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जैनागमों एवं कोषग्रन्थों में यति, साधु, मुनि, निर्धन्थ, अनगार वापयंम आदि शब्द एकार्थ बोधक माने गये हैं।" अर्थात् यति साधु का ही पर्यायवाची शब्द हैं, पर आजकल इन दोनों शब्दों के अर्थ में रात और दिन का अन्तर आ गया है। इसका कारण यह है कि जिन-जिन व्यक्तियों के लिए इन दोनों शब्दों का प्रयोग होता है, उनके आचारविचार में बहुत व्यवधान हो गया है। जो यति शब्द किसी समय साधु के समान ही आदरणीय था, आज उसे सुनकर काल प्रभाव से कुछ और ही भाव उत्पन्न होते हैं । शब्दों के अर्थ में भी समय के प्रभाव से कितना परिवर्तन हो जाता है, इसका यह ज्वलन्त उदाहरण है ।
जैन यति परम्परा [] श्री अगरचन्द नाहटा नाहटों की गुवाड़, बीकानेर (राजस्थान)
जैन धर्म में साधुओं के आचार बड़े ही कठोर हैं । अतएव उनका यथारीति पालन करना, 'असिधार पर चलने के समान' ही कठिन बतलाया गया है। कहीं-कहीं 'लोहे के चने चबाने का दृष्टान्त भी दिया गया है, और वास्तव में है भी ऐसा ही । जैन धर्म निवृत्तिप्रधान है, और मनुष्य प्रकृति का झुकाव प्रवृत्ति मार्ग की ओर अधिक है। पौद्गलिक मुखों की ओर मनुष्य का एक स्वाभाविक आकर्षण-सा है। सुतरां जैन साध्वाचारों के साथ मनुष्य प्रकृति का संघर्ष अवश्यम्भावी है। इस संघर्ष में जो विजयी होता है, यही सच्चा साधु कहलाता है। समय और परिस्थिति बहुत शक्तिशाली होते हैं, उनका सामना करना टेढ़ी खीर है। इनके प्रभाव को अपने ऊपर न लगने देना बड़े भारी पुरुषार्थ का कार्य है। अतः इस प्रयत्न में बहुत से व्यक्ति विफल मनोरथ ही नजर आते हैं विचलित न होकर मोर्चा बांध कर डटे रहने वाले वीर बिरले ही मिलेंगे। भगवान महावीर ने यही समझकर कठिन से कठिन आचार-विचार को प्रधानता दी है। मनुष्य की प्रकृति जितनी मात्रा में आरामतलब है, उतनी ही मात्रा में कठोरता रखे बिना पतन होते देर नहीं लगती । आचार जितने कठोर होंगे, पतन में भी उतनी देरी और कठिनता होगी। यह बात अवश्य है कि उत्थान में जितना समय लगता है, पतन में उससे कहीं कम समय लगता है ।
उसे भगवान महावीर ने, भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायियों की जो दशा केवल दो सौ ही वर्षों में हो गई थी, अपनी आंखों देखा था अतः उन्होंने नियमों में काफी संशोधन कर ऐसे कठिन नियम बनाये कि जिनके लिए मेधावी श्रमण केशी जैसे बहुश्रुत को भी गणधर गौतम से उनका स्पष्टीकरण कराना पड़ा। सूत्रकारों ने उसे समय की आवश्यकता बतलाई और कहा कि प्रभु महावीर से पहले के व्यक्ति अजु-प्राज्ञ थे और महावीर शासन काल के व्यक्तियों का मानस उससे बदल कर वक्र-जड़ की ओर अग्रसर हो रहा था। दो सौ वर्षों के भीतर परिस्थिति ने कितना विषम परिवर्तन कर डाला, इसका यह स्पष्ट प्रमाण है। महावीर ने परिधान की अपेक्षा अचेलकत्व को अधिक महत्त्व दिया, और इसी प्रकार अन्य कई नियमों को भी अधिक कठोर रूप दिया ।
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१. अथ मुमुक्षुः श्रमणा यतिः || ६५ || वाचयंमो व्रती साधुरनगार ऋषिर्मुनिः निर्ग्रन्थो भिक्षुः । यत ते मोक्षयंति यतिः (मोक्ष में यत्न करने वाला यति है), यतं यमन मस्त्यस्य यती ( नियमन - नियन्त्रण रखने वाला यति है ।) अभिधान चिन्तामणि । जइ (पु० ) यति, साधु, जितेन्द्रिय संन्यासी ( औपपातिक, सुपार्श्व, पाइअ सद्द महण्ण्वो, भा० २, पृ० ४२६) ।
२. उत्तराध्ययन सूत्र 'केशी - गौतम - अध्ययन'
३. कल्पसूत्र ।
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