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- नारी-शिशा का लक्ष्य का एवं स्वरूप
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के क्षेत्र में बहुत पीछे थी। बुद्ध के विचार भी नारी के सम्बन्ध में पहले उदार नहीं थे। जैनधर्म की देखा-देखी बौद्धों ने भी नारी को अपने संघों में लेना प्रारम्भ कर दिया । बुद्ध की मौसी महाप्रजापति गौतमी ही पांच सौ नारियों के साथ भिक्षुणी हुई और घूम-घूमकर धर्म-प्रचार किया, दीक्षा दी। भिक्षु संघ से अलग इनका पड़ाव होता था, अलग उनके लिये धर्मशालायें बनीं । बौद्ध नारियों में वत्सा का नाम प्रसिद्ध है जिसने साग को जल गया देखकर निर्णय लिया कि अधिक समाधि और अधिक समय तक ध्यान-कर्म से मन के राग-द्वेष जलाये जा सकते हैं। अतः गौतमी से दीक्षा ली। बिम्बसार की रानी क्षेमा तथा श्रष्ठि-पुत्री भद्रा कुण्डल केशा, आम्रपाली, विशाखा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । विशाखा, वसन्तसेना आदि शिक्षित कुल-वधुयें थीं।
संघमित्रा ने विदेशों में जाकर बौद्ध-धर्म का प्रचार किया। विशाखा ने भिक्षु की ओर ध्यान दिये बिना भोजन करने वाले ससुर को देखकर कहा था कि मेरे ससुर बासी भोजन कर रहे हैं अर्थात् पूर्वजन्मों का संचित पूण्य खा रहे हैं, अगले जन्मों के लिये संचय नहीं कर रहे हैं । पिता के दिये हुए दहेज से उसने दो मंजिला बिहार बनवाया था जिसे महामौदगल्यायन चलाते थे। विशाखा को बुद्ध ने स्वयं नारी के कर्तव्य की शिक्षा दी थी और कुलवन्ती स्त्री के लिये आठ सूत्रों को ग्रहण करने का विधान बतलाया था जिसमें सास-ससुर की सेवा, मृदु भाषण, पति तथा उसके मित्रों और सन्तों का सम्मान, अकृपणदान, पंचशील का पालन आदि प्रमुख हैं।
___ महावीर स्वामी ने नारी को बहुत आदर किया। जैन धर्म का नियम था--संकट में नारी की रक्षा पहले हो। जैन धर्मावलम्बी अपने तीर्थंकरों की माताओं की पूजा करते थे। ब्राही जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ की पुत्री थीं जिन्होंने सर्वप्रथम ब्राह्मी लिपि को सीखा और उन्हीं के नाम पर इस लिपि का नामकरण हुआ।
___ जैन धर्म में नारी के लिये पतिव्रत धर्म आदर्श माना गया है। जैन भिक्षुणियों में ऐसी अनेक भिक्षुणियों के नाम मिलते हैं जिन्होंने वैभवपूर्ण राजसी जीवन छोड़कर त्याग-तपस्या को अपनाया। महासती चन्दनबाला अंग देश के राजा दधिवाहन की पुत्री थीं। उन्होंने वर्द्धमान महावीर से दीक्षा ली और भिक्ष णी बन गई। उस समय शिक्षा का स्वरूप चरित्र और धर्म की शिक्षा देना था।
बौद्ध धर्म की महायान और मंत्रय न शाखा ने भोग का भयावह रूप फैला दिया। अत: नारी के बन्धन और कस गये। तान्त्रिकों की दृष्टि से एवं मुसलमान शासकों की लोलुप दृष्टि से बचने के लिए पर्दा-प्रथा का प्रारम्भ हुआ और नारी-शिक्षा के द्वार बन्द हो गये। छोटी आयु में ही माँग में सिन्दूर भरकर पूर्ण हिन्दू नारी बनने के लिये ही उनमें संस्कार भरे जाने लगे।
__उन्नीसवीं शताब्दी की नारियों में कुछ साहित्य और कला के क्षेत्र में प्रवृत्त हुई, कुछ राष्ट्रीय आन्दोलनों में । उनमें "तोरुदत्त" ने चौदह वर्ष की आयु में ही शेक्सपीयर के समस्त साहित्य को पढ़ लिया। जर्मन, फ्रेंच और संस्कृत का भी गहन अध्ययन किया । उनकी लिखी पुस्तक “ए शीफग्लीण्ड इन फ्रेंच फील्ड्स" बहुत प्रशंसित हुई।
स्वर्णकुमारी देवी (देवेन्द्रनाथ ठाकुर की पुत्री) ने तेरह वर्ष की आयु में ही कवितायें लिखना आरम्भ कर दिया। वे प्रतिष्ठित लेखिका बनीं । कामिनी राय की दो महत्त्वपूर्ण साहित्यिक कृतियों में से 'ओ लो ओ छाया' कविता संग्रह बहुचर्चित हुई। पंडित रमाबाई को उनके संस्कृत में भाषणों पर सरस्वती की उपाधि मिली । उन्होंने भारतीय नारियों को अज्ञान के अँधेरे से बाहर निकालने के लिये प्रथम महिला आर्य समाज संगठन चलाया । वे इंग्लैंड में भी संस्कृत पढ़ाती थीं। वहाँ से बच्चों को शिक्षित करने की मनोवैज्ञानिक विधि सीख कर आईं। 'उच्च जाति की हिन्दू महिला' शीर्षक से इनकी पुस्तक अमेरिका में प्रकाशित हुई। विधवा नारियों के लिये धन इकट्ठा करके बम्बई में आश्रम खोला । पूना में एक और नारी भवन 'मुक्ति सदन' नाम से खोला । इनकी पुत्री ने निजाम राज्य में एक आश्रम खोला। पंडित रमाबाई ने नारी-शिक्षा के प्रचार के लिये महत्त्वपूर्ण कार्य किये।
स्वतन्त्रता संग्राम में लक्ष्मी बाई आदि भारतीय नारियों के नाम अमर हैं। इन्हें बचपन से ही सैनिक शिक्षा
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