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मेवाड़ के शासक एवं जैनधर्म
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रत्नप्रभसूरि ने चीरवा ग्राम के मन्दिर की ५१ श्लोकों को प्रशस्ति की रचना की जिसमें राजा जैत्रसिंह, रतनसिंह, समरसिंह के उल्लेखनीय कार्यों का उल्लेख किया। चरित्ररत्नगणि ने वि० सं० १४६५ में चित्रकूट प्रशस्ति' की रचना की । इस पुस्तक में मेवाड़ के राजवंश का एवं राणा कुम्भा का सुन्दर वर्णन मिलता है। विजयगच्छ के यति मान ने 'राजविलास' काव्य वि० सं० १७३३ में लिवा जिसमें राणा राजसिंह प्रथम का जीवन एवं इतिहास वणित है । तपागच्छ के हेमविजय ने मेदपाट देशाधिपति प्रशस्ति-वर्णन विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी में लिखा। शत्रुजय तीर्थोद्वार प्रबन्ध' में राणा सांगा के लिये अपने बाहुबल से समुद्र पर्यन्त पृथ्वी जीतने वाला लिखा है, और यह बताया है कि लोग उसे चक्रवर्ती मानते थे।
उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि मेवाड़ में राज्यमान्यतानुसार जैन धर्म के सब ही समुदाय, गच्छ एवं शाबाओं की मान्यता रही है।
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यत्राऽहिंसा महादेव्याश-छत्रच्छाया विराजते । साम्राज्यं तत्र धर्मस्य, ध्रुवमित्यवधर्याताम् ॥
-वर्द्धमान शिक्षा सप्तशती
(श्री चन्दन मुनि विरचित) जहाँ अहिंसादेवी की छत्रछाया विलसित है, वहीं धर्म का साम्राज्य व्याप्त है, इसे निश्चित माने।
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