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नमस्कार महामन्त्र:एक विश्लेषण
युवाचार्यश्री महाप्रज्ञजी
(तेरापंथ सम्प्रदाय)
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कुछ लोग परम्परावादी होते हैं। वे परम्परा से प्राप्त अपने शास्त्रों को शाश्वत मानते चले जाते हैं। उन्हें उन शास्त्रों के पाठ और अर्थ में किसी अनुसन्धान की अपेक्षा अनुभूत नहीं होती। किन्तु अनुसन्धित्सु वर्ग इस बात को स्वीकार नहीं करता। वह शास्त्र के पाठ और अर्थ---दोनों का अनुसन्धान करता है और जो कुछ नया उपलब्ध होता है उसे विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत भी करता है।
हमने आचार्य श्री तुलसी के वाचना-प्रमुखत्व में जैन-आगमों के अनुसन्धान का कार्य प्रारम्भ किया। एक ओर हम पाठ का अनुसन्धान कर रहे हैं तो दूसरी ओर अर्थ के अनुसन्धान का कार्य भी चलता है। आगमों के सूत्रपाठ की अनेक वाचनाएँ हैं और पन्द्रह सौ वर्ष की इस लम्बी अवधि में, अनेक कारणों से उनमें अनेक पाठ-भेद हो गये हैं । अर्थभेद उनसे भी अधिक मिलता है । अनुसन्धान का उद्देश्य है मूल-पाठ और मूल-अर्थ की खोज। अनेक प्रकार के पाठों और अर्थों में से मूल पाठ और अर्थ की खोज निकालना कोई सरल कार्य नहीं है। फिर भी मनुष्य प्रयत्न करता है और कठिन कार्य को सरल बनाने की उसमें भावना सन्निहित होती है। हमारा प्रयत्न और हमारी भावना मूल के अनुसन्धान की दृष्टि से प्रेरित है। इसीलिए इस कार्य के प्रति हमारा दृष्टिकोण सत्य के प्रति समर्पित है, किसी सम्प्रदाय या किसी विशेष विचार के प्रति समर्पित नहीं है।
मंगलवाद
दार्शनिक युग में शास्त्र के प्रारम्भ में मंगल, अभिधेय, सम्बन्ध और प्रयोजन-ये चार अनुबन्ध बतलाये जाते थे। आगम युग में इन चारों की परम्परा प्रचलित नहीं थी। आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही अपने आगम का प्रारम्भ करते थे। आगम स्वयं मंगल हैं। उनके लिए फिर मंगल-वाक्य आवश्यक नहीं होता। जयधवला में लिखा है कि आगम में मंगल-वाक्य का नियम नहीं है। क्योंकि परम आगम में चित्त को केन्द्रित करने से नियमत: मंगल का फल उपलब्ध हो जाता है। इस विशेष अर्थ को ज्ञापित करने के लिए भट्टारक गुणधर ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल नहीं किया।
कसाय पाहुड, भाग १, गाथा १, पृ०६: एत्थ पुण णियमो णत्यि, परमागमुवजोगम्मि णियमेण मंगलफलोवलंभादो । वही, पृ०६: एतस्स अत्थविसेसस्स जाणावणळं गुणहरभडारएण गंथस्सादीए ण मंगलं कथं ।
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