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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा : जीवन परिचय
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लहरियां आपके कानों में पड़ी, आपका प्रगतिशील हृदय विरोध करने के लिए फुफकार उठा, 'मैं गालियाँ खाने नहीं, भोजन करने आया हूँ; दो-चार दिन रहने और पत्नी को लेने आया हूँ, आपको गालियाँ ही देना आता है तो दीजिये, मैं भोजन नहीं करूगा तथा अभी वापस लौट जाऊँगा।' आपके ऐसे कड़े रुख को देखकर उसी समय औरतों ने गालियाँ गाना बन्द कर दिया।
आपके केवल एक ही लड़की हुई। बादामबाई उसका नाम रखा गया। वह बहुत चंचल एवं होनहार थी। बहुत पुण्यवान थी। जब उसका जन्म हुआ तो उसके सिर के पीछे के हिस्से में एक छोटी सी लकीर थी, ललाट सात अंगुल की थी, हाथों की अंगुलियाँ बड़ी-बड़ी थीं। वह केवल डेढ़ वर्ष जीवित रही, किन्तु उस अवधि में उसने बिस्तर में कभी टट्टी-पेशाब नहीं किया । उसके जन्म के बाद घर में धन की पर्याप्त वृद्धि हुई। किन्तु भाग्य में कुछ
और ही लिखा था, वह अभी डेढ़ वर्ष की ही हुई कि अचानक मामूली बुखार आया और उसका देहान्त हो गया। इसका आपको गहरा आघात लगा किन्तु कर्मों की गति मानकर आपने सन्तोष कर लिया। उसके बाद आपको सन्तानसुख प्राप्त नहीं हुआ। अपने लधु भ्राता श्री भंवरलालजी सुराणा की पुत्री दमयन्ती को आपने गोद ले लिया। छोटे से बड़ी भी आपने ही की। विवाह वि० सं० २०१० में श्री विरदीचन्दजी गादिया के साथ अत्यन्त सादगी एवं प्रगतिशील तरीके से कराया। सगाई के समय ही २५ बातें ठहरा दी गयीं। उनमें से कुछ मुख्य बातें ये थीं-बारात में २५ से अधिक बाराती नहीं होंगे, बारात को एक समय भोजन कराकर सीख दे दी जायेगी, विवाह में कोई आडम्बर व दिखावा नहीं किया जावेगा, खाने-पीने में १०० रुपयों से ज्यादा खर्च नहीं किये जायेंगे, मेवा नहीं बाँटा जावेगा फदिया (एक रस्म) बेचते हुए नहीं आवेंगे, बैण्ड बाजे में ज्यादा धन खर्च नहीं किया जावेगा, गालियाँ नहीं गायी जावेंगी खुले मुह जैन विधि से विवाह होगा, आदि-आदि। उस काल में यह एक प्रकार से आदर्श विवाह था। शादी सुमति शिक्षा सदन के प्रधानाध्यापक डॉ० दयालसिंहजी गहलोत ने करायी। शादी में जोधन खर्च नहीं हुआ, वह संस्था में चन्दे के रूप में दे दिया गया ।
माता-पिता का स्वर्गवास वि० सं० १९७४ में जब आपकी उम्र केवल आठ वर्ष की थी और आपके लघु भ्राता श्री भंवरलालजी केवल १६ दिन के थे, तब ३२ वर्ष की अल्पवय में ही मातुश्री छगनीदेवी इस असार-संसार को छोड़कर चल बसीं। यह सम्पूर्ण परिवार पर एक तरह से वज्रपात था। मातुश्री के निधन के आठ वर्ष बाद अर्थात् जब आप सोलह वर्ष के हुए, आपके पिताश्री बुलारम में ही गम्भीर रूप से बीमार हो गये, उस समय आप मैट्रिक में पढ़ रहे थे, किन्तु पिताजी की रुग्णावस्था को देखकर पढ़ाई छोड़नी पड़ी। एक दिन आप पिताश्री की रुग्णशया के पास बैठे थे, तब पिताजी ने कहा, 'बेटे ! इस दुनिया में पैसे का बड़ा महत्त्व है। एक रुपया कमाओ तो उसमें से चार आने जमीन-जायदाद में लगाओ, चार आने का सोना-चाँदी खरीदो, चार आने व्यापार में लगाओ और चार आने को खर्च करो।' युवा केसरीमलजी के हृदय पर इस बात का गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने इसको अपने जीवन में उतार लिया, जब तक व्यापार-वाणिज्य किया और उसके बाद भी आज तक पिताजी के इस उपदेश का आप अक्षरशः पालन कर रहे हैं। पिताजी की रुग्णावस्था बढ़ती गयी और कुछ दिनों के बाद ही उनका भी स्वर्गवास हो गया, कोन जानता था कि पिताजी की उपर्युक्त अन्तिम सीख उन पर पड़ने वाली पारिवारिक एवं व्यवसाय सम्बन्धी जिम्मेदारियों में यह अमृत की तरह काम करेगी।
परिवार और व्यवसाय की जिम्मेदारी पिताश्री के देहावसान के समय अपने परिवार में आप ही सबसे बड़े थे। सोलह वर्ष की उम्र भी कोई बड़ी उम्र नहीं थी। मैट्रिक का अध्ययन छोड़कर पारिवारिक एवं व्यावसायिक जिम्मेदारियों को वहन करने के लिए आपने कमर कस ली। माता-पिता का साया उठ जाने के गम को भुलाने का यही एक मात्र तरीका था कि उनके अधूरे कामों को पूरा करके ही मातृ-पितृ ऋण से उऋण हुआ जाय ।
बुलारम में पिताश्री का व्यवसाय था। दुकान की पेढ़ी का नाम 'हजारीमल शेषमल' था। अनाज, ब्याज, एवं गिरवी का मुख्य धन्धा था। दूकान पर कुल पाँच हजार रुपये का माल पोते था और पैतीस हजार रुपये लोगों को देने निकल रहे थे। रहने के दो मकान और करीब सौ तोला सोना पास में था। आपको चिन्ता हई, कर्ज की इस
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