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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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.- 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' के अपभ्रंश विभाग में दिए गए तीन उद्धरण और कुछ अपभ्रंश कृतियों में किया हुआ कुछ कवियों का नामनिर्देश।
स्वयम्भू के पुरोगामियों में चतुर्मुख स्वयम्भू के ही समान समर्थ महाकवि था और सम्भवत: वह जैनेतर था। उसने एक रामायणविषयक और एक महाभारतविषयक ऐसे कम से कम दो अपभ्रंश महाकाव्यों की रचना की थी-यह मानने के लिए हमारे पास पर्याप्त आधार हैं।' उसके महाभारत-विषयक काव्य में कृष्णचरित्र का भी कुछ अंश होना अनिवार्य था । कृष्ण के निर्देश वाले दो-तीन उद्धरण ऐसे हैं जिनको हम अनुमान से चतुर्मुख की कृतियों में से लिए हुए मान सकते हैं। किन्तु इससे हम चतुर्मुख की काव्यशक्ति का थोड़ा सा भी संकेत पाने में नितान्त असमर्थ हैं।
___ चतुर्मुख के सिवा स्वयम्भू का एक और ख्यातनाम पूर्ववर्ती था। उसका नाम था गोविन्द । स्वयम्भूच्छन्द में दिये गये उसके उद्धरण हमारे लिए अमूल्य हैं। गोविन्द के जो छह छन्द दिए गये हैं वे कृष्ण के बालचरितविषयक किसी काव्य में से लिए हुए जान पड़ते हैं। गोविन्द का नामनिर्देश अपभ्रंश की मूर्धन्य कवित्रिपुटी चतुर्मुख, स्वयम्भू
और पुष्पदन्त के निर्देश के साथ-साथ चौदहवीं शताब्दी तक होता रहा है। चौदहवीं शताब्दी के कवि धनपाल ने जो श्वेताम्बर कवीन्द्र गोविन्द को सनत्कुमारचरित का कर्ता बताया है वह और स्वयम्भू से निर्दिष्ट कवि गोविन्द दोनों का अभिन्न होना पूरा सम्भव है। स्वयम्भू द्वारा उद्धृत किये हुए गोविन्द के छन्द उसके हरिवंशविषयक या नेमिनाथ विषयक काव्य में से लिए हुए जान पड़ते हैं । अनुमान है कि इस पूरे काव्य की रचना केवल रड्डा नामक द्विभंगी छन्द में हुई होगी । और सम्भवत: उसी काव्य से प्रेरणा और निदर्शन प्राप्त करने के बाद हरिभद्र ने रड्डा छन्द में ही अपने अपभ्रंश काव्य 'नेमिनाथचरित' की रचना की थी।
'स्वयम्भूच्छन्द' में उद्धत गोविन्द के सभी छन्द यद्यपि मात्रिक हैं तथापि ये मूल में रड्डाओं के पूर्वघटक के रूप में रहे होंगे, ऐसा जान पड़ता है। यह अनुमान हम हरिभद्र के 'नेमिनाथचरित' का आधार लेकर लगा सकते हैं एवं हेमचन्द्र के 'सिद्धहेम' के कुछ अपभ्रश उद्धरणों में से भी हम कुछ संकेत निकाल सकते हैं।
'स्वयम्भूच्छन्द' में गोविन्द के लिए गए मत्तविलासिनी नामक मात्रा छन्द का उदाहरण जैन परम्परा के कृष्णबालचरित्र का एक सुप्रसिद्ध प्रसंग विषयक है। यह प्रसंग है कालियनाग के निवासस्थान बने हुए कालिन्दी ह्रद से कमल निकाल कर भेंट करने का आदेश जो नन्द को कंस से दिया गया था। पद्य इस प्रकार है
एहू विसमउ सुछ आएसु माणंतिउ माणुसहो दिट्ठीविसु सप्पु कालियउ । कंसु वि मारेई धुउ कहिं गम्मउ काइं किज्जउ ॥
(स्वच्छ० ४-१०-१) 'यह आदेश अतीव विषम था । एक ओर था मनुष्य के लिए प्राणघातक दृष्टिविष कालिय सर्प और दूसरी ओर था (आदेश के अनादर से) कंस से अवश्य प्राप्तव्य मृत्युदण्ड-तो अब कहाँ जाएँ और क्या करें।
गोविन्द का दूसरा पद्य जो मत्तकरिणी मात्रा छन्द में रचा हुआ है राधा की ओर कृष्ण का प्रेमातिरेक प्रकट करता है। हेमचन्द्र के 'सिद्धहेम' में भी यह उद्धत हुआ है (देखो ८-४-४२२, ५) और वहीं कुछ अंश में प्राचीनतर पाठ
१. विशेष के लिए देखिए इस व्याख्याता का लेख-Chaturmukha, one of the earliest Apabhramsa epic
Poets', Journal of the Oriental Institute, Baroda, ग्रन्थ ७, अंक ३, मार्च १९५८, पृ० २१४-२२४ । स्वयम्भूच्छन्द ६-७५-१ में कृष्ण के आगमन के समाचार से आश्वस्त होकर मथुरा के पौरजनों ने धवल ध्वज फहराए और इस तरह अपना हृदयभाव व्यक्त किया ऐसा अभिप्राय है। ६-१२२०-१ में कृप, कर्ण, और कलिंगराज को एवं अन्य सुभटों को पराजित करके अर्जुन कृष्ण को अयद्रथ का पता पूछता है, ऐसा अभिप्राय है। इनके अलावा ३-८-१ और ६-३५-१ में अर्जुन का निर्देश तो है, उसके साथ कई अन्य का भी उल्लेख है, किन्तु कृष्ण का नहीं। और मुख्य बात तो यह है कि ये चतुर्मुख के ही मानने के लिए कोई निश्चित आधार नहीं है।
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