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भट्टारक-परम्परा
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यह कहा .या है कि मुनियों को चैत्य में रहना उचित है और उन्हें पुस्तकादि के लिए आवश्यक द्रव्य भी संग्रह करना चाहिए। विक्रम संवत् ८०२ में शीलगुणसूरि ने वहाँ के राजा से यह घोषणा भी करवा दी थी कि नगर में चैत्यवासी साधु को छोड़कर वनवासी साधु नहीं आ सकेंगे। इन सब विधानों के कारण ईसा की सातवीं शताब्दी तक राजस्थान में चैत्यवासियों का काफी प्रभाव बढ़ गया था। इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति का विरोध अनेक श्वेताम्बर साधुओं ने किया क्योंकि वे यह मानते थे कि जैन-साधु का कार्य आत्म-ध्यान करता है, सामाजिक सुधार के कार्यों से उसके आचरण में शिथिलता आती है।
प्रसिद्ध दार्शनिक आचार्य हरिभद्र ने संबोध-प्रकरण में श्वेताम्बर चैत्यबासी साधुओं के शिथिलाचार का विस्तार से वर्णन किया और इसे जैन-संघ के लिए अहितकर माना है। इससे प्रतीत होता है कि आठवीं शती तक श्वेताम्बर चैत्यवासी साधुओं का शिथिलाचरण बहुत बढ़ गया था, जिनके विरोध में जिनवल्लभ, जिनदत्त, जिनपति, नेमिचंद भण्डारी आदि जैनाचार्यों ने सशक्त आवाज उठायी थी।
दिगम्बर चैत्यवासी-दिगम्बर परम्परा के मुनि-संध में चैत्यवासी नाम से मुनियों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु श्वेताम्बर चैत्यवासी मुनियों की जो प्रवृत्तियाँ थीं वैसी ही प्रवृत्तियाँ करने वाले मुनि दिगम्बर सम्प्रदाय में भी रहे होंगे तभी आचार्य कुन्दकुन्द से लेकर पं० आशाधर तक अनेक दिगम्बर आचार्यों को ऐसे शिथिलाचारी मुनियों के आचरण का विरोध करना पड़ा है । कुन्दकुन्द के लिंगपाहुड से ज्ञात होता है कि कुछ जैन साधु ऐसे थे जो गृहस्थों के विवाह जुटाते थे और कृषिकर्म, वाणिज्यादि रूप हिंसाकर्म करते थे। आचार्य कुन्दकुन्द ने ऐसे साधुओं को पश समान माना है। संभवत: वे उनकी इतनी तीव्र भर्त्सना करके उन्हें सत्पथ पर लाना चाहते थे। इससे स्पष्ट है कि दूसरी शताब्दी में शिथिलाचारी दिगम्बर जैन साधु भी थे।
देवसेन के दर्शनसार में भी पाँच जैनाभासों की उत्पत्ति का इतिहास दिया गया है। उनमें द्राविड, काष्ठा और माथुर संघ को जैनाभास कहा गया है। उसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि इन संघों के साधु वनवासी साधओं से संभवतः भिन्न आचरण करने लग गये थे । आगे चलकर यह बात ऐतिहासिक प्रमाणों से भी सिद्ध होती है। शक संवत १०४७ के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि द्राविड़ संघीय श्रीपालयोगीश्वर को सल्ल नामक ग्राम दान में दिया गया था। विक्रम संवत् ११४५ के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि काष्ठासंघ के विजयकीति मुनि के उपदेश से राजा विक्रमसिंह ने मुनियों को जमीन एवं बगीचे आदि में दान दिये। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि दिगम्बर जैनसंघ के मुनि भी वसति अथवा जैन मन्दिरों में रहते थे और उनको दान में जमीन आदि दी जाती थी।
उपर्यक्त शिथिलाचरण वाले दिगम्बर मुनियों को चैत्यवासी, मठपति या भट्टारक क्यों कहा जाता था, यह स्पष्ट नहीं है। क्योंकि ऐसे मुनियों का उल्लेख मुनि और भट्टारक दोनों विशेषणों के साथ हुआ है। ऐसे दिगम्बर साध शिथलाचारी होने पर भी नग्न रहते थे तथा इनके धार्मिक कार्यों में कोई विशेष मतभेद नहीं था। किन्तु ऐसे मुनियों का आचरण विशुद्ध दिगम्बर जैन-मुनियों तथा आचार्यों के लिए चिन्ता का विषय अवश्य था। यही कारण
२. वही
-हरिभद्रसूरि, संबोध प्रकरण
१. द्रष्टव्य-जिनवल्लभकृत संघपट्टक की भूमिका ३. बाला वयंति एवं वेसो तित्थंकराण एसो वि ।
णमणिज्जो घिट्टी अहो सिरसूलं कस्स पुकरिमो ॥ ७६ ॥ ४ द्रष्टव्य-नाहटा, अगरचंद--यतिसमाज-अनेकांत, वर्ष ३, अंक ८-६ ५. जो जोडेदि विवाहं किसिकम्मवणिज्जजीवघादं च-लिंगपाहुड, गाथा । ६. वही, गाथा-१२ ७. द्रष्टव्य-दर्शसार, गाथा २४ से ४६ तक ८. द्रष्टव्य-जैन शिलालेख संग्रह, शिलालेख नं० ४६३ ६. द्रष्टव्य-एपिग्राफिका इण्डिया, जिल्द २, पृ० ३३७-४०
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