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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
नागौर में खरतरगच्छ विधि मार्ग का मन्दिर निर्माण श्री जिनवल्लभसूरिजी के समय में हुआ था और उन्होंने उनको गुरु मानकर उन्हीं के करकमलों से श्री नेमिनाथ स्वामी की प्रतिष्ठा शुभ मुहूर्त में करवाई थी । देवालय निर्मापक सेठ धनदेव के पुत्र कवि पद्मानन्द ने अपने वैराग्यशतक में इस प्रकार उल्लेख किया है
सिक्तः श्रीजिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतेः । श्रीमन्नागपुरे चकार सदनं श्रीनेमिनाथस्य यः ।। श्रेष्ठी श्रीधनदेव इत्यभिधया ख्यातश्च तस्याङ्गजः ।
पद्मानन्दशतं व्यधत्त सुधियामानन्दसम्पत्तये ।। ___ इस पुण्य-कार्य के प्रभाव से वहां के सभी श्रावक लक्षाधीश हो गये। उन्होंने भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा के रत्नजटित आभूषण बनवाये । इस मन्दिर में महाराज ने रात्रि में भगवान के भेंट चढ़ाना, रात्रि में स्त्रियों का आगमन आदि निषेध के लिए शिलालेख रूप में विधि लिखवा दी थी जिसे 'मुक्ति पाधक-विधि' नाम से कहा है। इसके बाद श्री जिनबल्लभगणि विक्रमपुर मरोट आदि स्थानों में विवरणकर पुनः नागौर पधारे थे।
श्री जिनवल्लमसूरि के पट्ट पर विराजमान होने के पश्चात् श्री जिनदतपूरिजी स्त्र. श्रीट्रिसिंहाचार्यजी का आदेश प्राप्त कर मारवाड़ की ओर पधारे। नागौर पहुँचने पर वहाँ के मुख्य सेठ धनदेव ने सूरिजी की महान् प्रतिभा देखकर निवेदन किया कि यदि आप व्याख्यान में 'आयतन-अनायतन' का विषय छोड़ दें तो मैं विश्वास दिलाता हूँ कि सभी श्रावक आपके आज्ञाकारी बन जायें। पर गुरुदेव ने उत्सूत्र भाषण स्वीकार नहीं किया।
श्री जिनदत्तसूरिजी से प्रतिबोध प्राप्त श्रावक देवधर चैत्यवासी देवाचार्य के देवगृह में गया तो उसने उनके साथ चर्चा करके विधि मार्ग का समर्थन स्वीकार कराया और लोकवाद के विरोध की असमर्थता पाकर वस्यवासियों को अन्तिम नमस्कार कर अजमेर गया था।
श्री जिनचंद्रसूरि (कलिकाल केवली) के समय सं० १३५३ में निकले संघ में नागौर, रूण आदि के धनी-मानी श्रावक भी सम्मिलित हुए थे। सं० १३७१ में जालोर में अनेक उत्सवादि होने के पश्चात् म्लेच्छों द्वारा जालौर भंग होने पर सपादलक्षदेश पधारे उस समय ३०० गाड़ों के झुंड के साय फलौदी पार्श्वनाथ जी की यात्रा करके नागौर पधारे थे।
सं० १३७५ में दूसरी बार फलौधी तीर्थ की यात्रा कर जब श्री जिनचन्द्रसूरि जी नागौर पधारे तो मिती माघ शुक्ला १२ को अपने पट्टशिष्य कुशलकीति (थी जिनकुशलमूरि) को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया था। इस समय कई दीक्षाएं आदि उत्सव हुए थे। नागौर के श्रावकों की प्रार्थना से नागौर में नंदिमहोत्सव किया गया । यहाँ के मंत्रिदलीय ठा० विजयसिंह, ठा० सेडु, सा. रूपा आदि ने दिल्ली, डालामर, कन्यानयन, आशिका, नरभट, वागड़देश, कोसवाड़ा, जालौर, समियाना आदि के एकत्र संघ की बड़ी भक्ति की । जगह-जगह अन्नक्षेत्र खोले गए। धनवान श्रावकों ने सोने-चांदी कड़े के अन्न-वस्त्रादि खूब बांटे। साधु सोनचन्द्र और शीलसमृद्धि, दुर्लभसमृद्धि, भुवनसमृद्धि साध्वियों को दीक्षित किया। पं. जगत्चन्द्र गणि और पं० कुलशलकीर्ति को वाचनाचार्य पद से अलंकृत किया। धर्मपाल गणिनी
और पुण्यसुन्दरी गणिनी को प्रवर्तिनी पद दिया गया। श्री तरुणप्रभसूरिकृत श्री जिनकुशलसूरि चहुत्तरी में वाचनार्य पद प्रदान का उल्लेख इस प्रकार है
तं गच्छलच्छि जुग्गं माऊणं नायपुरजिणहरमि । तेरपणसयरि वरिसे माहेसिय बारसी दिवसे ॥४४॥ पउर सिरिसंघ मेले सिरिजिणचंदेण सूरिणा तस्स ।
हरिसा तियहत्थेणं वाणारियसंपया दत्ता ॥४५॥ मिती वैशाख बदि ८ को पुन: श्री जिनचन्द्रसूरिजी नागौर पधारे। वहाँ पर अनेक उज्ज्वल कर्मों से अपने कुल का उद्धार करने वाले धनी-मानी मंत्रिदलीय श्रावक अचलसिंह ने बादशाह कुतुबुद्दीन से फरमान प्राप्त कर तीर्थयात्रा
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