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________________ भट्टारक परम्परा [] डॉ० बिहारीलाल जैन सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर भट्टारक-परम्परा दिगम्बर सम्प्रदाय के मूलसंघ, काष्टसंघ, नन्दिसंघ से सम्बन्धित है किन्तु भट्टारकीय प्रवृत्तियों पर श्वेताम्बर परम्परा के चैत्यवासी मुनियों के आचरण का भी प्रभाव पड़ा है। अतः भट्टारक- परम्परा का परिचय देने के पूर्व दिगम्बर एवं श्वेताम्बर चैत्यवासी मुनियों की जीवन-चर्या एवं कार्य-कलापों का दिग्दर्शन करना आवश्यक है ताकि भट्टारक परम्परा की प्रवृत्तियों को भलीभांति समझा जा सके। जनसंघ में चैत्यवासी - दिगम्बर एवं श्वेताम्बर परम्परा में मुनियों के अनेक संघ प्रचलित हुए हैं किन्तु मुख्य रूप से दो प्रकार के मुनि होते थे चैत्यवासी और वनवासी। जो मुनि समाज के बीच आकर किसी चैत्य में स्थायी रूप से निवास करने लगते थे तथा मन्दिर, मूर्ति, ग्रन्थ आदि की सुरक्षा के कार्य में लग जाते थे, वे चैत्यवासी और जो वन में रहते हुए अपने आत्म ध्यान में लगे रहते थे, वे वनवासी कहलाते थे । श्वेताम्बर - परम्परा में चैत्यवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और जो संवेगी कहलाते हैं, वे वनवासी शाखा के प्रतिनिधि हैं । परा में भट्टारक चैत्यवासी परम्परा के प्रतिनिधि है और न मुनि वनवासी परम्परा के हैं। आज के यति दिगम्बर पर श्वेताम्बर पत्यवासी श्वेताम्बर चैत्यवासी जैन मुनियों की जीवनचर्या के सम्बन्ध में प्राचीन ग्रन्थों में कुछ उल्लेख मिलते हैं। आचारांग में सज्जा निवारण के लिए साधुओं को सादे वस्त्र रखने की छूट दी गयी। किन्तु जिन शर्तों के साथ यह छूट दी गयी थी, धीरे-धीरे वे नगण्य हो गई और विक्रम की छठी शताब्दी तक श्वेताम्बर साधु आवश्यकता पड़ने पर कटिवस्त्र धारण करते रहे । किन्तु इस समय तक इनके आचरण और दिगम्बर साधुओं की चर्या में कोई विशेष अन्तर नहीं था। आगे चलकर वस्त्र धारण करना आवश्यकता पर निर्भर नहीं रह गया बल्कि यह सामान्य नियम हो गया । इसके साथ ही श्वेताम्बर जैन साधु सामाजिक कार्यों में भी अपनी रुचि दिखाने लगे । Jain Education International श्वेताम्बर चैत्यवासी मुनियों के इतिहास के सम्बन्ध में जो प्रमाण उपलब्ध हैं उनसे ज्ञात होता है कि वीर निर्वाण संवत् ८०२ (वि० [सं० ४१२ ) से चैत्यवास प्रारम्भ हो चुका था। जनमत पट्ट की भूमिका में कहा गया है कि वीर निर्वाण संवत् ८५० वि० सं० २००) के लगभग कुछ मुनियों ने उम्र बिहार छोड़कर मन्दिरों में रहना प्रारम्भ कर दिया । धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गयी। इन चैत्यवासियों ने निगम नाम के कुछ ग्रन्थ भी लिखे जिनमें १. द्रष्टव्य -- मुख्त्यार, जुगलकिशोर - वनवासी और चैत्यवासी जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४७८- ६५. २. आचारांग १.६.३.२.१४.१. ३. ( क ) हरिभद्र - संबोध प्रकरण, अहमदाबाद, वि० सं० १९७२. (ख) जिनवल्लभ-संघपट्टक. ४. धर्मसागर की पट्टावली-बीरात् ६५२ चैपस्थितिः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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