंह ने भारमल की देशभक्ति, त्याग और महत्त्वपूर्ण सेवाओं को देखते हुए भारमल को पुनः १ लाख की जागीरी का सम्मान, किले के पास बाली हवेली में निवास व प्रथम श्रेणी के सामन्त पद से समाइत किया। बाबर की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी हुमायूं को भारत की सीमा से बाहर जाने को विवश कर देने वाले अफगान वीर शेरशाह ने चित्तौड़ दुर्ग को जीतने के लिए कूच किया और उसने अपनी सेना सहित चित्तौड़ के पास पड़ाव डाल दिया। मेवाड़ युद्ध करने की स्थिति में नहीं था और यदि युद्ध होता तो न केवल मेवाड़ की हार होती. अपितु मेवाड़ की बची-खुची शक्ति भी नष्ट हो जाती। ऐसे गहरे सकट में भारमल ने पुन: मेवाड़ का उद्धार किया । भारमल ने शेरशाह के सामने चित्तौड़ दुर्ग की चाबी रखते हुए कहा कि-"यदि आप दुर्ग पर अधिकार करना चाहते हैं तो सहर्ष कीजिये, इसके लिये किसी युद्ध या रक्तपात की जरूरत नहीं है। हमारा आपसे कोई विरोध नहीं है। हमारा विरोध तो उन तुर्क लोगों से है, जो विदेशी हैं और भारत को पददलित करना चाहते हैं। आप और हम तो भारतीय हैं । किला चाहे हमारे पास रहे या आपके पास, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता।" भारमल के तर्क को सुनकर शेरशाह इतना सन्तुष्ट हुआ कि उसने प्रसन्नता से दुर्ग की चाबी वापस भारमल को लौटा दी तथा मेवाड़ से अपना मैत्रीभाव मानते हुए वह यहाँ से बिना युद्ध किये लौट गया। सन्दर्भ का यदि थोड़ा सा अन्तर स्वीकार कर लिया जाये तो यह सिकन्दर और पौरुष से कम महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रसंग नहीं है। __ अलवर में अपने निवास तक भारमल तपागच्छ का अनुयायी था। मेवाड़ में आने पर भारमल ने लोकागच्छ स्वीकार कर लिया था । तत्कालीन जैन साधु व लोक कवि श्री हेमचन्द्र रत्नसूरि ने भामाशाह व ताराचन्द के कृतित्वव्यक्तित्व पर 'भामह बावनी' की रचना की है। जिसमें भारमल को धरती के इन्द्र के समान वैभवशाली व वृषभ के समान विशाल देहयष्टि का बलिष्ठ व धैर्यवान् पुरुष बतलाया गया है। भामाशाह कावड़िया भामाशाह कावड़िया वीर भारमल कावड़िया का पुत्र था। भामाशाह का जन्म १५४७ ई० में हुआ। यद्यपि आयु में भामाशाह प्रताप से ७ वर्ष छोटे थे तथापि बाल्यकाल से ही प्रताप के निकट सम्पर्क में रहते थे तथा अपने पिता उदयसिंह के शासन काल में प्रताप अपना अधिकांश समय चित्तौड़ दुर्ग पर रहकर भारमल कावड़िया के किले की तलहटी वाले मकान में भामाशाह के साथ बिताते थे और भामाशाह आखेट, शस्त्र संचालन आदि खेलों में प्रताप के साथ ही अभ्यास करते थे। Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड .......................................................................... अकबर के पहले आक्रमण के समय भामाशाह अपने अवयस्क भाई ताराचन्द सहित प्रताप के साथ चित्तौड़ से उदयपुर आ गये । युद्ध में भारमल के वीर गति प्राप्त करने से भामाशाह प्रताप के साथ स्थायी रूप से रह गये। प्रताप ने अपने पिता द्वारा घोषित मेवाड़ राज्य के उत्तराधिकारी जगमाल को सत्ताच्युत कर मेवाड़ की राज्य गद्दी प्राप्त की तब उन्होंने १ वर्ष बाद रामासहसाणी के बजाय भामाशाह को अपने दीवान के पद पर प्रतिष्ठित किया। मेवाड़ में शीतला सप्तमी पर दीवान द्वारा राणा को भोज देने की परम्परा थी। भामाशाह ने इस अवसर पर प्रताप को प्रथम भोज उदयपुर की मोतीमगरी पर देकर आमन्त्रित सरदारों को दोने भरकर मोती भेंट किये। जिससे इस पहाड़ी का नाम मोतीमगरी पड़ा। फतहसागर झील के किनारे स्थित इस मोतीमगरी पर प्रताप का राष्ट्रीय स्मारक बनाया गया है। प्रताप के गद्दी पर बैठने के तीन वर्ष पश्चात् १५७६ ई० में इतिहासप्रसिद्ध हल्दीघाटी के युद्ध में भामाशाह ने प्रताप की सेना के हरावल के दाहिने भाग का नेतृत्व किया। भामाशाह के साथ उसके भाई ताराचन्द ने भी इस युद्ध में भाग लिया और युद्ध आरम्भ होते ही दोनों भाइयों ने योजनाबद्ध ढंग से इतनी तेजी से मुगल सेना की बांयी हरावल पर आक्रमण किया कि मुगलों का युद्धव्यूह ध्यस्त हो गया और न केवल मुगलों की बायी हरावल के पाँव उखड़ गये बल्कि वे अपने प्राणों की रक्षा में अपनी दायी हरावल की ओर तेजी से भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग खड़े हुए। युद्ध में निश्चित दिखाई दे रही अपनी विजय के उत्साह में अपना घोड़ा मुगल सेना के मध्य भाग में बढ़ाकर जब प्रताप चारों ओर से मुगल सेना से घिर गये तब सादड़ी के झाला मान द्वारा मुगलों को भ्रमित किया गया एवं प्रताप के मुख्य सेनापति हकीम खाँ सूर ने अपने प्राणों को हथेली पर लेकर प्रताप को शत्रुओं के चक्रव्यूह से सुरक्षित निकाल लिया और उनके घोड़े की लगाम भामाशाह के हाथ में दे दी। भामाशाह घायल प्रताप को कालेड़ा ले गया जहाँ युद्ध से पूर्व मेवाड़ की सेना ने अपना पड़ाव डाला था। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद प्रताप के समय के अन्य दो-दीवेर एवं चावण्ड के इतिहासप्रसिद्ध युद्धों में युवराज अमरसिंह के साथ भामाशाह ने सेना का नेतृत्व किया और वीरतापूर्वक युद्ध-कौशल से दोनों युद्धों में विजयश्री प्राप्त की। प्रताप के राज्य में दो बार भीषण दुभिक्ष पड़ने पर भामाशाह ने मालवा को लूटा और अकाल व सुखाग्रस्त लोगों को अनाज एवं धन देकर जनता की रक्षा की तथा राजकोष को समृद्ध किया। प्रताप की दुर्घटनाग्रस्त मृत्यु के पश्चात् भामाशाह ने गुजराज में लूटपाट कर मेवाड़ के राजकोष की धनाभाव से रक्षा की और अमरसिंह को राज्य संचालन में अपने अनुभव में सदैव मार्गदर्शन दिया। भामाशाह ने अपना सर्वस्त्र मेवाड़ के राजवंश को समर्पित कर दिया था और वे प्रताप की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी महाराणा अमरसिंह को भी मेवाड़ राज्य के दीवान के रूप में सर्वसमर्पित सहयोग देते रहे। अमरसिंह ने अपनी नई राजधानी उदयपुर में राजवंश के परिजनों के लिये अपने द्वारा आयड के पास जो दाहस्थल 'महासत्या' बनवाया भामाशाह की मृत्यु पर उसके बाहर भामाशाह का दाह संस्कार कर उनकी स्मृति में एक छतरी बनवायी और अमरसिंह ने स्वयं की मृत्यु पर भामाशाह की छतरी के पास ही अपना दाह संस्कार करने एवं छतरी बनवाने का आदेश देकर भामाशाह को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। आज भी राजपरिवार के दाह स्थल के बाहर ध्वंसावशेष ये दोनों जीर्णशीर्ण छतरियाँ महाराणा अमरसिंह एवं भामाशाह की याद दिलाती हैं। भामाशाह का निधन का प्रताप की मृत्यु के तीन वर्ष बाद ६०० ई० में हुआ। ताराचन्द-ताराचन्द भारमल कावड़िया का द्वितीय पुत्र एवं भामाशाह का छोटा भाई था। यह भी अपने Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के जैन वीर १३६. . ....................... पिता और बड़े भाई के समान अद्भुत गुणों और वीरता से भरा राजपुरुष था। हल्दीघाटी के युद्ध में ताराचन्द ने मेवाड़ की सेना के हरावल के दाहिने भाग में अपने भाई भामाशाह के साथ नेतृत्व व युद्ध किया था। प्रताप ने अपने अन्तिम समय में जब सारा ध्यान नई राजधानी उदयपुर में केन्द्रित कर दिया तब कुम्भलगढ़ व देसुरी के पिछले भाग में मारवाड़ के राठौड़ निरन्तर उत्पात मचाते थे। इस स्थिति पर नियन्त्रण के लिये प्रताप ने ताराचन्द को नियुक्त किया और ताराचन्द ने अपने युद्ध-कौशल एवं कूटनीति से उस सारे क्षेत्र को राठौड़ों से मुक्त कर उसे मेवाड़ राज्य का अभिन्न अंग बना दिया। ताराचन्द की सफलता पर प्रताप ने ताराचन्द को इसी गोड़वाड़ क्षेत्र का प्रशासक नियुक्त कर दिया। ताराचन्द एक स्वतन्त्र प्रकृति का वीर पुरुष था और गोडवाड़ में एक स्वतन्त्र शासक की तरह जनता में लोकप्रियता से राज्य चलाता था । ताराचन्द ने साहित्य, संगीत और ललितकलाओं के विकास और उन्नयन के लिये साहित्यकारों को पूर्ण आश्रय एवं संरक्षण दिया । उसने जनता में वीर भावना का संचार करने के लिये जैन साधु लोक कवि हेमचन्द्र रत्नसूरि से 'गोरा बादल पद्मणि चऊपई' कथा की रचना करवाकर उसे गाँव-गाँव में प्रचारित करवाया। इस जैन कवि ने 'भामह बावनी' की रचना की जिसके ५२ छन्दों में भारमल, भामाशाह व ताराचन्द के कृतित्व-व्यक्तित्व का काव्यात्मक परिचय मिलता है। इसी बावनी की परम्परा में आगे चलकर रीतिकाल के प्रमुख वीर रस के कवि भूषण ने अपने आश्रयदाता शिवाजी पर 'शिवा बावनी' की रचना की। अलवर से मेवाड़ में आने के बाद भारमल तपागच्छ के बजाय लोकागच्छ का अनुयायी बन गया था। इसलिये भामाशाह ने अपने दीवान पद के कार्यकाल में और ताराचन्द ने अपने गोडवाड़ के प्रशासक पद के कार्यकाल में जैन धर्म के लोक प्रचार-प्रसार में भरपूर योगदान दिया। दोनों भाइयों के प्रयत्न से मेवाड़ में अनेक नये जैन ग्रामों की स्थापना हुई जिनमें 'भिंगरकपुर' उल्लेखनीय है, जो वर्तमान में भीण्डर है। भारमल, भामाशाह एवं ताराचन्द की सेवाओं के देखते हुए मेवाड़ के राजवंश ने इस कुल के उत्तराधिकारी को मेवाड़ राज्य के दीवान पद पर प्रतिष्ठित करने का स्थायी कुलाधिकार प्रदान किया और तदनुसार जीवाशाह व रूपाशाह आदि भामाशाह के पुत्र-पौत्र मेवाड़ राज्य के दीवान रहे। मेवाड़ के महाराणाओं ने भामाशाह के वंश की सामाजिक प्रतिष्ठा के लिये समस्त जैन कुलों के भोज, उत्सव, पर्व आदि में भामाशाह के वंशज का प्रथम अभिषेक-तिलक, प्रथम सम्मान एवं प्रथम भोजन का विशेषाधिकार दिया तथा अन्य प्रभावशाली ओसवाल कुलों द्वारा इस परम्परा पर आपत्ति किये जाने पर महाराणा सज्जनसिंह एवं महाराणा फतहसिंह ने भी भामाशाह ने वंशजों की इस प्रतिष्ठा को यथावत् रखने के पुन: आदेश दिये। ___ भारमल, भामाशाह एवं ताराचन्द आदि की सेवाओं के कारण ही मेवाड़ राज्य में जैन धर्म को राजधर्म के समान प्रश्रय व सम्मान प्राप्त हुआ। आज समूचा मेवाड़ प्रान्त प्रसिद्ध जैन मन्दिरों, जैन आचार्यों एवं जैन उपाश्रयों का संगम केन्द्र हैं तथा प्रायः सभी जैन महामात्यों के कारण मेवाड़ में जैन धर्म का काफी विकास एवं प्रसार हुआ। रंगोजी बोलिया--रंगोजी बोलिया भी एक ऐसा अनूठा राजपुरुष है जिसकी कूटनीतिक सफलताओं ने एक हजार वर्ष से संघर्ष कर रहे मुगल व मेवाड़ के राजवंशों को परस्पर मैत्री भाव के सूत्र में बाँध दिया । युवराज कर्णसिंह और शाहजादे सलीम के बीच उदयपुर के जलमहल 'जगनिवास' में जो सन्धि हुई, उसका सूत्रपात रंगोजी बोलिया ने ही किया था। यह दो राजवंशों के बीच स्वाभिमानपूर्वक समान सम्मान की सन्धि थी जिसमें कर्णसिंह और सलीम ने परस्पर पगड़ी बदलकर आपसी भाईचारा स्थापित किया था और इस सन्धि की साक्षी के रूप में शहजादे सलीम ने एक कपड़े पर अपनी पूरी हथेली का केसर का पंजा अंकित किया था। सलीम की यह ऐतिहासिक पगड़ी आज भी राजमहल के संग्रहालय में सुरक्षित है। महाराणा अमरसिंह ने इस सन्धि की सफलता से प्रसन्न होकर रंगोजी बोलिया को चार गाँव, हाथी का होदा Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड व दीवान का पद प्रदान कर अपने प्रथम श्रेणी के सामन्तों में विभूषित किया। रंगोजी बोलिया ने ही महाराणा अमरसिंह के राजदूत के रूप में दिल्ली दरबार में उपस्थित होकर शहजादे सलीम के बादशाह जहाँगीर बनने पर मेवाड़ की बधाई दी और बादशाह जहाँगीर से महाराणा अमरसिंह एवं मेवाड़ की नयी राजधानी उदयपुर के निर्माण के लिये हीरे-जवाहरातों की अमूल्य भेंट स्वीकार की। यद्यपि रंगोजी बोलिया मेवाड़ राज्य के प्रमुख राजनयिक के रूप में दिल्ली दरबार की गतिविधियों में मेवाड़ राज्य का प्रतिनिधित्व करता था तथापि मेवाड़ राज्य के दीवान के रूप में भी उसने प्रथम बार मेवाड़ के गाँवों का सीमांकन एवं सामन्तों की सीमाएँ निश्चित कर मेवाड़ राज्य को सुदृढता प्रदान करने के उल्लेखनीय कार्य किये। दिल्ली दरबार में रंगोजी बोलिया की सफल राजनयिक भूमिका से प्रसन्न होकर जहाँगीर ने रंगोजी बोलिया को ५२ बीघा जमीन देकर सम्मानित किया। सिंघवी दयालदास - सिंघवी दयालदास मेवाड़ के राजपुरोहित की निजी सेवा में था। दयालदास का विवाह उदयपुर के पास देवाली गाँव में हुआ था। उसने अपने स्वामी राजपुरोहित से अपनी पत्नी का गौना लाने के लिये अवकाश की माँग की एवं सुरक्षा के लिये किसी शस्त्र की मांग की। राजपुरोहित ने उसे अपनी निजी कटारी देकर अवकाश की स्वीकृति दे दी। दयालदास सकुशल अपनी ससुराल देवाली गाँव पहुँच गया और वहाँ उसका अच्छा स्वागत-सत्कार किया गया। भोजन के उपरान्त विश्राम के समय उसके मन में पता नहीं क्या विचार आया कि उसने राजपुरोहित की कटारो का गुप्त खण्ड खोलकर देखा । उसमें उसे एक कागज मिला । उस कागज को पढ़ते ही चौंक गया और पत्नी का गौना छोड़ सीधा ही राजदरबार में महाराणा राजसिंह की सेवा में उपस्थित हुआ और उन्हें वह कागज दे दिया। महाराणा ने तत्काल राजपुरोहित और अपनी छोटी रानी को बन्दी बनवा लिया। उक्त कागज में एक ऐसे षड्यन्त्र की रूपरेखा थी जिसके अनुसार छोटी रानी के पुत्र को राजगद्दी पर बिठाने के लिये राजपुरोहित एवं छोटी रानी ने महाराणा राजसिंह की हत्या करना सुनिश्चित किया था। महाराणा ने दयालदास को तत्काल अपनी निजी सेवा में रख लिया। कुछ ही समय में महाराणा के प्रति अपनी विश्वसनीयता और योग्यता से निरन्तर पद-वृद्धि प्राप्त करते हुए दयालदास मेवाड़ राज्य का दीवान बन गया। ___ बादशाह और गजेब ने जब महाराणा राजसिंह के विरुद्ध मेवाड़ राज्य पर आक्रमण किया तब मुगल सेना ने लोगों को कत्ल कर, लूट-पाट कर और मन्दिरों को तोड़कर मेवाड़ को गम्भीर मानवीय, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक क्षति पहुँचाई । इसी समय कहते हैं एक मुगल टुकड़ी के हाथ में सिंघवी दयालदास की एक मात्र बहिन पड़ गयी और वह मुगल टुकड़ी मेवाड़ के दीवान की बहिन का अपहरण कर ले गयी। दयालदास पर अपनी बहिन के अपहरण का बहुत प्रभाव पड़ा। क्रोध एवं क्षोभ में उसने अपनी माता, पत्नी, पुत्री आदि कुल की सभी स्त्रियों को मौत के घाट उतार दिया और औरंगजेब के आक्रमण का बदला लेने के लिये उसने अपनी सेना के साथ मालवा की ओर कूच किया। मालवा पर भीषण आक्रमण कर उसने असंख्य मुगलों को मौत के घाट उतार दिया। मुगल थानों को तहस-नहस कर उसके स्थान पर मेवाड़ के थाने स्थापित कर दिये। मुगल बस्तियों में आग लगा दी और सम्पन्न मुगलों का सारा धन व आभूषण लूट लिये। मालवा से लौटते समय भी वह अपने मेवाड़ राज्य की सीमा तक रास्ते भर मुगलों के विरुद्ध ऐसी ही कठोर कार्यवाही करता रहा। इस लट के अतूल धन व अलंकारों को उसने अपने पास नहीं रखा । औरंगजेब के आक्रमण से जो हिन्दु प्रजा क्षतिग्रस्त हुई थी, उसे खुले मन से उसने वह धन बाँटा और निर्धन लोगों को भी खुलकर दान दिया। शेष जो धन बचा वह भी इतना अधिक था कि ऊँटों पर लादकर दयालदास ने महाराणा राजसिंह को भेंट किया। मालवा पर आक्रमण के बाद औरंगजेब ने चित्तौड़ में मुगल सेना बढ़ा दी। महाराणा राजासह की मृत्यु के Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के जैन बीर १४१ .. .............................................................. ... . . . बाद जब महाराणा जयसिंह गद्दी पर बैठा तब चित्तौड़ से मुगलों की शक्ति को नष्ट करने के लिए सिंधवी दयालदास ने शहजादा आजम और सेनापति दिलावर खाँ की सेना पर भीषण आक्रमण किया। यद्यपि इस युद्ध में दयालदास को तात्कालिक सफलता नहीं मिली किन्तु इस युद्ध के पश्चात् चित्तौड़ में मुगल शक्ति के पाँव फिर कभी नहीं जम पाये और अन्तत: चित्तौड़, मेवाड़ राज्य की गौरवशाली प्राचीन ऐतिहासिक राजधानी के रूप में मेवाड़ राज्य का अभिन्न अंग बन गया। अपने जीवन के सारे उत्कर्ष एवं उद्देश्यों की पूर्ति व प्राप्ति के बाद सिंघवी दयालदास ने स्वेच्छा से अपने को राजकाज से मुक्त कर दिया और धर्म की शरण में अपने पराजीवन का उद्धार करने में लग गये । दयालदास के पास जो कुछ धन-सम्पत्ति थी वह उन्होंने अपने पास नहीं रखी और उससे अपने स्वामी महाराणा राजसिंह की स्मृति में कांकरोली के पास राजसंद नामक विशाल झील का निर्माण किया और झील के पास ही पहाड़ी पर एक विशाल जैन मन्दिर का निर्माण करवाया। राजसंद झील आज भी आस-पास के पचासों गांवों के सिचाई एवं पेयजल का मुख्य स्रोत है और यह जैन मन्दिर अपने वीर निर्माता दयालदास के नाम से प्रसिद्ध होकर उसकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाये हुए है। मेहता अगरचन्द-मेहता अगरचन्द जिस समय मेवाड़ राज्य की सेवा में उभर कर आया वह समय मेवाड़ राज्य का संक्रमण काल था। एक ओर मेवाड़ का राजपरिवार गृहकलह के संघर्ष में उलझा हुआ था तो दूसरी ओर मेवाड़ पर मराठों का दबाव निरन्तर बढ़ता जा रहा था। महाराणा अरिसिंह द्वितीय ने मेहता अगरचन्द को मांडलगढ़ जैसे मेवाड़ के सन्धिस्थल के सामरिक दुर्ग का किलेदार एवं राज्य कार्य का प्रशासक नियुक्त किया । इसके पश्चात् महाराणा ने मेहता अगरचन्द को अपना निजी सलाहकार और फिर मेवाड़ राज्य का दीवान नियुक्त किया। जब माधवराव सिन्धिया ने उज्जैन को घेरा तभी मेहता अगरचन्द ने महाराणा अरिसिंह को मराठों से वहीं युद्ध करने के लिये तैयार कर लिया और स्वयं युद्ध में बढ़-चढ़कर भाग लिया और वीरता का जौहर दिखाया। इस युद्ध में अगरचन्द काफी घायल हो गया । माधवराव ने अगरचन्द को कैद कर लिया पर वह माण्डलगढ़ के प्रशासनिक काल में अपने मित्र रहे रूपाहेली के सामन्त ठाकुर शिवसिंह द्वारा भेजे गये बावरियों की सहायता से माधवराव की आँखों में धूल झोंककर, मराठों की जेल से मुक्त होकर वापस सकुशल मेवाड़ आ गया । इसकी प्रतिक्रिया में जब माधवराव सिन्धिया ने अपनी मराठी सेना मे उदयपुर को घेरने का प्रयास किया तब भी मेहता अगरचन्द ने महाराणा के साथ युद्ध में भाग लिया। इसके पश्चात् मराठों ने जब टोपल मंगरी व गंगरार को घेरा तब भी मेहता अगरचन्द ने महाराणा के साथ युद्धों में भाग लेकर मराठों को मुंहतोड़ जवाब दिया। इसके बाद जब अम्बाजी इंगलिया के सेनापति गणेशपन्त ने मेवाड़ पर हमले किये तब उन सभी युद्धों में मेहता अगरचन्द ने वीरतापूर्वक भाग लेकर मराठों के विरुद्ध अपनी कठोर कार्यवाही जारी रही।। मेहता अगरचन्द को महाराणा अरिसिंह द्वितीय ने ही नहीं अपितु उसके उत्तराधिकारियों महाराणा हमीरसिंह द्वितीय एवं महाराणा भीमसिंह ने भी दीवान पद पर प्रतिष्ठित रखा और समय-समय पर उसकी योग्यता, कार्यकुशलता, दूरदर्शिता, राजनीति और कूटनीति तथा इन सबसे बढ़कर उसके सैनिक गुणों के लिए पुरस्कृत-अभिनन्दित कर उसे कई रुक्के प्रदान किये। मेहता मालदास--मेहता अगरचन्द की ही तरह उसका उत्तराधिकारी मेवाड़ का दीवान सोमचन्द गाँधी भी कठोर कार्यवाही द्वारा मेवाड़ को मराठों के आतंक से मुक्त करने का पक्षधर था। दुर्भाग्य से महाराणा भीमसिंह एक नितान्त सरल, सीधा और भोला महाराणा था और हिन्दू शक्तियों की आपसी लड़ाई-झगड़े से अपने आपको कमजोर करने की दुरभिसन्धि को वह अच्छी नहीं मातता था। मराठों ने भीमसिंह के इस स्वभाव का लाभ उठाने के लिए मेवाड़ पर अपना दबाव और बढ़ा दिया था। ऐसे समय दीवान सोमचन्द गाँधी को एक ऐसे वीर साथी की आवश्यकता थी जो अपने साहस और शौर्य से मेवाड़ को मराठों के आतंक से भयमुक्त कर सके । इस समय ड्योढ़ी वाले मेहता वंश के वीर योद्धा मेहता मालदास ने इस कार्य के लिए स्वयं को स्वेच्छा से प्रस्तुत किया। Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड ....................................................................... __ मेहता मालदास ने अपने नेतृत्व में मेवाड़ की सेना को लेकर मराठों का आतंक और दबाव समाप्त करने के लिए उदयपुर से प्रस्थान किया। इस सेना ने अपने वीर सेनापति मालदास के रण-कौशल से मराठों के सभी मुख्य ठिकानों-निम्बाहेड़ा, निकुम्भ और जीरण को जीत लिया। उसके पश्चात् ये सेना तत्कालीन मेवाड़ और मालवा के सीमा सन्धि-स्थल पर स्थित मराठों के मुख्य केन्द्र जावद को जीतने के लिये आगे बढ़ी। जावद में मराठों के प्रतिनिधि नाना सदाशिवराव ने मेहता मालदास की सेना का प्रतिरोध करने का असफल प्रयास किया और शीघ्र हो अपनी पराजय अनुभव कर कुछ शर्तों के साथ वह जावद को छोड़कर चला गया। होल्कर राजमाता श्रीमती अहिल्याबाई को जब मेवाड़ के दीवान सोमचन्द गाँधी और वीर सेनापति मेहता मालदास की मेवाड़ से मराठों का आतंक और दबाव समाप्त कर देने की संयुक्त मंशा का पता लगा और मालदास द्वारा मेवाड़ से उठाये जा रहे मराठों के मुख्य थानों की जानकारी मिली तब उसने तुरन्त तुलाजी सिन्धिया और श्रीभाई के नेतृत्व में अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित चुने हुए योद्धाओं की मराठा सेना जावद की ओर रवाना कर दी। संयोग के जावद छोड़कर जा रहा नाना सदाशिव भी अपने सैनिकों सहित इस सेना से मिल गया। मेहता मालदास ने बड़े साहस से इस मराठा सेना का सामना करने का निश्चय किया। मालदास के साथ सादड़ी का सुल्तानसिंह, देलवाड़े का कल्याणसिह, कानोड़ का जालिमसिंह और सनवाड़ का बाबा दौलतसिंह आदि मेवाड़ के क्षत्रिय सामन्त योद्धाओं ने वि० सं० १८४४ में हडक्याखाल गाँव के पास हुए इस भीषण युद्ध में भाग लिया जिसमें मेवाड़ के इस बीर सेनापति मेहता मालदास ने वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए वीरगति प्राप्त की। इन प्रमुख जैन वीरों के अतिरिक्त युवा इतिहासकार डॉ० देव कोठारी ने इतिहास के ज्ञात स्रोतों एवं अपनी मौलिक शोध से मेवाड़ के स्वतन्त्रता संघर्ष, कठिन प्रशासन और आत्म बलिदान में अपना सर्वस्व समर्पित करने वाले कतिपय प्रमुख जैन वीरों एवं प्रशासकों का सूचीबद्ध उल्लेख किया है, जिन्होंने अमात्य के पद पर प्रशासक रूप में, समरांगण में योद्धा के रूप में और किलेदार व फौजबक्षी के पद पर मेवाड़ की स्वतन्त्रता के प्रहरी के रूप में अपनी ऐतिहासिक सेवाएँ दी हैं। उनका संक्षिप्त उल्लेख इस प्रकार है प्रधान एवं दीवान (१) नवलखा रामदेव-महाराणा क्षेत्रसिंह (वि० सं० १४२१ से १४३६) एवं महाराणा लक्षसिंह (वि० सं० १४३६ से १४५४) के शासनकाल में मेवाड़ राज्य का प्रधान रहा। (२) नवलखा सहणपाल-महाराणा मोकल (वि० सं० १४५४ से १४६०) तथा महाराणा कुम्भा (वि० सं० १४६० से १५२५) के शासनकाल में मेवाड़ राज्य प्रधान रहा । (३) तोलाशाह-महाराणा सांगा (वि० सं० १५६६ से १५८४) के समय मेवाड़ राज्य का प्रधान रहा । (४) बोलिया निहालचंद-महाराणा उदयसिंह (वि० सं० १६१० से १६२८) के समय मेवाड़ राज्य का प्रधान रहा। (५) कावड़िया अक्षयराज-महाराणा कर्णसिंह के समय मेवाड़ राज्य का प्रधान रहा। (६) शाह देवकरण-महाराणा जगतसिंह द्वितीय (वि० सं० १७६० से १८०८) के समय मेवाड़ राज्य का प्रधान रहा। (७) मोतीराम बोलिया-कुछ समय तक महाराणा अरिसिंह (वि० सं० १८१७-२६) का प्रधान रहा। (८) एकलिंगदास बोलिया-महाराणा अरिसिंह के समय अल्पायु में ही प्रधान रहा । (8) सतीदास एवं शिवदास गांधी- सोमचन्द गांधी को मृत्यु के बाद दोनों महाराणा भीमसिंह के समय राज्य के प्रधान रहे। Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) मेहता बन्धु मेहता अगरचन्द के पौत्र मेहता देवीचन्द को महाराणा भीमसिंह ने प्रधान बनाया । "मेहता रामसिंह को अंग्रेज सरकार की सलाह पर महाराणा भीमसिंह ने प्रधान नियुक्त किया। मेहता शेरसिंह को पहले महाराणा भीमसिंह ने एवं बाद में महाराणा स्वरूपसिंह ने प्रधान नियुक्त किया। शेरसिंह के बाद महाराणा स्वरूपसिंह ने मेहता गोकुलचन्द को प्रधान नियुक्त किया। महाराणा स्वरूपसिंह द्वारा कोठारी केसरीसिंह को प्रधान नियुक्त करने के बाद महाराणा शम्भूसिंह के समय मेहता पन्नालाल प्रधान नियुक्त किया गया और कोठारी बलवन्तसिंह द्वारा त्यागपत्र देने के बाद महाराणा फतहसिंह ने मेहता भोपालसिंह को प्रधान नियुक्त किया तथा अन्तिम महाराणा भूपालसिंह के समय मेहता फतहलाल मेवाड़ राज्य का प्रधान रहा। किलेवार एवं फौज वक्षो मेहता जालसी द्वारा मेवाड़ राज्य पर महाराणा वंश की प्रतिष्ठा करने के बाद इसी वंश का मेहता चीलसी महाराणा सांगा, मनवीर व महाराणा उदयसिंह के समय मेवाद को इतिहासप्रसिद्ध राजधानी वित्तोडगढ़ का किलेदार एवं फौजबक्षी रहा तथा मेहता मालदास महाराणा भीमसिंह के समय तथा बाद में मेहता श्रीनाथजी मेवाड़ के प्रमुख सामरिक किलों के किलेदार व फोजबली रहे। इसके अतिरिक्त बोलिया स्वमान में सरदारसिंह भी किलेदार व फौजबली रहे। मेवाड़ के जैन वीर १४३ इस प्रकार हम देखते हैं कि रावल राजवंश के अन्तिम शासक रत्नसिंह के समय से राणावंश के प्रथम शासक हमीर से लेकर अन्तिम शासक महाराणा भूपाल तक मेवाड़ के वीर शासकों ने विश्व के इतिहास में अपना जो गौरवशाली स्थान बनाया, उसमें जैन वीरों, आमात्यों व प्रशासकों का भी समांतर योगदान रहा। इन जैन वीरों ने अपने ऐतिहासिक कृतित्व-व्यक्तित्व से न केवल राजमुखापेक्षी ऐतिहासिक परम्परा में जननायकों की भूमिका का ही सूत्रपात किया है अपितु इस सत्य तथ्य की भी प्रतिष्ठा की है कि बिना जननायकों के योगदान के किसी क्षेत्र का इतिहास और उसके ऐतिहासिक शासक मात्र अपने बलबूते पर ही गौरव महिमा का अर्जन नहीं कर सकते अपितु इसके पीछे अनेक जन प्रतिनिधियों का त्याग और बलिदान भी संलग्न रहता है । इन जननायक जैन वीरों ने अपने साहस, बलिदान, त्याग और प्रशासन से न केवल राजनैतिक स्तर पर ही अपने सेवा पदों का प्रतिनिधित्व किया अपितु ये सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्रों के भी अग्रगण्य नेता थे और इन्होंने अपने कार्यकाल में मेवाड़ की गली सामाजिकता, स्वतन्त्रता संयन्मुख आर्थिक दशा और सहिष्णुता प्रधान धार्मिक स्थितियों का निर्माण किया जिससे मेवाड़ विभिन्न धर्मो व संस्कृतियों के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का केन्द्र-स्थल बनकर भारतीय इतिहास में विशेषरूप से गौरवान्वित हुआ। 0000 . Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " -. - -. -. -. -. -. - - . -. - जैन संस्कृति की विशेषताएं - डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी आचार्य एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन (म० प्र०) संस्कृति संस्कृति शब्द के तीन घटक हैं-सम्+स्+कृति । सम् का अर्थ है-सम्यक्, स्-का अर्थ है शोभाधायक तथा कृति का अर्थ है-प्रयत्न, इच्छापूर्वक किया गया व्यापार । इस प्रकार संस्कृति का सम्पिण्डित रूप में शब्दार्थ हुआशोभाधायक बिवेकसम्मत प्रयत्न । इच्छापूर्वक किया गया प्रयत्न जीवधारियों में ही संभव है। अभिप्राय यह कि प्राणीमात्र द्वारा संपाद्य जीवनधारणोपयोगी प्रवृत्ति-निवृत्तिरूपी व्यापार ही पृथक् है। प्रयत्न जिस शक्ति से संपाद्य हैवह दो प्रकार की है-प्रकृति प्रदत्त या सहजात शक्ति तथा अजित शक्ति । पशु का शिशु तैरना जन्मत: जानता है, पर मनुष्य का शिशु उसे अजित करता है । यह अजित शक्ति बुद्धि या विवेक है। मानवेतर जीवन धारणोपयोगी प्रयत्न सहजातवृत्ति से और मानव अजित वृत्ति से करता है-उसका प्रयत्न विवेकसम्मत प्रयत्न होता है। इसीलिए इसका प्रयत्न सम्यक् प्रयत्न है। विवेकसम्मत प्रयत्न या बुद्धि विचेष्टन कभी-कभी मानव समाज के लिए अहित कर फलतः मानव के लिए शोभाधायक नहीं होता। विवेकसम्मत प्रयत्न शोभाधायक भी हो-लोक मांगलिक भी हो- इसके लिए आवश्यक है कि वह मानवीय भाव से प्रेरित भी हो । भावात्मक प्रतिक्रिया स्नायुमंगल से सम्बन्ध रखती है अतः वह पशु में भी संभव है, पर मानवीय भावात्मक प्रतिक्रिया वही है, जिसमें लोकमंगल की सुगन्ध हो । यह संभावना प्रकृति ने मनुष्य में ही दी है कि उसका विवेकसम्मत प्रयत्न लोक मांगलिक हो। मनुष्यता की चरितार्थता इसी में है। इसीलिए विश्वभर के महामानव और उनके द्वारा प्रवर्तित प्रस्थान लोक मांगलिक मान्यताओं और मूल्यों का एक स्वर से समर्थन करते हैं ? ऐसे प्रयत्न को विकृति नहीं, संस्कृति ही कह सकते हैं । यह प्रकृति का संस्कार है, जिससे संस्कारित मानव से मानवता की दीप्ति प्रस्फुटित होती है और आस-पास तक का अन्धकार छट जाता है-लोक सत्पथ पर आरूढ़ हो जाते हैं और गन्तव्य की ओर चल पड़ते हैं । संस्कृति लोक मांगलिक उपयोगी-प्रयत्नों के मूल में निहित मूल्यों की समष्टि का ही नामान्तर है । डा० राजवली पाण्डेय ने ठीक ही कहा है कि means of life सभ्यता से और values of life संस्कृति । हमारे भौतिक जीवन यापन के समुन्नत साधनों से हमारी सभ्यता नापी जाती है और लोकमंगलोपयोगी मूल्यों से हमारी संस्कृति । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जब कहते हैं कि संस्कृति उच्चतम चिन्तन का मूर्तरूप है तब वे इसी तथ्य को पुष्ट करते हैं । मुनि विद्यानंदजी ने ठीक कहा है कि संस्कृति आत्मिक सौन्दर्य की जननी है। इसी के अनुशासन में सुसंस्कारसम्पन्न मानवजाति का निर्माण होता है। सम्पन्नता और संस्कृति में बहिरंग और अन्तरंग धर्म का अन्तर है। निष्कर्ष यह कि लोक मांगलिक भावना की छाया में जो विचार और अनुरूप आचार निष्पन्न होते हैं-संस्कृति उन्हीं की समष्टि है। मानव की आत्म-मंगलोन्मुखी तथा लोकमंगलोन्मुखी यात्रा अनुरूप और उच्चतम भाव, विचार तथा आचार के एकीकरण में ही सम्भव है। संस्कृति उच्चतम चिन्तन का मूर्तरूप हैकितनी सटीक उक्ति है। चिन्तन का मूर्तरूप ही प्रयत्न है, चिन्तन वही उच्चतम या शोभाधायक होगा जो लोक मांगलिक होगा और लोक मांगलिक नही होगा जो मानव भावना से प्रेरित होगा। इसलिए संस्कृति विवेकसम्मत तथा शोभाधायक प्रयत्न का नामान्तर है। Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति की विशेषताएँ १४५ . -.-.-.-.-........................................................... . .... __ जैन संस्कृति जब हम संस्कृति शब्द के आगे कोई विशेषण लगाते हैं तब हमारा क्या अभिप्राय होता है ? भारतीय संस्कृति, पाश्चात्य संस्कृति, जैन संस्कृति, बौद्ध संस्कृति, श्रमण संस्कृति, ब्राह्मण संस्कृति आदि शब्द क्या सस्कृति की अखण्डता बाधित करते हैं ? क्या संस्कृति में संभावित परस्पर-विरोधी विभिन्न विशेषताओं की ओर सकेत करते हैं ? या विभिन्न देश, काल तथा व्यक्ति साध्य उस अविरोधी तत्त्व की ओर, जिससे विश्वमंगल होता है ? आत्ममंगल होता है ? हो सकता है कालभेद, देशभेद और समाजभेद से संस्कृत व्यक्ति के आचार भिन्न हों, विचार भिन्न हों-पर क्या गन्तव्य भी भिन्न हैं ? देशभेद, कालभेद तथा समाजभेद से उस आत्ममंगल या विश्वमंगल की ओर ले जाने वाले आचार और विचार साधन काल में प्रकृतिभेद से भिन्न-भिन्न हों-पर लक्ष्य सबका एक ही है, जिस तत्त्व में सबका एकम त्य या अविरोध न हो- वह संस्कृति है ही नहीं । गन्तव्य या मूल लक्ष्य से कटकर ये साधक आचार-विचार परस्परविरोधी रूप में जब जब साध्य हुए हैं-इतिहास साक्षी है तब-तब हम दिग्भ्रान्त हुए हैं और मानवता का अहित हुआ है। देश-काल-समाजभेद से भिन्न आचार-विचार उस देश, उस काल तथा उस समाज की पृथक्-पृथक् पहचान करा सकते हैं-- लेविन समष्टि रूप में उन सबका गन्तव्य एक ही है । संस्कृति का हृदय एक ही है-उसका प्रकाशक आचार-विचार भिन्न हो सकता है । अत: जब हम जैन संस्कृति शब्द का प्रयोग करते हैं तब हमारा आशय यह है कि जिनानुयायियों का एक समाज है और वह अपनी संस्कृति की पहचान कराने वाली आचार एवं विचारगत कतिपय विशेषताओं से मण्डित है, जो अन्यत्र नहीं है; पर उसका अर्थ यह नहीं कि अन्य संस्कृतियों के हृदय से उसका हृदय भिन्न है । जिस देश, काल तथा समाज में लोकमंगलोन्मुखी भावना को चरितार्थ करने का प्रयत्न नहीं हुआ, उससे संस्कृति का कोई सम्बन्ध नहीं। इस प्रकार जैन संस्कृति का अर्थ हुआ कि जिनानुयायियों ने संस्कृति के हृदय तक पहुँचने का मार्ग क्या बनाया, किन-किन आचार और विचारों के माध्यम से वे संस्कृति के हृदय तक पहुँच सके ? एक संस्कृतिबाहक के रूप में उन्होंने अपनी पहचान किस तरह कायम की है ? संस्कृति एक प्रवाहमान सरिता है-जब हम एक विशिष्ट पहचान वाली जैन संस्कृति की बात करते हैं तब हमें एक और बात पर ध्यान देना चाहिए। वह यह है कि जैन संस्कृति या श्रमण संस्कृति शताब्दियों पूर्व से अपनी एक विशिष्ट पहचान के साथ चली आ रही संस्कृति है। अपनी इस लम्बी यात्रा में उसने न जाने किन-किन संस्कृतियों के सम्पर्क में अपने को पाया हो । फलत: उसे प्रभावित करती और स्वयं प्रभावित होती गतिशील रही है । इसलिए किसी भी संस्कृति में आज आचार-विचार के रूप में जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है वह सब उसी का है, यह कहना कठिन है । साथ ही अन्य सांस्कृतिक धाराएं भी उससे पर्याप्त प्रभावित हैं और कितना कुछ ग्रहण किया है उन्होंने उससे-यह भी परीक्षणीय है। पण्डित सुखलालजी की धारणा है-ब्राह्मण संस्कृति ने श्रमण संस्कृति से बहुत कुछ लिया है और श्रमण संस्कृति के अनुयायियों में भी ब्राह्मण संस्कृति से बहुत कुछ आ गया है । संन्यास तथा जन्मजन्मान्तर के भवचक्र से निवृत्ति ब्राह्मण संस्कृति के लिए जैन संस्कृति की देन है और जैन संस्कृति के लिए देवीदेवताओं की उपासना, तन्त्र-मन्त्र की साधना, स्त्री और शूद्र का बहिष्कार, यज्ञोपवीत धारण आदि ब्राह्मण परम्परा की देन है । इस प्रकार आज जिनानुयायी समाज की जैन संस्कृति अजैन सांस्कृतिक तत्त्वों से भी सम्बलित है। जैन संस्कृति का अन्तरंग पक्ष-प्रत्येक संस्कृति की तरह जैन संस्कृति के भी दो रूप हैं—बाहरी परिचायक विशेषताएँ और अन्तरिक अपरिवर्तनीय तत्त्व । बाहरी विशेषताओं में उनके अपने शास्त्र, उसकी भाषा, मन्दिर, उपाश्रय----उसका स्थापत्य, उपासना, प्रकार, उत्सव, त्यौहार आदि; पर ये सबके सब संस्कृति के हृदय पक्ष से जुड़कर रहें, तब तो जीवन और लक्ष्यसाधक हैं, कट जाने पर मात्र रूढ़ि और निर्जीव है। इस सन्दर्भ में यह समझना आवश्यक है कि जैन संस्कृति का हृदय या अन्तरंगत्व क्या है ? पण्डित सुखलालजी का विचार है-"जैन संस्कृति का हृदय केबल जैन समाज-जात और जैन कहलाने वाले व्यक्तियों में ही सम्भव है—ऐसी कोई बात नहीं है। सच तो यह है कि संस्कृति का हृदय या उसकी आत्मा इतनी व्यापक और स्वतन्त्र होती है कि उसे देश-काल, जात-पात, भाषा और रीति Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड ........................................... रस्म आदि न तो सीमित कर सकते हैं और न अपने साथ बाँध सकते हैं।" (जैन संस्कृति का हृदय पृ० २) उनके अनुसार जैन धर्म का हृदय है-निवर्तक धर्म । जन्मजन्मान्तर के चक्र से निवृत्ति को लक्ष्य बनाकर चलने वाला धर्मनिवर्तक धर्म है। अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि सुख की कामना प्राणिमात्र से जुड़ी है और इसे पाने की दिशा में सबका प्रयास है। विश्व में इसे पाने वालों के दो वर्ग स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं-अनात्मवादी तथा आत्मवादी । पहला मानता है कि सब कुछ विनश्वर है और दूसरा मानता है कि इस दृश्यमान विनश्वर में अविनश्वर भी कुछ है-जो जन्म और मरण जैसे परिवर्तनों के बावजूद निरन्तर विद्यमान है। अनात्मवादी उस प्रकृतिज्ञान सुख की कामना को शरीर से ही जोड़ता है और कामसुख को ही सबसे बड़ा सुख मानता है। आत्मवादी धारा में भी दो वर्ग हैं ---एक वह जो जन्म-मरण के चक्र का उच्छेद नहीं मानता, यह लोक के साथ परलोक की भी कल्पना करता है और इहलोक में अपेक्षाकृत चिरस्थायी तथा समृद्ध पारलौकिक सुख के निमित्त कुछ (श्रुति-स्मृति निर्धारित) विशिष्ट कर्मों का सम्पादन करता है। उसका प्रयत्न रहता है कि वह इस जन्म से भी अधिक सुख जन्मान्तर में प्राप्त करे और ऐहिक से भी अधिक आमुग्मिक सुख लाभ करे। इन लोगों का पुरुषार्थ अर्थ-काम से आगे बढ़कर 'धर्म' है। निष्कर्ष यह कि प्रवर्तक धर्म का उद्देश्य समाज व्यवस्था के साथ-साथ जन्मान्तर का सुधार है। इनका धर्म है कि जिस समाज में रहे उसके लिए ऐसी व्यवस्था दे जो इस समाज के प्रत्येक सदस्य को सुखी रखे, साथ ही जन्मान्तर का भी सुधार करे। वैदिक धर्मानुयायी मीमांसक प्रवर्तकधर्मी ही थे। आत्मवादियों का एक दूसरा वर्ग भी था जो कि मानता था कि ऐहिक और पारलौकिक सुख सातिशय सुख है-एक से एक बढ़कर है-फलतः सुखभोक्ताओं में सुख के साथ साथ ईर्ष्याजन्य दुःख की भावना का भी संभेद है; निखालिस सुख तो काम्य है---वह है नहीं। उसकी उपलब्धि आत्मोपलब्धि से ही सम्भव है । सुख परापेक्षी होता ही नहीं-पराधीन सपनेहु सुख नाहीं । इहलोक और परलोक का पुख कितना भी ऊँचा क्यों न हो, वह अन्तत: विनश्वर है। इसलिए निवर्तक धर्म बालों ने ऐसे सुख की तलाश की, जो कभी नष्ट न हो। कभी नष्ट न होने वाला अविनश्वर तत्त्व तो आत्मा ही हैवही यदि मिल जाय तो विनश्वर तथा निरतिशय सुख की उपलब्धि हो सकती है। इस दिशा में प्रयत्नशील होने पर चतुर्थ पुरुषार्थ की खोज हुई जिसे 'मोक्ष' कहा गया। मोक्ष आत्मा की यह स्थिति है, जिसमें प्रतिष्ठित होने के बाद जन्म-मरण का चक्र सदा-सदा के लिए उच्छिन्न हो जाता है। प्रवर्तकधर्मी आत्मवादी जिन क्रियाओं को अपने लक्ष्य का साधक मानते थे, निवर्तकधर्मी उन्हें बाधक समझते थे और उनका मार्ग केवल आचार-शुद्धि और विचार-गुद्धि का था। उन्होंने सोचा कि आत्मा की उस स्थिति तक कैसे पहुँचा जाय, जिसे मोक्ष कहते हैं ? वाधा क्या है ? वाधक हट जाय, तो आत्मा अपनी वैभाविक स्थिति से स्वाभाविक स्थिति में कैसे आये? आवरण कैसे हटे ? इसके लिए उन लोगों ने मोक्षमार्ग का निरूपण किया। सुखलालजी का यह कहना बहुत ठीक है कि प्रवर्तक धर्म इच्छा का परिष्कार करता है जबकि निवर्तक धर्म इच्छा का सर्वथा निरोध । प्रवर्तक धर्म सामाजिक धर्म है और निवर्तक वैयक्तिक । पहला ऐहिक सुख के लिए सामाजिक कर्तव्य करता है और पारलौकिक सुख के लिए धार्मिक अनुष्ठान । इन कर्तव्य-धर्मों से उनकी इच्छा का परिष्कार होता है । निवर्तकधर्मी मानते हैं कि इच्छा मात्र स्वरूप-स्थिति में बाधक है--चाहे वह जैसी भी हो। कारण, वह अनात्म से जोड़ती है--उसमें ममता पैदा करती है----आत्म-विमुख करती है। प्रवर्तकधर्मी ने 'इच्छा' का परिष्कार करते-करते उसे आत्मोपलब्धि में बाधक नहीं, साधक सिद्ध करते गए और यहाँ तक कहा कि आत्मोपलब्धि इच्छात्मक स्वरूप शक्ति से ही सम्भव है। हाँ, इस बात पर दोनों सहमत थे, कि अनात्मदर्शी की विषयात्मक इच्छा आत्मोपलब्धि में बाधक है। इसीलिए आगमों के माध्यम से इन प्रवर्तकर्मियों ने राग के रूप में मोक्ष से भी ऊपर एक पंचम पुरुषार्थ की स्थापना की। अस्तु, यहाँ हमें जैन संस्कृति की विशेषताओं पर प्रकाश डालना है, उसके हृदय को स्पष्ट करना है। उसका हृदय है.----निवर्तकतत्त्व, इच्छामात्र की निवृत्ति, जन्मचक्र का उच्छेद, आत्मोपलब्धि । बुद्ध ने भी कहा था-'अत्तदीपा विहरथ" । कर्मकाण्ड भव-चक्र से मुक्ति नहीं दिला सकता । भगवान् बुद्ध ने भद्रवर्गीय सुखान्वेषी मित्रों से कहा था-"अत्तानं गवसेय्याथ"-सम्पत्ति लुटाकर भगी हुई वेश्या का नहीं, यदि अविनश्वर सुख चाहते हो, तो Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति की विशेषताए अपने आपको ढूँढ़ो । इसके लिए "अत्तसरणा" तथा अन्यसरण हो । इच्छाहीन व्यक्ति ही 'सुखमक्षयमश्नुते - अविनश्वर सुख पा सकता है | भगवान् बुद्ध अनात्मवादी नहीं थे । उनका आशय यह था - पाँच स्कन्ध, द्वादश आयतन तथा अठारह धातुओं में से ऐसा कुछ नहीं था, जिसके लिए आत्मा शब्द का प्रयोग किया जा सके । बुद्ध की दृष्टि में से ये सब धर्म अनित्य हैं और जो अनित्य है वह दुःख है— यदनिच्चं तं दुःखं य दुक्खं तदनत्ता" - जो अनित्य है वह दुःख है और जो दुःख है वह अनित्य है । अनित्यों का आत्मरूपेण निषेध करता हुआ चिन्तक आत्मोपलब्धि कर लेगा । फिर भी बौद्ध और जैन मार्गों की अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् विशेषताएँ हैं - बौद्ध चितशुद्धि के लिए ध्यान और मानसिक संयम पर जितना जोर देते हैं, उतना बल बाह्य तप और देहदमन पर नहीं । इस प्रकार जैन संस्कृति का हृदय निवर्तक धर्म ब्राह्मण तथा बौद्ध संस्कृतियों में भी किसी न किसी प्रकार व्याप्त है— मौजूद है - तथापि ऐसा कुछ है— जो उसी का माना जाता है— अन्यत्र भी संक्रान्त हो- यह दूसरी बात है । १४७ जैन संस्कृति की विशेषताएँ - संस्कृति के दो पक्ष हैं-विचार और आचार जैन संस्कृति अपने दोनों पक्षों में अहिंसात्मक है | अहिंसा उसका आचार पक्ष है और अनेकान्त विचार पक्ष । आचार और विचार उभयत्र हिंसा निषेध्य है। हिंसा है क्या ? प्रमतयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा स्वरूपविस्मृति ही प्रमाद है, इसी के कारण व्यक्ति अनात्म में ममता करने लगता है— राग-द्वेष रखने लगता है। इस प्रकार का लाभसिक्त आत्मा अपनी निर्मल मनोवृत्ति का घात करता है-अतः सबसे बड़ी हिंसा कषाय है- वह नैर्मल्य का विरोधी है—-नैर्मल्य का विरोध ही आत्मघात हैं । पर-घात तो हिंसा है ही, आत्मघात भी हिंसा है और है यह कषाय, राग-द्वेष । पुरुषार्थ सिद्ध युपाय में कहा है अप्रादुर्भावः तु रामादीनां भवत्वहिंसेति । तेषामेवोत्पति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ DIO ++++ 1 तत्य की निर्मत वृत्ति का जिससे पात हो वह हिंसा है केवल क्रोध या तन्मूलक प्रवृत्ति ही हिंसा नहीं हैवे सारे भाव और तन्मूलक अनवधानगत प्रवृत्तियाँ हिंसा हैं, जिनसे चैतन्य की निर्मलवृत्ति का घात होता हो । अहिंसा गृही और मुनि की दृष्टि से स्तर भेद रखती है । गृहस्थ स्थूल हिंसा नहीं करता, अर्थात् कर्तव्यपालन दृष्टि या सम्पन्न हिंसा उसके लिए वर्जित नहीं है। वह अहिंसा का विरोधी नहीं है। कारण, वह भावपूर्वक नहीं है, कर्तव्यबुद्ध्या संपाद्य है | अहिंसक दैन्य और दौर्बल्य का पक्षधर नहीं होता, न्याय का पक्षधर होता है । न्याय पर वीर ही टिक सकता है। गृहस्य जो प्राथमिक साधक है उसके लिए हिंसा चार प्रकार की है—संकल्पी विरोधी, आरम्भी और उद्यमी । हिंसा का करना घातक है, हो जाना प्राथमिक साधकों के लिए क्षम्य है । अहिसक वृति वाले के लिए सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह जैसे महाव्रत अनायास सिद्ध हो जाते हैं। संस्कृति में जो प्रयत्न है - वह प्रवृत्ति-निवृत्ति उभयरूप है । यदि 'अहिंसा' हिंसा से निवृत्ति है, और यह निषेधात्मक पक्ष है तो उसका दूसरा विधेयात्मक पक्ष है— प्राणियों पर प्रेम करना, उनका उपकार करना । आचारगत अहिंसा के बाद इस संस्कृति की दूसरी महनीय विशेषता है— विचारगत अहिंसा, कदाच का त्याग, एकान्त आग्रह का न होना जैन आचार्यों ने वैचारिक अहिंसा के लिए ही 'अनेकान्त' दृष्टि की स्थापना की। इस दृष्टि का अभिव्यक्ति पक्ष है स्याद्वाद इस दर्शन में वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। वस्तु के किसी गुण या पर्याय ( अवस्था ) का किसी एक दृष्टि से वर्णन ही स्याद्वाद् है । जहाँ अन्य लोग वस्तु को केवल सत्, केवल असत् उभयात्मक तथा अनुभयात्मक या अनिर्वचनीय कहे जाने पर आग्रह करते हैं, वहीं जैन चिन्तन इन सबको आत्मसात् कर अपना अनेकान्त पक्ष रखता है। वस्तु का सही रूप तो अनुभववेद्य है अनन्तधर्मात्मक वस्तु सीमित बुद्धि की पकड़ में नहीं आ सकती, मनुष्य की बुद्धि कतिपय अपेक्षाओं से नियन्त्रित होकर वस्तु के धर्मों को पकड़ती है-अतः वस्तु के स्वरूप के प्रति अपनी प्रतिक्रिया उसी दायरे में ही देगी और उससे भी असमर्थ 'भाषा' उसे स्वादगर्भ अभिव्यक्ति देगी। हमारी वृद्धि व्यक्तिगत रुचियों, संस्कारों, सन्दर्भों आवश्यकताओं से रंजित होकर ही 'वस्तु' के विषय में स्याद्वादी अभिव्यक्ति करती है। ० . Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० O .० १४८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड फलतः विश्व के तमाम मतभेद जो एकान्तिक दृष्टि के कारण खड़े होते हैं और संस्कृति को विकृत करते हैंअनेकान्तबाद उन्हें निरस्त कर देता है—वैचारिक हिंसा को निर्मूल कर देता है। जैन संस्कृति की उपर्युक्त दो विशेषताएँ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं । वैसे उनका उच्चतम चिन्तन अपनी और भी अनेक ऐसी विशेषताएँ रखता है, जो इस सन्दर्भ में उल्लेख्य हैं । जैन दर्शन में छः द्रव्य हैं। सभी सत् हैं - अनन्त धर्मात्मक हैं—गुण पर्याय ( स्व-पर) युक्त है। जीव और अजीव द्रव्यों में से अजीव द्रव्य पाँच हैं-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल । जहाँ अन्य लोग जीव को अणु या विभु मानते, वहाँ जैन मध्यम परिणाम मानते हैं । धर्म-अधर्म की इनकी अपनी धारणा है—जो जीव की गति तथा स्थिति में सहकारी है । आकाश में भी लोकाकाश के अतिरिक्त अलोकाकाश की इनकी अपनी भिन्न कल्पना है । इनके पुद्गल रूप, रस गन्ध, स्पर्श सम्पन्न होते हैं, भिन्न-भिन्न महाभूतों के अलग-अलग परमाणु नहीं होते । कर्मवाद सम्बन्धी इनकी धारणा सर्वथा भिन्न है । ये लोग कर्म को द्रव्यात्मक मानते हैं- पौद्गलिक मानते हैं । कपाययुक्त जीव के तन, वचन और मन से जब कोई क्रिया होती है तो आस-पास के परमाणुओं में हलन चलन होता है और उनमें एक कर्मशक्ति पैदा होती है। कर्मक्तिसम्पन्न सूक्ष्म परमाणु आत्मा पर चिपक जाते हैं और सूक्ष्म शरीर में जुड़ जाते हैं । कर्मशक्तिसम्पन्न ये सूक्ष्म परमाणु ही आस्रव है, बन्ध है । परमाणुओं का आस्रवण होता रहता है । आवश्यकता है इस आस्रवण के संवरण की और संचित के जीर्ण करने की। तभी मोक्ष सम्भव है । इस मोक्ष का मार्ग है- सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चारिण तीनों सम्मिलित रूप से ही साधन है। इनकी ज्ञान मीमांसा भी अपने ढंग की है। ये लोग आत्मसापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष तथा इन्द्रियमनः सापेक्ष ज्ञान को परोक्ष कहते हैं। इस प्रकार चिन्तन के स्तर पर प्रामाण्यवाद में भी इनकी अपनी पृथक् स्थिति है । जैन चिन्तन की चाहे अपनी जो विभिन्न उपलब्धियाँ हों, देखना यह है कि संस्कृति के सामान्य उद्देश्य से जैन संस्कृति का उद्देश्य सामंजस्य है या नहीं ? ऊपर संस्कृति की बात करते हुए स्थिर किया गया है - वह है— शोभाधायक (लोकमांगलिक) विवेकसम्मत प्रयत्न ( प्रवृत्ति निवृत्ति ) । जैन संस्कृति का हृदय है -- भवचक्र से निवृत्ति - निवर्तक धर्म, जो व्यक्तिगत है । इसका लोकमंगल से सम्बन्ध कैसे जुड़े ? कोई भी संस्कृति केवल अपने इतिहास और पुरानी यशोगाथाओं के सहारे न जीवित रह सकती है और न ही प्रतिष्ठा पा सकती है, जब तक वह समाज या लोक के भावी निर्माण में योग न दे । इस दृष्टि से विचार करने पर यद्यपि इस संस्कृति का लक्ष्य व्यक्तिगत "निवृत्ति" है और इसका स्तर ढांचा उसी उद्देश्य के अनुरूप गठित हुआ है, तथापि अब यह स्पष्ट है कि यह संस्कृति व्यक्ति तक सीमित नहीं है। उसने एक विशिष्ट समाज का रूप ग्रहण कर लिया है । सामान्यतः लोगों की धारणा है कि जैन संस्कृति निवृतिपरक है-ऐसी निवृत्तिपरक, पर इससे यह निष्कर्ष निकालना कि वह प्रवृत्तिविरोधी है, ठीक नहीं। पांचों महाव्रतों को धारण करने की जो शास्त्रों में आज्ञा दी गई है, उसका मतलब है- सद्गुणों में प्रवृत्ति, सद्गुणपोषक प्रवृत्ति के लिए बल प्राप्त करना। यह कहना कि प्रवृत्ति कर्ममूलक है और जब तक कर्मक्षय न होगा, निवृत्ति न आयेगी और जब तक कर्मक्षयमूलक निवृत्ति न आयगी तो मुक्ति न होगी - हमारा लक्ष्य पूरा न होगा। अतः निवृत्ति ही जैन संस्कृति का लक्ष्य है - सही है, पर और गहरे उतरकर विचार किया जाय तो पता चलेगा कि निवृत्ति का प्रवृत्ति से विरोध नहीं है-असत् प्रवृत्ति से विरोध है । सत्प्रवृत्ति असत् प्रवृत्ति का विरोध करती है और इस प्रकार निवृत्ति के क्षण से पूर्व तक प्रवृत्ति, सत्यवृत्ति चलती रहती है। यह सत्यवृत्ति जब असत् रूपी अपना ईंधन न पायेंगी, तब स्वयं बुझ जायगी और निवृत्ति का चरम बिन्दु स्वयं प्रतिष्ठित हो जायगा । हिंसा सर्वथा निवृत्त हो जायगी, तो जो शेष बचेगा, वह अहिंसा ही होगी । दूसरे, जब समाजगत कोई संस्कृति होती है तो ऐसे प्रवर्तक मूल्यों को अपनाना ही पड़ता है जिससे समाज Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति को विशेषताएं १४५ . -. -.--.-. -.-. -.-.-.-. -. -. -. -. -. मंगल हो । जैसे केवल प्रवृत्ति मार्ग कभी कभार प्रवृत्त को आंधी में उड़ा सकता है, वासना के प्रवाह में डुबो सकता है, वैसे ही केवल निवृत्ति जो प्रवृत्तिशून्य है, हवा का महल मात्र बनकर रह सकती है। आज संचार माध्यमों और वैज्ञानिक साधनों से विश्व सिमट कर नये विश्वसमाज का गर्भ धारण कर रहा है--प्रसव पीड़ा भोग रहा है। संस्कृति सामान्य की तरह जैन संस्कृति को भी इस भावी समाज के निर्माण के लिए अपेक्षित प्रवर्तक गुणों को अपनाना पड़ेगा। सच पूछिए तो प्रवृत्ति और निवृत्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। गीताकार ने निवृत्तिमूलक प्रवृत्ति को अपनाते हुए यहाँ तक कह दिया कि जहाँ जीना-मरना, उठना-बैठना, सांस लेना-छोड़ना भी प्रवृत्ति है और प्रवृत्तिशून्य होकर रहना कैसे सम्भव है, फिर भी सम्भव है, मनसा अनासक्त भाव से प्रवृत्त होने से ही । ऋषभदेव से लेकर आज तक जो जैन संस्कृति जीती चली आई है वह एक मात्र निवृत्ति के बल पर ही नहीं, प्रत्युत अपनी कल्याणकारी प्रवृत्ति के बल पर । यदि प्रर्वतकधर्मी ब्राह्मण संस्कृति निवृत्तिपरक संस्कृति के सुन्दर गुणों को अपनाकर लोक-कल्याणकारी हो सकी है तो निवृत्तिधर्मी संस्कृति को भी चाहिए कि वह प्रवर्तकधर्मी लोक-मांगलिक मूल्यों को अपनावे और आत्मगत मल-शोधन के साथ-साथ निर्मल चित्त से लोकमंगल का भी विधान करे। जैन संस्कृति अपने आचारगत अहिंसा और विचारगत अनेकान्त को लेकर भी उससे अविरोधी मूल्यों का ग्रहण कर सकती है। यदि वह "अहिंसा" का निषेधात्मक रूप लेती है तो विश्वप्रेम जैसा विधायक रूप भी ग्रहण कर सकती है । दोष निषेध्य हैं, पर गुण नहीं । दोषों से निवृत्त अंतस् ही गुणों का आगार हो एकता है । सत्य केवल से असत्य की निवृत्ति हो सकती है। परिग्रह और चौर्य से बचना हो, तो त्याग और संतोष में प्रवृत्त होना होगा । संस्कृति आसक्ति के त्याग का संकेत देती है—प्रवृत्ति मान के त्याग का नहीं । समाज के धारण, पोषण और विकास के अनुकूल प्रवृत्तियाँ विधेय हैं। आज आवश्यक है कि त्यागी वर्ग का भी ध्यान इधर जाना चाहिए और गृहस्थ आश्रम को समाज का सरक्षण होना चाहिए । आज के जीवन में जो विघटनकारी वृत्तियाँ घर करती जा रही हैं; जैनसंस्कृति के उन्नायकों का यह कर्तव्य है कि वे उनको निर्मूल कर लोकगत सात्विक वृत्तियों का उन्मीलन करें। यदि जैन संस्कृति संस्कृति के इस सामान्य लक्ष्य का अपवाद बनती है तो वह सिमटकर व्यक्तिगत ही रह जायगी। महावीर के साथ ऋषभनाथ तथा नेमिनाथ के आदर्शों को भी हमें जीना है। 0000 Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मतिकला की परम्परा 0 डॉ. मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी प्राध्यापक, कला-इतिहास विभाग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-२२१००५ (उ० प्र०) जैन धर्म में मूर्तिनिर्माण एवं पूजन की परम्परा कब से प्रारम्भ हुई, इसका निश्चित निर्धारण कठिन है। प्रस्तुत लेख में हम उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर मुख्यतः इसी समस्या पर विचार करेंगे और किसी तार्किक निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करेंगे। महावीर से पूर्व तीर्थकर (या जिन) मूर्तियों के अस्तित्व का कोई भी साहित्यिक या पुरातात्त्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है । जैन ग्रन्थों में महावीर की यात्रा के सन्दर्भ में उनके किसी जैन मन्दिर में जाने या जिन-मूर्ति के पूजन का अनुल्लेख है। इसके विपरीत यक्ष-आयतनों एवं यक्ष-चैत्यों (पूर्णभद्र और मणिभद्र) में उनके विश्राम करने के उल्लेख प्राप्त होते हैं।' जैन धर्म में मूर्तिपूजन की प्राचीनता से संबद्ध सबसे महत्त्वपूर्ण वह उल्लेख है जिसमें महावीर के जीवनकाल में ही उनकी मूति के निर्माण का उल्लेख है । साहित्यिक परम्परा से ज्ञात होता है कि महावीर के जीवनकाल में ही उनकी चन्दन की एक प्रतिगा का निर्माण किया गया था। इस मूर्ति में महावीर को दीक्षा लेने के लगभग एक वर्ष पूर्व राजकुमार के रूप में अपने महल में ही तपस्या करते हुए अंकित किया गया है । चूंकि यह प्रतिमा महावीर के जीवनकाल में ही निर्मित हुई, अतः उसे जीवन्त स्वामी या जीवित स्वामी संज्ञा दी गई। साहित्य और शिल्प दोनों ही में जीवन्तस्वामी को मुकुट, हार एवं मेखला आदि अलंकरणों से युक्त एक राजकुमार के रूप में निरूपित किया गया है । महावीर के समय के बाद की भी ऐसी मूर्तियों के लिए जीवन्तस्वामी शब्द का ही प्रयोग होता रहा। ___ जीवन्तस्वामी मूर्तियों को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय यू० पी० शाह को है। साहित्यिक परम्परा को विश्वसनीय मानते हुए शाह ने महावीर के जीवनकाल से ही जीवन्तस्वामी मूति की परम्परा को स्वीकार किया है।' उन्होंने साहित्यिक परम्परा की पुष्टि में अकौटा (बडौदा, गुजरात) से प्राप्त जीवन्तस्वामी की दो गुप्तकालीन कांस्य १. शाह, यू० पी०, बिगिनिग्स आव जैन आइकानोग्राफी, संग्रहालय पुरातत्त्व पत्रिका, लखनऊ, अंक ६, जून, १६६२, पृ० २. २ द्रष्टव्य-शाह, यू० पी०, ए यूनीक जैन इमेज आव जीवन्तस्वामी, जर्नल ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट आव बड़ौदा, खं० १, अं०१, सितम्बर १६५१(१९५२), पृ० ६२-६६; साइड लाइट्स आन दि लाईफ-टाइम सेण्डलवुड इमेज आव महाबीर, जर्नल ओरिण्यटल इन्स्टीट्यूट आव बड़ौदा, खं० १, अं४, जून १६५२. पृ० ३५८-६८; श्री जीवन्तस्वामी (गुजराती), जैन सत्यप्रकाश, वर्ष १७, अं० ५-६, १६५२, पृ० १८-१०६; अकोटा ब्रोन्जेज बम्बई, १९५६ पृ० २६-२८. ३ शाह, यू० पी०, श्री जीवन्तस्वामी, जैन सत्यप्रकाश, वर्ष १७, अं० ५-६, पृ० १०४. - Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तिकला की परम्परा .................................................................... ...... प्रतिमाओं का भी उल्लेख किया है।' इन प्रतिमाओं में जीवन्तस्वामी को कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा और वस्त्राभूषणों (मुकुट, हार, मेखला, वनमाला, बाजूबन्द आदि) से सज्जित दर्शाया गया है। पहली मूर्ति ल. पांचवीं शती ई० की है और दूसरी लेखयुक्त मूति ल० छठी शती ई० की है। दूसरी मूर्ति के लेख में जीवन्तस्वामी खुदा है । उपर्युक्त मूतियों के बाद भी जीवन्तस्वामी मूर्तियों के निर्माण का क्रम चलता रहा। यह उल्लेख केवल श्वेताम्बर परम्परा में हुआ है और जीवन्तस्वामी मूर्तियां भी केवल श्वेताम्बर स्थलों से ही मिली है। संभवतः जीवन्तस्वामी के वस्त्राभूषणों से युक्त होने के कारण ही दिगम्बर परम्परा में इनका अनुल्लेख है । दसवीं से बारहवीं शती ई. के मध्य की अधिकांश जीवन्तस्वामी-मूर्तियाँ राजस्थान के श्वेताम्बर स्थलों में मिली है। ये मतियाँ राजस्थान के जोधपुर जिले में ओसिया और सेवाणी स्थित जैन मन्दिरों पर उत्कीर्ण हैं (देखें चित्र)। बारहवीं शती ई० को एक मनोज्ञ मूति सरदार संग्रहालय, जोधपुर में है। प्रतिमालक्षण की दृष्टि से जीवन्तस्वामी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूर्तियाँ ओसियां और सरदार संग्रहालय, जोधपुर (१०वी-१२वीं शती ई.) की हैं। इन मूर्तियों में जीवन्तस्वामी के साथ तीर्थकर मूर्तियों की कई विशेषताएँ प्रणित हैं । इन मतियों में जीवन्तस्वामी के साथ अष्टप्रातिहार्य (चामरधर सेवक, विछत्र, भामण्डल, देवदुन्दुभि, सुरपुष्पवृष्टि आदि), यथापक्षी युगल, महाविद्याएँ एवं जिन-आकृतियां निरूपित हैं, जो मध्ययुगीन जिन-मूतियों की सामान्य विशेषताएँ रही हैं। जैन धर्म में मूति-निर्माण एवं पूजन की ओसियाँ (राजस्थान) के महावीर मन्दिर के तोरण प्राचीनता के निर्धारण के लिए जीवन्तस्वामी मूर्ति की (१०१६ ई०) की जीवन्तस्वामी महावीर की मूर्ति परम्परा की प्राचीनता का निर्धारण अपेक्षित है। आगम-साहित्य एवं कल्पसूत्र जैसे प्रारम्भिक ग्रन्थों में जीवन्तस्वामी मूर्ति का उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। जीवन्तस्वामी १ शाह, यू०पी०, ए यूनीक जैन इमेज आव जीवन्तस्वामी, जर्नल ओरियण्टल इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा, खं० १, अं० १, पृ० ७६. २ शाह, यू० पी०, अकोटा ब्रोन्जेज, पृ० २६-२८, फलक ८६, बी, १२६. ३ द्रष्टव्य-अग्रवाल, आर० सी०, ए यूनीक इमेज आव जीवन्तस्वामी फाम राजस्थान, ब्रह्मविद्या, अड्यार, खं० २२, अं० १-२, पृ० ३२-३४; तिवारी मारुतिनन्दन प्रसाद, ओसियां से प्राप्त जीवन्तस्वामी की अप्रकाशित मूर्तियां, विश्वभारती, खं० १४, अं० ३, अक्टूबर-दिसम्बर, १९७३, पृ० २१५-१८. ४ अष्टप्रातिहार्यों में केवल सिंहासन को नहीं प्रदर्शित किया गया है। Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड मति के प्राचीनतम उल्लेख आगम ग्रन्थों से सम्बन्धित छठी शती ई. के बाद की उत्तरकालीन रचनाओं, यथानियुक्तियों, भाष्यों, चूणियों आदि में ही प्राप्त होते हैं। इन ग्रन्थों से कौशल, उज्जैन, दशपुर (मंदसौर), विदिशा, पुरी एवं वीतभयपट्टन में जीवन्तस्वामी मूर्तियों की विद्यमानता की सूचना प्राप्त होती है। जीवन्तरवामी मूर्ति का उल्लेख सर्वप्रथम वाचक संघदासगणि कृत वसुदेवहिण्डी (६१० ई० या लगभग एक या दो शताब्दी पूर्व की कृति) में प्राप्त होता है। ग्रन्थ में आर्या सुव्रता नाम की एक गणिनी के जीवन्तस्वामी मति के प्रजनार्थ उज्जैन जाने का उल्लेख है। जिनदास कृत आवश्यकचूणि (६७६ ई०) में जीवन्तस्वामी की प्रथम मति की कथा प्राप्त होती है। इसमें अच्युत इन्द्र द्वारा पूर्वजन्म के मित्र विद्युन्माली को महावीर की मूर्ति के पूजन की सलाह देने, विद्य न्माली के गोशीर्ष चन्दन की मूर्ति बनाने एवं प्रतिष्टा करने, विद्युन्माली के पास से मूति एक वणिक के हाथ लगने, कालान्तर में महावीर के समकालीन सिन्धु-सौवीर में वीतभयपत्तन के शासक उदायन एवं उसकी रानी प्रभावती द्वारा उसी मूर्ति के वणिक् से प्राप्त करने एवं रानी प्रभावती द्वारा मूर्ति की भक्ति भाव से पूजा करने का उल्लेख है। यही कथा हरिभद्रसूरि की आवश्यकवत्ति में भी वर्णित है। इसी कथा का उल्लेख हेमचन्द्र (११६६-७२ ई०) ने त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र (पर्व १०, सर्ग ११) में कुछ नवीन तथ्यों के साथ किया है । हेमचन्द्र ने स्वयं महावीर के मुख से जीवन्त स्वामी मूर्ति के निर्माण का उल्लेख कराते हए लिखा है कि क्षत्रियकुण्ड ग्राम में दीक्षा लेने के पूर्व छदमस्थ काल में महावीर का दर्शन विद्युन्माली ने किया था। उस समय उनके आभूषणों से सुसज्जित होने के कारण ही विद्युन्माली ने महावीर की अलंकरणयुक्त प्रतिमा का निर्माण किया । अन्य स्रोतों से भी ज्ञात होता है कि दीक्षा लेने का विचार होते हुए भी अपने ज्येष्ठ भ्राता के आग्रह के कारण महावीर को कुछ समय महल में ही धर्म-ध्यान में समय व्यतीत करना पड़ा था। हेमचन्द्र के अनुसार विद्य - न्माली द्वारा निर्मित मूल प्रतिमा विदिशा में थी। हेमचन्द्र ने यह भी उल्लेख किया है कि चौलुक्य शासक कुमारपाल ने वीतभयपट्टन में उत्खनन करवाकर जीवन्त स्वामी की प्रतिमा प्राप्त की थी। जीवन्तस्वामी मति के लक्षणों का उल्लेख हेमचन्द्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी जैन आचार्य ने नहीं किया है। क्षमाश्रमण संघदास रचित बृहत्कल्पभाष्य के भाष्य गाथा २७५३ पर टीका करते हुए क्षेमकीति (१२७५ ई०) ने लिखा है कि मौर्य शासक संप्रति को जैन धर्म में दीक्षित करने वाले आर्य सुहस्ति जीवन्तस्वामी मूर्ति के पूजनार्थ उज्जैन गये थे। सम्पूर्ण अध्ययन से स्पष्ट है कि पांचवीं-छठी शती ई० के पूर्व जीवन्तस्वामी के सम्बन्ध में हमें किसी प्रकार की ऐतिहासिक सूचना नहीं प्राप्त होती है । उपलब्ध साहित्यिक (वसुदेव हिाडी) एवं पुरातात्विक (3 कोटा से मिली जीवन्तस्वामी मूर्तियाँ) साक्ष्य पाँचवीं-छठी शती ई० के ही हैं । इस सन्दर्भ में महावीर के गणधरों द्वारा रचित आगम साहित्य में जीवन्तस्वामी मूर्ति के उल्लेख का पूर्ण अभाव जीवन्तस्वामी मूर्ति की धारणा की परवर्ती ग्रन्थों द्वारा प्रतिपादित महावीर की समकालिकता पर एक स्वाभाविक सन्देह उत्पन्न करता है। कल्पसूत्र एवं ई० पू० के अन्य ग्रन्थों में भी जीवन्तस्वामी मूर्ति का अनुल्लेख इसी सन्देह की पुष्टि करता है। वर्तमान स्थिति में जीवन्तस्वामी मति की धारणा को महावीर के समय तक (छठी शती ई० पू०) ले जाने का हमारे पास कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। १ जैन, हीरालाल, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, भोपाल, १९६२, पृ० ६२. २ द्रष्टव्य, जैन जे० सी०, लाईफ इन ऐन्शण्ट इण्डिया : ऐज डेपिक्टेड इन दि जैन केननस, बम्बई, १६४७, पृ० २५२, ३००, ३२५. ३ द्रष्टव्य -- शाह, यू० पी०, श्री जीवन्तस्वामी, जैन सत्यप्रकाश, वर्ष १७, अंक ५-६, पृ० १८. ४ वसुदेवहिण्डी (संघदास कृत), खं० १, सं० मुनि श्री पुण्यविजय, आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला ८०, भावनगर, १६३०, भाग १, पृ० ६१. ५ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, १०-११,३७९-८०. Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्तिकला की परम्परा विभिन्न साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों ज्ञात होता है कि मौर्यकाल (चौथी-तीसरी शती ई० पू०) में जैन मूतियों का निर्माण निश्चित रूप से प्रारम्भ हो गया था। जैन परम्परा के अनुसार जैन धर्म को लगभग सभी समर्थ मौर्य शासकों का समर्थन प्राप्त था । चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन धर्मानुयायी होना तथा जीवन के अन्तिम वर्षों में भद्रबाहु के साथ दक्षिण भारत जाना सुविदित है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जयन्त, वैजयन्त, अपराजित एवं अन्य जैन देवों की मूर्तियों का उल्लेख है ।२ अशोक बौद्ध धर्मानुयायी होते हुए भी जैन धर्म के प्रति उदार था। उसने निर्ग्रन्थों एवं आजीविकों को दान दिये थे । सम्प्रति को भी जैन धर्म का अनुयायी कहा गया है। किन्तु मौर्य शासकों से संबद्ध इन परम्पराओं के विपरीत पुरातात्त्विक साक्ष्य के रूप में लोहानीपुर से प्राप्त केवल एक जिन मूर्ति ही, है, जिसे मौर्य युग का माना जा सकता है। पटना के समीप लोहानीपुर से मिली मौर्यकालीन मूर्ति जिन-मूर्ति का प्राचीनतम ज्ञात उदाहरण है। यह मूर्ति सम्प्रति पटना संग्रहालय में सुरक्षित है । मौर्ययुगीन चमकदार आलेप से युक्त ल० तीसरी शती ई० पू० की इस मूर्ति के सिर, भुजा और जानु के नीचे का भाग खण्डित है । मूर्ति की नग्नता और कायोत्सर्ग मुद्रा इसके जिनमूर्ति होने की सूचना देते हैं । कायोत्सर्ग मुद्रा में जिन समभंग में सीधे खड़े होते हैं और उनकी दोनों भुजाएँ लंबवत् घुटनों तक प्रसारित होती हैं । ज्ञातव्य है कि यह मुद्रा केवल जैन तीर्थ करों के मूर्त अंकन में ही प्रयुक्त हुई है । लोहानीपुर के उत्खनन में प्राप्त होने वाली मौर्ययुगीन ईंटें एवं एक रजत आर्हतमुद्रा भी उपर्युक्त मूति के मौर्यकालीन होने के समर्थक साक्ष्य हैं । इस मूर्ति के निरूपण में यक्ष मूर्तियों का प्रभाव दृष्टिगत होता है । यक्षमूर्तियों की तुलना में मूर्ति की शरीर रचना में भारीपन के स्थान पर सन्तुलन है, जिसे जैन धर्म में योग के विशेष महत्व का परिणाम स्वीकार किया जा सकता है। शरीर रचना में प्राप्त सन्तुलन मूर्ति के मौर्ययुग के उपरान्त निर्मित होने का नहीं वरन् उसके तीर्थकर मूर्ति होने का सूचक है। मौर्य शासकों द्वारा जैन धर्म को समर्थन प्रदान करना और अर्थशास्त्र एवं कलिंग शासक खारवेल (ल. पहली शती ई० पू०) के लेख के उल्लेख लोहानीपुर मूर्ति के मौर्ययुगीन मानने के अनुमोदक तथ्य हैं। खारवेल के लेख में उल्लेख है कि कलिंग की जिस जिन प्रतिमा को नन्दराज 'तिवससत' वर्ष पूर्व कलिंग से मगध ले गया था, उसे खारवेल पुनः वापस ले आया। 'तिवससत' शब्द का अर्थ अधिकांश विद्वान् ३०० वर्ष मानते हैं । इस प्रकार लेख के आधार पर भी जिन-मूर्ति की प्राचीनता मौर्यकाल (ल० चौथी-तीसरी शती ई० पू०) तक जाती है। शुगकुषाण एवं बाद के युगों में जिन-मूर्तियों का क्रमश: विकास होता गया और उनमें नवीन विशेषताएँ जुड़ती चली गयीं। लोहानीपुर जिन-मूर्ति के बाद की दूसरी जिन-मूर्ति ल० पहली शती ई० पू० की है। मस्तक पर सर्पफणों के छत्र से युक्त यह पार्श्वनाथ मूति प्रिंस आव वेल्स संग्रहालय, बम्बई में संग्रहीत है। पार्श्वनाथ निर्वस्त्र हैं और कायोत्सर्ग १ द्रष्टव्य-मुखर्जी, आर० के०, चन्द्रगुप्त मौर्य एण्ड हिज टाइम्स, दिल्ली, १९६६ (पु० मु०), पृ० ३६-४१. २ भट्टाचार्य, बी० सी०, दि जैन आइकानोग्राफी, लाहौर, १६३६, पृ० ३३. ३ द्रष्टव्य-थापर रोमिला, अशोक एन्ड दि डिक्लाइन आव दि मौर्याज, आक्सफोर्ड, १९६३ (पु० मु०), पृ० १३६-८१ मुखर्जी, आर० के०, अशोक, दिल्ली, १९७४, पृ० ५४-५५. ४ परिशिष्टपर्वन ६.५४; द्रष्टव्य-थापर रोमिला, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० १८७. ५ जायसवाल, के० पी०, जैन इमेज आव मौर्य पिरियड, जर्नल बिहार, उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, खं० २३, भाग १, १६३७, पृ० १३०-३२. ६ रे, निहाररंजन, मौर्य एण्ड शुग आर्ट, कलकत्ता, १९६५, पृ० १५५. ७ सरकार, डी० सी०, सेलेक्ट इन्स्क्रिप्शनस, खं० १, कलकत्ता, १९६५, पृ० २१५, पादटिप्पणी ६. Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्थ : षष्ठ खण्ड 'मुद्रा में खड़े हैं। ल. पहली शती ई० पू० की ही पार्श्वनाथ की एक अन्य मूर्ति बक्सर (भोजपुर, बिहार) के चौसा ग्राम से भी मिली है, जो सम्प्रति पटना संग्रहालय (क्रमांक ६५३१) में सुरक्षित है। इस मूर्ति में पार्श्वनाथ सात सर्पफणों के छत्र से शोभित हैं और उपर्युक्त मूर्ति के समान ही निर्वस्त्र और कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं । इन प्रारम्भिक मूर्तियों में वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिन्ह नहीं उत्कीर्ण है, जो जिन-मूर्तियों को अभिन्न विशेषता रही है । श्रीवत्स चिन्ह का उत्कीर्णन सर्वप्रथम ल० पहली शती ई० पू० में मथुरा की जिन-मूर्तियों में प्रारम्भ हुआ। ये मूर्तियां आयागपटों पर उत्कीर्ण हैं । लगभग इसी समय मथुरा में ही सर्वप्रथम जिनों के निरूपण में ध्यानमुद्रा प्रदर्शित हुई। जैन कला को सर्वप्रथम पूर्ण अभिव्यक्ति मथुरा में मिली । यहाँ की शुग-कुषाण काल की जैन मूर्तियां जैन प्रतिमाविज्ञान के विकास की प्रारिम्भक अवस्था को दरशाती हैं । साहित्यक और आभिलेखिक साक्ष्यों से ज्ञान होता है कि मथुरा का कंकाली टीला एक प्राचीन जैन स्तूप था। कंकाली टीले से एक विशाल जैन स्तूप के अवशेष और विपुल शिल्प सामग्री मिली है। यह शिल्प सामग्री ल० ई० पू० १५० से १०२३ ई० के मध्य की है । इस प्रकार मथुरा की जैन मूर्तियाँ आरम्भ से मध्ययुग तक के प्रतिमाविज्ञान की विकास शृंखला उपस्थित करती हैं । मथुरा की शिल्प सामग्री में आयागपट, स्वतन्त्र जिन-मूर्तियाँ, जिन चौमुखी (या सर्वतोभद्रिका) प्रतिमा, जिनों के जीवन से सम्बन्धित दृश्य एवं कुछ अन्य मूर्तियाँ प्रमुख हैं। कुषाण काल में जिनों के साथ प्रतिहार्यों का चित्रण प्रारम्भ हो गया, पर आठ प्रारम्भिक प्रतिहार्यों का अंकन गुप्त काल के अन्त में ही प्रारम्भ हुआ। प्रतिमा लक्षण के विकास की दृष्टि से गुप्तकाल (ल० २७५-५५० ई०) का विशेष महत्व रहा है। जिनों के साथ लांछनों एवं यक्ष-यक्षी युगलों का निरूपण गुप्तकाल में ही प्रारम्भ हुआ। राजगिरि (बिहार) की नेमिनाथ एवं भारत कला भवन, वाराणसी (क्रमांक १६१) की महावीर मूर्तियों में सर्वप्रथम लांछन (शंख और सिंह) और अकोटा (गुजरात) की ऋषभनाथ मूर्ति में यक्ष-यक्षी युगल निरूपित हुए। १ द्रष्टव्य-शाह, यू० पी०, स्टडोज इन जैन आर्ट, बनारस, १६५५, पृ० ८-६, एन अर्ली ब्रोन्स इमेज आव पार्श्वनाथ इन दि प्रिंस आव वेल्स म्युजियम, बम्बई, बुलेटिन प्रिन्स आव वेल्स म्युजियम आव वेस्टर्न इण्डिया, अं० ३, १९५२-५३, पृ० ६३-६५. २ द्रष्टव्य-प्रसाद, एच० के०, जैन ब्रोन्जेज इन दि पटना म्यूजियम, महावीर जैन विद्यालय गोल्डन जुबली वाल्यूम, बम्बई, १९६८, पृ० २७५-८०%; शाह, यू० पी०, अकोटा ब्रोन्जेज, फलक, १ बी. ०० Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : विकास और परम्परा डॉ० शिवकुमार नामदेव प्राध्यापक, प्राचीन भारतीय इतिहास शासकीय गृह विज्ञान महाविद्यालय, होशंगाबाद ४६१००२ (म०प्र०) जैन धर्म का क्रान्तिदर्शी विकास छठवीं शती ई० पू० से हुआ, जब इस धर्म के २४वें एवं अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने अपने नये विचारों एवं कार्यों से इसे नया जीवनदान दिया। जैन मतानुयायियों के अनुसार इस धर्म की प्राचीनता प्रागतिहासिक है। उनके अनुसार मोहनजोदड़ो से प्राप्त योगी की मूर्ति इसके आदि प्रवर्तक प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव की है। यही नहीं वेदों में उल्लिखित कतिपय नामों को जैन तीर्थकरों के नामों से जोड़ा गया है । साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि जैन धर्म विश्व का एक प्राचीन धर्म है । प्रस्तुत लेख में जैन धर्म की प्राचीनता एवं विकास का जैन मूर्तिकला, वास्तुकला एवं चित्रकला के माध्यम से निरूपण किया गया है । 0+0+0+0+8 भारत की प्राच्य संस्कृति के लिए जहाँ जैन साहित्य का अध्ययन आवश्यक है, वहीं जैन कला का अध्ययन भी महत्त्वपूर्ण है । विभिन्न ललित कलाओं के क्षेत्र में जैन धर्म की देन रही है । ई० पू० दूसरी सदी से जैन धर्म के प्रसार में कला का व्यापक रूप से प्रचार किया गया । मूर्तिकला मूर्तिकला के क्षेत्र में जैन कला ने अर्हन्तों की अगणित कायोत्सर्ग तथा पद्मासन ध्यान-मग्न मूर्तियों का निर्माण किया है; इन मूर्तियों में कितनी ही तो चतुर्मुख एवं कितनी ही सर्वतोभद्र हैं । भारत की प्राचीनतम मूर्तियाँ सिन्धु सभ्यता के उत्खनन से उपलब्ध हुई हैं। इस सभ्यता में प्राप्त मोहनजोदड़ो के पशुपति को यदि शैव धर्म का देव मानें तो हड़प्पा से प्राप्त नग्न धड़ को दिगम्बर मत की खण्डित मूर्ति मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।" सिन्धु सभ्यता के पशुओं में एक विशाल स्कंधयुक्त वृषभ तथा एक जटाजूटधारी का अंकन है। वृषभ तथा जटाजूट के कारण इसे प्रथम जैन तीर्थ कर आदिनाथ का अनुमान कर सकते हैं । हड़प्पा से प्राप्त मुद्रा क्रमांक ३००, ३१७ एवं ३१८ में अंकित प्रतिमा आजानुलम्बित बाहुद्वय सहित कायोत्सर्ग मुद्रा में है। हड़प्पा के अतिरिक्त उपर्युक्त साक्ष्य हमें मोहनजोदड़ो में भी उपलब्ध होता है । ४ १ स्टडीज इन जैन आर्ट - यू० पी० शाह, चित्र फलक क्रमांक १. २ सरवाइवल आफ दि हड़प्पा कल्चर - टी० जी० अथन, पृ० ५५. ३ एम० एस० वत्स, हड़प्पा, ग्रन्थ १, पृ० १२६-३०, फलक १३. ४ वही, पृ० २६, मार्शल - मोहनजोदड़ो एण्ड इट्स सिविलाइजेशन, ग्रन्थ १, फलक १२, आकृति १३, १४, १८, १६, २२. O . Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड भारतीय कला का क्रमबद्ध इतिहास मौर्यकाल से प्राप्त होता है। मौर्यकाल में मगध जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र था। इस काल की तीर्थकर की एक प्रतिमा लोहानीपुर' (पटना) से उपलब्ध हुई है। प्रतिमा पर मौर्यकालीन उत्तम ओप है । बैठा वक्षस्थल तथा क्षीण शरीर जैनों के तपस्यारत शरीर का उत्तम नमूना है। पार्श्वनाथ की एक कांस्य मूर्ति जो इसी काल की मानी जाती है, कायोत्सर्गासन में है। यह प्रतिमा सम्प्रति बम्बई के संग्रहालय में संरक्षित है। शुगकाल में जैन धर्म के अस्तित्व की द्योतक कतिपय प्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं। लखनऊ-संग्रहालय में सुरक्षित एक शुग-युगीन कवाट पर ऋषभदेव के सम्मुख अप्सरा नीलांजना का नृत्य चित्रित है। इस काल के आयागपट्ट कंकाली टीला से उपलब्ध हुए हैं । विवेच्ययुगीन कला का एक महत्त्वपूर्ण रचना-केन्द्र उड़ीसा में था। भुवनेश्वर से ५ मील उ०प० में उदयगिरि खण्डगिरि पहाड़ियों में जैन धर्म की गुफाये उत्कीर्ण हैं । उदयगिरि की हाथीगुफा में कलिंग नरेश खारवेल का एक लेख उत्कीर्ण है, जिससे द्वितीय शती ई० पू० में जैन तीर्थ कर प्रतिमाओं का अस्तित्व सिद्ध करता है। शुग-कुषाणयुग में मथुरा जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था । यहाँ के कंकाली टीले के उत्खनन से बहुसंख्यक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें अर्हत नंद्यावर्त की प्रतिमा प्रमुख है, जिनका समय ८६ ई० है । यहाँ से उपलब्ध जैन मूर्तियों का बौद्ध मूर्तियों से इतना सादृश्य है कि यदि श्रीवत्स पर ध्यान केन्द्रित न किया जाय तो दोनों में भेद करना सहज नहीं है। कुषाण युग के अनेक कलात्मक नमूने मथुरा के कंकाली टोले से प्राप्त हुए हैं। इनमें लखनऊ संग्रहालय में संरक्षित आयागपट्ट (क्रमांक जे० २४६) महत्वपूर्ण है । इसकी स्थापना सिंहनादिक ने अर्हत पूजा के लिए की थी। कुषाण संवत् ५४ में स्थापित देवी सरस्वती की प्रतिमा भी प्रतिमा-विज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । जैन परम्परा में सरस्वती की मूर्तियों का निर्माण कुषाण-युग से निरन्तर मध्ययुग (१२वीं शती) तक सभी क्षेत्रों में लोकप्रिय रहा है। विवेच्य युग में मुख्यत: तीर्थकर प्रतिमायें निर्मित की गई जो कायोत्सर्ग एवं पद्मासन में हैं। कंकाली टीले के दूसरे स्तुप से उपलब्ध तीर्थंकर मूर्तियों की संख्या अधिक है। इनकी चौकियों पर कुषाण संवत् ५ से १५ तक के लेख हैं । प्रतिमाएं ४ प्रकार की हैं १. खड़ी या कायोत्सर्ग मुद्रा में जिनमें दिगम्बरत्व लक्षण स्पष्ट है। २. पद्मासन में आसीन मूर्तियां । ३. प्रतिमा सर्वतोभद्रिका अथवा खड़ी मुद्रा में चौमुखी मूर्तियां, ये भी नग्न हैं। ४. सर्वतोभद्रिका प्रतिमा बैठी हुई मुद्रा में । मथुरा-संग्रहालय में एकत्रित ४७ जैन मूतियों का व्यवस्थित परिचय डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने वहां की सूची के तृतीय भाग में कराया है। इनमें महाराज वासुदेव कालीन संवत्सर ८४ की आदिनाथ की मूति (बी४),. पार्श्वनाथ की मूर्ति (बी० ६२) एवं नेमिनाथ की प्रतिमा (२५०२) महत्त्वपूर्ण हैं । कुषाणकालीन मथुरा कला में तीर्थकरों के लांछन नहीं पाये जाते हैं। १ निहाररंजन रे, मौर्य एण्ड शुग आर्ट, चित्रफलक २८, कम्प्रिहेनसिव हिस्ट्री आफ इण्डिया-सं० के० ए० नीलकण्ठ शास्त्री, चित्रफलक ३८. २ स्टडीज इन जैन आर्ट-चित्रफलक २, आकृति ५. ३ जर्नल आफ बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, भाग २, पृ० १३. ४ भारतीय कला-वासुदेवशरण अग्रवाल, प० २८२-८३, चित्र क्रमांक ३१८. Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : विकास और परम्परा १५७ .......................................................................... भारतीय इतिहास में स्वर्ण-काल के नाम से अभिहित गुप्तकाल में कला प्रौढ़ता को प्राप्त हो चुकी थी। इस युग में भी हमें तीर्थंकरों के सामान्य लक्षण मूर्तियों में वे ही प्राप्त होते हैं जो कुषाणकाल में विकसित हो चुके थे, किन्तु उनके परिकरों में कुछ वैशिष्ट्य दृष्टिगोचर होता है । प्रतिमाओं का उष्णीष कुछ अधिक सौन्दर्य व घुघरालेपन को लिए हुए पाया जाता है। प्रभावलि में विशेष सजावट दिखाई देती है। धर्मचक्र व उसके उपासकों का चित्रण होते हुए भी कहीं-कहीं उसके पावों में मृग भी उत्कीर्ण दिखाई देते हैं । अधोवस्त्र तथा श्रीवत्स-ये विशेषताएँ इस युग में परिलक्षित होती हैं । गुप्तयुगीन जैन प्रतिमाओं में यक्ष-यक्षिणी, मालावाही गन्धर्व आदि देवतुल्य मूर्तियों को भी स्थान दिया गया था। प्राचीन भारत के प्रमुख नगर विदिशा के निकट दुर्जनपुर ग्राम से रामगुप्तकालीन' तीन अभिलेखयुक्त जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें से दो प्रतिमायें चन्द्रप्रभ एवं एक अर्हत पुष्पदन्त की है। इन प्रतिमाओं की प्राप्ति से भारतीय इतिहास में अर्द्धशती से चले आ रहे इस विवाद का निराकरण संभव हो सका कि रामगुप्त, गुप्त शासक था या नहीं । बक्सर के निकट चौसा (बिहार) से उपलब्ध कुछ कांस्य प्रतिमायें पटना संग्रहालय में हैं । रामगिरि की वैभार पहाड़ी की वह नेमिनाथ मूर्ति भी ध्यान देने योग्य है जिसमें सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र को पीठ पर धारण किए हुए एक पुरुष और उसके दोनों पाश्वों में शंखों की आकृतियाँ पायी जाती हैं । इस मूर्ति पर के खण्डित लेख में चन्द्र गुप्त का नाम पाया जाता है, जो लिपि के आधार पर चन्द्रगुप्त द्वितीय का वाची अनुमान किया जाता है । कुमारगुप्त प्रथम के काल में गुप्त संवत् १०६ में निर्मित विदिशा के निकट उदयगिरि की गुफा में उत्कीर्ण पार्श्वनाथ की प्रतिमा का नागफण अपने भयंकर दाँतों से बड़ा प्रभावशाली और अपने देव की रक्षा के लिए तत्पर दिखाई देता है। उत्तर प्रदेश के कहाऊँ नामक स्थान से प्राप्त गुप्त संवत् १४१ के लेख सहित स्तम्भ पर पार्श्वनाथ तथा अन्य चार तीर्थंकरों की प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं । इस काल की अन्य प्रतिमायें बेसनगर, बूढ़ी चंदेरी, देवगढ़, सारनाथ आदि से उपलब्ध हुई हैं। सारनाथ से प्राप्त अजितनाथ की प्रतिमा को डॉ० साहनी ने गुप्त संवत् ६१ की माना है, जो यहाँ काशी संग्रहालय में है। सीरा पहाड़ की जैन गुफा में तथा उसमें उत्कीर्ण मनोहर तीर्थकर प्रतिमाओं का निर्माण उसी काल में हुआ। वर्धमान महावीर को दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व जीवन्तस्वामी के नाम से जाना जाता था। जीवन्त-स्वामी की इस काल की दो प्रतिमायें बड़ौदा संग्रहालय में हैं। छठी सदी के तृतीय चरण में पांडुवंशियों ने शरभपुरीय राजवंश को समाप्त कर दक्षिण कौशल को अपने आधिपत्य में कर श्रीपुर (सिरपुर-रायपुर जिला, म० प्र०) को अपनी राजधानी बनाया। इस काल की एक प्रतिमा सिरपुर से उपलब्ध हुई है, जो तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है। उत्तर गुप्तकाल में कला के अनेक केन्द्र थे। कला तान्त्रिक भावना से ओत-प्रोत थी। इस काल की एक प्रमुख विशेषता है-कला में चौबीस तीर्थंकरों की यक्ष-यक्षिणी को स्थान प्रदान किया जाना। मध्यकाल में जैन प्रतिमाओं में चौकी पर आठ ग्रहों की आकृति का अंकन है, जो हिन्दुओं के नवग्रहों का ही अनुकरण है। मध्यकाल में मध्यप्रदेश में जैन धर्म की प्रतिमायें बहुलता से उपलब्ध होती हैं । मध्यप्रदेश में यशस्वी राजवंश कलचरि, चन्देल एवं परमार नरेशों के काल में यह धर्म भी इस भूभाग में पुष्पित एवं पल्लवित हुआ। भारतीय जैन कला में मध्यप्रदेश का योगदान महत्वपूर्ण है। अखिल भारतीय परम्पराओं के साथ-साथ मध्यप्रदेश की अपनी विशेषताओं को भी यहाँ की कला ने उचित स्थान दिया। कलचुरिकालीन तीर्थंकरों की प्रतिमायें आसन एवं स्थानक मुद्रा में प्राप्त हुई हैं। कुछ संयुक्त प्रतिमायें भी १. विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त-शिवकुमार नामदेव, अनेकांत, मई, १६७४, विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त की ऐतिहासिकता, शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अप्रेल, १९७४. २. अकोटा ब्रोन्ज, यू० पी० शाह, पृ० २६-२८ Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड उपलब्ध हुई हैं । विवेच्यकालीन भगवान ऋषभनाथ की सर्वाधिक प्रतिमा कारीतलाई से प्राप्त हुई हैं। कारीतलाई के अतिरिक्त तेवर (जबलपुर), मल्हार एवं रतनपुर (बिलासपुर) से भी आदिनाथ की प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त अजितनाथ, चन्दप्रभ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर की भी आसन-प्रतिमायें मिली हैं। इस काल में बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ की एक सुन्दर प्रतिमा धुबेला के संग्रहालय में है। कारीतलाई से प्राप्त तीर्थकरों की द्विमूर्तिका प्रतिमायें रायपुर संग्रहालय में संरक्षित है। __ कलचुरि कालीन जैन शासन५ देवियों की मूर्तियाँ बहुतायत से मिली हैं। ये स्थानक एवं आसन दोनों तरह की हैं। कलचुरि नरेशों के काल में निर्मित अधिकांश प्रतिमायें १०वीं से १२वीं सदी के मध्य की हैं। मध्यप्रदेश के विश्वप्रसिद्ध कलातीर्थ खजुराहो में चंदेल नरेशों के काल में निर्मित नागर शैली के देवालय अपनी वास्तू एवं मूर्ति संपदा के कारण गौरवशाली हैं। यहाँ के जैन मन्दिरों में जिन-मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं एवं प्रवेश द्वार तथा रथिकाओं में विविध जैन देवियाँ । प्रतिहारों के पतन के पश्चात् मालवा में परमारों का राज्य स्थापित हुआ । इनके समय में जैन धर्म मालवा में अपने स्वणिम काल में था। निमाड़ में ऊन नामक स्थान के अवशेषों में लगभग एक दर्जन मन्दिर परमार राजाओं के स्थापत्य के उत्तम नमूने हैं । यहाँ के जैन मन्दिरों में सबसे बड़ा चौबारडेरा नामक मन्दिर है। मन्दिरों में अनेक सुन्दर मूर्तियां स्थापित हैं । केन्द्रीय संग्रहालय इन्दौर में परमारकालीन तीर्थंकरों की लेखयुक्त प्रतिमायें हैं । मध्यकाल में मध्यप्रदेश के सूहानिया, पढावली, तिरासी, इन्दौर, टूडा, धंसौर, बरहटा, मुरार, नागौर एव जसो, सांची, धार, दशपुर, बदनावर, कानवन, बडनगर, उजैन,° जावरा, बड़वानी आदि ऐसे कलाकेन्द्र हैं जहाँ जैन प्रतिमायें अवस्थित हैं। उत्तर प्रदेश में मध्यकालीन जैन प्रतिमायें बहुलता से प्राप्त हुई हैं, जो प्रदेश के विभिन्न संग्रहालयों, देवालयों एवं यत्र-तत्र अवस्थित हैं । प्रयाग-संग्रहालय में अधिकांश जैन प्रतिमायें संरक्षित हैं । उत्तर प्रदेश के अधिकांश स्थलों से जैन यक्षी पद्मावती की प्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं । झाँसी जिले के चन्देरी में भगवान महावीर की लावण्यमयी प्रतिमा आभा से परिपूर्ण है। श्रावस्ती के पश्चिम में जैन अवशेष प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। यहीं पर भगवान संभवनाथ का जीर्ण-शीर्ण मन्दिर है । भोंडा जिले के महेत में आदिनाथ की सुन्दर प्रतिमा मिली है। बरेली जिले के अहिच्छत्र से अनेक प्रति. मायें मिली हैं । यहाँ से उपलब्ध पार्श्वनाथ की एक सातिशय प्रतिमा अत्यन्त सौम्य एवं प्रभावशाली है। १. कारीतलाई को अद्वितीय भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, अनेकान्त, अक्टूबर-दिसम्बर, १६७३ २. कलचुरिकालीन भगवान शांतिनाथ की प्रतिमायें- शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अगस्त, १९७२ ३. ध्रुबेला संग्रहालय की जैन प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, जन, १६७४ ४. कारीतलाई की द्विमूर्तिका जैन प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, सितम्बर, १९७५ ५. कलचुरिकला में जैन शासन देवियों की मूर्तियाँ-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अगस्त, १९७४ ६. भारतीय जैन शिल्पकला को कलचुरि नरेशों की देन, शिवकुमार नामदेव, जैन प्रचारक, सितम्बर-अक्टूबर, १९७४ ७. जैन कलातीर्थ खजुराहो-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अक्टूबर, १६७४ ८. खजुराहो की अद्वितीय जैन प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, अनेकांत, फरवरी, १९७४ ६ मध्यप्रदेश में जैन धर्म एवं कला, शिवकुमार नामदेव, सन्मति संदेश, अप्रेल-मई, १९७५; भारतीय जैन कला को मध्यप्रदेश की देन-शिवकुमार नामदेव, सन्मति वाणी, मई-जून, १९७५ १० जैन धर्म एवं उज्जयिनी-शिवकुमार नामदेव, सन्मतिवाणी, जुलाई, १९७५. Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : विकास और परम्परा ................................................................. १५६ . ...... कर्नाटक में जैन धर्म का अस्तित्व प्रथम सदी ई० पू० से ११वीं सदी तक ज्ञात होता है । होयशल नरेश इस मत के प्रबल पोषक थे। इस काल की बृहताकार प्रतिमायें श्रत्रण बेलगोल, कार्कल एवं बेलूर में स्थापित है। कर्नाटक में देवालय एवं गुफायें-ऐहोल, बादामी, पट्टडकल, लकुण्डी, बंकपुर, बेलगाम, बल्लिगवे आदि में है—जो देवप्रतिमाओं में विभूषित हैं। कर्नाटक में पद्मावती सर्वाधिक लोकप्रिय यक्षी रही है। कर्नाटक में गोम्मट की अनेक मूर्तियाँ हैं । ई० सन् ६५० की गोम्मट की एक प्रतिमा बीजापुर जिले के बादामी की है। बंगाल में जैन धर्म का अस्तित्व प्राचीन काल में रहा है। यहाँ के धरापात के एक प्रतिमाविहीन देवालय के तीनों ओर ताकों में विशाल प्रतिमाये थीं, जिनमें पृष्ठभाग वाली में ऋषभदेव, वाम पक्ष से प्रदक्षिणा करते शांतिनाथ आदि थे। ये मूर्तियाँ सम्भवत: आठवीं सदी की हैं । बहुलारा के एक मन्दिर के सामने वेदी पर तीन प्रतिमायें हैं। मध्यवर्ती प्रतिमा भगवान शांतिनाथ की है। इसके अतिरिक्त बांकुड़ा जिले के हाडमासरा के निकट जंगल में एक पार्श्वनाथ की प्रतिमा तथा पाकबेडरा में अनेकों प्रतिमा संरक्षित हैं । तामिलनाडु से भी अनेक प्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं । कलगुमलाई से चतुर्भुज पद्मावती की ललितमुद्रा में (१०-११ वीं) सदी की मूर्ति प्राप्त हुई है। मदुरा तमिलनाडु का महत्वपूर्ण नगर है। यहाँ पर जैन संस्कृति की गौरव-गरिमा में अभिवृद्धि करने वाली कलात्मक सामग्री विद्यमान है । बिहार प्रदेश से उपलब्ध अनेकों प्रतिमायें पटना संग्रहालय में हैं। सग्रहालय में चौसा के शाहाबाद से प्राप्त जैन धातु मूर्तियाँ भी सुरक्षित हैं। नालन्दा संग्रहालय में भी अनेक मूर्तियाँ संरक्षित हैं। राजस्थान के ओसियां नामक स्थल में महावीर का एक प्राचीन मन्दिर है, जो हवीं सदी का है । मन्दिर में महावीर की एक विशालकाय मूर्ति है । इस स्थान से उपलब्ध पार्श्वनाथ की धातुमूर्ति कलकत्ता संग्रहालय में है। जयपुर के निकट चांदनगाँव एक अतिशय क्षेत्र है। यहाँ महाबीर के मन्दिर में महावीर की भव्य सुन्दर मूर्ति है। जोधपुर के निकट गांधाणी तीर्थ में भगवान ऋषभनाथ की धातु मूर्ति ६३७ ई० की है। देलवाड़ा में स्थित हिन्दू एवं जैन मन्दिर प्रसिद्ध है। इसी प्रकार राणकपुर के मन्दिर भी सुन्दर हैं। ____ महाराष्ट्र प्रदेश में जैन प्रतिमायें बहुसंख्या में उपलब्ध हुई हैं। एलोरा (6वीं सदी) की गुफाएँ तीर्थकर प्रतिमाओं से भरी पड़ी हैं । छोटा कैलाश (गुहा संख्या ३० लेकर गुहा क्रमांक ३४ तक) की गुहायें जैन-धर्म से सम्बन्धित हैं । अंकाई-तंकाई में जैनों की सात गुफायें हैं जहाँ जैन-प्रतिमायें भी हैं। गुजरात जैन शिल्पकला की दृष्टि से समृद्ध राज्य रहा है । गुजरात के चालुक्य नरेशों के काल में अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण हुआ। कुमारिया एक प्राचीन जैन तीर्थ है। बड़नगर में चालुक्य नरेश मूलराज (९४२-६६७) के काल का आदिनाथ का मन्दिर है। गुजरात के अन्य जैन देवालयों में जैन मत की प्रतिमायें हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न स्थलों से प्राप्त मूर्तियाँ विभिन्न संग्रहालयों की श्रीवृद्धि के साथ-साथ इस प्रदेश में जैन धर्म के प्रचार का द्योतन भी कर रही हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में जैन-मूर्ति निर्माण कला का प्रारम्भ चार हजार वर्ष ई० पू० में हो चका था । सिन्धु सभ्यता से उपलब्ध प्रतिमायें इस मत की साक्षी हैं। तब से लेकर आज तक यह परम्परा अक्षण्ण बनी हुई हैं । देश के विभिन्न भागों में उपलब्ध प्रतिमायें इस धर्म की प्राचीनता एवं विकास की ओर इंगित करती हैं। वास्तुकला भारतीय वास्तुकला का इतिहास मानव-विकास के युग सम्बद्ध है, परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से इसका इतिहास १ जैनिज्म इन साउथ इंडिया-देसाई, पी० बी०, पृ० १६३. २ जैनिज्म इज साउथ इंडिया-देसाई, पी० बी०, प० ६५. Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड सिन्धु-सभ्यता से प्रारम्भ होता है। भारतीय जैन वास्तुकला का प्रवाह समय की गति और शक्ति के अनुरूप बहता गया । समय-समय पर कलाविदों ने इसमें नवीन तत्वों को प्रविष्ट कराया । वास्तु-निवेश व मानोन्मान सम्बन्धी अपनी परम्पराओं में जैन कला, जैन धर्म की त्रैलोक्य सम्बन्धी मान्यताओं से प्रभावित हुई पाई जाती है । जैन कला के विद्यमान दृष्टान्त उत्कृष्ट कला के प्रतीक हैं। जैन गुफायें भारत की सबसे प्राचीन व प्रसिद्ध जैन गुफायें बाराबर और नागार्जुन पहाड़ियों पर स्थित हैं । बाराबर पहाड़ी (गया से उत्तर में १३ मील) में ४ एवं नागार्जन पहाड़ी (बाराबर के उत्तर-पूर्व में लगभग १ मील) में तीन गुफायें हैं । बाराबर पहाड़ी की लोमस ऋषि एवं सुदामा तथा नागार्जुन पहाड़ी की गोपी गुफा दर्शनीय हैं। इन गुफाओं का निर्माण मौर्य सम्राट अशोक एवं उसके पौत्र दशरथ ने आजीविक सम्प्रदाय के साधुओं के लिए कराया था। आजीविक यद्यपि मौर्यकाल में एक पथक् सम्प्रदाय था तथापि ऐतिहासिक प्रमाणों से उसकी उत्पत्ति व विलय जैन सम्प्रदाय में ही हुआ सिद्ध होता है। अत: इन गुफाओं का जैन ऐतिहासिक परम्परा में ही उल्लेख किया जाता है। उड़ीसा में भुवनेश्वर से ५ मील उत्तर पश्चिम में खण्डगिरि-उदयगिरि की पहाड़ियाँ हैं। वहाँ अधिकांश शैलगृहों का निर्माण साधुओं के निवास के लिए किया गया है । इन गुफाओं का निर्माण ई० पू० दूसरी सदी में हुआ था। उदयगिरि की हाथीगुफा नामक गुहा में ई० पू० दूसरी शती का एक लेख है। उसमें कलिंग के जैन शासक खारवेल का जीवन चरित व उपलब्धियाँ विस्तार से वणित हैं। लेख का आरम्भ अर्हतों के एवं सर्वसिद्धों के प्रति नमस्कार के साथ प्रारम्भ हुआ है । उदयगिरि की पहाड़ी में १६ एवं खण्डगिरि में १६ गुफायें हैं। उक्त गुफाओं में से अनेक का निर्माण जैन साधुओं के निवास के लिए, खारवेल के काल में हुआ था। इसकी रानी (अग्रमहिषी) ने मंचपुरी गुहा की उपरली मंजिल का निर्माण कराया था। राजगिरि की पहाड़ी में स्थित सोनमंडार नामक गुहा है, जिसका काल सम्भवतः ई० पू० प्रथम शती के लगभग है। प्रयाग तथा प्राचीन कौशाम्बी (कोसम) के निकट स्थित पभोसा में दो जैन गुफायें हैं । लेख से ज्ञात होता है कि इनका निर्माण अहिन्त्र के आषाटसेन ने काश्यपीय अर्हन्तों के लिए (ई० पू० दूसरी सदी) में कराया था। जूनागढ़ (काठियावाड़) के बाबा प्यारामठ के निकट कुछ गुफायें हैं । कतिपय गुफाओं में जैन चिह्न पाये जाये हैं । इनका निर्माण काल क्षत्रप राजाओं (ई. द्वितीय शती) के समय में हुआ था। इन्हीं के काल की कुछ गुफायें ढंक नामक स्थान पर भी विद्यमान हैं। मध्यप्रदेश में विदिशा के निकट, बेसनगर से दो मील दक्षिण-पश्चिम तथा सांची से ५ मील पर स्थित लगभग डेढ़ मील लम्बी पर्वत श्रृंखला है। इसी पर्वत श्रृंखला पर उदयगिरि की २० गुहायें एवं मन्दिर हैं । इनमें से दो गफायें जैन धर्म से सम्बन्धित हैं। इनमें से एक गुफा में गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय एवं दूसरी में कुमारगप्त प्रथम का लेख है। ऐतिहासिक परम्परानुसार दक्षिण भारत में जैन धर्म का प्रवेश ई० पू० चौथी शती में हुआ था। कर्नाटक प्रदेश के हसन जिला में स्थित चन्द्रगिरि पहाड़ी पर एक छोटी भद्रबाहु नामक गुफा है। दक्षिण भारत में यही सबसे प्राचीन गुफा है । मद्रास में तंजोर के निकट सित्तनवासल नामक स्थान में एक जैन गुफा है। बम्बई के ऐहोल नामक स्थान के पास बादामी की जैन गुफा उल्लेखनीय है। इसका निर्माण काल लगभग ६५० ई० है । बीजापुर जिले में स्थित ऐहोल के समीप पूर्व एवं उत्तर की ओर गुहायें हैं, जिनमें भी जैन मूर्तियां स्थापित हैं। गुफाओं से पूर्व में मेधरी १ जैन वास्तुकला-संक्षिप्त विवेचन, शिवकुमार नामदेव, श्रमण, दिसम्बर, ७६. २ भारत में प्राचीन जैन गुफायें-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अक्टूबर, ७६. Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कला : विकास और परम्परा १६१ orrora.or.ororare................................................. नामक जैन मन्दिर है। अजन्ता से लगभग ५० मील की दूरी पर एलौरा का शिला पर्वत अनेक गुहा-मन्दिरों से अलंकृत है। यहाँ पर पाँच जैन गुफायें हैं जिनका निर्माण काल ८०० ई० के लगभग है। ___ महाराष्ट्र प्रदेश में उस्मानाबाद से लगभग १२ मील पर स्थित पर्वत में भी गुफायें हैं। तीन गुफाओं में जिनप्रतिमाएँ विद्यमान हैं। इन गुफाओं का निर्माण काल बर्गेस के मत में ५००-६५० ई. के मध्य में हुआ था। ११वीं शती की कुछ जैन गुफाएं अंकाई-तंकाई में हैं। मध्यप्रदेश के ग्वालियर नगर में १५वीं सदी में निर्मित तोमर राजवंश के काल की जैन गुफाएँ हैं । उपर्युक्त गुफाओं के अतिरिक्त भारत के विभिन्न भूभागों पर जैन गुफाएँ विद्यमान हैं। स्तूप-चैत्य, मानस्तम्भ एवं कोतिस्तम्भ प्राचीन जैन स्तूप सुरक्षित अवस्था में विद्यमान नहीं हैं । मथुरा जो जैन धर्म का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था, वहाँ अनेक स्तूपों एवं विहारों का निर्माण हुआ था। मथुरा में दो प्रमुख स्तूपों का निर्माण शुग और कुषाण काल में हुआ था । मध्यकाल में भारत में जैन देवालय के सामने विशाल-स्तम्भों के निर्माण की परम्परा थी। चित्तौड़ का कीतिस्तम्भ कला की भव्यता का मूक साक्षी है । कीर्तिस्तम्भ एवं मानस्तम्भ के भी उदाहरण उपलब्ध हैं। मन्दिर पूरातन जैन अवशेषों में मन्दिरों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारतवर्ष में सबसे प्राचीन जैन मन्दिर जिसकी रूपरेखा सुरक्षित है, वह है ऐहोल का मेगुटी मन्दिर । इसका निर्माण ६३४ ई० में कराया गया था। उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले में स्थित देवगढ़ के जैन मन्दिरों में केवल क्रमांक १२ एवं १५ ही अधिक सुरक्षित हैं, इन प्रतिहारकालीन मन्दिरों के निर्माण की तिथि हवीं शती ई० है। राजस्थान के मन्दिरों में ओसियां (जिला जोधपुर) के महावीर मन्दिर का निर्माण प्रतिहारनरेश वत्सराज (७८३-६२) के समय में हुआ था । अभिलेखीय साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर का प्रवेश मण्डप ६५६ ई० में पुनर्निर्मित किया गया था तथा १०५६ ई० में एक अलंकृत तोरण का निर्माण हुआ था । घानेराव (जिला पाली) के महावीर मन्दिर का गर्भगृह आकार में त्रिरथ है। इस मन्दिर की तिथि १०वीं सदी ई० है । उदयपुर के निकट स्थित अहाड का महावीर मन्दिर १०वीं सदी के अन्त की रचना है । कुभारियाजी (जिला बनासकांठा) में जैन मन्दिरों का एक समूह है, जिनका काल ११वीं सदी है। आबू पर्वत पर बने हुए जैन मन्दिरों की अपनी एक निराली शान है। यहाँ ४-५ हजार फीट ऊँची पहाड़ी की हरी भरी घाटी में जैन मन्दिर हैं। इसे देलवाड़ा कहते हैं । देलवाड़ा के जैन मन्दिरों पर सोलंकी शैली का प्रभाव है। इन मन्दिरों में विमलवसहि एवं लूणवसहि प्रमुख हैं। प्रथम का निर्माण १०३१ ई० में विमलशाह ने कराया था। इस मन्दिर में विमलशाह के वंशज पृथ्वीपाल ने ११५० ई. में सभामण्डप की रचना करायी थी। मन्दिर आदिनाथ को समर्पित किया गया है। द्वितीय मन्दिर का निर्माण १२३० में वस्तुपाल-तेजपाल बन्धुओं ने, जो गुजरात के चालुक्य नरेश के मन्त्री थे, कराया था। ___ गुजरात में जैन मन्दिर शत्रुजय एवं गिरनार की पहाड़ी पर स्थित हैं। गिरनार (जिला जूनागढ़) में स्थित आदिनाथ मन्दिर का निर्माण एक जैन मन्त्री वस्तुपाल ने कराया था। इसी के समकालीन तरंग का बृहत जैन मन्दिर है जिसका निर्माण कुमारपाल ने कराया था । जैनियों ने अनेक तीर्थस्थानों में विशाल कलात्मक मन्दिरों का निर्माण कराया था। बिहार में पारसनाथ, कर्नाटक में श्रवणबेलगोला, मध्यप्रदेश में खजुराहो, कुण्डलपुर, मुक्तागिरि तथा दक्षिण भारत में मुड़-बिद्रि एवं गुरुवायंकेरी के मन्दिरों में मन्दिर निर्माण कला का विकसित रूप दृष्टिगोचर होता है। मध्यप्रदेश के निमाड़ जिले में स्थित ऊन में दो जैन मन्दिर हैं जो भूमिज मन्दिर वर्ग समूह के हैं । राजस्थान में भूमिज शैली का प्राचीन मन्दिर पाली जिले में स्थित सेवरी का महावीर मन्दिर है, यह मन्दिर रूपरेखा में पंचरथ है। इसका काल १०१०-१०२० ई० ज्ञात होता है। इस शैली का एक अन्य प्राचीन मन्दिर मध्यप्रदेश के रायपुर जिले में स्थित आरंग का जैन मन्दिर है, Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १६२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड जो मांडदेवल के नाम से जाना जाता है, इसका निर्माण ११वीं सदी में हुआ था। जगतविख्यात वास्तुशिल्प केन्द्र खजुराहो के मन्दिरों में पार्श्वनाथ, आदिनाथ एवं शान्तिनाथ के मन्दिर उल्लेखनीय हैं । चित्रकला जैन चित्रकला की अपनी विणिष्ट परम्परा रही है। ताड़पत्रों, वस्त्रों एवं कागजों पर बने चित्र अत्यन्त प्राणवान, रोचक और कलापूर्ण हैं। जहाँ तक जैन भित्ति-चित्रकला का प्रश्न है, इसके सबसे प्राचीन उदाहरण तंजोर के समीप सित्तनवासल की गुफा में मिलते हैं। इनका निर्माण पल्लवनरेश महेन्द्रवर्मा प्रथम के राज्यकाल (६२५ ई.) में हुआ था। जहाँ तक ताडपत्रीय चित्रों का सम्बन्ध है, इनका काल ११वीं शती से १४वीं शती तक रहा। सबसे प्राचीन चित्रित ताडपत्र ग्रन्थ कर्नाटक के मुड़बिद्रि तथा पाटन (गुजरात) के जैन भण्डारों में मिले हैं। कागज की सबसे प्राचीन चित्रित प्रति १४२७ में लिखित कल्पसूत्र है, जो सम्प्रति लन्दन की इण्डिया ओफिस लाइब्रेरी में है। जैन शास्त्र भण्डारों में काष्ठ के ऊपर चित्रकारी के कुछ नमूने प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार चित्रकला के आधार पर जैन धर्म की प्राचीनता ७वीं सदी ई. तक ज्ञात कर सकते हैं। परन्तु कतिपय कला-समीक्षकों ने जोगीमारा गुफा (म०प्र०) में चित्रित कुछ चित्रों का विषय जैन धर्म से सम्बन्धित बताया है। यदि इसे आधार मानें दो इस धर्म की चित्रकला की प्राचीनता ३०० ई० पू० तक मानी जा सकती है। उपर्युक्त विवेचन के सम्यक् परीक्षण के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि जैन धर्म एक अत्यन्त प्राचीन धर्म है । सिन्धु सभ्यता से प्राप्त धड़ के आधार पर इस मत की प्राचीनता ४ हजार वर्ष ई०पू० तक जाती है। अवध, तिरहुत, बिहार के प्रान्तों में आरम्भ से ही जैन धर्म प्रचलित हो गया था। उड़ीसा के उदयगिरि एवं खण्ड गिरि की सर्वविदित गुफाओं का काल ई०पू० दूसरी सदी है। कुषाण काल में जैन मत मथुरा में भली भाँति प्रचलित था। राजस्थान, कठियावाड़-गुजरात आदि में वह काफी लोकप्रिय था। ७वीं सदी में बंगाल से लेकर तमिलनाडु तक वह फैला था। मध्ययुग में देश के विभिन्न-भागों में निर्मित जैन कला-कृतियाँ इस मत के विकास एवं प्रसार को सूचित करती हैं। सारांश यह है कि कलात्मक साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ईस्वी सन् की पहली शताब्दी तक जैन धर्म का प्रचार, मगध, उड़ीसा, विदर्भ, गुजरात आदि प्रदेशों में अर्थात् समस्त उत्तर भारत में हो चुका था। दक्षिणी भारत में जैन धर्म का प्रचार ईसा पूर्व तीन सौ वर्ष से आरम्भ हुआ और ईसा के १३०० वर्ष बाद तक वहाँ इसका खूब प्रचार रहा। D00 Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +++ राजस्थान की जैन कला [] श्री अगरचन्द नाहटा नाहटों की गुवाङ, बीकानेर (राज० ) जैन मान्यता के अनुसार भगवान ऋषभदेव के पहले मनुष्यों का जीवन पशु-पक्षियों की तरह बंधा-बँधाया रूढ़ या प्राकृतिक था । भगवान ऋषभदेव ने युग की आवश्यकता और भावी विकास की संभावनाओं पर ध्यान देकर सबसे पहले क्रान्ति की। जीवन को नये ढंग से जीना सिखाया। अपने पुत्र और पुत्रियों को पुरुषोचित बहत्तर और स्त्रियों की ६४ विद्याएँ या कलाएँ सिखाई जिनके अन्तर्गत उपयोगी ललित कलाओं का समावेण हो जाता है अतः कला के विकास और प्रसार में भगवान ऋषभदेव का सर्वाग्रणी स्थान है। उन्होंने अपनी पुत्री ब्राह्मी को वर्णमाला के अक्षर सिखाए जिससे लेखन कला का विकास हुआ। दूसरी पुत्री सुन्दरी को अंक सिखाए जिससे गणित विज्ञान विकसित हो सका। असि मसि, कृषि, शिल्प, वाणिज्य आदि जीवनोपयोगी उद्योग सिखाए उससे पहले मनुष्य बहुत कुछ वृक्षों पर निर्भर था। उन वृक्षों के द्वारा सभी इच्छित और आवश्यक वस्तुओं की प्राप्ति होती थी । इसीलिये उन्हें 'कल्पवृक्ष' कहा गया है। भवन निर्माण, कुम्भकार, सुधार आदि की सभी कलाएँ अपभदेव से ही प्रकाशित और विकसित हुई। विविध रूपों में इन्हीं का आगे चलकर अद्भूत विकास हुआ। कला को देश-काल, क्षेत्र और धर्म में विभाजित करने की आवश्यकता नहीं; पर प्रत्येक काल, क्षेत्र, धर्म और संस्कृति में कुछ मौलिक ऐसी विशेषताएं होती हैं, जिससे कलाओं के अध्ययन में सुविधा हो जाती है इसलिए यहाँ भारतीय कला में से क्षेत्र की दृष्टि से राजस्थान, धर्म और संस्कृति की दृष्टि से जैन धर्म व संस्कृति को प्रधानता देते हुए विचार किया जायेगा । ++++ कला के अनेक प्रकार है, उनमें से मन्दिर मूर्तिकला और चित्रकलाओं के नाथित विविध रूपों पर यहाँ संक्षेप में प्रकाश डाला जायेगा । जैन लेखन कला पर विस्तार से स्वर्गीय आगम- प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी का गुजराती में स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। जैन मूर्तिकला पर डॉ० उमाकान्त शाह ने विशेष अध्ययन करके विस्तृत शोध प्रबन्ध लिखा है और जैन चित्रकला पर भी डा० मोतीचन्द आदि के ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं । डॉ० सरयू मोदी ने भी चित्रकला का अच्छा अध्ययन किया है पर उनका शोध प्रबन्ध अभी तक प्रकाशित हुआ देखने में नहीं आया । जैन आगमों के अनुसार भगवान महावीर के ७० वर्ष बाद की ओसियां में जैन मन्दिर और मूर्ति का निर्माण हुआ था, जिसकी प्रतिष्ठा पार्श्वनाथ संतानीय रत्नप्रभसूरि ने की पर ओसियां का वर्तमान मन्दिर आठवीं शताब्दी से पहले का नहीं लगता। जैन मूर्तियां भी राजस्थान में आठवीं शताब्दी से अधिक संख्या में मिलने लगती है। यद्यपि सांचोर परम्परा इससे पहले की जरूर रही होगी । 'विविध तीर्थ कल्प' आदि ग्रन्थों से पता चलता है कि मालनगर, आदि स्थानों में इससे काफी पहले जैन मन्दिर और मूर्तियां बन चुकी थीं। संवत् ६३५ में जालौर में रचित 'कुवलयमाला' ग्रन्थ की प्रशस्ति में लिखा है कि P तस्स खमासमणगुणा णामेणं जक्खयत्त गणिणामो ॥ सीसो महइ महापा आसि तिलोए विपयडजसो ॥७॥ तस्स य बहुया सीसा तववीरी अवयजलाद्धि संपणज ॥ एम्मो गुज्जरदिसो किमदेव एहि ॥ O . Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .0 १६४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षण्ठ खण्ड उस समय गुजरात का नाम गुजरात नहीं था। राजस्थान के नागौर, डीडवाना, मण्डीर, भीनमाल आदि प्रदेश को प्राचीन लेखों में गुजरात के अन्तर्गत माना जाता है । कुवलयमाला की प्रशस्ति में ऊपर उद्धृत श्लोक से पहले यक्षदत्त के गुरु शिवचन्द्र गणि महत्तर के लिये लिखा है कि जिन वन्दन के लिए घूमते हुए वे भीनमाल नगर में रहे, अर्थात् ८वीं शताब्दी से पहले भी भीनमाल में जैन मन्दिर थे । संवत १५ में नागौर में भोजदेव के राज्य में रचित 'धर्मोपदेश मालावृत्ति की प्रशस्ति में लिखा है कि यक्ष महत्तर ने खट्टऊवय ( खाटू) में जैन मन्दिर बनवाया। कुमारपाल चरित्र' के अनुसार यह मन्दिर नारायण सेठ ने ७१६ में महावीर भगवान का बनवाया था। धर्मोपदेशमाला प्रशस्ति की गाथाएँ नीचे उद्धृत की जा रही हैं कोए वियाणी जिणमंदिराणि नेगाणि जेण गच्छाण । देसेसु बहुविहेसु चउहिसिर संघ जत्ताणि ॥ नगरे सयं वुच्छो, युत्त वा जाव गुज्जरत्ताए । नागउराह जिणमंदिराणि जायाणि जेयाणि ।। विविध तीर्थ कल्प के अनुसार सांचोर का महावीर मन्दिर वीर मूर्ति स्थापित की थी जिसकी प्रतिष्ठा मंदिर बना था । +++ संवत् ६०० में बनाकर पीतल की महावीर करने की थी अर्थात् विक्रम संवत् १३० में सांचोर का महावीर राजस्थान के जैन मन्दिर और मूर्तियों की कला का अध्ययन दवीं शताब्दी से तो विधिवत् किया जा सकता है। वीं शताब्दी की जो पीतल की मूर्तियां बंसतगढ़ आदि से मिली हैं, वे गुप्तकालीन जैन कला का प्रतिनिधित्व करती हैं। उसी समय की एक भव्य धातु-मूर्ति बीकानेर के चितामणिजी के मंदिर में भी है जो अभी सुरक्षा की दृष्टि से बैंक के लोकर्स में रखी हुई है। अकबर द्वारा सम्मानित राजस्थान के महाकवि समयसुन्दर ने सं० १६६२ में गंगाजी तीर्थ स्तवन बनाया है जिसमें मंडोर देश के गाँधीजी के चुघेला तालाब के खोकर नायक मंदिर के पीछे भुंवरि में जो मूर्तियाँ संवत् १६६२ के जेठ सुदी ११ को प्रकट हुई उन ६५ प्रतिमाओं का विवरण देते हुए लिखा है कि वीर संवत् २०३ में आर्य सुहस्तिरि द्वारा माघ सुदी को प्रतिष्ठित और संप्रति राजा कारित श्वेत सेना की प्रतिमा मिली है और वर सं० १७० में चन्द्रगुप्त कारित और भद्रबाहु प्रतिष्ठित प्रतिमा मिली है । समयसुन्दर के दिये हुए विवरण का आवश्यक अंश नीचे दिया जा रहा है : ८ प्रगटचऊ खरउ भूइरउ किण माँहि प्रतिमा चली । जेठ सुदी ११ सोलह व्यसढ़ विस प्रकट चउ मन रली ॥ जैसे तिडीतर वीरथी, संवत् प्रबल प्रष्टर । पद्म प्रभु प्रतिष्ठियां, आर्य सुहस्ती सूरि ॥ माह ती सुदि आठमी, शुभ मुहरत विचार । ए लिपि प्रतिमा पूढे लिखी, ते यांची सुविचार ॥ ८ ॥ अर्जुन पास जुहारियर, अर्जुन पुरि सिणगारो जी। तीर्थंकर तेवीसयउ मुक्ति तणउ चन्द्रगुप्त राजा थयउ, चाणिक्यइ दीघउ तिण ए बिंबभरावियउ सारचा उत्तम कांजी जी ।। ३अ० ॥ महावीर संवत् थकी बरस, सत्तर सउ वीतो जी । तिण समै चवद पूरव धरू, श्रुत केवली सुविदीतो जी ॥ ४ ॥ दातारो जी ॥ २अ० ॥ राजो जी । Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान की जैन कला भद्रबाहू सामी क्या, गि फोधी प्रतिष्ठो जी आज सफल दिन माहरउ, ते प्रतिमा मइ दीठो जी ॥ ५ ॥ राजस्थान में पुराने जैन मन्दिर अब उसी रूप में नहीं रहे जिस रूप में वे बने थे, क्योंकि ज्यों-ज्यों मन्दिर जीर्ण होते गये, उनका जीर्णोद्धार करते गये, उनका परिवर्तन व परिवर्द्धन होता गया फिर भी कुछ अंश पुराना बचा होगा । अब उससे प्राचीन जैन मन्दिर और स्थापत्य कला के विकास का सही चित्र उपस्थित नहीं किया जा सकता । पर मूर्तियाँ जो भी प्राप्त हैं वे तो उसी रूप में विद्यमान हैं। इसीलिए उनके आधार पर मूर्तिकला में जो विकास और ह्रास हुआ है, उस पर कला मर्मज्ञों द्वारा अच्छा प्रकाश डाला जा सकता है । पाषाण की मूर्तियों में इतनी विविधता नहीं जितनी जैन धातु मूर्तियों में पाई जाती है। वास्तव में जैन तीर्थकरों की ही नहीं अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों में भी बहुत परिवर्तन दिखाई देता है। धातु की मूर्तियों में त्रितीर्थी, पंचतीर्थी और विंशतिका (चौबीस) जैन मूर्तियां विविध प्रकार की पायी जाती हैं, आगे चलकर कला का हास भी नजर आता है । पर आठवीं शताब्दी से ग्यारहवीं, बारहवीं शताब्दी की मूर्तियाँ बड़ी सुन्दर हैं। तेरहवीं के बाद से कला में ह्रास शुरू होता है, यहाँ जैन मूर्तियों के सम्बन्ध में चर्चा करने का अवकाश नहीं है । जैन मन्दिर और मूर्ति निर्माण के सम्बंध में जो वास्तुसार आदि ग्रंथ पाये जाते हैं उनकी अपेक्षा प्राप्त मूर्तियों की विविधता बहुत अधिक है । इसलिए जिस प्रकार गुजराती में 'गुजरात प्रतिमा विधान' नामक ग्रंथ निकला है, उसी तरह राजस्थान में तीर्थंकरों, देवी-देवताओं आदि की मूर्तियों के क्रमिक विकास का अध्ययन प्रकाश में आना चाहिए। मूर्तियों के अलंकरण रूप में जो पार्श्ववर्ती परिकर आदि की सुन्दर कला का विकास हुआ, विशेष रूप से उल्लेखनीय है । सौभाग्य से जैन धातु मूर्तियाँ हजारों की संख्या में अब भी बच पाई हैं और वे आठवीं शताब्दी से लेकर अब तक की निरन्तर बनी हुई अच्छी संख्या में प्राप्त हैं। वैसे तो प्रत्येक मन्दिर में पाषाण मूर्तियों के साथ-साथ धातु मूर्तियां भी मिलती हैं, पर बीकानेर के चिन्तामणि मन्दिर और महावीर मन्दिर के भौंयरे में करीब १३५० मूर्तियाँ एक साथ देखने को मिल जाती है। इनमें से चिन्तामणि मन्दिर के भीयरे में जो ११०० प्रतिमाएं हैं उनमें से १०५० तो ० १६३५ में तुरसमखान ने जो सिरोही में लूट की थी वहाँ से सम्राट अकबर के पास गई और वहाँ से सं० १६३९ में बीकानेर के महाराजा रायसिंह और मंत्री करमचन्द बच्छावत के प्रयत्न से यहाँ आई । इन प्रतिमाओं के लेख हमने बीकानेर जैन लेख संग्रह में प्रकाशित कर दिये है तथा साथ ही कुछ प्रतिमाओं के ग्रुप फोटो भी इसी तरह वेदों के महावीर मन्दिर के एक गुप्त स्थान में २३५ धातु प्रतिमाएँ सुरक्षित हैं, जिनमें से कुछ के ही लेख हम अपने संग्रह में ले सके हैं । 1 १६५ सिरोही में भी एक जैन संग्रहालय में काफी जैन धातु मूर्तियों का संग्रह किया गया है, पर उन सबके लेख व फोटो प्रकाशित न होने से वे किन-किन संवतों की और कैसी विविधता वाली हैं, यह कहा नहीं जा सकता । वास्तव में जैन मूर्ति कला का अध्ययन केवल पाषाण मूर्तियों द्वारा ठीक से नहीं हो सकता । धातु मूर्तियों की खूबियों और विविधता को कलात्मक अध्ययन के लिए जानना बहुत ही आवश्यक है। कमलाकार पंखुड़ियों पर और बीच में जो एक सुन्दर जैन मूर्तियों का पुष्प मिलता है वह खिला हुआ मूर्ति पुष्प देखते ही मनुष्य का हृदय कमल खिल उठता है । या हो चुकी हैं जैन देवी-देवताओं की मूर्तियों में पल्लू से प्राप्त पाषाण की दो सरस्वती मूर्तियाँ तो और उसी तरह की दिगम्बर मन्दिर की सरस्वती मूर्ति बहुत ही सुन्दर है और लेख युक्त है । जैन मूर्तिकला का एक विशिष्ट रूप जीवंत स्वामी की प्रतिमा है। प्राचीन उल्लेखों के अनुसार तो मालवा और राजस्थान आदि में कई जीवंत स्वामी की प्रतिमाएँ प्रसिद्ध व पूज्य रही हैं। ये प्रतिमाएँ अधिकांश लुप्त हो गई है। गुजरात में जो थोड़ी-सी जीवंत स्वामी की प्रतिमाएं मिलती हैं उनमें से एक प्राचीन धातु प्रतिमा बहुत ही भव्य है । राजस्थान में जो पाषाण की विशाल प्रतिमाएँ मिली हैं वे मध्यकाल की होने पर भी बहुत ही आकर्षक और कलापूर्ण हैं । उनमें से नागौर के निकटवर्ती खींवसर से प्राप्त जीवंत स्वामी की लेख युक्त प्रतिमा तो अब जोधपुर के जैन की शोभा बढ़ा रही है पर अभी-अभी ओसियां के महावीर मन्दिर में यण्डित जीवंत स्वामी की तीन +0+8 . Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ·0 १६६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड SIC प्रतिमाएँ मिली हैं, वे भी महत्त्वपूर्ण हैं । उनमें से एक के ऊपर ११वीं शताब्दी का लेख भी खुदा हुआ है। इन प्रति-माओं का विवरण जैन सिद्धान्त भास्कर १६७४ के अंक में मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी के लेख में प्रकाशित हो चुका है । जैन मन्दिरों और मूर्तियों की कला के सम्बन्ध में प्रस्तुत लेख में थोड़ा-सा संकेत कर दिया है। आबू और राणकपुर आदि के मन्दिर तो विश्वविख्यात हैं पर इस शैली और कोरनी वाले जैन मन्दिर भी कई हैं। जैसलमेर के जैन मन्दिर भी स्थानीय पीले पाषाण के सुन्दर हैं तथा कारीगरी व कोरनी के प्रतीक हैं । कई मन्दिरों में द्वार तो बहुत ही कलापूर्ण है तथा कइयों के खम्भे, छतें बारीक, कोरणी और सुन्दर के उत्कृष्ट नमूने हैं । मुसलमानों के आक्रमण से बहुत से प्राचीन व कलापूर्ण मन्दिर और मूर्तियों का भयंकर विनाश होने पर भी जैन संघ की महान भक्ति, कलाप्रियता के कारण बहुत से मन्दिर व मूर्तियाँ सुरक्षित रह सकीं व समय-समय पर जीर्णोद्वार होता रहा है। इसीलिए हिन्दू मन्दिर और मूदियों की अपेक्षा ों की संख्या कम होने पर भी जैन मन्दिर और मूर्तियाँ अधिक सुरक्षित रह सकी हैं। इनके द्वारा हम केवल प्राचीन कला की ही जानकारी नहीं पाते पर साथ ही समय-समय पर जनता की लोकप्रियता में जो नये-नये मोड़ आये, उनकी भी अच्छी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । कई जैन मन्दिरों में काँच का काम व कइयों में चित्रकला आदि अनेक तरह के कलाप्रेम का दिग्दर्शन मिल जाता है। अब हम चित्रकला के विकास व संरक्षण में जो राजस्थान के जैन समाज का बहुत बड़ा योग रहा है उसका संक्षिप्त परिचय देने जा रहे हैं । भारतीय चित्रकला के प्राचीन नमूने गुफाओं आदि में मिलते हैं। राजस्थान में ऐसी प्राचीन गुफाएँ, जिनमें सुन्दर चित्र अंकित हों, नहीं पायी जातीं । इसलिए हम राजस्थान की जैन चित्रकला का प्रारम्भ काष्ठपट्टिकाओं और ताड़पत्रीय प्रतियों से करते हैं, जो सर्वाधिक जेसलमेर के जनभरि ज्ञान भण्डार में सुरक्षित हैं। सचित्र काष्टकाओं सम्बन्धी एक ग्रन्थ 'जैसलमेर नी चित्र समृद्धि' साराभाई नवाब अहमदाबाद ने प्रकाशित किया है। राजस्थान की ललित कला अकादमी 'जैसलमेर में सुरक्षित चित्रकला की सामग्री' सीपैक से पट्टिकाएँ व ताड़पत्रीय प्रतियां जैसलमेर के बड़ा ग्रंथ भण्डार की पत्रिका 'आकृति' अप्रेस ७५ के अंक में मेरा एक लेख प्रकाशित हुआ है। वास्तव में सबसे प्राचीन सचित्र की अमूल्य निधि हैं। 1 जैन चित्रकला के प्राप्त उपादानों में १२वीं शताब्दी' से काष्ठपट्टिकाओं वाले चित्र बहुत उल्लेखनीय हैं । यद्यपि कई चित्र काठमाकाऍ इससे पहले की भी हो सकती हैं पर जिनका समय निश्चित है उनके सम्बन्ध में मैंने चर्चा की है। संवत् १६६६ में जब मैं प्रथम बार जैसलमेर के भण्डारों को देखने गया तो मैंने एक लकड़ी की पेटी में बहुत-सी टूटी हुई ताड़पत्रीय प्रतियों के टुकड़े देखे जिनकी लिपि वी से १०वीं शताब्दी तक की थी पर दूसरी बार जाने पर वे सब टुकड़े गायब हो गये। कुछ तो कई व्यक्ति उठाकर ले गये और कुछ कचरा समझ कर फेंक दिये गये। आज जैसलमेर की प्राचीनतम ताम्रपत्रीय प्रति विशेषावश्यक महाभाष्य' की एकमात्र बच पाई है जो की दसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की मानी गई है। ऐसी और इससे पहले की कई प्रतियाँ वहाँ थीं। ताड़पत्रीय प्रतियों के दोनों और काष्ठ की पट्टिकाएं लगाई जाती हैं। इसलिए उन प्राचीन प्रतियों के साथ वाली कुछ सचित्र पट्टिकाएं भी होंगी, उनमें से कुछ ही पट्टिकाएँ आज भी बच पाई हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से कुछ सचित्र काष्ठ फलक प्राप्त हैं, उनमें से शायद सबसे प्राचीन हमारे संग्रह में है जिसमें सोमचन्द्र आदि का नाम उनके चित्र के साथ लिखा हुआ है। जिनदत्त सूरि का दीक्षा नाम सोमचन्द्र था और उन्हीं का इस पट्टिका में चित्र है इसलिए यह पट्टिका निश्चित रूप से सम्वत् १९६६ के पहले की है क्योंकि ११६९ में सोमचन्द्र को चित्तौड़ में आचार्य पद देकर जिनदत्त सूरि नाम घोषित कर दिया गया था। इनके गुरु महान विद्वान जिनवल्लभ १. इस लेख में शताब्दियों का उल्लेख विक्रम की शताब्दी के अनुसार किया गया है। . Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान की जन कला -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. सूरि की चित्र वाली एक पट्टिका प्राप्त है और जिनदत्त सूरि की तो अन्य दो-तीन पट्टिकाएँ और भी प्राप्त हैं जिनमें से एक त्रिभुवन गिरि वाले राजा कुमारपाल का भी आचार्य श्री की भक्ति करते हुए चित्र अंकित है। यह पट्टिका जैसलमेर के थाहरू सार भंडार में रखी हुई है। जिनदत्त सूरि का दूसरी एक पट्टिका का चित्र मुनि जिनविजयजी ने प्रकाशित किया था। उसी से लेकर हमने अपने युग प्रधान जिनदत्त सूरि पुस्तक में छपवाया था। श्री जिनदत्तमूरि के चित्रवाली पट्टिकाओं का वर्णन मेरे भ्रातृपुत्र भंवरलाल ने मणिधारी जिनचन्द्र सरि अष्टम शताब्दी ग्रंथ में प्रकाशित कर दिया है। चार पट्टिकाओं के चित्र भी इस ग्रंथ में छपवा दिये गये हैं। १२वीं शताब्दी की ही एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण पट्टिका वादिदेवसूरि की जैसलमेर भण्डार में थी जिसे मुनि जिनविजय जी ले आये। पहले तो मैंने उस पट्टिका को भारतीय विद्याभवन बम्बई में देखी थी, उसके बाद कलकत्ता में चुन्नीलालजी नवलखा के पास देखी। इस कलापूर्ण चित्र पट्टिका के रंगीन श्लोक भारतीय विद्याभवन से छपे थे । वास्तव में इसके चित्र बहुत ही भव्य एवं आकर्षक हैं । ताडपत्रीय सचित्र प्रतियाँ भी जैसलमेर भण्डार में कई हैं। चित्रित ताड़पत्र और भी कई देखने को मिले जिनमें से 'कल्पसूत्र' का एक पत्रीय चित्र हमारे कलाभवन में भी हैं। एक चित्र हरिसागर सूरि ज्ञान भण्डार में भी देखा था, इसी भण्डार में एक सचित्र काष्ठपट्टिका भी सुरक्षित है। कागज की प्रतियाँ भी सबसे पुरानी जैसलमेर में ही मिलती हैं जिनमें से १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ की 'ध्वन्यालोक लोचन' का ब्लाक मुनि जिनविजय जी ने प्रकाशित करवाया था। उसकी प्रशस्ति तो हमने अपने मणिधारी जिनचन्द्र मूरिग्रंथ में प्रकाशित की थी। यह प्रति मुनि जिनविजय जैसलमेर से लाये थे। अभी राजस्थान विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर में प्रदशित है। कागज की सचित्र प्रतियाँ १८वीं शताब्दी से अधिक मिलने लगती हैं। ऐसी प्रतियों में मेवाड़ चित्रित 'सुपासनाहचरिय' की प्रति विशेष अप से उल्लेखनीय है, क्योंकि उसमें काफी चित्र हैं और प्रशस्ति में संवत् व स्थान दोनों का स्पष्ट उल्लेख है। १५वीं शताब्दी की ही एक और सचित्र पाण्डव चरित्र की प्रति हमें जोधपुर केशरियानाथ भण्डार में देखने को मिली जिसका सचित्र परिचय हम प्रकाशित कर चुके हैं। इसी शताब्दी के लिखे कई कल्पसूत्र देखने में आये जिसकी एक प्रति हमारे संग्रह में भी है । १६वीं शताब्दी में कल्पसूत्र और कालिकाचार्य कथा की सैकड़ों सचित्र और स्वर्णाक्षरी तथा विशिष्ट बोर्डर वाली प्रतियाँ पाई जाती हैं। राजस्थान के दिगम्बर शास्त्र भण्डारों में १५वीं शताब्दी का सचित्र आदिपुराण प्राप्त हुआ है। इसके बाद तो जैन ग्रन्थों की सचित्र प्रतियाँ खूब तैयार हुई। अपभ्रंश चित्रकला के सर्वाधिक उपादान जैन सचित्र ग्रन्थ पट्टिकाओं में ही सुरक्षित है। पहले हलदिया रंग का अधिक प्रचार था। वह रंग इतना पक्का और अच्छा बनता था कि सात सौ आठ सौ वर्ष पहले की पट्टिकाएँ आज भी ताजी नजर आती हैं। इसके बाद लाल, हरे रंग, सुनहरी, स्याही का चित्र बनाने में अधिक उपयोग किया जाने लगा, इससे चित्रों की सुन्दरता बढ़ गई और आकृतियों की बारीकी भी बढ़ गई। वैसे तो अपभ्रंश चित्रकला का प्रभाव १७वीं शताब्दी की प्रतियों में भी पाया जाता है पर वह केवल अनुकरण मात्र-सा है। १७वीं शताब्दी से जैन चित्रकला ने एक नया मोड़ लिया। सम्राट अकबर से जैनाचार्यों और मुनियों का सम्पर्क बढ़ा, वह जहाँगीर और शाहजहाँ तक चला। इसलिये मुगल चित्रकला में भी जैन ग्रंथ विज्ञप्ति-पत्र आदि चित्रित किये जाने लगे। सचित्र विज्ञप्ति पत्रों की परम्परा विजयसेनसूरि वाले पत्र से शुरू होती है। इसी तरह शालिभद्र चौपाई भी चित्रित की गई। १७वीं शताब्दी से ही संग्रहकला आदि जैन भौगोलिक ग्रन्थों के सचित्र संस्करण तैयार होने लगे। इससे जैन चित्रकला का एक नया मोड़ प्रारम्भ हुआ, जिसमें केवल व्यक्ति चित्र ही नहीं, भौगोलिक चित्र भी बनाये जाने लगे। यहाँ १५वीं से १७वीं शताब्दी के सचित्र वस्त्र पट्टों का भी उल्लेख कर देना आवश्यक है। वस्त्र पर लिखे हुए ग्रन्थ १४वीं शताब्दी से मिलने प्रारम्भ होते हैं पर सचित्र वस्त्र पट्ट १५वीं शताब्दी से ही मिलने लगते हैं। सबसे प्राचीन सचित्र वस्त्र पट्ट भी हमारे श्री शंकरदान नाहटा कलाभवन में ही है। यह पार्श्वनाथ यंत्र तंत्र वाला पट्ट Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड १५वीं शती के प्रारम्भ का ही है, क्योंकि इस वस्त्र-पट्ट के नीचे जो आचार्यश्री का चित्र है उनका समय संवत् १४०० के आसपास का है। इस समय वस्त्र पट्ट के ऊपर दोनों ओर पार्श्व में यक्ष और पद्मावती देवी के सुन्दर चित्र हैं । बीच में भगवान पार्श्वनाथ के मन्त्र लिखे हुए हैं और नीचे आचार्य-चित्र है। आकार में भी यह काफी बड़ा है। ये पट्ट पूजित रहे हैं। १५वीं शताब्दी का ही एक छोटा वस्त्र पट्ट हमारे संग्रह में है, जो पहले वाले की अपेक्षा अधिक सुरक्षित है, जिसमें अपभ्रंश शैली के सुन्दर चित्र हैं। इस तरह के कई वस्त्र पट्ट १५वीं के उत्तरार्द्ध के हमारे देखने में आये हैं, जिनमें से एक बड़े पट्ट का फोटो हमारे संग्रह में है । बहुमूल्य सचित्र वस्त्र पट्ट लंदन के म्युजियम में प्रदशित है। कुछ वस्त्र पट्ट जैन तीर्थों के चित्र वाले भी देखने को मिले, जिनसे उस समय उन तीर्थों को सही स्थिति का परिचय मिल जाता है और दृश्य सामने आ जाता है। तीर्थ यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण जैसलमेर में चित्रित किया हुआ वस्त्र पट्ट अभी जयपुर के खरतरगच्छ ज्ञान भण्डार में देखने को मिला। इसी प्रकार सूरिमन्त्र पट्ट, वर्द्ध मान विद्या पट्ट, ऋषिमण्डल मन्त्र पट, विजय मन्त्र पट्ट, पार्श्वनाथ मन्त्रभित पट्ट आदि अनेकों प्रकार के प्राचीन वस्त्र पट्ट प्राप्त होते हैं और आज भी ऐसे वस्त्र पट्ट बनते हैं । जैन तीर्थों सम्बन्धी कई बड़े-बड़े वस्त्र पट्ट गत दो अढाई सौ वर्षों में बने हैं। उनमें से एक शत्रुजय तीर्थ का बड़ा पट्ट मेरे संग्रह में भी है । वैसे प्रायः सभी बड़े मन्दिरों और उपासरों में शत्रुजयतीर्थ के पट्ट पाये जाते हैं क्योंकि चैत्री पूर्णिमा आदि के दिन उन पट्टों के सामने तीर्थ वन्दन करने की प्राचीन प्रणाली जैन समाज में चली रही है। मैंने कुछ बड़े-बड़े पट्ट ऐसे देखे हैं जिनमें कई तीर्थों का एक साथ चित्रण हुआ है। इन पट्टों से उस समय उन तीर्थों की क्या स्थिति थी, यह पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है। मन्त्र-तन्त्र आदि के पट्टों की तरह भौगोलिक वस्त्र पट्ट भी १५वीं शताब्दी के बराबर बनते रहे हैं जिनमें जम्बुद्वीप, अढाई द्वीप और अन्य द्वीप समुद्रों तथा १४ राजूलोक के पट्ट विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उनमें से कई पट्ट तो बहुत बड़े बड़े बनाये गये जिनमें देवलोक, मनुष्यलोक, नरकलोक, इन तीनों लोकों, द्वीप, समुद्रों के साथ अनेक पशु-पक्षियों, मच्छी-मच्छ आदि जलचर जीवों, देवताओं और देव-विमानों आदि के छोटे-छोटे सैकड़ों चित्र पाये जाते हैं । एक तरह से जैन भौगोलिक मान्यताओं को जानने के लिए वे सचित्र एलबम के समान हैं। हमारे कलाभवन में नये, पुराने अनेक प्रकार के वस्त्र पट्ट संग्रहीत है और बीकानेर तथा अन्य राजस्थान के जैन भण्डारों में सचित्र वस्त्र पट्ट काफी संख्या में प्राप्त हैं। इनमें विविधता का अंकन है और रंगों आदि की वैविध्यता भी पाई जाती है। ऐसे ही कुछ भौगोलिक और तंत्र मन्त्र के पट्ट कागज पर भी चित्रित किये हुए प्राप्त हैं । वास्तव ऐसे चित्रों की एक लम्बी परम्परा रही है और इस पर एक सचित्र स्वतन्त्र पुस्तक पुस्तक भी लिखी जा सकती है। दिगम्बर समाज में ऐसे वस्त्र पट्टों को 'मांडण' कहते हैं और वे मांडण आज भी अनेक प्रकार के बनते हैं और उनका पूजा-विधान प्रचलित है। भित्ति-चित्र भी राजस्थान के अनेक जैन मन्दिरों, उपासरों आदि में प्राप्त हैं । पर प्राचीन भित्ति-चित्र बहुत से खराब हो गये हैं, इसलिए इन पर पुताई या कली आदि करके नये चित्र बना दिये गये, फिर भी २००-३०० वर्षों के तो भित्ति-चित्र कई जैन मन्दिरों में पाये जाते हैं । इन चित्रों में तीर्थकर का जन्माभिषेक, समवसरण, रथयात्रा, तीर्थों और जैन महापुरुषों के जीवन सम्बन्धी सैकड़ों प्रकार के चित्र पाये जाते हैं और यह परम्परा आज की चालू है। बीकानेर के कई मन्दिरों में २०० वर्षों तक के भित्ति-चित्र सुरक्षित हैं, जिनमें कुछ ऐतिहासिक दृष्टि से भी बड़े महत्त्व के हैं । यहाँ गौड़ी पार्श्वनाथ मन्दिर में सम्मेद शिखर आदि के अतिरिक्त जैनाचार्यों, योगी ज्ञानसार, कई भक्त श्रावक जनों आदि के चित्र प्राप्त हुए हैं। भांडासरजी के मन्दिर में गुम्बज और नीचे की गोलाई में बीकानेर के विज्ञप्ति-पत्र आदि अनेक महत्त्वपूर्ण चित्र हैं। बोरों के सेरी के महावीर मन्दिर में तो २५-३० वर्ष पहले चित्रित भगवान महावीर के २७ भव और अनेक जैन कथानकों के चित्रों से तीनों ओर की दीवारें भरी हुई हैं। दादावाड़ियों में श्री जिनदत्त Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान की जैन कला १६६ ......................................................................... सूरि, जिनकुशलसूरि, जिनचन्द्रसूरि के जीवनी सम्बन्धी अनेकों चित्र तीनों ओर की दीवारों पर काफी संख्या में बताये जाते हैं । बीकानेर के सबसे प्राचीन चिन्तामणि के मन्दिर में दादाजी को देहरी है, उसमें तथा उदरामसर आदि की दादाबाड़ियों में भित्तिचित्र हैं, पर सबसे अधिक चित्र रेल दादाबाड़ी में मेरे बड़े भ्राता मेघराजजी की देखरेख में बनाये गये हैं । दादावाड़ियों के चित्रों की एक अलग परम्परा है। अजमेर आदि अनेक जैन दादावाड़ियों में मूल गुम्भोर या बाहर के मण्डप में दादाजी की जीवनी सम्बन्धी अनेकों भित्ति-चित्र देखने को मिलते हैं । व्यक्ति चित्र और प्रतीक चित्र भी जैन समाज ने हजारों की संख्या में बनाये हैं । व्यक्ति चित्रों में सबसे पहले तीर्थंकरों, आचार्यों, श्रावकों के चित्र उल्लेखनीय हैं । तीर्थकर चित्रों में ऋषभदेव, नेमिनाथ, पारसनाथ, महावीर और उनमें भी सबसे अधिक पारसनाथ के सुन्दर चित्र प्राप्त हैं । पारसनाथ के सात नागफन ही नहीं, सहस्रों नागफनों वाली मूर्तियों की तरह चित्र भी मिलते हैं जिनमें कमठ का उपसर्ग, विशाल सर्प और धरणन्द्र तथा पदमावती चित्रित भी किये गये हैं । चौबीस तीर्थकरों के संयुक्त चित्र भी मिलते हैं और अलग-अलग भी; जिनमें प्रत्येक तीर्थकर के वर्ण, लांछन आदि की भिन्नता रहती है । ऐसे एक-एक तीर्थंकर के चित्रों का संयुक्त एलबम चौबीसी कहलाती है। प्रति दिन भक्तगण अपने घरों में इन चौबीसों के दर्शन करते थे। इसलिए सैकड़ों सचित्र चौबीसियाँ बनाई गईं, जिनमें से कुछ तो कला की दृष्टि से बहुत सुन्दर हैं। जिस प्रकार प्रत्येक राज्य में वहाँ के शासकों की चित्रावली बनाई गई उसी तरह जैनों के गच्छपति, आचार्यों, विशिष्ट मुनियों, यतियों की चित्रावली बनाने की एक परम्परा रही है । खरतरगच्छ के कई आचार्यों आदि के चित्र हमने अपने ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह आदि ग्रन्थों में प्रकाशित करवाये हैं । कई अप्रकाशित चित्र भी हमने देखे हैं और कुछ हमारे संग्रह में भी हैं । हमारे कला भवन में जिनदत्तसूरि के पंचनदी साधन, लोंकागच्छ के आचार्य व ज्ञानसागरजी, क्षमाकल्याणजी, जयकीतिजी आदि के ऐतिहासिक चित्र हैं। इसी तरह जैन श्रावकों में कर्मचन्द बच्छावत, अमरचन्द सुराणा आदि के चित्र हैं। . प्रतीक चित्रों में लेश्या, मधुबिन्दु, ऋषिमण्डल तथा पूज्य चित्रों में नवपद, सिद्धचक्र, सर्वतोभद्र, ह्रींकार आदि के प्रतीक चित्र उल्लेखनीय हैं । इनमें से सिद्धचक्र वाले चित्रों में तो मोती जड़े हुए भी प्राप्त हैं। _प्रतीक चित्रों में भौगोलिक चित्रों के अतिरिक्त नारकी के चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जैन धर्मानुसार घोर पाप करने वाले नरक में उत्पन्न होते हैं। उनमें से कौन से पाप करने वाले को किस तरह का दारुण दु:ख नरकलोक में भोगना पड़ता है। इस बात को सर्वसाधारण के हृदय तक पहुँचाकर उन पापों से विरत करने के लिए अनेकों प्रकार के चित्र बनवाये गये । इसी तरह पाँच मेरु पर्वत, कई तीर्थों, द्वीप, समुद्रों आदि के प्रतीक चित्र बनाये गये जिनसे जैन मान्यताओं की सचित्र जानकारी सबको सुलभ हो सके। हस्तलिखित प्रतियों में चित्र बनाने के साथ-साथ इन प्रतियों को सुरक्षित रखने के लिए जो पुठे व दाबड़े बनाये गये उनमें तथा लिखने के काम में आने वाले कलमदान आदि में भी चित्र बनाये जाते रहे हैं । दाबड़े और पुछे तथा कलमदान अधिकतर पुढे के बनाये जाते हैं । रद्दी कागजों को पानी में गलाकर कूटकर गत्ते जैसे बनाये जाते हैं। उनके पुढे हजारों की संख्या में बने और उनमें से कइयों पर तीर्थंकरों की माता के चौदह स्वप्न, अष्ट मंगलीक, नेमिनाथ की बारात, मधुविन्दु, इलाचीकुमार का नाटक, फूल, बेल, पत्तियाँ आदि अनेक प्रकार के चित्र बनाये गये । हमारे संग्रह में ऐसे पच्चासों पुढं हैं । जिनमें से एक पुट्ठा करीब साढ़े तीन सौ वर्ष पुराना है । एक पुढे पर चमड़ा लगाकर बेल-बूटियों का सुन्दर काम किया हुआ है। कई दाबड़े भी बहुत कलापूर्ण बनाये गये हैं और एक पुछे के कलमदान पर सुन्दर चित्रकारी हमारे संग्रह में है। यहाँ पुढे के हाथी, मन्दिर आदि अनेक प्रकार की वस्तुएँ चित्रित और कारीगरी वाली पाई जाती हैं । लकड़ी की पेटियों पर व पट्टियों पर सुन्दर चित्र हमारे संग्रह में हैं। राजस्थान की जैन चित्रकला की अभी तक विद्वानों को सही जानकारी नहीं है क्योंकि इस सम्बन्ध में जो भी Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .0 १७० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड 1010 'काम हुआ है वह गुजरात व गुजराती भाषा में अधिक हुआ है या कुछ ग्रंथ व लेख अंग्रेजी भाषा में निकले हैं । इससे हिन्दी क्षेत्र में व राजस्थान के निवासियों को जैन चित्र कला की वास्तविक जानकारी व महत्त्व विदित नहीं है । इस दृष्टि से कुछ विशेष बातें सूचित कर देना आवश्यक समझता हूँ । अपभ्रंश चित्रकला की परम्परा जैन समाज में अब तक चली आ रही है, यद्यपि एक चश्म, डेढ़ चश्म आदि लघु चित्रशैली में काफी अन्तर आ गया है फिर भी मुगल परम्परा का अन्य चित्र शैलियों पर जो प्रभाव पड़ा उतना जैन चित्र शली पर नहीं पड़ा। जैनों की अपनी एक विशिष्ट परम्परा रही है। अतः स्थानीय विशेषताओं के साथसाथ जैन चित्रकला खूब फली फूली । १७वीं शताब्दी में सम्राट अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के समय में चित्रकला का खूब विकास हुआ। इसी काल में जैनों के सचित्र विज्ञप्ति पत्र का विकास प्रारम्भ होता है। इसी तरह संग्रह आदि भौगोलिक ग्रंथ तथा अनेक चरित काव्य सचित्र रूप में लिखे गये । शाही चित्रकारों का भी उपयोग किया गया । विजयसेगरि वाला सचित्र विज्ञप्ति लेख और धन्ना-शालिभद्र चौपाई की प्राप्त प्रति नाही चित्रकार शालीवाहन आदि के द्वारा चित्रित हैं । १७वीं शताब्दी में शिथिलाचारी जैन यतियों से मथेन नामक एक जाति निकली। कहा जाता है कि सं० १६१३ में सम्राट अकबर प्रतिबोधक युगप्रधान विनयचन्द्र सूरि बीकानेर आये और यहाँ के मन्त्री संग्रामसिंह बच्छावत की प्रेरणा और सहयोग से क्रियाउद्धार किया । तत्र यहाँ के उपाश्रयों में शिथिलाचारी यति रहते थे । उनमें से जिन्होंने शुद्ध साधु आचार को अपनाया वे तो सूरिजी के साथ हो गये और जो लोग जैन साधु के कठिन आचारों को पालने में असमर्थ रहे वे गृहस्थ हो गये। उनकी आजीविका के लिए उन्हें वंशावली लेखन प्रतियों की प्रतिलिपि करना, चित्र बनाने आदि का काम करने के लिए, प्रोत्साहित किया गया। उनकी जाति मथेण, जिसे महात्मा, मथेण भी कहते हैं, कायम हुई । अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में मथेनों में कई विद्वान ग्रन्थकार, कवि हुए और बहुत से व्यक्ति प्रतिलिपियाँ करके और कुछ चित्रकारी करके अपनी आजीविका चलाते थे। बीकानेर के साहित्य और कला प्रेमी महाराजा अनूपसह के आश्रय में ऐसे कई मथेण साहित्यकार और प्रतिलिपिकार हुए हैं जिनकी लिखी हुई सैकड़ों हस्तलिखित प्रतियां और रखे हुए ग्रन्थ अनूप संस्कृत लायब्रेरी में संग्रहीत हैं। मवेश जाति के अनेक चित्रकारों के चित्रित जैन-नेतर ग्रन्थ काफी संख्या में जैन- जैनेतर भण्डारों में प्राप्त हैं। उनकी अपनी एक अलग चित्र शैली बन गई जिनमें सैकड़ों - चौबीसियाँ अनेक फुटकर चित्र और बहुत सी रास चौपाई आदि चरित्र काव्यों की प्रतियाँ प्राप्त हैं। इनमें एक-एक प्रति में दस, बीस, पचास और अस्सी, सौ तक विविध भावों वाले चित्र पाये जाते हैं । अनूप संस्कृत लायब्रेरी में तो राजस्थानी बातों आदि की कई सचित्र प्रतियाँ मथेणों की चित्रित की हुई प्राप्त हैं और हमारे कलाभवन में भी चन्दनमलयागिरी, शालिभद्र चौपाई और ढोला मारू की बात आदि प्राप्त है जोधपुर, जयपुर, पीपाड़, आदि अनेक स्थानों में मथेनों के चित्रित किये हुए बहुत से जन-जनेतर ग्रंथ मेरे देखने में आये हैं। छोटी-मोटी अनेक मोबीसियों भी हमारे संग्रह में हैं । मथेनों के अतिरिक्त और भी कई पेशेवर जातियों और व्यक्तियों को जैनों ने काफी आश्रय दिया । जयपुर के एक चित्रकार को मुर्शिदाबाद और कलकत्ते में बुलाकर बड़े-बड़े विशाल चित्र बनाये गये । कलकत्ते के श्वेताम्बर पंचायती मन्दिर, बद्रीदासजी आदि के मन्दिर में जयपुर के चित्रकार के बनाये हुए चित्र आज भी बने हुए हैं। बीकानेर के क्षमा- कल्याण ज्ञान भण्डार में दो कल्पसूत्र की बहुत सुन्दर सचित्र प्रतियाँ जयपुरी चित्रकारों की चित्रित हैं । बीकानेर, भांडासर और महावीरजी के मन्दिर में उस्ताद हिमाशुद्दीन के बनाये हुए शताधिक भित्तिचित्र हैं। जयपुर के चित्रकारों से आज भी जैन कल्पसूत्र आदि के चित्र स्वर्णक्षरा प्रतियों में बनवाकर गुजरात आदि में भेजे जाते हैं। इस तरह राजस्थान की चित्रकला के विकास एवं समृद्धि में जैनों का बहुत बड़ा योगदान है। जोधपुर, उदयपुर, सिरोही आदि के अनेकों सचित्र विज्ञप्ति चित्र वहीं के कलाकारों से जैन समाज ने चित्रित करवाये। जयपुर का सचित्र विज्ञप्ति पत्र अजीमगंज पहुँचा । इस तरह राजस्थान की जैन चित्रकला का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ । O . Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -.-.-.-.-.-.-. -.-.-.-.-.- .-.-.-.-..-. -.-.-.-.-.-.-. -.-.-. राजस्थान जैन चित्रकला: कुछ अप्रकाशित साक्ष्य 0 श्री ब्रजमोहनसिंह परमार अधीक्षक, कला सर्वेक्षण, पुरातत्त्व व संग्रहालय विभाग, जोधपुर (राज.) राजस्थान में जैन धर्म का प्रचार ईसा पूर्व में ही हो चुका था, परन्तु कलात्मक साक्ष्यों की प्राप्ति इस क्षेत्र में ईस्वी सन् की ६-७वीं शताब्दियों से पूर्व की अब तक नहीं हुई है। ६-७वीं शती से लेकर हवीं शती तक जैन कला के साक्ष्य कांस्य और प्रस्तर प्रतिमाओं में सीमित स्थानों से ही मिले हैं, परन्तु बाद में यह स्थिति नहीं रहती। एक तो यह कि राजस्थान के चारों कोनों में अनेक स्थानों से विभिन्न तीर्थंकरों और जैन मतों के अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा व उनकी प्रतिष्ठा हेतु जिनालयों के निर्माण के उदाहरण पिण्डवाड़ा-वसन्तगढ़, भीनमाल, देलवाड़ा, ओसियाँ, लोद्रवा, जैसलमेर, चित्तौड़, आहाड़ (उदयपुर), केशवराय पाटन आदि स्थानों से मिलने लगते हैं, दूसरी बात यह है कि प्रस्तर कांस्य प्रतिमाओं के अतिरिक्त जैन कला की अवतारणा, ताड़पत्रों, काष्ठपट्टिकाओं और कागज पर होने लगती है। १४-१५वीं शती और कुछ बाद की इस जैन कला को कुछ विद्वानों ने अपभ्रंश शैली और पश्चिमी भारतीय कला शैली नाम दिया है। यहाँ इन पंक्तियों में जैन कला के शोधकर्ताओं की जानकारी और अध्ययन हेतु ऐसे ही कुछ अद्यावधि अप्रकाशित साक्ष्यों पर प्रकाश डाला जा रहा है। चित्रित काष्ठ फलक चित्र संख्या १ व २ के काष्ठफलक या पट्टिकायें जिनदत्तसूरि के जैसलमेर स्थित प्रसिद्ध ग्रंथ भण्डार में संग्रहीत हैं । इनके दोनों ओर लाख के रंगों के माध्यम से चित्र बने हैं। वास्तव में इनका प्रयोग ताड़पत्रों या कागज के हस्तलिक्षित ग्रंथों को सुरक्षित ढंग से रखने के लिए किया जाता रहा होगा। इन पर बने चित्र जैन धर्म से सम्बन्धित हैं। इनमें से एक पटली या पट्टिका कला की दृष्टि से बड़ी ही महत्त्वपूर्ण है, जिसमें २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ की पर्यकशायी माता शिवा द्वारा चौदह मांगलिक स्वप्नों को देखे जाने, हरिणगमेसिन-इन्द्र के चित्र चित्रित हैं। इनके अतिरिक्त रथारूढ और केशलुचन करते नेमिनाथजी के चित्र भी क्रमश: इस पर अंकित हैं। दूसरी ओर पटली को लाल, पीले और काले शोख रंगों द्वारा कमल-लता के आवर्तनों के मध्य कुमारिका, गज, शार्दूल और हंस-मिथुनों का बड़ा ही सुन्दर चित्रण है। कालक्रमानुसार इन पटलियों के चित्र १३-१५वीं शताब्दी के प्रतीत होते हैं। चित्रित कल्पसूत्र केन्द्रीय संग्रहालय, जयपुर में संग्रहीत यह कल्पसूत्र वि० स० १५४७ का है। इसका वर्ण्य विषय महावीर स्वामी, पार्श्वनाथ और अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) तथा इनके पंचकल्याणकों से सम्बन्धित हैं । कुल मिलाकर ६० पन्नों (२६४११ से० मी०) वाली इस प्रति में ३३ चित्र (११४७-८ से० मी०) हैं । इन चित्रों के विषय बताने से पूर्व यहाँ इस कल्पसूत्र के प्रशस्ति पत्र का मूल-पाठ देना उपयुक्त होगा १. स्टडीज इन जैन आर्ट (यू०पी० शाह) वाराणसी, १९५५, पृ० २७-३० २. मार्ग, भाग ४, सं० २ पृ० ३७ Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड D.-.- .--.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-...-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.. संवत् १५४७ वर्षे वैशाख सुदि ७ शिन् म० आकालखितं ॥५॥ शुभंभवतु ॥छ। ॥॥॥छ। ॥छ॥ ॥छ। उपर्युक्त पाठ से स्पष्ट है कि इस कल्पसूत्र की लिपि देवनागरी है परन्तु इससे यह ज्ञात नहीं होता है कि कल्पसूत्र की इस प्रति की रचना कहाँ की गई, जबकि सन् १४३६ ई० और सन् १४६५ वाले कल्पसूत्रों में इनके रचनास्थल के नाम दिये गये हैं जो क्रमश: माण्डू व जौनपुर में रचे गए। कागज पर काली स्याही से लिखे इसके पन्नों की नाप २६ x ११ स० मी० और इन पर बने चित्रों की नाम प्रायः ११४७ से ८ से. मी. है। पाठक की सुगमता के लिए लेखक ने प्रत्येक पन्ने के दाहिने और निचले कोने में काली स्याही से उनकी संख्या लिख दी है। इस कल्पसूत्र में पद्मासनस्थ महावीर, अष्टमगल, इन्द्र द्वारा सिंहासन से उतरकर नमोकार उच्चारण, इन्द्र द्वारा हरिणगमेषिदेव को ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ से भगवान महावीर के भ्रूणहरण के आदेश, त्रिशला द्वारा चौदह स्वप्नों का देखा जाना, राजा सिद्धार्थ द्वारा ज्योतिषियों से स्वप्नों का फल पूछना, त्रिशला रानी द्वारा शोक व हर्ष प्रदर्शन, महावीर जन्म (चित्र संख्या ३) महावीर का देवताओं द्वारा स्नान, इन्द्र को सूचना, महावीर की कौतूकपूर्ण क्रीड़ा, शिविका विमान पर सवार महावीर, महावीर द्वारा केशलुचन, महावीर कैवल्यज्ञान (समवसरण), सिद्धार्थ शिला स्थित महावीर और उनके शिष्य गौतम, पार्श्व-जन्म, पार्श्व-दीक्षा, पार्श्व द्वारा पंचाग्नि तप का विरोध, अश्वारोही, जलप्लावन से धरणेन्द्र द्वारा पार्श्व रक्षा, पार्श्व-कैवल्य ज्ञान, पार्श्व-समवसरण, नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) जन्म अरिष्टनेमि द्वारा केश लुचन, दीक्षा, विदेहक्षेत्र के बीस विहरमान, महावीर के एकादश गणधर, वीरसेन का पालन, गरुशिष्य, जैनाचार्य द्वारा शिष्य को धार्मिक शिक्षा आदि आदि के तैतीस चित्र हैं । इनके अध्ययन से तत्कालीन सामाजिक स्थिति, रीति-रिवाजों, परम्परागत विश्वासों, धार्मिक विचारधाराओं, प्रकृति-चित्रण पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। जहाँ तक चित्रशैली का सम्बन्ध है, इस कल्पसूत्र को पश्चिमी भारतीय चित्रशैली की श्रेणी में अपभ्रंश कला शैली का प्रतिनिधि कहा जा सकता है जो सम्पूर्ण गुजरात, राजस्थान और उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश के कुछ भागों में ११वीं शती से लेकर १५वीं शताब्दी तक पनपी। इस क्षेत्र की परवर्ती कलाशैलियों ने इसी अपभ्रंश शैली की कुछ विशेषताओं को ग्रहण कर बाद में कुछ परिवर्तन कर अपना-अपना निजी रूप धारण किया। राजकीय संग्रहालय, जयपुर के इस कल्पसूत्र की कलात्मक तुलना प्रिंस आफ वैल्स म्युजियम, बम्बई के संग्रह के चित्रित कल्पसूत्र, कालकाचार्य कथा और उदयपुर के सरस्वती भवन संग्रह के चित्रित कल्पसूत्र (वि० सं० १५३६) से की सकती है। इन दोनों की भांति इस कल्पसूत्र में भी नारी व पुरुष आकृतियों की नाक व ठुड्डी नुकीली है, धनुषाकार भौंहों के नीचे कनपटी तक विस्फारित नेत्र, दो में से एक पाली आँव, छंटी नुकीली दाढी, तिलकयुक्त चौड़ा ललाट, रक्ताभ ओंठ और विशेषतया पुरुषों के उभरे मांसल वक्ष और नारी आकृतियों को सुन्दर वस्त्राभूषणों से युक्त चित्रित किया गया है। इसकी रंगयोजना में पृष्ठभूमि लाल रंग की है, इसे राजस्थान के पारम्परिक कलाकार उस्ताद हिसामुद्दीन के शब्दों में हिंगलू" भी कहा जा सकता, क्योंकि इसमें सिन्दूर की मिलावट है । इस रंग का निर्माण झरबेरी एवं पीपल की छाल और लाख मिलाकर किया जाता था । हाशियों की किनारी नीले रंग की है, जो किसी पत्ते से तैयार किया जाता था । पुरुषों व नारियों के पीले रंग को सोने के बारीक बर्क को चढ़ाकर बनाया है। यदि सुनहरा रंग होता तो भरे गये स्थानों में समता होती । बर्क के चढ़े होने से कहीं सुनहरा रंग है और कहीं उपड़ा हआ प्रतीत होता है। सफेद रंग का प्रयोग आकृतियों की आँखों, वस्त्रों, आभूषणों तथा हंसों के चित्रण में हुआ है। इस रंग को 'शंख' या हड़ताल को फूंककर बनाया गया होगा । नीले रंग का प्रयोग चित्रों में रिक्त स्थान भरने, हाथी, घोड़े, मोर और पानी को दिखाने में हुआ है । काले रंग को रेखाओं, केश, भौंहों को रंगने के काम में लिया गया है। इस काले रंग १. ललित कला सख्या ६ सन् १९५६ (देखिए कार्ल खण्डेलवाल और मोतीचन्द्र का ‘ए कन्सीडरेशन आफ ऐन इलस्ट्रेटेड मेनुसक्रिप्ट फ्राम माण्डव दुर्ग सन् १४३६ ई०') केन्द्रीय संग्रहालय, जयपुर कल्पसूत्र चित्र रेखाकर्म और रंगयोजना की दृष्टि से माण्डू बाले कल्पसूत्र से कुछ निम्नस्तर के हैं । Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान जैन चित्रकला कुछ अप्रकाशित साक्ष्य ने कहीं-कही कागज को खा लिया है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि कालिख में सम्भवतः कसीस मिलाई गई होगी । इसी प्रकार मूँगिया, हरा रंग (सीलू) कई स्थानों पर कागज को खा गया है, यह खनिज रंग है जिसकी प्राप्ति कहाँ से हुई ? कहना कठिन है। यशोधरचरित सवाईमाधोपुर स्थित दीवानजी के मन्दिर में जैन तीर्थकरों की लगभग ४५० पाषाण एवं कांस्य प्रतिमाएँ सुरक्षित हैं, परन्तु इनमें से अधिकांश प्रतिमाएँ विक्रम संवत् १८२६ की हैं। जैन पुरातत्त्व विषयक इससे पूर्व का एक 'यशोधरचरित' नामक चित्रित ग्रन्थ है, जो जयपुर के निकट सांगानेर कस्बे में वि० सं० १७६६ में चित्रित हुआ था, जैसा कि इसके निम्नलिखित प्रशस्ति पत्र से स्पष्ट है इति यशोधरचरित्रे भट्टारक श्री सकलकीर्ति अनवरचित भट्टारक स्वर्गगमन वर्णनोनामा अष्टम मिति संवत्सरे रंध्ररसमुनीन्द्र मिति १७६६ माघमासे शुक्लपक्षे पंचमी तिथि रेवती नक्षत्रे संग्रामपुर नगरे श्री नेमिनाथ चैत्यालये श्री मूलचे नंदाम्नाय बलात्कारगण सरस्वती गच्छे ****Il १. ललित कला अंक १५ (श्रीधर ), पृ० ४७-५१ विरचिते । सर्गः सम्पूर्ण । यशोधरचरित की इस चित्रित पाण्डुलिपि में ५६ पृष्ठ हैं जो आकार में लगभग १२' x ६" के होंगे और ३६ चित्र हैं, जिनमें से कुछ पूरे पृष्ठ पर और कुछ आधे पृष्ठों पर चित्रित हैं। रेखाकर्म व रंग योजना की दृष्टि से इसके चित्र सन् १७०६ ई० " के आमेर वाली रागमाला के चित्रों से निकट की समानता रखते हैं । इससे पूर्व की एक और यशोधरचरित्र की प्रति आमेर में सन् १५६० ई० में चित्रित हुई थी, सरयू दोशी के अध्ययन के आधार पर इस प्रति के चित्रों पर पश्चिमी भारतीय कला शैली का प्रभाव स्पष्ट है । १७३ 000 • Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड की प्राचीन जैन चित्रांकन-परम्परा 10 डॉ. राधाकृष्ण वशिष्ठ सहायक आचार्य, चित्रकला विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक स्वरूप पश्चिमी भारतीय चित्र शैली से बना है। इसके नामकरण हेतु अब तक अनेक प्रयास किये गये हैं । डॉ० कुमारस्वामी ने इसे जैन एवं गुजराती चित्रशैली कहा है। नोर्मन ब्राउन इसे श्वेताम्बर जैन तथा पश्चिमी भारतीय शैली कहते हैं। रायकृष्णदास इसे पश्चिमी भारतीय शैली व अपभ्रंश शैली से सम्बोधित करते हैं तो बेसिलग्रे इसे पश्चिमी भारतीय शैली की अभिधा प्रदान करते हैं। कई विद्वानों की यह भी मान्यता है कि इस शैली के प्रारम्भिक उदाहरण एलोरा, मदनपुर आदि के भित्तिचित्रों में भी मिलते हैं। आठवीं सदी के खरतरगच्छ के श्री जिनदत्तसूरि ने राजस्थान में विभिन्न कलाओं को बहुत अधिक संरक्षण प्रदान किया। उन्होंने इस उद्देश्य से कई ग्रन्थ भी लिखवाये । मेवाड़ भी इससे अछूता नहीं रहा । यहाँ भी अनेक सचित्र व कलापूर्ण जैन ग्रन्थ लिखे गये । यही नहीं, यहाँ पर जन शिल्प-परम्परा भी काफी विकसित थी। चित्तौड़गढ़ के दिगम्बर जैन स्मारक (१३०० ई०) एवं महावीर मन्दिर की मूर्तिकला में जैन शिल्प-परम्परा के उत्कृष्ट रूप देखने को मिलते हैं । इन शिल्प कृतियों के देखने पर हम प्रारम्भिक राजस्थानी चित्रकला के विभिन्न तत्त्वों का सीधा सम्बन्ध पाते हैं । मेवाड़ में चित्रकला के विकास क्रम को समझने के लिए यहाँ पर लिखे गये जैन ग्रन्थ भी काफी उपयोगी सामग्री प्रदान करते हैं। हरिभद्रसूरि (७००-७७८ ई.) द्वारा चित्तौड़गढ़ में लिखित ‘समराइच्च कहा' में तो चित्रकला सम्बन्धी बहुत सी महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलती है। सिद्धर्षिकृत 'उपमिति भवप्रपंच कथा' भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। समराइच्चकहा में समरादित्य के दूसरे भव में सिंहकुमार और कुसुमावली के प्रेम-प्रसंग में चित्रकला सम्बन्धी कई शब्दों का उल्लेख है। चित्र बनाने एवं रंगों को रचने हेतु रंग पेटिका 'वण्णिया समुगयं' (वणिक समुद्रकं) तथा चित्रपट के लिए 'चित्रवट्टिय' (चित्रपट्टिका) शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसमें राजकुमारी द्वारा हंस और हंसिनियों के चित्र बनाकर दर्शनोत्सुक हंसिनी को चित्रित किये जाने का उल्लेख है। इसी भाव को अंकित करते हुए कुसमावली की दासी मदनलेखा ने एक द्विपदी छंद बनाकर चित्र पर लिख देने तथा उस चित्रपट्ट को राजकुमार के पास दिखाने जाने का प्रसंग है। पेसिया रायधूयाए' जैसे मार्मिक उल्लेख हैं । स्वयं राजकुमार द्वारा हंस का चित्र बनाकर राजकुमारी को प्रेषित करने आदि के संदर्भ इसमें मिलते हैं । चित्तौड़ की शिल्प कृतियों में ऐसी आकृतियों के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इस ग्रन्थ में आठवें भव में ऐसे ही व्यापक प्रसंग हैं जो शंखपुर के राजा की कन्या रत्नावली से सम्बन्धित १. हरिभद्रसूरिकृत समराइच्चकहा, हर्मन जेकोबी द्वारा सम्पादित (कलकत्ता, १९२६) २. तओ घेतूण एयं चित्तवठ्ठियं पुव्ववणियं च पाहुड गया माहवीलया मण्डवं मयणलेहा । -समरा इच्च-कहा, पृ० ७२ ३. ता आलिहउ एत्थ सामिणी समाणवरहंसयविउत्तं तदसणुसुयं च रायहंसियंति । तओ मुणियमयणलेहाभिप्पायाए ईसि विहसिउण आलिहिया तीए जहोवइट्ठा रायहंसिया । -वही पृ० ७१ ४. मयणलेहाए बि य अवत्थासूयगं से लिहियं इमं उवरि दुवईखण्ड ।.. . -वही पृ० ७१ - Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ की प्राचीन जैन चित्रांकन-परम्परा हैं । राजकन्या अत्यन्त रूपवती थी, उसके लिए उचित वर देखने के लिए कई व्यक्ति भेजे गये । उनको यह भी आदेश दिया कि वे सुयोग्य व्यक्ति का चित्र बनाकर लावें । इस कार्य के लिए अयोध्या की ओर भूषण एवं चित्रमति नाम के चित्रकारों को भेजा गया। उन्होंने राजकुमार गुणचन्द्र को धनुष चलाते हुए देखा। उसका चित्र एक बार देखने पर नहीं बना सके २ तो राजकुमार के सामने वे स्वयं को चित्रकार बताते हुए पहुंचे। उन्होंने राजकुमारी का एक चित्र भी राजकुमार के सम्मुख प्रस्तुत किया । गुणचन्द्र ने उसको देखकर कहा कि यह चित्र आँखों को सुख देने वाला है। तुम सच्चे अर्थ में चित्रकार हो तभी ऐसा चित्र बना पाये । राजकुमारी के विशाल नेत्र दाहिने हाथ में रम्य सयवत्ता अंकित था। चित्र स्वयं अपने मूल रूप को प्रतिध्वनित कर रहा था। राजकुमार ने कहा कि चित्र इसलिए भी सुन्दर बन पड़ा कि राजकुमारी स्वयं सुन्दर है। राजकुमार ने दोनों ही चित्रकारों को, चित्र से प्रभावित होकर, एक लाख दीनार (दोणर लक्खो) पुरस्कार के रूप में दिथे । चित्र में रेखान्यास५ तक राजकुमारी की सुन्दरता के कारण छिप गये। राजकुमार स्वयं भी अच्छा चित्रकार था । अत: उसने तूलिका की सहायता से रंगों का मिश्रण करके अपने भावों के अनुरूप विद्याधर युगल का चित्र बनाया । राजकुमारी के चित्र में भी उसने कुछ पद लिखे। कालान्तर में दोनों का विवाह भी हो गया । इस प्रकार सारे प्रसंग में जो चित्रकला का वर्णन आता है. वह पारम्परिक होते हुए भी अपनी स्थानीय विशेषताओं के लिए हुए है। साथ ही मेवाड़ की तत्कालीन चित्रकला को विकास परम्परा दर्शाता है किन्तु इतना होते हुए भी मेवाड़ में चित्रकला का प्रामाणिक क्रम १२२६ ई० से बनता है, जिनमें उत्कीर्ण रेखांकन एवं सचित्र ग्रन्थों का विवरण इस प्रकार है १-शिलोत्कीर्ण रेखांकन समिद्धेश्वर महादेव मन्दिर, चित्तौड़, वि० सं० १२८६ (१२२६ ई०) २-श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूणि, आघाटपुर, वि० सं० १३१७ (१२६० ई०) 2-शिलोत्कीर्ण रेखांकन, गंगरार, वि० सं० १३७५-७६ (१३१७-१८ ई.) ४–कल्पसूत्र, सोमेश्वर ग्राम गोड़वाड़, वि० सं० १४७५ (१४१८ ई.) ५-सुपासनाहचरियं, देलवाड़ा, वि० सं० १४८० (१४२३ ई.) ६-ज्ञानार्णव, देलवाड़ा, वि० सं० १४८५ (१४२८ ई.) ७-'रसिकाष्टक' भीखम द्वारा रचित वि० सं० १४९२ (१४३५ ई०) १. जंपिय चित्तमइणा । अरे भूसणय, दिलै तए अच्छरियं । तेण भणियं । सुट्ठ दिट्ठ, किं तु विसण्णो अहं । -वही, पृ० ६०६ २. सव्वहा अणुरूवो एस रायधूयाए । किं तु न तोर ए एयस्स संपुणपडिच्छन्दयालिहणं विसेसओ सइंदसणंमि। -वही, पृ० ६०६ ३. अह तं दळूण पडं पौइ भरिज्जन्त लोयणजुएण । भणियं गुणचन्देणं अहो कलालवगुणो तुब्भं । जइ एस कलाए लवो ता संपुणा उ केरिसो होई। सुन्दर असंभवो च्चिय अओ वरं चित्तयम्मास्स ।। -वही, पृ० ६०८ ४. एसा विसालनयणा दाहिणकरधरियरम्मसयवत्ता । -वही, पृ०६०८ ५. एवंविहो सुरूवो रेहानासो न दिट्ठो त्ति । जइवि य रेहानासो पत्तेयं होई सुन्दरो कहवि ।। -वही, पृ०६०८ ६. आलिहिओ कुमारेण सुविहत्तुज्जलेणं वणय कम्मेण अलरिकज्जमाणेहिं गुलियावएहि अणुरूवाए सुहमरेहाए पयडदंस णेण निन्नन्नयविभाएणं विसुद्धाए वट्ठणाए उचिएणं भूसण । कलावेणं अहिणवनेहूसुयत्तणेणं परोप्परं हासुप्फुल्लबद्धदिट्ठो आरूढ पेम्मत्तणेणं लङ्घिओचियनिवेसो विज्जाहर संघाडओ त्ति । -वही, पृ० ६१५ Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड __ चित्तौड़ के समिद्धेश्वर मन्दिर के खम्भों पर शिलालेखों सहित १२२६ ई० के उत्कीर्ण' रेखांकन प्राप्त हुए हैं, उनकी अपनी विशेषताएँ हैं । ये चित्र तत्कालीन सूत्रधार शिल्पियों के हैं और उक्त जैन या अपभ्रश शैली में प्रथम खम्भे पर सूत्रधार आल पुत्र माउकी तथा दूसरे खम्भे पर सूत्रधार श्रीधर के उत्कीर्ण रेखांकन खड़े एवं हाथ जोड़े दिखाये गये हैं । इनसे स्पष्ट है कि ये शिल्पी तत्कालीन जैन शैली की सभी विधाओं के अच्छे ज्ञाता थे । तत्कालीन चित्रों की भांति इन्होंने एक आँख बाहर निकलते हुए सवा चश्मी चेहरा, वस्त्र लहराते हुए, नुकीली नाक एवं दाढ़ी आदि का रेखांकन किया है, जो मेवाड़ भूखण्ड में कला का प्रामाणिक स्वरूप बनाने में समर्थ हुए। इन शिलोत्कीर्ण चित्रों के ऊपर तिथि युक्त पंक्तियाँ चित्रों की पुष्टि में सहायक हैं। मेवाड़ भूखण्ड गुजरात की सीमाओं से लगा हुआ है, यहाँ प्रारम्भ से ही जैन धर्मावलम्बियों के कई केन्द्र रहे हैं। कई जैन मन्दिर बने तथा ग्रन्थ लिखे गये । इन केन्द्रों पर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सचित्र ग्रन्थ मिले हैं। महाराणा जैत्रसिंह के शासनकाल में कई ग्रन्थ लिखे गये। इनमें ओघनियुक्ति वि० सं० १२८४ मुख्य है। चित्तौड़ के एक जैन श्रेष्ठी राल्हा ने मालवा में जाकर 'कर्मविपाक' वि० सं० १२६५ में लिखाया। इसकी प्रशस्ति में नलकच्छपुर नाम स्पष्ट है जिसे नालछा कहते हैं । चित्तौड़ में 'पाक्षिकवृत्ति' की वि० सं० १३०६ (१२५२ ई०) में प्रतिलिपि की गई, जो जैसलमेर में संग्रहीत है। इसमें श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूणि ही सचित्र है। इसके चित्रों में मेवाड़ की प्राचीन परम्परा एवं बाद में आने वाली चित्रण विशेषताओं का उचित समावेश है । श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूणि ग्रन्थ में चित्र के दायें-बाये लिपि तथा मध्य भाग में चित्र बने हैं। इसकी पुष्पिका में आलेख चित्रों के साथ ही हैं। इस ग्रंथ में कुल ६ चित्र हैं, जो बोस्टन संग्रहालय अमेरिका में सुरक्षित हैं। इन चित्रों की विशेषताएँ तत्कालीन चित्रण पद्धति तथा परम्परा के अनुसार हैं। नारी चित्रों एवं अलंकरण का इनमें आकर्षक संयोग है। उक्त शिलोत्कीर्ण एवं सचित्र ग्रन्थ में सवा चश्म चेहरे, गरुड़ नासिका, परवल वाली आँख, घुमावदार लम्बी उंगलियाँ, लाल-पीले रंग का प्राचुर्य, गुडीदार जन समुदाय, चौकड़ीदार अलंकरण का बाहुल्य, चेहरों की जकड़न आदि महत्त्वपूर्ण है । इन चित्रों में रंग योजना भी चमकीली है। पीला, हरा व लाल रंग का मुख्य प्रयोग मिलता है। रंगों, रेखाओं व स्थान के उचित संयोजन का यह उत्कृष्ट नमूना है, जिसमें गतिपूर्ण रेखाओं व ज्यामितीय सरल रूपों का प्रयोग है। ये संस्कार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अवतरित होते रहे। साथ ही इन चित्रकारों ने सामाजिक तत्त्वों, रहन-सहन आदि का अच्छा अंकन किया है, जिस पर साराभाई नवाब ने लिखा है कि तेरहवीं सदी में मेवाड़ की स्त्रियाँ कैसा पहवाना पहनती थीं, यह इन चित्रों में अंकित है। इस पंक्ति से इस महत्त्वपूर्ण सचित्र ग्रंथ में सामाजिक वेषभूषा के अंकन की कार्यकुशलता भली भाँति सिद्ध हो जाती है। गंगरार ग्राम में मिले कुछ शिलोत्कीर्ण रेखाचित्र विक्रम संवत् (१३७५-१३७६) के हैं। इनमें दिगम्बर साधुओं की तीन आकृतियाँ हैं तथा उनके नीचे शिलालेख हैं। इन आकृतियों की अपनी निजी विशेषताएँ हैं । ये १. संवत् १२८६ वर्षे श्री समधेसरदेव प्रणमते सुत्र ( ) आल पुत्र माउको न एता। संवत् १२८६ वर्षे श्रावण सु० रखो श्री समधेसुरदेव नृसव ( ? ) श्रीधर पुत्र जयतकः सदा प्रणमति । -शोध पत्रिका, वर्ष २५, अंक १, पृ० ५३-५४ । २. ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ० १६६-६० । ३. संवत् १९१७ वर्षे माह सुदि १४ आदित्य दिने श्री मेदाधाट दुर्गे महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक उमा पतिवर लब्धप्रौढ़ प्रताभूप-समलंकृत श्री तेजसिंहदेव कल्याण विजयराज्ये तत्पादपद्मनाभ जीविनि महामात्य श्री समुदधरे मुद्रा व्यापार परिपंथयति श्री मेदाघाट वास्तव्य पं० रामचन्द्र शिष्येण कमलचन्द्रेण पुस्तिकाव्य लेखि। -श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रणि, बोस्टन संग्रहालय, अमेरिका ४. शोध पत्रिका, वर्ष ५, अंक ३, पृ० ४६ ५. शोध पत्रिका, वर्ष २७, अंक ४, पृ० ४१-४२ Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ की प्राचीन जैन चित्रांकन-परम्परा १७७. . ............................................ . . . . . . . ... .... आकृतियाँ एक चश्मी न ही हैं, नहीं इनमें अपभ्रंश शैली जैसे वस्त्र हैं । अतः यह मानना होगा कि यह वहाँ की स्थानीय शैली के अनुरूप साधुओं की आकृतियाँ रही होंगी। अलाउद्दीन के आक्रमण के पश्चात् उत्तरी भारत में जो विकास हुआ, उनमें गुजरात व मालवा के नये राज्यों की स्थापना उल्लेखनीय है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, मेवाड़ के शासक भी अलाउद्दीन के आक्रमण के बाद अधिक शक्तिसम्पन्न हुए। महाराणा लाखा, मोकल एवं कुम्भा का काल आन्तरिक शान्ति का काल था। इस काल में कई महत्त्वपूर्ण कलाकृतियों का निर्माण हुआ । मेवाड़ की चित्रकला का दूसरा सचित्र ग्रंथ कल्पसूत्र वि० सं० १४७५ (१४१८ ई०) है, जो सोमेश्वर ग्राम गोड़वाड़ में अंकित किया गया। यह ग्रंथ अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर में सुरक्षित है । ७६ पत्रों की इस प्रति में ७३ पत्रों तक तो कल्पसूत्र एवं कालिकाचार्य कथा ८८ श्लोकों की है। इस कथा में ३ चित्र हैं। कल्पसूत्र के १६ पृष्ठों पर चित्र हैं। इनमें से पत्रांक 8 और ३२ के बोर्डर पर भी लघु चित्र हैं । पत्रांक २६ में दो चित्र है । चित्रों की पृष्ठभूमि में लाल, हल्दिया, बैंगनी व मंगे रंग का प्रयोग है तथा ग्रन्थ के अन्त में लिखी पुष्पिका से तत्कालीन कला-परम्परा की भी उचित पुष्टि होती है। ज्ञातव्य है कि उस काल में गोड़वाड़ मेवाड़ का ही भाग था, जो महाराणा अरिसिंह (१७६१-१७७३) ई० के राज्यकाल में मारवाड़ को दे दिया गया। इसके अन्तिम लेख से स्पष्ट है कि जैसलमेर में जयसुन्दर शिष्य तिलकरंग की पंचमी तप के उद्यापन में यह प्रति भेंट की गई थी। मेवाड़ की चित्रकला का अन्य सचित्र ग्रंथ महाराणा मोकल के राज्यकाल (१४२१-१४३३ ई०) का देलवाड़ा में चित्रित सुपासनाहचरिय वि० सं १४८० है। यह ग्रंथ सैंतीस चित्रों का एक अनुपम चित्र सम्पुट है जो पाटण के संग्रहालय में सुरक्षित है। यह ग्रंथ देलवाड़ा में मुनि हीरानन्द द्वारा अंकित किया गया। मुनि हीरानन्द द्वारा चित्रित यह ग्रंथ मेवाड़ की चित्रण-परम्परा में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, जो इससे पूर्व श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूणि की कलात्मक विशेषताओं से एक कदम आगे है। इनके द्वारा पृष्ठभूमि का अंकन हीगलू के लाल रंग से किया गया है। स्त्रियों का लंहगा नीला, कंचुकी हरी, ओढ़नी हल्के गुलाबी रंग से तथा जैन साधुओं के परिधान श्वेत और पात्र श्याम रंग में हैं। देलवाड़ा में ही महाराणा मोकल के राज्यकाल का एक अन्य सचित्र ग्रंथ 'ज्ञानार्णव' वि० सं० १४८५ (१४२७ ई.) नेमिनाथ मन्दिर में लिखा गया दिगम्बर जैन ग्रंथ है। यह लालभाई दलपतभाई ज्ञान भण्डार अहमदाबाद में सुरक्षित है। इस भूखण्ड का एक और सचित्र ग्रंथ रसिकाष्टक वि० सं० १४६२ हैं, जो महाराणा कुम्भा के राज्यकाल का एक उल्लेखनीय ग्रंथ है। रसिकाष्टक नामक ग्रंथ भीखम द्वारा अंकित किया गया था जो पूष्पिका से भी स्पष्ट है। इस १. संवत् १४७५ वर्षे चैत्र सुदि प्रतिपदा तिथी। निशानाथ दिने श्रीमत मेदपाट देशे सोमेश्वर ग्रामे अश्विनी नक्षत्रे मेष राशि स्थिते चन्द्र । विषकायोगे श्रीमत् चित्रावाल गच्छे श्री वीरेचन्द्रसूरि शिष्येण धनसारेणकल्प पुस्तिका आत्मवाचनार्थ लिखापित लिषिता, वाचनाचार्येण शीलसुन्दरेण श्री श्री श्री शुभं भवतु। --अगरचन्द नाहटा, आकृति (रा० ल० अं०) जुलाई १६७६, वर्ष ११, अंक १, पृ० ११-१४ २. मुनि श्री विजयवल्लभसूरि स्मारक स्मृति ग्रंथ, बम्बई १९५६, पृ० १७६-संवत् १४८० वर्षे शाके १३४५ प्रवर्त माने ज्येष्ठ वदि १० शुक्र ववकरणे मेदपाट देशे देवकुलवाटके राजाधिराज राणा मोकल विजय राज्ये श्रीमद्ब्रहदगच्छे मड्डाहडीय भट्टारक श्री हरिभद्रसूरि परिवार भूषण पं० भावचन्द्रस्य शिष्य लेशेन मुनि हीराणंदेन लिलिखेरे। -साराभाई मणिलाल नबाब अहमदाबाद, जैन चित्र कल्पद्रुम, १६५८, पृ० ३०. ३. संवत् १४८५ वर्षे निज प्रताप प्रभाव पराकृत तरण तरणी मंडलात श्री महाराजाधिराज मोकलदेव राज्य प्रवर्तमान नां श्री देवकुल वाटके। -ला० द० ज्ञ० भ० अहमदाबाद । ४. संवत् १४६२ वर्षे आषाढ़ सुदि गुरौ श्री मेदपाटे देशे श्री पं० भीकमचन्द रचित चित्र रसिकाष्टक समाप्त श्री कुम्भकर्ण आदेशात् ।" Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड - ..........-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. . - . - . -. - . ग्रन्थ के छः श्रेष्ठ चित्र उपलब्ध हुए हैं, जिनमें विभिन्न ऋतुओं तथा पशुओं के गतिपूर्ण अंकन है जो तत्कालीन कलापरम्परा की अच्छी पुष्टि करते हैं । ये अगरचन्द नाहटा संग्रह बीकानेर में सुरक्षित हैं। महाराणा कुम्भा का काल कला का स्वर्ण युग था। स्वयं महाराणा कुम्भा जैन धर्म में आस्था रखता था। कुम्भा के काल में साहित्य सन्दर्भो में भी चित्रकला के उल्लेख मिलते हैं, उनमें 'सोमसौभाग्य काव्य' उल्लेखनीय है। उस समय मेवाड़ के देलवाड़ा नगर में श्रेष्ठियों के मकानों में कई सुन्दर चित्र बने हुए थे। देलवाड़ा का सम्बन्ध उस काल में माण्डू, ईडर, गुजरात के पाटन, अहमदाबाद, दौलताबाद एवं जोनपुर आदि से होने के समकालीन साहित्यिक सन्दर्भ उपलब्ध हैं । जौनपुर से एक खरतरगच्छ का विशाल संघ आया था, जिन्होंने काव्य सूत्र ग्रंथ लिखवाने की भी इच्छा व्यक्त की थी। इन सन्दर्भो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मेवाड़ में देलवाड़ा कला व सांस्कृतिक दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। देलवाड़ा से कुछ आलेखाकारों का जौनपुर में ग्रंथ लेखन हेतु जाना भी सम्भव है। मांडू के स्वर्ण कल्पसूत्र की प्रशस्ति के अनुसार श्रेष्ठी जसवीर जब मेवाड़ में आया तो महाराणा कुम्भा ने उसे तिलक लगाकर सम्मानित किया। इन राज्यों में जैन धर्म व कला की अभूतपूर्व उन्नति हुई। व्यापारिक वर्ग ने तत्कालीन सुल्तानों से कई सुविधाएँ प्राप्त कर ली थीं । माण्डू के कल्पसूत्र की प्रशस्ति में श्रेष्ठी जसवीर का उल्लेख है, जिसने मेवाड़ में चित्तौड़, राणकपुर, देलवाड़ा कुम्भलगढ़, आबू, जीरापल्ली आदि स्थानों की यात्रा की थी और महाराणा कुम्भा ने इन श्रेष्ठियों को सम्मानित भी किया था। मेवाड़ में ऐसे कई साधु गुजरात व मालवा की यात्रा हेतु प्रस्थान करते रहते थे। मेवाड़ के देलवाड़ा में दक्षिण भारत के दौलताबाद व पूर्व के जौनपुर से कई श्रेष्ठियों के आने व ग्रंथ लिखाने के प्रसंगवश वर्णन हैं । अतएव यह स्पट होता है कि मेवाड़ में पन्द्रहवीं सदी में सांस्कृतिक उत्थान बड़ी तेजी से हुआ। किन्तु मेवाड़ में इस काल की कृतियाँ कम मिलती हैं, इसका मुख्य कारण चित्तौड़ में दो बार जौहर का होना है । इन जौहरों में हजारों पुरुष मरे, कई नारियाँ जौहर में कूद पड़ी। आक्रमणकारियों ने मन्दिरों, भवनों और ग्रथ भण्डारों को आग लगा दी। इनका वर्णन पारसी तवारीखों में स्पष्टतः मिलता है। जिससे बड़ी संख्या में ग्रन्थों के नष्ट होने की पुष्टि होती है। 0000 १. रामवल्लभ सोमानी, महाराणा कुम्भा, पृ० ३३६ Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-. -.-.-.-....... ...... .... .. .... ....-. -. -. -. -.-.-. -. -. .... . .. ... जैन धर्म और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान o आचार्य राजकुमार जैन १ई।६ स्वामी रामतीर्थनगर, नई दिल्ली-११००५५ जैन दर्शन और आधनिक चिकित्सा विज्ञान में सैद्धान्तिक, प्रायोगिक या वैचारिक दृष्टि से यद्यपि कोई विशेष समानता प्रतीत नहीं होती और न ही दोनों के दार्शनिक पक्ष में कोई अनुपूरकता की स्थिति है, तथापि इस दृष्टि से यह विषय महत्त्वपूर्ण है कि मानव समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की वर्तमान उपलब्धियों से लाभान्वित हो रहा है। जिस शरीर के माध्यम से जैन दर्शन आत्म-साधन और आत्मानुशीलन हेत मनष्य को प्रेरित करता है, उस गरीर को रोगमुक्त बनाकर उसे स्वस्थ रखने में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का वर्तमान समय में अपर्व योगदान रहा है। आत्मा के बिना शरीर का कोई महत्त्व नहीं है और शरीर के बिना आत्मा को मुक्ति मिलना सम्भव नहीं है। इस दृष्टि से दोनों एक-दूसरे के अनपूरक हैं । जैन दर्शन यदि आत्मा को विशुद्ध स्वरूप प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त करता है तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान मानव शरीर को स्वास्थ्य रूपी विशुद्धता प्रदान करने में समर्थ है। इस दृष्टि से जैन दर्शन और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान दोनों को अप्रत्यक्ष रूप से परस्पर सम्बन्धित माना जा सकता है। किन्तु दोनों का सम्बन्ध ३ और ६ की भाँति ३६ के समान परस्पर विपरीत भावात्मक होगा। क्योंकि जैन दर्शन आध्यात्मिकता का पोषक है जबकि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भौतिकता का। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान द्वारा वर्तमान युग में मानव समाज का उपकार किस रूप में किस प्रकार किया जा रहा है ? इस पर भी कुछ विचार करना आवश्यक है। तत्पश्चात उस पृष्ठभूमि के आधार पर जैन दर्शन के साथ उसका सम्बन्ध निरूपण किया जायगा। वर्तमान वैज्ञानिक, भौतिकवादी एवं प्रगतिशील युग में मानव की समस्त प्रवृत्तियाँ अन्तर्मुखी न होकर बहिर्मुखी अधिक हैं । इसी प्रकार मानव की समस्त प्रवृत्तियों का आकर्षण केन्द्र वर्तमान में जितना अधिक भौतिकवाद है, उतना अध्यात्मवाद नहीं । यही कारण है कि आज का मानव भौतिक नश्वर सुखों में ही यथार्थ सुख की अनभूति करता है. जिसका अन्तिम परिणाम विनाश के अतिरिक्त कुछ नहीं है। वर्तमानकालीन सतत चिन्तन, अनुभूति की गहराई, अनशीलन की परम्परा और तीब्रगामी विचार प्रवाह सब मिलकर भौतिकवाद के विशाल समुद्र में इस प्रकार विलीन हो गये हैं कि जिससे अन्तर्जगत् की समस्त प्रवृत्तियाँ ही अवरुद्ध हो गई हैं। इसका एक यह परिणाम अवश्य हुआ है कि वर्तमान मानव समाज को अनेक वैज्ञानिक उपलब्धियाँ प्राप्त हुई हैं, जिससे सम्पूर्ण विश्व में एक अभूतपूर्व क्रान्ति का उद्भव हुआ है। यह क्रान्ति आज वैज्ञानिक क्रान्ति के नाम से कही जाती है और इससे होने वाली उपलब्धियाँ वैज्ञानिक उपलब्धियां कहलाती हैं । आधुनिक विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में ये वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हुई हैं और हो रही हैं । उन्हीं उपलब्धियों में से एक है-आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धि । इसे एलोपैथी या आधुनिक चिकित्सा प्रणाली (Allopathy or Modern Medicine) भी कहा जाता है। जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की समस्त उपलब्धियाँ भौतिकवाद की देन हैं और उनकी समस्त प्रवृत्तियाँ भौतिकता की ओर उन्मुख हैं। इसी सिद्धान्त पर आधारित आधुनिक चिकित्सा प्रणाली भी भौतिकता से प्रेरित और भौतिकवाद की ओर उन्मुख है । मेरे उपर्युक्त कथन की पुष्टि निम्न कारणों पर आधारित है आधुनिक चिकित्सा प्रणाली का मुख्य लक्ष्य केवल शरीर के रोगों की चिकित्सा कर उनका उपशम करना है.. Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१८० कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड ताकि रोगों से मुक्त होकर शरीर भौतिक सुखों का उपभोग कर सके । रोग की चिकित्सा द्वारा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान शारीरिक स्वस्थता तो प्रदान करता है, किन्तु शारीरिक आभ्यन्तरिक शुद्धि तथा मानसिक स्वस्थता के लिए उसके पास कोई साधन नहीं है। इसका कारण सम्भवतः मुख्य रूप से यह हो सकता है कि मन का प्रत्यक्ष न होने से अथवा मन की स्थिति के सम्बन्ध में पाश्चात्य विद्वानों का भिन्न दृष्टिकोण होने से उन्होंने इस विषय में दूसरे ढंग से विचार किया है। अभिप्राय यह है कि आधुनिक विज्ञान मूलतः प्रत्यक्षवादी होने के कारण उसने इन्द्रियों द्वारा उपलब्ध किये जाने वाले विषयों के अनुसन्धान में ही अपने समस्त साधनों को केन्द्रित किया है। आधुनिक विज्ञान के समस्त साधन भौतिक होने के कारण वे केवल भौतिक वस्तुओं से अनुसन्धान में ही समर्थ हैं, अन्य विषयों के अनुसन्धान में नहीं । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के समस्त साधन चाहे वे परीक्षण के लिए प्रयुक्त किये जाते हों अथवा चिकित्सा के लिए, पूर्णतः भौतिक हैं। वे साधन, केवल वहीं तक सक्षम हैं जहाँ तक उन्हें विषय का प्रत्यक्ष है, उससे आगे या उसके अतिरिक्त उसकी गति नहीं है । इसी प्रकार वर्तमान बीसवीं शताब्दी में आधुनिक विज्ञान ने महत्त्वपूर्ण साधनों का आविष्कार कर उनके द्वारा रोग निदान के सम्बन्ध में गूढतम विषयों की जानकारी प्राप्त करने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है। चिकित्सा विषयक अनेक उपकरणों द्वारा कष्टसाध्य व्याधियों को निर्मूल करने तथा रोग समूह पर विजय प्राप्त करने में अद्वितीय सफलता अर्जित की है, तथापि उसको सम्पूर्ण सफलता और श्रेय एक ऐसी परिधि में सीमित है जो केवल इहलौकिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने में समर्थ है। चिकित्सा का सामान्य अभिप्राय होता है रोगापनयन । चिकित्सा द्वारा रोग का निवारण होने पर शरीर स्वस्थ होता है और शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ मनुष्य भोगोपभोग-योग्य विषयों का आनन्द प्राप्त करता है। चिकित्सा सामान्यत: दो प्रकार की होती है--एक मुख द्वारा औषधि सेवन अर्थात् आभ्यन्तरिक प्रयोग और दूसरी बाह्य क्रियाविधि अर्थात् विविध उपकरणों या साधनों द्वारा शल्य क्रिया करके अवयव विशेषगत विकृति को दूर करना । ये दोनों ही विधियाँ रोग का शमन या व्याधि को निर्मूल करने में समर्थ हैं। किन्तु इनके द्वारा मानसिक शुद्धि या मानसिक विकारोपशम किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। आधुनिक चिकित्सा द्वारा यद्यपि मानसिक विकृति और उसकी चिकित्सा के सम्बन्ध में भी प्रथक् से अनुशीलन, चिन्तन और मनन हुआ है, किन्तु दृष्टिकोण की भिन्नता के कारण उसने जिस वस्तु को मन की संज्ञा दी है वह भारतीय दर्शनशास्त्र एवं जैन दर्शन में प्रतिपादित मन से सर्वथा भिन्न वस्तु है । अतः आधुनिक चिकित्सा विज्ञानसम्मत मानवशास्त्र और जैन दर्शन में प्रतिपादित मानवशास्त्र में मौलिक अन्तर होने से जैन दर्शन उसे मानसिक चिकित्सा विज्ञान स्वीकार नहीं कर सकता। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का मुख्य प्रतिपाद्य विषय भौतिकवाद से प्रेरित होने के कारण उसका अपना कोई स्वतन्त्र मौलिक दर्शन नहीं है । यही कारण है कि दार्शनिक क्षेत्र में उसकी गतिविधि का कोई समुचित मूल्यांकन नहीं किया गया । आधुनिक विद्वानों के अनुसार यह तर्क प्रस्तुत किया जाता रहा है कि पाश्चात्य दर्शन की चिन्तनधारा का पर्याप्त प्रभाव आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पर पड़ा है और उसने उसी परिप्रेक्ष्य में अपने सिद्धान्तों का निर्धारण कर एक अजीब दिशा की ओर अपने लक्ष्य बढ़ाए जो अब भी नित नवीन अन्वेषणों के साथ सतत रूप से आगे बढ़ते जा रहे हैं और अपनी नूतन उपलब्धियों के माध्यम से लोक-कल्याण में संलग्न हैं। वस्तुतः यह पूर्ण सत्य है कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का स्वतन्त्र मौलिक दर्शन न होते हुए भी वह पाश्चात्य दर्शन से न केवल प्रभावित है अपितु अनुप्राणित है। इसका कारण सम्भवत: यही है कि दोनों का उद्भव-स्थल एक ही है और दोनों में विचारसाम्य की स्थिति है । इस आधार पर अथवा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का अनुशीलन करने पर यह तो स्पष्ट हो जाता है कि वह मनुष्य को शारीरिक दृष्टि से अधिक महत्त्व देता है, मानसिक दृष्टि से कम और आत्मा या आध्यात्मिक दृष्टि से बिल्कुल नहीं । शारीरिक दृष्टि से मनुष्य का महत्त्व यद्यपि . अस्थायी है और शरीर का विनाश हो जाने पर उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता । किन्तु यावत् काल शरीर विद्यमान रहता है तब तक वही महत्त्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त शरीर के जीवन के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि शरीर में कुछ विशिष्ट द्रव्यों का संयोग ही शरीर को जीवित रखकर उसे जीवन प्रदान करता है और उन विशिष्ट द्रव्यों का विघटन शारीरिक जीवन के अन्त का Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान DIDIC १८१ कारण है । किन्तु आधुनिक वैज्ञानिक इस प्रकार के अनुसन्धान में सफल नहीं हुए हैं कि शरीर को जीवन-शक्ति प्रदान करने वाले वे विशिष्ट घटक या द्रव्य कौन-कौन से हैं? उनका दावा है कि एक न एक दिन वे उसे खोज निकालने में समर्थ होंगे और इस प्रकार वे मानव-मृत्यु पर सदा सर्वदा के लिए विजय प्राप्त कर सकेंगे। विज्ञान द्वारा प्रतिपादित भौतिक अनुसन्धान सम्भवतः युग-युगों तक प्रयत्नशील रहेगा और सफलता की एक-एक सीढ़ी पार करता हुआ इस दिशा में आगे बढ़ता रहेगा। सफलता की चरम परिणति सम्भवतः उसके समूल विनाश में हो। क्योंकि अनश्वरता की गोद में पले हुए भौतिकवाद की चरम परिणति उसके विनाश में ही है. यह सृष्टि का नियम है। SHOHDHDIO जैन दर्शन का महत्व आध्यात्मिक एवं दार्शनिक दृष्टि से है चिकित्सा की दृष्टि से उसका कोई महत्त्व नहीं है और न ही जैन दर्शन में चिकित्सा के कोई निर्देशक सिद्धान्त निरूपित हैं । किन्तु चिकित्सा का सम्बन्ध मानव स्वास्थ्य से है और स्वास्थ्य की दृष्टि से अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित किए गए हैं। स्वास्थ्योपयोगी जैन दर्शन के वे सिद्धान्त यद्यपि भले ही स्वास्थ्य की दृष्टि से वर्णित न किए गए हों, किन्तु मानव मात्र के लिए मानव शरीर की दोषों से रक्षा के निमित्त आध्यात्मिक शुद्धि हेतु प्रतिपादित वे नियम निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं। आध्यात्मिक शुद्धि एवं आत्म-कल्याण की भावना से अभिभूत मनुष्य के लिए भले ही उसके शरीर और उसके शारीरिक स्वास्थ्य का कोई महत्व न हो किन्तु एक गृहस्थ एवं श्रावक को तो शरीर की रक्षा का उपाय करना ही पड़ता है। क्योंकि जिस प्रकार अन्यान्य दोषों से आत्मा की रक्षा करना उसका परम कर्त्तव्य है उसी प्रकार रोगों से शरीर की रक्षा करना भी उसका परम कर्तव्य है । शरीर की रक्षा के बिना अथवा स्वस्थ शरीर के बिना धर्म-साधना सम्भव नहीं है । धर्म का अभिप्राय मानव जीवन की निष्क्रियता भी नहीं है कि धर्म के नाम पर मनुष्य स्वयं को समस्त लौकिक कर्मों से विरत कर ले, अपितु नैतिक आचरण की शुद्धता एवं संयमपूर्ण जीवन ही वास्तविक धर्म है। जीवन की उपयोगिता शरीर के बिना नहीं है। अतः व्यावहारिक जीवन में शरीर की रक्षा करना तथा शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य रक्षण हेतु सदैव सजग रहना मानव का परम कर्त्तव्य है । चारों ही पुरुषार्थ की सिद्धि शरीर के ही माध्यम से होती है और शरीर का स्वास्थ्य ही इनका मूल आधार है । आचार्यों के शब्दों में धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । यह महत्वपूर्ण तथ्य जो आचायों की गहन दृष्टि का परिणाम है, लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से उपयोगी एवं सार्थक है । अतः अपने शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा हेतु सतत प्रयत्नशील रहना हमारा नैतिक उत्तरदायित्व हो जाता है । शरीर के प्रति मोह नहीं रखना आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, किन्तु इसका यह भी अभिप्राय नहीं है कि शरीर की पूर्ण उपेक्षा की जाय। जान बुझकर शरीर की उपेक्षा करना एक प्रकार का आत्मघात है और आत्मघात को शास्त्रों में सबसे बड़ा दोष माना गया है। अतः धर्म-साधना हेतु आहार आदि के द्वारा शरीर का साधन करना तथा अहित विषयों से उसकी रक्षा करना और विकार एवं रोगों से उसे बचाना आवश्यक है । एकान्तत: शरीर की उपेक्षा करने का उल्लेख किसी शास्त्र में नहीं है। जैन धर्म में भी आत्म-साधना के समक्ष शरीर को यद्यपि नगण्य माना गया है, किन्तु पूर्णतः उसकी उपेक्षा का निर्देश नहीं किया गया है । अतः यावत्काल शरीर की आयु है तावत्काल उसे स्वस्थ रखने का प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ पर यह ध्यान रखने योग्य है कि शरीर को स्वस्थ रखना और उसे रोगों से बचाना एक भिन्न बात है और शरीर से मोह रखते हुए उसके माध्यम से भौतिक सुखों का उपभोग करना एक भिन्न बात है। जैन धर्म शरीर को भौतिक वस्तुओं से विरत रखने का निर्देश तो देता है, किन्तु स्वास्थ्य रक्षा सम्बन्धी सात्त्विक उपायों के सेवन का निषेध नहीं करता है । मानव शरीर के स्वास्थ्य रक्षा की दृष्टि से तथा अहित विषयों में शरीर की प्रवृत्ति को रोकने के लिए जैन धर्म ने मनुष्य के दैनिक आचरण तथा उसके व्यक्तिगत एवं सामाजिक व्यवहार में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है जो शारीरिक व मानसिक दृष्टि से तो उपयोगी हैं ही आत्मशुद्धि आध्यात्मिक विकास एवं सात्विक जीवन निर्वाह के लिए भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। जैन धर्म में प्रतिपादित सिद्धान्त जहाँ मनुष्य के आध्यात्मिक . Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड शार्ग को प्रशस्त करते हैं, वहाँ लौकिक किंवा व्यावहारिक जीवन के उत्थान में भी सहायक होते हैं । सात्त्विक जीवननिर्वाह हेतु मनुष्य को प्रेरित करना उनका मुख्य लक्ष्य है। अत: स्वास्थ्यरक्षा एवं आरोग्य की दृष्टि से जैन धर्म आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अत्यन्त निकट है । क्योंकि जीवन की कसौटी पर कसे हुए सिद्धान्त विज्ञान की तुला में जब समानता प्राप्त कर लेते हैं तो जीवनोपयोगी उन सिद्धान्तों को वैज्ञानिक आधार प्राप्त हो जाता है। अतः मानव-जीवन की सार्थकता का निर्वाह करने वाले मन-वचन-काय में शुद्धता करने वाले, सात्त्विक एवं मानवोचित विशुद्ध भावों का उद्भव करने वाले नियम और सिद्धान्त जब प्रकृति के साँचे में ढल जाते हैं तो स्वतः ही वैज्ञानिकता की परिधि में आ जाते हैं। उनकी पूर्णता ही उनकी वैज्ञानिकता है। प्रकृति और विकार के सन्दर्भ में कहा जाता है कि प्राणि-संसार में मृत्यु ही प्रकृति है और जीवन विकार है। इस कथन की सार्थकता वस्तुत: आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक है। लौकिक दृष्टि से विकार 'जीवन' की प्रकृति आरोग्य है और आरोग्य का आधार शरीर है। शरीर का विनाश अवश्यंभावी है। अत: उसका अन्तिम परिणाम मृत्यु है। निष्कर्ष-रूपेग दृष्टि की भिन्नता होते हुए भी लक्ष्य केवल एक ही रहता है। इसी प्रकार स्वास्थ्य-साधन, शरीर-रक्षा एवं आरोग्य-लाभ के समन्वित लक्ष्य हेतु जैन धर्म एवं आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की पारस्परिक दूरी होते हुए भी आंशिकरूपेण ही मही, बहुत कुछ निकटता एवं पारस्परिक एकता अवश्य है। व्यावहारिक जीवन में प्रयुक्त किये जाने वाले सामान्य नियम कितने उपयोगी और स्वास्थ्य के लिए हितकारी होते हैं, यह उनको आचरित करने के बाद भली-भाँति स्पष्ट हो जाता है। एक जैन गृहस्थ के यहाँ साधारणतः इसका तो ध्यान रखा ही जाता है कि वह जल का उपयोग छानकर करे, सूर्यास्त के पश्चात् भोजन न करे, यथासम्भव गड़न्त वस्तुओं (आलू, अरबी, आदि) का उपयोग न करे, मद्यपान, धूम्रपान आदि व्यसनों का सेवन न करे, जो वस्तुएं दूषित या मलिन हों और जिसमें जन्तु आदि उत्पन्न हो गए हों उनका सेवन न करे इत्यादि । धार्मिक दृष्टि से विरोध की भावना से प्रेरित अथवा स्वयं को अत्यधिक आधुनिक और प्रगतिशील कहनेवाले व्यक्ति भले ही जैन धर्म के उपर्युक्त नियमों को रूढ़िवादी, धर्मान्धता, थोथे एवं निरुपयोगी कहें किन्तु स्वास्थ्य के लिए उनकी उपयोगिता को वैज्ञानिक आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। जो नियम जीवन को सात्त्विकता की ओर ले जाकर जीवन ऊंचा उठाने वाले हों. शरीर की रक्षा और स्वास्थ्य का सम्पादन करने वाले हों, वे नियम केवल इसी आधार पर अवहेलना किये जाने योग्य नहीं हैं कि धार्मिक या सात्त्विक दृष्टि से भी उनका महत्त्व है। स्वास्थ्य विज्ञान का ऐसा कौन-सा ग्रन्थ है अथवा संसार की प्रचलित चिकित्सा प्रणालियों में ऐसी कौन-सी प्रणाली है जो शुद्ध जल के सेवन का निषेध करती है। मद्यपान या धूम्रपान के सेवन का उल्लेख किस चिकित्साशास्त्र में किया गया है ? अशुद्ध और अशुचि भोजन का निषेध कहाँ नहीं किया गया? इस प्रकार उपर्युक्त समस्त नियम एवं सिद्धान्त तथा इसी प्रकार के अन्य सिद्धान्त भी केवल सैद्धान्तिक या शास्त्रीय नहीं हैं, अपितु पूर्णत: व्यावहारिक एवं नित्योपयोगी हैं। आधुनिक विज्ञान के प्रत्यक्ष परीक्षणों द्वारा यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि जल में अनेक सूक्ष्म जीन एवं अनेक अशुद्धियाँ होती हैं । अत: जल को शुद्ध करने के पश्चात् ही उसका उपयोग करना चाहिए । जल की कुछ भौतिक अशुद्धियाँ तो वस्त्र से छानने के बाद दूर हो जाती हैं, कुछ जीव भी इस प्रक्रिया द्वारा जल से पृथक् किये जा सकते हैं । अत: काफी अंशों में जल की अशुद्धि छानने मात्र से दूर हो जाती है और कुछ समय के लिए जल शुद्ध हो जाता है। किन्तु जल की शुद्धि वस्तुत: जल को उबालने से होती है। छने हुए जल को अग्नि पर उबालने से जलगत सभी प्रकार की अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं और जल पूर्ण शुद्ध होकर निर्मल बन जाता है। जैन धर्म मानव को जल सम्बन्धी समस्त दोषों से बचाने और शरीर को नीरोग रखने की दृष्टि से शुद्ध, ताजे, छने हुए और यथासम्भव उबाल कर ठंडा किये हुए जल के सेवन का निर्देश देता है। क्या इस निर्देश और नियम की व्यावहारिकता अथवा उप- . योगिता को अस्वीकार किया जा सकता है ? गृहस्थ के व्यावहारिक जीवन को उन्नत बनाने हेतु तथा शरीर को स्वस्थ रखने के लिए शुद्ध, ताजे और निर्दोष भोजन की उपयोगिता स्वास्थ्य विज्ञान द्वारा निर्विवाद रूप से स्वीकार की गई है। मानव-जीवन एवं मानव-शरीर को -0 Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान १८३ सुन्दर व नीरोग रखने के लिए तथा आयुपर्यन्त शरीर की रक्षा के लिए निर्दुष्ट, परिमित, सन्तुलित एवं सात्त्विक आहार ही सेवनीय होता है । आहार में कोई भी वस्तु ऐसी न हो जो स्वास्थ्य के लिए अहितकर अथवा रोगोत्पादक हो। अत: सदैव शुद्ध और ताजा भोजन ही हितकर होता है । आहार सम्बन्धी विधि-विधान के अनुसार उचित समय पर भोजन करने का बड़ा महत्व है। जो लोग समय पर भोजन नहीं करते वे अक्सर आहार एवं उदर सम्बन्धी व्याधियों से पीड़ित रहते हैं । आहार-भोजन के समय के विषय में जैनधर्म का दृष्टिकोण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं वैज्ञानिक है । यद्यपि यह तो निर्देशित नहीं किया गया है कि मनुष्य को भोजन किस समय कितने बजे तक कर लेना चाहिए ? किन्तु उसकी मान्यता एवं दृष्टिकोण के अनुसार मनुष्य को सूर्यास्त के पश्चात् अर्थात् रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। इसका धार्मिक महत्त्व तो यह है ही कि रात्रिकाल में भोजन करने से अनेक जीवों की हिंसा होती है. किन्तु इसका वैज्ञानिक महत्त्व एव आधार यह है कि हमारे आसपास के वातावरण में अनेक ऐसे सूक्ष्म जीवाण विद्यमान रहते हैं जो दिन में सूर्य की किरणों से नष्ट हो जाते हैं । रात्रि में सूर्य की किरणों के अभाव में वे सूक्ष्म जीवाण विद्यमान रहते हैं और वे हमारे भोजन को दूषित, मलिन ब विषमय कर देते हैं । वे भोजन के माध्यम से हमारे शरीर में प्रविष्ट होकर शरीर में विकृति उत्पन्न कर देते हैं । दूसरी एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्वास्थ्य विज्ञान एवं आहार पाचन सम्बन्धी नियमानुसार हम जो आहार ग्रहण करते हैं वह मुख से गले के मार्ग द्वारा सर्वप्रथम आमाशय में पहुँचता है, जहाँ उसकी वास्तविक परिपाक क्रिया प्रारम्भ होती है। परिपाक हेतु वह आहार आमाशय में लगभग चार घण्टे तक अवस्थित रहता है। उसके बाद वह आमा गय से नीचे क्षुद्रान्त्र में पहुँचता है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जब तक भोजन आमाशय में रहता है तब तक मनुष्य को जाग्रत एवं क्रियाशील रहना चाहिए। क्योंकि मनुष्य की जाग्रत एवं क्रियाशील अवस्था में ही आमाशय की क्रिया संचालित रहती है । मनुष्य की सुषुप्त अवस्था में आमाशय की क्रिया मन्द हो जाती है जिससे भुक्त आहार के पाचन में बाधा एवं विलम्ब होता है । अत: यह आवश्यक है कि मनष्य को अपने रात्रिकालीन शयन से लगभग ४-५ घण्टे पूर्व ही भोजन कर लेना चाहिए, ताकि उसके शयन करने के समय तक उसके भुक्त आहार का विधिवत् सम्यक् पाक हो जाय । इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य को सायंकाल ६ बजे या इसके कुछ पूर्व ही भोजन कर लेना चाहिए । क्योंकि मनुष्य के शयन का समय सामान्यतः रात्रि को १० बजे या उसके आसपास होता है। अत: जैन दर्शन का यह दृष्टिकोण कितना महत्त्वपूर्ण एवं वैज्ञानिक आधार लिए हुए है कि मनुष्य को सूर्यास्त के पूर्व ही भोजन कर लेना चाहिए। इसी प्रकार जब वह सायंकाल ६ बजे या उसके आसपास भोजन करता है तो आधुनिक चिकित्सा से अनुसार दो भोजन कालों का अन्तर सामान्यत: न्यूनातिन्यून आठ घण्टे का होना चाहिए। