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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
भिक्षु प्रतिक्रुष्ट कुलों में भिनार्थ न जाए। प्रतिक्रुष्ट का शाब्दिक अर्थ है, निन्दित, जुगुप्सित तथा गहित । वे दो प्रकार के होते हैं -अल्पकालिक और यावत्कालिक । अलकालिक मृतक सूतक आदि के घर हैं । यावत्कालिक डोम, मातंग आदि के घर ।
यह स्पष्ट है कि यह निषेध व्यावहारिक भूमिका को छूने वाला है। क्योंकि उपरोक्त कुलों में भिक्षा करने से साधक की साधना में क्या बाधा आ सकती है ? इस प्रश्न को समाहित करते हुए टीकाकार लिखते हैं--जुगुत्सित कुलों की भिक्षा लेने से जैन शासन की लघुता होती है।
जैन-दर्शन के अध्येता इस बात से अनभिज्ञ नहीं कि वह जातिवाद को तात्त्विक नहीं मानता। उसके आधार पर किसी को हीन तथा जुगुप्सित मानना हिंसा है। फिर भी प्रतिक्रुष्ट कुलों की भिक्षा का निषेध किया गया है। जहाँ तक हम समझ पाये हैं, वैदिक परम्परा के बढ़ते हुए प्रभाव को ध्यान में रखकर, व्यवहार-पालन को मुख्यता देना ही इसका प्रमुख कारण हो सकता है।
भिक्षु संसक्त दृष्टि से न देखे । यह सामान्य कपन है। इसका वाचार्य यह है कि साधु व साध्वी क्रमशः बहिन तथा भाई की आंखों में आँखें गड़ाकर न देखें। इस निषेध के दो कारण बताए गए हैं--पहला निश्चय की भूमिका पर अवस्थित है कि आसक्त दृष्टि से देखने पर ब्रह्मवर्यप्रत खण्डित होता है । दूसरा व्यवहार की भूमि पर खड़ा है कि हृदय शुद्ध होने पर भी इस प्रकार देखने से लोक आक्षेप कर सकते हैं कि यह मुनि विकारग्रस्त है।
भिक्षा ग्रहण करते समय भिक्षु भैक्ष्य-पदार्थ तक ही दृष्टि प्रसार करे । अति दूरस्थ वस्तुओं को, गृह के कोणों आदि को न देखे । इस प्रकार देखने से मुनि के चोर या पारदारिक होने की आशंका हो सकती है।
भिक्षार्थ गृहस्थ के घर में प्रविष्ट मुनि, विकसित नेत्रों से न देखें। इससे मुनि की लघुता होती है।
आहारादि के लिए गृहस्थ के घर में प्रवेश करने के बाद मुनि अन्दर कहाँ तक जाए ? इसका संकेत देते हुए भगवान् महावीर ने कहा-गृहस्वामी द्वारा अननुज्ञात या वजित भूमि में मुनि प्रवेश न करे। यह प्रतिषेध भी अप्रीतिदोष को वजित करने के लिए ही किया गया है। मुनि के लिए स्नानगृह तथा बव गृह को दे बने का भी निषेध किया गया है।
भिक्षा में यदि अमनोज्ञ और अपथ्य जल आ जाए तो मुनि उसे गृहस्थों की भाँति इतस्ततः न फेंके। किन्तु उसे लेकर वह विजन भूमि में जाए और वहाँ शुद्व भूमि पर धीरे से गिराए। ताकि गन्दगी न फैले। कितनी ऊँची सभ्यता की शिक्षा है यह । यदि गृहस्प समाज भी इस पर अमल करें तो शहरी-गलियों में इतनी गन्दगी के दर्शन न करने पड़ें।
भिक्षाचरी की सम्पन्नता होने पर आहार की विधि बताते हुए कहा गया है कि सामान्यत: भिक्षा के अनन्तर आहार उपाश्रय में जाकर ही करें। यदि वह भिक्षार्थ दूसरे गाँव में गया हुआ हो और कारणवश वहाँ आहार करना
१. दर्शवकालिक, ५।१।१७. २. हारिभद्रीय टीका पत्र १६६ : एतान्न प्रविशेत् शासनलघुत्वप्रसंगात् । ३. दशवकालिक : ५।११२३ : असंसत्तं पलोएज्जा । ४. (क) वही : नाइदूरावलोयए। (ख) जिनदास चूर्णि, पृ० १७६ : "तओ परं घर-कोगादि पलोयतं दळूण संका भवति किमेस चोरो पारदारिको
वा होज्जा ? एवमादी दोसा भवंति ।" ५. दशवकालिक ५।११२३ : "उप्फुल्लं ण विणिज्झाए।"
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