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________________ राजस्थानी दिगम्बर जैन गयकार ५४६ ................................... ........................ ......... .. . . .... इनके जीवन के सम्बन्ध में हम अनुभवी लेखक पं० बनारसीदास चतुर्वेदी की निम्नलिखित पंक्तियाँ उद्धृत करना उपयुक्त समझते हैं "कोई तीन सौ वर्ष पहले की बात है। एक भावुक हिन्दी कवि के मन में नाना प्रकार के विचार उठ रहे थे। जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव वे देख चुके थे। अनेक संकटों में से वे गुजर चुके थे, कई बार बाल-बाल बचे थे, कभी चोर डाकुओं के हाथ जान-माल खोने की आशंका थी, तो कभी सूली पर चढ़ने की नौबत आने वाली थी, और कई बार भयंकर बीमारियों से मरणासन्न हो गये थे। गार्ह स्थिक दुर्घटनाओं का शिकार उन्हें कई बार होना पड़ा था। एक के बाद एक उनकी दो पत्नियों की मृत्यु हो चुकी थी। और उनके नौ बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा था । अपने जीवन में उन्होंने अनेक रंग देखे थे-तरह-तरह के खेल खेले थे-कभी वे आशिकी के रंग में सराबोर थे, तो कभी धार्मिकता उन पर सवार थी, और एक बार तो आध्यात्मिक फिट के वशीभूत होकर वर्षों के परिश्रम से लिखा गया अपना नवरस का ग्रन्थ गोमती नदी के हवाले कर दिया था। संवत् १६६८ में अपनी तृतीय पत्नी के साथ बैठे हुए यदि उन्हें किसी दिन आत्मचरित्र का विचार सूझा हो तो उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं नौ बालक हुए मुए, रहे नारि नर दोई। ज्यों तरवर पतझार ह, रहे ठूठ से होई ॥ अपने जीवन के पतझड़ के दिनों में लिखी हुई इस छोटी सी पुस्तक से यह आशा उन्होंने स्वप्न में भी न की होगी कि वह कई सौ वर्ष तक हिन्दी जगत में उनके यश:शरीर को जीवित रहने में समर्थ होगी।' __ कविवर बनारसीदास के जीवन और साहित्य के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए डा. रवीन्द्रकुमार जैन के शोध प्रबन्ध 'कविवर बनारसीदास, जीवन और कृतित्व'२ का अध्ययन करना चाहिए। दीपचन्द साह-दीपचन्द साह भी उन आध्यात्मिक विद्वानों में से थे जिन्होंने हिन्दी गद्य निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। वे खण्डेलवाल जाति के कासलीवाल गोत्र में जन्मे थे। अत: कई स्थानों पर उनका नाम दीपचन्द कासलीवाल भी लिखा मिलता है। ये पहिले सांगानेर में रहते थे किन्तु बाद में आमेर आ गये थे । ये स्वभाव से सरल, सादगी प्रिय और अध्यात्म चर्चा के रसिक विद्वान् थे। आपके द्वारा रचित 'अनुभव प्रकाश' (सं० १७८१-वि० १७२४ ई०), "चिद्विलास' (सं० १७७९-वि० १७२२ ई०)। 'आत्मावलोकन' (सं० १७७७–वि० १७२० ई०) परमात्म-प्रसंग, ज्ञानदर्पण, उपदेश रत्नमाला स्वरूपानन्द नामक ग्रन्थ हैं। बढाढ़ प्रदेश के अन्य दिगम्बर जैन लेखकों की भाँति उनकी भाषा में ब्रज और राजस्थानी के रूपों के साथ खडी बोली के शब्द रूप है। यद्यपि इनकी भाषा टोडरमल जैसे दिग्गज लेखकों की अपेक्षा कम परिमार्जित है तथापि वह स्वच्छ है एवं साधु वाक्यों में गम्भीर अर्थाभिव्यक्ति उसकी विशेषता है। साहित्यिक मूल्यों की दृष्टि से इनकी रचनाओं का महत्त्व चाहे उतना न हो जितना तत्वचिन्तन एवं हिन्दी गद्य के निर्माण व प्रचार की दृष्टि से इनका कार्य अभिनन्दनीय है। हिन्दी गद्य की बाल्यावस्था में बहुत रचनाओं का गद्य में निर्माण कर इन्होंने इसकी रिक्तता को भरने का सफल प्रयास किया और इस दिशा में महत्त्वपूर्ण योग भी दिया है। इनकी भाषा का नमूना निम्नानुसार है 'जैसे बानर एक कांकरा के पड़े रौवे तैसे याके देह का एक अंग भी छीजे तो बहुतेरा रौवे । ये १. पं० बनारसीदास चतुर्वेदी, अर्द्धकथानक भूमिका, सं० नाथूराम प्रेमी २. भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ३. हिन्दी गद्य का विकास : डा० प्रेमप्रकाश गौतम, अनुसन्धान प्रकाशन, पृ० १८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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