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विदेशों में जैनधर्म
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सफल हो गया। उसने अनुराधापुर के आस-पास जातिय निग्गंठ के लिए एक विहार भी बनवाया। वहाँ लगभग पाँच सौ विभिन्न मतावलम्बियों का निवास था । वहीं गिरि नामक एक निग्गंठ भी रहता था।'
पाँच सौ परिवारों का रहना और निग्गंठों के लिए विहार का निर्माण करना स्पष्ट सूचित करता है कि श्रीलंका में लगभग तृतीय-चतुर्थ शती ई० पू० में जैनधर्म अच्छी स्थिति में था। बाद में तमिल आक्रमण के बाद बट्टगामणि अभय ने निग्गण्ठों के विहार आदि सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर दिये । महावंश टीका के अनुसार खल्लाटनाग ने गिरि निग्गण्ठ के बिहार को स्वयं नष्ट किया और उसके जीवन का अन्त किया।
जैन परम्परा के अनुसार श्रीलंका में विजय के पहुँचने के पूर्व वहाँ यक्ष और राक्षस नहीं थे बल्कि विकसित सभ्यता सम्पन्न मानव जाति के विद्याधर थे, जिनमें जैन भी थे। श्रीलंका की किष्किन्धानगरी के पास त्रिकूट गिरि पर जैन मन्दिर था जिसे रावण ने मन्दोदरि की इच्छापूर्ति के लिए बनवाया था ।५ किष्किन्धानगरी की पहचान आधुनिक केन्डी से की जा सकती है जिसके समीप आज भी एक सुन्दर पर्वत-शृंखला विद्यमान है। इसी पर्वत पर आज भी रावणपरिवार के अवशेष-चिह्न सुरक्षित बताये जाते हैं।
जैन साहित्य श्रीलंका में जैनधर्म के अस्तित्व को और भी अनेक प्रमाणों से स्पष्ट करता है। कहा जाता है, पार्श्वनाथ की जो प्रतिमा आज शिरपुर (वाशिम, महाराष्ट्र) में रखी है, वह वस्तुतः श्रीलंका से माली-सुमाली ले आये थे।६ करकण्डुचरिउ में भी लंका में अमितवेग के भ्रमण का उल्लेख मिलता है और मलय पर्वत पर रावण द्वारा निर्मित जैन मन्दिर का भी पता चलता है । मलय नामक पर्वत श्रीलंका में आज भी विद्यमान है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रीलंका में जैनधर्म का अस्तित्व वहाँ बौद्धधर्म पहुँचने के पूर्व था और बाद में भी रहा है । तमिलनाडु के तिरप्परंकुरम (मदुरै जिला) में प्राप्त एक गुफा का निर्माण भी लंका के एक गृहस्थ ने कराया था। यह वहाँ से प्राप्त एक ब्राह्मी शिलालेख से ज्ञात होता है । जहाँ तक पुरातात्त्विक प्रमाणों का प्रश्न है, श्रीलंका में वे नहीं मिलते। डॉ० पर्णवितान ने यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि यद्यपि जैनधर्म से सम्बद्ध पुरातात्त्विक प्रमाण श्रीलंका में अभी तक उपलब्ध नहीं हुए पर प्राचीन स्तूपों को मूलतः जैन स्तूपों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।"
बर्मा तथा अन्य देश वर्मा को प्राचीन काल में सुवर्णभूमि के नाम से जाना जाता था। कालकाचार्य ने सुवर्णभूमि की यात्रा की थी।" ऋषभदेव ने बहली (बेक्ट्रिया), यवन (यूनान), सुवर्णभूमि, पण्डव (ईरान) आदि देशों में भ्रमण किया
१. महावंश, पृ० ६७. २. वही, ३३-७६. ३. महावंशटीका, पृ० ४४४. ४. हरिवंशपुराण, पउमचरिउ आदि ग्रन्थ इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य हैं। ५. विविधतीर्थकल्प, पृ० ६३. ६. वही, पृ० १०२. ७. करकण्डुचरिउ, पृ० ४४-६६. ८. यशस्तिलकचम्पू, पृ० ३४, १८१, ४६६. ६. जैन कला व स्थापत्य, भाग-१, पृ० १०२. १०. Pre-Buddhist Religion Beliefs, JRAS (Ceylon), Vol. XXXI, No. 82, 1929, p. 325. विशेष
देखिये, लेखक की पुस्तक Jainism in Buddhist Literature, p. 46-50. ११. उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा १२०, बृहत्कल्पभाष्य, भाग १, पृ०७३-७५.
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