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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
त्याग दिया। धर्मास्तिकाय “ईथर" जैसा तत्त्व ही है । ये दोनों पदार्थ अभौतिक व अमूर्त हैं जिन्हें प्रयोगों की कसोटी पर कसना सम्भव नहीं है । धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय ब्रह्माण्ड स्थित समस्त पदार्थों के सम्मिलित प्रभाव से उत्पन्न ऐसे गुण हैं जो ब्रह्माण्ड को वक्रता प्रदान कर सीमित कर देते हैं । ब्रह्माण्ड के बाहर ये दोनों पदार्थ नहीं अत: पदार्थों की गति भी सम्भव नहीं। डा० आइन्सटीन के अनुसार ब्रह्माण्ड को सीमित आकार का रूप देने में जो कार्य गुरुत्वाकर्षण का है, जैन मान्यता में धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय का है।
प्रत्येक पदार्थ स्थिर प्रतीत होते हुए भी अस्थिर है। अन्तरिक्ष स्थित पिण्ड गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में गतिशील है। तो प्रत्येक पदार्थ में निहित अणु-परमाणु विद्युत-चुम्बकीय प्रभाव में भी गतिशील है। प्रत्येक स्थिर वस्तु के अणुपरमाणुओं की गति प्रकाशवेग के समकक्ष है। स्थिरता व गतिशीलता को कौन नियन्त्रित करता है। डा० आइन्सटीन के अनुसार गुरुत्वाकर्षण व विद्युत चुम्बकीय प्रभाव नियन्ता है लेकिन जैनमतानुसार धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय निपता हैं। गुरुत्वाकर्षण व विद्युत-चुम्बकीय प्रभाव स्वयं बहुत स्थूल है जो स्वयं धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय से नियन्त्रित होते हैं। सृष्टि परिवर्तन-चक्र में पदार्थों का जो रूप परिवर्तन होता है -पदार्थों के विकास व ह्रास भी इन दो तत्त्वों से प्रभावित है। वायुमण्डलीय परिस्थितयाँ-ताप, दाब, वर्षा आदि पदार्थ परिवर्तन को प्रभावित करती हैं, स्वयं इन दो तत्त्वों की उपज है।
जैन मान्यतानुसार ब्रह्माण्ड अनादि व अनन्त है तथा सीमित आकृति का है, ब्रह्माण्ड का निरन्तर रूप बदलता रहता है.--ब्रह्माण्डीय पदार्थ का अस्तित्व ज्यों का त्यों बना रहता है लेकिन स्वरूप नये-नये आकारों में प्रकट होता है। धर्मास्तिकाय व अधर्मास्तिकाय की क्रिया-प्रतिक्रिया इस परिवर्तन चक्र के तथा ब्रह्माण्ड की सीमितता के कारक हैं। ब्रह्माण्ड सम्बन्धी जैन मान्यता अत्यन्त प्राचीन है जिसका आधार यन्त्र नहीं होकर दिव्य चक्षु ही हो सकते हैं । इस मान्यता को चुनौती देना अब तक सम्भव नहीं हो सका है। आज के वैज्ञानिक ज्यों-ज्यों ब्रह्माण्ड ज्ञान में वृद्धि कर रहे हैं त्यों-त्यों वे इस धार्मिक मान्यताओं के निकट आ रहे हैं। प्रमुख ब्रिटिश ज्योतिविद डा० जस्टो कहते हैंब्रह्माण्ड ज्ञान एक अत्यन्त ऊँचे पर्वत की चोटी की तरह है जिस पर चढ़ना दुष्कर है। विज्ञानवेत्ता इस चोटी पर पहुँचने के लिये पड़ते गये-चड़ते गये और अन्त में जब वे चोटी के निकट पहुंचे तो देखा कि धर्म गुरु वहाँ पहले से ही आसन जमाये बैठे हैं। तात्पर्य यह कि ब्रह्माण्ड का वास्तविक ज्ञान धर्मगुरुओं ने पहले ही कर लिया है। ब्रह्माण्ड सम्बन्धी जैनमान्यता पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है और यह निश्चित है कि एक दिन विज्ञानवेत्ता अन्तिम सत्य के रूप में इसके ही निकट पहुंचेंगे।
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