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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
हितों का बलिदान कर देता है। एक दूसरे से इतने संपृक्त होते हैं कि सुख-दुःख में पूर्ण सहयोगी बनकर रहते हैं । जैसेदूध और मिश्री । यही सामूहिक साधना की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। वस्तुतः जीवन में प्रेम, वात्सल्य और समर्पण का रस है, वह व्यक्ति के अस्तित्व का मूल है, त्राण है । जहाँ यह अमिय रस नहीं, वहाँ जीवन निष्प्राण और कंकाल बनकर रह जाता है।
सामूहिक जीवन में क्रोध, ईर्ष्या, अभिमान, स्नेह, द्वेष आदि सहज सम्भव है। अकेला व्यक्ति किस पर क्रोध करेगा ? किसका अहं करेगा? और क्या सहेगा? जबकि वहाँ राग-द्वेष उभरने का कोई अवसर ही नहीं आता। जैसे चाहे कर सकता है, जहाँ चाहे जा सकता है। न उस पर कोई बन्धन है और न कोई अनुशासन । अकेला व्यक्ति ऊँची से ऊँची साधना कर सकता है, पर उस साधना की कसौटी संघ ही है।
संघ अनेक सदस्यों का समवाय है। समवाय में रहने वाले सभी सदस्य समान प्रकृति व विचार वाले नहीं होते, सब एक रुचि वाले नहीं होते । चिन्तन भी सब का एक नहीं होता। इसलिए सब के साथ रहकर संघ की रुचियों
और प्रवृत्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित करना, अनेक अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंगों में अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रखना और अहंकार व ममकार से असंस्पृष्ट रहना ही बहुत बड़ी साधना और कड़ी तपस्या है।
परस्परता, संबद्धता का मूल मन्त्र है, क्योंकि बिना परस्परता के संघ चल नहीं सकता । जिस संगठन में परस्परता की भावना का विकास होता है उस संगठन की नींव सुदृढ़ एवं चिरस्थाई बन जाती है । संघ में शैक्ष, वृद्ध, रुग्ण आदि भी होते हैं । इसलिए हर साधक का कर्तव्य हो जाता है कि वह निष्काम और अग्लान भाव से अपनी सेवा देकर दूसरों की चित्त समाधि का निमित्त बने।
पारस्परिक शालीनता के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र आवश्यक हैं । जहाँ दूसरों से सहयोग लेने की अपेक्षा हो वहाँ 'कृपया' शब्द का प्रयोग करें, और कार्य समाप्ति पर "कृतज्ञास्मि' शब्द से आभार प्रदर्शित करें। अवज्ञा व अशातना होने पर खेद' शब्द द्वारा खेद प्रकट करें। यदि किसी कार्यवश कोई कार्य न कर सका तो 'क्षमा करें' ऐसा कहे । इन महत्त्वपूर्ण पहलुओं से सामुदायिक जीवन की शालीनता बनी रहती है।
साधक को किस धर्मसंघ में रहना चाहिये? जो धर्मसंघ प्राणवान् है, आचारनिष्ठ है, विशुद्ध नीति वाला है, गीतार्थ मुनियों से परिवेष्टित है, जहाँ ज्ञान, दर्शन और चारित्र की उपासना होती है, जीवन की परम माधना और धर्म की आराधना होती है । जिस धर्म संघ के दोनों अंग-साधु और साध्वी विनम्र हैं, विनय का उच्चतम आदर्श हैं, सदा जागरूक हैं, प्रबुद्ध हैं और संघ के प्रति आत्मीयता, निष्पक्ष व्यवहार और सद्भावना बनाये रखते हैं। संघ विकास में सक्रिय योगदान करते हैं। आचार्य के प्रति सर्वात्मना समर्पित हैं। वह धर्मसंघ विश्व में कीतिमान स्थापित करता है । "बृहत्कल्पभाष्य" में गच्छ की परिभाषा करते हुए लिखा है--जिस गच्छ में सारणा-वारणा और प्रेरणा नहीं होती, वह गच्छ नहीं है। साधक को उस गच्छ को छोड़ देना चाहिये ।
जहिं णत्थि सारणा वारणा पडिचोयणा य गच्छामि ।
सो उ अगच्छो गच्छो, संजय कामिणी ॥ मोक्ष की साधना के लिए संघ की आराधना अपेक्षित है । गच्छ महाप्रभावशाली है। उस गौरवशाली धर्मसंघ में रहने से महानिर्जरा होती है। सारणा वारणा तथा प्रेरणा आदि से नये दोषों की उत्पत्ति रुक जाती है। अप्रतिम शास्त्रज्ञ अनुशास्ता के नेतृत्व में और बहुश्रुत मुनियों के परिप्रेक्ष्य में रहने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र के अनन्त वैभव को प्राप्त कर साधक अपने अन्तर्जगत में नई चेतना पाता है। उनके उपपात में रहने से मौलिक तत्त्वों का चिन्तन व मनन होता है, जिससे मनीषा की स्फुरणा होती है, नये-नये उन्मेष आते हैं। संव में विकास के अनेक आयाम उद्घाटित होते हैं। युगानुकूल शिक्षा, साधना, साहित्य आदि नाना कलाओं को विकसित होने का मुक्त अवसर मिलता है।
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