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तेरापंथ के हधर्मी श्रावक : अर्जुनलालजी पोरवाल 0 मुनि श्री बुद्धमल्ल युगप्रधान आचार्य श्री तुलसी के शिष्य
रावजी की नौकरी-अर्जुनलालजी का जन्म वास नामक ग्राम में रायचन्दजी पोरवाल के घर संवत् १९५३ में हुआ। वे चार भाई थे, प्रथम भाई कालूलालजी तथा चतुर्थ भाई मनोहरलालजी की मृत्यु बाल्यकाल में ही हो गई, अत: अर्जुनलालजी और सोहनलालजी ये दो भाई ही रहे। घर की आर्थिक स्थिति साधारण थी। उनके पिता वास में ही अन्न तथा वस्त्र की दुकान करते थे। उससे घर का व्यय भी कठिनता से ही निकल पाता था। अर्जुनलालजी ने नौकरी करने का निश्चय किया। खोज करने पर उन्हें मेरपुर रावजी के यहाँ नौकरी मिल गई। शीघ्र ही वे वहाँ के खजांची बन गये। एक दिन उन्हें एक पशु-पालक से खरीदे गये पशुओं का मूल्य चुका देने के लिए कहा गया । लेखा करते समय उन्हें ज्ञात हुआ कि राव साहब के 'रसोड़े' में पकने वाले मांस का स्रोत यही पशु-पालक है। वे निरीह पशुओं के वध में सहयोगी बनने से घबराये । लेखा-जोखा बीच में ही छोड़कर उन्होंने रावसाहब से कहा- "जैन हूँ, अत: यह कार्य किसी भी स्तर पर करना नहीं चाहता।" रावसाहब ने उनको समझाने का काफी प्रयास किया कि इसमें तुम्हें कौनसी हिंसा करनी पड़ती है ? तुम्हें तो केवल हिसाब करके मूल्य चुकाना पड़ता है, परन्तु उन्होंने वह कार्य करना स्वीकार नहीं किया। अपना वेतन लिये बिना ही वे वहाँ से अपने घर चले आये। कालांतर में जब रावजी वास आये, तब उनका अवशिष्ट वेतन उन्हें देने लगे परन्तु उन्होंने उसे लेने से इन्कार कर दिया। आखिर रावजी ने उनके सम्बन्धियों के माध्यम से वह रकम उनकी पत्नी के पास भिजवा दी। .
तान्त्रिक से झगड़ा-अर्जुनलालजी वास में आकर वहाँ की दुकान का कार्य देखने लगे। वहाँ नवला नामक एक तेली तन्त्र-क्रिया का जानकार था, उसने उनके यहाँ से कुछ रुपये उधार लिये, परन्तु बहुत दिन हो जाने पर भी वापस नहीं लौटाये। उन्होने तब उगाही के लिए उसके घर पर अपना आदमी भेजा। तेली ने उसे डरा-धमका कर वापस भेज दिया। अर्जुनलालजी को उसका वह व्यवहार बहुत बुरा लगा । वे स्वयं उसके घर जाने को उद्यत हुए। कई व्यक्तियों ने उनको टोकते हुए कहा कि वह तान्त्रिक है, अत: उससे उलझना लाभदायी नहीं है । अर्जुनलालजी निर्भीक व्यक्ति थे, अत: किसी का भी कथन उन्हें प्रभावित नहीं कर सका, वे तत्काल वहाँ गये और अपने पैसे मांगने लगे। तेली उनसे भी उलझ पड़ा उसने धमकी देते हुए कहा- "तुमने मुझे समझ क्या रखा है ? मैं मूठ मार कर तुम्हें इसी समय समाप्त कर सकता हूँ।" उसके गर्वोक्तिपूर्ण कथन ने अर्जुनलालजी को उत्तेजित कर दिया। उन्होंने आव देखा न ताव चील की तरह झपटे और भुजाओं में कसते हुए उसे पार्श्ववर्ती गड्ढे में ढकेल दिया। उसके अनेक चोटें आई । बहुत दिनों के उपचार के पश्चात् ही वह ठीक हो पाया- उसी दिन से उसकी तान्त्रिक विद्या की धाक सदा के लिए समाप्त हो गई।
भौई और भोजन-मेवाड़ में राखी के त्यौहार से पूर्ववर्ती रविवार के दिन 'वीर फूली' नामक त्यौहार मनाया जाता है । वह भाइयों की ओर से बहिनों के लिये मनाया जाने वाला त्यौहार है। उस दिन बहिन-बेटियों को बुलाया जाता है और दाल बाटी तथा चूरमे का भोजन कराया जाता है। उस दिन जब अर्जुनलालजी सायंकालीन भोजन करने के लिए घर आये तब उनकी थाली में भी चूरमा, बाटी और दाल परोसी गई। सबसे छोटे भाई मनोहर ने उनके साथ बैठ कर ही भोजन करना चाहा परन्तु उन्होंने उसे अपने साथ नहीं बिठाया। बाल स्वभाव के कारण वह
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