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________________ ३८ कर्मयोगी भी केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड महाराणा सज्जनसिंह, फतहसिंह, भूपालसिंह एवं केशरियाजी तीर्थ उदयपुर नगर के ४१ मील दूर दक्षिण की ओर प्रसिद्ध के श रियाजी जैन तीर्थ है जिसमें मूलनायक प्रथम तीर्थकर श्री आदिनाथ एवं चारों और देवबुलिकाओ में चौबीस तीर्थकरों की प्रतिमाये प्रतिष्टित हैं। इस तीर्थ की महत्ता के सम्बन्ध में सदियों से कई जैनाचयों ने रचनाएं लिखी हैं । वि० सं० १७४४ में सडिरगच्छी मुनि श्री ज्ञानसुन्दर ने डिंगल भाषा में अत्यन्त प्रभावोत्पादक वर्णन किया है एवं बादशाहों के आक्रमण की ओर संकेत किया, वि० सं० १७८३-८४ में तपागच्छी साधु श्री सीहविजय ने 'केसरियाजी रो रास' की रचना की। इस तीर्थ की व्यवस्था एक अर्से से ओसवाल जाति के बापना गोत्री उदयपुर के नगर सेठ द्वारा की जाती थी। यह व्यवस्था वि० सं० १९३४ तक चली आई, इसी दौरान वहाँ के भण्डारियों द्वारा तीर्थ की सम्पत्ति का दुविनियोजन करने एवं गबन करने से महाराणा सज्जनसिंह ने १९-११-१८७७ को भण्डारियों को हटा तीर्थ की व्यवस्था हेतु अन्य पाँच ओसवाल साहूकारों की कमेटी नियुक्त की । इस समय से तीर्थ का सामान्य नियन्त्रण मेवाड़ के महाराणाओं का चला आया। इस दौरान जब भी कोई जैन मर्यादा का प्रश्न इस तीर्थ की व्यवस्था हेतु उत्पन्न होता तो जैनाचार्यों से निर्णय कराया जाता, तदनुसार व्यवस्था कराई जाती । संवत् १९६३ में मन्दिर की शुद्धि का प्रश्न पैदा हुआ तो तपागच्छ के मुख्य उदयपुर में स्थित श्री शीतलनाथजी के उपासरे (जिसका वर्णन ऊपर किया जा चुका है) के मुनि प्रन्यास श्री नेमकुशलजी के पास निर्णय हेतु भेजा गया और मुनिश्री द्वारा दी गई व्यवस्थानुसर शुद्धि इन्हीं मुनिश्री से कराई गई। संवत् १९७६ में निवैद्य चढ़ाना प्रारम्भ कर दिया गया, इस पर उसी समय कार्तिक शुक्ला १० संवत् १९७६ को यह आशा दी गई कि जैन संघ एवं जैनाचार्य इसके विरुद्ध है, निवैद्य चढ़ाने का यह नवीन कार्य अवांछित है, अत: निवैद्य नहीं चढ़ाया जावे।' मेवाड़ के महाराणाओं की जैन धर्म के प्रति भक्ति एव श्रद्धा का प्रमाण मेवाड़ राज्य के गजट नोटिफिकेशन दिनांक १९ अप्रैल १९२६ से भी मिलता है जिसमे यह उल्लेख है कि पवित्र जैन तीर्थ केशरियाजी में महाराणा फतहसिंहजी ने साढ़े तीन लाख रुपयों की, सोना, हीरा, जवाहा रात की आंगी मूलनायकजी के चढ़ाई, इस कार्य में महाराणी द्वारा ५०००) रु० दिया गया। इस सम्बन्ध में महोत्सव किया जिसका व्यय तत्कालीन महाराजकुमार (श्री भूपालसिंहजी) ने वहन किया। महाराणा के इस कार्य के लिये श्री जैन संघ ने आभार प्रकट किया। महाराणा फतहसिंहजी एवं भूपालसिंहजी मुनि श्री चौथमलजी महाराज के प्रवचनों से काफी प्रभावित थे, भक्ति से प्रेरित हो उन्होंने प्रत्येक वर्ष पौष कृष्णा १० (पार्श्वनाथ भगवान के जन्म दिवस), चैत्र शुक्ला १३ (महावीर भगवान के जन्म दिवस) एवं जब चौथमलजी महाराज पधारे या विहार करें तब जीवहिंसा बन्द रखने (अगता पालने) की आज्ञा जारी की। परिणाम : साहित्यिक उपलब्धियां मेवाड़ के महाराणाओं द्वारा जैन धर्म के संरक्षण एवं श्रद्धा का यह परिणाम हुआ कि कई जैनाचार्यों ने मेवाड़ के राणाओं एवं वीरों की वीरता को काव्यबद्ध किया । हेमरत्नसूरि ने 'गोराबादल चरित्र' की रचना की एवं पद्मिनी की लोककथा को. काव्यबद्ध किया । जयसिंहसूरि ने दिल्ली के सुल्तान की नागदा (नागद्रह) की लड़ाई, जो राजा जैसिंह के समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में हुई, इस विषय में हमीर मद मर्दन' पुस्तक लिखी। वि० सं० १३०६ में लिखित पुस्तक 'पाक्षिकवृत्ति' में राजा जयसिंह (जैत्रसिंह) को दक्षिण एवं उत्तर के राजाओं का मान मर्दन करने वाला महाराजाधिराज कहा गया है। सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के छोटे भाई उलगखां की चित्तौड़ में वि० सं० १३५६ में राजा समरसिंह के साथ की लड़ाई का वर्णन श्री जिनप्रभसूरि ने अपने तीर्थकल्प' में करते हुए लिखा है कि मेवाड़ के स्वामी समरसिंह ने उसे दण्ड देकर मेवाड़ की रक्षा की। वि० सं० १३३० में चैत्रगच्छ के आचार्य १. १९७३ वीकली लॉ रिपोर्टस, पृ० १००८ (१०१४) उच्चतम न्यायालय का निर्णय, पेरा ११. Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012044
Book TitleKesarimalji Surana Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia, Dev Kothari
PublisherKesarimalji Surana Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages1294
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size34 MB
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