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भारतीय योग और जैन चिन्तन-धारा
इन दृष्टियों के परिपार्श्व में आचार्य हरिभद्र ने योग-साधना का जो मार्मिक विश्लेषण किया है, वह सुतरां माननीय एव अनुशीलनीय है । विस्तार-भय से यहाँ सम्भव नहीं है।
आठ दृष्टियों के रूप में निरूपित क्रमिक विकास के अतिरिक्त एक दूसरे प्रकार से भी आचार्य हरिभद्र ने आत्मा के विकास-क्रम को व्याख्यात किया है। उन्होंने इच्छा-योग, शास्त्र-योग तथा सामर्थ्य-योग के रूप में बड़ा सुन्दर विश्लेषण किया है । इसका आशय इस प्रकार है
योग-तत्त्व के प्रति अभिमुख होना इच्छा-योग है। यह विकास का प्रथम सोपान है । अध्यात्म को जीवन में ढालने वाले, अनुभवी योगियों के वचन या साक्षात् उपदेश के आधार से योग-साधना की प्रेरणा जागृत होना शास्त्रयोग है।
अनुभवी द्वारा मार्ग-दर्शन और अपने अखण्ड उत्साह तथा पुरुषार्थ द्वारा स्वाधीन सामर्थ्य आत्मसात् करना सामर्थ्य योग है। सामर्थ्य-योग की दशा प्राप्त कर लेने पर फिर किसी प्रकार के परावलम्बन की आवश्यकता नहीं पड़ती।
योगविशिका में योग को परिभाषा आचार्य हरिभद्र ने अपनी प्राकृत-कृति योगविशिका में योग की परिभाषा निम्नांकित शब्दों में की है
मोक्खेण जोयणाओ जोगो, सव्वो वि धम्मवावारो। परिसुद्धोविन्नेओ, ठाणाइगओ विसेसेण ॥१॥
संस्कृत छाया मोक्षण योजनातो योगः सर्वोऽपि धर्मव्यापारः ।
परिशुद्धो विज्ञ य: स्थानादिगतो विशेषेण ।। आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि वह सारा व्यापार-~-साधना का उपक्रम, जो साधक को मोक्ष से जोड़ता है, योग है। उसका क्रम वे उसी पुस्तक की दूसरी गाथा में इस प्रकार देते हैं।
ठाणुन्नत्थालंबण रहिओ, तंतम्मि पंचहा एसो। दुगमित्थ कम्म जोगो, तहा तियं नाण जोगोउ ॥२॥
संस्कृत छाया स्थानोर्णालम्बान-रहितस्तन्त्रेषु पंचधा एषः ।
द्वयमत्र कर्मयोगस्तथा त्रयं ज्ञान-योगस्तु ॥ स्थान, ऊर्ण, अर्थ, आलम्बन तथा निरालम्बन-योग के ये पाँच प्रकार हैं। इनमें पहले दो अर्थात् स्थान और ऊर्ण क्रिया-योग के प्रकार हैं और बाकी के तीन ज्ञान-योग के प्रकार हैं।
स्थान का अर्थ-आसन, कायोत्सर्ग, ऊर्ण का अर्थ-आत्मा को योग-क्रिया में जोड़ते हुए प्रणव-प्रभृति मन्त्रशब्दों का यथाविधि उच्चारण, अर्थ-ध्यान और समाधि आदि के प्रारम्भ में बोले जाने वाले मन्त्र आदि, तत्सम्बद्ध शास्त्र एवं उनकी व्याख्याएँ आदि में रहे परमार्थ तथा रहस्य का अनुचिन्तन, आलम्बन-बाह्य प्रतीक का आलम्बन लेकर ध्यान करना, निरालम्बन-मुतं द्रव्य या बाह्य प्रतीक के आलम्बन के बिना निर्विकल्प, चिन्मात्र, सच्चिदानन्द स्वरूप का ध्यान करना ।
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