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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड
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सेठ तणा दल ऊपरे, राजा तणा छूटे बाण । कोकाट शब्द करता, पड़े बिजली जिम आण ।। सूरा सुभट राजारा, ते हुवा साहस धीर ।
संग्राम में सूरा, कानी-कानी लागा बड़वीर ।। इस प्रकार शैली तत्त्व की. तुला पर भी सुदर्शन-चरित पूर्णतः खरा उतरता है। राजस्थानी साहित्य के क्षेत्र में काव्य साहित्य की परम्परा अति प्राचीन है। समय-समय पर विभिन्न कवियों ने अपनी अनुभूतियों को संजोकर काव्य साहित्य को समृद्ध बनाया। आचार्य भिक्षु का 'सुदर्शन चरित' निःसंदेह उसी काव्य-शृंखला की एक कड़ी होगा। जिसमें साहित्य, संस्कृति, कला और दर्शन का सुन्दर निदर्शन मिलता है। भाव, कल्पना, बुद्धि और शैली के मूलभूत साहित्यिक तत्त्व निकष पर यह शत प्रतिशत खरा उतरा है। अत: इसे निःसंकोच स्वतन्त्र और परिपूर्ण काव्य की संज्ञा देने में किसी प्रकार की झिझक नहीं होनी चाहिए।
उपसंहार-जीवन के शाश्वत और मौलिक तथ्यों का अस्खलित प्रकटीकरण आचार्य भिक्ष की काव्य-साधना का सहज गुण था। अनेक गहन विषयों को सरल भाषा में गूंथकर व्यावहारिक रूपकों द्वारा हृदयंगम कर देना उनकी विलक्षण प्रतिभा का प्रतीक रहा। उनके साहित्य की सर्वाधिक विशेषता यह है कि इन्होंने सनातन सत्य को परिभाषाओं के कृत्रिम और कठोर बन्धनों में बाँधने को कभी प्रयत्न नहीं किया। यही कारण है कि उनकी कृतियों में साहित्य स्वयं मूर्तिमान सत्य के रूप में अवतरित हुआ है। 'सुदर्शन चरित' इसका प्रमाण है। आचार्य भिक्ष ने तथ्यों को तोड़-मरोड़कर नहीं रखा किन्तु उनमें अपना स्पष्ट चिन्तन, सहमति और मतभेद प्रकट किया है। इतना होते हुए भी उनमें उनकी अनाग्रह वृत्ति साकार होकर निखरी है।
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