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विदेशों में जैनधर्म
___R. Pischel ने 1900 में Strassburg से Grammatik 'der Prakrit Sprachen (Grundriss der Indo-arischen philogie un Alterturns kunde, Band I, Heft 8) प्रकाशित कर भाषावैज्ञानिकों को प्राकृत का अध्ययन करने के लिए और भी प्रेरित कर दिया। यहाँ लेखक ने यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्राकृत जैन आगमों की भाषा को अर्धमागधी नाम दिया जाना चाहिए, जैन प्राकृत नहीं । इसी प्रकार महाराष्ट्री जैन प्राकृत के स्थान पर सौराष्ट्री जैन प्राकृत तथा दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राकृत आगम ग्रन्थों की भाषा को शौरसेनी जैन प्राकृत कहा जाना चाहिए।
प्राकृत व्याकरणों का अध्ययन प्राकृत व्याकरणों को साधारणतः द्रो सम्प्रदायों में विभक्त किया गया है-पूर्वी और पश्चिमी। पूर्वी सम्प्रदाय का नेतृत्व वररुचि करते हैं और पश्चिमी सम्प्रदाय का नेतृत्व हेमचन्द्र। पाश्चात्य विद्वानों ने इन दोनों सम्प्रदायों पर काम किया है । पूर्वी व्याकरण सम्प्रदाय पर शोध प्रारम्भ करने का श्रेय Cl. Lassen को दिया जा सकता है जिन्होंने १८३७ में Bonnae से Institutions Linguae Pracritieae नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया।
कतिपय विद्वान् चण्ड के 'प्राकृत लक्षण' को वररुचि से भी पूर्ववर्ती मानते हैं। प्राकृत लक्षण का सर्वप्रथम सम्पादन H. Hoernle के किया जो १८८० में कलकत्ता से The Prakrit Lakshanam or Chanda's Grammar of the ancient (आर्ष) Prakrit, Pt. I, text with a critical Introduction and Indexes नाम से प्रकाशित हुआ। Hoernle की दृष्टि में चण्ड ने आर्ष (अर्धमागधी महाराष्ट्री) व्याकरण लिखा है और यह चण्ड वररुचि से पूर्ववर्ती है । परन्तु Block ने अपने Vararuchi unt Hemachandra शीर्षक निबन्ध में इस मत का खण्डन किया है और कहा है कि चण्ड ने अपना व्याकरण हेमचन्द्र आदि अनेक व्याकरणों से उधार लिया है। इतना ही नहीं, उसमें अशुद्धियाँ भी बहुत हैं। पिशल ने इन दोनों मतों का खण्डन किया और कहा कि चण्ड उतना प्राचीन नहीं जितना Hoernle मानते हैं । डॉ० हीरालालजी ने भी चण्ड़ को वररुचि से पूर्वतर माना है।
क्रमदीश्वर का संक्षिप्तसार हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के आधार पर लिखा गया है। इसका सर्वप्रथम सम्पादन Lassen ने १८३६ में 'इन्स्टीट्यूत्सीओनेस' में किया जिसका कुछ भाग “राडियेत प्राकृतिका ए (बौनाएआर्डरनुम)" नाम से प्रकाशित हुआ।
पुरुषोत्तम के प्राकृत शब्दानुशासन का सर्वप्रथम सम्पादन Nitti Dolci ने नेपाल से प्राप्त एक ही प्रति के आधार पर किया जिसका प्रकाशन १९३८ में पेरिस से हुआ। कोबेल और आफरेस्ट के भी प्राकृत-अध्ययन का मूल्यांकन Dolci ने किया।
प्राकृत-कल्पतरु के रचयिता रामतर्कवागीश का उल्लेख लास्सन ने इन्स्टीट्यूत्सीओनेस में किया। उसके समूचे भाग को एक साथ प्रकाशित नहीं किया जा सका । ग्रियरसन ने उसके कुछ भागों को निबन्धों के रूप में अवश्य प्रस्तुत किया है। बाद में सम्पूर्ण ग्रन्थ का सम्पादन E. Hultzsch ने किया जिसका प्रकाशन रायल एशियाटिक सोसाइटी Hertford से १९०६ में हुआ।
प्राकृत व्याकरण के पश्चिमी सम्प्रदाय के प्रमुख वैयाकरण आचार्य हेमचन्द्र को कहा जा सकता है। उनका प्राकृत व्याकरण "सिद्धहेमशब्दानुशासन" का अष्टम अध्याय है जिसका सर्वप्रथम सम्पादन R. Pischel ने दो भागों में किया जिनका प्रकाशन Halle से १८७७ और १८८० में हुआ। प्रथम भाग में मूलग्रन्थ और शब्द-सूची दी गई है और द्वितीय भाग में उसका जर्मन अनुवाद, विशद व्याख्या और तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इसमें पिशल ने हेमचन्द्र के सिद्धान्तों की मीमांसा की है। कहीं वे उनसे सहमत भी नहीं हो सके। कहीं उन्होंने अकथ्य की भाषा को कथ्य भी बना दिया। अर्धमागधी, महाराष्ट्री आदि के अतिरिक्त ढक्की, दाक्षिणात्या, आवन्ती और जैन-शौरसेनी जैसी प्राकृत बोलियों पर पिशल ने बिलकुल नई सामग्री प्रस्तुत की है।
त्रिविक्रम के शब्दानुशासन के आधार पर सिंहराज ने 'प्राकृत रूपावतार' लिखा जिसका प्रथम सम्पादन
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