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जो व्यक्ति सायंकाल ६ बजे भोजन करना चाहता है तो उसे आवश्यक रूप से प्रातःकाल १० बजे या इसके आसपास भोजन कर लेना चाहिए। जो व्यक्ति प्रातः १० बजे भोजन करता है वह स्वाभाविक रूप से सायंकाल ६ बजे तक बुभुक्षित हो जायगा । अत: स्वास्थ्य के नियमों में ढला हुआ और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरने वाला जैन धर्म के द्वारा प्रतिपादित आहार सम्बन्धी नियम न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से मनुष्य का विकास करने वाला है, अपितु उसके स्वास्थ्य की रक्षा करता हुआ मानव-शरीर को नीरोग बनाने वाला और उसे दीर्घायुष्य प्रदान करने वाला है। रात्रिकालीन भोजन के निषेध के सम्बन्ध में एक यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि आधुनिक चिकित्सा सिद्धान्त में कहीं भी यह उल्लेख नहीं मिलता है कि किसी भी रोगी को रात्रिकाल में उसके पथ्य की व्यवस्था की जाय। दिन में ही रोगी को पथ्य देने की व्यवस्था की जाती है। प्रातःकाल और सायंकाल के हिसाब से दो समय ही भोजन दिया जाता है । अर्थात् रात्रि को भोजन नहीं दिया जाता। आहार सम्बन्धी नियम की यह मान्यता निश्चय ही जैनधर्म की आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को एक महत्त्वपूर्ण देन है। प्रकृति के नियमानुसार मनुष्य को उसके जीवन सम्बन्धी आचरण का निर्देश कर उसके परिपालन हेतु उसे प्रेरित करना जैन धर्म की मौलिक विशेषता है। आहार-सेवन के क्रम में शुद्ध एवं सात्त्विक आहार के सेवन को विशेष महत्व दिया गया है। इस प्रकार का Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड आहार शारीरिक स्वास्थ्य-रक्षा में तो सहायक है ही, इससे मानसिक परिणामों की विशुद्धता भी होती है । दूषित, मलिन एवं तामसिक आहार स्वास्थ्य के लिए अहितकारी और मानसिक विकार उत्पन्न करने वाला होता है। कई बार तो यहाँ तक देखा गया है कि आहार के कारण मनुष्य शारीरिक रूप से स्वस्थ होता हुआ भी मानसिक रूप से अस्वस्थ होता है और जब तक उसके आहार में समुचित परिवर्तन नहीं किया जाता तब तक उसके मानसिक विकार का उपशम भी नहीं होता । धुम्रपान एवं मद्यपान को आधुनिक युवा सभ्यता का प्रमुख अंग माना जाता है। यद्यपि किसी ग्रन्थ में इसके सेवन का विधि-विधान या स्पष्ट निर्देश उल्लिखित नहीं है, तथापि कथित सभ्य समाज का वर्गविशेष इसे भी जीवन का आवश्यक अंग मानता है। आध निक चिकित्सा विज्ञान एवं अनुसन्धानकर्ता अनेक वैज्ञानिकों ने धुम्रपान व मद्यपान को एक स्वर से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक तथा जीवन व समाज को खोखला करने वाला बतलाया है। आधनिक चिकित्सा विज्ञान किसी भी व्यक्ति को इनके सेवन की प्रेरणा एवं सलाह नहीं देता है। क्योंकि शारीरिक व मानसिक दोनों दृष्टियों से ये दोनों मानव-स्वास्थ्य के शत्रु हैं। इसी भांति जैन धर्म ने भी धूम्रपान व मद्यपान का प्रबल निषेध किया है। इस संबंध में जैनधर्म का अत्यन्त विशाल दृष्टिकोण है । शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से तो इनका सेवन वयं है ही, नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से भी ये दोनों नितान्त हेय हैं। उपर्युक्त दोनों व्यसन नैतिक दृष्टि से मनुष्य का कितना अधःपतन कर देते हैं इसके अनेक उदाहरण वर्तमान समाज में आए दिन को मिलते हैं । व्यसनरत किसी भी व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास तब तक सम्भव नहीं है जब तक वह इनका पूर्णत: परित्याग नहीं कर देता। जैन धर्म की दृष्टि से धूम्रपान एवं मद्यपान का सेवन जघन्य पाप तो है ही. यह एक ऐसा दुर्व्यसन है जो मनष्य की आत्मा को अधःपतन की ओर ले जाता है। अत: शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से इस व्यसनों का त्याग आवश्यक है। इस सन्दर्भ में आधनिक चिकित्सा वैज्ञानिकों की यह खोज महत्त्वपूर्ण है कि धम्रपान एवं मद्यपान अनेक शारीरिक एवं मानसिक विकारों के साथ अनेक व्याधियों को उत्पन्न करता है। मद्यपान तत्काल हृदय को प्रभावित कर तामसभाव उत्पन्न करता है। जैन धर्म में मनुष्य के आचरण की शुद्धता को विशेष महत्त्व दिया गया है । जब तक मनुष्य अपने आचरण को शद्ध नहीं बनाता, तब तक उसका शरीरिक विकास महत्त्वहीन एवं अनुपयोगी है। मनुष्य के आचरण का पर्याप्त प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर पड़ता है। विपरीत आचरण या अशुद्ध आचरण मानव-स्वास्थ्य को उसी प्रकार प्रभावित करता है जिस प्रकार उसका आहार-विहार । आचरण से अभिप्राय यहाँ दोनों प्रकार के आचरण से है-शारीरिक और मानसिक । शारीरिक आचरण शरीर को और मानसिक आचरण मन को तो प्रभावित करता ही है साथ में शारीरिक आचरण मन को और मानसिक आचरण शरीर को भी प्रभावित करता है । इन दोनों आचरणों से मनुष्य की आत्मशक्ति भी निश्चित रूप से प्रभावित होती है क्योंकि आचरण की शुद्धता आत्मशक्ति को बढ़ाने वाली और आचरण की अशुद्धता आत्मशक्ति का ह्रास करने वाली होती है। इसका स्पष्ट प्रभाव मुनिजन, योगी, उत्तम साध और संन्यासियों में देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त ऐसे गृहस्थ श्रावकों में भी आत्मशक्ति की वृद्धि का प्रभाव दृष्टिगत हुआ है जिन्होंने अपने जीवन में आचरण की शुद्धता को विशेष महत्व दिया। ऐसे सन्त पुरुषों में महान् आध्यात्मिक सन्त पूज्य गणेशप्रसादजी वर्णी आदि तथा गृहस्थ जीवन यापन करने वालों में महात्मा गांधी, विनोबा भावे, गुरु गोपालदास जी वरैया, आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। आत्मशक्ति या आध्यात्मिक प्रभाव के सम्बन्ध में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भौतिकवाद से प्रेरित होने के कारण यद्यपि स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा है, किन्तु परोक्ष रूप से इसका समर्थन अवश्य करता है-यह एक तथ्य है। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सकता कि दीर्घकाल से रुग्ण और जर्जरित देह वाले व्यक्ति के शरीर में ऐसी कोई शक्ति विशेष अवश्य रहती है जो उसके जीवन को धारण करती है और उसे जीवित रहने के लिए सतत रूप से प्रेरित करती रहती है । मानव शरीर की अन्तनिहित यह शक्ति विशेष मनुष्य को वह दृढ़ - - . ० . Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IN þ0+0+0+0+ 0.0 जैन धर्म और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान - आधार प्रदान करती है जिससे शारीरिक रूप से क्षीण व्यक्ति को भी बल मिलता है। कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति का मनोबल अत्यन्त ऊँचा है । इस मनोबल का आधार मनुष्य की अन्तर्निहित आत्मशक्ति ही है । अत: चाहे इसे मनुष्य का नैतिक बल कहा जाय, चाहे इसे आत्मशक्ति या आध्यात्मिक शक्ति कहा जाय – सब एक ही है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भले ही भौतिकवाद से प्रेरित हो, वह मनुष्य को विपरीत आचरण या कदाचरण की प्रेरणा कदापि नहीं दे सकता । वह नहीं कहता कि मनुष्य असत्य का आचरण करे, वह नहीं कहता कि स्त्रीप्रसंग आदि विषयों में अधिकतापूर्वक रमण करता हुआ मनुष्य उसके दुष्प्रभाव से अपने स्वास्थ्य का ह्रास करे या परस्त्रीगमन आदि कुआचरण करे, जिन वस्तुओं--गांजा, भांग, अफीम आदि के सेवन से मानव स्वास्थ्य प्रभावित होता है, उनके सेवन का निर्देश आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में नहीं है। मनुष्य में पाशविक वृत्ति का उद्भव करने वाले आहार का निषेध आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने भी किया है । यही आचरण की शुद्धता है । जैन धर्म में इन बातों के अतिरिक्त कुछ अन्य बातों पर भी विशेष जोर दिया गया है। इस प्रकार मौलिक रूप से भिन्न होते हुए भी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान अनेक विषयों में जैन धर्म के निकट है । OoOO १८५ B+++ . Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान: स्वातन्त्र्य संघर्ष और जैन समाज [D] प्रो० तेजसिंह तरुण इतिहास विभाग, तिलक बी० एड० महाविद्यालय, डबोक, जिला उदयपुर (राज० ) I प्रायः जैनियों के बारे में यही माना जाता रहा है कि यह एक व्यावसायिक जाति है और त्याग बलिदान की जगह स्वार्थ एवं शोषण के लिए ही प्रसिद्ध है। किन्तु अब तक के प्राप्त तथ्यों ने इस प्रचलित धारणा को झूठला दिया है। अगर विस्मृत पृष्ठों को देखें तो लगता है कि जैन समाज का निर्माण त्याग एवं तपस्या के आधार पर ही हुआ है और सदैव इसका इस दृष्टि से एक विशिष्ट स्थान रहा है । साहस एवं विवेक का सामंजस्य जिस तरह इस समाज में देखने को मिलता है, वह अन्यत्र देखने को उपलब्ध नहीं है। जब-जब भी देश में क्रान्ति का बिगुल बजा है जैनियों ने उसे अपना समर्थन ही नहीं दिया अपितु उसे तन-मन-धन से सींचा और बुद्धिचातुर्य से आगे भी बढ़ाया । भगवान महावीर का समय लें अथवा मध्यकाल के प्रताप के समय की बात करें, जैन समुदाय सदैव आगे रहा है। भगवान महावीर ने देश को नई दिशा देकर सम्पूर्ण व्यवस्था को नई दिशा दी और सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात किया तो भामाशाह ने प्रताप के स्वातन्त्र्यभाव को आगे बढ़ाने के लिए अपनी सम्पूर्ण जमा राशि उनके चरणों में समर्पित की। ऐसे विकट समय में यदि भामाशाह अर्थ सहयोग नहीं करते तो सम्भव था प्रताप लड़खड़ा जाते । लेकिन भामाशाह ने अपने शासक के मनोभावों को पढ़ा और त्याग का एक अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया। यही नहीं बल्कि स्वतन्त्रता के लिए युद्ध भूमि अथवा समाज में नेतृत्व प्रदान करने की दृष्टि से भी अनेकानेक जैन महापुरुष आगे रहे हैं, मेहता अगरचन्द, कोठारी बलवन्तसिंह, जालसी मेहता और इन्द्रमल सिंघी, दयालशाह आदि अनेक नाम ऐसे हैं जो शौर्य और पराक्रम के क्षेत्र में सदैव स्मरणीय रहेंगे। इन त्यागियों और बलिदानियों के आधार पर हम यह कहने में गर्व का अनुभव करेंगे कि जैन समाज केवल एक व्यावसायिक जाति ही नहीं है बल्कि समय आने पर वह देश और समाज को क्रान्ति का मार्ग भी प्रशस्त कर सकने का सामर्थ्य रखती है । स्वातन्त्र्य काल और जैन-बन्धु भी इस जब सम्पूर्ण देश में स्वतन्त्रता की हवा बहने लगी तो न केवल राजस्थान में बल्कि सर्वत्र जैन बन्धु महायज्ञ में अपने सामर्थ्य के अनुसार सम्मिलित हुए और वह सब कुछ किया जो माँ भारती की स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक हो गया था । अँग्रेजों एवं सामन्तों के विरोध में जेलें भरी, यातनाएँ भोगीं, घर-बार छोड़े और आवश्यकता पड़ने पर अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया । मेरे उपरोक्त कथन की प्रामाणिकता के लिए केवल एक और दो नाम नहीं बल्कि अनेक नाम हैं । इस परम्परा में जयपुर के अर्जुनलाल सेठी, उदयपुर के मोतीलाल तेजावत, बांसवाड़ा के दामचन्द्र दोषी, बूंदी के हीरालाल कोट्या (डावी), कोटा के हीरालाल जैन व नाथूलाल जैन, छोटीसादड़ी के फूलचन्द बया, जोधपुर के आनन्दराज सुराणा और उगमराज सराफ आदि कई ऐसे नाम हैं जो अपने सिर पर कफन बाँधकर स्वातन्त्र्य - आन्दोलन में शाहादत के लिए तैयार थे । सेठीजी तो वह राष्ट्रीय हस्ती थी जिनके घर-आँगन में सदैव ही कफन बाँधे लोग भरे रहते थे । आजाद चन्द्रशेखर व रासबिहारी बोस से सेठीजी का सीधा सम्पर्क था और इन्हीं क्रान्तिकारियों की परम्परा में राजस्थान में माणकचन्द, मोतीचन्द जयन्द और जोरावरसिंह जैसे कई मतवालों को सेठीजी ने तैयार किया। दिल्ली के 'बम-केस' में स्वयं श्री सेठीजी का नाम था । 3 . Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान : स्वातन्त्र्य संघर्ष और जैन समाज १८७.. ............................................. . .... . सेठीजी ने मातृभूमि के दीवानों को आश्रय, प्रश्रय और प्रेरणा देने के निमित्त अपना सब कुछ होम कर दिया। ऐसे ही उदयपुर जिले में १२०० व्यक्तियों को माँ-भारती के चरणों में अर्पित करने वाला व्यक्ति मोतीलाल तेजावत भी जैन ही था। पंजाब के जलियाँवाला काण्ड की पुनरावृत्ति श्री तेजावत के नेतृत्व में ही हुई। मशीनगनों के सामने तेजावतजी ने जिस बहादुरी के साथ सीना ताना और ललकारा, अपने आप में एक अप्रतिम उदाहरण है। तेजावतजी व सेठीजी की ही परम्परा में प्रदेश के कई भागों में ऐसे कई उदाहरण हैं जिनके आधार पर आज हम सभी गर्व से भरे हैं। कोटा की पुलिस कोतवाली पर पन्द्रह दिन तक राष्ट्रीय ध्वज फहराने वाले एव सामन्ती अधिकार को सशक्त चुनौती देने वाले नाथुलाल जैन और सहस्रों पुलिस की उपस्थिति में सरकारी कार्यालय की तीसरी मंजिल पर जाकर झण्डा लगाने वाले श्री दाड़मचन्द (कुशलगढ़) और बम बनाकर अंग्रेजों की शक्ति को तोड़ने का करिश्मा करने वाले उगमराज को भला कौन भूल सकता है ? मैं यहाँ कुछ ही नाम दे रहा हूँ जो क्रान्ति-पथ के अनुयायी थे, यूं और भी ऐसे कई नाम हैं जो सेठीजी और मोतीलाल तेजावत की तरह ही देश पर मर-मिटने की तमन्ना रखते थे। अहिंसक आन्दोलन और जैन-बन्धु जब से देश में स्वातन्त्र्य आन्दोलन की बागडोर महात्मा गांधी के हाथों में आई, एक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया। क्रान्तिकारी आन्दोलन की जगह अब मार्ग ने अहिंसक सत्याग्रह की ओर दिशा ली। इस नये मार्ग पर भी यदि हम जैन-बन्धुओं पर दृष्टि डालें तो एक भीड़-सी लगेगी। केवल राजस्थान के ही इतने नाम हैं कि उनका यहाँ उल्लेख करना भी एक कठिन कार्य है । सत्याग्रह के द्वारा स्वतन्त्रता की भावना को उजागर करने और स्वयं उसके निमित्त जूझने वाले प्रदेश के सभी जिलों में जैनियों की पर्याप्त संख्या थी। इन बन्धुओं को भी अपने स्वातन्त्र्य प्रेम के लिए सात-सात वर्ष की कठोर सजाएँ दी गईं, तो कई बन्धुओं को घर-बार छोड़कर प्रदेश अथवा तत्कालीन अपने-अपने राज्यों से बाहर रहना पड़ा। सिरोही के सिद्धराज ढड्डा, दूलचन्द सिंघी, धर्मराज सुराणा, रूपराज सिंघी, धनराज तातेड़, हजारीमल जैन, बांसवाड़ा जिले के भुब्बालाल कावड़िया, उच्छबलाल महेता, वर्द्धमान गादिया, भेरूलाल तलेसरा, कन्हैयालाल जैन, शान्ति लाल सेठ एवं विनोदचन्द्र कोठारी आदि ऐसे नाम हैं जिन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में भील और मीणों को संगठित कर माँ भारती को स्वतन्त्र कराने में सामन्ती जुल्मों की परवाह नहीं की। इसी परम्परा में जयपुर के फूलचन्द जैन, क' रचन्द पाटनी, उदयपुर नगर के मोहनलाल तेजावत, रोशनलाल बोदिया, भूरेलाल बया, रंगलाल मारवाड़ी, बलवन्तसिंह मेहता, जोधपुर के आनन्दराज सुराणा, जैसलमेर के जीवनलाल कोठारी, बीकानेर के नेमीचन्द आँचलिया तथा अजमेर के नेनूराम खंडेलवाल ने अपने-अपने जिला मुख्यालयों पर अहिंसक सत्याग्रहों का संचालन कर शेष भागों में स्वातन्त्र्य आन्दोलन के सूत्रधार बने । इन्हीं लोगों की प्रेरणा से प्रदेश के छोटे-छोटे कस्बों व ग्रामों में भी आजादी की ज्योति जली । कानोड़ के पं० उदय जैन, तखतसिंह बाबेल, माधवलाल नन्दावत, चाँदमल भानावत, अम्बालाल भानावत, छोटी सादड़ी (चित्तौड़) के सूर्यमान पोरवाल, नाथद्वारा के कज्जुलाल पोरवाल, फूलचन्द जैन, रतनलाल कर्नावट, बेगू के सुगनलाल जैन, छगनलाल चोरड़िया, लाडनू के मानमल बाफना, फलोदी के सम्पतलाल लूकड़ एवं उनके मारवाड़ क्षेत्र के भँवरलाल सर्राफ, अभयमल जैन, पुखराज जैन के नाम भी उल्लेखनीय हैं । ऐसे ही जयपुर क्षेत्र के गुलाबचन्द कासलीवाल, दौलतमल भण्डारी, रूपचन्द सोगानी, विजयचन्द्र जैन, बंशीलाल लुहाड़िया, अरविन्दकुमार सोनी, उमरावमल आजाद, दूनीचन्द जैन, मुक्तिलाल मोदी, डा० राजमल कासलीवाल, नथमल लोढ़ा, कपूरचन्द छाबड़ा, जवाहरलाल जैन, पूर्णचन्द जैन, भंवरलाल बोहरा, भंवरलाल सामोदिया, मिश्रीलाल जैन, मिलापचन्द जैन, रतनचन्द्र काष्टिया, बसन्तीलाल बगीचीवाला, ज्ञानप्रकाश काला, कैलाशचन्द्र बाकीवाला, भंवरलाल अजमेरा, रामचन्द्र कासलीवाला, सोहनलाल सोगानी, सुभद्रकुमार पाटनी, दीपचन्द बक्षी, गेन्दीलाल छाबड़ा आदि कई बन्धु थे जो सुशिक्षित एवं सम्पन्न परिवारों से सम्बद्ध थे लेकिन स्वतन्त्रता के लिए यातनाएँ सहीं और अपने परिवारों को संकट में डालकर भी प्रसन्न थे। Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड यही स्थिति शेष जिलों में देखने को मिलती है। भीलवाड़ा जिले के बनेड़ा निवासी श्री मोहनसिंह एवं उमराव सिंह ढाबरिया बन्धुओं ने अपने आस-पास के क्षेत्रों में ऐसी धूम मचाई थी कि आज भी दोनों बन्धुओं के नाम श्रद्धा से लिए जाते हैं। कोटा के बागमल बांठिया, मोतीलाल जैन, सोभागचन्द देवीचन्द्र, रिखबचन्द धारीवाल ने नाथूलाल जैन व हीरालाल जैन के सहयोग पर हाडौती में स्वतन्त्रता की ज्योति जलाई। कोटा में इन कतिपय जैन बन्धुओं ने ऐसी धूम मचाई थी जिसके आगे सेना को भी घुटने टेकने पड़े थे। बूंदी जिले में बरड़ क्षेत्र के हीरालाल कोट्या जैसे आग उगलने वाले साहमिक व्यक्ति का नाम भी लेना चाहूँगा जो इस क्षेत्र में अकेला जैन था, शेष अनुयायी भील और किसान थे, लेकिन स्वतन्त्रता की भावना को जिस तरह इस व्यक्ति ने एक पिछड़े क्षेत्र में पनपाया और आन्दोलन खडा किया, हमारे लिए गर्व की बात है। उपरोक्त नामों के साथ ही पाली के तेजराज सिंघवी, चरू के बद्रीप्रसाद, चित्तौड़गढ़ के फतहलाल चंडालिया, अजमेर के जीतमल लूणिया, भरतपुर के रामचन्द्र जैन व डीग के रामस्वरूप जैन, किशनगढ़ के अमोलकचन्द्र सुराणा, उदयपुर के हीरालाल कोठारी, हुकुमराज मेहता, भीलवाड़ा के रोशनलाल चोरड़िया, जयपुर के सरदारमल गोलेछा, जोधपुर के सुगनचन्द भण्डारी, ऋषभराज जैन, इन्द्रमल जैन, पारसमल खिमेसरा को भी नहीं भूला जा सकता है, जिन्होंने प्रदेश में चले अन्दोलन को तन-मन-धन से सींचा और आगे बढ़ाया । 'प्रशासनिक अधिकारियों का सहयोग अब तक हमने सार्वजनिक कार्यकर्ताओं का ही परिचय दिया है, लेकिन प्रदेश में लगभग सभी रियासतों में जैन उच्च अधिकारियों की भी एक लम्बी सूची है। इन अधिकारियों ने भी अप्रत्यक्ष में स्वतन्त्रता आन्दोलन को अपना सहयोग दिया । उदाहरणार्थ-मेवाड़ राज्य के राजस्व मन्त्री मनोहरसिंह मेहता, बांसवाड़ा के दीवान डॉ. मोहनसिंह मेहता, बिजोलिया के कामदार हीरालाल पटवारी, जयपुर के नथमल गोलेछा व प्यारेलाल कासलीवाल व कोटा के बुद्धसिंह बाफना ने सदैव स्वतन्त्रता सेनानियों के प्रति सहृदयता एवं सहयोग का व्यवहार किया। यदि मेवाड़ में बिजोलिया व बेगू के किसान आन्दोलन में मनोहरसिंह मेहता का सहयोग न होता तो पता नहीं कितना खनखराबा होता । ऐसे ही बाँसवाड़ा के दीवान डॉ० मोहनसिंह मेहता की जगह और कोई होता तो पता नहीं कितने आदिवासी भाई मौत के घाट उतार दिये गये होते । अत: स्वतन्त्रता-आन्दोलन को अधिकारियों का भी कई नाजुक क्षणों में जो योगदान रहा, भूला नहीं जा सकता। सिंहावलोकन संक्षेप में मैं यह लिखना चाहूँगा कि प्रदेश के जैन-बन्धुओं का देश के स्वातन्त्र्य संघर्ष में एक अविस्मरणीय एवं स्तुत्य सहयोग रहा है । इस सम्पूर्ण घटनाचक्र में एक उल्लेखनीय बात यह भी रही कि जैन समाज के उच्च, मध्यम एवं निम्नवर्ग के सभी भाई सम्मिलित थे, उन्होंने किसी न किसी तरह का सहयोग किया । जहाँ नाथद्वारा के छज्जुलाल पोरवाल एवं डाबी के हीरालाल कोट्या जैसे सामान्य परिवार के व्यक्तियों ने आन्दोलन में भाग लिया वहीं जयपुर के रामल लोढ़ा व सरदारमल गोले छा जैसे सम्पन्न परिवारों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। आज हम सभी के सिर इन भाइयों के कारण गौरवान्वित हैं और आशा है भविष्य में भी जब-जब देश पर संकट होगा, यह श्रेष्ठ समाज अपने को पीछे नहीं रखेगा। GOD Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Max कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ खण्ड BookA आंग्ल भाषा : विविध लेख For Private Personal Use Only . Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINISM AS A FAITH ŚREE CHAND RĀMPURIA Vice-Chancellor Jain Visva Bhārati LADNU THE WORLD AND ITS SIX CONSTITUENTS The World a Reality The world we live in is not illusory. It is not a creation of imagination but a fact and it exists as a reality. The elements of which the world is composed are six in number. The Six Constituents (1) Jiva (2) Dharma (3) Adharma (4) Akasa (5) Kāla, and (6) Pudgala Jiva is the animate substance having consciousness as distinguished from the other five components which are called Ajivas or non-living substances. Jiva or Soul is a conscious substance and is characterised by Jñana or knowledge and Darjana or perception. Dharma is the substance which helps in the movements of Jivas and Pudgala, the unconscious matter. It does not move itself but helps the movements of moving objects much like the Railway Lines which are passive or inactive assistance to the moving Locomotive Engines. Adharma is just the opposite of Dharma and is necessary to help the stoppage of objects coming to a standstill. It is thus an indirect cause of fixation of objects. Akāśa is the container of all the substances. It allows. them room or space. Kāla is the substance which is the cause of change in things and creates the past, present or future. Pudgala is the substance which is called Matter by the modern science. It is perceivable by all the sense-organs as it possesses colour, taste, smell and touch as distinguished from the other four Ajīvas (inanimate substances) which are not at all perceivable by the senses. Theory of Conservation The modern science recognises the matter as indestructible and adopts the theory that the weight of matter in its various forms remains the same as it ever was. This theory of constant weight or indestructibility of matter is preached of old by the Jainas not only in respect of perceptible matter but also in respect of the conscious Jiva and other four immaterial substances (which though not conscious are, nevertheless, immaterial being unperceivable by sense-organs). The Trinity Every substance or element which constitutes the world is regarded as characterised by Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 2 Karmayogi śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part Utpāda-birth or coming into existence, Vyaya-decay or going out of existence, and Dhrauvyapermanence or continuous sameness of existence. When a lump of gold is converted into an ornament, the existing form of gold is destroyed in taking the new shape in which it is wrought but the gold remains the same in quality, so also the soul remains the same as the basis of all changes effected in body which leaves one stage and enters the other. This origin of the new state is called Utpäda, the consequent destruction of the old is Vyaya and the remaining of the basic elements in its original natural state is called Dhrauvya. World Eternal and Everlasting This Trinity pervades all the substances and attributes to the world a permanent and eternal character. The varieties of death or destruction and growth or origin seen in this world are but modifications of these eternal and everlasting substances. The world, thus made of realities, is itself real and permanent. It consists of six eternal substances or elements and is eternal and everlasting. The Mundane Soul Out of the elementary substances mentioned above Dharma, Adharma, Akāśa are each of them one in number. Käla and Pudgala are infinite in number and so also are Jivas. There are infinite varieties of Jivas in this world but all may be classified under the following four categories : (1) The Hellish beings, (2) Celestial or Divine beings, (3) Human beings, and (4) Infra Human beings, i. e., beasts, birds and other beings inferior to man and possessing from one to five organs of senses. The universe is thus peopled by manifold creatures who are born in these different states for having done various actions. They undergo ever-recurring births in human or non-human existences according to their actions. The Jivas found in the above four states of existence are impure or tinged with Pudgala or unconscious matter. They differ from the Jivas in their pure or unadulterous state inasmuch as their qualities of Jñana or knowledge, Darsana or perception, Virya or power and Sukha or happiness (bliss), are subdued by the Pudgala or material particles combined with the Pradegas of the Soul. So long as Soul remains combined with the Pudgala, it cannont realise its own sublime nature which consists of four infinities viz., that of infinite perception, infinite knowledge, infinite power and infinite happiness. It roams about in this world of four existences and takes birth and dies again and again. The aim of Jainism is to teach the process of freeing the Soul from the bondage with the matter, and get the same in its pure splendid character. WHY THE SOUL ROAMS ABOUT Two Causes : Asrava & Bandha The Jivas roam about in this world on account of their conjunction with Pudgala or matter-particles. As water gathers in a pond through its inlets, so also the material particles gather and assimilate in the Soul Pradeśas on account of certain inlets called Asravas. There are five main inlets for the flow of material particles in the soul. Five Types of Asrava (1) Mithyātwa-It means non-belief or perverted belief in the realities. Jainism enjoins on one to have strict faith in the following principles : (1) That there are Jīvas or Souls having consciousness, (2) That there are Ajīvas or lifeless objects, (3) That the Jiva combines with the Ajiva Pudgala and roams about so long as it is in the combined state, (4) That the bondage of Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jainism as a Faith 3 OOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOO.O.OO.O. Jīva and Ajīva is due to certain causes, (5) That the bondage results either in a happy or in a painful worldly state, (6) That this bondage is temporary and does not change the nature of the Soul in its es sence, (7) That there is way for stopping fresh combination, (8) That the existing combination may be severed; and (9) That the Soul resumes its natural pure state after liberation from the Pudgala-matter and attains salvation. These are called Nine Tattvas or Principles by the Jainas. To be more precise, these nine Tattvas are: Jiva ---Soul, Ajiva-Non-soul, Punya - Auspicious Karmas, Pāpa-- Inauspicious Karmas, Asrava--Inflow of Karmas, Samvara-Stoppage of the inflow of Karmas, Bandha--Bondage of Karmas, Nirjarā-partial shaking off of Karmas and Mokşa-Complete annihilation of Karmas. One who does not believe in these principles or Tattvas, or has wrong belief therein is Mithyātwi. Due to this delusion or want of faith the Jivas go on acquiring fresh matter (Karmas.) (2) Avirati - Vowlessness or non-abstinence in respect of - (i) Sins, and (ii) Pleasures of sense-organs. (i) There are five main kinds of sins in this world : (1) To hurt or kill beings, (2) To tell a lie, (3) To steal others' property, (4) Sexual indulgence or intercourse, and (5) Attachment for or possession of property. A man who does not abstain from these sins by taking a vow, keeps his inclinations open and as such his Soul remains constantly polluted by the advent of fresh matter which clings to the soul in which it enters. As a military watchman makes himself liable to be punished if he does not keep proper vigilance even though nothing wrong has happened; similarly, the Soul which does not guard and protect itself by solemn promise or vow, suffers even though there may not be actual commission of the vice. The want of proper care is greater mens rea in the domain of spirituality than in the field of civic life. (ii) There are five Sense-organs: (1) Ears, (2) Eyes, (3) Nose, (4) Tongue, and (5) Body. Sound is the object of ears, colour that of eyes, smell that of nose, taste that of tongue and touch that of the body. The free indulgence of the different organs in these sense-pleasures and the enjoyment of worldly objects is another cause of the inflow of the matter. One who does not restrict one's desires but allows them full play suffers innumerable births and deaths in the world by acquiring new particles of matter. (3) Pramāda or lethargy is want of zeal in the observance of religious activities. This is the third cause of inflow. (4) Kaşāya- Anger, Pride, Deceit and Greed are the four Kaşāyas which form the fourth Asrava or inlet. (5) Yoga or activities of mind, body and speech. The sinful indulgence of these three instruments of action is the fifth Asrava or inlet. Punya or Päpa and Bondage . In this world Jiva and matter exist side by side or it may be said that Jiva is surrounded *by matter on all the ten sides. Under the influence of the above Asravas the Jiva draws in the particles of the neighbouring matter from all directions which move in through the medium of Dharma and retains the same in the space of its Pradeśas by the help of Adharma. Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 Karmayogi Sri Kesarimalji Surānā Abhinandana Grantha : Seventh Part The particles of matter so moving in are either Subha-Auspicious or Asubha-Inauspicious. The lucky particles are called Punya and unlucky ones are called Păpa. Punya results in good fruits and Pāpa in bad fruits. The former leads to happiness in worldly life and the latter to miseries in worldly existence. These particles of matter after moving in unite to the Soul on account of emotions of attachment or hatred. This is called Bandha or Bondage. Nature of Bondage The union, so formed, is a sort of chemical combination of the Soul with the non-Soul. In Jaina Terminology the nature of this combination is described as that of sesame and oil, or milk-water and butter, or milk and water which is penetrating at every point and is called Ekksetra-avagahi. Even inspite of this bondage the Soul retains its essential nature of consciousness and never becomes extinct or a non-entity. The effect of this bondage is that it makes the Soul heavy which in essence has got no weight and keeps the same bound in the fetters of the body with consequential birth and re-birth. It restricts or obstructs the inherent qualities of the Soul. It is this bondage which obstructs the Soul from the realization of its four-fold greatness, as mentioned above. It is this which obscures its infinite perception, infinite knowledge, infinite bliss and infinite power. Again, it is this which retards its progress onward and stands in its way to attain salvation and everlasting and infinite bliss. Different kinds of Karmas The particles of matter which enter the soul and get intermingled with it, are called Karmas in Jaina Terminology. The bondage (Bandha) is of the following eight kinds of Karmas : (1) Jñanävarniya Karmas-which obstructs the knowledge of the soul. (2) Darsangvarṇīya Karma - which obstructs the perception quality of the soul. (3) Vedanīya Karma-which is the cause of sensations or feelings of pain and pleasure. (4) Mohanīya Karma-which causes infatuation and affects right belief and right conduct. (5) Nama Karma---which determines the personality of a being viz., his body, structure, height, size, colour etc., in one word, its is the cause of formation of the body to the soul. (6) Gotra Karma--which determines the Gotra - Family or descent, (7) Ayu Karma-which determines the duration of life; and (8) Antarāya Karma-which obstructs or hinders charity, prosperity, pleasure and the prowess of the soul. Out of these eight kinds of Karmas Jñānāvarniya, Darsanāvarniya, Mohanīya and Antarāya Karmas are called Ghanaghāti Karmas as they attack the qualities of the soul and make them obscure like the thick clouds which obstruct the rays of the sun. The rest are called Aghanaghāt Karmas as distinguished from the above, they do not attack the soul nature but determine the feelings of pleasure and pain, personality, family and duration of life. Thus looking from the viewpoint of class of Bondage, it is of the above 8 varieties. Duration, Character and Extent of Karmas The bondage of Karmas may be of a long or short duration. It may be of a mild or strong character resulting in mild or severe fruits, and it may be dense or thick requiring much efforts to remove it, or it may be light or thin requiring little efforts to remove. Whatever may be the nature of Bondage, a man has to bear the consequences of his own actions and the consequent Karmas. Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jainism as a Faith 5 PROCESS OF LIBERATION The soul cannot be freed from worldly miseries so long as these Karmas are not got rid of. It is only by annihilation or separation of the Karmas that the soul can realise its own nature and obtain that parmanent bliss which is the monopoly only of the liberated soul. The process of the Bondage of soul has already been described above and now we shall deal with the process of its liberation. Samvara and Nirjarā When a pond full of water has got to be emptied, the inlets of water closed upto stop further inflow. The gathered water is partly taken out by hands or pumps and then it is left exposed to the bright sun to be dried. The method of liberating the soul is also of the same kind. First of all, the inflow of Karmas has got to be stopped. Then the existing Karmas have got to be destroyed. The first process is technically called Sarvara and the second process is called Nirjarā. We shall describe the same in brief. Samvara Sarvara is just the opposite of Asrava. Asrava is the inlet or gate-way for the entrance of Karmic matter. Sarvara is the lock-out or keeping out of the Karmic matter. The different kinds of Samvara are as follows. Different kinds of Samvara (1) Saryaktwa-It means true faith or right belief. It is both negative and positive at the same ti 22. It is staunch faith and belief in the realities of the world and avoidance of all perverted beliefs or notions. The negative and the positive sides of the Samyaktwa have been very properly put in the following quotations from Sūtrakstānga Sutra, one of the holy scriptures of the Jainas. (a) Do not maintain that world (Loka) does not exist, but maintain that it exists. (b) Do not maintain that Jiva and Ajiva do not exist, but that they exist. (c) Do not maintain that virtue and vice do not exist, but that they exist. (d) Do not maintain that Asrava and stoppage of Asrava (Sarvara) do not exist, but that they exist. (e) Do not maintain that Bondage and Liberation do not exist, but that they exist. (f) Do not maintain that the experiencing of the effects and the annibilation of Karmas do not exist, but that they exist. (g) Do not maintain that Dharma and Adharma do not exist, but that they exist. (h) Do not maintain that activity and non-activity do not exist, but that they exist. (i) Do not maintain that Anger and Pride do not exist, but that they exist. (i) Do not maintain that Deceit and Greed do not exist, but that they exist. (k) Do not maintain that Love and Hatred do not exist, but that they exist. (1) Do not maintain that the Circle of Births does not exist, but that it exists. (m) Do not maintain that there is no such thing as perfection and non-perfection, but there is such a thing. (n) Do not maintain that there is no place exclusively reserved for those who attain perfection, but that there is such a place. One who believes as enjoined above and does not believe otherwise is called Samyaktwi. By becoming a Samyaktwi one removes Mithyātwa and stops the further ingress of Karmas. Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .6 Karmayogi Sri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part O.O.O.O.O.O.Oooooo...oooo..O.O.O.O.O.O.O.OOOOO......... (2) Virati - To stop the ingress through Avirati one has to take recourse to religious Vows. The avowed determination to keep away from sins is what is called Virati. It is the second Sarvara and it stops second Asrava. (3) A-Pramada-Religious fervour or zeal is the third Samvara and it stops the third Asrava. (4) A-Kaşāya-It means the subsidence of Anger, Pride, Deceit and Greed by the opposite virtues of calmness, modesty, simplicity and contentment. This is a stoppage to the fourth Asrava. (5) A-Yoga or non-activity of mind, body and speech. This is a stoppage to the fifth Asrava. Thus (1) by avoiding delusion (2) by abstaining from sins and subduing the senses, (3) by avoiding carelesesness by watchful observance of all activities and mental dispositions, (4) by freedom from passions and vanquishing anger etc., and (5) by avoiding sinful activities or complete cessation of the same, the soul becomes free from Asravas. Nirjară The prevention of Asravas by Sarvara is the first step towards the liberation of the Soul. As to free oneself from debt, man has to stop new borrowing and pay the old debt; so to free the soul from Kārmic matter, the first step is to guard it from further pollution and then to remove the pollution already existing. Sarvara is the first half of the process and the second half is Nirjarā or shaking off the particles of Kārmic matter from the soul. MOKŞA OR SALVATION After the last particles of matter are got rid of or shaken off, the soul appears in all its grandeur. It leaves its Kārmic body and becomes void of all weight which was consequent upon the Kärmic bondage. Thus, being free from all foreign influence, it ascends up and goes to the abode of the siddhas or liberated souls called Siddhasila, which is at the top of the universe and it resides there in excellent blessedness. It cannot go up beyond that as Dharma, the substance helping movement, it not found thenceforward. The soul once liberated does not come in contact with the matter again and births and rebirth are ended once for all. This deliverance of the soul is called Moksa or salvation. This is complete annihilation of the Kārmic Bondage. The soul so liberated is pure, it, being all-knowledge, all-perception, all-power and all-happiness. It. has no visible form and it consists of life throughout. Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 .0 .0 .0 . 0 .0 . 0 .0 . 0 . . . 0 . . 0 . 0 .0 .0 . 0 . 0 . . . . . Jain Literature as a Source of Social and Cultural Life of Medieval Rajasthan (1400-1800 A. D.) Dr. G. N. SHARMA, M. A., Ph. D., D. Litt. Ex-University Prof. of History, Ex-Emeritus Professor (U. G. C.) Ex-Director of the Centres of Jain and Rajasthan Studies University of Rajasthan, JAIPUR of the sources of the political history of Rajasthan there is no end. Many works printed and hand-written, dealing with the lives of the kings and courtiers are available. They supply graphic accounts of wars, treaties and conquests of military importance. But there is a paucity of the works which deal with the history of organic or national growth. However, this drawback in the writing of history can adequately be made good by the works of the Jain writers who, broadly speaking, deal with the life of man and woman in its varied aspects and his or her achievements in the fields of religion, society, art and literature. They throw light on the pilgrimages of the sanghas, pastime, festivals, fairs, education and several customs, usages and traditions, prevailing during the period. These writers also throw light on the town-planning and the planning of the gardens. A mass of the Jain literature consists of manuals dealing with rituals, rites and code of daily discipline. They also make useful contribution to our knowledge of moral behaviour expected from the people and the princes. There are also some works which have nothing to do with histroy, yet their prologues, epilogues and colophous often furnish valuable data regarding social, economic and cultural life of the age, to which they belong. Such writings in the forms of manuscripts and printed publications are available in various Bhandaras, repositories of Rajasthan and other places. These priceless treasures consist of Rāsas, Vats, Dhālas, Dohās, Copais, Caritras, Gathās, Kathās, Vārtās, and Gitas in Rajasthani and Kavyas and several digests in Sanskrt, Prākļit, Apabhraṁsa and Rājasthāni languages. The manuscripts preserved in several Jain temples are extremely valuable, which if surveyed, pooled together and catalogued, can give valuable hints on several courses of events which happened in Rajasthan. The manuscripts, preserved in the temples of Sadri, Bhinder, Ghänerão, Nāgāur, Jālore, Alwar, Bharatpur, Lädnu etc,, are among the major Bhandāras which have much to furnish and tell. 1 The Amber Bhandara, Jaipur, The Jaisalmer Bhandara and the Bhandāras of Bikaner, Nāgaur, Jodhpur, Sādri, Ghāņerão etc., are the Bhandāras of great repute. Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part o.o.O.O.O.O.O.O.O .O.O.O.O.O.O.O.OO.O.O.O.O.O.O..O.O. O.O. O. O. Originally, this kind of literature was not very lengthy but with the passage of time it. grew in size and contents and began to exert an ever greater influence on the thought and action of the period. Jain writers, for example, concerned themselves less with strictly individual biography and purely political narrative and more with the evolution of social forces and religious as well as social institutions. Muscial literature, for example, was a most helpful and fascinating hand-maid to the understanding of man and the universe. The literature of the period also presented description of mythical aspects and compared folk-customs and thus maintained closed liaison with religion and environment. Such productions were highly appreciated by both materialists and the philosophers. By voice and pen the saints and sādhus of Jain order preached prodigious number of bits of information and primitive folk-lores intermixed with philosophical ideas in such a subtle manner that the readers and audience could lead themselves towards a higher plane. In a way the literature referred to above was fostering an intellectual movement of impressive and effective nature. In so far as the social life and cultural progress of the vast majority of the people of Rajasthan is concerned, the Jain literature in prose and poetry), therefore, constitutes for the period under review, our basic source of study. It is both dull and tedious at the occasion of this magnitude to attempt an exhaustive analysis of these assets. I, therefore, crave the reader's indulgence to select a few of the typical examples to highlight their importance. Such, in the first place, is the Nabhinandana Jinoddhāra Prabandha by Kakkarsūri of the 14th century A. D. It consists of five chapters in Sanskrt verses and contains mainly the traditional account of the Uddhāra ceremony of the temple of Satruñjaya by Samara Singh, a Jain devotee of repute. Accidentally the poet also records the accounts of Ukeśapur (Osiän) and Kiratkūpa (Kirādu), the two important towns of religious and economic importance. The comments on the life and the court of Alauddin Khilji and the attitudes of the Turkish nobility are of special interest. The picture of the Vaisyas, as drawn by the writer, is that of incressant toil devotedầto religious practices and acts of piety. As regards the duties and functions of the Sanghas, our author takes a realistic view. The duties appear to be thoroughly in accord with the practice of the age. Such is also the work entitled the Hammīramahākāvya of Nayacandra Sūri, composed in the 14th century A. D.8 It is a historical Kavya of 14 cantos, dealing with the Chauhan ascendancy, particularly the heroic works of Hammir Deo of Ranathambhor. Though, it contains unnecessary and meaningless descriptions and digressions, the author cleverly introduces a 1 Compare, References in Social Life in Medieval Rajasthan, G. N. Sharma, pp. 141-142. 2 Compare, Kalpasūtra Paintings of the 16th century, note, Rajasthan Studies, G. N. Sharma, pp. 141-143. 3 Prastāva, III, IV. 4 Prastāva, I, vv. 43-63, 343-356. 5 Prastāva, III, vv. 10-18, 273-317; 318-323. 6 Prastāva, I, vv. 32-37. 7 Prastāva, IV, vv. 1-19; Prastāva, V, vy. 1-23; 174-182 etc. Compare, References from Rajasthan Studies, G. N. Sharma, p. 174. 8 Nothing is definite about the date of the work. On some indications of the author it appears. that it was completed in or about 14th century A. D., vide Hammiramahākāvya, p. 28. 0 . Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Literature as a Source of Social and Cultural Life of Medieval Rajasthan ...... 9 series of descriptions of rainy season, sati system", religious routine of the Rāja-all referable, as it were, to those chief subjects. It also contains a few brief notes of the moral views regarding hospitality to the guests, protection to those who sought asylum, feeling of sympathy towards the hungry etc. From the description of wars and arms it appears that his knowledge of traditional method of the Rājput Warfare and his acquaintance with the improved methods of Turkish miltary techniques is specific. For the study of the military history of the 14th century the work may be placed in the first rank. The next is the Somasaubhāgyakāvya of Somasuri. This celebrated work is devoted chiefly to the life-history of Soma Sunder, but it also contains references to the social and cultural aspects of the 15th century. Though, it is, in fact, exceedingly poor in historical details, the period of which it treats is one of the most interesting in the histroy of Rajasthan-that of the glorious regin of Mahārānā Kumbhā. It contains ten cantos in Sanskrt verses with rhapsodical and eloquent stuff which is of little use except to show the author's power of fancy and invention. From the canto 1st to 4th, the author gives details of the stages of Soma Sunder's education. The practice of fixing auspicious hour for commencing his education by the astrologer, the aims of education, the subjects of his study, the last offerings to the teacher made by the pupil and final initiations are important aspects coverved by the poet. The description of Devakulapasaka (Delwāda) as an important centre of Jain religion and trade is graphic. We are also told by the author that the market of the town was full of foreign cloths and there were merchants expert in business and commerce. With regard to the wall-painting the author is specific. 8 His writing is, therefore, very useful for the study of the growth of Mewär painting. At the end of the work the author bestows praise upon the teachers of Soma Sunder. Hence, inspite of the general meagreness of historical details, the Kävya is contemporary to several items of common practice of education and town life of the 15th century. There is Samaya Sunder, the writer of several folk-tales in Rājasthāni and Gujrāti, belonging to the 16th & 17th century. From his own pen we learn that he was the son of RūpsiPanwār and Lilādevi of Sānchor. His religious Guru was Jinacandra Sūri, the famous Jain saint of high fame. He wrote his Sinhalsut at Mertă in 1672 V. S. (Vikrama samvat). At Jaisalmer he wrote the Valkalcīrī in V. S. 1681. The Campakasethakatha was composed at Jālore in V.S. 1695. It appears that he was interested in explaining his compositions to his followers by travelling from place to place.10 These works may be described as a callection of fictitious stories and anecdotes, written in popular language, illustrative of the virtues, vices and calamities of man 1 The Kavya, Canto 60, vv. 49-62. 2 Ibid., Canto 13, vv. 173-186. 3 Ibid., Canto 9, vv. 52-99; Canto 13, vv. 39-47 4 Ibid., Canto 14, vv. 17-19 5 Ibid., Canto 11, vv. 70-103 6 Canto II, v. 47; II, v. 57; IV, v. 55. 7 Canto VIII. 8 Canto V. v. 39. 9 Kusumāñjali, vide Samayasunder Rāsa Pañcaka, Introduction, p. 1. He was born about V. S. 1615. 10 Samayasunder Rasa Pancaka, Introduction, pp. 2-4. Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part kind. They are more useful in understanding the prevailing opinions of contemporaries, through the examples of common experience. The story of the sea voyage recorded in Sirhhalsut appears to bring home the reality of social behaviours of the parties concerned. Other stories are similarly devoted to the illustrations of some mental or intellectual quality expected of the 16th century society. Similarly, Hemaratana, the writer of Gorābādala (V. S. 1645) belonging to the time of Rāņā Pratap; and Jaimal, a Jain Srāvaka of Lāhore, and the writer of the Gorābādala Copai (V. S. 1680) are graphic in their description of a beggar, a soldier etc. They throw a flood of light on the medieval warfare and the heroes of their choice. They emphasize with all their force on an important aspect of Swami Dharma'--the need of the time. These works have their special place in resolving the problem of Padmini's historicity, which is beyond the purview of of this paper. As regards the 17th century Jain Literature the name of Upadhyāya Labdhodaya, a prolific writer, stands pre-eminent. He spent the major part of his life in Mewar and went round Udaipur, Gogunda and Dhūlev time and again. He belongs to the school of the famous Gurus like Jinacandra Sūri, Jinamāņikya Sūri and Gunaratna and was the pupil of Gyankusal. According to the Malayasunder Chopai his pupils were Ratna Sunder, Kuśal Singh, Sanwaladās, Khetsi, Jasaharsa, Kalyān Sägar, etc. He composed his famous work Padmini Copas in V. S. 1706-07. It consists of 49 Dhālas and 816 Gathās in poetry. The work was written at the instance of Bhagacanda the minister of the Rāņā. It records the geneology of his patron and his successors. Though the work is mainly devoted to the study of the prosperous condition of Chittor and its lay outs, its value is chiefly attributable to the social condition and the institutions of the period at which it was written. The occasional references to the game of Sataranj, slave girls, dowry, palanquins, court etiquette, importance of the council of the feudal order, dress and diet of the people etc., by no means include the whole series of social set-up of the 17th century of Rajasthan. Khumān Räso of Dalapat Vijaya may shortly be described as an annals of Mewar History commencing from the early Guhilots to Rāj Singh. It was composed between 1767 to 1790 V. S. The writer introduces himself as the pupil belonging to the order of Sumati Sadhu Sūri, Padamvijaya, Jayavijaya, śāntivijaya etc. The contents of social history contained in the pages of this work are the Parda System, Slave system, Sati system and the mode and manner of dress and diet of the people of status and position. He also registers the duties of the Ksatriyas emphasizing the spirit of sacrifice, boldness and piety as necessary requisites. The ideal of Ksatravrata is 1 Sarvagātha, 196. Abhaya Jain Granthävali, No. 4318, 89 2 Sarvagätha, 215 etc. 3 Nāgari Pracarini Patrikā, year 4th, No. 8. 