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महान साहित्यकार तथा प्रतिभाशाली श्रीमज्जयाचाय
D साध्वी श्री भिकांजी (नोहर) युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी की शिष्या
तेरापंथ धर्म-संघ के चतुर्थ नायक श्री जीतमल जी स्वामी थे। आपकी प्रतिभा अद्वितीय थी, मेधा बड़ी प्रखर थी। जिस कार्य में भी हाथ बढ़ाया, उसमें सफलता ही मिली। भला पुरुषार्थी का कौन सहयोगी न बनता? आपने धर्मसंघ की सर्वतोमुखी प्रगति के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दी। फलस्वरूप तेरापंथ धर्म-संघ में एक नया मोड़ आया। हालाँक पूर्व तीनों आचार्यों ने भी बहुत कुछ काम किया, किन्तु घोर संघर्ष के कारण जनता अंकन नहीं कर पायी। पर आपके समय में संघर्ष ने कुछ विराम लिया, अस्तु आप धर्म-संघ की नींव को सुदृढ़ बनाने के लिए अथक परिश्रम से साहित्य निर्माण की ओर प्रवृत्त हुए क्योंकि साहित्य जीवन निर्माण के लिए सर्वोत्कृष्ट पाथेय एवं आधेय भी माना जाता है। हर संस्कृति का आधार साहित्य होता है। बिना साहित्य के बौद्धिक वर्ग कुछ पा नहीं सकता, इसलिए संघ को पल्लवित एवं विकसित करने के लिए आपने अपनी लेखनी चलानी शुरू की जबकि साहित्य हमारे प्रथम प्रणेता श्रीमद् भिक्षु स्वामी ने भी बहुत लिखा, लगभग ३८ हजार पद्य । स्वामी जी की लेखनी ने जयाचार्य को प्रभावित किया । परिणामस्वरूप आपने साढ़े तीन लाख पद्य रचे । उनका विवरण संक्षेप में प्रस्तुत करना ही इस लेख का विषय है।
आपने नौ वर्ष की अवस्था में संयम स्वीकार किया। दो वर्ष बाद आपने लिखना आरम्भ कर दिया। ग्यारह वर्ष की आयु में ही आपकी काव्य शक्ति प्रस्फुटित होने लगी जो क्रमशः द्वितीया के चाँद तरह बढ़ती ही गई। आपकी स्मरण शक्ति एवं मेधा बड़ी विचित्र थी। इस अवस्था में जहाँ बालक अपने आप को भी नहीं संभाल पाता वहाँ आप साहित्यकार बन गये । “सन्त गुण माला" नामक आपका पहला ग्रन्थ देखकर आपकी असाधारण प्रतिभा का परिचय पाया जा सकता है।
आपकी साहित्यिक प्रतिभा को उजागर करने वाली साध्वीप्रमुखा श्री दीपांजी थी। वह घटना इस प्रकार है कि एकदा आप एक काष्ठ पात्री के रंग-रोगन देकर तैयार कर आपने आराध्य देव ऋषि रायचन्द जी को दिखा रहे थे, इतने में साध्वी श्री दीपांजी भी आ पहुंची। उन्होंने देखकर कहा कि ऐसा कार्य तो हम जैसी अनपढ़ साध्वियां भी कर सकती हैं। किन्तु मुनि प्रवर ! आप तो सूत्र-सिद्धान्तों का अन्वेषण कर कोई उपयोगी रत्न निकालते जिससे आपका और धर्मसंघ का विकास होता। इस छोटे से वाक्य ने आपके मानस को झकझोर डाला। फलस्वरूप आपने अनेक शास्त्रों का अवगाहन कर पञ्च-टीका लिखनी शुरू की । आगम जैसे दुरूह पथ पर बढ़े, जिसकी भाषा प्राकृत थी। सतत प्रयत्न करके अठारह वर्ष की अवस्था में सर्वप्रथम “पन्नवणा" सूत्र की जोड़ (पद्य-टीका) करके केवल तेरापंथ को ही नहीं वरन् सम्पूर्ण जैन समाज को उपकृत किया। उसके पश्चात् उनका हौसला बढ़ता गया। एक के बाद एक आगमों का अनुसन्धान कर तत्त्व-जिज्ञासुओं के समक्ष नवनीत देते रहे। आपकी काव्य शक्ति विलक्षण थी । सुना जाता है कि जिस टाइम रचना करते उस टाइम अपने पास पांच सात साधु-साध्वियों को लिखने के लिए बैठा लेते। आप पद्य बोलते जाते, साधु-साध्वियाँ अनवरत रूप से क्रमशः लिखते जाते। कोलाहलमय वातावरण में भी लेखक की लेखनी विविध धाराओं में निर्बाध गति से चलती रही। आपने जहाँ भगवती जैसे आगम जटिल विषय का राजस्थानी भाषा में पद्यानुवाद किया, वहाँ अनेक स्तुति काव्य, औपदेशिक काव्य, तात्विक-गद्य पद्य रूप में, इतिहास, जीवन
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