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जैन संस्कृति की विशेषताए
अपने आपको ढूँढ़ो । इसके लिए "अत्तसरणा" तथा अन्यसरण हो । इच्छाहीन व्यक्ति ही 'सुखमक्षयमश्नुते - अविनश्वर सुख पा सकता है | भगवान् बुद्ध अनात्मवादी नहीं थे । उनका आशय यह था - पाँच स्कन्ध, द्वादश आयतन तथा अठारह धातुओं में से ऐसा कुछ नहीं था, जिसके लिए आत्मा शब्द का प्रयोग किया जा सके । बुद्ध की दृष्टि में से ये सब धर्म अनित्य हैं और जो अनित्य है वह दुःख है— यदनिच्चं तं दुःखं य दुक्खं तदनत्ता" - जो अनित्य है वह दुःख है और जो दुःख है वह अनित्य है । अनित्यों का आत्मरूपेण निषेध करता हुआ चिन्तक आत्मोपलब्धि कर लेगा । फिर भी बौद्ध और जैन मार्गों की अपनी-अपनी पृथक्-पृथक् विशेषताएँ हैं - बौद्ध चितशुद्धि के लिए ध्यान और मानसिक संयम पर जितना जोर देते हैं, उतना बल बाह्य तप और देहदमन पर नहीं । इस प्रकार जैन संस्कृति का हृदय निवर्तक धर्म ब्राह्मण तथा बौद्ध संस्कृतियों में भी किसी न किसी प्रकार व्याप्त है— मौजूद है - तथापि ऐसा कुछ है— जो उसी का माना जाता है— अन्यत्र भी संक्रान्त हो- यह दूसरी बात है ।
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जैन संस्कृति की विशेषताएँ - संस्कृति के दो पक्ष हैं-विचार और आचार जैन संस्कृति अपने दोनों पक्षों में अहिंसात्मक है | अहिंसा उसका आचार पक्ष है और अनेकान्त विचार पक्ष । आचार और विचार उभयत्र हिंसा निषेध्य है। हिंसा है क्या ? प्रमतयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा स्वरूपविस्मृति ही प्रमाद है, इसी के कारण व्यक्ति अनात्म में ममता करने लगता है— राग-द्वेष रखने लगता है। इस प्रकार का लाभसिक्त आत्मा अपनी निर्मल मनोवृत्ति का घात करता है-अतः सबसे बड़ी हिंसा कषाय है- वह नैर्मल्य का विरोधी है—-नैर्मल्य का विरोध ही आत्मघात हैं । पर-घात तो हिंसा है ही, आत्मघात भी हिंसा है और है यह कषाय, राग-द्वेष । पुरुषार्थ सिद्ध युपाय में कहा है
अप्रादुर्भावः तु रामादीनां भवत्वहिंसेति । तेषामेवोत्पति जिनागमस्य संक्षेपः ॥
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तत्य की निर्मत वृत्ति का जिससे पात हो वह हिंसा है केवल क्रोध या तन्मूलक प्रवृत्ति ही हिंसा नहीं हैवे सारे भाव और तन्मूलक अनवधानगत प्रवृत्तियाँ हिंसा हैं, जिनसे चैतन्य की निर्मलवृत्ति का घात होता हो ।
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अहिंसा गृही और मुनि की दृष्टि से स्तर भेद रखती है । गृहस्थ स्थूल हिंसा नहीं करता, अर्थात् कर्तव्यपालन दृष्टि या सम्पन्न हिंसा उसके लिए वर्जित नहीं है। वह अहिंसा का विरोधी नहीं है। कारण, वह भावपूर्वक नहीं है, कर्तव्यबुद्ध्या संपाद्य है | अहिंसक दैन्य और दौर्बल्य का पक्षधर नहीं होता, न्याय का पक्षधर होता है । न्याय पर वीर ही टिक सकता है। गृहस्य जो प्राथमिक साधक है उसके लिए हिंसा चार प्रकार की है—संकल्पी विरोधी, आरम्भी और उद्यमी । हिंसा का करना घातक है, हो जाना प्राथमिक साधकों के लिए क्षम्य है ।
अहिसक वृति वाले के लिए सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह जैसे महाव्रत अनायास सिद्ध हो जाते हैं। संस्कृति में जो प्रयत्न है - वह प्रवृत्ति-निवृत्ति उभयरूप है । यदि 'अहिंसा' हिंसा से निवृत्ति है, और यह निषेधात्मक पक्ष है तो उसका दूसरा विधेयात्मक पक्ष है— प्राणियों पर प्रेम करना, उनका उपकार करना ।
आचारगत अहिंसा के बाद इस संस्कृति की दूसरी महनीय विशेषता है— विचारगत अहिंसा, कदाच का त्याग, एकान्त आग्रह का न होना जैन आचार्यों ने वैचारिक अहिंसा के लिए ही 'अनेकान्त' दृष्टि की स्थापना की। इस दृष्टि का अभिव्यक्ति पक्ष है स्याद्वाद इस दर्शन में वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। वस्तु के किसी गुण या पर्याय ( अवस्था ) का किसी एक दृष्टि से वर्णन ही स्याद्वाद् है । जहाँ अन्य लोग वस्तु को केवल सत्, केवल असत् उभयात्मक तथा अनुभयात्मक या अनिर्वचनीय कहे जाने पर आग्रह करते हैं, वहीं जैन चिन्तन इन सबको आत्मसात् कर अपना अनेकान्त पक्ष रखता है। वस्तु का सही रूप तो अनुभववेद्य है अनन्तधर्मात्मक वस्तु सीमित बुद्धि की पकड़ में नहीं आ सकती, मनुष्य की बुद्धि कतिपय अपेक्षाओं से नियन्त्रित होकर वस्तु के धर्मों को पकड़ती है-अतः वस्तु के स्वरूप के प्रति अपनी प्रतिक्रिया उसी दायरे में ही देगी और उससे भी असमर्थ 'भाषा' उसे स्वादगर्भ अभिव्यक्ति देगी। हमारी वृद्धि व्यक्तिगत रुचियों, संस्कारों, सन्दर्भों आवश्यकताओं से रंजित होकर ही 'वस्तु' के विषय में स्याद्वादी अभिव्यक्ति करती है।
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