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'मित्ती मे सव्वभूएसु' ये शब्द 'जैन प्रतिक्रमण' में युग-युग से चले आ रहे नियमित चिन्तन-मनन के लिए प्रतिष्ठित रहे हैं । सब प्राणियों के प्रति उदात्त मैत्री भाव रखने वाले व्यक्तियों से सभी नागरिकों की समानता में सहज विश्वास की आशा करना स्वाभाविक है । यही समानता की भावना लोकतन्त्र की आधारशिला है । समानता स्वतन्त्रता की भगिनी है। फ्रांस की राज्य क्रान्ति ( १७८९ ) में लोकतन्त्र का कण्ठस्वर "स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुता" ऐसे ही नारों में गूंजा था। अमेरिका में टॉमस पेन (Thomas Paine ) ने 'विवेक का युग' (१७६२) में लिखा था "मैं मनुष्य की समानता में विश्वास करता है; और मेरा विश्वास है कि न्याय करने, प्रेमपूर्ण दया और अपने साथी प्राणियों की प्रसन्नता के लिए प्रयत्न में धार्मिक कर्त्तव्य निहित हैं ।"" समानता में आस्था रखने वाला व्यक्ति धर्म, मूलवंश, (Race), जाति, लिंग, जन्म-स्थान इत्यादि के आधार पर भेद-भाव नहीं मानता। वह 'मनसावयसा, कायसा' समानता का आचरण करता है । यह जैन-सन्देश है; यह लोकतन्त्र का भी निर्देश है । महात्मा गांधी ने 'यंग इण्डिया' में सन् १९२९ ई० में लिखा था; "मेरा धर्म बंदीगृह का नहीं है । इसमें परमात्मा के छोटे से छोटे प्राणी के लिए स्थान है, किन्तु यह मूलवंश, धर्म और वर्ण ( रंग ) के दुराग्रही अभिमत से प्रभावित नहीं होता ।"
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जैन धर्म और लोकतन्त्र
प्रो० चन्द्रसिंह नेनावटी
(राजनीति विज्ञान विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर)
समानता की यह भावना जैन धर्म और दर्शन में आधारभूत रूप से बहुत गहरी ही नहीं, व्यापक भी रही है । वस्तुतः उसे 'समता' का सिद्धान्त कहना उपयुक्त होगा । समता की दृष्टि व्यक्ति के व्यक्तित्व को सन्तुलित और शान्त रखती है; वह समाज को भी समरसता, सहानुभूति और सुख-शान्ति प्रदान करती है। मनुष्य मनुष्य में अन्तर जैन सिद्धान्तों के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। कोई भी हो, सम्यक्ज्ञान, सम्यदर्शन और सम्यक्चारित्र के मार्ग से मोक्ष प्राप्त कर सकता है; उसके लिए जाति, धर्म, भाषा आदि के भेद की मान्यता नहीं है । जैन दर्शन का समत्व तो प्राणी मात्र तक प्रसारित है, सीमित या संकुचित नहीं ।
लोकतन्त्र में जिस समानता की बात कही जाती है, वह सभी प्राणियों तक नहीं तो भी सब नागरिकों तक अवश्य व्याप्त होती है । राजनीतिक समानता में 'एक व्यक्ति, एक वोट' वा सिद्धान्त नागरिकों की बराबरी पर ही आधारित है। वह युग बीत चुका है जबकि कतिपय तथाकथित लोकतन्त्रात्मक राज्यों में शिक्षा या संपत्ति आदि के नाम पर मताधिकार सीमित रखा जाता था और कुछ वर्गों को एक ही निकाय के लिए चुनाव में एक से अधिक वोट देने का अधिकार होता था। इंग्लैंड में बहुल मतदान (Plural Voting) की उस कोटि में अन्तिम अवशिष्ट उदाहरण था विश्वविद्यालय मताधिकार ( University Franchise), जिसके अन्तर्गत विश्वविद्यालय शैक्षिक उपाधिधारियों
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"I believe in the equality of men; and I believe that religious duties consist in doing justice, loving mercy, and endeavouring to make our fellow creatures happy.”
-Thomas Paine: The Age of Reason.
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