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________________ अनुयोग और उनके विभाग ........................................................................... योग अर्थात् अर्थ प्रकट करने की विधि । श्री मलयगिरि ने नंदीवृत्ति' में गंडिकानुयोग की टीका करते हुए लिखा है इक्षु के मध्य भाग की गंडिका सदृश एकार्थ का अधिकार यानि ग्रन्थ-पद्धति है। उसको गंडिकानुयोग कहा गया है। वह अनेक प्रकार का है। १. कुलकर गंडिकानुयोग-विमलवाहन आदि कुलकरों की जीवनियाँ २. तीर्थंकर गंडिकानुयोग-तीर्थंकर प्रभु की जीवनियाँ ३. गणधर गंडिकानुयोग-गणधरों की जीवनियाँ ४. चक्रवर्ती गंडिकानुयोग-भरतादि चक्रवर्ती राजाओं की जीवनियाँ ५. दशार्ह गंडिकानुयोग-समुद्रविजय आदि द्वादशाहों की जीवनियाँ ६. बलदेव गंडिकानुयोग–राम आदि बलदेवों की जीवनियाँ ७. वासुदेव गंडिकानुयोग--कृष्ण आदि वासुदेवों की जीवनियाँ ८. हरिवंश गंडिकानुयोग-हरिवंश में उत्पन्न महापुरुषों की जीवनियाँ ६. भद्रबाहु गंडिकानुयोग--भद्रबाहु स्वामी की जीवनी १०. तपकर्म गंडिकानुयोग-तपस्या के विविध रूपों का वर्णन ११. चित्रान्तर गंडिकानुयोग-भगवान् ऋषभ तथा अजित के अन्तर समय में उनके वंश के सिद्ध या सर्वार्थ सिद्ध में जाते हैं, उनका वर्णन १२. उत्सर्पिणी गंडिकानुयोग---उत्सर्पिणी का विस्तृत वर्णन १३. अवसर्पिणी गंडिकानुयोग--अवसर्पिणी का विस्तृत वर्णन तथा देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक गति में गमन करना, विविध प्रकार से पर्यटन करना आदि का अनुयोग इस प्रकार गंडिकानुयोग के विविध रूप में हमें प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार वैदिक परम्परा में पुराण हैं वैसे ही विविध प्रकरणों के ग्रन्थ हैं। इनकी रचनाएँ भिन्न आचार्यों से सम्पन्न हुई हैं। उसका उल्लेख ईसा की सातवीं शताब्दी के आस-पास की रची “पञ्च कल्पचूर्णी" में मिलता है कि कालिकाचार्य ने गंडिकायें रची। "सुवर्णभूमि में कालिकाचार्य" पुस्तक में आया है कि उन्होंने गंडिकाऐं रची परन्तु संघ ने वे स्वीकार नहीं की। कालिकाचार्य ने संघ के सम्मुख पुन निवेदन किया कि मेरी गंडिकाएँ स्वीकृत क्यों नहीं की गई ? उनकी कमियों को सुझाया जाए या स्वीकृत की जाए। तब पुनः संघ ने अन्य बहुश्रु: आचार्यों के पास गंडिकाएँ प्रेषित की। उन्होंने उन सबको सम्यग् बताई तब कहीं वे स्वीकृत तथा मान्य हुई। इस घटना से गण्डिकाओं की यथार्थता पर सन्देह का अवकाश नहीं रहता। कालिकाचार्य जैसे समर्थ और प्रभावशाली आचार्य की गण्डिकाएँ भी संच द्वारा स्वीकृत होने पर ही मान्य हुई। दिगम्बर परम्परा में केवल 'पढमाणुयोग' ही मानते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार उसमें २४ अधिकार हैं। तीर्थकर पुराण में सब पुराणों का समावेश हो जाता है। 0 १. श्री नंदीवृत्ति, पृ० २४२. २. श्रीसमवायांगवृत्ति, पृ० १२० से किं तं गंडियायोगे ? गंडियाणुयोगे अणेग विहे पण्णत्ते .......। . 0. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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