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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थः पंचम खण्ड
इसके अतिरिक्त अनुयोगद्वारसूत्र में शब्दानुशासन सम्बन्धी पर्याप्त विवेचन हुआ है। इसमें नाम शब्द, समास, आख्यात शब्द आठों विभक्तियों आदि का विस्तृत विवरण विद्यमान है।
इस प्रकार प्रकृत ग्रन्थों में प्राकृत-व्याकरण सम्बन्धी नियमों का उल्लेख मिलता है, पर प्राकृत भाषा में ही लिखा गया कोई स्वतन्त्र व्याकरण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है । प्राकृत भाषा के जितने भी व्याकरण लिखे गये वे सभी संस्कृत भाषा में ही लिखे गए। उन ग्रन्थों में कुछ ग्रन्थों का केवल उल्लेख ही मिलता है। कुछ उपलब्ध हैं, कुछ अनुपलब्ध हैं। ऐसे ग्रन्थों में चण्डकृत प्राकृत लक्षण, त्रिविक्रमकृत प्राकृत शब्दानुशासन आदि प्रमुख हैं।
___ जैन परम्परा में संस्कृत व्याकरण ग्रन्थों की रचना कब से हुई, यह कहना कठिन है । इस परम्परा में सबसे प्राचीन उपलब्ध व्याकरण शास्त्र आचार्य देवनन्दी की कृति जैनेन्द्र व्याकरण है। पर प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह मानना उचित है कि आचार्य देवनन्दी के पूर्व भी जैन परम्परा से सम्बन्धित व्याकरण की कृतियाँ थीं। जिस प्रकार महर्षि पाणिनि के व्याकरण ग्रन्थ शब्दानुशासन में उनमें पूर्व के वैयाकरणों का उल्लेख मिलता है, उसी प्रकार जैनेन्द्र व्याकरण से लेकर परवर्ती जैन परम्परा के व्याकरण ग्रन्थों में पूर्वाचार्यों और उनकी कृतियों का उल्लेख है। उनमें से शब्दप्रभृत, ऐन्द्र व्याकरण और क्षपणक व्याकरण प्रसिद्ध हैं। शब्दप्राभृत (सद्दपाहुड)
परम्परा के अनुसार शब्दप्राभूत या सद्दपाहुड की रचना संस्कृत में की गई थी। यह पूर्वग्रन्थों का अंग है। जैन आगमों के दृष्टिवाद में चौदह पूर्व शामिल थे। ये पूर्व ग्रन्थ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के माने जाते हैं। पार्श्वनाथ का समय भगवान महावीर से दो सौ पचास वर्ष पूर्व का माना जाता है। इससे ज्ञात होता है कि पूर्वो की रचना ईसा पूर्व आठवीं शती में हुई होगी। अत: शब्द प्राभूत का समय भी आठवीं शती माना जा सकता है। सिद्धसेनगणि ने कहा है कि पूर्व ग्रन्थों में जो शब्द प्राभृत है, उसी में से व्याकरणशास्त्र का उद्भव हुआ है। चौदह पूर्व संस्कृत भाषा में थे अतः इसकी भाषा भी संस्कृत हो रही होगी ।२।
डॉ० नेमिचन्द शास्त्री के अनुसार सत्यप्रवाद पूर्व में व्याकरणशास्त्र के नियमों का उल्लेख मिलता है। इसमें वचन संस्कार के कारण, शब्दोच्चारण के स्थान, प्रयत्न, वचन भेद आदि का विवेचन किया गया है । इस प्रकार सत्यप्रवाद पूर्व में व्याकरणशास्त्र का प्रारम्भिक स्वरूप स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
ऐन्द्र व्याकरण
अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा में ऐन्द्र व्याकरण का भी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। इस व्याकरण के कर्ता भगवान् महावीर को माना जाता है । परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर ने इन्द्र के लिए एक शब्दानुशासन कहा। उसे उपाध्याय लेखाचार्य ने सुनकर ऐन्द्र नाम से लोक में प्रकट किया । इस सम्बन्ध में आवश्यक नियुक्ति तथा हारिभद्रीय आवश्यकवृत्ति में कहा है
सक्को आ तत्समक्खं, भगवंत आसणे निवेसिता। सदस्स लक्खणं पुच्छे, वागरणं अवयवा इदं ॥
बहुत समय तक आचार्य देवनन्दी के जैनेन्द्र व्याकरण को ही ऐन्द्र व्याकरण मानने का भ्रम चलता रहा।
१. संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा, पृ० ३६. (गोकुलचन्द का लेख) २. पं० अम्बालाल प्रे० शाह-जैन साहित्य का वृहत् इतिहास, भाग ५, पृ० ६. ३. डॉ० नेमिचन्द शास्त्री-जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान, पृ०४२-४३.
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