SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1054
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विदेशों में जैनधर्म २३ ......................................................................... है। राजनीति के जंजाल में वे प्रायः कभी नहीं पड़े । इसके बावजूद भी जैनधर्म विदेशों में पहुँचा । उसे विदेशियों की गुणग्राहकता ही कहना चाहिए। २. आधुनिक यग आधुनिक युग में विदेशों में पहुँचे हुए जैनधर्म की स्थिति को समझने के लिए जैन साहित्य की ओर दृष्टिपात करना होगा। १८-१९वीं शती में विशेषरूप से विदेशी विद्वानों का ध्यान प्राचीन जैन साहित्य की ओर आकर्षित हुआ। उन्होंने हस्तलिखित जैन ग्रन्थों की खोजकर उन्हें सुसंपादित किया और प्रकाशित कर अन्य विद्वानों के लिए शोध-खोज के क्षेत्र में मार्ग प्रशस्त किया। प्राकृत भाषा और साहित्य की ओर उनका झुकाव अधिक दिखाई देता है। जैन हस्तलिखित ग्रन्थ-सूची कदाचित् विदेशी विद्वानों ने ही हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची-निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया है। सर्वप्रथम वियेन से ई० १८८१ में वू तर ने संस्कृत-प्राकृत हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची प्रकाशित की। इसके बाद पीटरसन ने सन् १८८२ से १८९४ के बीच वम्बई क्षेत्र से चार रिसोर्ट प्रस्तुत की जिनमें कुमारपाल प्रतिबोध, पउमचरिय आदि ग्रन्थ प्रकाश में आये। इसी प्रकार वेबर का Verzzichnies des Sanskrit and Prakrit Hand-schriften der Kinig lichen Bibliothek lu Berlin." (1886-1892), Th. Aufrecht Fr Florentine Sanskrit Manuscripts examined' (1892), Pulle का 'The Florentine Jain Manuscripts' (London, 1893), एवं Leumann का 'A List of the Strassbury Collection of Digambar Manuscripts' (Vien, 1897), कार्य भी उल्लेखनीय हैं । इन कार्यों के बाद ही भारतीय विद्वानों ने इस ओर ध्यान दिया है। जैनागम ग्रन्थ सम्पादन इस क्षेत्र में भी सर्वप्रथम Buhler, Keilhorn, Jacobi, Weber, Leumann, Peterson आदि विदेशी विद्वानों ने ही कार्य किया है । Jacobi ने आचारांग (London P. T. S. 1882), Schubring ने आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध (१९१०), Weber ने "Fragment, der Bhagawati, Steinthal ने 'नायाधम्मकहाओ', (Leipzig, 1881), Hoernle ने उवासकदसाओ (पूना, १६४०) तथा रायल एशियाटिक सोसाइटी ने अन्तगडदसाओ (लंदन, १९०७) का संपादन किया। उपांगों में औपातिकमूत्र का सम्पादन Leumann ने सर्वप्रथम किया (Leipzin, 1885) और इसी के गर आधार पर बाद में अन्य विद्वानों ने अनेक संस्करण तैयार किये। सूर्यप्रज्ञप्ति को इसी तरह सर्वप्रथम अपने अध्ययन का विषय बनाने वालों में Weber व Thibaut हैं जिन्होंने इस पर निबन्ध लिखे। इसके बाद जे० एन० कोही ने उसका संपादन किया और जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति के साथ उसका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया (Stuttgart, 1937) । इसी तरह S. J. Warren का प्रबन्ध "Niryavaliya-suttam een Upanga der Jains" 'निरयावलियसुतं' के विस्तृत अध्ययन के लिए बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ। छेदसूत्रों के अध्ययन में भी विदेशी विद्वानों ने अपना महनीय योगदान दिया है। W. Schubring ने संक्षिप्त पर महत्त्वपूर्ण भूमिका के साथ महानिशीय का सम्पादन किया (Berlia, 1918) और उन्हीं ने फिर कल्पसूत्र, व्यवहार-सूत्र और निशीथसूत्र को भी एक साथ सम्पादित कर प्रकाशित किया। Celette Caillat ने व्यवहारसूत्र का सम्पादन कर अनुवाद के साथ फ्रांस में उसे तीन भागों में प्रकाशित किया। H. Jacobi ने सर्वप्रथम दसासुयक्बंध का १. "Uber die Suryaprajnapti" published in India Studies, Vol. X, p. 254-316., Leipzig, 1868. Journal of the Asiatic Society of Bengal, Vol. XLIX, p. 109-127, etc. 181-206. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy