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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
था। पाल्नाथ धर्म प्रचार के लिये शाक्यदेश (नेपाल) गये थे। अफगानिस्तान में भी जैनधर्म के अस्तित्य के अनेक प्रमाण मिलते हैं । वहाकरेन एमीर (अफगानिस्तान) से कायोत्सर्ग मुद्रा में संगमरमर से निर्मित तीर्थंकर की मूर्ति भी प्राप्त हुई है। ईरान, स्थान और फिलिस्तान में दिगम्बर जैन साधुओं का उल्लेख आता है यूनानी लेखक मिश्र, एवीसीनिया और इयूपिया में भी दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व बताते हैं। काम्बुज, चंपा, बल्गेरिया आदि में भी जैनधर्म का प्रचार हुआ है। केमला (बल्गेरिया) से तो एक कांस्य तीर्थंकर मूर्ति भी प्राप्त हुई है ।
प्राचीन साहित्य में समुद्री यात्राओं का वर्णन बहुत मिलता है। जैन श्रावक भी देश-विदेश में व्यापार के लिए इस प्रकार की यात्रायें किया करते थे । कुवलयमाला में निम्नलिखित जलमार्गों की सूचना मिलती है :५
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१. सोपारक से चीन, महाचीन जाने वाला मार्ग (६६.२)
म. सुवर्णद्वीप से लौटने के रास्त में कुडंगद्वीप (८२-४)
२. सोपारक से महिला राज्य (तिब्बत) जाने वाला मार्ग (६६.३) ६. लंकापुरी को जाते हुए रास्ते में कुडंगद्वीप (८९.६)
३. सोपारक से रत्नद्वीप (६६.४)
१०. जयश्री नगरी से यवनद्वीप ( १०६.२ )
११. यवनद्वीप से चन्द्रद्वीप (१०६.१६ )
१२. समुद्रतट से रोहणद्वीप (१२१.१३, १६) १३. सोपारक से बब्बरकुल (६५.३३ )
१४. सोपारक से स्वर्णद्वीप (६६.१) ६
४. रत्नद्वीप से तारद्वीप ( ६६.१८ )
५. सारद्वीप से समुद्रतट (७०.१२, १०
६. कोशल से लंकापुरी (७४.११)
७. पाटलिपुत्र से रत्नद्वीप के रास्ते में कुडलद्वीप ( ८८.२६, ३०)
ये जैन व्यापारी जहाँ व्यापार करने जाते होंगे वहाँ जैन परिवार मन्दिर स्थानक, उपाश्रय होने की सम्भावना अधिक है; क्योंकि जैन श्रावक की क्रियायें कुछ इस प्रकार की होती हैं जिन्हें उनके बिना पूरा नहीं किया जा सकता । अतः इन देशों में जैनधर्म निश्चित रूप से काफी अच्छी स्थिति में रहा होगा ।
जैन संस्कृति का प्रचार-प्रसार विदेशों में अधिक क्यों नहीं हुआ, यह एक साधारण प्रश्न हर अध्येता के मन में उभर आता है । उसका सबसे बड़ा कारण यह रहा, जहाँ तक मैं समझता हूँ, कि अशोक जैसे कर्मठ और क्रान्तिकारी नरेश की छाया जैनधर्म को नहीं मिल सकी । इसका तात्पर्य यह भी नहीं कि जैनधर्म को राजाश्रय नहीं मिला । राजाश्रय तो बहुत मिला है और यही कारण है कि भारत में बौद्धकला और स्थापत्य की अपेक्षा जैनकला और स्थापत्य परिमाण और गुण दोनों की अपेक्षा अधिक है । परन्तु यह राजाश्रय मातृभूमि तक ही सीमित रहा। विदेशों तक नहीं जा सका ।
एक अन्य कारण यह भी माना जा सकता है कि जैन आचार का परिपालन अपेक्षाकृत कठिन प्रतीत होता है । बौद्धधर्म की तरह यहाँ शैथिल्य या अपवादात्मक स्थिति नहीं रही । बौद्धधर्म विदेशी संस्कृति के परिवेश में अपने आपको बहुत कुछ परिवर्तित करता रहा जो जैनधर्म नहीं कर सका। जैनधर्म के स्थायित्व का भी यही कारण है। बौद्धधर्म अपने आचार-विचार की शिथिलता के कारण अपनी जन्मभूमि से सुप्तप्राय हो गया पर जैनधर्म अनेक सोखी झंझावातों के बावजूद सुदृढ़ और लोकप्रिय बना रहा। जैन इतिहास से देखने को यह भी आभास होता है कि जैनाचार्य भी स्वयं जैनधर्म को विदेशों की ओर भेजने में अधिक उत्सुक नहीं रहे । वे तो सदा साधक रहे हैं, आत्मोन्मुखी रहे
१. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा ३३६-३७.
२.JRAS. (India), Jan. 1885.
२. जे०एफ० मूट, हुकुमचन्द्र अभिनन्दन प्रत्व, पृ० ३७४.
४. Asiatic Researches, Vol. 3, p. 6.
५. कुवलयमाला का सांस्कृतिक अध्ययन, डा० प्रेमसुमन जैन, पृ० २११.
६. द्रष्टव्य - गो० इ० ला०३०, पृ० १३८.
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