4 Padminicaritra Copai, Introduction, pp. 19-39. 5 Chittor Varanana, vv. 1-11 6 Kridā Vijaya, vv. 1-5 7 PadminJvivāha, vv. 7, 12, 15, etc. 8 Dehigaman, vv. 1-5 9 Gorābādalagaman vv. 1-5, etc. Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Literature as a Source of Social and Cultural Life of Medieval Rajasthan...... 11 W A : . . . . . . . ...... described at length by the writer in order to infuse a sense of duty in the warrior class. His information regarding the garrison of Chittor, collection of the implements of war in the fort and other preparations are authentic as far as the political environment of 18th century is concerned, To the foregoing account of Jain literature, must be added a few words about its significance. This significance was two-fold. First, a remarkable extension of Jain missionary activity; and second, purging of superstitions especially through popular songs and tales. It acquired, at any rate, a taste for education, love for religion and art. As far as the intellectuals were concerned, it gradually wrought a veritable revolution. Some turned to reform-movement seeking to reconcile their traditional faith with modern developments. The literature also provided profound effect on Indian culture and society and showed how it provided a cultural endorsement of traditional social stratification and the concept of religious and cultural awakening. The picture of the social and cultural position of Rajasthan which emerges from our survey of this sample material will help us to draw similar and other relevant facts from the vast and sacttered Jain literature of importance. 04 1 (a) Nägari Pracarini Patrikā, Year 44, No. 4. (b) Padminicaritra Copai, pp. 129-181. Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RIGHTNESS OF ACTION AND JAINA ETHICS Dr. KAMAL CHAND SOGĀNI. Associate Professor, Department of Philosophy, University of Udaipur, UDAIPUR He who lives in society inevitably asks himself and others on many occasions in life, «What shall I do in a particular situation ?' or Whether I ought to do or ought not to do certain actions ?' Many a time we have been told, 'What you have done is wrong.' You ought not to have done this.' Sometimes, the answer to such questions and determination of such decisions are announced by resorting to the moral code of a particular social group. In consequence, it may be said that an action is wrong if it does not conform to the moral code in question. Particular actions are to be performed in a particular situation, inasmuch as they are enjoined by a particular moral code of the community. But an impartial reflective mind cannot be satisfied with such subjective decisions, regarding the rightness or wrongness of doing certain actions. Besides, moral codes may conflict and what is considered right according to one moral code may be regarded as wrong according to the other moral code. For instance, in accordance with one moral code untouchability is right, whereas in accordance with the other moral code untouchability is wrong. In one moral code meat-eating is forbidden, while in the other, it is enjoined. The situation is worsened when two parts of the moral code of a community prescribe contradictory performances to be right or wrong. All this means that moral codes cannot be relied upon as a sure guide to the rightness of an action. Of course, I do not wish to deny that there may be moral codes which prescribe universal rules of conduct, but even then it cannot be said that 'right' and 'wrong' could be defined in terms of conformity or otherwise to the moral code of a particular society. The reflective mind is not convinced of the reason for an action's being write or wrong in terms of a moral code. In fact, he is concerned with the criterion of the rightness of actions. He wishes to enquire the ground on which the rightness of actions depends. In Jaina terminology it may be asked : 'How do we regard an action as Samyaka ? By what standard an action is judged to be Samyaka ? It will not be out of place to point out here that the term Samyaka-action in Jaina Ethics is not equivalent to the term right action in Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +-+ Rightness of Action and Jaina Ethics modern ethics1, but it implies that the right action has a good motive in addition. It is, therefore, called good action. The other term in Jaina ethics for good action is Subha action. But for our purpose, we shall treat Samyaka-action or Subha-action as right action without any inconsistency. In the present paper I propose to discuss the theories of the criterion or standard by which we can determine whether an action is right or wrong. Further, I shall endeavour to point out the stand of the Jaina ethics regarding the issue under consideration. 13 In order to judge the rightness or wrongness of an action or rule, if the goodness or badness of the consequence is taken into consideration, we have a theory known as the teleological theory of right or wrong. For instance, gambling is wrong, because it leads to many bad consequences; and helping others in distress is right, because it leads to good consequences. In other words, the teleologist contends that an action or rule is right, if it is conducive to the greatest balance of good over evil, either for himself or for the universe. The former position is taken by an ethical egoist, whereas the latter one, by the utilitarian. Since ethical egoism cannot be consistently maintained as a moral theory, we set it aside without going into the arguments for its rejection. What concerns us now is to discuss utilitarianism as a teleological theory of the rightness or wrongness of an action or rule. The other theory regarding the rightness or wrongness of an action or rule is styled deontological theory of right or wrong, according to which rightness or wrongness of an action or rule is not the function of consequences, but is decided by the nature of certain characteristics of the action or rule itself. In other words, the deontologist hold that an action or rule is right even if it does not bring about any good to self or society. For instance, promise or conformity in mind, body and speech ought to be kept even if bad consequences are brought into being. 1 Thus, the difference between the teleologist and the deontologist consists in the fact that the former regards the rightness or wrongness of an action or a rule as a function of good or bad consequences alone, while the latter regards rightness or wrongness as depending on factors other than the goodness or badness of consequence. For the teleologist there is no way of determining the right apart from the good, while for the deontologist the right owes nothing to the good. Both the teleologist and the deontologist may regard certain action or rules as right or wrong, but the reason or justification given by each is different. If I say that I ought to do actions of gratitude to my benefector and then suppose I am asked the reason for holding it. In reply, I may say, if I hold teleologic point of view, that I ought to do actions of gratitude to my benefactor if they contribute to the productiveness of good, and if they do not, the 'ought' loses its significance; but if I hold deontological point of view, I may say that I ought to do actions of gratitude to my benefector, even if they lead to bad consequences, i. c., 'ought' on this theory is to be followed In some of our moral judgements, we say that a certain action or kind of action is morally right, wrong, obligatory, a duty or ought or ought not be done. In others, we talk not about actions or kinds of action, but about persons' motive, intentions, traits of character, and the like; and we say that they are morlly good, bad, virtuous, vicious, responsible, blameworthy, saintly, despicable, and so on. In these two kinds of judgement, the things talked about are different and what is said about them is different.-(Frankena : Ethics, pp. 8-9, Prentice Hall, India.) Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 14 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part under all circumstances regardless of the consideration of any effect. To be more clear, suppose I have borrowed a sword from my friend for self-defence. Shall I return it to him at a time when my friend is planning to kill his parents owing to some discord ? The teleological reply is No', the deontological reply seems to me to be 'Yes'. Thus, the teleologist believes in hypothetical imperatives and the deontologist, in categorical ones. Having explained the two general types of tests or criteria of rightness of actions or rules, I propose first to examine the forms of deontological positions upheld by moral philosophers and secondly, I shall go on to the utilitarian position regarding the issue under consideration. While examining these theories, I shall endeavour to bring out the contribution of the Jaina ethics to the problem of the rightness of action. The deontologist may take two positions : (a) act deontology and (b) rule-deontology. (a) For the act-deontologist, particular actions are in themselves intrinsically right or wrong without regard to the goodness or badness of their consequences. The moral judgement that in this situation, 'I ought to do so and so' is a function of the immediate intuitive kdowledge of the rightness or wrongness of an action in a particular situation. In other words, the rightness or wrongness of actions is ascertained by simply looking at the actions themselves without considering their conseqnences, i. e., it is cognisable apart from the goodness or badness produced by them, either for oneself or for the world. It may be noted here that the act deontologist may hold without contradicting himself that the general rule can be formed indirectly by making use of perceptions regarding the rightness or wrongness of particular acts. But this general rule cannot out-weigh the particular judgement concerning the rightness or wrongness of particular action. (b) As distinguished from act-deontologism. the rule-deontologist holds that what is right or wrong is to be ascertained by appeal to general rules intuitively apprehended. The validity of these rules does not depend on the productivity of the goodness or badness of consequences, and they are not inductively arrived at, but rather given to us directly by intuitive apprehension. For example, the particular action of killing or stealing is wrong, because it violates the rule. Do not kill' or 'Do not steal' which is intrinsically right and the particular action of fulfilling a promise is right, because it observes the intrinsically right rule keep your promises'. Thus, the rule deontologist asserts that there are certain rules which are absolutely always right and certain others which are absolutely always wrong, regardless of the goodness or badness of consequences. In other words, there are certain actions, like-speaking the truth, keeping the promises, repaying the debts, doing acts of gratitude, which are our duties, and duties ought to be performed even when they do not promote any good whatsoever, that certain actions are oui duties is a sufficient ground for our doing them as a right. According to Jaina Ācāryas, both act-deontologism and rule-deontologism are untenable theories of the criterion of rightness or wrongness. The weakness of act-deontologism is that it regards human situations as extremely different from one another, and does not recognise the universal element inherent in them. No doubt each human situation has something of its own but it is contrary to moral experience to say that it is not like other situations in morally relevant respects. In many human situations, because of their likeness in important respects, the general rule like 'do not kill' can be applied without any incongruity. In practical life, according to the Jaina ethics, moral rules cannot be dispensed with and each man's moral judgements Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rightness of Action and Jaina Ethics cannot be relied upon. The fact is that when one makes a moral judgement in particular situations, one implicitly commits one-self to make the same judgement in any similar situations.1 The merit of act-deontologism is that it takes into consideration the particularity of the situation. It advises us to look into the act as such. Besides, the weakness of rule-deontologism is that it occupies itself with the extreme rightness or wrongness of the rule without allowing any exceptions to it. It this case, fulfilment of duty may sometimes become fanaticism. Truth ought to be spoken even if the world has to face bad consequences.' The defect of this position in particular and deontologism in general is that they do not take account of the specific situations and goodness or badness of the consequences following from such circumstances. Actions cannot be right or wrong in vacuum. They always produce certain effects, either good or bad, and to be indifferent to effects is to ignore the verdicts of moral experience which is deeply rooted in the goodness or badness of human situation. 15 As for Jaina ethics, it does not condemn the action of telling a lie to enemies, robbers and even to persons who ask questions when they have no right to ask. Under some exceptional circumstances, it is right to break a promise or to take something that belongs to another without his permission. Thus, no rule can be absolutely always right or wrong as the rule-deontologist prescribed. Mill rightly remarks, 'It is not the fault of any creed but of the complicated nature of human affairs that rules of conduct cannot be so framed as to require exception, and that hardly any kind of action can safely be laid down as either always obligatory or always condemnable." The merit of rule-deontolgism is that it gives proper importance to rules in moral life. ---- After critically examining the deontological position from the point of view of Jaina ethics, we now proceed to discuss the position taken by the teleologist. Since teleologists have often been called utilitarians, we shall be regarding teleological position as utilitarian position. (a) Act-utilitarians say that the rightness or wrongness of each action is to be determined by appealing to its goodness or badness of consequences and I ought to do an action in a situation which is likely to produce the maximum balance of good over evil in the universe. One ought not to tell the truth in a situation which is such as to cause maximum balance of evil over good by telling the truth. (b) Rule-utilitarians hold that moral rules like truth-telling etc. are significant in life and our duty in a particular situation is to be decided by appeal to a rule. In this respect, they are like rule-deontologists but unlike deontologists they affirm that rules are to be framed on the basis of their effects on the universe as a whole. Thus rules have utilitarian basis and they must be selected, maintained, revised and replaced on this basis. Once rules are so framed they are to be followed even if it is known that they do not have the best possible consequences in certain particular cases. 1 Frankena: Ethics, p. 22 (Prentice Hall). 2 Mill: Utilitarianism, Chapter II, p. 28 (Everyman's Library, Ed. Newyork). It may be noted here that Jaina ethics subscribes to the utilitarian basis of the judgements of right or wrong. Do not kill, Do not tell a lie, Do not hoard, Do not steal and Do not commit adultery-all these rules have as their basis the productivity of good consequence in the universe. However, Jaina Acaryas maintained that sometimes it is not the following of the rule that Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 16 Karmayogi Sri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part produces maximum balance of good over evil but its breaking. Though Jaina Acāryas allow breaking of the moral rules in exceptional circumstances on utilitarian basis, yet they have warned us time and again that breaking of the rule should not be made common, since it may lead to the weakening of faith in rules which are in a way the basis of social order and living. The Niśitha Sūtra is a compendium of exceptions to moral rules. This work has very carefully laid down the principles of breaking the rules. This implies that Jaina ethics does not allow superstitious rule-worship but at the same time, holds that scrupulously conscientous caution is to be exercised in breaking the rules. Thus rule-utilitarianism like rule-deontologism does not find favour with Jaina ethics. Rules are merely guiding principles in common circumstances, but when the circumstances are exceptional, we have not to look to rules for making any moral decision, but to situations and particular action from the point of view of producing greater balance of good over evil. This goes to show that every time, as the act-utilitarian suggests, we have not to calculate anew the effects of each and every action on the general welfare. The whole discussion brings us to the view that both acts and rules relate specific situations and general principles are to be taken into account for deciding the rightness or wrongness of actions. This may be called modified act-utilitarianism which cannot allow a rule to be followed in particular situations when following is regarded as not to have the best possible consequences. This means that Jaina ethics accepts the possibility that sometimes general moral principles may be inadequate to the complexities of the situation and in this case, a direct consideration of the particular action without references to general principles is necessary. Thus, according to the Jaina ethics acts are logically prior to rules and the rightness of the actions is situational. The corrollary of this view is that duty is not self-justifying and that it is not an end in itself. It is good as a means. Its rightness is dependent on the fact of producing a greater balance of good over evil in the universe. Here, it may be said that rightness or wrongness of an actions does not depend upon the goodness or badness of consequences, but upon the motive or motives from which it is done. We can find reference in Jaina ethical texts wherein good motives are given prime importance for the performance of action producing good consequences. So long as good motives issue in right action productive of good consequences, there is nothing wrong in accepting the dependence of rightness of action on good motives. Jaina ethics seems to tie good motives with the rightness of action producing good consequences. Its conviction is that if there is good motive, like kindness or charitable disposition, right actions are bound to occur. At one stage in man's moral evolution it may be possible, but at ordinary man's level this may not happen. Since Jaina ethics, it seems to me, could not evenly face the problem arising from the fact that sometimes good dispositions are not able to produce right actions, issuing in good consequences it made rightness of action productive of good identical with good motives. But the point is that such actions are not so blameworthy as they would have been if they had been done from bad motives. No doubt the agent deserves praise for acting as he did, but the action is wrong. Jaina ethics seems to confuse that to call an action morally praiseworthy is the same thing as to say that it is right, and to call it morally blameworthy the same thing as to say that it is wrong. '1 In point of fact, these two judgements are not identical. It so often happens that a man may act wrongly from a good motive., i. e., conscientiousness may lead to fanatical cruelty, mistaken 1 Moore : Ethics, p. 116 (Oxford University Press, London) Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rightness of Action and Jaina Ethics 17 asceticism etc., and he may act rightly from a bad motive for instance feeling of revenge may be able to check certain criminal actions. However, in the former case we regard actions as wrong whereas in the latter we regard them as right. This means that the consideration of motives does not make any difference to the rightness or wrongness of actions. In other words, goodness or badness of disposition is to be distinguished from the rightness or wrongness of conduct. Thus, if a right action is done from a good motive and the same action is done from a bad motive, though the goodness of the consequences will be the same yet 'the presence of the good motive will mean the presence of an additional good in the one case which is absent in the other.1 In conclusion, we may say that according to Jaina ethics the criterion of right or wrong is the goodness or badness of consequences. It rejects the view that certain rules ought absolutely always to be followed, whatever the consequences may be. No action is to be unconditionally done or avoided. No actions can be our duty irrespective of the goodness of the consequences. The question whether an action is right or wrong does not depend on motives, and the presence of motive, whether good or bad, constitutes an additional factor in the rightness or wrongness of actions. 1 Moore: Ethics, p. 115 (Oxford University Press, London). Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . . . MAHĀVĪRA AND AHIMSA* Dr. D. S. KOTHARI Ex-Chairman, University Grants Commission In Indian life and thought the principle of ahiṁsā or non-violence has always held the central place. Lord Mahavira said two thousand five hundred years ago : The first and supreme duty of man, his dharma, is ahinsa. It is to observe non-violence in word, thought and deed. Mahāvīra proclaimed and preached what he practised. His message and his life were in complete accord. The two were identical. In man's unceasing quest for ahimsā, Mahāvira, the 24th Jaina Tirthankara, the Englightened one, stands as one of the greatest landmarks, an abiding source of light, inspiration and courage. He was not the founder of the Jaina religion which to a limited extent was prevalent in the country much before his time. Mahāvira's philosophy, His Teachings and Example is more relevant today than ever before. Ahimsa and Satyagraha go together and are inseparable, as Gandhiji always emphasised. Without progress in Ahirnså man has no future in the atomic age. Even his survival may be at stake. Man now faces himself. He can destroy all life on this planet or can open up new vistas of cultural, social and spiritual development. This is the path of science and ahimsā, the two mutually re-inforcing. “There is a growing synthesis between humanism and the scientific spirit, resulting in a kind of scientific humanism," as Nehru said in "The Discovery of India' page, 493. What is important is to recognize that with the emergence of the human mind the nature of biological evolution has undergone a profound change--a qualitative change. The course of organic evolution depends now more on man himself than on anything else. That makes ahinsa (non-violence) the primary law of human development. Mahāvira was the contemporary of the Buddha (624-544 B. C.). He was born at Vaiśāli, in Bihār, in a family related to the great Bimbisāra (or Sreņika), the king of Magadha. He lived to the age of 72. The date of his death or Nirvāna is generally believed to be the Diwali day, 527 B. C., that is 2500 years ago. The name of His father was Siddhartha, and of His mother Trśalā Devi. According to the Swetāmbera tradition, but not accepted by the Digambaras, Mahāvira was married to Yasoda and had a daughter. O • Radio Talk, November 13, 1974. 1 Some historians bejieve that Buddha attained Nirvana in 484 B. C. and Mahāvina in 482. Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ At the age of thirty Mahavira renounced every thing, even the barest of necessities. He was completely and absolutely possessionless. He devoted the next 12 years to deep contemplation, extreme penance and yoga sadhana. In the thirteenth year, to quote from the Kalpa Sutra, "He under a śāla tree.........in a squatting position with joined heels, exposing himself to the heat of the sun, after fasting two and a half days even without drinking water, being engaged in deep meditation, reached the highest knowledge and intuition, called Kevalajñāna, which is infinite, supreme, unobstructed, unimpeded, complete, and full." At the age of 42, He became an Arhat, that is, obtained an absolute mastery over himself, mind and body. It is said that in this state one knows and sees all conditions of all living being in the world, what they think, what they speak or do at any moment. The Arhat know the supreme secret, the greatest of all mys-teries: What is "I"? What is this 'self' of ours? Whither do we come? Whither do we go? To us schooled in the world of modern science these questions appear strange, utterly intangible, may be, even unreal. And it seems utterly strange, unebelievable, that any one could know their answers, much less by meditation alone. Yet to disbelieve on no other ground but its uniqueness, the personal experience of man of the highest wisdom and veracity, unsurpassed in self-conquest and compassion, (to disbelieve the personal testimony of such man) would be doing violence to the spirit of science. Mahavira and Ahimsa 19 The teachings of Mahāvīra, handed down orally from one generation of disciples to another, were probably first reduced to writing a thousand years after His nirvana, at the court of Valabhi (in 454 A. D.) under the guidance of Devarddhi. There are five cardinal principles or Vows of the Jaina religion. The first is to renounce all injury to, and killing of, any living beings whatever, big or small, movable or immovable. One should renounce all violence in thought, word and deed, nor cause others to do it, nor give consent to it. The second principle is to renounce all falsehood, all untruth, arising from anger, greed or fear. The other three refer to renunciation of possessions, sensual pleasures, and attachment. A Jaina monk must follow these five principles or vows completely, to their minutest detail. Lay people should observe these principles as best as their conditions allow; always. endeavouring sincerely to improve their performance. The vows for the monks and the lay people are qualitatively identical. The difference is in their intensity of observance. These vows are, therefore, called Mahāvrata in the case of monks and Anuvrata in the case of others. This basic unity, as regards the duties of monks, male and female, and lay-men and lay-women is a special feature of Jainism, and largely responsible for its strength and resilience. It is called Caturvidha Sangha. Basic to Ahimsa is a realization of the fundamental kinship of man to all living beings. Man is not their lord but a fellow being. Mahavira declared: "As is my pain when I am knocked or struck with a stick, bone, fist, clod, or potsherd or menaced, beaten, burned, tormented, or deprived of life; and as I feel every pain and agony from death down to the pulling out of a hair; in the same way, be sure of this, all kinds of living beings feel the same pain, agony, etc., as I, when they are illtreated in the same way (struck, beaten, burned, killed). For this reason all sorts of living beings should not be beaten, nor treated with violence, nor abused, nor tormen-ted, nor deprived of life." (Sūtrak ṛtānga, Book 2, Lecture 1) The unity of all life so characteristic of Jainism is now one of the great concepts (and triumhps) of modern science, thanks to Charles Darwin's theory of evolution and the recent Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 Karınayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part advances in molecular biology and genetics. But in the Jewish and Chistian religions, re-inforced by Descartes, man stands apart from all other living beings. He alone possesses a soul. It is possible that the terrific, and unfortunate exploitation and pollution of the environment by western industrialized nations is partly the result of an ethic which conceives man (or rather Western man ?) as the king, the conqueror of nature, rather than a partner, a co-inhabitant. At this point, I should like to say a word about Syädvāda which is a unique and integral feature of the philosophy of ahimsā. Syadvāda signifies assertion of possibilities. It seeks to discover the meaning of things from all possible standpoints. These are seven in number. No affirmation or judgement is absolutely true, each is true or valid only conditionally. When Gautama, the favourite disciple of Mahävira asked him-"Are the souls eternal or non-eternal ?" He said: "The souls, O Gautama ! are eternal in some respect and non-eternal in some respect. They are eternal from the view-point of substance, and non-eternal from the view-point of modes." The logic of syādvāda developed more than two thousand years ago has remarkable similarities with the modern theory of probability and the corresponding view of reality), as pointed out by Professor P. C. Mahalanobis and J. B. S. Haldane. A more significant point is that the Syadvāda is so very similar to the philosophy of complementarity of Niels Bohr and Heisenberg. The complementarity principle is the most revolutionary innovation in natural science since the time of Mahavira. Syädvāda does not mean accepting every point of view complacently, passively. That would be its negation, a perversion. Syādvāda is a critical and ruthless exploration of all possible points of view to determine the limits of validity for each of them. It is a guide to action. The world today is full of fear, hate, aggression, and violence. It is also certain that violence cannot be eliminated by violence. Violence can only breed more violence. The remedy is ahiṁsā. The world desperately needs ahiṁsā to combat violence, individual and organized, and for enrichment of life. But there is little serious effort to understand, to promote and develop ahińsā......its philosophy and its practice. Ahimsa is no magic wand. It is no effortless remedy. That way it is akin to science. It is a tragic commentary on our times that wheress more than Rs. 200 thousand crores every year the world spends (wastes) on instruments of war and annihilation, not even a thousandth part of it is devoted to ahirsā. And there is so much new to learn about ahimsa and sar yagraha; so much of which today we have not even a glimpse. Gandhiji said three months before his death : "By reason of life-long practice of ahimsā, I claim to be an expert in it, though very imperfect......I see how far I am from a full expression of ahirnsă in my life? It is ignorance of this, the greatest duty of man in the world, which makes him say that in this age non-violence has little scope in the face of violence, whereas I make bold to say that in this age of the Atom Bomb unadulterated non-violence is the only force that can confound all the tricks put together of violence." Fear and violence multiply each other. Fearlessness, and ahinsä go together. No task today, 2500 years after the Nirvana of Mahāvīra, is more urgent and more meaningful than to strengthen our faith in, and to understand, practise and promote, ahimsā. And in this, every step, how so small, counts. Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Concept of AHIMSĂ in the ACĂRANGA D Dr. VEENA AGGARWAL C/o Shri R. K. Aggarwal 5, Ahimsapuri, Nathadwara Road, Fatehpura, UDAIPUR Ahimsā is one of the basic principles of Jainism. The term Ahimsā has its origin in hiṁsā, 'hisi' is its root, which means killing or hurting a living being. And the opposite of it, is non-killing, non-destroying or non-injury; that is ahimsa. The concept of Ahirsā is clearly understood only by the analysis of the word Hirsā which is defined as "Pramattayogāt prānavyaparopanam hiṁsā. i. e, taking away the life or vital force of anyone under the influence of negligence or passions. This definition consists of two parts: (a) Pramattayoga, (b) Prānavyaparopana. The former is the cause and later the effect. Pramattayoga means an activity tinged with attachment and aversion or an inadvertent activity. So himsā means destruction of Prānas resulting from Pramäda. Ācārya Amrtacandra also says, that an injury weatsoever to the material or conscious vitalities caused through passionate activity of mind, body or speech is hińsā assuredly. The ordinary definition of hinsä is, no doubt destruction of life; but this definition is rather inexact. For destruction of life is not necessary a fault as it all depends upon the intention (bhāvanā) of the individual. If the bhāvanā is based upon pramäda, the destruction of life is hirsa in the real sense of the word i. e., dravya hiṁsā preceded by and based upon bhäva hiṁsā and it is therefore a sin. But if the bhāvanā is not based upon pramāda, mere destruction of life is not himsā. It is the evil bhāvanā that makes himsă a sin. Pramattayoga is invisible and subtle whereas prānavyaparopana is visible and gross. The former is definitely a fault but the latter may or may not be a fault. The sinfulness of pramada does not depend upon any other factor but itself; but in case of prāņavyaparopana, its sinfulness entirely depends upon another factor viz, bhāvanā. Truly speaking, pramattayoga alone is himsā, so it is undesirable and objectionable. So a question may be raised as to why himsă is not defined O | Vacaspayam, Vol. 1, p. 582 2 Umāsvāti's Tattvärthasütra, 7, 8 3 Amstcandra's Puruşārthasiddhyupāya, 43 Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 C 22 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāṇā Abhinandana Grantha: Seventh Part as pramattayoga himsa and why the portion 'pranavyaparopana' is included in this definition. The answer is: It is not possible for masses immediately to refrain from pramattayoga to a great extent. On the other hand, mere destruction of life which is gross as compared with pramattayoga can easily be avoided, and such abstinence, too, is desirable. For, as this abstinence, even if unaccompanied by the giving up of pramattayoga, goes on increassing, it leads to more and more peace and prosperity of the masses. Further, the development of ahimsa is due to the abstinence from prāṇavyaparopaṇa, which finally leads to the giving up of pramattayoga, so far as the masses are concerned. Consequently, though on a spiritual plane the abstinence from pramattayoga is the main thing, it is essential that while defining himsa, the portion prāṇavyaparopana should from a part and parcel of it so far as the life of the masses goes and this gross abstinence from destruction of life should be looked upon as ahimsā. Ahmsā literally means not to kill or injure any living being or not to deprive one of one's life or not to torment any one, wheress himsa means to kill living beings, Himsa is done out of passions, (greed, pride, anger deceitfulness etc.,) and carelessness, Ahimsa is to control one's self in such a way as not to be carried by passions and carelessness so as to kill or injure the living beings. It is said that everybody wants life and nobody wants to die, therefore, killing should be condemned for all kinds of living beings. This generous outlook leads to equanimity (samatā) i. e., control of passions towards all.1 Ahimsa in its perfect form can be noticed only in Jainism. The entire Jaina religious and philosophical system is founded on ahimsa. Though the moral law 'na himsyat sarvabhūtāni" (one should not cause injury to any living being) is accepted also in Brahmanism and Buddhism, yet it is only in Jainism that the rule is universally applied and the entire life of its followers, both ascetics and householders is governed by this principle, which is observed fully or partially according to their status. It is said that the essence of all knowledge lies in non-killing which is the supreme principle declared by the omniscient." Jainism preaches ahimsa towards all kinds of living beings, from one-sensed to the five-sensed ones. It recognises the sanctity of the lives of all beings and enjoins complete ahimsa towards all, in whatever state of existence they may be. It is on this basis that the doctrine of nonviolence as preached in the Acaranga Sutra stands. It is said that no living being should be slain or treated with violence or abused or tormented or driven away. Further it is said, 'No living being wants suffering just as I donot, thinking in this way, one who does not indulge in violence, nor does he let others to indulge in it, is a true monk. It is said a 'Śramana' becomes a real śramana only through samata.5 Samatā is the basic principle on which Mahavira's message of non-violence is based. In the Acaränga Sutra he has said, "You yourself are the being whom you intend to insult, you. 1 Daśavaikālika Sutra, 4, 9 2 Sutrak tanga Sutra, 1, 1, 10 3 Acaranga Sutra, 1, 4, 1, 127 4 Anuyogadvära Sutra (Upakramādhikāra) 5 Uttaradhyayana Sutra, 25, 32 Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Concept of Ahimsa in the Acārānga 23 O.O.O.O.O................................ 1.0 GIGIOOO...@.G.O. yourself are the being whom you intend to persecute.” It means that one should treat all living beings like one's ownself. Bhagavāna Mahāvira says that all those who say that all living beings should be slain, they should be asked, 'Is pain pleasant to you or unpleasant ? For all sort of living beings pain is unpleasant, disagreeable and greatly feared.” For, all living beings have the same desires and aspiration as we have. It is further said, 'if you look at exterior world from the analogy with your ownself, then you will never kill or destory living beings viz., out of reciprocal regard." The Acārānga and the Sūtrak stānga speak of ahiṁsā as the legitimate conclusions from the principle of reciprocity. “The Jaina attitude of ahimsā is logical outcome of their metaphysical theory of the potential equality of all souls and the recognition of the principle of reciprocity viz., as you do not wish to be killed, so others do not wish to be killed." If everybody follows this principle of equality, one will easily get rid of the sin of hiṁsā and will never commit any kind of violence. The Acäränga Sutra states that all beings dare fond of life. like pleasure, hate pain, shun destruction and wish life i. e., long to live. It leads us beyond the feeling of duality which cause hiṁsā. In the sense Ahiṁsā is equal to Nirvana, because in Nirvāna also, all kinds of duality, selfishness and greed are extinguished. The concept of non-violence in the Acārānga Sūtra is all comprehensive. The idea of choosing lesser evil in preference to greater evil is not favourable with Mahāvira. In fact, there is no queition of smaller or grea er violence because all life is equal. In the Acaranga Sutra it is clearly stated that killing for sport or any other reason does not benefit us in any way rather it increases enemity between different sects of creatures. Lord Vardhamana insisted that one should not injure beings with a motive or without motive. Those who entertain cruel thoughts against the living beings, to them pleasures are dear. Therefore, they are near to death and far from liberation, The non-violence hardly takes into account the others against whom violence is used. It is immaterial whether those whom one hurts are small or great, criminal or innocent, loving or not. Non-violence is not a reaction to what others are or what others do. It is a state of one's mind irrespective of what others are or what they speak or do. This state of mind cannot exclude new elemental life like that of earth, fire, air, water and vegetable from its scope. That is why the Acaränga Sūtra lays much emphasis on non-violence towards these one-sensed living beings. Bhagawāna Mahävirā has said that the earth-bodies, water-bodies, fire-bodies, wind-bodies, the lichens seeds and sprouts, animate beings are possessed of life, therefore, one should avoid injury to them. It is on this basis the Jainas call these six classes of beings (Jivas). The earth-bodies etc., 1 Ācārānga Sūtra, 1, 5, 5, 165 2 Acāranga Sutra, 1, 4, 2, 134 3 Ibid, 1, 3, 3, 116 4 Chatterji & Datta : An Introduction to Indian Philosophy, p. 122. 5 Ācāranga Sūtra, 1, 2, 3, 81 6 Ibid, 1, 8, 2, 6 7 Ibid 1, 5, 1, 142 .8 Ibid 1, 1, 12, 13 Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 Karmayogi Śri Kesarīmalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Par! possess only one sense-organ, that of feeling, they have developed intellect and feelings but no limbs etc. Even in the mineral kingdom death is not unknown, which means that metals are also endowed with life. This is amply borne out by the scientific experiments conducted by Prof. J. C. Bose. The fact is that there is no life without consciousness, and no consciousness without life. Hence, where there is life, there is consciousness, whether it be fully manifested or not. Now because the soul is nothing other than consciousness, it further follows wherever there is life there is soul. In the Acäränga Sútra a lot of stress is laid on the abstension from injury towards these six kinds of beings. It has been repeatedly stated that he who injures these beings will be subjected to bondage, delusion, death and hell. Here it is made clear that they have feeling though their feeling is not manifested. In order to elaborate this point, there is given the simile of a blind man who cannot see the wound as somebody strikes him. It does not mean that he has no feeling of pain but the point is that he cannot see it. Similar is the case with earth-bodies etc., which cannot express their feelings on being struck. So Jainism teaches that injury is sinful in relation to all and should be avoided as much in the case of small beings as in the case of big ones. The Acārānga Sätra has called that person as Parijñātakarma muni who does not act sinfully towards these six kinds of lives, nor causes others to acts so, nor allows others to act so. The concept of ahiṁsā has two approaches i. e.. (1) positive and (2) negative. Since ahirisa is a negative term, it means non-killing of living beings and the positive side of it emincipates protecting a living being, helping a living being and loving a living being is not connected with the moral principle of ahinsä and therefore has no value in itself. But this should be borne in mind that this positive aspect of ahimsa by way of loving each other is an exclusively important aspect of ahinsa. It is only in this sense that it is an indicator to the active life of the individual. Ahirsa in its real state, is both positive and negative. “Ahimsā is non-hate or absence of hatred, that is, in positive sense sympathy or love." Absence of hatred, promotes love, which is the source of unification of different individuals. Ahimsā is incomplete without the positive counterpart based on love. Ahirnsis a gigantic powerhouse of Jainism, for it permeates all walks and modes of life of even the Jaina laity. It is this ahims that decides food, drink, dress etc., of the Jaina śrāvakas and frāvikas so that they may not have to restrict their sphere of uhińsä to mankind only but can very well extend it to the vegetation and the like. For laymen this vow is technically called as thūlapānāivāvão viramanam which means abstinence from major violence. So, it makes an allowance for the mild violence unavoidable in household life. But intentional killing of living beings is actually denounced in this vow. Unintentional injury to living beings and killing or punishing of offensive creatures either to oneself or someone related to him is not a violence of this precept. It is presumed that a householder abstains from such violence himself, nor does he order somebody else to commit such violence either through mind, body or speech. But complete cessation from Himsā is prescribed for the Jaina clergy. It is technically called as "Sabbão Pānāivāyāo Veramanari' i.e. complete abstinence from violence. The monks and nuns, since they stand on a higher spiritual platform can commit no act of 1 Acaranga Sutra, 1, 1, 2, 12 2 fbid, 1, 1, 7, 62 3 Upāsakadaśānga Sūtra, 1, 13 Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Concept of Ahiṁsā in the Acārārga 25 violence under any circumstances. They are supposed to observe this vow in a threefold way.1 Complete cessation from himsā is prescribed for monks and nuns not with a view to furnishing them with an ideal for an ideal sake but with the full understanding that this highest ideal can be so realised in the final and the highest stage of their life. Ahirsā not only means abstaining from killing any living being but also abstinence from the egoistic feelings. Bhagawāna Mahāvira taught us that one should realize one's complete identity with others. If someone is suffering, then others should feel that they themselves are suffering. It is this realization of absolute identity which can uproot one's ego, jealousy etc., which are solely responsible for violence. To this world unattached And unattached to the world hereafter, Being chiselled or sandal-smeared Getting delicacies or suffering from hunger To be equanimous in such estermity. Is the mark of equanimity. In loss or gain, in pleasure or pain, In death or life, in fame or blame, In censure or praise. Equanimous remains A sage discreet. 1 Acũrãiga Sutra, 2, 15 Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JINASENA AND HIS POLITICAL PHILOSOPHY RAJMAL JAIN Asstt. Director, Central Hindi Directorate, Ministry of Education, (Govt. of India) West Block-7, R. K. Puram, P. O. NEW DELHI-22 OU AV In any account of Jaina polity, poet Ācārya Jinasena occupies the foremost place. Though he himself was a mendicant, he composed Adipurāņa upto 10,380 verses or 42 cantos and 3 verses in literary excellence, anyone will feel proud of. He set before himself the task of narrating the lives of 63 excellent men (salākā puruşa) but due to his death in the midst of composition, the task was accomplished by his able disciple Gunabhadrācārya. Though Adipurāņa is encyclopaedic in character encompassing biography, cosmology, philosophy, religion, ethics, polity and all that; it is also important from the point of view of Jaina political philosophy, for in it, is found the most complete and systematic account of Jaina political theory. For a student of politics, three of its cantos viz., the third, the sixteenth and the forty-second are important. In the third canto, Jinasena describes Jaina view of cosmic evolution of the universe as well as life in the state of nature' (if we can use the modern term) or life prior to the emergence of society and state. In terms of Jaina mythology, the life described therein is that lived in Bhogabhūmi (or the period of land of enjoyment) or life upto the time of the fourteenth kulakara i. e., Nābhiraja. The sixteenth canto is concerned with the life of man before and after the emergence of Kingship or under Kulakara and first King Rsabhadeva or in Karmabhumi (the land of action) and his initiation into various means of livelihood as well as the creation of the three social classes. In thirty-eighth canto, the Acärya relates as to how Bharata, son of Rsabhadeva and world ruler (Cakravartin) by that time created the fourth class viz., the Brāhmana. In the last canto that Jinasena composed i. e., the forty-second canto, duties of a temporal ruler are explained by Bharata to the subordinate rulers assembled around him, By the caption Jinasena and his Political Philosophy' it is not suggested here that Jinasena was the first or orginal political theorist. It is only intended to convey that the finest exposition of this theory is found in his work. Jinasena does not in end to take all credit to himself for this theory. In fact, it is Jaina śrut (heard) tradition reduced to writing. The tradition had been there since the first tīrthamkara Rsabhadeva. It was narrated to King Sreņika - Bimbisāra of Magadha by Bhagawāna Mahāvīra through his principal disciple (Gañadhara) Gautama, It is Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinasena and his Political Philosophy 27 Ou V . DS in the name of Gautama that Jinasena has described this traditional account of Jaina political theory. It would have been useful if details, such as date, place etc., of Jinasena are recounted here. Unfortunately, Jinasena did not mention his time and place. However, on the basis of evidence from other Purānas, Commentaries etc., scholars are agreed that Jinasena lived between 800-900 A. D. This date has also been accepted by Shri U.N. Ghoshal, author of 'A Short History of Indian Political Ideas. Regarding place some scholars connect our poet-Acārya with Karnataka (in Vankapur), while some others credit him with living at Vatsgrāma (modern Baroda). or with Chitrakūta (modern Chittor). However, as he was a Jaina monk, who always remains wandering except the rainy season, it is too difficult to locate his fixed place. His disciple Guņabhadra has mentioned in Uttarapurāņa that King Amoghavarşa I of Rästrakūța dynasty, who had Mānyakheța as his capital, paid his respects to Jinasena. He (Amoghavarsa I) is also reported a follower of Jainism. However, the two might have been contemporary. Besides, Adipurāņa, Jinasena also wrote Pārsvābhyudaya and Vardhamānapurāņa, now lost. He also wrote Jayadhavală commentary (later part of it) in 40,000 verses in Sanskrt and Präkst on Kaşāyapahüda and completed it in 837 A. D. Thus it would be seen that Jinasena was a literary giant. KEYNOTE The keynote of the political philosophy of Jinasena is that there is no creator of this world. The universe or its cause are really the souls that fill it and they are helped by Karmas in it or it is due to the agency of the Karmas that this world is full of mundane souls. All such terms as God, Creator, Fate or Destiny are nothing but synonyms of the architect known as Karma. Having denied the existence of any Creator, there is no place for any God-appointed king or any ruler having elements of God in him. Thus, the theory of divine origin of king is unacceptable to Jinasena. Even the first king viz., Rsabhadeva was not a God when he was chosen a king by his fellowmen though after renunciation of this world and practising penance he became a liberated soul and was regarded as the first Tirthankara (originator or propounder of religion or religious path) or the first Lord or God. Jinasena has expressly written in his Adipurāna that when Rsabhadeva devised six means of livelihood for his fellowmen, he was a person attached to this world (Sarāgi). Similarly, the fourteen Kulakaras or Patriarchs that preceded him are not to be supposed to have been invested with any divinity. At the most, the 00 2 चेतनाधिष्ठितं हीदं कर्मनिर्मातचेष्टितम् । नन्वक्ष--सुख-दुःखादि वैश्वरूपाय कल्प्यते ॥ निर्माणकर्मनिर्मात कौशलायादिनोयम् । अङ्गोपाङ्गादिवैचित्र्यमङ्गिनां संगिरावहे ॥ तदेतत्कर्म-वैचित्र्याद् भवन्नानात्मकं जगत् । विश्वकर्माणिमात्मानं साधयेत् कर्मसारथिम् ॥ विधिः स्रष्टा विधाता च दैवं कम पुराकृतम् । ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञयाः कर्म वेधसः ।। (stfagerut, x/2x-30). 2 Ibid, 16-180 Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 Karmayogi Sri Kesarimalji Surānā Abhinandana Grantha : Seventh Part 0 Kulakaras and even Rşabhadeva himself were pre-eminent and min of genius (matikusala) amongst their fellowmen. So naturally their portrayal in pen has to be somewhat on a nigher scale and it is the requirement of any epic. However, this keynote should not be lost sight of In the absence of any external agent of creation there has to be some rational explanation of the continuance of this Universe and the activities of souls, matter etc., that comprise it. The explanation put forward is not only rational and logical but also points to a definite process of evolution both social and political. COSMIC PROCESS Then, what is the mystery of this world ? According to Jainism, Reality (sat) is characterised by the three attributes of origination (utpada), decay (vyaya) and permanence (dhrauyya). Take the case of gold, it is turned into ring and then again is turned into gold. It continues permanently. It simply changes appearance or mode (paryāya). All souls (mundane) and matter (pudgala) pass through these three processes continually. This is what makes this world eternal and even endless. The element that helps these in transformation is time (Kala) besides other elements of Dharma and Adharma which are responsible for motion and rest respectively. Space (Akāśa) is there as medium of giving space to all the elements. However, we are concerned with the Jaina concept of time. Time has two varieties the Absolute (or pure-Niscaya Kala) and the Practical (Vyavahāra Kāla). Practical Kāla or time is represented by means of seconds, minutes, hours, years etc. From the point of view of development or degradation the latter is again subdivided. THE TIME-CYCLES The practical time is divided into two cycles, i. e., Utsarpiņi (evolutionary) and the Avasarpini (retrograde). In the latter man's happiness, age, strength etc., are on decrease. Avusarpini has six divisions spread over hundreds or even thousands of thousands millenniums. They are (1) sukhama-sukhamā (Bliss-Bliss) (2) sukhamā (bliss) (3) sukhamā-dukhamā (Blisssorrow) (4) dukhamā-sukhamā (sorrow-bliss) (5) dukhamā (sorrow) and (6) dukhama-sukhamā (sorrow-sorrow). In Utsarpiņi, the order is just the reverse. The Jaina account of the evolution of social and political man begins from the first Kala i. e., the period of bliss-bliss. It may be interpreted to mean pre-society period of modern terms. GOLDEN AGE Jainism postulates a period of golden age for man wherein he lived in pristine purity and idyllic happiness. In the Sukhamä-Sukhamā Kāla or the first division of time-cycle, man was extremely happy, long-lived, not subject to disease and was as handsome as gold. He was not required to labour hard. His wants were met by the wish yielding tress (the Kalpavrkşas). In modern terms, this would mean that man was in close contact with nature with its vast resources. He did not know cultivation, nor any kind of art and craft. Population was scarce so he had no difficulty in meating his wants. In the sukhamā or second Kala there was some reduction in the capacity of above trees and man did not enjoy that much age and strength. Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinasena and his Political Philosophy 29 EMERGENCE OF CIVIL SOCIETY The third Kāla is marked by increase in the difficulties of man and he was continually in greater need of guidance. Hence there ensued a line of fourteen kulakaras (founders of family or clan) or patriarchs who were not kings or rulers but only pre-eminent men amongst their fellows guiding and helping them. Their contribution mainly consists in their advice to their fellows to live in a kula (family or clan). First of them, named Pratiśruti, told them as to how sun and moon are useful to them while the second, Sanmati, explained to them the importance of stars and various signs of the zodiac. The third, Kṣemankara, asked his fellowmen to avoid ferocious animals like the lions etc., and to tame cows and the like. We can here see, perhaps, the beginning of pastoral life. The kalpavyksas were still meeting the wants of man but there were quarrels about the areas of reaping fruit. Their demarcation was done by kulakaras Simankara and Simandhara. The seventh kulakara taught his fellows riding on elephants and horses etc. During the time of 8th and 9th kulakaras, men and women did not die as soon as they had a child due means devised by them. The twelfth kulakara devised ways to cross rivers etc., by means of boats. He also devised ways to cross mountains. The thirteenth and fourteenth kulakaras gave medical guidance to their fellows by way of cutting the umbilical cord and the like. The period of fourteenth kulakara Nabhiraja was important for many significant events. In his time, there were rains and sprouting of eatable grain-plants etc. Even cotton grew. Nabhiraja pointed out to his men which plants or trees were useful and which were to be left out as poisonous etc. Jinasena records that the kulpavṛksas were still meeting the needs of man though their power had been considerably reduced i. e., man had not so far taken to agriculture. Nābhiraja even taught him pottery. During Nabhiraja's time, the period of Bhogabham or land of enjoyment was on its last legs. AGRICULTURAL SOCIETY AND SIX MEANS OF LIVELIHOOD Nabhiraja had a brilliant son named Rsabhadeva. The people being disappointed from the kalpavrksas came to Nabhiraja and requested to guide them in those circumstances as the kalpavṛksas were not copable to meet their needs. Nabhiraja in his turn, directed them to go to Rsabhadeva. When the people requested Rgabhadeva to solve their problem, he told them that Bhogabhumi was over and they now have to grapple with the realities of karmabhumi. Hence he devised six means of livelihood for them viz., (1) Asi or use of sword. Some people were to engage themselves in the work of protection. (2) Maşi or writing. A few of them were to take up the job of writing accounts etc. (3) Krşi or agriculture. He asked the people to plough the land with the help of bullocks. (4) Vanijya or commerce. A few of the people were to take up commerce. (5) Vidya or teaching the arts like music and dancing etc., and finally (6) Śilpa or handicraft. Thus began 'the age of agriculture, handiwork etc. It is perhaps on account of his devising agriculture that the identification mark of Rṣabhadeva, the first Tirthankara of the Jainas, is bullock. It is invariably found below his image. 0 Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 30 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part EMERGENCE OF THE POLITICAL STATE During the settlement of life through agriculture and professions perhaps developed conflicts. The man who enclosed a piece of land and declared that it was his, his right might have been challenged by some other fellow. Such and other conflicts also arose, which took the form of offences, even compelled men of those times to collect together and to go to Nābhiraja, so they again knocked at the door of Nābhirāja for advice. Nabhiräja advised them to seek the advice of his son, Rsabha and perhaps after mutual consultation, they requested Rsabhadeva to be their king who consented to be so and the first king was then consecrated by Indra. SONO POU Ācārya Jinasena has not thrown much light on the deliberations of the people before they elected their king. He has simply said that the people are prone to forget important events so in a poetic manner he has described in detail the Rajyabhiseka (consecration). But in some other context he has told us that without a king Matsyanyāya (the law of fish, according to which the larger fish devours up the smaller fish) would prevail in a kingless society, resulting the weak would suffer at the hands of the powerful. This must have been the logic and conclusion of all those assembled at that time to elect a king. Thus, to me, it seems, the people of those days entered into voluntary social contract to use modern terminology. They decided to give up their increasingly unhappy state of nature and to constitute themselves into a poilitical society. In other words, Jaina polity has the credit of elective kingship the details of which are available. It is factual and not presumptive as the case with Rousseau, Locke or Hobbes. Theory of Punishment The new king decided to continue the three forms of punishment which the previous kulakaras had prescribed. First five of them had prescribed Ha' (Alas you have done it !) as punishment. Whenever anybody committed an offence, he was confronted with Ha' from his fellows. The next five patriarchs laid down 'Ma' (do not) as one of the ways of punishment. The offender was told not to (do) commit the offence again. The last four kulakaras made 'Dhik' (shame on you !) as the mode of punishment. Whenever anybody committed an offence, he was cried shame. During the regime of the next king, Bharata, son of Rşabhadeva, offences grew in number and Bharata was required to devise other severe modes of punishment. These were throwing into prison (bandhana) and death-sentence (vadha). Thus in Jinasena's account of Jaina political theory we also notice a systematic evolution of the modes of punishment according to intensity and frequency of offences of crimes. Creation of Social Classes The idea of division of society in four classes is not savoury to Jainism. But for reasons best known to Jinasena, perhaps for placating the Brāhmaṇa influence of his time or due to some interpolation in his work, we find in Adipurāna that the first king Rsabhadeva, who later on became the first Tirthankara also was responsible for the creation of three social classes viz., the Kşatriya (or the warrior class) entrusted with the duty of protecting the weaker people, the Vaisya (or the trading class) to engage in trade and commerce and finally the Sudra to serve the first and the second 3 O ey VAS Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ When Bharata after conquering the six divisions of Bharatakşetra became the world-ruler and had amassed considerable fortune, he thought of making gifts. By an indigenous test prescribed by himself, he selected some people to be Brahmanas and prescribed their duties as taking of gifts, worship, learning etc. This act of Bharata had the approval of Rṣabhadeva who had become omniscient at that time but the approval was given with some apprehensions. One noticeable feature of the creation of these four classes is that the Brahmaņas were the last to be created. The first social class to be created was that of the Ksatriyas. Principles of Taxation Any political state to be effective has to rely on an efficient system of taxation. The first king laid down a very kind principle of taxation. He thought that taxes should be levied and collected from the people in a manner a cowherd gets milk from the cow. For, while doing so, he does not do any harm to the cow. Similarly, the people should not feel the pinch of tax levied by the king. As a cowherd tends his cattle by way of feeding, healing their wound and protecting the same in various ways, so should the king care for his subject. He should behave towards them with full responsibillity and sense of service in lieu of the taxes at least otherwise also he has to be a perfect ruler. Jinasena and his Political Philosophy 31 Organisation of the State After assuming kingship, Rṣabhadeva, the first king, made Ayodhya (not to be fought against as the king and the people were so righteous) his capital for the construction of which Indra was responsible. Then, the king set up villages, towns (pura), ports (pattana) and even forts. He fixed their boundaries as well demarcated the various regions like Kalinga, Avanti, Kerala, etc. He put his whole kingdom under four Maha Mandalikas (like four governors) who were to control thousands of other vassals. Thus we find a beginning towards setting up of civil and military administration under the first king. World-ruler Jinasena has also very elaborately described the world-conquest (digvijaya) of Bharata who later became the world-ruler (cakravartin). The conquest of Bharata of all the territory from Himavāna mountain to the sea in the east and from the southern sea to the western sea has been highly eulogized by Jinasena. But Jinasena is not alone in this praise on Bharata. Numerous non-Jaina purāṇas acknowledge in unmistakable terms that this country (India) is named Bharata after this illustrious son of RṚsabhadeva, Bharata. But did Jinasena provide any justification for world-conquest of Bharata? The answer is in the affirmative. The cakravartin could do so on account of his meritorious actions (punya). Acarya Jinasena has clearly said, that it is punya that makes one cakravartin and it is punya that makes one Tirthankara.1 Duties of a King In the last canto that Jinasena wrote before his death, five duties of a king are enumerated by Bharata to the kings assembled around him. These duties are-(1) Kulānupālana (preservation १ पुग्पाच्चक्रधरश्रियं विजयिनोमैन्द्री च दिव्ययं । पुण्यात्तीर्थकरश्रियं च परमां नैःश्रेयसीञ्चाश्नुते || पुण्यादित्यसुभच्छ्रियां चतसृणामाविर्भवेद् भाजनं । तस्मात्पुण्यमुपार्जयन्तु सुधियः पुण्वाज्जिनेन्द्रागमात् ॥ + ( आदिपुराण ३० / १२९ ) Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 Karmayogi Sri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part of the race.' (2) Matyanupālana (preservation of understanding), (3) Atmānupalana (protection or preservation of self), (4) Prajānupālan, (protection of the subjects) and (5) Sāmañjasatya (propriety). Kulānupàlana is preservation of the purity of the race by the king by being careful in accepting offering (remains of these) and garlands etc., from people including Sadhus of other faiths lest they be poisoned etc. They can accept such things from a Muni because Rājarşi and Parmarsi are cognate. They are so because the first lord created the kşatriya class, his own class, first for the protection of people with conviction that in karmabhūmi people will need protection and so there should be others to protect them. Matyanupālana means the knowledge of what is good for the king in this and the other world. This can be achieved by destroying avidyā which is nothing but false knowledge (mithya-Jñāna). Presevation of the self (ātmānupalana) can be achieved by resort to dharma as it protects one from all sorts of troubles. Rajya is an evil because even the son and real brothers are constantly conspiring against the king. It constantly breeds evils and there is hardly an iota of happiness. The king should at least in his last days take recourse to dharma and meditate on the true nature of his soul etc., lest he dies of poison, arms etc. The fundamental duty of a king is prajānupālana or protection of the people. This he should do in the manner of a cowherd. He should resort to anurūpadanda or mild punishment lest even the ministers turn against him. Propriety (sāmañjasatva) on the part of a king is protection of the good (sista) and control (nigraha) of the wicked. In doing so, he should not spare even the prince. The Ideal King Bharata was the embodiment of all virtues. He was Rājarşi according to Jinasena. He was a pious man and was emulated by his subjects. It this way, we get the detailed and exhaustive description of Jaina polity in Jinasena's Adipurāna. It discusses the political development from pre-historic times to the fully developed states and kingdom. He describes the cosmic process of evolution and denies the creator of universe as a special power i. e., God etc. So he also discards the notion of God-gifted kings. It is the special feature of Jinasena's political philosophy, which is according to Jaina tradition, found nowhere except the conviction of modern science. So it can be said that Jinasena's political philosophy is most scientific. 1 I am inclined to translate kula here as 'race'.-(The author) २ (क) इत्यादिराजं तत्सम्राट् अहो राजर्षिनामकम् । ___ तत्सार्वभौममित्यस्य दिशासूच्छलितं यशः ।। (ख) धर्मशीले महीपाले यान्ति तच्छीलतां प्रजाः। अताच्छील्यमतच्छीले यथाराजा तथाप्रजाः ॥ (alfagarut x8/842) (antagarot xt/cs) Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAINA PATH OF EDUCATION Dr. B. K. KHADABADI Reader in Prākst, Karnatak Arts College, DHARWAD Education aims at equipping man with the art of living-living a successful life. In ancient and medieval India education and religion were closely related, or rather, religion also played the role of educating its followers. Jainism has been no exception to this fact. Therefore, Jainism can be said to have had its own influence on the educational system and values of India, more particularly of the ancient and medieval period. A characteristic feature of the Hindu system of education in ancient days was its Gurukula system. The teacher's house itself was the school, the higher educational institute and the hostel-all in one. The four Vedas, the six Angas, the eighteen Dharmaśāstras, logic grammar, lexicograpy, economics-sociology-law (cāņak ya), medicine, astrology etc., all these subjects were taught in the course of seven or eight years. Later with the retention of the Gurukula system places of pilgrimage also developed as centres of education. Gradually in places like Taksasila educational centres of University level and model came up. Some Agrāhāras turned up to be small centres of education. Some pontiffs of the Hindu mathas took considerable interest in and helped the cause of education. Such work, in varied ways and by many pontiffs, is going on even to this day. As we enter and peep into the early Buddhist sphere of education, we are struck with a peculiarity that imparting of education took place mostly in the monasteries and they were meant for the newly initiated monks. But later on, outsiders too began to be admitted into these monasteries and non-Buddhist subjects too came to be introduced for them. As a result of such gesture, in due course of time, there appeared Universities of international fame like Nalanda, Valabhi and Vikramasila. Soon these Universities earned a name as educational centres of high order amongst the seekers of knowledge even from foreign countries, particularly from those in Middle and East Asia. But later, all these unfortunately fell prey to the reckless plunder and arson of the Muslim invaders. Then, with the later Buddhism, its hold on education in India too disappeared. But the present excavated part of the great Nalandā University very well speaks to the visitor today of its old grand scale of planning and facilities provided therein. Now coming to the sphere of education falling within the compass of early Jainism, what we find conspicuously is that no Jaina University like that in Takşašila or Nalanda, nor . - Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O 34 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha: Seventh Part other centres of education of those models, came into existence. The reason for this is not far to seek. The great vow of Aparigraha (non-possession) appears to have been at the root of this phenomenon. According to this vow, the Jaina monk cannot own or possess any property of any kind; and because of this strict injunction, there did not at all exist Jaina monasteries in those days. Even keeping books with oneself was considered as breach of the vow of Aparigraha. This led also to the loss of considerable part of the scriptural knowledge on the part of the early Jaina monks. ................ The Jaina Acaryas, in the early period, kept on always wandering and camping as per the dictum 'one night at the village, five nights in the town (or city) and ten nights in the wood' : "ग्रामेऽकरात्र' नगरे पंचरात्र अटव्यां दशरात्रं " and they spent most of their time in observing their vows and practising penances. It was at the time of delivering sermons to their laity that they used to educate them. Each Acarya had his own interesting and effective method in this regard. Moreover, as the Jaina Acarya wandered about according to the dictum cited above, he kept on imparting religious education to his monk-pupil, who, with previous permission, had accepted him as his teacher. Such instruction was given punctually and systematically in the manner of the mother-bird tenderly and punctually feeding its young ones: "जहा से दिया पोव एवं ते सिस्सा दिया व रात्रो व अणुपुब्वेण वाइय।" (Ayära, I-6-3, Calcutta, ed. 1967) Such monk-pupil after initiation, used to be with his teacher for 12 years and during this period he could amass almost the entire scriptural knowledge. Then, the young monk, with his teacher's permission, used to go on wandering independently and according to the rules of the Sangha. Scholars opine that such system was in vogue from 500 B. C. to 100 A. D. Then, during the first half of the 1st century A. D., there began to appear here and there caityas or basadis introduced and maintained by lay community; and according to Dr. J. P. Jain, from the 3rd century A. D., the Jaina monks began to stay in such caityas and during the period between the 5th and 6th centuries A. D., there distinctly appeared two categories viz., Vanavāsī and Caityavāsī among them. Later on, gradually, the Caityavāsi monks began to teach the children of the laity also in addition to their own monk-pupils who lived along with them. That new course of instruction could have been exposition of the Anuvratas, Šikṣāvratas and Gunavratas, bad effects of Saptavyasana, exemplification of Punya and Papa, elucidation of the path leading to liberation etc. The Caityavāsī monks, as years passed on, may have also commenced to impart general education of the primary stage to the children of the round-about laity. Later, some members of the lay community also may have started Primary Schools or Pathasalas. It is reasonably presumed that such primary education commenced with a salutary sentence like 'ॐ णमो सिद्धाणं' the corrupt form of which viz., 'ओनामासीधं' it is said, was available till the 20th century A. D., in numerous schools of Northen India. We have already noted that during the period between the 5th and 6th centuries A. D., there appeared among the Jaina Acaryas two categories viz., Vanavāsī and Caityavāsī. Almost during this very period, there set in the Bhattaraka tradition among the Digambaras. These Bhaṭṭārakas converted many Jaina Mathas (monasteries) into mini centres of religious education. It is possible that subjects like lexicography, grammar, mathematics. astrology etc., were also Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jaina Path of Education 35 studied in such centres because numerous manuscripts of works on these subjects, besides those on religion, philosophy etc., are found even to this day systematically preserved in these mathas. It is also interesting to note that the Bhattāraka tradition is still alive in places like Jaipur, Jaisalmer, Kāranjā, Moodbidri, Kolhapur etc. An important outcome of the educational work conducted and carried over by the Caityavāsī monks and the Bhattārakas etc., is that there appeared, in due course of time and under their care, manuscript libraries of varied sizes and contents. Some of them latter developed into eminent libraries called śāstrabhandāras. Important works of secular nature, too, were preserved in them. Some scholars hold that the idea of Public Library is a Jaina one, and that the earliest Granthabhandāra (Šāstrabhandāra) is found in Rājasthan. This tradition of Jaina Manuscript Library has come down all along to this day. Such Libraries at Jaisalmer, Pāšan, Ārräh, Moodbidri, Kolhāpur etc., have earned the value of a national asset and attract scholars from abroad too. From this brief survey of the educational aspect of early and medieval Jainism, we gather the following points : The Jaina teachers impart religious education to their monk-pupils regularly and directly, and to the laity through sermons. Later, the Cairyas or basadis also served as schools of general type of primary education, in addition to religious education, for the children of the laity of the surrounding areas. Pāthaśālās were also run by some members of the lay community. The Bhattāraka tradition developed in their mathas mini centres of education, religious as well as partly general. Later, gradually, there appeared manuscript libraries in some of the basadis and mathas. The general type of cducation, however, did not make much progress so as to enter into its higher order. “The reason for such state of affairs." as Dr. Altekar observes, "is that the Jaina community, mostly belonging to the merchant class, did not think much about higher education for their children. They mostly trained their children in their own family business and later accommodated them therein alone. This tendency can be seen among some Jaina merchants even to this day." Though the Jaina teachers did not build outstanding educational centres like Takşašila and Nalandā, the work done by them in field of social education or mass-education is unique. Well-equipped with the vast scriptural and general knowledge, bearing pure thinking and conduct, always wandering about as a model for other young monks and the pious laity, every Jaina teacher was almost a moving mini university. His sermon was a powerful means of mass-education; the religious story (dharma-katha) in the sermon was an effective medium of such education; and narration of such story in an interesting and entertaining manner was a wholesome method followed by him Thus, through various stories, the constituent (individual and social). virtues of the Srāvakadharma and other ethical principles were imprinted on the minds of the masses. In order to keep away the common people from the seven vices (Saptavyasana), many Jaina teachers have told numerous interesting stories, which we can read even today in the rich Jaina narrative literature in different languages and of different periods. Thus, religious or ethical instruction in an entertaining manner is the secret of successful social education or masseducation achieved by the Jaina Ācāryas. During the reigns of some of the Kadamba, Ganga, Chālukya and Rāştrakūţa rulers, the Jaina teachers have successfully carried out such mass-education in Karnataka. This is also true of Rajasthan and Gujarat under their favourable rulers. The cumulative effect of such education in these provinces could be seen in the fact that the virtues of regard for Ahiṁsā etc., in general and vegetarianism in particular were nurtured by Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 Karmayogi Sri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part .. . . . most of the people of those and later days-including the present days to some extent-in these regions. Moreover, some scholars think that the percolation of the principle of Ahirnsä to the very root of Gandhiji's mind is the later fruit of such age-long education by Jainism. Another interesting factor in the educational values of Jainism is that in the day-to-day practice itself of the Śrävakadharma by the members of the lay community is found the carrying out of some important education principles. Dāna (gift), sila (protection of minor vows). upavāsa (observance of fast) and pūjā (worship) are the four constituents of the layman's way of pious life; and they play a very important role in his total life. The gift of Śästra (books) or Jñana (knowledge) is one of the four facets of Däna (gift), the first constituent of the Śrävakadharma. Šāstradāna means to provide the right person with the right book (or books, the vehicles of knowledge) at the right time. The educational importance of this aspect of gift can be illustrated from a gesture of an eminent historical personage of medieval Karnataka when printing was unknown. With a beneficial motive of augmenting interest in (religious) iiteratures, in 973 A. D., the great pious lady Attimabbe, wife of general Nägadeva (under the Western Cälukyas), got prepared 1000 copies of Ponna's Santipuräna and distributed them to the deserving ones. The worth and strength of this Śästradana is seen even today among numerous well-to-do members of the Jaina community extending a helping hand towards publication of worthy books, encouragement to scholars in their pursuits, liberal donations to educational institutions etc. A number of educational trusts have come up out of this motive in different parts of the country. Moreover, of the six duties to be carried out daily by the Srävaka, viz., Paja (worship prayer etc.,) Vārtā (the exercise of honest livelihood), Dana (alm-giving) Svadhyäya (self-study or the study of scriptural and other religious works), Samyama (practising self-restraint and observing vows) and Tapa (penance like Pratikramana etc.,). Svädhyâya represents an important educational tenet in the sense that it makes the layman or laywoman indulge in an ideal type of selfstudy daily. This can be explained just by merely enumerating the constituent parts of act of Svādhyāya ; Vacanã (reading), Pragna or Pracchna (questioning), Parivartanā (repetition, revision), Anuprekşă (meditating and reflecting) and Dharmakathā (listening to or relating religious story). Hence, there would be no exaggeration if it is remarked that the way of life prescribed by Jainism for the pious layman and laywoman, represents a perennial stress on self-education on the part of each member in the community. Now we must take into account a very important contribution of the Jaina Ācāryas to the cause of education in general. Though the Jaina teachers did not build great educational institutions, they have compɔsed and left for posterity a great number of treatises on many different subjects which have been serving as valuable means of higher education for the last several centuries. Their contribution to the disciplines of metaphysics, ethics, logic, philosophy, poetry, grammar, lexicography is considered as excellent and, at times, unparallelled. The works of Umāsvāti, Kundakunda, Siddhasena, Haribhadra, Jinasena, Udy otana, Somadeva, Hemacandra etc. are accepted as valuable gems in the syllabi of several modern Universities in India and abroad. Moreover the Jaina Syādvāda (Doctrine of seven-fold Predication) has been estimated to be a rare asset of Indian thinking. Similarly, it is the Jaina teachers and monks who, with devoted efforts cultivated and gave literary status to the south Indian languages like Kannada, Tamil and Telugu. This historical phenomenon also contains an important educational principle viz. effective instruction through the medium of mother tongue, which was practised first by Bhagavāna Mahavira himself. Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Lastly coming to the modern days, the Jaina community as a whole has been adjusting to the needs of the time. Its members have been paying sufficient attention to the educational needs of their children from their very early age and educating them in various branches of learning both in India and abroad. Wealthy and pious members, as usual, have extended their helping hand towards building numerous educational institutions which are open for all. Individuals as well as members with collective gesture have come forward to set chairs in Universities for Jaina studies in different parts of the country. Jaina Path of Education The Jaina Acaryas, too, have made no slight contribution to the cause of education. Besides their usual routine of imparting religious and ethical education through their sermons to the masses wherever they stay or move, they are also playing the role of the main spirit in building notable educational centres, where education in varied branches is to be imparted in accordance with the Jaina ideals. For example, Kothali (Karnataka), Kumboj (Maharastra) etc., represnt primary and secondary stage of such education. The Jaina Viśva Bharati at Lādnū (Rajasthan) has already developed into a virtual University with these ideals, where fresh interpretation of doctrines like Anekantavāda and new experiments in scriptural teachings are going on. Another centre of these ideals and high stature viz., Adarga Mahavira Vidyapitha, is said to come up soon somewhere near Ahmedabad. At Virayatana (Bihar) is coming up fast a unique institute with such ideals and novel experiments in the teachings of the Jaina. This brief survey of the Jaina path of education from the early period to the modern days discloses some important educational principles and values which also indicate the contribution of Jainism to the field of education in India in general. They can be enumerated as follows: (i) Careful preservation of ancient works. (ii) Effective education through the mother-tongue. (iii) Mass education through sermons delivered in an interesting manner. (iv) Self-education as a part of the daily routine of an individual. (v) Anekantavada for social health. SELECT BIBLIOGRAPHY 1. Education in Ancient India, A. S. Altekar, Varanasi, 1953 2. Jaina Sources of the History of India, J. P. Jain, Delhi, 1964 3. Jaina Yoga, R. Williams, London, 1963 4. Bharatiya Samskṛti mem Jainadharma kā Yogadana, H. L. Jain, Bhopal, 1962. 5. Medieval Jainism, B. A. Saletore, Bombay, 1938 6. Jainism and Karnataka Culture, S. R. Sharma, Dharwad, 1940 7. Jainism in Rajasthan, K. C. Jain, Sholapur, 1963 8. Ayärangasutta, Culcutta, 167 9. Ratnakarandaka-Srävakācāra, Bijnore, 1931. 37 10. Vadḍārādhane, Ed, D. L. Narasimhacar, Mysore, 1935. 11. Vaddärädhane: a study, B. K. Khadabadi, Dharwad, 1979. 12. Jaina Viśva Bharati Samācāra Darśana, Muni Śri Rajendraji, Lädnü, 1980. Port Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A short sketch of Early Education, Art and Iconography under Jainism S. MOOKERJEE Librarian Jain Vißva Bhārtī, LADNU In Ancient India printed books were unknown. The libraries or storehouses of knowledge in those hoary days contained handwritten books or manuscripts generally. The ancient Indian libraries may be compared with the old monastic libraries of Europe attached to the Church establishments and monasteries; printed books were not yet in vogue anywhere. Gradually with the invention of printing the idea of storing such knowledge in books in monasteries and temples, churches and mosques revolutionised, and individuals, specially the rich and noble families began to own collections of books. This is true for all countries-both Eastern and Western. Indian culture as a rule was handed down through generation from father to son or from the preceptor to his pupils. The basic fundamentals of Indian learning of the bygone days was "Sruti-Smrtih". Writing was not very common. Everything was got by heart and could be recapitulated verbatim without any effort from memory. It is memory alone which played the leading role. The Vedas, the Upanişads, the Purānas, the Šāstras and everything pertaining to art, culture and learning was contained in the Kantha' (throat) i. e., the entire realm of knowledge and learning was got by heart and stored in the memory of the preceptors and their pupils. It is known to all how practice can make one perfect and this cultivation of memory was an unique technique in making the people who cared for learning their culture - very perfect human beingsmaster of all lore. It was said that Avrtti sarva-sāstrāņāṁ vodhad api gariyasi'. The ancient civilisations of Babylon, Rome, Greece, Egypt, India, China and Japan may be said to be sisters of the same group-though most of these cultures have been lost and belong to the province of archaeology. It is India alone and China and Japan in some respects that have a living link with the ancient culture of the bygone days. veone days. Indeed the teacher of those days was a veritable encyclopaedia of knowledge and was the ultimate autority or the matter of commenting on the Šāstras. In our ancient literature there are copious references to teachers who were known as 'Kulapatis'-if they could arrange for the Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A short sketch of Early Education, Art and Iconography under Jainism 39 teaching and maintenance or boarding and lodging of 10,000 students. These Aśrama Universities may be compared to the residential universities of our days. It goes without saying that these huge establishments or institutions were equipped with regular libraries, not of printed materials but of manuscripts of different varieties and on different subjects for the use of students and teachers. Such libraries or storehouses of knowledge were undoubtedly properly looked after and were preserved in the best possible manner. These were the storehouses of culture and learning, for in those days the teachers and taughts had to depend on these invaluable records in case of any difference of opinion amongst themselves. Teachers who could recite the entire Sütras of manuscripts without any offort were in fact "walking libraries and were known as Śrutadharas. In those ancient days the temples and moasteries played a great part in the life of the people of our country. The social, cultural and educational life in India centered round such centres and ancient temples. Religious discourses, philosophical discussions and pravacanas all centered round such congregations. The auditorium or Nata-mandapam or natamandirar attached to the ancient temples testify to this system. These and similar institutions were the vehicles of culture and education for the community which influenced and moulded the character of the common man first and foremost. Many of our ancient seats of learning or Universities had excellent collections of handproduced books i. e., the manuscript library, where renowned foreign scholars came to acquire the light of the East. Indeed, the indigenous Indian culture, philosophy and religion had in those days occupied place of pride throughout the world and the neighbouring countries were all under the cultural spell of the splendour and civilisation that was Bharavtarsa or llāvantavarşa. Scholars and travellers from far and near came to these seats of culture and learning (the universities of those days) and sat at the feet of the teachers who enjoyed international fame. They also copied the various śāstras embodying philosophical, religious and allied discourses both Brhmanical, Jaina and Buddhist and carried home treasures of ancient lore from this country. The long stay of these foreign scholars and visitors or travellers gave them an insight into the characters of the people with whom they lived and moved. It is from the writings of these foreigners that we are able to glean a clear-cut picture of those institutions now lost into oblivion. The Rkveda, the earliest literature of the East, has references to Sanghas or assemblies of learned men meeting for fateful and formative discussions which hammered into shape both the language and philosophy of the Vedas. The Upanisads also make mention of regular learned conferences, meetings at courts of kings by royal invitations and companies of charaks' and wandering scholars touring the country in quest of higher knowledge flocked to such centres to participate. There were also stabilized institutions--the academies like "Pañcala Parisad" which produced some of India's higher philosophies, later came Jainism and Buddhism with their emphasis upon the system of organised brotherhoods accommodated in the rock-cut halls Vihäras or monasteries. The Brahmanical system also followed suit with similar institutions like Mathas and regular colleges as we know them. Instances of college endowed by charities in the temples are very common in the south and there are copious references to these inscriptions. There were also endowments for higher learning and research which sought to entire learned settlements or cultural colonies made up of households of pious and scholarly Brahmins and saints in select areas. There are epigraphical records in support of such foundations in the Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 0 40 Karmayogi Śri Kesarimalji Surānā Abhinandana Grantha: Seventh Part South and West. Many such records also refer to establishment and maintenance of librari s called "Sarasvati Bhandaras". In Gujarat also there are similar stores of Jaina literature and philosophy in the Bhandaras of Jaina temples. The Epigraphic Carnatica has references to wider cultural institutions known as Agrāhāras, Ghatikās and Brahmapuris. In the Buddhist system of education, learning centered round monasteries. The unit of their educational system was the group of young Bhiksus or Monks living under the guardianship of a common teacher, Acarya or Upācārya. Similar was the case with Jainas. The Buddhist and Jaina culture more or less were the products of confederations of such schools in larger monastic institutions comprising numerous teachers and pupils partaking of a wider collective academic life for their own advantage as an educational and educative agency like the residential Universities of the modern days (Cf, J. V. B. Set up). The Vihāras at Nālandā, Vikramasilā, Odantapuri and similar others were the de facto Universities of those days. Jainism observes a code of morality and advocates a life of detachment with a view to escaping the birth cycle. Generally there are two sects: the Swetambaras or the White-clads and the Digambaras or the naked ones in Jaina tradition. Jainism does not accept the authority of the Vedas and the Caturvarna Caste system. The Jaina pantheon is not so numerous as the Hindu pantheon. The 24 Tirthankaras who constitute the caturviṁsati occupy the central position in the Jaina hierarchy. The Tirthankaras represent the higher ideal of asceticism of self-denial. In scriptural representation they are, shown like ascetics, draped or undraped in two yogic poses viz., Paryankāsana and Kayotsarga. Though very similar to Buddha images, Jaina sculptures have quite important differences, such as a śrīvatsa symbol on the chest, a triple umbrella above the head and a lanchana or a symbol on the parasol. The origin of a number of symbols and specially the original conception behind them is often shrouded in mystery. The real age of the original conception behind the Swastika or the Nandyävarta or the pair of fish (mina yugala) etc., is often unknown to many. Even then the shape of the original Nandyavarta symbol is not certain. Again in course of time, the shapes or forms of the symbol like Śrīvatsa on the chest of Jaina figure have also changed. Borrowings or adoptions and assimilations of symbols of rival sects and foreigners as well as of symbols from the old common-stock of ancient India result in finer differences of conceptions behind the symbolisms. Still, however, literary evidence of all such sects and peoples explaining symbolism have to be looked into before we may properly assess the meaning of any symbol of any sect of India. We may discuss here some such symbols as manifested in Jain Iconography. The Honey Suckle symbol often found on the top of the gateway of shrines in the tablet of homage donated by 'Sivayasas' is yet to be identified from Jaina sources. The Ayagapata of Sihanadika shows aṣṭamangalas. But all the constituents of the complete symbol are not known from Jaina sources. A passage in the Rayapaseṇīya Sutta speaks of 'Tilak-ratna' symbol. Many think it to be the Triratna. The basic philosophy underlying Jaina religious practice leaves no scope for any worship of a creator God. Since according to Jaina philosophy no God has created this world. Still however, the human mind, in this world full of miseries, frustrations and what not, craves for something to fall back upon some passionless Arhar' or the 'Siddha' in a formless final state of beautitude cannot directly help and do anything for and on behalf of a worshipper. He neither Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A short sketch of early Education, Art and Iconography under Jainism 41 favours nor frowns upon. The Tirthankara who is also an Arhar' and 'Kevalin', is vītaräga. All his Karma-bondage is over. He cannot do any more Karma. Still the Jainas worship him and have throughout the course of about 2500 years, installed innumerable images and erected, at fabulous costs, excellent shrines in honour of the Tirthankaras. Undoubtedly, they have enriched Indian Art and patronised Indian craftsmen and artists to an extent which is so great and varied that scholars have not yet been able to assess properly the Jaina contribution to Indian Art, Iconography, Painting and Sculpture. Scholars agree that by the time of Samprati, Asoka's grandson, the Jaina image, as an occult object and not as a protrait had already been introduced in Jaina worship. The highly polished torso and part of legs of a nude male figure in Käyotsarga posture obtained from Lohänipur near Pataliputra conclusively proves this. This has been identified as torsoes of Tirthankara sculptures in Kāyotsarga posture and that the accompanying structures to which the torsoes were attached is the earliest available plan of a Jaina shrine. We may mention here about 34 atisayas or supernatural qualities of every Tirthankara (Jina). These include same which are separately described as aşta-mahā-prātihāryas i. e., eight chief accompanying attendants, including the Asoka-tree, the devadundubhi, the heavens scattering flowers (symbolized in art by flying garland-bearers), the triple-umbrella, the fly-wisks, the (lion) seat, the divya-dhvani and the bhā-mandala (radiating lustre) behind the head. The earliest known text describing the atisayas of a Jina is the Samavāyānga Sūtra (Sūtra 34). There are a few variations in the Digamhara and Swetāmbara lists, which are of minor importance. What specially noteworthy is the fact that the group of eight Prātihāryas so familiar in the evolved iconography of Tirthankara images of both the sects is not separated in the Samaväyänga list. The Samavāyanga does not group the 34 atibayas under different heads as in other later texts and the asta-mahā-prātihāryas are neither separated into one group nor are they called mahā-prātihāryas, the emphasis on eight atisayas as, Mahā-prātihāryas came with the emergence of the full-fledged parikara of Tirthankara images of both the sects. Those atifayas which came to be utilised in representations were grouped together as Maha-prätihāryas. But this evolution was gradual as is evident from the sculptures obtained from Mathurā, Vārāṇasi, Rājgiri etc. Sculptures of the Kuşāņa and earlyGupta periods do not show all the eight Mahā-prātihāryas. Kundakundācārya clearly states that it is the bhāva worship (mental attitude of devotion) and not dr.zvya worship (physical or image worship) that really matters, and hence idol-worship is not absolutely necessary for attainment of emancipation. The Jaina Navakāra mantra or the Namaskāra Mantra, the highest and the most revered invocation and incantation is constituted of formulas making obeisance to Arhats (or Arihitas), Siddhas, A cāryas, Upadhyāyas, and Sadhuswho are the five dignitaries. In a lotus symbol, four dignitaries would be conceived or represented with the Arhat or Tirthankara in the centre. Though no such very early representation of these five in one group is discovered, it seems that from fairly early times these five came to be presented in a group as the supreme objects of Jaina worship. At much later stage, four more objects were introduced in the lotus petals of the four corners, intervening petals of the eastern, southern, western and northern directions. These are, according to the Swetāmbara Jaina Sect, the conceptions of Jñana (Right-knowledge), Darsana (Right faith), Caritra (Right conduct) and Tapah (Right-penance).. Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part According to the Digambara Jaina Sect, the Cāitya (the Jina-image), Caityālaya (the shrine enshrined the Jina-image), the śruta (Jaina scripture) and the Dharma Cakra or the wheel of Law. These were represented as a diagram on stone or metal or painted on canvas or paper. The Svetambara diagram is called the Siddha-cakra while the Digambara one is called NavaDevatā. In paintings of this diagram, according to the Svetāmbara tradition each of these five Parameşthins have particular complexion. Thus the Arhat, the Siddha, the Acārya, the Upadhyāva and the Sadhu are respectively white, red, yellow, blue and black in complexion. REFERENCES R. S. Gupta : Iconography of the Hindu, Buddhists and Jainas. U.S. Shah & M. A. Dhaky: Aspects of Jaina Art and Architecture. U. P. Shah : Studies in Jaina Art. Moti Chandra : Jain Miniature Paintings from Western India. It is possible for an ambitious man to bear the iron darts when there is hope for a future gain, but he who without any hope of gain beareth piercing and prickly words is really venerable. + + For strokes of foul speech reaching the ears produce a feeling of enmity in the mind, but he who hath his senses restrained can tolerate out of piety and is therefore venerable. -Bhagawāna Mahavira O Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JEWELLERY IN JAIN LITERATURE OF RAJASTHAN (Mrs.) KUSUM MEHTA Writer & Journalist Mehta Mansion, Station Road, JAIPUR-302006 (Raj.) The origins of Indian Jewellery like those of others are shrouded in the mists of antiquity. he earliest references of Indian jewellery are contained in Hindu sacred scriptures, the Rgveda (circa 2000-1500 B. C.) and in the Indian epics, the Rāmāyaṇa and Mahābhārata (circa 1000500 B. C.) One of the oldest examples of ancient Indian jewellery is a small relic casket containing gold ornaments found in a Buddhist shrine in the Kābul valley near Jalälābād. From the archaeological excavations of Rairh, Nalisar, Ahar, Madhymika, Kalibanga and Rangmahal in Rajasthan, it is known that women wore different kinds of ornaments such as bangles, bracelets, anklets, necklaces, ear-pendants, beads and girdles. Haribhadra Sūri who lived in the seventh or eighth century A. D. supplies the names of various types of ornaments which were popular among the people in towns and cities in the Samarāditya Kathā. Their names are bāhūsarikā, an ornament for the the bāhumalā or arm-pits, a pearl dusurullaka for the neck, a plavangabandha for the breasts, a retanachakralata for the ears, and a chūdāratnā for the forehead and jewelled ring for the fingers. The Hamira-Mahākāvya describes Hamīrā's queens as decked with Kundalas in their ears, Kasturitilakas on their foreheads, hanging pearl in their noses, pearl necklaces on their breasts, nūpuras for their ankles, champaka buds for their dhumillas, rings for the fingers of both the hands, alaktaka for the feet and blue duküla on their hips. They are referred to not merely in the Rajasthani Jain and other literature of the period but also depicted in sculptures of Kirādū, Abū and Pallű. An early description of Rajasthani ornaments comes from Paümsri Cariü. At the time of Paümasri's marriage, women put on their wrist the holy kankana along with divine herbs and white mustard. They put jewelled nūpura (on her feet), kundalas (in her ears), mukuța (on her forehead), necklaces (round her neck) and a tinkling girdle (round her waist). Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 44 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part From the Kuvalaymālā we have the names of Manirasana, Markatamasikani-Kauthika, and ornaments of pearl and gold. Poor village wives bedecked themselves with sankha bangles and ornaments set not with jewels but with shining glass pieces. A good idea of the ornaments of Rajasthan can be had from the Pallu Saraswatis of which one is in the National Museum, Delhi and the other in Bikaner Museum. Their round Kundalas, with four pearl strings hanging from the top-end neck ornaments now known in Rajasthan as Hansali and Jhulara four stringed necklace which hangs almost up to the navel, a purasūtra (a cord or chain worn round the chest) or perhaps stana-sutra (a chain worn round the breasts). Keyūra and Bahubandha Akankana and Valaya, angullayakas, mekhala and nūpura are among the ornaments that can be cognised easily. Nor were men behind women in the use of ornaments. At one place the Upamitibhayaprapancakathā mentions mukuța, angada kundala and pralamba without specifying who wore them. Elsewhere in the same book we find the description of a youngman with a pearl ornament called mukta kalpa on his chest, and amulets (keyūra and kațaka) on his upper arm. Chahamana, according to the Prithviraja Vijaya had a kirița set with gems, a pearl necklace, kundalas with pearls and pair of Keyūras. That such an abundant use of ornaments by both sexes was nothing unusual can bo soon also from the accounts of Alberuni and Abuzaid. According to Jaina scriptures the Aharians ornaments consisted largely of terracotta beads. Only a few of them could have had semi-precious stones such as zmicrocline,,carnelian, shell and faience. Jinaratna Sūri mentions names of several ornaments in his treatise on Udaipur Varnana; a few of them are suwarni (a necklace of gold beads), urvasi (necklace), mānik yamala (a necklace of red beads or ruby stones), sovanpan (an ornament of betel-leaf shape worn on the back of plan and Jhanjhar (an anklet with tinkling sound). The popular ornaments of ancient and medieval Rajasthan are :Head : Malaya, Garbhak, Lalamak, Hansa-tilak, Dandak, Chura-Mandar, Churikā and Mukuta Ears : Mukta-Kanaka, Dwirājika, Trirājika, Kundala, Bajra-garbha, Karnapur, Karnika, Karendu and Srinkhala Neck : Pralambika, Uralsutrikā, Ekävali and Devachchchanda Arms Keyūra, Panchaka and Kataka Rings : Dwi-Hiraka, Nav-ratna; Sukti and Mudrikā Girdles : Kānchi, Mekhalā, Rasava, Kalan and Kanchidam + Feet : Padachara, Pada Rantaka, Pada-padma, Kiškini, Mudrika and Nupura Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10+ SCOUTING IN EDUCATIONAL PERSPECTIVE J. S. MEHTA State Chief Commissioner, Bharat Scouts & Guide, Rajasthan and International Commissioner, India O The Scout/Guide movement is an international movement and despite the political, social and cultural heterogeneity of nations, its devotees, irrespective of national differences, are bound by a homogeneity of purpose all over the world. Besides, its international character, the movement has steadfastly adhered to its cherished principles and practices which the passage of time have not been able to erode. An organisation which expands both in space and time is likely to evolve a stable code of norms of conduct to which its members are obligatorily required to conform. The new entrants in the organisation try to cling tenaciously to its accepted mores and modes of behaviour lest they should be dubbed as infidels. The older ones who run the organisation by sheer force of repetitive behaviour are stiffened into the role of sticklers and conformists. With a view to maintaining and perpetuating the noble tradition of the organisation they scruplously observe the rituals of the organisation. New ideas or innovations are generally resented and than opposed by them for fear of polluting the sanctity of the conventional wisdom. All forward-looking institutions, as and when they fall into the hands of static sticklers, begin to recede into anachronism and finally sink into discredit or at least oblivion. Any organisation devoid of dynamism, is, therefore, likely to wither away. Such organisations draw their sustenance from the hoary past. They soon become non-functional, if not extinct. Each organisation needs reorganisation of its [programmes and modes of working for its very survival. An organisation cannot subsist only on its past practices or its past glory. It must, have confrontation with the needs of present reality. It has to seek and work for its transformation in terms of the pressing needs of the living present. Baden Powell, founder of the Scout movement, could foresee all eventualities of the movement and in order to save the Scout/Guide movement from the march of static ritualism, he sounded a note of warning tinged with optimism-scouting divorced from reality is an impossibility.' The Scout/Guide movement, I am happy to remark, has not stuck into a quagmire as Decora Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O O 0 46 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņa Abhinandana Grantha; Seventh Part yet. But we cannot say with any certainty that history might not repeat itself in the case of the Scout/Guide movement. Historical laws of growth and decay operate unwittingly and in a remorseless and relentless manner. The Scout/Guide movement may meet the same fate as other movements in history have had their doomsday unless it is wrenched out from its conventional wisdom and adapted to the needs of the living times. "The scouting of today and tomorrow," observes Dr. Lasylo Nagy, Secretary General, World Scout Bureau, "should have three principal characteristics namely-faithful, modern and useful." It must remain faithful to the ideology that inspired its founder. This is necessary for maintaining its identity. But the ideology is an abstract concept. It has to be translated into a plan of action which helps an individual scout/ guide to grow physically, intellectually, aesthetically and morally and prepares him to give his own contribution to the community. The needs of community change very often. But due to the frequent and startling changes in science and technology the dimensions of social change in the community are taking such rapid strides that it is becoming difficult to keep harmony between social organisation and the technological advancement. In view of this, the Scout/Guide movement has to play an important role in establishing an equation between the extraneous forces of science and technology and the rigid forces of community organisation. The social and economic life of the communities all over the world have reflected tremendous change and impact on the artifacts, social organisations and the value systems of the masses. It may not be possible, perhaps, for our young Scouts and Guides to help the communities in remoulding their community organisation and rebuilding its system of values. But it would be certainly legitimate to demand of them to help the citizens use and maintain artifacts properly which technology has bestowed on them for their use at home and in the locality. The young Scouts and Guides should be so retrained as to make them useful for catering to the needs of modernisation which technological advancement has impinged on them. No living movement, dedicated to serve humanity selflessly, can afford to lag behind the rapid and all-round advancement effected in the community life on account of a chain of explosions of scientific knowledge. If a movement or an association wants to keep itself abreast of the factchanging patterns of living, it has to keep its programmes and reorientation. Some training programmes of scouting have lost their practical utility. Signalling, for example, has become quite obsolete. With the advent of electronics, sensitive and powerful wireless sets and walkly talkies the communication has become quick and exact. Moreover, they are used round the clock and for far-off distances. If scouting sticks to training in singalling, it will be of very little utility. Not only do we need to give up the programmes which have ceased to have any relevance to the modern life of the communities; but there is also an equally pressing need to reinforce and reinterpret the existing programme in the light of the emerging needs of the community. One of the programmes of scouting which needs revitalisation is the First Aid. The FIRST AID in Scouting is limiting to rendering preliminary aid to the injured only. With a wide net-work of Red Cross activities the FIRST AID training programme in scouting has become redundant. At almost every games and sports meet or in fairs one finds tents that display large white banners with big red crosses on their panels. It is rendering expertised First Aid to the victims of accident. It especially acts as an agency to prevent outbreak of epidemics in huge gathering of human being. Hence the FIRST AID training programme of Scouting has to seek new avenues to serve the community in its different walks of life. The Red Cross serves human lives, but it is not only the animates that need first aid, but also the inanimates which are Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scouting in Education Perspective 47. ORIGIDIB.QIQ.Q:0***OGGIOGIC@@@ @... in dire necessity of first aid, especially at places away from big towns and cities. There is hardly a field where scouting cannot render FIRST AID to the local community. Let us start with simple and familiar fields which await first aid. With the installation of atomic, thermal, hydro-power and electric power plants in the country, almost every village, worth the name is electrified. Ignorance of fuse generally makes farmers and consumers dependent on the crafty electrician, who charges disproportionately to the service he renders. Besides, unnecessary expenses in the absence of the crafty electrician, water-lift pumps remain inactive, crops in the fields parch without water and cottage industry comes to a halt. Imagine, a community dinner for celebrating a winning in an election or the wedding of a son or a daughter. People are in hilarious mood, they are making the most of it. All of a sudden electricity goes out on account of the fuse. The whole atmosphere changes to annoyance and curses. People start running helter skelter in search of kerosene lamps. Some go out in search of an electrician. If a boy scout happens to be there, he will retrieve the situation by resorting to a simple mechanism of transfering excess load of electricity to other circuits and fixing a fuse wire in fuse box. Motor starts lifting water and crops are watered with steady flow of water; community dinner venue is lit and gaity returns. He can render first aid in minor repairs of faulty plug and plug pins in lamps cord. He may fix elements in electric presses, heaters etc. Household gadgets like sewing machines, wick or gas stoves etc. get out of order accidentally. Their running repairs are very simple. If a boy scout learns about minor faults of these household gadgets, he will be a great help to the women who handle these gadgets. He will repair them in a jiffy and earn their gratitude. Another area that awaits first aid is plumbing. Almost all big villages and small towns have their own water supply system. Dripping taps, leaking pipes or choked drains are headaches to the people, especially where plumbers are hard to find. They not only stain washbasins and floors but also start stinking in the absence of simple knowledge of detecting the fault in the washers, loose fixing of pipes etc. A scout is of help in relieving the suffering of the troubled. Hand-water lifi-pumps for drawing water are used where water supply system is not available. They generally get out of order on account of constant use. In the absence of readily available mechanical help it remains out of order for a petty long time even for minor repairs. It causes inconvenience to the users. A scout can set them in order. Bicycle is a cheap and trusted vehicle of the common man. It is within his means. Its mechanism is very simple. Boy Scouts can very well pick up running repairs of leakage of valves, loosening of breaks, fixing a puncture or a faulty chain etc. He can be a handy help on the road for novices. Mechanical implements, automobiles and mopeds are in general use in urban as well as rural areas. A tractor plying between a town and a village is common sight. These mechanical vehicles and implements are prone to go out of order and stop working in the case of even a minor fault like carbon deposit on plugs or a layer of dust on air filter. Generally users feel helpless and are seen dragging their vehicles to a mechanic's shop. One can realise the condition of the user at this juncture. He perspires profusely with the energy he exerts in dragging it and the great mental agony with which he suffers at his helpnessness at not locating the fault even though the fault happens to be minor one. The Boy Scout's first aid in locating the fault and removing it, if it happens to be a minor one, will be a relief to the user. The Boy Scout can be of use to the rider especially in replacing broken clutch or gear wire, fixing wheels in case they go deflated etc. Only a few of the areas in which a man needs help have been pointed out Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 48 Karmayogi Sri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part here. They can be multiplied to a large number at the time of drawing. The First Aid training programme. A little extension in the First Aid programme from physical and overt activities to covert social, cultural and economic fields will shower its bounties on the local community. The local community, on account of ignorance of the facilities available to it and caught between jaws of unbreakable traditions and customs fails to benefit by the fruits of technology and facilities that await it. The Scouts' first aid in drawing local community's attention to how they can borrow loans from commercial banks, co-operative banks or co-operative societies will help in extending their business or in buying agricultural implements, fertilizers and improved seeds etc. Such types of first aid in guiding the community correctly may bring forth a complete revolution in the economic condition of the community. The community will prosper and with it the country will roll on the road to prosperity. Prosperity will decidedly raise living standards of the community. Old and archaic cultural patterns of living will yield its place to modern ones, for the candle of knowledge will light every nook and corner of a hut and drive away the darkness, ignorance and superstitions. It will also narrow down or, at least, bridge the gap between the rural and urban lives. The kind first aid F. L. Brayne, an ICS officer, rendered to the rural Punjab in the cultural field, the Scouts can render to their local community. Brayne employed dialectical method in drawing home the futility of wearing gold and silver jewellery alone with dirty and soiled rags by womenfolk. F. L. Brayne in his book, "Socrates in an Indian Village" points out the evil customs that needed completed reformation. Scouts and guides can render pioneering service in social fields. Casteism, untouchability and religious bigotry that afflict the local community await their first aid. A corporate life, irrespective of caste and creed, will convince the community especially the rurat one of the futulity of caste or class war that only retards their progress and prosperity. Camp fire provides still another avenue to pin-point evil customs, like child marriages, funeral dinners, untouchability etc., that eat into the very vitals of the society. Social reforms in the community are the need of the day. Scouts and Guides can highlight the disadvantages, rather harms of large families and dowry system. They may exhibit through short plays and skits the needs of widow re-marriage, of planned families of two or three children only. Large families mean poverty, ignorance and sloth. Demand of dowry leads to either economic breakdown of a bride's family or results in her murder. Newspapers are replete with such murders. Scouts can show horrors of such evil customs in camp fire items and provide mental food to ruminate over them and to become active in doing away with such evil customs. There are other fields which need first aid. We need protection against deadly germs. It requires cleanliness. Scouts and Guides can be of special help in this sphere in driving home the urgent need of cleanliness for healthy and normal life. This new approach to first aid will entail for-reaching changes in the training programmes. Scout masters and scouts both will have to get training in revised programmes that render true first-aid to the needy community. This programme encourages a change in the traditional role of scoutmasters and scouts. No doubt, they will not be masters of their trades. They are expected to have only elementary knowledge in a trade that will help them in doing running repairs. The new concept of first-aid gives a new dimension to the scout movement. It will make the movement more popular with the community and rejuvenate it to meet the challenge of the changing needs of the society. O - 0 Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EDUCATION IN ECONOMIC PERSPECTIVE B. L. DHAKAR Ex. Assistant Professor, University of Udaipur, 71, Bhupalpura, UDAIPUR (RAJ.) A pool of creative minds is the greatest strength to a nation. The mind reflects in types of activities, functioning in a nation's body. When a new set of development patterns emerges in a developing society, it adds cumulatively in the formation of human capital. The potential, so created, paves the way for restructuring the whole economic set-up. A time pattern also comes in, which correlates with the action of human mind and exploitation of natural resources, though both move together on the onward march to shape the destiny of a nation on economic plane. Dynamism, once created, opens vistas of development and sustains economic growth in a dynamic framework. The purpose of the paper is to have a short analysis of economics of education. Education precedes economic development. The Royal Society of Science was formed in the year 1600 in Great Britain and that became the fore-runner of the Industrial Revolution. Today no nation is untouched from the impact of the Revolution. It is the investment in education and research which lays the foundation of modern developments. We live in a time when knowledge is exploding. Many countries are committed to educational reforms that will make heavy demands on finance and resources. At the same time, they are concentrating their efforts on promoting economic growth. Their demands for investment in physical capital and for a better standard of living compete with the demands for education for extra resources. As the economy develops, the need for skilled workers, experts and generally educated people increases geometrically. Consequently, education is making new and ever-increasing demands in the economy. The growth of education is partly a response to the growing wealth of society. The increased production of a growing economy makes educational expansion possible by freeing resources for its use. Formerly, education was regarded as consumption, in contrast to that, at present, 1 John Vaise and Michael Debeauyais : Economic Aspect of Educational Development, p. 37. O Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -50 Karmayogi Sri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part it is primarily regarded as investment. During the last one hundred years significant economic growth has been achieved only by those countries in which a high proportion of total population is found in educational institutions. As economies industrialise, urbanise and mature, their requirements for more sophisticated personnel appear to increase. The emphasis in education has shifted onward to scientific and technical education. The Draft Fourth Plan put forward that "A suitably oriented system of education can facilitate and promote social change and contribute to economic growth, not only by training skilled manpower for specific tasks of development but what is perhaps even more important by creating the requisite attitudes and climate." The contention of educationists is to acquire knowledge and cultural standards in one sense are the privileges of the elite class. But in a more practical sense education is meaningful when it is related to employment and income increasing process, otherwise it may lead to social unrest. The welfare of the whole community is tied to the ratio of the growth of income to the poor. In recent years there has been a comparative decline in the incidence of poverty. CONCEPTUAL ANALYSIS The educational system is inter-linked functionally with the socio-economic environment. Economists like Abramovitiz, Kendrick and Schultz plead that trenendous increase in per capita product in the newly developed countries derive primarily from a rise in efficiency. Technical knowledge does not expand in a traditional type of society. A progressive society generally advances economic-oriented technical knowledge which generates wide opportunities for employment and leads to a more systematic approach of production and income distribution. Investment in mainkind is of prime importance in economic thinking. The returns from education, both individually and socially, are almost as high as those from physical capital. The develop. ment of the physical capital of society is not very meaningful unless there is a matching increase in the trained personnel to make use of it. Strictly speaking, economic concept of human capital defines people as capital assets which yield a stream of economic benefits. It is difficult to estimate even the direct economic benefits of investment in education animore difficult to measure its indirect effects. It is correlated with complimentary investments made in other sectors of the economy. No country can claim to have made an accurate or conprehensive ass: nint of th: relative costs and benefits of its educational programmes. To know whether educational expenditure follows or precedes economic growth, internationally comparable figures are to be worked out and relationship between various cadres has to 1 Alexander L. Puasles, Elucatioi's Role in Develop nont", Econ) nic Development and Cultural Change, April, 1969 p. 293. 2 Fourth Five Year Plan (Draft), 1969-74. p. 278. 3 K. Santhanam, Educational Inflation, Eastern Economist, February 14, 1969, p. 266. ..i 4 Eugene Smolensky (Chicago), Investment in the Education of the Poor, American Economic Review, May 1966, p. 371. 5 Alexander L. Peaslee, op. cit., p. 298. .. t 6 Paul G. Haffman, How to speed their economic growth, p. 35. O Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Education in Economic Perspective 51 be developed. Education can be considered as a factor of production. The economist's tools are adopted for analysis of costs and returns. The real value of economic evaluation lies precisely in the analysis of markets but price guidelines are very imperfect. Moreover, the production is a function of three variables: the numbers of persons productively employed, the quantity of education used in production and an aggregation of non-labour units. It has been seen that economic and educational disparities exist side by side, the dispersion being greater in the field of education. The dispersion is larger in the case of literacy as compared to per capita income. This can partly be assessed by the migration of educated people from the less developed areas to the more developed areas. It shows a very close relationship between rate of growth of university enrolment ratios and subsequent growth of real income per capita. In a few countries the rate of increase of higher education enrolment ratios has been greater than that of growth in real income per capita. In the former case, South Africa, United Kingdom, Germany and Israel, while in the latter, France, Japan, Russia, U. S. A. and Australia are included. The experience of countries enables us to establish an outline for allocation of resources for educational programmes. Primarily, education tops in priority, that makes the base for subsequent economic results. As regards secondary education the results in terms of growth have been excellent. After that, expansion of higher education would then be the focal point. In respect of university education, India moved from 0 218 percent to 0.93 percent in 10 years and students enrolment went from 3.35 lakhs to 9-4 lakhs during that period. In this way Japan achieved the same from 0.47 percent to 0:68 percent in 5 years, Russia from 0-35 percent to 0.89 percent in 10 years and the United States from 0.57 percent to 0-90 percent in 10 years. The last decade witnessed a spectacular inflation not only in money expansion, and population increase, but also explosion of higher education. It is gratifying to note that technology is doubling every ten years. Indian universities rose to 120 in number and three million students are enrolled in them. In this respect, it is no mean achievement for India. Any way, this growth is of conflicting nature which cannot be denied on pragmatic ground these days. Reasons attributed to this phenomenon can be inter-mingled with various disciplines. HUMAN RESOURCE DEVELOPMENT During the last two centuries under British rule, the objectives of educational system in India were obviously neither in conformity with the national needs, nor there were adequate means available to strengthen some aspects which did reflect the vital needs, e. g., the provision of instruction in arts, crafts, technical and vocational pursuits, although Hunter Commission (1882), Harlog Committee (1929), Sapru Committee (1934), Abbots and Woods Report (1936) and Sargent Report (1944) stressed the need for them. Besides, the vacuum created for last ten years due to non-implementation of Kothari Commission recommendations hardly generated any rational concern. The existing system of education in our country is largely unrelated to the life of the students and the life around them. It is a fact that there is a wide gulf between the actual content 1 D. Blandon and M. S. Murari Rao, Concept of Work Experience, Indian Education Review, New Delhi, Vol. 8, No. 1, January, 1973, p. 2. Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O 52 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņa Abhinandana Grantha : Seventh Part of education, its started purpose and the real concerns of national development. One of the main tasks before the country today is to secure rapid economic development, to augment the G. N. P. and to provide a higher standard of living to the people. An essential pre-requisite for the successful accomplishment of this hard task is the provision of a close link between education, life and productivity. Education will also have to strive consciously towards development in student the right attitudes and values that are needed to a democratic and socialist society. With this end in view, a deliberated change has, therefore, to be made in the system of education. It was, therefore, felt by the Education Commission (1964-66) that "no reform is more important or more urgent than to transform education to endeavour to relate it to life, needs and aspirations of the people and thereby make it a powerful instrument of social, economic and cultural transformation necessary for realisation of our national goals." The world of work is becoming increasingly more technical in nature, more complex in organisation and more pervasive in its effects on society. In the emerging industrial and science-based technological society, India of tomorrow will have increased mechanisation. Thus work-experience programme is an integral part of the general education programme. Presently, certain points should be kept in view such as, considerable wastage and stagnation, recession period and setback to science education and creative knowledge, and also practical awareness. This state of education can be taken as a cyclic swing of national economy, but the reversal is bound to take place with the up-swing of the economy. Nevertheless, it is essential to emphasize the quality of manpower produced because economic growth may be hindered rather than accelerated if appropriate standards in higher education are not maintained.1 The vocationalisation of education at the secondary and higher secondary stages is one of the major plans of the Ministry of Education, Government of India. The Ministry's blue print clearly spells out the determination of the Government to effect the gradual vocationalisation of secondary and post-secondary education. Considering the vastness of the problem, it will take 30 to 40 years to bring vocational education to the doors of the existing schools to be started. The experiment of the multi-purpose scheme could not achieve success. Everywhere civilisations were built up by layers because each had its own particular type of educational policy. Rapid industrialisation and agricultural modernisation have been the outcomes of a high level of literacy in all developed countries of the world. Under-developed continents are backward not so much due to shortage of capital, as due to irrational attitudes and outmoded institutions, Prof. Gunar Mýrdal holds this view. The Kothari Commission is also of the opinion that "human resources are an end in themselves, without which the adequate development of physical resources is not possible. Even in the field of international arena, leadership is not a matter of power alone, it is as much a matter of policy which is a tool of education.3 Money alone is not enough to ensure development, as man does not live by bread alone. 1 Q. V. Khan, Application of man-power requirement approach to educational planning, Indian Educational Review, New Delhi, Vol. 8. No. 1, January 1973, p. 35. 2 Gunar Myrdal: Asian Drama, an enquiry into the poverty of nations; Vol. III, 1968, p. 1623. 3 A. H. Hasley, Jean Flond and C. Andersian: Education, Economy and Society, Free Press of Glencol, 1964, p. 21. . Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Education in Economic Perspective Industrialisation is only a part of the development process. The development of a country's human resources is basic to the effective balanced development of its natural resources. The fundamental problem is not only considered as the creation of wealth but also the creation of the capacity to create wealth. The acceleration of progress depends much on the latter. 53 Harbinson interprets human resources development as the process of increasing the knowledge, the skills and the capacities of all the people in a society. It can be described as accumulation of human capital in economic terms. In political terms human resource development prepares people for adult participation in political processes. From the social and cultural point of view, the development of human resources unlock the door to modernisation.1 Education is the appropriate answer to the above aspects of development. It is evident that the tide of education is mounting with rapidity. Higher population growth has resulted in increased enrolments at all levels of education, particularly at the higher levels, and there is a marked rise in consciousness for education. It is necessary that students' energies are channelled into meaningful and challenging pursuits, science represents a cumulative activity of mankind and its rate of growth is extremely rapid. Automation is the rapid substitution of work by knowledge and concept of work by human hands. Alfred Marshall emphasized the importance of education "as a national investment and in his view the most valuable of all capital is that invested in human beings."" A contrary view is also expressed by Kuznets, Clark and Maddison that university enrolment ratio exceeds real income growth ratio per capita. It is to be accepted in a sense that a rising nation is expected to bear a certain shock of imbalance initially, but later on a mutual adjustment takes place in all disciplines in a free society. In India there are other reasons which can be held also responsible, say, political weakness, student unrest, declining marginal productivity and so on. The Crowther Report emphatically supported that the pool of talent is nowhere near exhausted, a more efficient pump can reduce the present wastage of talent that exists in every country. Thus there is no talent barrier to the development of education. And a stream of demand for high talented manpower is never exhausted in the days of technological complexity. India has been importing human capital in sophisticated fields of development-oil exploration is a current example. This import substitution deems essential in its due course. INVESTMENT PATTERN The amount of emphasis given to education in the allocation of resources determines the investment pattern and entire educational structure at all levels. Prof. Gunar Myrdal anticipates with growing consciousness of education that by 1980 every Asian country should be devoting 4 percent to 5 percent of its G. N. P. on education (Karachi Plan, UNESCO & ECAFE Report, April, 1962). The rate of growth of educational expenditure in Indian Plans has been approximately double of the rate of growth of national income at current prices. It is approximately 1-6 times the rate of growth of enrolment and 17 times the rate of growth in the number of teachers. The difference in quantum is so glaring that the amount per capita spent in India and Asian 1 Fredrick Harbinson and Charles Myres: Education and Economic Growth, P. V. 2 David Ovens: Investment in Human Capital, p. 216. Blo -0 Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O - 0 0 54 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha: Seventh Part countries comes roughly about one hundredth of that spent by a highly industrialised country like U. S. A. This determines a close correlation between the level of education and the level of economic growth. Indian masses cannot easily resort to a significant amount of disposal surplus to spare for education purposes. Nevertheless, during the last decade the increase of educational expenditure has been much faster then the growth of economy. The pattern of allocation of resources to different sectors of economy varies from country to country and from time to time. Expenditure on higher education is about 33 percent at present and that was reduced to 27 percent in 1975-76, the rest is spent on school education. To help the process of transformation of the national economy towards social justice, primary education needs to be intensified. There is no denying the fact that higher education of research and technology add to competence. Brain drain of India in various technologies and medical science bear testimony to the fact. A judicious balance can be the only solution, befitting changing circumstances. Average expenditure in the West is 100 to 300 dollars per capita, and public expenditure at the higher level seems to be 5 to 7 times of that at the secondary level. The income elasticity of demand for education grows high with the affluence of the society. Financial resources have often limited the growth of education and are in some respects the crucial link between education and economics. Basically differences in education arise from capacities to spend money on education. The government share has been increasing considerably. The Centre helps by spending directly on education and by giving grants-in-aid to States, outside the award of the Finance Commission. A lion's share of this total is spent on higher education, buildings and scholarships. Resources of the State Governments are the major force governing education. A judicious allocation of grants-in-aid from the Centre to the States and the States to the Local Bodies is necessary. Local Bodies finance education in a small percentage and this trend seems to be declining. The contribution by fees is very high in India. There is a limit beyond which fees cannot be increased. This source will dry up as time passes, so will funds from other sources. Cost of education is mounting up due to an increase in the emoluments of teachers, provision of better facilities in educational institutions, and increases in the number of students. Voluntary charitable individuals and institutions can hardly cover the deficiency. Ultimately, the extent of educational advancement will largely depend upon the resource that a State government can muster. MAN-POWER PLANNING The international movements of high level man-power reflect that "the under-developed countries need high level of man-power just as urgently as they need capital......high talented manpower requires the longest lead time' for its creation. Dams, power-stations, textile factories and steel mills can be constructed in a few years; but it takes 10 to 15 years to develop managers, engineers and the administration to operate them. The existence of such man-power, however, is essential if the countries are to achieve self-sustained growth." Dimension of technological skills have expanded very wide and the adjustment of man-power in areas already explored need acquaintance. In technical evaluation of the OECD Mediterranean Regional Project, R. C, Hollister stated that man-power requirements have a significance on education output.. Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +4 Education in Economic Perspective On the other hand, it is paradoxical to point out that there is a world-wide frustration among the educated youth and socio-economic forces are playing havoc, and consequently, student unrest has emerged on the world scene. Student frustration is largely related to the lack of employment opportunities or to the fact of rising expectations which remain unfulfilled owing to economic and occuptational growth failing to keep pace. The main lacuna in the present educational system is an absence of direct link between education and employment. In the present situation, when the output in some sectors far exceeds the possibilities of employment, efforts should be made to achieve a balance in a few selected sectors where members are manageable. It is necessary to prepare an integrated plan of development so that every job is filled with a trained personnel. The country is suffering from a triple inflation: (1) The most serious is that of population; (2) The inflation of money which has played havoc with the economy; and (3) The third is that of education. The annual requirements of the country in respect of additions to the national stock of higher educated man-power should be assessed in advance with as much precision and firmness as may be found practicable. The main occupational categories are : (1) Higher educated teaching man-power; (2) Engineering man-power; (3) Scientific and technical man-power; (4) Agricultural and Veterinary specialists; and (5) Public administration and managerial man-power. 55 Arrangements are necessary to ensure that higher educated man-power may not remain unemployed or wastefully employed. It was also hinted by ex-President V. V. Giri that the supply of educated and techincal man-power has not been tailored to the needs of a dynamic economy.1 As man-power is not homogeneous, man-power planning has to concern itself with different categories, such as technologists, doctors, engineers, managers and crafts-men each having its own level of education and specialisation; wastages should be reduced to the minimum. Optional utilisation of man-power, skilled and unskilled, is called for and the 'open door' policy of unrestricted admission to higher education needs a practical approach. CONCLUSION The situation is alarming in the country. The country's economy faces a great challenge in the educated surpluses. Self-employment is the dire need. For that an inter-disciplinary approach to education and economic growth needs very thoughtful action at this juncture. A highly educated elite on hiearchical pattern is out of question; general masses are to be provided ample opportunities of education. A selective approach in diverting human resorces into right channels is a paramount question. It is a test of the government policy and its implemen tation. 1 V. V. Giri, Jobs for our millions, Hindusthan Times, March 9, 1970, p. 7. Page #1277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 56 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part Mass consciousness of democratic rights has grown up and it should be coupled with a high sense of maturity, sobriety and integrity. Impulses so developed by the right type of education will go a long way to contribute to productivity at work. Educated persons resorting to 'desk work' should be diverted to various fields of employment in a developing economy. False concept of prestige and power should not come in the way to accept hard jobs. A very important lesson is to be learnt from the Americans and the Japanese in this respect. Even a daughter of an Ambassador will not hesitate to take the job of washing dishes in an American restaurant: thereby she will earn money and purchase a second-hand car. A national upsurge of socio-econmic conscience has to come up to pave the way for future prosperity. This is the job of education to perform if other disciplines join hands. But as Ashok Mehta rightly observes that it should be properly safeguarded that whatever is woven by economics may not be further unwoven by politics. Constant! Wishless ! Absolute ! Free Knower! Seer ! Soul is me. I am what Supreme being is, What myself is that God is. With this sole apparent difference, Here-Passions' there - Indifference'. My real self like Siddhas is, Infinite Power ! Knowledge ! and Bliss, Losing knowledge, being aspirant, I am left a beggar - ignorant. -Sahajananda 0 O Page #1278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 . 