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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिमन्टन प्राय : षष्ठ खएर
तुलनात्मक अध्ययन के साथ सम्पादन किया (Leipzig, 1879) जिसका अंग्रेजी अनुवाद Sacred Books of the East Vol. 22 में प्रकाशित हुआ। बाद में उन्होंने कल्पसूत्र का भी सम्पादन किया। J. Stevenson ने उन्हीं के अनुकरण पर कल्पसूत्र और नवतत्व का संयुक्त सम्पादन किया । अंग्रेजी अनुवाद के साथ (London, 1848)।
w.schubring ने भी बरपसूत्र वा अरयन किया-Das Kalpasutra, dic alte Sammlung Unistischer Monchs uor sehriften" (Leipzig, 1905)
मूलसूत्रों पर भी विदेशी विद्वानों ने अध्ययन का सूत्रपात किया। H. Jacobi ने उत्तराध्ययन का सम्पादन तुलनात्मक अध्ययन के साथ सर्वप्रथम प्रस्तुत किया।' J. Charpentier ने उसके अध्ययन को और आगे बढ़ाया। आवश्यक सूत्र और उसकी टीकाओं का E. Leumann ने अच्छा अध्ययन प्रस्तुत किया। उन्होंने आवश्यक साहित्य का प्रथम भाग तो प्रकाशित कर दिया (Hemburg 1934) पर द्वितीय भाग अभी तक सामने नहीं आ पाया । Leumann ने नियुक्ति सहित दशवकालिक सूत्र को तुलनात्मक अध्ययन के साथ सम्पादित किया (Bombay Samvat 1999.)
अर्धमागधी आगम साहित्य के अ ययन की ओर विदेशी विद्वानों का झुकाव अधिक रहा है, शौरसेनी आगम साहित्य की ओर नहीं आगमेतर ग्रन्थों का संपादन-अनुसंधान
यह बहविध व्यापी क्षेत्र है । इस क्षेत्र में चरितकाव्यों में से जेकोबी ने सर्वप्रथम विमलसूरि के पउमचरिय का संपादन विया (भारनगर, १६१४) । कथाकाच्यों में से तरंगवईकहा का सम्पादन Leumann ने और समराहच्चकदा तथा कालकाचरियकहानय (ZDMG, Vol. XXXIV, p. 247-318, Leipzig 1880) का सम्पादन विस्तृत भूमिका के साथ जेकोबी ने (Asiatic Society of Bengal, Calcutta, 1926) किया । Leumann ने भी Zwei weitere Kalaka-Legenden शीर्षक से इसका अध्ययन किया ।
प्राकृत कोषों के क्षेत्र में Buhler पहले "On a Prakrit Glossar entitled Pailacchi और The author of the Pailacchi' शीर्षक दो निबन्ध लिखे और फिर पाइयलच्छी नाममाला का सम्पादन स्वयं किया । इसी तरह हेमचन्द्र की देशीनाममाला तथा उसकी टीका का सम्पादन R. Pischel ने किया ।५
विदेशी विद्वानों ने प्राकृत जैन साहित्य के आधार पर प्राकृत भाषाओं का भाषा-वैज्ञानिक अध्ययन भी किया है। इस दृष्टि से A. Hoefer, J. Beames, G. Gold Schamidt, E. Muller, A. F. Rudolf, John Beames, H. Jacobi, R. Pischel, Sten Kcmeu, T. Burrow, Alsdorf, Hulsh, Buhler, Bloch, Wilson आदि विद्वानों के नाम इस क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं। इनमें भी Jacobi और Pischel विशेष स्मरणीय हैं । Jacobi के Uber Unregel massige Passive in Prakrit (Kuhre's Zeitschift fur deultschen morgenlandischen ceselleschaft, Vol. XXXIII, pp. 249-259, Gutersloh, 1887), 791 Uber das Prakrit in der Erahlungh-Leteratur der Jainas (Rivista degi studi oriental, Vol. II pp. 231-236, Roma, 18881909) कार्य यहाँ उल्लेखनीय हैं, जिनमें उन्होंने प्राकृत की विभिन्न विशेषताओं को भाषाविज्ञान के क्षेत्र में अध्ययन का विषय बनाया। हरिभद्रसूरि की समराइच्चकहा तथा विमलसूरि के पउमचरिउं के अध्ययन के आधार पर यह निचित करने का प्रयत्न किया कि जैन महाराष्ट्री प्राकृत के गद्य-पद्य साहित्य की विशेषताएँ पृथक्-पृथक हैं।
१. SBE, Vol. 45. २. Upsala, 1914. ३. Indian Antiquary, Vol. II, pp. 166-168, Bombay, 1875. ४. Ibid., Vol. IV, p. 59-60, Bombay, 1875. ५. बंबई, १८८०.
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