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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
कर्मों की मुख्य अवस्थाए
जैन आगमों में स्थान-स्थान पर कर्मों की विविध अवस्थाओं का वर्णन है लेकिन अवस्थाओं की संख्या का क्रम भिन्न-भिन्न है । इस भिन्नत्व का कारण प्रतिपादन शैली में अपेक्षा दृष्टि है । इसीलिये विविध प्रसंगों में विविध रूप मिलते हैं । प्रस्तुत प्रसंग में दस अवस्थाओं का वर्णन किया जाता है-
१. बन्ध— जीव के असंख्य प्रदेश हैं । उनमें मिथ्यात्व अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से कम्पन पैदा होता है । इस कम्पन के फलस्वरूप जिस क्षेत्र में आत्म- प्रदेश है, उस क्षेत्र में विद्यमान अनन्तानन्त कर्मयोग्य पुद्गल जीव के एक-एक प्रदेश के साथ चिपक जाते हैं। आत्म-प्रदेशों के साथ पुद्गलों का इस प्रकार चिपक जाना बन्ध है | यह आत्मा और कर्म के सम्बन्ध की पहली अवस्था है। इसके चार विभाग हैं- (अ) प्रदेश, (ब) प्रकृति, (स) स्थिति और (द) अनुभाग ।
(अ) प्रदेश बन्धग्रहण के समय कर्मपुद्गल अविभावित होते हैं और ग्रहण के पश्चात् वे आत्म-प्रदेशों के साथ एकीभूत हो जाते हैं । यह प्रदेश बन्ध ( एकीभाव की व्यवस्था ) है ।
(अ) प्रकृति बन्ध कर्म परमाणु कार्यभेद के अनुसार आठ वर्गों में बँट जाते हैं। यह प्रकृति बन्ध (स्वभाव व्यवस्था) है। कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि ।
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(स) स्थिति बन्ध - सत् असत् प्रवृत्तियों द्वारा गृहीत कर्म-पुद्गलों के कालमान का निर्धारण, यह स्थिति बन्ध (काल व्यवस्था ) है ।
(द) अनुभाग बन्ध - तीव्र या मन्द रस से बन्धे हुए कर्म पुद्गलों का विपाक निर्धारण, यह अनुभाग बन्ध (फल व्यवस्था) है।
बन्ध के चारों प्रकार एक ही साथ होते हैं । कर्म की कर्म - पुद्गलों का अश्लेष या एकीभाव की दृष्टि से प्रदेश बन्ध सबसे काल मर्यादा और फलशक्ति का निर्माण हो जाता है ।
२. उद्वर्तना-कर्म-स्थिति का दीर्घीकरण और रस का तीव्रीकरण उद्वर्तना है । यह स्थिति एक नए पैसे के कर्जदार को हजारों रुपये का कर्जदार बनाने जैसी है।
व्यवस्था के ये चारों प्रधान अंग हैं । आत्मा के साथ पहला है। इसके होते ही उनमें स्वभाव निर्माण,
३. अपवर्तना—-कर्म- स्थिति का अल्पीकरण और रस का मन्दीकरण अपवर्तना है । यह स्थिति हजारों के कर्जदार को एक नए पैसे से मुक्त बनाने जैसी है। इससे शम, दम, उपराम की सार्थकता सिद्ध होती है। अन्यथा भगवती सूत्र में कष्ट सहिष्णुता से पूर्वसंचित कर्मों के विलीनीकरण के लिए दिये गये "जाज्वल्यमान अग्नि में सूया तृण' और तपे हुए तवे पर जल-बिन्दु जैसे प्रतीकों की, कर्मों के साथ संगति नहीं बैठ सकती ।
उत्तराध्ययन का निम्नोक्त प्रसंग भी इसी ओर संकेत करता है—
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"भन्ते ! अनुप्रेक्षा से जीव क्या प्राप्त करता है ?"
भगवान ने फरमाया
"अनुप्रेक्षा से वह आयुष् कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की गाढ बन्धन से बँधी हुई प्रकृतियों को शिथिल बन्धन वाली कर देता है, उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन कर देता है, उनके तीव्र अनुभव को मन्द
१. से जहा नामए केइ पुरिसे सुक्कतण हत्थयं जाय तेयंसि पक्खिवेज्जा से नूणं गोयमा ! से सुक्के तण हत्थए - भ० श० ६, उ०१.
२. से जहा नामए केइ पुरिसे तयंसि अयकवल्लंसि उदगबिन्दू जाव हंता विद्ध समागच्छइ --- एवामेव
-भ० श० ६, उ० १.
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