0 .0 .0 .0 .0 0 .0 0 . .. .0 .0 .0 . .0.0 .0 .0 .0 .0 .0.0 .0. COMMUNITY EDUCATION IN NATIONAL PERSPECTIVE (Mrs.) KAILASH MEHTA M. A. English & Sociology (Gold medalist) University of Udaipur; Supervisor, Computer Programming, TORONTO (CANADA) The quality of life is implicit in community education and it enriches it. In the modern period of rapid transformation and communication, community as a whole cannot be averse to it and it has to move with the times. Mass education is the fundamental method for socio-economic transformation of the society. The foremost task is that the nation's human potential should become more enlightened and should make better use of its available resources. In the historical context, the French Revolution of 1788 stimulated modern intellectualism and consequently a dynamic relationship was established between the intelligentsia and the common people and there by socio-economic imbalances had been reduced. The two-thirds of Indian population is illiterate. Mass education drive is the only remedy The Government is firmly resolved to wage a clearly conceived, well-planned and relentless struggle against illiteracy, to enable the masses to play an active role in social and cultural changes. Literacy forms an integral part of an 'individual's personality. The mass approach is. likely to cover the entire nation and all segments of the population will be benefitted. A child who is a message from God should be very well looked after as a national property. CONCEPTS & OBJECTIVES * The community' refers to a group of people living together in a region where common ways of thinking and acting make the inhabitants somewhat aware of themselves as a group. The 'family' is the most basic educational agency in moulding the lives of boys and girls, where fundamental attitudes and habits are formed; at the same time undesirable and abnormal habits are eliminated. Individual's value structure is based on one's family upbringing. As such a child's interests and abilities are the outcome of his/her family influences, social, religious, cultura! Page #1279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 Karmayogi Sri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part etc. He gets an opportunity to unfold his latent talents, by virtue of that he achieves social position and material rewards in his life. The term 'education' refers to the broad functioning of preserving and improving the life of the group, a far broader process, an essential social activity by which communities continue to exist. Organised knowledge is man's greatest resource for individual and community growth, and it should be functionally related to meeting life's problems. Life, today, has emerged finer and more subtle than that of our ancestors. As regards its objectives, the community education programme is meant not only for removing illiteracy alone, its aim is to create awareness about related problems. What education means is that a child or an adult can speak, read, write in mother tongue, along with the knowledge of simple arithmetic and an aesthetic sense in general sense. Culturally, he should fit well with the society by way of enlightened behaviour in a democratic way of life. In economic sense, he should be familiar with workmanship, occupational information and home economics. The chief purpose is to preserve, promote and refine the way of life in which a society believes. BACKGROUND in India, the problem of poverty and illiteracy is twin and acute and their simultaneous abolition is much desired. The poor are passive spectators in the process of socio-economic development of the present era. The literacy programme should be linked with the national planning strategy and intensive area planning would give employment reorientation to development process with rural bias. Literacy with learning-cum-action groups may possibly revitalize the national life. It is the need of the day. There are 6 lakh elementary schools, 40,000 secondary schools, 4500 colleges and 120 universities with the result that there is 36 percent literacy; the rest are deprived of the fundamental privilege. It is a matter of serious concern for a country like India. In all 3.5 million teachers are employed and total expenditure on education is about Rs. 3000 crores next to that of defence. Is it not the legacy for India that 40 percent of the world poor resides in this country? Their low hierarchical pattern is the main constraint to any new change, which is generally resented by them. A break-through is imperative. APPROACH The Indian society, despite its multi-level, multi-religious and multi-ethnic character, has been inter-dependent and there has been constant interaction. Community education creats selfoperating evolutionary process and accelerates their pace. It would reduce tensions, distortions in all spheres of human life and would generate creative energies. The growth in mental ability is relevant to every expansion. Due to advancing technology and increased level of education, the degree of skill required of the working force is increasing. Such type of education fosters participation of the young in the affairs of the community. The youth's adjustment in the adult world is an intergral part of the educational task. They should learn to solve their problems cooperatively. It is understood that community does not influence all its youths in the same way. Since environment is not identical for all boys and gils, as such child is moulded by his particular set O Page #1280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Community Education in National Perspective 59 . of environmental conditions. Hence, a positive effort has to be made to ensure the integration of traditional and contemporary elements with formal and non-formal education. Community service and participation in constructive and socially useful work should be implied in the national educational programme at all stages to foster self-reliance and the dignity of labour. Moral education should form part of the content through inter-related curricular and co-curricular programmes. Teachers and institutions should bear the entire responsibility. POLICY AND PROGRAMME (a) Policy-An ideal system of educational policy should enable individuals to learn and develop to the fullest their physical and intellectual potentiality and promote their awareness of social and human values so that dynamic-status-quo is created in the main stream of the national life. To achieve this, the content of educational curriculum needs to be modified to suit changing times and needs of the hour. Emphasis should be shifted from teaching to learning and the role of the teacher becomes more crucial. The system must endeavour to narrow the gulf between the educated classes and the masses, and the feeling of superiority and inferiority should be gradually eliminated. A student should be permitted to choose his own course and choose his own time. Highest priority must be given to free education for all upto the age of fourteen, as laid down in the directive principles of the Constitution. It should be general and not specialised. The accent on elementary education should centre round the totality of personality of an individual. Besides formal subjects of a curriculum, the system should lay stress on useful community service and it should incorporate also agriculture or horticulture and vocational activity. Information on family planning, health and nutrition, child and mother care should be widely disseminated. This would comprise the development content of community education. The central link in the system is secondary education which possesses backward and forword linkages, with elementary and college education respectively. Secondary education has to be so structured that by dint of his acquired knowledge and skill, he can enter life's career with a wider choice and mobility. Thus, there is a need for change in the approach to the learning process with creative accent at all levels in the educational policy of the nation. (b) Programme - Besides formal education, the non-formal education comprises the following : (i) National Adult Education (ii) Farmers' functional literacy (iii) Social education and so on. To develop a realistic attitude towards work and poster a keener sense of adult responsibility, a vital curriculum is deemed necessary. An adult education programme was taken up by the Janata Government on the 5th April 1977 in the Parliament. It was indeed a bold and massive programme, which was launched on the 2nd October 1978. It was envisaged that an adult education centre would prove to be a place of reform, training, earning and learning campus. A programme so designed should motivate the people for betterment of life. The process is liable to revive popular initiative for national upsurge. The phasing of the programme would last from 1978-79 to 1933-84 and the 0 Page #1281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 Karmayogi Sri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part outlay earmarked was Rs. 200 crores. Recently the present Government has given to it a new touch. This massive programme would cover 100 million in the age group of 15 to 35 years, with special attentions to farmers, women, scheduled castes and scheduled tribes. The adult education programme is community-oriented and carefully worked out. The multiple agencies would conduct the programme : 1. Existing school teachers 2. Voluntary organisations 3. Local self Govt. bodies 4. Youth and women organisations 5. Trade and industry 6. Developmental secial service departments It is desirable to associate the local community with schools in the area, through the setting up of local committees whose function will be to assist in their efficient functioning. Religious, economic and political institutions are expected to encourage and shape local and regional education. Service societies, craft-unions and farm groups can serve as catalyst in their respective work areas. The Krishi Vigyan Kendras', so formed should be nucleus to educate rural youth for accelerating production. Deserving candidates should be given stipends and scholarships. New innovations and research done in this field of agriculture should be easily accessible to villages by the efforts of the concerned agencies. Any noble scheme, so framed, does not find easy access to the masses where hetrogeneous society persists. This is main drawback in Indian life. The people of different social stock, religious faiths, linguistics and ethnic background mintain their narrow identities which are crucial to overcome. The other potent cause of limitation is the question of survival rather than education in a poverty-stricken country. The industrial and technological processes are percolating in the country life and they naturally affect the community life, and that is going to be impersonal in character day by day. In this way rural and urban life' present differences in value systems and life goals. This presents a situation of crisis of dilemma. Karl Marx observes that the modern educational system is a phenomenon of capitalism and dehumanisation process grows on, and it has destroyed the very fabric of noble cultural instincts. CONCLUSIONS The crux of the problem is social change. The growth of youth towards constructive citizenship is a continuous process with which education is primarily concerned. A new cadre of leadership from the local people should emerge to shoulder the responsibility for the betterment of community life. In this way the cumulative process of feedback will ever perpetuate in the spectrum of ever growing process. The community education would generate self-operating evolutionary process and provide momentum to it. It would restore peace and harmony in all spheres of human life and would generate creative energies. The growth of intellect is relevant to every expansion. The weaker sections should be motivated to initiate and sustain progress to carve their own destinies. Dr. M. S. Swaminathan, Membern, Planning Commission urges that the dichotomy between education and development should end--and his emphasis is on the need for organic structured linkages between education, development and employment. Page #1282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 SOCIAL JUSTICE TO MANKIND (Mrs.) PUSHPA KOTHARI, M. A. Joint Secretary, Rajasthan Mahila Vidyalaya, Udaipur Ex-Secretary & President, Inner Wheel Club (Rotary) Ex-Secretary & President, Meera Girls College Students' Union, Udaipur A Social worker and a debater World tensions make people conscious towards glaring inequalities on the macro and micro levels prevalent in human societies. This phenomenon has become acute in the underdevelopmed world like India. Dr. V. K. R. V. Rao has recently very rightly emphasized that social planning has emerged as a very important aspect of development strategy. As such, social and economic objectives, policies and indicators should be built up into the overall development strategy from the very beginning. This approach lends great significance to ensure social welfare to the masses in the country. Growing disparities need to be minimised, failing which tensions are further bound to grow beyond limits. Society exercises most durable influence on human environment. A remarkable transition has taken place in the basic structure of the society, and it has had significant bearing on human needs, value judgments, demographic variables and desire to possess. Change in human attitude is rather very fast. Accordingly, Alvin Toffler thinks, "a society fast fragmenting at the level of values and life styles, challenges all the integrative mechanisms and cries out for a totally new basis for reconstruction. When diversity converges with transience and novelty, we push the society forward towards an historical crisis of adaptation to create an environment so ephemeral, infamiliar and complex as to threaten millions with adaptive breakdown." PROBLEM Religious faith is superb in the minds of Indians but religion as an ideology gets mixed up with economics and politics. Extreme poverty, due to ignorance of our people, leads to communism and expolitation aggravates the problem. Mass illiteracy is the bedrock of prevalent evils in the society. Page #1283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 62 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part Seventy five percent of the people are not bothered about fundamental rights or freedom of speech. All they aspire for is two square meals a day, a roof above their heads and elementary education for their children. The march of the nation is problematic. The problem of poverty is deep-rooted in the under-developed world. To be very clear, one-half of the world area and population produces one-tenth of the world output. On the contrary, the developed world with one-fourth of the world area and one-fifth of its population produces three-fifths of the world output. This glaring difference between the two worlds is not because of inherent weaknesses but because of lack of social uplifthment. Moreover, forty-eight percent of the population lives below the poverty line. It is a traditional feature with cumulative degenrating effects. Is not this absolute poverty a living reality of the masses? Hence social transformation is a must in the present context. APPROACH Priorities, standards and goals should be determined after taking into consideration, the social and economic costs and benefits within the framework of social, economic and political values. Keeping this in view, social planning should be considered under four heads : 1. As a compliment of and a corrective to economic development; 2. As an integrated planning of the different social service sectors; 3. In order to fulfil specific social targets or to uplift specific backward sections. 4. And as overall societal planning for social change and reconstruction. Of the above four heads, overall societal planning is the most ambitious but of least possible category. Any way this aspect is high sounding and idealistic but less in concrete policies and programmes. Tolstoy, an international thinker, is of the view that in one sense, 'property is the root of all evil and all suffering and it implies danger of conflict between those who have too much property and those who have least.' The acquisitive type of society is fraught with mass revolution one day, sooner or later. Cooperation is a cardinal principle which imparts new ideas, new outlook and enlightened behaviour based on higher values of life and that results into health and vitality of the society. In ancient times, Greece, two thousand years ago, observed this principle, a man who takes no interest in public affairs, he has no business at all. Why not in India as in ancient Greece ? In domocracy every segment of the population should be deeply involved in the process of change and growth. MEASURES The evolution of society through successive stages of human civilisation brought out changing norms of societal behaviour and culture as well as moulded the possessive instincts of material needs and comforts keeping pace with time and change. A society, whose objective is growth with social justice, has a more fundamental problem of drawing reasonable balance between haves' and 'have-nots.' For, every one has social aspirations which cannot be denied. There are very many glimpses of philanthrophy, such as that of Jamna Lal Bajaj private enterprise which had introduced welfare measures even in 1950. In this land of religion, there are hundreds and thousands of charitable trusts, spread over the whole of India to bestow help Page #1284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Social Justice to Mankind 63 in one way or the other. It is a matter of no less gratification, but the impact is not universal. Prof. Dandekar and Rath in their book, Poverty in India', have suggested certain measures to uplift the society, by way of opening hospitals, schools, orphanages, temples, dharamśālās and so on, as these are the places of common good and thereby cultural affinity strengthens. Education enlightens the society. Adult literacy classes, public libraries, documentary films, sports and N. S. S. activities should form the part of village life. Health services should be accessible to the poorest lot of the people. Drinking water facility is basic. Family planning measures should not be lost sight of, if present and future generations aspire to live happily within the limits of national resources. However, optimistic we are, there are definitely limitations in 'national resources and future growth. Sir Norman Ipping points out that message for infusing life in rural folk should be wide-spread in various walks of life. Although it is great challenge, 'be friend to all' is the need of the time. Similarly, Rajesh Tandon mentions that there are several voluntary agencies-government, semi-government and private--are already working in the field of social welfare. Governments grants, gifts and private charity, coupled with community honorary work should make headway in desired channels. Unhealthy politics is the main constraint. On economic front, machines invaded all spheres of social life. The trend of universal automation and mechanisation is penetrating into the society. Its percolation is felt by all, and the method of living has been undergoing change. From a long term aspect, it is a forecast of the 'Dooms Day for the destruction of man in the process. Mountains of ink and pressures are the order of the day. Leisure civilisation has brought about a society of mass consumption, ousting men from the sphere of social production. Pseudo-humanistic factors are disrupting the very fabric of social order, where as man's stature is a vast potential. Mahatma Gandhi visualised it long ago to achieve harmony and peace in the world. How long this dilemma of material welfare versus real human happiness should perpetuate, is a question mark for all right thinking people in its perspectives. EGALITARIAN SOCIETY The main aim is to create a more cohesive, balanced and intergrated society, maintaining dynamic status-quo and keeping in view to provide happiness to the largest number of mankind. To-day sharp contrast exists between the urban and rural areas and the gap widens with the progress of time. Education and technology are the main ingredients of a modern society and they are more urban-based. And the society is hetrogeneous. To a larger extent, casteism, poverty, disease and illiteracy are rampant particularly in traditionally-ridden-people of the society and they act as a polarisation among the peoples of the land. According to the latest census of 1981, the percentage of literacy is 36 percent against 29 percent in 1971. It has increased five times from 1947 to 1980 and its expenditure has multiplied from Rs. 57 crore to Rs. 3000 crore. This change is also noticed in expansion of health services, with the result the average span of life has increased from 32 years to 53 years. It is noteworthy that an average Indian now lives longer than his/her fore-father. Urban people are comparatively more benefitted in educational advancement. 70 percent of enrolment of the upper and middle class is in secondary education, and 80 percent of those, in University education. Whereas 60 percent of illiterates could give their children 25 percent of elementary education. It was laid down in the Constitution that elementary education ought O Page #1285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part to be compulsory and universal by now. The British nation is far ahead in providing social security measures to every individual since 1942, an eye opener to all lagging nations. Although this prescription is not equitably suitable to teeming millions of India, even then redistribution justice can no longer be ignored. CONCLUSION Aristotle, a great philosopher, believed in natural order of things, since man lives in communities, which are organic solidarities and where persons are manufactured. In reality, there are contradictions of values. During the last two centuries, ecological balance is much disturbed and the environment is polluted. Peace and happiness are replaced by growing tensions. The world is torn by two super-power rivalry in arms race and huge expenditure goes to unproducctive side. All religious philosophies. Vedic, Buddha, Jain, Muslim and Christian preach emphatially to lead an aesthetic life which would minimise tensions and human miseries. To my mind Anuvratas and ethical values must be given top priority to ensure social justice to mankind, And the lot of bottom 30 percent of the population is to be looked after in urgency. None else bestows pain and pleasure. 'Love' and 'Anger' are grief's treasure. Self' from 'Non-Self' distinguish And then there is no anguish. Whose name Rama, Buddha, Ishwar, Jina, Brahma, Vishnu, Hari or Shiva,Leaving passions, reach the Goal' No distress then in the Soul. + + + World does function by itself What work of it does myself ? Alien influence ! Do get away ! In Bliss for e'er may I stay !! -Sahajananda Page #1286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . . . . . . e d . . . . . RYLE'S CONCEPT OF THE CATEGORY-MISTAKE OJAGAT PAL Lecturer in Philosophy, Jain Visva Bhārati. LĀDNU The present well-known and widely used phrase, “The Category-Mistake' was coined and introduced by Ryle in The Concept of Mind (C. M. 1949). He employed it in order to point out a serious fallacy which is allegedly involved in a sort of metaphysical thinking, which according to Ryle, is best represented in cartesian philosophy. But it is, nevertheless, not confined to mere pointing out this kind of mistake in the writings of Descartes alone. It is applicable to many instances of similar kinds of philosophizing in pre-and-pose cartesian times. "The Cartegory-Mistake asserts a logical point which is much wider in scope and may be compared with Moore's “Naturalistic Fallacy" and Sankara's concept of Adhyāsa' or 'Superimposition'. In pointing out the particular examples of the commission of the category mistake', Ryle has in fact, made a good attempt towards dealing with the mind-body problem; but unfortunately, he did not fully succeed and ultimately, opened a bag of troubles for philosophers, of course, there is no doubt that he has provided us with new techniques of analysis to deal with typical controversial philosophical problems. But a careful examination reveals a lot of inconsistencies and incompleteness underlying his basic principle which is itself based on certain untenable assumptions. The purpose of this paper is to show the inconsistencies and shortcomings underlying Ryle's formulation of the concept of the category-mistake and to defend the ontological status of mind, which is different from the body, though mind is indeed typically involved in bodily process. It further makes it difficult to know “mind,' apart from bodily activities. We shall try to explain why Ryle's usual examples do not help us to understand the relation between mind and body. For this purpose, let us, however, start with the presentation of Ryle's views before pointing our own ideas. Ryle's claim that mind is not the name of another person functioning behind impenetrable screen, it is not the name of another place where work is done or games are played, it is not the name of another tool with which work is done or another appliance with which certain objects are made. Mind does not demonstrate an entity or substance, hidden in the human personality, operating upon human behaviours in certain specific manner. The word 'mind' does not stand for a thing which is located in particular space as is the case with the body. It is only an organised set of functions (thinking, feelings, volitions, emotions, desires, will and so on). Besides these Page #1287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part OD contents there is nothing as such, hidden in the core of the human personality which can be called by the name 'mind'. It does not designate any mysterious or occult episode under the influence on which, the functions of body are occuring. Thinking, emotions, feelings, volitions and so on are the constituents of the mind which constitute its frame. Over and above these constituents it has independent status, "mind is invisible, inaudible, inner operator, controller of human activities, and only individuals have 'privileged access' to their minds etc", are statements based on false assumptions. Mind and bodies do not belong, on Ryle's own showing, to the logical type or category. They stand for two separate categories which are quite different from one another. Accordingly, it would be a big mistake to conjoin or disjoin them. For strengthening his claim Ryle has cited various paradigmatic situations. Consider following statements : A foreigner visiting Oxford or Cambridge for the first time is shown a number of colleges, libraries, playing fields, museums, scientific departments and administrative offices. He then asked "But where is the University ? I have seen where the members of the colleges live, where the Registrar works, where the scientists experiment and the rest. But I have not yet seen the University, in which reside and work the members of your University. It has then to be explained to him that the University is not another collateral institution, some ulterior counterpart to the colleges, laboratories and offices which he has seen. The Univesity is just the way in which all that he has already seen is organized. When they are seen and when their co-ordination is understood, the University has been seen. His mistake lay in his innocent assumption that it was correct to speak of christ Church, the Bodlein Library, the Ashmolean museum and the University, to speak, that is as if the University' stood for an extra member of the class of which these other units are members. He was mistakenly allocating the University to the same category as that to which the other institutions belong (C. M. p. 16). Ryle has clearly shown in this analogy that the University and its organs (i. e. libraries, playing fields, museums, scientific departments, administrative offices and so on) do not belong to the same sort of category but different types of categories. The stranger clearly did not understand these two distinct types of categories and has located the existence of the University in the same manner as their organs are which is not justifiable on logical grounds. The University has no independent existential status in isolation from its organs. Similarly, mind and body belong to two different sorts of categories rather than one and mind does not exist over and above the body. Does this analogy apply to the concept of mind and body ! Is it a correct and an appropriate analogy? All hese questions Ryle declares unhesitatingly in the positive way. But on our understanding, this cannot be the case. It is worth noting that on Ryle's own showing, minds and bodies belong to different logical types but they have quite opposite qualities like light and darkness. In case of the University there is no such case. The University has not distinct feature and qualities in isolation from its organs. Hence, the analogy of the University is insufficient and not applicable to the concept of mind and body and his argument never gets off the ground. In order to substantiate this observation, further, we may point out a similar difficulty with respect to the type of category-mistake. Mind is neither an organised set of feelings, emotions, volitions, ideas, thoughts, desires and so on;nor these are constituents of mind in virtue of which its existence is possible. Feelings, emotions, thoughts all these contents are activities or operations of mind, not mind itself. Their cognition is, of course, possible in virtue of presupposing a mind. Ryle unfortunately could not discriminate between mind and its occurrences and has wrongly identified Page #1288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ryle's Concept of the Category-Mistake 67 '09*0 them. Just as running, walking and so on are bodily functions not body itself. Similarly, thoughts, feelings, emotions, volitions are activities of mind, not mind itself. Our point is that if the advocate of the argument is pressed, right at the beginning to define the category-mistake he confronts serious and insurmountable difficulties and it becomes clear that he cannot proceed with the argument without making controvesial statements. Mental qualities and its occurrences are not qualities and occurrences of body. Though it is quite obvious that we cannot observe mind in isolation from the body, yet its knowledge is apprehensible only in relation to the body, but thereby this does not follow that mind has no ontological status. To use concepts "wrongly is thus not simply to say something false about the world but to misuse language,' says Lewis (Laird A. and D. Lewis : Moore and Ryle : Two Ontologists Vol. II p. 17, 1965). Hence, it seems quite rational to accept that the mind-body problem is not like the problem of the University and its organs. We submit that such an anaology is mistaken and powerless, for it is futile to pretend that mind and bodies exist in the same manner as the University and its organs. Let us consider Ryle's another argument. He says "It is perfectly proper to say, in logical tone of voice, that there exist minds and to say, in another logical tone of voice, that there exist bodies. But these expressions do not indicate two different species of existence for 'existence' is not a generic word like 'coloured' or 'sexed'. They indicate two different senses of exist, some what as 'rising' has different senses in the tide is rising,' hopes are rising' and 'the average of death is rising'. A man would be thought to be making a poor joke who said that three things are now rising, namely the tide, hopes and the average age of death. It would be just as good or bad a joke to say that there exist prime members and Wednesdays and public opinions and navies! or that there exist both minds and bodies". (C. M. p. 23). . Further, "I am not, for example, denying that there occur mental processes. Doing long division is a mental process and so is making a joke. But I am saying that the phrase "there occur mental processes' does not mean the same sort of thing as there occur physical processes and therefore, that it makes no sense to conjoin or disjoin the two (CM. p. 22). The minds and bodies do not exist in the same senses of 'exist' but exist in different senses of 'exist., What does it mean? Does it mean that there is no mind ? Certainly, not. Analysis of the whole proposition demonstrates the fact that he is not denying the existence of mind. He is only making two different kinds of statements viz. that "mind exists in one sense of the term exist and body exists in another sense of the term 'exist without repudiating the exsitence of mind. Indeed, we agree with him that minds and bodies exist in different senses of 'exist' but this does not mean that mind has no separate ontological status. If it is not so. There will be no meaning in saying that minds and bodies exist in different senses of 'exist' and the whole proposition becomes meaningless. Of course, minds and bodies belong to different logical types or categories and it is also true that we cannot conjoin or disjoin them. This suggestion seems nice and interesting. But the question arises, 'why do they belong to different sorts of categories'. This simply means that both are 'ontologically different,' otherwise there is no sense in saying that minds and bodies exist in different senses of 'exist'. His argument leads him to aceept indirectly the ontological status of the mind and the body which he himself refuses to accept. Addis in his article on Ryle observed that the ordinary use of this word 'exist' allows its replacement by 'there are'. In this use, 'exist' is univocal and indefinable, prime number, Page #1289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • 68 Karmayogi Sri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part O4 Wednesdays etc. are all there. They all exist. It is not because of different senses of exist that it is good or bad joke to say in one breath that both Wednesdays and number exist. It is one, if at all, because number and Wednesdays are quite different sorts of things. Hence, it is clear from these statements made by Addis that Ryle himself is confused in using several senses of 'exist'. One main reason why Ryle engages in constructing argument for the existence of minds and bodies is that he wants to assure himself that his belief in the existence of minds and bodies are rationally grounded. But the situation is radically different; the minds and bodies are ontologically different categories and this is also manifested in Rylean analysis of the concept of mind. Again troubles are many for the philosophers pertaining to the concept of "category". His concept of the category-mistake presupposes a particular concept of category which has specific kinds of features. But unfortunately, he has not given us clear idea as to what he means by "category'. He only says that, a category means a type (analogous to Russell's type which can legitimately be called meaningful within a universe of discourse. What can or cannot be asserted about something will form the boundary line of one category as opposed to other. But such a generalised theory is not applicable to each and everything. If it is accepted as a fact then certainly there may be many categories as there are or there can be actual or possible objects and ideas. Hence, we cannot ever imagine of grouping things together except in the case where the relation of identity holds. For such reason G. J. Warnock in his book Philosophy since 1900 remarks, "If one is not prepared to say what is a category and what the categories there are, can one really be entitld to employ the term category. This statement of Warnock exhibits that Ryle's concept of "category' is incompatible with its nature. Stuart Hampshire in his review article on The Concept of Mind (Mind 1950) says that "Professor Ryle has from the beginning confused a general feature of common language with a particular metaphysical theory; it is never clear precisely whom he is attacking when he attacks the Ghost and therefore what weapons are appropriate. His own explanations of his method (pp. 1, 8, 16, 17, 21-23) unfortunately involve such notoriouve obscure expressions as ‘Logical Category Logical Type' and 'The sort of thing which is meant by ......... ; obscure, because they at first look like distinctions in actual grammar (see p. 101) but, where attacked with counter examples, turn into some ideal 'Logical grammar' (p. 244); in fact behind this ideal grammar there is implied this literalist theory of language, which betrays itself in many of the arguments used!'. We agree with Hampshire that the purposes of metaphorical statements are only to make sense to spectators to understand some specific concepts. It is never used in literal senses of meaning. It would be a big mistake to use metaphorical statement in literal sense. Ryle could not understand this fact and has taken seases of metaphorical statements in literal senses of meaning which is completely undesirable and unacceptable. Whenever traditional philosophers and followers of the official doctrine have used this term "ghost' for mind, the purpose was only to show that the mind is not perceptible through our naked eyes or empirical instruments. Senses have no power to know it, because all kinds of knowledge presuppose its existence. Hence, as Hampshire has tried to show, it follows that Ryle is not protesting against philosophical theory of mind but against a universal feature of ordinary language itself. Again, in the same article Hampshire proclaims that Ryle himself claims that Categorical-Hypothetical distinction is not sufficient for explaining certain concepts. He himself claims that such translation in case of emotional agitations and soliloquies are not always possible. In the original plan of the book he himself has made Categorical-Hypo O Page #1290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ryle's Concept of the Category-Mistake 69 thetical Statements about events and ordinary words. One of the main confusions in Ryle's Concept of Mind is the use of Categorical-Hypothetical distinction borrowed from logic to make a distinction which is not strictly logicalRyle's view that to give reasons for accepting or rejecting such statements must always involve hypothetical statements about overt behaviours is due to his thinking that meaning is identical with the verification. But in fact, the overt behaviours indicate that meaning is not identical with verifications. Michael Scriven in his article The Mechanical Concept of Mind' (Mind 1953) maintains that overt behaviour does not always and necessarily give sufficient account of consciousness. The evidence is appropriate only if we have the other vital evidence which may serve the purpose of acting as the inference licence. As he says, "behaviour is attached to consciousness as pain is to torture; the one does not guarantee the other but is guaranteed by it !" All these statements support our view that mind and body both have separate status from each other and are essential feature of human personality. Indeed, we cannot know mind, apart from the body; its knowledge is possible only in relation to the body, but it does not mean that the mind is the body. No conscious and deliberate activity is possible in the absence of mind. Moreover, only conscious body can operate on many sorts of things where as the rangs of unconscious activity is quite limited. Hence, minds and bodies are essential feature of human personality. Human existence is impossible in the absence of any one of them. Both are real; though their union in human beings remains a mystery for many philosophers even in the present century. But Ryle cannot be daunted by such failure. He further defends his theory of mind by claiming that mental conduct concepts are not definable terms of cognitions. Cognitive statements are open hypothetical dispositional statements or semi-hypothetical dispositional statements which demonstrate only certain tendencies, capacities or abilities of human beings (see C. M. pp. 50, 51, 117, 118). Theorising is not an activity of mind which separates mental activities from physical occurences and indicates two different rocesses. For Ryle bodily and mental processes are not two different and distinct processes but ono proces. For evidence he has cited various examples, (See CM pp.-51, 142, 143). It is, of course, worth-noting that in some cases at least mental activities are perceptible in human behay. iours. But thereby we cannot infer definitely and necessarily that it holds in all cases. It is not only hard but also impossible to know in certain cases about others' minds. Ryle's criterion of knowing about others' minds becomes unsatisfactory and undesirable in the case of silence. We have no instrument to know in case of silence about mental activities of others' minds whether he is thinking or not and about what he is thinking. We fully agree with Hampshire on this point. Against Ryle, Hampshire maintains in his review article on The Concept of Mind (1949) that individual has 'Privileged Access to his own states of mind. First person reports about mental activities may or may not always be reducible to statements about perceptible behaviour. When I am silent, others have no criteria to have access to my state of mind. Only I can know what I am thinking. You can only guess whether one is thinking or not, but you cannot say anything about what one is thinking. In this sense, it is obvious that everyone has Privileged Access' to his mind and others have no such Privileged Access'. Therefore, on Ryle's showing 'some of the legitimate uses of such statements have been debarred from the range of meaningful utterances. There are, indeed, many cases where these terms do have cognitively legitimate uses in ordinary language. But our point is that Ryle has definitely narrowed down the criteria of knowing which is totally unsatisfactory. It is never possible to know exactly and definitely about others' minds in Page #1291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 407 7 0 Karmayogi Sri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part STAR vo all cases. Another point which we want to maintain in this paper is that Ryle could not clearly understand the difference between mental and bodily processes and had identified both of them as the process which is not justifiable. It does not matter in the least whether the two belong to the same substance or not, that is a different issue. We are also not in favour of those philosophers who maintain transcendental reality of mind. But surely it is quite probable that mental and bodily processes are totally different because both have qualities opposite to and distinct from one another. This directly indicates that there are two processes rather than one process. A. C. Ewing in his article, Prof. Ryle's attack on Dualism' (Process of the Aristotelian Society, 1952-53) has maintained that, "Throughout our life there are two qualitatively quite different groups of processes taking place in us, one consisting of sensations, emotions,cognitions, as psychological events, the other of bodily movements. These two are generically different in character. The qualities of each are dissimilar in the extreme and their relation to consciousness is quite different". Besides these, "It is only through mental that the physical is known, and all intrinsic value resides in the former, the latter being of value only as a means not as an end in itself. "Because of misunderstanding Ryle fails to discriminate between mental and physical processes and has insulated them into one process which cannot rationally be maintained. We agree with Ewing beacause if two processes are entirely different from each other, it legitimately follows that both are ontologically different. For Ryle, dispositions are not meaningful in the absence of any occurrences, though as a matter of fact, disposition may be meaningful in the absence of occurences. In Ryle's view there seems to be a confusion between meaning' and 'evidence'. Moreover, a disposition cannot properly be explained in terms of possibilities. To conclude our own view,minds and bodies both are ontologically different from each other & are present in human personality. Of course, both exist in different sense of 'exist' and belong to different logical types or categories. But it would be fallacious to negate anyone of them.. Ryle could not understand clearly the nature of mind and misconstrued his argument which can never get off the ground. He cannot proceed with his argument without making controversial statements. His own argument leads him indirectly to accept the ontological status of both the minds and the bodies which he himself refuses to accept. It is clear enough that both are ontologically present in human personality and are operating together. We cannot legitimately negate either of these. If we do so, the answer will be unsatisfactory and cannot logically be sustained. Hence, we can understand mind as different from the body, though not apart from the body, 0 63 Page #1292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE SAINT OF RĂNĂWAS Prof. S. C. TELA. M. A. LL. B. Lives of great men all remind us, We can make our lives sublime: And departing they leave behind us, Foot-prints on the sands of time. "Blessed are those who live for others; toil hard day and night and undergo suffering so the other might live in peace and happiness," said an ancient sage. How many of us are conscious or how much we take from society and how little we return to it. Here is a person who has sacrificed all material pleasures and comforts for the emancipation of society. Sriyut Kesri Malji Surāņā, popularly known as "Kākā Saheb' has a multifaced personality--a social worker, a religious teacher and preacher, an educationist, a farsighted and efficient administrator, a builder, a financial wizard, disciplinarian-all rolled in one. As a social reformer he waged determined war against some of the social evils like parda system, seclusion of women, death feasts and wasteful expenditure on social ceremonies long ago. He fought valiantly and he has succeeded to a considerable extent in mitigating some of these evils. He is a champion of women's education because he firmly believes that 'home is the first school and mother the first teacher of the child.' Sri Surāņā Sāheb is great educationist. He has been striving hard for more than three decades to spread the light of education in this backward rural region. In fact, he has been the pioneer in this field. The credit for setting up this enviable educational complex in Rānāwās, which is often referred to as "Vidyā Bhūmi'-The land of learning, goes largely to him. Vidya Bhūmi provides facilities for education from primary to the University level at a very low cost within the easy reach of rural misses. He is keen to see this complex develop still further & cater to the needs of those who wish to go in for post-graduate studies. Surely this educational complex with its infra-structure can develop into a Rural University in the course of time. What is remarkable is that besides providing education all the institutions lay particular stress on character building. We aim at turning out not simply literate persons but really educated young man of sound character. Any institution which can perform this twin job is bound to earn the gratitude of mankind. The educational institution of Vidyā Bhūmi' are free from all those maladies Page #1293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 Karmayogi Śri Kesarimalji Surāņā Abhinandana Grantha : Seventh Part which pose a challenge to the educationists of the country and seem to threaten the very foundations of our educational framework. The institutions here work on the ancient Gurukula lines under the dynamic leadership of Sri Surānāji. Even a casual visitor to the Vidyā Bhumi is reminded of Pt. Madan Mohan Malviya, the founder of Banaras Hindu University. Dr. D. S. Kothari, Ex-Chairman U. G. C. and at present Chancellor J. L. N. University, who was good enough to pay a visit and spend three days with us two years ago, paid a rich tribute when he observed, “How we wish we could have at least twenty such Rāņāwās scattered all over the country." But we will need twenty Kākā Sāheb for such twenty complexes, and the question is rom where to get thent. Śri Surāṇāji is a dedicated disciple of Acārya Tulsi This religious soul spends about 15 hours daily in meditation and other religious pursuits. His daily time table is very rigid where every minute is valuable. He has a wonderful memory and he seldom forgets a person who has met him, or an incident howsoever old it may be. He has learnt by heart Pratikrmaņa, Pachhisa Bol, Bhaktaamar stotra and Mantras. The accounts, names of doners and details pertaining to donations, resolutions passed or decision taken long ago are all on his finger tips. Kākā Säheb is a man of strong will power and firm determination. He is known for his robust optimism. The word 'impossibie does not exist in his dictionary. He believes in expansion with consolidation. He always emphasizes that decision should be taken after great care, cool thinking and due consideration of all the aspects, but once the decision is taken he has no peace till it is executed. He is a great builder. The magnificent buildings and the imposing campus bear ample testimony to his engineering skill. He is a practical economist. He follows rigidly the sound business maxim, 'cut your coat according to the size of the cloth.' He always says, "Do not touch the capital, utilize only the interest," because one cannot live on capital for long. To him goes the entire credit of building a very strong and sound financial base for the samsthā. Simple living and high thinking, austerity and self denial characterise his life. One really wonder how he manages his household with just Rs. 100/- a month in these hard times when every thing is so expensive. It is because of the various sterling qualities that Surāṇāji is held in high esteem by everybody. He enjoys a unique place in the Jain community and is rightly called The Gandhi of Terāpantha." He will always be remembered as a great benefactor, a philanthropist, a dādicated selfless worker and a lover of men. He has completely indentified himself with the lofty ideas of the Mänava Hitkāri Sangha and has translated the principles of Jainism in actual life and has followed religiously the great teachings of Bhagawāna Mahāvira. He is indeed an institution by himself. Long live Sri Surāṇāji ! Page #1294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BAS जीवन को यदि पुष्प कहाजाए, तो सेवा, समर्पणभाव और समग्र मानवता के कल्याणका सत्संकल्पउसकीमधुर सुवास है. जीवन को यदि दीपक कहाजाए तो संयम,त्याग,आत्मअनुशासन उसकी दिव्यज्योति है. श्रीकेसरीमलजीसुराणा काजीवन-पुष्प,सदाबहारपुष्पहै जिसकीमधुरसुवास से परिपार्श्वकासमय वातावरण आधी शताब्दी से सुरमितहोरहा है। श्रीकेसरीमल जी सुराणा कीजीवन-ज्योतिसेवेस्वयं तोदीप्तिमान है ही उनके सानिध्य में आने वाला हर दीपक प्रज्ज्वलित हो उठता है. विगत पांच दशक से उनकाजीवन, त्याग काजीवन्त रूप,सेवा का प्रवहमान स्रोत, ज्ञान की प्रज्ज्व लित 'शिरवा, समत्व और कर्मयोगका प्रवर्तमान चक्र तथा सादगी,सत्यनिष्ठा,अनुशासन, कर्तव्यपालन का एक महाकाव्य-सा बन चुका है। CHTHAH प्रकाशक-कर्मयोगी श्रीकेसरीमलजीसुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशनसमिति, जैन तेरापंथ महाविद्यालय,राणावास-३०६०२३. मुढ़क-श्रीचन्दसुराना सरस' १६,नेहरूनगुर आगराके निदेशनमें मोहन मुद्रणालय,शैल प्रिन्टर्स एवं श्री प्रिन्टर्स,आगरा. a Eden Internal Som Private's Binal Use Only Jwwaropalbrary.org