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________________ ब्रह्माण्ड : आधुनिक विज्ञान और जैन दर्शन १८५ किसी रूप में रहे होंगे। उनके घनीभूत होने से वर्तमान रूप में अस्तित्व आये और अब निरन्तर ताप-क्षय करते हुए पुन: नया रूप धारण कर लेंगे । तत्पश्चात् फिर यह ताप घनीभूत होकर नये पदार्थों का रूप धारण कर लेगा। यह परिवर्तन चक्र चलता ही रहेगा । जैन सिद्धन्त सृष्टि के इस परिवर्तन चक्र को स्वीकार करता है । यह सिद्धान्त तर्कसंगत व बोधगम्य है । वर्तमान युग के कुछ वैज्ञानिक "विश्व के चक्रीय सिद्धान्त" के समर्थक हैं जो जैन मान्यता के अत्यधिक निकट है। (२) ब्रह्माण्ड के आकार व विस्तार की दृष्टि से जैन दर्शन की मान्यता है कि ब्रह्माण्ड निश्चित आकार का है तथा ससीम है। ब्रह्माण्ड के आकार की निश्चितता व सीमाबद्धता परस्पर सम्बन्धित है। ब्रह्माण्ड अनिश्चित व असीम नहीं है । अन्तरिक्ष स्थित समस्त पदार्थ--एक सीमा में बद्ध है, इस सीमित प्रदेश को “लोक' कहा गया है। इस सीमाबद्ध प्रदेश के बहार कोई पदार्थ नहीं केवल शून्याकाश है जिसे "अलोक" कहा गया है। लोक की आकृति अंग्रेजी की 8 की संख्या से लगभग मिलती-जुलती है जिसमें एक शून्य दूसरे शून्य से ऊपर की ओर संयुक्त होता है। इस मान्यता के अनुसार "लोक" अर्थात् ब्रह्माण्ड के तीन खण्ड हैं-अधोलोक (नीचे के शून्य का गोलाकार स्वरूप), ऊर्ध्व लोक (ऊपर के शून्य का गोलाकार स्वरूप) एवं मध्य लोक (दोनों शून्यों का संगमस्थल)। तीनों लोकों में स्थित पदार्थों के गुण-धर्मों में न्यूनाधिक अन्तर के कारण भिन्न-भिन्न प्राकृतिक परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं जिनकी क्रिया-प्रतिक्रिया से सृष्टि परिवर्तन चक्र चलता रहता है। ब्रह्माण्डीय आकृति व विस्तार की जैन मान्यता डा० आइन्सटीन की मान्यता के अतिनिकट है। उनकी भी मान्यता है कि ब्रह्माण्ड निश्चित आकृति का व सीमाबद्ध है। जैसा पहले कहा है-डा० आइन्सटीन की ससीम (सीमाबद्ध) विश्व की मान्यता का आधार गुरुत्वाकर्षण है । ब्रह्माण्ड स्थित समस्त पदार्थों का संयुक्त गुरुत्वाकर्षण इसे बक्राकार रूप पदार्थ करता है एवं सीमाबद्ध कर देता है। यदि पदार्थ अनन्त होता हो अनन्त गुरुत्वाकर्षण भी होता जो विश्व को भस्मीभूत कर देता। अत: पदार्थ सीमित है जो ब्रह्माण्ड विस्तार को भी सीमित करता है । जैन दर्शन ब्रह्माण्ड को सीमित बनाने में गुरुत्वाकर्षण की तरह ही, लेकिन इससे अधिक सूक्ष्म दो तत्त्वों को प्रभावी मानता है, ये दो तत्त्व हैं--(१) धर्मास्तिकाय एवं (२) अधर्मास्तिकाय । ये दो तत्त्व ब्रह्माण्ड की आकृति को निश्चित ही नहीं करते, ब्रह्माण्ड स्थित समस्त पदार्थों की गतिशीलता, स्थिरता, रूप परिवर्तन तथा ब्रह्माण्ड के विस्तार व संकुचन के लिए उत्तरदायी हैं। धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय क्या हैं ? यह जान लेना आवश्यक है। धर्मास्तिकाय का कार्य-व्यापार है पदार्थ के धर्म को बनाये रखना अर्थात् उसमें निहित रूप, रंग, तन्मात्रा आदि को बनाये रखना। अधर्मास्तिकाय का कार्य-व्यापार है-पदार्थ के धर्म (गुणों) का विनाश करना-उसके रूप, रंग, तन्मात्रा का ह्रास करना । हम प्रकृति के इस नियम से परिचित हैं कि प्रत्येक पदार्थ अपना अस्तित्व बनाये रखता है लेकिन धीरे-धीरे उसमें ह्रास भी आता है। अस्तित्व बनाये रखने का गुण "संयोजन" है; ह्रास द्वारा पदार्थ का रूप परिवर्तन “गुण" वियोजन है। ब्राह्मण्ड स्थित समस्त पदार्थ परिवर्तन की निरन्तर प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। जैसे रेडियम परिवर्तन क्रम में २० अरब वर्ष में सीसा बन जाता है। आज जो हमारा सूर्य है वह निरन्तर ताप क्षय करता हुआ एक दिन बुझ जायगा । यह ताप पुनः संगठित होकर नया पदार्थ बना देगा । स्वर्ण जिसे हम आज देखते हैं अतीतकाल में इसका रूप भिन्न रहा होगा, यह भी परिवर्तन क्रिया में अपने तत्त्व बिखेरता हुआ विघटित होकर वर्तमान रूप में आया होगा तथा भविष्य में भिन्न स्वरूप को प्राप्त होगा । धर्मास्तिकाय व ब्रह्माण्डीय-पदार्थों की गतिशीलता में व अधर्मास्तिकाय स्थिरता बनाये रखने में भी सहायक तत्त्व हैं । सम्पूर्ण जगत् के पदार्थ गतिशील हैं--परिभ्रमण या परिक्रमण करते हैं—इनकी गतिशीलता धर्मास्तिकाय के कारण सम्भव है । समस्त पदार्थ गतिशील होते हुए भी अपनी स्थिरता--निश्चित मार्ग, निश्चित, अन्तराल बनाए रखते हैं यह अधर्मास्तिकाय के कारण है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय विपरीतधर्मी तत्त्व हैं, यह माना जा सकता है। आधुनिक वज्ञानिकों ने भी गति सहायक तत्त्व के रूप में "ईथर" की कल्पना की थी लेकिन प्रयोग द्वारा इसका अस्तित्व सिद्ध न हो सकने से इसे - ० - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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