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•० कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : तृतीय बन
दी गई थी। इन्होंने अपनी सखियों को सैन्य संचालन में दक्ष करके सेना तैयार की थी। आत्म-सम्मान की रक्षा के लिये कुल-ललनाओं को अस्त्र-शस्त्र-संचालन की शिक्षा दी जाती थी।
एनी बेसेंट ने स्वाधीन विचारों को प्रचारित करने के लिये कई पत्रों का सम्पादन किया । फिर दर्शन में गहन रुचि लेने लगीं। १९१३ ई० में भारत आई और यहां की राजनीति में भाग लेने लगीं।
आधुनिक युग में दयानन्द सरस्वती, राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, रानाडे, एनी बेसेन्ट, गांधी आदि ने नारी की समस्याओं को उठाया और समान अधिकार दिलवाने के प्रयत्न किये । नारी भी अपने अधिकार और कर्तव्यों के प्रति जागरूक हुई। आर्य समाज ने नारी शिक्षा का प्रचार करके भूला हुआ ज्ञान का मार्ग दिखाया था। गांधी ने उन्हें उनकी शक्ति से परिचित कराया। सती प्रथा का अन्त १८२६ में ही हो चुका था और तभी शारदा एक्ट द्वारा बाल विवाह प्रथा बन्द हुई। पुनः नारी के लिये शिक्षा के द्वार खुल गये।
भारतीय नारी त्याग, तपस्या, सेवा और स्नेह की प्रतीक रही है । अपना खोया सम्मान उसने शिक्षा के माध्यम से पुन: प्राप्त किया। अब वह घर और बाहर के दुहरे दायित्वों को संभालने के लिए उत्साह से आगे बढ़ी। कुछ विदुषी नारियों के नाम उल्लेखनीय हैं जैसे श्रीमती लक्ष्मी मेनन, सुचेता कृपलानी, श्रीमती मिट्ठन जे. लाम, रुक्मिणी देवी, अरुंडेल, वायलेट अल्बा, प्रेमा माथुर, मृणालिनी साराभाई, एस. एस. सुब्बालक्ष्मी, फातमा इस्माइल आदि ने विविध क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर नारी-शिक्षा को गौरवान्वित किया। आरती शाह ने इंगलिश चैनल पार कर तैराकी में प्रतियोगिता जीती। नारी का उत्साह बढ़ा । अब वह हर क्षेत्र में कार्य करने के लिये शिक्षा ग्रहण करने लगी।
श्रीमती भिखायीजी कामा प्रथम भारतीय महिला हैं जिन्होंने अनुभव किया कि भारत का अपना ध्वज होना चाहिये । भारत को दासता से मुक्त कराने वाली नारियों में कस्तूरबा गाँधी, कमला नेहरू, सरोजिनी नायडू, विजयलक्ष्मी पंडित, राजकुमारी अमृतकौर, श्रीमती हंसा मेहता आदि विदुषी नारियों के नाम आदर से लिये जाते हैं। उनमें देश-प्रेम और क्रान्ति की भावनायें शिक्षा ने ही भरी थीं। इस प्रकार शिक्षा का लक्ष्य समय की आवश्यकताओं के अनुरूप निर्धारित होता रहा । पर यदि विचार किया जाय तो लगता है कि प्रारम्भ से ही शिक्षा का मूल उद्देश्य नैतिक एवं चारित्रिक दृढ़ता के साथ ही सफल जीवन की उपलब्धि रहा है। वह चाहे आध्यात्मिक दृष्टि से हो या भौतिक दृष्टि से । इतना निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि पहले आध्यात्मिक सुख की उपलब्धि और आत्मसम्मान की रक्षा पर अधिक बल था पर आज की शिक्षा का लक्ष्य भौतिक जीवन को अधिक सहज और समृद्ध बनाना होता जा रहा है। और लक्ष्य के आधार पर ही शिक्षा का स्वरूप निर्धारित होता है।
आज एक ज्वलंत प्रश्न सामने है कि यदि नारी और पुरुष को समान अधिकार प्राप्त हैं, समान कार्यक्षेत्र है तो क्या उनकी शिक्षा का स्वरूप और लक्ष्य भिन्न-भिन्न होना समीचीन है ? और यदि भिन्नता आवश्यक है तो क्यों और किस सीमा तक ? आधुनिक नारी इस भेद को अपने को अक्षम और अबला समझे जाने की दृष्टि के कारण अपमान समझती है । उसने दिखा दिया है कि उसे यदि समान अवसर और सुविधा मिले तो वह किसी भी क्षेत्र में पुरुष से पीछे नहीं ।
दूसरा प्रश्न जो आज एक समस्या बन गया है, यह है कि क्या हर क्षेत्र को नारी की शिक्षा का स्वरूप और लक्ष्य एक जैसा ही होना चाहिये । शहरी और ग्रामीण नारी के कार्यक्षेत्र भिन्न हैं, परिवेश भिन्न हैं। क्या उन्हें एक जैसी ही शिक्षा देकर उनकी परिवेश में सामंजस्य की क्षमता का विकास किया जा सकता है ? या उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रशिक्षित करके क्या उनके बीच की दूरियों को और बढ़ाने का प्रयास नहीं किया जायेगा ? यही बात हर-वर्ग की नारी की शिक्षा को लेकर की जा सकती है।
पर यदि विचार किया जाय तो इन समस्याओं का हल बहुत कठिन नहीं है। नारी को शिक्षित करने का
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