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कर्मयोगी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड
किया पर अन्य कायों में व्यस्त होने से इसे वे पूरा न कर सके। इसे पूरा करने का कार्य वि० सं० १९६५ में मुनि श्री धनराज जी तथा मुनि श्री चन्दनमल जी दोनों विद्वानों ने पूरा किया ।
२. भिक्षुधातुपाठ
इस कार्य को मुनि श्री चन्दनमलजी ने वि० सं० १९८६ में पूरा किया था। इसमें कुल २००२ धातुओं का संग्रह गण के क्रम से किया गया है ।
३. भिक्षुन्यायदर्पणलघुवृत्ति
यह भिन्दानुशासन के १३५ भ्रूणों की लघुवृत्ति है। इसकी हस्तलिखित प्रतिलिपि सर्वप्रथम मुनिधी तुलसीराम जी ने (आचार्य तुलसी) ने वि० सं० १९८२ में मार्गशीर्ष शुक्ला द्वितीया को रतनगढ़ में पूरी की। ४. भिक्षुन्यायदर्पण बृहद्वृत्ति
इस ग्रन्थ में १३५ न्यायों पर विस्तृत वृत्ति है। इसकी रचना मुनिश्री चौथमल जी ने की है। उन्होंने वि० सं० १९९४ के भाद्र शुक्ला ३ को इसको पूरा किया |
५. मिलिगानुशासन सवृत्तिक
१५७ श्लोकात्मक यह ग्रन्थ विभिन्न छन्दों में लिखा गया है। इन श्लोकों के वृत्तिकार मुनिश्री पांदमल जी हैं वृत्ति का कार्य विक्रम संवत् १६६७ ज्येष्ठ शुक्ला 8 को पूर्ण हुआ था ।
६. कारिकासंग्रहवृत्ति
भन्दानुशासन के सूत्रों में जो कारिकाएँ आई हैं, उनकी वृत्ति इस ग्रन्थ में लिखी गई है। इसकी प्रति लिपि मुनिश्री नथमलजी ने विक्रम संवत् १९९७ श्रावण ६ गुरुवार को लाडनूं में की थी।
७. कालुकौमुदी
यह ग्रन्थ भिन्दानुशासन का लघु प्रक्रिया ग्रन्थ है। इसकी रचना भी मुनिधी चौधरी ने ही की। विक्रम संवत् १९६१ आश्विन कृष्णा १० बुधवार को जोधपुर में यह ग्रन्थ पूरा हुआ था। प्रशस्तिश्लोक इस प्रकार है
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शब्दानुशास 1
तत्पदान्प्रसादेन, मुनिना
चौचमल्लेन कृतेयं कालुकौमुदी ॥६॥
भू निधिनिधि बन्दे पुष्ये जोधपुरे दशमी बुधदिवसे ।
आश्विनमासे कृष्णपक्षे, पूर्णाकालुगणेन्द्रसमक्षे ||७||
इस ग्रन्थ की विशेषताओं पर मुनि श्रीचन्द कमल ने विस्तारपूर्वक विचार किया है ।"
जैनेतर संस्कृत व्याकरणों पर जंनाचार्यों की टीकाएँ
किया और इन पर टीका- ग्रन्थों की
ऊपर किये गये प्रयास से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत वाङ्मय में व्याकरणशास्त्र के क्षेत्र में जैनाचार्यों का योगदान एक महत्त्वपूर्ण निधि है । इन्होंने स्वतन्त्र व्याकरणशास्त्रों का प्रणयन रचना भी की। इसके साथ ही इन आचार्यों ने उन संस्कृत के व्याकरणों पर भी टीका ग्रन्थों की रचना की जो जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत नहीं है। अग्रिम पंक्तियों में इन्हीं ग्रन्धों का सामान्य परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है
१. मुनि श्रीचन्द कमल भिक्षुन्दानुशासन एक परिशीलन, संस्कृत प्राकृत जैन व्याकरण और कोश परम्परा, पृ० १५०-१६३.
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