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________________ जैन धर्म में कर्म-सिद्धान्त २२५ .. ... .. .......-. -. -. -. -...-.-.-. -.-.-. -. -. -.-.-.-.-.-.-.-.-. -. -. सुचिण्णा कम्मा, सुचिण्णा फला हवन्ति । दुचिण्णा कम्मा, दुचिण्णा फला हवन्ति ।। इस आगम-वाक्य की संक्रमणा के साथ संगति नहीं बैठ सकती। इसकी संगति के लिए निकाचना का सहारा लेना होता है। यह परिवर्तन का सिद्धान्त अनुदित कमों के साथ लागू होता है, उदित के साथ नहीं । क्योंकि उदयावलिका में प्रविष्ट कर्म-पुद्गल के उदय में कोई अन्तर नहीं आता। संक्रमणा ही पुरुषार्थ के सिद्धान्त का ध्रुव आधार हो सकता है। संक्रमणा के अभाव में पुरुषार्थ का कोई महत्त्व ही नहीं रहता । इसके स्थान पर कोरा नियतिवाद ही होता। संक्रमणा की स्थिति हाइड्रोजन गैस से आक्सीजन और आक्सीजन से हाइड्रोजन गैस का परिवर्तन जैसी है। ८. उपशम-मोहकर्म की सर्वथा अनुदयावस्था उपशम है। इसमे प्रदेशोदय एवं विपाकोदय का अभाव रहता है । यह स्थिति पूर्ण विराम के जैसी है। उपशम स्थिति में उदय, उदीरणा, निधत्ति एवं निकाचना का सर्वथा अभाव होता है। निधति-उद्वर्तन, अपवर्तन के अतिरिक्त शेष छह करणों की अयोग्य अवस्था निधत्ति है। इसमें कर्म की वृद्धि एवं ह्रास को 3.६काश रहता है। यह स्थिति तृण वनस्पति जैसी है । जो वर्षा ऋतु में बढ़ती है और वर्षा अभाव में घटती है। १०. निकाचना- शुभकर्म का शुभ और अशुभकर्म का अशुभ फल निश्चय, निकाचना है। इसमें कर्मों का परिवर्तन, परिवर्धन एवं अल्पीकरण कुछ भी नहीं होता और न यहाँ पुरुषार्थ की तूती बजती है। यह स्थिति गोदरेज के ताले की सी है, जो दूसरी चाबियों से खुल नहीं सकता। इसी प्रकार निकाचित कर्म भी प्रयत्न से नहीं टूटते। __अन्य दर्शनों में भी कर्मों की क्रियमाण, संचित और प्रारम्ध ये तीन अवस्थाएँ मानी गई हैं। वे क्रमशः बन्ध, सत् और उदय की समानार्थक हैं। बँधे हुए कर्मों का फल निश्चित होता है या अनिश्चित ? कर्म जिस रूप में बंधते हैं उसी रूप में उनका फल मिलता है या अन्यथा । धर्म करने वाला दुःखी और अधर्म करने वाला सुखी कैसे ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान कर्मों की अवस्थाओं को समझने के बाद अपने आप मिल जाता है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध अमूर्त आत्मा का मूर्त कर्म के साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? यह भी कोई जटिल समस्या नहीं है । प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने संसार और जीवात्मा को अनादि माना है। अनादि काल से ही कर्म-आवृत संसारी आत्माएँ कथंचित् मूर्त हैं अत: उसके साथ कर्म पुद्गलों का सम्बन्ध होना असम्भव नहीं है । जीव और कर्म का अपश्चानुपूर्वी सम्बन्ध चला आ रहा है। जीव और आत्मा का अनादि सम्बन्ध है तब आत्मा और कर्म पृथक कैसे हो सकते हैं, ऐसा सन्देह भी नहीं करना चाहिए । अनादि संबद्ध धातु एवं मिट्टी, अग्नि आदि उचित साधनों द्वारा पृथक् होते हैं, तब आत्मा और कर्म के पृथक्करण का संशय ही कैसा? आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने गौतमादि श्रमणों से पूछा-(दुक्खे केण कडे) दुःख पैदा किसने किया ? उत्तर देने के लिए सब श्रमणवन्द मौन था-प्रभु से ही समाधान पाने के लिए उत्सुक था। संशय और जिज्ञासाओं से मन भरा हुआ था । भगवान् ने कहा (जीवेण कडे पमाएण) स्वयं आत्मा ने ही दुःख उत्पन्न किये हैं। गौतम ने वहा-दुःख पैदाकर आत्मा ने अपना अनिष्ट क्यों किया? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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