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• अपरिग्रहवाब : आर्थिक समता का आधार
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समता का अर्थ सामाजिक और राष्ट्रीय सन्दर्भ में इतना ही है, कि स्वस्थ समाज की स्थापना हेतु प्रत्येक व्यक्ति को प्रकृति-प्रदत्त गुणों के विकास के समुचित अवसर प्राप्त हों। अपरिग्रह आर्थिक समता का क्षेत्र विस्तृत करता है। भगवान महावीर ने कहा-"अनावश्यक संग्रह न करके उसका वितरण जन-कल्याण के लिए करो।" धन संग्रह से अपव्यय की आदत का विकास होता है और नैतिक मूल्यों पर आघात पहुँचता है । जीवन में नैतिक मूल्यों का अपना विशेष महत्त्व है, उन्हें खोकर कोई भी व्यक्ति कितना ही वैभव प्राप्त कर ले, वह अपनी और समाज की दृष्टि में गिर जाता है।
गांधी युग ने मानवता की नव रचना के लिए चार मूलभूत तत्त्व दिये-सर्वोदय, सत्याग्रह, समन्वय और साम्ययोग । इनकी भी सफलता और सार्थकता अपरिग्रह की नींव पर आधारित है । अन्तिम तत्त्व साम्ययोग की व्याख्या में विनोबा भावे ने कहा-'अमिधेयं परमं साम्यम्” अर्थात् हमारे चिन्तन का मुख्य विषय जीवन में परम साम्य की प्रतिष्ठापना है। इसके लिए प्रथम आर्थिक साम्य है जो प्रत्येक व्यवहार में मददगार होता है। दूसरा सामाजिक साम्य है जिसके आधार पर समाज में व्यवस्था रहती है और तीसरा मानसिक साम्य है जिससे मनुष्य के मन का नियन्त्रण होता है और जो बहुत जरूरी है । गांधीजी का ट्रस्टीशिप सिद्धान्त आर्थिक असमानता को दूर करने का महत्त्वपूर्ण साधन है जिसके मूल में अपरिग्रहवाद की भावना अन्तनिहित है, किन्तु भारत में कुछ विरोधी विचारधाराओं और मनोवृत्तियों के कारण यह सिद्धान्त लागू नहीं हो सका । लोगों को इस विषय में जानकारी भी कम ही है। ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त में मूलभूत यह भावना निहित थी कि धनिक अपने धन के मालिक नहीं, ट्रस्टी हैं । यह श्रम और पूजी के बीच का संघर्ष मिटाने, विषमता और गरीबी हटाने तथा आदर्श एवं अहिंसक समाज की स्थापना करने में बहुत सहायक है । क्योंकि इसके अन्तर्गत अर्थव्यवस्था में पूंजीपतियों या मालिकों को समाज-हित में अपना स्वामित्व छोड़कर ट्रस्टी बनने का अवसर दिया जाता है। वस्तुतः आर्थिक समानता के लिए काम करने का मतलब है पूजी और मजदूरी के बीच झगड़े को हमेशा के लिए मिटा देना ।
__ आजकल अर्थशास्त्र में एक शब्द प्रचलित है--पावर्टी लाइन (Poverty Line) अर्थात् गरीबी की रेखा। इसका अर्थ है जीवन के लिए आवश्यक तत्त्व जैसे भोजन, निवास, वस्त्र, चिकित्सा, शिक्षा आदि प्राप्त करने के लिए आमदनी का एक न्यूनतम स्तर अनिवार्य रूप से होना। यदि आमदनी इससे कम हो जाए तो ये मूलभूत आवश्यकतायें पूरी नहीं होगी। इस स्तर को राष्ट्रीय न्यूनतम से नीचे आमदनी वाले मानव-समूह की गरीबी की रेखा को सबसे निम्न कहा जाता है। आमदनी के संचय और केन्द्रीकरण के कारण स्वस्थ आर्थिक विकास अवरुद्ध हुआ है क्योंकि इसने विकास कार्यों में मानसिक और भौतिक लोकसहकार नहीं होने दिया। विषमता में जो अत्यधिक तीव्रता और तीखापन आया है, वह वर्तमान औद्योगिक सभ्यता की देन है। आर्थिक विषमता में सामाजिक विषमता भी जुड़ गयी। पर अब और अधिक आर्थिक विषमता के निराकरण का स्वाभाविक परिणाम सामाजिक विषमता के निराकरण पर भी होगा। आर्थिक समता का अपना एक स्वतन्त्र मूल्य है जिसका अपरिग्रह की भावना से सीधा सम्बन्ध है।
सुप्रसिद्ध विचारक और साहित्यकार जैनेन्द्र जी ने एक बार पर्युषण पर्व व्याख्यान माला में कहा था"पदार्थ परिग्रह नहीं, उनमें ममता परिग्रह है। समाज में आज कितनी विषमता है ? एक के पास धन का ढेर लग गया है, दूसरी ओर खाने को कौर नहीं । ऐसी स्थिति में अहिंसा कहाँ ? धर्म कहाँ ? .--आप सच मानिये कि हमारे आसपास भूखे लोगों की भीड़ मँडरा रही हो तो उसके बीच महल के बन्द कमरे में धर्म का पालन नहीं हो सकता।"१ जैनेन्द्र जी के उक्त विचार आज के सन्दर्भ में विशेष प्रेरक हैं। इसी तरह उपाध्याय अमरमुनि जी ने लिखा है कि "गरीबी स्वयं में कोई समस्या नहीं, किन्तु अमीरी ने उसे समस्या बना दिया है। गड्ढा स्वयं में कोई बहुत चीज नहीं, किन्तु पहाड़ों की असीम ऊँचाइयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्ढे पैदा कर दिये हैं। पहाड़ टूटेंगे तो गड्ढे अपने
१.
श्रमण" मासिक, जनवरी ५६, अंक ३, वर्ष ७ से उद्ध त ।
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