________________
आचार्य पाणिनि का शब्दानुशासन किसी न किसी रूप में विषयों का अध्ययन करने वालों का प्रिय रहा है। जैनाचार्यों में भी है । अनेक आचार्यों ने इस पर टीका ग्रन्थ भी लिखे। इस प्रकार प्रकार है-
संस्कृत-जैन-व्याकरण-परम्परा ३५७
पाणिनीय व्याकरण—- टीकाएँ
संस्कृत भाषा का या इसके माध्यम से अन्य इसका किसी न किसी रूप में प्रचलन अवश्य रहा के टीका ग्रन्थों का परिचयात्मक विवरण इस
व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि
सुधानिधि की रचना आचार्य विश्वेश्वरसूरि ने की है ग्रन्थका सर्जन अष्टाध्यायीसूम को ध्यान में रखकर किया गया है। यह ग्रन्थ प्रारम्भ के तीन अध्यायों पर ही उपलब्ध होता है, जिसका विद्याविलास प्रेस से दो भागों में प्रकाशन भी हो चुका है। इसके मंगलचरण के पाँचवें श्लोक में पतंजलि के प्रति जो श्रद्धा व्यक्त की गई है, उससे प्रतीत होता है, इस ग्रन्थ का प्रणयन महाभाष्य को आधार मानकर किया गया होगा । श्लोक इस प्रकार है
विषये फणिनायकस्य क्षमते नैनं विधातुमल्पमेधाः । विबुधाधिपतिप्रसादधाराः पुनरारादुपकारमारभन्ते ॥
इनका समय भट्टोजी दीक्षित के बाद तथा उनके पौत्र हरिदीक्षित के पूर्व माना गया है ।"
शब्दावतारन्यास
इस ग्रन्थ के प्रणेता जैनेन्द्र व्याकरण के रचनाकार पूज्यपाद देवनन्दी थे । ग्रन्थ अप्राप्य है । अन्यत्र उल्लेखों के आधार पर यह कहा जाता है कि इसकी रचना पूज्यपाद ने की। इस सम्बन्ध में शिमोगा जिले की नगर तहसील के एक शिलालेख को भी उद्धृत किया जाता है । श्लोक इस प्रकार है—
न्यास जैनेन्द्रसंज्ञ सहल बुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो । न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा ॥ सस्तत्वार्थस्य टीका व्यरचदिह भात्यसौ पूज्यपादः । स्वामी भूपालवन्ध: स्वपरहितयचः पूर्णदुग्बोधयुतः ॥
यह कृति काशिकावृत्ति पर टीका ग्रन्थ है । इसकी हस्तलिखित प्रतियाँ इसका प्रणयन मुनि विद्यासागर ने किया है। इनके गुरु का नाम श्वेतगिरि था । का उल्लेख भी बड़े आदर के साथ किया है । पद्य इस प्रकार है
Jain Education International
वन्दे मुनीन्द्रान् मुनिवृन्दवन्द्यान्, श्रीमद्गुरु श्वेतगिरीन् परिष्ठान् । न्यासकारवचः पद्मनिकरोद्गीर्णमम्बरे, गृहगामि- मधुप्रीतो विद्यासागर षट्पदः ॥
इसमें जिन न्यासकार का स्मरण किया गया है वे पूज्यपाद देवनन्दी अथवा काशिका विवरण पंजिका न्यास के कर्ता आचार्य जिनेन्द्रबुद्धि रहे होंगे।
प्रक्रियामंजरी मद्रास तथा त्रिवेन्द्रम में संग्रहीत हैं । इन्होंने ग्रन्थ के प्रारम्भ में न्यासकार
क्रियाकलाप
इसकी रचना आचार्य भावदेवसूरि के गुरु भावडारगच्छीय आचार्य जिनदेवसूरि ने की थी । रचनाकाल वि० सं० १४१२ के आसपास का है।
१. वही, पृ० १०२ जानकीप्रसाद द्विवेदी संस्कृत व्याकरणों पर जैनाचायों की टीकाएँ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.